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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
निप्फट्ट ! संकिओ इव, कंपसि अप्पेसि किं न मह नाहं । रंगततरंगावलिभुयाहिं किं वा निवारेसि ? ॥१९०॥ एवं विलाववाउलवयणा बाला पलोयवए सहसा । चेलंचलम्मि सपुलयदेहा गंठिं सउक्कंठा ॥१९१॥ सा उन्निद्दकुसेसयदलचलनयणा विमुद्दए गठिं ।। पिच्छेइ पणं लिहियं, पत्तं तह वायए एवं ॥१९२॥ एएहिं पणकवड्डेहिं, निययजुग्गाणि रयणमइयाणि । आहरणाणि करिज्जसु, वियक्खणे ! सरियनियवयणं ॥१९३॥ तो हरिस-विसायाउलचित्ता चिंतेइ हंत ! पिच्छेसु । . एत्तिय दिणाणि वयणं, इमेण कह धारियं हियए ? ॥१९४॥ देहं हिययं वाणी तिन्नि वि अइनिठुराणि पुरिसाणं ।। हयविहिणा विहियाइं न याणिमो केहिं वि दलेहि ॥१९५॥ अहवा पढम नराण हिययं, दलेहिं अइनिठुरेहिं निम्मवियं । तत्तो अवसेसेहिं, कुलिस पि हु निम्मियं मन्ने ॥१९६।। तं नवपेम्मं रम्म, सा लीला ताणि छेयभणियाणि । पायडिय निठुरेणं, कहमिह मुक्का अहं इक्का ? ||१९७|| पढमं रायं पच्छा महंततावं रवि व्व कुव्वंता ।। दूरेण वंदणिज्जा न दंसणिज्जा धुवं पुरिसा ॥१९८॥ जइ कहवि मज्झ माणं , पारद्धं पिच्छिउं तए दुट्ठ ! । ता जइ वसिमे कत्थ वि, मुच्चंतो तो भवे लढें ॥१९९॥ किं सोइएण अहवा ? नियपियभणियं च नियय भणियं च । कज्ज चेव पमाणं, जइ दिव्वं होज्ज अणुकूलं ॥२०॥ तो उत्तरिज्जखंडं, गिण्हित्ता नियय जाणणनिमित्तं । तरुसिहरम्मि पडायं, वंसग्गे बंधए एसा ॥२०१॥ सिरिरिसहनाहपिडिमं, अप्पडिमं निम्मवित्त लिप्पमयं । वियसियनवकमलेहिं, तिसंज्झमह पूयए बाला ॥२०२॥
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