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________________ जिणवण्णणं १८३ निस्सीमसह-निवासं, सा वि ससीमा सिवं पत्ता ॥२३०॥ पउमप्पह-नरनाहो, करेइ रज्जं अवज्जपरिचत्तं । . जत्तेण रक्खइ जिणं, अक्खर-मुदं लिवि-करो व्व ॥२३१॥ मालाकारो मालं, अहिणव-निप्पन्न-गंध-छेवाडिं । जत्तेण केइ रक्खइ, जह तह नाहो नियपयाओ ॥२३२।। भनइ जडं जलं चिय, चीरं वसणं असी य नित्तिंसो । चक्कं अरित्ति दुहिया, दुहिय च्चिय जस्स रज्जम्मि ॥२३३॥ आगंतु आगंतु, सयमेव मिलंति तस्स रायाणो । नीयत्तं पयर्डता, सरिप्पवाह व्व सरिवइणो ।।२३४॥ निच्चं अखंड-मंडलमसन्नगमणं पयावपरिकलियं । तं पिच्छिय कलुसत्तं, कलंक-छउमा वहइ चंदो ॥२३५॥ निरवज्ज-रज्जभारं उव्वहमाणं निइत्त तं मन्ने ।। लज्जा सज्ज व्व गया, दसोदिसिं सयलदिसिनाहा ॥२३६।। वडवामहवासीणं, सया भयं चेव असरनिवहाणं । तियसाण वि इक्क दसा, नत्थि च्चिय सग्गवासीणं ॥२३७।। वरुणपरीए पसिद्धो, जड-संसग्गो तिमिगिलगिलतं । निरवजं पुण रज्जं, धराए पउमप्पहे नाहे ॥२३८॥ मनति य तं लोया, ववसायमयं व धम्ममइयं वा । उदयमय ममय मइय, सोक्खमय नायमइयं वा ॥२३९।। इय दोसलेसमुक्कं, रज्जं नाहस्स पालयंतस्स । एक्का कालकला विव, बहु वि कालो वइक्कतो ॥२४०।। तथाहि - इगवीसपव्वलक्खा , अहिया अद्धेण तहय अन्नेहिं । सोलस पुव्वंगेहिं, इत्तिय कालं कुणइ रज्जं ॥२४१ ॥ इत्थंतरम्मि चिंतइ, पिच्छह जीवाण विसयनिब्बंधं । जंते विससारिच्छे वियाणमाणा वि सेवंति ॥२४२॥ अवि य - Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002597
Book TitlePaumappahasami Cariyam
Original Sutra AuthorDevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages530
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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