Book Title: Sangit Ratnakar Part 03 Kalanidhi Sudhakara
Author(s): Sarangdev, Kalinatha, Simhabhupala
Publisher: Adyar Library
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૯ સંગીત રત્નાકર - ૩ : દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી બાપજી મ.સા. સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી નરરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પૂ. સા. શ્રી. .................. ની પ્રેરણાથી ત્રિમૂર્તિ ઉપાશ્રય, સાબરમતિ શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार પૃષ્ઠ ___84 ___810 010 011 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी | पू. विक्रमसूरिजी म.सा. 238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी | पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 162 | 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 302 प्रासादमजरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारती गोंसाई 352 | शिल्पदीपक श्री गंगाधरजी प्रणीत 120 | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા 498 | जैन ग्रंथावली श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१ श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ श्री एच. आर. कापडीआ 500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराज दोशी 454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य 188 | 027 | शक्तिवादादर्शः | श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री 214 | क्षीरार्णव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई ___192 013 454 226 640 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ (?) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२) (૩) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार क्रम विषय संपादक/प्रकाशक प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य पू. हेमचंद्राचार्य 156 प्राकृत प्रकाश-सटीक 157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति 158 आरम्भसिध्धि सटीक 159 खंडहरो का वैभव 160 बालभारत 161 गिरनार माहात्म्य 162 | गिरनार गल्प 163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक 164 भारतिय संपादन शास्त्र 165 विभक्त्यर्थ निर्णय 166 व्योम वती - १ 167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक 176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत 179 मुहूर्त संग्रह 180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी भामाह ठक्कर फेरू पू. उदयप्रभदेवसूरिजी पू. कान्तीसागरजी पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास पू. ललितविजयजी पू. क्षमाकल्याणविजयजी मूलराज जैन गिरिधर झा शिवाचार्य शिवाचार्य संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५ - - यशोविजयजी व्याकरण व्याकरण व्याकरण धातु ज्योतीष शील्प प्रकरण साहित्य न्याय न्याय न्याय उपा. न्याय भाव मिश्र आयुर्वेद पू. हर्षकीर्तिसूरिजी आयुर्वेद ज्योतिष पू. भानुचन्द्र गणि टीका ज्योतिष पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज ज्योतिष ज्योतिष पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भगवानदास जैन ज्योतिष अंबालाल शर्मा ज्योतिष पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष काव्य तीर्थ तीर्थ भाषा संस्कृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत/हिन्दी संस्कृत हिन्दी संस्कृत संस्कृत / गुजराती संस्कृत/ गुजराती हिन्दी हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/हिन्दी संस्कृत / हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत/ गुजराती संस्कृत संस्कृत संस्कृत प्राकृत / हिन्दी गुजराती गुजराती जोहन क्रिष्टे पू. मनोहरविजयजी जय कृष्णदास गुप्ता भंवरलाल नाहटा पू. जितेन्द्रविजयजी भारतीय ज्ञानपीठ पं. शीवदत्त जैन पत्र हंसकविजय फ्री लायब्रेरी साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी जैन विद्याभवन, लाहोर चौखम्बा प्रकाशन संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय बद्रीनाथ शुक्ल शीव शर्मा लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी आनंद आश्रम मेघजी हीरजी अनूप मिश्र ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट भगवानदास जैन शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 264 144 256 75 488 226 365 190 480 352 596 250 391 114 238 166 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 181 182 183 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ ( ई. 2015) सेट नं.-६ - - - 192 पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ काव्यप्रकाश भाग-२ काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 184 नृत्यरत्न कोश भाग-१ 185 नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 नृत्याध्याय 187 संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक 189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य 'अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 न्यायविंदु सटीक 194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 शीघ्रबोध भाग-६ श्री १० 196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची । यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। विषय कर्त्ता / संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव नारद श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर श्री डी. एस शाह भाषा संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती संस्कृत हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी संस्कृत/गुजराती संस्कृत संस्कृत/गुजराती संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल श्री वाचस्पति गैरोभा श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल श्री चंद्रशेखर शास्त्री -जैन मोहन ग्रंथमाला सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट पृष्ठ 364 222 330 156 248 504 448 444 616 632 84 244 220 422 304 446 414 409 476 444 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219 प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220 | समासवादार्थ, वकारवादार्थ) | बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221 __ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता संस्कृत महादेव शर्मा 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 विविध कर्ता । संस्कृत | महादेव शर्मा 78 महादेव शर्मा 112 विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत महादेव शर्मा 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Adyar Library Series —No. 78 GENERAL EDITOR: G. SRINIVASA MURTI, B.A.,B.L., M.B. & C.M., VAIDYARATNA Director, Adyar Library SANGITARATNĀKARA OF SĀRŅGADEVA WITH TWO COMMENTARIES Vol. III-Adhyāyas 5, 6 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAN GITARATNĀKARA OF SĀRŅGADEVA WITH KALĀNIDHI OF KALLINĀTHA AND SUDHĀKARA OF SIMHABHŪPĀLA EDITED BY PANDIT S. SUBRAHMANYA SASTRI Vol. III--Adhyāyas 5, 6 THE ADYAR LIBRARY 1951 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prices Printed by D. V. Syamala Rau, at the Vasanta Press, The Theosophical Society, Adyar, Madras 20 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE THE third volume of the Sangitaratnakara which is now being issued contains Books Five and Six dealing with Tala and Vadya. It follows the same plan as the two previous volumes. The next and last volume containing Book 7 dealing with Nrtta will complete the work. This edition is based on the matter prepared by the late Pandit S. Subrahmanya Sastri. Sri K. Ramachandra Sarma, who worked under him in the preparation of the matter for the press, has corrected the proofs and passed the entire matter through the press, besides furnishing the detailed contents and the indexes. It is a great pleasure to record here the grateful thanks of the Adyar Library to Sri K. Ramachandra Sarma for his valuable work. Our indebtedness to the Vasanta Press for prompt and excellent execution is a continuous obligation. 26th April 1951 Adyar Library G. SRINIVASA MURTI, Honorary Director Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालाध्यायः मङ्गलाचरणम् तालशब्दव्युत्पत्तिः मार्गतालप्रकरणम् . तालस्वरूपकथनम् मात्राणामुद्देशः मार्गविशेषकथनम् मात्रालक्षणम् मार्गतालस्य विभागः विषयानुक्रमः चञ्चत्पुट चाचपुटलक्षणम् षट्पितापुत्रकः पातकलाविधिः तत्राङ्गुलिनियमः आवापादिनिःशब्द क्रियाः तालधारणप्रकार: संकीर्णताला: परिवर्तादीनां लक्षणम् याश्रिता यतयः पुटाङ्का: १-२२४ १ ३ ४-१३३ ५ ९ १०, ११ १२-१५ १६, १७ १८ १९, २० २१ २२ २४, २५ २६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii . ग्रहादीनां लक्षणम् . . प्रकरणाख्यगीतप्रकरणम् . तत्र मद्रकादिगीतानामुद्देश: एककलमद्रकम् द्विकलमद्रकम् चतुष्कलमद्रकम् अपरान्तकस्य विभाग: . तत्रैककलमपरान्तकम् . द्विकलमपरान्तकम् . चतुष्कलमपरान्तकम् . विभागपूर्वकमुल्लोप्यकस्य लक्षणम् प्रकरीलक्षणम् ओवेणकम् . रोविन्दकम् . उत्तरम्. . छन्दकस्य लक्षणम् आसारितानामुद्देशः तत्र कनिष्ठासारितम् . लयान्तरासारितम् . मध्यमासारितम् ज्येष्ठासारितम् आसारितानामुपोहनानि . उपोहनेश्वक्षरसंख्यानियमः विभागपूर्वकं कण्डिकावर्धमानस्य लक्षणम् आसारिताभासानां लक्षणम् पुटाकाः २७, २८ २९-१३३ ३०, ३१ ३२-३७ ३८, ३९ ४०-४४ ४५, ४६ ४७-५३ ५३-६९ ६०-६५ ६६-८१ ८२-५७ ८७-९५ ९६-१०१ १०२-१०४ १०४-१०६ १०६-११४ . १०७ . १०८ . १०९ ११०, १११ ११२, ११३ ११४-११९ १२०-१२६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटाकाः पाणिकालक्षणम् १२७, १२८ ऋचो लक्षणम् १२९, १३० गाथालक्षणम् • १३१ साम्नो लक्षणम् १३१, १३२ मार्गतालस्योपसंहारः . . १३३ देशीतालप्रकरणम् . १३४-१६० तत्र मङ्गलाचरणम् . १३४ देशीतालानां सामान्यलक्षणम् । १३४, १३५ तेषामुद्देश: . . १३५-१३७ देशीतालानां खण्डतालत्वोपपादनम् . १३८ नामनिर्देशपूर्वकं विंशत्युत्तरशतदेशीतालानां परिगणनम् १३९-१५९ प्रस्तारादीनामुद्देश: . तत्र प्रस्तारलक्षणम् १६१-१६३ संख्याया लक्षणम् १६४-१६६ नष्टस्य लक्षणम् १६७-१७१ उद्दिष्टस्य लक्षणम् १७२-१७६ पातालस्य लक्षणम् १७७, १७८ द्रुतमेरुलक्षणम् १७९-१८३ लघुमेरुलक्षणम् १८४-१८६ गुरुमेरुलक्षणम् १८७-१८८ प्लुतमेरुलक्षणम् १८९, १९० संयोगमेरुलक्षणम् १९१-२०५ खण्डप्रस्तारः २०६, २०७ द्रुतमेर्वधःपङ्क्तिसमकोष्ठनष्टोद्दिष्टनिरूपणम् २०९-२१६ लघुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टनिरूपणम् । २१६, २१७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x पुटाकाः २१८ २१९, २२० २२१ लघुमेरो: परपङ्क्तीनां नष्टनिरूपणम् . गुरुमेर्वध:पङ्क्तिपरपड्कृत्योर्नष्टनिरूपणम् प्लुतमेरुनष्टम् प्लुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् . मेस्त्रयोद्दिष्टलक्षणम् .. . २२२ वाद्याध्यायः . २२३ २२५-४९९ . २२५ . २२७ २२८-३१८ . २२८ • २२९ . . " . . २३० . २३१ मङ्गलाचरणम् पूर्वाध्यायेन सह सङ्गतिनिरूपणम् । (१) ततवाद्यानि . . ततवाद्यस्य सामान्यलक्षणम् श्रुतिस्वरवीणाभेदेन तस्य द्वैविध्यनिरूपणम् तत्र स्वरवीणाभेदाः . . सुषिरावनद्धधनवाद्यानामुद्देशः . शुष्कादिभेदेन वाद्यस्य चातुर्विध्योपपादनम् वाद्यस्येश्वरकर्तृत्वसमर्थनम् एकतन्त्रीलक्षणम् . सारणाभेदाः वीणावादने करयोापारा: - तेषां विभागाः सकलनिष्कल भेदेन वाद्यस्य द्वैविध्यनिरूपणम् वाद्यनिरूपणप्रयोजनकथनम् नकुलादिपञ्चवीणालक्षणम् रूपादिकरणानां निरूपणम् चतुस्त्रिंशाद्धातूनामुद्देशः , २३३-२३७ . २३८ २३९-२४३ २४४-२४६ २४६, २४७ . २४८ २४९, २५० . २५१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र विस्तारजा धातवः . करणधातवः आविधातवः व्यञ्जनधातवः धात्वाश्रिता वृत्तयः वृत्तौ प्रसक्तानां तत्त्वादीनां सामान्यलक्षणम् तेषां भेदाः . तत्राश्रावणालक्षणम् आरम्भविधिः वक्त्रपाणिः संखोटना . परिघट्टना . मार्गासारितम् लीलाकृतम् . त्रिविधानामासारितानां लक्षणम् आलापिनीलक्षणम् . तस्या वादनप्रकारः . किंनर्याः विभाग: देशीप्रसिद्धाः किंनर्यः तत्र बृहती किंनरी मध्यमा किंनरी लघ्वी किंनरी देशीप्रसिद्धानां केषांचिद्रागाणां किंनयाँ वादनक्रमकथनम् तत्र मध्यमादिः बङ्गाल: . . पुटाकाः २५२-२५६ २५६, २५७ २५७, २५८ २५९-२६१ . २६२ २६३, २६४ . २६५ २६६-२७० २७१, २७२ २७३, २७४ २७४-२७६ २७६, २७७ • २७८ २७९, २८० २८१ . २८२ २८३, २८४ २८४-२८८ २८८-२९५ २८८-२९२ २९२-२९४ २९५, २९६ २९६-३१४ . २९६ २९७-३०२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटाङ्काः भैरवः . • ३०३ वराटी गुर्जरी . ३०४ ३०५, ३०६ . . . . . . . . . . ३०७ ३०७, ३०८ . ३०८, ३०९ . ३०९ वसन्तः धन्नासी देशी देशाख्या . डोम्बक्री . प्रथममञ्जरी . कामोदा . रामकृति: . गौडकृतिः . देवकृतिः . भैरवी, छायाना च . बहुलीरामक्री, मल्हारश्च . कर्णाटगौडः, तुरुष्कगौडश्च द्राविडगौडः, ललिता च देशीरागाणामुपसंहार: . पिनाकीलक्षणम् निःशङ्कवीणा:लक्षणम् . वीणावादनपरिज्ञाने फलनिर्देश: वीणावादकस्य गुणा: . सुषिरवाद्यानि तत्र वंशलक्षणम् तस्य भेदा: . . . . . . ३१२ . ३१३ . ३१४-३१६ ३१६, ३१७ . ३१७ . . ३१८ ३१९-३९१ ३१९, ३२० ३२१, ३२२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xii . ३६१ पुटाकाः तेषु स्वरोत्पत्तिप्रकार: . ३२३-३२८ वंशगतीनां विभागाः . . ३२९ तेषु मतभेदप्रदर्शनम् . ३२९-३३९ देश्यनुसारेण स्वाभिमतवंशलक्षणनिरूपणम् . ३३९-३५५ वीणायामिव वंशेऽपि धात्वादीनां कर्तव्यत्वोपदेशः . ३५६ फूत्कारगुणा: • ३६७ फूत्कारदोषा: . ३५८ वांशिकानां गुणा: . ३५९, ३६० वांशिकानां बृन्दम् . किंनर्यामिव वंशेऽपि देशीप्रसिद्धानां केषांचिद्रागाणां वादनसमर्थनम ३६२-३८३ मध्यमादिः . ३६२-३६४ मालवश्रियः . ३६५, ३६६ तोडी . ३६७ बङ्गाल: . ३६८ भैरवः वराटी ३६९, ३७० गुर्जरी . ३७० वसन्तः . ३७१ धन्नासी देशी देशाख्या डोम्बक्री वेलावली . ३७३, ३७४ प्रथममञ्जरी . ३७४, ३७५ • • • • • • • . ३७२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV पुटाकाः . ३७५ ३७६, ३७६ . ३८१ आदिकामोदी शुद्धवराटी . शुद्धना रामक्री: गौडक्री: देवक्री: भैरवी छायानट्टा चिन्धमरामक्री: नाट्यरामकी: मल्हार: . कर्णाटगौडः देशवालगौडः तुरुष्कगौडः द्राविडगौडः कैशिकी ललिता . श्रीराग: वंशलक्षणस्योपसंहार: पावस्य लक्षणम् पाविका ३८१, ३८२ . ३८२ ३८२, ३८३ . ३८३ . ३८४ ३८४, ३८५ . ३८५ . ३८६ .३८७ मुरली ३८७, ३८८ • ३८८ ३८८, ३८९ मधुकरी काहला . तुण्डकिनी . चुका . ३९० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV पुटाकाः ३९०, ३९१ शृङ्गम् . सुषिरवाद्यस्योपसंहारः . (३) आनद्धवाद्यानि ३९२-४८८ विभागपूर्वकं पटहलक्षणम् , तत्र मार्गपटहः ३९२, ३९३ देशीपटहः . . ३९४ पटहस्य वर्णाः __३९४, ३९५ पटहोद्भवानां हस्तपाटानां स्वरूपनिरूपणम् . ३९६-३९८ तत्र मतान्तरेण पाटभेदकथनम् . ३९८, ३९९ नागबन्धादीनां पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटानां स्वरूपनिरूपणम् ४००-४०२ नन्दिकेश्वरप्रोक्ता हस्तपाटाः . ४०३ एकविंशतिहस्तपाटा: . ४०४-४०८ होडुक्कपाटा: ४०९-४१३ अपाटा: . ४१३-४१५ अलगपाटस्य भेदः ४१५, ४१६ चित्रपाटस्य भेदः . • ४१६ पञ्चसञ्चलक्षणम् ४१६, ४१७ पटहादीनां जातिसाधारणवाद्यानामुद्देश: ४१७-४२२ तत्र बोलावणी . ४१९ चल्लावणी . . . . ४२० उडुवः . कुचुम्बिणी . . . . ४२०, ४२१ चारुश्रवणिका अलग्नः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvi पुटाङ्काः • ४२१ परिश्रवणिका समप्रहारः . कुडुवचारणा करचारणा . दण्डहस्त: . धनरवः . . . . . . ४२१, ४२२ . ४२२-४२७ . प्रायिकहौडुकवाद्यानामुद्देश: तत्र वल्लिः . वल्लिपाट: . घत्ता . भेदः झडप्पणी . अनुश्रवणिका हस्तः . जोडणी . त्रिगुणा पञ्चहस्त: पश्चपाणिः . पञ्चकर्तरी चन्द्रकला . . . . . . . . . . . . . -४२६ • ४२६ . ४२७ . ४२७-४५६ वाद्यप्रवन्धानामुद्देश: तत्र यतिलक्षणम् ओता गजरः . . . . . ४२८, ४२९ ४३०-४३३ ४३३-४३५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिगोणी कवितम् पदम् मेलापकम् .. उपशमः उद्ग्राहः प्रहरणम् अवत्सकः छण्डण: तुड्डुका मलप: मलपाङ्गम् मलपपाट: छेदः रूपकम् अन्तर: अन्तरपाट:. खोज: खण्डयति: खण्डच्छेदः अवयतिः खण्डकः खण्डडुलः समः पाट: ध्रुवकः C xvii पुटाङ्काः ४३६,४३७ ४३७४३९ • · · ४३९ ४४० ४४१ " ४४३ ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ "" ४५० " "" , ४५१ "" " >> " ४५२ "" Scanned by Gitarth Ganga Research Institute 37 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii पुटाङ्काः . ४५२ ४५१ ४५३ ४५३, ४५४ . ४५४ अङ्गम् अङ्गरूपकम् ताल: विताल: खलक: समुदायः . जोडणी उडव: . तलपाटः . उझवणी . तुण्डकः . अङ्गपाटकः . पैसारः . वाद्यप्रबन्धस्योपसंहारः . मर्दललक्षणम् मार्दलिकमेदाः . तेषां वादनप्रकार: तत्र वादकः मुखरी प्रतिमुखरी . गीतानुगः . मार्दलिकगुणदोषा: मार्दलिकबृन्दम् . हुडुक्कालक्षणम् . करटा . ४५५-४५८ ४५९-४६७ . . ४६३-४६५ ४६४, ४६५ . ४६६ • " . ४६७ . ४६८ . ४६९ ४६९, ४७० . १७१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xix घटलक्षणम् . घडसः ढवस: ढक्का कुडुक्का पुटाङ्काः .४७२ . ४७३ ४७३, ४७४ . ४७४ , ४७५ कुडुवा रुजा डमरुकः . डक्का मण्डिडक्का डक्कुली सेल्लुका झल्लरी भाण: त्रिवली दुन्दुभिः . भेरी नि:साणः . तुम्बकी अवनद्धवाद्यप्रकृतिभूतकाष्टानां गुणलक्षणकथनम् काष्ठदोषा: . चर्मणो गुणाः चर्मणो दोषाः (४) घनवाद्यानि . तत्र ताललक्षणम् ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० . ४८१ ४८१,४८२ . ४८२ ४८२, ४८३ . ४८३ . ४८४ ४८४,४८५ .४८५ ४८५, ४८६ ४८७ ४८७, ४८८ .४८८ ४८५-४९९ ४८९, ४९० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांस्यताल: घण्टा क्षुद्रघण्टा जयघण्टा कम्रा शुक्तिवाद्यम्. पट्टवाद्यम् घनवाद्यस्योपसंहारः वाद्यगुणदोषाः वादक गुणदोषाः हस्तगुणाः • . XX पुटाङ्काः ४९१ ४९२ ४९२, ४९३ ४९३ ४९४ ४९५ ४९५, ४९६ ४९६ ४९७ ४९८ ४९९ . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवाभ्यां नमः श्री-निःशङ्कशाह्नदेव-प्रणीतः संगीतरत्नाकरः चतुरकल्लिनाथ-विरचितया कलानिध्याख्यटीकया सिंहभूपालविरचितया संगीतसुधाकराख्यटीकया च समेत: पञ्चमस्तालाध्यायः नानामागैर्लयो यत्र यतीनां स्यात्कलानिधौ । तं दक्षिणं शिवं नौमि 'चित्रं वृत्तिमयं ध्रुवम् ॥ १ ॥ कलानिधिः प्रबन्धाङ्गत्वेन प्रसक्तं तूर्यत्रयाधिष्ठानभूतं तालं लक्षयिष्यन् तं चात्र विशेषणसाम्यादवगमयन् प्रकरणादाविष्टदेवतां स्तौति-नानामागैरित्यादिना। शिवपक्षे कलाशब्देन शिवाश्रयाः शक्तय उच्यन्ने। यथोक्तं किरणादिप्वागमेषु ; 'चित्रवृत्तिमयमिति सुधाकरपाठ: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: "" निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विद्या शान्तिस्तथैव च । शान्त्यतीतेति संप्रोक्ताः कलाः पञ्चविधा बुधैः ॥ "" : इति । तथान्याः श्वेतादयोऽपि बढ्यः कलास्तत्रैवोक्ताः । ताः सर्वाः कला अस्मिन्निधीयन्त इति शिवः कलानिधिरुक्तः । एवंविधे, यत्र; यस्मिन् शिवे । यतीनाम् ; यमनियमाद्यष्टाङ्गयोग निरतानां मुमुक्षूणाम् । नानामागैः; सांख्ययोगादिभि: बहुभिः प्राप्त्युपायैः । लयः; अन्तर्भावः ; परमात्मना शिवेनैक्यमिति यावत् । स्यात्; भवेत । दक्षिणम् ; दक्षिणामूर्तिम् । अत्र नामैकदेशेन व्यपदेशो द्रष्टव्यः । यथा भीमसेनो भीम इति, सत्यभामा भामेति च । पुनः किंविधम् चित्रम् ; प्रपञ्चाकारतया नानारूपम् । वृत्तिमयम् सविषयज्ञानानि वृत्तिशब्देनोच्यन्ते, तन्मयं तदाकारम् । ध्रुवम् ; निरुपाधिकतया नित्यम् । शिवं नौमीति प्राकरणिकत्वेन वाच्योऽर्थः । एतैरेव विशेषणैर्गम्यमानोऽर्थस्तु कला निधौ ; अत्र कलाशब्देन वक्ष्यमाणा आवापादयो निःशब्दाः ; ध्रुवादयः सशब्दाश्वोच्यन्ते ; तासामाश्रयः । यत्र यस्मिन् ताले; यतीनाम् ; वक्ष्यमाणानां समास्रोतोवहागोपुच्छानाम् । नानामार्गैः; वक्ष्यमाणैः ध्रुवादिभिः । लयो विश्रान्तिर्भवति । मार्गभेदेन दक्षिणादिव्यपदेशभाजं शिवं मङ्गलं तं तालं स्तौमीति । अनेनात्र समासोक्तथलंकार उद्भावितो भवति । " विशेषणसाम्यादप्रस्तुतस्य गम्यत्वे समासोक्ति: ” (अलं. सू. ३१) इति हि तस्य लक्षणम् । अत्र स्तुत प्रस्तुतः शिवः ; तालोऽप्रस्तुतः ॥ १ ॥ सुधाकर: चतुथंऽध्याये प्रबन्धलक्षणमुक्तम् । तेषु तालानामुपयोग उक्तः । एलासु मण्ठद्वितीयकङ्कालप्रतिताला: रासकेऽष्टौ ताला : ; झोम्बडे दश ताला इति । तत्र कोऽयं ताल: ? के तद्विशेषा इत्याकाङ्क्षायां तालान् विवक्षुस्तदुचितं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः Mr अथ ताल:_____ तालस्तलपतिष्ठायामिति धातोर्घति स्मृतः । गीतं वाद्यं तथा नृत्तं यतस्ताले प्रतिष्ठितम् ।। २ ॥ मङ्गलमाचरति-नानामागैरिति । तं शिवं महेशं नौमि स्तौमि । दक्षिणम; दाक्षिण्यवन्तम् ; भक्तेषु 'वत्सलमित्यर्थः । चित्रवृत्तिमयम् ; चित्रा विचित्रा सृष्टिस्थितिसंहारादिकार्यकारिणी वृत्ति: व्यापारः ; तन्मयं तत्प्रचुरम् ; प्राचुर्याथं मयद । श्रान्तस्य प्रयत्ने प्राचुर्यासंभवात् नित्यत्वमेव । ततश्च नित्यप्रयत्नवन्तमित्यर्थः । ध्रुवम ; नित्यम् । तं कम् ? यत्र यस्मिन् । यतीनाम् ; नियमवतां संन्यासिनाम् ; स्वधर्मनिरतानां गृहस्थानामपि । तथाच ; "न्यायागतधनस्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रियः । श्राद्धकृत्सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते ॥" इति श्रुतेः । नानामार्गः'; स्वस्वधर्मरूपवर्त्मभिः । लयः; ध्यानविशेषेण प्रवेशो यस्मिन् ; निलीनत्वम् तत्स्वरूपत्वमिति यावत् । कथंभूते ? यस्मिन् कलानिधौ ; कला चन्द्रकला, तस्या निधिराश्रयः तस्मिन् चन्द्रकलाधारिणीत्यर्थः । अस्मिन्नध्याये तालस्य प्रकृतत्वात् अनेनैव श्लेषश्लोकेन तालव्यवस्थास्थापकमार्गान् स्तौति–तम् ; दक्षिणं चित्रवृत्तिमयं वार्तिकं ध्रुवं चेति चतुर्विधं मार्ग नौमि प्रणमामि | शिवम् ; कल्याणदायकम् । सम्यक् मार्गतालप्रयोगस्य ; 'श्रेयसे व्याहरामहे ' इत्यादिना वक्तुराकाङ्क्षया श्रेयोहेतुत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । यत्र; यस्मिन् मार्ग; यतीनां समास्रोतोवहागोपुच्छानाम् । नानामागें ; नानाप्रकारैरुपलक्षित: ; लय: द्रुतमध्यविलम्बिताख्यो विद्यते यत्र । कलानां तालक्रियाणां निःशब्दानामावापादीनाम् , सशब्दानां ध्रुवादीनां निधानमाश्रय इति ॥ १ ॥ (क०) अधिकारार्थमाह-अथ ताल इति । तालशब्दं व्युत्पादयति-तालस्तलप्रतिष्ठायामित्यादिना। अस्माद्धातोः, “पदरुजविशस्पृशो घञ्' (पा० ३-३-१६) इत्यनुवर्तमाने ; “ अकर्तरि च कारके 1 वदान्यमित्यर्थः Bd. 'प्राचुर्य चात्र प्रयतस्य बहुत्वासंभवान्नित्यत्वमेव । ततश्च नित्यप्रयतत्वमित्यर्थ: Bd. 3 नानामार्गः; शैववैष्णवपाशुपतादिभिः वेदाविरुद्धः Bd. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ संगीतरत्नाकरः कालो लघ्वादिमितया क्रियया संमितो मितिम् । गीतादेविदधत्तालः स च द्वेधा बुधैः स्मृतः ॥ ३ ॥ मार्गदेशीगतत्वेन तत्राद्यस्य क्रिया द्विधा । निःशब्दा शब्दयुक्ता च निःशब्दा तु कलोच्यते ॥ ४ ॥ स्यादावापोsथ निष्क्रामो विक्षेपश्च प्रवेशकः । निःशब्देति चतुर्धोक्ता सशब्दापि चतुर्विधा ।। ५ । ध्रुवः शम्या ततस्तालः संनिपात इतीरिता । संज्ञायाम्" (पा० ३-३-१९) इत्यनेन सूत्रेणाधिकरणेऽर्थे घञ्प्रत्यये विहिते ताल इति रूपम् ॥ २ ॥ ( सु० ) एवं मङ्गलमार चय्य एतस्मिन्नध्यायेऽभिधेयं कथयति — अथ ताल इति । अथ प्रबन्धनिरूपणान्तरं ताला निरूप्यते । कोऽयं ताल: ? इत्यपेक्षायां तालशब्दव्युत्पत्ति तावदाह्-ताळ इति । तलप्रतिष्ठायामितीति । अस्माद्धातोः अधिकरणकारके घञ्प्रत्यये कृते आदिवृद्धौ ताल इति रूपम् । तल्यते प्रतिपाद्यते गीतं नृत्तं वाद्यं च यस्मिन्निति ॥ २ ॥ (क० ) तालस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह- काल इत्यादि । लघ्वादिमितयेति । आदिशब्देन द्रुतगुरुप्लुता यथासंभवं गृह्यन्ते । अत्र यद्यपि लध्वपेक्षया द्रुतस्याल्पत्वात् द्रुतादीति वक्तव्यं लध्वादीति वचनं मार्गदेशीगतोभयतालसाधारण्यायेति मन्तव्यम् । अन्यथा मार्गतालो न लक्षितः स्यात् । तत्र द्रुतप्रयोगाभावादिति भावः । तैः लध्वादिभिः मितया संमितया समीकृतयेत्यर्थः । क्रिययेति ; निःशब्दया सशब्दया चेत्यर्थः । गीतादेरिति ; आदिशब्देन वाद्यनृत्तयोः परिग्रहः । एवंविशिष्टः काल एव मुख्यस्तालशब्दार्थः । कांस्य निर्मितो घनवाद्यभेदस्तु ध्वननेनास्याभिव्यञ्जकत्वात् लक्षणया तथा व्यपदिश्यते । तत्राद्यस्येति ; तत्र; तयोर्मध्ये, आद्यस्य; मार्गगतस्य ॥ ३–५- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः पातः कला तु सा ज्ञेया तासां लक्ष्माभिदध्महे ॥ ६ ॥ आवापस्तत्र हस्तस्योत्तानस्याङ्गुलिकुश्चनम् । निष्क्रामोऽधस्तलस्य स्यादगुलीनां प्रसारणम् ॥ ७ ॥ क्षेपो दक्षिणपार्श्वस्योत्तानस्य प्रस्ताङ्गुलेः।। विक्षेपोऽधस्तलस्यास्य प्रवेशोऽगुलिकुञ्जनम् ॥ ८ ॥ ध्रुवो हस्तस्य पातः स्याच्छोटिकाशब्दपूर्वकः । शम्या दक्षिणहस्तस्य तालो वामकरस्य तु ॥ ९ ॥ उभयोः संनिपातः स्यात्तेपां मार्गवशान्मितिः । मार्गाः स्युस्तत्र चत्वारो ध्रवश्चित्रश्च वार्तिकः ।। १० ।। दक्षिणश्चेति तत्र स्याद् ध्रुवके मात्रिका कला । शेषेषु द्वे चतस्रोऽष्टो क्रमान्मात्राः कला भवेत् ॥ ११ ॥ (मु०) तालस्य लक्षणमाह----काल इति । गीतादेः मितिर्मानं विदधत कुर्वन् काल: ताल इत्युच्यते । नन्वनवच्छिन्नस्य कालस्य कथं तत्परिच्छेदकत्वम्! तत्राह-लघ्वादीति | लवादयो लघुगुरुप्लुतद्रुतादयः ; तै: मिता परिच्छिन्ना या क्रिया वक्ष्यमाणा सशब्दा नि:शब्दा स्वेच्छाकृता वा अनया परिच्छिन्न: कालस्ताल इत्युच्यते । स तालो द्विप्रकार: । मार्गताल:, देशीतालश्चति । तत्र मार्गतालस्य क्रिया द्वैविध्यमाह-तत्रेति । तत्र ; तयोः मार्गतालदेशीतालयामध्ये ; आद्यस्य ; मार्गतालस्य, क्रिया; द्विप्रकारा; नि:शब्द क्रिया सशब्द क्रिया चेति । तत्र निःशब्द क्रिया कलाशब्देनोच्यते | सा चतुर्विधा ; आवापः; निष्क्रामः, विक्षेपः, प्रवेशक इति । सशब्द क्रिया चतुःप्रकारा; ध्रुवः, शम्या, ताल:, संनिपात इति ॥ ३-५-॥ (क०) पातः कला तु सा ज्ञेयेति । सा; सशब्द क्रिया पातः कलेति संज्ञाद्वयेनोच्यते । निःशब्द क्रिया तु कलासंज्ञयैवोच्यत इति तुशब्दस्यार्थः । मार्गवशान्मितिरिति । मितिः ; प्रमाणम् । शेषेष्वित्यादि। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः ध्रुवका सर्पिणी कृष्णा पद्मिनी च विसर्जिता । विक्षिप्ताख्या पताका च मात्रा स्यात्पतिताष्टमी ॥ १२ ॥ सशब्दा तु ध्रुवा ज्ञेया सर्पिणी वामगामिनी । कृष्णा दक्षिणतो गन्त्री पद्मिनी स्यादधोगता ॥ १३ ॥ विसर्जिता वहिर्याता विक्षिप्ताकुश्चनात्मिका । पताका तूर्ध्वगमनात्पतिता करपातनात् ॥ १४ ॥ ध्रुवपाते प्रयोज्यास्ता नावापादौ कदाचन । शेमेषु ; चित्रवार्तिकदक्षिणेषु क्रमात द्वे चतस्रोऽष्टौ मात्राः कला भवेदिति । चित्रे द्वे मात्रे कला । वार्तिके चतस्रो मात्रा: कला । दक्षिणेऽष्टौ मात्राः कला इति क्रमो द्रष्टव्यः ॥ ६-११ ।। (सु०) सा सशब्दक्रिया पातशब्देन कलाशब्देन वाच्यते । तुशब्दान्नि:शब्दक्रिया कलासंज्ञयैवोच्यत इत्यर्थः । तासां लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयतितासामिति । उत्तानस्य हस्तस्य प्रसृताङ्गुलेरङ्गुलिकुञ्चनमावापः । अधस्तलस्याङ्गुलीनां प्रसारणं निष्क्रामः । अस्यैवोत्तानस्य हस्तस्य विस्तारिताङ्गुले: दक्षिणपावं क्षेप: प्रक्षेपो विक्षेप इत्युच्यते । अस्यैव दक्षिणपार्श्वस्थितस्य हस्तस्याधस्तलस्यानुत्तानस्य, अङ्गुलिकुञ्जनम् ; अगुलीनां संकोच: प्रवेशः । छोटिका ; अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुलीतलसंयोगेन शब्दोत्पातनम् ; तच्छब्दवतो हस्तस्याधोनयनं ध्रुव इत्युच्यते । दक्षिणहस्तस्य पात: ; दक्षिणहस्तेन तालिकोत्पातनं शम्या । वामकरण तालिकोत्पातनं तालः । उभाभ्यां तालिकोत्पातनं संनिपात इति। तेषामिति । तेषाम ; आवापादीनाम् । मार्गविशेषेण मानम् । मार्गान्निरूपयति-मार्गा इति । चत्वारी मार्गा भवन्ति। ध्रुवश्चित्रो वार्तिको दक्षिणश्चेति । तत्र ध्रुवमार्ग मात्रा प्रमाणकला । मात्रायाः लक्षणं वक्ष्यति । चित्रे मागे द्वे मात्रे कला | वार्तिके चतस्रो मात्रा: कला । दक्षिणेऽष्टौ मात्रा: कला । इति मार्गविशेषेण मात्राः ॥ ६-११ ॥ (क०) अष्टौ मात्राश्चोद्दिश्य लक्षयति - ध्रुवका सर्पिणीत्यादिना । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः ध्रुवका पतिता चित्रे वार्तिके त्वादिमे उभे ॥ १५ ॥ अन्त्ये द्वे च प्रयोक्तव्ये क्रमादष्टौ च दक्षिणे । ता अष्टौ मात्रा ध्रुवपाते ध्रुवादिपाते ; सशब्दक्रियायामित्यर्थः । नावापादौ कदाचनेति । निःशब्द क्रियायां तु न प्रयोक्तव्या एव । नावापादाविति निःशब्द क्रियाया एव निषेधविषयत्वेनोक्तत्वात् । ध्रुवपात इत्यत्र सामर्थ्यादादिशब्दमध्याहृत्य विधिविषयत्वेन सर्वापि सशब्द क्रिया गृह्यत इति मन्तव्यम् ॥ १२-१४- ॥ ___ (सु०) क्रियाविशेषान् कथयति-ध्रुवकेति । ध्रुवकादयोऽष्टौ मात्रा भवन्ति । मात्रा इति । मात्रा; क्रिया । तासां लक्षणान्याह-सशब्देति । या सशब्दा उच्चार्यते सा ध्रुवा । वामप्रदेशगामिनी सर्पिणी । दक्षिणप्रदेशगामिनी कृष्णा । अधोगता पद्मिनी । या बहिर्याता सा दिनियममन्तरेण शरीररूपवर्तिनी क्रिया विसर्जिता । हस्ताकुञ्चनरूपक्रिया विक्षिप्ता । ऊर्ध्वगामिनी क्रिया पताका | करयोः पातनात् वैकल्प्येनाधानयनात् पतिता | ताः; एता मात्राः; छोटिकाशब्दवती ध्रुवपाते कर्तव्या । आवापादौ न कर्तव्या । एता मात्राः ॥ १२-१४-॥ (क०) ' शेषेषु द्वे चतस्रोऽष्टौ, इति संख्यानियममन्तरेण वचनेन संख्येयमात्राणामनियमेन प्रयोगे प्राप्ते तन्नियमार्थमाह -ध्रुवका पतिता चित्र इत्यादि । आदिमे उभे ध्रुवकासर्पिण्यौ । अन्त्ये द्वे च पताकापतिते च । एवं चतस्रो मात्रा वार्तिके मार्गे तु प्रयोक्तव्या इति क्रमोऽप्यत्र नियम्यते । क्रमादष्टौ च दक्षिण इत्यत्र तु संख्येयानां क्रम एव नियम्यते । ध्रुवमार्गे तु पारिशेष्यात ध्रुवसंज्ञः पात एव प्रयोक्तव्य इत्यवगन्तव्यम् । पारिशेप्यं च ध्रुवव्यतिरिक्तानामेव कलानां, तालेषु प्रयोक्ष्यमाणत्वात् । अन्यथा ध्रुवपातस्य न कापि प्रयोगः । अतस्तत्र ध्रुवकैव मात्रा प्रयोक्तव्यत्येवं मन्यमानेन ग्रन्थकारेण ; 'ध्रुवके मात्रिका Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पश्चलघ्वक्षरोच्चारमिता मात्रेह कथ्यते ॥ १६ ॥ अनया मात्रयात्र स्यात् लघुगुर्वादिकल्पना । कला' इति प्रथममुक्तम् । ध्रुवके ध्रुवमार्गे मात्रिका ध्रुवकेत्यर्थः । प्राथम्यात् ध्रुवपातयोग्यत्वाच्च तस्या एवोपादेयत्वात् ॥ १५ ॥ (सु०) मार्गविशेष नियमयति-ध्रुवकेति । ध्रुवके पतिते द्वे मात्रे चित्रे मागे प्रयोक्तव्ये । वार्तिके माग ध्रुवकासर्पिणीपताकापतिताश्चतस्रो मात्रा: प्रयोक्तव्याः । दक्षिणे माग ध्रुवकादयोऽष्टौ मात्राः प्रयोक्तव्या इति ॥ १५ ॥ (क०) मात्राशब्देनात्रापि ; “निमेषकालो मात्रा म्यात " (भाव. पृ. १९५) इति शास्त्रान्तरे प्रसिद्धायां मात्रायां प्राप्तायां तदपवादार्थमाहपञ्चलध्वक्षरेत्यादि । इद्द ; मार्गतालविषये, मात्रा तु पश्चलघ्वक्षरोच्चारमिता पञ्चानां लघ्वक्षराणाम् ; “ कचटतपाः' इत्येतेषाम् । उच्चारशब्देन उच्चारकालो गृह्यते । तेन मिता संमिता । तत्कालसदृशकालेत्यर्थः । तथाचोक्तं भरतमुनिना; " निमेषाः पञ्च विज्ञेया गीतकाले कलान्तरम् " (नाट्य. ३१. ३) इति । अनया मात्रयात्र लघुगुर्वादिकल्पना म्यादिति । अत्र मार्गतालेषु पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमितेन कालेन गुरुः । आदिशब्देन प्लुतो गृह्यते । तेन पञ्चदशलध्वक्षरोच्चारमितेन कालेन प्लुतः कल्पनीय इत्मर्थः ॥ -१६- ॥ (सु०) मात्राया लक्षणमाह- पञ्चेति । पञ्चानां लध्यक्षराणामुच्चारणे यावत्कालस्तन्मिता तत्कालव्यापिक्रिया मात्रेत्युच्यते । अनया मात्रया अत्र तालप्रकरणे लघुगुर्वादय: कल्पयितव्या: । एकमात्री लघुः ; मात्राद्वयं गुरुः ; मात्रात्रयं प्लुत: ; मात्रार्धे द्रुत इति । अनुद्रुतादयोऽपि भेदा: कैश्चिदुक्ता: । ते भरतादिप्रयोगेषु, प्रन्थे चानुक्तत्वात् लक्ष्येऽप्यप्रसिद्धत्वाचापेक्षिताः । तत्र मतङ्गेन द्वादश ताला उक्ता: । यदाह ; "त्र्यश्रोऽथ चतुरश्रथ द्वावेतावादिसंस्थितौ । तयोश्चच्चत्पुटो युग्मस्ततश्चाचपुट: स्मृतः ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः चतुरश्रस्तथा व्यश्र इति तालो द्विधा मतः ॥ १७ ॥ चच्चत्पुटश्चाचपुट इति नान्नी तयोः क्रमात् । यथाक्षरश्च द्विकलश्चतुष्कल इति त्रिधा ।। १८ ॥ प्रत्येकं तौ नामगतैगलैस्तत्र यथाक्षरः । अयमेककलश्चच्चत्पुटे त्वन्त्यं प्लुतं विदुः ॥ १९ ॥ 5ऽ।ऽ इति यथाक्षरश्चञ्चत्पुटः ॥ऽ।ऽ । इति यथाक्षरश्चाचपुटः । तौ द्वावन्यप्रकारार्थी भिद्यतेऽनेकधा बुधैः । चञ्चत्पुटश्चाचपुट: षपितापुत्रकस्तथा । हेला च त्रिगता चैव संपक्केष्टस्तथैव च । नत्कुटो नत्कुटी चैव खञ्जक: वञ्जिका तथा ॥ आक्रीडिता विलम्बा च भङ्गा द्वादश कीर्तिताः । कुटिलाक्षिप्तिका त्र्यश्रा चतुरश्रा च मिश्रका ॥ चटुला चेति संप्रोक्ता उपभङ्गा पडेव हि ।" इति ।। -१६- ॥ (क०) तस्य मार्गतालस्य भेदौ दर्शयति-चतुरश्र इत्यादिना । नामगतैर्गलैस्तत्र यथाक्षर इति । तत्र ; तेषु मध्ये । नामगतैः ; चच्चत्पुट इति संज्ञां, चाचपुट इति संज्ञां चावयवत्वेन प्राप्तैः । गलैः; गुरुभिलघुभिश्च । गलैरिति गुरूणां लघूनां चाद्यवर्णेन ग्रहणम् । चच्चत्पुटम्तावत चकारभ्य संयुक्तपरत्वेन गुरुत्वात् तालस्याद्यावयवौ गुरू । पकारस्यैकमात्रिकत्वेन लघुत्वात् तृतीयोऽवयवो लघुः । टकारस्य सविसर्गत्वेन गुरुत्वात् चतुर्थस्य गुरुत्वे प्राप्ते ; चच्चत्पुटे त्वन्त्यप्लुतं विदुः इति विशेषवचनाच्चतुर्थावयवस्य प्लुतत्वम् । एवमष्टमात्रिकश्च चच्चत्पुटो यथाक्षर इति भवति । यथाक्षरत्वं च तस्य नामाक्षरानतिक्रमात् । अक्षराणामनतिक्रमो यथाक्षरमित्यव्ययीभावः । यथाक्षरमस्यास्तीति मत्वर्थीयेऽकारप्रत्यये कृते यथाक्षर इति भवति । स्वनामगतगुरुलध्वक्षरानतिवृत्त्या स्वरूपगुरुलघु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः गुरुः कलात्र विकलेऽष्टावाद्येऽन्यत्र षदकलाः । ss SS SS SS इति द्विकलश्चञ्चत्पुटः। SS SS SS इति द्विकलचाचपुटः। ___ चतुष्कलौ तौ द्विगुणौ ssss ssss ssss SSSS इति चतुष्कलश्चच्चत्पुटः । ssss ssss SSSS इति चतुष्कलचाचपुटः । द्विकले द्विकलो मतः ॥ २० ॥ पादभागः कलानां तु चतुष्केण चतुष्कले । पादभागैश्चतुर्भिस्तैर्मात्रा स्यान्मद्रकादिषु ॥ २१ ॥ मान् भवतीत्यर्थः । अयमेककल इति । अयं यथाक्षर एककल इत्युच्यते । प्रतिपादभागमेकैककलायुक्त इत्यर्थः ॥ -१८, १० ॥ (सु०) तत्रैते केवला नोपयोगिन इति मत्वा तानुपेक्ष्य संगीतोपयोगिनस्तावन्मार्गगतान्निरूपयितुं तालविभागमाह-चतुरश्र इति । तालो द्विप्रकार: । चतुरश्रस्त्यश्र इति । तत्र चतुरश्रस्य चच्चत्पुट इति नामान्तरम् । त्र्यश्रस्य च चाचपुट इति । तयो दानाह-यथाक्षर इति । तो चच्चत्पुटचाचपुटौ प्रत्येक त्रिधा | चच्चत्पुट:, यथाक्षर: द्विकल: चतुष्कल इति त्रिप्रकार: । चाचपुटोऽपि, यथाक्षरः अष्टकल: चतुष्कल इति । तत्र यथाक्षरचञ्चत्पुटस्य चाचपुटस्य च लक्षणमाह-नामगतैरिति । मवणेषु वर्तमानैः गुरुलघुभिः यथाक्षरः चच्चत्पुटो भवति । एवं चाचपुटोऽप्ययं यथाक्षर इत्युच्यते, एककल इति च । चच्चत्पुटे त्वन्त्यवर्णस्य गुरुत्वेऽपि वचनात् प्लुत: कर्तव्यः । तत्र मुनिवचनमेव प्रमाणयितुम् ‘विदुः' इत्युक्तवान् । यदाह मतङ्ग:-". . . प्रगुणीकृत्य लघुप्लुतमथान्तिकम्" इति ।। -१८-१९ ॥ (क०) गुरुः कलात्रेति । अत्र एककलद्विकलचतुष्कलशव्देषु कलाशब्देन गुरुरुच्यत इत्यर्थः । अन्यत्र मात्रा कला । ‘लघुर्ल: स्यात् ' इति कलाशब्दस्य लघुपर्यायत्वेनोक्तत्वात् । द्विकलेऽष्टावाद्य इति । द्विकल Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यमस्तालाध्यायः पट्पितापुत्रकस्त्रयश्रभेदः सोऽपि तथा त्रिधा । यथाक्षरे विशेषोऽत्र प्लुतमाद्यन्तयोर्भवेत् ॥ २२ ॥ ११ आधे द्विकलवत् चच्चत्पुटेऽष्टौ कला अष्टौ गुरवो भवन्तीत्यर्थः । अन्यत्र द्विकलचाचपुटे पट्कलाः षड्गुरवो भवन्तीत्यर्थः । तौ चचत्पुटचाचपुटौ द्विगुणt द्विलापेक्षया द्विगुणीकृतौ सन्तौ चतुष्कलावित्युच्येते । अष्टगुरुसंमितो द्विकलचच्चत्पुटो द्विगुणीकृत्य षोडशगुरुसंमितः संश्चतुष्कलो भवति । षड्गुरुसंमितो द्विकलचाचपुटो द्विगुणीकृत्य द्वादशगुरुसंमितः संश्चतुष्कलो भवति । पादभागैरित्यादि । मद्रकादिषु वक्ष्यमाणेषु गीतकेषु गीतेषु च तैर्द्विकलोक्तैश्चतुष्कलोक्तैः चतुर्भिः पादभागैः मात्रा स्यात् । पारिभाषिकी मात्रा भवेत् ॥ २०, २१ ॥ (सु० ) द्विकलौ चञ्चत्पुटचाचपुटौ लक्षयति — गुरुरिति । अत्र चच्चत्पुटे च द्विकले द्विकलो गुरुः कर्तव्यः । आद्ये चाचपुटे अष्टौ कलाः । गुरुद्वयस्य चतस्रः, लघोरेका, प्लुतस्य तिस्रः, एवमष्टौ । अन्यत्र चाचपुटे षट्कला :, गुरोर्दे, लघुद्वयस्य द्वे, पुनरपि गुरोर्द्व, एवं षट् । ततश्चाष्टौ गुरवो द्विकलश्चचत्पुटः । षड्गुरवो द्विकलश्चाचपुटः । चतुष्कलौ तौ लक्षयति - चतुष्कलाविति । चच्चत्पुटचाचपुटौ द्विकलद्विगुणौ चतुष्कलौ भवतः ततश्च षोडश गुरवः चतुष्कलश्च चच्चत्पुट: । द्वादशगुरवः चतुष्कलश्चाचत्पुटः । द्विकल इति । द्विकले चञ्चत्पुटे च द्विकलद्वयेन पादभागः । चतुष्कले चतुष्केण पादभागः । ततश्च द्विकलयोरेतयोः गुरुद्वयेनैकपादः । चतुष्कल्यो : गुरुचतुष्केणैव पाद: । एवंविधाश्चत्वारः पादाश्रचत्पुटे । त्रयश्च चाचपुटे । अत एव तयोः क्रमेण चतुरश्रत्वं त्र्यश्रत्वं च । पादभागप्रसङ्गेन मद्रकादिगतं विशेषेणाह - पादभागैरिति । मद्रकादिषु तैश्चतुर्भिः पादभागैरेका मात्रा । एवं त्रिमात्रापदान्यनुपदमेव वक्ष्यते ॥ २०, २१ ॥ (क० ) षटूपितापुत्रक इत्यादि । त्र्यश्रभेदः ; चाचपुटभेदः ॥ २२-२४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः SISSI S इति यथाक्षरः पितापुत्रकः । द्विकले द्वादश कलाः ss ss ss SS SS SS इति विकल: पपितापुत्रकः। द्विगुणस्तु चतुष्कले । Ssss ssss ssss ssss ssss ssss इति चतुष्कल: पपितापुत्रकः । उत्तरः पञ्चपाणिश्च तस्य संज्ञाद्वयं परम् । उद्घट्टोऽपि व्यश्रभेदः स प्रस्तारे यथाक्षरः ॥ २३ ॥ SSS इति यथाक्षरोट्टः । SS SS SS इति द्विकलोट्टः । Ssss ssss SSSS इति चतुष्कलोट्टः । संपकेष्टाकोऽपि भेदः पितापुत्रकस्य सः । तद्वद्यथाक्षरः कार्यः प्लुतमाद्यन्तयोर्भवेत् ॥ २४ ॥ 5 Ssss इति यथाक्षरः संपकेष्टाकः । (मु०) पपितापुत्रकं लक्षयति-पितापुत्रक इति । त्र्यश्रस्य चाचपुटस्यैव भेद: । पदपितापुत्रकमाह-सोऽपीति । सोऽपि तथा चाचपुटवत् त्रिधा ; यथाक्षर: द्विकल: चतुष्कल इति । तत्र नामगलै: गुरुभि: यथाक्षरः । परं तु आद्यन्तयोः गुर्वोः प्लुतत्वम् ; प्लुतः, लघुः, गुरुद्वयम् ; लघुप्लुतश्चेति यथाक्षरषपितापुत्रकः । तदुक्तं संगीतचूडामणौ-"पलगा गलपाश्चैव षपितापुत्रके मता:" इति । द्विकल इति । पपितापुत्रके द्वादश कलाः । प्लुतद्वयस्य चतस्रः ; लघुद्वयस्य द्वे ; एवं द्वादश कलाः । 'गुरुः कलात्र विकले' इत्युक्तेन अन्ये च न गुरवः कर्तव्याः । ततश्च द्विगुरिति पादभागैर्युक्तः । द्वादशगुरुभिः द्विकल: घपितापुत्रकः । द्विगुण इति । चतुष्कले पपितापुत्रके द्विकलो द्विगुणश्च विंशतिः कला: गुग्व: कर्तव्याः । ततश्च चतुर्भि: गुरुभि: षड्भिः पादैर्युक्ता: चतुर्विशतिगुरवः । चतुष्कल: पितापुत्रकः । उत्तर इति । तस्य घपितापुत्रकस्य उत्तर: पञ्चपाणिश्चेत्यन्यन्नामद्वयम् । उद्घट्ट लक्षयतिउद्धट्टोऽपीति । संपक्केष्टाकस्ताल: पपितापुत्रस्य त्र्यश्रभेद: सः तद्वत् षट्पिता Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः एतौ स्वयोनिवत्स्यातां द्विकलौ च चतुष्कलौ । SS SS SS SS SS SS इति द्विकलः संपक्केष्टाकः। SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS इति चतुष्कलः संपक्केष्टाकः। अन्यद्भेदत्रयं चाचपुटेऽप्यस्ति चतुष्कलात् ।। २५ ॥ द्विगुणद्विगुणत्वेन पण्णवत्यवधि क्रमात् । ssss ssss ssss ssss ssss ssss इत्येको भेदः । SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS ssss ssss SSSS SSSS इति द्वितीयो भेदः । SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS SSSS इति तृतीयो भेदः। एषां पातकलायोगं श्रेयसे व्याहरामहे ।। २६ ।। पुत्रको यथाक्षरः, अक्षरगतैः गुरुभिः कार्य: । परंतु आद्यन्ताक्षग्यो: प्लुतत्वम् । तत्र प्लुत: गुरुत्रयः प्लुतश्चेति यथाक्षर: संपवष्टाकः ॥ २२-२४ ॥ (क०) एतौ स्वयोनिवदिति । एतौ; उद्घट्टसंपक्केष्टाकौ । स्वयोनिवत ; उद्धट्टस्य योनिः कारणम् चाचपुटः, संपक्केष्टाकस्य योनिः कारणम् षपितापुत्रकः, तद्वदित्यर्थः । चतुष्कलात द्विगुणद्विगुणत्वेनेति । चतुष्कलात् द्वादशकलात्मकात् चाचपुटात् द्विगुणः चतुर्विशतिकलः प्रथमो भेदः । तस्मात् द्विगुणोऽष्टाचत्वारिंशत्कलो द्वितीयो भेदः । तस्मात् द्विगुणः षण्णवतिकलस्तृतीयो भेदः । एषामित्यादि । एषां पञ्चानामपि चच्चत्पुटादीनां तालानां पातकलायोगम् ; पाताः सशब्दाः ध्रुवादयः ; कला: निःशब्दा आवापादयः ; ताभिः पातकलाभिः योगः संबन्धः ॥२५,२६॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ संगीतरत्नाकरः आद्यवर्णैः पातकला निःशङ्कः पर्यभाषत । चच्चत्पुटे त्वेककले संशताशं यथाक्रमम् ॥ २७॥ S SIS संश ता शं । यद्वा शताशता तालः शम्या वा द्विर्भवेदिह । SSS SSS शता श ता; ताश ताश । आसारितादौ शम्यादिस्तालादिः पाणिकादिषु ।। २८ ।। इत्येककलचच्चत्पुटकलाविधिः । (मु०) एताविति । एतौ; उद्घट्टकसंपक्केष्टाकौ । स्वयोनित् द्विकलचतुष्कलौ च कार्यो । तत: चाचपुटवत् पड़ गुरुः द्विकलोट्टकः ; द्वादशगुरुः चतुष्कलोट्टकः । घपितापुत्रकवत् द्वादशगुरुः द्विकलसंपक्वेष्टाकश्च ; विंशतिगुरु: चतुष्कल: संपक्केष्टाकः । मतान्तरमाह--अन्यदिति । चाचपुटे अन्य भेदत्रयं विद्यते; मुनेः भरतस्य मतात् । तदेव लक्षयति-चतुष्कलादिति । चतुष्कलद्वादशगुरोः चाचपुटात् पुनः पुनः द्वैगुण्येन घण्णवतिपर्यन्तं भेदत्रयं भवति । ततश्चतुर्विशतिगुरुरेको भेद: । अष्टाचत्वारिंशद्गुरुरेकः । षण्णवतिगुरुरेक इति । ननु पितापुत्रकात् प्रथमस्येको भेदः, उच्यते ; चतुष्कले चतुर्गुरुरेव पादभाग: । अत्र पादभागनियमो नास्तीति भेदः । अथवा पातकलायोगेन भेद इति संतोष्टव्यम् । एतेषां तालानां पातकलायोगफलमाहएषामिति । पाता:, सशब्दतालक्रिया ध्रुवादयः ; कलाः, निःशब्दतालक्रिया आवापादयः ; ताभ्यां तालेन योगनियमेन संबन्धः ; तम् । श्रेयये धर्माय कथयामः ॥ २५, २६ ॥ (क०) संशताशमिति । द्वन्द्वैकवद्भावः । आसारितादाविति । आसारितं नाम मद्रकादिप्वेकं गीतम् । पाणिकमपि तथा ॥ २७, २८ ॥ (सु०) आद्यवर्णैरिति । पातकाला आद्यवगैरेव ज्ञातव्या इति निःशङ्कः शार्ङ्गदेव: पर्यभाषत परिभाषामकार्षीत् । चञ्चत्पुट इति । एककले चच्चत्पुटे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः अन्य दद्वयं चाचपुटेऽप्यस्ति मुनेर्मतम् । S S SIS शता श ता; ताश ताश । इत्येककलचाचपुटकलाविधिः । उत्तरे सं ततस्तालः शतालौ द्विरनन्तरम् ।। २९ ॥ SISSIS स ताश ता श ता । इत्येककलपपितापुत्रककलाविधिः । निशौ निताशप्रविशं द्विकले युग्मके मताः । SS SS SS SS निश निता शप विशं ___ इति द्विकलचच्चत्पुटकलाविधिः । निशौ ताशौ निसमिति ज्ञेयाश्चाचपुटे क्रमात् ॥ ३० ॥ រ इति द्विकलचाचपुटकलाविधिः । निप्रताशनितानिशतापनि तथोत्तरे । ___इति द्विकलपपितापुत्रककलाविधिः । क्रमेण संशताशा स्युः । यथाक्रमम ; ध्रुवशम्यातालसंनिपातानामावापनिष्क्रामविक्षेपप्रवेशकानि क्रम आद्यन्तराणि विनियोजकानीति ज्ञातव्यानि । तथाच प्रथमे गुरौ संनिपातः ; द्वितीये गुगै शम्या । विकल्पेनान्यथा वा । लघुनि ताल:; प्लुते शम्या । पक्षान्तरं कथयति --यद्वेति । शताशतेति । प्रथमगुमगै शम्या ; द्वितीयगुगै ताल: ; लघुनि शम्या ; प्लुते ताल: । तालः शम्या वेति । अथवा यथाक्षरे चच्चत्पुटे प्रथमगुगै ताल: ; द्वितीयगुगै शम्या ; लघुनि ताल: ; प्लुते शम्या इत्येककलचच्चत्पुटकलाविधिः ॥ २७, २८ ॥ (क०) अन्य दद्वयमिति । शताशतेत्येको भेदः शताशे निश ताश निस Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः आदावधिक आवापे क्षिप्ते विक्षेपकेऽन्तरा ।। ३१ ।। त्यपरः। द्विकले युग्मक इति । द्विकलचच्चत्पुटे चच्चत्पुटस्य चतुरश्रत्वेन समत्वात् युग्मक इति संज्ञान्तरम् । उत्तरे ; षपितापुत्रके ॥ २९, ३० ॥ (सु०) चच्चत्पुटवत् पातकलाविधिं कथयति-अन्यदिति । एककलचच्चत्पुटे यदुक्तं पातकलाविधौ प्रकारत्रयम् , तत्रान्यत् प्रकारद्वयं शताशता ताशताशेति तच्चाचपुटेऽपि बोध्यम् । मुनेर्मतमिति । मुनिग्रहणं प्रशंसार्थम् । न तु स्वमतमित्यन्यथाख्यापनार्थम् । ततः चाचपुटे प्रथमगुरौ शम्या ; लघुनि ताल: ; द्वितीयलघुः शम्या ; अन्त्यगुरौ तालः; अथवा प्रथमगुरौ ताल:; लघुनि शम्या ; द्वितीयलघुनि ताल:; अन्त्यगुरौ शम्या इत्येककलचाचपुटकलाविधिः । षपितापुत्रककलाविधिं कथयति–उत्तर इति । उत्तरे; पितापुत्रके । सताशताशतेति । प्रथमप्लुते संनिपातः; लघुनि तालः; ततोऽनन्तरम् , गुरुद्वये क्रमात् शम्यातालौ ; ततो लघुनि शम्या ; प्लुते शम्या इत्येककलपितापुत्रकः । निशाविति | द्विकले युग्मके इति । चन्चत्पुटे ; निशौ निताशप्रविशमिति । प्रथमगुरौ निष्क्रामः ; द्वितीयगुरौ शम्या ; तृतीयगुरौ निष्क्रामः ; चतुर्थगुरौ ताल: ; पञ्चमगुरौ शम्या ; षष्ठगुरौ प्रवेशः; सप्तमगुरौ विक्षेपः ; अष्टमगुरौ शम्या इति द्विकलचच्चत्पुटकलाविधिः । द्विकलचाचपुटकलाविधिं कथयति-निशाविति । चाचपुटे ; निशताशनिसमिति । प्रथमगुरौ निष्क्रामः ; द्वितीये शम्या ; तृतीये ताल: ; तुर्ये शम्या ; पञ्चमे निष्क्रामः ; षष्ठे संनिपात इति द्विकलचाचपुटकलाविधिः । द्विकल पितापुत्रककलाविधिमाह-निप्रेति । निप्रताशनितानिशताप्रनिसमिति । प्रथमगुगै निष्क्रामः ; द्वितीयगुरौ प्रवेशः; तृतीयगुरौ ताल: ; तुयें शम्या; पञ्चमे निष्क्रामः ; षष्ठे तालः ; सप्तमे निष्क्रामः ; अष्टमे शम्या ; नवमे ताल:; दशमे प्रवेशकः; एकादशे निष्क्रामः ; द्वादशे संनिपात इति द्विकलपितापुत्रककलाविधिः ॥ २९, ३०- ॥ (क०) एवमेककलेषु पातकलायोगं, द्विकलेषु पातकलायोगं च दर्शयित्वा चतुष्कलेप्वपि पातकलायोगं दर्शयितुमाह-- आदावधिक इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १० द्विकले पादभागः स्यात्पादभागश्चतुष्कले । SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विश आनिविता आशाविप आनिविसं । इति चतुष्कलचच्चत्पुटकलाविधिः । SS SS SS SS SS SS आनिविश आताविश आनिविसं इति चतुष्कलचाचपुटकलाविधिः । SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविप्र आताविश आनिविता आनिविश SSSSSSSS आताविप आनिविर्स इति चतुष्कलपपितापुत्रककलाविधिः । द्विकले पादभागे उक्तप्रकारेण पातकलायुक्तो गुरुद्वयात्मक आदावावापे निःशब्द क्रियाभेदेऽधिके सति विक्षेपके तद्भेदान्तरे ; अन्तरा; मध्ये क्षिप्ते सति चतुष्कले पादभागः स्यात् । आवापविक्षेपगुरुद्वयाधिक्यादित्यर्थः । द्विकले चच्चत्पुटे तावत् निशाविति द्विकलः पादभागः । तस्योक्तप्रकारेण कलाद्वयान्तरयोगे सत्यानिविशेति चतुष्कलचच्चत्पुटे चतुष्कल: प्रथमः पादभागः स्यात् । वितेति द्वितीयः पादभागः । तस्याप्येतत्कलाद्वययोगे सत्यानिवितेति चतुष्कल: स्यात् । शप्रेति तृतीयः पादभागः । तस्यापि कलाद्वययोगे सत्यानिविसमिति चतुष्कलः स्यात् । एवं चाचपुटादिष्वपि योजनीयम् ॥ ३१॥ __(मु०) एतेषु चतुष्कलेषु कलाविधिं कथयति-आदाविति । द्विकल: द्विकलसंबन्धी पादभागः चतुष्कले ज्ञातव्यः । आदौ ; अधिके आवापे क्षिप्ते सति ; अन्तरा; मध्ये अधिके विक्षेपे क्षिप्ते सति ; ततश्चतुष्कले चच्चत्पुटे प्रथमगुरौ आवापः ; द्वितीयगुरौ निक्रामः ; तृतीये विक्षेपः ; चतुर्थ शम्या ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः प्रथमे पादभागे स्यात्कलागुल्या कनिष्ठया ॥ ३२ ।। तया चानामयान्यत्र ताभ्यां मध्यमया तथा । तृतीये स्याञ्चतसृभिस्तुर्ये चच्चन्पुटस्य तु ।। ३३ ।। ओजस्य पादभागेषु कला मध्यागुलीं विना । पञ्चपाणेः कनिष्ठादिचतुष्केण कनिष्ठया ॥ ३४ ॥ तर्जन्या च पृथक्पादभागषट्के क्रमात्कलाः । पञ्चमे आवापः ; षष्ठे निष्क्रामः ; सप्तमे विक्षेपः ; अष्टमे ताल: ; नवमे आवापः; दशमे शम्या; एकादशे विक्षेपः ; द्वादशे प्रवेशकः; त्रयोदशे आवापः; चतुर्दशे निक्रामः ; पञ्चदशे विक्षेपः ; षोडशे संनिपात इति चतुष्कलचच्चत्पुटकलाविधिः । चतुष्कले चाचपुटे तु-प्रथमगुरौ आवापः; द्वितीयगुरौ निष्क्रामः ; तृतीये विक्षेपः; चतुर्थे शम्या; पञ्चमे आवापः ; षष्ठे ताल: ; सप्तमे विक्षेपः ; अष्टमे शम्या ; नवमे आवापः; दशमे निष्क्रामः ; एकादशे विक्षेपः ; द्वादशे संनिपात इति चतुष्कलचाचपुटकलाविधिः । चतुष्कले षपितापुत्रके चतुर्विंशतिसंख्याकेषु गुरुषु प्रथममारभ्य क्रमेण आवापनिष्क्रामविक्षेपादयः कर्तव्याः ॥ ३१ ॥ (क०) प्रथमे पादभागे स्यादित्यादिना । अन्यत्रेति । द्वितीये पादभागे । ओजस्येति । चाचपुटस्य व्यश्रत्वेन विषमत्वात् ओज इत्युच्यते । तस्य पादभागेषु त्रिषु मध्यागुली विना कला स्यात् । चाचपुटस्य प्रथमादिषु त्रिपु पादभागेषु कनिष्ठानामिकातर्जनीभिः क्रमेण कलाः कार्येत्यर्थः ॥ ३२-३४- ॥ (सु०) चच्चत्पुटे पादभागे अगुलिनियममाह-प्रथमेति । चच्चत्पुटस्य प्रथमे पादभागे एकया कनिष्टिकया अगुल्या कला निःशब्द क्रिया धारयितव्या । द्वितीये पादभागे तया कनिष्ठिकया अनामिकया च मिलिताभ्यां कनिष्ठिकानामिकाभ्यां कलाधारणम् । तृतीये पादभागे कनिष्ठिकानामिकामध्यमाभिः कलाधारणम् । चतुर्थे चतसृभिरगुलीभिः । ओजस्येति । ओजस्य ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः आवापादिः प्रयोक्तव्यो भाविपातस्य पाणिना ॥ ३५ ॥ पातयुक्ते पादभागे नागुल्या क्रियते कला । उद्धट्टे तु सनिष्क्रामं शम्याद्वन्द्वं च योजयेत् ॥ ३६ ॥ इत्येककलोद्धट्टकलाविधिः । चाचपुटस्य त्रिषु पादभागेषु मध्यमाङ्गुलिं विना कलाधारणम् । प्रथमे पादभागे कनिष्ठया; द्वितीये कनिष्ठानामिकाभ्याम् ; तृतीये कनिष्ठानामिकातर्जनीभिः । षपितापुत्रकास्याङ्गुलिनियममाह- पञ्चपाणेरिति । कनिष्ठादिचतुष्केण पूर्वोक्तप्रकारेण कनिष्ठया तर्जन्या च पृथक्पादभागेषु कला धारयितव्या । प्रथमे पादभागे कनिष्ठया ; द्वितीये कनिष्ठिकानामिकाभ्याम् ; तृतीये कनिष्ठिकानामिकामध्यमाभिः। चतुर्थे चतसृभिः ; पञ्चमे कनिष्ठया ; षष्ठे तर्जन्येति ॥ ३२-३४-॥ (क०) भाविपातस्य पाणिनेति । भावी चासौ पातः शम्यादिः; तस्य भाविपातस्येति संबन्धे षष्ठी। तत्संबन्धेन पाणिना दक्षिणादिना शम्याया दक्षिणेन तालस्य वामेन संनिपातस्य वामदक्षिणेनेत्यर्थः । तेन पाणिना पूर्वमामापादिः प्रयोक्तव्यः । पातयुक्त इति । शम्यादियुक्ते । अगुल्या कला न क्रियत इति । अगुलीपातमात्रेण क्रियायाः सशब्दत्वानभिव्यक्तेरिति निषेधस्य तात्पर्यम् । तत्र सकलेन पाणिना पातः कर्तव्य इति भावः ॥ ३५, ३६ ॥ आवापादि निःशब्द क्रियाविशेषा एवाङ्गुलिनियमेन 'कर्तव्य इत्यत आह-आवापादिरिति । पातः सशब्द क्रियाविशेषः । पाणिना सर्वेणैव करेण कर्तव्यः । ततश्च यस्मिन् पादभागे सशब्दक्रिया विद्यते, तत्र अङ्गुल्या क्रिया न कर्तव्येति । उद्घट्टकलाविधिं कथयति-उद्घट्टेति । प्रथमे गुरौ निष्क्रामः । अन्ते गुरुद्वये शम्येति ॥ -३५, ३६ ॥ 'प्रयोक्तव्य: Bd. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः संपक्केष्टाकस्य कलाः पितापुत्रकोदिताः। संनिपातस्तु नास्त्यत्र योनिवद् द्विकलादिके ॥ ३७ ।। SSSSS ताशता शता इत्येककलसंपकेष्टाककलाविधिः । भेदद्वयेऽस्योद्घट्टाख्यतालस्य च कलाविधिः । S ताशन इति द्विकलोट्टकलाविधिः । SS SS SS SS SS SS आनि विश आता विश आनि विसं । इति चतुष्कलोट्टकलाविधिः । SS SS SS SS SS SS. निप्र ताश निता निश ताप निसं इति द्विकलसंपक्केष्टाककलाविधिः । ssssssssss आनि विप्र आताविश आनिविता आनिविश आताविप्र आनि विर्स इति चतुष्कलसंपक्केष्टाककलाविधिः । (क०) योनिवत् द्विकलादिक इत्यादि । अस्येति । संनिहितस्य संपक्केष्टाकस्य उद्धट्टाख्यतालस्य च द्विकलादिके भेदद्वये द्विकलचतुष्कलयोरित्यर्थः । कलाविधिः; कलानां निःशब्दानां सशब्दानां च विधि: विधानम् , योनिवत् संपक्केष्टाकस्य योनिः कारणं षपितापुत्रकः । उद्घट्टस्य योनिः कारणं चच्चत्पुटः । द्विकलचतुष्कलयोः तयोः गुरुषु पूर्व यः पातकलायोग उक्तः, स एवानयोरपि कर्तव्य इत्यतिदेशार्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः गान्धर्वमार्ग कुशलः कांस्यतालधरोऽपरः ॥ ३८ ॥ गातुः सहायः कर्तव्यः प्रमादविनिवृत्तये । २१ ; ननु चैककलादिषु तालभेदेषु शम्यादिपातत्रयस्यैव योगो दर्शितः । ध्रुवपातस्य तु योगो न क्वचिदपि दर्शितः । अतस्तदुद्देश लक्षणे निरर्थके स्यातामिति चेत्, न ; तस्य ध्रुवमार्गे प्रयोज्यत्वेन सार्थकत्वात् । तथाहि ; एकमात्रिक कलासंमितस्य ध्रुवमार्गस्य चित्रादिमार्गेष्वनुस्यूतत्वेन यदा गाता गीतादिकं ध्रुवमार्गेण योजयितुमिच्छति तदा ध्रुवपातः प्रयोक्तव्य इति मन्तव्यम् । अतस्तयोः पातमार्गयोः कूटस्थत्वेन सकलतालानपायात् नित्यतया ध्रुवत्वमवगन्तव्यम् । अत एव पृथक्प्रयोगोऽपि न दर्शितः । दर्शयिष्यते चोपोहनेषु ध्रुवपातस्य प्रयोगः । मतान्तरोक्ते ध्रुवासारिते यथाक्षरासारिते च ध्रुवमार्गस्यापि प्रयोगश्च ; अतः तदुद्देशलक्षणयोः आनर्थक्यं नाशङ्कनीयम् ॥ ३७ ॥ (सु० ) संपक्केष्टाकस्येति । षपितापुत्रके उक्ताः कलाः संपक्केष्टा के ज्ञातव्याः । केवलमस्य संनिपातो नास्ति । योनिवदिति । अस्य संपक्केष्टाकस्य उद्घट्टस्य च द्विकले चतुष्कले च भेदद्वये योनिवत् स्वकारणवत् कलाविधिः । द्विकले चतुष्कले चोट्टे द्विकल चतुष्कलचा चपुटवत् कलाविधिः । द्विकले चतुष्कले च संपक्केष्टा के द्विकलचतुष्कलषपितापुत्रकवत् कलाविधिरिति ॥ ३७॥ " (क०) गान्धर्व इत्यादि । वक्ष्यमाणानि मद्रकादीनि चतुर्दश गीतानि प्रागुक्ताः । षाड्ज्यादिजातयो ग्रामरागादयश्च षडिधा रागा गान्धर्वशब्देनोच्यन्ते । तस्मिन् गान्धर्वे मार्गे कुशल: ; चित्रादिमार्गेषु कुशल:, कांस्यतालधरः अपरः गातुः सहायः इत्यनेनापि गातृत्वं प्रतीयते । तत्सहायकरणे प्रयोजनमाह - प्रमादविनिवृत्तय इति । अयमर्थः -- गान्धर्व - स्यात्यन्तनियतत्वेनादृष्टफलसाधनत्वात् । गान्धर्वप्रयोगे मुख्यो गाता अङ्गुलि - Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः युग्मस्य ये त्रयो भेदाः षड्वायुग्मस्य कीर्तिताः ।। ३९ ॥ तेषामन्योन्यसंसर्गात्संकीर्णा बहवो मताः । अन्ये पश्चैव संकीर्णान् गान्धर्वेऽभिदधुर्बुधाः ॥ ४० ॥ पश्च सप्त नवापि स्युर्दशैकादश तत्कलाः । तालाश्चत्वार इत्यन्ये चतुर्दशकलादिकाः ॥ ४१ ॥ चच्चत्पुटादिभेदास्तु सन्ति खण्डाभिधाः परे । देशीतालप्रपश्चेन तानपि व्याहरामाहे ।। ४२ ॥ नियमादिकं कुर्वन् गायेत् । द्वितीयो गाता कांस्यतालधरः सन् यथा प्रमादो न जायेत तथा मुख्यगातुः साहाय्यकं कुर्यादिति । अन्यथा प्रमादे सति न केवलमदृष्टफलाभावः ; किं तु प्रत्यवायोऽपि भवतीति भावः ॥ -३८- ।। ___ (सु०) एवं मार्गतालस्वरूपं कलाविधिं च कथयित्वा तालधारणप्रकारं प्रतिज्ञाय कथयति-गान्धर्व इति । गान्धर्वे शुद्धगानमार्गज्ञः कश्चन कांस्यघटिततालरी च गायकस्य सहायभूतः कर्तव्य: ; गानव्यग्रतया तालस्खलनप्रमादनिवृत्त्यर्थम् ॥ -३८-॥ ___ (क०) युग्मस्येत्यादि । युग्मस्य चच्चत्पुटस्य ये त्रयो भेदाः; एककलद्विकलचतुष्कलाख्याः । अयुग्मस्य ; चाचपुटस्य षड्भेदा एककलद्विकलचतुष्कलास्त्रयः, ततोऽपि द्विगुणगुणास्त्रयश्च । तेषामिति । पूर्वोक्तानां नवानां भेदानाम् । तत्कला इति । तेषां संकीर्णानां कला गुरुरूपाः । चतुर्दशकलादिका इति । चतुर्दशगुर्वात्मक एको भेदः । पञ्चदशगुर्वात्मको द्वितीयः । षोडशगुर्वात्मकस्तृतीयः । सप्तदशगुर्वात्मकश्चतुर्थः । एवं चत्वारः संकीर्णका इत्यन्ये वदन्ति । चच्चत्पुटादिभेदास्त्विति । आदिपदेन चाचपुटादयो गृह्यन्ते । तेषां भेदाः; आदौ चच्चत्पुटादेः स्वरूपं लिखित्वा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ तदधस्तात्, 'न्यस्याल्पमाद्यान्महतः' इत्यादिना वक्ष्यमाणेन प्रकारेण प्रस्तारे कृते सति ये भेदा उत्पद्यन्ते ते खण्डाभिधाः खण्डतालसंज्ञा: । देशीतालप्रपञ्चेनेति । देशीतालविस्तारेण । तानपीति । तेषु कांश्चिदित्यर्थः । व्याहरामह इति । " वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा " (पा. ३-३-१३१) इति लटः प्रयोगः । " अस्मदो द्वयोश्च " ( पा. १-२-५९) इति बहुवचनप्रयोगश्च । एवं सकलास्तालाः चतुरश्रत्र्य श्रसंकीर्णखण्डभेदेन चतुर्विधा उक्ताः । मिश्रत्वेनान्यो भेदो मुनिना अभिहितः । यथा पश्यमस्तालाध्यायः " अनयोर्मिश्रभावाच्च मिश्रस्तालः प्रकीर्तितः । षट्पितापुत्रकश्चैव पञ्चपाणिः स चेप्यते । " (नाट्य० ३१-१२, १३) इति ; " तालादि मिश्रभेदेऽन्यः संपक्केष्टाकसंज्ञितः 39 ( ,,, ३१-२२) इति च । तन्मते षट्पितापुत्रकसंपक्केष्टा कौ मिश्रौ । अतस्तद्भेदा मिश्रत्वेनावगन्तव्याः । ग्रन्थकारेण तु तन्मतानुसारिणा तावपि यभेदत्वेोक्तौ । अतोऽनेन चातुर्विध्यमेव दर्शितम् ॥ ३९-४२॥ (सु०) संकीर्णास्तालान्निरूपयति-- युग्मस्येति । युग्मस्य चच्चत्पुटस्य ये त्रयो भेदाः, एककलो द्विकलश्चतुष्कल इति । अयुग्मस्य चाचपुटस्य षद; एककलो द्विकलश्चतुष्कल इति त्रयः ; मुनिना मतङ्गेन च त्रयः प्रोक्ताः ; चतुर्विंशतिगुरुः ; अष्टाचत्वारिंशद्गुरुः ; षण्णवतिगुरुश्चेति; एवं षट् । तेषां नवानां भेदानामन्योन्यसंकरवशेन संकीर्णा बहवो मताः । तदुक्तं भरतेन ; " तालो धन इति प्रोक्तः कलापातलयान्वितः । कालस्तस्य प्रमाणं हि विज्ञेयं तालयोक्तृभिः || ” ( नाट्य० ३१-१) इति । मतान्तरमाह – अन्य इति । गान्धवं मार्गे गीते पचैव संकीर्णास्ताला इति । तानेव लक्षयति — पश्चेति । एकः पञ्चकलः ; एकः सप्तकल: ; एको नवकलः ; एको दशकलः ; एक एकादशकलश्चेति । केचिच्चत्वारस्ताला इत्याहुः । तान् लक्षयति-ताला इति । एकश्चतुर्दशकलः ; अन्यः पञ्चदशकलः ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ संगीतरत्नाकरः आवृत्तिः पादभागादेः परिवर्तनमिष्यते । विश्रान्तियुक्तया काले क्रियया मानमिष्यते ।। ४३ ॥ क्रियानन्तरविश्रान्तिर्लयः स त्रिविधो मतः ।। द्रुतो मध्यो विलम्बश्च द्रुतः शीघ्रतमो मतः ।। ४४ ॥ द्विगुणद्विगुणो ज्ञेयो तस्मान्मध्यविलम्बितौ । मागेभेदाच्चिरक्षिप्रमध्यभावैरनेकधा ॥ ४५ ॥ लयोऽक्षरे पदे वाक्ये योऽसौ नात्रोपयुज्यते । षोडशकलः; सप्तदशकलश्चेति । चञ्चत्पुटादिभेदास्त्विति। चच्चत्पुटादीनां पूर्वोक्तानां नवानां खण्डाख्या भेदाः सन्ति ; ता: देशीतालेषु वक्ष्यामः । प्रपञ्चेन, विस्तरेणेति ॥ -३९-४२ ॥ (क०) अथ तालानां परिवर्तादीन् लक्षयति---आवृत्तिरित्यादि । 'पादभागादेः' इत्यादिशब्देनावयवी तालो गृह्यते । तस्य आवृत्तिः अभ्यास:; पुनः पुनः करणमिति यावत् । परिवर्तनमिति लक्षणीयं पदम् । विश्रान्तियुक्तयेति । विश्रान्तिः क्रियाविरतिः, तद्युक्तया । काले क्रियया; काले पञ्चलघ्वक्षरोच्चाराद्युपहिततपनपरिस्पन्दोपाधिभेदभिन्ने द्रव्यविशेषे क्रियया पूर्वोक्तया निःशब्दया सशब्दया वा । मानम् ; तालानां प्रमाणम् ; इष्यते; इष्टं भवतीत्यर्थः ॥ ४३ ॥ (सु०) “कलापातलयान्वित ; ताल: कालः" इत्युक्तम् । तत्र किमिदमिह कलापातादिलयप्रसिद्धमित्यपेक्षायामाह-आवृत्तिरिति । पादभागाः पूर्वमुक्ताः । चच्चत्पुटे चत्वारः ; चाचपुटे त्रयः ; आदिशब्देन लघुगुरुप्लुताः । तेषां परिवर्तनम् ; एकं समाप्यान्यस्यारम्भ आवृत्तिरित्युच्यते । केचित् विश्रान्तियुक्तया काले तालरूपक्रियया मानमित्युच्यते ॥ ४३ ॥ (क०) क्रियानन्तरविश्रान्तिरिति । क्रियायाः पूर्वोक्ताया अनन्तरा संनिहिता या विश्रान्तिः विरतिः स लय इत्युच्यते । द्रतः शीघ्रतमो मत Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः २५ इति । क्रियानन्तरमविच्छेदेन क्रियान्तरं प्रवर्तते चेत् ; तदा विश्रान्त्यभावात् लयो नास्त्येव । यथा गुर्ववयवयोः लध्वोरन्तराले । यथा वा प्लुतावयवानां लघूनामन्तरालयोः, तस्मात् तालान्तरालेषु च लयः कर्तव्यः । तत्र यस्मिन् सति क्रियाविच्छेदो दृश्यते ; असति न दृश्यते ; एवं क्रियाविच्छेदान्वयव्यतिरेकानुविधायी यः स शीघ्रतमः ; स एव द्रुतलय इत्यर्थः । द्विगुणद्विगुणावित्यादि । तस्मात् द्रुतलयात् द्विगुणो विश्रान्तिकालो मध्यलयः । तस्मात् मध्यलयात् द्विगुणो विश्रान्तिकालो विलम्बितलयः । एवमेककलादिप्वेककस्मिन् मार्गे विश्रान्तिकालप्रमाणभेदात् लयत्रयं दर्शितम् । यथा लोक एकस्मिन्नेव मार्गे त्रयोऽपि गन्तुं प्रवृत्ताः । तत्रैको धावति तस्य गतिः शीघ्रा भवति । ततो मन्दमन्यो गच्छति तस्य गतिमध्यमा भवति । ततोऽपि मन्दमपरो याति तस्य गतिविलम्बा । एवं पादन्यासक्रियाविश्रान्तिकालवैषम्यात् गतिभेदः । तथा ताले लयभेदो द्रष्टव्यः । मार्गभेदादित्यादि । चिरक्षिप्रमध्यभावैरिति । दक्षिणमार्गे चिरभावः ; चित्रमार्गे क्षिप्रभावः ; वार्तिकमार्गे मध्यभावः ; तैः लयोऽनेकधा भवति । तथाहि ; चित्रमार्गे दशलध्वक्षरोच्चारमितकालानन्तरं यो लयो भवति, स द्रुत इत्युच्यते । वार्तिकमार्गे पूर्वोक्तक्रमेण कलाद्वयानन्तरं यो लयो भवति, स मध्य इत्युच्यते । दक्षिणमार्गे तादृशकलाचतुष्टयानन्तरं यो लयो भवति, स विलम्बित इत्युच्यते । विश्रान्तिकालस्यैकरूपत्वेऽपि तत्तक्रियाप्रमाणोपलक्षितमार्गभेदतो लयभेदोऽवगन्तव्यः । यथा लोक एकस्यैव ग्रामस्य गङ्गां प्रति मार्गत्रये सति तत्र संनिहितेन मार्गेणागतः शीघ्रमागत इत्युच्यते । ततोऽपि द्विगुणदूरेण मार्गेणागतः पूर्वापेक्षया मध्यभावेनागत इत्युच्यते । ततोऽपि द्विगुणदरेण मार्गेणागतः पूर्वोत्तरापेक्षया विलम्ब्यागत इत्युच्यते । एवं गमनक्रियावैषम्याभावेऽपि मार्गभेदात् द्रुतादिव्यवहारः । तथा प्रकृतेऽपि । तत्रापि प्रतिमार्ग विश्रान्तिकाल Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः लयप्रवृत्तिनियमो यतिरित्यभिधीयते ॥ ४६ ।। समा स्रोतोगता चान्या गोपुच्छा त्रिविधेति सा । आदिमध्यावसानेषु लयैकत्वे समा त्रिधा ॥४७॥ लयत्रैधादादिमध्यावसानेषु यथाक्रमात् । चिरमध्यद्रुतलया तदा स्रोतोगता मता ॥ ४८ ।। अन्या विलम्बमध्याभ्यां मध्यद्रुतवती परा । द्रुतमध्यविलम्वैः स्याद्गोपुच्छा द्रुतमध्यभाक् ॥ ४९ ॥ द्वितीयान्या भवेन्मध्यविलम्बितलयान्विता । प्रमाणभेदात् लयत्रये योजिते सति द्रुते द्रुतः ; द्रुते मध्यः ; द्रुते विलम्बितः । यथा मध्ये द्रुतः ; मध्ये मध्यमः ; मध्ये विलम्बितः ; तथा विलम्बिते द्रुतः ; विलम्बिते मध्यः ; विलम्बिते विलम्बित इति । अयमेवानेकधेत्यस्यार्थः । एवं तालगतस्यैव लयस्य गीतादावुपयोगः, नाक्षरादिगतस्येत्याह-लयोऽक्षरे पदे वाक्ये योऽसौ नानोपयुज्यत इति । अक्षरे लयो द्रुतः ; पदे यो मध्यः ; वाक्ये लयो विलम्बितः । तस्य संगीतोपकारकत्वाभावादिति भावः ॥ ४४, ४५- ।। (सु०) लयं लक्षयति--क्रियेति । तालक्रियानन्तरं या विश्रान्तिः स लयः । स त्रिविधः ; द्रुतो मध्यो विलम्बश्चेति । तेषु अतिशयेन शीघ्रोऽत्यन्तविश्रान्तिः द्रुतः । द्रुतात् द्विगुणो मध्यः; तद्विगुणो विलम्ब इति । मार्गमेदादिति । ध्रुवादयो हि मार्गाः पूर्वमुक्ताः । तेषां भेदाः विलम्बितत्वं द्रुतत्वं मध्यत्वं चेति । ननु अक्षरादिष्वपि लयोऽस्ति ; स कथं नोच्यते? तत्राहलय हति । अत्र संगीतशास्त्रेऽनुपयोगान्नोक्त इत्यर्थः ॥ ४४, ४५- ॥ (क०) अथ लयाश्रितानां यतीनां लक्षणमाह-लयप्रवृत्तीत्यादि। लयैकत्व इति । एकलयत्व इत्यर्थः । लयत्रैधादिति पूर्ववाक्येन संबन्धः । समाया यतेस्त्रैविध्ये हेतुभावेन । त्रिविध्यमिति त्रिशब्दात् “एकाद्धो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः समोऽतीतोऽनागतश्च ग्रहस्ताले त्रिधा मतः ॥ ५० ॥ गीतादिसमकालस्तु समपाणिः समग्रहः । ध्यमुञन्यतरस्याम् " (पा. ५. ३-४४) इति वर्तमाने ; " द्विव्याश्च धमुञ्" (पा. ५. ३. ४५) इति धाप्रत्ययस्य पक्षे ध्यमुञादेशे विहिते रूपन् । अन्येति । द्वितीया स्रोतोगता। परा; तृतीया स्रोतोगता मध्यद्रुतवती; मध्यलयेन द्रुतलयन च युक्तेत्यर्थः । स्रोतो यथा प्रथमं विलम्व्य जलसमृद्धौ सत्यां ततः शीघ्रं गच्छति, तद्वदन्वर्था स्रोतोगता । गोपुच्छाया अप्येतद्विपर्ययेणान्वर्थता द्रष्टव्या । यथा गोः पुच्छमन्ते विस्तृतं भवति तद्विदिति भावः ॥ ४६-४९- ॥ (सु०) यतिं लक्षयति-~-लयेति । पूर्वोक्तस्य लयस्य प्रवृत्तिनियमः प्रयोगनियमो यतिः । सा त्रिविधा ; समा; स्रोतोगता ; गोपुच्छेति । एतासां लक्षणमाह--आदीति । आदौ मध्ये अन्ते च यद्येक एव लयस्तदा समा यतिः । सा लयस्य त्रैविध्यात् त्रिविधा | आदिमध्यान्तेषु द्रुतो लयश्चेत् ; तदैका ; आदिमध्यान्तेषु मध्यो लयश्चेत् ; तदापरा ; आदिमध्यान्तेषु विलम्बितो लयश्चेत् ; तदान्या । आदौ विलम्बितलयः ; मध्ये मध्यलयः ; अन्ते द्रुतलयः; तदा स्रोतोगता; अयमेकः प्रकारः । अस्या अन्यत्प्रकारद्वयमाहअन्येति । गीतस्य भागत्रयं हत्वा प्रथमभागे विलम्बितो लयः ; द्वितीयभागे मध्यलयः ; तृतीयभागे द्रुतलयः; तदा अन्या स्रोतोगता। पूर्वभागे विलम्बितलयः ; मध्यभागे मध्यलयः ; अन्तेऽपि द्रुतलयस्तदा अपरा स्रोतोगता । पूर्वभागे द्रुतलयः ; मध्यभागे मध्यलयः ; अन्ते विलम्बितलयस्तदा गोपुच्छा। आद्ये द्रुतलयः; मध्ये विलम्बितलयः; अन्ते विलम्बितलयस्तदा अपरा गोपुच्छा । मध्यलयः प्रथमम् ; विलम्बितलयो मध्ये ; अन्ते विलम्बितलयस्तदा अपरा गोपुच्छा इति गोपुच्छायास्त्रयो भेदाः ॥ -४६-४९ ॥ .. (क०) ग्रहान् लक्षयति-समोऽतीत इत्यादिना । ग्रहणं ग्रह इति भावे ; " पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण" (पा. ३. ३. ११८) इति घप्रत्यये Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ संगीतरत्नाकरः सोऽवपाणिरतीतः स्याद्यो गीतादौ प्रवर्तते ॥ ५१ ॥ अनागतः प्राक्प्रवृत्तग्रहस्तूपरिपाणिकः । लयाः क्रमात्समादौ स्युर्मध्यद्रुतविलम्बिताः ।। ५२ ॥ कृते व्युत्पन्नो ग्रहशब्दः । गीतादिसमकाल इत्यादि। अत्रादिशब्देन वाद्यवृत्ते गृह्यते । तेन गीतादिना समः कालो यस्येति स तथोक्तः । अत्र कालशब्देन तालस्य गीतादेश्च प्रारम्भकाल एवोच्यते । तत्साम्यस्यैवात्र विवक्षितत्वात् । समपाणिरिति । समः पाणिरस्यास्तीति ग्रह विशेषणम् । अत्र पाणिशब्देन तालो लक्ष्यते । तद्वयापारेण तस्याभिव्यक्तत्वात् । यो गीतादौ प्रवर्तत इति । गीतादौ ; गीतस्यादौ । अत्र गीतशब्देन वाद्यनृत्ते अप्युपलक्ष्येते ; तयोरप्यादावित्यर्थः । अवपाणिरिति । अत्र अवशब्दोऽधःपर्यायः कालापेक्षया पूर्वभावे वर्तते । तालस्य गीतादिपूर्वभावित्वादवपाणिरित्यतीतग्रह उच्यते । गीतादिना तालकालमतिक्रम्योत्तरकालभाविना अतीतत्वादतीत इत्यर्थः । प्राक्प्रवृत्तग्रह इति । अत्र ग्रहशब्देन गृह्यत इति ग्रह इति कर्मसाधनेन गीतादित्रितयमुच्यते । प्राक्प्रवृत्तः प्रथमारब्धो ग्रहो यस्यत्यनागतग्रहस्य विशेषणम् । तालस्य गीताद्युत्तरकालभावित्वात् । स एवोपरिपाणिकश्च भवति । अनागत इति गीतादिप्रारम्भकाल आगतो न भवतीत्यन्वर्थो द्रष्टव्यः । लया इत्यादि । समग्रहे मध्यलयः ; अतीतग्रहे द्रुतलयः; अनागतग्रहे विलम्बितलय इति क्रमः । यथा लोके कश्चन केनचिन्मित्रादिना सह कंचित्प्रदेशं प्रति गन्तुमुद्युक्तः सः मित्रादिरात्मानमतीत्य पुरस्ताद्गच्छतीति श्रुत्वा तत्पश्चाद्देशे स्थितः तेन साम्यसिध्यर्थ स्वयं द्रुतं गच्छति ; यथा वा मित्राद्यागमनारम्भकाले स्वयमनागतः तद्देशात्पुरोदेशे स्थित्वा गन्तुं प्रवृत्तः पश्चाद्देशे मित्रादिरागच्छतीति श्रुत्वा तस्य स्वसाम्यसिध्यर्थ पदे पदे विलम्व्य गच्छति तद्वदिति प्रकृतेऽपि द्रष्टव्यम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः एतैः प्रकरणाख्यानि तालैर्यानि जगुर्बुधाः । तानि गीतानि वक्ष्यामस्तेषामायं तु मद्रकम् ॥ ५३॥ अपरान्तकमुल्लोप्यं प्रकर्योवेणकं ततः । रोविन्दकोत्तरे सप्त गीतकानीत्यवादिषुः ।। ५४ ॥ छन्दकासारिते वर्धमानकं पाणिकं तथा। ऋचो गाथा च सामानि गीतानीति चतुर्दश ।। ५५ ॥ शिवस्तुतौ प्रयोज्यानि मोक्षाय विदधे विधिः । एतेन गीतादेव प्राधान्यात् तदनुसारेण तालो योजनीय इत्युक्तं भवति ।। -५०-५२ ॥ इति मार्गतालप्रकरणम् (सु०) ग्रहं लक्षयति-सम इति । तालस्य ग्रहणं ग्रहः । स त्रिप्रकारः; समः ; अतीतः ; अनागतश्चेति । तान् लक्षयति-गीतादीति । गीतस्य आदिः प्रारम्भ: तत्समकाल: गीतप्रारम्भसमये तालग्रहणं समग्रहणे समपाणिरित्युच्यते । य आदौ गीते सति पश्चादावर्तते सोऽतीतग्रहः, स एवावपाणिरिच्युच्यते । यो गीतप्रारम्भात्पूर्व प्रवृत्तः स अनागतग्रहः, स एवोपरिपाणिक इत्युच्यते । ग्रहेषु लयानां नियममाह-लया इति । समग्रहे मध्यलयः ; अतीतग्रहे द्रुतलयः ; अनागतग्रहे विलम्बितलय इति । अयं नियमो मार्गताले वेवावसेयः ॥ -५०-५२ ॥ इति मार्गताललक्षणम (क०) एवमुक्तलक्षणानां मार्गतालानामुपयोगं दर्शयितुं मद्रकादीनि गीतानि वक्तुं प्रतिजानीते-एतैः प्रकरणाख्यानीत्यादिना। बुधाः; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० संगीतरत्नाकरः कुलकं छेद्यकं चेति तानि द्वेधा जगुर्बुधाः ॥ ५६ ।। वस्तूनामेकवाक्यत्वे कुलकं संप्रचक्षते । वस्तूनां भिन्नवाक्यत्वे छेद्यकं ते पुनः पृथक् ॥ ५७॥ नियुक्तं पदनिर्युक्तमनिर्युक्तमिति विधा । सर्वाङ्गयुक्तं नियुक्तं पदनिर्युक्तकं पुनः ॥ ५८ ॥ भरतादयः । तानि गीतानीति । मद्रकादीनां सप्तानां गीतकादीनां, छन्दकादीनां सप्तानां गीतानां च सामान्येन निर्देशः । गीतानीति । अत्र गीतानीत्यवादिपुरित्यनुषङ्गः कर्तव्यः । चतुर्दशेत्यादि । विधिः ; ब्रह्मा मोक्षमिच्छन् शिवस्तुतौ प्रयुक्तवानित्यर्थः ॥ ५३-५६ ॥ (सु०) प्रकरणाख्यानि गीतानि वक्तुं प्रतिजानीते --एतेरिति । एतैः पूर्वोक्तैः मार्गतालैः प्रकरणाख्यानि गीतानि यानि बुधाः भरतादयो जगुः । प्रक्रियन्ते प्रस्तूयन्ते मद्रकादीनीति प्रकरणानि | तालैरिति । तालैः; मार्गतालैरिति कथनं पूर्वसंबन्धप्रदर्शनार्थम् । यद्यपि पश्चतालेश्वरादीनां मार्गतालसंबन्धोऽस्ति ; तथापि तेषां तालप्रधानत्वाभावात् मार्गत्वापातनियमाभावाच प्रबन्धाध्याये निर्देशः कृतः । मद्रकादीनां तु तालप्रधानत्वादत्र वक्ष्याम इति । तानि विभजते-तेषामिति । मद्रकम् ; अपरान्तकम् ; उल्लोप्यकम् ; प्रकरी ; ओवेणकम् ; गेविन्दकम् ; उत्तरासारितमित्येतानां सप्तानां गीतानीति यत्तत्त्वान्तरसंज्ञा, तच्छन्दकादीनामेतेषां चतुर्दश प्रकरणाख्यानि एतानि चतुर्दश गीतानि शिवस्तुतौ प्रयोज्यानीति विधिः ब्रह्मा विदधे प्रयुक्तवान् ॥५३-१६-॥ (क०) वस्तूनामेकवाक्यत्व इति । वस्तूनां वक्ष्यमाणानामेककलादीनां गीतावयवानामेकवाक्यत्व एकक्रियान्वये सति कुलकम् । वस्तूनां भिन्नवाक्यत्वे प्रतिवस्तु, क्रियाभेदे सति छेद्यकम् । ते पुनः पृथगिति । ते कुलकच्छेद्यके ; पृथक् प्रत्येकं निर्युक्तादिभेदेन त्रिधा भवतः । सर्वाङ्गयुक्तमिति । वक्ष्यमाणैः विविधाभिरङ्गैरन्युनतया युक्तं निर्युक्तं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः बद्धं स्तुतिपदैस्त्यक्तोपोहनप्रत्युपोहनम् । वस्तुमात्रैरनिर्युक्तं तत्र त्रेधा तु मद्रकम् ।। ५९ ॥ विधिनैककलायेन चतुर्वस्तु त्रिवस्त्विति । पुनर्देधा शीर्षकं तु त्रिवस्तुन्येव बोध्यते ।। ६० ।। भवति । स्तुतिपदैर्बद्धं पदनियुक्तमित्युच्यते । त्यक्तोपोहनप्रत्युपोहनमित्यनियुक्तस्य विशेषणम् । उपोहनं नाम-ध्रुवादिगानेषु रागप्रकाशनार्थ स्थायिस्वराश्रयणेन झण्टुमादिवर्णपरिग्रहो लध्वादिकालपरिज्ञानाय तालपरिग्रहश्च । उपोहनमपि, उप समीप ऊह्यते विचार्यत इत्युपोहनमित्युक्तम् । तथाचोक्तं भरतेन " उपोह्यते स्वरो यस्माद्येन गीतं प्रवर्तते । तस्मादुपोहनं ज्ञेयं स्थायिस्वरसमाश्रयम् ॥ अथवोपोह्यते यस्मात्प्रयोगः स्तवनादिकः । तस्मादुपोहनं ह्येतद्गानं भाण्डसमाश्रयम् ॥" (नाट्य. ३१. २४२, २४३) इति; " गुरुलाघवसंयुक्तं कलातालसमन्वितम् । पूर्वरङ्गे सदा ज्ञेयं चित्रमार्गे ह्युपोहनम् ॥" (नाट्य. ५. १८२) इति च । तत्र प्रथमवस्त्वादौ कृतमुपोहनमित्युच्यते । द्वितीयादिवस्त्वादौ कृतं तु प्रत्युपोहनमित्युच्यते । अथवा एकवस्तुनि प्रथमं कृतमुपोहनम् । तदनन्तरं कृतं प्रत्युपोहनमित्युच्यते । त्यक्ते उपोहनप्रत्युपोहने यस्येति तत्तथोक्तम् । तत्र मद्रकं लक्षयितुमाह-तत्र त्रेधा तु मद्रकमित्यादिना । एककलाधेन विधिनेति । एककलमद्रकम् ; द्विकलमद्रकम् ; चतुष्कलमद्रकं चेति त्रिविधमित्यर्थः । चत्वारि वस्तूनि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः गुरूण्यष्टौ लघून्यष्टौ वस्त्वेककलमद्रके । स्वरागयोनिजातेस्तु न्यासेऽपन्यासनेऽथवा ॥ ६१॥ संयासेंऽशेऽथवा न्यासः सर्वगीतस्थवस्तुनः । यस्मिन्निति चतुर्वस्तु । त्रीणि वस्तूनि यस्मिन्निति त्रिवस्तु । शीर्षकमिति । गीताङ्गम् । त्रिवस्तुन्येवेति । चतुर्वस्त्वादौ न कर्तव्यमित्यर्थः ।। ५७-६०॥ (सु०) कुलकं छेद्यकमिति । वक्ष्यमाणानां वस्तूनामेकवाक्यत्वं चेत्तदा कुलकम् | वतूनां भिन्नवाक्यत्वं चेत्तदा छेद्यकमिति । ते ; कुलकच्छेद्यके प्रत्येकं त्रिधा ; नियुक्तम् ; पदनियुक्तम् ; अनिर्युक्तमिति । वक्ष्यमाणैरिति । वक्ष्यमाणैः सर्वे रागैर्युक्तं निर्युक्तम् । अङ्गैविना केवलं स्तुतिभिर्बद्धं पदनिर्युक्तम् । उपोहनप्रत्युपोहनशून्यत्वमनिर्युक्तम् । अत्रोपोहनप्रत्युपोहननिषेधात् इतरनिषेधस्य, ‘शेषाभ्यनुज्ञाविशेष्यत्वात् ' इति न्यायेनान्येषामङ्गसङ्गानामनुमतिः । एवं सर्वेषां साधारणान् भेदानुक्त्वा प्रथमनिर्दिष्टं मद्रकं विभज्य लक्षयति -तत्रेति । मद्रकं त्रिधा ; एककलाद्येन विधिना प्रकारेण एककलमद्रकम् ; द्विकलमद्रकम् ; चतुष्कलमद्रकं चेति । पुनरप्येतन्मद्रकं द्विधा ; चतुर्वस्तु ; त्रिवस्तु चेति । तत्र वक्ष्यमाणं शीर्षकाख्यं मद्रकं त्रिवस्तुन्येव बोध्यत इति विख्यातम् ॥ ५७-६० ॥ (क०) एककलमद्रके वस्तुप्रमाणमाह---गुरूण्यष्टौ लघून्यष्टाविति । स्वरागयोनिजातेरिति । अत्र स्वशब्देन मद्रकादिकमुच्यते । तस्य रागः तस्य योनिः कारणं जाति: षाड्ज्यादिः, तस्या न्यासापन्याससंन्यासेष्वेकत्र न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । अनेन मद्रकादीनि ग्रामरागोपरागेष्वेकतमेन रागेण गातव्यानीति सूचितं भवति । तेषामेव ताभ्यो जातत्वात । सर्वगीतस्थवस्तुन इत्यनेन, स्वरागेत्यत्र स्वशब्दस्य मद्रकैकपरताप्रतीतिमपाकरोति । सर्वाणि च तानि गीतानि मद्रकादीनि चतुर्दश गीतानि, तेषु तिष्ठतीति तत्स्थम् , तच्च तद्वस्तु चेति तथोक्तम् । अत्र वस्तुन इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणमस्तालाध्यायः ध्रुवपातमपातं वा तद्गुरुत्रयमादिमम् ॥ ६२ ।। शद्वयं ताद्वयं शम्ये तालौ च द्विः शतौ च सम् । क्रमाद्लेषु शेषेषु तस्य स्यात्पातकल्पना ॥ ६३ ॥ एवं वस्तुत्रयं गीत्वा शीर्षकं तु प्रयुज्यते । चतुष्कलेनैककलेनाथवा पश्चपाणिना ॥ ६४ ॥ आये वस्तुनि कर्तव्यं गुरुद्वयमुपोहनम् । गुरुणागुरुणा कार्य शेषयोः प्रत्युपोहनम् ॥ ६५ ॥ जातावेकवचनम् । तेनापरान्तकादिप्वपि स्थितानां वस्तूनामुक्तप्रकारेण न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः ॥ ६१- ॥ (सु०) एवं मद्रकस्य भेदान् परिभाषां चोक्त्वा एककलमद्रकं लक्षयति --गुरूणीति । एककलमद्रके अष्टौ गुरवः ; अष्टौ लघवश्च ; एक वस्तु । सर्वेषां गीतानां साधारणवस्तुलक्षणमाह-स्वगगेति । यो रागः गीते तस्य योनिः कारणभूता या जाति: तस्या जातेया॑सः ; स्वरे न्यासः, स्वरे अंशस्वरे वा सर्वेषु गीतेषु मद्रकादिषु वर्तमानस्य वस्तुनो न्यासः समाप्तिः ॥ ६१-॥ (क०) आदिमं तद्गुरुत्रयमिति । तस्य वस्तुनः गुरुत्रयमष्टसु गुरुष्वादिमं गुरुत्रयं ध्रुवपातम् ; ध्रुवः पातोऽस्यास्तीति तथोक्तम् । ध्रुवाख्यया सशब्द क्रियया योजनीयमित्यर्थः । अपातं वेति । पातादन्यया क्रियया युक्तमिति गम्यते । तेन निःशब्द क्रियया युक्तं वा कर्तव्यमित्यर्थः । शद्वयमित्यादि । चतुर्थपञ्चमयोप्वोः शम्याद्वयम् | ताद्वयमिति । षष्ठसप्तमयोगुर्वोस्तु तालद्वयम् । शम्येति । अष्टमस्य गुरोः, नवमस्य लघोश्च प्रत्येकं शम्या। तालाविति । दशमैकादशयोर्ल वोः प्रत्येक तालौ । द्विः शतौ चेति । द्वादशत्रयोदशयोर्लध्वोः शम्यातालौ । तथा चतुर्दशपञ्चदशयोश्च लघ्वोः शम्यातालौ । समिति । षोडशे लघौ संनिपात इति क्रमात् गलेषु शेषेषु तस्य पातकल्पना स्यादित्यर्थः ॥ ६२-६५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः झण्टुमाद्याक्षरैरेव रचना स्यात्तयोर्द्वयोः ॥ ६६ ॥ एकवस्तुकमप्याहुर्मद्रकं केऽपि मूरयः । तृतीये गुरुणि प्रोक्तं तत्र तैः प्रत्युपोहनम् ॥ ६७ ।। गुर्वष्टके स्याद्विविधं लघुप्वष्टस्वयैककम् । विविधो द्विविदारीकः स त्रिधा परिकीर्तितः ।। ६८ ॥ सामुद्गश्वार्धसामुद्गो विवृत्तश्चेति मूरिभिः । विदार्योः पदवर्णादिसाम्यात्सामुद्गको मतः ।। ६९ ॥ विदारीभागयोः साम्यावर्धसामुद्गको मतः । पूर्वस्या वा परस्या वा द्वयोति त्रिधा च सः ॥ ७० ॥ न्यासान्तो विविधः कार्यः सर्वो द्वेगेयकं विना। असमानविदारीको न्यासापन्यासनिर्मितः ॥ ७१ ॥ वित्तः स्याद्विद्वारी तु गीतखण्डं द्विधा च सा। महत्यवान्तरा चेति महती व्याप्तवस्तुका ।। ७२ ॥ समाप्ता पदवर्णान्तेवान्तरा त्वन्तरा मता । (सु०) ध्रुवपान मिति । तस्य मद्रकस्य वस्तुन आदिमं गुरुत्रयम् , ध्रुवपाते त्रयम् । तत् ध्रुवपाते, अध्रुवपाते वा प्रयोज्यम् ; पातहीनं वा । चतुर्थे गुरौ शम्या ; पधमे शम्या ; षष्ठसप्तमयोस्ताल: ; अष्टमे शम्येति । क्रमादिति । प्रथमे लघुनि शम्या ; द्वितीयतृतीयलघुनोस्ताल: ; चतुर्थे शम्या ; पञ्चमे ताल:; षष्ठे शम्या ; सप्तमे तालः; अष्टमे संनिपात इति । शेषेषु ; आदिमात् गुरुत्रयादन्येषु । गलेषु ; गुरुलघुषु, इयं पातकल्पना स्यात् । एवमिति । गुवष्टकलघ्वष्टकरूपं वस्तुत्रयं गीत्वा, शीर्षकं तु प्रयोक्तव्यम् । तत् चतुष्कलेन एककलेन षपितापुत्रकेण पञ्चपाणिना वा कार्य: । आद्य इति । त्रयाणां वस्तूनां मध्ये प्रथमवस्तुनि आद्यं गुरुद्वयमुपोहनं कर्तव्यम् । द्वितीये तृतीये वस्तुनि प्रथमगुरुणा प्रत्युपोहनं कार्यम् ॥ ६२-६५ ॥ (क०) तयोयोरिति । उपोहनप्रत्युपोहनयोः ॥ -६६-७२- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः अनयोर्वस्तुवन्न्यासो जात्यंशोऽशोऽल्पके पुनः ॥ ७३ ॥ अंशे तदनुवादी वा संवादी वांश इष्यते । संख्यानियममेतासां नावोचन्दत्तिलादयः ॥ ७४॥ (सु०) किमिदं प्रत्युपोहनं चेत्यपेक्षयामाह-झण्टुमिति । झण्टुं झण्टुं दिगि दिगि इत्याद्यक्षरैः । तयोः ; उपोहनप्रत्युपोहनयोः, रचना कर्तव्या इति । एवं त्रिवस्तुकं मद्रकमुक्तम् । मतान्तरमाह-एकवस्तुकमिति । केऽपि सूरयः भरतादयः एकवस्तुकमपि मद्रकमाहुः । ननु द्वितीयतृतीयवस्तुनोरभावात् तयोः कर्तव्यं प्रत्युपोहनं कथमित्यपेक्षायामाह-तृतीय इति । येषां मते एकवस्तुकं मद्रकम् , तै: प्रथमगुरुद्वयमुपोहनम् । तृतीये गुरुणि प्रत्युपोहनं कार्यमित्युक्तम् । एकवस्तुकमद्रके वस्तुनोऽनन्तरं किं गेयमित्यपेक्षायामाहगुर्वष्टक इति । अष्टसु गुरुषु वक्ष्यमाणलक्षणो विविधः कर्तव्यः । अष्टसु लघुषु वक्ष्यमाणलक्षणमेककं कार्यम् । विविधं लक्षयति-विविध इति । विदारीद्वयेन रचितो विविधः । विदार्या लक्षणं वक्ष्यति । स विविधस्त्रिप्रकारः । सामुद्गः, अर्धसामुद्गः, विवृत्तश्चेति । एतान् लक्षयति–विदायोरिति । पदसाम्ये वर्णसाम्ये, आदिशब्दात् स्वरसाम्ये सामुद्गाख्यो विविधः । एकस्या विदार्याः द्वयोर्भागयोः पदवर्णादिसाम्ये द्वितीयः । उत्तरे विदार्योर्भागद्वयसाम्ये तृतीय इति । सर्वोऽपि विविध: द्वैगेयकाख्यं विविधं विना न्यासान्तः कर्तव्यः । रागजनकजातेयासस्वरः समाप्तिस्वरोऽन्ते यस्य । द्वैगेयकं लक्षयति -असमानेति । विदार्योः पदवर्णादेरसाम्येन युक्तः, न्यासापन्यासस्वराभ्यां निर्मितः विवृत्ताख्यो विविध: स्यात् । तत्तद्विदार्या सिद्धवदगीकृत्य विविधो मतः। कैरियं विदारीत्यपेक्षायामाह-विदारीति । गीतखण्डम् ; गीतस्य खण्डं शकलं विदारीत्युच्यते । सा द्विधा; महाविदारी अवान्तरविदारी चेति । एते लक्षयति-महतीति । या सर्वमपि वस्तु व्याप्नोति, सा महाविदारी ; या तु पदवगैरेव समाप्ता, सा आवान्तरविदारी, अवान्तरवस्तुनो विन्यास इति ॥ ६६-७२- ॥ ___ (क०) अनयोर्वस्तुवन्यास इति । अनयोः ; महाविदार्यवान्तरविदार्योः । वस्तुवदिति । वस्तुनः स्वरागयोनिजातेस्त्वित्यादिना यो न्यास Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ संगीतरत्नाकर भगवान्भरतस्त्वासां संख्यानियममभ्यधात् । 'अवरैकादशपरा विदार्यः परिकीर्तिता ।। ७५ ॥ चतुर्विंशतिरासां तु प्रमाणं परमं स्मृतम् । अवान्तरविदारीणां चतुर्विंशतिसंख्यया ॥ ७६ ॥ न्यासान्तमथवांशान्तं विदार्येकैककं मतम् । आधं वस्तुद्वयं मद्रांशग्रहं मद्रके मतम् ।। ७७ ॥ उक्तः; तद्वदत्रापि न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । जात्यंशोऽश इति । विदार्योरंशस्तु स्वरागयोनिजातेरंश एव कर्तव्य इत्यर्थः । अल्पके पुनरिति । अंशे; जात्यंशे । अल्पके; अल्पप्रयोगे सति । तदनुवादी; जात्यंशानुवादी। तत्संवादी वांश इप्यते । एतासामिति । विदारीणाम् । अवरैकादशपरा इति । अवराश्च ता एकादशपराश्चेति कर्मधारयः । तिस्रो विदार्योऽवरा अल्पसंख्याकाः, एकादश विदार्यः परा अधिकसंख्याकाः । अयं महाविदारीणां संख्यानियमो मुनिना दर्शितः । अवान्तरविदारीणां चतुर्विंशतिसंख्या दर्शिता। मद्रांशग्रहमिति । मद्रके प्रथमवस्तुनो मद्रकस्थानस्थितं स्वरमंशग्रहं च कुर्यादिति नियमोऽवगन्तव्यः ॥ -७३-७७ ॥ (सु०) अनयोः ; महाविदार्यवान्तरविदार्योः । वस्तुवत् ; न्यासस्वरः; जातेरंशस्वरो वा अंशः कर्तव्यः । आदिमोऽशस्वरोऽल्पः । तर्हि तस्य अंशस्वरस्य अनुवादी संवादी वा स्वरोऽशः कर्तव्यः । दत्तिलादिमतेन विदारीणां संख्यानियमो नास्ति । भरतमतेनास्तीत्युक्त्वा तमेव संख्यानियममाह-त्र्येति । तिस्रो विदार्यः अवरा हीनाः । इतः परं न्यूना संख्या नास्ति । एकादशसंख्या परा उत्कृष्टा; आसां विदारीणामुत्कृष्टसंख्या चतुर्विंशतिः । इयं तु संख्या महाविदारीणाम् । अवान्तरविदारीणां संख्यामाह-अवान्तरेति । अवान्तरविदारीणां संख्या चतुर्विशतिः । ध्यवरकादश इति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः 30 अस्य प्रस्तारः SSSSSSSS।।।।।।।। उ उ उ श श ताश श श ता ताश ताश तासं ॥ एवं वस्तुत्रयं वस्तुचतुष्टयं वा गीत्वा वस्तुत्रयान्ते शीर्षकं चतुष्कलेन पञ्चपाणिना यथाक्षरेण वा गायेत् ॥ अथैककला SISSIS सं ताश ता श ता । इत्येककला ॥ इति शीर्षकम् इत्येककलमद्रकम द्विपदमेवं लक्षयित्वैककं लक्षयति-न्यासान्तमिति । एका विदारी एककमित्युच्यते । आद्यमिति । मद्रके प्रथमत: वस्तुद्वये मन्द्रस्वर एवांशो ग्रहश्च कर्तव्यः ॥ -७३-७७ ॥ (क०) अस्य प्रस्तार इति । अस्य ; एककलमद्रकस्य ; उक्तलक्षणानुसारेण प्रस्तारो लिख्यत इत्यर्थः । यथा प्रथमवस्तुनि अष्टानां गुरूणां अष्टौ वक्ररेखा, अष्टानां लघूनामष्टावृजुरेखाश्च तिर्यक्पङ्क्तितया लिखित्वा, तत्राद्यस्य गुरुत्रयस्याधस्तादुपोहनप्रतीत्यर्थमुपोहनाद्यक्षरमुकारं प्रतिगुरु लिखेत् । चतुर्थादीनां पञ्चानां गुरूणामधस्ताक्रमेण शशताशशान् लिखेत् । एवं वस्तुत्रयं वस्तुचतुष्टयं वा लघूनामधस्तात् शताताशताशतासमित्यष्टाक्षराणि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः द्विकले मद्रके वस्तु स्याञ्चतुर्विंशतिः कला । पादभागा द्वादश स्युस्तैस्तु मात्रात्रयं भवेत् ॥ ७८ ॥ द्विकलेनोत्तरेण स्याच्छीर्षे वस्तुत्रयात्मकम् । यथाक्षरेण वा तत्र विकलं स्यादुपोहनम् ॥ ७९ ॥ प्रत्युपोहनमत्र स्यात्कलिकं द्विकलं न वा। विविधः प्रतिवस्तु स्यान्मात्रयोरेककं पुनः ।। ८०॥ भवेत्तृतीयमात्रायामथ पातकलाविधिः । पादभागत्रये निमौ पञ्चस्वन्येषु याः कलाः ॥ ८१ ॥ आद्यास्तासु निरेवान्यत्पूर्वमद्रकवद्भवेत् । क्रमेण लिखेत् । एवं वस्तुत्रयं वस्तुचतुष्टयं वा लिखेत् । त्रिवस्तुपक्षे वस्तुत्रयस्यान्ते शीर्षकाख्यमङ्गं चतुप्कलेन पट्पितापुत्रकेण कुर्वीत । तस्य प्रस्तारो यथा-पटसु पादभागेषु प्रतिपादभागं चत्वारि गुरूणि सविच्छेदं तिर्यक्पक्तित्वेन लिखेत् । तदधस्तात् प्रथमपादभागे आनिविप्रान् ; द्वितीये आताविशान् ; तृतीये आनिवितान् ; चतुर्थे आनिविशान् ; पञ्चमे आताविप्रान् ; षष्ठे आनिविसांश्च क्रमेण लिखेत् । अथवा यथाक्षरेण षट्पतापुत्रकेण शीर्षकं गायेत् । यथा-पलगगलपान् लिखित्वा तदधस्तात् क्रमेण संताशताशतान् लिखेत् ।। इत्येककलमद्रकम् (क०) अथ द्विकलमद्रकं लक्षयति-द्विकले मद्रक इत्यादिना । चतुर्विंशतिः कला वस्तु स्यादिति । वस्तुनः प्रमाणमेककलापेक्षया द्विगुणमुक्तम् । पादभागा द्वादश स्युरिति । एकस्य द्विकलत्वादिति भावः । अन्यथा चतुष्कलत्वेन वा षट्पादभाग इति संभाव्येत । तैस्तु मात्रात्रयं भवेदिति । प्रथमे चत्वारः पादभागा एका मात्रा । मध्ये चत्वारः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य प्रस्तारः पश्यमस्तालाध्यायः SSS SSSS S नि पनि पनि प्रनिश ॥ मात्रा १ ॥ SSSSSSSS निशनि तानि तानिश ॥ SSSSSSSS शता ताश ताश तासं ॥ " SISS IS संता शता शता ॥ 97 २॥ ३ ॥ इत्येकं वस्तु स्तुत्रान्ते शीर्षकं यथाक्षरेण द्विकलेनोत्तरेण वा । SSSSSSSSSSSS निप्रता शनि तानि शतानि सं इति शीर्षकम् इति द्विकलमद्रकम् ३९ पादभागा द्वितीया मात्रा । अन्ते चत्वारः पादभागास्तृतीया मात्रा भवति । ' पादभागैश्चतुर्भिस्तैर्मात्रा स्यान्मद्रकादिषु' इति पूर्वोक्तमनुसंधेयम् । एतन्मात्रात्रयमेकं वस्तु । एवंविधवस्तुत्रयात्परं द्विकलेनोत्तरेण द्विकलषटूपितापुत्रकेण शीर्षकं नामाङ्गं गातव्यम् । तत्र स्यादुपोहनमिति । तत्र द्विकलमद्रके त्रिकलं तिस्रः कला यस्येति तथोक्तम् । कलिकं द्विकलं न वेति । अत्र त्रयः पक्षाः ; प्रत्युपोहनं कलिकं वा द्विकलं वा न वा स्यादिति । कल्किं कलया निर्वृत्तम् । अन्यत्पूर्वमद्रकवद्भवेदिति । अत्रोपयुक्ताभ्योऽवशिष्टासु त्रयोदशसु कलासु ; 'शद्वयं ताद्वयं शम्यं तालौ च द्विः शतौ च सम्' इत्युक्तप्रकारेण पाता योजनीया इत्यर्थः । प्रस्तारस्तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः चतुष्कले तु द्विगुणं वस्तु द्विकलवस्तुनः ।। ८२ ॥ लक्ष्म द्विकलवकिंतु पादभागश्चतुष्कलः । द्विकलान् द्वादश पादभागान् सविच्छेदं लिखित्वा तदधस्तात् ; निप्र निप्र निप्र निशान् ; निश निता निता निशान् ; शता ताश ताश तासांश्च मात्राविभागेन लिखेत् । ईदृशवस्तुत्रयान्ते शीर्षकं यथाक्षरेणोत्तरेण पूर्ववल्लिखेत् । द्विकलेनोत्तरेण वा ; यथा षट्पादविभागेन द्वादश गुरून् लिखित्वा तदधस्तात् निप्र ताश निता निश ताप निसान लिखेत् ॥ ७८-८१- ॥ ___ इति द्विकलमद्रकम् (सु०) एवमेककलमद्रकं लक्षयित्वा द्विकलं लक्षयति-द्विकल इति । द्विकले मद्रके चतुर्विंशतिकला | एवं वस्तुगुरुकला द्विकल इत्युक्तत्वात् चतुर्विंशतिवस्तुनि गेया । तैः; गुरुभिः द्वादश पादभागा आदिगुरवः कर्तव्याः । चतुःपादभागैरेकमात्रेति तैः द्वादशभिः पादभागैः मात्रात्रयं कर्तव्यम् । मात्रात्रये एककं वस्तु । एवंविधवस्तुत्रयानन्तरम् , उत्तरेण ; षपितापुत्रकेण, द्विकलेन यथाक्षरेण वा शीर्षकं गेयम् । तत्र कलात्रयेण उपोइन कर्तव्यम् । एकया कलया कलाद्वयेन वा प्रत्युपोहनम् । वस्तुत्रयेऽपि पूर्व मात्राद्वये पूर्वोक्तो विधिः कर्तव्यः । तृतीयमात्रायामेकैकपातकलाविधिमाह -पादभागेति । पादभागत्रये निष्क्रामप्रवेशौ। अन्येषु पञ्चसु पादभागेषु आद्यासु कलासु निष्क्राम: । अन्यत्पूर्वमद्रकवत् । ततश्चतुर्विंशति कलासु क्रमेण निक्रामप्रवेशनिष्क्रामप्रवेशनिष्क्रामप्रवेशनिष्कामशम्या: ; निष्कामशम्यानिष्क्रामतालनिष्क्रामतालनिष्क्रामशम्याः; शम्यातालतालशम्यातालशम्यातालसंनिपाता ज्ञातव्याः ॥ ७८-८१-॥ इति द्विकलमद्रकम् ___ (क०) अथ चतुष्कलमद्रकं लक्षयति-चतुष्कले वित्यादि । वस्तु ; द्विकलवस्तुनो द्विगुणं भवतीति प्रतिवस्त्वष्टाचत्वारिंशत्कला भवन्तीत्यर्थः । लक्ष्म विकलवदिति । प्रतिवस्तु द्वादश पादभागाः, तैः चतुर्भिश्चतुर्मि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथमस्तालाध्यायः चतुष्कलेनोत्तरेण केवलेनास्य शीर्षकम् ॥ ८३ ॥ युक्तेनैककलाद्यैर्वाष्टकलं स्यादुपोहनम् । विविधोऽन्तिमवस्त्वन्ते कार्यों द्वैगेयकाभिधः ॥ ८४ ॥ असावंशादिरंशान्तपदावृत्तियुतो मतः । मात्राकल्पनम् । तत्राद्यमात्रयोविविधाख्यमङ्गम् ; तृतीयमात्रायामेककाख्यमङ्गम् । त्रिवस्तुपक्षे वस्तुत्रयानन्तरं शीर्षकाख्यमङ्गमित्यादिलक्षणमात्रापि कर्तव्यमित्यतिदेशार्थः । विशेषं दर्शयति--कित्विति । चतुष्कलेनोत्तरेणेत्यादि । अस्य ; चतुष्कलमद्रकस्य शीर्षकं केवलेनोत्तरेणेत्येकः पक्षः । युक्तेनैककलाद्यैर्वेत्यत्र त्रयः पक्षाः । यथा-एककलचतुष्कलाभ्यां प्रथमः । द्विकलचतुष्कलाभ्यां द्वितीयः । चतुष्कलाभ्यां तृतीयः । एवं शीर्षके चत्वारः पक्षाः । प्रत्युपोहनेऽपि चत्वारः पक्षाः । एककला प्रथमः पक्षः । द्वितीया कलेति द्वितीयः । चतस्रः कलास्तृतीयः । न वा स्यादिति चतुर्थः । द्वैगेयकाभिध इति । अत्र विविधसंज्ञकस्याङ्गस्य विशेषसंज्ञा । असाविति । द्वैगेयकः अंशादिः अंशस्वर एव ग्रहो यस्येति स तथोक्तः । अंशान्त इति । अंशस्वर एव न्यासो यस्येति स तथोक्तः । पदात्तियुतः इत्यनेन द्वैगेयकसंज्ञाया अन्वर्थता दर्शिता भवति ॥ - ८२-८४- ॥ (सु०) चतुष्कलमद्रकं लक्षयति-चतुष्कल इति । चतुष्कलमद्रकस्य वस्तु द्विकलवस्तुनः सकाशात् द्विगुणमष्टाचत्वारिंशत् । ताभिः गुरुरूपाभिः एवं वस्तु कार्यम् । अन्यत्सर्व लक्षणं द्विकलमद्रकवत् । अयं तु विशेष:-अत्र चतसृभिः कलाभिः पादभागमुत्तरेण पितापुत्रकेण चतुष्कलशीर्षकं कर्तव्यम् । तच्च केवलेन षपितापुत्रकेण वा कर्तव्यम् । एककलाधैर्युक्तेन वा । एककलायेरिति । एककलेन द्विकलेन चतुष्कलेनेति । तदत्र शीर्षके पक्षचतुष्टयम् । चतुष्कलेन पितापुत्रकेणेत्येकः पक्षः । एककलेन चतुष्कलेन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ संगीतरत्नाकरः आनिविपाः पादभागत्रितयेऽभिमताः क्रमात् ।। ८५ ॥ द्वयोरानिविशास्तद्दयोरानिवितास्ततः ।। एकत्रानिविशा आशविताश्चाताविशा द्वयोः ॥ ८६ ॥ अन्त्ये तानिविसं पातकलाविधिरयं मतः । पितापुत्रकेणेति द्वितीयः । द्विकलेन चतुष्कलेन पितापुत्रकेणेति तृतीयः । चतुष्कलेन षपितापुत्रकद्वयेनेति चतुर्थ इति। अष्टकलमिति। अत्र चतुष्कलमद्रके उपोहनम अष्टकलमष्टाभिः कलाभिः कर्तव्यम् । प्रत्युपोहनं तु एकया कलया कर्तव्यमित्येकः पक्षः । कलाद्वयेन कर्तव्यमिति द्वितीयः । कलाचतुष्टयेन कर्तव्यमिति तृतीयः । प्रत्युपोहनमिति चतुर्थः । अन्तिमस्य तृतीयस्य वस्तुनोऽन्ते द्वैगेयकाख्यो विविधः कर्तव्यः । कोऽयं द्वैगेय इत्यपेक्षायामाह-असाविति । असो; द्वैगेयकः । अंशादिः; जातेरंशस्वर एव आदिर्ग्रहो यस्य ; एवमंशस्वर एवान्तः न्यासस्वरो यस्य ; तथाविधः पदवृत्तिमान् ज्ञातव्यः ॥ -८२-८४- ॥ (क) द्वादशसु पादभागेषु पातकलाविधिं दर्शयति--आनिविप्रा इत्यादिना । एकत्रानिविशा इत्यत्र, एकत्रेत्यष्टमे पादभाग इत्यर्थः । आशाविताश्च इत्यत्र चकारेण एकत्रेत्येतदनुकृप्यते । तेन नवमैकपादभाग आशाविता भवन्तीत्यर्थः । आताविशा द्वयोः इत्यत्र द्वयोर्दशमैकादशयोरित्यर्थः । अन्त्य इति । द्वादशे पादभाग इत्यर्थः ॥ -८५, ८६ ॥ (सु०) पातकलाविधिमाह-आनिविप्रा इति । प्रथमे पादभागत्रये आवापनिष्क्रामविक्षेपप्रवेशाः । ततः द्वयोः पादभागयोः आवापनिष्कामविक्षेपशम्याः । ततो द्वयोनिष्कामावापतालाः । तत एकस्मिन् अष्टमपादभागे आवापनिष्क्रामविक्षेपशम्याः । ततो नवमे पादभागे आवापशम्याविक्षेपतालाः। दशमैकादशयोः पादभागयोरावापतालविक्षेपशम्याः। अन्त्ये द्वादशभागे तालनिष्क्रामविक्षेपसंनिपाता इति ।। -८५, ८६- ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमस्तालाध्यायः चच्चत्पुटवदङ्गुल्यः कर्तव्या मद्रके बुधैः ॥ ८७ ॥ अस्य प्रस्तारः S SS S S S SS SSSS S SS S आनिवि आनिविप्र आनिविम आनिविश ॥ मात्रा १ ॥ SSSS SSSS SSSS SSSS आनिविश आनिविता आनिविता आनिविश ।। "9 SSSS S S SS SSSS SS SS आशविता आसाविश आताविश तानिविसं ॥ इत्येकं वस्तु एवं पूर्ववत् वस्तुत्रयानन्तरं शीर्षकं चतुष्कलेन पञ्चपाणिना यथा SSSS SSSS आताविम आनिविसं ॥ २ ॥ " द्विकलचतुष्कलाभ्यां वा -- SSSS SS SS S SS S SS SS SS SS SS SS आनिवि आताविश आनिविता आनिविश आताविम आनिविसं ।। SS SS SS SS SS SS निप्र ताश निता निश ताप निसं । ३ ॥ एककलचतुष्कलाभ्यां वा S ISSI S SSSS SS SS SSSS SS SS संता शताशता ॥ आनिविम आताविश आनिविता आनिविश ४३ S S SS SS SS S SS S SS SS SS SS SS SS आनिवि आताविश आनिविता आनिविश आताविम आनिविसं ॥ (क०) चच्चत्पुटवदित्यादि । मद्रके अगुल्यः चच्चत्पुटवत्कर्तव्या इति । अस्यायमर्थः – प्रथमादिषु चतुर्षु पादभागेषु कनिष्ठादिभिरङ्गुलीभिः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ संगीतरत्नाकरः चतुष्कलाभ्यां वा S SSSS SSSS S S S S S S S आनि विप्र आता विश आनि विता आनि विश S SSSS S S S आता विप्र आनि विसं ॥ S SSSS SSS S SSSS SSS आनिवि आता विश आ निविता आनि विश S S SSSS S S आनिवि आनि वि सं ॥ इति शीर्षकम् इति चतुष्कलमद्रकम् उत्तरोत्तरसहिताभिः प्रयुज्य पञ्चमादिषु चतुर्षु पादभागेष्वप्येवमेव प्रयुज्य नवमादिष्वपि चतुर्षु पादभागेषु पुनरपि तथा प्रयुञ्जीतेति । अस्य प्रस्तारो यथा - गुरुचतुष्टयात्मकान् द्वादश पादभागान् सविच्छेदं समात्राविभागं च लिखित्वा तदधस्तात् प्रथममात्रायाम् – आनिविप्र ; आनिविप्र ; आनिविप्र ; आनिविशान् ; द्वितीयमात्रायाम् – आनिविश; आनिवित ; आनिवित; आनिविशान् ; तृतीयमात्रायाम् – आशवित ; आताविश; आताविश; तानिविस मित्येतान् लिखेत् । इत्येकं वस्तु । एवंविधवस्तुत्रयानन्तरं शीर्षकं चतुष्कलेन पञ्चपाणिना यथा - गुरुचतुष्टयात्मकान् पादभागान् सविच्छेदं लिखित्वा तदधस्तात् आनिविप्र ; आताविश; आनिविता; आनिविश; आताविप्र ; आनिविस मित्येतान् क्रमेण लिखेत् । अथैककलचतुष्कलाभ्यां वा यथा – पलगगलपान् लिखित्वा तदधस्तात् संताशताशतान् लिखेत् । तथा चतुष्कलमपि लिखेत् । अथ द्विकलचतुष्कलाभ्यां वा यथा - गुरुद्वयात्मकान् षट्पादभागान् लिखित्वा ; तदधस्तात् निप्र ताश निता निश ताप निस Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमस्तालाध्यायः त्रिधापरान्तकं तद्वद्भेदेनैककलादिना । अस्मिन्नेककले वस्तु चतुर्गुरु चतुर्लघु ॥ ८८ ॥ पञ्च षट् सप्त वा वस्तून्यस्य शाखा निगद्यते । शाखेव प्रतिशाखा स्यात्किं त्वन्यपदनिर्मिता ॥ ८९ ॥ ४५ मित्येतान् लिखेत् । तथा चतुष्कलमपि लिखेत् । अथ चतुष्कलाभ्यां वा - पूर्ववच्चतुष्कलौ लिखेत् ॥ -८७ ॥ यथा - इति चतुष्कलमद्रकम् (सु०) अङ्गुलिनियममाह - चच्चत्पुटवदिति । पूर्व चच्चत्पुटे योऽङ्गुलिनियम उक्तः ; " प्रथमे पादभागे स्यात्कलाङ्गुल्या कनिष्ठया ” इत्यादिना समद्रके ज्ञातव्य: ॥ ८७ ॥ इति चतुष्कलमद्रकम् (क) अथापरान्तकं लक्षयति-- त्रिधापरान्तकमित्यादि । पञ्च षट् सप्तेति । पञ्च वस्तूनि शाखेत्येकः पक्षः । षड् वस्तूनि शाखेत्यन्यः । सप्त वस्तूनि शाखेत्यपरः । शाखेति गीताङ्गस्य संज्ञा । किं त्वन्यपदनिर्मितेति प्रतिशाखाया विशेषकथनम् । अन्यपदनिर्मितेति । शाखाप्रयुक्तेभ्यः पदेभ्योऽन्यैः पदैः कर्तव्येत्यर्थः । अनेन शाखाप्रतिशाखयोरेक एव धातुः कर्तव्य इति गम्यत इति केषांचिन्मतम् ॥ ८८, ८९ ॥ (सु०) अपरान्तकं लक्षयितुं विभजते - त्रिधेति । अपरान्तकं त्रिप्रकारम् ; एककलं द्विकलं चतुष्कलमिति । तत्रैककलं लक्षयति-अस्मिन्निति । अस्मिन्; अपरान्तके एककले चतुर्भिः गुरुभिः लघुभिश्च वस्तु कार्यम् । एकमेव वस्त्वित्येकः पक्षः । पश्च वस्तूनीत्यपरः । षड् वस्तूनीति तृतीयः । सप्त वस्तूनीति चतुर्थः । तान्येव वस्तूनि यस्मिन् शाखेत्युच्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ संगीतरत्नाकरः शाखार्धं पश्चिमं त्वाह प्रतिशाखां विशाखिलः । शाखा वस्तूच्यते तस्याः परार्धं प्रतिशाखिका ॥ ९० ॥ इत्याह भरतस्तत्रोपोहनं कलिकं मतम् । प्रत्युपोहनमत्र स्यान वान्ये त्वेकवस्तुकम् ।। ९१ ॥ इदमाहुः कला तेषां द्वितीया प्रत्युपोहनम् । शीर्षमेककलेन स्याच्छाखान्ते पञ्चपाणिना ॥ ९२ ॥ यथा शाखा तथा प्रतिशाखा कर्तव्या । किं रूपा शाखा ? पदेभ्योऽन्यः पदैविधेयेति ॥ ८८, ८९॥ (क०) विशाखिलमते विशेषमाह-शाखार्थमित्यादि । पश्चिम शाखार्धम् । प्रतिशाखामाहेत्यत्र एकवस्तुकपक्षे वस्तुप्रमाणेन शाखां कृत्वा वस्तूत्तरार्धलघुचतुष्टये प्रतिशाखां कुर्यात् । पञ्चवस्तुकादिषु त्रिषु पक्षेषु त्वादिमं सार्धवस्तुद्वयं वस्तुत्रयं च क्रमेण शाखां कुर्यात् । तादृक्पश्चिमाधैं च प्रतिशाखां कुर्यात् । भरतमते विशेषं दर्शयति-शाखावन्तूच्यत इत्यादि। तत्र; पञ्चवस्तुकादिषु त्रिष्वपि पक्षेषु प्रतिवस्तु पूर्वार्ध शाखोत्तरार्ध प्रतिशाखेति मन्तव्यम् । उपोहनं कलिकमिति । कलया निवृत्तं कलिकम् ; मतं संमतम् । यत्र तूपोहनं नोच्यते तत्राद्ये वस्तुनि कर्तव्यं गुरुद्वयमुपोहनमिति न्यायो ग्राह्यः ॥ ९०-९२ ॥ (सु०) मतान्तरमाह-शाखार्धमिति । एकवस्तुकपञ्चवस्तुकषड्वस्तुकसप्तवस्तुका वा या शाखा तस्याः उत्तरार्ध प्रतिशाखेति । ततश्च एकवस्तुके लघुचतुष्टयरूपं वस्तुन उत्तरार्ध प्रतिशाखा । पञ्चवस्तुके प्रथमार्धवस्तुद्वयानन्तरमन्तिमसार्धवस्तुद्वयं प्रतिशाखा । षड्वस्तुके अन्तिमवस्तुत्रयम् | सप्तवस्तुके सार्धान्तिमसार्धवस्तुत्रयं प्रतिशाखेति । भरतमतेन पञ्चवस्तुकादिवपि एकैकं वस्तु शाखाशब्देनोच्यते । तस्योत्तरार्ध प्रतिशाखेति । अत्र ; अप Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणमस्तालाध्यायः अन्ये तु प्रतिशाखान्तेऽप्येतदाहुर्मनीषिणः । शाखायाः प्रतिशाखायाः कलाषद्केऽन्त्यवस्तुनः ॥ ९३ ।। अन्त्ये पदावृत्तियुक्तः पञ्चपाणिर्यथाक्षरः । निजपातैर्विना यद्वा तत्पाता एव केवलाः ॥ ९४ ॥ तालिकेयं पृथग्यद्वा पञ्चपाणौ यथाक्षरे । तृतीयादिगलेषु स्युः शताताशाश्च तालसम् ॥ ९५ ॥ रान्तके । उपोहनं कलिकम् एककलाविरचितं प्रत्युपोहनं कर्तव्यं वा न वेति ॥ ९०-९२ ॥ (क०) एकवस्तुकपक्षे विशेषान्तरमाह - अन्ये विति । शाखान्ते शीर्षकमित्येकः पक्षः । प्रतिशाखान्ते शीर्षकं कर्तव्यमिति पक्षान्तरम् । शाखाया इति । अन्त्यवस्तुनः शाखायाः प्रतिशाखाया अन्त्ये कलाषटके यथाक्षरः पञ्चपाणिः पदात्तियुक्तः कर्तव्य इति योजना । निजपातैर्विनेति। षट्पितापुत्रकस्य निजाः पाताः संताशताशताः तैविनेति देशीतालवत् शम्ययैव प्रयोक्तव्य इत्येकः पक्ष: । यद्वा तत्पाता एवेति । तस्य षपितापुत्रकस्य पाताः पूर्वोक्ताः । केवला इति । पातकलान्तरयुक्ता इत्यर्थः । अयमप्यन्यः पक्षः । तालिकेयमिति । पञ्चपाणियुक्तमुक्तं यत्कलाषटकं तदेव तालिकासंज्ञयोच्यत इत्यर्थः । पृथग्यद्वेति । वस्त्वनन्तर्भावेन तालिका कर्तव्येति पक्षान्तरम् । तृतीयादिगलेष्विति । चतुर्गुरुचतुर्लध्वात्मके वस्तुनि प्रथमकलायामुपोहने कृते द्वितीयकलायां प्रत्युपोहने च कृते तृतीयचतुर्थयोYोः शतौ पञ्चमादिषु चतुर्षु लघुषु क्रमात 'ताशताश' इति पाताः कर्तव्याः ॥ -९२-९५ ॥ (सु०) एकवस्तुके विशेषमाह-अन्ये त्विति । अन्ये तु आचार्याः ; इदमपरान्तकमेकवस्तुकमित्याहुः । तेषां मते द्वितीया कला प्रत्युपोहनम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः इति वस्तु । अस्य प्रस्तार:Ssss ।। ।। उ प्र श ता ताश तासं SISSSS संता श ता शता SISSIS संता शता शता इति शीर्षकम् ॥ इति प्रतिशाखा ॥ ताश ताश इति तालिका ॥ इत्येकवस्तुकम बहुवस्तुकेषु द्वितीयतृतीयवस्तुनोः पूर्वोक्तन्यायेन प्रत्युपोहनं कर्तव्यम् । "गुरुणागुरुणा कार्य शेषयोः प्रत्युपोहनम् ।" इत्युक्तत्वात् । शीर्षकमिति । शाखायाः प्रान्ते एककलेन षड्पितापुत्रकेण शीर्षकं गेयम् । केचित्प्रतिशाखायामपि शीर्षकं गेयमित्याहुः । शाखाया इति । शाखाया: प्रतिशाखायाश्च संबन्धिनः अन्त्यवस्तुनः अन्त्ये कलाषट्के पदावृत्तियुक्तो पञ्चपाणिर्यथाक्षरो गेयः । स: पूर्वोक्तस्वरपातहीनो वा पातयुक्तो वेति पक्षद्वयम् | इयं तालिकेत्युच्यते । पक्षान्तरमाह-पृथगिति । अन्त्यवस्तुनोऽन्त्ये कलाषट्के तालिका गेया । तस्मात् पृथगेव यथाक्षरे षपितापुत्रके वेति । कलाविधिमाहतृतीयादिति । प्रथमगुरुद्वये उपोहनम् । तृतीयादिगुरुलधुषु शम्यातालद्वयशम्यातालसंनिपाताः ॥ -९२-९५ ॥ इत्येककलमपरान्तकम् • (क०) अस्य प्रस्तार इति-चतुरो गुरूंश्चतुरो लघूश्च लिखित्वा आद्यगुरोरधस्तादुकारं द्वितीयगुरोरधस्तात्प्रत्युपोहनाचं प्रशब्दं तस्तृतीयादिगलानामधः शताताशतासमिति क्रमेण लिखेत् । इति वस्तु । इयमेव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभमस्तालाध्यायः । अथ पश्चवस्तुकम्-- SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ वस्तु १ ॥ Ssss ।। । । उउ शता ताश तास ॥ SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं॥ Ssss ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ ताश तास ॥ , ४ ॥ SSSS ! !! उउशता ताश तास ॥ SISSIS संता शता शता॥ इति तालिका ॥ SISSIS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ।। इयं शाखा ; ईदृश्येव पदान्तरनिर्मिता प्रतिशाखा । शाखा । ततो यथाक्षरेणोत्तरेण शीर्ष लिखित्वा तदधस्तात् ताशताशान् लिखेत् । ततोऽपि शीर्षकं पूर्ववल्लिखेत् ॥ इत्येकवस्तुकमपरान्तकम् इति पञ्चवस्तुकम् अथ पञ्चवस्तुकमिति । चतुर्गुरुचतुर्लध्वात्मकानि पञ्चवस्तूनि सविच्छेदं लिखित्वा प्रतिवस्त्वाद्यगुरुद्वयस्याधो मद्रकोक्तरीत्योकारद्वयं लिखित्वा, ततोऽन्यत्र शताताशतासां लिखेत् । ततो यथाक्षरेणोत्तरेण तालिका लिखेत । तेनैव शीर्षकं लिखेत । इयं शाखा । ईदृश्येव प्रतिशाखा ॥ इति पञ्चवस्तुकम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः م م س ه کم अथ पड़स्तुकम् । अस्य प्रस्तार:SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ वस्तु १ ॥ Ssss ।। । । उउ शता ताश तासं॥ २ ॥ Ssss ।। ।। उउ शता ताश तासं॥ Ssss ।। ।। उउ शता ताश तास ॥ Ssss ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ , SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ ६ ॥ $ISSIS संता शता शता॥ इति तालिका ॥ SISSIS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ॥ ईदृश्येव पदान्तरनिर्मिता प्रतिशाखा ॥ इति षड्वस्तुकम अथ सप्तवस्तुकम् । अस्य प्रस्तारः SS SS 11 उउ शता ताश तासं ॥ Ssss ।। । । उउ शता ताश तास ॥ SS SS !!!! उउ शता ताश तासं॥ SSSS 1। ।। उउ शता ताश तासं॥ = = = = Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशमस्तालाध्यायः SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं ॥ वस्तु ५ ॥ Ssss ।।।। उउ शता ताश तास ।। SSSS ।। ।। उउ शता ताश तासं ।। , ७ ॥ SISSIS संताशता शता॥ इति तालिका ॥ S SS IS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ॥ __ इति सप्तवस्तुकम् सर्वेषां वस्तूनां शाखात्वे तदुत्तरार्धानां प्रतिशाखात्वे ताशताशाः । ईदृश्येव प्रतिशाखा । प्रतिभाखापक्षे त्वेवम् ssss ।। ।।... उउ शता ताश तासं ॥ इति शाखा ॥ SISS IS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ।। SISSIS संता शता शता॥ इति तालिका ॥ SISS IŠ ताश ताश; प्रतिशाखा। संता शता शता; शीर्षकम् । संता SS IS शता शता; तालिका ॥१॥ SSSS ।। II SISS IS उउ शता ताश तासं; शाखा ॥ संता शता शता; शीर्षकम् । SISSIS SISS IS संता शता शता; तालिका | ताश ताश; प्रतिशाखा। संता शता शता; SISS IS शीर्षकम् । संता शता शता; तालिका ॥२॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः IS SS SS !! !! SI SS SS उउ शता ताश तासं; शाखा ॥ संता शता शता शीर्षकम । SISSIS SI SS SS संता शता शता; तालिका ॥ ताश ताश ; प्रतिशाखा । संता शता शता ताश ताश SISS IS शीर्षकम् । संता शता शता; तालिका ॥ ३ ॥ SS SS LLS SS SS ne उउ शता ताश तासं; शाखा। संता शता शता; शीर्षकम् । SI SS IS SISS संता शता शता; तालिका ॥ ताश ताश प्रतिशाखा ॥ संता शता SISSIS शता; शीर्षकम् ।। संता शता शता; तालिका ॥ ४ ॥ SSSS ।। ।। SISSIS उउ शता ताश तास ; शाखा ।। संता शता शता; शीर्षकम् । SISSIS ŞI SS IS संता शता शता; तालिका॥ ताश ताश 3 प्रतिशाखा ।। संता शता शता: SISSIS शीर्षकम् ॥ संता शता शता; तालिका ॥ ५ ॥ एवं षड्वस्तुकसप्तवस्तुकयोरप्यूहनीयम् । शाखोत्तरार्धस्य प्रतिशाखात्वपक्षे तु पञ्चवस्तुकम् ।। यथा Ssss 11 । उउ शता ताश तासं ॥ वस्तु १ ॥ SSSS ।। ।। उउ शता शता तासं ॥ २ ॥ SSSS ।। ।। उउ शता शता तासं॥ ssss ।। ।। उउ शता शता तासं ॥ ४॥ Ssss ।। ।। उउ शता शता तास ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः ५३ ।। ।। ।। SSSS उउ शता ताश ताश तासं ॥ इति शाखा ॥ SISS IS संता शता शता॥ इति तालिका ॥ SISS IS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ।। ____ इति पञ्चवस्तुकम षड्वस्तुके शाखां शीर्षकं च लिखित्वा तदर्धेन वस्तुत्रयेण पतिशखां लिखित्वा तालिका शीर्षकं च पूर्ववल्लिखेत् । एवं सप्तवस्तुके सप्तवस्तुकां शाखा तालिका शीर्षकं च लिखित्वा तदर्धेन साधैवस्तुत्रयेण प्रतिशखां च लिखेत् । ततस्तालिका शीर्षकं च पूर्ववल्लिखेत् ।। ___ इत्येककलमपरान्तकम (क) एवमेव षड्वस्तुकं सप्तवस्तुकं च । शाखोत्तरार्धस्य प्रतिशाखात्वपक्षे तु पञ्चवस्तुके पञ्चवस्तुका शाखां गीत्वा, ततः प्रतिशाखां तु तृतीयवस्तूत्तरार्धलघुचतुष्टयं लिखित्वा तदधस्तात् , ' शतासान् ' लिखेत् । ततः पूर्वोक्तप्रकारेण चतुर्थपञ्चमे वस्तुनी लिखेत् । ततः तालिका शीर्षक चोत्तरेण पूर्ववल्लिखेत् । इति पञ्चवस्तुके प्रतिशाखा । षड्वस्तुके परं वस्तुत्रयं प्रतिशाखा । सप्तवस्तुकेऽपि परं सार्धवस्तुत्रयं प्रतिशाखा । सर्वेषां वस्तूनां शाखात्वेन तदुत्तरार्धानां प्रतिशाखात्वे तु प्रस्तारः प्रदर्श्यते । यथा-प्रथमं तावत् समस्तं वस्तु शाखा । तदुत्तरार्धे लघुचतुष्टयं प्रतिशाखा । एवमेव पञ्चवस्तुकं षड्वस्तुकं वा लिखित्वा अन्त्यवस्तुशाखान्ते यथाक्षरेणोत्तरेण तालिका शीर्षकं च लिखेत् । तस्य प्रतिशाखान्ते वा लिखेत् ॥ इत्येककलमपरान्तकम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ संगीतरत्नाकरः द्विकले द्वादशकलं वस्तु स्यादपरान्तके ॥ ९५ ॥ तच्चैककलावत्कार्य विशेषस्त्वभिधीयते । उपोहनं स्यात्कलिकं द्विकलं वा कलैव तु ॥ ९६ ॥ प्रत्युपोहनमत्रोपवर्तनं तुर्यवस्तुनि । गीते तत्पदगीतिभ्यां तल्लयालयं भवेत् ।। ९७ ।। यथाक्षरेणोत्तरेण वृत्तिदक्षिणमार्गयोः । समाप्तार्थन्यासयुक्तं केचित्पञ्चमवस्तुनः ।। ९८ ॥ एतदाद्ये कलाषट्के गातव्यमिति मन्वते । निपनिमा निशनितास्ताशास्तासं कला विह ॥ ९९ ॥ एकैकं विविधं वात्र गीताङ्गं दत्तिलोऽवदव । गीतामनियम कंचिन्नाबूत भगवान्मुनिः ॥ १०० ।। (क०) अथ द्विकलमपरान्तकं लक्षयति-द्विकले द्वादशकलमित्यादि । तच्चैककलवदिति । एकवस्तुकादयश्चत्वारो भेदाः शाखाप्रतिशाखादिकल्पनाभेदाश्चात्रापि कर्तव्या इत्यतिदेशार्थः । विशेषस्त्विति । उपोहनोपवर्तनादिकल्पनमित्यर्थः । उपवर्तनमित्यादि । तुर्ये वस्तुनि गीते सति ; तत्पदगीतिभ्याम् । तस्य तुर्यवस्तुनः, पदं सुप्तिङन्तम् , गीतिः मागध्यादिः, ताभ्याम् । तल्लयालयमिति । तस्य तुर्यवस्तुनो यो लयः तदर्धे लयो यस्येति तत्तथोक्तम् । एतदुपवर्तनविशेषणम् । वृत्तिदक्षिणमार्गयोरित्यनेन द्विकलचतुष्कलाभ्यामिति गम्यते। अयमर्थ:-अत्रोपवर्तने यथाक्षरादयस्त्रयोऽपि पट्पितापुत्रकभेदाः कर्तव्या इति । समाप्तार्थन्यासयुक्तमिति । समाप्तश्वासावर्थश्च । तत्र न्यासेन युक्तमिति तथोक्तम् । अस्मिन्नपवर्तने वाक्यार्थसमाप्तौ गीतसमाप्तिं च कुर्यादित्यर्थः । केचिदित्यादि । पञ्चमवस्तुन आये कलाषट्क इत्यनेन केवलं यथाक्षरेणोत्तरेणेति गम्यते । एतदिति । उपवर्तनमित्यर्थः । निप्रनिप्रेत्यादि । इह; द्विकलापरान्तकस्य वस्तुनि।।९५-१००॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशमस्तालाध्यायः SSSSSSSSSSSS वस्त (१) निम निप निश निता ताश तासं ॥ SSSSSS SISS IS प्रतिशाखा-निता ताश तासं ॥ शीर्षकम-संता शता शता॥ SISS IS SSSSSS तालिका -संता शता शता ॥ मतिशाखा-निता ताश तास । SISSIS SISSIS -सताशता शता -सता शता शता॥ SISSIS प्रतिशाखा-ताश ताश ।। तालिका-संता शता शता ।। SISS IS शीर्षकम् -संता सता शता ॥ इत्येकवस्तु ।। अथ पञ्चवस्तुकम् SISSSSSSSSSS निप्र निप निश निता ताश तासं ॥१॥ SS SS SS SS SS SS निम निप्र निश निता ताश तासं ॥२॥ SSSSSSSSSSSS निष निम निश निता ताश तासं ॥३॥ SSSSSSSSSSSS निष निम निश निता ताश तासं ॥४॥ SISSIS संता शता शता । इत्युपवर्तनम् । SS SS SS SS SS SS निप्र निप्र निश निता ताश तासं ॥५॥ SISSIS सता शता शता॥ इति तालिका ॥ SISSIS संता शता शता॥ इति शीर्षकम् ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः एवं पदान्तरनिर्मिता प्रतिशाखा। एवं षडस्तुकं सप्तवस्तुकं च । इयमेव शाखा । शाखोत्तरार्धस्य प्रतिशाखात्वे प्रतिशखा यथावस्तुनोऽर्धम् । SSSSSSSSSSSS वस्तु (१) निप्र निप्र निश निता ताश तासं ॥ SS SS SS SS SS SS वस्तु (२) निप्र निप्र निश निता ताश तासं ॥ SSSSSSSSSSSS वस्त (३) निप्र निप्र निश निता ताश तासं॥ SSSSSSSSSSSS वस्तु (४) निप्र निप्र निश निता ताश तासं ।। SSSSIS संता शता शता । इत्युपवर्तनम् । SSSSSSSSSSSS निता ताश तासं॥ SSSSSS निता ताश तास॥ प्रतिशाखा ॥ SISS IS संता शता शता॥ तालिका ।। SISSIS संता शता शता।। शीर्षकम् ॥ इति पञ्चवस्तुकम एवं षड्वस्तुकसप्तवस्तुके शाखां चतुर्थशाखान्त उपवर्तनं शाखान्ते पूर्ववत्तालिका शीर्षकं च लिखित्वा वस्तुत्रयात्मकं शाखार्धरूपं प्रतिशाखां, तुर्यवस्त्वन्त उपवर्तनं तालिका शीर्षकं च लिखेत् । एवमेव सप्तवस्तुके वस्तुत्रयात्मकं शाखार्धरूपां प्रतिशाखां तुर्यवस्त्वन्त उपवर्तनयुक्तां तालिकां शीर्षकं च लिखित्वा सार्धवस्तुत्रयाल्मिकां तुर्यवस्त्वन्तोपवर्तनयुक्तां प्रतिशाखां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखा तालिका शीर्षकम् SS SS SS प्रतिशाखा- -निता ताश तासं ॥ १ ॥ - शाखा तालिका शीर्षकम् SS SS SS SS SS SS - निम नि निश निता ताश तासं ॥ १ ॥ पश्चमस्तालाध्यायः S. I SS IS -सता शता शता ॥ १ ॥ SISS IS तालिका -संता शता शता ।। १ ।। SISS IS - संता शता शता ॥ १ ॥ SISS IS शीर्षकम् - संता शता शता ॥ १ ॥ - वस्तु तालिका शीर्षकम् प्रतिशाखा तालिका शीर्षकम् 8 SS SS SS SS SS SS - निम निप्र निश निता ताश तासं ॥ २ ॥ SISS IS - संता शता शता ॥ २ ॥ - SISS IS -संता शता शता ॥ २ ॥ SSSSSS SS SS SS - निम निम निश निता ताश तासं ॥ ३ ॥ SISS IS -संता शता शता ॥ ३ ॥ - SISS IS - संता शता शता ॥ ३ ॥ - SSSSSS -निता ताश तासं ॥ ३ ॥ SISSIS - संता शता शता ॥ ३ ॥ S SS IS - संता शता शता ॥ ३ ॥ - ५७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः SS SS SS SS SS SS शाखा -निम निप निश निता ताश तासं ॥ ४ ॥ SISSIS -संता शता शता॥ ४ ॥ SISSIS संता शता शता॥४॥ SSSSSS प्रतिशाखा-निता ताश तासं॥ ४ ।। ŞI SS IS -संता शता शता ॥४॥ SISSIS संत्ता शता शता॥४॥ SISS IS उपवर्तनम् - संता शता शता ॥ ४ ॥ es & S SS SS SS SS. शाखा -निप्र निम निश निता ताश तासं ॥ ५॥ ŞI SS IS तालिका -संता शता शता ॥ ५ ॥ SISS IS शीर्षकम् -संता शता शता ॥ ५ ॥ SSSSSS प्रतिशाखा-निता ताश तास ॥ ५॥ SI SS IS तालिका --संता शता शता ॥ ५॥ SISS S शीर्षकम् -संता शता शता ॥ ५॥ इति पञ्चवस्तुकम् । एवमेव षड्डन्तुकमपि ॥ इति द्विकलमपरान्तकम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः तालिकां च शीर्षकं च लिखेत् । सर्ववस्तूनां प्रतिवस्तु शाखात्वपक्षे तत्तदर्धानां प्रतिशाखात्वे प्रस्तारः (क०) अस्य प्रस्तारो यथा---गुरुद्वयात्मकान् षट्पादभागान् लिखित्वा तदधो निप्रनिप्रनिशनिताताशतासान् क्रमेण लिखेत् । इदमेकवस्तु । एवं चत्वारि वस्तूनि लिखेत् । ततो यथाक्षरेणोत्तरेणोपवर्तनं लिखेत् । पञ्चमवस्तु लिखित्वा यथाक्षरेणोत्तरेण तालिकां तेनैव शीर्षकं च लिखेत् । इति शाखा । इयमेव प्रतिशाखा । शाखापश्चिमार्धस्य प्रतिशाखात्वे तु पञ्चवस्तुकां शाखां गीत्वा सार्धद्वयमुत्तरं प्रतिशाखां कुर्यात् । यथातृतीयवस्तूतरार्धे गुरुद्वयात्मिकांस्त्रीन्पादभागान् लिखित्वा तदधो निताताशतासान् लिखेत । ततश्चतुथै वस्तु पूर्ववल्लिखेत । ततः यथाक्षरेणोत्तरेणोपवर्तनम् । ततः पञ्चमं वस्तु पूर्ववल्लिखेत् । ततः यथाक्षरेणोत्तरेण तालिका तेनैव शीर्षकं च कुर्यात । अथ सर्ववस्तूनां शाखान्ते तदुत्तरार्धानां प्रतिशाखात्वे तु; यथा-पूर्ववत् प्रथमं वस्तु शाखां कुर्यात् । तदुत्तरार्ध प्रतिशाखां कुर्यात् । एवं त्रीणि वस्तूनि शाखाप्रतिशाखायुक्तानि गीत्वा चतुर्थवस्त्वन्ते यथाक्षरेणोत्तरेणोपवर्तनं कुर्यात् । ततो वस्तूत्तरार्धेन प्रतिशाखां कुर्यात् । ततः पञ्चमवस्तु शाखां कृत्वा यथाक्षरेणोत्तरेण तालिकां तेनैव शीर्षकं च कुर्यात् । ततो वस्तूतरार्धेन प्रतिशाखां कृत्वा पूर्ववत्तालिकाशीर्षके कुर्यात् । एवं षड़स्तुकं सप्तवस्तुकमपि ।। इति द्विकलमपरान्तकम् (मु०) द्विकलमपरान्तकं लक्षयति-द्विकल इति । द्विकले अपरान्तके द्वादशकलं वस्तु; अन्यत्सर्वमेककलमपरान्तकवत् । विशेषस्त्वयम्-एककलं कलद्वयं वोपोहनम् । प्रत्युपोहनं त्वेकैव । कलाचतुर्थे वस्तुनि गीते सति चतुर्थवस्तुनः पदेन गीत्वा चोपवर्तनं गातव्यम् । तच्चतुष्टयवस्तुलयापेक्षया अर्धलयं कार्यम् । तस्य लक्षणमाह-यथाक्षरेणेति । वृत्तिदक्षिणमार्गस्थितेन यथा दक्षिणे षपितापुत्रकेण अर्धे समाप्त जातिन्यासस्वरयुक्तमुपवर्तनमिति । मतान्तर Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० संगीतरत्नाकरः चतुष्कलं तु द्विगुणं द्विकलात्पूर्ववन्मतम् । उपोहनं तु वस्त्वर्ध द्विकलं प्रत्युपोहनम् ॥ १०१ ॥ दक्षिणे वार्तिके त्वेतद् द्विकलं वा चतुष्कलम् । न वा तत्सर्वमार्गेषु विशेषस्तूपवर्तनम् ॥ १०२ ॥ तुर्यवस्तूत्तरार्धस्थैः पदैनिर्माणमिष्यते । आनिविप्रा आनिविप्रा आवापनिविशास्ततः ॥ १०३ ॥ आवापनिविता आताविशास्तानिविसं कलाः । शतालपान्माहुरन्येऽष्टमद्वादशषोडशान् ॥ १०४ ।। माह-केचिदिति । केचित् उपवर्तनं पञ्चमवस्तुन आद्य वस्तुनो गेयमित्याहुः । कलानियममाह-निप्रेति । द्वादशसु कलासु प्रतिवस्तु क्रमात् निष्क्रामप्रवेशनिष्कामशम्या निष्कामतालशम्यातालसंनिपाता: कार्याः ॥-९५-१०० ॥ इति द्विकलमपरान्तकम । (क०) अथ चतुष्कलमपरान्तकं लक्षयति-चतुष्कलं त्वित्यादि । पूर्ववदिति; मद्रकवदित्यर्थः । द्विकलाद्विगुणमिति । वस्तुनि प्रतिपादभागं गुरुचतुष्टयं कर्तव्यमित्यर्थः । उपोहनं तु वस्त्वमिति । वस्त्वधं द्वादशगुरूण्युपोहनं कर्तव्यम् । द्विकलं प्रत्युपोहनमिति । द्विकलं गुरुद्वययुक्तम् । दक्षिणे वार्तिके त्वेतदित्यादि । एतत्प्रत्युपोहनं वार्तिके द्विकलं, दक्षिणे चतुष्कलं चेति यथायोगं योजनीयम् । न वा तदिति । तत्प्रत्युपोहनं न वेति तृतीयः पक्षः । सर्वमार्गेषु विशेषस्तूपवर्तनमिति । चतुष्कलापरान्तके विशेषस्तपवर्तनं सर्वमार्गेपु ध्रुवादिमार्गेषु कर्तव्यमिति । तुर्यवस्तूत्तरार्धस्थैः पदैः निर्माणमिष्यत इत्यत्रास्योपवर्तनस्यत्यध्याहारः कर्तव्यः । आनिविप्रा इत्यादि । वस्तुनि पादभागेषु पातकलायोगो द्रष्टव्यः । शातालपान्माहुरन्ये अष्टमद्वादश षोडशानिति । अन्ये आचार्याः, वस्तुनः चतुर्विशतौ गुरुषु अष्टमद्वादशषोडशान् गुरून् ‘शतालप्रान्' Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथमस्तालाध्यायः ६१ अस्य प्रस्तार: SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विष आनि विश आनि विता || SS SS आता विश आनि विसं ॥ तालिका॥ SISSIS संता शता शता॥ शीर्षकम् ॥ १ ॥ ŞISSIS संता शता शता॥ प्रतिशाखा ॥१॥ SS SS SS SS SS SS आनिविता आताविश तानिविसं ॥ तालिकम् ।। १ ॥ SS SS SS सता शता शता। शीर्षकम् ॥ १॥ SS SS SS संता शता शता॥ एकं वस्त्विति ॥ इत्येकवस्तुकम् प्राहुः । प्रथममष्टमे तु प्रवेश उक्तः, तं शम्यां प्राहुः । प्रथमं द्वादशे शम्योक्तः, त तालमाहुः । प्रथमं षोडशे ताल उक्तः, तं प्रवेशमाहुरिति क्रमेण योजनीयम् ॥ १०१-१०४ ॥ ___ (सु०) चतुष्कलमपरान्तकं लक्षयति--चतुष्कलमिति । द्विकलापरान्तकात द्विगुणम् । चतुर्विशतिकलं द्विकलापरान्तकात चतुष्कलमपरान्तकं कार्यम् । अयं तु विशेष:- अर्धेन वस्तुना उपोहनम् ; कलाद्वयेन प्रत्युपोहनम् ; एतच्चापरान्तकं द्विकलं चतुष्कलं वा दक्षिणवार्तिकयोर्मार्गयोर्गेयम् । उपवर्तने मार्गविशेषो नास्ति । किंतु चतुर्थक चतुष्कलं वा वस्तुन उत्तरार्धे स्थितैः पदैरुपवर्तनस्य निर्माणम् । कलाविधिमाह-आनिविप्रा इति । आद्यस्वरैः आवापादिक्रियानियमः क्रमेण ज्ञातव्यः । मतान्तरमाह-शतालमिति । अष्टमद्वादशषोडशान् शतालप्रान् केचित्पाहुरिति ॥ १०१-१०४ ॥ इति चतुष्कलमपरान्तकम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ संगीतरत्नाकरः अथ पञ्चवस्तुकं यथा – वस्तु शाखा ॥ १ ॥ - SSSSSS SS SS SS SS SS SS SS SS S S आनिवि आनिविप आनिविश आनिविता आनिविश तानिविसं ॥ SSSS SS SS SSSS SSSS वस्तु || २ || आनित्रिम आनिविप्र आनिविश आनिविता SSSS SSSS आताविश आनिविसं ॥ SSSS SSSS SSSS SSSS वस्तु || ३ || आनिविप्र आनिविप्र आनिविश आनिविता SSSS SSS S आताविश आनिविसं ॥ SSSS वस्तु ॥ ४ ॥ निविम SSSS SSSS SSSS आनिविम आनिविश आनिविता SSSS SSSS SISSIS आताविश तानिविसं ॥ उपवर्तनम् ॥ संता शता शता ॥ SS SS SSSS SSSS SS SS SS SS वस्तु ।। ५ ।। आनिविप्र आनिविम आनिविश आताविश तानिविसं ॥ SISSIS SI SS IS तालिका || संता शता शता शीर्षकम् || संता शता शता || एवमुपवर्तनत । लिका शीर्षकसहितपञ्चवस्तुका शाखा । तत एवमेव प्रतिशाखा । शाखापश्चिमार्थस्य प्रतिशाखात्वे तु पञ्चवस्तुकं यथा प्रस्तार : - वस्तु ॥ १ ॥ SSSSSSSS SS SS SSSS SSSS SSSS निमि आनिवि आनिविश आनिविता आताविश तानिविसं ॥ SS SS SS SS SS SS SSSS वस्तु || २ || आनिविप्र आनिविम आनिविश आनिविता SSSSSSSS आताविश तानिविसं ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः ६३ sssssssss वस्तु ॥३॥ आनिविप्र आनिविष आनिविश आनिविता SSSSSSSS आताविश तानिविसं॥ वस्तु ॥ ४ ॥ आनिविप्र आनिविष आनिविश आनिविता SSSSSSSS S S आताविश तानिविसं ॥ उपवर्तनम् ॥ संता शता शता || SS आनिविप्र आनिविष आनिविश आनिविता आताविश तानिविस ॥ तालिका ॥ संता शता शता ॥ शीर्षकम् ।। SISSIS संता शता शता ।। इति पञ्चवस्तुकम् ॥ एवं षड्वस्तु सप्तवस्तुकं च । शाखोत्तरार्धस्य प्रतिशाखापक्षत्वे तु पक्षद्वयं प्रतिशाखा । यथा-पञ्चवस्तुके पूर्ववत्पश्चवस्तुका शाखां लिखित्वा शाखोत्तरार्धरूपा सार्धवस्तुद्वयात्मिका प्रतिशाखायाः शाखातृतीयवस्तूत्तरार्धादिसार्धवस्तु ॥ प्रस्तारः ssssssssssssssss वस्तु ॥१॥ SSSSSSS.. आताविश तानिविसं ॥ एवं वस्तुचतुष्टयम् । उपवर्तनम् ॥ संता SS SS शता शता॥ SS SS SS SS SS SS SS SS वस्तु ॥ ५ ॥ आनिविप्र आनिविप्र आनिविश आनिविता आनिविज्ञ तानिविर्स ॥ प्रतिशाखेयम् ॥ आनिविप्र आनिविप्र निविता Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः SS SS SS SS SS SS तालिका ॥ संता शता शता ॥ शीर्षकम् ॥ संता शता शता ।। एवं षड्वस्तु सप्तवस्तुकमपि ज्ञेयम् ॥ सर्ववस्तूनां प्रतिशाखात्वपक्षे तदुत्तरार्धानां प्रतिशाखात्वे प्रस्तारः SS SS SS SS SS SS SS SS शाखा-॥१॥ आनिविप्र आनिविप्र आनिविश आनिविता sssssss.. आनिविश तानिविसं ॥ SISS IS SISSIS शीर्षकम् ॥ संता शता शता ॥ तालिका ॥ संता शता शता ॥ SSSSSSSSSSSS प्रतिशाखा ॥१॥ आनिविता आनिविश तानिविसं ।। SISSIS SI SS IS तालिका ॥ १ ॥ संता शता शता ॥ शीर्षकम् ॥ संता शता शता॥ SISS is शीर्षकम्-संता शता शता । SS SS SS SS SS SS SS SS शाखा-॥२॥ आनिविप्र आनिविप्र आनिविता आनिविश SSSS SS SSSS तानिविसं ॥ शीर्षकम् ॥ २ ॥ संता शता शता ।। तालिका ॥२॥ SS SS SS SS SS SS SS संता शता शता ॥ प्रतिशाखा ॥२॥ आनिविता आनिविश SSSS IS SISS आनिविसं ॥ तालिका ॥ २ ॥ संता शता शता । शीर्षकम ॥२॥ SS SS SS संता शता शता॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः ६५ आनिविसं ॥ तालिका sss ss . SS SS SS SS SS SS SS SS शाखा ॥३॥ आनिविप्र आनिविप्र आनिविता आनिविश SSSS SS SS il तानिविसं ॥ शीर्षकम् ॥ ३ ॥ संता शता शता ॥ तालिका ॥ ३ ॥ ... Har Har ॥ प्रतिशाखा ॥३॥ आनिविता आनिविश SS SS SS SS संता शता शता SSSS आनिविसं ॥ तालिका ॥३॥ संता शता शता॥ शीर्षकम ॥३॥ SS SS SS संता शता शता॥ SS SS SS SS SS SS SS SS शाखा ॥४॥ आनिविप्र आनिविप्र आनिविता आनिविश SSSS ISIS IS तानिविसं || संता शता शता॥ तालिर ॥ ४ ॥ IS SISS SS SS SS SS संता शता शता || प्रतिशाखा ॥ ४॥ आनिविता आनिविश issisi आनिविसं ।। तालिका ॥ ४ ॥ संता शता शता ॥ शीर्षकम् ॥ ४ ॥ IS SS IS संता शता शता ।। शाखा ॥ ५॥ आनिवि अनि अनि म SSSSSSSS SI SIIS आनिविश तानिविसं ५॥ संता शता शता || $S IS SI SSSS तालिका ॥ ५॥ संता शता शता॥ प्रतिशाखा ॥ आनिविता SSSSSSSS is ss is आनिविश तानिविस ।। तालिका ॥ संता शता शता || शीर्षकम् ।।५।। !S SS IS संता शता शता ॥ एवं पञ्चवस्तुकभेदाः । एवं षड्वस्तुसप्तवस्तुकम् ॥ इति चतुष्कलमपरान्तकम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः भेदैरेककलायैः स्यादुल्लोप्यकपपि द्विधा । भवेदेककले तस्मिन् गुरुद्वन्द्वं लघुद्वयम् ॥ १०५ ॥ (क०) अस्य प्रस्तारो यथा-गुरुचतुष्टयात्मकान् षट्पादभागान् लिखित्वा तदधः प्रथमपादभाग आनिविप्रान् , द्वितीये आनिविसमित्येतान् लिखेत् । इत्येकं वस्तु । एवं चत्वारि वस्तूनि गीत्वा, यथाक्षरोत्तरेणोपवर्तनं गायेत् । ततः पूर्ववत्पञ्चमं वस्तु लिखेत् । ततो यथाक्षरोत्तरेण तालिकां शीर्षकं च लिखेत् । एवमुपवर्तनतालिकाशीर्षकसहितपञ्चवस्तुका शाखा । तत एवमेव प्रतिशाखा । शाखापश्चिमार्धस्य प्रतिशाखात्वे तु पञ्चवस्तुके पञ्चवस्तुकां शाखां गीत्वा तृतीयवस्तूत्तरार्धादिसार्धवस्तुद्वयं प्रतिशाखां कुर्यात् । यथा त्रिषु पादभागेषु द्वादशगुरुन् लिखित्वा तदध आनिविशान् , आताविशान् , आनिविसांश्च लिखेत् । इति तृतीयवस्तुत्तरार्धम् । ततः पूर्ववच्चतुर्थपञ्चमवस्तुनी लिखेत् । ततस्तालिका शीर्षकं च यथोत्तरेण लिखेत् । अथ सर्ववस्तूनां शाखात्वे तदुत्तरार्धानां प्रतिशाखात्वे तु यथाप्रथमं समस्तं वस्तु लिखित्वा शाखां कुर्यात् । ततस्तदुत्तरार्धे लिखित्वा प्रतिशाखां कुर्यात् । एवं त्रीणि वस्तूनि शाखाः, तदुत्तरार्धानि प्रतिशाखाः । ततश्चतुर्थ वस्तु शाखां लिखित्वा यथाक्षरेणोत्तरेणोपवर्तनं लिखेत् । ततो वस्तूत्तरार्ध प्रतिशाखां कृत्वा पञ्चमं वस्तु शाखां लिखेत् । ततस्तालिकां शीर्षकं च यथाक्षरेणोत्तरेणोपवर्तनं लिखेत् । ततो वस्तूत्तरार्धेन प्रतिशाखां कृत्वा पञ्चमादिशाखां लिखेत् । ततस्तालिका शीर्षकं च यथाक्षरेणोत्तरेण लिखेत् । ततो वस्तूत्तरार्धन प्रतिशाखां यथाक्षरेणोत्तरेण तालिका शीर्षकं च लिखेत् । इति पञ्चवस्तुकस्य भेदाः ॥ इति चतुष्कलमपरान्तकम् (क०) अथोल्लोप्यकं लक्षयति-भेदैरित्यादि । एककलायैः; एककलद्विकलचतुष्कलायैः । एककले मात्राप्रमाणमाह--भवेदित्यादि । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच मस्तालाध्यायः गुर्वन्ते चेति मात्रैका तच्च मात्रासमाप्तिकम् । farmsgrat मात्रा द्विगुणा तु चतुष्कला ॥ १०६ ॥ मात्रापूर्वेदले कार्यों विविधो मुखसंज्ञकः । पश्चिमा प्रतिमुखं विविध वृत्तसंयुतः ।। १०७ ।। वृत्तं तित्रतत्रो वा पञ्च षड्ढा विदारिकाः । ६७ गुरुद्वन्द्वं लघुद्वयम् अन्ते गुरु चेत्येका मात्रेति योजना । तच्चेति; एककलोलोप्यकम् । मात्रासमाप्तिकमिति; मात्रायां समाप्तिर्यस्येति व्यधिकरणो बहुव्रीहिः । एकमात्रयैव समाप्यत इत्यर्थः । द्विकल इत्यादि । द्विकल उल्लोप्यके, अष्टकला अष्टौ गुरव एका मात्रा भवेत् । अथवा द्विकले मात्रा अष्टकला अष्टौ कला यस्याः सा तथोक्ता । चतुष्कल उल्लोप्यके तु मात्रा द्विगुणा । द्विकलमात्रापेक्षया द्विगुणा । षोडशकलेत्यर्थः । मात्रापूर्वदल इति । त्रिविधस्याप्युल्लोप्यकस्य मात्रायाः पूर्वदले पूर्वार्ध एक कलस्य गुरुद्वये द्विकलस्य गुरुचतुष्टये चतुष्कलस्य गुर्वष्टके विविधः कार्यः । 'विविधो द्विविदारीकः' इत्युक्तलक्षणो गीताङ्गविशेषः । स एष मुखसंज्ञकः । पश्चिमार्थे वृत्तसंयुतः कृतो विविधः प्रतिमुख इत्युच्यते ॥ १०५-१०७ ॥ (सु०) उक्लोप्यकं विभजते-भेदैरिति । उल्लोप्यकस्य त्रयो भेदाः । एककलं, द्विकलं, चतुष्कलमिति । एतानि लक्षयति — भवेदित्यादिना । उल्लोप्यके गुरुद्वयं लघुद्वयम् अन्ते गुरुदेका मात्रा । तच्च ; एककलोलोप्यकमपि, मात्रया समाप्यते ; द्विकले अष्टाभिः कलाभिरेका मात्रा ; चतुष्कले द्विगुणा षोडशकला मात्राः स्थाप्य, तेषु मात्रायाः पूर्वार्धे मुखसंज्ञको विविधः द्विविदारीकः कर्तव्यः । पश्चिमा वृत्त संयुतो विविधः प्रतिमुखसंज्ञकः कार्यः ॥ १०५ - १०७ ॥ ( क ० ) वृत्तस्य स्वरूपमाह — वृत्तं तिस्रश्चतस्रो वा पञ्च षड़ वा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अवगाढं प्रवृत्तं च तद् द्विधेति निरूपितम् ॥ १०८ ।। आद्यमारोहिवर्णेन प्रवृत्तमवरोहिणा । न्यासापन्याससंन्यासविन्यासानां तु कुत्रचित् ॥ १०९ ॥ न्यासोऽस्यांशेऽस्य संवादिन्यनुवादिनि वा भवेत् । अनन्तरस्वरैरेकान्तरितैर्वा समापनम् ॥ ११० ॥ विदारीणां भवेदवेत्यभ्यधत्त विशाखिलः । अन्यत्र न्यासमपन्यासमंशं संवादिनं तथा ॥ १११ ॥ उपक्रम्य चतुर्धा स्यादारोहो वावरोहणम् । वैहायसं विधातव्यं मात्रोपरि चतुष्कले ॥ ११२ ॥ विदारिका इति । तत् ; वृत्तम् । अवगाहं प्रवृत्तं चेति द्विधा निरूपितम् । आरोहिणा वर्णेन आद्यमवगाढम् । अवरोहिणा वर्णेन प्रवृत्तमिति तयोर्ल. क्षणम् । न्यासेत्यादि । अस्य वृत्तस्य न्यासो रागन्यासादिप्वंशे वा कुचिद्भवति । अस्य संवादिन्यनुवादिनि वा भवेदिति । अस्येति । अंशम्य ॥ १०८, १०९. ॥ (मु०) वृत्तलक्षणमाह---वृत्तमिति | विदारीसमुदायो वृत्तमित्युच्यते । तत; वृत्तं द्विविधम् । अवगाढं प्रवृत्तं चेति । आरोहिवर्णेन विरचितमवगाढम् । अवरोहिवर्णेन विरचितं प्रवृत्तमिति । अस्य वृत्तस्य गगजनकजातेयासापन्याससंन्यासविन्यासस्वराणामेकस्मिन्नंशस्वरे वा अंशस्य संवाद्यनुवादिनि वा न्यासः समाप्तिः भवेत् ॥ १०८, १०९-॥ (क०) विशाखिलमतेन विदारीणां न्यासमाह -- अनन्तरस्वरैरित्यादि । अनन्तरस्वरैः; अंशस्वरसंनिहितैः । एकान्तरितैः; अंशस्यैकान्तरितैः । समापनम् ; न्यासः । अत्रेत्यादि । अत्र ; वृत्ते । आरोहणमवरोहणं वा न्यासादिषु चतुर्वेकतमोपक्रमेण चतुर्धा भवति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमस्तालाध्यायः यद्वा कलाप्रयोगेण शून्यान्मात्रोपरिस्थितान् । कलाचतुष्ककालात्स्यादेककत्रितयादिदम् ॥ ११३ ॥ एकाङ्गादिषडङ्कान्तं द्वादशाङ्कान्तमप्यदः । विविधोऽस्याद्यमङ्गं स्यादेककानि ततः परम् ॥ ११४ ॥ तद् द्वादशकलं प्रोक्तमुल्लोप्यकसमापकम् । ६९ ; वैहायसमित्यादि । चतुष्कले मात्रोपरि वैहायसं विधातव्यमित्यन्वयः । चतुष्कले ; चतुष्कलोलो प्यके । मात्रोपरि षोडशकलात्मिकाया मात्राया अनन्तरं वैहायसं नामाङ्गं कर्तव्यम् ॥ ११० - ११२ ॥ ; (सु०) मतान्तरमाह - अनन्तरस्वरैरिति । विदारीणां तु समापनं संवाद्यनुवादीनामनन्तग्स्वरैरेकान्तरितस्वरैर्वा कर्तव्यम् । विशाखिलग्रहणं प्रशं सार्थम् | अत्रेति । अत्र; वृत्ते, चतुर्धा आरोहणम्, अवरोहणं च कर्तव्यम् । न्यासस्वरमारभ्य वा परं न्यासस्वरम् । अंशस्वरं तु तत्संवादिनं वा, आरोहो वावरोहणं चेति । चतुष्कले विशेषमाह - वैहायसमिति । चतुष्कले ; चतुष्कलोल्लोप्यके मात्रानन्तरं वैहायसं कर्तव्यम् ॥ ११०-११२ ॥ (क०) पक्षान्तरेण वैहायसं प्रयोजयति - यद्वेति । कलाप्रयोगेण शून्यादिति; 'वैहायसे तु निविशा:' इत्यादिना वक्ष्यमाणेन कलाप्रयोगेण रहितात् । कलाचतुष्ककालादिति । गुरुचतुष्टय मितकालादनन्तरम | एककत्रितयात्; एककानि नाम गीताङ्गानि तेषां त्रितयात् । इदम् पूर्वोक्तं वैहायसं स्यात् । एकाङ्गादिति । अदः एतद्वैहायसम् । एकाङ्गादिषडङ्कान्तमिति । एकस्मिन्पक्षे षड्भेदयुक्तम् । द्वादशाङ्गान्तमिति | पक्षान्तरे द्वादशभेदयुक्तमित्यर्थः । सर्वेषु भेदेषु आद्यमङ्गं विविधः स्यात् । ततः परमङ्गान्येककानि भवन्ति । एकाङ्गदेशे विविधः । एवं द्वयङ्गादिभेदेषु द्वितीयादीन्यङ्गान्येककानि भवन्तीत्यर्थः । तदिति ; तद्वै Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० संगीतरत्नाकर: वर्णानुकर्षणं तालवृत्तिर्वाङ्गनिवेशने ॥ ११५ ॥ यद्वा शाखेयमुदिता मात्रा वैहायसात्मिका । शाखैत्र प्रतिशाखोक्ता सा त्वन्यपदनिर्मिता ॥ ११६ ॥ ततोऽन्ताहरणं प्रोक्तं गीतकस्य समाप्तिकृत् । वृत्तं संहरणेऽत्र स्यादन्यदा त्वेककं भवेत् ॥ ११७ ॥ विविध वा त्रिधान्तोऽथ युगयुमिश्रभेदतः । युग्मोsन्तः प्रथमस्तेषां त्र्यश्र इत्याह दत्तिलः ॥ ११८ ॥ स्थितं प्रवृत्तमपरं महाजनिकमित्यपि । त्रीण्यङ्गानि पृथक्तेषां लक्षणं प्रतिपाद्यते ॥ ११९ ॥ हायम् । द्वादशकलम् ; द्वादशगुरुकालमितम् । उल्लोप्यकसमापकम् ; उल्लोप्यकस्य समाप्तिकृत् । अङ्गनिवेशने; अङ्गानां विविधादीनां निवेशने प्रयोगे; वर्णानुकर्षणम् ; वर्णानामक्षराणाम्, अनुकर्षणं पुनरुच्चारणम् । तालावृत्तिश्च कर्तव्ये भवतः । यद्वेत्यादि । वैहायसात्मिका इयं मात्रा केषांचिन्मते शाखेत्युदिता । केचिद्वैहायसमेव शाखां वदन्तीत्यर्थः । सा शाखैव अन्यपदनिर्मिता प्रतिशाखेत्युक्ता । ततो यथाक्षरे पञ्चपाणौ अन्ताहरणं नामाङ्गं प्रोक्तम् । गीतकस्य उल्लोप्यकस्य समाप्तिकृत् एतदन्ताहरणमेव संहरणमिति संज्ञान्तरेणापि प्रोक्तम् । अत्र संहरणे वृत्तं स्यात् । वृत्तं नाम ; ' वृत्तं तिस्रश्चतस्रो वा पञ्च षड़ा विदारिका: ' इत्यादिनोक्तलक्षणमित्यनुसंधेयम् । अन्यदा त्विति । अन्ताहरणाभावपक्षे त्वेककं विविधो वा भवेत् । अथ; अन्ताहरणानन्तरम् । अन्तः; अन्तो नामाङ्गविशेषः । युगयुमिश्रभेदत इति । युगिति युग्मः ; अयुगित्ययुग्मः ; मिश्र इति युग्मायुग्मः ; एवं त्रेधा भवति । तेषामिति ; त्रयाणां मध्ये । युग्मोsन्त: प्रथम इति । भरतादिमतेनेति शेषः । दत्तिलस्तु व्यथः प्रथम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः युग्मे द्विकलयुग्मेन स्थितं स्थायिगतं मतम् । तेनैव तत्प्रवृत्तं स्यादुद्धट्टस्तत्कलात्रये ॥ १२० ।। इत्याह । त्र्यश्रोऽयुग्मः । स्थितमित्यादि । तेषां युग्मादीनां पृथक् प्रत्येक स्थितं प्रवृत्तं महाजनिकमिति त्रीण्यङ्गानि ॥ ११३-११९ ।। (सु०) पक्षान्तरमाह-यद्वेति । अथवा मात्रानन्तरं प्रयोज्यमानात् कलाप्रयोगशून्यं कलाचतुष्टयानन्तरं वैहायसं गेयम् । इदं तु कलाचतुष्टयानन्तरं विहितं वैहायसं एककलत्रितयात्स्यात् । एककले द्विकले चतुष्कले चेति उल्लोप्यके कर्तव्य इत्यर्थ. । एकाङ्गादिति । आदौ वैहायसम् , एकमङ्गमादौ यस्य तत् । तथा षडङ्गान्यन्ते यस्य । अथवा द्वादशाङ्गान्तं वा कर्तव्यम् । किमङ्गमादौ कानि चान्त इत्यपेक्षायामाह-विविध इति । अस्य वैहायसस्य पूर्वं च लक्षितो विविध आद्यमङ्गम् । एककानि परम् अन्त्यमङ्गम् । तस्य वैहायसस्य लक्षणमाह- तदिति । द्वादशकलानिबद्धं तद्वैहायसम् उल्लोप्यकं समापयति । अङ्गसहितस्य वैहायसस्य संज्ञान्तराण्याह-वर्णानुकर्षणमिति । इयं वैहायसरूपा मात्रा अङ्गनिवेशने सति पुनरुच्चारणं वर्णानुकर्षणमित्युच्यते, तालावृत्तिश्च कर्तव्यः । शाखेति । शाखावदेव प्रतिशाखा । किंतु सा अन्यैः पदैर्वा आम्नायते। अतश्च सापि वैहायसानन्तरं गेयेत्यर्थः । अत्रेति । अत्र ; उल्लोप्यके। यताक्षरे षपितापुत्रके अन्ताहरणं कर्तव्यमित्युक्तम् । तदेव संहरणमित्युक्तं भवति । अनेन गीतस्य समाप्तिर्भवति । वृत्तसंहरणनामानि तु अन्ताहरणे यदा उपनिबद्धमेककमङ्गं स्यात् । विविधो वा भवेदिति संबन्धः । त्रिधेति । अथ ; अन्ताहरणानन्तरं त्रिविधोऽन्तः कर्तव्यः । युक् अयुक् मिश्र इति । तेषामन्तानां मध्ये अन्तः त्र्यश्रयुक प्रथम इति दत्तिल आह । स्थिमिति । तेषां त्रयाणामन्तानां प्रत्येकं त्रीण्यङ्गानि स्युः ; स्थितं प्रवृत्तं महाजनिकमिति ॥ ११३-११९ ॥ (क०) स्थितादीनां लक्षणमाह-युग्म इत्यादि । युग्मे, अन्ते द्विकलयुग्मेन द्विकलचच्चत्पुटेन । स्थायिगतं; स्थायिवर्णगतम् , स्थायिस्वरगतम् । तेनैवेति । द्विकलचञ्चत्पुटेनैव; तत्प्रवृत्तं युग्मप्रवृत्तं स्यात् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः आये कलाचतुष्केऽन्त्ये पदानि पाश्चि योजयेत् । विविधोऽस्याद्यभागे स्यादेककं तु ततः परम् ॥ १२१ ।। पूर्वार्धस्थपदात्या युङमहाजनिक विदुः । स्थिततालयुतं तस्य गीताङ्गनियमो न च ॥ १२२ ॥ व्यश्रेऽन्ते व्यश्रतालेन द्विकलेन स्थितं भवेत् । यथाक्षरेणोत्तरेण प्रवृत्तं तत्र कीर्तितम् ॥ १२३ ।। ध्यश्रेण महाजनिकं महाजनिकवन्मतम् । तत् ; तत्र । आये कलात्रय उद्घट्ट इति । उद्धट्टके तु निष्कामं शम्याद्वयं च योजये दित्युद्धट्टोक्ताः पातकला निशशा योजनीया इत्यर्थः । अन्त्ये कलाचतुष्के प्राश्चि पदानि योजयेदिति । आद्यकलाचतुष्कोक्तान्येव पदान्यन्त्यकलाचतुष्केऽपि गायेदित्यर्थः । अस्येति । युग्मप्रवृत्तस्य । आद्यमङ्गं विविधः स्यात् । ततः परं त्वेककं स्यात । पूर्वार्धस्थेत्यादि । पूर्वार्धस्थपदाढत्येति । महाजनिके पूर्वार्धस्थितानामेव पदानामावृत्तिः कर्तव्या, नोत्तरार्धस्थितानामित्यर्थः । युङ्महाजनिकमिति । युग्मे महाजनिकम् । स्थिततालयुतमिति । युग्मस्थिते यस्ताल उक्तो द्विकलचच्चत्पुटः, तेन युक्तमित्यर्थः । तस्य ; महाजनिकस्य. गीताङ्गनियमः; विविधादीनां गीताङ्गानां नियमो न चेति यथारुचि कर्तव्यानीत्यर्थः । व्यश्रेऽन्त इत्यादिना। द्विकलेन व्यश्रतालेन द्विकलचाचपुटेन स्थितं भवेत । तत्र; त्र्य) अयुग्मे यथाक्षरेणोत्तरेण प्रवृत्तं कीर्तितम् । ज्यश्रेण महाजनिकं व्यश्रेण द्विकलचाचपुटेन । महाजनिकवदिति । युग्ममहाजनिकवत पूर्वार्धस्थपदावृत्त्या कर्तव्यमित्यर्थः ॥ १२०-१२३. ॥ _ (मु०) एतेषां लक्षणमाह--युग्म इति । युग्मे अन्ते, द्विकलयुग्मेन चच्चत्पुटेन स्थायिवर्णगतं स्थितमित्युच्यते । तेनैव द्विकलेन चच्चत्पुटेन वृत्तं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः ७३ मित्रोऽन्तः षड़िधः प्रोक्तो युग्मायुग्माङ्गमिश्रणात् ॥ १२४ ॥ एककं विविधो वा स्यादनुक्ताङ्गस्थितादिषु । विविधाभ्यां वैककाभ्यां यद्वा युग्मस्थितं भवेत् ।। १२५ ।। अयुगन्यतराङ्गं स्यात्मवृत्तं स्थितवन्मतम् । प्रवृत्ताभ्यां प्रवृत्तेन युगयुग्मं परेऽब्रुवन् ॥ १२६ ॥ महाजनिकमन्तः स्यादयङ्गमेकाङ्गकं परम् । यो यदा तदान्तः स्यान्महाजनिकवर्जितः ॥ १२७ ॥ स्थितप्रवृत्तहीनोऽयं यदैकाङ्गश्चिकीर्षितः । स्यात् । किंतु तत्कलाश्रय आये कलाचतुष्के उद्घट्ट: । अन्त्ये पूर्वपदानि गायेत् । आद्ये रागे विवधः; अन्त्ये एककानीति । पूर्वार्धस्थानां पदानामावृत्तिश्चेत् तदा प्रवृत्तं महाजनिकमिति भरतादयो विदुः । तन्महाजनिकं स्थितं विलम्बितस्थले लयो यस्य । अथवा स्थितस्य अङ्गस्य यस्ताल: तद्युक्तं कर्तव्यम् । गीताङ्गनियमो नास्ति । त्र्य इति । अयुग्मं चेत्, तदा चाचपुटतालेन द्विकलेन स्थितं भवेत् । यथाक्षरेण षट्पितापुत्रकेण प्रवृत्तं भवेत् । द्विकलेन चाचपुटेन महाजनिकं भवेत् । तदेव महाजनिकं युग्ममहाजनिकवत् कर्तव्यमित्यर्थः ॥ १२०-१२३- ॥ (०) मिश्रोऽन्त इत्यादि । युग्मायुग्माङ्गमिश्रणादिति । युग्माङ्गस्य अयुग्माङ्गस्य च मिश्रीकरणात् षड्विधो भवतीत्यर्थः । अनुक्ताङ्गस्थितादिविति । अनुक्तानि विविधाद्यङ्गानि येषां तानि अनुक्ताङ्गानि | तानि स्थितादीनि स्थितप्रवृत्तमहाजनिकानि तेषु । एककं वा विविध वा यथाकामं भवति । विविधाभ्यां वैककाभ्यां यद्वा युग्मस्थितं भवेत् । अयुगन्यतराङ्गं स्यात्ववृत्तं स्थितवन्मतम् इत्यत्र षडपि मिश्रभेदा द्रष्टव्याः । या विविघाभ्यां वैककाभ्यां वा उभयाद्वा युग्मस्थितं प्रथमं भवेत् । प्रवृत्तं स्थितवन्मतमिति । विविधाभ्यामेककाभ्यां वा युग्मप्रवृत्तं भवेदि - 10 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ संगीतरनाकरः त्यर्थः । अयुगन्यतराङ्गमिति । युग्मानापेक्षया अयुग्मसंबन्धि महाजनिकादिकमङ्गं भवेदित्यर्थः । प्रथमभेदे युग्मस्य स्थितप्रवृत्ते ओजस्य महाजनिक कर्तव्यम् । द्वितीये मिश्रभेद ओजस्य स्थितप्रवृत्ते युग्मस्य महाजनिक च । तृतीये भेदे युग्मस्य स्थितमोजस्य प्रवृत्तमहाजनिके च । चतुर्थे भेद ओजस्य स्थितं युग्मस्य प्रवृत्तमहाजनिके च । पञ्चमे भेदे युग्मस्य स्थितमोजस्य प्रवृत्तं युग्मस्य महाजनिकं च । षष्ठे भेदे ओजस्य स्थितं युग्मम्य प्रवृत्तमोजस्य महाजनिकं चेति षट्सु भेदेषु लक्षणं यथायोगं योजनीयम् । प्रवृत्ताभ्यां प्रवृत्तेन युगयुग्मं परेऽबुवन् । महाजनिकम् इति । परे; आचार्याः । प्रवृत्ताभ्यामिति सहार्थे तृतीया। प्रवृत्ताभ्यां सहितं महाजनिकं प्रवृत्तेन सहितं महाजनिकं च । युगयुग्मम् ; युक् चायुग्मं चेति द्वन्द्वः । मिश्रमित्यर्थः । एवं मिश्रमतमब्रुवन् । पुनरन्तस्य द्वैविध्यमाहअन्तः स्यादिति । महाजनिकवर्जित इति । स्थितप्रवृत्ताभ्यामेव द्वयङ्गो भवतीत्यर्थः । स्थितप्रवृत्तिहीनोऽयमिति । महाजनिकैनैव एकाङ्गो भवतीत्यर्थः ॥ १२४-१२७- ॥ (सु०) मिश्रोऽन्न इति । युग्मम ; संकरागतम् । मिश्रोऽन्तः षडिधः । युग्मस्य स्थितप्रवृत्ते अयुग्मस्य महाजनिकमित्येकः । अयुग्मस्य स्थितप्रवृत्ते युग्मस्य महाजनिकमिति द्वितीयः । अयुग्मस्य स्थितं युग्मस्य प्रवृत्तं महाजनिकमिति तृतीयः । युग्मस्य स्थितम् अयुग्मस्य प्रवृत्तं महाजनिकमिति चतुर्थः । युग्मस्य स्थितं अयुग्मस्य प्रवृत्तं युग्मस्य महाजनिकमिति पञ्चमः । अयुग्मस्य स्थितं युग्मस्य प्रवृत्तम् अयुग्मस्य महाजनिकमिति षष्टः । एकमिति । अनुक्तानां विविधाद्यङ्गानाम् एषु स्थितप्रवृत्तमहाजनिकेषु एककं विविधो वा ग्राह्यः । पक्षान्तरमाह-विविधाभ्यामिति । अयुग्मस्यान्तस्य स्थितं विविधद्वयेन एककद्वयेन च युग्मलितं कार्यम् । अयुग्मस्य तु स्थितम् अन्यतराङ्गं स्यात् । विविधो वा, एककं वा तत्राङ्गत्वेन ग्राह्यमित्यर्थः । मतान्तरमाह-प्रवृत्ताभ्यामिति । तत्र युगयुग्मे प्रवृत्तद्वयेन अयुग्मम् एकेन प्रवृत्तेन कर्तव्यमित्याहुः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः शताशतासमित्येककल उल्लोप्यके कलाः ॥ १२८ ॥ द्विकले स्युनिशनिता शतानिसमिति क्रमात् । चतुष्कले त्वानिविशास्तत आनिविताः क्रमात ॥ १२९ ।। भवन्त्याशविता आनिविसं मात्रा मताः कलाः । वैहायसे तु निविशानिवितानि शताशताः ।। १३० ॥ संनिपातश्चेति कलाः स्थिते नि: पञ्चमो भवेत् । शताशतासंनिपाताः प्रवृत्ते त्रिकलादनु ॥ १३१ ।। महाजनिकमिति । अङ्गद्वयेन सहितं कार्यम् । यदा अन्तः मिश्रः क्रियते, तदा महाजनिको हीनः । द्वयङ्ग इति । स्थितप्रवृत्ताभ्यां युक्तः कर्तव्यः । स्थितप्रवृत्तहीनोऽयमिति । यदा अयं महाजनिकः स्थितप्रवृत्तहीनः, तदा एकाङ्गश्च महाजनिकेनैव भवति ॥ १२४-१२७ ॥ (क०) अथैककलाद्युलोप्यकभेदानां पातकलायोगं दर्शयति-शताशतासमित्यादिना । स्थिते निः पञ्चमो भवेदिति । युग्मे द्विकलयुग्मेनति युग्मस्थिते द्विकलवच्चच्चत्पुट उक्तः । तस्य च 'निशौ नितासप्रनिसं द्विकले युग्मके मताः' इति पातकलायोगः पूर्वमेवोक्तः । तेन पञ्चमस्य गुरोः शम्यायां प्राप्तायां तदपवादत्वेन निष्कामोऽनेन विधीयते । पञ्चमादन्य पूर्वोक्ता एव ॥ १२८-१३०. ॥ ___ (सु०) कलाविधिमाह-शतेति । एककले उल्लोप्यके शम्यातालसंनिपाताः। द्विकले तु; निष्क्रामशम्यानिक्रामतालशम्यातालनिष्क्रामसंनिपाताः । चतुष्कले तु; आवापादयः षोडश आद्याक्षरैतिव्याः । वैहायसे तु; निष्कामादयः संनिपातान्ता द्वादश । स्थिते ; निष्क्रामः पञ्चमः । पञ्चमादन्याः कला: द्विकलचच्चत्पुटवत् तत्र प्रवृत्त: कलात्रयानन्तरं पञ्चसु कलासु शम्यातालशम्यातालसंनिपाता: ॥ १२८-१३०- ॥ (क०) त्रिकलादन्विति । प्रवृत्ते; 'उद्घट्टस्तु कलात्रय, आये' Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः उयश्रे स्थिते चतुर्थः प्र इत्युल्लोप्ये कलाविधिः । वैहायसादिनियुक्तमथवा स्याच्चतुष्कलम् ॥ १३२ ॥ अन्तान्तमन्ताहरणप्रान्तं वैहायसान्तिमम् । मात्रामात्रमिति प्रोक्तं तच्चतुर्था पुरातनैः ॥ १३३ ॥ इत्युक्तत्वात् तदनन्तरे कलापश्चके शताशतासंनिपाताः कर्तव्या भवन्ति । व्यश्रे स्थिते चतुर्थः । इति । ज्यश्रे; चाचपुटे निशौ ताशौ निसमिति ज्ञेयाः ; चाचपुटे क्रमादित्युक्तत्वात् , चतुर्थे शम्यायां प्राप्तायां तदपवादत्वेन निष्क्रामोऽनेन विधीयते । चतुर्थादन्ये पूर्वोक्ता एव । हायसादिनियुक्तमित्यादि । अथवा इति पक्षान्तरप्रदर्शनम् । चतुष्कलमुल्लोप्यकं वैहायसादिनिर्युक्तम् । आदिशब्देन अन्तान्ताहरणान्तयोर्ग्रहणम् । वैहायसान्ताहरणान्तैर्वजितं भवतीत्यर्थः । अन्तान्तमित्यादि । तच्चोलोप्यमन्तान्तं कदाचिन्मात्रायाः समनन्तरं वैहायसे तदनन्तरमन्ताहरणे तदनन्तरमन्ते च प्रयुक्ते सत्यन्तान्तमुल्लोप्यं भवति । अन्ताहरणप्रान्तमिति । कदाचिन्मात्रावैहायसान्ताहरणेषु पूर्ववत्प्रयुक्तेप्वन्ताहरणान्तमुल्लोप्यं भवति । वैहायसान्तिममिति । कदाचिन्मात्रावैहासयोरेव प्रयुक्तयोवैहायसान्तिममुल्लोप्यं भवति । मात्रामात्रमिति । कदाचिन्मात्रायामेव प्रयुक्तायां मात्रामात्रमुल्लोप्यं भवति । वैहायसादिनिर्युक्तमित्यर्थः ; इति पुरातनः आचार्यैः चतुर्थोक्तम् ॥१३१-१३३॥ (सु०) आद्यकलात्रये तु द्विकलचच्चत्पुटोक्तः । तत्र स्थिते चतुर्थः प्रवेशः। अन्यत् द्विकलचाचपुटवत् । वैहायसादिभि: चतुष्कलमुल्लोप्यकं वैहायसान्ताहरणान्तहीनं कर्तव्यम् । अथवेति पक्षान्तरे । तत्; उल्लोप्यकमपि । कचित् अन्तान्तं भवति । क्वचित् अन्ताहरणप्रान्तं भवति । कदाचित् वैहायसान्तिम भवति । कदाचित् मात्रामात्रं भवतीति चत्वारः पक्षा: पुरातनः आचार्यैः वैकल्पिकत्वेन निर्दिष्टाः ॥ १३१-१३३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तारः SS IIS शता शता सं । इत्येककलोप्यकमात्रा । पश्चमस्तालाध्यायः SS SS SS SS निशा निता शता निसं । इति द्विकलमात्रा | चतुष्कलमात्रा | SS SS SS S S SS SS SS S आनि विश आनि विता आशा विता आनि विसं । इति ७७ इति मात्रामात्र मुल्लोप्यकम् (क० ) अस्य प्रस्तारो यथा - गुरुद्वयं लघुद्वयं गुरुं च लिखित्वा तदधः शताशतासान् लिखेत । इत्येककलोल्लोप्यकमात्रा । ततः सविच्छेदं गुरुचतुष्टयद्वयं लिखित्वा तदधो निशनितान् शतानिसांश्च लिखे । इति द्विकलोल्लोप्यकमात्रा । ततः सविच्छेदं गुरुचतुष्कचतुष्टयं लिखित्वा तदधस्तात् आनिविशान्, आशावितान्, आनिविसांश्च क्रमेण लिखेत् । इति चतुष्कलोल्लोप्यकमात्रा ॥ इति मात्रामात्र मुल्लोप्यकम चतुष्कलमुल्लोष्यकम् | , SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विश आनि विता आश विता आनि विसं । वैहायसान्तं SS SS SS SS SS SS S S निविश आनि वितानि विता आनि विसं । चतुर्मात्रामात्रप्रयोगशून्यचतुष्कला । SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विश आनि विता आश विता आनि विसं । चतुष्कलान्त मुल्लोप्यकम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः SSS SSS SSSSSS निविश निविता विशता शतासं । मात्रा १ ॥ SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविश आनिविता आनिविता आनिविसं निविश निविता SSSSSS निशता शतास । इत्युल्लोप्यककलाप्रयोगः । शून्यकलाचतुष्कलानन्तरवैहाहसरूपम् । चतुष्कला मात्रा। SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविश आनिविता आशाविता आनिविसं । शाखा ॥ निविश निविता निशता शतासं । एवमेव पदान्तरनिर्मिता प्रतिशखा । ततः संहरणाख्यमन्ताहरणम् ।। इत्यन्ताहरणमुल्लोप्यकम् (क०) अथवा मात्रानन्तरं वैहायसे सविच्छेदं गुरुत्रयचतुष्कं लिखित्वा तदधो निविशान् निवितान् निशतान् शतासांश्च लिखेत् । अथवा कलाप्रयोगशून्यकलाचतुष्कलानन्तरं वैहायसं कुर्यात् । इति वैहायसान्तमुल्लोप्यकम् । अथवा वैहायसानन्तरं यथाक्षरोत्तरेणान्ताहरणं लिखेत् । इत्यन्ताहरणमुल्लोप्यकम् ॥ अथ युग्मस्यान्तस्यायुग्मस्य च त्रयो भेदाः; स्थितं, प्रवृत्तं, महाजनिकं चेति । तत्र युग्मस्थितान्तमुल्लोप्यकं यथा SI SS IS संता शता शता । इदमेव वैहायसम् । SS SS SS SS SS SS SS चतुष्कलमात्रा-आनिविश आनिविता आशाविता आनिविसं । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभमस्तालाध्यायः SSSSSSSSSSSS वैहायसम- निविश निविता निशता शतासं । SS SS SS SS युग्मप्रवृत्तम्-निश शता ताश तासं । SS SS SS SS युग्मस्थितम्-निश निता निप्र निसं । अथ युग्मप्रवृत्तान्तं महाजनिकस्थितान्तमुल्लोप्यकं यथा-युग्मप्रवृत्तान्तमुल्लोप्यकं यथा SSSSSSSSSSSSSSSS चतुष्कलमात्रा-आनिविश आनिविता आशाविता आनिविसं । वैहायसम्-निविश निविता निशता शतास । SS SS SS SS युग्मस्थितमयुग्मस्थितान्तमुल्लोप्यकम् –निश निता निता शंभ निसं । अथा. युग्मप्रवृत्तकम् SS SS SS SS SS SS SS SS चतुष्कलमात्रा-आनिविश आनिविता आशाविता आनिविसं । SS S SS SS SS SS SS SS IS वैहायसम-निविश निविता निशता शतासं । संता शता शता । इति युग्मप्रवृत्तम् ॥ अथायुग्मप्रवृत्तान्तमुल्लोप्यकम् । SS SS SS SS SS SS SS SS चतुष्कलमात्रा यथा-आनिविश आनिविता आशविता आनिविसं । वैहायसम्-निविश निविता निशता शतास । SS SS SS SS स्थितप्रवृत्तयुग्ममहाजनिकम्-निश निता शप निस । SS Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अथ मिश्रान्तस्य षड्भेदाः। तत्र युग्मस्थितपत्तायुग्ममहाजनिकमिश्रान्तान्तमुल्लोप्यकं यथा SS SS SS SS SS SS SS SS SSS चतुष्कलमात्रा-आनिविश आनिविता आशविता आनिविसं निविश SSSSSSS निविता निशता शतासं । इति चैहायसम् । SSSSSSSSSSSSSS युग्मस्थितप्रवृत्ते युग्मस्य महाजनिकम्-निशनिता शनिसं निश ताश निसं। अथ युग्मस्थितमवृत्ते युग्ममहाजनिकमिश्रान्तान्तमुल्लोप्यकं यथा निशता शनिस निशनि ताश प्रनिस । इत्ययुग्मप्रवृत्ते युग्मस्य महाजनिकम् । अथायुग्मस्थितायुग्मप्रवृत्तमहाजनिकमिश्रान्तमुल्लोप्यकं यथाचतुष्कलमात्रा-आनि विश आनि विना आश विता आनि विर्स । S SS SS SS SS SS SS SS SS SS वैहायसम-निविश निविता निशता शतासं । निश निता शप SS SS SS SS SSS şi निसं। संता शता शता। निशता निसं । युग्मस्य स्थितमयुग्मस्य प्रवृत्तमहाजनिकमिति । युग्मप्रवृत्तकं यथा-महाजनिकमिश्रान्तान्तमुल्लोप्यकं यथाचतुष्कलमात्रा-आनि विश आनि विता आश विता आनि विसं । ...... SSSSSSSSSSSSSS SSSSSSSSSSSSSSSSSS वैहायसम-निविश निविता निशता शतासं । निशता प्रनिसं । SS SS SS SS SS SS SS SS. निश शता शता शसं निश निता शप निसं । इत्ययुग्मस्थितयुग्मस्य प्रवृत्तमहाजनिके । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः अथ युग्मस्थितायुग्मप्रवृत्तयुग्ममहाजनिकमिश्रान्तान्तमुल्लोप्यकं यथा SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS निश निता शप्र निसं। आनि विश आनि विता आश विता SS SS SS SS SS SS SS SS { $ आनि विसं | संता शता शता । निश निता शप निसं । इति युग्मस्य स्थितमयुग्मप्रवृत्तं महाजनिकम् । अथायुग्मस्थितं युग्मप्रवृत्तायुग्ममहाजनिकमिश्रान्तमुल्लोप्यकं यथा आनि विश आनि विता आश विता आनि विसं । S SS SS SS SS SS SS SS. चतुष्कलमात्रा-निविश निर्विता निशता शतास । SS SS SS SS SS SS SS SS SSS वैहायसम-निश निता शनिसं । निश निता शमनिसं । निशता शनिसं। इति युग्मस्थितमयुग्मस्य प्रवृत्ताभ्यामेकाङ्गो महाजनिकेन । एते पमिश्रभेदाः। द्वयङ्गो वा मिश्रः स्थितप्रवृत्ताभ्यामेकाङ्गो वा महाजनिकेन । इत्यन्तान्तमुल्लोप्यकम अथवा ततो युगयुमिश्र इति त्रिविधोऽन्तः कर्तव्यः । तस्य प्रत्येकं स्थितप्रवृत्तमहाजनिकाख्यानि त्रीण्यङ्गानि कर्तव्यानि । तत्र युग्मस्थितं यथा-सविच्छेदं गुरुचतुष्कद्वयं लिखित्वा तदधो निशनितान्निप्रविसांश्च लिखेत । युग्मप्रवृत्तं यथा--पूर्ववद् गुर्वष्टकं लिखित्वा तदधो निशशताताशतासान् लिखेत् । ततो युग्ममहाजनिकं युग्मस्थितवल्लिखेत् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः चतुष्कलानि चत्वारि प्रकार्यादीन्युदाहरन् । प्रकरी स्याच्चतुर्वन्तु यद्वा सार्धत्रिवस्तुका ॥ १३४ ॥ तत्राधेमन्त्यमादो स्याद्वस्तु षण्मात्रमिष्यते ।। सार्धत्रिवस्तुपक्षे तु भवेदर्धमुपोहनम् ।। १३५ ।। अयुग्मस्थितं यथा-षड्गुरून् लिखित्वा तदधो निशता प्रनिसान लिखेत् । अयुग्मप्रवृत्तं यथाक्षरेणोत्तरेण लिखेत् । अयुग्ममहाजनिकमयुग्मस्थितवल्लिखेत् । षडियो मिश्रान्तो यथा--तत्र युग्मस्थितप्रवृत्ते अग्युममहाजनिकं च पूर्वोक्तप्रकारेण लिखेत् ; इत्येको मिश्रः । अयुग्मस्य स्थितप्रवृत्ते युग्मस्य महाजनिकं च लिखेत ; इति द्वितीयो मिश्रः । युग्मस्य स्थितेऽयुग्मस्य प्रवृत्तमहाजनिके च लिखेत ; इति तृतीयो मिश्रः । अथायुग्मस्य स्थितं युग्मस्य प्रवृत्तमहाजनिके च लिखेत् ; इति चतुर्थो मिश्रः । युग्मस्य स्थितमयुग्मस्य प्रवृत्तं युग्मस्य महाजनिकं च लिखेत् ; इति पञ्चमो मिश्रः । अयुग्मभ्य स्थितं युग्मस्य प्रवृत्तमयुग्मस्य महाजनिकं च लिखेत ; इति षष्ठो मिश्रः । इति मिश्रान्तस्य षड्भेदाः । द्वयङ्गो वा स्थितप्रवृत्ताभ्यामेकाङ्गो महाजनिके द्रष्टव्यः ॥ इत्यन्तान्तमुल्लोप्यकम् । (क०) अथ प्रथमं तावत्प्रकर्यादीनां चतुर्णा सामान्यलक्षणमाहचतुष्कलानीत्यादि । प्रकर्यादीनि चत्वारीति । प्रकर्योवेणकरोविन्दकोत्तराणीत्यर्थः । चतुष्कलानि; चतुष्कलान्येव । एककलद्विकलाख्यभेदद्वयरहितानीत्यर्थः । उदाहरन् , आचार्या इति शेषः । प्रकरी लक्षयतिप्रकरी स्यादित्यादिना । तत्रामिति । तत्र सार्वत्रिवस्तुकायां प्रकर्यामन्त्यमर्धे न्यायतो वस्तुत्रयानन्तरप्रामत्वेनान्त्यवस्त्वर्धम् । आदौ स्यादि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ पश्चमस्तालाध्यायः पक्षान्तरे वस्तुमात्रं न वा स्यात्पत्युपोहनम् । कनिष्ठासारितं प्रोक्तमत्र संहरणं बुधैः ॥ १३६ ॥ वृत्तं च त्रिविदारीकमस्मिन्संहरणे मतम् । अन्त्यस्य त्वन्तिमा मात्रा कैश्चित्संहरणं मता ॥ १३७ ॥ अन्ते वा सप्तमी मात्रा परैः संहरणं स्मृता। वस्त्वषैविह गीताङ्गविधिर्मद्रकवद्भवेत् ॥ १३८ । त्यनेन वचनेन वस्तुत्रयस्य आदौ कर्तव्यं स्यात् । प्रथमं वस्त्वधै गीत्वा पश्चाद्वस्तुत्रयं गायेदित्यर्थः । सार्वत्रिवस्तुपक्षे तु भवेदर्धमुपोहनमिति । वस्त्वर्धस्यादौ प्रयोगे प्रयोजनं दर्शितं भवति । पक्षान्तर इति । चतुर्वस्तुपक्ष इत्यर्थः । वस्तुमात्रमुपोहनं भवेत् । प्रत्युपोहनं न वा स्यादिति तस्यात्र वैकल्पिकं दर्शितम् । कनिष्ठासारितमित्यादि । अत्र; प्रकर्याम् । कनिष्ठासारितमेव संहरणं प्रोक्तमिति । " कनिष्ठासारिते युग्मः शम्यादिद्वावथोत्तरौ । एते यथाक्षरास्तेषां संनिपातोऽन्तिमोऽधिकः" । इति वक्ष्यमाणलक्षणं यत् कनिष्ठासारितं तदेवात्र प्रयुक्तं संहरणं नामाङ्गमुच्यत इत्यर्थः । वृत्तं वित्यादि । अस्मिन् ; संहरणे, त्रिविदारीकं वृत्तम् । मतमिति । " वृत्तं तिस्रश्चतस्रो वा पञ्च षड़ा विदारिकाः" इत्युक्तेषु वृत्तभेदेषु त्रिविदारीकमेवात्र कर्तव्यमित्यर्थः । अन्त्यस्य विति । अन्त्यस्य वस्तुनोऽन्तिमा षष्ठी मात्रा संहरणमिति केषांचिन्मतम् । अन्ते वेति । अन्त्यवस्तुनोऽन्ते नाशे ; अनन्तरमित्यर्थः । सप्तमी मात्रेति । अन्त्यवस्त्ववयवत्वेन मात्रान्तरं परिकल्प्यमित्यर्थः । वस्त्वषैवित्यादि । इह ; प्रकर्याम् । वस्त्वर्धेषु गीताङ्गविधिर्मद्रकवद्भवेदिति । पूर्वार्धेषु विविधः, उत्तरार्धेष्वेककं च कर्तव्यमित्यतिदेशतोऽवगन्तव्यम् ॥ १३४-१३८ । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ संगीतरत्नाकरः द्वितीयमात्रा तालान्ता प्रकर्या वस्तुनो मता । तुर्यायां द्वादशस्ताल: पञ्चम्यामष्टमस्तु शः ।। १३९ । या: षोडश कलाः प्रोक्ता द्विकले मद्रकेऽन्तिमाः । ताः षष्ठ्यामद्वितीयान्त्या मात्राः शम्यान्तिमा मताः ॥ १४० ॥ (सु० ) प्रकरीं लक्षयति - चतुष्कलानीति । प्रकर्यादीनि चत्वारीति । आदिना ओवेणकरोविन्दकोत्तराणां परिग्रहः । चतुष्कलानि चत्वारि षोडशकला प्रकरीमात्रा इति भरतादय: उदाहरन् अवादिषुः । सा प्रकरी चतुभिर्वस्तुभिः पः स्यात्; सार्धवस्तुत्रयेण वा । सार्धवस्तुत्रयपक्षे अन्त्यमर्धमादौ गेयम् । ततो वस्तुत्रयम्, वस्तुनि षण्मात्रा : कर्तव्याः । सार्धेति । यदा तु सार्धत्रिवस्तुका प्रकरी तदा वस्त्वर्धमुपोहनं कर्तव्यम् । चतुर्वस्तुपक्षे तु एकवस्तुमात्रमुपोहनम् | पक्षद्वयेऽपि प्रत्युपोहनं कर्तव्यं वा न वा । कर्तव्यपक्षे तु पूर्वोक्तलक्षणमेव । कनिष्ठेति । अत्र; प्रकर्याम् | कनिष्टासारितं संहरणं कार्यम् | आसारितं तु वक्ष्यते । अस्मिन् प्रकरीसंबन्धिनि संहरणे विदारीत्रयेण वृत्तं कर्तव्यम् । मतान्तरमाह — अन्त्यस्येति । अन्त्यस्य वस्तुनोऽन्तिमा मात्रा कैश्चिन्मुनिभिः संहरणमित्यभिधीयते । परे: अपरैः वस्तु सर्वासां मात्राणामन्ते सप्तमी मात्रा संहरणं स्मृतम् । वस्त्वर्धेष्विति । इह प्रकर्या वस्तूनामर्धेषु गीताख्यमङ्गं मद्रकस्थविविधवत्कर्तव्यम् ॥ १३४- १३८ ॥ (क० ) प्रकर्या वस्तुनः षट्सु मात्रासु पातकलायोगं दर्शयतिद्वितीयमात्रा तालान्ता इत्यारभ्य शेपस्थानेष्वानिमान्पादभागेषु निक्षिपेत् इत्यन्तेन । अत्र मात्रा तावत् षोडशकलात्मिका । तत्र द्वितीयमात्रा तालान्ता; तालाख्यपातान्ता । तुर्यायां मात्रायां द्वादश तृतीयपादभागान्तो गुरुस्तालः कर्तव्यः । पञ्चम्यां मात्रायामष्टमः । द्वितीयपादभागान्त्यो गुरुः । शः शम्याख्यः पातः कर्तव्यः । द्विकले मद्रके - sन्तिमा: याः षोडश कला इति । निशनिता, नितानिश, शताताश, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः शेषस्थानेष्वानिविप्रान्पादभागेषु निक्षिपेत् । उपोहने कलापातान्न्यषेधन् दत्तिलादयः ॥ १४१ ॥ षष्ठी वा सप्तमी मात्रा यदा संहरणं तदा । कनिष्ठासारितकला विनान्त्यां परिकीर्तिता ॥ १४२ ।। ताशतासमिति प्रोक्तास्ताः षष्ठयां मात्रायां कर्तव्याः । अद्वितीयान्त्या; द्वितीया षष्ठीव्यतिरिक्ता मात्राः प्रथमातृतीयाचतुर्थीपञ्चम्यः शम्यान्तिमाः, आसां षोडशो गुरुः शम्याख्यः पातः कर्तव्यः । शेपस्थानेष्विति । उक्तेभ्योऽन्येषु पादभागेप्वानिविप्रान् कुर्यात् । उपोहन इत्यादि । दत्तिलादयः, उपोहने कलापातान् न्यषेधन्निति । अत्र केचित्पक्षे ध्रुवपातमाहुरिति गम्यते । “ध्रुवपातमपातं वा” इति मद्रकोक्तन्यायस्य संचारात् । षष्ठी वेत्यादि । अन्त्यां विनेति । “ संनिपातोऽन्तिमोऽधिकः” इति कनिष्ठासारिते संनिपातात्मिकान्त्या कला वक्ष्यते ; तां विहायेत्यर्थः ॥ १३९-१४२ ॥ पातकलाविधिमाह-द्वितीयेति । प्रकरीसंबन्धिनो वस्तुनो द्वितीयमात्रा तालान्ता । अन्त्यकलायां तालपातो ज्ञातव्यः । तुर्यायां चतुर्थमात्रायां द्वादशस्ताल:, द्वादशी कला तालपातेन योज्या आ षष्ठवस्तुनः । पञ्चम्यां च मात्रायामष्टम: शम्याख्य: पात: कर्तव्यः । द्विकले या: पूर्व षोडश कलाः प्रोक्ताः निष्क्रामशम्यादयः, ताः षष्ठयां मात्रायां प्रयोज्याः। द्वितीयान्तिमामात्रावर्जितासु मात्रा शम्या अन्तिमा मात्राः अन्त्यकलायां शम्यापातेन योज्याः । उक्तादन्येषु स्थानेषु प्रतिपादभागेषु आवापनिष्क्रामविक्षेपप्रवेशा योज्याः । दत्तिलादयस्तु-उपोहने कलापाताः न्यषेधन् नाङ्गीकुर्वन्निति । षष्ठी वेति । यदा षष्ठी सप्तमी वा मात्रा संहरणमित्यङ्गीक्रियते, तदा अन्त्यां कलां विना कनिष्ठासारितस्य कला ज्ञातव्याः ॥ १३९-१४२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ संगीतरत्नाकरः प्रस्तार: SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप आनि विप्र आनि विप आनि विश मात्रा ॥१॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विप्र आनि विप्र आनि विता , ॥२॥ SS SS SS SS SS SS SS 2 आनि विप्र आनि विप्र आनि विष आनि विश .. ॥३॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विष आनि विप्र आनि विता आनि विश ॥४।। SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विश आनि विप्र आनि विश , ॥५॥ SS SS SS SS SS SS SS SS निश निता निता निश शता ताश ताश तासं ,॥६॥ इति षण्मानं वस्तु अस्याः प्रकर्याः प्रस्तारो यथा-वस्तुनः प्रथममात्रायां षोडशगुरून् सचतुष्कलपादभागविभागं लिखित्वा, तत्रायेषु पादभागेषु प्रत्येकमानिविप्रान् लिखेत् । चतुर्थे त्वानिविंशान् लिखेत् । इति प्रथममात्रा । द्वितीयामपि मात्रामेवमेव लिखेत् । किं तु पोडशस्य गुरोरधस्तालं लिखेत् । इति द्वितीयमात्रा। तृतीयामपि मात्रां प्रथमावल्लिखेत् । इति तृतीया । चतुर्थ्यो मात्रायां पूर्ववत् षोडश गुरून् लिखित्वा तत्राद्ययोः पादभागयोः प्रत्येकमानिविप्रान् , तृतीय पादभागे आनिवितान् , चतुर्थे पादभागे आनिविशान् लिखेत् । इति चतुर्थी मात्रा । पञ्चम्यां मात्रायां प्रथमतृतीययोः पादभागयोः प्रत्येकमानिविप्रान् द्वितीयचतुर्थयोः प्रत्येकमानिविशान् लिखेत् । इति पञ्चमी मात्रा । षष्ठयां मात्रायां षोडशानां गुरूणामधो निशनिता, नितानिश, ताशतासमित्येतान् पादभागविभागान् लिखेत् । इति षष्ठीमात्रा ।। इति षण्मात्रमेक वस्तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः एवं चत्वारि वस्तुनि त्रीणि सार्धानि वा गीत्वा कनिष्ठासारितात्मकं संहरणं कार्य यथा, अथवा अन्त्यसंनिपातवर्जिताभिः कनिष्ठासारितस्य कलाभिरन्विता अन्त्यवस्तुनः षष्ठीमात्रा संहरणं कार्यम् । अथवा एवमात्मिका सप्तमी मात्रा संहरणं कार्यम् । यथा SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS शता शता संता शता | संता शता शता। संता शता शता। इति प्रकरी ओवेणकं द्वादशाङ्गं सप्ताङ्गं च परावरम् । स्यात्पादः प्रतिपादश्च माषघातोपवर्तनम् ॥ १४३ ॥ (क०) एवमिति । एवं चत्वारि वस्तूनि त्रीणि वा सार्धानि गीत्वा, ततः कनिष्ठासारितात्मकं संहरणं कार्यम् । अस्य प्रस्तारो यथा-- आदौ यथाक्षरं चच्चत्पुटं प्रस्तार्य, " आसारितादौ शम्यादिः" इति नियमस्य व्यवस्थितत्वात् तदधः शताशतान् लिखेत् । ततो यथाक्षरौ षपितापुत्रको प्रस्तार्य तयोरधः प्रत्येकं संताशताशातान् लिखेत् । “ संनिपातेऽन्तिमेऽधिके" इत्युक्तत्वात् । अन्तिममधिकं लिखित्वा तदधः संनिपातं लिखेत् । अथवा अधिकान्त्यसंनिपातवर्जिताभिः कनिष्ठासारितस्य कलाभिरन्विता अन्त्यवस्तुनः षष्ठीमात्रा संहरणं कार्या। अथवा एवमात्मिका सप्तमी मात्रा संहरणं कार्या । यथा पूर्वोक्तपातकलायुक्तां षष्ठी मात्रां तादृशीं सप्तमी मात्रां वा लिवेत् ॥ इति प्रकरी (क०) अनन्तरमोवेणकं लक्षयति-ओवेणकं द्वादशाङ्गमित्यादि। अङ्गानि तु–पादः, प्रतिपादः, माषघातः, उपवर्तनम् , संधिः, चतुरश्रम् , वज्रम् , संपिष्टकम् , वेणी, प्रवेणी, उपपातः, अन्ताहरणमित्येतानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः संधिश्च चतुरनं स्याद्वजं संपिष्टकं ततः । वेणी तथा प्रवेणी स्यादुपपातस्ततः परम् ॥ १४४ ॥ अन्ताहरणमित्येतान्यङ्गानि द्वादशावदन् । संपिष्टकं तथा वेणी प्रवेणीमुपवर्तनम् ॥ १४५ ।। उपपातं विनान्यानि सप्ताङ्गानि च मेनिरे। यादृक् चतुष्कले वस्तु प्रागुक्तमपरान्तिके । तादृक्पादस्ततस्तद्वत्पतिपादः पदान्तरैः ।। १४७ ।। समं पादपदार्धेन पतिपादं परे जगुः । यथाक्षरोत्तरे शीर्ष केचिदाहुरतः परम् ।। १४८ ॥ द्वादशाङ्गानि, स्यात्पाद इत्यादिना परिगणितानि । सप्ताङ्गानीति । सप्ताङ्ग ओवेणके संपिष्टकादिभ्योऽन्यानि पादप्रतिपादमाषघातसंधिचतुरश्रवज्रान्ताहरणाख्यानि मे निरे ।। १४३-१४५- ॥ (सु०) ओवेणकं लक्षयति---ओवेणकमिति । केचित् परे इममोवेणकं द्वादशङ्गं द्वादशभिरङ्गैर्युक्तम् , सपाङ्गम् ; सप्तभिरङ्युक्तं कार्यमिति वदन्ति । अवरं हीनमिति क्रमेण योजनीयम् | तान्येवाङ्गान्याह-स्यादिति । पाद:, प्रतिपादः, माषघात:, उपवर्तनम् , संधिः, चतुरश्रम् , वज्रम् , संपिष्टकम् , वेणी, प्रवेणी, उपपातः, अन्ताहरणं चेति द्वादशाङ्गानि अवदन् भरतादयः । संपिष्टकवेणीप्रवेण्युपवर्तनोपपातहीनान्येव सप्ताङ्गानि मेनिरे परे आचार्याः ॥ १४६॥ (क०) पदादीनां लक्षणमाह-यागित्यादि । चतुष्कले ; अपरान्तके, यादृग्वस्तु प्रागुक्तं चतुर्विशतिगुर्वात्मकं ताहगेवात्र पाद इत्युच्यते । ततः ; अनन्तरम् , तद्वत् ; पादवत , चतुर्विंशतिगुर्वात्मक इत्यर्थः । पदान्तरैः; पादप्रयुक्तपदेभ्योऽन्यैः पादैः प्रतिपादः कर्तव्यः । एतेन पादप्रतिपादयो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः शीर्षात्परो माषघातो द्विकलोत्तरतालतः। अपरान्तकवत्तस्मात्परं स्यादुपवर्तनम् ॥ १४९ ॥ ऊर्ध्व संपिष्टकाद्वा स्यादुभाभ्यामथवा परम् । तद्वदेव ततः संधिस्ततोऽपि चतुरश्रकम् ॥ १५० ॥ युग्मप्रवृत्तवत्तस्माद्वगं संधिवदिष्यते । संपिष्टकं ततः कार्य दश द्वादश वा कलाः ॥ १५१ ॥ र्धातुसाम्यं गम्यते । पादपरार्धेनेति । पादस्य उत्तरार्धेन द्वादश गुर्वात्मकेन समम् । प्रतिपादं परे जगुरिति । अत्रापि पादोत्तरार्धधातुसाम्यं प्रतिपादस्यावगन्तव्यम् । अतः प्रतिपादात् परमनन्तरं यथाक्षरेणोत्तरेण शीर्षकं केचिदाहः। ततो माषघातो द्विकलोत्तरतालतः । अपरान्तकवदिति । द्विकलापरान्तकवदित्यर्थः । तस्मात् माषघातात्परमुपवर्तनं स्यात् । उपवर्तनं संपिष्टका_ वा स्यात् । अथवा उभाभ्यां माषघातसंपिष्टकाभ्यां परं स्यात् । माषघातानन्तरं संपिष्टकानन्तरं वोपवर्तनं गेयमिति पक्षान्तरम् । तद्वदेवेति । तत उपवर्तनादनन्तरं संधिर्नामाङ्गम् । तद्वत् ; उपवर्तनवदित्यर्थः । उपवर्तनं यथाक्षरेणोत्तरेण कृतं संधिरपि तेनैव कर्तव्यः । ततोऽपीति । संधेरप्यनन्तरं चतुरश्रकं नामाङ्गम् । युग्मप्रवृत्तवदिति । द्विकलचच्चत्पुटेनोट्टोक्तकलापूर्वकपातकलायुक्तेन कर्तव्यमित्यर्थः । तस्मादिति । तस्मात् ; चतुरश्रात् । वज्रं नामाङ्गम् । संधिवदिति । यथाक्षरेणोत्तरेण कर्तव्यमित्यर्थः । ततः वज्रानन्तरं संपिष्टकं नामाङ्गं कार्यम् । दश द्वादश वा कला इति संपिष्टकस्य वैकल्पिकः कलासंख्यानियमो दर्शितः । द्वादशाङ्गे दशकलं सप्ताङ्गे वितरन्मतमिति तयोः संपिष्टकभेदयोर्विषयव्यवस्था दर्शिता ।। १४७-१५१-॥ 12 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० संगीतरत्नाकरः द्वादशाङ्गे दशकलं सप्ताङ्गे स्त्रितरन्मतम् । सप्ताङ्गद्वादशाङ्गत्वे वर्णाङ्गैः केचिदूचिरे ॥ १५२ ॥ चतुर्थी पञ्चमी चेह त्याज्ये दशकले कले । भवेद्रेण्यां वेण्यां च पञ्चपाणिर्यथाक्षरः || १५३ || (सु० ) पदादीनां लक्षणमाह - यादृगिति । चतुष्कले अपरान्तके पूर्व चतुर्विंशतिगुर्वात्मकं यादृग वस्तूक्तं तादृगेवात्र पाद इत्युच्यते । तत: ; अनन्तरम् । तद्वत् ; चतुर्विंशतिगुर्वात्मकवस्तुवत्, पदान्तरैः अन्यैः पदैः विरचितः तादृगेव प्रतिपादः कर्तव्यः । मतान्तरमाह - सममिति ! शीर्षकाव्यमङ्गमाहुः । अतः प्रतिपादादनन्तरपदस्य उत्तरार्धेन सदृशं प्रतिपादं केचिदाह । अतः प्रतिपादादनन्तरं केचित् यथाक्षरेण षट्पितापुत्रकेण शीर्षकाख्यमङ्गमाहुः । शीर्षकादनन्तरं द्विकलेन षट्पितापुत्रकेण माषघाताख्यमङ्गं भवति । तस्मात् माषघातादनन्तरम् अपरान्तकवत् उपवर्तनं षट्पितापुत्रण गेयम् । इदमुपवर्तनं संपिष्टकादनन्तरं वा गेयम् । उभाभ्यां माषघातसंपिष्टकाभ्यां वा गेयम् । ततः ; उपवर्तनादनन्तरम् । तद्वत् उपवर्तनवत् यथाक्षरपट्पितापुत्रकेण संधिरपि गेयम् । ततोऽपि चतुरश्रकम् । तस्मात् चतुरश्रात् वज्रं संधिवत् यथाक्षरणोत्तरेण कर्तव्यम् । ततः वज्रादनन्तरं संपिष्टकं भवति । तच्च संपिष्टकं दशकलं द्वादशकलं वेति पक्षद्वयस्य व्यवस्थामाह - द्वादशाङ्ग इति । द्वादशाङ्गे वेणुके च सकलं संपिष्टकं सप्ताङ्गवेणुके इतरवत् द्वादशकलं भवति ॥ १४७ - १५१- ॥ (क०) सप्ताङ्गद्वादशाङ्गत्वे वर्णाङ्गः केचिदुचिर इति; चतुर्थीत्यादि । दशकल इह संपिष्टके द्वादशकल संपिष्टकोक्तासु कलासु चतुर्थी शम्या, पञ्चमी तालश्च ; एते कले त्याज्ये भवतः । द्वादशकले संपिष्टके वक्ष्यमाणा इतरा दश कलाः प्रयोक्तव्या इत्यर्थः । वेणीप्रवेण्योरङ्गयोर्यथाक्षरः पञ्चपाणिरित्येकः पक्षः । द्विकलो वा पञ्चपाणिरिति द्वितीयः । अथवा यथाक्षरात् चच्चत्पुटादूर्ध्वं द्विकलचच्चत्पुट इति तृतीयः । यद्वा यथाक्षरे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः द्विकलो वाथवा चच्चत्पुटादूर्ध्वं यथाक्षरात् । चच्चत्पुटः स्याद् द्विकलो यद्वा वेणी यथाक्षरे ।। १५४ ।। पञ्चपाणौ प्रवेणी तु द्विकले मुनिभिर्मताः । प्रवेण्यनन्तरं कैश्चिदुपवर्तनमिष्यते ॥ १५५ ॥ पादोत्तरार्धतालेन द्विकलेनोत्तरेण वा । उपपातस्ततोऽन्तेन विनान्ताहरणं न वा ॥ १५६ ।। सत्यन्तेऽस्त्येव स द्वेधा सप्ताङ्गेऽन्यत्र तु विधा । लक्ष्मान्ताहरणादीनां ज्ञेयमुल्लोप्यकादिह ॥ १५७ ॥ पञ्चपाणी वेणी, द्विकले पञ्चपाणौ प्रवेणीति चतुर्थः पक्षः । प्रवेण्यनन्तरमुपवर्तनं कर्तव्यमिति केचिन्मतम् । पदोत्तरार्धतालेनेति । आनिवितादिकलायुक्तेन द्वादशगुर्वात्मकेन द्विकलेनोत्तरेण वोपपातः कर्तव्यः । तत उपपातानन्तरमन्तेन विनान्ताहरणं कर्तव्यमित्येकः पक्षः । न वेति तन्निषेधात् द्वितीयः पक्ष: । निषेधोऽप्यन्तेन विनेत्येतस्यांशस्यावगन्तव्यः । विशेषणनिषेधेनापि विशिष्ट निषेधस्य सिद्धत्वात् । तेन अन्तसहितमन्ताहरणं पक्षे कर्तव्यमिति गम्यते । सत्यन्त इति । अन्ते सतीति । अन्तसद्भावपक्ष इत्यर्थः । सोऽन्तः सप्ताङ्ग ओवेणके द्विधा युग्मोऽयुग्मश्च भवेत् । अन्यत्र तु द्वादशाङ्ग ओवेणके तु त्रिधा युग्मोऽयुग्मो मिश्रश्चेति भवेत् । अन्ताहरणादीनामिति । आदिशब्देन युग्मादयोऽन्तर्भेदा गृह्यन्ते ॥-१५२१५७ ॥ ___(सु०) सप्ताङ्गेति । वेणुकस्य सप्ताङ्गत्वं च वर्णाङ्गैरेव केचिदाहुः । सप्तभिर्वर्णेविरचितमित्यर्थः । द्वादशाङ्गत्व इति । दशकलपक्षे द्वादशाभ्यः कलाभ्यः कर्तव्यमिति । के कले त्यज्य इत्यपेक्षायामाह--चतुर्थीति । द्वादशाभ्यः कलाभ्यः चतुर्थी पश्चमी च कला त्याज्ये भवतः । ननु किमनेन नियमेन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ संगीतरत्नाकर: विधेयो विविध वेण्यां प्रवृत्तं वा मतान्तरात् । वेण्यां तु प्रवृत्तं स्यादवगाढं परे जगुः || १५८ ॥ पादोपपातसंपिष्टेऽप्यभ्यधुर्विविधं बुधाः । विविध वैककं वज्र एककं तूपवर्तने ॥ १५९ ॥ विविधचतुरस्यादेकं वाथवैककम् । कलाप्रयोगनिर्मुक्तं संप्रयुज्यावपाणिना ।। १६० । hortage विविध विधेयो गानवेदिभिः । प्रयोजनम् ? पातकलानियमस्य द्वादशसु कलासु पृथक् पातानां निरूपितत्वात् । भवेदिति । वेण्यां प्रवेण्यां च यथाक्षरषट्पितापुत्रक इत्येकः । द्विकलो वा पञ्चपाणिरिति द्वितीय: । यथाक्षरात् चच्चत्पुटादनन्तरं द्विकलचच्चत्पुट इति तृतीय: । यदि वा यथाक्षरे पञ्चपाणौ वेणी, द्विकले पञ्चपाणौ प्रवेणीति चतुर्थ: । प्रवण्यनन्तरमिति । प्रवेण्यनन्तरमुपवर्तनं गातव्यमिति केषांचिन्मतम् । पादेति । पपितापुत्रकेण पादस्य उत्तरार्धतालेन द्विकलष पितापुत्रकेण वा उपपातः कार्यः । ततः ; उपपातादनन्तरम्, अन्तो नास्ति चेत्, अन्ताहरणं कर्तव्यं वा न वा । अन्ते सत्यवश्यमन्ताहरणमस्त्येव । अन्ते तु सप्ताङ्ग ओवेणके द्विधा; युग्मोऽयुग्म इति । अन्यत्र तु द्वादशाङ्ग ओवेणके तु त्रिधा ; युग्म:, अयुग्म:, मिश्र इति। अन्ताहरणादीनामिति । आदिशब्देन युग्मादयो ग्राः ॥ - १५२ - १५७ ॥ 1 (क०) वेण्यादिषु विविधादीनि गीताङ्गानि यथायोगं योजयतिविधेयो विविध इत्यादिना । चतुरश्रो विविध इति । चतुरश्र एककं विविधं चेत्येकः पक्षः । अथवा कलाप्रयोगनिर्मुक्तं युग्मप्रवृत्तोक्तनिष्क्रामादिकलायोगरहित मेककमवपाणिनातीतग्रहेणेत्यर्थः । एवं प्रथमं प्रयुज्य पश्चादष्टासु कलासु निष्क्रामादिषु विविधो विधेयः ॥ १५८-१६०- ॥ (सु० ) विधेयो विविध इति । वेण्यां विविधः कर्तव्यः । मतान्तरात् प्रवृत्तं वा । प्रवेण्यां तु प्रवृत्तं कर्तव्यम्, मतान्तरात् पूर्वलक्षितमेव अवगाढं वा, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः शनिता माषघाते स्युर्द्वितीयाद्यास्त्रयः क्रमात् ॥ १६१ ॥ संपिष्टके निशम्यास्त्रिस्त्रितालो द्विः शतौ च सम् । अन्तो गीतिपदात्तियुक्तः सप्ताङ्गके मतः ॥ १६२ ॥ ओवेणके द्वादशाङ्गे तुल्यगीतिः पृथक्पदः । पादापपातसंपिष्टेषु विविधः कार्यः । वजे विविध एककं वा, उपवर्तने तु एककम् | चतुरश्रे विविधः, एककं वा । अथवा, कलाप्रयोगहीनम् एककं प्रयुज्य अवपाणिना गलप्रयोगेण अष्टासु कलासु विविध: कार्य: ॥ १५८-१६०-॥ (क०) कचित्पातकलाविशेषयोगं दर्शयति-शनिता माषघाते स्युरित्यादिना । माषघाते तावत् द्विकलोत्तरताल उक्तः । तस्य निप्रताशनितानिशताप्रनिसं तथोत्तर इति पातकलायोगोऽपि पूर्वमेवोक्तः । तदेकदेशापवादत्वेन शनिता इत्येतद्वचनं द्रष्टव्यम् । द्वितीयाद्यास्त्रय इति । द्वितीयतृतीयचतुर्थाः पूर्व प्रताशा उक्ताः । इह शनिताः कर्तव्या इति । संपिष्टके द्वादशकलापक्षे कलायोगं दर्शयति--संपिष्टक इति । निशम्यास्त्रित्रितालो द्विः शतौ च समिति । अन्तो गीतीत्यादि । गीतिपदावृत्तियुक्त इति । गीति यम् ; धातुरित्यर्थः । पदं वाचकम् ; शब्दरूपं मातुरित्यर्थः । तयोर्गीतिपदयोरावृत्त्या युक्तोऽन्तः सप्ताङ्गके प्रयोक्तव्यः । द्वादशाङ्गे तुल्यगीतिः पृथक्पद इति । अत्र मातोरेव पृथग्भावो न धातोरित्यर्थः ॥१६१-१६२-।। (सु०) पातकलाविधिमाह-शनिता इति । माषघाते अङ्गे द्वितीयतृतीयचतुर्थकलासु शम्यानिष्कामताला योज्याः । संपिष्टके; प्रथमकलायां निष्क्राम: ; ततस्तिसृषु कलासु शम्या; ततस्त्रिषु ताल:; तत: द्वयोः शम्यातालौ; पुनरपि द्वयोः शम्यातालौ; अन्त्ये संनिपात इति । अन्त इति । साप्ताङ्ग ओवेणके गीतिपदावृत्तियुक्तः, अन्ते विविधः; द्वादशाङ्गे ल्यगीतिः पृथक्पदश्च कार्यः ॥ -१६१-१६२- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ संगीतरत्नाकरः अस्य प्रस्तार: आनि विष आनि विष आनि विश आनि विर्ता । आता विश आनि विश ।। इति पादः। एवमेव प्रतिपादः ।। पदोत्तरार्ध वा प्रतिपादो यथा--गीतिः ; sssssss SSS इति प्रतिपादः । संता शत शत ॥ शीर्षकम ॥ निता SSSSSS तानि विसं आनि विश आता विश । इति प्रतिपादः। SS SS SS श निता ताश ताम SS SS SS SS SS SS निसं ।। माषघातः ॥ संता शता शता । इत्युपवर्तनम् ॥ संता शता S.S SS SS SS SS SS SS शता ॥ इति संधिः ॥ निश शश शता तास ॥ चतुरश्रः ।। संता शता SS SS SS SS SS SS SS शता ॥ इति वचम् || निश शश शता ताता शश तासं ॥ इति सप्ताङ्ग SS SS SS SS SS SS निश शता ताश ताश ताता शस ।। SS SS SS SS SS SS SS संता शता शता ।। इति द्वादशकलं संपिष्टकम् ॥ निश शता, ताश ताश SS SS SS SS SS ताता शसं ॥ संता शता शता ।। इति द्वादशकलं संपिष्टकम् । संपिष्टकानन्तरमुपवर्तनं वा ॥ (क०) अस्य ; ओवेणकस्य प्रस्तारो यथा-~सचतुष्कलपादभागविभागं चतुर्विशतिं गुरून् लिखित्वा, तदध आनिविप्रान्, पुनः आनिविप्रान् , आनिविशान् , आनिवितान् , आनिविशान् , आनिविसमित्येतांश्च क्रमेण लिखेत । इति पादः । तत एवमेव प्रतिपादः। पादोत्तरार्धे वा प्रतिपादः । यथा द्वादश गुरून् लिखित्वा तदधः पूर्वोक्तान् आनिवितादीन् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः SSSSSS SSSSSS संता शता शता ।। इति वेणी ।। संता शता शता ॥ इति प्रवेणी॥ SS SS SS SS SS S निता निश ताप निसं ।। इति वा वेणी ॥ एवमेव प्रवेणी ॥ ततो मतान्तरेण प्रवेण्यनन्तरमुपवर्तनम् - संता शत शत ॥ इत्युपवर्तनम् ।। आनि विता; आनि विश, तानि विस ॥ इति पदोत्तरार्धतालेनोपपातः ॥ निप्र ताश निता शनि शता प्रनिस ॥ इति विकलेनोत्तरेण वोपपातः ॥ संता शता शता ।। इत्यन्ताहरणम् ॥ ततः पाक्षिकान्तो ज्ञेयः । स च सप्ताङ्गे युग्मोऽयुग्मश्चेति द्विविधः कर्तव्यः । द्वादशाङ्गे तु युग्मोऽयुग्मो मिश्रश्चेति त्रिविधः ।। इत्योवेणकम् लिखेत् । इति प्रतिपादः । ततो यथाक्षरोणोत्तरेण शीर्षकं लिखेत् । ततो द्वादश गुरून् सद्विकलपादभागविभागं लिखित्वा तदधो निशनितानितानिशताप्रनिसमित्येतान् लिखेत् । इति माषघातः । ततो यथाक्षरोत्तरेणोपवर्तनं लिग्वेत् । इत्युपवर्तनम् । ततस्तेनैव तालेन संधिं लिखेत् । इति संधिः । ततोऽष्ट गुरून् लिखित्वा तदधो निशशशताशतासमित्येतान् लिखेत् । इति चतुरश्रम् । ततो यथाक्षरोत्तरेण वज्रं लिखेत् । इति वज्रम् । ततो द्वादश गुरून् लिखित्वा तदधो निशशशशताताशशतासमित्येतान् लिखेत् । अथवा दश गुरून् लिखित्वा तदधो निशशताताशताशतासमित्येतान् लिखेत् । ___ इति संपिष्टकम (क०) ततो यथाक्षरेणोत्तरेण वेणी तेनैव प्रवेणी च लिखेत । अथवा द्विकलोत्तरेण वेणीप्रवेण्यौ लिखेत । यद्वा यथाक्षरद्विकलाभ्यां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः सप्ताङ्गमवरं ज्ञेयं षोडशाङ्गं परं तथा ॥ १६३ ॥ रोविन्दं तस्य षण्मात्रः पादोऽस्याये कलाष्टके । उपोहनं मद्रकस्थवस्तुवच्च तदर्धयोः ।। १६४ ॥ विविधैकैकसंयोगः प्रत्येकं पदवत्तत्तः । चच्चत्पुटाभ्यां वेणी ताभ्यामेव प्रवेणी च लिखेत् । यदि वा यथाक्षरोत्तरेण वेणी द्विकलोत्तरेण प्रवेणी च लिखेत् । इति वेणीप्रवेण्णौ (क०) ततो मतान्तरेण पूर्वोक्तमुपवर्तनं लिखेत । इत्युपवर्तनम् । ततः पादोत्तरार्धतालेन द्विकलोत्तरेण वोपपातं लिखेत् । इत्युपपातः । ततो यथाक्षरोत्तरेणान्ताहरणं लिखेत् । ततः पाक्षिकोऽन्तः सप्ताङ्गे युग्मोऽयुग्मश्चेति द्विधा । द्वादशाङ्गे तु मिश्रेण सह पूर्वाभ्यां त्रिधा प्रयोक्तव्यः । इत्योवेणकम (क०) अथ रोविन्दकं लक्षयति--सप्ताङ्गमित्यादि । अवरम् । हीनाङ्गत्वेन निकृष्टम् । अतोऽपि हीनाङ्गं षडङ्गादि न कर्तव्यमित्यर्थः । पोडशाङ्गं परं तथेति । षोडशाङ्गं रोविन्दं परमुत्कृष्टमधिकाङ्गत्वात् । ततोऽधिकाङ्गं सप्तदशाङ्गादि कर्तव्यमित्यर्थः । सप्तादिषोडशान्तमङ्गानि यथाकामं कर्तव्यानि भवन्ति । तस्येति । तस्य ; रोविन्दस्य ; पादः षण्मात्रः, षण्मात्रा यस्येति स तथोक्तः । अत्र मात्राप्रमाणम् - 'पादभागैश्चतुर्भिस्तैर्मात्रा स्यान्मद्रकादिषु' इति पूर्वोक्तं षोडशकलात्मकं द्रष्टव्यम् । अस्येति । अस्य ; पादस्य आये कलाष्टक उपोहनं कर्तव्यम् । तदर्धयोरिति । तस्य पादस्य पूर्वोत्तरयोः अर्धयोः प्रत्येकं मद्रकस्थवस्तुवत् । विविधैकैकसंयोगश्चेति । मद्रके यथा प्रथमयोः मात्रयोः विविधः, तृतीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः प्रतिपादः पदैरन्यैः पादस्यान्ते कलाष्टके || १६५ ॥ प्रतिपादादिमे चैका गीतिः प्रस्तारसंज्ञका । शरीरं प्रतिपादान्त्यकलाद्वादशकस्थया ।। १६६ ॥ गीत्या ततः परं गेयमुत्तरे द्विकले बुधैः । प्लुताकारास्त्रिचतुराः स्युः शरीरेऽन्तरान्तरा ॥ १६७ ॥ तेषु वृत्तं तदूर्ध्वाधः स्वैरमङ्गानि योजयेत् । शरीराय कलाषट्के प्रयोक्तव्यमुपोहनम् ॥ १६८ ॥ विविधो वा प्रवृत्तं वा गीताङ्गं स्यादुपोहनम् । अथोपवर्तनं केचिदपरान्त कवज्जगुः ॥ १६९ ॥ 13 ९७ मात्रायामेककम्; एवमत्र पादेऽपि मात्रात्रयात्मकयोरर्धयोः कर्तव्यमित्यर्थः । पादवत्तत इति । ततः पादानन्तरं प्रतिपादवत् षण्मात्रात्मकः सन् अन्यैः पदैः पाद प्रत्युक्तपदेभ्योऽन्यैः पदैः कर्तव्यः । प्रतिपादादिमे चेत्यत्र चकारेण कलाष्टक इत्यनुकृष्यते । अयमर्थः - प्रथमं पादान्त्ये कलाष्टके प्रस्तारसंज्ञका गीतिः कर्तव्या । ततः प्रतिपादादिमे कलाष्टकेऽपि सैव गीतिः कर्तव्येति । शरीरमित्यादि । ततः परं प्रतिपादादूर्ध्वम् । प्रतिपादान्त्य कलाद्वादशकस्थयेति । प्रतिपादस्यान्ते कला कलाद्वादशके तिष्ठतीति तथोक्ता । तया गीत्या युक्तं शरीरं नामाङ्गं द्विकल उत्तरे बुधैर्गेयम् । प्रतिपादान्त्यधातुयुक्तं शरीरं गेयमित्यर्थः । तस्मिन् शरीरे अन्तरान्तरा मध्ये मध्ये त्रिचतुराः प्लुताकाराः प्लुताश्च त आकाराश्चेति कर्मधारयः, ते कर्तव्याः स्युः । तथा तेषु ; आकारेषु वृत्तं पूर्वोक्तलक्षणं योजयेत् । तदूर्ध्वाधः; वृत्तस्य ऊर्ध्वमधश्व, अङ्गानि विविधादीनि, स्वैरम्; स्वेच्छया योजयेत् । शरीरस्य आद्यैककलाषट्क उपोहनं प्रयोक्तव्यम् । तस्मिन् उपोहने विविधो वा प्रवृत्तं वा पूर्वोक्तलक्षणं गीताङ्गं कर्तव्यं स्यात् । ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः शीर्षकं गीतकान्ते स्यात्पञ्चपाणौ यथाक्षरे । गीतावृत्त्या पदात्याप्युभयावृत्तितोऽथवा ॥ १७० ।। आवृत्त्या द्विस्त्रिरथवा स्यादात्या विनाथवा । आकारैः प्रथमावृत्तिः कर्तव्यं तत्र चैककम् ॥ १७१ ॥ द्वितीया तु पदैर्युक्ता प्रवृत्तेन प्रकीर्तिता। त्रिरावृत्ती मध्यमा स्यात्स्वैरं गीताङ्गसंगता ॥ १७२ ।। गीतकान्त इति सामान्यवचनस्य गीतकशब्दस्य अत्र विशेषपरता द्रष्टव्या । गीतकस्य रोविन्दकस्य अन्ते समाप्तौ । यथाक्षरे पञ्चपाणौ शीर्षकं कर्तव्यं स्यात् । तच्च शीर्षकं गीतावृत्त्या वा पदावृत्त्या वा अथवा उभयावृत्तितो गीतपदावृत्तेरिति त्रिविधं भवेत् । आवृत्तिपक्षेऽपि द्विरावृत्त्या त्रिरावृत्त्या वेति द्विविधम् । अथवा आवृत्त्या विना स्यादित्येकः पक्षः । आकारैः प्रथमावृत्तिरिति गीतावृत्तिरुक्ता । तत्र ; प्रथमावृत्तौ ; एककं चेत्यत्र चकारोऽवधारणार्थः । एककमेवेति । द्वितीया तु पदैर्युक्तेति । अत्र पदावृत्तिरुक्ता । सा पदावृत्तिः प्रवृत्तेन गीताङ्गेन प्रकीर्तिता । त्रिरावृत्ताविति । तृतीयावृत्तावित्यर्थः । मध्यमेति गीतिपदमिश्रितोभयवृत्तिरुक्ता । सा स्वैरं यथेष्टं गीताङ्गसंगता विविधादिगीताङ्गयुक्ता भवति ॥-१६३-२७२ ॥ (सु०) रोविन्दकं सक्षयति- सप्ताङ्गमिति । सप्ताङ्गं रोविन्दकम् अवरं हीनम् ; षोडशाङ्गं परम उत्तमम् । तान्येवाङ्गान्याह-तस्येति । तस्य ; रोविन्दकस्य, पादः षण्मात्राविरचित: कार्यः । तस्य पादस्य आद्ये कलाष्टके उपोहनं कर्तव्यम् । तस्योपोहनस्य द्वयोरर्धयोः प्रत्येक विविधेन एककेन च संयोगः । तत: पादादनन्तरं पादावन्ते प्रतिपाद अन्यैः पादैः कर्तव्यः । पादस्यान्ते कलाष्टके ; प्रतिपादस्य अन्त्ये कलाष्टके एका गीतिः कर्तव्या, सा प्रस्तार इत्युच्यते । ततः परं प्रतिपादानन्तरं प्रतिपादस्य अन्त्यकला द्वादशकलया गीत्या द्विकलषदपितापुत्रके शरीराख्यमङ्ग गेयम् । तत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः ९९ पादभागेष्वानिविपा विशेषस्तुच्यतेऽधुना । तालोऽष्टमोऽन्तिमा शम्या तत्र मात्रासु पञ्चसु ।। १७३ ॥ चतुर्दशस्तु पञ्चम्यां तालोऽन्त्यान्त्येव मद्रके। शरीरे प्राक्कलास्तिस्रः केऽप्याहुर्माषघातवत् ।। १७४ ॥ च शरीरे, त्रिचतुरा ; त्रयश्चत्वारो वा प्लुताकाराः कर्तव्याः । तेषु प्लुताकारेषु अन्तरान्तरा मध्ये मध्ये पूर्वलक्षितं वृत्तं विधेयम् । तस्य वृत्तस्य ऊर्ध्व पश्चात् अधः पूर्व स्वैरं स्वेच्छया अङ्गानि विविधादीनि योजयेत् । शरीरेति । शरीराख्यस्य आये कलाषट्के उपोहनं प्रयोक्तव्यम् , विविधो वा प्रवृत्तं वा; अङ्गगणनायामुपोहनमप्येकमङ्गं स्यात् । अथ शरीरादनन्तरं केचित् उपवर्तनं षपितापुत्रके गेयमित्याहुः। गीतस्यान्ते यथाक्षरषट्टितापुत्रके शीर्षकं गेयम् । इदं शीर्षकं पञ्च चतुर्धा वा विकल्पेन गेयम् । यथा गीतावृत्तियुक्तम् ; पदावृत्तियुक्तम् ; गीतपदावृत्तियुक्तम् ; आवृत्तिपक्षे तु द्विरावृत्त्या, अथवा त्रिरावृत्त्या वेति । अथवा आवृत्तिहीनमिति । अत्र विशेषमाहआकारैरिति । प्रथमावृत्तौ आआ इति वर्णसमूहै: गायनप्रसिद्धः कर्तव्या । तत्र एककमङ्गं गेयम् । द्वितीया पदावृत्तिस्तु प्रवृत्ताख्येन आगतसहपदैर्युक्ता गेया । त्रिरावृत्तौ तु मध्यमा आवृत्तिः स्वेच्छया यैः कैश्चित् गीताङ्गयुक्ता गेया ॥ -१६३-१७२ ॥ (क०) अथ पातकलायोगं दर्शयति–पादभागेष्वित्यादि । सर्वेषु पादभागेषु आनिविप्रा इति सामान्यम् । विशेषस्तु अधुना उच्यते, तालोऽष्टम इत्यादिना अष्टमद्वितीयपादभागान्त्यस्तालः कर्तव्यः । अन्तिमा शम्येति । अन्तिमा चतुर्थपादभागान्त्या शम्या कर्तव्या । अत्र विधेयतालशम्यापरत्वेन पुंस्त्रीलिङ्गनिर्देशो द्रष्टव्यः । तत्र मात्रासु पश्चस्विति । आद्यासु पञ्चसु मात्रास्वयमुक्तो विशेषः कर्तयः । पञ्चम्यां विशेषान्तरमाहचतुर्दशस्त्विति । चतुर्दशः चतुर्थपादभागे द्वितीयस्तालः कर्तव्यः । अन्त्यान्त्येव मद्रक इति । गद्रके; षष्ठी मात्रा। मद्रके; चतुष्कलमद्रके Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संगीतरत्नाकरः . SS अस्य प्रस्तार: आनि विप्र आनि विता ॥ इत्युपोहनम् ।। आनि विष आनि विश ।। इत्युपोहनेन सह मात्रा ॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विता आनि विप्र आनि विश ।। मात्रा १॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विष आनि विता आनि विप्र आनि विश॥, २॥ अन्त्येव । तत्र वस्तुनस्तृतीया मात्रा अन्त्योच्यते । सा यथा याभिः पातकलाभिर्युक्ता, ताभिरेव युक्ता कर्तव्यत्यतिदेशार्थः । ताः पुनः; आशविता, आताविश, आताविश, तानिविस मिति । शरीर प्रागित्यादि । केऽपि आचार्याः शरीरे द्विकलोत्तरयुक्ते तिस्रः पाकला आद्याः कलाः । माषघातवदिति । माषघाते यथा निशनिता आद्यास्तथात्रापि । शरीरे प्राचीषु च तिसृषु कलासु निष्कामशम्यानिष्क्रामादिकुर्यादित्यर्थः ॥ १७३, १७४ ॥ (सु०) कलाविधिमाह-पादभागेष्विति । उत्सर्गतस्तावत् पादभागेषु आवापनिष्क्रामविक्षेपप्रवेशा योज्याः । अयं तु विशेषापवादः ; आद्यासु पञ्चसु मात्रासु अष्टमस्ताल:, अन्त्या च शम्या । पञ्चम्यां कलायां चतुर्दश तालाः । अन्त्या मात्रा मद्रकस्य अन्त्यामात्रावत् पार्योज्या । शरीराख्ये अगे पूर्वास्तिस्रः कला माषघातवत् प्रयोज्या इति केचिदाहुः ॥ १७३, १७४ ॥ इति रोविन्दकम (क०) अस्य; रोविन्दकस्य प्रस्तारो यथा-प्रथममुपोहने पादभागयोरष्टौ गुरून् लिखित्वा, तदध आनिप्रान् , आनिवितान् लिखेत् । इत्युपोहनम् । ततश्वरमयोः पादभागयोर टौ गुरून् लिखित्वा तदध आनि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः आनि विप्र आनि विता आनि विप्र आनि विश ॥ मात्रा३॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विता आनि विप्र आनि विश ॥ ४ ॥ SS SS SS SS SS SS SS SS आनि विप्र आनि विता आनि विप्र आनि विश॥ ५॥ SS SS SS SS SS SS SS S Ş आश विता आता विश आता विश आनि विसं॥ .. ६॥ इति षण्मात्रः पादः। एवमेव पदान्तः प्रतिपादः । ततः शरीरम् ।। SS SS SS SS SS SS निष ताश निता निश ताप निसं ॥ शरीरस्याद्याः षट्कला उपोहनम् ॥ निश निश निता निश ताप निर्स ॥ इति मापघाताद्यSISS IS SIss कलात्रययुक्तं शरीरम् ॥ संता शता शता ॥ इत्युपवर्तनम् । संता शता शता ।। इति शीर्षकम् ॥ ___ इति रोविन्दकम विप्रान् , आनिविशान् लिखेत् । इत्युपोहनेन सह प्रथममात्रा । तद्वत्प्रत्येक पोडशकलात्मका: सपादभागविभागाः पातकलायुक्ताः प्रथमया सह पञ्च मात्रा लेखनीयाः । ततः षष्ठयां मात्रायां पूर्ववत् षोडश गुरून् लिखित्वा तदध आशवितान् , आताविशान् , पुनरप्याताविशान् , आनिविसमित्येतान् लिखेत् । इति षष्ठी मात्रा । एष मात्रापादः । एवमेव प्रतिपादः । ततो द्विकलोत्तरेण शरीरं लिखेत् । तत्राद्याः षट्कला उपोहनं कुर्यात् । अथवा द्विकलोत्तरेण द्वादश गुरून् लिखित्वा तदधो निशनिश नितानिश तापनिसमित्येतान् लिखेत् । इति माषघाताधकलात्रययुक्तं शरीरम् । ततो यथाक्षरोत्तरेण वैकल्पिकमुपवर्तनं लिग्वेत् । ततस्तेनैव शीर्षकं लिखेत् ॥ इति रोविन्दकम् IS Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संगीतरत्नाकरः चतुष्कलोल्लोप्यकवदादौ मात्रोत्तरे भवेत् । शाखावरा पडङ्गा स्याद द्वादशाङ्गा परा ततः ॥ १७५ ॥ द्विकले पञ्चपाणौ सा प्रतिशाखा च तत्समा । किं तु बद्धा पदैरन्यैः शीर्ष मध्ये तयोर्भवेत् ॥ १७६ ।। मध्यान्तयोश्च वा भिन्नगीतेनैककलान्तरे । ततोऽनन्तरमेकोऽन्तो यद्वान्तो नात्र विद्यते ॥ १७७॥ आकारवर्ज शाखायां गीताङ्गानि शरीरवत् । (क०) अथोत्तरं लक्षयति-चतुष्कलोल्लोप्यकवदिति । उत्तरे गीतक आदौ प्रथमं मात्रा चतुष्कलोल्लोप्यकवद्भवेदिति, चतुष्कलोल्लोप्यके यथा द्विकले अष्टकला मात्रा द्विगुणा तु चतुष्कले मात्रेति द्विकलापेक्षया द्विगुणा षोडशकला मात्रोक्ता ; तथा अत्राप्युत्तरे षोडशकला मात्रा तत्पातकलायुक्ता कर्तव्यत्यतिदेशार्थः । शाखावरेत्यादि । षडङ्गा शाखा अवरा निकृष्टा । ततोऽपि हीनाङ्गा न कर्तव्येत्यर्थः । द्वादशाङ्गा शाखा परा उत्कृष्टा; ततोऽप्यधिकाङ्गा न कर्तव्यत्यर्थः । षडाद्याद्वादशसंख्यमङ्गानि विविधैककानि यथेष्टं कर्तव्यानि भवन्ति । ततो मात्रानन्तरं सा शाखा द्विकले पञ्चपाणौ गेया । प्रतिशाखा च तत्समेति । तया शाखया समा प्रतिशाखा च भवति । विशेषस्तु-अन्यैः पदंबद्धेति । व्याख्यातचरमेतत् । तयोः शाखाप्रतिशाखेयोः मध्ये शीर्षकं भवेत् । अथवा मध्यान्तयोश्च । भिन्नगीतेनेति । अस्मिन् शीर्षद्वयप्रयोगपक्षे मध्यशीर्षे यद्गीतं ततो भिन्नगीतमन्तशीर्षे कर्तव्यमिति । शीर्षके भिन्नधातुके भवत इति यावत् । शीर्षद्वयमप्येककलोत्तरे गेयम् । ततोऽनन्तरमेकोऽन्त इति । युगयुड्मिश्रेषु स्थितप्रवृत्तमहाजनिकेषु उल्लोप्यकोक्तेषु अन्तभेदेष्वेकोऽन्तः स्वेच्छया कर्तव्यः । यद्वा-अत्र ; उत्तरे, अन्तः; न Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथमस्तालाध्यायः १०३ अस्य प्रस्तारो यथा SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविश आनिविता आशविता आनिविसं ॥ मात्रा. १॥ निप्राश निता निशता प्रतिर्स ॥ शाखा ॥ संता शत शता ॥ इति शीर्षकम् । ततः शाखेव प्रतिशाखा । शाखा प्रतिशाखान्तरयोरपि शीर्षकमित्यन्ये । ततः कोऽप्येकोऽन्तः ; अन्तर्हितं वा ।। इत्युत्तरम् विद्यत इति पक्षान्तरम् । शाखायां गीताङ्गानि षडादिद्वादशपर्यन्तमुक्तानि । आकारवर्ज शरीरवदिति । शरीर आकारयुक्तानि विविधादीनि गीताङ्गानि प्रयुक्तानि । अत्र त्वाकारं मुक्त्वा तानि तद्वत्प्रयोज्यानि ॥ १७५-१७७- ॥ __(सु०) उत्तरं लक्षयति-चतुष्कलेति । उत्तरे गीतके उल्लोप्यकवत् आदौ मात्राः कर्तव्याः । ततः द्विकले पितापुत्रके कार्या । प्रतिशाखापि शाखासमैव । किं तु सा अन्यैः पदैः उपनिबन्धनीया। तयोः शाखाप्रतिशाखयोः मध्ये शीर्षकं गेयम् । मध्यान्तयोर्वा । एककले उत्तरे गीतेषु भिन्नगीतेन अन्तेन शीर्षकं कर्तव्यम् । ततः शीर्षकादनन्तरं यः कश्चन अन्ते युग्मः, अयुग्मः, मिश्रो वा । स च कर्तव्यो न वेति वा विकल्पः । शाखायामाकारवर्ज वा । निःशरीरवत् गीताङ्गानि योजनीयानि ॥ १७५-१७७- ॥ इत्युत्तरम् ___ (क०) अस्य; उत्तरस्य प्रस्तारो यथा---प्रथमं षोडश गुरून् स चतुप्कलपाद विभागं लिखित्वा, तदधः चतुष्कलोल्लोप्यकमात्रावत् आनिविशान् , आनिवितान् , आशवितान् , आनिविसमित्येतान् लिखेत् । इति मात्रा । ततो द्विकलोतरेण शाखा लिखेत् । इति शाखा । ततो यथाक्षरेणोत्तरेण शीर्षकं लिखेत् । इति शीर्षकम् । ततः शाखेव प्रतिशाग्वा लेख Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संगीतरत्नाकरः द्वौ मार्गौ गीतकेपृक्तौ शङ्खच्छत्रकसंज्ञकौ ॥ -१७८ ॥ शङ्खमार्गोऽङ्गसंक्षेपश्छत्रकस्त्वङ्गविस्तरः । विकल्पो वहुधा तेषु लयमार्गानुसारतः ॥ १७९ ।। इति सप्त गीतकानि अन्ते गेयं गीतकानां छन्दकं तस्य च द्विधा । शरीरं चतुरश्रं वा ज्यश्रं वा चतुरश्रकम् ।। १८० ।। नीया । ततो वैकल्पिकं शीर्षकं पूर्ववत् लिखेत् । इति शीर्षकम् । ततोऽन्तभेदेषु एकोऽन्तो लेखनीयः । तदभावो वा ॥ इत्युत्तरम द्वौ मार्गावित्यादि । गीतकेषु मद्रकादिषु उक्तेषु सप्तसु शङ्खच्छत्रकसंज्ञको द्वौ मार्गावुक्तौ । तत्र अङ्गसंकोचात् शङ्खवत् शङ्खो मार्गः । अङ्गविस्तारात् छत्रवत् छत्रको मार्ग इत्यवगन्तव्यम् । गीतकेधूक्तानामेवाङ्गानां संक्षेपविस्तारौ मातृपरतन्त्राविति दर्शयितुमाह-विकल्प इत्यादिना । तेषु ; अङ्गेषु, लयमार्गानुसारतः पूर्वोक्तानां लयानां मार्गाणां चानुसारात् हेतोः विकल्पो भेदो बहुधा भवति ।। -१७८, १७९ ॥ इति सप्त गीतकानि । (सु०) द्वाविति । एतेषु मद्रकादिषु सप्तसु गीतकेषु द्वौ मार्गो शङ्खः, छत्रकश्चेति । अङ्गस्य संकोचे सति शङ्खः; अङ्गस्य विस्तारे सति छत्त्रकः । एवं गीतकेषूक्तानामङ्गानां संकोचविस्तारौ च द्रष्टव्यः । तेषु, अङ्गेषु लयमार्गानुसारतः विकल्पो भेदो बहुधा भवति ॥ -१७८, १७९ ॥ इति सप्त गीतकानि (क०) अथ गीतेषु प्रथमोद्दिष्टं छन्दकं लक्षयितुमाह-अन्ते Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यैः कैश्रिङ्गैर्नवभिश्चतुस्त्रियश्रमुच्यते । पादान्मुखं छन्द के स्यात्पादेन प्रतिवक्रकम् ।। १८१ ॥ मुखतालेन वा कार्य गीतान्ते शीर्षकं भवेत् । अस्य प्रस्तारः पथामस्तालाध्यायः ――― १०५ SS SS SIIS संता ताश || इति चतुरश्रं शरीरम् | अथवा - शता शता ।। ; गेयमित्यादि । गीतकानां मद्रकादीनाम् । इदं छन्दकं मद्रकादिषु एकं गीत्वा तदन्ते गेयमिति । अस्य स्वातन्त्र्येण प्रयोगो नास्तीति प्रतीयते । पृथगुद्दिष्टत्वात् पृथक्प्रयोगोऽपि द्रष्टव्यः । तस्येति । तस्य ; छन्दकस्य च, शरीरं चतुरश्रं वा त्र्यश्रं वेति द्विधा भवति । यैः कैश्चिदङ्गैः नवभिः चतुर्भिः त्र्यश्रमुच्यत इत्यत्र चतुर्भिरङ्गैः चतुरश्रकं नवभिरङ्गैत्र्यश्रमिति क्रमेण योजनीयम् | पादान्मुखमिति । छन्दके गीते पादात ओवेणकोक्तात् पादप्रमाणात् मुखं नामाङ्गं स्यात् । पादेन पादप्रमाणकेन प्रतिवक्रकं प्रतिमुखं नामाङ्ग स्यात् । तत्प्रतिमुखम् मुखतालेन वेति पादलक्षिते मुखे यस्ताल उक्तः, तेन कार्यमित्येकः पक्षः । ततोऽन्येन तालेन वा कार्यमिति विकल्पेन द्योत्योऽन्यः पक्षः । गीतान्त इति । छन्दकान्ते शीर्षकं कर्तव्यं भवेत् ॥ १८०,१८१ ॥ , (सु० ) विभागपूर्वकं छन्दकं लक्षयति - अन्त इति । गीतानामन्ते छन्दकं गेयम् । तस्य छन्दकस्य । शरीराख्यमङ्ग द्विधा, चतुरश्रं त्र्यश्रं चेति । एते एव लक्षयति-- चतुरश्रकमिति । यैः कैश्चित् स्वेच्छोपनिबद्धैः नवभिर्युतं चच्चत्पुटतालेनोपनिबद्धं चतुरश्रकं तालं तु नाम्ना ज्ञातव्य: । चतुर्भिरङ्गैः सहितं चाचपुटतालेनोपनिबद्धं त्र्यश्रम् । छन्दके मुखं पूर्वोक्तलक्षणलक्षितं कार्यम् । प्रतिवक्त्रं प्रतिमुखं पूर्वोक्ततालेन वा कार्य: । गीतस्य अन्ते शीर्षकं च विधेयम् ॥ १८०, १८१- ॥ (क० ) अस्य ; छन्दकस्य प्रस्तारो यथा— यथाक्षरेण चच्चत्पुटेन 14 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ संगीतरत्नाकरः इति व्यथं शरीरम् । अस्य मुखं गीतकान्तरमुखवत् । प्रतिमुखं मुखवत्पादवद्वा । अन्ते शीर्षकं येन केनचिच्छीर्षकेण सदृशम् । इतरे मुखवत्प्रतिमुखम् ।। इति च्छन्दकम् आसारितं चतुर्था म्याकनिष्ठं च लयान्तरम् ॥ -१८२ ॥ मध्यमं ज्येष्ठमित्येषां लक्ष्माणि व्याहरामहे । कनिष्ठासारित युग्मः शम्यादिविथोत्तरौ ॥ १८३ ॥ एते यथाक्षरास्तेषां संनिपातोऽन्तिमेऽधिकः । अस्य प्रस्तार: SSIS SISS IS SISS SIS शता शता संता शता शता संता शता शता सं ।। ___ इति कनिष्ठासारितम चतुरश्रं शरीरं लिखेत् । अथवा यथाक्षरेण चाचपुटेन व्यश्रं शरीरं लिखेत् । इति शरीरम् । ततः पादप्रमाणकं मुखं लिखेत् । ततश्च तत्प्रमाणकमेव प्रतिमुखं लिखेत् । इति मुखप्रतिमुखे । ततः शीर्षकमपि पर्ववत् यथाक्षरोत्तरेण लिखत् । इति शीर्षकम् ॥ ___ इति छन्दकम् (क०) अथासारितं लक्षयितुं तद्भेदानुद्दिशति--आसारितं चतुर्धेत्यादि । कनिष्ठासारितस्य लक्षणमाह- कनिष्ठासारिते युग्म इत्यादि । युग्मः ; चच्चत्पुटः । शम्यादिरिति । शता शतेति पातयुक्तः प्रयोक्तव्यः । आसारितादौ शम्यादेरिति नियमस्योक्तत्वात् । अथ द्वावुत्तरौ पितापुत्रकौ मिलित्वैत त्रयस्ताला यथाक्षराः कर्तव्याः । तेषां त्रयाणामन्तिमः प्लुतः संनिपातयुक्तः सन्नधिकः कर्तव्यो भवति । अयमर्थः--त्रयाणामन्त एकं प्लुतमधिकं कृत्वा, तं प्लुतं संनिपातेन योजयेदिति ।।-१.८२,१८३ ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः तल्लयान्तरं मार्गलयाभ्यां द्विगुणं ततः ॥ १८४ ।। वर्धमानाङ्गमित्यन्ये; अस्य प्रस्तारः कनिष्ठासारितेन व्याख्यात एव । ___इति लयान्तरासारितम् अस्य ; कनिष्ठासारितस्य प्रस्तारो यथा-- यथाक्षरं चच्चत्पुटं यथाक्षरौ पितापुत्रकावधिकं प्लुतं च मिलित्वा तदधः, शता शता संता शता शता संता शता शतासमित्येतान् लिखेत् ॥ इति कनिष्ठासारितम (सु०) आसारितं विभज्य लक्षयति--आसारितमिति । कनिष्ठासारितं, लयान्तरासारितं, मध्यमासारितं, ज्येष्ठासारितमिति चत्वारो भेदाः । तत्र कनिष्ठासारिते शम्यापातादिः, चच्चत्पुटः, द्वौ पितापुत्रको, एते त्रयोऽपि यथाक्षराः । एतेषामन्ते संनिपाताः ॥ -१८२, १८३- ॥ इति कनिष्ठासारितम् (क०) अथ लयान्तरस्यासारितस्य लक्षणमाह-तद्वल्लयान्तरमित्यादि । ततः कनिष्ठासारितात् मार्गलयाभ्यां द्विगुणमिति शेषः । इतस्तद्वदित्यतिदिश्यते । तद्वत; कनिष्ठासारितवत् । अन्ये ; आचार्याः वर्धमानाङ्गमित्यस्यैव लयान्तरासारितस्य संज्ञान्तरमाहुः । कनिष्ठासारितापेक्षया वर्धमानान्यङ्गानि यस्येति तत्तथोक्तम् ॥ -१८४ - ॥ अस्यैव लयान्तरासारितस्य प्रस्तार: कनिष्ठासारितवत्कार्यः ।। ___ इति लयान्तरासारितम लयान्तरं लक्षयति-तद्वदिति । तद्वत ; कनिष्ठासारितवत् । तस्मात् ; कनिष्ठासारितात् , द्विगुणम् ; द्विगुणं मार्ग लयं च कर्तव्यम् । अन्ये ; आचार्याः इदमेव लयान्तरासारितं वर्धमानाङ्गमित्याहुः ॥ -१८४- ॥ इति लयान्तरासारितम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ संगीतरत्नाकरः मध्यमासारिते पुनः । उत्तरा द्विकला ज्ञेयास्त्रयस्तेष्वादिमे कलाः ॥ १८५ ॥ आद्यास्तिस्रस्त्यजेत् । अस्य प्रस्तार:-शनिता निशता प्रनिसं । निप्र तासं निश ताप्र निर्स । निता शनिता निशता प्रनिर्स ॥ इति मध्यमासारितम् (क०) अथ मध्यमासारितं लक्षयति-मध्यमासारिते पुनरित्यदि। त्रयः द्विकला उत्तराः षपितापुत्रकाः । तेषु ; उत्तरेषु आदिमे उत्तर आद्यास्तिस्रः कलाः त्यजेत् । षट्पितापुत्रकोक्तकलासु आद्यास्तिस्रो निपातः । निप्रतान् परित्यज्य शम्यादिकलाः प्रयुञ्जीतेत्यर्थः ।। -१८५, १८५ ॥ अस्य ; मध्यमासारितस्य प्रस्तारो यथा-आदौ द्वितीयपादभागस्थमन्तिमं गुरुं लिखित्वा ततो द्विकलेषु चतुर्पु पादभागेषु अष्टौ गुरून् लिखेत । एवं नवानां गुरूणामधः क्रमेण शनिता निशता प्रनिसमित्येतावत् लिखेत् । एवं द्विकलः प्रथमः षपितापुत्रकः । ततोऽपि द्विकलौ द्वौ पितापुत्रको साकल्येन लिखेत् ॥ __ इति मध्यमासारितम् ____ मध्यमासारितं लक्षयति-मध्यमेति । मध्यमासारिते द्विकला: त्रय उत्तरा: घपितापुत्रका ज्ञातव्याः । तेषु आदिमे पितापुत्रके, तिस्र आद्याः कलाः त्यजेत् निवारयेदिति ॥ -१८५, १८५- ॥ इति मध्यमासारितम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः ज्येष्ठासारिते तूत्तरास्त्रयः। चतुष्कला स्युस्तेष्वाघे त्यजेत्सप्तादिमाः कलाः ।। १८६ ॥ SS SS SS SS SS SS SS SS अस्य प्रस्तारः-आनिविप्र आताविश आनिविता आनिविश, SSSSSSSS SSSSSSSS आताविप आनिविसं ॥ इदमन्त्यखण्डं ज्ञेयम् ।। आनिविप्र आताविश SS SS SS SS SS SS SS S Ş SEE SEES आनिवित आनिविश आताविप्र आनिविसं आनिविस आनिविश SSSSSSSS आताविप्र आनिविसं॥ इति ज्येष्ठासारितम् अथ ज्येष्ठासारितं लक्षयति-ज्येष्ठासारितेत्यादि। त्रयः चतुष्कलाः उत्तरा स्युः । तेषु ; उत्तरेषु आये प्रथमे षपितापुत्रके । आदिमाः सप्त कलास्त्यजेदिति । चतुष्कलषपितापुत्रकोक्तासु कलासु आद्याः सप्त आनिविप्राताविसान् परित्यज्य शम्यादिकलाः प्रयुञ्जीतेत्यर्थः ॥ -१८६ ।। ___ अस्य : ज्येष्ठासारितस्य प्रस्तारो यथा--आदौ द्वितीयपादभागस्थमन्तिमं गुरुमेकं लिखेत् । ततः चतुष्कलेषु चतुषु पादभागेषु षोडश गुरून् लिखेत् । एवं सप्तदशानामधः, शमानिविता आताविश आताविप्र आनिविसमित्येतान् लिखेत् । एवं चतुष्कलः प्रथमः षट्पितापुत्रकः । ततोऽपि चतुष्कलौ द्वौ पितापुत्रको सकलौ लिखेत् ॥ इति ज्येष्ठासारितम् ज्येष्ठासारितं लक्षयति-ज्येष्ठासारितेति | ज्येष्ठासारिते ; चतुष्कलाः त्रयश्च उत्तराः षपितापुत्रकाः स्युः । तेषु आद्ये षपितापुत्रके आद्याः सप्तकला हातव्याः ॥ -१८६ ॥ इति ज्येष्ठासारितम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संगीतरत्नाकरः एतेषां पञ्च षट् सप्ताष्टौ कलाः स्युः क्रमेण तु । उपोहनानि वस्तूनि त्रीणि त्रीणि च निर्दिशेत् ॥ १८७ ॥ संनिपातसमाप्तीनि तेषां मुखमुपोहनम् । युग्मतालः प्रतिमुखं कनिष्ठे च लयान्तरे ॥ १८८ ॥ मध्यमेऽष्टौ कलास्त्वाद्या ज्येष्ठे षोडश कीर्तिताः। (क०) एतेषामित्यादि । एतेषां कनिष्ठासारितादीनां चतुर्णाम् उपोहनानि तु क्रमेण पञ्च पट् सप्ताष्टौ कलाः स्युरिति । कनिष्ठासारिते पञ्च कला उपोहनम् । लयान्तरासारिते षट् कला उपोहनम् । मध्यभासारिते सप्त कला उपोहनम् । ज्येष्ठासारितेऽष्टौ कला उपोहनमिति क्रमो द्रष्टव्यः । वस्तूनि त्रीणि त्रीणि च निर्दिशेदिति वीप्सया प्रत्यासारितभेदं त्रीणि वस्तूनि निर्देश्यानि भवन्ति । तथाहि कनिष्ठासारिते चच्चत्पुटेन प्रथमं वस्तु । उत्तराभ्यां द्वितीयतृतीये । लयान्तरासारितेऽप्येवमेव । मध्यमासारिते कलात्रयहीनेन द्विकलोत्तरेण प्रथमं वस्तु । सकलाभ्यां द्विकलोत्तराभ्यां द्वितीयतृतीये । ज्येष्ठासारितेऽपि सप्तकलाहीनेन चतुष्कले. नोत्तरेण प्रथमं वस्तु । सकलाभ्यां चतुष्कलोत्तराभ्यां द्वितीयतृतीये वस्तुनी भवतः । संनिपातसमाप्तीनीति । संनिपाते समाप्तिर्येषामिति तथोक्तानि । तत्र मध्यमज्येष्ठासारितयोः वस्तूनां द्विकलचतुष्कलोत्तरसंमितत्वात् संनिपातसमाप्तित्वं प्राप्तमेव । कनिष्ठलयान्तरासारितयोस्तु यथाक्ष. रोत्तरयुक्तत्वेनाप्राप्तत्वेऽपि संनिपातसमाप्तित्वे ; 'संनिपातोऽन्तिमेऽधिकः' इति वचनान प्रापितत्वेनात्र संनिपातसमाप्तीनीत्यनूद्यत इति मन्तव्यम् । तेषां मुखमित्यादि । तेपाम् ; आसारितानाम् . अनन्तरम् , उपोहनं मुखं नामाङ्गं भवति । कनिष्ठे लयान्तरे, आसारितद्वये युग्मताल: चच्चत्पुट: प्रतिमुखं नामाङ्गं भवति । मध्यम आसारिते तु आद्या अष्टौ कलाः प्रतिमुखं नामाङ्गं भवति । ज्येष्ठ आसारित आद्याः षोडश कलाः प्रतिमुखमिति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमस्तालाध्यायः saat शरीरसंहारौ क्रमात्सर्वेषु कीर्तितों ।। १८९ ॥ पादभागा विहायाद्यां शम्यामगुलिकर्मणि । विभक्ताङ्गेषु तेषु स्युरविभागे यथास्थितम् ॥ १९० ॥ कीर्तिताः । त्र्यश्रावित्यादि । त्र्यश्रौ; चाचपुटैौ । शरीरसंहाराविति । शरीरं नाम पूर्वोक्तलक्षणमङ्गम । संहारः संहरणं नामाङ्गं सर्वेष्वासारितेषु | क्रमात् कीर्तिताविति । प्रथमचाचपुटेन शरीरं, द्वितीयचाचपुटेन संहार इति क्रमो द्रष्टव्यः । पादभाग इत्यादि । एतान्यासारितानि विभक्ताङ्गानि अविभक्ताङ्गानीति द्वेधा भवन्ति । तेषु विभक्ताङ्गेषु कृतेषु पादभागा आद्यां शम्यां विहाय अङ्गुलिकर्मणि स्युरिति । यत्र पादभागे शम्या आद्या भवति, तत्र तां सकलेन पाणिना प्रयुज्य इतरासु कलासु पूर्वोक्तमङ्गुलिनियमं कुर्यादित्यर्थः । अविभाग इति । अङ्गानामविभागे अविभक्ताङ्गेष्वित्यर्थः । यथास्थितमिति । सामान्येन पूर्वोक्तमेव कुर्या - दित्यर्थः ॥ १८७ - १९०॥ १११ (सु० ) एतेषामिति । एतेषाम् ; चतुर्णामा सारितानाम् । पश्च कलादीनि उपोहनानि ज्ञातव्यानि । कनिष्ठे पञ्च कला उपोहनम् ; लयान्तरे षट् कला उपोहनम् ; मध्यमे सप्त कला उपोहनम् ; ज्येष्ठे अष्टौ कला उपोहनमिति । तेषां सर्वषामपि अन्ते संनिपातयुक्तानि त्रीणि त्रीणि वस्तूनि भवन्ति । आसारितानामनन्तरमुपोहन मुखं नामाङ्गं भवति । कनिष्ठे लयान्तरे च आसारिते प्रतिमुखं भवति । युग्मताल: ; चञ्च्चत्पुटतालेन गेयम् । मध्यमासारिते आद्या अष्टौ कलाः प्रतिमुखं भवति । ज्येष्टासारिते आद्याः षोडश कलाः प्रतिमुखं भवतीति । त्र्यश्री त्र्यश्रताले गेयौ । शरीरसंहारौ द्वौ अंशविशेषौ सर्वेष्वप्यासारितेषु ज्ञातव्यौ । पादभागे विभक्तानि पृथङ्निर्मितानि अङ्गुलीनि येषु तथाविधेषु तेषु आद्यान् पादभागान् विहाय, बहुवचनात् अन्येषु पादभागेषु शम्याः स्युर्भवेयुः । अङ्गानामविभागेन मिश्रीकरणे तु यथास्थितं यथोक्तमेव अङ्गुलिकर्म ज्ञातव्यम् ॥ १८७ - १९० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ संगीतरत्नाकर: उपोहनानां गुरुणी द्वे द्वे आद्यन्तयोर्मते । अष्टौ द्वादश मध्ये लाः क्रमात् षोडश विंशतिः ।। १९१ ॥ एतेषु स्याद् ध्रुवः पातः कलयोरन्त्ययोर्गुरुः । एकैकमक्षरं शेषाश्चतुर्मात्रगणाः कलाः ।। १९२ ॥ चतुर्मात्राक्षरगणाः सर्वाप्यासारित कला | संनिपातस्त्वर्धगणोऽवसानेऽन्यैरयं पुनः || १९३ || (क० ) अथोपहनेषु गुरुलध्वक्षरसंख्या नियममाह - उपोहनानामित्यादि । कनिष्ठासारितो पोहन आदौ द्वे गुर्वक्षरे अन्त्ये च द्वे गुर्वक्षरे मध्ये अष्टौ लध्वक्षराणि । लयान्तरासारितो पोहन आद्यन्तयोः पूर्ववत् । मध्ये द्वादश लध्वक्षराणि । मध्यमासारितोपहनेऽप्याद्यन्तयोः पूर्ववत् । मध्ये षोडश लध्वक्षराणि । ज्येष्ठासारितो पोहनेऽप्याद्यन्तयोः पूर्ववदेव । मध्ये विंशतिर्लघ्वक्षराणि कर्तव्यानीति क्रमो द्रष्टव्यः । एतेष्वित्यादि । एतेषु ; उपोहनेषु ध्रुवः पातः स्यात् । अन्त्ययोः कलयोरेकैकं गुर्वक्षरं कर्तव्यम् । शेषाः कलाः चतुर्मात्रगणाः ॥ १९१, १९२ ॥ (सु० ) उपोहनानामिति । उपोहनानाम्; आये द्वे कले, अन्त्ये कले च गुरुणी, मध्ये तु अष्टसंख्यादयो लाः लघवः क्रमेण ज्ञातव्याः । कनिष्ठासारिते मध्ये अष्टौ लघवः ; लयान्तरे द्वादश; मध्यमासारिते षोडश ; ज्येष्ठासारिते विंशतिरिति । एतेषु ; सर्वेषूपहनेषु ध्रुवपातो ज्ञातव्यः । अन्त्ययोर्द्वयोः कलयोः गुरुरूपमेकैकमक्षरं ज्ञातव्यम् । शेषाः कलाः चतुर्मात्रैणिः कार्याः ॥ १९१, १९२ ॥ (क०) एतदेव विवृणोति --- चतुर्मात्राक्षरगणेति । अक्षराणां गणोऽक्षरगणः ; चतस्रो मात्रा यस्य स चतुर्मात्रः ; चतुर्मात्रोऽक्षरगणो यस्यां कलायां सा तथोक्ता । आसारिते सर्वापि कला चतुर्मात्रगणा कर्तव्येति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथमस्तालाध्यायः ११३ विभक्ताङ्गमध्यवर्ती गणेनार्धन वा मतः । असारितान्याहुरन्ये हीनान्यङ्गैरुपोहनैः ।। १९४ ॥ यथाक्षरं द्विसंख्यातं त्रिसंख्यातमिति विधा। सर्वमासारितं तत्रावृत्तिहीनं यथाक्षरम् ॥ १९५॥ द्विसंख्यातं त्रिसंख्यातं द्वित्रिरुच्चारणे क्रमात् । आत्तिद्वयमात्राद्यादर्धाधलयमिष्यते ॥ १९६ ॥ यथाक्षरं सर्वमार्गे वृत्तिदक्षिणयोः परम् । दक्षिणे स्यात् त्रिसंख्यातं कनिष्ठं वृत्तिचित्रयोः ॥ १९७ ।। लयान्तरे स्वतन्त्र स्यादपरे त्वपरं जगुः । ध्रुवासारितमात्तिविधुरं ध्रुवमार्गतः ॥ १९८ ॥ त्रयोदशविधमासारितम् सामान्यम् । संनिपातस्त्वित्यादि । अर्धगणप्रमाणः संनिपातः । अवसाने; वस्त्वन्ते प्रयोक्तव्यः । अयं संनिपातः पुनः विभक्ताङ्गे वस्तुनि अर्धन गणेन मध्यवर्ती वा प्रयोक्तव्य इत्यन्यैर्मतः । अन्ये आचार्या आसारितानि अङ्गैः उपोहनैश्च हीनानि आहुः । यथाक्षरमित्यादि । आत्तिहीनमिति । एकवारं कृतमित्यर्थः । अत्रेति । अत्र ; संख्यात आद्यात् प्रथमादावर्तनात् । आवृत्तिद्वयं द्वितीय तृतीयं चावर्तनम् । अर्धाधलयमिति । अयमर्थः--प्रथमावृत्तौ विलम्बितो लयः । द्वितीयावृत्तौ तद? मध्यलयः । तृतीयावृत्तौ तद| द्रुतलयः कर्तव्य इत्यर्थः । यथाक्षरमित्यादि । यथाक्षरमासारितं सर्वमार्गे ध्रुवादिमार्गचतुष्टयेऽपि प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । परं द्विसंख्यातं वृत्तिदक्षिणमार्गयोः प्रयोक्तव्यम् । त्रिसंख्यातं दक्षिणमार्गे स्यात् । कनिष्ठम्: कनिष्ठासारितम् । वृत्तिचित्रयोः मार्गयोः प्रयोक्तव्यम् । लयान्तरे स्वतन्त्रे स्यादिति । स्वतन्त्रे; नियम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संगीतरत्नाकरः कण्डिकावर्धमानं चासारितामासमित्यपि । वर्धमानासारितं तु वर्धमानमिति त्रिधा ॥ १९९ ॥ रहिते मार्गे ध्रुवादिमिश्रात्मक इत्यर्थः । अपरे त्वित्यादि । आवृत्तिविधुरमिति । ध्रुवासारितस्य लक्षणमवगन्तव्यम् । ध्रुवमार्गत इति । त्रयोदशविधमिति । कनिष्ठासारिताद्यासारितचतुष्टयस्य प्रत्येकं यथाक्षरत्वादिभित्रैविध्य द्वादश विधम् ; मतान्तरोक्तेन ध्रुवासारितेन साकं त्रयोदश विधमासारितं भवति ॥ १९३-१९८ ॥ इत्यासारितलक्षणम् (सु०) एवमुपोहने नियममुक्त्वा सर्वस्मिन्नप्यासारिते गणनियममाहचतुर्मात्रेति । सर्वस्मिन्नप्यासारिते चतुर्मात्रगणाः कलाः । तत्र च सर्वगणैः अवसाने संनिपातः । अन्यैस्तु विभक्ताङ्गे आसारिते मध्यवर्तिना अर्धेन गणेन संनिपात उक्तः । मतान्तरे आदितालानामुपोहनाङ्गे हीनत्वमाह-आसारितानीति । यथाक्षरमिति । इदं चतुर्विधमप्यासारितं त्रिधा; यथाक्षरं, द्विसंख्यातं, त्रिसंख्यातमिति । तानि लक्षयति-तत्रेति । आवृत्त्या हीनं यथाक्षरम् ; द्विरुच्चारितं द्विसंख्यातम् ; त्रिरुच्चारितं त्रिसंख्यातमिति । आवृत्तीति । अतः त्रिसंख्या, ते अन्तिमावृत्तिद्वयमाद्यादावर्तनात् अर्धाधलयम् , आद्यावृत्तौ यो लयः, तस्मात् अर्धलयो द्वितीयावृत्तौ, ततोऽप्यर्धलयो तृतीयावृत्ताविति । मार्गनियममाह-यथाक्षरमिति । यथाक्षरं सर्वेषु मार्गेषु गेयम् । परं द्विसंख्यातं वृत्तिदक्षिणयोः; त्रिसंख्यातं दक्षिणे ; कनिष्ठं वृत्तिचित्रयोर्मार्गयोः । लयान्तरं स्वतन्त्रे स्वाधीने कस्मिंश्चिन्मार्ग इति । एवं द्वादशविधान्यसारितान्युक्त्वा मतान्तरेण पुनरप्येकविधमासारितभेदमाह-अपर इति । अपरे; केचित् । ध्रुवासारित मिति । ध्रुवमार्गेण आवृत्तिहीनं गेयमित्याहुः ॥ १९३-१९८ ॥ इत्यासारितलक्षणम् (क०) कण्डिकावर्धमानस्य लक्षणमाह-कण्डिकाभिरित्यादि । विशालादीनां चतसृणां कण्डिकानां कलासंख्यानियममाह-तासां नवाष्टौ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ पञ्चमस्तालाध्यायः कण्डिकाभिश्चतसृभिः कण्डिकावर्धमानकम् । विशालाद्या संगता च सुनन्दा सुमुखी तथा ॥ २० ॥ चतस्रः कण्डिकास्तासां नवाष्टौ षोडश क्रमात् । द्वात्रिंशच्च कला ज्ञेयाश्चतुरासारितस्थवत् ॥ २०१ ।। क्रमादुपोहनान्यासां झण्टुमित्यादिमौ गुरू । वा इत्यन्ते मुखानां स्याद्विशालायां तु मध्यमाः ॥ २०२ ॥ लाश्चतुदेश चत्वारश्चत्वारोऽन्येषु तेऽधिकाः। एष्वक्षराणि नियतान्यबूत श्रेयसे विधिः ॥ २०३ ।। भगवान् भरतस्त्वाह तानि व्यक्तानि तद्यथा । षोडश क्रमात् द्वात्रिंशच्च कला ज्ञेया इति । तत्र विशालाया नव कलाः ; संगताया अष्टौ कलाः; सुनन्दाया षोडश कलाः; सुमुख्या द्वात्रिंशत्कला इति क्रमः । आसामुपोहनानि क्रमाच्चतुरासारितस्थवदिति । चत्वारि च तान्यासारितानि तेषु तिष्ठन्तीति तत्स्थानि तान्युपोहनानीति ; विशालायां पञ्चकलमुपोहनं, संगतायां षटकलं, सुनन्दायां सप्तकलं, सुमुख्यामष्टकलमिति क्रमेण द्रष्टव्यम् । तेषामक्षराणि तत्संख्यां चाह-झण्टुमित्यादिना। 'झण्टुम्' इत्युपोहनानामादौ गुरू प्रयोक्तव्यौ । 'वा' इत्येको गुरुरन्ते प्रयोक्तव्यः । मुखानां मुखसंज्ञकानामुपोहनानामेवमाद्यन्तवर्णनियमः स्यात् । प्रत्येकं मध्यवर्णसंख्यामाह-विशालायां त्वित्यादि । विशालायामुपोहने मध्यमा लघवश्चर्तुदश स्युः । अन्येषु ; संगताद्युपोहनेषु । चत्वारश्चत्वारो लघवोऽधिका इति । पूर्वपूर्वापेक्षयेत्यर्थः । एवित्यादि । विधिः ; ब्रह्मा । श्रेयसे ; अभ्युदयाय, एषु ; उपोहनेषु, नियतानि अक्षराणि अब्रूत । तानि व्यक्तानीति । भरतोक्तान्यक्षराणि च व्यक्तानि ; भरतवचनेनैवेत्यर्थः । तदेवोदाहर्तुमाह-तद्यथेति ॥ १९९-२०३- ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ संगीतरत्नाकरः " तान्यक्षराणि वक्ष्ये यानि पुरा ब्रह्मगीतानि । झ झण्टुं दिगिदिगिदिगिदिगिदिगि कुचझलझण्टुमिति । एतद्वा ज्ञेयं तितिझलवृद्धं लयान्तरे गदितम् || कुचझलसहितं मध्ये तितिकुचयुक्तं भवेज्ज्येष्ठे । " इति ॥ (सु० ) वर्धमानं विभजते - कण्डिकेति । कण्डिकावर्धमानं च त्रिप्रकारम् | आसारिताभासम्; वर्धमानासारितम् ; वर्धमानमिति । तत्र कण्डिकावर्धमानं लक्षयति - कण्डिकाभिरिति । विशालाभिः चतसृभिः कण्डिकाभिः विरचितं कण्डकावर्धमानम् | कण्डिकां लक्षयति-तासामिति तासां मध्ये, विशालायां नव कलाः; संगतायामष्टौ कलाः; सुनन्दायां षोडश कलाः; सुमुख्यां द्वात्रिंशत्कला इति । आसाम् ; चतसृणामुपोहनानि चतुर्णामासारितानामिव कमात् कर्तव्यानि । कनिष्ठासारितोपहनवत् विशालायामुपोहनम् ; लयान्तरासारितोपोहनवत्संगतायाम्; मध्यमासारितोपहनवत्सुनन्दायाम् ; ज्येष्ठासारितोपोहनवत्सुमुख्यामिति । तेष्वपोहनेषु आद्यौ द्वौ गुरू झण्टुमित्यक्षराभ्यां गेयौ । अन्ते वर्तमानो गुरुश्च 'वा' इत्यनेन वर्णेन गेयम् । विशालायां मुखादारभ्य गुरुद्वयं चतुर्दश लघवः । अन्येषु संगतादिषु चत्वारश्वत्वारो लघवोऽधिकाः । एष्विति । एपु; उपोहनेषु । विधिः ; ब्रह्मा । श्रेयसे; अभ्युदयाय नियतान्यक्षराणि अब्रूत । भगवान् भरतोऽपि तानि अक्षराणि व्यक्तानि आह । १९९-२०३ ॥ 66 ' (क०) तानीति । झण्टुं झण्टुं दिगिदिगिदिगि दिगिहिगि कुचझलवा इति विशालपोहने, कनिष्ठासारितोपोहने चाक्षराणि । एतत् बाले कनिष्ठासारिते ज्ञेयम् । तितिझलवृद्धमिति । झण्टुं झण्टुं दिगिदिगिदिगिदिगिदिगि कुचझल तितिझलवा इति संगतोपोहने चाक्षराणि । कुचझलसहितमिति । झण्टुं झण्टुं दिगिदिगिदिगिदिगिदिगि कुचझलति तिझलकुचझलवा इति सुनन्दोपोहने चाक्षराणि । तितिकुचयुक्तं भवेज्ज्येष्ठ इति । झण्टुं झण्टुं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः मध्यमासारितादिस्थवस्तुवत्ताल इष्यते ॥ २०४ ।। विशालायां संगतायां द्विकलो युग्मसंज्ञकः । चतुष्कल: सुनन्दायां सुमुख्यां स द्विरुच्यते ।। २०५ ।। शम्यातालं द्विरन्ते च संनिपात उपोहने । आद्याया द्विकलचाचपुटेऽन्यस्या उपोहने ॥ २०६ ॥ दिगिदिगि कुचझलतितिझलकुचझलतितिकुचवा इति सुमुख्योपोहने ज्येष्ठासारितोपोहने चाक्षराणि । इति भरतवचनस्यार्थः ॥" "(सु०)तानीति। यान्यक्षराणि भरतेनोक्तानि तान्येवाह-झण्टुमिति । कनिष्ठासारिते ताले कुचझलझण्टुमित्यक्षराणि गेयानि । लयान्तरेति । लयान्तरासारित तितिजलवृद्धमित्यक्षराणि ; मध्यमासारिते कुचझलसहितान्यक्षराणि ; ज्येष्टासारित तितिकुचेत्यक्षराणि ज्ञातव्यानि ॥" । (क०) विशालादिषु तालं योजयति-मध्यमासारितेत्यादिना । विशालायां तालो मध्यमासरितादिस्थवस्तुवत; मध्यमासारितस्यादौ स्थितं वस्तु नवकलात्मकं तत्र यस्तालः स एव विशालायां कर्तव्य इत्यर्थः । संगतायां द्विकलो युग्मसंज्ञकः द्विकलश्चच्चत्पुटः कर्तव्यः । सुनन्दायां चतुष्कल इति, युग्मसंज्ञक इत्यनुषञ्जनीयः । सुमुख्यां सः चतुष्कलचच्चत्पुटो द्विरुच्यते ॥ -२०४, २०५ ॥ (सु०) मध्यमासारितेति । एषु वस्तुषु यस्ताल:, स एव विशालायां ज्ञातव्यः । संगतायां द्विकलश्चच्चत्पुटः; सुनन्दायां चतुष्कलश्चच्चत्पुटः ; समुख्यां स एव चतुष्कलश्चच्चत्पुटः द्विरुच्यते ॥ -२०४, २०५ ॥ (क०) अथोपोहनेषु तालं योजयति-शम्यातालमित्यादिना । आद्याया विशालाया उपोहने पञ्चकलात्मके शम्यातालम् । शम्या च Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संगीतरत्नाकरः उद्घट्टादिः सुनन्दायां भवेयुग्मो यथाक्षरः । स एव तालो द्विकलः सुमुख्याः स्यादुपोहने ।। २०७ ॥ कण्डिकानां वदन्तीत्थं परिवर्तान्दशापरे । विशाला संगता वाद्या सुनन्दा संगतादिमा ॥ २०८॥ सुमुखी च सुनन्दाद्या संगता च विशालिका । आसारितवदत्रापि कलानां गणकल्पना ॥ २०९ ।। तालश्चेति द्वन्द्वैकवद्भावान्नपुंसकलिङ्गनिर्देशः । द्विरिति । शताशतेत्यर्थः । अन्ते पञ्चम्यां कलायां संनिपातः कर्तव्यः । अन्यस्याः संगताया उपोहने षट्कलात्मके द्विकलश्चाचपुटः कर्तव्यः । सुनन्दाया उपोहने सप्तकलात्मक उद्घट्टादिर्यथाक्षरो युग्मः चच्चत्पुटो भवेत् । सुमुख्या उपोहनेऽष्टकलात्मके द्विकल: चच्चत्पुटो भवेत् । कण्डिकानामित्यादि । अपरे; आचार्याः कण्डिकानाम् इत्यमिति वक्ष्यमाणप्रकारेण दश परिवर्तान् वदन्ति । तान् दर्शयति-विशालेत्यादिना । आद्या विशाला । पुनरादिमा विशाला । अत्र; कण्डिकावर्धमाने । कलानां गणकल्पना आसारितवदिति । चतुर्मात्राक्षरगणा सर्वाप्यासारित कलेति यदुक्तं तद्वदित्यर्थः ॥ २०६-२०९ ॥ (सु०) शम्येति । उपोहने पञ्चकलात्मके शम्यातालमपि द्विरुच्चारणीयम् । अन्ते च संनिपातः । आद्याया इति । विशालाया उपोहने द्विकलश्चाचपुटतालः । संगताया उद्घट्टादिः, आदिशब्देन संपक्केष्टाकः । सुनन्दाया उपोहने यथाक्षरश्चञ्चत्पुटः, सुमुख्या उपोहने द्विकलश्चञ्चत्पुटः इति । मतान्तरमाह-कण्डिकानामिति । अपरे ; अन्ये आचार्याः कण्डिकानां दश परिवर्तान् वदन्ति । इत्थम् ; अनेन प्रकारेण कण्डिकालक्षणपरिवर्तनं वदन्ति । तस्मिन्पक्षे तं प्रकारमाह-विशाल ति । विशाला संगता आयेत्येकः पक्षः, सुनन्दा संगता आयेति द्वितीयः, सुमुखी सुनन्दा आद्येति तृतीयः, संगता विशाला आद्येति चतुर्थः । अत्रापि आसारितवत् गणाः कल्पनीयाः ॥ २०६-२०९ ॥ इति कण्डिकावर्धमानम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSSSS पश्चमस्तालाध्यायः ११९ SSSSSSSSS अस्य प्रस्तारः-निशतानि शतापनिसं ॥ इति विशाला ।। SS SS SS S ... ... sssssssssss निश निताश निसं ।। इति संगता ।। आनिविश आनिविता आशविप्र SSSS आनिविसं ॥ इति सुनन्दा ॥ आनिविश आनिविता आशविप्र आनिविर्स ॥ आनिविंश आनिविता आशविप्र आनिविर्स ।। इति सुमुखी । मानिविता आशविप आनिविर इति चतस्रः कण्डिकाः ॥ SS SS SS शता शतास ॥ इति विशालाया उपोहनम् ॥ निश ताश निसं॥ SSSSSSS इति संगताया उपोहनम् ॥ निशशता शताश ॥ इति सुनन्दाया SSS SSS उपोहनम् ॥ निश निताश निसं ॥ इति सुमुख्या उपोहनम् ॥ परिवर्तनपक्षे तु विशाला संगता वाद्येति क्रमेण कण्डिकानां प्रस्तारो ज्ञेयः ॥ इति कण्डिकावर्धमानम् ___ (क०) अस्य; कण्डिकावर्धमानस्य प्रस्तारो यथा- नव गुरून् लिखित्वा तदधः, निशतानि, शताप्रनिसमित्येतान् लिखेत् । इति विशाला। ततोऽष्टौ गुरून् लिखित्वा तदधः, निश निताश प्रनिसमित्येतान् लिखेत् । इति संगता । ततः षोडश गुरून् लिखित्वा तदधः, आनिविश आनिविता आशविप्र आनिविसमित्येतान् लिखेत् । इति सुनन्दा । ततो द्वात्रिंशद्गुरून् लिखित्वा तदधः, पूर्वोक्तान् वर्णान् द्विवारं लिखेत । इति सुमुखी । इति चतस्रः कण्डिकाः ॥ ___ अथोपोहनानि–पञ्च गुरून् लिखित्वा तदधः, शता शतासमिति लिखेत् । इति विशालाया उपोहनम् । षड् गुरून् लिखित्वा तदधः, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संगीतरत्नाकर: आसारितानामुत्पत्तिर्वर्धमानाद्भवत्यतः । तदासारितवद्भाति विधया वक्ष्यमाणया ।। २१० ॥ विशाला चेन्नव कला भित्वाष्टादशधा कृता । त्यक्त्वा चान्त्यां कलां तत्तु तदा भाति कनिष्ठवत् ॥ २११ ॥ निश ताश निसमिति लिखेत् । इति संगताया उपोहनम् । ततो यथाक्षरोट्टचच्चत्पुट लिखेत् । तत्र चच्चत्पुटस्याधस्ताच्छताशतान् लिखेत् । इति सुनन्दाया उपोहनम् । ततो द्विकलचच्चत्पुटं लिखेत् । इति सुमुख्या उपोहनम् । परिवर्तनपक्षे तु विशाला संगता वाद्येति क्रमेण कण्डिकानां प्रस्तारो ज्ञेयः ॥ इति कण्डिकावर्धमानम् (क०) अथासारिताभासनामकवर्धमानं लक्षयितुमाह - आसारितानामित्यादिना । अत्र यत इत्यध्याहर्तव्यम् । यतः कारणादासारि - तानामुत्पत्तिर्वर्धमानाद्भवति, अतः कारणात्चद्वर्धमानं वक्ष्यमाणया विधया आसारितवद्भाति । तां विघां दर्शयति- विशाला चेत्यादिना । विशालाया नव कला अष्टादशधा भित्वा वर्धयित्वा द्विगुणीकृत्येत्यर्थः । अन्त्यां कलामष्टादर्शी कलां त्यक्त्वा च कृता चेत्तदा तद्वर्धमानं सप्तदशकलात्मकत्वात्कनिष्ठवत् कनिष्ठासारितवद्भाति प्रतीयते ॥ २१०, २११ ॥ (सु० ) आसारिताभासं लक्षयितुमाह - आसारितानामिति । यतः वर्धमानात् आसारितानामुत्पत्तिः ; अत: कारणात् तद्वर्धमानं वक्ष्यमाणप्रकारेण आसारितवत् भासते । तमेव प्रकारमाह - विशालेति । नवकलाभि: अन्विता विशाला भित्वा कलाभेदं कृत्वा अष्टादशधा क्रियते । अन्त्या च काला यदा त्यज्यते, तदा वर्धमानं कनिष्टासारितवत् भाति ॥ २१०, २११ ॥ इति कनिष्ठासारिताभासं वर्धमानम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १२१ SS SS SS SS SS SS SS अस्य प्रस्तार:-शता शता संता शता शता संता शता SS S शता सं॥ इति कनिष्ठासारिताभासं वर्धमानम् संगता षटकलमुखी विशाला चेत्ततः परा । भवेल्लयान्तराभासं तत्तालं वर्धमानकम् ॥ २१२ ॥ SS SS SS SS SS SS SS अस्य प्रस्तारः-शता शता संता शता, शता संता शता SSS शतास ॥ आदावुपोहनं प्राग्वत्ताललयमागद्वैगुण्यं च ।। इति लयान्तराभासं वर्धमानम् अस्य ; कनिष्ठासारिताभासवर्धमानस्य प्रस्तारो यथा-सप्तदश गुरुन् लिखित्वा तदधः, कनिष्ठासारितोक्तान् शता शता संता शता शता संता शता शता समित्येतान् वर्णान् लिखेत ।। इति कनिष्ठासारिताभासं वर्धमानम् (क०) लयान्तराभासं वर्धमानं लक्षयति—पट्कलमुखीति । षट्कलं मुखमुपोहनं यस्याः सा तथोक्ता । संगता अष्टकलात्मिका आदौ भवेदित्यर्थः । ततः संगतायाः परा विशाला नवकलामिका भवेत् । तत्तालं स एव तालो यस्य तत्तथोक्तं लयान्तरतालयुक्तमित्यर्थः ॥ २१२ ॥ (सु०) संगतेति । विशालाकण्डिका संगता षट्कलमुखी यदा स्यात् , संगतायाः षट्कलमुखमादिर्यस्याः तथाविधश्चेत् तदा लयान्तराभासं वर्धमानम् ॥ २१२॥ इति लयान्तराभासं वर्धमानम् 16 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः सोपोहना सुनन्दादौ संगते द्वे ततः परे । मध्यमासारिते ताले स्यात्तदाभासकं तदा ॥ २१३ ॥ SSSSSSSSSSS SS SS SSS अस्य प्रस्तारः-शानता निशताप्रनिस निप्रताश निता निशता प्रनिर्स, नितीश निता निशती प्रनिर्स, आदौ सप्तकलमुपोहनम् ।। इति मध्यमासारिताभासं वर्धमानम् अस्य; लयान्तराभासवर्धमानस्य प्रस्तारं पूर्ववर्धमानवदेव लिवेत् । आदावुपोहनं प्राग्वत् । ताललयमार्गद्वैगुण्यं चात्र विशेषः ।। इति लयान्तराभासं वर्धमानम् (क०) मध्यमासारितामाभासमाह-सोपोहनेत्यादि । आदौ प्रथमं सोपोहना सप्तकलात्मकोपोहनसहिता सुनन्दा षोडशकलात्मिका । ततः परं द्वे संगते प्रत्येकमष्टकलात्मिके भवतः । एवं द्वात्रिंशत्कला भवन्ति । मध्यमासारिते ताल इत्यनेनान्ते संनिपातयुक्तका कलाधिका कर्तव्या । अन्यथा तस्य तालस्यापरिपूर्णता स्यात् । तेनात्र त्रयस्त्रिंशत्कला भवन्ति । तदाभासकमिति । मध्यमासारिताभासकं वर्धमानमित्यर्थः ॥ २१३ ॥ (सु०) सोपोहनेति । उपोहनसहिता सुनन्दा आदौ गेया । ततोऽनन्तरं संगता, आद्या विशाला च यदा मध्यमासारितस्थस्तालः तदा मध्यमासारितं वर्धमानम् ॥ २१३ ॥ इति मध्यमासारिताभासं वर्धमानम् (क०) अस्य ; मध्यमासारिताभासस्य प्रस्तारं मध्यमासारितप्रस्तारवल्लिग्वेत् । आदौ सप्तकलमुपोहनं प्राग्वत् ॥ इति मध्यमासारिताभासं वर्धमानम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १२३ सुमुखीकण्डिका पश्चात्सुनन्दा संगतादिमा । ज्येष्ठतालेन चेज्ज्येष्ठासारिताभासकं तथा ॥ २१४ ॥ SS SS SS SS SS SS Sass अस्य प्रस्तारः-आनिविश आनिविष आनिविप्र आनिविश SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविन आनिविश आनिविता आनिविता आनिविता आनिविश आनिर्षि आनिविर्स आनिवि अनिविश अनिविता आनिविभ SSSS आनिविसं । आदावष्टकलमुपोहनं प्राग्वत् ॥ इति ज्येष्ठासारिताभासं वर्धमानम् । इति चतुर्विधमासारिताभासं वर्धमानम् (क०) सुमुखीत्यादि । आदिमा; विशाला। एवं चतसृषु कण्डिकासु पञ्चषष्टिः कला भवन्ति । ज्येष्ठतालेनेति । ज्येष्ठसारिते यस्ताल उक्तः चतुप्कलोक्त स्त्रिरावृत्त आदौ त्यक्तसप्तकल: तेनात्र प्रयोगः कृतश्चेत् तदा ज्येष्ठासारिताभासं वर्धमानम् ॥ २१४ ॥ (सु०) सुमुखीति । सुमुखीकण्डिका पश्चात् गीयते ; संगता सुनन्दा च आदौ, ज्येष्ठासारिते यस्ताल उक्तः चतुष्कलोत्तरः त्रिरावृत्त आदौ त्यक्तसप्तकल: तेनात्र प्रयोगः कृतश्चेत् तदा ज्येष्ठासारिताभासं वर्धमानम् ॥ २१४ ॥ ___इति चतुर्विधमासारिताभासं वर्धमानम् (क०) अस्य ; ज्येष्ठासारिताभासस्य प्रस्तारो यथा-ज्येष्ठासारितप्रस्तारवल्लिखेत् । आदावष्टकलमुपोहनं प्राग्वत् । इति ज्येष्ठासारिताभासं वर्धमानम् इति चतुर्विधमासारिताभासं वर्धमानम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ संगीतरनाकरः आसारितेभ्य उत्पन्न वर्धमानं विवक्ष्यते । यदा तदा वर्धमानासारितं तदुदाहरन् ॥ २१५ ॥ यदा पूर्वक्रमाद्गीतास्तालैस्तैरेव कण्डिकाः । वर्धमानासारितानि तदा चत्वारि पूर्ववत् ॥ २१६ ॥ कनिष्ठादीनि भान्त्यत्र तालांशा वर्धमानवत् । यथाक्षरादिभेदेन पुनः सर्वाण्यपि त्रिधा ॥ २१७ ॥ यथाक्षरादित्रितयं दक्षिणे वार्तिके द्वयम् । चित्रे त्वेकमितीमानि षट्प्रकाराणि मार्गतः ॥ २१८ ॥ (क०) आसारितेभ्य इत्यादि । पूर्वमासारिताभास आसारितानामुत्पत्तिर्वर्धमानादिति दर्शितम् । इदानीं तद्विपर्यय उच्यते । यदा वर्धमानासारितेभ्य उत्पन्न मिति विवक्ष्यते ; तदा तद्वर्धमानासारितमित्युदाहरनाचार्याः । तेनात्र विवक्षयैव भेदो द्रष्टव्यः । स्वरूपस्तु नातीव भेदोऽस्तीति मन्यमान आह-यदा पूर्वक्रमादिति । अत्र वर्धमानासारितेषु कनिष्ठादीन्यासारितानि भान्ति प्रतीयन्ते । तालांशाः; तालभागाः, वर्धमानवत् वर्धमान इव भान्ति । तत्त्वतस्तु तावन्मात्रामितत्वाद्वर्धमाना एव । यथाक्षरादिभेदेनेत्यादि । सर्वाण्यपीति । मार्गलयमात्रभिन्नस्य लयान्तरस्य कनिष्ठादिव्यतिरेकात तदुत्थानि त्रीणि वर्धमानानि विहाय इतराणि कण्डिकावर्धमानानि त्रीणि, आसारिताभासादीनि त्रीणि, वर्धमानासारितानि त्रीणीति मिलित्वा नव गृह्यन्ते ; तानि नवापि । यथाक्षरादिभेदेनेति । आदिशब्देन द्विकलचतुष्कलभेदौ गृह्यते । एवं त्रिविधानि भवन्ति । यथाक्षरादित्रितयं दक्षिण इति । दक्षिणमार्गे पूर्वोक्तानि नवापि यथाक्षराणि द्विकलानि चतुष्कलानि च भवन्ति । वार्तिके द्वयमिति । वार्तिके मार्गे यथाक्षराणि च द्विकलानि चतुष्कलानि च भवन्ति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः १२५ S SS SS SS SS SS एतेषां प्रस्तारो यथा-श आनि विता, आनि विश आता विप्र तानि विसं । इति वर्धमानभासं कनिष्ठासारितम् । शनिनिता शमनिर्स शनिताश तापनिसं । इति वर्धमानाभासं लयान्तरम् । चित्रे त्वेकमिति । चित्रे मार्ग एकं यथाक्षराण्येव भवन्ति । इतीमानि वर्धमानानि मार्गतो मार्गभेदवशात् षट्प्रकाराणि भवन्ति । यथा प्रथमोतान्येव वर्धमानानि यानि न विद्यन्ते तानि दक्षिणे यथाक्षराणीत्यकः प्रकारः । अत्रैव द्विकलानीति द्वितीयः । तत्रैव चतुष्कलानीति तृतीयः । वार्तिके यथाक्षराणीति चतुर्थः । तत्रैव द्विकलानीति पञ्चमः । चित्रे यथाक्षराणीति षष्ठः । एवं नवानां षट्प्रकारत्वे चतुष्पञ्चाशद्वर्धमानानि भवन्ति ॥ २१५-२१८ ॥ (सु०) आसारितं लक्षयति—आसारितेभ्य इति | आसारितेभ्यः वर्धमाना उत्पन्ना इति यदा विवक्ष्यते, तदा वर्धमानासारितमित्युदाहरन् भरतादयः । यदेति । यदा पूर्वोक्तक्रमेण तालैः स्वरैश्च कण्डिका गीयते, तदा चत्वारि वर्धमानासारितानि भवन्ति । अत्र वर्धमानासारिते, कनिष्ठादीन्यासारितानि वर्धमानवत् भासन्ते । यथाक्षरादीति । सर्वाण्यप्यासारितानि त्रिविधानि ; यथाक्षराणि, द्विकलानि, चतुष्कलानीति । पुनरपि मार्गत: मार्गभेदेन षट्प्रकराणि भवन्ति ॥ २१५-२१८ ॥ इति वर्धमानानि (क०) एतेषां प्रस्तार इति। एतेषां वर्धमानासारिताभासानां प्रस्तारः प्रदर्यत इत्यर्थः । यथा सप्तदश गुरून् लिखित्वा तदधः, शआनिविता, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संगीतरत्नाकरः SS SS SS SS SS SS SS SS SSS आनिविश आनिविता निविप्र आनिविसं विशनिता SSS S SS SS SSSSS शनिसं शनितानि शतापनिस । इति वर्धमानाभासं मध्यमासारितम् ।। शआनिविश आनिविता आशविप आनिविसं आनिविश SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS SS आनिविता आशविष आनिविसं आनिविश आनिविता आशविप आनिविस निनिता पनि नितानि शानिर्स । इति वर्धमानाभासं ज्येष्ठासारितम् ॥ इति चतुष्पञ्चाशद्भेदानि वर्धमानानि आनिविश आनिविप्र आनिविसमिति लिखेत् । इति वर्धमानाभासं कनिष्ठासारितम् । ततोऽपि सप्तदश गुरून् लिखित्वा तदधः, शनिशनिता शप्रनिसं शनिताश तापनिसमिति लिखेत । इति वर्धमानाभासं लयान्तरम् । ततस्त्रयस्त्रिंशद्गुरून् लिखित्वा तदधः, आनिविश आनिविता आनिविप्र आनिविसं निशनिता शप्रनिसं शनितानि शताप्रनिसमिति लिखेत् । इति वर्धमानाभासं मध्यमासारितम् । ततः पञ्चषष्टिगुरून् लिखित्वा तदधः, शआनिविश आनिविता आशविप्र आनिविसं आनिविश आनिविता आशविप्र आनिविसं आनिविश आनिविता आशविप्र आनिविसं निशनिता शप्रनिश नितानि शताप्रनिसमित्येतान् वर्णान् लिखेत् ।। इति वर्धमानासान्तिं ज्येष्ठासारितम् इति चतुष्पञ्चाशद्भेदानि वर्धमानानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १२७ आया रोविन्दकगता मात्रैका पाणिका मुखम् । मात्रा स्यादवराष्टाङ्गा षोडशाङ्गा परा मता ॥ २१९ ॥ उल्लोप्यकवदङ्गानां निवेशं कोविदा विदुः । विदार्यः स्युः स्तुतिपदैराकारान्तरितैरिह || २२० ॥ निरन्तरैः स्तुतिपदैराकारैश्चाथवा क्रमात् । मुखात्परं प्रतिमुखं मुखवत्स्यात्पदान्तरैः ।। २२१ ॥ अथोत्तरैश्चतुर्भिः स्याच्छरीरं तु यथाक्षरैः । ततः शीर्ष सैककेन कार्य संपिष्टकेन तु ॥ २२२ ॥ अन्येऽन्ताहरणेनान्तान्वितेनेच्छन्ति शीर्षकम् । (क०) अथ पाणिकां लक्षयति-आयेत्यादि । रोविन्दकगता; आद्या एका मात्रा पाणिका स्यात् । रोविन्दकगतेत्यनेन मात्रायाः षोडशकलत्वम् , आनिविप्रादियुक्तत्वं च वेदितव्यम् । मुखमित्युपोहनं रोविन्दक. गतमिति लिङ्गव्यत्ययेनानुषञ्जनीयम् । तेन तदत्राप्यष्टकलमित्यवगन्तव्यम् । अष्टाङ्गमात्रा अवरा स्यात् । षोडशाङ्गमात्रा परा स्मृता । उल्लोप्यकवदित्यादि । अङ्गानां विविधादीनां निवेशमुल्लोप्यके यथा तथात्रापि कर्तव्यं विदुः । इह ; पाणिकायाम् , आकारान्तरितैः स्तुतिपदैः विदार्यः स्युरित्येकः पक्षः । अथवा निरन्तरैः स्तुतिपदैः निरन्तरैराकारैश्च क्रमात् विदार्यः स्युरिति पक्षान्तरम् । मुखवत्स्यात्पदान्तरैरिति । मुखप्रतिमुखयोः पदभेद एव, न गीतिभेद इत्यर्थः । अथ ; प्रतिमुखानन्तरम् । ततः शरीरं सैककेन एककाख्यानसहितेन संपिष्टकेण दशकलेन वा शीर्ष कार्यम् । अन्ये आचार्याः अन्तान्वितेन अन्ताहरणेन शीर्षकमिच्छन्ति ।। २१९-२२२- ॥ (सु०) पाणिकां लक्षयति-आद्येति । रोविन्दकगता आद्या मात्रा पाणिकाया: मुखं स्यात् । सा मात्रा अवरा हीना अष्टाङ्गा; परा उत्तमा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ नचित्र SSSS संगीतरत्नाकरः SSSSSSSS ___ अस्याः प्रस्तारः-आनिविध आनिविता । इत्युपोहनम् । अस्याः प्रस्तार: आनिविता SS SS SS SS आनिविन आनिविश । इत्युपोहनमिदं मिलितमुखम् । आनिविश आनिविता आविनिप्र आनिविसं संताशताशता । इति प्रतिमुखम् । ततो SS SS SS SS यथाक्षरैः चतुभिरुत्तरैः शरीरम् । प्रस्तारो यथा-निश शश ताता ताश SS SS ताश तास । इति शीर्षकम् । अन्ये त्वन्ताहरणसहितमन्तं शीर्षकमाहुः । स चोल्लोप्यके दर्शितः ॥ इति पाणिका षोडशाङ्गा । कान्यङ्गानीत्यपेक्षायामाह-उल्लोप्यकवदिति । उल्लोप्यकपदेषु यान्यङ्गानि तेषां निवेशं कोविदा: ज्ञातार आहुः । विदार्यस्तु आकारान्तरितैः स्तुतिपदैः कार्याः | अथवा निरन्तरः स्तुतिपदैः, निरन्तरैराकारैश्च वा । मुखादनन्तरं तद्वदेव प्रतिमुखं कार्यम् । अथ प्रतिमुखादनन्तरम् ; चतुर्भिरुत्तरैः षपितापुत्रकैः यथाक्षरैः शरीराख्यमङ्गं कार्यम् । तत: शीर्षम् एककलासहितेन संपिष्ठकाख्येन अङ्गेन कार्यम् । अन्ये ; आचार्याः, अन्तान्वितेन अन्ताहरणेन पूर्वलक्षितेन शीर्षकमिच्छन्ति ॥ २१९-२२२-॥ इति पाणिका (क०) अस्याः; पाणिकायाः प्रस्तारो यथा-प्रथममुपोहने अष्टौ गुरून् लिखित्वा तदधः, आनिविप्र आनिवितान् लिखेत् । इत्युपोहनम् । ततोऽप्यष्टौ गुरून् लिखित्वा तदधः ; आनिविप्र आनिविशान् लिखेत् । इत्युपोहनेन सहिता आद्या मात्रा । तदनन्तरं मुखवदेव प्रतिमुखं लिखेत् । इति प्रतिमुखम् । ततो यथाक्षरोत्तरैः चतुर्भिः शरीरं लिखेत् । इति शरीरम् । ततः शीर्षके द्वादश गुरून् लिखित्वा तदधः, निश शश ताता ताश Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ पञ्चमस्तालाध्यायः आरभ्यानुष्टुभं वृत्तैर्जगत्यन्तैः पदैरपि ।। २२३ ॥ लौकिकैर्वैदिकैर्वापि गातव्यामृचमूचिरे । एकाक्षराः कला अष्टाचत्वारिंशदिहोदिताः ॥ २२४ ॥ कलानां पूरणं मन्त्रपदैः स्तोभाक्षरैरपि । तान्यत्र ब्रह्मगीतानि निर्दिश्यन्तेऽधुना यथा ॥ २२५ ॥ झण्टुं जगतियवलिकितकुचझलतितिझलपशुपतिदिगिदिगिवादिगोंगणपतितितिधा, इत्येतान् ब्रवीद्ब्रह्मा । ओंकारश्च हकारोऽपि स्वरव्यञ्जनसंयुतः । ताशतासमिति लिखेत् । इति संपिष्टकेण शीर्षकम् । अन्ये तु अन्ताहरणसहितं शीर्षकमाहुः । स चोल्लोप्यके दर्शितोऽत्रानुसंधेयः ।। __ इति पाणिका (क०) अथर्च लक्षयति-आरभ्येत्यादि। अनुष्टुभं छन्द आरभ्य । जगत्यन्तैरिति; अनुष्टुभमष्टाक्षरपादयुक्तं, जगती नाम द्वादशाक्षरपादयुक्तं छन्दः । तदुद्भवैः वृत्तैः पदैरपि संस्कृतैः लौकिकैः वैदिकैर्वापीति वृत्तानां पदानां च विशेषणम् । लौकिकानि वृत्तानि विचित्रपदादीनि ; वैदिकानि वृत्तानि पुर उष्णिगादीनि ; लौकिकानि पदानि ब्राह्मणाः, देवा इत्येवमादीनि : वैदिकानि पदानि ब्राह्मणासः, देवास इत्येवमादीनि । एकाक्षरा इत्यादि । इह ; ऋचि । एकाक्षराः कला इति । एकैकस्यां कलायामेकैकमक्षरं प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । अत्रोक्तासु अष्टाचत्वारिंशत्कलासु मध्ये कासुचित् वृत्ताक्षरैः पूरितासु, अवशिष्टानां वक्ष्यमाणैः स्तोभाक्षरैरपि पूरणम् ऊचिर इति क्रियानुषतः कर्तव्यः । तानि पदानि स्तोभाक्षराणि दर्शयति-तान्यत्र ब्रह्मगीतानीत्यादिना | स्वरव्यञ्जनैः संयुत इत्यत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संगीतरत्नाकरः त्रिकलः षट्कलो वात्र स्तोभः स्यान्मुनिसंमतः ॥ २२६ ॥ प्रस्तावादीनि सप्तापि सामाङ्गान्यत्र चावदन् । यथाशोभं विदारी च वर्णाश्च रचयेदिह ॥ २२७ ।। इति ऋक् ओंकारो व्यञ्जनसंयुतः, हकारः स्वरसंयुत इत्यर्थक्रमो द्रष्टव्यः । त्रिकल: षट्कल इति । औकारो हकारश्च कलात्रयकालयुक्तो वा कलाषट्ककालयुक्तो वा कर्तव्य इत्यर्थः । प्रस्तावादीनीत्यादि । प्रस्तावोद्गीथप्रतिहारोपद्रवनिधनहिंकारहुंकारा इति सप्त सामाङ्गानि । वर्णाश्चेति । स्थाय्यादी. नीत्यर्थः ॥ -२२३-२२७ ॥ ___ इति ऋक् (सु०) ऋचं लक्षयति–आरभ्येति । अनुष्टुपूच्छन्द आरभ्य, अष्टाक्षरमारभ्य, जगतीछन्दान्तैः द्वादशाक्षरपर्यन्तं लौकिकै: वैदिकैर्वा पदैः ऋचं गायन्ति भरतादयः कथयामासुः । एकाक्षग इति । अस्यां ऋचि एकाक्षरा: अष्टाचत्वारिंशत्कला गेयाः । ननु मन्त्राक्षगणामल्पत्वे कथं कलापूर्ति: ? अत आह-कलानामिति । कलानां पूरणमत्र मन्त्रपदैः स्तोभाक्षरैरपि कार्यम् । तान्येव ब्रह्मणा गीतानि स्तोभाक्षराणि प्रतिज्ञाय निर्दिशति-तानीत्यादिना । स्तोभाक्षराण्याह-ओंकार इति | ओंकारोऽपि स्तोभत्वेन मुनिभि: संमतः । ओंकारश्च येन केनचित्स्वरेण व्यञ्जनेन च संयुत: स्तोभ: उभावपि कलात्रये कला षष्ठे वा स्तोभत्वेन ज्ञेयौ । प्रस्तावादीनि च सप्तापि सामाङ्गानि स्तोभ इति ज्ञातव्यानि । इह ; ऋचि यथाशोभं यथारुचि शोभार्थ स्वेच्छया विदारी वर्णाश्च रचयेत् । सामाङ्गान्यनुपदमेव वक्ष्यति ॥ -२२३-२२७ ॥ इति ऋक् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ पञ्चमस्तालाध्यायः कला मुनिजनैरुक्ता गाथायाश्चतुरक्षरा । अध्यष्टाविंशतिशतं कलानां तत्र कीर्तितम् ॥ २२८ ॥ मात्रात्तैः कलानां च पूर्तिः स्तोभाक्षरैरपि । कर्तव्यान्येककान्यत्र वर्णालंकारगीतयः ।। २२९ ॥ सामाङ्गानि च भूयांसि विविधानामिहाल्पता । इति गाथा स्तोभभङ्गी विजानीयात्साम्नो वैदिकसामवत् ॥ २३० ॥ ब्रह्मणा च पुरा गीतं प्रस्तावोद्गीथको तथा । (क०) अथ गाथां लक्षयति-कला मुनिजनैरित्यादि । गाथायाः कला मुनिजनैः चतुरक्षरोक्ता । एकैकस्यां कलायां चत्वारि चत्वार्यक्षराणि प्रयोज्यानीत्यर्थः । तत्रेति । तत्र ; गाथायाम् । अध्यष्टाविंशतिकलानां शतं कीर्तितम् । अष्टाविंशत्या अधिकमध्यष्टाविंशति ; शतविशेषणम् । मात्रात्तैः स्तोभाक्षरैरपि स्तोभाक्षरैरपि कलानां पूर्तिर्भवेत् । अत्र गाथायामेककानि कर्तव्यानि । वर्णालंकारगीतयश्च कर्तव्याः । सामाङ्गानि प्रस्तावादीनि ॥ २२८, २२९ ॥ इति गाथा (सु०) गाथां लक्षयति-कलेति । गाथायाः चतुरक्षरा कला उक्ता | आद्यायां मात्रायां कलानामष्टाविंशत्युत्तरं शतं विधेयम् | कलानामपि परिपूर्ति: परिपूरणम् । वृत्तैः श्लोकः स्तोभाक्षरैरपि कर्तव्यम् । अत्र गाथायाम् ; एककानि कर्तव्यानि । वर्णालंकारगीतयश्च कर्तव्याः । इह ; गाथायाम् ; सामाङ्गानां प्रस्तावादीनां बाहुल्यम् , विविधानामल्पत्वमिति ॥ २२८, २२९- ॥ इति गाथा (क०) अथ साम लक्षयति-स्तोभभङ्गीमित्यादिना । साम्नः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ संगीतरत्नाकरः प्रतिहारोपद्रवौ च निधनं पञ्चमं मतम् ॥ २३१ ॥ ततो हिंकार ओंकारः सप्ताङ्गानीति तत्र तु । उद्याहः स्यादनुयाहः संबोधो ध्रुवकस्तथा ।। २३२ ।। आभोगश्चेति पश्चानामाद्यानामभिधाः क्रमात् । हिंकारोंकारयोस्तत्र कलापूरकता मता ॥ २३३ ॥ गायत्रीप्रभृतिच्छन्दः संकृत्यन्तमिहेष्यते । ऋग्व्यूढमिति सामोक्तं गये षण्णवतिः कलाः ॥ २३४ ॥ एकाक्षराः सामगाने तदधेपपरे जगुः । अत्रापि मन्त्रस्तोभानामृचां च त्रिकलादिकम् ।। २३५ ।। इति साम । इति गीतप्रकरणानि इनि मार्गतालप्रकरणम् सामाख्यगीतस्य वैदिकसामवत् ऋगादिवाक्यविशेषस्य गीतिवत् । यथोक्तम्“गीतिपु सामाख्या" इति । स्तोभभङ्गी स्तोभाक्षराणां प्रकार विजानीयात् । ब्रह्मणा च पुरा गीतमित्यत्र सामेत्यध्याहर्तव्यम् । प्रस्ताव इत्यादि। वैदिके सामनि प्रस्तावाख्यस्य अङ्गस्य गीते सामन्युद्ग्राह इति संज्ञा । उद्गीथस्य अनुग्राह इति संज्ञा । प्रतिहारस्य संबन्ध इति संज्ञा। उपद्रवस्य ध्रुवक इति संज्ञा । निधनस्य आभोग इति संज्ञा । एवं क्रमो द्रष्टव्यः । तत्र गीते हिंकारोंकारयोः कलापूरकता द्रष्टव्या । इह सामगीत गायत्रीप्रभृति संकृत्यन्तं छन्द उच्यते । गायत्री षडक्षरपादा । संकृतिः चतुर्विंशत्यक्षरपादा। गाथायां सानो मतान्तरेण कलासंख्यानियममाह-गद्य इत्यादिना। गद्य गाथायामेकैकाक्षराः षण्णवतिः कला भवन्ति । सामगाने तदर्थमिति । तस्याः षण्णवतिसंख्यायामर्धमष्टाचत्वारिंशत्कला भवन्तीन्यर्थः । अत्रापीति । सामाख्यगीतेऽपि । ऋचीवर्गाख्ये गीत इव । मन्त्रस्तोभानां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः मन्त्ररूपस्तोभाक्षराणामोंकारादीनाम् । मन्त्रेति विशेषणं गीतस्तोभाक्षरनिवृत्यर्थम् । त्रिकलादिकं त्रिकलत्वादिकमिति धर्मपरो निर्देशः । आदिशब्देन षकलत्वं गृह्यते । कर्तव्यमित्यध्याहर्तव्यम् ॥ २३०-२३५ ॥ इति साम । इति गीतप्रकरणानि । इति मार्गतालप्रकरणम् (सु०) साम लक्षयति-स्तोभभङ्गीमिति । वैदिके भागे यथा स्तोभानां भङ्गी चातुरी तथैव साम्नां ज्ञातव्या । यत: ब्रह्मणैव पुरा पूर्व गीता । सामाङ्गानि दर्शयति-प्रस्तावेति । सप्त सामाङ्गानि भवन्ति । प्रस्तावः, उद्गीथ , प्रतिहारः, उपद्रवः, निधनम् , हिंकारः, ओंकारश्चेति । तत्राद्यानां पञ्चानामुगाहादिसंज्ञा । प्रस्तावः उगाहः, उद्गीथः, अनुदाहः, प्रतिहारः संबन्धः, उपद्रवो ध्रुवकः, निधनमाभोग इति । हिंकारोंकारयोश्च कलापूरकत्वम् । गायत्रीति । इह साम्नि गायत्रीमारभ्य संकृतिपर्यन्तं छन्द इष्यते । षडक्षरार्दानि छन्दांसि गायत्र्यादीनि चतुर्विशत्यक्षरपर्यन्तानि ज्ञातव्यानि । "गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च । त्रिष्टुप् च जगती चैव तथातिजगती मता । शक्करी सातिपूर्वा स्यादष्ट्यत्यष्टी ततः स्मृते । धृतिश्चातिधृतिश्चैव कृतिः प्रकृतिराकृति: । विकृति: संकृतिश्चैव" । इति ॥ इदं साम ऋच्यूढं ऋचि वर्तमानमुक्तम् । गेयं सामानि तु एकाक्षरात् षण्णवतिकला: सामगाने उक्ता: । केचित् अर्धमष्टाचत्वारिंशत्कला इति वदन्ति । अत्रापि ऋचि यथावर्तमानं मन्त्रस्तोभानि त्रिकलत्वं षट्कलत्वं च यथायोग्यं ज्ञेयम् ॥ २३०-२३५॥ इति साम । इति गीतप्रकरणानि इति मार्गतालप्रकरणम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ संगीतरत्नाकरः श्रीकीर्तिविजयानन्दं पार्वतीलोचनोत्सवम् । राजचूडामणिं नत्वा तालं देशीगतं ब्रुवे ॥ २३६ ॥ देशीतालस्तु लघ्वादिमितया क्रियया मतः । यथाशोभं कांस्यतालध्वननादिकया मतः ॥ २३७ ।। (क०) अथ देशीतालप्रकरणस्यादाविष्टदेवतां नमस्कृत्य प्रतिपाद्यं प्रतिजानीत-श्रीकीर्तिविजयानन्दमिति । अत्र तालेश्वरयोर्विशेषणानि श्लिष्टानि द्रष्टव्यानि । श्रीकीर्तिविजयानन्दमिति ; श्रिया कीर्त्या विजयेन चोत्पन्न आनन्द एवेश्वरः, अथवा तादृश एवानन्दो यस्येति बहुव्रीहिर्वा । श्रीकीर्तिनामैकस्तालः, विजयानन्द इत्यपरः । पार्वतीलोचनोत्सवमिति; पार्वत्या लोचनयोः उत्सवत्वेन रूपित ईश्वरः पार्वतीलोचन इत्येकस्तालः । उत्सव इत्यन्यः । राजचूडामणिमिति ; राजा चन्द्रः चूडामणियस्येति स तथोक्त ईश्वरः । राजचूडामणिरित्येकस्तालः । उक्तलक्षणमीश्वरं नत्वा श्रीकीधुपलक्षितं देशीगतं तालं ब्रुव इति संबन्धः । अत्र तालमिति जातायेकवचनम् , ईश्वरस्यैकत्वात् । तालस्यापि तद्विशेषणसाम्यसिध्यर्थमेकवचनं कृतमिति मन्तव्यम् ।। २३६ ॥ (सु०) एवं मार्गतालास्तदुपयोगांश्वोक्त्वा देशीतालान् विवक्षुः तदुचितं मङ्गलाचरणपूर्वकं प्रतिजानीते-श्रीकीर्तीति । राजा चन्द्र: चूडामणिर्यस्य स चन्द्रमौलिमहेशः । श्रीश्र कीर्तिश्च विजयश्च एतान् आनन्दयतीति तथाविधः । पार्वत्या भवान्या लोचनयोः नयनयोः उत्सवः यस्मात् ; तथाविधं शिवं नत्वा देशीतालं ब्रुवे कथयामीति संबन्धः । पक्षे श्रीकीर्तिनामा ताल: ; विजयानन्दः; पार्वतीलोचनोत्सवः ; राजचूडामणिश्चेति । तान् ब्रव इति संबन्धः ।। २३६ ।। (क०) तस्य सामान्यलक्षणमाह-देशीतालस्त्वित्यादि । अत्र तुशब्दो मार्गतालात् देशीतालस्य वैषम्यद्योतनार्थः । तच्च वैषम्यं, 'यथाशोभं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पश्चमस्तालाध्यायः अर्धमात्रं द्रुतो मात्रात्रितयं प्लुत उच्यते । द्रुतादिरचनाभेदात्तालभेदोऽप्यनेकधा ।। २३८ ॥ तालानामधुना तेषामुद्देशं संगिरामहे । लघ्वादिमितया क्रियया मतः' इति, 'यथाशोभं कांस्यतालध्वननादिकया मतः' इति च विशेषणद्वयेन द्रष्टव्यम् । अत्र यथाशोभमिति पदं देहलीप्रदीपन्यायेन, काकाक्षिन्यायेन वोभयतो योजनीयम् ! तत्र यथाशोभं लध्वादिमितयेत्यस्यायमर्थः---अत्र शोभाशब्देन गीतावयवेषु तालावृत्तीनां कालसाम्यनिबन्धना सहृदयहृदयंगमतोच्यते । तामनतिक्रम्यति यस्मिन् गीतावयवे यावदक्षरमितया मात्रया कांस्यतालकालसाम्यं भवति, तत्र मार्गे पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमिता मात्रानियतत्वेन कथिता । क्वचित्तु ततोऽपि न्यूनया चतुर्लध्वक्षरोच्चारमितया कालसाम्यम् । अन्यत्र तु ततोऽप्यधिकया षड्लघ्वक्षरोच्चारमितया। यत्र यथा शोभा भवति तामनतिक्रम्य । लघ्वादिमितयेति । आदिशब्देन गुरुप्लुतद्वता गृह्यन्ते । अत्राल्पग्रहणे द्रुतादीति वा, महद्ग्रहणे प्लुतादीति वा वक्तव्ये लघ्वादीति वचनं देशीतालेषु ग्रहणमोक्षयोलघोरेव प्राधान्यद्योतनार्थम् । तेन केवलद्रुतात्मकेऽपि ताले द्रुतद्वयं लघूकृत्य तत्र ग्रहमोक्षौ कुर्यादिति संप्रदायो वेदितव्यः । अत्रोक्तस्य मात्राप्रमाणभेदस्य तालविशेषनिष्ठत्वेनोदाहरणमुत्तरत्र तालानां पौनरुक्त्यपरिहारावसरे करिष्यते । यथाशोभं कांस्यतालध्वननादिकयेति; कांस्यतालध्वनने या शोभा कचिन्मुक्तनादत्वेन, क्वचिद्गृहीतनादत्वेन, कचिद्विघातेषु करक्रियाविशेषेण, क्वचिद्विघाते घातकल्पनया च जायते, तां शोभामनतिक्रम्य कांस्यतालस्य ध्वननाद्विस्मयवैचित्र्यजनिताश्चर्यवान् ; मतः; लोकसंमत इति मार्गतालाद्वैषम्यं देशीतालस्य । अर्धमात्रमिति ; मात्राया अर्धमर्धमात्रं द्रुत उच्यते । द्रुवादिरचनाभेदादिति । द्रुतादीनां द्रुतलघुगुरुप्लुतानां रचना संनिवेश Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ संगीतरत्नाकरः आदितालो द्वितीयश्च तृतीयोऽथ चतुर्थकः ॥ २३९ ॥ पञ्चमो निःशङ्कलीलो दर्पणः सिंहविक्रमः । रतिलील: सिंहलील: कन्दर्पो वीरविक्रमः ॥ २४० ॥ रङ्गः श्रीरङ्गचच्चय? प्रत्यङ्गो यतिलग्नकः । राजचूडामणी रङ्गयोतो रङ्गप्रदीपकः ॥ २४१ ॥ राजतालो वर्णतालः सिंहविक्रीडितो जयः । वनमाली हंसनादः सिंहनादः कुडुक्ककः ॥ २४२ ॥ तुरङ्गालीलः शरभलीलः स्यात्सिहनन्दनः । त्रिभरिङ्गाभरणो मण्ठकः कोकिलाप्रियः ।। २४३ ।। निःसारुको राजविद्याधरश्च जयमङ्गलः । मल्लिकामोदविजयानन्दौ क्रीडाजयश्रियौ ।। २४४ ॥ विशेषः, प्रमाणविशेषश्च ; तस्या भेदो विशेषान्तरं, तस्माद्धेतोस्तालभेदोऽप्यनेकधा भवति, विचित्रो भवति । तालवैचित्र्यमपि द्रुतादीनां संनिवेशभेदात् प्रमाणभेदाच्चेति मन्तव्यम् । तालानामित्यादि । तेषाम् ; देशीतालानामित्यर्थः । उद्देशम् ; नाममात्राभिधानम् ।। २३७, २३८- ॥ (सु०) देशीताल इति । देशीतालस्तु शोभामनतिक्रम्य क्रमेण कांस्यतालध्वननादिकस्वेच्छारचितया क्रियया ; वक्ष्यमाणलघ्वादिभि: मितया क्रियया संमित: ; मतः संमतः ; मुनीनामित्यर्थः । देशीतालोपयोगीनि तालानि लक्षयतिअर्धमात्रेति । मात्रालक्षणं पूर्वमुक्तम्'; "पञ्चलध्वक्षरोच्चारमितः" इति । तस्या अर्धं द्रुतः, मात्रात्रये प्लुत: ; लघुरेका मात्रा ; मात्राद्वयं गुरुरिति प्रसिद्धत्वान्नोक्तानीति । द्रुतादीति । द्रुतादीनां द्रुतलघुप्लुतानां रचनान्यूनाधिक्ये पौर्वापर्य वा तद्भेदात् तालभेदोऽप्यनेकप्रकार: । तेषामेव प्रतिज्ञा | उद्देशमाह-तालानामिति ॥ २३७, २३८-॥ (सु०) नामगणनपूर्वकं देशीतालानां संख्यामाह-आदिताल इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः T मकरन्दः कीर्तितालः श्रीकीर्तिः प्रतितालकः । विजयो बिन्दुमाली च समनन्दनमण्ठिकाः || २४५ ।। arunicht at विषमो वर्णमण्ठिका अभिनन्दोऽनङ्गनान्दीमल्लकङ्कालकन्दुकाः ।। २४६ ॥ एकताली च कुमुदचतुस्ताली च डोम्बुली । अभङ्गो रायवङ्कोलो वसन्तो लघुशेखरः ॥ २४७ ॥ प्रतापशेखरो झम्पा गजझम्पश्चतुर्मुखः । मदनः प्रतिमण्ठश्च पार्वतीलोचनो रतिः ॥ २४८ ॥ लीलाकरणयत्याख्यौ ललितो गारुगिस्तथा । राजनारायणाख्यश्व लक्ष्मीशो ललितप्रियः || २४९ ।। श्रीनन्दनश्च जनको वर्धनो रागवर्धनः । पट्तालश्चान्तरक्रीडा हंसोत्सवविलोकिताः ॥ २५० ॥ गजो वर्णयतिः सिंहः करणः सारसस्तथा । चण्डतालश्चन्द्रकलालयस्कन्दोऽडतालिकाः || २५१ ॥ घत्ता द्वन्द्वमुकुन्दौ च कुविन्दश्च कलध्वनिः । गौरीसरस्वतीकण्ठाभरणो भग्नसंज्ञकः ।। २५२ ।। तालो राजमृगाङ्कश्च राजमार्तण्डसंज्ञकः । निःशङ्कः शार्ङ्गदेवश्चेत्येते सोढलमूनुना । २५३ ॥ देशीताला : समादिष्टाः विंशत्यभ्यधिकं शतम् । १३७ (क० ) निःशङ्केति । शार्ङ्गदेवश्चेति । शतादुपरि विंशस्य तालस्य स्वनामकरणेन देशीतालानामनन्तत्वं स्वेच्छाकृतनामयुक्तत्वं च दर्शितवान् ग्रन्थकारः । विंशत्यभ्यधिकं शतमितीयत्तापरिच्छेदस्तु प्रसिद्धिमाश्रित्य कृत इति मन्तव्यम् ।। २३९-२५३- ॥ 18 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ संगीतरत्नाकरः गुर्वाद्याश्चतुरश्रादेः खण्डयित्वा निवेशिताः ॥ २५४ ॥ यद्वा लम्यादिखण्डानामाधिक्यमिह दृश्यते । तेनैषां खण्डतालत्वमभाषन्त पुरातनाः ॥ २५५ ।। द्रुताद्याद्यक्षरैज्ञेयं सन्ति संज्ञान्तराण्यपि । अर्धमात्रं तथा व्योम व्यञ्जनं बिन्दुकं द्रुते ॥ २५६ ॥ लघुनि व्यापकं हस्वं मात्रिकं सरलं तथा। द्विमात्रं च कला वक्र दीर्घ गुरुणि कीर्तितम् ॥ २५७ ॥ प्लुते व्यकं त्रिमात्रं च दीप्तं सामोद्भवं तथा । द्रुते शंभुर्लघौ देवी गुरौ गौरीयुतः शिवः ॥ २५८ ।। प्लुते त्रयो विरिश्चाद्या देवता मुनिभिः स्मृताः । द्रुते बिन्दुर्विरामान्ते तूक्ता मात्रायुता लिपिः ॥ २५९ ॥ प्लुते मात्रायुतो वक्रो लिपो श्रीशाङ्गिणोदितः । तालानां लक्षणं वक्ष्ये तेषां मूरिमताश्रितम् ॥ २६० ॥ आदितालादयः शार्ङ्गदेवान्ता विंशत्युत्तरं शतं देशी ताला भवन्ति । एते खण्डताला इति कथ्यन्ते ॥ २३९-२५३- ॥ (क०) देशीतालानां खण्डतालत्वं सोपपत्तिकं दर्शयति-गुर्वाद्या इत्यादिना । द्रुताद्याद्यक्षरैज्ञेयमिति । द्रुतादि द्रुतलघुगुरुप्लुताः, आद्यक्षरैः म्वनामाक्षरैः । द्रुतस्य आद्यक्षरम् , 'द' इति ; लघोराद्यक्षरम् , 'ल' इति ; गुरोराद्यक्षरम् , 'ग' इति ; प्लुतम्याद्यक्षरम् , 'प' इति वक्ष्यमाणेषु लक्षणवाक्येषु स्थितैरेतैरक्षरैः दूतादि ज्ञेयं भवति । द्रुतादीनामर्धमात्रादि संज्ञान्तराण्यपि सन्ति । तान्यपि लक्षणवाक्येषु द्रष्टव्यानि । तत्र मगणादयोऽप्यष्टौ गणाः क्वचिन्मकाराद्यक्षरैज्ञेया भवन्ति ॥ -२५४-२६० ॥ (सु०) तत्र कारणमाह-गुर्वाद्या इति । चतुरश्रादेः ; चच्चत्पुटचाच Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः लघ्वादितालो लोकेऽसौ रासः । इत्यादितालः (१) दौ लो द्वितीयकः । ० ० । इति द्वितीयकः (२) द्रुताद् द्रुतौ विरामान्तौ तृतीयः स्यात् . . । इति तृतीयः (३) चतुर्थकः ॥ २६१॥ लघुद्वयं द्रुतश्चैकः ।। • इति चतुर्थकः (४) पञ्चमस्तु दूतद्वयम् । • • इति पञ्चमः (५) ताले निःशङ्कलीलाख्ये प्लुतौ द्वौ गद्वयं लघुः ॥ १६२ ॥ 53 55 । इति निःशङ्कलीलः (६) पुटादेः, गुर्वादयः गुरुलघुप्लुताः खण्डयित्वा विभज्य अत्र निवेशिताः ; तस्मात् खण्डतालत्वम् । अथवा लघ्वादिखण्डानां खण्डरूपाणां लध्वादीनामाधिक्यं तस्मात् खण्डतालत्वमिति । परिभाषामाह-द्रुतादीति । अत्र देशीतालप्रकरणे द्रुतादयः द्रुतलघुप्लुता: आद्यक्षरैः ज्ञातव्याः । अन्याप्येषां संज्ञाः सन्ति ; द्रुते अर्धमात्रे व्योम, व्यञ्जनं, बिन्दुकमिति संज्ञा । लघुनि व्यापकं ह्रस्वं मात्रिकं सरलं चेति संज्ञा । गुरुणि द्विमात्रिककलावत्वं दीर्घमिति । प्लुते त्र्यङ्गं त्रिमात्रदीर्घतमो भवति । द्रुतादीनां प्रशंसार्थ देवता आह-देवतेति । द्रुते, शंभुर्देवता ; लघौ, देवी देवता ; गुरौ, गौरीसहित: परमेश्वरः ; प्लुते, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा इति । द्रुतेऽपि विशेषं कथयति-द्रुत इति । द्रुते बिन्दुलेखनीयः, विरामान्ते द्रुते सर्वापि लिपिः मात्रायुता, प्लुते मात्रायुते गुरुर्लेखनीयः, प्लुतगुर्वोरपि विशेष: पूर्वमेवोक्तः ॥ -२५४-२६० ॥ (क०) देशीतालानां लक्षणानि स्पष्टार्थानि । ननु चात्र केषांचितालानां लक्षणेषु नामभेदेऽप्यर्थभेदाभावादर्थपौनरुक्त्यं प्रतीयते । यथा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० संगीतरत्नाकर: " झण्टुको द्वौ द्रुतौ लौ द्वौ " इति झण्टुकतालस्य लक्षणम् । “अड्डतालो दौ लघुद्वयम् ” इत्यड्डुतालस्य लक्षणम् । " द्रुतद्वन्द्वात् लघुद्वन्द्वात् वैकुन्दो मङ्गलो भवेत् " इति सालगसूडस्य निःसारुभेदस्य वैकुन्दस्य लक्षणम् । एतेषां त्रयाणां तालानां नामभेद एव, न स्वरूपभेदः । एवं दर्पणमदनमकरन्दानां निःसारुहंसलीलहंसानां, जयाशीलकमलानामुदीक्षणसौन्दर सगणप्रतिमण्ठानां, यथाच — ढेङ्कीवर्णमण्ठयोः, करुणामरयोस्त्रिभङ्गिरतिलीलयोः, क्रीडानन्दयोः, शङ्खप्रतितालयोः, मङ्गलाभरणप्रतिमण्ठयोः, कान्ताररतितालयोः, कलापविचारयोः, तृतीयान्तरक्रीडयोः वर्णभिन्नराजमृगाङ्कयोः, अभङ्गोत्सवतालयोः, विजय द्वितीययोर्मिथः स्वरूपभेदाभावात्पौनरुक्त्यं दोष इति चेत्; "" अत्रोच्यते कल्लिनाथसुधियोचितमुत्तरम् । लक्ष्यानुसारतः पौनरुक्त्यं तालगतं प्रति ॥ 99 इह पुनरुक्ततया परिगणितेषु कुडुक्कादितालेषु स्थितानां लध्वादीनां देशीगतत्वेनानियत प्रमाणत्वात्प्रमाणभेदेनापि स्वरूपभेदादर्थपौनरुक्त्याभावाददोष इति । तथाहि कुडुक्कतालस्तु गोपालनायकेन रागकदम्बै रेवगुप्तिवदप्रयुक्तः । तत्र स्थितो लघुः चतुर्लध्वक्षरोच्चारमितो दृश्यते । तदनुसारेण तत्र स्थितो द्रुतोऽपि द्विलध्वक्षरोच्चारमितो दृश्यते । अड्डुतायां तु पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमितो लघुस्तदर्धमितो द्रुतश्च दृश्यते । निःसारुभेदे वैकुन्दे तु पड्लध्वक्षरोच्चारमितो लघुस्तदर्धमितो द्रुतश्च वर्तते । एवं सर्वत्र त्रयाणां पौनरुक्त्ये लध्वादीनां प्रमाणभेदो द्रष्टव्यः । तथा ढेङ्कयां पञ्चलध्वक्षरोच्चारमितो लघुस्तद्द्वैगुण्येन गुरुश्च दृश्यते । बल्लभमण्ठे तु चतुर्थलध्वक्षरोच्चारमितो लघुस्तद्द्वैगुण्येन गुरुश्च दृश्यते । एवं द्वयोः पौनरुक्त्येऽपि प्रकृतन्यूनाधिकप्रमाणभेदेषु लक्ष्यानुसारेण द्वाभ्यां लध्वादिप्रमाणाभ्यां तालस्वरूपभेदो द्रष्टव्यः । किंचित्क्वचिद्गीतादावेकस्यैव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १४१ तालस्यावृत्तिषु प्रमाणभेदो दृश्यते । कचिदेकस्यामप्यावृत्तौ लघ्वादिष्वंशेषु प्रमाणभेदो दृश्यते । एतत्सर्वे देशीत्वस्य भूषणमेव ; न दूषणमिति देशीताल रहस्यमाचार्याभिमतमवगन्तव्यम् । नन्वत्र देशीताललक्षणेषु ; “ द्रुतौ विरामान्तौ तृतीयः स्यात् " इति तृतीयतालादिषु केपुचिद्देशीतालेषु द्रुतशेषत्वेन विरामः श्रूयते । तथा " गजलीले विरामन्तमुक्तं लघुचतुष्टयम्” इति गजतालादिषु शेषत्वेन विरामः श्रूयते । तत्र विरामः किं रूप: ? इति चेत्; उच्यते – उभयत्रापि विरामो विच्छेदपर्याय: । क्रियानन्तरविश्रान्तिरूपत्वाद्भिन्नकालश्च । तथाहि द्रुतशेष विराम लक्ष्येषु द्रुतार्धकालो दृष्टः । लघुशेषस्तु तद्भुतकाल इति । एवं विरामस्य भिन्नकालत्वे गुरुप्लुतयोर्विरामान्तवचनमेव ज्ञापकम् । तथाहि-- यदि गुरुर्विरामान्त इत्युच्येत, ततो गुरोर्विरामोऽपि तदर्धत्वेन लघुः कालः स्यात् । ततश्च प्लुत एव प्रकारान्तरेणोक्तः स्यात् । तथा प्लुतस्यापि विरामः सार्धमात्रकालो भवेत् । तथाच प्लुतः सार्धचतुर्मात्रिको भवति । तथाच तादृशस्य तालावयवस्य क्वचिदप्यनुपलम्भादपसिद्धान्तता अपप्रयोगता च प्रसज्येत । तस्मात् गुरुप्लुतयोः सविरामत्ववचनमेव द्रुतलघुविरामयोर्वैरूप्यं ज्ञापयतीति सिद्धम् । अत्र केचिदिदानींतनाः भरतंमन्या विरामस्यापि तालावयवत्वमङ्गीकृत्य प्रस्तारादिषु तालप्रत्ययेषु तस्यापि समावेशं कृत्वा स्ववैदुष्यं प्रकाशयन्तोऽज्ञान् प्रतारयन्ति । तैः स्वकीयमेव शास्त्रापरिज्ञानं प्रकाशितमिति प्रकाशयता अभिनवभरताचार्येण सर्वज्ञेन चतुरेण कल्लिनाथविदुषा विरामस्य तालावयवत्वाभावे चतुरो हेतूनुपन्यस्य संग्रहः श्लोकः कृतः । यथा " अक्रियात्वात्क्रियाभावरूपत्वात्पारतन्त्र्यतः । विरूपत्वाद्विरामो न प्रस्तारादिकमर्हति ॥ " इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ संगीतरत्नाकरः दर्पणे दद्वयं गश्च • . 5 इति दर्पण: (७) सिंहविक्रमसंज्ञकः । गत्रयं लः पलगपाः _555।। 55 इति सिंहविक्रमः (८) रतिलीले लघू गुरू ॥ २६३ ॥ || 5 5 इति रतिलीलः (१) लम्वन्ते दत्रयं सिंहलीलो . . . । इति सिंहलील: (१०) दौ यगणस्तथा । कंदर्पतालस्तस्यैव पर्यायः स्यात्परिक्रमः ॥ २६४ ॥ • • 155 इति कंदर्पः (११) लघुटुंतद्वयं चान्ते गुरुः स्याद्वीरविक्रमः । | 0 0 5 इति वीरविक्रम: (१२) विरामः प्रस्तारादिकं नाहतीति कार्यनिषेधेन कारणस्य तालावयवत्वस्य निषेधो नान्तरीयकतया सिद्धो वेदितव्यः । अत्र चत्वारोऽपि हेतवः पृथक् साध्यसाधनसमर्था द्रष्टव्याः। एवमनभ्युपगच्छन्तं प्रति तेनैव व्याहृतिर्दर्शिता लोकद्वयेन " क्रियाविश्रान्तिरूपस्य विरामस्य भवेद्यदि । प्रस्तारादिकमेतद्वलयानन्त्यं प्रसज्यते ॥ तस्वीकारे त्वतिव्याप्त्या शास्त्रं व्याकुलितं भवेत् । अतो विरामसहितप्रस्तारादिकथा वृथा ॥" इति । प्रकृतमनुसरामः ॥ २६१, २६२ ॥ (सु०) उद्देशक्रमेण तालानां लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयति-लध्विति । एको लघुः (1) आदिताल: (१) द्वौ द्रुतौ, एको लघु: (०. 1) द्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रङ्गश्चतुर्हुती ग ००० .00 पवमस्तालाध्यायः • 5 इति रङ्गः (१३) श्रीरङ्गः सगणो लपौ ॥ २६५ ॥ ।।S | डे इति श्रीरङ्गः (१४) विरामान्तद्रुतद्वन्द्वान्यष्टौ लघु च चच्चरी । ० प्रत्यङ्गो मगणो लौ द्वौ ? C ० C ० SS S || इति प्रत्यङ्गः (१६) ० । इति यतिलग्न: (१७) | इति चचरी (१५) यतिलग्नो द्रुतो लघुः || २६६ ॥ गजलीलो विरामान्तमुक्तं लघुचतुष्टयम् । ।।। इति गजलीलः (१८) हंसलीले विरामान्तं लघुद्वयमुदाहृतम् || २६७ ॥ इति हंसलील : (१९) ३ ताल: (२) द्रुतादनन्तरं द्वौ द्रुतौ विरामान्तौ ( ०० : ) तृतीयताल: (३) द्वौ लघू, एको द्रुत: ( । । • ) चतुर्थताल: (४) द्रुतद्वयम् ( ० ० ) पञ्चम: (५) तौ द्वौ गुरू, को लघुः (SI) निःशङ्कलील: (६) । (सु०) दर्पणे द्रुतद्वयं गुरुश्च ( 5 ) दर्पण: (७) गुरुत्रयं, एको लघुः, एकः प्लुतः, पुनरेको लघुः, एको गुरुः, पुनरेकः प्लुतश्च ( SSS 18150 ) सिंहविक्रम: (८) लघुद्वयं गुरुद्वयं च ( 11SS ) रतिलील: (९) लघुरादावन्ते च यस्य एवंविधं द्रुतत्रयम् ( 1०० ) सिंहलील: (१०) द्रुतद्वयं, यगणश्च ( • IS S ) कंदर्पताल: ( ११ ) तस्यैव ; कंदर्पतालस्यैव परिक्रम इति नामान्तरम् । एको लघुः, द्रुतद्वयम्, अन्ते गुरुश्च ( 1 . •S ) वीरविक्रमः (१२) । ० ०० (सु० ) चत्वारो द्रुताः, गुरुश्च ( ० S ) रङ्गताल: (१३) सगण:, लघुद्वयं गुरुः, तत एको लघुः एकः प्लुतश्च (115। 3 ) श्रीरङ्गताल: (१४) " Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ संगीतरनाकरः वर्णभिन्नो द्रुतौ लोगः • 0 1 5 इति वर्णमित्रः (२०) त्रिभिन्नो लगुरुप्लुताः। 15 इति त्रिभिन्नः (२१) राजचूडामणिदौ द्वौ नगणश्च द्रुतौ लगौ ।। २६८ ।। ० ० ।।। 0 0 1 5 इति राजचूडामणिः (२२) मगणो लप्लुतौ रङ्गोद्योतः __5551 इति रङ्गोद्योतः (२३) रङ्गप्रदीपकः। तो गप्लुतो SSISS इति रङ्गप्रदीपकः (२४) राजतालो गपो दौ च गलौ प्लुतः ।। २६९ ।। 5 . . 5। इति राजतालः (२५) विरामान्तानि द्रुतद्वयान्यष्टौ, एको लघुश्च (०. ० .....:.:.:.: ।) चच्चरीताल: (१५) मागण: गुरुत्रयम् , द्वौ लघु (SS STI) प्रत्यङ्गः (१६) एको द्रुतः, एको लघुश्च ( • I ) यतिलग्नः (१७) विरामान्तं चत्वारो लघवः (I|| ) इति गजलीलः (१८) लघुद्वयं विरामान्तम् (Ii) हंसलील: (१९)। (सु०) द्वौ द्रुतौ, एको लघुः, एको गुमश्च ( • • I 5 ) वर्णभिन्नः (२०) एको लघुः, एको गुरुः, एकः प्लुतश्च (155) त्रिभिन्नः (२१) द्वौ द्रुतौ, नगण:, लघुत्रयम् , पुन: द्वौ द्रुतौ, एको लघुः, एको गुरुश्च ( . . ।।। . . 15) राजचूडामणिः (२२) मगणः, गुरुत्रयम् , एको लघुः, एक: प्लुतश्च (SSSIS) रनोद्योतः (२३) तो तगणः, गुरुद्वयमेको लघुः, पुनरेको गुरुः, प्लुतश्च (55155) रङ्गप्रदीपकः (२४) एको गुरुः, एकः प्लुतः, दौ द्रुतद्वयम् , पुनरेको गुरुः, प्लुतश्च (53. • SIS) राजताल: (२५) । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः १४५ यश्री मिश्रो द्विधा वर्णःयश्री लौ दो लघुद्वयम् । (१) || ० ० ।। इति त्र्यश्रवर्ग: मिश्रो द्रुनचतुष्काः स्युर्विरामान्तात्रयः पृथक् ॥ २७० ।। ततः पगौ दो गलौ गः (२) ..........35 . . 5 1 5 इति मिश्रवर्ग: चतुरश्रोऽपि दृश्यते । गलौ द्रुतौ गुरुश्चेति (३) 51 • • 5 इति च्तु'श्रवणः (२६) सिंहविक्रीडितः पुनः ।। २७१ ॥ लपौ गपौ पगौ लाद्गः पलौ पश्च ___Isssss। 53इति हिविक्रीडित: (२७) जयः पुनः। जो लघुद्वौं द्रुतौ पश्च 1511 • • इति जयः (२८) वनमाली चतुती ॥ २७२ ॥ (सु०) वर्णतालो द्विप्रकार: ; त्र्यश्रो मिश्रश्च । तत्र लघुद्वयम् , द्रुतद्वयम् , पुनर्लघुद्वयम् (।। . . II) व्यश्रवणः । विरामान्ता द्रुतचतुकास्त्रयः ततोऽनन्तर, पगो; प्लुतः, गुरुश्च, द्वौ द्रुतौ, एको गुरुः, एको लघु:, एको गुरुश्च ( ० ० ० ० ० ० ० ० ० 655 . . I 5 ) मिश्रवणः । एको गुरुः, एको लघुः, द्वौ द्रुतौ, एको गुरुश्च (SI . . 5) चतुरश्रवर्णोऽपि दृश्यते (२६) लपौ; लघुप्लुतौ, गपौ; गुरुप्लुतौ, पगौ ; प्लुतगुरू, लाद्गः; लघुगुरू, पलौ; प्लुतगुरू, तत: प्लुतश्च ( 1 3 553SISSIS) सिंहविक्रीडित: (२७) जो जगणः, एको लघुः, द्रुतद्वयम् , प्लुतश्च (ISTI . . 5) जयः (२८)। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ लघु द्वौ गुरुरिति हंसनाद: संगीतरत्नाकर: ० ० ० ० ० । ० ० इति वनमाली (२९) 13. • डे इति हंसनादः (३०) ०० सिंहनादो यगणश्च लघुर्गुरुः ॥ २७३ ॥ प्लुतौ द्वौ द्रुतौ प्लुतः । IS SIS इति सिंहनाद: (३१) कुटुको द्वौ द्रुतौ लौ द्वौ द्रुतौ तुरङ्गलीलः स्यात् ... ... ... ० ० || इति वुटुक्क : (३२) विरामान्तद्रुतद्वयात् । द्वौ चतुर्द्वन द्वौ लौ • • इति तुरङ्गलील: (३३) भवेच्छर भीलकः ॥ २७४ ॥ ।। ०००० ।। इति शरभील: (३४) " सिंहनन्दनकः पुनः । पौ लगौ द्रुतौ गौ लः पलपा गो लघु ततः ।। २७५ ।। चत्वारो लघवोsन्दाः SSIS IS • • SS SS || इति निन्दन (३५) त्रिभङ्गि सगणाद्गुरुः । ०० (मु०) चत्वारो द्रुताः, एको लघुः, द्रुतद्वयम्, गुरुश्च ( वनमाली (२९) लाग्लुलौ ; लघु-सुतौ द्रुतद्वयं, प्लुतश्च (डे. • डे ) हंसनाद: (३०) यगण:; एको लघुः, गुरुद्वयम् ; ततो लघुर्गुरुच ( IS SIS) सिंहनाद: (३१) द्रुतद्वयं, लघुद्वयं च ( ० ० ।।) कुडुक्क: (३२) विरामान्तद्रुतद्वयानन्तरं द्रुतद्वयम् ( : ) तुरङ्गलील : (३३)। (सु०) द्वौ लघू, चतुर्हुती; चतुर्णा द्रुतानां समाहारः चतुर्हुती, लौ; लघुद्वयम् (50010 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ पञ्चमस्तालाध्यायः I155 इति निभङ्गिः (३६) रङ्गाभरणताले ताल्लुप्लुतो 55।। इति रङ्गःभरणः (१७) ____मण्ठके पुनः ।। २७६ ॥ साच्चतुर्लघु नि शब्द (१) ।। 5 x x इति मण्ठः। ___ यद्वा भाद् द्वावशब्दको। (२) 5 || २ x इति वा मण्ठः (३८) भाचतुर्लघु निःशब्दं भवे मुद्रितपण्ठके ।। २७७ ॥ (३) S|| ४ x इति मुद्रितमष्टः । मण्ठो न जौ लघुर्यद्वा (४) ।। || S| इति वा मण्ठः । प्रोक्ता: पडपरे भिदाः। (।। .... ।।) शरभलील: (३४) तपौ; त:; ताणः, गुरुद्वयं, लघुश्व ; प:; प्लुत:, लगौ ; लघुगुरू, द्रुतौ ; द्रुतद्वयम् , गौ; गुरुद्वयम् , ल: ; लघु:, पलपाः ; प्लुतलघुप्लुताः, गो, गुरु:, लघू ; लधुद्वयम् , तत: ; अनन्तरम् , चत्वारो लघवः, अशब्दा ; अशब्दपाटेन धारणीयम् (SS 13। 5. . 5515135||x x) सिंहनन्दनः (३५) सगण: ; लघुद्वयं, गुरुश्च, पुनरपि गुरुः (IISS) त्रिभङ्गिः (३६) तात्, तगणात् , गुरुद्वयं लघुश्च, अनन्तरम् , एको लघुः, एकः प्लुतश्च (SS || ) रङ्गाभरण: (३७) सात् ; साणात् लघुद्रयं गुरुश्च, अनन्तरं निःशब्दपाटेन लघुचतुष्टयं धारणीयम् (|| Sxx ) मण्ठः । पक्षान्तरमाहयद्वेति । भात् ; भाणः, गुरुलंघुद्यं च, तस्मात् द्वौ भगणो नि:शब्दौ (SII - २ x ) द्वितीयमण्ठः (३८)।। (सु०) भगणो ; गुरुलंधुद्वयं च, तस्मात् निःशब्द लघुचतुष्टयग (SII. ४) मुदितमण्ठः । यद्वा-नजौ ; नगणजगणौ, नगणो लघुत्रयम् , जगणो लघुगुरु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ संगीतरत्नाकरः मण्ठरूपकवेलायाम् इति दशविधो मण्ठः। कोकिलाप्रियनानि तु ॥ २७८ ॥ गलपाः स्युः 5। इति कोकिलाप्रियः (३९) विरामान्तो लघू निःसारुको मतः । इति नि:सारुक: (४०) लघुर्गुरुर्दुनद्वन्द्वं राजविद्याधरो भवेत् ।। २७९ ॥ IS • ० इति राजविद्याधरः (४१) सगणद्वितयं यत्र स तालो जयमङ्गल: । ITS || S इति जयमङ्गलः (४२) मल्लिकामोदताले तु लो तो द्रुतचतुष्टयम् ॥ २८० ॥ ।। ० ० ० ० इति मलिकामोदः (०३) विजयानन्दसंज्ञे तु लघुद्वन्द्वं गुरुत्रयम् । ||555 इति विजयानन्दः (४४) क्रीडा द्रुतो विरामान्तौ चण्डनिःसारुकश्च सः ॥ २८१ ।। । इति क्रीडातालः, चण्डनि:सारुकश्च (४५) जयश्री रगणाल्लो गः SISIS इति जयश्रीः (१६) दो लो लो मकरन्दकः । लघवः, पुनर्लघुश्च (|||| 5 || ) इति वा मण्ठः । अपरे षड्भेदा मण्ठप्रबन्धलक्षणे उक्ताः । एवं दश मण्ठाः । गलपाः; गुरुलघुप्लुताः (SIR) कोकिलाप्रियः (३९) विरामान्तं लघुद्वयम् (11) नि सारुकः (४०) एको लघुः, एको गुरुः, द्रुतद्वयम् ( IS . . ) राजविद्याधरः (४१)। . . (सु०) सगणद्वितयम् ; सगणो लगुद्वयम् , गुरुश्च (IISITS) जयमङ्गलः (४२) द्वौ लघू , द्रुतचतुष्टयम् ( ।। . . . . ) मल्लिकामोदः (४३) लघुद्वयं, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १४९ ..।।। इति मकरन्दः (४७) लपी गलौ प्लुनः कीर्तिः 1351 इति कीर्तिताल: (४८) श्रीकीर्तिद्वौँ गुरू लघू ।। २८२ ॥ 55।। इति श्रीकीर्तिः (४९) लौ द्रुतौ प्रतिताल: स्यात् ।। . ० इति प्रतिताल: (५०) विजय: पगपा लघुः। 35। इति विजयः (५१) गुर्वोर्मध्ये तु चत्वारो बिन्दवो विन्दुमालिनि ।। २८३ ॥ 5.००.5 इति विन्दुमाली (५२) समो लौ दो विरामान्तौ || इति समः (५३) लघुदी पश्च नन्दनः। ।..ऽ इति नन्दन: (५४) गुरुद्रुतप्लुताः प्रोक्ता मण्ठिका 5.5 इति मण्ठिका । गुरुत्रयं च ( II SSS) विजयानन्दः (४४) विरामान्तौ द्वौ द्रुतौ (6) क्रीडातालः, अयमेव चण्डनिःसारुकश्च (४५) रगणात् ; रगणः, गुरुलघुर्गुरुश्च, तस्मात् लघुर्गुरुश्च ( S IS IS) जयश्री: (४६) दौ; द्रुतद्वयम् , लौ; लघुद्वयम् , पुनरेको लघुश्च ( . . | | | ) मकरन्दः (४७) लपौ; लघुप्लुतो, गलौ; गुरुलघू , पुन: प्लुतश्च (15513) कीर्तिताल: (४८)। (सु०) गुरुद्वयं, लघुद्वयं च ( 55 II ) श्रीकीर्तिः (४९) लौ ; लघुद्वयम् , द्रुतौ ; द्रुतद्वयम् ( || . . ) प्रतितालः (५०) पगपाः ; प्लुतगुरुप्लुताः, लघुश्च (351) विजयः (५१) गुर्वोर्मध्ये चत्वारो बिन्दवः ( 5 . . . . 5) बिन्दुमाली (५२) लौ : लघुद्वयं, विरामान्तौ द्वौ द्रुतौ ।।। :) समताल: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० संगीतरत्नाकरः ___ अन्यन्तु लद्वयम् ॥ २८४ ॥ विरामादिद्रुतौ द्वौ च मण्ठिका परिकीर्तिता । ।। इति मण्ठिका (५५) दीपको दलगा द्विह्निः •.1155 इति दीपक: (५६) लो द्वौ गुरुरुदीक्षणः ॥ २८५ ॥ 115 इन्युदीक्षण: (५७) रगणो देङ्किका कैश्चिदेप प्रोक्तम्तु योजनः । SIS इति ढेकी (५८) द्विश्वत्वारो विरामान्ता द्रुनान्तु विषमे मताः ॥ २८६ ।। ....... : इति विषम: (५९) द्वौ लौ द्वौ दो लघुदौं द्वौ कीर्तिता वर्णमण्ठिका । ।। 0 0 1 • • इति वर्णमण्ठिका (6.) अभिनन्दो लघुद्वन्द्वं द्रुतयुग्मं गुरुस्तथा ।। २८७ ।। || 0 0 5 इत्यभिनन्दः (६१) (५३) एको लघुः, द्रुतद्वयम् , प्लुतश्च (। ..) नन्दनः (५४) गुरुद्रुतप्लुताः (508) मण्ठिका । (मु०) अन्यैस्तु-- लघुद्वयम् , विरामादिद्रुतद्वयम् , ( 11 )मण्ठिका परिकीर्तिता (५५)। दलगाः ; द्रुतलघुगुरव , द्विदिः, द्वौ द्रुतौ, द्वौ लघू , द्वौ गुरू इत्यर्थः ( . . ।। 55 ) दीपकः (५६) लघुद्वयम् , गुरुश्च (115) उदीक्षण: (५७) ग्गणः ; गुरुलघुगुरवः ( S T S ) ढेकिकाताल: ; एषैव योजन इत्युच्यते (५८) विगमान्ताः द्रुताश्चत्वारः, द्विः; द्विवारमावर्तनीयम् (... .....) विषमः (५९) द्वौ लौ ; लगुद्वयम् , द्वौ दौ ; द्रुतद्वयम् , पुनः द्वौ द्रुतो (।। . . | . . ) वर्णमण्ठिका (६०) लघुद्वन्द्वम; लघुद्वयम् , द्रुतयुग्मम् ; द्रुतद्वयम् , एको गुरुश्च ( ।। . . 5) अभिनन्दः (६१)। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १५१ लप्लुतौ सगणोऽनङ्गः II15 इत्यनङ्गः (६२) . नान्दी लो दौ लघू गुरू । । . . || 5 5 इति नान्दी (६३) मल्लतालो विरामान्तद्विविन्द्वन्तं चतुलघु ॥ २८८ ।। ___|||| इति मल्लतालः (६४) उक्तश्चतुर्धा यङ्काल: पूर्णः खण्डः समोऽसमः । चतुर्वृती गलौ पूर्णः (१) • • • • 5 । इति पूर्णः खण्डो दौ द्वौ गुरुद्वयम् ॥ २८९ ॥ (२)• •55 इति खण्डः । समो गुरू द्वौ लघ्यन्ते (३) 551 इति समः। विषमो लाद् गुरुद्वयम् । (v)15 5 इति विषमः (६५) इति चतुर्धा कहाल:। (सु०) लप्लुतो; लघुप्लुतो, सगणः; लघुद्वयं गुरुश्च (ISTIS) अनङ्गः (६२) लो ; लघुः, दौ; द्रुतद्वयम् , लघू ; लघुद्वयम् , तत: गुरू ; गुरुद्वयम् (1. • ||SS) नान्दी (६३) विरामं द्रुतद्वन्द्वमन्ते यस्य एवंविधं लघुचतुष्टयम् ( ।। || .:) मल्लताल: (६४) कङ्कालं लक्षयितुं विभजते-उक्त इति । पूर्णादिभेदेन चतुर्धा कड्काल: । क्रमेण लक्षणान्याह-चतुद्रुती, चत्वारो द्रुताः, गलौ ; गुरुलघू ( . . . . 51 ) पूर्णकङ्काल: (१) दौ द्वौ ; द्रुतद्वयम् , गुरुद्वयम् ( • • 55 ) खण्डकङ्काल: (२) लघुरन्ते गुरुद्वयं यत्र (SSI) समकङ्काल: (३) लात् ; लघोरनन्तरम् , गुरुद्वयम् (I S S ) विषमकङ्काल: (४) इति चतुर्वा कङ्काल: (६५)। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ संगीतरत्नाकरः कन्दुको लौ च सगणः IIII इति कन्दुक: (१६) द्रुतेन त्वेकतालिका ॥ २९० ।। • इत्ये कताली (६७) कुमुदो लाद् द्रुतौ लौ गश्च [..|| इति कुदः (६८) अन्येषां लश्चतुर्दुती। अन्ते गुरुश्च कुमुदः |....5 इति वा कुमुदः । चतुस्तालो गुरोः परे ॥ २९१ ।। त्रयो द्रुताः 5• • • इति चनुस्ताल: (६९) डोम्बुली तु दिलघुः स्याद्विरामवत् । fi इति डोम्बुली (७०) अभङ्गो लप्लुतौ . 13 इत्यभन्नः (१) रायवङ्कोलो रगणाद् द्रुतौ ॥ २९२ ॥ SIS • • इति रायवकोल: (७२) (सु०) लौ; द्वौ लघु , सगणश्च ; लघुद्वयं गुरुश्च (ITTISS ) कन्दुकः (६६) द्रुतेन तु, एकेन द्रुतेन (0) एकतालिका (६७) लात, लघोरनन्तरं द्रुतौ, द्रुतद्वयं, लौ लघुद्वयं गुरुश्च (1 • • || 5 ) कुमुदः (६८) अन्येषां तु मते-एको लघु:, चत्वारो द्रुता: गुरुश्च (1 . . . . 5) इति वा कुमुदः । गुरोरनन्तरं चत्वारो द्रुता: (5 ० ० ० ० ) चतुस्ताल: (६९) विगमयुक्तलघुद्वयेन (ii) डोम्बुली (७०) लघुः, प्लुश्च (15) अभङ्गः (७१) रगणात, रगणो गुरुलघुगुरवः, ततोऽनन्तरं द्रुतद्वयम् (SIS • . ) रायवकोल: (७२)। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तो मौ पश्चमस्तालाध्यायः ।।। SS S इति वसन्त: (७३) विरामान्तलघुना लघुशेखरः । १ इति लघुशेखर: (७४) प्रतापशेखरो दीप्ताद्विरामान्तं द्रुतद्वयम् ।। २९३ ।। :: इति प्रतापशेखर : ( ७५ ) झम्पातालो विरामान्तं द्रुतद्वन्द्वं लघुस्तथा । : । इति झम्पाताल: (७६) गजझम्पो गुरोरूर्ध्व विरामान्तं द्रुतत्रयम् ॥ २९४ ॥ SO : इति गजझम्प: (७७) चतुर्मुखो प्लुताभ्यां मात्रिक स्यात्स एव हि । ISI डे इति चतुर्मुखः (७८) दद्वयं गव मदनः • • 5 इति मदन: (७९) सो भो वा प्रतिमण्ठकः ॥ २९५ ॥ १५३ (सु०) न्मौ; नगणमगणौ, त्रिलघुर्नगणः, त्रिगुरुर्मगण: ( 111SSS ) वसन्त: (७३) विरामान्त एको लघुः ( 1 ) लघुशेखर: (७४) दीप्तात् प्लुतादनस्तरम्, विरामान्तं द्रुतद्वयम् (S) प्रतापशेखर : (७५) विरामान्तं द्रुतद्वन्द्वम्, द्रुतद्वयम्, लघुथ (::1 ) झम्पाताल: (७६) गुरोरूर्ध्वम्, गुरोरनन्तरं विरामान्तं त्रयो द्रुता: ( 566 ) गजझम्प: (७७) जो; जगणः, लघुगुरुलघवः, ततश्च प्लुतः ( 15। डे ) चतुर्मुख: (७८) स एव, चतुर्मुख एव, मात्रिक:, लघुमात्र इत्यर्थः ॥ (सु० ) दद्वयम्, द्रुतद्वयम् गुरुश्च (० ०० 20 S ) मदन: (७९) सगणो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कोल्लटोऽन्यैरयं प्रोक्तः 1। 5 5 ।। इति प्रतिमण्ठकः (८०) पारू संगीतरत्नाकर: लीला दलौ प SSSI SSS इति पार्वतीलोचन: (८१) रतितालो लघुर्गुरुः ॥ २९६ ॥ 15 इति रतिताल: (८२) 0.0 ०० पार्वती लोचने पुनः । | डे इति लीलाताल : (८३) करणयतौ द्रुतचतुष्टयम् । इति करणयतिः (८४) ललिते द्वौ द्रुतौ लोगः • • | S इति ललित: (८५) गारुगिस्तु चतुर्हुती ॥ २९७ ॥ भगणो वा प्रतिमण्ठकः ; लघुद्वयं गुरुश्च, सगणः गुरुर्लघुद्वयं च भगणः, (11SS 11) प्रतिमण्ठकः, अयमेव प्रतिमण्ठकः अन्यैः आचायैः कोल्लुक इत्युक्तः (८०) मलपा: ; मगणलघुप्लुताः, त्रिगुरुर्मगणः, द्वौ गुरू; गुरुद्वयं ; दौ द्वौ द्रुतद्वयं च ( Ssssss ० ) पार्वतीलोचन: (८१) लघुः, गुरुश्च (IS ) रतिताल: (८२) दलौ, द्रुतलघू, प्लुतश्च ( ० 15 ) लीला (८३) द्रुतचतुष्टयम् (• • ) करणयतिः (८४) । ०० ० (सु० ) द्रुतद्वयं, लघुर्गुरुश्च ( ००15 ) ललित (८५) चतुर्हुती ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरामान्तं बुधैरुक्ता पश्चमस्तालाध्यायः • ० ● इति गारुगि: (८६) जगण वक्रः ● • ISIS इति राजनारायण: (८७) विरामान्तं लप्लुतौ च ऊर्ध्वं लघुभ्यां रगणः राजनारायणे पुनः । । डे इति लक्ष्मीश: (८८) ०० लक्ष्मीशे तु द्रुतद्वयम् ॥ २९८ ॥ जनको नयसा वक्रः 115 15 इति ललितप्रियः (८९) तालस्तु ललितप्रियः । S।। इति श्रीनन्दन: (९० ) स्यातां श्रीनन्दने भपौ ॥ २९९ ॥ ।।।15 5 15 इति जनक: (९१) वर्धन द्वौ द्रुतौ लपौ । । इति वर्धन: (९२) १५५ ०० ० जगणः, चत्वारो द्रुताः विरामान्ता: ( :) गारुगि: (८६) द्वौ द्रुतौ, एको गुरुः, लघुद्वयम्, वक्रः, गुरुश्च ( ० ० ISIS ) राजनारायण: (८७) विरामान्तं द्रुतद्वयम्, लघुः, प्लुतश्च (०: 1 ) लक्ष्मीश: (८८) द्वौ लघू, अनन्तरं रगण:, गुरुलघुगुरुरूप: ( 11SIS ) ललितप्रियः (८९ ) भगण:, प्लुतश्च (STI) श्रीनन्दनः (९०) । 1 (सु०) नगणयगणसगणाः, वक्रः गुरुश्र ( ||SSSS ) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ संगीतरत्नाकरः विरामान्तौ द्रुतौ विन्दुस्त्रिमात्रो रागवर्धनः ॥ ३०० ॥ ... इति रागवर्धनः (९३) द्रुतैः षड्भिस्तु षट्ताल: ० ० ० ० ० ० इति षट्ताल: (९४) अन्तरक्रीडा तु कथ्यते । द्रुतत्रयं विरामान्तं __..इत्यन्तरकीडा (९५) से सविरती लघू ।। ३०१ ॥ ।। इति हंसः (९६) लघुप्लुतावुत्सवः स्यात् । इत्युत्सवः (९५) गो दौ दीप्तो विलोकिते । 5 . . इति विलोकितः (९८) गजश्चतुर्ला धारासौ ।।।। इति गजः (९९) लो दौ वर्णयतिर्भवेत् ॥ ३०२ ।। ।। ० इति वर्णयतिः (१००) जनकः (९१) द्रुतद्वयम् , लघुः, प्लुतश्च ( ० . | 5) वर्धन: (९२) विरामान्तद्रुतद्वयम् , ततश्च बिन्दुः त्रिमात्र: प्लुत: (०. ) रागवर्धनः (९३) षड्भि: द्रुतै: ( • ० ० ० ० ० ) षट्ताल: (९४) विरामान्तं द्रुतत्रयम् ( . . . ) अन्तरक्रीडा (९५) विरामान्तयुक्तं लघुद्वयम् (।) हंस: (९६) एको लघुः, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः सिंहे लदौ लत्रयं च | 0 ||| इति सिंहः (१०१) गुरुणा करुणो मतः । 5 इति करुण: (१०२) लघुर्दूतानां त्रितयं लघू द्वौ सारसः स्मृतः ॥ ३०३ ॥ । • ० ० ।। इति सारसः (१०३) द्रुतत्रयं लघुद्वन्द्वं चण्डताले बभाषिरे । . . . ।। इति चण्डताल: (१०४) मगणश्च त्रयो दीप्ता लघुश्चन्द्रकलाभिधे ।। ३०४ ॥ _555333। इति चन्द्रकला (१०५) गलौ प्लुतत्रयं वक्रः प्लुतो बिन्दुत्रयं लये । ___533353 ० ० इति लयः (१०६) एक: प्लुतश्च (15) उत्सव: (९८) एका गुरुः, द्वौ द्रुतौ, दीप्तः ; प्लुतश्च (5 . . 5) विलोकित: (९८) चत्वारो लघवः (।।।। ) गज: (९९) लघुद्वयं, द्रुतद्वयं च (|| . . ) वर्णयति: (१००)। (मु०) एको द्रुतः, पुनलघुत्रयं च ( | 0 | | | ) सिंहः (१०१) एकेन गुरुणा (5) करुणः (१०२) एको लघुः, द्रुतत्रयं, पुनर्लघुद्वयं च (1 . . .।।) सारस: (१०३) द्रुतत्रयं, लघुद्वयं च ( . . . || ) चण्डताल: (१०४) मगण: ; गुरुत्रयम् , त्रयो दीपाः; प्लुतत्रयमित्यर्थः । तत एको लघुश्च (5553331) चन्द्रकला (१०५) गलौ, गुरुलघु , प्लुतत्रयम् , वक्रः; गुरुः, तत: प्लुतः, ततो बिन्दुत्रयम् (5133355 . . . ) लयः (१०६)। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ संगीतरत्नाकरः रो द्रुतो द्वौ गुरू स्कन्दे SIS • • 55 इति स्कन्दः (१०७) अड्डताली दो लघुद्वयम् ।। २०५ ॥ इयमेवोचिरे तालं केचित्रिपुटसंज्ञया । • ।। इत्यहताली (१०८) द्वौ लौ द्वौ दौ लगौ घत्ता || • • 1 5 इति घत्ता (१०९) द्वन्द्वः सतगणौ प्लुतः ॥ ३०६ ॥ MISSS13 इति द्वन्द्वः (११०) मुकुन्दे तु लघुविन्दुचतुष्टयमथो गुरुः । । . . . . 5 इति मुकुन्दः (१११) कुविन्दके लघुविन्दुद्वयं गुरुरथ प्लुतः ।। ३०७ ।। • • 5 इति कुविन्दक: (११२) कलध्वनिर्लघुद्वन्द्वं गुरुर्लघुरथ प्लुतः । ।।5। इति कलध्वनिः (११३) (सु०) रो रगणः, द्रुतद्वयम् , गुरुद्वयं च (SIS • • 55 ) स्कन्दः (१०७) एको द्रुतः, लघुद्वयं च ( • || ) अडताल: (१०८) अमुमेव केचित् त्रिपुट इत्याहु: । लघुद्वयम् , गुरुद्वयम् , लघुर्गुरुश्च (II • • IS) धत्ता (१०९) लघुद्वयं, गुरुश्च, सगणः, गुरुद्वयं लघुश्च तगणः, तत: प्लुतश्च (।। 55513) द्वन्द्वः (११०) एको लघु:, अनन्तरं बिन्दुचतुष्टयम् , चत्वारो द्रुताः, अथानन्तर गुरुश्च (। . . . . 5) मुकुन्दः (१११) एको लघुः, द्रुतद्वयम् , अनन्तरं गुरु:, प्लुतश्च (1 • • 55) कुविन्दकः (११२) लघुद्वयानन्तरं गुरुः, ततो लघुः, अथानन्तरं प्लुतश्च ( || SIS) कलध्वनिः (११३) । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः पश्चभिलघुभिगौरी ।।।।। इति गौरी (११४) द्वौ गुरू द्वौ लघुप्लुतौ ।। ३०८ ॥ ताले सरस्वतीकण्ठाभरणे शाङ्गिसंमतौ। 55।। • • इति सरखतीकण्ठाभरण: (११५) भमताले चतुर्बिन्दुनेगणश्च विरामवान् ।। ३०९ ।। ....।।। इति भमताल: (११६) ताले राजमृगाङ्के तु द्रुतौ लघुरथो गुरुः । ___ . . । इति राजमृगाङ्कः (११७) गुरुलघुतस्ताले राजमार्तण्डसंज्ञके ।। ३१० ॥ 5। • इति राजमार्तण्ड: (११८) निःशङ्कसंज्ञके ताले लगुरू पगुरू गलौ। 155SSSS । इति निःशङ्कः (११९) शाह्नदेवे द्रुतद्वन्द्वं गप्लुतौ गद्वयं लघुः ॥ ३११ ॥ . . 53 55 । इति शाङ्गदेवः (१२०) इति विंशत्युत्तरं देशीतालाः (सु०) पञ्चभिलघुभिः (।।।।1) गौरी (११४) गुरुद्वयम् , लघुद्वयम् , द्रुतद्वयम् (SS || • • ) सरस्वतीकण्ठाभरणः (११५) चतुर्बिन्दुः; द्रुतचतुष्टयम् , विरामान्त नगणश्च ( ० ०००।) भग्नताल: (११६) द्रुतद्वयम् , लघुः, अन्तरं गुरुश्च ( ० 0 1 5) राजमृगाङ्कः (११७) एको गुरुः, एको लघुः, द्रुतश्च (5। • ) राजमार्तण्ड: (११८) लगुरू ; लघुगुरू, पगुरू ; प्लुतगुरू, गुरुद्वयम् , लघुश्च (ISSSSSSI) नि:शङ्क: (११९) द्रुतद्वन्द्वम् , गुरुः, प्लुतः, गद्वयं ; गुरुद्वयम् , लघुश्च ( ० ० 53551 ) शार्ङ्गदेवः (१२०)॥ २६१-३११ ।। इति विंशत्युत्तरं देशीतालाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अन्येऽपि सन्ति भूयांसस्तालास्ते लक्ष्यवर्त्मनि । प्रसिद्धिविधुरत्वेन शास्त्रेऽस्मिन्न प्रदर्शिताः ।। ३१२ ।। तद्भेदप्रत्ययार्थ तु लघूपाया भवन्त्यमी । प्रस्तारसंख्ये नष्टं चोद्दिष्टं पातालकस्ततः ।। ३१३ ।। द्रुतमेरुर्लयोर्मेरुशुरुमेरुः प्लुतस्य च । मेरुः संयोगमेरुश्च खण्डप्रस्तारकस्ततः ॥ ३१४ ।। प्राचां चतुर्णा मेरूणां नष्टोद्दिष्टे पृथक्पृथक् । एकोनविंशतिरिति प्रत्ययास्तान् ब्रुवेधुना ॥ ३१५ ।। (क०) अन्येऽपीति । विंशत्यभ्यधिकात् शतादन्येऽपि भूयांसः तालाः सन्ति । तर्हि किमर्थं न प्रदर्श्यन्त इत्यत आह-प्रसिद्धिविधुरत्वेनेति । तद्भेदप्रत्ययार्थ विति । तेषां प्रसिद्धानामप्रसिद्धानां च तालानां भेदस्य परिज्ञानाय अमी वक्ष्यमाणाः प्रतारादयः । लघूपाया इति । ज्ञेयम्यातिमहत्त्वेऽपि तज्ज्ञानसाधनानामेतेषामल्पत्वेन ते वक्तुं सुलभा इत्यर्थः । प्रत्यया इति । तद्भेदप्रत्ययार्थ वित्युक्तत्वात् प्रत्ययहेतुत्वेन प्रस्तागदयोऽपि प्रत्यया इत्युपर्यन्ते । प्रतीयन्त एतैरर्थविशेषा इति वा प्रत्ययाः । क्रमेण तान् लक्षयितुमाह-तान ब्रुवेऽधुनेति ॥ ३१२-३१५ ॥ (मु०) अन्येऽपीति । अन्येऽपि बहवो देशीताला: सन्ति । ते लक्ष्यमार्गे अप्रसिद्धत्वाद्विशेषतो नोक्ताः । तेषां भेदपरिज्ञानार्थम् , अमी लघूपायाः; लाघयुक्ता उपाया:, क्लेशं विनैव ज्ञाने साधनमित्यर्थः । ते च लाघवभेदज्ञानोपाया एकोनविंशतिः । प्रस्तार:, संख्या, नष्टम् , उद्दिष्टम् , पाताल:, द्रुतमेरुः, लघुमेरु:, गुरुमेरुः, प्लुतमेरुः, संयोगमेरुः, खण्डप्रस्तारक: ; पूर्वोक्तानां चतुर्णा मेरूणां पृथक्पृथक् नष्टमुद्दिष्टं च ; द्रुतमेरुनष्टम् , द्रुतमेरूद्दिष्टम् , लघुमेरुनष्टम् , लघुमेरूद्दिष्टम् , गुरुमेरुनष्टम् , गुरुमेरूद्दिष्टम् , प्लुतमेरुनष्टम् , प्लुतमेरूद्दिष्टं च । एते एकोनविंशतिप्रत्यया इहोच्यन्ते । प्रतीयन्ते तालभेदा: यैरिति प्रत्ययाः ॥ ३१२-३१५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथ्वमस्तालाध्यायः न्यस्याल्पमाद्यान्महतोऽधस्ताच्छेषं यथोपरि । प्रागूने वामसंस्थांस्तु संभवे महतो लिखेत् ।। ३१६ । अल्पानसंभवे तालपूयै भूयोऽप्ययं विधिः । सर्वद्रुतावधिः कार्यः प्रस्तारोऽयं लघौ गुरौ ।। ३१७ ॥ प्लुतौ व्यस्ते समस्ते च न तु व्यस्ते द्रुतेऽस्ति सः । इति प्रस्तारः १६१ ( क ० ) तत्र प्रस्तारं लक्षयति — न्यस्याल्पमित्यादि । स्वाभिमतं यं कंचन तालं प्रकृतत्वेन आदौ लिखित्वा तदवयवेषु, आद्यात् महतः ; अत्र महच्छब्देन लघुगुरुप्लुता उच्यन्ते । तेषु एकस्मात् आदिभूतात् महतोऽधस्तात् अल्पं न्यस्य, अत्र अल्पशब्देन द्रुतलघुगुरव उच्यन्ते । अयमर्थ:- - यत्र आद्यो लघुः महान् ततोऽधस्तदपेक्षया अल्पो द्रुतो लेखनीयः । यत्र तु आयो गुरुः महान् ततोऽधस्तदपेक्षया अल्पो लघुलेखनीयः । यत्र पुनराद्यः प्लुतो महान् ततोऽधस्तदपेक्षया अल्पो गुरुलेखनीयः । एवं नित्यमहान् प्लुतः, नित्याल्पो द्रुतः; लघुगुर्वोस्त्वपेक्षया महत्वमल्पत्वं च द्रष्टव्यम् । शेषं यथोपरीति । लिखेदिति शेषः । यस्त्वनेकावयवस्तालः, तस्य आद्यात् महतोऽवयवात् अधस्तात् अल्पं न्यस्य शेषं दक्षिणभागस्थितत्वेन लेखनीयम् । यथोपरिपङ्क्तौ तथैवाधो लिखेदित्यर्थः । यस्त्वनेकावयवस्तालः, यश्चैकमहान् अन्त्यावयवः तत्रोपरितनस्य अवयवान्तरस्याभावादेवास्य लक्षणांशस्याव्यापार एव । प्रागून इति । प्रथमं न्यूने तालांशे तालपूर्त्यै प्रकृततालपरिपूर्तये संभवे सति । महत इति । प्लुतगुरुलघूनित्यर्थः । असंभवे अल्पान् द्रुतानित्यर्थः । वामसंस्थान; लेखकापेक्षया पूर्वलिखितावयवसंनिहितत्वेन वामभागस्थितान् लिखेदित्यर्थः । भूयोऽप्ययं विधिः सर्वद्रुतावधिः कार्य इत्यनेन वीप्सा गम्यते, भूयो 21 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ संगीतरत्नाकरः भूयोऽपीति ; द्वितीयादिपङ्क्तिस्थान् तालान् प्रकृतीकृत्य अधोऽधः सर्वद्रुततालभेदान्तं लिखेदित्यर्थः । प्रस्तारोऽयमित्यादि । सोऽयमुक्तलक्षणः प्रस्तारः । व्यस्ते केवले लघौ प्रस्तारे यथा-एक लघु लिखित्वा तदधस्ततोऽन्यद्भुतं न्यसेत् । उपरि तालावयवाभावात् शेषाभावः । प्रागूने तालपूर्यै महतोऽसंभवात अल्पं द्रुतं वामसंस्थं लिखेत् । एवं द्वितीयस्य भेदस्य सर्वद्रुतत्वात्ततः प्रस्तारो नोत्पद्यते । अतो लघुप्रस्तारे भेदद्वयमेव । व्यस्ते गुरौ प्रस्तारो यथा- एकं गुरुं लिखित्वा तदधस्तदपेक्षया अल्पं लघु न्यसेत् । अत्रापि पूर्ववच्छेषाभावः । प्रागूने तालपूत्यै लघोर्महतः संभवात्तं वामसंस्थं लिखेत् । एवं द्वितीयभेदे लघुद्वयमभूत् । तत आद्यात् लघोरधस्तादल्यं द्रुतं न्यसेत् । उपरि लघोः सद्भावात् तदधः शेषत्वेन लधु लिखेत् । प्रागूने तालपूत्यै द्रुतं लिखेत । एवं द्रुतद्वयं लघुश्च तृतीयो भेदः । ततश्च लघोरधो द्रुतं लिखेत । उपर्यभावाच्छेषाभावः । प्रागूने संभवात् द्रुतसंनिहितत्वेन लघु लिखेत । ततस्तालपूर्तयेऽर्धमात्रसंभवात् लघुसंनिहितत्वेन द्रुतं लिखेत । एवं द्रुतलघुद्रुतश्चतुर्थों भेदः । ततश्च लघोरधो द्रुतं लिखेत् । उपरि द्रुतस्य सद्भावाच्छेषत्वेन द्रुतं लिखेत् । प्रागूने संभवात लघु लिखेत् । एवं लघुतद्वयं पञ्चमो भेदः । ततश्च लघोरधो द्रुतं लिखेत । उपरि द्रुतद्वयस्य सद्भावाच्छेषत्वेन द्रुतद्वयं लिखेत् । प्रागूने त्वसंभवाद् द्रुतं लिखेत् । एवं द्रुतचतुष्टयं षष्ठो भेदः । तस्य सर्वद्रुतत्वात् ततः परं प्रस्ताराभाव एव । अतो गुरुप्रस्तारे षड्भेदाः । व्यस्तप्लुतप्रस्तारेऽप्युक्तरीत्या कृत एकोनविंशतिभेदा भवन्ति । व्यस्तेषु लघुपु लघ्वाद्यत्वम् , " आद्यन्तवदेकस्मिन् " (पा० १. १. २१) इति न्यायेन द्रष्टव्यम् । समस्ते चेति । सजातीयैर्विजातीयैर्वा सहिते च लघ्वादौ प्रस्तारोऽस्ति । व्यस्ते द्रुते तु नास्ति । ततोऽप्यल्पस्य तालावयवस्याभावादिति भावः ॥३१६,३१७-।। इति प्रस्तार: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमस्तालाध्यायः १६३ - (सु०) तेषां लक्षणं प्रतिज्ञाय प्रथमोद्दिष्टं प्रस्तारं लक्षयति — न्यस्येति । आद्यात् आदौ स्थापितात्, महतः प्लुतात्, गुरोर्लघोर्वा अधस्तात् अधः प्रदेशे अल्पं न्यसेत्। प्लुतस्याधस्तात् गुरुं, गुरोरधस्ताल्लघु, लघोरधस्ताद् द्रुतमिति । एवं न्यस्य उपरि उपरिष्टात् यथा प्लुतादयो विद्यन्ते तथा शेषं लेखनीयम् । एवं ताल्या संभवे सति वामसंस्थान; संस्था समाप्तिः येषां तथाविधान् प्राक् पूर्वप्रदेशे महत्सु संभवत्सु महतः प्लुतादीन् लिखेत् । महतामसंभवे तु, अल्पान् लिखेत् । यावतां द्रुतानां तालस्तावतां द्रुतानां परिपूर्णाय प्लुतादीन् लिखेत् । एवं कृते सति पुनरप्ययं विधिः कर्तव्यः । प्रस्तारस्य विधिमाह - सवेंति । यावत्तालपरिपूरणसमर्थसंख्याकाः द्रुताः तावत्पर्यन्तं प्रस्तारः कार्यः । कुत्र ? आदिभूते प्रस्तारे कार्य इत्यपेक्षायामाह - लघाविति । लघुगुरुप्लुते व्यस्ते पृथक् पृथक् स्थापिते केवले लघौ, केवले गुरौ, केवले प्लुते च कार्य: । समस्तेति । लघुप्लुतयो:, गुरुप्लुतयोः, लघुगुर्वोः प्लुतत्वे प्राप्ते, समस्तत्वासंभवात् द्रुतपूर्व विलिख्य, द्रुते लघौ च द्रुते गुरौ च, द्रुते प्लुते च न्यूनं द्रुतं पूर्वं विलिख्य प्रस्तारः कार्यः । निषेधमाह —- व्यस्तेति । व्यस्ते ; विपरीतस्थापिते लघ्वादौ ते च न कर्तव्यः । पूर्व महान् स्थापयित्वा पश्चादल्पेन कर्तव्य: । द्रुते च अल्पाभावोऽत्र कर्तव्य इत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तार्थं षटप्रस्तारं दर्शयाम:पूर्व तावत्प्लुतो लेखनीयः, 'संभवे महतो लिखेत्' इत्युक्तत्वात् । तत: प्लुतस्याधो गुरुः पूर्वं षड्गुततालपूरणार्थं लघुः । एवं लघुगुरूपो द्वितीयो भेदः । ततो लघोरधस्तात् द्रुत:, पश्चाद्गुरुः, पूर्व द्रुत:, एवं द्रुतद्वयं गुरुश्च तृतीयो भेदः । ततः गुरोरधस्तात् लघुः, पूर्व गुरुः, एवं गुरुर्लघुश्चतुर्थो भेदः । ततः गुरोरधस्तात् लघुः, उपरि लघुः, लघोरधस्तात् द्रुतः, पश्चात् गुरुः, पूर्व द्रुतः, एवं लघुत्रयं पञ्चमो भेद: । तत: प्रथम घोरधस्तात् द्रुत:, ततो लघुद्वयं, पूर्व द्रुतः, एवं द्रुतद्वयं लघुद्वयं च षष्ठो भेदः । ततः प्रथमलघोरधस्तात् द्रुतः, ततो लघुः पूर्वं लघुद्रुते, ततश्च द्रुतः लघुद्रुतौ लघुश्चेति सप्तमो भेद: । तत: प्रथमलघोरधस्तात् द्रुत:, अनन्तरं द्रुतलघू, पूर्वे द्रुत:, ततश्च लघुद्रुतद्वयं लघुश्वेत्यष्टमो भेदः । ततः प्रथमलघोरधस्तात् द्रुत:, ततो द्रुतद्वयं लघुश्च, पूर्व द्रुत:, ततश्च द्रुतचतुष्टयं लघुश्च नवमो भेदः । ततो लघोरधस्तात् द्रुतपूर्वं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संगीतरत्नाकरः एकद्वयङ्कौ क्रमान्न्यस्य युञ्जीतान्त्यं पुरातनैः ॥ ३१८ ॥ द्वितीयतुर्यषष्ठाङ्करभावे तुर्यषष्ठयोः । तृतीयपञ्चमाङ्काभ्यां क्रमात्तं योगमग्रतः ॥ ३१९ ।। गुरुर्दुतश्च, ततश्च द्रुतो गुरुर्दुतश्चेति दशमो भेदः । ततो गुरोरधस्तात् लघुः, अनन्तरं द्रुतः, पूर्व लघुटुंतश्च, ततश्च द्रुतो लघुद्वयं द्रुतश्चेत्येकादशो भेदः । ततः प्रथमलघोरधस्तात् द्रुतः, तत उपरिगता: द्रुतलघुप्लुताः । एवं पूर्व द्रुतः; अनन्तरं द्रुतः, पूर्व लघुर्दुतश्चेति द्वादशो भेदः। तत: प्रथमलघोरधस्तात् द्रुतः, ततोपरिगताः द्रुतलघुद्रुताः । पूर्व द्रुतः, ततश्च द्रुतत्रयं लघुर्दुतश्च त्रयोदशो भेदः । ततो लघोरधस्तात् द्रुतः, अनन्तरं द्रुतपूर्व गुरुः, एवं गुरुर्दुतद्वयं चेति चतुर्दशो भेदः । ततो गुरोरधस्तात् लघुः, अनन्तरं द्रुतद्वयं पूर्व लघुः, एवं लघुद्वयं द्रुतद्वयं च पञ्चदशो भेदः । ततः प्रथमलघोरधस्तात् द्रुतः, ततो लघु तद्वयं च, पूर्व द्रुतः, ततश्च द्रुतद्वयं, लघु तद्वयं चेति षोडशो भेदः । ततो लघोरधस्तात् द्रुतः, अनन्तरं द्रुतद्वयं, पूर्व लघुद्रुतौ, ततश्च द्रुतो लघुः, द्रुतत्रयं चेति सप्तदशो भेदः । ततो लघोरधस्तात् द्रुतः, अनन्तरं द्रुतत्रयं, पूर्व लघुः, ततश्च लघुटुंतचतुष्टयं चेत्यष्टादशो भेदः । ततो लघुरधस्तात् द्रुतः, अनन्तरं द्रुतचतुष्टयं, पूर्व द्रुतः, एवं द्रुताः षट् , एवमेकोनविशतिभेदः । ततो लघ्वक्ष्वक्षराभावात्प्रस्तारो नास्ति ॥ ३१६, ३१७- ॥ इति प्रस्तारः (क०) संख्यां लक्षयति--एकद्वयङ्कावित्यादि। क्रमादिति । एकात प्रथमं न्यस्य तदनन्तरं द्वयकं तिर्यक्पङ्क्तिगतत्वेन दक्षिणसंस्थं न्यस्येदित्यर्थः । अन्त्यमकं पुरातनैर्वामस्थैरन्त्यापेक्षया द्वितीयतुर्यषष्ठाकैर्यथासंभवं योजयेत् । प्रथमं तावदन्त्यभूतं द्वयङ्कम् । अत्र पुरातनेषु द्वितीयस्यैव सद्भावात् तेनैकाङ्केन सह योजयित्वा व्यङ्कं दक्षिणसंस्थं लिखेत् । ततस्तमन्त्यभूतं पुरातनेषु द्वितीयेन द्वयङ्केन, 'अभावे तुर्यषष्ठयोः', 'तृतीयपञ्चमाङ्काभ्यां क्रमाद् युञ्जीत' इति वचनादत्र तुर्याभावे तत्प्रतिनिधिना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः लिखेद्दक्षिणसंस्थैत्रमङ्कश्रेणी विधीयते । सा चाङ्केरिष्टतालस्थद्रुतसंख्यैः समाप्यते || ३२० || १६५ तृतीयेनैकेन योजयित्वा त्र्यङ्कानन्तरं षडङ्कं लिखेत् । तमन्त्यभूतं पुरातनेषु द्वितीयेन त्र्यङ्केण तुर्येणैकाङ्केन च योजयित्वा षडङ्कादनन्तरं दशाङ्क लिखेत् । ततस्तमन्त्यं पुरातनेषु द्वितीयतुर्याभ्यां षडङ्कयङ्काभ्यां षष्ठाभावे तत्प्रतिनिधिना पञ्चमेनैकाङ्केन च योजयित्वा दशाङ्कानन्तरमेकोनविंशत्यङ्के लिखेत् । ततस्तमन्त्यं पुरातनैर्द्वितीयतुर्यषष्ठैर्दशाङ्कत्र्यङ्ककाङ्कर्योजयित्वा व्ययस्त्रिशदङ्कं लिखेत् । एवमङ्कश्रेणी दक्षिणसंस्था विधीयत इति । लिखितुरपेक्षयेति द्रष्टव्यम् । न तूर्ध्वाधो वामसंस्था वेत्यर्थः । सेति । सा च; अङ्कश्रेणी । इष्टतालस्थद्रुतसंख्यैरिति ; ज्ञातुरिष्टो यस्ताल:, तत्र स्थितानां द्रुतानां संख्या सा येषां तैरकैः । समाप्यत इति । अयमर्थः - प्रस्तारादिपरीक्षां कर्तुर्य इष्टस्ताल:, तस्मिन् सर्वद्रुते कृते सति यावन्तो द्रुता भवन्ति, तावन्त एव संख्याकान् लिखेदिति ॥ ३१८-३२० ॥ (सु० ) अथ संख्यां निरूपयति - एकद्वयङ्काविति । एकाङ्कं द्वयङ्कं च कमात् न्यस्य स्थापयित्वा, अन्त्यमङ्कं पुरातनैः पूर्वप्रदेशस्थितैः द्वितीयचतुर्थषष्ठाः सह युञ्जीत मेलयेत् ; चतुर्थषष्ठयोरङ्कयोरभावे तृतीयपञ्चमाभ्यां ; तुर्याभावे तृतीयेन सह ; षष्ठाभावे पञ्चमेनाङ्केन सहान्त्यमङ्कं युञ्जीतेति संबन्ध: । तं योगं यथासंभवमन्त्यद्वितीययोः, अन्त्यद्वितीयतुर्याणां, अन्त्यद्वितीयचतुर्थषष्ठानां क्रमात् अग्रतः लिखेत् । एवं दक्षिणतः दक्षिणप्रदेशे संस्था समातिर्यस्याः । एवंविधा अङ्कानां श्रेणी पङ्क्तिः क्रियते । सा कियदवधि कर्तव्ये - त्यपेक्षायामाह – सा चेति । इष्टतालस्थद्रुतसंख्यैः ; इष्टो यस्ताल:, षड्गुतः, सप्तद्रुतोऽष्टद्रुतो वा, तत्र स्थिताः यावन्तो द्रुताः तावत्संख्यैरङ्गैः समापनीयाः। षड् द्रुततालसंख्यायां जिज्ञासितायामेवमङ्का लेख्याः । सप्ताष्टद्भुततालेऽप्येवं ज्ञेयम् ॥ - ३१८-३२० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ संगीतरत्नाकर: द्रुतो लघुः सार्धमात्रो गुरुः सार्धद्विमात्रिकः । प्लुतः सार्धत्रिमात्रश्चेत्येकैक द्रुतवर्धितैः ॥ ३२१ ।। तालभेदाः क्रमादः संख्यायन्ते स्थितैरिह | यदङ्कयोगादन्त्योऽङ्को लब्धस्तैरन्ततः क्रमात् ।। ३२२ ॥ भेदा द्रुतान्तलघ्वन्तगुर्वन्ताश्च प्लुतान्तकाः । संख्यायन्त इति प्रोक्ताः संख्या निःशङ्कमूरिणा ॥ ३२३ ॥ २ ३ ६ १० १९ ३३ इति संख्या (क०) एवमेवार्थे विवृण्वन् संख्यया ज्ञेयमाह - द्रुतो लघुरित्यादिना । इह ; अङ्कश्रेण्यां स्थितैरेकेन द्रुतेनैकाङ्कः, लघुना द्व्यङ्कः, सार्धमात्रेण त्र्यङ्कः । अत्र मात्राशब्देन लघुरुच्यते ; अर्धशब्देन द्रुतः ; गुरुणा षडङ्कः ; सार्धद्विमात्रिकेण दशाङ्कः ; प्लुतेनैकेन विंशत्यङ्कः; सार्धत्रिमात्रिकेण त्रयस्त्रिंशदङ्क इत्यैकैकद्रुतवर्धितैरङ्गैरेकादिभिः क्रमात् तालभेदाः प्रस्तारप्रकाशिताः तालभेदाः संख्यायन्ते । ज्ञेयान्तरमप्याह - यदङ्कयोगादित्यादि । यदङ्कयोगात् ; येषामङ्कानामन्त्य द्वितीयतुर्यषष्ठानां यथासंभवं स्थितानां तुर्यषष्ठयोरभावे तत्प्रतिनिध्योस्तृतीयपञ्चमयोर्वा योगात् अन्त्याको लव्धः, तैः; अन्त्याङ्कलाभहेतुभिः अन्त्यादिभिः । अन्ततः क्रमात् द्रुतान्तलध्वन्तगुर्वन्ताश्च प्लुतान्तकाः भेदाः संख्यायन्त इति । अन्त्याकेन द्रुतान्ता भेदाः संख्यायन्ते द्वितीयाङ्केन लध्वन्ता भेदाः, तुर्येण तदभावे तत्प्रतिनिधिना तृतीयेन वा गुर्वन्ता भेदाः, षष्ठेन तदभावे तत्प्रतिनिधिना पञ्चमेन वा प्लुतान्ता भेदाः संख्यायन्त इति क्रमो द्रष्टव्यः । प्रतिनिधिस्थले बहुवचनमविवक्षितम् । तत्र बहूनामसंभवात् । उदाहरणार्थे प्लुतप्रस्तारे द्रुतान्तादयो भेदाः प्रदर्श्यन्ते । प्लुते प्रवृत्त एकोनविंशतिर्भेदा भवन्ति । १ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ पञ्चमस्तालाध्यायः अत्रैतावतिथो भेदः किंरूप इति पृच्छति । यत्र तन्नष्टमाख्यातं तस्योत्तरमिहोच्यते ॥ ३२४ ।। एकोनविंशतिसंख्याकलापस्य बहवोऽङ्काः । अन्त्यो दशाङ्कः, तेन दश द्रुतान्ता भेदाः। द्वितीयः षडङ्कः, तेन लध्वन्ता षड्भेदाः । चतुर्थों द्वयङ्कः, तेन गुर्वन्तौ द्वौ भेदौ । षष्ठः प्रतिनिधित्वेन पञ्चमैकाङ्कः, तेन प्लुतान्त एको भेदः । एवमेतैरकैरेकोनविंशतिभेदाः संख्यायन्ते । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् ॥ ३२१-३२३ ॥ इति संख्या (सु०) संख्यानिरूपणे प्रयोजनमाह-द्रुत इति । एकैकेन द्रुतेन वर्धितेन ताले अवस्थितैरकैः क्रमात् यथासंख्यातैरकानां संख्या ज्ञायते । तामेव ताले एकैकद्रुते स्थापनाप्रकारमाह- द्रुत इत्यादिना । एकद्रुतताले एको द्रुत एव स्थाप्यः, द्विद्रुते लघुः । त्रिद्रुते अर्धमात्रया द्रुतेन सहितः सार्धमात्रो लघुरित्यनुषङ्गः। चतुर्दुतेऽर्धमात्रया द्रुतेन सहितो द्विमात्रो गुरुः । षड्द्रुते प्लुतः । सप्तद्रुते मात्रया द्रुतेन सहितस्त्रिमात्रः । इतःपरमपि वर्धनं प्लुतं लिखित्वा द्रुतलघ्वादि योजनीयम् । अष्टद्रुते लघु: प्लुतश्च । नवद्रुते द्रुतो लघु: प्लुतश्च । दशद्रुते गुरुः प्लुतश्च । एकादशद्रुते द्रुतो गुरुः प्लुतश्च । द्वादशद्रुते प्लुतद्वयम् । त्रयोदशद्रुते द्रुतत्रयं गुरुः प्लुतश्चेत्यादि । एवंविधे ताले प्रस्तारेण जाता भेदा अत्र स्थितैरदैर्ज्ञातव्या इति संबन्धः । अवान्तरप्रयोजनं संख्यानिरूपणमाह-यदङ्केति । येषामतानां योगात् मेलनात् अन्त्यमङ्कः पूर्वोक्तप्रकारेण लभ्यते । तैरकैः अन्तत: अन्त्यादारभ्य क्रमात् द्रुतान्तादयो भेदाः संख्यायन्ते । अन्त्येन द्रुतान्ताः; द्वितीये लध्वन्ताः; चतुर्थेन गुर्वन्ताः; षष्ठेन प्लुतान्ताः, यथा सप्तद्रुतप्रस्तारे त्रयस्त्रिंशद्भेदाः । तेषु एकोनविंशतिर्दृतान्ताः ; दश लघ्वन्ताः ; त्रयो गुर्वन्ताः; एक: प्लुतान्त इति ॥ ३२१-३२३ ॥ इति संख्या (क०) अथ नष्टं लक्षयति- अत्रैतावतिथ इति। अत्रैतावद्धेदवत्यमुकताल एतावतिथो भेद इति' पूरणसंख्यामुद्दिश्य किंरूप इति भेदम्वरूपं यत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संगीतरत्नाकरः भेदानां यावतां मध्ये नष्टप्रश्नः कृतो भवेत् । तावत्संख्याङ्कपर्यन्तां लिखेत्संख्याङ्कसंततिम् ॥ ३२५ ।। अन्त्याङ्के तत्र नष्टाङ्कं पातयेदथ शेषतः । पातयेत्पूर्वपूर्वाकं तत्र त्वपतितो द्रुतः ।। ३२६ ॥ पूर्वश्चेत्पतितो न स्याल्लघुस्तु पतिताद्भवेत् । उत्तरेणाकृतार्थेन सहितात्तदसंभवे ॥ ३२७ ।। पृच्छति तन्नष्टमित्याख्यातम् । तस्योत्तरमिति । तस्य ; नष्टस्य, उत्तरं; भेदस्वरूपनिरूपणोपाय इत्यर्थः । तमुपायं दर्शयति-भेदानामित्यादिना । सोदाहरणं दर्शयामः । यावतां भेदानां मध्य इति । प्लुतप्रस्तारे तावदेकोनविंशतिर्भेदा भवन्ति । तेषां मध्ये नष्टप्रश्नः । नष्टस्य भेदस्यात्र पञ्चदशो भेदः किंरूपः ? इति प्रश्नः कृतो भवेत् । तावत्संख्याङ्कपर्यन्तं संख्याङ्कसंतति लिखेदिति । अत्र प्रथममेकाकं द्वितीयं द्वयकं तृतीयं व्यकं चतुर्थ षडत पञ्चमं दशाकं षष्ठमेकोनविंशत्यमेवमेकोनविंशतिसंख्याङ्कपर्यन्तां संख्याङ्कसंततिं लिखित्वा तत्रान्त्याङ्क एकोनविंशत्यके नष्टभेदपूरणाङ्कमत्र पञ्चदशाङ्कं पातयेत् । अथ शेषतः शेषे, सार्वविभक्तिकस्तसिः । शेषत इति । एकोनविंशतौ पञ्चदशस्वपनीतेषु चत्वारः शेषः, तस्मिन् चतुरके। पूर्वपूर्वावं पातयेदिति । प्रथमं संनिहितं पूर्व दशाङ्कं पातयेत् । अत्रावशिष्टे चतुरङ्के दशाङ्कोऽपतितो भवति । एवमपतिताङ्काद् द्रुतो लब्धो भवति । चतुरके दशाङ्कात्पूर्वस्य षडङ्कस्याप्यपातादपतितात्ततोऽपि द्वितीयो द्रुतो लब्धो भवति । अत्र लब्धान् द्रुतादीन् द्वितीयादीन् वामसंस्थत्वेन लिखेत् । पूर्वः पतितो न स्याचेत् , पतितादादकृतार्थेनोत्तरेण सहितात तदसंभवेऽकृतार्थेन पूर्वेण सहिताद्वा लघुर्भवेदित्येकं वाक्यम् । अत्र चतुरके व्यङ्कस्य पातसंभवात् तच्छेष एकस्मिन् पूर्वस्य द्वयङ्कस्यापातात् अकृतार्थेनापतितेनोत्तरेण षडङ्केन सहितात् चतुरके पतितात् व्यङ्कात् लघुर्लब्धो भवति । अथैकमवशिष्टम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः १६९ अकृतार्थेन पूर्वेण सान्तरे पतिते पृथक् । लघुनिरन्तरे त्वस्मिल्लघुरेव गुरुर्भवेत् ॥ ३२८ ।। गुरुहेतोस्तृतीये तु पतिते गः प्लुती भवेत् । अङ्काभावे द्रुता ग्राह्यास्तालपूरणहेतवः ।। ३२९ ।। इति नष्टस्य विज्ञेयमुत्तरं रूपनिर्णयात् । इति नष्टम् सान्तरे पतिते पृथग्लघुर्भवेदिति । अत्रावशिष्ट एकस्मिन्नेकाङ्कस्य सान्तरपतितत्वात अकृतार्थेन द्वयङ्केन सह पृथग्लघुर्लब्धो भवति । पृथगिति । पूर्वलब्धेन लघुना सह गुरुरूपतां हित्वेत्यर्थः । अत्र शेषाङ्कपातनीयाङ्कयोरभावेऽपि त्रिमात्रिकस्य तालस्य लघुद्वयेन द्रुतद्वयन च पूर्णत्वात् तालपूरणहेतवो द्रुता ग्राह्या न भवन्ति । अस्मिन्निरन्तरे तु लघुरेव गुरुर्भवेदिति । तत्रैव प्लुतप्रस्तारे दशमः किंरूप: ? इति नष्टप्रश्ने कृते सत्यन्तभूत एकोनविंशत्यके नष्टपूरके दशाङ्के अपनीते सति, शेषे नवाङ्के पूर्वस्य दशाङ्कस्यापातादपतितात् तस्माद् द्रुतो लब्धो भवति । अथ तत्पूर्वयोः षडङ्कव्यङ्कयोः निरन्तरयोः पातात् अस्मिन् लघुहेतावके निरन्तरे लघुहेतुना अङ्कान्तरेणाव्यवहिते सति, स लघुरेव लध्वन्तरेण मिलितो गुरुर्भवति । तमत्र लब्धस्य द्रुतस्यानन्तरं लेखकापेक्षया वामसंस्थं लिखेत् । अत्र पातनीयस्यैकाङ्कस्य सद्भावेऽपि शेषाङ्काभावात्तालपूरणहेतुर्द्रतोऽत्र ग्राह्यः । सोऽपि पूर्ववद्वामसंस्थो लेखनीयः । गुरुहेतोस्तृतीये तु पतिते गः प्लुती भवेदिति । अत्रैव प्लुतस्य प्रस्तारे प्रथमो भेदः किरूपः ? इति नष्टस्य प्रश्ने सति तत्रान्त्याङ्क एकोनविंशत्यङ्क एकाङ्केऽपनीते सत्यवशिष्टेऽष्टादशाङ्के पूर्ववत् पूर्वयोर्दशाङ्कषडङ्कयोनिरन्तरयोः पातात् गुरुर्लब्धो भवति । तत्रापि षडङ्को गुरुलाभहेतुर्भवति । तस्मात्तृतीयस्य व्यङ्कस्याप्यत्र पातात् तस्मिन् पतिते सति गो गुरुः 22 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः प्लुती भवेत् । पूर्वमप्लुतः तदा प्लुतो भवति । स एवात्र प्रथमभेदत्वेन लेखनीयः । अङ्काभाव इति ; शेषाङ्कपातनीयाङ्कयोरेकतरस्याप्यभावे, द्रुता ग्राह्या इत्यत्र बहुवचनम विवक्षितं यथासंभवं द्रष्टव्यम् । किंच तत्रैव प्लुतप्रस्तारे सप्तमो भेदः कः? इति प्रश्न एकोनविंशतौ सप्तस्वपनीतेषु द्वादशावशिष्टा भवन्ति । तत्र पूर्वस्मिन् षडके पतिते सत्यकृतार्थस्योत्तरस्याभावेऽप्यकृतार्थेन पूर्वेण सहिताद्दशाङ्कात् लघुर्लब्धो भवति । अथ द्वादशाववशिष्टौ । तत्रापतितास्त्र्यङ्कात् द्रुतो लब्धो भवति । ततः पतिताद्वयङ्कादकृतार्थेन पूर्वेणैकाङ्केन सहिताल्लघुर्लब्धो भवति । ततोऽङ्काभावात तालपूरणहेतुर्दुतो ग्राह्यः । अत्रायं संप्रदायो ज्ञेयः--यत्र प्रथमो लघुः पतितादकादकृतार्थनोत्तरेण तदसंभवे पूर्वेण वा तादृशेन सहिताल्लब्धो भवति ; तत्र लध्वन्तरेऽपि स एव क्रमोऽनुसंधेय इति । एतत्सर्वं प्लुतप्रस्तारे दर्शितम् । एवं सर्वत्र प्रस्तारेषु द्रष्टव्यम् । इति नष्टस्य भेदस्वरूपनिर्णयात् नष्टप्रश्नस्योत्तरं विज्ञेयम् । इह नष्टस्वरूपनिरूपणोपायः प्रत्ययोऽप्युपचारान्नटमित्युक्तः । उत्तरपरत्वेन नपुंसको निर्देशः ॥ ३२४-३२९- ॥ इति नष्टम् (सु०) नष्टं निरूपयति - अथेति । एतावतिथः ; एतावत्संख्याकः, पूर्णभेदेषु किं रूप: ? इति संख्यामुद्दिश्य भेदस्वरूपं यत्र पृच्छति, तन्नष्टमित्युच्यते । इह ; तस्य नष्टस्य उत्तरमुच्यते । यावतां भेदानां मध्ये षड्द्रुतानां सप्तद्रुतानामष्टादिद्रुतानां मध्ये नष्टस्य प्रश्नः कृतः, तावत्संख्याकमवधीकृत्य संख्याकानां श्रेणी पूर्वोक्तप्रकारेण लिखेत् । एवं कृत्वा नष्टं संख्याङ्कमन्त्याङ्कमध्ये पातयेत् न्यूनी कुर्यात् । अथ पातयित्वा शेषत: अवशिष्ट अन्त्याङ्के अन्त्याङ्कात् पूर्वपूर्वमेकं पातयेत् । यो योऽङ्कः पतति तत्राभिज्ञानं कुर्यात् । तत्र त्वपतितादड्कात् द्रुतो लभ्यत इत्युत्सर्गः । अपवादमाह-पूर्वश्चेति । पूर्वाको यदि पतितो न स्यात् , तदापतितात् द्रुतः । ततः किंभवेदित्यपेक्षायामाह-उत्तरेणेति। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १७१ उत्तरेणाकृतार्थेन सहितात्पतितो लघुः, तदसंभवे उत्तरस्याकृतार्थत्वात्संभवे लघुत्पातनेनाकृतार्थत्वे सति अकृतार्थेन पूर्वेण सह पतितात् लधुः । निरन्तरे पतिते सति विशेषं कथयितुं सान्तरे पूर्वोक्तमनुवदति-सान्तर इति । सान्तरे ; एकाङ्कव्यवधाने अङ्कद्वये पतिते सति पृथक् लघुः लघुद्वयं कर्तव्यम् । निरन्तरे पतिताकद्वये लघुरेव पूर्वोक्तलघुना सह गुरुभवेत् । गुरुहेतोः पतितादात् तृतीये पतिते ; वक्ष्यति, 'गुरुरेव पतितापतिताभ्यां द्वाभ्यां सह प्लुतो भवति' इति । अङ्कानां संख्या: तालपूरणहेतवः यावत् द्रुतलाभस्तावत्संख्याकाः द्रुता ग्राह्या इति नष्टप्रश्नस्योत्तरं ज्ञेयम् । रूपनिर्णयात् ; संख्यायां पृष्टायां स्वरूपकथनादित्यर्थः। ___ अत्र षड्द्रुतप्रस्तारे दृष्टान्तं दर्शयाम:-तत्र षड्द्रुतप्रस्तारे प्रथमो भेदः कीगिति प्रश्ने; संख्यामा अन्त्योऽङ्क एकोनविंशतिः, तस्मादेकस्मिन् पतिते सति अवशिष्टेषु अष्टादशसु पूर्वे एकादशाङ्क: पातितः । तस्मिन् पातिते अवशिष्टेष्वष्टसु ततः पूर्वाङ्कः पातितः । ततोऽवशिष्टद्वये षडङ्कात् पूर्वस्य व्यङ्कस्य पातनात् ततः पूर्वो द्वयङ्कः पातितः । एवं पातस्थानेष्वभिज्ञानं कृत्वा 'निरन्तरे त्वस्मिन् लघुरेव गुरुभवेत्' इति न्यायेन प्राप्तिर्लभ्यते, चतुर्भिरन्तस्थितैरकैगुरुर्लभ्यते । गुरुहेतोः षडङ्कात् पतितात् तृतीयस्य द्वयङ्कस्य पातितत्वात् स एव गुरु: पतितापतिताभ्यां सह प्लुतो भवति । ततश्च प्रथमो भेद: प्लुतरूपः सिद्धयति । तस्मिन्नेव षड् द्रुतप्रस्तारे द्वितीयो भेद: कीगिति प्रश्ने ; एकोनविंशतिमध्ये द्वयङ्के पातिते सति सप्तदशावशिष्टाः । तेषु दश, षडङ्कश्च पातितः । 'निरन्तरे त्वस्मिन् लघुरेव गुरुभवेत् ' इति न्यायेन अन्त्यैश्चतुर्भिर्गुरुः । लघुस्तु पातितात् भवेत् । उत्तरेणाकृतार्थेन सहितादिति पूर्वाङ्कद्वयेन लघुः । ततश्च लघुर्गुरुश्च द्वितीयो भेदः । अत्रैव तृतीयो भेदः कीदृगिति प्रश्ने ; एकोनविंशतौ अङ्के पातिते अवशिष्टेषु षोडशसु दशषडकौ पातितौ, निरन्तरे त्वस्मिन्निति गुरुः । अपतित इति । पूर्व द्रुतद्वयं, ततश्च द्रुतद्वयं गुरुश्च तृतीयो भेदः । एवं चतुर्थे भेदे पृष्टे चतुन्यूनान्त्याङ्के पञ्चदशसु दशाङ्कः । अङ्को द्विकश्च पातितः । पूर्वाङ्कचतुष्टयेन गुरुः । उत्तराङ्कद्वयेन लघुरित्यादि ज्ञेयम् ॥ ३२४-३२९- ॥ इति नष्टम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ संगीतरत्नाकरः ईयूपोऽत्र कतिधा भेदः प्रश्न इतीदृशः ।। ३३० ॥ उद्दिष्टं तत्र संख्याङ्कसंततिं नष्टवाल्लिखेत् । येरकैः पतितैनष्टे लभ्यन्ते ये प्लुतादयः ॥ ३३१ ।। तानेवाङ्कालभन्ते ते भेदमुद्दिष्टमाश्रिताः । यद्वा षट्प्लुतहेत्वङ्कमध्ये ऽन्त्यात्याचि सप्तमे ॥ ३३२ ॥ तदभावे तु षष्ठाङ्के पातितेऽन्त्याङ्कमध्यतः । यः शेषः स प्लुताल्लभ्यो लब्धहीनान्त्यशेषतः ॥ ३३३ ॥ ज्ञानं पूरणसंख्याया उद्दिष्टोत्तरमिप्यते । इत्युद्दिष्टम् (क०) अथोद्दिष्टं लक्षयति-ईग्रुप इत्यादि । अत्र प्रकृते तालप्रस्तारे, ईदृग्रुप इति भेदस्वरूपमुद्दिश्य कतिधा भेद इति तस्य पूरणसंख्यां पृच्छति चेत् , ईदृशः प्रश्न उद्दिष्टमित्युच्यते । तत्र ; उद्दिष्टे । नष्टवत् संख्याङ्कसंतति लिखेदिति । अत्रापि सोदाहरणं वक्ष्यामः । प्लुतप्रस्तारे एकोनविंशत्यकानां संततिं लिखित्वा लघुद्वयेन द्रुतद्वयेन च युक्ते भेद उद्दिष्टे सति नष्टे यैः पतितैरकै: ये प्लुतादयो लभ्यन्ते, उद्दिष्टं भेदमाश्रिताः, ते प्लुतादयः तानङ्कानेव लभन्त इति । नष्टे अन्त्यावयवस्य पूर्ववल्लब्धत्वात् उद्दिष्टेऽप्यन्त्यावयवादि द्रष्टव्यम् । नष्टे हि द्रुतानामपतितादकाद्वा तालपूरणत्वेन वा लब्धत्वात् उद्दिष्टभेदस्थिताद् द्रुतात् न कोऽप्यको लभ्यते । अत्रान्त्योपान्त्यद्रुताभ्यामपतितावन्त्य द्वितीयौ दशाङ्कषडकौ विहाय तृतीयेन लघुना पतितस्त्र्यको लभ्यते । ततोऽपि चतुर्थावयवेन लघुना सान्तरपतित एकाङ्को लभ्यते । तेनात्र लभ्येनाङ्कद्वयेन चत्वारो लब्धाः । लब्धहीनान्त्यशेषत इति । एवं लब्धेन चतुर केण हीनोऽन्त्य एकोनविंशत्यङ्कः । तस्य शेषतः पञ्चदशाङ्के । पूरणसंख्याया इति । अयं भेदः पञ्चदश इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १७३ पूरणसंख्या, तस्या ज्ञानमित्युद्दिष्टस्योत्तरमिप्यते । तथा द्रुतगुरुद्वत इत्युक्तं भेदमुद्दिश्यायं कतिधा इति संख्याप्रश्ने कृते तत्रान्त्येन द्रुतेनापतितमन्त्यं दशाकं विहायान्त्योपान्त्येन गुरुणा निरन्तरपतितौ द्वितीयतृतीयौ षडङ्कव्यको लभ्येते । ताभ्यां नव लब्धाः । तैहीनेऽन्त्य एकोनविंशत्यकेऽवशिष्टेपु दशस्वयं दशम इति पूरणसंख्याया ज्ञानमित्युद्दिष्टोत्तरम् । एवं सर्वत्र प्रस्तारेषु द्रष्टव्यम् । एतदेव व्यापकमुद्दिष्टोत्तरमवगन्तव्यम् । ___क्वचिल्लाघवार्थमव्यापकमप्युत्तरं दर्शयति-यद्वेत्यादि। पट्प्लुतहेत्वङ्कमध्य इति । अत्र षट्शब्देन पूरणप्रत्ययान्तः षष्ठशब्दो लक्ष्यते । प्लुतहेत्वङ्केत्यनेन षष्ठादीनां दक्षिणसंस्थानां सर्वेषां प्लुतहेतुत्वसामर्थ्यात् आदिशब्दोऽध्याहियते, षष्ठादिप्लुतहेत्वङ्कमध्य इति । षष्ठ एकोनविंशत्यङ्कः, सप्तमस्त्रयस्त्रिंशदङ्कः, अष्टमः षष्ठाङ्कः, नवमः पडुत्तरशताङ्काः, एवं दशमादयोऽपि द्रष्टव्याः । एवमेकोनविंशत्यादयो दक्षिणसंस्थाः । षष्ठादयस्ते सर्वेऽपि प्लुतहेतवः, तेषां मध्ये यः कश्चन प्रकृततालवशादन्त्यत्वेन कल्पितः । तस्मात् प्राचि पुरातने वामस्थे सप्तमे, तदभावे तु षष्ठाङ्के अन्त्यापेक्षया षष्ठाङ्के, अन्त्याङ्कमध्यतः अन्त्याङ्कमध्ये पातिते सति, यः शेषः, अन्त्याङ्कशेषः ; सः प्लुताल्लभ्यत इति । अयमर्थः-अत्रोद्दिष्टभेदे प्लुतो दृश्यते । अन्त्ये वा, मध्ये वा, आदौ वा, तत्रैवं विज्ञेयम् । प्लुतप्रस्तारे तावत्प्रथमभेद एव प्लुतो नान्यस्मिन् भेदे । तस्मिन्नेवोद्दिष्टे तत्रान्त्यस्य प्लुतहेतोरेकोनविंशत्यङ्कस्य मध्ये तदपेक्षया सप्तमस्य प्राचोऽङ्कस्याप्यभावात् षष्ठ एकाङ्के पातिते सत्यष्टादशावशिष्टाः, ते प्लुताल्लभ्या भवन्ति । तैहीनोऽन्त्यशेष एकः ; तस्मिन् पूरणसंख्याया ज्ञानमयं प्रथमो भेद इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । लब्धहीनान्त्यशेषत इत्यादिपक्षद्वयस्य साधारणमित्यवगन्तव्यम् । यथा द्रुतवर्धितप्लुतप्रस्तारे द्रुतात्मके भेद उद्दिष्टे तत्र प्लुतहेतुषु मध्येऽन्त्यस्य त्रयस्त्रिंशदङ्कस्य मध्ये । ततः प्राचि सप्तम एकाङ्के पातिते सति द्वात्रिं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ संगीतरत्नाकरः शदकोऽवशिष्टः प्लुताल्लभ्यः । तेन हीनेऽन्त्यशेष एकस्मिन् पूरणसंख्याया ज्ञानमयं प्रथम इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तस्मिन्नेन प्रस्तारे प्लुतद्रुतात्मके भेद उद्दिष्टे तत्र द्रुतस्यान्त्यत्वात् अन्त्यं त्रयस्त्रिंशदकं मुक्त्वा प्लुतस्योपान्त्यत्वात् उपान्त्य एकोनविंशत्यके तदपेक्षया प्राचि षष्ठ एकाङ्के पातिते सति येऽवशिष्टाः दश, ते प्लुतालभ्या भवन्ति । तेहींनस्यान्त्यस्य त्रयस्त्रिंशदङ्कस्य शेषे पञ्चदशाङ्के पूरणसंख्याया ज्ञानमयं पञ्चदशो भेद इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तथा लघुप्लुतप्रस्तारे प्लुतलघ्वात्मके भेद उद्दिष्टे तत्र लघ्वोरन्त्यत्वात् तेनान्त्ये प्लुतहेतौ षष्ठाङ्के पतितः तत्पूर्वस्त्रयस्त्रिंशदको लब्धः । अथोपान्त्येन प्लुतेन प्लुतहेतावेकोनविंशत्यके, ततः प्राचि षष्ठ एकाङ्के पातिते सत्यष्टादशावशिष्टा लब्धाः । एवं लघुप्लुताभ्यां लब्ध एकपञ्चाशदके तेन हीनस्यान्त्यस्य षष्ठाङ्कस्य शेषे नवाके पूरणसंख्याया ज्ञानमयं नवमो भेद इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तथात्रैव प्रस्तारे द्रुतप्लुतदुतात्मके भेदे उद्दिष्टे तत्र द्रुतस्यान्यत्वात् अन्त्यं पष्ठाकं मुक्त्वा प्लुतास्योपान्त्यत्वेन उपान्त्ये त्रयस्त्रिंशदङ्के ततः प्राचि सप्तम एकाङ्के पातिते सति द्वात्रिंशदकोऽवशिष्टः प्लुताल्लभ्यते । तेन हीनस्यान्त्यस्य षष्ठाङ्कस्य शेषेऽष्टाविंशत्यके पूरणसंख्याया ज्ञानमयमष्टाविंशतितम इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तथा तत्रैव प्रस्तारे प्लुतदृतद्वयात्मके भेद उद्दिष्टे द्रुतद्वयस्यान्त्यत्वादन्त्योपान्त्यौ षष्ठाङ्कत्रयस्त्रिंशदको विहायकोनविंशत्यके मध्ये, ततः प्राचि षष्ठ एकाङ्के पातिते सत्यवशिष्टोऽष्टादशाङ्कः प्लुतालव्धः । तेन हीनस्यान्त्यषष्ठाङ्कस्य शेषे द्विचत्वारिंशदके पूरणसंख्याया ज्ञानमयं द्विचत्वारिंशत्तम इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तत्रैव प्रस्तारे द्रुनद्वयप्लुतात्मक उद्दिष्टे भेदे प्लुतस्यान्त्यत्वात् अन्त्ये षष्टयके ततः प्राचि सप्तमेऽके पातिते सत्यवशिष्टोऽष्टपञ्चाशदङ्कः प्लुताल्लब्धः । तेन हीनस्यान्त्यस्य षष्टयङ्कस्य शेषे द्वयके पूरणसंख्याया ज्ञानमयं द्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १७५ इत्येतदुद्दिष्टोत्तरम् । तत्रैव प्रस्तारे लघुप्लुतात्मके भेदे उद्दिष्टे पूर्ववत् द्वयकोऽवशिष्टः । अत्रोद्दिष्टस्थितेनोपान्त्येन लघुना नष्टे तल्लघुलामहेतावेकाङ्के पातिते सति पुनरेकस्मिन्नवशिष्टे प्रथमोऽयं भेद इत्युत्तरम् । एवमुत्तरोत्तरेष्वप्यकेषु प्लुतयुक्तभेदो द्रष्टव्यः । प्लुतयुक्तभेदविषयत्वादेवास्योत्तरस्याव्यापकत्वम् । ___ननु चानन्तरोदाहृतलघुप्लुतात्मके भेदे प्लुतस्यान्त्यत्वात् यद्वेति पक्षान्तराश्रयणेनान्त्यषष्टयङ्कमध्ये तदादिप्राचि सप्तमे द्वयङ्के पातिते सति शेषत्वेनाष्टपञ्चाशदङ्कः प्लुताल्लव्धः । अथ लघुना पातितोऽङ्को लभ्यः । तत्रान्त्यशेषद्वये गुरुहेतोस्तृतीयत्वेन पतितात् षडङ्कापूर्वस्य व्यङ्कस्यापतितत्वेन नष्टे द्रुतः कथं न लब्धः । अत्र द्वयकैकाङ्कयोरेकतरस्य पातसंभवात् लघुना को लभ्यत इति संदेहः । तत्रैकाके पातित एकस्यावशिष्टत्वात्प्रथमोऽयं भेद इत्युद्दिष्टोत्तरमिष्टं सिध्यति । द्वयङ्केषु पातितेपु शेषाभावात् तन्न सिध्यत्येव । अत्र कथं निर्णय इति चेत् ? उच्यते--प्रथमं तावत् नष्टो नष्टाङ्कभिन्नाङ्कशेषक्रमेण पूर्वाङ्केषु पातितेषु यावन्तः पातिताः तेभ्यस्तावन्तो द्रुता लभ्या एव । द्रुतस्य लाभानन्तरं वा आदित एव वा असहायपतितालधुः । सान्तरपतितात्पृशग्लघुः । निरन्तरपतिताद गुरुः । गुरुहेतोस्तृतीयात्पतितारप्लुतो लभ्यत इत्युक्तमेव । अत्रायं विशेषो विज्ञेयः-प्रथममपतितात् द्रुतो लभ्यत एव । पतितादनन्तरमपतितात्तु सर्वत्र द्रुतो न लभ्यते । किंतु दुतहेतुना अन्यथा वा यत्रोत्तरेणापतितेन सहितः पातितो लघुहेतुर्भवति, तत्र पतितानन्तरमपतितादपि पूर्वाकाद् द्रतो न लभ्यते । एवं पतितादनन्तरमपतितात्तु सर्वत्र प्लुतो न लभ्यते। यत्र त्वपतितेन पूर्वेण सहितः पतितो लघुहेतुर्भवति, तत्र तस्मादपतितादपि द्रुतोन लभ्यत एव । ततः पूर्वादपतितात्तु द्रुतो लभ्यत एव । तस्मात् यत्र लघुर्लभ्यते तत्राङ्कद्वयं निवर्तते, यत्र गुरुर्लभ्यते तत्राङ्कचतुष्टयं निवर्तते, यत्र प्लुतो लभ्यते तत्राङ्कषट्कं निवर्तत इति न्यायस्य व्यापकत्वमुत्तरेणा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः कृतार्थेन सहितात्तदसंभवे, ‘अकृतार्थेन पूर्वेण ' इति वदता ग्रन्थकारेणैव सूचितम् । तस्मात् प्रकृते व्यङ्कादपतितादपि द्रुतलाभो नास्त्येव । पतितादपि द्वयङ्कालघुलाभोऽपि नास्त्येव । द्वयोरपि प्लुतप्रापकाङ्कषट्कान्तर्भूतत्वेन निवृत्तत्वात , इति प्रकृतभेदस्थो लघुर्नष्टेऽप्येकाङ्केन लब्ध इत्युद्दिष्टेऽप्यनेन लघुनैकाङ्क एव पतितो लभ्यत इति सर्वमवदातम् ।। -३३०-३३३- ॥ इत्युद्दिष्टम् (सु०) उद्दिष्टं निरूपयति-ईदृग्रूप इति । अत्र ; प्रकृते तालप्रस्तारे, ईग्रूप इति ? भेदस्वरूपः कतिधा किं संख्यापूरण इति रूपमुद्दिश्य संख्याप्रश्नः कृतश्चेत् , ईदृशः प्रश्न उद्दिष्टमित्युच्यते । तत्र नष्टवत संख्याङ्कसंततिं लिखेत् । एवं लिखितेषु तेषु नष्टपरिज्ञाने यैः पतितैः उद्दिष्टस्थापिताः प्लुतादयो लभ्यन्ते, ते प्लुतादयस्तानेवाङ्कान् लभन्ते । प्लुतस्यान्येनापि प्रकारेणाङ्कलाभमाह-ये इति । द्वितीयापेक्षया ये प्लुतहेतवोऽङ्काः तेषां मध्ये अन्त्याङ्कात् सप्तमे पूर्वाङ्के तस्याभावे तु षष्ठाङ्के अन्त्याङ्कमध्यात पातिते सति यः शेषः स प्लुताल्लभ्यते । लब्धैरकैः किं कर्तव्यमित्यपेक्षायामाह-लब्ध हीनेति । लब्धैरकैः विहीनः योऽन्त्याङ्कस्य शेष:, तस्मात् पूरणसंख्याया: प्रथमद्वितीयादिसंख्यायाः ज्ञानमुद्दिष्टप्रश्नस्योत्तरम् । अत्र षड् द्रुतप्रस्तारे दृष्टान्तं दर्शयाम:-तत्र प्लुतरूपो भेदः किं संख्यापूरण इति प्रश्ने एकाङ्कषडङ्कद्वयङ्केषु पतितेषु नप्टेः प्लुतो लभ्यते । ततस्तेषां मेलनेन अष्टादश लब्धाः । द्वितीयपक्षे तु–अन्त्याङ्कात् एकोनविंशत्यङ्कात् सप्तमस्याङ्कस्य पूर्वस्याभावात् । षष्ठाङ्क अन्त्यमध्ये पातिते अष्टादश लब्धाः । अयं तु प्लुतपक्षः । एवं लब्धाङ्कहीने अन्त्येऽङ्के एको लब्धः, ततश्च प्लुतरूप: प्रथमो भेदः । एवं द्रुतो गुरूश्च द्रुतश्च कतिधा भेद इति प्रश्ने, घडङ्के व्यङ्के च पतिते नष्टे द्रुतद्वयमध्ये गुरुर्लभ्यते । ततश्च नव लब्धाः, नव हीने अन्त्याङ्के, एकोनविंशतौ दशावशिष्टाः । ततश्च दशमः, एवं सति प्लुतत्रये द्वितीयो भेद इति ज्ञेयम् ॥ -३३०-३३३- ॥ इत्युद्दिष्टम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १७७ आदौ रूपमथैकैकमङ्कसंख्याङ्कसततेः ॥ ३३४ ॥ क्रमादधोऽधो विन्यस्येदन्त्यार्दीश्चतुरस्तथा । स्वपङ्क्तिस्थाल्लिखेदकानग्रसंख्याङ्कवद्युतान् ।। ३३५॥ (क०) अथ पातालं लक्षयति-आदौ रूपमित्यादि । संख्याङ्कसंततेः पूर्ववल्लिखितायाः अधोऽध: आदौ प्रथमकोष्ठ एकाङ्कस्याधः । रूपमिति । गणकप्रसिद्ध्या रूपमित्येकमुच्यते । अथवा आदौ रूपं संख्याङ्कसंततेरादौ स्थितं स्वरूपमेकाङ्कमित्यर्थः । तमादावधः पङ्क्तयादौ न्यस्य । अत्र आदावित्यावृत्त्या योजनीयम् । अथ ; अनन्तरम् , द्वयङ्कादीनामधोऽधः क्रमादेकैकमकं न्यसेदिति सामान्यवचनम् । अन्त्यादीनित्यादि विशेषवचनम् । स्वपङ्क्तिस्थानिति । अधस्थालेख्यपङ्क्तिस्थितान् , अन्त्यादीश्चतुरः, अन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठान् । तथेति; यथा संख्याङ्कपङ्क्तौ तद्वदित्यर्थः । अग्रसंख्याङ्कवद्युतानिति; तुर्यषष्ठयोः प्रतिनिधिर्न विद्यत इति चात्र विशेषः । अग्र उपरिपङ्क्तिस्थः संख्याङ्कोऽस्यास्तीत्यग्रसंख्याङ्कवान् अन्त्य एव गृह्यते । तम्यैव सर्वत्र संभवात् । अग्रसंख्याङ्कवता युतान् इत्यनेन यथासंभवं युतानामुपान्त्यादीनां केवलानामेव ग्रहणमिष्यते । अन्यथा अग्रसंख्याङ्कवत इत्येव ब्रूयात् । युतानन्त्यादीनित्यत्र उपान्त्यादय एव ग्राह्याः, नान्त्यः । तस्य स्वस्यैव स्वेन युतत्वाभावात् । अत्रायमङ्कलेखनप्रकारः--आदौ लिखितस्यैकाङ्कस्य अन्त्यस्यैव संभवात्तमग्रे संख्याङ्कनैकाङ्केन युतं कृत्वा द्वयत द्वयङ्कादधो लिखेत् । तेनान्त्येन द्वयकेनाग्रे स्थितद्विसंख्याङ्कवता युतमुपान्त्यमेकाकं मिलित्वा पञ्चाङ्कं व्यङ्कादधो लिखेत् । तेन पञ्चाङ्केनान्त्येनाग्रे स्थितसंख्याकवता युतमुपान्त्यं पञ्चाङ्क मिलित्वा दशाई षडङ्कादधो लिखेत् । ततस्तेनान्त्येन दशाङ्केनाग्रे षट्कसंख्याङ्कवता युतमुपान्त्यं पञ्चाङ्गं तुर्यमेकाक्षं च मिलित्वा द्वाविंशत्यक्षं दशाङ्कादधो लिखेत् । तेनान्त्येन द्वाविंशत्यङ्केनाने Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ संगीतरत्नाकरः किं तु प्रतिनिधित्र विद्यते तुर्यपष्ठयोः । इष्टतालद्भुतमितेष्वङ्केषु लिखितेष्विति ।। ३३६ ॥ क्रमादन्त्योपान्त्यतुर्यपष्ठैर्यत्र द्रुतादयः । मीयन्ते सर्वभेदस्थाः पातालः सोऽभिधीयते ।। ३३७ ॥ १ २ ४ २० २२ ४४ ९३ इति पाताल: दशसंख्याङ्कवता युतमुपान्त्यं दशाङ्कं तुर्ये द्वयङ्कं च मिलित्वा चतुश्चत्वारिंशङ्क मे कोनविंशत्यङ्कादधो लिखेत । तेनान्त्येन चतुश्चत्वारिंशदङ्केनाम एकोनविंशतिसंख्याङ्कवता युतमुपान्त्यं द्वाविंशत्यङ्कं तुर्ये पञ्चाङ्कं षष्ठमेकाङ्कं च मिलित्वैकनवत्यङ्कं त्रयस्त्रिंशदङ्कादधो लिखेत् । एवमुत्तरत्रापि इष्टतालद्रुतमितानङ्कान् लिखेत् । इतीष्टताल नमितेष्वङ्केषु लिखितेषु सत्सु यत्र ; अधः पङ्क्तौ, अन्त्योपान्त्यतुर्यपष्ठैः क्रमात् ज्ञेयमाह – सर्वभेदस्था द्रुतादयो मीयन्त इति । प्लुतप्रस्तारे तावदन्त्येन चतुश्चत्वारिंशदङ्कन सर्वभेदस्था द्रुता मीयन्ते । उपान्त्येन द्वाविंशत्यङ्केन सर्वभेदस्था लघवो मीयन्त इति । तुर्येण पञ्चमाङ्केन सर्वभेदस्था गुरवो मीयन्ते । पष्ठेनैकाङ्केन द्रुता मीयन्ते । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् ॥ -३३४–३३७ ॥ इति पाताल: (मु०) अथ पातालमाह – अदाविति । आदौ रूपम्, एकाङ्को लिखेत् । अथ ; अनन्तरं, संख्याङ्कसंततेः एकैकमङ्कं लिखेत् । क्रमाच्च संख्याङ्कं संततेरधोऽधः स्वपङक्तिः स्यात् । यथासंभवमन्त्यादीन् अन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठानङ्कान् समस्थानस्थितेन संख्याङ्केन सहितान् लिखेत् । किं त्विति । यथा संख्यासंततिरचने तुर्यषष्ठयोरभावे तृतीयपञ्चमयोः प्रतिनिधिरुक्तः । तथात्र नास्ति । एवं च इष्ट Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः पङ्क्ति कृत्वेष्टतालस्थद्रुतसंमितकोष्ठिकाम् || ३३८ ॥ तिरीं तत्परामूनां कोष्ठेनाथ ततः पराः । द्विद्विकोष्ठोनिताः स्वस्वपूर्वतोऽथायोजना ।। ३३९ ॥ १७९ तालो यावत् द्रुतस्तावत् संख्याङ्केषु लिखितेषु क्रमादन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठैर्यत्र द्रुतादयो मीयन्ते संख्याङ्कः संपद्यन्ते, स पाताल इति संबन्ध: । अस्य प्रस्तार: - एका दत्ते स एकः अन्त्ये संख्याङ्कश्चैकः, एवं द्वौ पुरस्ताद्देयौ । ततः संख्याङ्के त्रयम्, उपान्त्ये द्वौ एवं पञ्च देयाः । ततः संख्याङ्के षट्, अन्त्ये दश, उपान्त्ये पञ्च, तुर्य एकः, एवं द्वाविंशतिः । ततः संख्याङ्के दश, अन्त्ये द्वाविंशतिः, उपान्त्ये दश, तुर्ये द्वयम्, एवं चतुश्चत्वारिंशदिति ज्ञेयम् । षड्गुतप्रस्तारे चतुश्चत्वारिंशत् द्रुता: ; द्वाविंशतिर्लघवः, पञ्च गुरवः, एकः प्लुत इति क्रमात् अन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठैरङ्गैर्भीयन्ते ॥ -३३४–३३७॥ इति पाताल: " (क० ) दुतमेरुं लक्षयति - पङ्क्ति कृत्वेत्यादि । इष्टतालस्थद्रुतसंमितकोष्ठिकामिति । अत्रास्माकं द्रुतप्लुतात्मकस्ताल इष्टः, तत्रस्थाः द्रुताः सप्त ; तैः संमिताः कोष्ठाः यस्यां सा तथोक्ता । तिरश्चीमिति । नोर्ध्वगां नाप्यधोगताम् अपितु तिरश्चीमेव । दक्षिणगतां प्रथमं तावत्सप्तकोष्ठिकां तिरश्चीमधः पङ्क्ति कृत्वा, अथ; अनन्तरम्, तत्परां पङ्क्ति कोण्ठेन ऊनां न्यूनां; वामस्थप्रथमकोष्ठेन हीनां द्वितीयां परां पङ्क्ति षट्कोष्ठिकं कुर्यादित्यर्थः । ततः द्वितीयस्याः पङ्क्तेः पराः; तृतीयादयः पङ्क्तय: । स्वस्वपूर्वतो द्विद्विकोष्ठांनिता इति । तृतीया परपङ्क्तिः द्वितीयापेक्षया वामस्थप्रथम कोष्ठद्वयहीना सती चतुष्कोष्ठिकात्र कार्या । ततोऽपि परा चतुर्थी पङ्क्तिः पूर्ववत् द्विकोष्ठोनिता सती द्विकोष्ठ - का कार्या । उदाहरणार्थमेतावदेवोक्तम् । अतः परमपि यावदिष्टं तावदुपरि दक्षिणतश्च मेरोर्वर्धयत् । अथाङ्कयोजनेति; क्रियत इति , Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० संगीतरत्नाकर: द्वौ द्वौ तासामाद्यकोष्ठौ स्यातामेकाङ्कसंयुतौ । अस्तन्यस्तृतीयादौ विषमे कोष्ठके लिखेत् || ३४० ॥ अन्त्याद्यङ्कचतुष्कस्य योगं संख्याङ्कसंघत्रत् । समे त्वन्त्यं विनैतेषां योगं न्यस्याथ पङ्किषु ॥ ३४१ ॥ परासु शेषकोष्ठेषु चतुर्योगोऽयमिष्यते । नास्ति प्रतिनिधिस्त्वासामङ्कयोस्तुर्यषयोः ॥ ३४२ ॥ तासु स्वभावतो यास्तु निष्पन्ना ऊर्ध्वपङ्क्तयः । शेषः । तासां पङ्क्तीनां द्वौ द्वौ चाद्यकोष्ठावेकाङ्कसंयुतौ स्याताम् । अधस्तन्याः पङ्क्तेः तृतीयादौ विषमे कोष्टके संख्याङ्कसंघवत् अन्त्याङ्कचतुष्कस्य योगं लिखेदिति । तुर्यषष्ठयोरभावे तृतीयपञ्चमौ प्रतिनिधी कुर्यादित्यतिदेशार्थः । एवमधस्तन्यास्तृतीयकोष्ठे ऽन्त्योपान्त्ययोरङ्कयोर्योगं लिखेत् । समे त्विति । चतुर्थादौ समसंख्ये कोष्ठे तु, अन्त्यं विनैतेषाम् ; उपान्त्यतुर्यषष्ठानाम्, योगं न्यस्येति; अत्रान्त्याभाव एव विशेषः । एवमधस्तन्याः समचतुर्थकोष्ठे अन्त्यं द्वयङ्कं विना उपान्त्यस्यैकाङ्कस्य तुर्या - भावात् तृतीयस्यैकाङ्कस्य योगं द्वयङ्कं लिखेत । तम्या विषमे पञ्चमे कोष्ठे अन्त्योपान्त्ययोद्वर्यङ्कयोः तुर्यस्यैकाङ्कस्य च योगं पञ्चाङ्कं लिखेत् । तस्याः समे षष्ठे कोष्ठेऽन्त्यं पञ्चाङ्कं विना उपान्त्यतुर्ययोः द्वयकाङ्कयोः षष्ठाभावात् पञ्चमस्यैकाङ्कस्य च योगं चतुरङ्कं लिखेत् । तस्या वि सप्तमे कोष्ठे सोपान्त्यतुर्यषष्ठानां चतुष्पञ्चद्वयेकाङ्कानां योगं द्वादशाङ्कं लिखेत् । परास्त्वित्यादि । द्वितीयादिपरपङ्क्तिषु । शेष कोष्टेष्विति । ' तन्मध्ये तु समाकोष्ठे, इति वक्ष्यति । तदितरेषु विषमकोष्ठेव्वित्यर्थः । अयं चतुर्योग इष्यत इति; अन्त्यादीनां योग इत्यर्थः । आसां परपङ्क्तीनां संबन्धिनोः तुर्यषष्ठयोरङ्कयोः प्रतिनिधिस्तु नास्ति । तावित्यादि । तासु ; तिरश्रीषु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १८१ तन्मध्ये तु समाकोप्टेऽन्त्यस्थानेऽन्त्यादधस्तनः ॥ ३४३ ॥ अङ्कः कार्योऽथ तैरबैर्भेदसंख्याभिधीयते । विषमायामूर्ध्वपक्तौ स्थितैरबैरवः क्रमात् ॥ ३४४ ॥ पङ्क्तिषु याः स्वभावतो निष्पन्नाः । ऊर्ध्वपङ्क्तय इति । प्रथमामधःपङ्क्तिं प्रकृति कृत्वा तदूर्ध्वपक्तिकल्पनायां कृतायां प्रथमपक्तिरेककोष्ठा, द्वितीया द्विकोष्ठा, तृतीयापि द्विकोष्ठिका, चतुर्थी त्रिकोष्ठिका, पञ्चम्यपि त्रिकोष्ठिका, षष्ठी चतुष्कोष्ठिका, सप्तम्यपि चतुष्कोष्ठिका, एवमुदाहृते द्रुतमेरावूर्ध्वपङ्क्तयः सप्त भवन्ति । तन्मध्य इति ; तासामूर्ध्वपङ्क्तीनां मध्ये । समाकोष्ठ इति । समायाः समसंख्यायाः पङ्क्तेः कोष्ठे अङ्कितव्ये, अन्त्यस्थाने ; पूर्वपङ्क्तिस्थस्य अन्त्याङ्कस्य स्थाने प्रसङ्गे सति, अन्त्यादधस्तनाङ्कः कार्य इति । प्रकृते द्रुतमेरौ तिसृषूर्ध्वपङ्क्तिषु अङ्काङ्कितासु सतीषु त्रिकोष्ठिकायां चतुर्थ्यामकितव्यं मध्यमकोष्ठे अन्त्यस्यैकाङ्कस्य अधस्तनद्वयङ्कमादाय उपान्त्यमेकाकं च योजयित्वा व्यकं लिखेत । ततो विषमायाः पञ्चम्यामधःकोष्ठे अन्त्योपान्त्ययोस्त्र्य कैकाङ्कयोर्योगं चतुरई लिखेत् । ततः समायाः षष्ठया द्वितीयकोष्ठे अन्त्यादधस्तनस्य पञ्चाङ्कस्य उपान्त्यतुर्ययोस्त्र्यकैकाङ्कयोश्च योगं नवाळे लिखेत् । ततो विषमायाः सप्तम्यां द्वितीयकोष्ठे अन्त्योपान्त्यतुर्याणां नवचतुरेकाङ्कानां योगं चतुर्दशाकं लिखेत । तस्या एव तृतीयकोष्ठे अन्त्यादधस्तनोपान्त्ययोश्चतुरकैकाङ्कयोोगं पञ्चाङ्क लिखेत् । तस्या एव तुरीयकोठे अन्त्योपान्त्ययोः पञ्चैकाङ्कयोर्योगं षडकं लिखेत् । अथ तैरबैज्ञेयमाह-भेदसंख्याभिधीयत इति । भेदानां प्रस्तारगतानां तालभेदानां संख्या इयत्ता । तदेव विषयव्यवस्थया विवृणोति-विषमायामित्यादिना । अत्र विषमायां; सप्तम्याम् ; ऊर्ध्वपङ्क्तौ अधःक्रमात् ; अधस्तादारभ्य ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संगीतरत्नाकरः एकद्रुताद्या विषमञ्यादिसंख्या द्रुता भिदाः । सर्वद्रुतान्ता मीयन्ते समपङ्क्तस्थितैः पुनः ।। ३४५ ॥ द्रुतहीनादयो द्वयादिसमसंख्या द्रुता भिदाः । सर्वद्रुतान्ता ज्ञायन्ते द्रुतमेरुरयं मतः ।। ३४६ ॥ ऊर्ध्वपङ्क्तिस्थसर्वाङ्कयोगात्संख्यापि गम्यते । इनि द्रुतमेरुः इति द्रुतमेरुकोप्टकम् एकद्रुताद्या विषमत्र्यादिसंख्या द्रुताः सर्वद्रुतान्ता भिदा मीयन्त इति । अत्र आद्यस्थितेन द्वादशाङ्केन द्रुतप्लुतप्रस्तार एव दुता भेदा मीयन्ते । द्वितीयकोष्ठस्थेन चतुर्दशाङ्केन त्रिद्रुता भेदा मीयन्ते । तृतीयकोष्ठस्थेन षडकेन पञ्चद्रुता भेदा मीयन्ते । अन्त्यकोष्ठस्थेनैकाङ्केन सर्वद्रुता भेदा मीयन्ते । समपङ्क्तिस्थितैः पुनरिति । अत्र समायां पष्ठ्यामूर्ध्वपङ्क्तौ स्थितैरबैस्तु, द्रुतहीनादयो द्वयादिसमसंख्या द्रुता सर्वद्रुतान्ता भिदा ज्ञायन्त इति । षड्द्रुतात्मके प्लुतप्रस्तार द्रुतहीना भेदा अधःकोष्ठस्थेन चतुरङ्केण ज्ञायन्ते । द्वितीयकोष्ठस्थेन नवाकेन द्विद्रुता भेदा ज्ञायन्ते । तृतीयकोष्ठस्थेन पञ्चाङ्केन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १८३ चतुर्द्रता भेदा ज्ञायन्ते । अन्त्यकोष्ठस्थेनैकाङ्केन सर्वद्रुतो भेदो ज्ञायते । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । ज्ञेयान्तरमप्याह-ऊर्ध्वपङ्क्तिस्थेति ।।-३३८-३४६-।। इति द्रुतमेरुः (सु०) द्रुतमेरुं निरूपयति-पक्तिं कृत्वेति । इष्टताल: यावत् द्रुतः तावत्संख्याकैः कोष्टकैः मितां तिरश्चों पङ्क्तिं कुर्यात् । तत: परामूर्खा पङ्क्तिं प्रथमेन कोप्टेन हीनां कुर्यात् । तत: परास्तु पङ्क्तयः प्रथमतः कोप्टद्वयहीना: कार्याः, स्वस्वपूर्वपङ्क्तितः सकाशात् । एवं स्थापयित्वा इयमङ्कयोजनेत्याहद्वौ द्वाविति । तासां सर्वासां पङ्क्तीनामाद्यकोष्टद्वये एकाङ्को देयः । अधस्तन्या: पङ्क्तेः तृतीयादौ विषमे कोष्टके तृतीयपञ्चमसप्तमादौ संख्याङ्कसंघवत् अन्त्योपान्त्यतुर्यकोष्ठायोर्योगं लिखेत् । अधस्तन्याः समकोष्ठकेषु चतुर्थषष्टादिषु तु अन्त्यं विना उपान्त्यतुर्यषष्ठानां योगं लिखेत् । एवमधस्तनपङ्क्तौ अङ्कान् विलिख्य, परासु ऊर्ध्वस्थासु पङ्क्तिषु प्रथमकोष्ठद्वये एकाङ्कस्य दत्तत्वात् शेषकोष्ठकेषु अयमेव योगः। अन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठा एवं ग्राह्याः । आसां, परपङ्क्तीनां संबन्धिनो: तुर्यषष्ठयोरङ्कयो: प्रतिनिधिर्नास्ति । समकोष्टे विशेषमाह-तास्विति । तासु परासु पङ्क्तिा, तिर्यक्पङ्क्तिविरचिनेन स्वभावतः पृथक्पङ्क्तयो विधेयाः । ऊर्ध्वाङ्कानां पङ्क्तयो निष्पन्नाः । तासां मध्ये समाया: पङ्क्तेः कोप्ठे अन्त्यस्थाने अन्त्यादधस्तनोऽको ग्राह्यः । ततश्च अन्त्यादधस्तनोपान्त्यतुर्यषष्ठानां योगो लेखनीय इत्यर्थः । एवं द्रुतमेरुविरचनप्रकारमङ्कनिवेशनप्रकारं चोक्त्वा तैरज्ञेयमाह-स्थितैरिति । विषमायां प्रथमतृतीयपञ्चमादावूर्ध्वपङ्क्तौ स्थितैरबैश्च अधःकमात् अधस्तनकोष्ठमारभ्य एकद्रुतत्रिद्रुतपञ्चद्रुताद्या मीयन्ते गण्यन्ते । प्रथमकोष्ठके योऽङ्कस्तावत्संख्याक एकद्रुताद्याः । द्वितीयकोष्ठके त्रिद्रुताः । तृतीयकोष्ठके पञ्चद्रुताः । अन्त्यकोष्ठके सर्वद्रुता इत्यादि। समपङ्क्तिषु पुनः स्थितः अझैः द्रुतहीनादयः द्वयादिसमसंख्या दुता: सर्वदूतान्ता भिदा ज्ञायन्ते । प्रथमकोष्ठके एकद्रुतहीनाः, द्वितीयकोष्टके द्विद्रुतहीनाः, तृतीयकोष्टके चतुर्दुतहीनाः ; चतुर्थकोष्टके षड्द्रुतादयः । अन्त्यकोष्ठके सर्वद्रुतहीनाः । प्रसङ्गेन संख्यापरिज्ञानमाह-ऊर्खेति । ऊर्ध्वपङ्क्ति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ संगीतरत्नाकर: लघुमेरौ को पङ्क्तीः प्राग्वन्न्यस्येत्तदादिमः || ३४७ || एकैको एकाइयुक्तोऽधः पङ्क्तिकेषु तु । शेपकोष्टेष्वन्त्यतुर्य षष्ठयोगं निवेशयेत् ॥ ३४८ ॥ परासां शेष कोष्ठेषूपान्त्या स्तनसंयुतम् । त्रियोगमेवपादध्यादत्र च द्रुतमेरुवत् ॥ ३४९ ॥ स्थानां सर्वेषामङ्कानां संयोगात् संख्या परिज्ञायते गण्यते । प्रस्तारस्तु मूलग्रन्थ एव सुगमः ॥ - ३३८-३४६- ॥ इति द्रुतमेरुः (क०) अथ लघुमेरुं लक्षयति - लघुमेरावित्यादि । प्राग्वत्; द्रुतमेराविव कोष्ठपङ्क्तीर्न्यस्येत् । तदादिमः ; तासां तिरश्चीनां पङ्क्तीनाम्, आदिमः ; एकैककोष्ठ एकाङ्कयुक्तः कर्तव्यः । अधः पङ्क्तिकेषु शेषकोष्ठेषु तु ; अन तुशब्दः परपङ्क्तिशेषकोष्ठेभ्यो वैलक्षण्यं द्योतयति । अन्त्यतुर्य षष्ठयोगं निवेशयेदिति । उपान्त्यं त्यक्त्वेत्यर्थः । अत्राद्यपङ्क्तेर्द्वितीयकोष्ठे प्रथमकोष्ठगतमन्त्यमेकाङ्कं लिखेत् । तृतीयकोष्ठेऽपि द्वितीयकोष्ठगतमन्त्य - मेकाङ्कमेव लिखेत् । चतुर्थकोष्ठे त्वत्र प्रतिनिधेः सदसत्त्वे च द्रुतमेरुवदिति वक्ष्यमाणत्वात्प्रतिनिधेः सद्भावादन्त्यमेकाङ्कं तुर्याभावे तृतीयमेकाङ्कं च योजयित्वा द्वयङ्कं लिखेत् । पञ्चम कोष्ठे ऽन्त्यतुर्ययोद्वर्य कायोर्योगं व्यङ्कं लिखेत् । षष्ठकोष्ठेऽप्यन्त्यतुर्ययोस्त्र्यङ्ककाङ्कयोः षष्ठाभावे पञ्चमस्यैकाङ्कस्य च योगं पञ्चाङ्कं लिखेत् । सप्तमे कोष्ठेऽप्यन्त्यतुर्यषष्ठानां पञ्चैकैकाङ्कानां योगं सप्ताङ्कं लिखेत् । परासां पङ्क्तीनां शेषकोष्ठेषु द्वितीयादिकोष्ठेषु, उपान्त्याधस्तनसंयुतमेवं त्रियोगमादध्यादिति । द्वितीयस्याः परपङ्क्तेः द्वितीय कोष्ठे ऽन्त्यमेकाङ्कमुपान्त्याभावेऽपि तदधः कोष्ठस्य सद्भावात तत्र स्थितमेकाङ्कं च योजयित्वा द्वयङ्कं लिखेत । तृतीयकोष्ठे द्वयङ्कमन्त्य 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः सदसत्वे प्रतिनिधेः कोष्ठाकैरूलपङ्क्तिगैः । लघुहीनादुपक्रम्यैकायेकोत्तरद्धलाः ॥ ३५० ।। मुपान्त्याधस्तनमेकाक्षं च योजयित्वा त्र्यकं लिखेत् । चतुर्थकोष्ठे व्यकमन्त्यमुपान्त्याधस्तनमेकाकं च योजयित्वा चतुरङ्क लिखेत् । अत्र प्रतिनिधेरसत्वात्तुर्याभावे तृतीयो न गृह्यते । पञ्चमकोष्ठेऽन्त्योपान्त्याधस्तनतुर्याणां चतुद्वकाङ्कानां योगं सप्ताङ्क लिखेत् । षष्ठकोठेऽन्त्योपान्त्याधस्तनतुर्याणां सप्तत्रिद्वयङ्कानां योगं द्वादशाकं लिखेत् । ततस्तृतीयस्यां द्वितीयकोष्ठेऽन्त्योपान्त्याधस्तनयोरेकद्वयङ्कयोर्योग व्यकं लिखेत् । तृतीयकोष्ठेऽन्त्योपान्त्याधस्तनयोस्व्यङ्कयोर्योगं षडकं लिखेत् । चतुर्थे कोठेऽन्त्यं षडङ्कमुपान्त्याधस्तनं चतुरङ्कं च योजयित्वा दशाकं लिखेत् । ततश्चतुर्थी द्वितीयकोष्ठेऽन्त्यमेकाङ्कमुपान्त्याधस्तनं व्यकं च योजयित्वा चतुरकं लिखेत् । एवमुत्तरत्रापि यथेष्टं वर्धयेत् ॥ -३४७-३४९ ॥ (सु०) लघुमेरुं निरूपयति-लघुमेराविति । कोष्ठपङ्खीः प्राग्वत् ; द्रुतमेरुकोष्ठपङ्क्तिवत् न्यस्येत् स्थापयेत् । तासां पङ्क्तीनामेकैक: प्रथमकोष्ठः एकाङ्कयुक्तः कर्तव्यः । अध:पङ्क्तिकेषु तु शेषकोप्ठेषु अन्त्यतुर्यषष्ठानां योगं निवेशयेत् । अन्यासां पङ्क्तीनामुपान्त्यात् अधस्तनसंयुतं च त्रियोगं प्रति तुर्यषष्ठयोगमादध्यात् गृह्णीयात् । अन्त्योपान्त्याधस्तनतुर्यषष्ठयोर्योगमित्यर्थः । प्रतिनिधे: सत्त्वमसत्त्वं च द्रुतमेरुवत् । यथा द्रुतमेरौ अध:पङ्क्तौ च तुर्यषष्ठयोः प्रतिनिधिः, अन्यासु पङ्क्तिषु नास्ति, तथा लघुमेरावित्यर्थः ॥ -३४७-३४९ ॥ (क०) अत्र ज्ञेयमाह-कोष्टाङ्करित्यादि । ऊर्वपक्तिगैरिति । द्रुतमेरावुक्तप्रकारेण द्रष्टव्यम् । लघुहीनादुपक्रम्येति; अध:क्रमादित्येतदत्राप्यनुसंधेयम् । अध:पङ्क्तिकोष्ठाङ्केन द्रुतहीना भेदा ज्ञेयाः । एकाधे. कोत्तरद्धला इति। द्वितीयकोष्ठाकेनैकलघवो भेदाः ; तृतीयकोष्ठाकेन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ संगीतरत्नाकर: सर्वलान्ताः क्रमाज्ज्ञेयाः संख्या सर्वाङ्कसंगतेः । इति लघुमेरुः १ १ १ १ २ २ १ 3 १ ३ २ ४ ३ ४ ३ ५ १ ७ ५ ६ ४ १० १२ ७ ७ १ १० १८ २१ १० ५ २० ३३ ३४ १४ ८ ९ १ १५ २९ ६१ ५५ २१ १० इति लघुमेरुकोष्ठकम् ; द्विलघव: ; एवमेकोत्तरवृद्धलाः सन्तो ज्ञेयाः । सर्वलान्ता इति । अन्त्यकोष्ठाङ्केन सर्वलघवो भेदा ज्ञेया इति प्रकृते द्रुतप्लुत प्रस्तारे सप्तम्या ऊर्ध्वपङ्क्तेरधः कोष्ठम्थेन सप्ताङ्केन लघुहीना भेदा ज्ञेयाः ; द्वितीयकोष्ठस्थेन द्वादशाङ्केनैकलघवो भेदा ज्ञेया:; तृतीयकोष्ठस्थेन दशाङ्केन द्विलघवो भेदा ज्ञेयाः; अन्त्य काष्ठस्थेन चतुरङ्केण सर्वलघवो भेदा ज्ञेया इति सर्वत्र द्रष्टव्यम् । ज्ञेयान्तरमप्याह — संख्या सर्वाङ्कसंगतेरिति ॥३५०, ३५० ॥ इति लघुमेरुः (सु०) लघुमेरोर्ज्ञेयं कथयति — कोष्ठाङ्गैरिति । ऊर्ध्वपङ्क्तिगैः ; ऊर्ध्वपङ्क्तिस्थितैः, कोष्ठाकैः ; अधः कोष्टमारभ्य, द्रुतादयो भेदा ज्ञेयाः । अन्तेषु सर्वलघ्वन्ताः सर्वाङ्गमेलनात्संख्यापरिज्ञानं चानुषङ्गात्सिध्यति ॥ ३५०,३५०-॥ इति लघुमेरु : Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पञ्चमस्तालाध्यायः गुरुमेरावधःपङ्क्तेः परा कोष्ठत्रयोनिता ॥ ३५१ ॥ चतुश्चतुष्कोष्ठहीनाः स्वस्वपूर्वावलेः पराः । एकाङ्कचन्त आद्याद्यकोष्ठाः प्रथमपङ्क्तिगः ॥ ३५२ ।। द्वितीयो द्वयङ्कवानन्त्योपान्त्यपष्टाङ्कयोगिनः । शेषकोष्ठाः परासां तु द्वितीयादिषु लिख्यते ॥ ३५३ ।। (क०) अथ गुरुमेरुं लक्षयति-गुरुमेरावित्यादि । अधःपङ्क्तेः परा; द्वितीयपक्तिरधःपङ्क्त्यपेक्षया कोष्ठत्रयोनिता कर्तव्या । पराः; तृतीयादयः । स्वस्वपूर्वावलेश्चतुष्कोप्टहीना इति ; कर्तव्या इति शेषः । अत्रोदाहरणार्थमधःपङ्क्तिः समकोष्ठिका कार्या, तत्परा द्वितीयाध:पङक्तेः कोष्ठत्रयं हित्वा ततः चतुर्थ्यादिकोष्ठैः समानकोष्ठा लेखनीया । तदा स्वयं चतुष्कोष्ठा भवति । आद्याद्यकोष्ठा इति । सर्वासां पङ्क्तीनामाद्यकोष्ठा एकाङ्कवन्तः कार्याः । प्रथमपक्तिगो द्वितीयः कोष्ठो द्वयकवान् कार्यः । शेषकोष्ठा इति । अध:पङ्क्तेस्तृतीयादयः कोष्ठाः । अन्त्योपान्त्यषष्ठाङ्कयोगिन इति । तुर्य मुक्त्वेत्यर्थः । एवमधःपङ्क्तेस्तृतीयकोठेऽन्त्योपान्त्ययोद्वर्यकैकाङ्कयोर्योगं व्यकं लिखेत् । चतुर्थकोष्ठेऽन्त्योपान्त्ययोद्वर्यकव्यङ्कयोर्योगं पञ्चाकं लिखेत् । अत्र तुर्यस्यानुपादेयत्वात प्रतिनिधित्वेनैकाङ्को न गृह्यते । ततः पञ्चमे कोष्ठे अन्त्योपान्त्ययोः पञ्चव्यङ्कयोयोगमष्टाकं लिखेत् । षष्ठे कोष्ठेऽन्त्योपान्त्ययोरष्टाङ्कपश्चाङ्कयोः षष्ठाभावे पञ्चमस्यैकाङ्कस्य च योगं चतुर्दशाकं लिखेत् । सप्तमे कोष्ठेऽन्त्योपान्त्यषष्ठानां चतुर्दशाष्ट्रकाङ्कानां योगं त्रयोविंशत्यकं लिखेत् । परासां विति । परासां; द्वितीयादीनां पङ्क्तीनां द्वितीयादिषु कोष्ठेष्वधस्तुर्याङ्कसंयुत इत्यर्थः । अन्त्योपान्त्यपष्ठानां योगो लिख्यत इति । द्वितीयस्याः परपङ्क्तेः द्वितीयकोष्ठेऽन्त्यमेकाझं तुर्याधस्तनमेकाकं च योजयित्वा द्वयकं लिखेत् । तृतीयकोष्ठेऽन्त्योपान्त्यतुर्याधस्तनानां द्विद्वयेकाकानां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ संगीतरत्नाकरः योगोऽन्त्योपान्त्यषष्टानामधस्तुर्याकसंयुतः । लघुस्थाने गुरुज्ञेयः शेषं तु लघुमेरुवत् ॥ ३५४ ।। इति गुरुमेरुः इति गुरुमेरुकोष्ठकम् योगं पञ्चाकं लिखेत् । चतुर्थकोष्ठेऽन्त्योपान्त्यतुर्याधस्तनानां पञ्चद्विव्यङ्कानां योगं दशाकं लिखेत् । ततोऽप्येवं वर्धयेत् । अत्र ज्ञेयमाह-लघुस्थाने गुरुर्जेय इति । गुरुहीनादुपक्रम्यैकायेकोत्तरवृद्धगाः सर्वगान्ता इत्यूहनीयम् । यथा द्रुतप्लुतप्रस्तारे तावद्रुमेरौ सप्तम्या ऊर्ध्वपङ्क्तेरध:क्रमात्प्रथमकोष्ठस्थेन त्रयोविंशत्यकेन गुरुहीना भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयकोष्ठस्थेन दशाङ्केकगुरवो भेदा ज्ञेयाः । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । शेपं तु लघुमेरुवदिति । अध:पङ्क्तौ प्रतिनिधेः सत्त्वं, परपङ्क्तिपु प्रतिनिधेरसत्वं सर्वाङ्कसंगतेः संख्या च ज्ञेयमित्यतिदेशार्थः ॥ -३५१-३५४ ॥ इति गुरुमेरुः (सु०) गुरुमेरुं निरूपयति--गुरुमेराविति । अधःपङ्क्तेः ; इष्टतालद्रुतप्रमाणकोष्ठकान् विधाय, परा; द्वितीया पङ्क्तिः, तस्याः सकाशादुपरि प्रथमकोष्ठत्रयमेव कर्तव्याः । अन्यासु पूर्वपङ्क्तिषु चतुर्भि: कोष्ठकै: न्यूना: कार्याः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ पञ्चमस्तालाध्याय: प्लुतमेरावधःपङ्क्तेः पञ्चकोष्ठोनिता परा । तत्पराः स्वस्त्रपूर्वातः षट्पदकोष्ठोनिता मताः ।। ३५४ ॥ अधःपङ्क्तौ तु षष्ठाङ्कस्थाने तुर्य नियोजयेत् । अङ्कविन्यासप्रकारमाह-एकाङ्केति । सर्वासां पङ्क्तीनाम् , आद्याद्यकोष्ठा ; वन्त: एकाङ्क: कार्याः । प्रथमपङ्क्तिगः द्वितीयः कोष्ठः द्वयङ्कवान् ; द्वयङ्कयुक्तः कार्यः । प्रथमपङ्क्तेः अन्ये कोष्टाः, अन्त्योपान्त्यषष्टाङ्कयोगिनः ; अन्त्योपान्त्यषष्ठानाम् , अधःपङ्क्तिः तुर्याङ्कसंयुतः यो लेखनीयः। अन्यासां पङ्क्तीनां द्वितीयादिकोष्ठकेषु चतुर्थोङ्काऽधस्तनाङ्कसहितः, अन्त्योपान्त्यषष्ठानां योगो लेख्य: । लघुस्थाने गुरुः । अन्यत् लघुमेरुवत् । प्रतिनिधेः सत्त्वात् , ऊर्ध्वपङ्क्तौ अध:कोष्ठे गुरुहीनाः, द्वितीयकोष्ठे एकगुरवः । तृतीयादिकोष्ठे द्वयादिगुरवः । अन्त्यकोष्ठे सर्वगुरव इति सर्वाङ्कसंगते: संख्यापरिज्ञानमित्यादिलघुमेरुवज्ज्ञेयम् ॥ -३५१-३५४ ॥ इति गुरुमेरुः (क०) अथ प्लुतमेरुं लक्षयति-प्लुतमेरावित्यादि । अधःपङ्क्तेः परा तदपेक्षया पञ्चकोष्ठोनिता कार्या । अत्राप्यधःपङ्क्तिं सप्तकोष्ठिकां कृत्वा तत्परां पक्तिं तस्याः षष्ठ्यादिकोष्ठैः समानकोष्ठां लिखेत् । सात्र द्विकोष्ठा भवति । तत्पराः; तृतीयादयः पङ्क्तयः ; स्वस्वपूर्वातः ; द्वितीयादेः पङ्क्तेः । षट्पट्कोष्ठोनितामता इति । तृतीया पङ्क्तिः द्वितीयपङ्क्तेः षट्कोष्ठोनिता कार्या । तथा चतुर्थी पङ्क्तिः तृतीयपङ्क्तेः षट्कोष्ठोनिता कार्या । एवं पञ्चम्यादीर्यथेष्टं लिखेत् । अथाङ्कलेखनमाह-अध:पङ्क्तो वित्यादि । षष्ठाङ्कस्थाने तुर्य नियोजयेदिति । अधःपड़तौ; षष्ठं त्यजेदित्यर्थः । शेषं तु गुरुमेरुवदित्यतिदेशे कावन्त आद्याद्यकोष्ठा इति, प्रथमपक्तिगो द्वितीयो द्वयङ्कवानिति, अध:पङ्क्तौ प्रतिनिधेः सत्त्वम् । परपङ्क्तिषु ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० संगीतरत्नाकरः त्रियोगोऽयमधः षष्ठयुक्तः स्यात्परपङ्क्तिषु ॥ ३५५ ॥ प्लुतो ज्ञेयो गुरुस्थाने शेषं तु गुरुमेरुवत् । इति प्लुतमेरुः . इति प्लुतमेरुकोष्ठकम् तदभावात् ' संख्या सर्वाङ्कसंगतेः' इत्येतत्सर्वमनुसंधेयम् । तेनाध:पङ्क्तौ प्रथमकोष्ठ एकाई लिखेत् । द्वितीय द्वयकं लिखेत् । तृतीयोपान्त्ययोर्द्वयकै. काङ्कयोर्योगं व्यकं लिखेत् । चतुर्थेऽन्त्योपान्त्ययोद्वर्यङ्कयोस्तुर्याभावे तृतीयस्यैकाङ्कस्य च संयोगं षडकं लिखेत् । पञ्चमेऽन्त्योपान्त्यतुर्याणां षट्व्येकाकाणां योगं दशाङ्क लिखेत् । षष्ठकोष्ठेऽन्त्योपान्त्यतुर्याणां दशषड्व्यङ्कानां योगमष्टादशाकं लिखेत् । सप्तमेऽप्यन्त्योपान्त्यतुर्याणामष्टादशव्यङ्काणां योगमेकत्रिंशदकं लिखेत् । द्वितीयस्यां परपङ्क्तौ द्वितीयकोठेऽन्त्यस्यैकाङ्कस्य षष्ठाधस्तनस्यकाङ्कस्यैव योगं द्वयकं लिखे । अत्र ज्ञेयमाह-प्लुतो ज्ञेयो गुरुस्थान इति । प्लुतहीनादुपक्रम्येत्याग्रुहनीयम् । तेनात्र द्रुतप्लुतप्रस्तारे तावत्प्लुतमेरौ सप्तम्यामूर्ध्वपङ्क्तेरध:क्रमात्प्रथमकोष्ठस्थेनैकोत्तरत्रयस्त्रिंशदकेन प्लुतहीना भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयकोष्ठस्थेन दशाङ्केन एकगुरवो भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयकोष्ठस्थेन द्वयकेनैकप्लुतौ भेदौ ज्ञेयौ । एवं सर्वत्र प्रस्तारेषु द्रष्टव्यम् ॥ ३५५, ३५६- ॥ इति प्लुतमेरुः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यमस्तालाध्यायः संयोगमेरादूर्ध्वाः स्युश्चतस्रः कोष्ठपङ्क्तयः || ३५६ ।। इष्टतादुतमितैः कोष्ठैर्युक्तास्ततः परे । द्वे पङ्क्ती स्वस्वपूर्वातो द्विद्विकोष्ठोतेि ततः ॥ ३५७ ॥ १९१ (सु० ) प्लुतमेरुं निरूपयति - प्लुतमेराविति । प्रथमपङ्क्तिः इष्टतालद्रुतमिता पूर्ववत् । ततः सकाशात् द्वितीयपङ्क्ति: पञ्चकोष्ठोनाः कर्तव्या: । अन्त्यासु पङ्क्तिषु स्वकीयपूर्वपूर्वपङ्क्तितः षट्कोष्ठोनिताः कार्याः । अङ्कविन्यासमाह — अधः पङ्क्ताविति । गुरुमेरुवत्सर्व लक्षयति---तत्र षष्ठाङ्कस्थाने तु चतुर्थी योज्यते । ततश्च अधः पङ्क्तौ अन्त्योपान्त्यतुर्याणां योगो लेख्यः । परासु पङ्क्तिषु अधः षष्ठयुक्तः, अयमेव त्रियोगो लेख्यः । अन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठाधस्तनपङ्क्तीनां योगो लेख्य इत्यर्थः । गुरुस्थाने प्लुतः । अन्यद् गुरुमेरुवत् । अधः पङ्क्तौ तुर्यषष्ठयोः प्रतिनिधि: ; अन्यासु परपङ्क्तिषु प्रतिनिधिर्नास्ति । अधः कोष्ठके प्लुतहीना: ; द्वितीयकोष्ठके प्लुता: ; तृतीयादिकोष्ठके त्र्यादिप्लुता: ; अन्त्यकोष्ठके सर्वप्लुता इति ज्ञेयाः ॥ ३५५, ३५६- ॥ इति प्लुतमेरु: (क० ) अथ संयोगमेरुं लक्षयति--संयोग मेरा विति । ऊर्ध्वाः चतस्रः कोष्टषङ्क्तयः इष्टतालद्भुतमितैः कोष्ठैर्युक्ताः स्युरिति । प्रथमं तावत् मेरुस्वरूपनिप्पत्तिप्रदर्शनार्थे प्रत्येकं त्रयोदशकोष्ठयुक्ताः चतस्रः कोष्ठपङ्क्तीः ऊर्ध्वत आरभ्य लिखेत् । ततः परे; दक्षिणभागे । स्वस्वपूतो द्विद्विकोष्ठोनिते द्वे पङ्क्ती इति । अत्र प्रथमेन स्वशब्देन लेखनीया पङ्क्तिरुच्यते । तस्याः पूर्वा चतुर्थी पङ्क्तिस्तदपेक्षया पञ्चमी द्विकोष्ठोfaar कार्या । तदा असौ पङ्क्तिः एकादशकोष्ठिका भवति । द्वितीयस्वशब्देन षष्ठी पक्तिरुच्यमे । तस्याः पूर्वा पञ्चमी पङ्क्तिः, तदपेक्षया षष्ठी द्विकोष्ठोनिता कार्या । तदा असौ नवकोष्ठिका भवति । अत्र न्यून Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ संगीतरत्नाकरः द्वे षष्ठया एककोष्ठोने ततस्तिस्रोऽष्टमावलेः । एककोष्ठोनिताः पश्चाद द्विद्विकोष्ठोनिते परे ॥ ३५८ ॥ पङ्क्तिभ्यां स्वस्वपूर्वाभ्यां तथैकेकोनिते परे । त्वमूवोलकोष्ठपरित्यागेन द्रष्टव्यम् । ततोऽनन्तरं द्वे पङ्क्ती सप्तम्यष्टम्यौ, षष्ठयाः षष्ठपङ्क्त्यपेक्षयैककोष्ठोने कार्ये । तदा ते प्रत्येकमष्टकोष्ठ के भवतः। ततः; अनन्तरं तिस्रो नवमीदशम्येकादश्यः पङ्क्तयः, अष्टमावलेः; अष्टमपङ्क्त्यपेक्षया एककोष्ठोनिताः कार्याः । तदा ताः प्रत्येक सप्त कोष्ठिका भवन्ति । पश्चात् ; अनन्तरं परे द्वादशीत्रयोदश्यौ पङ्क्ती, स्वस्वपूर्वाभ्यां पड़क्तिभ्याम् ; एकादशीद्वादश्यपेक्षयेत्यर्थः । द्विद्विकोष्ठोनिते इति । एकादश्यपेक्षया द्वादशी द्विकोष्ठोनिता कार्या; तदा असौ पञ्चकोष्ठिका भवति । तदा त्रयोदश्यपि द्वादश्यपेक्षया द्विकोष्ठोनिता कार्या ; तदा असौ त्रिकोष्ठिका भवति । परे; चतुर्दशीपञ्चदश्यौ पङ्क्ती । तथेति; स्वस्वपूर्वाभ्यामित्यर्थः । एकैकोनिते इति । त्रयोदश्यपेक्षया चतुर्दश्येककोष्ठोनिता कार्या ; तदा असौ द्विकोष्ठिका भवति । तदपेक्षया पञ्चदश्यप्येककोष्ठोनिता कार्या ; तदा असौ एककोष्ठा भवति । एवं पञ्चदश पङ्क्तयो भवन्ति । अतः परमेता एव यथेष्टमधो वर्धनीयाः ॥-३५७, ३५८-॥ (सु०) संयोगमेरुं निरूपयति-संयोगमेराविति । ऊर्ध्वाध:क्रमेण इष्टताल द्रुतमितसंख्याकैः चतस्रः कोष्ठपङ्क्तयः कर्तव्याः । अङ्कान्तरलेखनप्रकारमाह-तत: परे इति । द्वे पङ्क्ती द्वितीयचतुर्थपङ्क्तिः , पञ्चमषष्ठपङ्क्तिश्च, स्वस्वपूर्वात: ; स्वकीयपूर्वपूर्वपक्तित:, द्विद्विकोष्ठोनिते ; द्वाभ्यां द्वाभ्यां कोष्टाभ्यां न्यूने कार्ये । तत:; अनन्तरम् , षष्ठया:; षष्ठपङ्क्ते: सकाशात् ; एककोठोने ; प्रत्येकमेककोष्ठेन न्यूना कर्तव्या । तत: अनन्तरम् , अष्टमावले: अष्टमपङ्क्तेः सकाशात्, तिस्रः पङ्क्तयः, नवमदशमैकादशपङ्क्तयः एककोष्ठोनिता: कार्याः । पश्चात् , अनन्तरम् , परे द्वादशीत्रयो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १९३ आद्यासु चतसृष्वासां क्रमेण सकलद्रुताः ॥ ३५९ ॥ समस्तलघवः सर्वगुरवः सकलप्लुताः । दश्यौ पङ्क्ती द्विद्विकोष्ठोनिते, प्रत्येकं द्विद्विकोष्ठोनिते कार्ये । तथा परे; चतुर्दशीपञ्चदश्यौ पङ्क्ती, स्वस्वपूर्वाभ्यां पङ्क्तिभ्यां एकैकौनिते कर्तव्ये ॥ -३५७-३५९- ॥ (क०) अथोर्ध्वपङ्क्तीनां दूतादिनियमं तत्तत्कोष्ठेषु लेखनीयाङ्कनियम च तत्र वक्तुमारभते-आद्यास्वित्यादिना। आसां पञ्चदशीनां मध्ये, आद्यासु चतसृषु ऊर्ध्वपङ्क्तिषु क्रमेण प्रथमादिक्रमेण सकलद्रुताः ; प्रथमपङ्क्तौ सकलद्रुता भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयपङ्क्तौ समस्तलघवो भेदाः । तृतीयपङ्क्तौ सर्वगुरवो भेदाः । चतुर्थपङ्क्तौ सकलप्लुता भेदाः । अत्र प्रथमं तावत्सुखेन द्रुतादिपङ्क्तिभेदपरिज्ञानाय पञ्चदशोर्ध्वपङ्क्तिकोष्ठकेषु ऊर्ध्व प्रथमादिक्रमेण द्रुतादीन् , तद्वियोगं, त्रियोगं, चतुर्योगं च लिखेत् । प्रथमायां द्रुतम् , द्वितीयायां लघुम् , तृतीयायां गुरुम् , चतुर्छा द्रुतम् , पञ्चम्यां दलौ, षष्ठयां दगौ, सप्तम्यां दपौ, अष्टम्यां लगौ, नवम्यां लपौ, दशम्यां गपौ, एकादश्यां दलगान् , द्वादश्यां त्रयोदश्यां च दगपान् , चतुर्दश्यां लगपान् , पञ्चदश्यां दलगपांश्च दक्षिणसंस्थान् लिखेत् । आस्वेवोर्ध्वपक्तिषु त्रयोदशतिर्यक्पङ्क्तयः संभवन्ति । 'तावद् द्रुतोऽत्र तालः स्यात्पङ्क्तिर्यावतिथी परः' इति वक्ष्यमाणत्वात्तिर्यक्पङ्क्तिषु तालभेदपरिज्ञानाय तत्पङ्क्तिवामभागे तूपरिष्टादारभ्येकैकद्रुतवर्धितान् द्रुतादीन् तालभेदान् लिखेत् । प्रथमे तिर्यवपङ्क्तौ द्रतम् , द्वितीयस्यां लघुम् , तृतीयस्यां लघुद्रुतौ, चतुर्थ्यो गुरुम् , पञ्चम्यां गुरुद्रुतौ, षष्ठयां प्लुतम् , सप्तम्यां प्लुतद्रुतौ, अष्टम्यां प्लुतलघू , नवम्यां प्लुतलघुद्रुतान् , दशम्यां प्लुतगुरू, एकादश्यां प्लुत Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ संगीतरत्नाकर: एकाङ्कयुक्त निःशेष कोष्ठाद्या स्यात्परा पुनः || ३६० ॥ वयुक्तैर्विषमैः कोष्ठैः समैस्त्वेकाङ्कसंयुतैः । कर्तव्या गुरुपङ्क्तेस्तु त्रयः कोष्ठा नभोन्त्रिताः || ३६१ ॥ तुर्य एकाने 'चतुष्कोष्ठाः परा अपि । गुरुद्भुतान्, द्वादश्यां प्लुतौ, त्रयोदश्यां प्लुतौ द्रुतं च वामसंस्थान् लिखेत् । तत्रोर्ध्वपङ्क्तिष्वाद्या पङ्क्तिः ॥ - ३५९, ३५९ ॥ (सु०) प्रथमपङ्क्तिचतुष्टये ज्ञेयमाह - - आद्या स्विति । आसां ; पङ्क्तीनां मध्ये, आद्यासु चतसृषु; चतुर्थपङ्क्तिषु क्रमेण सकलद्रुताः; सकलद्रुतादयो भेदा ज्ञातव्याः । प्रथमपङ्क्तौ सकला द्रुता भेदाः, द्वितीयपङ्क्तौ सकला लघवः, तृतीयपङ्क्तौ सकला गुरवः, चतुर्थपङ्क्तौ सकलाः प्लुता इति ॥-३५९, ३५९-॥ " " (क० ) एकाङ्कयुक्त निःशेष कोष्टाद्या स्यादिति । तस्यास्त्रयोदशसु कोष्ठेष्वेकाङ्कानेव लिखेत् । परा पुनरिति । द्वितीया तु विषमैः प्रथमतृतीयपञ्चम्यादिभिः कोष्ठैः खयुक्तैः बिन्दुयुक्तैः समैस्तु द्वितीयचतुर्थपष्ठादिभिः कोष्ठैस्तु एकाङ्कसंयुतैरुपलक्षिता कर्तव्येति । द्वितीयपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे बिन्दुम् । द्वितीयकोष्ठ एकाङ्कम् । तृतीयकोष्ठे बिन्दु, चतुर्थकोष्ठेऽप्येकाङ्कमित्येवमेकान्तरितत्वेन लिखेत् । गुरुपङ्क्तेस्त्विति । तृतीयपङ्क्ते - स्त्वाद्यास्त्रयः कोष्ठा नभोन्विताः बिन्दुयुक्ताः कर्तव्याः । तुर्यश्चतुर्थः कोष्ठ एकावान् । एवं परा अपि चतुष्कोष्ठा इत्यत्र वीप्सा द्रष्टव्या । तेन तुर्याष्टमद्वादशषोडशादीन् बिन्दुकोष्ठान्तरितत्वेनैकाङ्कयुक्तान् लिखेदित्यर्थः ॥ -३६०, ३६१- ॥ 1 चतुष्कोष्ठय इति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः प्लुतपङ्क्तौ सशून्याः स्युः पञ्च पष्ठस्तु रूपवान् ॥ ३६२ ॥ 'षट्कोष्ठास्तद्वदन्ये स्युः षट्सु पक्तिष्वनन्तरम् । द्वियोगजाः क्रमाझेदा दलघू दगुरू दपौ ॥ ३६३ ॥ लगौ लपौ गपौ चेति तदङ्कप्रक्रिया त्वियम् । (सु०) एतासु चतसृषु पङ्क्तिषु अङ्कविन्यासप्रकारमाह-एकाङ्केति । एकाङ्कयुक्तनि:शेषकोष्ठा इति; एकाङ्केन युक्तानि निःशेषाणि सर्वाणि कोष्ठानि यस्याः । एवंविधा आद्या पङ्क्तिर्भवेत् । परा द्वितीया पङ्क्तिः पुन:, विषमैः ; प्रथमतृतीयपञ्चमादिकोष्ठकैः, खयुक्तैः ; शून्ययुक्तैः, समैः कोष्ठैः ; द्वितीयतुर्यषष्ठादिभिः, एकाङ्कसंयुतैः उपलक्षिता भवेत् । तृतीया या गुरुपङ्क्तिः, तस्यास्तु त्रय: कोष्ठा नभोन्विता: ; नभसा शून्येन अन्विताः कर्तव्याः । तुर्यः ; चतुर्थकोष्ठः, एकाङ्कवान् ; एकाङ्कयुक्तः कार्यः । एवं परा अपि चतुष्कोष्ठयः; चतुर्णो कोष्ठानां समाहारः चतुष्कोष्ठयः, ते त्रिषु कोष्ठेषु शून्ययुक्ताः, चतुर्थे तु एकाङ्कयुक्ता इत्यर्थः ॥ -३६०, ३६१- ॥ (क०) प्लुतपङ्क्ताविति । चतुर्थपङ्क्तावाद्याः पञ्च कोष्ठाः सशून्याः सबिन्दवः स्युः । षष्ठः कोष्ठस्तु रूपवान् ; रूपमिति गणकपरिभाषयैकमुच्यते । यथा 'रूपाग्रसप्तविंशतिः' इति तेषां वाक्येऽभिधानात् । तेनैकाङ्कवानित्यर्थः । अन्ये पदकोष्ठास्तद्वत्स्युरिति । षष्ठद्वादशाष्टादशादीनेकाङ्कवतो लिखेत् । इतरान् बिन्दुयुक्तान् लिखेदित्यर्थः । षट्सु पङ्क्तिप्वनन्तरमिति ग्रन्थो व्याख्यातचरः । तासु षट्पङ्क्तिप्वङ्कलेखनप्रकारं वक्तुमाह-तदकमक्रियेति ॥ -३६२, ३६३- ॥ (सु०) चतु• प्लुतपङ्क्तौ पञ्च आद्या: कोष्ठाः ; सशून्याः; शून्यसहिताः कार्या: । षष्ठस्तु रूपवान् ; एकाङ्कयुक्तः कार्यः । अन्या अपि षट्कोष्ठय इति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ संगीतरत्नाकरः अत्रोपरिष्टादारभ्य स्यादधोऽधोऽङ्कलेखनम् ॥ ३६४ ॥ अन्त्यपूर्व द्वितीयाङ्कतुर्यपष्ठास्तथा क्रमात् । योज्या दलगपेषु स्युस्तेषु तद्योगजा भिदाः ।। ३६५ ॥ पङ्क्तौ तदङ्कयोगाङ्कं तत्कोष्ठे संभवाल्लिँखेत् । षट्कोष्टयः तद्वत् । पञ्चसु कोष्ठेषु शून्ययुक्ताः, कोष्ठके कोष्ठके एकाङ्कयुक्ता इत्यर्थः । अनन्तरं षट्सु पङ्क्तिषु द्वियोगजाः भेदा: क्रमात् ज्ञेयाः । दलघू ; द्रुतलघू पञ्चम्यां पङ्क्तौ ; दगुरू ; द्रुतगुरू षष्ठयां पङ्क्तौ ; दपौ; द्रुतप्लुतौ सप्तम्यां पङ्क्तौ ; लगौ; लघुगुरू अष्टम्यां पङ्क्तौ ; लपौ; लघुप्लुतौ नवम्यां पङ्क्तौ ; पगौ; प्लुतगुरू दशम्यां पङ्क्ताविति । एतासु पञ्चम्यादिषु षट्सु पङ्क्तिषु अङ्कविन्यासप्रकारं प्रतिज्ञाय शेषपूर्वकमाहतदङ्केति ॥ -३६२, ३६३- ॥ (क०) अत्राङ्कलेखने पूर्वमेरुभ्यः प्रकारभेदं दर्शयति-अत्रोपरिटादारभ्येति । अन्त्यपूर्वेत्यादि । अन्त्यपूर्वद्वितीयाद्याः, द्वितीयतुर्यषष्ठाङ्काः क्रमाद्योज्या इति । अयमर्थः-अत्र पञ्चम्यां पूर्वपङ्क्तावन्त्यपूर्वद्वितीयो योज्यः । षष्ठ्यामूर्ध्वपङ्क्तावन्त्यपूर्वस्तुयों योज्यः । सप्तम्यामन्त्यपूर्वः षष्ठः । अष्टभ्यां द्वितीयपूर्वस्तुर्यः । नवम्यां तृतीयपूर्वः षष्ठः । दशम्यां तुर्यपूर्वः षष्ठः । तथा तद्योगजा भिदाः । अन्त्यादियोगजा भेदाः । तेषु दलगपेषु दलगपङ्क्तिकोष्ठाङ्केषु । क्रमाद्योज्याः स्युरिति । यथायोगं योजनीया इत्यर्थः । पङ्क्ताविति । पञ्चम्यादिपङ्क्तौ तदङ्कयोगाकं पूर्वोक्तं तत्तदकयोगनिष्पन्नमङ्कम् । तत्कोष्ठ इति । तत्तत्पङ्क्तिकोष्ठे । संभवाल्लिँखेदिति । संभवशब्दार्थस्तूत्तरत्र प्रपञ्चयिष्यते । सोऽपि तत्रैवावगन्तव्यः ॥-३६४,३६५-॥ (सु०) उपरिष्टात् , आरभ्य अधोऽध: अङ्का लेखनीयाः । अन्त्यपूर्वेति । अन्त्यः पूर्वो येषां ते अन्त्यपूर्वे, तथाविधा: द्वितीयाङ्कतुर्यषष्ठा: दलगपेषु यद्योगजा इति सुधाकरपाठः. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १९७ लेख्यपङ्क्त्युपरिश्रेणी या तिरची तदाश्रिताः || ३६६ ॥ अङ्का दलगपानां स्युराद्यपङ्क्तिचतुष्टये । तेषु प्रस्तुतभेदस्यद्रुतादिव्यक्तिसंश्रितान् || ३६७ ।। अङ्कान्गृह्णीत तेऽप्यन्त्यद्वितीयाद्या द्रुतादिषु । प्रस्तुतेषु विपर्यस्ताः स्युरङ्कासंभवे तु खम् || ३६८ ।। तलघुगुरुप्लुतेषु यथाक्रमं योज्याः । द्रुते अन्त्याङ्गः, लघौ द्वितीयाङ्कः, गुरौ तुतीयः, प्लुते षष्ठ इति । तेषु यद्योगजा भिदाः ; यद्योगात् जाता भेदा:, तेषामङ्कानाम्, पङ्कौ पञ्चम्यादिपङ्क्तौ तदङ्कयोगाङ्कम् ; पूर्वोक्ततत्तदङ्कयोगनिष्पन्नमङ्कम्, तत्कोष्ठे ; तत्तत्पङ्क्तिकोष्ठे, यथासंभवं लिखेत् । द्रुतलघुप्लुतपङ्क्तौ अन्त्यद्वितीययोगः, द्रुतगुरुपङ्क्तौ अन्त्यस्तुर्ययोगः, द्रुतलघुपङ्क्तौ अन्त्यष्टयोगः, लघुगुरुपङ्क्तौ द्वितीयतुरीययोगः, लघुप्लुतपड़तौ द्वितीयषष्ठयोगः, गुरुप्लुतपङ्क्तौ चतुर्थषष्टयोग इति ॥ - ३६४, ३६५-॥ (क०) लेख्यपङ्क्तीत्यादि । आद्यपङ्क्तिचतुष्टय ऊर्ध्वभूते दलगपपङ्क्तिचतुष्टये तिरची या लेख्यपङ्क्युपरिश्रेणीत्यनेन लेख्यपङ्क्तेरपि तिरश्चीत्वं मन्तव्यम् । तदाश्रिताः ; उपरिश्रेणीमाश्रिता ये दलगपानामङ्काः स्युः तेष्वङ्केषु | प्रस्तुतभेदस्थद्रुतादिव्यक्तिसंश्रितानिति । प्रस्तुतभेदा दलादिद्वियोगजाः तत्रस्था द्रुतादय:, तेषां व्यक्तीः संश्रिता इति तथोक्ताः तानङ्कान्गृह्णीत । तेऽपीति ; आद्यपङ्क्तिचतुष्टयगतद्रुतादिव्यक्तिसंश्रिता अङ्काः प्रत्यवमृश्यन्ते तच्छब्देन ; अपिशब्दः समुच्चयार्थो भिन्नक्रमश्च । अन्त्यद्वितीयाद्या इति । दुतादिषु द्वियोगभवेषूपक्रान्तेषु सत्सु । विपर्यस्ता इति । परस्परं व्यवहितपङ्क्तिकोष्ठस्था इत्यर्थः । लेख्यपङ्क्त्युपरिश्रेणीत्यत्र संनिहिताया एव पङ्क्तेर्विवक्षितत्वात्तद्विपर्यासोऽत्र व्यवहितत्वम् । तेन यथाभूता अप्यङ्काः क्वचिदव्यवधानासंभवेऽपि योज्या स्युः । अङ्कासंभवे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ संगीतरत्नाकरः त्विति । संनिहितोपरिपङ्क्तिगतानां विपर्यस्तानां वा प्रस्तुतद्रुताद्यङ्कानामसंभवे सति तु खं लिखेत् । उक्तप्रकारेण द्वियोगपङ्क्तिकोष्ठेष्वङ्कलेखनमुच्यते । तत्र दलपङ्क्तावाद्यकोष्ठे तदूर्ध्वतिर्यक्पङ्क्तिगतदलाको संयोज्य द्वयकं लिखेत् । द्वितीयकोष्ठेऽन्त्यं द्वयङ्कमुपरिपङक्तिगतद्रुताङ्कस्यैव संभवात्तेन संयोज्य व्यकं लिखेत् । तृतीयकोष्ठेऽन्त्योपान्त्यौ त्रिद्वयकावुपरिपङ्क्तौ दलाङ्कयोः संभवात्ताभ्यां संयोज्य सप्ताझं लिखेत् । एवं सर्वत्र संभवशब्दार्थों द्रष्टव्यः । चतुर्थादिकोष्ठेप्वन्त्योपान्त्यौ यथासंभवं दलाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवं चतुर्थकोष्ठ एकादशाङ्कम् । पञ्चमकोष्ठे विंशत्यङ्कम् । षष्ठकोष्ठे द्वात्रिंशदङ्कम् । सप्तमकोष्ठे चतुष्पञ्चाशदङ्कम । अष्ठमकोष्ठे सप्ताशीत्यङ्कम् । नवमकोष्ठे त्रिचत्वारिंशदुत्तरशताङ्कम् । दशमकोष्ठ एकत्रिंशदुत्तरद्विशताङ्कम् । एकादशे कोष्ठे षट्सप्तत्युत्तरत्रिशत्यकं च लिखेत् । अथ दगपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे तदूर्ध्वतिर्यक्पङ्क्तिगतदशाकावादाय द्वयत लिखेत् । द्वितीयकोष्ठेऽन्त्यं द्वयङ्कमुपरिपङ्क्तिगतद्रुताकेन संयोज्य व्यकं लिखेत् । तृतीयादिकोष्ठेषु यथासंभवमन्त्यतुर्याको यथासंभवमुपरिपङ्क्तिगतदगाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवं तृतीयकोष्ठे चतुरङ्कम् । चतुर्थकोठे पञ्चाङ्कम् । पञ्चमकोष्ठे नवाङ्कम् । षष्ठकोष्ठे त्रयोदशाङ्कम् । सप्तमकोष्ठेऽष्टादशाङ्कम् । अष्टमकोष्ठे चतुर्विशत्यङ्कम् । नवमकोष्ठे पञ्चत्रिंशदकं च लिखेत् । अथ द्रुतप्लुतपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे लेख्यपङ्क्युपरिश्रेणीषु संनिहितायां वा व्यवहितासु वा व्यस्तेषु दलगपाङ्केषु द्रुताङ्कस्य सद्भावेऽपि क्वचिदपि प्लुताङ्काभावेन दपायोगासंभवेन, 'अङ्कासंभवे तु खम्' इति वचनाद्विन्दुमेव लिखेत् । द्वितीयकोष्ठे तूपरिपङ्क्तिगतदपाको संयोज्य द्वयकं लिखेत् । तृतीयादिकोष्ठेषु यथासंभवमन्त्यषष्ठौ, यथासंभवमुपरि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः १९९ पङ्क्तिगताभ्यां दपाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवं तृतीयकोष्ठे व्यङ्कम् । चतुर्थकोष्ठे चतुरङ्कम् । पञ्चमकोष्ठे पञ्चाङ्कम् । पष्ठकोष्ठे षडङ्कम् । सप्तमकोष्ठे सप्ताङ्कम् । अष्टमकोष्ठ एकादशाकं च लिखेत् । अथ लगपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे संनिहितायामुपरिपङ्क्तौ लगाङ्कयोरभावात्तदुपरिव्यवहितपक्तिगतलगाङ्कावादाय द्वयकं लिखेत् । अयमेव विपर्यस्तशब्दार्थो वेदितव्यः । द्वितीयकोष्ठे त्वन्त्यस्य द्वयङ्कस्यात्रानुपादेयत्वात् संनिहितोपरिपङ्क्तौ लध्वङ्कसद्भावेऽपि गुर्वाभावाद्वयवहितोपरिपङ्किगतगुर्वकस्य लघुपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठोपयुक्तत्वेन पुनर्ग्राह्यत्वाभावात्प्रस्तुतलगायोगासंभवेन पूर्ववद्विन्दुमेव लिखेत् । तृतीयकोष्ठे तूपान्त्यं द्वयकं व्यवहितोपरिपङ्क्तिगतलघ्वकेन संयोज्य व्यकं लिखेत् । चतुर्था दिसमकोष्ठेषु क्वचिदुपरिपङ्क्तौ लगाङ्कयोगसंभवेऽपि पङ्क्तावुपक्रान्तोपान्त्यतुर्याभावात्तत्तत्तिर्यक्पङ्क्तिवामभागपादलिखितद्वतलघुप्लुतात्मकादिविषमततालप्रस्तारेषु केवललगयुक्तभेदासंभवाच्च बिन्दूनेव लिखेत् । पञ्चमादिषु विषमकोष्ठेषु उपान्त्यतुर्यों यथासंभवं तत्तदुपरिपङ्क्तिगतलगाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । अथ लपपङ्क्तौ प्रमथकोष्ठे तदुपरिपङ्क्तौ लपाङ्कसंभवेऽपि तत्तिर्यक्पङ्क्तिवामभागलिखित तत्तद्रुतप्लुतात्मकतालस्य प्रस्तारे लघुप्लुतयुक्तभेदासंभवाद्विन्दं लिखेत । द्वितीयकोष्ठे ताशतालभेदसंभवाद्विपर्यस्तौ लपाङ्कावादाय द्वयत लिखेत् । एवं संभवासंभवशब्दयोरर्थप्रपञ्चो वेदितव्यः । तृतीयादिविषमकोष्ठेषूपान्त्यषष्ठयोरभावात्तत्तत्तालप्रस्तारेषु तादृशभेदासंभवाच्च बिन्दूनेव लिखेत । चतुर्थादिसमकोष्ठेषु यथासंभवमुपान्त्यषष्ठौ यथासंभवं लपाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदकं लिखेदिति । तृतीयकोष्ठे बिन्दुम् । चतुर्थकोष्ठे व्यकं, पञ्चमकोष्ठे बिन्दु, षष्ठकोष्ठे चतुरङ्क, सप्तमकोष्ठे बिन्दुं च लिखेत् । अथ गपपङ्क्तौ प्रथमादित्रिषु कोष्ठेषु पूर्ववत्तत्तत्तालेषु तादृशभेदासंभवाद्विन्दूनेव लिखेत । चतुर्थकोष्ठे तादृशतालभेदसंभवादुपरिपङ्क्तिषु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० संगीतरत्नाकर: त्रियोगजाश्च ये भेदाश्चतुर्योगभवश्च यः । तत्पङ्क्तीनामपि ज्ञेयमेवमेवाङ्कपूरणम् ।। ३६९ ।। किंतु त्रियोगजे भेदे ये त्रयः स्युर्द्वियोगजाः । तेषां संनिहिताद्यानां प्रागुक्तोऽङ्कविपर्ययः ।। ३७० ॥ विपर्यस्तौ गपाङ्कावादाय द्वयङ्कं लिखेत् । पञ्चमादिषु त्रिषु कोष्ठेषु पूर्ववत्तालभेदासंभवाद्विन्दून् लिखेत । अष्टमद्वादशादिपु त्र्यन्तरितेषु कोष्ठेषु यथासंभवं तुर्यषष्ठौ यथासंभवं विपर्यस्ताभ्यामपि गपाङ्काभ्यां संयोज्य तत्तदङ्कं लिखेत् । इत्यष्टमकोष्ठे चतुरङ्कं लिखेत् ॥ -३६६-३६८ ॥ (सु० ) कुत्रत्यो द्वितीयाद्या ग्राह्या इत्यपेक्षायामाह - लेख्येति । लेख्या या पङ्क्तिः, तस्या उपरिश्रेणी या पङ्क्तिः तिरश्वी विद्यते, तामाश्रिताः ये अङ्काः द्रुतलघुगुरुप्लुतानां स्युः । आद्ये पङ्क्तिचतुष्के ऊर्ध्वकोष्ठगतेषु द्रुतादीनामङ्केषु मध्ये प्रस्तुता ये भेदा: द्रुतलघुगुरुयुक्ता आदि: तत्र स्थिता ये द्रुतादयः तेषां पङ्क्तिः, तद्वयञ्जकप्रथमपङ्क्त्यादिः, तत्संश्रितान् अङ्कान् गृह्णीत । ततश्च द्रुतलघुपङ्क्तौ प्रथमद्वितीयपङ्क्तौ अङ्का ग्राह्या इति । अङ्कग्रहणे विशेषमाह - तेऽपीति । तेऽपि अन्त्यद्वितीयाद्या अङ्काः, प्रस्तुतेषु द्रुतादिषु विपर्यस्ताः विपरीता भवेयुः । द्रुतलघुपङ्क्तौ आद्यायां, द्रुतपङ्क्ते: अन्त्ये ग्राह्याः । द्वितीयस्याश्च लघुपङ्क्तेः उपान्त्ये ग्राह्ये सति विपर्ययः । द्वितीयपङ्क्तेरन्त्यः, प्रथमपङ्क्तेरुपान्त्य इति । एवमन्यास्वपि पङ्क्तिषु विपर्ययो बोद्धव्यः । अङ्कासंभवे ; अङ्कानामसंभवे तु खं शून्यं लेखनीयम् ॥ ३६६-३६८ ॥ अत्र (क०) अथ दलगपङ्क्त्यादित्रियोगपङ्क्तिषु चतसृण्वेकस्यां चतुर्योगपङ्क्तौ चाङ्कलेखनमतिदिशति – त्रियोगजाश्वेत्यादिना । संभवासंभवौ विपर्यासश्चातिदेशार्थः ; पृथगभिधाने विशेषं दर्शयति-— किंत्वित्यादिना । त्रियोगजभेदे प्रत्येकं ये द्वियोगजास्त्रयो भेदाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः २०१ संभवन्ति । संनिहितायानां तेषामिति । संनिहित आयो येषां ते तथोक्ताः । अत्र संनिहितशब्देन प्रतियोग्यनुपादानेऽपि प्रकरणादक एव प्रतियोगी गम्यते, अङ्कसंनिहित इति । अयमर्थः-द्वियोगपङ्क्तिषु ये त्रयः प्रथमकोष्ठ एको वा अनेके वा सशून्याः संभवन्ति, तत्र तान्विहायानन्तराङ्कवानेव कोष्ठः प्रथमत्वेन ग्राह्यः । ततः परमशून्या अपि द्वितीयत्वादिना गणनीया इति किंचिद्वियोगजा एव योज्याः, न त्वेकैकजा इत्यपि विशेषः । __ अङ्कविपर्ययस्तु प्रागुक्त एव । एतदुक्तं भवति । त्रियोगपङ्क्तिप्वङ्कनीयकोष्ठसमानसंख्यकोष्ठगतान् संभवत्तत्तवियोगपङ्क्तिप्वकानादाय तैः सहान्त्यादीन् यथोचितं संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवमुक्तरीत्या दलगपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे दलदगलगपङ्क्तिषु परिक्रमेण प्रथमकोष्ठगतान् त्रीन्द्वयङ्कानादाय षडकं लिखेत् । द्वितीयकोष्ठेऽन्त्यं षडत दलदगपङ्क्तिद्वितीयकोष्ठगताभ्यां व्यङ्काभ्यां संयोज्य द्वादशाकं लिखेत् । लपपङ्क्तौ द्वितीयकोष्ठस्य सशून्यत्वादकाभावः । तृतीयादिकोष्ठेष्वन्त्योपान्त्यतुर्यानङ्कनीयकोष्ठसमानसंख्यकोष्ठगतैः संभवद्भिर्दलगदगपङ्क्त्यकैः संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवं तृतीयकोष्ठे द्वात्रिंशदकं लिखेत् । चतुर्थकोष्ठे षष्टयङ्कम् । पञ्चमकोष्ठे चतुस्त्रिंशदुत्तरशताङ्कम् । षष्ठकोष्ठ एकपश्चाशदुत्तरद्विशताङ्कम् । सप्तमकोष्ठे पञ्चशत्यक्षं च लिखेत् । अथ दलपपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे दलपङ्क्तिप्रथमकोष्ठगतं द्वयकं दलपपङ्क्तिप्रथमकोष्ठयोः सशून्यत्वात्तत्तद्वितीयकोष्ठगतौ द्वयको च आदाय खण्डकं लिखेत् । 'संनिहिताद्यानाम्' इति वचनेनात्राङ्कवानेव कोष्ठः प्रथमत्वेन गृह्यत इत्युक्तत्वाद्वितीयकोष्ठेऽन्त्यं षडत दलपपङ्क्तिद्वितीयकोष्ठगताभ्यां व्यङ्काभ्यां संयोज्य द्वादशाकं लिखेत् । लपपङ्क्तौ द्वितीयस्य सशून्यत्वादङ्कासंभवः ।। एवं तृतीयादिषु कोष्ठषु यथासंभवमन्त्योपान्त्यषष्ठान् यथासंभवं तत्तवियोगपङ्क्तिष्वङ्कनीयकोष्ठसमानसंख्यकोष्ठगतैरकैः संयोज्य तत्तदवं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संगीतरत्नाकरः चतुर्योगे तु चत्वारो ये स्युर्भेदास्त्रियोगजाः ॥ ३७१ ॥ तदकेष्वेव पूर्वोक्तं स्याद्विपर्यासयोजनम् । लिखेत् । एवं तृतीयकोष्ठे द्वात्रिंशदङ्कम् । चतुर्थकोष्ठे षष्टयङ्कम् । पश्चमकोष्ठे द्वाविंशत्युत्तरशताकं लिखेत् । अथ दगपपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे पूर्वोक्तप्रकारेण षडङ्कम् । द्वितीयादिकोष्ठेषु यथासंभवमन्त्यतुर्यषष्ठान् यथासंख्यं तत्तवियोगपङ्क्तिगतकोष्ठात्रैर्यथासंभवं संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । एवं द्वितीयकोष्ठे द्वादशाङ्कम् । तृतीयकोष्ठे विंशत्यकं लिखेत् । अथ लगपपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे लगपङ्क्तिप्रथमकोष्ठलपपङ्क्तिद्वितीयकोष्ठगपपङ्क्तिचतुर्थकोष्ठस्थितान् द्वयङ्कानादाय षडकं लिखेत् । द्वितीयादिसमकोष्ठेप्वन्त्यस्य सद्भावेऽपि तस्यात्रानुपादेयत्वादुपान्त्यतुर्यषष्ठानामुपादेयत्वेऽप्यसंभवात् तत्तवियोगपङ्क्तिप्वेतकोष्ठसमसंख्यकोष्ठेप्वङ्कसंभवात् तत्तत्तिर्यपङ्क्तिवामभागलिखिततालप्रस्तारेषु केवललगपयुक्ततालभेदासंभवाच्च बिन्दूनेव लिखेत् । एवं द्वितीयकोष्ठे बिन्दं तृतीयादिविषमकोष्ठेषु यथासंभवमुपान्त्यतुर्यषष्ठान् यथासंख्यं तत्तद्वियोगविषमकोष्ठाङ्कर्यथासंभवं संयोज्य तत्तदङ्कलिखेत् ॥ ३६९, ३७० ॥ (सु०) द्वितीयपङ्क्तावुक्तमेकप्रकारमन्यासु पङ्क्तिश्वतिदिशति-त्रियोगजा इति । ये त्रियोगजा भेदाः, यश्च चतुर्योगभवश्व, तत्पङ्क्तीनामपि, अनेन प्रकारेण अपूरणं कर्तव्यम् । अयं तु विशेष:-त्रियोगजेषु भेदेषु ये द्वियोगजा भेदाः सन्ति, तेषां संनिहिताद्यानां संनिहितमादितः कृत्वा पूर्ववदङ्कः कर्तव्यः । यथा द्रुतलघुगुरुविपर्ययप्रयोगपतौ अन्त्योपान्त्यतुरीया ग्राह्याः । अत्र एतद् द्वियोगजं भेदद्वयं द्रुतलघ्वोः, द्रुतगुर्वो:, लघुगुर्वोनियतपङ्क्तीनामन्त्योपान्त्यतुर्या: विपर्ययेण ग्राह्याः ।। ३६९, ३७० ॥ (क०) अथ दलगपपङ्क्तौ विशेष दर्शयति-चतुर्योगे त्वित्यादि । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः २०३ ये चत्वारस्त्रियोगोत्थाश्चतुर्योगोत्यपश्चमाः ॥ ३७२ ।। भेदास्ते पङ्क्तिषु ज्ञेयाः क्रमादन्त्यासु पङ्क्तिषु । दलगा दलपाश्चैव दगपा लगपाः ऋमात् ॥ ३७३ ॥ त्रियोगजाश्चतुर्योगोद्भवा दलगपा इति । एष संयोगमेरुः स्यादतो ज्ञेयमथोच्यते ।। ३७४ ।। तिर्यपक्तिस्थकोष्टाङ्कस्तैस्तैः सर्वद्रुतादयः । ऊर्ध्वपक्तिगता मेयास्तदभावस्तु शून्यतः ॥ ३७५ ॥ चतुर्योगे भेदे त्रियोगजा ये चत्वारोऽपि भेदाः स्युः, तदङ्केष्वेव ; त्रियोगजाङ्केप्वेव पूर्वोक्तविपर्यासयोजनं स्यादिति नियमेन द्वियोगजैकैकाकानामनुपादानमत्र विशेषो दर्शितः । एवं दलगपपङ्क्तौ प्रथमकोष्ठे चतसृणां त्रियोगपङ्क्तीनां प्रथमकोष्ठेषु स्थितान् चतुरः षडङ्कानादाय चतुर्विशत्यकं लिखेत् । द्वितीयादिकोष्ठेषु यथासंभवमन्त्योपान्त्यतुर्यषष्ठान् यथासंख्यं त्रियोगपङ्क्तिकोष्ठगतैर कैर्यथासंभवं संयोज्य तत्तदकं लिखेत् । ये चत्वार इत्यादेग्रन्थस्यार्थः पङ्क्तिपरिज्ञानाय प्रथमत एव दर्शितः । एष संयोगमेरुः स्यात् । इति संयोगमेरोः स्वरूपनिरूपणस्य निगमनम् । एष द्रुतादिसंयोगजविविधभेदबोधकत्वादन्वों द्रष्टव्यः । अनिष्टार्थप्रदत्वादेतेषां मेरुवन्मेरुत्वमवगन्तव्यम् । अतो ज्ञेयं वक्तुमाह-अतो ज्ञेयमित्यादिना । तिर्यक्पङ्क्तिस्थेत्यादि । तैस्तैस्तिर्यकपङ्क्तिस्थैः कोष्ठाङ्कः, ऊर्ध्वपङ्क्तिगताः ऊर्ध्वपङ्क्तिकोष्ठस्थिताः सर्वदूतादयो भेदाः मेया इति । तत्तत्कोष्ठगतसंख्याकपरिमिता विज्ञेया इत्यर्थः । तदभावस्तु शून्यत इति । तत्तकोष्ठस्थशून्यात् तत्तद्भेदाभावो ज्ञेय इत्यर्थः । यथा त्रयोदश्यां तिर्यक्पङ्क्तौ तावत्प्रथमकोष्ठस्थेनैकाङ्केन सर्वद्रुतो भेदो मेयः । अनन्तरं कोष्ठत्रयस्थितेभ्यो बिन्दुभ्यो लगपात्मकस्य तत्पङ्क्तितालस्य प्रस्तारे सर्वलघुसर्वगुरुसर्व Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संगीतरत्नाकरः तावद् द्रुतोऽत्र ताल: स्यात्पङ्क्तिर्यावतिथी तिरः । उपरिष्टात्समारभ्य संख्या पङ्क्त्यकसंगतेः ॥ ३७६ ॥ इति संयोगमेम: 55 १३४ ३२ । ६ ० २५१६० १२ . ११ इति संयोगमेस्कोष्ठम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः २०५ प्लुतानां भेदानामभावो ज्ञेयः । पञ्चमकोष्ठस्थेन षट्सप्तत्युत्तरत्रिंशत्यकेन तस्मिन्काले दलयुक्ता भेदाः संख्येयाः । षष्ठकोष्ठस्थेन पञ्चत्रिंशदकेन द्रुतगुरुयुक्ता भेदाः । सप्तमकोष्ठस्थेनैकादशाङ्केन द्रुतप्लुतयुक्ताः । अष्टमादिकोष्ठत्रयस्थितेभ्यः शून्येभ्यः क्रमात् लगलपगपयुक्तभेदाभावो ज्ञेयः। एकादशाङ्ककोष्ठस्थेन पञ्चशत्यकेन दलगयुक्तभेदाः । द्वादशकोष्ठस्थेन द्वाविंशत्युत्तरशताकेन दलपयुक्ता भेदाः । चतुर्दशकोष्ठस्थेन बिन्दुना लगपयुक्तभेदाभावः । पञ्चदशकोष्ठस्थेन चतुर्विंशत्यकेन दगपयुक्ता भेदा ज्ञेया इति । एवं यथेष्टमधोवर्धितासु पञ्चदशकोठात्मिकासु विपर्ययपङ्क्तिषु कोष्ठकैईष्टव्यम् । एवमेव प्राचीष्वप्युत्तरोत्तरं न्यूनकोष्ठासु तिर्यक्पङ्क्तिषु कोष्ठाकैर्यथासंभवं भेदा ज्ञेयाः । ' तावद् द्रुतोऽत्र' इत्यस्य वाक्यस्यार्थः प्रागेव दर्शितः। उपरिष्टात्समारभ्य संख्यापङ्क्त्यङ्कसंगतेरित्यस्यायमर्थः- उपरितनतिर्यक्पङ्क्तिमारभ्य अधोऽधस्तिर्यक्पङ्क्त्यकसंगतहेतोः पूर्वोक्ता संख्या परिज्ञायत इति । तद्यथा--प्रथमायां तिर्यक्पङ्क्तावेकः । द्वितीयायां द्वौ। तृतीयस्यां त्रयः । चतुर्थ्यो तिर्यक्पङ्क्तौ षट् । पञ्चम्यां दश । षष्ठ्यामेकोनविंशतिः । सप्तम्यां त्रयस्त्रिंशत् । अष्टम्यां षष्टिः । नवम्यां षडुत्तरं शतम् । दशम्यामेकनवत्युत्तरं शतम् । एकादश्यां चत्वारिंशदुत्तरा त्रिंशती । द्वादश्यां दशोत्तरा षट्शती । त्रयोदश्यां नवाशीत्युत्तरं सहस्रम् । एवमधोऽधःपङ्क्तिष्वपि पकृत्यङ्कसंगतेः संख्या ज्ञेया ॥ -३७१-३७६- ॥ इति संयोगमेरुः (सु०) विशेषमाह-चतुर्योगेत्विति । चतुर्योगे त्रियोगजाश्चत्वारो भेदाः, तदङ्केषु पूर्वोक्ता विपर्यया योजनीयाः । ये चत्वार इति । त्रियोगोत्था ये चत्वारो भेदाः, चतुर्योगोत्थपञ्चमा भेदा ते इति ; क्रमात् अन्त्यासु पञ्चसु पङ्क्तिषु ज्ञेयाः । तासु पक्तिषु क्रमेण ये ज्ञातव्यास्तानाह-दलगा इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संगीतरत्नाकरः द्रुतहीनादयो भेदोदारा ये मेरुबोधिताः । सर्वप्रस्तारवत्तेषां प्रस्तारः किं तु तेषु यः ॥ ३७७ ॥ द्रुतादिनियमः सोऽत्र न भङ्क्तव्यः प्रयत्नतः । इति खण्डप्रस्तारः अन्त्यानां पञ्चानां पतीनां मध्ये, आद्यपङ्क्तौ दलगा: द्रुतलघुगुरवः, द्वितीयपङ्क्तौ दलपाःद्रुतलघुप्लुताः ; तृतीयपङ्क्तौ दगपा:द्रुतगुरुप्लुताः ; चतुर्थपङ्क्तौ लगपा: लघुगुरुप्लुताः; अन्त्यपङ्क्तौ दलगपाः द्रुतलघुगुरुप्लुता इति । एष एव संयोगमेरुः स्यात् । एतस्मात्संयोगमेरो यं प्रतिज्ञाय कथयति-तिर्यगिति । तिरश्वीना या पङ्क्तिः, तत्स्थानि कोष्ठानि, तत्रस्थितैः, तेस्तै: कोष्ठाङ्कः । कथंभूतैरित्यपेक्षायामाह-सर्वदुतादय इति ; सर्वद्रुताः, सर्वलघवः, सर्वगुरव इति ऊर्ध्वपङ्क्तिगता ज्ञेया विज्ञेयाः । तदभावस्तु शून्यत इति, तेषां सर्वद्रुतादीनां भेदानामभावः, तिरः तिरश्चीना यावतिथी यावत्संख्याका द्रुतपङ्क्तिः, तावत् द्रुतलाभोऽत्र स्यादिति विज्ञातव्यम् । उपरिष्टात्समारभ्य पङ्क्त्यङ्कसंयुतात् संख्या विज्ञायत इति । प्रस्तारस्तु मूलप्रन्थ एव सम्यग्दर्शितः ॥ -३७१-३७६- ॥ इति संयोगमेरुः (क०) अथ खण्डप्रस्तारं लक्षयति---द्रुतहीनादय इत्यादिना । मेरुबोधिता इति । मेरुपु द्रुतलघुगुरुप्लुतमेरुषु चतुर्पु बोधिता ज्ञापिताः । द्रुतहीनादयो भेदोद्धारा इति । द्रुतहीनादयो द्वयादिसमसंख्यद्रुता भिदाः । सर्वद्रुतान्ता इति, लघुहीनादुपक्रम्यैकायेकोत्तरवृद्धला इति च, शेषं तु लघुमेरुगुरुमेरुवत् , इति च ये भेदोद्धाराः प्रदर्शितास्तेषां भेदानाम् । प्रस्तारवदिति । 'न्यस्याल्पमाद्यान्' इत्यादिनोक्तरीत्येत्यर्थः । अत्र विशेषमाह-कि विति । तेषु भेदेषु यो द्रुतादिनियमो द्विद्रुतश्चतुर्दुत एकलघुर्द्विलघुर्भेद इत्यादिदुतादिसंख्यानियमो विद्यते सोऽत्र न मन्तव्यः । प्रयत्नत इति । अयमर्थः-- Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः २०७ खण्डप्रस्तारे सर्वप्रस्तारोक्तरीत्या द्रुतादिसंख्यानियमभङ्गे प्राप्तेऽपि द्रुतादिसंख्यानियममपरित्यज्यैव प्रस्तारः कर्तव्य इति । अत्रोदाहरणार्थ प्लुतभेदेषु खण्डः प्रस्तारः प्रदर्श्यते । प्रथमं प्लुतं लिखित्वा तदधस्ततोऽल्पं गुरुं न्यस्य प्रागूने लघु लिखेत् । अनन्तरमाद्याल्लघोरधस्तादल्पे द्रुते लिखितव्ये द्रुतहीनभेदानां प्रस्तुतत्वाद् द्रुतादिनियमो न भक्तव्य इति वचनेन तत्र द्रुतमलिखित्वा गुरोरधो लघु न्यस्य प्रागूने गुरुं लिखेत् । तदनन्तरमाद्याद् गुरोरधो लघु न्यस्य शेषं यथोपरीति शेषं लघु लिखित्वा प्रागूनेऽपि लघु लिखेत् । एवं द्रुतहीनाश्चत्वारो भेदा द्रुतमेरोः षष्ठोर्ध्वपङ्क्तावधःक्रमात्प्रथमकोष्ठस्थेन चतुरङ्केण बोधिता भवन्ति । __ अथ द्वितीयकोष्ठस्थेन नवाकेन द्विद्रुतानां भेदानां बोध्यत्वादादौ द्रुतद्वयं गुरुं च लिखित्वा सर्वप्रस्तारवद्गुरोरधो लघु न्यस्य प्रागूने गुरोः संभवेऽपि द्रुतनियमभङ्गो मा भूदिति लघुद्रुतौ च वामसंस्थत्वेन लिखेत् । एवमन्यानपि सप्त भेदान् सर्वप्रस्तारवदुपक्रम्य खण्डप्रस्ताराविरोधेन लिखेत् । अथ तृतीयकोष्ठस्थेन पञ्चाङ्केन बोध्येषु चतुतभेदेष्वादौ चतुरो द्रुतान् एकं लघु च लिखित्वा पूर्वोक्तप्रकारेणाधोऽधो लिखेत् । अथ चतुर्थकोष्ठगतैकाङ्केन सर्वद्रुतभेदो बोध्यः । अस्मिन्नेव प्लुतप्रस्तारे लघुमेरौ षष्ठोर्ध्वपङ्क्त्यध:कोष्ठगतेन पञ्चाङ्केन लघुहीना भेदा ज्ञेयाः। द्वितीयकोष्ठगतेन सप्ताङ्कनैकलघवो भेदा ज्ञेयाः । तृतीयकोष्ठस्थेन षडङ्केन द्विलघवो भेदाः । चतुर्थकोष्ठगतेनैकाङ्केन सर्वलघुभेदो ज्ञेयः । गुरुमेरावपि षष्ठोर्ध्वपङ्क्त्यधःकोष्ठस्थेन चतुर्दशाङ्केन गुरुहीना भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयकोष्ठस्थेन पञ्चाङ्केनैकगुरवो भेदः । तथा प्लुतमेरावपि षष्ठोर्ध्वपङ्क्त्यधःकोष्ठस्थेनाष्टादशाङ्केन प्लुतहीना भेदा ज्ञेयाः । द्वितीयकोष्ठस्थेनैकाङ्केन सर्वप्लुतो भेदः । एवं सर्वत्र खण्डप्रस्तार उन्नेयः ॥ ३७७, ३७७- ॥ इति खण्डप्रस्तारः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ संगीतरत्नाकर: 'संख्यैषा मेरुकोष्ठाङ्काद्यस्मात्पूर्वोक्तरीतितः ॥ ३७८ ॥ लभ्यते तत्र नष्टाङ्कं पातयेदथ शेषतः । तृतीयपञ्चमोपान्त्यावपाते लभ्यते लघुः || ३७९ ॥ परो यकृतार्थः यात्सह तेनाथ चेदुभौ । अकृतार्थौ ततस्ताभ्यां स्वं विनैवैष लभ्यते ॥ ३८० ॥ (सु० ) मेरुषु बोधितानां भेदानां प्रस्तारमाह — द्रुतहीनादय इति । पञ्चभिरपि मेरुभिः द्रुतहीनादयो भेदा ये ज्ञापिताः ; तेषां प्रस्तारः सर्वप्रस्तारवत् सर्वसाधारणत्वेन यः पूर्व निर्दिष्टः प्रस्तारः तद्वदेव कर्तव्यः । परं त्वयं विशेष: – तेषु ; भेदेषु, यो द्रुतादिनियम: द्रुतादिसंख्यानियमः, सोऽत्र न भङ्क्तव्यः । तस्य द्रुतादिनियमस्य यथा भङ्गो न भवति तथा प्रयत्नतः कर्तव्य इत्यर्थः । अत्र परिज्ञानार्थं दृष्टान्तं दर्शयाम: - षड् द्रुतप्रस्तारे चत्वारो द्रुतहीना: । तत्र पूर्वं प्लुतः स्थाप्यः ; प्लुतस्याधस्तादल्पो गुरुर्देयः, पूर्वं लघुः, गुरोरधस्ताल्लघु, अनन्तरमुपरिस्थितो लघुः, तालपूरणार्थं पूर्वो लघुरिति चत्वारो भेदाः । एवं द्विद्रुतादिषु ज्ञातव्यम् । एकलघुप्रस्तारस्त्वेवमेव ॥ ३७७, ३७७- ॥ इति खण्डप्रस्तार: ( क ० ) अथ द्रुतमेरोः प्रथमपङ्क्तिसमकोष्ठे नष्टं लक्षयतिसंख्यैषेत्यादि । पूर्वोक्तरीतित इति । समे त्वन्त्यं विनैतेषां योगं न्यस्येत्यर्थः । यस्मान्मेरुकोष्ठाङ्कत् एषा संख्या लभ्यते, तत्र संख्याङ्के नष्टाङ्कं पातयेत् । अथा अनन्तरं शेषतः शेषे । तृतीयपञ्चमोपान्त्याविति । 'समे त्वन्त्यं विना' इत्युक्तत्वात्तयोरेव प्रथमं तत्कोष्ठे द्रुतहीनसंख्या हेतुत्वेन क्रमेणोपान्त्यत्वमित्यर्थः । अपाते लभ्यते लघुरिति । अपाते तृतीयस्य वा 1 I ' संख्यैषामिति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमस्तालाध्यायः २०९ परे कृतार्थे ग्राह्यः स्यादकृतार्थः पुरातनः । पतिताद गुरुलाभः स्यात्सह पाचा तदा परा ॥ ३८१ ॥ चतुरङ्की निवर्तेत पतिते पश्चमेऽप्यथ । गुरुः प्लुती भवेत्ताचा सह चैषा निवर्तते ॥ ३८२ ।। रूपाप्तौ पापकाङ्केभ्यः शेषेष्वेष पुनर्विधिः । गुरुलाभे त्वपाताईः पञ्चमः शेषतां व्रजेत् ॥ ३८३ ।। अङ्काभावे तु गृह्यन्ते लघवस्तालपूर्तये । इति द्रुतमेर्वध:पङ्क्तिसमकोष्ठनष्टम् पञ्चमस्य वा शेषाङ्कानन्तर्भावे सतीत्यर्थः । परो यद्यकृतार्थः स्यादिति । तृतीयात्परस्य विषमकोष्ठस्थस्याकृतार्थत्वे । यदीति संभावना। तस्य कचित्कृतार्थत्वमपि संभवतीत्यर्थः । सह तेनेति । अकृतार्थेन सह पाते लघुलभ्यते । अथ चेदिति । अथ परावुभावकृतार्थों चेत् , ततस्ताभ्यां स्वं विनैवैष लभ्यत इत्यर्थः । ततस्तर्हि ताभ्यामकृतार्थाभ्यां पराभ्यामेव, स्वं विना; स्वशब्देनात्र तृतीयपञ्चमावुच्यते । तृतीयं वा पञ्चमं वा विनेत्यर्थः । एवं लघुर्लभ्यते । परे कृतार्थ इति । परस्मिन् कृतार्थे सत्यकृतार्थः पुरातनो ग्राह्यः स्यात् । पतिताद्गुरुलाभ इति । तृतीयात्पञ्चमाद्वा पतिताद्गुरुलाभः स्यात् । सह प्राचेति । तदा गुरुलाभकाले प्राचा सह पतिताङ्कपूर्वेणाङ्कन सहिता परा चतुरङ्की । चतुर्णामङ्कानां समाहारः । निवर्तेत गुरुलाभहेतुत्वेन कृतार्थत्वादित्यर्थः । पतिते पञ्चमेऽप्यथेति । अथ तृतीयपातानन्तरं पञ्चमेऽपि पतिते सति गुरुः प्लुती भवेत् । प्राचा सह चैषा निवर्तत इति । प्राचा षष्ठाङ्केन सहैषा च परा षडङ्कीत्यर्थः । निवर्तते प्लुतहेतुत्वेन कृतार्थो भवतीत्यर्थः । रूपाप्ताविति । प्रापकाकेभ्यो लध्वादिस्वरूपलाभे सति 27 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० संगीतरनाकरः यदि शेषाङ्काः संभवेयुः, तदा शेषेषु तेष्वङ्केष्वेष एव विधिः पुनः कार्यः । गुरुलाभे सत्यपातार्हः पञ्चमः शेषतां व्रजेत् ; पञ्चममारभ्य प्राक्तनाः शेषा भवन्तीत्यर्थः । एवं प्लुतलामे सप्तमः शेषतां व्रजेदिति द्रष्टव्यम् । अङ्काभावे विति। शेषाङ्काभावे तु तालपूर्तये लघवो गृह्यन्ते ग्राह्या इत्यर्थः ॥ -३७८-३८३- ॥ इति द्रुतमेर्वधःपङ्क्तिसमकोष्टनष्टम् (सु०) द्रुतमेर्वधः पङ्क्तः समकोष्ठेषु नष्टमाह-संख्यैषामिति । एषां द्रुतहीनादिभेदानां संख्या पूर्वोत्तरीतित: पूर्वोक्तप्रकारेण, यस्मात् मेरुकोष्ठाकात् लभ्यते ; तत्र, तस्यां संख्यायां नष्टाकं पातयेत् । अथ ; अनन्तरम् , शेषतः ; शिष्टे अन्त्याङ्के तृतीयपञ्चमोपान्त्यौ; तृतीयपञ्चमावको उपान्त्यौ, अन्त्यान्ते यदा अङ्को न पतति, तदा लघुर्लभ्यते । यदि पर अकृतार्थः स्यात्, तेन सह लघुः कर्तव्यः । अथ ; अनन्तरम् , उभौ अकृतार्थों चेत् , तत: तर्हि ताभ्याम् , अकृतार्थाभ्यामङ्काभ्यामेव, स्वं विना ; तृतीयं वा पञ्चमं वा विनेत्यर्थः । एप लघुः, लभ्यते । परे कृतार्थ इति । परे, परस्मिन् कृतार्थ सति, अकृतार्थः पुरातनो ग्राह्यः स्यात् । पतिताद् गुरुलाभ इति । पतितात् अङ्कात् प्राचा पूर्वेणाङ्केन सह गुरुः लभ्यते । तदा परा अग्रे स्थिता चतुरङ्की ; चतुर्णामकानां समाहारः, निवर्तेत गुरुलाभहेतुत्वेन कृतार्थत्वादित्यर्थः । अथ, तृतीयपातानन्तरम् , पञ्चमेऽपि पतिते सति, स एव गुरु: प्लुती भवेत् । प्राचा पूर्वेणाङ्केन सह एषा पङक्ति: निवर्तते अङ्कनिवृत्तिर्भवति । रूपाप्तौ ; रूपस्य आप्तौ सत्यां, प्रापकाङ्केभ्यः ; गुर्वादिग्रापका येऽङ्काः तेभ्यः, शेषेषु एष एव पुनर्विधिः कर्तव्यः । गुरुलाभे तु सति अपाताईः पञ्चमः शेषो भवति । तत आरभ्य तृतीयपञ्चमौ उपान्त्यावित्यादि विधिः, विधानं कार्यमित्यर्थः । अङ्काभावे; अङ्कानामभावे तु, तालपूर्तये ; तालपूरणार्थ लघवो गृह्यन्ते ग्राह्या इत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः २११ उद्दिष्टे तु गुरोर्लभ्यरतृतीयोऽन्त्यात्पुरातनः ॥ ३८४ ॥ प्राग्वच्चतुर्नित्तिः स्यात्तृतीयः पञ्चमस्तथा । प्लुताल्लभ्यौ निवृत्तिस्तु षण्णामथ पुनर्विधिः ॥ ३८५ ॥ लघोरङ्को न लभ्येत निवृत्तिस्त्वङ्कयोयोः । लब्धाङ्कयोगहीनेऽन्त्ये शेपादुद्दिष्टवोधनम् ।। ३८६ ।। इति दुतमेर्वधःपङ्क्तिसमकोष्ठोद्दिष्टम् इति द्रुतमेरुप्रथमपतिसमकोष्ठनष्टोद्दिष्टे अत्र परिज्ञानार्थमुदाहरणं दर्शयामः-- अष्टद्रुतप्रस्तारे द्रुतहीनाः सप्त भेदा भवन्ति । तत्र प्रथमो भेदः कीदृगिति नष्टप्रश्ने, एकः सप्तसु पात्यते । अवशिष्टेषु षट्सु तृतीयपञ्चमौ पतिते, 'गुरुः प्लुती भवेत्' इति न्यायेन स एव गुरु: प्लुतो भवति । तालपूरणार्थमेको लघुर्ग्राह्यः । एवं लघु: प्लुतश्च प्रथमो भेदः । एवं द्वितीयभेदे पृष्टे द्वयङ्के अन्त्यमध्ये पातिते सति, अवशिष्टेषु पञ्चसु तृतीये चतुरङ्के पतिते गुरुर्लब्धः, पञ्चमो द्वयङ्कः शेषतां प्राप्त: । ततोऽवशिष्टे एकस्मात् तृतीये पतिते पुनरपि गुरुलाभ इत्यादि ज्ञेयम् ॥ -३७८-३८३- ॥ इति द्रुतमेर्वध:पङ्क्तिसमकोष्ठनष्टम (क०) अथ तत्कोष्ठोद्दिष्टमाह -उद्दिष्टे वित्यादि । उद्दिष्टे भेदेऽन्त्यत्वेन यदि गुरुदृश्यते, तस्माद्रोरन्त्यादङ्कात् पुरातनः तृतीयोऽको भवतीत्यर्थः । प्राग्वत् नष्टोक्तप्रकारेण चतुर्निवृत्तिः चतुर्णामङ्कानां निवृत्तिर्भवेत् । उद्दिष्टे यदि प्लुतो दृश्यते, तस्मात्प्लुतात्तृतीयः, तथा पञ्चमश्च प्राप्यते । तृतीयपञ्चमौ प्लुताल्लभ्यौ भवतः । निवृत्तिस्तु षण्णामिति । षडका निवर्तन्त इत्यर्थः । अथ पुनर्विधिरिति । निवृत्तिव्यतिरेकाङ्कसद्भावे पुनविधिः कार्यः । उद्दिष्टभेदे यदि लघुदृश्यते ; तस्माल्लघोरङ्को न लभ्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संगीतरत्नाकरः समस्तनष्टवन्नष्टं विषमे कोष्ठके भवेत् । द्रुते लब्धे ततः पूर्वैरकैः स्यात्समकोष्ठवत् ॥ ३८७ ॥ इत्याद्यपङ्क्तिविषमकोष्ठनष्टम् निवृत्तिस्त्वङ्कयोयोरिति । लघुदर्शनादकद्वयं निवर्तनीयमित्यर्थः । लध्वङ्कयोगैहीतेऽन्त्ये शेषादुद्दिष्टबोधनमिति सर्वोद्दिष्टवद्रष्टव्यम् ॥ -३८४-३८६ ॥ इति द्रुतमेर्वध:पङ्क्तिसमकोष्ठोद्दिष्टम् (सु०) उद्दिष्टं निरूपयति- उद्दिष्टे त्विति । गुरोरन्त्यात् प्रथमं तृतीयोऽको लभ्यते । पूर्व चतुर्णामकानां निवृत्तिः, प्लुतात् तृतीयः पञ्चमश्चाको लभ्यते, तत: षण्णामकानां निवृत्तिः । अध: पुनरेवं प्रकारः, लघोस्त्वको न लभ्यते । द्वयोरङ्कयोनिवृत्ति:, लब्धमङ्कमन्त्यात्पातयित्वा, शेषात् अवशिष्टात् उद्दिष्टपरिज्ञानम् । अत्रैवं दृष्टान्तः–अष्टद्रुतप्रस्तारे द्रुतद्वयं गुरुलघुश्च द्रुतहीनेषु कथितो भेद इति । अन्यात् तृतीयश्चतुरङ्को लब्धः। चतुरङ्कोऽन्त्ये मध्ये च पातिते त्रयोऽवशिष्टाः । ततश्च तृतीयो भेद इत्युत्तरम् ॥ -३८४-३८६ ॥ इति दुतमेर्वध:पङ्क्तिसमकोष्ठोद्दिष्टम् । (क०) अथ द्रुतमेरुविषमकोष्ठे नष्टं लक्षयति-समस्तनष्टवदिति । 'पातयेत्पूर्वपूर्वाकं तत्र त्वपतिता द्रुताः' इत्यादि सर्वमनुसंधेयम् । विशेषमाहद्रुते लब्ध इति । समकोष्ठवदिति । द्रुतलाभानन्तरम् , 'तृतीयपञ्चमोपान्त्यावपाते लभ्यते लघुः' इत्यादि सर्वमनुसंधेयमित्यर्थः ॥ ३८७ ॥ इति द्रुतमेवध:पङ्क्तिसमकोष्ठोद्दिष्टम् (सु०) प्रथमपङ्क्तिविषमकोष्ठे नष्टमाह-समस्तेति । सर्वसाधारणपूर्वोतनष्टवत् विषमे कोष्ठके नष्टं ज्ञातव्यम् । अयं तु विशेषः-द्रुते लब्धे सत्यवशिष्टैः पूर्वैरकैः समकोष्टवत् विधानम् | यथा सप्तद्रुतप्रस्तारे प्रथमो भेदः कीगिति प्रश्ने, अन्त्ये द्वादशाङ्कमध्ये एकस्मिन् पातिते अवशिष्ट वेकादशसु चतुरङ्कपञ्चाङ्कौ पातितौ ; 'निरन्तरे त्वस्मिन' इति न्यायेन गुरुर्लब्धः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ पश्चमस्तालाध्यायः समस्तोद्दिष्टवत्प्रोक्तमुहिष्टमिह मूरिभिः । द्रुताङ्कानन्तरं कार्य विधानं समकोष्ठवत् ॥ ३८८ ।। इति प्रथमपङ्क्तिविषमकोष्ठोद्दिष्टम् इत्यधस्तिर्यकपक्तिनष्टोद्दिष्टे ततो गुरुहेतोस्तृतीयेऽङ्के द्वयङ्केऽवशिष्टे द्वये पतिते सति, स एव गुरु: प्लुतो भवति । एवं च द्रुत: प्लुतश्च प्रथमो भेदः । एवं दशमो भेदः कीदृगिति प्रश्ने, दशसु पातितेषु अवशिष्टे द्वये चतुरङ्कस्य अपातात् द्रुतो लब्धः । द्रुते लब्धे सति समकोष्ठवद्विधानम् । ततश्चतुरङ्कात् तृतीये पतिते गुरुर्लभ्यते, पतितात् द्रुतलाभ: स्यादिति । ततस्तालपूर्त्यर्थं लघु:, एवं लघुर्गुरुर्दुतश्च सप्तद्रुतप्रस्तारे ; एकद्रुते दश इत्यादिज्ञेयम् ॥ ३८७ ॥ इत्याद्यपङ्क्तिविषमकोष्ठनष्ठम् अथ तत्कोष्ठोद्दिष्टं लक्षयति-समस्तोद्दिष्टवदिति । 'यैरकैः पतितैर्नष्ट: ' इत्याद्यनुसंधेयम् । विशेषमाह-द्रुताङ्कानन्तरमिति । द्रुताङ्कपरिज्ञानानन्तरम् । समकोष्ठवदिति । 'उद्दिष्टे तु गुरोर्लभ्यस्तृतीयोऽन्त्यात्पुरातनः' इत्याद्यनुसंधेयम् ॥ ३८८ ॥ इति द्रुतमेर्वधःपङ्क्तिविषमकोष्ठोद्दिष्टम् इति द्रुतमेर्वधःपङ्क्तिनष्टोद्दिष्टम् (स०) प्रथमपङ्क्तिविषमकोष्ठोद्दिष्टमाह-समस्तेति । इह ; विषमकोष्ठे ; उद्दिष्टं सर्वसाधारणम् । समस्तोद्दिष्टवत् ; पूर्वोक्तोद्दिष्टवत् ; 'यैरकैः पतितैनष्टः' इत्यादिरनुसंधेयम् । परं तु द्रुताङ्कानन्तरं समकोष्ठवत् विधानम् । यथा दुतो लघुर्गुरुश्च सप्तद्रुतप्रस्तारे एको द्रुतः प्लुतश्च कतिधा भेद इति प्रश्ने, चतुरङ्के द्वयद्वये च पतिते एवंविधभेदस्य समस्तोद्दिष्टस्य लभ्यमानत्वात् अष्टौ लब्धाः । तेष्वन्त्येषु पातितेषु चतुर्णामवशिष्टत्वात् चतुर्थों भेदः । एवं विषमकोष्ठोद्दिष्टं ज्ञेयम् ॥ ३८८॥ इति प्रथमपङ्क्तिविषमकोष्ठोद्दिष्टम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ संगीतरत्नाकरः कोष्ठे समोर्ध्वपक्तिस्थे परासामधिको भवेत् । द्वितीयाधस्तनः पात्यस्तत्र त्वपतिताद् द्रुतः ॥ ३८९ ॥ पतिताल्लः पात्यपातानन्तर्येऽल्पो महान्भवेत् । रूपपूर्ती निवर्तन्ते पूर्ववत्स्वीयपक्तिगाः ॥ ३९० ॥ अधःसमवदन्यत्स्यानिवृत्तौ तु पुनर्विधिः। यस्मात्स यस्यामूर्ध्वायां पड़तो सा विषमा यदि ॥ ३९१ ॥ विधिविषमकोष्ठोक्तः समा चेत्तह्ययं मतः । विषमोर्ध्वश्रेणिसंस्थे कोष्ठेऽधोविपमोदितः ।। ३९२ ॥ ___ इति द्रुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम (क०) अथ द्रुतमेरोः परपङ्क्तिनष्टं लक्षयति-कोष्ट इत्यादिना । परासां पङ्क्तीनां समोर्ध्वपङ्क्तिकोष्ठे द्वितीयाधस्तनाबैरधिकः पात्यो भवेत् । तत्र तेप्वकेषु मध्येऽपतितादकाद् द्रुतो लभ्यो भवेत् । पतिताल्लः ; लघुर्लभ्यो भवेत् । पात्यपातानन्तर्य इति । पात्ययोरङ्कयोः पातस्य आनन्तयें निरन्तरयोः पाते सतीत्यर्थः । अल्पो लघुर्महान् गुरुभवेदित्यर्थः । रूपपूतौं ; लघ्वादिस्वरूपप्राप्तौ सत्यां स्वीयपङ्क्तिगा अङ्काः पूर्ववदधःपङ्क्ताविव । निवर्तन्त इति । लघुप्राप्तावकद्वयं, गुरुप्राप्तावकचतुष्टयं, प्लुतप्राप्तावकषट्कं च निवर्तते । पुनर्विधौ न गण्यत इति यावत् । अन्यत् अवशिष्टम् । अधःसमवत् ; अध:पङ्क्तौ समकोष्ठवष्टव्यम् । निवृत्तौ तु; रूपहेत्वङ्कनिवृत्तौ तु रूपान्तरप्राप्तये पुनर्विधिः कार्यः । यस्यामूर्ध्वायां पङ्क्तौ यस्मात् अङ्कात् , स विधिर्भवेत् , सा अध:पङ्क्तिः विषमा विषमसंख्याका यदि भवति चेत् , विषमकोष्ठोक्तोऽधःपङ्क्तिः विषमकोष्ठोक्तो विधिः कार्यः । समा चेत्समसंख्याका चेत् , तत्तयमिदानीमुक्तो विधिः कार्यः ॥ ३८९-३९२ ॥ इति द्रुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्वमस्तालाध्यायः यैरङ्गैः परितैर्नष्ठैर्लभ्यन्ते ये प्लुतादयः । तेभ्य उद्दिष्टसंस्थेभ्यस्तदङ्कावाप्तिरिष्यते ।। ३९३ । द्रुतहीनाद्यकोष्ठासु पक्तिपूर्ध्वासु यो लघुः । तस्मादुद्दिष्टरूपस्थान्नाङ्कः कश्चिदवाप्यते ।। ३९४ ॥ २१५ (सु० ) अथान्यासां पङ्क्तीनां नष्टमाह-कोष्ठ इति । समोर्ध्वपङ्क्तिस्य इति; द्वितीयचतुर्थादिः, तत्र स्थिते; परासाम्; अन्यासां पङ्क्तीनाम्; कोष्ठे द्वितीयाङ्कात् अधस्तनः, अधिक: ; उपान्त्यः, तृतीयपञ्चमावित्यादि अधस्तनवत् । एवंच अपतितात् द्रुतो लभ्यते, ततः पतितात् लघुर्लभ्यते । उपान्त्यानां पतितयोः, आनन्तर्य नैरन्तर्यन्यायेन अष्टौ महान् भवेत् । लघुर्गुरुश्च प्लुत इति । रूपपूर्ती ; रूपस्य लघ्वादिस्वरूपस्य, पूर्वौ परिपूरणे सति, स्वीयपङ्क्तिगा या अङ्काः पूर्ववत् अधः पङ्क्तिवत् निवर्तन्ते । लघावङ्कद्वयम् ; गुरावङ्कचतुष्टयम्; प्लुते अङ्कषट्कमिति । अन्यत्सर्वमधः पङ्क्तिसमकोष्ठनष्टवत् । अङ्कनिवृत्तौ तु पुनर्विधानम् । परं तु स पुनर्विधिः यस्मात्, तस्मात् कोष्टकात् कर्तत्र्यः, स कोष्टकः यस्यां पङ्क्तौ विद्यते सा पङ्क्तिः यदि विषमा, विषमकोष्ठोक्तो विधिः, यदि समा चेत्, अयमेव विधिः विषमासु ऊर्ध्वश्रेणीषु विद्यमाने कोठे अधः पङ्क्तिविषमकोष्ठनष्टपरिज्ञानवद्विधिः कर्तव्यः । यथा षद्रुतप्रस्तारे नव भेदाः संभवन्ति । तत्र प्रथमो भेदः कीदृगिति प्रश्ने, नवसंख्यायामेकाङ्के पातिते, अवशिष्टेन्वष्टसु द्वितीयाधस्तनः पञ्चाङ्कः तृतीयाङ्कश्च पातित: ; पूर्वपतितात् लघुर्जातः । उपान्यपातानन्तर्यात् स एव लघुः महान् गुरुर्जातः । ततश्च द्रुतद्वयं गुरुश्च प्रथमो भेद इति ॥ ३८९-३९२ ॥ इति द्रुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् (क०) अथ द्रुतमेरुपरपङ्क्त्युद्दिष्टं लक्षयति-यैरङ्गैरित्यादिना । द्रुहनाकोठाविति । तेन हीना द्रुतहीना आद्यकोष्ठा यासां तास्तथोक्ताः, तासूर्ध्वासु पङ्क्तिषु । यो लघुरिति । उद्दिष्टभेदस्थ इत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ संगीतरत्नाकरः लब्धाङ्कन्यूनितान्त्याङ्कशेषादुद्दिष्टवेदनम् । इति द्रुतमेरुपरपङ्क्त्युद्दिष्टम् ___इति द्रुतमेरुनष्टोद्दिष्टे लघुमेरावधःपङ्क्तेष्टाङ्केनान्त्यशेषतः ॥ ३९५ ॥ पूर्वेषां पात्यमानानामपाते पूर्ववद्रुतः । पतितात्सह पूर्वाभ्यां परेण च गुरुभवेत् ।। ३९६ ॥ उद्दिष्टरूपस्थात्तस्माल्लघोः कश्चिदकः । न प्राप्यत इति । नष्टे तस्य लघोरपतिताङ्कलब्धत्वादिति भावः । सुगममन्यत् ॥ ३९३-३९४ - ॥ इति द्रुतमेरुपरपङ्क्त्यु द्दिष्टम् इति द्रुतमेरुनष्टोद्दिष्टे (सु०) अथ द्रुतमेरुपरपङ्क्त्युद्दिष्टमाह-यैरकैरिति । यैरकैः पतितैः नष्टैः ये प्लुतादयो लभ्यन्ते ; तेभ्यश्च ते अङ्काः लभ्यन्ते । समासु पङ्क्तिषु विशेषमाह-द्रुतहीनेति । द्रुतहीन: आद्यकोष्टो यासां ताः, ऊर्ध्वासु पङ्क्तिषु समास्वित्यर्थः । तासु यो लघुः, तस्मात् तत्र कोऽप्यङ्कः प्राप्यते, लब्धाङ्क अन्ते पातयित्वा अवशिष्टात् उद्दिष्टसंख्याज्ञानम् । यथा षड्द्रुतप्रस्तारे द्रुतद्वयं गुरुश्च कतिधा भेद इति प्रश्ने द्वितीयाधस्तनस्य पञ्चाङ्कस्य तृतीयस्याङ्कस्य च पातनात् गुरोर्लब्धत्वात् अष्टौ लब्धाः, अष्टानां नवमाद्ये पातितत्वात् एकोऽवशिष्टः प्रथमो मेद इत्युत्तरम् ॥ ३९३, ३९४- ॥ ___ इति द्रुतमेरुनष्टोद्दिष्टे (क०) अथ लघुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टं लक्षयति-लघुमेरवित्यादिना । पूर्वेषामिति । नष्टाकोनादन्त्यापूर्वेषां द्वितीयादीनामित्यर्थः । पात्यमानानां तेषां मध्ये । अपाते ; एकद्वयादीनामङ्कानामपाते । पूर्ववत् । पूर्वनष्टवद्रुतः । तत्र स्वपतिताद्रुत इति । अपतिताद्रुतो लभ्यत इत्यर्थः । द्वाभ्यामपति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथामस्तालाध्यायः पतिते वृत्तगुर्वङ्कानन्तरे गः प्लुती भवेत् । एवं नष्टस्य बोधः स्यादित्युक्तं सूरिशाङ्गिणा ।। ३९७ ॥ इति लघुमेर्वधः पङ्क्तिःनष्टम् २१७ 1 ताभ्यां द्वौ द्रुतौ, त्रिभ्यस्त्रयो द्रुता इत्यादि द्रष्टव्यम् । पतितात्सह पूर्वाभ्यां परेण च गुरुर्भवेदिति । अत्र तु पतितादङ्काद्गुरुर्लभ्यो भवति । किंविघात् ? पूर्वाभ्यां परेण च सहितात् । एतेन च 'गुरुलाभे चतुरङ्की निवर्तते ' इत्युक्तं भवति । अस्यां पङ्क्तौ लघुहीनानामेवोपक्रान्तत्वात्पतितादपि न लघुर्लभ्यते । किंतु गुरुरेव लभ्यत इत्यत्र विशेषः । वृत्तगुर्वङ्कानन्तर इति । वृत्तो निप्पन्नो गुरुर्येभ्यः, तैर्वृत्तगुरवः, ते च तेऽङ्काः, तेभ्योऽनन्तरे संनिहिते गुरुहेतुभ्यश्चतुभ्यो॑ ऽङ्केभ्यः पूर्वस्मिन्नित्यर्थः । तस्मिन् पतिते सति, गः गुरुः प्लुती भवेत् । स एव गुरुः प्लुतः कर्तव्य इत्यर्थः ॥ -३९५-३९७ ॥ इति लघुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टम् (सु० ) लघुमेरुनष्टं लक्षयति - लघुमेराविति । अधःपङ्क्तेः नष्टाङ्केन ऊनः योऽन्त्योऽङ्कः, तस्य शेषतः शेषे, पूर्वेषामङ्कानां पात्यमानानां मध्ये अपतितात् अङ्कात् द्रुतो लभ्यते । पतितात् पूर्वाभ्यां द्वाभ्यामङ्काभ्यां परेण एकेनाङ्केन च सह गुरुर्भवति । वृत्तगुर्वङ्कानन्तर इति; वृत्तो निष्पन्नो गुरु: येभ्यस्ते वृत्तगुरवः, ते च तेऽङ्काः, तेभ्योऽनन्तरे संनिहिते; गः गुरुः, प्लुती भवेत् । षड्गुतप्रस्तारे लघुहीनाः पञ्च भेदाः । तत्र प्रथमो भेदः कीदृगिति प्रश्ने पञ्चाङ्कमध्ये एकाङ्के पातिते सति, अवशिष्टेषु चतुर्षु पूर्व: त्र्यङ्कः पतितः, चतुर्गुरौ जाते, अनन्तरे एकाङ्के च पतिते गुरुः प्लुतो जातः । षड्गुतप्रस्तारे लघुहीनेषु प्लुतः प्रथमो भेद इति ॥ - ३९५-३९७ ॥ इति लघुमेर्वधः पङ्क्तिनष्टम् 28 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ संगीतरत्नाकर: नष्टे तु परपङ्क्तीनां पातयेत्मातिलोम्यतः । द्वितीयं च तृतीयाधस्तनमङ्कं च पञ्चमम् ।। ३९८ ॥ परेषु च निवृत्तेषु शेषेष्वेष पुनर्विधिः । समस्तनष्टवच्चात्र द्रुतादेः प्राप्तिरिष्यते ॥ ३९९ ॥ किंतु लब्धे लघौ शेषेष्वाद्याधस्तनतः क्रिया । सोऽधस्तनः स्वपङ्क्तिस्थविधिमेवं प्रवर्तयेत् ॥ ४०० ॥ शेषेऽङ्काश्रितपङ्क्त्यङ्काभावे तु लघवो मताः । अधस्तनश्रेणिसंख्या नष्टस्यैष विधिः स्मृतः || ४०१ ॥ इति लघुमेरुनम् ( क ० ) अथ लघुमेरुपरपङ्क्तीनां नष्टमाह - नष्टे त्वित्यादिना । प्रातिलोम्यतः पातयेदिति । अत्र प्रातिलोभ्यशब्देन द्वितीयतृतीयाधस्तनपञ्चमाङ्केषु पात्येषु क्वचिदनुपपत्त्या तृतीयाङ्कपातनम् । किंच 'समस्तनष्टवात्र द्रुतादेः प्राप्तिरिष्यते इति शेषेष्वाद्याधस्तनतः क्रियेति सोऽधस्तनः स्वपङ्क्तिस्थ विधिमेवं प्रवर्तयेदिति चातिदेक्ष्यमाणेष्वर्थेषु कचिदनुपपत्त्या अन्यथाकरणं च विवक्षितम् । तत्र कानुपपत्तिरिति चेत्; उच्यते - प्रस्तुतैकलध्वादिभेदनियमभङ्ग एवानुपपत्तिः, सा मा भूदिति प्रातिलोम्याश्रयणं कर्तव्यमित्यर्थः । आद्याधस्तनत इति । आद्यायां तिर्यक्पङ्क्तौ स्थितात् लघुहेतोरधस्तन इत्यर्थः । अत्र आद्यग्रहणाभावे तृतीयादितिर्यक्पङ्क्तिपु द्वितीयादितिर्यक्पङ्क्तिम्थोऽप्यधस्तनया न प्राप्नोति । अतः कर्तव्यमाद्यग्रहणम् । शेषेऽङ्काश्रितपङ्क्त्यङ्काभावे तु लघवो मता इति । अङ्काश्रितपङ्क्त्यङ्काभावे पातयोग्यैरक्राश्रितश्चासौ पङ्क्त्यङ्कश्च तत्तन्नष्टभेदोचितपङ्क्तौ तत्तत्तालापेक्षया अन्त्याक इति यावत् । तस्याङ्कस्याभावे तु शेषे । तत्तन्नष्टभेदस्वरूप लेखने वामसंस्थत्वेन प्रवृत्ते सति चरमभाग इत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमस्तालाध्यायः २१९ गुरुमेरोरधःपङ्क्तौ नष्टं सकलनष्टवत् । प्लुतलाभस्तु गुरुवत् , इति गुरुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टम लघवो मता इति । तत्तद्भेदानुगुण्यनैकद्वयादयो लघवो ग्राह्या इत्यर्थः । इममेवाथै स्वष्टीकर्तुमुक्तम् , ' अधस्तनश्रेणिसंख्या ' इति लघव इत्यस्य विशेषणम् । नष्टाङ्कश्रिताङ्केऽधस्तनी श्रेणिरेका चेद् ; एको लघुर्माह्यः, द्वे चेलौ, तिस्रश्चेत्त्रय इत्यादि द्रष्टव्यम् ॥ ३९८-४०१ ॥ ___ इति लघुमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् (सु०) लघुमेरौ परपङ्क्तीनां नष्टमाह-नष्टे त्विति । पतितनष्टाश्रावशेषे प्रातिलोम्यत: पूर्वपूर्वद्वितीयतृतीयस्याधस्तनं पश्चमाकं पातयेत् । रूपपूर्ती पूर्ववत् । अङ्कनिवृत्तौ जातायां पुनरप्येष एव विधिः कार्य: । द्रुतादे: प्राप्तिस्तु समस्तनष्टवत् । किं त्वयं विशेष:-लघौ लब्धे शेषेषु अवशिष्टेषु य आद्यः, तस्य अध:स्थितादात् विधि: ; सोऽध:स्थितावङ्कः, स्वपङ्क्तिस्थविधि ; स्वपङ्क्तौ योऽङ्को विहितः, तमेव प्रवर्तयेत् । अङ्काश्रितपङ्क्त्यकाभावे तु; अधस्तनश्रेण्यो यावत्यः, तावत्संख्याका लघवो ज्ञातव्याः । यथा षड् द्रुतप्रस्तारे एकलघवः सप्त भेदाः; तेषु प्रथमो भेदः कीदृगिति प्रश्ने अन्त्यसप्ताङ्कमध्ये एकाङ्के पातिते अवशिष्टेषु षट्सु द्वितीयः चतुरङ्कः, तृतीयाधस्तनो द्वयङ्कश्च पातिते, निरन्तरपतितत्वात् गुरुः, अङ्काभावे लघुः, ततश्च लघुर्गुरुश्च प्रथमो भेद इति ॥ ३९८-४०१ ॥ इति लघुमेरुपरपङक्तिनष्टम् (क०) अथ गुरुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टमाह-गुरुमेरोरित्यादिना । प्लुतलाभस्तु गुरुवदिति । यथा लघुमेरोरध:पङ्क्तौ पतिताद्गुरुर्लब्धः, तथा गुरुमेरोरधःपङ्क्तौ निरन्तरपतिताभ्यां प्लुतो लभ्यत इत्यर्थः ॥४०१-॥ इति गुरुमेर्वध:पक्तिनष्टम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० संगीतरत्नाकरः परपङ्क्तिवथोच्यते ।। ४०२ ।। तृतीयाधस्तनस्थाने तृतीयोऽङ्कोऽत्र पात्यते । स्थाने तु पश्चमस्याधः पश्चमो लघुवद्गुरौ ।। ४०३ ।। लब्धेऽधोव्रजनं' शेषाल्लघुवद्गुरुलम्भनम् । लघुमेरुवदन्यत्तु नष्टे स्यात्परपङ्क्तिः ।। ४०४ ॥ ___इति गुरुमेरुनष्टम् (सु०) गुरुमेर्वध:पङ्क्तिनष्टमाह-गुरुमेरोरिति । गुरुमेरोः अध:पङ्क्तौ सकलनष्टवत् नष्टं कार्यम् । प्लुतलाभस्तु गुरुवदिति । यथा लघुमेरो: अध:पङ्क्तौ पतितात् गुरुर्लब्धः, तथा गुरुमेरो: अध:पङ्क्तौ निरन्तरपतिताभ्यां प्लुतो लभ्यत इति । यथा षड्द्भुतप्रस्तारे गुरुहीनाश्चतुर्दश भेदा:, तत्र प्रथमभेदे पृष्टे अन्त्याङ्कमध्ये एकाङ्के पातिते, अवशिष्टेषु त्रयोदशसु पूर्वोऽष्टाङ्कः पञ्चाङ्कश्च पतितौ गुरौ लब्धव्ये, प्लुतो गुरुभवेदित्यनेन प्लुतः प्राप्तिरिति ॥ ४०१ ॥ इति गुरुमेर्वधःपङ्क्तिनष्टम् (क०) अथ गुरुमेरुपरपङ्क्तिषु नष्टमाह-परपङ्क्तिष्विति । लघुवदगुरौ लब्ध इति । लघुमेरौ परपङ्क्तिघु लघौ लब्धे यथा आद्याधस्तनतः क्रिया कृता, तथात्र गुरौ लब्धे सति । शेषादधोव्रजनमिति । शेषादिति ल्यव्लोपे पञ्चमी । शेषमधिष्ठाय आद्याधस्तनतः क्रिया कर्तव्येत्यर्थः । लघुवद्गुरुलम्भनमिति । लघुमेरोरपरपङ्क्तिषु पतितात् यथा लघुप्राप्तिः, तथात्र पतिताद्गुरुप्राप्तिरित्यर्थः । शिष्टं लघुमेरुवद्रष्टव्यमित्याह-लघुमेरुवदिति ॥ -४०२-४०४ ॥ इति गुरुमेरुनष्टम् । इति गुरुमेरुपरपक्तिनष्टम 1 अधोगमनमिति सुधाकरपाठः. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः समस्तनष्टवनष्टं प्लुतमेरावुदाहृतम् । इति प्लुतमेरुष्टम् विशेषः कथ्यते त्वेष द्वितीयादिषु पङ्क्तिषु ॥ ४०५ ।। अधो गच्छेत्प्लुते पूर्णे गुरुमेरौ गुराविव । २२१ - (सु० ) गुरुमेरोः परपङ्क्तिनष्टमाह — परपङ्क्तिष्विति । लघुमेरुनष्टवत् सर्वम् । किंतु लघुमेरौ तृतीयस्याधस्तनोऽङ्कः पात्यते । अत्र तस्य स्थाने तृतीयोऽङ्कः पात्यते । पञ्चमस्य स्थाने पञ्चमस्याधस्तनाङ्कः पात्यः । लघुमेरौ घौ लब्धे यथा अधोगमनम् ; तथात्र गुरुमेरौ गुरौ लब्धे अधोगमनं शेषात् विधानम् । अङ्काभावेऽपि यथा अधस्तनश्रेणिसंख्या लघवः लघुमेरौ प्राप्यन्ते, तथात्र गुरवः प्राप्यन्त इति । यथा षड्गुतप्रस्तारे एकगुरवः पञ्चभेदाः, तत्र प्रथमे भेदे पृष्टे अन्त्यामध्ये एकाङ्कपतिते, अवशिष्टेषु चतुर्षु पूर्वो द्वयङ्कः, एकाङ्कश्च पतिते गुरुर्लब्धः, लब्धे गुरौ आद्यात् त्रिषट्तादङ्कादारभ्य क्रियायां क्रियमाणायामेकाङ्के लब्धे पतिते लघुर्लब्ध: । ततश्च लघुर्गुरुश्च प्रथमो मेद इति ॥ - ४०२ - ४०४ ॥ इति गुरुमेरुनष्टम् । इति गुरुमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् (क० ) अथ प्लुतमेरुनष्टं लक्षयति-- समस्तनष्टवदित्यादिना । प्लुतमेरोरधः पङ्क्तौ नष्टं सर्वनष्टवद्रष्टव्यमित्यर्थः ॥ ४०४-॥ इति प्लुतमेरुनष्टम् (सु० ) प्लुतमेरुनष्टं निरूपयति - समस्तेति । साधारणनष्टवत् प्लुतमेरुनष्टं ज्ञातव्यम् ॥ ४०४- ॥ इति रुष्टम् (क० ) द्वितीयादिषु परपङ्क्तिषु विशेषं दर्शयति--अधो गच्छेदित्यादिना । गुरुमेरौ गुराविवेति । गुरुमेरौ गुरौ लब्धे यथा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ संगीतरत्नाकरः द्रुतो लघुर्गुरुर्बान्त्यैरबैलब्धः प्लुती भवेत् ॥ ४०६ ।। तदकाधस्तनैः सार्धमङ्कषट्कमतीत्य च । अधःपङ्क्तौ स्थितैरकैः शेषैरेष पुनर्विधिः ॥ ४०७ ॥ पङ्क्तौ तु प्लुतहीनायां नान्तिमः प्लुततां व्रजेत् । ___ इति प्लुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम् अधोगमनमुक्तं तथात्र प्लुते पूर्णे लब्धे सतीत्यर्थः । अधो गच्छेदिति । आद्याधस्तनतः क्रियां कुर्यादित्यर्थः । अथ प्लुते पूर्ण इत्येतदावृत्त्या अपूर्ण इति पदं विभज्य व्याख्येयम् । प्लुतेऽपूर्णेऽलब्धे सति अन्त्याङ्कन लब्धो द्रुतो लघुर्गुरुर्वा प्लुती भवेदिति, प्लुतः कर्तव्य इत्यर्थः । अथवा प्लुतो भवेदित्यनेनैव पूर्व प्लुतन लब्ध इति गम्यते । पङ्क्तौ तु प्लुतहीनायामिति । आद्याधस्तनपङ्क्तावित्यर्थः । नान्तिमः प्लुततां व्रजेदिति । अन्तिमोऽकलब्धो द्रुतादिः प्लुतो न भवतीत्यर्थः ॥ -४०५-४०७- ।। ___ इति प्लुतमेरुपरपङ्क्तिनष्टम (सु०) द्वितीयादिषु परपङ्क्तिषु विशेषमाह-शेष इति । अधोगच्छेदिति । प्लुते पूर्ण सति अधोगच्छेत् अध:पङ्क्तिमारभ्य विधानं कुर्यादिति । यथा गुरुमेरौ गुरौ लब्धे अधःपङ्क्तितः क्रिया अन्त्यैरकैः लघुर्वा गुरुर्वा लब्धः प्लुतो भवेत् । तत: तस्य अङ्कस्य अध:स्थितैः अझैः सह अङ्कषट्कमतीत्य प्लुतो भवतीति संबन्धः । शेषैः स्थितैः अङ्क: अधःपङ्क्तौ तु पुनर्विधिः ; तत्र प्लुतहीनायां सर्वाध.पङ्क्तौ अन्तिमः प्लुतो न भवति । यथा अष्टद्रुतप्रस्तारे पञ्च एकप्लुताः, तत्र प्रथमे भेदे पृष्टे एकाङ्कहीन अन्त्याङ्क अवशिष्टेषु चतुर्षु पूर्वो द्वयङ्कः एकाङ्कश्च पतिते, निरन्तरपतितात् द्रुत: अन्त्यैरकै: लब्धत्वात् षड्भिरकैः गुरोः प्लुतत्वं, ततोऽध:पङ्क्तौ पुनर्विधाने क्रियमाणे एकाङ्के पतिते लघुः, ततो लघु: प्लुतश्च प्रथमो भेद इति ॥ ४०५-४०७ ॥ इति प्लुतमेरुपरपक्तिनष्टम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमस्तालाध्यायः सर्वोद्दिष्टवदुद्दिष्टं लघुमेर्वादिषु त्रिषु ॥ ४०८ ॥ इति लघुमेर्वादिमेस्त्रयोदिष्टम् इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेवनन्दननिःशङ्क शार्ङ्गदेवविरचिते संगीतरत्नाकरे पश्चमस्तालध्यायः ॥ ५ ॥ (क०) लघुमेर्वादिमेरुत्रयोद्दिष्टमाह-सर्वोद्दिष्टवदिति । 'यैरकैः पतितैनष्टः' इत्यत्र यदुक्तं तदेव सर्वत्रानुसंधेयमित्यर्थः ।। -४०८ ॥ इति लघुमेर्वादिमेरुत्रयोहिष्टम् एवं व्याकुर्वता सम्यङ्मार्गदेशीविभागतः । यस्तालप्रत्ययः कल्लिनाथेन निरणायि सः ॥ इति श्रीमदभिनवभरताचार्यरायवयकारतोडरमल्लश्रीलक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ (सु०) लघ्वादिमेरूणामुद्दिष्टमाह-सर्वेति । सर्वसाधारणोद्दिष्टवत् लघ्वादिमेरुद्दिष्टं ज्ञातव्यम् ॥ -४०८ ॥ इति लघुमेर्वादिमेरुत्रयोद्दिष्टम् इति श्रीमदन्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीअनपोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीसिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां सुधाकराख्यायां पञ्चमस्तालाध्याय: समाप्तः ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवाभ्यां नमः श्री-निःशङ्कशादेव प्रणीतः संगीतरत्नाकरः चतुरकल्लिनाथ-विरचितया कलानिध्याख्यटीकया सिंहभूपालविरचितया संगीतसुधाकराख्यटीकया च समेत: षष्ठो वाद्याध्यायः ततं येनावनद्धं च भुवनं निजमायया । आनन्दघनमध्येमि तं ब्रह्मसुषिरे हरम् ॥ १॥ चित्रा वाचः प्रवर्तन्ते धातुतिविचित्रिताः । यतस्तं नौमि विस्तारतचौघानुगतं शिवम् ॥ २॥ (क०) अथ गीतोपयोगित्वेन तदनन्तरोद्दिष्टस्य वाद्यस्य प्रकरणमारभमाणस्तावदादौ समुचितेष्टदेवतां स्मृत्वा स्तौति-ततं येनेत्यादिना श्लोकद्वयेन । येन ; परमेश्वग्ण क; ; निजमायया करणभूतया, भुवनं ततं विस्तारतम् । अवनद्धं च बद्धं च । आनन्दघनम् ; निरतिशयानन्दस्वरूपम् । तम्; हरम् । ब्रह्मसुषिरे; हृत्पङ्कजे, हृत्पङ्कजस्य ब्रह्मसुषिरत्वं 20 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ संगीतरत्नाकरः प्रागेव पिण्डोत्पत्तिप्रकरणे 'चेतनस्थानम्' इत्यत्र प्रतिपादितम् । अध्येमि ; स्मरामीति संबन्धः । अत्र ततावनद्धघन सुषिरशब्दैर्वक्ष्यमाणा वाद्यभेदा ध्वन्यन्ते । चित्रा वाच इति । धातुवृत्तिविचित्रिता इति । धातवो भूवादयः, वृत्तयः समासा वा अभिधागौण्यादयो वा । धातुभिर्वृत्तिभिश्च विचित्रिता: चित्रा वाचः । विविधानि वाक्यानि वेदादीनि यतः शिवात् प्रवर्तन्ते । तेन कारणेन कर्तृत्वेन वा प्रवक्तृत्वेन वा कारणभूतादित्यर्थः । विस्तारतन्त्रौघानुगतमिति । विस्तारवान् विस्तारः, तत्त्वानां महदादीनाम्, ओघः समूहः । विस्तारश्चासौ तत्त्वौघश्च तेनानुगतम् । तदुत्पत्तिस्थितिलयाधिष्ठानत्वात्तमनुगतो वा । तच्छब्दात् ; " तत्सृष्ट्रा तदेवानुप्राविशत् " ( तै० उ० २ - ६ ) इति श्रुतेः । तं शिवं नौमीति संबन्धः । अत्र धात्वादिभिः शब्दैर्वक्ष्यमाणा वाद्यविधयो ध्वन्यन्ते ॥ १, २ ॥ " (सु० ) एवं पञ्चमाध्याये सपरिकरं गीतमुक्तम् । भतो वक्ष्यमाणयोर्वाद्यनृत्तयोर्मध्ये वाद्यानुगान्नृत्ताद्वाद्यस्य प्रधानत्वाद्गीतानुगामित्वाच्च गीताभिव्यक्तिहेतुत्वाच्च वीणाद्यैर्गीतानन्तरं वाद्यं विवक्षुर्मङ्गलमाचरन्नभिधेयमभिव्यनक्ति - ततमिति । तम् ; शिवं हरम् अध्येमि स्मरामि । " इक् स्मरणे" (धा० अ० १०४७) इत्यनेनाधिपूर्वस्येकः स्मरणार्थत्वात् । कुत्र स्मरामि ? ब्रह्मसुषिरे ; ब्रह्मरन्ध्रे ; तद्धयुपासनस्थानं परमेश्वरस्य । कथं भूतम् ? आनन्दघनम् ; आनन्देन घनं व्याप्तम् । अथवा आनन्दः सुखरूपश्वासौ घनः कूटस्थश्च तथाविधं तम्, कम्? येन भुवनं जगत् ततं व्याप्तम् । अवनद्धम् अन्तरपि स्यूतम् । ननु कथं तस्य नियामकस्य व्याध्यादिः संभवति ? अत आह— निजमाययेति । मायिका एवैते धर्माः, न तु तात्त्विकाः । " आनन्दो विषयानुभवो नित्यत्वमिति सन्ति धर्माः " इति पञ्चपादिकाचार्यवचनात् । पक्षे अहं वाद्यम् अध्येमि स्मरामि । अभिधातुमभिलषामीत्यर्थः । शिवं ; कल्याणरूपम्, येन; वाद्येन, ततं वीणादिकम्, अवनद्धम् मुरजादिकं च प्रसिद्धमिति शेषः । आनन्ददायकं घनं कांस्यतालादिकं च, सुषिरं वंशादिकं वाद्यम् । निजमायया ; निजप्रपञ्चेन, ब्रह्म, I Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ __षष्ठो वाद्याध्यायः गीतं चतुर्विधाद्वाद्याजायते चोपरज्यते । मीयते च ततोऽस्माभिर्वाद्यमद्य निगद्यते ॥ ३ ॥ तत्ततं सुपिरं चावनद्धं घनमिति स्मृतम् । चतुर्धा तत्र पूर्वाभ्यां श्रुत्यादिद्वारतो भवेत् ॥ ४ ॥ गीतं ततोऽवनद्धेन रज्यते मीयते घनात् । बृहत् विस्तृतमित्यर्थः । मङ्गलाचरणबाहुल्यस्य श्रेयोबाहुल्यहेतुत्वात्पुनरपि मङ्गलमाचरति-चित्रा इति । तं शिवं नौमि स्तौमि च । विस्तारेण तत्त्वेषु प्रकृत्यादिषु चतुर्विशतौ अनुगतमनुस्यूतम् । ततश्च चित्रा विचित्रिता वाचः वेदरूपा: प्रवर्तन्ते । धातवः सप्त त्वगादयः, तेषां वृत्तिर्व्यापारविशेषः, तेन विचित्रिता: । अथवा धातवः कफादयः, तद्वृत्त्या विचित्रिता इति । पक्षे शिवं कल्याणरूपं वाद्यं नौमि । विस्तीर्णनादभेदत्वात् , 'विस्तीर्णनादभेदत्वात् विस्तारो धातुरुच्यते' इति वक्ष्यमाणो विस्तारः, तत्त्वमोघश्च गीतानुगवाद्यभेदौ वक्ष्यमाणो, तदनुगतम् । यत: वाद्यात् विचित्रिता वाचो वाद्याक्षराणि प्रवर्तन्ते । अथवा चित्रा वृत्तिर्वक्ष्यमाणस्य वाचः शब्दाः, किंभूताः ? धातुवृत्तिविचित्रिताः; 'ये प्रहारविशेषोत्था: स्वरास्ते धातवो मताः ।' 'वृत्तिर्गुणप्रधानत्वरूपा व्यवहृतिर्मता ।' इति च वक्ष्यमाणः । ते: विचित्रिता इति संबन्धः ॥ १, २ ॥ (क) अत्र गीतप्रकरणानन्तरं वाद्यप्रतिपादने सोपपत्तिको सङ्गति दर्शयति-गीतं चतुर्विधादित्यादिना। तत्र पूर्वाभ्यामिति । तत्र; सुषिरावनद्धधनेषु मध्ये, पूर्वाभ्यां ततसुषिराभ्याम् । श्रुत्यादिद्वारत इति । अत्रादिशब्देन स्वरमूर्छनाक्रमतानालंकारजातिगीतयो गृह्यन्ते । श्रुत्यादय एव द्वारं मुखं तस्मात् गीतं भवेत् , संगीतमुत्पद्यत इत्यर्थः । ततः ; अनन्तरमुक्तं गीतम् अवनद्धेन रज्यते । तत्र तत्र नादसाम्यं यथा भवति तथा ध्वननेन रक्तातिशययुक्तं क्रियत इत्यर्थः । घनात मीयत इति । धन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संगीतरत्नाकरः वाद्यन्त्रीतं वाद्यं सुषिरं मतम् ॥ ५ ॥ चर्मावनद्धवदनमवनद्धं तु वाद्यते । घनो मूर्तिः साभिघाताद्वायते यत्र तद्धनम् || ६ || वाद्यात् लघ्वादिक्रियया संमितं क्रियत इत्यर्थः । एवं चतुर्विधानामपि वाद्यानां गीत एवोपकारकत्वमवगन्तव्यम् ॥ ३४ ॥ (सु०) एवं मङ्गलाचरणं विधाय पूर्वाध्यायैः सह संबन्धमाह - गीत मिति । चतुर्विधात; ततादिलक्षणात् वाद्यात् गीतं जन्यते उत्पाद्यते, उपरज्यते ; रञ्जकं च क्रियते ; मीयते निगद्यते च । यतः यस्मात्कारणात् । अत्र गीतानन्तरं वाद्यं निगद्यते उच्यत इति । अविशेषेण जनोपरञ्जने मानान्युक्तानि । कस्माद्वाद्यात् किं जायत इत्यपेक्षायामाह - ततमिति । ततवाद्यं चतुर्विधम् । ततं, सुषिरम्; अवनद्धं, घनमिति । तत्र पूर्वाभ्यां ततसुषिराभ्यां श्रुतिस्वरादिद्वारेण गीतं भवेत् उत्पाद्यते तद्गीतमवनद्धेन रज्यते अनुरज्यते ; घनात् मीयते गण्यत इति ॥ ३४॥ (क० ) ततादीनां सामान्यलक्षणमाह-वाद्यतन्त्रीत्यादिना । वाद्य वादनीया तन्त्री यस्मिंस्तद्वाद्यतन्त्रीति ततवाद्यस्य लक्षणम् । सुषिरं छिद्रमस्यास्तीति सुषिरमिति सुषिरवाद्यस्य लक्षणम् । चर्मावनद्धवदनमित्यवनद्धवाद्यस्य लक्षणम् । घन इत्यस्य व्याख्यानं मूर्तिरिति । सा ; मूर्तिः । यत्राभिघाताद्वायत इति । यत्र यस्मिन् गीतादौ विषये, अभिघातात् परस्परपीडनाद्धेतोः वाद्यते ध्वन्यते तद्धनमिति, मूर्तिरेव घनमित्यर्थः ॥ ५,६ ॥ ( मु० ) ततादिलक्षणमाह - ततमिति । तन्त्र्या ततं विस्तारितं ततमित्युच्यते । सुषिरं सच्छिदं वंशादि । चर्मणा अवनद्धं पिहितं वदनं मुखं यस्य ततं तन्त्रीततं वाद्यमिति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ षष्ठो वाद्याध्यायः ततं वीणा द्विधा सा च श्रुतिस्वरविवेचनात् । तत्र श्रीशाङ्गदेवेन श्रुतिवीणोदिता पुरा ॥ ७ ॥ वक्ष्यते स्वरवीणात्र तस्यामपि विचक्षणाः । अङ्कित्वा स्वरदेशानां भागानुद्भिन्दते श्रुतीः ।। ८ ॥ तद्भेदास्त्वेकतन्त्री स्यान्नकुलश्च त्रितन्त्रिका । चित्रा वीणा विपश्ची च ततः स्यान्मत्तकोकिला ॥९॥ आलापिनी किंनरी च पिनाकीसंज्ञिता परा । निःशङ्कवीणेत्याद्याश्च शाहूदेवेन कीर्तिताः ॥ १० ।। तदवनद्धम् । घनो मूर्तिरुच्यते । तन्त्री चर्मादिहीनं कांस्यादिघटितमित्यर्थः । सा मूर्तिः अभिघातात् यत्र ध्वन्यते वाद्यते तद्धनमिति ॥ -५, ६ ॥ (क०) तत्र तद्भेदान् दर्शयितुमाह--ततं वीणेत्यादिना । श्रुतिवीणोदिता पुरेति । स्वरगताध्याय इत्यर्थः । तस्यामपि ; स्वरवीणायामपि ; विचक्षणाः; सूक्ष्मबुद्धयः ; स्वरदेशानाम् ; दण्डादिषु षड्जादिस्वरप्रदेशानाम् ; भागान् ; चतुःसंख्याकादिकान् ; अङ्कित्वा; तत्तच्छ्रुतीनां न्यूनाधिकभावो यथा न भवति तथा चिह्नितान्कृत्वा ; श्रुतीः; उद्भिन्दते तीव्रादिकाः श्रुतीः प्रादुर्भावयन्ति । श्रुतिवीणायां तु स्वराः स्वत एव प्रादुर्भवन्ति ॥ ७, ८ ॥ ___(सु०) तद्भेदानाह--ततमिति । वीणा ततमुच्यते । सा द्विधा ; श्रुतिवीणा, स्वरवीणा चेति । तत्र श्रुतिवीणा पूर्वमुक्ता श्रुतिनिरूपणावसरे सारणी प्रस्तावे | स्वरवीणा अधुना वक्ष्यते । तस्यामपि ; स्वरवीणायाम् ; विचक्षणाः ; संगीतमर्मज्ञाः ; स्वरदेशानाम् ; स्वरप्रदेशानां, भागान् ; अवयवान् , अङ्कित्वा; संज्ञान् कृत्वा, श्रुती: उद्भिन्दते ; श्रुत्युदयप्रकारं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ७-८ ॥ (क०) अथ स्वरवीणाभेदानुद्दिशति--तद्भेदास्त्वित्यादिना । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः वंशः पावः पाविका च मुरली मधुकर्यपि । काहलातुण्डुकिन्यौ च चुक्का शृङ्गमतः परम् ॥ ११ ॥ शङ्खादयश्च वाद्यस्य सुषिरस्य भिदा मताः । पटहो मर्दलश्चाथ हुडुक्का करटा घटः ॥ १२ ॥ घडसो ढवसो ढक्का कुडुक्का कुडुवा तथा। रुञ्जा डमरुको डका मण्डिडक्का च डक्कुली ॥ १३ ।। सेल्लुका झल्लरी भाणस्त्रिाली दुन्दुभिस्तथा। मेरीनिःसाणतुम्बक्यो भेदाः स्युरवनद्धगाः ।। १४ ॥ तालोऽथ कांस्यतालः स्याद्धण्टा च क्षुद्घण्टिका । जयघण्टा ततः कम्रा शुक्तिपट्टादयस्तथा ॥ १५ ॥ प्रभेदा घनवाद्यस्य प्रोक्ताः सोढलमनुना । निःशङ्कवीणेत्याद्याश्चेत्यत्र आद्यशब्देन देशान्तरे सुप्रसिद्धा चान्यापि स्वरवीणा गृह्यते । नि.शङ्कवीणेति स्वनामकरणेन अप्रसिद्धामप्यन्यां स्वबुद्ध्या निर्माय तस्याः स्वेच्छया संज्ञां कुर्यादिति गम्यते । एवं सुधिरादिष्वपि द्रष्टव्यम् ॥ ९, १० ॥ __ (सु०) स्वरवीणाभेदानाह-तद्भेदा इति । तस्याः स्वरवीणाया भेदा एकतन्त्रीनकुलादयो ज्ञातव्याः ॥ ९, १० ॥ (क०) सुषिरादिभेदानुद्दिशति-वंशः पाव इत्यादिना॥११-१५-॥ (सु०) सुषिरवाद्यभेदानाह -- वंश इति । वंशादयः सुषिरभेदाः । अवनद्धभेदानाह–पटह इति । पटहमर्दलादयो भेदा अवनद्धगा: अवनद्धवाद्यसंबन्धिनः । धनभेदानाह-ताल इति । कांस्यतालादयो घनवाद्यभेदाः शार्ङ्गदेवेनोक्ताः ॥ ११-१५- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २३१ शुष्कं गीतानुगं नृत्तानुगमन्यद् द्वयानुगम् ॥ १६ ॥ चतुर्थेति मतं वाद्यं तत्र शुष्कं तदुच्यते । यद्विना गीतनृत्ताभ्यां तदोष्ठीत्युच्यते बुधैः ।। १७ ।। ततः परं तु त्रितयं भवेदन्वर्थनामकम् । वाद्यं दक्षाध्वरध्वंसोद्वेगत्यागाय शंभुना ॥ १८ ॥ चक्रे कौतुकतो नन्दिस्वातितुम्बुरुनारदैः । अभिषेके नरेन्द्राणां यात्रायामुत्सवे तथा ॥ १९ ॥ मङ्गलेषु च सर्वेषु विवाहोपनयादिषु ।। उत्पाते संभ्रमे युद्धे नाटके वीररौद्रिणि ।। २० ॥ सर्वातोद्यानि वाद्यन्ते कानिचिचल्पमङ्गले । विश्रान्तौ रङ्गसंस्थानां गायतां नृत्यतामपि ॥ २१ ॥ एतान्युत्साहकारीणि वीराणां मङ्गलाय च । कुवन्ति हृदयस्फूर्ति दुःखमुन्मूलयन्ति च ।। २२ ।। (क०) स्वरूपतश्चतुर्भेद भिन्नस्य वाद्यस्य प्रयोगभेदेन पुनश्चातुर्विध्यं दर्शयति-शुष्कमित्यादिना ॥ १६, १७ ॥ (सु०) वाद्यस्य पुनश्चातुर्विध्यमाह-शुष्कमिति । वाद्यं चतुर्विधं भवति । शुष्कं, गीतानुगं, नृत्तानुगं, गीतनृत्तानुगमिति । तत्र गीतनृत्ताभ्यां विना स्वतन्त्रं यद्वाद्यते तच्छुष्कम् ; तच लोकैर्गोष्ठीत्युच्यते । गीतानुगादित्रयं सार्थकनामकम । गीतानुगम् ; यद् गीतमनुगच्छति तद्गीतानुगम् । नृत्तानुगम् ; यत् नृत्तमनुसरति तन्नृत्तानुगम् । द्वयानुगम् ; यद् गीतं नृत्तं चानुसरति तद् द्वयानुगमिति ॥१६-१७॥ (क०) वाद्यस्येश्वरकर्तृकत्वं दर्शयति-वाद्यं दक्षाध्वरेत्यादिना । शंभुना प्रयोजकेन, नन्दिस्वात्यादिभिः प्रयोज्यैः चक्रे कारितमित्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ संगीतरत्नाकरः गीतनृत्तगतन्यूनपच्छादनपटून्यपि । वाद्यान्यतस्ततादीनि, तत्रादौ महे वयम् ।। २३ ॥ तस्य वादनभेदांश्च विविधाः करसारणाः । सुपिरं पटई तस्य पाटांस्तद्रचनास्तथा ।। २४ ।। वाद्यप्रयोगस्य कालविशेषानाह-अभिषेक इत्यादि । गीतनृत्तेति । गीतनृत्तगतन्यूनप्रच्छादनपटून्यपीति ; अत्रापिशब्देन वाद्यप्रतिपादने प्रयोजनमिदमपि दर्शयति । तत्प्रयोजनं गीतनृत्तगतन्यूनताप्रच्छादनम् । अत्र न्यूनशब्दो धर्मपरत्वेन नेयः । यतस्तत्र पटूनि अतः ततादीनि वाद्यानीति संबन्धः । वाद्यानि वादनीयानीत्यर्थः ॥ १८-२३ ॥ (सु०) वाद्योत्पत्तिमाह-वाद्यमिति । दक्षयागध्वंसेन यो जात उद्वेगः अस्वास्थ्यं तदुपशान्तये शंभुना यद् वाद्यं चक्रे व्यधायि । स्वात्यादिभिर्गणैः अनन्दि सम्यक्कृतमित्यर्थः, वाद्यवादनसमयानाह-अभिषेक इति । उत्पाते ; भूतावेशादिबाधासु, संभ्रमे ; देवतामहोत्सवादिषु राजाभिषेकादिषु सर्वाणि वाद्यानि वाद्यन्ते । अल्पे मङ्गले कानिचित् लोकस्थितिमनतिक्रम्य अल्पान्येव वादनीयानीत्यर्थः । रङ्गसंस्थानां नर्तकानां गायतां च कुशीलवादीनां विश्रान्तौ च स्वल्पान्येव वाद्यानि वादनीयानीत्यर्थः । वाद्यानि स्तुवन्नुपयोगमाह- एतानीति । पटहादिवाद्यानि संग्रामे वीराणामुत्साहमुत्पादयन्ति । प्रहारादिदु:खं नाशयन्ति । ततादीनि तु वाद्यानि गीतादिगतं न्यूनत्वं तत्साम्यात्प्रच्छादयन्ति ॥ -१८-२३ ॥ (क०) तत्र श्रुतिम्वरविवेकनिदर्शकतया गीतोत्पादकमिति प्रथमोद्दिष्टं ततवाद्यमारभ्याध्याये क्रमेण प्रतिपाद्यानर्थानुद्दिशति-तत्रादौ महे वयमित्यादिना। तस्य वादनभेदांश्चेत्यादिभिश्च यथाक्रमं ब्रूमहे इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ षष्ठो वाद्याध्यायः पाटपभववाघानि प्रबन्धानवाद्यसंश्रयान् । मर्दलाख्यं ततो वाद्यं भेदान्मार्दलिकस्य च ॥ २५ ॥ गुणान्दोषांश्च तबृन्दं स्वरूपस्य च लक्षणम् । हुडुक्काधवनद्धानां स्वस्वपाटसमन्वितम् ॥ २६ ॥ घनस्य च गुणान्दोपान वाद्यवादकसंगतान् । हस्तयोश्च गुणानत्र वाद्याध्याये यथाक्रमम् ॥ २७ ॥ अङ्गुष्ठपर्वदैर्ध्य स्यादङ्गुलं द्वादशाङ्गुलम् । वितस्तिस्तद्वयं हस्तो वाद्यभाण्ड मितौ भवेत् ।। २८ ॥ ग्रन्थिव्रणभिदा हीनः श्लक्ष्णः खदिरदारुजः।। सुवृत्तः सरलो दण्डो वितस्तिपरिधिर्भवेत् ।। २९ ।। त्रिहस्तदैर्घ्यस्तावच्च सुषिरं दधदन्तरा। सागुलपरीणाहमूर्ध्वाधो वदने तथा ॥ ३० ॥ कनिष्ठाङ्गुलिमानं वाभग्नं रन्ध्रत्रयं दधत् । त्रेतामिसंस्थितं यद्वा द्वे रन्ध्रे तर्जनीमिते ॥ ३१ ॥ एकमेव त्वधः शङ्कुस्थाने सार्धागुलायतम् । क्रियाकारकसंबन्धो द्रष्टव्यः । वाद्यानां स्वरूपनिरूपणार्थमङ्गुलादिपरिमाणविशेषान् लक्षयति-अङ्गुष्ठपर्वेत्यादिना ।। -२३-२८ ॥ (सु०) अस्मिन्नध्याये अभिधेयान् पदार्थान् संगृह्णाति-तत्रादाविति । परिभाषालक्षणमाह–अङ्गुष्ठेति वाद्यभाण्डादीनां दण्डादीनां च मितौ माने अगुष्ठपर्वदैर्घ्यमगुलं ज्ञातव्यम् । तथाविधैः द्वादशिभिरगुलैर्वितस्ति:, वितस्तिद्वयं हस्त इति ॥ -२३-२८ ॥ (क०) अथैकतन्त्र्यां वीणायां दण्डादिलक्षणकथनपूर्वकनिर्माणप्रकार तत्पवित्रतां चोक्त्वा तद्वादनप्रकारं वामदक्षिणोभयहस्तभेदांस्तदुद्भववाद्यभेदांश्च Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ संगीतरत्नाकरः दधानः ककुभं सारं खादिरं वान्यदारुजम् ।। ३२ ॥ तिर्यक्संस्थेन दैयेणाष्टाङ्गुलं त्र्यमुलायतम् । अगुलाधिकपार्थ च मध्ये कूर्मोनताकृतौ ॥ ३३ ॥ स्थितेन पत्रिकाधारगर्तेन च समन्वितम् । गर्तमध्ये च रन्ध्रेण योन्याकारेण संयुतम् ।। ३४ ।। रन्ध्रे तस्य निविष्टेन रन्ध्रास्थौल्येन शङ्कुना । अन्वितां पत्रिकां मिश्रलोहजां द्वयङ्गुलायताम् ।। ३५ ।। चतुरगुलदैयाँ च मध्ये कूर्मोन्नतां बहिः । निम्नमध्यं मनागन्तर्धारयन्तमधः पुनः ।। ३६ ॥ द्विदण्डिकं शङ्कुनाष्टाङ्गुलदैlयुजा तथा । वृत्तेन त्र्यमुलस्थूलोत्तरार्धश्लक्ष्णमूर्तिना ।। ३७ ॥ कूर्मपृष्ठोन्नतं मध्यमुत्तरार्धस्य विभ्रता । दण्डवक्त्रमितस्थौल्याधरभागयुतेन च ।। ३८ ॥ दण्डवक्त्रप्रविष्टाधोभागेन च विराजितम् । एवंविधस्य दण्डस्योर्ध्वाग्रात्सप्तदशाङ्गुले ॥ ३९ ॥ अधोभागेऽक्षिसदृशं विधाय विवरद्वयम् । एकद्वित्रिगुणां तन्त्री क्षिप्त्वा रन्धे परत्र तु ॥ ४० ॥ तन्त्रीपान्तान्तरे क्षिप्त्वा प्रोतं तद् द्विगुणे ततः । द्विगुणाकर्षणात्कयुत्पुनरेवं समाचरेत् ।। ४१ ।। दर्शयति-'ग्रन्थिव्रणभिदा हीनः' इत्यारभ्य ‘घोपकश्चैकतन्त्रिका' इत्यन्तेन ग्रन्थ संदर्भेण ॥ २९.-१०९ ॥ (सु.) एकतन्त्र्या वीणाया लक्षणमाह---ग्रन्थीति । प्रन्थिः अर्बुदमिव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ षष्ठो वाद्याध्यायः षष्टयफुलपरीणाहं सुपकं वर्तुलं च यत् । तुम्बस्योत्सेधतस्तस्य वदनं द्वादशाङ्गुलम् ।। ४२ ॥ प्रभेदः कुटिलत्वं ताभ्यां हीनः, श्लक्ष्णो मसृणः, सुवृत्तो वर्तुल:, सरलो दीर्घ:, वितस्ति: परिधिर्यस्य ; एवंविध: खदिरकाष्टोत्पन्नो दण्डो भवेत् । हस्तत्रयं दैर्घ्य यस्य तावद्धस्तत्रयप्रमाणं सुषिरं छिद्रमन्तरा मध्ये दधत् धारयत् ; सार्धा गुलपरीणाहमिति सुषिरविशेषणम् । ऊर्ध्वमधश्च वदने मुखद्वयं दधदिति संबन्धः। अभग्नमस्फुटितं रन्ध्रत्रयं कनिष्ठागुलिप्रमाणं त्रेताग्निवत् संस्थितं दधत् ; अथवा रन्ध्रद्वयं तर्जनीप्रमाणकं शङ्कुस्थाने अधस्तादेकं रन्धं सार्धा गुलिप्रमाणकं दधत् दण्डो भवेदिति संबन्ध: । ककुभं वैणिकप्रसिद्धं दधानः, आरैः सह वर्तमानं सारं, खादिरकाष्ठजम्, अन्यकाष्ठजं वा तिर्यक्संस्थितेन पार्श्वस्थेन दैर्येण अष्टाङ्गुलम् , अगुलत्रयविस्तृतम् , अङ्गुलात् किंचिदधिकपार्श्व सार्धागुलपार्श्व सपादाङ्गुलपार्श्व वा कूर्मवत् उन्नता आकृतिर्यस्य ; एवंविधे मध्ये स्थितेन पत्रिकाया आधारभूतेन गर्तेन च समन्वितम् ; गर्तस्य मध्ये च योन्याकारेण रन्ध्रेण संयुक्तेन शकुना युक्तां पत्रिकां धारयन्तम् । कीदृशेन शकुना ? तस्य ककुभस्य रन्ध्रे निविष्टेन रन्ध्र स्थितेन रन्ध्रस्य अस्थौल्यमल्यं यस्य ; कथंभूतां पत्रिकाम् ? कांस्यादिमिश्रेण लोहेन घटितां द्वयगुलायतां चतुरङ्गुलदीर्घा च मध्ये कूर्मवत् उन्नतां मनाक् किंचित् अन्तर्निम्नमध्यम् , एवंविधां पत्रिका बहिर्धारयन्तं ककुभमिति संबन्धः । अथोत्तरार्धस्य मध्यं बिभ्रता शकुना विराजितमष्टाङ्गुलं दैर्घ्य यस्य शङ्को: तथाविधेन वृत्तेन वर्तुलेन द्वयङ्गुलस्थूलमुत्तरार्ध यस्य, श्लक्ष्णा मूर्तिर्यस्य, कथंभूतमुत्तरार्धस्य मध्यम् ? कूर्मपृष्ठवत् उन्नतमिति । दण्डमुखवत् प्रमाणं स्थौल्यं यस्यैवंविधेन अधरभागेन युतेन शङ्कुना, दण्डस्य वक्त्रे प्रविष्ट अधोभागो यस्य ; एवं विधेन शकुना विराजितं ककुभं दधानो दण्डो भवेत् । एवंविधस्येति । एवंविधस्य दण्डस्य अधोभागे नेत्रसदृशं विवरद्वयं विधाय; परत्र रन्ध्रे तु एकद्वित्रिगुणाम् ; एकगुणां द्विगुणां त्रिगुणां वा तन्त्री निक्षिप्य, द्विगुणाकर्षणात् तन्त्री कषेत् आकर्षयेदिति संबन्धः ॥ २९-४१ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ संगीतरत्नाकर: वृत्तस्थानस्थया नाभ्याधोमुख्या मध्यरन्धया । त्र्यङ्गुलायतया युक्तं पृष्ठसंश्लिष्टपूर्वया ॥ ४३ ॥ तुम्बकं मध्यरन्धं स्यात्कर्परं नालिकेरजम् । अन्तस्थरन्ध्र संलग्नं पृष्ठमध्येन रन्ध्रिणा ॥ ४४ ॥ तं दधद्रन्ध्रमध्येऽथ तन्त्रीप्रान्ते निवेश्य तौ । संवेष्ट कीलकेऽन्तस्थे कीलकं भ्रामयेन्मुहुः ।। ४५ ।। तावद्यावद् दृढो बन्धस्तुम्बकस्यैव जायते । एवं तुम्बकमुत्तानं दण्डे तज्ज्ञैर्निबध्यते ॥ ४६ ॥ दोरकं नागपाशेन द्विगुणेनान्वितं ततः । सुबलश्लक्ष्णसूत्रोत्थं दण्डे तुम्बोर्ध्वदेशतः ।। ४७ ।। संवेष्ट्य नागपाशेऽस्मिन् बद्धान्तां दृढां घनाम् । श्लक्ष्णां स्नायुमयीं तन्त्र कृष्टा संपीड्य पत्रिकाम् ॥ ४८ ॥ तन्त्र्या संवेष्टय ककुभं निबध्नीयाद् दृढं ततः । वैणवी यवविस्तारा तन्त्री द्व्यङ्गुलदैर्घ्यभाक् ॥ ४९ ॥ तन्त्रीपत्रिकयोरन्तर्जीवा नादस्य सिद्धये । संदिग्धपत्रिका तन्त्रश्लेषं क्षेप्या कलावता ।। ५० ।। (सु० ) षष्टथगुलेति । तुम्बमलांबुम्, षष्ट्यङ्गुलं सुपक्कं वर्तुलं च यद्भवेत्, तस्य वदनम् उत्सेधतः उत्सेधात् द्वादशाङ्गुलं कुर्यात् । तत्तुम्बकं नाभ्या संयुक्तं नालिकेरजं कर्परं दधत् स्यात् । कथंभूतया नाभ्या ? वृत्तस्थाने फलकसंबन्धस्थाने स्थितया, अधोमुखं यस्याः, तथाविधया मध्ये रन्ध्रसंयुक्तया त्र्यङ्गुलेन आयामेन युक्तया तुम्बस्य पृष्ठे संश्लिष्टं पूर्वे यस्या इति । कथंभूतं कर्परम् ? अन्तः सच्छिद्रं रन्ध्रयुक्तं च रन्ध्रं मध्येन दधदिति संबन्धः । तस्य रन्ध्रस्य मध्ये तन्त्रीप्रान्ते निवेश्य अन्तस्थे कीलके संवेष्टय तं कीलकं मुहुस्तावद् भ्रामयेत्, यावत्तुम्बस्य बन्धो दृढो जायते । एवमिति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ षष्ठो वाद्याध्यायः या पकवेणुवल्कोत्था दोरिका त्रिता शुभा । कनिष्ठाङ्गुलिविस्तारा द्वादशाङ्गुलदैर्घ्यभाक् ॥ ५१ ॥ सुत्ता ममृणा तुम्वादधस्तादगुलत्रये । दण्डे संवेष्टयेन्मन्द्रस्वरस्थानोपलक्षिकाम् ।। ५२ ।। यत्राभिदधिरे धीरास्तां वीणामेकतन्त्रिकाम् । प्रकृतिः सर्ववीणानामेषा श्रीशाङ्गिणोदिता ॥ ५३ ।। दर्शनस्पर्शने चास्या भोगस्वर्गापवर्गदे । पुनीतो विपहत्यादिपातकैः पतितं जनम् ।। ५४ ॥ दण्डः शंभुरुमा तन्त्री ककुभः कमलापतिः । इन्दिरा पत्रिका ब्रह्मा तुम्बं नाभिः सरस्वती ॥ ५५ ।। दोरको वासुकिर्जीवा सुधांशुः सारिका रविः । सर्वदेवमयी तस्माद्वीणेयं सर्वमङ्गला ॥ ५६ ॥ अधस्तुम्बमधोवक्त्रमूर्ध्वं तन्त्री यथा भवेत् । उत्तानं तुम्बं तज्ज्ञैः वैणिकैः दण्डे निबध्यते । तत: अनन्तरं सुबलेन लक्ष्णेन सूत्रोत्थं दोरकं द्विगुणेन नागपाशेन अन्वितं तुम्बोर्ध्वप्रदेशे दण्डे संवेष्टय अस्मिन् नागपाशे बद्धप्रान्ते यस्यैवंविधा स्नायुमयीं तन्त्री कृष्ट्वा आकृष्य पत्रिकां च संवेष्टय दृढं ककुभं तया तन्त्र्या निबध्धीयादिति संबन्धः । ततः अनन्तरं वेणुरचिता यवमात्रायामा द्वयगुलदीर्घा वर्तुला तन्त्री स्यात् । तत: तुम्बादधोभागे दण्डे संवेष्टयेत् ; मन्द्राणां स्वराणां स्थानोपलक्षणाय । एवंविधं लक्षणं यस्या विद्यते तां वीणामेकतन्त्रीमित्याहुः । इयं सर्वासां वीणानां प्रकृतिः । अन्यास्वनुक्तं लक्षणमेतस्या गृहीतव्यमित्यर्थः ॥ ४२-५३ ॥ (सु०) एकतन्त्री वीणां स्तौति-दर्शनेति । वीणावादनविन्यासमाहअध इति । अधोमुखं तुम्बम् अधस्तात् द्विधा भवति । तन्त्री चोर्ध्वं भवेत् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ संगीतरत्नाकरः तथास्या दोरिकादेशं वामस्कन्धे निधाय च ॥ ५७ ॥ ककुभं दक्षिणस्याङ्ग्रेः पाया संधाय यत्नतः । न्यस्तां पृष्ठे कनिष्ठाया वामहस्तस्य कम्रिकाम् ॥ ५८ ॥ सारणात्सारणेत्युक्तामनामाग्गुलिवेष्टिताम् । आकुञ्चन्मध्यमापार्यलग्नां तर्जनिकायतः ॥ ५९॥ निपीडयोरःस्थलासनां तन्त्रीमधिनिधाय च । ऊर्ध्वाधः सारयेन्नादसिद्धयै हस्तं तु दक्षिणम् ॥ ६ ॥ त्यक्त्वा वितस्ति जीवातस्तन्त्री विन्यस्य सारयेत् । अन्यत्रोपरिवाधान्तं नोज़ वक्षःस्थलान्नयेत् ।। ६१ ।। कम्रिका तक्रिया चोक्ता सारणा सा चतुर्विधा ।। उत्क्षिप्ता संनिविष्टाख्योभयी स्यात्कम्पितेत्यपि ॥ ६२ ॥ श्लिष्टा तन्त्री यदोत्प्लुत्य निपतेत्सारणान्मुहुः । तदोरिक्षप्ता संनिविष्टा स्पृष्दैव सारणे भवेत् ।। ६३ ।। क्रमादेतद्वयाभ्यासादुमयी सारणा मता। स्वरस्थाने कम्पनेन कम्पिता कम्रिकोच्यते ॥ ६४ ।। तथा दोरिकादेशं वामे स्कन्धे स्थापयित्वा ककुभं च दक्षिणचरणस्य पार्श्वे यत्नतोऽपसारयित्वा वामहस्तस्य कनिष्ठायाः पृष्ठे न्यस्तां स्थापितां कनिकां वेणुदण्डां सारणात् अध उर्ध्वं प्रसारणात् सारणाशब्दाभिधेयमनामिकं किंचिदगुलिवेष्टितामाकुञ्जन्त्या मध्यमाया: पार्श्वे लग्नां तर्जनिकाग्रेण निपीड्य तन्त्र्याः समीपे निधाय कम्रामाध: सारयेदिति संबन्धः । दक्षिणं तु हस्तं जीवातो वितस्ति त्यक्त्वा तन्त्र्यां विन्यस्य स्थापयित्वा सारयेत् । तं दक्षिणहस्तमुपरि वाद्यादन्यत्र न वक्षःस्थलादूर्ध्वं नयेदिति ॥ ५४-६१ ॥ (१०) सारणाभेदानाह-कम्रिकेति । वादनवेणुदण्डरूपं कम्रिका Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः घातः पातश्च संलेखस्तथोल्लेखावलेखकौ । भ्रमरः संघितच्छिन्नौ नवमी नखकर्तरी ॥ ६५ ॥ व्यापारा दक्षिणस्येति पाणेर्वामस्य तु द्वयम् । स्फुरितः खसितश्चेति करयोरुभयोस्त्वमी ॥ ६६ ॥ घोषो रेफोऽय विन्दुः स्यात्कर्तरी चार्धकर्तरी । निष्कोटिताख्यः स्खलितः शुकवक्त्रश्च मूर्च्छना ॥ ६७ ॥ तलदस्तोऽर्धचन्द्रश्च प्रसारः कुहरोऽपरः । त्रयोदशेति सर्वेऽमी स्युचतुर्विंशतिर्युताः ॥ ६८ ॥ करनामान्यपीमानि मन्वते वाद्यवेदिनः । घातः स्यान्मध्यमाक्रान्ततर्जन्या तन्त्रिकाहतिः ॥ ६९ ॥ इति घातः (१) २३९ तस्याः क्रिया च सारणेत्युच्यते । सा सारणा चतुर्विधा; उत्क्षिप्ता, संनिविष्टा, उभयी, कम्पितेति । एतासां लक्षणमाह - लिष्टेति । यदा कम्रा तन्त्र्या श्लिष्टा सती तन्त्रीमुद्धृत्य पूर्वस्थानं विमुच्य दूरं गत्वा मुहुः वारं वारं सरेत् सारणान्निपतेत् अधोगच्छेत्; तदा उत्क्षिप्तेत्युच्यते । तन्त्रीं स्पृष्ट्वा विमुच्यैव कम्रायाः सारणात् संनिविष्टा ; द्वयाभ्यासात् क्रमात् अस्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा सारणाभ्यासात् उभयी ; स्वरस्थाने कम्पनात् कम्पितेति । वीणावादने करव्यापारमाह-- घात इति । घातादयो नव व्यापाराः दक्षिणहस्तस्य ; स्फुरितखसितौ द्वौ व्यापारौ वामहस्तस्य । घोषादयस्त्रयोदश व्यापाराः द्वयोर्हस्तयोः, सर्वे मिलिता व्यापाराः चतुर्विंशतिः । न केवलमेतानि हस्तव्यापारनामानि, अपि तु हस्तनामान्यपीति वाद्यवेदिन आहुः ॥ ६२-६८- ॥ (सु०) एतेषां क्रमाल्लक्षणमाह - घातः स्यादिति । मध्यमाङ्गुल्या लिष्टया तर्जन्या तन्त्रिकाया आघातो घात इत्युच्यते ; इति घात: (१) । केवलं तर्जन्या रंहतिः पात: ; इति पात : ( २ ) । तया तर्जन्या अन्तर्मध्ये आहतिः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० संगीतरत्नाकरः घातः केवलया पातः, इति पात: (२) संलेखोऽन्तस्तया हतिः। इति संलेखः (३) अन्तर्मध्यमया घातमुल्लेखं संप्रचक्षिरे ॥ ७० ॥ ___ इत्युल्लेख: (४) अवलेखो मध्यमया स्यात्तन्त्रीताडनं बहिः । इत्यवळेख: (५) अगुल्यान्येऽन्ययाप्याहुरुल्लेखं चावलेखकम् ॥ ७१ ॥ सर्वाभिस्तिमृभिस्ताभ्यामथवेति च ते जगुः । अन्तर्बहिर्मुखौ घातौ तयोस्ते ब्रुवते क्रमात् ।। ७२ ।। इति मतान्तरेणोल्लेखावलेखौ भ्रमरोऽन्तःक्रमाच्छीघ्रं चतुरङ्गुलिताडनम् । इति भ्रमरः (१) मध्यमानामिकाभ्यां तु बहिर्घातोऽत्र संधितः ।। ७३ ॥ इति संधित: (७) तर्जनीपार्श्वलग्नायास्तन्या बहिरनामया। हननं छिन्नमाचष्टे श्रीमत्सोढलनन्दनः ।। ७४ ॥ इति च्छिन्नः (०) संलेखः ; इति संलेखः (३)। मध्यमया अगुल्या तद्वति अन्तर्मध्ये घातमुलेख: ; इत्युल्लेख: (४) । मध्यमया बहिस्तन्त्र्यास्ताडनमवलेख: ; इत्यवलेख: (१)। मतान्तरमाह-अगुल्येति । अन्योन्यसंश्लिष्टया अगुल्या उल्लेखोवलेखको कार्यावित्यन्ये आचार्या आहुः । अथवेति । त एव विकल्पेन सर्वाभिरगुलीभिः तिसृभिर्वाभ्यां वा उल्लेखावलेखको कार्यावित्याहुः । तयोः उल्लेखावलेखयो: क्रमात् अन्तर्बहिर्मुखौ घातौ, उल्लेखे अन्तर्मुखः, अवलेखे बहिर्मुख इत्यन्ये आचार्या Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ षष्ठो वाद्याध्यायः क्रमाद् द्रुतं नर्घातश्चतुर्भिर्नखकर्तरी । ___ इति नखकर्तरी (९) इति नव दक्षिणहस्तव्यापाराः स्फुरिते कम्पिता तन्त्रीपृष्ठलग्नेव सारणा ।। ७५ ॥ ___ इति स्फुरितः (१) मुहुः सारणया तन्त्रीघर्षणं खसितो मतः । इति खसितः (२) इति वामहस्तव्यापारद्वयम् तन्त्री लग्नाङ्गुष्ठपार्धा कर्तरीवच्च हन्यते ।। ७६ ॥ कनिष्ठासारणाभ्यां वा यत्रासौ घोष उच्यते । ___इति घोषः (१) दक्षिणानामया यत्र तन्त्रीरन्तनिहन्यते ॥ ७७ ।। वामस्य मध्यमाङ्गुल्या बहिस्तं रेफमूचिरे । इति रेफ: (२) ब्रुवते; इत्यवलेग्वः (१) तन्त्र्या अन्तश्चतसृभिरङ्गुलीभिः क्रमात् शीघ्रं ताडनं भ्रमरः; इति भ्रमर: (६) मध्यमानामिकाभ्यामगुलीभ्यां तन्त्र्या बहिर्घात: मंधित: ; इति संधित: (७) तर्जन्या: पार्श्व श्लिष्टायाः तन्त्र्या अनामिकया बहिः घात: हननं च्छिन्नः; इति छिन्नः (८) चतुर्भिः अङ्गुलीभिः क्रमात् नखैः घात: नखकर्तरी; इति नखकर्तरी (९) इति नव दक्षिणहस्तव्यापाराः ॥ -६९-७४-॥ (सु०) वामहस्तव्यापारद्वयं लक्षयति-स्फुरित इति । तन्त्र्या पृष्ठे लग्ना सारणा कम्पिता इव यत्र स स्फुरित: ; इति स्फुरित: (१) सारणया मुहुः पुनः पुनः, यत्र तन्त्र्याः वर्षणं स: खसितः ; इति खसित: (२) इति वामहस्तव्यापारद्वयम् । त्रयोदशविधमुभयहस्तव्यापारं लक्षयति-तन्त्रीति । यत्र तन्त्री हि; लनाङ्गुष्ठपार्था ; लग्नमङ्गुष्ठपार्श्व यस्याम्, एवंविधा ___31 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ संगीतरत्नाकरः अनामया बहिस्तन्त्रीघाताज्जातो यदा ध्वनिः ।। ७८ ॥ तर्जन्या धार्यते विन्दुनिःशङ्केनोदितस्तदा । इति बिन्दुः (३) अगुलीभिश्चतसृभिः क्रमेण करयोर्द्वयोः ॥ ७९ ॥ बहिस्तन्त्रीहतिस्तूर्ण कर्तरी कीर्तिता बुधैः । इति कर्तरी (४) दक्षिणः कर्तरी कुर्याद्वामहस्तस्तु तन्त्रिकाम् ॥ ८० ॥ यत्र सारणया हन्ति प्राहुस्तामर्धकर्तरीम् । ___ इत्यर्धकर्तरी (५) उत्सृष्टसारणां यत्र हन्ति तन्त्री प्रदेशिनी ॥ ८१ ॥ निष्कोटिताभिधं पाणिममुं वायविदो विदुः । इति निष्कोटित: (६) उत्क्षिप्तया सारणया वामम्तन्त्रीं द्रुतं यदा ॥ ८२ ॥ निहन्ति कर्तरीतुल्यो दक्षिणः स्खलितस्तदा । इति स्खलित: (७) कर्तरीवत् कनिष्ठया सारणया कम्रया वा हन्यते स घोषः; इति घोष: (१) दक्षिणानामया; दक्षिणहस्तस्य या अनामिका तया तन्त्री अन्त: निहन्यते, वामस्य ; वामहस्तस्य मध्यमाङ्गुल्या बहिश्च निहन्यते तं रेफमित्याहुः ; इति रेफः (२) अनामया; अनामिकया अगुल्या बहिः तन्त्र्या घातात् जातो ध्वनिः यदा तर्जन्याधार्य स्थिते सति, एवं क्रियते तदा विन्दुः ; इति बिन्दुः (३) द्वयोः करयोः हस्तयो: चतसृभिः अगुलीभिः तन्त्र्या बहिः तूर्ण शीघ्रं, तन्त्रीहतिः, तन्त्र्या घात: कर्तरी स्यात् ; इति कर्तरी (४) दक्षिणः दक्षिणहस्तः, यत्र पूर्वोक्तां कर्तरी करोति, वामस्तु सारणया कम्रया तन्त्रिका हन्ति, नाम अर्धकर्तरीत्याहुः; इत्यर्धकर्तरी (५) यत्र प्रदेशिनी तर्जनी उत्सृष्टमाग्णां, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ पष्ठो वाद्याध्यायः तन्त्रीकर्षोऽङ्गुष्ठतर्जन्यमाभ्यां शुकवकः ।। ८३ ।। इति शुकवाक: (८) उद्वेष्टपरिवर्ताभ्यां तन्त्र्या भ्राम्यति दक्षिणे । स्वरस्थाने द्रुतं कम्रासारणं मूर्च्छना मता ॥ ८४ ॥ । इति मूर्छना (९) तलेन दक्षिणो हम्तस्तन्त्रीं हन्तीतरः पुनः । प्रदेशिन्या स्पृशेद्यत्र तलहम्तो भवेदमौ ॥ ८५ ॥ इति तलहस्त: (१०) स्पर्शोऽगुष्ठकनिष्ठाभ्यामर्धचन्द्रोऽभिधीयते । इत्यर्धचन्द्रः (११) चतुरगुलिसंघाते कुश्चिताङ्गुष्ठके तले ॥ ८६ ॥ कनिष्ठातर्जनीपाश्वस्पर्शस्तन्त्र्याः प्रसारकः । इति प्रसारकः (१२) करस्य किंचित्साङ्गुष्ठसकलागुलिकुञ्चने ।। ८७ ॥ कनिष्ठाङ्गुष्टसंस्पर्शस्तन्त्र्याः स्यात्कुहरः करः । इति कुहर: (१३) इति त्रयोदशोभयहस्तव्यापाग: सारणां त्यक्त्वा तन्त्री हन्ति, अमुं पाणिं निष्कोटिताभिधमिति वाद्यविद आहुः ; इति निकोटितः (६) यत्र वामः वामहस्त:, उत्क्षिप्तया सारणया कम्रया यदा तन्त्री द्रुतं हन्ति, दक्षिणः, दक्षिणहस्त: कर्तरीतुल्यः कर्तरीहस्तसदृश: तदा स्खलित:; इति स्खलित: (७) अङ्गुष्ठतर्जन्योरपाभ्यां तन्त्र्या कर्षः आकर्षणं यत्र तं शुकवक्त्रमित्याहुः; इति शुकवक्त्रक: (८) दक्षिणे ; दक्षिणहस्ते तन्त्र्या उद्वेष्टपरिवर्ताभ्यां वामदक्षिणगामित्वेन भ्राम्यति सति, स्वरस्थाने द्रुतं कमाया: सारणं मूर्च्छना भवति ; इति मूर्छन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ संगीतरनाकरः एतद्धस्तसमायोगाद्वादनं वाद्यमुच्यते ।। ८८ ॥ छन्दो धारा कैकुटी च कङ्कालं वस्तु च द्रुतम् । गजलीलं दण्डकं चोपरिवाद्यमतः परम् ॥ ८९ ।। वाद्यं पक्षिरुतं चेति दशधा परिकीर्तितम् । खसितस्फुरितो यत्र क्रियेते बहुधा करो ।। ९० ॥ तारं च स्पृश्यते स स्याच्छन्दो यतिमनोहरः । इति च्छन्द: (१) स्खलितो मूर्छना चाथ कर्तरीरेफसंयुतौ ।। ९१ ।। उल्लेखरेफौ यत्रास्तां धारां ब्रूते हरप्रियः । इति धारा (२) (९) दक्षिणहस्ततलेन तन्त्री हन्ति, इतरः वामहस्त: पुन: प्रदेशिन्या तर्जन्या तन्त्री यत्र स्पृशेत् असौ तलहस्तो भवेत् ; इति तलहस्त: (१०) अङ्गुष्ठकनिष्ठाभ्यां तन्त्र्या स्पर्श: अर्धचन्द्रः इत्यर्धचन्द्रः (११) अर्धचन्द्रतले कुञ्चिताङ्गुष्ठके सति, चतसृथ्वङ्गुलीषु कनिष्ठातर्जन्योः पार्वाभ्यां तन्त्र्या स्पर्शः प्रसारः; इति प्रसारकः (१२) करस्य ; हस्तस्य अङ्गुष्टसहितास्वङ्गुलीषु, किंचित् अल्पमाकुञ्चितासु तन्त्र्याम् कनिष्ठाया अङ्गुष्ठेन च स्पर्शः कुहरः ; इति कुहरः (१३) इति त्रयोदशोभयहस्तव्यापाराः||-७५-८७।। (सु०) पूर्वोक्तं वाद्यं लक्षणपूर्वकं विभजते-एत दिति । एतेषां पूर्वोक्तानां हस्तव्यापाराणां घातादीनां समायोगात् मेलनात् यद्वादनं तद्वाद्यमित्युच्यते । तस्य छन्द आदयः पक्षिरुतान्ता दश भेदाः । तान् क्रमेण लक्षयतिखसितंति । यत्र खसितस्फुरितौ पूर्वोक्तौ करौ बहुधा मुहुर्मुहुः क्रियेते, तारस्थानं च स्पृश्यते स छन्दः; इति च्छन्दः (१) उल्लेखरेफौ, पूर्वोक्तो उलेखादिकरसंयुक्तौ, कर्तरीरेफसंयुतौ ; कर्तर्यादिरेफसंयुतौ च, अथ मूर्च्छना स्वलितश्च यत्र आस्तां तां धारामिति हरप्रियः ब्रूते ; इति धारा (२) शुकवक्त्रादयः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ षष्ठो वाद्याध्यायः शुकवतः स्फुरितको घोषः स्यादर्धकर्तरी ।। ९२ ॥ क्रमादेते करा यत्र तामाहुः कैकुटी बुधाः । इति कैकुटी (३) स्फुरितैर्मूर्च्छनासंज्ञैः कर्तरीत्रितयेन च ।। ९३ ॥ युक्तं करैः क्रमादेभिः कङ्कालं कथितं बुधैः । इति कङ्कालम् (४) स्पष्टतारमुपेतं यत्कर्तर्या खसितेन च ॥ ९४ ॥ कुहरेणाथ तद्वाद्यं वस्तु वस्तुविदो विदुः । इति वस्तु (५) कर्तरीखसितो यत्र क्रमेण कुहरः करः ॥ ९५ ॥ रेफभ्रमरघोषाश्च तद् द्रुतं ब्रुवते बुधाः । इति द्रुतम् (६) बहुधा मूर्छना हस्ताः स्फुरिताः कर्तरी ततः ॥ ९६ ॥ खसितो यत्र तत्माहुर्गजलीलं कलाविदः । इति गजलीलम् (७) स्खलितो मूर्च्छनाख्यश्च कर्तरीरेफसंयुतः ।। ९७ ।। खसितो यत्र वाद्यज्ञा दण्डकं तद्वभापिरे । इति दण्डकम् (6) करा: क्रमात् यत्र क्रियन्ते सा कैकुटी ; इति कैकुटी (३) स्फुरितमूर्च्छना नग्वकर्तरीकर्तर्यर्धकर्तरीभिर्युक्तं कङ्कालः ; इति कङ्काल: (४) यत्र वाद्ये स्पष्टं तारस्थानोपेतं, कर्तरीखसितकुहराश्च क्रियन्ते तद् वाद्यं वस्त्विति वाद्यवेदिन आहुः ; इति वस्तु (५) यत्र क्रमेण कर्तर्यादयः कराः क्रियन्ते तद् द्रुतम् ; इति द्रुतम् (६) यत्र मूछना हस्ताः बहुधा: बहवः, तत: अनन्तरम् ; स्फुरितकर्तरीखसिताः, तत् कलावेदिन: गजलीलमिति प्राहुः ; इति गजलीलम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ संगीतरत्नाकर: ऊर्ध्वाधोग क्रमाद्धस्तौ रेफकर्तरि काहयौ ।। ९८ ।। निष्कोटिते तले हस्ते द्वावप्युपरिवाद्यके । इत्युपरिवाद्यकम् (९) समस्तहस्तवाद्यं तु वाद्यं पक्षिरुतं मतम् ।। ९९ ॥ इति पक्षिरुतम् (१०) इति दशविधं वाद्यम् सकलं निष्कलं चेति द्विविधं वाद्यमुच्यते । तन्त्री संलग्नजीवातः स्थूलो यत्र ध्वनिर्भवेत् ।। १०० ।। तदुक्तं सकलं वाद्यमपरे त्वन्यथा जगुः । आधोरिकां पत्रिकां चेत्तर्जनी स्पर्शवर्जितम् ।। १०१ ।। सार्यते कम्रिकावाद्यं तदाहुः सकलाभिधम् । अपनी कलां म्रामधो नैषाददेशतः ।। १०२ । (७) स्खलितादयः कराः क्रमेण यत्र क्रियन्ते तद् दण्डकम् ; इति दण्डकम् (८) हस्तौ द्वौ हस्तौ क्रमात् ऊर्ध्वाधोगौ ; दक्षिणहस्त ऊर्ध्वप्रचारवान्, वामहस्त अधः प्रचारवान् ; ततः अनन्तरं दक्षिणो रेफः, वामः कर्तरी; ततो दक्षिणो निष्कोटितः, वामस्तलहस्तः, तदुपरिवाद्यकम् ; इत्युपरिवाद्यकम् ( ९ ) समस्तानां घातादीनां हस्तानां वाद्यं पक्षिरुतम्; इति पक्षिरुतम् (१०) इति दशविधं वाद्यम् ॥ - ८८-९९ ॥ (सु० ) अन्यथा वाद्यभेदानाह - मकलमिति । सकलनिष्कलभेदेन वाद्यं द्विविधम् । तत्र सकलं लक्षयति - तन्त्रीति । तन्त्र्या संलग्नया जीवा वीणावादकप्रसिद्धा, तद्धेतुकः स्थूलो नादो यत्र भवति तत् सकलं वाद्यम् । मतान्तरेण अन्यथा लक्षयति- अपर इति । आधोरिका पत्रिका च यत्र तर्जन्या न स्पृश्यते, कम्रिका च सार्यते तद् वाद्यं सकलमिति । निष्कलवाद्यं लक्षयति-अपनीयेति । अधः नैषाददेशतः निषादप्रदेशात्, कलां कलासंज्ञिकाम्, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ षष्ठो वाद्याध्यायः न नयेतर्जनीस्पर्श तन्त्र्याश्चेन्निष्कलं तदा । मुक्ष्मश्चात्र भवेन्नादः सारणामत्र केचन ॥ १०३ ॥ आमध्यमस्वरस्थानं सारणायां प्रपेदिरे । अवोचदिति निःशङ्कः शिष्याभ्यासाय वादनम् ।। १०४ ।। श्रुत्यादिक्रमता गीतनिष्यत्तौ त्विदमादिशेत् । वक्ष्यामः खररन्ध्राणां यद्वंशेऽष्टादशाङ्गुले ।। १०५ ॥ प्रथमे सप्तके स्थानं वीणायामपि तन्मतम् । स्वराणां किंतु वैणानामधराधरतारता ।। १०६ ॥ मध्यमे सप्तके स्थानं ततः स्याद् द्विगुणान्तरम् । तृतीये सप्तके स्थानं ततोऽपि द्विगुणान्तरम् ।। १०७ ।। कम्राम् अपनीय अपसार्येत तन्त्र्यां तर्जनीस्पर्श न नयेत् न प्रापयेत् यदि, तदा निष्कलं वाद्यमिति । अत्र ; निष्कले वाद्ये सूक्ष्मो नादो भवेदिति, केचन आचार्याः सारणायां कम्रायां, आमध्यमस्वरस्थानं ; मध्यमस्वरस्थानपर्यन्तं सारणक्रियां प्रपेदिरे अङ्गयकार्षुः ॥ १००-१०३- ॥ (सु०) वाद्यनिरूपणप्रयोजनमाह-अवोचदिति । इदं वादनं शार्ङ्गदेवः शिष्याभ्यासार्थमवोचत् । श्रुत्यादिक्रमेण गीतनिष्पत्तौ इदं वक्ष्यमाणमकथयत् । वक्ष्यमाणमेवाह-वक्ष्याम इति । द्वादशाङ्गुले वंशे प्रथमसप्तके यद् रन्ध्राणां स्थानं वक्ष्यामः तदेव स्वराणां स्थानं वीणायामपि ज्ञातव्यम् । किं त्वयं विशेष:-वीणासंबन्धिनां स्वराणामधराधराणां तारत्वम् ; वेणुवाद्यानामधराधराणां मन्द्रत्वमिति । मध्यम इति । वीणायां मध्यमे सप्तके स्वराणां स्थानम् ; ततः अष्टादशाङ्गुलवंशात् द्विगुणान्तरं कार्यम् । तृतीये सप्तके मध्यमसप्तकात् द्विगुणान्तरं स्वराणां स्थानम् | अङ्कयते चिह्नयते अमूनि स्वरस्थानानि स्वराणां स्थानानि सुखबुद्धये सुखबोधार्थमुपयुज्यन्ते । स्वरदेशानां यथास्वं श्रुतिसंख्याया विभागात् श्रुतिस्थानस्य धीमा॑नम् | चतु:श्रुतीनां स्वराणां स्थानं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ संगीतरत्नाकरः अङ्केत च स्वरस्थानान्यमूनि सुखबुद्धये । यथास्वं स्वरभेदानां विभागाच्छूतिदेशधीः॥ १०८ ॥ स्याद्राममूर्च्छनादीनामुरोधः सुकरस्ततः । एषोऽपि जनकः प्रोक्ता घोषकश्चैकतन्त्रिका ॥ १०९ ।। तन्त्रीद्वयेन नकुलः स्यादन्वर्था त्रितन्त्रिका । तन्त्रीभिः सप्तभिश्चित्रा विपश्ची नवभिर्मता ।। ११० ।। कोणामुलीवादनीया चित्रा तद्वद्विपश्चिका । क्रमादन्येऽङ्गुलीकोणव्यवस्थामूचिरे तयोः ।। १११ ॥ चित्रायामगुलीमानं विपञ्च्यामुभयं परे । तन्त्रीणामेकविंशत्या कीर्तिता मत्तकोकिला ।। ११२ ।। मुख्येयं सर्ववीणानां त्रिस्थानैः सप्तभिः स्वरैः । संपन्नत्वात्तदन्यास्तु तस्याः प्रत्यङ्गमीरिताः । करणैश्चित्रयन्त्यस्तास्तस्याः स्युरुपरञ्जिकाः ॥ ११३ ॥ चतुर्धा विभजेत् । त्रिश्रुतीनां त्रिधा, द्विश्रुतीनां द्विधेति । एवं श्रुतिपरिज्ञाने ग्राममूर्च्छनातानकूटतानालंकारादीनामुत्कृष्टो बोध: सुगमः । एषोऽपि वीणाजनको घोषः एकतन्त्रीति चोच्यते ॥ -१०४-१०९॥ इत्येकतन्त्रीवीणालक्षणम (क०) नकुलादीनां लक्षणान्यपि स्पष्टार्थानि । तत्र त्रितन्त्रिकैव लोके जन्त्रशब्देनोच्यते । मत्तकोकिलैव लोके स्वरमण्डलमित्युच्यते । मुख्येयमित्यादि । इयं ; मत्तकोकिला सर्ववीणानां मुख्या प्रकृतिरित्यर्थः । तत्र हेतुः-त्रिस्थानः सप्तभिः स्वरैः संपन्नत्वादिति । त्रिस्थानः, मन्द्रमध्यताराख्यस्थानत्रयोद्भूतैरित्यर्थः । तदन्यास्त्विति । मत्तकोकिलातो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ षष्ठो वाद्याध्यायः रूपं कृतपतिकृतं प्रतिभेदस्ततः परम् । स्याद्रूपशेषमोघश्च प्रतिशुष्केति षड्डिधम् ॥ ११४ ॥ करणं तस्य वक्ष्यामि लक्ष्मोदाहरणैः समम् ॥ ११५ ।। मुख्यवीणापयुक्तस्य गुर्वादेर्भञ्जनेन यत। युगपद्वादनं रूपं विपञ्च्यादिषु तद्यथा ॥ ११६ ॥ व्यतिरिक्ता वीणास्तु, तस्याः; मत्तकोकिलायाः । प्रत्यङ्गमीरिता इति । विकृतय इत्यर्थः । करणैश्चित्रयन्त्य इति । करणानि अनन्तरं वक्ष्यमाणानि रूपादीनि । तस्याः स्युरुपञ्जिका इति; तदनुवादित्वादित्यर्थः ॥ -१०९-११३ ॥ (सु०) नकुलादिलक्षणमाह-तन्त्रीति । द्वाभ्यां तन्त्रीभ्यां युक्तो नकुलः । त्रितन्त्रिका ; अन्वर्था, त्रिभिस्तन्त्रीभिर्युक्ता त्रितन्त्रिका ; सप्तभिः तन्त्रीभिः चित्रा ; नवभिः तन्त्रीभिः विपञ्ची इति । एतासां मध्ये चित्रा विपञ्ची च कोणेन वीणावादनेन वैणवादिना अङ्गुलीभिश्च वादनीया । मतान्तरमाह-क्रमादिति । अन्ये ; केचित् , तयोः ; चित्राविपञ्च्योः , अङगुलिकोणव्यवस्थाम् ; अङ्गुलिकोणे व्यवस्थाम् ऊचिरे, चित्रा अगुलीभिः, विपञ्ची कोणेनेति । परे; अन्ये तु, चित्रायाम् अगुलीमात्रम् ; विपच्याम ; अङ्गुलीमि: कोणेन च वादनीयेत्याहुः । एकविंशत्या एकविंशतिसंख्यामि: तन्त्रीभिः मत्तकोकिला । इयं ; मत्तकोकिला, सर्ववीणानां ; सर्वासां वीणानां मध्ये मुख्या, त्रिस्थानस्थैः सप्तभिः स्वरयुक्तत्वात् । अन्याः ; नकुलादयस्तु मत्तकोकिलाया अङ्गम् । ताश्च वक्ष्यमाणलक्षणैः करणैः, तां मत्तकोकिलां चित्रयन्त्यः तस्या उपरञ्जिकाः उपरञ्जनहेतवः ॥ -१०९-११३ ॥ (क०) रूपादीनां करणानां लक्षणान्याह-रूपमिति । मुख्यवीणाप्रयुक्तस्येति । तान्यपि स्पष्टार्थानि ॥ ११४-१२३- ।। 32 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० संगीतरत्नाकरः वाद्यते गुरुमुख्यायां यदा द्वे लघुनी तदा । विपञ्च्यादौ यदा त्वम्या लस्तदान्यासु दद्वयम् ।। ११७ ।। इति रूपम् (१) एतत्कृतपतिकृतं पश्चात्प्रत्यङ्गवादने ॥ ११८ ॥ इति कृतप्रतिकृतम् (२) रूपक्रियाविपर्यासात्पतिभेदो भवेद्यथा । वाद्यते लद्वयं तज्ज्ञैर्मत्तकोकिलया यदा ॥ ११९ ।। गुरुस्तदा विपञ्च्यादिवीणादिरिति तद्विधिः । इति प्रतिभेदः (३) यदा विदारीविच्छेदं कुरुते मुख्यवैणिकः ॥ १२० ॥ तदान्यासां वादनं यद्रूपशेषं तदुच्यते । इति रूपशेषम् (४) यदा विलम्बितलयं प्रयुङ्क्ते मुख्यवैणिकः ॥ १२१ ।। (सु०) करणैश्वित्रयन्त्य इत्युक्तम् , तत्र कानि करणानीत्यपेक्षायां विभागपूर्वकं करणानि लक्षयति-रूपमिति । रूपादिभेदेन करणं षड़िधम् । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-मुख्येति । मुख्यवीणाप्रयुक्तस्य ; मुख्यायां वीणायां प्रयुक्तो यो गुर्वादि: गुरुः प्रयुक्त: लघुर्वा तस्य भञ्जनेन शकलीकरणेन विपच्यादिषु वीणासु युगपद्वादनं रूपम् । तदेव उदाहरणेन दर्शयति-तद्यथेति । तदेव रूपं पश्चात् प्रत्यङ्गवादने सर्वस्मिन्नपि गुर्वादौ वादिते सति स कृतप्रतिकृतम् ; इति कृतप्रतिकृतम् (२) पूर्वोक्तरूपक्रियया वैपरीत्ये प्रतिभेदः ; तमेव विवृत्य दर्शयति-यथेति । मुख्यो वैणिकः मत्तकोकिलया यदा लद्वयं लयद्वयं वाद्यते, तदा विपञ्च्यादिवीणाभि: तद्विधि: गुरुः क्रियते स प्रतिभेदः ; इति प्रतिभेदः (३) यदा मुख्यवैणिक: मत्तकोकिलाया वादयिता विदारीणां यदा विच्छेदं करोति, तदा अन्यासां विपञ्च्यादीनां वादनं रूपशेषः ; इति रूपशेष: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ षष्ठो वाद्याध्यायः तथैवातिद्रुतलयं करचातुर्ययोगतः । वैपश्चिकाद्याः कुर्युश्चेदोघमाचक्षते तदा ।। १२२ ।। ___ इत्योधः (५) अंशसंवाद्यन्यतरस्वरव्यञ्जिकया यदा। तन्त्र्यैकयैव करणं स्यान्मुख्यामुख्यवीणयोः ।। १२३ ॥ प्रतिशुष्कां तदाचष्ट शाङ्देवो विदांवरः । इति प्रतिशुष्का (६) इति षद् करणानि पुष्णन्ति वीणावाद्यं ये रक्तिं दधति चातुलाम् ॥ १२४ ।। कुर्वन्त्यदुष्टपुष्टिं च तान्धातूनधुना ब्रुवे । ये प्रहारविशेषोत्थाः स्वरास्ते धातवो मताः ॥ १२५ ।। विस्तारकरणाविद्धव्यञ्जनाश्चेति धातवः । चतुर्धा तेषु विस्तारश्चतुर्धा बोधितो बुधैः ॥ १२६ ॥ विस्तारजश्च संघातजोऽथ स्यात्समवायजः । (४) यदा मुख्यवैणिकः विलम्बितलयप्रयोगं दर्शयति, तथैव अमुख्या विपञ्च्यादिवादकाः, करचातुर्ययोगतः; हस्तवैदग्ध्यात् द्रुतलयं कुर्युः तदा ओघ ; इत्योध: (१) मुख्यामुख्यवीणयोः ; मुख्यवीणायां मत्तकोकिलायां, अमुख्यवीणायां विपञ्च्यादौ च अंशं संवादिनं च स्वरं विहाय, अन्यतरस्वरव्यञ्जिकया एकयैव तन्त्र्या करणं स्यात् , तदा प्रतिशुष्का ; इति प्रतिशुष्का (६) ॥ -११४-१२३-॥ इति षट् करणानि (कc) धातून् लक्षयितुमादौ तत्प्रयोजनमाह-पुष्णन्तीत्यादि । धातुस्वरूपमाह-ये प्रहारेत्यादि ।। -१२४-१३४- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ संगीतरत्नाकरः अनुबन्धश्चेति चतुर्भेदः संघातजो भवेत् ।। १२७ ।। द्विरुत्तरो द्विरधरोऽप्पधराद्युत्तरान्तकः । उत्तराद्यधरान्तश्चेत्यष्टधा समवायजः ॥ १२८ ॥ त्रिरुत्तरत्रिरधरोऽथ द्विरुत्तरपूर्वकः । अधरान्तो द्विरधरोत्तरान्तश्चोत्तरादिकात् ।। १२९ ।। परो द्विरधरोऽथ स्यादधरादिरुित्तरः । मध्योत्तरद्विरधरोऽधरमध्यद्विरुत्तरः ।। १३० ।। एवं चतुर्दशविधो विस्तारः शाङ्गिणोदितः । करणस्य तु भेदाः स्यू रिभितोचयसंज्ञकौ ॥ १३१ ॥ तथा नीरटितो हादोऽनुवन्ध इति पञ्च ते ।। क्षेपः प्लुतोऽतिपातश्चातिकीणोंऽप्यनुबन्धकः ॥ १३२ ।। इत्याविद्धे पश्च भेदा दश तु व्यञ्जने मताः । पुष्पं कलं तलं विन्दु रेफो निस्वनितं ततः ।। १३३ ।। निष्कोटितमथोन्मृष्टमवमृष्टनिवन्धनौ । इति सर्वे चतुस्त्रिंशन्मिलिता धातवो मताः ॥ १३४ ॥ (सु०) धातून् प्रयोजनपूर्वकं वक्तुं प्रतिजानीते-पुष्णन्तीति। ये वीणायाः पूर्वोक्तं वाद्यं पुष्टं कुर्वन्ति, रक्तिं रजकत्वं च दधति कुर्वन्ति ; अदुष्टां दोषरहितां पुष्टिं नादं च ये धातवः कुर्वन्ति, अधुना तान् ब्रुवे कथयामि । धातून् लक्षयित्वा विभजते—य इति । ये प्रहारविशेषेण उत्थाः उदिताः स्वराः, ते धातवः चतुर्धाः; विस्तारः, करणः; आविद्धः, व्यञ्जनश्चेति । विस्तारोऽपि चतुर्धा, विस्तारजः, संघातजः, समवायज:, अनुबन्धजश्चेति । संघातजोऽपि द्विरुत्तरादिभेदेन चतुर्विधः ; समवायजस्तु त्रिरुत्तरादिभेदेनाष्टविधः । एवं चतुर्दशविधो विस्तारधातुः । करणधातौ रिभितादयः पञ्च भेदाः । आविधौ क्षेपादयः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ षष्ठो वाद्याध्यायः विस्तीर्णनादभेदत्वाद्विस्तारो धातुरुच्यते । प्रहारलाघवात्कृत्वा स्वरानेकीकृतानिव ॥ १३५ ॥ वैचित्र्यात्कापि विश्रान्तः स्वरो विस्तारजो भवेत् । एकविस्तारसंज्ञं तमपरे सूरयो जगुः ॥ १३६ ।। अलंकारत्वमप्यस्य निःशङ्को निरदीधरत् । इति विस्तारजः पञ्च भेदाः । व्यञ्जनस्य पुनः पुष्पादयो दश भेदाः । एवं सर्वे मिलित्वा चतुस्त्रिंशद्भेदा भवन्ति ॥- १२४-१३४ ॥ (क०) विस्तारधातुलक्षणमाह-विस्तीर्णनादभेदत्वादिति । विस्तीर्णश्चासौ नादभेदश्चेति कर्मधारयः । नादभेदस्य विस्तीर्णत्वं नाम अयममुकः स्वर इति विविक्तत्वेन ज्ञानविषयत्वं द्रष्टव्यम् । प्रहारलाघवादिति । वादने हस्तलाधवादित्यर्थः । एकविस्तारसंज्ञमिति । एकस्यैव स्वरस्य विविक्तत्वादिति भावः । अलंकारत्वमपीति । अस्य विस्तारजस्य न केवलं स्वररूपत्वम् , किंतु विशिष्टवर्णसंदर्भस्वरूपत्वमपीत्यर्थः । एवमेकप्रहारभवो विस्तारजः । द्विप्रहारभवः संघातजः । त्रिप्रकारभवः समवायजः । यथायोगमेतद्भेदमिश्रणोद्भवोऽनुबन्धो नामान्वों धातुरिति द्रष्टव्यम् ॥ १३५, १३६.॥ (सु०) तत्र विस्तारधातुभेदं लक्षयति–विस्तीर्णेति । विस्तीर्णो नादभेदो यस्य स तथाविधः, तस्य भावस्तत्त्वम् , तस्मात् विस्तारो धातुः प्रहाराणां लाघवात् शीघ्रकरणात् एकीभूतानेव स्वरान् कृत्वा क्वापि स्वरवैचित्र्यात् विश्रान्ति: विस्तारजो धातुः । अन्ये त्वेतमेकविस्तारमित्याहुः । शार्ङ्गदेवस्तु एतस्य अलंकारसंज्ञत्वमपि निरदीधरत् निर्धारयति स्म ॥१३५,१३६-॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ संगीतरत्नाकरः अत्रोत्तराधरौ ज्ञेयौ मन्द्रतारौ स्वरौ क्रमात् ॥ १३७ ॥ उत्तराधरघातौ हि तयोनिष्पादकाविह । संघातजे ये चत्वारस्तथाष्टौ समवायजे ॥ १३८ ॥ भेदास्तेऽन्वर्थनामानस्तल्लक्ष्मोक्तिरनर्थिका । तथापि बालवोधाय तान्वयं विवृणीमहे ।। १३९ ।। मन्द्रस्वरद्विरुच्चाराद्धातुरत्र द्विरुत्तरः । ___ इति द्विरुत्तर: (१) तारस्थाने द्विराघाताद्धातुरिधरो भवेत् ॥ १४० ॥ इति द्विरधरः (२) यस्त्वादितारो मन्द्रान्तः सोऽधराद्युत्तरान्तकः । ___ इत्यधराद्युत्तरान्तकः (३) आदौ मन्द्रस्ततस्तार उत्तराद्यधरान्तके ॥ १४१ ॥ इत्युत्तरायधारन्तकः (४) एते संघातजे भेदा द्विःप्रहारभवे मताः । इति संघातजस्य भेदचतुष्टयम् (क०) अत्रोत्तराधराविति । अत्र, वीणायाम् , उत्तरस्वरो मन्द्रः, अधरस्वरस्तार इत्यनेन वैपरीत्यं दर्शितं भवति । शरीरे हि अधरो मन्द्रः, उत्तरस्तार इति द्रष्टव्यम् । तत्रोपपत्तिमाह-उत्तराधरघातौ हीति । हि; यस्मात्कारणात् उत्तरतन्त्रीघातो मन्द्रस्वरस्य निष्पादकः, अधरतन्त्रीघातस्तारस्वरस्येत्यर्थः ॥- १३७-१४१- ॥ (सु०) अत्रेति । अत्र उत्तरो मन्द्रः, अधरस्तारः; अत्र उत्तरधातुमन्द्रनिष्पादकः, अधरधातुस्तारनिष्पादक इति । संघातज इति । संघातजे ये Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ षष्ठो वाद्याध्यायः मन्द्रस्वरद्विराघाताद्धातुमाहुस्त्रिरुत्तरम् ।। १४२ ॥ इति त्रिरुत्तरः (१) विस्तारस्वरघातेन धातुस्बिरधरो भवेत् । इति त्रिरधर: (२) द्विरुत्तराधरान्तो द्विर्मन्द्रस्तारान्तगो भवेत् ।। १४३ ।। इति द्विरुत्तराधरान्तः (३) तारस्थानं द्विःप्रहत्य विदध्यान्मन्द्रमन्ततः । यदा तदा द्विरधरोत्तरान्तो धातुरुच्यते ॥ १४४ ।। इति द्विरधरोत्तरान्त: (४) उत्तरादिद्विरधरे मन्द्रतारो द्विरिष्यते । __ इत्युत्तरादिद्विरधरः (५) सकृत्तारोऽथ मन्द्रो द्विरधरादिद्विरुत्तरे ॥ १४५ ॥ इत्यधरादिद्विरुत्तरः (६) चत्वारो भेदा उक्ताः, समवाये चाष्टौ, तेषामन्वर्थनामत्वे प्रसिद्धत्वेऽपि बालबोधार्थ लक्षणं कथयाम इति । मन्द्रस्वराणां द्विरुच्चारणात् द्विरुत्तरो धातुः इति द्विरुत्तर: (१); तारस्थाने द्विराघातात् द्विरुच्चारणात् द्विरधरः इति द्विरधरः (२); आदौ तारमुच्चार्य अन्ते मन्द्रोच्चारणम् अधराद्युत्तरान्तकः इत्यधराद्युत्तरान्तकः (३); आदौ मन्द्रमुच्चार्य पश्चात्तारोच्चारणम् उत्तराद्यधरान्तकः इत्युत्तराद्यधरान्तकः (४); एते द्वि:प्रहारभवे संघातजे चत्वारो भेदाः ॥ -१३७-१४१- ॥ (सु०) मन्द्रेति । मन्द्रस्वराणां त्रिवारमुच्चारणात् त्रिरुत्तरो धातुः, इति त्रिरुत्तरः (१); त्रिवारं तारस्वराभिघातात् त्रिरधरः, इति बिरधरः (२); द्विमन्द्रस्वराघाते सकृत्तारे घाते द्विरुत्तराधरान्तः, इति द्विरुत्तराधरान्तः (३); तारस्थानं द्वि: प्रहृत्य मन्द्रस्य सकृद्धाते द्विरधरोत्तरान्तः, इति द्विरधरोत्तरान्तः (४); मन्द्रं सकृदुच्चार्य तारश्च द्विरुच्चारणे उत्तरादि द्विरधरः, इत्युत्तरादिद्विरधरः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ संगीतरत्नाकरः मध्योत्तरद्विरधरे तारौ मध्यस्थपन्द्रकौ । इति मध्योत्तर द्विरधर: (७) मन्द्राद्यन्तो भवेत्तारोsधरमध्यद्विरुत्तरे || १४६ ।। इत्यधर मध्य द्विरुत्तर : (c) त्रिमहारभवे भेदा: स्युरिमे समवायजे । इत्यष्टौ समवायजभेदाः सजातीयविजातीय भेदसंमिश्रणोद्भवः || १४७ || अनुबन्धाभिध धातुः शार्ङ्गदेवेन कीर्तितः । इत्यनुबन्ध: ( ९ ) इति चतुर्दश विस्तारजधातुमेदाः लघुगुर्वात्मकैर्घातैः करणाविद्धयोः क्रियाः || १४८ || करणोऽल्पगुरुस्त तद्भेदलक्षयेऽधुना । (५); सकृत्तारमाहत्य द्विर्मन्द्रघाते अधरादिद्विरुत्तरः, इत्यधरादिद्विरुत्तर : (६); मध्यस्थो मन्द्रो ययोः, एवंविधौ तारौ उच्चारयेत् तारमध्यमन्द्रतारा उच्चार्यन्ते चेत्; तदा मध्योत्तरद्विरधर:, इति मध्योत्तराद्विरधर: ( ७ ) ; मन्द्रद्वयमध्यगततारोच्चारणे अधरमध्य द्विरुत्तरः, इत्यधरमध्य द्विरुत्तर : ( ८ ) ; त्रिप्रहारोद्भवे समवायज एतेऽष्टौ भेदाः | अनुबन्धस्तु सुगमः ॥ -१४२-१४७॥ इति चतुर्दश विस्तारजधातुभेदा: (सु०) लध्विति । लघुगुरुस्वरूपैः घातैः करणाविद्धयोः धात्वोः क्रिया ; तयोर्मध्ये अल्पगुरुः करणः । तस्य पञ्च भेदान् क्रमेण लक्षयति - तद्भेदानिति । आदौ द्वौ लघू अन्ते गुरुः तदा रिभितः, इति रिभित: (१); आदौ चत्वारो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ षष्ठो वाद्याध्यायः रिभितो द्वौ लघू गान्तौ इति रिभित: (१) चतुर्लोऽन्तगुरुच्चयः ॥ १४९ ॥ इत्युच्चयः (२) षड्लोऽन्तगुर्नीरटितः इति नीरटित: (३) हादोऽष्टलघुरन्तगः । इति हाद: (४) करणस्यानुबन्धस्तु स्याद्विस्तारानुबन्धवत् ॥ १५० ॥ इत्यनुबन्धः (५) इति पञ्च करणधातुभेदाः भूरिगुर्गुरुहीनो वाविद्धोऽस्य विदृतेभिदाः । क्षेपो लघुगुरुभ्यां स्यात् इति क्षेप: (१) (क०) करणस्यानुबन्धस्तु स्याद्विस्तारानुबन्धवदिति ; यथायोगं रिमितादिभेदमिश्रणोद्भव इत्यतिदेशार्थः ॥ -१४८-१५० ॥ इति पञ्च करणधातुभेदाः लघवः, अन्ते गुरुश्चेत् , उन्नयः, इत्युच्चयः (२) । आदौ षड् लघवः, अन्ते गुरुश्चेत्, नीरटितः, इति नीरटित: (३) । आदावष्टौ लघवः, अन्ते गुरुश्चेत् , हादः, इति हादः (४) विस्तारानुबन्धवत् करणस्यानुबन्धः (५); सजातीयविजातीयभेदसंमिश्रणाज्ज्ञातव्यः ।- १४८-१५० ॥ इति पञ्च करणधातुमेदाः (सु०) आविद्धधातुभेदान लक्षयति-भूरिगुरिति । बहुगुरुयुक्तो गुरु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ संगीतरत्नाकर: लघुर्यत्रातिकर्णोऽसौ अतिपातो लगाभ्यां द्विः प्लुतो लघुगुरुर्भवेत् ॥ १५१ ॥ इति प्लुतः (२) इत्यतिपात : (३) चतुर्वारं लगौ ततः । इत्यतिकीर्ण: ( ४ ) अनुबन्धस्तु पूर्ववत् ॥ १५२ ॥ इत्यनुबन्ध: (५) द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिश्च नवभिर्लघुभिः क्रमात् । क्षेपादयोऽत्र चत्वारो भवन्तीत्यपरेऽब्रुवन् ॥ १५३ ।। इति पश्वाविद्धधातुभेदाः ( o ) अनुवन्धस्तु पूर्ववदिति । आविद्धधात्वनुबन्धस्तु यथायोगं क्षेपादिभेदमिश्रणोद्भव इत्यर्थः ॥ १५१ - १५३ ॥ इति पश्वाविद्धधातुभेदाः हीनो वा धातुराविद्धः । तस्य भेदान् लक्षयति-क्षेप इति । एको लघुः गुरुद्वयं च क्षेप:; इति क्षेप: (१) ; लघुगुरुलघुभिः प्लुत: ; इति प्लुतः (२); द्विरुच्चारिताभ्यां लघुगुरुभ्यामतिपात: ; इत्यतिपात: (३); चतुर्वारं लघुगुरू उच्चार्यान्ते लघुरतिकीर्ण:; इत्यतिकीर्ण: ( ४ ) ; सजातीयविजातीयसंमिश्रणादनुबन्धः ; इत्यनुबन्धः पूर्ववत् । (५); आद्यानां चतुर्णा मतान्तरेणान्यथालक्षणमाह — द्वाभ्यामिति । द्वाभ्यां लघुभ्यां क्षेपः ; त्रिभिर्लघुभिः प्लुतः ; त्रिभिश्चतुर्भिर्लघुभिरतिपात: । नवभिर्लघुभिरतिकीर्ण इति केचिदाहुः ॥ १११-१९३ ॥ इति पश्वाविद्धधातु मेदाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ षष्ठो वाद्याध्यायः अङ्गुलीभेदमात्रेण व्यञ्जनस्तद्भिदां ब्रुवे । अङ्गुष्ठाभ्यां कनीयस्या तन्त्रीरेका निहन्यते ॥ १५४ ॥ युगपद्यत्र तत्पुष्पमभिलेषुः पुरातनाः। ___ इति पुष्पम् (१) एकस्वरं यदा नानास्थानकं तन्त्रिकाद्वयम् ।। १५५ ॥ अङ्गुष्ठाभ्यामेककाले निहन्ति स्याकलं तदा। इति कलम् (२) दक्षिणाङ्गुष्टतो हन्ति वामागुष्ठनिपीडिताम् ॥ १५६ ॥ तन्त्री यत्र तदाचष्ट तलं सोढलनन्दनः । इति तलम् (३) बिन्दुरेका तन्त्र्यां स्यात्पहारो गुरुनादकृत् ।। १५७ ।। ___ इति बिन्दुः (४) रेफस्त्वेकस्वरो घातः क्रमात्सर्वाङ्गुलीकृतः । इति रेफ: (५) तलं कृत्वावरोहेण घातोऽनुस्वनितं मतम् ॥ १५८ ।। इत्यनुस्वनितम् (6) वामागुष्ठेन तूर्ध्वाधोघातो निष्कोटितं मतम् । इति निष्कोटितम् (७) घातोऽतिमधुरध्वानस्तर्जन्योन्मृष्टमुच्यते ॥ १५९ ॥ इत्युन्मृष्टम् (८) कनिष्ठया दक्षिणयाङ्गुष्ठाभ्यामप्यधः सरन् । हन्ति त्रिस्थानकं तन्त्रीत्रयमेकस्वरं पृथक् ॥ १६० ।। (क०) व्यञ्जनधातूनाह-अगुलीभेदमात्रेणेति । व्यञ्जनधातौ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संगीतरत्नाकरः यत्रावमृष्टमाचष्ट तद्यज्ञपुरमण्डनः । इत्यवमृष्टम् (९) उक्तानुबन्धवद्धोध्यमनुबन्धस्य लक्षणम् ॥ १६१ ॥ नन्वेकलक्ष्मभेदोऽयं गण्यते किं पृथक्पृथक् । मैवं तद्धातुभेदानां बाहुल्यं यत्र दृश्यते ॥ १६२ ॥ विशिष्टो धातुना तेन सोऽनुबन्धो भिदां व्रजेत् । इत्यनुबन्धः प्रहारसंख्यानियमो लघुगुरुनियमश्च न विवक्षित इत्यर्थः । उक्तानुबन्धबद्धोध्यमनुबन्धस्य लक्षणमिति ; यथायोगं पुष्पादिभेदमिश्रणोद्भव इत्यर्थः । अत्रानुबन्धचतुष्टये द्वितीयाद्यनुबन्धलक्षणेषु पूर्वपूर्ववदित्यतिदेशात् चतुर्णामप्येकलक्षणत्वेन पृथग्गणनमयुक्तमित्याक्षिपति-नन्विति । तत्तद्धातु. भेदानां पृथक्त्वे सत्येव पूर्वपूर्ववदित्यतिदेशस्य मिश्रणमात्रविषयत्वेन चतुर्णामपि भिन्नलक्षणत्वात् पृथग्गणनमुपपद्यत इति समाधत्ते--मैवमिति ॥ १५४-१६२-॥ (सु०) व्यञ्जनधातुभेदानाह-अगुलीति । अङ्गुलीनां मेदमात्रेण व्यञ्जनधातुः । तत्राङ्गुष्ठद्वयेन कनिष्ठया च यत्रैका तन्त्री निहन्यते तत् पुष्पम् (१); यदा नानास्थानकेन चावर्तमानमेकस्वरं तन्त्रिकाद्वयमेकस्मिन् काले अङ्गुष्ठाभ्यां वादको हन्ति चेत् , तदा कलमित्युच्यते (२); तथैव वामाङ्गुष्टेन निपीड्य दक्षिणतस्तन्त्री यत्र हन्ति, तदा तलम् (३); एकस्यां तन्त्र्यां गुरुनादकारी प्रहारो बिन्दुः (४); एकस्मिन्नेव स्वरे क्रमात् सर्वाभिरगुलीभिः कृतो घातो रेफः (५); पूर्वस्मिन् लक्षितं तलं कृत्वा अवरोहेण घात: अनुस्वनितम (६); वामागुष्टेन ऊर्ध्वमधश्च घातो निष्कोटितम (७); तर्जन्या अतिमधुरनादकारी उन्मृष्टम् (८); दक्षिणकनिष्ठया अङ्गुष्ठाभ्यामध: सरन् गच्छन् स्थानत्रय एकस्वरं तन्त्रीत्रयं यत्र पृथक् हन्ति तदवमृष्टम् (९); इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ षष्ठो वाद्याध्यायः इत्येते धातवः प्रोक्ताः सर्ववाद्योपयोगिनः ॥ १६३ ॥ यथास्थानं प्रयोक्तव्यास्ते च वृत्तिसमाश्रयाः । तत्र जातिरुदात्ता स्याद्विस्तारे करणे घना ॥ १६४ ॥ आविद्धाधातौ रिभिता व्यञ्जने ललिता मता। ___ इति चतुस्त्रिंशद्धातवः यज्ञपुरग्रामवासी शाहूदेव आचष्ट । सजातीयविजातीयभेदसंमिश्रणादनुबन्धस्य लक्षणं पूर्ववद्बोध्यं ज्ञातव्यम् । आक्षिपति-नन्विति । अयमनुबन्धो भेद एकलक्षणयुक्त एव, किमिति पृथग्गण्यते ? परिहरति-मैवमिति । येषां धातुभेदानां यत्राधिक्यं तेन धातुना विशिष्टोऽसौ भेदं प्राप्नोति ॥ १५४-१६२-॥ ___ (क०) धातुलक्षणमुपसंहरति-इत्येत इति । सर्ववाद्योपयोगिन इति । अत्र सर्वशब्दः संकुचवृत्तिः ततवाद्यविषयो द्रष्टव्यः । इतरेषु प्रहारविशेषोत्यसकलस्वरासंभवात् । वृत्तिसमाश्रया इति ; वृत्तयो वक्ष्यमाणाः चित्रादयः, तासामाश्रयभूता इति तत्पुरुषः । यथास्थानं प्रयोक्तव्या इति; यस्मिन् रागे येन धातुना रक्तिविशेषो लभ्यते स तस्य स्थानं तदनतिवृत्त्येत्यर्थः । सुगममन्यत् ॥ -१६३, १६४- ।। इति चतुस्त्रिंशद्धातवः (सु०) उपसंहरति-इत्येत इति । एते वाद्योपयोगिनो धातवः प्रोक्ताः। एते वृत्तिसमाश्रयेण यथास्थानं रागतानादिसिध्यर्थ प्रयोक्तव्याः । वृत्तीरनुपदमेव लक्षयिष्यति । तत्रेति । एषु धातुषु मध्ये विस्तारे धातौ उदात्ता जाति: ; करणे धातौ घना जातिः; आविद्धे धातौ रिभिता जातिः ; व्यञ्जने धातौ ललिता जातिरिति जातिलक्षणं नाम्नैव ज्ञातव्यम् । एवं चतुस्त्रिंशद्धातवः प्रतिपादिताः ॥ -१६३, १६४-॥ इति चतुस्त्रिंशद्धातवः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संगीतरत्नाकरः वृत्तिर्गुणप्रधानत्वरूपा व्यवहतिर्मता ॥ १६५ ॥ चित्रा वृत्तिर्दक्षिणा च तिस्रः स्युरिति वृत्तयः । चित्रा वाद्यप्रधानत्वाद्गीतस्य गुणतोच्यते ॥ १६६ ॥ उभयोः समभावेन वृत्तिवृत्तिरुदाहृता।। गीतप्रधानतावाद्यगुणता दक्षिणा मता ॥ १६७ ।। द्रतादिकाललयानासां नियच्छन्ति क्रमात्परे । समां स्रोतोगतां तद्वद्गोपुच्छां च यति क्रमात् ॥ १६८॥ मागधीं संभाविताख्यां गीतिं च पृथुलां क्रमात् । ओघं चानुगतं तवं वाद्यान्येतान्यनुक्रमात् ।। १६९ ॥ मार्ग चित्रं वार्तिकाख्यं दक्षिणाख्यं यथाक्रमम् । अनागतसमातीतान् ग्रहानिह च मन्यते ॥ १७० ॥ ___ इति वृत्तित्रयम् (क०) अथ धात्वाश्रितत्वेन प्रसक्ता वृत्तीः ससामान्य लक्षयतिवृत्तिर्गुणप्रधानेत्यादिना । ' गुणप्रधानत्वरूपा व्यवहृतिः' इत्यत्र गुणप्रधानग्रहणसामर्थ्यात् गीतवाद्ययोर्व्यवहृतिरिति गम्यते । कथम् ? प्रकृतत्वेन वाद्यस्यैवोपादान एकस्यैकदा गुणप्रधानभावायोगात् द्वयोरुपादानं कर्तव्यम् । तत्र प्रकृतसाहचर्येण गीतनृत्ते प्रसक्ते, तयोर्मध्ये नृत्तापेक्षया वाद्यं प्रति गीतम्यैवान्तरङ्गत्वात् तदेवोपादेयं भवति । तेन गीतवाद्ययोर्व्यवहृतिरित्यर्थः । चित्रादीनां विशेषलक्षणानि स्पष्टार्थानि । द्रुतादिकानित्यादि । चित्रायां द्रुतलयम् ; वृत्तौ मध्यलयम् ; दक्षिणायां विलम्बितलयं नियच्छन्ति नियमयन्ति । एवं यतिगीतवाद्यमार्गग्रहानपि क्रमेण योजयेत् ॥-१६५-१७०॥ इति वृत्तित्रयलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तत्त्वं भवेदनुगतमोघश्चेति निरूपितम् । गीतानुगं त्रिप्रकारं वाद्यं तल्लक्ष्म कथ्यते ॥ १७१ ।। लयं तालं विरामं च यति गीति तथाक्षरम् । वर्णग्रामविभागं च नानाजात्यंशकादिकम् ॥ १७२ ॥ व्यञ्जद्गीतगतं गीतमिलितं तत्त्वमुच्यते । इति तत्त्वम् किंचिद्गीतानुहरणाद्वाद्यं त्वनुगतं मतम् ॥ १७३ ॥ यथा विरतिरन्यत्र स्थितिः स्थानान्तरेष्वपि । (सु०) वृत्तिं लक्षणयति-वृत्तिरिति । गुणप्रधानत्वरूपो गीतवाद्ययोयवहारो वृत्तिरित्युच्यते । सा त्रिविधा-चित्रा, वृत्तिः ; दक्षिणा चेति । एतासां लक्षणमाह-चित्रेति । वाद्यस्य प्राधान्यं गीतस्य गुणत्वमङ्गत्वं चित्रा वृत्ति: ; उभयोर्गीतवाद्ययो: साम्यं वृत्तिसंज्ञिका वृत्तिः । गीतस्य प्राधान्यं वाद्यस्याङ्गत्वं दक्षिणा वृत्तिः । एतासु मतान्तरेण लक्षणादीनिगमयति-द्रुतादिकानिति । एतासां चित्रादीनां वृत्तीनां क्रमात् द्रुतमध्यविलम्बिता लया इत्यपरे आचार्या नियममाहुः । चित्रायां समा यति:; वृत्तौ स्रोतोगता ; दक्षिणायां गोपुच्छेति । चित्रायां मागधी ; वृत्तौ संभाविता; दक्षिणायां पृथुलेति । चित्रायामोघं वाद्यम् ; वृत्तावनुगतम् ; दक्षिणायां तत्त्वं वाद्यमिति । एतानि वाद्यान्यनुपदमेव लक्षयिष्यति । चित्रायां चित्रो मार्गः; वृत्तौ वार्तिकः; दक्षिणायां दक्षिण इति । चित्रायामनागतो ग्रहः ; वृत्तौ समः ; दक्षिणायामतीत इति ॥ -१६६-१७०॥ इति वृत्तित्रयलक्षणम् (क०) एवं वृत्तीनां प्रयोगनिरूपणे प्रसक्तानि तत्त्वादीनि वाद्यानि ससामान्यं लक्षयितुमाह-तत्त्वं भवेदित्यादिना । अत्र गीतानुगमिति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संगीतरत्नाकर: विलम्बिते गीतलये वैदग्ध्याद् द्रुतवादनम् ।। १७४ ।। इत्यनुगतम् गीतस्यान्तेऽनुकर्तापि भागशश्चातुरीवशात् । निरन्तरैः पाणिघातैः समुदायानुकारितम् ॥ १७५ ॥ वादको दर्शयेद्वाद्ये यत्त्रौघं तं प्रचक्षते । इत्योघः एकविंशतितन्त्री स्थमेतद्धात्वादिवादनम् ।। १७६ ॥ एकतन्त्र्यादिवीणासु यथायोगं प्रवर्तयेत् । एकतन्त्र्यां तु यत्प्रोक्तं तज्ज्ञेयं नकुलादिषु ।। १७७ ।। वेणावपि तदिच्छन्ति वेणुप्रावीण्यशालिनः । इति गीतानुगं वाद्यम् तत्त्वादीनां त्रयाणां वाद्यानां सामान्यलक्षणम् । तेषां विशेषलक्षणानि स्पष्टार्थानि । तत्र विरामशब्दस्य अवसानार्थत्वात् लयाद्भेदो द्रष्टव्यः । तथा विरतिशब्दस्यापि ॥ १७१-१७७- ॥ इति गीतानुगवाद्यत्रयलक्षणम् (सु० ) वृत्तित्रयानुगतं वाद्यत्रयं लक्षयति - तत्त्वमिति । वाद्यं त्रिविधम्तत्त्वम्, अनुगतम्, ओघश्चेति । एतेषां लक्षणं प्रतिज्ञाय क्रमशः कथयतिलयमिति । गीतिगतं लयतालादिकं व्यञ्जयत्प्रकटीकुर्वद्वाद्यं ततमित्युच्यते । गीतस्य किंचिदनुहरणादंशाभिव्यक्तेर्वाद्यमनुगतमित्युच्यते । अन्यत्र गीते यथा विरतिस्तथैवानुगते वाद्ये विरतिः स्थानान्तरे स्थितिः तथैव, किंतु गीतलये विलम्बिते सति तदनुगतं वाद्यं वैदग्ध्यात् चातुर्यात् द्रुतवादनं द्रुतलयेन वादनं यस्मिन्निति । यस्मिन् वाद्ये गीतस्य अनुकर्ता त्रयं गीतानुकारमनुकुर्वन्नपि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः भेदानिर्गीतवाद्यस्य वैणस्याथ प्रचक्ष्महे ॥ १७८ ।। आश्रावणारम्भविधिर्वक्त्रपाणिस्ततः परम् । संखोटना चतुर्थी च पञ्चमी परिघट्टना ॥ १७९ ।। मार्गासारितकं लीलाकृतमासारितत्रयम् । दशेति शुष्कवाद्यानि तल्लक्ष्म व्याहरेऽधुना ॥ १८० ।। विस्तारधातुभेदानामादिमं द्विः प्रयुज्यते । द्वितीयं च प्रयुज्य द्विराचं भेदं द्वितीयकम् ॥ १८१॥ लीनाकृति द्विरुच्चार्य तद्वद्युग्मान्तराण्यपि । प्राक्पाग्युग्मोत्तरादीनि प्रयुञ्जीत तदा भवेत् ।। १८२ ।। आश्रावणं शुष्कवाद्यमत्र त्वाह विशाखिलः । विस्तारधातुभेदानां प्रयोगे द्रुतरूपताम् ।। १८३ ॥ तदेव चातुर्यात् भागशः समुदायानुकारितमवयवसंघातानुकारं, पाणिघातैः पाणिप्रहारैः दर्शयेत् स ओघः । एकेति । एतद्विस्तारधात्वादिवादनमेकविंशतितन्त्री या मत्तकोकिला, तत्र स्थितं ज्ञातव्यम् । एतदेकतन्त्र्यादिवीणासु यथासंभवं प्रवर्तयेत् कुर्यात् । एकतन्त्र्यां तु यद्वादनं प्रोक्तं तन्नकुलादिषु वक्ष्यमाणे वैणवे यथासंभवं योज्यम् ॥ १७१-१७७- ॥ ___ इति गीतानुगवाद्यत्रयलक्षणम् (क०) एवं गीतानुगवाद्यप्रसङ्गाद् बुद्धयारूढान् संगीतवाद्यभेदान् लक्षयितुमाह-भेदानिर्गीतवाद्यस्येत्यादिना । अथ ; अनन्तरम् । वैणस्येति ; वीणायाः संबन्धी वैणः, तस्य । निर्गीतवाद्यस्य भेदानुद्दिशति आश्रावणेत्यादि । आसारितत्रयमिति । ज्येष्ठं मध्यं कनिष्ठमित्यर्थः । निर्गीतवाद्यान्येव शुष्कवाद्यानीत्युच्यन्ते । विस्तारधातुभेदानां चतुर्दशानामादिमं विस्तारजं नाम भेदं द्विः द्विवारं प्रयुज्य, द्वितीयं च द्विरुत्तराख्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संगीतरत्नाकरः आद्यखण्डे यदायौ द्वावेकादशचतुर्दशौ । वर्णः पञ्चदशस्तद्वचतुर्विंशो गुरुभवेत् ॥ १८४ ॥ लघवोऽष्टादशान्ये स्युरेवं खण्डे द्वितीयके । तृतीये तु तृतीयो गोऽष्टमपञ्चदशौ तथा ॥ १८५ ॥ मपि द्विःप्रयुज्य, आद्यं भेदं विस्तारजं द्वितीयकं द्विरुत्तरं लीनाकृतिमन्त ताकारं द्विरुच्चार्य, तद्वद्युग्मान्तराण्यपि प्राक प्रयुग्मोत्तरादीनीति । अयमर्थः-प्रथम द्वितीयभेदौ प्राग्युग्मम् । तदुत्तरः तृतीयो भेदः द्विरुत्तराख्यं स आदिर्येषां युग्मानां तानि तथोक्तानि । तृतीयचतुर्थौ द्वितीयं युग्मम् । एवं पञ्चमषष्ठौ तृतीयं युग्मम् । सप्तमाष्टमौ चतुर्थ युग्मम् । एवं सप्त युग्मानि प्रयुञ्जीत चेत , तदा आश्रावणा नाम शुष्कवाद्यभेदो भवति । विशाखिलो नाम आचार्यः । द्रुतरूपताम् ; द्रुतलययुक्तस्वरूपताम् ॥ -१७८-१८३ ।। (सु०) वाद्यभेदानाह-भेदानिति । निर्मातवाद्यस्य ; गीतशून्यवाद्यस्य वीणासंबन्धिनो वाद्यभेदान् प्रचक्ष्महे कथयामः । तानेव भेदानाह-आश्रावणेति । आधावणादय आसारितान्ताः शुष्कस्य गीतानुगतवाद्यस्य भेदाः । तेषां लक्षणमाह-विस्तारेति । विस्तारधातोर्मेदानां पूर्वोक्तानां मध्ये आदिम विस्तारजं द्वि: द्विवारं प्रयुज्य द्वितीयं च द्विवारं प्रयुज्य आद्यं भेदं द्वितीयं च द्विवारं प्रयुज्य आद्यं भेदं द्वितीयभेदे लीना विलीना दक्षिणाकृतिर्यस्य तथाविधं द्विवारमुच्चार्य तद्वदेव युग्मान्तराणि द्वौ द्वौ भेदौ द्विरुत्तरादिको यदा प्रयुञ्जीत तदा आश्रावणेत्युच्यते । मतान्तरमाह-शुष्केति । विशाखिल आचार्य: आश्रावणं शुष्कवाद्यमाह । विस्तारधातुभेदानां द्रुतलययुक्तस्वरूपतां चाहेति संबन्ध: ।। -१७८-९८३ ॥ __(क०) प्रसङ्गादाश्रावणायां ध्रुवां लक्षयति--आधखण्ड इत्यादि। आधौ दाविति । प्रथमद्वितीयावित्यर्थः । लघवोऽष्टादशान्ये स्युरिति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वागाध्यायः शेषा द्वादश लाः खण्डैस्त्रिभिरेवं ध्रुवा भवेत् । श्रावणायां गेया सा सूरिभिः सिद्धिमीप्सुभिः ।। १८६ ।। वक्ष्यामहे मुनिमतादस्यां पातकलाविधिम् । द्वाविंशतिं कलाः केचित्केऽप्यष्टाविंशतिं कलाः ॥ १८७ ॥ अन्ये द्वात्रिंशतं प्राहुस्तत्रैवं तालयोजना | शम्यात्रयं ततस्तालास्त्रयोऽवानागतग्रहे ॥ १८८ ॥ २६७ परिशेषवचनेन आद्यखण्डे चतुर्विंशतिवर्णके तत्र प्रथम द्वितीयैकादश चतुर्दशपञ्चदशचतुर्विंशाः षड्गुरवः । इतरेऽष्टादश लघवः । एवं खण्डे द्वितीयक इति । तत्रापि वर्णसंख्या गुरुलघुसंनिवेशश्च आद्यखण्डवत्कर्तव्य इत्यर्थः । तृतीये त्विति । तृतीये खण्डे तु तृतीयो गः, तृतीयो वर्णों गुरुः कर्तव्यः । अष्टमपञ्चदशौ तथेति । गुरू कर्तव्यावित्यर्थः । शेषा द्वादश ला इत्यनेनास्य खण्डस्य पञ्चदशवर्णात्मकत्वं दर्शितं भवति । सिद्धिमीप्सभिरिति दृष्टादृष्टफलकाङ्क्षिभिरित्यर्थः ॥ १८४ - १८६ ॥ ; (सु०) ध्रुवां लक्षयति - आद्यखण्ड इति । आद्यखण्डे ; प्रथमखण्डे, आद्यौ द्वौ वर्णों एकादशादयश्च वर्णा गुरवः । अन्ये द्वादश वर्णा लघवः । एवं त्रिभिः खण्डैर्ध्रुवा भवति । सा ; ध्रुवा, आश्रावणायां सिद्धिमीप्सुभिः वाद्यसिद्धिमभिलषद्भिः गेया ॥ १८४ - १८६ ॥ (क० ) अस्यामाश्रावणायां पातकलाविधिमाह - वक्ष्यामह इत्यादिना । तत्र ; द्वाविंशतिकलापक्षे । शम्यात्रयमिति । आद्यासु तिसृषु कलासु शम्यात्रयं योजयेत् । ततस्तालास्त्रय इति । ततः चतुर्थ्यादिषु तिसृषु कलासु त्रयः ताला योज्याः । अनागतग्रह इति । गीतादिकं किंचित्प्रथमं तालरहितमारभ्य अनन्तरमेताः षट्कलाः प्रयोक्तव्या इत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संगीतरनाकरः ततः समग्रहे शम्याद्वयं तालद्वयं तथा। ततोऽतीतग्रहे शम्यातालौ द्वादश ताः कलाः ॥ १८९ ॥ यथाक्षरस्योत्तरस्य पट्चतस्रस्तु युग्मजाः। कला द्वाविंशतावेवम् , अथाष्टाविंशतौ विधिः ॥ १९० ।। द्वादशात्र कलाः प्राग्वद् द्विकलोत्तरवत्ततः । ततः समग्रह इत्यादि । ततः; सप्तम्यादिषु चतसृषु कलासु शम्याद्वयं च योजयेत् । समग्रह इति ; समकाल इत्यर्थः । ततोऽतीतग्रह इत्यादि । तत एकादशीद्वादश्योः कलयोः शम्यातालौ योजयेत् । अतीतग्रह इति; गीतादेः पूर्वमेव तालस्य किंचित्प्रवृत्तावित्यर्थः । एवं द्वादश कलाः प्रयुज्य, अनन्तरम् ; यथाक्षरस्योत्तरस्य पडिति ; त्रयोदश्यादिषु अवशिष्टासु दशसु कलासु मध्य आद्यासु षट्सु संताशताशता योज्या इस्यर्थः । चतस्रस्तु युग्मजा इति । एकोनविंशाद्यासु चतसृषु संशताशाः प्रयोज्या इत्यर्थः । एवं कला द्वाविंशतौ पातकलाविधिः कर्तव्यः ॥ १८७-१९० ॥ (सु०) एतस्यां ध्रुवायां मुनेर्भरतस्य मतात् पातकलाविधिं ब्रूम: । द्वाविंशतिमिति । केचिदाचार्याः एतस्यां ध्रुवायां द्वाविंशतिं कला: प्राहुः । केचिदष्टाविंशतिं कलाः ; अन्ये द्वात्रिंशतिरिति । शम्यात्रयमिति । अनागते आहे ; त्रय: शम्याः, त्रयस्तालाः, समग्रहे ; द्वे शम्ये, द्वौ तालौ । ततः अनन्तरम् , अतीतग्रहे शम्याः, तालाश्च द्वादश | ताश्च कलाः ; यथाक्षरस्य ; षपितापुत्रकस्य । षड्युग्मजः, चच्चत्पुटात् जाताश्चतस्रः ॥ १८७-१९० ॥ (क०) अष्टाविंशतिकलापक्षे पातकलाविधिं दर्शयितुमाहअथाष्टाविंशतावित्यादि । द्वादशात्र कलाः प्राग्वदिति । प्राग्वदत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः कला द्वादश शेषास्तु स्युरेककलयुग्मवत् ॥ १९९ ॥ अथ द्वाविंशतिः प्राच्याः स्युचतुर्विंशतिः कलाः । द्वितीयपक्षवान्ते त्वष्टौ द्विकलयुग्मवत् । १९२ ।। एषु त्रिष्वपि पक्षेषूत्तरश्चच्चत्पुटस्तथा । अतीतेन ग्रहेण स्याद्विदारीरथ कीर्तयेत् ।। १९३ ।। शम्यात्रयेण प्रथमा परा तालत्रयेण तु । शम्याद्वया तृतीया स्यात्तुर्या तालद्वयेन तु || १९४ ।। पञ्चमी शम्यातालाभ्यां षष्ठी स्यात्पञ्चपाणिना । चच्चत्पुटा सप्तमी स्यात्तास्तिस्रो मन्वते परे ।। १९५ ।। २६९ द्वाविंशतिकलापक्षवत् ; आद्यासु द्वादशकलासु शम्यादयः पूर्वोक्ता द्वादश पातकला योज्याः । ततः; त्रयोदश्यादिषु कलासु । द्विकलोत्तरवदिति । निप्रता, शनिता, निशता, प्रनिसमिति द्वादश पातकला योज्याः । शेषा इति । पञ्चविंश्यादयः चतस्रः । एककलयुग्मवदिति ; संशताशा योज्या इत्यर्थः । अथ द्वाविंशतीत्यादि, प्राच्याः स्युश्चतुर्विंशतिः कला द्वितीयपक्षवदिति; अष्टाविंशतिकलापक्ष इत्यर्थः । प्रान्ते तु; अष्टाविंशतिपञ्चविंशादयः, अष्टौ द्विकलयुग्मवदिति निशनिताशप्रनिसाः प्रयोज्या इत्यर्थः ॥ - १९१-१९२ ॥ ; (सु० ) अष्टाविंशतिकलापक्षे पातकलाविधिमाह - अष्टाविंशताविति । द्वादशेति । अत्र अष्टाविंशतिकलायां ध्रुवायां द्वादश कलाः प्राग्वत् द्वाविंशतिध्रुवावत् । ततो द्विकलेनोत्तरेणेव ज्ञेया द्वादश कलाः । शेषाश्चतस्रः एककलचच्चत्पुटवत् ॥ - १९१-१९२ ॥ (क०) आश्रावणायां तत्तन्मतभेदेन विदारीं दर्शयितुमाह Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० संगीतरनाकरः यथाक्षरस्य युग्मस्य द्विराच्या विदारिका । आद्या तथा द्वितीया स्यात्तयोरन्ते कलाद्वयम् ।। १९६ ।। एवमष्टादश कलास्ततो युग्माद्ययाक्षराव । विदारी स्यात्तृतीयान्ये विदारीरन्यथा जगुः ।। १९७ ।। आद्या द्विकलयुग्मेन द्वितीया च तथा भवेत् । यथाक्षरेणोत्तरेण तृतीयान्येज्यथा जगुः ॥ १९८ ॥ पूर्वोक्ता द्वादश कला विदार्याद्या परा पुनः । यथाक्षरेणोत्तरेण शेषा युग्माद्यथाक्षरात् ।। १९९ ॥ एवमाश्रवणामाह श्रीमान्यज्ञपुरायणीः । इत्याश्रावणा विदारीरथेत्यादिना। विदारी गीतखण्डमिति प्रागुक्तम् । अत्र वाद्यखण्डमिति द्रष्टव्यम् । उत्तरो ग्रन्थस्तु विस्पष्टार्थः ॥ १९३-१९९. ॥ इत्याश्रावणा (मु०) एष्विति । एषु त्रिष्वपि पक्षेषु उत्तरः षपितापुत्रक: चञ्चत्पुटश्च अतीतग्रहेण युक्तः कार्य: । शम्येति । प्रथमा विदारी शम्यात्रयेण कार्या । द्वितीया तु तालत्रयेण कार्या । तृतीया शम्याद्वयेन कार्या | तुर्या तु तालद्वयेन । पञ्चमी शम्यातालाभ्याम् । षष्ठी पञ्चपाणिना पितापुत्रकेण । सप्तमी चच्चत्पुटेनेति । अन्येषां मतमाह–ता इति । परं; आचार्या: ताः; विदारीः । तिस्रइति मन्वते । ता एव लक्षयति-यथाक्षरेति । यथाक्षरस्य चच्चत्पुटस्य द्विरावृत्त्या प्रथमा विदारी । तथैव द्वितीया । तयोः; प्रथमद्वितीययोः विदार्योः ; अन्ते ; कलाद्वयमधिकम् | यथाक्षरचच्चत्पुटवत् तृतीया विदारी। अन्ये ; आचार्या:, विदारीत्रयमन्यथा जगुः । द्विगुणा चच्चत्पुटेनाद्या । तथैव द्वितीया यथाक्षरषपितापुत्रकेण । तृतीया यथाक्षरचच्चत्पुटेनेत्याहुः ॥ १९३-१९९-॥ इत्याश्रावणा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्युरारोहावरोहाभ्यां युक्ता विस्तारधातुजाः ॥ २०० ॥ भेदास्तलेन रिभितहादाभ्यां मिश्रिताः क्रमात् ।। ततः करणभेदं द्विस्त्रिाभ्यस्य विलीनवत् ॥ २०१॥ बहुलेन प्रयुक्ते चैकविस्तारे पुनस्तथा । द्विरभ्यस्येदेवमेव करणस्य भिदाः पराः ।। २०२॥ यत्रारम्भविधिः स स्यात् , (क०) अथारम्भविधिं दर्शयति-स्युरारोहावरोहाभ्यामित्यादि। विस्तारधातुजा भेदा इति । विस्तारजादयश्चतुर्दश । तलेनेति । व्यञ्जनधातुभेदेन । रिभितहादाभ्यामिति । करणधातुभेदाभ्याम् । क्रमान्मिश्रिता इति । प्रथमं तलेन, अनन्तरं रिभितेन, तदनन्तरं हादेन मिश्रिताः सन्तः आरोहावरोहाभ्यां प्रत्येकं प्रयुक्ताः स्युः । ततः; अनन्तरम् , करणभेदमिति । रिमितादिषु पञ्चस्वेकं द्विस्त्रिर्वा अभ्यस्य । विलीनवद् बहुलेनेति । स्वरेकीकरणप्रचुरेणेत्यर्थः । तादृशेन प्रयोगेण, एकविस्तारे ; एकविस्तारापरपर्याये विस्तारजनाम्नि विस्तारधातुभेदे, पुनः भूयोऽपि प्रयुक्ते सति । पराः करणस्य भिदा इति । प्रथमप्रयुक्ताद्भेदात् अन्यान् भेदानित्यर्थः । एवमेवेति । एकविस्तारयोगेणेत्यर्थः । द्विरभ्यस्येद् यत्र वाद्यविधौ स आरम्भविधिः स्यात् ॥ -२००-२०२- ।। (सु०) आरम्भविधिं लक्षयति-स्युरिति । विस्तारधातुजा भेदाः; विस्तारजादयश्चतुर्दश धातवः। तलेन; व्यञ्जनेन, रिभितहादाभ्यां युक्ताः, आरोहावरोहाभ्यां क्रमेण स्युः । ततः करणधातोरेकभेदं द्विवारं त्रिवारं वा अस्य बहुशोऽनुप्रयुङ्क्ते । एकस्मिन् विस्तार भेदे विलीनवत् स्वरैकीकरणेन द्विवारमभ्यस्येत् । एवमन्येऽपि करणधातोर्मेंदा यत्राभ्यस्यन्ते स आरम्भविधिः ।। -२००-२०२- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ संगीतरत्नाकरः अथ तस्य ध्रुवां ब्रुवे । गुरवोऽष्टौ द्वादशाथ लघवः पञ्च गा इति ।। २०३ ।। पञ्चविंशत्यक्षरं स्यादाडखण्डं ततः परम् । लघवोऽष्टौ गुरुर्लाश्च चत्वारो गश्चतुर्लघुः ॥ २०४ ॥ गश्चेत्येकोनविंशत्या वर्णैः खण्डं द्वितीयकम् । यस्यास्तृतीयखण्डेऽष्टौ ला गोऽन्ते स्याद् ध्रुवात्र सा ।। २०५॥ एकविंशे गुरौ कार्या विश्रान्तिः पूर्वखण्डके । द्वितीयखण्डे विश्राम्येद् गुरौ वर्णे चतुर्दशे ॥ २०६ ॥ स्याद् द्वादशकलं खण्डमाधमन्यत्तु षट्कलम् । चतुष्कलं तृतीयं स्यादथ तालोव कथ्यते ।। २०७ ॥ तालत्रयं च शम्यैका तालौ द्वौ शम्ययोयम् । द्वौ तालौ संनिपातौ द्वावित्याद्ये शकले कलाः ॥ २०८ ।। यथाक्षरस्योत्तरस्य क्रमाञ्चचत्पुटस्य च । कला भवन्ति शकले द्वितीये च तृतीयके ॥ २०९ ।। इत्यारम्भविधि: (क०) तस्यारम्भस्य ध्रुवां दर्शयति--अथ तस्येत्यादिना । द्वादशकलं खण्डमाद्यमिति । आद्यं खण्डं पञ्चविंशतिवर्णात्मकं द्वादशकलं स्यात् । अन्यत्तु ; एकोनविंशतिवर्णात्मकं द्वितीयखण्डं तु षटकलं स्यात् । तृतीयं नववर्णात्मकं खण्डं चतुष्कलं स्यादिति । अत्र लघुगुर्वात्मकान् वर्णान् पश्चलघ्वक्षरोच्चारमितासु कलासु सलयं योजयेदित्यर्थः । सुगममन्यत् ॥ -२०३-२०९ ॥ इत्यारम्भविधिः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २७३ बहुलाविद्धकरणः स्तोकव्यञ्जनधातुकः । विस्तारधातुना हीनो वक्त्रपाणिः प्रकीर्तितः ।। २१० ।। मुखपतिमुखे स्यातां तालाङ्गे द्वे च नाथवा।। प्रवृत्तं चैककं वर्णाङ्गमत्राथ ब्रुवे ध्रुवाम् ।। २११ ॥ गुरवः पञ्च लाः षट् च गुरवः षड् लघुद्वयम् । चत्वारो गास्तथा लाः स्युस्त्रयो गा लघवोष्ट च ।। २१२ ।। यत्र स्याद् गुरुरन्ते सा वक्त्रपाणों ध्रुवा भवेत् । या मात्रा वस्तुनोऽन्त्या स्याद् द्विकले मद्रके स्थिता ।। २१३ ॥ तस्यास्तालोऽत्र कर्तव्यः कलास्त्वष्टासु तन्मुखम् । तस्य ध्रुवामाह-अथेति । गुरव इति । अष्टौ गुरवः ; द्वादश लघवः, पञ्च गुरव इत्याद्यखण्डे | अष्टौ लघवः, एको गुरुः, चत्वारो लघवः, एको गुरुः, पुनश्चात्वागे लघवः, एको गुरुरिति द्वितीयखण्डे । अष्टौ लघवो गुरुश्च तृतीयखण्डे । एवं खण्डत्रयवती ध्रुवा अत्र ; आरम्भविधौ कार्या । एकविंश इति । प्रथमे खण्डे एकविंशतितमे गुरौ विश्रान्ति: । द्वितीये खण्डे चतुर्दशेति । आये खण्डे द्वादश कलाः । द्वितीये खण्डे षट् कलाः । तृतीये खण्डे चतस्रः कलाः । पातकलाविधिमाह-तालत्रयमिति ॥ -२०३-२०९ ॥ इत्यारम्भविधि: (क०) अथ वाक्त्रपाणिं लक्षयति-बहुलाविवेत्यादि । अत्र ; वक्त्रपाणौ, मुखप्रतिमुखे नाम तालाङ्गे विकल्पेन स्याताम् । प्रवृत्तं चैक वा वर्णाङ्गमेकं स्यात् । अथ ध्रुवामाह--गुरवः पश्चेत्यादि । या मात्रेत्यादि । द्विकले मद्रके वस्तुनः चतुर्विंशतिकलात्मकस्य अन्ते या मात्रा स्थिता अष्टकलात्मिका, तस्याः तालोऽत्र कर्तव्य इति ; शताताशतासम् , इति वक्त्रपाणौ ध्रुवाया आद्यास्त्वष्टादशसु कलासु कर्तव्यो 35 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अथ प्रतिमुखं कार्य चतुरावृत्तियोगिना ॥ २१४ ॥ उत्तरेणापरेत्याहुः पूर्वोक्तो यः कलाष्टकः। सोऽत्र कार्यस्त्रिरारत्तो मात्रया तु विदारिका ॥ २१५ ।। इति वक्त्रपाणिः अङ्गुष्ठाभ्यां च तर्जन्या तन्त्री निष्पीड्य वादयन् । भवति, तन्मुखमिति तालाङ्गं भवति । मतान्तरेण प्रतिमुखं दर्शयतिअथ प्रतिमुखमित्यादि । चतुरागृत्तियोगेनेति । चतसृणामावृत्तीनां योगोऽस्यास्तीति चतुरावृत्तियोगी, तेन उत्तरेण पितापुत्रकेण । स्वमतेन प्रतिमुखं दर्शयति-अत्र ; प्रतिमुखे । पूर्वोक्त इति । शताताशतासमिति । एवं त्रिवारमावृत्तः कार्यः । मात्रया तु विदारिकेति । मात्रया अष्टकलात्मिकया ॥ २१०-२१५ ॥ इति वक्त्रपाणिः (सु.) वक्त्रपाणिं लक्षयति-बहुलेति । बहुलौ आविद्धकरणौ धातू यस्मिन् , एकश्च व्यञ्जनधातुः, विस्तारधातुश्च नास्ति स वक्त्रपाणिः । अत्र द्वे तालाङ्गे, मुखं प्रतिमुखं चेति कर्तव्यमेव, न वा प्रवृत्तमेककं च मद्रकादिषु लक्षितमङ्ग ज्ञातव्यम् । अत्र ध्रुवामाह-गुरुव इति । या मात्रेति । मद्रके द्विकले वस्तुनः प्रान्ते या मात्रा स्थिता तस्यास्तालोऽत्र ध्रुवायां कर्तव्यः । अष्टसु कलासु मुखं कर्तव्यम् । तत: प्रतिमुखं चतुर्वारमावृत्तेन उत्तरेण पितापुत्रकेण कार्यम् । अन्ये त्वेवमाहुः-पूर्वोक्ता या अष्टौ कलाः ता एव त्रिरावृत्ताः। प्रतिमुखमिति । एकया मात्रया तु विदारीति ॥ २१०-२१५ ॥ इति वक्त्रपाणिः (क०) अथ संखोटनां लक्षयति- अगुष्ठाभ्यामित्यादि । बिन्दुं ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः बिन्दु मिथो मेलयेत वादिसंवादिनौ स्वरौ ॥ २१६ ।। बहुधा तद् गुणत्वेन प्रयुञ्जीतानुवादिनः। विवादिनोऽल्पकान्कुर्याद्विस्तारस्य भिदास्तथा ॥ २१७ ॥ धात्वन्तमिश्रयित्वाभ्यस्येद् द्विस्त्रिः पृथक्ततः । केवलास्ताः प्रयुज्य द्विस्तासु मनानिवापरान् ।। २१८ ।। धातून्यत्र प्रयुञ्जीत पाहुः संखोटनाममूम् । व्यञ्जनधातुभेदं वादयन्निति पूर्वेण संबन्धः । वादिसंवादिनौ स्वरौ मिथो मेलयेतेति । षड्जपञ्चमावृषभधैवतौ गान्धारनिषादावन्यौ वा स्वरौ विकृतावस्थौ द्वादशभिरष्टभिर्वा श्रुतिभिरन्तरितौ मिथः संगत्या संवादयेदित्यर्थः । तद्गुणत्वेनेति । तयोर्वादिनोः गुणत्वेनोपसर्जनत्वेन, अनुवादिनः स्वरान् प्रयोगे बहुधा प्रयुञ्जीतेति । वादिनं वा स्थायिनं कृत्वा तत्परिवारत्वेन अनुवादिनः प्रयुञ्जीतेत्यर्थः ॥ २१६- ॥ __ (सु०) संखोटनां लक्षयति । अङ्गुष्ठाभ्यामिति । द्वाभ्यामङ्गुष्ठाभ्यां तर्जन्या च तन्त्री पीडयित्वा बिन्दुं धातुमेकत्र तन्त्र्या प्रहाररूपं पूर्वलक्षितं वादयित्वा वादिसंवादिनौ द्वौ स्वरौ संयोजयेत् । तयोः वादिसंवादिनो: गुणत्वेनाङ्गत्वेन च बहुधा अनुवादिनः प्रयुञ्जीत ॥ २१६-॥ (क०) विवादिनोऽल्पकान् कुर्यादिति । यस्मिन् प्रयोगे यो विवादी स्वरः तमनभ्यस्तं लक्षितं वा कुर्यादित्यर्थः । विस्तारस्य भिदा इति । विस्तारजादीश्चतुर्दश विस्तारधातुभेदान् धात्वन्तरैः करणादिधातुभेदैरित्यर्थः । मिश्रयित्वेति । संकीर्णान् कृत्वेत्यर्थः । द्विस्त्रिा पृथगभ्यसेदित्यर्थः । ततः; अनन्तरं, ता: विस्तारस्य भिदाः केवलाः धात्वन्तरामिश्रा द्विस्त्रि प्रयुज्य तासु मनानिव लीनानिव अपरान् धातून करणादिधातुभेदान् यत्र प्रयुञ्जीत अमूं संखोटनां नाम निर्गीतवाद्यभेदं प्राहुः ।। २१७, २१८ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ संगीतरत्नाकरः गुरू द्वौ लघवोऽष्टौ च द्वौ गुरू च लघुर्गुरुः ॥ २१९ ॥ यत्र द्वादश ला गोऽन्ते सा स्यात्संखोटनाध्रुवा । यथाक्षरद्विकलयोः स्युरत्रोत्तरयोः कलाः ।। २२० । नात्र संख्या विदारीणां भणिता भरतादिभिः । इति संखोटना भेदा व्यञ्जनधातूत्था भेदैः करणधातुजैः ॥ २२१ ॥ (सु०) विवादिन इति । विवादिनः स्वरान् अल्पकान् कुर्यात् । विस्तारधातुभेदान् अन्यैः धातुभेदैः संमिश्य पृथक् पृथक् द्विवारं त्रिवारं वा अभ्यस्येत् । ततः अनन्तरं केवलान् विस्तारधातुभेदान् द्विः प्रयुज्य, तासु भिदासु अपरान् धातून् मनानिव विलीनानिव यत्र वादकः प्रयुञ्जीत, सा संग्वोटना ॥ -२१७, २१८-॥ (क०) अत्र ध्रुवामाह-गुरू द्वावित्यादि । यथाक्षरद्विकलयोरित्यादि । अयमर्थः- सप्तविंशत्यक्षरात्मिकायां संखोटनाध्रुवायां यथाक्षरस्य षपितापुत्रकस्य कलाः संताशताशताः, द्विकलस्य तस्यैव कलाः निप्रताशनितानि शताप्रनिसमित्येता यथायोगं प्रयोज्या इति । सुगममन्यत् ॥ -२१९, २२०- ॥ इति मंघोटना (सु०) एतस्यां ध्रुवामाह-गुरू इति । अत्र ध्रुवायां यथाक्षरद्विकलयोः घटपितापुत्रकयो: कलाः कार्याः । अत्र विदारीणां च कलासंख्या भवन्ति । भरतादिभिस्तु कलासंख्या नोक्ताः ॥ -२१९, २२० ।। इनि संघोटना (क०) परिघटनां लक्षयति-भेदा इति । व्यञ्जनधातूत्थाः पुष्पादयो दश भेदाः । करणधातुजैरिति । घातादिमिः पञ्चभिर्भेदैः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ पष्ठो वाद्याध्यायः चित्रिता ललिताः स्निग्धा क्रियन्ते करलाघवात् । आरोहबहुला यस्यां तामाहुः परिघटनाम् ।। २२२ ।। गुरूण्यष्टौ च लघवः स्युश्चतुर्विशतिर्गुरू । द्वौ षोडश लघून्यन्ते गुरुयंत्र ध्रुवात्र सा ॥ २२३ ॥ संपक्केष्टाकवद्यद्वा स्युः संपिष्टकवत्कलाः । संपिष्टके कलाः प्रोक्ता दश द्वादश वा पुरा ॥ २२४ ।। संपिष्टककलास्त्वत्र द्वादशैवेति संमतम् । द्वादशानां दशानां च प्राहुरन्ये समुच्चयम् ।। २२५ ॥ संपक्केष्टाकतालं च द्विकलीकृत्य केचन । तद्वादशकला तालयोगमत्र प्रचक्षते ॥ २२६ ।। यथाक्षरद्विकलयोः संपकेष्टाकयोरिह। अष्टादश कलाः केचिदाचक्षत समुचिताः ॥ २२७ ।। इति परिघटना चित्रिता इति । यथायोगं मिश्रेण रूपान्तरं प्रापिता इत्यर्थः । आरोहबहुलाः; आरोहिवर्णेन प्रचुराः ॥ -२२१, २२२- ॥ ___ (सु०) परिघट्टनां लक्षयति-भेदा इति । व्यञ्जनधातूत्था: भेदाः, करणधातुजैः भेदैः, चित्रिता विचित्रिताः, ललिताः, सुकुमाराः, स्निग्धाः मिश्रिताश्च, करलाघवात् मर्दिताः क्रियन्ते, आरोहबहुला: आरोहप्रचुरा यस्यां सा परिघट्टना ॥ -२२१, २२२- ॥ (क०) तत्र ध्रुवामाह -गुरूण्यष्ठेत्यादि । तस्याः पातकलायोगं दर्शयति---संपक्केष्टाकवदित्यादि । स्पष्टार्थो ग्रन्थः ॥ २२३-२२७ ॥ इति परिघट्टना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ संगीतरत्नाकरः विस्ताराविद्धकरणभेदमिश्रप्रयोगतः । यथा कलतलाख्याभ्यां मार्गासारितकं भवेत् ॥ २२८ ।। अन्ये कलतलोन्मिश्रकरणं लक्ष्म चक्ष्महे । गाश्चत्वारो लघून्यष्टौ गौ द्वावष्टौ लघून्यथ ।। २२९ ॥ गो ल इत्याद्यखण्डं स्यादेवं खण्डद्वयं परम् । यस्यामसौ ध्रुवा ज्ञेया मार्गासारितसंश्रया ॥ २३० ॥ एकं चच्चत्पुटे खण्डमुत्तरे शकलद्वयम् । कनिष्ठासारितोक्तेन कार्यस्तालकलाविधिः ॥ २३१ ॥ इति मार्गासारितम् (सु०) अस्या ध्रुवामाह--गुरूणीति । संपक्केष्टाकतालस्था: पूर्वोक्ताः संपक्केष्टाकवत्कला: कार्याः । संपक्केष्टाके पूर्व सताशताश इति दश द्वादश वा कला उक्ताः । अत्र तु द्वादशैव कलाः कार्याः । अन्ये ; आचार्याः द्वादशानां दशानां च कलानां समुच्चयमाहुः । तत्पक्षे द्वाविंशति: कलाः । केचित्त्वाचार्याः पितापुत्रकेण योगमाहुः । अन्ये तु यथाक्षरद्विकलयोः संपक्केष्टाकयो: अष्टादश कलाः परिघट्टनाया ध्रुवामाहुः ॥ २२३-२२७ ॥ इति परिघटना (क०) मार्गासारितं लक्षयति-विस्ताराविद्धेत्यादि । कलतलाख्याभ्याम् ; व्यञ्जनधातुभेदाभ्याम् । तत्र ध्रुवामाह-गाश्चत्वार इत्यादि । तस्यां पातकलायोगं दर्शयति--एकं चच्चत्पुट इत्यादि । कनिष्ठासारितोक्नेति। अत्र 'कनिष्ठासारिते युग्मः शम्यादिद्वावथोत्तरौ । एते यथाक्षरास्तेषां संनिपातोऽन्तिमोऽधिकः ॥' इति पूर्वोक्तमनुसंधेयम् ।। २२८-२३१ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २७९ प्रयोगोऽभिमृतस्य स्यात्तथा परिमृतस्य चेत् । तथा लयान्तरगतो वाधतालकलाविधौ ॥ २३२ ॥ माधुर्य सौकुमार्य च तदा लीलाकृतं भवेत् । षड्जग्रामस्थजात्यंशे यद्गीतं वार्तिके पथि ॥ २३३ ॥ आसारितं तदेवोक्तं धीरैरभिसृताहयम् । जात्यंशे मध्यमग्रामसंस्थे परिमृतं त्विदम् ।। २३४ ॥ (सु०) मार्गासारितं लक्षयति-विस्तारेति । विस्ताराविद्धकरणानां मिश्रितभेदप्रयोगात् तथा पूर्वोक्तकलतलप्रयोगात् मार्गासारितं भवति । अन्ये; आचार्याः, कलतलाख्यभेदमिश्रितधातुप्रयोगे मार्गासारितस्य लक्षणमित्याचक्षते। तमाह-गाश्चत्वार इति । एकमिति । एक खण्डं ध्रुवायाः चच्चत्पुटताले गेयम्। अन्यत् खण्डद्वयं तु उत्तरे पितापुत्रके तालाध्यायोक्तकनिष्ठासारिते यः पातकलाविधिः सोऽत्र कर्तव्यः ॥ २२८-२३१॥ इति मार्गासारितम् (क०) अथ लीलाकृतं नाम निर्गीतवाद्यं लक्षयति-प्रयोगोऽभिमृतस्येत्यादि । अभिमृतस्य परिसृतस्य च प्रयोगः तथा लयान्तरगतेति । प्रयोगश्च वाद्यतालकलाविधौ स्यात् । माधुर्य सौकुमार्य च यतः स्यात् तत्ततो लीलाकृतमित्यर्थः । अभिमृतस्य स्वरूपमाह-षड्जयामेत्यादि । परिसृतस्य स्वरूपमाह-जात्यंश इत्यादि ॥ २३२-२३४ ॥ (सु०) लीलाकृतं लक्षयति-प्रयोग इति । वक्ष्यमाणलक्षणस्य अभिसृतस्य परिसृतस्य च प्रयोग: पूर्वोक्तलयान्तरस्येव कलाविधौ प्रयोग: कार्यः । तत्र माधुर्य सौकुमार्य च यदि विद्येत तदा लीलाकृतम् । अभिसृतपरिसृते लक्षयति-षड्जग्रामेति । षड्जग्रामस्थाः षड्जग्रामोत्पन्ना जातयः, तासामंशे रागे प्रामे च यदुपनिबद्धं गीतं वार्तिके मार्गे पूर्वोक्तमासारितं तद्वद Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० संगीतरत्नाकरः अन्ये तु माषघातादिसप्ताङ्गमपरान्तकम् । ब्रुवतेऽभिमृतं तत्तु प्रदानादिनवाङ्गकम् ।। २३५ ।। पाहुः परिमृतं मृग्यं तालाध्याये लयान्तरम् । गीतकत्रयसंयोगादेवं लीलाकृतं त्रिधा ॥ २३६ ॥ प्रयोगौ द्वौ पदैश्वान्यः सार्थकैश्च निरर्थकैः। वीणावाद्यं मानतालयुक्तं शम्यादिवर्जितम् ॥ २३७ ॥ भिसृतमित्युच्यते । मध्यमग्रामोत्पन्ने जात्यंशे यदुपनिबद्धमासारित परिसृतमित्युच्यते ॥ २३२-२३४ ॥ (क०) तयोरेव मतान्तरेण स्वरूपमाह-अन्ये वित्यादि । माषघातादीनि सप्ताङ्गानि यस्येति तत्तथोक्तम् । प्रदानादीनि नवाजकानि यस्येति तत्तथोक्तम् । तदित्यपरान्तकं परामृश्यते । लयान्तरं तालाध्याये मृग्यमिति । तत्र हि · तल्लयान्तरं मार्गलयाभ्यां द्विगुणं ततः' इति कनिष्ठासारितद्वैगुण्येनोक्त आसारितभेदो द्रष्टव्यः । गीतकत्रयसंयोगादिति । अभिसृतपरिसृतलयान्तराख्यस्य गीतकत्रयस्य प्रयोगात् । अस्य लीलाकृतस्य द्वौ प्रयोगौ अभिसृतपरिसृताख्यौ, सार्थकैः; वाचकलक्षकव्यञ्जकैः पदैश्च भवतः । अन्यः तृतीयः प्रयोगो लयान्तराख्यो निरर्थकैः तेनतेनादिभिरनुकरणशब्दैर्वा भवति ॥ २३५, २३६- ॥ (सु०) मतान्तरमाह-अन्ये त्विति । पूर्वोक्तमाषघातादिसप्ताङ्गे उक्तमपरान्तकमभिसृतं, प्रदानादिनवागसंयुक्तमपरान्कं परिसृतमिति च केचिदाहुः । लयान्तरलक्षणं तालाध्याये उक्तम् । एवं गीतकत्रयसंयोगेन लीलाकृतं त्रिधा त्रिप्रकारं भवति । तत्र सार्थकैः निरर्थकैश्च पदैः प्रयोगद्वयम् ।। २३५, २३६- ॥ (क०) अत्र वाद्ये तालमानयोगविषये मतभेदान् दर्शयति-वीणावाद्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ षष्ठो वाद्याध्यायः आहुरेके मानहीनमपि त्वाह विशाखिलः । ध्रुवायां तूभयस्तालः परैस्त्वनियमात्मकः ॥ २३८ ।। इति लीलाकृतम् आसारितत्रयं पूर्व तालाध्याये निरूपितम् । यथाक्षरं द्विसंख्यातं त्रिसंख्यातमिति विधा ॥ २३९॥ प्रत्येकं तस्य चावृत्तिर्वर्णालंकारशोभना । वृत्तित्रयेण वाद्यैश्च तत्वायेः करणेन च ॥ २४० ॥ धातुना चित्रिता कार्या बुधैःणाविधाविह । इत्यासारितत्रयम् इति नकुलादिपञ्चवीणालक्षम मित्यादि । ध्रुवायां तूभयस्ताल इति । अपरान्तकासारितात्मिकायां लीलाकृतध्रुवायामुभयस्ताल: चतुरश्रः, त्र्यश्रश्च ॥ २३२-२३८ ।। (सु०) वाद्ये मानविषये मतान्तरमाह-वीणावाद्यमिति । ततवाद्यं मानेन तालेन च युक्तं कार्यम् । एके, केचित् द्वाभ्यां वर्जितमेतदाहुः । विशाखिलस्तु मानहीनं तालहीनं चाह । एतस्य ध्रुवायां यत्किचन तालद्वयं स्वेच्छया उपनिबन्धनीयम् ॥ २३२-२३८ ॥ इति लीलाकृतम (क०) आसारितत्रयं लक्षयति-आसारितत्रयमित्यादि । तस्य ; आसारितत्रयस्य, वर्णालंकारशोभनात्तिः, वृत्तित्रयेण ; चित्रावृत्तिदक्षिणानां त्रयेण, तत्वाद्यैः ; तत्त्वौघानुगतैः, करणेन धातुना ; करणघातुना च प्रत्येकमष्टभिः कर्तव्येत्यर्थः ॥ २३९-२४०- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ संगीतरत्नाकरः आलापिनीगतं लक्ष्म वक्ष्ये लक्ष्यविदां मतम् ॥ २४१ ॥ नवमुष्टिमितो दैर्ये वैणवः सुपिरान्तरः । अङ्गुलद्वन्द्वपरिधिः प्राग्वद् ग्रन्थ्यादिवर्जितः ॥ २४२ ॥ श्लक्ष्णः समः सुवृत्तश्च दण्डः स्यात्ककुभं दधत् । अगुलद्वयविस्तारमगुलार्धायतं तथा ॥ २४३ ।। तदर्धे पिण्डसंयुक्तमुन्मुखं पत्रिकोज्झितम् । एकदण्डमधोभागे शङ्कुना तु विराजितम् ।। २४४ ॥ चतुरङ्गुलदैर्येण बहिर्मध्योन्नतेन च । तस्य तुम्बं परीणाहे द्वादशाङ्गुलसंमितम् ।। १४५ ।। चतुरगुलवक्त्रं च दन्तनाभिसमन्वितम् । अग्रादधस्तात्पादोने मुष्टियुग्मे निबध्यते ।। २४६ ॥ अत्र मेषान्त्रतन्त्री स्यात्सूक्ष्मा श्लक्ष्णा समा दृढा । कर्परं नारिकेलोत्थं दोरकः सारिकास्तथा ॥ २४७ ।। त्रीण्येतानि निबध्यन्ते यत्र सालापिनी मता । (सु०) आसारितत्रयं लक्षयति—आसारितेति । त्रिविधमासारितं तालाध्याये उक्तमपि यथाक्षरं द्विसंख्यातं त्रिसंख्यातमिति, तस्य प्रत्येकमावृत्तित्रयं वर्णालंकारशोभना भेदं पूर्वोक्तचित्रादिवृत्तित्रयेण तत्त्वाद्यैश्च वाद्यैः, करणधातुना च इह वीणाविधौ बुधैः विचित्रं कार्यम् ॥ २३९, २४०- ॥ इत्यासारितत्रयम् इति नकुलादिपञ्चवीणालक्षणम (क०) आलापिनीलक्षणमाह-आलापिनीगतमिति । आलापिन्या: किंनरीभेदानां लघ्वादीनां च लक्षणानि विस्पष्टार्थत्वात् ग्रन्थत एवावगन्तव्यानि ॥ २४१-३२७- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः दशमुष्टिमितं दण्डमलाहुः खादिरं परे ।। २४८ ॥ पट्टसूत्रमयीं तन्वीं यद्वा कार्पासमूत्रजाम् । रक्तचन्दनजान्सर्वान् वीणादण्डान्परे जगुः ॥ २४९ ॥ दशमुष्टयधिकं मानं कचिल्लक्ष्येषु दृश्यते । तुम्बं वक्षसि निक्षिप्य वामाङ्गुष्ठेन तस्य च ॥ २५० ॥ मूलमुत्पीड्य धृत्वा तामय मध्यमया सुधीः । दक्षिणस्यानामया वा वादयेद्विन्धातुवत् ॥ २५९ ॥ २८३ (सु०) आलापिनीलक्षणमाह - आलापिनीगतमिति । वेणो नवमुष्टिपरिमितो दीर्घत्वे दण्डः स्यात् । अङ्गुलद्वयं परिधिः वर्तुलप्रमाणं यस्य ; प्राग्वत् ; एकतन्त्रीदण्डवत् ; ग्रन्थ्यादिवर्जितः ; ग्रन्थिभेदादिवर्जितः; श्लक्ष्ण: ; मसृण: ; समः; आदिमध्यावसानेषु समप्रमाण: ; सुवृत्तः ; वर्तुलश्च ; अङ्गुलद्वयविस्तार:, तथा अर्धाङ्गुलायामः तदर्धे पिण्डसंयुक्तम्, उन्मुखम् ; ऊर्ध्वमुखं यस्य, पत्रिका उज्झितं हीनम्, एकेन दण्डेन युक्ता, अधोभागे ; अधः प्रदेशे तु चतुरङ्गुलदैर्येण, बहिः प्रदेशे मध्येन चोन्नतेन शङ्कुना विराजितं ककुभं दधत् दण्डः स्यादिति संबन्ध: । तस्य दण्डस्य अप्रात् अधस्तात् तुम्बं दधत्, चतुर्थांशे नवमुद्विये द्वादशाङ्गुलसंमितं चतुरङ्गुलमुखं च नागदन्तनाभियुक्तं निबध्यते । अत्रेति । अत्र ; आलापिन्याम्, मेषस्य अजस्य आन्त्रेण तन्त्री कार्या । नारिकेलोत्थं कर्परं, दोरकः, सारिकाच, एतानि त्रीणि यत्र निबध्यन्ते सा आलापिनी ज्ञातव्या । मतान्तरमाह - दशति । अत्र, परे; आचार्याः दशमुष्टिमितं खादिरं दण्डमाहुः । यद्वा पट्टसूत्रमयी कार्पास सूत्रमयी वा तन्त्री कार्या । परं ; आचार्याः रक्तचन्दनजान् सर्वान् वीणादण्डान् जगुः ॥ - २४१ - २४९- ॥ (सु०) आलापिनीवादनप्रकारमाह —– तुम्बमिति । वक्षसि तुम्बं निक्षिप्य स्थापयित्वा वामाङ्गुष्टेन तस्य तुम्बस्य मूलं निष्पीड्य मध्यमया अङ्गुल्या तामालापिनीं त्वा, दक्षिणहस्तस्य अनामिकया पूर्वोक्तबिन्दुधातुवत् वादयेत् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ संगीतरत्नाकरः बिन्दुइस्तेन वा मन्द्रे मध्ये तारे च वादयेत् । त्रयस्तु दक्षिणात्याणेश्चत्वारो वामतः स्वराः ॥ २५२ ॥ इत्युक्तं कैश्चिदाचार्यैरपरे त्वन्यथा जगुः ।। मध्यमो मुक्तया तन्त्र्या तर्जन्याद्यगुलीत्रयात् ।। २५३ ।। वामस्यानामिकावास्वयः स्युः पञ्चमादयः । मुक्ततन्त्र्याथ षड्जः स्थादृषभस्तर्जनीभवः ॥ २५४ ।। गान्धारो मध्यमागुल्या दक्षिणेनाथ वादनम् । आरोहेणावरोहेण सप्तकद्वितये भवेत् ॥ २५५ ॥ एभिः स्वरैविरचितं विचित्रं रागमालपेत् । गायेद्गीतं निबद्धं च प्रवीणो वीणयानया ॥ २५६ ॥ इदमालापिनीलक्ष्म श्रीनिःशङ्केन कीर्तितम् । इत्यालापिनीलक्षणम किंनरी द्विविधा लम्बी बृहती चेति कीर्तिता ।। २५७ ।। त्रयः स्युरिति । दक्षिणपाणिना वादनात् त्रयः स्वरा:, वामपाणिना चत्वारः स्वरा इति केचित् आचार्या आहुः । अपरे तु अन्यथा आहुः । मुक्तया अप्रतिबद्धया तन्त्र्या मध्यम: मध्यमस्वरः वामहस्तस्य अनामिकया विना तर्जन्यादिभि: तिसृभिरङ्गुलीभि: क्रमात् पच्चमादयः, पञ्चमधैवतनिघादाः । अथ विमुक्तया तन्त्र्या षड्ज: ; ततो दक्षिणहस्ततर्जन्या ऋषभः ; मध्यमाङ्गुल्या गान्धार इति । अथ स्वरवादनप्रकारपरिज्ञानानन्तरम् , सप्तकद्वितये आरोहावरोहाभ्यां कार्यम् । एभिः; सप्तकद्वयस्थैः स्वरै रागालापं कुर्यात् । तस्मिन् निबद्धं गीतं चानया आलापिन्या वीणया गायेत् ॥ -२५०-२५६- ॥ इत्यालापिनीलक्षणम् (सु०) किंनरी लक्षयितुं विभजते-किंनरीति । किंनरी द्विविधा, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ षष्ठो वाद्याध्यायः तत्र लघ्वीगतं लक्ष्म सांपतं प्रतिपाद्यते । स्याद्वितस्तित्रयं देध्ये मानं पञ्चाङ्गुलाधिकम् ॥ २५८ ।। पञ्चाङ्गुलः परीणाहो वेणुदण्डस्य यत्र च । गर्भेऽस्य व्यापकं रन्धं ककुभः शाकदारुजः ।। २५९ ।। सार्धद्वयङगुलविस्तारो दैये पञ्चाङ्गुलश्च सः । तस्मादर्धाङ्गुलन्यूना दैर्घ्यविस्तारयोर्भवेत् ।। २६० ।। मध्ये कूर्मोन्नता लोही पत्रिका ककुभस्थिता । गृध्रवक्षोऽस्थिनलिका कनिष्ठागुलिसंमिता ॥ २६१ ॥ लौही कांस्यमयी यद्वा कीर्तिता सारिकाख्यया । श्लिष्टा वस्त्रमपीमिश्रमर्दनेन चतुर्दश ॥ २६२ ॥ चतुर्दश स्वरस्थाने दण्डपृष्ठे निवेशयेत् । सप्तकस्य द्वितीयस्य यो निपादो भवेदधः ॥ २६३ ॥ द्विप्रकारा-लध्वी बृहती चेति । तत्र लळ्या लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयतिस्यादिति । वेणुदण्डस्य दीर्घत्वे मानं पञ्चाङ्गुलाधिकवितस्तित्रयं परिमाणम् | परिणाहो वर्तुलप्रमाणं पञ्चाङ्गुलम् । अस्य ; वेणुदण्डस्य, गर्भे मध्ये व्यापकं वेत्ररन्धं शाककाष्ठजः सार्धाङ्गुलद्वयमायामः, पञ्चाङ्गुलः ककुभः, तस्मात् ककुभात् दैर्घ्य आयामे च अर्धाङ्गुलन्यूना मध्ये कूर्मवदुन्नता च लोहमयी पत्रिका ककुभे वर्तमाना कार्या | गृध्रेति । गृध्रनामान: पक्षिणः, तेषाम् अस्थिनलिका, सच्छिद्रा अस्थिखण्डा कनिष्ठाङ्गुलिप्रमाणा लोहमयी कांस्यमयी वा सच्छिद्रा नलिकाश्च चतुर्दशसंख्याकाः, दग्धवस्त्रमषीमिश्रेण सिक्थकेन मर्दनेन समुत्थेन श्लिष्टा दण्डस्य पृष्ठे तललग्ना: चतुर्दशस्वरस्थाने स्थापयेत् ॥ -२५७-२६२- ।। (मु०) स्थापनाप्रमाणमाह-सप्तकस्येति । द्वितीयस्य सप्तकस्य अध:स्थाने यो निषादः, तस्य स्थाने प्रथमा सारिका किंचिदगुलाधिका, अन्तरे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ संगीतरत्नाकरः तस्य स्थाने भवेदाद्या सारिकान्योर्ध्वमङ्गलात् । स्थापयेदन्तरे किंचित्किचित्पूर्वाधिक परा ।। २६४ ॥ द्व्यङ्गुलावध्यष्टमीं तु पूर्वस्यास्त्रयङ्गुलान्तरे । स्थापयित्वा पराः पट् च पूर्वपूर्वाधिकान्तरे ।। १६५ ।। चतुरङ्गुलपर्यन्तं सारिकाः संनिवेशयेत् । तुम्वं दण्डस्थककुभस्याधः संधौ निवेशयेत् || २६६ || तृतीयतुर्यसार्योस्तु मध्येऽधस्ताद् द्वितीयकम् । पूर्वस्मादपरं तुम्बं विस्तारेऽभ्यधिकं मनाक् ।। २६७ ॥ दण्डायाद् द्व्यङ्गुलेऽधस्ताद्वन्धं कृत्वाथ निक्षिपेत् । चलशकुं गले रन्धं दधमानमतोऽगुलात् ।। २६८ ॥ अधस्तादङ्गुलोत्सेधं मेढकं बाणपुङ्खवत् । कृत्वा ततोऽग्रतः किंचित्स्थिरशकुं निवेशयेत् ॥ २६९ ॥ ततो लोहमयीं लक्ष्णां वर्तुलां च समां दृढाम् । गजकेशोपमां तन्वीं निवध्य ककुभे दृढम् || २७० || द्व्यङ्गुलायामा स्थाप्या । परा अष्टमी सारिकां तु सप्तम्याः सकाशात् त्र्यङ्गुला अन्तरप्रदेशे स्थाप्या । अन्यास्तु षट्सारिका: पूर्वपूर्वापेक्षया किंचिदधिका, अन्तरे चतुरङ्गुलाः स्थाप्याः । तुम्बमिति । दण्डस्थककुभस्य अध: संधौ तुम्बं निवेशयेत् । ततो द्वितीयमपि तुम्बं पूर्वतुम्बात् किंचिदधिकं विस्तारं तृतीयचतुर्थसारिकयोर्मध्यस्थाने स्थापयेत् । दण्डायादिति । दण्डस्य अग्रात् द्व्यङ्गुलमित्यधस्तात् प्रदेशे रन्ध्रं कृत्वा चलं भ्रमणयोग्यं शकुं कीलकं निक्षिपेत् । गले कण्ठप्रदेशे रन्ध्रं दधमानं दधतमिति शङ्कुविशेषणम् । “दध धारणे” (भ्वादि:, ८) इति भौवादिकस्य धातो रूपम्। अङ्गुलोत्सेधं ; शङ्कोर गुलादधस्तात् अङ्गुलोर्ध्वं शरपुङ्खवत् द्विशृङ्गमेढकं शकुं कृत्वा, तत: किंचिदप्रतः स्थिरं भ्रमणयोग्यं शकुं निवेशयेत् । ततः गजकेशोपमाम्, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २८७ सारिकामस्तकन्यस्तामानीतां मोढकोपरि । लग्नां द्वितीयप्रान्तेन वेष्टयेच्चलकीलके ॥ २७१ ।। शकुं तं भ्रामयेत्तावद्यावत्तन्त्री दृढा भवेत् । भ्रामणं वैपरीत्येन तन्त्रीशैथिल्यकारणम् ॥ २७२ ॥ तन्त्रीदैर्येऽथ दााय चलशङ्कोर्गलस्थिते । छिद्रे न्यस्याथ संकीलं स्थिरशङ्कौ निवेशयेत् ।। २७३ ।। लघ्वी सा किंनरी प्रोक्ता शाङ्गदेवेन मूरिणा । अस्यां स्थायिनमारभ्य गणयेत्सप्तकद्वयम् ।। २७४ ।। सारीककुभयोर्मध्ये तर्जन्यायगुलित्रयात् । वादयेत्किनरीवीणातन्त्री दक्षिणपाणिना ।। २७५ ॥ वामस्य तिसभिस्ताभिरङ्गुलीभिस्तु तन्त्रिकाम् । तत्तत्सारीप्रदेशस्थां स्वरव्यक्त्यै निपीडयेत् ।। २७६ ॥ वितस्त्यभ्यधिका दैर्ये परिणाहऽङ्गुलाधिका। लव्याः स्याद् बृहती स्नायुमया तन्त्रीवितुम्बिका ।। २७७ ।। गजकेशवत् लोहमयीं तन्त्री दृढं ककुभे निबध्य सारिकामूर्धनि निबद्धमेढकोपरि आनीतां द्वितीयप्रान्तेन चलशकुं वेष्टयेत् । तं चलशकुं तावद्भ्रामयेत , यावद् दृढा तन्त्री भवेत् । तस्य शङ्कोः वैपरीत्येन भ्रमणं तन्त्र्या: शैथिल्यमापादयति । तन्त्री दीर्घ सति, अथ दाढाय दृढस्थितये चलशङ्कोः कण्ठरन्ध्रे कंचन लोहमयं कीलं स्थिरशङ्कौ स्थापयेत् । इयं लध्वी किंनरीति । अस्यामिति । अस्यां किंनों स्थायिनमंशस्वरमारभ्य सप्तकद्वयं गणयेत् । किंनरीवीणाया तन्त्री दक्षिणेन पाणिना सारीककुभयोर्मध्ये तर्जन्यादिभिदियेदिति संबन्ध: । वामहस्तस्य ताभि: तर्जन्यादिभिः तिसृभिः अगुलीभिः सारीस्थस्वरव्यक्तये तन्त्री निपीडयेत् । बृहती किंनरी लक्षयति–वितस्तीति । लघुकिंनर्याः सकाशात् बृहती किंनरी दीर्घत्वे वितस्त्या अधिकपरिणाह आयामे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ संगीतरत्नाकरः आलापिनीवदस्यां च स्थाप्यं तुम्बं तृतीयकम् । अन्यल्लघ्वीगतं लक्ष्म बृहती किंनरीं श्रयेत् ।। २७८ ॥ इति द्विविधकिंनरीलक्षणम् किंनरीत्रितयं तत्र देशीसंसिद्धमन्यथा । बृहती मध्यमा लघ्वीत्यथासां लक्ष्म कथ्यते ।। २७९ ॥ तिर्यग्यवोदरैः षड्भिर्निस्तुपैः स्यादिहाङ्गुलम् । बृहतीदण्डमानं स्यादैर्ये पञ्चाशदङ्गुलम् ॥ २८० ॥ षडङ्गुलोऽत्र परिधिर्दण्डे दार्घ्य तु काकुभे । षडगुलं शिरस्त्वस्य दैर्घ्यविस्तारयोर्भवेत् ॥ २८१ ।। चतुरङ्गुलसंमानं द्वयङ्गुलं तु तदुच्छ्रये । निक्षिपेत्काकुभं दण्डं वीणादण्डोत्तरे तथा ॥ २८२ ॥ अङ्गुलेनाधिका गोस्नायुरचिता तन्त्री यस्यां, तुम्बत्रययुता तृतीयं तुम्बं यस्याम् आलापिन्यां यथा स्थाप्यते तथैवास्यां स्थापनीयम् | अन्यत् लक्षणं बृहत्किनरी लघुकिंनरीस्थमाश्रयति ॥ -२६३-२७८ ॥ इति द्विविधकिंनरीलक्षणम् ___(सु०) अथ देशीप्रसिद्ध किंनरीत्रितयं लक्षयति-किंनरीति । तिस्रः किंनर्यो देशीप्रसिद्धा: । अन्यथा पूर्वोक्तकिंनरीद्वयात् विलक्षणा, बृहती मध्यमा लध्वी चेति । तासां लक्षणानि कथयितुं परिभाषते-तिर्यगिति । यवतुषविहीनः तिर्यक् स्थितैः षड्भिर्यवोदरैः, एकमगुलं किंनरीलक्षणप्रकरणे ज्ञातव्यम् । बृहती किंनरी लक्षयति-बृहतीति । बृहत्याः किंनर्याः दण्डस्य दीर्घमानं दीर्घत्वं पञ्चदशाङ्गुलानि । परिधिः वर्तुलमानं षडङ्गुलानि दण्डस्य ज्ञातव्यम् । ककुभे बन्धनीदैर्घ्य षडङ्गुलमानम् । अस्य ककुभस्य शिरः दैर्घ्य विस्तारे वा आयामे चतुरगुलं कार्यम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ षष्ठो वाद्याध्यायः दण्डांशः परिशेषोऽत्र तावान्यावति शेषिते । वीणादण्डान्तककुभशिरोमध्यान्तरे स्थितः ।। २८३ ॥ तन्त्रीभागस्तृतीयांशाधिकञ्यमुलको भवेत् । मध्ये कूर्मोन्नतां लौहीं पत्रिकां शिरसि क्षिपेत् ।। २८४ ।। परितोऽर्धागुलन्यूना शिरसोऽसौ प्रकीर्तिता । वीणाशीर्षादधस्ताच्च सार्धयङ्गुलतः स्थितम् ॥ २८५ ॥ ऊर्ध्वाधो दैर्यभारन्ध्र विस्तारेऽर्धाङ्गुलायतम् । तिर्यग्दैर्ध्या तावदन्यद्रन्धं चोभयतोमुखम् ॥ २८६ ।। तिर्यग्रन्ध्रे चलं शङ्कुमूर्ध्वरन्ध्रनिविष्टया । लौह्या सारिकया युक्तं न्यसेत्यान्तान्तरं पुनः ।। २८७ ॥ सारिकायाः शिरोमूले बनीयात्काकुभे सुधीः । तन्त्रीरन्धात्पुरः स्वाइघिद्वयङ्गुले मेढको भवेत् ॥ २८८ ।। उच्छाये उत्सेधे द्वयङ्गुलम् | ककुभस्य दण्डं वीणादण्डमध्ये निक्षिपेत् । दण्डांश: दण्डस्य अशोऽवयवः, तावान् शेष्यः अवशेषणीयः, यावति शेषे अगुलकः तृतीयांशाधिक: तन्त्र्या भागोऽवयवः वीणादण्डस्य अन्ते ककुभस्य शिरो मध्यान्तेषु स्थिरो भवेत् । मध्य इति । मध्ये कूर्मवत् उन्नतां लौहीं लोहघटितां पत्रिकां ककुभस्य मध्ये शिरसि शिरोमध्ये क्षिपेत् स्थापयेत् । असौ पत्रिका शिरसः परितः सर्वप्रदेशेभ्य अर्धाङ्गुलन्यूना युक्ता । वीणेति । वीणायाः शीर्षप्रदेशः, तस्मादधस्तात् घगुले प्रदेशे स्थितमूर्ध्वमधश्च दीर्घरन्धं कुर्यात् । तद्विस्तारः अर्धाङ्गुलप्रमाणम् , तिर्यक् दैयेऽपि तावत् अर्धाङ्गुलायामम् , एवं द्वितीयं रन्ध्रमुभयतोमुखं कुर्यात् । तत्र तिर्यग्रन्ध्रे चलं भ्रमणयोग्यं शकुम् ऊर्ध्वरन्ध्रस्थितया लोहकृतया सारिकया नलिकया युक्तं न्यसेत् क्षिपेत् । सारिकायाः प्रान्तान्तरं पुनः काकुभे ककुभसंबन्धिनि शिरोमूले बनीयात् । तन्त्रीति । तन्त्रीरन्ध्रात् पुरः पूर्वप्रदेशे सपादद्वयगुल 37 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० संगीतरत्नाकर: स च स्यात्कर्तरीयुक्तो गले रन्ध्रान्वितोऽथवा । कर्तर्या गलरन्ध्र वा सारिका तां निवेशयेत् ॥ २८९ ॥ तद्रन्धे दण्डान्तरालं विदध्यात्सयवाङ्गुलम् । मेढकात्पुरतः शङ्कुः स्थिरः सार्धागुलान्तरे ॥ २९० ॥ तिर्यग्रन्ध्र निवेशोऽस्य चलशङ्कुवदिष्यते । चलशङ्कुभ्रामणादि ज्ञेयं पूर्वोक्तरीतितः ॥ २९१ ॥ गृध्रवक्षोस्थिजा यद्वा तत्पादास्थिसमुद्भवाः। कांस्यमय्योऽथवा लौह्यो नलिकाः सारिका मताः ॥ २९२ ।। सार्धाङ्गलास्ताः परिधौ दण्डपृष्ठे निवेशयेत् । यन्मेढकशिरोमध्यादुपक्रम्यान्तरं भवेत् ॥ २९३ ॥ सारीमस्तकमध्यानां तदिदानीं निरूप्यते । आद्यान्तरं तत्र यवाधिकं पञ्चगुलं मतम् ।। २९४ ।। द्वितीयमन्तरालं तु चतुरङ्गुलमुत्तरम् । तस्मात्तृतीयतुर्ये तु यवन्यूने मते सताम् ॥ २९५ ॥ प्रमाणकः मेढकः शङ्कुर्भवेत् । स च कर्तरीयुक्तो रन्ध्रयुक्तो वा कार्य: । तत्र कर्तर्या गलरन्ध्र वा सारिकां निवेशयेत् । तद्रन्ध्रेति । तस्य रन्ध्रस्य दण्डस्य च मध्यं यवाधिकैकाङ्गुलमितं कुर्यात् । मेढकात् पूर्वप्रदेशे स्थिरं भ्रमणयोग्य शकुं सार्धालान्तरे तिर्यग्रन्ध्रे चलशङ्कुप्रकाशने निवेशनीयः । अस्य शकुभ्रमणं तन्त्रीदाढर्यार्थम् ; शैथिल्यार्थ विपरीतभ्रमणं वा स्थिरतरार्थ च कीलकबन्धनं पूर्ववत् ज्ञेयम् | गृधेति । गृध्रस्य वक्षःस्थितं यदस्थि तदुद्भवाः नलिकाः कर्तव्याः । यद्वा ; अथवा गृध्रपादास्थिजाताः, अथवा कांस्यघटिता:, आहोस्वित् लोहमय्यः, ता: सार्धाङ्गुलप्रमाणा: परिधौ वर्तुलप्रमाणे दण्डस्य पृष्टे स्थापयेत् । मेढकस्य शिरोमध्यमारभ्य सारीशिरोमध्यानां यदन्तरं तत्प्रतिज्ञायाह-आद्यान्तरमिति । तत्रेति । तत्र तस्यां किंनर्याम् , आद्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ षष्ठो वाद्याध्यायः यवाधिकव्यङ्गुलं तु ज्ञेयं पञ्चममन्तरम् । यवोनद्वयगुलं षष्ठं सयवद्वयमुलं पुनः ॥ २९६ ॥ अन्तरालं सप्तमं स्यात्सार्धद्वयङ्गुलमष्टमम् । नवमं तु यवा!नं सार्धाङ्गुलमितं मतम् ॥ २९७ ॥ दशमं द्वयङ्गुलं हीनं यवोनैकादशं ततः । द्वादशं तु तृतीयांशन्यूनं तस्मात्त्रयोदशम् ॥ २९८ ॥ सतृतीयांशाङ्गुलं स्यादगुलं तु चतुर्दशम् । द्वितीयान्तरतोऽधस्तान्यस्येत्तुम्बमधोमुखम् ।। २९९ ।। अन्यत्ककुभमूर्ध्वाधस्तुम्बकं संनिवेशयेत् । षट्त्रिंशदगुलं चक्रे परिधिस्त्वाद्यतुम्बके ।। ३०० ॥ किंचिन्यूनं त्वधस्तुम्बं परिधौ स्यादधस्तनम् । ईपदस्पष्टसरिका सारिकास्ता निवेशयेत् ॥ ३०१ ॥ मर्दनेनेष्टकाचूर्णमिश्रेण श्लेषणं दृढम् । सारीणामथवा वस्त्रमपी मिश्रेण संमितम् ॥ ३०२ ।। मन्तरं यवाधिकपञ्चाङ्गुलम् ; द्वितीयमन्तरं तु चतुरङ्गुलम् ; तृतीयं चतुर्थ च द्वितीयवत् यवन्यूनचतुरङ्गलम् ; पञ्चमं तु यवाधिकत्र्यङ्गुलं ज्ञेयम् ; षष्ठमन्तरं यवोनत्र्यङ्गुलम् ; सप्तममन्तरालं पुनः सयवद्वयङ्गुलम् ; अष्टमं सार्धद्वयगुलम् ; नवमं तु अर्धयवोनं सार्धाङ्गुलम् ; दशमं द्वयगुलम् ; एकादशं तु यवहीनं द्वयङ्गुलम् ; द्वादशं तु तस्मादेकादशात् तृतीयांशादूनम् ; त्रयोदशमङ्गुलतृतीयांशहीनम् ; चतुर्दशमेकागुलप्रमाणकमिति । द्वितीयेति । द्वितीयान्तरस्य अधस्तात् अधोमुखं न्यस्येत् । अन्यद् द्वितीयं तु वक्त्रं ककुभस्य शिरसोर्ध्वस्थं स्थापयेत् । प्रथमतुम्बस्य वक्त्रे परिधि: वर्तुलप्रमाणं षट्त्रिंशदगुलानि । ततोऽधस्तने तुम्बे पूर्वतुम्बात् परिधौ किंचिन्न्यूनं स्यात् । ईषदिति । सारिका: किंचित् अस्पृष्टसारिकापृष्ठे तन्त्रिका वा निवेशयेत् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ संगीतरमाकरः मुक्ततन्त्रीभवं कृत्वा स्वरमाद्यं चतुर्दशम् । स्वराः परे स्युः सारीणां चतुर्दशभिरन्तरैः ॥ ३०३ ।। सप्तकद्वयमेवं स्यादेकतारस्वराधिकम् । यथास्वं स्वरदेशांशैः श्रुतिस्तस्या वितन्वते ।। ३०४ ।। द्विवास्ततोऽधिकाः सारीर्निबधीयात्परे त्विह । लक्षयन्त्यन्तराण्यासां स्वराविर्भावतो बुधाः ॥ ३०५ ।। श्रीशार्ङ्गदेवोपदेशात्तद्बोधः सुलभो नृणाम् । केचित्रयोदशैवात्र सारीनिदधते बुधाः ॥ ३०६ ॥ बृहती किंनरीत्येषा शार्ङ्गदेवेन कीर्तिता । इति बृहती किंनरी मध्यमायां दण्डदैर्घ्य त्रिचत्वारिंशदङ्गुलम् ॥ ३०७॥ परिधिदृश्यते तत्र द्वियवोनषडङ्गुलः । सार्धव्यङ्गुलविस्तारं पाग्दैर्ध्य काकुभं शिरः ।। ३०८ ॥ सारीणां विशेषणं संयोजनमिष्टकाचूर्णमिश्रेण मर्दनेन कार्यम् । अथवा वस्त्रमषीमिश्रेण कटयोर्विमुक्तया तन्त्र्या जातं प्रथमं स्वरं च कृत्वा सारीणां चतुर्दशभिरन्तरैः मध्यप्रदेशैरन्त्ये चतुर्दश स्वराः स्युः। एवं पञ्चदशभिः स्वरैः मन्द्रसप्तकं, मध्यसप्तकं स्यात् । तारसप्तकस्य एकस्वरोऽधिको भवति । स्वरप्रदेशानामंशैः यथास्वं, द्विश्रुतौ स्वरे द्वाभ्यामंशाभ्याम् , त्रिश्रुतौ त्रिभिरंशैः, चतुःश्रुतौ चतुर्भिरंशैः श्रुति: वितन्वते विस्तारयन्तीति । मतान्तरमाह-द्वित्रा इति । एषा बृहती किंनरी शार्ङ्गदेवेनोक्ता ॥ २७९-३०६-॥ इति बृहती किंनरी (सु०) मध्यमां किंनरी लक्षयति-मध्यमायामिति । मध्यमायां किंनों दण्डस्य त्रिचत्वारिंशदङ्गुलप्रमाणकं दैर्घ्य परिधिः वर्तुलप्रमाणं तु दण्डस्य यव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २९३ क्षिपेत्ककुभदण्डस्य वीणादण्डेऽङ्गुलत्रयम् । तावांश्च परिशेषेऽसौ यावतः परिशेषणे ॥ ३०९ ॥ दण्डान्तशीर्षमध्यान्तः सारिकावयवस्थितिः । वतीयभागरहिताङ्गुलनयमितो भवेत ॥ ३१०॥ दण्डान्ते सारिकोत्सेधः स्याद्यवोनाङ्गुलद्वयः । तदर्थो मेढकोपान्त्ये सारीणामन्तरं त्विह ॥ ३११ ।। प्रथमं प्रथितं प्राज्ञैः सार्धाङ्गुलचतुष्टयम् । द्वितीयमन्तरं मेयं सयवैरङ्गुलैत्रिभिः ।। ३१२ ॥ तृतीयं तु तृतीयांशाभ्यधिकैस्त्रिभिरङ्गुलैः । चतुर्थ व्यङ्गुलं प्रोक्तं पञ्चमं सारिकान्तरम् ।। ३१३ ॥ यवाधिकाभ्यां सार्धाभ्यामगुलाभ्यां मितं मतम् । षष्ठं यवद्वयन्यूनद्वयललं सप्तमं पुनः ॥ ३१४ ॥ सयावार्धागुलद्वन्द्वमष्टमं त्वङगुलद्वयम् । अङ्गुलं सयबद्वन्द्वं नवमं दशमं पुनः ।। ३१५ ।। यवोनमङ्गुलद्वन्द्वमन्तरत्रितयं पुनः । इतः परस्याः प्रत्येकं सपादाङ्गुलसंमितम् ॥ ३१६ ॥ इति मध्यमा किंनरी द्वयोनानि षडङ्गुलानि । काकुभं ककुभसंबन्धि शिरः सार्धागुलत्रयविस्तार देय स्यात् । क्षिपेदिति । वीणादण्डे ककुभदण्डमङ्गुलित्रयं क्षिपेत् । असौ ककुभदण्डस्तावत् परिशेषणीयः । यावत: परिशेषणे क्रियमाणे दण्डादिषु स्थितः तृतीयभागहीनाङ्गुलित्रयमितो भवति दण्डस्य अन्ते प्रान्ते वर्तमानाया: सारिकाया उत्सेध: यवोनमगुलद्वयं, मेढकोपान्ते वर्तमानायाः सारिकाया उत्सेधः तस्मादर्ध: । सारीणामन्तरप्रदेशप्रमाणमाह-सारीणामिति । प्रथममन्तरं सार्धमङ्गुलचतुष्टयं प्राज्ञैः प्रथितं विस्तारितम् ; द्वितीयमन्तरं यवाधिक Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ संगीतरत्नाकरः विशेषोऽयमिहान्यत्तु लक्ष्म स्याद् बृहतीगतम् । लवीदण्डगतं दैर्घ्यं स्यात्पञ्चत्रिंशदङ्गुलम् || ३१७ ॥ परिधिस्तु तृतीयांशाभ्यधिकाङ्गुलपञ्चकः । अगुलत्रयविस्तारं ककुभस्य शिरोभवेत् ॥ ३९८ ॥ पूर्ववत्काकुभो दण्डो वीणादण्डे निधीयते । परिशेषस्तथा सा स्याद्यथा दण्डान्ततन्त्रिका ॥ ३१९ ॥ आ ककुभ शिरोमध्याद्भवेत्यङ्गुलसंमिता । दण्डान्ते सारिकोत्सेधः स्यात्सार्धाङ्गुलसंमितः ॥ ३२० ॥ तदर्धे मेढकोपान्ते तत्राद्यं सारिकान्तरम् । प्रोक्तं यवेनाभ्यधिकैश्चतुर्भिर्मितमङ्गुलैः ॥ ३२१ ॥ मङ्गुलेन मेयं मातव्यम् ; तृतीयमन्तरमङ्गुलतृतीयांशाधिकैः त्रिभिरङ्गुलैर्मातव्यम्; चतुर्थमन्तरं त्र्यङ्गुलेन; पञ्चमं यवाधिकसार्धद्व्यङ्गुलम् ; षष्ठं यवद्वयेन हीनं द्वयङ्गुलम् ; सप्तमं यवसहितं सार्धाङ्गुलद्वयम् ; अष्टमं द्वयङ्गुलयवद्वयाधिकम् ; नवमं दशमं च यवोनाङ्गुलद्वयम् ; दशमादनन्तरमवयवत्रयसपादाङ्गुलप्रमाणम् । अयं विशेष उक्तः । इह अन्यत्तु लक्ष्म लक्षणं तु बृहतीगतं मध्यम किंनर्या ज्ञातव्यम् ॥ - ३०७-३१६-॥ इति मध्यमा किंनरी (सु० ) लघ्वी किंनरीं लक्षयति-लध्वीति । लघ्व्याः किंनर्या दण्डं पञ्चत्रिंशदङ्गुलं दैर्घ्यं ज्ञातव्यम् । अङ्गुलत्रितयांशाधिकं पञ्चाङ्गुलं परिधिः, ककुभस्य शिरः त्र्यङ्गुलं स्यात् । वीणादण्डे ककुभदण्डस्य परिशेषः तथा कर्तव्यः यथा दण्डान्तरं ककुभशिरोमध्यं व्याप्य त्र्यङ्गुलं स्यात् । सारिकान्तरमाह—तत्रेति । प्रथमं सारिकान्तरं यवाधिकचतुरङ्गुलम् ; द्वितीयं यवद्वयाधिकं द्व्यङ्गुलम् ; तृतीयमेकयवोनं द्व ्यङ्गुलम् ; तुर्य चतुर्थाशन्यूनं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः द्वितीयं द्वियवोपेताङ्गुलद्वन्द्वमितं भवेत् । यवोनाभ्यामङ्गुलीभ्यां तृतीयं मीयते बुधैः ॥ ३२२ ॥ पादोनत्र्यङ्गुलं तुर्यमथ पञ्चममन्तरम् । यवार्धेनाङ्गुलद्वन्द्वं षष्ठं सार्धाष्टभिर्यवैः ॥ ३२३ ॥ सप्तमं तु यवनेनाङ्गुलद्वन्द्वेन मीयते । सार्धाङ्गुलं त्वष्टमं स्यान्नवमं त्वष्टभिर्यवैः || ३२४ || दशमैकादशे प्रोक्ते सपादाङ्गुलके पृथक । यवन्यनागुलमितं द्वादशं च त्रयोदशम् || ३२५ || अन्यत्तु लघुर्किन लक्ष्म पूर्ववदिष्यते । न बृहत्यधिकं मानं न हीनं त्रिंशदङ्गुलात् ॥ ३२६ ॥ आदर्तव्यं किंनरीणां रक्तिमाधुर्यवर्जनात् । एतयोरन्तराले तु यथेष्टं मानकल्पना || ३२७ || इति लघ्वी किंनरी २९५ त्र्यङ्गुलम् ; पञ्चममर्धयवन्यूनं द्व्यङ्गुलम् ; षष्ठं सार्वैरष्टभिर्यवैर्युक्तम् । अयं तु लक्षणे विशेष उक्तः - सप्तमं तु यवोनेन अङ्गुलद्वयेन मीयते ; अष्टमं तु सार्धाङ्गुलेन ; नवमं त्वष्टभिर्यवै: ; दशमैकादशे पृथक् सपादाङ्गुलके प्रोक्ते ; द्वादशं त्रयोदशं च यवन्यू नाड्गुलमितं कार्यम् । अन्यत् सर्वे लक्ष्म लघुकिनर्या पूर्ववत् ज्ञातव्यम् । न बृहत्यधिकमिति ; किंनरीणां बृहत्यधिकं त्रिंशदङ्गुलदीर्घमाने हीनं नादर्तव्यम् । कुतः ? रक्तिमाधुर्ययोः वर्जनात्, लोपादित्यर्थः । एतयोः ; मध्यमलघ्व्योः किंनर्योः स्वेच्छया अन्तरालमानं कल्पयित्वा स्वरस्थानानि ज्ञातुं तद्विद: ; वैणिकाः समर्थाः ॥ - ३१७–३२७ ॥ इति लघ्वी किंनी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः शक्ता विवेक्तुमत्रापि स्वरस्थानानि तद्विदः । प्रदर्शनार्थी केषांचिद्रागाणां वादनक्रमम् ।। ३२८ ।। अस्यां किंनरवीणायां वक्ति श्रीकरणेश्वरः । स्थायिनं मध्यमं मन्द्रं मध्यं वा स्थायिनः परान् ॥ ३२९ ॥ आरु पनिसान्पञ्चावरोध क्रमतः स्वरान् । षड्जतः स्थायिपर्यन्ताद्यदाहन्यात्तु धैवतम् || ३३० || मध्यमादेः समाख्यातं स्वस्थानं प्रथमं तथा । द्वयर्धमर्धस्थितं तद्वदारुह्य द्विगुणं स्वरम् || ३३१ || आद्यं स्वस्थानमातिष्ठेत्स्वस्थानत्रितये परे । असंभवे पूर्वपूर्वस्वरस्य तु परं परम् ।। ३३२ ।। क्रमेण स्वरमारोहेत्सर्वरागेष्विति स्थितिः । इति मध्यमादिः (क० ) अथ किंनरीवीणायां केषांचिदधुना प्रसिद्धानां रागाणां वादनक्रमं दर्शयितुमाह — प्रदर्शनार्थमित्यादिना । तत्रादौ मध्यमादेः स्वस्थानचतुष्टये स्वरसंनिवेशमाह - स्थायिनं मध्यममित्यादि । मन्द्रं मध्यमं मध्यं मध्यमं वा स्थायिनं कृत्वा, स्थायिनं रागस्थितं स्थानमित्यर्थः । तथैव स्थायिलक्षणं प्रागेवोक्तम् ; 'यत्रोपविश्यते रागः स्वरे स्थायी स कथ्यते' इति । स्थायिमन्द्रमध्यमात् मध्यममध्यमाद्वा, परान पनिसान, आरुह्येति; अनेनास्मिन् रागे धैवतस्य तत्संवादिन ऋषभस्य च वर्ज्यत्वमवगन्तव्यम् । क्रमतः षड्जतः स्थायिपर्यन्तान् पञ्चस्वरानवरुह्य, सनिधपमानि - त्यर्थः । अनेन अवरोहे कचिद्वर्जस्यापि स्वरस्योच्चारणं रागहानिकरत्वाभावेनाभ्युपगन्तव्यं भवति । यदाहन्यात्तु धैवतमिति । धैवतस्वरमाहतं गमकयुक्तं कुर्यादित्यर्थः । तदा मध्यमादेः प्रथमं स्वस्थानं भवति । परे स्वस्थान २९६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः किनरीवादका: प्राय: स्थायिनं पञ्चमं स्वरम् ॥ ३३३ ॥ रागे कुर्वन्ति बङ्गाले तदज्ञानविजृम्भितम् । २९७ त्रितय इति । द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु स्वस्थानेष्वित्यर्थः । द्वितीये द्वर्धस्वर - मारुह्य, द्वयर्थ इति स्थायिनश्चतुर्थस्वर उक्तः । तृतीये अर्धस्थितं स्वरमारुह्य द्वयर्ध्वद्विगुणमध्यस्योर्ध्वस्थित उक्तः । चतुर्थे द्विगुणं स्वरमारुह्य, द्विगुणो नाम स्थायिस्वरादष्टम उक्तः । तत्र आरुह्येत्यस्यायमर्थः – द्वयर्थादिषु स्थित्वा रागं प्रदर्शयेदिति । आद्यं स्वस्थानमातिष्ठेदिति प्रतिस्वस्थानं योज्यम् । सकलरागसाधारणं न्यायं दर्शयति - असंभव इत्यादि । पूर्वपूर्वस्वरस्यासंभवस्तु तस्य वर्ज्यत्वेन द्रष्टव्यः ॥ - ३२८-३३२-॥ इति मध्यमादि: (१) (सु०) एवं वीणास्वरूपमुक्त्वा विदिक्प्रदर्शनाय केषांचिद्रागाणां वादनक्रमं वक्तुं प्रतिजानीते - प्रदर्शनार्थमिति । स्थायिनमिति । मन्द्रस्थानस्थं मध्यस्थानस्थं वा मध्यमस्वरं स्थायिनमास्थाय कृत्वा, तत्परान् पनिसान् पञ्चमनिषादषड्जान् आरुह्य आरोहेण गत्वा, षड्जत: षड्जसकाशात् स्थायिमध्यपर्यन्तान् स्वरान् पञ्च क्रमादवरोहेत् । यदि धैवतमाहन्यात् ताडयेत् तदा मध्यमादिसंज्ञकस्य रागस्य प्रथमं स्वस्थानम् । द्वयर्धमर्धस्थितं च स्वरमालप्तिलक्षणे लक्षितं स्वरं द्विगुणमारुह्य आद्यं स्वस्थानमातिष्ठेत् कुर्यात् । एवंविधं स्वस्थानत्रितयमन्यद्भवेत् । पूर्वपूर्वस्वराभावे परं परं स्वरं क्रमादारोहेत् । अयं मध्यमादिरागोक्त एव विधिः सर्वरागेषु बोद्धव्यः ॥ -३२८-३३२- ॥ इति मध्यामादि: ( २ ) (क० ) अथ बङ्गालाख्यदेशीरागभेदस्य लक्ष्यलक्षण विरोधमुद्भाव्य परिहरति - किंनरीवादका इत्यादि । तदज्ञानविजम्भितमिति । तेषां (सु० ) किंनरीवादका इति । किंनर्या वादकाः सर्वेऽपि वैणिका: 38 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ संगीतरत्नाकरः ग्रहो हि मध्यमो रागस्यास्य शास्त्रे प्रकीर्तितः ॥ ३३४ ॥ यद्वा लक्ष्यप्रधानानि शास्त्राण्येतानि मन्वते । तस्माल्लक्ष्यविरुद्धं यत्तच्छास्त्रं नेयमन्यथा ।। ३३५ ॥ मध्यमादिपदं ज्ञेयं पञ्चमायुपलक्षणम् । प्राथम्यसाम्यतो यद्वा नियमादृष्टकल्पना ॥ ३३६ ॥ मध्यमादिग्रहे कार्या नन्वस्मिन्मध्यमे ग्रहे । अधस्तनः स्याद्गान्धारो मध्यमः पञ्चमे ग्रहे ॥ ३३७ ।। तुर्यादिव्यत्ययेऽप्येवं रागसाम्यं कथं भवेत् । लक्षणपरिज्ञानाभावात् तत्कृतं लक्ष्यमप्रामाणिकमित्यर्थः । शास्त्रोक्तं लक्षणं दर्शयति-ग्रहो हीति । एवं लक्षणविरोधात् लक्ष्यस्यासमीचीनतामुक्त्वा विषयव्यवस्थया अत्र लक्ष्यस्यैव प्राधान्यं दर्शयति-~~यद्वा लक्ष्येति । एतानि शास्त्राणि देशीविषयाणीत्यर्थः । लक्ष्प्रधानानि ; लक्ष्यमेव प्रधानं येषां तानि । मन्वते, आचार्या इति शेषः । तस्मात् कारणात् लक्ष्यविरुद्धं यत्तु शास्त्रं वङ्गालरागादेः मध्यमग्रहत्वाद्यभिधायकं तच्छास्त्रम्-अन्यथानेयमिति । यथा लक्ष्यविरोधि न भवति तथा व्याख्येयमित्यर्थः ॥ -३३३-३३५ ॥ बङ्गाले रागे पञ्चममंशस्वरं कुर्वन्ति । तदनुचितम् । यतोऽस्य बङ्गालस्य शास्त्रे मध्यमो ग्रहस्वर उक्तः, ग्रहसहचारित्वादंशस्य तेनैव चांशेन भवितव्यमिति । यद्वेति । अथवा संगीतशास्त्राणि लक्ष्यप्रधानानि । ततो लक्ष्याविरोधेन व्याख्येयानि ॥ -३३३-३३५ ॥ (क०) तदन्यथानयनप्रकारमेव दर्शयति---मध्यमादिपदमिति । पञ्चमाधुपलक्षणत्वे हेतुमाह--प्राथम्यसाम्यत इति । अस्यायमर्थःमूर्च्छनास्वरूपनिरूणावसरे, 'षड्जस्थानस्थितैाथै रजन्याद्याः परे विदुः' (सं. र. १-४-१४) इति देशीप्रपञ्चमभिसंधायोक्तम् । तेन देश्यां षड्जस्थान Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः २९९ एव निषादाद्याः समावेश्यन्ते । तदा सर्वेषामपि प्राथम्यं समानं भवति । अतः प्राथम्यसाम्येन हेतुना मध्यमादिपदं पञ्चमाद्युपलक्षणं भवतीति । तस्मादस्य वङ्गालस्य देशीरागत्वात् अत्र लक्षणे महत्वेन मध्यमस्य वचनं लक्ष्यप्रसिद्धपञ्चमोपलक्षणमिति लक्ष्यस्य प्राधान्यात् तद्विरोधिलक्षणं तदनुसारेण नेतव्यमिति मन्तव्यम् । पक्षान्तरेण विरोधं परिहर्तुमाह-यद्वेति । मध्यमादिग्रहे वङ्गालादीनां लक्ष्यप्रसिद्धपञ्चमादिग्रहत्वपरिहारेण शास्त्रोक्तमध्यमादिग्रहत्वे कृते हे नियमादृष्टकल्पना कार्या । अत्र रक्तिलाभ एव दृष्टं फलम् । तत्तु यथा तथा वा भवत्येव, स्थानस्यैकत्वादित्यनियमे प्रसक्ते शास्त्रेण नियमो विधीयते । तेन नियमेनादृष्टं फलं कल्प्यते । तस्मात् नियमानुष्ठानेऽभ्यधिकमदृष्टं फलं भवति ; यथा प्राङ्मुखत्वेन भोजने । तथा वङ्गाल - स्यास्य मध्यमग्रहेऽभ्यधिकमदृष्टं फलमिति भावः । इमं पक्षमास्थाय चोदयति - नन्विति । अस्मिन् वङ्गालरागे, मध्यमे स्वरे ग्रहे सति गान्धारस्तस्य मध्यमस्याधस्तनः स्यात् । पञ्चमे ग्रहे सति मध्यमः पञ्चमस्याधस्तनः स्यात् । एवं पक्षद्वयेऽपि । तुर्यादिव्यत्यय इति । मध्यमस्य ग्रहत्वे निषादस्तुर्यः ; पञ्चमस्य ग्रहत्वेऽपि षड्जस्तुर्यः ; आदिशब्देनार्धस्थिताष्टादयो गृह्यते । एवं सर्वेषां स्वराणां व्यत्यये सति रागसाम्यं कथं भवेदित्याक्षेपः ॥ ३३६, ३३७- ॥ i तदेव व्याख्यानमाह - मध्यमादीति । अत्र मध्यमोऽंश: । प्राथम्यसाम्यत इति । अत्र मध्यमादिपदं पञ्चमादेरुपलक्षणम्, प्रथमप्रयुक्तत्वेन समानत्वात् । ततश्च स्वेच्छया यं कमपि स्वरं स्थायिनं कुर्यादित्यर्थः । अथवा यस्मिन् कस्मिश्चित् स्वरे स्वेच्छया स्थायिनि रागे कृते उत्पद्यत एव । परं तु मध्यमे स्थायिनि कृते पुण्यविशेषो भवतीति नियमादृष्टार्थे मध्यमादिग्रहोक्तिरिति । आक्षिपति -- नन्विति । ननु मध्यमेग्रहे क्रियमाणे अधस्तनो गान्धारः, पञ्चमे तु अधस्तनो मध्यमः । एवं मध्यमे ग्रहे तुर्यो निषादः, पञ्चमे ग्रहे षड्जः । एवं सर्वेषां स्वराणां व्यत्यये कथं रागसाम्यम् ? ॥ ३३६, ३३७- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः निःशङ्कोच समाधत्ते गान्धाराद्यप्रयोजकम् ।। ३३८ ।। किंतु स्थायिनमारभ्य ये स्युस्तुर्यादयः स्वराः। रागाभिव्यक्तिशक्ताः स्युनेनु शास्त्रेष्वनथिका ।। ३३९ ॥ षड्जायुक्तिः प्रसज्येत सत्यं तत्रोच्यते त्विदम् । मध्यमादिग्रहः शास्त्रे नियतस्तदपेक्षया ॥ ३४०॥ तुर्यादयो निषादाद्या भवन्तीत्युपपद्यते । (क०) तस्य समाधानं कर्तुमाह-निःशङ्कोऽत्रेति । गान्धाराद्यप्रयोजकमिति । मध्यमे ग्रहे गान्धारोऽधस्तनः, आदिशब्देन पञ्चमे ग्रहे मध्यमोऽधस्तन इति च सर्वमप्रयोजकम् । किंतु स्थायिनमारभ्येति । षड्जस्थानस्थितं मध्यमस्थानस्थितं वा स्वरमारभ्य । तुर्यादय इति । तत्तत्स्थानप्राधान्येन तत्तद्ग्रहानुसारेण च नीतोऽधस्तात् तुर्यादयः स्वराः रागाभिव्यक्तिशक्ताः स्युरित्युत्तरम् । यद्येवं शास्त्रेषु षड़जाधुक्तिरनर्थिकैवेति प्रसज्येतेति शङ्कते-नन्विति । षड्जाद्युक्तिरिति । षड्जादीनां ग्रहत्वाद्यक्तिरित्यर्थः । अर्धाङ्गीकारेण परिहरति-सत्यमिति । अत्र रक्तिलाभरूपदृष्टफलाय स्थानस्यैव प्रयोजकत्वात् तदर्थ षड्जाद्यक्तिरनर्थिकैवेत्यङ्गीकृतोऽशः । तथापि नानार्थका । अदृष्टफलापेक्षया शास्त्रे मध्यमादीनां नियतत्वादिति परिहारः । तदपेक्षया; शास्त्रनियतमध्यमादिग्रहा. पेक्षया निषादाद्यास्तुर्यादयो भवन्ति ॥ -३३८-३४०- ॥ ___ (सु०) परिहरति-नि:शङ्क इति । अत्र गान्धारनिषादादिप्रयोजकं न भवति । किंतु स्थाय्यपेक्षया अधस्तनत्वतुर्यादिरागाभिव्यक्तौ प्रयोजकमिति । पुनराक्षिपति-- नन्विति । शास्त्रे षड्जादीनामुक्तिरेवं सत्यनार्थकां प्राप्नोति । अर्धाङ्गीकारेण परिहरति-सत्यमिति । मध्यमादिग्रहोक्तिः शास्त्रे नियमादृष्टख्यापनार्थमित्युक्तम् । तदपेक्षया निषादादयः । एवं तुर्यादयोऽपीति नियमोपपत्तिः ॥ -३३८-३४०- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ग्रहांशन्यासनियमो यद्वा शास्त्रस्य गोचरः || ३४१ ॥ गुम्फः स्वरान्तराणां तु लक्ष्यस्थो न विरुध्यते । सर्वत्र परिहारोऽयं लक्ष्ये लक्ष्माविरोधिनि ।। ३४२ ।। देशीरागेषु निर्णीतः शार्ङ्गदेवेन सूरिणा । ३०१ ; (क०) प्रकारान्तरेणाप्यनर्थकत्वं परिहर्तुमाह – ग्रहांशेत्यादि । ग्रहांशन्यासनियमः ; ग्रहांशन्यासानामेव नियमः, शास्त्रस्य गोचरः विषयः । स्वरान्तराणां गुम्फ इति । स्वरान्तराणि ग्रहांशन्यासेभ्योऽतिरिक्तानि, अपन्यासादयोऽन्तरमार्गस्वराचोच्यन्ते । तेषां गुम्फस्तु लक्ष्यस्थः शास्त्रेण न विरुध्यत इति वा अर्धाङ्गीकारेण परिहारः ॥ ३४९ ॥ (क०) उक्तः परिहारोऽन्यत्रापि योजनीय इत्याह- सर्वत्रेति । देशीरागेष्विति । रागाङ्गभाषाङ्ग क्रियाङ्गोपाङ्गरागा देशीरागा इति प्रागुक्ताः । तेष्वयं विरोधपरिहारो निर्णीत इति । अनेन शुद्धसाधारितादिषु ग्रामरागादिषु मार्गरागेषु लक्षणस्यैव प्राधान्यात् तदनुसारेण लक्ष्यस्योन्नेयत्वात् विरोध एव न प्राप्तः, तत्र कुतस्तत्परिहार इत्यभिप्रायो वेदितव्यः । तथाहि मूर्च्छनालक्षणावसरे; " मध्यस्थानस्थषड्जेन मूर्च्छनारभ्यतेऽग्रिमा । अधस्तनैर्निषादाद्यैः षडन्या मूर्च्छनाः क्रमात् ॥ ' इति, (सं० २० १ ४ १२, १३) (सु० ) प्रकारान्तरेण परिहारमाह — यद्वेति । स्वरान्तराणामपि लक्ष्यस्थो गुम्फः प्रहादित्वेन प्रयोग: शास्त्रस्य गोचर एव अनिषिद्धत्वात् । तस्मात् न विरुध्यत इति ॥ - ३४१, ३४२- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ संगीतरत्नाकरः मध्यमं स्थायिनं कृत्वा गान्धारात्तदधस्तनात् ॥ ३४३ ॥ पश्चारुह्य निषादान्तान् गपर्यन्तावरोहणम् । कृत्वा स्थायिनिषादौ च विधायाहत्य धैवतम् ॥ ३४४ ॥ स्थाय्यन्तमवरोहेच्चेद्बङ्गालो जायते तदा । इति बङ्गाल: तथा, ' मध्यमध्यममारभ्य सौवीरी मूर्च्छना भवेत् । षडन्यास्तदधोऽधःस्थस्वरानारभ्य तु क्रमात् ॥ (सं० २० १-४-१३, १४) इति च जात्याद्यन्तरभाषान्तरमार्गविषयत्वेन यः पक्ष उक्तः तत्र षड्जादिग्रहत्वोक्तेरन्यथाभावाभावाद्विरोधो नोदेत्येवेत्यलम् ॥ -३४२, ३४२- ॥ (क) एवं देशीरागविषययोर्लक्ष्यलक्षणयोर्विरोधं परिहृत्य प्रकृतमनुसंदधानो बङ्गालरागस्य स्वरसंनिवेशं दर्शयति-मध्यमं स्थायिनमित्यादि । तदधस्तनात् गान्धारादिति ल्यव्लोपे पञ्चमी । गान्धारमारभ्येत्यर्थः । निषादान्तान् पश्चारुह्येति । गमपधनीनित्यर्थः । गपर्यन्तावरोहणं कृत्वेति। निधपमगानवरुह्य स्थायिनिषादौ च मध्यमनी विधाय धैवतमाहत्य, आहताख्यगमकयुक्तं कृत्वा स्थाय्यन्तं मध्यमान्तमवरोहेद्यदि तदा बङ्गालो जायत इति बङ्गालस्य प्रथमं स्वस्थानमित्यर्थः । परमपि स्थानत्रयं मध्यमादिवदुन्नेयम् ॥ -३४२-३४४- ॥ इति बङ्गालः (२) (सु०) बङ्गलोत्पत्तिप्रकारमाह-मध्यम इति । मध्यमं स्वरं स्थायिनमंशे कृत्वा तृतीयं चतुर्थं च स्वरमुच्चार्य मध्यमस्थितात् गान्धारात् निषादपर्यन्तं पञ्चस्वरानारुह्य तावत्पर्यन्तमवरोहणं कृत्वा स्थायिनि चोच्चार्य धैवतमारुह्य स्थाय्यवधित्वावरोहणे बङ्गालः ॥ -३४३, ३४४- ॥ इति बहालः (२) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः धैवतं स्थायिनं कृत्वा तृतीयं च चतुर्थकम् ॥ ३४५ ॥ तस्मात्कृत्वावरोहेण स्थायिपर्यन्तमेत्य च । तृतीयं च ततोऽधस्थं विधाय स्थायिनं व्रजेत् || ३४६ ॥ यदा तदा भैरवः स्याल्लक्ष्ये स्थायी निरिष्यते । इति भैरव: स्थायिनो धैवतात्पूर्वं स्वरमागत्य तत्परान् ॥ ३४७ ॥ पञ्चानारु तुर्ये च द्वितीयं द्विः प्रयुज्यते । स्थायिनि न्यस्यते रागो वराटी जायते तदा ॥ ३४८ ॥ लक्ष्ये तु दृश्यते स्थायी किंनर्यामृषभस्वरः । इति वराटी ३०३ (क०) अथ भैरवमाह - धैवतं स्थायिनमित्यादि । लक्ष्ये स्थायी निरीक्ष्यत इति । लक्षणे धैवत उक्तः । निर्निषाद : स्थायी इष्यत इत्यन्वयः ॥ - ३४५, ३४६- ॥ इति भैरव: (३) (सु०) भैरवं लक्षयति - धैवतमिति । धैवतमंशं कृत्वा तस्मात् धैवतात् तृतीयपञ्चमाववरुह्य स्थायिपर्यन्तं समारुह्य स्थायिनस्तृतीयमध्यमावुच्चार्य स्थायिप्राप्तो भैरवः । एतस्य लक्ष्ये निः निषादः स्थायी लक्ष्यते ॥ -३४९, ३४६- ॥ इति भैरव: (३) (क० ) इतः परं, ' स्थायिनो धैवतात्पूर्वम्' इत्यारभ्य, ' एवं कतिपये रागाः' इत्यन्तेन ग्रन्थसंदर्भेण वराट्यादीनां रागाणां स्वरसंनिवेश (सु० ) वराट्युत्पत्तिप्रकारमाह — स्थायिन इति । धैवतात् स्थायिनः पूर्वं पञ्चममुच्चार्य, ततः पञ्चस्वरानारोहेत्, अधः स्थायिनौ द्वितीयतुरीयौ द्विः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ संगीतरत्नाकरः स्थायिनं मध्यमृषभं कृत्वा द्वौ तदधस्तनौ || ३४९ ॥ गत्वा स्थायिनमारभ्य त्रीनारुह्यावरुह्य तु । पश्च स्वरान्न्यस्यते चेदृषभे गुर्जरी तदा ।। ३५० ॥ हो गान्धार एवास्या दृश्यते लक्ष्यगोचरे । sa गुर्जरी उक्तरीत्या द्रष्टव्यः । अत्र प्रकरणे- - स्थायीति ग्रहपर्यायत्वेन मन्तव्यम् । नहि कचिद् महाद्यतिरिक्तस्यांशस्य संभवेऽपि तत्पर्यायत्वेन ; अन्यथात्र स्थायिग्रहयोर्भेदेऽङ्गीक्रियमाणे सति गुर्जर्याः, 'स्थायिनं मध्यमृषभं कृत्वा ' इत्युक्त्वा ' ग्रहो गान्धार एवास्या दृश्यते लक्ष्यगोचरे' इति । तथा देशीसंज्ञके रागे, 'ऋषभं स्थायिनं कृत्वा ' इत्युक्त्वा, ' गान्धारस्तु महो देश्या देशीवेदिषु दृश्यते ' इति । तथा देशाख्यसंज्ञके रागे, 'स्थायिनं मध्यगान्धारं कृत्वा ' इत्युक्त्वा, ' लक्ष्ये दृष्टोऽस्या मध्यमो ग्रहः ' इत्येवमादिषु लक्ष्यलक्षणयोर्विरोधोद्भावनमनुपपन्नं स्यात् । किंच बङ्गालरागे किंनरीवादकाः पञ्चमं स्वरं स्थायिनं कुर्वन्तीत्यादिकाया आक्षेपपरंपरायाः, ' ग्रहो हि यध्यमो रागस्यास्य शास्त्रेषु कीर्तितः' इत्यादिना महता यत्नेन कृता परिहारपरंपरापि निरर्थिका स्यात् । अतोऽत्र ग्रह एव स्थायी स्थायेव ग्रह इति मन्तव्यम् । सुबोधमन्यत् ॥ - ३४७-४००- ॥ इति वराटी (४) प्रयुज्य स्थायिनि धैवते समाप्तौ वराटी । लोके तु ऋषभस्वर: स्थायी दृश्यत इति ॥ -३४७, ३४८- ॥ : इति वराटी (४) (सु० ) गुर्जरीमाह - स्थायिनमिति । मध्यस्थानस्थं ऋषभं स्थायिनं विधाय तदधस्तनौ षड्जनिषादौ प्राप्य ऋषभात् त्रीन् स्वरानारोहावरोहाभ्यां गत्वा महे ऋषभे समाप्तौ गुर्जरी | लक्ष्ये गान्धारो ग्रहः ॥ -३४९, ३५०- ॥ इति गुर्जरी (५) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ षष्ठो वाद्याध्यायः मध्यषड्जाद् ग्रहात्पूर्व स्वरमेत्य तृतीयकम् ॥ ३५१ ।। तुर्य चोक्त्वा द्वितीयादींस्त्रीनारुह्यावरुह्य च । ग्रहन्यासाद्वसन्तः स्यालक्ष्ये त्वस्यर्षभो ग्रहः ॥ ३५२ ।। ___ इति वसन्तः मध्यषड्ज ग्रहं कृत्वा तृतीयं च चतुर्थकम् । उक्त्वा द्वितीयतृतीयौ स्पृष्ट्वा तुर्य च पश्चमम् ॥ ३५३ ।। एतत्क्रमेणावरोहस्त्यक्त्वा स्थायिद्वितीयकम् । स्थायिपूर्वान्तमागत्य ग्रहं तस्मात्तृतीयकम् ।। ३५४ ॥ तुर्य ततस्तृतीयं च प्रोच्यते न्यस्यते ग्रहे । धन्नासी स्यात्तदा दृष्टो लक्ष्ये स्यात्पञ्चमो ग्रहः ॥ ३५५ ॥ इति धन्नासी ऋषभं स्थायिनं कृत्वा परं स्पृष्ट्वा ततः परम् । विलम्ब्य तुर्यमान्दोल्य स्पृष्ट्वा तुर्यादधस्तनौ ॥ ३५६ ॥ (सु०) मध्यषड्जादिति । मध्यस्थानस्थात् षड्जात् स्थायिनोऽवस्थितं स्वरमुच्चार्य, तत: तुर्य चोच्चार्य द्वितीयादीन् त्रीन् स्वरानारोहावरोहाभ्यां गीत्वा ग्रहे षड्जे समाप्तौ वसन्तः । लक्ष्ये त्वस्य ऋषभो ग्रहः ।। -३५१-३५२ ॥ इति वसन्तः (६) (सु०) मध्येति । मध्यस्थानस्थात् षड्जं ग्रहं कृत्वा, तृतीयचतुर्थावुच्चार्य, तृतीयद्वितीयतुरीयपञ्चमान् प्राप्य, द्वितीयवर्ज स्थाय्यधस्तनावधिश्वावरोहेणागत्य, तस्मात् ग्रहतृतीयादीनुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ धनाश्री:। अस्या लक्ष्ये पञ्चमो ग्रहः ॥ ३५३-३५५ ॥ इति धनाश्री: (७) (सु०) ऋषभमिति । ऋषभं स्थायिनं कृत्वा, तस्मात् परं द्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः ग्रहानिःसरणं कृत्वा परौ प्रोच्य द्वितीयकम् । एत्य स्थायिनि चेन्यासो देशीरागस्तदा भवेत् ॥ ३५७ ॥ गान्धारस्तु ग्रहो देश्यां देशीवेदिषु दृश्यते । ___ इति देशी स्थायिनं मध्यगान्धारं कृत्वाधस्तुर्यमेत्य च ॥ ३५८ ॥ तस्मादाषष्ठमारुह्य स्वरांस्तानवरुह्य च । ग्रहाधस्तात्तृतीयं च कृत्वा चेन्यस्यते ग्रहे ।। ३५९ ॥ देशाख्या सा तदा लक्ष्ये दृष्टोऽस्या मध्यमो ग्रहः । इति देशाख्या इति रागाङ्गाणि ग्रहान्मध्यस्थितात्पड्जाद् द्वितीयं स्वरमेत्य च ।। ३६० ॥ स्पृष्ट्वा शीघ्रमुच्चार्य, तृतीयं विलम्बितमुच्चार्य, चतुर्थमान्दोलितं गीत्वा, तृतीद्वितीयौ त्वरितमुच्चार्य ग्रहस्वरमृषभं नि:सरणं कृत्वा, निःसृतं स्खलितमिव गीत्वा, परौ द्वितीयतृतीयावुच्चार्य स्थायिनि न्यासे देशीरागः। अस्यास्तु लक्ष्ये गान्धारो ग्रहः ॥ ३५६, ३५७- ॥ इति देशी (८) (सु०) स्थायिनमिति । मध्यस्थानस्थो गान्धारः स्थायी, ततोऽधस्थं चतुर्थ प्राप्य, तस्मात् षष्ठस्वरपर्यन्तमारुह्य, अवरुह्य च ग्रहादधस्थं तृतीयं च स्वरमुच्चार्य, ग्रहस्वरन्यासे देशाख्या । अस्या लक्ष्ये मध्यमो ग्रहः ॥ -३५८, ३५९-॥ इति देशाख्या (९) इति रागाङ्गानि (सु०) प्रहानिति । मध्यस्थानस्थः षड्जो ग्रहः । ततो द्वितीयं स्वरं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तृतीयं तदधस्थं च विलम्ब्य स्थायिनं स्पृशेत् । अधस्तृतीयतुर्थी च तं तृतीयं पुनः स्वरम् ॥ ३६१ ॥ कृत्वा स्थायिस्वरे न्यासो डोम्बक्री जायते तदा । भूपाली सा जनैरुक्ता स्थाय्यस्या मध्यमो मतः || ३६२ ।। इति डोम्बकी (लोके प्रसिद्धा भूपाली) मन्द्रस्थं पञ्चमं कृत्वा स्थायिनं सह तेन च । आरुह्य षट् स्वरानेषामवरोहे तृतीयकम् ॥ ३६३ ।। विलम्ब्य कम्पितं कृत्वा तुर्ये स्थायिनमाव्रजेत् । क्रमेण यदि जायेत तदा प्रथममञ्जरी || ३६४ ॥ अस्यास्तु मन्द्रगान्धारः स्थायी लक्ष्येषु दृश्यते । इति प्रथमम धैवतं स्थायिनं कृत्वान्दोल्य तस्मादधस्तनम् || ३६५ ॥ ३०७ प्राप्य, तृतीयाधस्तनौ विलम्बेन गीत्वा, स्थायिनं सक्रुदुच्चारयेत् । ततः स्थायिनः सकाशात् अधःस्थितौ तृतीयचतुर्थौ गीत्वा, तृतीयमप्येवं निबिडमुच्चार्य स्थायिनि समाप्तौ डोम्बक्री । सा लोके भूपालीत्युच्यते । अस्या: स्थायी लक्ष्ये मध्यमः ॥ ३६०-३६२ ॥ इति डोम्बकी (१) (लोके प्रसिद्धा भूपाली) (सु० ) मन्द्रेति । मन्द्रपञ्चमः स्थायी, तेन सह षट् स्वरान् आरुह्य, तेषामेवावरोहे तृतीयं विलम्बितमुच्चार्य, तुरीयं च कम्पितं कृत्वा स्थायिप्राप्तौ प्रथममञ्जरी । अस्यास्तु स्थायी मन्द्रगान्धारः ॥ ३६३, ३६४- ॥ इति प्रथममञ्जरी (2) ( सु० ) धैवतमिति । धैवतः स्थायी, तस्मात् पूर्वः पञ्चम आन्दोलितः, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः आरुह्य चतुरस्तस्मादवरोहे ग्रहं व्रजेत् । यदा तदा स्यात्कामोदा मध्यमोऽस्या ग्रहो भवेत् ॥ ३६६ ॥ इति कामोदा इति भाषाङ्गानि षड्ज तु स्थायिनं कृत्वा तत्पूर्वस्वरमेत्य च । स्वरद्वयं द्विरारुह्य तृतीयं च चतुर्थकम् ॥ ३६७ ।। प्रकम्प्याथ तृतीयं च विलम्ब्याहत्य पञ्चमम् । स्थाय्यन्तमवरोहेच्चेत्स्वरानृषभवर्जितान् ॥ ३६८ ॥ मध्यषड्ज ग्रहं कृत्वा सह प्राचा परौ स्वरौ । पोच्य तुर्य विलम्ब्याथ तृतीयं सद्वितीयकम् ॥ ३६९ ।। स्पृष्ट्वा यदा ग्रहे न्यासस्तदा रामकृतिर्भवेत् । इति रामकृतिः स्थायिनं मध्यमं कृत्वाधश्चतुर्थमुपेत्य च ॥ ३७० ॥ ग्रहाधरांस्त्रीनारुह्य स्वरं स्पृष्ट्वा तृतीयकम् । तस्मात् चतुर्णामारोहणम् । तेषामेव ग्रहवर्जमवरोहे कामोदा। अस्या ग्रहो मध्यमः ॥ -३६५, ३६६ ॥ इति कामोदा (३) इति भाषाङ्गानि (सु०) मध्येति । मध्यस्थानस्थः षड्जो ग्रहः, अधस्तनेन सह परौ द्वितीयतृतीयौ स्वरावुच्चार्य, चतुर्थ विलम्बेनोच्चार्य, तृतीयद्वितीयौ शीघ्रमुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ रामकृतिः ॥ ३६७-३६९- ॥ । इति रामकृतिः (१) (सु०) स्थायिनमिति । मध्यम: स्थायी, तस्मादधश्चतुर्थमागत्य, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः महाधस्तुर्यपर्यन्तमागत्याप्यवरोहिणा ॥ ३७१ ॥ ततस्तृतीयमारुह्य क्रमादेत्य प्रकम्प्य च । हे न्यासो यदा रागस्तदा गौडकृतिर्भवेत् || ३७२ ॥ पञ्चमो लक्ष्यते स्थायी लक्ष्ये स्याल्लक्ष्यवेदिभिः । इति गौडकृति: मध्यषड्जं ग्रहं कृत्वाधस्थमेत्य पुनर्ब्रहम् || ३७३ || कृत्वा तृतीयतुर्यौ च कम्पितं पञ्चमं स्वरम् । वादयित्वा ग्रहात्तुर्य तृतीयं स्थायिनं तथा ।। ३७४ || द्वितीयं कम्पयित्वा च तृतीयं स्वरमास्पृशेत् । ततो यदि ग्रहे न्यासस्तदा देवकृतिर्भवेत् || ३७५ || अस्यास्तु मध्यमो न्यासो लक्ष्ये श्रीशाङ्गिणोदितः । इति देवकृति: इति क्रियाङ्गानि ३०९ तस्मात् त्रीना रोहेत् । ततो ग्रहात् तृतीयं स्पृष्ट्वा, अवरोहेण ग्रहादधस्तन चतुर्थ - पर्यन्तमवरुद्ध, तृतीयपर्यन्तं चारुह्य मध्यमे समाप्तौ गौडकृतिः । लक्ष्ये स्थायी पञ्चमः स्यात् ॥ - ३७०-३७२ - ॥ इति गौडकृति: ( २ ) (सु० ) मध्यषड्जमिति । मध्यस्थानस्थः षड्जो: ग्रहः, तमुच्चार्य तदधःस्थं च तृतीयचतुर्थौ च कृत्वा पञ्चमं कम्पयेत् । ततश्च ग्रहचतुर्थादीन् कम्पितान् गीत्वा तृतीयस्वरं स्पृशेत् शीघ्रं गायेत् । ततो यदि ग्रहे च न्यासस्तदा देवकृतिः । अस्या न्यासस्तु लक्ष्ये मध्यमः ॥ - ३७३-३७५- ॥ , इति देवकृति: (३) इति क्रियाङ्गानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० संगीतरत्नाकरः धैवतं स्थायिनं कृत्वा गं चाधःस्थं पुनर्ग्रहम् ॥ ३७६ ॥ तत्परं स्थायिनं तस्मात्पूर्वमागत्य च ग्रहम् । आरुह्य त्रीस्तृतीयादीन् पञ्चमादवरुह्य च ॥ ३७७ ॥ षट् स्वरान् ग्रहमुच्चार्य तृतीयं कम्पयेत्ततः । तुर्यपञ्चमतुर्याश्च स्पृष्ट्वा पोच्य तृतीयकम् ।। ३७८ ॥ द्वितीयं च ग्रहे न्यासो यदा स्याटैरवी तदा । अस्य रागस्य गान्धारः स्थायी लक्ष्येषु दृश्यते ॥ ३७९ ॥ इति भैरवी मन्द्रषड्ज ग्रहं कृत्वा मध्यपड्जमुपेत्य च । अवरोहिक्रमादेत्य ग्रहमारोहिणा ततः ।। ३८० ॥ पमागत्य विलम्ब्याएं स्पृष्ट्वा धैवतमाव्रजेत् । ग्रहाच्चेदवरोहेण च्छायानट्टा तदा भवेत् ॥ ३८१ ॥ इति च्छायानट्टा (सु०) धैवतमिति । धैवतं स्थायिनं कृत्वा, गम् ; गान्धारं धैवतादधःस्थं पञ्चमं पुनः धैवतनिषादौ स्थायिनं तदधःस्थं ग्रहं च संप्राप्य तृतीयादीन् त्रीनारुह्य, षट् चावरुह्य तृतीयं कम्पयेत् । तुर्यादीन् स्पृष्ट्वा तृतीयद्वितीयावुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ भैरवी । अस्या गान्धारः स्थायी ॥ -३७६-३७९ ॥ इति भैरवी (४) ___ (सु०) मन्द्रषड्जमिति । मन्द्रस्थानस्थात् षड्जात् मध्यमषड्ज गच्छेत् । ततोऽवरोहेण स्यायिपर्यन्तमागत्य, आरोहेण पञ्चमं गीत्वा, अमुं पञ्चमं विलम्ब्य स्पृष्ट्वा च धैवतमुच्चारयेत् , तदा छायानट्टा ॥ ३८०, ३८१ ॥ इति च्छायानट्टा (५) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ षष्ठो वाद्याध्यायः मध्यषड्जं ग्रहं कृत्वा तत्परौ द्वौ च पञ्चमम् । षष्ठं कृत्वावरुह्यमौ तृतीयादवरुह्य च ।। ३८२ ॥ आग्रहं प्राक्तृतीयाद्वावरुह्य प्राक्तृतीयकम् । प्रकम्प्य तत्परं प्रोच्य ग्रहे चेन्न्यस्यते तदा ॥ ३८३ ।। रामक्री स्यादसो प्रोक्ता बहुलीपूर्विका जनैः । इति बहुलीरामक्री धैवतं स्थायिनं कृत्वा तत्परं तु विलम्बितम् ।। ३८४ ।। स्पृष्ट्वा ग्रहद्वितीयौ च ग्रहात्तु प्राक्तृतीयकम् । इंपद्विलम्ब्य चारुह्य ग्रहादीन्वा तृतीयकम् ।। ३८५ ।। विलम्ब्य तदधःस्थं वावरुह्य स्पर्शनात्ततः । ग्रहादीस्त्रीन्स्वरान्स्पृष्ट्वा ग्रहमुच्चार्य तत्परम् ॥ ३८६ ॥ ग्रहे चेन्यस्यते रागो मल्हारो जायते तदा। रागेऽत्र पञ्चमः स्थायी दृश्यते लक्ष्यगोचरः ।। ३८७ ।। इति मल्हारः (सु०) मध्यषड्जेति । मध्यस्थानस्थषड्जः द्वितीयतृतीयपञ्चमषष्ठाः, पञ्चमषष्ठावुच्चार्य, षष्ठपञ्चमाववरुह्य, तृतीयात् ग्रहपर्यन्तमवरुह्य, पूर्व तृतीयाद्वावरुह्य, पूर्व चतुर्थं कम्पितं गीत्वा, तत्परमुच्चार्य ग्रहस्वरे समाप्तिः क्रियते चेत्, तदा बहुलीरामक्री ॥ ३८२, ३८३- ॥ इति बहुलीरामकी (६) (सु०) धैवतमिति । धैवतमुच्चार्य विलम्बितो निषादः, ततो ग्रहद्वितीययोः स्पर्शः, ग्रहात्पूर्व तृतीय ईषद्विलम्बित:, ग्रहादीनां त्रयाणामारोहः, ग्रहादध:स्थस्य विलम्बेनोच्चारणम् , ग्रहादीनां त्रयाणां शीघ्रमवरोहः । ततो ग्रहं स्पृष्ट्वा, तृतीयमुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ मल्हारः । अस्य स्थायी पञ्चमः ॥ -३८४-३८७ ॥ इति मल्हार: (७) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ संगीतरत्नाकरः स्थायिनो मध्यमात्पश्चावरुह्य यदि मावधीन् । मात्तृतीयं व्रजेत्तस्मादारुह्य चतुरः स्वरान् ॥ ३८८ ।। स्पृष्ट्वा स्थायिनमेतस्मात्पूर्व कृत्ला विलम्बितम् । षड्जे चेन्न्यस्यते गौडकर्णाटो जायते तदा ॥ ३८९ ॥ लक्ष्ये तु पञ्चमः स्थायी गौडस्यास्य विलोक्यते । इति कर्णाटगौडः ग्रहान्मन्द्रनिषादाचेत्समुच्चार्य स्वरं परम् ।। ३९० ॥ ततस्तृतीयतुर्यों च गत्वा स्थायितृतीयकम् । स्थायितुर्यं च कृत्वास्मात्स्वरान्पञ्चावरुह्य च ॥ ३९१ ॥ स्थायिनोऽधस्तुरीयं च स्थायिनोऽधस्तनं ततः । स्थायिनं तत्परं चोक्त्वा स्थायितुर्य ग्रहात्परम् ॥ ३९२ ।। कृत्वा न्यासे ग्रहे गौडस्तुरुष्को जायते तदा । स एव मालवीत्युक्तः स्थायी लक्ष्येऽस्य पञ्चमः ।। ३९३ ।। इति तुरुष्कगोड: (सु०) स्थायिन इति । मध्यमात् स्थायिनस्तृतीयस्वरपर्यन्तमागत्य, ततश्चतुःस्वरानारोहेत् । तत: स्थायिनं स्पृष्ट्वा पूर्व विलम्बितमुच्चार्य षड्जे समाप्तिश्चेत्, तदा कर्णाटगौडः ॥ ३८८, ३८९- ॥ ____ इति कर्णाटगौड: (८). (सु०) ग्रहादिति । ग्रहं मन्द्रनिषादं, तत्परं षड्ज तृतीयतुर्यों च गीत्वा, तत: स्थायिनः तृतीयं तुर्य च विधाय, चतुर्थपञ्चमाववरुह्य स्थायिनः सकाशात्पूर्व तृतीयमधस्तनं स्थायिनं चोक्त्वा, स्थायिनस्तुरीयं द्वितीयं चोच्चार्य ग्रहे न्यासे, तुरुष्कगौडः । लक्ष्येऽस्य स्थायी पञ्चमः ॥ -३९०-३९३ ॥ ___ इति तुरुष्कगौडः (९) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ षष्ठो वाद्याध्यायः ग्रहं मालविनः कृत्वा द्वितीयं प्रोच्य तत्परम् । लङ्घयेल्लवितादुर्ध्वं त्रीण्यारुह्यावरुह्य च ॥ ३९४ ॥ प्रकम्प्य लङ्घितं तस्मात्पूर्व प्रोच्य ग्रहं व्रजेत् । यदा तदा द्राविडः स्याद्गौडोऽसौ सालगो जनैः ।। ३९५ ॥ अस्यापि स्थायिनं प्राहुर्लक्ष्यज्ञाः पञ्चमं स्वरम् । इति द्राविडगौडः (लोके प्रसिद्धः सालगः) स्थायिनो धैवतात्माच्यादवरुह्यग्रहान्तरम् ।। ३९६ ॥ ग्रहं चोक्त्वा तृतीयं च तुर्य कृत्वा विलम्बितम् ।। तस्मादधस्तनौ स्पृष्ठा तृतीयं तु विलम्बयेत् ॥ ३९७ ।। स्पृष्ट्वा ग्रहात्परं पूर्वो पूर्व चोक्त्वा ग्रहे यदि । कम्पिते न्यस्यते रागस्तदा स्याल्ललिताभिधः ॥ ३९८ ।। अत्र गान्धारमेवाहुः स्थायिनं लक्ष्यवेदिनः । ___ इति ललिता इत्युपाङ्गानि (सु०) ग्रहमिति । ग्रहं स्वरं कृत्वा, ततः तृतीयमुच्चार्य, तत्परं तृतीयं लङ्घयेत् । ईषत्स्पृशेत् । तत: लवितात् स्वरात् , परान् त्रीन् स्वरानारोहावरोहेण गीत्वा, लचितं स्वरं कम्पयित्वा, तत: पूर्वमुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ द्राविडगौडः । असौ लोके सालगगौड इत्युच्यते ॥ ३९४, ३९५- ॥ इति द्राविडगौडः (सु०) स्थायिन इति । धैवतं स्थायिनं कृत्वा, तस्मात् पूर्वी द्वौ स्वरौ अवरुह्य, प्रहात् स्थायिनोऽधरं पूर्व स्वरं ग्रहं चोक्त्वा, तृतीयचतुर्थी विलम्बितौ कुर्यात् । ततः तस्मात् चतुर्थात् द्वौ पूर्वस्वरौ स्पृष्ट्वा शीघ्र गीत्वा तृतीयं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ संगीतरत्नाकरः एवं कतिपये रागाः प्रोक्ताः संमुग्धबुद्धये ॥ ३९९ ॥ वस्तुतः सर्वयन्त्रेषु रागाणां वादनं समम् । ग्रहादिस्वरसंभूतिद्वारतोऽन्विष्यतां बुधैः ॥ ४०० ।। किंनयाँ यैः स्वरैः स्वस्वस्थानजैर्यस्य संभवः । रागस्य तस्य तैरेव वंशादावपि दृश्यते ॥ ४०१ ॥ ___ इति किंनरीलक्षणम् पिनाक्यां धनुपः कनकचत्वारिंशदगुला । देध्ये स्यान्मध्यविस्तारः स्यात्सपादाङ्गुलद्वयम् ॥ ४०२॥ विलम्बितं गायेत् । ततो ग्रहस्वरं स्पृष्टा ग्रहस्वरात् पूर्वात् पूर्वमधस्तृतीयमुच्चार्य कम्पिते ग्रहस्वरे समाप्तौ ललिता । अत्र ललितायां लक्ष्यवेदिनः स्थायिनं गान्धारमेवाहुः ॥ -३९६-३९८-॥ इति ललिता इत्युपाङ्गानि __ (सु०) एवमिति । अनेन प्रकारेण कतिपये केचिद् रागाः अज्ञानावबोधार्थमुक्ताः । सर्वयन्त्रेषु रागाणां वादनं वादनप्रकारः सदृश एव । तर्हि किमर्थ यन्त्रान्तरनिर्माणं तत्राह-ग्रहादीति । ग्रहादीनां स्वराणां संभूतिः द्वारविशेषेभ्यो यन्त्रेभ्यः बुधैर्विविच्यत इति । किंनर्यामिति । किनार्या वीणायां यैः स्वरैः यो राग उत्पद्यते, तैरेव स्वरैर्वेशादावपीति ॥ -३९९-४०१ ॥ इति किंनरीलक्षणम् (क०) अथ पिनाक्या निःशङ्कवीणायाश्च लक्षणं स्फुटार्थम् ॥ ॥ ४०२-४१७- ॥ इति पिनाकीलक्षणम (सु०) पिनाकी लक्षयति-पिनाक्यामिति । पिनाक्याम् , एकचत्वारिं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ षष्ठो वाद्याध्यायः अन्ते चाशुलमानेन शिखां कुर्यादधस्तनीम् । सपादाङ्गुलमात्रा तु कार्मुकस्योत्तरा शिखा ॥ ४०३ ।। कार्यावङ्गुलदैयौ च पादोनागुलपिण्डको । खेटको शिखयोर्लगौ ताभ्यां त्वर्वागुपान्त्ययोः ॥ ४०४ ॥ पादोनमङ्गुलद्वन्द्वं विस्तारे मानमिष्यते । मध्यप्रान्तान्तराले तु विस्तारं कल्पयेत्सुधीः ॥ ४०५ ॥ तन्त्रीमानेन बनीयाच्छिखयोनिपुणो गुणम् । मानं वादनचापे स्यादगुलान्येकविंशतिः ॥ ४०६ ॥ दैध्ये मुष्टौ तु विस्तारोऽत्रागुलित्रितयोन्मितः । स त्वङ्गुलतृतीयांशः शिखे त्यक्त्वान्तयोर्भवेत् ।। ४०७ ।। ऊर्ध्वाधरशिखाद्वन्द्वमानं पादोनमगुलम् । अश्ववालधिकेशोत्यो गुणो वादनधन्वनः ॥ ४०८ ।। तुम्बं धृत्वाथ पादाभ्यां भुवि न्यस्तमधोमुखम् । तत्र लमशिखाथो; पिनाकीस्कन्धसंश्रिता ॥ ४०९ ॥ शदडगुलं दैर्घ्य, धनुष: कार्मुकस्य कम्रा तन्त्रीवादनाय कोणः कर्तव्यः । सा कम्रामध्ये सपादाङ्गुलविस्तृता कार्या । अधःशिखा कार्मुकस्याङ्गुलप्रमाणा, तृतीयात् धनुष उत्तरा शिखा तु सपादाङ्गुलप्रमाणा कार्या । शिखयो:, लग्नाभ्यां शिखाभ्यामर्वाक्प्रदेशे अङ्गुलदीर्घः पादाङ्गुलपिण्डकायामः खेटको कार्यो । उपान्त्ययोर्मानं विस्तारे पादोनमगुलद्वयम् । मध्यमान्तरालानां मानकल्पनायां तन्त्रीप्रमाणेन शिखयोर्गुणं बधीयात् । वादनधनुषो दीर्घमानमेकविंशतिरङ्गुलानि । अत्र कार्मुके मुष्टौ, विस्तारः अङ्गुलित्रितयेन उन्मित: परिमित: स मुष्टिः अशुलतृतीयांशं मुक्त्वा शिखयोरन्तयोः स्यात् । शिखयोर्मानं पादोनमगुलं ज्ञातव्यम् । वादनस्य धन्वनो धनुषो गुणः अश्ववालै: कैशैर्वा कर्तव्यः । वादनप्रकारमाह-तुम्बमिति । अधोमुखं पृथिव्यां न्यस्य, तुम्बं च पादाभ्यां धृत्वा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः आक्रम्य वामहस्तस्थतुम्बमूलेन तद्गुणम् । ततो दक्षिणहस्तस्थधनुषो वादयेज्ज्यया ।। ४१० ॥ रालासंलिप्तयास्यां च स्वरस्थानानि निर्णयेत् । एकतन्त्रीवदधराधरतारतया सुधीः ॥ ४११ ॥ ___ इति पिनाकीलक्षणम् वध्यमान्तातिरिक्तेशे तन्त्री दैर्ये चतुष्करा । उपरिस्थे कचित्काष्ठे प्रान्तेनैकेन बध्यते ॥ ४१२ ।। प्रान्तान्तरेणान्यकाष्ठेऽधस्थे साधेकरायते ।। स्थौल्येनालापिनीतुल्ये त्यक्त्वाग्रादङ्गुलद्वयम् ॥ ४१३ ॥ तन्त्री बद्धा ततोऽधस्तात्तुम्बमाबद्धय दारु तत् । वामोरुमूलाक्रान्ताग्रं जवायां कुञ्चिताकृतो ॥ ४१४ ॥ भूलमबाह्यपार्थायां वामायां न्यस्य जङ्घया । आक्रम्य वामेतरया पिनाक्यामिव वादनम् ।। ४१५ ।। ऊर्ध्वा शिखा पिनाकीस्कन्ध आश्रिता । तस्याः गुणं वामहस्तस्थितं तुम्बस्य मूलेनाक्रम्य तज्ज्ञो वादक: दक्षिणहस्तस्थितस्य धनुषः ज्यया गुणेन वादयेत् । राला लोकप्रसिद्धः सालवृक्षनिर्यासविशेषः, तया लिप्तयेति ज्याविशेषणम् । अस्यां च, पिनाक्याम् ; एकतन्त्रीवत् अधराधरतारतया स्वरस्थानानि निर्णयेत् ॥ ४०२-४११॥ इति पिनाकीलक्षणम् ___ (सु०) नि:शङ्कवीणां लक्षयति-वध्येति । दैये चतुष्करपरिमिता तन्त्री बन्धनीया । प्रान्तातिरिक्त अंशे कचिदुपरिस्थिते काष्ठे प्रान्तेन बनीयात् । अन्त्येन प्रान्तेन सार्धकरा, भवेत् । तत्स्थूलत्वेन आलापिन्या तुल्ये अध:स्थिते काष्ठे अग्रात् अङ्गुलद्वयं परित्यज्य तन्त्री बन्धनीया । ततः सा तन्त्री दारुणि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३१७ धनुषा वामहस्तस्थतुम्बकेन च सारणा । आईचर्मकृतां शुष्कां पेशी कोणान्वितां खराम् ॥ ४१६ ॥ वामेनादाय तत्कोणेनाथवा सारणा भवेत् । यत्र निःशङ्कवीणा सा शाङ्गदेवेन कीर्तिता ॥ ४१७ ॥ त्रिस्थानस्वररागादिव्यक्तिः संजायते तया । इति निःशङ्कवीणालक्षणम् यथा यथा स्वरे व्यक्ती रक्तेः प्रचुरता भवेत् ॥ ४१८ ॥ तथा तथा विधातव्यं ततं लोकानुसारतः । सम्यक्स्वरोपयोगीनि तन्त्रीवाद्यानि कानिचित् ॥ ४१९ ॥ उक्तान्यन्यान्यपि प्राज्ञस्तकेयेदनया दिशा । यो वीणावादनं वेत्ति तत्वतः श्रुतिजातिवित् ॥ ४२० ।। तालपातकलाभिज्ञः सोऽक्लेशान्मोक्षमृच्छति । तस्माद्वीणा निषेव्येति याज्ञवल्क्यादयोऽब्रुवन् ॥ ४२१ ॥ तुम्बे बद्धा, वीणाया वादनमिति संबन्धः । किं कृत्वा वादनम् ? वामोरुमूलेन आक्रान्तानां यथा भवति तथेति क्रियाविशेषणम् । कुजितायां वामजवायां न्यस्य दक्षिणया आक्रम्य पिनाकीवदिति संबन्धः । धनुषेति । धनुषा कार्मुकेन वामहस्तस्थितेन तुम्बेन वा सारणा कर्तव्या । अथवा आर्द्रचर्मकृतां पेशी विशोष्य खरा कोणेन सह वामहस्तेनादाय कोणेन सारणा कर्तव्येति । एवं लक्षणका निःशङ्कवीणा | तस्याः प्रयोजनमाह-त्रिस्थानेति । तया; नि:शङ्कवीणया सर्वस्वराद्यभिव्यक्ति: संजायते ॥ ४१२-४१७- ।। इति नि:शङ्कवीणालक्षणम् (क०) वीणावादनपरिज्ञाने फलमाह-यो वीणावादनमिति ।। ॥ -४१८-४२१ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ संगीतरत्नाकरः नादश्रुतिस्वरयामजातिरागादि तत्त्ववित् । देहसौष्ठवसंपन्नः स्थिरासनपरिग्रहः ।। ४२२ ।। जितश्रमकरद्वन्द्वस्त्यक्तभीतिर्जितेन्द्रियः । प्रगल्भधीः सुशारीरो गीतवादनकोविदः ॥ ४२३ ॥ सावधानमनाश्चेति वैणिके वर्णिता गुणाः । इति ततवाद्यलक्षणम् (सु०) ननु पूर्वशास्त्रेश्वनुक्तां वीणां शार्ङ्गदेवः किमिति स्वनाम्ना रचितेत्यत आह-यथेति । यथा यथा स्वराणां रागाभिव्यक्तौ रञ्जकत्वस्य बाहुल्यं तथा तथा ततवाद्ये स्वेच्छया कर्तव्यम् । अस्माभिस्तु समीचीनस्वरामिक्त्युपयोगीनिति कानिचित् तन्त्रीवाद्यान्युक्तानि । अन्यानपि, अनेन प्रकारेण अनया दिशा प्राज्ञ ऊहयेत् । वीणावादनं स्तौति—य इति । वीणावादनेन मोक्षं प्रामोतीत्युक्तं याज्ञवल्क्येन यदाह “वीणावादनतत्त्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः । तालज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग नियच्छति ॥" (याज्ञवल्क्यस्मृति:, प्रायश्चित्ताध्यायः ३-४-११५) इति ॥ -४१८-४२१॥ (क०) प्रसङ्गाद्वीणावादनस्य गुणानाह-नादश्रुतीत्यादिना ॥ ॥ ४२२, ४२३ ॥ इति ततवाद्यलक्षणम् (सु०) वीणावादकगुणानाह–नादेति । त्यक्तभीति: ; निर्भयः । प्रगल्भधीः; अविकलबुद्धिः । सुशारीरः; सुकुमारशारीरः । गीतवादनकोविदः; गीतस्य वादने कुशल: ; सावधानमनाः ; निश्चलचित्त इति ॥ ४२२, ४२३-॥ इति ततवाद्यलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३११ वैणवः खादिरो दान्तश्चान्दनो राक्तचन्दनः ॥ ४२४ ॥ आयसः कांस्यजो रौप्यो वंशः स्यात्काश्चनोऽथवा । वर्तुल: सरल: श्लक्ष्णो ग्रन्थिभेदव्रणोज्झितः ॥ ४२५ ॥ कनिष्ठाङ्गुलिविस्तार गर्ने च सुषिरं दधत् । खदैर्घ्यमानदैर्घ्यं च समाकृति समंततः ।। ४२६ ॥ तस्य द्वे त्रीणि चत्वारि चागुलानि शिरःस्थलात् । त्यक्त्वा फूत्कारसुषिरं कार्यमगुलसंमितम् ॥ ४२७ ।। मुखरन्ध्रात्ताररन्धं भवेदेकागुलान्तरम् । अर्धागुलान्तराणि स्यू रन्ध्राण्यन्यानि सप्त च ॥ ४२८ ।। तान्यष्टौ बदरीबीजसंकाशानि प्रचक्षते ।। वंशेऽधः सर्वरन्ध्रेभ्यः परिशेष्याङ्गुलद्वयम् ॥ ४२९ ।। (क०) अथ सुषिरवाद्येषु प्रथमोद्दिष्टं वंशं लक्षयति-वैणव इति । दान्तः, गजदन्तनिर्मितः । तस्य शिरःस्थलादिति । वंशदण्डस्य मूलस्थलात् दारुमूलभागादित्यर्थः । तच्छिरःस्थलमारभ्य द्वे त्रीणि चत्वारि वेति पक्षत्रयम् । तेष्वेकपक्षाश्रयणेन अङ्गुलपरित्यागं कृत्वा अङ्गुलिसंमितं वर्तुलत्वेन परितोऽङ्गुलपरिमाणं फूत्कारसुषिरं मुखसंयोगेन वायुपूरणार्थ रन्धं कर्तव्यम् । तदेव मुखरन्ध्रमित्युच्यते । तस्मात् मुखरन्ध्रात् ताररन्धं तारस्वराभिव्यक्तिनिमित्तम् । तत्र फूत्काररन्ध्रसंनिहिते रन्धे तारस्वर एव जायते । यथा शरीरे सकलस्वरसाधारणेन ताल्वोष्ठादिव्यापारेणामिवादने क्रियमाणे तत्संनिहितत्वेन मूर्ध्नि तारस्वर एव जायते । यथा वा एकतन्व्यादिकायां वीणायां सकलस्वरसाधारणेन दक्षिणहस्ताङ्गुलिव्यापारेण तन्त्रीवादने क्रियमाणे तत्संनिहितसारिकादिषु तार एव स्वरो जायते । एवमत्रापि द्रष्टव्यम् । तच्च मुखरन्ध्रादेकाङ्गुलान्तरं भवेत् । अन्यानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० संगीतरत्नाकर: तेषु स्वरविभागाय सप्तरन्ध्राणि मन्वते । नादहेतोर्मारुतस्य निर्गमायाष्टमं मतम् ॥ ४३० ॥ फूत्कारप्रभवो वायुः पूर्यते मुखरन्ध्रतः । वंशस्थैर्नवभी रन्धैरेकवीरो निगद्यते ।। ४३१ ॥ ; सप्त रन्त्राण्यङ्गुलान्तराणि अङ्गुलस्यार्धमर्धाङ्गुलम्, तदन्तरं मध्यं येषां तानि तथोक्तानि । बदरीबीजसंकाशानीति । यद्यपि रन्ध्राणामाकाशात्मकत्वेन अमूर्तत्वात् बदरीसंकाशत्वं नोपपद्यते, तथापि बदरीबीजप्रवेशात्वेनोपाधिकं परिमाणमुक्तमित्यविरोधः । सर्वरन्ध्रेभ्य इति । नवभ्यो रन्ध्रेभ्योऽधः सर्वाग्रभाग इत्यर्थः । अङ्गुलद्वयं परिशेष्येति । तत्र रन्ध्रमकृत्वेत्यर्थः । अनेनास्य वंशस्य आयामपरिमाणमूलभागे अगुलद्वयं युक्तं चेत् द्वादशाङ्गुलम् ; अङ्गुलत्रयं युक्तं चेत् त्रयोदशाङ्गुलम् ; चतुरङ्गुलं युक्तं चेत् चतुर्दशाङ्ल मित्युक्तं भवति ॥ - ४२४-४२९ ॥ (क) एवं नवसु रन्ध्रेष्वाद्यन्तरन्ध्रे विहाय मध्यस्थितेषु सप्तसु रन्ध्रेषु स्वरविभागो भवतीत्याह-एकवीरो निगद्यत इति । एकवीरसंज्ञया निगद्यत इत्यर्थः । मुखताररन्धयोरेकाङ्गुलान्तरितत्वादनर्थता च द्रष्टव्या ॥ ४३०, ४३१ ॥ (सु० ) अथ सुषिरवाद्यं लिलक्षयिषुर्वशं लक्षयति--- वैणव इति । वैणवः ; वेणुरचित: । गजदन्तादिरचितो दान्तः । चन्दनकृत: चान्दन: । लोहकृत आयसः । लोहसंसृष्टजन्य: कांस्यजः । रौप्यः राजतः । काञ्चनः सुवर्णघटितो वा वंश: कर्तव्यः । स च वर्तुलः सुवृत्त:, दीर्घः, मसृणः, ग्रन्ध्यादिहीनः कार्यः । कनिष्ठाङ्गुलिप्रमाणं मध्ये रन्ध्रं दधानः स्वप्रमाणं सर्वत्र सममेवेति रन्ध्रविशेषणम् । तस्येति । तस्य ; वंशस्य द्वे त्रीणि चत्वारि वा अङ्गुलानि मस्तकप्रदेशात् परित्यज्य फूत्काराय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः वंशस्य मुखरन्ध्रस्य ताररन्ध्रस्य चान्तरे । एकैकाङ्गुलहृद्धया स्युरन्ये वंशाश्चतुर्दश ॥ ४३२ ॥ अष्टादशाङ्गुलाद्वंशादेतदगुलवर्धनम् । उमापतिर्द्वयगुलः स्यात्त्रिभिस्त्रिपुरुषोऽङ्गुलैः || ४३३ | चतुर्मुखचतुर्भिः मः स्यात्पञ्चवक्त्रस्तु पञ्चभिः । षडङ्गुलः षण्मुखः स्यान्मुनिः सप्ताङ्गुलो मतः ।। ४३४ ॥ वसुरष्टाङ्गुलः प्रोक्तो नाथेन्द्रस्तु नवाङ्गुलः । दशाङ्गुलो महानन्दो रुद्रस्त्वेकादशाङ्गुलः ॥ ४३५ ॥ द्वादशाङ्गुल आदित्यो मनुर्वशश्चतुर्दशः । कलानिधिः षोडशः स्यादन्वर्थोऽष्टादशाङ्गुलः ॥ ४३६ ॥ ३२१ मुखपवनपरिपूरणाय अङ्गुलप्रमाणं छिद्रं कार्यम् । तस्मात् छिद्रात् ताररन्ध्र तारस्वरस्थानरन्ध्रान्तरस्य स्थानात् रन्ध्रमेकाङ्गुलान्तरं स्यात् । अन्यान्यपि सप्त रन्ध्राणि अर्धाङ्गुलप्रमाणमध्यानि कार्याणि । अष्टावपि रन्ध्राणि बदरीवीजवत् । वंश इति । सर्वरन्ध्रेभ्यः सकाशात् अधः प्रदेशे वंशः मङ्गुलद्वयमात्रः परिशेषणीयः, रन्ध्रहीनः स्थापयितव्यः । तेषु अष्टसु रन्ध्रेषु स्वरविभागाय संपूर्णरन्ध्राणि नादोत्पत्यर्थम्, अष्टमं तु पवननिर्गमाय । फूत्कारेति । फूत्कारादुत्पन्नो वायुः मुखरन्ध्रेण पूर्यते । नवभी रन्ध्रेर्युक्तो वंश एकवीर इच्युच्यते ॥-४२४-४३१॥ (क०) मुखताररन्ध्रयोरन्तरालेऽङ्गुलवर्धनादन्यांश्चतुर्दश वंशभेदानाह - - - वंशस्येत्यादि । अङ्गुलवर्धनस्य परावधिमाह --- आष्टादशाङ्गुला - द्वंशादिति । अष्टादशाङ्गुलो नामान्वर्थो वंशो वक्ष्यते, तत्पर्यन्तमित्यर्थः । एतदङ्गुलवर्धनमिति । मुखताररन्धयोरन्तरालेऽङ्गुलवर्धनं कर्तव्यमित्यर्थः । द्व्यङ्गुलः स्यादिति । प्रकृतेऽन्तराले द्वे अंगुली यस्येति तथोक्तः, स 41 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ संगीतरत्नाकरः अविस्पष्टान्तरत्वेन नेष्टः सप्तदशाङ्गुलः । त्रयोदशाङ्गुलस्तद्वन्न च पञ्चदशाङ्गुलः ॥ ४३७॥ मुरल्याख्योऽपरैर्वशो विंशत्यगुलकः श्रितः । द्वाविंशत्यगुलोऽप्यन्यो वंशस्तज्ज्ञेषु दृश्यते ॥ ४३८ ॥ तं च श्रुतिनिधि प्राहुर्वशं वंशविदो जनाः । अतिमन्द्रध्वनित्वेन नेष्यतेऽसौ विचक्षणैः ॥ ४३९ ॥ उमापतिरित्युच्यते । मनुवंशश्चतुर्दश इति । तत्र चतुर्दशो वंशः, चतुर्दशाङ्गुल इत्यर्थः । नतु चतुर्दशो वंशः । षोडशः स्यादित्यपि षोडशाङ्गुलान्तर इत्यर्थः । नतु षोडशो वंशः । अन्वर्थ इति । षोडशागुल इति संज्ञा लक्षणं चेत्यर्थः ॥ ४३२-४३६ ॥ (सु०) वंशभेदानाह-वंशस्येति । मुखपूरणरन्ध्रस्य ताररन्ध्रस्य च यो मध्यभाग: अष्टादशाङ्गुलपर्यन्तं तस्मादेकैकागुलवृद्धया चतुर्दशवंशा भवन्ति । तेषां नामान्याह-उमापतिरिति । तत्र वर्धितानामेवामुलानां संख्यानिर्देश: । द्वयगुल उमापति: ; व्यङ्गुल: त्रिपुरुष: ; चतुरङ्गुल: चतुर्मुखः ; पञ्चाङ्लः पञ्चवक्त्रः; षडङ्गुलः षण्मुखः ; सप्ताङ्गुलो मुनिः ; अष्टाङ्गुलो वसुः; नवाझुलो नाथेन्द्रः ; दशाङ्गुलो महानन्दः ; एकादशाङ्गुलो रुद्रः ; द्वादशाङ्गुल आदित्यः; चतुर्दशाङ्गुलो मनुः ; षोडशाङ्गुल: कलानिधिः ; अष्टादशाङ्गुल अन्वर्थ एव । ॥ ४३२-४३६ ॥ (क०) ' एकैकाङ्गुलवृद्धया स्युः' इत्येकादिक्रमेण प्रक्रम्य त्रयोदश पञ्चदशसप्तदशाङ्गुलानां परित्यागे हेतुमाह --अविस्पष्टान्तरत्वेनेति । अविस्पष्टान्तरं भेदो यस्येति तथोक्तः, तस्य भावस्तत्त्वम् । अयमर्थः-- पूर्वोत्तरयोः षोडशाष्टादशाङ्गुलयोः सारूप्येण मध्यमस्य सप्तदशाङ्गुलस्य ताभ्यां भेदे विद्यमानेऽप्यविस्पष्टः संस्तयोर्धान्ति जनयतीति । तद्वदिति ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ षष्ठो वाद्याध्यायः विरलाश्चातितारत्वादंशा पश्चाङ्गुलादधः । अष्टादशाङ्गुले वंशे स्वररन्ध्रेषु सप्तसु ॥ ४४० ॥ मुद्रितेषु भवेत्षड्जो मन्द्रसप्तकसंस्थितः । षट्स्वेवमन्यवंशेष स्युः क्रमादृषभादयः ॥ ४४१॥ आरभ्याष्टाङ्गलादेवमधो वंशेषु सप्तसु । मध्यस्थानगताः सप्तोद्यन्ति षड्जादयः क्रमात् ।। ४४२॥ उक्तहेतुना त्रयोदशाङ्गुलः पञ्चदशाङ्गुलश्च नेष्ट इति संबन्धः । द्वादशाङ्गुलादर्वाचीनेषु वंशेषु त्वगुलानामल्पसंख्यात्वेन भेदस्य स्फुटत्वात् भ्रान्तिर्न जायत इति भावो ज्ञेयः । एवमेकवीरादयः पश्चदश वंशभेदा भवन्ति ॥ ४३७-४३९- ॥ (सु०) ननु तत्र त्रयोदशाङ्गुल: पञ्चदशाङगुल: सप्तदशाङ्गुलः कथं नोक्तः ? अत आह-अविस्पष्टेति । मतान्तरमाह-मुरल्याख्येति । विंशत्यङ्गुलो मुरली अपरैराचार्यैः श्रितोऽङ्गीकृतः । द्वाविंशति । द्वाविंशत्यङ्गुलो वंशो दृश्यते ; तं वशं श्रुतिनिधिरिति वांशिका आहुः । सूक्ष्मध्वनित्वेन असौ सुज्ञैः नाङ्गीक्रियते । पञ्चाशुलाद्या वंशा अतितारत्वात् विरलाः, न सर्वैराद्रियन्त इत्यर्थः ॥ ४३७-४३९- ॥ (क०) पञ्चाङ्गुलादध इति । चतुरङ्गुलव्यङ्गुलद्वयङ्गुलैकाङ्गुलान्तरा एव वंशा इत्यर्थः । अयमभिप्रायः-वंशस्यातिदीर्घत्वेऽतिमन्द्रस्वरत्वम् , अतिहस्वत्वेऽतितारस्वरत्वं वा सर्वगातृसाधारणत्वाभावादोष इति । अष्टादशाङ्गुल इति । अस्मिन् वंशे सप्तसु स्वररन्धेषु । मुद्रितेविति । वायुनिर्गमननिमित्तमदृष्टमष्टमं रन्धं मुक्त्वा सप्तमादिषु सप्तसु रन्धेषु यथाशास्त्रं हस्तद्वयङ्गुलमुखैः पिहितेषु सत्सु मन्द्रसप्तकस्य आदितः षड्जो भवेत् । एवं षट्खन्यवंशेषु ऋषभादयः क्रमात्म्युरिति । कला Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ संगीतरत्नाकरः तारस्थानस्थितः षड्जस्त्वेकवीरस्य जायते । सर्वेष्वेतेषु वंशेषु मुक्ते रन्ध्रद्वयेऽन्तिमे ॥ ४४३ ॥ स्वरो द्वितीयो जायेत तृतीयाद्यास्ततः परम् । सप्तमान्ताः प्रजायन्ते ज्यादिरन्ध्रविमोचनात् ॥ ४४४ ॥ निधौ, सप्तरन्ध्रमुद्रणे कृते मन्द्रर्षभो भवेत् । मनौ, मन्द्रगान्धारः ; आदित्ये, मन्द्रमध्यमः ; रुद्रे मन्द्रपञ्चमः ; महानन्दे, मन्द्रधैवतः ; नाथेन्द्र, मन्द्रनिषाद इति क्रमो द्रष्टव्यः । आरभ्येत्यादि । अष्टाङ्गुलात् वसुसंज्ञकात् द्वादशादारभ्य अधः सप्तसु वंशेषु ; एवमुक्तप्रकारेण मध्यस्थानगताः षड्जादयः सप्त क्रमादुद्भवन्तीति । वसौ, सप्तस्वररन्ध्रेषु मुद्रितेषु मध्यषड्जो भवेत् ; मनौ, मध्यर्षभः ; षण्मुखे, मध्यगान्धारः ; पञ्चवक्त्रे, मध्यमध्यमः ; चतुर्मुखे, मध्यपञ्चमः ; त्रिपुरुषे, मध्यधैवतः ; उमापतौ, मध्यनिषादश्व क्रमेण भवेदित्यर्थः ॥ -४४०-४४२ ॥ ___(सु०) स्वरोत्पत्तिप्रकारमाह-अष्टादशाङ्गुल इति । सप्तसु रन्ध्रेषु मुद्रितेषु पिहितेषु मन्द्रषड्जो जायते । अन्यरन्धेषु पिहितेषु क्रमात् ऋषभादयः षट्स्वरा जायन्ते । अथवा अन्येषु वंशेषु ऋषभादयो जायन्त इति व्याख्येयम् । आरभ्येति । अष्टागुलवंशमारभ्य सप्तसु वंशेषु सप्त षङ्जादयः स्वराः क्रमात् उदयन्ति उद्यन्ति प्राप्नुवन्ति ॥ -४४०-४४२ ॥ (क०) तारस्थानस्थित इति । एकवीराख्यवंशस्य तु पूर्ववद्रन्ध्रमुद्रणे क्रियमाणे तारषड्जो जायते । सर्वेष्वित्यादि । एतेषु अष्टादशाङ्गुलादिषु अन्तिमे रन्ध्रद्वये मुक्ते सति अमुद्रिते सति । द्वितीयः खरो जायतेति । यस्मिन् वंशे यः स्वरः प्रथमत्वेन जायत इत्युक्तम् ; तदपेक्षया तत्र द्वितीयो जायत इत्यर्थः । तद्यथा--अष्टादशाङ्गुले द्वितीयो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः मुक्ते तु ताररन्धेऽन्यरन्धेषु पिहितेषु च । अष्टमस्वरसंभूतिः पूर्वाचार्यैरुदीरिता ॥ ४४५ ॥ व्यक्तमुक्ताङ्गुलित्वेन समग्रो जायते स्वरः। अगुल्याः कम्पने तत्र श्रुतिरेकापचीयते ॥ ४४६ ॥ श्रुतिद्वयं त्वर्धमुक्ते तत्कम्पे तु श्रुतित्रयम् । अन्यथा वर्णयन्तीह केचित्सप्तस्वरोदयम् ॥ ४४७ ॥ मन्द्रर्षभः ; कलानिधौ द्वितीयो मन्द्रगान्धारः; एवं सर्वत्रोह्यम् । ततः ज्यादिरन्ध्रविमोचनात्तृतीयाद्याः सप्तम्यन्ताः क्रमाज्जायन्त इति । पूर्ववत् तत्तदपेक्षया ते ते तृतीयादयो द्रष्टव्याः । तद्यथा-अष्टादशाङ्गुले वंशे अन्तिमरन्ध्रद्वये मुक्ते सति मन्द्रषड्जात् तृतीयो मन्द्रगान्धारः ; कलानिधौ रन्ध्रत्रये मुक्ते मद्रर्षभात् तृतीयो मन्द्रमध्यमः ; एव सर्वत्र द्रष्टव्यम् । तथा च रन्ध्रचतुष्टयविमोचनेऽपि तत्तदपेक्षया चतुर्थस्वरादयो द्रष्टव्याः । मुक्ते विति । अष्टमस्वरसंभूतिरिति । यस्मिन् वंशे ताररन्ध्रादिसप्तरन्ध्रमुद्रणे कृते यः स्वरो जायते, अन्यरन्धेषु पिहितेषु ताररन्धे मुक्ते स एवाष्टमत्वेन जायत इत्यर्थः । व्यक्तमुक्ताङ्गुलित्वेन समग्र इति । शुद्धावस्थोक्तश्रुतियुक्त इत्यर्थः । अगुल्याः कम्पने त्वत्र स्वर एका श्रुतिरपचीयत इति । स स्वरः स्वोपान्त्यश्रुतिं गच्छतीत्यर्थः । श्रुतिद्वयं त्विति । अर्धमुक्ते श्रुतिद्वयमपचीयते । तत्कम्पे विति । अर्धमुक्ताङ्गुलिकम्पे तु श्रुतित्रयमपचीयत इति संबन्धः ॥ ४४३-४४७ ॥ __(सु०) तारस्थानस्थित इति । तारः षड्ज: एकवीरस्योत्पद्यते । सर्वेष्विति । वंशेषु अन्त्यरन्ध्रद्वये मुक्ते द्वितीयः स्वरो जायते । तृतीयचतुर्थाद्याः सप्तमपर्यन्ताः द्विकत्रिकचतुरादिरन्ध्रमोचनात् जायन्ते । मुक्त इति । ताररन्ध्र मुक्ते अन्यरन्ध्रेष्वाच्छादितेषु अष्टमस्वरोत्पत्तिः । व्यक्तेति । व्यक्तमेवाङ्गुलि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ संगीतरत्नाकरः अर्धेन्दुनागफणवद्वेशे स्थाप्यं करद्वयम् । वामस्यानामिकागुल्या षड्जो मध्यमया पुनः ॥ ४४८ ॥ ऋषभः स्यात्पदेशिन्या गान्धार इति वामतः ।। त्रयः स्वराः प्रजायन्ते चत्वारो दक्षिणात्करात् ॥ ४४९ ॥ कनिष्ठया मध्यमः स्यात्पञ्चमोऽनामया स्वरः । धैवतः स्यान्मध्यमया प्रदेशिन्या निषादवान् ॥ ४५० ॥ मोचने संपूर्णः स्वरो जायते । तस्य अङ्गुलिकम्पने एकश्रुतिहीनस्वरोत्पत्तिरपचीयते, हीयत इत्यर्थः । अर्धमुक्ते रन्ध्रे श्रुतिद्वयं हीयते । तस्य कम्पे तिस्रः श्रुतयो हीयन्ते ॥ ४४३-४४७ ॥ (क०) मतान्तरेण वंशेषु स्वरोत्यत्ति दर्शयितुमाह -अर्धेन्दुनागफणवदिति । अर्धेन्दुः अर्धचन्दः, नागफणो हस्तविशेषः । वक्ष्यति च; 'एकतोऽङ्गुलिसंघाते यत्राङ्गुष्ठे स्थितेऽन्यतः । चन्द्ररेखाकृति ति सोऽर्धचन्द्रोऽभिधीयते ॥' इति । नागफणः सर्पशिरा नाम हस्तविशेषः ; पताको निम्नमध्यो यः स तु सर्पशिराः करः' इति वक्ष्यमाणलक्षणः, तद्वत् । ताविव अर्धेन्दुनागफणाविव । अत्र वत्करणेन तयोः सादृश्यं गम्यते, न तु तावेव । एतदुक्तं भवति, 'करद्वयेऽङ्गुष्ठयोः पृथस्थित्या प्रत्येकमर्धेन्दुवदितरासामगुलीनामूर्वाभिमुखीनां नतत्वेन प्रत्येकं नागफणवञ्च प्रतीतिर्यथा भवति तथा' इति । एवंरूपं करद्वयं वंशे स्थाप्यम् । अङ्गुष्ठयोर्भागयोर्वशं धृत्वा अङ्गुलीभागौ संनिवेश्येत्यर्थः । वामस्यानामया षड्जः स्यादित्यादिना हस्तयोय॑त्यासेन संनिवेशः सूचितः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्थानत्रयस्य 'निष्पत्तिर्नैवास्मिनन्यथा जगुः । सुशिक्षितेन रचितात्फूत्कारान्मध्यसप्तके || ४५१ ॥ जायन्ते वैणशारीरस्वरसंवादिनः स्वराः । तारस्था मुखसंयोगसंकटे मुखरन्धके ॥ ४५२ ॥ तं वादनप्रकारं च टीपामाचक्षते जनाः । तया यद्वायते रन्धे तत्स्वरो द्विगुणो भवेत् ।। ४५३ ॥ रन्ध्रस्य मुखसंयोगविप्रकर्षात्तु मन्द्रगाः । ३२७ ; स्थानत्रयस्येति । अस्मिन् पक्षे, स्थानत्रयस्य ; मन्द्रमध्यताराख्यस्य निष्पत्तिनैवेति । अन्यथा प्रकारान्तरेण जगुः । अन्य आचार्या इति शेषः । सुशिक्षितेनेति न सर्वसाधारणमित्यर्थः । तेन रचितात्फूत्कारादिति । मुखरन्ध्रयोः संयोगविशेषकृतादित्यर्थः । मध्यसप्तके वैणशारीरस्वरसंवादिन इति । वंशस्य मध्यसप्तकस्थिताः स्वरा वैणैः शारीरैश्च स्वैरैरेकतारूपा इत्यर्थः । मुखसंयोगसंकटे मुखरन्ध्रक इति । अतिसंनिकृष्टत्वेनेत्यर्थः । तत्स्वरो द्विगुणो भवेदिति फूत्कारेण प्रयत्नविशेष उक्तः ; तदा तारस्थाः स्वरा भवन्ति । मुखसंयोगविप्रकर्षादिति प्रयत्नशैथिल्यमुक्तम् ; तदा मन्द्रगाः स्वरा भवन्ति ॥ ४४८ - ४५३ ॥ (सु० ) मतान्तरेणान्यथा स्वरोत्पत्तिमाह--अन्यथेति । करद्वयमर्धचन्द्रनागफणवत् स्थापनीयम् । वामकरः अर्धचन्द्रवद् विमुखः । दक्षिणकरः नागफणवत् संमुखः । तत्र वामहस्तमुक्तया अनामिकया षड्ज उत्पद्यते ; मध्यमया ऋषभः; तर्जन्या गान्धार: ; दक्षिणहस्तस्य कनिष्ठया मध्यमः ; अनामि कया पञ्चमः ; मध्यमया धैवत:; तर्जन्या निषादः ; ते च आचार्या अस्मिन् स्वरोत्पत्तिप्रकारे स्थानत्रयस्य उत्पत्तिमन्यथा माहुः । सुशिक्षितेन 1 निष्पत्तिस्ते चास्मिनन्यथा जगुः इति सुधाकरपाठः. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ संगीतरत्नाकरः तीव्रातीव्रतया वायोः शीघ्रमन्थरभावतः ॥ ४५४ ॥ पूरणापूरणाभ्यां चोपचयापचयाद् ध्वनेः । कुर्वन्त्येकत्र रन्धेऽपि तज्ज्ञा नानास्वरोदयम् ॥ ४५५ ॥ कम्पिता वलिता मुक्तार्धमुक्ता च निपीडिता । इति वंशे गतिः प्रोक्ता शार्ङ्गदेवेन पञ्चधा ॥ ४५६ ॥ अधरस्थस्य वंशस्य कम्पनात्कम्पिता मता। वर्णालंकारनिष्पत्तिः प्रयोगेऽस्याः प्रयोजनम् ॥ ४५७ ।। इति कम्पिता भवेत्संचारिनिष्पत्तौ वलिताङ्गुलिचालनम् । इति वलिता वादकेन कृतात् फूत्कारात् मध्यसप्तके स्वरा: वीणास्वरवत् शरीरोत्पन्नस्वरवच्च जायन्ते । मुखसंयोगेन संकटे छिद्रे तारस्थानस्वरोत्पत्ति: । अयं वादनप्रकारो टीपा इत्युच्यते । तया टीपया यद् रन्ध्र वाद्यते तत्स्वरो द्विगुणो भवेत् द्वैगुण्यं प्राप्नोति । रन्ध्रस्य मुखसंयोगेन पूरणेन सविप्रकर्ष दूरत्वे क्रियमाणे स्वराणां मन्द्रत्वं भवतीति ॥ ४४८-४५३- ॥ (क०) एवं फूत्कारप्रयत्नभेदेन स्थानत्रयस्य निप्पत्तिमुक्त्वा ततोऽपि कुशलैरेकस्मिन्नेव रन्धे नानास्वरोदयः क्रियत इत्याह-तीव्रातीव्रतयेत्यादिना ॥ -४५४, ४५५ ॥ (सु०) तीब्रेति । वायोः तीव्रातीवत्वेन शीघ्रत्वेन स्थिरत्वेन पूरणत्वेन अपूरणत्वेन च ध्वनेः पुष्टापुष्टत्वेन निर्गमाय एकस्मिन्नेव छिद्रे तज्ज्ञा: वादने प्रवीणा: अनेकस्वरानुत्पादयन्ति ।। -४५४, ४५५ ।। (क०) अथ वंशे पञ्च गतीर्दर्शयति:-कम्पितेत्यादि । अर्धमुक्तेरिति। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३२९ रन्धेऽखिलेऽङ्गुलीमुक्ते मुक्ता स्यान्मुक्तशब्दकृत् ।। ४५८ ॥ इति मुक्ता अर्धमुक्तार्षमुक्तेः स्याद् धृतशब्दविधायिनी । __ इत्यर्धमुक्ता समन्तात्सर्वरन्ध्राणि पिधायाङ्गुलिभिर्यदा ।। ४५९ ॥ वंशं पूरयते तज्ज्ञैस्तदा ज्ञेया निपीडिता । इति निपीडिता अत्र कीर्तिधरस्त्वन्यां व्यवस्थामभ्युपागमत् ॥ ४६० ॥ षट्सप्ताष्टाङ्गुला वंशास्तारस्वरविधायकाः । मध्यस्वरा नवदशैकादशाङ्गुलकास्त्रयः ।। ४६१ ॥ अगुलैयों द्वादशभिः स्यास्त्रयोदशभिश्च यः। हेतू मन्द्रस्वराणां तौ सर्ववंशमयः पुनः ॥ ४६२ ।। अगुल्यमापेन रन्ध्रारमुक्तेः हेतोरित्यर्थः । धृतशब्दविधायिनीति । उत्पन्न शब्दं धारयन्तीत्यर्थः ॥ ४५६-४५९- ॥ (सु०) वंशगति विभजते-कम्पितेति । कम्पितादिभेदेन वंशवादनप्रकारः पञ्चविधः । एतेषां क्रमालक्षणमाह-अधरस्थस्येति । अधरस्थितस्य वंशस्य कम्पने क्रियमाणे कम्पिता गतिः ; अङ्गुलिचालनात् वलिता, तस्याः संचारिवर्णनिष्पत्ति: प्रयोजनम् । रन्ध्रात् सर्वाङ्गुलिमोचने मुक्ता ; अर्धमोचने अर्धमुक्ता; सर्वरन्ध्राणि सर्वतोऽङ्गुलिभिः आच्छाद्य वंशपूरणे निपीडिता ॥ ४९६-४५९-॥ (क०) मतान्तरेण वंशव्यास्थामाह-अत्र कीर्तिधर इत्यादि । अत्र वंशविषये, अन्यां व्यवस्था ; वक्ष्यमाणस्थानत्रयव्यवस्थाम् , अभ्युपागमत् 42 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः चतुर्दशाङ्गुलो वंशत्रिस्थानस्वरसाधकः । वर्णालंकारधात्वादिवायसंवादनक्षमः ॥ ४६३ ॥ एवं वंशा नवैवेति युक्तायुक्तविदो विदुः । केचिदेशीविदो वंशानेकवीरादिकानमून ॥ ४६४ ॥ मानान्तरेणाभिदधुस्तेषां मतमिदं ब्रुवे । पाक् चतुर्दशवंशात्तेऽगुलं पञ्चयवं जगुः ॥ ४६५ ॥ चतुर्दशादिवशेषु सार्धपश्चयवं त्विदम् । चतुर्दशाङ्गुलं दण्डमेकवीरे प्रचक्षते ॥ ४६६ ॥ अभ्युपगतवान् । तामेव दर्शयति- षट्सप्लेत्यादिना । सर्ववंशमय इति । उक्ताष्टविधवंशरूप इत्यर्थः । अत्र त्रिस्थानस्वरसाधक इति हेतुगर्भितं विशेषणम् ॥ ४६०-४६३- ॥ (सु०) मतान्तरेण स्वरोत्पत्तौ वंशव्यवस्थामाह-अत्रेति । कीर्तिघरनामा आचार्यः, अन्यां व्यवस्थामङ्गीकृतवान् । षडङ्गुला: सप्ताङ्गुलाः अष्टाङ्गुलाश्च वंशाः तारस्वरान् कुर्वन्ति । नवाङ्गुला दशाङ्गुलाः एकादशाङ्गुलाश्च मध्यस्वरान् ; द्वादशाङगुलत्रयोदशाङगुलौ द्वौ वंशौ मन्द्रस्वरोत्पादको । यस्तु पुनः सर्वेषां वंशानामन्तर्भावात् सर्ववंशमयः चतुर्दशाङ्गुलो वंश: समन्द्रमध्यतारानपि स्वरान् उत्पादयति । वर्णालंकारादीनां विस्तारादिधातूनां ततादिवाद्यानां च प्रकाशने समर्थः । एवं नवैव वंशा इति ॥ ४६०-४६३- ॥ (क०) अथ केषांचिद्देशीविदा मतेनैतानेवैकवीरादिकान् वंशान् मानान्तरेण भिन्नलक्षणान् दर्शयितुमाह-केचिद्देशीविद इत्यादि । ते; देशीविदः । चतुर्दशात् मनुसंज्ञकात् वंशात् प्राक् प्राक्तनेषु आदित्यायेकवीरान्तेषु, अमुलं पञ्चयवं जगुरिति ; पञ्चयवमितमङ्गुलप्रमाणमाहुरित्यर्थः । अत्र चतुर्दशादिति व्यब्लोपे पञ्चमी । अत एव चतुर्दशादिवंशेप्विमुच्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः सार्धाङ्गुलौ शिरःपान्तौ पृथग्जातिमुखेऽङ्गुलम् । मानं तारादिरन्ध्राणि प्रत्येकं त्रियवानि तु ।। ४६७ ॥ त्रियवान्यन्तरालानि पृथक् स्थानेषु मूलतः । पञ्चमांशोनितं मानं कनिष्ठापर्वमध्यतः ।। ४६८ ॥ उमापतेस्तु वंशस्य दण्डः पञ्चदशाङ्गुलः । पादोनेन यवद्वन्वेनाधिकोऽस्यान्तरेषु तु ॥ ४६९ ॥ सपादत्रियवं मानं पृथगन्यत्तु पूर्ववत् । अगुलैः सप्तदशभिर्यवयुग्माधिकैर्मतः ।। ४७० ॥ दण्डत्रिपुरुषे वंशे पृथगन्तरसप्तके । यवोनमगुलं मानमपरं लक्ष्म पूर्ववत् ।। ४७१ ।। चतुर्दशादिवशेषु मनुकलानिध्यष्टादशाङ्गुलेषु त्रिषु वंशेषु, इदम् ; अङ्गुलम् ; सार्धपश्चयवमिति पूर्ववंशेभ्यो मानभेदकथनम् । शिरःप्रान्तौ ; मूलाग्रभागादित्यर्थः । जातिमुखं नाम शूत्काररन्ध्रम् ॥ -४६४-४८३- ॥ (सु०) मतान्तरमाह-केचिदिति । देशीविदः, देशीज्ञाः केचित् एकवीरप्रमुखान् अमन् वंशान् अन्येन प्रमाणेन आहुरिति । चतुर्दशवंशात् पूर्वेषु वंशेषु पञ्चयवमङ्गुलम् । चतुर्दशवंशमारभ्य अन्येषु वंशेषु सार्धपश्चयवमङ्गुलमिति | एकवीरे नवच्छिद्रे वंशे दण्डश्चतुर्दशाङ्गुलः, मस्तकप्रदेश: प्रान्तश्च सार्धाङगुल: । जातिमुखे फूत्काररन्ध्रे अगुलप्रमाणम् ; तारादिच्छिद्राणि यवत्रयप्रमाणानि; रन्ध्रान्तरालानि पृथक् स्थानेषु मूलत: पञ्चमांशन्यून कनिष्ठाया मध्यपर्वमानम् ॥ -४६४-४६८ ॥ (सु०) उमापतेरिति । उमापतिसंज्ञकस्य वंशस्य पञ्चदशाङ्गुलो दण्ड: पादोनयवद्वयेनाधिकः, अस्य वंशस्य अन्तरालेषु सपादयवत्रयं पृथक् प्रमाणम् । अन्यत्पूर्ववत् । त्रिपुरुषे वंशे, पञ्चयवाधिकं सप्तदशाङ्गुलो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ संगीतरत्नाकरः यवद्वयाधिकैः साधैरष्टादशभिरगुलैः । मितश्चतुर्मुखे दण्डे शिरोन्तौ तु मितौ पृथक् ॥ ४७२ ॥ पादोनाभ्यामगुलाभ्यां लक्षणं पूर्ववत्परम् । यवस्य सार्धपादेन न्यूना द्वाविंशतिर्मता ॥ ४७३ ॥ अगुलानां दण्डमानं पञ्चवक्त्रे शिरोन्तयोः । सार्धाङ्गुलद्वयं मानं पृथगन्तरसप्तके ।। ४७४ ॥ चतुर्यवी सार्धपादाभ्यधिकान्यत्तु पूर्ववत् । षण्मुखे यवपादाभ्यां सपादाभ्यां सहाग्गुलैः ॥ ४७५ ॥ चतुर्विंशतिसंख्यैः स्याद्दण्डः परिमितस्ततः । ताराद्यष्टसु रन्ध्रेषु सपादस्त्रियवा मितिः ॥ ४७६ ।। प्रत्येकमन्तरालेषु षोडशांशोनिता यवाः । पञ्चमानमिताः शेष लक्ष्म स्यात्पश्चवक्त्रवत् ॥ ४७७॥ इतः परेषु वंशेषु सप्तस्वभ्यधिको यवः । स्वमानाद् दृश्यते ताररन्ध्र जातिमुखान्तरे ।। ४७८ ।। युक्ता यवेन साधेनाङ्गुलपडिशतिर्भवेत् । दण्डः, अन्तरालं तु पृथग्यवोनागुलसंमितमिति । चतुर्मुखे वंशे, यवद्वयाधिकसार्धाष्टादशाङ्गुलो दण्डः, मस्तकः प्रान्तश्च पृथक्पादोनागुलद्वयपरिमितः । पञ्चवक्त्रे वंशे, यवस्य सार्धपादन्यूनद्वाविंशत्यगुलो दण्ड: ; मस्तकप्रान्तौ सार्धाङ्गुलद्वयप्रमाणौ ; अन्तरालानि सार्धपादाधिकचतुर्यवमितानि ; अन्यत्तु पूर्ववत् । षण्मुखे वंशे, स्वचतुर्थोशयुक्तयवचतुर्थीशद्वयसहितश्चतुर्विशत्यगुलो दण्डः; ताराद्यष्टरन्ध्राणि सपादत्रियवप्रमाणानि ; रन्ध्रान्तरालानि षोडशांशन्यूनपञ्चयवप्रमाणानीति ॥ ४६९-४७७ ॥ (सु०) इत इति । इतः परेषु अन्येषु सप्तसु वंशेष ताररन्धे जातिमुखे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ षष्ठो वाद्याध्यायः प्रमाणं मुनिदण्डस्य मान रन्ध्राष्टके पुनः ।। ४७९ ॥ यवत्रयं सार्धपादाधिकं प्रत्येकमीरितम् । पृथक्पश्चयवी सार्धान्तरेष्वन्यत्तु पूर्ववत् ।। ४८० ॥ वसुवंशे तु दण्डस्याङ्गुलाष्टाविंशतिमितिः । यवाधिका जातिमुखं यवेनाधिकमङ्गुलम् ।। ४८१ ।। यवाधिकाङ्गुला ज्ञेयान्तरालेषु मितिः पृथक् । शेषं तु पूर्वववंशे नाथेन्द्रे दण्डसंमितिः ॥ ४८२ ।। यवपादाधिका त्रिंशदगुलानां शिरोन्तयोः । पादोनत्र्यङ्गुलं मानं पृथगन्तरसप्तके ॥ ४८३ ॥ सपादमङ्गुलं मानं खानिमानं तु मूलतः । षष्ठभागविहीनं स्यात्कनिष्ठापर्वमध्यमम् ।। ४८४ ॥ अन्यत्तु पूर्ववदण्डे महानन्दस्य संमितिः । पादन्यूनेन पादेन यवस्याभ्यधिका भवेत् ॥ ४८५ ॥ द्वात्रिंशदगुलानां तच्छिरोन्तौ व्यङ्गुलौ पृथक् । सपादागुलकं जातिमुखमन्तरसप्तके ॥ ४८६ ।। फूत्काररन्धे अपरा च एकयवाधिको ज्ञातव्यः । युक्तेति । मुनिवंशे ; सार्धयवाधिक षड्रिंशत्यगुल:; अष्टौ रन्ध्राणि सार्धचतुर्थांशाधिकयवत्रयमितानि; पृथगन्तरालानि सार्धपश्चयवमितानि । वसुवंश इति । वसुवंशे ; यवाधिकाष्टाविंशत्यङ्गुलो दण्डः; जातिमुखं यवाधिकाङ्गुलप्रमाणम् ; तावदेव प्रमाणमन्तरालेष्विति । वंश इति । नाथेन्द्रे वंशे ; यवचतुर्थाशाधिकत्रिंशदङ्गुलो दण्डः ; मस्तकप्रान्तौ चतुर्थाशोनत्र्यगुलौ; सप्तान्तरालानि सपादाङ्गुलसंमितानि; खानि मानं तु मूलतः षष्ठांशेन हीनं कनिष्ठाङ्गुल्या मध्यपर्वमितम् । अन्यत्तु पूर्ववत् ॥४७८-४८४-।। (क०) खानिमानं तु मूलत इति । खानि म यावद्दण्डमायातं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ संगीतरत्नाकर: पृथक्सपादपादेनाभ्यधिकं मानमङ्गुलम् । मूलतः सप्तमांशोनकनिष्ठामध्यपर्वणा ।। ४८७ ॥ मिता खानिः परं लक्ष्म पूर्वोक्तं तैरुदीरितम् । सपादानि चतुस्त्रिंशदङ्गुलानि मितिर्भवेत् ॥ ४८८ || यवार्धसहितारुद्र दण्डस्यान्तरसप्तके । सार्धाङ्गुलं पृथमानं कनिष्ठामध्यपर्वणा ॥ ४८९ ॥ खानिः परिमिता शेषं पूर्ववंशवदिष्यते । सप्तत्रिंशद्यवार्धेनाभ्यधिकान्यङ्गुलानि तु ।। ४९० ।। आदित्ये दण्डमानं स्यात्पादोनं त्वङ्गुलद्वयम् । अन्तरेषु पृथङ्मानमपरं रुद्रवंशवत् ॥ ४९१ ॥ मनोर्दण्डे सपादैकोनचत्वारिंशदङ्गुलम् | गर्भे सुषिरम् ; तस्य मानं षष्ठभागविहीनं मध्यमं कनिष्ठापर्व स्यादिति । तेन मितमित्यर्थः । मूलतः, दण्डस्य शिरोभागात् । अस्मिन् मते च वंशलक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ ४८४ - ५०२ ॥ ( सु० ) दण्ड इति । महानन्दे वंशे, दण्डः स्वचतुर्थाशन्यूनयवचतुर्थांशाधिकद्वात्रिंशदङ्गुलः ; मस्तकप्रदेशः प्रान्तश्च पृथक् त्र्यङ्गुलः ; सपादाङ्गुलिप्रमाणं जातिमुखं फूत्काररन्ध्रम् ; सप्तान्तरालानि मुखचतुर्थीशाधिकाङ्गुलप्रमाणानि ; खानिरन्ध्रं सचतुर्थांशोनकनिष्ठामध्यपर्वमिति: । अथवा खानिरन्ध्राणि मितौ माने इति व्याख्येयम् । सपादानीति । रुद्रवंशस्य दण्ड: अर्धयवाधिकसपादचतुस्त्रिंशदङ्गुलः; अन्तरालानि सार्धांगुलप्रमाणानि ; खानिरन्ध्राणि कनिष्ठामध्यपर्वमितिः ॥ ४८५-४८९-॥ (सु० ) सप्तेति । आदित्यवंशस्य दण्डः अर्धयवाधिकसप्तत्रिंशदङ्गुलः ; पादोनाद्गुलद्वयपरिमितानि अन्तरालानीति । मनोरिति । मनुवंशस्य दण्डः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः यवाधिकं सपादेनाष्टमांशेन यवस्य च ॥ ४९२ ॥ सहितं मानमाख्यातं पादन्यूनाङ्गुलत्रयैः । शिरःमान्तौ पृथग्जातिमुखे स्यान्मानमगुलम् ।। ४९३ ॥ षोडशांशोनपादेनाधिकं रन्ध्राष्टके पुनः । यवत्रयं पृथक्सार्धमन्तरेषु च सप्तसु ॥ ४९४ ।। प्रत्येकं यवपादेन न्यून स्यादङ्गुलद्वयम् । मानं लक्षणमन्यत्तु भेदादादित्यवंशवत् ॥ ४९५ ॥ यवस्य साधपादाभ्यां द्वात्रिंशांशे नवाधिकैः । चतुश्चत्वारिंशता स्यात्पादोनैरङगलैर्मितः ॥ ४९६॥ दण्डः कलानिधौ वंशे शिरोन्तौ व्यङ्गुलौ पृथक् । अन्तरेष्वशुलद्वन्द्वं सपादयवसंयुतम् ॥ ४९७ ।। प्रत्येकं मानमाख्यातं लक्ष्मान्यन्मनुवन्मतम् ।। यवस्याष्टमभागेन सपादेन समन्वितैः ।। ४९८ ॥ अष्टाचत्वारिंशता स्यात्पादोनैः संमितोऽगुलैः । अष्टादशाङ्गुले दण्डः सार्धं त्वगुलयोर्द्वयम् ।। ४९९ ॥ सपादाष्टमांशसहितयवाधिकः सचतुर्थाशैकोनचत्वारिंशदशल: ; मस्तकप्रान्तौ प्रत्येकं पादोनागुलत्रयपरिमितौ; जातिमुखे फूत्काररन्ध्रे सषोडशांशचतुर्थोशाधिकमगुलं मानम् । अन्यान्यष्टरन्ध्राणि सार्धयवत्रयमितानि सप्तान्तरालानि यवचतुर्थाशोनाङ्गुलद्वयमितानीति ॥ -४९०-४९५ ॥ (सु०) यवस्येति । सार्धयवपादाभ्यां द्वात्रिंशांशविभागेन चाधिकपादोनचतुश्चत्वारिंशदगुल: कलानिधेर्दण्डः; मस्तकप्रान्तावङ्गुलत्रयमितौ ; सचतुथोशयवाधिकद्वयशुलप्रमाणान्यन्तरालानीति । यवस्येति । अष्टादशाङ्गुलवंशस्य दण्डः सपादयवाष्टमभागाधिकपादोनाष्टाचत्वारिंशदगुलः; सार्ध Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरमाकरः अन्तरेषु पृथङ्मानं वेधमन्यत्कलानिधेः । नात्र त्रयोदशो वंशो न वा पञ्चदशाङ्गुलः ॥ ५००॥ इष्यतेऽल्पान्तरत्वेन न च सप्तदशाङ्गुलः ।। एवं पञ्चदशैवैते वंशास्तेषामिमे मताः ॥ ५०१॥ माधुर्यरक्तिसंयुक्ता रागाभिव्यक्तिहेतवः । यदिदं लक्ष्म शास्त्रोक्तं यच्च देशीगतं मतम् ॥ ५०२ ॥ ते द्वे रचयितुं शक्ते न मनांसि कलाविदाम् । वक्त्रे फूत्काररन्ध्रस्थे कस्य वा वितताकृतेः ॥ ५०३ ।। स्वररन्ध्राण्याप्नुयातामपि दीर्घतरौ करौ । अन्तरं स्वररन्ध्राणामुक्तम(गुलं च यत् ॥ ५०४ ॥ शास्त्रेण तेन कस्यापि स्वरस्य व्यक्तिरीरिता । ये पूर्वोक्तक्रमाः सप्त स्वराः सरिंगमादयः ॥ ५०५॥ मानेत्र दृश्यते तेषां नासो क्रमपरिक्रमः । मूर्च्छनारागभाषादेः सुदूरोत्सारिता कथा ॥ ५०६ ॥ यशलान्यन्तरालानि । त्रयोदशाङ्गुलादयो वंशा: अन्येभ्यः स्वल्पान्तरत्वात् नेष्यते नाभीष्टा इत्यर्थः । तेषामाचार्याणामेवमुक्ताः । पञ्चदश वंशाः माधुर्यादियुक्ता रागाभिव्यक्तेः कारणमिति ॥ ४९६-५०१- ॥ . (क०) 'यदिदं लक्ष्म ' इत्यादिना पूर्वोक्तं लक्षणद्वयमरक्षकमित्युक्त्वा अङ्गुष्ठपर्वदाङ्गुलमानेन यल्लक्षणं तत्प्रशंसति-वक्त्रे फूत्काररन्ध्रस्थ इत्यादि । वितताकृतेः कस्य वा वांशिकस्य दीर्घतरावपि करौ स्वररन्ध्राण्याप्नुयातामिति काका नैवाप्नुयातामिति गम्यते । फूत्कारध्वनिनैव तस्यापि पारवश्यं भवतीति भावः । पुनरपि शास्त्रोक्तमुपालभतेअन्तरं स्वररन्ध्राणामित्यादिना तदास्तामित्यन्तेन । मूर्च्छनाराग Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः किंचिच्छास्त्रकृतां प्राचामाचार्याणां महात्मनाम् । उपालम्भोऽपि दोपाय किं तया कथयापि नः ।। ५०७ ।। तदास्तामुच्यते किंतु केचिद्देशीविदः प्रति । माने पश्चयवे कस्माद् दृश्यतेऽत्र यवोऽधिकः ॥ ५०८ ॥ सप्ताइगुलादिवंशेषु कथं चोर्ध्वं चतुदेशात् । पूर्वमानाधिकाः सन्ति ते सप्ताष्ट नवा यवाः ।। ५०९ ॥ भाषादेरिति । अत्र रागशब्देन ग्रामरागोपरागा उच्यन्ते ; भाषाशब्देन भाषाविभाषान्तरभाषा उच्यन्ते ; आदिग्रहणेन रागानभाषाङ्गक्रियाङ्गो पानानि गृह्यन्ते, तेषाम् , कथा सुदूरोत्सारितेति । मूर्च्छनादयो न भवन्त्येवेत्यर्थः ।। -५०३-५०७ ॥ (सु०) यदिदमिति । यदिदं शास्त्रोकं, यच्च देशीप्रसिद्धं, ते द्वे अपि लक्ष्मणी कलाभिज्ञानां मनांसि रक्षयितुं न समर्थः । अगुष्ठेति । अगुलस्य अगुष्ठपर्वदीर्पण मानेन अष्टादशसु वंशेषु कृतेषु मुखे फूत्काररन्ध्रस्थिते सति कस्य वादकस्य करौ स्वररन्ध्र प्राप्नुतः, वितताकृतेरपि अतिदीर्घस्यापीत्यर्थः । अन्तरमिति | स्वरच्छिद्राणामर्धाङ्गुलप्रमाणं यदन्तरालमुक्तं शास्त्रे तेन स्वराभिव्यक्तिर्न दृश्यते । य इति । ये षड्जर्षभादयः स्वराः पूर्वमुक्ताः । अनेन मानेन वंशे क्रियमाणे क्रमेणोत्पत्तिः तेषां दृश्यते । मुर्छनारागादीनामुत्पत्तिस्तु सुदूरं निरस्त इति पूर्वाचार्यान् प्रति उपालम्भो न युक्तः ॥ -५०२-५०७ ॥ (क०) शास्त्रोक्तानि कानिचिद्वंशलक्षणान्यनुभाप्य, तेषु लक्ष्य विरोध दर्शयित्वा, तथा शास्त्रे निराकृतानामपि त्रयोदशाङ्गुलादीनां वंशानां लक्ष्ये व्यवहारं दर्शयित्वा पुरातनानां मतं दूषयति--तदास्तामुच्यते किं लित्यादिना मूरिः श्रीकरणाग्रणीरित्यन्तेन ॥ ५०८-६२३- ।। 'ठोकोऽयं मूले, "ते द्वे” इत्यस्यानन्तरं व्याख्याद्वयानुसारेण योजनीयः । अष्टपर्पदैर्घ्यं यदलं तत्समीरितम् । तेन मानेन वंशेषु कृतेष्वष्टादशादिषु ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ संगीतरनाकरः सार्धपश्चयवे माने लक्ष्म स्यादव्यवस्थितम् । त्रयोदशादयो ये च त्रयो वंशा निराकृताः ॥ ५१० ॥ न तत्रा युक्तिलेशोऽस्ति येनं तुष्यन्ति सूरयः । अल्पान्तरत्वमुक्तं यत्तदसारतरं पुनः ।। ५११॥ वंशान्तरान्तरैम्तुल्यमन्तरं तेषु दृश्यते । द्वादशार्धस्वरन्यूनो यथैकादशवंशतः ॥ ५१२ ॥ मुद्रितः स्वररन्ध्रः स्यात्तथा तस्मात्त्रयोदश । एवं चतुर्दशात्पश्चदशो वंशात्तु पोडशात् ॥ ५१३ ॥ वंशः सप्तदशो लक्ष्मापसिद्धमिति चेन्न तत् । वक्तुं तदुक्तरीत्या हि शक्यं तेष्वपि लक्षणम् ॥ ५१४ ॥ त्रयोदशाङ्गुलो वंशो विश्वमूर्तिरुदाहृतः।। अधिकं यवपादेन स्याचत्वारिंशदगुलम् ॥ ५१५ ।। (सु०) देश्यभिज्ञान्प्रति किंचिद्वदाम इत्याह-मान इति । पञ्चयवाशुलमाने सप्ताङ्गुलादिवशेषु त्रियवाधिकमानं कस्मात् दृश्यते ? चतुर्दशाङ्गुलादिवंशेषु पूर्वोक्तमानात् क्रमेण सप्ताष्ट नव च यवाधिका दृश्यन्ते । सार्धपञ्चयाङ्गुले कल्प्यमाने लक्षणमव्यवस्थं स्यात् । त्रयोदशाङ्गुलादिवंशत्रयनिराकरणे च न कारणं पश्यामः । यत्तु स्वल्पान्तरत्वं कारणमुक्तम् , तत्तु अन्येष्वपि तुल्यम् । द्वादश इति । एकादशाङ्गुलाद्वंशात् द्वादशाङ्गुलो वंश: यथा अर्धस्वरेण हीन: तथा द्वादशाङ्गुलाः, त्रयोदशाङ्गुलापि भविष्यति । एवं पञ्चदशसप्तदशाङ्गुलावपि सभवत: लक्षणशास्त्रेवनुक्तत्वादप्रसिद्धमिति चेत्, तन्न ; हि यस्मात् कारणात् पूर्वोक्तरीत्या लक्षणं कल्पयितुं शक्यते ॥ ५०८-५१४ ॥ __(मु०) तदेव कल्पितं लक्षणमाह-त्रयोदशेति । त्रयोदशाङ्गुलो विश्वमूर्तिः, तस्य यवपादाधिकचत्वारिंशदगुलो दण्डः; तारादीन्यष्टौ च्छिद्राणि सात्रिययवमितानि, त्रयाणां यवानां समाहारस्त्रियवीति । अन्तरालानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ षष्ठी वाद्याध्यायः विश्वमूतौ दण्दमानं तारादौ सुपिराष्टके । प्रत्येकं वियत्री सार्धा मानमन्तरसप्तके ॥ ५१६ ॥ अङ्गुलद्वितयं मानं पृथगादित्यवत्परम् । युक्तैर्यवेन पादेन द्वाचत्वारिंशदगुलैः ।। ५१७ ॥ यवस्य चाटपांशेन सपादेनाधिकैर्मतः ।। दण्ड: श्रीशाङ्गिदेवोक्तो वंशे पञ्चदशाङ्गुले ॥ ५१८ ॥ अङ्गुलत्रितयं मानं शिरःप्रान्ते प्रदेशयोः । प्रत्येकमन्तरालेषु सप्तस्वर्धयवाधिकम् ॥ ५१९ ॥ अगुलद्वितयं मानं मनुवल्लक्षणं परम् । यवस्य सार्धपादेन द्वात्रिंशांशयवाधिकः ॥ ५२० ॥ षट्चत्वारिंशता पादन्यूनः स्यादगुलैर्मितः । दण्डः सप्तदशे वंशेऽन्तरेषु त्वगुलद्वयम् ॥ ५२१ ॥ पृथक्सद्वियवं मानं स्यात्कलानिधिवत्परम् । एवं प्रसिद्धलक्ष्माणो रागादिव्यक्तिहेतवः ।। ५२२ ॥ त्रयोदशादयो वंशा निपिध्यन्ते मुधा परैः । अपि पश्चयवं मानं वंशेष्वष्टादशस्वपि ॥ ५२३ ॥ व्यक्तं प्रगल्भते वक्तुं सूरिः श्रीकरणाग्रणीः । तस्माद्देश्यनुसारेण लक्ष्यलक्षणतत्ववित् ॥ ५२४ ॥ शार्ङ्गदेवोऽन्यथा वंशस्वरूपं प्रत्यपादयत् । (क०) अथ देश्यनुसारेण स्वाभिमतं वंशलक्षणं वक्तुमाह"तस्माद्देश्यनुसारेण" इत्यादिना "प्रयः प्राग्वन्न संमता:" इत्यन्तेन । मूलशब्दोऽन्वयं याति मध्यमेनात्र पर्वणा इति । कनिष्ठमध्यमपर्वमूलमित्यर्थः । व्याख्यातप्रायमन्यत् ॥ -५२४-६४६- ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० संगीतरत्नाकरः अगुलं निबबन्धासौ सिद्धं गणितशास्त्रतः ॥ ५२५ ॥ न ह्यङ्गुलं पञ्चयवं दृश्यते शास्त्रलोकयोः । अगुलं निस्तुषैः षडभिस्तिर्यग्भिः स्याद्यवोदरैः ॥ ५२६ ॥ दक्षिणस्य करस्य स्यात्खानिमाने कनिष्ठिका । न स्थूला न कृशात्यन्तं गृह्यते किंतु मध्यमा ॥ ५२७ ।। मूलशब्दोऽन्वयं याति मध्यमेनात्र पर्वणा । समा सर्वत्र खानिः स्याद्विषमः स्वरभङ्गकृत् ।। ५२८ ।। चतुर्दशाङ्गुलो दण्ड एकवीरस्य दृश्यते । तच्छिरः पान्तयोर्मानमगुलद्वितयं पृथक् ।। ५२९ ॥ द्वियवमितानि । युक्तैरिति । पञ्चदशाङ्गुले वंशे ; सपादयवाष्टमांशसहितयवपादाधिकद्विचत्वारिंशदगुलो दण्डः; शिरः प्रान्तौ त्र्यमुलौ ; अन्तरालानि सप्त अर्धयवाधिकागुलद्वयमितानि । अन्यलक्षणं मनुवत् चतुर्दशाङ्गुलवंशवत् । सप्तदशाङ्गेले वंशे ; दण्डः द्वात्रिंशांशयुक्तसापादाधिकपादोनषट्चत्वारिंशदगुल: ; अगुलद्वयमितान्यन्तरालानि ; अन्यत् षोडशाङ्गुलकलानिधिवत् । अपीति । अष्टादशसु वंशेषु शाह्मदेवः पञ्चयवं मानमपि वक्तुं प्रगल्भते । अपिशब्दो गर्हायाम् ; “अपिः पदार्थसंभावनान्ववसर्गगर्दासमुच्चयेषु " (पाणिनिसूत्रम् १-४-९६) इत्युक्तत्वात् । तस्मात् प्रगल्भत इत्यर्थः । ततो लक्षणमन्यथा प्रत्यपादयत् प्रतिपादयति स्म ॥ ५१५-५२४-॥ (सु०) अशलमिति । अङ्गुलं गणितप्रसिद्धमेव । नहि पञ्चयवमङ्गुलं कचिद् दृश्यते । गणितप्रसिद्धमेवाङ्गुलमुच्यते । अगुलमिति । निस्तुषैः तुषशून्यैः तिर्यस्थितैः षड्भिर्यवोदरमगुलम् । खानिमाने खानिप्रमाणे अस्थूला अकृशा च, मूलशब्दो दक्षिणहस्तस्य कनिष्ठिकया मध्यमपर्वणा संबन्धं याति । खानिः सर्वत्र समैव कर्तव्या । विषमा चेत् स्वरभङ्गं स्वरविकारं करोति । चतुर्दशेति । एकवीरे वंशे; चतुर्दशाक्गुलो दण्ड: ; शिरःप्रान्ती Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः मानं जातिमुखाख्ये स्यात्फूत्कारसुषिरेऽङ्गुलम् । ताररन्ध्रं ततोऽधस्तादगुलान्तरितं मतम् ।। ५३० ॥ षोडशांशाधिकं तस्य मानमर्धाङ्गुलं विदुः । तदधोsar तावन्ति सप्त रन्ध्राणि कल्पयेत् ।। ५३१ ॥ तेष्वष्टास्तूर्ध्वरन्ध्राणि सप्त स्युः स्वरसिद्धये । अन्तिमं वायुरन्धं स्यादन्तरालानि सप्त च ।। ५३२ ॥ पृथगगुलान्येषां गर्भरन्धं तु संमितम् । मूलतः पञ्चमांशोनकनिष्ठामध्यपर्वणा ॥ ५३३ ॥ खानिस्तदुच्यते देश्यां पूर्वोक्ताखिस्वरादयः । त्रयोदशापरे ताररन्ध्रजातिमुखान्तरे ।। ५३४ ॥ एकैकाङ्गुलवृद्धया स्युराचतुर्दशवंशतः । उमापतौ दण्डमानं भवेत्पञ्चदशाङ्गुलम् || ५३५ ।। ३४१ द्वयङ्गुलौ ; जातिमुखसंज्ञकं फूत्काररन्ध्रमङगुलप्रमाणम् । ततो जातिमुखादधस्ताद्वर्तमानं रन्ध्रं ताररन्ध्रजमित्युच्यते । तत्र अङ्गुलान्तरितं षोडशाधिकार्धाङ्गुलमितं कार्यम् । अन्यान्यपि सप्त रन्ध्राणि तावन्ति कल्पयेदिति । तेष्विति । तेषु ; ताररन्ध्रसहितेषु अष्टसु रन्ध्रेषु सप्तस्वरस्थितये अन्तिमं वायुरन्ध्रमेव | अर्धाङ्गुलप्रमाणानि अन्तरालानि । गर्भरन्ध्रं तु पञ्चमांशोनमूलत: कनिष्टामध्यपर्वमूलमितम् । तद्गर्भरन्धं तु लोके खानीत्युच्यते । त्रिस्वरादयः पूर्वमुक्ताः । अपरे त्रयोदश; ताररन्ध्रजातिमुखान्तरे फूत्काररन्ध्रमध्ये एकैकाङ्गुलवृद्ध्या आचतुर्दशवंशत: चतुर्दशाङ्गुलपर्यन्तं ज्ञातव्याः ॥ -५२५–५३४- ॥ (सु०) उमापताविति । उमापतौ वंशे; पञ्चदशाङ्गुलं दण्डमान भवेत् । अन्यत्तु लक्ष्म एकवीरवत् । त्रिपुरुषे वंशे पुन: ; वार्धसहितः सार्ध Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ संगीतरनाकरः एकवीरवदन्यत्तु लक्ष्म त्रिपुरुषे पुनः । दण्डः सार्धेः पोडशभिः सयवामितोऽगुलैः ।। ५३६ ॥ सप्तान्तराण्यधस्तारात्पृथक्सास्त्रिभिर्यवैः । मितानि लक्षणं शेषं पूर्ववंशवदिष्यते ॥ ५३७ ॥ दण्डश्चतुर्मुखे सार्थाष्टादशाङ्गुलसंमितः । पृथक्सप्तान्तरालानि चतुर्भिः साधिभिर्यवैः ॥ ५३८ ॥ मितानि पूर्ववच्छेपं पञ्चवक्त्रे तु संमितिः । दण्डश्च यवयुग्मेनाभ्यधिकागुलविंशतिः ॥ ५३९ ॥ सप्तानामन्तरालानां पृथक्पश्चयवा मितिः । अन्यत्तु पूर्ववल्लक्ष्म दण्डमानं तु षण्मुखे ।। ५४० ॥ अगुलानां यवार्धानां द्वाविंशतिरुर्दारिता । सार्धपश्चयवं मानं पृथगन्तरसप्तके ॥ ५४१ ॥ शेपं तु पूर्ववद्वंशे मुनौ दण्डमितिः पुनः । त्रयोविंशत्यागुलानां साधयान्तरसप्तके ।। ५४२ ॥ प्रत्येकमङ्गुलं मानं शेषं पूर्ववदिष्यते । वंशे वसौ दण्डमानं चतुर्भिरधिका यवैः ॥ ५४३ ॥ पञ्चविंशतिराख्यातागुलानामन्तराणि तु । पृथक्सप्तयवानि स्युः शेषं पूर्वोक्तमिष्यते ॥ ५४४ ॥ षोडशागुलो दण्डः । ताराध:स्थितसप्तरन्ध्राणि सार्धयवत्रयमितानि । शेषं लक्षणं पूर्ववंशवत् । दण्ड इति । चतुर्मुखे वंशे ; सार्धाष्टादशाङ्गुलमितो दण्डः। अन्तरालानि सपादयवचतुष्टयमितानि । पञ्चवक्त्र इति । पश्चवक्त्रे वंशे ; यवद्वयाधिकविंशत्यालो दण्डः । पञ्चयवमितान्यन्तरालानि । दण्डमानमिति । षण्मुखे ; अर्धयवाधिकद्वाविंशत्यङगुलो दण्डः । सार्धपञ्चयवानि सप्तान्तरालानि । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः नाथेन्द्रदण्डमानं स्यात्सपादा सप्तविंशतिः । अशुलानामन्तराणि स्युः सपादाङ्गुलानि तु ।। ५४५ ॥ प्रत्येकं मूलतः पष्ठांशोनमध्यमपर्वणा। कनिष्ठाया मिता खानिरन्यल्लंक्ष्म तु पूर्ववत् ॥ ५४६ ॥ मानं महानन्ददण्डे त्रिंशदगुलकं मितम् । पृथक्सार्धाङ्गुलानि स्युरन्तरालानि सप्त च ।। ५४७ ॥ नाथेन्द्रवत्परं लक्ष्म रुद्रे दण्डमितिः पुनः । सपादानि त्रयस्त्रिंशदगुलान्यन्तरेषु तु ।। ५४८ ॥ प्रत्येकं मानमाख्यातं पादन्यूनागुलद्वयम् । रन्ध्रेष्वष्टसु तारादिष्वष्टमांशसमन्वितम् ॥ ५४९ ।। अगुला) पृथङ्मानं खानेर्मानं तु मूलतः । सप्तपशिविहीनं स्यात्कनिष्ठापर्व मध्यमम् ।। ५५० ॥ पूर्वोक्तमन्यदादित्ये वंशे दण्डग्तु कथ्यते । अष्टमांशाधिकैः पञ्चत्रिंशता संमितोऽगुलैः ।। ५५१ ॥ अन्तरेष्वष्टमांशोनमगुलद्वितयं पृथक् । मानं खानो त्वष्टमांशन्यूनमामूलदेशतः ॥ ५५२ ॥ मुनौ; सार्धयवत्रयो विंशत्यङ्गुलो दण्डः । पृथगगुलमितान्यन्तरालानि । वसौ वंशे ; चतुर्यवाधिकपञ्चविंशत्यगुलो दण्ड: । अन्तरालानि सप्त यवानि । नाथेन्द्रे वंशे ; सचतुथांशसप्तविंशत्यङ्गुलो दण्डः । सपादाङ्गुलमितान्यन्तरालानि । षष्टांशोनकनिष्ठामध्यपर्वमूलमिता खानिः गर्भरन्ध्रम् | महानन्दे वंशे; त्रिंशदगुलो दण्डः । अन्तरालानि पृथक् सार्धागुलानि । परं लक्ष्म नाथेन्द्रवत् । रुद्रवंशे ; दण्डः सपादत्रयस्त्रिंशदगुल: । अष्टमांशोनाङ्गुलद्वयपरिमितान्यन्तरालानि । आदित्यवंशे; अष्टमांशाधिकपश्चत्रिंशदगुलो दण्डः। अष्टमांशो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ संगीतरनाकरः कनिष्ठामध्यपर्वोक्तमपरं रुद्रवंशकम् । षोडशांशोनितैः सार्धेः सप्तत्रिंशन्मिताङ्गुलैः ।। ५५३ ॥ मितो दण्डो विश्वमूर्तावन्तरेष्वगुलद्वयम् । षोडशांशाधिक माने प्रत्येकं मध्यपर्वणा ॥ ५५४ ।। कनिष्ठाया मिता खानिः शेषमादित्यवंशवत् । मनौ दण्डस्तु पादोनैकचत्वारिंशताङ्गुलैः ।। ५५५ ।। मितः शिरः पृथक्मान्तदेशौ सार्धाङ्गुलद्वयौ । प्रत्येकमन्तरालेषु सपादद्वयगुला मितिः ॥ ५५६ ।। विश्वमूर्तिवदन्यत्तु लक्ष्म श्रीशाङ्गिणोदितम् । वंशश्चतुर्दशैवैवं प्रोक्ताः सोढलमूनुना ।। ५५७ ।। नातः परं तु वंशानामीदृशामस्ति संभवः । तेषु रन्ध्राङ्गुलीपाप्तिन कस्यापि हि दृश्यते ।। ५५८ ॥ अतिमन्द्रध्वनित्वाच्च न ते तत्त्वविदां मताः। गतानुगतिकत्वेन त्वेकवीरादयस्त्रयः ॥ ५५९ ॥ कथिता न तु तेष्वस्ति रक्तिमाधुर्यधुर्यता । नागुलद्वयपरिमितान्यन्तरालानि । षोडशांशोनितैरिति । विश्वमूर्ती त्रयोदशाङ्गुले ; षोडशांशोनसप्तत्रिंशदगुलो दण्ड: । मनाविति । मनौ ; पादोनैकचत्वारिंशदङ्गुलो दण्डः । शिरःप्रान्तौ पृथक् सार्धाङ्गुलद्वयौ । अन्तरालेषु चतुर्थीशद्वयगुला मितिर्मानम् | अन्यतु लक्ष्म विश्वमूर्तिवत् । एवं चतुर्दशैव वंशाः । अतः परं सुषिरेषु अगुलीप्राप्त्यभावात अतिमन्द्रनादत्वाच्च वंशा न कार्याः ॥ -६३५-५५८-॥ (सु०) ननु माधुर्याद्यभावे यदि वंशो न कर्तव्य तांद्यास्त्रयो विमोक्तव्या इत्यत्राह-गतानुगतिकत्वेनेति । पूर्वप्रसिद्धिमाश्रित्यैव त्रय एकवीरादय उक्ताः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः चतुर्मुखादयस्तस्मादेकादश मनोहराः ॥ ५६० ॥ स्वमतेऽभ्युपगम्यन्ते वंशाः सोढलमूनुना । शार्ङ्गदेवोऽन्यमानेन वंशरूपं न्यरूपयत् ॥ ५६१ ।। तिर्यग्यवोदरैः सार्धेचतुर्भिनिस्तुषैरिह । अङ्गुलं तेन पूर्वोक्तरीत्यारभ्यैकवीरतः ।। ५६२ ॥ सन्ति द्वाविंशतिर्वशविशेषास्तेषु चक्ष्महे । वंशश्रेणीमिमामाह निःशङ्कोऽनुपमाभिधाम् ।। ५६३ ॥ एकवीरे दण्डमानं स्यात्षोडशभिरगुलैः । सार्धेन यवपादेनाभ्यधिकैस्तच्छिरोन्तयोः ॥ ५६४ ॥ सार्धागुलद्वयं मानं प्रत्येकं परिकीर्तितम् । सपादमङ्गलं जातिमुखे रन्धाष्टके पुनः ।। ५६५ ॥ पृथक्तृतीयभागोनमगुलं मानमिष्यते । अर्धाङ्गुलानि प्रत्येकमन्तरालानि सप्त च ।। ५६६ ॥ मूलतः पश्चमांशोनकनिष्ठामध्यपर्वणा । मिता खानिर्भवेत्ताररन्ध्रजातिमुखान्तरम् ।। ५६७ ।। वस्तुतस्तु चतुर्मुखादय एवैकादशोचिताः । शादेव इति । अन्येन प्रमाणेन द्वाविंशतिसंख्याकं वंशानां रूपं शाङ्गदेवो निरूपितवान् । तत्र परिभाषामाहतिर्यगिति । अन्यस्मिन् वंशलक्षणे तिर्यक् स्थितैः सार्धेश्चतुभिर्यवोदरैरङ्गुलम् । तेनाङ्गुलेन पूर्वोक्तरीत्या द्वाविंशतिर्वशा एकवीरमारभ्य वक्ष्यमाणा विशेषेण ज्ञातव्याः । इयं वंशश्रेणी अनुपमेत्युच्यते । एकवीर इति । एकवीरे वंशे सार्धद्वयचतुर्थांशाधिकषोडशाङ्गुलो दण्डः । शिरःप्रान्तौ सार्धद्वयङ्गुलौ । चतुर्थाशाङ्गुलमितं फूत्काररन्ध्रम् । अष्टौ रन्ध्राणि तृतीयांशाङ्गुलमितानि । अन्तरालानि अर्धागुलमितानि । ताररन्ध्रजातिमुखयोरन्तरमेकवीरादिसंज्ञाभिरेव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ संगीतरत्नाकरः एकवीरादिसंज्ञाभिः सर्ववंशेषु वेदितम् । अष्टमांशविहीनेन यवार्धेनाधिकैर्भवेत् ॥ ५६८ ।। अङ्गुलैः सप्तदशभिर्दण्डमानमुमापतौ । एकागुलाधिकस्तस्माद्दण्डस्त्रिपुरुषे मतः ॥ ५६९ ॥ अनयोर्वेशयोः शेष लक्ष्म स्यादेकवीरवत् । मानं स्याद्यवपादोनविहीनागुलविंशतिः ॥ ५७० ॥ चतुर्मुखस्य दण्डस्यान्तरालेवर्धमङ्गुलम् । अष्टमांशाधिकं मानं पृथगन्यत्तु पूर्ववत् ।। ५७१ ॥ सद्वात्रिंशांशपादोनद्वियवाधिकया मितः । दण्डोऽगुलैकविंशत्या पञ्चवक्त्रस्य कीर्तितः ॥ ५७२ ।। अगुलस्य त्रिभिः पादैः पादोनैरन्तराणि तु । मितानि सप्त प्रत्येकं पूर्ववल्लक्षणं परम् ॥ ५७३ ।। सार्धत्रयोविंशतिः स्यादगुलानां यवाधिका । मानं षण्मुखदण्डस्य पादोनं त्वगुलत्रयम् ॥ ५७४ ॥ पृथकशिरोन्तयोर्मानमन्तरेषु तु सप्तसु । यवपादाधिकं मानं पृथक्पादोनमगुलम् ॥ ५७५ ॥ शेषं तु पूर्ववद्वंशे मुनौ स्याद्दण्डसंमितिः । पूर्वोक्तप्रकारेण ज्ञापितम् । वंशस्थैर्नवभी रन्धैरित्यादिना अष्टमांशहीनयवार्धाधिकसप्तदशाङ्गुलो दण्ड उमापतेातव्यः । त्रिपुरुषस्य एकागुलेनाधिको दण्ड इति । मानमिति । चतुर्मुखस्य यवचतुर्थोशहीनविंशत्यङ्गुलो दण्डः । अष्टमांशाधिकागुलपरिमितान्यन्तरालानि । द्वात्रिंशत्तमांशसहितश्चतुर्थाशोनयवद्वयाधिकैकविंशत्यशलो दण्डः पञ्चवक्त्रस्य । पादोनत्र्यगुलमितान्यन्तरालानि । यवाधिकसार्धत्रयोविंशत्यगुलो दण्डः षण्मुखस्य । शिरःप्रान्तौ पादोनत्र्यालौ । यवचतुर्थांशाधिकपादोनागुलमितान्यन्तरालानि । मुनिवंशे यव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ षष्ठो वाद्याध्यायः यवपादोनपादोनाङ्गुलषड्विशतिर्मता ॥ ५७६ ।। अगुलं यवपादेन न्यूनमन्तरसप्तके । प्रत्येकं मानमाख्यातं शेषं षण्मुखवंशवत् ।। ५७७ ।। वसौ वंशे यवार्धेन द्वात्रिंशांशयुजाधिका । स्यात्सप्तविंशतिः सार्धाङ्गुलानां दण्डसंमितिः ।। ५७८ ॥ सपादेन तु पादेन द्वात्रिंशांशयुतेन च । यवस्याभ्यधिकं मानमन्तरेष्वगुलं पृथक् ॥ ५७९ ॥ शेषं तु मुनिवद्दण्डे नाथेन्द्रस्य तु संमितिः ।। यवाष्टमांशसहितैरेकोनत्रिंशदगुलैः ।। ५८० ।। सार्धपादाधिकैरुक्ता पृथक्तु सुपिराष्टके । तारादौ यवयुक्तेनार्धागुलेन मितिभवेत् ॥ ५८१ ॥ अन्तरेषु पृथङ्मानमष्टमांशाधिकाङ्गुलम् । शेषं तु पूर्ववद्दण्डे महानन्दस्य संमितिः ।। ५८२ ।। उक्ता यवाष्टमांशोनाङ्गुलैकत्रिंशदिष्यते । सपादावन्तरालेषु प्रत्येकं मानमुच्यते ॥ ५८३ ॥ सपादमङ्गुलं शेषं पूर्वोक्तं शाङ्गिणोदितम् । अगुलानि त्रयस्त्रिंशदष्टमांशयुतानि तु ॥ ५८४ ।। यवाष्टमांशयुक्तानि रुद्रे दण्डमितिर्भवेत् । चतुर्थाशोनपादोनषड्विंशत्यङ्गुलो दण्डः । यवचतुर्थोशन्यूनागुलपरिमितानि सप्तान्तरालानि । वसाविति । त्रिंशत्तमांशसहितयवार्धाधिकसप्तविंशत्यगुलो दण्ड: । द्वात्रिंशत्तमांशसहित सपादचतुर्थांशाधिकागुलपरिमितान्यन्तरालानि । नाथेन्द्रस्य यवाष्टमांशसहितचतुर्थाशाधिकैकोनत्रिंशदगुलो दण्डः । यवाधि. कार्धाङ्गुलमितानि ताररन्ध्रादीन्यष्टौ रन्ध्राणि । महानन्दस्य दण्डः यवाष्टमांशाधिक एकत्रिंशदगुलः । सपादाङ्गुलमितान्यन्तरालानीति | रुद्रे यवाष्ट Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ संगीतरत्नाकर: युक्तं सार्धेन पादेनाङ्गुलमन्तरसप्तके ॥ ५८५ ॥ प्रत्येकं मानमाख्यातं खानेर्मानं तु मूलतः । षष्ठांशोनं मध्यपर्व कनिष्ठायाः प्रकीर्तितम् || ५८६ ॥ शेषं प्राग्वदथादित्ये स्यात्पञ्चत्रिंशताङ्गुलैः । यवाष्टमांशसहितैर्दण्डमानमथान्तरम् ॥ ५८७ ॥ सार्धाङ्गुलकमेकैकं खानिमानं तु कीर्तितम् । मूलतः सप्तमांशोनं कनिष्ठापर्व मध्यमम् ।। ५८८ || प्राग्वत्परं विश्वमूर्ती वंशे दण्डस्य संमिति: । यवाष्टमांशसहितैः स्यात्सप्तत्रिंशताङ्गुलैः ॥ ५८९ ॥ सार्धपादाधिकैः शीर्षमान्तौ त्र्यङ्गुलकौ पृथक् । अन्तरेष्वष्टमांशोनाधिकं सार्धाङ्गुलं पृथक् ।। ५९० ।। मानं खानेस्त्वष्टमांशन्यूनमामूलतो मतम् । मध्यपर्व कनिष्ठायाः पूर्वोक्तं शेषमिष्यते ।। ५९१ ।। दण्डमानं मनोरेकोनचत्वारिंशताङ्गुलैः । सपादैरष्टमांशेन यवस्य सहितैरपि ॥ ५९२ ॥ पादोनम गुलद्वन्द्वं पृथगन्तरसप्तके | मांशाधिकत्रयस्त्रिंशदङ्गुलो दण्डः । सार्धपादाधिकाङ्गुलपरिमितान्यन्तरालानि । षष्ठांशन्यूनकनिष्ठामध्यपर्वमिता खानि: । अथेति । आदित्यवंशस्य दण्ड: यवाष्टमांशाधिपञ्चत्रिंशदङ्गुलः । सार्धाङ्गुलान्यन्तरालानि | विश्वमूर्ताविति । यवाष्टमांशाधिकसार्ध चतुर्थांशाधिकसप्तत्रिंशदङ्गुलो दण्डः । शीर्षप्रान्तौ सार्धपादाधिकत्र्यगुलौ । अष्टमांशांनाधिकसार्धाङ्गुलानान्यन्तरालानि । खानेस्तु मानं कनिष्ठाया मध्यपर्व । शेषं पूर्वोक्तवत् । दण्डमानमिति सपादयवाष्टमांशाधिकैकोनचत्वारिंशदङ्गुलो दण्डो मनुवंशस्य । चतुर्थाशोनद्वय गुलान्यन्तरालानि । खानिः कनिष्ठाया मध्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३४९ मानं खानिस्तु मातव्या कनिष्ठामध्यपर्वणा ॥ ५९३ ।। पूर्वोक्तमपरं सार्धेकचत्वारिंशताङ्गुलैः । युक्तैर्यवस्य पादोनपादद्वन्द्वेन संमितिः ।। ५९४ ॥ दण्डे पञ्चदशस्य स्यात्ततः सार्धयवतया । प्रत्येकमष्टरन्ध्री स्यादन्तरेष्वगुलद्वयम् ।। ५९५ ।। अष्टमांशोनितं मानं प्रत्येकं मनुवत्परम् । कलानिधौ सपादैः स्यात् त्रिचत्वारिंशताङ्गुलैः ॥ ५९६ ॥ यवाधिकैदण्डमानमन्तरालेपु सप्तसु । प्रत्येकमङ्गुलद्वन्द्वं सपादं पूर्ववत्परम् ॥ ५९७ ।। दण्डोऽष्टादशवंशस्याष्टाचत्वारिंशताङ्गुले: । यवान्वितैः सपादेन सपादेनाधिकैर्मितः ।। ५९८ ॥ प्रत्येकं षोडशांशोनसा(गुलयुगं मतम् । प्रमाणमन्तरालेषु परं पूर्ववदिष्यते ।। ५९९ ।। दण्डे त्वेकोनविंशस्य साधिपश्चाशदगुलम् । यवेनाभ्यधिकं मानमन्तरेषु तु सप्तसु ।। ६०० ॥ प्रत्येकं षोडशांशोनाधिकं सार्धागुलद्वयम् । प्राग्वत्परं मुरल्यां तु दण्डमानं यवाधिकम् ॥ ६०१ ।। पर्वणा मातव्या । अपरमिति । गर्भरन्ध्र कर्तव्यमित्यर्थः । पादोनयवचतुर्थाशद्वयाधिकसाधैंकचत्वारिंशदगुलो दण्डः पञ्चदशस्य वंशस्य । अष्टौ रन्ध्राणि सार्धयवत्रयमितानि । अष्टमांशन्यूनद्वयङ्गुलान्यन्तरालानि । कलानिधाविति । यवाधिकसतुर्याशद्विचत्वारिंशदगुलो दण्ड इति । सप्तदशस्य वंशस्य दण्डो यवाधिकषट्चत्वारिंशदगुलः । अष्टादशवंशस्य सचतुर्थाशपादाधिकयवसहिताष्टाचत्वारिंशदगुलो दण्डः । दण्डं त्विति । एकोनविंशस्य वंशस्य दण्डः सार्धयवाधिकपञ्चदशाङ्गुल: । मुरल्यामिति । मुरलीसंज्ञके वंशे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० संगीतरत्नाकर: द्वापञ्चाशद्भवेत्सा गुलानामन्तराणि तु । पादोनत्रय गुलानि स्युः प्रत्येकं पूर्ववत्परम् || ६०२ ॥ एकविंशे दण्डमानं पञ्चपञ्चाशदङ्गुलम् । सपादं षोडशांशेनाभ्यधिकं यवसंयुतम् || ६०३ ॥ अगुलान्यन्तराणि स्युः प्रत्येकं पूर्ववत्परम् । दण्डमानं श्रुतिनिधावष्टापञ्चाशदङ्गुलम् || ६०४ || सार्धं यवाधिकं तस्य त्वन्तरेष्वङ्गुलत्रयम् । सपादपोडशांशोनाधिकं मानं पृथङ्मतम् ।। ६०५ || पूर्वोक्तमपरं लक्ष्म शार्ङ्गदेवेन कीर्तितम् । सर्वेषामपि वंशानां पिण्डः सार्धयवो भवेत् ।। ६०६ ॥ रक्तिमाधुर्यविरहात्पञ्चवक्त्रादधस्तनाः । चतुर्मुखादयो वंशा नेष्टा: श्रीशार्ङ्गिसूरिणा ॥ ६०७ ॥ देशीवंशेषु सर्वेषु मुद्रितात्पूर्ववंशतः । उत्तरो मुद्रितो वंशः स्वरार्धेनाधिको भवेत् ।। ६०८ ॥ वंशानामल्पमानानां सर्वत्रोत्तरता मता । स्वराधेस्यादूर्ध्वतया दक्षिणस्य कनिष्ठया || ६०९ ॥ अतस्तस्या मुद्रितायां पूर्ववंशस्य जायते । यवाधिकसार्धद्वापञ्चाशदङ्गुलो दण्डः । चतुर्थाशोनत्र्यङ्गुलान्यन्तरालानि । एकेति । एकविरस्य वंशस्य यवाधिकसपादषोडशांशाधिकपञ्चपञ्चाशदङ्गुलो दण्डमानमिति । श्रुतिनिधौ वंशे यवाधिकसार्धाष्टपञ्चाशदङ्गुलो दण्डः । षोडशांशाधिकसपादत्र्यगुलान्यन्तरालानि ॥ - ५५९-६०६ ॥ (सु०) रक्तीति । पञ्चवक्त्रात् अधस्तनाः चतुर्मुखादयः एकवीरान्ताश्चत्वारो वंशाः रञ्जकत्वमाधुर्याभावान्न संमताः । देशीवंशेष्विति । सर्वेष्वपि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ षष्ठो वाद्याध्यायः उत्तरो मुद्रितो वंशः पूर्वतुल्यस्वरोदयः ॥ ६१० ।। उद्धृताङ्गुलिवृद्धौ तु तस्मादप्युत्तरोत्तरे । मिलन्ति मुद्रिता वंशा यथासंख्यं पुरातनैः ॥ ६११ ॥ स्वरोदयेऽप्यगुलयः शास्त्रीये लौकिके तथा । वंशे तुल्याप्रकाराः स्युरिति श्रीशाङ्गिणोदितम् ॥ ६१२ ।। एकस्वराणि रन्ध्राणि संनिधौ व्यवधावपि । मिलन्ति सर्ववंशानामिति ब्रूते हरप्रियः ।। ६१३ ॥ मानहीनं तु यद्न्धं खानिर्वा यत्र तादृशी । न तद्रन्धैः स्वजातीयैमिलन्ति स्वरभङ्गतः ॥ ६१४ ॥ चतुर्दशादिवंशानामावंशादेकवीरतः । यथैकैकस्वराधिक्यं वंशे स्यादुत्तरोत्तरे ॥ ६१५ ॥ पूर्वोक्तेषु देशीवंशेषु आद्याद्यवंशात् सकाशात् द्वितीयद्वितीयवंशो मुद्रितः पिहित: सन् अर्धस्वराधिको भवति । अल्पप्रमाणानां वंशानामुत्तरत्वं द्वितीयत्वम् । दक्षिणहस्तस्य कनिष्ठायां मुक्तायां स्वरार्ध जायते । पूर्ववंशस्य कनिष्ठायां मुद्रितायां यथा ध्वनिस्तथोत्तरे वंशे मुद्रिते ध्वनिर्जायते । उद्धृतेति । उद्धृतानामगुलीनां वृद्धावुत्तरोत्तरे वंशे पुरातना वंशा मुद्रिता मिलन्ति, समाननादा भवन्ति । यथासंख्यमिति । अङ्गुलिद्वयोद्धृतौ द्वितीयः पुरातनो मिलति । अङ्गुलित्रयोद्धृतौ तृतीय इति । स्वरोदय इति । शास्त्रोक्ते लौकिके च वंशेस्वरोदये अगुलिप्रकारास्तुल्य एव । एकस्वरोत्पादके रन्ध्राणि संनिधौ संनिकर्षे व्यवधौ विप्रकर्षे वा समाननादानि भवन्तीति शाङ्गदेव आह । मानहीनमिति । प्रमाणहीनं यद्रन्ध्रमुक्तं गर्भरन्ध्र वा, यत्रोक्तप्रमाणहीनैः रन्धैः सजातीयैः समानस्वरोत्पादकैरपि स्वरभङ्गत्त: तत्र न मिलन्ति, समाननादा न भवन्तीत्यर्थः । मिलनं समाननादत्वं प्रसिद्धमेव लोके । इदानीमन्यथा वंशान् लक्षयितुमाह-चतुर्दशेति । चतुर्दशादीनां वंशानामेकवीरपर्यन्तं मुद्रिते उत्तरो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः मुद्रिते पूर्वपूर्वस्माद्वंशान्मुद्रितरन्ध्रकात् । इदानीं तादृशीं वंशस्वरूपरचनामिपाम् ॥ ६१६ ॥ शादेवः समाचष्टे शिवानुग्रहशुद्धधीः । वंशपद्धतिरेषा च शाझविद्याभिधीयते ॥ ६१७ ॥ अमुलं षड्यवं चात्र रन्ध्रादिमितये मतम् । एकवीरे दण्डमानं सपादद्वादशाङ्गुलम् ॥ ६१८ ।। यवार्धनाधिकं तस्य शिरोन्तौ द्वयङ्गुलौ पृथक् । मुखरन्ध्रेऽङ्गुलं मानं तारादौ सुषिराष्टके ।। ६१९ ।। प्रत्येकमगुलदलं तेषां त्वन्तरसप्तके । यवद्वयं पृथङ्मानमुक्तं श्रीशामिरिणा ॥ ६२० ॥ सवेवंशेषु तारस्य मुखरन्ध्रस्य चान्तरे । एकवीरादिसंज्ञाभिर्विज्ञेयाङ्गुलसंमितिः ।। ६२१ ॥ उमापतौ त्रिपुरुषे चैकैकाङ्गुलवर्धितम् । दण्डमानं परं लक्ष्म त्वेकवीरवदिष्यते ॥ ६२२ ।। चतुर्मुखे दण्डमानं पादन्यूनयवाधिकैः । त्तरे वंशे पूर्वस्मात् मुद्रितरन्ध्रात् वंशात् यथा एकैकस्वराधिक्यं जायते । इमां वंशस्वरूपरचनां शिवानुग्रहशुद्धधी: शादेवः समाचष्टे । एषा वंशपद्धतिः शाङ्गविद्येत्यभिधीयते । अङ्गुलपरिमाणं चैकवीरादिसंज्ञा भिरेव ज्ञातव्यम् । अगुलमिति । अत्र प्रकरणे षड्यवप्रमाणमगुलं ज्ञातव्यम् ॥ ६०७-६१७- ॥ (सु०) एकवीर इति । एकवीरवंशस्य दण्ड: यवाधिकसपादद्वादशाङ्गुल: । शिर:प्रान्तौ द्वयगुलौ । मुखरन्ध्रमगुलप्रमाणम् । तारादीन्यष्ट रन्ध्राणि अर्धागुलानि यवद्वयमितानि । उमापतित्रिपुरुषयोः एकैकागुलवर्धितो दण्डः । अपरं लक्ष्म तु एकवीरवत् । चतुर्मुख इति । चतुर्थाश Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः अगुलैः पञ्चदशभिः सा(रस्यान्तरेषु तु ॥ ६२३ ।। सपादद्वियवी मानं पृथगन्यत्तु पूर्ववत् । सपादैः सप्तदशभिः पादन्यूनयवाधिकैः ।। ६२४ ॥ अगुलैर्दण्डमानं स्यात्पञ्चवक्त्रेऽन्तरेषु तु । षोडशांशाधिका मानं पादोनत्रियवी पृथक् ॥ ६२५ ।। शेषं तु पूर्ववद्दण्डे षण्मुखस्य तु संमितिः । युक्ता यवेन सार्धेनाष्टमांशसहितेन च ।। ६२६ ॥ एकोनविंशतिः प्रोक्ताङ्गुलानामन्तरेषु तु । यवस्य सार्धपादाभ्यां युक्तमर्धाङ्गुलं पृथक् ॥ ६२७॥ पूर्वोक्तमपरं लक्ष्म दण्डे तु स्यान्मितिर्मुनेः । अङ्गुलैरेकविंशत्या सार्धपादद्वयाधिकैः ॥ ६२८ ॥ यवस्य चाष्टमांशेन सपादेन समन्वितैः । सपादयवपादेन द्वात्रिंशांशयुतेन च ।। ६२९ ।। युक्तमन्तरमानं स्यात्पृथक्पादोनमङ्गुलम् । शेषं तु पूर्ववल्लक्ष्म ज्ञेयं वंशे वसौ पुनः ।। ६३० ॥ अष्टमांशविहीनेन यवेनाधिकया भवेत् । न्यूनयवाधिकसार्धपञ्चदशाङ्गुलो दण्डः । रन्ध्राणि सपादयवद्वयमितानि । सपादेरिति । पादन्यूनयवाधिकसपादसप्तदशाङ्गुलो दण्डः पचवक्त्रस्य । षोडशांशाधिकपादोनयवत्रयमितान्यन्तरालानि । दण्ड इति । सार्धयवाधिकाष्टमांशसहितकोनविंशत्यगुलो दण्डः षण्मुखस्य । यवस्य सार्धपादद्वयाधिकार्धागुलमितान्यन्तरालानि । दण्डे त्विति । सपादयवाष्टमांशसहितसार्धपादद्वयाधिकैकविंशत्यङ्गुलो दण्डो मुनिवंशस्य ज्ञातव्यः । सचतुर्थाशयवपादसहितद्वात्रिंशत्तमांशाधिकपादोनाङ्गुलप्रमाणान्यन्तरालानि । वंश इति । वसौ वंशे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ संगीतरत्नाकरः चतुर्विंशत्यगुलानां चरणन्यूनया मितिः ॥ ६३१ ॥ पृथगष्टसु रन्ध्रेषु सपादत्रियवी मितिः । प्रत्येकमन्तरालेषु साष्टमांशयवाधिकम् ।। ६३२ ।। पादोनमगुलं मानभपरं लक्ष्म पूर्ववत् । सपादयवसंयुक्ताङ्गुलपडिशतिर्भवेत् ॥ ६३३ ।। मानं नाथेन्द्रदण्डस्यान्तरालेषु तु सप्तसु । अष्टमांशाधिकं मानमङ्गलं पूर्ववत्परम् ।। ६३४ ।। यवाष्टमांशसहिता सार्धाष्टाविंशतिर्मता । अगुलानां दण्डमानं महानन्देऽन्तरेषु तु ॥ ६३५ ॥ सपादमङ्गुलं सार्धयवपादाधिकं पृथक । प्राग्वत्परं रुद्रदण्डे स्वगुलानां यवाधिका ॥ ६३६ ॥ एकत्रिंशन्मिता मानमथ सार्धयवत्रया। प्रत्येकमष्टरन्ध्री स्यादन्तरालेषु सप्तम् ॥ ६३७ ॥ सार्थामुलं पृथङ्मानं पूर्वोक्तं शेषमिष्यते । दण्डस्य मानमादित्ये स्याच्चतुस्त्रिंशदङ्गुलम् ।। ६६८ ।। यवेन च सपादेन द्वात्रिंशांशयुजाधिकम् । अष्टमांशन्यूनयवाधिकपादोनचतुर्विंशत्यगुलो दण्डः । रन्ध्राण्यष्टौ सपादयवत्रयमितानि । अन्तरालानि अष्टमांशयुक्तयवाधिकपादोनाङ्गुलप्रमाणानि | सपादेति । सचतुर्थाशयवाधिकषड्विंशत्यङगुलो दण्डो नाथेन्द्रस्य । परमन्यत्पूर्ववत् । यवाष्टमांशेति । यवस्याष्टमांशाधिकसार्धाष्टाविंशत्यङ्गुलो दण्डो महानन्दस्य । सार्धयवपादाधिकसपादाङ्गुलमितान्यन्तरालानि | रुद्रदण्ड इति । यवाधिकान्येकत्रिंशदगुलानि प्रमाणम् । अष्टरन्ध्राणां सार्धात्रयो यवाः । सार्धागुलप्रमाणमन्तरालम् । दण्डस्येति । सपादयवाधिकपादोनागुलद्वय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः द्वात्रिंशांशोनपादाभ्यां यवस्य सहितं पृथक् ।। ६३९ ।। पादोन मङ्गलद्वन्द्वं मानमन्तर सप्तके । प्राग्वत्परं विश्वमूर्ती स्यात्सप्तत्रिंशदङ्गुलम् ॥ ६४० ॥ दण्डमानं तं सार्धयवपादद्वयेन च । प्रत्येकमन्तरालेषु त्वङ्गुलद्वितयं मतम् || ६४१ ।। यवस्य सार्धपादेनाभ्यधिकं पूर्ववत्परम् । दण्डो वाष्टमांशेन सपादेन समन्वितैः ॥ ६४२ ॥ चतुथत्वारिंशता स्यादङ्गुलैः संमितो मनोः । सार्घाङ्गुलद्वमितौ शिरःप्रान्तौ मतौ पृथक् || ६४३ || सार्धेन षोडशांशेन यवस्याभ्यधिकैस्त्रिभिः । पादोनैरङ्गुलैर्मानमन्तरालेषु सप्तसु ॥ ६४४ ॥ पूर्वोक्तं लक्षणं शेषमवोचत्करणाग्रणीः । खानिः सर्वेषु वंशेषु कनिष्ठामध्यपर्वणा ॥ ६४५ ॥ मूलेन संमिता कार्येत्युक्तं सोढलमूनुना । सर्वमन्यत्तु वंशानां देशीशास्त्रभुवां समम् || ६४६ ॥ एकवीरादयोऽत्रापि त्रयः प्राग्वन संपताः । ३५५ प्रमाणान्यन्तरालानि । विश्वमूर्ताविति । सार्धयवपादद्वयाधिकसप्तत्रिंशदङ्गुलो दण्डः सार्धयवपादाधिकांशस्य ज्ञातव्यः । शिरः प्रान्तौ सार्धाङ्गुलद्वयप्रमाणौ मितौ । मनौ यवस्य सार्धषोडशाधिकपादोनत्र्यङ्गुलानि सप्तान्तरालानि । खानिः गर्भरन्ध्रं सर्ववंशेषु कनिष्टा मध्यपर्वमूलमिति । अन्यत्सर्वं लक्षणं देशीशास्त्रसंभूतानां वंशानां समानम् | एकवीरादय इति । एकवीरादयस्त्रयो वंशा अत्रापि प्राग्वद् वृत्त्यादिहीनत्वेनानभिमताः ॥ - ६१८-६४६-॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः धातून्वृत्तित्रयं तत्वानुगतौघांश्च यान्पुरा ॥ ६४७ ॥ वाद्यान्याश्रवणीदीनि वीणायां यान्यवादिषम् । गेयं श्रुतिस्वरयाममूर्च्छनादि च यन्मतम् ।। ६४८ ।। तत्सर्व वंशवाद्येऽत्र विशेषेणोपदर्शयेत । वंशवीणाशरीराणि त्रयोऽमी स्वरहेतवः ॥ ६४९ ।। ललितो मधुरः स्निग्धस्तेषु वंशः प्रशस्यते । वंशवीणाशरीराणामेकीभावेन यो ध्वनिः ॥ ६५० ।। तत्र रक्तिविशेषस्य प्रमाणं विबुधा विदुः । अध्वन्यानां प्रवासेषु कामिनीनिर्जितेषु च ॥ ६५१ ॥ शोकार्तेषु प्रयुञ्जीत मृदुमध्यलयध्वनिम् । वंश प्रयुञ्जीत शृङ्गारे द्रुतादिललितध्वनिम् ॥ ६५२ ॥ कम्पितस्फुरितध्वानं वंशं द्रुतलयाश्रयम् । क्रोधाभिमानयोः कुर्यान्मतङ्गेनेति कीर्तितम् ॥ ६५३ ।। (क०) वीणायामिव वंशेऽपि धात्वादयः कर्तव्या इत्याहधातूनित्यादि ॥ -६४७-६४९- ॥ (सु०) धातूनिति । धातून् , विस्तारादीन् ; वृत्तित्रयम, चित्रादिवृत्तित्रयम्, तत्त्वादीनि वाद्यानि, आश्रावणादीनि वाद्यानि च मया यानि वीणायामवादिषम् उक्तवानस्मि, यच्च गेयं श्रुतिस्वरग्राममूर्च्छनादि स्वराध्याये श्रुतं, तत्सर्व वंशवाद्ये विशेषेण दर्शयेत । वंशेति । वंशः वीणा शरीरं च अमी त्रयः स्वरानुत्पादयन्ति । ललितः, मधुरः, स्निग्ध इति । तेषु लालित्यमाधुर्यस्वभावाद्वंशः श्रेष्ठः ॥ -६४७-६४९- ॥ (क०) वंशवीणीशरीरमेलनोत्पन्नस्य ध्वने रक्तिं स्तौति-प्रमाणं विबुधा विदुरिति । वंशस्य विनियोगं दर्शयति--अध्वन्यानामित्यादिना ॥ -६५०-६५३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्निग्धता घनता रक्तिर्व्यक्तिः प्रचुरता ध्वनेः । लालित्यं कोमलत्वं च नादानुरणनं तथा ।। ६५४ ॥ त्रिस्थानत्वं श्रावकत्वं माधुर्य सावधानता । ३५७ द्वादशेति गुणाः प्रोक्ताः फूत्कारे सूरिशार्ङ्गिणा ।। ६५५ ।। तत्र शब्दगुणेष्वैकादश प्रोक्तलक्षणाः । फूत्कारैः सावधानत्वं न्यूनताधिक्यवर्जनम् || ६५६ || (सु०) ननु कथं माधुर्यदिविशेषो ज्ञातुं शक्यते तत्राह - वंशेति । वंशादीनामेकीभावेन समुदायेन यो ध्वनिः जायते, तेषु रञ्जकविशेषेण परिमाणं सुज्ञा जानन्ति । अध्वन्यानामिति । पान्थानां प्रवासे, स्त्रीनिर्जितेषु पुरुषेषु, दुःखितेषु च मन्द्रमध्यलयनादं वंशं प्रयुञ्जीत वादयेत् । द्रुतललितध्वनिं शृङ्गारे, कम्पितस्फुरितनादं द्रुतलयाश्रयं च वंशं क्रोधाभिमानयोः प्रयुञ्जीतेत्युक्तं मतङ्गाचार्येण ॥ - ६५०-६५३ ॥ (क०) अथ फूत्कारस्य गुणानाह - स्निग्धतेत्यादि । तत्र शब्दवैकादश प्रोक्तलक्षणा इति । तत्र; द्वादशगुणेषु मध्ये, एकादश सावधानताव्यतिरिक्ताः स्निग्धतादय एकादश गुणाः । शब्दगुणेष्वेवेति ; प्रकीर्णकाध्याये मृष्टादयः पञ्च गुणा उक्ताः । तत्रैव प्रोक्तलक्षणा द्रष्टव्याः । प्रोक्तलक्षणं च शरीरस्य वंशस्य च शब्दस्यैकरूपतासंपादनादिति भावः । सावधानतां लक्षयति – फूत्कारैरिति । अत्र फूत्कारशब्देन मुखरन्ध्रजनितः शव्द उच्यते ॥ ६५४-६५६ ॥ इति द्वादश फूत्कारगुणाः (सु० ) फूत्कारगुणानाह - स्निग्धतेति । स्निग्धता स्नेहः, घनता, अन्तःसारत्वम् ; रक्तिः, रञ्जकत्वम्; व्यक्तिः, प्राकट्यम्; प्रचुरता, बाहुल्यम्; लालित्यम्, लावण्यमिवाङ्गनासु वैदग्ध्यं प्रसिद्धम् ; कोमलत्वम्, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ संगीतरत्नाकरः फूत्कारो यमलः स्तोकः कृतः स्खलित इत्यमी । फूत्कारदोषा यमलं ब्रुवते प्रतिकृतिम् || ६५७ ॥ एव मन्वर्थनामत्वान्नोच्यते लक्षणं पृथक् । बस्तुम्बकी काकी संदष्टवाव्यवस्थितः । ६५८ ॥ पञ्चेति फू-कृतेर्दोपानपरानूचिरे परे । यः कफोपहताद्वक्त्राद्विस्वरः स्फुरितो भवेत् ।। ६५९ ।। कपिलोsसौ तुम्बध्वानप्रायः प्रोक्तस्तु तुम्बकी । तारन्यूनतया काकस्वरः काकीति कथ्यते ॥ ६६० ॥ अल्पः संदष्टवद्भाति योऽसौ संदष्ट उच्यते । rasaara रूक्षः कथ्यते सोऽव्यवस्थितः ॥ ६६१ ॥ कण्ठस्य गुणदोषा ये पुरोक्तास्तेषु केचन । फुत्कारेsपि यथायोगं योजनीया मनीषिभिः || ६६२ ।। इति दश फूत्कारदोषाः सौकुमार्यम् ; (; अनुरणनम्, प्रतिशब्दः ; त्रिस्थानत्वम्, स्थानत्रयत्र्याप्तिः ; श्रावकत्वम्, श्रोतॄणां सुखकरत्वम; माधुर्यम्, मधुरता; सावधानत्वम्, अवहितत्वम्; एते द्वादश फूत्कारगुणाः । तत्र एकादश शब्दगुणेषु लक्षिता: । सावधानत्वं लक्षयति-—फूत्कारैरिति ॥ ६६४-६५६ ॥ इति द्वादश फूत्कारगुणाः (क० ) अथ फूत्कारदोषानाह - फूत्कार इत्यादि । मतान्तरेणान्यानपि दोषानाह - कपिल इत्यादि । कफोपहतात् श्लेष्मणा निवद्धात् । तुम्बध्वानप्रायः ; तुम्बइत्यनुकरणशब्दः, तुम्बध्वानः तेन प्रचुर इत्यर्थः । तुसु इत्यपि पाठो दृश्यते, सोऽप्यनुकरणशब्दः । तारन्यूनतयेति । तारस्थाने श्रुतिहीनत्वेनेत्यर्थः । संदष्टवदल्प इति । यथा लोके संदष्टमुपदंशादिकं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ षष्ठो वाद्याध्यायः अशुलीसारणाभ्यासः सुस्थानत्वं सुरागता ।। सुरागव्यक्तिमाधुर्यान्विता वेगागतागते ॥ ६६३ ॥ गीतवादनदक्षत्वं गातॄणां तानदायिता'। कतिपयावयवशून्यमल्पं दृश्यते तथा फूत्कारोऽप्यल्पतया संदष्टवत् संदष्ट उच्यते । कण्ठस्येति । शरीरस्य ध्वनेः गुणाः मृष्टादयः, दोषा रूपादयः ॥ ६५७-६६२ ॥ इति दश फूत्कारदोषा: (सु०) फूत्कारदोषानाह-फूत्कार इति । फूत्कारे चत्वारो दोषाः ; यमल:, स्तोकः, कृशः, स्खलित इति । तत्र फूत्कारान्तरेण फूत्कृतिपूरणं प्रतिफूत्कृति: यमल इत्युच्यते । अन्ये त्रयः सार्थकनामधेयाः । स्तोकः, स्थूलोऽपि स्थानप्राप्त्यसमर्थः । कृशः, स्थानप्राप्तिसमर्थोऽपि तनीयान् । स्खलितः, मध्ये मध्ये स्थगितः । मतान्तरमाह-कम्पित इति । कम्पितादीन् पञ्च दोषान् केचिदाहुः । तेषां लक्षणमाह-~य इति । य: कफोपहताद् वक्त्रात् विकृतस्फुरणे यो ध्वनिर्जायते स कम्पित: (१); तुम्बनादसदृश: तुम्बकी (२); तारप्राप्तिरहित: काकसदृशः स्वर: काकी (३); स्वल्प: संदष्ट इव प्रतीयते स संदष्टः (४); यस्तु कदाचिदूनः कदाचिदधिको रूक्ष: स्वरः प्रतीयते सोऽव्यवस्थित: (५); कण्ठस्येति । ये गुणदोषाः प्रकीर्णकाध्याये कण्ठस्योक्ताः; तेऽपि यथासंभवं योजनीयाः ॥ ६१७-६६२ ॥ इति दश फूत्कारदोषाः (क०) अथ वांशिकगुणानाह-अङ्गुलीसारणाभ्यास इत्यादि। वेगागतागते सुरागव्यक्तिमाधुर्यान्वितेति । गतमारोहः आगतमवरोहः, 'स्थानदायितेति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० संगीतरत्नाकरः तदोषाच्छादनं मार्गदेशीरागेषु कौशलम् ।। ६६४ ॥ स्वस्थानवदपस्थाने रागोभृतिप्रगल्भता । वांशिकस्य गुणानेतान्यक्ति श्रीकरणायणीः ॥ ६६५ ॥ इति वांशिकगुणा: आरोहावरोहयोः वेगकृतयोरपि सुरागव्यक्तिमाधुर्यान्वितत्वं गुण इत्यर्थः । गातृणां तानदायितेति । गातृभिः गातुमिष्यमाणस्य तानस्य तत्तद्रागानुगुण्येन प्रथमं प्रदर्शनम् । स्थानदायितेति पाठे तु स्थानानि मन्द्रमध्यताराणि, तेषां प्रदर्शनम् । तदोषाच्छादनमिति । तेषां गातॄणां दोषाः संदष्टत्वादयः पूर्वोक्ताः पञ्चविंशतिः, तेषामाच्छादनम् । यथा श्रोतणां रागभङ्गो न भवति, तथा तद्दोषतिरोधानं वांशिकः कुर्यादित्यर्थः । स्वस्थानवदपस्थाने रागोत्पत्तिप्रगल्भतेति । स्वस्थानानि पूर्वोक्तानि मुखचालनादीनि चत्वारि । ततोऽतिरिक्तानि स्वस्थानान्यपस्थानान्युच्यन्ते । अत्र यद्यपि स्वस्थान एव रागाभिव्यक्तिर्भवति, नापस्थाने; तथापि वांशिकः स्वप्रगल्भतया अपस्थानेऽपि स्वस्थानवद्रागमुत्पादयति चेत , स तस्य गुणः ॥ ६६३-६६५ ॥ इति वांशिकगुणाः ___ (सु०) वांशिकगुणानाह--अङ्गुलीति । अगुलीसारणे पिधानमोचनादौ अभ्यासः, सुस्थानत्वम् , सम्यक्स्थानप्राप्तिः; सुरागता, यथोक्तरागाभिव्यक्तिमाधुर्यान्विता, तद्वेगात् गतागतिः, प्रबन्धवादने शक्तिः, गायकानां स्थानप्रदायित्वं, गायकदोषाच्छादनं, सर्वरागपरिज्ञानं, स्वस्थानवदपस्थानेऽपि रागोद्भवशक्तत्वमेते वांशिकस्य गुणाः ॥ ६६३-६६५ ॥ इति वांशिकगुणाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः मिथ्याप्रयोगबाहुल्यमेतद्गुणविपर्ययः । इष्टस्थानानवाप्तिश्च शिरसः कम्पनं तथा ।। ६६६ ॥ वांशिकस्येति दोषाः स्युर्वर्जनीयाः प्रयत्नतः । इति वांशिकदोषाः एकः स्याद्वांशिको मुख्यश्चत्वारोऽस्यानुयायिनः || ६६७ ।। वांशिकानामिति प्रायस्तज्ज्ञैर्वृन्दं निगद्यते । इति वांशिकवृन्दम् (क) अथ वांशिकदोषानाह - मिथ्याप्रयोगेत्यादि । मिथ्याप्रयोगेऽस्थाने गमकालापः । यथोक्तं प्राक् - • आलापो गमकालप्तिरक्षरैर्वर्जिता मता । सैव प्रयोगशब्देन शार्ङ्गदेवेन शब्दिता ॥ ' इति । ३६१ तस्य बाहुल्यं प्रचुरता । एतद्गुणविपयर्य इति । एतेषामङ्गुलीसारणाभ्यासादीनां गुणानां विपर्ययोऽन्यथाभावः ॥ ६६६- ॥ इति वांशिक दोषाः (क०) अथ वांशिकानां बृन्दमाह 46 (सु०) वांशिकदोषानाह - मिथ्येति । मिध्यारञ्जका ये प्रयोगाः पूर्वोक्त गुणव्यत्यासाः ॥ ६६६- ॥ इति वांशिकदोषाः (संगीतरत्नाकरे ४-३६०) - -एकः स्यादित्यादि । ६६७ ।। इति वांशिकवृन्दम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः अधुना मुग्धबोधार्थमुदाहरणमात्रतः ।। ६६८ ॥ वंशे देशीस्थरागाणां केषांचिद्वादनं ब्रुवे । मध्यमं स्थायिनं कृत्वा तृतीये कम्पिते स्वरे ॥ ६६९ ॥ विलम्बिते द्वितीयेऽथ स्थायिनि न्यस्यते यदा । स्वस्थानं प्रथमं प्रोक्तं मध्यमादेस्तदा बुधैः ।। ६७० ॥ तृतीयकम्पनादूर्ध्वं चतुर्थ पञ्चमं तनः । (सु०) अथ वांशिकानां बृन्दमाह-एक इति । एको मुख्यो वांशिकः, चत्वारः तदनुगताः ; एतद्वांशिकवृन्दम् ॥ ६६७- ॥ इति वांशिकवृन्दम् (क०) किंनर्यामिव वंशेऽपि केषांचिद्देशीरागाणां वादनक्रमं दर्शयितुमाह-अधुनेत्यादि ॥ ६६८- ॥ (सु०) अधुनेति । अज्ञपरिज्ञानार्थ देशीरागाणां केषांचित् दृष्टान्तत्वेन वादनं कथयामि ॥ ६६८-॥ (क०) तत्र तावन्मध्यमादेर्वादनक्रमं दर्शयति-मध्यममित्यादि । स्थायिनं कृत्वा; ग्रहं कृत्वा । तृतीय इति; अत्र मध्यमोदाहरणक्रमेण तृतीयो धैवतः, तस्यात्र विवादित्वात् वादने क्रियमाणे रागहानिर्भवत्येव । अतः तं विहाय तदुत्तरो निषादोऽत्र तृतीयत्वेन ग्राह्य इति मन्तव्यम् । यथैवं तथा पूर्वोक्तम् - " असंभवे पूर्वपूर्वस्वरस्य तु परं परम् । क्रमेण स्वरमारोहेत्सर्वरागेविति स्थितिः ॥" (६.३३३) इति । वय॑त्वेनासंभव इति पूर्वमेवोक्तं व्याख्यातं च । तस्मात तृतीये स्वरे निषादे कम्पिते सति द्वितीये पञ्चमे विलम्बिते सति स्थायिनि मध्यमे यदा न्यस्यते तदा मध्यमादेः प्रथमं स्वस्थानं प्रोक्तम् । तृतीयकम्पनादिति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तुर्यस्वरं द्वितीयं च कृत्वा न्यासो ग्रहे यदा ॥ ६७१ ॥ तदा द्वितीयं स्वस्थानं शादेवेन कीर्तितम् । चतुर्थस्वरमाहत्य स्थायिनं तत्परं ततः ।। ६७२ ।। समुच्चार्य स्वरं तुर्य पञ्चमं तु विलम्ब्य च । षष्ठं च पञ्चमं कृत्वा द्वितीयं च ग्रहे यदा ।। ६७३ ।। न्यासस्तदा तृतीयं स्यात्स्वस्थानमिति तद्विदः । ग्रहद्वितीयतुर्योश्च पञ्चमं सप्तमं ततः ॥ ६७४ ।। तृतीयस्य निषादस्य कम्पनं कृत्वा, ऊर्ध्वमनन्तरं चतुर्थ तं निषादमेव । ननु एकस्यैव निषादस्य तृतीयत्वं चतुर्थत्वं च कथमिति चेत् , उच्यते--तस्य तृतीयत्वं लक्षणया आश्रितम् । चतुर्थत्वं तु मुख्यमेव । नहि गौणमुख्यव्यवहारयोरेकत्र विरोधो दृष्टः । यथा गङ्गायां घोष इत्यत्र गङ्गाशब्देन तटो लक्ष्यत इति तस्य तटशब्दवाच्यत्वं न हीयते । तद्वदत्रापीति न दोषः । लक्षणवाक्येऽपि लक्षणावृत्त्याश्रयणे संनिहितस्वर इवासंनिहितस्वरेण संसृज्य प्रयोगप्रयोजनं द्रष्टव्यम् । एवं लक्ष्यानुसारेण देश्यां सर्वत्र लक्ष्य विरोधि शास्त्रमन्यथा नेयम् । पञ्चममिति । षड्जमित्यर्थः । ततः षड्जानन्तरं तुर्यस्वरं निषादम् । द्वितीयं पञ्चमस्वरं च कृत्वा वादयित्वा, यदा ग्रहे मध्यमे न्यासः क्रियते, तदा द्वितीयं स्वस्थानं कीर्तितम् । चतुर्थस्वरमाहत्येति । निषादमाहत्य गमकयुक्तं कृत्वा, ततः स्थायिनं मध्यमं तत्परं च समुच्चार्य, तुर्य निषादम् । पञ्चमं तु षड्जं विलम्ब्य च षष्ठमिति । ऋषभस्यात्र विवादित्वात्परं गान्धारमित्यर्थः । पञ्चमं षड्जम् , द्वितीयं पञ्चमस्वरं च कृत्वा ग्रहे मध्यमे न्यासः तदा तृतीयं स्वस्थानं भवति । ग्रहद्वितीयतुर्योश्चेति । मध्यमपञ्चमनिषादानित्यर्थः । ततः पञ्चमं; षड्जमित्यर्थः । सप्तमं; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ संगीतरनाकरः कृत्वाष्टमं विलम्ब्याय द्वितीयं तत्परं ततः । द्वितीयं सप्तमं कृत्वा पञ्चमं च चतुर्थकम् ॥ ६७५ ॥ द्वितीयं च ग्रहे न्यासः स्वस्थानं तुर्यमिष्यते । दृश्यते मध्यमादेस्तु ग्रहो वंशेषु मुद्रितः ॥ ६७६ ॥ इति मध्यमादिः गान्धारमित्यर्थः । एतान् कृत्वा, अथ अष्टमं तारस्थितं मध्यममित्यर्थः । पञ्चमं चतुर्यकं द्वितीयं चेति । सनिपानित्यर्थः । ग्रहे मध्यमे न्यास इत्यनेनात्रापि वंशप्रकरणे स्थायिग्रहशब्दयोरेकार्थत्वं द्रष्टव्यम् । एवं स्थायिनि मध्यमे न्यासः कृतश्चेत् , चतुर्थ स्वस्थानमिप्यते । दृश्यते मध्यमादेस्तु ग्रहो वंशेषु मुद्रित इति । वंशेष्विति बहुवचनेन अष्टादशाङ्गुलादिषु तत्तन्मतोक्तलक्षणेषु यस्मिन् वंशे यो मुदितः स्वरो भवति, यथाष्टादशाङ्गुले वंशे सप्तसु स्वररन्ध्रेषु मुद्रितेपु षड्जो जायते स तत्र मुद्रित उच्यते ; कलानिधौ वंशे मन्द्रर्षभो मुद्रितः स्वरः, तथा मनौ वंशे मन्द्रगान्धारो मुद्रित इति । यस्मिन् वंशे मध्यमादिरागः क्रियते तस्मिन् वंशे यो मुद्रितः स्वरः स एव मध्यमादेब्रहो दृश्यत इत्यनेन लक्ष्यत इति गम्यते । उत्तरत्रापि मुद्रितो ग्रह इति यत्र वक्ष्यते तत्रैवं द्रष्टव्यम् ॥ ६६९-६७६ ।। इति मध्यमादिः __ (सु०) तत्र मध्यमादेर्वादनं कथयति-मध्यममिति । मध्यमस्वरं स्थायिनं मुख्यं गीत्वा ततस्तृतीयस्वरे धैवते कम्पिते सति, द्वितीये पञ्चमे विलम्ब्य गीते स्थायिनि मध्यमे समाप्तिः, इदं मध्यमादिरागस्य प्रथम स्वस्थानम् । तृतीय कम्पयित्वा, चतुर्थपञ्चमचतुर्थद्वितीयान् गीत्वा ग्रहे समाप्तिः द्वितीयं स्वस्थानम् । चतुर्थस्वरमाहत्य ताडिते स्थायिनं गीत्वा तत्परं द्वितीयमुच्चार्य, चतुर्थपञ्चमौ विलम्ब्य षष्ठपञ्चमद्वितीयान् गीत्वा ग्रहे समाप्तिः तृतीयं स्वस्थानम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ षष्ठो वाद्याध्यायः षड्जे ग्रहे ममाहत्य षड्ज कृत्वा हतौ रिमौ । पमान्दोल्य प्रकम्प्यापि पमगान्दिः प्रयुज्य च ।। ६७७ ॥ आन्दोल्य मं प्रकम्प्यापि लघुषड्ज विधाय च । कम्पयित्वा रिमौ द्विवान् वारानावर्त्य षड्नगौ ॥ ६७८ ।। स्थायिन्यासाद्भवेदाधं स्वस्थानं मालवश्रियः । आद्यस्वस्थानविधिना विधाय स्वरपञ्चकम् ।। ६७९ ॥ निं विलम्ब्यावरोही चेत्पूर्वः स्वस्थानगः कृतः । तदा द्वितीयं स्वस्थानमास्थितं रागवेदिभिः ॥ ६८० ॥ कृत्वा द्वितीयं स्वस्थानं धान्तमान्दोल्य सप्तमम् । आइत्य च द्वितीयस्य स्वस्थानस्यावरोहणम् ॥ ६८१॥ कृतं यत्र तृतीयं तत्स्वस्थानमुदितं बुधैः । आहत्य मं द्विगुणसं कृत्वा रिं तत्परं ततः ॥ ६८२ ।। तं सं प्रोच्य निमाहत्य विलम्ब्य पुनरप्यमुम् । कृत्वा तृतीयं स्वस्थानावरोही क्रियते यदा ।। ६८३ ॥ ग्रहद्वितीयचतुर्थपञ्चमसप्तमान् गीत्वा, अष्टमं च विलम्ब्य, द्वितीयतृतीयद्वितीयसप्तमपञ्चमचतुर्थद्वितीयगानानन्तरं ग्रहे समाप्तिः चतुर्थ स्वस्थानम् । लोके मध्यमादेः प्रहस्चरो मुद्रितो दृश्यते ॥ -६६९-६७६ ॥ ___ इति मध्यमादिः (क०) अथ मालवश्रियः स्वस्थानानि कथयति-षड्जे ग्रह इत्यादि । षड्जे ग्रहे सतीति । अनेन स्वरान्तरस्यापि लक्ष्यानुसारेण महत्वमभ्युपगन्तव्यमिति गम्यते । अतो यदा षड्जो ग्रहो भवति स्थायी भवति । तदा षड्जापेक्षया यो मो मध्यमः तमाहत्य । एव. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ संगीतरत्नाकरः तदा चतुर्थ स्वस्थानमाख्यातं मालवश्रियः । षड्जोऽन्यो वा स्वरो वंशे ग्रहोऽस्या मुद्रितः स्वरः ॥ ६८४ ॥ प्रकल्प्य तस्य षड्जत्वं परेषामृषभादिताम् । लक्ष्मेदं योजयेत्सर्वमित्युक्तं सूरिशाङ्गिणा ॥ ६८५ ।। इति मालवश्री: मन्येऽपि स्वराः षड्जापेक्षयोन्नेयाः । इममेवाथै ग्रन्थकारः स्वयमेवाहषइनोऽन्यो वेत्यादिना । अत्रापि मध्यमादिवत् मुद्रितस्वर एव स्थायी भवति ॥ ६७७-६८५ ॥ इति मालवश्री: (सु०) अथ मालवश्रिया उत्पत्तिप्रकारमाह-षड्ज इति । षड्जे ग्रहस्वरे कृते सति में मध्यमस्वरमाहत्य, तारं गीत्वा ततः षड्जमुच्चार्य, रिमौ, ऋषभमध्यमौ आहतौ ताडितो, मम् , मध्यममान्दोल्य, पमगान् पञ्चममध्यमगान्धारान् प्रकम्प्य प्रकटं द्विवारं गीत्वा, मं मध्यममान्दोल्य कम्पयित्वा, षड्ज लघु विधाय शीघं गीत्वा, रिमौ, ऋषभमध्यमौ कम्पितौ गीत्वा, षड्जगौ, षड्जगान्धारौ द्वित्रिवारानावर्त्य, स्थायिनि समाप्तौ प्रथमं स्वस्थानं भवति । प्रथमस्वस्थानप्रकारेण पञ्च स्वरान् गीत्वा, धैवतं विलम्ब्य अवरोहेण पूर्व स्वस्थास्नं क्रियते चेत्, तदा द्वितीयं स्वस्थानं भवति । पुनश्च धैवतपर्यन्तं कृत्वा सप्तमं स्वरमान्दोल्य ताडयित्वा च द्वितीयस्य स्वस्थानस्य आरोहणे कृते सति तृतीयं स्वस्थानम् । मं मध्यमेनाहत्य तत्परमृषभं द्विगुणमुच्चारितं कृत्वा, तमेव सं प्रोच्य समुच्चार्य निं निषादमाहत्य पुनरमुं निषादं विलम्ब्य, विलम्बितं गीत्वा तृतीयं स्वस्थानमवरोहेण क्रियते चेत् तदा चतुर्थ स्वस्थानम् । षड्ज इति । षड्जो वा अन्यो वा मुद्रितः स्वर: वंशे ग्रहः स्यात् , तस्य वंश इव षड्जं प्रकल्प्य अन्येषामृषभादित्वं कल्पयित्वा पूर्वोक्तं लक्षणं योजयेत् ॥ ६७७-६८५॥ इति मालवश्री: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्थायिनं मध्यमं कृत्वा कम्पयित्वा परं स्वरम् । तुर्य विलम्ब्य कृत्वा च तृतीयं तं द्रुताहतम् ।। ६८६ ॥ विधाय तं पुनः प्रोच्य ग्रहन्यासेन जायते । स्वस्थानं प्रथमं तोड्याः प्रोक्तं मुनिवरैरिति ।। ६८७ ॥ . प्राक्स्वस्थानवदारुह्य पञ्चमादवरुह्यते । स्थायिस्वरान्तं यत्रादः स्वस्थानं स्यात्तृतीयकम् ॥ ६८८ ॥ प्रादाषष्ठमारोहावरोही च ग्रहावधिः । अस्यास्तृतीये स्वस्थाने चतुर्थे त्वष्टावधौ ।। ६८९ ।। आरोहिण्यवरोही स्यात्पूर्ववत्तद्विदां मतः । मुद्रितस्तु ग्रहः प्रोक्तो लक्ष्ये स्यालक्ष्मवेदिभिः ।। ६९० ॥ इति तोडी ३६७ ( क ० ) इतः परं तोड्यादीनां स्वस्थानानि ग्रन्थत एव सुबोधानि । ६८६-६९० ॥ इति तोडी ( सु० ) अथ तोडीमाह - स्थायिनमिति । मध्यमं गीत्वा तत्परं पञ्चमं कम्पयित्वा चतुर्थं विलम्बितं गीत्वा, तृतीयमुच्चार्य तृतीयं त्वाहतं वेगेन ताडितं कृत्वा तमेव पुनरुच्चार्य ग्रहे समाप्तौ तोडीरागस्य प्रथमं स्वस्थानम् । पूर्वस्य स्थानप्रकारेण आपञ्चमात्तु पञ्चमपर्यन्तमारुह्य स्थायिस्वरपर्यन्तमवरोहणं यत्र अदः इदं द्वितीयं स्वस्थानम् । पूर्ववत् आषष्ठस्वर पर्यन्तमारोहः, ग्रहस्वरपर्यन्तमवरोहश्च तृतीयं स्वस्थानम् । आष्टस्वरपर्यन्तमारोहः, पूर्ववद् ग्रहस्वरपर्यन्तमवरोहश्च चतुर्थ स्वस्थानम् । अस्यास्तु लक्ष्ये मुद्रितस्वर: ग्रहो दृश्यते ॥ ६८६-६९० ॥ इति तोडी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ संगीतरनाकरः मध्यमं गृहमास्थाय प्राञ्चं पोच्य ततो ग्रहम् । सद्वितीयं कम्पयित्वा तृतीयं सचतुर्थकम् ॥ ६९१ ॥ लघुकृत्य तृतीयं चोचार्याहत्य च तं ततः।। प्राचीनं स्वरमुच्चार्य स्थायिनि न्यस्यते यदा ॥ ६९२ ॥ भवेद्वङ्गालरागस्य स्वस्थानं प्रथमं तदा । आरोही पश्चमान्तः स्यात्स्वस्थानेऽस्य द्वितीयके ।। ६९३ ॥ सप्तमान्तस्तृतीये स्यात्तुयें स्यादष्टमावधि । प्राक्पाग्वदवरोही स्यात्स्वस्थाने तृत्तरोत्तरम् ॥ ६९४ ।। लक्ष्ये तु सर्ववंशस्थो द्वितीयोऽस्य ग्रहो मतः । ___ इति बङ्गाल: (क०) तत्र बङ्गालरागे-लक्ष्ये तु सर्ववंशस्यो द्वितीयोऽस्य ग्रह इति । षड्जादिषु मध्ययोर्मुद्रितस्वरो भवति । तदपेक्षया द्वितीयऋषभादिरत्र स्थायी भवति । सोऽपि द्वितीयोऽन्तिमरन्ध्रद्वये मुक्ते सति जायत इति पूर्वमेवोक्तम् । उत्तरत्रापि भैरवादौ द्वितीयोऽस्य स्वरः स्थायीत्येवमादिषु मुक्तान्त्यरन्ध्रद्वयस्वरः स्थायी कर्तव्य इति वेदितव्यम् ॥ ६९३-६९४-॥ इति बङ्गाल: (सु०) अथ बङ्गालमाह-मध्यममिति । मध्यमं ग्रहस्वरं विधाय प्राच्यं पूर्वस्वरमुच्चार्य, ततो ग्रहद्वितीयस्वरं कम्पितं गीत्वा, द्वितीयचतुर्थी लघुकृत्य शीघ्रमुच्चार्य तमेव तृतीयं ताडयित्वा पूर्वस्वरमुच्चार्य स्थायिनि समाप्तौ बन्नालरागस्य प्रथम स्वस्थानं भवति । पञ्चमपर्यन्तमारोहणं द्वितीयं स्वस्थानम् । सप्तमपर्यन्तमारोहणं तृतीयं स्वस्थानम् । अष्टमपर्यन्तमारोहणं चतुर्थ स्वस्थानमिति । अवरोहस्तु उत्तरोत्तरे स्वस्थाने पूर्वपूर्वस्वस्थानवत् । लक्ष्ये द्वितीयस्वरो ग्रहः ॥ ६९३-६९४-॥ इति बङ्गाल: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३६९ धैवतं स्थायिनं कृत्वा प्राञ्चं तं च तृतीयकम् ।। ६९५ ॥ पुनः प्राञ्चं विधायाथ कम्पयित्वा तृतीयकम् । विलम्ब्य चाहतं कृत्वा द्वित्रिद्वारं द्वितीयकम् ।। ६९६ ।। ग्रहे न्यासाद्धैरवस्य स्वस्थानं प्रथमं भवेत् । द्वितीये पञ्चमान्तः स्यादारोहोऽथ तृतीयके ॥ ६९७ ॥ पष्ठान्तः सप्तमान्तो वा चतुर्थे त्वष्टमावधिः । परे परेऽवरोही स्यात्स्वस्थाने पूर्वपूर्ववत् ॥ ६९८ ॥ द्वितीयोऽत्र स्वरः स्थायी सर्ववंशेषु दृश्यते । इति भैरवः स्थायिनं द्विगुणं पड्ज कृत्वाध वादयेत्ततः ॥ ६९९ ॥ पूर्व ग्रहं द्वितीयं च तृतीयमथ वादयेत् । अथ द्वितीयमागत्य न्यस्यते स्थायिनि स्वरे ॥ ७०० ॥ यदा वराव्याः स्वस्थानं प्रथमं जायते तदा । इह भैरववत्कार्य स्वस्थानत्रितयं परम् ।। ७०१ ॥ स्वस्थानप्रक्रियैवैप ज्ञेया रागान्तरेष्वपि । (सु०) अथ भैरवमाह-धैवतमिति । धैवतं स्थायिनं कृत्वा पूर्वस्थायी तृतीयपूर्वावुच्चार्य तृतीयं कम्पितं गीत्वा द्वितीयस्वरं द्विस्त्रिरुचार्य प्रहे स्वरे समाप्तौ भैरवरागस्य प्रथमं स्वस्थानम् । पञ्चमपर्यन्तमारोहे द्वितीयं स्वस्थानम् । षष्ठपर्यन्तमारोहे तृतीयं स्वस्थानम् । अष्टमपर्यन्तमारोहे चतुर्थ स्वस्थानम् । उत्तरोत्तरस्वरस्थाने पूर्वपूर्ववदारोहणम् ॥ -६९५-६९८- ॥ इति भैरव: (क०) वराव्याम्-स्थायिनं द्विगुणं पड्जमिति; मध्यमं षड्ज Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः द्वितीयोऽस्याः स्वरो लक्ष्ये ग्रहत्येनोपलक्ष्यते ॥ ७०२ ।। इति वराटी ऋपमे स्थायिनि प्राञ्चं कम्पयित्वार्धमस्य च । कृत्वा ग्रहं द्वितीयं च तृतीयं तदधः स्वरम् ।। ७०३ ॥ यहमेत्य ततः पाञ्चं प्रकम्प्योक्त्वाधेमस्य च । ग्रहे न्यासेन गुर्जर्याः स्वस्थानं प्रथमं भवेत् ।। ७०४ ।। तृतीयो दृश्यते प्रायो ग्रहोऽस्यां लक्ष्यगोचरे। तारषड्जं वेत्यर्थः । तयोः पूर्वपूर्वापेक्षया द्विगुणत्वसंभवात् । अर्धे द्वयर्ध, स्थायिनश्चतुर्थस्वरमित्यर्थः ॥ -६९९-७०२ ॥ इति वराटी (मु०) अथ वराटीमाह-स्थायिनमिति । वराव्यां द्विगुणमुच्चारितं षड्ज स्थायिनं कृत्वा, ततोऽध वादयेत् । ततः पूर्वं स्थायिद्वितीयतृतीया वादनीयाः । द्वितीयं प्राप्य स्थायिनि न्यासे वराव्याः प्रथमं स्वस्थानम् । अन्यत् स्वस्थानत्रितयं भैरववत्कार्यम् ॥ -६९९-७०२॥ इति वराटी (क०) गुर्जर्याम् - तृतीयो दृश्यते पायो ग्रहोऽस्यां लक्ष्यगोचर इति । अत्रापि मुद्रितस्वरात् तृतीयो ग्राह्यः । सोऽप्यन्तिमरन्ध्रत्रयमोचनात् जायत इति पूर्वमुक्तम् । उत्तरत्र वसन्तादिप्वप्येवं द्रष्टव्यम् ॥७०३, ७०४ - ।। इति गुर्जरी (सु.) अथ गुर्जरीमाह-ऋषभ इति । ऋषभे स्थायिनि प्राञ्चं पूर्वस्वर कम्पितं कृत्वा, अन्यः अस्यैवार्धमुच्चार्य महद्वितीये तृतीयद्वितीयमहा गेयाः । ततः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः षड्जे हे द्वितीयं च तृतीयं सकृदाहतम् ॥ ७०५ ॥ वेगात्कृत्वाथ तुर्ये च तृतीयं तदधस्तनम् । उक्त्वा तृतीयतुयौं च तृतीयं तदधस्तनम् || ७०६ ॥ ग्रहे न्यासो वसन्तस्य स्वस्थाने प्रथमं भवेत् । तृतीयस्त्वस्य वंशेषु स्थायित्वेनोपलभ्यते ।। ७०७ ।। इति वसन्तः स्थायिनि द्विगुणे षड्जे तदर्धे लघु वादयेत् । ततस्तत्सनुदाहत्य ग्रहं तस्मात्तृतीयकम् ॥ ७०८ ॥ तुर्य चोक्त्वा तृतीयं च सकृदाहत्य तत्परम् । द्रुतं कृत्वा पञ्चमं तु विन्यास्मादधस्तनौ ।। ७०९ ॥ लघुकृत्य ग्रहे न्यासः स्वस्थाने प्रथमे भवेत् । धन्नास्या दृश्यते वंशे स्याद् द्वितीयस्वरो ग्रहः ।। ७१० | इति धन्नासी ३७१ पूर्वं कम्पितमर्थमुच्चार्य हे समाप्तौ गुर्जर्याः प्रथमं स्वस्थानम् । अन्यत् स्वस्थानं पूर्ववत् वराटीवत् ॥ ७०३, ७०४ ॥ इति गुर्जरी ( सु० ) अथ वसन्तमाह – षड्ज इति । षड्जे स्थायिनि कृते सति, द्वितीयतृतीयौ ताडितौ सकृद्वा शीघ्रं गीत्वा, चतुर्थतृतीयद्वितीयानन्तरं प्रहस्वरे समाप्तौ वसन्तस्य प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७०५ - ७०७ ॥ इति वसन्तः ( सु० ) अथ धन्नासीमाह - स्थायिनीति | स्थायिनि द्विगुणं षड्जं स्थायिनं कृत्वा तस्यार्धं शीघ्रं वादयेत् । ततस्तदर्धं सकृदाहत्य, ग्रहद्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ संगीतरनाकरः तमेव स्थायिनं कृत्वा द्वितीयं वादयेद् द्रुतम् । लघू ग्रहद्वितीयौ च कृत्वा ताभ्यां परं स्वरम् ।। ७११ ॥ विलम्ब्य स्फुरितं तु द्विर्विदध्यात्पञ्चमं ततः । अधरांस्वीक्रमादुक्त्वा स्थायिनि न्यस्यते यदा ।। ७१२ ।। देश्यास्तदाधं स्वस्थानं द्वितीयोऽस्या ग्रहो जने । इति देशी गान्धारे स्थायिनि प्रोच्य द्वितीयं च तृतीयकम् ।। ७१३ ॥ तुर्य विलम्ब्य तत्पाञ्चं कृत्वा स्पृष्टा द्वितीयकम् । दीर्घाकृत्य तृतीयं चोक्त्वा द्वितीयं ग्रहस्वरे ।। ७१४ ।। न्यासो यदा स्यात्स्वस्थानं देशाख्यायास्तदादिमम् । मुद्रितोऽम्या ग्रहो वंशे लक्ष्यते लक्ष्यवेदिभिः ।। ७१५ ।। इति देशाख्या इति रागाङ्गानि तृतीयानुच्चार्य ग्रहं सकृत्ताडयित्वा द्वितीयमाशूच्चार्य पञ्चमं विलम्ब्य तृतीयतुयौं शीघ्र गीत्वा आरोहे समाप्तौ धन्नास्याः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७०८-७१० ॥ इति धन्नासी (सु०) अथ देशीमाह-तमेवेति । षड्ज स्थायिनं विधाय द्वितीय शीघ्रं वादयेत् । तत आरोहः । ग्रहद्वितीयं लाघवेनोच्चार्य तत्परं तृतीयं स्वरं विलम्बितमुच्चार्य पञ्चमं द्विःस्फुरितं कुर्यात् । अधरात् अध:स्थितान् त्रीन् क्रमादुच्चार्य स्थायिनि यदा समाप्यते तदा देशीरागस्य प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७११, ७१२-॥ इति देशी (सु०) अथ देशाख्यामाह-गान्धार इति । गान्धारस्वरे स्थायिनि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः द्विगुणसं कृत्वा पूर्व स्पृष्ट्वा तृतीयकम् | कृत्वा स्पृष्ट्वा ग्रहं प्रोच्य तत्परं स्फुरितौ भवेत् ॥ ७१६ ।। द्वित्रिर्वाग्रहतत्पूर्वी न्यस्यते कम्पिते ग्रहे । यदा डोम्वक्रियः प्रोक्तं स्वस्थानं प्रथमं तदा ।। ७१७ ॥ सा भूपाली श्रुता लोके द्वितीयं ग्रहमाश्रिता । इति डोम्बकी: (लोके प्रसिद्धा भूपाली) चैत्र स्थायितां नीते द्विरुच्चार्य परं लघुम् || ७१८ | तं चाय प्राञ्चपस्या पूर्व पूर्व विधाय तम् । विलम्ब्य कम्पयित्वा तस्याहत्य च तन्मुहुः ॥ ७१९ ॥ ३७३ सति द्वितीयमुक्त्वा, तृतीयतुर्ये च विलम्ब्य तृतीयं गीत्वा द्वितीयं सकृदुच्चार्य तृतीयं दीर्घं विधाय, द्वितीयानन्तरं ग्रहे समाप्तौ देशाख्यायाः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ - ७१३-७१९ ॥ इति देशाख्या इति रागाङ्गानि (सु० ) अथ डोम्बक्रीमाह - प्रहमिति । द्विगुणसं द्विगुणं षड्जग्रहं विधाय पूर्व सकृद्गीत्वा, तृतीयानन्तरं ग्रहं स्पृष्ट्वा ईषदुच्चार्य, ततोऽन्तरं ग्रहं तत्परं तद् द्विःस्फुरितं विधाय कम्पिते ग्रहसमाप्तौ डोम्बक्रिया स्वस्थानम् । इयं लोके भूपालीत्युच्यते । द्वितीयश्च ग्रहः ॥ ७१६, ७१७- ॥ इति डोम्बकी: (लोके प्रसिद्धा भूपाली) (सु० ) अथ वेलावलीमाह - धैवत इति । धैवतं स्थायिनं कृत्वा अपरं द्वितीयं स्वरं लाघवेन द्विस्चार्य, तं च स्थायिनमुच्चार्य तस्य प्राच्यं पूर्वपूर्व म Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ संगीतरत्नाकरः पूर्व प्रकम्प्य तस्याध दीर्घाकृत्य ग्रहं व्रजेत् । अथोऽर्धरितौ पूर्वग्रहौ कृत्वा द्वितीयकम् ।। ७२० ॥ पोच्य स्पृष्ट्वा ग्रहं तस्मात्परं प्रोच्य प्रकम्प्य तु । तृतीयं ग्रहपाश्चात्यग्रहौ तूच्चारयेन्मुहुः ॥ ७२१ ॥ ततस्तृतीयमाकम्प्य विलम्ब्य तदधस्तनम् । ईपद्विरम्य स्पृष्ट्वा च द्वितीयं न्यस्यते ग्रहे ।। ७२२ ।। यदा तदाद्यं स्वस्थानं वेलावल्याः प्रकीर्तितम् । तृतीयग्रहता त्वस्या दृश्यते वंशगोचरे ॥ ७२३ ।। इति वेलावली पञ्चमं ग्रहमास्यायारोहिणा पञ्चमं ततः । गत्वा विलम्ब्य तं तस्मादधरं द्रुततां नयेत् ।। ७२४ ॥ ततोऽधःस्थं द्रापयित्वा स्पृष्टा च द्राषितात्परम् । तत्परं दीर्घतां नीत्वा पुनः प्रोच्यावरोहिणा ॥ ७२५ ॥ कृत्वा, अन्ते स्थायिनं विलम्बितं गीत्वा, तस्यैव स्थायिनोऽधै कम्पयित्वा, तत्पुनरारोहेण गीत्वा पूर्वस्वरं कम्पयित्वा तस्याध विधाय प्रहमागच्छेत् । ततोऽधोंच्चारितौ ग्रहाधस्तनस्वरौ विधाय द्वितीयं मुक्त्वा ग्रहमल्पं गान्धारादिकमुक्त्वा तृतीयकम्पनानन्तरं ग्रहं तदधस्तनं वा सकृदुच्चार्य ततस्तृतीयस्वरं कम्पयित्वा तदधस्तनं द्वितीयं विलम्बं च गीत्वा ईषद्विरम्य द्वितीयस्पर्शानन्तरं प्रहे समाप्तौ वेलावल्याः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ -७१८-७२३ ॥ इति वेलावली (सु०) अथ प्रथममञ्जरीमाह-पञ्चममिति । पञ्चमं ग्रहस्वरं कृत्वा आरोहेण पञ्चमपर्यन्तं प्राप्य तं पञ्चमं विलम्ब्य तस्मादधःस्थितस्वरं शीघ्रं गीत्वा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तस्मादेत्य ग्रहन्यासे स्वस्थानं प्रथमं भवेत् । रागे प्रथममञ्जर्या द्वितीयोऽस्या ग्रहो जने ॥ ७२६ ॥ इति प्रथममश्वरी स्थायिनोऽर्धात्समारुह्य तृतीयादिचतुःस्वरीम् । कम्पयित्वा विलम्ब्यापि पटतुर्य विधाय च ॥ ७२७ ।। एत्य पञ्चपमेतस्माद् ग्रहान्तमवरुह्य च । ग्रहाध ग्रहपूर्व च गत्वा स्पृष्टा ग्रहं ततः ॥ ७२८ ॥ द्वितीयं कम्पितं कृत्वा तृतीयं स्फुरितं ततः । स्यायिनि न्यस्यते यत्र स्वस्थानं स्यात्तदादिमम् ॥ ७२९ ॥ आदिकामोदिकायाः स्याद् द्वितीयग्रहता जने । इत्यादिकामोदी स्थायिनि द्विगुणे पड्जे द्विराहत्य तृतीयकम् ।। ७३० ॥ ततोऽधःस्थितं द्राधितात् परमीषत्संस्पृश्य ततः परं द्राघयित्वा पुनरुच्चार्य मारोहिणा वर्णेन ग्रहपर्यन्तप्राप्तौ प्रथममञ्जर्या: प्रथम स्वस्थानम् ॥ ७२४-७२६ ॥ इति प्रथममखरी (सु०) अथादिकामोदिकामाह-स्थायिन इति । धैवतं स्थायिनं कृत्वा ततस्तृतीयमारभ्य स्वरचतुष्टयमारोहेण गीत्वा षष्ठं स्वरं कम्पितं विलम्बितं च विधाय चतुर्थ गीत्वा पञ्चममेत्य ग्रहपर्यन्तमवरुह्य ग्रहस्वरस्य पूर्वार्ध तत्पूर्व च स्वरं प्राप्य ग्रहस्वरं स्पृष्ट्वा द्वितीयं कम्पितं कृत्वा तृतीयस्फुरणात् इतरं स्थायिनि समाप्तौ आद्यं स्वस्थानम् ॥ ७२७-७२९-॥ ___ इत्यादिकामोदिका (सु०) अथ शुद्धवराटीमाह-स्थायिनीति । षड्ज द्विरुचारितं विधाय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः त्रिश्चतुर्वा ततः स्पृष्ट्वा ग्रहं पूर्वमुदीर्य च । कम्पिते स्थायिनि न्यासात्स्वस्थानं प्रथमं भवेत् ।। ७३१ ॥ रागे शुद्धवराव्यां सा द्वितीयस्थायिका जने । इति शुद्धवराटी तमेव स्थायिनं कृत्वा तं तदधै द्विराहतम् ॥ ७३२ ।। द्विस्त्रिोक्त्वाथ द्वितीयं कम्पयित्वा विलम्ब्य च ।। आहत्य द्विश्वतुर्वास्मात्परं कृत्वा लघु ग्रहम् ।। ७३३ ।। उक्त्वा ग्रहार्धपूर्वे तु दीर्घाकृत्य ग्रहे यदा।। न्यस्यते शुद्धनट्टायाः स्वस्थानं प्रथमं तदा ।। ७३४ ।। वंशेष्वस्यामपि प्रायो द्वितीयो दृश्यते ग्रहः । इति शुद्धनद्य इति भाषाङ्गानि तृतीयमारुह्य त्रिवारं गीत्वा ग्रहस्पर्शानन्तरं पूर्वमुच्चार्य कम्पिते स्थायिनि समाप्तौ शुद्धवराव्याः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७३०, ७३१- ॥ इति शुद्धवराटी (मु०) अथ शुद्धनट्टामाह-तमेवेति । तमेव षड्ज स्थायिनं विधाय तस्यार्धं द्विस्त्रिर्वा आद्यात् अर्धस्वरमुच्चार्य ग्रहात् तृतीयं कम्पयित्वा विलम्बयेत्। अथ अस्मात्परं द्विश्चतुर्वा ताडयित्वा ग्रहं लाघवेनोच्चार्य ग्रहपूर्वोच्चारणानन्तरं दीर्वी कृते रहे समाप्तौ शुद्धनहायाः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ -७३२-७३४-॥ इति शुद्धनमा इति भाषाङ्गानि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ग्रहं द्विगुणसं प्रोच्य तदर्धे च द्वितीयकम् ॥ ७३५ ॥ विलम्बिते तृतीयेऽथ द्वितीयं द्रुततां नयेत् । ग्रहार्थे च स्थिरीभूय कम्पयित्वा ग्रहं ततः ॥ ७३६ ।। परौ स्वरौ द्रुतीकृत्य लघुकृत्य परं ग्रहे । न्यासे कृते रामकृतेः स्वस्थानं प्रथमं भवेत् ॥ ७३७ ॥ द्वितीयस्वरमेवास्या वंशे वीक्षामहे ग्रहम् । इति रामक्री : तस्मिन्नेव हे कृत्वा द्वितीयं च तृतीयकम् ॥ ७३८ ॥ ग्रहा द्रुतमुच्चार्य स्पृष्ट्वा पूर्व ग्रहस्य च । अर्ध प्रोच्य विरम्याथ पूर्व स्पृष्टा तृतीयकम् ।। ७३९ ॥ लघुकृत्य लघोः पूर्वौ स्पृष्ट्राय स्थायिनः परौ । लघुकृत्य द्रुतं कृत्वा द्वितीयं न्यस्यते ग्रहे ॥ ७४० ॥ यदा तदा गौडकृतेर्भवेत्स्वस्थानमादिमम् । द्वितीयोऽस्यामपि प्रायो ग्रहो लक्ष्येषु दृश्यते || ७४१ ॥ इति गौडकी: ३७७ 1 ( सु० ) अथ रामक्रियमाह – ग्रह इति । द्विगुणं षड्जं ग्रहं च गीत्वा तस्यार्धं द्वितीयं च स्वरमुच्चार्य तृतीयं विलम्ब्य द्वितीयं शीघ्रं गायेत् । ततो स्थिरग्रहार्धगानानन्तरं ग्रहं प्रकम्प्य परौ ग्रहौ द्वितीयतृतीयौ स्वरावाशूच्चार्य, परं च तुर्यं लाघवेन गीत्वा ग्रहे समाप्तौ रामक्रिया आद्यं स्वस्थानं भवति ॥ -७३५-७३७- ॥ इति रामक्री: ( सु० ) अथ गौडक्रियमाह - तस्मिन्निति । तस्मिन्नेव द्विगुणे षड़जे हे कृते सति, द्वितीयतृतीयौ गीत्वा ग्रहस्यार्धे शीघ्रं गीत्वा पूर्वस्पर्शात् प्रहार्धो 48 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ संगीतरनाकरः धैवते स्थायिनि प्राञ्चं ग्रहं ग्रहत्तीयकम् । तुर्य कृत्वा तमाहत्य द्वितीयं कम्पयेत्ततः ।। ७४२ ॥ अवरुह्य तृतीयादिक्रमेण चतुरः स्वरान् । ग्रहन्यासाद्देवकृतेराचं स्वस्थानमादिशेत् ।। ७४३ ॥ तृतीय ग्रहतां त्वस्याः पश्यामो वंशगोचरे । इति देवकीः इति क्रियाङ्गानि धैवतं ग्रहमास्थाय तृतीयादवरुह्य च ॥ ७४४ ॥ स्वरत्रयं विरम्याथ ग्रहं परमथ ग्रहम् । पूर्व कृत्वा तमाहत्य ग्रहन्यासेन जायते ॥ ७४५ ॥ स्वस्थानमाधं भैरव्यास्तृतीयोऽस्या ग्रहो जने । इति भैरवी चारणे विश्रम्य पूर्व किंचिद्गीत्वा तृतीयं लाघवेनोच्चार्य तत्पूर्वस्वरद्वयं स्पृष्टा, स्थायिनः परौ स्वरौ द्वौ लघुकृत्य, द्रुतद्वितीयानन्तरं प्रहे समाप्तौ गौडक्रिया आचं स्वस्थानं भवति ॥ -७३८-७४१॥ ___इति गौडक्री: (सु०) अथ देवक्रियमाह-धैवत इति । धैवते ग्रहे कृते सति पूर्वग्रहे तृतीयचतुर्थावुच्चार्य आरोहेण द्वितीयं कम्पयित्वा, अवरोहेण तृतीयादीन् चतुःस्वरान् क्रमेण गीत्वा, ग्रहे समाप्तौ देवक्रिया आद्यं स्वस्थानं भवति ॥ ७४२, ७४३-॥ इति देवकी: इति क्रियाङ्गानि (सु०) अध भैरवीमाह---धैवतमिति । धैवताद् प्रहात् तृतीयादवरुह्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्थायिनि द्विगुणे षड्जेऽधस्तृतीयं विधाय च ॥ ७४६ ॥ अधस्तनं प्रकम्प्याथ विलम्ब्य स्थायिनं ततः । प्राचीनं लघुतां नीत्वा द्विस्त्रिहत्य तं ग्रहम् ।। ७४७ ॥ लघुकृत्याधरस्यार्धमास्पृश्य ग्रहपश्चमम् । विलम्ब्य तं द्रुतीकृत्य तृतीयस्पर्शमाचरेत् ॥ ७४८ ॥ अथोक्त्वा पञ्चमं तं च दीर्घाकृत्याधरं मनाक् । कम्पयित्वा ग्रहन्यासाद्भवेत्स्वस्थानमादिमम् ।। ७४९ ॥ छायानडाख्यरागस्य ग्रहो वंशे तृतीयकः । एतां सालगनट्ठां तु भाषन्ते लक्ष्यवेदिनः ।। ७५० ॥ त्रीन् स्वरान् क्षणमात्रं विरम्य ग्रहद्वितीयग्रहतत्पूर्वानुच्चार्य तं पूर्व ताडयित्वा आहे समाप्तौ भैरव्या आद्यं स्वस्थानं भवति ॥ ७४४, ७४९- ॥ इति भैरवी (क०) छायानट्टायाम् -अधरस्यामिति । अधरोऽधस्तनः । अत्र ग्रहीभूतषड्जापेक्षयाधरो निषादः । तस्यार्घमीषत्स्पर्शनं भवति, तमीपस्पृष्टेत्यर्थः । एतां सालगनट्टां तु भाषन्ते लक्ष्यवेदिन इति । अत्र तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च । एतां विति, च्छायानट्टामेवेत्यर्थः । गमृषभाधं चेति । गं गान्धारं स्पृष्ट्वा । ऋषभार्धमिति ऋषभमीपस्पृष्टेत्यर्थः । अर्ध पुनर्बजेदिति । पुनःशब्देन तदेवर्षभार्धमिति गम्यते । ऋषभाधे द्विः कुर्यादित्यर्थः ।। -७४६-७५२- ।।। (सु०) अथ उछायानट्टामाह-स्थायिनीति । द्विगुणे षड्जे स्थायिनि कृते सति तृतीयानन्तरं स्थायिनोऽध:स्थ प्रकम्प्य स्थायिनं विलम्बन गीत्वा तत: पूर्व लघुतां नीत्वा द्वित्रिस्ताडयित्वा च लाघवेन प्रहं गीत्वा अधःस्थितस्या) स्पृष्ट्वा विलम्बितं पश्चमानन्तरमेवाशु गीत्वा तृतीयस्वरानन्तरं पञ्चम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० संगीतरनाकरः अन्ये तु पञ्चमं कृत्वा स्थायिनं रिं विधाय च । मं प्रकम्प्य स्थिरीभूय पञ्चमे द्विः पमध्यमौ ॥ ७५१ ॥ कृत्वा गमृषभाधे च संस्पृश्याधै पुनव्रजेत् । ततो दीघौं रिमौ कृत्वा ग्रहे चेन्न्यस्यते तदा ॥ ७५२ ।। आधं सालगनट्टायाः स्वस्थानं तद्विदो विदुः । इति च्छायानाट्टा मं विधाय ग्रहं तं च द्रुतीकृत्य परं ततः ।। ७५३ ॥ उक्त्वा तुर्य विलम्ब्याथ परमास्पृश्य पश्चमम् । विलम्ब्यातोऽवरोहेण ग्रहमेति यदा तदा ॥ ७५४ ॥ स्वस्थानमादिमं रामकृतेर्वेशे द्वितीयकः । ग्रहश्चिन्धमरामक्रीः सा सिद्धा लोकवत्मनि ॥ ७५५ ॥ ____ इति चिन्धमरामक्रीः मुक्त्वा तमेव दीर्घाकृत्य अधःस्थितं किंचित्कम्पयित्वा ग्रहे समाप्तौ छायानट्टायाः प्रथमं स्वस्थानं भवति । एतामिति । अत्र तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च । एतां तु लक्ष्यवेदिनः सालगनट्टामित्याहुः ॥ -७४६-७५० ॥ __(सु०) मतान्तरमाह--अन्ये त्विति । स्थायिपञ्चमानन्तरं ऋषभः ततो मध्यमं कम्पयित्वा विलम्ब्य च पञ्चमस्वरे पञ्चममध्यमौ द्विर्गायेत् । ततो गान्धारमृषभस्यार्ध च स्पृष्ट्वा पुन: ऋषभार्धं व्रजेत् । ततः रिमौ ऋषभमध्यमौ दीर्थों कृत्वा आहे न्यस्यते समाप्यते तदाद्यं स्वस्थानमिति ॥ ७५१-७५२ ॥ इति च्छायानट्टा (सु०) अथ चिन्धमरामक्रियमाह-ममिति । मध्यमं स्थायिनं कृत्वा तमेवाचार्य ततो द्वितीयमुक्त्वा चतुर्थं विलम्बन गीत्वा, परस्पर्शानन्तरं तृतीयपञ्चमौ अवरोहेण ग्रहागतौ आद्यं स्वस्थानम् || -७५३-७५५ ॥ इति छिन्धमरामक्री: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः रिमेव ग्रहमाश्रित्य द्विस्त्रिहित्य मं ततः । तं विलम्बिततां नीत्वा दीर्घाकृत्य तु मध्यमम् ॥ ७५६ ॥ रिगौ रिदलमेतानि द्रुतीकृत्य विलम्ब्य निम् । पुनरुच्चार्य तं कृत्वा धैवतं सकृदाहतम् ॥ ७५७ ॥ वादयित्वा निषादं च ग्रहन्यासेन जायते । नाट्यरामकृतेराचं स्वस्थानमिति तद्विदः ।। ७५८ ॥ अथवा मध्यमं कृत्वा ग्रहमाहत्य पश्चमम् । द्विस्त्रिाप्यवरोहेण धारक्रमादृषभं द्रुतम् ।। ७५९ ॥ एत्याध तस्य षड्जं च रेरध वादयेत्पुनः । अथोच्चार्य रिमौ पं तु विलम्ब्य न्यस्यते यहे ।। ७६० ॥ यत्र स्वस्थानमाद्यं तनाट्यरामकृतेर्मतम् । इति नाट्यरामक्री: ग्रहं कृत्वा धमाहत्य सकृद् ग्रहपरं स्वरम् ।। ७६१ ।। (सु०) अथ नाट्यरामक्रियमाह---रिमेवेति । ऋषभे रहे सति, गान्धारं द्विस्त्रिस्ताडयित्वा, विलम्ब्य च मध्यमं दायित्वा, ऋषभगान्धारौ शीघ्र गीत्वा, निषादं विलम्ब्य, पुनरुचार्य धैवतं, सकृदाहतं गीत्वा निषादानन्तरं आहे समाप्तौ नाव्यरामक्रियाः प्रथमं स्वस्थानम् || ७५६-७५८ ॥ (सु०) मतान्तरमाह-अथवेति । मध्यमग्रहानन्तरं पञ्चमं द्विस्त्रिस्ताडयित्वा धैवतादृषभपर्यन्तमाश्वागत्य, तस्यार्धमृषभस्यार्ध षड्जं च निषादार्ध च वादयेत् । ततः रिमौ ऋषभमध्यमौ विलम्बितं पञ्चमान्ते ग्रहे समाप्तिरिति ॥ ७९९, ७६०-॥ इति नाट्यरामक्री: (सु०) अथ मल्हारमाह-ग्रहमिति । धैवतं ग्रहं कृत्वा ग्रहात्परं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ संगीतरनाकरः कृत्वा महात्परौ द्विस्तु ग्रहमाहत्य पूर्वकम् । द्वितीयं च क्रमादुक्त्वा ग्रहे चेन्यस्यते तदा ॥ ७६२ ।। स्वस्थानमाद्यं मल्हारे ग्रहो वंशे द्वितीयकः । इति महलार: ग्रहं द्विगुणसं कृत्वा द्रुतीकृत्य ततोऽधरम् ।। ७६३ ॥ तमान्दोल्य द्वितीयं तु विधायाथ तृतीयकम् । स्फुरितं ग्रहतत्पूर्वी वादयित्वा ग्रहे यदा ॥ ७६४ ॥ न्यासः कर्णाटगौडस्य स्वस्थानं प्रथमं तदा। वंशे ग्रहस्तृतीयोऽस्य गृह्यते लक्ष्यवेदिभिः ।। ७६५ ॥ __ इति कर्णाटगौडः यहं तमेव सं कृत्वा प्राच्य तुर्यतृतीयको । स्थायिनं तद्दलं चोक्त्वा पूर्वस्थायिदलं ततः ।। ७६६ ॥ द्वितीयं स्वरं सकृदाहत्य ग्रहं गीयते, ततो ग्रहं विस्ताडयित्वा ग्रहात्पूर्व द्वितीय चोचार्य ग्रहे समाप्तौ मल्हारस्याचं स्वस्थानम् ॥ -७६१, ७६२- ॥ इति मल्हार: (सु०) अथ कर्णाटगौडमाह-प्रहमिति । द्विगुणे षड्जे ग्रहे सति तत्पूर्वमाशु गीत्वा, तमेवाध आन्दोल्य द्वितीयं द्विर्गीत्वा, स्फुरिततृतीयानन्तरं ग्रहं तत्पूर्व च वादयित्वा, ग्रहे न्यासे कर्णाटगौडस्य प्रथमं स्वस्थानम् ॥ -७६३-७६५ ॥ इति कर्णाटगौडः (क०) देशवालगौडे-ग्रहं तमेव समिति । पूर्वरागग्रहपरामर्शन द्विगुणं षड्जमित्यर्थः। तहलमिति । स्थायिनः प्रकृतत्वात्तच्छब्देन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टो वाद्याध्यायः स्यायिन्यासाद्देशवालगौडस्वस्थानमादिमम् । जायतेऽस्यापि वंशे तु द्वितीयो दृश्यते ग्रहः ॥ ७६७ ॥ निषादे स्थायिनि पोच्य पूर्व ग्रहमयोत्तरम् । तुर्य द्वितीयतस्तु त्रीनवरुह्य ग्रहे यदा ॥ ८६८ ॥ न्यासस्तुरुष्कगौडस्य तदा स्वस्थानमादिमम् । लोके मालवगौडोऽसौ तृतीयोऽस्य ग्रहो गतः ॥ ७६९ ।। स्थायीभूतः परामृश्यते । तस्य दलं पूर्वस्थायिदलमिति । द्विगुणशब्देन मध्यषड्जो गृहीतश्चेत्तदा पूर्वस्थायी मन्द्रषड्जः । तारषड्जो गृहीतश्चेत्तदा स्थायी मध्यषड्जः । तस्य दलमर्धम् । देशवालगौड एव केदारगौड इति जनैरुच्यते ॥ ७६६, ७६७ ॥ इति देशवालगौडः (सु०) अथ देशवालगौडमाह-प्रहमिति । सं षड्ज प्रहं विधाय चतुर्य तृतीयस्थायि तदर्धानि गीत्वा, स्थायिनः पूर्वार्धानन्तरं स्थायिनि समाप्तौ देशवालगौडस्य प्रथमं स्वस्थानम् || ७६६-७६७ ॥ इति देशवालगौडः (क०) मालवगौडे-निषादे स्थायिनीति । स्थायिनि सती त्यर्थः । पूर्वमादौ ग्रहं निषादं प्रोच्य । अयोत्तरमिति । द्वितीयमित्यर्थः ॥ ७६८, ७६९ ॥ इति तुष्कगौडः (मालवगौड इति लोके) (मु०) अथ तुरुष्कगौडमाह-निषाद इति । निषादे स्थायिनि सति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ संगीतरनाकरः निषादाद् ग्रहतां नीतादारोहेदाचतुर्यकम् । तं विलम्ब्य ततो गच्छेद् ग्रहे चेदवरोहिणा ॥ ७७० ।। तदा द्राविडगौडस्य स्वस्थानं प्रथमं भवेत् । लोके सालगगौडोऽयं द्वितीयोऽस्य ग्रहो मतः ।। ७७१ ।। पञ्चमं ग्रहमास्थाय तृतीयं च द्वितीयकम् । मुक्त्वा तृतीयं स्पृष्ट्वा च प्रान्तमुक्त्वा तृतीयकम् ।। ७७२ ॥ तत्पूर्वग्रहद्वितीयतुर्यान् गीत्वा, द्वितीयतस्त्रीन् स्वरानवरुह्य ग्रहे न्यासे तौरुष्कगौडस्य प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७६८, ७६९ ॥ इति तुरुष्कगौडः (मालवगौड इति लोके) (क०) द्राविडगौडे-लोके सालगगौड इत्युक्तम् । इदानीं तु लोके सालग इत्येतावतैव व्यवहारो दृश्यते, स कथमुपपद्यत इति चेत् ; सोऽपि भीमसेने भीम इति व्यवहारवदुपपन्न एव ॥ ७७०, ७७१ ॥ इति द्राविडगौडः (लोके सालगगौडः) इत्युपाङ्गानि (सु०) द्राविडगौडमाह-निषादादिति । ग्रहान्निषादात् स्वतुर्यस्वरपर्यन्तमारुह्य तं चतुर्थस्वरं विलम्बितं गीत्वा, अवरोहे ग्रहसमाप्तौ द्राविडगौडस्य आयं स्वस्थानम् || ७७०, ७७१ ॥ इति द्राविडगौडः (लोके सालगगोड:) इत्युपाङ्गानि (सु.) अथ कैशिकीमाह-पञ्चममिति । ग्रहपञ्चमानन्तरं द्वितीयतृतीयौ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः स्पृष्ट्वा विलम्ब्य द्वितीये न्यस्यते कम्पिते रहे । यदा भवति कैशिक्याः स्वस्थानं प्रथमं तदा ॥ ७७३ ।। तृतीयोऽस्याः स्वरो वंशे ग्रहो लक्ष्येषु दृश्यते । इति कैशिकी स्थायिनं द्विगुणं षड्ज द्रुतीकृत्य द्वितीयकम् ॥ ७७४ ॥ उक्त्वा द्वितीयतृतीयौ द्रुतीकृत्याधराधरम् । उदीर्य तं द्रुतीकृत्य द्वितीयं वादयेत्ततः ॥ ७७५ ।। तृतीयं द्विस्त्रिराहत्य स्थायिनि न्यस्यते यदा । ललितायास्तदा प्रोक्तं स्वस्थानं प्रथमं बुधैः ॥ ७७६ ॥ अस्यामपि स्वरो लक्ष्ये तृतीयो दृश्यते ग्रहः । इति ललिता इति भाषाद्वयम् गेयौ, ततस्तृतीयमीषद्गीत्वा पूर्वमुक्त्वा, तृतीयस्य स्पर्शानन्तरं द्वितीयं विलम्ब्य कम्पिते रहे समाप्तौ कैशिक्याः प्रथमं स्वस्थानम् ॥ ७७२, ७७३- ॥ इति कैशिकी (सु०) अथ ललितामाह-स्थायिनमिति । द्विगुणं षड्ज स्थायिनं शीघ्रमुच्चार्य, द्वितीयानन्तरं तृतीयद्वितीयावाशूञ्चार्य द्वितीयादधराधरं स्थायिपूर्वमुदीर्य तमेवाशु गीत्वा द्वितीयानन्तरं तृतीयं द्वित्रिवारं ताडयित्वा स्थायिनि समाप्तौ ललितायाः प्रथम स्वस्थानम् || -७७४-७७६ ॥ इति ललिता इति भाषाद्वयम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ संगीतरत्नाकरः ग्रहं द्विगुणसं कृत्वाधस्तनं स्थायिनं तया ॥ ७७७ ॥ कृत्वा द्वितीयतुर्यों च द्वितीयस्थायिनौ स्पृशेत् । विलम्बिते द्वितीयेऽथ स्थायिनि न्यस्यते यदा ।। ७७८ ।। श्रीरागस्य बुधैः प्रोक्तं तदा स्वस्थानमादिमम् । खरो वंशे द्वितीयोऽस्य ग्रहत्वेनोपलक्षितः ॥ ७७९ ॥ इति श्रीरागः यो ग्रहः क्रियते वंशे तमपेक्ष्यात्र योजयेत् । लक्षणस्थं द्वितीयादि यदा किंतु ग्रहादयः ॥ ७८० ॥ यावन्तो यत्र रागे स्युः स्वरा लक्ष्मणि तावताम् ।। संभवः स्थायिना येन स्थायिनं तत्र तं श्रयेत् ॥ ७८१ ॥ अनुग्रहाय मुग्धानामित्येते कतिचिन्मया । रागाः प्रोक्ताः पथानेन संपश्यध्वं बुधाः परान् ।। ७८२ ।। इति वंशप्रकरणम (सु०) अथ श्रीरागमाह-प्रहमिति । द्विगुणं षड्ज प्रहं विधाय तदधस्तनं च गीत्वा, द्वितीयतुर्यों द्विरुच्चार्य द्वितीयस्थायिना स्पृष्टा विलम्बितद्वितीयानन्तरं स्थायिनि न्यासे श्रीरागस्य प्रथमं स्वस्थानम् ॥ -७७७-७७९ ॥ इति श्रीरागः (क०) अथ सकलरागसाधारणन्यायं दर्शयति-यो ग्रह इति । तत्र विशेषमाह-कित्विति । यत्र यम्मिन् रागे ग्रहादयः स्वरा यावन्तः स्युः । लक्ष्मणि तद्रागलक्षणे येन स्थायिना तावतां स्वराणां संभवस्तत्र रागे तं स्थायिनं श्रयेदिति । अयमर्थः-- यस्य देशीरागस्य मन्द्रतारावधित्वेन यौ स्वरौ भवतः, तन्मध्यस्थाः स्वरास्ताभ्यां सह यावत्संख्या ये भवन्ति, तेषां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः पावो वेणुसमुत्पन्नः स्यान्नवागुलवंशवत् । कृतावेष्टो वंशपत्रैकरीत्यैष वाद्यते ।। ७८३ ॥ इति पावलक्षणम् ३८७ पाविका वैणत्री कार्या द्वादशाङ्गुलदैर्घ्यभाक् । स्थौल्येऽङ्गुष्ठमिता गर्भे स्वदैध्ये सुषिरं श्रिता ॥ ७८४ ॥ न्यूनता यथा न भवति तथा स्थायिस्वरो ग्रहः कर्तव्य इति प्रयोजनवत्त्वेनोक्तमन्यत्राप्यतिदिशन् प्रकरणमुपसंहरति - अनुग्रहायेति ॥ ७८०-७८२ ॥ इति वंशप्रकरणम (सु० ) यो मह इति । वंशे यः महत्वेन परिकल्प्यते तदपेक्षया द्वितीयादिपदं योजनीयम् । अयं तु विशेषः -- प्रहादधः स्थितस्वरा यावन्त उच्चारणीयत्वेनोक्ताः, यस्मिन् स्थायिनि कृते सति यत्र तावतां संभवः स स्थायिनमाश्रयेत् । अनुप्रहायेति । अज्ञानामनुकम्पया केचिद्रागा मया प्रोक्ताः । अनेन पथा मार्गेण हे बुधाः परान् रागान् प्रति संपश्यध्वं विचारयन्तु । मत्रावश्यं प्रतिरध्याहर्तव्यः । अन्यथा सकर्मकेऽस्य संपूर्वकस्य दृशेरात्मनेपदत्वं न सिध्यति ॥ ७८०-७८२ ॥ इति वंशप्रकणरम् (क) पावादीनां लक्षणानि प्रन्थत एव सुबोधानि ॥ ७८३-८०४॥ (सु० ) पावं लक्षयति - पाव इति । वेणुकृतो नवाङ्गुलपरिमितः वैशपत्रिकाभिरावेष्टितः पावः । एष लोकानां रीत्या वादनीयः ॥ ७८३ ॥ इति पावलक्षणम् (सु०) पाविकाया लक्ष्णमाह- पाविकेति । वेणुमयी द्वादशाङ्गुलदीर्वा मङ्गुष्ठस्थूला गर्भे स्वदैर्घ्यं कनिष्ठाप्रप्रमाणं रन्ध्रमाश्रिता पाविका कार्या । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ संगीतरत्नाकर: कनिष्ठाग्रमितस्थौल्यमस्या लोकानुसारतः । फूत्काररन्ध्रमेकं स्यात्पञ्च स्युः स्वरसिद्धये ।। ७८५ ॥ वादनं विविधं नागयक्षावेश विधायकम् । इति पाविकालक्षणम् हस्तयाधिका माने मुखरन्धसमन्विता ।। ७८६ ॥ चतुःस्वरच्छिद्रयुता मुरली चारुनादिनी । इति मुरली शृङ्गजा दावी वा स्यात्काहलाकृतिधारिणी ।। ७८७ ॥ अष्टाविंशत्यङ्गुला च दैर्ये मधुकरी शुभा । मुखरन्धं च तस्याः स्यात्तुवरीबीजसंनिभम् || ७८८ ॥ मुखरन्ध्रादङ्गुलानि त्यक्त्वा चत्वारि वंशवत् । अस्या कनिष्ठाङ्गुलिमितं स्थौल्यं लोकरीत्या एकं फूत्काररन्धं कार्यम् । पञ्च स्वरोत्पादकानि रन्ध्राणि, अनेकप्रकारं वादनं रागयुक्तवेगकारि ॥७८४,७८५-॥ इति पाविकालक्षणम् (सु० ) मुरली लक्षयति -हस्तेति । हस्तकद्वयाधिकविस्तारा मुखरेन्ध्रेण चतुर्भिश्च स्वररन्धैः प्रयुक्ता मुरली ॥ - ७८६- ॥ इति मुरली (सु० ) मधुकरी लक्षयति-शृङ्गजेति । शृङ्गजा शृङ्गकृता, दारवी वा काष्ठकृता वा काहलावत् अष्टाविंशत्यङ्गुलदीर्घा मधुकरी । तस्याः मुखरन्धं च, तुवरीबीजं संनिभम् ; तुवरी आढकी, तस्या बीजवत् कार्यम् । ततः मुखरन्ध्रात् चतुरङ्गुलानि त्यक्त्वा सप्त रन्ध्राणि कार्याणि । तेषामन्तः अन्त Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ षष्ठो वाद्याध्यायः विधाय सप्त रन्ध्राणि कुर्वीत विवरान्तरम् ॥ ७८९ ॥ तेषां च मुखरन्ध्रस्य मध्येऽधोभागसंस्थितम् ।। मधुरध्वानसिद्धथै तन्मुखरन्धे तु ताम्रजा ।। ७९० ॥ निधातव्या यवस्थूला नलिका चतुरङ्गुला । तदूर्ध्वं चक्रिका स्थाप्या दन्तजा शुक्तिनाथवा ॥ ७९१ ॥ रन्ध्रमध्ये काशमयीं यद्वा देवनलोद्भवाम् । शुक्तिकां किंचिदुन्निद्रमालतीकलिकाकृतिम् ॥ ७९२॥ मृदुलां क्षीरपाकेन क्षिप्त्वा मधुकरी ततः । वंशवद्वादयेद्रन्धं पिदधीताप्यधस्तनम् ॥ ७९३ ॥ वामागुष्ठाप्रभागेनेत्युक्तं निःशकमरिणा। इति मधुकरीलक्षणम् ताम्रजा राजती यद्वा काश्चनी सुषिरान्तरा ॥ ७९४ ॥ धत्तूरकुसुमाकारवदनेन विराजिता। हस्तत्रयमिता दैर्ये काइला वाद्यते जनैः ॥ ७९५ ॥ हाहूवर्णवती वीरविरुदोच्चारकारिणी । इति काहलालक्षणम् रालानि मुखरन्ध्रस्य मध्ये अधोभागमितानि, मधुरनादसिद्धये यववत् स्थूला, ताम्रजा ताम्रमयी नलिका चतुरझुला मुखरन्ध्र स्थापयितव्या । ततोऽध मुखरन्ध्रे गजदन्तजाता शुक्तिकृता वा चक्रिका स्थाप्या । वंशाग्रे काशमयीं देवनलोद्भवां वा शुक्तिकाम् , ईषद्विकसितमालतीकोरकसंनिभा सपयः पाकात् मृदुलां निक्षिप्य मधुकरी वंशवद्वादयेदिति संबन्धः ॥ -७८७-७९३-॥ इति मधुकरीलक्षणम् (सु०) काहलां लक्षयति-ताम्रजेति । तात्रेण राजतेन सौवर्णेन वा मध्ये Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० संगीतरत्नाकर: हस्तद्वयकता या सा सैव तुण्डकिनी मता ।। ७९६ ॥ तुरुतुर्यपि सा लोके तित्तिरी च निगद्यते । यमलं तुण्ड किन्योश्च वाद्यं वाद्यविदो विदुः ॥ ७९७ ।। इति तुण्डकिनीलक्षणम् तुण्ड कन्येव चुका स्याद्वैयें हस्तचतुष्टया । इति चुक्कालक्षणम् करेणुवदनाकारवदनं दोषवर्जितम् ॥ ७९८ ।। यन्माहिषं श्लक्ष्णं स्निग्धं सुघटितं कृतम् शृङ्गस्यानडुहस्याथ धत्तूरकुसुमाकृति ।। ७९९ ।। छिद्रसंयुक्ता धत्तरपुष्पाकारमुखी त्रिहस्तदीर्वा च काहला हाहूवर्णयुक्ता वीरबिरुदोञ्चारकारिणी जनैर्वाद्यते ॥ - ७९४, ७९५- ॥ इति काइलालक्षणम् (सु० ) तुण्डकिन लक्षयति — हस्तेति । द्विहस्तदीर्घा काहलेव तुण्डकिनी । सा लोके तुरुतुरु तित्तिरीति च उच्यते । एतद् वाद्यं यमले मिति कथ्यते ॥ -७९६-७९७ ॥ इति तुण्डकिनीलक्षणम् (सु०) चुक्कां लक्षयति - हस्तचतुष्टयदीर्घा तुण्डकिनी चुक्केत्युच्यते ॥ ७९७ ॥ इति चक्कालक्षणम् (सु० ) शृङ्गं सक्षयति — करेण्विति । हस्तिशुण्डावत् निर्दोषं मसृणं स्नेहवत् सुघटितं महिषशृङ्गं यत्, तस्य मूले अनडुहस्य वृषभसंबन्धिनः शृङ्गस्य धत्तूरकुसुवत् अष्टाङ्गुलं खण्डं न्यसेत् । अग्रतश्च द्वयगुलपरिमितं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः खण्डमष्टाष्ट्गुलं न्यस्य मूलेऽस्य ध्वनिदृद्धये । अयं द्वित्राङ्गुलं तस्य च्छित्वा फूत्काररन्ध्रकम् ।। ८०० ॥ विधाय तुथुकारेण वादयेद्विविधध्वनिम् । एतद्वै ध्वानगम्भीरं वाद्यं गोपालकेलिषु ।। ८०१ ॥ इति शृङ्गलक्षणम् छित्वा फूत्काररन्धं कृत्वा, तुथु इतिशब्देन गोपालकेलिषु वादयेदिति । एतद्वाचं ध्वानगम्भीरमित्युच्यते ॥ - ७९८-८०१ ॥ इति शृङ्गलक्षणम् निर्दोषस्योत्खातनाभेः शङ्खस्यैकादशाङ्गुलम् । शिखरं निर्मितं धातुसिक्थकाभ्यां मनोहरम् || ८०२ ॥ मूलतयापर्यन्तं ह्रस्वमानाकृति क्रमात् । मर्धागुलमितं शिखरस्य मुखे भवेत् || ८०३ || अन्तस्तु माषमात्रं स्याच्छ्वमेवंविधं सुधीः । धृत्वा कर्कटस्तेन भूरिश्वासभृतोदरम् ।। ८०४ || धुंथो दिगिदित्येतद्वर्णोद्बोधेन वादयेत् । ३९१ इति शङ्खलक्षणम् इति सुषिरवाद्यलक्षणम (सु० ) शङ्खं लक्षयति - निर्दोषस्येति । उत्खाता नाभिर्यस्य, तथाविघशङ्खस्य द्वादशाङ्गुलम्, शिखरं धातुना मधूच्छिष्टेन कार्यम् । मूलादारभ्य अग्रपर्यन्तं भासमानाकृतिरन्यूनप्रमाणम् । शिखरस्य मुखे रन्ध्रमर्धाङ्गुलप्रमाणम् । अन्तर्मध्यं माषप्रमाण भवेत् । एवंविधं शखं कर्कटकाख्येन हस्तेन धृत्वा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ संगीतरत्नाकरः मार्गदेशीगतत्वेन पटहो द्विविधो भवेत् ।। ८०५ ॥ मार्गस्थपटहस्यात्र लक्षणं तावदुच्यते । सार्धहस्तद्वयं तस्य दैर्ध्य स्यात्परिधिः पुनः ॥ ८०६ ॥ षष्टयगुलो मध्यदेशः पृथुलो दक्षिणं मुखम् । कर्तव्यं संमितं सा!रेकादशभिरङ्गुलैः ॥ ८०७ ॥ वामं तु दशभिः सार्धेः संमितं दक्षिणे मुखे । आयसं वलयं कार्य वामे वल्लीसमुद्भवम् ।। ८०८।। पाण्मासिको मृतो वत्सो यस्तस्यादाय पारिकाम् । तयावगुण्ठ्य वलयं वल्लीजं वामवक्त्रगम् ॥ ८०९ ॥ सप्तरन्ध्रान्वितं कृत्वा सुदृढैः सूक्ष्मदोरकैः ।। निक्षिप्तस्तेषु रन्ध्रेषु बन्धव्याः कलशाः श्लथम् ॥ ८१०॥ ते हेमादिमयाः सप्त दैर्येण चतुरहगुलाः । त्यक्त्वामुलानि चत्वारि वामे स्यालोहपत्रिकाम् ॥ ८११ ॥ श्वासपूर्णोदरं धुंधुंथुमादिवर्णोच्चारेण वादयेत्। कर्कटकस्य लक्षणं नृत्ताध्याये वक्ष्यते, " अन्योन्यान्तरनिष्क्रान्ता स्फुरद् गुल्मस्तु कर्कटः" इति ॥ ८०२-८०४-॥ ____ इति शङ्खलक्षणम् इति सुषिरवाद्यलक्षणम् (सु०) अथानद्धाख्यं विवक्षुः प्रथमं पटहं लक्षयितुं विभजते–मार्गेति। पटहो द्विविधः-मार्गपटहो देशीपटहश्चेति । तत्र मार्गपटहस्य लक्षणं कथ्यतेसार्धेति । साधौं द्वौ हस्तौ दीर्घता, परिधिः पुन: षष्टयगुलपरिमितः, मध्यदेश: स्थूल:, दक्षिणं मुखं साधैंकादशाङ्गुलम् । वाममुखं तु सार्धदशाङ्गुलम् । दक्षिणे मुखे लोहमयं वलयं कर्तव्यम् । वाममुखे वल्लीसमुद्भवम् । पाण्मासिकेति। यस्य तर्णकस्य जातस्य पाण्मासजातस्य पारिकामादाय गृहीत्वा, तया वल्लीज Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ३९३ अगुलत्रयविस्तारां पटहे वेष्टयेद् दृढम् । बाह्य कायस्य यचर्म पशोस्तेन घनेन च ॥ ८१२ ॥ कवलाख्येन बनीयापिहितं वदनद्वयम् । दक्षिणास्यस्य कवलं परितः कृतरन्ध्रकम् ।। ८१३ ।। रन्ध्रक्षिप्तगुणांढमाकृष्येतरवक्त्रगैः । वलये. तान्गुणान्सम्यग्वनीयादाढर्थसिद्धये ।। ८१४ ॥ वामास्यकवलान्तःस्थसप्तरन्ध्रनिवेशितैः । गुणैरावेष्टय कलशानायसैवलयैः ।। ८१५ ॥ अन्तःक्षिप्त्वा समाकृष्टैलये गाढतां नयेत् । कलशेभ्यो बहिर्वामवलयान्ते च बध्यते ।। ८१६ ॥ वेष्टनाय कटेः कच्छेत्युक्तोऽयं स्कन्ददैवतः । श्रीयज्ञपुरवर्येण पटहो मार्गसंभवः ।। ८१७ ।। इति मार्गपटहः वामवक्त्रगं वलयमवकुण्ठ्य,उभयविधं सप्तरन्ध्रयुतं कृत्वा रन्ध्रेषु क्षिप्तैः सूक्ष्मदोरकैः कलशान् श्लथं बन्धनीयाः। त इति । ते कलशाः सुवर्णादिधातुमयाः चतुरझुलदीर्घा: सप्त कार्याः । वाममुखात् अगुलचतुष्टयं परित्यज्य लोहकृतां पत्रिकामगुलत्रयविस्तारां दृढतया पटहे आवेष्टयेत् । बाह्यमिति । पशोः तर्णकस्य छागस्य वा शरीरबाह्यं यचर्म तेन निबिडेन कवलनामधेयेन पिहितं मुखद्वयं बध्नीयात् । दक्षिणेति । दक्षिणमुखस्य कवलं सर्वतः छिद्रयुतं कार्यम् । रन्ध्रेषु क्षिप्तैर्दोरकैः कलशानाकृष्य इतरमुखगतै: वलये तान् दोरकान् बध्नीयात् । वामेति । वाममुखस्य कवलं तु अन्त:स्थेषु सप्तरन्ध्रेषु निवेशितैः दोरकैः कलशानावेष्टय आयसैः लोहमयैः वलयैः अन्तर्निक्षिप्य आकृष्टे: स्वैर्दोरकैः वलयं दृढं कुर्यात् । कलशेभ्य इति । कलश:सकाशात् बहिःप्रदेशे वामवलयप्रान्ते च कलशे बध्यते । अयं पटहः कच्छेत्युच्यते । स्कन्दो गुहो दैवतं यस्य ।। -८०९-८१७- ॥ इति मार्गपटहः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ संगीतरत्नाकरः देशीस्थोऽप्येवमेव स्याद्दर्येऽसौ सार्धहस्तकः । सप्ताङ्गुलं दक्षिणास्यमन्यत्सार्धषडङ्गुलम् ॥ ८१८ ॥ आन्तरं जाठरं वाक्ष्णं पशोर्गदितमुद्दली। तया तु स्वेच्छया वक्त्रं वाममस्य निबध्यते ॥ ८१९ ॥ विशेषोऽयं भवेदस्मिन्नुभौ खादिरदारुजौ । विधोक्तोऽयं द्वयोरन्यैरुत्तमो मध्यमोऽधमः ।। ८२० ।। उत्तमः प्रोक्तमानः स्याद् द्वादशांशोनितः पुनः ।। मध्यमः षष्ठभागेन विहीनस्त्वधमो भवेत् ॥ ८२१ ।। ___ इति देशीपटहः अथाद्यवर्णाःहवर्जितः कवर्गश्च टतवर्गों रहावपि । इति षोडश वर्णाः स्युरुभयोः पाटसंज्ञकाः ॥ ८२२ ।। (सु०) एवं मार्गपटहं लक्षयित्वा देशीपटहं लक्षयति-देशीस्थ इति । मार्गपटहवत् देशीपटहः कार्यः । परं तु दीर्घत्वे सार्धहस्त: कर्तव्यः । दक्षिणं मुखं सप्ताङ्गुलम् । वाममुखं सार्धं षडङ्गुलम् । आन्तरमिति । पशोरन्तर्जठरे यत्स्थितं चर्म, वक्ष्णात् जातं वाणं तत् उद्दलीत्युच्यते । तया निर्मलया उद्दल्या वाममुखं बन्धनीयम् । एतावान् विशेष:-उभावपि पटहौ खदिरकाष्ठेन कार्यों । विधेति । अयं मार्गदेशीगतत्वेन द्विधा पटहः, प्रत्येकमुत्तमादिभेदेन त्रिप्रकारः, पूर्वोक्तप्रमाणेनोमुत्तमः, ततो द्वादशांशेन न्यूनो मध्यमः, षष्ठांशेन न्यूनोऽधम इति ।। -८१८-८२१ ॥ इति देशीपटहः (क०) उवर्जित इत्यादि । कखगघटठडढणतथदधनरह इति षोडश वर्णाः । उभयोः; मार्गदेशीपटहयोः । पाटसंज्ञका इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः संयोगवियोगाभ्यां क्रमव्युत्क्रमयोगतः । सस्वरत्वास्वरत्वाभ्यां पाटास्ते स्युरनेकधा ।। ८२३ ॥ उल्यामेव कारो देकारः कवलेऽधिकः । देशीपटहमेवाहुरिममडावजं जनाः ॥ ८२४ ॥ अष्टादशाङ्गुलः किंचिनतायो मध्यतः पृथुः । कोण: कार्यो मूलदेशे मदनाम्बरवेष्टितः ।। ८२५ ।। पद्मासनोपविष्टेन गोष्टयामूरुद्वयोपरि । संस्थाप्य मार्गपो वाद्यो वर्णोद्भवे पटुः ।। ८२६ ॥ chaarasi वाद्यते घटवाद्यवत् । कोणेन पाणिना वास्य वादनं सूरयो विदुः ।। ८२७ ।। इति पटहलक्षणम् ३९५ पटपाटा इत्युच्यन्त इत्यर्थः । संयोगविप्रयोगाभ्यामिति । संयोग: “हलोऽनन्तराः संयोगः " (पाणिनिसूत्रम् १-१-७) इत्मुक्तलक्षणः, विप्रयोगस्तद्विपर्ययः । क्रमन्युत्क्रमयोगत इति । वर्णानुपूर्व्या समुच्चारणं क्रमः, तद्विपर्ययेणोच्चारणं व्युत्क्रमः । सस्वरत्वास्वरत्वाभ्यामिति । अत्र स्वराः षड्जादय एव विवक्षिताः, न त्वकारादयः । तेषां विप्रयोगशब्देनैव गृहीतत्वात् । षड्जादिग्रहणेऽपि सस्वरमिति रागसाहित्यमेव विवक्षितम् । अन्यथा अस्वरत्वस्यापि व्यवच्छेद्याभावादनर्थकत्वमापद्येत । स्वरस्थायिशब्दस्य षड्जाद्यन्यतमस्वर-. राहित्याभावात् । अतोऽत्र स्वरशब्दो रागोपलक्षणत्वेन द्रष्टव्यः । एवमुक्तैर्विशेषणैस्तं पाटाः अनेकधा स्युरिति, बहुभेदभिन्ना भवन्तीत्यर्थः । उल्यामेव झेंकार इति । उद्दली नाम देशीपटहस्य वामवक्त्र पिधायकश्चर्मविशेष उच्यते ; तत्र वादनेन कार एवाधिक इति । पूर्वोक्तेभ्यः षोडशवर्णेभ्योऽधिक उत्पद्यत इत्यर्थः । देकारः कवलेऽधिक इति । कवलं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ संगीतरनाकरः ये पाटाः पटहे प्रोक्तास्तेषां विविधगुम्फनात् । हस्तोद्भवाः पाटभेदा हस्तपाटाः प्रकीर्तिताः ।। ८२८ ॥ ते चानन्ता न शक्यन्ते प्रत्येकं वेदितुं जनैः। प्रदर्शनार्थमेतेषु कतिचित्प्रतिपादये ॥ ८२९ ॥ नाम मार्गपटहस्य दक्षिणवक्त्रपिधायकश्चर्मविशेषः । तत्र वादनेन देंकारः पूर्ववदधिक उत्पद्यते । पद्मासनोपविष्टेनेति । पद्मासनबन्धं कृत्वोपविष्टेन पटहवादकेन ॥ ८२२-८२७ ॥ पटहलक्षणम् (सु०) अस्य वर्णानाह-डवर्जित इति । डकारेण वर्जितो हीनः, तेन कवर्गटवर्गतवर्गा रेफहकाराश्च षोडश वर्णा: पाटाः । उत्तमो मार्गदेशीपटहयोभवेत् । ते पाटाः संयोगादिविशेषेण अनेकप्रकारा भवन्ति । पूर्वोक्तायामुहल्यां झेंकार एवोत्पद्यते । कवले देंकारः पूर्वोक्तवर्णेभ्योऽधिको जायते । देशीपटहो लोके अडावज इत्युच्यते । अष्टादशेति । अस्य पटहस्य कोणः वादनकाष्ठमष्टादशाङ्गुलप्रमाणम् | अग्रे किंचिन्ननं, मध्ये स्थूलं, मूलदेशे मदनाम्बरेण सिक्थकच्छेन च त्रिवेष्टितं कार्यम् । वादनप्रकारमाह-पोति । पद्मासने लोकप्रसिद्ध उपविष्टेन वादकेन ऊर्वोनिधाय मार्गपटहो वाद्यो वादनीयः । नाटके तु अयं पटहः, अर्धमुखः घटवाद्यवद्वाद्यत इत्यर्थः । अथवा अस्य वादनं कोणेन पाणिना कार्यम् ॥ ८२२-८२७ ।। इति पटहलक्षणम् (क०) अथ पटहोद्भवान् हस्तपाटान् लक्षयति-ये पाटा इति । तेषामिति । यथायोगं झेंकारदेंकारसहितानां कादीनां षोडशवर्णानाम् । विविधगुम्फनात; संयोगादिभिर्बहुधा विविधकारणात् । हस्तोद्भवा इति हेतुगर्भितं विशेषणम् । हस्तोद्भवत्वादिति हेतुर्दष्टव्यः । कोणस्यापि हस्तव्यापाराधीन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ षष्ठो वाद्याध्यायः सद्योजातानागबन्धः स्वस्तिको वामदेवतः । अलग्नोऽभूदघोरात्तु शुद्धिस्तत्पुरुषाभिधात् ।। ८३० ॥ आसीदीशानवक्त्रात्तु समस्खलितसंज्ञकः । जाताः पञ्चेति पञ्चभ्यो मुखेभ्यः पार्वतीपतेः ॥ ८३१ ।। अतस्ते सर्वपाटानां पाटा मुख्यतमा मताः । क्रमात्तदेवता ब्रह्मविष्णुशवरवीन्दवः ।। ८३२ ॥ नागबन्धश्च पवनस्तथैकैकसराभिधौ । ततो दुःसरसंचारविक्षेपा नागबन्धजाः ॥ ८३३ ॥ सप्तत्यथ स्वस्तिकजाः स्वस्तिको बलिकोहलः। फुल्लपूर्वश्च विक्षेपः कुण्डलीपूर्वकश्च सः ॥ ८३४ ॥ संचारविखली खण्डनागबन्धश्च पूरकः । भेदाः सप्तेत्यलग्नस्य त्वेते सप्त प्रकीर्तिताः ॥ ८३५ ॥ अलग्नोत्सारविश्रामा विषमाद्या खली सरी। स्फुरी स्फुरणकश्चेति शुद्धः स्याच्छुद्धिरादिमः ।। ८३६ ।। स्वरस्फुरणकोत्फुल्लवलितावघटास्ततः । व्यापारत्वात्तदुद्भवेऽपि हस्तोद्भवत्वमेव द्रष्टव्यम् । ततवाद्ये हस्तव्यापारसद्भावे. ऽपि तत्राङ्गुलिव्यापारस्य प्राधान्यान्न हस्तोद्भवत्वव्यपदेशः ।।८२८, ८२९॥ (सु०) अधुना पटहपाटान् निरूपयति-य इति । ये पाटाः षोडशवर्णाः कवर्गादयः पूर्वमुक्ताः, तेषां विविधगुम्फनात् क्रमात् क्रमवद्योगात् हस्तेनोत्पन्ना: पाटभेदाः हस्तपाटा इत्युच्यन्ते ॥ ८२८, २८९ ॥ (क०) तेषु मुखपाटानां नागबन्धादीनामुत्पत्तिं दर्शयति-- सद्योजातादिति ॥ नागबन्धादीनां पञ्चानां नामसाम्येन नागबन्धादयो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ संगीतरत्नाकरः तकारो माणिक्यवल्ली भेदाः सप्तेति संमताः ॥ ८३७ ॥ समस्खलितकस्याद्यः समस्खलितसंज्ञकः । विकटः सदृशः पाटखली चाडुखली ततः ।। ८३८ ॥ अनुच्छल्लस्तथा खुत्तो भेदाः सप्तेति सन्त्यमी । पश्चत्रिशद्धस्तपाटास्तलपाटाश्च कीर्तिताः ।। ८३९ ॥ कोणाहतश्च संभ्रान्तो विषमार्धसमाविति । चत्वारो हस्तपाटाः स्युर्नन्दिकेश्वरभाषिताः ॥ ८४० ॥ उत्फुल्लः खलकस्तद्वत्पाण्यन्तरनिकुट्टकः । दण्डहस्तः पिण्डहस्तो युगहस्तोर्ध्वहस्तकौ ॥ ८४१ ॥ ऽवान्तरभेदाः क्रमेण द्रष्टव्याः । एकैकसराभिधाविति । एकश्चैकसराभिधश्च । तलपाटाश्चेति ; हस्तपाटानामेव संज्ञान्तरम् ॥ ८३०-८३९ ॥ (सु०) सद्योजात इति । ईश्वरस्य सद्योजातमुखात् नागबन्धाख्यः पटहो जातः, वामदेवमुखात् स्वस्तिकः, अघोरमुखादलग्नः, तत्पुरुषाच्छुद्धिः, ईशानमुखात् समस्खलित इति । एते पञ्च पाटा: ईश्वरमुखेभ्यो जाताः । तस्मान्मुख्याः । एतेषां क्रमेण देवता आह-क्रमादिति । ब्रह्मविष्णुशर्वरवीन्दवः क्रमाद् देवताः। एतेषां भेदानाह-नागबन्धश्चेति। नागबन्धपाटस्य, नागबन्धादयो विक्षेपान्ताः सप्त भेदाः । स्वस्तिकपाटस्य, स्वस्तिकादयः पूरकान्ता: सप्त मेदाः । अलग्नस्य, अलग्नादयः स्फुरणकान्ताः सप्त भेदाः । शुद्धेः, शुद्धयादयो माणिक्यवल्ल्यन्ताः सप्त भेदाः । समस्खलितस्य, समस्खलितादयः खुत्तान्ताः सप्त भेदाः । सर्वे मिलिता: पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटाः । त एव तलपाटा इत्युच्यन्ते ॥ ८३०-८३९ ॥ (क०) मतान्तरेण पटहे चतुरः पाटानुद्दिशति-कोणाहतश्चेत्यादि । पटहादिसाधारणानेकविंशतिहस्तपाटानुद्दिशति-उत्फुल्ल इत्यादि। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ षष्ठो वाद्याध्यायः स्थूलहस्तोऽर्धापाणिः पार्श्वपाण्यर्धपाण्यपि ! कर्तरीसमकर्तयौं ततो विषमकर्तरी ।। ८४२ ।। समपाणिश्च विषमपाणिः स्यात्पाणिहस्तकः । नागबन्धोऽप्यवघटः स्वस्तिकश्च समग्रहः ।। ८४३ ॥ इत्येकविंशतिहस्तपाटाः स्युः पटहादिषु । उल्लोलः पाण्यन्तरश्च निर्घोषः खण्डकर्तरी ॥ ८४४ ॥ दण्डहस्तः समनखो बिन्दुर्यमलहस्तकः । रेचितो भ्रमरो विद्युद्विलासोऽप्यर्धकर्तरी ।। ८४५ ॥ अलग्नाख्यस्ततो रेफः समपाणिरतः परम् । परिवृत्तः पोडशेति वाद्येषु पटहादिषु ॥ ८४६ ।। एतान्मायो हुडुक्कायां कुर्वते वाद्यवेदिनः । अष्टौ विषमपाटाः स्युरपाटाख्यान् ब्रुवेऽधुना ॥ ८४७ ॥ तलपहारः प्रहरो वलितो गुरुगुञ्जितः । अर्धसञ्चस्त्रिसञ्चश्च विपमोऽभ्यस्त इत्यमी ।। ८४८ ॥ स्यातामलगपाटो द्वौ सञ्चविच्छुरिताभिधौ । भ्रमरः कुश्चितश्चेति चित्रपाटावुभौ मतौ ॥ ८४९ ॥ अष्टाशीतिरिमे हस्तपाटा निःशङ्ककीर्तिताः । पटहादिसाधारणत्वेऽपि प्रायेण हुडुक्कागतान् षोडश पाटानुद्दिशति-उल्लोल इत्यादि । अपाटापरसंज्ञकानष्टौ विषमपाटानुद्दिशति-तलपहार इति । अथापरांश्चतुरः पाटानुद्दिशति-सश्चेत्यादि । मिलितां हस्तपाटसंख्यामाह-अष्टाशीतिरिति ॥ ८४०-८४९- ॥ (सु०) मतान्तरेण पटहे पाटभेदानाह-कोणाहत इति । कोणाहतादयश्चा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० संगीतरत्नाकर: शिववक्त्रोत्थपादानां स्वरूपं प्रतिपादये ।। ८५० ॥ तेषामुत्पादकान्पाणी लोकतो लक्षयेत्सुधीः । तद्यथा - ( १ ) टनगिन गिननगि, इति नागबन्धः, (२) ननगड गिडदगि, इति पवन:, (३) गिडगिड गिडदत्था, इत्येकः, (४) किटतत २, इत्येकसरः, (५) नखु नखु, इति दुःसरः, (६) खिरत किट, इति संचार:, (७) योंगि योंथि, इति विक्षेपः । इति सद्योजातोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः त्वारः पाटाः नन्दिकेश्वरप्रोक्ता हस्तपाटाः । उत्फुल्लादयः समग्रहान्ता एकविंशतिः पटहादिषु हस्तपाटाः | उल्लोलादयः परिवृत्तान्ताश्च षोडश । तलप्रहारादयोऽष्टौ विषमपाटाः, त एव अपाटा इत्युच्यन्ते । सञ्चविच्छुरितौ चालग्नपाटौ स्याताम् । भ्रमरकुञ्चितौ च चित्रपाटौ । एवमष्टाशीतिर्हस्तपाटाः ॥ ८४०-८४९ ॥ (क०) अथ नागबन्धादीनां पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटानां स्वरूपाणि लोकप्रसिद्धया दर्शयति - शिववक्त्रोत्थेत्यादि । तत्रैकसख्ये हस्तपा किटततेति वर्णान् लिखित्वा अनन्तरं द्वयको लिखितः । तेन तेषां द्विरुच्चारणमवगन्तव्यम् । किटतट, किटतटेति । एवं सर्वत्र पाटसंख्याङ्कान् विहाय मध्ये विन्यस्तैः द्वयादिसंख्याङ्कः तत्पूर्वस्य वर्णसमुदायस्य द्विरुच्चारणादिकं द्रष्टव्यम् ॥ ८५०, ८५० ॥ (सु० ) तत्र ईश्वरमुखोद्भवानां पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटानां स्वरूपं प्रतिज्ञाय कथयति - शिववक्त्रोत्थेत्यादिना । क्रमेण तेषां लक्षणान्याह - तद्यथेति । तत्र नागबन्धादयो विक्षेपान्ताः सप्त हस्तपाटा यथा -- टनगिन गिननगि इति नागबन्ध: ( १ ) ; ननगिड गिडदगि इति पवन : (२); गिडगिड गिडदत्था इत्येकः (३) किटतट २ इत्येकसर : ( ४ ) ; नखु नखु इति दु:सर: (१) ; खिरतकिट इति संचार : ( ६ ) ; थोंग थोंथि इति विक्षेप: (७) इति सद्योजातोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः ॥ १ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ४०१ (१) ततकिटकि, इति स्वस्तिकः, (२) यों हंता, इति बलिकोहलः, (३) योगिन थोंगिन थोगिन, इति फुल्लविक्षेपः, (४) थोंथों गोंगों, इति कुण्डलीविक्षेपः, (५) पोंगिणतत्ता, इति संचारविलिखी, (६) किटयोंथों गिनखेंखें, इति खण्डनागबन्धः, (७) टकु झंझें, इति पूरकः । इति वामदेवोद्भवाः सप्त हस्तपाटा: (१) नग गिडगिड दगिदा, इत्यलग्नः, (२) दत्थरिकि दत्थरिकि, इत्युत्सारः, (३) तकि धिकि तकि धिकि, इति विश्रामः, (४) टगुनगु टगुनगु, इति विषमखली, विषमस्खलितो वा, (५) खिरितु खिरितु, इति सरी, (६) खिरि खिरि, इति स्फुरी, (७) नरकित्थरिकि, इति स्फुरणः । इत्यघोरोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः (१) दरिगिड गिडदगिदा, इति शुद्धिः, (२) टटकुटट, इति (सु०) स्वस्तिकादय: पूरकान्ताः सप्त पाटभेदा यथा-ततकिटकिट इति स्वस्तिकः (१); थो हंता इति बलिकोहलः (२); थोगिन थोगिन थोगिन इति फुलविक्षेपः (३); थोथों गोंगों इति कुण्डलीविक्षेपः (४); थोंगिणतत्ता इति संचारविलिखी (५) किटथोंथों गिनखेंखे इति खण्डनागबन्ध: (६); टकु झेंझें इति पूरकः (७) वामदेवोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः ॥ २ ॥ (सु०) अलग्नादयः स्फुरणान्ताः सप्त पाटभेदा यथा-ततकिट दगिडदा इत्यलग्नः (१); दत्थरिकि दत्थरिकि इत्युत्सारः (२); तकि धिकि तकि धिकि इति विश्रामः (३); टगुनगु टगुनगु इति विषमस्खलित: (४); खिरितु खिरितु इति सरी (५); खिरि खिरि इति स्फुरी (६) नरकित्थरिकि इति स्फुरणः (७) इत्यघोरोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः ॥ ३ ॥ (सु०) शुद्धादयो माणिक्यवल्ल्यन्ताः सप्त पाटमेदा यथा-दरिगिड गिड Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: स्वरस्फुरणः, (३) ननगिन खरिखरि, इत्युच्छल:, (४) दखें दखें दर्खे खे, इति वलितः, (५) यों गिनगि यों गिनगि, इत्यवघटः, (६) तत्ता इति तकारः, (७) विधि, इति माणिक्ययल्ली । इति तत्पुरुषोद्भवाः सप्त पाटा : ४०२ (१) तझें तझें झें, इति समस्खलितः, समस्खली वा, (२) गिरिग्ड गिरिग्ड, इति विकटः, (३) किणकिणकि, इति सदृशः, (४) विधिक्टिकि, इति खली, स्खलितो वा, (५) दिगिनगि दिगिनगि, इत्यडुखली, अडुस्खलितो वा, (६) घरकट घरकट, इत्यनुच्छलः, (७) दोनकट दोनकट, इति खुत्तः । इतीशानोद्भवाः सप्त पाटाः इति सदाशिवपञ्चवक्त्रोद्भवाः पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटाः दगिदा इति शुद्धि: (१) ; टटकुटट इति स्वरस्फुरण: (२); ननगिन खरिखरि इत्युत्फुल्ल : (३); देखे देखे खे इति वलितः (४) यों गिनगि धों गिनगि इत्यवघटः (५) तत्ता इति तकार : ( ६ ) धिधि इति माणिक्यवल्ली (७) इति तत्पुरुषोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः ॥ ४ ॥ (सु० ) समस्खलितादय: खुत्तान्ताः सप्त पाटभेदा यथा-तझें तझें झें इति समस्खलितः, समस्खली वा (१); गिरिग्ड गिरिग्ड इति विकट : ( २ ) ; किणकिक इति सदृश: (३); विधिकिडकि इति पाटखली, पाटस्खलितो वा ( ४ ) ; दिगिनगि दिगिनगि इत्यङ्गुखली, अस्खलितो वा ( ५ ) ; धरकट धरघट इत्यनुच्छलः (६); दोनकट दोनकट इति खुत्त: (७) इतीशानोद्भवाः सप्त हस्तपाटाः । एवं सर्वे मिलित्वा पञ्चत्रिशद्धस्तपाटा भवन्ति ॥ ५ ॥ - ८५०, ८५० - ॥ इति सदाशिवपश्ववक्त्रोद्भवाः पश्चत्रिंशद्धस्तपाटाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः कनिष्ठाङ्गुष्ठसंयोगाच्छेषाङ्गुलिविवर्तनात् ।। ८५१ ।। "कोणाहतो हस्तपाटः शार्ङ्गदेवोदितो यथा । खुखुंदरि खुखुंदर करगिड करगिड | इति कोणाहत : (१) सर्वाङ्गुल्यप्रघातश्च सर्वाङ्गुलविवर्तनम् ।। ८५२ ।। यस्य निष्पादकं सोऽत्र संभ्रान्तः कथितो यथा । दरगड दरगड गिरिगिडद दाणकिट मटटकु | इति संभ्रान्तः (२) चलनं मणिबन्धस्य पताकस्याथ कम्पनम् ।। ८५३ ॥ पादकम्पोsथ जनको यस्यासौ विपमो यथा । दहें दहें खुखुंद खुखुं दहें ततकि ततकि । इति विषमः (३) पूर्वलक्ष्मविपर्यासाद्भवेदर्घसमो यथा ॥ ८५४ ॥ ददगिद गिगिरिक्टिदगियों थों गियोंगद । इत्यर्धसमः (४) इति नन्दिकेश्वरोताश्चत्वारो हस्तपाटाः । ४०३ (क) नन्दिकेश्वरोक्तानां पाटानां स्वरूपं वादनप्रकारपूर्वकं दर्शयति - कनिष्ठाङ्गुष्ठेत्यादि ॥ - ८५१-८५४ ॥ (सु० ) तत्र नन्दिकेश्वरप्रोक्तं कोणाहतादिपाटचतुष्टयं लक्षयतिकनिष्टेति । कनिष्ठाङ्गुष्ठैः संयोगात् अपरासामङ्गुलीनां विवर्तनात् कोणाहताख्यो हस्तपाटो जायते । सर्वासामङ्गुलीनामप्रैर्वातः विवर्तनं च यन्निष्पादयति स Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः उत्फुल्लो नखराघातादलपद्मस्य जायते । कन्हें कहें। इत्युत्फुल्लः (१) यदा प्रसारितागुष्ठः शुक्रतुण्डस्य हन्यते ।। ८५५ ।। विरलागुलिभिर्वायं क्रमेण खलकस्तदा। दांगिड गिडदगिदा। इति खलक: (२) यस्तु दक्षिणहस्तस्य तर्जन्यङ्गुष्ठघाततः ॥ ८५६ ॥ क्रमव्युत्क्रपघातात्तु वामहस्तेन रेफवत् । जायते शाङ्गिणोक्तोऽसौ पाण्यन्तरनिकुट्टकः ।। ८५७ ।। दगिडदां खरिक्कदा खरिक्क खरिक्कदादां स्वरिखरिदां गिडदा । ___इति पाण्यन्तरनिकुट्टक: (३) संभ्रान्तः । मणिबन्धरूपस्य कटिपूर्वप्रदेशस्य चलनं पताकहस्तावकम्पनं च ईदृक् यश्च यस्य जनको निम्पादक: स विषमः । एतल्लक्षणविपर्ययेण अर्धसमः ॥ -८९१-८५४ ॥ इति नन्दीश्वरोक्ताश्चत्वारो हस्तपाटा: (क०) अथैकविंशतिं हस्तपाटान् दर्शयति-उत्फुल्ल इत्यादि । अलपयस्य नखराघातादिति । " व्यावर्तिताख्यकरणं कृत्वैव समवस्थिताः । यस्याङ्गुल्यः करतले पार्श्वगाः सोऽलपल्लवः ।। अलपद्मः स एव स्यादङ्गुलीनां तु केचन । अस्य व्यावर्तितस्थाने परिवर्तितमचिरे (७-१४६)" Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ऊर्ध्वघातं पताकेन कृत्वैकमथ रेफतः । कृतौ यत्रोर्ध्वघातौ द्वौ दण्डस्तो भवेदसौ || ८५८ || दातरिकिट दां खरिखरिदां । इति दण्डहस्त: ( ४ ) क्रमाद्रेफोर्ध्वहस्ताभ्यां पिण्डहस्तः प्रजायते । परिक थरिकटझें | इति पिण्डस्त : ( ५ ) रेफात्मभ्यां कराभ्यां चेदूर्ध्वघातद्वयं पृथक् ।। ८५९ ।। क्रियते पाटनिष्पत्यै युगहस्तस्तदा भवेत् । दांदां । इति युगहस्त: ( ६ ) ऊर्ध्वहस्तो दक्षिणेन तलेनोद्गाढघातकः || ८६० । दरगड दांदां । इत्यूर्ध्वस्त: (७) ४०५ इत्यलपद्महस्तस्य लक्षणं वक्ष्यति । तस्य नखराघातादिव्यावृत्तिकरणेन कृतादित्यर्थः । उत्तरत्रापि वादनोपयोगित्वेनोत्तानां हस्तानां लक्षणानि नृत्ताध्यायत एवावगन्तव्यानि ॥ ८५५-८६० ॥ (सु०) उत्फुल्लादीनामेकोनविंशतिहस्तपाटान् लक्षयति - उत्फुल्ल इति । अलपद्मसंज्ञिकस्य हस्तस्य नृत्ताध्याये वक्ष्यमाणस्य नखावातात् उत्फुल्लः (१) प्रसारितोऽङ्गुष्ठो यस्मिन् तथाविधस्य वक्ष्यमाणशुकतुण्डाख्यहस्तस्य विरलाभिरङ्गुलीभिः क्रमेण यदा वाद्यते तदा खरकः (२) दक्षिणहस्ते तर्जन्यङ्गुष्ठया ताडितवामहस्तस्य च पूवोक्तरेफवत् कमाघातेन व्युत्क्रमा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ संगीतरत्नाकरः ऊर्ध्वघातद्वयं कृत्वा तलहस्तेन हन्यते । यदा वाद्यपुटद्वन्द्वं स्थूलहस्तस्तदोदितः ।। ८६१ ॥ खुखुंद खुंटुंद । इति स्थूलहस्त: (८) अर्धापाणिरर्धाभ्यां करयोस्ताडनाद्भवेत् । खुदां खुदां । इत्यर्धार्धपाणिः (९) वादनं नखराग्रेण पार्श्वपाणिरुदाहृतः ॥ ८६२ ॥ थरगिड दागिड दगिड दगिड । ___ इति पार्श्वपाणि: (१०) अर्धपाणिर्भवेदेककराग्रकृतताडनात् । दगिड दगिड दरगिड दरगिड । इत्यर्धपाणिः (११) (क०) वायपुटद्वन्द्वमिति । वाद्यस्य पटहादेः पुटद्वन्द्वं वामदक्षिणमुखद्वयम् ॥ ८६१-८७० ॥ घातेन वा यत्र जायते स पाण्यन्तरनिकुटकः (३) पताकाख्येन वक्ष्यमागहस्तेन ऊर्बप्रदेशे घातं कृत्वा सर्वाङ्गुलीकृतरेफहस्तेन द्वौ घातौ यत्र क्रियते असौ दण्डस्त: (४) क्रभेण रेफस्योर्ध्वहस्तस्य च करणे पिण्डहस्त: (५) रेफाभ्यां हस्ताभ्यामूर्ध्वघातद्वयं पाटनिष्पत्त्यर्थ पृथक् क्रियते चेत् तदा युगहस्त: (६) दक्षिणहस्तेन तीव्रवातात् ऊर्ध्वहस्त: (७) ऊर्ध्व घातद्वयं विधाय तलहस्तेन यदा वाद्यस्य फुटद्वयं हन्यते तदा स्थूलहस्त: (८) करयोरर्धाभ्यां ताडने कृते सति अर्धाधपाणि: (९) नखाग्रेण वादनं पार्श्वपाणि: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः प्रचालनाद्वामहस्ताङ्गुलीनां कर्तरी मता ।। ८६३ ॥ टिरि टिरि टिरि किटयों दिगिदा तिरि टिरि किट झें तकिकिट । इति कर्तरी (१२) कर्तरीभ्यां समं घातः कराभ्यां समकर्तरी । झिनकिट कनकिट किटझेंथों दिगिद तिरिटि तिरिटिकि । ___ इति समकर्तरी (१३) क्रमेण ताडनाद् द्वाभ्यां भवंद्विपमकर्तरी ।। ८६४ ।। टिरि टिरि थों दिगिद टिरि टिरि किद । इति विषमकर्तरी (१४) अङ्गुष्ठाङ्गुलिसंघातौ हम्तयोर्युगपद्यदा । पीडयेतां पुटद्वन्द्वं समपाणिस्तदा भवेत् ॥ ८६५ ।। दां गिड गिड दांदा । इति समपाणि: (१५) व्यत्ययावयापृतौ हस्तौ साङ्गुष्टाङ्गुलिभिः क्रमात । यस्मिन्विपमपाणि तं ब्रूने शंकरवल्लभः ।। ८६६ ॥ दांदा गिड गिड दादां। इति विषमपाणि: (१६) (१०) एकस्य करस्याप्रेग ताडनेन अर्धपाणि: (११) वामहस्तस्य अङ्गुलिचालनात् कर्तरी (१२) कर्तरीद्वयेन समकालं घातात् समकर्तरी (१३) द्वाभ्यां कराभ्यां क्रमेण ताडने विषमकर्तरी (१४) पुटद्वयं पीडयित्वा हस्तयोरङ्गुष्टाङ्गुलिघाते समपाणिः (१५) द्वौ हस्तौ अङ्गुष्टसहिताभिरगुलीभि: व्यत्ययात् व्यापृतौ, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ संगीतरत्नाकरः सपपाणेस्तु विरलाङ्गुलित्वे पाणिहस्तकः । तरगिड दरगिड । इति पाणिहस्तकः (१७) नागबन्धो विपर्यासात्पुटयोः करघाततः ।। ८६७ ।। प्रत्येकं वा पुटद्वन्द्वे कराभ्यां ताडनादयम् । इति नागबन्धः (१८) तलेन हत्वा प्रहरेत्साङ्गुष्ठाङ्गुलिभिः क्रमात् ॥ ८६८ ।। पुटमेकैकपाणिश्चेद्भवेदवघटस्तदा । ततगिड गिड दगिटन गिनगिननगि । इत्यवघट: (१९) पुटमेकं निहन्यातां स्वस्तिके स्वस्तिकौ करौ ॥ ८६९ ।। तकिट तकिटतकि। इति स्वस्तिकः (२०) समं करतलाभ्यां तु पुटघातात्समग्रहः । तले केचिदिह पाहुरङ्गुष्ठागुलिवर्जिते ॥ ८७० ॥ तकिट किटतक । इति समग्रहः (२१) इत्येकविंशतिहस्तपाटाः। दक्षिगहस्तो वामतः, वामो दक्षिणत: तदा विषमपाणि: (१६) समपणिर्विरलागुलित्वे पाणिहस्तकः (१७) करयोविपर्यासात् कराघातात्पुटयोः प्रत्येक पुटद्वयताडनादयं नागबन्धः (१८) एकैकेन हस्ततलेन घातं कृत्वा अङ्गुष्ठसहिताङ्गुलीभिः क्रमात् यदा प्रहारं करोति तदा अवघट: (१९) स्वस्तिक Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ षष्ठो वाद्याध्यायः लोलो व्यवहिताङ्गुष्ठो दक्षिणो यस्य साधकः । वामश्चोच्छलितो हस्तमुल्लोलं तं प्रचक्षते ॥ ८७१॥ अङ्गुष्ठमध्यमन्येऽत्र ब्रुवते दक्षिणं करम् । पुटमध्ये दक्षिणेन साङ्गुष्ठेन हतिं परे ।। ८७२ ॥ झेयां झेंथां थांथां झें । इति लोलः (१) व्यङ्गुष्ठो दक्षिणो हस्तः पुटे चेन्मुहुरुल्लसेत् । खपुटं पीडयेद्वामस्तदा पाण्यन्तरो भवेत् ॥ ८७३ ॥ विश्लिष्टाङ्गुलिसंचारमगुष्ठार्धाधताडनम् । पाण्यन्तरस्य जनकं केचिदाचक्षते बुधाः ॥ ८७४ ॥ संज्ञको द्वौ करौ एकं पुटं हत्वा नृत्ताध्याये वक्ष्यमाणस्वस्तिकावन्ते भवेताम् , इति स्वस्तिकः (२०) करतलाभ्यां समकालं पुटे हन्यमाने समग्रहः (२१) इह केचित् अगुष्ठाङ्गुलिवर्जितं तलमाहुः ॥ ८५५-८७० ॥ इत्येकविंशतिहस्तपाटा: (क०) अथ प्रायिकहौडुक्कान् षोडश हस्तापाटान् दर्शयति-लोलो व्यवहिताङ्गुष्ठ इत्यादि ॥ ८७१-८८६ ॥ (सु०) षोडश प्रायिकहौडुक्कपाटान् लक्षयति-लोल इति । दक्षिणो हस्तो व्यवहिताङ्गुष्ठः, वामहस्तश्चोच्छलितः, यस्य साधकः यं साधयति स लोलः । अन्ये त्वाचार्याः अङ्गुष्ठो मध्यस्थो यस्य तथाविधं दक्षिणहस्तमाहुः । केचिदङ्गुष्ठसहितेन दक्षिणहस्तेन हतिमाघातमाहु: (१) अङ्गुष्ठेन विना दक्षिणो हस्तः पुटमध्ये पुनरुल्लासं प्राप्नोति, वामहस्तश्च स्वपुटं पीडयति चेत्, तदा पाण्यन्तरः । केचिद् विरलागुलिसंचारो यस्मिन् , तथा विश्लिष्टाश 52 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अन्ये पाण्यन्तरं प्राहुर्व्यङ्गुष्ठाद्युक्तलक्षणम् । हस्तान्तरं ततो भिन्नं विश्लिष्टादिकलक्षणम् ॥ ८७५ ॥ नखे नखे नखें खेखेखें नखे नखे नखे खेखेंखेंखें खं खुंद खुंद । इति पाण्यन्तर: (२) कोणघातेन निर्घोषं निःशङ्कः समभाषत । नखखि थोंथों दिगिदा। इति निर्घोषः (३) घातादक्षिणहस्तेन विरलाङ्गुलिना ततः ॥ ८७६ ॥ अङ्गुष्ठघातैमेन पीडनात्खण्डकर्तरी । दां खुखुदां२ खुखुग थोंट दें झेंदों गिथोंटे । इति खण्डकर्तरी (४) अमुल्यौः पीडयित्वाङ्गुष्ठेन परिघटनात् ।। ८७७ ॥ वामेन पीडनाद्वाये दण्डहस्तोऽभिजायते । खुखुणं खुखुणं झेंद्रझेंद्र टिरिटिरि । इति दण्डहस्त: (५) समत्वं पाटवर्णानामगुलीनखराहते ॥ ८७८ ॥ लिना अर्धार्धताडनं पाण्यन्तरं जनयतीत्याहुः । अपरे तु अङ्गुष्ठाद्युक्तलक्षणहीनमन्ते हस्ते मध्ये लग्नं पूर्वोक्तलक्षणमेवमाहुः (२) कोणेन घाते कृते सति निर्घोषः (३) विरलाङ्गुलिना दक्षिणहस्तेन घातात् वामेनागुष्ठघातै: पीडनात् खण्डकर्तरी (४) दक्षिणहस्तेन अङ्गुल्यप्रैः पीडनानन्तरमङ्गुष्ठेन घट्टनं वामहस्तेन पीडनं चेत् , तदा दण्डहस्त: (१) अङ्गुलीभिर्नखैश्च संघातात् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः दृश्यते यत्र तं प्राहुः पाटं समनखाभिधम् । रह रह तरकिट धिकिट तकिधकि टेहेटहेंत्रः । । इति समनख: (६) अवष्टभ्य पुटं वामपाणिना तर्जनीहते ॥ ८७९ ॥ बिन्दुरुत्पद्यते प्रोक्तमिति सोढलमूनुना। देदिगि देदिगि गिरिगिड २ । इति विन्दुः (७) समवष्टभ्य वामेन पुटं दक्षिणपाणिना ॥ ८८० ॥ संपीडनं वादयेच्चेत्तदा यमलहस्तकः । कुंद कुंद झेंद्र झेंद्र झेहे झेंहें । ___ इति यमलहस्त: (८) उत्तुङ्गीकरणं वाद्ये स्कन्धस्य स्फुरणं तथा ।। ८८१ ॥ अङ्गुष्ठतर्जनीघातः पाटं कुर्वन्ति रेचितम् । देंदें थांथों देंदें नखो३ नहनझें । इति रेचित: (९) भ्रमरो हस्तपाटः स्यात्समस्ताङ्गुलिताडनात् ॥ ८८२ ।। खेखेणं खुखुणं खु३ णं झेंद्र२ णह करें झें । इति भ्रमरः (१०) पाटवर्णानां साम्यं यत्र, स समनखः (६) वामहस्तेन पुटं धृत्वा दक्षिणतलेन घातात् बिन्दुः (७) वामेन पुटं धृत्वा दक्षिणेन संपीडनात् यमलहस्त: (८) वामस्यो करणं, स्कन्धस्य स्फूर्तिः, अङ्गुष्ठेन तर्जन्या च घात:, एतै रेचिताख्यं पाटं यत्र जनयन्ति स रेचित: (९) समस्ताङ्गुलीनां भ्रमररूपताड Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ संगीतरमाकरः अङ्गुष्ठतर्जनीघाताद्वलितार्धिहस्तकः । विद्युद्विलासो भणितो विद्युद्विलसितोऽथवा ।। ८८३ ॥ तणे३ तिर झोंझों द्रि३ त्रां। इति विद्युद्विलासः (११) तर्जनीमध्यमानामा विरलाः प्रहरन्ति चेत् । श्रीश्रीकरणनाथेन तदा प्रोक्तार्धकर्तरी ।। ८८४ ॥ दोखुंटुं३ ग्रेह घेट३ झेहें घिगिगि थोटें । इत्यर्धकर्तरी (१२) हस्तौ न कुण्डलीलग्नौ यत्रालग्नं तमूचिरे । खुंटुं२ नखें झेहेगिर थोटें। इत्यलमः (१३) स्याद्रेफ स्कन्धसञ्चेन समस्ताङ्गुलिघाततः ।। ८८५ ।। हनथों झेंझें द्रं२ झेंद्र झेंहेंद्र। ___ इति रेफ: (१४) समपाणिरविश्रान्तविरलागुलिघाततः । ननगि२ देगि यों गिनहर झें । इति समपाणिः (१५) नात् भ्रमरः (१०) अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां घातात् वलितार्धार्धहस्तकेन वादने विद्युद्विलास:, विद्युद्विलसितो वा (११) तर्जन्यादयस्तिस्रोऽङ्गुलयो विरलाः प्रहारे कुर्वन्ति चेत् , तदा अर्धकर्तरी (१२)हस्तौ कुण्डली सर्पाकारत्वेन यत्र लग्नौ सोऽवलमः (१३) स्कन्धनत्या समहस्ताङ्गुलिघातात् रेफ: (१४) अनवरतं विरलाङ्गु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वायाध्यायः परिवृत्तो हस्तपाटः स्यात्पुटद्वन्द्वताडनात् ॥ ८८६ ।। झें थों४ गिणना३ । इति परिवृत्तः (१६) इति षोडश प्रायिकहौडकहस्तपाटाः । तलपहारहेतुः स्याद्वामस्कन्धपचालनम् । मध्येवामपुटं वामपाणिना च निपीडनम् ॥ ८८७ ॥ दें यों दें घिकिट किट झेंधितिरि२ त्रा। ___ इति तलप्रहारः (१) तलागुष्ठपहारेण प्रहरोऽभिहितो बुधैः । झेदां थों गिदिगिद२ किट धो धों ।। __इति प्रहरः (२) ऊर्ध्वाये पटहादौ तु तर्जन्यगुष्ठधारिते ॥ ८८८ ॥ लिघातात् समापाणिः (१५) पुटद्वयताडनात् परिवृत्त: (१६) ॥ ८७१-८८६ ॥ इति षोडश प्रायिकहौडुक्कहस्तपाटा: (क०) अथापाटाख्यानष्टौ पाटान् दर्शयति-तलपहारहेतुरित्यादि ॥ ८८७-८९२.॥ (सु०) अथाष्टौ अपाटाख्यहस्तपाटान् लक्षयति-तलेति । वामस्कन्धेन चालनं वामपुटस्य मध्ये मध्येवामपुटम् , “पारे मध्ये षष्ठया वा” (पाणिनिसूत्रम् २-१-१८) इति समासः । तत्र वामपाणिना पीडनं च तलप्रहाराख्यस्य हेतु: कारणम् , इति तलप्रहारः (१) तलेनाङ्गुष्ठेन च प्रहारेण प्रहराख्यः पाटः, इति प्रहरः (२) ऊर्ध्वाग्रे पटहादौ पटहे हुडुक्कायां वा तर्जन्यङ्गुलीभ्यां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ संगीतरत्नाकरः वादनेन समुद्भतमपाट वलितं विदुः । खुंखुदरि२ दां योगि योगि। इति वलित: (३) अङ्गुष्ठानामिकाभ्यस्तवलनादक्षिणे पुटे ॥ ८८९ ॥ उच्छासाद्वामपाणेश्च जायते गुरुगुञ्जितः । थुकर४ थोरगिडिदार घिकि थोंटें। इति गुरुगुजित: (४) कम्पनं वामपादस्य नितम्बचलनं तथा ॥ ८९० ॥ उच्छ्रासनं करतलस्यार्धसश्चमपञ्चकम् । खें खें दरि२ खें खेटः२ । इत्यर्धसञ्च: (५) त्रिकस्य चलनाद्वामाङ्गुष्ठस्य परिघट्टनात् ॥ ८९१ ॥ स्कन्धसञ्चाच्च संजातं त्रिसञ्चं परिचक्षते । खेंद खें खें दखेंद। इति त्रिसच: (६) धारिते सति यद्वादनं तस्मात् वलिताख्योऽपाटो जायते, इति वलित: (३) दक्षिणे पुटे अङ्गुष्ठानामिकाभ्यामभ्यस्तात् पुन:कृतात् वलनात् वामपाणेरुच्छासाच्च गुरुगुञ्जित उत्पद्यते, इति गुरुगुजितः (४) वामपादस्य कम्पः, तथा नितम्बस्य चलनम् , करतलस्योच्छासः, एते अर्धसञ्चाख्यमपाट प्रपञ्चयति, इत्यर्धसञ्च: (५) त्रिकस्य :चलनम् , वामाङ्गुष्ठस्य परिघट्टनम, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः हस्तवैषम्यसंजातो विषमः संमतः सताम् ॥ ८९२ ॥ खेदंधरि२ थों दिगिधरिखें४ खरकट२ । इति विषमः (७) अपाटोऽभ्यस्तसंज्ञस्तु भवेत्करविवर्तनात् । खणगिणखङ्गि२ तकिधिकित्त । इत्यभ्यस्त: (C) इत्यष्टावपाटाख्या हस्तपाटाः । अर्धाङ्गुल्यप्रघातोत्थं सञ्चमाचक्षते यथा ॥ ८९३ ॥ थुकर२ गिणणं२ । इति सञ्चः (१) करसश्चेन शुद्धेनाङ्गुष्ठघातेन च क्रमात् । उत्पन्नोऽलगपाटः स्यानाम्ना विच्छरितो यथा ॥ ८९४ ॥ झेंद्र २ झेंगिरि गिडिदा नगिरि गिडनम् । इति विच्छुरित: (२) स्कन्धस्येषन्नमनम् , एतेभ्यस्त्रिसञ्चो जायते, इति त्रिसश्च: (६) हस्तवैषम्येणोत्पन्ने विषमः, इति विषम: (७) करविवर्तनात् अभ्यस्त:, इत्यभ्यस्त: (८) ॥ ८८७-८९२-॥ इत्यष्टौ अपाटाख्या हस्तपाटा: (क०) अथालगपाटस्य भेदद्वयं दर्शयति-अर्धाङ्गुल्यग्रेत्यादि ॥ -८९३, ८९४ ॥ इत्यलगपाटद्वयम् (सु०) अलगपाटद्वयं लक्षयति-अर्धेति । अर्धनामुल्यरेण घातात् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ संगीतरनाकरः तलपहारो वलितभेदितो भ्रमरो यथा । दं थं दें झेंद्र४ खुखुंधुरि दयोंगि। इति भ्रमरः (१) संकरात्करपाटानां कुश्चितः कथितो यथा ॥ ८९५ ॥ खुखुंधरि२ धरिगिगिड२ दन्हें२ खुंखं दन्हें२ गिरिगिडिदर दत्योंगि थोगिर। इति कुश्चित: (२) इति चित्रपाटद्वयम् इत्यष्टाशीतिहस्तपाटलक्षणम् । पटहस्य हुडुक्कायाः पञ्च सञ्चान्ब्रुवेऽधुना । स्कन्धकूपेरयोस्तद्वदगुष्ठमणिबन्धयोः ॥ ८९६ ॥ उत्थितः सचाख्यः पाटः, इति सञ्चः (१) करसञ्चेनाङ्गुष्ठघातेन चोत्पन्नो विच्छुरितः, इति विच्छुरितः (२) ॥ -८९३-८९४ ॥ ___ इत्यलमपाटद्वयम् (क०) अथ चित्रपाटस्य भेदद्वयं दर्शयति-तलमहार इत्यादि ॥ ८९५ ॥ (सु०) चित्रपाटयोर्लक्षणमाह-तलेति । पूर्वोक्ततलप्रहारेण, पूर्वोक्तवलितेन च मिश्रितो भ्रमरः, इति भ्रमरः (१) अन्येषां करपाटानां संकरात् कुञ्चितः, इति कुञ्चित: (२) ॥ ८९५ ॥ इति चित्रपाटद्वयम् इत्यष्टाशीतिहस्तपाटलक्षणम् (क०) अथ पञ्च सञ्चान् लक्षयति-पदहस्येत्यादि॥८९६-८९९॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः वामस्य चरणस्यापि कम्पः सञ्चोऽभिधीयते । श्रेष्ठः पाटहिकः सञ्चादङ्गुष्ठमणिबन्धयोः ॥ ८९७ ॥ स्कन्धकूपरसञ्चात्तु नीचः पटहवादकः । वरो हौड्डुक्किकोअष्टकूपरस्कन्धसञ्चतः ।। ८९८ ॥ सञ्चाभ्यां मणिबन्धोत्थकूपराभ्यां तु मध्यमः । असौ वामाघिसञ्चेन वादनादधमो भवेत् ॥ ८९९ ।। इति पश्चसञ्चलक्षणम् पाटविन्यासभेदाः स्युर्वाद्यानि पटहादिषु । बोलावणी च चल्लावण्युडुवश्च कुचुम्बिणी ॥ ९०० ॥ (सु०) पञ्च सञ्चान् प्रतिज्ञाय कथयति-पटहस्येति । यस्तु पटहस्य हुडुक्कायाश्च पाटान् जानाति, तत्संबन्धिनः पञ्च सञ्चान् अधुना ब्रुवे कथयामि । सञ्चस्य लक्षणमाह-स्कन्धेति । स्कन्धकूर्परागुष्टमणिबन्धवामचरणानां कम्प: सश्च इत्युच्यते । पाटहिकः पटहवादकः, अङ्गुष्टमणिबन्धयो: सञ्चात् श्रेष्ठः । स एव स्कन्धकूपराभ्यां नीच: । हौडुक्किकः हुडुक्कावादक: अङ्गुष्ठकूर्परस्कन्धानां सञ्चात् वरो श्रेष्ठः । स एव मणिबन्धोत्थकूर्पराभ्यां मध्यमः । वामाघिसञ्चेनासौ अधम इति ॥ ८९६-८९९ ॥ इति पञ्चसंचलक्षणम् (क०) अथ पञ्चविंशतिपटहादिजातिसाधारणानि वाद्यान्युद्दिश्य लक्षयितुं तेषां सामान्यलक्षणं तावदाह-पाटविन्यासभेदाः स्युरिति । पाटाः पूर्वोक्ता अष्टाशीतिसंख्याः ; तेषां विन्यासभेदाः । पाटानां यथायोगं योजनावशाद्वाद्यानि भवन्तीत्यर्थः । तत्र पटहादिसाधारणानि द्वादश वाद्यान्युद्दिशति-बोल्लावणीत्यादि ॥ ९००, ९०१- ॥ 53 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ संगीतरत्नाकरः चारुश्रवणिकालग्नपरिश्रवणिका ततः । समपहारः कुडुवचारणा करचारणा ।। ९०१॥ दण्डहस्तो घनरवस्तानीति द्वादशावदन् । वल्लिश्च वल्लिपाटः स्याद्धत्ताभदौ झडप्पणी ।। ९०२ ॥ अनुश्रवणिका हस्तो जोडणी त्रिगुणा ततः । पञ्चहस्तः पश्चपाणिर्वाद्यं स्यात्पञ्चकर्तरी ॥ ९०३ ।। ततश्चन्द्रकला प्राहुर्वाधानीति त्रयोदश । प्रायेणैतानि दृश्यन्ते हुडुक्कावाद्यगोचरे ॥ ९०४ ॥ वाधानामुभयेषां स्यात्पञ्चविंशतिरित्यसौ । आदिमध्यावसानेषु देकारबहुलं भवेत् ॥ ९०५॥ __ (क०) अथ त्रयोदश प्रायिकहुडुक्कावाद्यान्युद्दिशति-वल्लिश्चेत्यादि । घत्ताभेदाविति । घत्ता च भेदश्चेति द्वन्द्वः । झडप्पणीत्येकोऽन्ये च वोल्लावण्यादयो रूढितः संज्ञाशब्दा द्रष्टव्याः ।। -९०२-९०४- ॥ ___ (सु०) वाद्यानि लक्षयितुमाह-पाटेति । पूर्वोक्तपाटविन्यासविशेषाः पटहादिषु वाद्येषु विधीयमाना वाद्यानीत्युच्यन्ते । तानि च बोलावण्यादीनि घनरवान्तानि द्वादश; वल्ल्यादीनि चन्द्रकलान्तानि च त्रयोदश । तानि हुडुक्कावाद्यविशेषा एव भवन्ति ; एते मिलिता: पञ्चविंशतिः ॥९००,९०४-॥ __ (क०) तत्र बोलावणी लक्षयति-आदिमध्यावसानेविति । देकारबहुलमिति । यदा पटहे वाद्यत्वेन बोल्लावणी वाद्यते, तदा देंकारेण बहुलं प्रचुरं भवेत् । द्वितीयं च तादृशमिति । द्वितीयमपि खण्डं देकारबहुलं कर्तव्यमित्यर्थः । अस्याः खण्डद्वयं वाद्यान्तरे स्यायोजनावितमिति । अस्या बोलावण्याः खण्डद्वयमुक्तरूपं योजनान्वितं तत्त. द्वाद्योक्तप्रधानाक्षरैयोजितेतरसाधारणाक्षरान्वितं चेदित्यर्थः । वाद्यान्तरे हुडु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः आद्यखण्डं द्वितीयं च तादृशं वाद्यते पृथक् । यत्र बोल्लावणी सोक्ता पटहे वाद्यवेदिभिः ।। ९०६॥ यथा-३ थों३ दें३ । अस्याः खण्डद्वयं वाद्यान्तरे स्याद्योजनान्वितम् । झेंकृतिकृतिस्थाने हुडुक्कायां भवेदिह ।। ९०७ ।। डक्कायां मर्दले चैव थों त्रिवल्लयां तु दों भवेत् । करटायां तु टेमेव प्रधानाक्षरयोजना ।। ९०८ ॥ वाद्यान्तरेष्वपि प्राज्ञैः प्रोह्यतामनया दिशा । इति बोल्लावणी क्कादौ बोलावणी स्यादित्यर्थः । तदेव केषुचिद्वाद्येषु दर्शयति-झंकृतिरित्यादि । इह, खण्डद्वये ; देकृतिस्थाने, पटहापेक्षया आदिमध्यावसानेषु प्रयुक्तस्य देंकारस्य प्रसङ्गे, झेंकृतिः, झेंकारः प्रयुक्तश्चेत् ; तदा हुडुक्कायां बोल्लावणी भवेत् । हुडुक्कायां झेंकारो भवति । थोमित्यादिमध्यावसानेषु प्रयुज्यते चेत् ; तदा डक्कायां भवति । थोमिति तु प्रयुज्यते चेत् ; तदा मर्दले भवति । दोमिति त्रिवल्लयां भवेत् । टेमित्येव तु करटायां भवेत् । एवं प्रधानाक्षरयोजनाद्वाद्यान्तरेष्वपि ढक्कादिष्वपि । अनया दिशा मोहतामिति । तत्तद्वाद्योक्तप्रधानाक्षराणां यथायोगं कादिभिः षोडशवर्णैः सह योजनात्तत्तहोल्लावणी कार्यत्यर्थः । ननु प्रधानाक्षरस्यैकत्वादितरेषां बहुत्वात्कथं वाद्यान्तरप्रतीतिरिति चेदुच्यते । यथा षड्जादिष्वेकतमस्यांशत्वेनेतरेषां बहुत्वेऽप्यंशस्यैव तत्र प्रधानत्वेन प्रयोगबाहुल्यादितरेषां तद्रागरूषितत्वे सति रागान्तरप्रतीतिः, तद्वदत्रापि देंकारादिभिः प्रधानाक्षरैरितरेषां तत्र तत्र योगात्तेषां तत्तद्ध्वनिरूषितत्वे सति तत्तद्वाद्यप्रतीतिरिति न किंचिदेतत् ॥ -९०५-९०८- ॥ इति बोलावणी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० संगीतरत्नाकरः मण्डले चाल्यते यत्र पोचुश्चल्लावणीममूम् ।। ९०९ ।। इति चल्लावणी (२) वामेन तलहस्तेन दक्षिणेन तु पाणिना । लुलितेन सकोणेन तादनादुडुवो भवेत् ।। ९१० ।। इत्युडुवः (३) उद्दलीपिहिते वक्त्रे हस्तस्वस्तिकताडनात् । (सु०) तत्र बोल्लावण्या लक्षणमाह-मादिमध्येति । आवं खण्डम् , आदौ मध्ये, अवसाने च देमिति शब्दप्रचुर भवति । द्वितीयमपि तादृशमेव यत्र पृथग्वाद्यते सा बोलावणी। अस्याः बोलावण्याः पटहादन्यस्मिन् वाद्ये योजनाया संबन्ध: स्यात् । तामेव योजनामाह-झेंकृतिरिति । हुडुक्कायां इह बोल्लावण्यां झेंकारदेंकारः पाट: । डक्कायां मर्दले च थोमिति । त्रिवल्ल्यां दोमिति भवति । करटायां तुं टेमिति । इयं प्रधानाक्षरयोजना ज्ञातव्या । अनेन च प्रकारेण अन्येष्वपि वाद्येषूहनीयम् ॥ -९०५-९०८-॥ इति बोल्लावणी (१) (क०) चल्लावण्यादीनां लक्षणानि ग्रन्थत एवावगन्तव्यानि ।। -९०९-९१८ ॥ ___ (सु०) चल्लावण्यादीनां लक्षणमाह-मण्डल इति । यत्र मण्डले प्रदेशे चालन क्रियते अमूमेतां चलावणीत्यवादिषुः ; इति चल्लावणी (२) वामेनेति। तलहस्तरूपेण वामहस्तेन कोणसहितेन पूर्वोक्तललितरूपेण दक्षिणपाणिना कृतताडनादुडुवः; इत्युडुवः (३) मुखे पूर्वोक्तया उद्दल्या पिहिते सति नृत्ताध्याये वक्ष्यमाणहस्तस्वस्तिकेन ताडने कृते सति खुंकारप्रचुरं वाचं कुचुम्बिणी ; इति कुचुम्बिणी (४) पूर्वोक्तबोलावण्येव क्रमेण समकरालहस्तद्वयकृतैः बहुभिर्वाद्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ षष्ठो वाद्याध्यायः कारबहुलं वायं कीर्तयन्ति कुचुम्बिणीम् ॥ ९११ ॥ इति कुचुम्बिणी (४) बोल्लावण्येव पाणिभ्यां क्रमाद्वा युगपत्कृतैः । भूरिभिः संभृता पाश्चारुश्रवणिका भवेत् ॥ ९१२ ।। शुद्धैश्चित्रः क्रमात्पाटैः शुद्धा चित्रेति सा द्विधा । इति चारुश्रवणिका (५) अलग्नः कुण्डलीस्पर्श विना कोणप्रहारतः ॥ ९१३ ॥ इत्यलग्नः (६) कर्तरी समपाणिश्चावघटो यत्र तु क्रमात् । सोक्ता परिश्रवणिका श्रीयज्ञपुरमरिणा ॥ ९१४ ॥ इति परिश्रवणिका (७) समपहारो युगपत्करद्वन्द्वेन घाततः । __ इति समप्रहार: (८) कुडुबोद्भवपाटाभ्यां वाद्यं कुडुवचारणा ॥ ९१५ ॥ यूथैश्वारुप्रवणिका; सा द्विप्रकारा-शुद्धा, चित्रेति । शुद्धैः पाटैविरचिता शुद्धा, चित्रैः पाटैविरचिता चित्रेति ; इति चारुश्रवणिका (५) कुण्डलीमस्पृश्य कोणप्रहारे कृते अलग्नः ; इत्यलमः (६) पूर्वोक्तकर्तरीसमपाण्यवघटाः यत्र क्रमेण क्रियन्ते सा परिश्रवणिका ; इति परिश्रवणिका (७) समकालं करद्वयेन घाते कृते सति समप्रहारः ; इति समप्रहारः (८) कुडुवाजाताभ्यां पाटाभ्यां कुडुवचारणा । कुडुवश्च वादनदण्डः, कोण इति चोच्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ संगीतरत्नाकर: उच्यते वादनो दण्ड : कोणः कुडुव इत्यपि । इति कुडुवचारणा (९) जाता हस्तजपाटैस्तु केवलैः करचरणा ।। ९१६ ।। इति कचारणा (१०) एकैको य: करद्वन्द्वान्मृदुदक्षिणपाणिकात् । जायते तादृशैः पाटैर्दण्डहस्तोऽभिधीयते ।। ९१७ ।। इति दण्डहस्त : (११) यः करेण कराभ्यां वा कृतैः पाटैर्निरन्तरैः । निरन्तरघनध्वानः स स्याद्धनरवाभिधः ॥ ९९८ ॥ इति घनरव: (१२) इति द्वादश पटहादिजातानि वाद्यानि । • स्कन्धेन मणिबन्धेन कुडुवेन च चालनात् । सोल्लासाज्जायते वल्लिस्त्रिविधा पटहादिषु ।। ९९९ ।। इति वल्लि : (१) इति कुडुवचारणा (९) हस्तोद्भवैः केवलैः पाटैः करचारणा; इति करचारणा (१०) मृदुः शिथिल: दक्षिणपाणिः यस्मिन् एवंविधात् करद्वयात् य एकैकः पाट उत्पद्यते, तथाविधै: बहुभिः पाटैर्दण्डहस्त: ; इति दण्डहस्त: (११) य इति । एकेन हस्तेन, हस्तद्वयेन वा कृतैर्निरन्तरैर्मिलितैः पाटैरनवरतनिबिडध्वनिः घनरवः ; इति घनरव: ( १२ ) ॥ -९०९-९१८ ॥ इति द्वादश पटहादिजातानि वाद्यानि ܕ (सु० ) वल्ल्याद्यानि त्रयोदश प्रायिकहौडुक्कवाद्यानि लक्षयति-स्कन्धेनेति । स्कन्धेनांसेन मणिबन्धेन करपूर्वभागेन कुड्डुवेन कोणेन च कृतात् सोल्ला Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः अर्ध वार्घद्वयं वल्ल्यां स्वैः स्वैः पाटैरयोजनम् । कृतं संयोजनं वा चेद्रल्लिपाटस्तदा भवेत् ॥ ९२० ॥ इति वल्लिपाट: (२) निवद्धं वादयेदाद्यं कारार्ध पुरातनम् | अनिबद्धं स्वबुद्धया कराभ्यां वादयेदथ ।। ९२१ ॥ वाद्येनाद्यं निबद्धं चेत्पुनर्धत्ता तदोच्यते । इति घत्ता (३) योगेनैकेन निष्पन्नस्तदुपाङ्गभवोऽपरः ।। ९२२ ॥ पाटोऽन्योन्याङ्गयोगस्तैः संमिश्रः पाटपूरणैः । नानावाद्योद्भवैः पाटैर्भेदत्रेधा लत्रयात् ॥ ९२३ ॥ इति भेद: ( ४ ) यामुपक्रमे मध्येऽन्तेऽथ वाद्यैरनेकधा । सर्ववाद्यानि वाद्यन्ते जगदुस्तां झडप्पणीम् ॥ ९२४ ॥ इति झडप्पणी (५) ४२३ साच्चालनात् त्रिविधवल्लिर्जायते ; इति वल्लि : (१) अर्ध वेति । वल्ल्या अर्धमर्धद्वयं वा स्वैः स्वैः पाटै रहितं सहितं वा यदि स्यात्, तदा वल्लिपाट: ; इति वल्लिपाट: (२) निबद्धमिति । झेंकारास्यार्धमाद्यं वादयेत् । अथ पुरातनमनिबद्धं स्वबुद्धया अर्ध करद्वयेन वादयेत् । पुनराद्यं निबद्धं वाद्येन वादयति चेत्, तदा घत्ता ; इति घत्ता (३) योगेनेति । एकेन योगेन निष्पन्न:, यश्च योग उपाङ्गाज्जायते पाटः, यश्चान्योन्याङ्गैर्जातैः पाटपूरणैः मिश्रितैः पाटैः युक्तो भेद:, स च लयस्य त्रैविध्यात् त्रिविधो भेद: ; इति भेदः (४) यस्यामिति । आदिमध्यावसानेषु वादनैरनेकविधानि वाद्यानि यस्यां वाद्यन्ते सा झडप्पणी ; इति झडप्पणी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ संगीतरनाकरः पाटः पाटाक्षरं यद्वा श्रूयते चेत्पुनः पुनः । अनुश्रवणिकां प्राह शंकरानुचरस्तदा ।। ९२५ ॥ इत्यनुश्रवणिका (६) द्वे चत्वारि भवन्त्यष्टौ यद्वा खण्डानि पोडश । देंकारादीनि यत्रासौ हस्तः स तु चतुर्विधः ॥ ९२६ ।। चतुरश्रयश्रमिश्रखण्डतालपयोगतः । ___ इति हस्त: (७) तदर्धार्धादिभेदेन क्रमेण व्युत्क्रमेण वा ॥ ९२७ ॥ अखण्डतालाः पाटाश्वेयुज्यन्ते जोडणी तदा । ___ इति जोडणी (८) खण्डानि त्रीणि यत्र स्युरेकैकं त्रिगुणं तथा ।। ९२८ ॥ वाद्यते यत्र सा प्रोक्ता त्रिगुणा त्रिविधा च सा । आदिमध्यान्तखण्डानां त्रैगुण्यात्सा पुनर्द्विधा ।। ९२९ ॥ (१) पाट इति । पाटो वा पाटावयवो वा यत्र पुनः पुनः श्रूयते, सा अनुश्रवणिका; इत्यनुश्रवणिका (६) द्वे इति । प्रथमं देंकारयुक्तानि द्वे खण्डे, चत्वारि वा खण्डानि, अष्टौ षोडश वा यत्र भवन्ति, तदा हस्त: ; स चतुर्विध:चतुरश्रः, व्यश्रः, मिश्र ; खण्ड इति । चतस्त्र अश्रयो यस्य स चतुरश्रः; एकः चतुरश्रतालेन, अपरस्त्र्यश्रेण, कश्चिन्मिश्रेण, अन्य: खण्डेनेति ; इति हस्तः (७) तदर्धेति । खण्डताल विहाय अन्यैस्तालेरुपनिबद्धाः पाटा अर्धरूपाः, अर्धार्धरूपा वा क्रमव्युत्क्रमाभ्यां यत्र संयोगमाप्नुवन्ति, तदा जोडणी ; इति जोडणी (८) खण्डानीति । यत्र त्रीणि खण्डानि भवन्ति । एकैकं खण्डं त्रिगुणं वा यस्यां सा त्रिगुणा । सा च त्रिप्रकारा-आदिखण्डस्य त्रैगुण्यादेका; मध्यखण्डस्य त्रैगुण्यात् द्वितीया ; अन्त्यखण्डस्य त्रैगुण्यात् तृतोयेति । त्रिवि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः क्रमव्युत्क्रमतोऽथास्यास्तत्त्रैगुण्यमुदाहरेत् । प्रयुज्य त्रीणि खण्डानि प्रयुञ्जीतादिमद्वयम् ॥ ९३० ॥ ततश्चाद्यमिति प्रोक्तं खण्डे त्रैगुण्यमादिमे । इत्यादित्रिगुणा मध्ये त्रिगुणा तु द्विधा भवेत् ॥ ९३१ ॥ त्रैगुण्यान्मध्यखण्डस्य द्विःप्रकारातदुच्यते । खण्डत्रयं ततः खण्डद्वयमाद्यं प्रयुज्यते ॥ ९३२ ॥ ततो मध्यममित्येवं यद्वा खण्डद्वयात्परम् । अन्त्यद्वयं वादयित्वा प्रयोज्यं मध्यमं दलम् || ९३३ ॥ अथान्तस्त्रिगुणायां प्राक् खण्डत्रितयवादनम् । ततोऽन्तिमद्वयं खण्डमन्तिमं वादयेत्तथा ॥ ९३४ ॥ एवमष्टविधामाह त्रिगुणां भववल्लभः । अथवा चतुरश्रादौ कापि ताले दत्रयम् ॥ ९३५ ॥ ४२५ धात् पाटकमात् व्युत्क्रमतः सा त्रिगुणा पुनर्द्विविधा । अथेति । पूर्वोक्तं त्रैगुण्यं विशेषेणोदाहरामीति प्रतिजानीते । एवं प्रतिज्ञाय तदेव त्रैगुण्यं निरूपयति— प्रयुज्येति । खण्डत्रयं पूर्व गीत्वा, आद्यं खण्डद्वयं गायेत् । ततः पुनराद्यमेवमादित्रैगुण्येन आदिमत्रैगुण्यं भवति । मध्ये तु त्रिगुणा द्विविधा । मध्यखण्डस्य द्विप्रकारात् त्रैगुण्यात् खण्डत्रयमुच्यते । तदेव द्विविधत्रैगुण्यमाह—खण्डेति । पूर्व खण्डत्रयं गेयम् । तत आद्यं खण्डद्वयम् । ततो मध्यखण्डमित्येको भेदः । आ आदौ खण्डयम्, ततोऽन्त्यं खण्डद्वयं ततो मध्यमदलं खण्डमिति । अन्तस्त्रिगुणायाः त्रैगुण्यप्रकारमाह - अथान्त स्त्रिगुणायामिति । एवमष्टविधा त्रिगुणा भवन्ति ॥ ९१९-९३४ ॥ (सु० ) पक्षान्तरमाह — अथवेति । चञ्चत्पुटादौ यत्र कचन ताले खण्डनयं प्रयुज्य गीत्वा, एकस्वरमानेन खण्डद्वयं खण्डत्रयं यत्र क्रियते सा त्रिगुणा । अथवा चञ्चत्पुटेन चाचपुटेन वा मिश्रेस्तालैर्युक्तः क्रमात् त्रिभिः खण्डैरेषा 54 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ संगीतरत्नाकर: प्रयुज्यैकस्य खण्डस्य मानेनाथ दलद्वयम् । कुर्याद्दत्रयं तावद्यत्र सा त्रिगुणा भवेत् || ९३६ ॥ चतुरश्रत्रयश्रमिश्रयुक्तैर्वैषा क्रमादलैः । अन्ये त्वेककले ताले द्विकलेऽथ चतुष्कले || ९३७ ॥ क्रमाद्विरचितैः खण्डैस्त्रिगुणामभणन्बुधाः । एकं चचत्पुटे खण्डद्वयं चाचपुटे ततः ।। ९३८ ।। मिश्रे खण्डत्रयं यत्र त्रिगुणां तां जगुः परे । पदैश्चतुर्भिरस्यां स्यात्खण्डमेकं पदं पुनः ।। ९३९ ॥ मितं कलाभिरष्टाभिरित्युक्तं सूरिशाङ्गिणा । इति त्रिगुणा ( ९ ) पञ्चस्तो हस्तपाटैस्तशब्दान्विताभिधैः ॥ ९४० ॥ इति पञ्च हस्त : (१०) पञ्चपाणिस्तु पाटैः स्यात्पाणिशब्दयुताभिधैः । इति पचपाणि: (११) त्रिगुणा भवति । अन्ये त्विति । एककले द्विकले चतुष्कले च ताले क्रमात् कृतैः खण्डैस्त्रिगुणेत्यन्ये बुधा अभणन् । एवमिति । परे आचार्याः एकं खण्डं चच्चत्पुटे, खण्डद्वयं चाचपुटे, मिश्रताले खण्डत्रयं यस्यां तां त्रिगुणामवादिषुः । पदैरिति । अस्यां त्रिगुणायां चतुर्भिः पदैरेकं खण्डम् । पदं पुनरष्टकलेन मितमिति शार्ङ्गदेवेनोक्तं भवति || -९३५ - ९३९-॥ इति त्रिगुणा ( ९ ) ( मु० ) पथ्वहस्त इति । पञ्चहस्तशब्दसहितैः हस्तपाटैः पञ्चहस्तो भवति इति पच हस्त: (१०) पचपाणिरिति । पाणिशब्दयुता मदिर्येषां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ षष्ठो वाद्याध्यायः कर्तरीपदवत्संज्ञैः पाटः स्यात्पञ्चकर्तरी ॥ १४१ ।। इति पञ्चकर्तरी (१२) वर्धन्ते च हसन्ते चेन्मात्राश्चन्द्रकला इव । तालश्चन्द्रकलाख्यश्च तदा चन्द्रकला भवेत् ॥ १४२ ॥ द्वात्रिंशन्मात्रिकामन्ये पाहुश्चन्द्रकलामिमाम् । द्विमात्रा: पोडशकला वृद्धिहासयुजो विदुः ।। ९४३ ॥. तादृक्चतुःपष्टिकलां तामाहुर्दक्षिणे पथि । इति चन्द्रकला । इति त्रयोदश प्रायिकहौडुक्कवाद्यानि । इति पञ्चविंशतिरुभयवाद्यानि । उद्माहादिनिबद्धाः स्युरत्र गीतप्रबन्धवत् ॥ ९४४ ॥ वाद्यप्रबन्धास्त दलक्ष्माण्यभिदधेऽधुना । तथाविधैः पाटैः पञ्चपाणिर्भवति ; इति पञ्चपाणिः (११) कर्तरीति । कर्तरीपदयुक्ता संज्ञा येषां तथाविधैः कर्तर्यर्धकर्तरीविषमकर्तर्यादीनां तैस्तैः पाटैः पञ्चकर्तरी जायते ; इति पञ्चकर्तरी (१२) वर्धन्त इति । चन्द्रकलावत् मात्रा वर्धन्ते हसन्ते न्यूनीभवन्ति चेत् यस्यां, सा चन्द्रकलाख्यतालेनोपनिबद्धा चन्द्रकला (१३) अन्ये तु द्वात्रिंशन्मात्रोपनिबद्धा चन्द्रकलेत्याहुः । वृद्धिन्यूनतायुक्ताश्च षोडशकला: द्विमात्रास्ते अज्ञासिषुः । दक्षिणे मार्गे तादृशाः चतुःषष्टिकलाः यस्यां विद्यन्ते तां चन्द्रकलामाहुः ॥ -९४०-९४३- ।। इति चन्द्रकला। इति त्रयोदश प्रायिकहौडुक्कवाद्यानि इति पञ्चविंशतिरुभयवाद्यानि (क०) एवं वाद्यानि निरूप्य तत्प्रबन्धान् दर्शयितुमाह-उदाहा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ संगीतरत्नाकरः यतिरोता च गजरो रिगोणी कवितं पदम् ॥ ९४५ ॥ मेलापकचोपशमोद्ग्राहप्रकरणान्यथ । अवत्सकश्छण्डणश्च तुडुका मलपं ततः ॥ ९४६ ॥ मलपाङ्गं च मलपपाटश्छेदोऽथ रूपकम् । अन्तरोऽन्तरपाटश्च खोजः खण्डयतिस्ततः ॥ ९४७ ।। खण्डच्छेदोऽप्यवयतिः खण्डपाटश्च खण्डकः । खण्डहुल्लः समः पाटो ध्रुवकोऽङ्गाङ्गरूपके ॥ ९४८ ॥ तालो चितालः खलकः समुदायश्च जोडणी । उडवस्तलपाटश्चोहवणी तुण्डकस्ततः ॥ ९४९ ॥ अङ्गपाटश्च पैसारस्त्रिचत्वारिंशदित्यमी । उक्ताः श्रीकरणागण्या प्रबन्धा वाद्यसंश्रयाः ॥ ९५० ॥ शीतोदकास्तथा स्नानगर्वोऽन्यो गर्वनिर्णयः । उत्प्रेक्षामात्रजा लक्ष्महीनास्तेऽस्मदुपेक्षिताः ॥ ९५१ ।। दीत्यादि । अत्र ; वाद्यप्रकरणे, गीतमबन्धवत् उद्ग्राहादिनिवद्धा इति । उद्गाहादयः ; उद्गाहः, मेलापकः, ध्रुवः, विकल्पेनान्तरः, आभोगश्चेति प्रबन्धाध्याय उक्ता धातवः ; तैर्निबद्धा एलादयो यथा गीतप्रबन्धे उक्ताः, तथात्रापि तैर्निबद्धा यत्यादयो वाद्यप्रबन्धाः स्युः । गीतप्रबन्धवदित्यतिदेशेनैव मेलापकाभोगयोर्यथायोगमभावेन द्विधातुकत्वादिकं भेदत्रयं द्रष्टव्यम् । वाद्यप्रवन्धगतानामुद्गाहादीनां भाण्डिकलोककृताः संज्ञास्तु लहरीत्युद्गाहस्य, यडुपु इति मेलापकस्य, अन्तरिति ध्रुवस्य, उपान्तरिति वैकल्पिकस्यान्तरस्य, मुक्तायीत्याभोगस्य च संज्ञा द्रष्टव्याः। तद्भेदलमाणीति । तेषां वाद्यप्रबन्धानां भेदा यत्यादयः ; तासां लक्ष्माणि लक्षणानि। तान्युद्दिशतियतिरित्यादि ॥ -९४४-९५१ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ षष्ठो वाद्याध्यायः प्रायो वाद्यपबन्धानां देंकारोऽन्ते निधीयते । काभ्यांचित्कूटवर्णाभ्यां रचितोऽत्यन्तकोमलः ॥ ९५२ ॥ एकरूपाक्षरस्तालच्छन्दोभिव्यञ्जनोज्ज्वलः । यो वाद्यते वाद्यखण्डो विरामैर्वहुभिर्मुहुः ॥ ९५३ ॥ यतिजेक्का च सा तज्ज्ञैर्वाद्या मण्ठादिसालगे। आदौ वाद्यपबन्धस्य कस्याप्यङ्गतया यदा ॥ ९५४ ॥ तद्विदो वादयन्त्येतां वदन्त्युट्टवणं तदा । पाटानां रचनां केचिदत्र नेच्छन्ति सूरयः ॥ ९५५ ॥ गड्दगथों गक्कोंटे गड्दगथों गक्कोंटे गड्दगथों गकोटें । इति यतिः (सु०) इदानीं वाद्यप्रबन्धान निरूपयितुमाह-उदग्राहेति । उग्राहध्रुवकाभोगैः पूर्वोक्तगीतप्रवन्धवदुपनिबद्धाः वाधप्रबन्धा भवन्ति । ते च यत्यादयो पैसारान्ताः त्रिचत्वारिंशत् । शीतोदकस्थानगर्वगर्वनिर्णयाख्यास्त्रयः केवलोत्प्रेक्षाजनिता: लक्षणाभावात् अस्माभिरुपेक्षिताः ॥ -९४४-९५१ ॥ (क०) तत्रस्थयतिं लक्षयति-काभ्यांचिदिति । कूटवर्णाभ्यां पटहादिवाद्यसाधारणवर्णाः कूटवर्णा उच्यन्ते, तेषु याम्यां काम्यांचित् । रचित इति । मिथोयोगार्हाभ्यां ' तथोंग कथोटिंग ' इत्याद्यक्षराभ्यां निर्मितः। अत्यन्तकोमलः, बन्धकाठिन्यवर्जितः। एकरूपाक्षरः; उपक्रान्तवर्णानुसारेणैव समापितः। तालच्छन्दोभिव्यञ्जनोज्ज्वल इति । तालच्छन्दसोरभिव्यञ्जनेन प्रकाशमानः । बहुभिर्विरामै ; विच्छेदैरुपलक्षितः यो वाद्यखण्डः मुहुर्भद्यते सा यतिर्जक्का च । जक्केति यतेः संज्ञान्तरमित्यर्थः । सा तज्झैमण्ठादिसालग इति । सालगसूडस्थे मण्ठादौ गीते वाद्या वादनीया, रचनायां योजनीयेत्यर्थः । एतां यतिं यदा कस्यापि वाद्यप्रबन्ध Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० संगीतरनाकरः द्विरुग्राहस्ततः खण्डं यस्यां द्विर्भूरिदेकृति । तत्किचिदधिकं वारे द्वितीयेऽथ तृतीयकम् ॥ ९५६ ।। कियदीर्घ शुद्धकूटखण्डैः पाटैर्विमिश्रितैः । व्यस्तैः समस्तै रचितं ततो देंकृतिमत्पुनः ॥ ९५७ ।। स्यौतागजरादेरादावनतया तद्विदो वादयन्ति तदोहवणं वदन्ति । अत्र; यतौ केचित्सूरयः पाटानां नागबन्धादीनां रचनां नेच्छन्तीत्यनेन केचिदिच्छन्तीति गम्यते ॥ ९५२-९५५ ॥ इति यति: ___ (सु०) अथ वाद्यप्रबन्धानां साधारणं लक्षणमाह-प्राय इति । बाहुल्येन वाद्यप्रबन्धानामन्ते देंकार: देमितिशब्द: स्वेच्छोपनिबद्धाभ्यां कूटपाटस्य वर्णाभ्यां निबद्धः पाटाक्षर: समानाक्षरच्छन्दोभिव्यक्तिसमर्थस्ताल इति । यतिं लक्षयति-य इति । यो वाद्यखण्ड: बहुभि: विरामै: वाद्यते सा यतिः । सा जक्केति चोच्यते । सा च मण्ठादिसालगसूडे वादनीया । आदाविति । इयं यस्य कस्यापि वाद्यप्रबन्धस्य आदौ यदा यतिं वादयन्ति, तदैनां वाद्यज्ञा उट्टवणमिति वदन्ति ॥ ९५२-९५५ ।। इति यति: (क०) अनन्तरमोतां लक्षयति-द्विरुग्राह इत्यादि । यस्यामोतायामुग्राहो द्विदिवारं प्रयोज्यो भवति । तत उद्ग्राहानन्तरं भूरिदेकृति बहुलदेंकारं खण्डं मेलापकाख्यं खण्डं द्विभवेत । तत्खण्डं द्वितीये वारे किंचिदधिकं प्रथमवारापेक्षया। किंचिदधिकमित्यनेन द्वितीयं खण्डमपि द्विवारं कर्तव्यमित्यर्थः । द्वितीयवारे किंचिदाधिक्यं च कतिपयैः पाटाक्षरैः कर्तव्यं भवति । अथ तृतीयकं ध्रुवाख्यं खण्डम् । शुद्धकूटरवण्डैरिति पाटैरित्यस्य विशेषणम् । शुद्धाश्च कूटाश्च खण्डाश्चेति द्वन्द्वः । अत एव Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः सकृत्तच्च प्रयोक्तव्यमथ वर्णसरात्मकम् । दीर्घ खण्डं ततोऽल्पं च प्राच्यं शुद्धादिनिर्मितम् ॥ ९५८ ॥ ओता सोता छण्डान्ता कैश्विकृतिमुक्तिका । everest स्यान्निःसारौ छण्डणो भवेत् ॥ ९५९ ॥ उद्धतो ध्वनित्र स्यात्मायो मानं विलम्बितम् । दीप्तं नृत्तं च तामाहुः केचित्केदार हत्यपि ॥ ९६० ॥ इमामावहनीं प्राहुरेकेऽन्ये त्वन्यथा जगुः । पाटैर्बहुलदेकारैस्तालैश्च निखिलैः कृता ।। ९६१ ।। बहुधा स्थापना यस्यामाहुराहवनीं बुधाः । आदौ देकारखण्डं चेदेंकारादिस्तदोच्यते ॥ ९६२ ॥ ४३१ मिश्रितैर्व्यस्तैः समस्तपाटै रचितम् । कियद्दीर्घ - पूर्वखण्डापेक्षया किंचिद्दीर्घं भवेत् । ततः ; अनन्तरम् । कृतिमत्तच्च पुनः सकृत्प्रयोक्तव्यमिति । तृतीयखण्डानन्तरं द्वितीयं देकारखण्डं पुनः सकृदेकवारं प्रयुञ्जीतेत्यर्थः । कृतिमदिति द्वितीयखण्डमित्यत्र परामृश्यते । अथ वर्णसरात्मकमिति । अथ, अनन्तरं ; वर्णसरसंज्ञकमपरं दीर्घं खण्डं, ततोऽपि शुद्धादिपाटे : कार्यम् । छण्डान्तेति । छण्डणो नाम वक्ष्यमाणो वाद्यप्रबन्धभेदः । सोऽन्ते यस्याः सा तथोक्ता । कृतिमुक्तिकेति । प्रायो वाद्यप्रबन्धानां कारोऽन्ते विधीयत इति सामान्येन पूर्वमुक्तम् । तस्य मतान्तरेण कचिदपवादो दर्शितो भवति । एषा ओता एककलयुग्मे यथाक्षरचच्चत्पुटे स्यात् । छण्डण ओताङ्गत्वेन तदन्ते प्रयोज्यः । छण्डणो निःसारौ भवेत् । अत्र ; ओतायां प्राय: ; प्राचुर्येण, उद्धतो ध्वनिः, घोषाक्षरजनितो ध्वनिः, विलम्बितं मानं च दीप्तं नृत्तं च स्यात् । अस्या एवौताया मतान्तरेण संज्ञान्तराणि दर्शयति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ संगीतरत्नाकरः यथा-तद्धिटें कत्थोंकट नगनयोंगकुथोंगदार, धिक्कट्टर, तकटयोंगक घिधिक थोरघटे२, इत्युद्गाहो द्विवारं कर्तव्यः । गड्दगदे गिनर्देगक् तु थं हं देंगक् देंगनथ गनतदिगि नत्तत्तेक्कटदेंदेंगिनतक्कट खुखुघंघं देंगक् , इति देकारखण्डं द्विः ॥ तामाहुरित्यादिना। ये वेनामाहवनीमाहुस्तेषु केचन तस्या लक्षणमन्यथा जगुरित्युक्त्वा तदर्शयति-पार्बहलदेंकारैरिति । आदाविति । ओतायामादावुद्गाहखण्डात्पूर्व देंकारखण्डं प्रयुज्यते चेत्तदौता देंकारादिरित्युच्यते ॥ ९५६-९६२- ॥ (सु०) ओतां लक्षयति-द्विरिति । उग्राहो द्विवारं गेयः । ततो भूरिदेकृति बहुलीकृतदेंकारसहितं खण्डमपि द्विवारं गेयम् । द्वितीये वारे किंचिदधिकं गेयम् । ततस्तृतीयं दीर्घखण्डं शुद्धपाटैः कूटपाटैः खण्डपाटैः मित्रैः व्यस्तैः समस्तैः पाटै रचितम् । शुद्धपाटादिलक्षणं मर्दलप्रकरणे कथयिष्यति । एवं तृतीयखण्डानन्तरं पुनस्तदेव खण्डे देंकारयुक्तं सकृत्प्रयोक्तव्यम् । ततो वर्णसरसंज्ञकं दीर्घ खण्डम् । तत: शुद्धपाटादिनिर्मितमल्पं यस्यां सा ओतेत्युच्यते। तस्याश्रान्ते च छण्डणः कर्तव्यः । इयमोता देंकृतिमुक्तिकेत्युच्यते । एककलवत् चच्चत्पुटे च इयं कर्तव्या । निःसारौ ताले विरचिता इयमेव छण्डणो भवति । उद्धत इति । अस्यामुद्धतो ध्वनिः, विलम्बितं मानम् , विकृटं नृत्यं च । तामेतां केचित्केदार इत्याहुः । एके इमामाहवनीमाहुः । मतान्तरेणान्यथा लक्षयति-पाटैरिति । देंकारप्रचुरैः पाटैः सर्वैः तालयुक्ता स्थापना यस्यां, तामाहवनीमिहुः । आदौ देंकारो निबध्यते चेत्, तदा देंकारादिरित्युच्यते ॥ ९५६-९६१-॥ इत्योता (क०) लक्षणानुसारेण प्रस्तार्य दर्शयितुमाह-यथेति । प्रस्तारस्तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः द्वितीयवारे त्वधिकं कथ्यते यथा - गड्पक् देंगक् गडड्दक् देंगक्, इति । तदेंगडदक् योंकदर्थोगक् तटे कटदकट् दरे होंकथोरेहेटैतके विकयों थों हैं थों दें, इति तृतीयस्वण्डं शुद्धादिपाटरचितम् ॥ ४३३ ततः पुनः प्राचीनर्देकारखण्डं सकृत् । ततः - गड्दक् दधिकाधिक तकग कथन हकदक दडक दरगड धिरिगिड धरगड्दक् । दरगरदग धिरगडदगर, तकधिगथोंगटे धिकथोंटैथिक थोडं खुं खुततक थोरगड२, तक् थोरगडतक योतक् थोतक् पोरगड थोरगड तक धिकयोंगटें, इति वर्णसरात्मकं खण्डम् ॥ ततः प्राचीनं शुद्धादिनिर्मितं स्वल्पम् । एतावत्पर्यन्तं चच्चत्पृटे । गढ़द्ग् टेंद्रग् थोहटें हेते दहं थो२, तद विधियों थरघटे हैं यों तथ तथों विकथोटें, इति निःमारुके छण्डणः । कारस्थाने देकार इत्यन्ये ॥ इत्योता - तद्धिटे मित्यादिग्रन्थत एवावगन्तव्यः । अत्र प्रथमं द्विरावृत्तं खण्डमुद्गाहः । ततो देकार बहुलं द्वितीयबारेऽधिकं द्विरावृत्तं द्वितीयखण्डं मेलापकः । ततः शुद्धादिनिर्मितं तृतीयखण्डं ध्रुवः । ततो ध्रुवशेषत्वेन सकृद्देकार - खण्डस्यानन्तरं वर्णसरात्मकं दीर्घं चतुर्थखण्डमन्तर: । ततोऽल्पं शुद्धादि - निर्मितं पञ्चमं खण्डमाभोगः । एवमन्यत्राप्युद्गाहादयोऽवयवा यथासंभवं द्रष्टव्याः । तदेतावदोतास्वरूपं चच्चत्पुटे प्रोक्तम् । छण्डणस्तु पृथवप्रबन्घोऽप्योताङ्गत्वेन विहितत्वादोतान्तर्भूत एव निःसारुके प्रयोक्तव्यः ॥ इत्योता (२), 55 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ संगीतरत्नाकर: कृत्वैकवारमुद्ग्राहं नातिदीर्घो न चाल्पकः । वादको गम्भीरो ध्वनिमुच्चतरं दधत् ॥ ९६३ ॥ त्रिः खण्डोऽभ्यस्यते कूटबद्धो वर्णसरेण वा । मुहुर्विधायोपशमं छण्डणो यत्र रज्यते ॥ ९६४ ॥ गजरोऽसावुट्टवणं स्यादस्यादौ पुनः पुनः । एकताल्यामुट्टवणं तस्यां निःसारुकेऽथवा ।। ९६५ ॥ भवेदुपशमोsन्यत्र नास्य तालो नियम्यते । गजरावयवाः सर्वे वाद्यन्ते ते निरन्तराः ॥ ९६६ ॥ - 1 ( क ० ) अथ गजरं लक्षयति — कृत्वैकवारमित्यादि । यत्र गजरे प्रथममेकवारमुद्गाहं कृत्वा । नातिदीर्घ इत्यादीनि खण्ड विशेषणानि द्रष्टव्यानि । कूटैः; पटहादिसाधारणैरक्षरैः, वर्णसरेण वा बद्ध उच्चतरं ध्वनिं दधत् । नातिदीर्घः; अत्यायतत्वरहितः । न चाल्पकः ; अतिह्रस्वत्वरहितः । वादको द्धोपगम्भीरः वादक इति तु स्वमुखेनैव पाटाक्षरोच्चारणपटुः तालधरो वा, पटहादिवाद्यवादको वा अभिधीयते । तस्योद्घोष उच्चारणे वादने वा घनध्वनिः, तेन गम्भीरः । एवंविधः खण्डस्त्रीवारमभ्यस्यते । उपशमम् ; उपशमाख्यं वक्ष्यमाणं वाद्यप्रबन्धं मुहुर्विधाय, यत्र छण्डणो रज्यते ; रागयुक्तः क्रियते चेत्, असौ गजरप्रबन्धः । अस्य गजरस्यादावुट्टवणं वक्ष्यमाणं पुनः पुनः स्यात् । तदुट्टणमेकताल्यां स्यात् । उपशमस्तस्यामेकताल्यामथवा निःसारुके भवेत् । अन्यत्रेति । गजराङ्गत्वादन्यत्र प्रबन्धान्तराङ्गत्वे स्वतन्त्रत्वेनेत्यर्थः । अस्योपशमस्य तालो न नियम्यते । अत्रैव तालनियम इत्यर्थः ॥ ९६३-९६६ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः यथा-तथोह तथोह धियों२, हटे । थोंहदग थोहटें, इत्युदृवणमेकताल्यां पुनः पुनः । थोंटें दंदगेन थोंगटें में धिकतक, इत्युद्वाहः। प्रतिग्राहणा वोच्यते । अयं किलैकताल्यां कृतः । गड्दगत देंगगनग्दिहिक् । कथोंगतकधिक थोंगटेंहें थोदगक् । गिड्दक्योंगक्कयों ३, देंथोंहटगों ३, दें, इति त्रिरेकताल्यां खण्डः । केवलोऽप्ययं खण्डो गजर इत्युच्यते । गड्दक्योंगक्योंगक्कयोहरघट थरे, इत्येकताल्यां पुनः पुनरुपशमः । थोहटें, इति उडण्डणः । एतत्सर्वं नैरन्तयेंण वाद्यते ॥ इति गजर: (क०) प्रस्तार्य दर्शयति-तथोह तथोहेत्यादि । उग्राहं प्रस्तार्य प्रतिग्रहणा चोच्यत इत्युग्राहस्य संज्ञान्तरमुक्तम् । लोके हि तथा ताण्डिका वदन्ति । प्राकृतत्वेन ‘पडिघा' इति गजरावयवाः सर्वे वाद्यन्ते । ते निरन्तरा इत्युक्तत्वादत्रावयवत्वेनोक्तान्युपशमच्छण्डणोदृवणानि नैरन्तर्येण प्रयोज्यानि । अयं गजर उग्राहे ध्रुवाभ्यां द्विधातुको वेदितव्यः । उपशमादयः पृथक्प्रबन्धा अप्यङ्गत्वेन विहिताः प्रयुक्ताः । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ इति गजरः (३) (सु०) गजरं लक्षयति-कृत्वेति । एकवारमुद्ग्राहं गीत्वा, नातिदीर्घः, नाल्पः, वादकस्य भेदेन गम्भीरः उच्चध्वनि विदधानः कूटपाटैः पूर्वोक्तवर्णसरेण वा निबद्धः खण्डः त्रिवारमभ्यस्य, तेन वोपशमं मुहुविधाय, छण्डणः पूर्वोक्तो यत्र क्रियते असौ गजर: । अस्य आदौ पूर्वोक्तमुट्टवणं गेयम् । तच्चैकताल्या निःसारुकतालेन वा भवेत् । उपशमस्तु अन्यत्र तालेन वा भवेत् । अस्य तालनियमो नास्ति । सर्वेऽपि गजरावयवा गजरसंनिकृष्टा वाद्यन्ते ॥९६३-९६६ ॥ इति गजरः (३) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ संगीतरत्नाकर: प्रत्येकं द्विः प्रयुक्तेनोपशमेनान्तयोगिना । युक्तं खण्डत्रयं शुद्धैः कूटैः खण्डैश्च निर्मितम् ॥ ९६७ ॥ पाटैर्व्यस्तैः समस्तैश्च बद्धं वर्णसरेण वा । यस्यां स्याद्वादकस्थूल मिलत्कोलाहलाकुलम् || ९६८ ॥ छण्डान्ता रिगोणी सा दधती ध्वनिमुत्तमम् । अस्मुट्टवणं कार्य वैकल्पिकमुपक्रमे ।। ९६९ ।। दीनृते भवेदेषोपमा ललिता मता । ललितं णं तदा तल्ललिते भवेत् ॥ ९७० ॥ अन्त्यखण्डात्सोपशमाच्छण्डणाद्दीप्त नर्तनम् । 1 ( क ० ) अथ रिगोणीं लक्षयति-— प्रत्येकमित्यादि । द्विद्विवारं प्रयुक्तेनान्तयोगिना खण्डान्तसंबन्धेनोपशमेन युक्तम् । पुनः किंविधम् ? शुद्धैः कूटैः खण्डैश्च निर्मितम् । शुद्धास्तत्तद्वाद्यप्रतिनियता वर्णाः, कूटा: सर्ववाद्यसाधारणाः, अत्र खण्डशब्देन वर्णसमुदायावयवभूता उच्यन्ते, तैश्च निर्मितम् । व्यस्तैः समस्तैश्च पाटैर्नागबन्धादिभिर्बद्धं वर्णसरेण वा बद्धं प्रत्येकमेवंविधं खण्डत्रयं यस्यां स्यात् सा रिगोणीति संबन्धः । पुनः किंविधा ? वादक स्थूल मिलत्कोलाहलाकुलमुत्तमं ध्वनिं दधती मध्ये मध्ये वादको वाद्यध्वनिमेलनेन खलु कोलाहलं स्थूलध्वनिं करोति, तेन संकीर्णमुत्तमं सुखश्राव्यमित्यर्थः । तादृशं ध्वनिं दधती । छण्डणोऽन्ते यस्याः सा । अस्यां रिगोण्यामुपक्रम उट्टवणं वैकल्पिकं कार्यम् । एषा रिगोणी दीप्तवृत्त उद्धते भवेत् । उपशमाः खण्डान्तेष्वङ्गत्वेन प्रयुक्ताः | ललिते लास्यनृत्ये मताः । उट्टवणं यदि स्वयं ललितं तदोट्टवणं ललितनृत्ते भवेत् इत्यनेनोदृवणस्य कदाचिदुद्धतत्वमप्युक्तं भवति । अन्त्यखण्डादारभ्य सोपशमच्छण्डणे दीप्तनर्तनम्, उद्धतं नृत्तं प्रयोज्यमित्यर्थः ॥ ९६७–९७०-॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः यथा-तकें धिक्के तकधिक तककि थोंकटगेन२ थोंगक्कयों३ इति प्रथमखण्डम् । टैथोटेंगें त्योंदियोंधिहटें । इत्युपशमो द्विः । तकर्ग दडरद कुथिकुर्गदडधिक्क दक्वर्ग दडग्दक्योंगत्तकधिक कधिकत धिककधि टेंगेंनथोंग२ थोंगक्कथों इति द्वितीयखण्डम् । टें यों हटगें थोंटें । इत्युपशमो द्विः। थोंगटं दरगड धिरगड धित्थाः थोंकट तकथों कटधिक्का । थोंधिक तद्धितक् । इति तृतीयखण्डम् । कत्थोंटक्क थाहकटगे धिकटै थौ हटगें थों हटें इत्युपशमो द्विः । तथों गिड्दक् दिगनदिगन दिगनक थोंगतद्धितक् । थोंहेंटें । इति च्छण्डणः । इत्येकताल्यामुदाहरणम् ॥ इति रिगोणी नातिदीर्घ द्विराचं स्यात्खण्डं शुद्धादिनिर्मितम् ॥ ९७१ ।। (क०) तक् धिक्केमित्यादिः प्रस्तारो द्रष्टव्यः । इत्येकताल्यामुदहरणमिति । लिखिते प्रस्तार इत्यर्थः । एवं तालान्तरेऽपि द्रष्टव्यमिति भावः । खण्डत्रययुक्तत्वादयं त्रिधातुर्वेदितव्यः ॥ इति रिगोणी (४) (सु०) रिगोणी लक्षयति-प्रत्येकमिति । शुद्धादिपाटै: व्यस्तैः समस्तैर्वा वर्णसरेण वा यन्निबद्धं प्रत्येकं द्विवारप्रयुक्तेन उपशमाख्येन अन्तेन युक्तं खण्डत्रयं गीयते । वादकस्थूलेन कोलाहलेन युक्तेन व्याकुलो भवति, अन्ते च छण्डणो यस्यां सा रिगोणी । अस्याम ; उपक्रमे उट्टवणं वैकल्पिकेन क्रियेत, तदा न वेति । इयं रिगोणी दीप्तनृत्ते नयेत् । ललिते तु उपशमयुक्ता, यदि उट्टवणं ललितं स्यात् , तदा अन्त्यखण्डात् सोपशमं कार्यम् । दीप्तनर्तने च उद्धतः कार्यः ॥ ९६७-९७० ॥ इति रिगोणी (४) (क०) अथ कवितं लक्षयति--नातिदीर्घमित्यादि । यत्र कविते Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ संगीतरत्नाकरः यद्वा वर्णसरेणाथ तादृक्खण्डं सकृद्भवेत् । इत्युग्राहध्रुवौ कृत्वा स्वोद्ग्राहान्त्यदलेऽथवा ॥ ९७२ ।। स्वोद्ग्राहे यत्र मुक्तिस्तत्कवितं कवयो विदुः । अस्य नामान्तरं प्राहुरन्येऽवच्छेद इत्यपि ।। ९७३ ॥ भवेदिह द्रुतं मानं वर्णाः प्रायः स्युरुद्धताः ।। बाहुल्यानर्तनं दीप्तं निःशङ्केनेति कीर्तितम् ॥ ९७४ ॥ यथा-गड्दक्दगिनदंदं गिनथोंग धिक्कट नकाधितक देंहकदर गडदरिक्थ रिक्थ रिदरगड थरिक थों गंडके । धिक्थों टें२, इत्युद्गाहो द्विः। झेंकक नखखिन२ तहें हके नखखिनथों, इति ध्रुवाख्यं खण्डम् । ततो देंहकडरगडेत्यादिनोद्गाहान्त्यखण्डेनोद्गाहेण वा सकलेन गड्दगित्यादिना त्यागः । निःसारुताले चेदमुदाहरणम् ॥ इति कवितम् शुद्धादिनिर्मितम् । आदिशब्देन कूटाः खण्डाश्च गृह्यन्ते । यद्वा वर्णसरेण निर्मितं नातिदीर्घमाद्यं खण्डं द्विः प्रयोज्यं स्यात् । अथ ; अनन्तरं तागाद्यखण्डसदृशं द्वितीयखण्डं सकृद्भवेत् इत्युग्राहध्रुवाविति। तत्राद्यं द्विरभ्यस्तमुद्ग्राहः । अथ सकृत्कृतं ध्रुवः । तौ कृत्वा स्वोद्ग्राहान्त्यदले स्वकीयोद्ग्राहान्त्यार्धे । अथवा स्वोद्माहे समस्त एवोद्ग्राहे वेत्यर्थः । मुक्तिनासो भवति तत्कवितं विदुरिति संबन्धः । अस्य कवितस्य ; अवच्छेद इति नामान्तरमन्ये प्राहुः । इह, कविते द्रुतं मानं भवेत् । प्राय उद्धता इति । उद्धतप्रचुरा इत्यर्थः । बाडुल्याद्दीप्तं नर्तनमिति । वर्णानुगुण्येनेति भावः ॥ -९७१-९७४ ॥ (क०) गड्दग्दगिनेत्यादिप्रस्तारो लक्षणानुसारेण द्रष्टव्यः । मेलापकाभोगहीनत्वादिदं द्विधातु वेदितव्यम् ॥ इति कवितम (५) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ४३९ उदाहोऽल्पो ध्रुवो नातिदीर्घः शुद्धादिनिर्मितः । स्याद्वर्णसरबद्धो वा छण्डणोऽन्ते यदा तदा ॥ ९७५ ॥ पदं वदन्ति वाद्यज्ञाः प्रायस्तद्दीप्तनर्तने । वादयित्वा यति मध्ये प्रबन्धस्य विमुच्यते ॥ ९७६ ।। पाटेन यत्र तत्प्रोक्तमपरैः सूरिभिः पदम् । यथा-तद्देहें तहें ततक्तदै । इत्युद्गाहः । तकट धिकट घिधिकिटधिकिटाड्दगधिकतक धिकथोंगटें । इति ध्रुवः । गत कटविधि कटधिक्किाडदगविधिकट धिकिरडाडगधिगकिग्डाहगयों? हंघिकयोंगटें । इति च्छण्डणः । इदमुदाहरणं वर्णताले ॥ ___ इति पदम् (सु०) कवितं लक्षयति–नातिदीर्धमिति । शुद्धपाटादिनिर्मितं वाद्यखण्डं वर्णसरेण वा निर्मितं द्विर्गेयम् । तेन तत्सदृशमेव खण्डं सकृद्यं भवेत् । एवमुग्राहध्रुवौ गीत्वा उग्राहसहितेऽन्त्यखण्डे उद्ग्राहे वा यस्मिन् मुक्तिः तत्कवितम् ।। -९७१-९७४ ॥ इति कवितम् (५) (क०) अथ पदं लक्षयति-उदग्राहोऽल्प इत्यादि । ध्रुवो नातिदीर्घ इत्यनेन वस्योद्ग्राहापेक्षया द्विगुणदीर्घत्वं विवक्षितम् । ततोऽपि दीर्घत्वं निषिध्यते । शिष्टं स्पष्टम् । मतान्तरेण पदस्य लक्षणमाहवादयित्वेति । प्रवन्धस्य ; उक्तलक्षणस्य पदप्रबन्धस्य, मध्ये ; उग्राहध्रुवयोरन्तराले, उग्राहात्परं ध्रुवात्पूर्वमित्यर्थः । यति ; प्रथमोक्तं यतिप्रबन्धं वादयित्वा, पाटेन तत्पूर्वोक्तेषु हस्तपाटेषु येन केनचित्पाटेन विमुच्यते त्यज्यते यत्र तत्पदं प्रोक्तम् । उग्राहध्रुवकाम्यामिदं पदं द्विधातु ॥९७५-९७६-॥ (क०) तदेहें तद्देमिति प्रस्तारः ॥ इति पदम् (६) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० संगीतरत्नाकर: एकताल्यां द्रुते 'माने नर्तनारम्भगोचरे ॥ ९७७ ॥ समं च करटाटीपिकाहलावादने सति । अभ्यस्तो वाद्यखण्डोऽल्पः कूटेनैकेन निर्मितः ॥ ९७८ ॥ तद्धीमिति च्छण्डान्तः स्मृतो मेलापको बुधैः । विद्यावन्तः स्वसमये प्राहुर्मेलापनीमिमाम् ॥ ९७९ ॥ वर्णानां टिरित्येषामावृत्तिष्टीपिरुच्यते । यथा- - थोंगटे गड्दनं योंगटे । इति यावत्प्रबन्धपूर्ति पुन:पुनर्वादनीयम् । तद्धमिति । इति च्छण्डणः, इति मेलापकः । इति मेलापक: (सु० ) पदं लक्षयति - उमाह इति । अल्प उद्ग्राहः, धुवश्च नात्यन्तदीर्घः शुद्धपाटादिभिर्निर्मितः ; वर्णसरेण वा अन्ते छण्डणः तदा पदमित्युच्यते । मतान्तरेणान्यथा लक्षयति - वादयित्वेति प्रबन्धस्य पूर्वोक्तयति वादयित्वा पाटेन यत्र विमुक्तिः तत्पदम् ॥ ९७५-९७६- ॥ इति पदम् (६) (क० ) अथ मेलापकं लक्षयति - एकताल्यामिदि । दुते माने नर्तनारम्भगोचरे नृत्तारम्भविषये । समम्; एककालम् । करटाटीपिकाइलावादने सतीति । करटायाष्टीपि: करटाटीपि, काहलाया वादनं काहलावादनं, तयोर्द्वन्द्वैकवचनम् । कूटेनैकेनेति । शुद्धखण्डाभ्यां विनेत्यर्थः । तद्धीमित्यनुकरणम् । तदात्मक छण्डणोऽन्ते यस्येति स तथोक्तः । विद्यावन्तः; केवलं लक्ष्यप्रयोक्तारः । तानेव लोके ' विद्यावंतरू' इति कर्णाटा वदन्ति । टिरिकीत्येषामावृत्तिरिति । टिरिकि टिरिकि टिरिकि टिरिकि, इति टीपे: स्वरूपमुक्तम् ॥ - ९७७-९७९ ॥ 1 ताळे इति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः खण्डं शुद्धादिभिः पाटबद्धं वर्णसरेण वा ॥ ९८० ॥ अल्पं कोमलनादं च सुकुमाराक्षरान्वितम् । अभ्यस्तं कोमले नृत्ते भवेदुपशमाभिधम् ।। ९८१ ॥ यथा-टेथोंगे पोटेटे थाहटगे थायें घोटे ॥ इत्युपशम: (क०) थोंगटें गड्दद्ममित्यादिः प्रस्तारः । अयं केवलं मेलापकखण्डात्मकत्वादेकधातुकोऽवगन्तव्यः ॥ इति मेलापक: (७) (सु०) मेलापकं लक्षयति–एकताल्यामिति । एकतालीसंज्ञके द्रुतलये ताले, नर्तनारम्भगोचरे ; नृत्तारम्भविषये सति, कम्टादिवादने च युगपत विद्यमाने अल्पकूटपाटेन एकेन निर्मित: अभ्यस्तश्चेत , तीमिति वर्णोऽन्ते यस्य, एवंविध: छण्डणश्चान्ते वाद्यते यस्य, स मेलापकः । वादकप्रसिध्या मेलापनीमिति। टिरिकि टिरिकीति वर्णानामावृत्तिवशात् टीपिरित्युच्यते॥-९७७-९७९-॥ ___ इति मेलापक: (७) (क०) अथोपशमं लक्षयति-खण्डं शुद्धादिभिरिति । आदिशब्देन कूटा गृह्यन्ते । स्पष्टमन्यत् ॥ -९८०, ९८१ ॥ (क०) टेंथोंकट इत्यादिः प्रस्तारः । अयमप्येकधातुकः । इत्युपशम: (८) (सु.) उपशमं लक्षयति-खण्ड मिति । खण्डे सति शुद्धादिभि: पाटे: वर्णसरेण वा उपनिबद्धं, सुकुमाराक्षगन्वितं कोमलनादं च यत्र कोमले नृत्ते अभ्यस्तं तदुपशम: ॥ -९८०, ९८१ ॥ इत्युपशमः (८) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ संगीतरत्नाकरः आदौ वाद्यपबन्धानां शुद्धकूटादिनिर्मितः । यः खण्डो वाद्यते प्राहुरुग्राहं तं महत्तमाः ।। ९८२ ।। उदाहोपशमादीनां यद्यप्यन्यानतोदिता । यावत्पूरणमावृत्तेस्तथापि स्यात्मबन्धता ॥ ९८३ ॥ द्विरावृत्तिरनात्तिर्वा स्यादङ्गतया स्थितौ ! यथा-तें टें है तट्टे तक्रतटे, इति यावत्प्रबन्धपूरणमभ्यासादुद्दाहः प्रबन्धः । अङ्गत्वं तु द्विः सकृद्वा । प्राक्प्रयोगस्त्वङ्गप्रबन्धयोस्तुल्यः ॥ इत्युग्राहः (क०) अथोद्ग्राहं लक्षयति-- आदावित्यादि । शुद्धकूटादिनिर्मित इत्यादिशब्देन खण्डा गृह्यन्ते । महत्तमाः; अतिशयेन महान्त आचार्या इत्यर्थः । ननूग्राहादीनां प्रबन्धावयवत्वेनोक्तानां कथं पृथक्प्रबन्धतेत्यत आह-उद्याहोपशमादीनामित्यादि । अत्रादिशब्देन मेलापकच्छण्डणादयो गृह्यन्ते । अन्याङ्गता प्रबन्धान्तराङ्गभावो यद्यप्युदिता । तथापि यावत्पूरणमिति । यावतीभिरावृत्तिभिः प्रबन्धाकाङ्क्षाबुद्धिः पूर्यते तावदावृत्तहेतोः प्रबन्धता स्यात् । अयमर्थः-- उग्राहद्यवयवेषु यत्रैक एव प्रबन्धत्वेनोच्यते तत्रेतरावयवस्थाने तमेव प्रयुज्य, अवयवित्वेन प्रबन्धः पूरणीय इति । अत एवोद्ग्राहोपशमादीनां प्रबन्धानामेकधातुकत्वदोषोऽपि निवर्तनीयः । एकधातुकत्वे ह्यप्रबन्धत्वदोषः प्रसज्यते । प्रबन्धानामनेकावयवत्वनियमात् । एकधातुकस्य तु तदभावात् । तत्रावृत्तिकृतानेकत्वाङ्गीकारे तु न स दोष इति सर्व समञ्जसम् । यद्येवं प्रबन्धत्वस्यान्याङ्गत्वस्य च को भेदः ? इत्यत आह-द्विरात्तिरित्यादि । अझतया स्थितौ, द्विरा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ षष्ठो वाद्याध्यायः उद्धतं ध्वनितं कूटबद्धं खण्डं मुहुर्मुहुः ।। ९८४ ।। प्रयुक्तं स्यात्पहरणं ध्रुवाद्याभागगाचरे । नृत्ते पायः प्रयोक्तव्यमन्यत्रापीच्छया भवेत् ॥ ९८५ ॥ यथा-कथोंगक्क थोंगत्योंगटयोंगक योग थोगयोक् कथोगक् योंकट योगक्थोकटं योगक् । गड्दक्काधिक थोंगक् । टगे दयोंह। दिनिकुकुचित्यो हधिकं घिटं इति पुनः पुनः प्रयोज्यम् । एकताल्यामिदमुदाहरणम् ॥ इति प्रहरणम् वृत्तिः ; द्विवारमावृत्तिः । अनावृत्तिः, सकृत्प्रयोगः । बहुधावृत्तौ प्रबन्धतैवेत्यर्थः ॥ ९८२-९८३- ॥ (क०) तेर्टेतहेमिति प्रस्तारः । प्राक्प्रयोगस्वरुपबन्धयोस्तुल्य इति । उग्राहस्यान्याङ्गत्वे पृथक्प्रवन्धत्वे च प्राक्प्रयोगः समान एव । आवृत्तय एव भेदिका इत्यर्थः । अयमप्येकधातुः ॥ इत्युग्राहः (९) (सु०) उग्राहं लक्षयति-आदाविति । शुद्धकूटपाटादिभिनिर्मितः खण्ड: वाद्यप्रबन्धानामादौ यो वाद्यते स उग्राहः । उदग्राहेति । उग्राहोपशमादीनां यद्यप्यन्याङ्गत्वमुक्तं, तथापि प्रबन्धपूरणपर्यन्तमावृत्तौ कृतायां स्वतन्त्रप्रबन्धत्वं भवति । अङ्गत्वेन प्राधान्येन स्थितौ सत्यां द्विरावृत्तिः । अनावृत्तिर्वा; सकृत्प्रयोगः । बहुधावृत्तौ प्रबन्धतैवेत्यर्थः ॥ ९८२-९८३- ॥ इत्युद्ग्राह: (९) (क०) अथ प्रहरणं लक्षयति-उद्धतमित्यादि । ध्वनितं; घोषयुक्तम् । कूटबद्धं ; कूटैरेव बद्धम् । मुहुर्मुहुः प्रयुक्तं खण्डं प्रहरणं स्यात् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ संगीतरनाकरः उद्याहः स्यात्ततः खण्डं शुद्रकूटादिनिर्मितम् । तद्वर्णसरवद्धं वा प्रयुज्य द्विरिदं द्वयम् ॥ ९८६ ॥ ततः प्राक्खण्डसहितं ताहक्कूटपयं दलम् । वाद्यते छण्डणोऽन्ते च यत्र सोऽवत्सको भवेत् ॥ ९८७॥ प्रयोज्यं नर्तने दीप्ते शाहूदेवेन कीर्तितः । यथा-गड्दग्ददं गड्दक्थिक्कट तकधिक्कट तक्थिक्तक् । इन्युट्टाहः । खडि खडि खखनख खिदक् झेंखखनख खिदक्तदक्क धिक्कककगिणनग थोंगदिहि किं थोगदिहिक्कितक धिकथोंगटे गडक् । तकधिक थोंगटें । इति द्वितीयं खण्डम् । एतच्च सहोराहेण पुनः पुनर्वादयेत् । झक झखिखिन्नखनखखित हैं खखनखझें खन खरिब तुडि हिदिहि । कयोंगक् । इति तृतीयखण्डं पूर्वखण्डेन सह वादयेत् । तकधिक तक्करे घटथयोंगक थोंगक्कटें, इति च्छण्डणः । इदमुदाहरणं रङ्गविद्याधरताले ॥ इत्यवत्सक: ध्रुवाद्याभोगगोचरे प्रायः प्रयोक्तव्यमिति । अयमर्थः -- ध्रुवादिभिः सभस्तावयवैः परिमितं यावन्नृत्तं तावति नृत्ते खण्डस्य मुहुरावृत्त्या प्रायेण प्रयोज्यमिति । अन्यत्रापीति । खण्डनृते चेत्यर्थः ।। -९८४-९८५ ॥ (क०) कथों गकथोमित्यादिः प्रस्तारः । इदमप्येकधातुकः ।। इति प्रहरणम् (१०) (सु०) प्रहरणं लक्षयति-उद्धतेति । उद्धतनादात् कूटपाटेबंद्धं पुन: पुनर्गीयमानं प्रहरणमित्युच्यते ॥ ९८४, ९८५ ॥ इति प्रहरणम् (१०) (क०) अथावत्सकं लक्षयति- उदाहः स्यादित्यादि । इदं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः कूटादिबद्धः खण्डः स्याच्छण्डणो वाद्यमोक्षकः ॥ ९८८ ॥ यथा-गड्दग् टैंदवर तकथों थोहटें हतटहें धों२ तकयों तकथों धिकथों तत घिधि थों थों रघ टै टै थोः तथोटे ।। इति च्छण्डण: द्वयमिति । उद्ग्राहं द्वितीयखण्डं च द्विः प्रयुज्य, ततोऽनन्तरं, प्राक्खण्ड. सहितं; द्वितीयखण्डसहितं, कूटमयं ; कूटाक्षरप्रचुर ताइद्वितीयखण्डसदृशं दलं तृतीयखण्डं यत्र वाद्यते, अन्ते च च्छण्डणो वाद्यते सोऽवत्सको भवेत् ॥ ९८६, ९८७- ॥ (क०) गड्दग्दंदमित्यादिः प्रस्तारः । अयं त्रिधातुकः । इत्यवत्सकः (११) (सु०) अवत्सकं लक्षयति- उग्राह इति । पूर्वपूर्वलक्षित उद्ग्राहः, ततः शुद्धपाटादिनिबद्धं खण्डं वर्णसरनिबद्धं वा ज्ञेयमुद्ग्राहः । खण्डं च द्विः प्रयोक्तव्यम् । ततः पूर्वं खण्डसहितं तादृशैः पाटै रचितं द्विर्वादयित्वा, अन्ते च छण्डणो गीयते यत्र सोऽवत्सकः ॥ ९८६, ९८७- ।। इत्यवत्सकः (११) ' (क०) अथ च्छण्डणं लक्षयति-कूटादिवद्धः खण्ड इत्यादि । वाद्यमोक्षक इति । वाद्यस्य वाद्यप्रबन्धस्य मोक्षकोऽवसानकारकः । इदमन्याङ्गत्वे । पृथक्प्रबन्धत्वे तूग्राहोक्तो न्यायो द्रष्टव्यः । अत्र द्वयोरप्यन्तप्रयोक्तव्यः समानः -९८८ ॥ (क०) गड्दग्टे मित्यादिः प्रस्तारः । अयमप्येकधातुकः ॥ इति च्छण्डणः (१२) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ संगीतरत्नाकर: शुद्धकुटादिभिर्बद्धः खण्डो वर्णसरेण वा । अभ्यस्तः स्यादद्रुते माने तुडुका दीप्तनतेने ।। ९८९ ॥ द्रुताद् द्रुततरं मानमत्र लक्ष्येषु दृश्यते । उद्ग्राहध्रुवकाभोगे यत्रान्यतमखण्डकम् ।। ९९० ।। वादनीयं परे प्राहुरन्ये तु तुडुकां जगुः । उद्मावकाभोगोमाहाणां वादनं क्रमात् ॥ ९९९ ॥ यथा - टें देदगि तथोंगटेधिकतः रघटे हे कथीः टेगेधिक तटथोंगः गण नगिः थोंगतक विकथोंगटे, एकताल्यामिदमुदाहरणम् ॥ इति तुडुका (सु०) छण्डणं लक्षयति - कूटादीति । कूटपाटादिनिबद्धः खण्डः छण्डणः ॥ - ९८८ ॥ इति च्छण्डण: (१२) (क०) अथ तुडुकां लक्षयति — शुद्धकूटादिभिरित्यादि । द्रुते माने दीप्तनर्तनेऽभ्यस्तखण्डस्तुङका स्यात् । अत्र तुडुकायां -- लक्ष्येषु द्रुताद्भुततरं मानं दृश्यत इति । देशीत्वेनानियमादिति भावः । अस्या एव मतान्तरेण लक्षणान्तरमाह - उद्याहेत्यादि । परे; आचार्याः, अत्र तुडुकायामुद्माहवकाभोगेष्वन्यतमं खण्डकं वादनीयं प्राहुः । तदेयं द्विधातुका | पुनरपि मतान्तरेण लक्षणान्तरमाह - अन्ये विति । अन्ये ; आचार्यास्तु उद्ग्राहध्रुवकाभोगे उद्ग्राहाणां क्रमाद्वादनं तुडुकां जगुः । तदानीमियं त्रिधातुका भवति ॥ ९८९-९९१ ॥ 1 (क० ) टेंददंगितेत्यादिः प्रस्तारः । अस्मिन्पक्ष इयमेकधातुका ॥ इति तुडुका (१३) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः यत्र शुद्धादिभिर्बद्धः खण्डो वर्णसरेण वा । वितालः स्याद् द्रुतलयः पर्यन्ते तु विलम्बितः ।। ९९२ ।। कचित्कापि कोमलैश्चारुगुम्फितः । यत्रासौ मलपः प्रोक्तः प्रायिको दीप्तनर्तने ।। ९९३ ॥ यत्रोद्ग्राहः सकृद् द्विर्या ध्रुवकोऽथ सकृद्भवेत् । व्यापकाक्षरमित्रैस्तद्धियों टेंर्देभिरक्षरैः ॥ ९९४ ॥ बद्धं निरन्तरयति प्राहुतं मलपं परे । ४४७ यथा - गड्दक् तद्धित्थों हथहरे घंटें गगनगतक धिक्क थौं हटें हैं थोदक् । तक्क तहधिक थोकथोहक थो३ हट्टै ि खिखरखिखिखेरथहैं हैं थोहगक् । दिहं कटदहं कटगड्द गथरिकटं२ रिकटतक३ तक विधिक थोऽथद । इदमुदाहरणं मुद्रित - मण्ठताले || इति मलप: (सु० ) तुडुकां लक्षयति - शुद्धेति । शुद्धपाटकूटादिभिः वर्णसरेण वा निबद्ध: खण्ड: अभ्यस्त: तुडुकेत्युच्यते । उद्माहेति । केचिदेतस्यामुप्राहादिषु अन्यतमं खण्डं वादनीयमित्याहु: । अन्ये तु उद्ग्राहादीनां चतुर्णां क्रमेण वादनात् तुडुकेत्याहुः ॥ ९८९-९९१ ॥ इति तुडुका (१३) (क० ) अथ मलपं लक्षयति-यत्र शुद्धादिभिरित्यादि । यत्र मलपे शुद्धादिभिर्वर्णसरेण वा बद्धः खण्डः । द्रुतलय: सन्विशाल: स्यादिति । खण्ड आदित आरभ्य भागत्रये द्रुतलयः प्रयोक्तव्य इत्यर्थः । पर्यन्ते तु विलम्बित इति । चतुर्थभागे विलम्बितलयः प्रयोक्तव्य इत्यर्थः । मतान्तरेण लक्षणान्तरमाह - यत्रोद्ग्राह इत्यादि । व्यापकाक्षरमित्रैरिति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ संगीतरत्नाकरः सोदाहरणलक्ष्माणि बालबोधार्यमभ्यधाम् ।। ९९५ ।। लक्ष्ममात्रमथो वक्ष्ये विस्तरवस्तमानसः । मलपाङ्गं तु मलपेनाङ्गेन मलपेन च ।। ९९६ ॥ ___ इति मलपाङ्गम् व्यापकाक्षराणि कादीनि षोडश, तैर्मिश्राणि कूटाक्षराणि तद्धिथों में दें, इत्यक्षराणि मर्दलप्रतिनियतत्वेन शुद्धानि, तैर्बद्धम् । निरन्तरयतिम विलम्बितविच्छेदं मलपं तं परे प्राहुः । अस्मिन् पक्षे द्विधातुकोऽयम् ॥९९२-९९४-॥ (क०) गड्दम् तद्धिों, इत्यादि प्रस्तारः । अस्मिन्पक्षेऽयमेकधातुकः ॥ इति मलपः (१४) (सु०) मलपं लक्षयति-योति । शुद्धपाटादिभिर्वर्णसरेण वा निबद्धः, वितालः, तालशून्यः, द्रुतलय: प्रान्ते विलम्बितलयान्वितः दीप्तादिवर्णयुक्तः खण्डो यत्र स मलप: । मतान्तरेणान्यथा लक्षयति-योति । उद्ग्राहः सकृद् द्विर्वा गेयः । ध्रुवः सकृत् वक्ष्यमाणब्यापकाक्षरमिश्रः तद्धियोटेदेमित्येतैरक्षरैः निबद्धं निरन्तरयतियुक्तं मलपं परे प्राहुः ॥ ९९२-९९४- ॥ इति मलप: (१४) (क०) अथ मलपाङ्गादीनां संक्षेपेण लक्षणमात्रमेव वक्तुमाहसोदाहरणेति । तत्र मलपाझं लक्षयति--मलपाङ्गं विति । अङ्गेन मलपेन । पुनरपि मलपेन चेत्यनेनाङ्गिना मलपेन चेति गम्यते । मलप एवाङ्गत्वेनाङ्गित्वेन च प्रयुज्यते चेन्मलपानं नाम प्रबन्धो भवतीत्यर्थः । ।। -९९५, ९९६ ॥ इति मलपाङ्गम् (१५) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः पाटैर्मलपपादः स्याद्विषमैर्मलपोपमः । ! इति मलपपाट: द्रुतैः करतलाघातैर्विकृतैर्यत्र वाद्यते ॥ ९९७ ॥ वाद्यं विच्छिद्य विच्छिद्य च्छेदमिच्छन्ति तं बुधाः । इति च्छेदः ४४९ ( सु० ) एवं मुग्धपरिज्ञानार्थं सदृष्टान्तान् भेदानुक्त्वा दृष्टान्तादीनवशिष्टभेदान् लक्षयति- मलपाङ्गमिति । अङ्गभूतेन मलपेन मुख्येन च मलपेन युक्तं मलपाङ्गम् ॥ ९९५, ९९६ ॥ इति मलपाङ्ग (१५) (०) विषमैः पाटैः कृतो मलपोपमः मलपसदृशो मलपपाटः स्यात ॥ ९९६ ॥ इति मलपपाट: (१६) (सु० ) पाटैरिति । विषमैः पाटैः मलपवदुपनिबद्धयमानो मलपपाट: ॥ ९९६- ॥ इति मलपपाट: (१६) (क० ) अथ च्छेदः - बिकृतैरिति । द्रुतस्यात्र प्रकृतत्वान्मध्यविलम्बिता विकृता उच्यन्ते ॥ - ९९७, ९९७-॥ इति च्छेदः (१७) (सु०) द्रुतैरिति । करतलस्य आघातैः, द्रुतैः विकृतैश्च यत्र वाद्यं वाद्य स च्छेदः ॥ - ९९७, ९९७ ॥ इति च्छेद: (१७) 57 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः ओतां कृत्वा द्विरुद्ग्राहः सकृद्वा व्यापकाक्षरैः ॥ ९९८ ॥ सपाटैर्विहितो यत्र प्रान्ते रचितदेकृतिः । मध्ये लये छण्डणः स्याद्रूपकं तन्निरूपितम् ॥ ९९९ ॥ इति रूपकम् निबद्धो वादितो गीतवाद्यसंधौ मतोऽन्तरः । इत्यन्तरः अन्तरं वादयित्वा चेदनिवद्धस्य वादनम् ॥ १००० ॥ क्रियतेऽन्तरपाटः स्यात्तदा निःशङ्कसंमतः । इत्यन्तरपाट: समाश्लिष्टघनश्लक्ष्णपाटवर्णविनिर्मितः ॥ १००१ ॥ हस्तलाघवसंपन्नः खोजः संजल्पितो बुधैः । इति खोज: (क०) इतः परं रूपकादीमां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ।। -९९८-१०१६ ॥ (सु०) इदानीं रूपकादीनां लक्षणं वक्तुमाह-ओतामिति । पूर्वोक्तामोतां कृत्वा यत्रोद्ग्राहः व्यापकाक्षरैः पाटसहितैः कृतः, इति रूपकम् ; अन्ते च देंकारेण युक्तः सकृत् द्विर्वा गेय: मध्यलये च छण्डणः, तद्रूपकम् (१); निबद्धमिति । पाटतः पाटैीत्वा, गीतवाद्यसंधिगत: निबद्धोऽन्तरः, इत्यन्तर: (२); अन्तरमिति । अन्तरवादनानन्तरम् , अनिबद्धस्थवादनं क्रियते चेत् तदन्तरपाटः, इत्यन्तरपाट: (३); समेति । समैः समानैः श्लिष्टैः घनैः निबिडै: श्लक्ष्णैः मसृणैः पाटवणैर्निबद्धः हस्तलाघवसंयुक्तेन वाद्यमानो खोजः, इति खोज: (४); Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ षष्ठो वाद्याध्यायः ४५१ कृत्वा खण्डं पाटबद्धं यतिवद्वादनं भवेत् ॥ १००२ ॥ एवमात्तिकरणादाहुः खण्डयति बुधाः । . इति खण्डयतिः खण्डच्छेदसमायोगात्खण्डच्छेदपबन्धयोः ॥ १००३ ।। छेदैर्व्यक्तैः समायुक्तं खण्डच्छेदं परे जगुः । इति खण्डच्छेदः यस्यां विरतिरन्ते च तालस्य व्यापकाक्षरैः ।। १००४ ॥ सपार्बद्धखण्डा या साख्यातावयतिर्बुधैः । इत्यवयतिः पाटस्य खण्डनाद्वाये खण्डपाटोऽभिधीयते ॥ १००५ ॥ इति खण्डपाट: खण्डः स्यात्खण्डमध्येऽपि खण्डशो वादने सति । इति खण्डकः स्रोतोगताख्यया यत्या खण्डहुल्लोऽभिधीयते ॥ १००६ ।। इति खण्डहुल्लः कृत्वेति । पाटनिबद्धं खण्डं कृत्वा पूर्वोक्तयतिवद् वादनं यत्र भवति । एतदावृत्तौ खण्डयतिः, इति खण्डयतिः (५); खण्डच्छेदयोः संयोगात् खण्डच्छेदः । अन्ये तु च्छेदैरवयवपाटै: व्यक्तैश्च युक्तममुं विदुः, इति खण्डच्छेदः (६) यस्यामिति । अन्ते तालस्य विरतिः, सपाटैः पाटसहितैः व्यापकाक्षरैः उपनिबद्धा च सा अवयतिः, इत्यवयति: (७); वाद्ये पाटस्य खण्डनात् खण्डपाटः, इति खण्डपाट: (८); खण्डमध्ये खण्डश: अवयवशः वादने क्रियमाणे खण्डकः, इति खण्डकः (९); तस्मिन्नेव खण्डके स्रोतोगताख्यया Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ संगीतरत्नाकरः गीतनृत्तसमो माने प्रबन्धः पोच्यते समः । इति समः निष्पन्नः केवलैः पाटैः पाट इत्यभिधीयते ॥ १००७ ॥ इति पाट: ध्रुवको भूरिवायेषु स्यादाश्त्तोऽन्तरेऽन्तरे । इति ध्रुवकः अङ्गमङ्गीकृतं सान्दैरपाटैापकाक्षरैः ॥ १००८ ॥ इत्यङ्गम् द्विरुग्राहो ध्रुवाभोगं धुवाख्यः क्रमशस्ततः । यत्राङ्गरूपकं माह तत्तेजोन्वयदीपकम् ॥ १००९ ॥ इत्यङ्गरूपकम् तालश्चतुःपष्टिकलो युग्मे मार्गे च दक्षिणे । इति ताल: यत्या वादने क्रियमाणे ग्वण्डहुल्लः, इति खण्डहुल्लः (९); गीतेति । माने प्रमाणे गीते नृत्ते च समौ सम इत्युच्यते, इति समः (१०); निष्पन्न इति । केवलैः पाटै: गीतवाद्यसंधिगतो निष्पन्न: पाट इत्युच्यते, इति पाटः (११); ध्रुवक इति । अनेकवाद्येषु मध्ये मध्ये आवृत्तो ध्रुवकः, इति ध्रुवकः (१२); पाटहीनैः व्यापकाक्षरैः अङ्गसहितैरुपनिबद्धमङ्गं भवति, इत्यङ्गम् (१३); द्विरिति । उद्ग्राहो द्विर्गेयः, ततोऽनन्तरं ध्रुवाभोगं ध्रुवाक्रमेण बद्धं सकृद्रीयते तदनरूपकमिति, इत्यङ्गरूपकम (१४); युग्मे चच्चत्पुटे दक्षिणमार्गे चतु:षष्टिकलाभियों गीयते स ताल:, इति ताल: (१५); आदिमध्यावसानेषु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः वितालस्त्वादिमध्यान्त विकृतस्ताल इष्यते || १०१० ॥ इति विताल: हस्तेन वितताङ्गुष्ठविरलाङ्गुलिना क्रमात् । पताकेन हतैर्जातैः पाटैः स्यात्खलकाभिधः ।। १०११ ॥ इति खलक: समुदायो निजैः पाटैः समस्तातोद्यवादनात् । इति समुदाय: पाटानां पृथगुक्तानां मिश्रणाज्जोडणी मता ।। १०१२ ॥ इति जोडणी उडवः सलयात्तालाद् द्वितालाच्च लयोज्झितात् । इत्युडव: तलपाटस्तु मलपोन्मिश्रपाटपबन्धः ॥ १०१३ ॥ इति तलपाट: निजैर्या तद्धियोंदेभिर्व्यापकैरक्षरैस्तथा । ४५३ विकारं प्राप्तः ताल एव विताल इत्युच्यते इति विताल: (१६) ; हस्तेनेति । विततोऽङ्गुष्ठः, विरलाश्चाङ्गुलयो यस्मिन् एवंविधेन वक्ष्यमाणपताकाख्यहस्तेन कृताघातैर्जातैः पाटैस्तु खलक:, इति खलक : ( १७ ) ; समुदायेति । निजै: सहजैः पाटैः समस्तवाद्यवादनात् समुदाय:, इति समुदाय: (१८) ; पृथगुक्तानां पाटानां मिश्रीकरणे जोडणी, इति जोडणी (१९); पूर्वोक्ततालसहितात् लयप्रबन्धात् वितालप्रबन्धाच्च लयहीनात् कृताद्धेतोः उडव:, इत्युडव: (२०); पूर्वोक्ततलप्रबन्ध मिश्रितपाटप्रबन्धादुत्पन्नस्तलपाट:, इति तलपाट: (२१) ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पाटैर्वा रचिता किंचिद्विलम्बितलयाश्रया ॥ १०१४ ॥ देंकारालंकृताद्यन्ता वदन्त्युट्टवणीममूम् । इत्युट्टवणी वायैकदेशं वर्गान्तमयं वाद्यादिमध्ययोः ॥ १०१५ ॥ वादयेल्लघुइस्तत्वाद्यं तमाख्याति तुण्डकम् । इति तुण्डकः पाटैरेव यतिः सान्द्रः प्राञ्जलैरङ्गपाटकः ॥ १०१६ ।। इत्यङ्गपाटक: खण्डः स्यात्पृथगातोद्यवाद्यैः पैसारसंज्ञकः । इति पैसारः इति त्रिचत्वारिंशद्वाद्यप्रबन्धाः । प्रदर्शनार्थमित्युक्ताः प्रबन्धाः कतिचिन्मया ॥ १०१७ ॥ निजैरिति । स्वोत्पत्नैः तद्धिर्थोदेमित्यादिभिर्वणे: व्यापकाक्षरैः पाटैर्वा रचिता विलम्बितलययुक्ता आदावन्ते च देंकारेणालंकृता उट्टवणी, इत्युट्टवणी (२२); वाद्येति । वाद्यस्य आदौ मध्ये च वादकः वर्गान्तमयं लयवाद्यैकदेशे वादकं हस्तलाघवेन यं वादयेत् , तं तुण्डकमिति शार्ङ्गदेव आख्याति, इति तुण्डकः (२३); पाटैरिति । अङ्गसहितैः निबिडैः पाटैरुपनिबद्धा पूर्वोक्तयतिरेव अङ्गपाटकः, इत्यङ्गपाटक: (२४); आतोद्यवादितैः खण्डः पाटैः पैसारः, इति पैसार: (२५) एवं त्रिचत्वारिंशद्वाद्यप्रबन्धाः ॥ -९९८-१०१६- ॥ ___ इति पैसार: इति त्रिचत्वारिंशद्वाद्यप्रबन्धाः । (क०) उक्तरीत्यान्येऽपि प्रबन्धाः कल्पयितुं शक्या इत्याहप्रदर्शनार्थमित्यादि । पटहोक्तान् हस्तपाटादीन् यथायोगं मर्दलादिष्वतिदि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ षष्ठो वाद्याध्यायः अन्यानपि पथानेन विदांकुर्वन्तु तद्विदः । पाटभेदाश्च वाघानि प्रबन्धा वाघसंश्रयाः ॥ १०१८ ।। यथायोगं मर्दलादिसर्ववाद्येष्विमे मताः । इति वाद्यप्रबन्धलक्षणम् निर्दोषवीजवृक्षोत्यः पिण्डेऽर्धागुलसंमितः ॥ १०१९ ॥ एकविंशत्यङ्गुलः स्यादैर्ये वामे मुखे पुनः । चतुर्दशाङ्गुलानि स्युर्दक्षिणे तु त्रयोदश ।। १०२० ।। मानं यस्य मनाङ्मध्यः पृथुरेकामुलाधिके । वक्त्राभ्यां चर्मणी वृत्ते घने ये प्रान्तयोस्तयोः ॥ १०२१ ॥ चत्वारिंशत्पृथग्रन्ध्राण्यगुलान्तरवन्ति च । वधे तद्रन्ध्रविन्यस्ते सीवनप्रक्रियावति ।। १०२२ ।। पोतो/धःस्थिता दृष्टोदरपृष्ठा च विग्निका । शति-पाटभेदाश्चेत्यादि । पाटभेदा नागबन्धादयोऽष्टाशीतिहस्तपाटाः । वाद्यानि बोलावणीप्रभृतीनि पञ्चविंशतिः । वाद्यसंश्रयाः प्रबन्धा यत्यादयस्त्रिचत्वारिंशत् ।। -१०१७-१०१८- ॥ इति वाद्यप्रबन्धलक्षणम् (सु०) एवमुक्तप्रकारेणान्यानपि प्रबन्धान अनेनैव दिशोहनीया इत्याहप्रदर्शनार्थमिति | अतिदेशमाह-पाटभेदाश्चेति । नागबन्धादयः पाटभेदा अष्टाशीतिः, बोल्लावणीप्रभृतीनि वाद्यानि पञ्चविंशतिः, यत्यादयो वाद्यसंश्रयाः प्रबन्धास्त्रिचत्वारिंशत् ॥ -१०१७-१०१८-॥ इति वाद्यप्रबन्धलक्षणम (क०) अथ मर्दलं लक्षयति-निर्दोषेत्यादि । स्पष्टोऽर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः क्रियते वेष्टयते मध्ये त्रिभिर्वन्धैर्हदें तथा ॥ १०२३ ॥ कार्यों गोमूत्रिकाबन्धस्तत्र वध्रद्वयेन च । तथा यथा पिनद्धास्ये भवेतां चर्मणी दृढे ॥ १०२४ ।। कुण्डल्योः प्रान्तयोर्वामकुण्डल्यां संनिवेश्य च । कच्छां क्षिप्त्वा दक्षिणस्यां कृष्वा द्विगुणतां नयेत् ॥ १०२५ ॥ साञ्चलद्वितयां पट्टमयीमष्टामुलायताम् । यद्वान्यवस्वजां शोभानुगां न्यस्येत्कटीतटे ॥ १०२६ ॥ निगदन्ति मृदङ्गं तं मर्दलं मुरजं तथा । प्रोक्तं मृदङ्गशब्देन मुनिना पुष्करत्रयम् ॥ १०२७ ॥ अत्यन्ताव्यवहार्यत्वानिःशको न तनोति तत् । भूतिमिश्रेण भक्तेन चिक्कणेनातिमर्दनात् ।। १०२८ ॥ पिण्डिकां पूरिकाकारां वामवक्त्रे निवेशयेत् । बोहणाख्येन तेनास्यं लिम्पेदल्पेन दक्षिणम् ॥ १०२९ ॥ एवं जलधरवानगम्भीरो भवति ध्वनिः । निःशङ्केनात्र च प्रोक्तो देवता नन्दिकेश्वरः ॥ १०३० ॥ रक्तचन्दनजो यद्वा खादिरोऽन्यैरयं मतः । त्रिंशदगुलदैर्घ्यश्च पिण्डे त्वगुलसंमितः ॥ १०३१ ॥ एतस्य वामं बदनं द्वादशाङ्गुलसंमितम् ।। दक्षिणं तु मितं साधैरेकादशभिरगुलैः ॥ १०३२ ॥ पाटाश्च तद्धिथोटेंहें देमित्यत्र कीर्तिताः । पाटाश्च तद्रियों देमित्यत्र कीनिता इति । अत्र मर्दलस्य दक्षिणवक्त्रे तद्धिोंटेंहेंनंदेमिति सप्त वर्णाश्च पाटाः कीर्तिताः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तटहा दधलाश्चेति पाटानन्यत्र मन्वते ॥ १०३३ ।। इह स्युः पटहोक्ताश्च वर्णाः षोडश कादयः । अधिकान्भझमान्वर्णान्वर्णयन्त्यपरे त्विह ॥ १०३४ ॥ तेषु तद्धयादयः सप्त केवला: शुद्धसंज्ञकाः । सस्वरैरस्वरैर्युक्तैरयुक्तैर्वा कखादिभिः ॥ १०३५ ॥ व्यापकाख्यैः षोडशभिर्मिश्रास्ते कूटसंज्ञकाः । कूटमिश्रास्तु ते शुद्धा बुधैः खण्डाभिधा मताः ।। १०३६ ॥ छन्दसा भूरिहयेन स्फूर्तिमूर्तिरुदारधीः । तटमा दधलाश्चेति पाटानन्यत्र मन्वत इति । अन्यत्र मर्दलस्य वामवक्त्रे तटहा दधलाश्चेति षड्वर्णान् पाटान् मन्वतं । इह स्युरिति । इह मर्दले पटहोक्ताः षोडश कादयो वर्णाश्च स्युः । अपरे ; आचार्यास्त्विह मर्दले भझमान् वर्णानधिकान् वर्णयन्तीत्येवं मिलित्वा मर्दले द्वात्रिंशत्पाटा भवन्ति । अत्र केषांचिदेकरूपत्वेऽपि पृथक्प्रयत्नसाध्यत्वात्पृथग्वर्णत्वमवगन्तव्यम् । तेष्वित्यादि । तेषु द्वात्रिंशद्वर्णेषु तद्धयादयः सप्त तद्धिोटेहेनदेमित्येते वर्णाः केवला वर्णान्तरैरमिश्राश्चेच्छुद्धसंज्ञका भवन्ति । कूटानां वर्णानां स्वरूपं दर्शयति-सस्वरित्यादि । तैः शुद्धा एव सस्वरादयः शब्दाः पूर्वमेव व्याख्याताः । तादृग्भूतैः व्यापकाख्यैः सकलवाद्यसाधारण्येन व्यापकसंज्ञैः कखादिभिः षोडशभिः वर्णैमिश्रिताश्चेत्तदा कूटसंज्ञका भवन्ति । खण्डानां स्वरूपं दर्शयति-कूटमिश्रास्त्विति ते शुद्धाः तयादयः सप्त वर्णाः । अत्र तुशब्दश्चेदर्थे । कूटमिश्राश्चेदित्यर्थः । तदा खण्डाभिधा मताः । अथ श्लोकदृष्टान्तपूर्वकं वाद्यप्रबन्धनिर्माणप्रकारमाहछन्दसेत्यादि । स्फूर्तिमूर्तिरिति । स्फूर्तिः प्रतिभा, सैव मूर्तिर्यस्येति स तथोक्तः । उदारधीः; अविकलबुद्धिः कविर्यथा श्रवणोत्सवदैः पदैः लोकं :6 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ संगीतरनाकरः कविः कवयति श्लोकं श्रवणोत्सवदैः पदैः ॥ १०३७ ॥ यथा तथा कचित्तालैर्वर्णत्रयमनोहरान् । विधाय वादको वाद्यप्रबन्धान्बन्झुमर्हति ॥ १०३८ ।। इमं कवितकाराख्यं वादकं ब्रुवते जनाः । इति मर्दललक्षणम कवयति तथा तादृशो वादकः । क्वचित्तालैरित्यनेनान्यत्र तालेनापरत्र तालाभ्यां वा निबद्धान् , वर्णत्रयमनोहरान् ; वर्णानां शुद्धानां कूटानां खण्डानां च त्रयं वर्णत्रयम् । यथाशोमं प्रथितैः शुद्धादिमिस्त्रिविधैर्वणः, मनोहरान् विधाय वाद्यप्रबन्धान् बहून् प्रथितुमर्हति योग्यो भवति । जचाः ; भाण्डिकजनाः । इमं प्रबन्धनिबन्धारं वादकं कवितकाराख्यं कवितकार इत्याख्या यस्येति स तथोक्तस्तं बुंवते ॥ -१०१९-१०३८- ॥ इति मर्दलक्षणम् (सु०) अथ मर्दलं लक्षयति-निर्दोष इति । व्रण भेदादिदोषहीनात् बीजकवृक्षात् जात: अर्धाङ्गुलप्रमाणः पिण्ड:, मध्यविवरं विना काष्टप्रमाणमेकविंशत्यगुलं दैर्ध्य, वाममुखं च चतुर्दशाङ्गुलं, दक्षिणे तु त्रयोदश, मध्य:; मध्यप्रदेशः, पृथुः; स्थूल:, मुखाभ्यामेकाङ्गुलेनाधिकः, द्वयोः प्रान्तयोः वृत्ते वर्तुले घने निबिडे द्वे चर्मणी, तयोः चर्मणोः प्रत्येकमगुलान्तराणि चत्वारिंशद्रन्ध्राणि कार्याणि । वध्र इति । सीवनप्रक्रियायुक्ते तयोश्चर्मणोः रन्धेषु विन्यस्ते वध्रे प्रोता ऊर्ध्वमधश्च स्थिता दृष्टमुदरं पृष्ठं च यस्याः, एवंविधा विग्निका यत्र क्रियते, “विग्निका वाद्यशास्त्रेऽस्मिन् कर्परा परिकीर्तिता" इति । सा च विग्निका त्रिभिर्वधैः बद्धे सति, दृढवेष्टिते कार्या इति । तत्र तस्मिन् प्रदेशे द्वाभ्यां बद्धाभ्यां गोमूत्रिका कार्या, गोमूत्रिकाकारेण रचनाविशेषेण वधे च कार्य इत्यर्थः । तथा कार्ये यथा द्वे आच्छादितमुखे चर्मणी दृढे स्याताम् । प्रान्तयोरिति । प्रान्ते वर्तमाने कुण्डलिद्वयमध्ये वामकुण्डल्यां कच्छां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ४५९ चतुर्विधो मार्दलिको वादको मुखरी तथा ॥ १०३९ ॥ ततः प्रतिमुखर्याख्यस्तुर्यों गीतानुगो मतः । चिपिटरज्जुं निवेश्य दक्षिणकुण्डल्यां निक्षिप्य आकृष्य द्विगुणां कुर्यात् । कथंभूतां कच्छाम् ? अञ्चलद्वयेन युक्तां पट्टसूत्रकृताम् अष्टाङ्गुलामन्यवस्त्रजातां शोभानुगां कटिप्रदेशे न्यस्येत् स्थापयेत् । एवंविधलक्षणयुक्तं मृदङ्गमाहुः । तस्यैव पर्यायौ मर्दलमुरजाविति । प्रोक्तमिति । मुनिना भरतेन पुष्करत्रयमुक्तम् । तदत्यन्तं लोकव्यवहाराभावात् शार्ङ्गदेवो न व्यतिस्तरत् । भूतीति । भूति: काष्ठभस्म, तन्मिश्रितेन ओदनेन चिक्कणेन स्निग्धेन संमर्थ पिण्डिकां गोलकी कृत्वा पूरिका गुडमिश्रः, पूला इति महाराष्ट्र प्रसिद्धः, तदाकारां पिण्डिका मर्दलस्य वामे मुखे निवेशयेत् । भूतिमिश्रस्यौदनस्य बोहणमिति संज्ञा । तेन दक्षिणभुखं स्वल्पमेव लिम्पेत् । एवं बोहणलिप्ते गम्भीरो ध्वनिर्भवति । अत्र देवता च नन्दिकेश्वरः ॥ ____ मतान्तरमाह-खादिरेति । अयं मर्दल: अन्यैराचार्यै रक्तचन्दनकाष्ठेन खदिरकाष्ठेन वा जात: संमतः । त्रिंशदगुलानि दैर्घ्यम् , अगुलप्रमाणः पिण्डः, वाममुखं द्वादशाङ्गुलम् , दक्षिणं साधंकादशाङ्गुलम । पाटानाहपाटा इति । तद्धिथोंटेहेनेदेमित्येते पाटाः । अन्ये तु तटहा दधलाश्चेत्येते पाटा इत्याहुः । पाटप्रोक्ताश्च षोडश कवर्गादय: भझमानपि अत्राधिका: पाटवर्णा इति केचिदाहुः । पाटानां संज्ञाविशेषमाह-तेष्विति । तद्धयादयः सप्त केवला: शुद्धपाटाः, सस्वरैः स्वरयुक्तै', अस्वरैः, स्वरहीनैर्वा समस्तैः व्यस्तैर्वा व्यापकसंज्ञ: कखादिभिः षोडशभिर्वर्णैः मिश्रा: पाटा: कूटसंज्ञका: पाटाः । कूटमिश्राः शुद्धास्तु खण्डपाटा इत्युच्यन्ते । छन्दसेति । रमणीयेन छन्दसा प्रतिभावान् कविः यथा श्रवणयोरुत्सवदायकैः पदैः श्लोकं रचयति, तथा वादकः शुद्धकूटादिवर्णत्रयमनोहरान बन्धान बन्ढे रचयितुमर्हति ॥-१०१९-१०३८-॥ इति मर्दललक्षणम् . (क०) अथ मार्दलिकभेदानाह-चतुर्विध इत्यादि । जल्पवि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्वाकरः वादको वादकर्ता स्याद्वादः पक्षपरियहः ॥ १०४० ॥ स्वपक्षसाधनं तद्वत्परपक्षस्य दूषणम् । येऽन्ये जल्पवितण्डाद्या वादभेदाः सलक्षणाः ।। १०४१ ।। न तान्ब्रवीम्यहं ग्रन्थप्रपञ्चभयभगुरः । वादे च वादनं कार्य प्रथमं त्राटनाभिधम् ॥ १०४२ ॥ मर्दले तालरहिते बोहणेन विना ध्वनिः । यो देहडडगित्यादि कृतोऽसौ त्राटनं मतम् ॥ १०४३ ॥ वोडवाडं घनरवं हस्तावत्येर्थमाचरेत् । मुक्तशब्दात्मकं देहदडादप्रमुखं ततः ॥ १०४४ ॥ उधारं स्थापनं पश्चाद्वादयेत्तदयोच्यते । मुखयोर्बोहणं दत्वा वादयेद्वाममाननम् ॥ १०४५ ।। तण्डाद्या इति तर्कशास्त्रोक्तलक्षणा वादभेदा द्रष्टव्याः । बाटनाभिधमिति । त्राटनमित्यभिघा यस्य तत्तथोक्तम् । त्राटनस्य स्वरूपमाह-मर्दल इत्यादि। देहडडगित्यादिरीत्याद्यनुकरणे वर्णोच्चारणम् । आदिशब्देनान्येऽप्यनुकरणयोग्या वर्णा ग्राह्याः । एवं कृतोऽसौ देहडडगित्यादि ध्वनिखाटनं मतमिति संबन्धः । वोडवाडमिति । हस्तावर्त्यर्थमिति बोडवाडप्रयोजनकथनेन हस्तजाड्यापनयनाय क्रियमाणां निरन्तराङ्गुष्ठकनिष्ठिकाहतिमद्धस्ताभ्यां वादनं वोडवाडमिति तत्स्वरूपमुन्नेयम् । ततोऽनन्तरं मुक्तशब्दात्मकं सानुरणनध्वनिरूपं देहडडादप्रमुखमुधाराख्यं वाद्यं वादयेत् । पश्चादुधारानन्तरं स्थापनं वादयेत् । तदयोच्यत इति । अथ ; अनन्तरं तत् ; स्थापनमुच्यते, स्वरूपकथनेन प्रकाश्यते । मुखयोर्बोहणं दत्वेति । भूतिमिश्रेण मर्दितेनौदनेन पूरिकाकारां पिण्डिकां कृत्वा वामवक्त्रे निवेश्याल्पेन तेनौदनेन दक्षिणं वक्त्रं लिप्त्वेत्यर्थः । वाममाननं गड्दग्धोमित्यनुकरणं यथा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ षष्ठो वाद्याध्यायः गड्दग्धोमिति वक्त्रं तु गद्ददग्धामिति दक्षिणम् । ततो मध्यलये ताले द्वितीये मुखयोयोः ॥ १०४६ ।। कुर्याभादसमायोगमयोच्चोचं दलत्रयम् । पृथग्विलम्बिते मध्ये द्रुते चैव लये क्रमात् ॥ १०४७ ॥ तयैकद्वित्रियोंकाररचितं ग्रहमोक्षभाक् । आलप्सिवच्च त्रिस्थानशुद्ध हस्तद्वयेन यत् ॥ १०४८ ॥ मधुरं वाद्यते तज्ज्ञैः स्थापनं तदुदाहृतम् । ततस्योंकारबहुलग्रहमोक्षोऽन्तरो भवेत् ॥ १०४९ ॥ भवति तथा वादयेत् । दक्षिणं वक्त्रं तु गड्दग्धामित्यनुकरणं यथा भवति तथा वादयेत् । ततः; अनन्तरं, मध्यलये द्वितीयाख्ये ताले द्वयोर्मुखयोमिदक्षिणयो दसमायोगं नादयोरेकाकारयोर्भिन्नाकारत्वे वादिसंवादिरूपयोः समायोगं मेलनं कुर्यात् । अथः; अनन्तरम् । उच्चोचमिति । दीर्घदीर्घ दलत्रयं खण्डत्रयं विलम्बिते मध्ये द्रुते च पृथग्वाद्यत इत्युत्तरेण संबन्धः । पृथगिति । प्रथमखण्डाद्दीर्घ द्वितीयखण्डं, तस्मात् तदपेक्षया दीर्घ द्वितीयं खण्डं, तदपेक्षया दीर्धे तृतीयं खण्डमपि लयत्रये योजयेदिति पृथक्शब्दार्थः । एतल्लयक्रमात्तथैकद्वित्रिोंकाररचितं तत्तदेव खण्डत्रयं ग्रहमोक्षमाग्वाद्यते । अयमर्थः-प्रथमदलं विलम्बितलये ग्रहमोक्षयोरेकैकथोंकाररचितम् , मध्यलये ग्रहमोक्षयोर्द्विद्विथोंकाररचितम् । दुतलये ग्रहणमोक्षयोस्त्रित्रियोंकाररचितं कृत्वा, तथा द्वितीयतृतीयदलयोरपि कुर्यादिति । आलप्तिवच त्रिस्थानशुद्धमिति । आलप्तिर्यथा मन्द्रमध्यताराख्येषु स्थानेषु शुद्धापस्वररहिता कर्तव्या भवति, तथा मर्दलवाद्ये स्थापनमपि त्रिस्थानेषु विलम्बितमध्यद्रुतेषु शुद्धमसंकीर्ण कर्तव्यमित्यभिप्रायः । अथवा आलप्तिवत् , आलापो रागालापः, सोऽस्यास्तीति मत्वर्थे वतिः । अस्मिन्पक्षे त्रिस्थान Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ संगीतरत्नाकरः चतुरश्रयश्रमिश्रखण्डेष्वेकेन केनचित् । तालेन टाकणीवादौ कर्तव्यौ तदनन्तरम् ॥ १०५० ॥ तयोरेकसरो जोडा चेति भेदद्वयं मतम् । । शुद्धमिति मन्द्रादिष्वपस्वररहितमित्यर्थः । वादकः स्वयं रागालापयुक्त. मुद्धट्टनं कुर्वन् तदुपरञ्जकत्वेन मध्ये मध्ये मर्दलवादनं कुर्यादित्यर्थः । एवं हस्तद्वयन यन्मधुरं वाद्यते तस्थापनमिति तज्ज्ञैः ; वाद्यज्ञैरुदाहृतम् । ततः; स्थापनानन्तरं, थोंकारबहुलग्रहमोक्षः; थोंकारैर्बहुलैग्रहमोक्षौ यस्येति स तथोक्तः । अन्तरः ; अन्तराख्यः खण्डः कर्तव्यो भवति । तदनन्तरम् ; अन्तरानन्तरं चतुरश्रव्यश्रमिश्रखण्डेषु मध्य एकतमेन केनचित्तालेन टाकणीवादौ, टाकणी च वादश्चेति द्वन्द्वः ; तौ कर्तव्यौ भवतः । तयोः ; टाकणीवादयोः, प्रत्येकम् । एकसरो जोडा चेति भेदद्वयं मतमिति । एकसरटाकणी जोडाटाकणीति । एकसरवादो जोडावादश्चेत्यर्थः ॥ -१०३९-१०५०-॥ (सु०) मार्दङ्गिकमैदानाह-चतुर्विध इति । मार्दलिकः; मर्दलवादकः, वादकादिभेदेन चतुर्विधः, वादकः, मुखरी, प्रतिमुखरी, गीतानुग इति । तत्र वादकस्य लक्षणमाह-वादक इति । वादस्य विद्याकलहस्य कर्ता वादकः, पक्षपरिग्रहश्च वाद इत्युच्यते । स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणं विपक्षपरिग्रहः । येऽन्य इति । ये जल्पवितण्डाद्या अन्ये भेदा:, तान् ग्रन्थविस्तरभीत्या नावोचत् । वाद इति | पक्षपरिग्रहरूपे वादे त्राटनासंज्ञिकं वाद्यं प्रथम कर्तव्यम् । त्राटनं लक्षयति-मर्दल इति । बोहणेन विना अताले मर्दले वक्ष्यमाणे देहडडगादिकृतः यो ध्वनिर्जायते तत्र त्राटनं मतमिति । बोडवाडमिति निबिडशब्दं मार्दङ्गिकप्रसिद्ध हस्तविस्तारार्थ कुर्यात् । तत:, अनन्तरं मुक्तशब्दरूपात् देहदडगात् अप्रमुखं कार्यम् । तत: उधारस्थापनं च । तत्स्थापनमप्रमुखमित्युच्यते । मुखयोरिति । मर्दलस्य मुखद्वये बोहणं दत्वा वाम मुखं गड्दग्धोमिति वर्णैर्वादयेत् । दक्षिणं वक्त्रं तु गदग्धामिति वादयेत् । तत Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः कृत्वा श्रमस्य वही यस्तालेऽष्टकलादिके ॥ १०५१ ।। वाद्यखण्डस्तालकलाप्रस्तारानुगतः कृतः ।। अखण्डितष्टाकणी सैकसरत्वं सकृत्कृतेः ॥ १०५२ ॥ एकद्वित्रिचतुर्वारं शुद्धाभ्यसनतो भवेत् । इह श्रमवहन्याख्यः प्रकारो वादने यथा ॥ १०५३ ॥ तद्धितोटें ततधिधियोंथोंटेंटेंतततधिधिधियोंथोंर्थोटें । तततत विधिधिधियोथोथोथोटेटेटेटे । इति श्रमवहनीं त्वा, एकसरटाकणी यथा-तकधिकट तकधिकट धिकटतक तकधिकट तकतकधिकट धिकटकतधिकट इत्यष्टौ वाद्यखण्डस्य खण्डा अष्टासु कलासु, सैव द्विवारं जोडा॥ इति । ततोऽनन्तरं मध्यलये तालद्वये वादसंयोगं कुर्यात् । ततो नादं पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् उच्चमानम् उत्तरोत्तरं विलम्बितादिलयत्र्यं क्रमात् एकद्वित्रैः थोंकारैः ग्रहे मोक्षे च युक्तं दलत्रयं खण्डत्रयं स्थानत्रयमिति शुद्धं हस्तद्वयेन मधुरं यद्वाद्यते तत् स्थापनमिति । तत इति । तत: अनन्तरं ग्रहमोक्षमध्ये थोमिति शब्देन व्याप्तं चतुरश्रादितालेषु येन केनचित्तालेन रचितं भवेत् । तदा टाकणीवादश्च कर्तव्यः । तयोः टाकणीयोः प्रत्येकमेकसरटाकणी जोडाटाकणी चेति द्वौ भेदौ ॥ -१०३९-१०५०-॥ (क०) तत्र सामान्येन टाकणी लक्षयति-कृत्वेति । श्रमस्य वहनी कृत्वा, अष्टकलाधिके ताले; एककलचच्चत्पुटादावित्यर्थः । आदिशब्देन द्विकलचतुष्कलचञ्चत्पुटादयो गृह्यन्ते । तत्रैकस्मिन् ताले, तालकलापस्तारानुगत इति दक्षिणादिमार्गवशात्तालस्य यावन्मात्रा कला भवति, तस्याः प्रस्तारमनुगतः कृतः । अखण्डितः; सकलो वाद्यखण्डः टाकणीति संबन्धः । सा सकृत्कृतेरेकसरत्वमिति । प्राप्नोती शेषः । अनावृत्त्यैक Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ संगीतरत्नाकरः टाकणीवत्समस्तं प्राक्खण्डं कृत्वा ततः परम् । खण्डं खण्डं द्विविारं वाद्यते वाद्यसंझके ।। १०५४ ।। तत्रैकसरजोडात्वं टाकणीवदुदाहृतम् । यथा-दंदंटिरिटिट्टिकड्द कडदगझेक डदगझे परिक्कपरि टगणगणधरि गणगणधरि दथरिगडदग दथरिगडदग हथरिगडदग दधरिदयरितर्गड्दक्थरिक्कटतत्तक् इति षोडशकले ताले षोडशकलासुषोडशखण्डकं वाद्यं कृत्वा तान् षोडश खण्डान् द्विद्धिः कुर्यात् । इत्येकसरवादः सरटाकणी भवतीत्यर्थः । टाकण्यङ्गत्वेन प्रसक्तायाः श्रमवहन्या लक्षणमाह-एकत्रिीत्यादि । शुद्धाभ्यसनेनि । शुद्धानां तद्वयादिसप्तवर्णानां मध्ये केषांचिदेकद्वित्रिचतुर्वारमावृत्तौ । ताः प्रस्तार्य दर्शयितुमाह-यथेति ॥ -१०५१-१०५३ ॥ (क०) तद्धितोटेमित्यादि यावदष्टकलं श्रमवहन्याः प्रस्तारो द्रष्टव्यः । सैव द्विवारं कृता चेजोडाटाकणी ॥ (क०) अथ वादं लक्षयति-टाकणीवदित्यादि । वादसंज्ञकं प्राक्खण्डं स्वकीयं प्रथम खण्डं टाकणीवट्टाकण्यामिव सकृदेकवारं कृत्वा । ततः परं खण्डं खण्डं द्विर्द्विवारं वाद्यत इति संबन्धः । तत्रैकसरजोडात्वमिति । एकसरत्वं चैकसरजत्वम् । टाकणीवदुदाहृतमिति । उक्तलक्षणस्य वाद्यस्य सकृत्करणेनैकसरवादः । तस्यैव समुदायत्रयस्य द्विःकरणेन जोडावाद इत्यर्थः ॥ १०५४, १०५४- ॥ (क०) दंदं टिरि, इत्यायेकसरवादस्य प्रस्तारः । जोडावादे तमेव द्विः कुर्यात । इत्येकसरवादः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ षष्ठो वाद्याध्यायः तकारेण च सर्वेषामेतेषां त्याग इष्यते ॥ १०५५ ॥ कुर्यात्ततो दिगिदिगि ताटवादादिकं तथा । वर्णा दिगिदिगीत्येते प्रोक्ता दिगिदिगौ बुधैः ॥ १०५६ ॥ यः खण्डोऽतिद्रुते माने ताटवादः स कथ्यते । अन्येऽपि वादविधयोऽभ्यूह्यन्तामध्वनामुना ॥ १०५७ ।। इति वादप्रकाराणां सम्यक्त्वे विजयो भवेत् । इति वादकः (सु०) तयोर्लक्षणमाह-कृत्वेति । श्रमस्य वहीं कृत्वा अष्टकलाधिके ताले तालकलाविस्तारानुगः एकसरगीतौ वाद्यखण्ड: टाकणीत्युच्यते । सा टाकणी एकद्वित्रिचतुर्वारमावृत्त्या एकसरः । इहेति । श्रमवहन्याः वादनप्रकारः तद्धिथोंदेमित्याद्यैः पाटैः । एकसरं लक्षयति-टाकणीवदिति । टाकणीवत् समस्तखण्डं प्रथमं गीत्वा, ततः परं खण्डं द्विप्रकार वाद्यते चेत् पाट: पाटस्यैकसरत्वात् । जोडात्वं च टाकणीवद् ज्ञातव्यम् । स एवेति ; स एवैकसरः द्विःकृतश्चेत् , जोडेत्युच्यते ॥ -१०५१-१०५४- ॥ इत्येकसरवादः ___ (क०) सर्वानुगतं लक्षणैकदेशमाह-तकारेणेति । ततोऽनन्तरं दिगिदिगि कुर्यात् । तथा दिगिदिगेत्यनन्तरं ताटवादादिकं कुर्यात् । अत्रादिशब्देन ताण्डिकप्रसिद्धो वाद्यविशेषो द्रष्टव्यः । दिगिदिगीति ताटवादयोः क्रमेण स्वरूपं दर्शयति । वर्णा इत्यादि । अन्येऽपीति । पूर्वोक्ता बोलावण्यादयो देशीप्रसिद्धाश्च वाद्यविधयः । अमुना अध्वना वादोक्तमार्गेणाभ्यूह्यन्ताम् । निगमयति-इतीति । सम्यक्त्व उक्तप्रकारेण वादने विजयो भवेदिति फलं दर्शितम् ॥ १०५५-१०५७. ॥ इति वादक: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ संगीतरत्नाकरः कर्ता वाद्यप्रबन्धानां नृतशिक्षाविचक्षणः ॥ १०५८ ॥ गीतवादननिष्णातः सुरेखोऽन्तर्मुखश्च यः । अर्धाङ्गमिव नर्तक्या वादयेद्रङ्गभूमिगः ॥ १०५९ ।। वादकैः प्रेक्षितमुखो वादनार्थ मुखर्यसौ । __ इति मुखरी किंचिद्धीनो मुखरिणः प्रोक्तः प्रतिमुखर्यसौ ॥ १०६० ॥ इति प्रतिमुखरी (सु०) तकारेणेति । एतेषां सर्वेषां प्रान्ते तकारः कर्तव्यः । दिगिदिगीत्यादिवर्णान् कुर्यात् । अतिद्रुते माने यः खण्डो गीयते, स ताटवाद इत्युच्यते । अन्येऽपि वाद्यप्रकारा अनेका अमुना अध्वना अनेन मार्गेण ऊहनीयाः । एवमुक्तप्रकारेण, वादप्रकाराणां सम्यक्त्वं समीचीनत्वं यत्र विद्यते, तत्र तस्य मार्दलिकस्य विजयो भवेत् ॥ -१०५५-१०५७ ॥ इति वादक: (क०) अथ मुखरिणं लक्षयति--कर्तेत्यादि । वाद्यप्रबन्धानां यत्यादीनां कर्ता निर्माता । नृत्तशिक्षाविचण इति । पात्राणां प्रथम नटेनोपदिष्टस्य नृत्तस्य तदसंनिधावप्यभ्यासकरणे दक्ष इत्यर्थः । गीतवादननिष्णात इति । मध्ये मध्ये नादानुकरणेन गीतं यथा रज्यते तथा वादने निपुण इत्यर्थः । सुरेख इति । वादसमय दृश्यासंनिवेशवानित्यर्थः । अन्तमुख इति । अवहितमना इत्यर्थः । नर्तक्या अर्धाङ्गमिवेति । करचरणाद्यङ्गं यथा नृत्त उपयुज्यते तथा मुखर्यपि नृत्तानुगुणलयप्रदानानवदुपयुज्यत इत्यर्धाङ्गमिवेत्युक्तम् । वादनार्थ वादकैः प्रेक्षितमुख इति । इतरेषां वादकानां वादनं मुखर्यधीनमित्यर्थः ।।-१०५८-१०५९॥ इति मुखरी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः शुद्धसालगगीतानां वर्णान्कठिनकोमलान् । समांश्च विषमानादं मन्दं मध्यं च तारकम् ।। १०६१ ॥ प्रौढं वा मधुरं सम्यगनुगच्छति वादनात् । पूर्वभागे तथाभोगे जक्कामहरणे क्रमात् ॥ १०६२ ।। कुर्याद्वैकल्पिके यद्वा समयं गीतमाश्रिते । समुत्थिते वानुलोम्याद्वैलोम्याद्वोभयेन वा ॥ १०६३ ।। निःसारौ सालगे गीते यस्तं गीतानुगं विदुः। क्रमात्तकारयोंकारौ स कुर्याद् ग्रहमोक्षयोः ।। १०६४ ।। इति गीतानुगः (सु०) मुखरीलक्षणमाह-कर्तेति । सुरेख: रक्षकः अन्तर्मुखश्च कर्तव्यः । अर्धाङ्गमिव नृत्ते तदनुसारित्वात् अभिनयकारकः रजसंगतः रङ्गमण्डपं प्राप्तः ॥ इति मुखरी (सु०) प्रतिमुखरीलक्षणमाह-मुखरीप्रोक्तलक्षणैः किंचिद्धीन: प्रतिमुखरी ॥ -१०५८-१०५९- ॥ ___ इति प्रतिमुखरी (क०) प्रतिमुखरीगीतानुगयोर्लक्षणं ग्रन्थत एव सुबोधम् । तत्र 'जक्केति यतिरुच्यते । यतिर्जक्केति सा' इत्युक्तत्वात् । ग्रहे तकारः । मोक्षे थोंकार इति क्रमो द्रष्टव्यः ॥ -१०६०-१०६४ ॥ ___ इति गीतानुगः इति चतुर्विधमालिकलक्षणम् (सु०) गीसानुगं लक्षयति-शुद्धेति । यस्तु शुद्धानां सालगानां च गीतानां कठिनादिगुणान् वर्णान् बध्वा, समांश्च विषमान् नादं, मन्द्रमध्यतारेण प्रौढं मधुरं वा वादनात् सम्यगनुगच्छति अनुसरति, यश्च सालगगीते पूर्वभागे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः वर्णव्यक्तिः सुरेखत्वमनुयायप्रवीणता । मधुरोद्धतवाद्येषु विज्ञता हस्तलाघवम् ॥ १०६४ ॥ अवधानं श्रमजयो मुखवायेषु पाटवम् । रक्तिराविद्धकस्यानुत्तिर्बहुलता तथा ॥ १०६५ ॥ यतिताललयज्ञत्वं गीतानुगमनं तथा । गुणा मार्दलिकस्यैते दोषः स्यात्तद्विपर्ययः ।। १०६६ ॥ इति मार्दलिकगुणदोषाः उद्ग्राहे आभोगे च निःसारुताले आनुलोम्येन प्रातिलोम्येन उभयेन वा जक्का प्रहारेण कुर्यात् । तं गीतानुगं विदुरिति संबन्धः । स गीतानुगो वादकः ग्रहे मोक्षे च तकारयोंकारौ कुर्यात् ॥ -१०५९-१०६२- ॥ इति गीतानुगः इति चतुर्विधमार्दलिकलक्षणम् (क०) अथ मार्दलिकगुणदोषानाह-वर्णव्यक्तिरित्यादि । अनुयायप्रवीणता ; अनुयायो नामानुवृत्तिर्वाद्यानुकरणमित्यर्थः । तत्र प्रवीणता । तदोषानाह-तद्विपर्यय इति । तेषां गुणानां विपर्ययो वैपरीत्यं दोषः ॥ १०६४-१०६६ ॥ इति मार्दलिकगुणदोषा: (सु०) मार्दलिकगुणदोषानाह-वर्णव्यक्तिरिति । सुरेखत्वं रञ्जकत्वं, गीतच्छायानुसरणमनुयायत्वं, तत्र प्रवीणता । आविद्धको हुडुक्कावादकः, तस्य अनुवृत्तिरनुसरणम् ॥ १०६४-१०६६ ॥ इति मार्दलिकगुणदोषाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः तद्वन्दं द्वित्रिचतुरैस्तज्ज्ञैर्मर्दलधारिभिः । प्राधान्येन विधातव्यं तैर्मुखर्यनुवर्तनम् ॥ १०६७ ।। इति मार्दलिकवृन्दम या हस्तसंमिता दैयेऽष्टाविंशत्यगुला पुनः । परिधावगुलमिता पिण्डे सप्ताङ्गुले मुखे ॥ १०६८ ।। मण्डल्यौ वक्त्रयोर्वल्लीमध्यावेकादशाङ्गुले । सपादाङ्गुलकस्थौल्ये उद्दलीकृतबन्धने ॥ १०६९ ।। वदनाभ्यां सह स्यातां कुर्याद्रन्ध्राणि षट् तयोः । बद्धरज्जुनिवेशार्थ पुरोभागेऽर्गलात्रयम् ॥ १०७० ॥ कलशाकलितद्वयन्तं पश्चाद्भागेऽर्गलाद्वयम् । बन्धसूत्रान्तरे मध्ये भवेदुदरपट्टिका ।। १०७१ ।। अगुलत्रयविस्तारा लक्ष्णा हृदयहारिणी। द्वात्रिंशत्तन्तुसंजातरज्ज्वा पक्षद्वयं दृढम् ॥ १०७२ ॥ (क०) अथ मार्दलिकवृन्दं लक्षयति-तद्वन्दमिति । तेषां मार्दलिकानां वृन्दं समाजः ॥ १०६७ ॥ इति मार्दलिकवृन्दम् (सु०) मार्दलिकवृन्दं लक्षयति- तबृन्दमिति । द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा मृदङ्गधारकैः बृन्दं भवति । तैश्च प्राधान्यात् पूर्वलक्षितो मुखर्यनुसर्तव्यः ॥ १०६७॥ ___ इति मार्दलिकवृन्दम् (क०) अथ हुडुक्कां लक्षयति-या हस्तसंमितेत्यादि । मझेंकाराविति । अत्र हुडुक्कायां मकारोकारौ पाटहेभ्यो वर्णेभ्योऽधिकावुक्तौ । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः बद्ध्वा तत्रोत्कक्षको च विधाय स्कन्धपट्टिकाम् । तयोगुिणतां न्यस्येदगुलार्धार्घसंमितम् ॥ १०७३ ।। छिद्रं यस्याश्चतुर्थीशे नादोद्बोधविधायकम् । हुडुक्का सा बुधैः प्रोक्ता तस्याश्च स्कन्धपट्टिकाम् ॥ १०७४ ॥ न्यस्य स्कन्धे दक्षिणेन पाणिना वादनं भवेत् । उदरे पट्टिका प्रोक्ता तस्यां वामं निवेशयेत् ॥ १०७५ ॥ देवता मातरः सप्त शाङ्गदेवेन कीर्तिताः । कुर्वीत पाटहान्वर्णानिह देकारवर्जितान् ।। १०७६ ॥ अत्रान्यैरधिकावुक्तौ मझेंकारौ मनीषिभिः । लक्ष्यज्ञास्त्वावजं प्राहुरिमां स्कन्धावजं तथा ॥ १०७७ ॥ इति हुडुक्कालक्षणम् पाट हैर्वणैः सह मकारोकारौ प्रयोक्तव्यावित्यर्थः । इमां हुहुक्कां लक्ष्यज्ञा आवजं तथा स्कन्धावजं चैवं संज्ञाद्वयमपरमाहुः ॥ १०६८-१०७७ ।। इति हुडुक्कालक्षणम् (सु०) हुडुक्कां लक्षयति—या हस्तेति । दीर्घत्वे हस्तप्रमाणे, परिधौ वर्तुलप्रमाणे अष्टाविंशत्यगुल:, पिण्डे एकागुल:, तस्याः द्वे मुखे सप्ताङ्गुल:, मुखयोः मण्डल्यौ वल्लीमध्यौ चर्मरचिते एकादशा गुलमिते, सचतुर्थाशागुल: स्थौल्ये, पूर्वोक्तया उद्दल्या बद्धमुखेन सह स्यातां भवेताम् । तयोः मण्डल्यो: बन्धनरज्जुप्रवेशाय षड् रन्ध्राणि कार्याणि । पूर्वभागे च तिस्रोऽर्गला कलशे कलिता आदिरन्तश्च यासां तथाविधा, पश्चाद्भागे तु द्वे अर्गले बन्धे, बन्धसूत्रयोः मध्ये उदर पट्टिका भवेत् । अङ्गुलत्रयविस्तारा श्लक्ष्णा मसृणा हृदयहारिणी द्वात्रिंशत्तन्तुभिः संजातारज्जु:, तया पक्षद्वयं दृढं बध्वा, तत्र प्रोक्तावस्था ऊर्ध्वकक्षा यस्याः, तथाविधां स्कन्धपट्टिकां कृत्वा, तयोः; रन्ध्रयोः, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः बीजवृक्षोद्भवा पिण्डेऽङ्गुलतुर्याशसंमिता । एकविंशत्यङ्गुला स्याद्दैर्ये हस्तमिताथवा ।। १०७८ ।। परिधौ दधते मानं या चत्वारिंशदङ्गुलम् | चतुर्दशाङ्गुले वक्त्रे केषांचिद् द्वादशाङ्गुले ।। १०७९ ॥ मण्डल्यौ लोहजे मूत्रवेष्टिते चर्मबन्धने । परिधौ संमिते ते च द्वाचत्वारिंशताङ्गुलैः || १०८० ॥ तिस्रस्तिस्रस्तथा तन्त्रीर्मुखयोर्वलयद्वयम् । ४७१ दधते वलव्याप्तं चतुर्दशभिरन्वितम् ।। १०८१ । रन्धैस्तेष्वेकान्तरेषु विनिकास्तावती: क्षिपेत् । द्वाभ्यां द्वाभ्यां विनिकाभ्यां वन्धो मत्स्याकृतिर्भवेत् ||१०८२|| यस्यास्तां करटामाहुः प्रान्तयोः प्रान्तवद्धया । कच्छया स्कन्धदेशे तां कट्यां वा वादने वहेत् ।। १०८३ ॥ चर्चिका देवता चास्यां पाटास्तु करटेत्यमी । वादनं कुडुपाभ्यां तु शार्ङ्गदेवेन कीर्तितम् || १०८४ ॥ तिरिकितिरिकिरीति प्रायः पाटद्वयं मतम् । इति करटालक्षणम् न्यस्येत् । अङ्गुलचतुर्थांशमितं छिद्रं यस्याः, चतुर्थाशे नादोद्बोधविधायक स्यात् । तस्या वादनप्रकारमाह - तस्या इति । वर्णानाह - कुर्वीतेति । देंकारं विना पटहोक्तान् वर्णान् कुर्यात् । अन्यैः मनीषिभिः मकारझेंकारावधिकावुक्तौ । इयं हुडुक्का लोके आवजं स्कन्धावजमिति च कथ्यते ॥ १०६८-१०७७ ॥ इति हुडुक्कालक्षणम् (क०) अथ करटां लक्षयति - बीजवृक्षोद्भवेत्यादि । पाटास्तु करटेत्यमी ; करटेति वर्णसमुदाय एकः । तिरिकि तिरिकिरीति द्वितीयः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ संगीतरत्नाकरः घनः श्लक्ष्णः सुपकश्च स्तोकवक्त्रो महोदरः ॥ १०८५ ।। पाणिभ्यां वाद्यते तज्ज्ञैश्चर्मनद्धाननो घटः । कथिताः पाटवर्णा ये मर्दले ते घटे मताः ॥ १०८६ ॥ इति घटलक्षणम् प्राय इति प्राचुर्येणेत्यर्थः । सामान्येन तु पटहादिकूटपाटा यथोचितं द्रष्टव्याः ॥ १०७८-१०८४- ॥ ___ इति करटालक्षणम् (सु०) करटालक्षणमाह-बीजेति । बीजकोऽसनवृक्षः, तस्मात् जाते पिण्डे अङ्गुलचतुर्थाशेन मिता दीर्घत्वे, एकविंशत्यगुला परिधौ, वर्तुलप्रमाणे चत्वारिंशदगुला, तस्याश्च द्वे मुखे चतुर्दशाङ्गुले कार्ये इति । मण्डल्यौ च लोहमय्यौ सूत्रेण वेष्टिते चर्मणावबद्धे परिधौ द्वाचत्वारिंशदङ्गुले कार्ये । तिस्र इति । मुखयोः चतुर्दशभी रन्धेः युक्तं कवलेन व्याप्तं वलयद्वयं दधाना तिस्रस्तिस्रः तन्त्रीष्वेकान्तरेषु रन्ध्रेषु क्षिपेत् । तावतीविग्निका कर्पराश्च निक्षिपेत् । द्वाभ्यां विग्निकाभ्यां मत्स्याकारं बन्धनं क्रियते यस्यां, तां करटामित्याहुः । प्रान्तप्रदेशयोः प्रान्तया बद्धया स्कन्धप्रदेशे च कच्छया कव्यां वा वादनसमये करटां वहेत् । करटेति त्रयो वर्णाः पाटा:, कुडुपाभ्यां ; कोणद्वयेन वादनं कार्यम् ॥ १०७८-१०८४-॥ इति करटालक्षणम् (क०) अथ घट-घडस-ढवस-ढक्का-कुडुक्का-कुडवा-रुजा-डमरुकडक्का-मण्डिडक्का-डक्कुली-सेल्लुका-झल्लरी-भाण-त्रिवली-दुन्दुमि-भेरी-निःसाण-तुम्बकीनां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ -१०८५-११५६ ॥ इति घटादिलक्षणम् (सु०) घटं लक्षयति-घन इति । घन: अन्तःसारः,लक्ष्णो मसृणः,सुपक्कः सम्यक्पाकवान् , स्तोकवक्त्रः अल्पमुखः, महोदर: स्थूलोदरः, चर्मनद्धाननः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः हुडुक्कयैव घडसो व्याख्यातः किंतु मण्डली । दक्षिणस्योदलीबद्धा वामा रज्ज्वा नियन्त्रिता ॥ १०८७ ॥ औद- पट्टिकायां च वामोऽत्र न निवेश्यते । गोंकारबहुलं चामुं वादयेदिति तद्विदः ॥ १०८८ ।। अङ्गुष्ठमध्यमामुल्यौ मदनाक्ताग्रभागतः। दक्षिणेन करेणास्ये घर्षणादोंकृतिर्भवेत् ।। १०८९ ।। घातोऽगुलीभिर्वामस्य वामाङ्गुष्ठेन पीडनम् । इति घडसलक्षणम् स्याद्धस्तदैर्घ्यः परिधौ सनवत्रिंशदगुलः ॥ १०९० ॥ द्वादशाङ्गुलके वक्त्रे वल्लीवलयसंयुते । धर्मणा आच्छादितमुखश्च यत्र करद्वयेन वाद्यते स घटः । मर्दले ये कथिताः पाटवर्णाः ते सर्वेऽप्यस्मिन् घटे ज्ञातव्याः ।। -१०७५-१०८६ ।। ___इति घटलक्षणम् (सु०) घडसं लक्षयति- हुडुक्कयैवेति । हुडुक्कालक्षणमेव घडसस्य लक्षणं, तर्हि कथं पृथनिर्देश इत्याह-किंत्विति । अयं विशेष:-दक्षिणस्य स्थिता मण्डली अस्य घडसस्य उद्दल्या बध्यते । वामामण्डली तु तर्जन्या नियम्यते । औदर्यामदरसंबन्धिन्यां पट्टिकायां वामहस्तस्य निवेशो नास्ति । गोंकारस्य प्राचुर्य यस्मिन् ; एवंविधं सममङ्गुल्योः मध्वोच्छिष्टलिप्तेन अग्रभागेन वादयेत् । दक्षिणेन अस्य घर्षणात् मुखघर्षणात् गोंकार उत्पद्यते । एतस्य च वामवादने वामहस्तस्याङ्गुलीभिः घातस्यैवाङ्गुष्टेन पीडनमिति ॥ १०८७-१०८९- ॥ इति घडसलक्षणम् (सु०) ढवसं लक्षयति-स्यादिति । हस्तप्रमाणदैर्घ्यः परिधौ वर्तुल 00 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ संगीतरत्नाकरः यो धत्ते सप्त सप्तापि रन्ध्राणि वलयद्वये ॥ १०९१ ॥ तथा कवलयोस्ताभ्यां तुण्डे वलयसंयुते । पिधाय गाढं बध्येते रन्ध्रविन्यस्तदोरकैः ॥ १०९२ ॥ यस्यासौ ढवसः प्रोक्तः शाङ्गदेवेन सूरिणा। स्कन्धे निक्षिप्य कच्छान्तं वामहस्तेन वादयेत् ॥ १०९३ ।। वामास्ये दक्षिणस्थेन कुडुपेन तु दक्षिणे। ढंकारपाटवर्णैश्च रूढोऽयं ढवसो जने ॥ १०९४ ॥ इति ढवसलक्षणम् व्याख्याता ढवसेनैव ढक्का किंतु मुखद्वयम् । त्रयोदशाङ्गुलं तस्या धृत्वा तां वामपाणिना ॥ १०९५ ॥ तज्ज्ञो दक्षिणहस्तस्थकोणघातेन वादयेत । ढेंकारः पाटवर्णाः स्युनिःशङ्केनेति कीर्तितम् ॥ १०९६ ।। इति ढकालक्षणम् प्रमाणेन च सहित: सनवत्रिंशदगुल: एकोनचत्वारिंशदगुल इत्यर्थः । यश्च वल्लीवलयसंयुते द्वादशाङ्गुलप्रमाणे द्वे मुखे धत्ते, वलयद्वये च सप्त सप्त रन्ध्राणि धत्त इति । यस्य च वलयः तुण्डे मुखे वलयेन संयुक्ते ताभ्यां वलयाभ्यामाच्छाद्य रन्ध्रविन्यस्तैः दोरिकैः यस्य गाढं बध्येते, असौ ढवस इति । स्कन्ध इति । स्कन्धे कच्छान्तं प्रान्तं निक्षिप्य, वामहस्तेन वादयेत् वामास्ये, दक्षिणास्ये तु दक्षिणहस्तस्थेन कोणेनेति ॥ -१०९०-१०९४ ॥ इति ढवसलक्षणम् (सु०) ढक्कां लक्षयति-व्याख्यातेति । ढवसोक्तलक्षणेनैव ढक्का व्याख्याता । अयं तु विशेष:-मुखद्वयं त्रयोदशाङ्गुलमिति ॥ १०९५-१०९६ ॥ इति ढकालक्षणम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः हुडुक्कैवार्गला हीना कुडुक्का किंतु वादनम् । अस्याः करेण कोणेन क्षेत्रपालस्तु देवता ॥ १०९७ ॥ इति कुडुक्कालक्षणम् बीजदारुमयी सप्ताङ्गुलगर्भमुखद्वया । एकविंशत्यगुला च यस्या दैर्ये समाकृतिः ॥ १०९८ ॥ संहतानित्रयाकारत्र्यङ्गुलस्थूलतायुते ।। वृत्ते नवागुले गर्भे वलये वल्लिनिर्मिते ॥ १०९९ ॥ सप्तसप्तच्छिद्रयुते यस्याः स्यातां मुखद्वये । कवलाभ्यां पिनह्येते मुखे च वलयान्विते ॥ ११०० ॥ सरन्धे कबले रन्ध्रन्यस्ततन्त्रीसुयन्त्रिते । कुडुवा सा हुडुक्कोक्तवर्णात्कारभूयसी ॥ ११०१ ।। कोणाभ्यां मदनाक्ताभ्यां वायते त्यक्तझेंकृतिः । ___ इति कुडुवालक्षणम् (सु०) कुडुक्कां लक्षयति-कुडुक्केति । पूर्वोक्तहुडुक्कैव अर्गला हीना कुडुक्का । किंतु करेण कोणेन वादनमिति विशेषः ॥ १०९७ ॥ इति कुडुक्कालक्षणम् (सु०) कुड्डुवां लक्षयति--बीजेति । बीजकवृक्षकृता लोहादिधातुमयी वा सप्ताङ्गुलो गर्भो मुखद्वयं यस्याः, एकविंशत्यगुलदीर्घा समानाकारा संहतमेवोत्थापितं यदग्नित्रयं तद्वत् त्रिकोण आकारो यस्याः । यस्याश्च मुखद्वये वर्तुले गर्भगर्ते नवागुले वलयीकृते सप्तसप्तरन्ध्रे द्वे वलये स्याताम् । मुखद्वयेति । मुखद्वये कवलाभ्यामिति द्विमुखे कवलाभ्यामपि पिनह्येते आच्छाद्यते । मुखे च वलयान्विते कार्ये, सरन्छे रन्ध्रसहिते, रन्ध्रन्यस्तया तन्या सम्यक् नियन्त्रिते Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ संगीतरनाकरः अष्टादशाङ्गुला दैध्ये दृढा रुझा समाकृतिः ॥ ११०२ ॥ एकादशाङ्गुले तस्या वदने कुण्डलीयुते । नद्रव्ये चर्मणा वामवक्त्रान्तःकुण्डलीद्वयम् ॥ ११०३ ॥ तत्रैका वक्त्रमात्रा स्यादपरा चतुरगुला। कुण्डल्योरन्तराले स्यान्नलिका स्नायुनिर्मिता ॥ ११०४ ॥ सैकच्छिद्रं वामवक्त्रं सूत्रतन्त्वञ्चनीयुतम् । पूर्ववद्विग्निकाः कार्या वक्त्रयोः सप्त सप्त च ॥ ११०५ ।। पादोनहस्तमात्रां च नागपाशवतीं दृढाम् । कच्छां स्कन्धे निवेश्यास्या वादनं वेदितं बुधैः ॥ ११०६ ।। रुंकारजननादुञ्जा सा भवेद्भुङ्गिदैवता ।। मतगोक्तास्त्विमे वर्णाः कतदा वनमा रवौ ।। ११०७ ।। उक्तास्त्वन्यैरिमे वर्णाः करगा घटनाः खहौ । विमिका वाद्यशास्त्रेऽस्मिन्कर्पराः परिकीर्तिताः ॥ ११०८ ॥ इति रखालक्षणम् द्वे कवले यस्यां सा कुडुवा ; हुडुक्कोक्त एव वर्णो यस्यां, मधूच्छिष्टकोणद्वयेन वाद्यते । झेंकारो नास्ति ॥ १०९८-११०१- ॥ इति कुडुवालक्षणम् (सु०) रुजां लक्षयति-अष्टादशेति । अष्टादशाङ्गुलदीर्घा रुजा, सा समानाकृतिः, तस्या कुण्डलीयुते द्वे वदने एकादशाङ्गुला च चर्मणा नद्धव्ये बन्धयितव्ये । वाममुखस्य आस्यमध्ये कुण्डलीद्वयं कर्तव्यम् । तत्र कुण्डल्योर्मध्ये एका वक्त्रप्रमाणा, अपरा तु चतुरगुलप्रमाणा च, स्नायुनिर्मिता नलिका स्थाप्या। वाममुखमेकच्छिद्रसंयुतं सूत्रतन्तुनाचनवत्या वाद्यं बध्वा, प्रान्ते Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः वितस्तिमात्रदैर्ध्यः स्यादष्टाङ्गुलमुखद्वयः । यो यस्य मण्डलीयुक्ते मुखे बद्धे च चर्मणा ॥ ११०९ ॥ त्रिवलीवरक्षाममध्यो निबद्धः मूत्रदोरकैः । मध्ये च गाढतां नीतावश्चन्यौ वादनाय च ॥ १११० ॥ भवेतां प्रान्तसंलग्नसमृन्मदनगोलकैः ।। असौ डमरुको मध्ये धृत्वा इस्तद्वयेन च ॥ ११११ ॥ डघवर्णो वादनीयः प्रोक्तो निःशङ्करिणा । अन्यैः कखरटा वर्णाः प्रोक्ता डमरुकेऽधिकाः ॥ १११२ ॥ इति डमरुकलक्षणम् कठिनया वादनरज्ज्वा संयुतं भवेत् । पूर्वप्रकारेण विग्निकाः कर्पराः प्रतिमुखं सप्त सप्त कर्तव्याः । अस्या वादनप्रकारमाह-पादोनेति । चतुर्थाशोनहस्तप्रमाणां कच्छां चिपिटरज्जुं स्कन्धे निवेश्य वादनं कर्तव्यम् । इयं च रुंशब्दमुत्पादयति तस्मात् रुक्षेत्युच्यते । मतङ्गेन कतदवनमरवा वर्णा उक्ताः । अन्यैः करगघटनखहा उक्ता: । अस्मिंश्च वाद्यशास्त्रे विग्निकाशब्देन कर्परा उच्यन्ते ॥ -११०२-११०८ ॥ इति रुजालक्षणम् (सु०) डमरुकं लक्षयति-वितस्तिरिति । वितस्तिप्रमाणदेये, अष्टागुलप्रमाणमुखद्वयं च, यस्य मुखद्वयं चर्मणा युक्तं मण्डलीयुक्तं च भवेत्, वक्ष्यमाणत्रिवलीवत् क्षामः कृशो मध्यप्रदेशो यस्य, मध्ये ; मध्यप्रदेशे, गाढैः दोरकैरुपनिबद्धः द्वे अञ्चन्यौ वादनीयस्य प्रान्ते संलग्नः समृन्मृदा सहितः मदनस्य सिक्थकस्य गोलको ययोः स डमरुकः । मध्ये हस्तद्वयेन धृत्वा डघवर्णयुतो वादनीयः । अन्यैः कखरटा वर्णा अधिका: प्रोक्ताः ॥ ११०९-१११२ ॥ इति डमरुकलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः वितस्तिमात्रं दैर्घ्यं स्यान्मध्यः किंचित्कृशो भवेत् । मुखे त्वष्टाङ्गुलैः पिण्डोऽर्थाङ्गुलस्तन्त्रिकाद्वयम् ॥ १११३ ॥ मुखे मुखे शङ्कवश्च चत्वारस्ताम्रनिर्मिताः । तेषामधो द्वावूर्व द्वौ तन्त्रीबन्धनसिद्धये ॥ १११४ ॥ तन्त्र्योस्तृणशलाकां च निदध्याद्धनिपुष्टये । अन्यल्लक्ष्म हुडुक्कावद्यस्याः पाटाक्षराण्यपि ॥ १११५ ॥ स्याद्दशाङ्गुलदैर्येण कुडुपेन तु वादनम् । निःशङ्कशाङ्गदेवेन डक्का सा परिकीर्तिता ।। १११६॥ अन्येऽस्या वादनं पाहुः करेण कुडुपेन च । हस्तघातेन डंकारो वादने कुडुपेन तु ॥ १११७ ॥ घटस्ततो डगिश्चेति मुखान्पाटान्वदन्त्यमी ।। नगौ खकरटा वर्णा मुख्याः प्रोक्ताः परैरिह ॥ १११८ ।। अस्यां च मूरयः प्राहुर्देवतां विन्ध्यवासिनीम् । अगुलोना मध्यमा सा द्वयगुलोना कनीयसी ॥ १११९ ॥ इति डकालक्षणम् (सु०) डक्कां लक्षयति-वितस्तिमात्रमिति । दैर्ध्य वितस्तिप्रमाणम् , मध्यः किंचित् कृशः क्षामः, अष्टाङ्गुलप्रमाणं मुखद्वयम् , द्वे तन्त्र्यौ, मुखे मुखे, प्रतिमुखम् , चत्वारः ताम्रनिर्मिताः शङ्कवः, तेषां शङ्नामधःप्रदेशे द्वौ, ऊर्ध्वं च द्वौ तन्त्रीबन्धनार्थ, तन्त्रीद्वयं नादवृद्धयर्थं तृणशलाका क्षेप्तव्या, अन्यत् लक्ष्म कुडुक्कावत् । कुडुपेन च वादनं यस्याः, सा डक्का । केचित् करेण कोणेन वादनमाहुः । करेण घाते क्रियमाणे रुंशब्द उत्पद्यते । कोणेन तु घटादयः, अमून् पाटमुखान् वदन्ति । अन्यैः नगखकरटा वर्णा इह मुख्या इति वदन्ति । अस्यां डक्कायां विन्ध्यवासिनी देवतामाहुः । पूर्वोक्तप्रमाणा डक्का उत्तमा, अङ्गुलन्यूना मध्यमा, द्वयगुलन्यूना कनिष्ठेति ॥ १११३-१११९ ॥ इति डकालक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ षष्ठो वायाध्यायः डक्कैच मण्डिडका स्यात्कि त्वस्याः षोडशाङ्गुलम् । दैर्घ्यमष्टाङ्गुलौ गर्भो स्यातां वदनयोयोः ।। ११२० ॥ षोडशामुलको मध्यपरिधिर्नात्र चार्गला । न च कच्छोत्कक्षकस्तु मध्ये स्यादश्चनीद्वयम् ॥ ११२१ ॥ उत्कक्षं चाश्चनीद्वन्द्वं वामाङ्गुष्ठागुलित्रयात् ।। धृत्वा संपीड्य तर्जन्या मण्डलीप्रान्तमाननम् ॥ ११२२ ॥ अस्या दक्षिणजानुस्यं हन्याद्दक्षिणपाणिना । उत्कर्श मणिबन्धोर्ध्वं यद्वान्यस्याश्चनीद्वयम् ।। ११२३ ॥ कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठैः संयुज्यापीड्य मण्डलीम् । तर्जेन्या मध्यया वाथ हस्तेनान्येन वादयेत् ११२४ ॥ वदन्ति वादनं तस्याः करेण कुडुपेन वा ।। चर्यागाने च पूजायां शक्तेः सा विनियुज्यते ॥ ११२५ ॥ इति मण्डिडकालक्षणम् (सु०) मण्डिडक्कां लक्षयति-डकैवेति । पूर्वोक्तलक्षणा डक्कैव मण्डिडका भवति । अयं तु विशेष:-- दैर्घ्य षोडशागुलं वदनद्वये, गर्भद्वयमष्टाङ्गुलम् , मध्यपरिधिः षोडशाङ्गुल:, अर्गलाश्च न सन्ति, न च कच्छा, मध्ये तु पुनः ऊर्ध्वकक्षमञ्चनीद्वयं स्यात्, एवंविधमञ्चनीद्वयं वामागुष्ठेन अगुलीत्रयेण च धृत्वा, अस्या आननं दक्षिणजानुनि स्थितं दक्षिणहस्तेन घातयेत् । वादने प्रकारान्तरमाह-उत्कक्षमिति । ऊर्ध्वकक्षमञ्चनद्वयं मणिबन्धे ऊर्ध्वप्रदेशे निक्षिप्य, कनिष्ठानामिकागुष्ठैः संयोज्य, तर्जनीमध्यमाभ्यां मण्डली पीडयित्वा, अन्यहस्तेन वादयेत् । प्रबन्धाध्यायोक्तचच्चरीगाने, शक्ते: पूजायां च सा विनियुज्यते ॥ ११२०-११२५ ॥ इति मण्डिखकालक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० संगीतरत्नाकरः कांस्याद्गोशृङ्गतो दन्तिदन्ताद्वा डक्कुली भवेत् । दैर्ये पश्चाङ्गुला वक्त्रे तस्याश्च चतुरङ्गुले ११२६ ।। मेषपायुद्दलीबद्ध व स्वचक्रसमन्विते । चक्रे च कांस्यजे ताम्रमये वा लोहजे पृथक् ॥ ११२७ ॥ पञ्चरन्ध्रे तथोदल्यौ रन्धविन्यस्तदोरकैः । सौत्रैर्गा निबध्येते मध्ये मूत्रेण वेष्टितम् ॥ ११२८ ॥ नातिश्लथं नातिगाढं मध्यं सूत्रे त्वनामिकाम् ।। निधाय मध्यतर्जन्यौ विवृते चक्रसंयुते ॥ ११२९ ॥ कृत्वाङ्गुष्ठं त्वन्यचक्रे न्यस्याय मदनाञ्चिताम् । विधायाश्चनिकामेकां तां दुंदुमिति वादयेत् ॥ ११३० ॥ तुंतुमित्यपरे प्राहुः पाटा मर्दलसंभवाः । यथासंभवमेतस्यां शार्ङ्गदेवेन कीर्तिताः ॥ ११३१ ।। इति डक्कुलीलक्षणम् (सु०) डक्कुली लक्षयति-कांस्यादिति । कांस्येन गोशृङ्गेण हस्तिदन्तेन वा डक्कुली कार्या | तस्या दैर्ध्य पञ्चाङ्गुलम् , मुखद्वयं चतुरङ्गुलम् । मेषस्य अजस्य वा पारिका कृत्तिः, तया निर्मितया उद्दल्या बद्धे मुखद्वये चक्रसमन्विते, चक्रद्वयं कांस्येन ताम्रण लौहेन वा पञ्चरन्ध्रसंयुक्तं कार्यम् । तथा द्वे उद्दल्यौ छिद्रे न्यस्ते, सौत्रैः; सूत्रकृतैः दोरकैः गाढं बन्धनीयम् । वादनप्रकारमाह-मध्य इति । अन्त:सूत्रेण वेष्टितमतिगाढमतिश्लथत्वहीनम् , अनामिकाम् , मध्यसूत्रेषु निधाय मध्यमातर्जन्यौ द्वे अमुल्यौ विवृते असंयुक्ते कृत्वा, अशष्टमन्यस्मिन्वक्त्रे न्यस्य स्थापयित्वा, मदनाञ्चितां; सिक्थकेन अञ्चितां लिप्तामेकामञ्चनिकां कृत्वा, ताम् ; उद्दलीं दुंदुमिति शब्देन वादयेत् | अपरे तुंतुमिति मर्दलसंभवा: पाटा: प्राहुः ॥ ११२६-११३१ ।। इति डक्कुलीलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः शित्यङ्गुला दैर्घ्य परिधौ त्रिंशदङ्गुला । समकाया सेल्लुका स्याद्वीजकाष्ठेन निर्मिता ॥ ११३२ ॥ दशाङ्गुले मुखे तस्याः परैस्त्वेकादशाङ्गुले | उक्ते न बन्धनोद्दल्यौ ताभ्यामेकाङ्गुलाधिके ।। ११३३ ॥ वल्लीजं तर्जनीस्थौल्यं मुखयोर्बलयद्वयम् । सरन्ध्रषट्कं रन्ध्रस्थरज्जुभिर्गायन्त्रितम् ||११३४ | एकाङ्गुलाधिकं तच्च वक्त्राभ्यां वदनं पुनः । त्रिगर्भितं वामं वामहस्तेन वादयेत् ।। ११३५ ॥ मुखं दक्षिणपाणिस्थकुडुपेन तु दक्षिणम् । मुखे वामे तु का धिकारो दक्षिणे मुखे ।। ११३६ ॥ इति सेल्लुकालक्षणम् पलैः स्यात्पञ्चविंशत्या दैघ्र्ये तु द्वादशाङ्गुला | अष्टादशाङ्गुलमिता परिधौ समविग्रहा ।। ११३७ ।। ४८१ (सु०) सेल्लुकां लक्षयति-- षड्डिशतीति । दैर्घ्य ; षडूिंशत्यगुला, परिधौ ; वर्तुलप्रमाणौ त्रिंशदङ्गुला च, समानदेहा बीजकाष्ठेन असनकाष्ठेन निर्मिता सेल्लुका स्यात् । तस्या मुखद्वयं दशाङ्गुलम् | अन्यैराचार्यैः एकादशाङ्गुलमित्युक्तम् । बन्धनमुद्दली च ताभ्यां मुखाभ्यामेकेनाङ्गुलेनाधिके, वलयद्वयं वयुतं मुखयो: स्थाप्य रन्ध्रषट्केण युक्तं, रन्ध्रस्थिताभी रज्जुभिर्गाढं बद्धाभ्यां वक्त्राभ्याम् एकेनाङ्गुलेनाधिकमिति वलयद्वयं विशेषणम् । तन्त्रिका गर्भितं मुखं वामहस्तेन वादयेत् । दक्षिणहस्तस्थकोणेन दक्षिणं मुखं वादयेत् । वामे मुखे झेंकार:, दक्षिणे मुखे तु धिकार उत्पद्यते ॥ ११३२-११३६ ॥ इति सेल्लुकालक्षणम् (सु०) झल्लरीं लक्षयति - पलैरिति । पलैः पञ्चविंशतिप्रमाणा, दैये 61 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ संगीतरत्नाकरः ससूत्रकटकं रन्ध्रद्वयं कण्ठे च बिभ्रती । चर्मणानद्धवदना झल्लरी परिकीर्तिता ॥ ११३८ । वामहस्तधृता सा च वाद्या दक्षिणपाणिना । ___ इति झल्लरीलक्षणम् स्यात्तदर्धपलो भाणः परिधौ द्वादशाङ्गुलः ॥ ११३९ ॥ अन्यत्तु झल्लरीलक्ष्म तस्य श्रीशाङ्गिणोदितम् । इति भाणलक्षणम् सप्ताङ्गुलमुखद्वन्द्वात्रिवली हस्तदैर्ध्यभाक् ॥ ११४० ॥ मुष्टिग्राह्यश्व मध्योऽस्या वदने कवलावते । कवले लोहमण्डल्यौ सप्तरन्ध्र पृथक्पृथक् ॥ ११४१॥ रन्ध्रन्यस्तैर्गुणैर्बद्धो मध्ये गाढं च वेष्टनम् । मूत्ररज्ज्वा हस्तमात्रा कच्छा स्कन्धावलम्बिनी ।। ११४२ ॥ द्वादशाङ्गुला, परिधौ अष्टादशाङ्गुलमिता, समविग्रहवती सूत्रकटकयुक्तं कण्ठे रन्ध्रद्वयं दधाना चर्मणा आच्छादितमुखी झल्लरी स्यात् । सा वामहस्तेन धृत्वा दक्षिणपाणिना वादनीया ॥ ११३७-११३८- ॥ इति झल्लरी (सु०) भाणं लक्षयति-स्यादिति । तदर्धपल: ; सार्धद्वादशपलपरिमित: । परिधौ ; द्वादशाङ्गुल: । अन्यत्तु लक्ष्म झल्लरीवत् ॥-११३९-११३९-॥ ___ इति भाणलक्षणम् (सु०) त्रिवली लक्षयति-सप्ताङ्गुलेति । सप्ताङ्गले द्वे मुखे हस्तौ दैर्घ्यम् । एवंविधा त्रिवली भवति । अस्याः त्रिवल्या मध्यो मुष्टिग्राह्यः, वदने चर्मनद्धे मुखे कवलेनावृते कार्ये सप्तरन्ध्र, लोमहमण्डल्यौ कवले इत्युच्येते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ षष्ठो वाद्याध्यायः वादनं करयुग्मेन शार्ङ्गदेवेन कीर्तितम् । तदादोंदेति वर्णाः स्युखिपुरा चात्र देवता ॥ ११४३ ॥ एकादशाङ्गुलमुखी विंशत्यगुलदैर्ध्यभाक् । मुखार्धमानमध्यासौ मध्ये चाचनिकायुता ॥ ११४४ ॥ तदर्धवर्णसंयुक्ता त्रिकुल्या चोच्यते बुधैः । इति त्रिवलीलक्षणम् आम्रद्रुमसमुद्भूतो महागात्रो महाध्वनिः ॥ ११४५ ॥ कांस्यभाजनसंभारगर्भो वलयवर्जितः । चर्मनद्धाननो बद्धो वधैर्गाढं समन्ततः ।। ११४६ ।। दृढचार्मेण कोणेन वाद्यो वर्णेन दुन्दुभिः । मेघनिर्घोषगम्भीरघोंकारस्यात्र मुख्यता ॥ ११४७॥ मङ्गले विजये चैव वाद्यते देवतालये । इति दुन्दुभिलक्षणम् रन्धैन्यस्तैर्गुणैः मध्यभागे वेष्टनं काम् । सूत्ररज्जुना कृतहस्तप्रमाणा स्कन्धावलम्बिनी कच्छा कार्या, करद्वयेन च वादनम् । तदादोंदे इत्यादयो वर्णाः । अत्र देवता च त्रिपुरा । अस्यास्त्रिवल्या: लक्षणविशेषेण नामान्तरमाह-एकादशेति । एकादशाङ्गुलं मुखं यस्याः । विंशत्यगुलदीर्घा मुखस्य, अर्धमानं सार्धपञ्चागुलं तावत्प्रमाणं मध्यो यस्याः, एवंविधलक्षणयुक्ता अञ्चनिकया युता च त्रिवली वर्णसंयुक्तेत्याहुः । इयमेव त्रिकुल्येत्युच्यते॥-११४०-११४४-॥ इति त्रिवलीलक्षणम् (सु०) दुन्दुभिं लक्षयति-आग्नेति । आम्रद्रुमोद्भवः स्थूलध्वनिः; स्थूलरवः ; कांस्यभाजनानां समूहो गर्भे यस्य, वलयहीनः, चर्मणा आच्छादितमुखः, वधैः परितो बद्धः, दृढेन चर्मकृतेन कोणेन वर्णेन च दुन्दुभि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ संगीतरनाकरः वितस्तित्रयदैर्ध्या स्याब्रेरी ताम्रण निर्मिता ॥ ११४८ ।। चतुर्विंशत्यङ्गुले च वदने वलयान्विते । तस्याः सवलये चर्मच्छन्ने छिद्रसमन्विते ॥ ११४९ ।। रज्ज्वा नियन्त्रिते गाढं मध्ये सूत्रेण बन्धनम् । दक्षिणस्थेन कोणेन वामहस्तेन ताडनात् ।। ११५० ।। उद्भटो भवति ध्वानो गम्भीरोऽरिभयंकरः । तंकारः पाटवर्णोऽस्यां मुख्यो निःशङ्ककीर्तितः ॥ ११५१ ॥ इति भेरीलक्षणम् कांस्यजस्ताम्रजो लौहो वोत्तमो मध्यमोऽधमः । : एकवक्त्रो महान्वको स्वल्पोऽधोऽर्धयवाकृतिः ॥ ११५२ ॥ भृतगर्भः कांस्यपात्रभारैमहिषचर्मणा । छन्नाननो बद्धचर्मा तद्रन्ध्रन्यस्तवध्रकैः ।। ११५३ ।। दिनीयः । अत्र मेघगर्जितगम्भीरध्वनिवत् घोंकारस्य मुख्यत्वम् । अयं दुन्दुभिः विजययात्रायां देवतालये मङ्गले च वाद्यते ॥ -११४५-११४७- ॥ ____ इति दुन्दुभिलक्षणम् (सु०) मेरी लक्षयति-वितस्तिरिति । वितस्तित्रयमिता दीर्घा ताम्रण निर्मिता भेरी वलयसंयुते मुखे यस्याः, चतुर्विशत्य गुले कार्ये । वलयद्वयं च चर्मणा आच्छादितं च्छिद्रसहितं रज्जुबद्ध कार्यम् । मध्ये च सूत्रेण बन्धनं कार्यम् । दक्षिणहस्तेन कोणेन वामहस्तेन च घातात् अरिभयंकरः गम्भीरः अत्युद्भटश्च ध्वानो भवति । अस्यां तंकार: पाटवर्णो मुख्यो भवति ॥ -११४८-११५१ ॥ इति भेरीलक्षणम् (सु०) नि:साणं लक्षयति-कांस्यज इति । कांस्यजो नि:साण उत्तमः, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ षष्ठो वाद्याध्यायः क्षिप्तोऽधो वध्रवलये निवेश्यावर्तितर्मुहुः । द्विषद्वित्रासजननो निःसाणः शाङ्गिणोदितः ॥ ११५४ ॥ चार्मणेनास्य कोणेन सद्वितीयस्य वादनम् । दृढशब्देन भीरूणां भिनत्ति हृदयान्ययम् ॥ ११५५ ॥ स्यादस्मायुद्धवीराणां रोमाञ्चोपचितं वपुः । इति निःसाणलक्षणम् निःसाणवत्तुम्बकी स्यात्ततोऽल्पा गात्रनादयोः ॥ ११५६ ।। ___इति तुम्बकीलक्षणम् उक्तौ प्रकृतिदारूणामनुक्तौ वा विकल्पतः । ज्ञेयो दारववाद्यानां खदिरो रक्तचन्दनः ॥ ११५७ ।। ताम्रजो मध्यमः, लोहजोऽधमः । एकमुखो महान् स्थूल: मुखे स्वल्पः, अधोऽर्धयवाकृति: ; अर्धयवप्रमाणाकाराधोभागः । कांस्यपात्रसमूहैः पूर्वे मध्ये महिषचर्मणा आच्छादितमुखः, तस्य नि:साणस्य रन्ध्रे विन्यस्तै: चर्मवलये निवेश्य मुहुर्मुहुः आवर्तितैः द्विगुणितैः वध्रकैः बद्धं चर्म यस्य, स वैरिवित्रासकारी नि:साणः । सद्वितीयस्यास्य चर्मसंबन्धिना कोणेन वादनं दृढशब्देन यदा क्रियते तदायं निःसाणः भीरूणां हृदयानि भिनत्ति । अस्मात् युद्धवीराणां रोमाञ्चितं वपुश्च स्यात् ॥ ११५२-११५५- ॥ इति निःसाणलक्षणम __ (सु०) तुम्बकी लक्षयति-नि:साणवदिति । निःसाणात् गात्रे नादे च किंचिदल्पा तुम्बकी स्यात् ॥ -१११६ ॥ ____ इति तुम्बकीलक्षणम् (क०) अथावनद्धवाद्यप्रकृतिभूतं दारुविशेषं तद्गुणांश्वाहउक्तावित्यादि । प्रकृतिदारूणामुक्ताविति । यत्र वाद्यस्य प्रकृतित्वेन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ संगीतरनाकरः सर्वेषु स्युर्यथायोगं पाटाः पाटहमार्दलाः । नीरसोच्छूितभूर्जाताज्जीर्णाद्वाताहतात्तरोः ॥ ११५८ ।। निर्भिद्योत्सारिते गर्भे शेषाद्वाद्यानि कारयेत् । पूर्वपरोहे छिन्नेऽन्यो यः प्ररोहः प्ररोहति ॥ ११५९ ।। तदुद्भवद्रुमोद्भूतं वाद्यं सर्व प्रशस्यते । गर्भस्योत्सारणं त्वेतद्वेणोरन्यत्र पादपे ॥ ११६० ॥ तरूणां जातयस्तितः पित्तला वातला तथा । श्लेष्मला चेति तत्र स्यात्पित्तला नीरसक्षितौ ॥ ११६१ ।। अत्यल्परसभूजाता वातला श्लेष्मला पुनः। जलाशयसमीपस्थरससंप्लुतभूमिजा ।। ११६२ ।। पित्तलात्युत्तमा जातिर्वातला त्वधमा भवेत् । श्लेष्मला वय॑ते शुष्के वृक्षेऽपि च्छेदनात्पुरा ॥ ११६३ ।। इति काष्ठलक्षणम् यथानुक्तं दारूणामुक्तिर्यथा पटहादौ खदिरादेः । अनुक्तौवेति । यथाभिधानं दारुविशेषाणामनभिधानं वा, यथा कुडुक्कादीनाम् । तत्रोभयत्रापि दारववाद्यानां दारुणा निर्मितानां पटहादीनां वाद्यानां प्रकृतित्वेनेति शेषः । खदिरो रक्तचन्दनेन विकल्पितो ज्ञेयः । खदिरो वा रक्तचन्दनो वा कर्तव्य इत्यर्थः । सर्वेष्विति । सर्वेषु तुडुक्कादिषु वाद्येषु । पाटइमार्दलाः पाटा इति । पाटहाः कखादयः षोडश । मार्दला अपि मतान्तरोक्तैः सह तद्ध्यादयः षोडश । यथायोगं स्युरिति । यैः पाटैर्यस्य वाद्यस्य स्फुटमनुकरणं भवति तत्र प्रयोज्या इत्यर्थः ॥ ११५७-११६३ ॥ इति काष्ठलक्षणम् (सु०) वाद्यकाष्ठविशेषानाह-उक्ताविति । कारणभूतानां काष्ठाना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ षष्ठो वाद्याध्यायः कोमलत्वं व्रणग्रन्थिभेदान्दारुषु वर्जयेत् । इति काष्ठदोषा: पाण्मासिकस्य वत्सस्य चर्म स्यात्पुटबन्धने ॥ ११६४ ।। अन्ये द्विवत्सरस्याहुस्तन्न लक्ष्येषु दृश्यते । मुक्तावनुक्तौ वा विकल्पेन दारुरचितानां सर्वेषां खादिरो रक्तचन्दनो वा प्रकृतिर्ज्ञातव्या । यथायोगं, यथासंख्य: । एवं पटहसंबन्धिनो मर्दलसंबन्धिनश्च पाटा:। नीरसायाम् ; अम्बुशून्यायाम् , उच्छ्रितभूजातायां, जीर्णात् पुराणात् सर्वदा पवनेन आन्दोलितात तरो: निर्भिय सित्वा गर्भ उत्सारिते त्यक्ते सति शेषात् तस्मात् वाद्यानि कारयितव्यानि । पूर्व इति । पूर्वस्मिन् प्ररोहे छिने सति प्ररूढात् अन्यस्मात् प्ररोहात् जातं वाद्यं प्रशस्तम् । गर्भोत्सारणमिदं वेणुवाचं विना अन्यत्र ज्ञातव्यम् । तरुजाती: कथयति-तरूणामिति । तासां लक्षणमाह -तिस्रेति। तरूणां तिस्रो जातयः ; पित्तला, वातला, श्लेष्मला चेति। तत्र तिसृणां मध्ये नीरसभूमौ जाता पित्तला, अल्पतररसभूमौ जाता वातला, जलाशयसमीपस्थरससंप्लुतभूमौ जाता श्लेष्मला इति । तासु पित्तला अत्युत्तमा, वातला अधमा, श्लेमला तु वा इति । छेदात्पूर्व शुष्को वृक्षोऽपि वर्ण्य इति १११९७-११६३॥ इति काष्ठलक्षणम् (क०) दारुदोषानाह-कोमलेत्यादि । ११६३. ॥ इति काष्ठदोषाः (सु०) काष्ठदोषानाह-कोमलत्वमिति । कोमलत्वं ; सुकुमारत्वम् । वर्ण छिद्रं, प्रन्धिः शाखासंधिः, भेदो मिन्नत्वं, एते दोषा दारुषु वर्जनीया:॥११६३-।। इति काष्ठदोषाः (क०) चर्मणो गुणानाह-पाण्मासिकस्येत्यादि ॥ -११६४-- ११६७ ।। इति चर्मगुणाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ संगीतरत्नाकरः बद्धस्य वृषभस्यास्य चर्मणा वध्रकल्पना ॥ ११६५ ॥ कुन्देन्दुहिमसंकाशमाम्रपल्लवसंनिभम् । स्नायुमांसविहीनं च चर्म गोसंभवं च यत् ॥ ११६६ ॥ शीतोदके निशामेकां वासयित्वा समुद्धृतम् । वाद्यावनहनार्थ तद् ग्राह्यं श्रीशाङ्गिणोदितम् ॥ ११६७ ॥ इति चर्मगुणाः मेदोदुष्टं जराक्रान्तं क्लिन्नं काकमुखाहतम् । अग्निधृमहतं जीर्ण न वाद्ये चर्म कर्मकृत् ।। ११६८ ।। गुणै रितरोदारैर्यस्य नद्धं जगत्त्रयम् । अवनद्धमिदं तेन शाङ्गदेवेन कीर्तितम् ।। ११६९ ॥ इति चर्मदोषाः इत्यवनद्धवाद्यप्रकरणम् । ___ (सु०) चर्मगुणानाह- पाण्मासिकस्येति । षण्मासोत्पन्नस्य वत्सस्य तर्णकस्य चर्म पुटबन्धने स्यात् । अन्ये तु द्विवत्सरस्याहुः । तत् लक्ष्येषु न दृश्यते । पुटं वाद्यमुखं वृद्धवृषभस्य चर्मणा वध्रा कार्या । कुन्देति । कुन्दादिवत् उज्ज्वलं, माकन्दपल्लववत् आताम्र वा स्नायुमांसाभ्यां विहीनं गोचर्म, तदेकस्यां निशायां शीतलोदके स्थापयित्वा, उद्धृतं सत् वाद्यपिधानार्थ ग्राह्यम् ॥ -१९६४-११६७ ॥ इति चर्मगुणाः (क०) चर्मदोषानाह--- मेदोदुष्टमित्यादि । अथावनद्धवाद्यप्रकरणं निगमयितुमाह-- गुणरित्यादि ॥ ११६८-११६९ ॥ __ इति चर्मदोषाः इत्यवनवाद्यप्रकरणम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ४८९ अथ घनवाद्यम् - कांस्यजे घनवाद्ये स्यात्कांस्यमग्नौ सुशोधितम् । कांस्यजो वर्तुलस्तालः सपादद्वयङ्गुलाननः ॥ ११७० ।। मध्योऽस्याङ्गुलविस्तारो निम्नो रन्धं च मध्यगम् । पादोनगुञ्जामात्रं स्यात्पिण्डस्तु यवमात्रकः ॥ ११७१ ।। सार्धाङ्गुलः स्यादुत्सेधः समाश्लक्ष्णशुभाकृतिः । कायों तथा यथा नादो भवेच्छ्रतिमनोहरः ॥ ११७२ ॥ नेत्रवस्त्राञ्चलायाणि रज्जूकृत्य निवेशयेत् । रन्धेऽयाणामनिर्गत्यै ग्रन्थि च रचयेद् दृढम् ।। ११७३ ॥ ईक्तालयुगं कृत्वा तालमेकमथाञ्चलैः । आवेष्टय तर्जनी वामामङ्गुष्ठेन च वेष्टनम् ॥ ११७४ ॥ आक्रम्य तलमध्यस्थं धृत्वा तियेङ्मुखीकृतम् ।। शेषाङ्गुलीः प्रसार्योंदिक्षिणेन तु पाणिना ॥ ११७५ ।। तालमन्यतरस्यान्तलम्बमानाचलावलिम् । तर्जन्यङ्गुष्ठयोरग्रभागतस्तिर्यगाननम् ॥ ११७६ ।। धृत्वा तस्याग्रभागेण मध्यमन्यस्य ताडयेत् । अल्पनादो भवेच्छक्तिभूरिनादः शिवो भवेत् ॥ ११७७ ॥ (सु०) चर्मदोषानाह-मेद इति । मेदसा दूषितम् , मेदो धातुविशेषः । जरा गर्भवेष्टनं, तया आक्रान्तम् । क्लिन स्तिमितम् । काकमुखाहतं शिथिलम् । अग्निना धूमेन वा नष्टम् । जीर्णं जरठम् ॥ ११६८-११६९ ॥ इति चर्मदोषाः इत्यवनद्धवाद्यप्रकरणम् । (क०) अथ घनवाद्यं लक्षयितुमाह-अथेति । कांस्यजमिति धनवाद्यस्य सामान्यलक्षणम् । तच्च कांस्यममौ सुशोधितं ग्राह्यमिति 62 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० संगीतरत्नाकरः शिवे स्निग्धे घनो नादः शक्तौ स्यात्तद्विपर्ययः । वामेन धारयेच्छक्ति शिवं दक्षिणपाणिना ॥ ११७८ ॥ अश्वमेधफलं चैव प्राप्नुयाद्दोषमन्यया। देवता तुम्बरुर्युग्मे शक्तिः शक्तौ शिवे शिवः ॥ ११७९ ॥ द्रुतादिसिद्धथै तन्नादधृतिरूद्मशुलीकृता । कल्पनेत्युच्यते कार्यमस्य स्यात्तालधारणम् ॥ ११८० ॥ निःशङ्कशार्ङ्गदेवेन पाटाः सर्वेऽत्र कीर्तिताः । इति ताललक्षणम् शेषः । तत्र तालं लक्षयति-कांस्यज इत्यादि । द्रुतादीत्यादि । द्रुतादिसिद्धयै; अत्रादिशब्देन लध्वादयो गृह्यन्ते, दूतादिमितकालप्रदर्शनायेत्यर्थः । ऊर्ध्वागुलीकृता; हस्तद्वये तर्जन्यङ्गुष्ठाभ्यां तालद्वयस्य धृतत्वात्तदतिरिक्ताङ्गुल्य ऊर्वीकृतास्ता ऊर्वामुल्यस्ताभिः कृता । तन्नादधृतिः ; तयोस्तालयोः नादस्यानुकरणेनाकारेण दीर्घस्य दीर्घस्य निरोधेनावसानकरणं ह्रस्वीकरणमित्यर्थः । कल्पनेत्युच्यत इति । लक्ष्यप्रधानस्तालधारिभिरिति शेषः । कार्यमस्य स्यात्तालधारणमिति । अस्य तालधारिणः, तालधारणम् ; उक्तप्रकारेण तालयोर्धारणं, तथा तन्नादधारणं च कार्य स्यात् कर्तव्यं भवति । अत्र ताले सर्वे पाटाः कीर्तिता इति । तालस्य तूर्यत्रयमितिहेतुत्वादिति भावः ॥ ११७०-११८०- ॥ इति ताललक्षणम् (सु०) घनवाद्येषु प्रथमं तालं लक्षयति-कांस्यज इति । कांस्यजाते घनवाद्ये प्रथमं कांस्यमग्नौ शोधयेत् । कांस्यात् जातो कांस्यजः, वृत्त: वर्तुल:, सचतुर्थीशद्वयागुलमितमाननं मुखं यस्य ; अस्य, कांस्यतालस्य मध्यः अगुलविस्तारो भवति, निम्नः नीचश्च भवति । मध्यगतं रन्ध्र पादोनगुञ्जाप्रमाणं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः गुलौ तले || १९८१ ॥ नलिनीदलसंकाशौ कांस्यतालौ समाकृती | Trirat archiयजे मध्ये sofat fast तयोरन्यत्तु तालवत् । पाटा झनकटा मुख्याः सन्ति पाठान्तराण्यपि ॥ ११८२ ।। नारदो देवता चात्रेत्युक्तं सोढलमूनुना । इति कांस्यताललक्षणम् ४९१ " भवेत् । पिण्डस्तु, यवमात्र: । उत्सेधः ; उच्छ्रायः सार्धांगुलप्रमाणः । समानः श्लक्ष्णो मसृणो रमणीया कृतिश्च तथा कार्या यथा श्रवणयो रमणीयनादो भवति । नेत्रे वस्त्राञ्चलाप्राणि पट्टवस्त्रविशेषाणि, तै: रज्जूकृत्य रज्जुं विधाय रन्ध्रे निवेश्य अग्राणामनिर्गत्यै ग्रन्थि कुर्यात् । ईदृगिति । एवंविधं तालद्वयं विधाय एकं तालं अञ्जलै वेष्ट्य तर्जन्या वामाङ्गुष्ठेन च वेष्टितं तालमाक्रम्य पाणितलस्य मध्यस्थले धृत्वा, दक्षिणहस्तस्य तर्जन्या अङ्गुष्ठेन च रज्जुं वेष्टयित्वा द्वितीयं तालं पाणितलमध्ये लम्बमानं तिर्यङ्मुखं धारयित्वा, अन्यस्य तालस्य मध्यं ताडयेत् । अल्पेति । उभयोस्तालयोर्मध्ये अल्पध्वनिः शक्तिः, बहुध्वनिः शिवः शिवतालेन ताड्यमाने सति स्निग्धो घनो निबिडो नादो जायते । शक्तौ अस्निग्धायामल्प इति । वामेनेति । वामेन पाणिना शक्तिं धारयेत् । दक्षिणेन पाणिना शिवम् । एवंकृते अश्वमेधफलं प्राप्नोति । अन्यथा दोषं प्राप्नुयादिति । ऊर्ध्वाङ्गुल्या तस्य नादस्य धृतिः स्तम्भनं द्रुतत्वादिसिद्धये यत्क्रियते सा कल्पनेत्युच्यते । अस्य तालस्य अन्यत् कार्य तालधारणमिति ॥ ११७० - १९८० - ॥ इति ताललक्षणम (क० ) अथ कांस्यतालादीनां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि । तत्र कम्रिकापट्टवाद्ययोर्दारवत्वे कांस्यजत्वेऽपि मूर्तिरूपत्वाद्धनवाद्यत्वमेवेत्यवसेयम् ॥ ११८१ - १२०५ ॥ इति कांस्यताललक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ संगीतरत्नाकरः अर्धाङ्गुलमिते पिण्डे घण्टा कांस्यमयी भवेत् ॥ ११८३ ।। उच्छ्रायेऽष्टाङ्गुला वक्त्रे विशाला मूलतोऽल्पिका । सा च प्रासादसंबद्धा शलाकाकारधारिणी ॥ ११८४ ॥ मूले दण्डं त्रिशृङ्गाग्रं दधती मूलसंयुता। षडङ्गुलायतं सार्धागुलपिण्डं च लम्बितम् ॥ ११८५ ॥ लोहजं जालकं गर्भे दधानां तामधोमुखीम् । दण्डे धृत्वा टणत्कारवहुलं वादयेत्सुधीः ॥ ११८६ ॥ सा सर्वदेवता तज्ज्ञैर्वाद्यते देवतार्चने । इति घण्टालक्षणम् तैक्ष्णगोलकगर्भाः स्युः कांस्योद्भवपुटद्वयाः ॥ ११८७ ॥ (सु०) कांस्यतालं लक्षयति–नलिनीति । कमलिनीपत्रवत् समानाकारौ त्रयोदशाङ्गुलप्रमाणौ, मुखे द्वयगुलौ, कांस्यात् जातौ कांस्यतालौ कार्यों । तयो: तालयोर्मध्ये अङ्गुलप्रमाणौ निम्नौ नीचौ च कर्तव्यौ । अन्यत्तु तालवद् ज्ञातव्यम् ॥ -११८१-१९८२- ॥ ____ इति कांस्यताललक्षणम् (सु०) घण्टा लक्षयति-अर्धाङ्गुलेति । पिण्डे अर्धाङ्गुलमिते, उच्चत्वे अष्टाङ्गुला, कांस्यघटिता मुखे विशाला मूले अल्पा घण्टिका कार्या । सा च प्रासादशलाकाकारा भवेत् । मूले च शृङ्गत्रयसहिताग्रं दण्डं मूलसंलग्नं दधाना घडङ्गुलायामं सार्धाङ्गुलपिण्डं लम्बमानं लौहजालकं गर्भे दधानाम् , तां घण्टाम् अधोमुखी दण्डे धृत्वा वादयेदिति ॥ -११८३-१९८६-॥ इति घण्टालक्षणम् (सु०) क्षुद्रघण्टिकामाह-तक्ष्ण्येति । तीक्ष्णो लोहविशेषः, तज्जातो गोलक: मध्ये गर्भो यस्यां, कांस्यात् जातं पुटद्वयं यासां ता:, कांस्योद्भवपुटद्वयाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ षष्ठो वाद्याध्यायः सुघनाः मूक्ष्मजातीयवदरीबीजसंमिताः । शिरःसुषिरविन्यस्तरजवः क्षुद्रघण्टिकाः ॥ ११८८ ।। ताश्च घर्घरिका लोके भाष्यन्ते पर्मरास्तथा । ताभिर्घर्घरभेदानां कृतिः पेरणिनर्तने ।। ११८९ ।। इति क्षुद्रघण्टिकालक्षणम् कांस्यजा हस्तमात्रा स्यात्पिण्डे त्वामुला घना । जयघण्टा समा श्लक्ष्णा वृत्ता प्रान्ते द्विरन्ध्रभाक् ।। ११९० ।। धृत्वा तद्रन्ध्रविन्यस्तरज्जौ तां वामपाणिना । दक्षिणे दक्षिणस्थेन दृढकोणेन वादयेत् ॥ ११९१ ॥ डेंकारवहुलाः पाटाः सर्वेऽस्याः शाङ्गिणोदिताः । इति जयघण्टालक्षणम् सूक्ष्मबदरीबीजप्रमाणा शिखाच्छिद्रे विन्यस्तदोरिका क्षुद्रघण्टिका भवन्ति । ताश्च लोके घरिका इत्युच्यन्ते । तथा मर्मरा इत्यपि । घर्घरविशेषाभि: ताभिः पेरणीनां नर्तकविशेषाणां वक्ष्यमाणानां नर्तने कृतिः प्रयोजनम् ॥-१९८७-११९॥ इति क्षुद्रघण्टिकालक्षणम् (सु०) जयघण्टा लक्षयति-कांस्यजेति । कांस्यविरचिता हस्तप्रमाणा, पिण्डे तु अर्धाङ्गुलमिता, घना; निबिडा, समा; समानाकारा, श्लक्ष्णा ; मसृणा, वृत्ता ; वर्तुला, प्रान्ते द्विरन्ध्रभाक्, रन्ध्रद्वयवती च जयघण्टा कार्या । तद्रन्ध्रविन्यस्तरज्जो ; तस्या रन्ध्रे विन्यस्तायां रज्जौ, तां ; जयघण्टा वामपाणिना धृत्वा, दक्षिणप्रदेशे दक्षिणहस्तस्थितेन कोणेन वादयेत् । अस्या जयघण्टायाः पाटा: सर्वे डेंकारप्रचुरा: ॥ ११९०-११९१- ॥ इति जयघण्टालक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ संगीतरत्नाकरः खादिरं घनवेणूत्थं यद्वा कम्राचतुष्टयम् ॥ ११९२ ।। श्लक्ष्णं द्वयङ्गुलविस्तारं द्वादशाङ्गुलदैर्घ्यकम् । मध्ये पिण्डो यथाशोभं किंचिन्यूनस्ततोऽन्तयोः ।। ११९३ ।। यस्य तत्कम्रिकावायं तत्र द्वे द्वे तु कम्रिके । एकैकहस्तन्यस्ते ये तयोरेकैककम्रिकाम् ॥ ११९४ ।। मध्यमाङ्गुष्ठयोर्मूले धृत्वा प्रान्ते तयोः पुनः । अपरामपरां धृत्वा शिथिलां वादयेद्धिया ।। ११९५ ।। कम्पेन मणिवन्धस्य कम्रिकावादनं मतम् । पाटा: किटकिटामुख्यास्तत्र पाटान्तराण्यपि ॥ ११९६ ॥ कम्राणामन्तरं कृत्वानामया दक्षिणस्थया । तलघातागुष्ठमुष्टेवामस्येत्यपरे जगुः ॥ ११९७ ॥ इति कमालक्षणम् (सु०) कमां लक्षयति-खादिरमिति । खदिरेण जातं खादिरम् । घनवेणूत्थम् , घनोऽन्त:सारो यो वेणु:, तस्माजातं वा । श्लक्ष्णं मसृणम् ; द्वयङ्गुलविस्तारम् ; द्वयङ्गुलायाम, द्वादशाङ्गुलदीर्घ कम्राचतुष्टयं कर्तव्यम् । पिण्डस्तु मध्ये शोभामनतिक्रम्य क्रमेण कार्यः । प्रान्तयोरन्ते किंचिद्धीनः । यस्यैवं लक्षणं स्यात् तत् कम्रिकावाद्यं ज्ञेयम् । तत्रेति । तासु चतुर्यु कम्रासु मध्ये, द्वे द्वे कने ये प्रतिहस्तं विक्षिप्येते तयोरेकैकां कम्रां मध्यमाङ्गुष्ठयोः मूले धृत्वा प्रान्तयोधृत्वा च अपरां कमां बुद्धया शनैर्वादयेत् | मणिबन्धस्य कम्पने च कम्रावादनं मतम् । तत्र पाटा: किटकिटादयो मुख्या: । मतान्तरेण वादनप्रकारमाह-कम्राणामिति । कम्राणामन्तरं विधाय दक्षिणानामिकया वामस्याङ्गुष्ठस्य मुष्टे: तलेन प्रान्ते च इत्यन्ये अवादिषुः ॥ -११९२-११९७ ॥ इति कम्रालक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ षष्ठो वाद्याध्यायः सर्पाकृतिरथो निम्ना कांस्यजा लोहजाथवा । शुक्तिस्यङ्गुलविस्तारा सार्धहस्तद्वया मता ॥ ११९८ ॥ तिर्यग्रेखाराजिता च मृगशृङ्गोपमेन सा । ऋजुना लोहकोणेन सरेखेन विघर्षणात् ॥ ११९९॥ वाद्यते किरिकिट्टेति पाटा यक्षास्तु देवताः । यतिमात्रावबोधेऽत्रेत्युक्तं निःशङ्करिणा ॥ १२०० ।। किरिकिट्टकमित्युक्तं तल्लोके रुद्रवल्लभम् । इति शुक्तिवाद्यम् श्रीपर्णीदारुजः पट्टश्चतुरश्रायतो भवेत् ।। १२०१ ॥ द्वात्रिंशदगुलो दैर्येऽन्यैरुक्तस्त्रिंशदगुलः । विस्तारो हस्तमात्रः स्यादृर्वाधःस्थितयोर्द्वयोः ।। १२०२ ॥ लोहमय्योः सरिकयोस्त्रिद्रज्जूपमायुजोः । (सु०) शुक्तिवाद्यं लक्षयति-सपैति । सर्पवत् आकृतिं दधती निम्ना नीचा कांस्येन लोहेन वा कृता व्यङ्गुलायामा सार्धहस्तद्वयदीर्घा तिर्यक्रेखया विराजिता शुक्तिः स्यात् । सा च ; शुक्तिरपि, मृगशृङ्गचत् उपमा आकारो यस्य, तथाविधेन ऋजुना सरलेन लोहकोणेन रेखासंयुक्तेन घर्षणेन वादनीया । किरिकिट्टेत्यादयः पाटाः । देवतास्तु यक्षा । अत्र ; एतस्मिन् वाद्ये केवलं यतिज्ञानमेव प्रयोजनम् । इदमेव वाद्यं लोके किरिकिट्टकमित्युच्यते ॥ ११९८-१२००- ॥ इति शुक्तिवाद्यम् (सु०) पट्टवाद्यं लक्षयति-श्रीपर्णीति । श्रीपर्णीवृक्षात् जातः, आयत:, चतुरश्रः, द्वात्रिंशददगुलो दीर्घः । मतान्तरेण त्रिंशदङ्गुलदीर्घः । विस्तार: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ संगीतरत्नाकर: क्षिप्ताभिस्तादृशचद्रवलया बलिभिर्युतः ॥ १२०३ ॥ वक्षोये जानुनोर्मध्ये यद्वा संधार्य वाद्यते । अयं च करशाखायै रालालिप्तो विघृष्यते ।। १२०४ ॥ कवचास्थडरटाः पाटाः पाटहावेह संमताः । सप्ता देवमुनयो देवताः शार्ङ्गिणोदिताः ।। १२०५ ।। इति पट्टवाद्यम् सन्त्यन्यान्यपि वाद्यानि लोके भूयांसि यानि च । तेषु विस्तारसंत्रासादुदास्ते सोढलात्मजः ।। १२०६ ॥ इति घनवाद्यलक्षणम् हस्तप्रमाणो भवेत् । ऊर्ध्वमधश्व स्थितयोः द्वयोः लोहकृतयोः सरिकयोः त्रिवृद्रज्जुतुल्ययोः निक्षिप्ताभिः लोहमयक्षुद्रवलयावलिभिः संयुक्तः पट्टः कर्तव्य इति संबन्ध: । वक्षसोऽये जानुमध्ये वा धारयित्वा वादयेत् । अयं च पट्टः, रालालिप्तः, राला वृक्षविशेषः, तस्य निर्यासेन लिप्तः, कराड्गुल्ययैः विघृष्यते । अस्य कखचा: थडरटा: पाटहाश्च पाटाः । अत्र सप्त देवमुनयो देवताः ॥ - १२०० - १२०५ ॥ इति पट्टवाद्यम् ( क ० ) अन्यान्यपि वाद्यानि लोकानुसारतो द्रष्टव्यानीत्याहसन्तीत्यादि ॥ १२०६ ॥ इति घनवाद्यलक्षणम् (सु० ) अन्येषु लोकप्रसिद्धेषु वाद्यभेदेषु विस्तरभिया शार्ङ्गदेव उदासीनो भवति ॥ १२०६ ॥ इति घनवाद्यलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः रक्तं विरक्तं मधुरं समं शुद्धं कलं घनम् । स्फुटहार : सुभरं विघुष्टं च गुणैरिति ॥ १२०७ ॥ दशभिः संयुतं वाद्यमुक्तं सोढलमूनुना । अन्वर्थान्यत्र नामानि समं त्वष्टविधं मतम् ॥ १२०८ ।। अक्षरायङ्गपूर्व च तालादि यतिपूर्वकम् । लयादि न्यासापन्यासपूर्वे पाणिसमं तथा ।। १२०९ ॥ स्यादक्षरसमं गीतगुरुलघ्वक्षरानुगम् । गीतस्य ग्रहमोक्षादीन्यङ्गान्यत्रेति यत्पुनः || १२१० ॥ स्यात्तदङ्गसमं तालानुगं तालसमं मतम् । यतेर्लयस्य न्यासस्यापन्यासस्य च साम्यतः ॥ १२११ ॥ यत्यादिपूर्वकं ज्ञेयं क्रमात्समचतुष्टयम् । गीतग्रहैः पाणिसंज्ञैः समं पाणिसमं मतम् ।। १२१२ ॥ वाद्यस्यैते गुणाः प्रोक्ता दोषः स्यात्तद्विपर्ययः । वाद्यगुणदोषाः ४९७ (क०) अथ वाद्यगुणानाह - रक्तमित्यादि । तत्र समस्याष्टौ भेदान् दर्शयति - अक्षरादीत्यादि । गितग्रहैः ; समातीतानागतैः । पाणिसंज्ञैरिति । क्रमात् ; समपाण्यवपाण्युपरिपाणिसंज्ञकैः ॥ १२०७-१२१२- ॥ वाद्यगुणदोषाः (सु० ) वाद्यगुणदोषानाह - रक्तमिति । रक्तादिभिः विघुष्टान्तैः दशभिर्गुणैः युक्तं वाद्यं भवति । तेषां नाम्नैव लक्षणं ज्ञायते । रक्तम्, रञ्जकम् | विरक्तम, विभिन्नम् | मधुरम्, माधुर्यम् । समम, वक्ष्यमाणमष्टविधम् । शुद्धम्, असंसृष्टम् । कलम, सूक्ष्मम् । घनं, सारम् । स्फुटप्रहारः, व्यक्तध्वनि: । सुभरम्, सुरागम् । विघुष्टम्, गम्भीरमिति । समं त्वष्टप्रकारं अक्षरसमादिभेदेन । 63 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ संगीतरत्नाकरः हस्तकोणपहारज्ञो गीतवादनकोविदः ॥ १२१३ ॥ यतिताललयाभिज्ञः पाटज्ञः पञ्चसञ्चवित् । दशहस्तगुणोपेतः पात्राभिप्रेतवादकः । ॥ १२१४ ॥ आतोद्यध्वनितत्त्वज्ञः समादिग्रहवेदिता। गीतवादननृत्यस्थच्छिद्रच्छादनपण्डितः ॥ १२१५ ।। ग्रहमोक्षप्रदेशज्ञो गीतनृत्तप्रमाणवित् । वाद्ये समस्तभेदज्ञो रूपरेखान्वितस्तथा ॥ १२१६ ॥ उद्धट्टनपटुः सर्ववाद्यभेदविवेचकः । नादवृद्धिक्षयापत्तिकोविदो वादको वरः ॥ १२१७ ॥ गुणैः कतिपय नः सर्वा वादकोऽधमः । इति वादकगुणदोषा: तेषां लक्षणमाह-स्यादिति । गीतगतगुरुलघ्वक्षराणामनुगमन्वितम् , अक्षरसमम् । गीतस्य अङ्गानि ग्रहमोक्षादीनि यदनुगच्छति, तदङ्गसमम् । गीतस्य ग्रहै: समपाण्यादिभिः समं, पाणिसमम् । तालानुगं, तालसमम् । यतेरनुगं, यतिसमम् । लयानुगं, लयसमम् । न्यासानुगं, न्याससमम् । अपन्यासानुगम् , अपन्याससमम् । एतैर्गुणैः विपर्ययेण दोष: स्यात् ॥ १२०७-१२१२-॥ इति वाद्यगुणदोषाः (क०) अथ वादकगुणदोषानाह-हस्तकोणप्रहार इत्यादि । उद्घट्टनपटुरिति । उद्धट्टनं नाम पाटाक्षरोच्चारणम् । उद्धट्टनेति भाण्डिका व्यवहरन्ति । उक्तगुणयुक्तो वादको वरः । कतिपयैर्गुणैर्हीनो मध्यः । सर्वैर्गुणैहीनोऽधमः स्मृतः ॥ -१२१३-१२१७- ॥ इति वादकगुणदोषाः (सु०) वादकगुणदोषानाह-हस्तेति पश्चसचवित् गीतवाद्यनृत्तग्रहमोक्षरन्ध्राणि पञ्च वेत्तीति पञ्चसंचवित् , तथाविधः । वादस्य वृद्धिक्षयप्राप Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो वाद्याध्यायः ४९९ वाञ्छानुगौ दृढौ व्यक्तौ स्निग्धौ दृढनखौ लघू ॥ १२१८ ॥ विधायागुलिसंचारौ स्वेदहीनौ जितश्रमौ । युक्तमहारौ च करौ प्रोक्तौ दशगुणाविति ॥ १२१९ ॥ इति हस्तगुणा: इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेवनन्दननिःशङ्क शार्ङ्गदेवविरचिते संगीतरत्नाकरे वाद्याध्यायः षष्ठः समाप्तः । णज्ञः । एतैर्गुणैर्युक्तो वादको वर उत्तमः । कतिपयैः अल्पैर्गुणैर्युक्तो हीनो वा मध्यमः । सर्वैर्गुणैर्हीनोऽधम इति ॥ -१२१३-१२१७- ॥ इति वादकगुणदोषा: (क०) वादकस्य करयोर्गुणानाह-वाञ्छानुगावित्यादि । -१२१८, १२१९ ॥ इति हस्तगुणाः अनवद्यगुणः कल्लिनाथो वाद्यविभागवित् । वाद्याध्यायस्य विवृतिमकरोन्निजविद्यया । इति श्रीमदभिनवभरताचार्यरायवयकारतोडरमल्लश्रीलक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुर कल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ षष्ठो वाद्याध्यायः (सु०) हस्तगुणानाह-वाञ्छानुगाविति । वाञ्छानुगौ ; चेतोवाञ्छितवादकौ, विधेय: अधीनः अङ्गुलिसंचारो ययोः ॥ -१२१८, १२१९ ॥ इति हस्तगुणाः इति श्रीदन्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीमदनपोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीसिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां संगीतसुधाकराख्यायां षष्ठो वाद्याध्यायः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APPENDIX I श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ३४० ३५२ २९६ २९४ ३९३ ३३९ २८२ पुटसंख्या अनुलं निस्तुषेः षड्भिः २५१ अङ्गुलं यवपादेन ३५ अङ्गुलं षड्यवं चात्र १६९ अकुलं सयवदन्द्वं २०८ अकुलत्रयविस्तारं ४९७ अकुलत्रयविस्तारा ४२४ अहुलत्रयविस्तारां ४६३ अङ्गुलत्रितयं मानं ३९१ अङ्गुलद्वन्द्वपरिधि: ४८८ अङ्गुलदयविस्तारं २८२ अनुलद्वितयं मानं १८१ अङ्कुलस्य त्रिभिः पादः १९७ अकुलाधिकपार्श्व च १९७ अनुलानां दण्डमानं २०९ अकुलानां यवार्धानां १६९ अकुलानामन्तराणि २२९ अकुलानि त्रयस्त्रिंशत् २४८ अकुलान्यन्तरालानि ४.८ अकुलार्धं पृथड्मानं ४५२ अङ्कलीभिश्वतसभिः ३४५ अक्लीमेदमात्रेण ३२. अकुलीसारणाभ्यासः अंशसंवाद्यन्यतर अंशे तदनुवादी च अकृतार्थेन पूर्वेण अकृतार्थों ततस्ताभ्यां अक्षराद्यापूर्व च अखण्डताला: पाटाश्चेत् अखण्डितष्टाकणी सैक अग्रं द्वित्राकुलं तस्य अमिधूमहतं जीर्ण अप्रादधस्तात्पादोने अङ्कः कार्योऽथ तैरकैः अक्का दलगपानां स्युः अक्कान् गृहीत तेऽप्यन्त्य अङ्काभावे गृह्यन्ते अङ्काभावे ता प्रायाः अङ्कित्वा स्वरदेशानां अङ्केत च स्वरस्थान अङ्गपाटश्च पैसारः अजमगीकृतं सान्दः अडलं तेन पूर्वोक भलं निवबन्धासौ २८२ ३३९ ३३२, ३५४ ३४२ ३४३ ३४७ ३५० ३४३ २४२ २५९ ३५९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या ३१३ २८२ १३२ १६७ २५४ १९६ अलैः पञ्चदशभिः अलैः सप्तदशभिः अङ्गुलैरेकविंशत्या अलैर्दण्डमानं स्यात् अॉलयों द्वादशभिः अलोना मध्यमा सा अनुल्यप्रैः पीडयित्वा अडल्याः कम्पने तत्र अनुस्यान्येऽन्यथाप्याहुः अङ्गुष्ठघातैमिन अष्टतर्जनीघातः अनुष्ठतर्जनीघातात् अष्टपर्वदैर्ध्य स्यात् अनुष्ठमध्यमन्येऽत्र अड्डष्ठमध्यमाङ्गुल्यौ अनुष्ठाङ्गुलिसंघातौ अङ्गुष्ठानामिकाभ्यस्त अष्ठाभ्यां कनीयस्या अनुष्ठाभ्यां च तर्जन्या अष्ठाभ्यामेककाले अतस्तस्या मुद्रितायां अतस्ते सर्वपाटानां अतिपाते लगाभ्यां द्विः अतिमन्द्रध्वनिवास अतिमन्द्रध्वनित्वेन अतीतेन प्रहेण स्यात् अत्यन्ताव्यवहार्यत्वात् अत्यल्परसभूजाता भत्र कीर्तिधरस्त्वन्यां पुटसंख्या ३५३ अत्र गान्धारमेवाहुः ३३१, ३४६ अत्र न्यासमपन्यासं ३५३ अत्र मेषान्त्रतन्त्री स्यात् ३५३ अत्रान्यैरधिकावुक्ती ३२९ अत्रापि मन्त्रस्तोभानां ४७८ अत्रेतावतिथो भेदः ४१. अत्रोत्तराधरौ यौ ३२५ अत्रोपरिष्टादारभ्य २४. अथ द्वाविंशतिः प्राच्याः ४१. अथ द्वितीयमागत्य ४११ अथ प्रतिमुखं कार्य ४१२ अथवा चतुरश्रादौ २३३ अथवा मध्यमं कृत्वा ४०९ अथान्तत्रिगुणायां प्राक ४७३ अयोऽर्धप्रेरितौ पूर्व । ४०७ अथोक्त्वा पञ्चमे तं च अथोचार्य रिमौ पंतु __ अयोत्तरेचतुर्भि: स्यात् २७४ अथोपवर्तनं केचित् २५९ अध:पङ्क्तौ तु षष्ठा ३५. अधःपङ्क्तौ स्थितेरहै। ३९७ अध:समवदन्यत्स्यात् २५८ अधरस्थस्य वंशस्य ३४४ अधरान्तो द्विरधर ३२२ अघरास्त्रीन्क्रमादुक्त्वा २६९ अधस्तनं प्रकम्प्याथ ४५६ अधस्तनः स्यादान्धारः ४८६ अधस्तनश्रेणिसंख्या ३२९ अधस्तन्यास्तृतीयादी ३६९ २७४ ४२५ ३८१ ४२५ ३७४ ३०९ ३८१ १२७ १८९ २२२ २१४ ३२८ २५२ ३७२ १५८ २१८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ३३५ ३४८ ३४३ ३९१ ३१५ पुटसंख्या अधस्तादलोत्सेधं २८६ अन्तरेष्वगुलद्धन्दू अधस्तुम्बमधोवक्त्रं २३७ अन्तरेष्वष्टमांशोन अधस्तृतीयतुर्यों च ३०७ अन्तरेष्वष्टमांशोनं अधिकं यवपादेन ३३८ अन्तरोऽन्तरपाटश्च अधिकान् भजमान्वर्णान् ४५७ अन्तर्बहिर्मुखौ घातौ अधुना मुग्धबोधार्थ ३६२ अन्तर्मध्यमया घातं अधो गच्छेत्प्लुते पूर्णे २२१ अन्तस्तु माषमात्रं स्यात अधो भागेऽक्षिसदृशं २३४ अन्तस्थरन्ध्रसंलमं अण्यष्टाविंशतिशत १३१ अन्तान्तमन्ताहरण अध्वन्यानां प्रवासेषु ३५६ अन्ताहरणमित्येतानि अनन्तरस्वररेका ६८ अन्तिमं वायुरन्ध्र स्यात् अनया मात्रयात्र स्यात् ८ अन्ते गेयं गीतकानां अनयोर्वशयोः शेष ३४६ अन्ते गुरुव कुमुदः अनयोर्वस्तुवन्न्यासः ३५ अन्ते चाकुलमानेन अनागतः प्राक्प्रवृत्त २८ अन्ते वा सप्तमी मात्रा अनागतसमातीतान् २६२ अन्तो गीतिपदावृत्ति अनामया बहिस्तन्त्री २४२ अन्त्यखण्डात्सोपशमात् अनिवद्धं स्वबुद्धयार्ध ४२३ अन्त्यद्वयं वादयित्वा अनुग्रहाय मुग्धानां ३८६ अन्त्यपूर्वद्वितीयाक अनुच्छलस्तथा खुत्त: ३९८ अन्त्यस्य त्वन्तिमा मात्रा अनुबन्धश्चेति चतुः २५२ अन्त्यायकचतुष्कस्य अनुबन्धाभिधो धातुः २५६ अन्त्याङ्के तत्र नष्टाई अनुश्रवणिकां प्राह ४२४ अन्त्ये तानिविसं पात अनुश्रवणिका हस्तः ४१८ अन्त्ये पदावृत्तियुक्तः अन्तःक्षिप्त्वा समाकृष्टः ३९३ अन्त्ये द्वे च प्रयोक्तव्ये अन्तरं वादयित्वा वेद ४५. अन्यत्ककुभमूर्ध्वाध: अन्तरं स्वररन्ध्राणां ३३६ अन्यत्तु झल्लरीलक्ष्म अन्तरालं सप्तमं स्यात् २९१ अन्यत्तु पूर्वववद्दण्डे अन्तरेषु पृथक्मानं ३३४, ३३३, ३४७ अन्यत्तु पूर्ववलक्ष्म ३ ४२६ १९६ १८. २९१ ४८२ ३४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ संगीतरनाकरः पुटसंख्या ४९४ १३७ १५२ १५. ४४१ ४४. ३७७ अन्यतु लघुनियों अन्यत्रीपरिवाधान्तं अन्यथा वर्णयन्तीह अन्यद्भेदत्रयं चाच अन्यदे॒दद्वयं चाच अन्यलक्ष्म हुडुक्कावत् अन्यल्लघ्वीगतं लक्ष्म अन्यान्यपि पथानेन अन्या विलम्बमध्याभ्यां अन्येऽन्ताहरणेनान्तान् अन्येऽपि वादविधयः अन्येऽपि सन्ति भूयांस: अन्येऽस्या वादनं प्राहुः अन्ये कलतलोन्मिश्र अन्ये तु पन्नमं कृत्वा अन्ये तु प्रतिशाखान्ते अन्ये तु माषघातादि अन्ये त्वेककले ताले अन्ये द्वात्रिंशतं प्राहुः अन्ये द्विवत्सरस्याहुः अन्ये पञ्चैव संकीर्णान् अन्ये पाण्यन्तरं प्राहुः अन्यैः कखरटा वर्णाः अन्वर्थान्यत्र नामानि अन्वितां पत्रिका मिश्र अपनीय कलां कम्रां अपरान्तकमुल्लोप्यं अपरान्तकवत्तस्मात् अपाटोऽभ्यस्तसंज्ञस्तु पुटसंख्या २९५ अपरामपरां धृत्वा २३८ अपि पश्चयवं मानं ३२५ अभङ्गो रायवकोल: १३ अभङ्गो लप्लुतौ राय १५ अभिनन्दोऽनानान्दी ३७८ अभिनन्दो लघुद्वन्द्वं २८८ अभिषेके नरेन्द्राणां ४५५ अभ्यस्तं कोमले नृत्ते २६ अभ्यस्तः स्याद् दुते माने १२७ अभ्यस्तो वाद्यखण्डोऽल्पः ४६५ अयं च करशाखाप्रैः १६. अयमेककलश्चच्चत ४७८ अयुगन्यतराज स्यात् २७८ अर्धे प्रोच्य विरम्याथ ३८. अर्धपाणिर्भवेदेक ४७ अर्धमा तथा व्योम २८० अर्धमात्रं द्रुतो मात्रा ४२६ अर्धमुकार्धमुक्त: स्याद् २६७ अर्धे वार्धद्वयं वल्ल्यां ४८७ अर्धसञ्चस्त्रिसञ्चश्च २२ अर्धाङ्गमिव नर्तक्या ४१. अर्धाङ्गुलमिते पिण्डे ४७७ अर्धाङ्खलानि प्रत्येक ४९७ अर्धाकुलान्तराणि स्यू २३४ अर्धाकुल्य प्रघातोत्थं २४६ अर्धापाणिरर्धाभ्यां २९ अर्धेन्दुनागफणवद् ८. अलंकारत्वमप्यस्य ४९५ अलम: कुण्डलीस्पर्श १३८ १३५ ३२९ ३४५ ४१५ ३२६ २५३ ४२१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४८१ ३३५ २२३ ३८८ ११२ ३४९ २९६ ३४ ४१७ अलमाख्यस्ततो रेफ: अलमोऽभूदघोरात्तु अलग्नोत्सारविश्रामा अल्पं कोमलनादं च अल्प: संदष्टवद्भाति अल्पनादो भवेच्छक्तिः अल्पानसंभवे ताल अल्पान्तरत्वमुक्तं यत् अवगाढं प्रवृत्तंच अवत्सकश्छण्डणश्व अवधानं श्रमजय अवनद्धमिदं तेन अवरुह्य तृतीयादि अवेरकादश परा अवरोरिक्रमादेत्य अवलेखो मध्यमया अवष्टभ्य पुटं वाम अवान्तरविदारीणां अविस्पष्टान्तरत्वेन अवोचदिति निःशङ्कः अश्वमेधफलं चैव अश्ववालधिकेशोत्य अष्टमखरसंभूतिः अष्टमांशविहीनेन अष्टमांशाधिकं मानं अष्टमांशाधिकैः पश्च अष्टमांशोनितं मानं अष्टाचत्वारिंशता स्यात् अधादश कला: केचित् पुटसंख्या ३९९ अष्टादशाङ्गुल: किंचित ३९७ अष्टादशालमिता ३९७ अष्टादशाला दैर्ये ४१ अष्टादशाङ्गुले दण्डः ३५८ अष्टादशाङ्गुले वंशे ४८९ अष्टाविंशत्यगुला च १६१ अयशीतिरिमे हस्त ३३. अयै द्वादश मध्ये लाः ६८ अष्टौ विषमपाटा स्युः ४२८ असंभवे पूर्वपूर्व ४६८ असमानविदारीक: ४८८ असावंशादिरंशान्त ३७८ असौ डमरुको मध्ये ३६ असो वामाघिसञ्चेन ३१. अस्मिन्नेव कले वस्तु २४. अस्य नामान्तरं प्राहुः ४११ अस्य रागस्य गान्धार: ३६ अस्यां किंनरवीणायां ३२८ अस्यां व सूरयः प्राहुः २४२ अस्यां स्थायिनमारभ्य ४९६ अस्याः करेण कोणेन ३१५ अस्या: खण्डद्वयं वाद्य ३२५ अस्या दक्षिणजानुस्थं ३४६, ३५३ अस्यापि स्थायिनं प्राहुः अस्यामपि स्वरो लक्ष्ये ३४१ अस्यामुटवणं कार्य ३४९ अस्यास्तु मन्द्रगान्धार: ३३५ अस्यास्तु मध्यमो न्यास: २७७ अस्यास्तृतीये स्वस्थाने ३१० २९६ ४७८ २८७ ४१९ ३१३ ३८५ ३०७ ३६५ 64 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ संगीतरनाकरः पुटसंख्या आ ३६५ २७० २७० २९० ११७ १२७ २४६ २२५ ६. आ ककुभशिरोमध्यात् आकारवर्ज शाखायां आकारैः प्रथमावृत्ति: आकुश्चन्मध्यमापार्श्व आक्रम्य तलमध्यस्थं आक्रम्य वामहस्तस्थ आक्रम्य वामेतरया आग्रहं प्राक्तृतीयाद्वा आतोद्यध्वनितत्त्वज्ञः आदर्तव्यं किंनरीणां आदावधिक आवापे आदिकामोदिकायाः स्याद आदितालो द्वितीयश्च आदित्ये दण्डमानं स्यात् आदिमध्यान्तखण्डानां आदिमध्यावसानेषु : आदौ देकारखण्डं चेत् आदौ मन्द्रस्ततस्तारः आदौ रूपमथैकैकं आदौ वाद्यप्रबन्धस्य आदौ वाद्यप्रबन्धानां आद्य वस्तुद्वयं मन्द्र आयं सालगनट्टायाः आद्यं स्वस्थानमातिष्ठेत आद्यखण्डं द्वितीयं च आद्यखण्डे यदाद्यौ द्वौ आद्यमारोहिवर्णेन आद्यवर्णैः पातकला पुटसंख्या आपस्वस्थानविधिना २९४ आद्या तथा द्वितीया स्याद १०२ आया द्विकलयुग्मेन ९८ आयान्तरं तत्र यव २३० आद्याया विकलचाच ४८९ आया रोविन्दकगता ३१६ आद्यासु चतसृष्वासां ३१६ आयास्तासु निरेवान्यात् ३११ आद्यास्तिसस्त्यजेत् ४९८ आये कलाचतुष्केऽन्त्ये २९५ आये वस्तुनि कर्तव्यं १६ आधोरिकां पत्रिका चेत् ३७५ आनन्दघनमध्ये मि १३६ आनिविप्रा आनिविप्रा ३३४ आनिविप्राः पादभाग ४२४ आन्तरं जाठरं वाक्षणं २६, ४१८ आन्दोल्य में प्रकम्प्याथ ४३१ आभोगश्चेति पञ्चानां २५४ आमध्यमस्वरस्थानं १७७ आमद्रुमसमुद्भूत: ४२९ आयसं वलयं कार्य ४४२ आयस: कांस्यजो रौप्य: ३६ आरम्यानुष्टुभं वृत्तः ३८० आरभ्याटालादेवं २९६ आरुद्ध चतुरस्तस्मात् ४१९ आरुह्य त्रीस्तृतीयादीन् २६६ आरुह्य पनिमान्पश्च ६८ आम्ल षट् स्वरानेषां १४ आरोहिण्यवरोही स्यात् ३६५ १३२ ३९२ १२९ ३.८ २९६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ५०७ पुटसंख्या पुटसंख्या ३६० आहत्य च द्वितीयस्य २७७ आहत्य द्विश्वतुर्वास्मात २८४ आहत्य मंद्विगुणसं ३१७ आहुरेके मानहीनं ३७६ २८१ २९३ ३२४ २५२ बारोही पञ्चमान्त: स्यात् आरोहे बहुला यस्यां आरोहणावरोहण आर्दचर्मकृतां शुष्का आलप्तिवच त्रिस्थान आलापिनी किंनरीच आलापिनीगतं लक्ष्म भालापिनीवदस्यां च आवापनिविता आता आवापस्तत्र हस्तस्य आवापादिः प्रयोक्तव्यः आविद्धधातौ रिमिता आवृतिः पादभागादेः आवृत्तिद्वयमात्रायाद् आवृत्या द्विस्मिरथवा आवेष्टय तर्जनीं वामात् आश्रावणं शुष्कवायं आश्रावणायां गेया सा आश्रावणारम्भविधि: आष्टादशाङ्गुलाद्वंशात् आसारितं चतुर्धा स्यात् आसारितं तदेवोकं आसारितत्रयं पूर्व मासारितवदत्रापि भासारितादौ शम्यादिः आसारितानामुत्पत्तिः आसारितान्याहुरन्ये । : भासारितेभ्य उत्प भासीदीशानवक्त्रातु ४२५ २५२ २२९ २८२ इत: परस्याः प्रत्येक २८८ इतः परेषु वंशेषु ६. इति नष्टस्य विज्ञेयं ५ इति वंशे गतिः प्रोका १९ इति वादप्रकाराणां २९१ इति षोडश वर्णाः स्युः २४ इति सर्वे चतुत्रिंशत् १३ इत्याह भरतस्तत्र ९८ इत्यादित्रिगुणा मध्ये ४८९ इत्याविद्धे पञ्च मेदाः २६५ इत्येकविंशतिहस्त २६. इत्येते धातवः प्रोक्ता: २६५ इत्युकं कैश्विदाचार्यः ३२१ इत्युद्राहध्रुवौ कृत्वा । १०६ इदमालापिनी लक्ष्म २७९ इदमाहुः कला तेषां २८१ इदानीं तादृशी वंश १८ इन्दिरा पत्रिका ब्रह्मा १४ इमं कवितकाराख्यं १२. इमामाहवनीं प्राहुः ११३ इयमेवोचिरे तालं १२४ इष्टतालतमिते ३९७ इष्टतालतमितः २८४ २८४ १५८ १७८ १९१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ स्थानानवाप्तव इष्यतेऽल्पान्तरत्वेन इह भैरववत्कार्यं इह श्रमवहन्याख्यः इह स्युः पटहोता ईक्तालयुगं कृत्वा ईदृग्रूपोऽत्र कतिधा ईषदस्पष्ट सारिका ईषद्विरम्य स्पृष्ट्वा च ईषद्विलम्ब्य चाहत्य 3 उक्त श्वसुर्धा कङ्कालः उक्ताः श्रीकरणाग्रण्या उता यवाष्टमांशोन उक्तानुबन्धवद्बोध्यं उक्तान्यन्यान्यपि प्राज्ञः उक्तास्त्वन्यैरिमे वर्णाः उन बन्धनोइल्या उक्तौ प्रकृतिदारुणां वाहापूर्वे तु उक्त्वा तु विलम्ब्याथ उक्त्वा तृतीयतुर्थी च उक्त्वा द्वितीय तृतीय उच्यते वादनो दण्डः उच्छ्रायेऽथङ्गुला वक्त्रे उच्छ्रासनं करत संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या ३६१ उच्छ्रासाद्वामपाणेश्व ३३६ उडव: सलयात्तस्मात् ३६९ उडवस्तलपाटश्च ४६३ उत्कक्षं चाचनीद्वन्द्वं ४५७ उत्कक्षं मणिबन्थोर्ध्वं ४८९ १७२ २९१ उत्तराधधरान्तश्चेत् ३७४ उत्तरा द्विकला ज्ञेयः ३११ ४७६ ४८१ उत्क्षिप्तया सारणया उत्क्षिप्ता संनिविख्या उत्तराद्विद्विरधरे उत्तराधरघातौ हि उत्तरे सं ततस्तल: उत्तरेणाकृतार्थेन १५१ ४२८ उत्तरेणापरेत्याहुः ३४७ उत्तरो मुद्रितो वंशः ३६० उत्तुङ्गीकरणं वांधे ३१७ ४८५ ३७६ ३८० उत्तमः प्रोक्तमानः स्याद् उत्तरः पञ्चपाणिश्च ३७१ ३०५, ३८५ उत्पन्नोऽलगपाटः स्यात् उत्पाते संभ्रमे युद्धे उत्प्रेक्षामात्रजा लक्ष्म उत्फुल्ल: खलकस्तद्वत् उत्फुल्लो नखराघातात् उत्सृष्टसारणां यत्र उदरे पट्टिका प्रोक्ता उदीर्य तं द्रुतीकृत्य ४२२ उद्वाह: स्यात्ततः खण्ड 4 पुटसंख्या ४१४ ४५३ ४२८ ४७९ ४७९ २४२ २३८ ३९४ १२ २५२ १०८ २५५ २५४ १५ १६८ २७४ ३५०, ३५१ ४११ ४१५ २३१ ४२८ ३९८ ** २४२ ४७० ३८५ ૪૪૪ ४९२ उद्वाहः स्यादनुद्राहः ४१४ उद्धाहृध्रुवकाभोग Scanned by Gitarth Ganga Research Institute १३२ YYE Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या उदाहध्रुवकाभोगे २६२ ३२१, ३२९ ३५२ ३४१ २४४ १२७ पुटसंख्या ४४६ उपोहनानि बस्तूनि ४२७ उभयो: संनिपातः स्यात् ४३९ उभयोः समभावेन ४२ उमापतिद्वर्यकुल: स्यात् ४९८ उमापतेस्तु वंशस्य ११८ उमापतौ त्रिपुरुषे १९ उमापतौ दण्डमानं १२ उल्लेखरेफौ यत्रास्तां ४२. उल्लोप्यकवदङ्गानां ३९५ उल्लोल: पाण्यन्तरच १७२ २११ ४४३ ऊनोऽधिको वा स्क्षः स ४३१ ऊर्च लघुभ्यां रगण: ३५१ ऊर्व संपिष्टकादा स्यात् . ४८४ अर्ध्वपक्तिगता मेयाः २४३ ऊर्ध्वपक्तिस्थसर्वाङ्क ४६. ऊर्ध्वहस्तो दक्षिणेन ६८ ऊर्जाग्रे पटहादौ तु ८८ अभंघातं पताकेन ९१ ऊर्ध्वाधातद्वयं कृत्वा २०४ ऊर्ध्वाध: सारयेन्नाद ३१६ ऊर्ध्वाधरशिखाद्वन्द्व ३३. ऊर्ध्वाधोगौ माद्धस्तौ ८५ ऊर्ध्वाधो दैर्ध्यभाप्रन्ध्र उद्वाहादिनिबद्धाः स्युः उदाहोऽल्पो ध्रुवो नाति उदाहोपशमादीनां उद्घट्टनपटुः सर्व उद्धट्टादि: सुनन्दायां उद्धट्टे तु सनिष्कामं उद्योऽपि त्र्यश्रभेदः उद्दलीपिहिते वक्त्रे उदल्यामेव झेंकारः उद्दिष्टं तत्र संख्याक उद्दिष्टे तु गुरोलभ्य: उद्धतं वनितं कूट उद्धतो ध्वनिरत्र स्यात् उद्धृताङ्गुलिपद्धौ तु उद्भटो भवति ध्वान: उद्वेष्टपरिवर्ताभ्यां उधारं स्थापनं पश्चात् उपक्रम्य चतुर्धा स्यात् उपपातं विनान्यानि उपपातस्ततोऽन्तेन उपरिष्टात्समारभ्य उपरिस्थे कचित्काष्ठे उपालम्भोऽपि दोषाय उपोहने कलापातान् उपोहनं तु वस्त्व उपोहनं मकस्थ उपोहनं स्यात्कलिकं उपोहनानां गुरुणी ३५८ १५५ १८२ ४०५ ४०५ ४०६ २३८ ३१५ २४६ २८९ ५४ ऋचो गाथा च सामानि ११२ ऋच्यूढमिति सामोक्तं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या ४७५ ऋजुना लोहकोणेन ऋषभं स्थायिनं कृत्वा ऋषभः स्यात्प्रदेशिन्या ऋषमे स्थायिनि प्राचं २७२ ३५० २५३ ३४२ ४९५ एकविंशत्यकुल: स्याद ३.५ एकविंशत्याला च ३२६ एकविंशत्याला स्यात् ३७. एकविंशे गुरौ कार्या एकविंशे दण्डमानं एकविस्तारसंशं तं २७८ एकवीरवदन्यत्तु ४२६ एकवीरादयोऽत्रापि ३६१ एकवीरादिसंज्ञाभिः ७३ एकवीरे दण्डमानं १९२ एकस्वरं यदा नाना ३१६ एकस्वराणि रन्ध्राणि २६४ एकाक्षरा: कला अष्टा एकाक्षरा: सामगाने १३७ एकाहयुक्तनिःशेष एकावन्त आद्याय एकाङ्गादिषडङ्कान्तं एकाङ्गुलाधिकं तब ३५४ एकाङ्गुलाधिकस्तस्मात २८२ एकादशाङ्गुलमुखी १८२ एकादशाङ्गुळे तस्या २३४ एकैकं विविधं वात्र ४६३ एकककोष्ठ एकाङ्क १६४ एकैकमक्षरं शेषाः २३३ एकैकहस्तन्यस्ते ये ४२९ एकैकालवृझ्या स्युः ४८४ एकेको यः करद्वन्द्वात् ३४ एकोनविंशतिः प्रोक २६४ एकोनविंशतिरिति ३५५ ३४६, ३५२ ३४५, ३५२ २५९ ३५१ १२९ १३२ १९४ १८७ एकं चच्चत्पुटं खण्डं एक चमत्पुटे खण्ड एक: स्याद्वांशिको मुख्यः एककं विविधो वा स्यात् एककोष्ठोनिताः पश्चाद एकतन्त्रीवदधरा एकतलयां तु यत्प्रोक्त एकतन्यादिवीणासु एकताली च कुमुदः एकताल्या दुते माने एकताल्यामुटवणं एकत्रानिविशा आश एकत्रिंशन्मिता मानं एकदण्डमधो भागे एकद्रुताद्या विषम एकद्वित्रिगुणां तन्त्री एकद्वित्रिचतुर्वार एकशे कमान्न्यस्य एकमेव त्वधः शत एकरूपाक्षरस्ताल एकवकत्रो महान्वक्त्रे एकवस्तुकमध्याहुः एकविंशतितन्त्रीस्थ ४३४ एकाका ४८१ ३४६ ४८३ १८४ ११२ ३२१, ३१ ४२२ ३५३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसंख्या ३३. २३४ ३५८ ४२५ २७० २७० श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ५४ एवं वंशा नवैवेति २९५ एवं वस्तुवयं गीत्वा ४५६ एवंविधस्य दण्डस्य ३७९ एवमन्वर्थनामत्वात् ३९९ एवमटविधामाह एवमष्टादश कला: १०६ एवमात्तिकरणात् ११. एवमाश्रावणामाह ११२ एष संयोगमेरुः स्यात् २५४ एषां पातकलायोगं २९ एषु त्रिष्वपि पक्षेषु १३ एककलयुग्मे स्यात् २५० एषोऽपि जनकः प्रोक्ता ३०५ एष्वक्षराणि नियतानि ओ ओंकारच हकारोऽपि ओघं चानुगतं तत्वं ओजस्य पादभागेषु ओता सोक्ता छण्डणान्ता ओतां कृत्वा विरुद्धाहः ओवेणकं द्वादशाङ्गं ओवेणके द्वादशाओं औ ४५६ औदयो पट्टिकायो च एतदाये कलाषट्के एतयोरन्तराले तु एतस्य वामं वदनं एतां सालगनट्टां तु एतान् प्रायो हुडुकायां एतान्युत्साहकारीणि एवे यथाक्षरास्तेषां एतेषां पञ्च षद् सप्त एतेषु स्याद् ध्रुवः पात: एते संघातजे भेदा: एतैः प्रकरणाख्यानि एतौ स्वयोनिवत्स्यातां एतत्कृतप्रतिकृतं एतत्कमेणावरोहः एतद्वाले हेयं तिति एतद्वे ध्वानगम्भीर एतद्धस्तसमायोगात् एत्य पञ्चममेतस्मात् एत्य स्थायिनि चेन्न्यासः एत्याध तस्य षड्जं च एभिः स्वरैर्विरचितं एवं कतिपये रागाः एवं चतुर्दशविध: एवं चतुर्दशात्पञ्च एवं जलघरवान एवं तुम्बकमुत्तानं एवं नष्टस्य बोध: स्यात् एवं पञ्चदशैवैते एवं प्रसिद्धलक्ष्माणः २४८ १२९ १७५ २६२ १८ २८४ ३१४ २५२ ३३८ २३० ४२ २१७ कंदर्पतालस्तस्यैव १३६ ककुभं दक्षिणत्याघ्रः । ३३९ कखचास्थडरटा: पाटा: २१८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या ४१४ ३६५ ३५८ ३२८ ३१३ ४९४ कच्छया स्कन्धवेशे तां कच्छां क्षिप्वा दक्षिणस्यां कच्छां स्कन्धे निवेश्यास्या कण्ठस्य गुणदोषा ये कण्डिकावर्धमानं च कण्डिकानां वदन्तीत्थं कण्डिकाभिश्वतमृभिः कथिताः पाटवर्णा ये कथिता न तु तेष्वस्ति कनिष्ठया दक्षिणया कनिष्ठाग्रमितस्थौल्यं कनिष्ठाङ्गुलिमानं वा कनिष्ठाङ्गुलिविस्तारं कनिष्ठाङ्गुलिविस्तारा अनिष्ठाङ्गुष्ठसंयोगात् कनिष्ठाङ्गुष्ठसंस्पर्श: कनिष्ठातर्जनीपार्श्व कनिष्ठादीनि भान्त्यत्र कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठैः कनिष्ठामध्यपॉफ कनिष्ठामध्यम: स्यात् कनिष्ठाया मिता खानिः कनिष्ठासारणाभ्यां वा कनिष्ठासारित प्रोक्त कनिष्ठासारितकला कनिष्ठासारिते युग्मः कनिष्ठासारितोकेन कन्दुको लौ च सगण: कपिलोऽसौ तुम्बध्वान पुटसंख्या ४७१ कम्पनं वामपादस्य कम्पयित्वा प्रहन्यासात् ४७६ कम्पयित्वा रिमो द्वित्रान् ३५८ कम्पयित्वा विलम्न्यापि ११४ कम्पितस्तुम्बकी काकी ११८ कम्पितस्फुरितध्वानं ११५ कम्पिता वलिता मुक्का ४७२ कम्पिते न्यस्यते रागः ३४४ कम्पिते स्थायिनि न्यासात् २५९ कम्पेन मणिबन्धस्य .. ३८८ कम्राणामन्तरं कृत्वा २३३ कम्रिका तत्किया चोक्का ३१९ करटायां तु टेमेव २३७ करणं तस्प वक्ष्यामि ४०३ करणस्य तु भेदाः स्य २४३ करणस्यानुबन्धस्तु २४३ करणैश्वित्रयन्त्यस्ताः १२४ करणोऽल्पगुरुस्तत्र ४७९ करनामान्यपीमानि ३४४ करसवेन शुद्धन ३२६ करस्य किंचित्साङ्गुष्ट ३४३,३४४ करेणुवदनाकार २४१ कर्तरी खसितौ यत्र कर्तरीपदवत्संहः ८५ कर्तरीभ्यां समं घात: १०६ कर्तरीसमकर्तयों २७८ कर्तरीसमपाणिश्च १५२ कर्तर्या गलरन्धे वा ३५८ कर्तव्यं संमितं साधैं: २३८ ४१९ २४९ २५२ २५७ २४८ २५६ ४१५ २४३ २४५ ४२० २९. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्या गुरुपस्तु कर्तव्यान्येककान्यत्र कर्ता वाद्यप्रबन्धानां कर्परं नारिकेलोत्थ कलशाकलितद्वयन्तं कलशेभ्यो बहिर्वाम कलाचतुष्ककालात्स्यात् कला द्वादश शेषास्तु कला द्वाविंशतावेवं कलध्वनिर्लघुद्वन्द्वं कलानां पूरणं मन्त्र कलानिधिः षोडश स्यात् कलानिधौ सपादेः स्यात कला प्रयोग निर्मुकं कला भवन्ति शकले कला मुनिजनैरुका कलास्वष्टसु विविधः कल्पनेत्युच्यते कार्य कलाख्येन बध्नीयात् कवलाभ्यां पिनह्येते कबले लोहमण्डल्यौ कविः कवयति श्लोकं कांस्यजस्ताम्रजो लौह : कांस्यजा हस्तमात्रा स्यात् कांस्य घनवाद्ये स्यात् कांस्य जो वर्तुलस्ताल: कांस्य भाजनसंभार कांस्यमध्योऽथवा लौह्य: कांस्यानोश्यातो दन्ति 65 श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या १९४ काम्यांचित्कूटवर्णाभ्यां १३१ कार्या तथा यथा नाद: कार्यावङ्गुलदेय च ४६६ २८२ ४६९ कार्यों गोमूत्रिकाबन्धः कालो लध्वादिमितया ३९३ काहला तुण्ड किन्यौ च ६९ किंचिच्छास्त्रकृतां प्राचां किंचिद्गीतानुहरणात् २६९ २६८ किंचिद्धीनो मुखरिणः १५८ किंचिन्न्यूनं वधस्तुम्ब १२९ किंतु त्रियोगजे भेदे ३२१ किंतु प्रतिनिधिर्नात्र ३४९ किंतु बद्धा पदैरन्यैः ९२ किंतु लब्धे लघौ शेष २७२ किंतु स्थायिनमारभ्य १३१ किंनरीत्रितयं तत्र ९२ ४९० ३९३ ४७५ ४८२ किरिकिट्टकमित्युकं ४५८ कुचझलसहितं ४८४ कुडको द्वौ द्रुतौ लौ द्वौ ४९३ कुडुवा सा हुडुको क ४८९ कुडुवोद्भवपाटाभ्यां "3 ४८३ किंनरी द्विविधा लथ्वी किंनरी वादकाः प्रायः किंनर्या यै: स्वरे: स्वस्व कियद्दीर्घं शुद्धकूट २९० ४८० कुण्डल्योः प्रान्तयोर्वाम कुण्डल्योरन्तराळे स्यात् कुन्देन्दु हिमसंकाशं कुमुदो ला द्रुतौ लौ गः ५१३ पुटसंख्या ४२९ ४८९ ३१५ ४५६ Y २३० ३३७ २६३ ४६६ २९१ २०० J< १०२ २१८ ३०० २८८ २८४ २९७ ३१४ ૪૦ ४९५ ११६ १४६ ४७५ ४२१ ४५६ ४७६ rec १५२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ कुर्यात्ततो दिगिदिगि कुर्याद्दलत्रयं तावत् कुर्याद्वैकल्पिके द्वा कुर्यान्नादसमायोगात् कुर्वन्ति हृदयस्फूर्ति कुर्वन्त्यदुष्टपुष्टंच कुर्वन्त्येक रन्ध्रेऽपि कुर्वीत पाटहान् वर्णान् कुलकं छेद्यकं चेति कुविन्दके लघुर्बिन्दु कुहरेणाथ तद्वाद्यं कूटमिश्रास्तु ते शुद्धा: कूटादिबद्धः खण्डः स्यात् कूर्मपृष्ठोन्नतं मध्यं कृतं यत्र तृतीयं तत् कृतं संयोजनं वा चेत् कृतावेष्टो वंशपत्रैः कृतौ यत्रोर्ध्वघातौ द्वौ कृत्वा खण्डं पाटबद्धं कृत्वा गमृषभा च कृस्वा प्रहं द्वितीयं च कृत्वा महात्परौ द्विस्तु कृत्वाष्ठं त्वन्यचक्रे कृत्वा ततोऽग्रतः किंचित् कृत्वा तृतीयं स्वस्थानं कृत्वा तृतीयतुर्थी च कृत्वा द्वितीयं स्वस्थानं कृत्वा द्वितीयतुर्थी च कृत्वा न्यासे प्रहे गौड : संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या ४६५ कृत्वा श्रमस्य वहनीं ४२६ कृत्वाष्टमं विलम्ब्याथ ४६७ ४६१ २३१ २५१ ३२८ कृत्वा स्थायिस्वरे न्यासः कृत्वा स्पृष्टा प्रहं प्रोच्य कृत्वा स्वस्थायिनिषादौ च कृत्वेकवारमुद्राहं कृष्णा दक्षिणतो गन्त्री ४७० केचित्त्रयोदशैवात्र ३० केचिद्देशीविदो वंशान् १५८ केवलास्ता: प्रयुज्य द्विः २४५ कोणः कार्यो मूलदेशे कोणघातेन निर्घोषं ४५७ ४४५ कोणाङ्गुलीवादनीया २३४ कोणाभ्यां मदनाकाभ्यां ३६५ ४२३ ३८७ कोणाहतच संभ्रान्तः कोणाहतो हस्तपाटः कोणेन पाणिना वास्य कोमलत्वं व्रणग्रन्थि कोलाटोऽन्यैरयं प्रोक्तः को समोर्ध्वपङ्क्तिस्थे ४०५ ४५१ ३८० ३७० ३८२ ૪૮૦ २८६ ३६५ ३०९ क्रमादन्त्योपान्त्यतुर्य ३६५ क्रमादन्येऽङ्गुलीकोण ३८३ क्रमादुपोद्दनान्यासां ३१२ क्रमादेतद् द्वयाभ्यासात् क्रमव्युत्क्रमघातात्तु क्रमव्युत्क्रमतोऽथास्या: क्रमातकारर्थी कारौ कमासदेवता ब्रह्म क्रमादधोऽधो विन्यस्येत् पुटसंख्या ४६३ ३६४ ३०७ ३७३ ३०२ ४३४ २९२ ३३० २७५ ३९५ ४१० २४८ ४७५ ३९८ ४०३ ३९५ ૪૮૭ १५४ २१४ xx ४२५ ४६७ ३९७ १७७ १७८ २४८ ११५ २३८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसंख्या ४२८ ४२४ १९४ २४४ २४५ कमादेते करा यत्र क्रमाद्रलेषु शेषेषु क्रमादतं नर्घात: कमाडेफोर्ध्वहस्ताभ्यां क्रमाद्विरचितैः खण्डैः क्रमेण ताडनाद् द्वाभ्यां कमेण यदि जायेत क्रमेण स्वरमारोहेत् कियतेऽन्तरपाट: स्यात् क्रियते पाटनिष्पत्ती क्रियते वेश्यते मध्ये कियानन्तरविश्रान्ति: क्रीडा द्वतौ विरामान्तौ कोधाभिमानायोः कुर्यात क्षिपेत्ककुभदण्डस्य क्षिप्ताभिस्तादृशक्षुद्र क्षिप्तोऽधो वध्रवलये क्षेपः प्लतोऽतिपातश्च क्षेपादयोऽत्र चत्वारः क्षेपो दक्षिणपार्श्वस्य क्षेपो लघुगुरुभ्यां स्यात् ४९४ ३३४ ३५५ ३४१ ४२१ ३१५ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या २४५ खण्डमष्टाङ्गुल न्यस्य ३३ खण्डहुल्ल: समः पाट: २४१ खण्डानि त्रीणि यत्र स्युः ४०५ खयुक्तैर्विषम: कोष्टः ४२६ खसितस्फुरितौ यत्र ४०७ खसितो यत्र तत्प्राहुः ३०७ खसितो यत्र वाद्यज्ञाः २९६ खादिरं घनवेणूत्थं ४५० खानिः परिमिता शेषं ४०५ खानि: सर्वेषु वंशेषु ४५६ खानिस्तदुच्यते देश्यां २४ खुंकारबहुलं वाचं १४८ खेटको शिखयोलगौ ३५६ २९३ गजकेशोपमा तन्त्रीं ४९६ गजझम्पो गुरोरूर्व ४८४ गजरावयवाः सर्वे २५२ गजरोऽसावुटवणं २५८ गजलीलं दण्डकं च ५ गजलीले विरामान्तं २५७ गजश्चतुर्ला धारासौ गजो वर्णयति: सिंहः ४६४ गड्दग्धोमिति वक्त्रं तु ४४१ गतानुगतिकत्वेन ४५१ गत्रयं लपलगपाः ४५४ गत्वा विलम्ब्य तं तस्मात् ४५१ गत्वा स्थायिनमारभ्य ४२८ गर्तमध्ये च रन्ध्रण ४२५ गर्भस्योत्सारणं त्वेतत् २८६ १५३ २४४ १४३ १५६ १३७ ३४४ १४२ खण्ड खण्डं द्विद्धिवारं खण्डं शुद्धादिभिः पाटे: खण्ड: स्यात्खण्डमध्येऽपि खण्ड: स्यात्पृथगातोय खण्डच्छेदसमायोगात् खण्डच्छेदोऽप्यवयतिः खत्रयं ततः खण्ड ३७४ ३०४ २३४ ४८६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ गर्भेऽस्य व्यापकं रन्ध्र पौरु स्युर्विरामान्तौ गौ द्रुतौ गुरुति गलौ प्लुतत्रयं वक्रः गचेत्ये कोनविंशत्या गातुः सहाय: कर्तव्यः गान्धारस्तु ग्रहो देश्यां गान्धर्वमार्ग कुशल: गान्धारे स्थायिनि प्रोच्य गान्धारो मध्यमाङ्गुल्या गायत्री प्रसृतिछन्दः गायेगीतं निबद्धं च गात्वारो लघून्यष्टौ गीतं चतुर्विधाद्वायात गीतं ततोऽवनद्धेन गीतं वायं तथा नृत्तं गीतकत्रय संयोगात् गीतग्रहैः पाणिसंज्ञैः गीतनृत्तगत न्यून गीतनृत्तसमो माने गीतप्रधानतावाद्य गीतवादनदक्षत्वं गीतवादन निष्णात: गीतवादननृत्यस्थ गीतस्य ग्रहमोक्षादि गीतस्यान्तेऽनुकर्ताप गीताङ्गनियमं कंचित् गीतादिसमकालस्तु संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या २८५ गीतादेर्विदधत्तालः १५४ गीतानुगं त्रिप्रकारं १४८ १४५ १५७ २७२ २१ गुणान्दोषांव तद्वृन्दे ३०६ २१ ३७२ २८४ १३२ २८४ २७८ गीतावृत्त्या पदावृत्त्या गीते तत्पदगीतिभ्यां गीत्या ततः परं गेयं गुणा मार्दकस्यै गुम्फः स्वरान्तराणां तु गुरवः पञ्चलाः षट् च गुरवोऽष्टौ द्वादशाथ गुरु: कलात्र द्विकले २२७ गुरुः प्लुती भवेत्प्राचा "" गुरुणागुरुणा कार्य ३ गुरुडतप्लुताः प्रोक्ताः २८० गुरुमेरावधः पङ्क्तेः ४९७ गुरुमेरोरधः पकौ २३२ गुरुर्लघुद्रुतस्ताळे ४५२ गुरुलाभे त्वपाताई : ४९८ ४९७ गुणैः कतिपयैर्हीन: गुणैरावेष्टय कलशान् गुणैर्भूरितरोदारैः २६२ गुरुस्तदा विपष्व्यादि ३५९ गुरुहेतोस्तृतीये तु ४६६ गुरूण्यष्टौ च लघवः गुरूण्यष्टौ लघून्यष्टौ गुरू द्वौ लघवोऽष्टौ च पुटसंख्या ४ २६३ ९८ ५४ ९७ ४६८ २३३ ४९८ ३९३ ३८८ ३०१ २७३ २७२ १० २०९ ३३ १४९ १८७ २१९ १५९ २०९ २५० १६९ २७७ ३२ २७६ ६७ ૪ १३८ २६४ गुर्वन्ते चेति मात्रैका ५४ गुर्वष्टके स्याद्विविधं २७ गुर्वायाश्चतुरश्रादेः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्मध्ये तु चत्वारः गृध्रवक्षोस्थिजा यद्वा गृध्रवक्षोस्थिनलिका गेयं श्रुतिस्वरप्राम गोकार बहुलं चामुं गोल इत्याद्यखण्डं स्यात् गौरीसरस्वतीकण्ठा प्रन्थित्रणभिदा हीन: ग्रहं कृत्वा धमाहत्य प्रहं चोक्त्वा तृतीयं च ग्रहमोक्षप्रदेशश: प्रहश्चिन्धमरामकीः ग्रहांशन्यासनियमः ग्रहाचेदवरोहेण ग्रहादिस्वरसंभूति ग्रहादिस्त्रीन्स्वरान्स्पृष्ट्वा महाधरांनी नारुह्य ग्रहाधस्तात्तृतीयं च ग्रहाधस्तुपर्यन्तं श्लोकार्थानामनुक्रमणिका ग्रहाभिसरणं कृत्वा प्रहान्मध्य स्थितात्षड्जाद् पुटसंख्या ग्रहं तमेव सं कृत्वा ग्रहं द्विगुणसं कृत्वा ३७३, ३८२, ३८६ ग्रहं द्विगुणसं प्रोच्य ३७७ ३१३ प्रहं मालविनः कृत्वा ग्रह द्वितीयतुर्योश्च ३६३ प्रहन्यासाद्देवकृतेः ग्रहन्यासाद्वसन्तः स्यात् ग्रहमेत्य ततः प्राचं १४९ प्रहान्मन्द्रनिषादाच्चेत् २९० ग्रहार्थे ग्रहपूर्व च २८५ ग्रहार्थं द्रुतमुच्चार्य ३५६ ग्रहार्थे च स्थिरीभूय ४७३ २७८ १३७ २३३ २१८ ३१३ ३८२ प्रहे चेन्न्यस्यते रागः ग्रहे न्यासाद्भैरवस्य ग्रहे न्यासेन गुर्जर्या: ग्रहे न्यासो यदा रागः ग्रहे न्यासो वसन्तस्य प्रहो गान्धार एवास्या ग्रहो हि मध्यमो रागः घ 99 घटस्ततो डगिश्चेति घडसो ढवसो ढक्का घता द्वन्द्वमुकुन्दौ च ३७८ ३०५ ३७० ४९८ ३८० ३०१ ३१० घाताद्दक्षिणहस्तेन ३१४ घातोऽङ्गुलीभिर्वामस्य ३११ घातोऽतिमधुरध्वानः ३०८ घोषो रेफोऽथ बिन्दुः स्यात् घनः श्लक्ष्णः सुपक्वश्च घनस्य च गुणान्दोषान् घनो मूर्तिः साभिघातत् घातः केवलया पात: घातः पातश्च संलेखः घातः स्यान्मध्यमाकान्त ३०६ ३०९ वर्जितः कवर्गश्च ३०६ कौतुकतो नन्दि ङ च ५१७ पुटसंख्या ३१२ ३७५ ३७७ " ३११ ३६९ ३७० ३०९ ३७१ ३०४ २९८ ४७८ २३० १३७ ४७२ २३३ २२८ २४० २३९ 33 ४१० ४७३ २५९ २३९ ३९४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute २३१ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या ३५१ ३३० १५१ २२७ २५१ २३१ ११२ ३२१ ११५ ३४५ ३५० ३५२ १५३ ३३२ पुटसंख्या चके च कांस्यजे ताने ४८० चतुर्दशादिवंशानां चञ्चत्पुट: स्याद्रिकल: ९१ चतुर्दशादिवशेषु चच्चत्पुटश्चाचपुट: ९ चतुर्दुती गलौ पूर्णः चच्चत्पुटवदगुल्यः ४३ चतुर्धा तत्र पूर्वाभ्यां चच्चत्पुटादिभेदास्तु २२ चतुर्धा तेषु विस्तारः चच्चत्पुटा सप्तमी स्यात् २६९ चतुर्धेति मतं वाद्यं चचत्पुटे त्वेककळे १४ चतुर्मात्राक्षरगणाः चण्डतालश्चन्द्रकला १३७ : स्यात् चतस्रः कण्डिकास्तासां चतुर्मुखस्य दण्डस्य चतुःस्वरच्छिद्रयुता ३८८ चतुर्मुखादयस्तस्मात् चतुरही निवर्तेत २०९ चतुर्मुखादयो वंशाः चतुरङ्गुलदा च २३४ चतुर्मुखे दण्डमानं चतुरङ्गुलदैर्येण २८२ चतुर्मुखो जप्लुताभ्यां चतुरलपर्यन्तं २८६ चतुर्यवी सार्धपाद चतुरकुलवक्त्रं च २८२ चतुर्योगे तु चत्वारः चतुरनुलसंमानं २८८ चतुर्विंशतिरासां तु चतुरहुलिसंघाते २४३ चतुर्विशतिसंख्यैः स्यात् चतुरश्रव्यश्रमिथ ४२४, ४२६, ४६२ चतुर्विशत्यनुलानां चतुरश्रस्तथा व्यश्रः ९ चतुर्विशत्यनुले च चतुर्थ व्यकुलं प्रोक्तं २९३ चतुर्विधो मार्दलिकः चतुर्थस्वरमाहत्य ३६३ चतुश्चतुष्कोष्ठहीना: चतुर्थी पञ्चमी चेह ९. चतुश्चत्वारिंशता स्यात चतुर्दश स्वरस्थाने २८५ चतुष्कलं तु द्विगुणं चतुर्दशस्तु पञ्चम्यां ९९ चतुष्कलं तृतीय स्थान चतुर्दशाकुलं दण्डं ३३. चतुष्कल: सुनन्दायां चतुर्दशाकुलानि स्युः ४५५ चतुष्कला स्युस्तेष्वाये चर्तुदशाकुले वक्त्रे ४७१ चतुष्कलानि चत्वारि चतुर्दशाङ्गुलो दण्डः ३४. चतुष्कले तु द्विगुणं चतुर्दशाङ्गुलो वंशः ३३. चतुष्क त्वानिविशाः २०२ ३५४ ४८४ ४५९ १८७ ३३५,३५५ २७२ ११७ A Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्कले नेकले चतुष्कलेनोत्तरेण कोलकत् चतुष्कलौ तौ द्विगुणौ चत्वारिंशत्पृथग्रन्ध्र चत्वारो गास्तथा ला स्युः चत्वारो लघवोऽशब्दा: चत्वारो हस्तपाटाः स्युः चर्चिका देवता चास्यां चर्मणानद्धवदना चर्मनद्धाननो बद्ध: चर्मावनद्धवदनं चर्यागाने च पूजायां चलनं मणिबन्धस्य चलशङ्कं गळे रन्ध्रं चलशङ्कुभ्रामणादि चारुवणिकालम चार्मणेनास्य कोणेन चित्रा वाचः प्रवर्तन्ते चित्रा वाद्यप्रधानत्वात् चित्रा वीणा विपची च चित्रा वृत्तिर्दक्षिणा च चित्रायामकुलीमात्रं चित्रिता ललिता स्निग्धाः चित्रे त्वेकमितीमानि चिरमध्यद्रुतलया: छ छण्डान्ता रिगोणी सा लोकानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ३३ छन्दकासारिखे वर्ष ४१ छन्दसा भूरियेन १०२ छन्दो धारा केकुटी च १० छन्नाननो बद्धचर्मा ४५१ २७३ १४६ ३९८ ४७१ ४८२ ४८३ जनको नयसा वक्रः २२८ जयघण्टा ततः कम्रा जयघण्टा समा श्लक्ष्णा जयश्री रगणाल्लो गः छायानट्टाख्यरागस्य छिद्रं यस्याश्चतुर्थांशे छिद्रे न्यस्याथ संकीलं छेदैर्ध्य केः समायुक्तं ४७९ ४०३ २८६ २९० ४१८ ४८५ ज जलाशयसमीपस्थ जाताः पञ्चेति पञ्चभ्यः जाता हस्तजपास्तु जात्यंशे मध्यमग्राम २२५ जायतेऽस्यापि वंशे तु २६२ जायते तादृशैः पाटैः २२९ जायते शार्ङ्गिणोकोऽसौ २६२ जायन्ते वैणशारीर २४८ जितश्रमकरद्वन्द्व : २७७ जो लघुद्द हृतौ पश्च १२४ ज्येष्ठतालेन चेज्ज्येष्ठा २६ झ झ झण्टुं दिगिदिगि ४३६ झण्टुमायक्षरैरेव ५१९ पुटसंख्या २९ ४५७ २४४ ૪૮૪ ३७९ ४७० २८७ ४५१ १५५ २३० ४९३ १४८ ૪૬ ३९७ ४२२ २७९ ३८३ ४२२ ४०४ ३२७ ३१८ १४५ १२३ ११६ ३४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० झम्पातालोविरामान्तं कृतिर्देकृति ज्ञानं पूरणसंख्याया: यो दारववाद्यानां ज्ञ ट टाकणीवत्समस्तं प्राकृ ड कायां मर्दले चैव ढक्कैव मण्डिडक्का स्यात् saण वादनीयः डेका बहुलाः पाटाः ढ ढंकारपाट वर्णैश्च ढेंकारः पाटवर्णाः स्युः ล तंकारः पाटवर्णोऽस्यां तं च श्रुतिनिधिं प्राहुः तं चाथ प्राश्वमस्यार्थ तं दक्षिणं शिवं नौमि तं दधदमध्येऽथ तं वादनप्रकारं च तं विलम्बिततां नीत्वा तं विलम्ब्य ततो गच्छेत् संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या १५३ तं सं प्रोच्य निमाहत्य ४१९ तकारो माणिक्यवल्ली तकारेण च सर्वेषां कलावत्कार्य १७२ ४८५ ४६४ ततं वीणा द्विधा सा च ततः करणभेदं द्विः ततः पौ दौ लौ गः ४१९ ततः परं तु त्रितयं ४७९ ततः प्रतिमुखर्याख्यः ४७७ ततः प्राक्खण्डसहितं ४९३ ततः शीर्ष सैककेन ततः समग्रहे शम्या तच्छिरः प्रान्तयोर्मानं तज्ज्ञो दक्षिणहस्तस्थ तटा दलाचेति ततं येनावनद्धं च ततश्चन्द्रकला प्राहुः ४७४ ततश्चाद्यमिति प्रोक्तं = 19 ४८४ ३२२ ३७३ ततस्तत्सकृदाहत्य ततस्तृतीयतुर्थी च ततस्तृतीयमाकम्प्य ततस्तृतीयमारुह्य ततस्थोंकार बहुल ततोऽतीतग्रहे शम्या १ ततोऽधस्थं द्राघयित्वा २३६ ततोऽनन्तरमेकोऽन्ते ३२७ ततोऽन्ताहरणं प्रोकं ३८१ ततोऽन्तिमद्वयं खण्डं ३८४ ततो दक्षिणहस्तस्थ पुटसंख्या ३६५ ३९८ ४६५ ५४ ३४० ૪૭૪ ४५७ २२५ २२९ २७१ १४५ २३१ ४५९ xxx १२७ २६८ ४१८ ४२५ ३७१ ३१२ ३७४ ३०९ ४६१ २६८ ३७४ १०२ ७० ४२५ ३१६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ पुटसंख्या २७९ २३८ २५१ २२२ २०२ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुरसंख्या ३८० तथा यथा पिनदास्ये ३९७ तथा लयान्तरगत: ४२५ तथास्या दोरिकादेश ४६१ तयेकद्वित्रियोंकार ३०९ तथैवातिदुतलयं २८६ तदकाधस्तनः सार्ध १३२ तदद्वेष्वेव पूर्वोक ४३० तदधोऽधश्च तावन्ति २२७ तदभावे तु षष्ठाके २८७ तदर्ध पिण्डसंयुक्त २६३ तदर्धवर्णसंयुक्ता २०. तदर्धार्धादिमेदेन ३७४ तदर्धे मेढकोपान्ते ३१. तदर्थो मेढकोपान्त्ये १८९ तदा दो देति वर्णाः स्युः २६१ तदा चतुर्थ स्वस्थानं ३५६ तदा द्राविडगौडस्य ३१५ तदा द्वितीयं स्वस्थानं २८५ तदान्यासां वादनं यद् ३५७ तदासारितवद्भाति २२९ तदास्तामुच्यते किंतु ८२ तदुक्तं सकलं वाद्य ४६४ तदुद्भवमोद्भूतं ४७६ तदूर्घ चक्रिका स्थाप्या ३५६ तदोत्क्षिप्ता संनिविष्टा ४७४ तदोषाच्छादनं मार्ग ३१७ तदादशकलं प्रोकं २५२ तवादशकलाताल २५४ तद्धीमिति छण्डणान्तः ततो दी? रिमौ कृत्वा ततो दु:सरसंचार ततो मध्यममित्येवं ततो मध्यलये ताळे ततो यदि ग्रहे ताले ततो लोहमयीं श्लक्ष्णां ततो हिंकार ओंकार: तत्किंचिदधिकं वारे तत्ततं सुषिरं चाव तत्तत्सारीप्रदेशस्थां तत्वं भवेदनुगत तत्पङ्क्तीनामपि ज्ञेयं तत्परं दीर्घतां नीत्वा तत्परं स्थायिनं तस्मात तत्परा: स्वस्वपूर्वात: तत्र जातिख्दात्ता स्यात् तत्र रक्तिविशेषस्य तत्र लमशिखाथोर्धा तत्र लघ्वीगतं लक्ष्म तत्र शब्दगुणेष्वेव तत्र श्रीशार्ङ्गदेवेन तत्रार्धमन्त्यमादौ स्याद् तत्रैकसरजोडात्वं तत्रैका वक्त्रमात्रा स्यात् तत्सर्व वंशवायेऽत्र तथा कवलयोस्ताभ्यां तथा तथा विधातव्यं तथा नीरटितो हादः तथापि वालबोधाय २९३ ३६३, ३६५ २५० १२० ३३७ ૨૪૬ ४८६ ३८९ २३८ ३६० २७७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या ३८२ ३७२, ३७६ ३९४ ३२७ ३९२ ४६२ ४८६ २४० ४१२ ४८९ १८ २४२ तबृन्दं द्वित्रिचतुरैः तद्भेदप्रत्ययार्थ तु तद्भेदास्त्वेकतन्त्री स्यात् तद्वन्ध्रे दण्डान्तरालं तद्वदेव ततः संधिः तद्वद्यथाक्षरः कार्यः तपूर्णसरबद्धं वा तद्वलयान्तरं मार्ग तद्विदो वादयन्त्येता तन्त्रिकागर्भितं वाम तन्त्री वध्वा ततोऽधस्तात् तन्त्री यत्र तदाचष्ट तन्त्री लमानुष्ठपार्धा तन्त्रीकर्षोऽङ्गुष्टतर्ज तन्त्रीणामेकविंशत्या तन्त्रीयेऽथ दादाय तन्त्रीद्वयेन नकुलः तन्त्रीपत्रिकयोरन्तः तन्त्रीप्रान्तान्तरे क्षिता तन्त्रीभागस्तृतीयांश तन्त्रीभिः सप्तभिश्चित्रा तन्त्रीमानेन बनीयात् तन्त्रीरन्ध्रात्पुरः स्वाघ्रि तन्त्रीसंलग्मजीवातः तन्व्या संवेष्टय ककुभं तन्त्र्यायव करणं तन्त्र्योस्तृणशलाकां च तन्मध्ये तु समा कोष्ठे तपौ लगौ द्रुतौ गौ ल: पुटसंख्या ४६९ तमान्दोल्य द्वितीयं तु १६. तमेव स्थायिनं कृत्वा २२९ तया चानामयान्यत्र २९. तया तु स्वेच्छया वक्त्रं ८९ तया यद्वाद्यते रन्ध्र १२ तयावगुण्ठ्य वलयं ४४४ तयोरकसरो जोडा १०७ तयोर्द्विगुणतां न्यस्य ४२९ तरूणां जातयस्तितः ४८१ तर्जनीपार्श्वलमाया: ३१६ तर्जनीमध्यमानामा २५९ तर्जन्यकुष्ठयोरन २४१ तर्जन्या च पृथक्पाद २४३ तर्जन्या धार्यते विन्दुः २४८ तर्जन्या मध्यया वाय २८७ तलं कृत्वावरोहण २४८ तलघाताष्ठमुष्टेः २३६ तलपाटस्तु मलप २३४ तलप्रहारः प्रहरः २८९ तलप्रहारहेतुः स्यात् २४८ तलप्रहारो वलित ३१५ तलहस्तोऽर्धचन्द्रश्य २८९ तलाङ्गुष्ठप्रहारेण २४६ तले केचिदिह प्राहुः २३६ तलेन दक्षिणो हस्तः २५१ तलेन हत्वा प्रहरेत् ४७८ तस्मात्कृत्वावरोहण १८१ तस्मात्तृतीयतुयें तु १४६ तस्मादधस्तनौ स्पृष्ट्वा २५९ ४५३ ४१३ २३९ ४१३ ४०८ سر و سه २९० ३१३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ५२३ पुटसंख्या २५४ ३२७ ३४७ ३३२ २७२ ३१७ ४८९ ४५२ ४२७ १३८ १३५ २२ तस्मादर्धालन्यूना तस्मादाषष्ठमारुह्य तस्मादुद्दिष्टरूपस्थात् तस्मादेत्य प्रहन्यासे तस्माद्देश्यनुसारेण तस्माद्वीणा निषेव्येति तस्माल्लक्ष्यविरुद्धं यत् तस्मिन्नेव ग्रहे कृत्वा तस्य तुम्बं परिणाहे तस्य द्वे त्रीणि चत्वारि तस्य वादनभेदांश्च तस्य स्थाने भवेदाद्या तस्याः सवलये चर्म तस्यास्तालोऽत्र कर्तव्यः ता: षष्ठयामद्वितीयान्त्या तारक्चतुःषष्टिकलां तादृक्पादस्ततस्तद्वत् तानि गीतानि वक्ष्यामः तानेवाङ्कान् लभन्ते ते तान्यक्षराणि वक्ष्ये तान्यत्र ब्रह्मगीतानि तान्यष्टौ बदरीबीज ताभिर्घर्घरभेदानां ताम्रजा राजती यद्वा तारं च स्पृश्यते स स्यात तारन्पूनतया काक ताररन्ध्र ततोऽधस्तात् तारस्थानं द्विः प्रहृत्य तारस्थानस्थित: षड्ज: पुटसंख्या २८५ तारस्थाने द्विराघातात् ३०६ तारस्था मुखसंयोग २१५ तारादौ यवमुक्तेन ३७५ तारायष्टसु रन्ध्रेषु ३३९ तालत्रयं च शम्यैका ३१७ तालपातकलाभिज्ञा २९८ तालमेदाः कमादक: ३७७ तालमन्यतरस्यान्त २८२ तालवतुःषष्टिकल: ३१९ तालश्चन्द्रकलाख्यच २३२ तालस्तलप्रतिष्ठायां २८६ तालानां लक्षणं वक्ष्ये ४८४ तालानामधुना तेषां २७३ तालाश्चत्वार इत्यन्ये ४८ तालिकेयं पृथग्यद्वा ४२७ तालेन टाकणीवादौ ८८ ताले नि:शङ्कलीलाख्ये २९ ताले राजमृगाढे तु १७२ ताले सरस्वतीकण्ठा ११६ तालोऽथ कांस्यताल: स्यात् १२९ तालोऽष्टमोऽन्तिमा शम्या ३१९ ताली राजमृगाश्च ४९३ तालो विताल: खलक: ३८९ तावत्संख्याकपर्यन्तां २४४ तावद् दुतोऽत्र ताल: स्यात् ३५८ तावद्यावद्दढो बन्धः ३४१ तावांश्च परिशेषोऽसौ २५५ ताश्च परिका लोके १२४ तासु स्वभावतो यास्तु ४६२ १३९ १५९ १५९ २३० १३७ ४२८ १६० २०४ २९३ ४९३ १८० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ तिरवीं तत्परामूनां तिरिकितिरिकिरिति तिर्यक्पङ्क्तिस्थकोष्ठाङ्कैः तिर्यक्संस्थेन देण तिर्यग्रन्ध्रे चलं शङ्कु तिर्यमन्ध्रे निवेशोऽस्य तिर्यग्दैर्घ्यं तावदन्यत् तिर्यग्यवोदरैः षड्भिः तिर्यग्यवोदरैः साधैः तिर्यखाराजिता च तिनस्तिस्रस्तथा तन्त्रीः तीव्रातीव्रतया वायोः तंतुमित्यपरे प्राहुः तुण्ड किन्येव चुक्का स्यात् तुम्बकं मध्यरन्ध्रं स्यात् तुम्बं दण्डस्थककुभ तुम्बं धृत्वाथ पादाभ्यां तुम्बं वक्षसि निक्षिप्य तुम्बस्योत्सेधतस्तस्य तुरङ्गलील: शरभ तुरुतुर्यपि सा लोके तु कृत्वा तमाहत्य तु चोक्त्वा तृतीयं च तुर्य चोक्त्वा द्वितीयादीन् तुर्य ततस्तृतीयं च तुर्य द्वितीयतस्तु त्रीन् तु विलम्ब्य कृत्वा च विलम्ब्य तत्प्राचं संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या १७९ तुर्य पश्चमतुर्योश्च ४७१ तुर्यवस्तूतरार्धस्थैः २०३ तुर्यस्वरं द्वितीयं च २३४ तुर्यादिव्यत्ययेऽप्येवं २८३ २९० २८९ २८८ ३४५ ४९५ ४७१ ३२८ ४८० ३९० २३६ तुर्यादयो निषादाया: तुर्यायां द्वादशस्तालः तृतीयं ग्रहपाश्चात्य तृतीयं च ततोऽधस्थं तृतीयं तधस्थं च तृतीयं तु तृतीयांश तृतीयं द्विखिराहत्य तृतीय कम्पन दू तृतीयग्रहतां त्वस्या तृतीयप्रहृता त्वस्या तृतीयतुर्यसार्योऽस्तु २८६ तृतीयपञ्चमाङ्काभ्यां ३१५ तृतीयपञ्चमोपान्त्य तृतीय भागरहित २८३ २३५ तृतीयस्त्वस्य वंशेषु १३६ तृतीयादिगळेषु स्युः ३९० तृतीयाधस्तनस्थाने ३७८ ३७१ तृतीये गुरुणि प्रोक तृतीये तु तृतीयो गः ३०५ तृतीये सप्तके स्थानं तृतीये स्याच्चतसृभिः " ३८३ तृतीयोऽस्याः स्वरो वंशे ३६७ तृतीयो दृश्यते प्राय: ३७२ ते चानन्ता न शक्यन्ते १९४ ते द्वे रजयितुं शके पुटसंख्या ३१० ६० ३६३ २९८ ३०० ८४ ३७४ ३०३ ३०७ २९३ ३८५ ३६२ ३७८ ३७४ २८६ १६४ २०८ २९३ ३७१ ४७ २२० ૩૪ २६६ २४७ १८ ३८५ ३७० ३९६ ३३६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ५२५ पुटसंख्या पुटसंख्या २३९ १५२ ३४२ ३९४ २५६ १३६ ३३१ तेनैव तत्प्रवृत्तं स्यात् तेनेषां खण्डतालत्वं तेभ्य उद्दिष्टसंस्थेभ्यः तेषां च मुखरन्ध्रस्य तेषां संनिहिताद्यानां तेषामधो द्वावू द्वौ तेषामन्योन्यसंसर्गात तेषामुत्पादकान्पाणीन् तेषु तड्यादय: सप्त तेषु प्रस्तुतमेदस्थ तेषु म्ध्राङ्गुलीप्राप्तिः तेषु विस्तारसंत्रासात् तेषु वृत्तं तदूधिः तेषु स्वरविभागाय तेष्वष्टासूर्ध्वरन्ध्राणि ते हेमादिमयाः सप्त तो गप्लुतौ राजताल: तेक्ष्णगोलकगर्भा स्युः त्यक्त्वाकुलानि चत्वारि त्यक्त्वा चान्त्यां कलां ततु त्यक्त्वा फूत्कारसुषिरं त्यक्त्वा वितस्ति जीवात: त्रयः स्वरा: प्रजायन्ते त्रयस्तु दक्षिणात्पाणे: त्रयोदशाकुलं तस्याः त्रयोदशाकुलस्तद्वत् त्रयोदशाकुलो वंशः त्रयोदशाकुलौ वक्त्रे त्रयोदशादयो ये च . १ त्रयोदशादयो वंशाः १३८ त्रयोदशात्परे तार २१५ त्रयोदशेति सर्वेऽपि ३८९ त्रयो द्रुता डोम्बली तु २०० क्योविंशत्यखलानां ४७८ त्रिः खण्डोऽभ्यस्यते कूट २२ त्रिंशदलदैर्घ्यश्च ४०. त्रिकल: षट्कलो वात्र ४५७ त्रिकस्य चलनाद्वाम १९७ विधापरान्तकं तद्वत् ३४४ त्रिधोकोऽयं द्वयोरन्यैः ४९६ विप्रहारभवे भेदा: ९७ त्रिभङ्गीरकाभरणे ३२. त्रियवान्यतरालानि ३४१ त्रियोगजाश्च ये भेदाः ३९२ त्रियोगजाश्चतुर्योग १४४ त्रियोगमेवमादध्यात् ४९२ त्रियोगोऽयमधः षष्ठ ३९२ त्रिरावृत्ती मध्यमा स्यात् १२० बिरुत्तरस्बिरधरः ३१९ त्रिवलीवरक्षाममध्यः २३८ विश्वतुर्वा ततः स्पृष्ट ३२६ विस्तारस्वरघातेन २८४ त्रिस्थानत्वं श्रावकत्वं ४७४ त्रिस्थानस्वररागादि ३२२ त्रिहस्तदैर्घ्यस्तावच्च ३३८ वीण्यजानि पृथक्तेषां ४९१ त्रीण्येतानि निबध्यन्ते ३३८ तामिसंस्थितं यदा १९० . २५२ ३७६ २५५ ३५७ ३१७ २३३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतग्नाकर: पुटसंख्या ૩૪૮ ३५५ ३५० त्रैगुण्यान्मध्यखण्डस्य त्र्यमुलायतया युक्तं ज्यश्रेऽन्ते व्यश्रतालेन व्यश्रेण माहाजनिक ध्यश्रे स्थिते चतुर्थः प्र त्र्यश्री मिश्री द्विधा वर्णः त्र्यश्रौ शरीरसंहारौ ३४२ ३३१ ३५४ ३९८ ३९९ ४१८ २८९ २८६ पुटसंख्या ४२५ दण्डमानं मनोरेक २३६ दण्डमानं युतं सार्ध ७२ दण्डमानं श्रुतिनिधौ , दण्डवक्त्रप्रविष्टाध: ७६ दण्डवक्त्रमितस्थौल्य १४५ दण्डश्चतुर्मुखे सार्ध १११ दण्डश्च यवयुग्मेन दण्डस्निपुरुषे वंशे दण्डस्य मानमादित्ये ४५६ दण्डहस्त: पिण्डहस्तः दण्डरसन. २४२ दण्डहस्तः समनख: ५ दण्डहस्तो घनरवः ४८४ दण्डांशः परिशेषोऽत्र ३४० दण्डाग्राद् द्वयङ्गुलेऽधस्तात् २८३ दण्डान्तशीर्षमध्यान्त: ४७३ दण्डान्ते सारिकोत्सेधः २५९ दण्डे त्वेकोनविंशस्य २४१ दण्डे धृत्वा टणत्कार ३९३ दण्डे पञ्चदशस्य स्यात् ४९३ दण्डे संवेष्टयेन्मन्द्र ४७३ दण्डोऽड्लैकविंशत्या ६० दण्डोऽष्टादशवंशस्य ११३ दण्डो यवाष्टमांशेन ३३५ दद्वयं गश्च मदनः २३७ दधते कवलव्याप्तं ३३९ दधानः ककुभं सारं , दर्पणे दद्वयं गश्च ३४२ दर्शनस्पर्शने चास्या ३५२ दलगा दलपाश्चैव २९३ २९४ س ه दक्षिणं तु मितं साधैं: दक्षिण: कर्तरी कुर्यात् दक्षिणश्चेति तत्र स्यात् दक्षिणस्थेन कोणेन दक्षिणस्य करस्य स्यात् दक्षिणस्यानामया वा दक्षिणस्योहलीवद्धा दक्षिणामुष्ठतो हन्ति दक्षिणानामया यत्र दक्षिणास्यस्य कवलं दक्षिणे दक्षिणस्थेन दक्षिणेन करेणास्ये दक्षिणे वार्तिके त्वेतद दक्षिणे स्यात् त्रिसंख्यातं दण्डः कलानिधौ वंशे दण्ड: शंभुरुमा तन्त्री दण्ड: श्रीशाङ्गदेवोक्तः दण्ड: सप्तदशे वंशे दण्डः सार्धे: षोडशभिः दण्डमानं परं लक्ष्म س २३७ ३४६ ३४९ ३५५ १५३ २३४ १४२ २३७ २०३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशभिः संयुतं वायं दशमं द्व्यङ्गुलं हीनं दशमुष्टिमितं दण्डं दशमुष्ट्यधिकं मानं दशमैकादशे प्रो दशहस्तगुणोपेतः दशाङ्गुले मुखे तस्या: दशाङ्गुलो महानन्दः दशेति शुष्कवाद्यानि दीपको दलगा द्विद्विः दीपक दीक्षण दीप्तं नृत्तं च तामाहुः दीप्तवृत्ते भवेदेषा दीतैर्वर्णैः कचित्कापि दीर्घ खण्डं ततोऽल्पं च दीर्घीकृत्य तृतीयं च चार्मेण कोणेन दशब्देन भीरूणां दृश्यते मध्यमादेस्तु दृश्यते यत्र तं प्राहुः देकारादीनि यत्रासौ देकाराद्यलंकृताद्यन्ता देवा तुम्बु देवता गातरः सप्त देशाख्या स तदा लक्ष्ये देशीतालप्रपचेन देशीतालस्तु लघ्वादि देशीताला : समादिधः देशीपटहमेवाहुः श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुट संख्या ४९७ देशीरागेषु निर्णीतः २९१ देशीवंशेषु सर्वेषु २८३ देशीस्थोऽप्येवमेव स्यात् देश्यास्तदायं स्वस्थानं " २९५ देहसौष्ठव संपन्नः ४९८ दैर्घ्यमष्टा गर्भी ४८१ ३२१ २६५ १५० देये पञ्चाङ्गुला वक्त्रे देयें मुष्टौ तु विस्तारः दैर्ध्य स्यान्मध्य विस्तारः दोरकं नागपाशेन १३७ दोरको वासुकिर्जीवा ४३१ द्रुतं कृत्वा पश्चमं तु ४३६ द्रुतमध्य विलम्बे: स्यात् ४४७ द्रुतमेरुर्लघोर्मेरु: ४३१ ३७२ ४८३ द्रुतहीनादयो द्वयादि ४८५ द्रुनहीनादयो भेद ४५४ ४९० ४७० तत्रयं लघुद्वन्द्वं द्रुतत्रयं विरामान्तं ३६४ द्रुतहीनायकोष्ठासु ४११ ४२४ द्रुताकानन्तरं कार्य द्रुतादिकाल्लयाना सां ब्रुतादिनियमः सोऽत्र द्रुतादिरचनाभेदात् तादिसिद्धयै तनाद ३०६ श्रुताद् द्रुततरं मानं २२ द्रुताद् द्रुतौ विरामान्तौ १३४ द्रुताद्याद्यक्षरैर्ज्ञेयं १३७ ३९५ हुते बिन्दुर्विरामान्ते ते लब्धे ततः पूर्वै: ५२७ पुट संख्या ३०१ ३५० ३९४ ३७२ ३१८ ४७९ ४८० ३१५ ३१४ २३६ २३७ ३७१ २६ १६० १५७ १५६ १८२ २०६ २१५ २१३ २६२ २०६ १३५ ४९० xxe १३९ १३८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute 11 २१२ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ संगीतरनाकरः पुटसंख्या १२ १०२ . २३४ ३०९ ३७५ द्रुते शंभुर्लघौ देवी द्वतैः करतलाघातैः द्रुतैः षड्भिस्तु षटतालः दूतो मध्यो विलम्बध द्रुतो लघुः सार्धमात्र: द्रुतो लघुर्गुरुवन्त्यिः द्वतौ तुरालील: स्यात् द्रुतौ द्वौ जगणो वकः द्वयोरानिविशास्तद्वत् द्वात्रिंशच कला झेयाः द्वात्रिंशत्तन्तुसंजात द्वात्रिंशदगुलानां तत् द्वात्रिंशदडलो देध्ये द्वात्रिंशन्मात्रिकामन्ये द्वात्रिंशांशोनपादाभ्यां द्वादशं तु तृतीयांश द्वादशाङ्गुल आदित्यः द्वादशाङ्गुलके वक्त्रे द्वादशाङ्गे दशकलं द्वादशात्र कला प्राग्वद् द्वादशानां दशानां च द्वादशार्धस्वरन्यूनः द्वादशेति गुणा: प्रोक्ताः द्वापञ्चाशद्भवेत्सार्ध द्वाभ्यां विभिश्चतुर्भिश्च द्वाभ्यां द्वाभ्यां विग्निकाभ्यां द्वाविंशति कला: केचित् द्वाविंशत्यनुलोऽप्यन्य: द्विकलेऽटकला मात्रा पुटसंख्या १३८ द्विकले द्वादशकलं ४४९ द्विकले द्वादश कला: १५६ द्विकलेनोत्तरेण स्यात् २४ द्विकले पञ्चपाणौ सा १६६ द्विकले पादभाग: स्यात् २२२ द्विकले मद्रके वस्तु १४६ द्विकले स्युनिशनिता १५५ द्विकलोऽवाथवा चञ्चत् ४२ द्विगुणद्विगुणत्वेन ११५ द्विगुणद्विगुणौ यौ ४६९ द्विगुणाकर्षणात्कर्षेत् ३३३ द्वितीयं कम्पयित्वा च ४९५ द्वितीयं कम्पितं कृत्वा ४२७ द्वितीयं च क्रमादुक्त्वा ३५५ द्वितीयं व ग्रहे न्यास: २९१ द्वितीयं च तृतीयाध: ३२१ द्वितीयं च प्रयुज्य द्विः ४७३ द्वितीयं द्वियवोपेत ९. द्वितीयं सप्तमं कृत्वा २६८ द्वितीयखण्डे विश्राम्येत् २७७ द्वितीयतुर्यषष्ठाकैः ३३८ द्वितीयपक्षवत्प्रान्ते ३५७ द्वितीयमन्तर मेयं ३५० द्वितीयमन्तरालं तु २५८ द्वितीयमात्रा तालान्ता ४७१ द्वितीयस्वरमेवास्या २६७ द्वितीया तु पदैर्युक्ता ३२२ द्वितीयाधस्तनः पात्यः ६. द्वितीयान्तरतोऽधस्तात् ३८२ ३१०, ३६४ २१६ २६५ २९५ २७२ १६४ २९३ २९. ८४ ३७७ २१४ २९१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयान्या भवेन्मध्य द्वितीये पश्चमान्तः स्यात् द्वितीयोऽत्र स्वरः स्थायी द्वितीयोऽस्याः स्वरो लक्ष्ये द्वितीयोऽस्यामपि प्रायः द्वितीयो द्व्वानन्त्य: द्वित्रास्ततोऽधिकाः सारी: द्विदण्डिकं शकुनाष्ट द्विद्विकोष्ठोनिताः स्वस्व द्विमात्रं च कला वक्रं द्विमात्रा: षोडशकला : द्वियोगजाः क्रमाद्भेदाः द्विभ्यस्येदेवमेव द्विरावृत्तिरनावृत्तिः द्विरुत्तराधरान्तो द्विः द्विरुत्तरो द्विरधर: द्विरुद्धहस्तत: खण्डं द्विरुद्ध हो ध्रुवाभोगं द्विश्वत्वारो विरामान्ताः द्विषद्वित्रासजनन: द्विख्यातं त्रिसंख्यातं द्विख प्रहतत्पूर्वः द्वित्रिर्वाप्यवरोहेण द्वित्रिवक्त्वाथ द्वितीयं द्वे चत्वारि भवन्त्यष्टौ पकी स्वस्वपूर्वात ठाएको द्वौ तालौ संनिपातौ द्वौ द्रौ द्वौ तासामाचकोष्ठौ 67 लोकानामनुक्रमणिका पुटसंख्या २६ द्वौ मार्गों गीत केषूकौ ३६९ द्वौ लौ द्वौ दौ लघु द्वौ द्वौ द्वौ लगौघत्ता " ३७० द्वौ षोडश लघून्यन्ते ३७७ १८७ २९२ २३४ १७९ व्यङ्गुलावध्यष्टर्मी तु यो यदा तदान्तः स्यात् पर्धमर्धस्थितं तद्वत् २७१ ४४२ २५५ २५२ ४३० ४५२ १५० ४५९ ११३ ३७३ ३८१ ३७६ ૪૨૪ १९१ १९२ १७२ १८० घ १३८ घसूरकुसुमाकार ४२७ धनुषा वामहस्तस्थ १९५ पचासी स्यात्तदा दृष्टः स्यादृश्यते वंशे धातुना चित्रिता कार्या धातून्यत्र प्रयुञ्जीत धातून्वृतित्रयं तस्व धात्वन्तरे मिश्रयित्वा धैवतः स्यान्मध्यमया धैवते स्थायितां नीते धैवते स्थानि प्राक्षं धृत्वा कर्कटहस्तेन धैवतं ग्रहमास्थाय धैवतं स्थायितं कृत्वा ३०३, ३०७, धृत्वा तद्रन्धविन्यस्त धृत्वा तस्याग्रभागेण वा संपीय तर्जन्या ५२९ पुटसंख्या १०४ १५० १५८ २७७ २८६ ७३ २९६ भुः शम्या ततस्तालः त्रका पतिता चित्रे ३८९ ܝܙܕ ३०५ ३७१ २८१ २७५ ३५६ २७५ ३७८ ३१०, ३११, ३६९ ३२६ ३७३ ३७८ ३९१ ४९३ ४८९ rus Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० संगीतरनाकरः पुटसंख्या ३८१ ध्रुवका सर्पिणी कृष्णा ध्रुवको भूरिवायेषु ध्रुवपातमपातं वा ध्रुवपाते प्रयोज्यास्ता धुवायां तूमयस्तालः ध्रुवासारितमावृत्ति gो हस्तस्य पात: स्यात् ४८० ३३६ २७६ ३४३ ४२३ नगौ खगरटा वर्णाः न च कच्छो कक्षकस्तु न तत्र युक्तिलेशोऽस्ति न तद्वन्ध्रः स्वजातीयः न तान्ब्रवीम्यहं अन्य नद्रव्ये चर्मणा वाम न नयेत्तर्जनीस्पर्श नन्वेकलक्ष्म मेदोऽयं न बृहत्यधिकं मानं नलिनीदलसंकाशी नवमं तु यवानं नवमुष्टिमितो देध्ये न वा तत्सर्वमार्गेषु नष्टे तु परपतीनां न स्थूला न कृशात्यन्तं न पालं पञ्चयवं नागबन्धश्च पवनः नागबन्धोऽप्यवघटः नागबन्धो विपर्यायात नाटके त्वर्धवक्त्रोऽयं पुटसंख्या ६ नाट्यरामकृतेरायं ४५२ नातः परं तु वंशानां ३३ नातिदीर्घ द्विराचं स्यात् ६ नातिश्लथं नातिगाढं २८१ नात्र त्रयोदशो वंशः ११३ नात्र संख्या विदारीणां ५ नाथेन्द्रदण्डमान स्यात् नायेन्द्रवत्परं लक्ष्म नादवृद्धिक्षयापत्ति ४७० नादश्रुतिस्वरग्राम ४७९ नादहेतोर्माहतस्य ३३८ नानामागैलयो यत्र ३५१ नानावाद्योद्भवेः पाटेः ४६. नारदो देवता चात्र ४७६ नास्ति प्रतिनिधिस्त्वासां २४७ नि विलम्ब्यावरोही चेत् २६. निःशवीणेत्याद्याथ २९५ नि:शङ्कशाहदेवश्व ५९१ नि:शशाई देवेन २९१ निःशङ्कसंज्ञके ताले २८२ नि:शनात्र च प्रोतः ६. नि:शङ्कोऽत्र समाधत्ते २१८ निःशन्दा शब्दयुक्ता च ३४. निःशब्देति चतुर्धोका , नि:साणवत्तुम्बकी स्यात् ३९. नि:सारुको राजविद्या ३९९ निःसारी सालगे गीते ४०८ निक्षिपेत्काकुभं दण्डं ३९५ निक्षिप्तस्तेषु रन्ध्रेषु १८० ३६५ २२९ १३७ ४७८,४९० १५९ ४५६ ३०० ४८५ १३६ २८८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसंख्या ४८६ ४८९ २३० लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४५६ नृते प्रायः प्रयोकश्यः ४७ नीरसोच्छूितभूजातात् ४५३ नेत्रत्रालाप्राणि ३८९ न्यस्तां पृष्ठे कनिष्ठाया ४८० न्यस्य स्कन्धे दक्षिणेन २३८ न्यस्यते शुद्धनहाया: १५ न्यस्याल्पमाद्यान्महतः ५४ न्यासः कर्णाटगौडस्य ४२३ न्यासस्तदा तृतीयं स्यात् ४५. न्यासस्तुरुकगौडस्य २३४ न्यासान्तमथवांशान्तं ४२२ न्यासान्तो विविध: कार्य: २६४ न्यासापन्याससंन्यास १२७ न्यासे कृते रामकृतेः ४५५ न्यासोऽस्यांशेऽस्य संवादि ३९१ न्यासो यदा स्यात्स्वस्थानं ३८२ ३०३ निगदन्ति मृदङ्गं तं निजपातविना या निजेर्या तद्धिोदेभिः निधातम्या यवस्थूला निधाय मध्यतर्जन्यो निपीडयोर:स्थलासनो निप्रताशनितानिश निप्रनिप्रा निनिता: निबद्धं वादयेदायं निवद्धो वादितो गीत निम्नमध्यं मनागन्तः निरन्तरघनम्बानः निरन्तरः पाणिघातैः निरन्तरैः स्तुतिपदैः निर्दोषबीजाक्षोत्यः निर्दोषस्योरखातनामे: निर्भिद्योत्सारिते गर्भ नियुकं पदनियुकं निशी ताशौ निसमिति निशौ निताशप्रनिशं निषादाद ग्रहता नीतात् निषादे स्थायिनि प्रोच्य निष्कोटितमथोन्मृष्ट निष्कोटिताख्यः स्खलितः निकोटिताभिधं पाणि निष्कोटते तले हस्ते निष्कामोऽधस्तलस्य स्यात् निष्पम: कंवलैः पार्टः निहन्ति कती ल्यः ૨૪ ३० १७९ २२२ १५ पक्षान्तरे वस्तुमात्रं पकिं कृत्वेटतालस्थ १८४ पक्तिभ्यां स्वस्वपूर्वाभ्यां ३८३ पङ्क्तौ तदड्डयोगाई २५२ पङ्क्तौ तु प्लुतहीनायो २३९ पञ्चत्रिंशद्धस्तपाटा: २४२ पञ्चपाणिस्तु पाटेः स्यात् २४६ पञ्चपाणे: कनिष्ठादि ५ पञ्चपाणी प्रवेणी तु ४५२ पञ्चभिलघुभिर्गौरी २४२ पञ्चमं ग्रहमास्थाय ३९८ ४२६ १८ ९१ ३७४, ३८४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः पुटसंख्या ३९५ ३१. ३६५ १८४ १८० २८९ ४६९ २९२ २९४ ३९९ ४१३ पुटसंख्या ३३१ पद्मासनोपविष्टेन ३३२ पमागत्य विलम्ब्याएं २६९ पमान्दोल्य प्रकम्प्यापि १३६ परासां शेषकोष्ठेषु ३.९ परासु शेषकोष्टेषु ४८. परितोऽर्धालन्यूना ८ परिधाबालमिता ३४२ परिधिईश्यते तत्र २७२ परिधिस्तु तृतीयांश ४५ परिधौ दधते मानं २२ परिधौ संमिते ते च ३०४ परिवृत्तः षोडशेति ४१८ परिवृत्तो हस्तपाट: . ४२६ परिशेषस्तथा साल्यात २८५ परे कृतार्थे ग्राह्यः स्यात् ३०३ परे परेऽवरोही स्यात ३०२ परेषु च निवृत्तेषु ३५८ परो द्विरधरोऽय स्यात् ४१६ परो यद्यकृतार्थ: स्यात् २३० परौ स्वरौ द्रुतीकृत्य २८३ पले: स्यात्पञ्चविंशत्या ६ पश्चिमाधै प्रतिमुखं ४५३ पाट: पाटाक्षरं यद्वा २१६ पाटप्रभववाद्यानि २०९ पाटभेदाश्च वाद्यानि २१४ पाटविन्यासभेदाः स्यः २१७ पाटस्य खण्डनाद्वाथे ४३९ पाटा: किटकिटा मुख्या: ४२६ पाटा सनकटा मुख्या: पचमांशोनितं मानं . पचमानमिता: शेषं पश्चमी शम्यातालाभ्यां पचमो निःशङ्कलील: षश्चमो लक्ष्यते स्थायी पचरन्ध्रे तथोडल्यौ पचलप्वक्षरोचार पञ्चविंशतिराख्यात पञ्चविंशत्यक्षरं स्यात् पक्ष षट् सप्त वा वस्त पश्च सप्त नवापि स्युः पक्ष स्वरान्न्यस्यते चेत् पञ्चहस्त: पश्चपाणिः पश्चहस्तो हस्तपाटः पश्चाहुल: परीणाहः पञ्चानारुह्य तुर्य च पश्चारुय निषादान्तान् पञ्चेति फू-कृतेदोषान् पटहस्य हुडकाया: पटहो मर्दलश्वाथ पासत्रपयीं तन्त्री पताका तूर्वगमनात् पताकेन हततिः पतितात्सह पूर्वाभ्यां पतिताद् गुरुलाभः स्यात् पतितालः पात्यपात पतिते वृत्तगुका पदं वदन्ति वाद्यज्ञाः पदेशर्मिरस्यां स्यात् २९४ २.९ २१८ २५२ ४८१ ४२४ ४९४ ४९१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ३३२ ९२ ३८७ पाटानां पृथगुक्तानां पाटानां रचना केचित पाटाच तिद्धिोंटेहैं : पाटेन यत्र तत्प्रोक पाटेरेब यति: सान्दैः पार्टबहुलदेकारैः पाटमलपपाट: स्यात् पाटेर्वा रचिता केचित् पाटेर्व्यस्तै: समस्तैश्च पाटोभन्योन्याङ्गजातैर्यः पाणिभ्यां वाद्यते तजः पाण्यन्तरस्य जनकं पात: कला तु सा आया पातयेत्पूर्वपूर्वावं . पादकम्पोऽथ जनकः पादन्यूनेन पादेन पादभाग: कलानां तु पादभागत्रये निप्रौ पादमाग द्वादश स्युः पादभागा विहायायां पादभागेष्वानिविप्रा पादभागेश्चतुर्भिस्तैः पादयुके पादभागे पादान्मुखं छन्दके स्यात् पादोत्तरार्धतालेन पादोनगुजामात्रं स्यात् पादोनश्यकुलं तुर्ये पादोनत्र्यङ्गुलं मानं पादोनयनुलानि स्युः लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या ४५३ पादोनमलद्वन्दं ३१५, ३४८, ३५५ ४२९ पादोनमलं मानं ४५६ पादोनहस्तमात्रांच ४३९ पादोनाभ्यामनुलाभ्यां ४५४ पादोनेन यवदन्द्वे ३३१ ४३१ पादोनेकुलमान ३५५ ४४९ पादोपपातसंपिष्टे ४५४ पाविका वैणवी कार्या ४३० पावो वेणुसमुत्पन्न: ४२३ पिण्डिका पूरिकाकारां ४७२ पित्तलात्युत्तमा जातिः ४.९ पिधाय गाढं बध्येते ४७४ ५ पिनाक्यां धनुषः कम्रा ११४ १६८ पीडयेतां पुटद्वन्द्वं ४.७ ४०३ पुटमध्ये दक्षिणेन ३३३ पुटमेकं निहन्याता १० पुटमेकैकपाणिवेत् ३८ पुनः प्राञ्चं विधायाथ , पुनरुच्चार्य तं कृत्वा ३८१ ११ पुनद्वैधा शीर्षकं तु ९९ पुनीतो विप्रहत्यादि १. पुष्णन्ति वीणावाद्यं ये २५१ १९ पुष्पं कलं तलं बिन्दू २५२ १०५ पूरणापूरणाभ्यां च ३२८ ९९ पूर्व लत्वा तमाहत्य ३७८ ४८९ पूर्व प्रहं द्वितीयं च २९५ पूर्व प्रकम्प्य तस्यार्ध ३७४ ३३३ पूर्वप्ररोहे छिन्नेऽन्यः ३५. पूर्वभागे तथाभोगे ४६७ ४०८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ संगीतरनाकरः 4 पूर्वमानाधिकाः सन्ति । पूर्वलक्ष्मविपर्यासात् पूर्ववत्काकुभो दण्डः पूर्ववद्विमिका: कार्या पूर्ववेत्पतितो न स्यात पूर्वस्मादपरं तुम्बं पूर्वस्या वा परस्या वा पूर्वार्धस्थपदावृत्या पूर्वेषां पात्यमानानां पूर्वोकं लक्षणं शेष पूर्वोतमन्यदादित्ये पूर्वोकमपरं लक्ष्म पूर्वोक्कमपरं सार्ध पूर्वोका द्वादश कला पृथक्तृतीयभागोनं पृथक्पश्चयत्री सार्ध पृथशिरोन्तयोर्मानं पृथक्सद्वितयं मानं पृथक्सपादपादेन पृथक्सप्तयवानि स्युः पृथक्सप्तान्तरालानि पृथक्सार्धाकुलानि स्युः पृथगर्धाकुलान्येषां पृथगष्टसुन्धेषु पृथग्विलम्बिते मध्ये प्रकम्प्य तत्पर प्रोच्य प्रकम्प्य ललितं तस्मात् प्रकम्प्याथ तृतीयं च प्रकरी स्याचतुर्वस्तु पुटसंख्या पुटसंख्या ३३७ प्रकल्प्य तस्य षड्जत्वं ३६६ ४.३ प्रकृतिः सर्ववीणानां २९४ प्रगल्भधीः सुशारीरः ३१० ४७६ प्रवालनाद्वामहस्त १६८ प्रतापशेखरो झम्पा २८६ प्रतापशेखरो दीप्तात् १५३ ३४ प्रतिपादः पदरन्यः ७२ प्रतिपादादिमे चैका २१६ प्रतिशुष्कां तदाचष्ट २५१ ३५५ प्रतिहारोपदवीच १३२ ३४३ प्रत्यको मगणो लौ नौ १४३ ३५०, ३५३ प्रत्युपोहनमत्र स्यात् ३८, ४६ ३४९ प्रत्युपोहनमत्रोर ५४ २७. प्रत्येकं तस्य चावृत्ति: २८१ ३४५ प्रत्येकं तो नामगतः ३३३ प्रत्येकं त्रियवी सार्धा ३४६ प्रत्येक द्विः प्रयुक्तन ३३९ प्रत्येक मानमाख्यातं ३३५, ३४३, ३४७, ३३४ ३४८ ३४२ प्रत्येकं मूलत: षष्ठ ३४३ प्रत्येकं यादेन ३३५ ३४३ प्रत्येकं वा पुटद्वन्द्वे ३४१ प्रत्येकं षोडशांशोन ३५४ प्रत्येकमलं मानं . ३४२ ४६१ प्रत्येकमकुलदलं ३५२ ३११ प्रत्येकमङ्गलद्वन्द्वं ३१३ प्रत्येकमन्तरालेषु ३३२, ३३९, ३४४, ३०८ ३५४, ३५५ ८२ प्रत्येकमष्टरन्ध्री स्यात् १४९, ३५४ ३४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसंख्या ३६७ २११ ३४९ ३४८, ३५५ ३७९ ३६८ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या २९३ प्राक्स्वरस्थानवदारय १८ प्रागूने वामसंस्थास्तु २४७ प्राग्वश्चतुर्निवृत्ति: स्यात् ३०२ प्राग्वत्पर मुरल्यां तु . २९६ प्राग्वत्पर रुद्रदण्डे ४५४ प्राग्वत्पर विश्वमूर्ती ३९६ प्राग्वदाषष्ठमारोह २४३ प्राचां चतुर्णा मेरुणां २३० प्राचीनं लघुना नीत्वा ३३३ प्राचीनं स्वरमुच्चार्य ३४९ प्राथम्यसाम्यतो यद्वा ४३ प्राधान्येन विधातव्यं ४२५ प्रान्तान्तरेणान्यकोष्टे ४२६ प्रायेणेतानि दृश्यन्ते २७९ प्रायो वायप्रबन्धानां २८. प्राहुः परिसतं मृग्य wr प्रोक्तं मृदाशब्देन २७३ प्रोक्तं यवेनाभ्यधिक: ७३ श्रोच्य तथै विलम्व्याध ९१ प्रोच्य स्पृष्ट्वा ग्रहं तस्मात् ९२ प्रोतोवधिः स्थिता दृष्ट १६. प्रौढं वा मधुर सम्यग् प्लुतः सार्धत्रिमावश्व १३. प्लुतपको सशून्याः स्युः १९७ लुनमेरावधः पङ्क्तः २५३ प्लुतलाभातु गुरुबत् ३३० प्लुताकारास्त्रिचतुरा: २६५ प्लुतालभ्यो निवृतिस्तु ३६० ते त्रयो विरिवाया प्रथमं प्रथितं प्राः प्रथमे पादभागे स्यात् प्रथमे सप्तके स्थानं प्रथमे स्थायिनं कृत्वा । प्रदर्शनार्थ के चित् प्रदर्शनार्थमित्युक्ताः प्रदर्शनार्थमेतेषु प्रदेशिन्या स्पृशेद्यत्र प्रमेदा घनवाद्यस्य प्रमाणं मुनिदण्डस्य प्रमाणमन्तरालेषु प्रयुकं स्यात्प्रहरणं प्रयुज्य त्रीणि खण्डानि प्रयुज्यैकस्य खण्डस्य प्रयोगेऽभिमृतस्य स्यात् प्रयोगो द्वौ पदैवान्यः प्रयोज्यं नर्तने दीप्ते प्रवृत्तं चैककं वर्ण प्रवृत्ताभ्यां प्रवृत्तेन प्रवेण्यनन्तरं कैश्चित् प्रवेण्यां तु प्रत्तं स्यात् प्रसिद्धिविधुरत्वेन प्रस्तारसंख्ये नष्टं च प्रस्तावादीनि सप्तापि प्रस्तुतेषु विपर्यस्ताः प्रहारलाघवात्कृत्वा प्राक् चतुर्दशवंशात्ते प्राक् प्राग्युग्मोत्तरादीनि प्राक् प्राग्वदररोही स्यात् . ४१८ ४२९ २८. २९४ ४५५ १९५ १८९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ पते त्र्यहं त्रिमात्रं च ते मात्रायुते वक्रः लुतो यो गुरुस्थाने तौ व्यस्ते समस्ते च फुलपूर्वश्व विशेषः फूत्कारदोषा यमलं फ फूत्कारप्रभवो वायुः फूत्काररन्ध्रमेकं स्यात् फूकारेऽपि यथायोगं फूत्कारैः सावधानत्वं फूत्कारो यमल: प्रोक: वयं निरन्तरयतिं बद्ध स्तुतिपदेस्त्यक्त बद्धरज्जु निवेशार्थं बध्वा तत्रोत्क्षकौ च बन्धसूत्रान्तरे मध्ये बहिस्त न्त्री तिस्तूर्ण बहुधा तहगत्वेन बहुधा मूर्च्छना हस्ता: बहुधा स्थापना यस्यां बहुला विद्धकरण: बहुक्रेन प्रयुके च बाहुल्यानर्तनं दीप्तं कायस्य यश्चर्म बिन्दु मिथो मेलयेत बिन्दुरुत्पद्यते प्रोकं संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या १३८ 31 १९० १६१ ३९७ ३५८ ३२० ३८८ ३५८ ३५७ ३५८ बिन्दुरेकत्र तन्य स्यात् बिन्दुहस्तेन वा मन्द्रे बीजदारुमयी सप्त बीजवृक्षोद्भवा पिण्डे बृहती किंनरीत्येषा बृहतीदण्डमानं स्यात् बृहतीमध्यमा लघ्वी बोडवा घनरवं बोलावणी च चलाव बोलावण्येव पाणिभ्यां बोहणारूयेन तेनास्यं ब्रह्मणा च पुरा गीतं भितं तत्तु ४४७ ३१ ४६९ ४७० ४६९ भवन्त्याशाविता आनि २४२ भवेतां प्रान्त संलग्न भगवान्भरतस्त्वासां भगवान् गरतस्त्वाह भगताले चतुर्बिन्दुः भ २७५ भवेत्तृतीयमात्रायां २४५ भवेत्संचारिनिष्पतौ ४३१ भवेदिह द्रुतं मानं २७३ भवेदुपशमोऽन्यत्र २७१ भवेदेककले तस्मिन् ४३८ भवेद्वङ्गालरागस्य ३९३ भवेद्वेण्यां प्रवेण्यां च २७५ ४११ पुटसंख्या २५९ २८४ ४७५ ४७१ २९२ २८८ २८८ ૪૬° ४१७ ४२१ ४५६ १३१ २८० ३६ ११५ १५९ ७५ ४७७ 3 ३२८ r¢ ૪૪ ६६ ३६८ ९० १२१ १४७ भबेल्लयान्तराभासं भाच्चतुर्लघु निःशब्दं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसंख्या ४८३ २३१ १४८ १४७ ४२. १३७ ३८९ भूतिमित्रेण भक्तेन भूपाली सा जनरुका भूरिगुर्गुरुहीनो वा भूरिभिः संमृता पाटः भूलमबाह्यपाभ्यां भृतगर्भ: कांस्यपात्र भेददयेऽस्यीद्धट्टाख्य मेदाः सप्तेत्यलमस्य भेदा कृतान्तलध्वन्त मेदा व्यञ्जनधातूत्था भेदानिीतवाद्यस्य भेदानां यावतां मध्ये भेदास्तलेन रिभित भेदास्तेऽन्वर्थनामान: भेदास्ते पङ्क्तिषु झेयाः भेदैरेककलायैः स्यात भेरीनि:साणतुम्बक्यः भ्रमर: कुञ्चितश्चेति भ्रमर: संधितछिन्नौ भ्रमरोऽन्तः क्रमाच्छीघ्र भ्रमरो हस्तपाटः स्यात् भ्रामणं वैपरीत्येन ४६८ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४५६ मङ्गले विजय चैव ३०७ मालेषु च सर्वेषु २५७ मण्ठरूपकवेलायां ४२१ मण्ठो न जौ लघुर्यद्वा ३१६ मण्डले चाल्यते यत्र ४८४ मण्डल्यो लोहजे सूत्र २० मण्डल्यौ वक्त्रयोवली ३९७ मतङ्गोकास्त्विमे वर्णाः १६६ मदनः प्रतिमण्ठश्व २७६ मधुरं वाद्यते तसः २६५ मधुरवानसिद्धथै तत् १६८ मधुरोद्धतवाद्येषु २७१ मध्यपर्व कनिष्ठायाः २५४ मध्यप्रान्तान्तराले तु २०३ मध्यमं प्रहमास्थाय ६६ मध्यम ज्येष्ठमित्येषां २३० मध्यम स्थायिनं कृत्वा ३९९ मध्यमः षष्ठभागेन २३९ मध्यमाङ्गुष्ठयोर्मूले २४० मध्यमादिग्रहः शास्त्रे ४११ मध्यमादिग्रहे कार्या २८७ मध्यमादिपदं ज्ञेयं मध्यमादेः समाख्यातं मध्यमानामिकाभ्यां तु ३८० मध्यमायां दण्डदैर्घ्य मध्यमासारितादिस्थ १३७ मध्यमासारिते ताले १५७ मध्यमेऽष्टौ कलास्त्वाद्या १४४ मध्यमे सप्तके स्थानं ३४८ ३१५ ३६८ १०६ ३०२, ३६२ ४९४ . २९० २९८ . . २४० २९२ ८ मं प्रकम्प्य स्थिरीभूय मं विधाय प्रहं तं च मकरन्दः कीर्तिताल: मगणव त्रयो दोप्ता मगणो लप्लुतौ रङ्ग १२२ ११० २४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ मध्य षड्जाद्महात्पूर्व मध्यस्थानगताः सप्त मध्यस्वरा नव दशैंक मध्यमो मुक्तया तन्त्र्या मध्यषड्जं ग्रहं कृत्वा ३०५, ३०८ मध्यान्तयोश्च वा भिन्न मितौ निनौ मध्ये मध्ये च गाढतां नीतौ मध्ये कूर्मोनां लौह मध्ये कूर्मोनता लौही मध्ये पिण्डो यथाशोभं मध्ये लये छण्डणः स्यात् मध्ये वामपुटं वाम मध्योऽस्याकुलविस्तारः मध्योत्तर द्विरधर: मध्योत्तर द्विरधरे मनोर्दण्डे पक नौ दण्डस्तु पादोन मन्द्रषड्जं ग्रहं कृत्वा मन्द्रस्थं पञ्चमं कृत्वा मन्द्रस्वराद्विरुच्चारात् मन्दस्वर द्विराघातात् मन्दाद्यन्तो भवेत्तारः मर्दनेनेष्टका चूर्ण मर्दलाख्यस्ततो वाद्यं मर्दले तालरहिते मलपाङ्गं च मलप मलपानं तु मलपे संगीतरत्नाकर: पुटसंख्यां २८४ मल्लतालो विरामान्त मल्लिकामोदताले तु ३०९, ३११ मल्लिकामोदविजय ३०५ महत्यवान्तरा चेति ३२३ महाजनिकमन्तः स्याद् ३ २९ मातृतीयं व्रजेत्तस्मात् १०२ मात्रापूर्वदले कार्य: ४९१ ४७७ २८९ २८५ ४९४ ४५० ४१३ मात्रामात्रमिति प्रोक्तं मात्रावृतैः कलानां च २५६ ३९१ २३३ ४६० ४२८ ૪૪૮ मात्रा स्यादवराष्टाङ्गा माधवीं संभाविताख्यां माधुर्य सौकुमार्य च माधुर्यरक्तिसंयुक्ता मानं खानिस्तु मातव्या ४८९ मानं खानेस्त्वष्टमांश २५२ मानं खानौ त्वष्टमांश २५६ मानं जातिमुखाख्ये स्यात ३३४ मानं तारादिरन्ध्राणि ३४४ मानं नाथेन्द्रदण्डस्य ३१० मानं महानन्ददण्डे ३०७ मानं यस्य मनामध्यः २५४ मानं लक्षणमन्यत्तु २५५ मानं वादनचापे स्यात् मानं षण्मुखदण्डस्य मानं स्याद्यवपादोन मानहीनं तु यद्रन्धं मानान्तरेणाभिदधुः मानेऽत्र दृश्यते तेषां माने पञ्चयवे कस्मात् पटसंख्या १५१ १४८ १३६ ३४ ७३ ३१२ ६७ ७६ १३१ १२७ २६२ २७९ ३३६ ३४९ ३४८ ३४३ ૩૪૧ ३३१ ३५४ ३४३ ४५५ ३५५ ३१५ ૩૪૬ " ३५१ ३३० ३३६ ३३७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग चित्रं वार्तिकाख्यं मार्गदेशीगतत्वेन मार्गभेदाच्चर क्षिप्र मार्गस्थ स्या मार्गा: स्युस्तत्र चत्वार: मार्गासारितकं लीला मितं कलाभिरष्टाभिः मितः शिरः पृथक्प्रान्त मितश्चतुर्मुखे दण्डे मिता खानिः परं लक्ष्म मिता खानिर्भवेत्तार मितानि पूर्वत्रच्छेषं मितानि लक्षणं शेषं मितानि सप्त प्रत्येकं मितो दण्डो विश्वमूर्ती मिथ्या प्रयोग बाहुल्यं मिलन्ति मुदिता वंशा: मिलन्ति सर्ववंशानां मिश्रे खण्डत्रयं यत्र मिश्रोऽन्तः षडिधः प्रोक्तः मिश्रो द्रुतचतुष्का स्युः मीयते च ततोऽस्माभिः मीयन्ते सर्वभेदस्था: मुकुन्दे तु लघुर्बिन्दु मुक्ततन्त्री भवं कृत्वा मुक्कतन्त्र्याथ षड्जः स्यात् मुकशब्दात्मकं देह मुक्ते तु ताररन्ध्रेऽन्य मुक्त्वा तृतीयं स्पृष्टा च लोकानामनुक्रमणिका संख्या २६२ ४, ३९२ २४ ३९२ ५ २६५ ४२६ ३४२ ३४६ ३४४ ३६१ ३५१ मुखं दक्षिणपाणिस्थ मुखतालेन वा कार्य 11 ४२६ ७३ १४५ २२७ मुखप्रतिमुखे स्यातां मुखयोर्बोहणं दत्वा ३४४ ३३२ मुखात्परं प्रतिमुखं ३३४ मुखार्धमानमध्यासौ ३४५ मुखे त्वङ्गुलेः पिण्ड: ३४२ मुखे मुखे शङ्कवच मुखे वामे तु झेंकार : मुख्यवीणाप्रयुक्तस्य मुखरन्ध्रं च तस्याः स्यात् मुलरन्ध्राताररन्धं मुरन्ध्रादङ्गुलानि मुखरन्ध्रेऽङ्गुलं मानं मुख्येयं सर्ववीणानां मुद्रित: स्वररन्ध्रः स्यात् मुद्रितास्तु ग्रहः प्रोक्तः पूर्वपूर्वमात् मुदितेषु भवेत्षड्ज: मुदितोऽस्या महो वंशे मुरल्याख्योऽपरो वंश: मुष्टिप्रायश्च मध्योऽस्याः १७८ मुहुः सारणया तन्त्री १५८ मुहुर्विधायोपशमं २९२ मूर्च्छनारागभाषादे: २८४ मूलतः पञ्चमांशोन ४६० मूलत: सप्तमांशोनं ३२५ मूलत: सप्तमांशोन ३८४ मूलतश्चाग्रपर्यन्तं ५३९ पुटसंख्या ४८१ १०५ २७३ ४६० ३८८ ३१९ ३८८ ३५२ १२७ ४८३ *ઢ " ४८१ २४९ २४८ ३३८ ३६७ ३५२ ३२३ ३७२ ३२२ ૪૮૨ २४१ ४३४ ३३६ ३४१, ३४५ ३४८ ३३४ ३९१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० संगीतरनाकरः मूलमुत्पीच्य धृत्वा तां मूलशब्दोऽन्वयं याति मूले दण्डं त्रिशलायं मूलेन संमिता कार्या मृदुलां क्षीरपाकेन मेघनिर्घोषगम्भीर मेढकात्पुरतः शङ्कः मेदोदुष्टं जराकान्तं मेरुः संयोगमेरुश्च मेलापकचोपशम मेषपार्युलीबद्ध मैवं तद्धातुभेदानां २७८ पुटसंख्या पुटसंख्या २८३ यत्र निःशङ्कवीणा सा ३४० यत्र बोलावणी सोका ४१९ ४९२ यत्र शुद्धादिभिर्बद्धः ४४७ ३५५ यत्र सारणया हन्ति २४२ ३८९ यत्र स्याद् गुरुरन्ते सा ४८३ यत्र स्वस्थानमा तत् २९. यत्राङ्गरूपकं प्राह ४८८ यत्राभिदधिरे धीराः २३७ १६. यत्रारम्भविधि: स स्यात् २७१ ४२८ यत्रावमृष्टमाचष्ट ४८० यत्रासौ मलप: प्रोतः ४४७ २६० यत्रोद्धाहः सकृद् द्विर्या यथा कलतलाख्याभ्यां यथाक्षरं द्विसंख्यातं ११३, २८१ ३५८ यथाक्षरं सर्वमार्गे ४२२ यथाक्षरद्विकलयोः २७६, २७७ ४६५ यथाक्षरश्च द्विकल: यथाक्षरस्य युग्मस्य २७० १७२ यथाक्षरस्योत्तरस्य २६८, २५२ २२५ यथाक्षरादित्रितयं १२४ ४६८ यथाक्षरादिभेदेन ४९८ यथाक्षरेण वा तत्र ४९५ यथाक्षरेणोत्तरेण ५४, ७२, २७० यथाक्षरे विशेषोऽत्र ४२९ यथाक्षरोत्तरे शीर्ष ४९७ यथा तथा कचित्ताल: यथा यथा स्वरे व्यक्ती १६७ यथायोगं मर्दलादि २७६ यथा विरतिरन्यत्र ४४२ यः कफोपहताद्वक्त्रात् यः करेण कराभ्यां वा यः खण्डोऽतिद्वते माने यः खण्डो वाद्यते प्राहुः यः शेष: स प्लुतालभ्यः यतस्तं नौमि विस्तार यतिताललयज्ञत्वं यतिताललयाभिज्ञः यतिमात्रावबोधेऽत्र यतिरोता च गजर: यति का च सा तज्ज्ञैः यतेर्लयस्य न्यासस्य यत्यादिपूर्वकं देयं यत्र तमष्टमाख्यात यत्र द्वादश ला गोऽन्ते ४२८ ११ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाशोभं विदारी च यथाशोभं कांस्यताल यथासंभवमेतस्यां यथास्थानं प्रयोक्तव्याः यथास्वं स्वरभेदानां यथास्वं स्वरदेशांश: स्वराधिक्यं यदयोगादन्त्योऽङ्कः यदा डोम्बक्रिय: प्रोक्षं यदा तदा गौडकृते: यदा तदायं स्वस्थानं यदा तदा द्राविड: स्यात् यदा तदा द्विरधर यदा तदा भैरवः स्यात् यदा तदा वर्धमान यदा तदा स्यात्कामोदा यदा पूर्वक्रमागताः यदा प्रसारिताङ्गुष्ठः यदा भवति कैशिक्याः यदा वराट्याः स्वस्थानं यदा वाद्यपुरद्वन्द्वं यदा विदारीविच्छेदं यदा विलम्बितलयं यदिदं लक्ष्म शास्त्रोकं यद्वा कलाप्रयोगेण यद्वा लक्ष्य प्रधानानि यद्वा लध्वादिखण्डानां यद्वा वर्णरेणाथ यद्वा शताशता ताल: श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या १३० यद्वा शाखेयमुदिता १३४ यद्वा षट्प्लुतत्वक ૪૮° २६१ २४८ २९२ यद्वान्यवखजां शोभा यद्विना गीतनृत्ताभ्यां यन्मेढक शिरो मध्यात् यमलं तुण्डकिन्योश्च ३५७ यवत्रयं पृथक्सार्धं १६६ यवत्रयं सार्धपाद ३७३ यवद्र्यं पृथङ्मानं ३७७ यवद्वयाधिकैः साधैः ३७४ यवन्यूनाङ्गुलमितं ३१३ यवपादाधिकं मानं २५५ यवपादाधिका त्रिंशद ३०३ यवपादोनपादोन १२४ यवस्य चाष्टमांशेन यवस्य सार्धपादाभ्यां यवस्य सार्धपादेन ૪૦૪ यवस्याधिकं मानं ३८५ यत्रस्याष्टमभागेन ३६९ ४०६ २५० ३०८ १२४ यवाधिकं सपादेन यवाधिकयङ्गुलं तु यवाधिकाङ्गुला ज्ञेया वाधिका जातिमुखं यवाधिकाभ्यां सार्घाभ्यां यवाधिकैर्दण्डमानं " ३३६ ६९ २९८ १३८ ४३८ १४ यवानालद्वन्द्वं यवान्वितैः सपादेन यवार्धसहिता रुद यवार्धेनाधिकं तस्य ५४१ पुटसंख्या ७० १७२ ४५६ २३१ २९० ३९० ३३५ ३३३ ३५२ ३३२ २९५ ३४६ ३३३ ३४७ ३३९, ३५३ ३३५, ३५३ ३३२, ३३९, ३५५ ३४७ ३३५ " २९१ ३३३ "3 २९३ ३४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute " ३३४ ३५२ २९५ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या २४५ ३४८ ३५३ ३३२, ३५३ ४१ ३३९ ३४९ २५९ २४९ ११. P 2 ل पुटसंख्या यवाष्टमांशयुक्तानि ३४७ युक्तं करैः कमादेभिः यवाष्टमांशसहिता ३५४ युक्त खण्डवयं शुद्धः यवाष्टमांशसहितः ३४७, ३४८ युक्तं सार्धन पादेन यवेन च सपादेन ३५४ युक्तप्रहारौ च करौ यवोनयनुलं पृष्ठ २९१ युक्तमन्तरमानं स्यात् यवोनमङ्गुलं मानं ३३१ युक्ता यवेन सार्धन यवोनमङ्गुलद्वन्द्वं २९३ युक्तेनैकककलाद्यैर्वा यवोनाभ्यधिकं मानं ३४९ युक्तर्यवेन पादेन यवोनाभ्यामङ्गुलीभ्यां २९५ युक्तैर्यवस्य पादोन यस्तु दक्षिणहस्तस्य ४०४ युगपद्यत्र तत्पुष्पं यस्त्वादितारो मन्द्रान्तः २५४ युगपद्वादनं रूपं यस्मात्स यस्यामू यां २१४ युग्मतालः प्रतिमुख यस्मिन् विषमपाणिं तं ४०७ युग्मप्रवृत्तवत्तस्मात् यस्य तत्क्रमिकावायं ४९४ युग्मस्य ये त्रयो भेदा: यस्य निष्पादकं सोऽत्र ४०३ युग्मे द्विकलयुग्मेन यस्यां विरतिरन्ते च ४५१ युग्मोऽन्तः प्रथमस्तेषां यस्यां स्याद्वादकस्थूल ४३६ येऽन्ये जल्पवितण्डाबा: यस्यामसौ ध्रुवा लेया २७८ ये चत्वार स्त्रियोगोत्थाः यस्यामुपक्रमे मध्ये ४२३ ये पाटा: पटहे प्रोक्ता: यस्यास्तां करटामाहुः ४७१ ये पूर्वोक्तकमा: सप्त यस्यास्तृतीयखण्डेऽष्टो २७२ ये प्रहारविशेषोत्था: यस्यासौ ढवसः प्रोक्तः ४७४ यैः कश्चिद.वभिः या पक्कवेणुवल्कोत्था २३७ यैरङ्क: पतितैनष्टे या मात्रा वस्तुनोऽन्त्या स्यात २७३ येरङ्कः पतितैनष्टेः या हस्तसंमिता देध्ये ४६९ यो ग्रहः क्रियते वंशे याः षोडश कलाः प्रोक्ताः ८४ यो देहडडगित्यादि याक् चतुष्कले वस्तु ८८ यो धत्ते सप्त सप्तापि यावत्पूरणमावृत्ते: ४४२ यो यस्य मण्डलीयुक्त .यावन्तो यत्र रागे स्युः ३८६ यो वाद्यते वायखण्ड; . ه . م و . له २०३ ام ३३९ २५१ १०५ १७२ २१५ ૨૮૬ ४७४ ४७० ४२९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ पुटसंख्या यो वीणावादनं वेत्ति योगेनकेन निष्पन्नः योगोऽन्त्योपान्त्यषष्ठाना योज्या दलगपेषु स्युः २९७ ३७५ १३४ १४४ १३६ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ३१७ रागेऽत्र पत्रमः स्थायी ४२३ रागे कुर्वन्ति बङ्गाले १८८ रागे प्रथममञ्जयों १९६ रागे शुद्धवराव्यां सा राजचूडामणिं नत्वा ४९७ राजचूडामणिो द्वौ २१३ राजचूडामणी रह ४५६ राजतालो वर्णताल: ३५. राजनारायणाख्यश्च ४६८ रामक्री स्यादसौ प्रोक्ता १५. रालासंलिप्तयास्यां च १३६ रिगौ रिदलमेतानि १४३ रिभितो द्वौ लघू गान्तो १४७ रिमेव ग्रहमाश्रित्य ४८४ रंकारजननाद्वजा १३६ रूजा डमरुको डका ३९३ रूपं कृतप्रतिकृतं ४८२ रूपकियाविपर्यासात ३८९ रूपपूर्ती निवर्तन्ते ३९१ रूपाप्तौ प्रापकाङ्केभ्यः ३२८ रेचितो भ्रमरो विद्युत ३२९ रेफभ्रमरघोषाध ४८९ रेफस्त्वेकस्वरो घात: २३४ रेफात्मभ्यां कराभ्यां चेत् ३४३ रो द्रुतो द्वौ गुरू स्कन्दे ४७१ रोविन्दं तस्य षण्मात्र: ३१४ रोविन्दकोत्तरे सप्त १३७ ३११ ३१६ ३८१ २५७ ३८१ ४७६ २३० रक्तं विरक्तं मधुरं रक्तचन्दनजान्सर्वान् रक्तचन्दनजो यद्वा रक्तिमाधुर्यविरहात् रकिराविद्धकस्यानु रगणो ढेक्तिका कैश्चित रजः श्रीराचच्चों रङ्गश्चतुर्दुती गश्व रडाभरणताले तात रज्वा नियन्त्रिते गाढं रतिलीलः सिंहलील: रन्ध्रक्षिप्तैर्गुणेर्गाढं रन्ध्रन्यस्तैर्गुणैर्बद्ध: रन्ध्रमध्ये काशमयीं रन्ध्रमर्धाकुलमितं रन्ध्रेऽस्य मुखसंयोग रन्ध्रेऽखिलेऽालीमुक्ते रन्धेऽग्राणामनिर्गत्यै रन्ध्रे तस्य निविष्टेन रन्ध्रेष्वष्टसु तारादि रन्धेस्तेष्वेकान्तरेषु रागस्य तस्य तेरेव रागा: प्रोक्ता: पथानेव रागाभिव्यक्तिशक्ता स्युः م ي م م س २५९ ४०५ १५० ९६ ल ३०. लक्षणस्थं द्वितीयादि ३८६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या ३६८ ३७७ ३७९ ३७२ २११ १४२ १३९ २८७ २९४ लक्षयन्त्यन्तराण्यास लक्ष्म द्विकलत्रत्किंतु लक्ष्ममात्रमथो वक्ष्ये लक्ष्मान्ताहरणादीनां लक्ष्मेदं योजयेत्सर्व लक्ष्यज्ञास्वावजं प्राहुः लक्ष्ये तु दृश्यते स्थायी लक्ष्ये तु पञ्चमः स्थायी लक्ष्ये तु सर्ववंशस्थाः लगौ लपौ गपौ चेति लमां द्वितीयप्रान्तेन लघवोऽष्टादशान्ये स्युः लघवोऽष्टौ गुरुर्लाश्च लघुगुर्वात्मकैतिः लघुद्वयं द्वतश्चैकः लघुनि व्यापकं ह्रस्वं लघुप्लुतावुत्सवः स्यात् लघुमेरावधः पतिः लघुमेरुवदन्यत्नु लघुमेरौ कोष्टपङ्क्तीः लघुर्गुरुर्दूतद्वन्द्वं लघु तद्वयं चान्ते लघुतानां त्रितयं लघुर्ती द्वौ गुरुरिति लघुनिरन्तरे त्वस्मिन् लधुर्यत्रातिकीर्णोऽसौ लघुस्थाने गुरुज्ञेयः लघुहीनादुपक्रम्य लघूकृत्य ग्रहे न्यासः पुटसंख्या २९२ लघूकृत्य तृतीयं च ४३ लघूकृत्य द्रुतं कृत्वा ४४८ लघुकृत्य लघोः पूर्वी ९१ लघूकृत्याधरस्या ३६६ लघू ग्रहद्वितीयौ च ४७. लघोरके न लभ्येत ३०३ लघ्वन्ते दत्रयं सिंह ३१२ लघ्वादितालो लोकेऽसौ ३६८ लध्वी सा किंनरी प्रोक्ता १९५ लध्वीदण्डगतं देय २८७ लष्व्याः स्याद बृहती वायु २६६ लङ्घयेल्लचितादूर्ध्व २७२ लपौ गपौ पगौ लाद्वः २५६ लपौ गलौ प्लुत: कीर्तिः १३९ लप्लुतो सगणोऽनङ्गः १३८ लब्धाङ्कन्यूनितान्त्याङ्क १५६ लब्धाङ्कयोगहीनेऽन्त्ये २१६ लब्धेऽधोव्रजनं शेषात् २२० लभ्यते तत्र नष्टाङ्क १८४ लयं तालं विरामंच १४८ लयवैधादादिमध्य १४२ लयप्रवृत्तिनियमः १५७ लया: कमात्समादौ स्युः १४६ लयादिन्यासापन्यासं १६९ लयान्तरे स्वतन्त्र स्यात २५८ लयोऽक्षरे पदे वाक्ये १८८ ललितं ययुट्टवणं १८५ ललितायास्तदा प्रोक्तं ३७१ ललिते द्वौ द्रुतौ लो गः ३१३ १४५ १४९ १५१ २१६ २११ २२० २०८ २६३ ११३ २४ ३८५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ५४५ पुटसंख्या ३४४ ३२० ३२१ ३५० ३३८ ३१९ ३८२ ३५१ ललितो मधुरः स्निग्ध: लालित्यं कोमलत्वं च लाश्चतुर्दश चत्वारः लिखेद्दक्षिणसंस्थैवं लीनाकृति द्विरुच्चार्य लीलाकरणयत्याख्यौ लीला दलौ पः करण कुलितेन सकोणेन लेख्यपकृत्युपरिश्रेणी लोके मालवगौडोऽसौ लोके सालगगौडोऽयं लोलो व्यवहिताङ्गुष्ठः लोहजं जालक गर्भ लोहमय्योः सरिकयोः लौकिकैदिकैर्वापि लौ द्रुतौ प्रतिताल: स्यात् लौ द्वौ चतुती द्वौ लौ लौहीं कांस्यमयी यद्वा लौया सारिकया युक्तं ३६२ ३४२ ३७६ ३३८ पुटसंख्या ३५६ वंशचतुर्दशैवैवं ३५७ वंशश्रेणीमिमामाह ११५ वंशस्थैर्नवभी रन्ध्रः १६५ वंशस्य मुखरन्ध्रस्य २६५ वंशानामल्पमानानां १३७ वंशान्तरान्तरैस्तुल्यं १५४ वंशेऽधः सर्वस्न्धेभ्यः ४२. वंशे प्रहस्तृतीयोऽस्य १९. वंशे तुल्य: प्रकारा: स्युः ३८३ वंशे देशीस्थरागाणां ३८४ वंशे वसौ दण्डमानं ४०९ वंशेष्वस्यामपि प्रायः ४९२ वक्तुं तदुक्तरीत्या हि ४९५ वक्त्राभ्यां चर्मणी वृत्ते १२९ वक्त्रे फूत्काररन्ध्रस्थे १४९ वक्षोप्रे जानुनोमध्ये १४६ वक्ष्यते स्वरवीणात्र २८५ वक्ष्यामः स्वररन्ध्राणां २८९ वक्ष्यामहे मुनिमतात् वदनाभ्यां सह स्यातां वदन्ति वादनं तस्याः ३२९ वध्यप्रान्तातिरिक्शे ३५६ वः तदन्ध्रविन्यस्ते २३. वनमाली हंसनादः ३३८ वरो होडक्किकोऽङ्गुष्ठ ३५२ वर्णः पञ्चदशस्तद्वत् ३८९ वर्णग्रामविभागं च ३५६ वर्णभिन्नो हतौ लोगः , वर्णव्यक्तिः सुरेखत्वं ४५५ ३३६ ४९६ २२९ २४७ ३१६ १३६ ४१७ वंशं पूरयते तज्ज्ञैः वंशं प्रयुजीत भृङ्गारे वंश: पावः पाविका च वंश: सप्तदशो लक्ष्म वंशपद्धतिरेषा च वंशवद्वादयेद्वन्ध्र वंशवीणाशरीराणां वंशवीणीशरीराणि २६६ २६३ .४६८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ संगीतरनाकरः पुटसंख्या ४६० ४८३ ४०६ ૩૮૮ ४१४ ३८९ २८७ वर्णा दिगिदिगीत्येते वर्णानां टिरिकीत्येषां वर्णानुकर्षणं ताल वर्णालंकारधात्वादि वर्णालंकारनिष्पत्तिः वर्तुल: सरल: लक्षण: वर्धन्ते च हसन्ते चेत् वर्धमानाङ्गमित्यन्ये वर्धमानासारितं तु वर्धमानासारितानि वलये तान्गुणान्सम्यक् वलिश्च वल्लिपाट: स्यात् वल्लीजं तर्जनीस्थौल्यं वसन्तो न्मौ विरामन्त वसुरष्टाकुल: प्रोक्तः वसुवंशे तु दण्डस्य वसौ वंशे यवार्धन वस्तुत: सर्वयन्त्रेषु वस्तुमात्रैरनियुकं बस्तूनां भिन्नवाक्यत्वे वस्तूनामेकवाक्यत्वे वस्त्वविह गीताङ्ग वा इत्यन्ते मुखानां स्यात् वांशिकानामिति प्रायः वांशिकस्य गुणानेतान् वांशिकस्येति दोषाः स्युः वाम्छानुगौ दृढौ व्यक्ती वादकैः प्रेक्षितमुख: वादको दर्शयाये पुटसंख्या ४६५ वादकोद्धोषगम्भीरः ४४० वादको वादकर्ता स्यात् ७. वादनं करयुग्मेन ३३. वादनं कुडुपाभ्यां तु ३२८ वादनं नखराग्रेण ३१९ वादनं विविधं नाग ४२७ वादनीयं परे प्राहुः १०७ वादनेन समुदभूतं ११४ वादयित्वा प्रहतत्तय १२४ वादयित्वा निषादं च ३९३ वादयित्वा यति मध्ये ४१८ वादयेकिनरीवीणा ४८१ वादयेलघुहस्तत्वात् १५३ वादे च वादनं कार्य ३२१ वायं दक्षाध्वरध्वंस ३३३ वायं पक्षिरुतं चेति ३४७ वाद्यं विच्छिद्य विच्छिद्य ३१४ वायखण्डस्तालकला वाद्यतन्त्रीततं वाद्यं वाद्यते किरिकिट्टेति वायते गुरुमुख्यायां वाद्यते छण्डणोऽन्ते च ११५ वाद्यते यत्र सा प्रोक्का ३६१ वाद्यते लद्वयं तज्ज्ञैः ३६. वायप्रबन्धस्तद्भेद वायस्यैते गुणा: प्रोक्ताः वाद्यानामुभयेषां स्यात् ४६६ वाद्यान्तरेष्वपि प्राः २६४ वाथान्यतस्ततस्तानि २३१ २४४ ४४९ ४६३ २५० ४४४ ४२४ २५० ४२७ ४९७ ४१८ २३२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४८४ २३३ २८७ ४५३ १ ४४० ४१२ ३६७ वाद्यान्याश्रावणादीनि वाधावनहनार्थ तद् पाये समस्तभेदशः वायैकदेशवर्गान्तं वामश्वेच्छलितो हस्त: वामास्य कवलान्तःस्थ वामस्य चरणस्यापि वामस्य तिसभिस्ताभिः वामस्य मध्यमाहुल्या वामस्थानामिकाहुल्या वामस्यानामिकावाः वामहस्तधृता साच वामानुष्ठाग्रभागेन वामाहुछेन तूधि: वामास्ये दक्षिणस्थेन वामेन तलहस्तेन वामेन धारयेच्छक्ति वामेन पीडनाद्वाये वामेनादाय तत्कोणे वामेनायं निबद्धं चेत् वामोरुमूलाकान्ताग्रं विकट: सदृश: पाट विकल्पो बहुधा सेषु विक्षिप्ताख्या पताका च विक्षेपोऽधस्तलस्यास्य विमिका वाद्यशानेऽस्मिन् विजयानन्दसंझे तु विजयो बिन्दुमालीच वितस्तिमात्रं दैर्घ्य स्यात पुटसंख्या ३५६ वितस्तिमात्रदैर्ध्यः स्यात् ४८८ वितस्तिमात्रा स्यात् ४९८ वितस्तिस्तद्द्वयं हस्तः ४५४ वितस्त्यभ्यधिका देये ४०९ विताल: स्याद् द्वतलयः ३९३ वितालस्त्वादिमध्यान्त ४१७ विदारी स्यात्तृतीयान्ये २८७ विदारीणां भवेदत्र २४१ विदारीभागयोः साम्यात् ३२६ विदार्यः स्युः स्तुतिपदेः २८४ विदार्योः पदवर्णादि ४८२ विद्यावन्तः स्वयमये ३८९ विद्युदिलासो भणितः २५९ विधाय तं पुन: प्रोच्य ४७४ विधाय तुथुकारेण ४२. विधाय वादको वाय ४९० विधाय सप्त रन्ध्राणि ४१० विधायाङ्गुलिसंचारौ ३१७ विधायाचनिकामेकां ४२३ विधिनैककलायेन ३१६ विधिर्विषमकोष्ठोक्तः ३९० विधेयो विविधो वेण्या १०४ विपञ्च्यादौ यदा त्वस्याः ६ विभकाङ्गमध्यवर्ती ५ विभक्ताङ्गेषु तेषु स्युः ४७६ विश्रान्तौ रङ्गसंस्थानां १४८ विरलपातितारत्वात् १३७ विरलाललिभिर्वाचं ४७८ विरामादिद्वतौ द्वौ च ३९१ ४८. २१४ २५. ११३ १११ २३१ ३२३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ विरामान्तं बुधैरुका विरामान्तं प्लुतौ च विरामान्तद्रुतद्वन्द्व विरामान्तौ द्रुतौ बिन्दुः विलम्बिते गीतलये विलम्बिते तृतीयेऽथ विलम्बिते द्वितीयेऽथ विलम्ब्य कम्पयित्वार्ध विलम्ब्य कम्पितं कृत्वा विलम्ब्य चाहतं कृत्वा विलम्ब्य तं द्रुतीकृत्य विलम्ब्य तदधःस्थं च विलम्ब्य तुर्यमान्दोल्य विलम्ब्य स्फुरितं तु द्वि: विलम्ब्यातोऽवरोहेण विवादिनोऽल्पकान् कुर्यात् विविधः प्रतिवस्तु स्यात् विविधचतुरश्रे स्यात् विविधाभ्यां वैककाभ्यां विविधोऽन्तिमस्त्वन्ते विविधोऽस्याद्यभागे स्याद् विविधोऽस्याद्यमङ्गं स्याद् विविधो द्विविदारीक: विविधो वा त्रिधान्तोऽथ विविधो वा प्रवृत्तं वा विविधो वैककं वज्र विविधैकैक संयोगः वित्तः स्याद्विदारी तु विशाला चेन्नव कला संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या १५५ १५५ १४३ १५६ २६४ ३६२, ३७७ विशाला संगता वाद्या विशालाद्या संगता च विशालायां संगतायां विशिष्टो धातुना तेन विशेषः कथ्यते त्वेष विशेषोऽयं भवेदस्मिन् ३८६ विशेषोऽयमिहान्यतु ३७३ विश्रान्तियुक्तया काले ३०७ विश्रान्तौ रङ्गसंस्थानां ३६९ विश्लिष्टाङ्गुलिसंचारं ३७९ विश्वमूर्तिवदन्यत्तु ३११ विश्वमूर्ती दण्डमानं ३०५ विषमायामूर्ध्वपङ्कौ ३७२ विषमोर्ध्वश्रेणिसंस्थे ३८० विसर्जिता बहिर्याता २७५ विस्तारकरणाविद्ध ३८ विस्तारजश्च संघात: ९२ विस्तारधातुना हीना: ७३ बिस्तारधातुभेदानां विस्ताराविद्धकरण ४१ ७२ विस्तारो हस्तमात्र: स्यात् ६९ विस्तीर्णनादभेदत्वात् ३४ वीणादण्डान्तककुभ ७० वीणावाचं मानताल ९७ वीणाशीर्षादधस्ताच्च ९२ ९६ ३४ १२० वृत्तं च त्रिविदारीकं वृत्तं तिषश्वतस्रो वा वृत्तं संहरणेऽत्र स्यात् वृत्तस्थानस्थया नाभ्या पुटसंख्या ११८ ११५ ११७ २६० २२१ ३९४ २९४ २४ २३१ ४०९ ३४४ ३३९ १८१ २१४ ६ २५१ २५१ २७३ २६५ २७८ ४९५ २५३ २८९ २८० २८९ ८३ ६७ ७० २३६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ पुटसंख्या २८७ ११७ २६७ २६९ २६९ बृत्तित्रयेण वाद्यैश्च वृत्तिर्गुणप्रधानत्व वृत्ते नवाङ्गुळे गर्भ वृत्तेन व्यङ्गुलस्थूल वृद्धस्य वृषभस्यास्य वेगात्कृत्वाथ तुर्य व वेणावपि तदिच्छन्ति वेणी तथा प्रवेणी स्यात वेष्टनाय कटे: कच्छा वैचित्र्यात्वापि विश्रान्तः वैणव: खादिरो दान्तः वैणवी यवविस्तारा वैपश्चिकाद्याः कुर्युश्चेत् वैहायसं विधातन्यं बैहायसादिनियुक्तं वैहायसे तु निविशा व्यक्तं प्रगल्भते वक्तुं व्यकमुक्ताङ्गुलित्वेन व्यकुष्टो दक्षिणो हस्त: व्यन्नद्गीतगतं गीतं . व्यत्ययाद्वधातौ हस्तौ व्यस्तैः समस्तै रचितं व्याख्पाता ढवसेनैव व्यापकाक्षरमिश्रस्तत् व्यापकाख्यैः षोडशाभिः व्यापारा दक्षिणस्येति श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या २८१ शकुं तं भ्रामयेत्तावद् २६२ शङ्खमार्गोऽसंक्षेपः ४७५ शङ्खादयश्च वाद्यस्य २३४ शतालप्रान् प्राहुरन्ये ४८८ शताशतासंनिपाता: ३७१ शताशतासमित्येक २६४ शद्वयं ताद्वयं शम्ये ८८ शनिता माषघाते स्युः ३९३ शम्यातालं द्विरन्ते च २५३ शम्यात्रयं ततस्तालाः ३१९ शम्यात्रयेण प्रथमा २३६ शम्या दक्षिणहस्तस्य २५१ शम्या द्या तृतीया स्यात् ६८ शरीरे चतुरश्रं वा . ७६ .शरीरे प्रतिपादान्त्य ७५ शरीराद्यकलाषट्के ३३९ शरीरे प्राक्कलास्तिक्ष: ३२५ शाखाया: प्रतिशाखाया: ४०९ शाखाध पश्चिमं त्वाह २८३ शाखावरा षडशा स्याद् शाखा वस्तूच्यते तस्याः शाखेव प्रतिशाखा स्यात् ४७४ शाखेव प्रतिशाखोक्ता ४४७ शादेव: समाचष्टे शाङ्गदेवे हतद्वन्द्वं २३९ शाहदेवोऽन्यथा वंश: शाईदेवोऽन्यमानेन शास्रेण तेन कस्यापि २९६ शिखरं निर्मितं धातु ३५२ १५९ ३३९ ३४५ ३३६ शक्ता विवेक्तुमत्रापि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरमाकरः पुटसंख्या २१८ ३५६ १३४ ४९५ ३९३ ३८६ २९२ ४१२ ३२५ ४१७ पुटसंख्या शिरःप्रान्तौ पृथग्जाति ३३५ शेषा द्वादश ला: खण्डै; शिर:सुषिरविन्यस्त ४९३ शेषेऽवाश्रितपक्त्यङ्क शिववक्त्रोत्यपाटानां ४०. शेषेषु द्वे चतस्रोऽटौ शिवस्तुतौ प्रयोज्यानि २९ शोकार्तेषु प्रयुजीत शिवे निग्धे घनो नादः ४९० श्रीकीर्तिविजयानन्दं शीतोदकास्तथा सान ४२८ श्रीनन्दनश्च जनकः शीतोदके निशामेकां ४८८ श्रीपर्णी रुजः पट्टः शीर्षकं गीतकान्ते स्यात् ९८ श्रीयज्ञपुरवर्येण शीर्षककळेन स्यात् ४६ श्रीरागस्य सुधैः प्रोकं शीर्षात्परो माषघात: ८९ श्रीशाईदेवोपदेशात् शुकवक्त्रः स्फुरितक: २४५ श्रीश्रीकरणनाथेन शुक्तिकां किंचिदुन्निद्र ३८९ श्रुतिद्वयं त्वर्धमुक्के शुक्तिस्त्र्यङ्गुलविस्तारा ४९. श्रुत्यादिक्रमतो गीत शुद्धकूटादिभिर्बद्धः । ४४६ श्रेष्ठः पाटहिकः सश्चात् शुद्धसालगगीतानां ४६७ श्लक्ष्णं व्यङ्ग्लविस्तारं शुद्धचित्रैः कमात्पाटः ४२१ श्लक्ष्णः समः सुवृत्तश्च शुष्कं गीतानुगं नृत्त २३१ लक्ष्णां नायुमयीं तन्त्रीं शृङ्गं यन्माहिषं श्वणं ३९० श्लिष्टा तन्त्री यदोत्प्लुत्य राजा दारवी वा स्यात् ३८८ श्लिष्टा वस्त्रमषीमिश्रा श्यास्यानडुहस्याथ ३९. श्लेष्मला चेति तत्र स्यात शेषं तु पूर्ववद्दण्डे ३४७,३५३ श्लेष्मला वय॑ते शके शेषं तु पूर्ववद्वंशे ३३३, ३४२, ३४६ शेषं तु पूर्ववलक्ष्म ३५३ शेषं तु मुनिवडण्डे ३४७ षट्कोष्ठास्तद्वदन्ये स्युः शेषं प्राग्वदथादित्ये ३४८ षट्चत्वारिंशता पाद शेषकोष्ठाः परासां तु १८७ षट्तालवान्तरकीडा शेषकोष्ठेष्वन्त्यतुर्य १८४ षट्त्रिंशदालं चक्रे शेषस्थानेष्वानिविप्रान् ८५ षट्पितापुत्रकस्थ्यश्र शेषाङ्गुलीः प्रसार्योर्ध्वात ४८३ षट्सप्ताटाला वंशाः ४९४ २८२ २३६ २३८ २८५ ४८६ १९५ ३३९ १३७ २९१ १ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्वरान् ग्रहमुच्चार्य षट्स्वेवमन्य वंशेषु षडङ्गुलं शिरस्त्वस्य षडङ्गुलः षण्मुखः स्यात् षडङ्गुलायतं साध षडङ्गुलोऽत्र परिधिः षड्जं तु स्थायिनं कृत्वा षड्जग्रामस्थजात्यंशे षड्जतः स्थायिपर्यन्तात् षड्जाद्युक्ति: प्रसज्येत षड्जे हे द्वितीयं च षड्जे हे ममाहत्य षड्जे चेन्न्यस्य गौड षड्जोऽन्यो वा स्वरो वंशे षड्लोऽन्तगुर्नीरटितः षड्विंशत्यङ्गुला दे मुख यवपादाभ्यां षष्टङ्गुलपणाहं षटलो मध्यदेशः षष्ठं कृत्वावरु मौ षष्ठं च पञ्चमं कृत्वा षष्ठं यवद्वयन्यून भागविहीनं स्यात् षष्ठांशोनं मध्यपर्व षष्ठान्तः सप्तमान्तो वा षष्ठी वा सप्तमी मात्रा षाण्मासिकस्य वत्सस्य बाण्मासिको मृतो वत्स: षोडशालको मध्य श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ३१० षोडशांशाधिकं तस्य ३२३ षोडशांशाधिकं माने २८८ षोडशांशाधिका मान ३२१ षोडशांशोन पादेन ४९२ षोडशांशोनितैः साधैः २८८ ३०८ २७९ संकरात्करपाटानां संख्यानियममेतासां २९६ ३०० ३७१ ३६५ ३१२ ३६६ २५७ ३३३ ३४८ ३६९ ८५ ४८७ ३९२ ४७९ संख्यायन्त इति प्रोकाः संख्यैषा मेरुकोष्ठाङ्क संखोदना चतुर्थी च संगता षट्कलमुखी संघातजे ये चत्वारः संचारविखली खण्ड ४८१ संदिग्धपत्रिका तन्त्री ३३२ संधिश्च चतुरश्रं स्यात् २३५ संनिपातचेति कला: ३९२ संनिपातस्तु नास्त्यत्र ३११ ३६३ २९.३ स संनिपातसमाप्तीनि संनिपातस्त्वर्धगण: संन्यासेंशेऽथवा न्यासः संपक्केष्टाकतालं च संपक्केशकवद्यद्वा संपक्केष्टाकस्य कला: संपष्टेष्टाकोऽपि भेद: संपन्नत्वात्तदन्यास्तु संपिष्टकं ततः कार्य संपिष्टकं तथा वेणीं ५५१ पुटसंख्या ३४१ ३४४ ३५३ ३३५ ૪૪ ४१६ ३५ १६६ २०८ २६५ १२१ २५४ ३९७ २३६ ८८ ७५ २० ११० ११२ ३२ २७७ २७७ २० १२ २४८ ८९ ८५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ संपिष्टककलास्त्वत्र संपिष्टके कलाः प्रोक्ता: संपिष्टके निशम्यास्त्रि: संपीडनं वादयेत् संभवः स्थायिना येन संयोगमेरावूर्ध्वाः स्युः संयोगविप्रयोगाम्यां संवेष्टय कीलकेऽन्तःस्थे संवेष्टय नागपाशेऽस्मित् संस्थाप्य मार्गपटह: संहताभित्र याकार स एव तालो द्विकल: स एव मालवीत्युक्तः सकलं निष्कलं चेति सकृत्तच्च प्रयोक्तव्यं सकृत्तारोऽथ मन्द्रो द्विः सगणद्वितयं यत्र स च स्यात्कर्तरीयुक्तः सजातीयविजातीय सञ्चाभ्यां मणिबन्धोत्थ सत्वङ्गुल्तृतीयांश: स तृतीयांश कुलं स्यात् सत्यन्तेऽस्त्येव स द्वेधा सदसत्त्वे प्रतिनिधेः सद्योजातान्नागबन्धः सद्वात्रिंशांशपादोन सद्वितीयं कम्पयित्वा सन्ति द्वाविंशतिर्वंश सन्त्यन्यान्यपि वाद्यानि संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या २७७ सपाटैर्बद्धखण्डा या पार्वति यत्र " ९३ सपादं षोडशांशेन ४११ सपादत्रितयं मानं ३८६ सापादद्वियवी मानं १९१ सपादमङ्गुलं जाति ३९५ सपादमसुलं मानं २३६ सपादमकुलं शेषं पादमस " ३९५ सपादयवपादोन ४७५ सपादयवसंयुक्त ११८ सपादषोडशांशोन ३१२ २४६ सपादाङ्गुलकं जाति सपादाङ्गुलक स्थौल्ये ४३१ सपादाङ्गुलमात्रा तु २५५ सपादानि चतुस्त्रिंशत् १४८ सपादानि त्रयस्त्रिंशत् २९० सपादावन्तरालेषु २५६ सपादेन तु पादेन ४१७ सपादैः सप्तदशभि: ३५५ सपादैरष्टमांशेन २९१ सप्तद्वयमेवं स्यात् सप्तकस्य द्वितीयस्य ९१ १८५ सप्तत्रिंशद्यवार्धेन ३९७ सप्तमं तु यवोनेन ३४६ सप्तमांशविहीनं स्यात् ३६८ सप्तमान्ततृतीये स्यात् ३४५ ४९६ सप्तमान्ताः प्रजायन्ते सप्तरन्ध्रान्वितं कृत्वा पुटसंख्या ४५१ ४५० ३५० ३३१ ३५३ ३४५ ३३३ ३४७ ३५४ ३५३ ३५४ ३५० ३३३ ४६९ ३१५ ३३४ ३४३ ३४७ "" ३५३ ३४८ २९२ २८५ ३३४ २९५ ३४३ ३६८ ३२४ ३९२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तसप्तच्छिद्रयु सप्ताङ्गद्वादशाङ्गत्वे सप्ताङ्गमवरं ज्ञेयं सप्ताङ्गुलं दक्षिणास्यं सप्ताकुलमुखद्वन्द्वात् सप्ताङ्गुलादिवंशेषु सप्तानामन्तरालानां सप्तान्तराण्यधस्तारात् सप्ता देवमुनयः सप्तेत्यथ स्वस्तिकजा: समं करतलाभ्यां तु समं च करटाटीपि समं पादपा समकाया सेल्लुका स्यात् समत्वं पाटवर्णानां समन्तात्सर्वरन्ध्राणि समपाणिरविश्रान्त समपाणिश्च विषम समपाणेस्तु विरल समप्रहारः कुडुव समप्रहारो युगपत् समवष्टभ्य वामेन समस्खलितकस्याद्यः समस्तनष्टवच्चात्र समस्तनष्टवनष्टं समस्तलघत्रः सर्व समस्तहस्तवाद्यं तु समस्तोद्दिष्टवत्प्रोक समाप्ता पदवर्णान्ते 70 श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४७५ समाप्तार्थन्यासयुक्तं ९० समश्च विषमानादं समाश्लिष्टधनश्लक्ष्ण समा सर्वत्र खानिः स्यात् ४८२ समा स्रोतोगता चान्या ३३७ समां छोतोगतां तद्वत् ३४२ ९६ ३९४ समुश्चार्य स्वरं तुर्य समुत्थिते वानुलोम्यात् 33 ४९६ समुदायो निजैः पाटैः ३९७ समे त्वन्त्यं विनैतेषां *•૮ समोऽतीतोऽनागतश्च समो गुरु ૪૪૬ द्वौ लघ्वन्ते ८८ समो लौ द्वौ विरामान्तौ सम्यक्स्वरोपयोगीनि ४८१ ४१० सयवार्धालद्वन्द्वं ३२९ सरन्ध्रषट्कं रन्ध्रस्थ ४१२ सरन्ध्रे कवले रन्ध्र ३९९ सर्पाकृतिरथो निम्ना ४०८ ४१८ ४२१ ४११ ३९८ २१८ २१२, २२१ सर्वत्र परिहारोऽयं सर्वमन्यत्तु वंशानां सर्वदेवमयी तस्मात् सर्वद्रुतावधिः कार्यः २१३ ३४ सर्वद्वतान्ता ज्ञायन्ते सर्वद्रुतान्ता मीयन्ते सर्व प्रस्ताव तेषां १९३ सर्वमासारितं तत्र २४६ सर्वलान्ताः क्रमाज्ज्ञेयाः सर्ववंशेषु तारस्य सर्ववाद्यानि वाद्यन्ते ५५३ पुटसंख्या ५४ ४६७ ४५० ३४० २६ २६२ ३६३ ४६७ ४५३ १८० २७ १५१ १४९ ३१७ २९३ ४८१ ४७५ ४९५ ३०१ ३५५ २३७ १६१ १८२ " २०६ ११३ १८६ ३५२ ४२३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या २९२ २८५ ३४२ ३३० ३४८ ३४७ ३९२ सर्वाङ्गयुक्त नियुक्तं सर्वाकुल्यप्रघातश्च सर्वातोद्यानि वाद्यन्ते सर्वाभिस्तिमुभिस्तासां सर्वेषामपि वंशानां सर्वेषु स्युर्यथायोग सर्वेष्वेतेषु वंशेषु सर्वोद्दिष्टवदुद्विष्टं सशब्दा तु ध्रुवा लेया ससूत्रकटकं रन्धं सस्वरत्वास्वरत्वाभ्यां सस्वरैरस्वरैर्युकैः सहितं मानमाख्यातं सा च प्रासादसंवद्धा सा चाकरिष्टतालस्थ साच्चतुर्लघुनिःशब्दः साञ्चल द्वितयां पट्ट सा भूपाली श्रुता लोके सा सर्वदेवता तज्ज्ञैः सामानानि च भूयांसि सामुद्गश्चार्धसामुद्रः सारणात्सारणेत्युक्ता सारिकामस्तकन्यस्ता सारिकायाः शिरोमूले सारीककुभयोर्मध्ये सारीणामथवा वस्त्र सारीमस्तकमध्यानां सार्ध यवाधिकं तस्य सार्धत्रयोविंशतिः स्यात् पुटसंख्या ३० सार्धम्यकुलविस्तार ४०३ सार्धत्रिवस्तुपये तु २३१ सार्धव्यङ्गुलविस्तार: २४० सार्धपञ्चयवं मानं ३५० सार्धपञ्चयवे माने ४८६ सार्धपादाधिकैः शीर्ष ३२४ सार्धपादाधिकरुक्का २२३ सार्धहस्तद्वयं तस्य ६ सार्धाखल: स्यादुत्सेधः ४८२ सार्धाङ्गुलं त्वष्टमं स्यात् ३९५ सार्धाकुलं पृथङ्मानं सार्धानुलकमेकैकं ३३५ सालद्वयं मान ४९२ सार्धाङ्गुलद्वयमितौ १६५ सार्धाकुलपरीणा १४७ सार्धाङ्गलास्ता: परिधौ ४५६ सार्धाबुलौ शिरःप्रान्तो ३७३ सार्धन यवपादेन ४९२ सार्धेन षोडशांशेन १३१ सार्यते कम्रिकावार्य ३४ सावधानमनाश्चेति २३८ सिंहे लदौ लत्रयं च २८७ सुघनाः सूक्ष्मजातीय २८९ सुबलश्लक्ष्णसूत्रोत्थं २८७ सुमुखीकण्डिका पश्चात् २९१ सुमुखी च सुनन्दाद्या २९. सुरागव्यक्तिमाधुर्य ३५. सुवृत्तः सरलो दण्ड: ३४६ सुवृत्ता मसृणा तुम्बात् ४८९ २९५ ३३४, ३५४ ३४८ ३३२, ३४० ३५५ २३३ २९५ ३३१ ३४५ ३५५ २४६ ३१८ १५७ २३६ १२३ ११८ ३५९ २३३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिक्षितेन रचितात् सुषिरं पटहं तस्य सूक्ष्मश्चात्र भवेन्नादः सूत्ररज्ज्वा हस्तमात्रा सेल्लुका झल्लरी भाण: सैकच्छिदं वामवक्त्रं सोऽत्र कार्यनिरावृत्तः सोऽधस्तन: स्वपक्तिस्थ सोऽवपाणिरतीत: स्यात् सोका परिश्रवणिका सोदाहरणलक्ष्माणि सोपोहना सुनन्दादौ सोल्लासाजायते वल्लि सौत्रैर्गाढं निबध्येते स्कन्धकूपरसश्चात्तु स्कन्धकूपरयोस्तद्वत् स्कन्धसञ्चाच संजातं स्कन्धे निक्षिप्य कच्छान्तं स्कन्धेन मणिबन्धेन स्खलितो मूर्च्छनाख्याश्च स्खलितो मूर्च्छना चाथ स्तोमभङ्गी विजानीयात् स्थानत्रयस्य निष्पतिः स्थापयित्वा परा: षट् च स्थापयेदन्तरे किंचित स्थायितुय च कृत्वास्मात् स्थायिनं तत्परं चोक्त्वा स्थायिनं तद्दलं चोक्त्वा स्थायिनं द्विगुणं षड्ज श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ५५५ पुटसंख्या पुटसंख्या ३२७ स्थायिनं मध्यगान्धार २३२ स्थायिनं मध्यमं कृत्वा ३०८, ३६७ २४७ स्थायिनं मध्यमं मन्द्रं ४८२ स्थायिनं मध्यमृषभं ३०४ २३. स्थायिनि द्विगुणे षड्जे ३७१,३७५,३७९ ४७६ स्थायिनि न्यस्यते यत्र ३७५ २७४ स्थायिनि न्यस्यते रागः २१८ स्थायिनोऽधस्तुरीयं च ३१२ २८ स्थायिनोऽर्धात्समारुह्य ३७५ ४२१ स्थायिनो धैवतात्पूर्व ४४८ स्थायिनो धैवतात्याच्यात् ३१३ १२२ स्थायिनो मध्यमात्पश्च ३१० ४२२ स्थायिन्यासाद्देशवाल ३८३ ४८. स्थायिन्यासाद्भवेदाचं ३६२ ४१७ स्थायिपूर्वान्तरमागत्य ३०५ ४१६ स्थायिस्वरान्तं यत्रादः ३६० ४१४ स्थाय्यन्तमवरोहेश्चेत् ३०२,३०० ४७४ स्थाने तु पश्चमस्याध: ४२२ स्थितं प्रवृत्तमपर २४५ स्थिततालयुतं तस्य २४४ स्थितप्रवृत्तिहीनोऽयं १३१ स्थितेन पत्रिकाधार २३४ ३२७ स्थूलहस्तोऽधिपाणिः २८६ स्थौल्येऽष्टमिता गर्भ स्थील्येनालापिनी तुल्ये ३१६ ३१२ मायुमासविहीनं च ४८८ ३१२ स्निग्धता घनता रतिः ३५७ ३८२ स्पर्शोऽष्ठकनिष्ठाभ्यां ३६९, ३८५ स्पष्टतारमुपेतं यत् २४५ २४३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ संगीतरनाकरः पुटसंख्या ४६० ४०९ ३१९ ३४५ ३३२ ३७८ ३०८ २३८ २४३ स्पृष्टा ग्रहात्परं पूर्वी स्पृष्ट्वा ग्रहद्वितीयौ च स्पृष्ट्वा यदा ग्रहे न्यासः स्पृष्ट्रा विलम्ब्य द्वितीये स्पृष्ट्वा स्थायिनमेतस्मात् स्फुठप्रहार: सुभरं स्फुरितः खसितश्चेति स्फुरितं प्रहतत्पूर्वी स्फुरिते कम्पिता तन्त्री स्फुरितर्मूर्च्छनासंज्ञैः स्फुरी स्फुरणकश्चेति स्यातामलगपाटौ द्वौ स्यात्तदासमं ताल स्यात्तदर्धपलो भाण: स्यात्पादः प्रतिपादश्च स्यात्सप्तविंशतिः सार्ध स्यादक्षरसमं गीत स्यादस्माधुद्धवीराणां स्यादावापोऽथ निष्काम: स्याद्रा मूर्च्छनादीनां स्याद्दशाकुलदैयेण स्याद्धस्तदेय: परिधी स्याद् द्वादशकलं खण्ड स्याद्रूपशेषमोघश्च स्यादेफः स्कन्धसञ्चेन स्याद्वर्णसरबद्धो वा स्याद्वितस्तित्रयं ध्ये स्युरारोहावरोहाभ्यां स्रोतोगताख्यया यत्या पुटसंख्या ३१३ स्वपक्षसाधनं तद्वत् ३११ स्वपङ्क्तिस्थालिंखेदकान् ३०८ स्वपुटं पीडयेद्वामः ३८५ स्त्रैदेय॑मानदैर्ध्य च ३१२ स्वमतेऽभ्युपगम्यन्ते ४९७ स्वमानाद् दृश्यते तार २३९ स्वरत्रयं विरम्याथ ३८२ स्वरदयं द्विरारुह्य २४१ स्वररन्ध्राण्यामुयाता २४५ स्वरस्फुरणकोत्फुल्ल ३९७ स्वरस्थाने कम्पनेन ३४९ स्वरस्थाने द्रुतं कम्रा ४९७ स्वरा: परे स्युः सारीणां ४८२ स्वरागयोनिजातेस्तु ८७ स्वराणां किंतु वैणानां ३४७ स्वरार्ध स्यादूर्वतया ४९७ स्वरो वंशे द्वितीयोऽस्य ४८५ स्वरो द्वितीयो जायेत ४ स्वरोदयेऽप्यनुलयः २४८ स्वस्थानप्रक्रियेवेष ४७८ स्वस्थानं प्रथमं तोड्याः ४७३ स्वस्थानं प्रथमं प्रोकं २७२ स्वस्थानमादिमं राम २४९ स्यस्थानमायं भैरव्याः ४१२ स्वस्थानमायं मल्हारे ४३९ स्वस्थानवदपस्थाने २८५ स्वोद्ग्राहे यत्र मुक्तिस्तत् २७१ ४५१ हंसनाद: सिंहनादः २९२ ३२ २४७ ३५० ३८६ ३२४ ३५१ ३६२ ३८० ३७८ ३८२ ३६० १४६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ५५३ ४१२ ३८९ १३२ पुटसंख्या १४३ हस्तेन विततासष्ठ २४. हस्तोद्भवाः पाटभेदा: २५९ हस्तौ न कुण्डली लमौ ४९८ हाहूवर्णवती वीर ४७८ हिंकारोंकारयोस्तत्र ३८९ हुंधुंथो दिगिदित्येतत् ३९. हुडक्यै व घहस: ३८८ हुडुक्कायवनद्धानां २३३ हुडुक्का सा बुधैः प्रोक्का ४५. हुडुक्केवार्गला होना ४१५ हेतू मन्द्रस्वराणां तो ४१० हंसलीले विरामान्त हननं छिन्नमाचष्टे हन्ति त्रिस्थानकं तन्त्री हस्तकोणप्रहारज्ञः हस्तघातेन डंकारः हस्तत्रयमिता देये हस्तद्वयकृता या सा हस्तद्वयाधिका माने हस्तयोश्च गुणानत्र हस्तलाघवसंपक्ष: हस्तवैषम्यसंजातः हस्तान्तरं ततो भिन्न . . ८ ८ ८ 5 ३२९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મ अंशः, ३२, ६८, २५१, ३८१ अंशकः, २६३ अंशादिः, ३४१ अंशान्तः, ४१ अंशे, ३५ अकृतार्थः, १९८, १५९, २०८ अक्केश:, ३१७ अक्षरः, २४, ३४ अक्षरम्, २६३ अक्षरराद्यङ्गसमम् ४९७ अङ्कप्रक्रिया, १९५ अङ्कयोजनाः, १८० APPENDIX II विशेषपदानामनुक्रमः अङ्कश्रेणी, १३७ अङ्कान्, १७७ अङ्गः, ४२८, ४५२ अङ्गपाटः, ४२०, ४५४ अङ्गरूपकः, ४२८, ४५२ अङ्गसमः, ४९७ अङ्गुलिकुचनम्, ५ अङ्गुली, ४३ अवनिका, ४८०, ४८३ अवनी, ४७६, ४७७, ४७९ अञ्चलः, ४५६ अड्डखली, ३९७, ४०२ अडतालिकः, १३७ अडताली, १५८ अस्खलितः, ४०२ अड्डावजम्, ३९५ अतिकीर्णः, २५८ अतिपातः, २५२, २५८ अतिमन्द्रध्वनिः, ३११ अतीतः, २७, २६२, २६९ अतीतग्रहः, २६८ अधमः, ४१७, ४९० अधरमध्यः, २५६ अधरान्तः, २५२ अधरादिः, २५५ अधराद्युत्तरः, २५२, २५४ अध्वनी, ३५६ अनङ्गः, १३७, १५१ अनडुहः, ३९० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः अपन्यसनम् , ३२ अपन्यासः, ६८, ४९७ अपरान्तकम् , २९, ४९, ५४, ८८, ८९, अनागतः, २७, २८, २६२ अनागतग्रहः, २६७ अनामा, १८, २४०, २४२, ३२६ अनामाहुली, २३८ अनामिका, ३२६ अनियुक्तः, ३० अनुगतम् , २६२, २६३ अनुग्रहः, ३८६ अनुच्छालः, ३९८,४०२ अनुबाहः, १३२ अनुपमा, ३४५ अनुबन्धः, २५२, २५६, २५७, २५८, २६० अनुबन्धकः, २५२ अनुयायः,४९६ अनुवादी, २५२, २७९ अनुवृत्तिः , ४६८ अनुश्रवणिका, ४२४ अनुस्वनितम् , २५२, २५९ अन्तः, ७०, ९१, ९३, १०२, ११७ अन्तरः, ४२८,४५० अन्तरपाट:, ४२८, ४५० अन्तर्मुखः, ४६६ अन्तान्तः, ७६ अन्ताहरणम् , ७०,७६, ७८,८८, ९१, ९५, १२५, १२८ अन्तरक्रीडा, १३५, १५६ अन्ये, ११३, १२८, २६७, २७७, २७८, ३८० अन्यैः, १५४ अपरे, ११३, २५८, २७४, २८४ अपवर्ग:, २३७ अपस्थानम् , ३६० अपाटः, ३९९, ४१५ अभमा, २३३ अभाः, १३७, १५२ अभिनन्दः, १३७, १५० अभिषेकः, २३१ अभिसृतम् , २८० अभ्यस्तः, ३९,४१५, ४४० अयुक्, ७०, ७३ अयुग्मः, २३, ७३, ९५ अयुग्मस्थित:, ८१ अरिभयंकरः, ४८४ अर्गला, ४६९, ४७९ अर्धकर्तरी, २३९, २४२, २४५, ३९९, ४१२ अर्धचन्द्रः, २३९, २४३ अर्धपल:, ४८२ अर्धपाणिः, ३९९, ४०६ अर्धमात्रः, १३८ अर्धमुक्ता, ३२८, ३२९ अर्धयवः, ३९५, ४८४ अर्धसञ्चः, ३९९, ४१४ अर्धसमः, ३९८, ४०६ अर्धसामुद्गः, ३४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अर्धार्धपाणिः, ३९९, ४०३ अशब्दकः, १४७ अलंकारः, २५३, २८१ अशब्दाः , १४६ अलगपाटः, ३९९,४१५ अश्वमेधः, ४९० अलमः, ३९७, ३९९, ४०१, ४१२, अश्ववालधि:, ३१५ ४१८, ४२१ अष्टकलम् , ९१ अलपद्मः, ४०४ असमः, १५१ अल्पः, ३५८ आ अल्पता, १३१ अवगाढम् , ६८, ९२ आकुश्चनम् , २३८ अवगुण्ठ्य, ३९२ आचार्याः, २८४ अवघट:,३९७,३९९,४०२,४०८,४२१ आताविशा:, ४२, ६. अवच्छेदः, ४३० आतोद्यानि, २३१ अवत्सकः, ४२८, ४४४ आतोद्यध्वनितत्त्वज्ञः, ४९८ अवधानम् , ४४४ आदिकामोदिका, ३७५ अवनद्धम् , २२५,२२७,२२८,२३३,४०८ आदितालः, १३६, १३९ अवनद्धगा:, २३० आदित्यः, ३२१, ३३४, ३४८, ३५४ अवपाणिः. २८, ९२ आदित्यवंशः, ३३५, ३४४ अवमृष्टम् , २५२, २६६ आधारगर्तः, २३४ अवयतिः , ४२८, ४५१ आधोरिका, २४६ अवरुप, ३१०, ३११, ३१२, ३१३ अनन्दघनम् , २२५ अवरुह्यते, ३६७ आनिविताः, ४२ अवरोहः, २७१, २८४, ३०२, ३०३, आनिविप्राः, ४२,६०, ८५, ९९, ७५ ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३१० आनिविशाः, ४२, ७५ अवरोहणम् , ३६५ आनिविसम् , ७५ अवरोही, ६८,३०९, ३१०, ३६५, आन्तरः, ३९४ ३६७, ३६८, ३६९ आन्दोल्य, ३०२, ३०५, ३०७, ३६५ अवरोध, २९६ आभोगः, १३२, ४४३, ४४६, ४५२ अवलेखः, २३८, २४० आद्रुमः, ४८३ अवान्तरा, ३४ आम्रपल्लवः, ४८८ अव्यवस्थितः, ३५८ आयसः, ३१९, ३९२, ३९३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः आरम्भविधिः, २६५, २७१ आरुश्य, २९६, ३०५, ३०७, ३०८, ३०९, ३१०, ३११, ३१३, ३६७ आरोह:, २७१, २७७, २८४, ३६७, ३६९ आरोहिणि, ३६७ आरोहिवर्णः, ६८ आरोही, ३१०, ३६८ आर्दचर्म, ३१७ आलप्तिः, ४६ १ आलापिनी, २२९, २८२, २८४, २८८ आवजम् ४७० आवापः, ४, ५, ६, १६, १९, ६० आविद्ध:, २५१, २५२, २५६, २५७ आविद्धकः, २७८, ४६८ आविद्धकरणः, २७३ आविद्धधातुः, २६१ आवृत्ति:, २४, ९८, ११३, २८१ आवृत्तिहीनम् ११३ आवेष्टय, ४८९ आशविता, ७५ आश्रावणा, २६५, २६७, २७०, ३५६ आसारितः, १४, १०६, ११२, ११३, ११८, १२०, १२४, २६५, २७९, २८१ आसारितानि, ११३ आसारिताभामम् ११४ आहतः, ३७१, ३७३, ३७५, ३७६, ३७८, ३७९, ३८१, ३८२, ३८५ आस्पृश्य, ३६९, ३८० आहवनी, ४३१ 71 इन्दिरा, २३७ इन्दुः, ३९७ इष्टकाचूर्णम्, २९१ इ हष्टताल:, १७८, १९१ इष्टस्थानम् ३६१ ईशानः, ४०२ ईशानवक्त्रात् ३९७ उ ५६१ उच्चय:, २५२, २५७ उट्टणम् ४२८, ४२९, ४३४, ४३६, ४५४ उडवः, ४१७, ४२०, ४२८, ४५३ उत्कक्षः, ४७९ उत्क्षिप्ता, २३८ उत्तर:, १२, ३९, ४१, ७२, १२७, १२८, २६९, २७३, २७८, ३५०, ३५१ उत्तराः, १०८ उत्तरादिः, २५५ उत्तरादिकः, २५२ उत्तराधरः, २५४ उत्तराधरान्तः, २५२, २९४ उत्तरेण, १६८, २७४ उत्तान:, २३६ उत्तुङ्गीकरणम्, ४११ उत्पातः, २३१ उत्प्रेक्षा, ४२८ उत्फुल:, ३९७, ३९८, ४०२, ४०४ उत्सवः, १५३, १५६, २३१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ संगीतरत्नाकरः उत्सारः, ३९५,४०१ उपशमः, ४२८,४३४,४३६,४४१,४४२ उत्साहः, २३१ उपालम्भः , ३३० उत्सृष्टसारणा, २४२ उपोहनम, ३१, ३३, ३८, ४१, ४६, उत्सेधः, २३६,४८९ ५४, ६०, ८२, ८५, ९६, ९५, उदरपट्टिका, ४६९ १००, ११०, ११२, ११७, ११८, उदीक्षणः, १३७, १५९ ११९, १२२ उदात्ता, २६१ उपोहनानि, ११०, ११३, ११५ उद्गीथकः, १३१ उभयी, २३८ उदाहः, १३२, ४२७, ४२८, ४३०, उमा, २३७ ४३०, ४३९, ४४२, ४४४, ४४६, उमापतिः, ३२१,३२९,३३१,३४१,३५२ ४५०, ४५२ उरःस्थलासन्नाम्, २३८ उद्धट्टः, १२, १९, २०,७१, ११८ उल्लेख:, २३९, २४०, २४४ उद्धट्टनपटुः, ४९८ उल्लोप्यम् , २९,७६ उद्दली, ३९४, ३९५, ४२०, ४६९, उल्लोप्यकम् , ६६, ६९, ७५. ७८, ७९, ४७३, ४८०, ४८१ ९१, १०२, १२७, १२८ उद्दिष्टम् , १६०, १७२, २११ उल्लोलः, ३९९, ४०५ उद्धतः, ४३१ ऊन:, ३५८ उद्धतम् , ४४३ ऊर्ध्वहस्त:, ३९८, ४०५ उद्भटः, ४८४ उद्वेष्टः, २४३ उघारम्,४६० ऋचः, २९, १३२ उन्मुखम् , २८२ ऋजुना, ४९५ उन्मृष्टम् , २५२, २५९ ऋषभः, २८४, ३०४, ३०५, ३०८, उपद्रवः, १३२ ३२६, ३६६, ३७०, ३८१ उपनयनम् , २३१ ऋषभस्वरः, ३०३ उपपातः, ८८, ९१, ९२ ऋषभादयः, ३२३ उपरिपाणिकः, २८ उपरिवाद्यम् , २४४, २४६ उपवर्तनम् , ५४, ५८, ६०, ८७, ८९, एककम् , ६९, ७०, ७२, ७३, ९२, • ९१, ९२, ९५, ९५, १०१ ९६, १२७, २७३ ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः एककल:, ९, १४, ३३, ४१, ४५, ४६, ओता, ४२८, ४३१, ४५० ७५, १०२, ४२६, ४३१ ओवेणकम् , ८७, ९३ एककलमद्रकम् , ३२ औदर्याम् , ४७६ एककलयुग्मः, २६९ एककला, ३१,५४, ६६ एककानि, १३१ कंदर्पः, १३६ एकतन्त्रिका, २४८ कंदर्पतालः, १४२ एकतन्त्री, २२९, २३५, २६४, ३१६ ककुभः, २३४, २३७, २३८, २८७, एकतालिका, १५२ २८२, २८५, २९१, २९३, २९४ एकताली, १३७, ४३४, ४३९, ४४० कङ्काल:, १३७, १५१, २४४, २४५ एकतायाः, १८२ कच्छा , ३९३, ४५६, ४७१,४७४,४७६, एकरूपाक्षरः,४२९ ४७९, ४८२ एकवक्त्रः , ४८४ कण्डिका, ११५, ११८, ११९, १२३, एकवस्तुकम् , ३४, ४६ १२४ एकवाक्यत्वम् , ३० कण्डिकावर्धमानम्, ११४, ११५ एकविस्तरः, २५३, २७१ कटः, ३९३ एकवीरः, ३२०, ३३०, ३४०, ३४२, कटी, ४७१ ३४५, ३४६, ३५२ कनिष्ठम् , १०६, ११०, १२० एकवीरादपः, ३४४, ३५५ कनिष्ठा, १८,२३८, ३२६, ३३१, ३३४ एकसरः, ३९७, ४६२, ४६३, ४६४ कनिष्ठादीनि, १२४ एकाक्षराः, १२९, १३२ कनिष्ठासारणा, २४१ एकाङ्कयुक्तः, १८४, १९४ कनिष्ठासारितम् , ८३, ८,८७, १०७, एकाकम् , ७३ १२५, २७८ एकागः, ८१ कन्दुक: १३७, १५२ एके,२८१ कमलापतिः, २३७ कम्पनम् , २३०, ३२५, ३६१ ओंकारः, १२९, १३२ कम्पयित्वा, ३६५, ३६५, ३६९ ३७० ओघः, २४९, २५१, २६२२६३, २६४, कम्पितः, ३१३, ३५८, ३०७, ३०९, ओ ३५६ ओजः, १८ कम्पिता, २३८, २४७, ३२८, ३६२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ संगीतरत्नाकरः कम्रा, २३०, २४३, २४६, ३१४, ४९४ कलाः, ८४, ११५ कम्रिका, २३८, ४९४ कलानिधिः, १,३३५, ३४९ कम्रिकावाद्यम्, २४६ कलापातः, ८५ करचारणा, ४१०,४२२ कलापूरकता, १३२ करटा, २३०, ४१९, ४४०, ४७१ कलाभिज्ञः, ३१७ करणः, १३७, १५५, २४९, २५१,२५२, कलाविदः, २४५, ३३६ २५६, २५७, २६१, २७१, २७८ कलाविधिः, ७६ करणधातुजाः, २७६ कलिकम् , ३८,४६, ५४ करणयति:, १३५, १५४ कल्पना, ४९० करणाग्रणीः, ३५५ कवलम् , ३९३, ३९५, ४७५, ४८२ करनामानि, २३९ कवयः, ४३८ करविवर्तनम् , ४१५ कविः, ४५८ करसवः, ४१५ कवितम् , ४२८, ४३८ करसारणा:, २३२ कवितकारः, ४५८ करेणुः, ३९. कांस्यजः, ३०९, ४८४, ४८९, ४९३, कर्कटहस्तः ३९१ ४९४. कर्णाटगौडः, ३८२ कांस्यताल:, १३४, २३०, ४९१ कतरिका, २४६ कांस्यतालधरः, २१ कर्तरी, २३९, २४१, २४२, २४४, कांस्यमयी, २८५, २९० २४५, २९०, ३९९, ४०७, ४२१, काकस्वरः, ३५८ ४२७, ४२८, ४२१ काकी, ३५८ कर्परम् , २३६, २८२, ४७६ काकुभम् , २९२ कलम् , २५२, २५२, ४९७ काश्चन:, ३१९ कलध्वनिः, १३७, १५८ काश्चनी, ३८९ कलश: ३९२, ३९३, ४२९ कामिनी, ३५६ कला, ४, ५, १०, १८, १९, २०, २२, कामोदा, ३०८ ३८, ४६, ५४, ६०, ७५, ८९, काससूत्रम्, २८३ ९०, ११०, ११२, १२९, १३१, कार्मुकः, ३१५ १३२, १३८, २४६, २४७, २६८, कालः, ४, २४ २६९, २७०, २७२, २७६, २७ काहला, २३०, ३८८, ३८९, ४० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः किंनरवीणा, २९६ कूटमिश्राः, ४५७ किंनरी, २२९, २८४, २८८, २९५, कूटादिबद्धः, ४४५ ३१४ कूर्परः, ४१६ किंनर्याम् , ३१४ कृतप्रतिकृतम्, २४७, २५० किंनरीवादकाः, २९७ कृश:, ३५८ किंनरीवीगा, २८७ कृष्णा ,६ किरिकिटकम्, ४५९ कृतार्थः, २०९ कीलकम् , २३९ केचित् , ८८, ९७, १५८, २६७, २९२, कीर्तिः, १४९ ३२५, ३३०, ३३७ कीर्तिताल:, १३७, १४९ केदारः, ४१३ कीर्तिधरः, ३२९ कैकुटी, २४४, २४५ कुचुम्बिणी, ४१७, ४२१ कैशिकी, ३८५ कुञ्चित:,३९९,४१६ कैश्चित् , १५०, २८४ कुडुक्कः, १४६ कोकिलाप्रियः, १३६, १४८ कुडककः, १३६ कोणः, ३१७, ३९५, ४२२, ४७५ कुडका, २३०, ४७५ कोणघात:, ४१० कुडुपः, ४७१, ४७४, ४७८, ४७९,४८१ कोणप्रहार:, ४२१ कुडवः, २३०, ४२१, ४२२, ४७५ कोणाकुली, २४८ कुडुवचारणा, ४१८, ४२१ कोणाहतः, ३९८, ४०३ कुण्डली, ३९७, ४७६ कोमल:, ४६७,४४७ कुण्डलीविक्षेपः, ४०१ कोमलत्वम्, ३५७,४८७ कुण्डलीस्पर्शः, ४२१ कोलाहल:, ४३६ कुमुदः, १३७, १५२ कोलाट:, १५४ कुलकम् , ३० कोविदाः, १२७ कुविन्दः, १३७ कोष्ठकम् , १८० कुविन्दकः, १५८ कौतुकः, २३१ कुशल:, २१ कौशलम् , ३६० कुहरः, २३९, २४३, २४५ क्रिया, ४, २४, १३४, २३८ कूट:, ४३६, ४४० क्लिन्नम् , ४८८ कूटवद्धम् , ४४३ क्रीडा, १३६, १४८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः क्रोधः, ३५६ खानिमानम्, ३३३ क्षिप्रम् , २४ खुत्तः, ३९८,४९४ क्षीरपाकः, ३८९ खेटकः, ३१५ क्षुद्रघण्टिका, २३०,४९३ खोज:, ४२८, ४५० क्षेत्रपाल:, ४७५ क्षेपः, ५, २५२, २५७ गजः, १३७, १५६ गजझम्पः, १३७, १५३ खण्ड:, २२, १५१, ४५१, ४५४ गजर:, ४२८,४३४ खण्डकः, ४२८, ४५१ गजरावयवाः, ४३४ खण्डकर्तरी, ३९९, ४१० गजलीलः, १३६, १४३, २४४, २४५ खण्डच्छेदः, ४२८, ४५१ गद्यम्, १३२ खण्डताल:, ४२४ गणितशास्त्रम् , ३४० खण्डतालत्वम्, १३८ गर्वनिर्णयः, ४२८ खण्डनागबन्धः, ३९७,४०१ गाथा, २९ खण्डपाट:, ४२८, ४५१ गान्धर्वः, २२ खण्डप्रस्तारकः, १६० गान्धर्वमार्गः, २१ खण्डयति:, ४२०, ४५१ गान्धारः, २८४, २९८, ३००, ३०२, खण्डहुल:, ४२८ ३०४, ३०६, ३१०, ३१३, ३२६ खम् , १९७ गायत्री, १३२ खयुक्तैः, १९४ गारुगिः, १३७, १५४ खलकः, ३९८, ४०४, ४२८, ४५३ गीतम् , ३ खलितः, २४४ गीतकम् , ७० खली, ३९८, ४०२ गीतनिष्पत्तिः, २४७ खदिर:, २३३, २३४, ३९४, ४५६, गीतनृत्तगतम्, २३२ ४८५, ४९४ गीतनृत्तसमः, ४५२ खसितः, २३९, २४१, २४४, २४५ गीतनृत्तानुगः, २३१ खादिरः, २८३, ३१९, ४९४ गीतप्रबन्धः, ४२७ खानिः, ३३४, ३४१, ३४३, ३४४, गीतवादनकोविदः, ३१८ ३४५, ३४८, ३४९, ३५१, ३५५ गीतवादनदक्षत्वम् , ३५९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः गीतानुगम् , ४६१. २६३, ४६७ ग्रहान् , २६२ गीतावृत्तिः, ९८ प्रहावधिः, ३६७ गीतिः, ९४, ९७, २६२, २६३ ग्रामः, २४८, २६३, ३१९, ३५६ गुणा:, ३१८, ३५७ गुणान् , २२७, ३६० गुणदोषाः, ३८८ घटः, ४७२ गुणविपर्ययः, ३६१ घटवाद्यम् , २३०, ३९५, ४८९ गुरुः, ८, १०, ३२, १३८, १४६, घढसः, २३०, ४७३ १९०, १६६ घण्टा, २३० गुरुगुञ्चितः, ३९९, ४१४ घत्ता, १५७, ४१८, २३ गुरुमेरुः, १६०, १८७, १९०, २२१ घन:, २२७, २२८, २३३, ३९३ गुर्जरी, ३०४ ४५०,४७२, ४९०,४९७ गुर्जर्याः, ३७० धनता, ३५० गुम्फः , ३०१ घनरवः, ४१८, ४२२ गुरू, १४२, १४९ घना, २६१ गोपालकेलि:, ३९१ घर्षरिका, ४९३ गोपुच्छा, २६, २६२ घर्षणम् , ४७३ गीमूत्रिकाबन्धः, ४५६ घात:, २३९ गोष्ठी, २३१, ३९५ घोषः, २३९, २४१, २४५ गौडः, ३१२, ११३ घोषक:, २४८ गौडकर्णाट:, ३१२ गौडकृतिः, ३०९, ३७७ गौरी, १३७, १५९ चक्रिका, ३८९ ग्रन्थिभेदः, ३१९ चच्चत्पुटः, ९, १०, १४, १८,२२,४३, प्रन्थिव्रणभिद्, २३३ ९०, २६९, २७८, ४२६ ग्रहः, २७, २९८, ३०१,३०५, ३०६, चच्चरी, १३६, १४३ ३०८, ३०९, ३१०, ३११, ३१३, चण्डण:, ४२८ ३६३,३६४,३६६,३६८,३६९,३७० चण्डतालः, १३७, १५७ ग्रन्यासः, ३६७ चण्डनिःसारकः, १४८ ग्रहात,३०४ चतुरश्रः, ९,९२,१४५,४२४,४२५,४६२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ चतुरश्रकम्, १०४ चतुरश्रम्, ८८, १०४, १०५, ८९ चतुरश्रादिः, १३८ चिक्कणः, ४५६ चित्र:, ५, ७ चतुर्थकः, १३९ चतुर्दशकला, २२ चित्रम् १, १२४, २६२ चतुर्मुखः, १३७, १५३, ३२१, ३३२ चित्रा, ११३, २२५, २२९, २४८, ३४२, ३४६, ३५२ चतुर्मुखादयः, ३५० संगीतरत्नाकर: चतुर्योगः, १८०, २०२ चतुर्योगभवः, २०० चतुर्योगोत्थ:, २०३ चतुर्योगोद्भवाः, २०३ चतुर्वस्तु, ३१, ८२ चतुष्कलः ९, १२, १३, ३३, ३७, ४०, ४३, ७५, ७६, ८८, १०२ चतुष्कलम्, ६०, २७२ चतुष्कलमात्रा, ७९, ८०, ८१ चतुष्कला, ६७, १०९ चतुष्कलानि, ८२ चतुष्कलोद्बट्टः, १२ १७, ३३, ४४, ६८, चतुस्तालः १५२ चतुस्ताली, १३७ चन्दनः, ३१९ चन्द्रकला, १३७, १५७, ४१८, ४२७ चर्चिका, ४७१ चर्यागाने, ४७९ चलकीलकम्, २८७ चशङ्कु : २८६, २८७, २९० चलावणी, ४१७, ४२० चाचपुट:, ९, १०, १३, १५, ११७, ७२६ चारुश्रवणिका, ४१८, ४२० २६२, ४२१ चित्रिताः, २७७ चिन्धमरामक्रीः, ३८० चिरम्, २४ चुक्का, २३०, ३९० छ छत्रकः, १०४ छण्डण:, ४३४, ४३६, ४३९, ४४०, ४४४, ४४५, ४५० छन्दः, १३२, २४४ छन्दकम् १०४, १०५ छन्दकासारितम्, २९ छन्नाननः, ४८४ छायानट्टा, ३१०, ३७९ छिन्नः, २३९, २४० छेद:, ४२८, ४४९ छेयकम्, ३० छोटिका, ५ ज जक्का, ४२९, ४६७ जगण:, १५५ जाठरम्, ३९४ जनक:, १३७, १५५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः जयः, १३६, १४५ टिरिकी, ४४० जयश्रीः, १३६, १४८ टीपा, ३२७ जयमङ्गलः, १३६, १४८ टीपिः, ४४० जरा, ४८८ डका, २३०, १९, ४७८, ४७९ जल्पः, ४६० डमरुकः, २३०, ४७७ जातिः, २६१, २६३, ३१८ डोम्बकी, ३०७, ३७३ जातिमुखम् , ३३३, ३३५, ३४१, ३४५ डोम्बुली, १३७, १५२ जात्यंशे, २७९ ढंकारः, ४७४ जालकम् , ४५२ ढक्का, २३०,४७४ जितश्रमः, ४९९ ढवस:, २३०, ४०२ जितश्रमकरद्वन्द्वः, ३१७ ढेकारः, ४७४ जितेन्द्रियः, ३१८ ढेकिका, १३७ जीर्णम् , ४८८ ढेंकी, १३७ जीवा, २३६, २३५, २३० जोडणी, ४२४, ४२८, ४५३ जोडा, ४६२, ४६४ तकारः, ३९८, ४०२, ४६७ ज्येष्ठम् , १०६, ११०, ११६ ततम् , २२५, २२७, २२८, २२९, २३२ ज्येष्ठताल:, १२३ तत्पुरुषः, ३९५, ४०२ ज्येष्ठासारितम् , १०९, १२३, १२६ तत्त्वम् , २६२, २६३, २८१, ३१७ तत्त्ववित्, ३१८ तत्त्वविदः, ३४४ झडप्पणी, ४२४, ४२०, ४५३ तत्वानुगतम् , ३५६ झम्पा, १३७ तद्धयादयः, ४५७ झम्पाताल:, १५३ तन्त्रिका, २४२, २८५, २९४, ४८१ झल्लरी, २३०,४८२ तन्त्रिकाहतिः, २३९ झेकारः, ३९५ तन्त्री, २३४, २३६, २३५, २३०, झेकृतिः, ४१९ २४१, २४३, २४८, २५१, २५९, २७४, २८३, २८६, २८७, २८९, ३१६, ४०१ टाकणी, ४६२, ४६३, ४६४ तन्त्रीकर्षः, २४३ 72 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० तत्रधर्षणम्, २४१ तन्त्रीघातः, २४२ तन्त्रताडनम् २४० तन्त्रीमानम् ३१५ तन्त्रवाद्यानि, ३१७ , तन्त्रीहतिः २४२ तर्जनिक, २३८ तर्जनी, १८, २४०, २४२ तलघातः, ४९४ तलपाट:, ४२८, ४५३ तलप्रहार:, ३९९, ४१३, ४१६ तलम्, २४३, २५२, २५९, २७१, ४०८ तलहस्तः, २३९, २४३, ४०६, ४५३ तानदायिता, ३५५ तानिविसम्, ४२, ६० तान:, ४८४ ताम्रज:, ३८९, ४८४ तारः, २४४, २८४ तारक:, ४६७ तारनादः, ४६३ संगीतरत्नाकर: तारन्यूनता, ३५८ तारस्थानम्, २५४, २५५, ३२४ ताल:, ३, ४, ९, १४, १५, २७, २९, ३३, ८४, ९९, ११८, १३४, १३७, १३९, १४८, १५५, २०४, २३०, २६३, २६७, २७२, ४२८, ४५२, ४९७ तालपात:, ३१७ तालपूरण:, १६९ तालसमम् ४७, ४९७ ताला:, २२, १२४, १३८, १६०, १६७ तालाध्यायः, २८०, २८१ तालयोजना, २६७ तालावृत्तिः, ७० तालिका, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, ५३, ५५, ५६, ५७, ५८, ५९, ६४, ६५ ताशताशाः, ५१ ताशतासम्, ५४ तित्तिरी, ३९० तुडुका, ४२८, ४४६, ४२८, ४५४ तुण्डकिनी, २३०, ३९० तुथुकारः, ३९१ तुम्बम्, २३५, २३६, २३७, २८२, २८३, २८६, २८८, २९०, ३१५ तुम्बक:, २३६ तुम्बकी, २३०, ३५८, ४८५ तुम्बका, २८७ तुम्बुरुः, २३१, ४९० तुरङ्गलील:, १३६, १४६ तुरुतुरी, ३९० तुरुष्कः, ३१२ तुरुष्कगौडः, ३१२, ३८३ तुर्यस्वरम् ३६३ तुवरीबीजम् ३८८ तृणशलाका, ४७० तृतीय:, १३९ तोडी, ३६७ त्यक्तभीतिः, ३१८ त्राटनम् ४८० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः ५७१ त्रिकल:, ७५, १३०,१३२ यश्रम् , १०४, १०५, १०६ त्रिकलम् , ३८ त्रिकुली, ४८३ दक्षाध्वरः, २३१ त्रिगुणा, ४१८, ४२४, ४२५ दक्षिणः, १, ५, ७, ६० त्रितन्त्रिका, २२९, २४८ दक्षिणा, ५४, ११३, १२४, २६२ त्रिपुटः, १५८ दक्षिणानामा, २४१ त्रिपुरा, ४८३ दत्तिलः, ५४, ५५, ७० त्रिपुरुषः, ३२१, ३४२, ३४६, ३५१ दत्तिलादयः, ८५ त्रिप्रहारभवः, २५६ दण्डः, २३३, २३७ त्रिभङ्गिः, १३६, १४६ दण्डकम् , २४५ त्रिभिन्नः, १४४ दण्डम् , २४४ त्रिमात्रः, १३८ दण्डहस्तः, ३९८, ३९९, ४०५, ४१०, त्रियोगः, १८४, १९० ४१८, ४२२ त्रियोगजाः, २००, २०२, २०३ दन्तजा, ३८९ वियोगोत्थाः, २०३ दन्तिदन्तः, ४८० बिरधरः, २५२, २५५ दर्पणः, १३६, १४२ त्रिरुतरः, २५२, २५५ दशकलम् , ९० त्रिवली, २३०, ४७७, ४०२ दान्तः, ३१९ त्रिवल्ली, ४१९ दारववाद्यानि, ४८५ त्रिवस्तु, ३१ दारवी, ३८८ त्रिविदारीका, ८३ दीपकः, १३७, १५० त्रिवृत्, ४९५ दीप्तः, १५६ त्रिशङ्गम् , ४९२ दीप्तम्, १३८, १५३, ४३१ त्रिसंख्यातम्, ११३, २८१,२५९ दीप्ता, १५७ त्रिसञ्च:, ३९९, ४१४ दीप्तनर्तनम् , ४३६, ४३९, ४४४, ४४६, त्रिस्थानत्वम् , ३५७ ४४० त्रेतामिः, २३३ दीप्तनृत्तम् , ४३६ त्र्यम् , १३८ दीर्घम् , १३८ ध्यश्रः, ९, ११, १२, ७०, ७२, ७६, दीर्घाकृत्य,३७२,३७४,३७९,३८१,३७६ १११, १४५, ४२४, ४२६, ४६१ दु:खम् , २३१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ दुःसरः, ३९७ दुन्दुभिः, २३०, ४८३ दृढखः, ४८९ ढा, २८२, २८६, २८७ देकार:, ३९५, ४२९ कृति:, ४१९, ४५० देवकृति:, ३०१, ३०९, ३७८ देवकी:, ३७८ देवमुनय:, ४९६ देवताः, १३८ देवतालयः, ४८३ देवाः, ४९६ देवी, १३८ देशवाल गौडः, ३८१ देशाख्या, ३०६, ३७२ देशी, ४, ३०५, ३०६, ३७२, ३९२ देशीगतम्, १३४, ३३६ देशीताल:, २२, १३४, १३७ देशीपटहः, ३९५ देशीरागः, ३०१, ३०६, ३६० देशीवंशः, ३५० देशीविदः, ३३०, ३३७ देशीशास्त्रम्, ३५५ देशी संसिद्धम्, २८८ देशीस्थः, ३९४ देहसौष्ठवः, ३१८ संगीतरत्नाकर: दोरक:, २३७, २८२ दोरकम्, २३६, ४८० दोरिका, २३७, २३८ दोषाच्छादनम्, ३६० दोषान्, २३३, ३५८ द्राघयित्वा, ३७४ वाधितः, ३७४ द्राविड:, ३१३ द्राविडगौडः, ३८४ द्रुतः, २४, १३५, १३८, १३९,१६६, १४३ द्रुतम् १३८, २४४, २४५, ३८१ द्रुतमेरुः १६०, १८२, १८४ द्रुतलयाश्रयम्, ३५६ दुतहीनाः, १८२, २०६ द्रुतादि:, १३८, ३५३ तादिललितध्वनिम् ३५६ दुतीकृत्य, ३७७, ३७९, ३८०, ३८१, ३८२, ३८५ द्वन्द्वः, १३७, १५८ द्वादशकलम् ५४, ६९ द्वि: प्रहारभवः, २५४ द्विकल, ९, १०, १२, १३, १७, २०, ३८, ३९, ४०, ६०, ६७, ७९, ८४, ८९,९१,१०२,११७,११८, २७६, २७७ द्विकलम् ५४, ९५, २७३ द्विकला, १०८ द्विकलयुग्मः ७१, २७०, २७१ द्विकलोत्तर:, २६८ द्विकलोद्धट्टः, १२ द्विगुणसम्, ३७३, ३७७, ३८२ द्विताल: ४५३ द्वितीयकम् १५९ द्विमात्रम्, १३८ द्वियोगजाः, १९५, २०० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः द्विरधरः, २५२, २५२, २५५, २५६ ध्वनि:, २४२, २४६, ३५६, ३५७ द्विरुत्तरः, २५२, २५४ ध्वनिवृद्धिः, ५ द्विविदारीक:, ३४ द्विसंख्यातम् , ११३, २८१ द्वेगेयकम् , ३४ नकुलः, २२९, २४८, २६४ द्वैगेयकाभिधः, ४१ नखकर्तरीः, २३९, २४१ द्वयाः , ७३, ८१ नखरायः, ४०६ द्वयादिसमः, १८२ नखराघात:, ४०४ नगणः, १४४, १५९ नन्दनः, १३७, १४९ धत्तूरकुसुमम् , ३८९, ३९० नन्दिकेश्वरः, ३९८, ४०३, ४५६ धनुषः, ३१ नन्दी, २३१ धन्नासी, ३०५, ३७१ नमः, १४४ धातवः, २५२, २५७, २६१ नयसा, १५५ धातुः, २५३, २५६, २८१, ३९१ नरेन्द्राः , २३१ धातुभेदाः, २६. नर्तकी, ४६९ धातून , २५१, २०५, ३५६ नर्तनम् , ४३८ धारा, २४४ नर्तनारम्भः, ४४० धीराः, २३५, २७९ नलिका, २९०, ३८९, ४०६ . धेवतः, २९६, ३०२, ३०३, ३०५, नलिनी, ३९१ ३१०, ३११, ३१३, ३२६, ३६९, नष्टः, २१७ ३७३, ३७८, ३८१ नष्टम् , १६०, १६७, १६९, २१८ ध्रुवः, १, ४, ११२, ४२८, ४३९, नष्टप्रश्नः, १६८ ४४३, ४४६, ४४७, ४५० नष्टवत, १७२ ध्रुवकः, १३२ नाङ्कम् , १६८, २०० ध्रुवका, ६, ७ नागपाशः, २३८, ४७६ ध्रुवपातः, ३३ नागबन्धः, ३९५, ३९९,४०८ ध्रुवमार्गः ११३ नागाः ३८८ ध्रुवा, ६, २६७, २७२, २७६, २८१ नाटकम् , २३१, ३९५ धवासारितम् , ११३ नाट्यरामकृतिः, ३८१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ संगीतरत्नाकरः नाथेन्द्रः, ३२१,३३३, ३४३, ३४७, ३९४ नियमादृष्टकल्पना, २९८ नादः, २३६, २४७, ३१८, ४६७, निरन्तरयतिः, ४४७ ४८१, ४९० निरर्थकः, २८० नादसिद्धिः, २३८ निर्गीतवाद्यम् , २६५ नादानुरणनम् , ३५७ मिर्घोषः, ३९९, ४१० नान्दी, १३७, १५१ निर्युक्तम् , ३०, ७६ नाभिः, २३७ निविशानि, ७५ नाभ्या, २३६ निशनिताः, ५४, ७५ नारदः, २३१, ४९१ निशम्या:, ९३ नालिकेरः, २३६ निषादः, २८५, ३०२, ३२६, ३८१, निःशकः, १३७, १५९, २४२, २४७, ३८३, ३८४ २५२, ३००, ३४५, ३८९, ३९९, निषादाद्याः, ३०० ४१०, ४३८, ४५०, ४५६, ४७४, निष्कलम् , २४६, २४७ ४७७, ४७८, ४८४, ४९०, ४९५ निष्कामः, ४, ५, १९ निःशङ्कलील:, १३६, १३९ निष्कोटितः, २३९, २४२, २४६ नि:शङ्कवीणा, २२९, ३१७ निष्कोटितम् , २५२, २५२ निःशङ्कसूरी, १६६ नीरटितः, २५२, २५७ नि:शब्दा, ४ नीचः, ४१७ नि:शब्दम्, १४७ नृत्तम्, ३, ४३१ नि:सरणम् , ३०६ नृतानुगम् , २३१ नि:साणः, २३०,४८५ नैषादः, २४६ नि:सारुः, ४३१,४३४, ४६७ न्यासः, ३२, ३४, ३५, ६८, ३०१, निःसारकः, १३६, १४८ ३०५, ३०७, ३०९. ३६३, ३६४, निजपातः, ४७ ३६९, ३७०, ३७१, ३७२, ३७७, निजमाया, २२५ ३८२, ३८३, ४९७ निधनम् , १३२ ब्यूनाधिक्यम् , ३५७ निपीडिता, ३२१ निपीव्य, २३० निप्रनिप्राः, ५४ पक्षपरिप्रहः, ४७० निबन्धनम् , २५२ पक्षिरुतम् , २४४, २४६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५ विशेषपदानामनुक्रमः पञ्चकर्तरी, ४१८, ४२७ पदम् , २४, ४२८ पञ्चपाणिः, १२, १८, ३३, ३५, ४३, पदनियुक्तम् , ३० ४७, ९०, ९१,९८, १०२, २४९, पदावृत्तिः, ४१, ९८ पद्मासनम् , ३९५ पञ्चमः, १३९, ३०५, ३०५, ३०७, पद्मिनी, ५६ ३१०, ३११, ३१२, ३१३, ३२६, पनिसान् , २९६ ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, ३७१, परिकमः, १४२ ३७२, ३७४, ३७५, ३७९, ३८०, परिघटना, २६५, २७७ ३८१, ३८४ परिधिः, २३३, २८८, २९०, २९२, पश्चमान्त:, ३६८, ३६९ २९४, ४७१, ४७३, ४८१ पश्चरन्ध्र, ४८० परिवर्त:, ११८, २४३ पञ्चवक्त्र:, ३२१,३३२,३४६,३५०,३५३ परिवर्तनम् , २४ पञ्चवस्तु, ६२, ६३ परिवृत्तः, ३९९, ४१३ पश्चवस्तुकम् , ४९, ५५, ५८ परिश्रवणिका, ४१८, ४२१ पञ्चवस्तुकभेदाः, ६५ परिसृतम्, २७९, २८० पञ्चसञ्चवित् , ४९८ परे, ९२, २६९, ३५८ पञ्चहस्तः, ४१८, ४२६ । । पवन:,३९७ पटहः, २३०, २३२, ३९२, ३९३, पशुः, ३९३ ३९६, ४१६ पाटः ३९८, ४२३, ४२४, ४२८, ४३९, पटहवादकः, ४१७ पटहादिः, ३९९ पाटखली, ३९८ पटुः, ३९५ पाटज्ञः, ४९८ पः, ४९५ पाटनिष्पत्तिः, ४०५ पट्टसूत्रमयी, २८३ पाटप्रभववनाद्यानि, २३३ पट्टिका, ४७०, ४७३ पाटभेदाः, ३९६, ४५५ पताकः, ४०३, ४०५, ४५३ पाटवर्णः, ४५० पताका, ६ पाटवर्णाः, ४७२, ४७४ पतिता, ६, ७ पाटविन्यासः, ४१७ पत्रिका, २३४, २३६, २३५, १४६, पाटहाः, ४९६ २८५, २८९ पाटहिकः, ४१७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ संगीतरत्नाकरः पाटा:, ३९६, ३९५, ४२१, ४२९, पाविका, २३०, ३८७ ४३०, ४३१, ४३६, ४४९, ४५३, पिण्डः, ३५० ४५६, ४९०, ४९१,४९४ पिण्डहस्तः, ३५८,४०५ पाटाक्षराणि, ४७८ पित्तला, ४८६ पाटान्, २३२ पिनाकी, २२९, ३१४, ३१५, ३१६ पाणिकः, १४ पुटद्वन्दम् , ४०७, ४०८ पाणिकम्, २९ पुटबन्धनम् , ४८७ पाणिका, १२७ पुनीतः, २३७ पाणिघातः, २६४ पुरातनाः, ७६, १३७, २५९ पाणिसमम् , ४९७ पुष्पम् , २५२, २५९ पाणिहस्तकः, ३९९, ४०८ पुष्करः, ४५६ पाणीन् ,४०० पूरकः,३९७ पाण्यन्तरः, ३९९,४१० पूरणापूरणाभ्यां, ३२८ पाण्यन्तरनिकुटकः, ३९८,४०४ पूरिका, ४५६ पात:, ५, २३०. २३९ पूर्णः, १५१ पातकला, १४ पूर्वाचार्याः, ३२५ पातकलायोगः, १३ पृथुः, ३९५ पातकलाविधिः, ३८,४२, २६७ पृथुलः, ३९२ पातकल्पना, ३३ पृथुला, २६२ पातालः, १७८ पेरणिनर्तनम् , ४९३ पातालकः, १६. पेशी, ३१७ पादः, ८७, ९२, १०६ पेसारः, ४२८, ४५४ पादकम्पः,४०३ प्रकम्प्य, ३०८, ३०९, ३११, ३१३, पादभागः, १०, १७, १८, १९, २४, ३६५,३७० ३८, ४०, ४२, ८५, ९९, १११ प्रकरणम् , २९, ४२८ पारिका, ३९२ प्रकरी, २९, ८२, ८४ पार्वतीलोचनः, १३४, १३७, १५४ प्रकर्यादीनि, ८२ पार्वतीपतिः, ३९७ प्रकल्प्य, ३६६ पार्वपाणिः, ३९९, ४०६ प्रकृतिः, २३७ पावः, २३०, ३८७ प्रगल्भता, ३६० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः ५७७ प्रगल्भधी:, ३१८ प्रबन्धान, २३३ प्रचुरता, ३५७ प्रवृत्तः, ६८, ७५, ९८ प्रच्छादनम्, २३१ प्रवृत्तम्, ६८, ७०, ७१, ७२, ७३, प्रथममञ्जरी, ३०७, ३७५ ८१, ९२, ९५, २७३ प्रदेशिनी, २४३, ३२६ प्रवासः, ३५६ प्रतापशेखरः, १३७, १५३ प्रवीणः, २८४ प्रतितालः, १३७ प्रवीणता, ४६७ प्रतितालकः, १४९ प्रवेणी, ८८, ९०, ९१, ९२, ९५ प्रतिनिधिः, १७८, १८०,१८५ प्रवेश:,५ प्रतिपादः, ८७, ८८, ९४, ९७ प्रवेशकः,४ प्रतिफूत्कृतिम् , ३५० प्रसार:, २३९ प्रतिभेदः, २४९, २५० प्रसारकः, २४३ प्रतिमण्ठः, १३७ प्रसारणम् , ५ प्रतिपण्ठकः, १५३ प्रसिद्धलक्ष्माणः, ३३९ प्रतिमुखम् , ६७, १०६, ११०, १२७, प्रसिद्धिविधुरत्वेन, १६० १२८, २७३, २७४ प्रसृतागुलि:,५ प्रतिमुखरी, ४६६,४५९ प्रस्तारः, १६०,१६१ प्रतिवक्त्रकः, १०५ प्रस्तारे, १२ प्रतिशाखा, ४५, ४५, ४८, ४९, ५१, प्रस्तावः, १३०, १३१ ५३, ५५, ५६, ५५, ५८, ६.. प्रहरः, ३९९, ४१३ ६२, ६३, ६४, ६५, ५०, १०२, प्रहरणम् , ४४३ १०३, २४९ प्राचाम् , ३३० प्रतिशुप्का, २५१ प्रायः, ३१७ प्रतिहारः, १३२ प्रौढः, ४६. प्रत्याः , १३६, १४३ प्लुतः, ९, ११, १२, १३५, १३० प्रत्ययार्थम्:, १६. १३९, १५५, १६४, २५२, २५८ प्रत्युपोहनम् , ३१, ३३, ३०, ३८, ४६, प्लुतपङ्क्तिः , १९५ ६०, ८३, ३५४ प्लुतभेदः, २२१ प्रबन्धः, ४३९, ४२८, ४५२, ४५४, प्लमेरुः, १६०, १८९ ४५५ प्लुतहीनायां, २२२ 73 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ प्लुसी, १६९, २०९, २१७ फुल्ल विक्षेत्र, ४०० फूत्कार:, ३१९, ३५८ फूलकारे, ३५७ फूत्कारदोषाः, ३५८ फूत्कृते:, ३५८ फ ब बङ्गाल, ३०२ बङ्गालरागः, ३६८ बङ्गाले २९७ बदरीबीजसंकाशानि, ३१९ बदरीबीजसंमिता:, ४९.३ बहुलीरामको, ३१० बाणपुङ्खः, २८५ बाह्यकाय:, ३९३ बिन्दु:, १३८, १५६, २३९, २४२, संगीतरत्नाकर: २५२, २५९, २७५. ३९९, ४११ बिन्दुकम्, १३८ बिन्दुमालिनि, १४९ बिन्दुनाली, १३७ बीजकाष्ठः, ४८१ ३६२, ४४० बृन्दम्, ३६१ बुधाः, ८३, ९२, ९७, २४२, २५१, ३८६, ४२६, ४३१, ४५०, ४५७, ४७६ बृहती, २८४, २८७, २८८, २९४ बृहती किंनरी, १९२ बोडवाड, ४६० बोलावणी, ४१७, ४१९, ४२१ बोहणम्, ४५६, ४६० ब्रह्मगीतानि, १२९, ११६ ब्रह्मसुषिरम् २२५ ब्रह्मा, १२९, १३१, २३७, ३९७ " भगवान्, ३६, ५४, ११५ भमः, १३७ भगताले १५९ भकव्य:, २०६ भयभसुरः, ४६० भ भुवनम् २२५ भूतिमिश्रेण, ४५६ भूपाली, ३०७, ३७३ भूरिनादः, ४८९ मृङ्गिः, ४७६ भेदः, ४२३ भेरी, २३०, ४८४ बुधैः, १५४, २४५, २८१, २९५, ३१४, भोगस्वर्गापवर्गदे २३७ भरत:, ३६, ४६, ११५ भरतादिभि:, २७६ भववल्लभः, ४२५ भाणः, २३०, ४८२ भिन्नवाक्यत्वम्, ३० भैरवः, ३०३ भैरववत् ३६९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः भैरवी, ३१० मध्यः, २४, २८, ४६१, ४६५ भैरव्यः, ३७० मध्यम्, ११६, ३०४ भ्रमरः, २३९, २४०, २४५, ३४९, मध्यगान्धारः,३०६ ३९९, १६४ मध्यदेशः, ३९२ मध्यम:, २८४, २९८, ३०६, ३०७, ३०८, ३०९, ४० मकरन्दः, १३७ मय्यमम् , १०६, ११०, २९६, ३०२, मकरन्दकः, १४८ ३०८, ३६२, ३६७, ३६८, ३८१ मगणः, १४३, १४४, १५७ . मध्यमग्रामः, २७९ मङ्गलम् , २३१, ४८३ मध्यमा, १८, २४०, २८८, २९२, ३२६ मण्ठः, १४८ मध्यमाङ्गुली, २४१ मण्ठकः, १३६, १४७, ४२९, १४७ मध्यमात् , ३१२ मण्ठिका, १३५, १४९, १५० मध्यमादिः, २९६ मण्डली, ४७१,४७३, ४७९ मध्यमादिग्रहः, २९८, ३०० मण्डिडका, २३०, ४७९ मध्यमादे:, ३६२, ३६४ मतगः, ३५६, ४७६ मध्यमासारितम् , १०८, ११७, १२२ मतङ्गोक्तिः,४७६ मध्यलयः, ४६१ मत्तकोकिला, २२९, २४८, २५० मध्यषड्जम् , ३०८, ३०९, ३१०, ३११ मदनः, १३७, १५३ मध्यषड्जात् , ३०५ मदनगोलका, ४७७ मध्ये, २०४ मदनाकः, ४७३ मध्योत्तरः, २५६ मदनाच्चितम् , ४८० मनीषिणः, ४७ मदनाम्बरवेष्टितः, ३९५ मनीषिभिः, ३५८ मद्रकः, १०, ३८, ४३, ९६, ९९ । मनुः, ३२१, ३३५, ३३९, ३४४, ३४९ मद्रकम् , २९, ३६, ३४, ८३, ८४, मनुदण्डः, ३३४ २७३ मन्त्रपदैः, १२९ मधुकरी, २३०, ३८८, ३८९ मन्त्रस्तोभानाम्, १३२ मधुरः, ३५६, ४६७ मन्द्रः, ३२३ मधुरम् , ४९७ मन्द्रः, २९.६,४६७ मधुरध्वानः, ३८९ मन्दगः, ३२० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० संगीतरनाकरः मन्द्रगान्धारः,३०७ महानन्दः, ३२१, ३३३, ३४३, ३४७, मन्द्रतारः, २५४ मन्द्रनिषादः, ३१२ महिषचर्म, ४८४ मन्द्रषड्जम् , ३१० महोदरः, ४७२ मन्द्रस्थम्, ३०७ मांसम् , ४८८ मन्दस्वरस्थानम् , २३५ मागधी, २६२ मन्द्रे, २८४ माणिकवल्ली, ३९८, ४०२ मर्दल:, २३०, २३३, ३१९, ४६०, मात्रा, ८, १०, ३८, ७०, ७५, ८३, ४७२, ४८० मर्दलम् , ०५६ मात्रायुता, १३८ मर्दलधारी, ४६९ मात्रावृत्ताः, १३१ मर्दलाः, ४८६ मात्रिकम् , १३८ मर्मरा:, ४९३ मात्रिका, ५ मलपः, ४४७, ४५३, ४९८ मानम्, २४ मलपम् , ४२८ मानकल्पना, २९५ मलपपाटः, ४२८, ४४९ मानहीनम् , ३५१ . मलपाङ्गम, ४२८, ४४८ माधुर्यम् , २७९, २९५, ३३६, ३४४, मलपोपमः, ४४९ ३५०, ३५७, ३५९ मल्लः, १३७ मार्गः, १, ४, ५, १०४, ३९२ मलताल:, १५१ मार्गम्, २६२ मल्लिकामोदः, १३६ मार्गपटहः, २९५ मलिकामोदताल:, १४८ मार्गभेदात् , २४ मल्हारः, ३११, ३८२ गार्गरागः, ३६० मसणा, २३७ मार्गसंभवः, ३९३ मस्तकम् , २९. मार्गासारितकम् , २६५, २७८ महती, ३४ मार्दलः, ४५५ महागाव:, ४८३ मार्दलिकः, २३२, ४५९, ४६८ महाजनिकः, ७३, ८१ मालतीकलिका, ३८९ महाजनिकम् , ७०, ७२, ७९, ८०,८१ मालवगौडः, ३८३ महाध्वनिः, ४८३ मालवत्रियः, ३६५, ३६६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः मालविनः, ३१३ मुनेः, १५, ३५३ मालवी, ३१२ मुरजम् , ४५६ माषघात:, ८७, ८९, ९२,१०१, २८. मुरली, २३०, ३२२, ३४९,३८८ माषघातवत् , ९९ मितिः, ४, ९, ३५३, ३५४ माहिषम् , ३९० मिध्याप्रयोगः ३६१ मुकुन्दः, १३७ मिधः, ७०, ७३, ८१, ९५,१४५, मुकुन्दे, १५८ ४२०, ४२४, ४६२ मुक्का, ३२९, ३२८ मिश्रान्तः, ८. मुक्तिः , ४३८ मुष्टिग्राह्यः, ४८२ मुखम् , ६७, १०५, १०६, ११०, मूर्छना, २३९, २४३, २४५, २६८, ११५, १२७, २७३ ३३६,३५६ मुखतालः, १०५ मूर्तिः, २२८, ४५८ मुखरन्धम् , ३५२, ३८८, ३८९ मृगशाम्, ४९५ मुखरी, ४५६, ४६६ मृग्यम् , २८० मुख्यवीणा, २४९ मृदङ्गम् , ४५५ मुख्यवैणिकः, २५० मृदुमध्यलयध्वनिम् , ३५६ मुग्धबोधार्थम्, ३६२ मृदुला, ३८९ मुग्धानाम् , ३८६ मेढकः, २८९, २९०, २९३, २९४ मुक्तिः , ३५०, ३५१, ३५२, ३६४१ मेढकम् , २८६, २८७ ३६६, ३७२ मेरुकोष्ठावात् , २०८ मदितमण्ठकः, १४७ मेलापकः, ४२८, ४४० मुनयः, १३८,४९६ नेलापनी, ४४० मुनि:, ५४, ३२१, ३४२, ३४६, मेषपारी, ४८० मेषान्त्रतन्त्री, २८२ मुनिभिः, ९१ मोक्षम् , ३१७ मुनिजनाः, १३१ मुनिदण्डः, ३३३ मुनिमतात् , २६७ यक्षाः, ३८८, ४९५ मुनिवरः, ३६७ यगणः, १४२, १४६ मुनिसंमतः, १३० यज्ञपुरमण्डनः, २६० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ संगीतरत्नाकरः यज्ञपुराग्रणी:, २७० यतिः, १, २६, १३५, २६२, २६३, रक्तम् , ४९७ ४२८, ४२९, ४३७, ४५१, ४९७ रकचन्दनः, ४५६,४८५ यतिताललयाभिज्ञः, ४९८ . रक्तचन्दनजान् , २८३ यतिलमः, १४३ रक्तिः, २५१, २९५, ३३६, ३४४, यतिलग्नकः, १३६ ३५०, ३५७, ४६७ यतिसमम् , ४९७ रक्तिविशेषः, ३५६ यथाक्षरः, ९, ११, १२, ३७, ३९, ४७, रगणः, १४८, १५०, १५२, १५५ ५४, ७२, ९०, ९१, ९८, १०६, रङ्गः, १३६, १४३ ११३, ११८, १२४, १२५, २६८, रजयदीपकः, १३६, १४४ २७०, २७२, २७६, २८१ रजभूमिगः, ४६६ यथाक्षरोद्धट्टः, १२ संस्थानाम् , २३१ यथाक्षरोत्तरः, ८८ रशाभरणः, १३६ . यमलः, ३५८ रङ्गाभरणताल:, १४७ यमलम् , ३९० रजोद्योतः, १३६, १४४ यमलहस्त:, ४११ रतिः, १३० यमलहस्तकः, ३९२ रतिताल:, १५४ याज्ञवल्क्यादयः, २०७ रतिलीलः, १३६, १४२ यात्रायाम् , २३१ रविः, २३७, ३९७ युक्, ७०,७२ राक्तचन्दनः, ३१९ युक्तप्रहारः, ४९९ रागः, २८४, ३०३, ३०९, ३१८ युक्तायुक्तवित् , ३३० रागवर्धन:, १३७, १५६ युगहस्तः, ३९८,४०५ रागवेदिभिः, ३६५ युग्मः, २२, ७१, ७३, ९५, ११८ रागाः, ३१४ युग्मजाः,२६८ रागाभिव्यक्तिहेतवः, ३३७ युग्मताल:, ११० राजचूडामणिः, १३४, १३६, १४४ युग्मप्रवृत्तम् , ७९, ८०, ८९ राजतालः, १३६, १४४ युग्मस्थितम् , ७९, ८१ राजती, ३८९ युद्धे, २३१ राजनारायणः, १३७, १५५ योजनः, १५० राजमार्तण्डः, १३७, १५९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः ५८३ राजमृगाङ्कः, १३५, १५९ रौद्रः, २३१ राजविद्याधरः, १३६, १४८ रौप्यः, ३१९ रामकृतिः, ३०८ रामकृतेः, ३७७, ३८० रायकोल:, १३७, १५२ लक्ष्म, २८२ रालालिप्तः, ४९६ लक्ष्मीशः, १३७, १५५ रालासंलिप्तया, ३१६ लक्ष्यगोचरे, ३७० रासः, १३९ लक्ष्यवर्त्मनि, १६० रिगोणी, ४२८, ४३६ लक्ष्यविदाम्, २८२ रिभितः, २५२, २५७, २७१ लक्ष्यवेदिनः, ३७९ रिभिता, २६१ लक्ष्यवेदिभिः, ३७२, ३८२ रुजा, २३०, ४७६ लघवः, १४६ रुद्रः, ३२१, ३४३, ३४७ लघु:, ४, ८, ३२, १३८, १३९, १४८, स्वदण्डः, ३३४ १६३,१४६,१६६,३७१,३७६,४९९ रुद्रदण्डे, ३५४ लघुकिंनरी, २९५ रुदवंशः, ३३४ लघुगुरुप्लुता:, १४४ रुद्रवंशकम् , ३४४ लघुताम् , ३७९ रुबवल्लभः, ४९५ लघुमेरुः, १६०, १८४, १८८, २१६ रूक्ष:, ३५८ लघुमेरुवत् , २२० रूपम् , १७७, २४९, २५० लघुशेखरः, १३७, १५३ रूपकम् , ४२८,४५० लघुनि, १३८ रूपपूर्तिः, २१४ लघुहीनात्, १८५ रूपशेषम् , २४९, २५० लघूकृत्य, ३७१, ३७७, ३७९ रूपाप्तिः, २०९ लघूपायाः, १६. रेचितः, ३९९, ४११ लघ्वादिमितिः, १३४ रेफः, २३९, २४१, २४४, २४५, लघ्वी, २८४, २८५, २८८, २९४ २४६, २५२, २५९, ३९९, ४०४, लप्वीकिंनरी, २७८ ४०५ लयः, १, २४, २८, १५७,२६३, ४६१ रोविन्दम्, ९६ लयप्रवृत्तिनियम:, २६ रोविन्दकम् , २९, १२७ लयस्कन्दः, १३७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ संगीतरत्नाकरः लयादि, ४९७ लयान्तरम् , १०६, १०७, ११०, ११३, ११६, १२५, १२६, २८० लयान्तराभासम्, १२१ ललितः, १३७, १५४, ३५६ ललितप्रियः, १३७, १५५ ललिता, २६१,४३६ ललिता: २७७ ललितायाः, ३८५ लालित्यम्,३५७ लिपौ, १३८ लीला, १३५, १५४ लीलाकृतम्, २६८, २७९, २८० लुलितः, ४२० लोकरीत्या, ३८७ लोकवर्त्मनि, ३८० लोल:, ४०९ लोहकोणेन, ४९५ लोहजा, २३४, ४९५ लोहपत्रिका, ३९२ लोहमय्योः , ४९५ लौकिकः, ३५१ लौहः, ४८४ लौही, २८५, २८९ लौह्यः, २९० वंशवत् , ३८९ वंशाः, ३२३, ३३०, ३३० वंशेषु, ३६४ वंशवाथे, ३५६ वंशपद्धतिः, ३५२ वंशरूपम् , ३४५ वंशविदः, ३२२ वंशवीणा, ३५६ वंशश्रेणी, ३४५ वक्त्रम् , ३३६, ३९४ वक्त्रपाणिः, २६५, २९३ वक्रः, १५५, १५७ वक्रम,१३८ वक्षःस्थलात्, २३८ वज्रः, ९२ वज्रम् , ८८, ८९ वत्सः, ३९२, ४८७ वदनम् , २३३, २३६ वधे, ४५५ वनमाली, १३६, १४५ वराटी, ३०३ वराव्याः , ३६९ वर्ग:, १४५, २६३, २६६, २८१ वर्णताल:, १३६ वर्णभिन्नः, १३३, १४४ वर्णमण्ठिका, ९३७, १५० वर्णयतिः, १३७, १५६ वर्णव्यक्तिः, ४६८ वर्णसरः, ४३१, ४३४, ४३६, ४१, ४४६, ४४६, ४७८ वंश:, २३०, २४७, ३१४, ३१९ ३२१, ३२२, ३२८ वंशगोचरे, ३४, ३७८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः वर्णसरबद्धः, ४३९ वर्णसरबद्धम् , ४४४ वर्णाः, १३०, ४८८ वर्णङ्गम् , २७३ वर्नानुकर्षणम्, ९० वर्णालंकारगीतयः, १३१ वर्णालंकारधात्वादि, ३३० वर्णालंकारनिष्पत्तिः, ३२८ वर्तुल:, ३१९ वर्तुलाम् २८६ वर्धनः, १३७, १५५ वर्धमानः, १२० वर्धमानम् , ११४, १२४ वर्धमानकम् , २९, १२१ वर्धमानवत् , १२४ वर्धमानाङ्गम् , १०० वर्धमानाभासम् , १२५, १२२, १२६ वर्धमानासारितम् , ११४, १२४ बर्धमानासारितानि, १२४ वलयम्, ३९२, ३९३ वलिकोहल:, ४०१ वलित:, ३९७, ३९९, ४०२, ४१४ वलिता, ३२८ वलिपाटः, ४१८, ४२३ वल्ली, ३९२ वल्लीबलयम् , ४७३ वल्लीजम् , ४८१ वसन्त:, १३५, १५३, ३०५ वसम्तस्य, ३७१ वसुः, ३२१, ३४२, ३४७ 74 वसुवंशः, ३३३ वसौ, ३५३ वस्तु, ३०, ३२, ३३, ३५, ४६, ४७, ४८, ४९, ५०, ५५, ५६, ६१, ६२, ६३, ८४, ९६, २४४, २४५ वस्तुत्रयम् , ४३, ५३ वस्तुमात्रम् , ८३ वस्तुवित् , २४५ वस्तूनि, ८७, ११० वांशिकः, ३६. वांशिकस्य, ३६१ वाक्यम्, २४ वाणम् , ३९४ वाचः, २५ वाम्च्छानुगः, ४९९ वातला, ४८६ वादकः, २३३, ४५९, ४६०, ४९७ वादनम् , ३६२, ३८८ वादनक्रमम् , २९६ वादनवापः, ३१५ वादनधन्वा, ३१५ वादनभेदाः, २३२ वादयित्वा, ३८१, ३८२ वादी, २७५ वाद्यम् , ३, २२७, २२८, २३०, २३३, २४४, २४६, २६३, २८१ वाद्यखण्डः, ४२९, ४४० वाद्यज्ञाः, २४५, ४३९ वायप्रबन्धाः , ४२७, ४२९, ४२, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ संगीतरत्नाकरः वाद्यभाण्डमितिः, २३३ विवारी, ३६, ६८, १३०, २५०, २.., वाद्यमोक्षकः, ४४५ वाद्यविदः, २४२, ३९० विदायः, १२७ वाद्यवेदिनः, २३९, ३९५ विद्यावन्तः,४४० वाद्यवेदिभिः, ४१९. विद्युत् , ३९९ वाद्यशास्त्रम् , ४७६ विद्युद्विलसितः, ४१२ वायसंश्रयाः, ४२८ विद्युद्विलास:, ३९९, ४१२ वाद्यानि, २३२, ३५६ विधि:, ११५ वामदेवतः, ३९७ विन्ध्यवासिनी, ४७८ वामदेवः, ४०१ विन्यासः, ६८ वामाघिसञ्चः, ४१७ विपञ्ची, २२९, २४८, २४९, २५० वार्तिकः, ५, ७ विप्रयोगः, ३९५ वार्तिकम् , ६०, १२४, २६२, २७.. विप्रहत्यादिपातकाः, २३७ वासुकिः, २३७ विरकम् , ४९७ विकटः, ३९८, १०२ विर्शतः, २६३ विक्षिप्ता,६ विरामम् , २६३ विक्षेपः, ४, ५, १६, ३९७ विरामवत्, १५२ विग्निका, ४५५ विरामवान् , १५९ विग्निकाः, ४७१, ४७६ विरामादिः, १५० विघुष्टम् , ४९७ विरामान्तः, १३९, १५६ विचक्षणाः, २२९, ३२२ विरामान्तम् , १३८, १४३, १४६, विच्छुरिन:, ३९९, ४१५ १४८, १४९,१५१,१५३,१५५,१५६ विजयः, १३७, १४९ विरामान्तलघुः, १५३ विजयानन्दः, १३६, १३७, १४८ विरामान्ताः , १४५, १५० वितण्डा, ४६. विरिश्चाद्याः, १३८ वितस्तिः , २३३, २३८, २८७, ४७७, विलम्बः, २४ ४७८,४८४ विलम्वितः, २८, ४६१ वितालः, ४२८, ४४७, ४५३ विलम्बितम, ४३१ विदारिका, २७०, २७४ विलम्बितता, ३८१ विदारिकाः, ६७ विलम्बिते, ३६२, ३७७, ३८८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः विलम्ब्य, ३६३, ३६४, ३६५, ३६५, विस्तारतत्त्वौधः २२५ ३६९, ३७२, ३७३, ३७४, ३७५ विस्तारधातुजाः, २७१ ३७६,३७९,३८०,३८१,३८४,३८५ विस्तारानुबन्धवत् , २५७ विलोकितः, १३५, १५३ वीणा, २२९, २३५, २४७, २८४,३१७ विवादिनः, २७५ । वीणायाम् , ३५६ विवाहः, २३१ वीणादण्डः, २९३, २९४ विविधः, ३४, ३८, ४१, ५४, ६९, वीणादण्डान् , २८३ ७०, ७२, ७३, ९२, ९६,९७ - वीणावादनम् , ३१७ विविधाः, १३१ वीणावाद्यम् , २८० विवृत्तः, ३४ वीणाविधौ, २८१ विशाखिलः, ४६, ६८, २३५ बीणाशीर्षान् , २८१ विशाला, ११५, ११५, ११८, ११९, वीरः, २३१ १२०, १२१, ४९२ वीराः, २३१ विश्रामः, ३९७, ४०१ वीरविरुदम् , ३८९ विश्रान्तिः, २४ वीरविक्रमः, १३६, १४२ विश्वमूर्तिः, ३३८, ३३९, ३४४, ३४८ वृत्तः, १२९, २३४ विश्वमूर्ती, १३५, १५०, १८०, ३९८, वृत्तम् , ७०, ८३,९७ ३९९, ४०३, ४१५ वृत्ता, ४९३ विषमा, ४६७ वृत्तिः, १,११३, २६२ विषमान्, ४६७ वृत्तित्रयेण, २८१ विषमकर्तरी, ३९९, ४०० वृषभः, ४८८ विषमखली, ३९७, ४०१ वेणी, ८८, ९०, ११, १२ विषमपाटा, ३९९ वेणु:, २६४ विषमपाणिः, ३९९, ४०० वेणुप्रावीण्यशालिन:, २६४ विषमस्खलितः,४०१ वेलावल्याः , ३७४ विष्णुः, ३९७ वैणः, २६५ विसर्जिता, ६ वैणवः, २८१, ३१९ विस्तारः, २५१, २५२, २५३, २६०, वैणवी, ३८७ २६५, २७५, २७८ वैणिकः, ३१८ विस्तारजः, २५१, २५३ वैदिकसामवत्, १३, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ पाञ्चिकाया:, २५१ वैहायसम्, ६८,७०, व्यक्ति:, ३५७, ३५९ व्यकी, ३१७ व्यञ्जनधातुकः, २७२ व्यञ्जनधातूत्था, २७६ व्यञ्जनम्, १२९, १३७, २५२, २६१ व्यञ्जनाः, २५१ व्यस्तः, १४ व्यस्तः, ४३० व्यापकम् १३८ व्यापकाक्षरैः, ४५० व्यापकाक्षर मिश्रः, व्यापकाक्षराणि, ४५१, ४५२ मणग्रन्थिभेदान् ४८७ श शंकरवल्लमः, ४०७ शंकरानुचरः, ४२४ शंभु:, १३८, २३१, २३७ संगीतरत्नाकर: शकलम्, २७२, २७८ शक्तिः, ४८९, ४९० शकु:, २८२, २८७, २९० शङ्कस्थानम्, २३३ शङ्कत्र:, २३४, ४७८, १०४ शङ्खस्य, ३९१ शङ्खमार्गः, १३४ शङ्खादि:, २३० शतानिसम् ७५ 1 शतालप्रान्, ६० शताशता:, ४७, ७५ १,९६ शनिता:, ९३ शम्या, ४, ५, १४, १९, ३३, ८४, ९९, १०६, १११, २६७, २६८, २६९, २७२, २८० शम्यातालम्, ११७ शरभलीळ:, १३६ शरभलीलक:, १४६ शरीरम्, ९७, ९९, १०१, १०२, १०४, १०५, १०६, १११, १२७, १२८ शर्वः, ३९७, ४९२ शाकदारुजः, २१५ शाखा, ४५, ४६, ४०, ५१, ५३, ५६, ५७, ९८, ६२, ६४, ६५, ७०, १०२, १०३ शार्ङ्गदेवः, १३७, २२९, २९१, २५६, २८७, २९२, ३०१, ३०७, ३२८, ३३९, ३४५, ३५०, ३५२, ३६३, ४०३ ४४४, ४७०, ४७४, ४८०, ४८१, ४८३, ४८८ शार्ङ्गदेवे, १५१ शार्ङ्गविद्या ३५२ शार्ङ्ग, १५९, २५२, ३६७, ४०४. ४८५, ४८८, ४९२, ४९६ शास्त्रीय:, ३५१ शिखा, ३१५ शिवम्, २२५ शिवः, ४८९, ४९० शिववक्त्रः, ४०० शिवस्तुतिः २९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः ५८९ शीघ्रतपः, २४ शोकार्त:, ३५६ शीतोदकाः, ४२८ श्रमजयः, ४६८ शीतोदके, ४८८ श्रमवहनी, ४६३ शीर्षः, ८९ श्रवणोत्सवदः, ४५८ शीर्षकम् , ३१, ३३, ३८, ३९, ४१, श्रावकत्वम् , ३५७ ४३, ४६, ४८, ४९, ५०, ५१ ५३, श्रीकरणाग्रणी:, ३३९, ३६०, ४२८ ५५, ५६, ५५, ५८, ६१, ६४, श्रीकरणेश्वरः, २९६ ६५, ९८, १०१, १०३, १०५, श्रीकीर्तिः, १३४, १३७ १०६, १२७, १२८ श्रीनन्दनः, १३७, १५५. शीर्षम्, ८८, १०२, १२७ श्रीनिःशङ्कः, २८४ शुक्रतुण्डास्य, ४०४ श्रीपर्णी, ४९५ शुकवक्त्रः , २३९, २४३, २४५ श्रीमत्सोढलनन्दनः, २४० शुक्तिः, ४९५ श्रीमान् , २७० शुक्तिका, २३०, ३८९ श्रीयज्ञपुरवर्यः, ३९३ शुक्तिजा, ३८९ श्रीयनपुरसूरिः, ४२१ शुद्धम् , ४९७ श्रीरशः, १३६, १४३ शुद्धा, ४२१ श्रीरागस्य, ३८६ शुद्धकूटखण्ड:, ४३. श्रीशाजदेवः, २२९, ३३९ शुद्धकूटादि, ४४४, ४४६ श्रीशाी , १३८, २३५, ३०९, ३४४, शुद्धकूटादिः, ४४२ ३५१,४८२, ४८८ शुद्धनट्टायाः, ३७६ श्रीशाह्मिसूरिणा, ३५०, ३५२ शुद्धवराव्याम् , ३७६ श्रीश्रीकरणनाथः, ४१२ शुद्धसालगः, ४६७ श्रुतिः, ३१७, ३५३ शुद्धिः, ३९५, ४०१ श्रुतिजातिवित् , ३१७ शुण्कम् , २३१ श्रुतिनिधिः, ३२२, ३५० शुष्कवाद्यम् , २६५ श्रुतिवीणा, २२९ शुष्कवाद्यानि, २६५ श्रेष्ठः, ४१७ राङ्गम् , २३०, ३९० श्लक्ष्णः, २३३, २३४, २८२, ३१९, शृङ्गजा, ३८८ भ्यारे, ३५६ श्लक्ष्णम् , २८६, ३९०, ४९४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० लक्ष्णा, २३६, २८६, ४९३ श्लथम्, ३९२ श्लिष्ट:, २८५, ४५० श्लेषणम् २९१ श्लेष्मला, ४८६ ष षट्कलः, १०, १३० कलम् २७२ षट्कलमुखी, १२१ संगीतरत्नाकरः षट्तालः, १३७, १५६ षट्पितापुत्रकः, ११, १२, २० षड्जः, २८४, ३०६, ३०८, ३१२, ३२३, ३२४, ३२६, ३६५, ३६६, ३६९, ३८१ स संख्या संततिः, १६८, १७२, १७७ खोटना, २६५, २७६ संगता, ११५, ११७, ११८, ११९, षड्जे, ३७१, ३७५, ३७९ षड्जग्रामः, २७९ षड्जत:, २९६ षड्जादि:, ३०० षड्जादय:, ३२३ संबन्ध:, १३२ षड्वस्तु, ५८, ६३, ६४, ६५ षड्वस्तुकम् ५०, ५३, ५६ संभ्रमः, २३१ षण्मुखः, ३२१, ३३२, ३४२, ३४६, संभ्रान्त:, ३९८, ४०३ ३४७ संभाविता, २६२ षण्मुखस्य, ३५३ संयोग:, ३९५ संयोगमेह:, १६०, १९१, २०३ संस्कृति:, १३२ संख्या, १६०, ६६, २०४, २०८ संख्यानियम:, ३५, ३६ १२१, १२२ संघातज:, २५१, २५२, २५३, २५६ संचारः, ३९७ संचारविखली, ३९७, ४०१ संद:, ३५८ संधि:, ८८, ८९ संघितः, २३९, २४० संनिपात:, ४, ५, २०, ७५, ८७, ११२, १६६, ११० संनिविष्टा, २३८ संन्यास:, ३२, ६८ संपक्केष्टाकः, १२, १२, २०, २७७ संपक्केष्टाकतालवत्, २७७ संपिष्ट:, ९२ संपिष्टकः, २७७ संपिष्टककल:, २७६ संपिष्टकम्, ८८, ८९, ९३, १४, १२७ संलेख:, २३९, २४० संवादी, ३५, ६८, २५१, २७५ संस्पृश्य, ३८० संहरणम् ५७, ७०, ७८, ८३, ८५, ८७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानामनुक्रमः ५९१ संहारः, १११ सकलम् , २४६ समस्तोद्दिष्टवत् , २१३ समा, २६, २६२, २८२, २८६, ४५०, समाकृति, ३९९ समादिप्रहवेदिता, ४२७ समान्, ४६७ समापनम् , ६८ समुदाय:, ४२०, ४५३ सरल:, २३३, ३१९ सरलम्, १३८ सरस्वती, २३७ सरस्वतीकण्ठाभरणः, १३७, १५९ सरिका, ४९५ सरिंगमादयः, ३३६ सरी, ३९७, ४०१ सर्पाकृतिः, ४९५ सर्पिणी, ६ सर्वदेवमयी, २३७ सर्वगुतान्ताः, १८२ सर्वद्वतावधिः, १६॥ सर्वप्रस्तारवत, २०६ सर्वमङ्गला, २३७ सविरती, ३५६ सशब्द:, ४,६ सामगाने, १३२ सामाशानि, १३०, १३१ सामानि, २५ सामोक्कम्, १३२ सामोद्भवम्, १३८ सामुद्रः, ३४ सारम् , २३४ सारणा, २३८, २४१, २४२, २४७, ३१७, ३५९ सारसः, १३७, १५७ सारिका, २३७, २८५, २८६, २८५, २८९, २९०, २९३, २९४ सारिकाः, २८२, २९१ सारी, २८७, २९२ सार्थकः, २८० सार्धमात्रः, १६६ सार्धत्रिवस्तु, ८२ सालग:, ४२९, ४६७, ३१३ सालगगौडः, ३८४ सालगनट्टा, ३७९ सालगनटाया:, ३८० सावधानता, ३५७ सावधानमनाः, ३१८ सिक्थः, ३९१ सिंहः, १३७, १५७ सिंहनन्दनः, १३६ सिंहनादः, १३६, १४६ सिंहलीलः, १३६, १४२ सिंहविक्रमः, १३६, १४२ सिंहविक्रमः, १३६, १४२ सिंहविक्रीडितः, १३६, १४५ सीवनम्,४५५ सुकुमाराक्षरः, ४४१ सुघटितम् , ३९० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः सुधांशुः, २३७ सौकुमार्यम् , २७९ सुधीः, ३१५, ३१६, ४०० स्कन्दे, १५८ सुनन्दा, ११५, ,११५, ११८, ११९, स्कन्ददेवतः, ३९३ १२२, १२३ स्कन्धः, ४१६, ४७४, ४७६ सपक्कः, २३५, ४७२ स्कन्धपट्टिका, ४७० सुमुखी, ११५, ११७, ११८, ११९, स्कन्धसञ्चः, ४१४ १२३ स्कन्धावजम् , ४७० सुभरम् , ४९७ स्खलितः, २३९, २४२, २४५, ३५८, सुरागता, ३५९ ४०२ सुरेखः,४६५ स्तोकः, २७३, ३५० सुरेखत्वम् , ४६५ स्तोकवक्त्रः, ४७२ सुवृत्तः, २३३, २८२ स्तोमः, १३०, १३२ सुवृत्ता, २३७ स्तोमभङ्गी, १३१ सुशारीर:, ३१८ स्तोभाक्षरः, १२९ मुषिरम् , २२७, २२८, २३०, २३२, स्तोभाक्षराणि, १३१ २३३, ३१९, ३४५, ३८७, ३८९ स्थापनम् , ४६०, ४६१ सुस्थानम् , ३६० स्थायिताम् , ३७३ सुस्थानत्वम् , ३५९ स्थायिनः, ३७५, ३७७ सूक्ष्मः , २४७ स्थायिनम् , २८७, २९६, २९७, ३००, सूक्ष्मा, २८२ ३०२, ३०४, ३०५, ३०६, ३०८, सूरयः, २५३, ३३८, ३९५, ४२९ ३११, ३१३, ३६२, ३६७, ३७२, सूरिणा, २८७, ४७४ ३७६, ३७९, ३८०, ३८५, ३८६ सूरिभिः, २१३, २६५, ४३९ स्थायिनि, ३६८, ३६९, ३७१, ३७८, सूरिशाङ्गिणा, २१७, ३५७, ३६६, ४२६ सूरिसमाश्रितम् , १३० स्थायी, ३०३, ३०७, ३०९, ३१०, सेल्लुका, २३०, ४८१ ३११, ३१२ सोढलनन्दनः, २५९ स्थितः, ७५, ७६ सोढलसूनुना, १३७, २३०, ३४४, ३४५, स्थितम् , ७०, १ ३५५, ४११,४९१, ४९७ स्थितप्रवृत्तः, ८१ सोढलात्मजः, ४९६ स्थितप्रवृत्तम् , ७९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितप्रवृत्तहीन, ७३ स्थिरशः, २८६ स्थिरासनपरिग्रहः, ३१८ स्थिरीभूय, ३८० स्थूलहस्त:, ३९९, ४०६ स्नानगर्वः, ४२८ स्नायु, ४७६, ४८८ स्नायुमयी, २३६, २८७ स्निग्धः, ३५६, ४९०, ४९९ स्निग्धम्, ३९० स्निग्धता, ३५७ स्निग्धाः, २७७ विशेष पदानामनुक्रमः स्फुटप्रहार:, ४९७ स्फुरण:, ४०१ स्फुरणक:, २४४, ३९७ स्फुरित: २३९, २४१, २४४, २४५ स्फुरितम्, ३७२, ३७५, ३८२ स्फुरितौ, ३७३ स्फुरी, ४०१ स्फूर्ति:, ४५७ स्रोतोगता, २६२, ४५१, ३१७, ३५६ स्वरभङ्गः, ३५१ स्वरवीणा, २२९ स्वव्यक्तिः, २८७ 75 स्वरव्यञ्जिका, २५१ स्वरसंभूतिः, ३१४ स्वरसिद्धिः, ३०८, ३४१ स्वरहेतव:, ३५६ स्वरस्थानानि, २९६ स्वर्ग:, २३७ स्वस्तिकः, ३९७, ३९९, ४०८, ४३१ स्वस्थानम्, २९६, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६९, ३७०, ३७१, ३७२, ३७३, ३७४, ३७५, ३७६, ३७७, ३७८, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, ३८५, ३८६ स्वस्थानप्रक्रिया, ३६९ स्त्राती २३१ स्वेदहीन, ४९९ ५९३ ह हंसः, १३७, १५७ हंसनाद:, १३६, १४६ हंसलीक:, १३६, १४३ हकारः, १२९ स्वर:, १२९, २९६, २९७, ३०५, ३०९ स्वरा:, २८४, २९२, ३०० हरम् २२५ स्वरान, २९६, ३०४, ३०६, ३०७, हरप्रिय:, २४४, ३५१ ३०८, ३१० हस्तः, २३३ स्वर स्फुरणः, ४०२ स्वरस्फुरणकः, ३९७ हस्तपाट:, ४०३, ४१३ हस्तपाटाः ३९६, ३९८, ३९९, ४०१, ४०२, ४०३ हस्तपाटैः, ४२६ वर्णवती, ३८७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ संगीतरनाकरः हिंकारः, १३२ हृदयस्फूर्तिः, २३१ हीनः, २३३ हेमादि, ३९२ हुडुक्का, २४०, २३३, ३९९, ४१६, होडुक्किकः, ४१७ ४१८, ४१९, ४७०, ४७३, ४७५, हस्वम् , १३८ हादः, २५२, २५७, २७१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ERRATA Page १५ Correct Reading ताशताश तालधारी मार्गताल लक्षणम् संन्यासांशे तवयोः . : به 4: س م ه م به س ، वैहायसम् ११३ १३२ अपरान्तके आसारितानि संबन्धः ऋच्यूढम् गजलीलो हंसलीलो वर्णभिननिभिन्नका वर्णरुयश्रः कोल्लाट: करण: १५४ " م م س ه ه ه ، س विंशत्युत्तरशतं योगः १९४ नभोऽन्विताः २१५ . م م م ه पतितः परेण द्विरधरोऽप्यधरात् रेफोऽनु चतुर्धा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः . . Page 285 287 324 329 Correct Reading वक्षोस्थि मेढकोपरि उद्यन्ति उदयं प्राप्नुवन्ति वंशव्यवस्था . न तत्र वंश 356 358 कृश: कम्पितः . . रुक्ष: स कम्पितः प्रक्रियैषेव चिन्धमरामक्री: 38. 288 प्रह .. इत्युत्फुल: माणिकवली हस्तपाटा: ..... 423 विपर्यासात् एकविंशति ताडनात् आजातेयः प्रहरणानि विताल: वृद्धस्य 428 .. 488 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute