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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
हा पाव ! तए तइया अहयं पन्भट्ठ-मंत-पय-बीओ। विहिओ तमं पि संपइ होहिसि पन्भट्ठ-निय-जीवो ॥१३९२॥ इच्चाइ जंपिरो सो कुमरं सरसंदरीण पच्चक्ख । हरिऊण जाइ अहवा हवंति चलियाण चलिययरा ॥१३९३।। अह सो मणिचूलसुरो पुरम्मि निम्मविय-सयलसामग्गिं । कुमरायण-निमित्तं जा पत्तो तम्मि मणिभवणे ॥१३९४।। ता तेण सयल-जलयर-स-करुण-रव-मिलिय-बहल-पडिसहो । . कमलावई पमहाणं पलाव-सद्दो तहिं निसओ ॥१३९५।। हा नाह ! नाह ! मह-ससि-निज्जिय-निसिनाह ! परिह-सम-बाह । हा नियवयणविणिज्जिय सुरसिंधुपवाह ! कत्थ तुम ? ॥१३९६॥ कलहंस-मिहुण-विरहो नूनं जम्मंतरम्मि हा विहिओ। तेण मह पाणनाहो हरिओ नव-संगम-समयम्मि ॥१३९७।। हा ताय ! रक्खियावाय मणिचूल तम पि तत्थ नयरीए । सामग्गिं कुणमाणो हय-विहि-ललियं न याणेसि ? ॥१३९८॥ हा दिव्व ! जइ अजग्गा, तस्स कुमारस्स कहण तो दिन्ना । अह दिवा पाव तए, अह हरिओ कीस मह नाहो ? ||१३९९।। मह कहस पत्ति ! तस्स वि किं किं नरसेहरस्स संजाइं? । इय जपतो पत्तो, मणिचूलसुरो तर्हि सहसा ॥१४००।। सोउं कमारहरणं, ओहिनाणेण मणिय-परमत्थो । आसासइ नियधूयं, मा वच्छे ! कणस मणखेयं ॥१४०१ ।। थेवेण वि कालेणं, तं नररयणं नियाए सत्तीए । आणेमि त्ति वयंतो, मणिचूलो निग्गओ सहसा ॥१४०२ ।। सुरसंदरी वि एगा, पयावमउडस्स नरवरिदस्स । विनवइ कुमरहरणं, निब्भर-हरिसस्स संहरणं ॥१४०३।। राया पयावमउडो, चिंतइ चित्तम्मि पिच्छ, हयविहिणो । विलसियमचिंतणिज्जं, अपिच्छणिज् अकहणिज्जं ॥१४० ४।।
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