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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
तत्तो चविय सुवेणीपुरीए निस्सीम-विक्कम-समिद्धो । भीमो नाम नरिंदो, उप्पनो पव्व-पन्नेहिं ॥१५१७॥ इत्तो य बंधुदत्तो, परिभाविय परिभवं स चित्तम्मि । विसय-विरत्तो तत्तो, पारिव्वज्जं पवज्जेइ ॥१५१८॥ सो कय-विविह-किलेसो, भवणनिवासी सुरो समुप्पनो । सुमरियवेरो सत्तु, सोहम्मे नियइ अवहीए ॥१५१९॥ न य सक्कइ तं हणिउं, तइया सोहम्म-तियस-मज्झत्थं । साणुसय-चित्त-वित्ती, भमइ भवे कित्तियं कालं ॥१५२०॥ पुणरवि पारिवज्जं, पडिवज्जिय विविह-बाल-तव-चरणो । नामेण धूमकेऊ, जोइसिय-सरो समुप्पन्नो ॥१५२१॥ सुमरिय वेर पिच्छइ, जम्मंतर-वेरिणं इमो तइया ।। जिणमंदिर-निम्मावण-हिट्ठमणं भीमनरनाहं ॥१५२२॥ चिंतइ चित्ते पावो, भवण-विहाणेण जीवियं निययं । एएण कयं सयलं, किमहं रुट्ठो करिस्सामि ॥१५२३॥ फलमविकलमिह जेणं, गहियम्मि य जीवदेह-विभवाणं । किं तस्स सरा रुट्ठा, कणंति जीयं हरता वि ॥१५२४॥ तत्तो इमस्स भवणं, विहडाविय निय समीहियं काहं । सो चेव महावेरी, जो भंजइ धम्म-कज्जाणि ||१५२५।। इय नियमणे विगप्पिय, दुन्नि वि वाराउ तेण भवणमिणं । विहडावियं समंता, किं किं न कणंति पावहया ? ॥१५२६॥ जइ पण अणंतकित्ती, कुमरो गंतूण तत्थ नयरीए । आरंभइ तं भवणं, सासयकालं तओ होही ॥१५२७॥ जं सो दढसम्मत्तो,विरत्त-चित्तो य अनइत्थीस । ता तस्स सत्त-सील-प्पभावओ तं थिरं होही ॥१५२८॥ सचराचरजयधरणी, धरणी आलंबवज्जिया निच्चं ।। जं चिट्ठइ तं सव्वं जाणिज्ज सुधम्म-माहप्पं ॥१५२९।।
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