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________________ दिया । पदमावती ने रूप परावर्तन गुटिका से एक तरुण सुन्दर पुरुष का रूप धारण किया और अपना नाम साहसांक रखा । साहसांक सुन्दर चित्रपट बनाकर बेचने लगा। उसके चित्र खूब बिकने लगे । उसके चित्रपट की प्रशंसा राजा तक पहुंची । राजा ने उसे राजसभा में बुलाया । उसके कला कौशल्य से प्रसन्न हो कर राजा ने अपनी पुत्री विजया और कुमार अचल को पढाने के लिए उसे अध्यापक के रूप में नियुक्त किया और अपने पास रख लिया । साहसांक ने अल्प दिनों में ही पुत्र और पुत्रियों को सब कलाओं में निपुण बना दिया। राजाने प्रसन्न होकर उसकी दण्डाधिप के रूपमें नियुक्ति कि ।। उसी नगर में एक चोर रहता था वह अदृश्य अंजनप्रयोग से एवं तालोग्घाटिनी विद्या से नगर को लूटता था । राजा प्रजा एवं कोटवाल ने उसे पकड़ने के बहुत प्रयत्न किये किन्तु वे सब निष्फल गये । चतुर साहसांक ने कुशलतापूर्वक उसे चोरी करते हुए रंगे हाथों पकडा । राजा ने प्रसन्न होकर उसे आधा राज्य दे दिया और अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया । वह सुख पूर्वक रहने लगा। एक बार मयंक माल से लदी हुई नौका के साथ सुंसुमार बंदर पर पहुंचा। शुल्क न देने के कारण साहसांक ने उसे पकड़ा और उसे कैद खाने में डाल दिया । पद्मावती (साहसांक) ने उसे पहचान लिया और राजा से छुडवाकर उसे अपने पास नौकर के रूप में रख लिया । कुछ दिनों के बाद मयंक ने पद्मावती को पहचान लिया और पद्मावती से अपने अपराध की क्षमा मांगी । पदमावती ने उसे क्षमा प्रदान कर अपना असली रूप प्रकट किया। राजा ने मयंक का सम्मान किया। साहसांक की पत्नी विजया के साथ मयंक ने पुनः विवाह किया । कुछ समय तक मयंक अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुसुमार नगर में रहा । पश्चात् राजा की आज्ञा प्राप्त कर पद्मावती और विजया के साथ वह अपने नगर लौट आया । एक बार गुणाकरसूरि नामके आचार्य उद्यान में पधारे । परिवार सहित मयंक आचार्य के पास गया और वन्दना कर उनका धर्मोपदेश सुनने लगा। उपदेश समाप्ति के बाद उसने आचार्य से प्रश्न किया- भगवन्! मुझे यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई और किस पाप के कारण पनि वियोग और सेवकपन की प्राप्ति हुई ? मुनि ने कहा - "तुमने पूर्व जन्म में मासोपवासी मुनि को श्रद्धा से खीरान दिया और बाद में पश्चाताप किया। भावना से आहारदान देने से तुझे सम्पत्ति की प्राप्ति हुई और पश्चाताप से जो तुमने कर्मबन्ध किये उसी के फल स्वरूप तुझे पत्नि वियोग और दासत्व की प्राप्ति हुई । अतः दान देने के बाद उसका कभी पश्चाताप नहीं करना चाहिए । मुनि का उपदेश सुनकर दोनों ने ग्रहस्थ धर्म स्वीकार किया। धर्मध्यान करते हुए वे समाधि पूर्वक मरे और अच्युतकल्प में देव बने । भविष्य में वे सिद्धिपद प्राप्त करेंगे। दान की महिमा समझाने के बाद आचार्य ने श्री शील का महात्म्य समझाया । इस पर उन्होनें मृगांकलेखा सति का दृष्टान्त कहा। मृगांकलेखा : (पृ. ३५-७४) उज्जैनी नगरी में अवंतिसेन नाम का राजा न्यायनीती पूर्वक राज्य करता था। वहां धनसार नामका धनाढ्य सार्थवाह रहता था। उसकी रंभा नामकी रूपवती पनी थी। उसने मृगांकलेखा नामकी एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया । मृगांकलेखा युवा हुई । वह एक दिन जिन पूजा के लिए मंदिर में गई । वहां भक्ति पूर्वक जिनपूजन कर Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002597
Book TitlePaumappahasami Cariyam
Original Sutra AuthorDevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages530
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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