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प्रभु के ध्यान में निमग्न हो गई । उस समय सागरदत्त श्रेष्ठी का पुत्र सागरचन्द अपने मित्रों के साथ जिनपूजा के लिए
गा। वहां ध्यान मद्रा में खडी मंगाकलेखा को देवी की प्रतिमा समझ प्रणाम करने लगा | इसकी इस मूढता पर मित्रगण हंस पडे और बोले-"मित्र! जिसे तू देवी की प्रतिमा समझ रहा है वह तो यहां के धनाढ्य श्रेष्ठी धनसार की पुत्री मृगांकलेखा है" । मृगांकलेखा के अद्भुत सौंदर्य को देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया और मन ही मन में इसके साथ विवाह करने का निश्चय कर वह घर आया । मृगांकलेखा के विरह में उसने खान पान भी छोड़ दिया । माता पिता के अत्यन्त आग्रह से उसने अपने मन की बात उन्हें बता दी । सागरदत्त श्रेष्ठी ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- मै शीघ्र ही इसका उपाय करूंगा । सागरदत्त श्रेष्ठी धनसार के घर पहुंचा और उसने अपने पुत्र के लिए मृगांकलेखा की मंगनी की । धनसार ने स्वीकृती दी और शुभमुहूर्त में मगांकलेखा की सागरचन्द के साथ सगाई कर दी।
एक दिन मृगांकलेखा अपनी सहेलियों के साथ बैठी हुई बाते कर रही थी। उस समय सागरचंद धनमित्र के साथ सिद्ध पुत्र के वस्त्रपट के प्रभाव से छिपकर मृगांकलेखा के महल में आया और दोनों एक कोने में खडे हो कर मृगांकलेखा एवं उसकी सखियों की बातें सुनने लगे।
सखि चित्रलेखा पत्रलेखा से कहती है - “पत्रलेखे ! इस बात के लिए हमे विधाता को धन्यवाद देना चाहिए जिसने हमारी प्रियसखी मृगांकलेखा को सागरचंद जैसा सुन्दर और बुद्धिमान वर दिया है । इसका तो सचमुच में ही जीवन सार्थक हो गया है ।पत्रलेखा मुंह मटकाती हुई बोली- "अरे ! चित्रलेखे ! कहां हमारी राजहंसी जैसी स्वामीनी मृगांकलेखा और कहा कौवे जैसा सागरचन्द । वास्तव में हमारी प्रिय सखी के लिए तो साक्षात् कामदेव के समान अनंगदेव ही योग्य था किन्तु उसकी आयु बीस वर्ष की ही थी इसीलिए श्रेष्ठी ने इसकी सगाई सारचन्द से कर दी । सेठ ने मृगांकलेखा जैसी रन्न को सागरचंद जैसे बकरे के गले में बांध दिया है । यह श्रेष्ठी ने ठीक नहीं किया ।'
यह सब वार्तालाप मृगांकलेखा मौनभाव से सुन रही थी । अपने पति की निंदा का जवाब न देनेवाली मृगांकलेखा की तटस्थता पर सागरचंद को बड़ा क्रोध आया। उसने म्यान से तलवार खिची और मृगांकलेखा को मारने के लिए उसकी ओर लपका । धनमित्र ने उसे रोका और कहा – “अबला पर हाथ उठाना ठीक नहीं है । मृगांकलेखा तो निर्दोष है ।" धनमित्र ने समझा कर सागरचंद को शान्त किया । दोनों घर वापस आये । कुछ दिनों के बाद सागरचन्द ने मित्रों के कहने पर अनिच्छापूर्वक मृगांकलेखाके साथ विवाह कर लिया। मृगांकलेखा को अलग महल में रखा गया। सागरचंद को उसका मुख देखना भी पसन्द नहीं था। पति के वियोग में मृगांकलेखा के २१ वर्ष व्यतीत हो गये ।
एक दिन राजा अवंतिसेन अपनी विशालसेना के साथ लाड देश पर आक्रमण के लिए निकला । सागरचंद को भी राजा ने साथ में रहने का आदेश दिया। माता पिता की आज्ञा प्राप्त कर एवं पत्नी से मिले बिना ही अपने मित्र धनमित्र के साथ लाट देश की ओर चला । ग्राम नगरों को पार करता हुआ सागरचंद एक घने जंगल में पहुंचा । रात्रि के समय एक सरोवर के किनारे उसने अपना पडाव डाला । चांदनी रात थी । अर्धरात्रि के समय उसने किसी स्त्री के रुदन की आवाज सुनी । वह उठा और उसके पास पहुंचा। उसने पूछा- 'देवी ।
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