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हरिवाहणनिवकहा
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अवितिमिरभरं मिहरो पयडइ भुवणस्स मज्झयारम्मि । अविचलइ मेरुचूला न सीललीला चलइ तिस्सा ।।५३७॥ तुह नाह असग्गाहो जइ तत्तो आणिऊण तं रमणिं । अप्पिस्समहं पच्छा वच्छ ! तए नेव सरियव्वा ॥५३८॥ इय जंपिय सा सहसा पत्ता नयरम्मि खयरनिम्मविए । पिच्छइ अणंगलेह जिणिंद-पय-पूयणुज्जुत्तं ॥५३९।। तो हरिय इमं देवी मुंचइ नरकुंजरस्स भवणम्मि । आपुच्छिऊणं मंतिं वच्चइ निययम्मि ठाणम्मि ॥५४०॥ तं आगयं वियाणिय राया जंपेइ रायमय चित्तो । पसयच्छि ! कय-पसाया सामिणि ! मह सम्मुहं नियसु ॥५४१ ।। विनायडपुरसामी अहयं नरकुंजरो मए देवि ! आणावियासि कंचुयं दंसणं संजाय राएण ॥५४२॥ सा चिंतइ तं एयं अमंगलउवट्ठियं धुवं मज्झ । अहवा सीलवईणं अमंगलं नत्थि मरणे वि ॥५४३॥ इय चिंतिय सा जंपइ नरवर ! नेरइयपमुहदुहमूलं । लोयाववायवायं मुंचसु परदार-संबंधं ॥५४४।। सग्गं पायालतले, पायालं जइ वि जाइ सग्गम्मि । होइ थलं जइ जलही तह वि न भंजेमि नियसीलं ॥५४५।। तत्तो राया चिंतइ परिचयरहियस्स संपयं वयणं । एसा न मज्झ करिही करिही कालंतरेणं तु ॥५४६।। इय चिंतिय पइदियहं दासीहिं सयं च विविहचाडूणि । पयडंतो दुक्खेणं दियहे निव्वाहए कइवि ॥५४७।। सा उण अणंगलेहा निम्मलसीलम्मि पत्त-जयरेहा । पिय-विरहतत्तदेहा चिट्ठइ मोणं समल्लीणा ॥५४८।। सा दुसहविरहदुहवसअविरलविगलंतनित्तजलधारा । धारा जंतविनिम्मियपुत्तलिया करणिमुव्वहइ ॥५४९।।
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