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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
पच्चक्खमवीसंभं, तह दुग्गयदाणविहियरिंभं । संसारमहामंदिरथंभं, दंभं निरुंभेस ॥६४६।। सिवगइ-विहिय-निरोहं,असेसदोसाण मूलपारोहं । मोहनिवमहाजोहं, लोहं दूरेण परिहरसु ॥६४७।। अज्जिन अन्नपहवा-रोगा सव्वे वि जह तहा सव्वे । लोभप्पभवा दोसा इहलोए चेव परलोए ॥६४८।। पुत्रं सुहाण पावं दुहाण रयणायरो य रयणाणं । धननिवहाण पुहवी मूलं लोभो अणत्थाणं ।।६ ४९ ।। भव-भमण-मूल-कारण-मसेस-गण-निवह-वारणं घोरं । परिहरसु लोहमिक्कं अचिरेणं महसि जइ मुक्खं ॥६५०॥ खंडोहंडि काउं नीओ वि विरामसेसउवसामं । लोहो पणरवि जीयं अणंतसंसारियं कुणइ ॥६५१॥ दीसंति खमावंता निरहंकारा तहेव निम्माया । निल्लोहा पण विरला दीसंति न चेव दीसंति ॥६५२।। तिव्वं तवंति विविहं पढंति कामं जिणंति उद्दाम। दसह सहति लोह, जिणंति विरला न वा अहवा ॥६५३ ।। माया-लोह-कसाया रागो दोसो य कोह-माणो य । दोहि वि मिलिऊण जयं भामिज्जइ विविहमेएहिं ॥६५४॥ इह चेव भवे वेरी कद्धो वि ह कणइ दक्खलक्खाणि । रागद्दोसा पावा भवकोडीसं दुहं दिति ॥६५५।। एयम्मि अंतरे सो सिट्ठी पुच्छेइ नाह ! मह धूया । पंचालियाए तीए किं कज्ज खज्जिया विहिया ॥६५६॥ केवलनाण-वियाणियजम्म-समूहो लसंत-कारुण्णो । कुरुचंदो आह मुणी, निसणसु हे सिट्ठि ! उवउत्तो ॥६५७॥ अमणिय उदयत्थवणा-विलसिर-मणिभवण-किरण-निवहेहिं । सव्वं पि अस्थि जीए, सा सावत्थीपुरी अत्थि ॥६५८||
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