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वसंतकुमारकहा
पुरपच्चक्खं एसो, आसहरो जाइ जाइ त्ति ॥ ९३० ।। सोऊण इमं कुमरो, चिंतइ चित्तम्मि हंत चोरेण । गिण्हिज्जउ हरिरयणं, नियनियमं ने य भंजिस्सं ।। ९३१ ।। उइयम्मि वि आइच्चे, घणतमतिमिरा हवेइ जइ रयणी ।। तह वि न निययं नियम, पाणच्चाए वि भंजेमि ॥ ९३२॥ तह चित्तनिच्चलत्तं, नाऊणं पुण वि वंतरो दइयं ।। तस्सेव हिययसायरससिलेहं हरइ ससिलेहं ॥ ९३३ ॥ सा वंतरहीरंती तारं, पलवेइ नाह नियदइयं ।। रक्खसु रक्खसु हत्थं, सुरेण केण वि हरिजंति ॥ ९३४ ॥ किं चिट्ठसि ससओ विव अहव सियालो व्व एत्थ संलुक्को ।। न हि निय दइया हरणं, कह वि उवेहंति सप्पुरिसा ॥ ९३५ ।। विलवंतीए तीए कुमरं निच्चलमणं वियाणित्ता ।। रुट्ठो सुरो दुरप्पा, मणम्मि एवं वियप्पेइ ।। ९३६ ।। एयस्स धुवं एयं, न जाव सहसा पलीवियं गेहं ।। ताव न निययं नियम, एसो भंजिस्सए कह वि ।। ९३७ ।। एवं विचिंतइत्ता, सच्चंकारो व्व निरयदुक्खाणं ।। कुमरगिहस्स चउद्दिसिहुयासणो तेण परिमुक्को ।। ९३८ ।। जलिरम्मि तम्मि जलणे, दुरंतजालावलीहिं दुप्पेच्छो । लोयाण समुल्लसिओ उत्तालो तुमुल-संरावो ॥ ९३९ ।। हं हो धीरा धीरा, पलीवणं झत्ती झत्ती विज्झवहं ।। नणु मज्झम्मि कुमारो, चिट्ठइ धम्मिक्कवावारो ।। ९४० ।। सेरिह निवहं तुरियं तूरह पूरह जलेहिं कुंभेहिं ।। मुसुमूरुह तिणनिवहं, चूरह जलिरं इमं जलणं ।। ९४१ ॥ रायाइजणो जंपइ, कुमार ! नीहरसु गेहमज्झाओ॥ डज्झउ सव्वं पि इमं रक्खेयव्वो तुमं चेव ।। ९४२ ।। न हि नीहरसि तुमं जइ तत्तो एसो जणो असेसो वि ।।
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