________________
१८४
विसकरवाल-दवाणल- 5- पमुहा इह चेव दुक्खदायारो । विसया सेविज्जंता दुहावहा जम्मकोडीसु ॥२४३॥ अइदित्ता य अदित्ता, दो वि ह जं दाहकारिणो धणियं । संसारंगाराणं, तेण विसेसं न मन्त्रेमि ॥ २४४ ॥ निरयपुढवीसु सत्तसु पंचसु तिरियाण तह य जाई । विसयपसत्ता सत्ता अणंतखुत्ता समुप्पण्णा ॥२४५॥ चउदसरज्जुपमाणे इमम्मि लोगम्मि विसयलवगिद्धा । चुलसीइ जोणिलक्खे, जायंति मरंति पुणरुत्तं ॥ २४६ ॥ विसयमणाणमणंता, पोग्गल - परियट्टया वइक्कंता । तत्तो अनंतगुणिया, जीवाण वइक्कमिस्संति ॥२४७॥
अहवा
रज्जिज्ज व कामेसुं परिणाम - निकाम - दारुणेसुं पि । जइ होज्ज इमं जीयं सा सइयं कह वि जीवाणं ॥ २४८ ॥ जीयम्मि गिम्हमज्झं, दिणमणि-मणि-तवियसउणि - गलचवले | नव-तरुणि- नित्त - पज्जंत- चंचले चारुतारुणे ॥ २४९ ॥ तुंगगिरि-सिहर-विलसिर - विहार - धय - सोयरम्मि विवमि । गयकन्ना तालचंचल - विलास-महिमम्मि पिम्मंमि ॥ २५० ॥ विसविसमं विसयाणं घोर विवागं वियाणमाणा वि । रज्जंति तेसु पुरिसा विवेयवंता महच्छरियं ॥ २५१ ॥ विसया विवाय-बहुला सव्वं काराय दुग्गइ - गईणं । एत्तियकालं भुत्ता, जुत्ता चत्तं ध्रुवं इहिं ॥ २५२ ॥ अह लोगंतियतियसा, आसणकंपेण झत्ति मुणिऊणं । पउमप्पह-जिणदिक्खासमयं सारस्सयाईया ॥२५३॥ आगंतूणं सहसा, नमिऊणं विनवंति जयनाहं । संसारजलहि-तित्थं, तित्थं भयवं ! पवत्तेसु ॥ २५४॥ सयमेव ति-जयनाहो उज्जुत्तो चेव तेहिं विनत्तो ।
Jain Education International 2010_04
सिरिपउमप्पहसामिचरियं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org