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सिरिपउमप्पहसामिचरियं जायं जइ वा सुपुरिससंगो, किं किं न साहेइ ? ॥ ५१०॥ चारणमुणिणा केण वि करुणावन्नेण बोहिओ खयरो॥ जं परबंधाउ तयं मुंचइ मलयदिसिहरम्मि ।। ५११ ॥ विज्जाहरसंसग्गा, मिहुणं तं गहियसत्थपरमत्थं ।। दक्खं कलासु कुसलं, विलसइ तं तत्थ सच्छंदं ॥ ५१२ ॥ समयंतरेण ताण वि पुत्तो रूवाइगणगणाइन्नो ।। उप्पन्नो जणयाओ, कलाकलावेण परिकलिओ ।। ५१३ ।। भवियव्वया नियोगा-विहिया संपुत्र-पुत्र-माहप्पा ।। पेमस्स चंचलत्ता, ताणं पेमं विसंघडियं ॥ ५१४ ॥ कीरेण तओ सहसा, तरुणी सव्वंगसुंदरावयवा ।।। पेमपरतंतचित्ता, विहिया पाणेसरी अवरा ।। ५१५ ।। तो सो पियं वराई, मन्नावइ पयड-चाडुवयणेहिं ।। नवरं सपेमरत्तो, न वयणमित्तं पि सो देइ ।। ५१६ ॥ नियदइयदिट्ठदोसा, पेम्म-निरासा पियं पयंपेइ ।। जइ निट्टरोऽसि तो पिय ! अप्पसु मह संतियं पुत्तं ॥ ५१७ ।। इत्थीण ताव पढमं, पिओ पिओ होइ सव्व भंगीहि ।। तविरहियाण पुत्तो, नियमणआसासणो होइ ।। ५१८ ।। किं च अहं वरतित्थे कत्थ वि गंतूण देहपरिहारं ।। विसय-विस-निप्पिवासा गय-घर-पासा करिस्सामि ।। ५१९ ।। एस सुओ मह पुरओ संसारासारयं पयासंतो ।। पास ठिओ मह चित्तं, अथिरं पि थिरं करेइ त्ति ॥ ५२० ॥ जाणं च धम्मज्झाणं, कुसलं निज्जामयं वि मुत्तूणं ।। पज्जंतसमयजलनिहिपारं गच्छेइ न हु कइया ।। ५२१ ॥ जरिओ व तग्गिराए, कीरो वज्जरइ मूढ ! हिययाऽसि ।। मह चेव इमं पुत्तं, मग्गंती किं न लज्जेसि? ।। ५२२ ।। पिउणो पुत्तो अंसं, हरइ त्ति इमस्स चेव सो होइ ।।
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