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लंघंताण वि निच्चं, आराहंताण झाणनिरयाण ॥ जा पडा होइन वा सयंवरा तुज्झ सा अहयं ॥ ३५९ ॥ सत्त - तल भूमिरम्मे, मणिभवणे सह मए वरिसलक्खं ॥ अणुवसु विसय- सोक्खं, दिव्वं दिव्वाए तरुणीए ॥ ३६० ॥ सो आह तियसतरुणी संगं को नाम कामए नेय ? ॥ पत्तियमित्तं भूमिं मणो वि गच्छइ न तुच्छाणं ॥ ३६१ ॥ भोगोव भोगसमए, किं पुण मह नत्थि एरिसो नियमो ॥ सहयारमंजरि च्चिय भोत्तव्वा सेस परिहारो ॥ ३६२ ॥ कमलच्छि ! पच्छ अच्छे ! ता तुम किंचि नेय वत्तव्वं ॥ अवि निच्छियं मरिस्सं, भंजिस्सं नेय निय नियमं ॥ ३६३ ॥ दिव्वभवेसुं दिव्वं, मणुयभवेसुं च माणुसं सोक्खं ॥ पत्तं अनंतसो वि हु, अखंडनियमो न संपत्तो ॥ ३६४ ॥ सा आह कुमर ! भणियं, जह मह मन्नेसि तुज्झ तो दइयं ॥ अप्पेम संपयं चिय, ओहिन्नाणेण जाणित्ता ॥ ३६५ ॥ अन्न न तुज्झ जीयं, नया वि रज्जं न चेव सा दइया ॥ नन्नपि किं पि कज्जं, होही जइ कह वि रुट्ठाहं ॥ ३६६ ॥ रे मूढ ! तर निसुयं, इमं पि जं दिव्वकन्नया तुट्ठा || तिहुयणरज्जं वियरइ, मारइ रुट्ठा न संदेहो || ३६७ ।। सो आह मज्झ सुंदरि ! न जीविएणं नया वि रज्जेणं ॥ दइयाए नेय कज्जं, कज्जं अक्खलियनियमेण ॥ ३६८ ॥ अवि रविउदओ होही, अवरदिसाए अवारपारो वि ॥ मुंचइ मेरं नियमं, नयामि भंजेमि चिर विहियं ॥ ३६९ ॥ पंचालिया पवंचं, चइत्तु अह आह तं सुरो एगो ||
सिरिपउमप्पहसामिचरियं
साहु साहु ! सुपुरिस ! रेहा धीरे तुह चेव ॥ ३७० ॥ ताण नमो ताण नमो नमो नमो वीर धीर पुरिसाणं ॥ निय जीयसंसए वि हुन खंडिओ जेहिं निय नियमो ॥ ३७१ ॥
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