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सुरसुंदररायकहा
अनित्य भावना - जललवचवले जीए, विज्जलिया चंचलम्मि पेम्मम्मि । अथिरम्मि जए सयले, पिच्छ थिरा पावपारंभा ॥१७०२॥ असरणभावना - जइ जंति मच्चुगोयरमसुरिंद-सुरिंद-जिणवरिंदा वि । तो नत्थि भवारने, मन्ने अन्नेसिमिहसरणं ॥१७०३।। सरणं नहि संसारे, जाया भाया व जणणि-जणया वा । धण-सयण-परियणा वा, इक्कं मोत्तूण जिणधम्मं ॥१७०४॥ जह छहिय-दहिय-उवरय-गयाणि परिसोइयाणि डिंभाणि । तह सोयस अप्पाणं, निरयदुहे जीव! निवडतं ॥१७०५।। (भवभावणा) - तिरिया तह नेरइया, नरा य तियसा य दुक्खिया सुहिया भवनाडयम्मि जीवा, अणंतसो हुंति कम्मवसा ॥१७०६॥ (एकत्वभावना) जायइ एक्को एक्को, मरेइ एक्को भवंतरे जाइ । अणहवइ पाव-पत्रे, इक्को जीवस्स नहि बिइओ ॥१७०७।। विभयंति विहवमज्जियमायाससएहिं, जह सयणा । तह जइ दुक्ख पि तओ मन्ने सयणाण सयणत्वं ॥१७०८॥ अन्यत्व भावना - जीव विमुक्को देहो, अचेयणो चेयणो पुणो जीवो । इय जीव-सरीराणं, तत्तेणं मणस अनत्तं ॥१७०९॥ (अशुचित्वभावणा) पइदिण सिणाण-भोयण-तंबोल-विलेवणेहिं जो नेय ।। तिल तुस मित्तं पि सुई, तम्मि सुइत्तं कहं देहे ? ॥१७१०॥ आश्रव भावना - हिंसा मुसा य परधणअवहरणं अवरमणिरमणं च । मिच्छत्ताईणि तहा, आसवदाराणि कम्मस्स ॥१७११।।
या का की का
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