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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
अवरा वि जंपइ इमं, सामिय-निय-जणणि-जणय-सयणाई । निय दइयमोह-मोहियमणाए मुक्को मए सव्वो ॥८५२।। एसा उ वंतरी वा, खयरी वा हियय-वल्लहं मज्झं । दठूण अंगचंगं, अणंगमिव लडह-लायन्नं ॥८५३॥ काऊण मज्झ रूवं, पत्ता कलहं करेइ निल्लज्जा । । तो कुणसु सुद्ध-निन्नयामिहरा दोसो तुह च्चेव ।।८५४॥ उल्लसिय कोउहल्लो, मंति-महं नियइ झ त्ति नरनाहो । ते तं भणंति पुरिसं, पत्तेयं पुच्छ एयाओ ॥८५५॥ काऊण भिन्न भिन्ना, रहस्स भणियाणि हरिय-रमियाणि । पुट्ठा उ तेण दुन्नि वि, सव्वं साहिति अणुभूयं ॥८५६।। जं जं रहस्स विहियं-भज्जा साहेइ वंतरी सा वि । तं तं सव्वं साहइ, ओहिनाणेण जाणित्ता ॥८५७॥ अणमिस-नयणप्पमहं, सरचिधं ताण ते वि पिच्छंति । सो उण सरमायाए, निमेसपमहं पयासेइ ॥८५८|| तो राया सविसाओ, मतिप्पमहाइ जाव चिट्ठति । तोऽणंतकित्तिकुमरो, तं पुरिसं निय समीवम्मि ॥८५९।। उववेसित्ता दुन्नि वि, जंपइ इत्थिउ तुम्ह जा सच्चा । सा दत्था दइयं, छिवेउ निय-सील-माहप्पा ॥८६०॥ जा दूरत्थं दइयं, सीलपभावेण नियय हत्थेण । छिविही तीए भत्ता, अप्पेयव्वो न संदेहो ॥८६१ ॥ तो वाणंमतरी सा, निब्बद्धी छिवइ दूरओ दइयं । संडा दंडागारं, निययं हत्थं पसारित्ता ॥८६२।। तं चेव दीहबाहुं धरिउं कुमरेण वंतरी भणिया । पाविट्ठि ! अम्ह नयरे दंभसि वीसंभियं लोयं ।।८६३॥ एवं चिय तुह बाहुं सह नासाए इहेव छिंदेमि । इय भणिया कुमरेणं पलाइया वंतरी सहसा ।।८६४||
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