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जम्मवण्णण
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मणिरयणनियर-निम्मिउ विसालु, उज्जोइय सयलदियंतरालु । आरत्तिउ अरइ विवज्जियस्स, उत्तारइ तिहुयण-नायगस्स ॥१५४।। अह तियस-निवह-समयम्मि तम्मि, वायंति तूरह रसिय-मणम्मि । पड-पडह-भेरी-झल्लरि विराउ पसरइ नहम्मि संहरिय पाउ ॥१५५॥ कंसाल-ताल-काहल-निनाउ, सम्मइ गहीरु जण-जाणिय राउ । मद्दल-मउंद-वर-संख-सद्द पसरति हरिय-भव-दुह-विमद्द ॥१५६॥ नच्चंति हिट्ठ-सुरतरुणि-सत्थ, गायंति जिणह गुणगणपसत्थ । सयमेव जिणिंदह तियसनाह सचरिय पढंति कयउद्धवाह ॥१५७॥ तं उत्तारिवि हुहु संहारिवि सक्कत्थउ परमेसरह ।। अग्गइ निविसेविणु सक्कु पढेविण कुणइ थवणु परमेसरह ॥१५८॥ सिरिपउमप्पहपहु तहु पाया पणयाण हुतु सपसाया । परिहरिया विव लग्गा जेसि तले कमलसंघाया ॥१५९।। तं पउमप्पहसामिय वियसिय नवरत्तकमलसमवनो । बाहिं पि हु लक्खिज्जसि, सिद्धि-परंधीए रत्तो व्व ॥१६०॥ तुह सामि हेम-कंदल-समाण-वर-देह-दंति-छउमेण । अलहंत व्व पवेसं, बाहिं राओ परिब्भमइ ॥१६१॥ सो जायसि जेण कंकमसमदेहपहाए जम्म-मह-दियहे । दसदिसिबहूण विहिया, कंकमसीमंतया रम्मा ॥१६२॥ जयलच्छीनिवासेहि, तह कम-कमलेहिं माणसं मज्झ । सवियासेहिं सया वि हु, मंडिज्जउ नाह ! किं बहुणा ?।।१६३॥ तुह चरियं पि निसामिय, सामिय मह जायरोम-अंकूरा । सित्ता नयण-जलेणं, फलंति सग्गापवग्गे वि ॥१६४।। नून भव्वो अहयं तह मह हियएत्थि बोहि-वर-बीयं । अन्नह कह तइ दिठे फडियं रोमंकरा जाया ॥१६५॥ मह सामि!सालचित्तं दिणे दिणे कुणउ तुज्झ गुण-सरणं । परमेसर! तह पाया, भवे भवे हंति मे सरणं ॥१६६॥
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