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७ लघुत्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र (र. सं. १७०९ कर्ता मेघविजय उपाध्याय ) स्वयं ग्रन्थकर्ता आ.देवसूरि ने भी अपने समय में कई पद्मप्रभचरित्र होने का उल्लेख किया है ।
तीर्थकर विषयक मान्यताओं में दिगम्बर परम्परा के दो प्राचीन मुख्य ग्रन्थ आधारभूत माने जाते हैं । एक तिलोयपण्णत्ति और दूसरा जिनसेनाचार्यकृत महापुराण । महापुराण के पश्चात् अनेक दिगम्बराचार्यो ने तीर्थकर चरित्र लिखे हैं किन्तु सब का आधारभूत ग्रन्थ महापुराण ही रहा है । उत्तरपुराण में भगवान पद्मप्रभ विषयक वर्णन इस प्रकार मिलता है। ___ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश है । उसके सुसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे । संसार की असारता को देख उन्होंने अपने पुत्र सुमित्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर पिहिताश्रव नाम के ज्ञानी मुनि से दीक्षा ग्रहण की । संयम की साधना करते हुए उन्होंने तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त में समाधि पूर्वक मरकर वे अत्यन्त रमणीय ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रतिकर विमान में अहमेन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । वहां इकतीस सागर की लम्बी आयु भोग कर जम्बूद्वीप की कोशाम्बी नगरी के राजा इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण की रानी सुसीमा के उदर में वे अवतरित हुए । रानी ने १६ स्वप्र देखे । कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन त्वष्टयोग में कमल की कलिका के समान कान्तिवाले पुत्र रूप में जन्मे । उनका नाम पद्मप्रभ रखा । इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव किया । सुमतिनाथ भगवानकी तीर्थपरम्परा के नब्बे हजारकरोड सागर के बीतने पर भगवान पद्मप्रभ ने जन्म लिया । भगवान युवा हुए । उनकी तीस लाख पूर्व की आयु थी । दोसौ पचास धनुष उंचा शरीर था। उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने पिता से राज्य प्राप्त किया ।
जब उनकी आयु सोलहपूर्वाङ्गकम एक लाख पूर्व की रह गई तब भगवान ने निवृति नामक पालकी पर सवार हो कर मनोहर नाम के वन में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्रके योग में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । दूसरे दिन भगवान ने वर्धमान नगर में सोम राजा के घर आहार ग्रहण किया । छह माह तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद चैत्र शुक्ला पौर्णमासी के दिन मध्याह्न में चित्रा नक्षत्र के योग में केवलज्ञान प्राप्त किया । केवलज्ञान के पश्चात् भगवान पृथ्वी पर विचरकर अनेकों का उद्धार किया । उनके संघ में एक सौ दस गणधर, दो हजार तीन सौ पूर्वधर, दो लाख उनहत्तर हजार उपाध्याय, दसहजार अवधिज्ञानी, बारह हजार केवलज्ञानी, सोलह हजार आठसौ वैक्रीयलब्धिधारी, दस हजार तीनसौ मनःपर्ययज्ञानी, नौ हजार छहसौ वादि, इस प्रकार सब मिलाकर तीनलाख तीस हजार मुनियों की सम्पदा थी । रात्रिषेणा आदि चार लाख बीस हजार आर्यिकाएँ तथा तीन लाख श्रावक एवं पांच लाख श्राविकाएँ थी।
अपना निर्वाण समीप जानकर प्रभु एक हजार मुनियों के साथ सम्मेत शिखर पर पहुंचे । वहां फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन चित्रा नक्षत्र के योग में सम्पूर्ण कर्मो का नाश कर भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया । ग्रन्थकार परिचय :
सैकडों वर्षों से अनेकानेक विद्वानों ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में विशाल साहित्य की रचना कर दोनों भाषाओं का गौरव बढाया है । इस गौरवकी अभिवृद्धिमें आचार्य देवसूरि का भी मूर्धन्य स्थान है । इन्होंने प्राकृत
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