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महापउमकुमरकहा
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अहिगय-कला-कलावा, रवन्न-लावन्न-पुनतारुन्ना ॥ पुन्निम-ससंक-मुत्ति व्व लोयसुयणसुहा जाया ।। २६८ ।। मयमहणमह वहत्थं, जं निससि-निसंसकन्नियं बीयं ॥ ता मन्ने सुहजीविरनेहस्स न गोयरे पडिओ ॥ २६९ ॥ घाएण मई सद्देण, तह मओ पेच्छिऊण तह चोज्जं । अवठंभिय कोदंडं, वाहेण विम्हियं जीयं ॥ २७० ।। एयं गाहाजुयलं दिव्ववसा अहव पुन्नमाहप्पा ॥ सुविणंतरम्मि एसा पिच्छइ सिहिपिच्छसमकेसा ।। २७१ ॥ अवगय-निद्दा-मुद्दा, विमुद्द-अरिविंद-चंद-पुन-मुही ।। गाहा जुयलं चित्ते, चिंतंती सरइ निय जाई ।। २७२ ।। नियदइय-हरिणजाणण निमित्तमइ-मित्त-विरहसंतत्ता ॥ भुवणजणचित्तजाणय-चित्ते सा लिहइ निय चरियं ॥ २७३ ॥ हरिणं चिय सुमरंती, पुरिसंतरविहियगरुयविद्देसा ।। समयंतरम्मि एसा, पुट्ठा जणणीए वरकज्जे ॥ २७४ ।। सा आह मज्झ नाहो, हरिणो च्चिय अंब ! पुव्वभवदइओ ॥ तं चिय कत्थ वि जायं, तायं विन विनय जणेसु ।। २७५ ॥ तज्जणणीए राया विनत्तो विविह-देस-निवहेसु ।। लिहिय तच्चरियपट्ठियहत्थे पट्ठवइ नियपुरिसे ॥ २७६ ।। अम्हे पुण तुह नयरे पेसविया कुमर ! तेण नरवइणा ।। इय सोऊणं कुमरो अवराए चित्तपट्टीए ॥ २७७ ॥ साहिन्नाणं सव्वं, हरिणभवं आलिहित्तु सविसेसं ।। अप्पेइ ताण हत्थे, तं चित्तं तहय गाहमिणं ॥ २७८ ॥ सहयारमंजरीए, अमंद-मयरंद-पाणदुल्ललिओ ।। भमरो दुहं वसंतो, वसंतसमयं समीहेइ ।। २७९ ॥ ते वि कुमरेण लंखा, दाउं लक्खाणि कणयरयणाणं ॥ सम्माणिऊण सग्गावयारनयरम्मि पट्टविया ॥ २८० ॥
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