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अनंतकित्तिकुमारकहा
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सा सामग्गी सो चेव, वित्थरो सोयनिब्भरो हरिसो । एक्क पइ च्चिय सव्वं, हयास ! हरियं तए दिव्व ! ॥१४०५।।
आरोविय भवचक्के, परिसं पिंडं व विविहरूवेहिं । दंडेण भामयंतो, विही कुलाल व्व निम्मवइ ॥१४०६।। चंपयमाला पमहं, सयलं अंतेउरं पि विलवेइ । कमरम्म अदिठे वि हु, तिलोय-पच्चक्ख-गणगहियं ॥१४०७॥ तेमुत्तियावचूला, उल्लोया मंचसंचया ते य । कुमरेण विणा सव्वं, नयरं रनं व पडिहाइ ॥१४०८॥ मन्ने दूरगएणं वि, हरिएण वि तेण भुवणवलयम्मि । संसारनाडयमिणं, पायडियं विविह-भंगीहिं ॥१४०९॥ एत्तो य रक्खसो वि ह, कमरं हरिऊण चिंतए एवं । किं गिलिय नियय वेरिणमेयं वेर विसुज्झेमि ॥१४१०॥ अहवा नहि नहि एवं, गिलिओ मह उयरदारणं करिही । इय चितंतो पत्तो, जलनिहि-मज्झम्मि सो रक्खो ॥१४११ ॥ सो गरुय-रोस-परिपिल्लिउ व्व न दूरे नहम्मि गंतूणं । तं खिवइ जलहि-सलिले, कच्छभ-मच्छाइदुप्पिच्छे ॥१४१२।। रंगत-गरुय-भंगर-तरंग-वाहाहि-दर-देसाओ । तं निवयं तं दटुं, गहिओ मणो गज्जए जलही ॥१४१३॥ एत्थंतरम्मि सहसा, देवी सिरि नामिया सपरिवारा ।। वियसिय सवन-पंकयमासीणा दिव्वनेवत्था ॥१४१४|| मत्त-गइंद-समूह, केहि वि केहिं वि नरविंदं । तरिय तरंगम-निवहं, केहिं वि हु वरवराहनिउंरबं ॥१४१५।। कलकलहंससमूह, केहि पि हु वरवराह-निउरबं । वरगरुडगणं केहि वि, केहिं पि विमाणसंदोहं ॥१४१६॥ केहिं पि सिहिसमूह, आरूढेहिं समानवेसेहिं । सुरसुंदरि-निवहेहिं, परियरिया लक्ख-संखेहिं ॥१४१७।।
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