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हंसपालकहा
तह वि हु निय ववसायं न चयइ सो सचिवभयभीओ || ३६०॥ तं निव्विन्नं नाउं घोरं घोरायए तओ मंती ।
उप्पाडिय कच्चोलं, रंको विव झत्ति सो पियइ ॥ ३६१ ॥
रे रे पाविट्ठ ! घयं, अहमाहम ! पियसि मज्झ पुरओ वि । इय जंपिय तेण हओ, सो निठुरपायघाएण ॥३६२॥ कहसु किं तुज्झ कीरए ? तेणुतो एवमाह सो विलिओ । तुह हत्था मह पुट्ठी, जं जाणसि तं कुणिज्जासु ॥३६३॥ बाहाए सत्थवाहं, धरिऊण निवेसिऊण पल्लंके । रमणी होउं जंपइ, सा तुह नाहस्स पाणपिया ॥ ३६४ ॥ अभिमाणवहणसायर ! सायरमज्झे तए अहं खित्ता । धिट्ठाए मए तं पि हु, पिययम ! दुहसायरे खित्तो ॥ ३६५॥ नियपिययमा सामिय ! कुणसु पसायं खमेसु सव्वं पि । को वा पहूण रोसो, निय भिच्चे सावराहे वि ॥ ३६६ ॥ कन्ना हिरन्नरेहा, हिरन - मणि-पमुहवत्थु - वित्थारो । खयरदिन्ना विज्जा, एवं सव्वं तुहायत्तं ॥ ३६७॥ तव्वइयरं वियाणिय, पमोयवियसंतनित्तसयवत्तो । जंपइ नियंकपालीकयपाणिपिओ अह मयंको ॥ ३६८ ॥ अइ उद्धुरस्स अइनिठुरस्स मह विहियगरुयदोस्स । भामिणि ! गइंदगामिणी कित्तियमित्तं तए विहियं ? ॥ ३६९॥ भग्गो मडप्फरो तह, अभग्गसिरसेहरस्स मह तुमए । जेण सयवत्तनेत्ता, चत्ता एगागिणी दइया ॥ ३७० ॥ मन्त्रे धन्नो अहयं, सोहग्गसिरोमणीण मह रेहा । आजम्मसुद्धसीला, गयहीला जस्स तं दइया ॥३७१ ॥ राया वि वइयरमिणं, वियाणिउं तत्थ झत्ति संपत्तो । चिंतइ अहो ! इमाए, चरियं अच्छरियसंजणयं ॥ ३७२ ॥ नायं ववसायं वा, परक्कमं साहसं च विन्नाणं कित्तियमित्तमिमाए, अबलाए वयं पसंसेमो ? ॥ ३७३ ॥
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