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ક્રમ
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦)
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ્ हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमावाह - 04 (मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ (२हे.) २७५०५७२०
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तठी वेबसाहट परथी पक्ष SIGनलोड करी सारी. પુસ્તકનું નામ
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६
055
056 विविध तीर्थ कल्प
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
058 सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
060
જૈન સંગીત રાગમાળા
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063
चन्द्रप्रभा मकौमुदी 064 विवेक विलास
पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
065
066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
067
068 | मोहराजापराजयम् क्रियाकोश
069
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
जन्मसमुद्रजातक मेघमहोदय वर्षप्रबोध
पहेशभाला होघट्टी टीडा गुर्भरानुवाह
072
073
074
075
076
077 संगीत नाट्य उपावली
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૨
ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
078
079 शिल्प चिन्तामशि लाग-१
080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्पशास्त्र लाग-२
082 बृह६ शिल्प शास्त्र लाग-3
083 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो लाग - १
084
085
કલ્યાણ કારક विश्वलोचन कोश
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
086
087 5था रत्न प्रेश लाग-2
088
હસ્તસગ્રીવનમ્ એન્દ્રચતુર્વિશતિકા
089
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
090
ભાષા
सं
सं
शुभ.
सं
सं
शु.
सं
सं
सं
सं/ ४.
सं
सं
गु४.
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ.
४.
शुभ.
शुभ.
शुभ.
सं./हिं
र्त्ता-टीडाडार-संचा
शुभ.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
सं
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
सं/हिं सं/गु४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
शुभ.
सं.
सं..
सं.
And Shrugyanam
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
श्री धर्मदत्तसूरि
श्री धर्मदत्तसूरि
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
श्री दामोदर गोविंदाचार्य
पू. मृगेन्द्रविजयजी म. सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नयाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री नंदलाल शर्मा
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पूज. यशोविजयजी, पू, पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
374
538
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૯૦
સન્મતિતર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
: દ્રવ્યસહાયક :
૫.પૂ. યોગનિષ્ઠ આ. શ્રી કેસરસૂરીશ્વરજી મ.સા. સમુદાયના પ.પૂ. આ. શ્રી હેમપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ. પ્રવર્તિની સાધ્વીજી શ્રી નેમશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી મંજુલાશ્રીજી મ.સા ના પ્રેરણાથી આનંદ આરાધના ભુવન – મધુપુરી-જૈનનગર, સાબરમતી શ્રાવિકાઓના ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦
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शासनसम्राट् सूरिचक्र चक्रवर्ति- तपोगच्छ नभोनभोमणिबालब्रह्मचारि-शासनप्रभावक - पूज्यपाद - भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय नेमिसूरि सद्गुरुभ्यो नमः
न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारद बिरुदालंकृत -- बालब्रह्मचारि - शासन प्रभावकसंव्यानेकग्रन्थ-पूज्यपादाऽऽचार्य श्रीमद्विजय दर्शनसूरि प्रणीता
सम्मतितर्क महार्णवावतारिका
[ सम्मतितर्क मूल व्याख्यात्मिका ]
: प्रकाशिका :
मद्रासनगरस्था जैनमार्गप्रभावक सभा रखवदास भबुतमल ४०९/४१० मीन्टस्ट्रीट-मद्रास सिटि - १
श्री नेमि सं-८- विक्रमाद्र २०१३ - श्रीवीराद्र २४८३ प्रतयः - ८५० - कीमत रु. १५ सर्व को स्वाधीन राख्या छे
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|| आभारप्रदर्शन ||
आ ग्रन्थ प्रकाशनमा जे जे ज्ञानभक्त - दानवीर श्राद्धवर्य सद्गृहस्थो ए स्वलक्ष्मीनो सदुपयोग करवा निमित्ते आर्थिक सहाय आपी छे ते सर्वनो अमे आभार मानीए छीए.
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विज्ञापन
श्री विक्रमनृप प्रतिबोधक - शासनप्रभावक - पूज्यपाद श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरि भगवन्ते बनावेल संमतितर्क ग्रन्थनो अभ्यास करवाने इच्छनारा अभ्यासको बहु सरलरीते समजी शके अभ्यास करी शके ते माटे ते मूल ग्रन्थना प्रतिपदनु विस्तारथी विवेचन करवा पूर्वक आ मूल ग्रन्थनी लघु टीका बनावत्रामां आवी छे. परवादिकृत युक्तिसमूहनु सचोट खण्डन करवामां आवेल होवाथी आ ग्रन्थनी महार्घता अने शासन प्रभावकता स्वभाविक सिद्ध थाय छे.
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प्राप्तिस्थानम् – १ श्री रतिलाल बुलाखीदास - अमदावाद. स्वामिनारायण चाली घर नं. १७.
२ जसवंतलाल गीरघर - जैन प्रकाशन मंदिर, ३०९ / ४ दोशीवाडानी पोल - अमदावाद. ३ जिनदास धर्मदासपेठी - महुवा बन्दर. तथा कदम्यगिरि ( बोदाना नेस ) ( मौगष्ट ) मुद्रणस्थानम्
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भावनगरस्य महोदयमुद्रणालये गुलाबचन्द लल्लुभाइ इत्यनेन सम्पूर्णग्रन्थोऽयं मुद्रित :
प्रस्तावना-विषयानुक्रमणिकादि सर्वे अहमदावादस्थ गांधीमार्गस्थित नयन मुद्रणालये पण्डित मफतलाल झवेरचन्द्रेण मुद्रितम्
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प्रस्तावना
तमःस्तोम स हन्तु, श्री सिद्धसेन दिवाकरः
यस्योदये स्थितं, मूकैरुलकैरिव वादिभिः ॥ १॥ प्रद्युम्नसरि राजकुमार शुद्धोदन बौद्ध गौतमे ननामी उपाडी जता माणसोने अने तेनी पाछळ रोककळ करता तेना कुटुंबीओने जोई पोताना सेवकने पुछयुं आ शुं छे ? सेवके का 'कुमार! जुवानजोध साजो सारो एक श्रेष्ठिपुत्र अचानक मरण पाम्यो छे तेना मृतकने तेना सगाओ श्मशाने लइ जाय छे.' गौतम विचारे चडयो 'मानवमात्रनी आ दशा ? सौर्नु मृत्यु अचूक. मरण पछी शुं थतुं हशे? बाळ किशोर युवान वृद्धावस्था मरण आ वधु कोर्नु ? दुनीयानां अनेक परावर्तनोर्नु कारण शुं ?' शुद्धोदन खुमखुब विचारमा उंडो उतयों पण तेनो ताग तेने न लाध्यो. तेणे फरी विचार्यु 'आ वेभव, पुत्र, स्त्री अने संपत्तिना मोहमय वातावरणमा भने आनो उकेल क्याथी जडे आने माटे तो नीरव शांतिवाढं स्थान जोइए. तेणे एक मधराते सुतेला पुत्र स्त्री अने वैभवभर्यो राजमहेल छोडयो अने ते पगपाळो चाली नगर बहार आव्यो. दूरदूरना केइ आश्रमोमा कोइ 'ॐ नमः शिवाय' तो कोइ 'हरे राम हरे कृष्ण हरे राम हरे हरे' करता तापसोनो अवाज तेने काने पडयो. गौतम आश्रमे आश्रमे फर्यो अनेक तापसो अने वर्षों सुधी तपत्याग अने ध्यान करनाराओनो संसर्ग सेव्यो पण तेने जन्म शुं? मरण शुं? मरण पछी शुं स्थिति ? विगेरेनो उकेल न लाध्यो. गौतम एकलो पडयो. वर्षों सुधी आनो तेणे विचार कर्यो अने शोधी कायु के 'दुनीयानी देखाती बधी वस्तु क्षणविनश्वर छे ते क्षणे क्षणे नाश पामे छे दीवानी कलगी, भिन्न छतां आपणने सदृशताने लइने एक लागे छे, तेम सदृशताने लइने दुनीयाना पदार्थोमां आपणने एकता लागे छे. बाकी बधुं क्षणविनश्वर छ गौतमनो वाद-विचार क्षणक्षयमा स्थिर थयो. तेणे क्षणक्षयने केन्द्रमा राखी वधी वातोनो उकेल आण्यो. राजकुमार गौतमना क्षणक्षयना विचारमाथी चौद्धदर्शन प्रगटयु.
कारुणिक कपिले आ दुनियानी घटमाळनो उकेल पुरुष अने प्रकृति ए ये तस्वनी शोष शारा आण्यो अने ते बे तत्व उपर निर्भर रहेल तेनो तत्ववाद सांख्यदर्शनरूपे प्रगटयो.
मीमांसक दर्शनकारने मानवमात्र मतिविभ्रम, प्रमादादिथी अपूर्ण शक्तिवाळो भास्यो अने तेथी तेणे वेदोने अपौरुषेय मान्या अने ते वेदो द्वारा अनेक वस्तुओना उकेल शोधी पोताना तत्ववादने तेणे स्थिर कर्यो.
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वैशेषिक अने नैयायिक दर्शनकारोए आ षधी वस्तुओना उकेल माटे अमापशक्तिसंपन ईश्वर, आत्मव्यापकतावाद विगेरेनो आश्रय लइ तत्वनी व्यवस्था घटावी.
कोइए योगथी, कोइए भक्तिथी तो कोइए 'ब्रह्म सद् जगन्मिध्या' विगेरेथी आत्मसंतोष मान्यो. आम भारतमा कोइए कोइनें मृत्यु देखो जगत्नी विचित्रताना उकेलमा समग्रजीवनकाळ परोल्यो. कोईए पृथ्वी पाणी आकाश विगेरे तत्त्वोने देखी तेनी गवेषणा आरंभी तो कोइए आपणे फ्यांथी आव्या अने क्यों जइशं तेनी विचारणामां वर्षों काढी जुदा जुदा उकेलो आण्या पण आ बधा पाछळ पृथकरण बुद्धि न होवाने लइ आ बधा उकेलो वादो केटलीकवार विवादमा परिणम्या अने तेने लइने दरेकनी साची बात पण एकबीजाना खंडनमंडनमा उत्तरी अंगप्रत्यंग परिष्कृत भारतना तत्त्ववादपुरुषने कोइए अंगथी तो कोइए प्रत्यंगथी पोताना तवा परिपूर्ण मान्यो.
जैनदर्शने तत्वगवेषक बुद्धिथी अटवाता सर्वदर्शनोने अनेकांतदृष्टिथी पोतानामा समावी लीधां अने क्षणिकवाद, नित्यवाद विगेरे बधा वादो आपेक्षिक बुद्धिथी विचारवामां आवे तो कोइ खोटा नथी. हाथी थांभला जेवो छे. सुपडा जेवो छे के दोरडा जेको छ कहेनाग अंधोने सर्वतः हाथीने अवलोकनार कहे के पगथी हाथी थांभला जेवो छ कानथी सुपडा जेवो छ अने पुंछडाथी दोरडा जेको छै तेम जगत्ना तमाम वैभयो अने पर्यायो क्षणनिश्वर छे मोह न धरशो. तेमज तेम पण न मानशो के कंठी भागी एटले सोनुं जतुं रह्यं. तमाएं बाळपण, युवापण वृद्धपण अने मनुष्यपणुं भले जाय आवे पण तमारो आत्मा तो अमर अने नित्य छे तेनो निस्तार करवो के अधःपात करवो ते तमारा हाथनी वात छे.
जैनदर्शननी आ सर्वमुखी दृष्टि ते तेनो अनेकांतवाद छ, स्यावाद छे. आ स्याद्वाददृष्टिने लइ सर्वदर्शनो जैनदर्शनमां समाय छे अने सर्वदर्शनोमांथी स्याद्वाददृष्टि जैनदर्शन अनुरूप तत्व शोधे छे. आम भारतमां तमाम दर्शनो एकदृष्टि अने सर्वदर्शनोने समन्वय करनार जैनदर्शन सर्वदृष्टि-अनेकांतदृष्टि छे.
कोइ पण पदार्थने तेनी बधी संभवती बाजुने तपासवी ते अनेकांतदृष्टि छे. आ अनेकांतदृष्टिनी साची समज नय, सप्तभंगी, ज्ञान, अने ज्ञेयनी पुरी समज आवे तो ज आवी शके तेम छे. आ नय, सप्तभंगी, ज्ञान अने ज्ञेयनी पुरी समज आगम ग्रंथोमा ठेर ठेर छूटी छटी अनेक ठेकाणे आपवामां आवी छे. छतां पण आ संबंधी व्यवस्थित विचारणा करनार जैन दर्शनमा कोइ पण स्वतंत्र के प्रथम ग्रंथ होय तो आ सम्मतितर्क ग्रंथ छे. जैनदर्शनना आंतर तत्वने कसोटी उपर चडावी निर्मळ सुवर्ण रुपे जगतना समग्र तत्त्ववादो आगळ रजु करनार तेनो अनेकांतवादस्यादवाद छे. आ अनेकांतवादने सफळ रीते पू. आ. सिद्धसेनदिवाकरसूरिए आ ग्रंथमां रजु कर्यों छे, जेने लइ आ ग्रंथ अने तेना कर्ता पू. सिद्धसेनदिवाकरसरि धर्मशास्त्रप्रभावक मनाया छे.
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भिक्षापात्र उपर रही उघाडे पगे अने उधाडे माथे जगत् उपर विचरनारा जगत्ना जीवमात्रनु कल्याण इच्छनारा आपणा सर्व मुनिओ धर्मप्रभावक महात्माओ छे. तेमनी वेष, आचार, उपदेश अने आकृतिए केइ मानवगणोने तार्या छे. अने केइने बोधिवीज उत्पन्न कर्या छ पण जेना कार्यनी वर्षोंसुधी स्मृत्ति रहे अने जेने याद करी हजारो मानवोनो निस्तार थाय ते पुरुषो जैनदर्शनना विशिष्टप्रभावक महात्माओ छे.
पू. आचार्य सिद्धसेनदिवाकरसरि एवा विशिष्ट धर्मप्रभावक महात्मा छे के जेमने अने तेमना सम्मति मंथने तेमना पछीना थयेला ग्रंथकारोमांथी भाग्ये ज कोइए तेमने याद कर्या न होय. काव्य, व्याकरण, न्याय, धर्मोपदेश अने बीजा अनेकविध सेंकडो ग्रंथोनु सर्जन आपणा मुनिमहात्माओने हाथे सर्जायु छे. आ सर्जननो उपकार अने सौरभ केवळ जैन शासनमां नहि पण जैन जैनेतर बधे विस्तरी छे. छतां नवी दृष्टि अने विषयने आरपार पारखी ग्रंथ निर्माण करनार महात्माओमां पू. सिद्धसेनदिबाकरसूरि, पू. आ. हरिभद्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्रसरि अने प. उ.यशोविजयजी महाराज विगेरे मूख्य छे. पू. सिद्धसेनदिवाकरसूरि महाराजे जैनदर्शनना स्थावाद-अनेकांतवादने जगत्ना चोकमां झळहळती रीते अने अकाटघरीते रजु करी एक वीजा तत्त्ववादोनो समन्वय करी सोने जणाव्यु के अनेकांतवादना आसरा विना व्यवहार के तत्त्ववाद कोई स्थिर थशे नहि. तपत्याग अने ध्यान क्रियाना उत्तरोत्तर विकासना पगथाररूप गुणस्थाकोनुं स्वरूप जैनग्रंथोमां ठेर ठेर हतु छतां ते स्वरूपमां जगत्भरना आध्यात्मिकविकासने संग्रही दृष्टिओना स्वरूपने रजु करवामां पू. आ. हरिभद्रसूरि प्रथम पंक्तिए छे. काव्य व्याकरण साहित्य विगेरे सर्व शास्त्रोन महाकाय निर्माण करनार कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रसरिए एबु ग्रंथ निर्माण कयु के जैनदर्शनमां तो तेमना ग्रंथो प्रभावक रह्या पण जेनेतरोए पण हमेशने माटे तेमना वधा ग्रंथोने तेमना पोताना ग्रंथोमा प्रमाणित कर्या अने तेमनी साक्षिओ धरी कलिकाल सर्वज्ञरुपे संबोध्या. तत्त्वभरपुर कठीन न्यायग्रंथोथी मांडी रास स्तवन अने सज्झाय सुधीनुं अनेकविध साहित्य निर्माण करनार उ, यशोविजयजीए तमाम तात्विक मतभेदोनी संकलना करी अने नव्यन्यायना अनेक प्रथोर्नु निर्माण करी जैनेतरविद्वान समाजने पण बताव्यु के जैनमुनिमहात्माओ साहित्यना सर्वक्षेत्रमा सर्वकाळे सदा मोखरेज रया छे.
- आ. पू. आचार्य हरिभद्रसूरि-कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्रसूरि अने उ. यशोविजयजीमहाराज जे जनशासनना महाप्रभावक पुरुषो छे तेमणे पण तेमना साहित्यसर्जनमा पू. सिद्धसेनदिवाकरपरिनो महान उपकार गण्यो छे. ___ अनेकांत जयपताका शास्त्रवार्तासमुच्चय, पइदर्शनसमुच्चय, पंचवस्तु अने धर्मसंग्रहणी विगेरे ग्रंथोमा १४४४ ग्रंथ प्रणेता पू. आ. हरिभद्रसूरिजीए पू, सिद्धसेनदिवाकरसरिना संम्मतितकं भ्यायावतार अने पत्रीसीओमांनी अनेक वस्तुओने साक्षिपाठरुपे संग्रही छे. पंचवस्तुमा तेमणे
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जणान् छे के-
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सुकेवलिणा जओ भणिअं 'आयरिय सिद्धसेणेण सम्मइए पइडिअज सेण दुसम - णिसादिवायर कप्पत्तणओ तदवखेणं ॥ १ ॥
पंच. ५४३. गा - १०-४८
दुष (काळरूपी) निशामां दिवाकर-सूर्य जेवा होइ दिवाकर नामवाळा अने प्रतिष्ठित वाळा श्रुतकेवळी आचार्य सिद्धसेने का छे. '
कलिकालसर्वज्ञहेमचंद्रसूरि महाराजे सिद्धहेमशब्दानुशासनमां 'अनुसिद्धसेनं कवयः ? कही सिद्धसेन दिवाकरसरि महाराजने श्रेष्ठ कवि तरीके स्तव्या छे अने तेमणे अन्ययोगव्यवच्छेदकारिकामां का सिद्धसेनस्तुतयो महार्था, अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः, स्वलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः ॥
क्या महाअर्थवाळी सिद्धसेन दिवाकरसूरिनी स्तुतिओ अने क्यां नहि शीखेल आलापक वाळी मारी स्तुतिओ तोपण गजराजना मार्गमा रहेल स्खलित गतिवाळो तेनो बाळक शोककरबा योग्य नथी' जणावी तेमनी द्वात्रिंशिकानी रचना करतां पू. सिद्धसेनदिवाकरारिनी द्वात्रिंशिकाओने सामे राखी छे.
उ. यशोविजयजी महाराजनुं अनेकविध साहित्य सन्मतिप्रकरणना त्रणे कांडोने अनुलक्षी सर्जायुं छे अने तेमणे तो तेमना बधाज ग्रंथोमां सिद्धसेन दिवाकरसूरिने स्तव्या छे अने जाणे तेमना तत्वदृष्टिना साक्षात् गुरु सिद्धसेनदिवाकरसूरिज होय तेम तेमणे तेमनी भूरिभूरि स्तुति करी छे.
आ उपरांत आपणे त्यां थयेला नाना मोटा बधाए ग्रंथकारमहात्माओए तेमना गुणानुवाद गाया छे. महाकाय स्याद्वादरत्नाकर जेवा न्यायशास्त्रना ग्रंथनिर्माता वादिदेवसूरि शीलांकाचार्य, ध्वादिषेतालशांतिसरि, "प्रद्युम्नसरि, मलिसेणसरि, अभयदेवसूरि, मुनिरत्नसूरि विगेरे अनेके तेमना ग्रंथोमां तेमनी स्तुति करी छे.
दिगंबर संप्रदायना गंधहस्ति, २ विद्यानंद, श्वादिराज, ४ शिवकोटि, "लक्ष्मीभद्र, अनंतवीर्य, अने अकलंके तेमना ग्रंथ निर्माणम पू. सिद्धसेन दिवाकरसूरिना आ सम्मति ग्रंथ
१ पुंजाभाइ प्रथमाला मुद्रित सम्मति प्रकरण परिशिष्ट-३
२ श्री सिद्धसेनहरिमद्रप्रमुखाः प्रसिद्धाः । ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः |
ari fare and विविधान् निबन्धान् । शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मारू ॥ ८ ॥
३ इम्यानुयोगः पूर्वाणि सन्मत्यादिकश्च । दर्शनप्रभावकैर्वा सम्मत्यादिभिः
४ तथा च महामतिः
५ तमः स्तोमं स हन्तु श्री सिद्धसेनदिवाकरः यस्योदये स्थितं मुकैरुलुकैरिव वादिभिः
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अने द्वात्रिंशिकानो ठेर ठेर उपयोग कर्यों छे अने केटलाक ग्रंथो उपर तो टीका टिप्पणो करी तेनी प्रत्ये आदर बताव्यो छे. धवळटीकामां पण सम्मतिनो ठेर ठेर उपयोग थयो छे.
आम पू. आ. सिद्धसेनदिवाकरसरि अने तेमना सम्मतिग्रंथने तेमना पछीना थयेला तत्त्वगवेषक ग्रंथकारोए परस्पर संयुक्त रीते स्तवेल छे.
विक्रमनी आठमी शताब्दियी सम्मति दर्शनप्रभाषक ग्रंथ छे. शास्त्रोमा ठेर ठेर जणाव्यु छ के मुनिए निर्दोष आहार व्होरवो छतां पण दर्शनप्रभावक शास्त्रोना अभ्यासी मुनिने तेवो निर्दोष आहार व्होरबानो योग न मळे तो अनेषणीय आहार होरीने पण दर्शनप्रभावकशास्त्रोनुं अध्ययन कर. आ वात निशीथभाष्यमा
. 'दसणपभावगाणं सत्थाणठाते सेवतिजाउ.' कही जणावेल छे. विक्रमनी आठमी शताब्दिमां थयेल जिनदासगणिए नंदीसूत्र उपर चूर्णि रची छे, आ चूर्णिमां पण निशीथभाष्यनी पेठे दर्शनप्रभावकशास्त्रोना अभ्यासीने अकल्पित आहार सेवनमा प्रायश्चित न लागे ते जणाव्यु छ अने तेमां दर्शनप्रभावक शास्त्रो कोने गणा ते जणावतां सिद्धिविनिश्चय अने सम्मतिप्रकरणनो तेमणे उल्लेख कर्यों छे.
दसणणाणप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छियसंमतिमादि गेण्हंतो असंथरमाणे जं अकप्पि पडिसेवति जयणाते तत्य सो सुही अप्रायच्छित्ती भवतीत्यर्थः
(निशीथचूर्णी) 'कारणवश जो यतनाथी सिद्धिविनिश्चय सन्मति वगेरे दर्शनप्रभावक शास्त्रोने शीखनार साधु अकल्पित वस्तुनु सेवन करे तो पण ते शुद्धज छ प्रायश्चित्त तेने नथी लागत.'
-आथी ए स्पष्ट छ के विक्रमनी आठमी शताब्दिथी तो सम्मतितर्क ग्रंथ दर्शनप्रमाक्क शाख तरीके जैनशास्त्रोमां ठेरठेर उल्लेखित करायेल छे.
सिद्धसेनदिवाकरसूरिजीवनपरिचय. आ दर्शनप्रभावक सम्मतिपकरणना रचयिता सिद्धसेन दिवाकरसरि क्यारे थया तेमनो जीवनवृत्तांत शो हतो ते माटे आपणी पासे वे साधनो छे १ तेमनी कृतिओ अने २ तेमनो पछीना थयेला ग्रंथकारोए करेल साहित्य.
सिद्धसेन दिवाकरमरिना रचित ग्रंथोमा हाल २४ ग्रंथो छ तेमा २१ बत्रीसी अने न्यायापतार कल्याणमंदिर ए २३ संस्कृत कृतिओ छे. अने प्राकृतभाषामां रचेल सम्मतिप्रकरण छे. आ चोवीस ग्रंथो पैकी पांचमी अने एकवीशमी बत्रीसीमां १ प्रांत भागमा सिद्धसेन शब्दनो उल्लेख छे. वाकीना कोइपण ग्रंथमां सिद्धसेन दिवाकरसूरिनो उल्लेख नथी के तेमना जीवन संबंधी बीजी विशिष्ट माहिती नथी.
१ इति निरुपमयोगसिद्धसेनः प्रबलतमोरिपुनिर्जयेषु वीरः" । ५, ३१. महाशान्तिभर्ता महासिद्धसेनः । महाधिनेशो महाज्ञामहेन्द्रो ॥ २१. ३१.
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वत्रीस वत्रीसीओ तेमणे बनावी हती ते वातनी साक्षि कथावली अने अनेक प्रबंधो पुरे में, सम्मतिप्रकरण पू. आ. सिद्धसेन दिवाकरमरिनो , ते वात १४४४ ग्रंथ प्रणेता हरिभद्रमुरिए 'आयरिय सिद्धसेणेण सम्मइए' कही पंचवस्तु १०४८मां निर्देर्शल छे. तेथी आ संबंधां कोई बीजो विवाद नथी.
२ सिद्धसेन दिवाकरसरिना वृत्तान्त संबंधी माहिती आपनार ते पछीना ग्रंथकारोना करेल साहित्यमा नीचे मुजव साहित्य छे. १ प्रभाचंद्रसरिकृतप्रभावकचरित्रगतवृद्धवादि प्रबंध पृष्ठ ८९-१०१
वि. सं. १३३४ २ भद्रेश्वरमरिकृतकहावली (लिखित) विक्रमनी अगिआरमी शताब्दि ३ प्रवन्धकोश
पृ. १५-२१ ४ प्रबन्धचिंतामणि वि. सं. १३६१
पृ. १३-१८ (मेरुतुंगाचार्यकृत) ५ चतुर्विंशतिप्रबंध , १४०५
पृ. २५-३६ (राजशेखरसूरिकृत) ६ शुभशीलगणिकृतविक्रमचरित्र .७ महोपाध्यायधर्मसागरगणिकृतपट्टावली
१पू. आ. सिद्धसेनदिवाकरसूरि क्यारे थया आ संबंधमा आजे जुदा जुदा मतो के. पं. कल्याणविजयजी प्रबंधचिंतामणिनी प्रस्तावनामा पू. आ. सिद्धसेनदिवाकरमरिनो विक्रमनी चोथी अने पांचमी शताब्दि वच्चेनो काळ जणावे छे.
२ पंडित लालचंद भगवानदास तथा मोहनलाल दलीचंद भगवान महावीरना निर्वाण पछी ४७० वर्षे विक्रम संवत चाल्यो. अने ते लगभगमां सिद्धसेन दिवाकरसूरि थया तेवी मान्यता धरावे छे.
३ मुनि जिनविजय जैन साहित्य संशोधक अंक ३ जामां सिद्धसेन दिवाकरसूरिने विक्रमनी पांचमी शताब्दिमां मुके छे.
४ डॉ. सतीशचंद्रनो मत इ. स. ५३३ नी आसपास सिद्धसेन दिवाकरसरि थया तेवी मान्यता धरावे छे.
५ डॉ. हर्मन जेकोबी इ. ६७७ आसपास पू. सिद्धसेन दिवाकरमरिनो सत्ता समय माने छे.
६ डॉ. पी. एल. वैद्यनो मत इ. स. ७०० नी आसपास सिद्धसेन दिवाकरमरिनो सत्ता समय माने छे.
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आ संबंधमां अमारुं मानवं एम छे के आजथी ९००-१००० वर्ष पहेलां थयेला ग्रंथकारोए जे काळ निर्देश कर्यो होय तेनाथी मात्र विविध अनुमानोना जोरे जुदा जुदा निर्णय उपर आवी कालनी व्यवस्थानी फेरबदली करबी ते व्याजबी नथी. आथी अमे तो प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश, प्रबंधचिंतामणि, विक्रमचरित्र विगेरे जैन ग्रंथो सिद्धसेन दिवाकररिने विक्रमादित्यना समकालीन माने छे अने ते दरेक ग्रंथोमां विक्रमादित्यने तेमणे प्रतिबोध कर्यानो उल्लेख छे तेनेज अनुसरतुं व्याजबी मानीए छीए.
आजथी २४७९ वर्ष पूर्वे भगवान महावीरनुं निर्वाण अपापापुरीमां थयुं. तेज वखते उज्जैनमां चंडप्रद्योत मृत्यु पाम्यो. चंडप्रद्योतनी गादीए पालक आव्यो. आ पाळक अने तेना वंशजोए ६० वर्ष राज्य कयुं. त्यावाद ९४ वर्ष नवनंदोनो अमल चाल्यो. अने १५६ वर्ष मौर्यवंशीओनो अवंतीम अमल रह्यो, भगवान महावीरना निर्वाण बाद २९३ वर्षे अवंतीमां संप्रति महाराजानुं स्वर्गगमन थयुं. त्यावाद एक वर्ष अराजकता फैलाई. पण त्यारपछी १४ वर्ष वीरनिर्वाण ३०८ सुधी मौर्यशासन ज अवंति उपर रहुँ. परंतु त्यारबाद अराजकता फैलातां सुगवंशीय पुष्यमित्रनो अमल शरु थयो . आ अमल वि.नि. ३४८ सुधी चाल्यो. ते अमल नरम पडतां बळमित्र अने भानु मित्रं ६० वर्ष वीरनिर्वाण ४०० सुधी अवंतीमां शासन चाल्युं वीरनिर्वाण ४००मां नरवाहने अवंतिनो कबजो लीधो, आ नरवाहने एकधारुं वीरनिर्वाण ४४० सुधी राज्यशासन चलायं. त्यारपछी त्यांनो राजा दर्पण थयो. दर्पणने गर्दभी विद्या साध्य होवाथी ते गर्दभभिल्ल तरीके ओळखायो. आ गर्दभभिल्ल तुवरवंशनो हतो. विद्या अने सत्ता ए वे एने न पची तेथी ते व्यभिचारी अने मदोन्मत्त बन्यो. तेणे बीजा कालकसूरिना व्हेन सरस्वती साध्वीने उपाडी. संघे अने कालकसूरिए धणुं समजाच्युं छतां ते न मान्यो त्यारे शक जातिने लावी. वीर नि. ४५३ मा वर्षे गर्दभ मिलने पदभ्रष्ट कर्यो. गर्दभमिल शूळथी मृत्यु पाम्यो अने अवंति उपर शकोनो दोर चाल्यो. ते व्यवस्थित न चालवाथी मालवगणना संगठनथी शकोने हांकी काढवामां आव्या अने गर्दभभिल्लना पुत्र विक्रमने महानिर्वाण ४५७ मां राज्याधिष्ठित कर्यो. विक्रमे १३ वर्षनो एवो सुंदर राज्यदोर चलाव्यो के प्रजा खुब प्रसन्न थइ. पृथ्वीने तेणे पू. सिद्धसेन दिवाकरसूरिना उपदेशथी अनुणी बनावी. आम महावीर निर्वाण बाद ४७० वर्षे विक्रम संवत प्रवर्त्यो.
भगवान महावीरनुं निर्वाण अने चंडप्रद्योतनुं मृत्यु पाळकना वंशजोनो अमल
नवनन्दोनो अमल
मौर्यसत्ता
पुष्यमित्र बलमित्र भानुमित्र
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६०
९४
१५६
३०
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नरवाहन गर्दभमिल्ल शक विक्रमनो राज्य अमल
वि. ४७० आ रीते विक्रम संवतनी शरुआत महावीरनिर्वाण ४७० वर्षे इथइ, आ विक्रमना राज्यकाळमां सिद्धसेन दिवाकरसूरि हता. एटले तेमनो काळ विक्रमनी प्रथम शताब्दि एज महावीर निर्वाण पांचवी शताब्दि ज व्याजबी लागे छे. आ सिद्धसेन दिवाकरसूरिना जीवन परिचय माटे जुदा जुदा प्रबन्धो छे, तेमां तेमनो परिचय आ प्रमाणे आप्यो छे.
सिडसेन दिवाकरसूरि परिचय विद्याधरगच्छीय स्कंदिलसरि गौडदेशमां पधार्या. त्यां कोशलनो मुकुंद नामनो ब्राह्मण आव्यो. तेणे 'भोगे रोगभयं, सुखे क्षयमय 'र्नु पद्य सूरिना मुखथी सांभळ्यु अने तेने वैराग्य थयो. तेणे स्कंदिलमृरि पासे दीक्षा लीधी. दीक्षा वखते तेनी उम्मर वृद्ध हती. तेणे उतावळे गाथा गोखवा मांडी. लोको कंटाळ्या अने कहयु घरडे घडपणे काइ महाराज ! आवडे ? मुकुंदे (यक्षमंदिर) नामना चैत्यमा एकवीश उपवास कर्या अने सरस्वती सिद्ध करी. मुकुंद जते दीवसे वृद्धवादीक्षारि तरीके जैन जगत्मां प्रसिद्ध थया.
विक्रमे राज्य उपर आरुढ थया बाद तेणे सारा सारा विद्वानो पोतानी सभामा राख्या हता. कालीदास कवि अने सिद्धसेन जेवा महाकविओ तेनी सभामां हता. आ सिद्धसेन कात्यायन गौत्रीय हतो तेना पितानुं नाम देवर्षि अने मातानुं नाम देवश्री हतुं. तेमने एक व्हेन हती तेमन नाम सिद्धश्री इतुं. आ सिद्धसेन वैदिक धर्मनो उपासक हतो. वादविद्यानो शोखीन हतो. कोइपण विद्वाननुं नाम सांभळे तो तेनी साथे ते चर्चा करतो अने तेने नमावतो.
एक वखत वृद्धवादी महाविद्वान् आचार्य छे. एg तेणे क्यांयथी सांभळ्यु, सिद्धसेन तेमने मळवा उपडयो, भृगुपुर आवतां रस्तामां ते वृद्धवादीने मळ्यो अने तेणे कर्तुं हुं तमारी साथे याद करवा इच्छु छु. .
सरिए का जंगलमा आपणा वादना खरा खोटानो निर्णय कोण करशे ? सामे ढोरो चारता गोवाळोने सिद्धसेने बोलाव्या अने तेमने मध्यस्थ राखी जंगलमां वाद आरंभ्यो. सिद्धसेने संस्कृतमां धणी धणी दलीलो करी. समयजाण वृद्धवादीए
'नवी मारीयइ नवी चोरीयइ परदारगमण विचारियइ ' कही ताळोटा पाडतो रास आरंभ्यो. गोवाळीयाओ पण ताळीओ कूटता रासमां जोडाया अने वोल्या. महाराज ! तमे जीत्या. आ स्थळे पाछळथी तेनी यादगिरि माटे ताळरस गाम वस्युं.
१ हिमवंत थेरावली
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वृद्धवादी भरुच आव्या. राजसभायां सिद्धसेन साथै विद्वानोनी मध्यस्थतामां वाद आरंभायो त्यां पण सिद्धसेन हार्या. एकवचनी सिद्धसेन वृद्धवादीना शिष्य थया. अने त्यां तेमनुं नाम कुमुदचंद्र पाडयुं, विद्वान् कुमुदचंद्र थोडाज वखतमां जैनशैलिना अने जैनशास्त्रोना पारगामी था. गुरुए तेमने आचार्यपदे स्थाप्या. अने फरी तेमनुं नाम सिद्धसेन स्थाप्युं. आ पछी सिद्धसेनसूरि परिवार सह विहरखा लाग्या.
एकवार सिद्धसेन दिवाकरसूरि अवंतीमां पधार्या. विक्रमादित्ये उत्सवपूर्वक पधारता सूरिनी परीक्षा करवा मनमां नमस्कार कर्या, पण हाथ जोडथा विना ते सामे आवी उभो . गुरुए धर्मलाभ उचार्यो. विक्रम राजा बोल्यो 'महाराज ! विना नमस्कारे धर्मलाभ.
सूरि क ' धर्मलाभ रत्न करतां अधिक छे. अर्थीनेज ते अपाय छे. तमे मनथी वंदना करी तेथीज तमने धर्मलाभ आप्यो छे. '
राजा आश्चर्य पाम्यो अने तेणे गुरुने क्रोड सोना महोर आपवा मांडी. [धर्मलाभ इति प्रोक्ते दुरादुद्धृष्टपाणये ।
सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः ॥ ]
परंतु कंचनकामिनीना त्यागी गुरुए न लीधी. राजाए आपेलुं दान पाहुं न लेवाय तेम कही ते धन तेणे जिर्णोद्धारमां खच्युं.
एक वखत सिद्धसेन दिवाकरसूरि चित्तोड तरफ विचरता हता त्यां एक थांभलो जोयो. आ थभलो नहोतो पाषाणनो, नहोतो लाकडानो के नहोतो माटीनो. सूरिए बारीकाइथी जोयुं तो ते को लेपथी बनावेलो लाग्यो. सुरिजीए बुद्धिबळथी तेनी वनस्पतिओ पारखी अने विरुद्धऔषधिओ द्वारा काणुं पडाव्यं तो ते थांभलाना पोलाणमां सुंदर हस्तलिखित प्रतोनो सारो समुह देखायो आचार्य महाराजे एक मत हाथमां लीधी. थोडुं वांच्युं त्यां प्रत अदृश्यपणे झुंटवार
अने भानुं छिद्र पुराह गयुं. सूरि विचारमां पडचा अने मान्युं के दैवीसंकेत आमां आगळ वानी मा पाडे छे. पण तेमणे थोडं वांच्युं तेमां तेमने सुवर्णसिद्धि अने सर्षपमांथी सैन्य बनाववानी ए वे विद्या याद रही गह.
रिमहाराजे चित्तोडथी विहार आगळ आरंभ्यो अने ते कुर्मारपुर नगरमां पधार्या. त्यांना राजा देवपाळे सुंदर सामैयुं कयुं. राजा परम गुरुभक्त बन्यो. एक वखत कामरु देशना राजा विजयवर्मा कुर्मारपुर ने घेरी लीधुं देवपाळ पासेधान्य संपत्ति अने लक्कर खुट्युं. क्यारे कुर्मारपुर पडशे तेनो भरोसो न रह्यो एटले आंसु साथे राजा सूरिमहाराजने पगे लागीने कहेवा लाग्यो 'महाराज ! तीडोनां टोळां जेवुं शत्रु सैन्य मारा नगरनो नाश करशे तेम लागे छे. हुं शत्रुने यहींची शकुं तेम नथी.' गुरुए आश्वासन आप्युं अने सुवर्णसिद्धिथी द्रव्य अने सर्वपविद्याथी सैन्य सर्जी विजयवर्माने तेने देशे पाछो मोकल्यो.
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आथी देवपाल गुरुने परम उपकारी मानवा लाग्यो. ते बोल्यो 'नाथ ! आप खरेवर दिवाकतुल्य छो. मारो शत्रुभयनो अंधकार तमे खरे अवसरे दुर कर्यो छे. आ पछी देवपाळे सिद्धसेनसूरिने दिवाकरपदथी नवाज्या अने सिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरसूरि तरीके त्यारबाद प्रसिद्धि पाम्या.
राज्यना अति संसर्गे जते दिवसे सिद्धसेनसूरि धर्मगुरुने बदले राजगुरुना ठाठथी रहेवा लाग्या. पालखीमां बेसी रोज राज्यसभाए जाय. अने पालखीमां बेसी आवे. आ वात तेमना गुरुमहाराज वृद्धिवाद सांभळी त्यारे तेमने घणुं दुःख थयुं. 'शासननी प्रभावना करे तेवो विद्वान् आम शासननी अपभ्राजनामां केम पडी जाय छे ?' ए विचारे वृद्धवादिसूरि गच्छथी जुदा पडधा अने कुर्मारपुर आव्या. सुखासन उपाडवाना समये भोइनी जग्याए कांबळी ओढी पोते गोठवाई गया. त्रण भोई जुबान हता एटले सडसडाट चालता वृद्धवादि वृद्ध होवाथी कंपता हता. आथी पालखी घडीक नीची उंची थवा लागी एटले अंदर बेठेल सिद्धसेन अकळाया अने बोल्या. 'भूरिभार भराक्रान्तः स्कंध ः किं तव बाधति ?'
हे वृद्ध घणो भार उचकवाथी शुं तारो खभो दुःखे छे ? '
वृद्धवादिए आ वचन सांभळी विचार्य के संस्कृतनो समर्थ विद्वान् एशआराममां केवो उपयोग शून्य बन्यो छे 'बाधते' प्रयोगने बदले बाधति बोले छे तेमणे कंपता अचाजे करूं. 'न तथा बाधते स्कंधः यथा बाधति बाधते'
( तमारा जेवा समर्थ विद्वान् बाधते ने बदले बाधति प्रयोग उच्चारे छे. तेथी मने जेटलं दुःख थाय छे तेटलं दुःख खभा उपरना भारथी थतुं नथी)
सिद्धसेन चमक्या. उपयोग शून्यता माटे तेमने शरम उपजी. सुखासनमांथी हेठे उतर्या अने वृद्ध सामे नजर नांखी तो गुरुमह। राजने जोया. सिद्धसेन शरमाया. गुरु पासे तेणे प्रायश्चित्त लीधुं अपत्यागमां जोडाया. गुरु थोडा वखत बाद स्वर्गे संचर्या. गच्छना नायक सिद्धसेन शासन प्रभावना करता पृथ्वी पावन करवा लाग्या. [वृद्धवादीसरिए सिद्धसेनदिवाकरने पालखी उपाडी 'भूरिभारभराक्रान्तः' पद कही प्रतिबोध कर्यो तेनो उल्लेख उपदेशप्रासाद विगेरेमां छे.]
प्रभावकचरित्र विगेरेमां तो आ संबंधमां आ प्रमाणे लख्युं छे
"वृद्धवादीसरिए सांभळयुं के सिद्धसेन राजभक्तिना मोहमां पडी पालखी तथा हाथी विगेरे वाहनो उपर सवार थइ राजमंदिरे जाय आवे छे तेथी तेमने समजाववा गुरुमहाराज कुर्मारपुर नगरे गया.
सिद्धसेन राजमार्ग उपर पालखीए बेसी जवानो तैयारी करे छे अने लोको तेनी बिरुदावली पोकारे छे ते बखते वृद्धवादीसरिए कां
'विद्वान ! मारी एक शंका दूर न करो ?' एम कही नीचेनुं पद्य
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अल्ली फुल्ल म तोडहु मन आरामा म मोडहु कुसुमेहिं अचि निरंजणु हिंडह काई वणेण वणु ॥ २ ॥
क. सिद्धसेने पद्यने समजवा खुब प्रयत्न क्यों पण ए अपभ्रंश पद्यनो अर्थ तेमने न समजायो त्यारे आडो उत्तर आपीक के 'तमे बीजुं कांइ पुछो' पण वृद्धवादिए कहां के 'एनेज फरी विचारो अने जवाब आपो ' सिद्धसेने अनादरथी ए पद्यनो असंबद्ध जेवो तेवो खुलासो कर्यो पण ते खुलासो गुरु कबुल न राख्यो त्यारे सिद्धसेने कधुं तमेज तेनो अर्थ करी बतावो वृद्धवादिए क आ पद्य एम कहे छे के
जीवनरुप नानकडi कोमळ फुलवाळा मानवदेहना जीवनांशरुपी फुलोने तमे राजसत्कार अने अभिमानथी न तोडो, मनना यम नियम आदि बगीचाओने भोगविलासद्वारा न भांगो. मनना सद्गुणोरूप पुष्पो वडे निरंजन जिनेश्वरदेवनी पूजा करो. एक वनथी बीजे वन शा माटे भटको छो.
( बीजो अर्थ )
अथवा अणु एटले अल्प धान्य, ते अल्प विषयपणाथी मानवदेहनां पुष्पो समजवां. ते अल्प पुष्पी नरदेहना शीलांग महाव्रत रुप पुष्पोनो विनाश कर नहि. मनरुप आरामने मरडी नाख, एटले चित्तना विकल्पजाळनो संहार कर तथा मुक्तिपदने प्राप्त थयेला निरंजन वीतराग देवनी पुष्पोथी अर्चा न कर, अर्थात् गृहस्थने उचित छकाय जीवनी विराधना रूप देवपूजामां प्रयत्न न कर. कारण के ते सावद्य छे. कीर्त्तिनी कामनाथी संसार रूप अरण्यमां शा माटे भ्रमण करे छे, अर्थात् मिथ्यावादने तजी जिनेश्वरे कहेल सत्यमा आदर कर. ए बीजो अर्थ बताव्यो.
( त्रीजो अर्थ )
अथवा तो कीर्त्तिना स्याद्वाद वचन रूप पुष्पोने तोड नहि. तथा मनना अध्यात्मोपदेश रुप आरामने तोडी न नाख, अर्थात् खोटी व्याख्याथी तेनो विनाशे न कर. वळी रागादि लेपरहित निरंजन मननी, सुगंधि अने शीतळ सदुपदेश रुप पुष्पोथी पूजा कर. अर्थात् मनने श्लाघ्य बनाव, तथा संसार रूप अरण्यना स्वामी परम सुखी होवाथी ते तीर्थकर छे, तेमना शब्द - सिद्धांत सूत्रमां भ्रांति शा माटे लावे छे ? कारण के तेज सत्य छे. माटे तेमांज प्रेमभावना राखी जोइए. ए त्रीजो अर्थ बताव्यो.
आ सांभळी सिद्धसेननुं मगज विचारे चडयुं. खरेखर आ पंक्तिओ मारे माटेज घटे छे. वृद्ध सामे धारीने जोयुं तो तेने ते वृद्ध बीजा कोइ नहि पण पोताना गुरु वृद्धवादीज लाग्या. ते गुरूने नमी पडया अनेक के 'में आपनी अवज्ञा करी तेनी क्षमा आपो. गुरुए कहीं दुनीयाना
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बीजा माणसो तो भूले पण तमारा जेवा महा विद्वान पण भूले तो बीजानी शी वात करवी. ? तमे संतोपथी सद्ध्यानने पुष्ट करी मारा आपेला शास्त्रवचनने पचाचो. थांभलामाथी प्राप्त थयेल पुस्तक शासनदेवीए हरी लीधुं ए योग्यज थयु. कारण के अत्यारे तेने पचावनार योग्य त्यागी
ओ क्या छ ? गुरुनो आ उपदेश सांभळी सिद्धसेने का हे प्रभो ! जो भूलथी शिष्यो आडे रस्ते न जाय तो प्रायश्चित्त विधायक शास्त्र शा काममां आवे ? माटे हवे तमे प्रायश्चित्त वडे मने शुद्ध करो' गुरुए घटतुं प्रायश्चित्त आपी छेक्टे तेमने पोताने आसने बेसाडया अने गुरु स्वर्गे सिधान्या.
संस्कृत भाषाना प्रकाण्ड विद्वान सिद्धसेनने एक वखत एवो विचार आयो के 'नमो अरिहंताणं,' विगेरे सूत्रोने सुंदर संस्कृत भाषामां वनाव्यां होय तो केवु सारं ? श्रमणसंघना वृद्धस्थविरो चोंकी उठ्या अने बोल्या. 'बाल, स्त्री अने मन्दना माटे आ सिद्धांत आपणा पूर्वगणघरभगवंतोए प्राकृतमा गुंथ्यो छे तेना उपर अनादरनो विचार केम कराय ! आ चितवन भयंकर पापरुप छे. आ पापनी शुद्धि माटे, शास्त्र पारांचिक प्रायश्चित्त कहे छे.' सिद्धसेनदिवाकरसरिने पोतानी उतावळy भान आव्यु. तेमणे पारांचिक प्रायश्चित्त स्वीकारी गच्छ छोडयो. सात वर्ष छुपा वेशे चारित्र पाळ्युं अने त्यारयाद तेओ शासनप्रभावना करवा अवंति तरफ चाल्या.
अवंतिना सीमाडामां ते वखते कुडंगेश्वरनुं भव्य मंदिर हतुं. ते मंदिर यात्रानुं धाम हतुं. पूजारी अने भक्तवर्ग आवे ते पहेला तो अवधूत जेवा वेषवाळी सिद्धसेन लिंग समक्ष पग करी बेठा. पूजारीओए उठाडवा घणो प्रयत्न कयौँ पण ज्यारे ते अवधूत न उठयो एटले राजा आव्यो अने तेणे कयु 'अवधूत ! महादेवनी अवज्ञा न होय, तेने तो नमस्कार, होय. सिद्धसेन बोल्या 'हुँ नमस्कार करीश. पण आ देव मारा नमस्कार नही सहन करी शके ?'
राजाए कडा 'एम ते होय ? करोने नमस्कार ?
सिद्धसेने कल्याणमंदिरनुं स्तोत्र आरंभ्यु. पृथ्वी कंपवा लागी. धूमाडाना गोटेगोटा नीकळवा लाग्या प्रेक्षकोने लाग्युं के अंदरथी अग्नि नीकळशे अने अवधृतने भरखी खाशे. देवनी. आशाताना नुकशान कर्या विना थोडी रहे ? त्यां तो तेरमो श्लोक बोलतां लिंग फाटयुं अने तेमांथी पार्श्वनाथभगवाननी प्रतिमा प्रगटी.
राजा आश्चर्य पाम्यो अने पूछयु के 'आ बधुं शुं ?' त्यारे सिद्धसेन दिवाकरसूरिए राजाने अवंति सुकुमाळर्नु वधु वृत्तान्त कही अवंतिपार्श्वनाथनो इतिहास समजाव्यो. विक्रम सिद्धसेनदिवाकरनो भक्त बन्यो अने तेणे सो गाम मंदिरना निभाव माटे आप्यां. श्रमणसंघ सिद्धसेनदिवाकरमरिना आ शासन प्रभावनाथी प्रसन्न थयो. अने तेणे तेमने गच्छनायक तरीके पूर्वनी पेठे स्थाप्या. सरिए आम प्रायश्चित्त पुरु कयु.
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एक समये सिद्धसेन फरी वर्षों बाद अवंति आव्या अने पहेरेगीरने
दिदक्षुर्मिक्षुरायातो बारितो द्वारि तिष्ठति ।
हस्तन्यस्तचतुश्लोकः किमागच्छतु गच्छतु ॥१२४॥ 'हाथमां चार श्लोको लइ एक भिक्षु तमारा दर्शननी इच्छाथी आवेलो छे अने दरवानोए रोकवाथी दरवाजा उपर उभो छ, कहो के ते आवे अगर जाय ? . राजाए सिद्धसेनदिवाकरने पोतानी पासे बोलाव्या अने तेणे तेमना चार श्लोको सांभळया.
" अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् " ॥१॥ " अमी पानकुरंकामाः सप्तापि जलराशयः । यद्यशोराजहंसस्य पंजरं भुवनत्रयम्"
॥ २ ॥ " सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुधैः। नारयो लेभिरे पृष्ठ न वक्षः परयोषितः" ॥३॥ “भयमेकमनेकेभ्यः शत्रुभ्यो विधिवत्सदा।।
ददासि तत्व ते नास्ति राजंश्चित्रमिदं महत्" ॥४॥ "हे राजन् ! आ अपूर्व धनुर्विद्या तुं क्याथी शीख्यो के जेमां मार्गण (बाण के याचक) समूह पासे आवे छे अने गुण (धनुष्यनी दोरी अथवा यश) दर दिगंत सुधी जाय छे. १
आ साते समुद्रो जळपान करवामां कुरक जेवा छे. तेथी जेना यशरुय राजहंसने त्रणे भुवन पांजरा तुल्य छ, अर्थात् त्रणे भुवनमा जेनो यश गवाई रह्यो छे. २
हे राजन् ! तुं सर्वदा सर्व इच्छितने आपनार छे, एम पंडितजनो जे तारी स्तुति करे छे, ते मिथ्या छे कारण के शत्रुओने ते पीठ नथी आपी अने पररमणीओने वक्षस्थळ नथी आप्यु.३
हे राजन् ! अनेक शत्रुओने सदा कायदा प्रमाणे तुं एक भय ज आपे छे, छतां ते तारी पासे उपस्थित नथी, आ एक मोटा आश्चर्यनी वात छे. अर्थात् तुं सदा निर्भय छे. ४'
आ सांभळी राजाए चार हाथी चार देश विगेरे घj घणुं आपवा मांडयु पण तेमांनुं कांड गुरुए न लीधुं अने कसं मात्र एटलं के अकारनगरमां चार द्वारवाळो सुंदर जैनप्रासाद बंधावो. विक्रमादित्ये ते नगरमां सुंदर जैनप्रासाद बंधाव्यो अने तेनी प्रतिष्ठा सिद्धसेनदिवाकरसरि द्वारा करावी तेमनो ते परम भक्त बन्यो.
आ पछी सिद्धसेन भरुच गया. आ वखते भरुचमां बलमित्रनो पुत्र धनंजय राज्य करतो इतो तेणे सुंदर सामैयु कयु. दैवयोगे भरुचने शत्रुओए घेरी लीधुं बलमित्र मुंझायो. ते विद्यासिद्ध
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१४ अने शक्तिसंपन्न सिद्धसेनखरिने शरणे गयो. तेमणे सर्वपविद्याथी सैन्य सर्जी तेने बचावी लीधो बलमित्रे त्यारे कीं 'भगवंत खरेखर आप सिद्धसेन ते सिद्धसेनज छो.'
विक्रमादित्ये सिद्धसेनदिवाकरसूरि पासे शत्रुंजयनुं माहात्म्य सांभळयुं अने भव्य संघयात्रा काढी आदीश्वर भगवंतने भेटी शत्रुंजयनो उद्धार कर्यो हतो. आ संघ केवो भव्य हतो अने तेमां केटलं साजन हर्तुं तेनुं वर्णन आजे पण पर्युषणमाहात्म्यमां वंचाय छे. यादगार संघयात्रा पैकीनी संघयात्रामां आ विक्रमराजानी संघयात्रा मुख्य गणाय छे
आ प्रमाणे मभावना करता सिद्धसेन दिवाकरसूरि प्रतिष्ठानपुर गया. सूरिए योग्य शिष्यने गच्छनो भार सोंप्यो अने पोते अणसण करी स्वर्गगामी बन्या.
थोडा बखत बाद एक चारण विशाळा नगरीमां आव्यो अने सिद्धसेन दिवाकरना व्हेन सिद्धश्री साधवी हता तेमनी आगळ बोल्यो
स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे ।
'हाल दक्षिण देशमां वादिओ चमकी रह्या छे.'
साध्वी बोली उठयां 'सिद्धसेन दिवाकर होय त्यां वादिओ चमके एम बने केम १ तेमणे ते श्लोकनुं उत्तरार्ध उच्चार्यु.
नमस्तंगतो वादी सिद्धसेनः दिवाकरः
'वादी सिद्धसेन जरुर स्वर्गगाभी थया होवा जोइए.'
आ पछी सिद्धश्री साध्वी पण अणशण करी स्वर्गगामी बन्यां.
प्रबन्ध चिंतामणि बन्धकोश विक्रमचरित्र विगेरेमां सिद्धसेन दिवाकरसूरिना जीवनचरित्र संबंधमा केटलाक तफावत जरुर छे. पण प्रसंगोनी साम्यता तो जरुर छे.
केटलाक ग्रंथमां वृद्धवादिस्ररिसायेनो वादविवाद, 'नमोर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः न माफक सर्वसूत्रोने संस्कृतमां उतारवानी इच्छा, विक्रमराजाना महाकाळ मंदिरमांथी प्रगट थल अवंतिपार्श्वनाथना मंदिरनो इतिहास, देवपाळ राजानो प्रसंग, विक्रमनुं घन विगेरे प्रसंगो बिस्तृत रीते विकसाववामां आव्या छे. अने कोईकमां संक्षिप्त रीते संग्रहित करवामां आव्या छे. केटलेक स्थळे प्रसंगोना क्रममां फेरकार छे. परंतु विगत अने प्रसंगोने अनुसरी बधे साम्यता छे.
आचार्य सिद्धसेन दिवाकरवरिनुं चरित्र प्रभावक चरित्र विगेरे ग्रंथोमां आपवामां आव्युं छे त्यां चरित्रकारे जणान्युं छे के आ चरित्र अमे पूर्वपुरुषो पासेथी सांभळीने, प्राचीन ग्रंथो जोहने अने प्राचीन प्रशस्ति अने शिलालेखो उपरथी तारवीने आप्युं छे. आम आजथी ८०० वर्ष पहेलांना आचार्य प्रभाचंद्रसूरि तैयार करेल तेमना चरित्रनेज आपणे सांगोपांग मानवुं जोइए.
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जैन परंपरामा केवलज्ञान अने केवळदर्शनमां उपयोग क्रमिक मनातो हतो आनुं समर्थन विशेषावश्यकभाष्य विगेरे ग्रंथोमा जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विगेरे पूज्य आचार्यो ए कयुं छे. आ समर्थनमां पण तेमणे आगम ग्रंथोनाज हवाला आप्या छे सिद्धसेन दिवाकरसूरिए आ क्रमिकवानुं निरसन करि अभेदनुं समर्थन कयुं छे. छतां प्राचीन परंपराथी जुदी वस्तु कहेवाथी तेमनी प्रत्ये केटलोक अणगमो जाग्यो परंतु तेमना ग्रंथथी जैनशासनना सर्वस्वरूप स्याद्वाद झळक्यो अने ते प्रतिष्ठावंत थतां स्वयमेव सिद्धसेनसूरि प्राचीन वस्तुथी जुदी वस्तुने रजु करनार होवा छतां प्रभावक मनाया. आथीज पाछळना विद्वान् ग्रंथकारोए आ वादना खराखोटापणानो निर्णय न करतां सिद्धसेनदिवाकरखरि अने जिनभद्रगणि भगवंत बन्नेने समर्थ कही तेमना बन्ने प्रत्ये पूज्यता बतावी 'तचं केवलिगम्यं' कही समेटी छे.
आम आ सिद्धसेनदिवाकरसूरि आशासनप्रभावक महापुरुष छे. तेमनी पछी थयेला जैनशासनना एकेएक ग्रंथकार अने एकेएक महात्माओए तेमना जैनशासन उपरना निःसीम उपकारने स्तव्यो छे, जैनशासनना आंतरतच्च स्वाद्वादने तेमणे जगत्ना चोकमां अकाट्य तरीकै पुरवार करी वतावेल छे. अने जैनतर्कशास्त्रना प्रस्थापक तरीके तेओ सर्वदा माटे आलेखायेला छे. न्यायावतार सन्मतितर्क कल्याणमंदिर अने एकवीस बीसीओ एम ३४ ग्रंथो आजे तेमना विद्यमान है.
न्यायावतार छे तो ३२ श्लोकप्रमाण पण सिद्धसेन दिवाकरसरिए ३२ श्लोकमा समग्र न्यायशास्त्र उतायुं छे. तेना ऊपर सिद्धर्षिनी २०७३ श्लोक प्रमाण टीका अने भद्रसूरिकृत १०५३ श्लोक प्रमाण टिप्पण छे.
आ सन्मतिप्रकरण ग्रंथ १६७ गाथा प्रमाण छे. पण १६७ गाथामा समग्र तत्ववाद भर्यो छे, आना उपर अभयदेवसूरिकृत तच्चवोधविधायिनी वादमहार्णवनामनी बृहत्ट्टीका २५००० श्लोक प्रमाण छे. आ टीकाभां अभयदेवसूरि सुधीना समग्र वादविवादोनी विचारणा करवामां आवी छे. अने स्याद्वाददृष्टिथी तमाम वस्तुने संगत करवामां आवी छे, आ सन्मतिप्रकरण उपर मल्लवादीनी पण टीका हती. पण ते आजे उपलब्ध नथी. सन्मतिप्रकरण नय, ज्ञान अने ज्ञेयनी विचारणा करनार त्रण कांडथी विभक्त छे. आना संबंधी विशिष्ट माहिती आ ग्रंथना रहस्यार्थमां वांचकोने आपवामां आवी छे एटले अहि तेनुं विशेष वर्णन करता नथी.
कल्याण मंदिर स्तोत्र ए आ ग्रंथकारनु बनावेल अद्भुत स्तोत्र छे. 'अनुसिद्धसेनं कवयः नी उपमा कलिकाळसर्वज्ञ हेमचंद्रसूरि सिद्धसेन दिवाकररिने आपना प्रेराया होय तो ते आ स्तोत्रने लईनेज लागे छे. आ स्तोत्र पार्श्वनाथ भगवाननी स्तुतिरुपे छे. पण तेमां महाकविनी प्रतिभा पदेपदमां झळकथा विना रही नथी.
आ स्तोत्र अनेक जातना अलंकारो अने पदना लालित्यथी एटलं बधुं सरस शोभे छे के कोईपण प्रसिद्ध काव्यग्रंथोथी ते खुब चढे तेवुं छे.
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२१ द्वात्रिंशिकाओ आजे उपलब्ध छे. आ द्वात्रिंशिकाओमां अनुष्टुभ, उपजाति, वसंततिलका, पृथ्वी, शिखरिणी, मंदाक्रान्ता, पुष्पिताग्रा, वंशस्थ, आर्या अने शालिनी बिगेरे विविध छंदोमां रचायेली छे. आ द्वात्रिंशिकाओमां वैदिक, बौद्ध अने जैनदर्शनना दार्शनिक विचारों निरुपण छे.
आ संमतिप्रकरण उपर 'अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' कही कळिकाळ सर्वज्ञ हेमचंद्रसूरिए जेने स्तन्या छे ते मल्लवादिरिए आ ग्रंथ उपर टीका रची हती तेम १४४४ ग्रंथप्रणेता हरिभद्रवरि अने उपाध्याय यशोविजयजीनी अष्टसहस्रीना लखाणथी जणाय छे.
'उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ' (हरिभद्रवरिः) 'इहार्थे कोटिशः भंगा निर्दिष्टा मल्लवादिना मूलसंमतिटीकायामिदं दिङमात्रदर्शनम्
(अष्टसहस्री उ. यशोविजय)
जैनदर्शननी दिगंत प्रभावना करनार आ महापुरुषनो एके सांगोपांग ग्रंथ आजे मळतो नथी हाल द्वादशार नयचक्र तेमनो बनावेलो ग्रंथ मुद्रित थाय छे ते मुद्रित थतां तेमना जीवन उपर सारो प्रकाश मळशे.
मल्लवादिए बौद्ध उपर विजय मेळव्यो हतो अने तेनो समय वि. सं. ४१४ नो मनाय छे. संमति प्रकरण उपर तेमनी लखेली टीका केटला प्रमाण हती अने केवी हती तेनुं विशेष समर्थन मळतुं नथी पण वृहट्टीप्पणकारे ते टीका ७०० श्लोक प्रमाण हती तेनुं उल्लेखित कर्यु छे.
सन्मति प्रकरण उपर हाल उपलब्ध थाय छे ते अभयदेवसूरिनी २५००० श्लोक प्रमाण तत्वबोधिनी वृत्ति छे. १६७ गाथाना सन्मति प्रकरणग्रंथने महाकाय महान ग्रंथ बनाववामां अने भारतीय तमाम दर्शनशास्त्रनी संपूर्ण गवेषणा करनार ग्रंथ तरीकेनुं बहुमान संमतितर्कने मळयुं छे जे अभयदेवसूरिनी वृत्तिने लइने छै, सिद्धसेन दिवाकरसरिए अनेकांतदृष्टिनो परामर्श अने इतरदर्शनोनी अनेकांतदृष्टिमां व्यवस्थित संकलना करी छे, पण आ टीकाकारे तो पोताना काळसुधीना भारतीयदर्शनोना समग्र वादोनुं निरुपण करी जैनदृष्टि अनेकांतदृष्टिए तेने विवर्या छे. आ अभयदेवरि विक्रमनी अगिआरमी शताब्दिना पूर्वार्धमां थया छे. केमके उत्तराध्ययननी पाइ टीकाकर्ता वादिवेताल शांतिसूरिए प्रमाणशास्त्रना गुरु तरीके अभयदेवसूरिने जगाच्या छे. आ शांतिरिनो स्वर्गवास वि. सं. १०९६ मां थयानुं प्रभावकचरित्रकार जगावे छे. तेथी वि. सं. १०५० लगभग अभयदेवसूरि थया तेम चोकस थाय छे.
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आ संमति प्रकरण ग्रंथ उपर विद्यमान जो कोई टीका होय तो २५००० श्लोक प्रमाण एक ज तत्वावबोधिनी टीका छे. तेना उपर लघु के, मध्यम वीजी कोई टीका न होवाथी आ ग्रंथन वांचन करवानी हिंमत न्यायशास्त्रना सारा अभ्यासी सिवाय भाग्येज बीजो कोई सामान्य विद्वान् धरी शके छे. आ ग्रंथ उपर कोई सरळ मध्यम टीका थाय तेवी परमपूज्य शासनसम्राट आचार्यदेव विजयनेमिसरीश्वरजी महाराजजीनी इच्छा हती अने ते करवानी आज्ञा तेमना नव्य न्यायना प्रकाण्ड अभ्यासी पू. आ. विजयदर्शनसूरिजीने करी के संमतितर्क उपर मध्यमवृत्ति रचो के जेथी सेंकडो अभ्यासौने उपकार थाय. अने हमेशनी त्रुटि पुरी थाय.
पूज्यापादश्री गुरुमनी आज्ञाने शिरसावंद्य करी दर्शनमूरि महाराजे संमतिप्रकरणनीपू.आ. अभयदेवसरिनी टीकानो साद्यंत मनन पूर्वक अभ्यास करी तथा तेना उपयोगी अनेक ग्रंथोनो अभ्यास करी टीका बनावी आमां तेओश्रीए मूळकारना आशयने अने बृहत् टीकाकारना विवरणने पूर्ण न्याय आपे ते रोते संक्षिप्त विवरण करी आ महाप्रमावक ग्रंथने सुलभ बनाववा प्रयत्न कयों छे. अने तेने ज लइने अभयदेवमूरिनी तत्त्वावबोधिनी टीका वादमहार्णव नामधारक छे तेमां आ टीका अवतारिका समान होइ तेमणे टीकार्नु सन्मतिमहार्णवावतारिका राखेल छे. जे टीकाने माते आपेली प्रशस्तिमां बालोपकारिणी शब्द ख्याल आपे छे. सन्मति प्रकरण माटेनी आवश्यक वृत्ति पुरी पाडी पू. आ. दर्शनसूरि महाराजे जैनसमाज उपर महान उपकार कर्यों छे,
सन्मतितर्क महार्णवावतारिकाकारना गुरुदेव आ टोकाना रचयिता पू. आ. दर्शनसूरीश्वरजी महाराज छे. तेओश्रीनो अल्पपरिचय पण तेमना गुरु अने सकल जैनशासनना शिरताज आचार्यदेव विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराज साहेबना परिचय विना अपूर्ण ज रहे तेम छे. नेमिसरियुग
तपागच्छनी परंपरामां पूज्य आचार्यदेव विजयने मिसूरीश्ररजी महाराज ७४ मी पाटे आवे छे.
पूर्वकाळमां हरिभद्रयुग, हैंमयुग विगेरे अमुक समयने ते ते काळना प्रभाविक पुरुषना नामथी साहित्यकारोए अने इतिहासकारोए ते काळनी समग्र प्रवृत्ति उपर ते प्रभावक पुरुषनी प्रभाव होवाथी ते काळने ते ते महापुरूषना युग तरीके ओळख्यो छे. तेम वर्तमानमां पण
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वि. सं. १९६४ पछीथी आजसुधीनो काळ विजयनेमिसरियुग कहीए ता वांधा जेवू नथी.
पू. आ. विजयहीरसूरीश्वरजी महाराज, पूज्य आचार्य विजयसेनसूरीश्वरजी महाराज, पू. आचार्य विजयदेवसूरीश्वरजी महाराज अने पू. आचार्य विजयसिंहसूरीश्वरजी सुधीनो बधो काळ हीरसूरियुग तरीके प्रसिद्ध छे. जो के पू. विजयहीरसूरिजीना काळ करतां पण सबाइ जैनशासन प्रभावना पू. विजयदेवसरिजी म. ना काळमां जैन मंदिरो, विद्वानो अने पू. श्रमण मुनिओनी प्राचूर्यताथी थइ होवा छतां ते बधामा मूळरूप प्रभाव तो पू. विजयहिरसूरीश्वरजी महाराजनोज हतो, तेम आ काळमां बीजा वीजा आचार्योना हाथे केटलांक विविध शासनना सुविहित कार्यो थया छतां आ बधामा प्रेरणा अने विचार उद्गमना मूळ तो पू. आचार्य विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजज छे. योगोद्वहन
प्रसिद्ध वात छे के, पू. आ. विजयसिंहसूरीश्वरजी महाराज पछी योगोद्वहनपूर्वक आचार्य पदवीनी परिपाटि भूलाई हती एटलुंज नहि पण योगोद्वहनपूर्वक आचार्यपद लेवानी शरुआत पण थई चूकी हती. दीर्घद्रष्टा स्व. पूज्य आचार्यदेवे विचार्य के जो आ रीति विकसी तो योगोद्वहन रीतिज जते दीवसे नाश पामशे अने श्रद्धा तथा ज्ञानमक्तिमां शिथिलता आवशे. आथी योगोद्वहन तथा पंचप्रस्थाननी आराधनापूर्वक संघना अतिआग्रहथी भावनगरमां वि. सं. १९६४मां स्व. पूज्य गुरुदेव आ काळना प्रथम आचार्य थया.
योगोद्वहनपूर्वकनी पूज्यश्रीनी आचार्यपदनुं परिणाम ए आव्यु के योगोद्वहन विना कोई पण कार्य शुद्ध नथी ते मान्यता समाजमां दृढ बनी अने जैन समाज तेना श्रद्धा अने संस्कार वळांकमा खुबज मक्कम बन्यो एटलंज नहि पण जे कोई योगोद्वहन विना आचार्यपद लेनारा हता तेमनी परंपरामां पण योगोद्वहन दाखल थयां अने तेओ पण योगोद्वहननी महत्ताना पूजक बन्या 'गुरोस्तु मौनव्याख्यानं छिन्नत्ति शिष्यसंशयान् ' आ पदने स्व. पूज्य आचायदेवे कोइनी कांई पण टीका कर्या वगर समग्र शासनमा प्रवर्ताव्युं अने शासनना मूळरुप श्रद्धाना बीजक योगोद्वहन क्रियाने विना विवादे सर्वसंमत बनावी.
ज्ञान.
आपणे सौ कोई जाणीए छीए के स्व. पूज्य आचार्यदेवना दीक्षाकाळ वखते कल्पसूबो. धिका यांची शके तेवा मुनिओ पण महाविद्वान् गणाता. सामान्य प्रकरणज्ञान, टवा, स्तवन, सज्झाय विगेरेनुं ज्ञान आथी ते काळना मुनिओने माटे पर्याप्त गणातुं. स्व. पूज्य आचार्य
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देवे ज्ञाननी पिपासानो नाद मुनिओमा प्रवर्ताव्यो. तेमणे पोते व्याकरण, न्याय साहित्यना ग्रंथोना अभ्यास साथे जैन शासनमा सर्वशास्त्रो अवगाह्यां अने व्याकरण, न्याय विगेरेना अनेक महाकाय ग्रंथो बनाव्या. आर्नु परिणाम ए आब्यु के आनो प्रभाव समग्र शासन उपर पडयो अने जैन शासनमा अभ्यासनी रुचि प्रगटी. ठेर ठेर तत्त्वज्ञाननी जिज्ञासा जागी अने सर्व समुदायो पण पठन पाठननी प्रवृत्तिथी गाजबा लाग्या. . आम खलं कहीये तो आ काळा ज्ञाननादने पल्लवित करवानुं मूळ जो कोइ होय तो स्व. पूज्य आचार्यदेवज छे. प्रतिष्ठा अंजनशलाका.
शासन अने तेनां बधां अंगोर्नु अस्तित्व अने विकास तेना देवतत्त्व उपर छे. आगमो ए देवनी वाणी छे. मुनिओ ए देवना वचनने अनुसरीने भेख लेनारा छे अने क्रोडोनो व्यय पण श्रावका देवना वचनने अनुलक्षीने करे छे. भगवाननी मूर्ति देवसदृशज छे ते तो प्रतिष्ठा अने अंजनशलाकाथीज बनी शके तेम छे. अंजनशलाका अने प्रतिष्ठाथी देवतत्त्व प्रगटावq ए पवित्र अने प्रभावक पुरुष सिवाय संभवतुं नथी. स्व.पू. आचार्यदेवे सेंकडो वर्षथी विसरायेली आ विधिने जाग्रत् करी अने विशाळस्वरुपमा सौ प्रथमज तेमना हाथे अंजनशलाका, कदंबगिरिमां थई. आरीते सर्व विधिविधानोना उद्गम पण आकाळे स्व. पूज्य आचार्यदेवज छे. प्रभावना.
आतापना के प्रभावना कोने कहेवाय तेनी शब्दोथी आपणे भले व्याख्या करीए पण खरी समज तो आ काळे जेणे पामवी होय ते तेमना दर्शन विना पामी शके तेम नथी. मोटा मोटा मुंडधारी अने फटाटोप करनारा संन्यासीओ सर्वशास्त्रना पारगामीपणानो अभिमान धरावता विद्वानो. आजनी केळवणीथी मोटी मोटी विश्वविद्यालयना अध्यक्षपदे विराजता चेरमेनो के दलील अने वकीलातमां सर्वश्रेष्ठ गणाता काउन्सीलरो, धनथी जमीनथी अद्धर चालनारा धनाढयो, राज्यखटपट अने कुशळतामा पंकाता जुदा जुदा राज्यना कर्मचारीओ अने अतिवैभवथी उछरेला राजवीओ आ बधाए जेओना प्रथम दर्शने पोताने अल्प मानी तेमना चरणकमळमां झुकावता. आ सर्व आ काळे निहाळg होय तो स्व. पूज्य आचार्यदेवने निहाळतांज बनी शके तेम हतुं.
भावनगर अने धांगध्राना दीवानो, मालवीयाजी अने आनंदशंकर बापुभाई जेवा आधुनिक विद्वानो, सेतलवड अने भूलाभाई जेवा धाराशास्त्रीओ, स्व. मनसुखभाई भगुभाई अने स्व, लालभाई दलपतभाई जेवा क्रोडाधिपतिओ अने भावनगर नरेश, वळानरेश विगेरे राजवीओने जेमनी पासे बेसी तत्त्वपान करता जेमणे निहाळ्या छे तेज खरेखर प्रभावना मातापना कोने कहेवाय ते समजी शके तेम छे.
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क्षमाविजयजीए महावीर भगवानना स्तवनमा गायुं छे के 'जेहनुं झेर निवारण मणि सम तुज आगम तुज बिबजी' आ स्तवनमां तेमणे जणान्युं छे के हे भगवंत कलिकाळनुं झेर निartarai aare आगम अने तमारु बिंब ए वे मणिसमान छे. स्व. पू. आचार्य देवे तेमना काळमां शास्त्रपठनपाठन अने जिनबिंबनी अंजनशलाका प्रतिष्ठाथी कलियुगनुं झेर निवारवामां अपूर्व फाळो आपी जैनशासनने उज्वळ कर्तुं छे. अने फरी हैमयुग, हीर युग विगेरे युगनी स्मृति साथै कलिकाळ सर्वज्ञ हेमचंद्रसूरि अने जगद्गुरु विजयहीरसूरिजीनी स्मृति आ काळमां तेमना दर्शने ताजी करावी छे.
जगत्ना अनेक झंझावातो, कुतर्कना ठेर ठेर तोफानो, जडवादनो सुसवातो पचन आ बधुं छतां जैनशासन उपर एकछत्र आणा प्रवत्तविवानुं आ काळमां जो कोइना सद्भाग्ये लखायुं होय तो आ महापुरुषने ललाटेज हर्तु.
तीर्थोद्वार
कापरडा, कदंबगिरि, शेरीसा विगेरे तीर्थोंना उद्धारने देवनाराने ख्याल आवशे के स्व. पूज्य आचार्यदेव केवळ जीर्ण मंदिरनो उद्धारज करावनार न हता पण शासननी प्रभावना करे अने हजारो वर्ष सुधी चिरंजीव रहे तेवां तीर्थोंने अस्तित्वमां लावी प्रभावना करनार पण ear. शेरीसा तीर्थना संबंधमां शास्त्रोमां ठेरठेर उल्लेख छे पण कोण जाणे क्यारे ते नामशेष बन्युं ? आ तीर्थनो उद्धार अने महिमा स्व. पूज्य आचार्यदेवना प्रतापनुंज परिणाम के. शत्रुंजयनी स्मृति करावे तेव्रं कदंबगिरि तीर्थ स्व. पूज्य आचार्थदेवनी दीर्घदृष्टि अने शासनना रागने जगावे छे. कापरडा तीर्थनो उद्धार तीर्थकाजे स्वपी छुटवा सुधीनी स्व. पू. आचार्यदेवना खमीरने याद करावे छे. आ एक बे ऋण नहि पण ठेर ठेर स्व. पूज्य आचार्य - देवना हस्तके थयेल तीर्थेना उद्धार अने जिनमंदिरो उभां उभां आजे पण तेमनी जीवनगाथाने उच्चारी रह्यां छे.
संघयात्रा
छहरी पाळता नाना मोटा संघ तो घणाए आ काळमां नीकळता आपणे जोया हशे . पण जे संघमा हजारो माणसो, सेंकडो गाडीओ अने सेंकडोनी संख्यामां मुनिराजो होय तेवा संघो तो स्व. पूज्य आचार्यदेवनी सान्निध्यतामां नीकळेल शेठ माणेकलाल मनसुखभाई अने शेठ नगीनदास करमचंदना संघो तो कवचित् नीकळया छे. संघना दर्शनार्थे पचीस पचास गाउथी उलटती मानवमेदनी, राजाओ महाराजाओद्वारा थतां संघना सामैयां अने साधार्मिक भाइओ हस्तक थता संघना आदरसत्कारे तो काइने धर्मबीज, कोइने समकित अने कोने विरतिपशुं आपी जीवन तार्यां छे.
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अजोड व्यक्तित्त्व.
स्व. पूज्य आचार्यदेवनी आंखमां कोइ अपूर्व ब्रह्मचर्यन तेज हतु. तेमनी सामे वधु वखत एकीटसे जोइ शकातुं नहि. प्रथमदर्शनेज तेमनी आंख आवनारने नखशिख ओळखी लेती. तेओ आवनार शुं कहेवा मागे छे अने शा आशये आव्यो छे ते प्रथम दर्शनेज पारखी लेता. अर्थात् तेमनी चक्षु आरपार उतरी पूर्वपश्चात् सर्वने निहाळी शकती. __ तेमनी जीवननो एके प्रवृत्ति एवी नथी के आरंभ्या पछी छोडवी पडी होय के आरंभेली प्रवृत्ति निष्फळ गइ होय. कोइ पण प्रवृत्तिने तेओआरंभता पहेलांते संबंधी खुब खुब विचार करता अने आरंभ्या पछी कीडी सामे कटक जेटली ते तैयारी राखता. तेमना जीवनकाळ दरमियान एवा घणाए प्रसंगो आव्या छे पण जेमां तेमणे झुकाव्युं तेमां कोई दिवस निष्फळता सांपडीज नथी. तेमनो प्रभावज एवो हतो के तेमनुं नाम सांभळताज अधु कार्य उकली जतुं. तेमज ए पण साथेज के के शासननी सर्वमुखी कोइ एवी प्रवृत्ति नथी बनी के जेमां तेमनी दोरवणी मळी होय ते सांगोपांग सफळ न थइ होय.
तेमनो अवाज, तेमनी आकृति अने तेमनो स्वभाव आ सर्वे नायकताने सूचवनारा हता. तेमना अवाजमां सत्तावाहिता होवा छतां उंडी समज हती. तेमनी आकृति सामाने तेजथी आंजती होवा छतां सौम्यभरी हती. तेमनो स्वभाव हसमुख छतां पूर्वापरनी सर्व वस्तुनो अवगाहक हतो,
आणंदजी कल्याणजीनी पेढीना प्रतिनिधिओ, समाजना अग्रगण्यो विगेरे सौना ते आधारभूत, समग्र शासनना हितचिंतक अने समग्र शासनना रक्षक होवाथी समाज तेमने शासनसम्राट तरीके ओळखतो ते खरेखर व्याजबीज हतु.
तेमनो जन्म, दीक्षा, पदप्रदान. तेमना हाथे थयेलां शासनप्रभावनाना कार्यो विगेरे बधी विगतो तो महाकाय ग्रंथथीज कही शकाय तेम छे. पण अहिं तो मात्र तेमनुं आर्छ दर्शन आप्युं छे. अने ते ए के स्व.आंचार्यदेव नेमिसूरीश्वरजी महाराज भा काळना शासनसम्राट युगप्रधान के शासनना कोहीनूर जे कहो ते यथा हता. स्व. परमपूज्य आचार्यदेव, शिष्यमंडळ.
स्व. पूज्य आचार्यदेवनो आजे पण शासन जेनाथी उन्नत शिर रही शके तेवो बहोळो विद्वान शिष्यसमुदाय छे. दर्शनशास्त्रना पूर्ण अभ्यासी खंडनखंडखाद्य अने आ टीका जेवा महाकाय ग्रंथोनी वृत्तिना रचयिता शास्त्रविशारद पू. दर्शनसूरीश्वरजी महाराज, आ काळे सौने आदर्शरूप बने तेवा, परम गुरुभक्त, भद्रिक, शिल्प ज्योतिष अने अखंड आगमज्ञाता पू,
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विजयोदयस्सूरीश्वरजी महाराज, व्यवहारदक्ष अने कोइना पण तेजमां अंजाया सिवाय स्पष्ट अने सत्य कहेनार, न्याय विशारद, कविरत्न पू. नंदनसूरीश्वरजी महाराज, अवसर जाण, सरल परिणामी पू. विजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज, प्राकृत अने गुजराती भाषामा अनेकविध साहित्य- सर्जन करनार पू.विजयपमसूरीश्वरजी थहाराज, साहित्य अने काव्यना अखंड अभ्यास साथे विविध काव्यो गुथनार पृ. विजयामृतसूरीश्वरजी महा. राज, ज्याय साहित्य अने व्याकरणना प्रकांड अभ्यासी अने त्रणे शास्त्रोना विपुलकाय ग्रंथरचयिता व्याख्यान वाचस्पति पू. लावण्यसूरीश्वरजी महाराज, प्राकृतभाषाना प्रकाण्डविद्वान् पू, विजयकस्तुरसूरीश्वरजी महाराज, भद्रिक अने आगम तथा प्रकरण ग्रंथोना सारा अभ्यासी पू. पं. सुमित्रविजयजी गणिवर, व्यवहारनदीष्ण विविधांथाभ्यासी पू. पं. मेरुविजयजी गणिवर, न्याय, व्याकरण साहित्य, संगीत तथा गुजराती भाषाना सारा अभ्यासी पू. पं. दक्षविजयजी तथा पू. पं. सुशीलविजयजी गणिवर, न्यायना प्रकांड अभ्यासी बुद्धिवैभवी जयानंदविजयजी महाराज, न्याय साहित्य अने गुजरातीना सरस अभ्यास साथे रोचक लेखनशैलिवाळा पू. पं. धुरंधरविजयजी महाराज, तथा साहित्य व्याकरण न्यायना सारा अभ्यासी पू. महिमाप्रभविजयजी महाराज विगेरे अनेक विद्वानो जैनशासनने शोभावी रह्या छे.
सन्मतितर्क महार्णवावतारिकाना टीकाकार आचार्यदेव विजय दर्शनमूरीश्वरजी महाराज बालब्रह्मचारि अने नानी वये दीक्षा लइ आजीवन स्वपर दर्शनशास्त्रना अभ्यासमां जीवन वीतावनार परम भद्रिक महापुरुष छे.
आ टीकाकार महात्मानुं वतन अनेक महारत्नोने उत्पन्न करनार सौराष्ट्रना मुकुटमणि समान सदा रम्य मधुमती-महुवा नगर छे, तेमना पितानुं नाम कमळशी अने मातार्नु नाम धनी हतुं. कसळचंद, हेमचंद अने जीवराज एबे भाईओ पछी तेमनो जन्म वि.सं. १९४३ना पोष सुद १५ ना दीवसे थयो हतो. संसारअवस्थामां तेमनुं नाम सुंदरजी पाडवामां आव्यु हतुं. सुंदर योगवाळा सुंदरजी बाल्यकाळ वितावे त्यां तो शासनसम्राट् आचार्य देव विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजना परिचयमा आव्या. अने भागवती प्रवज्यानी भावना जागी बराबर सोळ वर्षनी वये वि. सं. १९५९ मां अषाढ शुद १० ना रोज भावनगरमा तेमणे दीक्षा लीधी. अने पू. शासनसम्राट आचार्यदेव विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य थया. त्यां तेमर्नु नाम दर्शनविजय पाडवामां आव्यु. प्रतिभासंपन्न महाविद्वान् पू. आचार्यदेवे दर्शनविजयजीने भणाववा माटे खुब लक्ष आपवा मांडयुं अने तेमने न्याय व्याकरण साहित्य अने धर्मशास्रनो विशिष्ट अभ्यास कराव्यो. आम छतां न्यायशास्त्रना अभ्यासमां ते खुब खुब उंडा उतर्या अने
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स्वपर न्यायशास्त्रना अनेक ग्रंथोनुं तेमणे अध्ययन कयु. पंचवाद, माधुरी पंचलक्षणी, विवेचना, सिद्धांतलक्षण, वैशेषिकदर्शन उपस्कार, मुक्तावळी दिनकरी रामरुद्री टीकाओ साथे श्रीहर्षकृत खंडखाद्य, व्युत्पत्तिवाद विवेचना सांख्य तत्त्वकौमुदी तत्वसंग्रह, सर्वदर्शनसंग्रह चित्सुखी विगेरे छए दर्शन शास्त्रोद् अध्ययन कयुं आ साथे आपणा पूर्वाचार्यकृत उ-यशोविजयजी कृत न्यायालोक, खंडखाद्य, नयप्रदीप, नयरहस्य विगेरे ग्रंथदशक अष्टसहस्री, संमतितर्क शास्त्रवार्तासमुच्यय वृत्ति आदि अनेक स्वदर्शन शास्त्रनान्याय ग्रंथोनुंमननपूर्वक विशद अध्ययन कयु.
आ दर्शनशास्त्रना पूर्ण अभ्यास बाद स्व. पू. गुरुदेवे कह्यं के संमतितर्क उपर तत्त्वावबोधिनी टीका छे. परंतु ते विस्तृत होवाथी सामान्य अभ्यासीओने भणवा माटे बहुज कठीन पडे छे. अने महाकाय ते वृत्तिने देखी सामान्य धीरजवाळा दूर खसे छे. तो सन्मतितर्क उपर एक सुंदर मध्यम वृत्ति बनायो जेथी अनेकने ग्राह्य बने. आ गुरुदेवना गुरुवचनने शिरसा वंधकरी संमतितकनी टीका बनाववानो टीकाकारे संकल्प कर्यो अने तेमना जीवनकाळमांज ते ग्रंथ बनावी ते संकल्प सफळ कों.
वि. सं. १९६९ मां कपडवंजमां पू मुनिदर्शनविजयजीने गुरुदेव स्वहस्ते पन्यास पदारुढ कर्या अने सं. १९७३ मां सादडी मामे मारवाडमा उपाध्यायपद अपी तेमने गुरुदेवे उपाध्याय तरीके स्थाप्या. वि. सं. १९७९ मां खंभातमां गुरुदेव भगवंते स्व. पूनित हस्ते आचार्यपद अK आचार्यदारुढ कर्या त्यारथी आचार्य विजयदर्शनसूरिजीना नामे प्रसिद्ध छे.
पू आचार्य दर्शनसरि महाराजे आ संमतितर्क ग्रंथ टीका उपरांत आज बीजा पण महाकाय घणा ग्रंथोनुं निर्माण कयुं छे.
१ स्याद्वादना स्वरुपने स्पष्ट करतो साडा त्रण हजार श्लोक प्रमाण टीका नव्यन्यायनो स्याद्वादबिन्दु ग्रंथ तेमनी नव्यन्यायनी उंडाणतानो सुंदर परिचय आपे छे.
२ प. पू. उपाध्याय यशोविजयजी महाराजना बनावेल महा आकार ग्रंथ खंडखाध अपरनाम महावीर स्तव उपर तेमनु स्वोपज्ञ विवरण छे. आ विवरणने स्पष्ट करती २५००० श्लोक प्रमाण तेमणे टीका रची छे. जे आज दश वर्ष पहेला प्रसिद्ध थइ गई छे.
३ पर्युषणा कल्पलता ८०० श्लोक प्रमाण रची पर्युषण पर्वना आदिना त्रण व्याख्यानोना विषयोनुं अतिविशद निरुपण कयु छे.
४ तत्वार्थ विवरण गुढार्थ दीपिका, आ ग्रंथ टीकाकार महाराजे पू. उपाध्याय यशोविजयजी महाराजे तच्चार्थ सूत्र उपर विवरण रच्युं छे. तेने स्पष्ट करनार छे. आम न्याय व्याकरण अने धर्मशास्त्र विगेरेना टीकाकार उंडा अभ्यासी अने सतत परिश्रमी संयम आचरणमा मस्त रहेनार महात्मा छे.
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शिष्य प्रशिष्य परिवार -
पू. टीकाकार दर्शनसरि महाराज स्वर्गस्थ गुरुदेवना विद्वान् नव आचार्योमा प्रथम आचार्य, विद्वान् अने प्रतिभासंपन्न महात्मा छे. एमना एक गुणविजय नामना विद्वान् शिष्य हता. ते वि.सं. १९८१ मां काळधर्म पाम्या तेमणे हेम धातुमाला बनायुं हतुं. एमज तेमने पू. पं. जयानंद विजयजी महाराज, पू. पं. प्रियंकरविजयजी महाराज विगेरे सारा विद्वान् शिष्यो छे. जयानंद विजयजी बुद्धिवैभवी अने न्यायशास्त्रना उंडा अभ्यासी छे जे टीकाकार महाराजनी साथ हमेशा रहे छे. अने तेमनी साहित्यपद्धतिमां हंमेशां मददनीश रहे छे पू. पं. प्रियंकरविजयजी पण सारा उपदेशक अने साहित्यशास्त्रना सारा बोधक छे.
टीकाकार व्यक्तित्व अने स्थान
पू. आ. दर्शनसूरिजी महाराज न्याय, साहित्य अने धर्मशास्त्रना समर्थ विद्वान् होवा छतां महाकाय प्राचीन अने नव्य न्यायग्रंथोमां निर्माण करनार अने प्रकाण्ड विद्वान् अभ्यासी छे. जैनसमाजमा आजे जे सारा गणाता विद्वानो छे तेमां तेओ अग्रेसर गणनापात्र विद्वान् छे. अने न्यायशास्त्रमां ते प्रथम पंक्तिना महा विद्वान् छे.
उ. यशोविजयजी म. पछी सन्मतितर्कना अभ्यासीओ जैनसमाजमां विरलज थया छे, प. पू. आचार्यदेव विजयनेमिसूरीश्वर महाराजे तेमना शिष्य मंडळने जुदा जुदा शास्त्रोना पारंगामी बनाव्या तेमां दर्शनसरि महाराज दर्शनशास्त्रमां खुबज उंडा उतर्या एटलुंज नहि पण खंडनखाद्य तत्वार्थ विवरण प्रथमाध्याय महाराज अने संमतितर्क जेवा ग्रंथो उपर वृत्ति रची पूर्वकाळना विद्वानोनी स्मृति करावी छे. सन्मतिमर्क ग्रंथ अनेकांत दृष्टिनो मौलिक ग्रंथ छे. आ मूळ ग्रंथ अभ्यासकोने समजाय तेत्रो हृदयंगम छे. आम छतां तेना उपरनी महाकाय वृत्ति देखी केलाये वांचको तेने नमस्कार करी तेनी प्रत्ये छेटेथी पूज्यता बतायी छे. पण तेने अवगाहवानी वृत्ति केळवी शक्या नथी. आ सन्मतितर्क महार्णवावतारिका सर्व अभ्यासीओने ग्रंथमां उतरवा सोपान पंक्ति बांधनार वृत्तिकारे आजना अभ्यासको उपर महान् उपकार कर्यो छे. अने सेंकडो वर्षथी सन्मतितर्क माटेनी जोइती मध्यम वृत्तिनी खोट पुरी पाडी छे.
पू. आ. दर्शनरि महाराज विद्यमान आचार्योंमां गणनापात्र आचार्य छे. विद्यमान विद्वानोमा न्यायना प्रथम पंक्तिना महा विद्वान तथा स्वपरशास्त्रना मननपूर्वक यथार्थ जाणकार होवाथी अने मारा तारानी झंझटथी पर रहेनार अने सदा पठनपाठनमा उद्यत रहेनार निरीह महात्मा तरीके प्रसिद्ध छे.
आ ग्रंथने सुंदर लेजर पेपरमां सुवाच्य अक्षरोमां छपावी प्रसिद्ध कर्यो छे तो वांचक दर्शन शास्त्रो अभ्यास करी समकित निर्मल करी दर्शननी प्रभावना करे. एज.
मफतलाल झवेरचंद गांधी.
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संमति तर्क रहस्य. लेखक पं. श्री जयानंद विजयजी गणि ।
सुगृहीत नामधेय पूज्यपाद आचार्य वर्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसार प्रणीत संमतितर्क मूळ ग्रंथण कांडमा विभक्त करायेल छे. प्रथमकांड ५४ गाथा प्रमाण छे. द्वितीयकांड ४३ गाथा प्रमाण छे. अने तृतीयकांड ६९-७० प्रमाण है. आम मूळ ग्रंथ १६७ पद्योनो छे.
संमति तर्क प्रकरण मूळ ग्रंथ आम अल्पकाय होवा छतां आ ग्रंथ जैनशासनमां अद्वितीय प्रभाचक ग्रंथ गणायो छे, अने आ प्रभावक ग्रंथ भणवा माटे साधु कारणवश आधाकर्मि आहार सेवन करे तो पण तेने प्रायश्चित्तनो भागी गण्यो नथी. तत्त्वार्थ तथा सम्मतितर्क भगवामां अखण्ड रंग लागे तो ते ग्रन्थनानिरन्तर एकचित्ते अभ्यासीने आधाकर्मादि दोष लागतो नथी तेम पञ्चकल्पादि ग्रन्थमां पण क छे. तेनुं कारण संमति प्रकरणमां नय-निक्षेप सप्तभंगी ज्ञान अज्ञेयनी विशद युक्तिपूर्ण विचारणा करी अनेकांतवादने प्रतिष्ठापित कर्यो छे.
आ संमति प्रकरण उपर शासन शिरोमणिप. पू. नवांगीटोकाकार भगवन्त श्री अभयदेवसूरि महाराजनी रचेल २५००० श्लोक प्रमाण तत्त्वावबोधविधायिनी नामनी वृत्ति छे. परंतु आ वृत्ति जैनशासनमा 'वाद महार्णव'ना नामे ज प्रसिद्ध छे. केमके तेमां पूज्यपाद अभयदेवसूरि महाराजना वखत सुधीना जे कोइ वादो हता, तेनो विस्तारपूर्वक विचार करवामां आव्यो छे. आ वादो अतिविस्तृत अने काठिन्यपूर्ण होइ सामान्य अभ्यासी पण अवगाही तेनो परिचय मेळवी शके ते माटे सरळ भाषामां नियुक्त आ वादोमां सहेजे प्रवेश करी शकाय ए हेतुथी संमततिर्कमहार्णवावतारिका नामनो आ थ अमारा पूज्य गुरुमहाराज श्री विजयदर्शनसूरीश्वरजी महाराजाए बनाव्यो छे.
आ ग्रंथ निर्माणं मुख्य प्रयोजन संमतितर्कमहार्णत्रमा प्रवेश करतो ते छे. आ ग्रंथ सुगम छतां तेनुं अवगाहन जैनेतरदर्शनसम्बन्धि न्याय ग्रन्थोना तथा जैनतर्कशास्त्रना थोडा घणा परिशीलन विना करी शकाय तेम नथी.
हवे जेओने बिलकुल संस्कृत भाषानो परिचय नथी तेओ पण आ ग्रंथर्मा शो विषय छे. तेनुं टुंक दिग्दर्शन पामी शके ते आशयथी मूळ ग्रंथने लक्ष्यमा राखी अहीं ट्रंकमां तेनो निर्देश करवामां आवेल छे.
मंगल
शरुआतमां शासन प्रभावक आचार्य भगवन्तश्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराज शासननी स्तुतिरूप मंगळ करे छे, तेओ आ जैनशासनने चार गुणोवाळं वर्णवे छे.
दसणगाही --- दशणनाणप्रभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय समतिमादि गेहृतो इत्यादि (निशीथचूर्णि उद्देशक १)
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आ शासन जिनेश्वर भगवन्त रचित होवाथी स्वतः सिद्ध छे, बोजा हेतु निरपेक्ष प्रामाणिक छे, १, यथार्थवस्तुने प्रतिपादन करनार छ २, जैनशासनने शरणे आवेलाने अनुपम सुख आपनार छ ३, अने एकांतवाद रूप मिथ्यामतोने दूर करनार छ. ४, उद्देश.
ग्रंथकार ग्रंथनो उद्देश जणावतां कहे छे के आ ग्रंथ हुँ एटला माटे बनायूँ छु के आगमोनो अभ्यास करवामां रस विनाना माणसो पण आ ग्रंथने एकाग्रचित्तथी मनन कर्या पछी आपो आप श्रुतधरोनी उपासना करवा ललचाय, अर्थात् आ ग्रंथ वांच्या पछी तेमने शास्त्रोतुं चिंतन करवानी आपोआप इच्छा थशे. अभिधेय.
तीर्थकर भगवानोना वचनोना अर्थतत्त्वने प्रतिपादक द्रव्यार्थिक नय अने पर्यायाथिक नय अभिधेय छे. द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आबे-नयना मुख्य भेदो छे, पीजा नयो एतो द्रव्यार्थिक अने पर्यायाथिक नयना भेदो छे. आ ग्रन्थमां ते मुख्य वे नयनी अपेक्षाए स्याद्वादतच्चनु निरूपण करवामां आवशे.
अर्थात् ग्रंथनो मुख्य प्रतिपाद्य विषय अनेकान्तवाद छे, आ अनेकान्त-नयोना स्पष्टीकरणथी ज स्पष्ट थइ शके तेम छ, आ नयो अनेक होवा छतां ते बधानो समावेश द्रव्यार्थिक अने पर्यायायिक आ बेमां थाय छे. आथी आ ग्रंथनो मुख्य विषय द्रव्याथिक नय अने पर्यायार्थिक नय छे. अने तेने अनुसरी ज्ञान अने ज्ञेयनी विचारणा छे.
प्रथमकोट कोई पण वस्तुने तेनी बधी बाजुथी तपासवू ते अनेकान्त छे. एटले एकज वस्तुमा रहेल बधाये परम्पर विरोधि धर्मोनो अपेक्षाभेदथी विचार करी ते धर्मोनो एक वस्तुमा समावेशरूप कथञ्चित् तत्त्वनु निरूपण ते अनेकान्त छे. अने कोई पण वस्तुने तेनी बीजी बाजुनो अपलाप कर्या विना विचारणा करची, एटले स्वविरोधिधर्मनी उपेक्षा करी एक धर्मनी विचारणा ते नय छे. अनेकांतमां बधा नयो संकलित थाय छे, आ नयो अनंत छे. केमके वातुमांअनंत धर्मों छे. ___ आ अनंत धर्मोमाना बीजा धर्मने अपलाप कर्या विना एकुकाधर्मने प्रतिपादन करनार वचनमार्ग अनन्त होवाथी नयो अनन्त छे सिद्धान्तमां कडं छे के 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया' जेटला वचनमार्गों तेटला नयवादो छे. आ बधा नयोनो समुच्चय रीते विचार करीए तो ते यधा बे भागमां व्हेंचाइ जाय छे. एक अभेददृष्टिमां अने बीजी भेदरष्टिमां, अभेददृष्टिने द्रव्यार्थिक नय अने भेददृष्टिने पर्यायार्थिक नय कहे छे.
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ই७
को एक मानवनो विचार भेददृष्टि तरफ वळी करवामां आवे त्यारे हिन्दुस्ताननो, गुजरातनो, मुंबईईलाकानो, अमदावादमां अमुक पोळनो अमुक शेरीनो अमुकनो पुत्र एम विचाराय छे. तेज मनुष्यने अभेद दृष्टिथी विचारवामां आवे त्यारे उलटा क्रमे विचाराय. अकशेरीनो अमुक पोळनो अमदावादनो मुंबई इलाकानो गुजरातनो हिन्दुस्ताननो मानव जीव अने छेवटे आत्म प्रदेशमय ज्ञानमय सत्. आम वस्तु एकनी एक होवा छतां एकज वस्तुमां कोईनी दृष्टि भेदरूपे परिणमे छे, तो कोइनी दृष्टि अभेदरूपे परिणमे छे. आ अमेद अने भेद वस्तुभां छे.
आधी विचारणाओना प्रकारोने जैनशास्त्रमां नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ अने एवंभूत आ सात प्रकारना नयोमां समावेश करेल छे. संमतितर्क ग्रंथमां आ सात नयोने छ नयोमां संकलित करेल छे. अभेददृष्टिरूप द्रव्यार्थिक नयमां संग्रह अने व्यवहार नयने लीघा छे. अने पर्यार्थिक नयमां ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ अने एवंभूत ए चार नयोने संकलित कर्या छे.
वस्तुमात्रमा सामान्य (अभेद) अने विशेष (भेद) वे धर्म छे. सामान्यग्राहि दृष्टि ते अभेददृष्टिद्रव्यार्थिकनयमां समाय छे, अने विशेषग्राहि दृष्टि ते भेददृष्टि- पर्यायार्थिक नयमां समाय ले.
सत्तारूप तत्त्वने अखंडपणे ग्रहण करनार प्रथम दृष्टि ते संग्रहनय छे, अने ते सत्ताने जीव अजीव आदिरूपे विभाग करी तेना भेदोमां ज्यारे दृष्टि प्रवर्ते त्यारे ते व्यवहार नय कहेवाय छे.
आ संग्रह अने व्यवहारनय एद्रव्यार्थिकनयना भेद छे. भिन्न भिन्न सर्व वस्तुमां भेद ते कल्पनामूल होवाथी असत्, अने अभेद ते पारमार्थिक होवाथी केवळ सतुरूप अखण्ड ने ग्रहण करनारी दृष्टि ते संग्रह नय छे, आ संग्रह नय शुद्ध द्रव्यार्थिक नय छे. अने व्यवहार चलाववा मथती जीव अजीव विगेरे विभागने करती दृष्टि ते व्यवहार नय छे. आ व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय छे.
आम कोई पण पदार्थना सामान्य तस्वने अवलंबी जाति के गुण आदिनी विशेषताथी गमे तेला पेटा विभागो करवामां आवे छतां तेमां काळने अवलंबी फेरफार न करवामां आवे सुधी ते वधा विभागो व्यवहार नयमां समाय छे. अर्थात् सत् रूप अखंड तत्त्वने जीव मनुष्य आर्य वगेरे भेदे खंडित करी व्यवहार चलाववा माटेनी दृष्टि ते ते पदार्थमां काळने अवलंबीने भेदमां न पेसे त्यां सुधी ते व्यवहार नयनी मर्यादामां छे, केमके आ बधा भेद star छतां ते दृष्टि परिमित अभेदस्पर्शी छे। अने तेथीज ते द्रव्यार्थिक नय कहेवाय छे.
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भेद तरफ वळेली आ दृष्टि ज्यारे काळकृत भेदमा प्रवेशे छे. अने भूत भविष्यकाळने कार्यनो असाधक मानी वर्तमानकाळ पुरतुं ज तत्त्वने स्वीकारे छे. त्यारे ते ऋजुसूत्रनयनी मर्यादामां आवे छे, आ ऋजुसूत्रनयथी पर्यायाथिक नयनी शरुआत थाय छे, ते एवंभूत सुधी लंबाय छ, ऋजुसूत्र नयना मानेल वर्तमानकालीन तत्वमां पण लिंग वचन पुरुष आदि भेदे भेद माननार दृष्टि शब्दनय बने छे, अने शब्दनये मानेल समाज लिंग अने समान वचनवाळा पर्यायशब्दोमां पण व्युत्पत्ति भेदे भिन्नअर्थ माननार दृष्टि ते समभिरूढ नय छे, अने व्युत्पत्तिथी मेद स्वीकारेल पदार्थ पण क्रिया काल पुरतो ज सत् छे एम माननार भेद दृष्टि ते एवंभूत नय छे. आ शब्द समभिरूढ अने एवंभूत त्रणे वास्तविक जोइए तो ऋजुमूत्र वृक्षनी शाखाओ छे, ऋजुसूत्र शब्द समभिरुढ अने एवंभूत आ चार नयो पर्यायार्थिक नयमां समाय छे. ___ आम द्रव्याथिक नयमां संग्रह अने व्यवहार पक्षान्तरे नैगम सङ्ग्रह अने व्यवहार समाय छे. पर्यायार्थिक नयमां ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ अने एवंभूत समाय छे.
जेमां कोई पण विशेष न होय तेवु वचन ते सत्-अस्ति छे, अने आ प्रमाणे माननार शुद्ध द्रव्यास्तिक नय छे, अने जेमां कोई पण सामान्य न होइ एवं छेल्लु अविभाज्य विशेष वाचक वचन ते शुद्ध पर्यायास्तिक नय छे. आ बन्नेनी वच्चे आवनार बधा विभागो सामान्य विशेषनां प्रतिपादक होवाथी द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक मिश्रित छे.
सत् अस्ति आ शुद्ध द्रव्यास्तिक अने जीव मुक्त संसारी-अजीव परमाणु स्कन्ध गुण आ वधा मर्यादित सामान्यना बोधक साथे तेमा विशेषनो-विभागनो अने भेदनो स्पर्श होवाथी द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक कहेवाय छे. अने छेल्लो अविभाज्य विशेषवाळो पदार्थ एक व्यक्ति निष्ठ ते शुद्ध पर्यायार्थिक छे. अंतिम विशेष सिवायनो बधी वस्तुओ अनुक्रमे सर्वव्यापक सत्ता सामान्य सुधीमा सामान्य उपयोग थतो होवाथी द्रव्यास्तिकनयनो विषय छे. अने एज पधा विषय पर्यायाक्रांत होवाथी पर्यायास्तिकनयने पण ग्राह्य बने छे. मात्र अंतिम विशेषमा सामान्य उपयोग नथी. अने सर्वव्यापक सत्ता सामान्यमा विशेष उपयोग नथी.
॥ चार निक्षेपामा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयनी विचारणा ॥ नाम स्थापना द्रव्य अने भाव आ चार निक्षेपामां नाम स्थापना अने द्रव्य आ त्रण निक्षेपा सुधी द्रव्याथिक नयनी प्रवृत्ति छे. नाम मात्रथी इन्द्र होय ते नाम इन्द्र, इन्द्रनुं चित्र होय ते स्थापना इन्द्र, भविष्यमा इन्द्र थनार होय अगर पहेला इन्द्र हतो ते द्रव्य इन्द्र, आत्रणे निक्षेपामां कोईने कोई जातनो द्रव्य साथे संबंध होवाथी द्रव्यास्तिक नयना विषयमा समाय
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छे, अने इन्द्रासनमा बोराजमान इन्द्र ते भाव इन्द्र, ते भाव निक्षेपारूप छे, ते पर्यायार्थिक नयमां समाय छे, कारण के भाव इन्द्रमां वर्तमानमां इन्द्रपदना अनुभवनी - लिंग वचनना भेदनी, - व्युत्पत्ति भेदनी अने क्रियाकालनी आ बधी विशेषताओं होवाथी विशेषताने लई भेद ज मुख्य छे.
॥ उत्पत्ति स्थिति अने नाशरूप पदार्थलक्षणमां द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयविचरणा ।।
उत्पत्ति स्थिति अने नाश ए पदार्थनुं लक्षण छे 'उपाय - डिइ भंगा हंदि दवियलक्खणं, द्रव्यास्तिक नयनो विषय सामान्य छे। अने पर्यार्यास्तिक नयनो विषय विशेष छे, जगत्ना कोई पण पदार्थमां विशेष विनानुं सामान्य नथी अने सामान्य विनानुं विशेष नथी. तेज रीते उत्पत्ति अने नाश-स्थिति विनानां नथी, अने स्थिति - उत्पत्ति अने नाश विनानां नथी, आथी पदार्थ मात्रमां द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक बन्ने घटी शके छे, छतां द्रव्यास्तिकनुं वक्तव्य पर्यायार्थिकनी दृष्टिमां अवस्तु छे, अने पर्यायार्थिकनुं वक्तव्य द्रव्यास्तिकनी दृष्टिमां अवस्तु छे, केमके द्रव्यास्तिक अभेद तरफ ढळे छे, अने पर्यायास्तिक भेद तरफ ढळे छे, उत्पत्ति स्थिति अने नाश त्रणेनुं भिन्न स्वरूप छतां एक बीजा साथे मलीने रहे छे, तेम द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक बन्ने नयोनुं भिन्न स्वरूप होवा छतां बन्ने दृष्टि पदार्थ प्रतिपादनमां वराय त्यारेज पदार्थनं साधुं प्रतिपादन गणाय. आ बन्ने दृष्टि सापेक्षपणे प्रवर्ते त्यां सुधी नय छे. निरपेक्षपणे प्रवर्ते त्यारे ते दुर्नय बने छे. अने आ दुर्नय ते मिथ्यात्व छे.
द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अने तेना पेटा भेदो आ बधा नयो पोत पोताना विषयनी मर्यादामा रही प्रवृत्ति करे त्यां सुधी नय छे, अने ते सर्व अपेक्षा पूर्वक वस्तुगत एक अंशप्रतिपादक होवाथी सम्यक् नय छे, पण ज्यारे ते प्रतिपक्षनयनुं खंडन करे त्यारे ते मिथ्या नय छे, हाथीनो एक अवयव पग थांभला जेवो देखी हाथी थांभला जेवो छे ते कहे त्यां सुधी ते न साचो छे. एटले सुनय छे, पण हाथी थांभला जेवोज छे, दोरडा जेवो नथी, ते कहेनारा जुठा छे, तेम कहेनारलुं एकान्त वचन दुर्नय छे, कोइपण माणस जेम स्त्रपुत्रनो पिता ते स्वपितानो पुत्र - बीजा पुरुषनो मामो काको भत्रीजो पण होइ शके छे, आ वस्तुस्थिति समज्या विना विद्यमान एवा बीजा धर्मनो निषेध करी केवल एकज धर्मप्रतिपादक पुरुषं निरपेक्ष वचन - एकान्त वचन दुर्नय छे, बीजा धर्मनुं खण्डन मण्डन करवामां उदासीन भावपूर्वक एक धर्मप्रतिपादक पुरुषनुं सापेक्ष वचन सुनय छे.
कमां द्रव्यास्तिकनुं वक्तव्य भेदरहित अभेद छे, अने पर्यायास्तिकनुं वक्तव्य अभेदरहित भेद छे, अने ते वक्तव्य भेद थाय त्यांथी शरु थाय छे.
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३०
भेद शु छ ?
पदार्थ मात्र कथञ्चिद् भेदाभेद उभयात्मक छ, अभिन्न सामान्य स्वरूप सत् उपर कल्पायेली अनेक भेदोनी परंपरामा सदृश परिणाम प्रवाह कोई पण एक शब्दनो वाच्य बनी व्यवहार पाळे ते व्यंजन पर्याय, अने तेना जे क्रमिक भेदो अविभाज्य लागे ते अर्थपर्याय, जेमके जीवना पुरुष पुरुष एवा सदृश परिणाम प्रवाहमा निर्विकल्प बुद्धि थाय छे ते व्यंजन पर्याय, अने तेज पुरुषमा वाल युवान आदि अनेक विकल्पो नजरे पडे छे. ते बधा पुरुषरूप व्यंजन पर्यायना अर्थ पर्यायो छे. आ बाल विगेरेनां पण स्तनधय विगेरे तेना अर्थपर्यायो छे अने वाल ए व्यंजन पर्याय छे.
पुरुषनी साथे बाल युवान वृद्धत्व विगेरे तेना पेटा भेदो कथश्चिद् भिन्नाभिन्नपणे रहेला छे. वाळ युवान वृद्धत्वनुं स्वरूप जुदु होवाथी ते पृथक् छे. अने ते बधा पुरुष साथे संकळायल होवाथी अभिन्न छ. आ वधी भिन्नाभिननी विचारणा द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकना विषयरूप छे. अने तेथीज एकज गणातो पदार्थ स्वपर्याय परपर्याय विगेरेने लई अनंत बने छे.. ___ कोइ पण परमाणु के जीव अखंड होवाथी व्यक्तिरूपे भले एक होय छतां व्यंजन पर्याय अने त्रणे काळना अर्थपर्याय अनंत होवाथी ते अनंतरूपे भासमान थाय छे. आम विशेष्यभूत द्रव्य एक होवा छतां विशेषणभूत पर्यायोना भेदने लीधे जु, जुदुं मानवाथी पर्यायोनी जेटली संख्या तेटली संख्यावालं द्रव्य बने छे. ___ आम एकज पदार्थ अनंतधर्मोने लई अनंत बने छे आ पदार्थमा रहेल कोइ पण एक धर्म अने तेना विरोधि धर्मनी अपेक्षाए प्रथम त्रण भङ्ग थाय छे, आ त्रण भंग पण एकुकानयनी अपेक्षाए थाय छे, अने ते ते धमेना संयोगथी वीजा चार भङ्ग थाय छे, छल्ला चार भंग बे नय त्रण नयना संयोगथी थाय छे. प्रथम भंगमा जे धर्मनी मुख्यता होय ते धर्मनी सप्तमंगो कहेवाय छे, आ रीते नयसंयोजना घटित सप्तभङ्गी बने छे.
आम नयवाद अने अनेकांतवादनी विचारधारा अनंत छतां सुयोग्य अने व्यवस्थित छे. जे विचारणा साधु वस्तुदर्शन प्रगटावी माणसने बहुश्रुत अने स्थिरबुद्धिक बनावे छे. अहि अतिगौरव भयथी अति विस्तार को नथी ?
( अवशिष्ट ) अष्टम द्वादशारे
जो हेउवाय परूखंमि, हेओ आगमे य आगमिओ । सो ससमयपण्णवो, सिद्धत विराहिओ (हओ) अन्नोत्ति । का० ३ गाथा ४५
मूलनिमेणं पज्जवणयस्स, उज्जुसुअवयणविच्छेदो । तस्स उ साहपसाहा, सहविकप्पा सुहुममेदा । का-१. गा-५ ॥ द्वादशारे ।
हेउविसयोवणीयं, जह वयणिज्ज परो नियत्तेई । जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जि पन्तो॥ का-३ गा. ५८
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॥ श्रीसम्मतितर्कप्रकरणस्य आचार्यश्रीविजयदर्शनसूरिप्रणीतसम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यटीकायाः विषयानुक्रमणिका ॥
। प्रथमकारिकार्थानुक्रमणिका । अङ्काः विषयाः
पृ० पङ्गिः १-१ मङ्गलाचरणे श्रीपार्श्वजिनस्तुतिः ।
१-१३ २ श्रीवीरजिनस्तुतिः।।
१-१७ ३ स्वकार्ये प्रभाववर्यस्त्रसुगुरोः श्रीनेमिसरिवर्याच्छुभाशिषः प्रार्थनम् । १-२१ ४ त्रिभिः पद्यैः स्वाऽशक्यव्याख्यानमूलसम्मतिग्रन्थकृतिव्याख्याने स्वकर्तृकेऽस्मिन्
बृहद्वत्तिकृत्पूज्यश्रीमदऽभयदेवमूरिख्याख्यानानुसन्धानगुणोपष्टम्भः। १-२३ ५ संसारसमुद्रमुत्तितीर्षतां भव्यानां तदुत्तरणसाधनं सम्यग्दर्शनप्रवहणमेव, तत्र
"द्वारं मूलमिति" पद्यस्य "न सेणिओ" इति गाथायाश्च संवादकतया प्रदर्शनम् ।२-६ ६ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षसाधनत्वमुपपादितम् ।।
२-१४ ७ सम्यक्त्वस्य कारणतावच्छेदककोटिप्रवेशप्रयोजनमुपवर्णितम् । ८ सम्यग्दर्शनादित्रयस्य तत्तन्नयभेदेन मोक्षासाधारणकारणत्वसाधकमनुमानमुपदर्शितम् , समप्रधानभावेन त्रिषु कारणत्वं, सम्यक्त्वं मोक्षानुकूलनिर्जराविशेषप्रयोजकविशेषाश्रयत्वमिति चोपपादितम् । प्रमाणार्पणया सम्यग्दर्शनादित्रयस्य सम्यग्दर्शनत्वा दिना न कारणत्वं, किन्तु मोक्षानुकूलशक्तिमत्त्वेनैव, तृणादीनामपि वलिम्पति वन्यनुकूलशक्तिमत्त्वेनैव कारणत्वम् , तच्च नैयायिकाद्यभिमतं सखण्डरूपं न, किन्त्वखण्डशक्तिरूपमित्यु
पपादितम् । १० शक्तिरूपाखण्डकारणत्वस्याभिव्यञ्जकत्वादेव सम्यग्दर्शनत्वादीनां त्रयाणामव
च्छेदकत्वम् , एकस्याप्यनेकाभिव्यङ्ग्यत्वे "किश्चाभिव्यज्यते जातिः' इत्यादि स्याद्वादरत्नाकरवचनसंवाद आवेदितः।
४-११ ११ शक्तिमत्त्वस्य शक्तिरूपकारणतावच्छेदकत्वे आशङ्कित आत्माश्रयदोषः परिहतः। ४-२० १२' सम्यग्दर्शनादिषु त्रिषु मोक्षानुकूलशक्तिमत्वेन मोक्षम्पति कारणत्वे निरुक्त
शक्तिरूपे मोक्षमार्गत्वे एकत्वान्वयमाश्रित्य “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि
मोक्षमार्गः" इति तत्वार्थसूत्रे मोक्षमार्ग इत्येकवचनमित्युपपादनम् । ४.-२७ १३ सम्यग्दर्शनादित्रिकसमूहस्यान्यथासिद्ध्यैककारणत्वं न सम्भवतीत्याशङ्काऽपाकृता ।५-१
३-१०
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अङ्काः
विषयाः
१४ सम्यग्दर्शनादित्रयाणां व्यापारव्यापारिभावेन कारणत्वम्, न साक्षादिति तत्समूहस्यापि न कारणत्वमित्याशङ्का व्युदस्ता ।
पृ० पङ्किः
१५ सम्यग्दर्शनादित्रिषु तत्पर्याप्तसमुदायत्वेन मोक्षाऽनुकूलसम्पूर्णशक्तेः सद्भावेऽपि सम्यग्दर्शनत्वादिप्रत्येकधर्मावच्छेदेनापि सम्यग्दर्शनादिष्वेकैकेषु विशेषावश्यकभाष्योक्तितो देशतो मोक्षानुकूलशक्तिसद्भाव उपपादितः ।
५- १३
१६ सम्यग्दर्शनस्य शुद्धतरत्वाधिगतये द्रव्यानुयोगदृढीकरणं न्याय्यमिति निगमनम् । ५-३० १७ अभ्यस्तव्यद्रव्यानुयोगशास्त्रप्रपञ्चनम् ।
६-१
१८ तत्र सम्म तितक ख्यिप्रकरणस्य यथोपादेयत्वं तथोपदर्थं तत्कर्तुः श्री सिद्धसेनदिवाकरस्यान्वर्थसंज्ञत्वादिप्रदर्शनपुरस्सरं तीर्थकुत्तीर्थनमस्करणप्रवृत्तिदृष्टान्ततः शासनस्य स्तुत्यर्हत्वं तत्फलञ्चाविष्कृतं विस्तरतः ।
१९ प्रसङ्गागतसर्वज्ञसिद्धिराविष्कृता, तत्र "ज्ञो ज्ञेये" इत्यादि पद्यमुपदर्शितम् । २० मङ्गलस्य ग्रन्थघटकीकरणप्रयोजनं दर्शितम् ।
२१ "सिद्ध सिद्धत्थाणं" इति मङ्गलमुल्लिखितम् ।
२२ स्वरूपोपदर्शनपुरस्सरं शासनस्य सिद्धत्वसाधकमनुमानमुपदर्शितम् । २३ तत्र हेतोरसिद्धिदोषस्यापाकरणम् ।
२४ शासनस्य प्रामाण्यलक्षणेणसिद्धत्वावधारणप्रयोजनमुपदर्शितम् । २५ " जिणाणं" इति विशेषणमवतारितम् ।
३०
३१
५-८
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२६ शासनप्रणेतुर्जिनस्य रागद्वेषादिरहितस्य सर्वज्ञानावश्यम्भावेन श्रमप्रमादादिपुरुषदोषाभावात्तत्प्रणीतस्य शासनस्य प्रामाण्यलक्षणं सिद्धत्वं स्यादेवेति दर्शितम् । ८-२४ २७ " सिद्धत्थाणं" इति विशेषणस्यावतरणपुरस्सरमर्थमुपदर्श्य प्रयोजनमुपवर्णितम् । ८-२८ २८ " कुसमयविसासणं" इत्यस्यात्रतरणपुरस्सरं विवरणम् ।
९-१
९-९
२९ शासनस्य जिनप्रणीतत्वेन निश्चितप्रामाण्यकत्वेऽनुमानमुपदर्शितम् । " भवजिणाणं" इत्यस्यावतरणपुरस्सरं विवरणम् ।
९-११
९-२२
"ठाणमणोवमहमुवगाणं." इत्यस्यावतरणपुरस्सरं विवरणम् । अस्यैवारणान्तरं विवरणान्तरश्च ।
१०-४
३२ “ सिद्धं” इति विशेषणमवतार्य विवृतम् ।
१०-८
३३ शासनस्य जिनप्रणीतत्वसाधकमनुमानं, तत्र व्यभिचारशङ्कोत्सारणं हेत्वसिद्धिदोषोद्धारः शासनकर्ता जिन एवेति साधनञ्च ।
६-४
७-५
७-२६
७-२७
७-२९
८-१
८-६
८-२०
१०-१३
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विषयाः
पृ० पतिः ३४ ज्ञानमात्रे उत्पत्तौ स्वत एव प्रामाण्यं तत्साधनं, वेदागमस्य नित्यत्वेनाप्तगुणापेक्षाऽ
भावात्स्वतः प्रामाण्यं, तत्र न पौरुषेयत्वमित्यादिमीमांसकमतमुपदर्य प्रतिक्षिप्तम् । ११-१ ३५ वेदस्यापौरुषेयत्वेन वक्तृगुणापेक्षाऽभावात्मामाण्यस्य स्वतस्त्वे तथैव तस्याप्रामा
ण्यस्यापि स्वतस्त्वं स्यात्, अप्रामाण्ये दोषापेक्षाया आवश्यकत्वे प्रामाण्ये गुणा
पेक्षाया आवश्यकत्वमित्यादि मीमांसकमतखण्डने प्रपञ्चितम् । ११-१४ ३६ यथा लौकिकवाक्ये आप्तवक्तगुणहेतुकं प्रामाण्यमनाप्तवक्तृदोपहेतुकमप्रामाण्यं
तथैव वेदवाक्येऽपीत्युपसंहृतम्, लौकिकवैदिकवाक्ययोस्साम्यमुपपादितम् । १२-१८ ३७ मीमांसकस्य वर्णनित्यत्वविषयिणी शङ्कोत्थाप्यापाकृता ।
१२-२७ ३८ तत्र वर्णानामुत्पत्तिविनाशौ प्रसाधितौ ।
१२-२९ ३९ ध्वनिगतोत्पत्यादिधर्मस्यारोपाद्वर्णउत्पत्यादिप्रतीतिरिति मीमांसकमतस्य
प्रतिक्षेपः, तत्र “यो धन्यरूपसंवेद्यः" इत्यादिप संवादकं दर्शितम् । १३-३ ४. अल्पत्वादिधर्माणां ध्वनिधर्मत्वे श्रोत्रेण तद्ग्रहणानुपपत्तौ "ध्वनिधर्मत्वपक्षे तु" ___इत्यादिन्यायमअरीपचं संवादकमुपदर्शितम् ।
१३-१६ ४१ वर्णस्य नित्यत्वेऽपि तदानुपूर्वी विशेषस्य संदर्भविशेषविशिष्टपुष्पस्वरूपमालाया
इव पुरुषकईकत्वमिति तद्रूपवेदस्य पुरुषककत्वमित्यत्र "पदनित्यत्वपक्षेऽपि" इति वचनसंवादो दर्शितः।
१३-२७ ४२ दृष्टकर्तृकरचनावैलक्षण्येन वैदिकरचनाया अपौरुषेयत्वशक्का उत्थाप्य प्रतिक्षिप्ता। १४-३ ४३ वेदवाक्यस्य नित्यस्यापि स्वतो न यथार्थज्ञानजनकत्वं, किन्तु पुरुषकृतसङ्केत
ग्रहजन्यविशिष्टसंस्कारापेक्षस्य तस्य तत्त्वम् , पुरुषाश्च सर्वे प्रमादादिदोपत्रन्त एव परेषामिति नैवमपि यथार्थज्ञानं तत इति तस्य नित्यत्वाभ्युपगमोगजस्नानमिव, तत्र "असंस्कार्यतया" इति वचनसंवादः।
१४-१२ ४४ परार्थवाक्योच्चारणान्यथानुपपत्या शब्दस्य यथा नित्यत्वं तथोपपाध तत्र
"नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्" इति मीमांसासूत्रं तद्भाष्यञ्चोपदय शब्द
स्यापौरुषेयत्वं मीमांसके प्रसाधितमिति मीमांसकप्रश्नः, तत्प्रतिविधानश्च । १५-२० ४५ धूमव्यक्तीनामनित्यत्वेऽपि धूमत्ववाहित्वसामान्याभ्यां यथा व्याप्तिग्रहः तथा
गवार्थव्यक्तिगोशब्दव्यक्तीनामनित्यत्वेऽपि गोत्वगोशब्दत्वाभ्यां सङ्केतग्रहणबाव्यवाचकभावादिकमिति प्रश्नप्रतिविधानाभ्यां निष्टङ्कितम् ।
१५-१२
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४
अ:
विषयाः
४६ गोशब्दस्याकृतिवचनत्वं तच शब्दस्य नित्यत्वादेव सम्भवति, तत्संवादकं भाग्योपेतं मीमांसासूत्र मुल्लिखितमेतस्य पूर्वहेतुना निरास आवेदितः । ४७ आकृतिव्यक्त्योर्भाग्यवचनेन स्वरूपमुपदर्थ्याकृतिविशिष्टव्यक्तौ सङ्केतग्रहणं यत्र न सामान्यं तत्र व्यक्तावेव शक्तिस्तत्र " येषामर्थेषु सामान्यं " इति पद्यं संवादि दर्शितम् ।
४८ पूर्व शक्त्या शब्दाज्जात्यवगमः, पश्चादर्थापत्या व्यक्त्यवगम इति मीमांसकमतमाशङ्कय खण्डितं न्यायमतेन ।
४९ न्यायमतस्यायुक्तत्वं सामान्यव्यक्त्योः कथञ्चिद् भेदोपदर्शनेन व्यवस्थापितं, सामान्यविशेषोभयात्मके वस्तुन्येव सङ्केतग्रहः, स्वाभाविकशक्तिसङ्केतग्रहाभ्यामेव शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वम्, तत्र देवसूरित्रसंवाद |
पृ० पङ्किः
५० शब्दज्ञानस्य शब्दज्ञानत्वेनैव शाब्दबोधम्मति कारणत्वम्, सङ्केतस्याकारमुपदर्श्य तज्ज्ञानं प्रत्यक्षभिन्नमेव तञ्जन्यं शक्तिज्ञानमपि प्रत्यक्ष भिन्नमेव कारणमिति व्यवस्थापितम् ।
५१ शक्तिग्रहस्य कारणत्वेऽपि सङ्केतज्ञानस्यापि कारणत्वमित्युपपादितम् । ५२ नियतसङ्केतसहकृतस्य शब्दस्य न सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वं वाच्यवाचकभावस्य च यथोत्पत्तिमा भेजानस्य बलेन शब्दानां प्रामाण्यं तथोपदर्शितम् । ५३ नैयायिकाभ्युपगम दिशाऽनित्यानां शब्दानां मीर्मासिकाभ्युपगमदिशा नित्यानां शब्दानाश्च न प्रामाण्यम्, अस्थिरस्यापि शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकभावसम्बन्धस्य ग्रहणमुपपादितम् ।
५४ शब्दानामनित्यत्वव्यवस्थित्या पराभिमतसृष्टिकर्तुरभावेन घातिकर्माद्यऽपरामृष्टपुरुषविशेषप्रणीतत्वेन स्वतः सिद्धं वक्तृगतयथार्थज्ञानात्मकगुणजन्यत्वविवक्षायां तु परतः सिद्धं च प्रामाण्यमिति निगमितम् । ५५ प्रामाण्यस्य परत उत्पत्तौ प्रमाणस्यानुमानस्योपदर्शनम् । ५६ गुणानामनुपलम्भादऽसच्वाशङ्का प्रतिक्षिप्ता । ५७ चक्षुरादिगतनैर्मल्यादीनां गुणत्वं व्यवस्थापितम् | ५८ दोषवद् गुणस्याभ्युपगन्तव्यत्वं निगमितम् ।
५९ युक्तेस्तौल्ये दोषस्यैवाभ्युपगमो न गुणस्येति पक्षपातो न युक्त इत्यत्र “सुव्यक्तं गुणमात्सर्यमिति" पद्यमुपदर्शितम् ।
६० साधकानुमानादिना गुणव्यवस्थापनं विस्तरतः ।
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१५-१७
१५-२७
१६–९
१६-१३
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१७-६
१७-१८
१७-२२
१७-३०
१८-७
१८-१७
१८-२५
१८-२९
१९-१
१९-३
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अङ्काः
विषयाः
६१ प्रमात्वस्य परिशेषाद् गुणजन्यतावच्छेदकत्वं निर्णीतम् ।
६२ यथार्था यथार्थभेदेन ज्ञानस्य द्वैविध्यमेव, तत्राद्यस्य गुणवत्कारणोत्पाद्यत्वं व्यवस्थापितम् ।
६३ गुणस्य दोषाभावमात्रेण चरितार्थत्वं विस्तरतोऽपाकृतम् ।
६४ ज्ञानस्य प्रामाण्यमप्रामाण्यं चोत्पत्तौ परत एवेति निगमितम् ।
६५ प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्निश्चयोऽभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायाञ्च परत इति व्यवस्थापितम् ।
६६ अनभ्यासदशायां प्रामाण्यनिश्चयात्पूर्वं प्रवृत्तिः संशयादुपपादिता । ६७ संशयादपि प्रवृत्तौ प्रामाण्यनिचयस्य किं प्रयोजनमिति शङ्का तत्प्रयोजनोपदर्शनेनापकृता ।
६८ अत्र भट्टमतमुपदश्ये " यथैव प्रथमं ज्ञानं" इत्यादि तत्पद्यसंवादं च प्रद तन्निरास आवेदितः ।
पृ० पि
१९-१४
६९ अत्र चक्रकान्योन्याश्रयानवस्था दोषाः परिहृताः ।
७० सन्दिग्धप्रामाण्याज्ज्ञानात्मवृत्तौ प्रेक्षावन्यक्षत्याशङ्का परिहृता ।
७१ प्रेक्षाकारित्वाऽप्रेक्षाकारित्वे न नियते इत्यत्र "प्रेक्षावत्ता पुनर्ज्ञेया" इति वचनसंवादो दर्शितः ।
७९ सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वमेव, भ्रमस्थले ज्ञानद्वयं, ज्ञानस्य स्वतो ग्राह्यत्वं तत्प्रामाण्यमपि तेन गृह्यत इति प्रभाकर मतप्रदर्शनम् ।
८० प्रभाकरमतखण्डनं भ्रमज्ञानस्य व्यवस्थापनेन सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वमित्यस्य
खण्डनम् ।
" Aho Shrutgyanam"
१९-१७
२०–१
२०-२०
२०-२१
२०-२३
२०-२८
२२-७
७२ प्रामाण्यस्य निश्वये परतस्त्वस्वतस्त्वयोः स्याद्वादरत्नाकर संवादो दर्शितः ।
२२-१२
७३ अत्र प्रामाण्यस्य स्वतो ग्राह्यत्वमभ्युपगच्छतां मीमांसकानां मीमांसा दर्शिता । २२-१९ ७४ मीमांसकमतत्रयानुगतं स्वतो ग्राह्यत्वमुपदर्शितम् ।
२२-२३
७५ ज्ञानमतीन्द्रियं तज्जन्या ज्ञातता प्रत्यक्षा, तथा प्रामाण्यसहितं ज्ञानमनुमीयत इति भट्टतस्योपदर्शनम् ।
७६ ज्ञातताद्यपाकरणेन भट्टमतस्य खण्डनम् ।
७७ अनुव्यवसायेन ज्ञानं तद्गतप्रामाण्यं च गृह्यते एवमपि मतत्रयसाधारणं स्वतो ग्राह्यत्वमुपपद्यत इति मुरारिमिश्रमतमदर्शनम् ।
७८ अनुभवसिद्धप्रामाण्यसन्देहानुरोधेन प्रामाण्यनिश्चयस्य परतस्त्वव्यवस्थित्या मिश्रमतव्युदसनम् ।
२१-४
२१-१६
२१-२९
२२-२५
२३-१३
२१-२६
२४-२
२४-९
२४-१८
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________________
विषयाः
पृ० पङ्गिः ८१ अत्र बहवः पूर्वपक्षसमाधानप्रकारा दर्शिताः ।
२४-२५ ८२ सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वादेव प्रमाणाऽप्रमाणविभागोऽनुपपन्न इतिप्रभाकरमतस्यायुक्तत्वं निगमितम् ।
२६-१७ ८३ सर्वज्ञानस्यायथार्थत्वात्प्रमाणाप्रमाणविभागोऽनुपपन्न इति शून्यवादिमतस्य खण्डनम् ।
२६-१९ ८४ शून्यताखण्डने "शास्ता शास्त्रं शिष्यः” इत्यादिपघद्वयसंवादो दर्शितः। २७-१ ८५ स्वप्रकाशत्वस्य ज्ञाने सिद्धथा परत एव तत्र प्रामाण्याप्रामाण्यनिश्चय इति नैया
यिफमतस्य द्वितीयकाण्डे स्वप्रकाशत्वसाधनतोऽपाकरणं भविष्यतीत्युपदिष्टम् । २७-६ ८६ जिनप्रणीतस्यापि शासनस्य मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतस्याऽयथार्थज्ञानजनकत्वेन निश्चितप्रामाण्यं न सम्भवतीत्याशङ्कोत्थाप्य प्रतिविहिता।
२७-१० ८७ संवादकतयोपदिष्टं “तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति" सूत्रं व्यारव्यातम् ।
२७-२६ ८८ ज्ञानस्य प्रामाण्याप्रामाण्ये बहिरापेक्षया, ज्ञानापेक्षया तु प्रामाण्यमेवेत्यत्राप्त
मीमांसाया "भावप्रमेयापेक्षायाम्" इत्यादिपा संघादकमुपदिष्टम् । . २८-१ ८९ सम्यक्श्रुतज्ञानवद् गुरुपाठितश्रुतानां मिथ्यादृष्टीनामपि श्रौतज्ञानं यथार्थमेवेति प्रसङ्गादन्यदप्यत्र चर्चितम् ।
२८-९ ९. सम्यग्दृष्टेः श्रौतज्ञानं स्वगतं प्रमाण्यं गृह्णात्येवेति व्यवस्थापितम् । २९-५ ९१ जिनानामिति बहुकर्तृवचनेन कर्तुर्बहुत्वे तत्पणीतशासनबहुत्वे शासनमित्येक
पचनार्थंकत्वस्य प्रकृत्यर्थतावच्छेदके शासनत्वेऽन्वय इति बहुदृष्टान्तावष्टम्भेनो
पपादितम् । ९२ पदार्थः पदार्थेनान्वेतीत्यादिव्युत्पत्तिविरोधपरिहाराय यथाऽन्यत्र परम्परास
म्बन्धेन प्रकृत्यर्थे एकत्वान्वयः तथा प्रकृतेऽपीत्युपदर्शितम् । ९३ जिनानां शासनमित्यस्य पष्ठीविभक्त्यर्थावेदनेन विवरणम् ।
३०-१९ ९४ पौद्गलिकस्य जिनशासनस्य विरारुस्वभावस्येदानींपर्यन्तमवस्थानं न सम्भवतीत्याशका प्रतिविहिता।
३०-३९ श्रोतुर्थज्ञानस्य कथमागमत्वमिति प्रश्नपतिविधान, तत्र देवसरिसूत्रसम्बादश्च । ३१-११ ९६ शासनस्य जिनप्रणीतत्वे प्रमाणस्य सिद्धत्थाणं इत्यस्य हेतुस्वरूपपर्यवसितोऽर्थः
प्रयोगत उपवर्णितः, तस्य निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैकं लक्षणं, न त्रिरूपादि, तत्र देवसरिसूत्रसंवादः, “नान्यथानुपपनत्व” इति पात्रस्वामिपद्यसंवादश्च । ३१-२०
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विषयाः
अङ्काः
९७ अन्यागमप्रामाण्यव्यवच्छेदकं जिनागमप्रामाण्यसाधनप्रवणं "कुसमय विसासणं" इति विशेषणमवतार्य व्यारव्यातम् ।
९८ शासनप्रणेतृगत सर्वज्ञत्वसाधनपरतयाऽवतार्य च " कुसमय विसासणं" इति व्याख्यातम् ।
पृ० पङ्किः
१०४ क्रीडाकरुणादित ईश्वरस्य कर्तृत्वमित्यस्य प्रतिक्षेपः ।
१०५ कृपयेश्वरस्य कर्तृत्वे " क्षुद्रग्रामे निवास" इत्यादिपद्येन स्याद्वादरत्नाकरोपदशिताssक्षेपाः समुद्भाविताः ।
३२-५
९९ पातञ्जलनैयायिकाद्यभिमतेश्वरगतशासनप्रणेतृत्वखण्डनपरतयाऽवतार्य " भवजि - णा" इति विवृतम् ।
१०० रागादिक्लेश विगमः स्वभावत ईश्वरस्य न संभवतीत्यत्र निर्हेतुककार्याभ्युपगमे देशकालस्वभावप्रतिनियमाभावे "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा" इति धर्म कीर्तिपद्य संवादो दर्शितः ।
१०१ ईश्वरे रागाद्यत्यन्ताभावाशङ्का धर्म्यसिद्ध्याऽपाकृता । १०२ ईश्वरसाधकमनुमानं नैयायिकाद्यभिमतमाशङ्कय विस्तरतः प्रतिक्षिप्तम् । १०३ प्राणिगतविविधकर्मप्रेरित ईश्वरो विषमफलान् प्राणिनः करोतीति पराक्रूतमाशक्य प्रतिक्षिप्तम् ।
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३२-१९
३४-१३
३४-२७
३४-२९
३५-९
३६–५
३६—२६
३७-४
३७–८
३७-२३
१०६ लीलया स्वेच्छया वेश्वरस्य सृष्टौ प्रवृत्तिरपाकृता ।
१०७ "ठाणमणोवम सुहमुचगयाणं" इति विशेषणमवतार्य भावितम् । १०८ शुक्लध्यानस्य पृथक्त्ववितर्कस विचारात्र्याद्यभेदेन ज्ञानावरणीयादिचतुर्विधघातिकर्ममध्याभिशेपमोहनीय कर्मणः क्षये तदनन्तरं शुक्लध्यानस्यैकत्ववितasarराख्यद्वितीयभेदेन ज्ञानावरणादिघातिकर्मत्रये युगपत्क्षपिते सति तदनन्तरमघातिकर्मणो भवोपग्राहिणो यावत्स्थितिस्ताच्छरीरानिवृत्या न मुक्तिरिति ध्यानशतकवचनावेदनपुरस्सरमावेदितम् ।
१०९ मुक्तिसाक्षात्कारणशुक्लध्यानतृतीय भेदसूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिध्यानानन्तरं सर्वयोगविरोधादूर्ध्वं शैलेशीकाले शुक्लध्यानस्य व्युपरतक्रियाऽप्रतिपात्यारव्यचतुर्थभेदेनाशेषभवोपग्राहि कर्मक्षये सति भगवतो मुक्तिगमनमिति ततः प्राक्र भवोपग्राहि कर्मकार्यशरीरमुखादेर्भवस्थ सयोगिजिने सद्भावतः शासनप्रणेतृत्वं सर्वथा मिथ्याज्ञाननिवृत्तितस्तत्प्रणीतशासनस्य च प्रामाण्यमित्यावेदितम् । ३८-२२
३८-
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________________
विषयाः ११० "ठाणमणोपममुहमुवगयाणं" इत्यस्याक्यवार्थकथनम् । १११ अपुनरावृत्या सिद्धिक्षेत्रं गतानां न पुनरागमनमित्यनेन पुनरागमनाभ्यु
पगन्तमतं "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य” इति “यदा यदा हि धर्मस्य" इति च बचनप्रतिपाद्यमपाकृतम्।
३९-२४ ११२ भवबीजकर्माभावेन न भवाऽऽगमनमित्यत्र “न पुणो तस्स परई" इति वचनं प्रमाणतयोपन्यस्तम्
४०-१ ११३ मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्तीति मतमपाकृतमात्मनः शरीरपरिमाणनियतपरिमाणव
स्वव्यवस्थापनेन। ११४ अशेषविशेषगुणात्यन्तोच्छेदाभ्युपगन्तॄन्यायमतखण्डनपरतया "ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं" इत्यवतार्य विवृतम् ।
४०-१७ ११५ मुक्ती पारमार्थिकानन्दसुखावस्थानं व्यवस्थापितम् ।
४०-२३ ११६ तस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणसत्त्वं निष्टङ्कितम् ।
४०-३०. ११७ मुक्तौ दुःखस्येव सुखस्याप्यभाव इत्याशङ्कानिरासः।
४१-८ ११८ यावजीवेत्सुख जीवेदित्यादिवचनोपदर्शनेन देहनाशो मुक्तिरिति मतमुपदी निराकृतम् ।
४१-१६ ११९ आत्मनोऽनादित्वं तस्य परमानन्दप्राप्तिर्मुक्तिः, तदानीं सर्वकर्मविनाशे
तजन्यानन्तज्ञानदर्शनाद्यष्टगुणावाप्त्या मुक्तेः सिद्धौचार्याकमतं न युक्तमिति 'दर्शितम् ।
४१-२४ १२० "दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो" इत्यादिवचनेन मुक्तो न कुत्रापि गच्छति किन्तु शान्तिमेतीति मतमुपदर्य निराकृतम् ।
४२-१९ १२१ अत्रानुपदर्शितं बृहट्टीकातोऽवसेयम् ।
४२-२५ ।। इति प्रथमकारिकार्थानुक्रमणिका ॥
॥ अथ द्वितीयकारिकार्थानुक्रमणिका ॥ २-१ द्वितीयकारिकावतरणे अपायापगमाद्यतिशयचतुष्टयशालिभगक्मणीतश्रुतमय
देवतास्तुतिविध्वस्तसमाप्तिपतिबन्धकदुरितविशेषः सरिः शास्त्रस्यादौ प्रयोजनाभिधेयसम्बन्धाधिकारिलक्षणानुवन्धचतुष्टयस्य "शास्त्रस्य हि फले ज्ञाते" इत्यादिवचनसिद्धावश्यकर्त्तव्यत्वस्योपदर्शनाय "समयपरमत्थेति" द्वितीयकारिकामाहेति दर्शितम् ।
४२-२७
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________________
विषयाः
पृ० पं. २ द्वितीयकारिकासंक्षेपार्थोपदर्शनम् । ३ पदार्थोपदर्शने 'आगमलारहियओं' इत्यस्यार्थों दर्शितः।
४४-१३ ४ समयेत्यादिगाथार्द्धस्याओं दर्शितः।
४४-१९ ५ 'जह होइ तमत्थमुन्नेस्स' इत्यस्यार्थों दर्शितः ।
४५-१४ ६ अनया गाथया मुरव्यवृत्या प्रतिपाद्यस्य प्रयोजनस्थानन्तरसान्तरमेदेन द्विविभस्य विविच्य स्पष्टीकरणम् ।
४५-२४ ७ सम्यग्भावपरिज्ञानादितो मुक्त्यवाप्तिरित्यत्र “ सम्यग्भावपरिज्ञानात्" इति पद्यमुपदर्शितम्।
४६-११ ८ अभिधेयसम्बन्धयोः सामर्थ्यागम्यमानताऽऽवेदिता ।
४६-१४ ९ एतदध्ययनाधिकारी दर्शितः।।
४६-२४ १० सम्मतितारव्यप्रकरणे आदरणीयत्वसाधकमनुमान दर्शितम् । ११ अनुबन्धत्वस्य लक्षणं, तत्सङ्गमनञ्च ।
४७-२ । अथ तृतीयकारिकार्थानुक्रमणिका । ३-१ तृतीयकारिकायाः क्रमेणावतरणद्वयम् ।।
४७-१७ २ तत्र सप्रपञ्चनयस्वरूपज्ञानस्यावश्यकत्वे "अस्थं जो न समिक्खइ" इति भाष्य___ गाथासंवादः, नयज्ञानमन्तरेण तत्तन्मतदुष्टांशापाकरण न स्यादित्युपदर्शितम् । ४७-२० ३ सूत्रमात्रस्य नयशून्यत्वाभावप्रतिपादकं "नत्थि नयेहिं विहूणं सुत्त" इति भाष्यवचनम् ।
४७-२७ ४ चतुर्दशपूर्व विदादिव्यारव्यातार्थयोग्यता सप्रपञ्चनयज्ञाने सत्येव सम्पद्यत इत्युपदर्शनम् ।
४८-५ ५ तित्थयरवयणसंगहेति तृतीया गाथा ।
४८-१० ६ गाथासशिप्तार्थः, तत्र सामान्यप्रस्तारस्य संग्रहादेमूलव्याकरणी द्रव्यास्तिकनयः, विशेषप्रस्तारस्यर्जुसूत्रादेर्मूलव्याकरणी पर्यायास्तिकनयः, एतद्ग्रन्थकारमते नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारयोरन्तर्भाव इति द्रव्यास्तिकस्य द्वौ भेदौ, पर्यायास्तिकस्य च चत्वारो भेदा इति ।
४८-१२ ७ विस्तृतार्थः, तीर्थ-तीर्थक्करस्वरूपव्याख्यानम् ।
४८-२१ ८ प्रश्नपतिविधानाभ्यां भगवतस्तीर्थकरणप्रयोजनोपदर्शनम् ।
४८-२६
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पृ० पं.
विषयाः ९ तीर्थकृत्वस्वभावस्य कादाचित्कत्वं, तस्य तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयेनाभि
व्यक्तौ "उदए जस्स" इति वचनं प्रमाणमावेदितम् । १० ध्यानस्थे तस्मिन् कुडयादिभ्योऽपि देशनाऽऽविर्भाव इति "तस्मिन् भ्यानस
मापन्ने" इति वचनोल्लसितं मतमपाकृतम् , तत्र "कुडथादि निस्सृतानां तु" इति वचनोट्टकनम् ।
४९-१४ ११ देशनायाः स्पष्टाक्षरत्वान्यथानुपपत्त्या भगवन्मुखोच्चरितत्वं निगमितम् , प्रतिबन्धकाभावाच्च तत्त्वं, क्लिष्टकल्पनापरिहारचात्र ।
५०-२ १२ केवलज्ञानोत्पत्तौ कृतकृत्यस्य भगवतो न तीर्थकरणप्रयोजनमित्याशङ्कानिरासः। ५०-१२ १३ “तीर्थप्रवर्तनफलमिति" "तत्स्वाभाव्यादेवेति" पद्यद्वयं तत्वार्थसूत्रस्य संवादकमुपदर्शितम् ।
५०-१६ १४ आचाराङ्गादिवचनस्य तीर्थकरवचनत्वं स्थापितम् ।
५०-२० १५ द्रव्यास्तिकपदव्युत्पत्युपदर्शनम् ।। १६ द्रव्यास्तिकनयमन्तव्योपदर्शनम्, तत्र "तिर्यगूर्ध्वप्रचयिनः" इति नयोपदेश
वचनसंवादः अशुद्धद्रव्यार्थिकमन्तव्यत्वमस्य । १७ शुद्धद्रव्यार्थिकमन्तव्योपदर्शनं, तत्र सङ्ग्रहनयमूलकवेदान्तिमन्तव्यविषयकत्वमावेदितम् ।
५१-१६ १८ पर्यवनयपदव्युत्पत्युपदर्शनम् ।
५१-२२ १९ तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्यानभिधाने हेतुरुक्तः ।
५१-२५ २० व्यतिरिक्तसामान्यविशेषग्राहिणौ नयौ कस्मानोक्ताविति शङ्का निराकृता सामान्यविशेषयोर्द्रव्यपर्यायान्तर्भावयलेन ।
५१-२८ २१ द्रव्यरूपोर्ध्वतासामान्ये "पूर्वोत्तराखिलविवर्त्तसमूहवति" इति वचनं प्रमाणतया दर्शितम् , तिर्यग्सामान्यस्य व्यअनपर्यायेऽन्तर्भावः ।
५२-६ २२ पर्यायास्तिकनयमन्तव्योपदर्शनम् ।
५२-१५ २३ पर्यायास्तिकमते कालायवर्ति न किञ्चद्वस्तु, किन्तु क्षणिकमिति प्रदर्शनम् । ५२-२२ २४ द्रव्याथिकपर्यायार्थिकयुक्तयोऽन्योन्यं तुल्यवदेव परबाधकतयोज्जृम्भन्त इति
नैकत्र पक्षपातो युक्तः, किन्तु परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायोभयोपग्रहो युक्त इति निगमितम् ।
५२-२४ २५ अत्र “य एव दोषाः किल नित्यवादे" इत्यादि हेमसूरिवचनसंवादो दर्शितः। ५२-२९ २६ 'मूलव्याकरणी' इत्यत्र द्विवचन भाव्यं कथमेकवचनमिति शङ्कापाकरणम् । ५३-१
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विषयाः
पृ० पं. २७ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको मूलनयावित्यत्र "तदित्थं न्यायतः सिद्धौ” इति
वचनसंवादः। २८ नामादिचतुष्टयद्वारादितस्तन्मूलनयचतुष्टयाद्याऽऽसञ्जनं प्रतिक्षिप्तम् । २९ कुनयसुनयविषयव्यवस्था दर्शिता। ३० देवमरिमते तत्सूत्रोपदर्शनेन द्रव्यार्थिकस्य नैगमसङ्ग्रहव्यवहाराख्यास्त्रयो
भेदाः, एतत्प्रकरणकारमते "जो सामनग्गाही' इति भाष्यवचनान्नैगमस्य सङ्ग्रव्यवहारयोरन्तर्भावात्सङ्ग्रहव्यवहारौ द्वौ भेदो, पर्यायार्थिकस्य मतद्वयेऽपि
ऋजुत्रादयश्चत्वारो भेदाः, अत्र देवसरिसूत्रभाष्यसंवादो दर्शितः। ५३-१२ ३१ सैद्धान्तिकमते ऋजुसूत्रस्य द्रव्यार्थिकत्वेन द्रव्यार्थिकस्य चत्वारो भेदाः पर्यायार्थिकस्य त्रय इति दर्शितम् ।
५३-२७ ३२ अत्र मतद्वयविशेषार्थप्रतिपत्तये शिष्यबुद्धिवेशद्याय च नयविभागप्रकारा उपदर्शिताः।
५३-३० । अथ चतुर्थगाथार्थाऽनुक्रमणिका । ४-१ चतुर्थगाथावतरणम् ।
५४-२५ २ संग्रहो द्रव्यार्थिकस्य शुद्धा प्रकृतिः, व्यवहारो द्रव्यार्थिकस्याशुद्धा प्रकृतिरिति चतुर्थगाथासंक्षिप्ताथै आवेदितः।
५५-१ ३ चतुर्थगाथाविस्तृतार्थोपवर्णनम् । ४ सङ्ग्रहप्ररूपणाविषयः सदात्मकभाव एवेत्यत्र युक्तिरुपदार्शता “सर्व वाक्यं
क्रियया परिसमाप्यते" इत्यादि वैयाकरणमतस्य प्रसङ्गादावेदनम् । ५५-१६ ५ घटत्वपटत्वादिविशेषस्यापि सन्मात्ररूपत्वव्यवस्था ।
५५-२७ ६ द्रव्यार्थिकनयशुद्धप्रकृतिसङ्ग्रहनयमूलकस्य वेदान्तदर्शनस्य शब्दब्रह्मवादी __ मर्तृहरिमतस्य चोपदर्शनम् । ७ द्रव्यार्थिकस्याशुद्धप्रकृतिर्व्यवहार इत्येतत्परतया "पडिरूवे पुण क्यणस्थनिच्छओ तस्स ववहारो" इत्येतद्विवृतम् ।
५६-१८ ८ प्रवृत्ति-निवृत्त्युपेक्षालक्षणव्यवहारस्य कारणं दार्शतम् । ९ संग्रहनये प्रवृत्त्यादिन्यवहारो नोपपद्यत इति व्यवहारनयाकूतमुपवर्णितम् ।। १० क्रियापदं विनैव वाक्यपरिसमातिव्यवहारे दर्शिता ।
५७-१९ ११ ब्रह्मात्मसत्चैव पारमार्थिकीत्यस्यासङ्गतत्वमनेन वर्णितम् ।
५७-२८
५६-६
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१२
अङ्काः
विषयाः
१२ 'सदेव सौम्येदमग्र आसीद्' इत्यादि ब्रह्मवादिमान्यश्रुत्यभिमतब्रह्मभिन्नाशेष
मिथ्यात्वस्योन्मूलनम् ।
१६ नैगमव्यवहारयोः को विशेष इति प्रश्नप्रतिविधानं सत्तासामान्यग्राहिणो नैगमस्य सङ्ग्रहे तदन्यसामान्यतदाश्रयव्यक्त्यभ्युपगन्तृनैगमस्य व्यवहारे चान्तभवनेन ।
१३ विप्रतिपन्नम्प्रति ब्रह्मसत्तासाधकानुमानस्यावश्यकत्वे तस्य प्रामाण्ये पक्षादीनामपि द्वैतानां सिद्धि:, अमामाण्येन ब्रह्मसत्तासिद्धि:, अत्र "हेतोरद्वैत सिद्धिचेत्" इति "कर्मद्वैतं फलद्वैतम्" इति च पद्यद्वयं द्वैतापादकमुपदर्शितम् । १४ प्रतिरूपमित्यादेर्व्याख्यानान्तरम्, तद्भावोपवर्णनं च ।
१५ व्यवहारनये व्यवत्यात्मकानां यावतां विशेषाणां वस्तुत्वं सामान्यानाश्चातयावृत्तिरूपाणां कल्पितत्वं तत एव च सद्रव्यमित्यादिविभजनादीनां सङ्गतत्वमुपवर्णितम् ।
१७ अशुद्धद्रव्यार्थिक व्यवहारमूलकत्वं साङ्ख्यदर्शनस्य तत्र " अशुद्धाद् व्यवहाराख्यात् " इति नयोपदेश संवादस्य च कथनम् ।
१८ नैगमनयातिरिक्तत्वाभ्युपगन्तृणां मते नैगमाभ्युपगमतदभिप्रायोपदर्शनम्, तत्र विशेषावश्यक भाष्यसंवादच ।
१९ नैगमाभ्युपगमतो वैलक्षण्येन व्यवहारनयाभ्युपगमः, तत्रापि भाष्यसंवादश्च । । अथ पञ्चमगाथाऽनुक्रमणिका ।
५- १ पर्यायनयस्य मूलमृजुसूत्रः शब्दसमभिख्दैवंभूताः शाखा प्रशाखा -प्रतिशाखारूपा इत्येतत्प्रतिपादकतया "मूलनिमेणं" इति पञ्चमी गाथाऽवतारिता । २ पञ्चगाथा संक्षेपार्थः ।
३ तस्या एव विस्तृतार्थः, तत्र प्रसङ्गात् "कृदभिहितो भावो द्रव्यवत्प्रकाशते " इति न्यायार्थी पदर्शनम् ।
पृ० पं.
५८-९
"Aho Shrutgyanam"
५८-२२
५८-३०
६०-१
६०-१४
६०-२०
६०-२८
६१-९
६१-२१
६१-२७
६२-१२
४ ऋजुसूत्रस्य वर्तमानैकपर्याय एव वचनसमाप्तिः ।
६२-१८
५ तत्र “पलालं न दहत्यग्निः" इति पद्यं वर्तमानैकविषयत्वे संवादकम् । ६ पलालादेस्तन्मते दहनकर्मत्वाद्यभावोपपादनम् ।
६२-२२
६२-२६
७ ऋजुसूत्रतरोः शाखाप्रशाखा प्रतिशाखारूपता शब्दसमभिरूदैवम्भूतेषूपपादिता । ६३-७ ८ ऋजुसूत्राभ्युपगतमेकमेव वस्तु लिङ्गसङ्ख्यादिभेदेन भिन्नं शब्दनयो मन्यत इति, तत्र “विरोधिलिङ्गसङ्ख्यादि" इति संवादकम् ।
६३-१३
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________________
पृ० पं.
६३-२४
६४-२७
अकाः
विषयाः ९ शब्दनयाभ्युपगतं पर्यायभेदेऽप्यभिन्नमर्थ समभिरूढो भित्रमेव पर्यायभेदेन
मन्यत इति, तत्र "पर्यायशब्दभेदेन" इति पद्यं संवादकम् । १० व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियायां सत्यामसत्याञ्चकं वस्तु समभिरूढाभिमतं व्युत्पत्ति
निमित्तक्रियासद्भावकाल एवैवम्भूतोऽभ्युपतीति तत्र "तरिक्रयापरिणामोऽर्थ" इति पद्यं संवादकम् ।
६३-२९ ११ यथा च ऋजुसूत्रस्य पर्यायनयतरुत्वं शब्दादीनां शाखादित्वं तथाऋसूत्रपद
व्युत्पत्तिनिमित्तसर्वपर्यायाथिकनयसङ्ग्राहकधर्मोपदर्शनेन भावितम्। ६४-१३ १२ यथा चर्जुसूत्रादिचतुर्णामेकधर्मसङ्घट्टनेनर्जुसूत्रभेदत्वं शब्दादीनां न तथा
व्यवहारस्य सङ्ग्रहभेदत्वमित्युपदर्शितम् । १३ पारिभाषिकर्जुसूत्रपदव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मबलाच्छब्दादीनां नयप्रभेदत्वं स्यादित्याशङ्कासमुद्धरणम् ।
६४-३० १४ बाह्यार्थाभ्युपगमपरर्जुसूत्रवचनविस्तारस्य सौत्रान्तिकवैभाषिकमतमूलकारण
त्वम्, तन्मतयोश्च भेद आवेदितः, आद्यस्य साकारविज्ञानवादो द्वितीयस्य च निराकारविज्ञानवादः।
६५-८ १५ एतन्मते निर्विकल्पकप्रत्यक्षमेव प्रमाणम् , तस्य यत्रैव सविकल्पकजनकत्वं तत्रैव . प्रामाण्यमिति दार्शतम् ।
६५-१९ १६ व्युत्पत्त्यन्तराश्रयणेन ऋजुसूत्रस्य विज्ञानमात्राभ्युपगन्तृयोगाचारमतमूलत्वमुपदिष्टम् ।
६५-२४ १७ एवं व्युत्पत्त्यन्तरावलम्बनेन ऋजुसूत्रस्य शून्यवादिमाध्यमिकमतमूलत्वं दर्शितम् । ६५-२६ १८ प्रकारान्तरेण ऋजुसूत्रस्य सौत्रान्तिकमतप्रकृतित्वं, शब्दनयस्य च वैभाषिकमतप्र
कृतित्वम् , समभिरूढनयस्य योगाचारमतप्रकृतित्वम् , एवम्भूतनयस्य च माध्यमि___ कमतप्रकृतित्व सम्मतिटीकाकृत्प्रतिपादितं तट्टीकोट्टङ्कनेन दर्शितम् । ६६-३ १९ तार्किकमते सैद्धान्तिकमते च पूर्वपूर्वनया बहुबहुविषयका उत्तरोत्तरनयाश्वाल्पाल्पविषयका इत्युपपाद्य दर्शिताः। ....
६६-१७ २० उक्तार्थे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकपद्यानि संवादकानि दार्शतानि ।
६६-३१ २१ दिवाकरमते नैगमो नास्तीति द्रव्यार्थिकनये सङ्ग्रहः शुद्धः, व्यवहारस्त्वशुद्धः,
तत्र सम्मतिटीकावचनसंवादः। २२ पर्यायार्थिकनये उत्तरोत्तरनयाः शुद्धशुद्धतरशुद्धतमाः पूर्वपूर्वनयास्त्वशुद्धाशुद्धतराशुद्धतमा भाविताः।
६७-२३
"Aho Shrutgyanam"
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________________
१४
विषयाः
अङ्काः २३ सिद्धसेनमते सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्राख्यास्त्रयो नया अर्थनयाः, सैद्धान्तिक मते नैगमसहितास्ते तथा, उभयमतेऽपि शब्दसमभिरूढैवम्भूताख्या नयास्त्रयः शब्दनयाः, अत्र तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकसंवादश्च दर्शितः ।
२४ एते परस्परसापेक्षाः सुनयाः, अन्यथा तु मिथ्यानयाः, तस्य तु शब्दादयः शाखाप्रशारवाप्रतिशाखा इति निगमितम् ।
| अथ षष्ठगाथाऽर्थाऽनुक्रमणिका ।
६ - १ नामं ठवणेति षष्ठ्या गाथाया अवतरणम्, तत्र नामादिनिक्षेपचतुष्टयमूलत्वं द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनययोस्तेन तयोर्व्यापकत्वमिति ।
२ अस्या एवावतरणान्तरम् ।
३ नामादिनिक्षेपत्रयं द्रव्यार्थिकस्य, भावनिक्षेपः पर्यायार्थिकस्य, तत एव नयद्वयविभाग इति संक्षिप्तार्थः ।
४ अवयवार्थकथनम्, द्रव्यार्थिकस्य, नामादिग्राहित्वमेव न भावार्थप्राहित्वमित्यत्र हेतुरुपदर्शितः ।
६ नामनिक्षेपस्य निरूपणं कृतंतल्लक्षणादिना ।
७ नाम निक्षेपस्य द्रव्यार्थिकनयाभिमतत्वस्थापनम् ।
६८-१४
६८-२१
५ पर्यायार्थिकस्य भावनिक्षेपग्राहित्वमेव, न नामादिनिक्षेपग्राहित्वमित्यत्र हेतुरुपदर्शितः ।
६८--२३
६८-२७
६९-२
६९–१०
७०-१२ - १५
७०
८ तत्र शब्दस्य पौगलिकत्वव्यवस्थापनम् ।
९ शब्दस्य क्रियावच्चादिना पौगलिकत्वे "जं ते पोग्गलमइआ" इति भाष्यवचनं "बारसहिं जोयणेहिं" इति पारमर्षवचनं प्रमाणम् ।
१० शब्दरूपस्य नामनिक्षेपस्य कृतकत्वेऽपि द्रव्यार्थिकनयाभिमतत्वे युक्त्यन्तरोप
दर्शनम् ।
६८-३
६८-११
" Aho Shrutgyanam"
पृ० पं.
११ नाम्नो वस्तुस्वरूपत्वव्यवस्थापनम् ।
१२ स्थापनानिक्षेपनिरूपणम्, तस्य द्रव्यार्थिक निक्षेपत्वव्यवस्थापनम्, वस्तुस्वरूप
७० – २१
त्वव्यवस्थापनम् ।
१३ स्थापनायाः पर्यवसितलक्षणप्रदर्शनम् ।
१४ नामस्थापनयोर्विशेषो व्यवस्थापितः ।
१५ सभृतासद्भूतस्थापन योर्विविच्य लक्षणप्रदर्शनम्, तत्र " लेप्यगहत्थी" इत्याग
मनोङ्कनम् ।
७०-२७
७१--४
७१–११
७१-२२
७१-२४
७१-२८
Page #51
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________________
१५
अङ्काः
विषयाः
१६ द्रव्य निक्षेपनिरूपणम् व्युत्पत्तिविशेषोपदर्शनेन तत्स्वरूपनिष्टनम् तल्लक्ष्यावे
दन, उपदेशपदादिसंवादश्च ।
१७ भावनिक्षेप निरूपणम्, तत्र भावपदव्युत्पत्तिद्वयोपदर्शनं तत्र “भावो विवक्षितेति" पद्यसंवादः ।
१८ उपयोगविशेषस्त्ररूपपर्यवसितं भावलक्षणम् ।
१९ भावनिक्षेपस्य पर्यायार्थिकनय निक्षेपत्वम् ।
२० सिद्धसेनमते देवखारिमते च द्रव्यार्थिकनयेन नामस्थापनाद्रव्य निक्षेपाः, पर्यायाथिंकनयेन भावनिक्षेपः ।
७३–६
२१ ऋजुत्रनयस्य पर्यायार्थिकनयत्वे 'उज्जुसूअस्सेति' सूत्रविशेषाशङ्कापरिहारः । ७३–१० २२ अत्र सिद्धसेनसैद्धान्तिकानां मतभेद आवेदितः ।
७३-२०
२३ सैद्धान्तिकमते द्रव्यार्थिकस्य चत्वारो निक्षेपाः पर्यायार्थिकस्य भावनिक्षेप एवेति, तत्र 'भावं चियेति' वचनमुपदर्शितम् ।
२७ अनुयोगद्वारसत्रे " जत्थ य जं जाणिज्जा" इति वचनेन निक्षेपचतुष्टयस्य वस्तुमात्रे प्रवृत्तिरावेदिता ।
२८ तत्र शचीपतिमधिकृत्य नामादिचतुष्टययोजना कृता ।
७२–५
७३-२४
२४ अत्र मनप्रति विधानानामनेके विचारा उपनिबद्धाः ।
७३-३०
२५ अत्र "इष्टः शब्दनयैर्भाव" इत्यादि पद्य कदम्बकं नयोपदेशस्य सङ्गमनार्थमुपदिष्टम् । ७५-१५ २६ पृथग्रूपयोर्द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकयोर्मिथ्यादृष्टित्वं समुदितयोश्च सम्यग्दृष्टित्वं,
- परस्परसापेक्षनयद्वयापेक्षया वस्तुमात्रस्य नामादिचतुष्टयात्मकत्वं तत्र “ संविनिष्ठेव" इत्यादिवचनं तत्संवादकमुपदर्शितम् ।
| अथ सप्तमगाथा विषयानुक्रमणिका ।
पृ० पं.
७- १ नयद्वयाकलितान्योन्यानुस्यूतद्रव्यपर्यायोभयात्मकमेव वस्तुतत्त्वं न त्वेकैका - त्मकं तत्र " द्रव्यं पर्यायवियुतं" इति पद्यमुपदर्श्य "पज्जवनिस्साम" इति सप्तमी गाथावतारिता ।
२ सप्तमगाथा संक्षिप्तार्थोपदर्शनम् ।
३ तस्या विस्तृतार्थोपवर्णनम् ।
४ अस्तीति वचनं न भेदवाद्यभ्युपगतार्थप्रतिपादकमिति निर्णीतं प्रश्नप्रतिविधानाभ्याम् ।
"Aho Shrutgyanam"
७२-२३
७२ – २८
७३-१
७५-२१
७६-६
७६-१२
७६-१९
७७ ८
७७-१५
७७-२१
Page #52
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________________
७९-१६
विषयाः ५ सामान्यमात्रप्रतिपादकवचनस्य मिथ्यात्वे सङ्ग्रहवाद्युक्तमपि “यथा कटकशब्दार्थ" इति पद्यप्रतिपाद्यं निरस्तमिति, तत्पद्यार्थश्च दर्शितः।
७८-१ ६ सर्वेषां घटपटादिशब्दानां तत्तद्रूपेण महासामान्यसत्ताभिधायकत्वमेवेत्यस्यापाकरणे हेतोरुपदर्शनम् ।
७८--१२ ७ सामान्यविनिर्मुक्तस्य विशेषस्य भेदाभेदाभ्यां विकल्पासहत्वादसत्त्वमुपदर्शितम् । ७९--१ ८ एकान्तनयद्वयस्याप्रामाणिकत्वे तद्विषयैकान्तसामान्यैकान्तविशेषयोरसच्चमेव,
यतः परस्परानुस्यूतसामान्यविशेषोभयात्मकमेव वस्तु सदिति तस्यैकानेकात्मकतया प्रधानगीणभावेनावगाहिनयद्वयं प्रधानभावेनावगाहिप्रमाणं च शास्त्ररहस्यमिति निगमः।
७९-४ ९ अत एवैकस्मिन्नरके शाश्वतत्वाशाश्वतत्वप्रतिपादकं "इमाणं भंते" इति सूत्र सङ्गतम् ।
७९-११ १० "पज्जवणिस्सामण्णम्" इत्यादेरवतरणान्तरम्, तदनुसारि व्याख्यान्तरश्च। ११ गाथोत्तरार्द्धावतरणम् ।
७९--३० । अथाष्टमगाथाविषयानुक्रमणिका । ८-१ "पज्जवणयवुक्कंत" इत्यष्टमगाथावतरणम् ।
८०-११ २ उक्तगाथातात्पर्यायार्थः ।। ३ अवयवार्थप्रदर्शनम्, तत्रापश्चिमविकल्पनिर्वचनं इति विवृतम् ।
८०-२१ ४ अपश्चिमविकल्पनिर्वचन इत्यस्यैव विवरणान्तरम् ।
८०-२४ ५ पर्यायानाक्रान्तसत्तामात्रग्राहकप्रमाणाभावो भावितः ।
८०-२९ ६ “पज्जवणयवुक्कंत" इत्यादेाख्यानान्तरम् । ७ महासामान्यस्य सामान्यरूपत्वमेव स्यात् , अन्त्यविशेषस्य च विशेषरूपत्वमेव स्यादित्याशङ्काया इष्टापत्या परिहारेऽपसिद्धान्तत्वमसङ्गाशङ्कायाः परिहारः, तत्र "अयं द्रव्योपयोगः स्यात्" इति नयोपदेशव्याख्यागतमहासामन्यनिष्ठसामान्यैकरूपत्वान्त्यविशेषगतविशेषकरूपतोक्तिः ।
८१-२१ ८ महासामान्यस्य सामान्यैकान्तरूपत्वेऽन्त्यविशेषस्य विशेषकान्तरूपत्वेऽनैकान्तत्वविरोध इत्याशङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
८२-५ । अथ नवमगाथाविषयानुक्रमणिका । ९-१ "दव्वढिओत्ति तम्हा" इति नवमगाथावतरणम् ।
८२-१०
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अकाः विषयाः
पृ० पतिः २ उक्तगाथायास्तात्पर्यायों दर्शितः।
८२-१९ ३ उक्तगाथाऽवयवार्थकथनम् , तत्र शुद्धजातीययोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोर__भावो व्यवस्थापितः।
८२-२४ ४ भजनया तयोविशेष उपपादितः।
८३-७ ५ "भयणाइउ बिसेसो" इत्यस्य व्यारव्यान्तरम् ।
८३--१२ ६ विवक्षाया विशेष इति व्यारव्यानस्याभिप्राय उक्तः ।
८३..१४ १०-१ “दबढिअवत्तव्वं" इति दशमगाथाविवरणम्, तत्र द्रव्यार्थिकनयाभिधेयस्य
द्रव्यस्य पर्यायार्थिकमतेऽवस्तुत्वं पर्यायार्थिकाभिधेयस्य पर्यायस्य द्रव्यार्थिकमतेऽवस्तुत्वमुपपादितम्, तात्पर्यायार्थश्व दर्शितः ।
८३-२१ २ तस्या अवयवार्थ उपदर्शितः ।
८४-३ ३ भजनया प्रधानोपसर्जनभावेनोपपत्या वस्तु द्रव्यपर्यायोभयात्मकमेव, तत्र “सर्वमात्रासमूहस्य" इति वचनसंवादः ।
८४-१८ ४ द्रव्यपर्यायनययोः पर्यायद्रव्यप्रतिभासयोरनुभूयमानत्वे भेदस्य द्रव्यनयेनामे
दस्य पर्यायनयेन प्रतिक्षेपः कथमिति शङ्कायाः प्रतिविधानम् । ८४-२८ ५. केवलधौव्यांशस्य केवलोत्पादव्ययलक्षणपर्यायांशस्य च न वस्तुत्वं किन्तूभ
यरूपत्वेन जात्यन्तरस्येत्यत्र" नान्वयो भेदरूपत्वात्" इति वचनसंवादः। ८५-२४ ११-१ "उप्पअति वियंति अ "इत्येकादशगाथावतरणम् । २ पर्यायनये नियमेनोत्पादव्ययस्वभावं वस्तु द्रव्यार्थिकनये नियमेन धौव्यस्त्रभावमिति गाथातात्पर्यार्थः ।
८६-७ ३ उक्तगाथावयवार्थोंपदर्शनम् ।
८६-११ ४ उत्पादव्ययध्रौव्यैतत्रितयस्यान्योन्याविनाभूतस्यैव सस्वमित्यत्र “अनाद्यनिधने द्रव्ये” इति पद्य संवादकम् ।
८६-२२ ५ उत्पादव्ययध्रौव्याणि समुदितान्येव सल्लक्षणमित्यत्र "उत्पादत्र्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" इति तत्वार्थसूत्रं संवादकमुपदर्य तद्व्याख्यातम् ।
८६-२९ १२-१ "दच्वं पञ्जवविउयं” इति द्वादशगाथावतरणं, तत्र द्रव्यपर्यायो नैकान्तभिनौ,
नाप्येकान्ताभिन्नौ, न चैकान्तपरस्परनिरपेक्षभेदाभेदवन्तौ, किन्तु द्रव्यार्थिकसुनयापेक्षया गुणीभूतभेदप्रधानीभूताभेदात्मकं, पर्यायार्थिकसुनयापेक्षया गुणीभूताभेदप्रधानीभूतभेदात्मकं, प्रमाणार्पणया प्राधान्येन कथचिनेदाभेदोम
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१८
मद्दाः
विषयाः
यात्मकं वस्तु, तत एव चोभयनयार्पणया प्राधान्येन परस्परानुविद्धोत्पादादित्र
यात्मकमित्युपदिष्टम् ।
२ उक्तगाथातात्पर्यार्थः- द्रव्यं पर्यायवियुक्तं नास्ति, द्रव्यवियुक्ताच पर्याया न सन्तीत्याद्युपदर्शितम् ।
३ उक्तगाथावयवार्थः, तत्र द्रव्यं पर्यायसहितमेव पर्याया द्रव्यसहिता एव गृह्यन्त इति पर्यायद्रव्य वियुक्तद्रव्यपर्यायाभावः किन्तु पर्यायद्रव्यसहितावेव द्रव्यपयाविति सष्टान्तमुपवर्णितम् ।
पृ० पि
८७-११
८७-२८
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८८-४
४ उत्पादस्थितिभङ्गाः समुदिता द्रव्यलक्षणं, व्युत्पत्तिनिमित्तोपदर्शनेन लक्षणस्य प्रयोजनोपदर्शनं दृष्टान्तम् ।
८८-२३
५ प्रकृतलक्षणप्रयोजने आत्मादिवस्तुमात्रं द्रव्यपदवाच्यतया व्यवहर्तव्यम्, उत्पादस्थितिभङ्गसमाहारवत्त्वादित्यनुमाने हेतोः स्वरूपासिद्ध्याऽऽशङ्कायाः प्रतिविधानम् १८९-१९ ६ लौकिकबोधस्यापि स्याद्वादापेक्षत्वोपदर्शकं महावीरस्तवोक्तं "तद्धेम कुण्डलतया” इति पद्यमुपदर्शितम् ।
७ अनुगतप्रतीतिनियामकं हेमत्वजातिरेव नतु हेमद्रव्यमित्याशङ्का हेमत्वस्य साङ्कजातिरूपत्वासिद्धेरपाकृता ।
८९-२१
८९-२४
८ जातिसाङ्कर्यस्य हेमत्वव्याप्यकुण्डलत्वादिस्वीकारेण परिहारेऽपि व्यक्त्यभेदं विनाऽनुपपन्ना भेदग्रहबलादनुगतद्रव्यमभ्युपगन्तव्यमिति दर्शितम् । ९ अवस्थानामेवोत्पादविनाशौ न त्ववस्थातुरित्याशङ्कानिरासः ।
१० द्रव्यत्वजातिमत्त्वात्पृथिव्यादिद्रव्यमेव न तु पर्याय इत्याशङ्का द्रव्यत्वजातौ प्रमाणाभावादपाकृता ।
११ जन्यसञ्जनकताच्छेदकतया द्रव्यत्वजातिसाधनमपि तत्कार्यतावच्छेदकतया ध्वंसकारणतावच्छेदकतया च सिद्धेन जन्यसत्त्वेन साङ्कर्यान्न सम्भवतीति दर्शितम् । ९० - १४ १२ यदि नोक्तकार्यतावच्छेदकतया नोक्तकारणतावच्छेदकतया जन्य सच्चसिद्धिस्तदा तद्वदेव न द्रव्यत्वजातिसिद्धिरिति दर्शितम् ।
८९-२८
९०-७
९०-११
९०-२०
१३ समवायसम्बन्धेन जन्यसत्त्वावच्छिन्नम्प्रत्युपादानत्वारव्यविषयतासम्बन्धेनेश्वबुद्धधादीनामेव कारणत्वमिति द्रव्यत्वजात्य सिद्धधा न तद्वत्वाद्व्यं न वा समवायिकारणत्वात्, किन्तु "व्यक्ताव्यक्तात्मरूपं यत्” इति श्लोकोक्तलक्षणोपादा
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१९
अङ्काः
विषयाः
नापर संज्ञपरिणामिकारणत्वाद् द्रव्यमित्युपपादितम् ।
१४ पृथिव्यादीनामात्मादीनां च द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वं, तत्र "न द्रव्यमेव" इति खण्डखाद्यवचनसंवादः ।
पृ० पङ्क्तिः ९०-२९
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९१-५
१५ पृथिव्यादिकं जलादिरूपेण परिणमतीत्यसमानस्य जन्यपृथिवीत्वावच्छिन्नप्रति पृथिवीत्वेन कारणत्वाभ्युपगमस्य प्रश्नोत्तराभ्यां प्रतिक्षेपः, तत्र पृथिव्यादिपरमाणुनां न विजातीयत्वं, किन्तु पुद्गलैकजातीयत्वेन सर्वरूपेण परिणमनम् । ९१-१५ १६ पृथिव्यप्तेजोवायूनां स्पर्शादिमत्वेन पुद्गलद्रव्यपर्यायत्वानुमानम्, तत्र पक्षेकदेशासिद्धिदोषप्रतिक्षेपः ।
९१-२१
१७ जलादौ गन्धाद्युपलब्धिप्रसङ्गपरिहारः, पयो गन्धवदित्याद्यनुमाने प्रत्यक्षबाधादिपरिहारश्च ।
९१-२७
१८ पृथिव्यादीनां पुगलैकजातीयत्वेन गन्धवत्त्वादिकं विविक्तं लक्षणं न सम्भवति, तत्र स्याद्वादरत्नाकरवचनम् " एकान्तेन विविक्तं यत्" इत्यादिकं दर्शितम् । ९२--५ १९ पृथिव्यादीनामभिन्नलक्षणत्वे जलादिष्वपि गन्धादीनामुद्भूततैव स्यादित्याद्यशङ्कानां प्रतिक्षेपः ।
९२-१६
२० पृथिव्यादिपरमाणूनामेकजातियत्वादेव " आदीपमान्योम" इति श्लोकव्याख्यायां तैजसपरमाणूनां तमोरूपेण परिणमनमुक्तं सङ्गतम् । २१ जन्यपृथिवीत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वादिना न हेतुत्वं किन्तु तादात्म्यसम्बन्धेन पृथिवीत्वावच्छिन्नम्प्रति स्वध्वंसत्वसम्बन्धेन पृथिवीत्वादिना हेतुत्वम्, तत्र “भेदे हि द्वयणुकादीनां" इति रत्नाकरवचनम् ।
२२ परमाणोः कारणत्वं कार्यत्वञ्चापेक्षाभेदेन, परमाणोर्भेदजत्वे द्वादशारनयचक्रस्य प्रामाण्यम् ।
२३ अवयवसंयोगपूर्विचैव कार्यद्रव्यस्योत्पत्तिरिति न्यायमतस्यायुक्तत्वम् स्कन्धमेदस् कारणत्वोपपादितम्, अन्यशङ्काप्रतिविधानश्च
२४ पृथिवीत्वादेः कार्यतावच्छेदकत्वेऽपि कारणतावच्छेदकस्वं न संभवतीति शङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
२५ स्यात् सर्वगतः स्यादसर्वगतो घटादिरिति सप्तभङ्गीसङ्गमनम्, घटारम्भकपरमाणूनां विस्रसादिपरिणतिवशाजलादिरूपेण परिणमनतः, सूत्रकृताङ्गादिवचनश्च तदर्थोपोलकं दर्शितम् ।
९२-२९
९३-१
९३-१२
९३-१७
९३-२८
९४-८
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________________
२०
अङ्काः
विषयाः
२६ जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तदनुकूलशक्तिमत्वेन परिणामिपुद्गलस्य कारणत्वादिकं व्यवस्थाप्य वस्तुमात्रस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वेनोत्पादव्ययभौव्ययुक्तत्वेन द्रव्यत्वं निष्टङ्कितम् ।
पृ० पङ्किः
२७ द्रव्यत्वबुद्धिरपि समुदितैरेवोत्पादादिभिरित्यत्र “ नाशोद्भवस्थितिभिरेव " इत्युपाध्यायोक्त पद्यसंवादः, उत्पादादित्रिकस्य द्रव्यत्वप्रत्यक्षम्प्रति समुदायत्वेनैव कारणत्वं, एवं द्रव्यपदजन्यशाब्दबोधम्प्रत्यपि समुदायत्वेन रूपेणैकीकृतोत्पादादित्रितयधर्मावच्छिन्ने शक्तिग्रहस्य कारणत्वमिति न नानार्थत्वप्रसङ्ग इि व्यवस्थापितम् ।
२८ पुष्पदन्तपदस्य नित्यद्विवचनान्तत्ववद्द्रव्यपदस्य नित्यबहुवचनान्तत्वप्रसङ्ग- शङ्काया अपाकरणम् ।
२९ शब्दस्वाभाव्याद्द्रव्यपदस्य बहुवचनान्तत्वाभावेऽप्यर्थस्वाभाव्याद्बहुवचनान्तत्वमसङ्गाशङ्कायाः प्रतिक्षेपः ।
३० यत्रैकधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वं तत्र द्विवचनबहुवचनाभ्यामुद्देश्यतावच्छेदकव्यायद्वित्वबहुत्वे बोध्येते, यत्र च नानाधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वं तत्र केवलद्वित्वबहुत्वे एव ताभ्यां बोध्येते इत्यस्य निष्टङ्कनेन द्रव्यपदस्थले नानाधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वेन केवलस्य बहुत्वस्य भानं स्यादित्याशङ्का व्युदस्ता । ३१ द्रव्यपदोत्तरबहुवचनाद्यापच्युद्धारायाश्रिते प्रकाशन्तरे पुष्पदन्तपदे द्विवचनान्तत्वोपपादनं, तत्र " नाशोद्भवस्थितिमति" इति पद्यं न्यायखण्डखाद्ये उपाध्यायोक्तं संवादकम् ।
१३ - १ त्रयोदशगाथावतरणम् ।
२ एकान्तद्रव्यास्तिनयाभ्युपगतं धौव्यम्, एकान्तपर्यायास्तिकनयाभ्युपगतावुत्पादन्ययौ च द्रव्यस्य न लक्षणम्, प्रत्येकं मिथोऽनपेक्षौ प्रत्येकलक्षणग्राहिणौ araft freereष्टी इत्यर्थो दर्शितः ।
१४- १ नयद्वयारन्धतृतीयनयस्य सम्यग्डष्टित्वं भविष्यतीत्याशङ्काप्रतिविधानार्थकतया चतुर्दशगाथावतरणम् ।
२ तदर्थकथनं, तत्रोभयवादात्मकस्य तृतीयनयस्याभाव उपपादितः, प्राधान्येन द्रव्यपर्यायोभयावगाहिज्ञानस्य प्रमाणरूपत्वे स्याद्वादरत्नाकर-तत्त्वार्थ लोकवार्तिकपद्यसंवादच ।
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९४-१४
९४-२१
९५-९
९५-१३
९५-१७
९६-१
९६-१६
९६-२२
९७-१
1
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________________
२१
अङ्काः
विषयाः
३ मिथो निरपेक्षभावेन द्रव्यपर्यायग्राहिणोर्नययोमिथ्यात्वं परस्पराऽत्यागरूपेण भज्यमानयोस्तयोः प्रमाणसंज्ञत्वमावेदितम् ।
४ मुख्यगौण विधया स्वपरार्थग्राहिणां सम्यग्दृष्टित्वं युक्तं, न तु स्वतन्त्रकल्पितोविषयग्राहिणामिति निगमितम् ।
१५ - १ मूलनययोरिव स्वान्यनय विषयनिरपेक्षविषयग्राहिणामुत्तरनयानामपि मिथ्यात्वमित्युपदर्शनपरतया पञ्चदशगाथाऽवतारिता ।
२ "जह एए'' इति पञ्चदशगाथाऽर्थो दर्शितः । तत्र मूलभूतनययोर्मिथ्यादृष्टित्ववदन्यनयानामपि मिथ्यादृष्टित्वमुपपादितम् ।
"
पृ० पं.
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९७-२०
९८–४
९८-७
३ तद्वयतिरिक्तनयान्तरासद्भावो निगमितः ।
१६ - १ " सव्वणय समूहम्मिवि" इति षोडशगाथावतरणम्, तत्र सङ्ग्रहादिनयानां सद्भावेऽपि मूलनयद्वयविषयविषयकत्वेन तदूषणदूषितत्वम् ।
२ उक्तगाथार्थीपदर्शनम् उभयवाद प्ररूपको ऽतिरिक्तनयो नास्ति, सङ्ग्रहादीनां मूलनयप्रतिज्ञातार्थस्यैव विशेषरूपेण प्रतिपादकत्वादिति प्रपञ्चितम् । ९९-५ १७ -- १ सप्तदशगाथावतरणम्, पयोव्रतादिदृष्टान्तेन क्षीरदध्यादीनां कथञ्चिद्भेदाभेदवद् वस्तुमात्रस्य कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकत्वेनोत्पादव्ययधौव्यात्मकत्वं तत्र “पयो - व्रतो न दध्यत्ति” इति पथसंवादः, तत्पद्याभिप्रायोपवर्णनम् । २ बाह्य वस्तुवदात्माद्यान्तरवस्तुनोऽपि कथञ्चिदभेदाभेदात्मकत्वं व्यवस्थापितम् तस्य भेदाभेदेकान्तरूपताभ्युपगमे सकलव्यवहारोच्छेदापादनेन ।
9
९९-१६
९९-२६
३ 'ण य दव्वद्वियपक्खे' इति सप्तदशगाथाविवरणम्, द्रव्यार्थिकपक्षे पर्यायार्थिकपक्षे 'च संसारो न संभवतीति दर्शितम् ।
४ एकान्तशाश्वतव्यक्तिवादिनि द्रव्यार्थिकनये कथं संसारानुपपत्तिरिति शङ्कायाः प्रतिविधानम्, तत्र संसारस्वरूपोपदर्शनम्, संसारस्य गतिचतुष्कभेदाच्चतुर्विधत्वे स्थानाङ्गवचनसंवादश्च |
१०० - १३
५ औदयिकादिभावानां संसरणपरिणामः संसार इति पक्षान्तरभावना, तत्र संसार आत्मनो द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वेनैकानेकस्वरूपत्वे सत्येव घटते इत्यस्य व्यवस्थापनम् । १००-१७ ६ एकान्त नित्यात्मनि जन्ममरणाद्युपपादनमा शङ्कय व्युदस्तम् ।
१०० - २३
७ अतिरिक्तसंयोगस्याऽपाकरणम् ।
१०१-१
८ आत्मनो नित्यैकान्तरूपत्वे छेदभेदाद्यभावाद्धिंसाद्यभावप्रसङ्गः, मनःसंयोगविशे
९८-१२
९८-२२
९८-२५
१००-५
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________________
२२
अङ्काः
विषयाः
पृ० पं.
पध्वंसस्य हिंसात्वमपाकृतम् ।
१०१-१०
९ मरणोद्देश्यक मरणानुकूलव्यापारस्य हिंसात्वं तद्वतच हिंसकत्वमाशङ्कय परिहृतम् । १०१-१७ १० प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्येव युक्तमित्यात्मनो नित्यत्वेऽपि तत्पर्यायस्यानित्यत्वेनोक्तहिंसाऽहिंसादिकमुपपद्यत इति स्याद्वादपक्ष एव संसारः संभवति, न तु शाश्वत व्यक्तिवादपक्ष इति निगमितम् ।
११ एकान्तोच्छेदपक्षेऽपि संसाराऽभावः शङ्काप्रतिविधानाभ्यां व्यवस्थापितः । १२ एकान्तोच्छेदपक्षे हिंस्य हिंसक भावादेरसंभवात्संसारो न संभवतीति कल्पान्तरभावनं विस्तरतः ।
१८ - १ एकान्तनित्यपक्षे एकान्ता नित्यपक्षे च दूषणान्तरप्रतिपादनपरतयाऽष्टादशगाथा- Sवतरणम् ।
२ " सुहदुहसम्पओगो" इति अष्टादशगाथा विवरणम्, सुखदुःखादिस्वरूपं निरुच्य तत्संप्रयोगस्यैकान्त नित्यवादपक्षे न संभव इति विस्तरतः प्रतिपादनम् । ३ द्रव्यार्थिकमते द्रव्ये गुणप्रतीतिर्भ्रान्तैव अत एव " इच्छइ जं दव्वनओ" इति भाष्योक्तिस्सामायिकमाश्रित्य संङ्गता, तन्मतस्यायुक्तत्वं भावितम् । ४ नित्यस्यात्मनः सुखस्वभावरवे दुःखसंप्रयोगो न भवेत्, दुःखस्वभावत्वे सुखसंप्रयोगो न भवेदिति दर्शितम् ।
नात्मनः ।
८ प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे स्तः " इति सांख्यमतस्य खण्डनम् । ९ एकान्तोच्छेदवादेऽपि सुखदुःखसंप्रयोगो न संभवति, एकान्तोच्छेदवादः पर्यायार्थिकनयाभ्युपगतो दर्शितः ।
१०३-२४
१०३-२९
५ कदाचित्सुखस्वभावः कदाचिदुःखस्वभाव इत्युपगमेऽनित्यत्वं प्रसज्यत इति । १०४-२ ६ नैगमनये सुखदुःखसंयोगोपपत्तिराशङ्कय प्रतिक्षिप्ता ।
१०४-४
७ समवायासिद्धया समवायिकारणत्वं द्रव्यलक्षणं न संभवति, प्रत्यक्षानुमानादिकं न समवायसाधकप्रमाणं, समवायासिद्धयैव सुखदुःखसमवायिकारणत्वमपि
११ सर्वप्रमाणैग्रहणाभावाद्रूपादिभ्यो भिन्नस्य घटस्याभावो यथा तथा ज्ञानादिभ्यो frनस्य स्थिरस्यात्मनोऽभाव इति न तत्र सुखदुःखसंप्रयोगः ।
१०२-२
१०२-९
१०३-१२
१०३-१५.
१० तन्मते ज्ञानसुखादिगुणातिरिक्तं जीवद्रव्यं नास्ति, तत्र सामायिकमाश्रित्य " जाओ चिअ वत्युं " इति भाष्यसंवादः ।
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१०२-१५
१०४-९
१०४-२६
१०५-८
१०५-१५
१०५-१९
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________________
विषयाः
पृ० पङ्गिः १२ पक्षद्वयेऽपि सुखदुःखविकल्पनमयुक्तमिति ।
१०५-२२ १९-१ एकोनविंशतितमगाथावतरणम् , तत्र संसारे कर्म योगादितत्तन्निमित्तमालम्ब्यै
वात्मना बध्यते, कर्मणा च शरीरं निर्वय॑ते तद्द्वारा च सुख दुःखञ्चानुभवत्यात्मा,
एकान्तनित्यानित्यपक्षे तदसंभवोपदर्शिकेयं गाथा । २ प्रकृतगाथासंक्षिप्तार्थः, नत्र त्रिविधयोगनिमित्तमासाद्य प्रतिबन्धमदेशबन्धास्मकं कर्म बध्यते, कषायवशाद्रसबन्धस्थितिबन्धात्मकं च बध्यत इत्येतदुभयमे
कान्तापरिणतिवादे एकान्तोच्छित्तिवादे च न सम्भवतीति प्रदर्शितम् । १०६-२० ३ अवयवार्थः, तत्र योगस्य कर्मनिमित्तत्वं कथमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ,
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां योगस्यैव बन्धनिमित्तकारणत्वं व्यवस्थापितम् । १०६-२३ ४ कर्मणो योगनिमित्तकत्वे "कम्मं जोगनिमित्त" इति विशेषावश्यकभाष्यगाथाटीकोक्तिसंवादो दर्शितः।
१०७-८ ५ व्युत्पत्युपदर्शनपुरस्सरं कर्मपदस्यात्र प्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धपरत्वमुपदर्य तस्य
योगनिमित्तत्वं “जोगो विरिय" इति पद्येन मनोयोगादित्रिवियोगरव्यापनपूर्वकमुपदर्शितम्।
१०७-१४ ६ एतद्भावोपदर्शने “एगपएसोगाढं" इति पद्येनात्मा यथा योगनिमित्तेन कर्म
स्वीयसर्वप्रदेशैर्वधाति "कृत्स्नैर्देशैः" इति पधेनोपदश्य तथा भावना कृता । १०७-२१ ७ आत्मैव स्वकृतकर्मणा संसरति मुच्यते चेत्यनेन "तस्मान्न बध्यते" इत्यादि साङ्ख्यमतव्युदासः।
१०८-४ ८ "बंधट्टिई कसायवसा" इत्यस्य विवरणम् ।
१०८-६ ९ कर्मैव न सिद्धं कस्य बन्धादिकमिति शङ्कोन्मूलनम् ।
१०८-१४ १० कर्मसिद्धिं पौराणिका अपि प्रतिपद्यन्ते इत्यत्र "यथायथा" इत्यादिवचनानि दर्शितानि,
बौद्धा अपि मन्यन्त इत्यत्र "इत एकनवते कल्पे" इति पद्यमुपदर्शितम् । १०८-१७ ११ कर्मसाधकमनुमान प्रमाणमुपदर्शितम् ।
१०८-२८ १२ कर्मणः पौगलिकत्वसाधनेऽनुमानं प्रमाणं दर्शितम् ।
१०९-९ १३ कर्मणो न द्रव्यत्वं, किन्त्वात्मगुणत्वमिति न्यायमतरवण्डनम् ।। १४ आत्मनः पारतव्यं प्रसाध्य तनिमित्तस्य कर्मणः पौगलिकत्वं दृढीकृतम् ,
तस्याऽमूर्तत्वे ततोऽनुग्रहोपयातौ न स्यातामिति तद्र्व्यमेव नात्मगुण इत्युपपादितम् ।
१०९-२३
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२४
अङ्काः
विषयाः
१५ नित्यत्वैकान्तेऽनित्यत्वेकान्ते च योगनिमित्तककर्मबन्धस्य कषायहेतुकबन्धस्थिते श्वासम्भवे हेतूपदर्शनपरतयोत्तरार्द्धाऽवतारः ।
१६ अपरिणते उच्छिन्ने चात्मनि बन्धस्थितिकारणाभावोपदर्शनम् । १७ अपरिणामिन्यात्मनि योगानामसम्भवः सम्भवे वा कथञ्चिदनित्यत्वप्रसञ्जनम्, एकान्तोच्छिन्नात्मपक्षेsपि येनात्मना यत्कर्मनिमित्तं योगः कृतः तेनात्मना तत्कर्म बध्यते इति न स्यात्, ततश्व व्यवहारोच्छेद इत्यादिदर्शितम् । १८ व्यवहारस्य भ्रान्तत्वमपाकृतम्, सन्ततेनं यथार्थव्यवहारः । १९ अविकार्ये नित्यात्मनि स्थितिबन्धानुभागबन्धकारणकषायोदयजन्यरागद्वेषाद्यध्यवसायानामसम्भवः, सम्भवे वा कथञ्चिदनेकत्वप्रसञ्जनम् । २० एकान्तानित्यात्मन्यनुसन्धानविकलेऽहमनेन सन्तुष्टोऽहमनेनाक्रुष्ट इति रागद्वेषाध्यवसायासम्भवः, ततश्च बहुव्यवहारविलोपः, बीजाभावात्सन्ततिकल्पनाऽसम्भवेन न तन्निमित्तकत्वं व्यवहारस्येति ।
११०-१३
२२ मिथ्याऽध्यारोपहानार्थं यत्नोऽसत्यपि भोक्तरीत्यस्य खण्डनम् उक्तप्रतीतिमिथ्यात्वासिद्धधाद्युपदर्शनेन ।
४ गाथार्द्धस्य भावोपदर्शनम् ।
५ " बन्धं च विणा " इत्युत्तरार्धस्य विवरणम् ।
पृ० पतिः
२१ उक्तानुसन्धानप्रतीतेर्मिथ्यात्वं न सम्भवति, एकस्य चेतनस्य बाधारहितानुभविषयस्यापवाऽसम्भवात् ।
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११०-२
११०–६
११०-१०
११०-१५
११०-२०
२३ अभिष्वङ्गादिषु चैतन्यानुस्यूतिप्रत्ययस्य मानसविकल्पत्वान्नानुगतवस्तुसाधकत्वमिति शङ्काया निरासः ।
२४ एकान्तनित्यानित्यव्युदासेनोभयपक्ष एवं बन्धस्थितिकारणं युक्तमिति निगमितम् ।
२०-१ एकान्तवादिनां संसारनिवृत्त्यर्थं प्रवृत्त्यादिर्न घटत इत्येतत्परतया विंशतितमगाथाsaaारिता !
२ " बन्धम्मि अपूरन्ते" इति गाथासंक्षिप्तार्थकथनम्, तत्र अपरिणामवादात्मके एकान्तवादे संसारभयप्राचुर्यपर्यालोचनं मिथ्याज्ञानमित्यादि दर्शितम् । ३ उक्तगाथा विस्तरार्थः, तत्र “बन्धम्मि अपूरन्ते" इत्यादि प्रत्येकवाक्यानां विस्ततोऽर्थप्रदर्शनम् ।
११०-२४
११०-३१
१११-७
१११–९
१११-१३
१११-१६
१११-२८
११२–२
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________________
२५
विषयाः
अङ्काः २१- १ “ तम्हा सव्वेवि नया ” इत्येकविंशतितमगाथाऽवतरणम्, तत्र "जाव णं एस जीवे" इत्यादिसिद्धान्तोक्तेर्वीतरागस्यापि चक्षुःपक्ष्मोन्मीलनादिक्रियामात्रमपि कुर्वतः योगनिमित्तं कर्मबन्धो भवति, तर्ह्यन्येषां मिथ्यादृष्टीनामविरतानां सर्वविरतानामपि सकषायाणां च योगविशेषहेतुकः कर्मबन्धो भवत्येवेति सुतरां सिद्धम्, सर्वथैव योगक्रियाऽभावे नव्यकर्मबन्धाभावादितो मुक्तिरित्येतत्सवै स्याद्वादपक्षे, नैकान्तपक्षे इत्याद्युक्तम् ।
२ एकान्त नित्यस्यात्मनो विचित्रकर्मबन्धहेतु मिथ्यात्वादिपरिणतिस्वभाव- तञ्जन्य विचित्रकर्मबन्धनादिस्वभावभेदैरनित्यत्वप्रसङ्गः, एकान्तानित्यस्य चात्मनः प्रतिक्षणं भिन्नत्वेन थः कर्महेतुकर्ता स न कर्मकर्ता, कर्मकर्ता च न कर्मफलभोक्ता, यच कर्मणा बद्धः स एव न मुक्त इत्यनुभूयमान व्यवहारमात्र विलोपकारित्वेनैकान्तनयाः सर्वेऽपि मिथ्यानयाः । ११२-२८ ३ उक्तगाथाविवरणे सर्वनयवादानां मिध्यादृष्टित्वसाधकमनुमानमुपदर्शितम् । ११३-११ ४ अन्योन्यनिश्रिता नया सम्यक्त्वस्वभावा इति दर्शितम् । ११३-१७
५
७ ज्ञानात्मका अपि नया एकान्ततच्चावगाहिपराभिप्रायरूपाः स्वविषयेतर विषयोन्मूलका मिथ्यात्मकाः, त एवेतरांशसापेक्ष स्वविषयग्राहका यथावस्थितवस्तुप्रत्ययरूपाः समुदिताः प्रामाण्यं भजन्ते ।
भावार्थीपदर्शनं, तत्र वाक्यरूपा एकान्ततत्त्वावगाहिनया मिथ्यात्वख्यापकाः स्याद्वाद निरपेक्षा यावन्तस्ते तावन्तः परसमयाः, अत्र नयोपदेशोक्तिः संवादिका । ११३-२१ ६ अन्योन्यनयविषयापरित्यागेन स्याद्वादसापेक्षास्ते प्रामाण्यं प्रतिपद्यन्ते अत्र " जावन्तो वयणपहा" इति विशेषावश्यकभाष्यसंवादः ।
पृ० पं.
१० नयानां प्रत्येकावस्थायां मिथ्यादृष्टित्वात्तत्समुदायेऽपि महा मिध्यादृष्टित्वसक्त्या न सम्यक्त्वमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
४
११२-१९
"Aho Shrutgyanam"
८ इतरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां
ज्ञानात्मकन्यानामेकदोत्पादासम्भवात्तत्कालाविद्यमानानां समुदाये कथं सम्यक्त्वव्यपदेश इत्याशङ्काप्रतिविधानम्, अपरित्यक्तेतरधर्म विषयाध्यवसाय एव समुदाय इति प्रतिपादनेन ।
९ सम्यग्रहष्टिना स्याद्वादमर्यादया विषयविभागेन व्यवस्था पितस्सर्वोऽपि परसिद्धान्तः स्वसिद्धान्त एव ।
११३-२५
११४-२
११४-७
११४-१९
११४-२१
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________________
११६-१०
विषयाः
पृ० पनि ११ उक्त एवार्थः प्रश्नप्रतिविधानाभ्यां "न समेन्ति नयसमेया” इति “सब्वे समयन्ति सम्म” इति गाथाभ्यां विशेषावश्यकभाष्ये उक्तः।
११५-४ २२-१ "जहऽणेगलक्खणगुणा" इति द्वाविंशतितमपद्य नयसमुदाये न सम्यक्त्वं
प्रत्येकनयेषु सम्यक्त्वाभावादित्यत्र हेतोरनैकान्तिकत्वप्रदर्शनार्थतयाऽवतारितम्। ११५-१० २ अनेकलक्षणगुणा वैडूर्यादयो विसंयुक्ता रत्नावलीति व्यपदेशं न लभन्त इत्यर्थों दर्शितः
११५-१५ २३-१ दार्शन्तिके योजनपरा त्रयोविंशतितमा गाथा, तस्या अन्योन्यपक्षनिरपेक्षा
निजकबादसुविनिश्चिता अपि नयाः सम्यगदर्शनव्यपदेशं न प्राप्नुवन्तीत्यर्थों दर्शितः।
११५-२४ २४-१ "जह पुण ते चेव मणी" इति चतुर्विशतितमगाथायाः यथा त एव मणयो
गुणविशेषभागप्रतिबद्धा रत्नावलीति व्यपदेशं प्रतिपद्यन्ते प्रत्येकसंज्ञां च जह
तीत्यर्थः। २५-१ "तह सवे णयवाया" इति पञ्चविंशतितमगाथायास्तथा सर्वे नयवादा यषा
ऽनुरूपविनियुक्तवक्तव्याः सम्यग्दर्शनशब्दं लभन्ते न विशेषसंज्ञा इत्यर्थः प्रपश्तो दर्शितः।
११६-२३ २ एतद्गाथाभावार्थोपदर्शनम् ।
११७-~८ ३ तत्र कथं विशिष्टैकाध्यवसायलक्षणसमुदायार्थत्वोपपत्तिरिति शङ्कापतिविधानम् । ११७-११ ४ नयप्रमाणात्मकदीर्घोपयोगरूपैकचैतन्यस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तत्र रत्नावली दृष्टान्तोपादानं व्यर्थमित्याशङ्का प्रतिविहिता ।
११७-१४ २६-१ दृष्टान्तगुणप्रतिपादनार्थाया "लोइयपरिच्छयसुहो” इति षविंशतितमगाथाया व्याख्यानम् ।
११७-२० २ उक्तगाथाभावार्थोपदर्शनम् , तत्र दीर्घोपयोगरूपचैतन्ये लौकिकपरीक्षकाणामेकानेकात्मकत्वानायाससुखप्रतिपत्त्युपायत्वलक्षणरत्नावलीदृष्टान्तगतप्रथमगुणस्य स्पष्टीकरणम् ।
११८-१ ३ प्रमाणनयापेक्षयैकानेकात्मकचैतन्यस्वरूपप्रतिपादकवाक्यगतप्रामाण्यप्रतिपत्तिज
नकत्वलक्षणप्रामाण्यप्रदर्शकत्वलक्षणदृष्टान्तगतद्वितीयगुणप्रदर्शनम् । १९८-९ ४ प्रज्ञापनाविषयत्वलक्षणतृतीयगुणप्रदर्शनम् ।
११८-१५
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________________
२७
अङ्गाः
विषयाः
५ सर्वथा सादृश्याभावनिबन्धनदृष्टान्तदान्तिक भावानुपपच्याशङ्का व्यपाकृता, तथा रत्नसमुदायस्यैककालीनस्य सम्भवो यथा तथा नैककालीनस्य नयसम्हस्य सम्भव इति कथं प्रमाणसंज्ञेत्याशङ्काऽपि व्युदस्ता ।
पृ० पं.
११८-२०
२७- १ " इहरा समूह सिद्धो" इति सप्तविंशतितमगाथावतरणम्, तत्र असदकरणादित्यादिना सांख्यमतस्य, सांख्यविशेषमतस्य, नैयायिकवैशेषिकादीनां मतस्य, बौद्धमतस्य, एकान्तद्रव्यवादिमतस्य वेदान्तिमतस्य चोपदर्शनम्, दृष्टान्तासामञ्जस्यञ्चेति । ११९-१ २ उक्तगाथार्थः, तत्र रत्नादिष्वावल्यादिः समूहसिद्धः, परिणामकृतो वा, विकल्पाभिधानं लौकिकव्यवहारापेक्षया, ते तं वेति सत्कार्यवादः, न तं चेत्यसत्कावादः, तं चैवतीति एकान्तद्रव्यवादः ब्रह्ममात्रं वा तत्त्वमित्यद्वैतवादो वा, wari सर्वेषां वादानां मिथ्यावादत्वम्, कथश्चिदर्थप्रवेशे सर्वेषां सम्यग्वादत्वमिति ।
१२०-३
३ " यदुत्पादव्ययधौव्येति” उत्पादादिसिद्धिग्रन्थवचनाद्वस्तुमात्रमुत्पादादित्रययोगि, ततस्तत्तद्वस्तु तत्तदपेक्षया कार्यमकार्यमित्याद्यनेकान्तात्मकमिति । १२०-१९ ४ तत्तद्वस्तुनोऽनुगतव्यावृत्तस्वरूपतयैकानेकात्मकत्वान्मप्यनुस्यूतरत्नावलीष्टान्तस्यापि तवसिद्धेस्तदृष्टान्तछलान्नयप्रमाणात्मकचैतन्यस्याप्यापेक्षिकैकाने कात्मकत्वसिद्धिरिति निगमितम् ।
५ पूर्वोक्ततत्तन्मतेषु नियमेन मिथ्यात्वे बीजोपदर्शने प्रथमं सांख्यमतमुपद तत्र मिथ्यात्वबीजमुपदर्शितम् ।
"Aho Shrutgyanam"
१२०-२५
१२०-२८
६ कारणमेव स्वाभिन्नकार्यतया परिणमत इति सांख्यविशेषमते मिध्यात्ववीजोपदर्शनम् ।
७ कारणे देव कार्य सामग्रीतस्स्थिरात्मकमुत्पद्यत इति नैयायिकादिमते मिथ्यात्वबीजोपदर्शनम् ।
१२१-२५
८ कारणे सर्वथाऽसदेव क्षणिकं कार्यं कुर्वद्रूपात्मकपूर्वकारणादुपजायत इति बौद्धमते मिथ्यात्वबीजोपदर्शनम् । अत्र मनप्रतिविधानाभ्यां विचारः पल्लवितः । ९ यत्सत्तत्क्षणिकमिति व्याप्तेः सच्वहेतोः क्षणिकत्वसिद्धिरिति पराकूतो व्युदस्तः । १२१-२७ १० सत्त्वक्षणिकत्वयोः कृतकत्वानित्यत्वयोश्रातव्यावृत्तिरूपत्वात्तद्भेदाद् भेद इत्याशङ्का
निराकृता ।
१२१-२०
१२१-२२
१२२-१
११ सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशमादायानुगतमतीत्युपपत्तिः । १२२–८
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________________
२८
अङ्काः
विषयाः
१२ काल्पनिक व्यवच्छेद्य भेदाद तद्व्यावृत्तिभेदाभ्युपगमस्य खण्डनम् । १३ तत्तव्यावृत्तीनां बुद्धिप्रतिभासभेदाद् भेदाभ्युपगमस्य खण्डनम् । १४ सध्वक्षणिकत्वयोः कृतकत्वानित्यत्वयोश्चाभेद नियतस्तादात्म्यसम्बन्धस्तद्बला
पृ० पं.
१२२-१२
१२२-१९
गम्यगमकभाव इत्यस्य खण्डनम् ।
१५ विनाशस्य स्वप्रतियोग्युत्पत्तिक्षणाव्यवहितोत्तरक्षणभावित्वसाधनेन क्षणिकत्वसाधनस्य निराकरणम् ।
१५ भावस्य विनाशे स्वातिरिक्तकारणापेक्षाऽभावात्कारणक्रमाभावेन ध्वंसोत्पादने न विलम्ब इति क्षणिकत्वमित्यस्य खण्डनम् ।
१२३-२८
१७ विनाशप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्यादिना वस्तुनः क्षणिकत्वमिति बौद्धस्य पूर्वपक्ष: । १२४-२ १८ स्वहेतोरेव हि भूतभविष्यद्वर्तमानस्वभावत्वेन त्रिकालस्थायितया प्रथमक्षण एवोत्पन्नो भाव इत्यादिना तत्खण्डनम् ।
१९ भिन्नाभिन्नोभयात्मकवस्तुनि विशेषणविशेष्यभावाद्युपपत्तिः ।
२० स्थिरपदार्थस्य पूर्वापरकालसम्बन्धित्वरूपविरुद्धधर्माभ्यासाद् भेदे क्षणिकस्यापि परमाणोः परमाणुषट्केन योगात् षडंशता स्यादिति अत्र " षट्केनेति" पद्यसंवादः ।
२१ एकस्य परमाणोर्विभिन्न दिगवच्छेदेन विभिन्नपरमाणु संयोगानां विरोधाभावातद्वच्वेऽपि परमाणोर्न भेदः, तथा पूर्वापरकालावच्छेदेन पूर्वापरकालसम्बन्धयोविरोधाभावात्तद्वत्वेऽपि स्थिरस्य न भेदापत्तिरिति ।
२२ एकस्य परमाणोः परमाण्वन्तरेण सर्वात्मनैकदेशेन वा संयोग इति विकल्पनेन परमाण्वन्तरसंयोगखण्डनमप्ययुक्तम्, इमौ संयुक्ताविति प्रतीत्यन्यथानुपप-त्या प्रकारान्तरेण संयोगकल्पनस्य युक्तत्वादिति ।
१२३-३
१२३-१७
१२४-१९
१२५-१
"Aho Shrutgyanam"
२६ विनाशस्य ध्रुवभावित्वादिनाऽपि क्षणिकत्वसाधनस्य खण्डनम् ।
२७ अक्षणिकस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वं न संभवतीत्यतो न सत्त्वमिति
बौद्धपूर्वपक्ष: ।
१२५--३
१२५-१०
२३ नैरन्तर्यमात्रेण संयुक्तप्रतीत्युपपादनस्य खण्डनम् ।
१२५-२४
२४ विनाशे स्वप्रतियोग्युत्पत्तिक्षणाव्यवहितोत्तरक्षण भावित्वसिद्धिर्नेति निगमितम् । १२६-१
२५ विनाशस्य निर्हेतुकत्वेन क्षणिकत्वसाधनस्य खण्डनम् ।
१२६–२
१२६-८
१२६-१४
१२५--६
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________________
विषयाः २८ एतत्मतिविधानं स्थिरवादिनः, क्षणिकेऽपि स्थिरवादिना क्रमयोगपद्याभ्यामर्थ
क्रियाविरोधो वक्तुं शक्य एव, तद्भावना च कृता, क्षणिकवाद्युपन्यस्तदोषाणां क्षणिकवादेऽप्यासअनं, तदोषोद्धारप्रकारो यः क्षणिकवादिनः सोऽक्षणिकवादिनोऽपीति निरूपणम् ।
१२८-११ २९ क्षणिकपक्षे युगपत्कार्यकारित्वं न संभवतीत्युपसंहृत्य तत्र क्रमिककार्यकारित्वमपि न सम्भवतीति भावितम् ।
१२९-१२ ३० क्षणिके नानादेशब्यासिलक्षणस्य देशक्रमस्य नानाकालव्याप्तिलक्षणस्य कालक
मस्य न सम्भवः अत्र “यो यत्रैव स तत्रैवेति" प्राचीनपद्यसंवादः। १२९-१४ ३१ सादृश्यस्याक्षणिकस्याभ्युपगमे क्षणभङ्गवादाऽपगम इत्यत्र “अथापि नित्यं परमार्थसन्त" इति न्यायमञ्जरीवचनसंवादः।
१२९-२८ ३२ विरुद्धेन सवेन न क्षणिकत्वसिद्धिरिति निगमितम् । ३३ स्थिरपक्षे समर्थे क्षेपायोग इति विलम्बो न भवेदिति क्षणिकवादिदत्तदोषनिरसनम् ।
१३०-३ ३४ न सहकारित्वं किन्तु सहितकारित्वमिति बौद्धाभ्युपगमस्य निरासः। १३०-१० ३५ कारणस्य स्वरूपलाभार्थ सहकार्यपेक्षेत्यादि विकल्प्य यदूषणं पूर्व बौद्धेनोक्तं तत्प्रतिविधानम् ।
१३०-१४ ३६ तैस्सह करोतीत्यस्य विशेषणत्वमाश्रित्य स्थैर्यपक्षे यद्बौद्धोक्तं दूषणं तद्वौद्धाभ्युपगतक्षणिकपक्षेऽपि दर्शितम् ।
___ १३०-१८ ३७ तैस्सह करोति तैर्विना न करोतीति योऽस्य स्वभावः स पश्चादस्ति न वेति
विकल्प्य स्थिरपक्षे पौद्धोक्तं दूषणं क्षणिकपक्षेऽपि समानमिति भावितम् । १३०-२४ ३८ निर्विशेषणत्वेन शुद्धस्वरूपधर्म्यस्त्येवेत्यादिसमाधानं तुल्यम् ।
१३१-३ ३९ उक्तदिशा द्वयोरप्येकान्तवादिनोः मुन्दोपसुन्दन्यायेन प्रतिहतत्वान्नैकोऽप्येका
न्तपक्षो युक्तः, किन्तु मिथः सापेक्षभावेन स्याद्वादपक्ष एव युक्त इति । १३१-७ ४० उक्तमर्थमभिहितं “य एव दोषाः किल नित्यवादे" इति पद्येन हेमसरिणा । १३१-१२ ४१ मिथः सापेक्षभावेन स्याद्वादपक्षस्य युक्तत्वे हेतुरुपदर्शितः। ४२ स्वभावभेदस्य काल्पनिकत्वेन विविक्तव्यवहारस्य काल्पनिकत्वमित्युपगमे
"सर्व खल्विदं ब्रह्म" इति वदतो वेदान्तिनो विजय आपादितः । १३१-२० ४३ एकान्तद्रव्यमात्रवादस्य निरासः।
१३१-२७
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________________
२०
अङ्काः
विषयाः
४४ ब्रह्मवाद निरसनं, तत्र प्रसङ्गात् "अयं जीवो न कूटस्थम्" इत्यादि पञ्चदशीपद्य
त्रयमुवृङ्कितम् ।
२८ - १ “णिययवयणिजसच्चा" इत्यष्टाविंशतितमगाथावतरणम्; तत्र वस्तु नैकात्मकं किन्त्वनुभूयमानत्वेनानेकान्तात्मकं प्राचीननैयायिक मतेऽवच्छेदकभेदेनैकत्र वृक्षे कपिसंयोगतदभावयोखि, नव्यनैयायिकमते कपिसंयोगितद्भेदयोरिथ, बौद्धमते चित्रज्ञाने नीलाकारत्वपीताकारत्वयोखि, स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादितत्तनिमित्तापेक्षया सत्त्वासत्वयोरविरुद्धत्वम् ।
२ अविरोधावगतये स्यात्पदघटितस्य वाक्यस्य प्रयोगः ।
३ यत्र न स्यात्पदप्रयोगस्तत्रापि "अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र " इति वचनेनैकान्तव्यवच्छेदाय स्यात्पदं ज्ञेयम्, एवकारवदित्युपपादनम् । ४ विरुद्धधर्मस्य तत्तनिमित्तापेक्षयाऽविरोधानभ्युपगमे न्यायादिमते भ्रान्तज्ञाने धशे प्रामाण्यं प्रकारांशे चाप्रामाण्यं, सांख्यमते एकस्या एव प्रकृतेः त्रिगुणात्मकत्वं, बौद्धमते एकस्य चित्रज्ञानस्य नीलपीताद्यनेकाकारत्वम्, रूपस्य रूपम्प्रत्युपादानत्वं सम्प्रति निमित्तत्वमित्यादि न स्यात्, उक्तार्थे “साङ्ख्यः प्रधानमुपयन्निति” उपाध्यायवचनं "चित्रमेकमनेकं च" इति हेमसूरिवचनश्च संवादकम् ।
५ अनेकान्तात्मकवस्त्वेकदेशविषयास्सर्वेऽपि सङ्ग्रहादयो नयाः परनयविषये गजनिमीलिका मवलम्बमानास्सम्यग्ज्ञानरूपा स्वविषये वर्तमाना मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इति ।
अपीतरनयविषयव्यवच्छेदेन
६ णिययत्रयणिजसच्चा इति गाथार्थः ।
७ भावार्थ:, तत्र स्याद्वादतत्त्वज्ञो नयमामाण्याप्रामाण्ययोर्नैकान्तमवधारयति किन्तु इतरांशसापेक्षस्व निमित्तापेक्षांशग्राहकत्वे नयानां प्रामाण्यमन्यथात्वऽप्रामाण्यमित्यनेकान्तं निश्चिनोतीति ।
८ इयं गाथा गुरुतत्त्वविनिश्चये किश्चिद्भागेऽन्यथा पढिता तत्वाठमुल्लिख्य तदुपदर्शितश्चार्थ उल्लिखितः ।
१३२--१
"Aho Shrutgyanam"
पृ० पं
१३२–२९
१३३-७
१३३-८
१३३–१२
२९- १ नयप्रमाणात्मकैकरूपताव्यवस्थितमात्मरूपमनुगतव्यावृत्तात्मकमुत्सर्गापवादरूपग्राह्यग्राहकात्मकत्वाद्व्यवतिष्ठते इत्यर्थोपदर्शनपरतया " दव्वट्ठियवत्तन्वं" इत्येकोनत्रिंशमगाथाऽवतारिता ।
१३३-२७
१३४–५
१३४-२१
१३४-२५
१३५–४
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________________
३१
अकाः विषयाः
पृ. पं. २ तदर्थकथनं, तत्र पूर्वार्द्धन द्रव्यार्थिकसङ्ग्रहादिनयवक्तव्योपदर्शनम्, तत्र सर्वस्य सदसद्विशेषात्मकत्वादित्यस्याभिप्रेतोऽर्थों दर्शितः।
१३५-८ ३ "आरद्धो य विभागो" इत्याद्युत्तरार्द्धन पर्यायनयवक्तव्योपदर्शनम् । १३५-२३ ४ उक्तगाथाभावार्थोपदर्शनम् , तस्य नयद्वयापेक्षया कथञ्चिभेदसम्पृक्तामेदात्मकमेव वस्त्वभ्युपगन्तव्यमित्यत्र पर्यवसानम् ।
१३५-३० ३०-१ पर्यायाथिकनयविषयस्य भेदस्य द्वैविध्यप्रतिपादकतया त्रिंशत्तमगाथाऽवता
रिता। २ “सो उण समासओ चिय" इति त्रिंशत्तमगाथाविवरणम् , तत्र प्रथम संक्षिप्तार्थः, ततश्च विस्तृतार्थः, पर्यायनयविषयो भेदः, शब्दनयनिबन्धनार्थनयनिबन्धनभेदेन द्विविधः, तत्र द्वितीय एकविधः, प्रथमो भिन्नोऽभिन्नश्चेति द्विविधः । १३६-१० ३ "अत्थप्पवर" इत्यादिभाष्यवचनात्सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रान्ता अर्थनयाः, तद्विषयोऽर्थपर्यायोऽभिन्न इति भावना।
१३६-२२ ४ “सहप्पहाण" इति भाष्यवचनाच्छब्दसमभिरुवंभूताः शन्दनयाः, एतन्नयत्रयविषयव्यअनपर्यायो भिन्नोऽभिन्नश्च ।
१३७-१ - ५ भावोपदर्शनं, तत्र शब्दनये भिन्नो व्यअनपर्याय:, समभिरुढनयेऽभिलो व्या
नपर्यायः, एवम्भूतनयेऽप्यभिन्नो व्यञ्जनपर्यायः, यथा चैवं तथा स्पष्टीकृतम् । १३७-७ ६ व्यञ्जन विकल्पस्य शब्दात्मकस्य पुरुषादिद्रव्यरूपवस्तुधर्मत्वाभावात्कथमर्थस्य व्यानपर्याय इति शङ्काप्रतिविधानम् ।।
१३७-२१ ३१-१ एकानेकस्वरूपस्य वस्तुनौकालिकानन्तार्थपर्यायव्यअनपर्यायात्मकत्वादनन्तप्रमाणत्वमित्युपदर्शनार्थकत्वेनैकत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
१३७-२४ २ उक्तगाथाविवरणम् , तत्रावतरणदर्शित एवार्थः ।।
१३७-२९ ३ यावन्तोऽर्थपर्यायाव्यानपर्यायाश्च द्रव्यस्यैकस्य तावत्प्रमाणत्वे पुद्गलपर्यायत्वावच्छिन्नं प्रति पुदलद्रव्यत्वेनोपादानत्वं, न तु जन्यपृथिवीत्वाधवच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वादिना
तत्त्वमित्याद्यावेदितम् । ४ एकस्य परमाणुद्रव्यस्यानेकैस्सह सम्बन्धे द्वादशारनयचक्रसंवादो दर्शितः। १३८-१९ ५ प्रकृतार्थे संवादकतयोपदर्शितं व्यारब्याप्रज्ञप्तिवचनं व्यारव्यातम् । १३८-२३ ६ एकस्य द्रव्यस्यानन्तप्रमाणत्वे "जे एगं जाणइ से सम्बं जाणइ" इति सूत्रसं. यादा उक्तसूत्रन्याख्यानञ्च ।
१३९-१३
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रिता।
विषयाः
पृ० पं. ३२-१ पुरुषद्रव्यस्य व्यअनपर्यायेणाभेदः अर्थपर्यायैश्च भेद इत्येकानेकात्मकत्वमित्यु
पदर्शकत्वेन "पुरिसम्मि पुरिससद्दो” इति द्वात्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता। १३९-२४ २ उक्तगाथाविवरणम् , तत्र पुरुषे पुरुषशल्दो जन्मादिमरणकालपर्यन्तः, बाला
दिपर्यायाश्च बहुविकल्पा इति दर्शितम् । ३३-१ पुरुषवद्वस्तुमात्रमेकानेकस्वरूपमन्यथाऽभ्युपगमे तन्न स्यादेवेत्युपदर्शनपरतया "अस्थित्ति णिवियप्पं" इति त्रयस्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
१४.-१९ २ पुरुषद्रन्यस्यैकान्तैकरूपतया स्वयमपि बालाद्यवस्था न प्राप्नुयादित्यर्थः स्पष्टतया मावितः।
१४०-२४ ३४-१ उक्तार्थोपसंहरणरूपतया "वंजणपजायस्स" इति चतुस्त्रिंशत्तमगाथाऽवता
१४१-१७ २ अस्या गाथायाः संक्षिप्तार्थोपदर्शनपुरस्सरं विस्तृतार्थोपदर्शनम् । १४१-२० ३४-१ "सवियप्प-णिब्बियप्पं" इति पञ्चत्रिंशत्तमगाथावतरणम् ।
१४२-९ २ सविकल्पमेव निर्विकल्पमेव वैकान्तेन पुरुषद्रव्यं ब्रुवाणो न सिद्धान्ते निश्चितः,
यथाऽवस्थितार्थविषयकनिश्चयवान्न स इति तदर्थ उपदर्शितः। १४२-१४ ३ सम्पूर्णानेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपविषयक निराकाङ्क्षपरिपूर्णबोधप्रत्यलस्य प्रतिपाद्यं प्रति प्रतिपादकवाक्यस्य सप्तभङ्ग्यात्मकस्योपदर्शनम् ।
१४२-२४ ४ स्यात्पदालाञ्छितैकवाक्यमात्रप्रतिपादने प्रतिपादकस्याऽनैपुण्यं प्रतिपादितम् ,
तत्र प्रतिपाद्यस्याज्ञानसंशयविपर्ययनिवृत्तये वाक्यस्य प्रयोक्तव्यत्वे यथा सप्तविधवाक्यावतारो भवति तथोपपाय दर्शितः।। ५ घटः स्यादस्त्येवेत्याकारकस्य प्रथमभङ्गस्योपपादने निमित्तभेदेनाविरोध
द्योतनेन द्रव्याद्यपेक्षप्रतिनियतस्वरूपप्रतिपत्तये स्यात्पदस्य प्रयोक्तव्यत्वं निर्णीतम् ।
१४४-४ ६ प्रतिभङ्गं स्यात्पदेवकारपदप्रयोगावश्यकत्वे खण्डखाद्यवचनं साक्षितया दर्शितम् । १४४--१० ७ स्यान्नास्त्येव घट इति द्वितीयभङ्गसमर्थनम् ।
१४४-१६ ८ एकान्तवचनं मिथ्यावचनमिति मिथ्यावादित्वपरिजिहीर्षया स्यात्पदप्रयोगा
वश्यकता वाक्यमात्रे, तद्रहितवाक्यप्रयोगनिषेधे 'ओहारणी भासां नेव भासेत' इत्यागमः प्रमाणम् ।
१४४-२४ ९ अप्रयुक्तस्यापि स्यात्पदस्य सामर्थ्याद्गम्यत्वे "अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र" इति वचनं प्रमाणं दर्शितम्।
१४४-३.
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३३
अङ्काः
विषयाः
१० स्यादवक्तव्य एव घट इति तृतीयभङ्गसमर्थनम्, युगपत्प्राधान्येनास्तित्वना - स्तित्वोभयधर्मप्रतिपादकस्य कस्यचिदेकस्य पदस्य समासविग्रहान्यतरात्मकस्य वाक्यस्याभावप्रतिपादनं, प्रसङ्गात्पुष्पदन्तपदस्य युगपच्चन्द्रत्त्रसूर्य त्वोभयरूपेण चन्द्रसूर्यबोधात्मकत्वविचारः ।
११ अवक्तव्यत्वधर्मास्तित्वव्यवस्थापनम् ।
१२ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येत्र घट इति चतुर्थभङ्गस्य समर्थनम् । १३ पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गानामुक्तयुक्तयोपपत्तिरावेदिता ।
१४ सप्तभङ्गी लक्षण तात्पर्यमुपवर्णितम् ।
पृ० पङ्किः
१४५-१
१४५-३०
१४६–४
१४६-१६
१४६-२४
१५ प्रमाणनय सप्तभङ्ग्योः पृथग्लक्षणलक्ष्यत्वे सकलादेशत्वे सतीति प्रमाणसप्तभङ्गीलक्षणे, विकलादेशत्वे सतीति नयसप्तभङ्गी लक्षणे विशेषणं देयमिति विवेवितम् । १४६-३० १६ प्रतिधर्म सप्तभङ्गी प्रवृत्तौ संवादकस्य “धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थः" इतिपद्यस्यार्थ उपदर्शितः ।
१४७-४
१७ प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यो धर्मो यन्नयसिद्धः तद्धर्मप्रतिपादकाद्यभङ्गघटिता सप्तभङ्गी तन्नयप्रवृत्ता, तत्र खण्डखाद्यवचनसंवादः “धी ग्राह्ययोर्न हि भिदाऽस्ति सहोपलम्भात्" इति तदीयपद्येन ग्राह्यग्राहकयोस्स्यादभेद एव स्यादभेदएवेत्यादि सप्तभङ्ग्याः तथागतनयप्रवृत्तत्वमुपपादितम् ।
३६-१ आद्यभङ्गत्रयोत्थान निमित्तोपदर्शकत्वेन षट्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता । २ अत्यंतरभूएहि य इति गाथार्थ उपदर्शितः ।
" Aho Shrutgyanam"
३ एतगाथाया अष्टसहस्त्रयामुक्तोऽर्थं आवेदितः ।
४ एतद्भावोपवर्णने कपिसंयोगतद्वद्भेदयोर्नव्यनैयायिक्रमते, प्राचीन नैयायिक मते कपि संयोगतदभावयोरेकत्र वृक्षे यथाऽवच्छेदकभेदेनावस्थानं, तथा स्वद्रव्यादिपरद्रव्यावच्छेदकभेदेनैकत्र घटे सच्चासच्चयोरवस्थानमित्युपपादितम् । ५ अनुमानेन सच्चादिधर्माणामव्याप्यवृत्तित्वसिद्धौ तदन्यथानुपपच्या स्वद्रव्यादीनामवच्छेदकत्वकल्पनं युक्तम् ।
६ अतिप्रसङ्गनिवारकानुभवचलेन स्वद्रव्यादीनां प्रतिनियतानां सच्चादिधर्मावच्छेदकत्वव्यवस्थापनम् ।
७ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावपरत्वेन द्वितीयभङ्गस्य समर्थनं, निरुक्ताभावाभ्युपगमः शिरोमणेरपि तत्र “ अव्याप्यवृत्तिगुणि भेदमुदीर्य " इति खण्डखाद्यपद्यं तम्प्रति शिक्षावचनं संवादकम् ।
પ્ર
१४७-१३
१४७-२४
१४७-२९
१४८-४
१४८-१०
१४८-२१
१४८-२५
१४९-११
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________________
३४
अङ्काः
विषयाः
८ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वे द्वितीयभङ्गवैयर्थ्याशङ्का
प्रतिक्षिप्ता ।
९ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगितानिरूपकाभावबोधकत्वेन द्वितीयभङ्गसमर्थनम् ।
१० परद्रव्याद्यवच्छेदेन घटेऽसत्व - प्रतियोग्यनवच्छेदकावच्छेदेन घटेऽसच्च-व्यषिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव-व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिता निरूपकाभावविषयकत्वेन द्वितीयभङ्गस्य पक्षचतुष्टये यथा प्रथमभङ्गद्वितीयभङ्गजन्ययोर्न विरोधस्तथोपपादितम् ।
१५०-३
११ द्वितीयभङ्गस्यानेकप्रकारेणोपपादनेऽपसिद्धान्तत्वप्रसङ्गाशङ्काया अपाकरणम् । १५०-२० १२ स्यादवक्तव्य एवं घट इति तृतीयभङ्गोपपादनाय युगपत्सच्वासत्त्वोभयस्य प्राधान्यविवक्षायां तत्प्रतिपादकं समासवाक्यं विग्रहवाक्यं च न विद्यते इत्येकैकं समासमुपादायोपदर्शितम् ।
पृ० पति:
१९ नामादिचतुष्टयप्रकारेषु प्रतिनियतस्थापनासंस्थानरूपेण घट इतरेणाघटः, युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवक्तव्य इति तृतीयप्रकारः ।
१४९-२३
"Aho Shrutgyanam"
१४९-२९
१३ तृतीयभङ्गघटकस्यात्पदैवकारयोः प्रयोजनमुपदर्शितम् । १४ तृतीयभङ्गनैफल्याशङ्का प्रतिक्षिप्ता ।
१५ स्वद्रव्यादीनां सत्त्वस्य परद्रव्यादीनाञ्चासत्त्वस्यावच्छेदकत्वाभावात् सचादिधर्माणामखण्डानां सावच्छिन्नत्वाभावादुक्तदिशा प्रथमद्वितीयभङ्गयोरभावे तृतीयादिभङ्गानामप्यभावात्कथं सप्तभङ्गी सम्भव इत्याशङ्का प्रतिविहिता, अनुभवानुरोधादधिकरणस्याप्यवच्छेदकत्वं सावच्छिन्नत्वञ्चाखण्डधर्मस्यापीतिप्रतिपादनेन ।
१५२ -- १
१६ स्यादवक्तव्य एव घटइति तृतीयभङ्गभावना पुनरपि शिष्यबुद्धिदाढर्थाय कृता । १५२-२८ १७ सर्व सर्वात्मकमिति साडूख्यमत प्रतिक्षेपाय द्वितीयभङ्गोपादानमित्येवं दिशावक्तव्यत्वस्य षोडश प्रकारा दर्शिताः, तत्र सादूख्यमतनिरासाय युगपत्सच्चाविवक्षयाऽवक्तव्यत्वं प्रथमः ।
१५०-२२
१५१-२१
१५१-२४
१८ घटस्य नामस्थापनाद्रव्यभावभेदेन चातुर्विध्ये तत्र विधित्सितरूपेणास्तित्वाविधित्सितरूपेण नास्तित्व- युगपत्तदुभयरूपेणावक्तव्यत्वेत्येवं कल्पनया द्वितीयः प्रकारः, तत्राक्षेपपरिहारानुपदर्शितौ ।
ताभ्यां
१५३-२३
१५३-२६
१५४-१६
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________________
३५
अङ्गाः
विषयाः
२० संस्थानविशेषरूपेण स्वीकृते घटे पृथुबुध्नोदरादिसंस्थानं निजं रूपं मध्यावस्थितं तेन रूपेण घटः, पूर्वोत्तरावस्थितकुशूलकपालादिलक्षणार्थान्तररूपेणाघटः, युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवाच्य इति तुरीयः प्रकारः ।
२१ मध्यावस्थारूपे घटे वर्त्तमानक्षणरूप निजरूपेण घटः सन्निति, अवर्तमानक्षणस्वरूपार्थान्तरेणाऽसन्निति प्रथमद्वितीयभङ्गा, ताभ्यां युगपत्प्रधानतया विवक्षि ताभ्यामवाच्य इति पञ्चमः प्रकारः ।
१५५
२२ क्षणपरिणतिरूपघटस्य चाक्षुषप्रत्यक्षविषयत्वं निजं रूपं तेन सच्चम्, अन्येन्द्रियजप्रत्यक्षविषयत्वेनार्थान्तरेणासत्त्वं ताभ्यां प्रथमद्वितीयौ युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवाच्यत्वमिति षष्ठः प्रकारः ।
१५४-२४
पृ०
२३ चाक्षुषप्रत्यक्षविषये घटे निजेन घटशब्दवाच्यतारूपेण सत्वात्प्रथमः, अर्थान्तरेण कुटादिशब्दवाच्यत्वेनासत्त्वाद् द्वितीयः, ताभ्यां युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवाच्यत्वात् तृतीय इति सप्तमः प्रकारः ।
२४ घटशब्दाभिधेयस्य घटस्य निजेनोपादेयान्तरङ्गेोपयोगरूपेण सत्वात्प्रथमः, अर्थान्तरेण हे बहिरङ्गानुपयोगरूपेणासत्त्वाद्वितीयः, ताभ्यां युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवाच्यत्वा तृतीय इत्यष्टमः प्रकारः ।
१५५-१३
१५५-२४
१५६-९
२५ उपयोगस्वरूपघटे अभिमतार्थावबोधकत्वेन निजरूपेण सत्त्वात्प्रथमो भङ्गः, अनभिमतार्थावबोधकत्वलक्षणार्थान्तररूपेणासत्वाद् द्वितीयो भङ्गः, युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यां ताभ्यामवाच्यत्वात्तृतीयो भङ्ग इति नवमप्रकारः ।
"Aho Shrutgyanam"
१५६-१८
२६ असाधारणेन निजरूपघटत्वेन घटस्य सच्चात्प्रथमः साधारणेनार्थान्तरसत्वेन घटस्यासत्वाद् द्वितीयः, युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यां ताभ्यामवाच्यत्वा तृतीय इति दशमः प्रकारः ।
१५६-३०
२७ प्रतिक्षणमन्यान्यपरिणतिलक्षणार्थपर्यायेण निजेन घटस्य सत्त्वात्प्रथमः, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तघटत्वात्मकव्यञ्जनपर्यायेणार्थान्तरेणासवाद् द्वितीयः, अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽवाच्यत्वा तृतीय इति एकादशप्रकारः !
२८ समर्थान्तरभूतं विशेषवदेकत्वेनानन्वयित्वान्न शब्दवाच्यमिति घटोऽपि तेनावाच्यः, अन्त्यविशेषो निजं रूपमनन्वयित्वादवाच्य इति प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामवाच्याभ्यां घटोऽप्यवाच्य इति तृतीय इति द्वादशप्रकारः ।
१५७-१७
१५७-२७
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________________
विषयाः
पृ० पतिः २९ साङ्ख्यमते ऐक्यपरिणतिमनापन्नाः सत्त्वादयो गुणा असन्द्रतरूपा अर्थान्तरं ।
ते विशेषणाभावाद्विशेष्याभावाद्वाऽवाच्यमिति प्रथमः, ऐक्यपरिणतिमापन्नाः सन्द्रुतरूपा निजं तथापि पूर्ववदवाच्यमिति द्वितीयः, ताभ्यामवाच्याभ्यां
युगपद्विवक्षिताभ्यामवाच्य इति तृतीयः, इति त्रयोदश प्रकारः।। १५८-३ ३० असंहतरूपा रूपादयोऽर्थान्तरं संहृतरूपत्वं निजं, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्य . इति चतुर्दशप्रकारः ।।
१५८-२३ ३१ घटो रूपादिमानित्यत्र रूपादयोऽर्थान्तरभूताः, मतुबर्थों निजः, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्य इति पञ्चदशप्रकारः ।
१५९---३ ३२ बाह्योऽर्थान्तरशूतः, उपयोगस्तु निजः, ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्य इति । - षोडशप्रकारः। ३३ पोडशाऽवक्तव्यविकल्पेषु मध्ये एकादशसु विकल्पेषु प्रथमद्वितीयभङ्गानन्तरम
वक्तव्यभङ्गप्रवृत्तिः, द्वादशादिषु पञ्चसु प्रथमत एवावक्तव्यमङ्गप्रवृत्तिः, तत्रोपाध्यायस्य विचार आवेदितः।
१५९-१५ ३४ अत्र पशुपालोक्तस्य प्रथमद्वितीयभङ्गप्रवृत्तिमूलस्वपररूपावच्छेदका निर्धारणाक्षेपस्य प्रतिविधानम् ।
१५९-२३ ३५ तत्र नयविशेषेण स्वपररूपयोः सङ्कोचविकाशयोरुपजीवनेन सप्तभङ्गोप्रवृत्तेरुपपादनं यशोविजयोपाध्यायैर्विस्तरतः कृतम् ।
१५९-२५ ३६ सङ्ग्रहनयविषयस्य महासामान्यरूपसत्वस्य तत्प्रतिपक्षभूताऽसत्त्वस्य च व्यवहा
रनयविषयस्य चाखण्डत्वात्सावच्छिन्नत्वाभावेन स्वद्रव्याधवच्छिन्नसत्त्वप्रतिपादकप्रथमभङ्गस्य परद्रव्याचवच्छिन्नाऽसत्यप्रतिपादकद्वितीयभङ्गस्य च बाधितार्थकत्वात्तदन्यभङ्गान्तराणामपि तथात्वात्सप्तभङ्ग्यनुपपत्तिरित्याशङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
. १६०-१३ ३७ सर्वस्य वस्तुनः सदसदात्मकत्वे सत्ताया इव असत्ताया अपि सर्वगतत्वैकत्वा
विशेषात्सत्तकैव, असत्ता तु विशेषणभेदाद्भिद्यत इतिप्राचीनोक्तिः कथं सङ्गतेति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
१६१-१८ ३८ अस्तित्वं सत्त्वमेव, न तु वृत्तित्वं, सत्वप्रतिपक्षभूतं नास्तित्वमपि धर्मान्तरमेवे
त्युपपाद्य प्रथमद्वितीयभङ्गजन्यानेकबोधप्रकारः समभिव्याहृतपदमहिम्ना दशितः ।
१६२-१
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________________
अकाः विषयाः
पृ० पनि ३७-१ "अह देसो सम्भावे" इति सप्तत्रिंशत्तमगाथायाः क्रमेणावतरणत्रयमुपदर्शितम्। १६३-१ २ विकलादेशभङ्गचतुष्टयप्रथमभङ्गस्य स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव घट इत्यस्योपदर्शनरूपोऽर्थोऽस्या गाथाया दर्शितः।
१६३-२३ ३ पूर्वार्द्धन क्रमार्पितसत्त्वास-त्वोभयं वस्त्ववयवस्य प्रतिपादितं, पृष्टश्च तद्वस्तुगतमि
त्यर्थान्तरमिति शङ्कायाः प्रतिविधानार्थकतयोत्तराद्धोऽवतारितः। १६३-२६ ४ सत्त्वासत्त्वोभयप्रधानकावयवद्वयाऽभेदेनार्पणया द्रव्यस्योक्तधर्मवन्यमिति
भावितम् । ५ आधद्वितीयभङ्गाभ्यां तुरीयभङ्गे को विशेष इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १६४-१४ ६ अवयवद्वारा विभागकरणे किं बीजमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
१६४-१७ ३८-१ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्य एवेति पञ्चमभङ्गप्रतिपादकतया "सब्भावे आइट्ठो" इति अष्टत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
__ १६४-२४ २ देशगताऽस्तित्वावक्तव्यत्वाभ्यां देशाऽभिन्नत्वेन वस्तुनि अस्तित्वावक्तव्यत्वकथनलक्षणरूपार्थोऽस्या गाथाया दर्शितः ।
१६४-२८ ३. उत्तरार्द्धमवतार्योक्तोभयधर्माक्रान्तदेशद्वारेण देशिनो वस्तुनस्तथा व्यपदेश उपपादितः ।
१६५-५ ४ प्रथमतृतीयभङ्गाभ्यामेतद्भङ्गस्य गतार्थत्वमाऽऽशङ्कय प्रतिविहितम् । १६५-१० ५ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्य एवेति पञ्चमभङ्गेन शक्त्या देशास्तित्वविशिष्ट
देशावक्तव्यत्वविशिष्टयोस्तादात्म्येन वैशिष्टयान्वयबोधासम्भवेऽपि लक्षणया बोध उपपादितः।
. १६५-१७ ३९-१ स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्य एवेति षष्ठभङ्गप्रतिपादकतया “आइट्ठोऽसम्भावे" । इत्येकोनचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता।
१६५-२४ २ अस्या गाथाया अर्थः, देशगतनास्तित्वावक्तव्यत्वाभ्यां वस्तुनस्तथाव्यपदेश इत्येवंरूप आवेदितः।
१६५-२८ ४०-१ स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्य एवेति सप्तमभङ्गप्रतिपादकतया
"सब्भावासबभावे” इति चत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता तदर्थश्वोपदर्शितः। १६६-६ २ सप्तभङ्गसमुदायगतं प्रत्येकभङ्गगतश्चेति द्विधा सप्तभङ्गीत्वं द्विधा सुनयत्वं च प्ररूपितम् ।
१६६-१६
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________________
३८
अतः
विषयाः
३ स्यादस्तीत्यादेः प्रमाणवाक्यत्वं, तत्र प्रथमभङ्गात् प्रकारमुद्रया सकलधर्मावगतिः संसर्गमुद्रया च सकलधर्मावगतिरिति पक्षद्वयमुपपादितम् । ४ स्थानास्त्येवेत्यादिद्वितीयादिभङ्गजन्यबोधेऽपि प्रकारमुद्रा संसर्गमुद्रया चानन्तधर्मात्मकत्वभानमतिदिष्टम् ।
५ एतद्विषये यशोविजयोपाध्यायैरष्टसहस्रीविवरणे यद्विवेचितं तदुल्लिखितं, तत्र बोधवैलक्षण्यं दुर्नयनयस्वरूपादि च वर्णितम् ।
१६६-२१
१६७ – १
६ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेत्यादि सप्तभङ्गीवत्स्यान्नित्यमेव स्यादनित्यमेवेत्यादि सप्तभङ्गी ज्ञेयेत्यतिदिष्टम् ।
पृ० पि
७ अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि प्रतिपर्यायं सप्तैव भङ्गा इत्यत्र किं बीजमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
१६७-३
१६७-१९
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१६७-२६
८ स्याद्वक्तव्य एवं घट इत्यष्टमभङ्गः किन्न स्यादिति शङ्काया निराकरणम् । १६८-७. ९ सप्तभङ्गीजन्याखण्डशाब्दबोध इवान्यज्ञानेऽपि सप्तधर्मावभासो न वेति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
१६८-१६
१६८-२०
१० स्याद्वादव्युत्पन्नस्य प्रत्यक्षादिज्ञानेऽपि सप्तविधधर्मप्रतिभासे “पर्यायतो युगपदप्युपलब्धभेद" इति महावीरस्तवपद्यं संपादकतया दर्शितम् । ११ स्याद्वादव्युत्पत्तेः शाब्दबोध एवोपयोगो नान्यत्रेति शङ्कायाः प्रतिविधानम् । १६८ - २७ १२ किं वाक्यं पूर्णोत्तरं किञ्चांशोत्तरमिति प्रश्नस्य किमुत्तरमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १६९-९ १३ सप्तभङ्गजन्यक्रमिकसप्तखण्ड बोधानन्तरं सप्तभङ्गन्यात्मकमहावाक्यजन्यमहावाक्यार्थ- बोधो भवतीति काममभ्युपगम्यतां, किन्तु सप्तविधबोधक्रमे को हेतुरिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
१६९-१९
१४ पूर्वपूर्व भङ्गजन्य बोधानामुत्तरोत्तरभङ्गजन्यबोधम्मति कारणत्वेन कारणक्रमात्कार्यक्रम इत्यत्र खण्डखाद्ये उपाध्यायवचनसंवादो दर्शितः ।
१५ तृतीयचतुर्थभङ्गयोर्व्यत्यासमिच्छतां देवसरीणां सूत्रद्वयमुपदर्श्य तदनुसारि सप्तभङ्गीवाक्यं पुर्णोत्तरमुपाध्यायाकलितमुपदर्शितम् ।
१६ सप्तभङ्गयाः प्रतिभङ्ग सकलादेशस्वभावत्वं विकलादेशस्वभावत्वं च तत्र "कालात्मकरूपसम्बन्धा" इति पद्योक्तकालादिभिरष्टभिर्द्वा रेरेकैकभङ्गस्य स्वमतिपाद्यधर्माभिन्नान्यधर्मप्रतिपादकत्वे तदन्यभङ्गस्यापि तत्प्रतिपादितधर्मस्यैव
१६९-२७
१७० - १
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________________
३९
अङ्काः
विषयाः प्रतिपादकत्वे पौनरुक्त्यं स्यादित्याशङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
१७ सकलादेशमहिम्नैकभङ्गस्य वस्तुनि स्वप्रतिपाद्यैकधर्मद्वारा तदभिन्नतदितराशेषधर्मप्रतिपादकत्वेऽपि निमित्तभेदविवेचनं सप्तभङ्ग्यैवेत्यत्र खण्डखाद्यवचनसंवादो दर्शितः ।
१८ अस्तित्वनास्तित्वादिवत्कारणत्वतदभावयोरव्याप्यवृत्तित्वं निष्टङ्कितम् । १९ अपेक्षाभेदेन विरोधपरिहारः कृतः ।
४१-१ सप्तभङ्गयां येन नयेन यस्य भङ्गस्य प्रवृत्तिस्तत्प्रदर्शनपरतया "एवं सत्तवियप्पो" इत्येकचत्वारिंशत्तमगाथावतरणम् ।
पृ० पं. १७०-१६
-२० अन्याशानि विरोधलक्षणान्यपाकृत्य तादृशं विरोधलक्षणमुपदर्शितं यस्य विभिन्नावच्छेदेनैकत्र भावाभावयोः सत्त्वेऽपि न भङ्ग इत्युपदर्शितम् । २१ स्याद्वादनियन्त्रिताऽपि कारणता सप्तभङ्गीमुपादायैव सम्भवतीति दर्शितम्, तत्र "सप्तभङ्गी विधि" इत्यादिप्राचीनोक्तिः संवादकतयाऽभिहिता । २२ कार्यकारणभावग्राहकयोरन्वयव्यतिरेकयोः कथञ्चिदर्थाऽघटितत्वात्कथं कारणतात्वव्यापकत्वं स्याद्वादस्येति शङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
२३ एकेन भङ्गेन कारणत्वे कथञ्चित्तत्त्वसिद्धौ किं तत्र सप्तभङ्गीकल्पनयेति शङ्कायाः प्रतिविधानम्, तत्र खण्डखाद्यवचनं संवादकं दर्शितम् ।
२४ सप्तभङ्गीजन्यज्ञाने विरोधाभावान्न संशयत्वमिति दर्शितम् । २५ सप्तभङ्गीजन्यज्ञाने संशयत्वापाकरणेन सप्तभङ्गीतः सप्तधाऽनिर्धारितज्ञानमिति वदतः शिरोमणेः स्याद्वादानभिज्ञता प्रकटिता खण्डरवाद्ये उपाध्यायेन, तद्ग्रन्थाभिप्रायश्रावेदितः ।
२६ शिरोमण्युक्ताक्षेपखण्डनयुक्त्या सप्तभङ्गत्यादिखण्डनपरं " नैकस्मिन्नसम्भवात् " । इति शारीरकमीमांसासूत्रं खण्डितम् ।
२७ एकस्मिन् वस्तुनि एकपर्यायमाश्रित्य विधिनिषेधकल्पनाभ्यां व्यस्तसमस्ताभ्यां सव भङ्गाः, ततः सप्तभङ्गथेव, एवंविधा अनन्ताः सप्तभङ्गा इति अनन्तसप्तभङ्गभावेऽपि नानन्तभङ्गीत्यत्र देवसूरिमूत्राणि संवादकानीति दर्शितम् १७३--१२ २८ एकेन भङ्गेन समासतः सप्तधर्मप्रतिपत्तावपि विशेषतस्तत्प्रतिपत्तये सप्तभंगप्रयोTerratear ष्टान्तावष्टम्भेन भाविता ।
१७३-१९
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१७१-२
१७१–३
१७१-६
१७१--९
१७१-२२
१७१-२४
१७२-२
१७२-८
१७२-१७
१७३-६
१७३-२९
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________________
४०
विषयाः
पृ. पं. २ सङ्ग्रव्यवहार सूत्रलक्षणेऽर्थनये सप्तापि भङ्गाः, तत्र प्रथमभङ्गः सङ्ग्रहे, द्वितीयभंगो व्यवहारे, तृतीयभङ्ग ऋजुसूत्रे, चतुर्यः सङ्ग्रहव्यवहारयोः, पञ्चमः सङ्ग्रहर्जुसूत्रयोः, षष्ठोव्यवहार सूत्रयोः, सप्तमः सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रेषु, एतद्भावना विहिता।
१७४-३ ३ साम्प्रताख्यशब्दनये सविकल्पः प्रथमभंगः, समभिरुदैवम्भूताख्यशब्दनययोनिर्विकल्यो द्वितीयभंगः, तद्भावना कृता ।
१७५-९ ४ शब्दविषये शास्त्रे व्युत्पत्तिपक्षोऽव्युत्पत्तिपक्षश्च, तत्राव्युत्पत्तिपक्षे सर्वे शब्दाः सिद्धा
एव, व्युत्पत्तिपक्षे च धातुना व्युत्पादनीयाः, तत्र 'नाम च धातुजमाइ निरुक्ते' इति पद्यं तद्विवरणं च, 'संज्ञासु धातुरूपाणि' इति पद्यसंवादश्च । ५ समभिरूढनयमतेनैमित्तिक्येव संज्ञा नपारिभाषिकी, अत्र तत्त्वार्थवचनसंवादः।१७६-५ ६ समभिरूद्वैवम्भूतनययोःव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियामात्रप्रवृत्तिनिमित्तकत्वेऽपि मन्त'व्यभेद उपपादितो विस्तरतः ।।
२७६-१० ७ एवम्भूतनयनिष्कृष्टलक्षणं दर्शितम् ।
१७६-२६ ८ शब्दनयेऽपि क्रमेण सप्त भंगा उपदार्शताः।
१७६-२८ ९ अर्थनये सप्तापि भंगाः, शब्दनये प्रथम द्वितीयौ द्वावेव भंगावित्येवं प्रकारान्तराश्रयणेन गाथाऽवतरणम् ।
१७७-२ १० द्वितीयव्यारव्यानभावोपवर्णनम् , सप्तभंगीप्रकरणसमाप्तिः।
१७७-८ ११ सप्तभंगीनिगमनपरं पद्यद्वयम् ।
१७८-१ ४२-१ एकान्तपर्यायार्थिकनयवादप्रदर्शनपूर्वकतदप्रामाण्यप्रदर्शनपरतया "जह दवि__ यमप्पियं तं" इति द्विचत्वारिंशत्तमगाथाया अवतरणम् ।
१७८-९ २ वर्तमानक्षणसम्बन्धित्वप्रकारेणैव द्रव्यं सदिति पर्यायार्थिकनयाभिप्रायः न स वादो यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्ररूपणात्मकः प्रत्यभिज्ञाबाधितार्थकत्वात् , प्रमाणात्मको या न प्रतिपूर्णसमयप्रज्ञापनाऽनात्मकत्वादित्यनुमानेन तत्राप्रामाण्यमित्युक्तगाथाऽर्थों दर्शितः।
१७८-१४ ४३-१ एकान्तद्रव्यार्थिकनयबादस्याप्रामाण्यमुपदर्शयितुं पाक तदभिप्रायावेद
कतया "पडिपुण्णजोबणगुणों" इति त्रिचत्वारिंशत्तमगाथावतरणम् । १७९-१७ २ बालभावचरितेन यूनो लज्जा अनागतसुखोपधानार्थ गुणेषु प्रणिधानं चाती.
तवर्तमानयोरनागतवर्तमानयोरेकत्वं साधयतीत्येकान्तद्रव्याथिकनयविषयस्तस्या अर्थों दर्शितः।
१७९-२१
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________________
४१
अङ्काः
विषयाः
१८०-४
४४ - १ अनन्तरगाथादर्शितैकान्तद्रव्यार्थिकन य मतप्ररूपणा न परिपूर्णेति प्रतिपादनपरतया "ण य होइ जोव्वणत्थो" इति चतुश्चत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता । २ बालयूनोनं सर्वधाऽभेदो नापि सर्वथा भेदः, किन्तु तयोः कथञ्चिद्भेदाभेद इति तदर्थो दर्शितः ।
१८०-८
३ नित्यस्यैकस्यात्मनो न बालाद्यवस्था किन्तु शरीरस्यैवेति नैयायिकादीनां मतमुपन्यस्य प्रतिक्षिप्तम् ।
१८०-२४
४. गौरोऽहमिति प्रतीतेर्गौरत्यांशे भ्रान्तत्वस्य नैयायिकाद्यभिमतस्यापाकरणम् । १८१-२ ५ स्वस्वभावतो नीरूपे आत्मनि शरीरसम्बन्धोपाधिप्रयुक्तगौरत्वप्रतीतिः काल्पनिकीत्याशङ्काया निराकरणम् ।
६ आत्मा नैकान्तेन नित्यः, किन्तु कथञ्चित् तस्याख्येयप्रदेशस्य शरीरेण सह मिथः- प्रदेशानुषक्तत्वेनै कलोलीभावतो बालाद्यवस्थोपपत्तिः । ७ अतीतवर्तमानयोरिवानागतवर्तमानयोरपि कथश्चिद् भेदाभेदावित्यनागतवयोगुणप्रसाधनं युज्यत इति ।
४५-१ कथञ्चिद् भेदाभेदात्मकस्यात्मनो जात्यादिभिर्वालादिभिश्व सम्बन्ध इत्यर्थकतया "जाइकु" इत्यादि पञ्चचत्वारिंशत्तमगाथाया अवतरणं, तदर्थवोपपादितः । १८२–१ ४६ - १ आध्यात्मिकाध्यक्षतोऽप्यनुगतव्यावृत्तस्वरूपतयाऽऽत्मनः कथञ्चिद् भेदाभेदात्मकत्वप्रतीतेस्तथाभूतमेव तद्वस्त्वित्यर्थकतया " तेहिं अतीताणागय " इति षट्चत्वारिंशत्तमगाथावतरणम् ।
专
पृ० पं
२ अतीत दोषजुगुप्साऽनागतगुणाभ्युपगमाभ्यां : कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकस्य पुरुषद्रव्यस्येव बन्धमोक्षसुखदुःखप्रार्थनातो जीवस्य कथञ्चिद्भेदात्मकस्य सिद्धिरित्युक्तगाथार्थस्तदुपपादनञ्च ।
३ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति सूत्रोक्तसत्त्वान्यथानुपपच्योत्पादादित्रयात्मकस्यात्मनोऽनाद्यनन्तस्य सिद्धिरुपपादिता ।
४ तत्र देहादीनामहम्पदवाच्यत्वमपाकृतम् ।
४७-१ सदृष्टान्तं जीवकार्मणशरीरयोरसाधारणधर्मेण भेदस्य प्रदेशाप्रविभक्तत्वलक्षणसाधारणधर्मेणाभेदस्य च प्रतिपादकतया " अष्णोष्णाणुगयाणं" इति सप्तचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२ परस्परप्रदेशानुप्रविष्टयोर्दुग्धपानीययोखि
परस्परानुप्रविष्टप्रदेशयोरात्मकर्म
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१८१-१०
१८१-१३
१८१-१७
१८२-२४
१८२-२८
१८३-२०
१८३ – २१
१८४-१२
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४२
अङ्काः
विषयाः
णोरशेष विशेषपर्यायेषु विभजनमयुक्तमित्यर्थं उपदर्शितः, अत्र “एगमेगेणं जीवस्स" इत्यागमश्च संवादितः ।
४८ - १ जीवकर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशे तदाश्रितगुणानामप्यन्योन्यानुप्रवेशस्स्यादित्यापरिष्टापत्तिलक्षणपरिहारपरतया " रुवाइपअवा जे " इत्यष्टचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
त्याशङ्काया अपाकरणम् । तत्र घटाद्युत्पत्तौ नैयायिक प्रक्रिया निराकृता । ५ मुद्द्रव्यमेत्र पूर्वतनं मृत्पिण्डपर्यायं परित्यज्योत्तरघटपर्यायरूपेण परिणमते इति परिणामवादः प्रामाणिकः ।
पृ० पं.
१८४ - १७
२ देहगतगुणा रूपादयो देहाभिन्ने जीवे, जीवगतगुणा ज्ञानादयो जीवाभिन्ने दे प्रज्ञापनीया इति तदर्थ उपदर्शितः ।
१८५–६
१८५-१७
३ भवत्थम्मि इत्यत्राकारमश्लेषे अभवस्थे मुक्तात्मनीत्यर्थे कथं देहाश्रितगुणानां मुक्ते मुक्ताश्रितगुणानां देहे सम्भव इत्याशङ्कायाः समुद्धारः । ४९ १ आत्मन एकत्वानेकत्वप्रसाधनपरतया " एवं एगे आया" इत्येकोनपञ्चाशत्तमगाथाsaarरिता |
२ एकात्मानुप्रविष्टत्वेनैकात्माऽभिन्नस्य मनोवचनकायदण्डात्मकत्रिविधदण्डस्यैकात्माऽभिन्नाया मनोवचनकायक्रियात्मकत्रिविधक्रियायाश्चैकत्वं त्रिविधोक्तक्रियाऽभिन्नत्वेन चात्मनः कर्तुस्त्रिविधयोगरूपत्व, अत एव तस्यानेकत्वमित्येकाsनेकात्मकत्वम्, 'एगे आया' इत्यादिस्थानासंवादितमित्युक्तगाथार्थः । १८६–१ ५० -१ समये वस्तुतो बाह्यान्तरविभागाभावेऽपि मानसत्वामानसत्वाभ्यां तथा व्यपदेश आत्मपुद्गल योरन्योन्यानुप्रवेशादेकत्वेऽपीत्येतत्परतया 'ण य बाहिरओ भावो' इति पञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता तदर्थश्च ।
१८६-१४ १८६-२७
२ मनः प्रतीत्याभ्यन्तरविशेष इत्युक्तेरभिप्रायो दर्शितः ।
३ आत्मनो मूर्त्तत्वे उत्पत्तिमत्व- सावयवत्व- कार्यत्वापादनानामपाकरणम् । १८७-१ ४ आत्मनः सावयवत्वे प्राक् प्रसिद्धसमानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिस्स्यादि
१८७-१२
१८५ - १
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१८५-२८
६ यत्र सूव्यग्रेण त्रिचतुरादिपरमाणुविश्लेषस्तत्रापि परिणमनमेव युक्तं, न तु नैयायिक प्रक्रिया युक्ता, तथा सति बौद्ध एव विजयेतेति ।
१८७-१६
१८७-१८
७ तत्र घटनाशाऽनभ्युपगन्तृमीमांसकमतस्य निरासः ।
१८७-२५
८ देहात्मनोरभेदे देहवदात्मनश्चाक्षुषापत्तिरित्याशङ्काया अपाकरणम् ।
१८७-३०
९ शरीरावयवच्छेदे तत्प्रविष्ट छिन्नात्मावयवे पृथगात्मत्वप्रसक्त्यादिदोषापाकरणम् । १८८–४
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४३
अहाः
विषयाः १० छिन्नात्मावयवस्यान्यत्र गमनादिकमपाकृतम् , उक्तार्थे पश्चमाङ्गेऽष्टमशतके तृती
योद्देशके 'अह भंते ? कुम्मे कुम्मावलिया" इत्यादि वचनं संवादकम् । १८८-१० ११ प्रदेशानां शृङ्खलावयवन्यायेन सम्बद्धत्वादेव चैकस्य महद्धिकदेवस्य परस्परं सनामकरणं, तत्र "देवणं भंते" इत्याद्यागमवचनं प्रमाणम् ।
१८८-२४ १२ शरीरावयवच्छेदात्मावयवच्छेदयोर्विशेष आवेदितः ।
१८९-१ १३ आत्मनो नित्यमहत्त्वाऽसिद्धया तेन गगनवद्विभुत्वानुमानमपाकृतम् । १८९-१२ १४ तत्तच्छरीरपरिमाणभेदेनात्मनः परिमाणभेदाभ्युपगमे नानात्वापत्तिरित्याशङ्का व्यपाकृता ।
१८९-१३ १५ पूर्वपरिमाणविशिष्टस्यात्मन उत्तरपरिमाणविशिष्टस्य च भेद इष्ट एवेति व्युत्पादनम् ।
१८९-२१ १६ बालयुक्शरीरादेरिवात्मन उत्पादः स्यादित्यस्य निरासः । १८९-२३ १७ देहात्मनोरन्योन्यानुप्रवेशित्वे देहस्य भस्मसाद्भावे देहिनोऽपि तथात्वप्रसङ्ग
इत्यस्य व्यभिचारदोषप्रदर्शनेनापाकरणम् , देहात्मनोर्लक्षणभेदश्च दर्शितः। १८९-२९ १८ देहात्मनोरन्योन्यानुप्रवेशित्वेऽप्याकाशवदात्मनो न शरीरपरतन्त्रतेत्यस्य निरासोऽन्योन्याश्रयपरिहारश्च ।
१९०-२ १९ आभवक्षयमात्मनो जन्मनः प्रागपि तैजसकामणशरीरसम्बन्धित्वेन तद्द्वारा रूपित्वेनारूपित्वप्रसङ्गस्यापाकरणम् ।
१९०--७ २० आत्मनः कथञ्चिन्मू मूनॊभयस्वरूपत्वं निगमितम् ।
१९०--९ ५१-१ एकान्तद्रव्यार्थिकनयैकान्तपर्यायाथिकनयमरूपणाप्रदर्शकत्वेन 'दबट्ठियस्स __ आया' इति एकपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता ।
१९०-१२ २ द्रव्यास्तिकस्यात्मा कर्म बध्नाति कर्मफलश्चानुभवति, पर्यायास्तिकस्य क्षणिक
विज्ञानात्मक एवात्मा न करोति न किञ्चिद्वेदयते इत्यर्थः स्पष्टीकृत्य दर्शितः।१९०-१६ ५२-१ द्रव्यास्तिकमते य एव कर्म कर्ता स एव तत्फलभोक्तेति, पर्यायास्तिकमते
कर्ताऽन्यो कर्म तत्फलभोक्ता चान्य इत्येतत्प्रतिपादकतया "दबहियस्स जो चेव"
इति द्विपश्चाशत्तमगाथाऽवतारिता तदर्थश्च प्रकटीकृतः । ५३-१ 'जे वयणिअवियप्पा' इति त्रिपञ्चाशत्तमगाथावतरणं, तत्र द्रव्यास्तिकनये
एकान्तनित्यात्मनि बहुविधविकल्पतः कर्मकर्तृत्वस्वभावः कर्म फलभोक्तृत्वस्वभावश्च नोपपद्येते, एवं पर्यायास्तिकनयमते चैकान्तक्षणिकात्मनीति परस्पर
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४४
अहरा
विषयाः निरपेक्षनयद्वयोक्तिने युक्तेति न सा स्वसमयप्ररूपणा, किन्तु परस्परसापेक्षतत्तप्रयापेक्षसप्तभङ्ग्यात्मकस्थाद्वादोक्तिरेव युक्ता, सैव स्वसमयपरूपणेति निरूपणम् ।
१९१-१६ २ एकान्तद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययुक्तीनां पर्यायाथिकद्रव्याथिकनयव्युत्पादिता
सत्यत्वसाधनप्रगल्भानां नैकत्र क्वचन पक्षपातो युक्तः किन्तु स्याद्वादेनोभयोपग्रहः कर्तव्य इति प्रतिपादनपरतया द्वितीयाऽवतरणम् ।
१९२-३ ३ अन्योन्यसापेक्षयोच्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोः स्यान्मृत एवात्मा स्यादमूर्त एवात्मेत्यादयः सप्तभङ्गात्मका वचनप्रकाराः, ते यथार्थबोधजनकत्वात्स्वसमयप्ररूपणा स्वतन्त्रनयद्वयप्ररूपणा च तीर्थकरस्याशातनेत्युक्तगाथार्थः ।
१९२-१० ४ उत्सर्गतः स्याद्वाददेशनायास्तीर्थकरविहितत्वे "संकेज याऽसंक्तिभाव भिक्खू" इत्यादिसूत्रकृताङ्गचतुर्दशाध्ययनोक्तगाथायां विभजवायं च वियागरेजा इत्युक्ति प्रमाणम् ।
१९२-२६ ५ कालिकश्रुते नयाख्या न कर्तव्येति कथमुक्तमिति प्रश्नप्रतिविधानम् । १९२-३०
६ नयव्याख्याया अनुमतत्वे 'भासिञ्ज वित्थरेणवि' इति भाष्यगाथासंवादः। १९३-२ ५४-१ प्रथमकाण्डान्तिम "पुरिसज्जायं तु पडुच्च" इति चतुःपञ्चाशत्तमगाथावतरणं,
तत्रोत्सर्गतो निखिलनयज्ञ प्रतिपत्तारं प्रति परस्परसापेक्षनयद्वयोक्तिरूपप्रमाणवाक्यात्मिका स्याद्वादप्ररूपणा कर्तव्येति प्रतिपाद्यापवादतोऽन्यतरनयज्ञ तत्प्रियश्च श्रोतजनमुद्दिश्य तदज्ञातैकनयप्ररूपणाऽपि स्थाद्वादप्रतिपादनयोग्यता
जननी कर्तव्या, असत्ये वर्मनीति न्यायादित्युक्तगाथाप्रतिपाद्योऽर्थो दर्शितः।१९३-५ २ उक्तगाथार्थदर्शनपुरस्सरं एकनयदेशनायाः स्वरूपतोऽसत्यत्वेऽपि स्याद्वादव्युत्पादकतया फलतस्सत्यत्वमिति निगमितम् ।।
१९३-१५ १ अथ प्रशस्तिः, पइभिः कुलकं, सम्यग्दर्शनशुद्धिनिदान-सूक्ष्मतत्त्वरत्नपूर्णद्रव्यानु
पोगमयसम्मतितर्कग्रन्थविस्तीर्णाभयदेवमरिकृतव्याख्यानेऽल्पबुद्धयशक्यप्रवेशे तेषामवगाहनार्थ कृतायां सिद्धान्तानुगायां नौसमायामवतारिकारच्यवृत्ती अनल्पाईद्भव्यचैत्याप्रतिमशोभे राजनगरपुरे न्यायवाचस्पत्यादिविरुदालङ्कृतविजयदर्शनमुरिणा विद्वद्वर्गसंगीयमानानेकगुणनिकरस्य गुरुवरश्रीनेमिसरेः प्रभावात् त्रिखशून्ययुग्मे विक्रमाब्दे मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यामादिमकाण्डटीकेयं कृता पूर्ति गता गुणकानिचित्तेऽमन्दानन्दं विस्तारयत्वित्यर्थस्तस्य । १९४--२ ॥ सम्मतितर्कप्रथमकाण्डमहार्णवावतारिकारव्यटीकाविषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥
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अथ सम्मतितर्कद्वितीयकाण्डमहार्णवावतारिकारव्यटीकाविषयानुक्रमणिका विषयाः
पृ० पं. ५५-१ मङ्गलाचरणं श्रीवीरस्तुतिः ।
१९५-४ २ पद्यद्वयेन गुरुपवरश्रीनेमिसरिनमस्करणम् ।
१९५-६ ३ 'जं सामण्णग्गहणं' इति पञ्चपञ्चाशत्तमगाथावतरणम्, तत्रान्योन्यानुस्यूतसामान्यविशेषोभयात्मकं ज्ञेयं वस्तु "निर्विशेष हि सामान्य" इति वचनाद्यथा प्राक् प्रतिपादितं तयोपयोगोऽपि सामान्याकारदर्शन विशेषाकारज्ञानोभयात्मकः
प्रमाणम्, न त्वेकान्तभित्रदर्शनात्मको न वैकान्तभिन्नज्ञानात्मकः स इति । १९५-१० ४ सामान्यग्राहिदर्शनमेव प्रमाणमित्येकान्तद्रव्यार्थिकनयम त-विशेषग्राहिज्ञानमेव प्रमाणमित्येकान्तपर्यायार्थिकनयमतयोनिरसनम् ।
१९५-१९ ३ एतदुपदर्शकद्वितीयकाण्डस्य द्रव्याथिकपर्यायार्थिकाभिमतप्रत्येकदर्शनज्ञानस्वरूपप्रतिपादिका गाथेयमित्यवतरणार्थः ।
१९५-२१ ६ यत्सामान्यग्रहणं दर्शनं तद् द्रव्यार्थिकस्य मते, विशेषात्मकवस्तुविषयकं यद्ग्रहण
तज्ज्ञानं पर्यायास्तिकस्य मते, द्वयोरपि नययोः प्रत्येकमीग्भूतार्थग्राहकत्वमित्यर्थः।
१९६-१ ७. “कतिविहेणं भते उवओगे" इति प्रज्ञापनावचनेनोपयोगस्य साकारानाकाराभ्यां द्वैविध्यं,
साकरोपयोगो ज्ञानम्, अनाकारोपयोगो दर्शनम्, द्रव्यार्थिकनयेन दर्शनमात्रं प्रमाणं, पर्यायार्थिकनयेन ज्ञानमात्र प्रमाणमिति प्रत्येकनयार्पणा। १९६-१६ ८ "जं सामण्णपहाणं" इति धर्मसङ्ग्रहणीवचनादुभयनयार्पणया सामान्यप्रधानं विशेषोपसर्जन ग्रहणं दर्शनम् , विशेषप्रधान सामान्योपसर्जनं ग्रहणं ज्ञानं, तयोरुपयोगयोरुपसर्जनीकृततदितराकारयोः प्रामाण्य, न तु निरस्तेतराकारयोरिति भावितम् ।
१९६-२६ ९ ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगी वा सर्वदा सर्वजीवेषु प्रवर्तते किं वा कदाचिन्नेति प्रश्नस्य.प्रतिविधानं, तत्र 'उपयोगो लक्षणम्' इति तत्वार्थवत्राल्लक्षणम्योपयोगस्य लक्ष्ये आत्मनि सर्वदावस्थानं निष्टङ्किवम् ।
१९७-१ १. निर्गुणं द्रव्यमुत्पद्यते इति नैयायिकमते उत्पत्तिकाले गन्धाभावेऽपि गन्धवत्व
लक्षणं परिष्कृतं यथा पृथिव्यां, तथा कदाचिदुपयोगाभावेऽपि परिष्कृतलक्षणं जीवे भविष्यतीति प्रश्नस्य नैयायिकादिप्रवादस्याप्रामाण्यव्यवस्थापनेन निरसनम्, तत्र तत्त्वार्थसत्रटीकाभाष्यादितः शुक्लादेरचेतनपरमाणुप्रभृतिपरिणामतमत्वं भावितम् ।
१९७-८
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विषयाः
__ पृ० पति ११ परमाण्वादिपरिणामतजन्यशुक्लादिवत् देवमनुष्यादिपर्यायानुगाम्यात्मद्रव्ये
पूर्वदर्शनज्ञानलक्षणोपयोगपर्यायस्योत्तरेण ज्ञानदर्शनात्मकोपयोगरूपेण परिणमनं भवतीति तच्छ्रन्यो न कदाप्यात्मा, सुषुप्तिकालेऽप्यव्यक्तज्ञानं तत्र सुखमहमस्वाप्समित्याद्यनुभवः प्रमाणमिति ।
१९७-२२ १२ सुषुप्ताविन्द्रियवृत्तिनिरोधेन ज्ञानसामान्यकारणत्वग्मनोयोगाभावान्न किश्चिज्ज्ञानं तदेति नैयायिकप्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
१९७-३० १३ सुषुप्तौ द्रव्येन्द्रियवृत्तिनिरोधेऽप्युपयोगलक्षणभावेन्द्रियजज्ञानं सम्भवत्येव, तद्यु
क्तत्वे " जइ सुहुमं भाविंदियनाणं" इत्यादिविशेषावश्यकभाष्योक्तिः प्रमाणे, सविस्तरं चास्य स्वोपज्ञतत्त्वार्थविवरणटीकायामुक्तमिति ।
१९८-२ १४ केवलदर्शनकेवलज्ञानावरणकर्मभ्यां सर्वथाऽऽत्मीयदर्शनज्ञानयोरावृतत्वादुपयोगशू
न्योऽप्यात्मा कथं नेति शङ्कायाः प्रतिविधानम् ।। १५ केवलज्ञानावरणकर्मणा सर्वात्मना केवलज्ञानस्यावृतत्वेऽपि तदनन्ततमभागो
ऽनावृत एवावतिष्ठते, प्रमाणं च तत्र नन्दीसूत्रस्य “सन्धजीवाणं पि य" इति
वचनम् , तदात्मकमन्दप्रकाशे हेतुः केवलज्ञानावरणमेवेति दर्शितम्। १९८-१६ १६ तथा दर्शनाभावान्मन्दप्रकाशहेतुत्वं केवलज्ञानावरणस्य न सम्भवतीत्याशङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
१९८-२२ १७ अंशांशिनोः कथञ्चिदभेदादेकस्यैव केवलज्ञानस्यात्तत्वानावृतत्वलक्षणविरुद्धधमध्यिासो न संभवतीति शङ्कायास्समाधानम् ।
१९८-२६ १८ केवलज्ञानानन्ततमभागानावारकस्य केवलज्ञानावरणस्य सर्वघातित्वं कथमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
१९९--१ १९ अनन्ततमभागस्याप्यावरणे जीवस्याजीवत्वं स्यादित्यत्र “जइ पुण सो वि" इत्यादिनन्दीसूत्रवचनसंवादः।
१९९-७ २० सोऽपि चावशिष्टोऽनन्ततमभागो मतिज्ञानाद्यावरणराबियते एवमपि निगोदाव
स्थायां काचिज्ज्ञानमात्राऽवतिष्ठते, तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिर्भवति, तत्र
सर्वनिकृष्टो जीवस्येति" "तस्मात्प्रभृतीति" पद्ययुग्मं संवादकम् । १९९--८ २१ छद्मस्थस्य मतिज्ञानादिविषयीभूतार्थज्ञाने प्रतिबन्धको न केवलज्ञानावरणोदया, किन्तु मतिज्ञानावरणाद्युदय एवेति ।।
१९९-१७ २२ केवलदर्शनावरणस्य समस्तवस्तुस्तोमसामान्यावबोधावारकत्वेन सर्वघातिनोऽपि
तदनन्ततमभागस्य नावारकत्वं, सोऽपि चक्षुर्दर्शनाद्यावरणैरावियते, एवमपि
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४७
अङ्काः
विषयाः
निगोदावस्थायां काचिदव्यक्तदर्शनमात्राऽवतिष्ठते, छद्मस्थस्य चक्षुर्दर्शनादिविषयार्थदर्शने प्रतिबन्धको न केवलदर्शनावरणोदयः, किन्तु चक्षुर्दर्शनावरणाहृदय एवेति ।
२३ केवलज्ञानावरणावृतस्यात्मनोऽनन्ततमभागात्मक मन्दप्रकाश एवापान्तरालावस्थितमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमभेदसम्पादितं नानात्वं भजते, नानात्वं च क्षयोपशमानुरूपं, यथा मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमजनितः स मन्दप्रकाशो मतिज्ञानादिकमिति प्रतिपादितम् ।
१९९-१९
पृ० पं.
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१९९-२५
२४ केवलज्ञानावरणीयेन सर्वात्मनाssवृतेऽपि केवलज्ञाने तद्गतमन्दादिप्रकाशरूपाः क्षायोपशमिकभावात्मका मतिज्ञानादयश्वत्वारो भेदाः सर्वथा केवलज्ञानावरणापगमे सति तदुत्पन्न केवलज्ञानेन मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमनाशे न भवन्ती त्युक्तम् ।
२०० - २
२५ उक्तदिशा निमित्तभेदेन सिद्धं पञ्चविधं ज्ञानं प्रत्यक्ष परोक्षद्वय रूप मेवेति दर्शितम् । २००-११ २६ मतिज्ञानादिपञ्चविज्ञानमध्ये किं प्रत्यक्षं किं परोक्षमिति प्रश्नप्रतिविधानम् । २००-१४ २७ यद्यपि इन्द्रियजन्यं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणाक्रान्तत्वात्तथाव्यवहारात् "इंदिय
मणोभव" इति विशेषावश्यकभाष्योक्तेश्व मतिज्ञानं प्रत्यक्षं, तथापि निश्वयनय"तस्तत्परोक्षं, तदुपपत्तिः, " अक्वस्स पोग्गलकयेति" भाष्योक्त परोक्षलक्षणाक्रान्तत्वं च तस्य ।
२८ श्रुतज्ञानं परोक्षमिति व्यवस्थापितं, तत्र नन्दी सूत्रसंवादः । २९ प्रत्यक्षलक्षणं, तत्र भाष्यसम्मतिः, तल्लक्षणस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रत्वं नैवयिकं प्रत्यक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तं यदेव तदेव निश्चयप्रत्यक्षलक्षणं, तदाक्रान्तमवधि ज्ञानादित्र्यं निश्चयप्रत्यक्षप्रमाणम्, तत्र नन्दीस्त्रसंवादः ।
३० व्यावहारिकनैश्वयिकप्रत्यक्षद्वयसाधारणं स्पष्टत्व पर्यवसितमर्थसाक्षात्कारित्वं प्रत्यक्षलक्षणं, द्विविधं स्पष्टत्वं, तस्यानुगमनं स्पष्टतात्वेन विहितम् । ३१ स्पष्टलक्षणप्रत्यक्षमपि गुणमुख्यभेदेन द्विविधम् । तत्राद्यं संव्यवहारनिमित्तं मतिज्ञानात्मकं तदपि श्रुतज्ञानवनिश्वयतः परोक्षमेव, द्वितीयं विकलसकलभेदेन द्विविधं तत्र विकलमवधिमनः पर्यवज्ञानभेदेन द्विविधं, सकलं केवलज्ञानं, तेषां स्वरूपविषयकारणानि दर्शितानि । ३२ प्रमाणलक्षणं किमिति प्रश्ने स्वार्थसंवेदनं प्रमाणमित्युत्तरं, स्वार्थसंवेदनमित्यस्यार्थकथने पक्षद्वयं क्रमेणाश्रितम् ।
२००-१६
२००-२४
२००-२६
२०१–५
२०१-१०
२०१-१९
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४८
विषयाः ३३ स्वयोग्यार्थस्य विशदतया निर्णयः स्वार्थसंवेदनमिति प्रथमव्याख्याने तेन । ___ संशयविपर्ययानध्यवसायदर्शनेन्द्रियकारकसाकल्याद्यऽविकल्पानां मामाण्यनि___ रासः कृतः ।
२०१-२१ ३४ स्वार्थयोर्यथाऽवस्थितत्वेन निश्चयः स्वार्थसंवेदनमिति द्वितीयव्याख्याने
भाट्ट-मुरारिमिश्र-नैयायिक-कापिलानां मतमपाकर्तुं स्वशब्दस्य ज्ञानाद्वैतवादिमाध्यमिकवेदान्तिनां मतमपाकर्तुमर्थशब्दस्य चोपादानं, सम्पूर्णलक्षणवाक्येन तु
परपरिकल्पितस्याऽर्थोपलब्धिहेतुत्वादेः प्रमाणलक्षणत्वनिरासः । २०१-२५ ३५ उक्तलक्षणगतार्थमेव स्वपरव्यावसायिज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणम् , तत्र प्रतिपाद्यानुसारेण लक्ष्य-लक्षण-तदुभयविधानमिति ।
२०२-१ ३६ प्रमाणत्वे विवदमान प्रति विवादास्पदं ज्ञानं प्रमाणमिति स्वपरव्यवसायि
ज्ञानत्वे विवदमानं प्रति च विवादास्पदं प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानमिति शून्यवादिनम्प्रति च सम्पूर्णलक्षणमेव विवेयमिति।।
२०२-६ ३७ अत्र स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणमिति न युक्तं ज्ञानस्य स्वविषयकत्वाभावादिति नैयायिकस्य पूर्वपक्षः ।
२०२-१४ ३८ ज्ञानस्य परव्यवसायित्वं प्रमाणसिद्धमपि स्वव्यवसायित्वं न प्रमाणसिद्धमिति प्रपञ्चत उपपादितम् ।
२०२-१६ ३९ स्वप्रकाशवादिनामाहतानां प्रतिविधानं, तत्र 'एकस्मादेव विषयावभाससिद्धेः किं
द्वयकल्पनया इति नियमबलाल्लाघवादेकस्यैवार्थविषयकत्ववत्स्वविषयकत्वम् । २०३-१३ ४० न्यायमते यथा प्रतियोगित्वादिकमाश्रयस्वरूप नातिरिक्त तथा जैनमते स्ववि
पयकत्वं स्वस्वरूपमेवेति स्वविषयत्वविषयत्वसिद्धथा स्वप्रकाशत्वसिद्धिरित्याधुपदर्शितम् ।
२०३-१७ ४१ मेदनियतस्य विषयविषयिभावस्य नाभेदे स्वीकारार्हत्वमित्यस्य भेदनियतस्य
विशेषणविशेष्यभावस्य घटाभावे घटाभाव इति प्रतीतिबलाद्यथाऽभेदे स्वीकारः स्वभावविशेषात्तथा प्रकृतेऽभेदेऽपि स्वभावविशेषादेव सः, स्वभावविशेषश्च निर्वक्तुमशक्योऽपि शर्करामाधुर्यविशेषवत्प्रत्यारव्यातुमशक्य इति व्यवस्थापितम्।
२०३-२६ ४२ ज्ञानं स्वविषये व्यवहार प्रवर्तयत्स्वाविषयेऽपि स्वस्मिन व्यवहारं प्रवर्तयति
स्वव्यवहारशक्तत्वमेव स्वविषयत्वं, तच्चाभेदेऽपीति प्रभाकरानुयायिमतमात्माश्रयान्योन्याश्रयदोषग्रस्तत्वादसङ्गतमिति व्यवस्थापितम् ।
२०४-२
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४९ विषयाः
पृ० पति ४३ ज्ञानस्य कथञ्चिद्भेदस्वीकारेणैकस्य ज्ञानस्य व्यवसायानुव्यवसायोमयाकार-. त्वोपपादनेन पराशङ्कापनोदनम् ।
२०४-१३ ४४ परापादितान्योन्याश्रयापाकरणेन स्वविषयत्वलक्षणं स्वप्रकाशकत्वं स्थिरीकृतम् । २०४-२४ ४५ स्वेनैव स्वस्य प्रकाश इत्येवं स्वप्रकाशात्मकं ज्ञानं "स्वस्य व्यवसायः" इत्या
दिदेवसरिसूत्रानुमोदितं जैनमतं न युक्तं, स्वात्मनि क्रियाविरोधादिति पाप्रश्नः परोपगतस्वप्रकाशेश्वरज्ञानाद्युपदर्शनेनापाकृतः ।।
२०५-२ ४६ एकस्मिन् ज्ञाने कर्मत्वकर्तृत्वक्रियात्वैतत्रितयभानासम्भवात्रिपुटीप्रत्यक्षासम्भ
वात्स्वसंवेदनज्ञानाऽसिद्धिरिति पराकूतनिरसनमाश्रयत्वरूपकर्तृत्वविषयत्वरूपकर्मत्व विशेषणीभूतज्ञानत्वलक्षणक्रियात्वानां भानोपपादनेन ।
२०५-११ ४७ विशिष्टवुद्धिम्प्रति विशेषणज्ञानस्य कारणत्वेन ज्ञानरूपविशेषणज्ञानाभावाद्विशेष
णतया ज्ञानस्य भानं कथं स्यादित्याशङ्कां समानवित्तिवेद्यभिन्न विशेषणज्ञानत्वेनैव विशिष्टबुद्धिम्प्रति कारणत्वमित्यनेनापाकृता।।
२०५-१७ ४८ ज्ञानं विनाऽपि सुखादिविशिष्टतयाऽऽत्मज्ञानाज्ज्ञानं न समानवित्तिवेद्यमित्याशङ्काया अपाकरणम् ।
२०५-२३ ४९ अर्थनिश्चयत्वेन ज्ञानस्य प्रवर्तकत्वादर्यविषयकत्वमेवाभ्युपगमाई, न स्वविषयकत्वमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
२०५-२५ ५० प्रत्यक्षविषयत्वं प्रत्यक्षजनकत्वव्याप्तमित्यनुव्यवसायात्मकप्रत्यक्षाजनके व्यवसाये
तत्प्रत्यक्षविषयत्वं न सम्भवतीति प्रश्नस्य व्यभिचाराग्निरुक्तव्याप्त्यपाकरणेन प्रतिविधानम् ।
२०५-३० ५१ इन्द्रियसनिकर्पोत्पन्नं प्रत्यक्षमिति व्यवसायात्मकज्ञानेन सहेन्द्रियसन्निकर्षा
भावात्कथं तत्प्रत्यक्षमिति प्रश्नस्य चक्षुषोप्राप्यकारित्वेन तत्सन्निकर्ष विनैव चाक्षुषप्रत्यक्षस्य भावेन तत्राव्याप्त्येन्द्रियसनिकर्षोत्पनं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति तल्लक्षणं
न सम्भवतीति प्रतिविधानम् । ५२ चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वसाधकमनुमानम्, चक्षुषोऽसन्निकृष्टार्थप्रत्यक्षजनकत्वे
प्रत्यक्षस्य प्रतिनियतविषयत्वं न स्यादतस्तस्य प्राप्यकारित्वमुपेयमित्यभिप्रायकस्य नैयायिकमनस्य प्रतिविधानम् , तत्तत्प्रतिनियतविषयत्वे स्वावरणकर्मक्षयोपशमादिलक्षणयोग्यतायास्तन्त्रत्वोपदर्शनेन ।
। २०६८ ५३ ज्ञानस्यार्थाजन्यत्वे तदनाकारत्वे च प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यादित्यर्थबन्यत्वं ... तदाकारत्वश्चाभ्युपेयमिति बौद्धमतमपाकृतम् ।
.. .. २०६-१९
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विषयाः
पृ० पक्षिः ५४ चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वे दाहच्छेदायापत्तिर्दर्शिता ।
२०६-२४ ५५ रविकिरणजलावलोकने दाहशैत्ये चक्षुषो भवत एवेतीष्टापन्याशङ्काऽपाकृता। २०६-२६ ५६ “लोअणमपत्तचिसय" इति भाष्यगाथापूर्धिन लोचने अप्राप्यकारित्वसाध
कमनुमानमुपदर्शितम् । ५७ चक्षुषोप्राप्यकारित्वसाधने मनोवदिति दृष्टान्ताभिधानमयुक्तं, देहान्मनो
निर्गत्य मेरुशिखरस्थजिनप्रतिमादिना संबध्यते, अमुत्र मनो मे गतमिति लोकानुभवश्चेति मनसः प्राप्यकारित्वस्यैव भावात्, अत्र 'गतुं नेएण मणो' इति भाष्यवचनमपीति पूर्वपक्षः ।
२०७-८ ५८ उक्तप्रश्नप्रतिविधानम्, तत्र मनो न ज्ञेयेन संश्लिष्यते ज्ञेयकृतानुग्रहोपघाता
ऽभावात् लोचनवदित्याद्यनुमानेन मनसोप्राप्यकारित्वव्यवस्थापनम् , अत्र "नाणुग्गहोऽवघाया" इति भाष्यवचन प्रमाणम् ।
२०७-१४ ५९ द्रव्य-भावभेदेन मनसो द्वैविध्यं, तत्र जीवात्मकस्य भावमनसो देहव्यापित्वान्न
देहाद् बहिर्निर्गमनं, तत्र “दव्वं भावमणो वा" इति भाष्यवचनं प्रमाणम् , द्रव्यमनसोऽपि करणत्वादहिनिर्गमन मिति न युक्तं, अन्तःकरणरूपस्य तस्य शरीरस्थस्यैव स्पर्शनवद्विषयपरिच्छेदकत्वमिति न बहिर्निर्गमनम् । उक्तार्थे “अहकरणभावो" इत्यादि सार्धपद्यं प्रमाणम् ।
२०७-२० ६० अमुत्र मेरुशिखरादिगतजिनायतनादौ मदीयं मनो गतमिति स्वमेऽनुभवबला
न्मनसः प्राप्यकारित्वमिति प्रश्नस्य भ्राम्यमाणालातचक्रानुभववदुक्तानुभवस्यासत्यविषयत्वेन भ्रान्तत्वमेव, जाग्रदवस्थायां देहस्थस्यैव मनसोऽनुभृयमानत्वादित्युत्तरम् ।
२०८-१३ ६१ स्वभावस्थायां मेदिौ गत्वा जाग्रदवस्थायां निवृत्तं तद्भविष्यतीति प्रश्नस्य
प्रतिविधानम्, तत्र “सिमिणो न तहारूपो" इति गाथाद्वयं प्रमाणम् , - एतद्भावोपदर्शनश्च ।
२०८-२० ६२ द्रव्यमनसो भावमनसश्च बहिनिर्गमनाभावादमाप्यकार्येव मन इति मनोवदिति दृष्टान्तो न साध्यविकल इति निगमितम् ।
२०९-३ ६३ दृष्टान्ते मनसि प्राद्यवस्तुकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षणहेतुवैकल्यमपि नास्तीत्यु· क्तहेतुना लोचनमप्राप्यकारि सिद्धथतीति ।।
___ २०९-५ ६४ चक्षुषस्तैजसत्वेन रश्मिमत्त्वात्तद्रश्मयो निर्गत्य ज्ञेयेन सम्बन्ध्यन्त इति प्राप्यकारित्वमेवेति नैयायिकप्रश्नः।
२०९-९
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५१
अङ्काः
विषयाः
६५ उक्तप्रश्नप्रतिविधानं, तत्र चक्षुषस्तैजसत्वासिद्धिपरिहाराय नैयायिकाभिमतमनुमानमुपन्यस्य प्रतिक्षिप्तम् ।
२०९-१५
६६ चक्षुषस्तैजसत्वसाधकस्य रूपादिषु मध्ये रूपस्यैवाऽभिव्यञ्जकत्वहेतोः सन्निकर्षाजिनादिव्यभिचारवारणाय नैयायिकाभिमतस्य हेतौ विशेषणदानस्य अञ्जनादिकं सहकृत्य मनसैव निध्यादिसाक्षात्कार इत्यस्य चापाकरणम् । ६७ चक्षुषो रश्मीनामुपगमेऽपि ते विषयदेशं गता गोलकेनासम्बद्धाः सम्बद्धा वा प्रत्यक्षजनका इत्यादिविकल्पनजालेन नैयायिकमतस्य खण्डनम् । ६८ चक्षुषोप्राप्यकारित्वाभ्युपगमेऽप्राप्तत्वाविशेषान्निखिलवस्तु प्रकाशकत्वप्रसङ्ग इति शङ्कायाः प्रतिविधानं, तत्र योग्यार्थग्रहणस्वाभाव्यस्य प्रतिनियतार्थप्रकाशकत्व नियामकत्वं समर्थितम् ।
२१०-२
पृ०
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२०९-१३
२११-२५
६९ विषयनिष्ठव्यवधानाभावकूटरूपयोग्यताया
अञ्जनाद्यजन्यचाक्षुषप्रत्यक्ष प्रतिकारणत्वाभ्युपगमेन कुडघा दिव्यवहितस्याप्रत्यक्षत्वमुपपादितम्, तत्र स्फटिकादेश्राक्षुषज्ञानाप्रतिबन्धकत्वं, भित्र्यादेचाक्षुषप्रत्यक्षं प्रति प्रतिबन्धकत्वं च प्रकल्प्य नैयायिकाक्षेपो दूरीकृतः ।
७० व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वेन हेतुना चक्षुषः प्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वसाधनं नैयायिक- स्यापाकृतम् ।
७१ व्यवधानस्य चाक्षुषज्ञानप्रतिबन्धकत्वं तदभावकूटस्य चक्षुषज्ञानकारणत्वं, तयोः प्रतिबध्यप्रतिबन्धक भावप्रकारश्च दर्शितः ।
७२ उक्तप्रतिबन्धकत्वमनभ्युपगम्य प्रकारान्तराश्रयणे "तस्य हेतुत्वापेक्षया तद्धेतोरेव हेतुत्वम्" इति न्यायेन तत्तन्नयनोन्मीलनस्य चाक्षुषज्ञानं प्रति साक्षात्कारणत्वकल्पनस्य युक्तत्वं समर्थितम् ।
७३ इन्द्रियसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति सामान्यलक्षणानुगमानुरोधेन प्रत्यक्षत्वाबच्छिन्नं प्रतीन्द्रियसन्निकर्षत्वेनेन्द्रियसन्निकर्षस्य कारणत्वं यत्सामान्ययोरिति न्यायेन विशिष्य कार्यकारणभावकल्पनेऽपि चाक्षुषम्प्रति चक्षुस्संयोगत्वेन कारणत्वं, तत्र चिन्तामणिसंवादः, इति न्यायमतस्य खण्डनम्, तत्र सामीप्यसम्बन्धेनैव चक्षुषः कारणत्वं न जैनसिद्धान्तभङ्गः, चक्षुस्स्वविषयं संयुज्य प्रत्यक्षं जनयतीति न्यायमतखण्डन एव तात्पर्यादिति । ७४ संयोगेन चक्षुषः प्रत्यक्षजनकत्वे शाखाचन्द्रमसोः युगपच्चाक्षुषं न भवेद्, अत्र नैयायिकस्य सर्वापि समाधान प्रक्रियोद्भाव्यापाकृता ।
२१३-१
२११-२९
२१२७
२१२ - १२ M
२१२-१८
२१२-२२
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५२
अङ्गतः
विषयाः
७५ चक्षुर्मनसोः प्राप्यकारित्वा सिद्धथेन्द्रियसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणासम्भवाज्ज्ञानस्येन्द्रियसन्निकृष्टत्वाभावेऽपि प्रत्यक्षमुपपद्यत इति स्वपरत्र्यवसायिज्ञानं प्रमाणं सिद्धमिति निगमितम् ।
२१३-२० २१३-२३
७६ ज्ञानाकरणकं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणस्य खण्डनम् ।
२१३-२९
७७ अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणमिति वाचस्पतिमिश्रमतस्य खण्डनम् । ७८ बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणमिति जयन्तभट्टोक्तप्रमाणलक्षणस्यापाकरणम्। २१४-५ ७९ बुद्धिवृत्तिरेव सवसमुद्रेकात्माऽध्यवसायः प्रमाणमिति साङ्ख्यमतं सम्यगुपद
२१४-१५
पृ० पतिः
पाकृतम् ।
२१४-२७
८० अनधिगतार्थावगाहिज्ञानं प्रमाणमिति मीमांसकमतस्य खण्डनम्, प्रश्नोत्तराभ्यां गृहीतविषयस्यापि ज्ञानस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापितम् । ८१ स्मृतिप्रामाण्ये " अथाधिगतगन्तृत्वे " इति स्याद्वादरत्नाकरवचनसंवादो दर्शितः । २१५ - ९ ८२ अनर्थजन्यत्वेन स्मृतेरप्रामाण्यशङ्काया अपाकरणम् । ८३ " प्रमाणमसंवादि ज्ञानं" इति प्रमाणवार्तिकोक्तेबद्धाभिमतम विसंवादकत्वं प्रमाणसामान्यलक्षणं सम्यगुपपाद्य व्युदस्तम् ।
२१५--१३
८४ बाह्यार्थाभावेन तदालम्बनाभावात् निरालम्बनमेव ज्ञानं प्रमाणमिति स्वसंवेदनज्ञानाद्वैतवादियोगाचाराख्यबोद्धमतस्य खण्डनम् ।
८५ ज्ञातताफलानुमेयो ज्ञानव्यापारो ज्ञानादिशब्दवाच्यः प्रमाणमिति मीमांसकमतस्य प्रमाणप्रमेयोभयनिवशून्यवादिमतस्य चाद्यकाण्ड एव निरास इति स्मारितम् ।
८६ स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति तत्पर्यवसायि स्वार्थसंवेदनं प्रमाणमिति च निर्व्यूढम् ।
८७ स्वार्थसंवेदनस्य प्रमाकरणत्वे तत्फलं किमिति प्रश्नस्य स्वार्थसंवित्तिरेव फलमित्युत्तरम्, तत्रैकस्य प्रमाणत्वममात्वविरोध इत्याक्षेपस्य परिहारः । ८८ अन्यत्र परश्वधादिकरण द्वैधीभावादिफलयोनित्वमेव दृश्यत इत्यतोऽभेदे कारणभावाभाव इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
८९ करणस्य भिन्नेनैव फलेन भाव्यमित्याग्रहे तु मत्यादिक्षायोपशमिकप्रमाणानां भिन्नं फलमादानहानीरुपेक्षाबुद्धिश्वेत्युपपादनम् ।
९० क्षायिककेवलज्ञानस्य त्वौदासीन्यं फलं, तत्र "पारम्पयेंणेति" "शेषप्रमाणानां " इति च प्र०सूत्रद्वयं संवादकम् | ११५५ ||
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२१५-१७
२१६-१२
२१६-२१
२१६-२३
२१६-२५
२१७-५
२१७–९
२१७-१३
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________________
विषयाः
पृ० पशि २-१ “दवडिओवि होऊण" इति द्वितीयगाथाऽवतरणम् । द्रव्यार्थिकनयविवक्षायां
सामान्यमात्रग्रहणलक्षणदर्शनस्यैव प्रामाण्यम , पर्यायार्थिकनयविवक्षायां विशे. षमात्रग्रहणलक्षणज्ञानस्यैव प्रामाण्यमित्युपदर्य तदुभयनयविषयविषयकपमापार्पणायां सामान्यविशेषोभयग्राहकदर्शनज्ञानरूपं प्रमाणमित्युपदर्शिका द्वितीयगाथा ।
२१७-१८ २ गाथातात्पर्यार्थः प्राधान्येन सामान्यांशग्रहणपरिणामे दर्शने गौणतया विशेषां-- .
शग्रहणपरिणामः, प्राधान्येन विशेषांशग्रहणपरिणामे ज्ञाने गौणतया सामान्यांशग्रहणपरिणामः समस्त्येवेति ।
२१७-२७ ३ शब्दार्थोपदर्शनम् ।
२१७-३० ४ सामान्यविशेषौ मिथोऽविनाभूतावेव प्रतीयते इति प्रमाणार्पणया तदुभयात्मक __ आत्माद्यर्थ इति भावार्थः प्रपश्चितः ।
२१८-१७ ३-१ "मणपजवाणं तो" इति तृतीयगाथावतरणम्, तत्र यथा छअस्थानां दर्शन
ज्ञानोपयोगी क्रमेण भवतः "जुगवं दो नत्थि उवओगा" इति वचनात् , तथैव किं केवलिनां केवलदर्शनोपयोगकेवलज्ञानोपयोगौ क्रमेण भवतः, किं वा युगपत् , . किंवा यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शन मिति प्रश्नप्रतिविधानम् , तत्र मतत्रय 'तत्तत्रयविवक्षाभेदप्रयुक्तं सुसमञ्जसम् ।
२१८-२४ २ तत्र युगपदुपयोगद्वयवादिनां मल्लवादिप्रभृतीनां मतं दर्शितम् ।
२१९-७. ३ यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमिति सिद्धसेनदिवाकरमतम् । २१९-९ ४ प्रथमसमये केवलज्ञानं, द्वितीयसमये केवलदर्शनम् “सव्याओ लद्धीओ" इति।
वचनात् "जुगवं दो नत्थि उवओगा" इति वचनाच्चेति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणादीनां मतम् ।
२१९-१३ ५ क्रमिकसामग्रीभेदाभावात्रमिकोपयोगरूपकार्यभेदः कथमिति प्रश्नस्य क्रमिकसामग्रीभेदोपपादनेन प्रतिविधानम् ।
२१९-२२ ६ द्वयोरुपयोगयोः क्रमेणोत्पादेऽपि विनाशहेत्वभावात्समयान्तरे तन्नाशो न _स्यादिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।। ७ उक्तमतत्रयाणां साधारण्यो विप्रतिपत्त्य उपदर्शिताः ।
२२०-४ ८ विप्रतिपसौ सत्यां प्रथमं युगपदुपयोगद्वयवादिमतोपदर्शिका तृतीयगाथा। २२०-१२ ९ मनापर्यवज्ञानपर्यन्तं ज्ञानदर्शनयोः पृथकालत्वलक्षणो विशेषः, केवलज्ञानं पुन:
केवलदर्शनपृथकालं न, किन्तु तदुभयं युगपदुत्पत्तिकम्, चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि
२१९-२७
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विषयाः
पृ० पशिः चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथकालानि छद्मस्थोपयोगज्ञानात्मकत्वात् , श्रुतमन पर्यायज्ञानवदित्यादिः, केवलिनो ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगावेककालीनौ युगपदाविर्भूतस्वभावत्वात् , यावेवं तावेवं, यथा वेः प्रकाशतापावित्येव क्रमेण प्रयोगभावना च ।
२२०-१७ ४-१ “केई भणति जइआ" इति चतुर्थगाथावतरणम् ।
२२१-१० २ निरुक्तगाथार्थः, जिनभद्रानुयायिनो भणन्ति यदा जानाति तदा न पश्यति
जिन इति, सूत्रमवलम्बमानास्ते तीर्थकराशातनाऽभीरव इति । २२१-१३ ३ "केवली णं भंते" इत्यादि सूत्र, तस्यार्थश्च दर्शितः ।
२२१-१६ ४ एकात्मगते केवलज्ञानकेवलदर्शने पृथकालीने एकसमयावच्छेदेन परस्परविरुद्धस्वभावत्वादित्यादिप्रयोगास्तदर्थान्तर्गताः।
२२२-१४ ५ जिनभद्रानुयायिनां तीर्थंकराशातनाऽभीरुत्वं यथा प्रकटयन्ति प्राचीनास्तथोक्तसूत्रव्याख्यानान्तरोपदर्शनेन भावितम् ।
२२२-२६ ६ "जै समय" इत्यादि सूत्रार्थोपवर्णनं श्रीयशोविजयोपाध्यायानां ज्ञानबिन्दौ यत्तत्समुट्टङ्कितम् ।
- २२३-१ ५-१ "केवलनाणावरणेति" पञ्चमगाथावतरणम् ।
२२३-१६ २ केवलं यथा केवलज्ञानावरणक्षयजन्यत्वेन ज्ञान तथा केवलदर्शनावरणक्षयानन्तरोद्भूतत्वेन दर्शनमपि, अत्र केवलज्ञानकेवलदर्शने युगपदेवोत्पद्येताम्, अन्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन तदुभयोत्पत्तिकारणसद्भावात् , युगपदुत्पद्यमानादित्यप्रकाशतापवत् परमाणौ रूपरसादिवद्वेति प्रयोग इत्यर्थों दर्शितः। २२३-२१ ३ युगपत्सामग्रीद्वयसद्भावेऽपि क्रमभावित्वस्वभावादेवोपयोगी क्रमेणैव भवत ___ इति शङ्कायाः समाधानम् ।
२२३-२८ ४ मतिश्रुतज्ञानावरणयोर्युगपत्क्षयोपशमेऽपि यथा तदुपयोगक्रमस्तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोर्युगपत्क्षयेऽपि केवलिन्युपयोगक्रमः स्यादिति शङ्कायाः प्रतिविधानम् ।
२२४-७ ६-१ "भण्णइ खोणावरणे" इति षष्ठी गाथा तदर्थश्च, क्षीणावरणे जिने यथा न
मत्यादिज्ञानं अवग्रहचतुष्टयरूपं मतिज्ञानं वा तथा क्षीणावरणीये तस्मिन् पृथग्भावेन दर्शनं नास्तीति ।
२२४-१२ २ अनुमानप्रयोगश्चात्रैवम्-केवलज्ञानकेवलदर्शने एकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिके,
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विषयाः
पृ० पं. एकसमयवतिसामग्रीकत्वात् , कस्यचित्पुंसः सम्यग्दर्शनचारित्रे इव, समत्तचरित्ताई जुगवं इति वचनं दृष्टान्तसमर्थकम् ।
२२४-२२ ६-१ क्रमवादिन आगमविरोधोपदर्शकतया “सुत्तम्मि चेव साई" इति सप्तमीगायाऽवतारिता ।
२२४-२८ २ "केवलनाणीणं पुच्छा" इत्यादिसूत्रविरोधो भावितः साद्यपर्यवसितत्वानुपपत्तितः।
२२४-३१ ३ लब्धिरूपेण केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरपर्यवसितत्वप्रश्नस्य प्रतिविधानम् , विशिष्टरूपेणोत्पादविनाशयोगित्वं च तयोरिष्टमेव, तत एवोत्पादादिलक्षण्योपपत्तिः, एवं द्रव्यमात्रस्य ।
_ २२५-१२ ४ क्रमिकोपयोगवादिनः तयोः प्रतिक्षणं त्रैलक्षण्यमुपयोगस्वरूपेण चापर्यवसितत्वमित्याकूतमाशंक्य प्रतिक्षिप्तम् ।
२२६-४ ८-१ क्रमाभ्युपगमे आगमविरोधोपसंहरणपरतया "संतंमि केवले दसणम्मि" इत्यष्टमी गाथाऽवतारिता ।
२२६-१२ २ निरुक्तगाथार्थः, केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरन्यतरकाले तदन्यस्याभावात्स सविनाशे ते प्राप्ते, __ तथा च तदपर्यवसितत्वप्रतिपादकाऽऽगमविरोध इति भावार्थश्च दर्शितः। २२६-१५ ९--१ ग्रन्थकर्तुः स्वपक्षदर्शकत्वेन "दसणनाणावरणक्खए" इति नवमी गाथाऽवतारिता।
२२६-२६. २ दर्शनज्ञानावरणक्षययोः तदुभयकारणयोः समकालीनत्वे नैकस्य विनिगमकाभावात्
प्रथममुत्पादः, उभयसामग्रीसत्त्वेऽप्यन्यतरोत्पादे तदितरस्याप्युत्पादस्स्यादित्यादि विवेचितम् ।
२२६-३० ३ "सव्वाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स" इति वचनात्पथमं ज्ञानं ततो
दर्शनं, "जुगवं दो नस्थि उवओगा" इति वचनाच न यौगपद्यमिति विद्यते विनिगमकमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
२२७---६ ४ केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः क्रमोत्पत्त्युपगमे एकक्षणोत्पत्तिककेवलज्ञानदर्शनयोरेकक्षण
न्यूनाधिकायुष्कयोः केवलिनोः क्रमिकोपयोगधारा न निर्वाहयितुं शश्येति । २२७-१३ ५ "होज्ज समं उपाओ" इत्यनेन तयोर्युगपदेवोत्पत्तिरिति युगपदुपयोगद्वयवादिमल्लवाद्याशङ्का ।
. २२७-१६ ६ श्रीसिद्धसेनदिवाकरस्यकोपयोगवादिनी "हंदि दुवे नत्थि उबओगा" इत्येकोपयोगनिष्टानेनोक्ताशङ्काऽपाकरणम्, तन्मते यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमिति निष्टङ्कितम् । २२७-२१
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विषयाः
पृ० पं. १०-१ सकलसामान्यविशेषोभयविषयकसमूहालम्बनैकज्ञाने सत्येव सर्वज्ञतासम्मवः, .. . नान्यथेत्यावेदकतया "जइ सव्वं साया" इति दशमी गाथाऽवतारिता। २२७-२५ २ यदि सर्व सामान्यविशेषात्मकं जगत् साकारमेकसमयेन जानाति पश्यति च सर्वज्ञः तदा युज्यते सर्वदा सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च तस्य, एतद्वैपरीत्ये सति सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च न स्यादित्यर्थः परिष्कृत्य दर्शितः ।
२२७-२९ ११-१ अव्यक्तत्वादपि पृथगदर्शनं केवलिनि न सम्भवतीत्यावेदकतया "परिशुद्धं सायारं" इत्येकादशगाथावतारिता ।
२२८-१५ २ साकारत्वाधक्तस्वरूपं ज्ञानम्, अनाकारत्वादव्यक्तं दर्शनमिति क्षीणावरणेऽर्हति
न च युज्यते सुव्यक्तत्वाऽव्यक्तत्वे इत्यर्यः स्पष्टीकृत्य दर्शितः। २२८-१८ ३ ग्रायद्वित्वाद् ग्राहकद्वित्वं नाशङ्खनीयं, तथा सति ग्राह्यानन्त्यात्केवलज्ञानान
न्त्यं स्यात् , विषयभेदस्य ज्ञान भेदप्रयोजनकत्वाभावे तद्वित्वाद्वित्वमपि ग्रहणस्य नाभ्युपेयम् ।
२२८-२८ ४ एकस्मिन् केवलिप्रत्यये ज्ञानत्वदर्शनत्वस्वभावद्वयस्य विरोध इत्याशङ्कायास्तयोरवि- . रोधव्यवस्थापनेन परिहरणम् ।
२२९-१ ५ अत्रार्थ स्तुतिकारस्य "एवं कल्पितभेदमप्रतिहतम्" इति स्तुतिपद्यसंवादो दर्शितः। २२९-८ ६ श्रीसिद्धसेनदिवाकरमते केवलिप्रत्यय एव नैकः किन्तु चाक्षुषप्रत्ययोऽवधिप्रत्ययश्च वस्तुगत्यक एव, ज्ञानदर्शनावरणकर्माऽपि परमार्थत एकम्, कार्यविशेपादितश्च नैकमिति स्याद्वादः, वस्तुगत्यैक एव, ज्ञानदर्शनावरणकर्मापि परमार्थत एकम् , कार्यविशेषादितश्च नैकमिति स्याद्वादः, अत्र निश्चयद्वात्रिंशिकायां ग्रन्थकृतः "चक्षुर्दर्शनविज्ञान" इति पद्यद्वयं संवादकम् ।
२२९-१३ ७ आकाशस्येव केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोरुपाधितो भेदेऽपि परमार्थत एकत्वमिति तत्क्षयजन्यतावच्छेदकमेकमेव केवलप्रत्ययत्वं, न तु विभिन्नं, येन धर्मि
भेदेन सर्वज्ञ व्यक्ताव्यक्तत्वे स्यातामित्यादिर्भावार्थ उपदर्शितः। २२९-२२ १२-१ क्रमिकोपयोगपक्षे युगपदुपयोगद्वयपक्षे च दूषणान्तरावेदकत्वेन ‘अदि8 अण्णायं
च' इति द्वादशी गाथाऽवतारिता । २ क्रमिकोपयोगपक्षे ज्ञानकाले अदृष्टमेव, दर्शनकाले चाज्ञातमेव, युगपदुपयोगद्वयपक्षे च सामान्यांशेऽज्ञातमेव विशेषांशे चादृष्टमेव केवली भाषते सदापि, एकस्मिन् समये सर्वाशे ज्ञातं दृष्टं च भाषते केवलीति पचनविकल्पो न सम्भवतीत्यर्थ आवेदितः।
. . २३०-८
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५७ अङ्काः
विषयाः ३ केवलदर्शने गौणवृत्त्या सकलव्यक्तिभानं केवलज्ञाने गौणवृत्त्या सकलजातिभा- .
नमादायोक्तवचन विकल्पोपपादने छमस्थेऽपि तथा प्रयोगप्रसङ्ग आवेदितः । २३०-१३ १३-१ उक्तपक्षद्वये अज्ञातदर्शित्वाददृष्टज्ञातृत्वाच भगवतः सर्वज्ञत्वं न संभवतीत्यावे
दिका "अण्णाणं पासंतो" इति त्रयोदशी गाथा ।। ___२३०-१८ २ अज्ञातं पश्यन् अदृष्टश्च जानानोऽर्हन् किं जानाति १ न किञ्चिजानाति,
किं पश्यति ? न किञ्चित्पश्यतीति कथं सर्वज्ञता तस्य भवेत् ? न कथमपीत्यर्थ आवेदितः ।
२३०-२१ १४-१ उक्तोपयोगयोरन्यूनानधिकसंख्यकविषयकत्वेनाप्येकत्वमित्यावेदिका "केवलनाणमणत" इति चतुर्दशी गाथा ।
२३१--३ २ केवलज्ञानं यथाऽनन्तार्थविषयकत्वादनन्तं तथा दर्शनमप्यनन्तं प्रज्ञसम् , तयोरेकत्वाभावे दर्शनस्याल्पविषयकत्वादनन्तत्व नस्यात् , तथा च "अणंते केवलनाणे
अणते केवलदसणे" इत्याद्यागमविरोध इत्याद्यर्थ उपपादितः। २३१--६ १५-१ क्रमवादिनोऽमेदवाद्युक्तदूषणसमाधानस्याभेदवादिप्रतिविहितसमाधानपरतया "भण्णइ जह चउनाणी" इति पञ्चदशी गाथाऽवतारिता ।
२३१-२२ २ उक्तगाथार्थः, तत्र मत्यादिज्ञानानां क्रमेणैव प्रवृत्तिन तु युगपत् , लब्धिमात्रमङ्गी
कृत्य समकालं मतिश्रुते प्रोच्येते, न तूपयोगमित्यतस्तेषामुपयोगतः क्रमप्रवृत्तावऽपि तल्लन्धिभावाच्चतुर्ज्ञानी युज्यते, तत्र “जे चउनाणी" इत्याद्यागमः । २३१-२७ ३ मत्यादिज्ञानानां लब्धिरूपत्वे तदपेक्षया योगपद्ये च "नाणलद्धीणं भंते"
इत्याद्यागमः प्रमाणतयाऽभिहितः । ४ शङ्कान्तरमपाकृत्य स्वस्त्रयोग्यार्थविषयकज्ञानानुकूलशक्त्यपरनामलब्ध्यपेक्षयर
मतिज्ञानादिचतुष्टयस्यैककालावच्छिन्नस्वभिन्नज्ञानसामानाधिकरण्यलक्षणं योगपद्यमिति निगमितम् । अत्र "एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुभ्यः" इति तत्त्वार्थसूत्रसङ्गमनश्च ।
२३२-२८ ५ केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमप्रवृत्तावपि सार्वदिकतच्छक्तिसमन्वयादपर्यवसितत्वं, ततो ज्ञातदृष्टभाषित्वं केवलिन उपपद्यत इति क्रमोपयोगवादिनः।
२३३-१ ६ तत्रैकोपयोगवादिनः प्रतिविधान-छामस्थिके ज्ञाने नष्टे सति केवलज्ञानमुत्पद्यत इति न पञ्चज्ञानी यथैवाहन तथा भिन्नसामयिककेवलदर्शनकेवलज्ञानवान् न स इति क्रमिकपक्षोऽपि न युक्तः । अत्र "नटुम्मीति" प्रमाणं दर्शितम् । २३३-३
२३२-१०
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५८
अङ्काः
विषयाः
७ ज्ञानदर्शनयोः क्रमिकत्वे मत्याद्यावरणक्षयेऽपि एकदेशग्राहिणो मतिज्ञानादेखि ज्ञानदर्शनावरण क्षयेऽप्येकदेशग्राहिणो ज्ञानस्य दर्शनस्य च केवलिन्यनुपपत्तिर्भेदे, अभेदेऽपि चान्वर्थोपपतितः केवलज्ञाने केवलदर्शनसंज्ञा, न तु मतिज्ञानादिसंज्ञेति ।
८ क्रमवादे ज्ञानकाले दर्शनाभावात् केवली यदा जानाति तदा पश्यतीति दृशधात्वाद्यर्था सङ्घट्टनान्नोपपद्यत इति निरूपणम् ।
९ लब्धिरूपधात्वर्थमुपादाय तत्सङ्गमनाशङ्काया निरासः ।
१० चक्षुष्मान् सर्वं पश्यतीत्यादावनन्यगत्या लब्ध्यर्थाश्रयणेऽपि सर्वत्र तदाश्रयणं न युक्तमिति विवेचितम् ।
२३३-१२
१६ - १ दृष्टान्तभावनापूर्वकं क्रमेण युगपद्वा निरुक्तोपयोगौ न स्त इत्युपदर्शकतया "पण्णवणिजा भावा" इति षोडशी गाथाऽवतारिता ।
पृ० पं.
११ षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वादिकमपि मतिज्ञानादेर्लन्ध्यपेक्षयैवेत्यस्य दुर्वचत्वं व्यवस्थापितमिति ।
२३३-२०
२३३-२३
२३३-२६
२३४–१
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२३४ - ९.
२ " पण वणिजा भावा" इत्यस्य "समत्तसुअनाणदंसणाविसओ" इत्यस्य चावतरणपूर्वकं व्याख्यानम् ।
२३४-१३
२३४-२६
३ श्रुतज्ञानवन्मतिज्ञानं कथं न तथा भावितमिति प्रश्नसमाधाने “मतिश्रुतयोनिबन्धः " इत्यादि तत्त्वार्थसूत्रेण मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानविषयविषयकत्वं भावितम् । ४ धर्मास्तिकायादिद्रव्याणामनन्तपर्यायावलीढत्वेनैव वस्तुत्वे मतिश्रुताभ्यां तथैव तद्ग्रहणं भवितव्यमिति प्रश्नप्रतिविधानं ।
२३५-१२
२३६–१
२३६-५
५ श्रुतज्ञानं श्रुतानुसारेण जायत इत्यादि भावितम् ।
६ अवधिमनः पर्याययोर्विभिन्नविवयकत्वाभिधायकतयोत्तरार्द्धावतारः । ७ अवधिज्ञानस्य रूपमात्रविषयकत्वे "रूपिष्ववधेः" इति तच्चार्थसूत्रं प्रमाणपदर्शितम्, अवधिज्ञानविषयसमर्थनेऽनेकानि भाष्यवचनानि दर्शितानि । २३६–८ ८ मनः पर्यायज्ञानस्य " मुणइ मणोदव्वाइँ नरलोए सो मणिजमाणाई" इत्युक्ते र्विषयनिष्टङ्कनम्, तस्य विषयोऽवधिविषयानन्ततमभागः, तत्र ' तदनन्ततमभागे मनःपर्यायस्य' इति तत्वार्थ सूत्रं प्रमाणम् ।
९ यदि मनः पर्यवज्ञानी मनोद्रव्याण्येव जानीते तदा किं संज्ञिजीवैर्मनसा चिन्तितं
२३६-२५
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अङ्काः विषयाः
पृ० पं. बाह्यवस्तु नैव जानातीति प्रश्नप्रतिविधानं, तत्र “जाणइ य पिहुजणो वि हु" इति बृहत्कल्पभाष्यवचनम् , अन्यदपि बहु चर्चितम् ।
२३६-३० १० अनुमानादेव चिन्तनीयं वस्त्क्वगच्छतीत्यत्र 'तेणावभासिए' इति विशेषावश्य.
कभाष्यवचनं, मनःपर्यवज्ञानस्य पर्यवसितलक्षणं मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्याऽसर्वार्थविषयकत्वनिगमनश्च ।
२३७-१७ १७-१ असर्वार्थविषयकत्वान्मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य विभागो युज्यते सर्वार्थविषयक
त्वात्केवलज्ञानदर्शनयोविभागो न युज्यत इत्युपपादकतया "तम्हा चउन्धिभागो जुञ्जई" इति सप्तदशी गाथाऽवतारिता।
२३७-२२ २ तत्तत्क्षयोपशमरूपकारणभेदाच्चतुर्णो मत्यादिज्ञानानां विभागो युज्यते, जिनानां । न केवलज्ञानदर्शनविभागः, सकलत्वानावरणत्वानन्तत्वाऽक्षयत्वेभ्यो हेतुहेतुमद्भावमापन्नेभ्य इत्यर्थः स्पष्टतया व्याख्यातः ।
२३७-२६ ३ अक्रमोपयोगद्वयात्मक एक एवोपयोगः, तत्रैकत्वं व्यक्त्या यात्मकत्वञ्चांशिकजात्यन्तररूपत्वमित्येके, अपरे व्याप्यवृत्तिजातिद्वयरूपत्वम् , उपाध्यायाः केवलत्वमावरणक्षयात्,
ज्ञानत्वं जातिविशेषः, दर्शनत्वञ्च विषयताविशेष इति प्राहुरिति मतभेदोक्तिः। २३८-१२ १८-१ ग्रन्थकृतः स्वपक्षे आगमविरोधपरिहारिणी 'परवत्तव्वपक्वा' इति अष्टादशी गाथा।२३८-१७ २ परवक्तव्यपक्षेभ्यः युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः नागृहीतविशेषणा विशिष्टबुद्धिरित्याधभ्युपगमेभ्योऽभिन्ना 'जं समय पास नो तं समयं जाणई' इत्यादिसूत्रेषु अभ्युपगमाः प्रतिभासन्ते, किन्तु सामर्थ्य नैव तेषां सूत्राणां व्याख्यानं ज्ञकः करोतीत्यर्थों भावश्च प्रकटीकृतः ।
२३८-२० ३ परवत्तव्वयपक्खेति गाथा प्रकारान्तरेणावतारिता, ज्ञानबिन्दौ यशोविजयोपाध्यायैः कृतं तद्वयाख्यानमावेदितम् ।
२३९-४ १९-१ मनःपर्यायज्ञान विशेषमेव गृह्णदुत्पद्यते इति तज्ज्ञानत्वेनैव सूत्रे निर्दिष्ट,
अक्रमद्वयात्मकैककेवलोपयोगस्य तु एकत्वेऽपि सामान्यविशेषोभयग्रहणोन्मुखत्वेन केवलज्ञानत्वेन केवलदर्शनत्वेन च भिन्न प्रकारेण सूत्रे निर्देश इत्युपपादकतया "जेण भणोक्सियगयाणं" इत्येकोनविंशतितमा गाथाऽवतारिता। २३९-२८ २ यस्मात् मनोविषयगतानां द्रव्यजातानां विशेषात्मकत्वेन सामान्यविषयक दर्शनं नास्ति, यद्वा दर्शनपदग्राह्यसामान्यस्याभावान्मुख्यतया तग्राहि दर्शनं नास्ति, तस्मान्मनःपर्यवज्ञानं ज्ञानमिति सूत्रे निर्दिष्टं, केवलं तु सामान्यविशेषो
पान ज्ञका
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विषयां:
भयविषयकैकोपयोगरूपत्वादुभयात्मकमेकमेव, "केवलनाणे केवलदंसणे" इति raft धर्मभेदेन धर्मिभेदप्रतिपादनपरमेव, न तु वस्तुगत्या धर्मिभेदप्रतिपादनपरमित्यर्थो भावश्च दर्शितः ।
२०- १ सूत्रे उभयरूपत्वेन परिपठितत्वादुभयरूपं केवलं, न तु क्रमिकसामग्रया क्रमेणोत्पादात् एककालीन भिन्न सामग्रया युगपदुत्पादाद्वा तथेत्युपदर्शकतया विंशतितमगाथाऽवतारिता ।
पृ० पि
२४०–७
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२४०-२०
२ ' अचक्खुअवाहिकेवलाण' इति गाथार्थः, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां 'कइ विणं भंते' इत्यादिसूत्रेण आगमे दर्शनविकल्पाः परिपठिताः, तस्मात्केवलज्ञानदर्शने ते भिन्ने इति, केवलं ज्ञानमध्ये पाठात् ज्ञानमपि, दर्शनमध्ये पाठाच्च दर्शनमपीत्येकमेव तत्पदेन व्यवहार्यमिति परिभाषामात्रमेतत् । २१- १ सामान्यविशेषाजहद्वृत्त्ये कोपयोगरूपतया ज्ञानत्वं दर्शनत्वं चेत्येकदेशिमतोपदर्शकतया "दंसणमुग्गहमेत्तं' इत्येकविंशतितमगाथाऽवतारिता । २ दर्शनमवग्रहमात्र, घटोऽयमित्याकाराभिलापो ज्ञानं भवत्युपचारात्, यथा मतिज्ञाने, तथा केवलयोरपि, एतावन्मात्रेण तु विशेषः, एकमेव केवलं सामान्यांशे दर्शनं विशेषांशे च ज्ञानमित्यर्थो दर्शितः ।
२२-१ एकदेशिनः क्रमिक भेदपक्षदूषकत्वपरा " दंसणपुब्वं नाणं " इति द्वाविंशति
तमा गाथा ।
२ दर्शनं प्राक् पश्चाज्ज्ञानमित्येवं पूर्वापरीभावश्छा अस्थिकोपयोगावस्थायां भवति, न चायं क्रमः केवल्युपयोगावस्थायां तत्र पूर्व केवलज्ञानस्यैव भावात्, ज्ञाननिमित्तकं तु दर्शनं कुत्रापि नास्ति, तेन सुविनिश्विनुमः केवलिनि ज्ञानदर्शने क्रमापादितभेदं न भजत इत्यर्थो दर्शितः । २३ - १ मतिरूपे बोधे अवग्रहमात्र दर्शनमित्येकदेशिमताऽयुक्तत्वपरतया "जइ ओग्गहमेत्तं" इति त्रयोविंशतितमगाथाऽवतारिता ।
२ यदि मत्यवबोधे अवग्रहमात्रं दर्शनमिति विशेषितं ज्ञानमित्युपगम्यते एवं सति मतिज्ञानमेव दर्शनं प्राप्तं भवति, तथोपगमे "कइविणं भंते" इत्यादि प्रज्ञापनैकोनत्रिंशत्तमेोपयोगाख्यपदाद्यसूत्रविरोधः प्रसक्त इत्यर्थः । ३ मतिज्ञानमेवावग्रहात्मना दर्शनम्, अपायात्मना च ज्ञानमित्येकदेशिमतदूषणपरत्वेनोक्तगाथाया अवतरणान्तरम् ।
२४०-२५
२४१–४
२४१–९
२४१-१८
२४१-२१
२४२–७
२४२-१०
२४२-२२
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विषयाः ४ "उग्गहमित्तं" इत्यादिपाठमवलम्ब्य ज्ञान बिन्दुसम्मतोऽर्थों दर्शितः। २४२-२६ २४-१ "एवं सेसिंदियदंसणम्मि" इति चतुर्विंशतितमगाथा तदर्थश्च, शेषेन्द्रिय
दर्शनेष्वपि मतिज्ञानमेव दर्शनं स्यात्, न च तद् युक्तम् , पूर्वोक्तसूत्रविरोधात्,
अथ तेषु ज्ञानमात्र गृह्यते, चक्षुष्वपि तथैवास्त्विति विवेचितम् । २४२-२९ २५-१ शास्त्रे चक्षुर्दर्शनादिप्रवादकारणोपदर्शकतया "नाणमपुढे" इति पञ्चविंशतितमगाथाऽवतारिता।
- २४३-११ २ अस्पृष्टेऽर्थे चक्षुर्जन्यज्ञानमेव चक्षुर्दर्शन, चाक्षुषज्ञानावरणचाक्षुषदर्शनावरणकर्मणो ___ ग्रन्थकृन्मते ऐक्यं कार्यभेदत उपाधिभेदतश्च भेदः, तत्र ग्रन्थकृतः 'चक्षुर्दर्शनविज्ञानमिति स्तुतिगतवचनं प्रमाणम् ।
२४३-१४ ३ अतीन्द्रियपरमाण्वादिविषयकमानसज्ञानमचक्षुर्दर्शनम्, लिङ्गजन्यातीतानागतविष
यकज्ञानं मुक्त्वा, एतदुपलक्षणं भावनाजन्यज्ञानातिरिक्तपरोक्षज्ञानमात्रस्येति । २४३-२१ २६-१ मनःपर्यायज्ञाने दर्शनलक्षणातिप्रसङ्गपरिहारपरतया 'मणपजवनाणं' इति षइविंशतितमगाथाऽवतारिता।
२४४-४ २ मनःपर्यवज्ञानं दर्शनं स्यादित्यतिप्रसङ्गापादनं न युक्तम् , मनोद्रव्याग्राहकत्वेन ।
प्रवर्तमानस्य तस्यास्पृष्टघटाद्यर्थविषयकत्वाभावादिति तज्ज्ञानरूपमेव मनःपर्यवज्ञानी
घटादिकमनुमानेनावगच्छतीत्यत्र "तेणावभासिए" इति भाष्यं प्रमाणम्। २४४-८ २७-१ 'मइसुयनाणणिमित्तो' इ ति सप्तविंशतितमगाथा, मतिश्रुतज्ञाननिमित्तः
छद्मस्थेऽर्थोपलम्भो भवति, तयोरेकतरस्मिन्नपि दर्शनं न सम्भवतीति दर्शनाभाव इति तदर्थः ।
२४४-२३ २८-१ अस्पृष्टेऽर्थे भवतः श्रुतस्य किन दर्शनत्वमित्याशङ्कानिवृत्यर्थतया "जं पच्चखग्गहणं इत्यष्टाविंशतितमगाथाऽवतारिता।
२४५-१ २ श्रुतज्ञानममिता अर्थाः प्रत्यक्षेण न गृह्यन्ते, तस्माच्छ्तज्ञानस्याक्षजत्वाभावात्प
रोक्षार्थग्राहकत्वाच सकलेऽपि श्रुतज्ञाने प्रत्यक्षशब्दो न प्रवर्तते श्रुतज्ञानं दर्शनशब्दवाच्यं न भवतीति व्यअनावग्रहाविषयार्थप्रत्यक्षत्वं दर्शनत्वं, अचक्षुर्दर्शनमित्यत्र नअर्थः पर्युदासः, अप्राप्यकारित्वेन चक्षुषा सादृश्यं मनसि, न श्रोत्रादौ, तत्र 'पुढे सुणेइ सई' इत्यावश्यकसूत्रोक्तिः प्रमाणम् ।
२४५-४ २९-१ व्यवहारतः प्रत्यक्षत्वाभावादवधिदर्शनं न स्यादित्याशङ्कासमाधानरूपतया "जं अपुट्ठा भावा" इत्येकोनत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२४५-२६
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विषयाः २ यस्मादस्पृष्टाः परमाण्वादयोऽवधिज्ञानप्रत्यक्षविषया भवन्ति तस्मादवधिज्ञाने दर्शनशब्दोऽप्युपयुक्तः, दर्शनलक्षणे सांव्यवहारिकप्रत्यक्षपारमार्थिकप्रत्यक्षसाधारणप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रविष्टमित्यर्थः ।
____ २४६-१ ३०-१ अवधिज्ञान इच केवलज्ञानेऽप्युक्तलक्षणमब्याहनमित्यावेदकतया 'जं अपुढे भावे' इति त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
___ २४६-११ २ यस्मात् अस्पृष्टान् भावान् नियमात् केवली जानाति पश्यति च, तस्मात्तज्ज्ञानं ।
दर्शनश्चोभयरूपमविशेषतः सिद्धम् , एतद्भावार्थश्च दर्शितः । २४६-१५ ३ ज्ञानबिन्दौ मनापर्यायज्ञानस्य दर्शनत्वाभावनिष्टकनमऽत्रावेदितम् , तद्भावश्च दर्शितः ।
२४६-२३ ३१-१ च्यात्मक एक एव केवलोपयोग इति फलितस्य स्वमतस्य निगमनपरतया "साई अपअवसियं" इत्येकत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२४७-७ २ पूर्वोक्तनीत्या केवलावबोधो द्वयात्मक एक एवेत्यभ्युपगमे स्वसमयः, अन्यथा
परसमयः इति तात्पर्यार्थमुपदर्याभयसरिकृतोऽर्थ आवेदितः। २४७-१० ३२-१ भावतो जिनोक्ताखिलतत्वविषयकसमूहालम्बनश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनमपि
मतिज्ञानस्यैवापायांशरूपमेव, पृथग्विभागादिप्रक्रिया गोवृषन्यायात् , सभ्यग्दर्शनत्वं जातिविशेषो विषयताविशेषोवा, तदवच्छिन्ने दर्शनावरणक्षयोपशमानामेकशक्तिमत्वादिना हेतुत्वमिति ज्ञानावरणविशेष एव दर्शनावरणमित्यभि
प्रायकतया "एवं जिणपण्णत्ते' इति द्वात्रिंशत्तमगाथावतारिता तदर्थव दर्शितः।२४७-२० ३३-१ यस्मिन् रुचिरूपं दर्शनं तस्मिन् सम्यग्ज्ञानमस्ति न वेत्याशङ्कानि
वृत्तिपरतया "सम्मन्नाणे णियमेण" इति त्रयस्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता। २४८-४ २ सम्यग्ज्ञाने नियमेन सम्यग्दर्शनं, दर्शने तु विकल्पनीयं सम्यग्ज्ञानं, सम्यग्ज्ञानं
सम्यग्दर्शनश्वार्थापत्तिसिद्धम् , यद्वा सामर्थ्यादेकमेवोपपन्नं भवतीत्यर्थों दर्शितः। २४८-९ ३४-१ केवलज्ञानावरणक्षयकारणादुपजायमानत्वात्सादि केवलज्ञानं, पुनरुत्पादरिना
शानात्मकत्वादपर्यवसितं तदित्येतन्मतनिरासपरतया "केवलणाणं साई" इति चतुस्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता।
२४८-२१ २ केवलज्ञानं साद्यपर्यवसितं सूत्रे दर्शितमित्येतावन्मात्रेण गर्विताः केचन सन्तमपि पर्यवसितत्वादिकं नाभ्युपगच्छन्ति, न सम्यग्वादिनस्ते इत्यर्थः । २४८-२९
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विषयाः
पृ० पं. ३५-१ "जे संघयणाईया" इति पञ्चत्रिंशत्तमगाथा, तद्भावार्थस्तु वज्रर्षभनाराचसंहननादय
ये भवस्थकेवलिविशेषपर्यायास्ते सिद्धस्वरूपावाप्तिसमये न भवन्ति, भवस्थकेवलज्ञानपर्यायतया केवलज्ञानं विध्वस्तं भवतीति दर्शितः।
२४९-३ ३६-१ 'सिद्धत्तणेण य पुणो' इति षत्रिंशत्तमगाथाया अवतरणद्वयम् । २४९-१८ २ सिद्धत्वेनात्मकर्मसर्वोशपृथग्भावलक्षणेन पुनः सिद्धस्थकेवलज्ञानाख्यायपर्याय
उत्पन्ना केवलभावं त्वऽपेक्ष्य सत्रे केवलज्ञानमपर्यवसितमिति दर्शितमित्यर्थः । २४९-२६ ३ केवलज्ञानस्य साद्यपर्यवसित्वादिकं ततः सप्तभङ्गी प्रवृत्तिस्तत्रेति भाषितम् । २५०-९ ३७-१ जीवोऽनादिनिधनः केवलज्ञानं तु पुनस्साद्यपर्यवसितमित्येवं विरुद्धधर्माध्या
सात्तयोर्भेदे कथं केवलज्ञानस्यात्मस्वरूपतामाश्रित्य तस्योत्पादविनाशाभ्यां केवलज्ञानस्य तौ भवत इत्युपपादनमित्याशङ्कापरतया 'जीवो अणाइनिहणो' इति सप्तत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२५०-१९ २ जीवोऽनादिनिधनः केवलज्ञानं तु सादिकमनन्तम् , इति स्थूलबुद्धिगम्ये विरुद्धधर्माध्यासे सति तयोरत्यन्तभेदात् कथं जीवस्वरूपं केवलज्ञानं भवेदित्यर्थः।
२५०-२६ ३८-१ "तम्हा अण्णो जीवो" इत्यष्टत्रिंशत्तमगाथा, जीवज्ञानादिपर्याययोविरुद्धधर्मा
ध्यासाल्लक्षणभेदाच्चान्योन्य भेद इति केचिद्याख्यातारोऽभ्युपगच्छन्तीत्यर्थः । २५१-४ ३९-१ एतन्मतखण्डनपग "अह पुण पुव्यपयुत्तो" इत्येकोनचत्वारिंशत्तमगाथा, अथ
पुनः द्रव्यपर्यायकान्तभेदाभेदवादस्य प्रतिषेधलक्षणोऽर्थों 'दव्वं पञ्जवविउयं'
इत्यादिना पूर्व प्रयुक्तो यद्यपि तथाप्युदाहरणमिदमिति वक्ष्ये इत्यर्थः। २५१-१३ ४०-१ उदाहरणोपदर्शिका 'जह कोइ सद्विवरिसो' इति चत्वारिंशत्तमगाथा, यथा 'कश्चित्सर्वायुष्कमाश्रित्य षष्ठिवर्षः पुरुषः त्रिंशद्वर्षस्सन् नराधियो जातः, उभयत्र मनुष्ये राजनि च जातशब्दो वर्षविभागं दर्शयति इत्यर्थः, तब्दावार्थश्च प्रपश्चितः।
२५१-२४ ४१-१ जीवद्रव्यस्य केवलित्वपर्यायो विशेष इत्युपनयपरा "एवं जीवव्यं" इत्येकचत्वारिंशत्तमगाथा ।
२५२-२० २ पूर्वोक्तदृष्टान्तनीत्या जीवद्रव्यमनादिनिधनं यस्मादविशेषितम् , राजसह
शस्तु केवलित्वपर्यायः ऊर्ध्वतासामान्यात्मकजीवद्रव्यस्य विशेषः इत्यर्थ उपपादितः, तत्र उपदेशरहस्यनन्दिसूत्रवचनगर्भता च विचारपुष्टयर्थम् । २५२-२२
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आहा:
विषयाः ४२-१ नैकान्ततो द्रव्यं पर्यायेभ्यो भिन्नमेवेत्युपदर्शिका " जीवो अणाइनिहणो" इति द्विचत्वारिंशत्तमगाथा।
____२५३-२७ २ अनादिनिधनो जीवो विशेषविकलो जीव एवेति न वक्तव्यम्, यस्मात्पुरुषा
युष्कजीवो देवायुष्कजीवाद् भिन्न इत्यर्थः, भावार्थश्च प्रदर्शितः, द्रव्यपर्यायोभयात्मकं वस्त्विति निगमितं च ।
२५३-३० ४३-१ जीवकेवलज्ञानयोः कथञ्चिदेकत्वासयोमिथो धर्मसंक्रम इति प्रतिपादकतया "संखेजमसंखेज" इति त्रिचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता।
२५४-१८ २ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयविवक्षाभेदेनात्मन एकसंख्येयासंख्येयरूपत्वात्कथञ्चित्त
दभिन्नमपि केवलमेकं संख्येयमसंख्येयञ्च, ज्ञेयानन्त्यात्तदवगाहितयाऽनन्तपर्याय केवलम् , तदभिन्नात्माप्यनन्तपर्यायः, केवलज्ञानवत् जीवपर्याया रागद्वेषमोहा अपि तथा, अत्र 'एगे भवं दुवे भवे' इति सूत्रं संवादकम् ।
२५४-२४ ३ केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोगद्वययोगपयाभ्युपगन्तृश्रीमल्लवोदिमत-तत्क्रमिकत्वाभ्युपगन्वृजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमत-तद्वयाभेदोरीकर्तसिद्धसेनदिवाकरमतानां यान्
प्रति प्रदर्शनस्यानावश्यकत्वं यान्प्रत्यावश्यकत्वं तदुपदश्य तद्विवेकोपदर्शनावतारः।२५५-२५ ४ परस्परविरुद्धचरित्रयमतेष्वेकस्यैव पक्षस्य प्रामाणिकत्वेन तद्भिन्नपक्षद्वयस्या__ हच्छास्त्रबोधिततया तदभ्युपगन्तयां मिथ्यात्वप्रसङ्ग इत्याशङ्काया अपाकरणम् । २५६-१२ ५ "नस्थि नएहि विहूर्ण सूत्तं” इति सिद्धान्तवचनात्तत्तन्नयेन तत्तत्सूत्रं प्रवृत्तमिति
तत्तन्नयाभिज्ञस्वस्वगुरुसम्प्रदायाविच्छिन्नतत्तनयगर्भवाचनाप्रवाहायातास्त्रयोऽपि सूरिपक्षाः प्रमाणकोटिप्रविष्टा इति तेषां सुरीणां केषामपि नापसिद्धान्तोक्या मिथ्यात्वप्रसङ्ग इति भावितम् । ६ ऋजुसूत्रनयाभिप्रायमवलम्ब्य केवलज्ञानकेवलदर्शनक्रमिकोत्पादं प्रतिपादयन्ति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः।
२५६-२५ ७ भेदाभ्युपगन्तृव्यवहारनयाभिप्रायमाश्रित्यकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिककेवलज्ञानकेवलदर्शनभेदं प्रतिपादयन्ति मल्लवादिनः ।
२५७-१ ८ अमेदाभ्युपगन्तसङ्ग्रहनयमाश्रित्य ज्ञानत्वदर्शनत्वोपाधिभेदाभेदेऽपि व्यक्त्या केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरैक्यमामनन्ति श्रीसिद्धसेनदिवाकरा इति नैकस्मिन्नपि सूरिवरे आभिनिवेशिकमिथ्यात्वप्रसङ्ग इति ।
२५७-६
२५६-२१
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६५
विषयाः ९ प्राचां वाचामित्यादिसप्तपद्येनिबिन्दौ श्रीयशोविजयोपाध्यायैरुक्तमतत्रयेऽपि
तत्तनयापेक्षाभेदप्रयोज्यं प्रामाण्यं प्रतिपादितम् , तेषां क्रमेणार्थाचोक्ताः। २५७-२० १० द्वितीयकाण्डान्ते टीकाकृता नवपद्यानि कृतानि, तत्र प्रथमपद्ये यथैकस्मिन्
ज्ञाने कणभुग्मतेऽशभेदेन प्रमात्वाप्रमात्वयोनं विरोधः तथा पृथगपेक्षात एकस्मिन् ज्ञाने प्रमात्वप्रमाणत्वयोरपि न विरोध इति दर्शितम् ।
२६३-३ ११ द्वितीयपये केवलज्ञानदर्शनोत्पत्तौ त्रयोऽपि सरिपक्षा नयसूत्रकुण्ठधियां विरुद्धा इव भासन्ते, सूत्रनयानुयोगविदुषां तथ्या इति ।
२६३-७ १२ अर्बुदाद्रौ चतुरुत्तरद्विसहस्रमितेऽब्दे काण्डोऽयं सम्पूर्ण इति तृतीयपद्ये दर्शितम् । २६३-१६ १३ पश्चमादिपद्यत्रयेण द्वितीयकाण्डान्तिममङ्गलरूपार्हत्स्तुतिविशेषणपदगर्भतया टीकाकृता स्वनाम-स्वशिष्य-प्रशिष्यनामोदृनं कृतम् ।
२६३-२८ १४ स्वगुरुवरश्रीनेमिसरिस्तुतिरूपेऽष्टमपद्ये विशेषणाऽन्तर्गततया दर्शनसूर्याधष्टसूरिनामोल्लेखः कृतः।
२६४--१ १५ नवमपद्ये यानुद्दिश्यैष यत्नो न, यञ्चोद्दिश्यैष यत्नः कृतः तत्प्रदर्शनम् । २६४-५ ॥ इति द्वितीयकाण्डस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥
॥ अथ तृतीयकाण्डस्य साऽऽरभ्यते ॥
१--१ मधुपुरीपुरस्थश्रीवीरप्रभोः स्तुतिलक्षणं मङ्गलम् ।
२६५-५ २ "सामणम्मि विसेसो" इति प्रथमगाथायाः क्रमेणावतरणद्वयम् , तत्र सामान्यविशेषयोरन्योन्यानुस्यूतत्वप्रतिपादकं तृतीयकाण्डमिति ।
२६५-१३ ३ "सामण्णम्मि विसेसो" इति द्वितीयगाथाव्याख्यानम् ।
२६५-१९ ४ सामान्यविशेषयोरन्योन्यानुविद्वत्वं भावितम् ।
२६६-११ २-१ "एगंतणिन्विसेस" इति प्रथमगाथाऽवतरणम् , तत्र सामान्यविशेषयोरेकान्त
भिन्नत्वाभ्युपगमे प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधोऽनिष्टापादनञ्च । २६६-१९ २ "एगंतणिन्विसेस" इति द्वितीयगाथाव्याख्यानं, तत्र सामान्यस्य निर्विशेषत्वे द्रव्यस्य स्वपर्यायनिवृत्तिप्रसङ्ग आवेदितः ।
२६६-२४
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३ आत्मनो द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वोपपादिका " न द्रव्यमेव तदसौ” इति खण्डखायोक्तिः।
२६७-३ ४ विशेषस्य निस्सामान्यत्वे पर्यायस्य स्वद्रव्यनिवृत्तिप्रसङ्ग उपपादितः। २६७--५ ५ मिन्नबुद्धिग्राह्यत्वेन द्रव्यपर्याययोरेकान्तभिन्नत्वाशङ्का प्रत्यभिज्ञाप्रमाणवलेन ___ तयोःकथञ्चिद्भिन्नाभिन्नत्वव्यवस्थापनेन व्युदस्ता।
२६७-१३ ६ वस्तुमात्रस्य सामान्यविशेषोभयात्मकत्वनिगमनं, तत्र तत्सामान्यविशेषाख्येति' स्याद्वादरत्नाकरपद्यसंवादः।
__ २६७-२४ ७ तृतीयकाण्डप्रतिपादनीयं पूर्वमेवानेकगाथाभिः प्रतिपादितमिति पिष्टपेषणकल्पत्वान्भारम्भणीय तृतीयकाण्डमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
२६७-२७ ८ तत्र नैयायिकवैशेषिकसाङ्ख्ययोगवेदान्तिबौद्धा अपेक्षाभेदेन तदतत्स्वभावमनेकान्तमभ्युपगच्छन्तोऽप्यनेकान्ततत्त्वे प्रत्यक्षादिविरोधमुद्भावयन्ति, तत्परिहारायानेकधा .
क्रियमाणभनेकान्ततत्त्वनिरूपणं न दोषावहमिति प्रतिविधानान्तरम् । २६८-१ ३-१ "पच्चुप्पन्नं भावं" इति तृतीयगाथाऽवतरणम् , तत्र आपेक्षिकवचनमाप्तस्य,
एकान्तवचनमनाप्तस्य, अथवा सामान्य विशेषाद्यनेकान्तप्रतिपादकं वच आप्तस्य, इतरदितरस्येति ।
२६८-१४ २ पच्चुप्पन्नं भावमिति तृतीयागाथाविवरणं, तत्र वर्तमानपर्यायस्यातीतानागत
पर्यायाभ्यां द्रव्यरूपेण समन्वयवचनं सर्वज्ञवचनमन्यदनाप्तवचनमिति दर्शितम् । २६८-२२ ३ वर्तमानपर्यायस्यातीतपर्यायात्मकत्वे सत्कार्यवादापत्तिसाम्राज्यं, तत्र च दोषप्रसअनमिति प्रश्नः।
२६८-२७ ४ तथा वर्तमानपर्यायस्य भविष्यत्पर्यायात्मकत्वे दोषापादनम् । २६९-७ ५ कथश्चित्सदसत्कार्यवादाभ्युपगमेन दोषाभावप्रतिपादकमुक्तप्रश्नप्रतिविधानम् । २६९-११ ६ कथञ्चित् सदसत्कार्यवादानुपगमे उपादानकारणत्वस्य दुर्घटताऽऽवेदिता नैयायिकोपगतोपादानत्वखण्डनेन ।
२६९-१३ ७ यद्यत्कुर्वपात्मकं तत्तस्योपादानकारणमिति बौद्धमतस्य खण्डनम् । २६९-१८ ८ वर्तमानपर्यायस्य भविष्यत्पर्यायात्मकत्वे भविष्यतो वर्तमानकाले उपलब्धिप्रसङ्गदोषस्यापाकरणम् ।
२६९-२६
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९ कारपस्य फयश्चित्सजननस्वभावो निगमितः ।
२६९-२६ १० असत्कार्यवादे कारणाभावादेव शशशृङ्गादेरसतो नोत्पत्यापादनमिति नैयायिक
दूषणप्रतिविधानाशङ्का खण्डिता, अत्र पूर्वपक्षप्रतिविधानाभ्यां विचार: पल्लवितः।२६९-२८ ११ प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धोऽसद्वादो वैकल्पिक सदसद्वादं मिथ्यात्वेन गमयतीत्यत्र
संविदेव भगवतीति यन्नैयायिकेनोक्तं तत् संविदोऽपि कथञ्चिद्भेदाभेदवादमन्तरेणानुपपत्तिरित्युपपादनेन खण्डितम् ।
२७०-१६ १२ आत्मज्ञानयोः कथञ्चिभेदाभेदाभावेऽपि समवायवलाद् गुणगुणिभाव इति नैयायिकोक्तमाशङ्कय प्रतिक्षिप्तम् ।।
२७०-२१ १३ एकान्तसत्कार्यवादाशङ्काखण्डनपूर्वकं सदसत्कार्यवादं समर्थ्य वर्तमानपर्यायस्याऽन्वयि
द्रव्येण त्रिकालास्तित्वप्रतिपादकं वचनं प्रतीत्य वचनमिति निगमितम् । २७०-२६ १४ द्रव्यान्तरनिसृतमपि प्रतीत्य वचनमित्यस्योपपादनं, तत्र परमाणुपुञ्जव्यतिरि
ताक्यविद्रव्याभाव इति बौद्धमते नैवत्, किन्त्वतिरिक्तावयविद्रव्याभ्युपगन्तन्यायमतेनेति विचारितम् ।
२७१--२ १५ तद्यथा प्रतीत्यवचनं तथा जैनीप्रक्रियां समाश्रित्य भावितम् । २७१-१७ १६ समवेतकार्य समवायिकारणे उत्पद्यत इति समवायिकारणमेव तदाधार इति नैयायिकाशङ्कानिरासः।
२७१-२३ १७ मृदुपादानाद् घटकार्योत्पत्तिः, तत्र "सामान्यमेव तप देव तदूर्ध्वताख्यम्" इति ।
महावीरस्तववचनसंवादः। १८ संयोगस्य पर्यायरूपत्वे "एगत्तं च पुढत्त' इति उत्तराध्ययनसूत्रं प्रमाण दर्शितम्।२७१-३० १९ कपालद्वयसंयुक्तावस्था घटोत्पत्तिः, विभक्ताक्यवात्मकतयोत्पन्नकपालद्वयात्मको
घटनाश इति व्यवस्थाप्य मृद्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्यशालित्वेन सदूपत्वमावेदितम्, तत्र "तेनोत्पादव्ययौव्येति" स्याद्वादरत्नाकरपद्यसंवादश्च ।
२७२-१ २० द्रव्यान्तरनिसृतमित्यस्य व्याख्यान्तरं, तत्र दीर्घतरं मध्यमाङ्गलिद्रव्यमपेक्ष्य
इस्वतस्मगुष्ठकद्रव्यमित्याद्यपि प्रतीत्य वचन मिति भावितम् एतभावार्थश्च ।२७२-९ ४-१ "दव्वं जहा परिणयं" इति चतुर्थगाथावतरणम् । तत्र वर्तमानपर्यायस्यातीता
दिकालावच्छेदेन सत्वे कालत्रयस्यैक्यापादनाशकवम्, तत्परिहारपरा गाथा ।२७२-१९ २ "दव्वं जहा परिणयं" ति गाथाविवरण, तत्र धर्माधर्माकाशास्तिकाया गति
स्थित्यवगाहनोपष्टम्भकतया परसंयोगजपर्यायैश्च, पुद्गलास्तिकायाख्यं परमाण्वादिकं
२७१-२५
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षट्गुणहान्यादिकार्यतया द्वषणुकादिकार्यतया च, जीवास्तिकायाख्य च मनुष्यादितत्तद्गत्यादिपर्यायतया तत्तदर्थयाहिज्ञानादिपर्यायतया च कालाख्यश्च तत्तत्पुद्गलनवपुराणादिभावहेतुतया ऋतुविभागेन समयविभागेन च यत्परिणतं तथैव तस्मिन् समये वर्तमानकालेऽस्तीति दर्शितम् । ।
२७२-२६ ३ उक्तार्थे धम्मत्यिकाएणं भंते ।" इति भगवतीमत्रं प्रमाणतया दर्शितम् । २७३–५ ४ अतीतानागतपर्यायाभ्यां वर्तमानपर्यायस्य द्रव्यार्थिकनयादेशेनाभिन्नत्वं पर्यायाथिंकनयादेशेन च भिन्नत्वमिति कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नत्वमिति तत्प्रतिपादकवचनस्य प्रतीत्यवचनत्वं निगमितम् ।
___२७३-११ ५-१ "परपञ्जवेहिं" इति पञ्चमगाथावतरणम् , तत्रात्मादिपदार्थस्य सदृशपर्यायैर
स्तित्वं विसदृशपर्यायैर्नास्तित्वमित्युपपादनाय पञ्चमी गाथेति । २७३-२२ २ "परपवेहिं" इति पञ्चम्या गाथाया विवरणम् , तत्र विजातीयज्ञानप्रायैः
परपर्यायैर्नास्तित्वं, सदृशैव्य॑अनपर्यायैरस्तित्वं न त्वर्थपर्यायरित्युपपादितम्। २७३-२७ ३ वस्तुमात्रस्याभिलाप्याऽनभिलाप्यत्वधर्मद्वयं भिन्नापेक्ष्य, तत्र " अभिलाप्यानभिलाप्य" इति पद्यसंवादः।
२७४-८ ४ त्रिकालानुगतव्यानपर्यायैरेव सर्वस्यास्तित्वं न त्वर्थपर्यायरित्युपपादित, सामा- . · न्यमात्रस्य शब्दवाच्यत्वमपाकृतम् , सामान्यमात्रशब्दवाच्यत्वाभ्युपगन्तमीमां
सकमतस्य व्यक्तिमात्रशब्दवाच्यत्वाऽभ्युपगन्तमतस्य च खण्डनम् । २७४-१७ ५ जातिव्यक्त्योरेकान्तभेदपक्षे सम्बन्धाभावाद्विशिष्टबुद्धयनुपपत्तिमुपदर्य कथ
ञ्चिभेदाभेदपक्षः समर्थितः। ६-१ "पच्चुप्पण्णम्मि" इति षष्ठीगाथाऽवतारिता ।
२७५-१५ २ तद्विवरणं, तत्र वर्तमानेऽपि पर्याये द्रव्यं भेदाभेदात्मिकां विकल्पपद्धतिमेति, । तत्र एकगुणकृष्णत्वाद्यनन्तगुणानां मध्यात्केनचिद्गुणविशेषेण युक्तं तदिति हेतुरुपपादितः।
___२७५-२० ३ प्रत्युत्पन्ने आत्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपतेति शङ्का प्रतिविहिता, तत्र . लक्षप्यमुपपादितम् ।
२७६-४ ४ एकस्याप्यात्मनो द्रव्यात्मकषायात्मेत्याद्यष्टविधत्वे 'कइविहाणं भंते ! आया पभत्ता ?' इति सूत्रोक्तितः सिद्धान्तसिद्धता दर्शिता ।
२७६-११ ७-१ को उप्पायन्तो" इति सप्तमी गाथाऽवतारिता ।
२७६-२८
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२ उक्तगाथाविवरणम् , तत्र स्वस्मिन् स्वयं कोपोत्पादकः पुरुषः परभवप्रादुर्भावपरिणतिविशिष्टस्य जीवस्य कारको भवतीति पूर्वोत्तरयोस्तयोः कार्यकारणात्मनोः कथश्चिमेद इत्युपपादितम् ।
२७७-१ ३ सरागस्यैवात्मनो जन्मेति पूर्वोत्तरभवानुयायिन एकस्यैवात्मनो भावात्कथं भवभेदेन
भेद इति प्रश्नस्य प्रतिविधानं, विशेषणभेदाद्विशिष्टयोर्भेदोऽपि मुख्यवृत्त्येति साधितम् ।
२७७-८ ४ एकस्यापि जीवस्य स्वभावभेदाद् भेद उपपादितः ।
२७७-१७ ५ परभवजीवात्कोपपरिणतिमापद्यमानस्य जीवस्य सर्वथा भेद एवास्त्विति शङ्का
प्रतिविधानं, स्वात्मनैव स्वात्मनि कोपपरिणत्युत्पत्तिरिति निश्चयनयमतमेतत् । २७७-२१ ६ अन्यस्मिन् जीवे कोपमुत्पादयन् पुरुषस्तस्य कारक इतिव्यवहारनयेन व्याख्यान्तरम् ।२७७-२८ ८-१ द्रव्यगुणयोः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नत्वमसहमानानां मतस्योत्थापकतयाऽष्टमी गाथाऽवतारिता।
२७८-१ २ "रूवरसगन्धफासा" इत्यष्टमगाथाविवरणम् , तत्र द्रव्याद् गुणानामसमानग्रहणलक्षणत्वं भेदप्रयोजकमुपवर्णितम् ।
२७८-५ ३ द्रव्यगुणयोरसमानलक्षणप्रतिपादकं वैशेषिकसूत्रद्वयमुपदर्शितं,भेदसाधकमनुमानञ्च ।२७८-१२ ९-१ तन्मतनिराकरणपरतया "दूरे ता अण्णत्त" इति नवमीगाथाऽवतारिता । २७८-२० २ "दूरे ता अण्णत्" इति गाथाविवरणम् , गुणगुणिनोरेकान्तेन भिन्नत्वमसम्मा
वनीयं, गुणशब्दः पर्यायभिन्ने गुणे पर्याये वा प्रवर्तत इति परीक्षा कार्या । २७८-२३ ३ भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वभिन्नलक्षणस्वाभ्यां द्रव्याद् भिन्ने सिद्धे गुणे गुणशब्दः प्रयुज्यत इति किं तत्र परीक्षाकरणेनेति प्रश्नपतिविधानम् ।
२७८-२९ ४ रूपवान् घट इत्यादिप्रतीत्या भेदे मतुष्प्रयोगाद् गुणगुणिनोरेकान्तभेदसिद्धिरित्याशङ्का निराकृता, नित्ययोगेत्र मतुविधानम् ।
२७९-३ ५ एकान्तभेदे सम्बन्धायोगात् मतुष्प्रत्ययाऽर्थस्य नित्यसम्बन्धस्य कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकस्यैव मानमित्युपपादितम् ।
२७९-७ ६ गुणो द्रव्याद् भिन्न इत्यनुमाने धर्मिणो गुणस्य पर्यायात्मकत्वतदनात्मकत्वविकल्पेन बाधासिद्धयादिदोषप्रदर्शनम् ।
___ २७९-१४ ७ द्रव्यं गुणादिभ्यो भिन्नं गुणवत्त्वादित्यनुमान रूपादेरपि संख्यात्मकगुणवत्त्वेन व्यभिचारतो व्युदस्तम्, रूपादौ सङ्ख्यापतीतेन्तित्वमपाकृतम्, तत्र वैशेषिकाभिमतमुभाव्य व्युदस्तम् ।
२७९-१६
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७०
८ गुणस्य सर्वथा द्रव्याद्भिनत्वेऽवयवद्वयोत्कृष्टगुरुत्वतोऽवयविन्युत्कृष्टतरगुरुत्वोपलब्धिप्रसङ्ग उपपादितः ।
९ वस्तु द्रव्यपर्यायात्मकं तत्र द्रव्यमनुगतं, व्यावृत्तच पर्यायः क्रमभाविसहभाविभेदेन द्विविधः, तत्र क्रमभाविनः पर्याय इति सहभाविनो गुण इति संज्ञेति निगमितम् ।
१० उक्तार्थे महावीरस्तवस्य 'स्वद्रव्यपर्ययगुणानुगता हि तत्ता' इति श्लोकटीकावचनसंवादो दर्शितः ।
२८०-३
२८०-१०
२८०-१६
११ आत्मनि क्रमभाविपर्यायाः सुखादयः, सहभाविपर्याया ज्ञानादय इत्यत्र तत्वालोकवार्तिकटीका संवाद : प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्र संवादश्च दर्शितः । २८०-१७ १२ गुणपर्याययोः कथञ्चिद्भेदमभिप्रेत्यैव " गुणपर्यायवद्द्रव्यम्” इति सूत्रं संन्धम् । २८०-२५ १०- १ द्रव्य पर्यायाश्चेत्येवं विभागो युक्तो न तु द्रव्यं गुणः पर्यायश्चेति, गुणस्य पर्यायाद् भिन्नत्वे तृतीयो गुणास्तिकनयोऽपि प्रभूक्तः स्यादिति प्रतिपादन - परतया दशमी गाथाऽवतारिता ।
२८०-३० २ ' दो उण णया भगवया' इति गाथास्पष्टीकरणमवतरणसमानार्थकम् । २८१-५ ११ - १ भगवता गुणार्थिकनयो न नियमितः किन्तु पर्यायार्थिक एवेत्यर्थकतया
"जं च पुण अरिया" इत्येकादशी गाथाऽवतारिता तथैव व्याख्याता च । २८१-१० १२ - १ " वण्णपजवे हिं” इति सूत्रे पर्यायशब्देन गुण एव किं नोक्तः स्यादित्याशङ्कासमाधानपरतया " परिगमणं पजाओ" इति गाथाऽवतारिता । २ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र सहभाविभिः क्रमभाविभित्र भेदैः परिच्छेदः पर्यायः, अनेकरूपतया वस्तुनो ज्ञानं गुण इत्येवं तुल्यार्थी गुणपर्यायशब्दौ तथापि भगवतः पर्यायार्थिकनयद्वारेणैव देशनेति पर्यायशब्देनैवाभिधानं गुणपर्यायशब्दयोयुत्पत्तिनिमित्ततौल्येऽपि प्रवृत्तिनिमित्तभेदान्न पर्यायशब्दत्वमिति । १३ - १ पर्यायशब्दः क्रमभाविधर्मवाचक एव, गुणशब्दच सहभाविधर्मवाचक एवेति गुणार्थिकनयोऽप्यर्थाद्भगवतोपदिष्ट एवेत्याशङ्कापरतया 'जंपंति अस्थि समये' इति त्रयोदशीगाथाऽवतारिता ।
२८२-१०
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२८१-१७
२८१-२०
२ उक्तगाथा विवरणं, तत्र "एगगुणकालए दुगुणकालए" इति सिद्धान्ते गुणशब्द. प्रयोगात् रूपादिपरिणामो गुणविशेष इति गुणार्थिकनयोऽपि विद्यत इति शङ्का । २८२-१६ १४ - १ तत्प्रतिविधानपरतया 'गुणसहमंतरेणावि' इति चतुर्दशी गाथाऽवतारिता । २८२ - २३
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७१
२ तत्र गुणत्वावच्छिन्नवाचकगुणशब्दमन्तरेणापि पर्यायविशेषसंख्यावाचकः सः,
संख्यानशास्त्रधर्मो गुणः, तद्वाचको गुणशब्दः प्रयुक्तो, न तु गुणार्थिकनयाभिप्रायक।२८२-२६ १५-१ उक्तार्थदृढीकरणार्थतयाऽवतारिता "जह दससु दसगुणम्मि य” इति पञ्चदशीगाथा ।२८३-९ २ तत्र दशसु द्रव्येषु दशगुणिते एकस्मिन् द्रव्ये च गुणशब्दाधिक्येऽपि दशत्वं तुल्यं यथा, तथा प्रकृतेऽपि, “गुणपर्यायवद्र्व्यम्" इति तत्वार्थसूत्रे सहभाविधर्मवाचकगुणशब्दसमभिव्याहारात्पर्यायशब्दस्य क्रमभाविपर्यायार्थकस्यापिगोबलीवर्दन्यायेन भेदप्रतिपादकत्वं न दोषावहमिति न गुणाधिक्यम् । २८३-११ ३ गुणपर्याययोर्भेदः काल्पनिकः, स वास्तवतदभेदाविरोधी, कल्पनाबीजं तु .. व्युत्पत्तिविशेषाधानम् , अत एव "गुणाणमासो दव्वं" इत्युत्तराध्ययनवचनं
"दव्वनामे गुणनामे पजवणामे' इत्याद्यनुयोगद्वारवचनं च सङ्गतमिति । २८३-२० ४ नाणदंसगट्टयाए दुवे अहं इत्यादि भगवतीवचनं गुणार्थिकनयप्रतिपादकमित्याशङ्का व्यपाकृता।
____२८३-२६ १६-१ द्रव्यपर्याययोरेकान्ताभेदवादिमतोपदर्शकतया “एयंतपक्खयाओ” इति षोडशी गाथाऽवतारिता।
२८४--३ २ तद्विवरणम्, तत्र द्रव्यायेकान्तभेदवादः पूर्वमेव यद्यपि निरस्तः, तथापि द्रव्यैका‘न्ताभेदवाददाढर्यार्थ उदाहरणमात्रमुपदर्यत इति ।
२८४-७ १७-१ "पिउ-पुत्त-णतु-भाणिज्ज" इति सप्तदशी गाथाऽवतारिता, तत्र द्रव्यव्यतिरिक्तं ..
गुणकर्मादिकं नास्ति, यथा पितृपुत्रादयो न पुंसो भिन्नाः, पितृत्वादिकं पुरुषवृत्त्यपि तदभित्रं
तथा द्रव्यवृत्तयोरूपादयो गुणाः कर्मापि च द्रव्यादव्यतिरिक्तत्वाद् द्रव्यमेव । २८४-१२ १८-१ 'जह संबंधविसिट्ठो' इत्यष्टादशगाथाऽवतरणम् , तत्र अतिरिक्तगुणाभावेऽपि
चक्षुरादीन्द्रियसम्बन्धतश्चाक्षुषादिप्रत्यक्षानुकूलशक्तिमत्त्वेनैकस्मिन् द्रष्ये रूपरसादिव्यपदेशगोचरत्वं, एकस्यानेकसंज्ञाकरणमात्रेण नानात्वं न, एकस्यापि गीर्वाण
नाथस्य शक्रेन्द्रादिशब्दैर्व्यवहियमाणत्वेन नानात्वप्रसङ्गादिति । २८५---१ २ उक्तगाथाविवरणम् , तत्र यथा स पुरुषः पुरुषत्वेनाभिन्नोऽपि पितृपुत्रादि
सम्बन्धं निमित्तीकृत्य पुत्रपित्रादिव्यपदेशं प्रामोति तथा द्रव्यमिन्द्रियगतं
रूपादिविशेषणं लभते, एतद्भावार्थ आवेदितः, शङ्कान्तरं व्युदस्तम् । २८५-९ १९-१ एकान्तद्रव्याद्वैतवादाप्रामाण्यज्ञापनाय स्याद्वादसिद्धान्तवाद्युक्तिरूपतया "होजाहि दुगुणमहुरं" इत्येकोनविंशतितमगाथाऽवतारिता ।
२८५-२२
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७२
२ उक्तगाथाविवरणं, तत्रैकमेव द्रव्यं यदि रसनासम्बन्धान्मधुरादिरसस्य नयनसम्बन्धाकृष्णादिरूपस्य च व्यपदेशभाक तर्हि रसतो द्विव्यादिगुणमधुरं यावदनन्तगुण
मधुरं रूपतो द्विव्यादिगुणकृष्णं यावदनन्तगुणकृष्णं तद्रव्यं कुतस्स्यादिति, पुरुषदृष्टान्तेऽपि • न त्वल्पको महान् वा भवति सम्बन्धतः पुरुषः, अस्य भावार्थ उपदर्शितः । २८६-२ २०-१ एकान्ताभेदवाद्याशङ्कारूपतया 'भष्णइ संबंधवसा' इति विंशतितमगाथामवतार्य तद्विवरणम् ।
२८६-१३ २ तत्र सम्बन्धसामान्यवशायदि सम्बन्धित्वसामान्यमनुमतं तव, तदा सम्बन्धविशेषद्वारेण संबन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यत इति ।
२८६-१६ २१-१ तत्समाधानरूपतया 'जुज्जई संबंधवसा' इत्येकविंशतितमगाथामवतार्य तद्विवरणम् ,
तत्र स्याद्वादिमते सम्बन्धविशेषादिसद्भावात्सम्बन्धविशेषप्रयुक्तः सम्बन्धिविशेषो युक्तः, द्रव्यैकान्तवादिमते सम्बन्धिविशेषाभावान्न सम्बन्धविशेष इति तत्कृतः कुतो रूपादिविशेषपरिणाम इति ।
२८६-२१ २२-१ अनेकान्तकादिमतेऽपि रूपरसादेः षड्गुणहानिद्धयादिपरिणतिः कथमुपपन्नेति
पराशकोपदर्शनपूर्वकतादृशपरिणत्युपपादनपरतया " भण्णइ विसमपरिणय" इति द्वाविंशतितमगाथाऽवतारिता।
२८७-३ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र शीतोष्णस्पर्शवद्विरोधादाम्रफलादिकमेकदा द्विगुणाद्यनन्तगुण
वृद्धिहानिरूपविषमपरिणतिपरिणतं कयं भविष्यतीत्यत्र परनिमित्तं भवति वैषम्यं, न वा परनिमित्तमेव तदित्येकान्तोऽस्तीत्युपपादितम् ।
२८७-७ ३ गुणानां साश्रयत्वव्यवस्थापनेन निराधारगुणानुपपत्त्यैकान्तगुणाद्वैतवादनिरसनम् , तत्रान्यदपि गुणैकान्तवादिनोऽभिभतमाशङ्कय व्युदस्तम् ।
२८७-२३ ४ द्रव्यस्य गुणरूपत्वे रूपवान् घट इत्यादि प्रतीतिर्न स्यात्किन्तु रूपं घट इत्यादि प्रतीतिरापद्यतेत्यादि प्रदर्शितम् ।
૨૮૮-૨ २३-१ भेदैकान्तवाद्यभिमतद्रव्यगुणलक्षणानुपपत्युद्भावकतया 'दन्वस्त द्विई" इति प्रयोविंशतितमगाथाऽवताय व्याख्याता ।
२८८-११ २ तत्र द्रव्यस्य ध्रौव्यं गुणस्योत्पादविगमाविति लक्षणं केवलिद्रव्यस्य केवलज्ञान
गुणस्य युज्यत इति विलक्षणत्वं तत्र घटते, न तु द्रव्यस्याण्चादेरिति द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिवक्तव्यमुपपाध दर्शितम् ।
२८८-१४
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२४-१ तदुत्तरतया “दव्वत्थंतरभूतया" इति चतुर्विंशतितमगाथाऽवतारिता। २८८-२८ २ तद्विवरणम् , तत्र परमते द्रव्यार्थान्तरभूता गुणा मूर्ता अमूर्ती वेति विकल्प्य । उभयत्र दूषणमभिहितम् ।
२८९-१ २५-१ "सीसमई विष्फारणमेत्तत्थोऽयं" इति पञ्चविंशतितमगाथाऽवतरण, तत्र
पूर्वोपवर्णितं सर्व विवक्षामात्रेण जात्यन्तरात्मके वस्तुनि भेदाभेदाधन्यतरकथाया असम्भवादित्येकमवतरणम् ।।
२८९-११ २ आर्हतानामुत्सर्गतः स्याद्वादरूपसप्तभङ्ग्यात्मकप्रमाणवाक्यस्य तदेकवाक्यतापनतत्तन्नयवाक्यानां च यथार्थतत्त्वाधिगमकानामभिधानमुचितम्, न तु मिथ्या. रूपाणामसद्रपैकान्ततत्त्वप्रतिपादकानाम् , तथापि स्याद्वादव्युत्पत्त्याधानाय नयवादेष्वपि प्रवृत्तिरुचिता, असत्ये वर्मनि स्थित्वेति न्यायेन स्वरूपतोऽसत्यानामपि नयानां फलतः सत्यत्वादिति द्वितीयमवतरणम् ।
२८९-१३ ३ उक्तगाथाविवरणं, तत्र विनीतविनेयबुद्धिविकाशमात्रफलकोऽयं प्रबन्धः, अन्यथा स्याद्वादानात्मिका कथा स्वसिद्धान्ते नास्त्येव, अत एव "नैवावधारणी भाषा
भाषेत" इति सिद्धान्तोक्तं सङ्गतम् , अयं निषेधः स्वतन्त्रनयविषय एवेति दर्शितम्।२९०-३ २६-१ "ण वि अस्थि अण्णवाओ" इति षइविंशतितमगाथा यद्वस्तु यद्धर्मान्वितं
तथैव तत्प्रतिपादयन्तस्सम्यग्वादिनोऽन्यथा मिथ्यावादिन इत्यर्थकतयाज्ञतारिता । २९०-१७ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र जैनसिद्धान्ते गुणगुणिनोरेकान्तभेदवाद एकान्ताभेद
वादश्च नास्ति, तावेकान्तेन भिन्नावेव एकान्तेनाऽभिन्नावेवेति मन्यमाना वादिनो यथार्थतत्वं न जानन्तीत्यर्थों भावार्थश्च दर्शितः ।
२९०-२३ ३ सयुक्त्यैतावता प्रबन्धेनानेकान्तवाद एव सिद्धिकोटि नीत इति प्रतिज्ञाय __ तद्भावना, तत्रज्ञानात्मनोघंटरूपाद्योश्च एकान्तेन भेदस्याऽभेदस्य च खण्डनम् । २९१-३ ४ द्रव्यगुणयोर्भेदविशिष्टाभेदसाधकानुमानप्रदर्शनम् , तत्र साध्याप्रसिद्धिदोषापाकरणम्, कपिसंयोग्यभिन्ने वृक्षे कपिसंयोगभेदसाधनात् ।
२९१-२५ ५ भेदाभेदोभयस्य पक्षे सिद्धितो जात्यन्तरात्मकवस्तुसिद्धिः, तत्र 'स्याद्वादतस्तव __तु बाह्यमथान्तरङ्गम्' इति महावीरस्तववचनसंवादः ।
२९२-३ ६ परस्परविरहरूपत्वेन विरुद्धयोर्भेदाभेदयोनैकत्र समावेश इति तन्त्रान्तरी
याऽऽशङ्का तत्र हेत्वसिद्धिदृष्टान्ताऽसिद्धि स्वरूपासिद्धिशङ्कापरिहारः। २९२-८ ७ उहाऽऽशक्कानिरासः, परं प्रति विरोधाज्ञानसिद्धये विरोधलक्षणपृच्छा, तदुत्तरस्य विरोधलक्षणप्रतिपादनरूपस्य खण्डनम् ।
२९२-१७
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७४
८ परप्रतिपादितेऽशेषदोषमुक्ते विरोधलक्षणे स्वसम्मतिः, तथाविधविरोधसद्भाase विभिभावच्छेदेन भेदाभेदयोरेकत्र सद्भाव उपपद्यत एवेति, विरोधलक्षणाऽन्तरस्यापि प्रकृतेऽनुपयुक्तत्वं भावितम् ।
२९३-३
९ अनेकान्ततत्त्वाम्युपगमे विरोधगन्धलेशो नास्तीत्यत्र " भिन्नापेक्षा यथैकत्र" इत्यsध्यात्मोपनिषद्वचनसंवादः ।
२९३-१७
१० यदवच्छेदेन भेदस्तदवच्छेदेन भेद एव एवमभेद एवेति नैकमुभयरूपम्, एकावच्छेदेनोभयस्वीकारे सङ्करप्रसङ्ग इत्यनयोरपाकरणम्, नात्र संशयाप्रतिपत्त्यादयोऽपि दोषा इत्युपपादितम् ।
२७- १ " भयणा विहु भइयन्वा" इति सप्तविंशतितमगाथाऽवतरणम्, तत्राने का - न्तेऽनेकान्ताभ्युपगमेऽनवस्था, अनेकान्तेऽनेकान्तानभ्युपगमे एकान्तत्वप्रसक्तिः, तथा च वस्तुत्वतौ अनेकान्तत्वसाधकेऽनेकान्ते व्यभिचार इत्याशङ्का । २ उक्ताशङ्काप्रतिविधानं, अनेकान्तेऽनेकान्ताभ्युपगमे नानवस्था, न्यायमते तृतीयचतुर्थात्यन्ताभावयोः प्रथमद्वितीयात्यन्ताभावात्मकत्ववज्जैनमतेऽपि तृतीयचतुर्थाने कान्तयोः प्रथम द्वितीयाने कान्तरूपत्वादिति ।
३ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र यथाऽनेकान्तः सर्वद्रव्याणि तदतत्स्वभावात्मकतया ज्ञापयति, तथाऽनेकान्तमपि स एकान्ताऽनेकान्तात्मकतया ज्ञापयति । २९४-१६ ४ नयापेक्षया तत्रैकान्तत्वं प्रमाणापेक्षया चानेकान्तत्वं, 'अनेकान्तोऽप्यनेकान्त
२९३-१८
" Aho Shrutgyanam"
२९३-३०
२९४-४
इत्युक्तेः, "trणभा सिय सासया" "दव्वट्टयाए सासया" इत्यागमोक्तेश्च १२९४-२३ ५ अत्र विशेषो 'देशेन देशदलनं भजनापथे तु' इति खण्डखाद्यश्लोकटीकातोऽवसेयः, तत्राऽनवस्थापरिहारोऽन्योन्याश्रयश्च प्रामाणिकः, सामान्यविशेषभावेन सप्तभङ्गीद्वयविश्राम इति च प्रदर्शितम् ।
२९५
६ प्रमाणमाश्रित्याने कान्तो नयत्वमाश्रिन्यैकान्त इति खण्डखाद्योक्तेरर्थी भावादर्शितः ।
२८ - १ " णियमेण सहहंतो " इत्यष्टाविंशतितमगाथाविवरणम्, तत्र पडेवैते जीवाः कायाश्वेत्येवं श्रद्दधानः परमार्थतः षट्कायान् न श्रद्धत्ते इत्यस्य स्पष्टीकरणम्, तथा श्रद्दधानो न भावसम्यग्दृष्टिः, किन्तु द्रव्यसम्यग्दृष्टिः, तत्र 'अणभिम्गहियकुदिट्ठी' इत्याद्युत्तराध्ययनवचनसंवादः ।
२ उक्तार्थे हेतूपदर्शकं "हंदी अपजवेसु" इत्याद्युत्तराधे, भङ्गान्तरसंवलनरहितेषु धर्मेषु श्रद्धाप्यऽसंपूर्णा भवतीत्यर्थः एकञ्चादिप्रकाररहितेषु षट्षु कायेषु श्रद्धापि संक्षिप्ता भवतीत्यर्थश्च द्रव्यश्रद्धापर्यवसन्ना भवतीति पर्यवसितः ।
1
२९५-१७.
२९६-९
२९६-२५
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७५
२९८-१
३ तस्याः संक्षिप्तश्रद्धारूपत्वे 'एकविहदुवितिविहा' इति सिद्धान्तोक्तिः प्रमाणतया दर्शिता।
२९७-१ ४ शास्त्रे सम्यक्त्वस्य द्रव्यभावभेदेन वैविध्यं यथा प्रोक्तं तथा विवेचितम् , तत्र 'तुह वयण तत्तरुई' इति वचनसंवादः।
२९७-११ ५ शुभात्मपरिणामविशेषानुगतं द्रव्यसम्यक्त्वं भावसम्यक्त्वमपि न व्यभिचरति, प्रज्ञप्तौ रुचिभेदानां क्षायोपशमिकादिभावभेदेष्वन्तर्भावितत्वादित्यापेक्षिक द्रव्यभावसम्यक्त्वम् ।
२९७-१९ ६ 'हंदी अपनवेसु' इत्युत्तरार्धस्य व्यारव्यानान्तरम् ।
२९७-२३ ७ षट्जीवनिकायास्तद्घाते चाधर्म इत्यत्रापि सप्तभङ्गीजन्यबोधोत्पत्तितो नाव्याप
कत्वमनेकान्तस्येति निगमितम् । २९-१ अनेकान्तस्य व्यापकत्वे गच्छति तिष्ठत्यादेनियमो न स्यादित्याशङ्कोद्धरणार्थ
परतया 'गइपरिणय गइ चेव' इत्येकोनत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता। २९८-४ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र गतिक्रियापरिणतं द्रव्यं गतिमदेवेत्युपगच्छद्भिर्वादिभिः प्रतिनियतो दिगतिमदेवाभ्युपेय, तत एव नियतव्यवहारः, ततश्च विवक्षितप्रतिनियतदिगपेक्षया गतिमत् , अन्यदिगपेक्षया चाऽगतिमदित्यनेकान्तस्सिद्धो भवति, भावश्चास्य दर्शितः, तत्र शङ्कान्तरपरिहारश्च ।
२९८-९ ३ गतिमत्त्वागतिमत्वयोरपेक्षाभेदेनका समावेशे गच्छत्यपि न गच्छतीत्यपि
व्यवहारः स्यादित्याशङ्काया इष्टापत्या परिहारः, शङ्कान्तरस्याप्येतेन निरासः, सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदभिन्नत्वेन विशेषाभावस्थापि सामान्याभावत्वमुपपाघानेकान्तो भावितः।
२९९-८ ४ उक्तदिशा स्थितितदभावयोरेकत्रोपदर्शनेन स्थितावप्यनेकान्तो व्यवस्थापितः। ३००-७ ३०-१ वस्तुमात्रस्य तदतत्स्वभावात्मकत्वे दाहानुकूलशक्तिमत्वाद्दहन इतीव स
दाहानुकूलशक्त्यभावादऽदहनस्तदानीमेव, तथैव पचनोऽप्यपचन इत्याशङ्काया अपेक्षाभेदेन स्वभावद्वयस्यैकत्रोपपत्तिस्स्यादेवेत्येवं परिहारपरतया 'गुणनिवसिय सण्णा' इति त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३००-१० २ उक्तगाथाविवरणं, गुणोत्पादितसंज्ञका दहनपचनादयोऽनेकान्तात्मका द्रष्टव्याः, यद्रव्यं यथा प्रतिषिद्धं तथाऽद्रव्यं भवतीत्यर्थ उपपादितः ।
३००-१९ ३१-१ स्वरूपापेक्षया जीयो जीवः, अजीवोऽजीवः, पररूपापेक्षया जीवो न जीवः
अजीवो नाजीव इत्येवमनेकान्तात्मकत्वोपपादनपरतया " कुंभो ण जीवदवियं" इत्येकत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
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७६ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र कुम्भो जीवद्रव्यं न, जीवोऽपि कुम्भद्रव्यं न भवति, तस्माद्वावप्यद्रव्यं परस्परव्यावृत्तात्मकौ भवत इत्यर्थो भावार्थश्च दर्शितः । ३०१-९ ३ अजीबो जीवापेक्षया नाजीव इत्युपगमे नमूद्वयस्य प्रकृतार्थगमकत्वेनाजीवस्य
stari प्रसक्तमित्याशङ्काया निराकरणम्
.
३०१-१६ ४ अनेकान्तस्य काल्पनिकत्वेन वस्तुगत सद्धर्माऽसाधकत्वमाशक्य परिहृतम् । ३०१-२० ३२- १ 'उप्पाओ दुत्रियप्पो' इति द्वात्रिंशत्तमगाथाया अवतरणद्वयं तत्र भगवता द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयावपेक्ष्य प्रतिक्षणमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तं जगदाख्यायि fever, astत्पादः किमेकविध एव उत प्रकारान्तररूपोऽपीत्याशङ्कासमाधानायेयमिति प्रथमावतरणम् । ३०१-२३ २ उत्पादादयो विभिन्नप्रतीतिसाक्षिका आधारत्यादिवदतिरिक्ता एव, न त्वाद्यक्षणसम्बन्धादिरूपाः, क्षणेऽभावात्, उत्पादादीनां घटत्वादिना प्रतियोगित्वं मृत्त्वा दिना चानुयोगित्वं द्रव्ये तु पर्यायोपहितरूपेण प्रतियोगित्वमित्यादिकं व्यवस्थाप्योक्तयुक्तिसिद्धातिरिक्तोत्पादः किमेकविध एव किं वा प्रकारान्तरखपोऽपीत्याशङ्कासमाधानायेयमिति द्वितीयावतरणम् ।
३०१-२९
३ उक्तगाथाविवरणं, प्रायोगिकत्रैासिकभेदेनोत्पादस्य द्वैविध्यम्, तयोर्लक्षणम्, तत्राद्यो मूर्तिमद्द्द्रव्यावयवारब्धत्वात्समुदयवादोऽपरिशुद्धः, तद्भावश्च दर्शितः, उत्पादस्य प्रयोगजन्यत्वसिद्धिश्र कृता ।
३०२-२४
३३ - १ द्वितीयभेदरूप विसाजनितोत्पादस्य द्वैविध्यप्रतिपादकतया 'साभाविओवि समुदयकओच्च" इति त्रयस्त्रिंशत्तमा गाथाऽवतारिता ।
३०३-१३
२ उक्तगाथा विवरणं, तत्र वैस्रसिक उत्पादः समुदयकृतः ऐकत्विकश्चेति द्विविधः, तत्र समुदयजनितत्वं मूर्त्तावयवनियतत्वं, आद्योऽन्द्रधनुरादीनामुत्पादो घटादीनामप्रथमतयोत्पादश्च स्वाभाविकोत्पादे हेत्वनपेक्षायामपि प्रायोगिको - त्यादे हेत्वपेक्षा धौव्याद्दण्डादिग्रहणार्थी प्रवृत्तिरुपपन्ना, प्राधान्येनोक्तद्वैविध्यव्यवस्थितेः कालादिहेतुपञ्चकसामग्र्याः कार्यनियतत्वं गौणविधयाऽक्षतमेव । ३०३-१६ ३ विस्रसापरिणामिनो वस्तुनः स्वभावत एव विनाशशीलत्वमिवोत्पादशीलत्वमपि, उत्पादविनाशयोरिव स्थितेरपि स्वाभाविकत्वमिति तस्य कारणान्तराऽनपेक्षमेव स्वभावप्रयुक्तमुत्पादादित्रयमिति ।
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३०३-२९
४ आकाशादीनां त्रयाणां परप्रत्यय ऐकत्विक उत्पादोऽनियमेन, अत्रापि स्यादैकत्विकः स्यादनैकविक इत्यनेकान्तः अस्य भावो दर्शितः ।
३०४-३
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७७
५ श्राकाशादीनामविचलितात्मनामुत्पाद एव नास्ति कुतस्तेषूत्पादानेकान्त इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
६ आकाशादीनामुत्पादस्यावगाह्याद्यवगाहकादिम्यां निष्पत्तेः कथमेकत्विकसंज्ञा युक्तेत्याशङ्काप्रतिविधानम् ।
७ तेष्वनैत्विक उत्पाद ः कथमिति प्रश्नमतिविधानम् ।
३०४-२५
46
३४ - १ प्रायोगिक वैखसिकभेदेन नाशस्यापि द्वैविध्यमित्यर्थकतया “ विगमस्स वि एस विही" इति चतुस्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३०५-१९
२ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र नाशस्य निर्हेतुकत्वेन प्रायोगिकविनाश एव नास्तीति कथं द्वैविध्यमिति प्रश्नप्रति विधानम् ।
३०५-२२
३०५-२८
३ भावस्वहेतोरेवोत्पद्यमानस्तादृशो भवति येनोत्पत्तिसमनन्तरमेव विनश्यतीति प्रश्नप्रतिविधानम् । तत्र शङ्कान्तरमतिविधानञ्च । ४ समुदयजनितैकत्वकाभ्यां वैखसिक विनाशद्वैविध्य, तत्र समुदयजनितविनाशस्य समुदयविभागमात्रार्थान्तरभावगमनभेदेन द्वैविध्यमुपपाद्य भावो दर्शितः । ३०६-८ ५ घटस्य विनाशो विभक्तकपालकदम्बकात्मक इत्यत्र 'यदुत्पत्तौ इत्यादिसूत्रद्वयं प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारस्य संवादकमुक्तम् ।
६ अर्थान्तरभावगमनलक्षणो विनाश उपपादितः ।
३०५-२
३०५-१३
३०६-२६
३०६-२९
७ आकाशादीनां त्रयाणामुत्पादव्यययोः परनिमित्तकत्वात्तावुपचारिकावित्याशङ्कायां 'उप्पज्जे वा' इत्यादित्रिपद्या भगवता तत्त्रितयस्वरूपं लक्षणं जगतः पारमार्थिकमेव सत्त्वमभिहितमित्याकाशादित्रयमपि तद्रूपतयैव सदिति तेषामपि तयोः पारमार्थिकत्वमिति समाधानम् ।
३०७–८
३ अत एवोत्पादादीनां त्रयाणां द्रव्यादर्थान्तरत्वं द्रव्यादनर्थान्तरत्वं च द्रव्यस्य वोत्पादादित्रिभ्योऽर्थान्तरत्वमनर्थान्तरत्वं चोपपादितं, तत्रैककालत्वसाधकमनुमानं तत्र हेत्वसिद्धिपरिहारथ ।
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३५ - १ उत्पादव्ययस्थितीनामेकप्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वा भिन्नकालता, अतो द्रव्यादर्थान्तरभूतास्ताः भिन्नप्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वा तासामभिन्नकालता, अतो द्रव्यादनर्थान्तरभृतास्ता इति प्रतिपादकतया 'तिष्णिवि उपायाई” इति पञ्चत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता । ३०७ - २३ २ तद्विवरणम्, उत्पादादित्रयोप्य भिन्नकाला भिन्नकालावेत्युपदर्श्य ते यथा भिन्नकाला यथा चाsभिन्नकालास्तथा विवेचितम् ।
३०८–३
३०९–२
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७८
४ अत एव वस्तुमात्रस्याविभक्तद्रव्यपर्यायोभयसंसर्गात्मकत्वाद् जात्यन्तरत्वं, तत्र 'नान्वयो भेदरूपत्वात्' इति पद्यसंवादश्च ।
'३०९-२१ ५ भिन्नापेक्षोत्यादविनाशयोरेककालत्वहेतुनाऽनर्थान्तरस्वसाधकमनुमानम्, उक्तदिशा धौव्योत्पादधौव्यविनाशात्मकद्वयेऽनर्थान्तरतोक्तहेतूक्तदृष्टान्तबलादेव भावनीयेति ।
" ३०९-३१ ७ उत्पादादीनामभिन्नकालत्ववद् भिन्नकालत्वमप्यस्ति, अत एवार्थान्तरत्वम् , .. तत्साधकानुमानप्रयोगश्च दर्शितः।
३१०-४ ८ स्वाद्वादप्रक्रियायामुत्पादादीनां भिन्नाभिन्नकालतार्थान्तरताऽनर्थान्तरता च सिद्धथति, न त्वेकान्तवादप्रक्रियायामिति निगमितम् ।
३१०-८ ३६-१ उक्तार्थस्पष्टीकरणाथै प्रत्यक्षप्रतीतोदाहरणप्रतिपादकतया 'जो आउंचपकालो' इति षट्त्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता।
३१०-११ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र आकुश्चनप्रसारणयोस्तद्विशिष्टद्रव्यस्य च भिन्न
कालत्वं, पूर्वोत्तरपर्यायनाशोत्पादयोरनुगतद्रव्यावस्थितेश्वाभिन्नकालत्वं च । ३१०-१४ ३ आकुश्चनप्रसारण क्रियाद्वयपरिणतद्रव्यस्य प्रत्यभिज्ञानप्रमाणतोऽभेदव्यवस्था
पनेन क्षणिकैकान्तपदार्थवादिमतखण्डनमिति दिष्टं । ४ जलोमिवदुत्पादव्ययादिविकारः काल्पनिक एव, कूटस्थमेव नित्यं द्रव्यमिति । प्रश्नप्रतिविधानम् , द्रव्ये पूर्वापरस्त्रपर्यायाः प्रतिक्षणं विनश्यन्ति समुत्पद्यन्ते
चेत्यत्र 'अनाद्यनिधने द्रव्ये' इति पद्यसंवादः। ५ पूर्वापरोमिभावेन यथा जलं परिणमते, तथा तत्तद्र्व्य मेव पूर्वापरपर्यायरूपेण
परिणमते इति परिणामवादस्य न्याय्यत्वमुपसंहृतम् , उत्पादादीनां विरोधपरिहारश्च कृतः।
.. ३११-२६. ३७-१ उत्पादादीनां प्रत्येकमेकैकं रूपं यथोत्पादादित्रयात्मकं तथाभृतवर्तमान
भविष्यत्कालत्रययोगेनाप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयतीत्येतत्प्रतिपादकतया 'उप्पज्जमाणकालं' इति सप्तत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३१२-३ २ उक्तगाथाविवरणम् , तत्र उत्पद्यमानमुत्पन्न विगतं विगच्छद् द्रव्यं प्रज्ञापयन त्रिकालविषय यथा भवति तथा विशिनष्टीति गाथार्थों भावार्थश्चावेदितः।
३१२-११ ३ तत्र व्यवहारनयनाभिन्नकालानामुत्पादादित्रयाणां प्रत्येकमेकथर्मिसंसर्गितया त्रैकाल्यं तेन नयेन यथा प्रतिपाद्यते तथा भावितम् ।
३१२-१८ ४ उत्पद्यमानः पटः प्रथमतन्तुप्रवेशकालावच्छेदेन किञ्चिदंशेनोत्पन्न इत्यसहमानस्य नैयायिकस्याशकाऽपाकृता ।
३१२-२९
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७९
५ उत्पद्यमानं किञ्चिदंशेनोत्पन्नमित्यस्य संवादकं 'चलमाणं चलिए ' इति भगवतीसुत्रवचनम् ।
६ उत्पद्यमानस्योत्पन्नत्वमुत्पत्स्यमानत्वं यथा तथोत्पन्नस्योत्पद्यमानत्वमुत्पत्स्यमानत्वश्च भावितम् तथोत्पत्स्यमानस्योत्पद्यमानत्वमुत्पन्नत्वञ्च दर्शितम् ।
३१३-१२
७ एवमेवोत्पन्नोत्पद्यमानोत्पत्स्यमानभेदाः प्रत्येकशो विगतादिभिः स्थितादिभि - व समभेदा ज्ञेयाः, एवं स्थितिविगमावपि ।
३१३-१७ ८ एतेषां भेदानां काल्पनिकत्वं न प्राज्ञैर्यथार्थतयैवाकलनादिति दर्शितम् । ३१३-१९ ९ अनेन प्रकारेण त्रिकालविषयं द्रव्यस्वरूपं प्रतिपादयद्वाक्यं प्रमाणमन्यथा त्वप्रमाणमिति निगमितम् ।
३१३-२९
३१४-८ :
१० अत्रैकाशीतिर्भङ्गाः, ते 'यद् गृह्यते तदिह वस्तु गृहीतभेव' इति श्लोकटीकायामेतटीकाकर्तृकर्तृकायां प्रदर्शिताः, विशेषजिज्ञासुभिस्ततो विज्ञेया इत्युपदेशः। ३१४-१ ३८ - १ अर्थान्तरगमनलक्षण विनाशविभाग जोत्पादयोरभावात्तन्नियतायाः स्थितेरप्यभावात्तत्रैकाल्यं न सम्भवतीति वादिनः मति तदभ्युपगम प्रदर्शनपूर्वकोपदेशपरतया "दव्वंतरसंयोगाहि" इत्यष्टत्रिंशत्तमगाथाऽवतारिता । २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र 'संयोगानां द्रव्यम्' इति वैशेषिकसूत्रस्य बलाद्वैशेषिकादयो यथा द्रव्यान्तरसंयोगैः पटादिकार्यद्रव्यस्योत्पादं स्वीकुर्वन्ति तथा प्रदर्शकं पूर्वार्द्धम्, ते उत्पादार्थानभिज्ञा विभागजातमुत्पादं नेच्छन्तीत्यर्थः स्पष्टीकृतः । ३१४-१३ ३९ - १ कुतस्ते उत्पादार्थानभिज्ञा इत्याशङ्कासमाधानपरतया अणु दुअणुि इत्येकोनचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
&
३१३–५
,
३१५–१
२ उक्तगाथाविवरणं, तत्र द्वाभ्यां परमाणुभ्यामारख्धे व्यणुकद्रव्ये अणुरिति व्यपदेशः परमाणुगत द्वित्वसंख्यातस्तत्राणुपरिमाणस्यैवोत्पादात्, त्रिभिद्वर्थणुकैरारब्धे द्रव्ये यणुकमिति व्यपदेशः, तत्र प्रत्यक्षानुरोधेन बहुत्वसंख्यातो महत्परिमाणस्योत्पादः, एतद्भावार्थ:, तत्र नैयायिकादिप्रक्रिया वर्णिता ।
३ कत्र्यणुकादिकार्यद्रव्यस्य तत्र परिमाणस्य चोत्पत्तिप्रक्रियां निरूपयन्तौ नैयायिकवैशेषिकौ स्वीयाज्ञतां व्यञ्जयतः यतः परमाण्वोः संयोगे सत्येव द्वयणुकमुपद्यते इति न, किन्त्वेकसामयिकाभ्यां संघात भेदाभ्यामप्युत्पद्यते, तथा भेदादपीति, अत्र जैनी प्रक्रिया दर्शिता ।
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३१५-२५
३१६–६
४ उक्तार्थे 'सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते' इति तच्चार्थसंवादः ।
५ केचन बारस्कन्धाः प्रत्यक्षगोचरा भवन्तीत्यत्र 'भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः" इति तत्वार्थसूत्रवृत्तिवचनमुपदर्शितम् ।
३१६-१२
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८०
३१६-२५
६ विचित्र परिणामाः पुद्गलाः, चाक्षुषप्रत्यक्षे नादरपरिणाम एव कारणम्, तत्राप्यनुवभूतरूपादिभावे न प्रत्यक्षमिति तत्प्रत्यक्षे उद्भूतरूपवत्त्वव्यवधानाभावा लोकादिकं चाक्षुषज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमाधायकतया कारणं वाच्यमिति । ३१६-१५ ७ " जालान्तरस्य सूर्यांशौ" इति पद्योपवर्णितं नैयायिकाभिमतपरमाणुस्वरूपमपाकृतम्। ३१६-२० ८ जैनमते परमाणुर्न नित्य एव किन्तु विभक्तभावेनोत्पत्तिभावात्कथञ्चिन्नित्यानि - त्योभयरूप इत्यभिप्रायणात्तरार्द्धेन परमाणुरुत्पद्यत इति व्यावर्णितम् ९ पृथग्भावलक्षणभेदे सति विभागपर्यायरूपेण परमाणुत्पादे संवादकं 'भेदादणुः' इति तच्चार्थसूत्रम्, भेदादेव परमाणुरुत्पद्यते न सङ्घातादिति भाष्यसनाथम् । ३१७–३ १० परमाणून नित्यत्वान्नोत्पत्तिर्युक्तेति शङ्कानिराकरणम्, अत्र कार्यद्रव्यमागभावसयोनैकत्वमित्युपपत्तये प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारोक्तं सदृष्टान्ततदुभयलक्षणप्रतिपादकसूत्रचतुष्टयम्, मागभावध्वंसयोरैक्याभावे तदात्मकपरमाणूनामप्यैक्यं न संभवतीति द्रव्यार्थिकनया देशाद् द्रव्यस्वरूपतयाऽवस्थिता एव पर्यायनयादेशात्तत्कार्यभावेनोत्पद्यमानाः कथञ्चिद्भिन्नास्ते इति । ११ बादरपरिणामपरिणतमहाद्रव्वे परमाणुभावेन परमाणुनां नाशाभ्युपगमात् अवयवविभागोन्तरं परमाणुभावेन विभक्ततथा चोत्पादाभ्युपगमात् 'कारणमेव तदन्त्यं' इति पारमर्षोक्तिविरोध इति प्रश्नप्रतिविधानम्, तदुक्त्यभिप्रेतार्थीपदर्शनेन ।
३१७–५
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३१७-२२
१२ व्यक्त्यात्मना परमाणो नित्यत्वव्यवस्थापनेन परमाणुर्नित्य इति व्यवहारस्य भ्रान्तत्वापत्तिरित्याऽऽशङ्काया निरसनम् ।
१३ एतेन परमाणवो नित्या एव कार्यरूपाश्च पृथिव्यादयश्वत्वारोऽनित्या एवेति नैयायिक प्रक्रियाया निरासः ।
३१८-१४
१४ परमाणोरपेक्षाभेदेन कारणत्वं कार्यत्वञ्चेत्यत्र द्वादशारनयचक्रटीकासम्मतिरावेदिता ।३१८-१६ ४० - १ 'बहुआण एगसदे' इति चत्वारिंशत्तमगाथावतरणं, तत्र पृथिव्यादिसमवायिकारणकार्यावच्छेदकजन्यपृथिवीत्वादिधर्मानाक्रान्तत्वात्परमाणूनामुत्पत्तिर्न सम्भवतीत्याशङ्कानिरासः, तादात्म्यसम्बन्धेन पृथिवीत्वाद्यवच्छिन्ने स्वभ्वंसत्वसम्बन्धेन पृथिवीत्वादिनोपादानकारणत्वव्यवस्थापनेन ।
२ संयोगेन विभागेन च कार्यद्रव्योत्पादाभ्युपगमे संयोगजकार्यद्रव्ये विभागस्य विभागजकार्यद्रव्ये संयोगस्य व्यभिचारशङ्कायाः कार्यद्रव्ये वैजात्याभ्युपगमेन कार्यतावच्छेदककोटौ तत्तत्कारणाव्यवहितोत्तरत्वप्रवेशेन वोभयोरेकश क्तिमत्त्वेन
३१८-४
३१८-१९
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८१
कारणत्वाभ्युपगमेन वा निराकरणम् , तथाऽनभ्युपगमे त्रिप्रदेशिकस्कन्धादेकाणुभेदे द्विप्रदेशिकस्याकस्मिकत्वापत्तिः, परमाणुद्वयादिसंयोगाद् व्यणुकाद्युत्पत्तिकल्पने महागौरवश्च।
३१८-२३ ३ उक्तार्थे संयोगाच्च विभागाच्चेत्यादीनि दशपद्यानि संवादकानि, संयोगजैको
त्पादे विभागजानेकोत्पादे चानुभवसाक्षिको ब्यवहारः प्रमाणतयाऽऽवेदितः। ३१९-१ ४ "बहुआण एगसद्दे" इति गाथाविवरणं, तत्र बहूनां तथणुकादीनां संयोगैर्यथैकस्य व्यणुकादेरुत्पादो भवति अन्यथैकाभिधानाधनुत्पत्तिः, तथा विभक्तानां बहूनामवयवानामुत्पादः, अन्यथानेकाभिधानाद्यनुत्पत्तिरिति ।
३१९-२७ ५ मुद्रपाताद् घटो विनष्ट इत्येव प्रतीयते व्यवयिते चेत्यतिरिक्त विनाशस्यैव
सिद्धिरित्याशङ्काया निराकरणं विनाशस्योत्तरपर्यायरूपत्वव्यवस्थापनेन। ३२०-६ ६ अतिरिक्तविनाशाभावे "दृष्टस्तावदयं घटोत्र निपतन्” इति वचन पोद्वलकम् । ३२०-११ ७ ध्वंसस्योत्तरपर्यायस्वरूपत्वे साधनन्तत्वं न स्यादिति शङ्काप्रतिविधानम् । ३२०-१५ ८ मृद्रव्यं द्रव्यरूपेण ध्रुवं सत्तत्तत्पूर्वोत्तरपर्यायाभ्यां विनाशोत्पादात्मकमिति
तत्रयात्मकम् , यथा चोत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावा द्रव्यातयाऽभिन्नाः पर्यायार्थतया च लक्षणभेदेन भिन्ना इत्येककालीनधर्मिरूपतया परस्परात्मकत्वेन · प्रत्येकमेकैकरूप व्यात्मक, तथैव कालत्रयापेक्षयाऽपि पूर्ववल्यात्मकमतोऽन‘न्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यमिति निगमितम् ।।
३२०-१८ ४१-१ अनन्तकाले स्वयमनन्ततां बिभ्राणा उत्पादादयो द्रव्ये कथञ्चित्स्वा
भिन्नेऽनन्ततामानयन्तु, एकक्षणे एकस्मिन्द्रव्येऽनन्तपर्यायत्वं कुत इत्याशङ्कायामेकक्षणेऽप्यनन्तोत्यादविगमस्थितीनां सम्भवोऽस्त्येवेत्युत्तरपरतया 'एगसमयम्मि' इति एकचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३२०-२८ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्रैकस्मिन् क्षणे एकद्रव्यस्य बहव उत्पादाः तत्सम
संख्यका विनाशास्तरसमसंख्यकाः स्थितयश्च, तत्र शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकावचनसंवादः, सामान्यरूपतया स्थितिरेकापि तत्तत्पर्यायोत्पादावच्छिन्ना । ३२१-२१ तत्तत्पर्यायविगमावच्छिन्ना च भिन्नैवेति दर्शितम् ।
३२१-५ ४२-१ एकक्षणावच्छिन्नसंयोगविभागजानन्तोत्पादादित्रिकैकस्वभाववस्तुनो दृष्टान्त
द्वारेण निश्चयार्थतया "काय-मण” इति द्विचत्वारिंशत्तमगाथाऽजतारिता । ३२१-२१ २ उक्तगाथाविवरण, तत्रैकदा प्रत्येकं कायमनोवचनादीनां विशिष्टोत्पादानुपदर्य : कायमनोवचनक्रियारूपादिगतिविशेषापेक्षया संयोगभेदापेक्षया च ज्ञानविषयत्वाघऽपेक्षया चैकस्यैव द्रव्यस्यानेकधोत्पत्तिभावादनन्तपर्यायात्मकत्वं निगमितम्।३२१-२५
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૮૨
३ उक्तयुक्तयैकद्रव्यस्यानन्तपर्यायात्मकत्वं सिद्धमप्यस्मदादिप्रत्यक्षागोचरत्वात्कथं श्रद्धेयमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
३२२-१५
४ अप्रत्यक्षस्याप्यनन्तपर्यायात्मकत्वस्य गुरुत्वादिवत् प्रसङ्ग विपर्ययाभ्यां सिद्धिरावेदिता ।
३२२-२०
,
५ एक पर्यायं गृहतामप्यर्हत्सिद्धान्तदृढ संस्कारवतां भावतस्तथापरिज्ञानमस्त्येव, वस्तुग्रहणपरिणामस्याऽक्षयत्वात् तत्र 'पञ्जायमासयन्तो' इति भाष्यवचनसंवादः। ३२२-२५ ४३ - १ हेतुवादाहेतुवादभेदेनागमद्वैविध्यप्रतिपादकतया "दुविहो धम्मावाओं" इति त्रिचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२ उक्तगाथाविवरणं, तत्र धर्मावादस्याहेतुवादहेतुवादभेदेन द्वैविध्यम्, दतश्वोक्तः, तत्र भव्या भव्यत्वप्रतिपादकागमोऽहेतुवादः ।
३ भव्या भव्य विभागप्रतिपादकवचनेऽप्यनुमानप्रवृत्तेर्नाहेतुवादत्वं तस्येति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
३२३–५
३२३-१६
४ भव्याभव्यप्रतिपदिकागमवचने यथार्थत्व निर्णायकत्वेनानुमानप्रवृत्तावपि भव्याभव्यस्वरूपे स्वतन्त्रानुमानप्रवृत्तेरभावादेवाहेतुवादत्वं भव्या भव्यत्वप्रतिपादकागमस्य प्रतिपादितम् । तथा च भव्यत्वाभव्यत्वादयोऽहेतुवादसिद्धाः, तदन्ये च हेतुवादसिद्धा इति भावार्थों दर्शितः ।
४४ - १ हेतुवादविषयत्वप्रतिपादकतया अहेतुवादागमसिद्धस्याप्यर्थस्य तत्तद्धर्मिण्यहेतुवादागमोक्तलिङ्गेन हेतुवादागमसिद्धत्वमपीत्येतत्प्रतिपादकतया वा 'भविओ सम्मर्द्दसण' इति चतुः चत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता । ३२३-२६
२ उक्तगाथाविवरण, तत्र सम्यग्दर्शनेत्यादेर्हेतुरूपतया व्याख्यानेनानुमानप्रयोगो दर्शितः, आगमसिद्धेऽपि भव्यत्वादावनुमानप्रयोजनमुपदर्शितम्, तत्र 'प्रत्यक्षपरिकलितमप्यर्थम्' इति वाचस्पतिवचनसंवादः, प्रेक्षावन्वोपपत्तयेऽनुमानागमावश्यकता च दर्शिता ।
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३२३-२०
३२४-१
३ एतेनैकान्तहेतुवादिनो मतमुपदर्श्य प्रतिक्षिप्तम् ।
३२४-१८
३२४-२८
४ आगमादेव तत्त्वसिद्धिरित्यागमैकान्तवादिनो मतमुपदश्य दूषितम् । ५ प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेव तत्चसिद्धिर्नागमादिति वादिनोऽसत्यवादित्वं दर्शितम् । ३२५-४ ६ सर्वविदः प्रत्यक्षादेव तत्प्रतिपत्तिः, अनुमानविदां पुनरनुमानादपीत्येकान्तमपिनिरस्तम्, अत्र “सिद्धं वेद्धेतुतः सर्वम्" इत्यष्टसहस्री पद्य संवादः । ७ आगमग्राह्येऽर्थे हेतुग्राह्यत्वमप्यऽविरुद्धमित्यत्रास्पृशद्गतिवाद संवादः ।
३२५–७ ३२५-१४
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८३
४५-१ आगमस्य निरूक्तोभयरूपत्वे सिद्धे तदुभयज्ञ एवं स्वसमयस्य प्रज्ञापकः, तदितरस्तु तद्विराधक इत्युपपादनार्थतया 'जो हेउवायपक्वम्म' इति पञ्चचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२ उक्तगाथाविवरणं, तत्र युक्तिमार्गसहे जीवकर्मादौ प्रबलतमयुक्तिप्रणयनप्रवीणो देवलोक पृथिवीसङ्ख्या दावागममात्रगम्येऽर्थे आगममात्र प्रज्ञापनाप्रवीणो यः स स्वसमयस्य प्ररूपक इति ।
३२५-१७
३ प्रागुक्तविशेषणविकलः साधुर्जिनवचनानुयोगविनाशकः उक्तार्थसंवादकं 're वक्खाणेraj' इत्यादिगाथाचतुष्टयं पञ्चवस्तुकग्रन्थस्य ।
३२६—३
४६ - १ हेतुवादसिद्धमर्थ यो हेतुना साधयति, आगमसिद्धञ्चाऽऽगमेन, तस्य नयवादः परिशुद्धः, नान्यस्यैतत्प्रतिपादकतयाऽहेतुहेतुवादभेदभिन्नागमस्य वाक्यनयरूपस्य परिशुद्धेतरभेदेन द्विरूपताप्रतिपादकतया वा 'परिस्रुद्धो नयवाओं' इति षट्चत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३२६-१९
३२५-२५
२ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र आगममात्रार्थसाधको नयवादः परिशुद्धः, अनन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्मस्य स्वेतरसकलधर्मसापेक्षस्य प्रतिपादकत्वात् स एव स्वप्रतिपाद्यांशेतरसकलांश निषेधकरणे त्वपरिशुद्ध इति ।
३२६-२४
३ नयवाद एव दुर्निगीर्णो भ्रान्तबुद्धिजनकत्वेनापरिशुद्धो द्वावपि पक्षौ विधर्मयति । ३२७-१३ ४ अहेतुवादागमः श्रुतप्रमाणं, हेतुवादागमो नयवादः ताभ्यां संस्कृतं तत्त्वज्ञानं प्रमाणमिति निगमितम् ।
४ तत्र स्थूलन्यायेन मूलजातिभेदतः सप्तनयाः, ततोऽपि सूक्ष्मतर भेदविवक्षायामेकैकनयः शतभेद इति सप्तनयानां प्रभेदाः सप्तशतानि, तत्र "इक्किको य सय विहो” इत्यादिविशेषावश्यकभाष्यसंवादः ।
४७ - १ परिशुद्धनयवादः स्याद्वादेकवाक्यतापनः स्वसमयरूपः, अपरिशुद्धनयवादस्तु स्याद्वादेकवाक्यतारहितः परसमयः, तत्कियत्सङ्ख्यक इत्याशङ्कासमाधान रूपतथा " जावया वयणपहा" इति सप्तचत्वारिंशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३२७-१९
३२७-२१
२ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव नयवादा भवन्ति यावन्तो नयवादास्तावन्तः परसमया इत्यस्य स्पष्टीकरणं परमार्थोपदर्शनेन । ३२७-२८ ३ ततनयवादात्मकपर समयानामपरिमितत्वे तन्निबन्धनभूतानां नयानामप्यपरिमितत्वमिति 'से किं तं गए' इत्याद्यनुयोगद्वारसूत्रेण सप्तधा नयविभागोऽनुपपन्न इति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
३२८-७
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३२८-११
५ शुक्ष्मतरदृष्टिपर्यालोचनया त्वनन्तत्वं नयानां तदुत्थनयप्रवाद रूपपरसमयानामपि । ३२८-१५
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६ मूलत एव नयविचारो नारम्भणीयो निष्फलत्वादित्यस्यापाकरणमनेकप्रकारनयज्ञानफलोपदर्शनेन |
७ असाधारणव्यवहारेतर मेदानुमितिप्रयोजनकं लक्षणं यथा जीवाजीवादीनां, तथा नयस्याप्यावश्यकं ततो नयसामान्यज्ञाने जाते, तद्भेद जिज्ञासया मूलजातिभेदतः सप्त नैगमादयो नया इत्युत्तरे तेषामपि लक्षणमवश्यं वक्तव्यमिति प्रतिविधानम् ।
३२८-१८
३२८-२८
८ नयसामान्यलक्षणं तत्प्रतिपादकं 'नीयते येनेत्यादिप्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्रम्, तत्संवादी च 'श्रुतार्थीशांश एवेह ' इति श्लोकः ।
३२९–९
९ उपाध्यायोक्तं नयसामान्यलक्षणं, तत्र 'सच्चासच्चाद्युपेतार्थे' इति नयोपदेशपद्यम्, अपेक्षात्वं जातिविशेषो विषयिताविशेषोवेति दर्शितम् । १० घटोऽस्तीत्यादिवाक्यजन्यशाब्दबोधानुभवे भानाभावादपेक्षात्वा सिद्ध्याऽपेक्षात्मकनयज्ञानसत्त्वे किं प्रमाणमिति प्रश्नः तत्प्रतिविधानञ्च तत्र विरुद्धत्वेन प्रतीयमाननानाधर्मविशिष्टं वस्तु अपेक्षां विना विवक्षितैकधर्मप्रकारकनिश्चयग्राह्यं न स्यादित्यादि भावितम् ।
३२९-२३
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३२९-१७
११ तदभावतद्व्याप्यवत्तादिज्ञानप्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ लौकिकसन्निकर्षाजन्यत्वादिनिवेशापेक्षयाऽपेक्षान्यत्वनिवेशे लाघवमित्यपेक्षात्वसिद्धिः, तद्धर्मप्रतिपक्ष तया निश्चिते धर्मिणि तद्धर्मवत्ताज्ञानान्यथानुपपत्तिश्च तत्र प्रमाणं, तस्याः सर्वतो बलवन्वे 'अन्यथानुपपत्तिथेत्' इति खण्डनखण्डखाद्योक्तं पद्यद्वयं दर्शितम् । ३२९-२८ १२ अपेक्षां विना लौकिकव्यवहारोऽपि न स्यादित्यादियुक्तिरपेक्षात्वसाधिका प्रश्नमतिविधानाभ्यां भाविता ।
३३०-११
३३०-२८
३३१-१५
१३ तवार्थभाष्योक्तं नैगमनयलक्षणं तद्विवरणं च कृतम् ।
१४ जातिघटितं नैगमलक्षणं, तद्घटकविशेषणप्रयोजनश्च प्रदर्शितम् । १५ " दव्वत्थिभत्ति" इति सम्मतिग्रन्थपर्यालोचनया तु नैगमस्य यावन्तोऽध्यवसायविशेषास्तावदन्यतमत्वं लक्षणम् एवमन्यनयानामपि । १६ नयोपदेशषृत्युक्तं तथान्यदपि लक्षणं तद्घटक विशेषणप्रयोजनश्चोपदर्शितम् । ३३२-२३ १७ सङ्ग्रहलक्षणं तच्चार्थभाष्योक्तं तद्विवरणम् जातिघटितश्च तल्लक्षणं तद्विशेषण
३३१-२६
प्रयोजनश्चेत्यादि भावितम् ।
३३३-१३ १८ तत्त्वार्थभाष्यानुसार व्यवहारलक्षणं तद्घटकविशेषणव्यावृत्तिः, तथा लक्षणान्तरञ्च । ३३४-८ १९ द्रव्यार्थिकनयस्य सङ्ग्रहव्यवहाराभ्यामेव विभागकरणादेतत्प्रकरणकार मते
नास्ति नैगमनयोऽतिरिक्तः, तल्लक्षणायासी निष्फल एवेत्यादि विचारितम् । ३३४-२६
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२० व्यवहारनये घटोऽस्तीत्यादिव्यवहारः स्वरूपसत्तयैव, तन्मते महासामान्य
नास्ति, स्यादस्त्येव घट इत्यादि सप्तभङ्ग्यां प्रथमभङ्गः सङ्ग्रहेण, द्वितीयभङ्गो .. व्यवहारेणेत्यादि भावितम् ।
३३५-२ २१ व्यवहारस्य पर्यवसितलक्षणमेतत्प्रकरणकर्तृमतानुसारि दर्शितम् । ३३५-१९ २२ व्यवहारस्य प्रतिव्यक्तिस्वरूपसत्वाभ्युपगमो महासामान्यसत्ताऽनभ्युपगमपरो
द्रव्यत्वाधवान्तरसामान्यस्य तेनाभ्युपगमादिति व्यवस्थापितम् । ३३५-२१ २३ ऋजुसूत्रनयलक्षणप्रतिपादकं तत्वार्थभाष्यम्, एतन्नयेऽतीतानागतकालयोरस
त्वमुपपादितम् , अतीतानागतकालभेदेनार्थभेदः, तेन वाचकभेदः, तज्ज्ञानमपि भिन्नमेव, 'अतीतानागताकार' इत्याधुक्ति, 'भावत्वे वर्तमानत्व' इत्याधुक्ति
चानुसृत्यर्जुसूत्रानुगतलक्षणं दर्शितम् , तत्रानुयोगद्वारसूत्रतात्पर्य भावितम् । ३३६-२० २४ नामादिष्वित्यादि तत्वार्थभाष्यनिष्कर्षलभ्यं लक्षणं साम्प्रतापरसंज्ञकशब्दनयस्य, तत्र तद्विशेषणप्रयोजनं दर्शितम् ।।
३३७-१८ २५ 'इच्छइ विसेसिततरं' इत्यादिविशेषावश्यकनियुक्त्यनुयोगद्वारसूत्रोक्त्यनुसारेण लक्षणान्तरं दर्शितम् ।
३३७-२९ २६ शब्दनयमन्तव्यमुपदय तदनुसारि शब्दनयलक्षणमुपदर्शितम् । . ३३८-२ २७ समभिरूढनयलक्षणं अनुयोगद्वारसूत्र-विशेषावश्यकनियुक्तिवचनानुसारेण। ३३८-१५ २८ सत्स्वर्थेष्वसङ्क्रमः समभिरूढ इति तत्त्वार्थभाष्यानुसारि समभिरूढलक्षणम् , तदुक्तिभावमुपदश्य तनिष्कृष्टलक्षणं च दर्शितम् ।
३३८-२२ २९ एवम्भूतनयस्वरूपोपदर्शकं विशेषावश्यकभाष्यवचनं एवं जह सद्दत्थो' इति, तद्व्याख्यानं च, तदनुसारि एवम्भूतनयलक्षणमुपदर्शितम् ।
३४०-१ ३० विशेषावश्यकनियुक्तिं-तत्त्वार्थभाष्यश्चाऽनुसृत्योक्तस्य एवम्भूतस्तु सर्वत्र' इति
नयोपदेशश्लोकस्य व्याख्यायामुपाध्यायैर्निष्कर्षितं लक्षणमुपदर्शितम् । ३४०-१४ ३१ सप्तनयविषयोपदर्शकानां 'शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य' इत्यादिप्राचीनाचार्योक्ताष्टपद्यानामुपदर्शनम् ।
__ ३४०-२४ ३८-१ किं दर्शनं किं मूलभूतनयप्रभवमित्याशङ्कानिवृत्यर्थतया 'जं काविलं दरिसणं'
इत्यष्टचत्वारिंशत्तगाथाऽवता रिता । २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र कपिलप्रणीतसाङ्ख्यदर्शनं व्यवहारनयलक्षणाऽशुद्ध
द्रव्यार्थिकनयविकल्पप्रमृतम् “दवट्टियनयपयडी" इत्यनेन वेदान्तदर्शनस्य समहनयलक्षणशुद्धद्रव्याथिकनयप्रसूतत्वेन पूर्वोक्तत्वात् , उक्तार्थ सम्मति
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३४३-३
टीकाकारवचनसम्मतिः "अशुद्धाद्वयवहाराख्यात्' इति नयोपदेशवचनसंवादव, पतञ्जलप्रणीतं सेश्वरसाङ्ख्यमतमपि व्यवहारनयप्रसूतमिति । ३४१-१५ ३ बौद्धदर्शनं परिशुद्धपर्यायनयप्रसूतम्, तच्च सौत्रान्तिक-वैभाषिकयोगाचारमाध्यमिकभेदेन चतुर्विधम् , पर्यायार्थिकनयोऽप्यूजसत्रशब्दसमभिरूढवम्भूत
भेदतश्चतुर्विध इति यथाक्रम प्रकृतिविकृतिभावः, तत्समनुगमनश्च कृतम् । ३४२-९ ४ उक्तार्थ खण्डखाद्योक्तिसङ्गतिः 'ऋजुसूत्रादितः' इति नयोपदेशोक्तिसङ्गतिश्च । ३४२-१७ ५ 'अर्थों ज्ञानसमन्वितो' इति पचं सौत्रान्तिकादिचतुर्विधसौगतमतमन्तव्यावगमकम् , तद्भावार्थोपदर्शनम् ।।
३४२-२३ ६ तत्र सौत्रान्तिकवैभाषिकयोमन्तव्यं तद्विशेषश्च ।
३४२-२७ ७ विज्ञानमात्राभ्युपगमपरस्य योगाचारस्य मन्तव्यं, तन्मते बाह्योऽर्थो न परमार्थ । इत्यत्र 'बाह्यो न विद्यते ह्यर्थों' इति श्लोकसंवादः, तथा 'विज्ञानं जडरूपेभ्यो इत्यादि पद्यत्रयं संवादकं तत्त्वसङ्ग्रहग्रन्थस्य । ८ सर्वशून्यतावादिमाध्यमिकमते तु 'न सन्नासम्म सदसत्' इति पद्येन सदसदादिचतुष्कोटिविनिर्मुक्तमेव तत्त्रम् , तन्मन्तव्यं चोपदर्शितम्।
३४३-२३ ९ विचार्यमाणाः सर्व एव भावा निस्स्वभावा इत्यत्र 'बुद्धधा विविच्यमानानां'
इत्यादिपद्यद्वयं संवादकम् ।। १० भेदव्यवहारस्य कल्पितत्वे 'फेनपिण्डोपमं रूप' इति पद्यसंवादः। ३४४-९ ४९-१ परस्परनिरपेक्षकैकनयावलम्बिनोः साङ्ख्यसौगतमतयोमिथ्यात्वे द्रव्याथिक
नयविषयसामान्यं पर्यायार्थिकनयविषयविशेषञ्चाभ्युपगच्छतो वैशेषिकदर्शनस्य नयद्वयावलम्बित्वेन सम्यक्त्वं स्यादित्याशङ्का निषेधार्थतया "दोहि वि नएहि णीय" इत्येकोनपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता।
३४४-१३ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र द्वाभ्यां नयाभ्यां पृथग् व्यवस्थापितं द्रव्यादिसमपदार्थ
प्ररूपकं वैशेषिकमतं मिथ्या, तन्मूलयोद्रव्यार्थिकनययोः स्वविषयप्रधानत्वेनान्योन्यनिरपेक्षत्वात् , जैनाभिमतौ तु तो सापेक्षत्वात् सम्यग्रूपाविति दर्शितम् ।३४४-१८ ३ वैशेषिकदर्शनस्य मिथ्यात्वसाधकमनुमानमुपदर्शितम् । ४ उक्तगाथाया अवतरणान्तरम्, तद्विवरणं, सामान्यस्य विशेषाद्विशेषस्य च सामान्या
द्भेदसाधकमनुमानम् , द्वाभ्यां नयाभ्यामिति नयोपदेशपद्यसंवादश्च । ३४४-२९ ५ यथास्थानं नयद्वयविनियोजनं शास्त्रस्य सम्यक्त्वप्रयोजकं, परस्परसापेक्षतत्तमयविनियुक्तमिथः साकायस्यात्पदघटितसप्तभङ्गात्मकमहावाक्यस्य पूर्णोत्तरत्वं,
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८७ क्वचिद्भङ्गद्वयमात्रप्रतिपादनं स्याद्वादव्युत्पन्नापेक्षया, स्याद्वादाव्युत्पन्नश्रोतन प्रति तु सप्तविधभङ्गमतिपादनमावश्यकमेव ।
३४५-१५ ६ सप्तभङ्गात्मकमहावाक्यसम्भवप्रतिपादनम् , सप्तभङ्गीप्ररूपणायाः स्वसमयार्थ
प्रज्ञापनात्वसाधकमनुमान, एकान्तभिन्नसामान्यविशेषप्रतिपादकवैशेषिकदर्शनस्य मिथ्यात्वमिति ।
३४५-२९ ७ एतत्प्रकरणकर्तृमते वैशेषिकदर्शनस्य सङ्ग्रहव्यवहारप्रकृतिकत्वे नैगमनयो
न कस्यापि दर्शनस्य प्रवर्तक इति भावितम् , तत्र "हेतुर्मतस्य कस्यापि” इति नयोपदेशवचनं संवादितया प्रोक्तम् ।
३४६-८ ८ देवसूर्याधाचार्यमते नैगमनयप्रकृतिकं वैशेषिकदर्शनम्, तत्र “दर्शितेयं यथा
शास्त्रम्" इत्यनेकान्तव्यवस्थापद्यसंवादः, तत्समानतन्त्रनैयायिकदर्शनस्यापि नैगमनयमूलकत्वेन मिथ्यात्वम् ।
३४६-१५ ९ ब्रह्मैव सत् जगन्मिथ्येति ब्रह्माऽद्वैतवादात्मकस्य वेदान्तदर्शनस्य तथा 'अनादिनिधनं ब्रह्म' इति पद्योक्तस्य भर्तृहरिमतस्य शब्दब्रह्माद्वैतवादस्य सङ्ग्रहनयमूलकत्वेन
एवं मीमांसकमतस्य च व्यवहारनयप्रसूतत्वेनैकान्तनयावलम्बित्वान्मिथ्यात्वम् । ३४६-२६ १० अनेकान्तवादिनामिवैकान्तवादिनामऽपि समानस्य घटादिज्ञानस्य मिथ्यात्वे किं वीजमिति प्रश्नप्रतिविधानम् ।
३४७-२२ ११ मिथ्यादृष्टेर्घटे घट एवायमिति ज्ञानस्य व्यवहारदृष्टया प्रामाण्येऽपि निश्चयदृष्टया
न प्रामाण्य, किन्त्वज्ञानत्वमेव, अत एव भवबीजं तत् , स्यावादिनां तु तज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्यादि विचारितम् ।।
३४७-२४ ५०-१ अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितस्य मिथ्यात्वमेवेत्यर्थकतया 'जे संतवायदोसे' इति पञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३४८-१६ २ उक्तगाथाविवरणम् , एकान्तसद्वादपक्षे साङ्ख्यानां यान् दोषान् बुद्धकणभुकप्रणीतदर्शन
भक्ताः प्रतिपादयन्ति, साङ्खयाश्वासद्वादपक्षे ते सर्वेऽपि दोषाः सत्याः, अत एव तत्तच्छास्त्रं सर्व मिथ्येति ।।
३४८-१९ ३ स्वपक्षेतरपक्षे तत्तद्वादिभिमिथो भूरि दोषापादनेनाप्रामाण्यज्ञापनं कृतम् । ३४८-२६ ४ अन्योन्यमेकान्तवादियुक्तयो मिथ एकान्तवादिपक्ष प्रतिक्षिपन्ति, न त्वनेकान्तवादिपक्षमित्युपसंहृतम् ।
३५०-१ ५ जात्यन्तररूपेऽनेकान्ते प्रत्येकपक्षोक्तदोषाभावे "न नरः सिंहरूपत्वात्" इति पद्यं संवादकं, अईच्छास्त्रमेव दोषाऽसंस्पृष्टं सम्यग्भावं भजते, नान्यदिति । ३५०-८
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८८
५१-१ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तार्थदृढीकरणार्थतया 'ते उ भयणोवणीया' इत्येकपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता ।
२ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयौ भजनोपनीतौ सम्यग्दर्शनमनुत्तरं भवतः, यदा त्वन्योन्यनिरपेक्षतया स्वतन्त्रद्रव्यपर्यायप्रतिपादकत्वेनोपनीतो भवतस्तदा न सम्यक्त्वं प्रतिपद्येते, यस्माद् भवदुःखविमोक्षं प्रत्येकं द्वावपि न पूरयत इत्युपपाद्य दर्शितम् ।
३५०-१६
३५०-१९
३ कारणात्कार्य कथञ्चिद् भिन्नमभिन्नं कथञ्चित्सच्चासच्चेत्युभयरूपमिति दर्शितम् । ३५१-१० ५२ - १ उक्तार्थोपसंहरणरूपतया 'नत्थि पुढवीविसिट्ठो' इति द्विपञ्चासत्तमगाथाsaतारिता ।
३५१-१२
२ उक्तगाथाविवरणम्, यस्मात्कारणीभूताया मृत्तिकाया भिन्नः कार्यभूतो घटो नास्ति तस्माद्धेतोर्युज्यते ऽनन्यः, तत्र हेतुरुपपादितः, पृथुबुभोदराद्याकारतालक्षणव्यक्तिस्वरूपेण पूर्वं घटो नासीत्, तस्मात्कारणीभूतमृदात्मक पृथ्वीतोऽन्यो घट इत्युपपादितम्, भावार्थश्व दर्शितः । ५३ - १ सदाद्येकान्तवादवत् कालाद्येकान्तवादेऽपि मिथ्यात्वमेवेत्युपदर्शकतया 'कालो सहाव णियई' इति गाथाऽवतारिता ।
३५१-१५
३५२-११
२ उक्तगाथा विवरणं, तत्र कार्यमात्रम्प्रत्यसाधारणकारणं काल एवेति कालवादिमतम्, स्वभाव एवेति स्वभाववादिमतं, नियतिरेवेति नियतिवादिमतं पूर्वकृतकमैंवेति पूर्वकृतकर्मवादिमतं ब्रह्माख्यपुरुष एवेति पुरुषवादिमत मेकान्तात्मकं स्वस्वागम लोकोक्तिपूर्वकं प्ररूपितम् ।
३५२-१४
ラ
३ उक्ततत्तदेकान्तवादानां मिथ्यात्वं प्ररूपितम् एकैकमात्रस्य कारणत्वखण्डनेन । ३५२-२९ ४ समुदितानां कालस्वभावादीनां कारणत्वाभ्युपगमस्य सम्यक्त्वं, तत्रापि विवक्षितो हेतुः प्रधानभूतोऽन्ये गुणीभूता इत्यादि प्रपञ्चितम् ।
३५३-१०
५४ - १ नास्त्येवात्मेत्यादयः षडेकान्तवादाचार्वाकादिभिः प्रकल्पिता मिथ्यारूपाः, त एव स्यात्पदाङ्किताः सम्यग्रूपा इति प्रतिपादनार्थतया 'नत्थि ण निच्चों' इति चतुःपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता ।
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३५३-१६
२ उक्तगाथाविवरण, तत्र मद्याङ्गेभ्यो मदशक्तिवत्पञ्चभूतेभ्यः कायाकार आत्मोत्पद्यते, न तु तद्व्यतिरिक्त आत्मा समस्तीति नास्त्यात्मेति चार्वाकमतम् । ३५३-२३ ३ 'सुखी भवेयमिति' 'आत्मनि सति परसंज्ञेति' पद्याभ्यां नित्यात्माभ्युपगमतस्तदर्थं कर्म कुर्वतां जन्मादिकं, क्षणिकात्मवादिनस्तु नैवमिति नैरात्म्यदर्शनं मोक्षसाधनमिति न नित्य आत्मेति क्षणिकवादिबौद्धमतम् ।
३५३-२८
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८९
४ अस्त्यात्मा नित्यः, किन्तु पुष्करपलाशवनिर्लेपः, पुरुषः भोक्ता, न कर्ता, प्रकृतिरेव कर्त्री, तत्र साङ्ख्यतत्वकौमुदीवचनसंवादतो न करोत्यात्मेति साङ्ख्यमतं दर्शितम् ।
५ अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्यं जीवः, तस्य चौपचारिकमेव भोक्तृत्वं न पारमाकिमिति नात्मा वेदयते इति वेदान्तिमतम् ।
६ यद्वा क्षणिकत्वाच्चित्तसन्ततेर्येन कर्म कृतं नासौ तद्वेदयते इति बौद्धमतमाश्रित्य नवेदयत इति, अत्र बौद्धमते यथा न वेदयते इति न सम्भवति यथा च सम्भवति तत्क्रमेणोपदर्शितम् । ३५४-१९
57
७ रागादीनामत्यन्तक्षयो न केनापि कर्तुं शक्य इति नास्ति सर्वज्ञः, तत्र "यत्राप्यतिशयो दृष्टः इति भाट्टपद्यद्वयं संवादकमुपन्यस्य सर्वज्ञाभावात् यावज्जीवमग्निहोत्रादिकर्मोपदेशान्मोक्षसाधकक्रियानुष्ठानकालानुपदर्शनात्सर्वज्ञानभ्युपगन्तृणां यज्वनां मते नास्ति निर्वाणमिति मीमांसकमतम् ।
८ नियतिवादिमतं यथा स्वभावत एव मोक्षो भवति, न मोक्षोपायः कश्चिदिति स्वभाववादिमतम् ।
३५४-११
१२ वनस्पत्यादावात्मसिध्ध्युपदर्शनम्, तत्र प्रामाण्यनिर्णायकं 'से बेमि इपि इत्यादिवचनं ।
३५४-१६
३५५–१
९ एतानि षडपि मिथ्यात्वस्य स्थानानि, तैराभिग्रहिक मिथ्यात्वं चार्वाकादीनां षण्णां ।
३५५-११
३५५-१४
३५५-१७
१० तत्र चार्वाकमतखण्डनम्, शरीरातिरिक्तात्मव्यवस्थापनेन ।
११ आत्मनोऽनादित्वं कर्म कर्मिद्वयस्यान्योन्यपरिणामकत्वादनादित्वं तेन कर्मजीवसम्बन्धस्यानादित्वेन तज्जन्यसंसारस्याप्यनादित्वं, तत्र 'पुवि भंते' इत्यादि भगवती वचनसंवादः ।
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३५५-२५
३५६–४
१३ इन्द्रियाद्यधिष्ठातृत्वेनात्मसिद्धिरावेदिता, अरूपित्वादात्मा बाह्येन्द्रियैनोंपलभ्यते, न त्वभावात्, मानसप्रत्यक्षेण तूपलभ्यत एवेति दर्शितम् । १४ बौद्धमतमाश्रित्योक्तस्यात्मा न नित्य इत्यस्य खण्डनमतिदिष्टम् ।
१५ प्रत्यभिज्ञाप्रमाणेन स्थिरात्मसिद्धिः प्रपञ्चिता, स्थैर्याभावे प्रत्यभिज्ञानोपपादनं
३५६-२२
३५७-२
प्रतिक्षिप्तम् ।
३५७-१५
१६ ' इत एकनवते कल्पे' इत्यादि बौद्धागमोऽपि नित्यात्मप्रतिपादक इति दर्शितम् । ३५८-५ १७ साद्धूख्यमतमाश्रित्योक्तस्य न करोत्यात्मेत्यस्य खण्डनमतिदिष्टम् ।
३५८-११
૧૨
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९०
३५८-२७
१८ वेदान्तिमतमाश्रित्योक्तस्य न वेदयत इत्यस्य खण्डनम् । १९ बौद्धमतमाश्रित्य न वेदयते इत्यस्य यत्पर्यवसानं कृतं तस्यापि खण्डनम् । ३५९-३ २० मीमांसकमतमाश्रित्योक्तस्य न निर्वाणमस्तीत्यस्य खण्डनम् । ३५९-६ २१ दोषावरणयोर्हानिरित्यादिना सर्वज्ञसाधनं पूर्वं कृतमित्युपदर्शितम्, सर्वज्ञस्य ध्यानविशेषजन्याशेषकर्मश्वये मुक्तिरावेदिता, सर्वज्ञज्ञानमतीन्द्रियप्रत्यक्षमिति तत्र “यत्राप्यतिशयोदृष्टः" इत्युक्तिरऽज्ञानविलासितैव तस्या इन्द्रियप्रत्यक्षापेक्षया चरितार्थत्वादिति ।
३५९-९
२२ सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षस्य विषयाः प्रमेयत्वादित्यनुमानं सर्वज्ञज्ञाने प्रमाणग्रुपपादितम्, तत्र परेषां विकल्पोन्द्रावनपुरस्सरं प्रश्नः प्रतिक्षिप्तः । ३६१–१ २३ अग्निहोत्रं जराम वा कुर्यादिति श्रुतौ वाशब्देन मोक्षकालोऽपि प्रदर्शित इति । ३६१-२५ २४ नास्ति मोक्षोपाय इत्यनुपायवादिमतखण्डनमतिदिष्टम्, तत्राकस्माद्भवतीत्यत्र
किं शब्दस्य हेतुपरत्वादिविकल्पनेन खण्डनम्, तत्र हेत्वभावाद् भवतीत्यादिपश्चपक्षा उद्भाव्यापाकृताः ।
२५ नास्त्यात्मेत्यादिवादाः षडपि मिध्यात्वस्य स्थानानीत्युपसंहारः । ५५ -- १ उक्तविपरीतान्यस्त्येवात्मेत्यादीन्यपि षडेकान्तवादे मिथ्यात्वस्थानानीत्युपदर्शकतया 'अस्थि अविणासधम्मो' इति पञ्चपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता । ३६२–२६ २ उक्तगाथाविवरणम्, तत्र अस्त्यात्मेत्यादीनि षडप्येकान्तात्मकानि मिथ्यात्वस्थानानि तेषां मध्ये यस्य यत् तदुपदर्शनम् ।
३६२–२९
३ चतुर्थचरणं 'छस्सम्मत्तस्स द्वाणाई' इति पाठान्तरात्मकम्, तत्र सम्यक्त्वस्थानari यथा तथोपदर्श्य तत्संवादिनयोपदेशोक्तस्य " षडेतद्विपरीतानि” इत्यादिstart वृत्तिः 'अत्थि जिओ तह णिच्चो' इति वचनसंवादश्च । ५६-–१ अनेकान्तवादमवलम्ब्यैवानुमानप्रमाणप्रवृत्तिर्युज्यते इति स्याद्वादिन एवानुमित्युपपत्तिः, न त्वेकान्तवादिनः साधर्म्यतो वैधर्म्यतो वेत्युपपादकतया 'साहम्मओन्व अत्थं' इति पट्पञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता ।
३६३-१४
३६३-२२
२ उक्तगाथाविवरण, तत्र साधर्म्यत इत्यस्यार्थमुपदश्यं परस्य ततोऽर्थसाधने दोष उपदर्शितः, एवं वैधम्र्म्यतस्तत्समुच्चयतोऽपि । ३. अन्योन्यं प्रतिक्रुष्टौ द्वावप्येतावसद्वादावित्यस्य भावार्थ:, तत्र परः सामान्यं विशेष वा तदुभयं वा तदनुभयं वा साध्यं साधयितुं न शक्नोतीत्यस्यार्थस्योपदर्शनम् ।
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३६१–२९ ३६२–२१
३६३-२७
३६४-११
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९१
४ तत्पुत्रत्वतौ श्यामत्वस्यानोपाधिकसम्बन्धो व्याप्तिर्नास्ति, शाकपाकजत्वस्योपाधित्वादित्यगमकत्वमिति पञ्चरूपवादिनो नैयायिकस्य मतमाशङ्कय प्रतिक्षिप्तम निश्रितान्यथानुपपन्नत्वस्यैव हेतुलक्षणत्वपर्यवसानेन ।
५ रुपत्रयवादिनो बौद्धस्य मतखण्डनमतिदिष्टम्, तथा च बौद्धनैयायिकवैशेषिकाभिमतहेतुमात्रेषु लक्ष्येषु अनुगतत्वात्तत्तद्वाद्यभिमत हेत्वाभासेष्वलक्ष्येषु व्यावर्त - मानत्वा निश्चितान्यथानुपपन्नत्वं हेतुलक्षणं, न तु त्रिरूपम्, तस्याऽसिद्धत्वविरुद्धत्वव्यभिचारित्वव्यवच्छेदकत्वेनावश्यकत्वेऽपि नियमेनानुमित्यनुपयुक्तत्वात् । ३६५०३ ६ नियमेन पक्षधर्मत्वं साध्यगमताङ्गं नेत्युपसंहृतम्, तत्र 'पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन"
३६४-२५
इत्यादिपद्वयं भट्टस्य संवादकमुक्तम् ।
३६६-११
७ पक्ष सत्त्ववत् सपक्षसचं विपक्षासत्वं च साध्यगमकतानङ्गमिति दर्शितम् । ३६६-३० ८ बौद्धाभिमतपक्षसच्चादित्रिरूपसद्भावेऽपि बाधितहेतोः सत्प्रतिपक्षितहेतोश्च न गमकत्वमित्यबाधितत्वासत्प्रतिपक्षत्वे अपि गमकता इति पञ्चरूपोपपन्नं लिङ्गं, तत्र 'पञ्चलक्षण काल्लिङ्गात्' इति जयन्तपद्यसंवाद इति नैयायिकप्रश्नः । ३६७–८ ९ उक्तप्रश्नप्रतिविधानं, त्रैरूप्यवत्पञ्चरूपत्वस्याऽपि हेत्वाभासे सम्भवोपपादनेनातिव्याप्यागमकत्वं व्यवस्थापितम् ।
३६७-२५
१० अबाधितत्वासत्प्रतिपक्षित्वरूपद्वयं शङ्कासमाधानाभ्यां निराकृतमिति तद्घटितपञ्चरूपं न युक्तं, किन्तु निश्चितान्यथानुपपन्नत्वमात्रमेकरूपमिति निगमितम्, तत्र 'अन्यथाऽनुपपन्नत्वम्' इति पद्यसंवादः, तद्रूपवान् हेतु:, तदन्यो हेत्वाभास इति दर्शितम् ।
११ नैयायिकाभिमतं दुष्टहेतुलक्षणं, दोपसामान्यलक्षणञ्चोपदर्शितम् । १२ जैनमते सद्धेतुभिन्नहेतुत्वमेव दुष्टहेतुलक्षणं, तत्र जैनतर्कपरिभाषा संवादः, तस्यासिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्रयो भेदाः प्रत्येकं सलक्षणाः, अवान्तरभेदाच भाविताः । ३६९-१६ १३ जैनं प्रति अचेतनास्तरवः विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षण मरणरहितत्वादिति बौद्धानु
माने 'से बेमि sift' इत्याद्यागमवचनेन हेतोः प्रतिवाद्यऽसिद्धत्वमुपदर्शितम् ॥ ३६९-२५ १४ वैशेषिकादिकं प्रत्यपि बौद्धोक्तानुमाने प्रतिवादिनो वैशेषिकादेस्तरुणां विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षण मरणस्य भोगाधिष्ठानशरीरचत्वेन "नर्मदातीरसम्भूताः " इत्यादि ' श्मशाने जायते वृक्षः' इत्याद्यागमेन चाभ्युपगतत्वेन हेतोर सिद्धतैवेति प्रतिवाद्यऽसिद्धो हेतुः ।
१५ जैनं प्रति सुखादयोऽचेतना उत्पत्तिमत्त्वादित्यनुमानं साख्यः करोति तदा वाद्येऽसिद्धो हेतुः ।
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३६९--४
३६९---८
३७०-३
३७०-१२
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१६ विरुद्धस्य लक्षणम, तत्संवादिजैनतर्कपरिभाषोक्तस्य विरुद्धलक्षणस्य विवेचनम् ।३७०-१४ १७ अनैकान्तिकस्य लक्षणम् , तत्प्रभेदस्य चोपदर्शनम् ।
३७०-१९ १८ सोपाधिकत्वेन स श्यामो मित्रातनयत्वादित्यत्र हेतुाप्यत्वासिद्व इति नैयायिकमतस्य
खण्डनम् , तस्य सन्दिग्धविपक्षवृत्तिः हेतुरनैकान्तिक इत्यत्रैवान्तर्भावात् । ३७१ ---२ १९ अप्रयोजकापरनामाऽकिञ्चित्कराख्यहेतोः पक्षाभासेऽन्तर्भावान्नातिरिक्तहेत्वाभासत्वमित्युपदर्शितम् । .
३७१-६ २० कालात्ययापदिष्टस्यापि पक्षदोषान्तर्भावनेन हेत्वाभासत्वमपाकृतम् । ३७१-१३ २१ प्रकरणसमस्यासिद्धावन्तर्भावादतिरिक्तहेत्वाभासत्वमपाकृतम् ।
३७१-२० २२ जैनमते साधारणानैकान्तिक एक एवान कान्तिकभेदो न त्वसाधारणानुपसंहारिणावित्युपपादितम् ।
३७१-२२ २३ पक्षासिद्धिरपि पक्षदोष एव न हेतुदोष इति ।।
३७२-२ २४ निश्चितान्यथानुपपत्त्यात्मकैकलक्षणको हेतुर्गमको न त्रिलक्षणादिरिति निगमितम् ,
सोऽपि गमकः प्रधानगौणभावेन परस्परस्वरूपाजहदत्तिसाधयेवैधर्म्यरूपात्, न तु केवलात्साधर्म्यादितः ।
३७२-३ २५ जैनमते एकान्तेन केवलान्वयि हेतुः केवलव्यतिरेकी च हेतुर्नास्त्येव, व्यवहारस्तु
तथोभयसद्भावेऽपि वस्तुत्वप्रमेयत्वादावन्वयव्याप्तित एव केवलान्वयीति, लक्ष
गाद्यात्मकहेतोश्च व्यतिरेकव्याप्तित एव केवलव्यतिरेकीति। ३७२-७ ५७-१ सामान्यविशेषयोस्स्वरूपं मिथो विभिन्नमेवेत्यनूद्य तन्निराकरणचिकीर्षया 'दव्वट्ठियवत्तव्वं' इति सप्तपश्चाशत्तमगाथेत्येवमवतरणम् ।
३७२-२२ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र द्रव्याथिकनयवक्तव्यं विशेषनिरपेक्षं सामान्य, पर्यायास्तिकनयवक्तव्यः सामान्यनिरपेक्षो विशेष एव, एतावेकत्र दर्शितौ स्वस्वप्रतिनियतापेक्षया वादमतिशयाते इति ।
३७२-२७ ३ तथैवाध्यक्षप्रमाणेनानुभूयमानत्वहेतुना वस्तुमात्रे सामान्यविशेषोभयात्मकत्वं
साधितम् । ४ विशेष-सामान्य-तदुभय-तदनुभयसायनेषु दोषोद्भावनतोऽनेकान्तवादव्यवस्थापनम् ।
३७३-२० ५८-१ स्याद्गर्भमेव साध्यं परदूषणानाक्रान्तं साधयितुं योग्यं, न त्वेकान्तात्मकमित्यु
पदर्शनपरतया 'हेउविसओवणीयं' इत्यष्टपञ्चाशत्तमगाथाऽवतारिता। ३७४-११ २ उक्तगाथाविवरणम् , तत्र हेतुज्ञानजन्यानुमितिविधेयतयोपनीतं वस्तु दूषणवादी
___३७३-९
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यथा प्रतिपाद्य दृष्यति तद्वितीयधर्माक्रान्तं स्यात्पदगर्भ यद्यदर्शयिष्यत् पूर्वपक्षवादी तदा न केनापि जेतुं शक्य इति प्रदर्शितम् ।
३७४-१६ ५९-१ एतत्स्पष्टीकरणार्थतया 'एयन्तासन्भूयं' इत्येकोनषष्ठितमगाथाऽवतारिता। ३७४-२८ २ उक्तगाथाविवरणं, एकान्तासद्भूतमनिश्चितं च सद्भुतं बदन वादी लौकिक
परीक्षकाणां निन्दामार्गमामोति, ततः परार्थानुमित्यर्थं निश्चितान्यथानुपपन्न एव हेतुः प्रयोक्तव्याः, प्रतिज्ञादिकं यदपेक्षयाऽनुपयुक्तं यदपेक्षयोपयुक्तं तत्प्रदर्शितम् , तत्र देवसविचनं च प्रदर्शितम् ।।
३७५--१ ६०-१ अध्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वेनाबाधितस्यानेकान्तात्मकवस्तुनः प्ररूपणैव सन्मार्ग
इत्युपसंहारार्थतया 'दव्वं खित्तं कालं' इति षष्ठीतमगाथाऽवतारिता। ३७५-१४ २ उक्तगाथाविवरणम्, द्रव्यक्षेत्राद्यष्टभावानाश्रित्य समानरूपतया भावानां स्याद्वादात्मिका प्ररूपणा परमार्थवृत्त्या वस्तुतत्त्वसाधिका ।।
३७५-१८ ३ द्रव्यादीनऽष्टभावान्प्रत्येकं स्वरूपत उपदर्य तदपेक्षया समानरूपतया निरूपणा ___ सन्मार्गः, तत्र हेतुरुपदर्शितः।
३७५-२२ ४ अनुभवसिद्धमप्येकानेकात्मकं वस्तु प्रतिक्षिपन् वैशेषिको नैयायिकोवा चित्रपटे, चित्रेकरूपमपि कथमभ्युपेयादित्युपदर्य तत्र नव्यनैयायिकानां प्राचीननैयायिकानां
च मन्तव्य विविच्य दर्शितम् , विचारश्चाभिनवः प्रकटितः।। ३७५-३० ५ तत्र मतद्वयस्य नानारूपमात्राभ्युपगमचित्रकरूपमात्राभ्युपगमपरस्यानुभवविरुद्धत्वं
शुक्लनीलादिनानारूपाणां चित्ररूपस्यैकस्य च चित्रपटेऽभ्युपगमो युक्त इति नानारूपसमानाधिकरणचित्ररूपमेकमित्यभ्युपगन्जैनमतस्य प्रपश्चनम् । ३७६-८ ६ चित्रपटे एकं चित्ररूपमेव, शुक्लायेकैकावयवावच्छेदेन चक्षुःसन्निकर्षे रूप.
प्रत्यक्षं भवत्येव, चित्रत्वप्रत्यक्षं तु परम्परयाऽवयवगतनीलेतररूपपीतेतररूपादिग्रहस्य तत्कारणतयाऽभ्युपगतस्याभावान भवति, अत्रोदयनमतसंवाद इति नैयायिकपूर्वपक्षः।
३७७---६ ७ उदयनाचार्यानुयायिपूर्वपक्षप्रतिविधान जैनस्य, तत्र चित्राक्यविनि युक्तिवलामानारूपसद्भावं प्रसाध्य शुक्लावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे तत्र शुक्लरूपस्यैव प्रत्यक्षमिति दर्शितम् ।।
३७८-२ ८ अवयविनि चित्रे एकस्यैव चित्ररूपस्याभ्युपगन्ता यदि कारणविशेषाश्रयणेन
शुक्लावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे चित्रत्वप्रत्यक्षाभावं चित्रव्यणुकप्रत्यक्ष चोपपादयेत्तदा वरं कलसेम्वेव नानारूपेषु व्यासज्यवृत्तिचित्रत्वं, तस्य समानाधि
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करणनानारूपग्रहव्यङ्ग्यत्वमिति शुक्लायेकावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे शुक्ला
घेकरूपस्यैवग्रहादुक्तव्यअकाऽभावान्न तत्र चित्रत्वप्रत्यक्षमिति । ३७४-१४ ९ एतत्पक्षे चित्ररूपमतिरिक्तं नास्ति, किन्तु व्यासज्यवृत्तिचित्रत्वजातिप्रत्यक्षाचित्रत्वव्यवहार इति ।।
३७९-७ १० यत्रावयविनि नानाशुक्लादिरूपाण्यनुभूयन्ते तत्रैक चित्ररूपमप्यनुभूयत इति तदप्य
भ्युपेयमित्येकानेकचित्रद्रव्यस्वभावः तत्रशुक्लादिस्वभावोदेशनियतधर्मः, चित्रस्वभावः
स्कन्धनियतधर्मः, विभिन्नसामग्रीतस्तदुभयग्रह इत्युपगमे सर्व चतुरस्रम् । ३७९-८ ११ अनयैव दिशा द्विहस्तादिमितेऽवयविन्यनेकपरिमाणवत्वमुपपादितम् । ३७९-१६ १२ चित्रद्रव्यमेव स्वसामग्रीप्रभवं, तत एव चित्रतदितररूपोभयस्वभावस्तस्य, न
त्वेकान्तनैयायिकपरिकल्पितकार्यकारणभावादिकं युक्तमित्यादि विचारितम्। ३७९-२१ १३ अर्थसमाजसिद्धत्वेनैकानेकस्वभावचित्रद्रव्यत्वं न कस्यचित्कार्यतावच्छेदकमिति नैयायिकाशङ्काऽपाकृता।
३८०-३ १४ चित्रावयविनि नैकं चित्ररूपं किन्त्वव्याप्यवृत्तिनानारूपाणीति नव्यनैयायि. .
कमतं युक्त्या व्युदस्यैकानेकस्वरूपद्रव्याभ्युपगमः स्याद्वादिनः प्रामाणिक
इति दर्शितम् । १५ नव्यनैयायिकाभ्युपगतस्याव्याप्यवृत्तिनानारूपस्य खण्डनमतिदिष्टं, स्याद्वादि
युक्तिनिकरो दर्शितः। १६ चित्रावयविनि व्याप्यवृत्तिन्येव नानारूपाणीति मतस्य खण्डनमतिदिष्टम् , तत्र
"आश्रयव्यापित्वेप्येकावयवसहिते" इत्यादि सम्मतिटीकाकद्वचनसंवादच। ३८१-२२ १७ शङ्कान्तरमप्युद्भाव्योक्तमतं व्युदस्तम् ।
३८१-२७ १८ यथैकानेकतया रूपस्य चित्रत्वं तथा वस्तुमात्रेऽपि, यथा ग्राह्ये तथा ग्राहके
ज्ञानेऽप्येकानेकस्वभावत्वं, तत्राखण्डाया एकाकारतायाः सखण्डानाच बहीनां विषयतानामनुभवात् , नैयायिकैरप्येतन्निराकरणं कर्तुमशक्यम् , अत्र
"चित्रमेकमनेकञ्च" इति उपाध्यायवचनसंवादश्च । ६१-१ अनिपुणाः पुनः प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितार्थकस्याप्यागमस्यान्धपरम्परान्यायेन
प्रामाण्यमाश्रयन्तोऽनवगतसूत्रतात्पर्यार्था एवेत्येतत्प्रतिपादनार्थतया 'पाडेक्कनयपहगर्य' इत्येकषष्ठितमगाथाऽवतारिता।
३८२-२१ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र एकैकसङ्ग्रहादितत्तन्नयप्रसूत-वेदान्त-मीमांसा-वैशेषिक
नैयायिक चार्वाक-चौद्धदर्शनसूत्राण्यधीत्य सूत्रधरा वयमिति शब्दमानसन्तुष्टा
३८२-१
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९५
अविदितसूत्रान्तर्गतपरमरहस्यभूतभावार्थाः तत्तन्नयाधीनसप्तभयादिसङ्घटितयथार्थ सूत्रार्थ विवेचनतत्परबुद्धिहीना इत्यर्थो दर्शितः । ६२-१ अन्यनयानपेक्षैकनयाश्रयेण सूत्राभिप्रायव्यावर्णनपराणां वादिनां दूषणोपदशेकतया 'सम्मणमिणमो' इति द्विषष्ठितमगाथाऽवतारिता । २ तद्विवरणं, तत्र सकलधर्मप्रतिपादकत्वलक्षणसकलधर्मपरिसमाप्तत्ववत्स्यात्पदघटितवचनप्रवर्तकत्वेन सकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयं सम्यग्दर्शनं निर्दोषमित्यर्थः । ३८३-२० ३ अनभिलाप्यधर्मप्रतिपादकत्वप्रसङ्गभीत्या स्यात्पदघटितवचनस्य सकलधर्मप्रति
३८३-१७
३८२-२६
पादकत्वं न सम्भवतीति प्रश्नस्य प्रतिविधानस् ।
३८३-२७
४ उक्तसम्यग्दर्शनमात्मोत्कर्षविनष्टाः, श्लाघमाना विनाशयन्ति, अस्य भावश्चोपदर्शितः । ३८४-३ ६३ - १ शासनभक्तास्ते सम्यग्दर्शनं कथं विनाशयन्तीत्याशङ्कानिवृत्यर्थक तथा 'नहु सासणभत्ती' इति त्रिषष्ठितमगाथाऽवतारिता ।
३८४-९
२ तद्विवरणम्, न खलु शासनभक्तिमात्रेण स्याद्वाद सिद्धान्तज्ञाता भवति, न च स्याद्वादसिद्धान्ताभिहितयथावस्थितवस्तुतश्वज्ञानमन्तरेण भावसम्यक्त्वं यच्चास्मादृशां श्रद्धानुसारिणां सम्यक्त्वं तत् 'सत्संख्यादि इत्यादि ज्ञानविन्दुवचनात् तदेव सत्यमित्यादिज्ञानाहितवासनारूपं द्रव्यसम्यक्त्वमेवेति ज्ञातव्यम् । ३८४-१३ ३ न जीवादितच्चैकदेशज्ञाताऽपि नियमात् अनेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपयथार्थमरूपणायां निश्चितो भवति, तत्र हेतुरुपदर्शितः ।
३८४-२३
६४ - १ 'अल्पाक्षरमसंदिग्धम्' इत्यादिवचनोक्तलक्षणं सूत्रं महापुरुषप्रणीतं गम्भीरार्थं, तन्मात्रं न विशिष्टार्थबोधक्षमं, किन्तु व्याख्यानविशेषद्वारेत्येतत्प्रतिपादनार्थतया 'सुतं अत्थनिमेणं' इति चतुःषष्ठितमगाथाऽवतारिता ।
३८५-३
२ तद्विवरण, तत्र सूत्रार्थयोर्निर्वचनं, सूत्रिताक्षिप्तभेदेनार्थस्य द्वैविध्यं तस्य स्थानं अनन्तार्थभृतं सूत्रं, निर्युक्त्यादिनिरपेक्षेण तन्मात्रेणार्थप्रतिपत्तिर्न सम्भवति, 'मूअं केवलसुतं' इत्याद्युपदेशरहस्यवचनात्केवलसूत्रस्य मूकत्वमर्थस्य प्रकटजिह्वात्वमुपदर्शितम् । ३८५–९ ३ पयवक्केत्याद्युपदेश पदवचनादर्थस्य पदार्थ वाक्यार्थ- महावाक्याथैदम्पर्यार्थभेदेन चतुर्विधत्वं, प्रत्येकं तेषां चतुर्णा स्वरूपलक्षणमुपदर्शितम् ।
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३८५-१७
४ प्रतिसूत्रमुक्तक्रमेण व्याख्याने निश्चितप्रामाण्यकं सम्यग्ज्ञानं तच वाक्यार्थादिज्ञानं मतिरूपं श्रुतज्ञानाभ्यन्तरं श्रुतवृद्धसम्मतं, तत एव समानाक्षरलाभानां चतुर्दशपूर्वविदामपि क्षयोपशमवैचित्र्याद्विचित्रमतिविशेषैः षट्स्थानपतितत्त्वं श्रूयते, तत्र " अक्वरलं मेण" इत्यादि विशेषावश्यकभाष्यसंवादः ।
३८५-२३
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५ न सुत्मेत्तेणेत्यवतार्य व्याख्यातम् , सूत्रमात्रेणावाधितार्थप्रतिपत्तिर्नेति । ३८५-२८ ६ "अत्थगई" इत्याद्युत्तरार्धमवतार्य व्याख्यातं, नयवादगहनलीनेत्यस्योपपत्तये 'नत्थि नएण विहूर्ण' इत्याद्युक्तिसट्टनम् ।
३८६-७ ६५-१ अधीतसूत्रेणार्थसम्पादने विधिनाऽधिकतरोयत्नो विधेयः, अन्यथा शासनमालिन्यकारित्वं
स्यादित्याशयतया "तम्हा अहिगयसुत्तेण” इति पञ्चषष्ठितमगाथाऽवतारिता ॥३८६-११ .२ तद्विवरण, तत्र सूत्रादर्थो बलीयानिति हेतोः अधिगतसूत्रेण अर्थविषयकप्रमा
णतत्तन्नयस्वरूपावधारणे दृढयत्नेन भाव्यं यस्मादाचार्यधीरहस्ता आप्तशासनं
विडम्पयन्तीति ज्ञायतामित्यर्थों व्यक्तीकृतः । ६६-१ अनिश्चितशास्त्रार्थस्य बहुश्रुतत्वादिदात् सूत्रतात्पर्यानवबोधाच्च सिद्धान्त
प्रत्यनीकत्वमित्यर्थकतया "जह जह बहुस्सुओ" इति षट्षष्ठितमगाथाऽवतारिता । ३८६-३० २ तद्विवरणम्, तत्र श्रुतपल्लवग्राहितया यथा यथा बहुश्रुतत्वख्यातिमान् मन्दमतिप्रभृतीनां
शास्त्रज्ञत्वेन सम्मतःशास्त्रतत्त्वानभिज्ञैर्विनेयवृन्दैः परिवृतश्च समयेऽविनिश्चितार्थः
अविनिश्चितागमैदम्पर्यश्च तथा तथा सिद्धान्तविनाशको भवतीति । ३८७-३ ३ अत्र "सव्वष्णूहि पणीय" इति सिद्धान्तगाथाद्वयं तदर्थश्च संवादक उपदर्शितः। ३८७-१२ ६७-१ "चरणकरणप्पहाणा" इति षष्ठितमगाथाया अवतरणद्वयम् , शास्त्रमधीत्य तदर्थाऽवधारणम् ,
अवधृतस्यार्थस्य प्रमाणनयाभिप्रायतः परिभावनीयत्वमिति, म्याद्वाद एव प्रवचनसारः एतस्मिन्नविज्ञाते चरणकरणानुष्ठानस्य निश्चयशुद्धः सारोऽविज्ञातः स्यादिति च क्रमेण दर्शितम् ।
३८७-२२ २ तद्विवरणं, तत्र चरणं 'वयसमणधम्म' इत्यादिगाथोक्तसप्ततिभेदम्, 'करणं पिंडक्सिोही समिई' इत्यादिगाथोक्तसप्ततिभेदम्, नदुभयानुष्ठानप्रवृत्येकलीनाः स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापाराः चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्तीत्येकोऽर्थः संक्षिप्तो दर्शितः।
३८८-३ ३ उक्तगाथाविस्तृतार्थः, स्वसमयत्वे परसमयत्वे च हेतूपदर्शनेन अयं स्वसमयः अयन
परसमय इत्येतस्मिन् परिज्ञाने मुक्तव्यापारा इत्यस्यार्थ उक्तः । ३८८-१३ ४ चरणकरणयोस्सारं निश्चयशुद्धं न जानन्तीत्यस्यार्थद्वयमुपदर्योपपादितम् । ३८८-१९ ५ 'मण्णइ तमेव सच्चं' इत्यागमाद् यदहद्भिरुक्तं तदेव सत्यमित्येतावर्तव सम्यग्दर्शनसद्भाव इत्याशङ्कय परिहृतम् ।।
३८८-२५ ६ अत्रागमविरोधाशकोत्थाप्यापाकृता, तत्र ये यथोदितचरणकरणप्ररूपणासेवन
द्वारेण प्रधानादाचार्यात्स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्ति ते चरणकरण। सारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येवेत्यर्थः, तत्र "तं सव्वणयविसुद्धं" इत्यागमः प्रमाणम् । ३८८-२९
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७ गीतार्थनिश्रितस्यागीतार्थस्य गुरुवारतन्त्र्यं फलतो ज्ञानदर्शनलक्षणमित्यत्र “गुरुवारतंतनाणं" इतिहरिभद्रसूरिवचनसंवादः, गीतार्थाऽनिश्रितस्य तस्य व्रताद्यनुष्ठानवैफल्यं, तत्र " गीयत्थो य विहारो" इत्याद्यागमः प्रमाणमिति दर्शितम् । उक्तगाथायाः तृतीयोऽर्थश्चतुर्थोऽर्थेश्च विस्तरेण प्रदर्शितः ।
३८९–५
८ तत्र द्रव्यसम्यक्त्वभावसम्यक्त्वयोस्स्वरूपं 'जिणवयणमेव ततं' इत्यागमवचनेनोक्तम् ।
३९० - ३
६८ - १ परस्परसापेक्षे एव ज्ञानक्रिये मोक्षानुकूलशक्तिमच्वेन मोक्षम्प्रति कारणं, न तु निरपेक्ष व इत्यर्थतया 'नाणं किरियारहिये' इत्यष्टषष्ठितमगाथाऽवतारिता । ३९०-८ २ तद्विवरण, क्रियारहितं ज्ञानं क्रियामात्रं चेत्येकान्तौ द्वावपि पक्षौ जन्ममरण - दुःखेभ्यो मा भैषीरिति दर्शयितुमसमर्थौ ।
३९०-१३
३ कस्तथा समर्थ इत्याशङ्कायां परस्परसापेक्षसमुदिततदुभयात्मकपक्ष एवेति प्रतिपादितं, 'हयं नाणं क्रियाहीणं' इति विशेषावश्यक नियुक्तिसंवादोऽत्र दर्शितः । ३९०-१९ ४ ज्ञानमात्रक्रियामात्रयोरीप्सितार्थप्रापकत्वप्रतिषेधसाधके अनुमाने दर्शिते । ३९०-२६ ५ सम्यग्ज्ञानसम्यक्क्रियोभयवतः पुंसः भयमुक्तत्वसाधकमनुमानं, तत्र “संजोग- सिद्धीए फलं" इति विशेषावश्यक निर्युक्तिवचनं प्रमाणम्, तत्संवादकं 'चक्षुष्मानेकः' इति वचनञ्च सम्यविक्रयासम्यग्ज्ञानोभयस्येष्टफलसिद्धिजन - कत्वसाधकमनुमानञ्च दर्शितम् ।
३९०-२९
६ उक्तदिशा प्रतिपादितस्य ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इत्यस्य 'नाणं पयासय सोहओ' इति विशेषावश्यक निर्युक्तत्या प्रतिपादितेन ज्ञानतपः संयमेभ्यो मोक्ष इत्यनेन विरोध इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
३९१-९
७ तत्र तपः संयमयोः क्रियायामन्तर्भावे 'संजमतवोभई जं' इति वचनसंवादः । ३९१-१६ ८ ज्ञानग्रहणतः सम्यग्दर्शनस्याक्षेपेण 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति तत्वार्थाधिगमसूत्रेणापि न विरोध इत्यतिदिष्टम् ।
९ यद्वा मतिज्ञानस्य रुचिरूपोऽपायांश एव सम्यग्दर्शनमिति तस्य ज्ञानरूपत्वादेव न विरोधः, गोवृषन्यायेन सूत्रे पृथग् निर्देशः, त्रयाणां च मोक्षानुकूलैकशक्तिमत्वावच्छिन्नकारणत्वस्वरूपं मोक्षमार्गत्वं सूत्राभिप्रेतमिति ।
१० सम्यग्दर्शनादित्रयस्य ज्ञानक्रियोभयस्य वा केन रूपेण कारणत्वमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् ।
૧૩
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३९१-१८
३९१-२२
३९१-२४
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६९-१ पदार्थरत्नरत्नाकरस्य कृताविकलपदार्थप्रकाशस्यानभिभवनीयस्य जिनवचनस्य
स्तुतिरूपामन्तिममङ्गलात्मिकां प्रकरणपरिसमाप्तावन्तिमगार्थी श्रीसिद्धसेनदिवाकर
सरिरक्तवानित्येवं रूपा भई मिच्छादसण' इत्येकोनसप्ततितमगाथाऽवतारिता । ३९२-४ २ उक्तगाथाविवरणं, तत्र जिनवचनस्य कल्याणप्रार्थना, जिनवचनस्य निर्वचनं, तदुक्तिप्रयोजनं, तद्विशेषणस्य मिथ्यादर्शनसमूहमयस्ये त्यस्य निर्वचनं, तत्प्रयोजनश्चोपदर्शितम् ।
३९२-११ ३ मिथ्यादर्शनानां प्रत्येकावस्थायां मिथ्यादृष्टित्वात्तत्समूहेऽपि महामिथ्यादृष्टि
त्वप्रसत्या तन्मयं जिनवचनं कथं सम्यग्भावं प्रपद्यत इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । ३९२-२७ ४ जिनवचनस्य मिथ्यादर्शनसमूहमयत्वादेव तस्य समुद्ररूपस्य वेदान्तादिप्रकृतिभूताः
प्रत्येकनयास्तरङ्गाः, तन्मयश्च जिनवचनसमुद्रोऽमलं रत्नत्रयं प्रसूत इति तदर्थिनस्तत्कर्तारं भवन्तं जिनमाश्रयन्ते, अत्र 'नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे' इति दिवाकरवचनं संवादकम् ।
३९३-६ ५ अमयसारस्सेत्यस्य अमयसायस्सेति पाठान्तरस्य च भगवत इति विशेषणस्य च
संविग्नसुखाधिगम्यस्येत्यस्य च निर्वचनं, तत्प्रयोजनञ्च दर्शितम् । ३९३-१२ ६ इयं च जिनवचनकल्याणप्रार्थना प्रकरणपरिसमाप्तावन्तिममङ्गलात्मिका स्तुतिरिति निगमनम् ।
३९३-२९ ७०-१ दर्शनाद्यष्टसरिनामगर्भस्वगुरुनेमिसूरीश्वरस्तुतिरूपान्तिममङ्गलरूपं पद्यद्वयम् । ३९४-३
२ तृतीयपद्ये नव्योक्तिमेरुमन्थनेनागमाब्धिसमुत्थसुनयामृतपानं बुधस्याशंसनम् । ३९४-७ ३ चतुर्थपद्ये लघुवृत्तिपूर्तिकरणस्थानसंवत्सरमासदिनाद्यावेदनम् । ३९४-९ ४ तार्किकशिरोमणि-श्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतसम्मतितर्कप्रकरणस्य
विशिष्टानेकविरुदसमलङ्कृत-श्रीविजयनेमिसूरीश्वर-पट्टाब्धिचन्द्र-न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारद-विजयदर्शनमूरि-विरचितायाः सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यसम्मतितर्कलघुटीकायास्समाप्तेसंसूचनम् । ३९४-११ ५ एकोनचत्वारिंशत्संख्यकानि प्रशस्तिपद्यानि।
३९५-२ ॥ इति श्रीसम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाविषयानुक्रमणिका समाप्ता॥
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॥ श्रीसम्मतितर्कमहार्णवावतारिकान्तर्गतसाक्षिभूतग्रन्थनामावलिः॥ सम्मति महा०पत्राकानि
सम्मति महा०पत्राङ्कानि १ आचारागसूत्रम् १३९, ३५६, ३६९ | १६ स्याद्वादरत्नाकरः ४, २२, ३७, ९२, २ सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ३०, ९४, १९२. ९३, २१५, २३४, २६७, २७२, ३ स्थानाङ्गम् १००, १८६
२७४, ३३२, ३३३, ३४६ ४ भगवती ११२, १३८, १८८, २३२ | १७ द्वादशारनयचक्रम् १३८
२३९, २५५, २७३, २७६, २८१ | १८ तत्त्वार्थसूत्रम् ४, ७५, ८६,८८, ९२, ३१३, ३५६
१०६, १७६; १९७, २३२, २३४, ५ अनुयोगद्वारसूत्रम् ५३, ५४,७३, ७६,
२३६, २४२, २८०, २८३, २८९, ३२८, ३३७, ३३८ ६ उत्तराध्ययनम् २७१, २९६
३०४, ३१६, ३१७, ३३०, ३३७, ७ विशेषावश्यकभाष्यम् ३८, ३९, ४७,
३४०, ३९१ ५३, ६१, ६५, ७०, ७३, ७४, ७५, १९ तत्वार्थत्रिसूत्री ३०५ १०३, १०५, १०७, ११३, ११५,
| २० तत्त्वार्थविवरणम् ३१, ५४, २४७, १३६,१३७,१९३,१९८,२००,२०७, २४८, २५५ २०८, २१९, २२२, २३५, २३६, | २१ सम्मतितर्कबृहद्वत्तिः ५९, ६०, ६६, २३७, २४४, ३२२, ३२८, ३३७, । ९४, २१८, २४२, २४७, ३३१,
३३८, ३४०, ३८५, ३९०, ३९१, ___ ३३५, ३४१, ३८१ ८ नंदीसूत्रम् १९८, १९९, २००, २०१, २२ स्याद्वादमअरी ५२, ९२, १३१ २५०, २५३
२३ उपदेशपदम् ७२, ३८५ ९ दशवकालिकम् ३५१
२४ वीतरागस्तोत्रम् १३३ १० प्रज्ञापनासूत्रम् ४२, १९६, २२१, २२५
२५ प्रशमरतिः २७६ २४२, २४५ ११ आवश्यकसूत्रम् २३३, २४५, ३९२
२६ अष्टकम् ५० १२ बृहत्कल्पभाष्यम् २००, २३३, २३७.
२७ ध्यानशतकम् ३८ १३ पञ्चवस्तु ३२६,
२८ पंचाशकम् ३८९
२९ धर्मसंग्रहणिः १९६, २१८ १४ पञ्चसअहः २२४ १५ प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः १६, २७, |
३० निश्चयद्वात्रिंशिका २२९, २४३ ३१, ५३, १७०, १७३, २०५, २१७ / ३१ उत्पादादिसिद्धिः १२० २८०, २८३, २८९, ३१७, ३२९ । ३२ अष्टसहस्रीविवरणम् १४८, १६७,२९७, ३३२, ३६०, ३६५, ३७१, ३७५ ।
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सम्मति महा पत्रातानि
सम्मति०महा०पत्राकानि ३३ उपदेशरहस्यम् २५३, २९७, ३८५।। | ५४ वैशेषिकसूत्राणि २७८, २७९, ३१४, ३४ अनेकान्तव्यवस्था १५९, २९७, ३४६
३१५, ३६५, ३८२ ३५ न्यायखण्डखाद्यम् ५२, ८८, ८९, ९१,
| ५५ वैशेषिकसूत्रोपस्कारटीका ३७० ९४, ९६, १३३ १४४, १४७, १४९,
५६ व्युत्पत्तिवादः ३० १६८, १६९, १७०, १७१, १७२,
| ५७ श्रीहर्षकृतखण्डनखण्डखाद्यम् ३३० २६७,२७१,२९२,२९५,३०४, ३१४
| ५८ साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी १०४,१०८,११९,
२६९, ३४९, ३५४ ३६ नयोपदेशः ५१, ५३, ५६, ६०, ६२, ५९ शाबरभाष्यटीका ११, १५ ६३, ६४,६६, ७५, ७६, ८१, ११३, ।
६० मीमांसादर्शनसूत्राणि तद्भाष्यश्च १५, ३२९, ३३१, ३३५, ३३७, ३३९, ३४७,३८२
३४०,३४१,३४२, ३४५,३४६, ३६३ | ६१ शारीरकमीर्मासासत्राणि १७३ ३७ अध्यात्मोपनिषत् २९३
६२ मीमांसाश्लोकवार्तिकम् २१, ४३, ३८ ज्ञानचिन्दुः २२१, २२६, २२७,२३८,- ३५५, ३६६ २३९,२४०,२४२,२४६, २५७,३८४,
६३ पञ्चदशीचित्रप्रकरणम् १३२ . ३९ गुरुतत्त्वविनिश्चयः १३४
६४ वाक्यपदीयम् ५६, १४६, ३४७ ४० प्रतिमाशतकम् ६२, २९७
६५ श्रुतिः ५८, ८१, २५७, ३४६, ३५३ ४१ जैनतर्कपरिभाषा ३६९, ३७०
६६ संहिता २६२ ४२ शास्त्रवार्तासमुच्चयः ७४, ९९
६७ वेदान्तदर्शनसूत्राणि ३८२
६८ योगदर्शनसूत्राणि ३४ ४३ अस्पृशद्गतिवादः ३२५
६९ तत्वसङ्ग्रहः ३४३ ४४ गौतमाष्टकम् ३१
७० न्यायविन्दुः ३४, ३६५ ४५ आप्तमीमांसा २८
७१ प्रमाणवार्तिकम् २१५ ४६ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् ६७, ६८, ९७, ७२ बौद्धदर्शनसूत्राणि ३८३ २८०
७३ सर्वदर्शनसङ्ग्रहः ४१ ४७ चिन्तामणिः २१२
७४ चार्वाकदर्शनसूत्राणि ३८३ ४८ कुसुमाञ्जलिः ६२, ३६२
७५ हैमसूत्राणि २२१ ४९ कारिकावलिः १९७
७६ पाणिनीयसूत्राणि ३०, ४४, ४५, ५० न्यायमअरी १३, १४, १२९,२१४,३६७ ५१ पक्षता-- ११, ३२४
७७ शाकटायनव्याकरणम् १७५ ५२ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावः १४९ ७८ पातालमहाभाध्यतद्वात्र्तिकश्च५५,५७,१२६ ५३ न्यायसूत्राणि २७७, ३६५, ३८३ । ७९ अमरकोशादि ५०, ५५
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काण्ड
१०१ ॥ आचारागसूत्रादिटीकान्तर्गतसाक्षीभूतसम्मतितर्कगाथासूचिः ॥ आचाराङ्गटीका
उत्तराध्ययनबृहद्वत्तिः काण्ड गाथा
गाथा १ २१ ८० प्र
१२ ८५ द्वि ४५ १४७
अनुयोगद्वारटीका १७१ द्वि
२४७ सूत्रकृताङ्गटीका
विशेषावश्यकभाष्यम् १ २१-२२-२३-२४-२५ २११
५२ २१०४
४९ २१९५ ८९९ स्थानाङ्गटीका
विशेषावश्यकबृहद्वृत्तिः २५०३
५२ ४७ ३९० द्वि ३९१ प्र
१३४६ व्याख्याप्रज्ञप्तिटीका
विशेषावश्यक-कोव्याचार्यवृत्तिः १८ द्वि
४७ २४ दशवैकालिकटीका
५२ २४ । ५२ ३२ द्वि
३ ९७६
८६४
५३
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३३
४७
काण्ड
॥ श्वेताम्बरपूर्वाचार्यकृतग्रन्थान्तर्गतसाक्षीभूतसम्मतितर्कगाथासूचिः ॥ द्वादशारनयचक्रम्
प्रमाणमीमांसा पृष्ठ
काण्ड गाथा पृष्ठ ४९
अ. ३१२ २८ ३९
(सभाषान्तर) स्याद्वादमबरी
गाथा
४७
ror or or oram
३
४७
अष्टाविंशतिश्लोकटीकायां
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________________
काण्ड
गाथा
काण्ड पृष्ठ गाथा तत्त्वार्थभाष्यवृहद्वृत्तिः (पत्राकार)
४१
१
२१८
२४१-अ.६सू. पत्र, पृ
२१
१-अ.६सू.
३५-प्र
१४९
३५.३६ ३ १०-११-१३-१४-१५
१२
२५
१५४
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पञ्चवस्तु
गाथा ४५ १५० ९९३ ५३ १५७ १०४९ ६६ १४३ ९४७
उपदेशपदम् ५३ १४० प्र. पृ.
३७२ प्र. पृ. द्रव्यानुयोगतर्कणा गाथा पृष्ठ
१५५ १५८
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سه سد سه
३८-३९
१५७ २३१
काण्ड
१५३
४९
३२ २२६ न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायमन्थगतसाक्षीभूतसम्मतितर्कगाथासूचिः॥ अनेकान्तव्यवस्था
३८ ७० द्वि काण्ड गाथा पृष्ठ ४ १० द्वि
७१ द्वि ५ ५४ प्र,
५७द्वि ७२ प्र २८ प्र.
५३-५४ ६५ द्वि १ ९-१०-११ २८ द्वि
५-६ ७४द्वि ११ २ थी १६-२१ २९ प्र.
७-८ ७५ प्र १ २२-२३ २९ द्वि
९-१०-११ ७५ द्वि २४-२५-२६ ३० प्र
१२ ७६प्र. ८० द्वि २७-२८
१३-१४ ७६ म १५ ७६ द्वि १७-१८ ८२५ १९-२०-२१ ८२ द्वि
or or ar an arm m
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३५
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काण्ड
गाथा
गाथा पृष्ठ २२-२३८३ प्र २४-२५-२६ ८३ द्वि २७ ८४ प्र
८४ द्वि
९.१०-११-१२ २६१ द्वि
१३-१४-१५
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२२३द्वि
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८५ द्वि
૨૮ २९-३१
२५९५ २५९ द्वि २१९ २२० छि
३९
८१ द्वि
४८
३४
२२१
३५
३८-३९
४०
शास्त्रवार्ता-समुच्चय टीका
४३-४४ ४७-४८-४९
६८ २७४ प्र
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१२ २१
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२३० द्वि
३६
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५६-५७ २५६प्र
नयामृततरङ्गिणी ३ २९ प्र ८-९ ३० द्वि
१० ३१ प्र १२-१३-१४ ३५ द्वि १५-१६ ३६ प्र
२८ द्वि ३ द्वि १२ प्र
३७-३८-३९ २५३ प्र ४०
२५३ द्वि
२५८. ४७-४८ ११५ ४९.५० ११५ द्वि
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३१
५१-५३
५२-५४
४१
१३ द्वि
५३
३४२ प्र ३४२ द्वि
८८ प्र
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गाथा
काण्ड
गाथा
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४१
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२११ द्वि ९३ प्र
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* * * *
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३२
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२८
३ ३५ ९३ द्वि . ९२ द्वि
१९५ द्वि ___ अष्टसहस्री ५४ प्र
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४१ २०८ द्वि २१. द्वि
३०८ द्वि ३८-३९-४० २११ प्र
४५ ३०९ द्वि ॥ महावीरस्तवकल्पलतिकासमलङ्कृत-महावीरस्तवमूलगतसम्मतिगाथा॥ काण्ड गाथा पृष्ठ
काण्ड गाथा पृष्ठ
१६-१७ ११३ द्वि
१८-१९-२० ११४ प्र ३ ६ ३२५ द्वि
२१-२२ ११४ द्वि
२३-२४ ११५ प्र २९
२५-२६ ११५ द्वि ४१९ द्वि
२७थी ३० १९६५ ज्ञानार्णवसमन्वितज्ञानबिन्दुपत्राकानि
११७५ . ८-३५ १०६ द्वि
३२-३३ ११७ द्वि २ ३-४ १०८ द्वि
गुरुतत्वविनिश्चयः १०९ द्वि
२८ १२ द्वि थी ९ १०-११ १११ द्वि
१८०५ १२ ११२ प्र
७२ द्वि ११२ द्वि.
प्रतिमाशतकम् ११३ प्र
२५
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३१
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२७
१५
२९३
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पृष्ठ
२५
८३ प्र.
س مہ
ہ
س
س
४१ वि
काण्ड गाथा पृष्ठ
काण्ड
| १ ३७ ५३ प्र ३ २८६२ प्रन्थचतुष्टयान्तर्गतोऽस्पृशद्गतिवादः
४४-४५ ३५ प्र २९२ पत्रमुद्रित धर्मपरीक्षा
द्रव्यगुणपर्यायरासः २८ २८
काण्ड सं गाथा ढाल गाथा २७ २६२
१०थी१५ २ ११-१२ ४८-४९ उपदेशरहस्यम्
४१ ५४ ४० द्वि २७ ४५ ६१ प्र
३७ ९ १२ ६६ ६१ द्वि
३५-३६ ४३ प्र
३२ अध्यात्ममतपरीक्षा
३ ३३ ९ २०-२३ ४९ ३६ प्र
३८-३९ ९ २१ तस्वार्थविवरणाऽऽद्याध्यायः
३४
२६ ३२-३३ १७ प्र
४७१३ १० २१ २९ द्वि
१४ १६ ॥ दिगबराचार्यकृतग्रन्थसाक्षिभूत-सम्मतितर्कगाथासूचिः॥ कसायपाहुड-जयधवलाटीका
काण्ड
गाथा गाथा
२४५ ३.५ २१८
१ ११-१२-१३ २४८ ४ २२०
१ १७ थी २१ २४९
س
له
سه سه سد
१८ १९
سه قسه م
مه سه
काण्ड
पृष्ठ
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१०६
काण्ड
काण्ड
गाथा
गाथा
भाग
com Kowa
२५२ २५३ २५६ २५७ २६०
तस्वार्थश्लोकवार्तिकम् .४५३ पश्चास्तिकायटीका ६७ २५० सिद्धिविनिश्चयटीका ५० ३२४ (लिखितपत्र) द्वादशारनयचक्र
सप्तम-अर ४७
अष्टम-अर अष्टम-अर
१२-१३
३५७
m
षट्खण्डागमधवलाटीका सं-गाथा भाग
पत्र
।
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१०७
॥ श्रीगुर्वष्टकम् ॥ विशेषाधारत्वावमसि पुरुषेषुत्तम इतो,
महिम्नः सामान्यं तव तु समवेता अपि सुराः। गुणाधारो द्रव्यात् पृथगपि सुकर्माऽस्यऽभवनः __नमामस्त्वां देवालयमपि गतं मद्धृदयगम् ॥१॥ गुरुस्त्वत्तो भीतो गुरुवर ! गतो देवसदनं,
गतं त्वा तत्रापि प्रथितमवलोक्यातिचकितः । स्वयं शिष्यो भूत्वा किमु तव कवि भीषयति यत् ,
ननु त्वां काव्योपि यति नमनं तेऽस्तु चरणे ॥२॥ हरस्त्वं शिष्याणां हरसि हृदयध्वान्तमनिशं,
चिरञ्च्युक्तिं किन्ते वचनमतिशेते न गहनम् । सुकल्पच्याप्दैव प्रभवति तदीया कृतिरियं,
परा कल्पातीता गुरुवर नमस्तेऽस्तु सततम् ॥३॥ गणेशास्ते शिष्या वदनमपि भारत्यधिगता,
नयग्रामोऽणौ ते मनसि रमतेऽनेकपथगः । प्रमाणस्वातन्त्र्यं तव मतिगतं भाति विमलम् ,
नमामस्त्वां नित्यं गुरुवरमभीष्टालिकलितम् ॥ ४ ॥ गुणौधैर्याप्त ते हृदि परिमिते कीर्तिरमिता,
गताऽब्धीनां पारं तदनुगमनास्तेऽपि च गुणाः। प्रतापस्तैः सर्वैर्जगदपि परित्याप्य च गतो,
गुरो चित्रं तैस्त्वां भृतमपि नमस्यामि चकितः ॥ ५ ॥ गुणान् वक्तुं शक्तस्स तव सुगुरो यश्रुतधरः,
पतः कालोऽनन्तो जिनवचनगीश्चारु भजना। अमेयोऽवाच्यो पा गुणगणगतस्ते यदि गुणो,
विशिष्याऽनाख्येयो गुणिगुणनमस्योऽसि च तदा ॥ ६ ॥ त्वमेव त्वां स्तोतुं गुरुवर समर्थोऽसि नितरां,
गुणग्रामो यत्ते न च परपरिच्छेद्य इयता । न सादृश्य पूर्ण त्वयि जगति कस्यापि कृतिनो,
नमामस्त्वां पूर्णामृतसुखमयं पूर्णमवरम् ॥ ७॥
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१०८
न मरीणां त्वत्तोऽतिशयघटना काऽपि विमुखा,
सती त्वां ध्यायन्ती जगति सधवा मुक्तिसुभगा। वरेण्या वाणी ते निखिलमतगा मानमहिता,
हितार्था सैवैका स्तुतिरपि गुरो ते परिणता ॥ ८॥ इदं स्तोत्रं गुर्वष्टकमहितकर्माष्टकहरं,
पठेत्प्रातः सायं त्रिकरणपटुर्यों नियमतः । सरस्वत्या वासः स भवति सभायां सुमहितो,
न तस्याग्रे कोऽपि प्रभवति विपश्चिद्विवदितुम् ॥१॥ शुचिबिम्ब स्वच्छं हृदयभवने स्थाप्य च गुरोः,
पठेद्धीमान् भक्त्या सुसमयमभिव्याप्य परितः। इदं स्तोत्रं तस्यानधिगतिविहीनार्थप्रचुरा, नयग्रामालीढा प्रसरति सदा गीर्मितिचिता ॥ २ ॥
॥ इति गुर्वष्टकम् ॥
॥ श्रीगुर्वष्टकटिपणी ॥ विशेषाधारत्वादिति, विः पक्षी पक्षिजातीयो गरुडः। शेषः सहस्रफणः शेषनागः। तौ विशेषौ वाहनतया शय्यारूपतया आधारौ यस्य विष्णोः स विशेषाधारः, तस्य भावो विशेषाधारत्वं, तस्मात् । पुरुषेषु आत्मसु मध्ये उत्तमः उत्कृष्टो यथा विष्णुः पुरुषोत्तम इति गीयते तथा हे गुरो! त्वं विशेषाणां सर्वतन्त्रस्वतन्त्रत्वप्राचीनजैनतीर्थोद्धारकर्तृत्वादीनामन्यपुरुषव्यावृत्तानामाधारत्वात्पुरुषेष्वात्मसु मध्ये उत्तम उत्कृष्टोऽसि । ननु विष्णुरुपेन्द्रत्वात्सुरोऽहन्तु मनुष्य इति कथं पुरुषोत्तम इत्याकाक्षायामाह-इतो महिम्नः प्रत्यक्षतोऽनुभूयमानात्तत्तल्लोकपूजितपतिष्ठादिकार्यकरणजातभवन्माहात्म्यात् त्रिभुवनव्यापिनः । समवेताः तत्तल्लोकमभिव्याप्य स्थिताः । सुरा देवाः, अपि, किमुत उपेन्द्राख्य एको देवः सर्वे देवाः । लोके मनुजादिपञ्चगतिषु देवगतेः प्राधान्यम् । देवा अपि सामान्यं साधारणं भवदपेक्षयाऽल्पगुणयोगि, तदान्येषां कथैव केत्यपिना द्योत्यते । तथा च पुरुषोत्तमाद्विष्णोरपि सुरात्त्वमुत्सम इति । अन्योऽपि विशेषस्त्वयि समस्तीत्याह-गुणाधारो द्रव्यात्पृथगपि, द्रव्याल्लक्ष्मीस्वरूपात , पृथगपि विभिन्नोऽपि तत्स्वामित्वादिरहितोऽपि । गुणाधारः आत्मगुणानां सम्यगज्ञानदर्शनचारित्राणां भेदसहिष्ण्यभेदलक्षणाविष्वग्भावसम्बन्धेनाश्रयस्त्वमसि, विष्णुस्तु लक्ष्मीस्वामी भूत्वा तदासक्त एव मायिकगुणस्य सत्त्वाख्यस्याधारो न तु मोक्षमार्गस्य । तथा सुकर्मा द्रव्याद्भिन्नोऽपि त्वं शोभननिरनुबन्धकर्मशाली, असि, विष्णुस्तु नैवं शोभनकर्मशाली किन्तु
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रक्षाप्रभृतिशत्रुहननाघशुभकर्मवानेव तथा अभवनः, भवनं गृहं न विद्यते यस्य सोऽभवनः अनागार त्वमसि, विष्णुस्तु लोकविशेषवैकुण्ठादिनिवासी गृहवानेय, अतः सर्वथा विष्णोरुत्व ष्टस्त्वमसि । नियतगृहनिवासित्वाभावात्सर्वगतज्ञानाविध्वम्भूतत्वेन सर्वगतं त्वां सुरालयगतमपि देवालयगतमपि । मदृदयगंमद्धृदयस्थितं, नमामः प्रणमामः ।
ननु व्यापकत्वेन भवद्धदयगतत्वं न भवत्कर्तृकप्रणतिकर्मत्वप्रयोजक, तथा सति पुरुषान्तराणामपि सर्वज्ञानां तत्त्वं स्यादिति चेत्, सत्यम् , अत एव स्वऽभ्यस्तवैशेषिकदर्शनगतसप्तपदार्थाध्यापनकर्तुंगुरोरुपदिष्टपदार्थस्मृतिविषयतया मद्रदयगतत्वं परमोपकारित्वेन प्रणतिप्रयोजकमित्यभिप्रायेण विशेषाधारत्वादित्यत्र विशेषपदार्थस्य सामान्यमिति सामान्यपदार्थस्य समवेता अपीत्येतद्घटकतया समवायपदार्थस्य गुणाधार इति गुणपदार्थस्य द्रव्यादिति द्रव्यपदार्थस्य सुकमति, कर्मयदार्थस्याभवन इत्यभावपदार्थस्य च सन्निवेशनेन तादृशसप्तपदार्थनिरूपणात्मकं वैशेषिकदर्शनं प्रथमस्तुतिपद्ये प्रकटितम् । एतत्सनिवेशस्य स्तुतावित्थमुपयोगः । अन्त्यो नित्यद्रव्यवृत्तिविशेषः परिकीर्तित इति वचनात्स्वतो व्यावृत्ता नित्यद्रव्याणां व्यावर्तकत्वानित्यद्रव्यवृत्तयो यावन्ति नित्यद्रव्याणि तावत्सल्यका विशेषाः, इति विशेषाधारत्वात् हे गुरो ! यदि त्वं पुरुषोत्तमः तदाऽन्येऽपि जीवाः पुरुषोत्तमाः स्युः। इतो महिम्नः एतादृशसादृश्यलक्षणमहत्त्वात्सामान्येन सममनुयोगित्वप्रतियोगित्वाऽन्यतरसम्बन्धेन समवायक्वलक्षणसमवेतत्त्वधर्मेण सादृश्यात्सुरा देवा अपि समवेताः सामान्य स्युः। यथा सुरास्तावन्मात्रेण सामान्य न, तथा भवानपि विशेषाधारत्वतोऽन्यनित्यद्रव्यसाधारणाम भवितुमहति पुरुषोत्तमः । गुणा रूपरसादयश्चतुर्विशतिविधा द्रव्येष्वेव वर्तन्त इति तदाधारस्त्वं कथं द्रव्यात्पृथक्, व्यभिन्नस्य गुणाधारत्वासम्भवात् । एवं कर्माऽपि पश्चविधं मूर्त्तद्रव्येष्वेव वर्तत इति सुकर्मा त्वं कथं द्रव्यात्पृथक्, भवनं भावोऽभवनोऽभावः, सोऽपि भावरूपस्त्वं कथमित्येवं विरोधोऽवभासत इति विरोधभासकतया वैशेषिकदर्शनमुपयुज्यते, तत्परिहारस्तु पूर्वमर्थभेदाश्रयणात्कृत इति विरोधाभासश्चमत्कृतिमादधातीति ॥१॥
सुराचार्यासुराचार्याभ्यां विशिष्टत्वादपि त्वं नमस्योऽसीत्याहगुरुरिति । हे गुरुवर ! त्वत्तो भीतो गुरुः बृहस्पतिः, देवसदनं स्वर्ग, गतः। तत्रापि स्वर्गेऽपि, गतं त्वां प्रथितं विशिष्टविद्यादिगुणयोगादिन्द्रप्रभृतिदेववरसम्माननासम्भावितम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, अतिचकितः अतः परं किं करणीयमित्येवं कांदिशीको जातः, भीत्या स्वगै गतस्यापि भोतिस्समुपस्थितैवेति तत्त्राणोपाय एतस्य शिष्यभवनमेवेत्याकलय्येव किमु, तव स्वयं शिष्यो भूत्वा । कविं असुराचार्य शुक्रं, भीषयति, यत् यस्मात्कारणात् । ननु निश्चितम्, काव्योऽपि शुक्रोऽपि, त्वां श्रयति गुरुत्वेन त्वां स्वीकरोति, एवं सत्येव बृहस्पतितो
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न भयं नस्य, अभिनवशिष्याभ्यां सुरासुराचार्याभ्यां सेविते ते चरणे तव पदकमले, नमनं प्रणामः, अस्तु भवत्वित्यर्थः ॥ २॥
शिवब्रह्मभ्यामपि त्वं विशिष्ट इति त्वां स्तौमीत्याहहर इति । तमोगुणयुक्तो महादेवः पराभिमतो महाप्रलये जगदेव संहरतीति हर इति गीयते । त्वं पुनः शिष्याणामन्तेवासिनां हृदयध्वान्तमात्मगतमनादिकालीनमज्ञानलक्षणान्धकारम् , अनिशं सर्वदा जिनोक्तमोक्षमार्गज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणालौकिकालोकाविर्भावनेन हरसि विनाशयसीति हरः । ते तव, गहनं जिनोक्तागमार्थसङ्घटितम्रर्तिकत्वेन मन्दमत्यगम्यं विशिष्टसूक्ष्ममतिमात्रगम्यं, वचनम् , विरञ्च्युक्ति विरश्चिब्रह्मा, तस्योक्तिं वचनं पराभिमतदलक्षणागमं किन्नातिशेते अपि त्वतिशेत एव, ब्रह्मकृतिविशिष्टा च तव कृतिरित्याहमुकल्पव्याप्तवेति, तदीया ब्रह्मसम्बन्धिनी कृतिः वेदरचना ब्रह्मनिर्मितो वेद इति यावत्, ब्रह्मदिनं कल्प इत्युच्यते इति सुकल्पव्याप्तैव ब्रह्मैकदिवसमात्रस्थायिन्येव, दिवसान्तरे पुनरन्यैव वेदकृतिः, या या ब्रह्मणः कृतिः सा सर्वापि कल्पमात्रस्थायिन्येव, इयं प्रत्यक्षतोऽनुभूयमाना तच कृतिः परा उत्कृष्टा कल्पातीता । कल्पः कल्पना तमतीताऽतिकान्ता कथमियमित्थं साता यतः परैः कल्पनादक्षैरपि बाधितुं न शक्यते, एतस्मात्कारणात् हे गुरुवर ! ते तव, नमः त्वामुद्दिश्य नमस्कारः, सततं सर्वदाऽस्तु ॥३॥
पराभिमतो महेश एक गणेशपुत्रक एव, त्वं पुनरनेकगणेशपुत्रक इत्यादिहेतोरपि तत उत्कृष्टः स्तुत्यह इत्याह-गणेशा इति । ते तव शिष्याः पट्टधराः गणेशाः गणधराः, तस्य महेशस्य पत्नी पार्वती देहा(भूता, तव तु भारती सरस्वती वदनमपि मुखमप्यधिगता मुखद्वारा हृदयाश्रिता. अपिना शरीरे मुखरूपावयवस्य प्राधान्यमपि तदाश्रितस्य सर्वाश्रितत्वमिति भारतीस्वरूप एव त्वं संवृत्त इति प्रतिपादितं भवति । नयग्रामः नगमसइन्ग्रहादिसप्तविधनयसमुदायः, अनेकपथगः विभिन्नमार्गगामी, ते तव, अणौ सूक्ष्मे, तेनाणुपरिमाणस्य जैनमतेऽनभ्युपगमेऽपि न क्षतिः । अनन्तधर्मात्मके मनस्यपि कयाचिदपेक्षयाऽणुत्वं सम्भवत्यपि, मनसि अन्त करणे, रमते अपेक्षाभेदेन विरोधपरिहारलक्षणसुखमनुभवति, यत एव:परिहृतविरोधा नयास्तव हृदयङ्गतास्तत एव तव मतिगतं त्वज्ञानगतं, प्रमाणस्वातन्त्र्यं प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन द्विविधस्य मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानात्मकपञ्चविधज्ञानात्मकस्य प्रमाणस्य यत्स्वतन्त्रसिद्धस्वपरव्यवसायात्मकत्वलक्षणप्रामाण्योपेतत्वेनानन्तधर्मात्मकवस्त्ववगाहित्वलक्षणं स्वातन्त्र्य, विमलं परोक्तैकान्तदोषलक्षणमलरहितं, भाति प्रकाशते, नित्यं सर्वदा, अभीष्टालिकलितं पारमार्थिकेष्टसमष्टिविभूषितं, गुरुवरं त्वाम् , नमामः प्रणमामः ॥४॥
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कीर्तिप्रतापादिगुणगणैकान्तावासो भवान् गुणिगणेन नमस्करणीय इत्याह-गुगौधैरिति गुणोधैर्गुणसमूहैः, व्याप्ते सर्वतः परिवृते, परिमिते परिच्छिन्नप्रमाणे, ते हृदि तब हृदये, अमिता मातुमशक्या, कीतिर्यशः, अब्धीनां समुद्राणां, पारंगता चतुःसमुद्रानुल्लय देशान्तरं गता, चतुःसमुद्रपर्यन्तव्यापिनी तब कीर्तिः, तेऽपि च त्वहृदयध्यापिनोऽपि गुणास्तदनुगमनाः कीर्त्यनुगमनाः, कीर्त्या सह तव गुणा अपि समुद्रपारंगता इति यावत् , तैः सर्वैः स्वकीर्तित्वद्गुणैः समं, तव प्रतापः प्रकृष्टतेजा, जगदपि त्रिभुवनमपि, परिव्याप्य सर्वतो व्यापनं कृत्वा, गतश्च, एतावताऽभिव्याप्त पूर्वस्थानमपरित्यज्यैव गता न तु पूर्वदेशं विहायेति मूचितम् । अत एव हे गुरो! चित्रमाश्चर्य यथा स्यात्तथा चकितः किमन्योऽप्येवमीडशोऽभूदस्ति भावी वेत्येवं विचाराकलितचित्तोऽहं, तैः पूर्वोपदर्शितगुणकीर्त्यादिभिः, भृतं परिपूर्णम् , अपि, त्वां नमस्यामीति ॥ ५ ॥
सर्वानेकान्ततच्याभिज्ञ एव जिनोपदिष्टकालादिसचिवस्त्वद्गुणग्रामान वक्तुं समर्थों नान्य इत्याह-गुणानिति । हे गुरो ! तव गुणान् स वक्तुं वदितुं यथार्थतया प्रतिपादयितुमिति यावत् , शक्तः समर्थः, यः श्रुतधरः विशिष्टश्रुतधर इत्यर्थः, एवकारोऽत्र दृश्यः, यो हि यजानाति स एव तत्प्रतिपादयितुमीशः, ऋते विशिष्टश्रुतधरात्त्वद्गुणगणाभिज्ञो नास्त्येव । नन्विदानी विशिष्टश्रुतधरो नास्ति ततोऽज्ञाता गुणा न स्तवनाहीं इत्यत आह-यतः कालोऽनन्त इति यद्यप्यतीता विशिष्टश्रुतधरा नेदानी सन्ति, इदानीन्तनास्त्वस्मत्सदृशा न विशिष्टश्रुतधराः, भविष्यकाले तु भविष्यन्ति बहवः श्रुतधराः ये भवतो गुणान् स्वज्ञानविषयीकृतान्वक्तुं स्वकाले समर्था एव तथा भूतं भवन्तमनागतं च सर्वमतीता अपि श्रुतधरा ज्ञातुं प्रगल्भा एव, वस्तुत इदानीमपि श्रुतधरा क्षेत्रान्तरे विहरन्त्येव, अथवा ननु यदीया गुणा अनन्ता न विशिष्टश्रुतधरैरपि युगपदेव वक्तुं शक्या इत्यत आह-यत इति, यदि कालोऽनन्तो न भवेत् , न भवेयुः श्रुतधरैरपि तव गुणा अनन्ता वक्तुं योग्याः, यदा तु कालोऽप्यनन्तः तदुपलक्षिताः श्रुतधरा अप्यनन्ताः, तदा तव गुणाः श्रुतधरवचनगोचराः संभावयितुं शक्या इति भावः। ननु कालस्य क्षणस्वरूपस्यैकस्यानन्तत्वं नास्ति तत्प्रवाहस्थानन्तत्वेऽपि बौद्धमेव तस्यैकत्वं न वास्तविकं, वचनं च परार्थमेव भवति तत्र परो न श्रुतज्ञानी तस्य स्वयमेवास्मद्गुणगणशत्वेन तम्प्रत्यस्मद्गुणगनकथनस्य श्रुतज्ञानिकर्तृकस्यानुपयुक्तत्वात् , किन्त्वऽश्रुतज्ञानी, स चानन्तेनापि कालप्रवाहेण कल्पितेन श्रुनज्ञानिवचनादस्मद्गुणस्तोमं ज्ञातुं न समर्थ इत्यस्मद्गुणस्तवनं श्रुतज्ञानिकर्तृकतया सम्भावितमपि निष्प्रयोजनमेवेत्यत आह-जिनवचनगीश्चारुभजनेति, जिनवचनामिका वाणी समीचीनस्याद्वादस्वरूपे त्यर्थः, न खलु जिनमते किमप्येकान्तेनैकस्वरूपमेव वस्तु, तेनोक्तदिवा श्रुतपरोऽपि तव गुणाम्
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११२ वयतुं समर्थोऽसमर्थोऽपि, त्वद्गुणस्तुतिः श्रुतधरकर्तृका भवति न भवति चेत्येवं स्यादादएवात्रापि पदं निधत्ते तेन श्रुतधरेणापि वक्तुमशक्यास्त्वद्गुणा इति भावः। उक्ताभिप्रायानुसन्धानेनाह-अमेयोऽवाच्यो वेति । यदि ते तव, गुणगणगतः गुणगणे वर्तमानः, गुणः पुरुषोत्तमभवदाश्रितत्वनिबन्धनो गुणविशेषः, अमेयो मातुमशक्यः, एतावानस्य महिमेत्यादिरूपेण परिच्छेत्तुमशक्य इति यावत्, वा अथवा परिच्छेदातीतत्वात् अवाच्यः सकलवचनाविषयः, केनापि वचनेन निर्दष्टुं न शक्य इति यावत् , अत एव विशिष्यानाख्येयः स्वासा. धारणरूपेणारख्यातुमशक्यः, अस्ति कश्चिद्गुणविशेषोऽमेयोऽनिर्वचनीय इति सामान्यतः प्रदिपादयितुं शक्य एव, तदा गुणगणगतगुणविशेषेण निर्वचनीयेन स्तोतुमशक्यतादशायामपि च पुनः गुणिगुणनमस्योऽसि गुणिनां गुणवतां पुरुषाणां ये लोकप्रसिद्धा गुणास्तैः स्वगतः नमस्कारार्होऽसीत्यर्थः ॥ ६ ॥
तत्किमहं गुणविशेषाकलितगुणगणयथावद्वर्णनद्वारा स्तुतिविषयो न भवाम्येव, नैवम् , यथा सर्वज्ञः स्वाऽसाधारणस्वरूपेण सर्वज्ञव्यतिरिक्तजनासंवेद्योऽपि स्वसंवेद्यः, ज्ञान पराप्रकाश्यमपि स्वप्रकाश्यम् , तथा त्वमपि परकर्तृकस्तुतिगोचरताऽतीतोऽपि स्वकर्तृकस्तुतिगोचरो भवसीत्याह-त्वमेवेति । हे गुरुवर ! धर्माद्युपदेशदानेन शिष्याणां परमपुरुषार्थमार्गसम्यग्ज्ञानादिनिदानानां श्रेष्ठ !, अथवा गुरोर्ब्रहस्पतेरपि वरेण्य ! स्वां स्वस्वरूपं, स्तोतुं स्तुतिकर्म कर्तु, त्वमेव नितरामतिशयेन, समर्थः शक्तिमान , असि भवसि । कथमन्यो मा स्तोतुमसमर्थः १ यत् यस्मात् ते तव, गुणग्रामः गुणसमूहः, इयता एतावन्यूनाधिकव्यवच्छिन्नप्रकारेण, परपरिच्छेद्यो न च, त्वद्भिन्नपुरुषपरिच्छेदगोचरो न भवति, स्वमतिगोचर यावत्प्रकारेण स्तुतिकरणेऽपि तदधिकप्रकाराणां वैशिष्टयाक्गमकुशलाना परित्यक्तत्वेन न्यूनोक्तिसद्भावात् , यावन्तो वैशिष्टयबुद्धथाधानपटवो गुणास्त्वयि समवेतास्ते नान्यत्र समवयन्तीति तावद्गुणवत्वलक्षणसाधारणधर्मेण त्वयि सादृश्य न कस्यापि, एकैकोऽपि गुणो विशिष्टस्त्वद्गतो नान्यत्रेति तेनापि सादृश्यं न त्वयि परस्येति नोपमयापि त्वद्वर्णनं परेण कर्तुं शक्यमित्याह-न सादृश्यमिति । जगति कस्यापि कृतिनः सादृश्यं त्वयि न पूर्णमित्यन्वयः, अर्थस्तु व्यक्त एव, अपूर्ण सादृश्यमुपादायोपमा तु न विच्छित्तिविशेषाधाने पटीयसीति न सा स्तुतिरित्यभिसन्धिः, महान्तः स्वमुखेन स्वगुणवर्णनामिका स्वस्तुतिं न कुर्वन्तीत्यभिसन्धाय यदि समर्थोऽपि त्वं स्वस्तुति न करोषि अन्यस्तु तथा कर्तुमविदग्ध एवेत्येवं स्तुतिगोचरत्वाभाववन्तमपि त्वामेतद्गुणवैशिष्टयमुपादाय सर्वातिशायिनं प्रणमाम इत्याह-नमाम इति, पूर्णामृतसुखमयमवरं पूर्ण स्वां नमाम इत्यन्वयः, कतिपयकालानन्तरमेवोत्तगुणसम्पन्नस्त्वं भविष्यसीति निर्णयवन्तो वयं प्रणमाम इत्यभिसन्धिः। अक्षरार्थस्तु व्यक्त एव, अवरमित्यत्र न वरो विद्यते यस्मादितिं विग्रह इति ॥७॥
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ॐ अई नमः ॥ सदामोदोल्लासिसकलजनतापापहारिनिर्मलवाणी-विलासायानल्पलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः । न्यायव्याकरणसिद्धान्तादिपारावारसमवगाहनसमुपलब्धानल्पतत्त्वमणिसन्दब्धादभ्रग्रन्थ
मालेभ्यः शासनसम्राट् सूरिचक्रचक्रवर्तिश्रीविजयनेमिमूरिसद्गुरुभ्यो नमः ।। तत्पभुवनभानु-न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारदविरुदविभूषित-तपागच्छभट्टारकाऽऽचार्यश्रीविजयदर्शनसुरिप्रणीत "सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यटीका"
समलङ्कृतं श्रीविक्रमादित्यादिमहाभूपतिप्रतिबोधक-महातर्कवादि. शिरोमणि-श्रीसिद्धसेनदिवाकरमगवत्संदृब्धं सम्यग्दर्शनविशुद्धिक
द्रव्यानुयोगगहनकुशाग्रबुद्धिगम्यानल्यामलतत्वप्रतिपादकं स्याद्वादसिद्धान्तोपनिषद्विचारश्रेणिप्रौढवलाधायक
श्रीसम्मतितकेप्रकरणम्॥
मंगलाचरणम् न जात्वस्तं यायी न जलदनिरुद्धामलविभो, गवा भत्ता नित्यं नहृदयगुहावर्तितमसां । सदा राहग्रस्योऽखिलभविकजोद्बोधनपरः, जयत्यहन् सूर्योऽतिशयमहिमा पार्श्वजिनराट् यदीयस्याद्वादामितनयतरङ्गालिललितागमाब्धिस्यान्मात्रामलपदपृषत्सङ्गतिवशात् । विदृप्यद्वाद्यालिस्वमतिजनितत्तन्नयविषं, स्तुवे द्राक् पीयूषीभवति तमहं वीरजिनपम् ॥ ॥२॥ काम्बोजवाजीव हयेषु सर्व,-र्षिष्विद्धतेजा शमितारिवर्गः। श्रीसूरिसम्राड् गुरुनेमिसूरिः, शुभाशिषं मेऽत्र तनोतु कार्ये ॥३॥ सिद्धान्तपाथोनिधिसिद्धसेन-दिवाकरस्यातिप्रभावकस्य । श्रीसम्मतिग्रन्थकृतिः क सूक्ष्म-बुद्धयैकगम्या परवाद्यदूष्या ॥४॥
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सम्मति पाल, गा. द्रव्यानुयोगाल्पतरार्थभासा, क चाल्पधीमें विषमेऽपि तत्वे । सत्यप्यहं वच्मि गुणः स एष, सर्वःप्रणीता किल येन वृत्तिः ॥५॥ सयुक्तिविक्षिप्तकुवादियुक्तिः, तस्यैव पूज्याभयदेवसूरेः । यन्निम्नमार्गेऽपि समीकृतेऽच्छे, वज्रेण यान्त्यल्पधियोऽपि शीघ्रम् ॥६॥
(त्रिभिर्विशेषकम् ) __ अथ पुनः पुनर्जन्मजरामृतिरूपापारनीरनिकरपूरितं बहुप्रकारपरिभवपातालोल्वण मनल्पमोहमहावर्तदुरुत्तरमनेककदाग्रहग्राहनिवहमुदग्रमिथ्यात्वकालकूटसम्मूञ्छितमनवरतोप जायमानमनोरथमहोमिमालाव्याकुलं कषायवडवानलज्वालाकरालं व्याधिशतनक्रचक्रालरं पश्यतां त्रासोत्पादकं महागम्भीरं संसारसमुद्रमुत्तितीर्षतां भव्यजनवातानां तदुत्तरणेऽख्याहर मुख्यसाधनमगानङ्गभेदभित्रागमाऽशेषतत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनप्रवहणमेव । तदुक्तम्
" द्वारं मूलं प्रतिस्थान-माधारो भाजनं निधिः।।
धर्मेहेतोर्द्विषट्कस्य, सम्यग्दर्शनमिष्यते ॥ १॥" इति। न सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, न या वि पन्नत्तिधरो न वायगो। सो आगमिस्साई जिणो भविस्सह, समिक्ख पन्नाइ वरं खुदंसणं॥२ । इति च ।
न चैवं तर्हि पोतायमानसम्यग्दर्शनोत्पत्तौ सत्यां तद्वतां तदनन्तरमेव भवसमुद्रोत्तरणं किमिति न भवतीति वाच्यम् , न हि मृद्रव्यमात्रेण दण्डमात्रेण वा घट उत्पद्यमानो लोकैरनुभूयत इत्येकं कारणं निखिलकारणान्तरसापेक्षमेव कार्योत्पादनसमर्थमित्यत्रापि कारणान्तराऽभावात् । तथा च तदितरकारणसद्भावे सति सम्यग्दर्शनसच्चे मोक्षसत्त्वं तदितरकारण सत्त्वेऽपि तदभावे तदभाव इत्यन्वयव्यतिरेकबलान्मोक्षाऽसाधारणकारणं सम्यग्दर्शनमिति सिद्धम् । एवमेव सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रश्चाप्यन्वयव्यतिरेकाम्यां मोक्षं प्रत्यसाधारणकारणं ज्ञेयम् । तथा च यथा शिविकोद्वाहिपुरुषा मिथः सापेक्षभावं गता एव शिबिकोद्वहनात्मककार्य प्रति कारणं तथैव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि परस्परसापेक्षतां गतान्येव मोक्षं प्रति कारणमित्याशयः । ननु पूर्वोक्तान्वयव्यतिरेकाम्यामस्तु सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य च कारणत्वम्, न च चारित्रस्यापि तद् युक्तम् , मरुदेवामातुव्यचारित्ररूपकारणाभावेऽपि मोक्षात्मककार्योत्पत्तिभावेन व्यतिरेकव्यभिचारादिति चेद् , मैवम् , यतो न द्रव्यचारित्रत्वेन मोक्षं प्रति चारित्रस्य हेतुत्वम् , किन्तु सम्यक्चारित्रत्वेनैव, तद्धर्मावच्छिन्नेनैव सह मोक्षस्यान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । तस्य च परमकाष्ठापनस्य सर्वसंवररूपस्य भावचारित्रस्य शैलेशीकरणकाले सद्भाबादेव तस्याः मुक्तिभावात् , तथा च तदा तस्या अवशिष्टान्तमुहर्तायुष्काया द्रव्यचारित्रग्रहणेच्छाप्राबल्येऽप्यायुषोऽल्पकालतया द्रव्यचारित्रस्य ग्रहण
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सम्मति• काग-1, गा. कालाभावेनाऽभावेऽपि नोक्तदोषः । ननु मोक्षं प्रति दर्शनत्वेन ज्ञानत्वेन चारित्रत्वेनैव दर्शनादीनां कारणत्वमस्तु, किं तत्र सम्यग्पदोपादानेन कारणतावच्छेदकगौरवापादकेनेति चेद्, मैवम् , तथा सति मिथ्यादर्शनमपि मिथ्याज्ञानमपि तस्वश्रद्धाविकलचारित्रमपि च मोक्षकारणं स्यात्, न चान्वयव्यतिरेकानुविधानाऽभावान्मिथ्यादर्शनादिकं मोक्षकारणमभ्युपगन्तुं युक्तमिति तद्वारकतया सम्यग्विशेषणस्य सार्थकत्वेन सम्यग्दर्शनादेः सम्यग्दर्शनस्वादिनैव मोक्षं प्रति कारणत्वं युक्तियुक्तम् , न तु दर्शनत्वादिना, दर्शनत्वस्य मोक्षकारणस्वाभाववति भव्याभव्यपुरुषीयमिथ्यादर्शनेऽपि ज्ञानस्वस्य च तादृशपुरुषीयमिथ्याज्ञानेऽपि चारित्रत्वस्य च जिनोक्ततत्वश्रद्धाविकले तादृशपुरुषीयद्रव्यचारित्रेऽपि वृत्तित्वेन मोक्षनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणत्वातिरिक्तवृत्तितया कारणताऽतिप्रसक्तत्वेन कारणतानवच्छेदकत्वादिति । अनुमानश्चात्र तत्तन्नयभेदेन सम्यग्दर्शनादित्रयं मोक्षासाधारणकारणं मोक्षाभावप्रयोजकामावप्रतियोगित्वाद्, यद् यदभावप्रयोजकाभावप्रतियोगि तत्तदसाधारणकारणम् , यथा घटस्य दण्डः, तथा चेदं तस्मात्तथेति नयविवक्षयाऽन्वयव्य. तिरेकाम्यां सम्यग्दर्शनत्वादिना मोक्षम्प्रति सम्यग्दर्शनादित्रयमपि कारणम् , घटत्वावच्छिन्नम्प्रति मृद्दण्डचक्रचीवरादिकमिव, न च सर्वसंवरचारित्रलक्षणचरमकारणमात्रेणैव कार्ये सिद्ध तत्पूर्ववर्तिनः क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य केवलज्ञानस्य चाऽन्यथासिद्धिः, व्यवहितत्वादिति वाच्यम् । चरमकारणस्य तत्पूर्ववर्तिनः कारणत्वरक्षणार्थमेव यत्र व्यापारविधया कल्पनं न च तत्र व्यापारेण व्यापारिणोऽन्यथासिद्धिः, अन्यथा दण्डादेरपि चक्रभ्रमणक्रिययाऽन्यथासिद्धिस्यात् , स्याच परामर्षेण व्याप्तिज्ञानस्यान्यथासिद्धिः, एवं क्षायोपशमिकसम्यक्रियायाः केवलज्ञानोत्पादन एवोपक्षीणत्वात्तस्यास्तेन मोक्षकार्य प्रत्यऽन्यथासिद्धिस्स्यादिति तदुभयस्य कारणत्वे सिद्धे व्यापार एव कारणं न व्यापारी, व्यापार्येव कारणं न व्यापार इति विनिगन्तुमशक्यत्वात् , सर्वसंवरचारित्रकाले क्षायिकसम्यग्दर्शनकेवलज्ञानयोरपि विद्यमानत्वेन फलोपयोगितया मुख्यत्वाऽविशेषात् । आधुनिकदर्शनादिष्वपि मोक्षानुकूलनिर्जराविशेषप्रयोजकविशेषाश्रयत्वं सम्यक्त्वं प्रत्येकमव्याहतमिति त्रयाणां तुल्यवत्कारणत्वं नयाप. णया नानुपपन्नम् । एतेन कारणीभूतसम्यग्दर्शनादित्रयप्राप्तावपि तत्रयेण तद्भवे मोक्षफलं मवत्येवेति नैव नियमा, ऐदयुगीनकालस्यातिविषमत्वेन सम्यग्दर्शनादित्रये सम्यग्यतमानानामपि तत्तत्पुंसां तत इदानीं मोक्षानवातेरितीदानी सम्यग्दर्शनादिषयप्रात्यर्थं प्रवृ. सिनिष्फलैवेत्यारेकाऽपि निरस्ता, मोक्षफलोत्पत्तिर्हि न साक्षात्सम्यग्दर्शनादित्रयेण, किन्तु समुदिततत्रयसाध्यविशिष्टकर्मनिर्जराद्वारैव, स्मृतिफलोत्पत्तिरनुभवतस्संस्कारद्वारेव, मीमांसकमते स्वर्गफलोत्पत्तिगतः प्रधानाऽपूर्वद्वारेव वेति ताशनिर्जराद्वारसम्पत्ती सम्यग्दर्शनादित्रयप्रवृत्तेरिदानीमपि तत्साफल्यस्यानपायत्वात् , उक्तनिर्जराद्वारसम्पत्तौ ततः पूर्वकालीनसम्यग्दर्शनादित्रयस्यैव परमकाष्ठापनक्षायिकसम्यग्दर्शनादित्रयरूपेण परिणति
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सम्मति० काण्ड १ ० १
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भावे कालान्तरे मुक्तिफलोत्पत्तेः । प्रमाणार्पणया तु पर्यालोच्यते, सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्राणां त्रयाणां स्वस्वाऽसाधारणधर्मरूपेण सम्यग्दर्शनत्वादिना न मोक्षं प्रति कारणत्वम्, तथा सति कारणतावच्छेदकभेदेन कारणताभेदप्रसक्त्या मोक्षं प्रत्येककारणत्वं सिद्धं न स्यात्, किन्तु मोक्षानुकूलशक्तिमन्वेनैव कारणत्वमपि न नैयायिकाभ्युपगतकार्यनियतपूर्ववर्तित्वलक्षणं सखण्डरूपम्, तृणत्वमणित्वारणित्वादिप्रत्येकधर्मेण ह्नित्वावच्छिन्नम्प्रति कारणत्वे व्यतिरेकव्यभिचारस्स्यादिति तन्निवृत्तयेऽनन्यगत्या कार्ये वैजात्यमभ्युपगम्य विजातीय वह्नित्वावच्छिन्नम्प्रति तृणत्वेन, विजातीयवह्नित्वावच्छिन्नं प्रति मणिवेन, विजातीय वह्नित्वावच्छिन्नं प्रत्यरणित्वादिना च कारणत्वाभ्युपगमे विशेषरूपेणानेककार्यकारणभावप्रसङ्गतो यावत्सु वह्निजनकेष्वनुगता या शक्तिस्तद्रूपेण नियतकार्य कारणभावापेक्षा गौरव भारमन्थरत्वात्तत्पक्षस्य प्रमाणपथातीतत्वात् किन्त्वखण्डशक्तिरूपमेत्र, सम्यग्दर्शनत्वं सम्यग्ज्ञानत्वं सम्यक्चारित्रत्वञ्च शक्तेरभिव्यञ्जकविधयाऽवच्छेदकम्, कारण ताज्ञाने तदवच्छेदकज्ञानं कारणमिति नियमेन भवन्मते धर्मविषयाऽवच्छेदकज्ञानमपेक्षितम्, अस्मन्मते त्वभिव्यञ्जकविधयेत्ययं विशेषः सर्वत्र कार्यकारणभावे ज्ञेयः । न चैकस्यानेकाभिव्यङ्ग्यत्वमनुभवपथातीतमिति वाच्यम्, " किञ्चाभिव्यज्यते जातिः संस्थानादू येन केनचिद् । गोत्वं लागूलशृङ्गादिसंस्थानवशतो यथा इति स्याद्वादरत्नाकरपञ्चमपरिच्छेदाऽष्टमसूत्रवृत्तिवचनात् क्वचित्सास्नातः क्वचिच्च विलक्षणलाङ्गूलात् क्वचिश्च विलक्षणगृङ्गाद्दृष्टादभिव्यङ्ग्यतयैकस्य गोत्वस्यानुभवगोचरत्वादेव, तस्य चाभिव्यञ्जकस्य सम्यग्दर्शनत्वादेः प्रत्येकवर्त्तिनस्सम्यग्दर्शनादित्रितय व खण्डशक्तिरूपकारणत्वापेक्षया न्यूनवृत्तित्वेऽपि न क्षतिः, सखण्डकारणताया अवच्छेदकस्यैवाऽन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्वनियमात् । ननु शक्तिमत्वेन कारणत्वे कारणताज्ञाने तदवच्छेदकज्ञानस्यापेक्षितत्वेन कारणतावच्छेदिकायाश्शक्तेर्ज्ञानाच्छक्तिरूपकारणताज्ञानम्, तज्ज्ञाने च तज्ज्ञानमित्यात्माश्रय इति चेत्, मैत्रम्, प्रतियोगिताज्ञाने प्रतियोगितावच्छेदकज्ञानस्य कारणत्वमित्यत्रापि घटाभावीय प्रतियोगितायाः प्रतियोगितावच्छेदकघटत्वरूपत्वपक्षे आत्माश्रयदोषपरिहाराय घटत्वत्वेन घटत्वात्मकावच्छेदकज्ञानं प्रतियोगितात्वेन घटत्वात्मक प्रतियोगिताज्ञानं प्रति कारणमिति यथा नैयायिकैस्स्वीक्रियते तथाऽस्माभिरपि शक्तित्वेनावच्छेद की भूतशक्तिज्ञानं कारणतात्वेन शक्त्यात्मक कारणताज्ञानं प्रति कारणमित्यभ्युपगमेनोक्तदोषाभावात् । तथा च मोक्षानुकूलशक्तिमत्वावच्छिन्नशक्तिरूपं कारणत्वं परस्परसापेक्षसम्यग्दर्शनादिषु त्रिष्वेकमेति स्थितम् । अत एव " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इति तत्त्वार्थ प्रथमसूत्रे मार्गपदोत्तर सिप्रत्यय प्रकृत्यर्थतावच्छेदके मोक्षानुकूलशक्तिमच्वेन रूपेण मोक्षं प्रति मार्गत्वाstrपर्यायकारणत्वे एकत्वज्ञापनार्थ मार्गपदोत्तर सिप्रत्यय प्रयोगो विहितः, अन्यथा असति बाधके विशेष्यविशेषणपदयोस्समानचचनकत्वमिति नियमान्मार्गपदोत्तरजविभक्तिप्रसङ्ग
४
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सम्मति० काण्ड १, गा० । स्स्यादिति । ननु सम्यग्दर्शनादित्रयाणां समूहस्यैकस्यान्वव्यतिरेकाभ्यां कारणत्वमहाभ्यु. पगमो न युक्तः, घटत्वावच्छिन्नम्प्रति दण्डत्वेन मृचादिना च प्रत्येकरूपेण दण्डमृदाहीनां कारणत्वे सिद्धे तत्समूहस्यान्यथासिद्धत्ववत् सम्यग्दर्शनत्वेन सम्यग्ज्ञानत्वेन सम्यक्चारित्रत्वेन च प्रत्येकरूपेण सम्यग्दर्शनादीनामन्वयव्यतिरेकाभ्यां कारणत्वे सिद्धे तत्समूहस्याप्यऽन्यथासिद्धत्वादिति चेत् , मैवम् , परस्परनिरपेक्षकैककारणमात्रेण स्वरूपयोग्येनापि तत्र फलोपधानरूपकारणत्वाभावान्मोक्षकार्योत्पश्यभावेन मोक्षम्प्रति परस्परसापेक्षतत्तत्कारणसमूहस्यैवान्वयव्यतिरेकाम्यां कारणत्वात् , अत एव " नैकं कारणं किन्तु सामग्री वै जनिका" इति सिद्धान्तस्सङ्गच्छते । न च क्षायिकसम्यग्दर्शने सति केवलज्ञानमुत्पद्यते, तेन च सर्वसंवराख्यचारित्रमिति तेषां व्यापारव्यापारिभावेनैव मोक्षकारणत्वम् , न साक्षादिति तत्समूहस्यापि न तदिति वाच्यम् , व्यापारकाले व्यापारिणो नाशो नावश्यकः, व्यापार लक्षणे द्वारिनाशविशिष्टत्वाऽप्रवेशादिति सर्वसंबराख्यचारित्रकाले समुदिततत्रितयस्यैव मोक्षफलोपयोगितया व्यापारान्मुख्यत्वाविशेषाप्रमाणविवक्षया तत्समूहस्यैव मोक्षकारणत्वात् । " तिण्डं समायोगेण नेहाणं लम्भति" इत्युक्तेः। यद्यपि मोक्षानुकूलसम्पूर्णशक्ति. स्सम्यग्दर्शनादित्रयपर्याप्तसमुदायत्वावच्छेदेन परस्परसापेक्षसमुदितज्ञानादिषु त्रिवेव पर्याप्ता, तत्र फलोपधानसामर्थ्य सद्भावात् , तथापि सम्यग्दर्शनत्वादिप्रत्येकधर्मावच्छेदेनाप्येकैकेषु सम्यग्दर्शनादिषु " वीसु ण सबच्चिय, सिकतातेलं व साहणाऽभावो। देसो. वगारिया जा, सा समवायम्मि संपुण्णा ।। ११६४ ॥” इति विशेषावश्यकभाष्योक्तेः प्रत्येकावस्थायामपि देशोपकारित्वाद्देशतो मोक्षानुकूलशक्ति सद्भाव इति तच्छक्तिशालिसम्यग्दर्शनं शिथिलबन्धनबद्धं महामिथ्यात्वोदये कदाचिद्विनश्यत्यपीति मोक्षाभिलाषुकै. स्तच्छुद्धिः सन्देहविषौषधिकल्पा मिथ्यात्वमहार्णवतारणतरिका मिथ्यावासनाग्रहमत्रकल्पा कर्तव्या, सा च यथार्थद्वाभ्यस्तेभ्यः प्रमाणनयकरणकषद्रव्यगुणपर्याय. विचारप्रधानकद्रव्यानुयोगशास्त्रेभ्यः । उक्तश्च-" दविए दंमणसुद्धी दसणसुद्धस्स चरणं तु" इति । अयं स्वसमयः प्रमाणनयैरनेकान्ततत्वप्रतिपादकत्वात् , अयश्च परसमयो नयान्तरनिरपेक्षनयगोचरैकान्ततत्वप्रतिपादकत्वादित्येवं स्वसमयपरसमयपरिज्ञानेनेतरव्य. बच्छेदेनानेकान्ततत्वावबोधमन्तरेण चरणकरणप्रधाना गीतार्थगुर्वाज्ञाऽनधीनप्रवृत्तिकाश्चरणकरणयोस्सारमपि निश्चयशुद्धं बाह्यदृष्टयो नेव जानन्ति, किन्तु परसमयतचाऽप्रामाण्यज्ञापन पूर्वकानेकान्तात्मकस्वसमयतचप्रामाण्यनिश्चयार्थ प्रमाणनयाधीनद्रव्यगुणपर्यायविषयकनिरन्तरयत्पर्यालोचनं तदात्मकान्त इष्टिबुद्धजना एवं जानत इति सुधारसातिशायिभगवन्मु. खाजनिर्गततच्चामृतरसपिपासुभिः स्वपरसमयतत्वं बहुश्रुतगीतार्थगुरुभगवन्मुखेन पठित्वा श्रुत्वा वा सतात्पर्य विभाज्य विनिश्चित्य च तत्सारभूतद्रव्यानुयोग एवं दृढीकर्तव्यः, येन सम्यग्दर्शनं विशुद्धतरं स्यात् । तच्चाने ग्रन्धकार एवं स्पष्टीकरिष्यति ।
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सम्मति० काण्ड १, मा० १
वासिनां
तानि च द्रव्यानुयोगशास्त्राणि भगवच्छ्रीगणधरश्रुतधरादिप्रणीतततच्छास्त्राणि अन्य• तीर्थिकप्रज्ञापनागोचरातीतपदार्थसिद्धिमाधनानि द्रव्यानुयोगविषयानन्तगहनपदार्थ रत्नभृतत्वेनाऽशेषन पतरङ्गव्याप्तत्वेन च समुद्रकल्पानि मन्दमेघोभिर्दुरवगाहाणि यथार्थतया दुःशक्यार्थाधिगमानि च यथा समुद्रं दृष्ट्वा तरणोपायमजानतां पुंसां सुखेन बाहुभ्यां प्रतरामीति नैव चित्तवृत्तिर्भवति, अतिसाहसवृत्त्या प्रतरणप्रवृत्ता अप्यल्पमात्रं गता दुरुत्तरोऽयमिति मत्वाऽतिखिन्नाः प्रतिनिवृत्ता नैव तत्पारं प्राप्नुवन्ति तद्वत्प्रकृतेऽपीति बुद्धा तदनुग्रहार्थमहत्प्रवचनसमुद्रोध्धृतद्रव्यानुयोगविषयतत्तत्तच्चरत्नानां संक्षेपतस्सग्राहकं अखिलनय संमर्दगहनं महात के सुखपूर्वक तन्त्रग्रहणधारणनिश्चयजननयोग्यं "सम्मतितर्काख्यप्रकरणम्" नदीतडागादिव - वलवदनिष्टाननुबन्धित्वाच्छक्योपायतया कालसंहननायुर्दोषादल्पप्रज्ञाशक्तीनामपि विनीतान्तेप्रमाणनयभङ्गयादिगम्भीरतच्च जिज्ञासू नामपूर्वतच्च निरन्तरग्रहणाऽनुपमभक्तिबहुमानसीचीनापूर्वोल्लासशालिमानसानां सुशक्यावगाहं सुशक्यार्थाधिगमञ्चाल्पेनैव तवावबोधपाटवाधानसमर्थेनैतेन ग्रन्थेनानर्ध्यानल्पार्थरत्नान्येतेऽनाबाधमवाप्नुवन्त्वितीच्छया कर्त्तुकामो विनयादिप्रसन्नमद्गुरुनिस्सीमानुपकृत कृपासुधा सम्यगभ्यस्ततदर्थोपबृंहितबुद्धीनां तेषां सूक्ष्मेक्षिकया द्रव्यानुयोगप्रधान शास्त्रसमुद्रावगाहोऽप्य मूल्यरत्नोप मतदर्थाधिगमोऽपि च सुशक्य एवेति मन्वानः areज्ञानिमनःपर्यायज्ञान्यादिभगवदर्कास्तंगममव्यात्महृदयगुहाव्यासमहामिथ्यात्वान्धकारविध्वंसकत्वे नावाप्तयथार्थनामा तार्किकशिरोमणितातपादश्रीसिद्धसेनदिवाकरः सकलजगजीव परमार्हच्छासन र सैकलीनताचिकीर्षा लक्षण करुणैकव्याप्तचेता अमृतवर्षेणेत्र यथार्थतत्रोपदेशसुधावर्षेण प्रफुल्लितसहकारवनमिव प्रवर्त्तितामोदविस्तारं प्रभुशासनं प्रफुल्लभावमानीय भव्यात्मनां जलदवत्तत्सौरभ्याऽऽप्राणानन्दं प्रदित्सुः अर्हतामर्हता शासनपूर्विकेत्यतः पूजितपूजको लोक इति न्यायेन च सुधामधुरया गिरा शासनार्थोपदेशसमये " णमो तित्थस्स " इत्युक्तिपूर्वक त्रिलोकज्ञ भगवन्नमस्कृतं शासनमेव भवचक्रकृच्छ्राप्तं स्तुत्यर्हम्, ऐदंयुगीनात्यन्तपरमार्थहितावहस्य तस्य च यथार्थगुणसम्पत्स्तुतौ स्वश्रद्धागुणोपबृंहकतर्कावतारगर्भायां विशिष्टभक्त्यभिव्यञ्जिकायां कृतायां तत्प्रणेताऽपायापगमादिविविधातिशयर्द्धिशाल्यर्हत्प्रभुरपि तद्द्वारा स्तुत एवेति निश्चिन्वन् कल्याणपरम्परैकहेतुतत्स्तुत्याऽनुत्तरभाग्यलब्धया कृतार्थमात्मानमभिमन्यमानस्तदसाधारणानवद्यान्यानपेक्षितनिष्टङ्कितप्रामाण्यकत्व पर समयाप्रामाण्यज्ञापकत्वभव जिनप्रणीतत्वादिगुणस्तुत्यात्मकभावमङ्गलं स्वस्य तद्विधानोद्भूता पूर्व शुभ भावोल्लासतः प्रारिप्सित समाप्तिप्रतिबन्धक दुरितविशेषनिवर्त्तकतावच्छेदकशक्तिमत्तया प्रारिप्सित समाप्तिप्रतिबन्धकविघ्नव्रातविघातद्वारा ग्रन्थसमात्यादिफलकम्, उक्तलक्षणमङ्गलश्रवणैकतानभूतस्य श्रद्धानुसारिशिष्यस्यापि च संसाराब्धिनिमजत्प्राणिगणोद्दिधीर्षु भगवत्प्रणीत शासन सत्कैतत्प्रकरणकारोद्भावित यथार्थगुण श्रवणमात्रेणासंशयं शासनविषयकाविच्छिन्नोल्लासशालिचित्तप्रसादमातन्वानस्य शासनाभिधेयतच्च विषयक बहु
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सन्मति काण्ड १, गा० १
मानजिज्ञासाग्रहणधारणादिप्रज्ञोदयक्रमेणाऽविघ्नैतच्छाख पारगमनादिफलकं, वर्कप्रज्ञानुसारिशिष्यस्यापि च "1 अभ्यासाख्यभ्यासोऽभिवर्धते " इति न्यायात् प्रज्ञादीनां गुणानामभ्यासातत्पुरुषेषु तत्तत्काले तरतमादिभावेन प्रकर्षदर्शनात् कस्मिँश्चित्पुरुषविशेषे मिध्याज्ञानादेस्समूलकाएं कषणात् सर्वोत्कृष्ट प्रकर्षकाष्ठापन्नज्ञानोत्पत्तेः नूनं जगति सम्भाव्यत एव विश्वविश्वशेषतश्वयथार्थवेत्ता सर्वज्ञो भगवान् । किश्च यस्य यस्स्वभावस्य प्रतिबन्धेन प्रतिबद्धस्सन् न स्वकार्यसाधनप्रभविष्णुः, प्रतिबन्धाभावे चानिर्गलतया स्वकार्य साधयत्येव यथा वह्नेर्दाह्यदाहकत्वस्वभावस्सूर्यकान्तमण्य भाव विशिष्ट चन्द्रकान्तमणिना प्रतिबद्धो न दा दहति, तदभावे च दाह्ये सति तदहत्येव तथा सर्वज्ञेयावभासित्वं चिदात्मनः स्वभाव एव, छद्मस्थात्मनि तत्प्रतिबन्धस्तु ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मात्मकप्रतिबन्धककृत एवेति प्रतिबन्धकीभूतसकलघातिकर्मापगमे सत्याविर्भूतेन तेन स्वभावेनानन्त पर्यायालिङ्गितजीवाजीवादिनिखिलजगत्तच्च प्रकाशनात्सुतरां सिद्धमेव भगवतस्सर्वज्ञत्वमिति । तदुक्तम्" ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञस्स्या - दसति प्रतिबन्धके ।
दाह्येsनिर्वाहको न स्यात्, कथमप्रतिबन्धकः ॥ १ ॥ इति । " तथा च कस्यचित्पुंसो ज्ञानं सकलार्थ साक्षात्कारि तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययस्वात्, यद्यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीण प्रतिबन्धप्रत्ययं तत्तत्साक्षात्कारि, यथापगततिमिरादिप्रतिबन्धं चाक्षुषज्ञानं रूपसाक्षात्कारि, सकलार्थग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं च कस्यचित्पुंसो ज्ञानं, तस्मात्तथा, न चात्र हेतुर्विशेषणासिद्ध्याऽसिद्धः, आगमद्वारेणाशेषार्थग्रहणस्वभावत्वस्य ज्ञाने प्रसिद्धत्वात् नापि विशेष्या सिद्ध्याऽसिद्धः, सकलार्थग्रहणस्वभावे ज्ञाने प्रतिविम्वस्वभावे आदर्श मलमित्र रागादय एव प्रतिबन्धकाः, तेषामात्यन्तिकक्षयस्य सम्यग्दर्शनज्ञानवैराग्यादीनां परमप्रकर्षेण सिद्धेः, यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्यापचयतारतम्यं तस्य परमप्रकर्षे तदत्यन्तं प्रक्षीयते, यथोष्णस्पर्शस्य परमप्रकर्षे शीतस्पर्श इति नियमात् । तथा चोक्तयुक्तिप्रयुक्तिपूर्वकानुमानतस्सकलार्थ साक्षात्कार सङ्घटितमूर्तिसर्वज्ञ जिन सिद्धेस्तत्प्रणीतं शासनमपि निश्चितप्रामाण्यादियथार्थगुणमित्येवं निश्चिन्वतस्स बहुमानमङ्गलश्रवणतश्चित्तप्रसादोत्पच्या परीक्षापूर्वकतदभिहिततच्च श्रवणमनननिदिध्यासनद्वारा श्रुतप्रज्ञाजनकपठ्यमानैतत्प्रकरणनिर्विघ्नाध्ययनपरिसमाप्त्यादिफलकमित्य तरिशष्टाचारानुमितकर्त्तव्यवाकं तन्मङ्गलं शास्त्रं प्रणेतुकामः स्वशास्तु महात्म्यज्ञापनार्थं ग्रन्थघटकीभूतं करोति । " सिद्धं सिद्धत्थाणं, ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं । कुसमयविसासणं, सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥ १ ॥
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'सासणं' यथावस्थितार्थप्रतिपादकं द्वादशाङ्गधात्मकं शासनं 'सिद्ध' इदं शासनम् - अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषय प्रामाण्यविशिष्टयथार्थज्ञानजनकत्वात् प्रमाणमेवेत्या
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बम्मति का गा . कारको यो जिनप्रणीतस्वव्यतिरिक्तहेत्वनपेक्षप्रामाण्यनिश्चयस्तद्विषयभूतम् । न चात्रोक्तहेस्व. सिद्धिः, श्रीतज्ञानमुत्पद्यमानं स्वप्रकाशत्वात् स्वमिव तद्गतप्रामाण्यमपि गृह्णाति, तस्य नियमेन स्वतो ग्राह्यत्वादिति तस्मिन् श्रौतज्ञाने प्रामाण्यज्ञाने सति तत्प्रतिबन्धेन तदुत्तरं संशयविपर्ययलक्षणं नैवाऽप्रामाण्यज्ञानं भवतीत्यतोऽप्रामाण्यज्ञानानास्कंदितज्ञानं स्वतः प्रामाण्य. ज्ञानं तद्विषयभूतं यत्प्रामाण्यं तद्विशिष्टं यच्छ्रौतयथार्थज्ञानं तञ्जनकत्वहेतोश्शासनपक्षे सच्चात् । तच्चाने विवेचयिष्यते । इदमत्र तत्त्वम्-इदं शासनं प्रमाणमेवेति प्रामाण्यनिश्चये एक्कारेणाऽप्रामाण्यं तत्र व्यवच्छिद्यते, तेन च सर्वांशे शासनस्य प्रामाण्यमावेदितं भवति, अन्यथा किश्चिदंशे यथार्थज्ञानजनकं किञ्चिदशेऽयथार्थज्ञानजनकमपि यदि जिनशासनं स्यात्तदाऽपि यदंशे यथार्थज्ञानजनकं तदंशे प्रमाणं भवत्येवेति नान्यागमतो वैशिष्ट्यमस्य स्यात् , ईदृशप्रामाण्यनिश्चयश्च सर्वथा यथार्थज्ञानजनकत्वाद् यथार्थज्ञानमात्रजनकत्वाद्वा, न तु यथार्थज्ञानजनकत्वात् , किश्चिदंशे यदयथार्थ किश्चिदंशे च यथार्थ तादृशज्ञानजनकेऽपि तस्य सवात् , तदेव यथार्थज्ञानं सर्वथा यथार्थज्ञानरूपं यथार्थज्ञानमात्र वा यदप्रामाण्याऽमहचरितप्रामाण्य. विशिष्टं, तदेव च प्रामाण्यमप्रामाण्याऽसह चरित, यदप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषयः, अप्रामाण्यसहचरिते तु प्रामाण्ये अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितज्ञानविषयत्वेनाप्रामाण्यज्ञानाना. स्कन्दितज्ञानविषयत्वाऽसम्भवात् । यद्यपि सर्वथा यथार्थज्ञानजनकत्वाद् यथार्थज्ञानमात्र. जनकत्वाद्वेत्यपि हेतुः सम्भवति, तथापि सर्वथात्व-यथार्थज्ञानमात्रत्वायत्रगमार्थमग्रामाध्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषयप्रामाण्य विशिष्टत्वावगमस्यापेक्षणीयत्वेन तस्यैव हेतुघटकत्वेन प्रवेशः, ईदृशविचारानादरे तु यथार्थज्ञानमात्र जनकत्वस्यैव प्रामाण्यव्याप्तत्वातज्ज्ञानादेव प्रामाध्यनिश्चयस्य सम्भवेनाऽप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषयप्रामाण्यस्य यथार्थज्ञानविशेपणतयोपादानं विफलमेवेति बोध्यम् । ननु शासनं सिद्धमुक्तलक्षणस्वतो निश्चितप्रामाण्यकमित्येव कुत इत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह-'जिणाणं' जिनानाम् , रागादीन् जितवन्त इति जिनाः, तेषां जिनानाम् । अस्य शासनमित्यनेनान्वयः, तथा च शासनस्य कृदन्तत्वात्तद्योगे जिनानामित्यत्र कर्बर्थे विहितायाष्षष्ट्या अर्थस्य कर्तृत्वस्याधेयत्वसम्बन्धेन प्रकृत्यर्थजिनान्वितस्य निरूपकत्वसम्बन्धेन शासनेऽन्वयात्तजिनकर्तृकं, जिनप्रणीतमिति यावत् । यो हि रागद्वेषाऽज्ञानादिदोषपरामृष्टस्तस्मिन्नल्पज्ञे पुंसि भ्रमप्रमादविप्रलिप्साकरणाऽपाटववचनाकौशलादिसम्भावन या तत्प्रणीतं वचनं सन्दिग्धप्रामाण्यकं स्यात् , जिनास्तु सर्वथा रागद्वेषमोहपराजयानन्तरमशेषजगत्तच्चसाक्षात्कारे सत्येव भवन्तीति तत्र भ्रमप्रमादादयो न केऽपि दोषास्सम्भवन्तीत्यतस्तत्प्रणीतं शासनं सिद्धमेवेति । नन्विदं शासनं जिनप्रणीतमेवेति कुत इत्याशङ्कायामाह-'सिद्धत्थाणं' सिद्धार्थानां, अत्र षष्ठ्याः प्रतिपादकत्वार्थकत्वेन प्रमाणान्त. राऽविसंवाद्यर्थप्रतिपादकमित्यर्थः । अस्य हेतुविषया विशेषणत्वाद् जिनप्रगीतत्वमन्तरेगानुपपद्यमानस्य प्रमाणान्तराऽविसंवादिसूक्ष्मवादरदान्तरितार्थप्रतिपादकत्वहेतोरिदं शासनं जिन.
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सम्मतिः काल , गा० । प्रणीतमेवाभ्युपगन्तव्यमिति भावः। ननु जिनास्सर्वथा रागादिजयोतानन्तार्थसाक्षात्कार. शालित्वात् सर्वज्ञा इति तत्प्रणीतमेवाविसंवादिवचनविशेषरूपं शासन निश्चितप्रामाण्यकमिति कुतः, बुद्धादीनामपि तदनुगैः सर्वज्ञतयाऽभिमतत्वेन तत्प्रणीतानामपि शासनानां निश्चितप्रामाण्यशालित्वादित्याशङ्कानिवृत्तये बुद्धादिशासनानामसर्वज्ञप्रणीतत्वमेवेति प्रति. पादनार्थमाह-'कुसमयविसासणं' कुसमयविशासनम् , कुसमया मिथ्यावासनावासितचित्तपुत्तिपरवादिप्रणीतप्रमाणबाधितार्थप्रतिपादकतत्तदर्शनान्तरसिद्धान्तास्तेषां दृष्टेष्टविषये विरोधाधुद्धावकत्वेन विशासनं विध्वंसकम् , तथा च दर्शनान्तरसिद्धान्तानां बाधितार्थप्रतिपादकत्वेनोन्मत्तवचोवदप्रामाण्ये सिद्धे कुसमयविशासनमिति विशेषणेन सर्वज्ञविशेषसिद्धेस्तत्प्र. णीतमेव शासन निश्चितप्रामाण्यमिति सिद्धम् । प्रयोगश्चात्र-इदं शासनं निश्रितप्रामाण्यवं जिनप्रणीतत्वात् यन्ने तन्नैवं तीर्थान्तरशासनवत् , न चास्य हेतोरसिद्धिः, अन्यथाऽनुपपद्य. मानप्रामाणिकातीन्द्रियाद्यर्थप्रतिपादकत्व हेतोस्तस्य सिद्धेरिति । अथ सर्वज्ञप्रणीतं शासनं, तत्प्रणीतत्वाच्च तत्प्रमाणमिति युक्तमुकम्, रागादीन् जितवन्त इति जिना इति त्वयुक्तमुक्तम् , सामान्ययोगिनि तस्य घटमानत्वेऽपि अनादिसंसिद्धे शासनादिसर्वजगत्स्रष्टरीश्वरे तस्याघटमानत्वात् , तत्र सहजत एव रागादिलक्षणक्लेशशत्रुरहितत्वस्य सद्भावात् , न पुनर्विपक्षभावनापरिपाकवशादेव तस्य रागादिक्षयः, येन तत्र रागादीन् तत्प्रतिपक्षवैराग्या भ्यासादिस्वव्यापारेण जितवन्त इति वचः सार्थकं जिनार्थप्रतिपादकत्वेन स्यादिति नित्येश्वरवादिनो ये मन्यन्ते तन्मतनिरासायाह-'भवजिणाणं' भवजिनानाम् । भवशब्देन भवकारणीभूता रागादयोऽत्रोपचाराद्विवक्षिताः, तान् जितवन्त इति भवजिनाः, तेषा शासनम्, तत्प्रणीतं तदिति यावत् , न तु पूर्वोक्तलक्षणेश्वरप्रणीतम् , दृढतरनिरन्तराभ्यस्ता. नित्यत्वादिद्वादशभावनाद्यात्मकं कर्मक्लेशादिजयोपायमन्तरेण स्वभावत एवेश्चरे कर्मक्लेशादि. विगमस्याऽसम्भवात् । उपचाराश्रयणे किं प्रयोजनमिति चेत् , उच्यते, न हविकलकारणे रागादावध्वस्ते तत्कार्यस्य संसारस्य जयः कत्तुं शक्य इति प्रतिपादनमेव, अथाखिलतस्वसाक्षात्कारे सति भवस्थजिना जीवन्मुक्तास्सन्तो योगिनः कंचन कालं भवेऽवतिष्ठन्ते इत्येवं न, किन्तु तदव्यवहितोत्तरसमय एव परममुक्तिमवाप्नुवन्तीति तत्र शरीराऽभावे वक्तृत्वासम्भवेन शासनप्रणेतृत्वोपपत्तिर्नेति ये मन्यते तन्मतनिरसनायाह-'ठाणमणोव. मसुहमुबंगयाणं' स्थानमनुपमसुखमुपगतानाम् , तिष्ठन्ति कर्मक्षयोत्पन्नानन्तज्ञानाचष्टगुण. शालिशुद्धात्मानोऽस्मिन्निति स्थानम् , लोकाप्रलक्षणम्, न विद्यते उपमा यस्य तदनुपमम् , अनुपमं सुखं यस्मिन् तत्तथा, तादृशं स्थानं 'उप' इति कालसामीप्येन गतानां प्राप्तानाम् , भवोपमाहिकर्मणां यावता कालेन क्षयस्स्यात्तावत्प्रमाणोऽल्पीयान् कालो व्यवधानभूतों येषां तेषामिति भावः, यद्वा 'उप' इत्युपसर्गः प्रकर्षवाची, तेन तादृशस्थानं प्रकर्षण गताना.
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२.
सम्मति काम, गा.. मिति, यद्यपि वेद्यमानतीर्थकरनामकर्मादिसद्भावेन भवजिनास्तत्स्थानं नालङ्कृतवन्तस्तथाप्यत्र 'परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणाऽपि तमथं गमयन्ति' इति न्यायादनुभूयमानतीर्थकरनामकर्मलेशसद्भावेऽपि तद्गता इव गता इत्यर्थः कतळः, तेषाम् , तेन शासनप्रणेत्त्वं तस्यामत्रस्थायां तेषामुपपन्नमेव, यद्वा "मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमबचापवर्जिताः" इत्येतस्य निरामार्थमाह सरि:-"ठाणमणोवमसुहसुवगयाणं" अनुपमसुखं स्थानं " उप "इति प्रकर्षण-अपुनरावृत्त्या गतानाम्-उपगतानामिति सङ्गितार्थः । विस्तृतार्थस्त्वयम्-अत्र 'सास. णम्' इति मुख्यं विशेष्यम्-शास्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्थाः प्रमाणान्तरानाधितत्वेन यथार्थस्वरूपतयाऽनेनेति शासन द्वादशाङ्गमित्यर्थः। तत्कि परापेक्षया प्रामाण्य. विशिष्टं किं वा स्वमहिम्नैवेत्यत आह-सिद्धमिति, यथा कनकं स्वयमेव पवित्रमिति तत्पाविश्यकरणे नान्यापेक्षा, तथेदं शासनमपि स्वमहिम्नैव निश्चितप्रामाण्यम्, न तु हेत्वन्तरापेक्षया, यथाऽल्पज्ञपुरुपप्रणीतग्रन्थे सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमाऽविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वादिहेत्वन्तः रापेक्षणात्परापेक्षनिश्चितप्रामाण्यम् , नात्र तथा, अस्य घातिकर्मक्लेशादिसकलदोषापरामृष्टपुरुषविशेषप्रणीतत्वेनैव प्रामाण्ये हेत्वन्तरानपेक्षणादिति । अथास्य शासनस्य जिनप्रणीतत्वमेव नास्तीति तत्र प्रामाण्यं निरवकाशमिति विप्रतिपन्नम्प्रति किं मानमिति चेत्, उच्यते, इदं शासनं गुणवत्पुरुषप्रणीतम् , अन्यथाऽनुपपन्नाबाधितार्थप्रतिपादकत्वात् , लौकिकसत्यवाय. दित्यनुमानमेवेति, न चात्र व्यभिचारशङ्का विधेया, यतो यहीदं शासनं गुणवत्पुरुषप्रणीत न स्यात् तरन्यथाऽनुपपद्यमानाऽबाधितार्थप्रतिपादकमपि न स्यात् उन्मत्तपुरुषवाग्वदित्यनु कूलतमद्भावात् । न चात्रोक्तहेतोरसिद्धिरिति वाच्यम् , द्रव्यपर्यायापेक्षया कथञ्चिन्नित्या. नित्यत्वादिस्वरूपतया शासनप्रतिपाद्यस्यार्थस्य प्रत्यक्षप्रमाणेन तथैव प्रतीतेः, न च नित्यानित्यत्वयोर्विरुद्धत्वात्तद्धर्माक्रान्तार्थावगाहिनी सा प्रतीतिभ्रान्तेति वाच्यम् न्यायमते भ्रान्तज्ञाने धर्मिप्रकारांशावच्छेदेन प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोरिव शाखामूलावच्छेदेनेकस्मिन्नेत्र वृझे कपिसंयोगतदभावयोरिव या बौद्धसिद्धान्तसिद्ध चित्रज्ञाने नीलाकारत्वपीताकारत्वयोरिख वा साङ्ख्यमताभ्युपगतायामे कस्यां प्रकृती सवादित्रयात्मकत्वस्येव वा तत्तदपेक्षाभेदेन तयो. विरोधाभावात् । एतत्तत्वमग्रे निरूपयिष्यते । तथा चोक्तानुमानेन गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वसिद्धौ य एवैतच्छासनकर्टगुणवत्पुरुषः स एव जिनः, तादृशपुरुषान्तराऽसम्भवात् , तदसम्भवश्वाने प्रतिपादयिष्यते । तदेवं शासनस्य जिनप्रणीतत्वसिद्धौ तत्र हेत्वन्तरानपेक्षणेन स्वत: प्रामाण्यं सावकाशमेव । यद्वा वाक्यरचनाम्प्रति वाक्यार्थज्ञानस्य कारणत्वेन तस्य यथार्थत्वे तस्याः प्रामाण्यम् , अयथार्थत्वे चाऽप्रामाण्यमित्यतश्शासनस्य प्रामाण्ये आप्रवक्तयथार्थवाक्यार्थज्ञानात्मकगुणजन्यत्वमेव तन्त्रम् , अन्यथा प्रामाण्यमेव न स्यादिति तादृशज्ञानात्मकगुणाधीनत्वाच्छासनस्य प्रामाण्यं परत इति गीयते तदापि तज्जैनानुमतमेवेति ।
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११
सम्मति काण्ड १०
मीमांसकास्तु ज्ञानमात्रे उत्पत्तौ स्वत एव प्रामाण्यमनधिगताऽयाघितार्थविषयकज्ञानस्वलक्षणं तद्वभिष्ठविशेष्यतानिरूपिततन्निष्ठप्रकारतानिरूपकज्ञानत्वलक्षणं वा, ज्ञानोत्पादकसामय्यतिरिक्तगुणादिसामय्यन्तरानपेक्षत्वात्, वेदागमस्याऽप्यपौरुषेयतया नित्यत्वेन " शब्दसामान्यस्य ज्ञानजनकत्वेन प्रामाण्यसम्भवाच्चोदनायाश्च शब्दत्वादतस्सम्भवत्येवातीन्द्रिये धर्मे चोदनायाः प्रामाण्यम्" इति शावर भाष्य प्रभाटी को केरनधिगता बाधितार्थावगाहिज्ञानजनकत्वात् प्रामाण्यम् आप्तत्र क्तृगुणाऽपेक्षाभावात्स्वतः । यतो नाप्तवक्त्रगुणसङ्क्रान्त्या वेदागमे प्रामाण्यम्, शब्दोच्चारणमात्र एवाप्तस्य व्यापारात् । शब्दः पुनरविसंवादिन वस्तुप्रतीतिं विदधानः स्वमहिम्नैव प्रमाणभूतः, नातोऽस्मिन्नाप्तप्रणीतत्वाभावादप्रामाण्यम्, यतः शब्दस्थलेऽपि विज्ञानोत्पादकमेव प्रामाण्योत्पादकम्, नाप्तप्रणीतत्वम्, अतस्तदभावो न दोषाय, प्रामाण्यप्रयोजकाभावो ह्यप्रामाण्यमाक्षिपति, नाप्तप्रणीतत्वाभाव इति नानुमानादिवेद्यत्वेन परतः प्रामाण्यम् । अनुमानप्रयोगस्तु प्रामाण्यव्यवहारसाधनार्थमेत्र, न तु प्रामाण्यसि व्यर्थम्, सिद्धेऽप्यर्थे इच्छादिना व्यवहारार्थं हेतूपन्यासो लोकेऽवलोक्यत एव । अत एव " प्रत्यक्षपरिकलितमध्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिकाः " इति वाचस्पतिचचनं सङ्गच्छत इत्याहुः । तन्न विद्वन्मनोरञ्जकम्, वेदे प्रामाण्यस्यासवक्तृगुणाऽपेक्षाभावेन स्वतस्त्वे तत्राप्रामाण्यस्यानाप्तवक्तृदोषाऽपेक्षा नास्तीति तदपि स्वतस्स्यादिति विपर्ययस्य सुवचत्वापत्तिस्स्यात् । अथाऽप्रामाण्यम्प्रति वक्तुदोषाणामन्त्रयव्यतिरेकौ स्तः, अत एव " तदन्तर्गतो दोषो मिध्याभावस्य हेतुः " इत्युक्तमिति चेत्तदप्यपेशलम्, प्रामाण्यम्प्रति वक्तृगुणानामपि तयोस्तुल्यत्वात् । तथाहि पुरुषगुणे सति वाक्यप्रामाण्यं दृश्यते, तस्मि असति च तन्नानुभूयत इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुरुषगुणकृतं वाक्यप्रामाण्यमवगम्यते, तद् यद्यनन्यथासिद्धान्वयव्यतिरेको भयसद्भावेऽपि पुरुषगुणप्रयोज्यं नेष्यते तप्रामाण्यमपि पुरुषदोषाधीनं न स्यात् गुणान्वयव्यतिरेकयोरिव दोषान्वयव्यतिरेकयोरप्यन्यथा सिद्धत्वात् न च दोषस्थलीयावेव तावनन्यथासिद्धाविति वक्तुं शक्यम्, विपर्य - यस्यापि सुत्रचत्वात्, विशेषाऽभावात् इष्यते च पुरुषदोषाधीनमप्रामाण्यं भवद्भिः, तद्वत्पुरुषगुणकृतं प्रामाण्यमध्येष्टव्यम्, यतो लोकेऽपि वचनप्रकारेषु गुणवत्पुरुष प्रणीतत्वादेव गुणाधीनं प्रामाण्यम्, तदभावे च दोषाधीनमप्रामाण्यमिति व्यवस्थोपलभ्यते, प्रयोगश्चात्रैवम्-वेदवचनं वक्तुगत यथार्थज्ञानात्मक गुणाधीनप्रामाण्यवत् श्रोतुयथार्थबोधजनकत्वात् उभयसम्प्रतिपचासत्र चनवत्, न चात्र वेदस्याऽपौरुषेयत्वात्तद्वचनं स्वत एव प्रमाणमित्युक्तसाध्यं मास्तु हेतुरस्त्विति व्यभिचारशङ्का कर्तव्या, यदि तद् वक्तुयथार्थज्ञानात्मकगुणाधीनप्रामाण्यवन्न स्यात्तर्हि श्रोतृयथार्थबोध जनकमपि न स्यात्, उन्मत्तपुरुषवाक्यवत्, इष्यते च श्रोतृयथार्थज्ञानजनकम्, तस्मात्तद् वक्तृयथार्थज्ञानाऽऽत्मकगुणाचीनप्रामाण्यवदित्यनुकूलतर्कसद्भावात् । लिङ्गसादृश्यादिभ्रान्तज्ञानरूपदोषाभावमात्रान्नानु
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सम्मति० का १, मा... मित्युपमिती प्रमे इति लिङ्गसादृश्यादिविषयकयथार्थज्ञानमपि गुणस्तद्धेतुस्तद्वच्छान्दप्रमाऽपि दोषाभावमात्राम भवतीति तत्र यथार्थवाक्यार्थज्ञानमपि गुणो हेतुरिति यथार्थवाक्यार्थशानात्मकगुणवत्पुरुषोच्चरितत्वेन वेदे प्रामाण्यं परतोऽभ्युपगन्तव्यम् । अपौरुषेये वेदे अकर्तृकत्वेन दोषनिवृत्त्यैव प्रामाण्यमस्त्विति चेत् , तर्हि तत एव गुणनिवृत्याऽप्रामाण्यमपि स्यात् । गुणनिवृत्तरप्रामाण्यम्प्रति सामर्थं न कापि दृष्टिगोचरमिति चेत्, तर्हि दोषनिवृत्तेः प्रामाण्यम्प्रति क सामथ्र्यमनुभूतमित्युच्यताम् । लोकवचसीति चेत् ? तुल्यमुभयत्र । लोकवचसामप्रामाण्ये दोषा एव कारणम् , गुणनिवृत्तिस्त्ववर्जनीयसनिधिरित्यप्रामाण्यं दोषाधीनत्वेन परत इति चेद्, मैवम् , प्रामाण्यं प्रत्यपि गुणा एव कारणम् , दोषनिवृत्तिस्तु स्वभावसिद्धेति प्रामाण्यमपि गुणाधीनत्वेन परत इति विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् , दोषायगमप्रयुक्तो गुणानामवर्जनीयसद्भावो न तु स्वकारणोपजाता गुणाः, येन तादृशगुणजन्यं प्रामाण्यं परतस्स्यादिति चेत्, तर्हि गुणोत्सारणप्रयुक्तो दोषाणामवर्जनीयसद्भावोऽप्यस्त्वित्यप्रामाण्यमपि स्वत इत्यपि स्वीक्रियताम्, न च गुणाभावस्यैवाऽप्रामाण्यं प्रति प्रयो. जकत्वेन परप्रयोज्यत्वात्परतस्त्वमेव तस्य सिक्ष्यतीति वाच्यम् भावकारणप्रयोज्यत्वे सत्येव परतस्त्वस्वीकारात्, गुणाभावस्य च भावरूपत्वाभावात् , अन्यथा दोषाभावमात्रप्रयोज्यस्वमादाय प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनं तवापि न सङ्गच्छेत, प्रामाण्यस्य दोषाभावरूपपर. प्रयोज्यत्वात् । अथैवं सति वेदानामपौरुषेयतया गुणदोषयोरुभयोरभावे तद्धेतुकयोः प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोरभावात्तृतीयराशेश्वासम्भवानिस्स्वभावत्वापत्तिस्स्यादिति चेत्, किं न खलु भो खलस्वभावमात्मानं त्वमुपालभसे, यः किलामीषामकतकत्वं पूत्करोषि । तस्मा. दाप्तवक्तगुणहेतुकं प्रामाण्यमनाप्तवक्तृदोषहेतुकचाप्रामाण्यं यथा लोकवचसि तथैव वेदेऽप्यस्त्वित्येव मार्गश्रेयस्तरोऽभ्युपगमनीय इति तस्याप्तवक्तृगुणहेतुकत्वे सत्येव प्रामाण्यं सिद्धं स्यात् , नान्यथा । वेदे विपरीताभ्युपगमे को दोष इति चेत् , उच्यते, दोषाऽऽसक्तपुरुषप्रणीतत्वादप्रामाण्यमिव गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वादेव प्रामाण्यमपि लौकिकवाक्येषूपलब्धम् , लौकिकवाक्यसमश वेदवाक्यम् , य एव लौकिकाश्शब्दास्त एव वैदिका इत्यतश्शन्दस्वरूपाविशेषानुच्चार्यमाणत्यप्रयोज्यपुरुषाश्रवणत्वसङ्केतग्रहसव्यपेक्षार्थप्रतिपादकत्वादिलक्षणसमान. धर्मकत्वे सत्यपि पूर्वोक्तान्वयव्यतिरेकानुविधाने सत्यपि च तत्र गुणवत्पुरुषप्रणीतस्वानम्यु. पगमे शब्दप्रामाण्यहेतुभूताप्तोच्चरितत्वस्याऽभावेन प्रामाण्यायैव जलाञ्जलिदत्तो भवेत् । ननु वर्णा नित्या एव " य एवं पूर्वमुच्चरितो गकारः स एवापं गकारः" इत्यादि प्रत्यभि. ज्ञावलासिध्यन्ति, तथा च वर्णसमूहात्मकपदसमूहविशेषवाक्यसमूहविशेषरूपस्य वेदस्य नित्यत्वेन गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वाभावान परतःप्रामाण्यमिति चेत्, न, उत्पन्नो गकारो विनष्टो गकारः, इदानीं श्रुतपूर्वो गकारो नास्ति, निवृत्तः कोलाहल इत्यादिप्रतीत्योत्पादविना. शशीलानां वर्णानामनित्यत्वेन स एवायं गकार इति प्रत्यभिज्ञायास्सजातीयत्वेन रूपेण
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अम्मति• काज, गा० . व्यक्त्यमेदावगाहित्वेन सेयं दीपज्वालेति प्रत्यभिज्ञाया इव प्रामाण्येऽपि व्यक्तित्वेन व्यक्त्य. भेदावगाहित्वेन यत्प्रामाण्यं तस्याभावात् । अयमल्पो महान् कर्कशो मधुरश्शब्द इति भेदप्रतिमासकबाधकप्रत्ययस्य सद्भावेन तस्याः प्रामाण्याभावाच, न च पुरुषे तुरगवर्ति वेगाध्यारोपाद्वेगेन पुरुषो यातीति प्रत्ययवद्वर्णस्य तद्वथञ्जकध्वनेश्च भेदाग्रहाद् ध्वनिगतोस्पत्त्यादिधर्मस्य गादावारोपादुत्पन्नो गकार इत्यादिप्रतीते+निनिष्ठोत्पयादिविषयकत्वेन भ्रमत्वम् , एवं व्यञ्जकध्वनिगताल्पत्वमहत्वादिधर्माणां गादिवर्णेष्वध्यारोपात्तत्प्रत्ययस्यापि भ्रान्तत्वमिति स न मेदसाधनक्षम इति वाच्यम्, गादिवर्णानां निस्स्वरूपत्वावाप्तिप्रसक्तः, यतो यः कदाचिदप्यन्यथा प्रतीयते तस्यैवान्यदाऽन्यथा प्रत्ययने भ्रान्तत्वम् , यथैकत्वेन प्रतीयमानस्येन्दोदित्वेन प्रत्ययने । तदुक्तम्
यो यन्यरूपसंवेद्यस्संवेद्येतान्यथाऽपि च ।
स भ्रान्तो न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते ॥ १॥ इति ॥ न चात्र कदाप्यल्पमहत्त्वादिधर्मानध्यासिततया गादिस्स्वप्नेऽपि केनचित्प्रतीयत इति । न चाभिव्यञ्जकस्य प्रदीपादेरल्पमहत्वे तदभिव्यङ्ग्यस्य घटपटादेरल्पमहस्वादिप्रतिभासोऽपि दृष्ट इति । किञ्चाल्पत्वादिधर्माणां अनिधर्मत्वपक्षे श्रोत्रेण तद्ब्रहणमपि न स्यात् । उक्त न्याममञ्जर्याम्
ध्वनिधर्मत्वपक्षे तु श्रोत्रेण ग्रहणं कथम् ।
नहि वायुगतो वेगः, श्रवणेनोपलभ्यते ॥ १॥ इति ॥ किञ्च मालाऽनेन कृतेत्यादौ सन्दर्भविशेषविशिष्टपुष्पस्वरूपायां मालायां विशेष्यस्य पुष्पादेस्सिद्धत्वेऽपि सन्दर्भरूपतद्गतविशेषणस्य पुरुषकर्तृकत्वमादायैव तद्विशिष्टपुष्परूपायां मालायां पुरुषकर्तृकत्वस्य व्यवहारवत् तुष्यतु दुर्जन इति न्यायेन विशेष्यीभूतवर्णानां नित्यवाऽभ्युपगमेऽप्यर्थप्रत्ययानुकूलरचना विशेषरूपानुपूर्वीविशेषरूपविशेषणस्य पुरुषविशेषकर्ट कत्वमादायैवानुपूर्वीविशेषविशिष्टवर्णात्मकवेदस्यापि पुरुषविशेषकर्दकत्वमुपपन्नं स्यादेव । यतो न हि पुरुषप्रयत्नमन्तरेण कचिदक्षरविन्यासो दृष्टश्रुतो वा, दृष्टस्य श्रुतस्य च तत्त्वस्याऽनुसारिणी कल्पना प्रमाणभावं भजते, न यथा तथा कल्पना । एवं सत्यपि वेदे पदानां रचना स्वाभाविकीति चेत्, तर्हि पटेऽपि तन्तूना रचना नैसर्गिकी भवेदिति साप्यकर्तृका स्यात्, पटरचनां दृष्ट्वा तत्कर्तृत्वमनुमीयत इति चेत् , तर्हि वेदरचनायामपि तुल्यमेतत् , उक्तश्च
" पदनित्यत्वपक्षेऽपि, वाक्ये तद्रचनात्मके । कर्तृत्वसम्भवात्पुंसो वेदः कथमकृत्रिमः ॥ १॥
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चम्मति•
पदादिरचनां दृष्ट्वा तस्य चेत्साऽनुमीयते । वैदेsपि रचनां दृष्ट्वा कर्त्तृत्वं तस्य गम्यताम् ॥ २ ॥ इति ॥
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सेति कर्त्तृतेत्यर्थः । ननु वैदिकी रचना पौरुषेयी न भवति दृष्टकर्तृकरचना विलक्षणत्वादन्तरीक्षवदित्यनुमानतो रचनाया अपौरुषेयत्वसिद्धया तद्विशिष्टवर्णात्मकवेदोऽप्यपौरुषेय एव सिद्ध्यतीति चेत्, मैवम्, विशिष्टा रचना दृश्यमाना तत्करणाऽसमर्थमेत्र कर्त्तारं निराकुरुते, न पुनः कर्तुमात्रमपि न खलु पुराणरूपप्रासादादौ विशिष्टा रचना प्रतीयमाना कर्तुमात्रं निराकुर्वती प्रसिद्धा, तत्करणाऽसमर्थस्यैव शिल्पिनस्तया निराकरणात्, न हि कर्त्रन्वयव्यतिरेकानुविधायिनो धर्माः कर्त्तारं विना घटन्ते, ततो वैदिकी रचना पौरुषेयी न मवतीत्याद्यनुमानमयुक्तमेवोक्तम्, दृष्टकर्तृकरचनाविलक्षणत्वस्य हेतोरुक्तनीत्या तंत्रासिद्धत्वात्, सिद्धत्वे वा तद्विलक्षणस्यैव कर्तुरनुमीयमानत्वेन कर्तृमात्राऽनिषेधकत्वात् । ततो वेदः पौरुषेयो वचनरचनावश्वाद् मारतादिवदित्याद्यनुमानेन वेदस्य पौरुषेयत्वमभ्युपगन्तव्यम् । अपि च वेदवाक्यादऽनवरतं तदर्थज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गेन न स्वतस्तस्य तदुत्पादनव्यापारः, किन्तु पुरुषकृतसङ्केतग्रह जन्य विशिष्टसंस्कार सव्यपेक्षस्यैव तस्य तदुत्पादनव्यापारः, ते च पुरुषास्सर्व एव भवता प्रमादाज्ञानकरणापाटवविप्रलिप्सादिदोषवन्त एवाभ्युपगता इति तत्कृतसङ्केतग्रह जन्य संस्कारो न यथार्थ इति तत्सव्यपेक्ष वेदजन्यार्थज्ञानमयथार्थ स्वादिति नित्यवेदस्याभ्युपगमो गजस्नानमनुकरोति । तदुक्तम्
असंस्कार्यतया पुंभिस्सर्वथा स्यान्निरर्थता ।
संस्कारोपगमे व्यक्तं, गजस्नानमिदं भवेत् ॥ १ ॥ इति ।
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एतेन नासक्तृगुणसङ्क्रान्त्या वेदागमे प्रमाणत्वम्, शब्दोच्चारणमात्र एत्रासस्य व्यापारादित्यादि पूर्वोक्तं निरस्तम्, अथाऽगृहीतसङ्केतस्य पुंसोऽर्थप्रतिपत्यसम्भवेन स्वार्थेन साकं गृहीतसङ्केत एव शब्दश्शाब्दप्रतीतिं जनयति तत्र सङ्केतग्रहश्व यदा प्रयोजकवृद्धस्य गामभ्याजैना शुक्लां दण्डेनेत्यभिधानादनन्तरमेव प्रयोज्यवृद्धस्तेन तामानयति तदा पार्श्वस्थोऽव्युत्पन्नसङ्केतो बालोऽयं देवदत्तो गवानयनविषयकप्रतिपत्तिमान् तद्विषय कदण्डादिप्रहारानुकूल चेष्टावत्वादित्येवं तत्प्रतिपत्तिमनुमिनोति, तत्प्रतिपच्यन्यथाऽनुपपच्या तत्र शब्दस्य समुग्धार्थतया शक्तिं च परिकल्पयति, ततश्च यदा गां नय घटमानयेत्युक्ते प्रयोजकवृद्धेन प्रयोज्यवृद्धो गां नयति घटञ्चानयति तदा तत्तत्पदावापोद्वापाभ्यां तस्मिन् तस्मि अर्थे तत्तच्छन्दशक्तिं निश्चिनोति, इत्येवं प्रकारेण सम्पद्यते, तथा च शब्दस्यास्थिरत्वे पुनः पुनरुच्चारणस्यैवाभावतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां शक्यवगमाभावेनार्थप्रतिपश्यजनकत्वात् प्रेक्षादक्षैरनुच्चार्यमेव स्याद्वाक्यम्, उच्चार्यते च परावबोधाय तत्, ततो गवानयनाद्यर्थविषयक - प्रत्ययरूपपरावबोध फलकत्वं शब्दस्य नित्यत्व एवोपपद्यते, न त्वनित्यत्वे, प्रत्युच्चारणं शब्द
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T• * *, TIT.
भेदे सम्बन्धग्रहणासम्भवात्, अगृहीतसम्बन्धस्य च शब्दस्य नैवार्थप्रत्यायकत्वम्, तथात्वे सर्वस्यापि शब्दस्य सर्वार्थप्रत्यायकत्वं स्यादित्यतः परार्थवाक्योच्चारणान्यथाऽनुपपत्तेनिश्रीयते धूमादिवङ्गृहीतसम्बन्धोऽर्थप्रतिपादकश्शब्दो नित्यः, नित्यत्वे च तस्यैव शब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणे बहुश उपलभ्यमानत्वात्सम्भवति सम्बन्धग्रहणमर्थप्रत्यायकत्वश्चेति । अत एव मीमांसादर्शनसूत्रकार आह―" नित्यस्तु स्यादर्शनस्य परार्थत्वात् " ॥ अ. १, पा. १, सू. १८ इति । तद्भाष्यम् - नित्यश्शब्दो भवितुमर्हति । कुतः - दर्शनस्य परार्थत्वात् । दर्शनमुच्चारणम्, तत्परार्थं परमर्थं प्रत्याययितुम्, उच्चरितमात्रे हि विनष्टे शब्दे न चान्योऽन्यानऽर्थे प्रत्याययितुं शक्नुयात् । अतो न परार्थमुच्चार्येत । अथ न विनष्टस्ततो बहुच उपलब्धत्वादर्थावगम इति युक्तमित्यादि " । नित्यत्वे च तस्य कैमुतिकन्यायप्राप्तमेवापौरुषेयत्वमिति चेत्, तदत्यन्ताऽसङ्गतमेत्र, अनेकासां धूमव्यक्तीनामेकैकशस्स्व साध्येन सहावशा व्याप्तेग्रयितु ग्रहीतुं चाशक्यत्वेन गृहीतव्याप्तिकायाश्च धूमव्यक्तेः पक्षधर्मत्वाभावेनानुमित्युच्छेदमयेन तस्या अपि नित्यवित्वापत्तेः । स्थादेतत् अनित्यानामपि तत्तद्वह्निधूमव्यक्तीनामन्त्रयव्यतिरेकाभ्यां धूमत्वेन वह्नित्वेन सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहसम्भवेन नैवमसाकं प्रतिबन्दिविभीषिकेति चेत्, तर्ह्यत्रापि विनाशिनीनामपि गत्रार्थव्यक्तीनां गोशब्दव्यक्तीनां च गोत्वेन गोशद्वत्वेन चानुगतीकृत्य सङ्केतग्रहणे का भवतां क्षतिः, सामान्यविशिष्टयोरविवक्षितविशेषयोर्व्यक्त्योरनुमेयानुमापकभावस्येव वाच्यवाचकभावस्यापि समकक्षत्वादिति । एतेन गोशब्दोच्चारणे सति सर्वगोविषयकः प्रत्ययो युगपजायते, ततश्च गोशब्दादिस्कृतिवचन इत्यवगम्यते, व्यक्तिवचनत्वे तु तेन तद्व्यक्तिमात्रप्रत्यय एव भवेत् । विना प्रयोगबाहुल्येन सकृच्छ्रयमाणस्य गवादिशब्दस्याऽनित्यत्वेनाभिमतस्याकृत्या वाच्यभूतया सह संज्ञासंज्ञिमावलक्षणसम्बन्धः कथयितुं ग्रहीतुं वा न शक्यते । अङ्गुल्यादिनाऽऽकृति विशेषनिर्देशपूर्वकमनित्यस्यापि शब्दस्य सम्बन्धस्य कथनं ग्रहणं वा कुतो न सम्भवतीति चेत्, उच्यते, एकस्मिन् गोपिण्डे पार्थिवत्वद्रव्यत्वादिरूपाणां बह्वीनामाकृतीनां सद्भावाद्विना प्रयोगबाहुear गोशब्दवाच्यां गोत्वरूपामाकृतिं पार्थिवत्वादितो विभक्तां गोशब्दादिरन्वयव्यतिरेairat aarमयेदिति नित्ये शब्देऽभ्युपगम्यमाने तस्य बहुकृत्व उच्चारणश्रवणसम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां तत्तदाकृतिविशेषावगमकत्वं सुलभमित्यर्थकं " गोशब्द उच्चारिते सर्वगवीषु युगपत्प्रत्ययो भवति । अत आकृतिवचनोऽयम्" इत्यादिभाष्योपेतम् " सर्वत्र यौगपद्यात् " अ. १, पा. १, सूत्र १९ । इति मीमांसादर्शनसूत्रमपि निरस्तमवसेयम् । का पुनराकृतिः का व्यक्तिरिति । द्रव्यगुणकर्मणां सामान्यमात्र माकृतिः । असाधारणविशेषा व्यक्तिः । अ. १, पा. ३, सु. ३० । इति शाबरमाध्यवचनादाकृतिपदग्राह्या या जातिस्तत्र शक्यम्युपगमे गोपदशक्यतावच्छेदकं गवेतरासमवेतत्वे सति सकलगोसमवेतत्वलक्षणं गोवं
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सम्मति काण्ड १
स्यात्, एवं घटपदादावपि ज्ञेयम्, तस्य चानेकपदार्थघटितत्वेन सखण्डरूपतया तत्पक्षस्य - जातिविशिष्टव्यक्तौ शक्त्यभ्युपगमे गोपदशक्यतावच्छेदिकाया गोत्वजातेरखण्डरूपतया लघुरूपत्वेन तदपेक्षया गौरवास्पदत्वेनायुक्तत्वात् । न च व्यक्तीनामानन्त्याद् गोशृङ्गग्राहिकया प्रतिव्यक्तिसङ्केत करणाऽसम्भव इति वाच्यम्, जातिविशिष्टायां व्यक्तावविवक्षितविशेषरूपायामत एवोदासीनरूपाय सङ्केतकरणस्य तद्ग्रहणस्य च सम्भवाद्, आकाशादिशब्दवद् येषां च शब्दानामर्थेषु जातिर्नास्ति तत्र तेषां केवलायां व्यक्तावेव सङ्केतकरणम् । उक्तश्च
येषामर्थेषु सामान्यं, न सम्भवति तैः पुनः ।
उच्यते केवला व्यक्ति, - राकाशादिपदैरिव ॥ १ ॥ इति ॥
न च पूर्व शब्दाच्छक्तिद्वारा जात्यवगमः पश्चाद्वयक्ति विना जात्यनुपपत्तेरर्थापत्या व्यक्त्यवगम इति क्रमिकप्रतीत्यनुभव इति वाच्यम्, विरम्य शब्दव्यापाराभावात् ! किश्च व्यक्तेरवाच्यत्वे विभक्त्यर्थ सङ्ख्याकर्मत्वादेस्तत्राऽनन्वयस्स्यात् । न च तत्रानन्वय इष्ट एवेति वाच्यम् । सुब्विभक्तीनां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकत्वस्य व्युत्पत्तिसिद्धत्वादिति न्यायपन्थाः । न चायमपि समीचीनो मार्गः, यतो जातिव्यक्च्योनैकान्त मेदः, किन्तु कथश्चिदेव, सामान्यविशेषात्मकस्यैव वस्तुनः सर्वस्यां प्रतिपत्तौ प्रतिभासनादिति तदात्मके वस्तुन्येव पूर्वोक्तनीत्या सङ्केतग्रहः, न त्वेकान्तभिन्नजातिविशिष्टव्यक्तौ न च तन्मात्रेण शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वमपि, किन्तु स्वाभाविकशक्तिसङ्केतग्रहाभ्यामेव शब्दे स्वाभाविकशक्तिमन्तरेणार्थप्रत्ययोत्पादकत्वाभावात् । नहि षण्ढः पुत्रोत्पादको दृष्ट इति स्वतोऽशक्तस्य कस्यापि कार्योत्पादकत्वादर्शनात् । उक्तञ्च प्रमाणनयतच्चालोकालङ्कारे "स्वाभाविकसामर्थ्य समयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः " । ४ । ११ । इति । इदमत्रात्रधेयम्, यद्यपि शब्दः श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यः तथापि न श्रूयमाणादेव शब्दाच्छाब्दबोधो भवति । शाब्दबोधम्प्रत्यर्थोपस्थितिद्वारा शब्दज्ञानस्य शब्दज्ञानत्वेनैत्र कारणत्वम्, न तु शब्दप्रत्यक्षत्वेन तेन जन्यायामर्थोपस्थितावपि सङ्केतग्रहो योऽपेक्षणीयः सोऽपि न श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्षरूपः, अस्मात्पदादयमर्थो बोद्धव्यः एतत्पदजन्यबोधविषयोऽयमर्थो भवत्वित्येवं रूपस्य इदं पदममुमर्थं बोधयतु- एतदर्थविषयक बोधजनकमिदम्पदम्भवत्वित्येवं रूपस्य वेच्छाविशेषलक्षणस्य सङ्केतस्य विषयताविशेषसम्बन्धेन शब्दगतत्वेऽपि श्रोत्रेन्द्रियाग्राह्यत्वेन तज्ज्ञानस्य श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्षरूपत्वाभावात्, किन्त्वनुभवात्मकमपि प्राथमिकं संकेतग्रहणं श्रोत्रेन्द्रिय'जन्यप्रत्यक्ष भिन्नमेव, निरुक्तसङ्केताभिव्यज्यमानतयाऽभिमतस्य वाच्यवाचकमावस्यार्थगतवाच्यतासामर्थ्यरूपशक्तिलक्षणस्य पदगतवाचकतासामर्थ्यरूपशक्तिलक्षणस्य वा श्रोत्रेन्द्रि'याग्राह्यत्वेन तदभिव्यक्तिर्निरुक्तसङ्केतग्रहाजायमाना न श्रोत्रेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षात्मिका, किन्तु तदन्यज्ञानरूपैव न हि प्रत्यक्षमेवाभिव्यक्तिशब्देन वक्तुं योग्यं नान्यदित्यस्ति नियम,
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सम्मति० काण्ड , गा.
१७ शक्तिः कारणत्वं कारणतावच्छेदिका वा शक्तिरिति पक्षद्वयेऽप्यतीन्द्रियायाश्शक्तेरभि. व्यञ्जकत्वादेव वह्निजनकतान्यूनवृत्तीनामपि तुणत्वारणित्वमणित्वादीनां वह्निजनकताबच्छेदकत्वोपचारात् , न च कारणतातदवच्छेदकान्यतररूपाया अतीन्द्रियायाश्शक्तेरभिव्यक्तिः प्रत्यक्षामिका, किन्तु ज्ञानान्तररूपैव, अथाप्यमिव्यक्तिरिति व्यपदिश्यते, शाब्दबोधे च यथा स्मरणलक्षणे सङ्केतग्रहणमपेक्षित, तथा वाच्यवाचकभावग्रहणमपि स्मरण लक्षणमपेक्षितमिति । नन्वेवं तर्हि श्रूयमाणाच्छब्दात्तद्गतशक्तिबलाच्छाब्दप्रत्ययोत्पत्तेस्सैव कारणं तत्रास्तु किं सङ्केताभ्युपगमेनेति चेद् , मैत्रम् , जिनानुगैः सर्वे शब्दास्सर्वार्थवाचका इति नियमाभ्युपगमादेकस्मादपि शब्दादशेषार्थप्रतीतेः प्रसङ्गस्स्यात् , न च सा भव. तीत्येकैकशब्दस्य सर्वार्थवाचकत्वेऽपि सङ्केतसहकृतस्यैव शब्दस्य स्वयोग्यताऽपरपर्याय. शक्तिमाहात्म्यतः प्रतिनियतार्थप्रतीतिजनकत्वेन प्रतिनियतार्थप्रतीतिव्यवहारोपपादनाय सङ्केताभ्युपगमस्यापि साफल्यात् । अत एव न शक्तिबलाद् गवादिशब्दादश्वादिप्रतीतिः, न वाऽव्युत्पन्नस्यापि पुंसः सर्वगोशब्दाऽविध्वग्वृत्तिगोशब्दत्वावच्छिन्नगोशब्दात्सदृशपरिणामलक्षणगोत्वावच्छिन्नगोव्यक्तिबोधः, सङ्केतो ह्ययमर्थोऽस्य शब्दस्य वाच्यः, अस्य चार्थस्यायं शब्दो वाचक इत्येवंरूपो वाच्यवाचकयोर्विनियोगः, स येन पुंसाऽवापोद्वापद्वारा निश्चितस्तस्यैव पुंसः पुनर्गोशब्दश्रवणे तत्स्मृतौ शब्दः स्वशक्तिद्वारा स्वार्थ प्रतिपादयति, नापरस्य पुंसः, नान्यार्थश्च । प्रतिनियतसङ्केतानुसारिणो नियताच्छब्दात्प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिदर्शनात् , एतेन न शब्दस्वरूपं नियतार्थप्रतिपत्तिहेतुः, तस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वादि. स्पपि निरस्तम्, नियतसङ्केतसहकृतस्य शब्दस्य सर्वार्थान् प्रत्य विशिष्टत्वाऽसिद्धेः। ततो वाच्यवाचकोत्पत्तिसमयसम्भृष्णुशक्तिस्वभावस्य कथश्चिनित्यानित्यस्य वाच्यवाचकाभ्यां कथञ्चिद्भिन्नस्य सामान्यविशेषोभयस्वभाववस्तुगोचरोपचरितसङ्केताभिव्यक्तस्य वाच्यवाच. कभावसम्बन्धस्य बलेन ताल्वादिसंयोगजन्यानां शब्दानामर्थावबोधलक्षणशाब्दबोधानुकूलसामयं स्वाभाविकाररीकृत्य तेषां प्रामाण्यं प्रतिपत्तव्यम् । न पुनरनित्यानां शब्दानामेकान्तभिन्नसामान्यविशिष्टेऽनुल्लिखितशाबलेयादिविशेषेऽथै आवापोद्वापद्वारा निश्चित. सङ्केतमात्रशेनार्थावबोधजनकानाम् , न वा नित्यानामपि शब्दानां नित्यवाच्यवाचकभाका सम्बन्धाभिव्यञ्जकसङ्केतवलेन जातिमात्रावबोधकानामर्थापच्या व्यक्त्यवगमकानामिति । अस्थिरस्थापि शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकमावसम्बन्धस्य गुणीभूतजातिविशिष्टप्रति. नियतार्थसङ्केतग्रहबलेन ग्रहस्तु वद्विधूमव्यक्त्योरनित्यत्वेऽप्यविवक्षितव्यक्तिविशेषस्य वह्नित्वावच्छिन्नस्याऽविवक्षितव्यक्तिविशेषरूपे धूमत्वावच्छिन्ने ऊहाख्यतर्कवलेन सर्वोपसंहारेण भ्याप्तिग्रह इव सम्भवत्येवेति न तत्र कोऽपि दोषः । इत्यलं पल्लवितेन, ग्रन्थगौरवभीत्याs. धिकं योक्तं तद्न्थान्तरादस्मत्संदृब्धस्याद्वादविन्दुतश्चावसे यम्, तदेवं शब्दानामनित्यत्व
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८
पम्मतिः काल , पा.. सिद्ध्या सृष्टिकर्तुरीश्वरस्य च निराकृतत्वानिराकरिष्यमाणत्वाच तत्कर्वकत्वाभावेन घातिकर्मक्लेशादिसकलदोषाऽपरामृष्टपुरुषविशेषप्रणीतत्वेनैव हेत्वन्तरानपेक्षणेन स्वतस्सिद्ध शासनस्य प्रमाकरणत्वलक्षणं प्रामाण्यम्, वक्तृगतयथार्थज्ञानात्मकगुणजन्यत्वविवक्षायां तु परतः प्रामाण्यमपि, अत एव द्वादशाङ्गयात्मकशासनप्रतिपाद्यार्थविषयकज्ञाने प्रमात्वलक्षणस्य प्रामाण्यस्योत्पत्तिनिकारणगतगुणापेक्षणात् परत इत्युच्यते, एवमेव प्रत्यक्षज्ञानादा. वपि प्रामाण्यस्य ज्ञानकारणगतगुणापेक्षया अप्रामाण्यस्य च ज्ञानकारणगतदोषापेक्षयोपजायमानत्वात्तदुभयमुत्पत्तौ परत इति । ननूत्पत्ती परतः प्रामाण्ये किं प्रमाणमिति चेत्, उच्यते, प्रामाण्यं ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीनं ज्ञानवृत्तित्वे सति कार्यविशेषत्वाद, अप्रामाण्यवत् । यदि पुनः प्रामाण्यं ज्ञानहेतुमात्राधीनं भवेत्तदा निर्विवादाप्रामाण्यं पार्वणेन्दुदयसंवेदनमपि प्रमाणतामास्कन्देत् , ज्ञानहेतोस्तत्रापि सच्चात्, अन्यथोक्तसंवेदनानुत्पत्तिप्रसक्तिस्स्यात् , कारणाभावे कार्याभावस्यावश्यम्भावनियमात् । अथ तत्र ज्ञानहेत्वतिरिक्तदोषोऽभ्युपेयत इत्यप्रामाण्यमिति चेत्तर्हि प्रमात्मकज्ञानेऽपि ज्ञानहेत्वतिरिक्तगुणोऽप्यम्युपगम्यताम् , युक्तेस्तोल्यात् , प्रामाण्यं विज्ञानमात्रोत्पादकनिखिलहेत्वतिरिक्तहेतूत्पाद्यं विज्ञा. नमात्रानुवृत्तावपि व्यावर्त्तमानत्वात् , यदित्थं तदित्थं, सम्यग्ज्ञाने विज्ञानमात्रानुवृत्तावपि व्यावर्त्तमानाप्रामाण्यवत् , तथा चेदं तस्मात्तथा । न चात्र हेत्वसिद्धिरिति वाच्यम् , मिथ्याज्ञाने विज्ञानमात्रानुवृत्तावपि प्रामाण्यव्यावृत्तेरुभयसम्प्रतिपन्नत्वात् । तथा चोक्तानुमानेनापि ज्ञाने परतः प्रामाण्योत्पत्तिरभ्युपगन्तव्येति । अथ प्रत्यक्षज्ञानकारणचक्षुरादीन्द्रिये सूक्ष्मेक्षणेऽपि गुणानुपलम्भात् ते न सन्तीति चेत् , अत्र चक्षुरादीन्द्रियं किमतीन्द्रियशक्तिरूपं किं वा बाह्यगोलकादिरूपं गृह्यत इति विकल्पद्वयम् , नाद्यः गुणवद् दोषाणामप्य. भावप्रसङ्गात् , अतीन्द्रियस्येन्द्रियस्य प्रत्यक्षेणाग्रहणे तद्गतगुणानामिय तद्गतदोषाणामप्यनुपलम्भस्य तुल्यत्वात् । नापि द्वितीयः, यतोऽत्रापि गुणानुपलम्भः किं स्वप्रत्यक्षेण किंवा परप्रत्यक्षेणेति विकल्पद्वयम् , तत्र नाधविकल्पो युक्तः, दोषाणामप्यनीक्षणेनाभावप्रसङ्गात् स्वस्पार्शनप्रत्यक्षेणापि स्वचक्षुर्गोलकादिमात्रस्यैवोपलम्भात् । नापि द्वितीयविकल्पो युक्तः, परप्रत्यक्षेण काचकामलादिदोषा इव नैमल्यादिगुणा अपि परपुरुषीयचक्षुर्गोलकादावीक्ष्यन्त एवेति न तदनुपलम्भात्तदभावो युक्तः। अथ तदहर्जातस्यापि बालस्य नैर्मल्यादिस्वरूपेण नयनादीन्द्रियप्रतीते मल्यादीनां गुणरूपत्वाभाव इत्युच्यत इति चेत्, तर्हि जन्मकालीन. तिमिररोगव्याप्तस्य तत्कालोत्पन्नवालस्य तिमिरादिदोषाक्रान्तेन्द्रियप्रतीतेरिन्द्रियस्वरूपा. तिरिक्तदोषाणामप्यमावः कथं न स्यात् १ कथञ्चैवं रूपादीनामपि कुम्भादिगुणस्वभावता, उत्पत्तेरारम्य कुम्भे तेषां प्रतीयमानत्वाऽविशेषात् । तदेवं परचक्षुर्गोलकादौ दोषाणामिव गुणानामपि परप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वाद्गुणमात्सर्य परिहाय निष्पक्षपातेन दोषा इव गुणा अप्यभ्युपगन्तव्याः । अन्यथा
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सम्मतिः काण्ड , . . ___ " सुव्यक्तं गुणमात्सर्य,-मकारणमिदं तव ।
दोकपक्षपातित्वं, किं ब्रूमस्तत्सखेऽधुना ॥१॥" इत्युक्तं सत्यापितं स्यात् । ननु गुणविप्रतिपनं प्रत्यनुमानमेव तत्साधकं शरणभूतमिति तत्कीदृशमिति चेत्, तदपि शृणु सावधानीभूय, विवादाध्यासितेषु ज्ञानहेतुषु गुणास्सन्ति, अन्यथाऽनुपपद्यमानसम्यग्ज्ञानजनकत्वात् , यद्वा प्रमा ज्ञानसामान्यकारणभिन्नकारणजन्या ज्ञानत्वे सति कार्यविशेषत्वात् अप्रमावत् । यदि च ज्ञानसामान्यकारणमात्राधीना भवेदप्रमाऽपि प्रमैव भवेत् । अस्ति हि तत्र ज्ञानसामान्यहेतुः, अन्यथा ज्ञानमपि सा न स्यादित्यनुमानेन सामान्यतस्तादृशभिन्न कारणजन्यत्वसिद्धौ चाक्षुषादिनमा चक्षुरादीन्द्रियवृत्तिगुणजन्या प्रमाविशेषत्वात् , यन्नैवं तन्नैवम् , भ्रान्तज्ञानवदिति व्यतिरेक्यनुमानेन तादृशगुणजन्यत्वसिद्धौ तटकतया गुणसिद्धिः, यद्वा प्रमा कारणवृत्तिगुणजन्या कार्यविशेषात्मकत्वात् , यद्यत्कार्यविशेषात्मकं तत्तत्कारणवृत्तिगुणजन्यं, मालाकारनैपुण्यगुणसञ्जातस्रग्वत् , यद्वा प्रमात्वं जन्यत्वसम्बन्धेन गुणव्याप्यं तत्कार्यमात्रवृत्तित्वात् , यद्यत्कार्यमात्रवृत्ति तजन्यत्वसम्बन्धेन तद्वथाप्यम् , यथा धूमत्वं जन्यत्वसम्बन्धेन वहिव्याप्य. मित्यायनुमानप्रकारा गुणसाधनेवबोदव्या: । यद्वा प्रमात्वं ज्ञानसामान्यकारणभिन्नकारणजन्यतावच्छेदकं ज्ञानवृश्यनित्यधर्मत्वात् अप्रमात्ववदिति सामान्यानुमानेन ताशसाध्यसिद्धौ दोषजन्यतावच्छेदकत्वबाधेन परिशेषानुमानेनेन्द्रियादिगतगुणजन्यतावच्छेदकत्वं प्रमात्वस्य सिद्धयति । किश्च सविकल्पकज्ञानं कार्य यथार्थायथार्थभेदेन द्विविधमेवाव. लोक्यते, न तु तृतीयप्रकारम् , तत्राद्यं गुणवत्कारणोत्पाद्यम्, द्वितीयन्तु दोषवत्कारणो. त्पाद्यम् , ज्ञानकार्यस्य द्वैविध्ये च सति तत्कारणेनापि द्विविधेनैव भाव्यमित्युक्तकारणातिरिक्तं कार्यवत्कारणमपि नोपलभामह इति सम्यग्ज्ञानलक्षणं कार्य गुणवत्कारणादेवोपजायत इति सिद्धम् । एतेन यथार्थज्ञानं स्वरूपावस्थितेभ्य एव कारणेभ्यो जायत इति न तत्कारणगतगुणकल्पनाये तत्प्रभवतीति निरस्तम्, गुणदोषविरहितस्य तृतीयकारणस्यासम्भवात् । ननु क आह तृतीयकारणमस्तीति, किन्तु नैर्मल्यादिकं नयनादीन्द्रियाणां स्वरूपमेव, न पुन: स्वरूपातिरिक्तो गुण इति चेत्, कुतो नैर्मल्यादेनयनादिस्वरूपतावगतिः, नयनादितः पार्थक्येन तस्यानुपलम्मात्सेति चेत् , तर्हि तिमिरादिदोषा नयनादिस्वरूपाः पृथक्तयाऽनुपलम्मात् नैर्मल्यादिवदित्यपि सिद्धं कथं न स्यात् । किश्च तत्र स्वरूपशब्दवाच्यार्थः को भवदभिलषित इति वाच्यम् , अथ किमत्र वक्तव्यम् , तादात्म्यं तन्मात्रत्वं वेति चेत् , तर्वाऽऽद्यविकल्पे नैर्मल्यादेर्गुणत्वाऽनिषेधः, तादात्म्यस्य गुणत्वेन सहाविरोधात् , अन्यथा रूपादेरपि गुणत्वं न स्यात् । अथ रूपादिकं घटादिधर्म्यतिरिक्तमेवेति तद्गुणरूपमेवेति चेत्, तहिं नैर्मल्यादावपि तुल्यमेतदित्यपि विचार्यताम् । नापि द्वितीयो विकल्पो युक्तः, यावद्द्रव्यमावि यदेव तदेव तन्मात्रस्वरूपम् , न च तथा नैर्मल्यादिकम् , चक्षुरादावनुवर्तमानेऽपि
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सम्मति० काण्ड १, गा, नैर्मल्यादेनिवर्तमानत्वादिति तस्य तन्मात्रत्वाऽनुपपत्तेः । एतेन नैर्मल्यादिगुणकार्यस्य यथार्थप्रत्यक्षस्य दोषामावमात्रेणापि चरितार्थत्वे सति किमतिरिक्तगुणकल्पनयेत्यपि निरस्तम्, गुणामावमात्रेणापि काचकामलादिदोष कार्यमयथार्थप्रत्यक्षं सेत्स्यतीति किमतिरिक्तदोषकल्पनयेति विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् । किञ्च दोषाभावोऽपि न तुच्छरूपोऽम्युपगन्तुमर्हः, खरशृङ्गस्येव तस्यासत्कल्पत्वेन मीमांसकैरभ्युपगमात्, किन्तु पर्युदासवृत्त्या गुणात्मक एवेति गुणाभावे स तदात्मकः कथं स्यात् । अथाभावस्थाधिकरणस्वरूपत्वेनाभ्युपगमाद् दोषरहितचक्षुस्स्वरूप एव दोषाभावः, स एव यथार्थबुद्धिमुत्पादयतीति तत्कारण. तयाऽभ्युपेयते इति चेत् , तर्हि भूतलस्वरूपस्यापि घटाभावस्य तद्विषयकप्रत्यक्षम्प्रति घटाभावत्वेन कारणत्ववत् ताम्प्रति दोषाभावत्वेन तस्य कारणत्वमभ्युपगतं स्यात्, तदपेक्षया गुणत्वेन कारणत्वे लाघवतर्कोऽपि किन्न स्मृतिगोचरी क्रियते । “ संविदेव भगवती वस्तुतत्वप्रसाधनी" इत्युक्तलोकप्रतीतितोऽपि गुणा अभ्युपगन्तव्याः, सा चैवम्-कश्चित्काच. कामलादिदोषकलुषितलोचनस्तथाविधौषधप्रयोगसमासादितनिर्मलतरचक्षुर्गुणः केनचित् परमसुहृदा पृष्टो ब्रूते, मे लोचने पूर्व काचकामलादिदोषग्रस्ते समभूताम् , अधुना त्वौषधप्रयोगेण निर्मलतागुणसमालिङ्गिते सम्पन्ने इति, न तु विस्मृत्यापीदं वक्ति, यदुत पूर्व दोषषिकते मे लोचने अभूताम् , इदानीं पुनस्तयोरौषधप्रयोगेण तिमिरादिदोषामावमात्रं तुच्छं सञ्जातमिति । एतेन "इन्द्रियादिस्वरूपमेव ह्यन्यनिरपेक्षमर्थाऽविसंवादिज्ञानोत्पादकम् , अञ्जनादीनां च दोषापगमे व्यापारः, न गुणाधाने" इति मीमांसाश्लोकवार्तिकतात्पर्यटीकावचनमप्यपहस्तितम् , तथा च गुणवच्चक्षुरादिसामग्रीत उत्पद्यमानं ज्ञानं प्रामाण्यविशिष्टमेव, दोषवचक्षुरादिसामग्रीतश्चोत्पद्यमानं तत् अप्रामाध्यविशिष्टमेवोत्पद्यत इति सिद्ध ज्ञानस्य प्रामाण्यमप्रामाण्यं च द्वितयमपि ज्ञानकारणगतगुणदोषरूपं परमपेक्ष्योत्पद्यत इत्यत उत्पत्ती परत इति । निश्चीयते तु तदुभयमभ्यासदशायां स्वतः, यतस्तत्र प्रतिपादोद्धारं परतः प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा निश्चित्य प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा न, किन्तु प्रथमज्ञाने स्वतस्तनिश्चित्यैव, अनभ्यासदशायां तु परत इति । नन्वनभ्यासावस्थायां न ज्ञाने स्वतः प्रामाण्यनिश्चयस्तर्हि ततः प्रवृत्तिः कथमिति चेव, प्रामाण्यसंशयादेवेति जानीहि । अथ प्रवृत्ति प्रति न संशयः कारणमित्यपि न च वाच्यम्, यतः कदाचित्फलप्राप्त्या वशीकृतान्तरात्मानः कृषीवला अपि सस्यसम्पत्त्यादिफलनिश्चयाभावेऽपि तत्सम्भावनयैव कृष्यादौ फलमुद्दिश्यैव प्रवर्त्तमाना दरीदृश्यन्ते, सम्भावनाया अपि सन्देहविशेषत्वात् , ननु यदि प्रामाण्यसंशयादपि प्रवृत्तिस्तहि घटज्ञानं प्रमात्मकं संवादिप्रवृत्तिजनकत्वादित्या. धनुमानादिलक्षमात् संवादकज्ञानात् प्रामाण्यनिश्चयस्य किं प्रयोजनम् , प्रवृत्त्यर्थ हि प्रामाण्यनिश्चयः कर्तव्या, सा च सन्देहादपि जातेति चेत्, उच्यते, तत्र प्रामाण्य. निश्चयस्य तद्विषयसन्देहापगम एव प्रयोजनं सुप्रतीतमिति किं प्रयोजनान्तरनिरूपण
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सम्मति० काण्ड १, गा० १
प्रयासेन । तस्यापि किं प्रयोजनमिति चेत्, स्थाने प्रश्नः, किन्तु संशयापगमस्याभ्यासलक्षणमेव प्रयोजनं किं न परामृशसि । यदा कदा संवादकज्ञानात्प्रामाण्यं निश्चितं भवति तदा सुखेनैवान्यदाऽभ्यासात्स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयपूर्विका प्रवृत्तिस्सिद्ध्यति प्रतिपत्तॄणामिति । एतेन प्रथमे प्रवर्त्तकज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयाऽभावे ततः प्रवृत्तिर्नोपपद्यत इति तनिश्चयात्प्रवृत्तिः, प्रवृत्तौ सत्यां तथा संवादकज्ञानम्, तस्माच्च प्रवर्त्तकज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयः, ततः प्रवृत्तिरिति दुर्निवारचक्र कावतारः । किञ्च संवादकज्ञानमप्य निश्चितप्रामाण्यं न प्रवर्त्तकज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयोत्पादने समर्थमिति तस्यापि प्रामाण्यनिश्चयोऽन्यस्मात्संवादकज्ञानादित्यभ्युपगमेऽनवस्था, प्रवर्तकज्ञानाश्चेत् तर्ह्यऽन्योऽन्याश्रयः । संवादकज्ञानस्य स्वतःप्रामाण्यनिश्चयाभ्युपगमे च प्रवर्त्तकज्ञानस्य तथाभावे किं कृतः प्रद्वेषः । यदाह भट्टः" यथैव प्रथमं ज्ञानं, तत्संवादमपेक्षते ।
संवादेनापि संवादः, परो मृग्यस्तथैव हि ॥ १ ॥ संवादस्याथ पूर्वेण, संवादित्वात्प्रमाणता । अन्योन्याश्रयभावेन, प्रामाण्यं न प्रकल्पते ॥ २ ॥ कस्यचित्तु यदीयेत, स्वत एव प्रमाणता । प्रथमस्य तथाभावे, प्रद्वेषः केन हेतुना १ ॥ ३ ॥
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२१.
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GOLA
सत्य
इत्यपि निरस्तम् । यदि हि संवादकज्ञानादेकान्तेन प्रवर्त्तकज्ञाने प्रामाण्यं निश्चित्यैव ततः प्रवृत्तिः प्रतिज्ञायते, तदा स्याच्चक्रकदूषणावतारः, न चैत्रम्, अनभ्यासदशायां प्रामाव्यसन्देहकादपि प्रथमज्ञानात्प्रवृत्तिभावात्, तत्र प्रामाण्यनिश्चयस्तु प्रवृश्यनन्तरभाविसंवादकज्ञानात् । ननु तत्रापि पूर्वज्ञानेन प्रामाण्यनिश्चयेऽन्योऽन्याश्रय इत्युक्तं प्रागिति चेत्, मुक्तम्, न च युक्तमुक्तम्, अभ्यासदशायां संवादकज्ञानस्य स्वत एव, अनभ्यासदशायां तु संवादकज्ञानान्तरादेव प्रामाण्यनिश्चयात् । न चैवं तर्हि तत्रापि संवादकज्ञानान्तरापेक्षायामनवस्थेति वाच्यम्, संवादक ज्ञानान्तरैरनभ्यासदशापनैरेव भाव्यमिति नियमाभावात् । एतेन नोदकाहरणरूपार्थक्रियाज्ञानेनार्थनिश्चयद्वारा पूर्वज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयः, तस्यापि स्वमावस्थायामर्थव्यभिचारेण तेनाऽर्थनिश्चयासम्भवात् । नापि तज्जन्यसुखोत्पच्या पूर्वज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयः, अयथार्थादपि स्वप्ने चन्दनलेपादिज्ञानात्सुखोत्पत्तेः, स्वप्नकालीनाssशामोदकादिभक्षणजन्यस्वास्थ्य सुखोत्पत्तेश्वार्थव्यभिचारित्वात् । तथैव संवादकज्ञानादपि पूर्वज्ञाने न प्रामाण्यनिश्चयः, तस्यापि स्वप्नकालेऽर्थव्यभिचारित्वादेवेत्यपि निरस्तम्, जाग्रत्प्रत्ययत्वे सत्यर्थक्रियाज्ञानजनकं संवादकज्ञानजनकं वा ज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणे कृते सति स्वप्नालीनेऽर्थक्रियाज्ञाने संवादकज्ञाने च व्यभिचारप्रदर्शनस्यायुक्तत्वादेवेति । ननु ज्ञाने प्रामाण्यसन्देहे सत्यपि प्रवृत्तौ प्रेक्षावच्चं न स्यादिति चेत्, सत्यम्, यस्यैव
S
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१२
सम्मति काण्ड १, गा० १ छग्रस्थपुंस एकदा प्रेक्षावरणकर्मणः क्षयोपशमस्तस्यैव पुंसः कालान्तरे तदुदयः, पुनश्च कालान्तरे तत्क्षयोपशम इति कारणीभूतस्य प्रेक्षावरणकर्मक्षयोपशमस्यानियतभावेन तत्कार्यस्य प्रेक्षावस्वस्याप्यनियतभावात् । तथा च यः कश्चिच्छमस्थात्मा एकदा प्रेक्षावरणक्षयोपशमविशेषादवाप्त प्रेक्षावद्वयपदेश: सुनिश्चितप्रामाण्यात्प्रमाणात् क्वचित्प्रवर्त्तते सोऽप्यन्यदा तथाविधक्षयोपशमानवाप्स्या समासादिताप्रेक्षावद्वयपदेशः संशयादेरपि क्वचित्प्रवर्त्तत इति न कश्चित्प्रतिनियतः प्रेक्षापूर्वकारी तदितरो वा । तथा चोक्तम्
" प्रेक्षावत्ता पुनर्ज्ञेया, कदाचित्कस्यचित्क्वचित् ।
अप्रेक्षाकारिताष्येव - मन्यत्राशेषवेदिनः ॥ १ ॥ " इति ।
तदेवं सिद्धमभ्यासदशायां प्रवर्तकज्ञाने संवादकज्ञानानपेक्षणात् स्वतः प्रामाण्यनिश्चयः, अनभ्यासदशायां तु यादृशोऽर्थः पूर्वस्मिन् ज्ञाने प्रथापथमवतीर्णस्तादृश एवासौ येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तल्लक्षणसंवादकज्ञानापेक्षया जायमानत्वात्परत इति । तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरे" तदित्थं ज्ञप्तिमाश्रित्या-नभ्यस्ते विषये स्फुटम् ।
प्रामाण्यं परतः सिद्ध, - मभ्यस्ते स्वत एव तु ॥ १ ॥ " इति ।
एतेन संवादकज्ञानं समानजातीयं किं वा भिन्नजातीयम्, समानजातीय मध्ये कसन्तानप्रभवं किं वा भिन्नसन्तानप्रभवम्, भिन्नजातीयमपि किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यदित्यादि कुचोद्यावकाशो निरस्तः, प्रामाण्यनिश्चयवदप्रामाण्यनिश्चयोऽप्यभ्यासदशायां बाधकज्ञानमनपेक्ष्य जायमानस्स्वतो भवतीत्यभिधीयते, अनम्यासदशापन्ने तु ज्ञाने पूर्वानुभवविषयीकृतस्य रजतस्य प्रतिषेधं बोधयतो नेदं रजतमित्याद्याकारस्योत्तरकालभाविबाधकज्ञानस्याऽपेक्षया प्रादुर्भवन् परत इति । अत्र मीमांसकास्त्वेवं मीमांसयन्ति- यदि हि ज्ञानं स्वगतं प्रामाण्यं स्वतो निखेतुं न शक्नुयात्, तर्हि जगति निश्चयात्यन्ताभाव एव स्यादित्यान्ध्यमेवाशेपस्य जगतः सम्पद्येत, न हि स्वतोऽनिश्चीयमानोऽर्थः परतो निश्चेतुं पार्थते परस्यापि तद्वदेवाऽसामर्थ्यात् । अतो यत्र क्वापि वा स्वतो ग्राह्यत्वमङ्गीकरणीयं तद्वरमुत्सर्गतः सर्वज्ञानेष्वेव प्रामाण्यं स्वतो गृह्यत इत्यभ्युपगमनम् । तच्च स्वतो ग्राह्यत्वं प्राथमिकज्ञानग्रहग्राह्यत्त्रम्, तदप्रामाण्याग्राहकयावज्ज्ञानग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वमिति यावत् । एतादृशं स्वतो ग्राह्यत्वं मीमांसकानां त्रिष्वपि मतेषु सममेत्र, तत्र भाट्टानां मते ज्ञानमतीन्द्रियं घटोऽयमित्यादिज्ञाने जाते तेन ज्ञाततानाम कश्चित्सविषयः पदार्थों घट उत्पद्यते, घटत्वेन घटो ज्ञात इति प्रत्यक्षज्ञानोत्पत्तेः, अत एव सा प्रत्यक्षा, न चोक्तप्रत्यक्षज्ञानं ज्ञानस्य वैशिष्ट्यमवगाहते, नयनादेरात्मगुणग्राहकत्वात् मनपच बहिरस्वातन्त्र्येण घटरूपविशेष्याग्राहकत्वात्, किन्त्वतिरिक्तज्ञावतायाः, तथा च घटत्ववद्घटवृत्तित्वे सति घटत्वप्रकारकज्ञाततात्वविषयकप्रमात्मकप्रत्य - धानुभवरूपलिङ्गज्ञानेन ज्ञाततापक्षे घटत्ववद्घटविशेष्यक घटत्वप्रकारकज्ञानजन्यत्वमनुमीयते
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सम्मति का , गा.. तया चानुमित्या घटत्ववद्घटविशेष्यकत्वे सति घटत्वप्रकारकत्वलक्षणप्रामाण्यप्रकारेणैव घटज्ञानं विषयीक्रियत इति सा प्रामाण्यमादायैव पर्यवस्यतीति स्वग्राहकेणैव प्रामाण्यग्रहः, येनैव प्राथमिकज्ञानग्रहस्तेनैव तद्गतज्ञानत्वधर्मवत्तनिष्ठप्रामाण्यस्यापि ग्रह इति यावत्, तत्र तदप्रामाण्यग्राहकयावज्ज्ञानग्राहकसामग्रीपदेन परामर्शघटितसामग्रीपरिग्रहे तजन्यानुमित्यात्मकज्ञानविषयत्वात्प्रामाण्यं स्वतो ग्राह्य सम्पद्यते, तत्रापि किं वीजमिति चेत् , उच्यते, धात्वर्थक्रियाजन्यफलशालित्वमेव कर्मत्वम् , तच्च घटं जानातीत्यादौ ज्ञानक्रियाकर्मत्वं घटे धात्वर्थज्ञानात्मकक्रियाजन्यज्ञाततालक्षणफलाभ्युपगममन्तरेण नोपपद्यत इत्येवमभ्युपगतज्ञाततालिङ्गेन ज्ञानं तद्गतप्रामाण्यवानुमीयते, यतो ज्ञानं क्रियात्मकम् , क्रिया च फलानुमेया, ज्ञानाख्यज्ञातृव्यापारमन्तरेण ज्ञातताख्यफलानिष्पनेरिति तदन्यथाऽनुपपत्या तदनुमानात् । तथा च येनानुमानेन ज्ञानमनुमीयते तेनैव ज्ञानत्ववत्तद्गतप्रामाण्यमपीति न परत: प्रामाण्यनिश्चयावकाशः, किन्तूक्तनीत्या तदप्रामाण्याऽग्राहकयावज्ज्ञानग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वलक्षणस्वतस्त्वोपपत्तेस्वतः प्रामाण्यनिश्चय इति कुमारिलभमतमपि न युक्तियुक्तम् , लक्ष्यभेदेन लक्षणभेदात् 'चैत्र ओदनं पचति, काष्ठं छिनत्तीत्यादौ भवतूक्तलक्षणं कमेत्वम् , परन्तु धात्वर्थज्ञानस्थले तस्य सविषयकत्वेन विषयत्वलक्षणमेव कर्मत्वमित्येतावन्मात्रस्वीकारेण घटादौ कर्मत्वस्योपपन्नत्वात् ज्ञानविषयत्वातिरिक्तज्ञातताया प्रमाणाभावात् , अन्यथा अयं मया ज्ञात इत्यनुभववत् अयमिष्टः अनुमितोऽयमित्याधनुभवोऽपि भवतीति तद्भलादीष्टताऽनुमितताऽपि च पदार्थान्तरं भट्टैस्स्वीकृतं स्यात् । किश्च प्रामाण्यस्य स्वतो आहेऽनभ्यासदशोत्पन्नज्ञाने प्रामाण्यसंशयो न स्यात् , ज्ञानग्रहे तद्गतप्रामाण्यस्यापि निश्चयात् , तस्याऽनिश्चये वा न स्वतः प्रामाण्यग्रहः, ज्ञानाग्रहे च धर्मिज्ञानाभावात् प्रामाण्यसंशयोऽपि न स्यादिति । न चा ज्ञानमतीन्द्रियम्, न वा ज्ञानाख्यव्यापारोऽपि ज्ञातताख्यफलात्मकलिङ्गज्ञानेनानुमेयत्वादऽतीन्द्रियः, घटमिच्छा. मीतिवद् घटंजानामीति प्रत्यक्षस्य सर्वानुभवसिद्धत्वात् । घटत्वेन घटो ज्ञात इति प्रत्यक्षस्यापि घटत्वप्रकारकप्रत्यक्षविषयो घट इत्यर्थकत्वेनातिरिक्त ज्ञाततावगाहित्वाभावात् । किञ्च न हि क्रियास्वभावं ज्ञानम् , अपि तु फलस्वभावमेव, अपि च क्रियाऽपि प्रत्यक्षद्रव्यवर्तिनी प्रत्यक्षव, भाट्टानां मते प्रत्यक्षश्चात्मा, तकिमनेनापराद्धं, यदेतदीयक्रियाया अप्रत्यक्षत्वमुच्यते, अधिकं ग्रन्थान्तरादवसेयम् । नन्वेवं तर्हि अयं घट इत्याकारकज्ञानोत्पत्तिद्वितीयक्षणे घटत्वेन घट जानामीत्याधनुव्यवसायस्समुत्पद्यते, तत्र च घटत्वनिष्ठविशेष्यतानिरूपितविशेष्यित्वावच्छेद्यघटत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितप्रकारिताप्रकारेण ज्ञानस्य मानम् , तदेव च प्रामाण्यग्रहप्रयोजकमित्युक्तानुव्यवसायेनैव ज्ञानस्येव तद्गतप्रामाण्यस्यापि ग्रह इति तदप्रामाण्याग्राहिका यावती ज्ञानग्राहिका सामग्री व्यवसायात्ममनः संयोगादिरूपा तजन्यो ग्रहोऽनुव्यवसाया, तद्विषयत्वं प्रामाण्ये उपपद्यत इति तस्य स्वतो ग्राह्यत्वोपपत्तिस्स्यादेवेति
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सम्मति० काण्ड १ ० १
स एवं प्रमाणभूतः पक्षोsस्तु किं परतः प्रामाण्यनिश्चयाभ्युपगमेनेति मुरारिमिश्रमतमध्येकान्तरूपं न युक्तम्, अनभ्यासदशायामनुव्यवसायानन्तरं प्रामाण्यसन्देहस्य सर्वानुभवसिद्धत्वात्, निश्चिते प्रामाण्ये सति सन्देहाऽयोगात् । तस्मादनभ्यासदशायां यादृशोऽर्थः पूर्वस्मिन् विज्ञाने प्रथापथमवतीर्णस्तादृश एवासौ येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तल्लक्षणसंवादकज्ञानापेक्षया जायमानत्वात्परतः प्रामाण्यनिश्चयः, अभ्यासदशायां तु प्रमेयाव्यभिचारित्वाज्ज्ञाने स्वतः प्रामाण्यनिश्चयः, संवादकज्ञानानपेक्षणादित्युक्तं प्राक् | जैनमते ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वेऽपि तद्गतं प्रामाण्यं ततः कथञ्चिद्भिन्नमिति तद्ब्रहोऽपि न नियत इत्यतः स्वप्रकाशेऽनभ्यासदशापभज्ञाने ज्ञानावभासेऽपि प्रामाण्यं न भासत इति तत्संशय उपपद्यत इति । अत्राह प्रभाकरः - शुक्ताविदं रजतमित्यादिज्ञानमपि दोषवशात् प्रमुष्टतत्ताकं रजतमिति स्मरणम्, इदमिति च प्रत्यक्षमिति यथार्थज्ञानद्वयात्मकमित्यतः सर्वज्ञानस्य यथार्थ - स्वादेव कस्यचिज्ज्ञानस्य प्रामाण्यं कस्यचित्रप्रामाण्यमिति विभाग एवानुपपन्नस्तर्हि तदुमयनिश्वयस्स्वतः परतवेति वार्त्ता सुतरामसम्भविनी, ज्ञानमात्रस्य स्वप्रकाशात्मकत्वेन ज्ञानात्मविषयरूप त्रिपुटीविषयकत्वात् व्यवसायानुव्यवसाययोरैक्याद् 'घटमहं जानामीत्याद्याकारव्यवसायेनैव स्वप्रकाशात्मकेन प्रामाण्यग्रहणं सञ्जायत इति ज्ञानत्वस्येव तद्गतप्रामाण्यस्यापि तेनैव ज्ञानेन निश्रयात् स्वतः प्रामाण्यनिश्चयस्यैव सर्वस्मिन् ज्ञाने सद्भावात्, तत्रैतन्मते तदप्रामाण्या ग्राहक यावज्ज्ञानग्राहकसामग्री पदेनेन्द्रियसन्निकर्षादिघटित सामग्री परिग्रहात्राजन्यव्यवसायात्मकग्रहविषयत्वात् स्वतो ग्राह्यत्वं प्रामाण्यस्य सूपपादमेवेति चेत्, उच्यते समाधिः, न तावत्सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वादेवोक्तविभागोऽनुपपन्नः, याथार्थ्याऽयाथार्थ्य प्रश्ने यदुत्तरं तद्विरोधात्, तथाहि - विपरीतमवगतं मयेति लौकिकी ज्ञानविषयिका प्रतीतिः, अन्यथाऽवगतमित्यन्यथाख्यातिरिति च वैनयिकी प्रतीतिर्यथार्था न वेति प्रश्ने यदि यथार्थेत्युत्तरं तदेदं रजतमित्याकारक प्राथमिकज्ञानस्य स्त्रविषयीभूतस्याऽयथार्थत्वम्, प्राथमिकज्ञानविशेष्य कायथार्थत्वप्रकारकप्रतीतेश्च पश्चाद्भाविन्या यथार्थत्वम्, यदि न यथार्थेत्युत्तरं तदा प्राथमिकज्ञानस्य यथार्थत्वं प्राथमिकज्ञान विशेष्य कायथार्थत्वप्रकारक ज्ञानास्मिकायास्तस्याश्चाऽयथार्थत्वमिति यथार्थाऽयथार्थविभागोपपत्ते सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वादेव विभागोऽनुपपन्न इति न युक्तियुक्तम् । ननु विपरीतमवगतं मयेति विपरीतज्ञानविषयिका अन्यथाsaगतं मयेत्यन्यथाख्यातिविषयिका वा प्रतीतिर्नास्त्येवेति नोक्तप्रश्नावकाशः, केवलं तादृशशब्दप्रयोग एव, न च स वस्तुसाधक इति चेत्, मैवं वद, यतो विपरीतज्ञानविषयका अन्यथाख्यातिविषयिका वा प्रतीतिस्सर्वेषामविगानेन भवत्येव, न चानुभवे परीक्षकाणां विवादस्सम्भवति, अन्यथा यद् यज्ज्ञानं तत्तत्सर्वं शब्दसंलापरूपमिति वदतोऽपि वक्त्रं नैव वक्रीभवेत्, तथा च ज्ञानमात्रस्योच्छित्तिप्रसक्तिस्स्यात् । न चोक्तज्ञानव्यवहारो नास्तीति वक्तुं शक्यम्, सतोऽपलापे तद्वत् सर्वस्यैव सतोऽपहुतिप्रसङ्गात् । नन्वस्तुक्तज्ञान
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सम्मति काण्ड 1, गा० 2
મ
व्यवहारः, तथाप्युक्तव्यवहारविषये ज्ञानेऽन्यथाख्यातित्वमस्ति न वेति विप्रतिपद्यामहे इति चेत्, मैवम्, यतो विप्रतिपत्तिर्विधिनिषेधोभयकोटिका भवतीति भवदभ्युपगतनिषेधफोटो तत्प्रतियोगिनोऽन्यथाख्यातित्वस्य कुत्रापि सत्वमस्ति न वेत्युच्यताम्, अस्तीति ब्रूम इति तर्हि पर्यवसितं विवादेन, यत्रैव सभ्त्रं तस्यैवायथार्थत्वेनोभयवादिसिद्धत्वात् । नास्तीति चेतर्हि कुत्राप्यसतो निषेधः कर्तुमशक्य एव, यतो न हि प्रेक्षावद्भिरसतश्शशशृङ्गस्य निषेधः क्रियते । अथ तत्र महिष्यादौ प्रसिद्धमेव शृङ्गं शशीयत्वेन रूपेण निषिध्यते arroछादौ प्रसिद्धमेवान्यथात्वं व्यधिकरण प्रकारत्वलक्षणं ख्यातौं निषिध्यते, नन्वेवं af शुक्ताविदं रजतमित्या कारकस्येदंत्वावच्छिन्नविशेष्य तानिरूपितरजतत्वनिष्ठ प्रकार तानिरूपकस्य ज्ञानस्याभावे रजतार्थिनः मरुमरीचिकादाविदं जलमिति ज्ञानस्याभावे च जलार्थिनः प्रवृत्तिः कथं स्यादिति चेत्, उच्यते, इदं रजतमिति सम्यग्ज्ञानद्वयं, विभिन्नकारणजन्यत्वात् विभिन्नगोचरत्वाच्च तत्रेन्द्रियकारणजन्यमिदमिति प्रत्यक्षं पुरोवर्तिशुक्तिकाशकलविषयकम्, तत्र दोषवशात्तद्गत शुक्तित्व विशेषस्याऽग्रहः । साधारण भास्वररूपदर्शनोबुद्धसंस्कारजन्यं रजतमिति स्मरणं हट्टपट्टादिव्यवस्थितरजतविषयकम्, न च तत्तोले खाभात्रात्कथं तत्स्मरणमिति वाच्यम्, गृहीतग्रहणस्वभावेऽपि तस्मिन् स्मरणे दोषवशागृहीततत्तांशप्रमोषाद्रजतमात्रग्रहणस्यैव स्मृतिरूपत्वात् तस्मादेव च स्मरणात्प्रवृत्तिरिति चेत्, तदपि न विद्वन्मनोरञ्जकम्, पुरोवर्त्तिनं यमुद्दिश्य प्रवृत्तिस्तद्विषयकज्ञानादेव साऽनुभूयत इत्यन्य विषयक ज्ञानादन्यत्र प्रवृत्त्यसम्भवात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । अथोक्तज्ञानमपि प्रवृत्तौ नियामकमभ्युपगम्यत एवेति चेत्, तर्हि शुक्त्यादौ रजतादिभेदग्रहेऽपि प्रवृत्यापत्तेः, प्रवृत्तिकारणीभूतोक्तज्ञानद्वयस्य सच्चात् । न च दोषाधीनः पुरोवर्त्तिनि स्वतन्त्रोपस्थित - रजतभेदाग्रहः प्रवृत्तिनियामक इति नोक्तदोषः, अयम्मावः - इदं रजतमित्यस्य ज्ञानद्वयरूपत्वेऽपि तत्र द्रष्टुः शुक्तिरजत योरसंसर्गग्रहो नास्ति, तावतैव रजतमर्थमर्थयमानोऽपि इदंशब्दवाच्ये पुरोवर्त्तिनि प्रवर्त्तते, न च ज्ञानद्वयरूपत्वे कथं विशिष्टव्यवहार इति वाच्यम् ज्ञानयोरपि मिथोऽसंसर्गग्रहाभावात्, तथा च रजतस्मृतेः पुरोवर्त्तिद्रव्यमात्रग्रहणस्य च मिथः स्वरूपतो विषयतश्च दोष प्रयुक्त मेदाग्रह एव प्रवर्त्तक इति वाच्यम् रजते नेदं रजतमिति ज्ञानमन्यथाख्यातिप्रसङ्गमीत्या न भेदग्रहरूपमिति भेदाग्रहस्य सच्चात्तत्रापि प्रवृत्यापत्तेः ।
अथ रजतभेदासंसर्गाग्रहाभाव एव तदर्थ इति नोक्तदोष इति चेत् तर्हि सत्यरजतस्थले 'विशिष्टज्ञानस्य हेतुताया भवतापि क्लृप्तत्वाद् रङ्गगोचररजतार्थिप्रवृत्तावपि तत्कल्पनाया एवोचितत्वात् न च संवादिप्रवृत्तौ तत्कारणम्, विसंवादिप्रवृत्तौ तुक्तलक्षणभेदाग्रहः कारणमिति वाच्यम् संवादिविसंवादिमेदेन कार्यकारणभावद्वयापेक्षया लाघवतर्कसहकारेण प्रवृत्तिमात्रे विशिष्टज्ञानस्यैव हेतुत्वकल्पनौचित्यात् । किञ्च निरुक्तभेदाग्रहस्य प्रवृत्तिं प्रति
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सम्मति • कान्ड १, गा० १ कारणत्वाभ्युपगमे स्वतन्त्रोपस्थितानिष्टमेदाग्रहस्य निवृतिं प्रति कारणत्वमभ्युपगन्तव्यम्, एव रजतरङ्गयोरिमे रङ्गरजते इति ज्ञाने जाते भवन्मते रजते रजत मेदग्रहस्यान्यथा ख्यातिप्रसङ्गभयादनभ्युपगन्तव्यत्वेन रजतप्रवृत्तिकारणस्य स्वतन्त्रोपस्थितेष्टरजत मेदाग्रहस्य सवेन रजतगोचरप्रवृत्तेः रङ्गगोचरनिवृत्तिकारणस्य स्वतन्त्रोपस्थितानिष्टरङ्गमेदाग्रहस्य दोषबलाद्भावेन रङ्गगोचरनिवृत्तेश्च युगपदेव रजते प्रसङ्गः, एवं रङ्गेऽपि रङ्गमेदग्रहस्यान्यथाख्यातिप्रसङ्गमयादनभ्युपगन्तव्यत्वेन रङ्गभेदाग्रहस्य रङ्गगोचरनिवृत्तिकारणस्य सद्भावाद्रङ्गगोचरनिवृत्तेर्दोषबलाद्रजतभेदाग्रहस्य भावेन रजतगोचरप्रवृत्तेश्च युगपदेव प्रसङ्गः, एवमनुमितिम्प्रति परामर्शस्य विशिष्टज्ञानत्वेन कारणत्वे अयोगोलकं वह्निमदित्यनुमित्यनुरोधेन वह्निव्याप्यधूमवदयोगोल कमित्यन्यथाख्यातिशपद्येत, भेदाग्रहस्य कारणत्वे तु हदे वह्निव्याप्यधूमवद्भेदाग्रहाद् हदो वह्निमानित्यन्यथाख्यातिरका मेनाप्यभ्युपगन्तव्येति । तादृशभेदाग्रहस्य प्रहृष्यनियामकत्वे च सिद्धे विवादापनं रजतसंवेदनं पुरोवर्तिशुक्तिशकलगोचरमेव, तत्रैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् यद् यत्रैव प्रवृत्तिनिमित्तं तत् तद्गोचरमेव, यथा सम्यग्रजते रजतज्ञानम्, पुरोवर्त्तिन्येव शुक्तिशकले प्रवृत्तिनिमित्तं चेदं ज्ञानं, तस्मात्तद्गोचरमेवेति । किञ्च नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययानन्तरं यदेव शुक्तिशकलं कलधौतरूपेण मया प्राक् प्रत्याकलितं तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञानमात्मलाभमनुभवदनुभूयत इति तद्द्बलेनापि शुक्तिशकले इदं रजतमिति ज्ञानमखण्डैकरूपमेव कामलादिदोषदूषित नेत्रादिसामध्या पूर्वरजतानुभवजनितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मरणद्वारा जायमानमभ्युपेयमिति । तदेवं सर्वज्ञानस्य यथार्थ - त्वादेव प्रमाणाप्रमाणविभागोऽनुपपन्न इति प्रभाकरमतमपि न युक्तियुक्तमिति सिद्धम् । कुमारिलाद्यभ्युपगतपक्षत्रयेऽप्यधिकं विस्तरभया नेह प्रतन्यत इति । एतेन सर्वज्ञानस्यायथार्थस्वात्प्रमाणाप्रमाणविभागोऽनुपपन्न इति शून्यवादिमतमपि निरस्तम्, सर्व ज्ञानमयथार्थ - मिति ज्ञानस्य यथार्थत्वा यथार्थस्वाभ्यामुत्तरविरोधात्, तथाहि - सर्वज्ञानमयथार्थमिति ज्ञानस्य यथार्थत्वे सर्वान्तर्गतं तज्ज्ञानमपीति तस्य यथार्थत्वात् सर्वं ज्ञानमयथार्थमित्य सङ्गतं स्यात् । अयथार्थत्वे च तद्विशेष्यीभूतस्य सर्वज्ञानस्य यथार्थत्वप्रसक्त्योक्तमसङ्गतं स्यादिति । किश्च शून्यतासाधकं किञ्चित्प्रमाणमस्ति चेत्कथं सर्वशून्यता, प्रमाणस्यैव वस्तुरूपत्वात्, कथञ्च सर्वज्ञानमयथार्थमिति वचोऽपि शोभां लभेत ? शून्यतासाधकप्रमाणाभ्युपगमेन सर्वज्ञानस्यायथार्थत्वाभावात् सर्वान्तर्गतस्य शून्यतासाधकयथार्थज्ञानस्य सद्भावात् । ननु सर्वज्ञानमयथार्थमित्यभ्युपगच्छन् कथं शून्यतासाधकप्रमाणस्य यथार्थत्वं स्वीकुर्यादिति चेत्, तर्हि शून्यतासिद्धिः कथम्, यथार्थप्रमाणनिबन्धनत्वाद्विदुषामिष्टसिद्धेः, अथ शून्यतासाधकप्रमाणं नास्तीति चेत्तर्हि कथं शून्यता सिद्धयेत् प्रमाणमन्तरेण कस्यापि वस्तुनस्सिद्धयभावात् उक्तञ्च शून्यतानिरासेऽन्यत्र -
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सम्मति•
० काण्ड १, गा० १
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शास्ता शास्त्रं शिष्यः, प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः । सन्ति न शून्यं ब्रुवतस्तदभावाचाऽप्रमाणं स्यात् ॥ १ ॥ प्रतिषेद्धप्रतिषेधौ स्तच्छून्यं कथं भवेत्सर्वम् १ | तदभावेन तु सिद्धा, अप्रतिषिद्धा जगत्यर्थाः ॥ २ ॥ " इति ।
तस्मात्किश्चिज्ज्ञानं प्रमाणं किञ्चिच्चाप्रमाणमिति विभाग एव परमार्थभूतोऽभ्युपगन्तव्य इति निष्कर्ष: । अत्र योगाः सङ्गिरन्ते उक्तनीत्याऽस्तु प्रमाणाप्रमाणविभागः, परन्तु स्वतः परतः प्रामाण्याऽप्रामाण्यनिश्वयविभागो न प्रमाणपद्धतिप्रतिष्ठामञ्चति, स्वप्रकाशज्ञानासिद्धया स्वतः प्रामाण्यनित्रयायोगेन परत एव प्रामाण्यनिश्चयस्य सद्भावादिति चेत्, मा स्वरध्वम्, यतस्स्वप्रकाशज्ञानप्रतिष्ठापनमग्रे द्वितीयकाण्डे करिष्यामः । इत्यलं प्रसङ्गानुप्रसङ्गेन, प्रकृतमनुसरामः । ननु जिनप्रणीतद्वादशाङ्गात्मकशासनस्य निश्चितप्रामाण्यं परपुरुषगतप्रमात्मक तदर्थविषय कशाब्दबोधजनकत्वनिश्चयविषयत्वलक्षणमेव, न च तदुपपद्यते, अतिमधुरस्यापि स्वाति नक्षत्र जलस्याशीविषमुखपतितस्य विषरूपेणेव सद्गुर्वनपेक्षमिध्यादृष्टिपरिगृहीतस्याङ्गानङ्गप्रविष्टस्य सम्यक् श्रुतस्याप्ययथावस्थितबोधतो वैपरीत्येन योजनान्मिध्यारूपेण परिणतिभावेन मिथ्यादृशां तदर्थविषयकाप्रमात्मकशाब्दबोधजनकत्वादिति चेत्, मा स्वरस्व, उच्यते समाधिः, समुद्रदोषात्समुद्रनिहित छिद्रत्वविशिष्टघटो न श्रियते इति न, किन्तु स्वीय छिद्रत्वदोषादेव, एकचन्द्रमसि द्विचन्द्रज्ञानं यज्जायते तन्न चन्द्रदोषात्, किन्तु पुरुषीय दृष्टिदोषादेव, तद्वत्प्रकृतेऽपि भवान्धि समुद्दिधीर्षुम गुरुनिरपेक्षाणां मिथ्यादृष्टीनां केषां चित्स्वपक्षनिषद्धोद्धुरानुबन्धानां स्वतस्सिद्धान्तावलोकनतो यन्मिथ्याज्ञानं जायते तदपि
न
सम्यकश्रुतस्य प्रमात्मकज्ञानजननाऽसामर्थ्यदोषबलादप्रामाण्यदोपबलाद्वा, किन्तु पूर्वभवीय मिध्यावासनाजनिताऽयथार्थसङ्केतानुसन्धानसहित स्त्री यमिध्यात्वदोषप्राबल्यादेवेति तज्ज्ञानमज्ञानमेव, उक्तदोषविगमेन सम्यग्दर्शनाशयशुद्धौ तत्सहकृतं श्रुतमप्रामाण्यज्ञानानारुकन्दितज्ञानविषयप्रामाण्यविशिष्टयथार्थज्ञानं जनयति, यथा स्वीय दृष्टिदोषनाशे नैर्मल्यगुणसहकृतं चक्षुरेकचन्द्र इति प्रमात्मकं ज्ञानं जनयति, न च तत्र पश्चादिदं ज्ञानं प्रमा न वेति संशयः, न वेदं ज्ञानमप्रमात्मकमेवेति विपर्ययज्ञानं भवति, अत एवोत्पत्तौ प्रामाण्यमप्रामाव्यश्च परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतोऽपि सिद्धान्ते गीयते, उक्तञ्च प्रमाणनयतच्चालोकालङ्कारेतदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञतौ तु स्वतः परतश्चेति । " १ ॥ २१ ॥ इति ॥
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अत्र ' तदुभयमिति प्रामाण्यमप्रामाण्यश्चेत्यर्थः, परत एव इति कारणगत• गुणदोषापेक्षयैवेत्यर्थः । तदुभयमपि बहिरर्थापेक्षयैव, न तु ज्ञानापेक्षया, तदपेक्षया ज्ञानमात्रस्य प्रमाणैकरूपत्वात् । तदुक्तमाप्तमीमांसायां -
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सम्मतिः काण्ड १, गा. - "भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिहवः।
__ बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्न वेति च ॥ १ ॥" इति ॥ मावेति सामान्यशब्दोऽपि बहिरित्यभिधानाज्ज्ञानस्वरूपे वर्तत इति । " स्वतः परतथेति " अभ्यासदशायां संवादकबाधकज्ञानमनपेक्ष्य प्रादुर्भवन् प्रामाण्याप्रामाण्यनिश्चयः स्वतो भवतीत्यभिधीयते, विषयांशेऽभ्यासजन्यक्षयोपशमस्यैव तत्र व्यापाररूपत्वात् । अनभ्यासदशायां तु संवादकबाधकज्ञानाऽपेक्षया जायमानोऽसौ परतः, पूर्व प्रामाण्या: प्रामाण्यग्रहसामग्र्यसिद्धरित्यक्षरार्थः । तद्वत्प्रकृतेऽप्युक्ताशयशुद्धौ श्रुतजन्यतदर्थविषयकज्ञाने तद्गते स्वतः प्रामाण्यज्ञाने च नाप्रामाण्यसंशयविपर्ययाविति श्रुतस्योक्तलक्षणनिश्चितप्रामाण्यं निर्वहत्येवेति । नन्वेवं तर्हि सभ्यश्रुतज्ञानवता परोपकारकधुरीणसुगुरुणा सिद्धान्तोक्तविधिना यथार्थरूपेण पाठितानां मिथ्यादृष्टीनां किं प्रमात्मकमेव श्रौतज्ञानं जायते किम्वाऽन्यथेति चेत्, प्रमात्मकमेवेति जानीहि । न चैवं तर्हि तेषां ज्ञानस्य सज्ज्ञानत्वप्रसक्त्या सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् , यतस्तेषां पूर्वपूर्वभवीयमिथ्यावासनावासितानामेकान्तदृष्टीनां सद्गुरुप्रोक्तमिदमित्थमेवेति सम्यक्तत्त्वार्थश्रद्धानामा वान्मिथ्यात्वदोषप्रावल्यादेव प्रमात्मकेऽपि तस्मिन् श्रौतज्ञाने इदं ज्ञानं प्रमात्मकं न वेत्या. कारक एतज्ज्ञानविशेष्यकप्रामाण्यतदभावप्रकारकोऽप्रामाण्यसंशयः, यद्वेदं ज्ञानमप्रमात्मकमेवेत्याकारकमेतज्ज्ञानविशेष्यकाऽप्रामाण्यप्रकारकं विपर्ययात्मकमप्रामाण्यज्ञानं तदानी जायते, प्रमात्मकौतज्ञानेऽप्रामाण्यसन्देहे तद्विषयेऽप्यसत्यत्वसन्देहाद्विपर्ययात्मकाप्रामा ण्यज्ञाने वा तद्विषयेऽपि पश्चाद्विपरीतत्वज्ञानातज्ज्ञानमज्ञानमेवेति सम्यग्ज्ञानाभावान सम्यः ग्दृष्टित्वप्रसङ्गः । निस्स्वार्थैकान्तपरमार्थहितबुद्धया जिनोक्ततत्वामृतरसनिपायिसद्गुरुभगवत
श्रृंत यथार्थमधीयाना अपि मिथ्यादृष्टय एकान्ततत्त्वमेव सत्यं मन्यन्ते, न त्वनेकान्ततश्व मित्यनेकान्ततत्वप्रतिपादकश्रुतजन्यज्ञाने प्रमात्मकेपि प्रामाण्यं सन्दिहन्ति, विपर्ययन्ति वा, न तु सम्यग्दृष्टय इव श्रुतस्य जिनप्रणीतत्वेन तजातं ज्ञानं प्रमात्मकमेवेति निश्चिन्व. न्ति, अत एव " चोदस दस य अभिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए भयणाए " इति सिद्धान्तवचोऽपि सङ्गच्छते, तथा च प्रामाण्यवत्यपि श्रौतज्ञाने संशयविपर्ययान्यतरलक्षणं यदप्रामाण्य: ज्ञान तद्विषयत्वलक्षणमलकालुष्येण न मिथ्यादृष्टिज्ञानं शुद्धम् , ज्ञाने हि शुद्धिनें केवलप्रमा, वलक्षणा, तथा सति मिथ्यादृष्टीनां निस्सीमकृपासुधासिन्धुसुगुरुणाऽध्यापितानां यथार श्रुतार्थज्ञाने जाते तत्र तथात्वप्रसक्त्या तेषु सम्यग्ज्ञानालिङ्गितत्वं स्यात् , किन्त्वप्रामाण्यझानानास्कन्दितज्ञान विषयप्रामाण्यलक्षणा, सा च सम्यग्दृष्टीनां श्रौतज्ञाने स्वतः प्रामाध्यज्ञाने सति तदुत्तरं नैव तत्र संशयविपर्ययान्यतरलक्षणाऽप्रामाण्यज्ञानं भवतीति तन्त्र सटते, मिथ्यादृष्टीनां तु श्रौतज्ञाने स्वतः प्रामाण्यज्ञानमेव न भवति, अन्यथा
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सम्मति०] काण्ड १, गां०१
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तत्प्रतिबन्धकेन तदुत्तरमुक्तलक्षणाप्रामाण्यज्ञानमेव न भवेत् भवति च तदिति तेषामप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानस्यैव श्रौतज्ञाने स्वतः प्रामाण्यज्ञानात्मकस्याभावेन न तद्विषयप्रामाण्यलक्षणा शुद्धिस्संगतेति तादृशशुद्ध्यभावान्मिध्यादृष्टिज्ञानं न सम्यग्ज्ञानम्, तज्ज्ञानगत प्रामाण्यस्याप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितं श्रौतज्ञाने यत् स्वतः प्रामाण्यज्ञानं तद्विषयत्वात् । ननु सिद्धान्ते स्वप्रकाशात्मकतयैवाभ्युपगते ज्ञाने प्रामाण्यं स्वतः परतव गृह्यत इति परतो ग्राह्यतायां यदा सम्यग्दृष्टेः श्रुतजन्यज्ञाने प्रामाण्यज्ञानं न जातं तदानीमप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषयत्वस्य तज्ज्ञानगतप्रामाण्येऽमावातज्ज्ञानं शुद्धं न स्यादिति चेत्, मैवम्, यजिनैः प्रणीतं तत्तथ्यमेवेति श्रद्दधतः सम्यग्दृष्टेः श्रुताद्यज्ज्ञानं जायते तद्यथा स्वं गृह्णाति तथा स्वगतप्रामाण्यमपि गृह्णात्येव, तज्ज्ञानगतप्रामाव्यस्य नियमेन स्वतो ग्राह्यत्वाद, परतो ग्राह्यत्वं तु प्रामाण्यस्य तत्रैव यत्र प्रामाण्यशङ्काद्यंवतारः, प्रकृते तु नैवम्, भेषजस्य रोगप्रशमने पूर्वं रेचनकृतरोगिकोष्ठाशय शुद्धिर्यथा सहकारिणी तथोक्तशुद्धिविशिष्टज्ञानोत्पत्तौ श्रुतस्य सम्यग्दर्शनलक्षणाशयशुद्धिस्सहकारिगीति तदभावे सत्यप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितश्रौतज्ञानार्जकत्वेऽपि तत्सच्वेऽप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानविषयप्रामाण्यविशिष्टज्ञानार्जकत्वेन श्रुतात्मकशासनस्योक्तलक्षण निश्चितप्रामाण्यं निर्वत्येवेति भावः | अत्रेदमवधेयम् ' सासणं' इत्यत्र विशेष्यात्मक शासन पदोत्तरसि प्रत्ययार्थस्यैकत्वस्य साक्षात्सम्बन्धेन शासनपदार्थेऽन्वयाऽभ्युपगमे एकस्मिन्नेव शासने 'जिणाणं' इति बहुवचनमहिम्नाsने कजिन प्रणीतत्वमनिष्ट मापद्येतेत्यतो ' वेदाः प्रमाणम्' इत्यत्र विशेपणी भूतप्रमाणपदोत्तर सिप्रत्ययार्थैकत्वस्य सिप्रत्यय प्रकृत्यर्थतावच्छेदकं प्रमितिकरणत्वं यावः छन्दनिष्ठमेकमेवेति तत्रान्वयवत् 44 जात्याकृतिव्यक्तयः पदार्थः " इत्यत्र विशेषणीभूतपदार्थपदोत्तरसिप्रत्ययार्थैकत्वस्य सिप्रत्यय प्रकृत्यर्थतावच्छेदकं पदवाच्यत्वं जात्याकृतिव्यतिष्वेकमेवेति तत्रान्वयवच्च तस्य प्रत्येकजिनप्रणीतस्त्रीयत तच्छासनसमूह निष्ठे एकस्मिन् शासन पदार्थैकदेशे सिप्रत्यय प्रकृत्यर्थतावच्छेद के शासनत्वेऽन्वयः, तथा चैकत्वविशिष्टशासनः खेन रूपेण सजातीयं यच्छासनमतीतानागतवर्त्तमानं तत्सर्वं सकलरागादिदोषाऽपरामृष्टः जिनाभिहिताने कान्तात्मकार्थविषयक निश्चितप्रामाण्यकयथार्थप्रतीतिजनकत्वात् "सिद्धं” इति पदलब्धनिश्चितप्रामाण्योपेतमिति सिध्यति । अत एव " तत्वपर्यालोचनायां तु सूत्रार्थोमयरूपत्वादागमस्यार्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्रापेक्षया चानित्यत्वात् कथञ्चित् कर्तु सिद्धिः " इति प्रज्ञापनावृत्तिवचनाद् द्वादशाङ्ग्यात्मके शासनेऽर्थापेक्षयाऽनादिभूतेऽपि शब्दरचनापेक्षया सादिरूपे " जिणाणं " इति पदलब्धार्थेन जिनप्रणीतत्वेनैव सिद्धप्रमाणभावे
न प्रामाण्य प्रसाधनाय प्रमाणान्तरगवेषणा कार्या' इति दर्शितम् । कालत्रयावच्छिन्नशासनानां बहुस्वेsपि ' सासणं' इत्यत्रैकवचनं तु तत्तच्छासनोक्तार्थेषु सर्वजिना - नामवैमत्यतो वर्तमानतीर्थ करप्रणीतशासनस्याप्यतीतानागततत्तञ्जिनप्रणीत प्रष्यमाणद
گله
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सम्मति० काण्ड १, गा० १
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तच्छासनप्रतिपाद्यतच्चाभिन्नाऽन्यूनानधिकाऽवाघिततन्त्रप्रतिपादकत्वेन रूपेण तसच्छासनैस्सहा मेदसूचकमेवेति, अत एव महनीयमान्यगणधर श्री गौतमस्वामिप्रश्नोतररूपततत्सूत्रेषु मयैव नोच्यते किन्त्वर्थतोऽतीततीर्थ करैरप्येवं प्रोक्तम् उपलक्षणन्यायेनानागततीर्थकरैरप्येवं वक्ष्यते चेत्येवमर्थसूचकं " पनतं " इतिप्रभुश्री महावीर भगवता प्रोक्तमिति । " जिणाणं " इत्यत्र शासनत्वावच्छिन्नस्य तत्तच्छासनस्य तचजिन प्रणीतत्वप्रतिपादनाथ बहुवचनमिति । ननु शासनपदार्थैकदेशे शासनत्वे सिप्रत्ययार्थैकत्वान्वये कर्त्तव्ये सति " पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थैकदेशेन " इति व्युत्पत्तिविशेषप्रसङ्ग इति चेत्, दृष्टान्तद्वये सम्पन्नो व्रीहिरित्यत्र च दीयतां दृष्टिः उक्तदृष्टान्तद्वये पदार्थैकदेशे सिप्रत्ययार्थैकत्वस्यान्वयाभ्युपगमात् । सम्पन्नो व्रीहिरित्यत्रापि च सम्पश्याश्रयानेकव्रीहिष्वेकत्वस्य बाधेन श्रीहित्व एव त्रीहिपदोत्तर सिविभक्त्यर्थे कत्वस्यान्वयस्त्रीकाराश्च । अथ तत्रापि स्वाश्रयवच्त्रसम्बन्धेन सिप्रत्ययार्थैकत्वस्य सिप्रत्ययप्रकृत्यर्थ एवान्वयस्वीकारामोक्तव्युत्पत्तिविरोधप्रसङ्ग इति चेत् तर्हि प्रकृतेऽपीदृश्येव गतिरिति विभाव्यताम् । तथा चोक्तदृष्टान्तत्रयेsपि यथाक्रमं स्वाश्रयप्रमाकरणत्व-पदवाच्यत्व- व्रीहित्वद्वारैव वस्तुगत्या नानाविधप्रमाकरणपदवाच्यव्रीहिष्वेकत्वस्याऽन्वयस्वीकारवत् प्रकृतेऽपि स्वाश्रयशासनश्वद्वारैव परमार्थतस्तत्तरकालावच्छिन्नभिन्नभिन्नजिन प्रणीततत्तच्छासनेष्वेकत्वस्यान्वयस्वीकारात्तत्र सर्वत्र निश्चितप्रामाण्योपपत्तेर्न काऽपि क्षतिः । एतेन शासनत्वस्यात्रानुल्लिख्य. मानजातिरूपस्यान्वयितावच्छेद कशास नत्वत्वरूपेणानुपस्थितेस्तत्र न सिप्रत्ययार्थैकत्वस्यान्वय इत्यप्यारेका निरस्ता, शासनत्वेन रूपेणोपस्थिते शासनपदार्थ एवं स्वाश्रयवचरूपपरम्परासम्बन्धेन तस्यान्वयस्त्रीकारादिति । अथ तत्केषामित्यत आह-- “ जिणाणं " इति जिनानामिति, रागद्वेषादिरूपानरातीन् जयन्ति समूलकाएं कषन्तीति जिना:, तेषामू, यथा कृष्णस्य कृतिरित्यत्र " कर्तृकर्मणोः कृति " २-३-६५ इति पाणिनीयसूत्रेण कर्त्तरि षष्ठी तद्वच्छासनस्यापि कदन्तत्वात्तद्योगे ' जिनानाम् ' इत्यत्रापि कर्त्तरि षष्ठी, तथा च षष्ठयर्थस्याधेयत्वसम्बन्धेन प्रकृत्यर्थजिनान्वितस्य कर्तृत्वस्य निरूपकत्वसम्बन्धेन शासनेऽन्वयाद्यथा कृष्णस्य कृतिरित्यस्य कृष्णनिष्ठकर्तृतानिरूपककृतिरूपार्थपर्यवसायि कृष्णकर्तृककृतिरित्यर्थः ' तद्वद् जिनानां शासनमित्यस्य जिननिष्ठकर्तृत्वनिरूपकं शासनमित्यर्थपर्यवसायि जिनकर्तृकं शासनम्, अर्थतो जिनप्रणीतं शासनमित्यर्थः । यद्वा जिनानामित्यत्र सम्बन्धार्थे षष्ठी, सम्बन्ध कार्यकारणभावात्मकः तथा च स्वनिष्ठकारणतानिरूपित कार्यस्वसम्बन्धेन जिनसम्बन्धि, जिनप्रणीतमिति यावत्, अर्थतस्तदुपदिष्टत्वादिति भावः । ननु " सोऊण जिणवरमतं गणहारी काउ तक्खओवसमं " इति सूत्रकृताङ्गनिर्युक्तयमिधानाच्छ्री तीर्थंकर भगवद्भाषित " उप्पखेह वा विगमेह वा धुवेइ वा " इति मातृकापदत्रयश्रवणमात्रावासप्रकृष्टश्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमेन चतुर्दशपूर्वविदा श्रीगणधर
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धम्मति० काण्ड १, गा.. भगवता " श्रीवर्द्धमानात् त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशाऽपि, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ १॥ इत्युक्तेर्मुहर्तमात्रेण विनीतशिष्यः सुखग्रहणगुणनधारणनिश्चयायथं पद-वाक्य-प्रकरणा-ऽध्याय-प्राभृतादिनियतक्रमेण रचितं द्वादशाङ्गयात्मकश्रुतमेव शासनमिति तस्य शब्दरूपतया पौगलिकत्वेन विशरा. रुस्वभावत्वात्तदानीमेव विनष्टं तत् नैतावत्कालपर्यन्तं स्वस्वरूपेण सत्तामनुमवितुमर्हतीति कथमिदानीं तदेवास्तीति श्रद्धेयमिति चेत् यद्यपि गणधरभगवता सूत्ररूपेण प्रथितं द्वादशाङ्गयात्मकं वचनमिदानीं नास्त्येवेति सत्यमेतत् , तथापीदानीं तदनुवादे श्रुतज्ञाननिधानाचार्यमगवदनुक्रमेण पुनः पुनस्तदुच्चारणात्मकेऽनूद्यस्य भगवद्वचनस्य गणधरवचनस्य वाऽभेदोपचारादाप्तागमत्वं ज्ञेयम् , आगच्छत्याचार्यपरम्परया वासनाद्वारेणेत्यागमः शासनद्वादशाग्यपरपर्याय इति व्युत्पत्तेः । अभिहितश्च-तत्वार्थविवरणे " इदानींतनतदनुवादेप्यनूद्याभेदोपचारात्तथात्वं " इत्यादि । नन्वेवं तर्हि आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुध्यन्तेऽर्था अनेनेत्यागम इति व्युत्पच्याऽऽप्तवचनाजातं श्रोतुरर्थज्ञानमागम इत्यपि सिद्धान्ते गीयते, तत्कथमिति चेत् , उच्यते, मुख्यवृत्तिमाश्रित्यैव तत्राभिधीयते, अत्र तु श्रोतृज्ञानकारण. स्वादाप्तवचनस्य तद्रूपद्रव्यागमे कारणे भावागमरूपकार्योपचारं कृत्वैवागमत्वं प्रोक्तमिति, अत एव तातपादश्रीवादिदेवमूरिभिः--
"आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः ॥ ४।१।
उपचारादाप्तवचनश्च ॥ ४।२।" इत्युक्तमपि सङ्गच्छते । ननु मुख्यार्थबाधे उपचारः प्रयोजने सति क्रियत इत्यत्रोपचारप्रयोजनं किमिति चेत् , उच्यते, शिष्याणामविच्छिन्ननिराबाधश्रद्धोत्पादनफलमेव लक्षणाबीजमिति जानीहि ।
नन्विदं शासनं जिनप्रणीतमित्यत्र किमानमित्यत आह-"सिद्धत्थाणं" इति । सिद्धाः प्रमाणान्तरसंवादतो निश्चिता येऽर्था नष्टमुष्टिचिन्तालामालाभसुखासुखजीवितमरणाहोपरागमन्त्रौषधादयस्तेषामित्यर्थः, अत्र षष्ठयर्थः प्रतिपादकत्वम् , तत्र प्रकृत्यर्थस्य सिद्धार्थात्म कस्य स्वनिष्ठप्रतिपाद्यतानिरूपितत्त्वसम्बन्धेनान्वयः, तस्य चाश्रयत्वसम्बन्धेन शासनेऽन्वयः, इदश हेतुविधया विशेषणम् , तथा चेदं शासनं प्रमाणान्तरसंवादियथोक्तनष्टमुष्ट्यादिसूक्ष्मा: न्तरितार्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तिहेतोर्जिनप्रणीतमेवाऽभ्युपगन्तव्यम् , यन्नैवम् तन्नैवम् , यथा. परकल्पितदर्शनान्तरम् , न चात्र व्याप्तिनिश्चायकदृष्टान्तान्वेषणं कर्चव्यम् , मीमांसकाभ्युपगतार्थापत्ताविवास्मिन्ननुमाने साध्यधर्मिण्येव व्याप्तिनिश्चयात् , न चै त यं हेतुस्सपक्षसत्वरूपामावात्सद्धेतुन स्यादिति वाच्यम् , निश्चितान्यथाऽनुपपत्तिनियमादेव हेतो. र्गमकत्वोपपत्तेौद्धाभ्युपगतस्य त्रिरूपस्य नैयायिकाद्यभ्युपगतस्य पश्चरूपस्य च तत्रा. किश्चित्करत्वात् , अत एव श्रीमद्वादिदेवसरिभगवद्भिः-निश्चितान्यथानुपपश्येकलक्षणो
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उपचार
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सम्मति० का १, गा. हेतुरिति ॥३॥ ११॥ न तु त्रिलक्षणकादिरिति ॥ ३॥ १२॥ तस्य हेत्वाभासस्यापि सम्भवादिति ॥३॥ १३ ॥ इति निष्टङ्कितं सङ्गच्छते । उक्त पात्रस्वामिनाऽपि-- .
" अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १॥" इति । एतच्चाने विवेचयिष्यते । ननु जिनप्रणीतत्वात्तच्छासनं यथा निश्चितप्रामाण्य तथा सुगतकपिलादिप्रणीतत्वादपि तच्छासनं तथाभूतं किन्न स्यादित्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह-यद्वा जिनशासनविपक्षभूतं यद्यच्छास्त्रं तत्तद्गतप्रामाण्यनिरासे सत्येव तत्प्रामाण्यं निरावा निश्चीयेत, अनेकान्ततत्वप्रतिपादकजिनशासनप्रतिपक्षभूतश्चैकान्ततस्त्रप्रतिपादकं बौद्धकापिलादिशात्रमित्यतस्तत्प्रामाण्यनिरासपूर्वकतत्प्रामाण्यनिश्वयार्थ शासनविशेषणमाह "कुसमयविसासणम्" इति । कुत्सिताः प्रमाणबाधितकान्ततत्वप्रतिपादकत्वेन समया बुद्धकपिलादिप्रणीत. सिद्धान्ताः कुसमया, तेषां विशासनं विपरीतं शास्यते दृष्टेटविषये विरोधायुद्भावकत्वेनाऽप्रामाण्यं ज्ञाप्यतेऽनेनेति विशासनम् , कुसमयविशेष्यकाऽप्रामाण्यप्रकारकं एते कुसमया अप्रमाणभूता इत्याकारकं यत्कुसमयेष्वप्रामाण्यज्ञानं तत्करणमित्यर्थः। तथा च बौद्धकापि. लादिशासनं न निश्चितप्रामाण्यकं दृष्टेष्टविषये प्रमाणवाधितैकान्त तत्वप्रतिपादकत्वात् , यद्यद्वचनं दृष्टेष्टविषये प्रमाणवाधितार्थविषयकं तत्तद्वचनं न निश्चितप्रामाण्यकम् , असम्बद्ध प्रलाप्युन्मत्तवचनवत्, किन्तु प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणाबाधितभिन्नापेक्षतत्तदभावधर्मविशिष्टवस्तुप्रतिपादकत्वात् शाखावच्छिन्नपिसंयोगप्रकारकमलावच्छिन्नतदभावप्रकारका वृक्षविशेष्यकप्रतिपत्तिजनकशाखावच्छेदेन वृक्षः कपिसंयोगी न तु मूलावच्छेदेनेति वाक्यवजिनशासनमेव निश्चितप्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् । यद्वा ननु दूरान्तरितसूक्ष्मवादरव्यव. हिताव्यवहिताद्याः सर्वेऽपि पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा ज्ञेयत्वात्प्रमेयत्वाद्वस्तुत्वाद्वा घटादिव. दित्यनुमानेन ज्ञानप्रकर्षतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तारतम्यत्वात् महत्त्वपरिमाणाणुपरिमाणादिप्रकर्षतारतम्यवदित्यायनुमानेन वा सर्वज्ञस्य सिद्धावपि सर्वज्ञ आगमकर्ता भवत्येव सर्वज्ञो विशिष्टमर्थमुपदिशत्येवेति नियमासिद्धौ न सर्वज्ञत्वाकलिते पुरुषधौरेये आगमप्रणेतृत्वं सिद्धिपथमुपयाति, न च सर्वज्ञस्यागमप्रणेतृत्वसिद्धिमन्तरेण सर्वज्ञप्रणीतत्वमागमस्य प्रकृतस्य सिद्ध्यति, न च सर्वज्ञप्रणीतत्वमन्तरा निश्चितप्रामाण्यकत्वलक्षणं स्वतः सिद्धत मागमस्योपपत्तिपद्धतिमेति । यदि केनापि हेत्वन्तरेणागमप्रणेतृत्वमपि सर्वज्ञस्य सिख्यत्येव सदा स हेतुरभिधातव्य एव केनचिद्वचनेन, ज्ञातस्यैव हेतोस्साध्यसाधनपटिष्ठत्वात् , तथा च तादृशहेतुतत्परिकरशुद्धयादिप्रतिपादकवचनसन्दर्भलक्षणप्रकरणस्यापेक्षितत्वे तदुद्भावना यासोऽनायासेनैव सिद्धः प्रतिपादनगौरवफलको न निरोढुं शक्य इति चेत् ,सत्यं, प्रकारास्ता रेण सर्वज्ञसाधने स्यादेवैष उपालम्मः, न त्वेवम् , किन्तु यस्य शासनविशेषलक्षणस्य वचनस्य
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सम्मतिः काण्ड १, मा० . येन पुरुषधौरेयेण करणं तत्कतकतया च प्रामाण्यं स पुरुषधौरेयस्तेनैव वचनविशेषेण लिङ्गभावमापद्यमानेन सर्वज्ञतया सिद्ध्यति, तथाहि अस्मदादिभिः पृथिव्याः काठिन्यादिक साक्षात्कृत्य कठिना पृथ्वीत्यादि वचनमुचार्यते, न चास्मदादिकर्तारमन्तरेणैव तादृशवचनविशेष उपजायते, वैशिष्ट्यं चोक्तचनस्य स्वविषयाविसंवादित्वाऽऽलिङ्गपूर्वकत्वानुपदेशपूर्वकस्वानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वध:, तथाविषश्चोक्तवचनं स्वप्रतिपाद्यार्थसाक्षात्कार्यस्मदादिज्ञानप्रभवं यथा तथा नष्टमुष्टिचिन्तालाभालामसुखासुखजीवितमरणग्रहोपरागमन्त्रौषधशत्यादीनां स्वस्वप्रतिनियतकार्यकारणत्वेन स्वस्त्रप्रतिनियतकारणकार्यत्वेन च प्रतिपादक प्रकृतशासनमपि स्वविषयाऽविसंवादित्वाऽलिङ्गापूर्वकत्वानुपदेशपूर्वकत्वानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वधर्मविशिष्टं स्वप्रतिपाद्यनष्टमुष्टाद्यर्थसाक्षात्कारिपुषधौरेयज्ञानप्रभवम् । अनुमानप्रयोगश्च यो यद्विषयाविसंवाधलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वको वचनविशेषः, स तत्साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवः, यथाऽस्मदादिप्रवर्तितः पृथ्वीकाठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचनविशेषः, नष्टमुष्टिविशेषादिविषयाविसंवायलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचनविशेषश्चायं शासनलक्षणोऽथे इति । यथैव नष्टमुष्ट्यादयोऽर्थाश्शासने प्रतिपादितास्तथैव ते प्रमाणान्तरेणोपलभ्यन्त इति तत्प्रतिपादकस्य शासनस्याविसंवादित्वं, सम्यगर्थपरिज्ञानसामग्रीवैकल्यतो विसंवाद आपाततः कस्यचित्स्फुरन्नपि नाविसंवादप्रतिरोधी, तस्य शासनवचनाऽसत्यार्थस्वाप्रयुक्तत्वात् । चन्द्रैकत्वप्रत्यक्षस्य भ्रान्तद्विचन्द्रप्रत्यक्षेण विसंवादवत् , अतीन्द्रियैर्नष्ट. मुष्ट्यादिभिस्सममविनाभूतस्य लिङ्गस्याप्यस्मदायक्षाविषयत्वान्न लिङ्गप्रभवत्वमपि तत्प्रतिपादकशासनस्येत्यलिङ्गप्रभवत्वं, यो हि लिङ्गमतीन्द्रियं साक्षात्कर्तुमीशः स नष्टमुष्ट्यादिकमपि साक्षात्कर्तुं समर्थ इति तत्साक्षात्कारिज्ञानप्रभवत्वमेव तस्येति । उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे वक्तुरज्ञानदुष्टाभिप्रायवचनाकौशलादिदोषैः श्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्वविपर्यस्तबुद्धित्वगृहीतविस्मरण. स्वादिदोषैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यानादौ काले मूलतश्विरोग्छेदे एतावन्तं कालमागमनमेव न भवेदत उपदेशपरम्पराअभवत्वादेवान्तरातरा विच्छिन्नस्यापि नष्टमुट्यादिप्रतिपादकस्यास्य सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता पुरुषविशेषेणाभिव्यक्तस्यैतावत्कालमागमनमिति भवत्यनुपदेशपूर्वकत्वम् , अनियतदिक्प्रमाणफलकालादीनां ग्रहोपरागादीनां रसकल्कादिभेदतः कर्षादिमात्राभेदतो बालमध्यमाद्यवस्थाभेदतो मूलपत्राद्यवयवभेदतो विभिन्नानेक. योगसम्पर्कजानल्पविजातीयरोगोपशमनशक्तिशालिनीनामौषधीनाञ्च शासनप्रतिपाद्यानाम. न्वयव्यतिरेकाभ्यां युगसहस्रेणाऽप्यसर्व रस्मदादिमि तुमशक्यानां प्रतिपादकस्यास्य शासनस्यानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वमपि सिद्धिपथमवतरत्येवेत्युपदर्शितार्थनिकरसंसूचनाभिप्रायवान सरिराह-कुसमयविसासणम् इति-अत्र समयानां विशासनं समयविशासन, कुरिव समयविशासनं कुसमयविशासनमिति समासः,कुपदमत्र लक्षणया पृथिवीशासनार्थकम् ,
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पम्मतिः काण्ड १, मा.. समयपदश्च सम्यक्प्रमाणान्तराविसंवादित्वेने यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति समया इति व्युत्पत्या प्रमाणान्तराविसंवादिपरिच्छेदविषयपरम्, ते च विषयाः प्रकृते नष्टमुष्टिचिन्तालाभालामसुखासुखजीवितमरणग्रहोपरागमन्त्रौषधशक्त्यादयः, विशासनमित्यत्र विरुपसर्गश्च विविधार्थकः, विविधश्च प्रकृते अन्यपदार्थकारणत्वेनान्यपदार्थकार्यत्वेन चानेकप्रकारमित्येवं स्व. रूपम् , शासनपदश्च प्रतिपादकपरम् , उपमानभूतं पृथिव्याश्शासनश्च पृथ्वीकाठिन्यादि. प्रतिपादकवचनविशेषरूपम् , उपमानोपमेयभूतयोः पृथ्वीशासनसमयविशासनयोः सादृश्यश्च प्रकृते स्वविषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्धयव्यतिरेकपूर्वकत्वस्वविषयसाक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवत्वरूपसाधारणधर्माभ्याम्, तत्र पृथ्वीकाठिन्यादिप्रतिपादकवचनविशेषे उपमानभूतपृथ्वीशासने निरुक्तधर्मद्वयं सिद्धं वादिप्रतिवादिनोः, उपमेयीकृते प्रकृतशासने तु पूर्वोक्तयुक्त्या स्वविषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वं सिद्धम् , स्त्रविषय. साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवत्वन्तु विप्रतिपन्नम् , तदपि सिद्धेनोक्तधर्मेण स्वाविनाभूतेन सिध्यत्येवेति गाथासूत्राययवेन 'कुसमयविसासण'मित्यनेन सुसूत्रितम्भवत्यवतरणोपदर्शित. मर्थनिकुरम्बमिति । अथ " कर्म-क्लेश-विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" [योगद. पा. १, सू. २४] इति सूत्रोक्तलक्षणलक्षितः "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, ऐश्वर्यञ्च जगत्पतेः। वैराग्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥" इत्यभियुक्तोक्त्यनुसारिस्वभावसिद्धज्ञाने. श्वर्यवैराग्यधमैतचतुष्टयविशिष्ट ईश्वर एवं शासनप्रणेता, तेनानादिसर्वेक्षेन सर्वजगत्स्रष्ट्रा प्रणीतत्त्वाच्च तत्प्रमाणम् , न तु रागद्वेषादीन् शत्रून् जितवन्त इति जिना इति व्युत्पत्तिसिद्धलक्षणलक्षितः सामान्ययोगी तत्प्रणेतेति ये पातञ्जलनैयायिकादयो मन्यन्ते तन्मतनिरासायाह- भवजिणाणं' भवजिनानाम् । भवन्ति नारक-तिर्यग्-नरामपर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः संसारः, तद्धेतुत्वाद्रागद्वेषादयो भवशब्देनोपचाराद् विवक्षिताः, तान् जितवन्त इति भवजिनास्तेषाम् , उपचाराश्रयणे किं बीजमिति चेत् , उच्यते, न ह्यविकलकारणे रागादावध्वस्ते तत्कार्यस्य संसारस्य जयः शक्यो विधातुमिति प्रतिपादनमेव । यतो दृढतमनिरन्तराभ्यस्तानित्यत्वादिद्वादशभावनाद्यात्मकेन रागादिजयोपायेनैव पुरुषविशेषे निश्शेषरागादिजयस्स्यात, न तु स्वभावत एव, न [पायव्यतिरेकेणोपेयसिद्धिः, अन्यथोपेयस्य निर्हेतुकत्वेन देशकालस्वभावप्रतिनियमो न स्यादिति सर्वप्राणिनामीश्वरत्वं न वा कस्यचित्स्यात् । तदुक्तं धर्मकीर्तिनाऽपि
" नित्यं सत्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ।
अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः ॥१॥" इति तन्न रागादिक्लेशविगमः स्वभावत एवेश्वरस्येति युक्तमिति । अथ यस्य देशतः क्षयो दृश्यते तस्य सर्वथाऽपि क्षयः, दिनकरनिकरनिरोधकनवीननीरदमालावत् , देशतो रागादि
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सम्मति० काण्ड १, गा० १
क्षयो दृश्यते तत्तत्पुरुषेष्विति सर्वथाऽपि कस्मिँश्चिदपि पुरुषधौरेये रागादिक्षयस्सम्भाव्यत एवेति यः पुमान् पूर्व रागादिमान् स्यात् तस्मिन्नुक्तोपायेन तद्विगमो युक्त एवेति को न स्वीकुरुते १, ध्वंसस्य सहेतुकत्वात्, पुरुषविशेषे ईश्वरे तु सर्वथा रागात्यन्ताभाव एव न तु पूर्व रागः पश्चात् तद्धंस इति रागत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्यानादिसंसिद्धस्य तत्र कालत्रयेऽपि सच्चे बाधकाभाव एव, रागादिकालीनत्वाभावविशिष्टश्वरात्मकतदीयस्वरूपसम्बन्धस्य सच्चैन सम्बन्धिनोऽत्यन्ताभावस्यापि तत्र सच्चात्, तादृश एव कर्मक्लेशाद्यभावः पूर्वोक्तपातञ्जलसूत्रे अपरामृष्टपदेन विवक्षितः, न तु कर्मक्लेशादिध्वंसरूप इति चेत्, मैवम्, ईश्वरात्मकस्य धर्मिण एवासिद्धौ तद्धर्माणां तादृशरागात्यन्ताभावादीनां सुतरां कल्पयितुमशक्यत्वात् । विमतं क्षित्यङ्कुरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवदित्यनुमानेनेश्वरधर्मिसिद्धिरिति चेद्, यदि कार्यत्वेन हेतुनेश्वरस्साध्येत तर्हि तस्य रागादिदोषवचमपि स्यादेव, दृष्टानुसारिणी कल्पना न तु यथा कल्पना तथा तत्त्वव्यवस्था, कल्पनाया निरङ्कुशत्वेन arsonवस्थाप्रसङ्गादित्यर्थकेन दृष्टानुसारिणी हि कल्पना न तु कल्पनानुसारिणी दृष्टिरिति न्यायेन सर्वस्य कुम्भकारादेः कर्तुर्दोषग्रस्तस्यैव दृष्टत्वेनेश्वरस्यापि तद्वत एव सिद्धेः, यो यो विषमकारी स स दोषवानिति व्याप्तिमूलकात् 'ईश्वरो दोषवान् विषमकार्यकारित्वात् अस्मदादिवदित्यनुमानादपि हीनमध्यमोत्तमभावेन प्राणिभेदान् विदधति त्वन्मतसिद्धे ईश्वरे रागद्वेषादिदोषवश्वसिद्धेश्व, न चोक्तानुमाने ईश्वर एव व्यभिचार इति वाच्यम्, यतः पक्षीभूते तत्र न व्यभिचारप्रदर्शनं युक्तम्, पक्षे पक्षसमे वा न व्यभिचार इत्यभियुक्तोक्तेः । व्यभिचारस्थलान्तरन्तु नास्त्येव । दोषवत्येव विषम कार्यकारित्वस्य othsनुभूयमानत्वेन दृष्टविरुद्धकल्पनाया अप्रामाणिकत्वेनात्र व्यभिचारशङ्काऽपि न युक्तियुक्तेति । न चात्र पर्वतो वह्निमान् धूमात् महानसवदित्यनुमानाद् वह्निसिद्धौ पक्षधर्मताबलाद् यथा पर्वतीयस्यैव वस्सिद्धिस्तथोक्तानुमानादपीश्वरसिद्धौ पक्षधर्मताबलान्निर्दोषस्यैवेश्वरस्य सिद्धिस्स्यादिति तेन न रागादिदोषवच्त्रस्य प्रसङ्ग इति शङ्कचम्, क्षित्यङ्करादिरूपे पक्षेईश्वरमात्रसाधनेनैव तस्यानुमानस्य चरितार्थत्वेन तत्र निर्दोषत्वादिधर्मस्यापि साधने उदासीनत्वात्, पर्व वहून्यनुमानस्य पक्षधर्मताबलात्पर्वतीय वह्निसाधकत्वेनैव चरितार्थत्वाचगतोष्णत्वादिधर्मसाधने उदासीनत्ववत्, न चोत्कर्षसमा जातिरियम्, सा च साध्याऽव्यापकस्य दृष्टान्तगतस्य धर्मस्य पक्षे आपादनलक्षणा, यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्यत्र कृतकत्वहेतुना यदि घटवच्छब्देऽनित्यत्वं साध्येत तर्हि तेनैव हेतुना शब्दे सावयवत्वमपि स्यात्, अत्रानित्यत्वापेक्षया सावयवत्वस्याव्यापकत्वम् गन्धादावनित्यत्वस्य सच्चेऽपि सावयवत्वाऽभावात् तथाsत्रापि सकर्तृकत्वापेक्षया दोषवत्कर्तृकत्वस्याप्यव्यापकत्वमेव, क्षित्यादौ कर्तृकत्वस्य सच्वेऽपि दोषवत्कर्तृकत्वस्याभावात्, तस्यैव च दोषवत्कर्तृकरवस्य क्षित्यङ्करादौ भवताssपाद्यमानत्वादिति वाच्यम्, निर्दोषस्य कर्तुः क्वचित्सिद्धौ सत्यमेव
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सम्मति० का १, ०१
दोषवत्कर्तृकत्वस्य कर्तृकत्वाव्यापकत्वमपि सम्भवेत्, तदेव स्वद्यापि न क्वचित्सिद्धं, सर्वस्य कर्तुर्दोषवत एव दृष्टिगोचरत्वादिति दोषवत्कर्तृकत्वं सकर्तृकत्वव्यापकमेवेति व्यापकधर्मापादनादुक्तलक्षणाया उत्कर्षसमाया जातेरत्राप्राप्तेः, रागद्वेषादिदोषाभावे तत्र सदोषत्वव्याप्य विषमकर्तुत्वमपि न स्यात्, व्यापकाभावे व्याप्याभावस्यावश्यम्भावात् । प्राणिगत विविधकर्मप्रेरित ईश्वरो विषमफलान् प्राणिनः करोति, न स्वेच्छयेति विषमफलकारित्वेऽपि न सदोषत्वप्रसङ्ग इत्यपि न च वाच्यम्, जडस्य कर्मणः प्रेरकत्वाऽयोगात्, न वेश्वरप्रेरितं कर्म ईश्वरस्य प्रेरकमिति वाच्यम्, कर्मेश्वरयोः प्रवर्त्त्यप्रवर्त्तयितृत्वे इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्, अथातीतकर्मणा प्रेरित ईश्वरो वर्त्तमानं कर्म तत्फलाय प्रेरयतीत्यनादिस्वात् प्रेर्यप्रेरक भावस्य नानुपपत्तिरित्यपि नाशङ्कनीयम्, यतोऽतीतकर्मणोऽपि जडत्वा नेश्वरप्रेरकता, न च तदपीश्वरेण प्रेरितं सदीश्वरं प्रेरयतीत्यपि वाच्यम् उक्तान्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । अथ ततोऽप्यतीत कर्मप्रेरितेश्वरप्रेरितं तदेवेश्वरं वर्त्तमाने कर्मणि फलदानाय प्रेरयतीति चेत्, न मानहीनाया मूलक्ष्यावहाया अनवस्थायाः प्रसङ्गात् । किश्वेश्वरस्य कर्मप्रेरितत्वाम्युपगमे कर्माधीनप्रवृत्तिकस्स स्यादिति तस्य कर्मपरतन्त्रत्वापच्या स्वतन्त्रतैव हीयेत, एवश्च रथ्यापुरुषवदनीशतैव स्यात् । किश्वेश्वराभ्युपगमोऽप्यत्र पक्षे न घटते, यतः कर्मैव तत्तत्कालक्षेत्राद्यपेक्षतत्तत्फल प्रदानोन्मुखं विचित्रां त्रिलोकीं करिष्यति । नन्वचेतनं चेतनानधिष्ठितं न क्रियायां प्रवर्त्तत इति नियमात्कर्मप्रेरितेश्वरप्रेरितमेव कर्म विविधकार्यकरणे समर्थं नान्यथेति चेत्, मैवम् उक्तनियमे प्रमाणाभावात् । यत्तु फलदाने ईश्वरस्य कर्म निमित्तमात्रम्, न प्रेरकमिति नोक्तदोष इति, तदपि न विद्वन्मनोरञ्जकम्, तत्तत्प्राणिभिस्तत्तद्विषयकर्माणि कारयितुरीश्वरस्य रागादिदोषवच्चानपायात् पूर्वकर्मापेक्षया कर्मकारयितृत्वे चोक्ताऽप्रामाणिकाऽनवस्थादोषतादवस्थ्यात् । अपि च न हि कश्विददोषप्रयुक्तः स्वार्थे परार्थे वा प्रवर्त्तमानो दृश्यते, स्वार्थे प्रवृत्त एवं च सर्वो जनः परार्थेऽपि प्रवर्त्तते, तथा च ईश्वरः स्वार्थरागादिमान् प्रवर्त्तकत्वात् सम्मतपुरुषवदित्यनुमानेन रागादिमन्त्रं सिद्ध्यति, तदसिद्धौ चेश्वरस्याऽनीश्वरत्वप्रसङ्गः । न चोक्तानुमाने कारुणिके व्यभिचार इति वाच्यम्, परदुःखप्रयुक्तस्वदुःखनिवृत्यर्थित्वात्तस्य । तथा च कारुणिके स्वदुःखनिवृत्तिरूपस्वार्थसद्भावेन व्यभिचारो नेति भावः । अथोदासीन एवेश्वरः प्रवर्त्तक इति तु व्याघातदोषग्रस्तत्वान्नैव युक्तम्, एतेन क्रीडायै ईश्वरो जगत्सर्जने प्रवर्त्तत इत्यपि निरस्तम्, क्रीडायासदोषत्वव्याप्यत्वेन तदर्थं प्रवर्त्तकत्वे तस्य सदोषत्वप्रसङ्गात् या या क्रीडा सा सा दोषजन्येति व्याप्तावीश्वरक्रीडाभिन्नत्वे सतीति विशेषणदानमप्यद्यापीश्वराऽसिद्वयाऽसम्भवदुक्तिकम् | क्रीडायां जन्यत्वविशेषणमपि नोचितम् इतरावारकत्वात्, तनिवर्याया नित्यलीलाया अद्यापीश्वराऽसिध्धेरसिद्धत्वात् । एतेनेश्वरः करुणयैव प्रवर्त्तत इत्यपि पक्षो निरस्तः, यतः कारुण्यामृतपूरष्ठावितस्सोऽनुपमसुखाभिमन्नान् प्राणिनो विदध्यात्, न तु विविधाधि
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सम्मति. काण्ड , गा.. व्याधिदुःखाभिभूतान् , यदभिहितम् " सृजेच शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः" इति । केषांचिजन्तूनां परमसुखभाक्त्वेन केषाश्चिञ्चातिदुःखभाक्त्वेनोत्पादने विषमप्रवृत्तिप्रसङ्गतः कारुण्यं नाममात्रावशेषं स्यात् । उक्तञ्च स्याद्वादरत्नाकरे"क्षुद्रग्रामे निवासः कचिदपि सदने रौद्रदारिद्रयमुद्रा, जाया दुर्दर्शकाया कटुरटनपटुः पुत्रिकाणां सवित्री। दुःस्वामिप्रेष्यभावो भवति भवभृतामत्र येषां बतैतान् , शम्भुर्दुवैकदग्धान सृजति यदि तदा स्यात्कृपा कीदृगस्य ? ॥१॥" इति अत एवेश्वरस्यापरम्पारलीलेति तयैव जगत्सर्जने प्रवर्तत इत्यपि वार्तम् , लीलाया दोषविलासरूपत्वेन दोषाक्रान्तत्वं स्यात्तस्य, स्वेर्जगत्प्रकाशने स्वभाववदीशस्य स्वमावादेव जगत्सृष्टौ प्रवृत्तिरित्यपि न विद्वन्मनोरञ्जकम् , यत ईश्वरे स स्वभावः प्रतिनियतदेशकाला. धधिकरणकप्रतिनियतस्वस्त्रासाधारणधर्मविशिष्ट कार्यजननात्मक एवाभ्युपगन्तव्यः । अन्य थानियतदेशकालकार्योत्पत्तिप्रसङ्गः कथमुद्धरणीयस्स्यात् , तारस्वभावो विचित्रविपाके तसत्प्राणिविविधकर्मण्येवाऽभ्युपगम्यताम्। तथा च चेतनानधिष्ठितेनापि तत्तजीवकर्तृकेन कर्मणैव तत्तत्स्वभावमलात्रिलोकीकार्य भविष्यतीति किमीश्वरकल्पनापरिक्लेशेनेति । एतेनेश्वरस्य यथेच्छं जगत्सृष्टी प्रवृत्तिरित्यपि निरस्तम् , इच्छाया मोहजन्यत्वेनेश्वरे रागादिमत्त्वं स्यात् । जगद्विधायकेश्वरनिरसनं विस्तरेणास्मत्कृततत्वार्थविवरणटीकायां विहितमिति तत एव तद्विस्तरार्थिनाऽवलोकनीयम् , ग्रन्धगौरवभीत्या नेहाधिकं प्रपश्यत इति, तदेवं लोके रागादिमन्त एव कर्त्तारो दृष्टा इति तादृशस्यैव जगत्कर्तुरीश्वरस्य सिद्धिस्स्यादिति तस्य विपक्षभावनाभ्यासेन रागादिजये सत्येव शासनप्रणेतृत्वं सिध्यति, नान्यथेति भव: संसारः तब्धेतुत्वाद्रागादिकं जितवन्त इति भवजिना इति सिद्धम् । " भवजिनानाम् ". इत्यत्र भवे जिनाः भवजिनास्तेषाम् , लुप्तसप्तम्या आधेयत्वार्थकत्वेन भवस्थजिनानाम् भवस्थकेवलिनाम् , यद्वा भवे वर्तमाना भववर्तमानाः, भववर्तमानाश्च ते जिना भवजिना इति मध्यमपदलोपिसमासस्तेषामित्यप्यों ज्ञेयः। अथ यद् यस्य कारणं तद्विपक्षासेवनेन सर्वथा तनिवृत्तौ तत्कार्यस्याप्यभावः, यथा विकृतिभावापन्न श्लेष्माद्यात्मककारणस्य तद्वि. पक्षौषधोपचारतः सर्वथा निवृत्तौ तत्कार्यभूतविशिष्टशिरोऽायभावः तथा भवकारणस्य रागादेस्तद्विपक्षदृढावस्थापनसुविशुद्धाऽध्यात्मभावनातस्सर्वथा निवृत्ती तत्कार्यभूतस्य भवस्याभावस्स्यादिति तल्लक्षणमुक्त्यवाप्तौ सत्यां सर्वथा रागादिनिवृत्तिलक्षणरागादिजयवतां जिनानां शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, मुक्त्यवस्थायां जिनानामशरीरत्वेन शासनस्य च शब्दात्मकत्वेन तत्कारणताल्वादिसंयोगादेरभावात् , अथ सर्वथा रागादेन निवृत्तिरिति मुक्त्यवाप्तेः प्रागेव जिनानां शासनप्रणेतृत्वानोक्तदोष इति चेत्, तर्हि रागलेशाश्लिष्टत्वेन
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सम्मति० काण्ड १, गा, तेषां सर्वथाऽऽप्तत्वं नेति तत्प्रणीतशासनस्य नैकान्तिकं प्रामाण्यं स्यात्, कपिलादिप्रणीतशासनस्येवेत्याशङ्कयाह सूरिः-"ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं" इति । अयम्भाव:पात्यघातिभेदेन कर्म द्विविधम् , तत्राद्यस्य ज्ञानावरणीयादिभेदेन चतुर्विधस्याऽऽत्मीयानन्तज्ञानादिचतुष्टयावारकस्य मध्ये क्षपकश्रेणिमारुह्य शुक्लध्यानस्य
" सविआरमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं ।
होइ पुहुत्तविअक्कं, सविआरमरागभावस्स ॥ ८० ॥" इति ।। ध्यानशतकग्रन्थसत्काशीतितमगाथोक्तलक्षणेन पृथक्त्ववितर्कस विचाराख्याधभेदेन प्रायः पूर्वधरनिषेव्येण निश्शेषमोहनीयकर्मणोऽचिन्त्यसामर्थ्यस्य महाशैलूषोपमस्य क्षये कुते तदनन्तरं तस्य ।
"जं पुण सुनिष्पकंप, निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायटिइभंगा-इयाणमेगम्मि पलाए । ८१ ।। अवियारमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं वियसुकं ।
पुव्वगयसुआलंषण-मेगत्तविअकमवियारं ।। ८२ ॥" इत्युक्तलक्षणेनैकत्ववितर्काऽविचाराख्यद्वितीय भेदेनाकषायछमस्थवीतरागगुणस्थानभूमिकेन क्षीणमोहगुणस्थानान्त्यसमये ज्ञानावरणादिधातिकर्मत्रये युगपत्क्षपिते सति तदनन्तरं
" सुज्झाणाइ दुगवोलीणस्स ततियमपत्तस्स एताए।
झाणंतरियाए वट्टमाणस्स केवलनाणं समुप्पज्जह ॥ १ ॥" इति सिद्धान्तवचनाद् ध्यानान्तरकाले सयोगिगुणस्थानकायसमयेऽनन्तज्ञानादिचतु. ष्टयावातावपि द्वितीयभेदरूपापातिकर्मणो भवोपग्राहिणो यात्रस्थितिस्तावन शरीरनिवृत्तिा, अत एव न मुक्तिः, जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्र्तमुत्कृष्टतो देशोनां पूर्वकोटिं यावत् केवलिमगवतां भव्यजनप्रतिबोधनार्थमस्खलत्प्रवृत्तिभावात् , ततः परं ।
"निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स।।
सुहुमकिरियाऽनिअहि, तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ ८३ ॥” इति इति ध्यानशतकवचनात्त्रयोदशगुणस्थानकान्त्यान्तर्मुहूर्त्तकाले मुक्तिसाक्षात्कारणस्य शुक्लध्यानस्य सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्त्याख्यत्तीय भेदे तेन भगवता ध्याते सति तदनन्तरं
" हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति ।
अत्थइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥" विशेषावश्यकभाष्यवचनात् अ इ उ ऋल पंचइस्वस्वरकालमानचतुर्दशाऽयोगिगुणस्थानके
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सम्मति० काण्ड १, गा..
तस्सेव य सेलेसिं, गयस्स सेलेसु व निप्पकंपस्स ।
वुच्छिन्नकिरियमप्पडि-वाई झाणं परमसुकं ।। ८४ ॥ इति ध्यानशतकग्रन्थवचनात् " खुच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालम्मि"।३०६९। इति विशेषावश्यकभाष्यवचनाच सर्वयोगनिरोधाचं शैलेशीकाले व्युपरतक्रियाऽप्रतिपात्याख्यचतुर्थभेदेनाशेषभवदुःखविटपिदावानलकल्पनाशेषमवोपग्राहिकर्मक्षये कृते सत्येव तस्य भगवतो मुक्तौ गमन मिति भवोपग्राहिकर्मकार्यभूतशरीरमुखादेर्भवस्थसयोगिजिने सद्भावेन न तस्य शासनप्रणेत्त्वानुपपत्तिः, न वा रागादिलेशसद्भावाभावादाप्तत्वक्षतिरिति नासमुख्ये शासनप्रणेतरि जिने अयथार्थवाक्यकारणस्य मिथ्याज्ञानस्य सर्वथैव निवृत्तेस्त. त्प्रणीतशासनस्याऽप्रामाण्यमपीति । अवयवार्थस्त्वेवम्-तिष्ठन्ति सकलकर्मक्षयावाप्ताऽनन्तज्ञानसुखरूपाध्यासिताश्शुद्धात्मानोऽस्मिन्निति स्थानं लोकाग्रलक्षणं विशिष्टक्षेत्रम्, न विद्यते उपमा इन्द्रियविषयायनपेक्षतया स्वाभाविकात्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन च सर्वसुखातिशायित्वाद्यस्य तदनुपमम् , अनुपमं सुखमखण्डानन्दरूपं यस्मिस्तत् तथा, तत् 'उप' इति कालसामीप्येन गतानाम् प्राप्तानाम् । यद्वा ' उपोढः प्रकर्षण प्राप्तो रागो येन स उपोढरागः, तेन इत्यर्थक 'उपोढरागेण' इति यद्वाक्यं तद्गतोपशब्दवत् 'उप' इति उपसर्गोऽत्र प्रकर्षवाची, तेन स्थानमनुपमसुखं प्रकर्षण गतानामिति । यद्यपि वेद्यमानतीर्थकरनामकर्मादिसद्भावेन भवजिनभगवन्तो लोकाग्रलक्षणं विशिष्ट स्थान न समुपागतास्तथापि " परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि तमर्थ गमयन्ति" इति न्यायादनुभूयमानतीर्थकृनामकर्मलेशसद्भावेऽपि तद्गता इव गता इत्युक्ताः, तेषाम् , तेन शासनप्रणेतृत्वं तस्यामवस्थायां तेषामुपपन्नमेव" यद्वा तिष्ठत्यनवस्थाननिवन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो भवति स्त्रात्मा यत्र तत्स्थानम् , व्यवहारनयतो लोकाग्रलक्षणं सिद्धिक्षेत्रं " वत्धुं क्सइ सहावे सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि" इति वचनानिश्चयनयतः क्षीणकर्मणो जीवस्य यथावस्थितस्वरूपं " इय सिद्धाण सोक्खं, अणोरम नत्यि तस्स ओवम्भ" इति सिद्धान्तवचनात्तदनुपममुपमातीतं प्रकर्षणापुनरावृत्या गतानां प्राप्तानामिति । एतेन
"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् ।।
गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः" ॥१॥ इति "यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत !!
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ १॥" इति च केपाश्चिन्मतं निरस्तम् , बीजे दग्धे अङ्कुराभाववच्छुक्लध्यानाग्निनाऽखिलकर्मणि दग्धे कर्मरूपकारणाभावेन भवागमनात्मककार्याभावात् । उक्तश्च
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सम्मतिः काण्ड , गा.. "न पुणो तस्स पसूई, बीयाभावादिहंकुरस्सेव ।
बीयं च तस्स कम्मं, न च तस्स तयं तओ निच्चो ॥१॥" इति किश्वेह तदागमनं रागादिसद्भावे सत्येव भवेत् , नान्यथा, तथा चानुन्मूलितरागादिदोषत्वासदचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात्, अथोन्मूलितसर्वथारागादिदोषो मुक्तात्मेति चेत्, तहि कुतः पुनस्तदागमनमिह, कारणीभूतरागाधभावेन तत्कार्यागमनानुपपत्तेः । अत एव "मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः" इति परकल्पितमतमपि निरस्तम्, यद्देशावच्छिन्नयगुणोपलब्धिस्स तत्परिमाणनियतपरिमाणकः, यथा कपालद्वयावच्छिमोपलभ्यमानगुणको घटः कपालद्वयपरिमाणनियतपरिमाणकः । शरीरात्मकदेशावच्छेदे. नैवानुभूयमानधुध्यादिगुण आत्मेति स तत्परिमाण नियतपरिमाणवानित्यनुमानेन आत्मा स्वकर्मनिरूपितप्रतियोग्यनुयोगिभावसम्बन्धाश्रयकृतशरीरावगाहकनमःप्रदेशसङ्खथासमव्याससङ्ख्याकनमा प्रदेशाऽवगाहनाकः स्वशरीशवच्छिन्नभोगवत्वात् , यन्नैवं तन्नैवं यथा घटा, इत्यनुमानढीकृतपर्यवसनस्वरूपेणाऽऽत्मनो व्यापकत्वाभावसिद्धिरित्यव्यापकस्य तस्याऽऽतपशुष्कवीजकोशपन्धनविनिर्मोकप्रयुक्तोर्ध्वगमनस्वभावरण्डबीजवद् धनमृत्तिकाष्टलेपसम्बन्धपरित्यागप्रयुक्तजलोपरिगतिस्वभावालाबुवच सर्वकर्मसङ्गपरिमुक्तस्योगमनस्वभावत्वेन " जत्तियाइ जीवो ओगाढो तचियाए चेव फुसमाणो गच्छइ" इत्यादि सिद्धान्तोक्तप्रकारेण लोकाग्रस्थानगतस्यानवास्थितिकारणकर्माऽभावेन सर्वदा तत्रैवाऽवस्थानादिति । अथवाऽवच्छेदकतासम्बन्धेनाऽऽत्मविशेषगुणं प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन शरीरस्य कारणत्वेन तदभावान्न मुक्तौ तदुत्पत्चिरित्यशेषविशेषगुणात्यन्तोच्छेदलक्षणात्ममुक्त्यभ्युपगन्तनैयायिक मतनिरासार्थमाह सूरिः “ ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं " इति। स्थितिः-स्थानं स्वरूपप्राप्तिः, तदनुपमसुखम् 'उप' इति सकलकर्मक्षयानन्तरमव्यवधानेन गतानां प्राप्तानाम्, अनेकान्तभावनाजनितनिखिलजगत्तचविषयककेवलज्ञानोपबृंहितशैलेश्यवस्थाचरमसमयोपजातनिखिलवेदनीयकर्मक्षयाविर्भूतमनन्तसुखस्वभावमात्मनः कथञ्चिदनन्यभूतं स्वरूप प्राप्तानामिति यावत् । यो यो गुणो येन येनानियते तत्तनाशे सति स स आविर्भवति, यथा रविप्रकाशगुणो मेघेनावृतस्सर्वथा तन्नाशे सति साशनिरावृतः प्रकटीभवति तथाऽऽत्मीयानन्तसुखरूपपरमानन्दगुणोऽपि यावन्न मुक्तिस्तावद्वेदनीयकर्मणाss. पृतस्वभावस्सर्वांशाखिलवेदनीयकर्मक्षये मुक्ती सत्यां स्वत एव सर्वांशप्रकाशीभवतीति तल्ल. क्षणव साऽभ्युपगन्तव्या, यतस्स्रक्चन्दनवनितादिभोगोपभोगजन्यव्यावहारिकसुखं प्रत्येवा. स्मनः संयोगादे कारणत्वेन मुक्तौ तदभावात्तदभावेऽपि न पारमार्थिकानन्दसुखस्याप्यभावा, तस्य निरावरणात्ममात्रजन्यत्वात् । न च पश्चादपि तस्य विनाशः, तद्विरोध्युत्तरविशेषगुणाभावेन नाशकहेत्वभावात् । न चैत्र तर्हि तस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं सत्त्वं न स्यादिति वाच्यम् , स्वरूपतो ध्रौव्यम्, प्रतिक्षणभेदेन पूर्वपूर्वक्षणविशिष्टस्य तस्य विनाश:
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सम्मति काण्ड १, गा० १
४१.
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उत्तरोत्तरस मयोत्पश्या तद्विशिष्टस्य तस्य चोत्पत्तिरित्येवमुत्पादव्ययत्रौव्यलक्षणस्य सच्चस्याsक्षतेः, " षड्गुणहानिवद्विभ्यां यथाऽगुरुलघुस्तथा । पर्यायः क्षणभेदाच, केवलारूयोऽपि सम्मतः | १ | इत्युक्तेः । अत्र क्षणभेदात् केवलज्ञानपर्यायोsपि भिन्न एव प्रदर्शितो यथा तथा स्वस्वरूपतो ध्रुवस्वभावमप्यनन्तसुखं तत्तत्क्षणविशिष्टं भिन्नमेव, विशेषणमेदेन तद्विशिष्टस्यापि कथञ्चिद्भेदादित्युत्पादव्ययधौन्यलक्षणं सत्रं तस्योपपन्नमेव । न चात्र विशेषणस्यैव नाशोत्पादाविति वाच्यम्, यतः शिखायां विनष्टायां शिखी विनष्ट इति प्रतीतेरप्यनुभूयमानत्वेन विशिष्टस्यापि तथात्वमभ्युपगन्तव्यम् अधिकमत्रास्मत्सन्तब्ध स्याद्वादबिन्दुतोऽत्र सेयमिति । एतेन दुःखकारणीभूतस्य पापस्येव सुखहेतुपुण्यस्थापि तत्राभावादुःखस्येव सुखस्याप्यभाव एव युक्त इत्यारेकापि निरस्ता, व्यावहारिक सुखं प्रत्येव पुण्यस्य कारणत्वेन कृत्स्नकर्मक्षयजन्यसिद्धत्व परिणतिवन्मुक्तात्मनो वैषयिकसुखविलक्षणाया वेदनीय कर्मक्षयजन्यालौकिक निराबाध साद्यनन्तसुखपरिणतेर्भावादिति । मुक्तात्मनि घातिकर्मचतुष्कक्ष यसमुत्पन्नानन्त ज्ञानदर्शन चारित्रवीर्य लक्षणानन्त चतुष्कगुणा अषातिकर्मचतुष्कक्ष निष्पन्नानन्ताऽश्चय स्थिस्य मूर्त्तभावाव्याबाधसुखाऽगुरुलघुभावलक्षणगुणास्संस्थानवर्णादिप्रतिषेधात्मका अन्येऽपि च गुणा विद्यन्त इत्यात्यन्तिका शेष विशेषगुणोच्छेदलक्षणा मुक्तिर्न युक्तियुक्तेति सिद्धम् । एतेन
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यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः १ ॥ १ ॥ अङ्गनाऽऽलिङ्गनाजन्य-- सुखमेव पुमर्थता ।
कण्टकादिव्यधाजन्यं, दुःखं निरय उच्यते ॥ २ ॥
त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां, दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविवारणैषा । व्रीही जिहासति सितोत्तमतण्डुलादधान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ॥ ३ ॥
लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नाऽपरः स्मृतः । देहस्य नाशो मुक्तिस्तु, न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ॥ ४ ॥
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इत्यपि निरस्तम् । वीतरागजन्मादर्शनात् सरागस्यैव जन्म, रागस्य च कारणं पूर्वानुभूतविषयानुचिन्तनम्, पूर्वानुभवश्च जातमात्रस्यास्मिन् जन्मनि न सम्भवतीति तदर्थं पूर्वजन्माभ्युपगन्तव्यम्, तदपि सरागस्यैवेत्येतद्भवीयाद्यस्तन्यपानादिप्रवृत्तिजनक स्तन्यपानं मदिष्टसाधनमिति मत्कृतिसाध्यमिति च यत्स्मरणं सत्कारणपूर्वभवानुभवद्वारा तत्पूर्वजन्म एवं तत्पूर्वपूर्व जन्म प्रथम प्रवृत्तिकारणरागानुबन्धानुरोधेन सिध्यत्प्रवाहतोऽनाद्येव
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सम्मतिः काण्ड , गा जन्म सिध्यति, जन्म च जन्मवन्तं विनाऽनुपपनं सत्पूर्वपूर्वोत्तरोत्तरभवानुयायिनमेतकबीयाऽऽधस्तन्यपानादिप्रवृत्तिजनकतत्तद्विषयस्मृतिपूर्वभवीयतत्समानविषयकातुभवकर्तारमास्मानं साधयति । एतद् विवेचयिष्यते चाग्रे । एवश्वाऽऽत्मनोऽनादित्वे सिद्धे आत्माऽनन्तः भावत्वे सत्यनादित्वात् , यन्नैवं तन्नैवम् , यथा घट इत्यनुमानात्तस्यानन्तत्वमपि सिद्ध्यति, तस्य चानन्तकृत्ववतुर्गत्यात्मकभवपरिभ्रमणमन्यथाऽनुपपत्रं सत्तत्कारणतया प्रवाहतोऽनादिकर्म साधयतीत्यनादिकालसम्बद्धाऽऽत्मकर्मणोरनादिकालसम्बद्धमृत्सुवर्णद्रव्ययोरग्निसंयोगेनेव शुक्लध्यानाग्निना सर्वथा पृथग्भावे सति इह शरीरं परित्यज्य स्वकर्मक्षयकृत. त्रिभागहीनचरमशरीरपरिमाणसमपरिमाणवतया समश्रेण्यैकसमयेनैवोचं गतः
" अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइडिया।
इह बोदिं चइत्ताणं तत्थ गन्तूण सिज्झइ ।। १ ।।" इति प्रज्ञापनासूत्रवचनात् केवलाकाशास्तिकायरूपालोके गत्यादिसहायकधर्मास्तिकायाघमावेन प्रतिस्खलनाल्लोकमूर्द्धनि प्रतिष्ठितो-निराकृतस्वभावमात्राविर्भूताखण्डानन्तचिदा. नन्दादिस्वरूपमुक्तिमवाप्नोतीति पूर्वोक्तयुक्तिभिर्मिथस्संयुक्तात्मकर्मणोरनादित्वस्य नानाविधमिथ्यात्वादिकारणवशोपनविचित्रकर्मपरिणतिकृतचतुर्गत्यात्मकसंसारसन्ततात्मपरिभ्रमणस्य च परमशुक्लध्यानादिनाऽऽत्मसम्बद्धाशेषकर्मवियोगलक्षणकर्मक्षये सति कर्मकारणाभावात् संसारपरिभ्रमणात्मकतत्कार्यनिवृत्याऽऽत्मनोऽष्टकर्मक्षयजन्यानन्तज्ञानदर्शनाद्यष्ट. गुणावाप्त्या मुक्तेश्च सिद्धौ "न देहातिरिक्त आत्मेति देहविनाशो मुक्तिः" इति चाकिमतं न युक्तमिति सिद्धमित्यलं पल्लवितेन । एतेन " दीपो यथा निवृत्तिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । विशंन काश्चिद्विदिशं न काश्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ जीवस्तथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित् , स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।२।।"
इत्यपि मतमपास्तमवसेयम् । ग्रन्थगौरवभीत्याऽत्र यत्रोक्तं तद् वृहट्टीकातोऽवबोद्धध्यमिति प्रथमकारिकार्थः परिपूर्ति प्राप्त इति । " यवत्र न अन्धमहत्त्वभीत्यो,-क्तं तद् यदग्रेऽप्यधिकं न वक्ष्ये । तट्टीकयाऽाभयदेवसूरे-ऑनन्तु विस्ताररुचीद्धप्रज्ञाः ॥१॥"
अथ भगवान् जगत्त्रयजयिमहामोह मल्लस्य सर्वथा पराजयं तन्नान्तरीयकज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाख्यधनधातिकमंत्रयपराजयक्षाकृत्वा नाशेषविश्वत्रयगोचरकेवलज्ञानल. क्षणविशिष्टज्ञानानन्त्यमवाप्नोति, न च तदुत्पत्ति विना तस्य कमनीयाशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्य
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सम्मति काण्ड १ ० १
४३.
सपर्यामकृत्रिमानुपमभक्ति मरनिर्भरसुरासुरनिकायनायका अनेन भगवता सनाथा भवामेति सन्मतिमाविभ्राणा विरचयन्ति न च शचीपत्यादिकृतपूजाविरहे स स्याद्वाददेशना गिरः प्रयुक्त इति हेतुहेतुमद्भावोत्पद्य मानगाथान्तर्गतजिनादितचत्पदसंसूचितापायापममातिशयज्ञानातिशयपूजातिशयवा गतिशय चतुष्करूपस्वार्थ परार्थसम्पत्तिशालि भगवत्प्रणीत श्रुतमयेष्टदेवतासोल्लास स्तुतिविध्वस्तसमाप्तिप्रतिबन्ध कदुरित विशेषस्व रिस्सर्वेऽपि व्यवहाराः प्रयोजनव्याप्ताः, नान्तरेण प्रयोजनं प्रवृत्तिनिवृत्ती, पश्वादयोऽप्यभिसन्धाय प्रयोजनं प्रवर्त्तन्ते निवर्त्तन्ते चेति श्रोतुः प्रस्तूयमाने शास्त्रे निर्विघ्नप्रवृत्यर्थं तत् सप्रयोजनमादौ वाच्यम्, तदुक्तं मीमांसाश्लोकवार्तिके "अनिर्दिष्टफलं सर्व, न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन, वाच्यमग्रे प्रयोजनम् ॥ १ ॥ सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य, कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत्प्रयोजनं नोकं, तावत्तत्केन गृह्यते || २ ||" इति । तदपि चेदनभिमतप्रयोजनेन सप्रयोजनं वक्त्रा विरच्येत तदा जननीपाणिपीडनोपदेशवतत्र चतुराणामतितरामनादरस्स्यात्, प्रवृत्तिकारणीभूतस्य बलवदनिष्टाननुबन्धित्वविशिष्टेष्टसाधनताज्ञानस्याभावादिति तत्राभिमतं प्रयोजनं वाच्यम्, तदपि शक्योपाय न चेत् प्रदशर्येत तदा विषादिसर्वविघ्नशामकतक्षक नागराजशिरोरत्नादानोपदेशवत् प्रेक्षावस्तिदुपदर्शकं शास्त्रमनादेयं स्यात्, प्रयोजने सत्यपि तत्साधनानुष्ठानं मत्कृतिसाध्यमित्याकारकस्य प्रवृत्तिकारण कृतिसाध्यत्वप्रकारकज्ञानस्याभावादित्यनुगुणोपायं प्रयोजनं वाच्यम्, येन यद् दृष्ट्वा तत्प्राप्त्याशावशीकृतस्वान्तप्रेक्षावद्भिः प्रवृत्तिस्सादराऽऽदृता शीघ्रं स्यात्, अभ्यधायि च ।
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शास्त्रस्य हि फले ज्ञाते, तत्प्रादयाऽऽशावशीकृताः । प्रेक्षावन्तः प्रवर्त्तन्ते, तेन वाच्यं प्रयोजनम् ॥ १ ॥ " इति ॥
एवं शास्त्रमभिधेयशून्यं चेत्, तदोन्मत्तादिवाक्यवदानर्थक्यं सम्भावयन् प्रेक्षावान् श्रोतुं न प्रवर्तेतापीत्यभिधेयं सुखोपादेयमस्यावश्यं वाच्यम् । एवं शास्त्रं सम्बन्धरहितं चेत्तदापि
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जरद्गवः कम्बलपादुकाभ्य, द्वारि स्थितो गायति मङ्गलानि । तं ब्राह्मणी पृच्छति पुत्रकामा, राजोरुमायां लशुनस्य कोऽर्थः १ ॥ १ ॥ " इत्यादिनिराकाङ्क्षवाक्यवत् तथाऽसम्बद्धदशदाडिमा दिवाक्य वत्प्रेक्षाकारिणा मवज्ञास्पदं स्यादित्यादौ सम्बन्धोऽप्यसङ्गतिदूरीकरणार्थं वाच्यः, एवमजिज्ञासिताभिधेयकत्वेनानधिकारिकं चेचदा प्रेक्षावद्भिर्नाद्रियेत प्रेक्षावच्चक्षतेरित्यस्य शास्त्रस्य कोsधिकारीत्यपि वाच्यम्, यदभ्यधायि —
1
" विषयश्चाधिकारी च सम्बन्धश्च प्रयोजनम् ।
विनानुबन्धं ग्रन्थादौ मङ्गलं नैव शस्यते ॥ १ ॥ " इति ॥
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सम्मति. काल 1, गा० १ । तथा च शास्त्रीयश्रोतृप्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयीभूतप्रयोजनाभिधेयसम्बन्धाधिकार्यात्मकाऽनुबन्धचतुष्टयमस्मिन् प्रकरणेऽस्ति न वेति शङ्काशमुद्धर्तुकामस्तत्प्रदर्शनप्रवणां कृत्स्नशास्त्रार्थसमाहिकामादिवाक्यरूपां गाथामाह
'समयपरमत्थवित्थर-विहाडजणपज्जुवासणसयनो।
आगममलारहियओ, जह होइ तमत्थमुन्नेस्सं ॥ २॥" अत्र " आगममलारहृदयः" इत्येतच्छन्दग्राह्यस्यागमार्थप्रतिपस्यसमर्थहृदयस्यैदंयुगीनात्यल्पज्ञजनस्य प्रसिद्धत्वात्तमुद्दिश्यादग्धदहनन्यायेनाप्राप्त समयपरमार्थविस्तरविहाटजनप. {पासनसको यथा भवति तमर्थमुझेष्ये इत्येतद्विधीयते । समयस्याईदागमस्य प्रमाणास्तराबाधितत्वेन यथार्थतया तत्वदर्शनान्तरोक्तार्थाऽपेक्षया परम उत्कृष्टो योऽर्थस्तस्य यो विस्तरो रचनाविशेषः तस्य विहाटः श्रोतबुद्धिग्राह्यार्थप्रकाशको यो जनश्चतुर्दशपूर्वविदादि. लोकः तस्य पर्युपासनं सेवाजनिततद्वथाख्यानं तत्र सकर्णः तद्वयाख्यातार्थयथार्थावधारणसमर्थों यथा भवति तथा तमर्थमुन्भेष्ये लेशतः प्रतिपादयिष्ये इत्युक्तविधेयस्य सोपार्थः । पदार्थस्तूच्यते "आगममलारहियओ" इति-आगममलारहृदयः, तत्राविच्छिन्नसद्गुरूपारम्पर्येण वासनाद्वारेणागच्छतीत्यागमः, यद्वा आ समन्ताद् गम्यन्ते झायन्ते जीवादय: पदार्था अनेनेत्यागमा, शास्त्रम्, आङ् पूर्वकाद् गम् धातोः " गमश्च" ३-२-४७ इति पाणिनीयसूत्रेण खच्प्रत्यये आगमशब्दनिष्पत्तिः। मलमिव आरा प्राजनकविभागो यस्याऽसौ मलारः, गोगली, आगमे तद्वत् कुण्ठमागमार्थप्रतिपत्त्यसमर्थ हृदयं यस्य स तथा, अकृत्रि. मवरभक्तिबहुमानप्रसन्नसुगुरुपदीयमानागमप्रतिपाद्यगम्भीरार्थग्रहणानुकूल प्रज्ञाविहीनत्वेना. तिमन्दधीरिति यावत् । “ समयपरमत्थविस्थरविहाडजणपज्जुवासणसयनो" इति, समयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसकर्णः, सम्यक् प्रमाणान्तराऽविसंवादित्वेनेयन्ते निश्चीयन्तेऽर्था अनेनेति समयः, यद्वा सम्यक अवैपरीत्येनाप्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयोऽर्था अनेनेति करणप्रत्यये समयः । सम्यक् याथार्येनायन्ति अयन्ते वा जानन्त्यर्थान् अनेनेति वा समया, अथवा सम्यक् अयते परिच्छिनत्ति जीवाद्यर्थान् यस्स समयः, सम्यगयन्ति गच्छन्ति जीवादयोऽर्थास्स्वस्वरूपे प्रतिष्ठां प्राप्नुवन्त्यस्मिन्निति वा समयः, अर्हन्मतानुसारि शास्त्रम् । परमः प्रमाणान्तराबाधितप्रमाणगोचरयथार्थस्वरूपा, अर्यते परिच्छिद्यते ज्ञानविषयीक्रियत इत्यर्थः । परमश्वासावर्थश्च परमार्थः, प्रमाणान्तराबाधिततया वास्तविकोऽर्थः, समयस्य परमार्थः समयपरमार्थः, तस्य विस्तरो रचनाविशेषः, विस्तीर्यत इति विस्तरः, "स्तृ" आच्छादने कैयादिको धातुः। ततः " ऋदोरप्" । ३ । ३ । ५६ । इति सूत्रेणाप्रत्ययः । नन्वर्थस्य विस्तरणमित्यर्थे शब्दसम्बन्धिनः प्रथनस्याभावात् अर्थविस्तारस्यैव गृहीतत्वात् "विपूर्वात् स्तृणातेर्षञ् स्यादशब्दविषये प्रथने इत्यर्थ कस्य " प्रथने
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सम्मति० का १, गा० १
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वावशब्दे " । ३ । ३ । ३३ । इति पाणिनीयसूत्रस्य प्राप्तेः घञ्प्रत्ययान्त विस्तारशब्दस्यैव प्रयोक्तुमुचिततया नात्रात्प्रत्ययान्तस्य विस्तरशब्दस्य प्रयोगस्समीचीन इति चेत्, मैत्रम्, यशब्दार्थयोरमेदपक्षं समाश्रित्य विस्तरशब्दप्रयोगो विहितः, भेदपक्षेऽपि शब्दार्थयोः पारमार्थिकस्सम्बन्धोऽस्तीति प्रतिपादयितुमेवाभेदविवक्षामाश्रित्यार्थ विस्तारेऽपि शब्दविस्तरत्वं समारोप्य घञोऽप्राप्ति सम्पाद्यावन्तस्यैव प्रयोगः कृत इति, तस्य विहाट इवि विशेषेण हाटयति दीपयति श्रोतृबुद्धौ प्रकाशमानानर्थान् प्रकाशयतीति विहाटः, विपूर्वात् हृद्वातोर्दीपनार्थकाद् घञ्प्रत्ययः 44 हलव | ३ | ३ | १२१ । इति पाणिनीयसूत्रेण, स चासौ जनश्च चतुर्दश पूर्वविदादिश्रुतस्थविरलोको विहाटजनः, तस्य पर्युपासनम् परित उपास्तिरिति पर्युपासनम्, सेवा, आस् उपवेशने इति धातोः पर्युपात्मकोपसर्गद्वयवशतः सेवार्थे वर्तमानाद् भावार्थे ल्युट् प्रत्ययः । पर्युपासनपदेनात्र कारणे कार्योपचारात् सेवाजनितव्याख्यानं लक्षणया बोध्यम्, कारणीभूत सेवासम्पादनेन चतुर्दशविदादिसकाशात् तदीयव्याख्यानप्रवर्तनस्य कारयितुं शक्यत्वात् । तत्र विहाटजन व्याख्याने सहकर्णाभ्यां वर्त्तत इति सकर्णः त्रिकरणयोगसोल्लास श्रवणै कसावधानीकृत कर्ण व्यापारः तद्वयाख्यातार्थसुखग्रहणधारणनिश्चयादिकरण पदुमन्दबुद्धिरपि " जह होइ तमत्थमुन्नेस्सं " यथा इति येन प्रकारेण भवति तं तथाभूतमर्थमुन्नेष्ये लेशतः प्रतिपादयिष्ये । यद्वा " उत् " उपसर्ग उत्कृष्टार्थद्योतक इत्युत्कृष्टतया नेष्ये प्रापयिष्ये, स्वप्रतिपादनमहिम्ना तमर्थ श्रोतृजनबुद्धिविषयीकरणद्वारा ती हृदयंगमं करिष्ये । प्रतिपादयित्रा विदुषा प्रतिपादितोऽप्यर्थी यदि श्रोतृजनबुद्धौ नावतरति तदा प्रतिपादयितुरेव जाड्यमवगम्यते, " वक्तुरेव हि तज्जाड्यं यतः भोता नं बुध्यते " इति न्यायात्, अतश्शास्त्रीयदिव्य चक्षुस्सुगुरु निस्सीम कृपासुधा श्रुतसमुद्रान्तर्निमग्नतावाप्ताऽनर्ध्यगम्भीरातिसूक्ष्माऽनल्पतश्वरत्नसुस्पष्टीकरणप्रकारेण अतिकुण्ठितबुद्धयोऽपि श्रोतृजना यमर्थमर्हच्छास्त्रपरमरहस्यभूतं श्रुत्वा सतात्पर्य विभाव्य विनिश्चित्य च द्रव्यानुयोगविषय कागमाऽतिगहनसूक्ष्मतरानप्यर्थान् सुखेन ग्रहीतुं धारयितुं निखेतुमतिपटुप्रज्ञा इतरसकलशास्त्रेषु प्रामाण्याप्रामाण्यविवेककर्त्तारश्च भवन्ति तमर्थमनेन प्रकरणेनाहमपि प्रतिपादयिष्ये इति भावः । अथाभिधेयसम्बन्धयोस्सामर्थ्याद्गम्यमानत्वेन प्रयोजनार्थितयैव शास्त्रश्रवणादौ श्रोतृजनस्य प्रवृत्तेः प्राधान्येन प्रवृत्यङ्गभूतं प्रयोजनमेव मुख्यवृत्या प्रतिपादयितुमुपन्यस्तयाऽनया गाथया तद् यथा व्यञ्जितं तथोच्यते, तत्र प्रयोजनं द्वेधा कर्तु श्रोतु, पुनर्द्विविधम् अनन्तरं सान्तरं च । तत्र कर्तुरनन्तरं प्रयोजनं आगममलारह्रदय स्समयपरमार्थविस्तरविहाटजन पर्युपासनसकर्णो यथा भवति तथार्थव्युत्पादनं गाथयैव साक्षान्निर्दिष्टम् । श्रोतुस्त्वेतत्प्रकरणार्थप्रतिपत्तिस्तदन्तर्गततया प्रतीयते, सान्तरप्रयोजनन्तु द्वेषा प्रधानम प्रधान, तत्राप्रधानं कर्त्तुस्सच्वानुग्रहख्यात्यादिकम् प्रधानन्तु सर्वोक्तोपदेशेन यः सानामुपग्रहम् । करोति दुःखतानां स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् " ॥ १ ॥ इत्युक्तेः परम
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सम्मति• काट १, गा.. पदंप्राप्तिरूपमक्सेयम् । वीतरागशासनतस्वामृतरसपायित्वेन सद्भावतः परानुग्रहैकलीनचित्तानां तस्याऽवश्यम्भावाद , यतो न हि शास्त्रपरमरहस्यवेदिनस्साक्षात्परम्परया वा निश्रेयसार्थ न भवति तत्प्रतिपादनायोत्सहन्ते, प्राज्ञत्वहानेः, श्रोतुस्त्वप्रधानं हेयोपादेयोपेक्षणीयेबर्थेषु हानोपादानोपेक्षालक्षणम् । प्रधानन्तु संसारकारागृहबन्धनकारणीभूतं निखिलं हेयार्थतवं ज्ञपरिज्ञया हेयत्वेन विज्ञाय तस्य त्रिकरणयोगतः प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्यारूयानेन प्रत्याख्याय च मुत्येककारणीभूतं निश्शेषोपादेयतवश्व ग्रहणबुद्धया यथार्थभावेन गृहीत्वा उपेक्षणीयार्थश्च सर्व कृतपूजनस्तुत्यादिकृतनिन्दाताडनादिजनोपरि रागद्वेषाऽकरणलक्षणमाध्यस्थ्यवृत्योपेक्ष्य च सग्गृहीतसम्यग्ज्ञानक्रियात्मकसन्मार्गस्य सम्यगाराधना कस्वा तदुत्तरोत्तरोत्तमोत्तमभवसुदृढतदभ्याससात्मीमावेनाविकलकारणसामग्यवाप्त्या मुक्तिलक्षणं योध्यम् , उक्तश्च
"सम्यग्भावपरिज्ञाना-द्विरक्ता भवतो जनाः।
क्रियाऽऽसक्ता विघ्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् " ॥ १ ॥ इति । तब सर्वेषां बुद्धिमतामविगानेनाभीष्टमनुगुणोपायश्चेति निष्प्रयोजनवानभिमतप्रयोजनत्वाशझे सुतरामेव व्युदस्ते । अभिधेयसम्बन्धौ तु सामर्थ्याद्गम्येते, तथाहि
__ आगममलारहृदयनिष्ठसमयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसकर्णताप्रयोजकद्रव्यानुयोगविषय एतत्प्रकरणप्रतिपाद्योऽर्थोऽभिधेयः, अनेनाभिधेयशून्यत्वारेका निरस्ता, अमुष्य चाभिधेयस्य स्वज्ञानद्वाराऽभ्युदयनिक श्रेयसोपयोगित्वादवश्यं मोक्षार्थिनोपादेयतयाऽनुपादेय. स्वाशङ्का दस्त एवं निरस्ता, सम्बन्धस्त्वभिधेयेन सहास्य शास्त्रस्य वाच्यवाचकभाव. लक्षणोऽनुक्तोऽपि श्रूयमाणतत्तच्छब्दवाच्यतत्तदर्थविषयकशाब्दबोधान्यथानुपपत्तिबलादेव गम्यते । सम्मतितर्कप्रकरणमुपाय:, तदर्थज्ञानमुपेयः, स च प्रयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्युपायोपेयभावसम्बन्धोऽप्यत्र ज्ञेयः । एतत्प्रकरणोक्तार्थसन्दोहोऽपि न स्वकपोलकल्पनाशिल्पिनिर्मिता, किन्तु चतुर्दशपूर्व विद्गणधर श्रीगौतमस्वाम्यादिगुरुपरम्पराऽऽयात इति गुरुपर्वक्रमसम्बन्धोऽपि, एतत्प्रकरणवाच्यार्थतद्विषयकज्ञानयोर्विषयविषयिभावसम्बन्धोऽपि चात्रोक्ष इति सम्बन्धरहितत्वाशङ्काऽनुत्थानोपहतैवेति । अस्याध्ययनेऽधिकारी चैतत्प्रकरणामिहितद्रव्यानुयोगतत्त्वजिज्ञासुरुक्तप्रयोजनकामश्चेत्यनधिकारित्वाशङ्काऽपि दुरापास्ता, तस्मादेतस्प्रकरणप्रतिपाद्यद्रव्यानुयोगतत्रचित्तै काग्यपुरस्सरश्रवणमनननिदिध्यासनक्रमेण स्व. समयपरसमययथार्थाऽयथार्थविवेचने समुद्दीप्तप्रज्ञानां तत्रार्पितयोगानां पुंसां सम्यग्दर्शनं शुद्ध मवति, निक्षेपप्रमाणनयसप्तमङ्गथादिप्रतिपाद्यानेकान्ततत्वज्ञानं च यथार्थ विशिष्टतमं भवति, तेन च चरणकरणयोस्सारं विदित्वा चारित्रपरिणतिश्च विशुद्धा भवतीत्येवं विशिष्टफलोत्पादकसम्यग्मतिविधाय्यनल्पसतर्कगर्भतया यथार्थाऽभिधानं सम्मतितर्काख्यं प्रकरण.
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सम्मति. काण्ड , गा.. मादरणीयमेव प्रेधावद्भिः विषयाधिकारिसम्बन्धप्रयोजनात्मकानुबन्धचतुष्टयशालित्वात् , यौवं तवं, यथोन्मत्तवाक्यमिति । तत्रानुबन्धत्वं नाम प्रवृत्तिजनकज्ञानजनकज्ञान. विषयत्वं प्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयत्वं वा, तत्सङ्गमनश्चैवम्-प्रवृत्तिरत्र शास्त्राध्ययन विषयिका, तजनकज्ञानमिदं शास्त्राध्ययन मदिष्टसाधनमित्याकारकं ज्ञान मत्कृतिसाध्य. मित्याकारकं ज्ञानच, तच्च विशिष्टबुद्धौ विशेषणवानं कारणमिति नियमेन तत्र विशेषणी. भूतस्य मदित्यस्येष्टेत्यस्य च ज्ञाने सत्येव भवतीति तजनकज्ञानमस्य शास्त्रस्याः ध्ययनेऽहमधिकारीति ज्ञानम्, एतच्छात्राध्ययनस्यैतच्छास्त्रवाच्यार्थज्ञानं साक्षात् मोक्षश्च परम्परया फलमितीष्टज्ञानञ्च, तद्विषयत्वमधिकारिणि प्रयोजने च वर्तते, अस्य शास्त्रस्य द्रव्यानुयोगविषयप्रतिपादनपरत्वात्तदभिधेयस्य सामान्यतो ज्ञाने सत्येवेदं शाखें मत्कृतिसाध्यमिति ज्ञानं भवति, तथा शास्त्रस्याभिधेयेन सह प्रतिपाद्यप्रतिपादकमावसम्बन्धस्य ज्ञाने सत्येवेदं शास्त्रं मदिष्टसाधनमिति ज्ञानं सम्भवतीति प्रवृत्तिजनककृति. साध्यत्वप्रकारकप्रकृतशास्त्रविशेष्यकज्ञानजनकमभिधेयज्ञानं प्रवृत्तिजनकेष्टसाधनत्वप्रकारका प्रकृतशास्त्रविशेष्यकज्ञानजनकच प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावसम्बन्धज्ञानम् , एवं प्रयोजनेन तत्वज्ञानेन सहास्य शास्त्रस्य जन्यजनकभावसम्बन्धज्ञानश्च, तद्विषयत्वमभिधेये सम्बन्धे च वर्तत इति । अत्राक्षेपपरिहारौ अन्धगौरवभियाऽनुक्तौ बृहट्टीकातोऽवसे यौ, इति द्वितीयकारिकार्थः परिपूर्णभावं नीत इति ॥ २ ॥
अथ भेदप्रभेदविशिष्टमूलभेदोपेतं नयस्वरूपं सूक्ष्मेक्षिकया यावन्नावगच्छति तावतस्य पुंसो नयविषयकसमीक्षाया अभावेनाविचारितरमणीयतयाऽयुक्तं युक्तं युक्तमप्ययुक्तं प्रतिमासेत, एवञ्चार्थानां युक्तायुक्तत्वविभागोऽपि प्रमाणगोचरचारी न स्यात्, अन्यथा प्रतिपत्तेः, तदेवाह भाष्यसुधाम्भोधि:-" अत्थं जो न सम्मिक्खइ, निक्खेवनयप्पमामओ विहिणा । तस्साऽजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं वा पडिहाइ ॥२२७३।" इति। एवं "दुष्टांशच्छेदतो नांही दूषयेद्विषकण्टकः" इति न्यायात् स्याद्वादप्रमाणसम्राटपदस्थानीयर्जुसूत्रनयस्यैकान्तस्वावगाहिदुष्टांशं बहुव्यवहारोच्छेदकं विषकण्टककल्पेन न्यायनयेनादिव्युत्पत्त्यापायकेन यदि तत्तत्रयविधिज्ञो न स्यात्तदा कथं निराकुर्यात् , किश्च जैनागमेऽपि यदज्ञानद्वेषादिदोषकलुषितेन केनापि जमाल्यादिनेव दोषबुद्धयाऽनन्तांशात्मकस्य वस्तुन एकाग्रंशमन्यथा परिगृहीतं तदपि विशेषतो नयज्ञानं विना नयोक्तिभिर्यथार्थतया कथं स्थापयेत् । एवं ____नथि नयेहि विहूणं सुत्तं, अत्थो य जिणमए किंचि।।
आसज्ज उ सोयारं नए, नयविसारओ बूया ।। २२७७॥" इति भाष्योक्तेः दृष्टिवादे कालिकश्रुते च एतत्सूत्रमेतनयापेक्षया एतत्सूत्रश्चैतन्त्रयाऽ. पेषया अयमर्थ एतनयापेक्षया अयमर्थश्चैतनयापेक्षयेत्यपि तत्तनयज्ञानं विना कथं जानी:
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इम्मति• काम , पा• यात् । कालिकश्रुते यद्यपि मतिमतो मतिमान्धं दृष्ट्वा पश्चात्सर्वनयविचारनिषेधः कृतस्तथाप्युसमप्रज्ञाशालिनं व्युत्पत्तिमिच्छन्तं नयमतपरिणामनासमर्थ श्रोतारं पुनरासाय समनुज्ञातमाधनयत्रयं शेषान् वा नयान् तत्तत्रयप्रज्ञो न स्यात्तदा कथं ब्रूयादित्येवं सर्वमूलं नयज्ञानमिति शिष्याणां मूलनयतद्विकल्पनयन्युत्पादनार्थ परमकारुणिकस्सरिस्तृतीयां गाथामाह- यद्वा अतिकुण्ठप्रज्ञस्याप्यन्तेवासिनोऽशेषश्रुततत्तत्रयसङ्घटितगम्भीरार्थयथार्थप्रतिपत्तिशालिचतुर्दशपूर्वविदादिव्याख्यातार्थाध्ययनयोग्यतासंपादनार्थ प्रकरणारम्भो विहितस्परिणा, तादृशी योग्यता च सामान्यविशेषाद्यात्मकार्थाऽवगाहिमूलभूतद्रव्यार्थिकनयपर्यायार्थिकनयद्यतद्विकल्परूपसङ्ग्रहायजुसूत्रादिनयपरिक्षाने सत्येव सम्पद्यत इति तस्य विनेयस्थ तस्कारयितुकामः सूरिरिमा गाथामाह
"तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी ।
दव्वढिओ घ पज्जव-णओ य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥" 'तिस्थयरवयणसंगह-विशेषपत्थारमूलवागरणी' तीर्थकरवचनसहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणी-तीर्थकरस्य वचनं तीर्थकरवचनं तस्य सत्रह विशेषौ सामान्यविशेषौ द्रव्य. पर्यायाख्यौ, तयोः प्रस्तारः सहविशेषप्रस्तास, तस्य मूलव्याकरणी आद्यवक्ता ज्ञाता वा, स क इत्याशङ्कायामाह-दवडिओ य पजवणओ य” इति, द्रव्यास्तिकच पर्यवनयश्च, सामान्यप्रस्तारस्य सङ्ग्रहादिरूपस्य मूलव्याकरणी द्रव्यास्तिकनया, विशेषप्रस्तावस्यर्जु.
त्रादिरूपस्य मूलव्याकरणी पर्यायास्तिकनयः, एतद्रन्थकारमते सामान्यग्राहियो नैगमस्य सनहे विशेषग्राहिणस्तस्य व्यवहारनयेऽन्तर्भावात् सनव्यवहाराख्यो द्वौ मेदो अजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवम्भूताख्याश्चत्वारो भेदास्तु मूलमेदयोन्यास्तिकपर्यायास्तिकनययोरिति प्रतिपादनायाह-" सेसा वियप्पा सिं" शेषा विकल्पा अनयोः, द्रव्यास्तिकनयस्य द्वौ मेदी पर्यायास्तिकनयस्य तु चत्वारो भेदा इति संक्षिप्तार्थः । विस्तृतार्थस्त्वेवम्तीर्यते भव्यसवैभवोदधिरनेन अस्मात् अस्मिन्निति वा तीर्थम् द्वादशाङ्गम् , यद्वा तरन्ति मव्याङ्गिनो येन संसारसागरं तत्तीर्थम्, "तित्थं भंते ! तित्थं, तिस्थयरे तिथं । गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थे पुण चाउने समणसंधे परमगणहरे वा" इति सिद्धान्तोक्तेर्गुणगुणिनोरभेदात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामात्मक तुर्विधः संघः प्रथमगणधरो वा, तत्कुर्वन्ति तत्करणशीला का तीर्थकराः । ननु प्रेशावतां प्रवृत्तिरभिमतप्रयोजनबत्तया व्याप्तेति किं प्रयोजनमुद्दिश्य ते तीर्थकरणे प्रवर्तन्ते ? इति चेत्, न किमपि, कुतकुत्यत्वेनाऽनीहप्रवृत्तिकारित्वात्तेषाम् , सूर्यस्येव जगत्प्रकाशने, यथा दिनमणिस्स्वभावत एव तमित्राच्याप्ततमोभरविनाशकं जगदुद्योतकरमुभिद्रदृष्टिजनानन्दप्रद प्रकाशं करोति तथा शासनमणिभगवन्तोऽपि जगजन्तुहळ्याप्तमिथ्यात्वादिषनतमाऽधकार
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सम्मति० काण्ड १, गां०३
विनाशकं विश्वविश्वभावोद्योतकारि विवेकादिभावचक्षुष्मदपूर्वानन्दप्रदमुपकार्योपकारानपेक्षं मावती कुर्वन्ति, चिकीर्षाजन्यप्रवृत्तिं प्रत्येवाभिमतप्रयोजनमुद्देश्य तथाऽपेक्षितम्, चिकीर्षायाश्च रागरूपत्वेन वीतराग भगवतां तदभावेन तज्जन्यप्रवृत्यभावेऽपि स्वभावत एव प्रवृत्तिभावान तत्र प्रयोजनमपेक्षितम्, न हि स्वभाव: पर्यनुयोगाई इति । ननु सूर्यस्य स स्वभावोऽनादिसंसिद्ध इति तद्वत् निश्रयनयेनात्मनोऽनादिसंसिद्धः चेतनास्वभाव इति तद्वद्वा किं तीर्थप्रवर्त्तनस्वभावस्तथाविधः किं वा कादाचित्क इति चेत्, उच्यते, कर्मोपाधिजन्यत्वेन सोपाधिकत्वान्नानादिस्सः किन्त्वचिन्त्यप्रभाव पुण्यप्रकृतिरूपतीर्थकरनामकर्म यदा बध्यते तदैव शक्तिरूपेणोत्पद्यमानत्वेन कादाचित्क इति शक्तिरूपेण विद्यमानस्य स्वभावः
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उदए जस्स सुरासुरनरवइनिवहेहिं पूइओ होइ । तं तित्थपरं नामं, तस्स विवागो हु केवलिणो ॥ १ ॥
>>
" तं च
इति वचनादशेषघातिकर्मक्षयाविर्भूत केवलज्ञानकालभावी यस्तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयस्तेनैवाभिव्यज्यते, अत एव तीर्थकरनामकर्मस्थित्यवधिस्थितिकस्स स्वभावः, कहं वेrजह, अमिलाए धम्मदेसणाए उ इति वचनात् सद्धर्मदेशनया तीर्थकर नामकर्मविनाशे तद्विनाशभावादिति । एतेन
17
45 तस्मिन् ध्यान समापन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते ।
निस्सरन्ति यथाकामं, कुड्यादिभ्योऽपि देशनाः ॥ १ ॥
>>
४९
इत्यपि मतमपहस्तितम्, यतो यदि भगवत्स्याद्वादधर्मदेशना कुड्यादिभ्यो निस्सृता स्यातर्हि आप्तोपदिष्टा न स्यात्, तथात्वे च सा विश्वसनीयाऽपि न स्यात्, रथ्या पुरुषीयदेशनावत्, अस्ति च सा विश्वसनीया, तस्मादाप्तोपदिष्टैवेति प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां सिद्ध्यति । उक्तञ्च कुड्यादिनिस्सृतानां तु न स्यादाप्तोपदिष्टता ।
"I
विश्वासश्च न तासु स्यात्, केनेमाः कीर्तिता इति ॥ १ ॥ " इति
न च भगवदतिशय प्रभावादेव भीच्यादिनिस्सृतायां भाषायां भगवन्मुखोच्चरितत्वमारोप्यत इति वाच्यम्, अन्यत्र प्रमितं ह्यारोप्यते " इत्यतोऽन्यधर्मिणि भगवन्मुखो चरितत्वस्य प्रमित्यभावेन कुड्यादिनिस्सृतभाषायां तदाशेपासम्भवात् नाद्यावधि कुड्यादिनिस्सृता भाषापि सिद्धेति तत्र तदारापोऽपि कथं सिद्धस्स्यात् । न चास्मदागमोक्तत्वात्सा सिद्धेति चेत्तर्हि भाष्यमाणैव भाषेतिलक्षणानाक्रान्तत्वाद्भाषारूपतामेवातिक्रमेत । किञ्च सा व्यक्तवर्णपदवाक्यरचनात्मक स्पष्टाक्षराऽपि न स्यात्, तां प्रति पुरुषकर्तृकतालुकण्ठाद्यभिघातसंयोगस्य हेतुत्वात्, अन्यथा तयोः कार्यकारणभावे तत्रैव व्यभिचारस्स्यात् । अथ कुड्यादिनिस्सृतभाषाभिन्नतादृशभाषां प्रत्येव ताल्वादिसंयोगस्य हेतुत्वमिति नोक्तदोष इति चेतर्हि
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सम्मति • काण्ड १, ०३
५०
किमपि व्यभिचारस्थलं न स्यात्, यस्मिन् यस्मिन् अनुमाने व्यभिचारो यत्र तदन्यत्वविशेषणदानस्य सुलभत्वात्, तस्मादुभयसंप्रतिपन्न स्पष्टाक्षरान्यथाऽनुपपच्या भगवन्मुखोच्चरितैव सेत्यभ्युपगन्तव्यम्, किञ्च स्याद्वादभाषायां भगवतोऽचिन्त्य पुण्यसंभारतया तन्मुखो चरितत्वाभ्युपगमे न किमपि प्रतिबन्धकमिति तत्र कुड्यादिनिस्सृतत्वस्य तत्र च भगवदतिशय कारणकत्वस्य तादृशदेशनायां भगवन्मुखोच्चरितत्वोपचारस्य च कल्पनायां बीजाभावान्न तथा क्लिष्टकल्पना युक्तिमती । किश्च लोके दृश्यमानमेवाचिन्त्यशक्तिकभगवदतिशय प्रभावाद्विशिष्टतरं भवति, न स्वदृष्टम्, तथा च पुरुषमुखोच्चरितैव भाषा लोकेऽनेकार्थबोधिनी दृश्यत इति भगवदतिशयप्रभावाद्. भगवन्मुखोश्च्चरितंत्र भाषाऽनन्तार्थबोधिनी भवति । सामान्यपुंसां यथाक्षयोपशमं क्वचित्कदाचित्परिमितार्थबोधेऽपि पुरुषधौरेय पुंसामपायापगमाऽतिशय हेतु कज्ञानातिशयात्प्रतिक्षणमपरिमितनिश्शेषार्थ साक्षात्कारवदिति कल्पनैव युक्तिमती, दृष्टानुसारिणी कल्पनैव प्रामाणिकी न त्वदृष्टानुसारिणीति न्यायात् अधिकमस्मत्कृततच्चार्थ विवरण गूढार्थदीपिकाख्यटीकातोऽवसेयम् । एतेन केवलज्ञानावाप्तौ कृतकृत्यत्वात् किमर्थ तीर्थकरणे प्रवर्त्तन्ते तीर्थकरा इत्यप्याशङ्का निरस्ता, यदि ते मुक्तात्मवत्सर्वथा कृतकृत्यास्स्युस्तदा नैव प्रवर्तेरन्, न चैत्रम्, अद्यापि भवोपग्राहि कर्मचतुष्टयस्यावशिष्टत्वात्, तदन्तर्गत पूर्वत् तीय भवाराधितविंशतिस्थानक्कतपोबलनिकाचितबद्धतीर्थकर नामकर्मोदयादेव तीर्थकरणे प्रवर्तन्त इति । उक्तश्च~" तीर्थप्रवर्त्तनफलं यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकरनाम | तस्योदयात्कृतार्थोऽप्य - हँस्तीर्थं प्रवर्त्तयति ॥ १ ॥
तत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्त्तनाय, प्रवर्त्तते तीर्थकर एवम् ॥ २ ॥ " इति ॥
तीर्थकराणां वचनं आचाराङ्गादिद्वादशविधं तीर्थकरवचनम्, न चाऽऽचाराङ्गादिवचनस्य गणधरभगवत्प्रणीतत्वान्नैवमिति वाच्यम्, यतः तच्छन्दतो गणधर भगवत्प्रणीत मध्यर्थतोऽईत्प्रभुनिर्दिष्टमेव, यदभिहितं 'अत्थं मासइ अरिहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं' इति, तस्य सङ्ग्रहविशेषौ, सम्यक् गृह्यते अनुगतबुद्ध्या ज्ञायते इति सङ्ग्रहः पूर्वोत्तरपर्यायेष्वनुगत बुद्धिजनक मूर्ध्वता सामान्यशब्दवाच्यं द्रव्यम्, न तु सदृशपरिणामलक्षणतिर्यक् सामान्य शब्दवाच्यम्, तस्य व्यञ्जनपर्याय एवान्तर्भावात्, विशिष्यते व्यावृत्तबुद्ध्या ज्ञायत इति विशेषो व्यावृत्तबुद्धिविषयो विशेष शब्दवाच्य सहभाविक्रमभाविभेदभिन्नः पर्यायः, सङ्ग्रह विशेषश्व सङ्ग्रहविशेष द्रव्यपर्यायौ, तयोः प्रस्तारः प्रस्तीर्यते विस्तीर्यते येन नयराशिना सङ्ग्रहादि - केनासौ प्रस्तारः, तस्य मूलव्याकरणी, " मूलमाद्ये शिफार्मयोः " इत्यमरकोशवचनान्मूलं आद्यम्, व्याक्रियते व्याख्यायतेऽनेनेति व्याकरणं व्याख्यानम्, तद्यस्यास्तीति व्याकरणी, मूलं चासौ व्याकरणी मूलव्याकरणी, आद्यव्याख्याता, व्याख्यानश्च न ज्ञानादृत इति आद्य
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सम्मति० काम्फ १, गा० ३
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ज्ञाता वा सङ्ग्रहप्रस्तारस्य सङ्ग्रहव्यवहारनयात्मकस्य, नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारानन्तर्भावे तु नैगमसहव्यवहारात्मकस्य वाऽऽद्यो वक्ता ज्ञाता वा द्रव्यार्थिकनयः । विशेष प्रस्तारस्य चर्जुसूत्रशब्दादेराद्यो वक्ता ज्ञाता वा पर्यायार्थिकनयः, तदेवाह - दवडिओत्ति, द्रु गताविति धातु:, ततश्च द्रवति तास्तान् स्वपर्यायान् प्राप्नोति मुञ्चति वेति तद् द्रव्यम्, यद्वा द्रवति गच्छति तास्तान् पर्यायानिति द्रव्यम्, कर्त्तरि यत् पूर्वोत्तरपर्यायानुगाम्यूर्ध्व तासामान्याख्यद्रव्यमिति भावः, अस्तीति मतिर्यस्यास्ति स आस्तिको द्रव्ये आस्तिको न तु पर्याये, तन्मते परमार्थभूतपर्यायाभावादिति द्रव्यास्तिका, द्रव्य - आस्तिकयोस्समासः । यद्वा द्रव्यमेवार्थी यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थः, द्रव्यार्थ एव द्रव्यार्थिकः । स्वार्थिकोऽत्र ठन् प्रत्ययः । अथवा द्रव्ये वस्तुतत्वबुद्ध्या स्थितः न तु पर्यांये इति द्रव्यस्थितः । अयं हि नयों द्रव्यमेव मृदादिलक्षणं निखिलस्थासकोश कुशूलकपालघटाद्याकारानुयायि वस्तु सन्मन्यते, तस्यैव तदाकारानुयायिनः स्थासोऽपि मृत् कोशोऽपि मृदित्येवमनुगत प्रतीतिविषयत्वात्, स्थासकोशाद्याकाराणां तु वासनाविशेषप्रभवविकल्पसिद्धत्वेनापारमार्थिकत्वात् । तदुक्तं नयोपदेशे
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तिर्यगूर्ध्वप्रचयिनः, पर्यायाः खलु कल्पिताः ।
सत्यं तेष्वन्वयि द्रव्यं, कुण्डलादिषु हेमवत् ॥ १ ॥” इति
इदं हि मतमशुद्ध मूलभूताशुद्धद्रव्यार्थिकनयस्य, शुद्धद्रव्यार्थिकनयस्तु शुद्धसङ्ग्रहनयमूलत्वेन मृद्रव्यहेमद्रव्यादिकमपि तस्य सत्सामान्यापेक्षया भेदरूपत्वेन कल्पनाशिल्पिनिर्मितमेव मनुते, वस्तुतो वस्तु मेदाभावात्, किन्तु 'सदेव सोम्येदमग्र आसीत् । एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन' इत्यादि श्रुतिसिद्धं ब्रह्मैव सत्, स्वस्त्रपर्यायानुगत
मृद्रव्यादिष्वपि सर्वेषु सत्सदित्यनुगतप्रतीतेः, यदेवावाधितकालत्रयानुगतप्रत्ययगोचरीभूतं तदेव सत्, नान्यत्, अत एवैतन्मते त्रिकालाबाधितत्वं पारमार्थिक सच्चं गीयत इति । पजवणओ - इति-परि समन्तात् अवनं अत्रः - पर्यवो- विशेषः, नयनं नयः, वस्त्वेकांशपरिच्छेदः, पर्यवाणां नयः पर्यवनयः, अत्र लुप्तषष्ट्या विषयत्वार्थकत्वेन पर्यवविषयको ज्ञानारमको नयः पर्यवनयः, पर्यवाभ्युपगन्ता नयः पर्यवनय इति यावत्, लुप्तषच्या वा प्रतिपादकत्वार्थकत्वेन पर्यत्रप्रतिपादको वाक्यात्मको नयः पर्यवनय इति । ननु गुणविषयक - स्तृतीयो गुणार्थिकनयोऽप्यत्र किमिति नोक्त इति चेत्, उच्यते, गुणस्य पर्याय एवान्तभूतत्वेन पर्यायार्थिक इत्यत्र पर्यायशब्दस्य पर्यायसामान्यवाचित्वात्तेन क्रमभाविपर्यायसहभाविगुणोभयाभिधानात्पर्यायार्थिकनयेनैव चरितार्थत्वात् । एतेन अर्थ: सामान्यविशेषात्मा अन्यथानुपपद्यमानाऽबाध्यमानानुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्, न चात्र हेत्वसिद्धिः, तत्तघटेषु घटोsयं घटोऽयमित्यनुगतप्रत्ययस्य ताम्रो मार्तिकः सौवर्ण इति पटादिर्वा
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सम्मति० काण्ड १, गा० ३ न भवतीति च व्यावृत्तप्रत्ययस्यावाध्यमानस्य प्रतिप्राणिप्रतीतेः, तथा चैतदनुमानसिद्धौ यौ द्रव्यपर्यायव्यतिरिक्तो सामान्यविशेषौ तद्ग्राहिणावतिरिक्तनयो किमिति नोक्तावित्यपि शङ्का निरस्ता, तयोर्द्रव्यपर्यायान्तर्भावात् , तथाहि ऊर्ध्वतासामान्यतिर्यक्सामान्यभेदेन सामान्यं द्विविधम् , तत्र पूर्वापरपर्यायेष्वनुगतप्रतीतिविषयीभूतं त्रिकालानुयायिवस्त्वंशलक्षणमूर्ध्वतासामान्यं द्रव्यरूपमेव, तस्यैव तद्रूपत्वात् , "पूर्वोत्तराखिलविवर्तसमूहवर्ति, द्रव्यस्वभावमिति युक्तिवलात्प्रसिद्धम् । . सामान्यमन्वयधियः पदमूर्खताख्यम् , येन प्रमुक्तमिह किञ्चन नास्ति वस्तु॥"
इत्युक्तेः। तिर्यक्सामान्यं तु प्रतिव्यक्तिसदृशपरिणामलक्षणं शब्दसङ्केतोपयोगित्वेन व्यञ्जनपर्याय एवान्तर्भूतम् , " स्थला: कालान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनपर्यायाः" इति प्रावनिकप्रसिद्धेः । विशेषोऽपि पर्याय एवान्तर्भूत इति नैताभ्यामधिकनयावकाशः । एवं भेदोऽपि पर्यायात्मा अभेदश्च द्रव्यात्मेति न ताभ्यामप्यतिरिक्तनयावकाश इति । अत्र छन्दोमङ्गभयात् 'पर्यायास्तिक' इति वक्तव्ये 'पर्यवनयः' इत्युक्तम् , तेन पर्यायास्तिकेत्यस्याप्ययमर्थः, पर्येत्युत्पादविनाशौ प्रामोतीति पर्यायः, तत्रैव 'अस्तीति मतिरस्य स पर्यायास्तिकः, यद्वा पर्याय एवार्थः पर्यायार्थः, सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः, यहा पर्याये न तु द्रव्ये स्थित इति पर्यायस्थितः। तत्र पर्यायास्तिकनयमतश्चैवम्-शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन ब्रह्ममात्रस्यैव सत्त्वाऽभ्युपगमे एको बद्धः, एको मुक्ता, एकः सुखी, एको दुःखी, एको रङ्क, एको धनाढ्य इत्यादिभेद व्यवस्थोच्छिन्ना स्यात् , सा काल्पनिकीति चेत्, तर्हि ब्रह्मैव सदित्यपि कल्पनाशिल्पिनिर्मितस्वसिद्धान्तवासनाप्रभवत्वेन काल्पनिकं किन्न स्यात् । नन्वभेदप्रतीतेस्त्रिकालाबाधितत्वात्तद्विषयीभूतोऽभेद एवं युक्तो न तु भेद इति चेत् , तर्हि चन्धमोक्षव्यवस्थानुपपत्तिस्स्यात्, यत आत्मनो बद्धत्वे मोक्षस्य तद्विरुद्धधर्मत्वात्तदनुपपत्तिः, पूर्व बद्धः पश्चान्मुक्त इति चेत्, तर्हि विरुद्धधर्माध्यासाझेदापत्तिरिति नैकस्य स्थिरस्य बन्धमोक्षाविति । कालत्रयवर्ति न किञ्चिदपि वस्तु सत्, क्रमयोगपद्याभ्यामक्रियाकारिस्वाभावात् , किन्तु यत्सत्तक्षणिकमिति व्याः क्षणिकमेव सत् , अत एवैतन्मते उत्पादध्यययोरर्थक्रियाकारित्वलक्षणसत्त्वनियतत्वात् सत्ववद्वस्तुमात्रं तच्छालीति गीयते, तस्मा. पर्यायार्थिकनयाऽभ्युपगतार्थवाधने द्रव्यार्थिनययुक्तय इव द्रव्यार्थिकनयाभ्युपगतविषय. बाधने पर्यायार्थिकनययुक्तयोऽपि तुल्यवदेवोजम्मन्त इति नैकत्र पक्षपातः कार्य:, किन्तु परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायोभयोपग्रह एव विधेय इति तत्वम् , अत एवान्ययोगद्वात्रिंशिकायां कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिपादैः
" य एव दोषाः किल नित्यवादे, विनाशवादेऽपि समास्त एव । .. परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु, जयत्यधृष्यं जिन ! शासनं ते ॥ २६ ॥"
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सम्मति. काण्ड १, गा० ३
इत्युक्तं सङ्गच्छते । अथ "मूलव्याकरणी" इत्यस्य द्रव्यास्तिकपर्यायनयावभिधेयाविति द्वित्वाद्विवचनेन भाव्यमिति चेत् , मैवम् , प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तेरेकवचनस्यैवो: चितत्वात् । अत एव चकारद्वयं सूत्रे निर्दिष्टम् , तथा च सिद्धमेतद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको मूलनयाविति । तदुक्तम्
"तदित्थं न्यायतः सिद्धौ, द्रव्यपर्यायगोचरौ।
द्वावेव नैगमादीनां, मूलभूतो नयाविह ॥१॥" इति ॥ एतेन नामादिचतुष्टयद्वारतो द्रव्यक्षेत्रादिचतुष्टय द्वारतश्च तन्मूलनयचतुष्टयप्रसअनं प्रत्युक्तम् , नामादीनां द्रव्यक्षेत्रादीनां च द्रव्यपर्याययोरेवान्तर्भावादिति, "सेसा वियप्पा सिं" शेषास्तु सङ्ग्रहाङ्जुसूत्रादयो विकल्पा भेदा अनयोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोः । 'सिं इति "बहुक्यणेण दुक्यणं " इति प्राकृतशैल्या द्विवचनस्थाने बहुवचनम् । यद्यपि परमार्थदृष्ट्या वस्तुमात्रं परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायोभयात्मकमेव उत्पादव्ययधोव्यलक्षणसवा. न्यथानुपपत्तेः, अत एव यत्सत्तत्सर्वमने कान्तात्मकमर्थक्रियाकारित्वात् स्वविषयाकारसंवित्तिवदित्यनुमानेनानेकान्तात्मकमेव सिद्धं तथाप्येकान्तार्थाऽवगाहित्वेन द्रव्यार्थिककुनयो द्रव्यातिरिक्तान् पर्यायान् निरस्यैकान्तद्रव्यग्राहकः, एवमेकान्तार्थावगाहित्वेन पर्यायार्थिककुनयः पर्यायव्यतिरिक्तद्रव्यनिरासेनैकान्तपर्यायग्राहकः, द्रव्यार्थिकसुनयस्तु द्रव्यव्यतिरितपर्यायान निराकरोति न वा स्वीकुरुते, किन्तु तत्रोदासीनवृत्या द्रव्यग्राहकः, पर्यायार्थिकसुनयोऽपि गजनिमिलिकान्यायेन पर्यायव्यतिरिक्तद्रव्यौदासीन्यवृत्या पर्यायग्राहकः । तद्भेदजिज्ञासायामाद्यस्य नैगमसहव्यवहाराख्यभेदाः, तदुक्तं वादिदेवसूरिपादैः प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारे-"आयो नैगमसहव्यवहारभेदात्त्रेधेति । ७।६ । एतत्प्रकरणकारमतमाश्रित्य भाष्ये
"जो सामन्नग्गाही, स नेगमो संगहं गतो अहवा। ___इअरो ववहारमितो, जो तेण समाणनिहेसो ॥१॥" इत्युक्तेः सामान्यग्राहिणो नैगमस्य सङ्ग्रहे, विशेषग्राहिणश्च तस्य व्यवहारनयेऽन्तर्भावकरणात्तन्मतेन सहव्यवहाराख्यभेदी, द्वितीयस्य चोभयमतेऽपि ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैव. म्भूताख्या विकल्पा वाच्याः, यदभ्यधायि प्रमाणनयतयालोकालङ्कारे "पर्यायार्थिक चतुर्धा ऋजुत्रः शब्दः सममिरूढ एवम्भूतश्च" |७-२७।। इति । भाष्येऽप्युक्तम्-"संगहयवहारा पढमगस्स सेसा य इयरस्स" ।। ७५ ॥ इति, सैद्धान्तिकमते-“उज्जुसुअस्स एगो अणुवउत्तो आगमतो एग दवावस्मयं पुहुत्तं नेच्छह" इत्यनुयोगद्वारसूत्रोक्त्या ऋजुसूत्रस्य द्रव्यार्थिकत्वप्रतिपादनात्तस्य नैगमसहव्यवहार सूत्राख्याश्चत्वारो भेदाः, पर्यायार्थिकनयस्य च त्रयो भेदा: शब्दसमभिरूढेवम्भूताख्या इति । तार्किकानुसारिमतेनोक्तसूत्रे
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सम्मति• काण्ड 1, गा•४ ऋजुसूत्रनयेन वर्तमानावश्यकपर्याये द्रव्योपचारः क्रियत इत्यौपचारिकद्रव्यावश्यकाभ्युपगमेऽपि न पर्यायार्थिकन यचतुर्भेदक्षतिः, तेन नयेन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपकरणाव, मुख्येनैव च विभागो युक्त इति । अत्र वैशेषिकमते भावत्वाभावत्वयोः पदार्थत्वव्याप्यत्वविवक्षां कृत्वा भावः षड्विधः अभावश्च चतुर्विध इति विभागवद् द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वयोनयत्वव्याप्यत्वविवक्षा कृत्वैव द्रव्यार्थिकः तत्तत्सरिकतविवक्षाभेदतो द्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विषो वा, पर्यायाथिकनयश्च चतुर्विधस्त्रिविधो वा इति विभक्तविभागः कृतः । वैशेषिकमते भावत्वाभावत्वयोः पदार्थत्वव्याप्यत्वेऽपि तदविवक्षायां द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वसामान्यत्वविशेषत्वसमवायत्वाभावत्वानां पदार्थत्वव्याप्यत्वे सति पदार्थत्वव्याप्याव्याप्यत्वलक्षणविभाजकत्वात्तद्रूपेण यथा पदार्थविभागोऽङ्गीक्रियते तथाऽऽहंतमतेऽपि द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वयोनयत्वव्याप्यत्वेऽपि तदविवक्षायां तु सङ्ग्रहत्वनेगमत्वादिसप्तधर्माणां नयविभाजकत्वात्तद्रपेण मूलसप्तनयविभाग एव युक्तः। उक्ताशयेनैव “से किं तं नए ? सत्त मूलणया पन्नत्ता तं जहा-णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, सममिरूदे, एवंभूए, इति सूत्रं सङ्गच्छते, न तु भावाभावद्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायप्रागभावध्वंसाऽत्यन्ताभावाऽन्योन्याभावा द्वादश पदार्था इतिवद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनैगमसनव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भृता नव नया इति मूलनयविभागो युक्ता, किन्तु द्रव्यत्वगुणत्वादीनां सप्तधर्माणां मिथो विरोधिधर्मत्ववद्भावत्वाभावत्वयोर्न द्रव्यत्वगुणत्वादिभिस्सह मिथो विरोधिधर्मत्वमिति तद्घटितधविभागाभाववन्नैगमत्वसवहत्वादिसप्तधर्माणां मिथो विरोधिधर्मत्वात्तद्रूपेण मृल. नयविभागसम्भवेऽपि द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वयो गमत्वसङ्ग्रहत्वादिधर्मेस्सह मिथो विरोधाभावात्तद्घटितनवधर्मेण मूलनयविमागाभाव एव युक्तः, अत एव न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायैस्स्वकृततत्वार्थविवरणे "एतेन नवनया द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थको नैगमः सनहश्चेत्यादिविभागो जैनाभासस्य दिकपटदेशीयस्य देवसेनस्य निरस्तो द्रष्टव्यः, भेदप्रभेदानां सहोक्तो विभागवाक्यविधातात् , "न हि भवति मू मूर्तपृथिव्यप्तेजोवावाकाशकालदिगात्ममनास्येकादश द्रव्याणीति विभजतो वैशेषिकबालस्य चतुर्दशभूतग्रामे त्रसेवरमेदद्वयं प्रक्षिप्य षोडशधा विभजतो वाऽऽर्हतवालस्य नोपहासः' इत्युक्तं सङ्गच्छते ॥३॥ ___ अथ "सेसा वियप्पा सिं" इत्यनेनैतत्प्रकरणकारमतेन सङ्ग्रहप्रस्तारमूलव्याकरणिद्रव्यार्थिकस्य सङ्ग्रहव्यवहारनयाख्यो द्वौ विकल्पी ग्राह्यो, अत एवोत्तरगाथायामुक्तभेदद्वयस्यैव शुद्धाशुद्धस्वभावप्रदर्शनं कृतं, तत्राद्यो भेदः शुद्धस्वमात्रः, द्वितीयस्त्वशुद्धस्वभाव इति प्रतिपादयितुं चतुर्थी गाथामाह सूरिः
दव्वट्टियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।। (पडिरूवे) पडिरूवं पुण वयणस्थनिच्छओ तस्स ववहारो ॥ ४ ॥ .
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सम्मति. काट १, पा. ४
द्रव्यार्थिकन यस्य प्रकृतिः शुद्धा सङ्ग्रहप्ररूपणाविषयः, सङ्ग्रहस्य सङ्ग्रहनयस्य प्ररूपणाअभिधायकपदसंहतिः तद्विषयः, अत्र विषयेण विषयिग्रहणं कर्तव्यमिति तद्वाच्यार्थविषयकं यज्ज्ञानं तद्रपा, अशुद्धां तामाह-'पडिस्वे' इत्यादि । घटादिनाऽशुद्धद्रव्येण सह सङ्कीर्णा या सत्ता तल्लक्षणे प्रतिरूपे वचनार्थनिश्चयो व्यवहारस्तस्य द्रव्यार्थिकनयस्थ पुनरिति प्रकृति स्मारयतीति अशुद्धा प्रकृतिरिति सचिसार्थः, विस्तृतार्थस्त्वेवम् "दछद्वियनयपयडी" द्रव्यार्थिकनयप्रकृतिः प्रागुक्तार्थस्य द्रव्यास्तिकनयस्य "संसिद्धिप्रकृती त्विमे स्वरूपं च स्वभावश्च निसर्गश्च" इत्यमरकोशवचनात् प्रकृतिस्स्वभावः 'सुद्धा' शुद्धा विशेषाऽसंमिश्रा विशेषानवगाहिनीति यावत् । सा केत्यत आह-'संगहपरूवणाविसओ' इति, सङ्ग्रहप्ररूपणाविषय इति । सङ्गृह्णाति सामान्यरूपतया सर्व वस्तु क्रोडी. करोतीति सङ्ग्रहः । यद्वा सर्वेऽपि भेदास्सामान्यरूपतया सङ्गह्यन्तेऽनेनेति सङ्ग्रहः, सर्ववस्त्व. भेदग्राहिनयः सङ्ग्रहनय इति यावत् , तस्य प्ररूपणा-घटायर्थो वक्त्रा प्ररूप्यते प्रतिपाद्यतेऽनया सा प्ररूपणा-इति व्युत्पत्तिसिद्धाऽभिधायकपदसंहतिः, तस्या विषयः प्रतिपाद्यः, अत्र सङ्ग्रहप्ररूपणाविषय इत्यनेनोपचारतो विषयेण विषयिणोऽभिधानात् सङ्ग्रहप्ररूपणाऽमिधेयार्थविषयक ज्ञानं ग्राह्यम् , अन्यथा का प्रस्तावः शुद्धद्रव्यार्थि केऽभिधातुं प्रक्रान्ते सङ्ग्रह प्ररूपणाविषयाऽभिधानस्य ?, यतः शुद्धद्रव्यार्थिकनयो ज्ञानात्मक इति तत्प्रकृतिश्शुद्धा सङ्ग्रहनयज्ञानात्मिकेत्यभिधातुं युक्तम्, न तु सङ्ग्रहप्ररूपणाविषय इति, ननु सङ्ग्रहनयाभिप्रायतस्सङ्ग्रहप्ररूपणाऽभिधेयः सदात्मकभाव एवेत्यत्र का युक्तिरिति चेत् , उच्यते, यानि सुबन्तानि तिङन्तानि वा पदानि वाक्यानि वा तदर्थमात्रस्य भावस्वरूपव्यतिरिक्तत्वे शशशृङ्गकल्पत्वापत्या सुबन्तार्थत्वं तिङन्तार्थत्वं वा न स्यादिति तयोः सन्मात्रस्वरूपभाव. रूपत्वमेवेति, ननु यत्र तिङन्तक्रियापदं न श्रूयते तत्र का गतिरिति चेत्, उच्यते, तत्रा. स्तिभवतीत्यादिक्रियाऽध्याहार्या, अत एव वैयाकरणैः " सर्व वाक्यं क्रियया परिसमाप्यते" इति मन्यते, उक्ताशयेनैव "अस्तिभवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति गम्यते" इति पातञ्जलभाष्येऽपि (अध्याय २, पा.३, सू. १, वार्तिक ११) इत्युक्तं सङ्गच्छते । शशशृङ्गादे - नाभावाज्ज्ञानविषयत्वं सद्पताव्याप्यमिति सद्रूपत्वे सत्येव पदार्थानामवगतिर्भवितुमर्हति, नान्यथा, सदूपत्वपरित्यागे घटपटादिवस्तुमात्रं निस्स्वरूपं स्यादित्यस्त्यर्थः सत्तालक्षणोऽर्थः सर्वशब्दानाम् , तथा चान्तर्णीताशेषविशेष सन्मात्रमेवाध्यक्षस्य शब्दस्य वा विषय इति सिद्धम्। नन्वेवं घटत्वेन घटोऽयं पटत्वेन पटोऽयमित्याद्याकारमपि ज्ञानमनुभूयते, न च घटत्वं पटत्वादिकं वा सत्तात्मकम् , तस्य तद्वयाप्यत्वेन विशेषरूपत्वादिति चेद्, घटत्वपटत्वादि. विशेषोऽपि सन्नेव अन्यथा शशशृङ्गादेरिव तस्य ज्ञानविषयत्वं न भवेत् अतस्सर्वविशेषात्मक सन्नेव कदाचिद् घट इति कदाचिच्च पट इत्यादिरूपेण प्रतिभासते, यथैकमेव पानकद्रव्यं मधुरादिरसमयं मधुरादितत्तद्रसात्मना प्रतीयते तद्वत्प्रकृतेऽपि । न च घटपटादेः सद्रूपव्य
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सम्मति० काण्ड 1, गा. तिरिक्तस्वरूपस्याऽभावे घटः पटादिभिन्नः पटश्च घटादिमिना, अयं ब्राह्मणः अयं राजन्य इत्यादिभेदव्यवहार उच्छिन्नस्स्यादिति वाच्यम् , यत एकस्मिन् चन्द्रमसि तिमिररोगोपप्लुतदशा द्वित्वप्रतिभासवद् भेदप्रतिपादकस्वस्वागमजन्यवासनावासितचित्तानां भेदप्रतिभासेनाभिन्नमपि भिन्नवदाभासत इति पदार्थभेदावमासो भ्रान्त एव, न तु यथार्थ इत्येवं सर्व भेदा. पलापी सर्वे सन्मात्रतया सगृहन् संग्रहः शुद्धा द्रव्यास्तिकनयप्रकृतिरिति व्यवस्थितम् । एतेन द्रव्यार्थिकनयशुद्धप्रकृतिसङ्ग्रहनयविषयप्ररूपणापरस्सच्चिदानन्दस्वरूपब्रह्मवादश्शुद्धद्रव्यार्थिकांशः, तन्मते हि ब्रह्मभिन्नस्याशेषजगतो नामरूपात्मकस्य मिथ्यात्वम् , ब्रह्मणस्त्वद्वितीयसचिदानन्दात्मकस्य त्रिकालाबाधितस्वरूपतया सत्यत्वम् , यतो ब्रह्मैव तेन तेन घटाद्यात्मनाऽवभासते, तथा च सर्पमालावस्त्रादौ सर्वत्रेदस्वरूपस्येव घटपटमठादो सर्वत्र ब्रमात्मकसद्रूपस्यानुगामित्वात्तदेव परमार्थसदिति घटपटादिरूपस्य जगतः सत्ता ब्रह्मसत्तैव, अतो ब्रह्मरूपेण सर्वस्यैकत्वमिति सङ्ग्रहनयमूलकत्वं वेदान्तदर्शनस्येति । भर्तृहरिस्वीकृतशब्दसन्मात्रस्वरूपब्रह्मवादोऽपि शुद्धसङ्ग्रहनयमूलक एव, वैयाकरणाभ्युपगतिरप्येतद्वादावलम्बि. न्येच, एतन्मते शब्दब्रमस्वरूपेण सर्वस्यैक्यात् । उक्तश्च वाक्यपदीये ग्रन्थे प्रथमकाण्डे "अनादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतत्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः ॥ १ ॥ न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं, सर्व शब्देन भासते ॥२॥ वायूपता चेद् व्युत्क्रामे-दवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशःप्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी॥३॥" इति । अत एव नयोपदेशे "जातं द्रव्याथिकाच्छुद्धादर्शनं ब्रह्मवादिनां । तत्रैके शब्दसन्मानं चित्सन्मानं परे जगुः ॥ ११० ॥ इत्युक्तं सङ्गच्छते । नन्वनेन द्रव्यार्थिकन यस्य सनहनयप्ररूपणाविषयविषयकज्ञानरूपा शुद्धा प्रकृतिरुक्ता, अस्याऽशुद्धा प्रकृतिः केत्याशङ्कायां तामुपदर्शयितुमुत्तराद्धमाह " पडिरूवे पुण वयणस्थनिच्छओ तस्स ववहारो" प्रतिरूपे पुन: वचनार्थनिश्चयः तस्य व्यवहारः, प्रतिरूपं प्रतिबिम्बं घटादिनाऽशुद्धद्रव्येण सङ्कीर्णा सत्ता, स्वरूपसत्तेति यावत् , तस्मिन्प्रतिरूपे यो वचनार्थनिश्चयस्स व्यवहार:-व्यवहारनयः तस्य द्रव्या. र्थिकस्य पुनरिति प्रकृति स्मारयतीति प्रकृतिः । वचनार्थनिश्चय इत्यस्यायमर्थ:--उच्यत इति वचनम् , हेयोपादेयोपेक्षणीयविषयनिवृत्तिप्रवृत्युपेक्षालक्षणव्यवहारसम्पादनार्थमुच्यमानं घटोऽस्तीत्यादिवाक्यम् , तस्य घट इति विशेषस्वरूपतयाऽस्तीति सामान्यस्वरूपतयाऽभि. धेयो व्यवहारक्षमो योऽर्थः तस्य निश्चयो-निश्चयनं निश्चय:-निर्णयः, व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवहारः, लोकप्रसिद्धव्यवहारप्रवर्तनपरो नयो व्यवहारनयः। तथा च निवृत्तिप्रवृत्युपेक्षालक्षणव्यवहारसम्पादकशब्दार्थनिश्चयो व्यवहारनयस्तस्य द्रव्यार्थिकनयस्याऽशुद्धा प्रकृतिरितिभावः । पडिरूवं इत्येवं प्रथमान्तत्वे तु प्रतिरूपं प्रतिबिम्बं विशेषेण घटादिनाऽशुद्धद्रव्येण सङ्कीर्णा सत्तेति यावत् पुनश्शब्देन प्रकृतिः स्मार्यत इति सा प्रकृतिः-स्वभावः । अत्रापि विषयेण विषयिग्रहणं कार्यमिति घटाद्यशुद्धद्रव्यसङ्कीर्णसत्ताग्राहिज्ञानास्मिका
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सम्मति
५७
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प्रकृतिः, कस्य प्रकृतिः किं नयस्वरूपा च सा, स नयश्च किंस्वरूप इत्याशङ्कामुक्तार्थ स्पष्टीकरणेन समाधत्ते - वचनार्थनिश्चयस्तस्य व्यवहार इति, तस्यार्थः पूर्ववदिति । यथाभूतयावद्विषयाम्युपगमे सति प्रवृत्तिनिवृत्युपेक्षालक्षणो लौकिकव्यवहारः प्रवर्त्तते तथाभूततावद्विषयकज्ञानमेव तथाभूतव्यवहारनिदानमभ्युपगन्तव्यम्, तत्र प्रवृत्तिलक्षणो व्यवहार उपादेयतावच्छेदकरूपेणोपादेयविषयको भवतीति तत्रोपादेयतावच्छेदकीभूतो यो धर्म इष्टसाधनतावच्छेदकधर्म पर्यवसितस्तद्रूपेणोपादेयस्येष्टसाधनस्य ज्ञानं कारणम्, एवं निवृत्तिलक्षणो व्यवहारो हेयतावच्छेदकधर्मेण हेयविषयको भवतीति तत्र हेयतावच्छेदकीभूतो योऽनिष्टसाधनतावच्छेद की भूतधर्म पर्यवसितः तद्रूपेण हेयस्य द्विष्टसाधनस्य ज्ञानं कारणम्, एवमुपेक्षालक्षणो व्यवहार उपेक्षणीयतावच्छेदकधर्मरूपेणोपेक्षणीय विषयको भवतीति तत्रोपेक्षणीयतावच्छेदको धर्म इष्टसाधनत्वानिष्टसाधनत्वान्यतरानवच्छेदकधर्म पर्यवसितस्तद्रूपेणोपेक्षणीयस्येष्टसाधनानिष्टसाधनान्यतराऽनात्मकस्य ज्ञानं कारणम् । एवञ्च सङ्ग्रहनयविषयः केवलसत्चैत्र, न वस्तु, तस्याः सत्ताया एकस्या एकरूपत्वस्यैव युक्तत्वेन हेयरूपत्वे निवृत्ति लक्षण एव व्यवहारस्स्यात्, न प्रवृत्यादिरूपः एवमुपादेयरूपत्वे प्रवृत्तिलक्षण एव व्यवहारस्स्यात्, न निवृग्यादिलक्षणः, एवमुपेक्षणीयरूपत्वेऽप्युपेक्षा लक्षण एव व्यवहारस्स्यात्, न तदन्यो व्यवहारः । वस्तुत एकोऽपि व्यवहारस्तत्र न भवेत्, तदवच्छेदकस्य कस्यचिद्धर्मस्य धर्मिभिन्नस्य द्वैतापत्तिभियाऽभ्युपगमात्सम्भवात् इति लोकव्यवहार सिद्ध्यर्थं परस्परतो विभिन्नस्वभावा हेयोपादेयोपेक्षणीयस्वरूपा भावास्तत्तद्धर्मावच्छिन्नास्सन्तो व्यवहारोपयोगिशब्दप्रभवसंवेदने प्रतिभासन्त इत्यभ्युपगन्तव्यमिति व्यवहारनयाभिप्रायः । यश्च सर्व वाक्यं क्रियया परिसमाप्यते " इति नियमः प्रागुक्तः सोऽपि नाभ्युपगम्यते । न च यत्रान्यत्क्रियापदं न श्रूयते तत्रापि " अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्वीति गम्यते " इति भाष्यवार्तिकवचनविरोधस्स्यादिति शङ्कनीयम्, तस्य यत्र किश्चिस्क्रियापदमध्याहर्तुं शक्यते तादृशस्थलविषयकत्वेना सार्वत्रिकत्वात्, यत्र तु स्थले कस्यापि क्रियापदस्य नाध्याहारस्सम्भवति तत्र तु क्रियां विनाऽपि वाक्यपरिसमाप्तिर्भवत्येव यथा त्रयः कालाः' इत्यादौ, अत्र सन्तीत्यध्याहारे भूतभविष्यत्कालयोस्तत्रानन्वयापत्तेः, आसन् इत्यध्याहारे वर्त्तमान भविष्यत्कालयोस्तत्रानन्वयापत्तेः, भविष्यन्तीत्यध्याहारे भूतवर्त्तमानकालयोरन्वयस्तत्र न स्यादिति तत्र क्रियापदं विनैव वाक्यपरिसमाप्तित्रदन्यत्रापि यत्र क्रियापदं न श्रूयते तत्रापि क्रियापदं विनैव परिसमाप्तिः परिकल्पनीयेति ।
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० काण्ड १, गा०-४
यच्च सङ्ग्रहनयमूलप्रकृतिकवेदान्तदर्शने घटपटमठादौ सर्वत्र सन् सन्नित्यनुगत प्रतीतिविषयत्वाद् ब्रह्मात्मकसत्चैव पारमार्थिकीत्याद्यर्थकं प्रागुक्तं तदप्यसङ्गतमेव, यतः प्रतीतिमा - त्रस्य विशेष्यीभूतधर्म्यशे प्रामाण्यमेवाऽविमानेन तवज्ञैस्सर्वैरभ्युपगतं, प्रकारांशे तु
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सम्मति० काण्ड , गा। प्रमात्मकप्रतीतो प्रामाण्यं तदितरत्र तदितरदिति विशेष्यविधया भासमानघटपटादयस्सन्त एवाभ्युपगन्तव्याः, स्वसिद्धान्ततत्वमिथ्याभिनिवेशवलात् तत्र प्रकारांशविधया भासमाना ब्रक्षात्मकसत्ता स्वप्रामाणिक्येव, पित्तमण्डूकवसाञ्जनादिदोषबलादेव श्वेतवस्तुमात्रे प्रतीय मानपीतत्ववत् | अथ श्वेतवस्तुमात्रेऽनुगतत्वेन प्रतीयमानमपि पीतत्वं बाधितम् , दोष. निवृत्ती यन्मया प्राक् पीतत्वेनोपलब्धं तन पीतमित्युत्तरकालबाधकप्रत्ययभावात् । ब्रह्म सत्ता तु कालत्रयेऽप्यवाधिता, कदापि तत्र बाधकप्रत्ययाभावादिति कालत्र यावच्छिन्नाबा. धितब्रह्मसत्तैव पारमार्थिकीति चेत् , तर्हि धयंशे ज्ञानमात्रस्य सर्वैरपि प्रेक्षादक्षरविगानेन प्रामाण्याऽभ्युपगमाद् घटः सन् पटस्सन्नित्यादिप्रतीतो धर्मिभूत घटपटादयोऽपि पारमा. र्थिका अभ्युपगन्तव्याः। अथ "सदेव सोम्येदमग्र आसीत् , एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन" इत्यादि श्रुतिश्रवणमनननिदिध्यासनप्रयुक्तसुदृढदशापनामेदभावनाजन्यब्रह्मतत्वसाक्षात्कारे सर्वेषां वस्तूनां मिथ्यारूपतयैव प्रतीयमानत्वाम ते परमार्थतः सत्याः, किन्तु व्यवहारत इति चेद् , मैवम् , पूर्वोत्तरपर्यायाभ्यां स्वद्रव्येण चोत्पादव्ययधौ. व्यानुभवादिप्रमाणेन यदेवोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं तदेव सदिति साधितत्वेन साधयिष्यमाणत्वेन चोत्पादादिधर्मत्रयाक्रान्तभावावगाह्यबाधितप्रतीतिविषयत्वेन तेषामेव परमार्थतः सदूप. स्वात् । एकान्ताभिन्नैकस्वरूपे ब्रह्मतत्वे उक्तसल्लक्षणस्याऽघटमानत्वेन तस्याऽसद्रूपत्वात् । मेरुवन्नैव केऽपि भावाः शाश्वताः, किन्तु काश्चनकामिन्यादिसंयोगवदनित्या इति शेयबुध्ध्या सम्यग् विज्ञाय प्रत्याख्यानप्रतिज्ञया सर्वथा तत्परित्यागकरणेनैकत्वादिभावनाप्रशस्तध्यानादिरलेन सच्चिदानन्दलक्षणब्रह्मस्वरूपावाप्तावपि तस्य ज्ञेयपरिणतिभेदेन प्रतिक्षणं तद्विषयकज्ञानपरिणतिभेदभावादुत्पादादिसल्लक्षणयुक्तत्वादेव सत्स्वरूपत्वमभ्युपगन्तव्यम् । न च व्यवहारोऽप्याप्तपुरुषव्यवहृतोऽप्रामाणिकः, अन्यथा कश्चेतयिताऽप्रामाणिकव्यवहार मभिजानन् प्रवर्तेत निवर्तेत वेति व्यवहारस्यैव विलोपेन जगन्निरीहं स्यादित्याप्तपुरुषकृतव्यवहारसिद्धिभाजो विभिन्नभावाः परमार्थभूता एवाभ्युपगन्तव्या। किञ्च ब्रह्मात्मकसत्ताविप्रतिपन्नान् प्रति तत्साधकाऽनुमानमेव प्रमाणतया शरणीकर्तव्यम् । तच्च पक्षसाध्यहेत्वादिपरिकरपरिकरितत्वेनाने कपटितमिति तस्य प्रामाण्ये द्वैतापत्तिः । अप्रामाण्ये ब्रह्मा. स्मकसवाऽसिद्धिः, उक्तश्च" हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् , द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः।
हेतुना चेद्विना सिद्धि-द्वैतं वाङ्मावतो न किम् ? ॥१॥" इति एवं ब्रह्माद्वैतवादे "कर्मद्वैतं फलद्वैतं, लोकद्वैतं विरुद्ध्यते । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात, बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥१॥" इत्याद्यापत्तिश्च ज्ञेयेति । यद्वा " प्रतिशब्दस्य वीप्सायां कर्मप्रवचनीयसंज्ञाविधानसामर्थ्याद् द्वितीयामर्भ
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सम्मति. काळ १, गा० ४ वाक्यमपि " इत्युक्तेर्थमर्थ प्रतीतिवाक्यस्वरूपम् , प्रत्यर्थमिति व समस्तरूपमिक, वृक्षं वृक्षं प्रति विद्योतते विद्युदित्यत्र वृक्षं वृक्षं प्रतीतिवाक्यस्वरूपम् , प्रतिवृक्षमिति च समस्त. रूपमिव वा, रूपं रूपं प्रतीति-वाक्यस्वरूपम् , प्रतिरूपमिति तु समस्तरूपम् , तत्र प्रतिशब्दो वीप्सायाम् , रूपशब्दश्च वस्तुन्यत्र प्रवर्तते, तेनायमर्थ:-रूपं रूपं प्रति वस्तु वस्तु प्रति यो वचनार्थनिश्चयस्स व्यवहारो व्यवहारनयः, तस्य द्रव्यार्थिकनयस्य प्रकृतिः स्वभाव इति। तस्य विवेचनमेवं सम्मतितर्के कृतम्-प्रतिरूपमेव वचनार्थनिश्चयो व्यवहारे हेतुन पुनः रस्तित्वमात्रनिश्चयः, यतः 'अस्ति' इत्युक्तेऽपि श्रोता शङ्कामुपगच्छन् लक्ष्यते, अत: 'किमस्ति ' इत्याशङ्कायो' द्रव्यम्' इत्युच्यते, तदपि किम् ? पृथिवी, साऽपि का ? पक्षा, सोऽपि कः १ चूतः, तत्राऽप्यर्थित्वे यावत् 'पुष्पितः'' फलितः' इत्यादि तावनिश्चिनोति यावद्व्यवहारसिद्धिरिति । व्यवहारो हि नानारूपतया सत्ता व्यवस्थापयति, तथैव संव्य. वहारसम्भवात् , अतो व्यवहरतीति व्यवहार इत्यन्वर्थसंज्ञां बिभ्रत् अशुद्धा द्रव्यार्थिकप्रकृतिर्भवतीति । अस्यायम्भाव:-यावता विशेषोपगमेनापालगोपालसाधारणो व्यवहारस्समर्थितो भवति तावानेव विशेषसन्तानो व्यवहारविषय इति निर्णीयते । इत्थश्च व्यवहारयोग्यान्तिमविशेषाभ्युपगमरूपो व्यवहारो नैवम्भृते प्रविशति, एवमेव चास्य द्रव्यार्थिकत्वं सुरक्षितं भवति, व्यवहारो हि नानारूपतया सत्ता व्यवस्थापयतीति वचनेन व्यवहारस्य महासामान्यरूपसत्ताभ्युपगमोऽस्तीति न भ्रमितव्यम् , महासामान्यं हि सत्वमेकमेव, तस्थ च नानारूपत्वं बाधितमेव किन्त्वनेन वचनेन महासत्ता नास्त्येव, परन्तु स्वरूपसत्तैव प्रतिव्यक्तिनियता नानेति प्रतिपाद्यते, अत एव स्यादस्त्येव घटा, स्यानास्त्येव घट इत्यादिसप्तमझ्याः सत्तारूपास्तित्वप्रतिपादकस्य प्रथमभङ्गस्य सङ्ग्रहमूलकत्वं सत्ताप्रतिपक्षरूपनास्तित्वात्मकविशेषप्रतिपादकस्य द्वितीयभङ्गस्य व्यवहारमूलकत्वं "एवं सत्तवियप्पो" इत्यादिव्याख्याने प्रतिपादयिष्यमाणं सङ्गच्छत इति । अनुगतव्यवहारस्त्वतधावस्येव विबोध्यः। यद्यपि विशेषमात्राभ्युपगन्त्रा व्यवहारेण किमपि सामान्यमनुगतं वस्तुभूतं नाङ्गीकृतमिति यथा सर्वानुगतं महासामान्यं सत्तास्वरूपं न तदभिमतं तथा द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्यमपि परापरसामान्यस्वरूपं घटत्वाद्यपरसामान्यस्वरूपं न वस्तुभूतमभिमतम् ,तथापि लौकिकः सर्वोऽपि प्रवृत्तिनिवृत्यादिफलको व्यवहारस्तेनोपपादनीय इति यादृशं द्रव्यत्वादिकमनुगतप्रतीतिनियामकं तेनाश्रयणीयं तादृशं महासामान्यमपि तेनाभ्युपगन्तव्यम्, द्रव्य. त्वादिकश्चातळ्यावृत्तिरूपमपोहशब्दाभिधेयं काल्पनिकं यथा तदभिमतं तथा महासामान्य सत्त्वमपि, अन्यथा सत्-द्रव्यं पृथिवी वृक्ष आम्र इत्यादि सामान्यविशेषाश्रयणप्रवृत्तं व्यवहरणं कथं तस्य सङ्गतं स्यात् । इयांस्तु विशेषः, सङ्ग्रहनये यन्महासामान्यं सत्त्वं तदेव वस्तु, तत्सद्रूपमेव, न तु तदाश्रयः सन् , धर्मधर्मभावानापनमेव तत् , तदेव चावान्तरद्रव्यस्वादिरूपेणानुगतेन व्यक्तिस्वरूपैर्विशेषेवावभासत इत्येतावता सर्वात्मकं सर्वाणि चान्यानि
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सम्मति• काड, गा.४ तदात्मकानि, न तु वस्तुतस्तदन्यानि सन्तीति । व्यवहारनये तु यावन्तो व्यक्त्यात्मका विशेषा व्यवहारपथमुपगच्छन्ति ते सर्वे वस्तुभृता एव, सामान्यानि च सर्वाण्यतव्यावृत्तिरूपाणि कल्पितान्येव व्यवहारफलकानि, न तु स्वरूपतो वस्तुभूतानीति, तथा च वस्तुभूतं महासामान्य परमार्थतो नाभ्युपगतं सत्तालक्षणमिति तदनभ्युपगमोऽपि सङ्गन्तः, अपोहलक्षणतदभ्युपगमेन सद्रव्यमित्यादिविभजनाऽपि साधुसङ्गता, एवं परापरसामान्यादिविभजनमपि, तत्त. सामान्याधारभृता व्यक्तिलक्षणविशेषा वस्तुभूता इति तद्धर्मतया तान्यपि सामान्यानि वस्तु. भूतानीति व्यवह्रियन्ते, ईदृशविचारसमाश्रयणतोऽवान्तरसामान्याभ्युपगन्तत्वं व्यवहारस्येति भावनीयम् । अत्र सत्ताऽपेक्षया द्रव्यत्वमपरसामान्यम्, पृथिवीत्वापेक्षया परसामान्यम् , पृथिवीत्वमपि द्रव्यत्वाऽपेक्षयाऽपरसामान्यं वृक्षत्वापेक्षया च परसामान्यम् , वृक्षत्वसामान्यमपि पृथिवीत्वापेक्षयाऽपरसामान्यं आम्रत्वापेक्षया च परसामान्यमित्येवं परापरसामान्यानि तत्तद्वयक्तिलक्षणयावदन्त्यविशेषानपि प्रवृत्युपयुक्तानभ्युपगच्छति व्यवहारनय इत्युक्तं भवति । यतो न हि परापरसामान्यविभजनाक्रममनादृत्यान्त्यविशेषाऽभ्युपगमो व्यवहारनयस्य समस्ति, तथा सति व्यवहारस्वरूपमेवासौ जह्यात् , किन्तु सर्वेषां विभक्तानां परापरसामान्यानामन्तिम. विशेषरूपतैवेत्यत्रान्तिमविशेषाभ्युपगमस्य पर्यवसानमिति । ननु नैगमनयोऽपि सत्तालक्षणं महासामान्यमेकं द्रव्यत्वपृथिवीत्वादिकं परापरसामान्यं तदाश्रयविशेषाँश्चाभ्युपगच्छति, अत एव सामान्यविशेषग्राहिणो ये शब्दार्थाध्यवसायास्तद्वृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमचमिति तल्लक्षणं सिद्धान्तविदो विदन्ति, तथा च कोऽनयोर्विशेष इति चेव, उच्यते, नेगमस्य नैकविधत्त्वाद् यो नैगमस्सत्तामात्रं महासामान्य मनुते तस्य सङ्ग्रहनयेऽन्तर्भावः, यश्च तद्वयतिरिक्तपरापरसामान्यानि तदाश्रयव्यक्तीचोररीकरोति तस्य व्यवहारनयेऽन्तर्भावः कर्त्तव्यः । अत एवास्यां गाथायां नैगमो न पृथग् जगृहे, सहव्यवहारातिरिक्ततद्विषयासिद्धेः। तथा च " संवरजस्तमोलक्षणं सामान्यमेकमचेतनं द्रव्यम् , अनेकं च चेतनं द्रव्यमर्थोऽस्तीति द्रव्यार्थिकः, अशुद्धो व्यवहारनयाभिप्रेतार्थाभ्युपगमस्वरूपो बोद्धव्यः, वक्ष्यति चाचार्य:"जं काविलं दरिसणं एयं दबहियस्स बत्तवं ॥ इति बृहट्टीकोक्तेर्व्यवहारनयविषयप्ररूपणा. परसांख्यवादमूलभूतो द्रव्यार्थिकनयोऽशुद्ध इति प्रतिपादितं भवति । वेदान्तप्रकृतिभूतसङ्ग्रहनयेनकतया विषयकृतस्यात्मनो भेदकरणेन सङ्ग्रहविषयभेदकत्वलक्षणसमन्वयाद् व्यवहार. प्रकृतिकत्वं साङ्ख्यदर्शनस्य विवक्षितमिति तात्पर्यम् । अत एव "अशुद्धाद् व्यवहाराख्यात्, ततोऽभूत् साङ्ख्यदर्शनम् । चेतनाचेतनद्रव्या-नन्तपर्यायदर्शकम् । १११॥ इति नयोपदेशोक्तं सङ्गच्छते । येषां च मते पृथक नैगमनयो विद्यते तन्मते यद्यपि परसामान्यपरापरसामान्यापरसामान्यानि तदाश्रयविशेषाँश्चाभ्युपगच्छति नैगमो नयस्तथाऽप्यसौ मिथस्सामान्यतदा. श्रयव्यक्त्योर्मेंदमामनुते, यतः सत्तासामान्यं द्रव्यत्वादिकं च स्वाश्रयेभ्योऽभिन्नं स्यात्तदास्वाश्रयवत्तस्याप्यनेकत्वाततस्स्वाश्रयेषु यावत्स्वनुगतधर्मामावात् सत्सत् द्रव्यं द्रव्यमित्या
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सम्मति० काम , गा०.५ धनुगतप्रतीतिर्न स्यादिति मिन्नेष्वभिमबुख्यन्यथानुपपत्तेस्स्वाश्रयेभ्यस्सत्ताद्रव्यत्वादिक मित्रमेव, सत्ताद्रव्यत्वादितस्स्वाश्रयव्यक्तीनामभेदे तद्वत्तासामप्येकत्वापत्येयं व्यक्तिभिमैतद्वयक्तरियमपि भिन्नत्यादिमेदव्यवहार उच्छिन्नस्स्यादिति दृश्यमानभेदव्यवहारान्यथाऽनुपपत्या ततस्तासामपि भेद एवेति नैगमनयाऽभिप्रायः, तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये
" सदिति भणिएऽभिमन्नइ दव्वादत्थंतरं ति सामन्नं ।
अविसेसओ मईए सव्वत्थाणुप्पवित्तीए ।। २१९० ॥ गोत्तादओ गवाइसु निययाधाराणुवित्तिबुद्धीओ।
परओ य निवित्तीओ सामन्नविसेसनामाणो ॥ २१९१॥" इति . व्यवहारनयस्त्वेवं नैवाभिमनुते, विशेषाणामेव वस्तुत्वेन व्यवस्थापनपरत्वात्तस्य, अत एव विशेषतो व्यवाहियते निराक्रियते सामान्यं येनेति व्यवहार इति तस्य व्युत्पत्तिस्सिद्धान्ते गीयते, तन्मते विशेषव्यतिरिक्तं नास्ति सामान्यम् , योग्याउनुपलब्धेः, खपुष्पवत् , विशेषास्तु सन्ति स्वप्रत्यक्षग्राह्यत्वात् , घटादिवत् । किश्च जलाहरण-व्रणपिण्डीप्रदानादिको लोकव्यवहारो घट-निम्बपत्रादिविशेषैरेव साक्षात् क्रियमाणो दृश्यते, न सामान्येन, तस्माचदर्थान्तरभृतं सामान्य नास्त्येव, लोकव्यवहाराऽनिर्वाहकत्वात्तस्य, यदभ्यधायि तस्वसुधावर्षिभाष्यकारेण- "उवलंभववहाराभावाओ निव्विसेसभावाओ ।
तं नस्थि खपुष्पं पिव संति विसेसा सपचक्वं ॥ २२१४ ।।
जं च विसेसेहिं चिय संववहारो वि कीरए सक्खं । - जम्हा तम्मत्तं चिय फुडं तदत्यंतरमभावो ॥ २२१५ ॥” इति
इत्येवं नैगमव्यवहारयोर्मेंदः सिद्धान्तविदा व्यावर्ण्यते इति ॥ ४ ॥
एतावत्प्रबन्धेन सामान्यप्रस्तारार्थकसङ्ग्रहप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी द्रव्यार्थिकनयः, सहव्यवहारौ तद्विकल्पाविति प्रतिपाद्याधुना विशेष प्रस्तारस्य मूलव्याकरणी यः पर्यायार्थिकनयस्तस्य वृक्षस्वरूपस्य मूलमृजुसूत्रनयः शब्दसममिलढवम्भूतनयास्तु तच्छाखाप्रशाखाप्रतिशाखारूपास्स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरभेदा इत्येतत्प्रतिपादयितुमाह
मूलनिमेणं पज्जव-णयस्स उज्जुसुअवयणविच्छेदो । तस्स उ सहाईआ, साहपसाहा सुहुमभेया ॥ ५॥ इति गाथासूत्रम् ।
पजवणयस्म पर्यायनयस्य, 'मूलनिमेणं' आधाधारः, स क इत्यत आह-"उज्जुसुयवयणविच्छेदो" ऋजुत्रवचनविच्छेदो लक्षणया विच्छिद्यमानवचनप्रतिपाद्यार्थविषयकर्जु
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सम्मति० काण्ड , गा५ सूत्रनया, ' तस्स उ' तस्य तु-ऋजुसूत्रतरोस्तु 'सहाईया साहपसाहा सुहममेया' शन्दादिकाः शाखा-प्रशाखाः सूक्ष्मभेदार, यथा तरोशाखा स्थूला प्रशाखा ततस्सूक्ष्मा प्रतिशाखा ततोऽपि सूक्ष्मतरा तद्वत् शाखात्मकश्शन्दनयः स्थूलः, प्रशाखात्मकस्सममिरूढनयस्ततस्मुक्ष्मः, प्रतिशाखात्मक एवम्भूतनयस्ततोऽपि सूक्ष्मतर इति सचिसार्थः । विस्तृतार्थस्त्वेवम्-मूलनिमेणं-अत्रानेकान्तव्यवस्थाग्रन्थे 'मूलनिमाणं' इतिपाठः। मूलमेव आयमेव निर्माण आधारो मूलनिर्माण, मूलभृताधारः आद्याधारः पर्यायनयस्यर्जुस्त्रवचनविच्छेदः । ऋजु वर्तमानक्षणमात्रवर्ति वस्तु तस्यैव वर्तमानतत्तत्क्षणस्थितिलक्षणस्वस्वरूपे व्यवस्थितत्वेन सद्रूपत्वात्, अतीतानागतयोस्तु विनष्टानुत्पनतया परस्वरूपत्वेनासदपत्वात, तदेव सूत्रयति अर्थक्रियाकारितया सत्वेन परिच्छिनत्ति निश्चिनोति, नातीतं, न वाऽनागतम्, तत्र सस्वव्यापकस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वस्य निवृत्या तव्याप्यस्य समस्याऽपि निवृत्तिरिति तयोरसत्त्वेन कुटिलत्वादित्यजुसूत्रम् , तस्योच्यत इति वचनम् उच्यमानं पदं वाक्यं वा तस्य विच्छेदः, अन्तः सीमेति यावत् 'कृदभिहितो भावो द्रव्यवत्प्रकाशत' इतिन्यायात् कुदमिहितो भावो द्रव्यवत् कदभिहितद्रव्यवद्भासत इत्यर्थकाद् यथा “ अमृतरसप्रस्यन्दमाध्वीका" इतिकुसुमाञ्जलीयोदयनाचार्यवचने अमृतरसेति पदस्य रस्यमानममृतमि. त्यर्थः, एवमेव प्रतिमाशतकद्वितीयपयस्वोपज्ञवृत्ती " नामादित्रयमेव " इत्यत्र नामादिपदस्य नामादिनिक्षेपपरत्वात् कृदभिहितन्यायाद् निक्षिप्यमाणं नामादित्रयमित्यर्थः कृतः। तद्वदचनविच्छेद इत्यस्यापि विच्छिद्यमानं वचनमित्यर्थः । अत्रानेनोपचाराद्विच्छिद्यमान वचनप्रतिपाद्यार्थविषयकर्जुसूत्राख्यो नयबोधो ग्राह्यः । तस्य च स्वविषयं प्रतिपादयतः पूर्वापरपर्यायाऽसंसक्ते वर्तमानैकपर्याय एवं वचनं विच्छिद्यते समाप्यते । वर्तमानपर्यायस्यातीतानागतात्मकपरपर्यायाऽसंस्पर्शित्वेन तन्मात्रस्यैव बोधजनकत्वात् , उक्तश्च ऋजुप त्राभिमतमर्थ प्ररूपयद्भिः
" पलालं न दहत्यग्नि-दस्यते न गिरिः क्वचित् । .. नाऽसंयतः प्रव्रजति, भव्यजीवो न सिद्ध्यति ॥ १॥” इति ।
अस्मिन्जुसूत्रमते यः पलालरूपपूर्वपर्यायः सोऽग्निना न दह्यते, दहनक्रियाकाले पलालपर्यायस्य विनष्टत्वात् , यश्च भस्मभावरूपवर्तमानपर्यायोऽग्निना दह्यते स न पलालभावमनुभवति । अयम्भाव:-क्रियाजन्यफलशालिन्येव कर्मत्वं भवति, क्रियाजन्यफलशालित्वश्च क्रियाकाले विद्यमानस्यैव, तथा चाग्निना दहनक्रियाकाले यदेव विद्यमानं तस्यैव क्रियाजन्यफलशालित्वात्कर्मत्वावबोधकद्वितीयाविभक्तिप्रकृतिप्रतिपाद्यत्वम् , पला. लस्य त्वग्निना दाहसमये न स्वस्वरूपेणावस्थानमिति तत्र दहनक्रियातो भस्मीभावलक्षणविकारस्य फलरूपस्याऽभावेन तत्कर्मत्वमेव न सम्भवति, यतो यद्भस्मीभावमनुभवति
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सम्मति० का १, गा. तहहनक्रियाकाले वर्तमानमेव दहनक्रियाकर्म, तश्च न पलालः, तदानीमपलालभाषादिति नाग्निः पलालं दहतीति सिद्ध्यति । एवं गिरावपि ज्ञेयम् । या पूर्वक्षणा. वच्छिमोऽसंयतस्स न प्रव्रजति, तदानीमसंयतभावात् , यश्च प्रव्रजति स नासंयतः, तदानी संयतभावात् , एवं यो भन्यो न स सिद्धयति, भव्यत्वपर्यायकाले सिद्धिपर्यायाऽभावात् , यश्च सिध्यति स न भव्यः, सिद्धत्वपर्यायकाले भव्यत्वपर्यायविनाशात , न चैवं तर्हि व्यवहारबाधः स्यादिति वाच्यम् , सर्वस्मिन् नये क्वचिदंशे तद्बाधाऽवश्यंभावादिति । "तस्स उ सद्दाईआ, साहपसाहा सुहुमभेया" इति तस्य ऋजुसूत्रतरोः, तुरवधारणार्थः, तेन तस्यैव न द्रव्यार्थिकस्य शब्दादयो गुणिभूतार्थप्रधानीभूतशब्दद्वारा श्रोतुः प्रतीतिजनका अत एव शब्दनयत्वेन प्रतीताः शब्दंसमभिरूढवम्भूताख्यास्त्रयो नया: शाखाप्रशाखा. प्रतिशाखा इव स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरभेददर्शिवात्सूक्ष्मो मेदो विशेषो येषां ते सूक्ष्म मेदाः। यथा हि तरोः स्थूलाशाखाः, ततस्सूक्ष्मास्तत्पशाखाः, प्रतिशाखास्तु ततोऽपि सूक्ष्मतरा:, एवमृजुसूत्रतरोस्स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरा: शाखाप्रशाखापतिशाखारूपा यथाक्रममशुद्धशुद्धशुद्धतराशब्दसमभिरूद्वैवम्भूताख्यास्त्रयो नया ज्ञेयाः। तथाहि " तटस्तटीतटं 'गुरुर्गुरवः' एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता" वर्तमानकक्षणमात्रवृत्तिमेरुः क्षणमात्र. वर्तित्वलक्षणस्वसत्ताकाले भवतीति व्यवाहियते, स एव स्वोत्तरक्षणापेक्षया बभूवेति व्यवझियते, स्वपूर्वसमयापेक्षया स एव भविष्यतीति व्यवहियत इति बभूव भवति भविष्यति सुमेरुः । जलाहरणं करोति कुम्भः, क्रियते कुम्भश्चैत्रेण, "संतिष्ठते अवतिष्ठते, इत्यादौ त्रिलिङ्गवृत्तिशब्दवाच्यमेकवचनान्तबहुवचनान्तशब्दवाच्यमुत्तममध्यमप्रथमपुरुषवाच्यश्च विभिन्नकालबोधकशब्दवाच्यश्च भिन्नकर्तृकर्मबोधकशब्दवाच्यश्च विभिन्नोपसर्गबोधकशब्दवाच्यश्चै. कमेव वस्तु ऋजुसूत्राभ्युपगतं लिङ्गसङ्कथापुरुषकालकारकोपसर्गभेदेन भिन्नं शब्दनयो वृक्षाच्छाखामिव सूक्ष्ममभिमन्यते । तदुक्तम्
" विरोधिलिङ्गसङ्खयादि-भेदाद्भिन्नस्वभावताम् । .
तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ।।" इति । शब्दनयाभ्युपगतं घटकुटकुम्भादिशक्रपुरन्दरशचीपत्यादिपर्यायभेदेऽप्यभिन्नमर्थमुक्ततत्तत्संज्ञा दैव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियामेदप्रयुक्तस्वस्ववाच्यभिन्नभिन्नार्थ शाखातः प्रशाखामिव सूक्ष्मतरं समभिरूढनयोऽध्यवस्यति तदाह
___“पर्यायशब्दभेदेन, भिन्नार्थस्याधिरोहणात् ।
___ नयः समभिरूढः स्यात्, पूर्ववञ्चास्य निश्चये ॥ १॥" इति । समभिरूढनयेन घटत इति व्युत्पत्तिनिमित्तघटनक्रियायां कुटतीति व्युत्पत्तिनिमित्तकुटनक्रियायां शक्नोतीति व्युत्पत्सिनिमित्तशकनक्रियायां पुरन्दास्यतीति व्युत्पत्तिनिमित्तपुर
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सम्मति० काण्ड, पा" दारणक्रियायां सत्यामसत्याश्च घटशब्दवाच्य एको घटा, कुटशब्दवाच्य एका कुट:, शक्रशम्दवाच्य एकश्शक्रः, पुरन्दरशब्दवाच्य एकः पुरन्दर इति यदभ्युपगतं तत्रैवम्भूतनयोऽभ्युपैति, तन्मते हि स्वव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाऽऽविष्टत्वे सत्येव तत्तच्छन्दवाच्या, नान्यदा, यतः परमैश्वर्यानुभवन काल एवेन्द्रः, अन्यदाऽनिन्द्रा, इन्द्रोपयोगः काल एवं वोपयोगेन्द्रः, तत्क्षणानन्तरं तत्पूर्व वाऽनिन्द्रः, पश्चात्तदुपरमात्, तत्पूर्व तदभावात् , पुरदारणकाल एव तदुपयोगकाल एव वा पुरन्दरः, अन्यदाऽपुरन्दरः, प्रतिक्षणाऽतिक्रामि. स्वाद वस्तुनो बुद्धिविषयो बुद्धिस्थो वा योऽर्थः स शब्दार्थः, अयम्भाव:-क्षणे क्षणे अन्य एवार्थ उत्पद्योत्पद्य बुद्धिविषयो भवति बुद्धौ वा तिष्ठतीति योऽर्थो यस्मिन् क्षणे बुद्धिविषयो बुद्धिस्थो वा, तस्मिन्नेव क्षणे सोऽर्थः, अन्यदाऽनर्थः, इत्येवं प्रशाखाता प्रतिशाखामिव सूक्ष्मतममेवम्भूतनयोऽध्यवस्यति । यदुक्तम्
"तक्रियापरिणामोऽर्थ-स्तथैवेति विनिश्चयात् ।
एवम्भूतेन नीयेत, क्रियान्तरपराङ्मुखः ।। १ ॥” इति तच विवेचयिष्यते चाग्रे । एतच्च ऋजुसूत्रपदव्युत्पत्तिनिमित्तं प्रत्युत्पन्नग्राहित्वं पर्याय नयत्वमात्रपर्यवसन्नमभिप्रेत्य द्रष्टव्यम् । तथा च ऋजुत्रपदव्युत्पत्तिनिमित्तस्य प्रत्युत्पन्न ग्राहित्वस्य सकलपर्यायनयवृत्तित्वेन पर्यायनयत्वस्वरूपत्वमेव, एवञ्च तादृशधर्मालिङ्गितस्य. र्जुसूत्रस्य शाखाप्रशाखाप्रतिशाखात्वेन त्रयाणां शब्दसमभिरूद्वैवम्भूतनयानामुपदर्शनं पर्यायनयस्यैव शाखाप्रशाखाप्रतिशाखारूपतयोपवर्णनं पर्यवसितम् , तथा च पर्यायार्थिकनयतरो. मुलस्थानीय ऋजुसूत्रनय शाखास्थानीयः शब्दनयः, प्रशाखास्थानीयस्ममभिरूढनयः, प्रतिशाखात्मक एवम्भूतनय इति तचतुष्टयात्मकः पर्यायार्थिकनय इति भावः । यदा विशेषणभेदाऽप्रयुक्तर्जुमूत्रविषयप्रतियोगिक भेदानाधारविषयकप्रतीतिविषयकत्वम् , विशेषणभेदाप्रयुक्तो य ऋजुसूत्रनयविषय प्रत्युत्पन्नवस्तुप्रतियोगिको भेदस्तदनाश्रयविषयकप्रतीतिविषयो यस्य तत्कत्वमित्येवं पर्यवसितार्थमिह शब्दादीनामृजुसूत्रभेदत्वं परिभाष्यते, तथा च शब्दनयविषयस्य ऋजुसूत्रनयविषयाद्भेदो लिङ्गसङ्ख्थापुरुषकालकारकोपसर्गलक्षणविशे. पणमेदप्रयुक्त एव । एवं समभिरूढनयविषयस्यापि संज्ञालक्षणविशेषणभेदादेव निरुक्तमेदः । एवमेवम्भूतनयविषयस्यापि व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियालक्षणविशेषणभेदप्रयुक्त एवोक्तभेदा, न तु स्वत इति विशेषणभेदाऽप्रयुक्तर्जुसूत्रविषयप्रतियोगिकभेदानाधारविषयकप्रतीतिविषयकत्वं शब्दादिनयानां सिद्धमिति । न ह्येवं व्यवहारस्य निरुक्तदिशा पारिभाषिकं सग्रहमेदत्वं सिद्ध्यति, यतस्स्वरूपत एव सनहनयविषयात्सामान्याद् व्यवहारनयविषयस्य विशेषस्य भेदेन तस्य विशेषणभेदाऽप्रयुक्तत्वेन तादृशमेदाऽऽधारविषयकप्रतीतिविषयकत्वमेव व्यवहारनयस्येति । नन्वेवमृजुत्रपदव्युत्पत्तिनिमित्तस्य प्रत्युत्पन्नग्राहित्वस्य पारिभाषिकस्य
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वाsनन्तरोक्तस्य सकलपर्यायनय मेदेषु वृत्तित्वेन नयविभाजकर्जुसूत्रत्वधर्माक्रान्तानां शब्दादिनयानां त्रयाणामृजुसूत्रनयात्मकमूलस्य शाखा प्रशाखाप्रतिशास्त्रात्वाभ्युपगमे तेषां नयविभाजकोपाधिव्याप्यविभाजकोपाधिमध्येन नयप्रभेदत्वापतेः 64 'सत्त मूलणया पचत्ता इति सूत्रविरोधप्रसङ्ग इति चेत्, मैवम्, शब्दादिनवभिन्नत्वे सति प्रत्युत्पन्नमा हित्वमृजुसूत्र त्वमिति लक्षणलक्षितस्यैवर्जुसूत्रत्वस्य नयविमाजकधर्मतयाऽभ्युपगमात् तस्य च शब्दादिनयेष्वभावेन तद्वयाप्यत्वस्य शब्दनयत्वादावभावात् शब्दनयादीनां नयप्रमेदत्वापच्यभावात्, तथा च नोक्तसूत्रव्याघातः । पूर्वोक्तपारिभाषिकलक्षणस्यर्जुसूत्रत्वस्य प्ररूपणं तु शब्दादिनयानामृजुसूत्र शाखा प्रशाखाप्रविशाखात्व प्रदर्शनायेति || अयश्च सर्वोऽपि ऋजुसूवचनविस्तारो बाह्यार्थाभ्युपगमपरो दृष्टव्यः, स च सौत्रान्तिकाख्यतथागतमतविशेषस्य वैभाषिकाख्य तथागतमतविशेष्यस्य च मूलकारणम् । ननु अनयोः किं वैलक्षण्यमिति चेत्, | उच्यते, तयोः क्षणिकवाह्यार्थाभ्युपगमापेक्षया साम्यमेत्र, परमाद्यस्य ग्राह्यग्राहक योर्विभिभक्षणे निष्पत्तिः, ज्ञानज्ञेयस्वलक्षण योर्विषयविषयिभावसम्बन्धाभावेऽपि प्रतिकर्मव्यवस्था ' यदाकारं ज्ञानं तत् तज्ज्ञानकर्मेति व्याप्तिसहकृताद् घटपटादिज्ञानं घटपटादिकर्मकं प्रतिनियततत्तदर्थाकारत्वादित्यनुमानात् सिद्ध्यतीति साकारविज्ञानवादः । अत एवैतन्मते " प्रत्यक्षो नहि बाद्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः" इत्युक्तेः प्रत्यचतो नार्थसिद्धिः किन्त्वनुमानादेव, यदाकारं ज्ञानं तेन तत्सिद्धिरिति व्याप्तेः । द्वितीयस्य तु मते " अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेष्यते " इत्युक्तेर्ज्ञानज्ञेययोरेकक्षण एवोत्पतिः प्रतिनियततत्तदर्थोत्पादक सामग्रीप्रभवत्वादेव ज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्थेति निराकारविज्ञानवादः । तन्मते निर्विकल्पप्रत्यक्षादेव बाह्यार्थसिद्धिः, न तु सविकल्प प्रत्यक्षात् तस्याऽसद्विषयकवेनाप्रामाणिकत्वात् नन्वेवं तर्हि नीलादेः क्षणिकत्वेन दानादौ च स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमावेन नीलादिनिर्विकल्प प्रत्यक्षानीलादेखि क्षणिकत्वांशस्य दानादिनिर्विकल्प प्रत्यक्षादानादेरित्र स्वर्गप्रापणसामर्थ्यांशस्यापि सिद्धिप्रसङ्ग इति चेत्, मैत्रम्, यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता इतिवचनात्तदेशे सविकल्प प्रत्ययानुत्पादात्तदंशे प्रामाण्याभावात्तदसिद्धेः । यद्वा ऋजु बाह्यार्थापेक्षया ग्राहकसंवित्तिभेदविकलमविभागं बुद्धिस्वरूपम कुटिलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः शुद्धपर्यायास्तिकनयः । अयश्च बहिरर्थसंस्पर्शरहितक्षणिकविज्ञप्तिमात्राभ्युपगमपरयोगाचाराख्यशौद्धोदनिमतविशेषप्रवर्त्तक इति । अथवा एकत्वानेकत्वसमस्तधर्म कला पविकलतया तदपि विज्ञानं विचार श्रेण्या शून्यरूपमृजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः, अयश्च माध्यमिकदर्शनावलम्बी सर्वभावशून्यताप्रतिपादनपरो माध्यमिक संज्ञकबौद्ध मतविशेषप्रवर्त्तको ज्ञेयः, " सवनयमयं जिणमयमणवजमचतं " इति भाष्योक्तेः अशेषांशविशिष्टार्थग्राहित्वात् सर्वनयात्मकं भगवद्दर्शनम्, इतरांशनिरपेक्षैकैकांश प्रतिपादकत तद्दर्शनानि च वस्त्वेकैकां परि
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सम्मति० काण्ड १, मा० ५ च्छेदलक्षणततनयप्रभवाणीति ग्रन्थकार एवाने प्रतिपादयिष्यति । तथा च तत्तद्दर्शनमूलकारणत्वात्तत्तन्मयः प्रकृतिस्तस्मादाविर्भूतत्वात्तत्तदर्शनं विकृतिरिति पूर्वोक्तव्युत्पत्त्या ऋजुसूत्रनयस्य सौत्रान्तिकवैभाषिकयोगाचारमाध्यमिकभेदभिन्नवौद्धदर्शनप्रकृतित्वं प्रतिपाद्य ऋजुसूत्रनयस्य पूर्वापरक्षणावस्थितक्षणिकार्थद्वयकार्यकारणभावाभ्युपगमपरसौत्रान्तिकाख्यतथागतमतविशेपप्रकृतित्वम् , शब्दनयस्य च एकक्षणस्थविषयतज्ज्ञानरूपपदार्थद्वयकार्यकारणभावाभ्युपगमपस्वैभाषिकाख्यतथागतमतविशेषप्रकृतित्वम् , सममिरूढनयस्य च परमार्थभूतबारार्थो नास्त्येव, विज्ञानमेव पूर्वपूर्ववासनावैचित्र्यात् स्वाभिननीलपीताद्याकारमवभासत इति परमार्थभूतवाद्यार्थाऽभावान तद्राहकं ज्ञानम्, अयं नील इत्यादिबहिर्वदवभासस्तु वासनाविपर्ययकृतो भ्रम इति बाह्यनिरपेक्षक्षणिकसाकारवादाभ्युपगन्तृयोगाचाराऽभिख्यशोद्धो. दनिमतविशेषप्रकृतित्वम् , एवम्भूतनयस्य च विज्ञानमपि विचार्यमाणमेकानेकरूपत्वाऽयो. गाच्छून्यतारूपमिति शून्यताभ्युपगमपरमाध्यमिकसंज्ञकवौद्धमतविशेषप्रकृतित्वं सम्मतिटीकायां यथा प्रतिपादितं तथोव्यते-" अथवा सौत्रान्तिकवैभाषिको बाह्यार्थमाश्रितो ऋजुसूत्र-शब्दौ यथाक्रमम् , वैभाषिकेण नित्यानित्यशब्दवाच्यस्य पुद्गलस्याभ्युपगमात् , शब्दनयेऽनुप्रवेशस्तस्य । अत्र वैभाषिकस्य शब्दनयपक्षपातित्वे ज्ञानार्थलक्षणयोगपद्यरूप. व्यञ्जनपर्यायप्रधानत्वादिति द्वितीयोऽपि हेतुर्नयामृततरङ्गिण्यामुपाध्यायैरुक्त इति । बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्रं समभिरूढो योगाचार । एकानेकधर्मविकलतया विज्ञानमात्रस्याप्यभाव इत्येवम्भूतो व्यवस्थित एवम्भूतो माध्यमिक इति," अत्र तार्किकमते सैद्धा. न्तिकमतेऽपि च पूर्वपूर्वनया बहुबहुविषयका उत्तरोत्तरनयावाल्पाल्पविषयकाः, सत्तारूपेण सकलार्थविषयकात्सनहातार्किकमते सत्ताव्यतिरिक्तसामान्यविशेषविषयकस्य व्यवहारस्याल्पविषयकत्वम् , ताशव्यवहाराच्च वर्तमानक्षणमात्रस्थाय्याभ्युपगमपरस्य सूत्रस्याल्प. विषयकत्वम् । सैद्धान्तिकमते च सम्मात्रविषयकस्य सङ्ग्रहस्य भावाभावपदार्थविषयका भंगमादल्पविषयकत्वं, समस्तसत्समूहाभ्युपगमपरत्वेन बहुविषयकात् सङ्ग्रहात् विशेषार्थमात्राभ्युपगन्तव्यवहारस्याल्पविषयकत्वम् , कालत्रयवर्तिविशेषार्थविषयकव्यवहाराद्वर्तमान क्षणमात्रवर्णाभ्युपगच्छत ऋजुसूत्रनयस्याल्पविषयकत्वम् , लिङ्गसंख्यापुरुषादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमुपगच्छत ऋजुसूत्राल्लिङ्गसंख्यापुरुषादिभेदेन भिन्नमर्थमभ्युपगच्छन् शब्दनयोऽल्प. विषयका, संज्ञाभेदेऽप्यभिन्नमर्थमुररीकुर्वच्छब्दनयाद्भिभसंज्ञाप्रयुक्तार्थभेदस्वीकतसमभिरूननयोऽल्पविषयका, ततोऽपि व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाभेदप्रयुक्तार्थभेदावलम्ब्येवम्भूतनयोऽल्पविषयकः, यत इन्द्रादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तभृतेन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां चेन्द्राधास्मकेऽर्थे इन्द्रादिशब्दव्यपदेशं यथा समभिरूढनयोऽभ्युपैति न तथैवम्भूतो नयः, एतन्मतें स्वव्युत्पत्तिनिमित्तभूतक्रियापरिणतिकाल एव शब्दवाच्यार्थसत्ताऽभ्युपगमेन तादृशक्रियापरिणत्यभावकाले भिन्नक्रियासद्भावेनार्थभेदसद्भावादिति । तदुक्तं तत्वार्थश्लोकवार्तिके
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सम्मतिः कान्ड १, गा० ५
सन्मानविषयत्वेन, संग्रहस्य न युज्यते । महाविषयता भावा-ऽभावार्थान्नैगमान्नयात् ॥ १ ॥ यथा हि सति संकल्प-स्तथैवासति विद्यते । तत्र प्रवर्त्तमानस्य, नैगमस्य महार्थता ॥२॥ संग्रहाव्यवहारोऽपि, सद्विशेषावबोधकः । न भूमविषयोऽशेष-सत्समूहोपदर्शिनः ॥३॥ नर्जुसूत्रः प्रभूतार्थों, वर्तमानार्थगोचरः।। कालत्रितयवृत्त्यर्थ,-गोचराद्व्यवहारतः ॥४॥ कालादिभेदतोऽप्यर्थ-मभिन्नमुपगच्छतः। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्र, शब्दस्तद्विपरीतवान् ॥ ५॥ शब्दात्पर्यायभेदेना-ऽभिन्नमर्थमभीप्सतः । न स्यात्समभिरूढोऽपि, महार्थस्तद्विपर्ययः ॥ ६ ॥ क्रियाभेदेऽपि चाभिन्न-मर्थमभ्युपगच्छतः। नैवम्भूतः प्रभूतार्थो, नयः समभिरूढतः ॥७॥ पूर्वः पूर्वः प्रभूतार्थो, नैगमादिनयेष्विह।
परः परस्तु सूक्ष्मार्थ-स्तदित्थं सिद्धिमाययौ ॥ ८॥" इति । द्रव्यार्थिकनये सकलोपाधिरहितत्वेन शुद्धसन्मात्रस्यैव विषयीकरणात् सम्यगेकत्वेन सर्वस्य ग्रहणात् सङ्ग्रह एव शुद्धः, प्रकृतगाथायां "द्रव्यार्थिकनयाऽशुद्धप्रकृति गमनयोऽपि" इत्यनुक्तेः पूज्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरमतेन सङ्ग्रहव्यवहारनयाभ्यां नैगमनयो न पृथग्भूत इति न चर्चाई । सामान्यविशेषविमिश्रणाद्वयवहारस्संग्रहापेक्षयाऽशुद्धः । अत एव सम्मतिटीकायां सर्वमेकं सदविशेषादिति शुद्धद्रव्यास्तिकाभिप्रायाः, अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसांख्यदर्शनाश्रित इत्युक्तम् , पर्यायार्थिकनये तु यन्नयापेक्षया योऽल्पविषयको नयस्स तन्नयापेक्षया शुद्ध इत्युत्तरोत्तरनया अस्पाल्पविषयकाश्शुद्धशुद्धतरशुद्धतमा, पूर्वपूर्वनयास्त्वशुद्धाशुद्धतराऽशुद्धतमाः, बहुबहुविषयकत्वात् , तथाहि-एतत्प्रकरणकारमते ऋजुसूत्रनयस्य पर्यायार्थिकनयभेदत्वात् स वावदशुद्धः, कालकारकलिङ्गादिभेदेऽप्यर्थाभेदाभ्युपगमपरत्वात् , शब्दनयस्तु शुद्ध, तन्मतेन कालादिभेदेन वस्तुनो मेदाम्युपगमात् । ततोऽपि समभिरूढः शुद्धतरः, तन्मते पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन मिन्नस्यार्थस्याभ्युपगमादेकार्थवाचकपर्यायशब्दाभावात् पर्यायभेदेनापि भेद
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सम्मति• काम , गा• स्योररीकरणात् । ततोऽपि चैषम्भूतनयश्शुद्धतमः, अयं नयश्शम्दानां स्वव्युत्पत्तिनिमित्तभूतक्रियापरिणतमर्थ सत्क्रियाकाल एव वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छत्तीत्येतन्मते क्रियाऽनाविष्टस्याऽपि वस्तुनो भेदप्रतिपत्तृत्वादिति । तत्रापि श्रीसिद्धसेनदिवाकरमतेऽर्थनयास्सहव्यवहारर्जुसूत्राख्यानयो नयाः । सैद्धान्तिकमते नैगमसहव्यवहारर्जुसूत्राख्याश्चत्वारो नया, उपसर्जनीभूतशब्दप्रधानीभूताऽर्थाऽभ्युपगमपरत्वेन शब्दतद्धर्मभेदेनार्थभेदाऽस्वीकर्तृत्वात् । उभय. मतेऽपि शब्दसमभिरुदैवम्भूताख्या नयात्रपश्शन्दनयार, ते हि शब्दप्रधानतया शब्दतद्धर्मभेदेनार्थमेदं स्वीकुर्वन्तीति यथा शब्दस्तथाऽर्थ इत्यभ्युपगमपरत्वाच्छन्दमेव प्रधानमिच्छन्ति, अथं तु गौणम् , शब्दवशेनवार्थप्रतीतेः । उक्तश्च तस्वार्थ श्लोकवार्तिके
__ "तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ता,-श्चत्वारोऽनया मताः ।
त्रयः शब्दनयाः शेषाः, शब्दवाच्यार्थगोचराः ॥ १॥" इति .. . एते च नयाः परस्परसापेक्षाश्चेत्तदा सुनयाः, अन्यथा तु मिथ्यानया:, एतचा प्रतिपादयिष्यते, तदेवं व्यवस्थितमेतत् , तस्य तु शब्दादयश्शाखाप्रशाखाप्रतिशाखाः सूक्ष्ममेदा इति ॥५॥
अथ नयैरिव निक्षेपैरपि सूक्ष्मेक्षिकया सम्यक्समीक्षामक रविचारितरमणीयतयाऽपरमार्थभूतोऽर्थः परमार्थतया परमार्थश्वापरमार्थतया प्रतिभासेतेत्यतो नयानुयोगद्वारवनिक्षेपानुयोगद्वारमापि व्याख्यानम् , निक्षेपाश्च नामस्थापनाद्रव्यमावभेदेन चतुर्विधा इति, तत्रापि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयौ मूलव्याकरणिनाविति दर्शयननयोपिकता प्रदर्शयितुमाह
" नाम ठवणा दविए-त्ति एस दव्याहियस्स निक्खेवो।
भावो उ पज्जवहिअस्स, परूवणा एस परमत्थो ।। ६॥" अस्या उत्तरार्द्ध शास्त्रवार्तासमुच्चयादौ-"भावो उ पञ्जवट्टिअ, परूषणा एस परमत्यो" इति दृश्यते । अथवा वस्तुनिवन्धनाध्यवसायनिमित्तव्यवहारमूलकारणतामनयोः प्रतिपाद्य अधुनाऽध्यारोपितानध्यारोपितनाम-स्थापना-द्रव्य-भावनिबन्धनव्यवहारनिबन्धनतामना योरेव प्रतिपादयन्नाहाऽऽचार्य:-नाम ठवणा इत्यादि । नामस्थापनाद्रव्यैतनिक्षेपत्रयं द्रव्या. किन यस्य, भावस्तु पर्यायार्थिकनयस्य निक्षेपः, एष एवोमयनयप्रविभागः परमार्थ इति निष्कर्षः, अवयवार्थस्त्वेवम्---" नाम ठवणा दविए ति" नामस्थापनाद्रव्यमिति 'एम दवट्टियस्स. निक्खेवो' एष निक्षेपो द्रव्यार्थिकस्य द्रव्यार्थिकनयस्याभिमतः । यद्वा द्रव्याधिकस्येत्यनन्तरं मतेनेति शेषः। द्रव्यमात्रग्राहिणस्तस्य नयस्य नामस्थापनाद्रव्याणां कालत्रयानुगामित्वेन द्रव्यरूपतया तत्त्रितयग्राहित्वेऽपि मावस्य क्षणमात्रवर्चित्वेन द्रव्यानात्मकतया तदाहित्वात् । अत एवाह "भावो उ पजबढिअस्म परूवणा" इति । भावो
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सम्मति० काण्ड १, गा० ६
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भावनिशेषः, तु पुनः, पर्यायास्तिकस्य पर्यायास्तिकनयस्य, प्ररूपणा प्ररूपणाविषयः, प्ररूप्यते इति प्ररूपणेति व्युत्पत्तेः, तत्र कर्मणि प्रपूर्वकरूपधातोर्युप्रत्ययः । पर्यायमात्रग्राहिणस्तस्य भावस्य पर्यायरूपतया तन्मात्रग्राहित्वेऽप्युक्त निक्षेपत्रयस्य विवक्षितमावानात्मकत्वेन तदग्राहकत्वात् । यद्वा नामस्थापनाद्रव्यमित्येष निक्षेपो " वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये | कर्त्तव्यमन्यथाऽनुक्त - समत्वात्तस्य कुत्रचित् ॥ १ ॥” इति वचनात् सर्वे वाक्यं सावधारणं भक्तीति नियमेन द्रव्यार्थिकस्य द्रव्यार्थिकनयस्यैवामिमतः, न पर्यायास्तिकनयस्य, नामादिनिक्षेपत्रयस्य विवक्षितभावानात्मकत्वात्, पर्यायास्तिकन यस्य तु भावलक्षणपर्याय मात्रग्राहित्वात् । भावो भावनिक्षेपः, तु पुनः, पर्यायास्तिकस्य पर्यायास्तिकनयस्यैव, प्ररूपणा प्ररूपणाविषयः । न द्रव्यार्थिकनयस्य, तस्य द्रव्यमात्रग्राहित्वेन भाषाऽनवलम्बित्वादिति । तत्र यस्य कस्यचिद्वस्तुनो व्यवहारार्थमभिधानं निमित्तसव्यपेक्षं निमित्तानपेक्षं वा यत्सङ्केत्यते तन्नाम, यथा स्वर्गाधिपस्य स्वर्गाधिपत्यलक्षणैश्वर्यात्मकनिमित्तापेक्षया इन्द्र इत्यभिधानं अयमिन्द्र इत्येवं सङ्केत्यते, अर्थात् यस्य नाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तविशिष्टोSर्थो यो भवति तत्र तन्नाम यदि सङ्केत्यते तदा निमित्तसव्यपेक्षं तत्, एवं सङ्केतद्वारा यनामवाग्यतया व्यवहर्त्तव्यो योऽर्थो व्युत्पत्तिनिमित्ताऽऽकलितो न भवति तत्र तादृशनिमित्तमन्त
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वतनाम व्यवहारार्थं सङ्केत्यते तदा निमित्तानपेक्षं तत्, यथा गोपालदारके इन्द्रशब्दपर्यायान्तरशक्रपुरन्दराघवाच्ये अयमिन्द्र इति सङ्केतमात्रेणारोपितमिन्द्रनाम इन्द्रनामनिक्षेपः । अत्रेदमवधेयम् -गोपालदारकस्येन्द्रपदवाच्यत्वे तत्रेन्द्रपदवाच्यतावच्छेदकं नेन्द्रत्वं, भावेन्द्रवर्त्तिनस्तस्य गोपालदारकेऽभावात् नापि गोपालदारकत्वं यस्मिन्गोपालदार के इन्द्रपदवाच्यता नास्ति तत्रापि गोपालदारकत्वस्य सद्भावात् गोपालसम्बन्धित्वदारकत्वोमयघटितमूर्त्तिकस्य तस्य सखण्डस्य किञ्चित्पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वाभावात्, किन्तु यस्मिन् गोपालदार के इन्द्रपदसङ्केतः क्रियते तद्गोपालदारके जन्मतो मरणपर्यन्तमुपचयापचयतोऽनेकशरीरमेदतस्तदनुगतं सामान्यमेव चैत्रत्वादिसामान्यवत्समस्ति तदेव तत्रेन्द्रपदवाच्यतावच्छेदकं तच्च नामेन्द्रत्वशब्देनाभिधीयत इति । सङ्केतकरणं कचिदभेदेन यथाऽयं घटः, अत्र घट इत्यस्य घटशब्दवाच्य इत्यर्थकत्वेन तस्याभेदसम्बन्धेनेदंपदार्थेऽन्वय करणादमेदेन सङ्केतकरणम् । कचिद्भेदेन यथा ' अस्य चार्य शब्दो वाचक इति, अत्र वाचकशब्दस्य बोधजनकत्वप्रकारकेच्छा विशेष्योऽर्थः तदेकदेशे बोधे षष्ठयर्थस्य विषयत्वस्य निरूपकत्वसम्बन्धेनान्वयः, तस्मिँत्र विषयत्वे इदंप्रकृत्यर्थस्य घटत्वावच्छिन्नस्याधेयत्वसम्बधेनान्वयः तथा च घटत्वावच्छिन्ननिष्ठविषयतानिरूपकबोध जनकत्व प्रकार केच्छा विशेष्यो
"
शब्द इति बोध इत्येवं भेदेन सङ्केतकरणम्, इच्छा चात्र घटविषयकबोधजनको घटशब्दों 'भवत्वित्याकारिका 'सैव च सङ्केतः ' तत्करणं च तद्विषयकप्रतिपाद्यगतबोधानुकूलो व्यापारः, स चायमस्य वाचक इत्याकारक आप्तोपदेशरूपः, अथवा घटशब्दवाच्यो घट इत्याकारको
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सम्मति• काक 1, मा. घटशब्दजन्ययोधविषयत्वप्रकारकेच्छाविशेष्यो घट इत्याकारकप्रतिपाद्यगतबोधानुकूलव्यापार: सङ्केतकरणं, तत्रेच्छा घटपदाद् घटो बोद्धव्य इत्याकारिका । तत्रापि वस्तुनः कथञ्चित्सामान्यविशेषात्मकतया समानासमानाकारपरिणत्यात्मकेऽपि तस्मिन् न प्रतिव्यक्तिमिनत्वलक्षणाऽसमानपरिणामस्सङ्केतोपयुक्तः, तस्याननुगतत्वेन तत्सङ्केतितशब्दश्रवणे तदर्थविषयककर्मक्षयोपशमसहकृत्तसङ्केतज्ञानसमुद्भूतवाच्यवाचकमावसम्बन्धस्मरणप्रभवार्थस्मृतिद्वारा तत्सजातीयव्यत्यन्तरशान्दबोधानुपपत्तिप्रसङ्गात् , न च प्रत्येकं सर्वासु व्यक्तिषु सङ्केतादुक्तदिशा शान्दवोध इति वाच्यम् , व्यक्तीनामानन्त्येन तावतीषु सङ्केतकरणस्याशक्यत्वात् , किन्तु समानपरिणतिलक्षणतिर्यक्सामान्यस्यानुगतत्वेन तदात्मके तद्विशिष्टे वा सङ्केत: कत्तुं शक्य इति समानपरिणाम एव सङ्केतोपयुक्ता, परपुरुषोचारितशब्दश्रवणेनापि समानपरिणतिविशिष्टस्यैवार्थस्य शाब्दबोधे प्रतिभासमानत्वात् स एव शब्दार्थी, यशाब्दप्रतीतो प्रतिभाति स एव शब्दस्यार्थ इत्यत्र प्रामाणिकानामविवादात्, न त्वसमानपरिणामोऽत्यन्त. विलक्षणस्तस्यार्थः। ननु समानपरिणामस्यानुगतत्वेन तद्विशिष्टे वस्तुनि सङ्केतकरणसौकयोद्भवतु तदभिधायि नाम, किन्तु तद्र्व्यार्थिकनयाभिमतनिक्षेपरूपं कथम्, शब्दरूपस्य नाम्नः कृतकत्वेन द्रव्यधर्मस्य नित्यत्वस्य तत्राभावेन द्रव्यरूपत्वाभावेन द्रव्यार्थिकनयविषयत्वामावादिति चेत् , उच्यते, दूरादागतोऽयं शब्द इत्यादिप्रतीतिसिद्धक्रियावचा. दिहेतुना शब्दस्य पौद्गलिकतयैव सिद्धेः, अत एव वायुवहनसंहरणद्वाराऽनुपातशैलादि. प्रतिघातादिक सङ्घटते, इदमुक्तं भवति-धूमवद्वायुना नयनं, धूमवद्गृहादौ पिण्डीभवनं, तोयवद् द्वारानुविधानं, पर्वतनितम्बादिषु वायुवत्प्रतिघातादिकच शब्दस्य पौगलिकत्वे सत्युपपन्नं भवति, गुणत्वे च तस्य वायुवहनसंहरणादीनां क्रियाविशेषाद्यात्मकत्वेन तदनुपपत्तिस्स्यात् , गुणे क्रियानङ्गीकारात् , यदाह भगवान् भाष्यकार:
___“जं ते पोग्गलमइआ, सकिरिया वाउवहणाओ॥ २०६ ॥ ... धूमोव्व संहरणाओ, दाराणुविहाणओ विसेसेणं ।
तोयं व णितंबाइसु, पडिघायाओ अ वाउव्व ।। २०७॥" इति ॥ अत एव " वारसहि जोयणेहिं सोयं अभिगेण्हए सई" इति पारमर्षवचस्सङ्गच्छते । तथा च पुद्गलरूपतया नित्यत्वेन तत्र द्रव्यत्वमस्त्येव, शब्दस्य वा स्वस्वरूपेणापि किञ्चिस्कालस्थायितया घटादेरिव द्रव्यरूपत्वमेव, पर्यायस्यैकक्षणमात्रस्थायित्वलक्षणत्वेन तद्रप. त्वामावाच । किश्च शब्दस्य कृतकत्वेऽपि यस्मिन् यस्मिन्नर्थे सङ्केतद्वारेण शब्दो नियुज्यते तस्मिन् तस्मिन्नर्थे प्रतिपादकत्वेन प्रवर्तत इत्यनुगतत्वेन द्रव्यसाधाद्रव्यार्थिकनयामिमतनिक्षेपरूपं शब्दात्मकं नामेति प्रतिपत्तव्यम्, किश्च वाच्यवाचकभावसम्बन्धी नित्यः, अन्यथा वाच्यस्यावाच्यत्वं वाचकस्य चावाचकत्वं कदाचित्स्यात् , न चैवं तर्हि सङ्केतग्रई
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सम्मति० का १, गा० . विनापि तज्ज्ञानेन शाब्दप्रतीतिरस्यादिति किमन्तर्गडना तेनेति वाच्यम् , सङ्केताभिव्यक्तस्यैव तस्य पदार्थस्मृतिद्वारा शाब्दप्रतीतिजनकत्वात् , तथा च सम्बन्धस्य कथश्चित्सम्बन्धिद्वयाऽभिन्नत्वेन सम्बन्धिनः शब्दस्योक्तसम्बन्धद्वारा नित्यत्वमिति द्रव्याथिंकनयापेक्षया नामनिक्षेपश्शब्द इति सिद्धम् । ननु भवतु नामनिक्षेपसिद्धिस्तथापि तनाम वस्तुस्वरूपमेवेत्यत्र किं मानमिति चेत्, उच्यते, नाम वस्तुस्वरूपमेव तत्प्रत्ययहेतुत्वात् , स्वधर्मवत् , नामायत्तात्मलाभास्सर्वव्यवहारा इति. तद्धे तुत्वाचेत्यनुमानमेव । " अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः" इति वचनादेकमन्दवाच्यत्वेन नामनामवतोः कथश्चिदभेदतश्शब्दस्यार्थात्मकत्वादेव स्तुतौ रागः स्तुत्यस्य, द्वेषश्च निन्दायां द्वेष्यस्येति, भगवन्नामनिक्षेपस्य भगवद्रूपत्वादेव च तनामस्तुतिरपि भगवत्स्तुतिरेवेति तयाऽऽरोग्यबोधिलाभसमाधिमरणादिफलोत्पादो दृश्यत इत्येतदृष्टान्तबलात् सर्वस्य नाम्नः स्ववाच्यार्थस्वरूपत्वं ज्ञेयम् । यद्वस्तु भावभूतार्थलक्षणाऽसङ्घटितं भावपदार्थेन सहाभेदबुद्धिलक्षणेनामुकोऽयमित्यभिप्रायेण सद्भूताकारेण पुस्तचित्रकर्मादावसभृताकारेणाक्षादौ चेत्वरकालं यावत्कथिकं वा स्थाप्यते प्रतिनिधीयते तद्वस्तु स्थापना, णिजन्तात्स्थाधातोः कर्मणि युप्रत्ययः। भावभूते सर्ववस्तुनि स्वाकारसदृशाकारववतद्रहितत्वलक्षणसद्भावासद्भावान्यतर. रूपतया स्थापनायाः प्रवर्त्तमानत्वात् द्रव्यधर्मसद्धावादे कत्वाध्यवसायकृतमेव तस्या द्रव्या. र्थत्वमिति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः स्थापना । एतेन कल्पनाशिल्पिनिमित्तत्वेन तत्तद्वस्तुस्थापना तत्तद्वस्तुतो भिन्नैवेति न मुख्यार्थस्वरूपेत्याशङ्कापि निरस्ता, यतो घटाकारोऽपि घट एव, तुल्यपरिणामत्त्वात् , अन्यथा तत्वाऽयोगात् , मुख्यार्थमात्रामावादेव तत्प्रति कृतित्वोपपत्तेः, अत एव जिनप्रतिमा जिनसदृशीति सिद्धान्ते गीयते, अक्षादावभिप्रायसम्बन्धं प्रतिभादौ चाकारसम्बन्धं पुरस्कृत्योपास्थमाना जिनादिस्थापना एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मा. रकमिति न्यायेन स्थाप्यस्मृतिद्वारा स्थाप्यगतगुणप्रणिधानोद्रेकलक्षणमात्राभिवृद्धस्तजनित. निर्जराविशेषस्य विधायिनी, तथा च सूत्रबोधितवलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताकतद्गतगुणस्मृतिजनकसंस्कारोबोधकाभिप्रायाकारान्यतरसम्बन्धवचं तत्स्थापनात्वमिति फलितं भवति । ननु नामस्थापनयोः को विशेष इति चेत्, उच्यते-यथेन्द्रादिप्रतिमास्थापनायां कुण्डलाङ्गदादिभूषितः सन्निहितशचीवघ्रादिराकार उपलभ्यते, न तथा नामेन्द्राद्रौ, एवं यथा तत्स्थापनादर्शनाद् भावः समुल्लसति, नैवमिन्द्रादिनामश्रवणमात्राद् , यथा च तत्स्थापनायां लोकस्योपयाचितेच्छापूजाप्रवृत्तिसमीहितलाभादयो दृश्यन्ते, नैवमिन्द्रनामादावित्येवमन्य. दपि वाच्यमिति । " सम्भावमसम्भावे ठवणा" इत्यावचनाच्छास्त्रे सद्भावासद्भावाभ्यां स्थापना द्विधा गीयत इति तल्लक्षणं तदुभयलक्षणं च किमिति चेत्, उच्यते, स्थाप्यमानस्ये न्द्रादेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिह्ववाहनाहरणादिपरिकरो य आकारविशेषो यद्दर्शनात् साक्षाद्विद्यमाने
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सम्मति• काम 1, मा.. न्द्रादिरिवेन्द्रादिलक्ष्यते स सद्भावस्थापना, भावेन्द्रभावजिनाधाकृतिविनिर्मुक्तो योऽशवराटकादिरिन्द्रोऽयमिति जिनोऽयमितिबुद्ध्या स्थाप्यमानस्सोऽसद्भावस्थापना । उक्तश
'लेप्पगहस्थी हस्थित्ति एस सब्भाविया भवे ठवणा। . .
__ होइ असम्भावे पुण हस्थित्ति निरागिई अक्खो ॥१॥" इति । तदुभयस्थापनानुगतलक्षणं तूक्तमेवावसेयम् । द्रवति पूर्वापरपर्यायाश्रयतयाऽविच. लिवस्वभावेन ताँस्तान् पर्यायान् पूर्वापरीभूतान् गच्छतीति व्युत्पत्त्या पूर्वोत्तरपर्यायानुगामिवया त्रिकालानुयायि यत्तद्रव्यम् । तच्च भूतभाविपर्यायकारणत्वात् चेतनमचेतनं वा अनुपचरितमेव द्रव्यार्थिकनिक्षेपः । यद्वा अनुभूतपर्यायमनुभविष्यत्पर्यायश्चैकमेव द्रव्यम् , तेनानुभूतपर्यायशब्देन तत्कदाचिदभिधीयते, कदाचिचानुभविष्यत्पर्यायशब्देन, यथा अतीतघृतसम्बन्धो घटो 'घृतघटः' इत्यभिधीयते, भविष्यत्तत्सम्बन्धोऽपि तथैवाभिधानगोचरचारी । अयम्भावः-यद्वस्तु भूतकाले विवक्षितपर्यायरूपेण परिणतं तद्वस्तु भूतपर्यायकारणस्वात् कारणे कार्योपचारं कृत्वा वर्तमानकाले द्रव्यरूपमुच्यते, यथा अनुभूतदेवेन्द्रत्वपर्यायो मनुष्यो द्रव्येन्द्रः, अनुभूतधृताधारस्वपर्यायोऽयं धृतघटा, यच्च वस्तु भविष्यत्काले विवक्षितपर्यायरूपेण परिणस्यति तद्वस्तु भविष्यत्पर्यायकारणत्वाद्वर्त्तमानकाले भविष्यत्पर्यायापेक्षया द्रव्यरूपमभिधीयते, यथा अनुभविष्यद्देवेन्द्रत्वपर्यायाहस्साधुश्राद्धो वा द्रव्येन्द्रः, उक्तञ्चोपदेशपदे"बेमाणिओववाउत्ति दव्वदेवो जहा साहू" ॥२५५॥ इति ॥ अन्यत्राप्युक्तम्
"मिउपिंडो दवघडो, सुसावगो तह य दव्वसाहुत्ति ।
साहू य दम्वदेवो, एमाइ सुए जओ भणिअं ॥ १ ॥” इति ।। अनुभविष्यद्धृताधारत्वपर्यायाहों घृतघट इति वा । शुद्धपर्यायास्तिकमतेन घटोपयोग एव भावघट इति वर्तमानकालावच्छिन्नघटोपयोगरहितमपि तत्पर्यायेणातीतेन परिणतमनांगतेन च परिणस्यद्वा द्रव्यं तच्छन्दवाच्यं द्रव्यार्थिकनयमतेन व्यवस्थितम्, भूतभविज्यघटोपयोगात्मकमावघटकारणत्वादिति । भवति विवक्षितवर्तमानसमयपर्यायरूपेणो. स्पद्यते इति भावः । अथवा भूतिर्भावः भवनं वा भावो वजकिरीटादिधारणलक्षणवर्तमानपर्यायेणेन्द्रादिरूपतया वस्तुनः परिणमन भावः । यदभिहितम्
" भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः।
सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियाऽनुभवात् ॥ १ ॥” इति । - यद्वा वनकिरीटादिधारणोपशोभितेन्द्रादिवस्तु ग्रहणपर्यायेण ज्ञानस्य भवनम् , अर्थात् वनकिरीटादिधारणविशिष्टेन्द्रादिवस्त्वगाहिज्ञानात्मकोपयोगो भावः, शब्दादिनयत्रयमते
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अम्मति० काम , गां. . मावस्योपयोगलक्षणस्वाद , उक्तलक्षणमावस्तु पर्यायार्थिकनयमतेन निक्षेपः, तस्य प्रतिक्षणमन्यान्यरूपतया पर्यायार्थिकनयगोचरत्वादिति । 'एस परमत्थो' एष:-एष एव नयनिशेपानुयोगप्रतिपादित उभयनयप्रविभागः, परमार्थः परमं हृदयमागमस्य, एतद्विषयाsव्यतिरिक्तविषयत्वात् सर्वनयवादानाम् , न हि शास्त्रपरमहृदयनयद्वयव्यतिरिक्तः कश्चिन्मयो विद्यते, सामान्यविशेषस्वरूपविषयद्वयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावात् विषयिणोऽप्यपरस्य नयान्तरस्याभाव इति । अत्रेदमवधेयम् --द्रव्यार्थिकनयेन नामस्थापनाद्रव्याख्यास्त्रयो निक्षेपा अभ्युपगता, पर्यायार्थिकनयेन च मात्र एवेति महनीयमान्यश्रीसिद्धसेनदिवाकराणां मतेन सहव्यवहाग्योः पूज्यपादश्रीदेवसूरीणां मतेन तु नैगमसहव्यवहाराणां द्रव्यार्थिकनयभेदत्तात्तद्वत्तैरपि त एव त्रयो निक्षेपा अभ्युपगताः, ऋजुसूत्रशन्दसमभिरूद्वैवम्भूतनयानां पर्यायार्थिकनय भेदत्वात्तद्वत्तरपि भाव एव निक्षेपोऽभ्युपगतः। अथर्जुसूत्रनया पर्यायार्थिक नयस्यैव भेद इत्यभ्युपगमे " उज्जुसू अस्स एगे अणुवउत्ते एगं दवावस्सयं पुहृत्तं नेच्छा" इत्यनुयोगद्वारस्त्रविरोधस्स्यादिति चेत्, मैवम् , यतोऽसौ नयोऽतीतं विनष्टत्वेनानागत. श्वाऽनुत्पन्नत्वेन नाभ्युपगच्छति, किन्तु वर्तमानमेव वस्त्वम्युपगच्छति, तदपि स्वकीयमेव मन्यते, स्वकार्यसाधकत्वात् स्वधनवन, न तु परकीयं, स्वकार्याऽसाधकत्वात् परधनवत् , तथा चातीतानागतभेदतः परकीयमेदतश्च पृथक्त्वं नेच्छत्यसो नय इत्यतोऽतीतानागत. वर्तमान मेदभिन्नस्वकीयपरकीयमेदभिन्नलिखिलव्यत्यनुगतसदृशपरिणतिलक्षणतिर्यक्सामा. न्यस्य पूर्वापरपर्यायानुगतोव॑तासामान्यस्य चानभ्युपगमानास्य नयस्य तुल्यांशध्रुवांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः, अत एव नास्यासद्घटितभूतभाविपर्यायकारणत्वरूपद्रव्यत्वाभ्युपगमोऽपि, उक्तसूत्रं तु 'अणुवओगो दवं ' इति द्रव्यलक्षणमाश्रित्याऽनुपयोगांशमादाय वर्तमानावश्यकपर्याये द्रव्यपदोपचारात् समाधेयम्, पर्यायार्थिकन येन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपादिति पूज्यपादश्रीसिद्धसेनदिवाकरमताद्यनुसारिणस्समादधते । सैद्धान्तिकास्तु नोक्तं समीचीनं मन्यन्ते, नामादिवदनुपचरितद्रव्यनिक्षेपप्रदर्शनपरत्वादुक्तसूत्रस्य, न चेदेवं, तर्हि अन्दादिनयेष्वपि कश्चिदुपचारेण द्रव्यनिक्षेपप्रसङ्गात् , पृथक्त्वनिषेधेऽपृथक्वेन द्रव्यविधेरा. वश्यकत्वात् , एकविशेषनिषेधस्य तदितरविशेषविधिपर्यवसायित्वादिति । तथा च सैद्धान्तिकमसेन द्रव्यार्थिकनयस्य नामादयश्चत्वारोऽपि निक्षेपा अभिमताः, पर्यायार्थिकनयस्य भाव एवको निक्षेपः, यदाह भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-" भावं चिय सद्दणया सेसा इच्छन्ति सक्षणिक्खेवे" इति। अत एव चरणगुणस्थितस्य साधोः सर्वनयविशुद्धत्वे सर्वनयानां भावग्राहित्वं हेतुतयोहावितम् , अत एव नैगम-सबह-व्यवहार सूत्राणां मतेऽपि चत्वासे निक्षेपाः, तेषां द्रव्यार्थिकमेदत्वात् , शब्दसमभिरूढैवम्भूतानां तु भावनिक्षेप एव, पर्यायार्थिक मेदत्वादेषाम् । स्यादेतद् द्रव्याथिकनयेन नामादिनिक्षेपचतुष्टयाभ्युपगमे यो द्रव्यस्यैवा
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धम्मति. काग १,.. भ्युपगन्ता स द्रव्यार्थिक इत्यस्यासाधारणस्वरूपस्य हानिस्स्यात् , भावस्य पर्यायरूपस्य तेन स्वीकारेण तत्प्रतिक्षेपाऽकरणात् । अथ लोके यस्य प्राधान्यं तेनैव व्यवहारः, यथा राजाऽऽगत इति सामन्तादयोऽप्यागताः, एवञ्च सति द्रव्यार्थिकनयो द्रव्यं प्रधानतयैवाभ्युपगच्छतीति तत्र न द्रव्यार्थिकत्वहानिरिति तेनैव स व्यवहर्त्तव्यः स्यादेव, भावन्तु गौणतयाऽभ्युपगच्छतीत्येतावता स भावनिक्षेपाभ्युपगन्तेति चेत् , हन्त तर्हि शब्दादित्रिनयाः पर्यायं प्रधानतया. भ्युपगच्छन्तीति पर्यायार्थिकन यस्यैव भेदरूपा इति तत्स्वरूपेणैव व्यवहर्तव्याः, द्रव्यं गौणतयोररीकुर्वन्तीति त्वदुक्तरीत्या द्रव्यनिक्षेपाभ्युपगन्तारश्च स्युः । एवञ्च सति " मावं चिय सद्दणया' इत्यादिप्रागुक्तभाष्यवचनसम्बादव्याघातः। अथ यद्यपि द्रव्यार्थिकनयपर्यायार्थिकनययोर्यथाक्रमं गौणतया पर्यायद्रव्याभ्युपगमः, तथापि तत्र द्रव्यार्थिको द्रव्यपर्यायौ मिथोऽभिनौ एकत्वमापनाविच्छतीति द्रव्यादव्यतिरिक्तं पर्यायमभ्युपगच्छन् स पर्यायार्थिकाद्भिः परिकलितः । पर्यायार्थिकस्तु द्रव्यपर्यायौ परस्परं भिन्नावेवेच्छतीति द्रव्याद्भिन्न पर्याय मनुते, अतोऽसौ द्रव्यार्थिकाद्भिन इष्यते, तथा चानयोभिन्नतैव न पुनरेकतेति, अत्रानुमानश्चैवम्-द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकाद्भिन्नः द्रव्यपर्याययोरत्यन्तमभेदाभ्युपगन्तृत्वात् , पर्यायार्थिकनयश्च द्रव्यार्थिकन याद्भिन्नः तयोरत्यन्त भेदाऽभ्युपगन्तत्वात् , अत एव मिथ्यादृष्टी च प्रत्येकमेती, द्रव्यार्थिकेन द्रव्यपर्याययोरेकान्तेनैकत्व. ग्रहणात्, पर्यायार्थिकनयेन तु तयोरेकान्तेनान्यत्वग्रहणात् , तथा च द्रव्यार्थिकन यस्यापि पर्यायाभ्युपगन्तृत्वमिति चेत्, मैत्रम् , एवं सति पर्यायार्थिकस्य शब्दादिनयस्यापि द्रव्या. भ्युपगन्तृत्वापत्तेः। अत्यन्तभेदाभेदग्राहिणोईयोस्समुदितयोरपि मिथ्यादृष्टित्वप्रसङ्गाच्च । किञ्च द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यपर्याययोरेकत्वमभ्युपगम्यत इति त्वया इयमाणे द्रव्यस्येव सदभिन्न गुणस्यापि द्रव्यत्वप्रसक्त्या 'द्रव्यं' 'गुण' इति शब्दद्वयमेकार्थवाचकत्वादिन्द्र. पुरन्दरादिशब्दवत् पर्यायरूपं स्यात् , एवश्च सहोक्तिर्न स्यात् , अर्थात् द्रव्यगुणशब्दयोर. भेदसम्बन्धेनेतरपदार्थान्वितस्वार्थवोधकवलक्षण सामानाधिकरण्यं स्वप्रयोज्याभेदसम्बन्धा. वच्छिन्नप्रकास्तानिरूपितविशेष्यताप्रयोजकत्वस्वप्रयोज्यविशेष्यतानिरूपिताभेदसम्बन्धावछिन्नप्रकारताप्रयोजकत्वान्यतरवत्वपर्यवसायि न स्यादिति गुणो द्रव्यमिति द्रव्यार्थिकनयाभिलापानुपपत्तिस्स्यात् , यतो न हि कोऽपि प्रेक्षावान् पुमान् घटो नील इतिवद् घटः कलश इति वक्ति, प्रवृत्तिनिमित्तभेदेनैवाभेदव्यवहारसद्भावेन प्रकृते पर्यायशब्दप्रवृत्तिनिमित्त. मेदाभावात् । तथा च द्रव्यगुणपदान्यतरस्यैव प्रयोगस्स्यात् । एवं यदि परस्परमत्यन्त - मिन्नस्य द्रव्यपर्यायोभयस्य ग्राहकः पर्यायनय इति त्वयेष्यमाणे पर्यायार्थिकेनापि द्रव्य. आहे द्रव्यार्थिकनयस्यान्तर्गडुत्वप्रसक्तिरस्यात् , द्रव्यपर्यायोभयान्तर्गतद्रव्यपक्षे पर्याय नय. मतेऽपि द्रव्यं सामायिकमित्यस्याविरोधप्रसङ्गश्च स्यादिति चेत्, अत्र शास्त्रवार्तासमुच्चये यथोपाध्यायैः पर्यालोचितं तथोच्यते, अविशुद्धानां नैगमादिभेदानां नामाद्यभ्युपगमप्रवण
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सम्मति० काण्ड १, गा०६ त्वेऽपि विशुद्धनगमभेदस्य द्रव्यविशेषणतया पर्यायाभ्युपगमाद् न तत्र भावनिक्षेपानुप. पत्तिः, अत एव विशेष्यावश्यकनिर्युक्तायुक्तम्, " जीवो गुणपडिवनो णयस्स दवट्टियस्स सामाइअं" इति । अत्र हि समतापरिणामविशिष्ट जीवे सामायिकत्वं विधीयत इति । न चैवमस्य पर्यायार्थिकत्वापत्तिः, इतराविशेषणत्वरूपप्राधान्येन पर्यायानभ्युपगमात् , शब्दादीनां पर्यायार्थनयानां तु नैगमवदविशुद्ध्यभावाद् न नामाघभ्युपगन्तृत्वम् । वास्तवं तद्विषयत्वं तु नोक्तविभागव्याघाताय, स्वातन्त्र्येण पर्यायविषयत्वं त्वव्याहतमिति । ननु तथापि “नामाइतियं दबढियस्स मावो अ पञ्जवणयस्स" इति मङ्गलाधिकारेऽभिधाय "भावं चिय सहणया सेसा इच्छंति समणिक्खेवे" इत्यग्रे वदतां भाष्यकृतां कोऽभिप्रायः ? इति चेत् , अयमभिप्रायः-पूर्व शुद्धचरणोपयोगरूपभावमङ्गलाधिकारसम्बन्धाद् नैगमादिना जलाहरणादिरूपमावघटाभ्युपगमेऽपि घटोपयोगरूपमावघटानभ्युपगमात् तथोक्तिः, अग्रे तु व्यवस्थाधिकाराद् विशेषोक्तिरिति स्वातन्त्र्येण नामादित्रयविषयत्वमेव द्रव्यार्थिकस्येत्यभिप्रेत्य नयान्तरेण वा पूर्व तथोक्तिः । अत एवोक्तं तत्वार्थवृत्तौ-अत्र चाऽऽद्या नामादयस्त्रयो विकल्पा द्रव्यार्थिकस्य तथा तथा सर्वार्थत्वात् पाश्चात्यः पर्यायनयस्य तथापरिणतिविज्ञानाभ्यामिति । नयोपदेशेऽप्युक्तम्... " इष्टः शब्दनयैर्भावो, निक्षेपा निखिलाः परैः।
मतं मङ्गलवादेन्य-द्भिदां द्रव्याथिके नये ।। ८३ ॥ द्रव्याथै गुणवान् जीवः, पर्यायार्थे च तद्गुणः । सामायिकमिति प्रोक्तं, यदिशाऽऽवश्यकादिषु ॥ ८४ ॥ घटोपयोगरूपो वा, भावो द्रव्यार्थिकेऽमतः। .
तेन तत्र त्रयं प्रोक्त-मिति जानीमहे वयम् ॥ ८५॥" इति । तदर्थस्तु विस्तरार्थिभिस्तडीकात एवावसेयः। ग्रन्थगौरवभीत्येह न प्रतन्यते । ननु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोमिथो विवादे सति मे मनः सन्देहदोलामधिरोहति, किमत्र तत्रमिति चेत् ? उच्यते, पृथग्रूपयोस्तयोर्मध्यादृष्टित्वं समुदितयोश्च तयोस्सम्यग्दृष्टित्वमिति परस्परसापेक्षतदुभयनयापेक्षया नामादिचतुष्टयात्मकमेव वस्तु तत्वमिति निश्चिनु, नामादिनिक्षेपचतुष्टयात्मकतयैव वस्तुमात्रस्यानुभवात् , अनुमवाधीना हि वस्तुव्यवस्थितिः । तदुक्तम्
" संविनिष्ठव सर्वाऽपि, विषयाणां व्यवस्थितिः । सम्वेदनं च नामादि,-विकलं नानुभूयते ॥ १ ॥ तथाहिघटोऽयमिति नामैतत्, पृथुबुध्नादिनाऽऽकृतिः। मृद्रव्यं भवनं भायो, घटे दृष्टं चतुष्टयम् ॥ २॥ .
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सम्मति० काण्ड १, मा० ६
तत्रापि नाम नाकार-माकारो नाम नो विना । तौ विना नापि चान्योन्य, -मुत्तरावपि संस्थितौ ॥ ३ ॥ मयूराण्डर से यद्वद्वर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योन्यमुन्मिश्रा, स्तद्वन्नामादयो घटे ॥ ४ ॥ " इति । अनुयोगद्वारसूत्रेऽप्युक्तम् -
७६
46 ' जत्थ य जं जाणिजा, णिक्खेवं णिक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि न जाणिखा, चडकयं णिक्खेवे तत्थन्ति ॥ १ ॥
33
अत्र यत्र निक्षेपान्तरं न जानीयात्तत्र चतुष्टयं निक्षिपेदित्यनेन चतुष्टयस्य व्यापिता स्फुटीकृता, यत्तत्पदाभ्यां निर्देशे यो धूमवान् स वह्निमानित्यत्रेव व्याप्तेर्लामावश्यकत्वादिति । तथा च यद्यद्वस्तु तत्तन्नामादिनिक्षेपचतुष्टयात्मकमिति पर्यवसायिनी सा व्याप्तिरिति तज्ज्ञानजन्याया अन्यथानुपद्यमानवस्तुत्व हेतुकायाः " वस्तुतत्वं नामादिनिक्षेप चतुष्टयात्मकम् " इत्यनुमितेचंस्तुमात्रं नामादिनिक्षेप चतुष्टयात्मकमेवेति सिद्धम् । तथा हि-एकस्मिन्नपि शचीपत्यादौ ' इन्द्र' इति ताम, तदाकारस्तु स्थापना, उत्तरावस्थाकारणत्वं तु द्रव्यत्वम्, दिव्यरूप - संपत्ति - कुलिशधारण-परमैश्वर्यादिसंपन्नत्वं तु भाव इति चतुष्टयमपि प्रतीयते, तद्वदन्यवस्तुन्यपि ज्ञेयम्, उक्तञ्च - " जं वत्थुमस्थि लोए चउपजायं तयं सर्व्वं " इति ॥ अत्रान्यशङ्का तत्समाधानं निक्षेपसामान्यलक्षणश्च नामादिप्रत्येक निक्षेपानुगतलक्षणादिकं च यद्वन्थगौरवभीत्या न विवेचितं तत्सर्वमस्मत्कृततच्चार्थप्रथमाध्यायविवरण गूढार्थदीपिकाव्यटीकातो विस्तारार्थिनाऽव सेयमिति ॥ ६ ॥
एतदपि नयद्वयं शास्त्रस्य परमहृदयं तदैव यदैकानेकत्वेनानुभूयमाने वस्तुनि यदंशापेक्षयैकत्वं स एवांशी द्रव्यं यदंशापेक्षयाऽनेकत्वं स एवांशः पर्यायः, अत एव तत्तदप्रेक्षागर्भतत्तदनेक पर्याय करम्बितत्वाद् वस्तुनस्तथा तथा प्रयोगे तसदपेक्षा लाभार्थं स्यात्कारमेव प्रयुञ्जते सर्वत्र प्रामाणिकाः, अन्यथा निराकाङ्क्षमेव सर्व वाक्यं प्रसज्येत, तथा चाऽन्योऽन्यानुस्यूतद्रव्य पर्यायो मयात्मकमेव वस्तु परमार्थदृष्ट्या सत्, न त्वेकान्तद्रव्यार्थिकन याम्युपगतकल्पित पूर्वापरपर्यायान्वयिद्रव्यात्मकमेव वस्तु सत्, न वैकान्तपर्यायार्थिकन थोररीकृत प्रतिक्षणान्यान्यपर्यायात्मकमेव वस्तु सत्, अन्योन्याननुस्यूतद्रव्यपर्यायाऽनुपलम्भात् । यदुक्तम्
द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः ।
क कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा १ ॥ १ ॥
तथा च वस्तुमात्रस्य द्रव्यार्थिकनयापेक्षया गुणीभूतपर्यायप्रधानीभूतद्रव्योपेतत्वेनेव पर्यायार्थिकनयापेक्षया गुणीभूतद्रव्यप्रधानीभूतपर्यायोपेतस्वेनाप्युपलम्भात् समुदितद्रव्या
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सम्मति० काण्ड १, गा० ७
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र्थिकपर्यायार्थिकनयार्पणाया प्रमाणार्पणापर्यवसायिश्वेन तथा प्राधान्येन द्रव्यपर्यायो मयोपेतत्वेनोपलम्भाच्चानेकान्तात्मकमेव वस्तु सदित्येवम्भूतार्थप्रतिपादनपरत्वेन परस्परसापेक्षम्, न तु विशेषाननुषक्तसामान्यमात्रावभासकं सामान्याननुषक्तपर्यायमात्रावभासक मित्येवं पृथगेकैकांश प्रतिपादनपरं परस्परनिरपेक्षं नयद्वयम्, तस्य मिध्यारूपत्वेन तद्विषयस्याप्यस पत्वादित्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थमाह
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पंज
" पज्जवनिस्सामण्णं, वयणं दव्वद्वियस्स अस्थित्ति । अवसेसो वयणविही, पज्जव भयणा सपडिवक्त्रो ॥ ७ ॥ " इति ' पज्जवनिस्सामण्णं वयणं' पर्यायनयेन निस्सामान्यमसाधारणं वचनं, तत्कस्य कीदृशमित्यत आह - " दवद्वियस्स अत्थित्ति " द्रव्यार्थिकस्य - द्रव्यार्थिकन यस्य अस्तीत्वाकारकं पर्यायनयाभ्युपगतविशेषस्य सत्ताऽनुप्रवेशात् विशेषाननुषक्तसामान्यमात्र प्रतिपादकम्, यथा चैतद्वचनमेकान्तात्मकं मिथ्या, असदर्थप्रतिपादकत्वात्, तथा पर्यायनयवचनमपि सामान्याननुषक्तविशेषमात्रप्रतिपादकं मिथ्यैव तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्यास द्रवत्वादिति प्रतिपादयितुमाह - ' अबसेसो वयणविही ' अवशेषो वचनविधिर्वचनप्रकार: वभयणा' पर्यायभजनात् पर्यायेषु सत्ताया आरोपणात् अनुप्रवेशात् 'सपडिवक्खो' सत्प्रविपक्ष इति गाथा सङ्क्षिप्तार्थः । विस्तृतार्थस्त्वेवम् – ' पजवनिस्सामण्णं वयणं' निर्गतं सामान्यं साधारणस्वरूपं यस्मात्तन्निःसामान्यम्, असाधारणम्, पर्यायनयेन सह निस्सामान्य पर्यायनिस्सामान्यम्, एवंविधं वचनम्, पर्यायनयेन वस्तुप्रतिपत्तये यादृशं वचनं घटपटादिभेदप्रतिपादकं प्रतिक्षणमन्यान्यस्वरूप प्रतिपादकञ्चाम्युपगतं तादृशवचनसमानं यन भवति एवम्भूतं सत्तामात्रप्रतिपादकं वचनमिति यावत्, तरकस्येत्यत आह-- दव्वडियरस ' द्रव्यार्थिकनयस्य किं स्वरूपं तदित्यत आह-' अस्थित्ति ' अस्तीत्याकारकं सत्तासामान्यरूपाऽभिन्नार्थप्रतिपादकम् । ननु भेदवाद्यम्युपगत विशेषपदार्थोऽप्यस्तीति तत्प्रतिपादकमपि कथं न 'अस्ति ' इत्याकारकं वचनमिति चेत्, मैवम्, तस्य सत्तास्वरूपप्रवेशेनैव सद्रूपत्वात्, न हि तद्व्यतिरिक्तो विशेषो नाम पदार्थः कश्चिदनुभूयते, सदित्युक्ते वस्तुमात्रस्यैव बुद्धौ प्रतिभासनात्, सर्व सत्तामात्रमेव, न तदर्थान्तरं वस्तु किमप्यस्तीति न तत्प्रतिपादकमस्तीति वचनम् । एतद्वचनमपि मिथ्या, विशेषविनिर्मुक्तसत्ता व्यवहाराऽनुपयुक्तत्वेनाऽसद्रूपे त्यसदर्थप्रतिपादकत्वात्, वियत्कुसुमवचनवत् । व्यवहारानुपयुक्तत्वश्च वहनदोहनानयनादिविशेषक्रियाव्यतिरिक्तसामान्यक्रियायास्सत्सामान्य सा ध्याया ह्रियमाणत्वेन व्यवहियमाणायाश्च वहनदोहनादिविशेषक्रियाया अश्वगवादिविशेषसाध्यतयैवानुभूयमानत्वेन सामान्यमात्रविषयक व्यवहारस्य कस्यचिददर्शनेन सिद्धमेव । एतेन यदुव्यते सङ्ग्रहवादिना -
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अव्यव.
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यथा कटकशब्दार्थः, पृथत्तवाहों न काश्चनात् । न हेम कटकात्तद्व-जगच्छन्दार्थतावरे ॥ १ ॥
""
इति तदपास्तम् । अस्यायमर्थः -
सम्मति • काण्ड १, गो०७
काश्चनात्कटकशब्दार्थः पृथक्त्वार्हो न, अर्थात् काश्चनमेव कटकशब्दार्थः, कटकशब्दार्थस्य विशेषस्याऽतिरिक्तस्याभावेन काञ्चनमेव कटकशब्देनोच्यते इत्यर्थः, तद्वत् कटकशब्दार्थस्य काञ्चनात् पृथक्त्वाईत्वाभाववद् हेम्नः कटकशब्दार्थात् पृथक्त्वाईत्वाभावो न, अर्थात् हेम्नस्सामान्यस्य सद्भूतत्वेन कटकशब्दार्थात् कटकारकाल्पनिकात्पृथचत्रमेव, अपृथक्त्वे विशेषस्याऽसत्वेन तद्रूपस्य सामान्यस्याप्यसत्त्वं स्यात्, न च सामान्यमसत्, ततो न तस्य विशेषरूपता, विशेषस्य तु सामान्यादपृथक्त्वे सामान्यात्मना सच्खमापद्येत, तच्चेष्टमेव सर्वेषां विशेषाणां सामान्यात्मना सवस्येष्टत्वात् । अवरे न वरं श्रेष्ठं यस्मात्तदवरं सस्वाख्य महासामान्यं तस्मिन्, जगच्छन्दार्थता - घटपटाद्य शेषशब्दार्थता, सर्वेऽपि घटपटादिशब्दा महासामान्यमेव तत्तद्रूपेण त्रते इति तदपासने को हेतुरिति चेत्, उच्यते, हेमसामान्यस्य यावत्कटकाङ्गदादिविशेषपार्थक्याऽसिद्धिः, शाखादियावदवयव - भिन्नस्य वृक्षादेवि यावद्विशेषभिन्नस्य सत्ताख्य महासामान्यस्याध्यनुपलब्धिवेति जानीहि, यथा च घटशशवोदञ्चनाद्यभिन्नमेव मृद्रव्यं, तथा कटककेयूराद्यमिन्नमेव सुवर्णद्रव्यम्, ऊर्ध्वतासामान्यवत्तिर्यगूसामान्यमपि व्यक्तिव्यतिरिक्तं नानुभूयत एव, सत्ताऽव्यतिरिक्ततयैव सर्वं घटपटादिकमवभासत इति महासत्तासामान्यमेव घटपटादिकमिति तदाभ्युपगन्तुं शक्येत, यदि प्रतीत सन्मात्रमुल्लिख्येत, न त्वेत्रम्, घटः सन् पटः सन्नित्येवं घटपटादीनामप्युल्लेखादित्युल्लिख्य मानभेदान्यथानुपपत्या घटपटादयोऽप्यभ्युपगन्तव्याः, न च घटपटादिकमनुलिख्य सन्मात्रोल्लेख शालिनी प्रतीतिः काचिदस्तीति । न च द्रव्योपयोगप्रभवानुगतप्रतीतिलक्षणसामान्योपलम्भस्य सद्भावात्सामान्यानुपलब्धेरित्यस्यैवाऽसिद्धिरिति वाच्यम्, जलाहरण व्रणपिण्डीप्रदानादिव्यवहारस्य घटनिम्बपत्रादिविशेषैरेव क्रियमाणस्य दर्शनेन सामान्यस्य व्यवहाराsनिर्वाहकत्वेन द्रव्योपयोगेन तद्ब्रहेऽपि तस्य दोषजन्यज्ञानतया श्रमत्वेन ततो वस्त्वसिद्धेरिति । तन्न सदेवास्तीत्येकान्तभावनाप्रवृत्तस्य द्रव्यार्थिकनयस्य परमार्थता | पर्यायास्तिकनयस्याप्येवं प्रवृत्तस्य न सेति पचार्द्धेन प्रतिपादयति- ' अवसेसो ' इत्यादिना । तत्रावशेषः - अवशिष्ट उपयुक्तादन्य इति यावत् स क इत्यत आह- ' वयणविही ' सत्ताविनिर्मुक्तविशेषप्रतिपादकवचनप्रकार इत्यर्थः । स च कीदृश इत्यत आह- ' पञ्जवमयणा सडिक्खो ' । पर्यायेषु सत्ताव्यतिरिक्तेष्वसत्सु भजनात् सत्ताया आरोपणात् सत्प्रतिपक्ष इति - सतः प्रतिपक्षः विरोधी, असदर्थप्रतिपादकत्वेन मिथ्येत्यर्थः । तथा च विशेष एवास्तीति वचनविधिः मिथ्या, सामान्यविनिर्मुक्तविशेषस्यासतः प्रतिपादकत्वात् स्वपुष्पवचनवदिति
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सम्मति० का १, ०७
पर्यवसितोऽर्थः र्थः । असत्वं च तस्य सतो भेदाभेदाभ्यां त्रिकल्पासहत्वात्, तथाहि - विशेषः सतो भिन्नोऽभिभो वा, आद्ये सतो भिन्नत्वेन शशशृङ्गवदसस्त्रमेव स्यात्, द्वितीये सतोभिनत्वेन सुत्ताकुक्षिप्रविष्टतया सन्मात्रमेव स्यात्, सत्तास्वरूपवत् । तन्न विशेष एवास्तीत्येकान्तभावनाप्रवृत्तस्य पर्यायास्तिकनयस्य पारमार्थिकत्वम्, तदेवमुक्तैकान्तनयद्वयस्य मिथो विरोधयुक्त्याऽप्रामाणिकत्वे सिद्धे तद्विषयीभूतं नैकान्तसामान्यात्मकं न वैकान्तविशेषात्मकं वस्तु सद्, किन्तु परस्परानुस्यूतोभयात्मकमेव, यत एकस्मिन्नेव वस्तुनि सामान्यविशेषावनुस्यूत तयैवानुभूयेते, अत एव सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामान्याख्यद्रव्यस्यैकत्वेन तदपेक्षयैकत्वम्, विशेषाख्यपर्यायाणां नानात्वेन तदपेक्षयानेकत्वमिति गौणप्रधानभावेनैकाने कात्मकतया वस्तुप्रतिपादकं परस्परसापेक्षद्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयद्वयं प्रधानभावेनैकानेकात्मकतया वस्तुप्रतिपादकं प्रमाणञ्च शास्त्रस्य परमरहस्य मिति सिद्धम् । अत एवैकस्मिन्नेव नरके परस्परसापेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकन यद्वयापेक्षकशाश्वतस्वाशाश्वतत्वधर्मद्वयप्रतिपादकम्, इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी किं सासता असासता ? गोमा ! सिय सासता सिय असासता । से केणद्वेणं मंते ! एवं बुच्चइ सिय सासता सिय असासता ! गोयमा ! दवट्टयाए सासुता, वण्णपञ्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपञ्जवेहिं असासता से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चति तं चैव जाव सिय असासता, एवं जाव अहे सत्तमा इति सूत्रमपि सङ्गच्छत इति । अथवा अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामघेया इति न्यायघटकीभूतयोरर्थप्रत्यययोस्स्वरूपं पूर्वमभिधायाधुना तदूपटकीभूतस्याव शिष्टस्याभिधानस्य नयस्य वाक्यस्वरूपत्वे द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकन यस्वरूपस्य, नयस्य वाक्याऽस्वरूपत्वे तदभिधायकस्य वा प्रतिपादनार्थमाह-' पञ्जवणिस्सामण्णं ' इत्यादि । पजवणिस्सामण्णं वयणं' पर्यायान्निर्गतं तदननुषक्तं तदविमिश्रमिति यावत्, सामान्यं सङ्ग्रहस्वरूपं यस्मिन् वचने तत् पर्यायनिस्सामान्यं वचनम्, पर्यायविनिर्मुक्तसामान्यप्रतिपादकं वचनमिति यावत् किंस्वरूपं तदित्याशङ्कायामाह - ' अस्थिति' अस्तीत्याकारकं महासत्तासामान्याभिधायीति यावत् । तच्च कस्य स्वरूपं प्रतिपादकं वेत्यत आह-' दवडियस्स ' नयस्य वाक्यस्वरूपत्वपक्षे वाक्यात्मकद्रव्यार्थिकनयस्य स्वरूपम्, वाक्यास्वरूपत्वपक्षे द्रव्यार्थिकनयस्य प्रतिपादकं वा, यद्रा "पजवणिस्सामण्णं वयणं" इति, पर्याय ऋजुसूत्रनयविषयादभ्यो द्रव्यत्वादिविशेषः, स एव च निश्वितं सामान्यं यस्मिंस्तत् पर्यायनिस्सामान्यं वचनम्, द्रव्यत्वादिसामान्य विशेषाऽभिधायीति यावत् । तच्च वचनं ' दवडियस्स अस्थि ' द्रव्यार्थिकस्यास्ति - अशुद्धद्रव्यार्थिकनयस्य वाक्यास्वरूपत्वे तत्प्रतिपादकत्वेन, 'वाक्यस्वरूपत्वे तु तत्स्वरूपत्वेन सम्बन्धि भवतीत्यर्थः, इतिशब्दोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनयवचनपरिपूर्त्तो, अर्थात् एतावन्मात्रम शुद्धद्रव्यार्थिकनयवचनमित्यावेदितं भवति । अथवेत्यादिपूर्वार्द्धव्याख्यानेन सत्ताख्यमहासामान्याभिधायि वचनं शुद्धद्रव्यार्थिकस्येति प्रतिपाद्य
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सम्मति का , गा.. यद्वेत्यादिना पूर्वार्द्धस्यैव व्याख्यानान्तरेण द्रव्यत्वादिसामान्यविशेषात्मकाशुद्धद्रव्या. किनयविषयाभिधायिवचनमशुद्धद्रव्यार्थिकस्येति प्रतिपाद्य च अवसेसो इत्याधुत्तरार्द्धन पर्यायार्थिकनयस्य वचनस्वरूपमाह-अवशेष:-अवशिष्टः शुद्धद्रव्याथिकवचनाशुद्धद्रव्या र्थिकवचनाम्यां भिन्नो वचनविधिः पर्यायार्थिकन यस्वरूपः तत्प्रतिपादकवर्णपद्धतिर्वा सप्रतिपक्ष:-शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकवचनयोर्विरोधी, तत्र हेतुः " पजवभयणा" पर्यायभजनात् पर्यायप्रतिपादकत्वादित्यर्थः । पर्यायप्रतिपादकत्वामावे तयोरेवान्तर्भावादवशिष्टवचनविधित्वमेव पर्यायनयवचनस्य न स्यादिति तदन्यथानुपपश्या पर्यायप्रतिपादकत्वं तस्य स्वीकरणीयमेव, एतेनैकान्तपर्यायाथिकनयवचनस्वरूपं प्रतिपादितं भवति, शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकनयवचनपर्यायार्थिकनयवचनयोरविरोधस्तु परस्परसापेक्षयोनयद्वयविषययोर्गौणप्रधानभावेन प्रतिपादकत्वे सत्येवेति भावनीयम् ।। ७॥
एवं तावद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभेदेन भेदमनुभवता नयानां स्वरूपं प्रतिपाद्य प्रकृती स्वरूपत एकत्वं सच्चादिगुणत्रयापेक्षया त्रिरूपत्वमितिवत् एकस्मिन्नेव भ्रान्तज्ञाने धमेशे प्रामाण्यं प्रकारांशे चाऽप्रामाण्य मितिवच चित्रज्ञाने नीलाकारत्वपीताकारत्ववच भिन्नमित्रापेक्षाभावेनाविरोधशालिकथञ्चिदेकत्वानेकत्वमेदाभेदादिधर्मालिङ्गितद्रव्यपर्यायोमययोर्गौण प्रधानमावेनावगाहित्वे सत्यवैषां सुनयत्वं, न त्वेकान्ताऽभिन्नद्रव्यस्य एकान्ततत्तत्क्षणमात्रवर्तिमिमभिन्नपर्यायाणां वाऽवगाहित्वे सतीत्येतत्प्रतिपादनार्थ ज्ञानानेकान्तमेव तावदाह
"पजवणयवुकंतं वत्थु, दव्वढियस्स वयणिज्ज।
जाव दविओवओगो, अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो ॥ ८॥" 'अपश्चिमविकल्पनिर्वचनः सङ्ग्रहावसानो यावद्रव्योपयोगः प्रवर्तते तावद् द्रव्यार्थिकस्य वचनीयं द्रव्याथिकनयस्य विषयीभूतं वस्तु, तच्च पर्यायनयव्युत्क्रान्तं पर्यायनयविषयीकृतमेवेति तात्पर्यार्थः । अवयवार्थस्त्वेवम्-- अपच्छिमवियप्पनिहयणो' निश्चयकर्तवचन निर्वचनम् विकल्पश्च निर्वचनश्च अनयोस्समाहारो विकल्पनिर्वचनम् , न विद्यते पत्रिम विकल्प निर्वचनं यस्मिन् तचथा-तथाविधं तद्यस्य द्रव्योपयोगस्यासो अपश्चिमविकल्प. निर्वचनः । यद्वा अपश्चिमविकल्पनिर्वचन:--न विद्यते पधिमे उत्तरे विकल्पनिर्वचने सविकल्पधीध्यवहारलक्षणे यत्र स तथा, शुद्धसङ्ग्रहावसान इति यावत् , ततः परं विकल्पवचनाऽप्रवृत्तेः, “जात्र दविओवओगो" ईदृशो यावत्योपयोगः प्रवर्तते सावत्किमित्यत आह-' वत्थु दवडियस्य चयणिजं' इतितावद्रव्याथिकनयस्य वचनीयं वस्तु, द्रव्यार्थिकन यस्य विषयीभूतम् , तच्च किंस्त्ररूपमित्यत आह-' पञ्जवणयवुकंत' पर्यायनयव्युत्क्रान्तम्-पर्यायनयेन वि-विशेषेण उत् ऊर्ध्व क्रान्तं विषयीकृतमेव, पर्याया. नाक्रान्तसचामात्रसद्वावग्राहकस्य प्रत्यक्षस्यानुमानस्य वा प्रमाणस्याभावात् , घटपटादि.
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सम्मति काय , me. पर्यायाक्रान्तस्यैव सर्वदा सत्तारूपस्य ताभ्यामवगते । घटः सन् पटा सन् मठस्सभित्यादि. प्रत्यक्षप्रतीतिभ्यो विशेष्यविधया घटपटादीनां पर्यायाणामपि सिद्धे, तेषां काल्पनिकत्वे प्रकारीभृताया ब्रह्मात्मकसत्ताया अपि तथात्वापत्तेः, व्याप्तिज्ञानपरामर्शयोः पक्षसाध्य. हेतुविषययोः प्रामाण्ये सत्येव तजन्यब्रह्मात्मकसत्तासाध्यकानुमितेः प्रामाण्यमिति भेदसिद्धयापत्तिः, तयोरप्रामाण्ये च तजन्यानुमितेरप्यऽप्रामाण्यापत्या ब्रह्मात्मकसत्ताया अप्य. सिद्ध्यापत्तिस्स्यात् , सदेव सोम्येदमन आसीत् , " एकमेवाद्वितीयं ब्रम"" नेह नानास्ति किश्चन " इत्यादिवेदवाक्यस्य प्रामाण्यन्तु विवादापन्नमेवेत्येकोऽर्थः । यद्वा यद्वस्तु सूक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमादिबुद्धिना पर्याय नयेन स्थूलरूपं त्यजतोत्तरोत्तस्तत्तत्वक्ष्मरूपाश्रयणातू व्युत्क्रान्तं गृहीत्वा विचारेण मुक्त किमिदं मृत्सामान्यम् , यद् घटादिविशेषानुपरक्तधीविषयी भवेत् ? । घटादिविशेषविना प्रतिपत्तिविषयस्स्यात् , एवं यावत्सूक्ष्मतमस्वरूपोऽन्त्यो विशेषस्तावत्सर्व वस्तु द्रव्यार्थिकनयस्य वक्तव्यम् , पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरापेक्षयाऽनुगतरूपत्वा. देवोत्तरोत्तरनयेन सूक्ष्मसूक्ष्मतरतत्तद्विशेषग्राहिणा परित्याग इति तस्य पूर्वपूर्वरूपस्य सामा. न्यात्मकस्य द्रव्यत्वमायातमेवेति तद्विषयकस्य नयस्य द्रव्यार्थिकत्वम् , तबाह्यस्य पूर्वपूर्वरूपस्योत्तरोत्तरसूक्ष्मसूक्ष्मतरपर्यायनयत्यक्तस्यार्थस्य द्रव्यरूपत्वम् , उत्तरोत्तरस्य च पूर्वपूर्वरूपापेक्षया विशेषरूपत्वेन पर्यायरूपतया तग्राहिणो नयस्य पर्यायार्थिकत्वम् , तद्वाह्यस्य चोत्तरोत्तरपर्यायरूपत्वम् , यदेव चोत्तरापेक्षया पूर्वपूर्वरूपत्वात्सामान्यरूपं, तदेव च स्वपूर्वापेक्षया विशेषरूपमित्येकस्यापि वस्तुनः सामान्यविशेषोभयरूपत्वेन द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयविषयत्वम् , यतो यावदपश्चिमविकल्पनिर्वचनोऽन्त्यो विशेषस्ताबद्रव्योपयोगो द्रव्यज्ञानं प्रवर्तते, न हि द्रव्यादयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्ययाऽविशिष्टैकान्तव्यावृत्तबुद्धिग्राह्यतया प्रतीयन्ते, न च तथाऽप्रतीयमानास्तथाऽभ्युपगमाहींः, अतिप्रसङ्गात् , तदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी, नापि विशेषास्सत्ताविकला इति सिद्धम् । ननु महासामान्यस्य तत्पूर्वसामान्याभावाच्छुद्धसनहेतरनयविषयत्वाभावेन विशेषरूपत्वाभावात्सामान्यरूपत्वमेव स्यात् , एवमन्त्यविशेषस्यापि तदुत्तरविशेषाऽभावात्तग्राहकेण केनापि पर्यायनयेन ग्राह्यत्वाभावात्सामान्यरूपत्वाभावेन विशेषरूपत्वमेव स्यादिति चेत् , भवतु तथा, का नाम क्षतिः, अपसिद्धान्तत्वप्रसङ्ग इति चेत्, मेवम् ।।
"अयं च्योपयोगः स्यात्, विकल्पेऽन्त्ये व्यवस्थितः।
अन्तरा द्रव्यपर्याय-धी: सामान्यविशेषवत् ॥ १५ ॥” इति नयोपदेशश्लोकव्याख्यायां " अयं द्रव्योपयोगः द्रव्यार्थिकनयजन्यो गोषः अन्त्ये विकल्पे शुद्धसबहारये व्यवस्थितः, पर्यायबुद्धयाऽविचलितः स्यात्" इत्युक्त्या शुद्धसङ्ग्रहविषये महासामान्ये पर्यायार्थिकनयो न प्रवर्तत इति तत्सामान्यरूपमेव, न पर्यायरूप.
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सम्मति का , गा. मित्युक्तम्भवति । अन्त्यविशेषविकल्पे च शुद्धर्जुसूत्रलक्षणे कारणाभावादेव द्रव्योपयोगो व्यवस्थितस्स्यात्-न्युपरतस्स्थादित्युक्त्या शुद्धर्जुसूत्रलक्षणस्य शुद्धपर्यायावगाहिनयस्य विषयेऽन्त्यविशेषे द्रव्योपयोगो द्रव्यार्थिकनयजन्यवोधो न प्रवर्तत इति स विशेष एव, न सामान्यमित्युक्तम्भवतीति नापसिद्धान्तत्वप्रसङ्ग इति । विशेषार्थिना नयोपदेशवृत्तिर्नाम्ना नयामृततरङ्गिणी विलोकनीया । न च महासामान्यस्य सामान्यैकान्तरूपत्वेऽन्त्यविशेषस्य च विशेषकान्तरूपत्वेऽनेकान्तत्वविरोधस्स्यादित्यपि वाच्यम् , महासामान्यस्यापि तदुत्तर. विशेषापेक्षयैवान्त्यविशेषस्यापि च तत्पूर्वसामान्यापेक्षयैव सद्रूपत्वेन विषयतासम्बन्धेन परस्परसापेक्षोभयविषयताकबोधं प्रति तादात्म्यसम्बन्धेनोभयात्मकविषयस्य कारणतया प्रत्येकस्याप्युभयरूपत्वेनानेकान्तत्वविरोधाभावादिति द्वितीयोऽर्थ इति ॥ ८॥
अथ द्रव्यार्थिको महासामान्यात्मकद्रव्यमात्रविषयताकत्वेन पर्यायार्थिकश्च विशेषात्म. कपर्यायमात्रविषयताकत्वेन शुद्धजातीय इत्येवं न शुद्धजातीयद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकमावव्यवस्था, किन्तु पूर्वोक्तयुक्त्याऽऽद्यमहासामान्यस्याप्यापेक्षिकविशेषरूपतयाऽन्त्यविशेषस्यापि चापेक्षिकसामान्यरूपतया सामान्यं न विशेषविकलं नापि विशेषाः सामान्यरहिता इति द्रव्यार्थिकस्य पर्यायार्थिकस्य वा प्रत्येकनयस्याप्युपसर्जनीकृतस्त्रान्यविषयप्रधानीकृतस्व. विषयतया प्रधानगौणमावेन सामान्यविशेषाख्यद्रव्यपर्यायोभयविषयताकत्वेनानेकान्तानु. प्रवेशादेव द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभावव्यवस्थेत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थमाह
"दव्वहिओत्ति तम्हा, नथि णओ णियमसुद्धजाईओ।
ण य पज्जवडिओ णाम, कोइ भयणाइ उ विसेसो ॥ ९ ॥” इति तस्माद्रव्यार्थिक इति नयो नियमेन शुद्धजातीयः केवलद्रव्यविषयताको नास्ति, न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिन्नयः शुद्धजातीयः केवलपर्यायविषयताकोऽस्ति, द्रव्यपर्याययो. मिथस्सापेक्षतयैवानुभूयमानत्वेनान्यनिरपेक्षद्रव्यपर्यायविषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात् , भजनया त्वनयोनययोर्विशेषः, पर्यायोपसर्जनेन प्रधानतया द्रव्यग्राहित्वे द्रव्यार्थिकनया, द्रव्योपसर्जनेन प्रधानतया पर्यायग्राहित्वे पर्यायाथिकनय इत्येवमनयोर्भेद इति तात्पर्यार्थः। ___ अवयवार्थस्त्वेवम्-' तम्हा दवढिओत्ति णओ सुद्धजाईओ नस्थि' तस्मात् परस्परानात्मकद्रव्यपर्याययोरप्रतिमासमानत्वाद् द्रव्यार्थिक इति नयः शुद्धजातीयो विशेषविषयकत्वामावे सति सामान्यविषयताको नास्त्येव, नियमेनेत्यस्यावधारणार्थत्वात् , द्रव्यपर्याययोमिथो नान्तरीयकत्वाद् विशेषविनिर्मुक्तोर्वतासामान्यात्मकविषयाभावेन सामान्येतरा. विषयताकत्वे सति सामान्य विषयताकद्रव्यार्थिकनयात्मकविषयिणोऽप्यभावात् । "ण य ‘पञ्जवडिओ णाम कोइ" नाम इति प्रसिद्धार्थः, न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिन्नयो नियमेन शुद्धस्वरूपः सामान्यानवभासित्वे सति विशेषावभासी सम्भवति, सामान्यविकलात्यन्तव्या
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सम्मति० काण्ड १, गा० १० वृत्तविशेषविषयामावेन विशेषतराविषयताकत्वे सति विशेषविषयताकपर्यायाधिकनयात्मकविषयिणोऽप्यभावाद, द्रव्यमात्रग्राहकद्रव्यार्थिकनयस्य पर्यायमात्रग्राहकपर्यायार्थिकनयस्य च मावे वा मिथ्यात्वमेव, अन्यथाविषयग्राहित्वात् , यद् यत्र यदपेक्षयाऽस्ति तस्य तत्र तदपेक्षया ग्राहकत्वेनैव नयप्रामाण्यात् । नन्वेवमेकान्तस्याभेदस्य मेदस्य चाभावेन तद्रूपविषयाभावाद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयो न स्तस्तर्हि " तित्थयस्वयणसंगह-विसेसपथारमूलवागरणी" इत्यादितृतीयगाथोक्तो नयस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको मूलभेदी विरुध्येते इत्यत आह-' भणयाइ उ विसेसो' इति भजना-उपसर्जनप्रधानभावावगाहना, द्रव्या. थिंकनयेन पर्यायस्योपसर्जनमावेन द्रव्यस्य च प्रधानमावेनावगाहना, एवं पर्यायार्थिकनयेन द्रव्यस्योपसर्जनमावेन पर्यायस्य च प्रधानभावेनावगाहना तया, तुः अवधारणे तयैवानयोनययोर्विशेषो भेदः, स्वेतरनयविषयसव्यपेक्षतयैव स्वस्वविषयग्राहिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयो प्रमात्मकाविति स्वविषयेतरविषयमुपसर्जनीकृत्य स्वविषयश्च प्रधानीकृत्य स्वस्वविषयावगाहितयैव तयोर्मेद इति भावः । यद्वा भजनायास्तु विवक्षाया एव विशेषः 'इदं द्रव्यम् , अयं पर्यायः' इत्ययं भेदः, तथा तद्भेदाद् विषयिणोऽपि तथैव भेदः, विवक्षाभेदकृतविषयभेदप्रयोज्यप्रतिभास मेदेनानयोनययोर्भेद इति यावत् । अयममिप्राय:-सामान्य. विशेषात्मके वस्तुतत्वे उपसर्जनीकृतविशेषं यदन्वयिरूपं तद्रव्यमिति विवक्ष्यते यदा तदा द्रव्यार्थिकनयविषयः, यदा तूपसर्जनीकृतान्वयिरूपं तस्यैव वस्तुनो यदसाधारणं विशेषरूपं तद्विवक्ष्यते तदा पर्यायार्थिकनयविषयभूतं तद्भवतीत्येवं विवक्षाया भेदे तत्कृतषियभेदेन तद्विषयकविषयिणोऽपि मेद एव ॥ ९॥ एवंरूपभजनाकृतमेव भेदं दर्शयितुमाह
" दवअिवत्तव्वं, अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जववत्थु अव-त्थुमेव दवहिनयस्स ॥१०॥" द्रव्यार्थिकवक्तव्यं द्रव्यार्थिकनयाऽभिधेयं द्रव्यमवस्तु नियमेन निश्चयेन पर्यायनयस्य मते, एवमेव पर्यायवस्तु पर्यायनयाभ्युपगत पर्यायाख्यं वस्तु अवस्त्वेव द्रव्यार्थिकनयस्य मते। तथा च पर्यायार्थिफनय उत्पाद-व्ययप्रतिमासे प्रामाण्यं निश्चिनोति, अत एव तद्विषयावुत्पादव्ययौ सत्यौ, ध्रौव्यप्रतिमासे त्वप्रामाण्यं, ध्रौव्याभाववति ध्रौव्यप्रकारकत्वा. तस्य, तत्राप्रामाण्ये च तद्विषयस्यापि धौव्यस्याऽसत्यत्वमेव, न तु तत्प्रतिमासमेव प्रतिक्षिपति, न खलु बाधकसहस्रेणापीदं रजतमिति ज्ञानं नाभूदित्येवं प्रतिक्षिप्यते कैश्चिदपि निष्णाते, किन्तु रजतत्वाभाववति रजतत्वप्रकारकत्वेनाप्रामाण्यमेव निश्चीयते, तद्वत्प्रकतेऽपि, एवं द्रव्यास्तिकोऽपि ध्रौव्यप्रतिभासे प्रामाण्यं निष्टङ्कयति, अत एव तद्विषयीभूतं ध्रौव्यमेव सत्यम् , उत्पादव्ययप्रतिमासे त्वप्रामाण्यमिति तद्विषयौ तौ न सत्यावित्ययं स्वस्त्र. विषयपक्षपातोऽयुसः, धौव्यनिरपेक्षोत्पादव्यययोरुत्पादव्ययनिरपेक्षधौव्यस्य च पूर्वमेव
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सम्मति० का १, पा० १०
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प्रतिक्षिप्यत्वेन तदवगाहिप्रतिभासस्य मिध्यारूपत्वात् । उत्पादव्यययोīध्यस्य च परस्परसापेक्षतया गौणप्रधानभावेनोत्पादादिधर्मत्रयावगाहित्वे सत्येव प्रामाण्यस्य च भावादुपादादित्रयात्मकमेव वस्त्वभ्युपगन्तव्यमिति तात्पर्यार्थः । अवयवार्थस्त्वेवम्--- ' दवडियवसई' द्रव्यार्थिकवक्तव्यं द्रव्यार्थिकनयप्ररूपणाविषयोऽभेदः ' अवत्थु ' अवस्तु पर्यांयनयप्राधान्योपस्थितिजनितद्रव्यार्थिकनयाप्रामाण्यनिश्चयप्रयुक्तावस्तुस्वनिश्चयविषयः, ar किं सन्देह इत्यत आह- " णियमेण " इति निश्चयेनेत्यर्थः कस्य मते इत्यत आह" पजवणयस्स ' पर्यायार्थिकनयस्य, एतदनन्तरं मते इति शेषः, तन्मते वस्तुमात्रस्य प्रतिक्षणं भिन्नभिन्नार्थक्रियाकारित्वेनैव सद्रूपतया नियमेन भिन्नभिन्नस्वरूपत्वात् । ननु यथा द्रव्यार्थिकनयाम्युपगतोऽभेदः पर्यायार्थिकनयेनासन्नम्युपगतस्तथा पर्यायार्थिकनयाभ्युपगतो मेदो द्रव्यार्थिकनये नासन्नेत्राभ्युपगतः किं वाऽन्यथेत्याशङ्कायामाह - तह इत्यादि । तथा ' तद्वत् ' पञ्जववत्यु' पर्यायनयाभ्युपगत मेदाख्यं वस्तु ' अवत्थमेव ' अवस्त्वेव द्रव्यार्थिकनय प्राधान्योपस्थितिजनितपर्यायार्थिकनयाऽप्रामाण्यनिश्चयप्रयुक्ताऽवस्तुत्वनिश्चयविषय एव, ' दवडियणयस्स' द्रव्यार्थिकनयस्य, एतदनन्तरमपि मत इति पूरणीयम्, तन्मते भेदरूपाणां घटपटादिविकाराणामलीकत्वेन घटः सन् पटः सन्नित्याद्यनुगत प्रतीतिविषयस्याऽखण्डसस्त्रस्यैव वस्तुत्वादिति । अतो भजनामन्तरेण पर्यायार्थिकनयेऽभेदस्य द्रव्यार्थिकनये च भेदस्यासद्रूपत्वात् ' इदं द्रव्यमेते च पर्यायाः' इति नास्ति विभाग इति भजनयैव स कर्त्तव्यः, द्रव्यपर्याययोः प्रधानोपसर्जनभावापेक्षया समस्तवस्तुव्यवहारप्रवृत्तेः, तथाहि - स्याद्वादिना योऽर्थो येन द्रव्यात्मना पर्यायात्मना वा जिज्ञासितो भवति तस्यार्थस्य तेन रूपेण ज्ञानं भवति, यश्चार्थो येन द्रव्यात्मना पर्यायात्मना वा वक्तुमिष्टो भवति तस्यार्थस्य तद्रूपमुपादायाऽभिधानं भवति, एतस्माजिज्ञासाविवक्षावैचित्र्यात्स्याद्वादे द्रव्यपर्यायक वस्तुनि समप्रधानभावेऽपि प्रधानोपसर्जन भावावलम्बनेन समस्तवस्तुव्यवहारः प्रवर्त्तते, नैतावता वस्तु द्रव्यमात्रात्मकं पर्यायमात्रात्मकं वा किन्तु द्रव्यपर्यायोभयात्मकमेव, यदाह -
सर्वमात्रासमूहस्य, विश्वस्यानेकधर्मणः ।
सर्वथा सर्वदा भावात्, कचित्किचिद्विवक्ष्यते ॥ १ ॥ " इति ।
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अत्र मात्रापदं द्रव्यपर्यायांशपरम्, सर्वथा सर्वप्रकारेण द्रव्यपर्यायादिस्वभावेन । एवं सति कुतो न द्रव्यपर्यायोभयरूपेण सर्वस्य व्यवहार इत्यत आह- क्वचिदिति, यदा यस्य वस्तुनो येन रूपेण विवक्षा तदा तेन रूपेण तस्य व्यवहार इत्यर्थः । ननु द्रव्यप्रतिभासोऽपि द्रव्यार्थिकनयेन पर्यायप्रतिमासोऽपि च पर्यायार्थिकनयेनानुभूयत एवेत्यनुभूयमानस्याभेदस्य भेदस्य व पर्यायार्थिकनयेन द्रव्यार्थिकनयेनं च प्रतिक्षेपः कथं क्रियते इति चेत्,
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सम्मतिः काड , गा० १. भैवम् , न हि कामलकादिदोषप्रभवः शुक्लेऽपि पीतत्वप्रतिभासः केनापि विदुषा प्रतिक्षिप्यते, किन्तु तत्प्रतिभासेऽप्रामाण्यं निश्चीयते बाध्यमानविषयकत्वादिति, तेन प्रान्तज्ञानेन शुक्ल पीतत्वं म सिद्ध्यति तद्वत मिथ्यात्वादिदोषवलाहिनेऽपि जायमानोऽभेदप्रतिभास: पर्यायाः र्थिकनयेनाऽमिन्नेऽपि जायमानो भेदप्रतिमासो द्रव्यार्थिकनयेनानुभूयमानत्वेन सद्रूपत्वान प्रतिक्षिप्यते, स प्रतिभासो नैव जात इति न स्याप्यते, सतो निषेधाऽयोगात, किन्तु क्षणिके वस्तुन्यर्थक्रियाकारित्वं घटते, न स्थिरे, तस्य सहकार्यसमवधानदशायामर्थक्रियाकारित्वाभावः तत्समवधानदशायाश्चार्थक्रियाकारित्वमित्येवं विरुद्धधर्माध्यासात्प्रतिक्षणं भिन्नभिन्न रूपत्वेनैव सिद्धेरिति भिन्ने वस्तुन्यभेदाध्यवसायितयाऽप्रामाण्यं निश्चीयते, तथा च वाध्यमानविषयकत्वान्न स स्त्रविषयव्यवस्थापनसमर्थो भवति, मेदप्रतिभासस्तु बाधकामावायथार्थ एवेति पर्यायार्थिकनयो विवेचयति, द्रव्यार्थिकनयोऽप्येवमाह-भेदप्रतिमासोऽपि भया न प्रतिक्षिप्यते, किन्तु घटपटादिविकाराणामसद्रूपत्वाद्भेदोऽसन्नेत्र, अभेदस्तु त्रिकालाबाध्य. मानानुगतप्रतीतिविषयत्वात्सद्रूप एवेत्यभिन्ने वस्तुनि भेदाध्यवसायितया तत्राप्रामाण्यं निश्वीयत इति बाध्यमानविषयकत्वादप्रमात्मकस्स न स्त्र विषयसिद्ध्यै प्रभविष्णुः, घटः सन् पटः सन्नित्याद्यभेदप्रतिमासस्तु बाधकामावाद्यथाथे एव, एवमन्योऽन्यपक्षाभ्यामन्योन्यनयाप्रामाण्ये सति तद्विषययोरपि द्रव्यपर्याययोरसच्चापत्या तव्यतिरिक्तस्य विषयस्याभावेन जगतः शून्यतेवापद्यतेत्यतो द्रव्यार्थिकनयप्रदर्शितयुक्त्या पर्यायस्यैकान्तत्वमेव बाध्यते, न तु स्वरूपतोऽपि पर्यायः, एवं पर्यायार्थिकनययुक्त्या द्रव्यस्यैकान्तत्वं वाध्यते, न तु स्वरूपतोऽपि द्रव्यमिति परस्परसव्यपेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययुक्तिभिः परस्परसव्यपेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोर्वाधाऽभावेन तद्विषययोरपि परस्परसाकाकद्रव्यपर्याययोरनेकान्तास्मनोवाधितत्वात्सत्यत्त्वमिति तदुभयात्मनो वस्तुनः समुदितोत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणसत्स्व. रूपत्वादभ्युपगमः प्रमाणाहः । अत एवैकान्तद्रव्यार्थिकनयाभ्युपगतो ध्रौव्यलक्षणद्रव्यांशः, एकान्तपर्यायार्थिकनयाऽभ्युपगत उत्पादव्ययलक्षणपर्यायांशो वा परमार्थतो न च कश्चिदस्ति, परस्परनिरपेक्षैकनयकल्पितत्वात् । यदुक्तम्
" नान्वयो भेदरूपत्वा,-न्न भेदोऽन्वयरूपतः।
मृनेदद्वयसंसर्ग-वृत्तिर्जात्यन्तरं घटः ॥ १ ॥” इति तथा च पूर्वापरपर्यायानुगतोव॑तासामान्यस्यापि द्रव्याख्यस्य पूर्वोत्तरकालीनभिन्नभिभव्यक्तिलक्षणविशेषान्वितत्त्वेन विशेषस्यापि च सामान्य सङ्घटितत्वेन वस्तुनसामान्यविशेषोभयात्मकत्वात् परस्परमापेक्षभेदाभेदात्मके जात्यन्तरे वस्तुनि व्यरस्थिते तत्र द्रव्यार्थिकेन पर्यायस्यावस्तुत्ववचनं पर्यायार्थि केन द्रव्यस्यावस्तुत्ववचनमेकान्तस्वविषयपक्षपातविजृम्भितमेवेति सिद्धमिति भावः ॥ १० ॥
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सम्मति० काण्ड १, गा० ११
पूर्वोक्तयुक्त्या कथञ्चिद् भेदाभेदात्मके वस्तुनि सिद्धे तत्र मेदलक्षणपर्यायाश्रयणेन पर्यायार्थिकनय उत्पादव्ययावभ्युपगच्छति, अभेदलक्षणद्रव्याश्रयणेन द्रव्यार्थिकनयो धौव्यमुररीकरोति तदपि नैकान्तरूपं युक्तम्, किन्तु परस्परविषयस्वरूपाऽपरित्यागलक्षणभजनयैव प्रमाण कोटिमाटीकत इत्याशयेनाह -
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“ उपजंति वियंति ( वयंति ) अ, भावो नियमेण पज्जवणयस्स । Goaडियस सव्वं, सया अणुप्पण्णमविणङ्कं ॥ ११
पर्यायनयस्य मते उत्पादव्ययधर्मद्वयान्वितास्सर्वे भावाः, स्थिरे वस्तुनि क्रमयौगपद्याम्यामर्थक्रियाकारित्वस्याभावेन तल्लक्षणसम्वनिवृत्या वस्तुत्वमेव हीयेतेति तन्मते कस्मिचिदपि वस्तुनि धौव्याभावात् । द्रव्यार्थिकनयस्य च मत उत्पादव्यययोः काल्पनिकत्वेन कस्मिंश्चिदपि वस्तुनि परमार्थभूतोत्पादव्ययधर्माभावात् सदा धौव्यैकस्वभावं सर्व वस्त्विति तात्पर्यार्थः । अत्रयवार्थस्त्वेवम् -' उप्पजंति' उत्पद्यन्ते प्रागभूत्वा भवन्ति, आद्यक्षणेन सह सम्बंध्यन्ते, 'वियंति अ 'वि-विशेषेण निरन्वयरूपतया यान्ति च गच्छन्ति प्राप्नु वन्ति नाशम् । यद्वा 'वयंति' - व्रजन्ति, नाशमिति शेषः । एवम्भूताः क इत्यत आह'भावा' इति भावा: पदार्थाः, 'नियमेण' नियमेनेत्यवधारणे, प्रतिक्षणमुत्पादविनाशशालित्वेन क्षणिक एव सर्वे भावाः, एतादृशोऽभ्युपगमः कस्येत्यत आह- ' पजणयस्स पर्याय यस्य वस्तुमात्रं परमार्थ नृत्योत्पादविनाशरहितत्वेन स्थिरैकस्वभावमिति द्रव्या र्थिकनयाभ्युपगममुपदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह--' दवडियस्स द्रव्यार्थिकस्य 'सबं सर्व वस्तु 'सया' सदा ' अणुत्पन्नमविणङ्कं ' अनुत्पन्नं सदविनष्टं शश्वद्ध्रौव्यैकस्वभावमित्यभ्युपगमः । उक्तैकान्तप्ररूपणाऽपि स्वस्वसिद्धान्त पक्षदृढानुबद्ध कदाग्रहवासनाप्रयुक्तत्वेन मिथ्यैव, पूर्वापरपर्यायानुस्यूतसामान्याकारव्यतिरेकेणोत्पादव्यययोः ताभ्यां विना ध्रौव्यस्य चाऽप्रतीतेः तत्त्रितयस्य च मिथोऽविनाभूततयैव प्रतीतेः । अत एव -
'
1
'अनाद्यनिधने द्रव्ये, स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् ।
उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति, जलकल्लोलबज्वले ॥ १ ॥ '
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"
"
इत्युक्तं सङ्गच्छते, न चात्र जलकल्लोला अध्यपरमार्थभूता एवेति न तद्दृष्टान्तेन परमार्थभूतोत्पादव्ययधर्मसिद्धिरिति वाच्यम्, सर्वैरविगानेन तेषामनुभूयमानत्वात् न च तदनुभवोऽयथार्थः तेषां प्रतिक्षणं भिन्नभिन्नस्वरूपत्वे बाधकाभावाद, विकारात्मकत्वात्तेषामसवेन तत्प्रतीतेरप्रामाणिकत्वे प्रकृत्यात्मकविकारिप्रतीतेरप्य प्रामाणिकत्वं वदतो नैव वक्त्रं वक्रीभवेत्, तथा चोत्पादव्ययधौव्याणि समुदितान्येव सल्लक्षणम्, न तु प्रत्येकम्, एकैक विनिर्माण वस्त्वप्रतीतेरित्येव प्ररूपणा सत्या, अत एव " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ५- २९ इति तच्चार्थसूत्रं सङ्गच्छते । अश्रोत्पादय व्ययश्चोत्पादव्ययौ पर्यायरूपत्वेनैकत्वापन्नौ
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सम्मति• काल 1, गा० १ तौ च ध्रौव्यश्चोत्पादव्ययध्रौव्याणि, तैयुक्तम् , अत्र युक्तमित्यस्य योगाश्रयो नार्थः, तथा सति घटयुक्तस्य भूतलस्य घटभिमत्ववदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तस्यापि वस्तुन उत्पादव्यय. ध्रौव्यमिन्नत्वप्राप्तौ तत्रितयात्मकत्वमिष्टं व्याहन्येत, किन्तु युक्तं योगः समुदायः, एतदुक्तं भवति-उत्पादादयो नैककाः सत् , किन्तु परस्परापेक्षसमुदाय एवोत्पादादीनां सदित्यस्य प्रत्ययस्य ध्वनेर्वा विषयत्वेन सत् । तथा चैकान्तध्रौव्यलक्षणद्रव्यैकान्तोत्पादव्ययलक्षणपर्यायग्राहिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकमूलनयो मिथ्यानयो, परमार्थवृत्त्या वस्तुन उत्पाद: व्ययध्रौव्ययुक्ततया द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेनानेकान्तात्मकस्यैकान्तस्वरूपतयाऽवगाहित्वेन भ्रान्तप्रत्ययरूपत्वात् । वस्तुन्युत्पादव्ययसापेक्षध्रौव्यस्य द्रव्यापेक्षया धौव्यसापेक्षोत्पाद. व्यययोश्च पर्यायापेक्षया सद्भावेन तग्राहिणौ नयो सम्यग्नयो, यद्यत्र यदपेक्षयाऽस्ति तस्य तत्र तदपेक्षया ग्राहकत्वेनैव नयप्रामाण्यपरिच्छेदादिति भावनीयम् ॥ ११ ॥
अथ द्रव्यपर्यायो नैकान्तभिन्नौ, तथा सति नैकस्य वस्तुन उभयरूपता स्यात् तयो. मैदाऽभिधानादिति य एव देवदत्तो बालत्वेन दृष्टस्स एव युवत्वेन वृद्धत्वेन वा दृश्यते इत्येकस्यैव देवदत्तस्य द्रव्यपर्यायरूपेण मेदाभेदावगाहिन्याः प्रत्यभिज्ञाया अपलापस्स्यात्, नाप्येकान्तामिन्नौ, यभिवृत्तौ यस्य न निवृत्तिस्तत्ततो भिन्नं, यथा निवर्तमानाद् घटादनिकर्तमानः पटो भिन्नो दृष्टः, पर्यायनिवृत्तावपि द्रव्यस्य न निवृत्तिरिति तद्रव्यं पर्यायतो भिन्नम्, यतो द्रव्यपर्याययोरभेदे द्रव्यस्वरूपवत्पर्यायस्याप्यनिवृत्तिस्स्यात् , यद्वा द्रव्यस्यापि नियुत्तिस्स्यात् पर्यायस्वरूपवत् , तथा च नैकान्तपरस्परनिरपेक्षभेदाभेदशालिनी द्रव्यपर्यायौ, तथा सति भेदाभेदयोः सुन्दोपसुन्दन्यायेन परस्परविरोधिनोरेकतरस्यैकान्तैकनयापेक्षया भ्रमात्मकज्ञानविषयत्वादसत्वे तदपरस्यापि तद्विरोध्यपरकान्तनयापेक्षया चाऽयथार्थज्ञानगोचरत्वादसचं स्यादिति तयोरन्योन्यानुस्मृततयैवाभ्युपगन्तव्यत्वेन द्रव्यार्थिकसुनयापेक्षया गुणीभूतभेदप्रधानीभूताभेदात्मकमपि पर्यायार्थिकसुनयापेक्षया गुणीभूताभेदप्रधानी. भूतभेदविशिष्टमपि वस्तु प्रमाणार्पणया च प्राधान्येन कथश्चिद्भेदाभेदोभयस्वरूपमेवाभ्युपगन्तव्यम् , अत एव द्रव्यार्थिकन यापेक्षयोत्पादव्ययसापेक्षध्रुवं पर्यायार्थिकनयापेक्षया ध्रौव्यसापेक्षोत्पादविनाशशालि वस्त्वपि उभयनयार्पणया प्राधान्येन परस्परानुविद्धोत्पादादिवयात्मकमेव, अधिकतान्यतमाभाव तदितराभावनियमादिति प्रतिपादयितुमाह सरि:--
"दव्वं पज्जवविउयं दध्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि।
उप्पाय-द्विइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १२ ॥" द्रव्यं पर्यायवियुक्तं नास्ति, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्याया न सन्ति, किन्तु द्रव्यं पर्यायसम्पृक्तमेव, पूर्वोत्तरतत्तत्पर्यायानुगततयैव तत्प्रतीतेः, पर्याया अपि द्रव्यसम्बद्धा एक, अनु. गतद्रव्यानुविद्धतयैव तेषां प्रतिपत्तेः, अतो द्रव्यपर्यायौ मिथस्सम्बद्धावेव, परस्परविविक्तयो
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सम्मति बाल, गा." स्वयोः कदाचिदप्यऽप्रतिभासनादिति द्रव्यपर्याययोमध्ये एकतरस्याभावे तदितरस्याप्यभाव एवेति तयोर्नियमेन समव्याप्यत्वमेव, अत एव द्रव्यापेक्षया यद्धौव्यं पर्यायापेक्षया यचो. त्पादषयात्मकत्वं तयोरपि तथात्वमेवेति ममुदितोत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्वमेव द्रव्यलक्षण मुच्यत इति तात्पर्यार्थः। अवयवार्थस्त्वेवम्-" दवं" द्रव्यं पूर्वोत्तरपर्यायानुगाम्यूलतासामान्यलक्षणम् 'पञ्जवविउयं' पर्यायवियुतं पूर्वोत्तरकालीनभिन्नभिन्नव्यक्तिलक्षणपर्यायविनिर्मुक्तम् , अस्य 'नस्थि' इत्यनेनान्वयानास्ति, नहि पर्यायनिरपेक्षं द्रव्यं विद्यते, यद्गृह्येत केवलं, किन्तु पर्यायसहितमेव तत् , मृत्पिण्डे स्थासे कोशे कुशूलादौ मृद्रव्यं मृद्रव्यमित्येवं कुण्डलाकारे ऊर्धाकारे रज्वाकारादौ च सपें सर्पोऽयं सर्पोऽयमित्येवं पयसि दनि घृतादौ गोरसोऽयं गोरसोऽयमित्येवश्चानुगतप्रतीतेः " दवविउत्ता य पजवा " द्रव्यवियुक्ता द्रष्याननुविद्धाः पर्यायाश्चापि, चकारस्याप्यर्थकत्वात् , 'नत्थि' अत्र वचनविपरिणामेन न सन्ति, यद्वा नत्थि' इत्युभयपदस्य नियातरूपत्वान्नास्ति न सन्तीत्युभयार्थकत्वेनैकवचनान्तेनेव बहुवचनान्तेनाप्यन्वयान सन्ति, न विद्यन्ते, ये गृोरन् केवलाः, किन्तु द्रव्यसापेक्षा एव पर्यायाः, यैव मृत् पिण्डात्मिका सैव स्थासस्वरूपा सैव कोशस्त्ररूपा सैव कुशूलादिस्वरूपा सैव घटरूपा सैव कपालशर्करादिस्वरूपा, य एव सर्पः कुण्डलाकारस्स एवोर्वाकारो रजाकारो वा, य एव गोरसो दुग्धरूपः स एव दधिघृतादिरूप इत्यायाकाराया अनुगतेकसामान्यानुविद्धविशेषावगाहिन्याः प्रतिपत्तेः, मृद्रव्यस्यैव मृत्पिण्डरूपेण स्थासरूपेण कोशरूपेण कुशूलादिरूपेण, सर्पस्यैव कुण्डलाकाररूपेणोर्धाकाररूपेण रवायाकाररूपेण, गोरसस्यैव पयोदधिघृतादिरूपेण परिणमनाद् मृद्रव्यस्यैव मृत्पिण्डादयः सर्पस्यैव कुण्डलादयः गोरसस्यैव दुग्धादयः पर्यायाः, परिणामिपरिणामयोर्द्रव्यपर्याययोः परिणामपरिणामिमावेन सम्बन्धेन कथञ्चिदभेदः, परिणामिद्रव्यत्वेन परिणामभूतपर्यायत्वेन च कथश्चिद्धेद इति कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नद्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात्पूर्वापरपर्यायानुस्यूतद्रव्यरूपेण यदेव ध्रुवं तदेव पूर्वपर्यायेण विनष्टं सदुत्तरपर्यायेणोत्पन्नमित्युत्पादव्ययध्रौव्याविनाभूतं वस्त्विति प्रदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह-" उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं" इति उत्पादस्थितिभङ्गास्समुदिता द्रव्यस्य लक्षणं,लक्ष्यतेऽनुमीयते इतरव्यावृत्ततया लक्ष्यत्वेनाभिमतं वस्तु येन, लक्ष्यते स्वस्वाऽसाधारणधर्मपुरस्कारेण स्वस्ववाचकपदवाच्यतया व्यवयिते लक्ष्यं येन वा तल्लक्षणं, यद्यस्य लक्षणं तत्तस्येतरभेदज्ञापकं नियतव्यवहारसाधकञ्च, यथा पृथिव्या गन्धवत्वं लक्षणं पृथिव्या इतरव्यावृत्ततया ज्ञापकम् , तथोत्पादस्थितिभनात्मकलक्षणमपि खण्डखाये उपाध्यायः परिगृहीतस्य “सद् द्रव्यलक्षणम्" ॥१॥" उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सत्" ॥२॥ इति सूत्रदयस्य पर्यालोचनया सच्छब्दाभिधेयस्य द्रव्यस्येतरव्यावृत्तयाऽनु. मितिजनकम् , एवं यथा पृथिव्या गन्धवचं लक्षणं पृथ्वी पृथ्वीत्वेन पृथिवीपदवाच्यतया ध्यवहर्तव्येत्येवं नियतव्यवहारसाधकं, तथोत्पादस्थितिमङ्गलक्षणमप्यात्मादिद्रव्यं द्रव्यत्वेन
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सम्मतिः काल , गा० १२ द्रव्यपदवाच्यतया व्यवहर्त्तव्यमित्येवं नियतव्यवहारसाधकम् , "इंदि" इत्युपदर्शने 'एयं' एतदृश्यताम् । लक्षणवाक्यस्येतरभेदज्ञापनरूपप्रयोजनपक्षे द्रव्यत्वावच्छिनपक्षकेतरभेदानुमितिस्तु स्वसमये येन रूपेण पर्याये तदितरत्वस्य येन रूपेण हेतो तदितरस्वव्यापकाऽभावप्रतियोगित्वस्य च सिद्धिस्तद्रूपावच्छिन्नात्तद्रूपावच्छिन्नेतरभेदाभिप्रायेण वोध्या, तथा च द्रव्यत्वावच्छिन्नमात्मादिवस्तुमात्रं पर्यायत्वावच्छिन्नद्रव्येतरनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकभेदवदुत्पादस्थितिभङ्गसमाहारत्वावच्छिन्नात् , यन्न तवं यथा वियस्कुसुममिति निष्कर्षः। अत एव हेतौ बाधाऽसिद्धिदोषो नेति । लक्षणवाक्यस्य नियतव्यवहाररूपनयोजनपक्षे बौद्धदृष्ट्या सन्तन्यमानक्षणिकज्ञानस्वरूपे आत्मनि व्यवहारनयेन द्रव्यत्वं व्यवस्थाप्योत्पादस्थितिमङ्गयुक्तत्वेन द्रव्यपदव्यवहारविषयत्वं, नैयायिकदृष्ट्या ज्ञानाश्रये स्थिरे चात्मनि ऋजुसूत्रनयेन पर्यायरूपत्वं व्यवस्थाप्योक्तलक्षणसम्पच्या द्रव्यपदव्यवहारविषयत्वं नियम्यते, तथा चात्मादिवस्तुमात्रं द्रव्यपदवाच्यतया व्यवहर्तव्य उत्पादस्थितिमङ्गसमाहास्वचात् , यन्नैवं तन्नैवम् यथा वन्ध्यासुत इत्यनुमानं पर्यवस्यति ।
ननु मृत्पिण्डस्थासादीनां दुग्धदम्यादीनाश्चैकान्तेन भेद एवेति तेषामुत्पादव्ययौ युक्ती, ध्रौव्यन्तु मृत्चगोरसत्वसामान्यस्यैव, न तु मृदो गोरसस्य च, एवमात्मशरीरस्यैव बालयुवाद्यवस्थाभेदेनोत्पादव्ययौ, धौव्यं त्वात्मन एवेत्युक्तहेतोस्स्वरूपाऽसिद्धिरिति चेत् , मैवम् , इयमेव मृत् पूर्वकालावच्छिन्नपिण्ड मावेन नष्टा उत्तरकालावच्छिन्नस्थासभावेन चोत्पति, अयमेव गोरसो पूर्वकालावच्छिन्नदुग्धमावेन नष्ट उत्तरकालावच्छिन्नदधिभावेन चोत्पन्न इति, य एव देवदत्तात्मा बालत्वेन दृष्टस्स एव युवत्वेन वृद्धत्वेन वा दृश्यत इति चानुभवसिद्धत्वादुत्पादस्थितिमङ्गसमाहारहेतोः। अत एव लौकिकबोधोऽपि त्रैलक्षण्याव. गाहित्वाद् वस्तुतः स्याद्वादापेक्ष एवेत्युपदर्शनार्थ-- ." तद्धेम कुण्डलतया विगतं यदुच्चै,-रुत्पन्नमङ्गदतयाऽचलितं स्वभावात् ।
लोका अपीदमनुभूतिपदं स्पृशन्तो, न त्वां श्रयन्ति यदि तत्तदभाग्य.
मुग्रम् ॥ २८ ॥" इति महावीरस्तयोक्तं सङ्गच्छते । - नन्वत्रापि त्रिलक्षणं वस्तु तदा स्यात् यदि तत्तदवस्थानुस्यूतं अत एव पूर्वोत्तराखिलविवर्त्तवर्ति द्रव्यं स्यात् , तदेव तु नास्ति, यदपि च कुण्डलाङ्गदादी हेम हेमेत्यनुगतप्रतीतिनियामकं तदपि हेमस्वजात्याख्यमेवेति चेत्, मैवम् , हेमत्वमस्ति हेमाङ्गदे न कुण्डलत्वम् , तदस्ति रजतकुण्डले न च तत्र हेमत्वम् , उभयच है मकुण्डल इति कुण्डलत्वादिना हेमत्वस्य सार्यात्तस्य जातिरूपत्वाऽसिद्धेः । अथ हेमत्वव्याप्यं कुण्डलत्वं भिन्नमेव रजतत्वव्याप्यं कुण्डलस्वञ्च भिन्नमेवेति तत्सौवर्णकुण्डले राजतकुण्डले च नैकम् , एवमङ्गदत्वादिकमपि ज्ञेयम् । एवं
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पम्मति. कार, गा• १२ मृवव्याप्यघटत्वसुवर्णत्वव्याप्यघटत्वरजतत्वव्याप्यघटत्वादीनां भेदाद्धर्यादिपदवद् घटपद. मपि नानार्थकमेव । तथा च परस्पराभावसमानाधिकरणयोहेमत्वराजतकुण्डलत्वयोन सामानाधिकरण्यम्, हेमत्वसोवणेकुण्डलत्वयोश्च सौवर्णकुण्डले सामानाधिकरण्येऽपि न परस्पराभाव. सामानाधिकरण्यमिति न सार्यमिति । यद्वा कुण्डलत्वं संस्थानगतजातिरूपमेवेति यौक्तिको यदि यात्तदापि यत्र हेम्नि व्यक्ती कुण्डलदशायामङ्गदमेदग्रहोऽङ्गददशायां च कुण्डल मेदग्रहस्तत्र तदेव हेमाङ्गदं तदेव कुण्डलञ्चत्य मेदग्रहो व्यत्यभेदं विना न कथमप्युपपादयितुं शक्य इति । एतेन तत्तदवस्थानामेवोत्पादविनाशौ न त्ववस्थातुरित्यप्यारेका निरस्ता, अवस्थातद्वतोः कथश्चिदभेदाद , तथा च यदेव वस्तु पूर्वावस्थारूपेण विनष्टं तदेवोत्तरावस्थारूपेणोत्पद्यत इत्यनुभवान्यथानुपपच्या पूर्वपर्यायरूपेण विनाश उत्तरपर्यायरूपेण चोत्पादः पूर्वोत्तरपर्यायानुगाभ्यूलतासामान्याख्यद्रव्यरूपेण ध्रौव्यमित्येतत्समुदितोत्पादव्ययध्रौव्य. लक्षणं द्रव्यस्याभ्युपगन्तव्यम् । ननु समवायसम्बन्धेन द्रव्यत्वजातिमसात् पृथिव्यादि द्रव्यमेव न तु पर्यायरूपमपि, येन द्रव्यपर्यायापेक्षयोक्तलक्षणसिद्धिस्स्यादिति चेत् , मैवम् , द्रव्यस्वजाती प्रमाणाभावात् , न हि तत्रानुगतप्रतीतिःप्रमाणम् , अतीन्द्रियस्थले तदसिद्धेः, नाप्य नुगतव्यवहारः प्रमाणम् , लौकिकानां वादिनाश्चानुगतद्रव्यव्यवहाराभावात् , न च नीलादौ नीलाहुत्पत्तिवारणाय समवायसम्बन्धेन जन्यसत्त्वावच्छिन्न प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन द्रव्यत्वेन द्रव्यस्य हेतुत्वं कल्पनीयमिति जन्यसजनकतावच्छेदकतया तत्सिद्धिरिति वाच्यम् ,उक्तकार्यकारणभावे सति कारणतावच्छेदकतया यथा द्रव्यत्वजातिसिद्धिस्तथा कार्यतावच्छेदकतया जन्यसत्वजातिरपि सिद्ध्येद , एवं प्रतियोगितासम्बन्धेन नाशं प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन जन्यसत्त्वेन कारणत्वस्य ध्वंसस्य ध्वंयापत्तिवारणाय स्वीकरणीयतया तदवच्छेदकतयाऽपि जन्य. सच्चजातिः सिद्ध्येत् , तथा च तगासह साङ्कर्यान्न द्रव्यत्वं जातिरिति । ननु जन्यसचावच्छि. नम्प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन न द्रव्यत्वेन द्रव्यस्य कारणत्वम् , किन्तु समवायकालिकोभयसम्बन्धेन सत्त्वावच्छिन्नं यत् समवायेन तत्प्रत्येव तादात्म्येन द्रव्यस्य द्रव्यत्वेन कारणत्वम् , एवं प्रतियोगितासम्बन्धेन नाशत्वावच्छिन्नम्प्रत्यपि समवायकालिकोमयसम्बन्धेन सचविशिष्टं यत्तत्तादात्म्यसम्बन्धेन कारणम् , उक्तोभयसम्बन्धेन सत्र कार्यमात्रवृत्येवेति कार्याकार्यवृत्तेर्न कार्यतावच्छेदकत्वमित्यस्यापि नावकाशः, तथा च नोक्तकार्यतावच्छेदकतया कारणतावच्छेदकतया च जन्यसवजातिसिद्धिः, यया साङ्कये स्यादिति चेत्, तर्हि तद्वदेवोक्तोमय. सम्बन्धेन सवावच्छिन्ननिष्ठसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपितं स्वाश्रयगुणकर्मान्यत्वसमवायोमयसम्बन्धेन सत्तावतः तादात्म्यसम्बन्धेन कारणत्वमित्यभ्युपगमेन सामञ्जस्ये द्रव्यत्वजातेरप्यसिद्ध्यापत्तः। किञ्च समवायसम्बन्धेन जन्यसत्वावच्छिन्नं प्रत्युपादानत्वाख्य. विषयतासम्बन्धेनेश्वरीयबुद्धिचिकीर्षाप्रयत्नाना कारणत्वेनाभ्युपगतानां नीलादावभावादेव नीलाधुत्पत्तिनिवारणं भवतीतीश्वरीयबुद्ध्यादिना द्रव्यस्यान्यथासिद्धत्वान्न कारणता
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सम्मति० काण्ड १, गा० १२
वच्छेदकविधया द्रव्यत्वस्य जातित्वसिद्धिः । तथा च सिद्धमेतन्न द्रव्यत्वजातिमन्वाद्रव्यमिति, न वा समवायिकारणत्वाद् द्रव्यमित्यपि युक्तं । किन्तु
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व्यक्ताव्यक्तात्मरूपं यत्, पौर्वापर्येण वर्त्तते । कालत्रयेऽपि तद् द्रव्य - मुपादानमिति स्मृतम् ॥ १ ॥ "
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इति लोकोक्तलक्षणोपादानापरसञ्ज्ञक परिणामि कारणत्वाद्रव्यम् एवञ्च पृथिव्यादि यत्पौद्गलिकमात्मादि च यदपौगलिकं तत्सर्वं परिणामिकारणतया यथा द्रव्यं तथा परिणामरूपतत्तत्कार्यापतया पर्यायात्मकमपि परिणामिलक्षणेनैवोभयकोडीकरणात्, द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वादेव पूर्वापरपर्यायानुस्यूतद्रव्यरूपेण यदेव ध्रुवं तदेव पूर्वपर्यायेण व्येति उत्तरपर्यायेण चोत्पद्यत इत्युत्पादव्ययध्रौव्यानुगतमेत्र द्रव्यं वदन्ति समयविदः । उक्तञ्च खण्डखाद्येन द्रव्यमेव तदसौ समवायिभावात्, पर्यायताsपि किमु नात्मनि कार्यभावात् । उत्पत्तिनाशनियत स्थिरतानुवति,
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द्रव्यं वदन्ति भवदुक्तिविदो न जात्या | ६३ ॥ " इति ।
तथाऽनभ्युपगमे तु तथाविधविशिष्टसामग्रीसमवधाने विस्रयातः पृथिव्यादि स्वस्त्ररूपतया विनश्य जलादिरूपेण नैत्र परिणतिं प्राप्नुयात् । ननु जन्यपृथिवीत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिता पृथिवीत्वावच्छिन्नेव कारणता, जन्यजलत्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपिता जलत्वावच्छिन्नैव कारणतेत्येवं जन्यपृथिवीत्वेन पृथिवीत्वेन जन्यजलत्वेन जलत्वेन च नियत कार्यकारणभावतः परिणामवादाभावात् पृथिव्यादि जलादिरूपेण नैव परिणतिमेतीति चेत्, न, यतो नैव पार्थिवपरमाणवो भिन्नजातीयाः, भिन्नजातीयाश्च जलादिपरमाणत्र इति न्यायप्रक्रिया युक्ता, सर्वेषां परमाणूनां पुद्गलत्वेन सजातीयत्वात्, अत एव सर्वेषां परमाणूनामेकजातीयत्वेन सर्वरूपेण परिणमनं सम्भवति । यद्वा पृथिव्यप्तेजोवायवः पुद्गलद्रव्य पर्यायाः स्पर्शादिमध्वात् । ये तु न तत्पर्याया न ते स्पर्शादिमन्तः यथाऽऽकाशादयः, स्पर्शादिमन्तश्च पृथिव्यादयस्तस्मात्पुद्गलद्रव्यपर्याया इत्युक्तानुमानेन पृथिव्यादीनां पुगलद्रव्यपर्यायत्वे सिद्धे विस्रसादितत्तत्सामग्रीसद्भावे पृथिव्यादीनां जलादिरूपेण परिणमनं नासभवि । न चोक्तानुमाने पथसि गन्धस्य तेजसि गन्धरसयोर्वायौ गन्धरसरूपाणामभावेन पक्षैकदेशाऽसिद्धिरिति वाच्यम्, पयो गन्धवत् तेजो गन्धरसवत् वायुर्गन्धरसरूपवान् स्पर्शवचत्रात् पृथिवीवदित्यनुमानतस्तत्र तत्सश्वसिद्धेः, नन्वेवं तर्हि जलादो गन्धादिकं प्रत्यक्षगोचरं कथं न भवतीति चेत्, उच्यते - शातकुम्भे उष्णस्पर्शस्येव चक्षुपि रूपस्पर्शयोरिव वा पयसि गन्धस्य तेजसि गन्धरसयोः समीरे गन्धरसरूपाणामनुद्भूतत्वेन घ्राणरसनाचक्षुरिन्द्रियब्राह्मपरिणत्यभावात । अत एव पयो गन्धवदित्याद्यनुमाने न प्रत्यक्षबाधः, अनुद्भूतस्त्रभावे
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सम्मति का १, गा• १२ सूक्ष्मपरिणामे च वस्तुनि विधिप्रतिषेधयोः प्रत्यक्षस्य मूकत्वात्तेन पक्षबाधाऽनुपपत्तेः, अन्यथा शातकुम्भीयोष्णस्पर्शसाधनेऽपि कथं न तत्प्रसङ्गः, नाप्यत्रागमबाधः, " स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः "१५-२३ । इति तत्सवसाधकस्यागमस्य सद्भावात् । न च सर्वज्ञप्रणीतस्यास्यागमस्याऽप्रामाण्यम्, गौतमीयाद्यागमस्यापि तथात्वप्रसङ्गात् , विनिगः मकाभावात् , अत एव पृथिव्या गन्धवचं जलस्य शीतस्पर्शवत्वं तेजस उष्णस्पर्शवचं वायोर्विजातीयानुष्णाशीतस्पर्शवचं लक्षणमिति पृथिव्यादिचतुर्णां विभिन्न लक्षणानि निरस्तान्यवसे यानि, क्षित्यादि चतुर्णामपि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मनैक्येन तत्र रूपादिचतुष्टयसद्भावेनातिव्याप्तिदोषदुष्टतयोक्तविविक्तलक्षणाऽसङ्गतेः, उक्तश्च स्याद्वादरत्नाकरे " एकान्तेन विविक्तं यत् , क्षित्यादेर्नास्ति लक्षणम् ॥"
"क्षित्यादीनि हि सर्वाणि, द्रव्याणि द्रव्यतात्मना । एकेन परिणामेन, तादात्म्येनावतस्थिरे ।। १ ।। तथाभूतान्यपीमानि, समस्तान्यपि सर्वथा।
व्यावृत्तलक्षणानीति, को ब्रूयाद्भवतः परः १ ॥ २ ॥ "पृथिवीपयः पावकमारुतानां, द्रव्यप्रवन्धे पुरतश्चतुर्णाम् ।
आबिभ्रतां पौद्गलिकत्वमेकं, कामं पृथग्लक्षणता कथं स्यात् ? ॥३॥" इति। - अथ पृथिव्यादीनां चतुर्णामपि पुद्गलपर्यायत्वेनाऽभिन्नलक्षणत्वे पृथिव्यामिव जलादिध्वपि गन्धादीनामुद्भूततैव भवेत् , अन्यथा तु सर्वथा भिन्नलक्षणतैवैषामिति चेत्, न, नायनेन तेजसा व्यभिचारात् , न ह्यनभिव्यक्तभास्वररूपोष्णस्पर्श नायनं तेजोऽभिव्यक्तभासुररूपोष्णस्पर्शात पावकाद्भिन्मलक्षणं भवतां प्रसिद्धम् , द्रव्यसङ्खथाच्याघातप्रसङ्गात् । एवं पृथिव्यादेरप्यभिव्यक्तानमिव्यक्तगन्धादियोगेऽपि नान्योऽन्यमत्यन्तभिन्नलक्षणत्वम् । अथा. त्यन्तभिन्नलक्षणाभावे पृथिवीत्वादिप्रतिनियतजातिसम्बन्धस्तेषां कुतस्त्यः, एकान्तेन भिन्नलक्षणत्वाभावे हि यथा पृथिव्यां पृथिवीवजातिमत्वं तथाऽजोवायुष्वप्येवं स्यादिति चेत् , तदप्यसङ्गतमेव, अवान्तरजातियोगस्य सर्वथा लक्षणभेदाऽप्रसाधकत्वात् , व्यक्तिभेदमेव घसौ प्रसाधयति । अन्यथा क्षत्रियत्वाद्यवान्तरजातियोगादात्मनामप्येकान्तिकं न स्यादेकलक्षणत्वमिति । तदेवं पृथिवीजलादीनां पुद्गलद्रव्यत्वेन रूपेणैकजातीयत्वे सिद्धे परमाणवोऽप्येकजातीया एवेति सिद्धम् । एते घटादिपरमाणवः पार्थिवपरमाणव इति प्रयोगस्तु परमाणूनां तदानीं पार्थिवकार्यरूपेण परिणमनादेव, न तु पृथिवीत्वजातियोगात् , अत एव तेषामेव जलकार्यता परिणतिकाले जलपरमाणव एते इति तत्वविद्भिर्व्यवहियते, तेन "आदीपमाव्योमसमस्वभावम्" इत्यादिश्लोकव्याख्यायां स्याद्वादमञ्जरीत्याख्यायां "प्रदीपपर्यायापनास्तैजसाः परमाणवस्स्वरसतस्तैलक्षयाद्वाताभिघाताद्वा ज्योति:पर्याय
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सम्मति० काण्ड १, गा० १२
परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तरमासादयन्ते " इत्याद्युक्तं सङ्गच्छते । जलादिपरमाणोरपि शक्तिविशेषेण पार्थिवारम्भस्य बहुलमुपलम्भादित्यष्टसहस्रयामुक्तेर्जन्यपृथिवीत्वाद्यवच्छि नम्प्रति पृथिवीत्वादिना हेतुत्वमपि न युक्तम्, किन्तु तादात्म्यसम्बन्धेन पृथिवीत्वावच्छि नम्प्रति स्वयंसत्वसम्बन्धेन पृथिवीत्व जलत्वादिना हेतुत्वं वाच्यम् ।
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भेदे हि द्व्यणुकादीनां जायन्ते परमाणवः । अणूनां संहतौ यद्वजायन्ते द्व्यणुकादयः ॥ १ ॥
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१९१३
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इति स्याद्वादरत्नाकरपञ्चमपरिच्छेद |ष्टमसूत्रवृत्तिवचनात् संयोगजातोत्पत्तिस्थल इव विभागजातोत्पत्तिस्थलेऽपि द्रयणुकादिध्वंसरूपाया एव परमाणुत्पत्तेः स्वीकारादित्यन्यसामग्रीसद्भावे - विस्रसातोऽन्यरूपेणोत्पत्तिसम्भवात् एतेन पृथिवीत्वस्य परमाणौ सच्वं, न च तत्र कार्यतेति कार्यतातिप्रसक्तत्वेन तस्य न कार्यतावच्छेदकत्वम्, किन्तु जन्यपृथिवीश्वस्यैवेति न तादात्म्यसम्बन्धेन पृथिवीत्वेन कार्यत्वं युक्तम्, किन्तु समवायसम्बन्धेन जन्यपृथिवीत्वेनैवेत्यारे काऽपि निरस्ता यदि कारणं कार्य ततः को दोषः, दृश्यते हि कारणमपि कार्यमपि, यथा परमाणुः कारणं व्यणुकादेः, मृत्पिण्डशिवकादेः कार्यमपि तद्भेदजत्वादिति द्वादशारनयचक्रे प्रथमविध्यरे प्रोक्तत्वात्, मृत्पिण्ड शिवकादिलक्षणस्कन्धात् द्व्यणुकादिमहावयविपर्यन्तस्कन्धाद्वा पृथग्भावे सति परमाणोस्तद्भेदजत्वात्तत्र कार्यत्वस्याप्यभ्युपगमेन पृथिवीत्वस्य कार्यत्वाsन्यूनानतिप्रसक्तत्वेन तद्रूपेण कार्यत्वस्यैव प्रामाणिकत्वात्, इदमस्माद्विमक्ततयोत्पन्नमिति प्रतीतेर्विभाग जातोत्पादस्याप्यनुभवसिद्धत्वात्, अवयव संयोगपूर्विकेत्र कार्यद्रव्योत्पत्तिरिति नैयायिकादिप्रवादस्य निर्मुक्तिकत्वात्, कुम्मादौ स्कन्ध मेदे कपालकलापादिभवनस्यानुभवसिद्धत्वात् । न हि तत्रावयवक्रियादिस्त्वद्गदिता प्रक्रिया सूक्ष्ममक्षूणमीक्षमाणेनापि मांसचक्षुषा लक्ष्यते, वेगवन्मुद्गरसम्पर्क समनन्तरं कपालमालाया एव विलोकनात् । तदनुसारेण च परमाणुष्वपि स्कन्धभेद एव कारणमकथि | व्यवहारनयार्पणेन चस्कन्धभेदः कारणमभाणि निश्चयनयार्पणेन तु य एव स्कन्धविभागः स एव परमाणवः । अथ यद्यणवो जायन्ते तदा यत्कार्यद्रव्यं तत्स्वपरिमाणादल्पपरिमाणैः कारणैरारब्धं घटवदिति व्याप्तिसिद्धेर्विवादास्पदीभूत परमाणू नामल्पपरिमाणैः कारणैर्भवितव्यम्, तेषामप्यपरैस्तैरित्यनवस्थानात्परमाणूनामभाव एव भवेदिति चेत्, नैतद्वाच्यम्, व्याप्तेरसिद्धेः । श्लथावय'कर्पासपिण्डानां संघाताद् घनावयवपिण्डेन सूक्ष्मेण संजायमानेन व्यभिचारात् । न चैवं ताह 'परमाणोर्नित्यत्वक्षतिस्स्यादिति वाच्यम्, विभक्तावस्थारूपेणोत्पन्नेऽपि तस्मिन् परमाणुभावेन 'नित्यत्वस्याप्यऽक्षतेः । तद्भावस्य कदाप्यपरित्यागात् । अथ भवतु पृथिवीत्वस्य पूर्वोक्तनीत्या कार्यतावच्छेदकत्वं न च तथापि पृथिवीत्वस्य जलत्वादेव कारणतावच्छेदकत्वं सम्भवति, पृथिवीत्वस्य जलत्वादेश्व कारणताऽनतिप्रसक्तत्वेऽपि कारणतासमानाधिकरण
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सम्मति• काड , पा. ११ मेदप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवस्खलक्षणकारणत्वन्यूनवृत्तित्वस्य तत्र सत्त्वात् , कारणताधिकरणे जले पृत्तियः पृथिवीत्ववानेत्याकारको भेदः पृथिव्याश्च वृत्तिर्यों जलत्ववान्नेत्याकारको भेदस्तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वात्पृथिवीत्वस्य जलत्वस्य चेति चेद्, मैवम् , पृथिवीजलादीनां शक्तिमत्वेनैव शक्तिलक्षणकारणत्वस्य तदभिव्यञ्जकविधया पृथिवीत्वे जलवादी चावच्छेदः कत्वस्य स्वीकारे उक्तदोषाभावात् , अखण्डशक्तिलक्षणकारणत्वापेक्षया पृथिवीत्वस्य जलवादेश्च न्यूनवृत्तित्वेऽपि न क्षतिः, सखण्डकारणताया अवच्छेदकस्यैवाऽन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्व. मिति नियमादित्युक्तं प्रागेव, "उरलाइसत्तगेणं, एगजिओ मुयइ फुसिय सवअणू । जत्तिय. कालिं स थूलो, दन्चे सुहुमो समनयरा ॥१॥" इति पारमर्षवचनात् “एवं स्यासर्वगतः स्यादऽसर्वगतो घटादिरित्यादिकाऽपि सप्तभङ्गी वक्तव्या, यतो य एत्र पार्थिवाः परमाणवो घटस्त एव विस्रसादिपरिणतिवशाजलानिलानलावन्यादिरूपतामात्मसात्कुर्वाणास्स्यात्सर्वगतो घट इत्यादिसप्तमङ्गविषयता यथोक्तन्यायात् कथं नासादयन्ति" इत्येवं "मदं मिच्छादसणसमूहमइयस्स" इत्यादिगाथाबृहट्टीकावचनात् "वातयोनिकत्वादप्कायस्य यत्र यत्रासो तथाविधपरिणामपरिणतो भवति तत्र तत्र तत्कार्यभूतं जलमपि संमूछते " इत्यादिसूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धतृतीयाध्ययनसूत्रटीकावचनाच पुलानामेकजातीयत्वे सिद्धे तेषां पृथिव्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यादित्वेन विपरिवर्तमानपरिणतिस्वभावतया जन्यद्रव्यमात्रस्यै कजातीयपुद्गलकार्यत्वेन जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तदनुकूलशक्तिमत्त्वेन परि. णामिपुद्गलद्रव्यस्य कारणत्वं, यद्वा पुद्गलपर्यायत्वावच्छिन्न प्रति तदनुकूलशक्तिमत्वेन पुद्गलद्रव्यस्य कारणत्वमित्येवं सामान्यकार्यकारणभावो ज्ञेयः, सखण्डकारणत्वस्यैवाग्रहश्चेत्तदा पुद्गलपर्यायत्वावच्छिन्नं प्रति पुद्गलत्वेनैव कारणत्वमभ्युपगमनीयमिति न कोऽपि दोषः । एतसाग्रे विवेचयिष्यते, तथा च वस्तुमात्रस्य परिणामपरिणामिमावाद्रव्यपर्यायोमयरूपत्वेन तदपेक्षयोत्पादव्ययधौव्ययुक्ततया द्रव्यमित्यभ्युपगन्तव्यम् । अत एव तत्र द्रष्यत्वबुद्धिरपि परकल्पितेनैकान्तभिन्नद्रव्यत्वजातिद्रव्येतरव्यावृयादिना न, किन्तूत्पादव्ययध्रौव्यैस्समुदितैरेव, उक्तश्च श्रीमहोपाध्यायैश्रीयशोविजयैर्महावीरस्तवप्रकरणे " नाशोद्भवस्थितिमिरेव समाहृताभिर्द्रव्यत्वबुद्धिरिति सम्यगदीडशस्त्वम्।" इति । द्रव्यत्वविषयकप्रत्यक्षवुद्धिकारणत्वमपि नोत्पादत्वेन व्ययत्वेन ध्रौव्यत्वेन प्रत्येकरूपेण प्रत्येकपर्याप्तम् , किन्तु समुदायत्वेन रूपेण तत्रितयपर्याप्तमेव, अत एव द्रव्यपदजन्यशाब्दबोधं प्रत्ययुत्पादवति द्रव्यपदं शक्तं, नाशवति द्रव्यपदं शक्तं ध्रौव्यवति द्रव्यपदं शक्तमित्येवं प्रत्येकधर्मावच्छिन्ने शक्तिग्रहस्य हरिपदजन्यं विष्णुबोधप्रति विष्णुत्वावच्छिन्ने शक्तिग्रहस्य सिंहबोधम्प्रति सिंहत्वावच्छिने शक्तिग्रहस्य कप्यादिवोधम्प्रति कपित्वाद्यवच्छिन्ने शक्तिग्रहस्येव पृथकारणत्वं न, येन द्रव्यपदस्य हर्यादिपदवच्छक्तिग्रहभेदानानार्थकत्वं स्यात् , किन्तु समुदायत्वेन रूपेणेकीकतोत्पादध्ययध्रौव्यरूपसमुदितत्रितयधर्मावच्छिन्ने द्रव्यपदं शक्तमित्येवमेकस्यैव शक्तिग्रहस्य
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सम्मति• काण्ड, गा. १३ कारणत्वमिति शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकस्यैक्याद्रव्यपदमेकार्थकमेव, यथा पशुपदस्य लोमवल्लाङ्गुलवति शक्तस्य लोमवल्लाङ्गुलस्य शक्यतावच्छेदकस्य नानात्वेऽपि साक्षाच्छक्यतावच्छेदकतावच्छेदकस्य लागृलस्वस्य परम्परया शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकस्य च लोमत्वस्येक्यान्न नानार्थकत्वं तथा प्रकृतेऽपीति, नन्वेवं तर्हि "पुष्पदन्तौ पुष्पवन्तावेकोत्या शशिभास्करो" इति कोशस्वरसात् पुष्पदन्तपदं चन्द्रत्वावच्छिन्नं सूर्यत्वावच्छिन्नं च बोधयवित्याकारिकाया एकस्या एव चन्द्रत्वसूर्यवधर्मद्वयावच्छिन्ने शक्तस्सद्भावेन नित्यं द्विवच. नान्तं तद्वद् द्रव्यपदमप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्रितयधर्मावच्छिन्नं बोधयत्वित्याकारिकाया. स्समुदितोत्पादादित्रितयधर्मावच्छिन्ने एकशक्तेस्सद्भावेन नित्यं बहुवचनान्तमेव स्यादिति चेत्, न, 'आपः स्त्री भूग्नि' 'पुं भूग्नि दाराः' इत्याधनुशासनसिद्धबहुवचनान्त-आपोदारा इत्यादिवद् द्रव्यपदस्थ नियतबहुवचनताया अननुशासनात् ! यस्य यस्य शब्दस्य यो यस्स्वभावस्स स न कदापि तं तं स्वभावं परिजहातीति व्याप्तेर्यथाऽदारादिशब्दस्य बहुववनान्तत्वस्वभावस्तथा प्रकृतस्य द्रव्यपदस्यैकवचनान्तत्वस्वभावः, स्वस्वभावातिक्रमणे तु निस्स्वभावापत्या वस्तुत्वमेव परित्यक्तं स्यादिति भावः । अथ शब्दस्वाभाव्याद्रव्यपदोत्तरं बहुवचनं मास्तु, अर्थस्वाभाव्यात्तु तत्स्यादेवेत्यपि न च युक्तम् , यतो बहुवचनेन स्वप्रक. त्यर्थतावच्छेदकव्याप्यमेव धर्मिगतं बहुत्वं बोध्यते, अन्यथैकस्मिन्नपि घटे घटपटकटाहगतं बहुत्वमादाय घटा इति प्रयोगापत्तेः, न चात्रैकस्मिन् द्रव्ये उत्पादव्ययध्रौव्यव्याप्यं बहुत्वमस्तीति न द्रव्यपदस्य बहुवचनान्ततेति । अथ स्यादिप्रत्ययप्रकृतिपदवाच्यतावच्छेदक व्याप्यं धर्मिगतं बहुत्वं यत्र तत्रैव बहुवचनमित्यभ्युपगमे घटपटकटाहगतं बहुत्वमादाय घटपटकटाहा इति प्रयोगोऽपि न स्यात् , यतोऽत्र घटत्वपटत्वकटाहत्वैतत्रितयधर्मावच्छिन्न. मुहिश्यैव बहुत्वं विधीयत इति तस्य बहुत्वस्योद्देश्यतावच्छेदकस्य घटत्वस्याभावति पटे कटाहे च पटत्वस्यामावति घटे कटाहे च कटाहत्वस्याभाववति घटे पटे च सवेन तधाप्यत्वाभावात् , एवमाकाशघटाविति प्रयोगोऽपि न स्यात् , आकाशत्वघटत्वव्याप्या. काशघटगतद्वित्वाभावादित्युक्तदोषनिवृत्तये यत्रैकधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वं तत्रैवोद्देश्यतावच्छेदकव्याप्यं बहुत्वं बहुववनेन बोध्यते, द्विवचनेन चोद्देश्यतावच्छेदकव्याप्यं द्वित्वं बोध्यते, अत एवाकाशा आकाशाविति न प्रयोगौ, आकाशवव्याप्यस्य बहुवस्य द्वित्वस्य चाभावात् , आकाशे एकत्तस्यैव सच्चात् , यत्र च नानाधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वं तत्र केवलमेव बहुत्वं बहुवचनेन द्वित्वश्च द्विवचनेन बोध्यत इत्यम्युपगन्तव्यम् , अत एव घटपटाकाशा घटाकाशाविति प्रयोगयोरपि प्रामाण्यमुपपद्यते। तथा च द्रव्यपदस्थले उत्पाद. व्ययध्रौव्याणामुद्देश्यतावच्छेदकत्वेनाऽभ्युपगतानां नानाधर्मत्वेन केवलस्य बहुत्वस्यैव भानं स्यादिति पूर्वोक्तं न युक्तमिति चेत् , मैवम् , समनियतनानाधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वस्थलेsप्युदेश्यतावच्छेदकव्याप्यबहुत्वस्यापि बहुवचनेन भानाभ्युपगमात् , तथा चोत्पादादित्रयाणां
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सम्मतिः काण्ड १, गा० १५ समनियतनानाधर्मत्वेन तद्वथाप्यबहुत्वस्य धर्मिगतस्यात्राभावान बहुवचनापत्तिा, यद्वोद्देश्यतावच्छेदकीभूतोत्पादादित्रयाणामपि समुदायत्वेन रूपेणैकत्वेन विवक्षणादत्राप्येकधर्मस्येवो. द्देश्यतावच्छेदकत्वमिति तद्व्याप्यधर्मिगतबहुत्वस्याभावान द्रव्यपदोत्तरबहुवचनापत्तिः । एवं पुष्पदन्तपदप्रवृत्तिनिमित्तस्य चन्द्रत्वस्य सूर्यत्वस्य न चन्द्रत्वत्वेन सूर्यत्वत्वेन च रूपेण द्वित्वोद्देश्यतावच्छेदकत्वम् , किन्तु पुष्पदन्तपप्रवृत्तिनिमित्तत्वरूपसामान्यधर्मेणेति तद्रूपेण चन्द्रवमूर्यत्वयोरेकीकृतत्वेनैकधर्मस्योद्देश्यतावच्छेदकत्वादुद्देश्यतावच्छेदकव्याप्यद्वित्वमानमुपपद्यत एव, पुष्पदन्तपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन रूपेणोद्देश्यतावच्छेदकीभूतस्य चन्द्रवस्याभाववान सूर्यः, सूर्यत्वस्याभाववांश्च न चन्द्रः, किन्त्वन्य एव, तदवृत्तित्वेन द्वित्वस्य चन्द्रस्वसूर्यत्वव्याप्यत्वसद्भावादिति । एतदाशयेनैवोपाध्यायैरप्युक्तं न्यायखण्डखाये"नाशोद्भवस्थितिमति क्रमशो न शक्तो, द्रव्यध्वनिस्तदिह नो पृथगर्थताभृत् । शब्दस्वभावनियमावचनेन भेदः, स्वव्याप्यर्मिगबहुत्वनिराकृतेश्च ॥३५॥" इति
- विशेषार्थिनाऽस्मत्कृतश्रीमहावीरस्तवकल्पलतिकाटीकावलोकनीयेति । तदेवं द्रव्यार्थिकनयाभिमतं द्रव्यं पर्यायाक्रान्तमेव, न तु तद्विकलम् , पर्यायार्थिकनयाभिमताः पर्याया अपि द्रव्यसमनुगता एव न तद्वियुक्ताः, परस्परनिरपेक्षयोस्तयोः कदाचिदप्यप्रतिभासनादिति सिद्धम् ॥ १२ ॥
एत उत्पादस्थितिमाः परस्परनिरपेक्षाः, यद्वोत्पादव्ययाविति धौव्यमिति च न द्रव्यलक्षणं किन्तु समुदितोत्पादस्थितिमङ्गाः परस्परानुस्यूता एव द्रव्यलक्षणम् , एकैकविनिर्मोकेण द्रव्याप्रतीतेरिति प्रत्येकलक्षणग्राहिणी द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकमूलनयो मिथ्यादृष्टी, इत्येतत्प्रदर्शनायाह
"एए पुण संगहओ पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हंपि।
तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तयं दो वि मूलणया ॥ १३ ॥" 'एए एते उत्पादस्थितिभङ्गाः 'सङ्गाहओ संग्रहतः शिविकोद्वाहिपुरुषा इव परस्परमापेक्ष. भावतः परस्परस्वरूपोपादानेनैव सतो लक्षणम् । 'पाडिक' प्रत्येकं मिथोऽपेक्षारहितत्वेन एकका उत्पादादयो 'दुवेण्हंपि' द्वयोरपि द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनययोरेतदनन्तरमभिमता इति शेषः 'अलक्षणम्' अलक्षणम् , एकान्तद्रव्यास्तिकनयाभ्युपगतमेकान्तध्रौव्यमिति एकान्तपर्यायास्तिकनयास्तिकनयाभ्युपगतावेकान्तोत्पादव्ययौ च सच्छब्दाभिधेयस्य द्रव्यस्य न लक्षणम् , उत्पादव्ययव्यतिरेकेण ध्रौव्यस्य ध्रौव्यव्यतिरेकेणोत्पादव्यय योरप्रतीतेः, उत्पादव्ययाविनाभूततया ध्रौव्यस्य ध्रौव्याविनाभूततयैव चोत्पादव्यययोः प्रतीतेः, तम्हा' तस्मात् , 'पत्तेयं दो वि मूलणया मिच्छट्टिी' प्रत्येकं द्वापि मिथोऽनपेक्षी प्रत्येकलक्षणग्राहिणी द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको मूलनयो समस्तनयराशिकारणभूती मिथ्यादृष्टी इति भावः ।। १३ ।।
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पम्मति० काण्ड , गा
स्यादेतत् भवत्वेकान्तपर्यायार्थिकनयप्रदर्शितयुक्तिभिधौंब्यस्याव्यवस्थितेधौव्याभाववति ध्रौव्यग्राहित्वेनैकान्तद्रव्यार्थिकनयस्य एकान्तद्रव्यार्थिकनयप्रदर्शितयुक्तिभिरुत्पादव्यययोरसिद्धस्तदभाववति तदाहित्वेनैकान्तपर्यायार्थिकनयस्य च मिथ्यात्वम् , तयोस्सुन्दोपसुन्दन्यायेनेतरेतरविषयप्रतिक्षेपकत्वेन स्वविषयाऽसत्यस्वात् समुदितोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकद्रव्यलक्षणाग्राहकत्वाच्च, द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयद्वयारब्धत्वेन तद्विषयविषयकस्त्वेको नय उभयवादात्मकस्सम्यग्दृष्टिर्भविष्यतीत्याशङ्कायामाह
ण य तइओ अस्थि णओ, ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं ।
जेण दुवे एगंता, विभत्रमाणा अणेगंतो ॥१४॥ __ण य तइओ अस्थि णओ' न चोभयवादात्मकस्तृतीयोऽस्ति नयः कश्चिद्, यतस्तस्य द्रव्यपर्याययोर्द्रव्यपर्यायान्यतरैकरूपतया ग्राहित्वे एकान्तद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयान्यतररूपत्वं स्यात् , प्रधानीभूतपरस्परसापेक्षोभयरूपतया ग्राहित्वे च नयात्मकत्वानुपपत्तेः प्रमाणात्मकत्वं स्यात्, प्राधान्येन द्रव्यपर्यायोभयावगाहिज्ञानस्य प्रमाणरूपत्वात् । उक्तश्च स्याद्वादरत्नाकरे-"प्राधान्येन द्रव्यपर्याय द्वयात्मकं चार्थमनुभवद्विज्ञानं प्रमाणं प्रति पत्तव्यमिति" तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकेऽप्युक्तम्-प्राधान्येनोमयात्मानमर्थ गृहद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।। १॥ इति । एतदेवाह-"ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं " द्वो नौ प्रकृतार्थ गमयत इति न्यायात् प्रतिषेधदयेन प्रकृतार्थावगतेपरित्यक्तेतररूपाध्यवसायलक्षणान्योऽन्यनिश्रितत्वेन तयोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोः प्रति. पूर्ण सम्यक्त्वं न चास्तीति न, किन्त्वस्त्येव, अनेकान्तात्मनोव्यपर्याययोः परस्परसापेक्ष भावेन ग्राहितया यथाऽवस्थितप्रत्ययरूपत्वात्तयोः, तथा च तादृशौ तौ नयौ सम्यक्प्रत्ययरूपावेवेति भावः । मिथो निरपेक्षभावेन द्रव्यपर्यायग्राहिणोस्तु तयोर्न च सम्यक्प्रत्ययरूपत्वमित्यत्र हेतुमाह-'जेण दुवे एगन्ता' येन द्वावपि नयौ परस्परनिरपेक्षद्रव्यपर्यायग्राहिणी एकान्तौ एकान्तनयरूपो मिथ्यारूपाविति यावत् 'विभजमाणा अणेगंतो' वि-विशेषेण परस्पराऽत्यागरूपेण भज्यमानौ द्रव्यपर्यायावगाहिनावनेकान्तः, अर्थात् प्रमाणसञ्ज्ञां दधाते, नयस्येतरांशीदासीन्येनानन्तांशात्मकवस्त्वेकांशपरिच्छेदरूपत्वेन प्राधान्येन द्रव्यपर्यायोमयावगाहिज्ञानस्य प्रमाणशब्दवाच्यत्वात् , यद्वाऽशेष हि प्रामाण्य सापेक्षं गृह्यमाणयोरनयोरेवं विषययोर्व्यवस्थितम् । “जेण दुवे एगंता" येन द्वावपि द्रव्यपर्यायौ परस्परनिरपेक्षतयैकान्तो एकान्तरूपतया व्यवस्थितौ मिथ्यात्वनिवन्धनम् , भ्रान्तबुद्धिकारणमिति यावत् , 'विभजमाणा' विभज्यमानौ वि-विशेषेण परस्परात्यागरूपेण मज्यमानौ गृह्यमाणो तो 'अणेगंतो' अनेकान्तः, परस्पराजदुत्या द्रव्यपर्यायोभयात्मकस्य वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वादित्येतयो
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पम्मति० काण्ड १, गा• १५ स्सम्यक्त्वहेतुत्वम् , तयोविषयविधया प्रमाणकारणत्वातदुभयावगाहिज्ञानं प्रमाणं भवतीति भावः। तथा च यो नयोपयोगस्वार्थे इतरनयार्थसंयोजनायां व्यापिपत्ति तस्य तावत्याऽपेक्षया सम्यग्दृष्टित्वस्य केवलस्वार्थमात्रावगाहनप्रवृत्तस्य नयस्य स्वेतरनयविषयसंयोजनाव्यापारवै. कल्येन मिथ्यादृष्टित्वस्य च सम्प्रदायसिद्धत्वात् , तस्मादितरनयविषयसंयोजनाच्यापारेण मुख्यगौणतया स्वपरार्थग्राहिणामवान्तस्नयभेदानां सम्यग्दृष्टित्वं युज्यते, न तु स्वतन्त्रकल्पितोभयविषयग्राहिणां नैगमभेदानामिति प्रतिपत्तव्यम् ॥ १४ ॥
यथेतरनयविषयनिरपेक्षस्वविषयग्राहिणोर्मूलभूतद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोमिथ्यात्वं तथा स्वान्यनयविषयनिरपेक्षविषयप्राहिणां मूलनयार्थप्रज्ञापनामात्रव्यापूतानां तत्तद्विशिष्टांशाधिगममात्रेण भेदभाजामुत्तरनयानामपि मिथ्यात्वमेवेत्युपदर्शयितुमाह
"जह एए तह अपणे, पत्तेयं दुण्णया गया सब्वे ।
हंदि हु मूलणयाणं, पण्णवणे चावडा ते वि ॥१५॥" 'जह एए' यथैती मूलभूतौ पर्यायनिरपेक्षद्रव्यग्राहिद्रव्यार्थि कनयद्रव्यनिरपेक्षपर्याय. ग्राहिपर्यायार्थिकनयो मिथ्यादृष्टी 'तह' तथा 'पत्तेयं प्रत्येकम्-इतरानपेक्षलक्षणप्रातिस्विकरूपाः 'अण्णे सत्वे जया दुण्णया' अन्येऽपि सर्वे नया दुर्नयाः, परस्परनिरपेक्षविषयग्राहि. स्वस्य मिथ्यात्वनिबन्धनस्य सर्वत्र तुल्यत्वात् । नन्वेवं मूलभूतौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकावित. रेतरविषयप्रतिक्षेपकत्वेन गौणप्रधानभावेन समुदितद्रव्यलक्षणाऽग्राहितया भवतां मिथ्या. दृष्टी, अवान्तरतद्भेदरूपनयास्तु तद्वेपरीत्येन मूलभूतनयद्वयगतमिथ्यात्वधर्मारोपाऽविषयत्वात्सम्यग्दृष्टयो भवेयुरित्याशङ्कायां तनिषेधे हेतुप्रदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह-हंदीत्यादि । "हंदि" इत्येवं गृह्यताम् , 'हु' हुशब्दः हेतौ 'मूलणयाणं' मूलनययोः मूलनयविषययोरेव तत्तदधिगतांशविशिष्टयोः 'पनवणे' प्रज्ञापने प्ररूपणे वावडा ते वि' व्यापृतास्तेऽपि, यद्विषयको मूलनयो मिथ्यादृष्टी तद्विषय प्रज्ञापनामात्रव्यापृतास्तत्तद्विशिष्टांशाधिगममात्रेण भेदभाजोऽवान्तरनया अपि मिथ्यादृष्टय एव । तथा च मूलनयद्वयविषयव्यतिरिक्तविषया. न्तराऽभावाद सर्वनयवादानां मूलन यद्वयविषययोः सामान्यविशेषयोरन्यतरस्यैव किश्चित्तकारविशिष्टतया प्ररूपकत्वान तद्व्यतिरिक्तनयान्तरसद्भाव इति ॥ १५॥ ... ननु सङ्ग्रहादिनयसद्भावात्कथं तद्व्यतिरिक्तनयान्तरसद्भावो नेति वचश्शोभत इति चेत, सत्यम् , सन्ति सङ्ग्रहादयः, किन्तु नैगमनयवादस्य स्वतन्त्रकल्पितसामान्यविशेषोभयविषयकत्वेन शुद्धसङ्ग्रहनयवादस्य च सत्तारूपपरसामान्यविषयकत्वेनाशुद्धसत्वहनयवादस्य च परापरसामान्यमात्रविषयकत्वेन व्यवहारनयवादस्य च व्यवहारोपयुक्ततत्तव्यक्त्यात्मकविशेषमात्रविषयकत्वेन ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढेवम्भूतनयवादानां वर्तमानक्षणवर्त्यर्थकालादि. भेदभिन्नार्थसज्ञाभेदभिन्नार्थव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियासत्ताकालावच्छिन्नार्थमात्रग्राहित्वेन च
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सम्मति• काण्ड 1, गा. १९ मूलनयद्वयविषयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावतो मूलनयद्वयविषयकास्तेऽपि तदूषणेनैव दक्षिताः, यतो न मूलच्छेदे तच्छाखास्तदवस्थासम्भवन्तीत्याशयेनाह
सव्वणयसमूहम्मि वि नस्थि, णओ उभयवायपण्णवओ।
मूलणयाण उ आणं, पत्तेयं विसेसियं विति ॥ १६ ॥ 'सवणयसमूहम्मि वि' सङ्ग्रहादिसर्वनयसमूहेऽपि ' नत्थि णओ' नास्ति कश्चिनयः, 'उभयवायपण्णवओ' उभयवादप्रज्ञापको द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यामत्यन्तपृथ. ग्भूताभ्यामारब्धस्य भिन्नस्याङ्गुलिद्वयारब्धतत्संयोगवदुभयवादस्य प्ररूपका, तत्र हेतु प्रदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह-'मूलणयाण उ आणं' मूलनयाभ्यामेव यत्प्रतिज्ञातं वस्तु तदेवाश्रित्य 'पत्तेयं विसेसियं विन्ति' प्रत्येकमेकैकाः सङ्ग्रहादयो विशेषितं ब्रुवन्ति, नयानां ज्ञान. रूपत्वपक्षे पूर्वपूर्वनयाधिगतांशविशिष्टमंशान्तरमुत्तरोत्तरनया अधिगच्छन्ति, पूर्वपूर्वनया. धिगतांशं गौणतयांशान्तरश्च प्रधानतया विषयीकुर्वन्तीति यावत् , नयानां वादरूपत्व. पक्षे च पूर्वपूर्वनयचोधितांशविशिष्टांशान्तरविषयकाधिगममुत्पादयन्ति, तादृशाऽधिगमाऽ. नुकूलव्यापारवन्त इति न विषयान्तरगोचरास्तेऽपि, अतो व्यवस्थितं परस्परात्यागप्रवृत्त. सामान्य विशेषविषयकसग्रहाद्यात्मकनयद्वयगोचरसामान्यविशेषोभयात्मकत्वाद्वस्त्वप्युभयात्मकमिति ॥ १६ ॥
अथ क्षीरमेव भोक्तव्यमित्येवं पयोव्रतो दधि नाति, दध्येव भोक्तव्यमिति दधिवतश्च दुग्धं नात्ति, गोरसो नाभ्यवहर्तव्य इत्येवमगोरसवतो दुग्धदधिनी उमे अपि नाम्यवहरतीति तदृष्टान्तेन वस्तुमात्रं कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकत्वेनोत्पादादित्रयात्मकम् । तदुक्तम् -
"पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। ___अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ॥१॥" इति ॥
यतो दनः पयस एकान्ताऽभेदो यदि स्यात्तदा पयोव्रतस्य दधि भुञ्जानस्याऽपि न प्रतमङ्गस्स्यात् , तथा पयसो यदि दन एकान्ताभेदस्स्यात्तदा तद्भुञ्जतोऽपि दधिभोजनव्रतमङ्गो न स्यात् , ततो दधिपयसोर्दधित्वेन पयस्त्वेन च कथञ्चिद्भेदः । तथैव तयोर्गोरसत्वेन कथञ्चिदभेदः, अन्यथाऽगोरसवतस्य दुग्धायकैकभोजनेऽपि न व्रतभङ्गस्स्यादिति दुग्धदधिपर्यायापन्नगोरसवत् पूर्वापरपर्यायापनद्रव्यात्मकपटपटादिवाझं वस्तुमात्रं यथा कथञ्चिद्भेदाभेदोभयात्मकम् , तथाविधप्रमाणग्राह्यत्वात् , तथाऽऽस्माद्यान्तरमपि वस्तु. मात्रं कथश्चिद्भेदाभेदात्मकमभ्युपगन्तव्यम् , हर्ष-शोक-भय-करुणौदासीन्यायनेकाकारविवर्चात्मकैकचेतनास्वरूपतया कथश्चिद्भेदाभेदविषयकस्वसंवेदनाध्यक्षप्रमाणग्राह्यत्वात् , तस्य भेदाभेदैकान्तरूपताऽभ्युपगमे तु स्रक्चन्दनवनितादिदृश्यमाननिमित्तकसुखादृश्य. माननिमित्तकस्वर्गादिसुखसाधनोपादानानुकूलप्रवृत्तिरूपस्याहिकण्टकादिदृश्यमान निमित्तक
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सम्मति० काण्ड १, गा० १७ दुःखादृश्यमाननिमित्तकनरकादिदुःखसाधनपरिहारानुकूलनिवृत्तिरूपस्य सकलव्यवहारस्यो. च्छेदप्रसक्तिस्स्यादिति प्रतिपादयितुमाह
ण य दव्वट्टियपक्खे, संसारो व पज्जवणयस्स ।
सासय-वियत्तिवाई, जम्हा उच्छेअवाई अ॥ १७ ॥ 'ण य दवट्टियपक्खे संसारो' न च द्रव्यार्थिकपक्षे द्रव्यार्थिकनयाभ्युपगते वस्तुनि संसार: सम्भवति, ‘णेव पजवणयस्स' एतदनन्तरं ' पक्खे संसारो' इत्यनुकर्षणीयम् । नैवेत्यत्रैवकारोऽप्यर्थका, स च भिन्नक्रमः, तथा च पर्यायनयस्य पक्षेऽपि पर्यायार्थिकनयाभिमते वस्तुन्यपि न संसारः सम्भवति । तत्र हेतुं प्रदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह-'सासय-वियत्ति. वाई जम्हा' यस्मात् शाश्वतीं शश्वद्भवन्तीमकान्ताऽविनश्वरीमात्मप्रभृतिव्यक्ति वदितुं शीलं यस्य स शाश्वतव्यक्तिवादी द्रव्यार्थिकनयः । ' उच्छवाई अ' घण्टालोलकन्यायेन जम्हा इत्यस्यात्राप्यन्वया, च: समुच्चये, उच्छेदम् , अत्र उत्पूर्वकात् छिद्धातोर्भावे घञ्प्रत्यय:उत्प्राबल्येन छेदमुच्छेदम् , यत् सत्तत्क्षणिकमिति व्याप्तेः प्रतिक्षणं प्रतिव्यक्ति निरन्वयविनाशं वदितुं शीलं यस्य स उच्छेदवादी पर्यायार्थिकनयः। ननु द्रव्यार्थिकनयो भवत्वेकान्तशाश्वतव्यक्तिवादी, एतावता कथं संसारानुपपचिरिति चेत्, उच्यते, संसरणम् इतश्वेतश्व परिभ्रमणं मनुष्यादिपर्यायानारकादिपर्यायगमनं संसारस, स च चतूरूपा, गतिचतुष्कभेदात् , तदुक्तम् स्थानाङ्गे-"चउबिहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा-नेरइअसंसारे जाव देवसंसारे । यद्वा औदयिकादीनां भावानां संसरणपरिणामः एकस्मादावाद्भावान्तरपरिणामः संसारा, स चात्मनो द्रव्यपर्यायोभयरूपतयेकानेकरूपत्वे सत्येव सङ्घटते, सर्वथा नित्यैकरूपत्वे तु मनुष्याद्यवस्थालक्षणोत्तरपर्यायावाप्तिर्ने स्यात्, एवमौदयिकादीनां भावानां मध्ये विवक्षि. तैकमावाद् मावान्तरापत्तिलक्षणपरिणामोऽपि च न स्यात्, पूर्वावस्थात्यागे सत्येवोत्तरावस्थोत्पत्तस्सम्भवाद, न च तत्तदवस्थानामेव भेदो न त्ववस्थातुरिति वाच्यम् , अवस्थातद्वतोः कथश्विद्भेदाभेदवादाभ्युपगम एवावस्थाऽत्रस्थात्भावसङ्घटनात् , अन्यथा मनुष्यादिसत्तदवस्थाभेदेऽप्यात्मनोऽविकारिणो जन्ममरणादिव्यपदेश एव न स्यात् , न च यथा स्थिरे स्थाणावन्यस्य कस्यचित्संयोगानुकूलक्रियया संयोगसद्भावेऽपि विभागानुकूलक्रियया विभागसद्भावेऽपि च न तत्र स्थाणो विकास, येन भेदोऽपि स्यात् , तद्वन्नित्यैकात्मन्यपि आधप्राणसंयोगो जन्म अन्तिमप्राणवियोगो मरणश्च भविष्यतीति नित्यपक्षेपि तद्वयपदेशो न दुर्घट इति वाच्यम् , दुग्धस्य तक्रेण सह संयोगे दुग्धभावपरिणतिविनाशे सत्येव दधिभावेन परिणतेर्भावा, तदभावे च तदभाव इतिवत् स्थाणोरपि केनचित् वस्तुना संयोगे तस्य पूर्वकालीनाऽसंयुक्तावस्थापरित्यागे सत्येव उत्तरसंयुक्तावस्थाया उत्पत्तिः, तदभावे च तदनुत्पत्तिरित्यन्वयव्यतिरेकवलादत्रापि पूर्वोत्तरावस्थाभेदेन कश्चित्तदभिन्नतद्वतोऽपि
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सम्मति. काण्ड १, मा. 10 भेदः स्वस्वरूपेण चाभेद इत्येवं कथञ्चिबेदाभेदोमयस्यैव सिद्धेः, न चास्यानेन संयोग इति प्रत्यक्षबलादेवातिरिक्तसंयोगसिद्धेनॊक्तं युक्तमिति वाच्यम् , वस्तूनां देशाज्यवधानस्यैव संयोगरूपत्वात् , प्राकालीनसान्तरत्वस्वरूपपरिणामपरित्यागेन निरन्तररूपतया यः कथश्चित्तादात्म्यपरिणामः स संयोग इति तल्लक्षणात् । यतो नैरन्तर्येण परिणतानि वस्तूनि संयुक्तव्यवहारगोचरतां प्रतिपद्यन्ते, उक्त प्रत्यक्षस्यापि संयोगत्वेन रूपेण तद्विषयकत्वात् , धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना श्रेयसीति न्यायादतिरिक्तसंयोग स्वीकृत्य तत्र संयोगत्वधर्मकल्पनापेक्षया सिद्धे नैरन्तर्यलक्षणसंयोगे संयोगत्वधर्मकल्पनाया लाघवतर्केण युक्तत्वात् , तदतिरिक्त तत्र प्रमाणाऽभावात् , संयोगस्य सर्वथाऽतिरिक्तत्वेऽत्यन्तभिन्नयोहिमविन्याचलयोस्संयोगस्येवोक्तप्रतीतिसिद्धस्याऽनुयोगिप्रतियोगिनोरनुयोगिप्रतियोगिमावसम्बन्धस्य अनेनायं संयुक्त इति प्रतीतिसिद्धाश्रयाश्रयिभावसम्बन्धस्य चापटमानत्वाच्च । किश्चाऽऽत्मनो नित्येकान्तरूपत्वे तस्य छेदभेदक्लेदाद्यभावाद्धिसादेरभावः, तदभावाचाहिंसादेरप्यभावः, तदभावात् पुण्यपापयोस्तदभावाद् बन्धमोक्षयोर्लोकद्वयस्यापि चाभाव इति बद्धमूलो नास्तिक्यतरुस्स्यात्, न च मनःसंयोगविशेषध्वंसो हिंसा, वायुसंयोगविशेषध्वंसवत्तस्य हिंसकपुरुषीयेच्छाया अविषयत्वात् , किञ्च मनःसंयोगविशेषवंसस्यैव हिंसात्वाभ्युपगमे कायध्वंसस्य हिंसारूपत्वाभावेनैनं पुरुष मारयामीतीच्छाया अस्य पुरुषस्य कायं ध्वंसयामी. त्यर्थकत्वेन तदिच्छाजन्यप्रवृत्तिकारिणोऽहिंसकत्वं स्यात् । ____ अथ मरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारस्य हिंसात्वेनैतत्पुरुषमरणमुद्दिश्यैव प्रवर्त्तमानस्य पुरुषस्य हिंसकत्वं स्यादेवेति चेत् , मैवम् , यतो मरणोद्देश्यकमरणानुकूलमाक्षाद्वयापारस्य हिंसात्वे यत्र खगाभिघातेन साक्षान्मरणं न जातं किन्तु परम्परया तत्राच्याप्तिस्स्यात्, साक्षात्परम्परासाधारणतादृशव्यापारस्य हिंसात्वविवक्षायां विवक्षितपुरुषमरणमुद्दिश्यैव तत्पुरुषीयमरणानुकूलखङ्गाभिघातादिव्यापारे कृतेऽपि तेन व्यापारेण साक्षात्परम्परया वा विवक्षितपुरुषमरणं नैव जातं तत्राव्याप्तिस्स्यात् , अथ तत्र मरणाभावेऽपि हिंसालक्षणस्य मरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारस्य सत्वात् सङ्कल्पलक्षणहिंसासद्भावाच हिंसेप्टैवेति चेत् , तर्हि तादृशव्यापारवतः तादृशसङ्कल्पवतश्च पुरुषस्य मरणाभावेऽपि मरणजन्यं यत्पा तदापत्तिस्स्यात्, न च तदपीष्टमेवेति वक्तुं शक्यम् , यत्र मरणतदनुकूलव्यापारयोरुभयोस्सत्वं तत्र, यत्र केवलस्य मरणानुकूलव्यापारस्य सत्वं तत्र च फलवैषम्यस्यावश्यमभ्युपेयत्वात् कारणविशेषस्य कार्यविशेषप्रयोजकत्वात् । एवं मरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारमात्रस्य हिंसापदार्थत्वे यत्र चैत्रीयमरणमुद्दिश्य कृते व्यापारे चैत्रीयं मरणं जातं तत्र ताशव्यापारवतः मैत्रीयहिंसावधापत्तिस्यात्, मरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारस्य सवाद , अतो यदि तत्पुरुषीय मरणोदेश्यकमरणानुकूलव्यागारस्य तत्पुरुषीयहिंसात्वं विव. क्ष्यते तदा शत्रुवधाय यद्वा पारधिना मृगवधाय मुक्तेन शरेण लक्ष्यच्युतेनाऽन्यस्यैव मरणं
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सम्मति का १, गा० १७
जातं तत्र तदपेक्षया हिंसकत्वं न स्यात् अन्यस्त्र मरणोद्देश्यकव्यापाराभावात् अन्यप्राणिनं मारयामीति सङ्कल्पाभावाच्च । तस्मात्प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्येव लक्षणं युक्तमित्यात्मनो नित्यत्वेन विनाशायोगेऽपि मनुष्यत्वप्राणसंयोगादितत्पर्यायस्यानित्यत्वेन तद्वंसानुकूलप्रमादयोगतत्प्रतिकूलाऽप्रमादयोगाभ्यामेव हिंमाऽहिंसे तज्जन्यपापपुण्ये तत्सम्बन्धनिखिल तद्वियोगलक्षणबन्धमोक्षौ च य एवाहं पूर्वं बद्धस्स एवाहमिदानीं मुक्त इति प्रत्यभिज्ञानादिप्रमाणसिद्धे कथञ्चिद्भिन्नाभिन्न आत्मनि सम्भवत इति स्याद्वादपक्ष एव बद्धमूल आस्तिक्यतरुर्भवतीति हिंसाऽहिंसादिरूपविरुद्धधर्माध्यामादेकस्याप्यात्मनः कथञ्चिदनेकरूपतया मनुष्यादिपर्यायविनाशेन देवादिपर्याय भावगमनात्स्याद्वादपक्ष एव संसारस्सम्भवति, न तु शाश्वत व्यक्तिवा दिपक्ष इति सिद्धम् । ननु शाश्वतव्यक्तिवादिपक्षे संसारो न सम्भवतीत्युक्तयुक्तेर्युक्तम्, एकान्तोच्छेदपक्षे तु तत्कथमिति चेत्, मा त्वरस्त्र, सावधानीभूय तदप्याकर्णय, सर्वेषां वस्तूनामुत्पश्यनन्तर निरन्वयध्वं स लक्षणैकान्तोच्छेदे संसारो न सम्भवति, एकगतेर्गत्यन्तरगमनस्यैकभावाद् भावान्तरात्रातेत्र पूर्वापस्तत्तद्गतिषु पूर्वापरतत्तद्भावेषु चानु. यायिधर्मिणमन्तरेणायोगात् । न च सभागविभागप्रवृत्तिविज्ञान सन्तानोपादानालय विज्ञानसन्तानलक्षणस्यात्मनः स स्यादेवेति वाच्यम्, तस्यापि काल्पनिकत्वात्, पारमार्थिकत्वे वा नामान्तरेणाऽऽत्मैवाभ्युपगतस्स्यादित्ये कान्तोच्छेदवादाभाव एव स्यात् । यद्वैकान्तोच्छेदपक्षे हिंस्य हिंसकभावस्याहिंस्याहिंसक भावस्य चाऽभावेन पुण्यपापयोरप्यभावात्तत्प्रयुक्त जन्माभावेन संसारो न सम्भवति, तथाहि - हिंस्य हिंसकयोस्स्थैर्य एवास्यायं हिंस्यः अस्य चायें हिंसक इति स्यात्, स्वरसत एव निरन्वयक्षण ध्वंसित्वे च कस्य केन हिंसा कृता स्यात्, कस्योपरि केन दया च कृता स्यात्, न च विसभागक्षणोत्पत्तिरेव हिंसेत्यपि वाच्यम्, सुगतस्याविच्छिन्नाक्लिष्टज्ञानसन्तानक्षणरूपत्वेन सन्तन्यमानतज्ज्ञानक्षणस्याप्यव्यवहितपूर्ववर्त्तित्वेन प्राक्तनव्याधक्षण इव तस्मिन्नपि मृगीयविसभागक्षणोत्पत्तिनिमित्तत्वस्याविशेषतस्सच्वेन व्याधवबुद्धस्यापि मृगघातकत्वापत्तेः न च विसभागक्षणजननानुकूला व्यवसायवच्चमेव हिंसेति बुद्धस्य तादृशाध्यवसायाभावेन नोक्तातिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, यो नरो मृत्वा नर एव भविता तद्विसायामव्याप्तेः, पूर्वापरनरक्षणस्य नरत्वेन सौसादृश्यात्, विसभागक्षणोत्पतेरेव तत्राभावेन तदनुकूलाध्यवसायाऽभावात् तत्पुरुषघातकस्याघातकत्वं स्यात् । न च विभागक्षणजननत्वावच्छिन्नविषयताका व्यवसायवस्त्रं सा, यः प्रेत्य नर एव भविता तद्धातक पुरुषस्याऽयं नरो प्रियतामितीच्छाया विसभागक्षणजननत्वावच्छिन्नविषयताकत्वेन तादृशेच्छालक्षणाध्यवसायवच्वमस्तीति नोक्ताव्याप्तिरिति वाच्यम्, रूपपरावृत्तिर्भवत्वित्याकारकरूपपरावर्त्तनादिक्रियाऽध्यवसायेऽतिव्याप्तेः न च तत्सन्तानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकविसभागताशा लिसन्तानान्तःपातिक्षण जननत्वावच्छिन्नविषयताशाल्यध्यवसायवचं सा तथा च रूपपरावृत्तिर्भवत्त्रितीच्छायां रूपान्तरोत्पच्या पूर्वसन्तानव्यक्तेरुत्तरसन्तानव्यक्ते
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सम्मति. काम , गा. १८ भैदेऽपि तदुभयव्यक्तौ तत्सन्तानत्वमनुगतमेवेति तत्र न तत्सन्तानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकमेदवत्सन्तानान्त:पातिव्यक्तिरूपत्वमिति विजातीयक्षणोत्पत्तिविषयताकाध्यवसायाभावानातिव्याप्तिरित्यपि वाच्यम् , इतो नरत्वं विहाय देवो भूयासमित्याद्याकारे दानदयाघध्यव. सायेऽतिप्रसङ्गात् , न च क्लिष्टाध्यवसाय एव क्लिष्ट कर्मक्षणहेतुत्वाद्धिंसा, अत एव मृगमव्यापादयन्नपि मृगं हन्मीति संक्लेशपरिणत: पापेन बध्यत इत्युक्तलक्षणघटकाध्यवसाये क्लिष्टत्वविशेषणानोक्तातिव्याप्तिरिति वाच्यम् , हिंसाविषयत्वातिरिक्तस्य क्लिष्टत्वस्य दुर्वचत्वेनात्माश्रयात्, सन्तानादेः सांवृत्तत्वेन पारमार्थिकस्याध्यवसायस्यैव चासिद्धः, आहार्यस्य च हिंसाहिंसाद्यध्यवसायस्य व्यवहारनिमित्तत्वेन कल्पितस्य सर्वलोकविगर्हितत्वेनोपहा. सपात्रतायाः पारमर्षे विस्तरेण प्रतिपादितत्त्वात् , यत्राहं न हन्मीत्यध्यवसायवतः पुंसो विवेकिनोऽनुपयोगवशाद् या हिंसा सञ्जाता तत्र तत्पुरुषस्य क्लिष्टाध्यवसायो नेति प्रमादशीलतत्कृतहिंसायामव्यालेश्च न किश्चिदेतदिति दिक् ॥ १७ ॥ एकान्तनित्यपक्षे एकान्ताऽनित्यपक्षे चान्यदूषणानि प्रतिपादयितुमाह
सुह-दुक्खसम्पओगो, ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि ।
एगंतुच्छेयम्मि य, सुह-दुक्खवियप्पणमजुत्तं ।। १८॥ ‘णिचवायपक्खम्मि' नित्यवादपक्षे द्रव्यास्तिकनयाभ्युपगते 'सुह-दुक्खसम्पओगो ण जुञ्जए' सुखम्-अनुकूलवेदनीयम् , अनुग्रहलक्षणं वा-अनुगृह्यतेऽनेनेत्यनुग्रहः, तल्लक्षणं तत्स्वभावमित्यर्थः । सुखं ह्यनुकूलस्वभावतया स्वविषयानुभवं कुर्वत्पुरुषमनुगृह्णाति । दुःखम्-उपघातलक्षणम् , उपहन्यतेऽनेनेत्युपघातस्तल्लक्षणं तत्स्वभावमित्यर्थः, दुःखमुपजातं प्रतिकलस्वभावतया स्त्रात्मविषयमनुभवं कुर्वदात्मानमुपहन्ति, ताभ्यां सहात्मनः सम्प्रयोगस्सम्बन्धो न युज्यते, न युक्ति सहते, यद्वा सम्प्रयोगः सम्-सम्यक् संगतो वा प्र-प्रकृष्टः योगः सम्बन्धः परमार्थभूतसम्बन्ध इति यावत , न युज्यते न घटते, तथाहि-द्रव्यार्थिकनयाभ्युपगते आत्मनो नित्यत्ववादपक्षे स्वाभिन्नगुणविशिष्टत्वमेवाऽऽत्मनः, न त्वात्माश्रिता आत्मद्रव्यभिन्ना गुणाः परमार्थभूताः, तन्मते गुणगुणिभावाभावात् , द्रव्यव्यतिरेकेण तेषामनुपलम्भात् , भिन्ना गुणा खल्वौपचारिकत्वेनासन्त एव, अत एवास्य मते चित्रे निम्नोभतप्रतीतिवत् द्रव्ये गुणप्रतीतिर्धान्तवाभ्युपगता, अत एव सामायिकमाश्रित्य
"इच्छइ जं दव्वनओ, दव्वं तचमुवयारओ य गुणे।
सामइअगुणविसिहो, तो जीवो तस्स सामाइयं ॥२६४४॥" इति भाष्योक्तं सङ्गच्छते, एतद्रव्यार्थिकन यमतमपि न युक्तम् , यतस्तत्र यथा सामायिकपरिणामस्वभावानन्यत्वाजीव एव सामायिकमित्युक्तम् , तथैवात्मनस्सुखस्वमावत्वे तस्याऽविचलितरूपत्वात् सदा सुखरूपतैवेति तस्य न दुःखसम्प्रयोगः, कदापि दुःखस्यानुत्पत्तेः।
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सम्मति० कान्ड , गा १८ दुःखस्वभावत्वे तद्रूपतैव स्यात् नित्यतत्स्वभावत्वादेवेति न सुखसम्प्रयोगः, कमिश्चिदपि काले सुखस्यानुत्पत्तेः । कदाचित्सुखस्वभावः कदाचिच दुःखस्वभाव इत्यभ्युपगमे तु यद्वा स्थूलैककालावच्छिन्नसुखदुःखोमयस्त्रमाव आत्मेत्यभ्युपगमे तु तस्यानित्यत्वं स्यात् , विरुद्धस्वभावशालित्वेन भेदादिति । ननु द्रव्यार्थिकनयावान्तरभेदरूपनगमनये गुणगुणिनोमेंदमभ्युपगन्तरि द्रव्यस्य गुणादिसमवायिकारणत्वात् सुखस्यानुकूलवेदनीयत्वेन सचन्दनवनिताद्यनुकूलविषयजन्यसुखकाले आत्मनस्सुख सम्प्रयोगः, दुःखस्य च प्रतिकूलवेदनीयत्वेनाहिकण्टकादिप्रतिकूलविषयजन्यदुःखकाले तस्य दुःखसम्प्रयोगच युज्यत एवेति चेत्, मैवम् , न हि पूर्व निर्गुणं द्रव्यमुत्पद्यते पश्चात्तेन तत्र गुणोत्पत्तिरित्यनुभूयते, येनोक्तलक्षणसिद्धिस्स्यात् , समवायसम्बन्धस्यासिद्धेश्च न समवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणत्वलक्षणं समवायिकारणत्वं सम्भवति, समवायासिद्धिश्च तत्साधकप्रमाणाभावात् , न च प्रत्यक्षं समवायसाधकम् , सम्बन्धप्रत्यक्षे यावत्सम्बन्धि. प्रत्यक्षस्य कारणत्वेन परमावादीनामतीन्द्रियाणामपि यावत्सम्बन्ध्यन्तर्गतत्वेन तत्प्रत्यक्षा. भावात् समवायस्यापि प्रत्यक्षाऽसम्भवात् , अत एव समायो न प्रत्यक्ष इति वैशेषिकस्या प्यम्युपगमः। नाप्यनुमानं समवायसाधकम् , समवायस्याऽप्रत्यक्षे तेन सह कस्यचिद्धेतोव्योतिग्रहणाऽसम्भवेन तत्प्रभवानुमानाऽसम्भवात् । न च सामान्यतो दृष्टानुमानं तत्साध. कम् , तथाहि-गुणक्रियादिविशिष्टबुद्धिः विशेषणविशेष्यसम्बन्धविषया विशिष्टबुद्धित्वात् दण्डी पुरुष इति विशिष्टबुद्धिवन, अनेन संयोगादिवाधात्समवायसिद्धिरिति वाच्यम् , अतिरिक्तसमवायकल्पनापेक्षया क्लप्तस्यैव प्रतियोग्यनुयोगिस्वरूपस्य सम्बन्धतया कल्पनायां लाघवात्तत्र निरुक्तविशिष्टबुद्धिविषयत्वकल्पनौचित्यात् , धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पनाया लघीयस्त्वात् । न चाने केषु स्वरूपेषु सम्बन्धत्वकल्पनापेक्षयाऽतिरिक्तसमवायसम्बन्धकल्पने लापवमिति वाच्यम् , अतिरिक्तसमवाये समवायत्वं क्लप्तपदार्थभेदः, तद्भेदश्च क्लप्तपदार्थेषु नित्यत्वादिधर्मसम्बन्धश्च तस्य कल्पनीय इत्येवं पर्यालोचनया तत्रैव गौरवस्य स्पष्टत्वात् । एवं जातेरेकस्या व्यक्तिषु विशिष्टबुद्धौ जातिस्वरूपस्यैकस्यैव सम्बन्धत्वेन भानकल्पने लाघवमिति न जातेयक्तिषु भवद्युक्त्याऽपि समवायसिद्धिः। तथा च समवायाऽभावेन तद्घटितसुखदुःखसमवायिकारणत्वस्याऽप्यात्मनोऽभावानोक्तं युक्तमिति । एतेन-"प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे स्तः।
स्फटिके रक्तत्वादिवद् बुद्धिप्रतिविम्याद्वाऽन्ये ॥१॥” इति ।। साङ्ख्यमतमपि निरस्तम् , उपधानसनिघावप्यन्धोपले रक्तादि यथा न भवति तथाऽऽत्मनः परमार्थवृत्त्या सुखदुःखपरिणतिमन्तरेणोपधानसनिधावपि सुखदुःखरूपता न स्यात् , तदभ्युपगमे चाऽनित्यसुखदुःखाऽभिन्नतयाऽऽत्मनोऽप्यनित्यत्वापच्या आत्मैकान्त.
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सम्मति• काण्ड १, गा० १८
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नित्यत्वस्य स्वाभ्युपगतस्य क्षतिः, ननु श्वेताच्छस्फटिके रक्तताया अभावेऽपि जपाकुसुमोपाधिमन्निधानेन रक्ततावदात्मनि सुखदुःखरूपताया अभावेऽपि प्रकृत्युपाधिवशात् सा स्यादेवेति चेत्, तर्हि तद्वत्सा काल्पनिकी स्यात् न तु तच्चभूतेति । बुद्धिप्रतिबिम्बपक्षेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकस्वभावत्वात् सदैवैकरूपप्रतिविम्बापचेः, स्वभावभेश
"
पगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । तथा च सुखदुःखसम्प्रयोगं वास्तविकमिच्छता सुखरूपेण परिणामे सति परिणामपरिणामिनोः कथञ्चिदभेदात्कथञ्चित्सुखात्मक एवात्मेत्यभ्युपगन्तव्यम्, एवं दुःखपरिणामेऽपीति परिणाममेदेन तद्विशिष्टस्यापि भेदेन स्वरूपतोऽभिन्नस्याप्यात्मनो मेद इति कथञ्चिद्भेदाभेदवाद एव प्रमाणभावं भजत इति । तथा 'एगन्तुच्छेयम्मिय' एकान्तेन सर्वथा ' उत् ' - प्राबल्येन छेदे विनाशे, निरन्वयनाशपक्षे इति यात्रत्, चकारात् " सुहदुहसंपओगो न जुज्जह इत्यनेनास्य सम्बन्धः । एकान्तोच्छेदवादः पर्यायार्थिकनयेनाभ्युपगतः, तथाहि - तन्मते पर्याय एवार्थः परमार्थभूतः, न तु पर्यायेभ्यो व्यतिरिक्तं द्रव्यम्, तस्य पूर्वापरपर्यायेषूपचाराद्वयवाहियमाणत्वात् यस्माद् जीवस्य गुण इत्यभेदार्थ कषष्ठीतत्पुरुषसमासं सोऽभिमनुते स चोत्तरपदार्थप्रधानः, यथा तैलस्य धारा तैलधारा राहोश्शिरा राहुशिरः, न चात्र धारातिरिक्तं किमपि तैलमस्ति, न च शिरोऽतिरिक्तो राहुश्वास्ति, एवं ज्ञानसुखादिगुणातिरिक्तं जीवद्रव्यमपि नास्ति । तदुक्तं भाष्ये सामायिकगुणमाश्रित्य -
" पज्जाओ चित्र वत्थं, तचं दव्वं च तदुवयाराओ ।
पजवणग्रस्त जम्हा, सामहअं तेण पज्जाओ ।। २६४५ ।। " इति ।
तथा च यथा सर्वप्रमाणग्रहणाभावात् रूपरसगन्धस्पर्शेभ्यो भिन्नो घटो नास्ति तथैकान्तोच्छेदपक्ष उत्पादव्ययशालित्वेन प्रतिक्षणमिन्नेभ्यो ज्ञानसुखदुःखादिभ्यो भिन्नस्थिर आत्मैव नास्तीति कस्य सुखदुःखयम्प्रयोगः । न ह्यविद्यमाने गगनारविन्दे घटसम्बन्धस्सम्भवतीति । तथा पक्षद्वयेऽपि सुह- दुक्खवियध्पणमजुत्तं ' सुखदुःखत्रिकल्पनम्, सुखञ्च दुःखश्च सुखदुःखे तयोर्विकल्पनम् विशिष्टं कल्पनम् यतनम्, 'क्लप् सामर्थ्ये ' इति वचनात् सामर्थ्यार्थिकस्याऽपि क्लपधातोस्त्र यतनार्थकत्वात् धातूनामनेकार्थत्वात् सुखदुःखविषयक विशिष्टं यतनमिति समस्तार्थः तच्च यतनं सुखे तदुपादानाय दुःखे तु तत्परिहाराय बोध्यम्, सुखोपादान दुःख परित्यागरूपनिमित्तमन्तरेण सुखदुःख विषयक यत्नस्य कस्यापि सचेतसोऽभावात् सुखदुःखविकल्पनम् अयुक्तम् अघटमानकम् | यतो नित्यवादपक्षे आत्मा सुखस्वभावो यदि तदा तत्स्वभावस्य कदाचित्सत्त्वं कदाचिच्चाऽसच्वमित्यभ्युपगमेऽनित्यत्वप्रसक्त्या नित्यपक्षः परित्यक्तस्स्यादिति सर्वदा
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सम्मति० काण्ड १ ० १९
सत्स्वभावस्य सद्भावात् सुखमुद्दिश्य तत्साधनोपादानानुकूलप्रवृत्तिरयुक्ता, को हि सुधीर्विद्य मानमेव पदार्थ विज्ञाय तत्साधनोपादानार्थं प्रवर्त्तेत ? दुःखस्वभावो यदि तदा तत्स्वभावस्य पूर्ववच्छश्वद्भावाद् दुःखवियोगार्थं दुःखसाधन परिहारानुकूलप्रवृत्तिरयुक्ता, को हि सुधीर्दुःखशश्वद्भावं विज्ञाता दुःखवियोगाथ तत्साधन परिहाराय प्रवर्त्तेत । एकान्तोच्छेदपक्षेऽपि सुखस्योत्पादव्ययशालित्वेन प्रतिक्षणभिन्नतया कः क्षणिकसुखार्थं तत्साधनमुपाददीत, किञ्च सुखसाधनोपादाता सोऽन्य एव सुखभोक्ता चान्य एवेति जानन् कस्सुखसाधनार्थं प्रयतेत, अथ तत्सन्तानैक्यमिति चेत्, तदपि न युक्तम्, एकान्तोच्छेदपक्षे सन्तानस्यापि काल्पनिकत्वात् । दुःखमपि क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनाशशीलमिति जानन् तद्वियोगार्थं तत्साधनपरित्यागोद्यमं कः कुर्यादिति ।। १८ ।।
अथ दुःखरूपे दुःखफले दुःखानुबन्धिनि विडम्बनारूपे दीर्घाध्वेऽनवदग्रे नरकादिगतिविभागेन चतुर्विभागे संसारचक्रे अरहदुष्टीयन्त्रन्यायेन महाशैलूषोपमकर्मवशेनैव पर्याटत् पर्यटति पर्यटिष्यति चात्मा, नानाविधगतिपर्यटनकारणीभूतनानाविधकर्म च योगादितत्तनिमित्तमालम्ब्यैव तत्तत्परिणतिशीलात्मनैव बध्यते, कर्मणा च कार्मणकाययोगाद्याहृतौदारिकादिपुद्गलैश्शरीरं निर्वर्त्यते, तद्वारा च शाताऽज्ञातावेदनीय कर्मोदयवशवर्यात्मा सुखं दुःखश्वानुभवतीत्यात्मसुख दुःखोपभोगसाधनशरीरेण सहात्मनो दुग्धपानीय सम्बन्धवत् तप्तायोगोलका सिम्बन्धवद्वा योऽन्योन्यानुगमात्मकस्सम्बन्धस्तद्धेतुभूतकर्मनिमित्तयोगकषायाद्यसम्भवमेकान्ताविकार्यात्मपक्षे एकान्तोच्छिन्नात्मपक्षे च प्रदर्शयितुमाह---
कम्मं जोगनिमित्तं, बज्झइ बंध-ट्ठिई कसायवसा । अपरिणउच्छिष्णेय, बंधद्विकारणं नत्थि ॥ १९ ॥
प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध भयात्मकं कर्म मनोयोगवचोयोग काय योगरूपनिमित्तमासाद्य बध्यते, रसबन्धस्थितिबन्धोभयं च कषायवशाद्भवति, न चैतदुभयमेकान्तापरिणतवादे द्रव्याथिंकनयाभ्युपगते एकान्तोच्छिन्नवादे च पर्यायार्थिकनयाभ्युपगते सङ्गच्छते, कर्मबन्धतत्स्थितिकारणाभावादिति संक्षिप्तार्थः । अवयवार्थस्त्वेवं- "कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ " कर्म योगनिमित्तं बध्यते, नन्वनेन योगस्य कर्मबन्धं प्रति निमित्तत्वमुक्तं भवति, तच न सङ्गतम्, मिथ्यादर्शना - विरति -प्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः ८- १ | इति तस्वार्थसूत्रेण मिथ्यात्वाविरत्वादीनामपि कर्मबन्धहेतुत्वाऽभिधानादिति चेत्, सत्यम्, न च युक्तम्, भावार्थाऽनवबोधात्, तथाहि - " एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियमः " इत्युक्तसूत्रभाष्य एव प्रोक्तम्, तथा च यस्य येन सहान्वयव्यतिरेको भवतस्तत्तस्थ कारणमिति कारणत्वग्रहोऽन्वयव्यतिरेकग्रहतो भवतीति मिथ्यादर्शनस्याविरतेश्च प्रमा
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सम्पति० काण्ड १, गा० १९
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दस्य च कषायस्य च तत्तद्गुणस्थानकेषु सर्वे कर्मबन्धसस्त्रमित्यन्वय सद्भावेऽपि मिथ्यादर्शनाभावेऽपि द्वितीयादिपञ्चम गुणस्थानकं यावदविरस्यादिभिः, अविरत्यमावेऽपि च षष्ठगुणस्थान के प्रमादादिभिः प्रमादाभावेऽपि च सप्तमादिगुणस्थान केषु कषाययोगाभ्यां, कषायाभावेऽपि चैकादशादित्रयोदशान्तगुणस्थानकेषु योगमात्रतः कर्मबन्धस्य सद्भावेन व्यतिरेकस्याभावादेव तद्ब्रहाभावेन मिध्यादर्शनादीनां कर्मबन्धनियतकारणत्वग्रहो न भवति, योगस्य सद्भावे कर्मबन्धस्त्रयोदशगुणस्थानकान्तं यावदवश्यंभावी, योगाभावे चाऽयोगिगुणस्थान के कर्मबन्धाभाव इत्येवमन्वयव्यतिरेकग्रहाद् योगस्य च कर्मबन्धनियत कारणत्वग्रहो भवतीति नियमेन योग एव सर्वत्र कर्मबन्धकारणम् । अत एव -
"
" कम्मं जोगनिमित्तं, सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि । होज न उ उभयरूवो, कम्मंपि तओ तयणुरुवं ॥ १९३५ ॥ "
इति विशेषावश्यक माध्यगाथाटीकायां "मिथ्यात्वा विरति -प्रमाद - कषाय-योगा बन्धहेतवः" इति पर्यन्ते योगाभिधानात्सर्वत्र कर्मबन्धहेतुत्वस्य योगाऽविनाभावाद् योगानामेत्र बन्धहेतुत्वमिति " कर्म योगनिमित्तमुच्यते " इत्युक्तं सङ्गच्छते । तथा च सिद्धमेतद् योगः कर्मबन्धकारणमिति । क्रियते विधीयते अञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्रकवभिरन्तरपुद्गलनिचिते लोके क्षीरनीरन्यायेन तप्तत्रयःपिण्डवद्वा यत्कर्म वर्गणाद्रव्यं स्वात्मसम्बद्धं जीवेन तत्कर्म, कर्मपदमत्र प्रकृतिबन्धप्रदेशवन्धपरम्, " जोगा पयडिपएसं " इति वचनात्, तदात्मकं तद् योगनिमित्तम्
" जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चिट्ठा । सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पजाया ॥ १ ॥
"?
इति वचनाद्वीर्याद्यपरपर्यायो योगो मनोयोगो वाग्योगः काययोग इति मेदेन त्रिविधः, स निमित्तं हेतुर्यस्य तद्योगनिमित्तं बध्यते आदीयते । अयम्भावः-
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'एग परसोगाढं, सव्वपरसेहिं कम्मुणो जोग्गं । बंध जहुत्तहेउं, साइयमणाइयं वा वि ॥ १ ॥ "
इत्युक्तेः आत्मा येष्वाकाशप्रदेशेष्वव गाढस्तदवगाढैकसमयबन्धनीयानन्तपुद्गलस्कन्धास्मक कर्म योगनिमित्तेन स्वीयसर्वप्रदेशः न तु कतिपयप्रदेशैर्बध्नाति । यदाह
" कृत्स्नै देशैः स्वकदे - शस्थं रागादिपरिणतो योग्यम् ।
नाति योगहेतोः कर्म स्नेहाक्त इव च मलम् ॥ १ ॥ " इति ।
"
तथाहि – हस्तादिप्रत्येकावयवावच्छेदेनात्मना शुभाशुभक्रियाकरणेऽपि न तद्द्द्वारा
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सम्मति काण्ड १, गा० १५
हस्ताद्यवच्छिन्नात्मप्रदेशैरेवात्मा कर्मयोग्यपुद्गलान् कर्मवर्गणागतानवगृह्णाति, किन्तु स्वीयसर्वप्रदेशैरेव, शृङ्खलाबद्धन्यायेन पद्मनालतन्तुवद्वा सर्वात्मप्रदेशानां मिथस्सम्बन्धसद्भावात्, हस्ताद्यवच्छिन्नात्म प्रदेशानां प्राधान्येन व्यापारेऽपि तदितरप्रदेशानामपि गौणवृत्या व्यापारभावात्, अत एवात्मैव स्वकृतकर्मणा संसरति मुच्यते च । एतेन " तस्माद्-न बध्यते ना-पि मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।। १ ।। ' इति सामयमतमपि निरस्तम् । " बंधट्टिई कसायवसा" बन्धस्थितिः कषायवशात्, बध्यत इति बन्धः, कर्मैव तस्य स्थितिः कालान्तरफलदातृत्वेनात्मन्यवस्थितिः, स्थितिपदेनात्र रसबन्धाविनाभावित्वेन स्थितिबन्धस्य रसबन्धस्थितिबन्धों ग्राह्यौ, तथा च तदुभयं कषायवशात् कषायाः क्रोधमानमाया लोभाख्यास्तदुदय जनितो जीवस्याध्यवसायविशेषः कषायशब्देनेोच्यते, तद्वशात् तत्सामर्थ्यात् भवतीति शेषः, यदुक्तम्- 'ठिइअणुभागं कसायाओ ति ' । अत एवान्यत्रापि " मिध्यात्वाविरतिकारणद्वयाऽभावेऽपि कषाय सद्भावात् प्रमत्तादिषु स्थित्यनुभागबन्धौ भवतः कषायाभावे तूपशान्तमोहादिषु न भवत इतीहाष्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते कषाया एव स्थित्यनुभागबन्धयोः प्रधानं कारणम् इत्युक्तं सङ्गच्छते । ननु कर्म सिद्धं स्यात्तदेवैतदुपपन्नं स्यात्, न चाद्यापि तत्सिद्धम्, यतस्तस्यातीन्द्रियत्वान्न तत्साधकं प्रत्यक्षप्रमाणं विद्यते, नाप्यनुमानं तत्साधकम् तस्य प्रत्यक्षागोचरत्वात्तेन सह कस्यचिद्धेतोर्व्याप्तिग्रहणासम्भवेन तत्प्रभवानुमानासम्भवादिति चेत्, मैवम् कर्मणि सुखदुःखहेतौ परस्याप्यविप्रतिपत्तेः तथाहि - पौराणिका अपि कर्मसिद्धिं प्रतिपद्यन्ते । तथा च ते प्राहु:
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१०८
-
बौद्धा अध्याहु:
"
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यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्त्तते ॥ १ ॥ यच पुराकृतं कर्म, न स्मरन्तीह मानवाः । तदिदं पाण्डवज्येष्ठ ! दैवमित्यभिधीयते ॥ २ ॥ मुदितान्यपि मित्राणि, सुक्रुद्धाश्चैव शत्रवः । नहीमे तत्करिष्यन्ति यन्न पूर्वं कृतं त्वया ॥ ३ ॥ "
""
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इत एकनवते कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः || ४ || " इति
"
तथापि चेत् कोsपि परो विप्रतिपद्येत तदा तत्साधकमनुमानप्रमाणं प्रदर्श्यते, तथाहिस्वपरावभासिज्ञानैकस्वभावस्यात्मनो हीनगर्भस्थानशरीरविषयेषु विशिष्टाभिरतिः, आत्म
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सम्मति. काण्ड 1, गा० १९ शरीरोमयल्यतिरिक्तकारणपूर्विका विशिष्टाभिरतित्वात् कुत्सितपरपुरुषे कमनीयकुलकामिन्या. स्तन्त्रौषधमन्त्राद्युपयोगजनितविशिष्टाभिरतिवत् , तथा भवभृतां मोहोदयः शरीरादिव्यतिरिक्तसम्बन्ध्यन्तरपूर्वको मोहोदयत्वात् , मदिराापयोगमत्तस्यात्मगृहादौ मोहोदयवत् , यच्च तद्व्यतिरिक्तं तदेव कति सिद्ध्यति परिशेषानुमानेन, परिशेषानुमानश्चात्र स्वपरावभासिज्ञानकस्वभावस्यात्मनो हीनगर्भस्थानशरीरविषयेषु विशिष्टाभिरतेरसाधारणकारणमदृष्टं कर्मैव भवति आत्मशारीरादिदृष्टामाधारणकारणाजन्यविशिष्टाभिरतिकारणत्वात् , यनैवं तन्वं यथाऽऽस्मादि, तथा भवभृतां मोहोदयस्यासाधारणकारणमदृष्टं कर्मैव भवति शरीरादिदृष्टसम्बन्ध्यात्मकासाधारणकारणाजन्यमोहोदयकारणत्वाद, यवं तवं यथा शरीरादीति, ननु भवत्वनेन सामान्यत आत्मसम्बन्धिनः कर्मणस्सिद्धिः, तस्य पौद्गलिकस्वसाधने कि मानमिति चेत् , उच्यते , तत्साधकं सामान्यतो दृष्टानुमानमेवेति, तथाहि-- स्वपरज्ञस्वभावस्यात्मनो हीनमातगर्भस्थानप्रवेशः स्वातिरिक्तद्रव्यसम्बन्धपूर्वकः पुरुषान्तराऽप्रयोज्यत्वे सति हीनस्थानप्रवेशत्वात् , मदिरोन्मादोन्मत्तपुरुषस्याशुचिस्थानप्रवेशवदित्यनुमानेन तथा जगदन्तर्गताशेषपर्यायविशिष्टाऽपरिशेषद्रव्यग्रहणक्षमज्ञाननिष्ठस्वविषया. ग्राहकत्वं विशिष्टद्रव्यसम्बन्धपूर्वक तव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्वविषयाग्राहकत्वत्वात् तद. भावप्रयुक्ताभारप्रतियोगित्वाच्च, पीतमधादिपुरुषज्ञाननिष्ठस्वविषयाऽग्राहकत्ववदित्यनुमानेन विशिष्टद्रव्यसम्बन्धपूर्वकत्वसिद्धौ धूमहेतोः पर्वते वह्नित्वेन वह्रिसिद्धौ महानसीयादिवहिबाधात्पक्षधर्मताबलाद्वा पर्वतीयवसिसिद्धिवत्प्रकृतेऽन्यद्रव्यस्य बाधात्पक्षधर्मताबलाद्वा द्रव्य. विशेषस्यैव सिद्धिः, स एव च कर्मसञ्ज्ञां भजते इति ।
ननु कर्मणो द्रव्यविशेषरूपत्वसाधनं न युक्तम् , तस्यादृष्टापरसज्ञकस्यात्मगुणत्वादिति चेत् , मैवम् , तथा सति कर्मण आत्मपारतन्त्र्यनिमित्तत्वं न स्यात् , यो हि यस्य गुणः स न तस्य पारतन्त्र्यहेतुः, यथा रूपादिः पृथिव्यादेः, आत्मगुणश्च धर्माधर्मसञ्जकं कर्माभ्युपगम्यते परैरिति न तदात्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तं स्यादिति प्रसङ्गः, आत्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तश्च कर्म, तस्मान्न तद्गुण इति विपर्ययः। नन्वात्मनः पास्तव्ये किं मानमिति चेत्, उच्यते, परतन्त्रोऽसौ हीनस्थानपरिग्रहवच्चात् , यथा पीतमदिरोन्मत्तपुरुषोऽशुचिस्थानपरिग्रहवानिति परतन्त्रस्तथाऽयमात्माऽपीत्यनुमानमेव मानम् । शरीरस्य हीनस्थानत्वं तु कारागारवदात्मनो दुःखहेतुत्वाद् ज्ञेयम् , संसात्मनश्च तत्परिग्रहवत्वं सुप्रतीतमेवेति नासिद्धो हेतुः, कर्मणः पारतन्त्र्यनिमित्तच्चे सिद्ध कर्म पौगलिकम् , आत्मनः पारतन्यनिमित्तत्वात् , निगडादिवदित्यनुमान प्रभत्रति पौगलिकत्वसाधनाय, कर्मणोऽमूर्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मना. मनुग्रहोपघातौ न स्याताम् , आकाशवत् , उक्तयुक्त्या सिद्धे च पौद्गलिकत्वे कर्म द्रव्यात्मकमेव, न त्वात्मीयादृष्टगुणाख्यमिति सिद्धम् । नित्यत्वेनैकान्ताविकार्यात्मपक्षे अनित्यत्वेनैकान्तः
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सम्मति • कान्ड १ ० १९
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प्रतिक्षणविश्वरात्मपक्षे च योगनिमित्तककर्मबन्धः कषायहेतुकबन्धस्थितिरित्युभयासम्भवे हेतुपदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह - 'अपरिणउच्छिष्णेसु य बंधहिकारणं नस्थि' अपरिणतोच्छिनयोथ बन्धस्थितिकारणं नास्ति, अपरिणते केनचित् परिणामेनापरिणामिनि कञ्चित्परिणाममप्राप्तवति द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेनाभ्युपगते आत्मनि, उच्छिन्ने विनष्टसत्ताके निरन्वयप्रतिक्षणविनाशित्वेन क्षणिके पर्यायार्थिकनयेनानित्यतयाऽभ्युपगते आत्मनि, बन्धस्थितिकारणं नास्ति, अपरिणामिनि अत्यन्ताऽनाधेयातिशये नित्यात्मनि प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्धकारणानां योगानां सम्भवो नास्त्येव, सम्भवे वा योगानां सर्वात्मप्रदेश परिस्पन्दरूपत्वेन तत्तद्योगपरिणामेनात्मनसक्रियत्वापच्या कथञ्चिदनित्यत्वं स्यात्, एकान्तोच्छिन्नात्मपक्षेsपि येनात्मना यत्कर्मनिमित्तं योगः कृतस्तेनात्मना तत्कर्म न बध्यते, किन्त्वन्येन, कर्मबन्धकालेऽन्यत्वात् तथा च यो हिंसादिकरणार्थं काययोगादि प्रयुङ्क्ते स एव कर्मकर्तेति व्यवहारोच्छेदस्स्यात् न च स व्यवहारो भ्रान्त एवेति वाच्यम्, सर्वैरविगानेन प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् । न च सन्तत्यैव निर्वास्स इति वाच्यम्, सन्ततेस्तन्मते काल्पनिकत्वेन यथार्थव्यवहाराऽनिर्वाहकत्वात् । एवमविकार्ये नित्यात्मनि स्थितिबन्धानुभागबन्धकारणकषायोदयजन्यरागद्वेषाद्यव्यवसाया अपि न सम्भवन्ति तेषां सम्भवे वाऽध्यवसायस्थानानामसङ्ख्येयत्वेन तद्रूपेण परिणतस्यात्मनः परिणामपरिणामिनोः कथञ्चिदभेदेनानेकत्वं स्यात् नाप्येकान्तानित्यात्मनि अनुसन्धानविकले अहमनेन सन्तुष्टः अहमनेनाऽक्रुष्ट इति रागद्वेषाध्यवसायसम्भवः, तथा च ' अन्यो जुष्टः, अन्यः सन्तुष्टः, अन्य आक्रुष्टः, अन्यो रुष्टः, अन्यो व्यापृतः, अपरो बद्धः, अपरच मुक्त इति कुशला कुशल कर्मगोचरप्रवृत्याद्यारम्भवैफल्यप्रसङ्गः, न चैकसन्ततिनिमित्तोऽयं व्यवहारः, क्षणिकान्तपक्षे सन्ततिकल्पनाबीजभूतोपादानोपादेयभावस्यैवाऽ घटमानत्वात् । न चेयमनुसन्धान प्रतिपत्तिर्मिथ्या, द्वेष - गर्व - शाख्यामन्तोषादीनामन्योन्यविरुद्धस्वभावानां क्रमिकचिद्विवर्त्तानां स्वसंवेदनाध्यक्ष सिद्धानां तत्तद्रूपेणाऽनुभवितुः संशयविपर्यास बाधकज्ञानाऽगोचरीकृतस्यैकस्य चेतनस्यानुभवात् । न च बाधारहितानुभवविषयस्थापह्नवः, सुखादेरप्यनुभवविषयस्यापहुतिप्रसङ्गात्, तथा च प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । यदपि " मिथ्याऽध्यारोपहानार्थं यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि " इत्युक्तम्, तदप्यनेनैव प्रतिविहितम्, यथोक्तप्रतिपत्तेर्मिध्यात्वाऽसिद्धेः । न चानुमाननिश्चितेऽर्थे आरोपबुद्धेरुत्पत्तिः, धूमनिश्रयावगतधूमध्वज इव, न च मिथ्याज्ञानस्य सहजत्वाद विपरीतार्थोप स्थापकानुमानप्रवृत्तावपि न निवृत्तिः, तथाऽभ्युपगमे बुद्धानुपप्लवचित्तसन्ततिवत्तस्य सर्वदाऽनिवृत्तिरित्यमुक्तिप्रसक्तिः, असहजं तु तत्त्वज्ञानप्रादुर्भावेऽवश्यं निवर्त्तते, शुक्तिकाम मे रजतभ्रम इव, अनिवृत्तौ वा न प्रमाणमप्रमाणबाधकं स्यात् । न च क्षणक्षयनिश्रये 'स एवाहम्' इति प्रत्ययो युक्तः, अपि तु ' स इव' इति स्यात्, नहि गवयनिश्चये 'गौरव' इति प्रत्ययो दृष्टः, अपि तु ' गौरिख ' इति । न च क्रमवर्त्तिष्वभिष्वङ्गद्वेषादिपर्यायेषु चैत
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सम्मति• काण्ड १, गा.. न्यानुस्यूतिप्रत्ययस्य मानसविकल्पवानानुगतवस्तुमाधकत्वमिति वाच्यम् , आत्मनि क्षणक्षयमनुमानाद् निश्चिन्वतोऽपि तदेव तस्य स्पष्टमनुभूयमानत्वात् , विकल्पद्वयस्य युगपदुत्पत्तिः परर्नेष्टेति विकल्परूपत्वे एकत्वप्रत्ययस्य क्षणिकत्वनिश्चयसमये सद्भावो न भवेद, भवति च क्रमवर्तिष्वभिष्वङ्ग-द्वेषादिपर्यायेषु चैतन्यानुस्यूतिप्रत्यय इति तस्य विकल्पकालीनोत्पत्तिमत्त्वेनाश्वविकल्पकाले गोदर्शनवत् पराभिप्रायेण निर्विकल्पप्रत्यक्षरूपतया तेन क्रमवर्तिपर्यायेष्वनुगतद्रव्यस्य सिद्धिः, अस्मन्मते तु यथार्थमानमविकल्पस्यानुगतवस्तु. साधकत्वमस्त्येव । तदेवमेकान्तनित्यानित्यव्युदासेनोभयपक्ष एव बन्धस्थितिकारणं युक्ति. सङ्गतमिति सिद्धम् ॥ १९ ।।
किश्च एकान्तवादिनां संसारनिवृत्यर्थं प्रवृत्तिर्मोक्षसुखप्रार्थना मोक्षश्वेत्येतत्सर्व नोपपद्यत इत्युपदर्शयितुमाह
बन्धम्मि अपूरन्ते, संसारभयोघदसणं मोझं।
बन्धं च विणा मोक्ख-सुहपत्थणा नत्थि मोक्खो य ॥ २० ॥ अपरिणामवादात्मके एकान्तवादे कारणीभूतमिथ्यात्वादिपरिणत्यभावात्तत्कार्यस्य बन्धस्याभावे संसारमयप्राचुर्यपर्यालोचनं मिथ्याज्ञानम् अनुपपद्यमानसंसारदुःखभयौषविषय. कत्वात् , तथा यः पूर्व बद्धस्स एव पश्चान्मुच्यते नाबद्ध इति वन्धं विना तन्मुत्यमावान्मोक्षसुखं मे भवत्विति प्रार्थनान घटते, अत एव मोक्षश्चानुपपन्न इति सहितार्थः । विस्तरार्थस्त्वे. वम्-'बन्धम्मि अपूरन्ते' एकान्तवादे आत्मनो मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपनानाविधपरिणतिस्वीकारेऽनेकान्तवाददाढर्थापत्तेस्स्वपक्षक्षतिरिति तत्र मिथ्यात्वादिकारणानुपपत्या बन्धे कर्मवन्धे अपूर्यमाणे अपूर्णमा गते लक्षणयाऽसतीति यावत् "संसारभयोपदसणं मोड्ड" संसारभयौघदर्शनं मौढयम्-संसारे अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन चतुर्गतिषु जन्ममृत्युभावेन पुन: पुनस्संसृतिलक्षणे संसारे, यद्वा कारणे कार्योपचारवृत्त्या संमारशब्दबोध्ये तत्कारणे मिथ्यास्वाविरतिकषाययोगात्मके वा भयोघो भीतिप्राचुर्य तस्य दर्शनम् चतुर्गत्यात्मके संसारे पर्यटनमनन्तदुःखव्याप्तमेव, न तत्र किमपि परमार्थवृत्त्या सुखम् , मधुलिप्तखङ्गलेहनवद् वाह्य. वृपया यस्किमपि सुखं दृश्यते तस्याप्यायत्यामनन्तदुःखप्रदत्वेन दुःखरूपत्वादिति पर्यालोचनं लक्षणया संसारशम्दबोध्यमिथ्यात्वादिकमनन्तदुःखखनिसंसारकारागारनिवासमूलभूततया सर्वमहाऽनर्थकारणमिति पर्यालोचनं च मौढथं मूढता मिथ्याज्ञानमिति यावत्, अनुपपद्यमानसंसारदुःखौषविषयकत्वात् , वन्ध्यासुतजनितबाधागोचरभीतिविषयपर्यालोचनवत् ।। अयम्भाव:-वन्ध्यासुतोऽसनिति तेन दुःखौघभयं नोत्पद्यत इति तद्विषयकपर्यालोचनं वन्ध्यासुतोत्थदुःखौघाद् विभेमीत्याकारकं मिथ्याज्ञानं यथा तथैकान्तपक्षेऽपरिणामवादात्मकेऽप्युतनीत्या कर्मबन्धाऽसिद्धेस्तजन्यसंसारस्यापि तत्कारणमिथ्यात्वादेश्वासिद्धिरेवेति तेनासिद्धेन
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दुःखौषभयं नोत्पद्यत एवेति तत्पर्यालोचनमनुपपद्यमानार्थविषयकत्वान्मिथ्याज्ञानमिति तत्पूर्विका प्रवृत्तिर्विसंवादिन्येव । दूषणान्तरं प्रदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह- " बन्धं च विणा मोक्ख सुहपत्थणा नत्थि मोक्खो य चः दूषणान्तरसमुच्चये, बन्धं विना मोक्षः - संसारनिवृत्ति - स्तत्प्रभवं यदनन्तसुखं तत्प्रार्थना नास्ति, न भवत्येव, एकान्तवादे कर्मबन्धाभावेन संसारानुपपत्तौ तन्निवृत्तिलक्षणमोक्षस्याप्यनुपपत्तेस्तत्सुखप्रार्थना नोपपद्यते, तथा मोक्षश्र अस्य नास्तीत्यनेनान्वयान्नास्ति, अनुपपन्नः चः समुच्चये, यथा निरपराधपुरुषस्य नैव बन्धनमिति न तन्मोक्षः, मुचेर्बन्धन विश्लेषार्थकत्वेन मोक्षस्य बन्धपूर्वकत्वात् तादभावे तदभावात् तद्वदेकान्तवादे आत्मनः कर्मबन्धाभावेन न तस्य तनिवृत्तिलक्षणो मोक्षः, अबद्धस्य मोक्षासम्भवात्, बन्धाभावश्च योगकषाययोः प्रकृति--प्रदेश-स्थित्यनुभागात्मकबन्धहेत्वोरेकान्तपक्षे विरुद्धत्वेनैकत्रात्मन्यसम्भवात्, सम्भवे वा विरुद्ध परिणतिस्त्र भावभेदेनेकस्याप्यात्मनो भेदस्स्यात्, ननु मायाया अज्ञानपदवाच्याया विकाररूपस्य चेतनाचेतनात्मकजगतो ब्रह्मविवर्त्त रूपत्वेन तन्मूलभूतं ब्रह्मैव तात्रिकं, सर्वत्रानुगतरूपत्वात् स्थासकोशाद्यनुगतमृद्रव्यवत्, मृद्रव्यस्य विकाररूपं मृत्पिण्ड शिवक-स्थास - कोशक - कुशूल-घटकपाल-शकलादिकमित्र मायाया विकाररूपं ब्रह्मणश्व विवर्तरूपं जगच्चातान्त्रिकम्, तथा च ब्रह्मण एकरूपत्वाद् बन्धाद्यभावप्रेरणा न दोषायेति चेत्, मैवम्, चेतन भेदाचेतन भेदरूपतया जगतः प्रतिपत्तेः एकः सुखी एको दुःखी एको रङ्क एको धनाढ्य इत्याद्यात्मभेदप्रतिपत्तेर्बाह्यघटपटादिभेदप्रतिपत्तेश्च सर्वानुभवसिद्धाया मिध्यात्वे एकमेव ब्रह्मेति प्रतीतेरपि मिथ्यात्वं वदतां नैव क्वी भवेत, एतच्च प्रागेव सविस्तरं निरस्तमित्यधिकं नोच्यते ॥ २० ॥
सम्मति० काव्यं १, बा २०
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अथ जाणं एस जीवे सया समिअं एयह वेयह चलह फंदर घट्टह खुम्भह उदीरह तं तं भावं परिणमइ ताव णं तस्स जीवस्स अन्ते अन्तकिरिया न भवति " इति सिद्धान्तो क्वींतरागोऽपि यावच्चक्षुः पक्ष्मोन्मीलन निमीलनक्रियामात्रमपि करोति तावदस्य प्रतिक्षणं योगनिमित्तं कर्मबन्धो भवति, तर्ह्यन्येषां समारम्भादिप्रवृत्तानां मिध्यादृष्टीनां मिथ्यात्वाविरतिकषाययोग हेतु कोऽविरतानामविरतिकषाय योगहेतुकः सर्वविरतानामपि सकपायाणां कषाययोगहेतुकच कर्मबन्धो भवतीति तु कैमुतिकन्यायप्राप्तमेव, सर्वथैव योगक्रिया - भावे च नव्यकर्मत्रन्धाभावेन पूर्वनिखिलकर्मणश्च शुक्लध्यानादिना क्षयेण मुक्तिरित्येतत्सर्वं स्याद्वादपक्ष एव घटते, नैकान्तपक्षे, एकान्तनित्यस्यात्मनो विचित्र प्रकार कर्मबन्धहेतुमिध्यात्वाविरतिकषाययोगविविध परिणतिस्वभावतज्जन्यविचित्रकर्मबन्धनस्वभाव मेदैरत्यन्तकर्मविश्लेषक्रियाकरणतद्धेतुयोग निरोधादिक्रियाकरणस्त्र भावभेदैश्वानित्यत्वप्रसङ्गात् । एकान्ताsनित्यस्य चात्मनः प्रतिक्षणं भिन्नस्वरूपत्वेन तत्तत्कर्म हेतु तत्तत् क्रियाकरणस्वभावत तत्कर्मकरणस्वभाव कर्तुरेकस्याभावेन यः कर्महेतुकर्त्ता स न कर्मकर्त्ता, यश्च कर्मकर्ता स न तत्फलभोक्ता, यश्च कर्मणा बद्धस्स एव न तन्मुक्त इत्यव्यवस्थितिप्रसङ्गात् । तदेव मे कान्ताभ्युपगमे
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चम्मति• काड, गा० ॥ कर्मबन्धत त्वाद्यनुपपत्तेरैहिकाऽऽमुस्मिकताचिकसर्वव्यवहारस्यानुभूयमानस्य विलोपकारित्वेनैकान्तसङ्घटितमूर्तयस्सर्वेऽपि नया मिथ्यानयाः, त एव भजनासङ्कटितस्वरूपा अब एवेतरनयविषयीकृतरूपाव्यवच्छेदकास्सम्यक्त्वरूपा भवन्तीत्युपसंहरमाह- .. तम्हा सव्वे वि णया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा(सपक्खपडिपन्ना)। . अपणोण्णणिस्सिया उण, हवंति सम्मत्तसम्भाषा ॥ २१ ॥
'तम्हा' इत्यत्र 'एवं' इत्यपि 'मिच्छादिट्ठी' इत्यत्र 'मिच्छद्दिट्टी' इत्यपि पडिबद्धा इत्यत्र पडिवना इत्यपि च पाठान्तरम् । 'तम्हा सर्वे वि णया मिच्छादिट्टी' तस्मात् उक्तहेतो स्सर्वेऽपि नया मिथ्यादृष्टयः, तत्र हेतुगर्भविशेषणमाह-'सपक्खपडिबद्धा' स्व आत्मीया, पक्षोऽभ्युपगमः, स्वपक्षा, तेन प्रतिबद्धाः प्रतिहता यतस्तत इति । पाठान्तरे उक्तार्थ स्वपक्षं प्रतिपन्ना अभ्युपगन्तारो नान्यं पक्षं यतस्ततः, स्वपक्षभिन्नपक्षविषयव्यवच्छेदनपरत्वा. दित्यथैः । अनुमानमुद्रा चैत्रम्-सर्वनयवादा मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वात् , चौरवाक्यवदिति, तथा च सुन्दोपसुन्दन्यायेन परपक्षविषयोन्मूलकतया तेषामनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमैकान्तकधर्माऽवधारणलक्षणनयानां मिथ्यात्वे च तत्तन्नपविषयस्याऽसत्यत्वं तदभिधानस्य च मिथ्यात्वमेव, ज्ञानप्रामाण्याधीनत्वाद्विषयसत्यत्वस्य, वाक्यरचना प्रति वाक्यार्थज्ञानस्य कारणत्वेन तत्प्रामाण्याधीनत्वाच तत्तत्रयविषयाभिधानात्मकवाक्यप्रामाण्यस्य, त एव नयाः स्वेतरनयविषयीकृतधर्माऽव्यवच्छेदकास्तदा सम्यक्त्वरूपा भवन्ती. त्युपदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह-" अण्णोण्णनिस्सिा उण हवन्ति सम्मत्तसम्भावा" अन्योन्य. निश्रिता अन्योन्यनिस्मृता वा अन्योन्यनयविषयापरित्यागेन व्यवस्थिताः, स्वेतरनयविषयी. कृतार्थानपलापिनो नयाः पुनर्भवन्ति सम्यक्त्वस्य यथावस्थितप्रत्ययस्य वाक्यात्मकन यपक्षे भावयन्तीति भावाः, सन्तो भावाः सद्भावा अवन्ध्यकारणानीत्यर्थः । ज्ञानात्मकनयपक्षे सम्यक्त्वसद्भावाः सम्यक्त्वस्वभावा इत्यर्थः । अयम्भाव:-वाक्यरूपा एकान्ततचाव. गाहिनयास्सर्वे परस्परनिरपेक्षतया स्याद्वादैकवाक्यताऽनापन्नास्सावधारणाः स्वपक्षहतत्वामिथ्यारूपास्स्त्रविषयस्यासत्यत्वप्ररूपकाः स्वविषयामिधानस्य च मिथ्यात्वख्यापकाः । "स्याद्वादनिरपेक्षश्च तैस्तावन्तः परसमयाः" इति नयोपदेशोक्तेर्यावन्तो नयवादास्तावन्तः परसमयाः, त एव नयवादा विरुद्धयोस्सच्चासत्वनित्यत्वानित्यत्वाद्योरविरोधमावनियामकं सापेक्षभावं गता अत एव निरवधारणास्स्याच्छन्दलाञ्छितास्समुदितास्सन्तोऽन्योन्यनयविषयापरित्यागवृत्तय इतरनयविषयसापेक्षस्व विषयसत्यत्वनिश्चायकाचेत्तदा स्वसमयरूपा इति ते प्रमाणभावलक्षणसम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते, प्रामाण्यस्य यावत्रयविषयताव्यापकविषयताकनिश्चयत्वरूपत्वेन तादृशनिश्चयोत्पादकत्वात्तेषाम् , उक्तश्च विशेषावश्यकभाष्ये-"जावन्तो
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सम्मति० काण्ड १, गा० ११
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वयणपा तातो वा नया विसद्दाओ । ते चैव य परसमया सम्मत्तं समुदिया सवे ।। " २२६५ । इति । ज्ञानात्मका अपि नयास्सर्वे एकान्ततच्चावगाहिपराभिप्रायरूपाः स्वविषयेतर विषयोन्मूलनतत्परा विपरीतप्रत्ययरूपा मिध्यात्मकाः, त एवेतरांशसापेक्ष स्वविषयग्राहका यथावस्थितवस्तुप्रत्ययरूपाः समुदिताः प्रमाणभावं भजन्ते, एतेन प्रत्येकं मिध्यावधारणानां तेषां नयानामन्यनिश्रितसमुदायेऽपि कथं सम्यक्त्वम्, तत्तत्स्वगोचराऽपरित्यागेन तत्रापि तेषां विषयान्तराऽप्रवृत्तेरित्यप्यारेका निरस्ता, यत एकैका अध्यपेक्षितेतरांशस्त्रविषयग्राहकतयैव सन्तो नयाः, तद्व्यतिरिक्तस्वरूपतया स्वसन्तस्त इति सतां तेषां समुदाये सम्यक्त्वे न कश्चिद्दोषः । ननु तत्कालविद्यमानानामेव रत्नानामेकतन्तुक्रमानुस्यूतानां समुदायो रत्नावलीति व्यपदिश्यते परीक्षकैः, न चेतरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां ज्ञानात्मकनयानामेकदोत्पत्तिसम्भवः, "जुगवं दो नत्थि उवओगा" इति वचनात् तथा च तत्कालाविद्यमानानां तेषां समुदाये सम्यक्त्वव्यपदेशः कथं शोभाव हस्स्यादिति चेत्, अनुक्तोपालम्भ एषः, न ह्येकदाऽनेकज्ञानोत्पादतस्तेषां समुदायो विवक्षितः, अपि त्वपरित्यक्तेतरधर्मविषयाध्यवसाय एव समुदायः, अन्योन्यनिश्रिता इत्यनेनाप्ययमेवार्थः प्रतिपादितः, न हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकन यास्यामत्यन्तपृथग्भूतायामङ्गुलिद्वय संयोगवदुभयवादोऽपरः प्रारब्धः, इत्येवं सम्मतिवृत्तावप्युक्तमिति । तादृशाध्यवसायश्च मिथ्यात्वाऽऽलिङ्गितानामेकान्तक्षणिकत्वाक्षणिकत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वादिवादिसौगताक्षपादादिनिखिलमतानां यस्समुदायस्स चेत्स्यात्पदलाञ्छितस्स्यात्तदैव स्यात्, नान्यथा, पर सिद्धान्तोक्तैकान्तवस्तुतस्वज्ञानेषु स्याद्वादतम्व निर्णायक युक्तिभिरेकान्ततस्त्रसाधकयुक्तीनां निरासेन एकान्तेन तत्तत्तत्वसाधकहेतूनां स्याद्वादसाधकप्रति हेतुभिर्बाधि तत्व प्रदर्शनेन चाड - ग्रामाण्यनिश्वयात्तद्विषयाभावनिश्वये स्याद्वादसिद्धान्तसिद्धेः, अत एव सम्यग्दृष्टिना स्याद्वादमर्यादया विषयविभागेन व्यवस्थापितस्सर्वोऽपि परसिद्धान्तस्स्वसिद्धान्त एवेति गीयते । ननु नयानां प्रत्येकावस्थायां मिथ्यादृष्टित्वात्तत्समुदायेऽपि महामिध्यादृष्टित्वप्रसक्त्या न ते समुदिता अपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते, प्रचुरविषलवसमुदाये विषप्राचुर्यवत्, नापि परस्परं विवदमानाः समुदिता वस्तुगमका भवन्ति, प्रत्येकावस्थायां तदगमकत्वात् प्रत्युत मिथो विरोधित्वाद्वस्तु विघातायैव भवन्ति, बैरिसमूहवदिति चेत्, मैवम्, वस्तुतवानवबोधात्, यतः प्रचुरविषलवा अपि प्रौढमन्त्रवादिनाऽतिप्राज्ञकुशल क्रियपीयूषपाणिमहावैद्येन वा निर्विषीकृत्य कुष्ठादिरोगिपुंभ्यो दत्ता अमृतरूपतां प्रतिपद्यन्ते, तद्वद् विषलवोपमाः प्रत्येकनया अपि आत्मप्रदेशाभ्यन्तरे मिथ्यात्वविषव्याप्त्याऽज्ञानसंमूर्च्छाकारिणोऽपि समुदितास्ते महामन्त्रवादिसमेन महावैद्यसमेन वा स्याद्वादतश्वज्ञेनानुपकृतोपकारबुद्ध्या निष्पक्षपातहितका ङ्क्षिणा सम्यग्ज्ञानिना सम्यग् विनियोजिता विरोधभावरूपं विषं दूरीकृत्यामृतोपमाऽविरोधभावं गमिता मिथ्यात्व रोग व्याप्त स्वान्तानामप्युपयुक्ता मिध्यात्वरोगं हत्वा महाकर्मवैरिबलजेत्सम्यग्ज्ञानसध्रीचीनसम्यग्दर्शन भावलक्षणारोग्यभावं प्रापयन्ति, अत एव ते नयवादाः
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सम्मति• काम १, गा९ २२-२३ परस्परविवदमाननानाभिप्रायभृत्यानां सम्यगुपायतो नयज्ञेनाशासारेण राज्ञा, भूम्यादिना केनापि कारणेन मिथो विवदमानानां व्यवहारिणां न्यायदर्शिना समवृत्तिना केनापि पुंसा वा युक्तिभिर्विरोधभावभञ्जनवनिःस्वार्थवृत्तिना जिनागमोक्तयथार्थनयतवविदुषा महर्षिणा तेषां नयवादानां विरोधमावभञ्जनात् सम्यग्भावं मजन्ते । उक्तश्च विशेषावश्यकभाष्ये
"न समेन्ति नयसमेया, सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा।
वत्थुविधायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव ॥२२६६ ॥" एतदाशङ्कथ तदुत्तरमाह भाष्यकार:--- " सव्वे समयन्ति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि । भिच-ववहारिणो इव, राओदासीणवसवत्ती ॥ २२६७ ॥” इति ॥२१॥
ननु नयसमुदाये न सम्यत्वं सम्भवति प्रत्येकनयेषु सम्यक्त्वाभावात, यद् यदेकैकेषु वस्तुष्वसत् तत् तत्समुदायेऽपि न सम्भवति, यथा सिकतासु तैलमिति चेत्, मैवम् , रत्नावल्यादाक्नैकान्तिकत्वादुक्तहेतोरित्येतत्प्रतिपादनार्थमाह
जहऽणेगलक्खणगुणा, वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता ।
रयणावलिववएसं, न लहंति महग्घमुल्लावि ॥ २२ ॥ 'जहऽणेगलक्खणगुणा' यथेति दृष्टान्तोपप्रदर्शने, अनेकानि अनेकप्रकाराणि विषविघातहेतुत्वादीनि लक्षणानि तथाप्रकारा नीलत्वादयश्च गुणा येषां ते अनेकलक्षणगुणाः, के ते इत्याशङ्कायां विशेष्यीभूतकर्तृपदमाह-वेरुलियाई मणी' वैडूर्यादयो मणया, किं विशिष्टास्त इत्यत आह-'विसंजुत्ता महग्धमुल्ला वि' विसंयुक्ताः विशकलिता महाघमूल्या बहुमूल्या अपि, कर्तृपदं क्रियापदसाकासमिति तत्पूर्तये निषेधसंवलितं क्रियापदमाह'न लहंति' न लभन्ते, न प्राप्नुवन्ति, सकर्मकक्रिया च कर्मापेक्षति तत् किमित्यत आह'स्यणावलिववएसं ' इयं रत्नावलीत्येवं व्यपदेशं व्यवहारमित्यर्थः ।। २२ ॥
पूर्वोक्तलक्षणगुणा वैडूर्यादिमणयो महामूल्या अपि पृथग्भूततया मिथः सापेक्षभावमनापन्ना रत्नावलीति व्यपदेशं न लभन्त इति दृष्टान्तमुपदर्य दार्टान्तिकमुपदर्शयितुमाह
तह णिययवायसुविणि-च्छिया वि अण्णोष्णपक्खनिरवेक्खा।
सम्मइंसणसई, सब्वे वि गया ण पार्वति ॥ २३ ॥ तह णिययेत्यादि-तथेति दार्शन्तिकोपदर्शने 'न पावंति' न प्राप्नुवन्ति, किन प्राप्नुवन्तीत्यत आह-सम्मइंसणसई' सम्यग्दर्शनशब्दं 'सुनयाः' इत्येवं व्यपदेशम् , एवम्भूताः के इत्याशङ्कायां कर्तृपदमाह-' सव्वे वि गया' सहादयस्सर्वेऽपि प्रत्येक
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सम्मति० काण्ड १ ० २४-२५
नयाः, किं विशिष्टास्त इत्यत आह- 'णिययवायसुविणिच्छिया वि' निज एव निजकस्वस्मिन् निजके वादे इतरनिरपेक्षसामान्यादिप्रतिपादकस्वस्ववादे सुविनिश्चिता हेतुप्रदर्शन - कुशला अपि तत्र हेतुगर्भविशेषणमाह-' अण्णोष्ण पक्खनिश्वेकखा' अन्योन्यपक्षनिरपेक्षा, अस्य हेतुरूपतया अन्योन्यपक्षनिरपेक्षत्वादित्यर्थः । पृथस्थितमणयः परस्परनिरपेक्षत्वात् रत्नावलीति व्यपदेशं न लभन्ते तद्वदित्यर्थः ॥ दीर्घेकोपयोगरूप प्रमाणचैतन्यस्य साकाङ्क्षसकलनयवाक्य जनिताऽनेकन यज्ञानात्मकतयाऽनेकात्मकस्य प्रमाणात्मकतयैकात्मकस्य शुद्धनयशब्दवाच्यत्वेन परस्परनिरपेक्षसङ्ग्रहादीनामेकैकनयानामन्योन्यविषयपरित्यागवृत्तीनां तादृशचैतन्यस्वरूपत्वाभावेन न ते ' सुनया' इति व्यपदेशमासादयन्तीति भावः ॥ २३ ॥
जह पुण ते चेव मणी, जहा गुणविसेस भागपडियद्वा । ' रयणावलि 'त्ति भण्णइ, जहंति पाडिक्कसण्णाओ ॥ २४ ॥
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जह पुण ते चैव मणी' यथेति दृष्टान्तोपप्रदर्शने, यथा पुनस्ते चैव त एव च मणयः जहा गुणविसेस भागपडिबद्धा' गुणविशेषः सूत्रविशेषस्तस्य भाग एकदेशस्तमनतिक्रम्य प्रतिबद्धाः सम्बद्धास्ते यथा गुणविशेषभागप्रतिबद्धाः, एकसूत्रक्रमप्रोताः, अव एव सम्बद्धा:, ' रयणावलित्ति भण्णइ' रत्नावलीति भण्यन्ते, ते मणयोऽसंयुक्तावस्थां परित्यज्यैकसूत्रानुस्युतास्संयुक्तावस्थारूपेण परिणामिन इयं रत्नावलीति व्यपदिश्यन्ते, रत्नानुविद्धतया रस्नावल्यास्तदनुविद्धतया च रत्नानां प्रतीतेः, रत्नीयसन्निवेशविशेषस्य तद्विशिष्टरत्नानां वा रत्नावली शब्दवाच्यत्वात्, “ जहंति पाडिकसण्णाओ" जहति प्रत्येक - सज्ञाः, एते मणय इति पूर्वकालीनाभिधानानि परित्यजन्ति, रत्नीयसन्निवेश विशेषस्य तद्विशिष्टरत्नानां वा रत्नावलीशब्दवाच्यत्वमित्यतस्तस्य तेषां वा रत्नीयसन्निवेशविशेषतद्विशिष्टरत्नावाचक केवलरत्नवाचकशब्दाऽवाच्यत्वात्, विशिष्टाविशिष्टयोः कथश्चिद्भेदस्यानुभवप्रतीतिसिद्धत्वात् ॥ २४ ॥
तह सव्वे णयवाया, जहाणुरूव विणिउत्तवत्तच्वा । सम्मर्द्दसणस, लहंति ण विसेससण्णाओ ॥ २५ ॥
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तह स णयवाया' तथेति दार्शन्तिकोपदर्शने, तथा सर्वे नयवादा: ' जहाणुरुवविणिउत्तवत्तवा' यथाशब्दो वीप्सार्थे, अनुशब्दः सादृश्यार्थे, रूपशब्दश्व स्वभावाऽर्थेऽत्र वर्त्तते । तथा च रूपस्य स्वभावस्य सदृशमनुरूपमित्यव्ययीभावसमासः, ततोऽनुरूपमनुरूपं प्रतीति यथानुरूपमिति यथाशब्देन सहानुरूपस्याव्ययीभावसमासः, ततो यथानुरूपे विनियुक्तं यथानुरूपविनियुक्तम्, यथाsनुरूपविनियुक्तं वतव्यं येषां ते पथानुरूपविनियुक्त वक्तव्याः, वक्तव्यशब्दो यद्यप्यर्थवाचकस्तथाप्यत्रोपचारात्तद्वा
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सम्मति० काण्ड १, गा० २६
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चकशब्दपरः । तथा च यद्यदनुरूपं तत्र तत्र विनियुक्तः प्रयुक्तस्तद्वाचकशब्दो येषां ते तथा, अन्योन्यविषयाऽपरित्यागवृत्तय इति यावत् एवम्भूतास्सर्वे नया: " सम्मसणसहं लहंति " सम्यग्दर्शनशब्दं प्रमाणमित्याख्यां लभन्ते ' ण विसेससण्णाओ' न विशेषसञ्ज्ञाः, सङ्ग्रहादि प्रत्येकतत्तन्नयसञ्ज्ञा न प्राप्नुवन्ति । अजहदुष्वत्यैकोपयोगत्ववि - शिष्टसाकाङ्क्षस कलनयवाक्यजनितनयज्ञानानां तादृशनयज्ञानी याजहद्वृत्यैकोपयोगस्य वा प्रमाणशब्दवाच्यत्वात् विशिष्टनयात्मकस्यापि प्रमाणचैतन्यस्य शुद्धनयवाच्यत्वात् । साकाङ्क्षसकलनयवाक्यजनितनयप्रमाणात्म कै कचैतन्यप्रतीतेः, अन्यथा चाsप्रतीतेरिति । अयम्भावः – यथा स्वान्यनिरपेक्षप्रत्येकवैडूर्यादिरत्नेषु न रत्नावलीति व्यपदेशः, किन्तु स्वस्वस्थानविनियोगलक्षणविशेषेण मिथस्सापेक्षेषु समुदितेष्वेव तेषु तथा प्रत्येकनिरपेक्षेषु नयेषु न सम्यग्दर्शनव्यवहारः, किन्तु स्वस्वस्थानविनियोगलक्षणविशेषेण मिथस्सापेक्षेषु समुदितेष्वेव तेष्विति । ननु तत्र कथं विशिष्टैकाध्य व सायलक्षण समुदायार्थत्वोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते, अपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यवसाय एव समुदाय इत्यत्रैकत्वस्याऽविवचितत्वादपरित्यक्तेतररूपविषयत्वस्यैव समुदायाऽर्थस्य नयप्रमाणसाधारणस्याऽभिप्रेतत्वादिति । " नन्ववग्रहादिचतुष्टयात्मकमतिज्ञानोपयोगवत् साकाङ्क्षसकलनयवाक्यजनितनयप्रमाणात्मकदीर्घोपयोगरूपैकचैतन्यस्याध्यश्वसिद्धत्वात्तत्र रत्नावलीदृष्टान्तोपादानं व्यर्थम् असिद्धसिद्धये वादिप्रतिवादिसिद्धदृष्टान्तोपन्यासस्य साफल्यात्, अत्र च तदभावादिति चेत्, न उक्तस्वरूपैका नेकात्मकोपयोगे स्वसंवेदन सिद्धेऽपि वादिविप्रतिपत्तिजन्यसंशयनिरासेन निश्चयदायर्थं तदुपादानादिति ।। २५ ।।
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दृष्टान्तगुणप्रतिपादनेन तदेवाह -
लोsयपरिच्छ्रयसुहो, निच्छ्यवयणपडिवत्तिमग्गो य । अह पण्णवणाविस त्ति, तेण वीसत्थमुवणीओ ॥ २६ ॥
' लोइयपरिच्छ व सुहो' लौकिकाच परीक्षकाच लौकिकपरीक्षकाः, तेषां व्युत्पत्तिविकलतद्युक्तप्राणिनां सुखः, सुखपदमत्र स्वघटितं यत् सुखप्रतिपच्युपाय इत्येतद्वाक्यं तत्परम्, तेन लक्षितलक्षणया सुखेनानायासेन प्रतिपन्युपायो व्याप्तिग्रहोपाय इति तदर्थः, अर्थात्सुखपदं सुखप्रतिपच्युपाय इति वाक्यं लक्षयति, तच लक्षणयाऽनायासेन व्याप्तिग्रहोपायरूपमर्थं बोधयति, वाक्यलक्षणाभावे तु सुखपदमेव लक्षणयोक्तमर्थं बोधयति, 4 निच्छय वयणपडिवत्तिमम्गो य' निश्चयवचनप्रतिपत्तिमार्गश्च निश्वयवचनस्य नैश्वयिकवचनस्य एकानेकात्मकदीर्घोपयोगरूप चैतन्यस्वरूपप्रतिपादकवाक्यस्य यत्प्रामाण्यं तस्य प्रमाणमित्येवं या प्रतिपत्तिस्तजनकत्व लक्षणप्रामाण्यप्रदर्शकश्च । अथेत्यवधारणे, पण्णवासिउत्ति ' प्रज्ञापनाविषय इति, दृष्टान्तो ज्ञातस्स्यात्तदैव दान्तिक सिद्धये समर्थ - स्स्यात् स स्वस्वरूपज्ञानार्थं प्ररूपणाविषयः प्रकृतनिदर्शनविषयो रत्नावलीदृष्टान्त इति ।
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सम्मति• काण 1, गा० २६ अयम्भाव:-साकाससकलनयवाक्यजनितनयप्रमाणात्मक चैतन्यं सुनयपदवाच्यं प्रमाणपदवाच्यं वेत्येवंप्रकारकशक्तिज्ञानविकलाना लौकिकानां तत्समन्वितानां परीक्षकाणां च चैतन्यमेकानेकात्मकं, तथा प्रतीयमानत्वात् , यदेकानेकात्मकतया प्रतीयते तदेकानेकात्मकम् , यथा क्रमेणेकतन्त्वनुस्यूतरत्नमन्निवेशनिष्पनरत्नावली, अत्र यः खलु क्रमिकतन्त्वनुस्यूत. रत्नसमूहा स समूहसमूहिनां कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकत्वाद एकानेकात्मकः, तत्र रत्ना. वलीत्वेनैकत्वं प्रत्येकानुस्यूतानेकमण्यात्मकत्वेनानेकत्वं सर्वैरप्यविवादास्पदतया स्वीकृत. मिति तदृष्टान्तवलेन दीर्घोपयोगरूपचैतन्यस्यापि प्रमाणस्वरूपतयकत्वं नयस्वरूपतया चानेकत्वमित्येवमुक्तचैतन्ये एकानेकात्मकत्वस्य सुखेनानायासेन भवति प्रतिपत्तिरिति रत्नावलीदृष्टान्तः सुखप्रतिपत्त्युपाय इति दृष्टान्तस्यैको गुणः । द्वितीयश्च यथा क्रमिकसनिवेशविशिष्टरत्नसमूहस्य कथञ्चित् समूहिस्वरूपतयाऽनेकस्यापि रत्नावलीयमित्येकव्यपदेश. जन्यं रत्नावलीस्वरूपसमूहापेक्षयकत्वेन ज्ञानं प्रमाणम् , तजनकत्वात्तद्वाक्यमपि प्रमाणम् , तथा साकासकलनयवाक्यजनितनयज्ञानानामपि दीधैंकोपयोगरूपताश्रयणेनैकत्वमाश्रित्य प्रमाणमित्याख्याजनितं ज्ञानं प्रमाणविषयकं प्रमात्मकम् , तजनकत्वात्प्रमाणनयापेक्षयकानेकास्मकचैतन्यस्वरूपप्रतिपादकवाक्यं नैश्चयिकवचनं प्रमाणमित्येवं या तद्गतप्रामाण्यप्रत्तिपत्तिस्तजनकत्वलक्षणप्रामाण्यप्रदर्शकत्वात्मको गुणः । एतदुभयमपि दृष्टान्ताऽप्रदर्शने सति न सम्भवति, न हि स्वरूपसभेव दृष्टान्तो दार्शन्तिकं द्रढयितुं समर्थः, अतस्स स्वरूपप्रतिपत्तये प्रज्ञापनाविषयः प्ररूपणाविषयो भवति, ततश्च तथाज्ञातस्स स्वसदृशं दार्शन्तिकं सापयितुं प्रगल्भ इति प्रज्ञापनाविषयत्वं तस्य तृतीयो गुणः।
'तेण वीसत्थमुवणीओ'तेन कारणेन विश्वस्तं निश्शंकं यथा ज्ञायते तथा, ज्ञापयितुमिति शेषः । उपनीत उपदर्शितो दृष्टान्तः । न चावल्यवस्थातः प्रागुत्तरकाले च रस्नानां नियतोपलम्भात् प्रमाणावस्थायाश्च प्रागुत्तरकालं नयानां तदभावादुदाहरणवैषम्यमिति वाच्यम् , प्रमाणस्यैकानेकात्मकत्वोपपत्तिमात्रार्थमावल्यवस्थात्मकोदाहरणोपादानात् , सर्वथा साम्ये दृष्टान्तदाान्तिकभावानुपपत्तेरिति । एतेन रत्नावलीदृष्टान्तेन समुदिता नयास्सम्यक्त्वव्यपदेशं लभन्ते, अर्थात् प्रमाणमित्याख्यामवाप्नुवन्तीत्युक्तं भवति, तन्न युक्तियुक्तम् , यतो रत्नावल्यां दलप्रचयलक्षणस्समुदायस्सम्भवति, न च नयानां स युक्तः, तेषां ज्ञानरूपत्वेनेकदा रत्नानामिव तत्सम्भवाभावात् , एककालावच्छेदेनैकस्यैव ज्ञानस्योपगमा. दित्यपि निरस्तम्, न पत्र दलप्रचयलक्षणस्समुदाय उच्यते, किन्वितरनयविषयीकृतरूपाव्यवच्छेदकत्वलक्षणा, उक्ताव्यवच्छेदकत्वमेव चान्योन्यनिश्रितत्वं गीयते, तच प्रागेवोक्तम् , इदमेव च प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य तत्र सम्यक्त्वपदं प्रवर्तते, रत्नावलीदृष्टान्तोऽपि निमित्त मेदेन व्यपदेशभेदज्ञापनार्थमेव प्रोक्तः, न त्वेकैकव्यक्तिप्रचयलक्षणसमुदायस्वरूपज्ञापनार्थमित्युक्तदोषाभावात् ।। २६ ।।
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सम्मति० काण्ड १, गा. २६
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अथ-"असदकरणादुपादान,-ग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् ।।
शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच सत्कार्यम् ॥ १॥" सायतच्चकौमुद्यामित्युक्तेः कारणेषु शक्तिरूपेण सदेव कार्यमभिव्यक्तस्वरूपतयोस्पद्यते, दुग्धे दधिवत् तिलेषु तैलवदिति रत्नादिकारणेष्वावल्यादिकार्य सदेवेति साख्यः । दुग्धादेरेव दध्यादिरूपेणेव कारणानामेव कार्यरूपेणाव्यक्तस्वरूपतया व्यवस्थितत्वात् तदव्यतिरिक्तं विकारमात्रं कार्य परिणमत एव, अर्थात् कारणमेव स्वाभिन्न कार्यरूपतया परिणमत इति साङ्ख्यविशेषः, अभूत्वा भवनं प्रागसतः सत्तासम्बन्धो वोत्पत्तिरित्युत्पत्तिपूर्वकालावच्छेदेन कारणे नैव कार्य विद्यते, न वा कारणमेव कार्यरूपेण परिणमते, किन्तु समवायिकारणात् पृथग्भूतं तत्र चासत् सामग्रीतः समवेतं कार्यमुत्पद्यते, तच्च न स्वतो विनश्यति किन्तु विनाशसामग्येति यावत्तदभावस्तावत्तन विनश्यतीति स्थिरभूतमिति नेयायिकवैशेषिकादयः, बौद्धा अपि तत्तत्कार्यानुकूलकुर्वद्रूपात्मकतत्तन्निमित्तकारण महकतोपादानकारणेन तत्रासत्कार्य क्षणिकमुत्पद्यते, स्वोत्पत्युत्तरकालभाविभावानपेक्षणेन स्वोत्पस्यव्यवहितोत्तरक्षणे निर्हेतुकस्यैव तद्विनाशस्य भावादित्यसत्कार्यवादं प्रतिपद्यन्ते । न कार्य कारणं वाऽस्ति, द्रव्यमात्रमेव तत्वमित्यपरे, ब्रह्मैव सत् , जगत्तु तद्विवर्तरूपम् , मायायाचाऽज्ञानपदवाच्याया विकाररूपम् , तथा च ब्रह्मणो विवत्तॊऽज्ञानविकारश्च जगदिति वेदान्तिनो वदन्ति । तथा चोक्तम्
"सतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा, विकार इत्युदीरितः ।
अतत्वतोऽन्यथाप्रथा, विवत इत्युदीरितः ॥" सतत्वतः तत्वविशिष्टस्य अन्यथाप्रथाऽन्यथाभावो विकार इति प्रोच्यते, यथा मृद. स्तत्वं मृत्त्वं तद्विशिष्टाया मृदः घटभाव:-घटाकारपरिणामो मृद्विकार इत्युच्यते, यथा वाऽज्ञानस्य मायाया जगदाकारेण परिणामोऽज्ञानविकार इत्युच्यते । अतत्वतस्तवरहितस्यान्यथाप्रथाऽन्यथाभावो विवर्त्त इत्युच्यते, यथा लूताशरीरावच्छिन्नचेतनस्य तन्त्वाकार. परिणामो न भवति किन्तु लूताशरीरस्य तथाभावः, अतो लूतापदवाच्यचैतन्यस्य तन्त्वा. कारो विवर्त इत्युच्यते, लूताशरीरस्य तु विकार इत्येवोच्यते, एवमज्ञानोपाधिविशिष्टस्य ब्रमणो जगदाकारेण परिणामाऽभावेऽपि जगदाकारेण भासमानत्वात् जगत् ब्रह्मणो विवर्त इत्येवोच्यते, अज्ञानस्य तु साक्षादेव जगदाकारेण परिणममानत्वादज्ञानविकारो जगदित्युच्यते । इत्येवं नानाभिप्रायवन्त एकान्तवादिनो रत्नावलीदृष्टान्तस्यापि पूर्वोपदर्शितैका. नेकात्मकत्वं नैव मन्यन्ते इति तद्रूपतया स्वयमेवासिद्धस्स परस्परसाकाङ्क्षसकलनय जनित. नयप्रमाणात्मकदीर्घोपयोगरूपैकचैतन्यात्मकदार्टान्तिकसिद्धये न प्रभविष्णुः, तस्य साध्यसमत्वादित्येवमेकान्ततत्तद्वादिमतप्रदर्शनपूर्वकं तन्मतनिरासायाह
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सम्मति० कान्ड १, गा० २७ इहरा समूहसिद्धो, परिणामकओव्व जो जहिं अत्थो।
ते तं च ण तं तं चे-वत्ति णियमेण मिच्छत्तं ॥ २७ ॥ "इहरा' इतरथा उक्तप्रकाराऽनभ्युपगमे, 'समूहसिद्धो' रत्नानां समूहे सति सिद्धः निष्पमा समूहसिद्धः, स क इति चेद्, रत्नादिष्वावल्यादिः, तत्र तस्य सद्भावात्, रत्न मालादिरूपेण रत्नादीनामाविर्भावात् , 'परिणामकओब' परिणामकृतो वा, यथा क्षीरादिषु दध्यादिः, तस्य तत्परिणामरूपत्वात् , क्षीरादीनामेव दयादिरूपेण परिणमनादिति । वस्तु. गत्या सर्वस्यैव परमाणुसमूहपरिणामोभयकृतत्वेऽपि 'समूहसिद्धः' 'परिणामकतो वा' इति विकल्पामिधानं किश्चित्कार्य समूहकृतं किञ्चिच्च परिणामकृतमिति लौकिकव्यवहारापेक्षया, "जो जहिं अत्थो" यो यत्रार्थः, य आवल्यादिर्दध्यादिर्वा यत्र रत्नादिषु क्षीरादिषु वा, 'ते तं च ते रत्नादयस्तदेवावल्यादिकं, समूहसमूहिनोरभेदात् , क्षीरादिकंवा तद्दध्यादिकमेव, तस्य तत्परिणामरूपत्वात्, परिणामपरिणामिनोवाऽभेदादिति सत्कार्यवादः । *ण तं'न कारणमेव कार्यम् , किन्तु तद्भिन्नमसदेवोत्पद्यते तदित्यसत्कार्यवादः, 'तं चेवत्ति' तदेव च, न कार्य न वा कारणम् , किन्तु द्रव्यमानं तचमिति तदेवेत्यपरे, ब्रह्ममात्रं वा तत्वमित्यद्वैतवादः । " इति णियमेण मिच्छत्तं" 'इति' एवं नियमेनैकान्ताभ्युपगमे सति मिथ्यात्वम् , सर्व एव एते मिथ्यावादाः, नियमेनेत्युक्त्या कथश्चिदभ्युपगमे अर्थात्कारणं कश्चित्कार्यात्मकम् , परिणामः कथञ्चित्परिणाम्यात्मकः, कार्य कथश्चिन्न कारणात्मक, कारण वा कथश्चिन्न कार्यात्मकम् , एवं परिणामोऽपि कथञ्चिन्न परिणाम्यात्मका, एवं द्रव्यतत्रमपि कथञ्चिन्न कार्य न वा कारणमित्येवमभ्युपगमे सर्वे चैते सम्यग्वादा एवेत्युक्तं भवति । . “यदुत्पादव्ययध्रौव्य-योगितां न विभत्ति वै ।
तादृशं शशशृङ्गादि-रूपमेव परं यदि ॥१॥" इत्युत्पादादिसिद्धिग्रन्थवचनाद् न किमपि वस्तु तथाविधं यन्न व्येति नोत्पद्यते न ध्रुवति, देवभावेन विनश्य मनुष्यभावेनोत्पन्नोऽहम् , कुण्डलभावेन विनश्याङ्गदभावेन हेमो. त्पनमित्याउनुभवाद्वस्तुमात्रस्योत्पादव्ययधौव्यात्मकत्रितयधर्मवत्यैव सिद्धेस्तत्तद्वस्तु तत्तदपेक्षया कार्यमकार्यश्च, कारणमकारणश्च, कारणे कार्य सञ्चासच, कारणं कार्यकाले विनाशवत् अविनाशवच, तथैव प्रतीतेरन्यथा चाप्रतीतेः। तदेवं तत्तद्वस्तुनोऽनुगतव्यावृत्तस्वरूपतयेकानेकात्मकत्वान्मण्यनुस्यूतरत्नावलीदृष्टान्तस्याप्येकानेकात्मतयैव सिद्धेनं साध्यसमा त्वमिति तदृष्टान्तवलादाऽऽस्मानुस्यूतनयप्रमाणात्मकदीर्घोपयोगरूपचैतन्यस्याप्यापेक्षिकैकाऽनेकात्मकतयैव सिद्धिरप्यप्रत्यूहेति सिद्धम् । ननु पूर्वोक्ततसन्मतेषु नियमेन मिथ्या. स्वे किं बीजमिति चेत् , तदप्याकर्णय सावधानीभूय, तथाहि-दुग्धादौ कारणेः दध्यादिक कार्य सदेव' इति साथमतं, तन्मते हि सर्व एव भावारस्वतस्सन्त एव कारकैः क्रियन्ते,
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सम्मति काण्ड
गा० २७
नासन्तः, न हि स्वतोऽविद्यमानाः शशविषाणादयः कचिदपि शक्यन्ते कर्तुम् , सिकतासु वा तैलम् , असदुत्पत्तौ तु सर्वत्राऽसत्वाऽविशेषानियमाभावात्सर्वस्मात्सर्वकार्योत्पत्तिस्स्या दिति, तन्न युक्तियुक्तम् , यता पूर्व सदेव कार्य चेत् , तदा कारणव्यापारेण नैव किमपि कर्तव्यमिति तद्वैफल्यमेव, किश्च सदर्थविषये कारकव्यापार इष्यमाणे कारकव्यापारानु. परमप्रसङ्गः, किं हि तदोपलक्ष्य कारकाणि निवत्तरन् । कार्यसत्तामिति घेत, न, त्वन्मते तस्याः प्रागपि भावात् , अथ पूर्व शक्तिरूपेण कार्य सत् नाभिव्यक्त्यापीत्यनभिव्यक्तं तत्तेनाभिव्यक्तीक्रियत इति तत्साफल्यमेवेति चेत् , मैवम् , यतस्साऽभिव्यक्तिः सती चेत् , तदा त. स्करणायोगात कारणव्यापारवैफल्यमेव, असती चेत् , तदा पूर्वमसत्यास्तस्यास्तेन सदूपत्वक रणेन असद करणादित्यादिमाङ्खयोक्तसिद्धान्तभङ्गप्रसङ्गः, अथ कारणव्यापारेणावरणविनाशः क्रियत इति तत्साफल्यमित्यपि पक्षो न युक्तः, यतोऽन्धकारपिहितघटानुपलम्भे आवारकी. भूताऽन्धकारोपलम्भवत् कस्यचित्कार्यावारकस्योपलम्भस्यात् न च तदुपलम्मः, येन तद्वि. नाशकरणेन कारणव्यापारसाफल्यं स्यात् , न च कारणमेव कार्यावारकमित्यपि वक्तुं शक्यम् , तस्य तदुपकारकत्वेन प्रसिद्धेः। ननु यद् यद्दर्शनप्रतिबन्धकं तत्तदावारकं, यथा घट. दर्शनप्रतिबन्धकमन्धकारं घटावारकं, कार्यदर्शनप्रतिवन्धकश्च कारणमिति तत्तदावारकमिति चेत् , तर्हि चक्षुषा घटाऽदर्शनेऽपि तत्स्पार्शनप्रत्यक्षयचक्षुषा कार्यादर्शनेऽपि तत्स्पार्शनप्रत्यक्षप्रसङ्गमस्यात् , अथ कार्यदर्शनप्रतिबन्धकत्वेन कारण कार्यावारकं न, किन्तु पटादिवद् व्यवधायकत्वेनेति चेत्, तदपि न युक्तम् , व्यवधायकस्य पटस्य भिल्यादेवा बंसे घटादेपलम्भवद् व्यवधायकस्य कारणीभूतमृत्पिण्डस्य ध्वंसेऽपि घटकार्योपलब्धिप्रसङ्गः, क्षीरनीरादिवदात्यन्तिकसंश्लेषेण तदावारकत्वे च तत्पृथग्भावं विना तदनुपलब्धिप्रसङ्गा, निराकरिष्यते चाग्रे सत्कार्यबाद इति न किञ्चिदेतत् । एतेन कारणमेव स्वाऽभिन्न कार्यतया परिणमत इत्येवं लक्षणानर्थान्तरपरिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्तोऽवसेयः, अभेदे विशेषणविशेष्यभावस्येव परिणामपरिणामिभावस्याप्यऽयोगात् । यदपि कारमेऽसदेव कार्य सामग्रीत उत्पद्यत इत्यसत्कार्यवादात्मकं नैयायिकवैशेषिकमतं तदपि " असतः सत्तासमवाय उत्पत्तिरित्युत्पत्तिलक्षणस्य समवायघटितत्वेन समवायस्यकान्तभिन्नावयविनश्व पूर्व निरासकरणानिरस्तमवसेयम् । कारणे सर्वथाऽसदेव क्षणिक कार्य कुर्वद्रूपात्मकपूर्वकारणादुपजायत इत्यमत्कार्यवादात्मकं बौद्धमतमपि न सङ्गतम् , एकान्तक्षणिकवादस्यैवाऽसिद्धेः । अथ यत्सत्तक्षणिकमिति व्याप्स्सचहेतोः क्षणिकत्वसिद्धिः, एवं कृतकत्वहेतोरप्यनित्य स्वसिद्ध्या क्षणिकत्वसिद्धिरिति चेत्, मैवम् , साध्यसाधनभावो भेदनिवन्धन एव, अन्यथा स्वात्मना स्वसिद्धिस्स्यादिति यत्सत्तक्षणिकमित्यत्र यत्कृतकं तदनित्यमित्यत्र च भवन्मते पक्षमाध्यहेतूनां वस्तुगत्या स्वलक्षणरूपत्वेनाभेदात् साध्यसाधनधर्मभेदाऽसिद्धौ
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सम्मति० काण्ड १, गा० २७ सञ्चहेतोः क्षणिकत्वस्य कृतकत्वहेतोश्वामित्यत्वस्यासिद्धेः। अथ सत्तक्षणिकत्वयोः कृतकत्वाऽनिस्यत्वयोश्वाऽतव्यावृत्तिलक्षणतत्तव्यावृत्तिरूपतया तद्भेदेन मेदस्वीकारानैष दोष इति चेत्, तदप्यसत्, यतस्तत्तद्व्यावृत्तिभेदो न स्वतः, तासां तुच्छरूपत्वेनाभ्युपगमात्स्वतो भेदस्याऽयोगात् , योगे वा भेदस्य तव्यावृत्तिभेदकत्वाद्वस्तुत्वं स्यात् , अन्यथा भेदस्य तत्तद्व्यावृत्तिभेदकत्वमेव न स्यात् , असद्रूपत्वात् , तथा च वस्तुत्वस्यानेकान्तात्मकत्वव्याप्यत्वेन व्याप्यस्य तस्य सत्वे व्यापकस्यानेकान्तात्मकत्वस्यापि सवात्तत्सिद्धेस्सिद्ध नस्समीहितम, किश्च तत्तव्यावृत्तीनामिव घटपटादिवस्तूनामेव स्वतो भेदोऽस्तु किमन्तर्गडुतत्तव्यावृत्तिमेदकल्पनया । नन्वेवं तनुगतप्रतीतिः कथं स्थादिति चेत् , उच्यते वस्तुनस्सामान्यविशेषोभयात्मकतयाऽनेकान्तात्मकत्वात्सामान्यांशमादायानुगतप्रतीत्युपपत्तिस्यादेवेति । अथ व्य. वच्छेद्यभेदात्तत्तघ्यावृत्तिभेद इत्यपि न युक्तम् , भवन्मते क्षणिकेतरव्यावृत्तेस्सदितरव्यावृत्तेश्व एवमनित्येतरव्यावृत्तेः कृतकेतरव्यावृत्तश्च व्यवच्छेद्यस्य परमार्थभूतस्य कस्यचिदभावातासां भेदाभावप्रसक्ते, अथ व्यवच्छेद्यस्य पारमार्थिकस्य कस्यचिदमावेऽपि तस्य कल्पनया सवमस्त्येवेति काल्पनिकव्यवच्छेद्यभेदाढ़ेदोऽस्त्विति चेत् , तदपि न सङ्गतम् , व्यवच्छे. घस्य नित्यस्य कल्पना नित्येतरल्यावृत्या, अन्यथा नित्यानित्ययोरेकत्वापत्तिस्स्यात् , तथा च नित्येतरध्यावृत्त्यनित्येतल्यावृत्योरन्योन्यव्यवच्छेद्यभेदेन भेदव्यवस्थितौ कथं नान्योन्याश्रयः, तथाहि-कल्पितनित्यस्य नित्येतभिन्नतया सिद्धौ तद्वयवच्छेदेनानित्यत्वसिद्धिः, अनित्येतरभिन्नतया अनित्यत्वस्य सिद्धौ च तक्ष्यवच्छेदेन नित्यत्वसिद्धिरित्यन्योन्यापेक्ष. स्वादन्योन्याश्रयदोषापत्तितो नान्यतरस्यापि सिद्धिः, व्यावृत्योर्मिन्नतया चाऽसिद्धौ न साध्यसाधनभाव इत्यतो न क्षणिकत्वसिद्धिः। अथ तत्तद्वयावृत्तीनां व्यवच्छेद्यभेदाढ़ेदो मास्तु, बुद्धिप्रतिभासभेदात्तु स स्यादेव तेन च साध्यहेत्वोर्भद इति भेदनिबन्धनसाध्य. साधनभावात्सत्वहेतुना क्षणिकत्वसिद्धिरिति चेत्, तर्हि, शब्द इति बुद्धिप्रतिभासाच्छब्दत्वबुद्धिप्रतिभासस्य भेदेन शब्दाच्छन्दत्वस्य भेदात्तस्य साधनमावस्स्यात् , तथा च शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्याद्यनुमानस्यापि प्रामाणिकत्वापत्या न शब्दत्वहेतुः प्रतिज्ञार्थक देशाऽसिद्धो हेतुस्स्यात् , अयम्भाव:-प्रकृते पक्षेण शब्देन समं शब्दत्वहेतोरैक्यमा. श्रित्य पक्षहेत्वोरैक्यात्प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वं शब्दत्वहेतोर्यदिष्टं तन्त्र स्यात् , पूर्वोक्तनीत्या शब्दशब्दत्वयोर्भेदाभ्युपगमात् । न च शब्द इति बुद्धिप्रतिभासाच्छन्दत्वमिति प्रतिभासस्य भेदो नेति वाच्यम् , आकारभेदस्य ज्ञानभेदप्रयोजकस्याऽत्रापि सद्भावात् , अन्यथैकमेव ज्ञानं स्यात्, आकारभेदेऽपि बुद्धिप्रतिभासमेदानभ्युपगमे विषयभेदासिद्ध्या शब्दशन्दत्वयोधर्मधार्मभाव एव न स्यात् । अथ प्रतिभास भेदेऽपि व्यवच्छेद्यभेदाभावान्न शब्दशब्दत्वयोर्मेद इति शब्दत्वहेतोः प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वम् , नन्वेवं तर्हि भावाभिधायी शब्दत्वशब्दो द्रव्याभिधायी शब्दशब्द इति तयोः पर्यायत्वं स्यात् , धर्मभूतशब्दत्वाभिधायि
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सम्मतिः काण्ड , गा. २७ शब्दधर्मिभूतस्वलक्षणात्मकशब्दाभिधायिशब्दयोरेकार्थाभिधायित्वात् घटकलशशब्दवत् , अन्यथा प्रतिज्ञार्थंकदेशताऽपि न स्यात् । तम भवदभिप्रायेण सचक्षणिकत्वयोः कृतकत्वाऽनित्यत्वयोस्साध्यसाधनभावा, भेदाभावात् । अथ अनुपलब्धिहेतुः कार्यहेतुश्च यत्र तत्रैव भेदनियतस्सम्बन्धः, अत्र तु स्वभाव एव हेतुरिति वृक्षशिंशपयोरिव परमार्थतः सत्क्षणिकयोरनित्यकृतकयोरभेदात्तनियतस्तादात्म्यसम्बन्ध एव, तथा च सन्चक्षणिकत्वयोरनित्यत्वकृतकस्वयोर्भेद एव कल्पनानिर्मितो न त्वमेदः, अतो विकल्पयशाद्धर्म योभिन्नत्वाद्वास्तविका. मेदनियततादात्म्यसम्बन्धाच गम्यगमकमाव इति सत्वं सच्चाध्यवसायिना निश्चयेन भेदेन निश्चीयमानं क्षणिकत्वाध्यवसायिनिश्चयेन भिन्नतया निश्चीयमानस्य क्षणिकत्वस्य गमकम् , एवमेव कृतकत्वमनित्यत्वस्य, यतो विकल्पस्यानुभवद्वारोत्पन्नत्वेनाऽनुभवद्वारा स्वलक्षणविषयत्वं, एवमनुभवद्वारा निश्चितविकल्पविषयत्वेन स्वलक्षणस्य निश्चितरूपत्वामा. श्रयासिद्धत्वम् , सचक्षणिकत्वयोः कृतकत्वानित्यत्वयोश्च मिनविकल्पविषयत्वेन काल्पनिकभेदरूपत्वान्न वा गम्यगमकमावाभावः, अव्यभिचारश्च साध्यसाधनयोर्वास्तविकाभेदनिबन्धनतादात्म्यसम्बन्धादिति चेत्, स्यादेतत् , यदि स्वलक्षणस्य कुतश्चित्प्रमाणात् सिद्धि स्यात्, न चैवं निरंशं तत्सिद्धम् , तथाभूतस्य स्वप्नेऽप्यप्रतीयमानत्वात् , याग्भूतं कृतक. स्वाद्यनेकधर्माध्यासितं प्रत्यक्षे सम्प्रतिभाति तन निरंश, यतस्तदनुभवद्वाराऽऽयातसच. क्षणिकत्वादिविकल्पप्रतिभासिना धर्माणामव्यभिचारात् साध्यसाधनभाव उपपद्येत, न चानुमानत एव निरंशस्वलक्षणसिद्धिरिति वाच्यम्, व्याप्यसिद्धावनुमानस्यैवाप्रवृत्तेः । अथ विनाशः स्वप्रतियोग्युत्पत्तिक्षणाव्यवहितोत्तरक्षणभावी स्वप्रतियोग्युत्तरभाविभावानपेक्षा स्वात्, यद् यदुत्पादने स्त्रोत्तरवर्तिभावानपेक्षं तत्स्वाव्यत्रहितोत्तरक्षण एव तदुत्पादकम्, यथारोत्पादनेऽन्त्या सामग्रीत्यनुमानतः क्षणिकत्वं सेत्स्यतीति चेत्, तदप्यसङ्गतम् , शाल्यहरोत्पादने समग्रसामग्रीसमवधानदशायामनपेक्षेष्वपि यवबीजादिषु तदुत्पादकत्वाभावेन हेतोरनैकान्तिकत्वात् , अथ यद् यदुत्पादकस्वभावं सद् यदुत्पादने स्वोत्तरभाविभावानपेक्षं तत् स्वाव्यवहितोत्तरक्षणे तदुत्पादकमेवेति नोक्तदोषः, यववीजादीनां शाल्य
कुरोत्पादकस्वभावामावेन तादृशस्वभावविशिष्टतादृशानपेक्षत्वस्य हेतोस्तत्राभावादिति चेत्, तर्हि यस्मिन् क्षणे विनश्यत्स्वभावो यो भावस्तदव्यवहितोत्तरक्षणे तस्य नाशो मातु, यश्च कृतकोऽपि भावः प्रथमक्षणे न तथास्वभावस्तस्य न तदव्यवहितोत्तरक्षणे ध्वंस इति न सर्वथा क्षणिकत्वम् , तथा च यत्सत्तक्षणिकमिति व्याप्त्यसिद्धेन वस्तुमात्रे क्षणिकत्वं सिद्ध्यति । अथ कार्यक्रमः स्वातिरिक्तकारणक्रमात् , न तु स्वतः, यत्र न स्वातिरिक्तकारणकमो न तत्र कार्यक्रमः, तथा च भावस्य स्वविनाशे न स्वातिरिक्तकारणापेक्षा, अतः कारणक्रमाभावाम भावस्य धंसोत्पादने विलम्ब इत्यायातं क्षणिकत्वमिति चेत्, मैवम्, विभिन्नशक्तिमत्तया विचित्रप्रकारास्सामग्यो दृश्यन्ते, तत्र काचित्सामग्री स्त्राव्यवहितोत्तरक्षणे ध्वंसो.
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सम्मति० काण्ड 1, गा० २. स्पादिका, काचिच्च नेत्यनश्वरात्मानं सा जनयेत् , यथा विलक्षणात्पशुविशेषशृङ्गादेव शरो भवति, न सर्वस्मादित्यायातं क्षणिकाक्षणिकस्वरूपत्वं वस्तुन इति । अथान्ते विनाशित्वेनोपलब्धानां प्रतिक्षणं ध्वंसो यदि न स्यात्तन्तेऽपि क्षणे ध्वंसप्रतीतिर्नोपपद्येत , द्वितीयक्षणेऽपि भावस्य स्थितिस्वीकारे सर्वदा स्थितिप्रसङ्गात् , तथाहि-किं भावस्य स्वरूपम् , द्विक्षणस्थायित्वमिति चेत्, तर्हि द्वितीयेऽपि क्षणे द्विक्षणस्थायित्वस्वभावस्यानतिक्रम एव, अतिक्रमे वा प्रथमक्षणे द्विक्षणस्थायित्वस्वभावस्य द्वितीयक्षणे एकक्षणस्थास्नुस्वभावस्य च भेदेन धर्मभेदाद्धर्मिणोरपि भिन्नत्वं स्यात् , तथा चायातं क्षणिकत्वमित्यतो द्वितीयेऽपि क्षणे तत्स्वभावस्स्वीकरणीय एव, स च स्वभावो न तृतीयक्षणवृत्तित्वमन्तरेण, एवं तृतीयचतुर्थाद्युत्तरोसरक्षणेऽपि तत्स्वमावानपगम एव, अपगमे वा क्षणिकत्वप्रसङ्गः पूर्वोक्तरीत्या तदवस्थ इत्यासंसारं भावस्य स्थितेरविनाशाद्विनाशप्रतीतिदुर्लभा स्यात् , न चैवम् , अतस्तत्प्रतीत्यन्यथाऽनुपपश्या प्रतिक्षणं विनाशस्सिद्ध्यति । किञ्चाये क्षणे योऽभूत्वा भवनलक्षणस्वभावस्म एव थेद् द्वितीयेऽपि क्षणे तदा तदाऽप्युत्पत्तिरेव, न स्थितिरित्यायात क्षणिकत्वम् , द्वितीयेऽपि क्षणे स्थितेरभावात् । अथ प्रथमक्षपणे जन्मैव, न स्थितिः, द्वितीयेऽपि क्षणे स्थास्तुस्वभाव एव नोत्पदिष्णुस्वभाव इति विरुद्धधर्माध्यासाभावेन न क्षणिकत्वमिति चेत्, तकस्मिन् विरुद्धधर्माध्यासप्रसङ्गेन धर्मद्वयाऽयोगेन तद्धर्मिणोभिन्नत्वं वाच्यम् , एवञ्च यस्य जन्म न तस्य स्थितिर्यस्य स्थिति तस्यैव जन्म किन्त्वन्यस्यैव, तथा च जन्मक्षणवृत्तित्वतदन्यक्षणवृत्तित्वप्रयुक्तस्थितेरमावादायातं क्षणिकत्वम् । किञ्च परस्परभिन्नयोः पूर्वकालसम्बन्धित्वापरकालसम्बन्धित्वयोर्विरुद्धस्वभावत्वेन तद्भेदाद्धर्मिणोरपि भिन्नत्वमिति स्वभावभेदेन क्षणिकत्वस्यैव सिद्धेस्सिद्धा विनाशं प्रत्यनपेक्षा भावस्येति चेत् , मैवम् , स्वहेतोरेव भूतभविष्यवर्तमानस्वभावत्वेन त्रिकालस्थायितया प्रथमक्षण एवोत्पन्नो भावः, तथाहि-भूतक्षमेवमस्तिष्ठन् वर्तमानक्षणे भविष्यत्क्षणे स्थास्यन् स्वभाव इति त्रिस्वभावतया समुपजातो मावः, न च परापरकालसम्बन्धित्वस्य विरुद्धधर्मत्वम् , तत्स्वभावतयैवोत्पन्नत्वात् , अथ भविष्यत्क्षणे स्थास्यन् इत्यस्य भविष्यत्कालीनस्थितिमान् घट इत्यर्थः, स च न युक्त्युपपन्नः, यतस्समानकालीनयोरेव विशेषणविशेष्यभावः, न तु भिन्नकालीनयोरपि, तयोस्सम्बन्धायोगात् , तथा च भविष्यत्कालावच्छिन्नस्थितेर्वर्तमानकालेऽभावेन न तद्विशेष्यत्व. मिदानीन्तनघटस्य, असदेतत् , तथाप्रतीत्यनुरोधेन तत्स्वीकारात् , तथा चानागतकालस्येदानीमभावेन तदवच्छिन्नस्थित्यभावेऽपि तद्विशेष्यत्वं वर्तमानघटादिभावस्याविरुद्धमेव, अन्यथा सव्येतरगोविषाणवत् समानकालीनयोरपि सम्बन्धायोगस्समान एवेति विशेषणविशेष्यभावाऽभाव एव, तथाहि-किं समानकालीनयोः कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा सम्बन्धः, नाद्यः, पूर्वापरवर्तिनोरेव तत्स्वीकारेण सिद्धान्तव्याकोपप्रसङ्गात् , नापि द्वितीया, सर्वथाऽभेदे तदयोगात् , अन्यथा घटस्यापि घटनादात्म्यसम्बन्धात् घटविशेष्यत्वापत्त्या
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सम्मति• काण्ड १, गा. २५ घटोघट इति प्रतीत्यापत्तिस्स्यात् । तस्मादुभयात्मकवस्तुन्येव तत्त्वम् , तथा च वर्तमानभविष्यत्कालावच्छिन्नघटादिव्यक्तेरैक्येऽपि पूर्वापरकालात्मकविशेषणभेदेन कथञ्चिद्भेदस्वी. कारेण विशेषणविशेष्यभावोपपत्तेः स्थास्यन् वर्तमानो घट इति प्रतीत्युपपतिस्स्यादेवेति, न चैकस्मिन् स्थिरे पदार्थे पूर्वापरकालसम्बन्धित्वयोर्विरोधदोषाघ्रातत्वानोपपत्तिरिति वाच्यम् एवं सत्येकस्य परमाणोः परमाणुषट्केन युगपत् संयोगसम्बन्धबलात्परमाणोरपि षट्त्वं स्यात् , तदुक्तम्-" षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता" इति । तस्मादेकस्य पर. माणोः तद्दिगवच्छेदेन तत्परमाणुना तदन्यदिगवच्छेदेन तदन्यपरमाणुना सह युगपत्संयोगः सम्बन्धवस्थिरस्थापि पदार्थस्य पूर्वोत्तरकालावच्छेदेन पूर्वापरकालसम्बन्धोपपत्ते परापरकालसम्बन्धप्रयोज्याऽपरापरस्वभावभेदो विरुद्धः, येन विरुद्धधर्माध्यासेन भेदापल्या क्षणिकत्वं सिद्धं स्यात् । एतेनेकस्य परमाणोः किं सर्वात्मनाऽपरपरमाणुभिरभिसम्बन्धः, किं वैकदेशेन, आये सम्बन्धिद्वययोरेकपरमाणुरूपत्वापत्या परमाणुमात्रं पिण्डस्स्यात् । द्वितीयविकल्पेऽपि ते एकदेशा देशिभूतपरमाणुस्वरूपाः किं वा तद्भिनस्वरूपा:, आये भिन्नैकदेशानामेवाभावान्नैकदेशेनाभिसम्बन्धः, द्वितीये च ते एकदेशाः परमाणुभिस्सम्बद्धा असम्बद्धा वा, यद्यऽसम्बद्धास्तदा स्वमतक्षतिः, सम्बद्धाश्चेत्तदा सर्वात्मना, एकदेशेन वा, सर्वात्मनाऽभिसम्बन्धपक्षे एकदेशैकदेशिनोरभेदादेकदेशाऽभावान्नैकदेशेनाभिसम्बन्धः पर. माणूनाम् । एकदेशेनैकदेशानामेकदेशिनाऽभिसम्बन्धपक्षेऽपि चैकदेशानां ततो भेदाभेद. कल्पनायां तदवस्थः पर्यनुयोगोऽनवस्था च, न च प्रकारान्तरं दृष्टम् , येन परमाणूनाममिसम्बन्धस्स्यादित्यतोऽनुपलभ्यमानसम्बन्धकल्पनायां प्रमाणाऽभावेन षट्केन युगपत्सम्बन्धात् परमाणोः षडंशता स्यादित्युक्तमापादनमपि न युक्तियुक्तमिति कुचोद्यावकाशोऽपि निरस्ता, परमाणूनां द्रव्यनयेन निरंशतयैवाभ्युपगमेन कात्स्न्येनैकदेशेन वैकपरमाणोः परमाण्वन्तरेणामिसम्बन्धाऽभावेऽपि इमो संयुक्ताविति प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या प्रकारान्तरेणैषां सम्बन्ध इति कल्पनाया एव प्रमाणभृतत्वात् अन्यथा परमाणूनामसम्बद्धानां जलधारणाद्यर्थक्रियाकारि. त्वमेवानुपपन्नं स्यात् । वंशादीनां चैकदेशाकर्षणे तदपरदेशाकर्षणमुपलभ्यमानं न स्यात् । अथाभावप्रयुक्तव्यवधानस्य योऽभावस्तल्लक्षणनैरन्तर्यमात्रादेव संयुक्तप्रतीत्याद्युपपत्तेः किमर्थान्तरसंयोगकल्पनयेति चेत् , मैवम् , तद्भावमुखेन प्रतीयते न स्वभावमुखेनेति तस्य भावरूपत्वे नामान्तर एव विवादात् , तथा च भावमुखेन प्रतीयमानस्य नैरन्तर्यात्मकस्यापि संयोगस्यानभ्युपगमे कार्योत्पत्तिरहेतुका स्यादिति सोऽभ्युपगन्तव्य एव, तस्मात्पूर्वापरकालसम्बन्धयोगेऽपि स्वभावभेदान्नैकान्ततः क्षणिकत्वम्, किन्तु नीलपीताधाकार. समूहालम्बनज्ञाने यथा स्वरूपत एकत्वेऽपि नीलाकारत्वपीताद्याकारत्वरूपविभिन्न स्वभावस्वेनानेकत्वमविरुद्धं भवताऽभ्युपगतं तथैकस्मिअप्यक्षणिकवस्तुनि तत्तत्कालसम्बन्धप्रयुक्ता. परापरस्वभावभेदेन कथञ्चिदनेकत्वमविरुद्धमित्येकानेकस्वरूपतया प्रतीयमाने पदार्थे एकान्त
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सम्मति• काफ्ड 1, गा०:२७ मेदानुपपश्या स्वप्रतियोग्युत्तरभाविभावानपेक्षत्वहेतोरसिद्धेः विनाशे स्वप्रतियोग्युत्पत्तिक्षणाव्यवहितोत्तरक्षणभावित्वसिद्धिनेंति सिद्धम् । एतेन विनाशो निर्हेतुका स्वप्रति योग्युत्तरमावि. हेत्वनपेक्षत्वादित्यनुमानेन निहतुकत्वे सिद्धे विनाशः स्वप्रतियोग्युत्पश्यनन्तरमेव भवति निर्हेतुकवादित्यनुमानेन क्षणिकत्वसिद्धिरित्यपि निरस्तम् , मुद्गरादिना घटो ध्वस्त इति प्रतीतेविनाशस्य निर्हेतुकत्वस्यैवाऽसिद्धः। किशान्वयव्यतिरेकग्रहाधीन एव कार्यकारणभावग्रह इतीतरसकलकारणसद्भावे सति मुद्गरादिसच्चे घटध्वंसः, तदभावे तदभाव इत्यन्वय. पतिरेकाम्यां मुद्रादेहेतुत्वे सिद्धे विनाशस्य निर्हेतुकत्वं नियुक्तिकमेवेति पूर्वोक्तानुमानेन न क्षणिकत्वसिद्धिरिति । एतेन यो यन्मानहेतुको यो यदधीनत्वेन ध्रुवभावी वा स तदुत्पत्त्युत्तरक्षणेऽवश्यमभ्युपगन्तव्य इति सामान्यव्याप्तिमूलकं विनाशः स्वप्रतियोग्युत्पत्युत्तरक्षणेऽवश्य. मभ्युपगन्तव्यः स्वप्रतियोगिमात्रहेतुकत्वात् स्वप्रतियोग्यधीनत्वेन ध्रुवमावित्वाद्वेत्यनुमानमपि निरस्तम्, धंसवस्थितिरपि स्वाश्रयोत्तरक्षणेऽवश्यमभ्युपगन्तव्या स्वाश्रयमानहेतुकस्वाद स्वाश्रयाधीनत्वेन ध्रुवमावित्वाद्वैत्यापत्तिप्रसङ्गात् । अन्ततो यदेव हेमद्रव्यं कुण्डलरूपे. णोत्पद्यते तदेवाङ्गन्दादिरूपेण विनश्यतीत्यादिप्रत्ययानुरोधेनोत्पादध्वंसयोरेकाधिकरणवृत्तित्वायापि द्रव्यरूपस्थित्यन्वयस्याम्युपगन्तव्यत्वापत्तश्चेति । अथाऽक्षणिके क्रमेण तत्तत्कार्यकारित्वस्वभावत्वे तत्तत्कार्यभेदेन तत्तत्कार्यतानिरूपितकारणत्वस्वभावानां भिनत्वात्स्वभाव. तद्वतोरमेदाद् यावन्तस्स्वभावास्तावद्भेदप्रसङ्गेनैकत्वमेव तस्य व्याहतं स्यात् , युगपदेव कार्यकारित्वस्वभावत्वे चानागतकार्याणामप्युत्पत्तिप्रसङ्गा, अविकलकारणत्वात् , तथा चैकक्षण एव सकलकार्योत्पत्तेर्द्वितीयक्षणेऽकिश्चित्करत्वेन गगनारविन्दतुल्योऽक्षणिकभावस्स्यात् । न चैको भावः सकलकालकलाभाविनीयुगपत्सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकमपि । कि क्रमेणार्थक्रियां साधयन् स्थिरो भावो विवक्षिततत्तत्क्षणावच्छिन्नकार्य प्रतीव तत्तदुत्तरक्षणा. वच्छिन्नकार्य प्रति समर्थस्वभावः किंवाऽसमर्थस्वभावः, तत्र नाद्यपक्षो युक्तः, समर्थस्व. भावस्य क्षेपाऽयोग इति विलम्बेन कार्यकरणे हेत्वभावेन कालान्तरभाविनीः क्रिया प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् , समर्थस्य कालक्षेपाऽयोगात् , कालक्षेपाभ्युपगमे वाऽसामर्थ्य. प्राप्ते, नापि द्वितीयपक्षस्सङ्गतः, असमथेस्वभावत्वादुत्तरकालावच्छिन्नं तेन कार्य नोत्पद्यत ततोऽर्थक्रियाकारित्वाभावात्तदानीमसद्रूपं स्यात् । अथोत्तरकालावच्छिन्न कार्य प्रति पूर्वकालावच्छेदेनेवाऽसमर्थ न तूत्तरकालावच्छेदेनापीति चेत्तर्हि उत्तरपूर्वकालावच्छिन्नमामासामर्थ्यलक्षणविरुद्धधर्माध्यस्तत्वेनैकस्या अपि व्यक्तछंदप्रसत्या स्थैर्य न स्यात् । समर्थस्यापि सहकार्यपेक्षया विलम्ब इति चेत्, तर्हि तस्य सामर्थ्यमपरसहकारिसापेक्षवृत्तिकं सञ्जातमिति भावस्स्वतोऽसमर्थस्वभावस्स्यात् , "सापेक्षमसमर्थम्" (पात. महा०३.१-८) इति वचनात् , तस्य स्वतस्सामध्ये वा सहकारिद्वारोपजायमानानि कार्याणि स नैवोपेक्षेत, अपि तु साटित्येव तानि घटयेत् , अन्यथा तत्सामर्थ्यस्वीकारोऽजागलस्तनवनिष्फलकस्स्यात्।
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सम्मति० काण्ड १ ० २७
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किञ्च ते सहकारिणः किञ्चित्करा अकिश्चित्करा वेति विकल्पद्वयम्, अकिश्चित्करत्वे सहकार्य - पेक्षानुपपत्तेः, किञ्चित्करत्वादेव तदपेक्षेति चेत् तत्र पृच्छामः किं कारणस्य स्वरूपलामार्थ सहकार्यपेक्षा, उतोपकारार्थम्, किं वा कार्यार्थमिति, न प्रथमः स्वरूपस्य कारणाधीनस्य नित्यस्य वा पूर्वसिद्धत्वात्, न द्वितीयः, स्वयं समर्थेऽसमर्थे वोपकारस्यानर्थकत्वात् । नापि तृतीयः कारणस्य कार्यानुकूलसामध्यें सहकारिणमन्तरेणापि तत एव कार्योत्पत्तेः कार्यानुकूलाऽसामर्थ्ये च सहकारिणस्सच्वेऽप्युक्तस्वभावस्य तदवस्थत्वादेव कार्यानुत्पत्तेस्सहकारिणोऽकिञ्चित्करत्वेन नापेक्ष्यत्वं सम्भवतीति कार्यार्थमपि तदपेक्षाऽयोगादिति, अनेकावीनस्वभावतया कार्य मेवापेक्षत इति चेत्, न, कार्यस्य पूर्वमसिद्धत्वेनान्यस्याऽपेक्षाऽयोगात् । स्वतन्त्रकारणानुविधायित्वे च कार्यस्य स्वतन्त्र कारणवदेवान्यापेक्षत्वाऽयोगात्, अथवा केयमपेक्षा नाम, किं तैस्सह करोतीत्यन्वयपर्यवसितः स्वभावभेदः, उत तैर्विना न करोतीति व्यतिरेकपर्यवसायिस्वरूपविशेषः, आहोस्वित्तैरुपकृतः करोतीत्युपकार भेदः, आद्यपक्षे तैः सह करोतीत्यत्र सहकारिसाहित्यार्थकं तैस्सहेत्यन्तमुपलक्षणम्, किं वा विशेषणमिति विकल्पद्वयम्, यद्युपलक्षणं, तर्हि तस्य विशिष्टशरीराप्रविष्टत्वात्करोतीत्येतावन्मात्रस्य स्वभावत्वप्रसक्त्या सहकार्यऽसमत्रधानकालेऽप्युक्तस्वभावस्य सद्भावेन कार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्स्यात् । यदि विशेषण, तर्हि कर्त्तृत्ववत् सहकारिसाहित्यस्यापि स्वभावानुप्रविष्टत्वात् सहकारिणो न कदापि जह्यात्, प्रत्युत पलायमानानपि तान् गले पाशेनाकृष्यानयेत्, अन्यथा स्वभावहानिप्रसङ्गात्, अत एव न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तः, पूर्ववत्सर्वदाऽकर्तृत्वप्रसङ्गात् । सहकारिविरहादेवाऽकर्तृत्वस्वभावश्चेत् तर्हि कालान्तरेऽपि स्वहेतुत्रशादुपसर्पतोऽपि सहकारिणः पराणुद्य न कुर्यादेव, तद्विरहप्रयुक्ताऽकर्तृत्वस्वभावत्वात् । अयम्भावः - तैर्विनेत्यस्य विशेषणत्वात्तस्योक्तस्वभावप्रविष्टत्वेन कदापि तत्परित्यागाऽभावेन सहकारिकालेऽप्युक्तस्वभावस्य सवेन तदानीमपि कार्यं न कुर्यादेवेति । अथ सहकारिषु सत्सु कर्त्तृस्वभाव:, तद्विरहेऽकर्त्तृस्वभाव इति स्वभावद्वयमेवेति चेत्, तर्हि विरुद्धधर्माध्यासेनैकस्या अपि व्यक्तेर्नानात्वप्रसङ्गेन स्थिरत्वहानेः क्षणिकत्वसिद्ध्याऽस्माकमेव सिद्धिस्स्यात्, न चोक्तस्वभावद्वयस्य पूर्वोत्तरकालावच्छेदेनाभ्युपगमान विरुद्धधर्माध्यास इति वाच्यम् स्वभावतद्वतोरभेदात्स्वभावयोर्भेदे तदभिन्नधर्मिणोरपि मेदस्यावश्यम्भावात्, एकस्य धर्मिणस्स्वाभिन्नस्वभावद्वयायोगात्, योगे वा तद्वद् धर्मिणोऽपि द्वैतप्रसङ्गस्स्यात्, धर्मिण इव स्वभावद्वयस्यापि वैक्यप्रसङ्गस्स्यात् तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वनियमादिति । स्वभावतद्वतोर्भेदे हिमाद्रिविन्ध्याचलयोरिख सम्बन्धाऽयोगेन स्वभावयोर्धर्मिणि वाऽयोगेन निस्स्वभावत्वेनासतो धर्मिणः किञ्चित्कार्यकारित्वं न स्यादिति । तृतीयपक्षस्तु बहुसुखानवस्था दुरस्थः, तथाहि सर्वदोपकारप्रसङ्गपरिहाय सहकारी कारणे उपकारं सहकार्यन्तरमपेक्ष्यैव करोतीत्यभ्युपगन्तव्यम् । सहकार्यन्तरमपि सहकारियुपकारं कुर्वत् सहकार्यन्तरमपेक्ष्यैव तं करोति, तदपि सहकार्यन्तरं सहकार्यन्तरे सहकार्य
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सम्मति काण्ड १, गा २७
१२८ न्तरमपेक्ष्यैव तं विधत्ते, एवमग्रेऽपीत्यनवस्थाऽऽद्या। सहकारिकृतोपकारेण समर्थन सर्वदा कार्योत्पादप्रसङ्गभीत्योपकारान्तरमपेक्षणीयं स्यात् , तेनाप्यन्योपकारोऽपेक्षणीयस्स्यात, तेना. प्यन्य इत्येवं द्वितीयाऽनवस्था । तथा सहकारिणा कर्त्तव्यस्योपकारस्य धम्यभेदे सहकारिणा धर्येवोत्पादितस्स्यात् , न चेदं युक्तम् , कारणीभूतस्य धर्मिणस्स्वसामग्रीत एवोत्पनत्वात् , धर्मिभेदे तु तस्य किमायातम् , भेदे सम्बन्धाऽयोगेन धर्मिणोऽनुपकृतत्वेन तदयस्थत्वात् । अथ मिन्नेनाप्युकारेण धर्मिणि किश्चिदुपकारान्तरमाधेयम् , तर्हि तेनापि तत्रान्यदाधेयं स्यादिति तृतीयाऽनवस्थाऽऽकाशतलावलम्बिनी स्यादिति तदेवमक्षणिके क्रमयोगपद्याभ्या. मर्थक्रियाविरोधात्ततः क्रमाक्रमाभ्यां व्याप्ताऽर्थक्रिया व्यापकानुलब्धिबलाद् व्यापकनिवृत्ती निवर्तमाना व्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति, तदप्यर्थक्रियाकारित्वं व्यापकं निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयतीत्यक्षणिकस्यासचे सिद्धे प्रकारान्तराभावात् क्षणिक एव सत्वं विश्राम्यतीति सचक्षणिकत्वयोाप्तिसिद्ध्या क्षणिकत्वं सेत्स्यतीति चेत् , उच्यते, समाधिः क्षणिकेऽपि क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधस्याक्षणिकवादिनापि वक्तुं शक्यत एव, तथाहि-न हि कारणभेदमन्तरेण कार्यस्प भेद उपलभ्यते, अन्यथैकस्मादेव कारणादनेक कार्योत्पत्तिर्भविष्यतीति भिन्न कार्योत्पत्त्यर्थं भिन्न कारणोपादानार्थी प्रवृत्तिनिष्फला स्यात्, तथा चैकस्मादेव प्रदीपाद् युगपदेव स्वोपादेय-स्वविषयकज्ञान-घटादिविषयकज्ञान-तमोऽभि. भव-वर्त्तिविकारादयो भवन्ति, तत एकक्षणेऽप्ये कस्य प्रदीपस्थ कार्यभेदप्रयोज्यस्वभावभेदेन भवन्मतेऽनेकत्वं स्यात् , एवं पूर्वरूपस्योपादानभावेनोत्तररूपं प्रति, सहकारिभावेन चोत्तर. रसादिकं प्रति कारणत्वादेकस्यापि पूर्वरूपस्यानेकत्वं स्यात् , स्वभावभेदमन्तरेण कार्यभेदाs योगात , एकस्वभावजन्यत्वे च तेषां कार्याणामेकत्वापत्तेः, स्वभाव भेदे चैकत्वस्य व्याहते. नैकस्य युगपदनेककार्यकारित्वमभीष्टं सिद्धं स्यादिति । अथ स्वभावभेदादेव कार्य मेदो नेष्यते किन्तूपादानभेदादेवेति चेद्, भवत्वेवं, तथापि स्वभावभेदोऽभ्युपगत एव, उपादान भावेन सहकारिभावेन चैकस्य प्रदीपादे रूपादिक्षणस्य वा युगपदनेककार्योत्पत्तावुपयोगा. भ्युपगमात् । उपादानसहकारिस्वभावयोश्च परस्परं भेदात् , तथा च स्वभावभेदादेकस्या अपि प्रदीपादिव्यक्ते नात्वप्रसङ्गः स्यादिति । अथैकस्मिन् कार्ये य एवोपादानभावस्स एवं कार्यान्तरोत्पत्तौ सहकारिभाव इति तयोरभेदान्न स्वभावभेद इष्यत इति चेद , तर्हि किं सहकारिरूपं कारणमभ्युपगम्यते किं वोपादानरूपम् ,न तावदाद्यपक्षो युक्तः, उत्पादानस्यैवाभावात् कुतस्तद्भेदात्कार्यभेदः । न द्वितीयोऽपि पक्षः समीचीनः, यता प्रदीपः स्वोपादेयकार्य प्रति यथोपादानकारणं तथैव सहकार्यकार्यमानं प्रत्यपि, यथा पूर्वरूपमुत्तररूपं प्रत्युपादानकारणं तथैव रसादिकं प्रत्यपीत्युपादानभूतस्यैकत्वेनोपादानभेदात्कार्य भेद इति पक्षक्षतेभिन्नानि कार्याणि न स्युः । एवमपि यदि क्षणिककारणस्यक कार्य प्रत्युपादानभाव एवान्यकार्य प्रति सहकारिभाव इति न शक्तिलक्षणस्वभावभेदः, तीक्षणिकस्यापि कारणस्य पूर्वकाला.
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सम्मति० काण्ड-१, गा० २७
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कार्यकारित्वमेवोत्तरकालावच्छिन्न कार्यकारित्वम्, न त्वन्यदिति क्रमेणानेककार्यकारि गोऽपि न स्याच्छक्तिलक्षणस्वभाव मेदः कार्यसाङ्कर्यश्च । न च पूर्वक्षणावच्छिन्न कार्यानुकूलसामर्थ्यमेव यद्युत्तरक्षणावच्छिन्न कार्यानुकूल सामर्थ्यं तर्हि तयोरभेदात्पूर्वक्षणावच्छेदेनैवोत्तरकार्यानुकूलसामर्थ्य सद्भावात् पूर्वक्षण एवोत्तरकार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्स्यादिति वक्तव्यम्, क्षणिकेऽप्यस्य समानत्वात् तथाहि — कारणस्य प्रथमक्षणावच्छिन्न सत्ताकाले द्वितीयतृतीयादिक्षणावच्छिन्न कार्यानुकूल सामर्थ्यस्याभावे उत्तरकालेऽपि तत्तत्कार्याणि न स्युरिति प्रथमक्षणेऽपि तादृशसामर्थ्य सद्भावेन युगपदेव तत्तत्कार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्स्यात्, समर्थस्य क्षेपायोगादिति कार्यकारणयोरेककालीनत्वप्रसक्त्या कार्यकारणभाव एव विनश्येत । नन्वाद्यक्षणे सहकारिविरहान्नोत्तरक्षणावच्छिन्न कार्योत्पत्तिप्रसङ्ग इति चेत्, तक्षणिकपक्षेऽपि तुल्यमेतत् । अथोक्तसामर्थ्यस्योत्तरक्षणघटितत्वेन तच्छालिना कारणेन पूर्ववर्तिनोत्तरक्षणावच्छेदेनैव तत्तत्कार्योत्पत्तिः, न तु प्रथमक्षणावच्छेदेनेति यदि ब्रूयात्तदाऽक्षणिकवादेऽपि समानमेवैतत् । तन्न क्षणिकपक्षे युगपत्कार्यकारित्वं युज्यते, नापि क्रमिककार्यकारित्वं क्षणिक वस्तुनि प्रमाणपद्धतिमत्रलम्बते, सर्वकालमभिन्नस्वरूप एवं वस्तुनि तस्य घटमानत्वात्, देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्य तत्र सम्भवात् । प्रतिक्षणविनाशिनि च भावे नानादेशव्याप्तिलक्षणस्य देशक्रमस्य नानाकालव्याप्तिलक्षणस्य कालक्रमस्य चासम्भवात् । यदाहुः
“ यो यत्रैव स तत्रैव, यो यदैव तदैव सः ।
न देशकालयोग्यप्ति - र्भावानामिह विद्यते ॥ १ ॥ इति ।
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अन्यथा तत्तत्पूर्वापरक्षणोत्पद्यमानघटपटमठादीनामपि क्रमवत्क्षणापेक्षया तत्तत्कार्यकारित्वेन क्रमिककार्यकारित्वप्रसङ्गरूपातिप्रसङ्गस्स्यात्, अथ यद्यपि स्वतः प्रतिक्षणमुत्पद्यमानः क्षणिक पदार्थो भिन्नभिन्न एव तथापि पूर्वापरक्षणवर्त्तिनां तेषां सौसादृश्यादेकत्वाध्यवसायात्काल्पनिकैकत्वेन क्रमकारित्वम्, क्रमोत्पद्यमानघटपटादीनां तु तदभावान्न तथात्वमित्यपि न च वक्तव्यम्, सर्वतो व्यावृत्तवस्तुवादिनां भिन्नेष्वभेदावगाहिभ्रान्तिनिमित्तस्य वस्तुभूतसाधर्म्यस्याभावात्, न चैकपरामर्शप्रत्यय हेतुत्वेन साधर्म्यमभ्युपगन्तव्यम्, चक्षूरूपालोकमनस्कारेष्वपि तस्य प्रसक्तेः काल्पनिक सादृश्यस्य तादृशभ्रान्तिनिमित्तत्वे च कल्पनाया निरङ्कुशत्वेन सर्वत्र तत्प्रसङ्गात् । वास्तविक सादृश्यस्य चाभ्युपगमे तस्य यदि क्षणिकत्वमुररीकरोषि न तर्हि क्षणेभ्यः कश्विद्विशेषः । अथाऽक्षणिकत्वमिति चेत्, तर्हि पर्यवसितं क्षणिकवादेन, अक्षणिकस्य सादृश्यस्य सद्भावात्, अभिहितश्च न्यायमञ्जर्याम् - " अथापि नित्यं परमार्थसन्तं, सन्ताननामानमुपैषि भावम् । उत्तिष्ठ भिक्षो फलितास्तवाशाः, सोऽयं समाप्तः क्षणभङ्गवादः ॥ १ ॥ " इति
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सम्मति काण्ड १, गा० २७
तदेवं क्षणिके क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाचतोऽर्थक्रियानिवृत्तौ तद्व्याप्यं सत्त्वं व्यापकानुलब्धिबलेनैव निवर्त्तमानं गत्यन्तराभावादक्षणिक एवावकाशं लभत इति साध्यविपर्ययसाधनात्सच्च हेतुर्विरुद्ध इति न तेन क्षणिकत्वं सिध्यति । यच्च समर्थFarata क्षेपायोग इति विलम्बेन कार्यकरणे हेत्वभावेन कालान्तरभाविनी: क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यादिति पूर्वोक्तं, तत्र सहकारिसान्निध्ये सति क्षेपाsयोग इति वदामः तथा च सहकार्य सन्निधेर्विलम्बो युक्त एव, तथाहि-सहकारिषु सत्सु करोति तैर्विना न करोतीत्ययमस्य स्वभावो दर्शनवलादेवावगम्यते, एवंविधस्वभावस्य विरोधाभावादुभयवादिसिद्धत्वाच्च यतः क्षणिकोऽपि हि कुर्वद्रूपो भावः सहकारिभिः सहैव करोतीति स्वभावो भवद्भिरभ्युपगन्तव्य एव । इतरथा सहकारिणामसहकारित्वप्रसङ्गस्स्यात् । ननु नैते सहकारिणः, किन्तु सहितकारिण इति चेत्,
कैकस्य सामर्थ्ये पृथगेव कार्यजननापत्तिः, असामर्थ्ये सहितकारित्वमपि न भवेत्, न हि षण्ढ इतरसहकृतोऽपि पुत्रोत्पादको दृष्ट इति । अतस्सहकारिभिस्सहैव करोतीति नियमे सति तैर्विना न करोतीति विपर्ययनियमोऽध्यागत एव, अतः सहकार्य सन्निधेर्विलम्बो युक्त एव । कारणस्य स्वरूपलाभार्थं सहकार्यपेक्षा उतोपकारार्थं किं वा कार्यार्थमिति विकल्प्य यदुक्तं, तदप्यसङ्गतमेव, यतः कारणस्य फलोपधानात्मक कारणताशालिस्वरूपमेव सहकार्यपेक्षम्, सहकार्यपेक्षमेव च स्वरूपं सामर्थ्यशब्देनाप्युच्यते, तथा च सहकारिसत्ताधीनसत्ताकतया सामर्थ्यं सहकार्यपेक्षयैव स्वस्वरूपतां बिभर्तीति तदपेक्षाssवश्यकीति सहकारिसहितस्यैव समर्थत्वान पूर्वोक्तदोष इति । यच्च तैस्सह करोतीत्यत्र सहकारि साहित्यार्थकस्य तैस्सहेत्यस्य विशेषणत्वे कर्त्तृत्ववत्सहकारिसाहित्यस्यापि स्वभावानुप्रविष्टत्वात् सहकारिणो न कदापि जह्यादित्युक्तम्, तदपि तत्राऽपि समानमेव, सहकार्यऽसाहित्ये सति न करोतीति नियमे सहकारिणः स्वकारणादागच्छतोऽपि निवार्य न कुर्यात्, तैर्विना हि न करोतीत्ययमस्य स्वभाव इति । तस्माद् यद्युपनिबन्धेन यदि सहकारिणस्स्वकारणादागच्छेयुस्तदा कुर्यात्, यदि नागच्छेयुस्तदा न कुर्यादित्येवंविधे स्वभावे न कविदोष इति । स्यादेतत्-तैस्सह करोति तैर्विना न करोतीति योऽस्य स्वभावः स पञ्चादस्ति न वा, अस्तीति पक्षे कारणोत्पत्तिकाल इत्र कार्योत्पत्तिकालेऽपि व्यतिरेकस्वभावस्य विद्यमानत्वेन सहकारिसाहित्ये सत्यपि कारणं कार्यं न कुर्यात्, अन्यथोक्तव्यतिरेकस्वभावहानिप्रसङ्ग इति । नास्तीति पक्षे सुतरां तद्वतोऽप्यभावः, न हि स्वभावमन्तरेण स्वभाविनस्तत्रं युक्तमित्यस्मन्मताभ्युपगमः कृतस्स्यादिति चेत्, तदपि तवापि मते समानमेव, तैस्सह कुर्वतो योsस्य तैर्विना न करोतीति स्वभात्रः स यद्यस्ति, तदा न कुर्यादेव, तथा च क्षणिकबाह्यवादोऽप्युच्छिद्येत, क्षणिक भावस्य द्वितीयक्षणावच्छेदेनाप्यर्थक्रियाकारित्वाभावेनालीकरूपत्वादिति । यदि स नास्ति, तदा व्यतिरेकव्यावृत्तावन्वयव्यावृत्तिरिति स्वरूप
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सम्मतिः काण्ड ,गा. २७
१३१ हानिप्रसङ्गः । तथा च बाह्यवादोच्छित्तिरेव, अन्वयव्यतिरेकस्वभावद्वयमूर्तिकत्वात्क्षणिकमावस्य, स्वभावद्वयस्य च मिथोऽनुस्यूतत्वादेकस्याभावे तन्नियतद्वितीयस्याप्यमावेन निस्स्वभावत्वं स्यादिति भावः । निर्विशेषणत्वेन शुद्धस्वरूपधर्म्यस्त्येव, सहकारिमिर्विना न करोतीति व्यतिरेकस्वभावमात्रं तु तत्र नास्तीति चेत्, ममापि कार्याकरणकाले सहकारिसाहित्यस्य विशेषणस्याभावात्तद्विशिष्टान्वयस्वभावस्याभावेऽपि निर्विशेषणत्वेन शुद्धस्वरूप धर्म्यस्त्येवेति समः समाधिः, अन्यत्सर्वमनभ्युपगतोपालम्भमात्रमित्युपेक्षणीयमेवेति । तदेवं सुन्दोपसुन्दन्यायेनैकान्तक्षणिकाऽक्षणिकपक्षयोमिथः प्रतिहन्तृत्वाकोऽप्येकान्तपक्षो युक्तः, किन्तु मिथस्सापेक्षमावेन स्याद्वादपक्ष एव युक्तः, गुडनागरसंयोगजन्यद्रव्यान्तरस्य विलक्षणतया कफपित्तोमयनाशकत्ववत् कश्चित्क्षणिकाक्षणिकोमयरूपत्वेनानेकान्तास्मकवस्तुनो जात्यन्तररूपतया तत्र प्रत्येकपक्षमाविदोषविनाशकत्वेन निराबाधस्वरूपतयोभयपक्षभाविदोषशङ्काकलकाऽकान्दिशीकत्वात् । एतच्च सविस्तरमस्मत्कृतस्याद्वादविन्दुतोऽबसेयम् । अभिहितश्च कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्येणान्ययोगव्यवच्छेदिकायामपि
" य एव दोषाः किल नित्यवादे, विनाशवादेऽपि समास्त एव । __परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु, जयत्यधृष्यं जिन! शासनं ते ॥ २६ ॥” इति
ननु स्याद्वादपक्ष एव युक्त इत्यत्र को हेतुरिति चेत् , उच्यते, एकस्मिन्नेव देवदत्त आपेक्षिकपुत्रपितृनप्तमागिनेयादिनानाव्यवहारस्यापेक्षिकलघुत्वमहत्त्वादिव्यवहारस्य चान्यथाऽनुपपल्या वस्तुमात्रे धर्मित्वस्वभावेनैकत्वस्येव परमार्थभूतेनौपाधिकस्वभावभेदेनाने. कत्वस्यापि वस्तुभूतस्यानुभूयमानत्वादित्येव जानीहि । अत एव कार्यतात्मकनिरूपकभेदेन कारणतास्वभावभेदस्तावदन्यैरप्येकनावश्यं स्वीकर्तव्य एव, अन्यथा विविक्तव्यव. हारोच्छेदस्स्यात् , न च स्वभावभेदः काल्पनिक इति विविक्तव्यवहारोऽपि कल्पनाशिल्पिनिर्मित एवेति वाच्यम् । तथा सति
"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किश्चन ।।
आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत्पश्यति कश्चन ॥१॥" इत्याधुत्त्या ब्रमविवतं जगदिति ब्रुवाणस्याभेदवादिवेदान्तिन एव विजयस्स्यात्, तैर्जगमानात्वस्य कल्पनामूलत्वेनाभ्युपगमात् । तस्मात्स्वभावभेदस्याऽपि परमार्थभवत्वेन तत्प्रयोज्यानेकत्वस्यापि वास्तविकतयैकानेकस्वभावस्य वस्तुनः कथञ्चिनित्यानित्यतयैवार्थक्रियाक्षमत्वमवसेयमित्यलं पल्लवितेन, गौरवमीत्या नाधिकं प्रतत्यते । एतेनैकान्तद्रव्यमात्रवादोऽपि निरस्ता, कार्यकारणभावामावे प्रवृत्तिनिवृत्युपेक्षाव्यवहाराऽमावेन निरीहं जगस्यात्, न च कार्यकारणभावः पारमार्थिको नास्ति, काल्पनिकस्त्वस्त्येवेति नोक्तदोष इति वाच्यम् , तस्थानेकप्रमाणसिदत्वेन सर्वलोकैरविगानेनाभ्युपगतत्वेन पारमार्थिकत्वात् , काल्प
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सम्मति• कान, गा० २. निकत्वे च प्रमाणाऽभावादिति । यद्यपि ब्रह्मकान्तवादस्तु पूर्वमेव निरस्तस्तथापि किश्चि-बिरस्यते, यच्च ब्रह्मैकान्तवादिना 'ब्रह्मैव सत्' इत्यायुक्तं तन्न समीचीनम् , सन् घटा सन् पट इत्यादिप्रत्यक्षात्मकप्रतीतौ चक्षुरिन्द्रियजन्यायां नीरूपस्य ब्रह्मणः सद्रूपस्य भानासम्भवेनोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वलक्षणसत्त्वस्थैव कथञ्चिद् घटाद्यात्मकस्य चक्षुरादीन्द्रिययोग्य. स्योक्तप्रतीतौ भासमानत्वेन सद्रूपस्य ब्रह्मणोऽसिद्धे, उत्पादव्ययधौव्यात्मकत्वस्य कथश्चिदनुगतत्वेन सदंशे उक्तप्रतीतेरनुगतावगाहित्वस्याप्युपपत्तेः, अतिरिक्तसत्तावादिनैयायिकादिमते ताशसत्तासम्बन्धस्य भेदामेदादिविकल्पदक्षितत्वेन भानापाकरणेऽपि जैनाभ्यु. पगतोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वस्य घटादिभिस्सम कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नस्य विकल्पतो निरसितुमशक्यत्वात् , प्रपञ्चो मिथ्या दृश्यत्वादित्यायनुमानानां प्रपञ्चमिथ्यात्वसाधकानामपि मिथ्यात्वेन स्त्रयमेव वेदान्तिनाऽभ्युपगततया तैमिथ्यात्वसिद्धेरसम्मवान सद्पस्य जगतो ब्रह्मविवर्त्तत्वमिति 'जगचद्विवर्तरूपम्' इत्यभिधानमप्यसङ्गताभिधानमेव, जीवकोटिव्यतिरिक्त ईश्वरो यथा न युक्त्या सिद्ध्यति तथा ब्रह्मापि, इति ब्रह्मप्रतिपादक आगमोऽष्टविधकर्मविनिर्मुक्तं जीवात्मानमेव प्रतिपादयतीति न तेन जीवकोटिबहिर्भूतस्य ब्रह्मणः सिद्धिः, यदा च ब्रह्मविर्वतरूपं न जगत् , किन्तु प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धस्वस्वकारणप्रभवघटादिसत्य. स्वरूपमेव, तदा ब्रह्मणि जगदारोपफलकतया दोषविधयाऽविद्याऽज्ञानादिपदवाच्याया परिणामिकारणात्मिकाया मायायाः कल्पनाऽपि युक्तिशून्यैवेति 'मायायाश्च अज्ञानपदवाच्याया विकाररूपं जगत् ' इति कथनमपि युक्तिरिक्तमेव, एवञ्च, ' तथा च ब्रह्मणो विवतः अज्ञानविकारश्च जगत् ' इति निगमनं द्रापेतम् , यदा च मायैव नास्ति तदा
" अयं जीवो न कूटस्थं, विविनक्ति कदाचन ।
अनादिरविवेकोऽयं, मूलावियेति गम्यताम् ॥ २५ ॥ विक्षेपावृतिरूपाभ्यां, द्विधाविद्या व्यवस्थिता । न भाति नास्ति कूटस्थ, इत्यापादनमावृतिः ॥ २६ ॥ अविद्यावृतकूटस्थे, देहद्वययुता चितिः।
शुक्तौ रूप्यवदध्यस्ता, विक्षेपाध्यास एव हि ॥ ३३॥" इत्यादिपञ्चदशीचित्रदीपप्रकरणोक्तस्वमतप्रक्रियाभिधानं वेदान्तिनोऽनाकर्णनीयमेव परीक्षकैः, तथा चैते वादाः कारणे परिणामिनि वा कार्य परिणामो वा सदेव, न कारणमेव कार्य किन्तु तद्भिनमेवासद्रूपं तत्, न कार्य न कारणम् किन्तु द्रव्यमानं तत्त्वम् , ब्रममात्रं वा तच्चमिति नियमेनैकान्ताभ्युपगमे मिथ्यावादा एवेति सिद्धम् ॥ २७ ॥ ___ तदेवं स्वेतरधर्माऽसंमिश्रसवायेकैकधर्मविशिष्टं वस्तु नैवानुभूयत इति नैकान्तात्मक तत् , किन्तु स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेन सच्चादिधर्मस्येव परद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेन
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सम्मति कान्ह १ मा० २७
तदभावरूपाऽसच्चादिधर्मस्याऽप्येकस्मिन् वस्तुन्यनुभूयमानत्वेन तदात्मकत्वेनानेकान्तात्मकमेव, न च सत्त्वतदभावयोर्विरोधान्नैकत्र सच्यम्, येन तदुभयात्मकत्वेना ने कान्तात्मकं वस्तु प्रमाणकोटिप्रविष्टं स्यादिति वाच्यम्, प्राचीननैयायिकमते शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी न मूले इत्यबाधितानुभवबलात् शाखामूलादिविभिन्नावच्छेदेनैकस्मिन्नेव वृक्षे कपिसंयोगतदभावयोरिव नव्यनैयायिकमते शाखामूलावच्छेदेन कपिसंयोगितद्भेदयोरिव बौद्धमते चित्रज्ञाने नीलाकारत्व पीताकारत्वयोरिव स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादितत्तन्निमित्तापेक्षया तयोरप्यविरुद्धत्वात्, अत एवाविरोधद्योतकस्यात्पदघटितमेव वाक्यं प्रयुञ्जते स्याद्वादतत्त्वज्ञाः ।
44
अप्रयुक्तेऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत्प्रयोजकः ॥ १ ॥ "
इत्युक्तेर्यत्रापि स्यात्पदाऽप्रयोगस्तत्रापि सर्वत्रार्थात्तं प्रतियन्ति एकान्तव्यवच्छेदाय, शङ्खः पाण्डुरः पार्थो धनुर्धरः, नीलं सरोजं भवतीत्यायोगस्यान्ययोगस्यात्यन्ताऽयोगस्य व्यवच्छेदायाप्रयुक्तमध्येवकारं प्रकरणसामर्थ्यात्तद्विदोऽवगच्छन्ति, तद्वदिति । विरुद्धधर्मद्वयस्य तत्तन्निमित्तापेक्षयाऽविरोधानभ्युपगमे नैयायिकंवैशेषिकमते भ्रान्तज्ञाने धर्म्यपेक्षया प्रामाण्यं प्रकारापेक्षया चाप्रामाण्यमित्येवं प्रामाण्याप्रामाण्ये न स्याताम् । साङ्ख्यमतेऽपि एकस्या एव प्रकृतेत्रिगुणात्मकत्वं न स्यात्, बौद्धमतेऽपि चैकस्मिन्नेव चित्रज्ञाने नीलाकारत्व पीता कार त्वादिकं न स्यात्, उत्तररूपं प्रति पूर्वरूपस्योपादानकारणत्वम् उत्तररसम्प्रति निमित्तका - रणत्वमित्यपि न स्यात्, स्त्रीकृतचोक्तवादिभिः प्रामाण्याप्रामाण्याद्युक्तधर्माऽविरोधो भ्रान्तज्ञानाद्युक्तस्थलेष्विति तत्र स्याद्वादमवलम्बमानास्ते वादिनो यदि सलजास्तदा भगवंस्तव मतं नैव निन्दन्ति, तन्निन्दायाः स्वपदकुठारप्रहारतुल्यत्वात् । यदुक्तं खण्डखाद्ये श्रीमहावीरस्तवापरनामके
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"साङ्ख्यः प्रधानमुपयंस्त्रिगुणं विचित्रां, बौद्धा धियं विशदयन्नथ गौतमीयः । वैशेषिकच भुवि चित्रमनेकमेकं वाञ्छन् मतं न तव निन्दति चेत् सलज्जः ॥ ४४ ॥ " इति ।
कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिभिर्वीतरागस्तोत्रे ऽप्युक्तम् -
" चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
योगो वैशेषिको वाऽपि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ १ ॥ " इति
तथा चोक्तनीत्याऽनेकान्तात्मकतया वस्तुनि सिद्धे सर्वेऽपि सङ्ग्रहादयो नयाः परनयविषयाणामपि कथञ्चित्सद्रपतया तदसत्रज्ञापनाऽसमर्थत्वात्तत्र गजनिमीलिकान्यायेनौदासीन्यवृत्या वस्त्वेकदेशरूपस्व विषय परिच्छेद रूपत्वात्तद्वति तत्प्रकारकत्वेन सम्यग्ज्ञानरूपा
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सम्मति • काण्ड १, गा० २०
अपीतरयविषयव्यवच्छेदेन स्वविषये प्रवर्त्तमाना भ्रान्तज्ञानात्मकतया मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाह -
१३
णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वणया परवियालणे मोहा । ते उण ण दिट्ठसमयो, विभयइ सच्चे व अलिए वा ॥ २८ ॥
'णिययवयणिञ्जसच्चा' निजकवचनीये निज एव निजकः वक्तुं योग्यो वचनीयो निजकवासौ वचनीयश्च निजकत्रचनीयस्तस्मिन् अथवा निज एव निजकस्तेन निजकेन स्वेन वचनीयः - प्रतिपाद्यो विषयस्तस्मिन् स्वविषये स्वांशे परिच्छेद्य इति यावत्, सत्याः सम्यग्ज्ञानरूपाः 'सवणया' सर्वनया रसग्रहादयः, गजनिमीलिकान्यायेन तेषां नयानां स्वविषयांतरांशाऽप्रतिक्षेपित्वेन स्वविषयस्य सत्यरूपतया तद्वन्निष्ठविशेष्यता निरूपिततनिष्ठ प्रकारता निरूपकत्वात्तेषाम् । 'परवियालणे मोहा' परविचालने परविषयोत्खनने, स्वविषयमात्रस्यैव सत्यरूपतया व्यवस्थापनं कृत्वा परनयविषयस्यासत्यत्वेन ज्ञापने सतीति यावत्, मुह्यन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः, सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन स्वेतर - धर्माभावविशिष्टतद्धर्मस्याभाववति तादृशतद्धर्मप्रकारकत्वात्, परविषयोत्खननेऽसमर्था वा, परनयविषयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात्, स्वान्यनय विषयस्यापि स्वविषयेण सहाविनाभावित्वेन तदभावे स्वविषयस्यापि सत्यत्वेनाव्यवस्थितेः, मिथोनान्तरीयकत्वात् । अतः परनयविषयस्याभावे स्वविषयस्याप्यसस्वात् तत्प्रत्ययस्य मिध्यात्वमेवेत्यवधारयन् ' दिट्ठसमओ ' दृष्टस्समयः सिद्धान्तवाच्योऽनेकान्तात्मकः पदार्थों येन विदुषा स तथा निर्णीतानेकान्ततश्व इति यावत्, ' ते उण' तानेव नयान् पुनशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 6 ण विभयह सच्चे व अलिए वा, ' नेति प्रतिषेधो विभजनक्रियायाः, तथा च सत्यान् अलीकान् वा न विभजते किन्त्वितरनयविषयसव्यपेक्षतया ' अस्त्येव द्रव्यार्थतः ' इत्येवं भजनया स्वनयामिप्रेतमर्थं सत्यमेवावधारयति, अयम्भावःनयप्रामाण्याप्रामाण्ययोर्नैकान्तमवधारयति किन्त्वितरांशसापेक्षो यदशो यदपेक्षया यत्र तत्र तदपेक्षया तर्दशग्राहकत्वे तत्तन्नयानां प्रामाण्यम्, तद्वति तत्प्रकारत्वात्, अन्यथा ग्राहकत्वे चाप्रामाण्यम्, तदभाववति तत्प्रकारकत्वादित्येवमनेकान्तमेव निश्चिनोति स्याद्वादतज्ञः । इयमेव गाथा गुरुतच्चविनिश्चये
"
" यियवयणिज्जसच्चा, सव्वणया परविद्यालणे मोहा । ते पुण अदिसमओ, विभयह सच्चे व अलिए वा ॥ ४५ ॥ इत्येवं दृश्यते, तत्र चास्या अयमर्थः कृतः - 'णियय 'त्ति निजकवचनीये सत्या अर्थप्रतिपादकत्वात् सर्वे नया नैगमादयः परस्य नयस्य विचारणे परेण नयेन विचालने स्वार्थस्य परित्याजने वा 'मोघा' विफला असत्या इति यावत् । अन्यार्थाप्रतिपादकत्वात्, अन्य
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सम्मति० काण्ड १, गा. १९ नयप्रतिबन्धेन स्वार्थाप्रतिपादकत्वाद्वा । 'तान्' नयान पुनः अदृष्टसमयः' अज्ञातसिद्धान्तपरमार्थः, विभजते एकान्तेन निश्चिनोति, सत्यान् अलीकान् वा, स्यात्सत्यत्वासत्यत्वप्रतिपादने तु दृष्टसमयतेवेति मावः ॥ २८॥
अतो नयप्रमाणात्मकैकरूपताव्यवस्थितमात्मस्वरूपमनुगतव्यावृत्तात्मकम् उत्सर्गापवादरूपग्राह्य ग्राहकात्मकत्वाद् व्यवतिष्ठत इत्यर्थप्रदर्शनायाह
दव्वट्ठियवत्तव्वं, सव्वं सव्वेण णिश्चमवियप्पं ।
आरद्धो य विभागो, पज्जववत्तव्वमग्गो य ।। २९ ।। 'दचट्ठियवत्तव' द्रव्यार्थिकवक्तव्यं यत् किञ्चिद् द्रव्यार्थिकस्य सङ्ग्रहादेर्नयस्य सदादिरूपेण व्यवस्थितं वस्तु वक्तव्यं परिच्छेद्यं तत् 'सवं' सर्व ' सवेण' सर्वेण प्रकारेण 'णिचं' नित्यं सर्वकालं 'अवियप्पं ' अविकल्पं विकल्पो भेदस्तेन रहितम् , सर्वस्य सदसद्विशेषात्मकत्वात् , सबहनये यत्किश्चिद्वस्तु तत्सद्रूपेण व्यवस्थितम् , सर्वस्य वस्तुनः सद्विशेषात्मकत्वेना. भिन्नत्वादेव, न चैवन्तर्हि सदात्मकत्वेनेत्येव वक्तव्यम् , न तु सद्विशेषात्मकत्वेन, तथा सति सतो विशेषस्सद्विशेषः, स च द्रव्यत्वपृथिवीत्वादिभेदरूप एवेति तदात्मकत्वेन निर्मंदत्वं न स्यादिति वाच्यम् , संश्वासौ विशेषः सद्विशेषः असन्यावृत्तस्वरूपस्तदात्मकत्वादित्यर्थस्यात्राश्रयणात् , तथा च सद्विशेषात्मकत्वादित्यनेन सदात्मकत्वादित्येवार्थो लब्धा, तथा च सद्रपेण निर्मंदत्वं सद्भहनयेन सर्वस्य वस्तुन इति सिद्धम् , असद्विशेषात्मकत्वादिति च व्यवहारनयापेक्षयोक्तम् , तन्मते द्रव्यपृथिव्यादिरूपेण व्यवस्थितं सर्व वस्तु नित्यं निर्भेदम् , असद्विशेषात्मकत्वात् , अत्र द्रव्यपृथिव्यादेस्सद्रूपत्वेऽपि महासामान्यसत्तातो भेदमाश्रित्यासदूपत्वं, तदेवाऽद्रव्यादितो व्यावर्तकत्वाद्विशेषरूपं तदात्मकत्वाद्र्व्यार्थिकव्यवहारनयस्य परिच्छेद्यं सर्व वस्तु द्रव्यत्वपृथिवीत्वादिना निर्भेदम् , यतोऽनुगतैकाकारप्रतीतिविषयत्वादेवाभेदस्तेन व्यवहारनयेनाश्रितः, अतो यद्र्येण द्रव्यत्वप्रथिवीत्वादिना स्वरूपसत्तात्मकेन साजात्यं तद्रूपेणानुगतैकाकारप्रतीतिविषयत्वादभिन्नत्वमित्यभिसन्धिः । तश्च मेदेन सम्पृक्तमिति प्रदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह-" आरद्धो य विभागो, पजववत्तवमग्गो य" सहनयेन विषयीकृतसत्तारूपो यश्चकारानुकर्षणीयोऽविभागस्म एव व्यवहारनयेन यद्द्रव्यत्वपृथिवीत्वादिकं द्रव्यपृथिव्यादिस्वरूपं द्रव्यपृथिव्यादिविभाजकं तदात्मकेन द्रव्यपृथिव्याद्याकारेण " आरद्धो य विभागो" आरब्धश्च प्रस्तुतश्च विभागो मेदः सहन याभ्युपगतमहासामान्यसत्तातो व्यवहारनयाभ्युपगतद्रव्यत्वपृथिवीत्वादिस्वरूपसत्ताया भेदलक्षणो द्रव्यपृथिव्यादिविशेषरूपो " पजववत्तवमग्गो य" पर्यायवक्तव्यमार्गश्च पर्यायास्तिकस्य यद्वक्तव्यं विशेषाख्यतचं तस्य मार्गः पन्था पर्यायार्थिकनयविषयविशेषरूपतां प्राप्तः । सनहनयेन सदूपेणैक्यमेव सर्वस्य वस्तुन उक्तं स्यात् तदा विशेषस्यावकाश एव नास्तीति
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सम्मतिः बाम गा. तद्विषयकस्य पर्यायार्थिकनयस्य प्रवृत्तिरेव न स्यात, प्रवृत्तौ का द्रव्यार्थिकनयनिरपेक्षव तत्प्रवृत्तिवेत, यदा तु द्रव्यार्थिकनयस्य भेदरूपो विशेषरूपो यो व्यवहारस्स द्रव्यपृथि. व्यादिरूपेण विशेषस्वरूपमपि स्वीकरोति तदा तद्विशेषावान्तरविशेषपरम्परापर्यालोचनया पर्यायार्थिकनयविषयः क्षणिकादिविशेषोऽपि भेदरूपो विचारमार्गमवतरत्येवेति सुकरा पर्यायार्थिकनयप्रवृत्तिस्तद्विषयेति, तदुभयनयापेक्षया कश्चिद्भेदसम्पृक्ताऽभेदात्मकमेव वस्त्व. भ्युपगन्तव्यमिति भावः ॥ २९ ।। एवं कथञ्चिभेदाभेदरूपं वस्तूपदर्य भेदस्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य द्वैविध्यमाह
सो उण समासओ चिय, वंजणणियओ य अत्थणियओ य।
अत्थगओ य अभिन्नो, भइअव्वो वंजणवियप्पो ॥३०॥ पर्यायार्थिकनयविषयविशेषात्मकभेदोऽपि शब्दनयनिबन्धनोऽर्थनयनिबन्धनश्चेति द्वि. भेदः, तत्र द्वितीयभेदरूपोऽर्थनयविषयोऽर्थपर्याय एकविध एव, अर्थनयेन सहव्यवहारर्जुसूत्र. लक्षणेनाभिन्नार्थपर्यायाभ्युपगमात् , शब्दनयविषयव्यञ्जनपर्याय आधभेदलक्षणस्तु भिन्नोऽभि. भश्चेति भेदद्वयात्मकः, तत्र साम्प्रताख्यशब्दनय एकस्यार्थस्यानेकपर्यायशब्दो वाचक इत्यतो मिन्नः, समभिरूढनये एवम्भूतनये चैकस्यार्थस्यैक एव शब्दो वाचक इत्यतोऽभिन्न इति संक्षिप्तार्थः । विस्तृतार्थस्त्वेवम्-'सो उण समासओ चिय' स इति तच्छब्दरूपम् , तच्छन्दश्च पूर्वोपदर्शितपरामर्शक इति स पर्यायनयविषयः पूर्वप्रदर्शितो विभागः पुनस्समासतः सझेरतो द्विविध एव, द्विविधत्वमेवाह-- 'वंजणणियओ य अत्यणियओ य' व्यञ्जननियतश्च-व्यज्यते प्रकटीक्रियते बोध्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं शब्दः, लक्षणया व्यञ्जनपदेन शब्दप्रधानत्वाच्छब्दनयो ग्राह्यः, तन्नियतः तन्निबन्धनः। अर्थनियतश्च-अर्थ्यते-परिच्छिद्यते इत्यर्थः, प्रकृतेऽर्थपदेनार्थप्रधानत्वादर्थनयो ग्राह्यः, तानियतः-तत्प्रयुक्तः, चस्समुच्चये । तत्र प्रथम द्वितीय भेदस्यैकविधत्वमुपदर्शयितुमाह-' अत्थगओ य अमिण्णो' अर्थगतश्च अभिन्नः, चशब्दस्तुशब्दार्थे, अर्थगतस्तु विभागोऽभिन्नः “अत्थप्पवरं सद्दोवसजणं वत्थुमुज्जुसुत्तंता" इति भाष्यवचना. सनहव्यवहारर्जुसूत्रान्ता अर्थनयाः, शब्दोपसर्जनतयाऽर्थप्राधान्येनैव वक्तुः प्रत्ययोत्पत्तः, ते चार्थप्रधानत्वाच्छब्दतद्धर्मभेदेनार्थमेदं नाभ्युपगच्छन्तीति तद्विषयोऽर्थपर्यायोऽभिन्नः एकप्रकारः, सङ्घहोऽसत्यवच्छेदेनाभिन्नसपार्थपर्याय व्यवहारोऽद्रव्यव्यवच्छेदेनाभिन्नद्रव्यात्मकार्थपर्यायश्च ऋजुसूत्रोऽतीतानागतव्यवच्छेदेनाभिन्नवर्तमानाऽर्थपर्यायश्च मनुत इति समहाधर्थनयविषयस्य क्रमशोऽसदद्रव्यातीतानागतव्यवच्छिन्नाभिन्नार्थपर्यायरूपत्वात् , तद्विषयकार्थनयनियतः 'अर्थगतो विभागोऽभिन्नः' इत्युच्यते, अर्थनयविषयोऽर्थपर्याय एकविध इति भावः।
पूर्वोक्ताघमेदस्प द्विविधत्वं प्रतिपादयितुमाह-' भइयवो वंजणवियप्पो' भक्तव्यो
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सम्मति. काण्ड,१, गा० ३०
व्यञ्जनविकल्पः, “ सहप्पहाणमस्थोवसजणं सेसया चिंति" इति भाष्यवचनादर्थोपसर्जनतया शब्दप्राधान्येन श्रोतुः प्रत्ययोत्पत्तेश्शब्दसमभिरूदैवम्भूताख्यशब्दनयत्रयविषयव्यञ्जनपर्यायो माज्यो विकल्पनीयः, शब्दनये स्वस्ववाचकयावच्छब्दवाच्य एकोऽर्थः, समभिरूवादिनये शब्दतद्धर्मभेदेनार्थभेदाभ्युपगमादेकार्थवाचकपर्यायशब्दाभावात् पर्यायत्वेन शब्दनयाऽभ्युपगत. शब्दभेदेन भिन्नोऽर्थः, तथा चैकस्यार्थस्यानेक शब्दो वाचक इत्यतो भिन्नो व्यञ्जनपर्यायः, एकस्यार्थस्यैक एव शब्दो वाचक इत्यतोऽभिन्नो व्यञ्जनपर्याय इत्येवं स भिनोऽभिन्नश्चेत्यर्थः । अयम्भावः-शब्दनयस्तावत्समानलिङ्गानां समानवचनानां शब्दानां भेदेऽपि तद्वाच्याऽर्थभेदं नाम्युपैति घटकुटकुम्भकलशादिपर्यायशब्दभेदेऽपि तद्वाच्यस्यार्थस्य भावघटात्मकस्यैक्यात् , तथा च तन्मते समानलिङ्गसमानवचनान्तपर्यायशब्दभेदेऽप्यथै क्याभ्युपगमेनानेकाभिधानो भिन्नो व्यञ्जनविकल्पः, अत्रार्थस्याऽभेदेऽपि प्रधानीभूतवाचकशब्दभेदाद्भिन्नो व्यञ्जनपर्याय इति भावः । समभिरूढनयस्तु नैवमङ्गीकरोति, शब्दनयेन भिन्नलिङ्गभिन्नवचनानां स्त्री दारा
आपो जलमित्यादिशब्दानामभ्युपगतस्याऽर्थभेदस्येव समभिरूढनयेन समानलिङ्गसङ्ख्यावचनानामपीन्द्रशक्रपुरन्दरादिशब्दानां घटकलशकुम्भनिपादिशब्दानाञ्च स्वस्ववाच्यार्थभेदस्याभ्युपगमात् , धातुप्रत्ययनिष्पन्नतत्तच्छन्दभिन्नभिन्नव्युत्पत्तिप्रतिपाद्यभिन्न भिन्न क्रियानिमित्तकानां तेषां भिन्नार्थत्वात् , निमित्तभेदाचार्थभेदो दृष्टः, छत्रिदण्ड्यादिवत् । तथा चेन्द्रपुरन्दरादिशब्दा न पर्यायात्मका भिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तात्मकप्रवृत्तिनिमित्तत्वादित्यतस्तन्मते एकार्थ एकश्शब्दः, एकस्यार्थस्यैक एव शब्दो वाचक इत्यभिन्नो व्यञ्जनविकल्पः। एवम्भूतनयस्तु व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियां यदैव यः करोति तदैव तच्छन्दवाच्यस्सोऽर्थ इत्यभ्युपैति, नान्यदेति चेष्टासमय एव घटो घटशब्दवाच्यः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गादिति तत्तक्रियाविशिष्टस्यार्थस्य तत्तक्रियाव्युत्पत्तिनिमित्तक एक एव शब्दो वाचक इति तन्मतेऽप्यभिन्नो व्यञ्जनविकल्प इति । ननु व्यञ्जनविकल्पश्शब्दात्मा, स च वस्त्वन्तरत्वान्न पुरुषादेव्यस्य धर्मः, येनासौ तस्य व्यञ्जनपर्यायो भवेदिति, चेत्, मैवम् , नामनामवतोरभेदाश्रयणेन पुरुष इति वाचकशब्दोऽपि पुरुषरूपार्थस्य व्यञ्जनपर्याय इत्यभ्युपगमादिति ॥ ३० ॥ .
अथ यद्वस्तु सहविषयेण सद्रूपेणैकं व्यवहारविषयेण च द्रव्यत्वादिरूपेणैक ऋजुसूत्रादिपर्यायार्थिकनयविषयेण पूर्वोक्ततत्तद्विशेषरूपेणानेकमित्येवमेकानेकस्वरूपं प्रदर्य तदेव वस्तु त्रैकालिकानन्तार्थपर्यायव्यञ्जनपर्यायात्मकत्वादनन्तप्रमाणमित्युपदर्शयितुमाह
एगदवियम्मि जे अत्थपजया वयणपजया वावि ।
तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ ३१ ॥ चतुर्थचरणोक्तं तं' इति यत्पदं तेन सह यच्छब्दस्य सम्बन्धाद् ‘एगदवियम्मि'
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सम्मति० का १, ० ३१
यस्मिनेकद्रव्ये जीवाद 'जे' ये 'अत्थपजया' अर्थ पर्याया:- अर्थग्राहकाः सङ्ग्रह - व्यवहारऋजुसूत्राख्याः, तद्ब्राह्या वा तत्तदर्थाः, 'वयणपजया वाचि' वा अथवा, वचनपर्याया अपि, शब्द- समभिरूढ - एवम्भूताख्याः शब्दनया अपि ग्राह्यपदार्थस्यानन्तप्रमाणत्वे तत्तदर्थग्राहकतया परिणतानां नयानामप्यनन्तप्रमाणत्वमिति सूचनपराः, तद्विषयीभूता वस्त्वंशा वाऽपि, यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात्ते 'तीयाणागयभूया' अतीतानागतभूता अतीतानागतवर्त्तमानकालावच्छिन्नविवृत्तविवर्त्तिष्यमाणविवर्त्तमानानन्तपरिणामाः 'चतुर्थ चरणोक्तस्य 'तावइयं' इत्यस्य यावच्छब्देन सह नित्यसाकाङ्गत्वाद् यावन्तः " तावइयं तं हवह दवं " तावत्प्रमाणं तद्द्रव्यं भवति, पर्यायाणामानन्त्यात्कथञ्चित्तदभिन्नवस्त्वाख्यद्रव्यमपि तावत्प्रमाणं भवति, पुद्गलपयत्वावच्छिन्नम्प्रति पुद्गलद्रव्यत्वेन पुद्गलद्रव्यस्योपादानभावः, न तु जन्यपृथिवीत्वावच्छि नम्प्रति पृथिवीत्वेन जन्यजलत्वावच्छिन्नं प्रति जलत्वेनेत्यादिरूपेण सः, उपादानकारणत्वञ्च शक्तिविशेषरूपम्, न तु तदतिरिक्तं सखण्डरूपम्, तत्राभिव्यञ्जकविधया पुद्गलत्वमवच्छेदकमित्यतो मयूराण्डकरसे शिरोग्रीवाचञ्चु नेत्रपिच्छोदरचरणादितत्तदनेकाव यत्रतद्गतवत्तद्रूपरसाद्यनुकूलानन्तशक्तिवदुपादानीभूत पुद्गलपरमाणुष्वप्यतीतानागतवर्त्तमानानन्ततचत्पुङ्ग -ल पर्यायपरिणमनशक्तिसद्भावादनन्तकालेन विस्र सा प्रयोगादितत्तत्सामग्री समवधाने सति सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानां परस्परानुगमेनासादितत्वादवस्थातुश्रावस्थानां कथञ्चिदनन्यस्वाद् घटादयस्सर्वे पदार्थाः पटपुरुषादिसर्वस्वरूपेणापि कथञ्चिद्विवृत्त विवर्त्तन्ते विवर्त्ति यन्त इति सर्वं सर्वात्मकं कथश्चिदिति स्थितम् दृश्यते चैकं पुद्गलद्रव्यमतीतानागतवर्त्तमानद्रव्य - गुण-कर्म- सामान्य- विशेष - परिणामात्मकं युगपत्क्रमेणापि तत्तथाभूतमेव, एकान्ताऽसत उत्पादायोगात्, सतथ निरन्वयविनाशासम्भवादिति । अत एव द्वादशारनयचक्राद्यश्लोकघटकव्यापिपदव्याख्यायां 44 एकः परमाणुर्वर्ण गन्धरसस्पर्शपरिणामैः सप्रभेदैः स्वाभाविकैः पुरस्कृतैः पश्चात्कृतैव द्व्यणुकादिभिस्सांयोगिकैर्महास्कन्धपर्यन्तैर्वैस्त्रसिकैः प्रायोगिकैश्च कार्मणशरीरादिभिरभिसम्बद्ध्यते " इत्युक्तं सङ्गच्छते ।
संवदति चात्र- " एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवारणं अगतागंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतवा भवतीति मक्खाया ? हंता गोयमा । एएसि गं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा जाव मक्खाया ॥ कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियडे पण्णत्ते ? गोयमा ! संतविहा पो० परि० पण्णत्ता, तं जहा - ओरालियपोग्गलपरियट्टे वेउद्द्वियपो० तेयापो० कम्मापो० मणयो परियढे वइपोग्गलपरियट्टे आणापाणुपोम्गलपरियडे " इति व्याख्याप्रज्ञप्तिद्वादशशतकचतुर्थोद्देशगदितभगवद्वचनमपीति । एएसि ण मित्यादि, एतेषां अनन्तरोक्तस्वरूपाणां परमाणुपुद्गलानां परमाणूनामित्यर्थः, साहणणामेयाणुत्राएणंति - साहणणत्ति प्राकृतत्वात् संहननं - सङ्घातो, भेदश्व वियोजनं, तयोरनुपातो - योगः संहननभेदानुपातस्तेन, सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः । अणवाणंतति अनन्तेन गुणिता
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सम्मति• का , गा. ३१ अनन्ता अनन्ताऽनन्ताः, एको हि परमाणुळ्यणुकादिभिरनन्ताणुकान्तैर्द्रव्यैस्सह संयुज्यमानोऽनन्तान् परिवर्तान् लभते,प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात् ,अनन्तत्वाच परमाणूना,प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिवर्तानां परमाणुपुद्गलपरिवानामनन्तानन्तत्वं दृष्टव्यमिति । 'पुग्गलपरियट्ट 'त्ति-पुद्गगलैः पुद्गलद्रव्यैः सह परिवाः -परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः, 'समनुगन्तव्याः ' अनुगन्तव्या भवन्तीति हेतोः 'आख्याताः' प्ररूपिता भगवद्भिरिति गम्यते, मकारश्च प्राकृतशैलीप्रभवः ॥ अथ पुद्गलपरावर्तस्यैव भेदामिधानायाह 'कइविहे ण'मित्यादि, ओरालियपोग्गलपरियट्टेत्ति-औदारिकशरीरे वर्तमानेन जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्यद्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसावौदारिकपुद्गलपरिवर्तः, एवमन्येऽपीति ॥ 'तावइयं तं हवइ दवं' इति जात्येकवचनप्रयोगादेकैकं द्रव्यं सर्व सर्वद्रव्यार्थतया सर्वपर्यायार्थतया च प्राक विपरिवर्ति पश्चाद् विपरिवर्तिध्यते चेति तत्तदेकैकं द्रव्यमपि सर्वास्मकमवबोद्धव्यं भवति, तस्यातीतानागतवर्तमानसर्वद्रव्यपर्यायार्थतया परिणमनस्वभाव. स्वाद । एकवाक्यतया संवदति चात्र
"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ सू० १२२ ॥" इत्यस्याऽऽचाराङ्गत्रोक्तस्य व्याख्यायां यः कश्चिदविशेषितः 'एक' परमाण्वादिद्रव्यं पश्चात्पुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्यायं वा 'जानाति ' परिच्छिनत्ति स सर्व स्वपरपर्याय जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनामावित्वात् , इदमेव हेतुहेतुमद्भावेन लगयितुमाह-'जे सवं' इत्यादि, या सर्व संसारोदरविवरवर्ति वस्तु जानाति स एकं घटादिवस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्याय भेदैस्तत्तत्स्वभावापत्त्याऽनाघनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभावगमनादिति । तदुक्तम्
" एगदवियस्स जे अत्थपञवा, अयणपजवा वावि।
तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥१॥" इत्युक्तमिति, एतच्चाग्रे विवेचयिष्यते ॥ ३१ ॥
एकैकद्रव्यमर्थपर्यायव्यञ्जनपर्यायस्वैकालिकानन्तपरिणामात्मकत्वेनानेकान्तात्मकमिति प्रतिपाद्याधुना पुरुषतदीयवालाद्यवस्थादृष्टान्ताभ्यां क्रमेण व्यञ्जनपर्यायस्य त्रिकालानुयायित्वेन जन्मादिमरणावधिस्थूलकालस्थायितयाऽनुगतामेदप्रत्ययहेतुत्वम् अर्थपर्यायाणा सूक्ष्मवर्तमानकालमात्रवर्तित्वेन प्रतिक्षणसूक्ष्मपरिणामरूपतया तत्तत्क्षणापेक्षभिन्नभिमस्वरूपस्वेन भेदप्रत्ययहेतुत्वमिति पुरुषद्रव्यस्य व्यञ्जनपर्यायेणाभेदः, अर्थपर्यायैश्च भेद इत्येकानेकत्वेनानेकान्तात्मकत्वमुपदर्शयितुमाह
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सम्मति० काण्ड १, गा० ३२-३३ पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपजन्तो।
तस्स उ थालाईआ, पनवजोया बहुवियप्पा ॥ ३२ ॥ 'पुरिसम्मि' अतीतानागतवर्तमानानन्तार्थपर्यायव्यञ्जनपर्यायात्मके पुरुष पुरुषवस्तुनि । 'पुरिससहो' पुरुष इति शब्दो वाचको यस्यासौ पुरुषशब्दः, पुरुषशन्दाभिधेयोऽर्थी, स कियत्कालपर्यन्त इत्यत आह-'जम्माई मरणकालपञ्जन्तो' जन्मादिमरणकालपर्यन्तः, पुरुषोत्पत्तेरारभ्य पुरुषमरणकालावधिवृत्तिको भवतीत्यतो बालादितत्तदवस्थाभेदेऽपि तदनुगामितया पुरुषव्यक्त्यात्मकस्सोऽभिन्न एव, प्रतिक्षणाहियमाणाहारादिपुद्गलैरवयवोपचयापचयाभ्यां परिमाणभेदेन भिन्नभिन्नशरीरादिव्यक्तौ सत्यां बालकुमारयुवा. घवस्थाभेदेन तद्विशिष्टात्मनो भेदेऽपि बालावस्थायां पुरुषोऽयं युवाद्यवस्थायामपि पुरुषोऽयमित्यनुगतप्रतीतिव्यवहारभावात् , यश्चानुगततया प्रतीयते व्यवाहियते च सोऽभिन्नतया सर्वैरप्यविगानेन घटत्वादिवत्स्वीक्रियत एव, पुरुषाभिधेयपरिणामवतस्तस्यार्थपर्याया अनेकविधा इत्युपदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह-"तस्स उ बालाईया पज्जवजोया बहुवियप्पा" तुः अवधारणार्थे, तस्यैव न त्वन्यस्य, बालादयः पर्याययोगाः परिणतिसम्बन्धाः प्रतिक्षणसूक्ष्मपरिणामलक्षणा अर्थपर्यायरूपाः, बहुविकल्पा अनेकविधाः, प्रतिक्षणं संयोगिद्रव्योपचयापचयतः पर्यायान्तरोत्पत्तेः, बालावस्थायामयं बालो न तु युवादियुवावस्थायामयं युवा न तु बालो वृद्धो वेत्यादिभेदप्रतीते, एवञ्च व्यञ्जनपर्यायेण 'स्यादेका' इति मङ्गप्रतिपाद्योऽभिन्ना, अर्थपर्यायैः 'स्यादनेकः' इति भङ्गप्रतिपाद्यो भिन्नः पुरुषः सिद्धः, अन्यथाऽभ्युपगमेऽतिप्रसङ्ग " अस्थिति निवियप्पं " इत्यनन्तरगाथया दर्शयिष्यति ॥ ३२॥
यथा पुरुष उक्तस्वरूपस्तथा वस्तुमात्रं तत्तत्कालोत्पन्न भिन्न भिन्नावस्थात्मकार्थपर्यायैरनेके विवक्षितक्रमिकाऽर्थपर्यायानुगामिकालत्रयावच्छिन्नव्यक्त्यात्मकव्यञ्जनपर्यायेण चैकम् , वथैवोपलव्धेः, अन्यथाऽभ्युपगमे एकान्तरूपमपि तन्न भवेदित्युपदर्शयनाह
अथिति णिब्वियप्पं, पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि ।
सो बालाइवियप्पं, न लहइ तुलं व पावेजा ॥ ३३ ।। 'अथित्ति' 'अस्ति' इति । एवं 'णिवियप्पं ' निर्विकल्पं निर्गतो विकल्पो भेदो यस्मात्स तथा तं, अभेदरूपमिति यावत् 'पुरिसं ' पुरुषं पुरुषशब्दवाच्यं, 'जो भगइ' यो भणति ब्रवीति, 'सो' स 'पुरिसकालम्मि' पुरुषकाले पुरुषोत्पत्तिक्षण एव, “बालाइवियप्पं ' बालादिविकल्पम् , अत्रादिपदेन कुमारयुवादिग्रहणेन विकल्पस्य च भेदार्थकत्वेन बालकुमारयुवादिभेदं न लहई' न लभते-न प्राप्नोति, जन्मसमय एव बालादिभेदमपि न प्राप्नुयात् , अयम्भाव:-पुरुषद्रव्यमेकरूपमेवेत्येवं वक्ताऽपि पुरुषो जन्मादिमरणपर्यन्तमेक
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सम्मति काण्ड १, पा० ३४ रूप एवेति नासौ स्वयमेव वाली युवा स्थविरश्चेत्यादिभेदरूपतां प्राप्नुयात् , अन्यमपि पुरुष तथैवैकरूपमभ्युपगच्छन् अभेदरूपं तं पुरुषं न बालादिभेदरूपं पश्येदिति । ननु बालाधव. स्थाऽपि पारमार्थिकी नास्त्येवेति चेत्, तर्हि तदप्यमेदरूपं पुरुषवस्तु बालादितुल्लतामसद्रूपतया प्राप्नुयादित्याह-"तुल्लं व पावेजा" बालाघवस्थाया अपारमार्थिकत्वे अवस्थातद्वतो. कथञ्चिदभेदात्तदनुगामिपुरुषद्रव्यस्याप्यभावप्रसङ्गस्स्यात् , परमार्थवृत्या भेदाप्रतीतावभेदस्याप्यप्रतीतेः। एकान्ताभेदवदेकान्तभेदोऽपि न प्रमाणार्ह इत्यप्युक्तमाथातो लभ्यते, तथा हि-अस्थित्ति' अस्ति इत्येवं 'णिवियप्पं निर्विकल्पं निश्चितो विकल्पो भेदो यस्मिन् पुरुषद्रव्ये तद् निर्विकल्पं, भेदरूपमिति यावत् , भेदरूपापन्नं 'पुरिसं' पुरुषं 'पुरिसकालम्मि' पुरुषस्वरूपलाभकाले तदुत्पत्तिसमय इति यावत् , 'जो भणई' यो भणति, स 'बालाइवियप्प नालादिविकल्पं 'न लहइ' न लभेत, य एवं वक्ता सोऽपि पुरुषस्वरूप इति स्वयं पुरुषस्वरूपलाभकाले बालादिभेदं न प्राप्नुयात् , अभेदाभावे भेदस्याप्यभावात् । 'अथवा तल्लं व पावेजा' असद्रूपतया द्रव्यतुल्यतामेवासौ प्राप्नुयात् , यथा द्रव्यमसत्, एकस्वरूपानभ्युपगमात् , तथैकस्वरूपाभावे तदग्रहे भिन्नस्वरूपस्याप्यमावेनाग्रहादभेदवद्भेदस्वरूपमप्यसदेव स्यात् । न चैवमेव न्याय्यम् , सयवहारोच्छेदापत्तेरिति भेदवदभेदोऽपि वस्तुगत्याऽभ्यु. पेयः, तथा च भेदाभेदोभयस्वरूपं पुरुषद्रव्यमिव तदृष्टान्तेनान्यदपि वस्तु भेदाभेदोमयस्वरूपमेवाभ्युपेयमिति भावः ॥ ३४ ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाह
वंजणपज्जायस्स उ पुरिसो पुरिसोत्ति निश्चमवियप्पो।
बालाइवियप्पं पुण पासइ से अस्थपन्जाओ ॥ ३४ ॥ शब्दपर्यायेणाविकल्पः पुरुषो बालादिना स्वर्थपर्यायेण सविकल्प इति सचिसार्थः। विस्तृतार्थस्त्वेवम्-'वंजणपजायस्स' व्यञ्जयति बोधयति व्यनक्ति वाऽर्थानिति व्यञ्जनम् , शब्दा, न पुनः शब्दनयः, तस्यर्जुसूत्रेण सह पर्यायविषयत्वेन तुल्यत्वात् , अर्थात् ऋजुत्रो यथा क्षणिकमर्थपर्यायमभ्युपगच्छति तथा शब्दनयोऽपि, एवं च व्यञ्जनपदेन शब्दनयग्रहणे व्यञ्जनपर्यायः शब्दनयविषयीभूतक्षणिकखरूपपर्याय एव स्यात् , तथा च. तादृशपर्यायग्राहिनयेन पुरुषपदप्रतिपाद्यं पुरुषात्मकं वस्तु मिन्नमेव भवेत् , न त्वाजन्ममरणान्तमभिनस्वरूपम्, ध्यञ्जनपदेन शब्दग्रहणे तु तस्य पर्यायः आजन्मनो मरणान्तं यावदभित्रस्वरूपपुरुषद्रव्यप्रतिपादकत्वलक्षणा, तस्य, विषयेण विषयिण उपलक्षणात् तद्वाहकनयस्य मतेनेति शेषा, "पुरिसो पुरिसोत्तिनिचमवियप्पो" पुरुषः पुरुष इत्येवममिनस्वरूपतया पुरुषशब्दप्रतिपाय आजन्मनो मरणपर्यन्तं पुरुषरूपोऽर्थो 'नित्यम्' अनवरतम् 'अविकल्पः' विकल्पो भेदस्तेन रहितः, व्यञ्जनपर्यायमतेन पुरुषद्रव्यं तत्तत्क्षणभेदभिन्नपूर्वोत्तरनिखिलस्त्रपर्यायेष्व
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सम्मतिः काल , ह. ३५ नुगताऽभिकस्वरूपतया पुरुषः पुरुष इत्येवमुच्यमानं नित्यमविकल्पं भेदं न प्रतिपद्यते इति भावः । नन्वेतावता पुरुषद्रव्यस्यैकान्तेनाविकल्परूपत्वमेव प्रासं, तच्च स्याद्वादविरुद्धमित्यतस्तस्य सविकल्परूपत्वप्रतिपादनेन कथश्चिदद्भेदाभेदात्मकस्थाद्वादरूपताप्रतिपादनायोचराईमाह-"बालाइवियप्पं" इत्यादि । 'से' तस्य पुरुषद्रव्यस्य 'अस्थपजाओ' अर्थपर्याय अर्थपर्यायग्राहिऋजुसूत्रादिनयः, उपचारेण विषयेण विषयिणो ग्रहणात् , 'पुण' पुन: 'बालाइवियप्पं बालादिविकल्पं बालकुमारादिभेदं 'पासइ' पश्यति, व्यञ्जनपर्यायमतेनाभिनमपि पुरुषद्रव्यमर्थपर्यायग्राहिऋजुत्रादिनयविषयबालादिपर्यायस्वरूपतया भेदमप्यनुत इति भावः ॥ ३४ ॥
एतावत्प्रबन्धेन निर्विकल्प-सविकल्पोभयस्वरूपतया प्रतिपादिते पुरुषादिवस्तुनि सति एकान्तेन सविकल्पमेव निर्विकल्पमेव वा तद्वस्तु प्रतिपादयन् स्वीयवस्तुतत्वानमिज्ञतामेव विदुषां चेतसि प्रत्याययतीत्युपदर्शयत्राह
सवियप्प-णिवियप्पं, इय पुरिसं जो भणेन अवियप्पं ।
सवियप्पमेव वा णिच्छएण, ण स निच्छिओ समए ॥ ३५॥ "सवियप्प-णिन्नियप्पं' सविकल्पनिर्विकल्पं, सविकल्पश्च निर्विकल्पश्चेति अनयोस्समाहारः सविकल्पनिर्विकल्पं तत्तदपेक्षोपस्थापकस्यात्पदद्योत्यानेकान्तात्मकतदुभयधर्मोपेतं स्यात्सविकल्पं स्यानिर्विकल्पं 'पुरिसं' पुरुष तदुभयपदघटितसप्तभङ्गयात्मकमहावाक्यजबोधविषयं पुरुषद्रव्यं 'जो' यः प्रतिपादकोऽविदितयथार्थतत्वः "अवियप्पं सवियप्पमेव वा इय" एवेत्यस्योभयत्रान्वयात्, अविकल्पमेव सविकल्पमेव वेति “णिच्छएण" निश्चयेन एकान्तेन 'भणेज' भणेत् ब्रूयात् 'ण स णिच्छिओ समएस एकान्ततत्वप्रतिपादकः, समये सम्यग् ईयते परिच्छिद्यते इति समयः, यथावस्थितोऽर्थः, तस्मिन् , निश्चितं निश्चयः तदस्यास्तीति निश्चिता, अर्श आदित्वादचूप्रत्ययः, सम्यगर्थ इत्यर्थके समय इत्यत्र सप्तम्या विषयत्वार्थकत्वेन यथाऽवस्थितार्थविषयकनिश्चयवान स इत्यर्थः, दुर्नयाभिनिवेशामयाज्ञत्वाद्वा सम्पूर्णानेकान्तवस्तुस्वरूपाऽपरिच्छेदाद्वा न यथार्थतत्त्वक्ष इति भावः। नन्वेवं तर्हि सम्पूर्णानेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपविषयकं निराकासपरिपूर्णपोधमाधातुं प्रति पादकः प्रतिपाद्यस्य कथं प्रभवतीति चेत् , उच्यते, यदा कथश्विनेदाभेदोभयात्मके वस्तुनि व्यञ्जनपर्यायापेक्षया स्यादभिन्न एव पुरुषः, बालाद्यर्थपर्यायापेक्षया स्याद् भिन्न एव पुरुषः, युगपत्तदुभयार्पणया स्यादवक्तव्य एव, क्रमिकोभयाणया स्यादमिन एवं स्यादिन्न एव च, व्यञ्जनपर्यायत्रिवक्षया युगपत्तदुमयार्पणया च स्यादभिन्नः स्यादवक्तव्य एव, बालाघर्थपर्यायविवक्षया युगपत्तदुभयविवक्षया च स्याद्भित्रः स्यादवक्तव्य एत्र, क्रमिकतदुभयार्पणया युगपत्तदुभयार्पणया च स्यादभिन्नः स्यादिनः स्यादवक्तव्य एव, एवं स्वद्रव्यक्षेत्रकाल
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अम्मति• काड , गा३५ भावापेक्षया स्यादस्त्येव घटा, परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया स्यानास्त्येव घट इत्यादिपरस्परसाकाङ्क्षवाक्यसप्तकसमाहारस्वरूपसप्तमगीभावमापनं महावाक्यमेव प्रयुक्त तदैव, तथैक प्रतिपादयतश्च निपुणत्वं भवति, वस्तुनो यथास्वरूपं तथैव प्रतिपादनात, स्यात्पदालाञ्छितैकवाक्यमात्रप्रतिपादने तु तस्याऽनैपुण्यमेव स्यात् , यतः प्रतिपाद्यस्याज्ञानसंशयविपः र्ययनिरासार्थमेव वाक्यं प्रयुज्यते, नान्यथा, तत्र घटगतास्तिस्वस्वरूपेऽनभिज्ञ संशयितं भ्रान्तं वा प्रत्यज्ञानादिनिरासार्थ यदि स्यात्पदाऽलाञ्छितं घटोऽस्तीत्येतावन्मानं प्रयुज्यते तदास्तित्वधर्मसमभिव्याहृतस्यात्पदद्योत्यस्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपापेक्षोक्तेरभावाचता सर्व प्रकारेणास्तित्वमेव घटस्य निश्चिनुयात्प्रतिपाद्या, नच सर्वथाऽस्तित्वं घटे वर्तते, तथा सति घटत्वात्मकस्वस्वरूपेणेव पटत्वमठत्वादिपररूपेणापि घटस्यास्तित्वे प्राप्ते घटस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः, न हि पटादीनां पटादिस्वरूपता पटत्वादिनाऽस्तित्वमन्तरेणान्या, आपादनश्चात्र घटो यदि पटत्वकटत्वमठत्वादिनास्तित्ववान् स्यात् तदा पटकटमठाद्यात्मकस्स्यात्, पटकटादिवत् , यद्वा स्वद्रव्यरूपेणेव परद्रव्यरूपेणापि सत्त्वे स्वाश्रयद्रव्यप्रतिनियमो न स्यात् । अथ संयोगविमागादेरनेकद्रव्याश्रयत्वेऽपि तद्र्व्यप्रतिनियमो न विरुध्यत एव तद्वत्प्रकृतेऽपीति चेत् ,न, तस्यानेकद्रव्यगुणत्वेनानेकद्रव्यस्यैत्र स्वद्रव्यत्वात् , स्वानाश्रयद्रव्यान्तरस्य परद्रव्य स्वात्, ततोऽपि सत्वे स्वाश्रयद्रव्यप्रतिनियमव्याघातस्य तदवस्थत्वात् , परद्रव्यरूपेणेष स्वद्रव्यरूपेणापि कस्यचिदसत्त्वे सकलद्रव्यानाश्रयत्वप्रसङ्गादिष्टद्रव्याश्रयत्वं न स्यात् , तथा स्वाधारक्षेत्ररूपेणेव पराधारक्षेत्ररूपेणापि सचे कस्यचित्प्रतिनियतक्षेत्रवृत्तित्वव्यवस्थितिर्न स्यात्, परक्षेत्ररूपेणेव स्वक्षेत्ररूपेणापि चाऽसत्त्वे निःक्षेत्रतापत्तिस्स्यात्, तथा स्वकालापेक्षयेत्र परकालापेक्षयाऽपि सखे प्रतिनियतकालवृत्तित्वव्यवस्थितिने स्यात् , परकालापेक्षयेव स्वकालापेक्षयाप्यसत्वे सकलकालावृत्तित्वं स्यात् , स्वभावरूपेणेव परभावरूपेणापि सच्चे प्रतिनियतभावात्मकत्वं न स्यात् , परमावरूपेणेव स्वभावरूपेणाप्यसवे विवक्षितभावशालि. स्वमपि न स्यात् , न च घटोऽस्तीत्यत्र घटपदसमभिव्याहारादस्तिपदं घटत्वेनाऽस्तित्वं बोषयतीति न सर्वप्रकारेणास्तित्वप्रसक्तिः स्यात्पदाऽप्रयोगेऽपीति वाच्यम् , एवं सति घटे सस्थामावप्रतिपादनेच्छयोचरिते घटो नास्तीति वाक्येऽपि घटपदसमभिव्याहारेण नास्ती. त्यस्य घटत्वेन नास्तित्वप्रतिपादकत्वमेव स्यात्, न चैवमभ्युपगन्तुं युक्तम् , एकस्यैवैकेनैव रूपेणास्तित्वनास्तित्वयोर्विरोधात् । न च घटोऽस्तीत्यनेन घटत्वपटत्वादिना केनापि प्रकारेणास्तित्वं न प्रतिपाद्यते, किन्तु सामान्यत एवास्तित्वं घटस्य, तच्चाबाधितमेवेति वाच्यम्, यतो घटोऽस्तीत्यनेन घटे सामान्यतोऽस्तित्वस्य ज्ञाने तस्य कथश्चिदस्तित्व सर्वथाऽस्तित्वयोः साधारणतया साधारणधर्मज्ञानस्य च संशयकारणत्वेन घटः कथञ्चिदस्तिन वेति संशयस्स्यात् , संशयस्य च जिज्ञासाम्प्रति कारणत्वेन संशये सति घटे कथञ्चिदस्तित्वज्ञानं मे जायतामित्याकारा. जिज्ञासाऽपि न निरोद्धं शक्या, न च तादृशीं स्वीय
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सम्मति० काण्ड १, गा० ३५
जिज्ञासां तदभिलापकप्रश्नवाक्यं किं घटः स्यादस्ति न वैत्याकारमन्तरेण प्रतिपाद्यः पुमान् प्रतिपादकं पुमांसमवगमयितुं प्रभविष्णुरिति प्रतिपाद्येनोक्तस्वरूपे प्रश्नवाक्ये उच्चारिते सति तथाविधेन तेन तस्य जिज्ञासाविशेषमवगम्य प्रतिपादकः प्रतिपाद्यपुरुषीय जिज्ञासाकारणसंशयनिवृत्तिर्यादृशवाक्यात्स्यात्तादृशमेवोत्तरवाक्यं प्रयुञ्जीत, तच्च घटः स्यादस्त्येवेत्याकारं प्रथमभङ्गरूपमेव, तत्रास्तित्वधर्मसमभिव्याहृतस्यात्पदं स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावा पेक्षास्फोरक मिति निमित्तभेदेनाविरोधद्योतनेन द्रव्याद्यपेक्ष प्रतिनियतस्त्ररूपप्रतिपत्तये स्यात्पदं प्रयोक्त व्यम्, यतस्तत्तदपेक्षागर्भतत्तदनेकपर्यायकरम्बितत्वाद् वस्तुनस्तथा तथा प्रयोगे तत्तदपेक्षालाभार्थ स्यात्कारमेव प्रयुञ्जते सर्वत्र प्रामाणिकाः, अन्यथा निराकाङ्गमेव सर्वं वाक्यं प्रसज्येत, एवं येन रूपेणास्तित्वं तेनैव रूपेण नास्तित्वरूपानिष्टार्थनिवृत्तयेऽवधारणार्थ कमेव कारपदमपि प्रयोक्तव्यमेव । उक्तञ्च खण्डखाद्येऽष्टमश्लोकटीकायाम् - " निमित्तभेदेनाविरोधद्योतनार्थ स्यात्पदस्य अवधारणार्थं च एत्रकारस्य प्रतिभङ्गं प्रयोग इति " । अयम्भावः - - एवकारप्रयोगे घटो नील एवेत्यत्र सर्वावयवावच्छिन्ननीलवत् सन्नैव घट इत्यतस्स्वद्रव्यक्षेत्रादिपरद्रव्यक्षेत्रादिसर्वावच्छिन्नसश्च प्रतीतौ तदपवादाय स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावात्मक नियतावच्छेदकस्फोरणार्थ स्यात्पदधौव्ये येन रूपेणाऽस्तित्वं तेनैव रूपेण नास्तित्वरूपाऽनिष्टार्थं निवृत्यर्थं सावधारणः प्रयोगो युक्त एव, तथा च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण प्रधानतया घटेऽस्तित्वविवक्षयाऽसच्वोपसर्जनसच्च प्रतिपादनपरः प्रथमभङ्गः, वक्त्रा स्यादस्त्येवेत्याद्य मङ्गेऽभिहिते भोत्रा तेन कथञ्चिदस्तित्वे ज्ञाते तस्य प्रथमभङ्गप्रविष्टस्यात्पदमहिम्ना किं घटे नास्तित्वधर्मोऽस्ति न वेति संशयस्समुद्भवति, तेन च मे घटे नास्तित्वधर्मज्ञानं जायतामिति जिज्ञासोद्भवति, तया च किं घटेऽस्तित्वमिव नास्तित्वमप्यस्ति १ येन स्यात्कार उपादीयत इति प्रश्ने क्रियमाणे परद्रव्यादिना कथञ्चिन्नास्तित्वधर्मोपदर्शनार्थं स्यान्नास्त्येवेति द्वितीयभङ्गः प्रयुङ्क्ते वक्ता, तत्र सर्व हि वाक्यं सावधारणमिति न्यायमनुसृत्य क्रियमाणैत्रकार प्रयोगेण नास्तित्वस्यावधारणादसम्भवाशङ्काव्यवच्छेदेऽप्येकान्तनास्तित्वधर्मप्रसक्त्या तत्कथं कथश्चिदस्तित्वविरुद्धं तत्र सङ्गतमित्याशङ्कोत्तिष्ठते, तद्वयवच्छेदार्थं स्यात्पदप्रयोगः, तेन परद्रव्यादिना कथञ्चिन्नास्तित्वप्रतीत्या सोपशाम्यतीति स सार्थक एव, एकान्तवचनं मिथ्याचचनमिति जिनप्रवचनतच्ववेदिनो मिथ्यावादित्वपरिजिहीर्षया सर्वमपि वाक्यं स्यात्कारपुरस्सरमेव भाषन्ते, न तु जात्वपि स्यात्कारविरहितम्, तद्विरहितवाक्यस्यैकान्तावधारणवाक्यरूपत्वेन ओहारणी भासां नेव भासेत " " अवधारणीं भाषां नैव भाषेत " इत्यनेन तन्निषेधात् यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वत्र सर्वदा साक्षात् स्यात्पदं प्रयुञ्जते, तथापि तत्राप्रयुक्तोऽपि सामर्थ्यात् स्याच्छन्दो दृष्टव्यः प्रयोजकस्य कुशलत्वात् । उक्तञ्च - " अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते ।
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विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत्प्रयोजकः ॥ १ ॥ " इति ।
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सम्मति० काण्ड , गा० -३५
आयेन द्वितीयेन च भङ्गेन क्रमाप्तेि स्वद्रव्यक्षेत्राद्यवच्छेदेन कथश्चिदस्तित्वे परद्रव्यक्षेत्राद्यवच्छेदेन कथञ्चिन्नास्तित्वे च ज्ञाते सति सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयस्योपस्थितिसम्भवेन प्राधान्येन युगपत् स्वद्रव्यादिपरद्रव्याद्यवच्छेदकभेदेन तदुभयमस्ति न वेति संशये सति तन्मूलकतद्धर्मजिज्ञासाप्रभवतद्धर्मप्रश्नसमुद्भवे युगपत्प्राधान्येनास्तित्वनास्तित्वोभयधर्मसद्भावेऽपि तथा तत्प्रतिपादकस्य कस्यचिदेकपदस्य समासविग्रहान्यतरात्मकवाक्यस्य वाडभावात्स्यादवक्तव्य एव घट इत्याकारकस्य तृतीयभङ्गस्यावतारस्सम्भवत्येव, न च "पुष्पदन्तावेकोच्या शशिभास्करौ" इति कोशस्वरसादेकोच्या प्राधान्येन चन्द्रत्वसूर्यत्वोमयरूपेण चन्द्रसूर्योभयप्रतिपादकपुष्पदन्तशब्दवत् " तो सत्" ३।२ । १२७ । इति पाणिनीयसूत्रेण प्राधान्येन 'शवशानन्' इत्युभयसङ्केतितसच्छब्दवच्च प्राधान्येन सच्चाऽसचोभयधर्मसङ्केतितयत्किञ्चिदेकशब्देन युगपत् प्राधान्येन सत्चासत्वोभयधर्मस्य प्रतिपादनसम्भवातद्रूपेण वक्तव्य एव घट इति नोभयधर्मयुगपत्प्राधान्यविवक्षायामपि स्यादवक्तव्य एव घट इति तृतीयभङ्गावतारस्तम्भवतीति वाच्यम् , पुष्पदन्तपदेन चन्द्रत्वेन चन्द्रस्य सूर्यत्वेन सूर्यस्य युगत्प्रतीतावपि चन्द्रत्वसूर्यत्वयोरेकेनोभयत्वेनाऽनुगमनात्तथाबोधस्य समूहालम्बनबोधात् साक्षात्परम्परया निरूप्यनिरूपकमावाऽनापन्नभिन्न प्रकारतानिरूपितभिन्नविशेष्यतानिरूपकाचन्द्रनिष्ठविशेष्यतानिरूपितचन्द्रत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितोभयत्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितसूर्यत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितसूर्यनिष्ठविशेष्यतानिरूपकत्वेन साक्षात्परम्परया परस्परनिरूप्यनिरूपकमावापन्नविषयताकस्य लक्षण्येऽपि नैकधर्मिणि चन्द्रत्वसूर्यत्वोमयधर्मस्य बोधनम् । यद्वा पुष्पदन्तपदं चन्द्रे सूर्ये च शक्तमित्याकारकशक्तिप्रहसहकतादेकोच्चारणान्तर्भावेन चन्द्रत्वसूर्यत्वविशिष्टशक्तात्पुष्पदन्तपदाच्चन्द्रत्वप्रकारकत्वे सति सूर्यत्वप्रकारको बोधः, तत्र चन्द्रत्वसूर्यत्वयोर्द्वयोरपि पुष्पदन्तपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन रूपेणकीकृतयोरपि नैकधर्मिणि बोधनम् , प्रकृते तु सत्त्वासखोभयस्य सत्वत्वेनाऽसत्वत्वेन युगपदेवैकत्र धर्मिणि बोधनमभीप्सितमिति न पुष्पदन्तपदं तथा बोधने समर्थमिति न तदृष्टान्तबलाचथावोधनसमर्थमेकपदं कल्पयितुं शक्यम् , सत्पदमपि सत्वेनैकधर्मेणैव शतृशानचोर्बोधनसमर्थमिति न तदृष्टान्तस्याप्यवकाशः, न च सत्यासत्वोमयसङ्केतितमप्युभयपदं प्राधान्येन सत्वत्वेनासत्वस्वेन च तदुभयप्रतिपादकं, किन्तूभयत्वेनैवेति व्यासज्यवृत्तिधर्मेणोमयत्वेन रूपेणास्तित्वनास्तित्वधर्मद्वयावच्छिमबोधस्योमयपदात्सम्भवेऽपि ताशबोधाकारः 'उभयम्' इत्येव स्यादिति नोमयपदादपि सत्वत्वेनाऽसत्वत्वेन युगपत्प्राधान्येन सन्चासत्त्वयोः प्राधान्येनास्तित्वनास्तित्वोमयाकारो बोधस्सम्भवतीति नोभयपदेनापि तथा वक्तव्यो घट इति सत्व. त्वेनासत्वत्वेन युगपत्प्राधान्येन सस्थासयोभयप्रतिपादकवचनाभावात् स्यादवक्तव्य एव घट इति तृतीयमङ्गसम्भवत्येवेति । न चावक्तव्यत्वधर्मो विधिनिषेधात्मा नेति न
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सम्मति० काण्ड 1, गा० ३५ तृतीयभङ्गप्रतिपाद्यतामेतीति वाच्यम् , धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदाश्रयणेनावक्तव्यत्वाऽs. श्रययोरस्तित्वनास्तित्वयोर्विधिनिषेधरूपत्वे तदाश्रितावक्तव्यत्वस्यापि तथात्वाव, तृतीयभङ्गविषयत्वं तु तस्यास्तित्वनास्तित्वाभ्यां कथश्चिद्भेदविवक्षयवोपपादनीयम्, अवक्तव्यस्वस्य धर्मिपिा सस्वमस्तित्वनास्तित्वावच्छेदकोभयाऽवच्छेद्यमिति भावनीयम् ॥ चतुर्थभङ्गप्रतिपाद्यस्य क्रमार्पितकथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयस्याद्यद्वितीयभङ्गप्रतिपाद्याभ्यां कथञ्चिद. स्तित्वनास्तित्वाभ्यां कथञ्चिद्व्यतिरिक्तत्वेन तत्तदभावप्रकारकसंशयो नाधमङ्गजन्यकथञ्चि. दस्तित्वनिश्चयस्य द्वितीयभङ्गजन्यकथञ्चिन्नास्तित्वनिश्चयस्य च प्रतिवध्य इति स स्यादेवेति तजन्यजिज्ञासादिक्रमेण चतुर्थभङ्गस्सुघट एवेति । स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव घट इति वाक्यात् क्रमाप्तिस्यादऽस्तित्वनास्तित्वोभयधर्मवन्तममुं घटं जानामीत्यनुभवाच्च स भङ्गो. ऽतिरिक्त एव, तत्र स्यात्कारेण सच्चासत्चावच्छेदकधर्मयोरेव परामर्शाजात्यन्तरत्वस्यार्थसिद्धत्वादिति । अत्रेदमवधेयम्-न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं, सर्व शब्देन भासते ॥ १ ॥ इति वाक्यपदीयोक्तेश्शब्दविशिष्टस्यैवार्थस्य ज्ञाने भानमिति भर्तृहरिमतप्रवचकनयेन शब्दगतस्य क्रमस्यार्थेऽध्यारोपणाचतुर्थभङ्गेऽर्थगततया क्रमभानं भावनीयम् , अथवा शब्दगतोऽर्थगतो वा क्रमो नावभासत एव, किन्तु 'एकत्र द्वयम्' इतिरीत्या तत्र ज्ञानमुपजायते, तदाकारविशेषोपलक्षकमेव ‘क्रमात्' इत्यभिधानम् , अत एव विधिनिषेधयोः क्रमार्पितत्वं शाब्दे न भासते । एवं पञ्चमादिभङ्गोत्थापकाः संशयास्पपादा इति तनिवर्तकानां पञ्चमादिमङ्गानां समुद्भवो ज्ञातव्यः, तृतीयादिभङ्गानां प्रथमभङ्गद्वयमूलकत्वात् तसिद्धौ तन्नान्तरीयकतदुत्तरभङ्गानां सुतरां सिद्धिभावात् , न चैवमभ्युपगमे सप्तभङ्गानां प्रतिभङ्गं संशयजिज्ञासादिना व्यवधाने सति एकधर्मिविशेष्यकव्यस्तसमस्तविधिनिषेधात्मकसप्तधर्मप्रकारकसमुच्चयबोधजनकत्वं न स्यादिति प्रानिकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सति एकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकसप्तधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वरूपसप्तभङ्गीलक्षणक्षतिस्स्यादिति वाच्यम् , यतः पुनरव्यवधानेनोपस्थितिकल्पनया सप्तभङ्गीभावमापन्नानां भङ्गानां तादृशसमुच्चयात्मकबोधजनकत्वं स्यादेव । उक्तसप्तभङ्गीलक्षणतात्पर्यमप्येवं ज्ञेयम्-एकवस्तुविशेष्यकसवासत्त्वादिसप्तधर्मप्रकारकशाब्दबोधजनकतापर्याप्यधिकरणं वाक्यं सप्तभङ्गीति, विरोधस्फूत्तौं वाक्यस्याबोधकत्वेनैवाविरुद्ध त्यस्य गतार्थत्वात् , प्रश्नस्य च क्वाचिकत्वाच्छिष्यजिज्ञासयेव कचिद्गुरोर्जिज्ञापयिषयैव सप्तभङ्गीप्रयोगसङ्गतेः प्रानिकेत्यादिविशेषणस्यापि लक्षणेऽप्रवेशात् , नानावस्तुषु सत्वासच्यादिबोधकवाक्येऽतिप्रसङ्गवारणायकवस्तुविशेष्यकेति, एकत्र रूपरसादिसप्तधर्मबोधकेऽतिप्रसङ्गवारणाय सच्चासत्वादीति, खण्डवाक्ये तद्वारणाय पर्याप्तिनिवेशः, प्रमाणसप्तभङ्गीवनय सप्तभङ्गथा अपि लक्ष्यत्वान्न तत्रातिव्याप्तिः, प्रमाणनयसप्तभङ्गयोः पृथक
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सम्मति० काण्ड १, गा० ३१ पृथक् लक्ष्यत्वे स्वाद्यायां वाक्ये सकलादेशत्वं द्वितीयायाश्च विकलादेशत्वं विशेषणं देयम् , एवं भेदाभेदनित्यत्वानित्यत्वादिविरुद्धधर्मापेक्षाभेदप्रयोज्याविरोधद्योतकस्यात्पदलाञ्छितसप्तम. अयन्तररचना ज्ञातव्या, वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वेन प्रतिधर्म सप्तभङ्गीप्रवृत्तेः । तदुक्तम्
"धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो, धर्मिणोऽनन्तधर्मणः।
अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य, शेषान्तानां तदङ्गता ॥१॥" तत्र धर्मे धर्म प्रतिधर्ममित्यर्थः । अर्थ इति प्रयोजनादिरित्यर्थः । अनन्तधर्मवतो धर्मिणः प्रतिधर्म सप्तभङ्गीकथनं प्रधानीभूतैकैकधर्ममुद्दिश्यैकर्मिविशेष्यकसप्तविधधर्मप्रकारकबोधात्तद्विषयकसंशयाज्ञानभ्रान्तज्ञाननिवृत्तिफलकमिति भावः । अन्यतमान्तस्येति-सप्तविधधर्मा. न्यतमधर्मस्येत्यर्थः, अङ्गित्वे-प्रधानत्वे, शेषान्तानाम्-तद्भङ्गप्रविष्टस्याच्छब्दसूचिततदितरधर्माणाम् । तदङ्गता तद्गुणभावः। प्रधानगुणभावश्च वक्तुर्विवक्षाधीन एव । एतेन ननु यदि विवक्षितेनैकेन केनचिद्भङ्गेन विवक्षितधर्मस्येव तदितरधर्माणामपि प्रतिपादने तेनैव शेषमङ्गजन्यतदितरधर्मप्रतिपत्तिफलसिद्धेश्शेषमङ्गनिरूपणं व्यर्थमेवेत्यारेकाऽपि निरस्ता, विवक्षितभङ्गेन प्रधानतया तदितरधर्मप्रतिपत्त्यनुत्पादनादिति । ननु नयास्तत्तद्वादीययावद्वचनप्रकारा. स्तावन्त एवेति केन नयेनेयं सप्तमङ्गी प्रवृत्ता केन चेयमिति कथं निश्चेतव्यमिति चेत्, उच्यते, आद्यमङ्गस्य प्रतिपाद्यो यो धर्मः प्रधानभूतः स यनयविचाराऽऽधीनसिद्धिकस्तद्धर्मप्रतिपादकाद्यभङ्गघटितसप्तमङ्गी तन्नयप्रयुक्ताऽभ्युपगन्तव्या, तदुक्तं खण्डखाधे-" यत्र मूलभङ्गार्थो यन्त्रयविचाराधीनसिद्धिकस्तत्सप्तमङ्गयां तदीयत्वव्यवहारात्" इति । अत एवधीग्राह्ययोर्न हि भिदाऽस्ति सहोपलम्भात्, प्रातिस्विकेन परिणामगुणेन भेदः। इत्थं तथागतमतेऽपि हि सप्तभङ्गी, सङ्गीयते यदि तदा न भवेद्विरोधः ॥३८॥ ___ इत्युक्तं सङ्गच्छते, ग्राह्यग्राहकयोस्स्यादभेद एव, स्याद्वेद एव, स्यादभेदस्यान्दोमयमेव, स्यादवक्तव्य एवेत्यादिसप्तभङ्गयां स्यादभेद एवेत्याधमङ्गस्य प्रतिपायोऽभेदरूपो यो प्रधानार्थस्स तथागतदृष्ट्यैव सिद्ध इत्यत उक्तसप्तमङ्गयां तदीयत्वव्यवहारात्तथागतमतेऽपि सप्तमङ्गीप्रकथने न भगवत्सिद्धान्तविरोधः, सर्वमतव्यापकत्वाद् भगवदर्शनस्येति भावः॥३५॥
तदेवमेकैकवस्तु प्रतिधर्म सप्तभङ्गीप्रतिपाद्यसप्तधर्मोपेतमिति वचनेन तथैव प्रतिपादयन वक्ता यथार्थवक्ता भवति, नान्यथेति गाथासमूहस्सप्तविकल्पोत्थाननिमित्तमुपदर्शयन् प्रथममायभनन्नयोत्थाननिमित्तमाह
अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं ।
वयणविसेसाईयं, दन्चमवत्तव्वयं पडइ ॥ ३६ ॥ "अत्यंतरभूएहि प," अर्थान्तरभूतैश्च परपर्यायैः ‘णियएहि य' निजकैश्च स्वपर्यायः, अर्थान्तरभूरः पटत्वादिः, निजो घटत्वादिः, ताभ्यां निजार्थान्तरभूताभ्यां क्रमेण घटस्स्या
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सम्मतिः काण्ड 1, गा० ३६ सभेव स्यादसभेवेति द्वौ भङ्गो भवतः । 'दोहि समयमाईहिं' द्वाभ्यामादिभ्यां प्रागुक्ताभ्यां प्रकाराभ्यां समकं युगपद्विवक्षितमिति शेषः 'दवं' द्रव्यं 'वयणविसेसाईयं' वचनविशेषातीतं सत्तथाविधवचनवाच्यताऽनापन्न सद् 'अवत्तव्वं पडई' अवक्तव्यकं पतति तृतीयमङ्गविषयतामास्कन्दतीति गाथार्थः । अष्टसहरूया त्वेवमर्थः कृतः-अर्थान्तरभूतः पटादिः निजो घटादिः, ताभ्यां द्वाभ्यां सदसत्वं घटवस्तुनः प्रथमद्वितीयभङ्गनिमित्तं प्रधानगुणभावेन भवतीति सोपस्कारं व्याख्येयम् । 'समयमाईहिं' इत्यनन्तरं तुर्गम्या, द्वाभ्यामिति चानु. वर्तते, समकमादिरादानं ययोस्ताभ्यां सहार्पिताभ्यां तु द्वाभ्यामित्यर्थः । वचनविशेषातीत वचनस्य विशेषः शक्तिः, तमतीतमनाक्रान्तं सत्तथाविधवाचकाविषयीभूतमिति यावत् , द्रव्यं घटादि अवक्तव्यम् , पतति अशक्तिभाराद्वक्तव्यताशिखरे स्थातुं न शक्नोति, अवक्तव्यता वा पततीति । अयम्भावा-अनुयोग्युपस्थापकसमानविभक्तिकप्रतियोग्युपस्थापकपदसमभिव्याहृतनो भेदप्रत्यायकत्वेन शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी न मूले इत्यबाधितानुभव. बलायथा शाखावच्छेदेन य एव वृक्षः कपिसंयोगी स एव मूलावच्छेदेन कपिसंयोगिभेदवानिति नव्यनैयायिकैरभ्युपगतं, यद्वोक्तप्रतीत्या कपिसंयोगतदत्यन्ताभावयोरव्याप्यवृत्तितयैकस्मिन्नेव वृक्षे शाखामूलावच्छेदेन कपिसंयोगतदत्यन्ताभावसत्त्वं प्राचीननैयायिकैरभ्युपगतं, तथैव स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया घटस्सन् परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया चासमित्यवाधितानुभवबलात् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेन य एव घटस्सन् कथश्चित्तादात्म्य. सम्बन्धेन सदाश्रयः सत्त्ववान् वा, स एव घटः परद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेनासन् कथश्चित्तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकसद्धेदवानिति यद्वा सत्रात्यन्ताभाववानिति सत्तद्भेदयोस्सत्वतदत्यन्ताभावयोर्वा सामानाधिकरण्यमभ्युपगन्तव्यम् , कपिसंयोगितद्भेदयोरिव सत्तद्भेदयोः कपिसंयोगतदभावयोरिव सवतदत्यन्ताभावयोर्वाऽव्याप्यवृत्तित्वाऽ. भ्युपगमे बाधकामावात् , तथा च सचं स्वाभावसमानाधिकरणं स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिभूतधर्मत्वात् कपिसंयोगवदित्यनुमानेन सत्त्वेऽव्याप्यवृत्तित्वसिद्धौ तदन्यथाऽनुपपत्याऽभ्युपगम्यमानस्यावच्छेदकत्वविशेषस्य स्वद्रव्यादी स्वीकारः, तथा च स्वद्रव्यक्षेत्रादावऽवच्छेदकता सवादिधर्मस्याव्याप्यवृत्तित्वोपोद्वलिका, तामुपादायैव स्यात्पदप्रवृत्तिरुपेयत इति । ननु प्रतियोग्यनवच्छेदकस्यामावावच्छेदकत्वे तत्वस्य सर्वत्राविशेषात् परद्रव्यक्षेत्रादेरिव प्रमेयत्वादेरपि सत्त्वाभावावच्छेदकत्वं स्यादिति तदपेक्षा याऽपि घटे सच्चाभावस्स्यात् , स चानुभवबाधिता, न हि कोऽपि तत्वज्ञः प्रमेयत्वेन घटोऽसनिति वक्तीति चेत्, मैवम् , उक्तातिप्रसङ्गस्यानुभवविनिगमनेनैव निवारणात , अनुभवश्वात्र घटो मृद्रव्यस्य पाटलिपुरक्षेत्रस्येदानींतनकालस्य च घटत्वात्मकमावस्य रक्तत्वात्मकभावस्य वाऽपेक्षया सन् तन्तो राजगृहस्यातीतानागतकालस्य पटत्वस्य नीलत्वस्य वाऽपेक्षयाऽसन्नित्याकारका । न तु प्रमेयत्वाद्यपेक्षयाऽसन्नित्याकारक इति,
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सम्मतिः काण्ड १, गा• ३६
१४९ प्रतियोग्यनवच्छेदकत्वस्य सर्वत्राविशेषेऽप्युक्तविनिगमकादेव प्रतियोग्यनवच्छेदकमपि किश्चिदेव कस्यचिदभावस्य वृत्ताववच्छेदकं न तु सर्वस्येति प्रमेयत्वेन घटस्य सच्चे प्रमेयत्ववत: पटादेर्घटात्मकत्वं स्यादिति सर्वस्य सर्वात्मकत्वापत्तितो यदि घटत्वेन घटस्सन् न प्रमेयत्वे. नेत्यनुभवस्तदा स्वभावत्वं परभावत्वश्च विवक्षाधीनमिति प्रमेयत्वस्यापि परभावत्वेन विवक्षितत्वात् तस्याप्यभावावच्छेदकत्वमिष्टमेवेत्युक्तातिप्रसङ्गस्याभासरूपत्वमेवेत्याधपक्षः । अथवा परद्रव्याद्यपेक्षयेत्यस्य प्रतियोग्यनवच्छेदकावच्छेदेनेत्यर्थः । एकच प्रमेयत्वं न सत्वात्मकप्रतियोग्यवच्छेदकमिति प्रमेयत्वावच्छेदेन घटो न सन् इति द्वितीयभङ्गार्थों युक्त एवेत्यर्थ इति द्वितीयपक्षः। परद्रव्यादेर्यथाश्रुतार्थपरतायामपि प्रमेयत्वस्य परभावरूपतयाऽभावावच्छेदकत्वमिष्टमित्याशयेन प्रमेयत्वस्य परभावत्वं विवक्षया पूर्वमुक्तम् , इदानीं तु तस्य परभावत्वं भवतु मा वा, प्रतियोग्यनवच्छेदकत्वादेव प्रतियोग्यनवच्छेदकपदेन तस्यापि ग्रहणसम्मवात प्रतियोग्यनवच्छेदकावछेदेनेत्यनेन प्रमेयत्वावच्छेदेनेत्यपि लभ्यते इति भावः, यदि चाऽस्तित्वनास्तित्वयोर्विरुद्धयोरेकत्रापेक्षाभेदेन सत्वोपपत्तये स्वद्रव्यादीनां प्रतियोगिभूतस्य सन्चस्यावच्छेदकत्वं परद्रव्यादीनां सत्वाभावस्यावच्छेदकत्वमित्येवं कल्पना नाद्रियते, किन्तु सत्त्वासत्वयोः प्रकृते विशिष्टस्वरूपयोरेव प्रथमद्वितीयमङ्गविषयत्वम् , तथा च स्वद्रव्याद्य. वच्छिन्नं यत्सत्यं प्रथममङ्गविषयः परद्रव्याघवच्छिन्नसत्त्वनिष्ठप्रतियोगिताकामावरूपं यद. सत्त्वं द्वितीयभङ्गाविषयस्तयोः परस्पराभावरूपत्वाभावादेव न विरोध इत्येतावदेव प्रथमद्वितीयमङ्गयोरविरुद्धार्थकत्वोपपत्तिरिति द्वितीयभङ्गो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताका. भावपर एव, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावश्वाऽभ्युपगम्यते एव " यदि च घटत्वेन पटो नास्तीति प्रत्ययः स्वरसवाही लोकानां तदा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रति. योगिताकाभाववारण गीर्वाणगुरोरप्यशक्यम् " इति वदता शिरोमणिनापि । अत एव-- "अव्याप्यवृत्तिगुणिभेदमुदीर्य नव्या-ऽभावं प्रकल्प्य च कथं न शिरोमणे त्वम्। स्याद्वादमाश्रयसि सर्वविरोधिजैत्रं,ब्रूमः पसार्य निजपाणिमिति त्वदीया॥४५॥" . इति शिरोमणि प्रति शिक्षावचनमपि सङ्गच्छते । ननु व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्य केवलान्वयित्वेन प्रकृतधर्मिमात्राऽसाधारणधर्मत्वाभावादव्यावर्तकत्वेन उत्प्रतिपादकमङ्गस्य वैयर्थ्यमिति चेत् , मैवम् , नास्त्येव घट इत्येतावन्मात्रोक्तावेवकारप्रतिपायसर्वथा नास्तित्वस्य प्रसक्तौ तद्वारणार्थ स्यात्कारप्रयोगः, यथा चित्रे घटे नील एवेति प्रयुक्ते सर्वथा नीलत्वप्रसक्तौ तद्वारणार्थ स्यात्कारप्रयोग इति स्यात्कारलाञ्छितद्वितीय: भङ्गस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावबोधकस्यापि सार्थक्यादिति तृतीयपक्षः । एवं घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीत्या घटत्वावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावविषयिकया सिद्धस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्येव शशशृङ्गे गोवृत्तित्वं नास्तीत्यादि
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सम्मति० काण्ड १, गा०३६
प्रतीत्या शशीयत्वावच्छिन्नशृङ्ग निष्ठाधिकरणतानिरूपकगोवृत्तित्वाभावपर्यवसानको यश्शशीयत्वेन शृङ्गे गोवृत्तित्वाभावस्तद्विषयिकया सिद्धस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिता निरूuarantervastust द्वितीयभङ्गस्समर्थनीय इति चतुर्थपक्षः । तथा चाद्यपक्षे स्वद्रव्याद्यवच्छेदेन घटस्सनेवेत्याद्यभङ्गजन्यस्य घटे स्वद्रव्याद्यवच्छेदेन सच्च प्रकारकनिश्चयस्य सवेऽपि घटासवस्य स्वसमानाधिकरणाभावप्रतियोगित्वलक्षणाऽव्याप्यवृत्तितया तज्ज्ञानास्कन्दितपरद्रव्याद्यवच्छिन्नघटासच्च निश्चयः परद्रव्याद्यवच्छेदेन घटोऽसमेवेति द्वितीयभङ्गजन्यस्स्यादेव तद्वत्तानिश्वयस्य संशयनिश्चय साधारणाऽव्याप्यवृत्तित्वज्ञानानास्कन्दितवदभावप्रकारक बुद्धित्वावच्छिन्नं प्रत्येव प्रतिबन्धकत्वात् प्रकृते तदभावप्रकारक बुद्धिश्व भङ्गघटकैवकारव्यवच्छेद्यस्य येन रूपेण यत्सचं तद्रूपेण तदसच्चस्य ज्ञानात्मिकैव, न तु परद्रव्याद्यवच्छिन्नतदसच्वनिश्चयात्मिकेति तत्सच्चे बाधकाभाव एव, एवं सर्वत्र ज्ञेयम् । द्वितीयपक्षे परद्रव्यादेः प्रमेयत्वस्य च प्रतियोग्यनवच्छेदकत्वात्तदवच्छेदेन घटासत्वनिश्चयः घटसवनिश्चयकालेऽपि पूर्वनीत्या स्यादेव । तृतीयपक्षे चाद्यभङ्गजन्यस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नघटसवनिश्चयकालेsपि द्वितीयभङ्गेन परद्रव्यादेर्घटगतसत्वनिष्ठप्रतियोगिताया व्यधिकरणत्वातद्धर्मावच्छिन्नसत्त्वनिष्ठप्रतियोगिताका भावविषयकनिश्रयः पटत्वेन पटोऽस्तीति वाक्यजन्यनिश्चयकाले घटत्वेन पटो नास्तीति वाक्यजन्यघटत्वरूपव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावनिश्चयवज्जन्यते तयोः प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाभावात् । चतुर्थपक्षे तु शशशृङ्गे गोवृत्तित्वं नास्तीत्यादिप्रतीत्या शशीयत्वेन शृङ्गे गोवृत्तित्वाभावविषयिकया सिद्धस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगितानिरूपका भावस्याप्यवबोधकेन द्वितीयमङ्गेन परद्रव्याद्यवच्छिन्नघटनिष्ठविशेष्यतानिरूपित सच्चनिष्ठप्रतियोगितानिरूप का भावनिष्ठप्रकारतानिरूपक निश्च योsप्युरीकर्त्तव्य इति । न चास्य द्वितीयभङ्गस्यानेकप्रकारेणोपपादनेऽपसिद्धान्तत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम्, भगवत्प्रवचनस्य नानाप्रतिपत्तिप्रकार बहुलत्वादिति । अत्राधिकं खण्डखाद्ये पञ्चत्वारिंशच्छ्रलोकटी कातोऽवसेयम् । स्वद्रव्याद्यपेक्षया सन्त्रस्य परद्रव्याद्यपेक्षयाऽसत्रस्येत्येवं युगपत्सच्वासच्चोभयस्य प्राधान्यविवक्षायां तत्प्रतिपादने समर्थमेकं पदं नास्तीति पूर्वमेव विवृतम्, समासवाक्यं विग्रहवाक्यमपि च किञ्चिन विद्यते, तथाहि समासविधावपि न ताद्बहुव्रीहिस्त्र समर्थः, तस्यान्यपदार्थप्रधानत्वेन चित्रगुरित्यादौ विशेष्यविशेषण भावापनयोरेव समासघटकपदार्थयोः समासाऽघटकाऽन्यपदार्थे विशेषणत्वस्य दृष्टत्वेन प्रकृतेऽन्यपदार्थ प्राधान्याभावेन तदसम्भवात् नाप्यव्ययीभावः, तस्य पूर्वपदार्थस्यैव प्रधानतया बोधकताया उपगङ्गमित्यादौ गङ्गासामीप्यादिरूपार्थावबोधाद् वैयाकरणसम्मतत्वेन पूर्वपदार्थमात्रप्रधानक बोधस्य प्रकृतेऽनिष्टत्वेन तस्याऽप्यप्रवृत्तेः, नापि द्वन्द्वः, तस्य तद्धर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपित निरवच्छिन्नतद्धर्मिनिष्ठ विशेष्यत्वाऽभिन्नतद्धर्मनिष्ठावच्छेदकता निरूपिततद्धर्मनिष्ठविशेष्यताकत्वे सति धर्मान्तरनिष्ठ प्रकारतानिरूपित निश्वच्छिन्नधर्म्यन्तरनिष्ठ विशेष्यत्वा
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सम्मति०] काण्ड १, गा० ३६
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,
भिन्नधर्मान्तरनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितधर्म्यन्तरनिष्ठविशेष्यतानिरूपितद्वित्वनिष्ठ प्रकारतानिरूपकबोधजनकत्वस्यैव धवखदिरावित्यादौ दृष्टत्वेन तृतीयभङ्गे तादृशबोधजनकत्वाभावेन तस्याध्यप्रवृत्तेः, तृतीयभङ्गेनाऽस्तित्वत्वेन नास्तित्वत्वेन रूपेण प्रधानतया सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविवक्षासद्भावेनेतरेतरात्मकेन द्वन्द्वेन च दर्शितरीत्या तादृशोभयबोधजनकत्वासम्भवेन प्रकृते तस्यानुपयोग एव । नापि समाहाररूपोऽपि सः, यतस्तेन वाक्त्वचं छत्रोपानहमित्यादौ समासघटकपदार्थ समाहारविशेष्यक बोधस्यैवोत्पादः, न च प्रकृते तथाबोध इष्ट इति तस्याप्यत्राप्रवृत्तेः, नापि तत्पुरुषः, तस्योत्तरपदार्थप्रधानत्वेन राजपुरुष इत्यादावुत्तरपदार्थविशेष्यकबोधजनकत्वात्, अत्र च तदभावात्, अत एव तत्पुरुषविशेषरूपस्य कर्मधारयस्याप्यत्र न सम्भवः, तद्घटकपदार्थानां विशेषणविशेष्यभावस्य नियमेन भावात्, कृष्णसर्प इत्यादौ पूर्वपदार्थप्रकारकोत्तरपदार्थविशेष्यकबोधजनकत्वात्, अत्र च तथाऽनभ्युपगमात्, अत एव तद्विशेषो द्विगुरपि न सम्भवति, तस्य सङ्ख्यावाचिपूर्वपदकत्वनियमात् अत्र च सङ्ख्यावाचिपूर्वपदस्यैवाभावात् न च समासान्तरसद्भावोऽस्ति, येन तद्वाच्यताऽपि शक्यसम्भावना स्यात्, न चैकशेषवृच्या तथाबोधस्सम्भवी, रामश्च रामश्च रामौ रामच रामश्र रामश्च रामा इत्यादौ सरूपाणामेकशेषस्य विधानात् प्रकृते तु सरूपत्वाभावेनैकशेषविधानस्याशक्यत्वात्, विरूपाणामपि समानार्थानामेवैकशेषस्य दृष्टत्वात्, प्रकृते तु समानार्थकत्वा भावात्, अन्यस्य चैकशेष विधायकविधेस्तत्तच्छन्दविषयकत्वेन तस्याप्यत्रासम्मवित्वात् । नच विग्रहवाक्येनापि तथाबोधप्रत्याशा कर्त्तव्या, विग्रहवाक्यस्य वृत्तिसमानार्थकत्वनिय मात्, वृत्तेश्च तादृशार्थाऽबोधकत्वे निश्चिते विग्रहवाक्यस्य तादृशार्थबोधकत्वस्य सुतरामसम्भवात् । तथा चोक्तनीत्याऽस्तित्वनास्तित्वो भयात्मके वस्तुनि युगपदस्तित्व नास्तित्वोभयप्रतिपादकवचनाभावाद् युगपदस्तित्वनास्तित्वोभयात्मना घटेऽवक्तव्यत्वं सिद्धमिति तद्विषयतृतीयभङ्गप्रवृत्तिस्सङ्गच्छत एवेति तृतीयभङ्गघटकस्यात्पदं तु सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयात्मकोऽथों न सर्वथा वचनागोचरः, तथा सत्यवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्योऽपि स न स्यात्, किन्तु कथञ्चिदवक्तव्य एवेति सूचयितुमिति । अवधारणार्थश्चैव कारपदमिति । न चावक्तव्यत्वस्यास्तित्वनास्तित्वो भयात्मकत्वे आद्येन भङ्गेनास्तित्वस्य द्वितीयेन च नास्तित्वस्य ज्ञाने तदुभयज्ञानं सञ्जातमेवेत्ययं तृतीयभङ्गो निष्फलत्वेनोपादेयो नेति वाच्यम्, सहार्पितास्तिस्वनास्तित्वात्मकाऽवक्तव्यत्वज्ञानस्याद्याभ्यां भङ्गाभ्यामनुत्पाद्यस्योत्पादकतया साफल्येनोपादेयत्वात्, यतो न हि सहार्पितयोस्सच्वासत्त्वयोस्स्यादवक्तव्य एवेति भङ्गेनाभिधानम्, किं तर्हि ? तथार्पितयोस्तयोस्सर्वथा वक्तुमशक्तेरवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरस्य तेन भङ्गेन प्रतिपादनमिष्यते । अत एव तत्संशयं प्रत्याद्यभङ्गजन्यस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नसत्त्वनिश्चयस्य द्वितीयभङ्गजन्यपरद्रव्याद्यवच्छिन्ननास्तित्वनिश्चयस्य च कथमपि प्रतिबन्धकत्वाऽसम्भवेन तज्जन्यजिज्ञासादिक्रमेण तृतीयभङ्गावतारस्सुघट एव ।
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धम्मति० काण्ड ), गा० ३६ एवं चतुर्थादिभङ्गोत्थापकारसंशयास्सूपपादा इत्युक्तं प्रागेव । ननु स्वद्रव्यादीनां सत्वस्य परद्रव्यादीनां चासत्त्वस्यावच्छेदकत्वमुररीकृत्य प्रथमद्वितीयत्तीयभङ्गा उपपादिताः, परं स्वद्रव्यादीनां स्वाधिकरणत्वमेव परद्रव्यादीनाश्च स्वाभावाधिकरणत्वमेव प्रतीतिपथमवतरति, न त्ववच्छेदकत्वं, भावस्यावच्छेदकत्वं तु स्वरूपसम्बन्धरूपं किश्चिदधिकरणकृत्ति त्वरूपं सवं यापेयते तदाऽऽधेयत्वस्य सखण्डधर्मत्वात् सखण्डधर्माणाश्च सावच्छिन्नस्वनियमाद् युज्येतापि, यदि तु घटत्वादिवत्सवमपि अखण्डधर्मविशेष एव तदा घटत्वादीनां यथा न सावच्छिन्नत्वं तथा सत्यादिलक्षणास्तित्वादेरपि न सावच्छिन्नत्वमिति न तदवच्छेदकत्वं स्वभावभूतस्यापि घटत्वादेरिति स्वद्रव्याद्यवच्छेदेन घटादेस्सत्त्वस्यैवाभावात् , एवं परद्रव्याघवच्छेदेन घटादेरसत्वस्याभावात्तदुभयाभावे तनिवन्धनाऽवक्तव्यत्वस्याप्यभावानोक्तमङ्गत्रयसम्भवः, तदभावे च प्रथमद्वितीयसंयोगजस्य चतुर्थस्य, प्रथमत्तीयसंयोगजस्य पञ्चमस्य, द्वितीयतृतीयसंयोगजस्य षष्ठस्य, प्रथमद्वितीयतृतीयसंयोगजस्य सप्तमस्य चाभावादुक्तसप्तभङ्गसमाहाररूपा सप्तभङ्गी न सिद्धिपथमवतरतीति चेत् , उच्यते, अवच्छेदकत्वकल्पना हि प्रतीत्यनुसारेण भवति, तत्र धर्ममात्रं सखण्डमखण्डं वाऽव्याप्यवृत्तितयैव प्रतीयत इति सावच्छिन्नत्वे धर्मत्वमेव प्रयोजकं, न तु सखण्डधर्मत्वं, घटत्वादेरपि च किश्चिदपेक्षया घटादौ प्रतीत्युपपत्तये सावच्छिन्नत्वं स्वीक्रियत एव, घटस्य द्रव्यपर्यायोभयात्मनः घटत्वं न मृद्रव्यापेक्षया, किन्तु पृथुबुध्नोदरायाकारलक्षणपर्यायापेक्षयैव, इत्थश्च यद् यदपेक्षया प्रतीयते तस्य तदवच्छिन्नत्वं प्रतीतिशरणैरभ्युपेयम्, प्रतीयते च घटादेरस्तित्वं स्वद्रव्याद्यपेक्षया, नास्तित्वञ्च परद्रव्याद्यपेक्षयेति स्वद्रव्यादीनां सखण्डस्याखण्डस्य वा सवस्यावच्छेदकत्वम् , एवं परद्रव्यादीनामसत्वस्य तथाभूतस्यावच्छेदक त्वम् , यदा च प्रतीत्यनुरोधेनैवावच्छेदकव्यवस्थाऽऽस्थीयते, तदा सङ्कोचविकाशशालिदेशे सति सङ्कुचितदेशापेक्षया सवप्रतीतौ तद्देशावच्छिन्नदेशस्यावच्छेदकत्वम् , देशदेशस्य वाऽवच्छेदकत्वम्, विकाशदेशापेक्षया सत्त्वप्रतीतौ च तद्देशस्य तद्वथापकदेशस्य वाऽवच्छेदकत्वं स्यादेव, एवं कालादेरपि सूक्ष्मस्थूलरूपतयाऽपेक्षाश्रयणेन सच्चप्रतीतौ तथाऽवच्छेदकत्वमवसेयम् ,एवञ्चावच्छेदकसङ्कोचविकासाद्यपेक्षया सच्चासत्वोमयधर्मव्यवस्थितौ तत्प्रतिपत्यथे तद्विवक्षातस्स्यादस्त्येव घट इति प्रथमभङ्गस्य स्यात्रास्त्येव घट इति द्वितीयमङ्गस्य च सिद्धौ सत्यां स्वस्त्रनिमित्तभेदापेक्षया युगपदेकर वर्तमानस्य सत्वासचोभयस्य युगपदेव प्राधान्यविवक्षया प्रतिपत्त्यर्थ वक्ता समुत्सुकोऽपि तथा प्रतिपादकवचनमप्रेक्षमाणस्स्यादवक्तव्य एव घट इत्येवं तृतीयमङ्गं प्रयोक्तुमर्हति, तथाहि युगपत्प्राधान्येन तदुमयप्रतिपादकं समासवचनं तावन्न सम्भवति, प्रकृते बुबोधयिषितस्य प्राधान्येन युगपदुभयस्य प्रतिपादनेऽन्यपदार्थप्रधानस्य बहुव्रीहेरसामर्थ्यात्, अव्ययीभावस्य पात्रानधिकारात्, उभयपदार्थप्रधानस्यापि द्वन्द्वस्य द्रष्यवृत्तेः प्रकृतार्थाप्रतिपादकत्वात् गुण
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धम्मति० काम , गा. वृत्चेरपि तस्य गुणानां द्रव्यद्वारेणैव तिष्ठत्यादिक्रियाधारत्वेन द्रव्याश्रितगुणप्रतिपादकत्वतः प्राधान्येन गुणद्वयप्रतिपादकत्वाभावात् , उत्तरपदार्थप्रधानस्य तत्पुरुषस्याप्य. प्रार्थेऽप्रवृत्तः, सङ्ख्यावाचिपूर्वपदस्य द्विगोरपि प्रकृते प्रवृत्त्यभावात् , गुणाधारद्रव्यविषयस्वात् , कर्मधारयोऽपि सत्वासचोभयं युगपत्प्राधान्येन प्रतिपादयितुं सामथ्र्य नालम्बते, समासान्तरश्च नास्त्येवेति न समासवचनं युगपत्प्राधान्येन विवक्षितसत्त्वासत्त्वोमयप्रतिपादकं समस्तीति सिद्धम् , वृश्यसम्भिन्नार्थत्वाद् व्यासवाक्यमपि तथाभूतगुणद्वयप्रतिपादकं नास्त्येव, शत्शानचयोस्सकेतितसच्छब्दवत्किमपि वचनं तथाभूतगुणद्वयसङ्केतित यदि भवेत्तदा विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वं स्याद्, विकल्पानां च युगपदप्रवृत्ते कदा तयो. स्तद्वाच्यतासम्भवा, समूहालम्बनात्मकविकल्पो यद्यपि युगपदुभयग्रहणपटुस्तथापि तत्प्रभवपदानां बुद्धिविशेषविषयतावच्छेदकत्वोपलक्षितनानाशक्यतावच्छेदकत्वेन परमार्थतो नानार्थस्थानीयत्वेन तेभ्यः प्रकरणादिनियन्त्रितप्रतिनियतैकार्थबोधस्यैवैकदा सम्भवात् , सदसदुभयसङ्केतितपदस्य पुष्पदन्तादिव द्वित्वेनैवोमयप्रतिपादकत्वेन द्वित्वावच्छिन्नस्य तस्यैकत्वावच्छिन्ने निराकासत्वादन्वयो न सम्भवतीत्यतो द्वित्वेन सत्वासचोमयस्य प्राधान्यं, न तु सवस्य असत्वस्य च स्वस्वासाधारणधर्मरूपेण प्राधान्यं युगपद्विवक्षितं ततः प्रतिपत्तुं शक्यमिति तथाऽवाच्यत्वस्यैव सिद्धेः, अत एव वस्त्वादिपदं सदसदुमये न सहे. त्यते, द्वित्वावच्छिन्नस्य तस्यैकत्वावच्छिन्नान्वयाऽयोग्यत्वेन तथा प्रतिपादनासम्मवाद , किन्तु सदसदुभयात्मकैकजात्यन्तरे सङ्केत्यते जैना, घटस्य घटत्वमघटव्यावृचौ सत्यामेव सम्भवतीति घटे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते घटत्वेऽभ्युपगम्यमाने पटाद्यर्थप्रतिषेधस्तत्राभ्युपगत एव भवतीति न घटे पटाद्यर्थप्रतिषेधस्यासम्बद्धता, स्वद्रव्याद्यपेक्ष्यसव-परद्रव्याद्यपेक्ष्याऽसत्रयोः समानसंविसंवेद्यता मानसबोध एव, न शाब्दबोधे, 'शाब्दी ह्याकाहा शब्देनैव प्रपूर्यते' इति न्यायात्, तथा च स्वद्रव्यादिना सत्वप्रतिपादकप्रथमभङ्गवत्परद्रव्यादिनाऽसवप्रतिपादकद्वितीयभङ्गोऽप्यावश्यक इति न प्रथमभङ्गेन द्वितीयमङ्गस्य गतार्थता, एवमुक्तदिशाऽवक्तव्यत्वप्रतिपादकत्तीयभङ्गोऽध्यावश्यका, अथवा सर्व सर्वात्मकमिति साथमतव्यवच्छेदाय द्वितीयभङ्ग उपादीयते, प्रथममङ्गेन घटस्य घटत्वप्रतिपत्तावपि पटत्वादिव्यवच्छेदप्रतीत्यभावात् न साह्वयमतव्यवच्छेदो भवेत् , द्वितीयभङ्गेन पटत्वादिनाऽसवप्रतिपत्तौ तद्वयवच्छेदस्याऽवश्यम्भावात् १, घटस्य नामस्थापनाद्रव्यभावमेदेन चातुर्विध्ये सति तत्रैकविधस्य विधिसितत्वमन्यविधस्य चाविधित्सितत्वमिति यद्विधि: रिसतं रूपं तद्रूपेणास्तित्वमिति तत्प्रतिपादकः प्रथमभङ्गः, यदविधित्सितं रूपं तद्रपेण नास्तित्वमिति तत्प्रतिपादको द्वितीयो भङ्गा, विधित्सिताविधित्सितप्रकाराभ्यां युगपदक्तुं न शक्यते इति युगपदवाच्यत्वप्रतिपादक तृतीयो भङ्गा, कथं न वक्तुं शक्यते इत्यत्र
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सम्मति काण्ड, गा० ३६
तथाऽभिधेयपरिणामरहितत्वाचस्येत्येवोत्तरम्, एवमग्रेऽपि, यथा विधित्सितरूपेण घटस्तथाविधित्सितरूपेणापि यदि घटः स्यात् तर्हि प्रतिनियतनामादिव्यवहारोच्छेद एव भवेत्, एवश्व व्यवहाराभावो व्यवहर्त्तव्याभावादेवेति विधित्सितरूपस्याप्यभावे सर्वाभाव एव भवेत्, तथा यथा विधित्सितप्रकारेण घटोऽघटस्तथा विधित्सितप्रकारेणाऽप्यघटः स्यात्तदा घटस्य सर्वप्रकारेणाभावे घटसत्त्वनिबन्धनव्यवहार एव विलीयेत, इति विधित्सितरूपेण घटत्वमविधित्सितरूपेणाऽघटत्वमिति तत्प्रतिपादकौ प्रथमद्वितीयमङ्गौ, विधित्सितरूपमविधित्सितरूपव्यवच्छेदमन्तरा न सम्भवति, अविधित्सितरूपव्यवच्छेदो विधित्सितरूपमन्तरा न सम्भवतीति विधित्सिता विधित्सितनिषेधयोरेकस्यैवैकान्तस्याभ्युपगमे तदितराभावे तस्याtयभाव इत्यभिधेयाभावादभिधानस्याप्यभाव इत्यवाच्य इति तृतीयभङ्गः, नन्वनेक गुणवति वस्तुनि एकगुणरूपेण विधित्सा प्रयोजनानुरोधिनी भवतु नाम नेयं रूपान्तरावच्छिन्नसत्त विरुणद्धि, रूपवश्वेन घटस्य विधित्सायामपि रसवत्वेन तत्सत्ताया अनपायादिति चेत्, न, गुणात्मक सत्ताया गुणरूपत्वेऽपि व्यावहारिक्यास्तस्यास्तदभिधेयपरिणाम पर्यवसितवेन विधित्सानुसारित्वात् एवश्व नामरूपेण विधित्सितस्य घटस्य नामरूपाभिधेयपरिणामववमेव नाविधित्सितरूपाभिधेयपरिणामवच्चमर्थात्तद्रूपेणाभिधेयो न भवतीत्यतोऽविधित्सितरूपेण घटोsवट एवेति एवमग्रेऽध्याक्षेपपरिहारौ वाच्यौ ॥ २ ॥
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नामादिचतुष्टयप्रकारेषु प्रतिनियतस्थापनासंस्थानविशेषस्वरूप एव घटो यदाऽभिमतस्तदा प्रतिनियतस्थापनासंस्थानस्वरूपेण घटः, इतरेण चाघट इति प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यामभिधातुमशक्यत्वादवाच्य एव घट इति तृतीयो भङ्गा, यथा विवक्षित स्वासाधारण संस्थानरूपेण घटो घटस्तथाऽन्यघटगत संस्थानस्वरूपेणापि यदि घटस्तदैकस्य सर्वघटात्मकत्वमासज्यते । अथ यथेतरसंस्थानादिरूपेणाघटस्तथा विवक्षित संस्थानस्वरूपेणाप्यघटस्तदा घटार्थिनः पटादाविव तत्राप्यप्रवृत्तिः स्यात्, उक्तदिशा घटत्वाघटत्वयोरुभयोरप्येकत्रभावे तन्मध्यादेकान्तेनैकस्याभ्युपगमे तथाभूतस्य प्रमाणाविषयत्वादसत्वादवाच्यो घटः ॥ ३ ॥
संस्थानविशेषस्वरूपेण स्वीकृतेऽपि घटे यन्मध्यावस्थायां पृथुबुध्नोदरादिलक्षणं संस्थानं तद्घटस्य निजं रूपं तद्रूपेण घटो घटः, पूर्वोत्तरावस्थे कुशूलकपालादिलक्षणे संस्थाने अर्थान्तररूपं तद्रूपेण घटोsघट इत्येवं प्रथमद्वितीयमङ्गौ युगपत्प्रधानतया विवक्षिताभ्यां ताभ्यां वक्तुमसामर्थ्यादवाच्य एव घट इति तृतीयो भङ्गः, यथा पृथुबुध्नोदराद्याकारलक्षणमध्यावस्थास्वरूपेण घटस्तथा यदि कुशूलकपालादिलक्षणपूर्वोत्तरावस्था स्वरूपेणापि घटः स्यात्तदा तस्य त्रिकालावस्थायिनोऽनाद्यनन्तत्वं प्रसज्येत यदि यथा पूर्वोत्तरावस्थास्वरूपेणाघटस्तथा मध्यावस्थारूपेणाप्यघटस्तदा क्वचिदपि कालेऽवर्त्तमानस्य तस्य शशशृङ्गादे
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संम्मति. काण्ड , गा० ३६ रिव सर्वदाऽसत्वमेवानुषज्यत इति कदाचिदपि घटार्थिनस्तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात्, निरुक्तोमयरूपमध्यादेकान्तत एकरूपस्याभ्युपगमे तु तदेकान्तरूपं नास्त्येव वस्त्विति सर्वदाऽभाव एवेत्यसत्वादेवावाच्यः ॥ ४॥ .
तस्मिन्नपि मध्यावस्थारूपे घटे चर्चमानक्षणरूपं निजं, तेन रूपेण सत्वात्प्रथममङ्गः, अवर्चमानक्षणस्वरूपमर्थान्तररूपं तेन रूपेणासत्वाद् द्वितीयो भङ्गा, ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्यत्वादवाच्यलक्षणस्तृतीयभङ्गा, अत्रेयं मीमांसा-यदि वर्तमानक्षणस्वरूपो घटो वर्तमानक्षणवत्पूर्वोत्तरक्षणयोरपि भवेत्तदा पूर्वोत्तरक्षणयोर्वर्त्तमानत्वमवश्यमापतेत् , विभिन्नकालीनयोराधाराधेयभावाभावावर्चमानक्षणस्वरूपस्य वर्तमानक्षणेनैव सम्बन्धादित्यतीतानागतकालाभावप्रसक्त्या तदभावे तदपेक्षस्य वर्तमानक्षणमात्रस्याप्यभावा प्रसज्येत, यथा यद्यतीतानागतक्षणरूपतया घटोऽघटस्तथा वर्तमानक्षणरूपतयाऽप्यघटस्तहि सर्वदा घटाभावप्रसक्त्या घटार्थिनस्तत्र प्रवृत्तिनं स्यात्, तयोरेकान्तैकरूपाभ्युपगमेऽप्येकान्तस्याभावादेवावाच्यः ।।५॥
एवं क्षणपरिणतिरूपस्य घटस्य चक्षुरिन्द्रियजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वं विवक्षितत्वानिज रूपं तेन सत्वादाद्यो भङ्गा, अन्येन्द्रियजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वमविवक्षितत्वादर्थान्तरं, तेनासत्वाद् द्वितीयो भङ्गः, ताभ्यां युगपदादिष्टो वक्तुमशक्यत्वात्तृतीयो भङ्गा, तथाहि यथा लोचनजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वेन घटो घटस्तथा यदीन्द्रियान्तरजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि घटा तदा लोचनजन्यप्रतिपत्तिविषयमावपरिणतिस्वरूपे इन्द्रियान्तरजन्यप्रतिपत्तिविषयमावपरिणतिप्र. वेश आवश्यक इति चक्षुरिन्द्रियजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वत एवेन्द्रियान्तरजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वमितीन्द्रियान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गः, चक्षुरिन्द्रियस्वरूपमपि यदीन्द्रियान्तरस्वरूपं भवेत् तदैव चक्षुरिन्द्रियजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वपरिणतिरिन्द्रियान्तरजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वपरिणतिरितीन्द्रियसङ्करप्रसङ्गश्च, यथा यदीन्द्रियान्तरजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वेन घटो न घटस्तथा चक्षुरिन्द्रियजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न घटस्तदा तस्याऽरूपत्वं प्रसज्येत, उक्तरूपद्वयमध्यादेकान्तेनैकस्याभ्युपगमे इतरापेक्षस्य तस्येतराऽमावेऽभावादवाच्य एव ॥ ६ ॥
लोचनजप्रतिपत्तिविषये तस्मिन्नेव घटे घटशब्दवाच्यता निजं रूपं तद्रूपेण सत्वात्प्रथमो मङ्गः, कुटादिशब्दवाच्यत्वमर्थान्तरम् , तद्रूपेणासत्वाद् द्वितीयो भङ्गो, युगपत्ताभ्यामिष्टस्तथाऽभिधेयपरिणामामावादवाच्य इति तृतीयो भङ्गा, यथा घटशब्दवाच्यत्वेन घटस्तथा यदि कुटशब्दवाच्यत्वेनापि घटस्तदाऽन्यशब्दवाच्यस्याप्येकशब्दवाच्यत्वस्य स्वहस्तितत्वाद्-यथा घटशब्दादन्यः कुटशब्दः तथा पटमठादिशब्दा अपि घटशब्दादन्य एवेति कुटशन्दवाच्यस्य यथा घटशब्दवाच्यत्वं तथा पटमठादिशब्दवाच्यानामपि घटशब्दवाच्यत्वमित्येवं सर्वस्यैकशब्दवाच्यत्वासनेन त्रिजगत एकशब्दवाच्यत्त्वप्रसक्ति, एकान्दवाच्यस्य
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पम्मति० काम , मा. ३६ वाऽनेकशम्दवाच्यत्वस्वाङ्गीकृतत्वाद् घटस्य कुटादिशब्दवाच्यत्ववत्पटादिशब्दवाच्यत्वस्यापि प्रसंक्तिरिति घटे घटश दवाच्यत्वप्रतिपत्तौ तत्स्वरूपसनिविष्टाशेषशब्दवाच्यत्वप्रतिपत्तिप्रसङ्गे सति घटशब्दप्रतिपत्तिवत्तद्वाचकसमस्तशब्दप्रतिपत्तिप्रसङ्गः, अर्थे वाच्यतायाः शन्दे वाचकतायाश्च समानसंविसंवेद्यत्वादेकप्रतिपत्तावन्यप्रतियत्तेरवश्यम्भावात् , एवं कुटादिशब्देनावाच्यो घटो यदि घटशब्देनाप्यवाच्यस्स्यात्तदा स्ववाच्यप्रतित्यर्थ शब्द उच्चार्यते नान्यथेति घटशब्दावाच्यस्य घटस्य घटशब्दोचारणेऽपि न प्रतीतिरिति घटशब्दोचारणवैययं स्यात्, तयोरेकान्ताभ्युपगमे त्वेकान्तकरूपस्य घटस्यासत्त्वादेव सङ्केतद्वारेणापि न तद्वाचकः कविच्छन्दः इत्यवाच्य एव ॥ ७ ॥ .. अथवा घटशब्दाभिधेयस्य तस्यैव घटस्योपादेयान्तरणोपयोगरूपं निजं रूपं तेन सत्वाप्रथमभङ्ग, हेयबहिरङ्गाऽनुपयोगरूपमर्थान्तरं तेनासवाद्वितीयो मङ्गः, ताभ्यां युगपदादिष्टो घटस्तथाऽभिधेयपरिणामाभावाद्वाचकस्य कस्यचिदभावादवाच्य इति तृतीयो भङ्गः, यथाऽर्थक्रियाक्षमादिरूपेण घटस्तथा यदि हेयबहिरङ्गानर्थक्रियाकार्यऽसभिहितरूपेणापि घटस्स्यातर्हि पटादीनामपि घटत्वं स्यात् , यथा हेयबहिरङ्गानर्थक्रियाकार्यऽसनिहितरूपेणापटस्तथा यदि उपादेयादिरूपेणाप्यघटः स्यात्तदाऽन्तरङ्गस्य वक्तृश्रोतगतहेतुफलभूतघटाकारावबोधकविकल्पोपयोगस्याप्यभावे घटस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यवाच्या, एकान्ताभ्युपगमेऽप्येकान्तस्यामावादेव वक्तृश्रोतगतहेतुफलभूतघटाकारावबोधकविकल्पोपयोगस्याभावे घटस्याभावप्रसङ्ग इत्यवाच्यः ॥ ८॥ __ अथवा तस्मिन्नेवोपयोगस्वरूपे घटेऽमिमतार्थावबोधकत्वं निजं रूपं तेन सत्त्वात्प्रथममङ्गः, अनभिमतार्थानवबोधकत्वमर्थान्तररूपं तस्य स्वगतत्वेऽप्यन्तरत्वेन विवक्षणात् , तेन रूपेणासत्त्वाद्वितीयो मङ्गः, ताभ्यां युगपदादिष्टस्तथाभिधेयपरिणत्यमावात्तथावाचकस्याप्यभावादवाच्य इति तृतीयो मङ्गा, यथाऽभिमतार्थप्रतिपादकत्वेनोपयोगलक्षणो घटो घटस्तथाऽनमिमतार्थानवबोधकत्वरूपेणापि यदि घटः स्यात्तदा प्रतिनियतोपयोगाभावः प्रसज्यते अभिमतार्थप्रतिपादकत्वानमिमतार्थानवबोधकत्वयो.लक्षण्येन तदुभयाध्यासितस्य प्रतिनियत. स्वाभावात् , उपयोगस्य प्रतिनियतत्वाभावे च विविक्तरूपोपयोगप्रतिपत्तिर्न स्यात् , यथाऽनमिमतार्थानवबोधकत्वेनाघटस्तथा यद्यभिमतार्थावबोधकत्वलक्षणविवक्षितोपयोगस्वरूपेणाप्यघटा स्यात् तर्युक्तदिशा पटादिरप्यपटादिरिति सर्वामावा, यथा घटस्याघटत्वं तथा पटादेरप्यघटत्वमिति पटादितो घटस्याविशेषप्रसङ्गश्च, पटाद्यविशिष्टत्वेन घटस्याप्रतीत्या तथाऽऽपादनस्येष्टापादनत्वासम्भवात् , तयोरेकस्यैवैकान्ततयाऽभ्युपगमे त्वेकान्तस्याप्रतीत्यैवासस्वेन सर्वाभावाविशेषप्रसङ्गतादवस्थ्यादवाच्यः ॥ ९ ॥
अथवा घटस्य घटत्वं निजं रूपमसाधारणत्वात् , तेन रूपेण सत्वात्प्रथमो भगः, सचम.
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सम्मति• काड , गा० १६ सत्त्वं चार्थान्तररूपं साधारणत्वादिति तद्रूपेणासत्त्वाद्वितीयो मङ्गः, अभेदेन ताभ्यां निर्दिष्टो. घटोऽवक्तव्य इति तृतीयो भङ्गः, तथाहि-यस्सन् स घट इत्येवं सत्रमनूध घटत्वं यदि विधीयते तदा घटत्वस्य सत्वव्यापकत्वात्सर्वेषां सतां घटरूपत्वप्रसक्या घटस्य सर्वगतत्व. प्रसङ्गः, न चायं प्रसङ्ग इष्टापचिरूपत्वेन परिहत्तुं शक्यः, विभिन्न प्रतिभासबोधप्रतिनियत. व्यवहारविलोपापत्तेस्तथाऽभ्युपगमेऽनिष्टत्वाद, तथा योऽसन् स घट इत्येवमसचमनूध यदि घटत्वं विधीयते, तदा विधिस्सन् निषेधोऽसन्निति निषेधरूपस्य प्रागभावादिचतुष्कस्य घटत्वेन व्यासघटत्वप्रसङ्गा, अत्र या कश्चिद्विधिर्भावः स सन् भवतीत्युपदर्शनमात्रमेतत् , तेन भावमात्रस्य विधित्वेऽपि प्रकृते विधीयमानस्य घटत्वस्य भावरूपत्वेन विधित्वं बोध्यम् । अथ घटत्वमनूध सदसच्चे विधीयेते तदा घटत्वं यत्तदेव सदसवे इति घटमात्रं ते प्रसज्ये. यातां, तथा च पटादीनां प्रागभावादीनां चाभावप्रसक्तिरिति प्राक्तनन्यायेन विशेषणविशेष्यलोपात् सन् घट इत्येवमप्यवक्तव्योऽसन् घट इत्येवमप्यवक्तव्यस्स्यात् , यतः सन् घट इति, असन् घट इति, घटः सन्निति, घटोऽसमित्येवं केनापि प्रकारेण घटो वाच्यो न भवति, तस्मादवाच्यः। अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चिदवाच्यो, न तु सर्वथा, अमेदवाद. कृततदोषस्य मेदवादेन परिहारादिति न कश्चिद्दोषः । न च भेदैकान्तेऽपि घटत्वमनूष सत्चासत्वयोः समवायविशेषणताभ्यां विधानाभायं दोष इति वाच्यम् , अतिरिक्तसमवायविशेषणतयोर्मानाभावेन भेदैकान्तस्यैवावाच्यत्वादिति ॥ १० ॥
घटस्य प्रतिक्षणमन्यान्यपरिणतिरर्थपर्यायोऽनन्यगामित्वानिजं रूपं, तद्रूपेण सन्चाप्रथमभङ्गः, व्यञ्जनपर्यायस्तु घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्वं घटत्वं सकलघटसाधारणत्वादर्थान्तरं तद्रूपेणासत्वाद् द्वितीयो भङ्गः, अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽव्यक्तव्यत्वात्तृतीयो भङ्गा, अत्र यो व्यञ्जनपर्यायस्स घटार्थपर्याय इत्येवं व्यञ्जनपर्यायमनूध यदि घटार्थपर्यायविधिः तदा व्यञ्जनपर्यायोऽर्थपर्याय एवेत्यर्थपर्यायाणां भिन्नत्वात्तदात्मको व्यञ्जनपर्यायो नैक इत्येकानुगतव्यञ्जनपर्यायनिवन्धनानुगतव्यवहारविलोपः। अथ योऽर्थपर्यायस्स व्यञ्जनपर्याय इत्येव. मर्थपर्यायमनूध व्यञ्जनपर्यायविधिस्तदाऽर्थपर्यायो व्यञ्जनपर्याय एवेति व्यञ्जनपर्यायस्य नित्यत्वात्तदात्मकार्थपर्यायस्य नित्यत्वापत्तेरकार्यत्वं स्यात् , घटस्य तु कार्यतयैवानुभवो नाऽकार्यतयेति तथाभूतस्य तस्यामावादवाच्यः, अनेकान्तपक्षे त्वर्थव्यञ्जनपर्यायाभ्यां सम्वासचयोर्युगपत्प्रधानतया विवक्षितयोरभिधातुमशक्यत्वात्कथश्चिदवाच्यः ॥ ११॥ . . यद्वा सश्वमर्थान्तरभूतम् , तस्य विशेषवदेकत्वेनानन्वयिरूपत्वान शब्दवाच्यत्वमिति तद्रपेणावाच्यो घटः, अत्र सत्त्वस्यार्थान्तरत्वविवक्षा पर्यायनयमूलकप्रथमभङ्गाश्रयणकता, अनन्वयित्वश्च तस्यैकमेकत्रैव निरंशमवस्थातुमर्हतीति समाश्रयणेन, अनुगतस्यैव प्रवृत्ति निमित्तत्वाच्छब्दवाच्यत्वमित्यननुगतत्वान शब्दवाच्यत्वमिति बोध्यम् । अन्त्यविशेषो निर्ज
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[० का १, पा० ३६
सम्मति ० रूपं तस्याप्यनन्वयित्वादवाच्यस्वमिति तद्रपेणाप्यवाच्यो घटः, प्रत्येक वक्तव्याम्यां ताभ्यां युगपदादिष्टोऽपि घटोsवक्तव्यः, अनेकान्तपक्षे तु कथश्चिदवक्तव्यः ॥ १२ ॥
अथवा साङ्खमते प्रतिनियतार्थ क्रियाकारितावच्छेदकैक्य परिणतिलक्षण सन्द्भुतरूपाना• पन्नाः सत्वरजस्तमोऽभिधाना गुणा अर्थान्तरम्, प्रतिनियतार्थक्रियाकारितावच्छेदकैक्यपरिणतिलक्षणं सन्द्रुतरूपं घटस्य निजम्, ताभ्यामादिष्टो घटोsवक्तव्यः, यतः निरुक्तैक्यपरिणतिलक्षणस्य सन्द्रतरूपस्य सत्वरजस्तमस्तु भावे सत्वरजस्तमसामभावप्रसक्तिः, तेषां परस्परवैलक्षण्येनैव सच्चादिरूपत्वात् सन्द्भुतरूपत्वे च वैलक्षण्पाभावादभाव इति सन्द्रुतरूपाः सच्वादयः घट इत्यत्र सन्दुतरूपा इति विशेषणं सच्चादय इति विशेष्यं, तत्र विशेष्यीभूतानां सच्चादीनामभावात् सन्द्रुतरूपास्सच्वादय इति वक्तुं न शक्यत इत्यवाच्यः, सश्वरजस्तमस्तु सन्द्भुतरूपस्याऽभावे तु असतस्सन्द्रुतरूपस्योत्पादादसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः न च सत्कार्यवादिभिस्साङ्खयैरसत्कार्योत्पादोऽभ्युपगम्यते, यदि च तद्राद्धान्तोच्छेदभीतिमगणयित्वैव तथोपेयते तदा सच्चादिषु सन्द्रुतरूपत्वं विशेषणन्नास्तीति विशेषणाभावात्सन्दुतरूपास्तच्चादय इति वक्तुं न शक्यत इत्यवाच्यः, यदैक्यपरिणतिस्तेषां भवति तदानीं सन्द्रुतरूपस्थ सद्भाव विशेषणाभाव इति चेत्, न, कालभेदेन सन्द्रुतरूपासन्द्रुतरूपयोरेकत्र समावेशाम्युपगमेऽनेकान्त प्रवेशात् प्राक् शक्तिरूपेण सन्द्वतरूपं तेषु समस्ति न च शक्तिरूपेण सन्दुतरूपसवं सच्चादिवैलक्षण्यव्याहन्तु, व्यक्त्या तु घटसामग्रीत एव सन्द्रुतरूपं स्यादिति चेत्, व्यक्तेरप्याविर्भावलक्षणायाः प्राक् सन्द्रुतरूपस्य तेषु सच्चे तेषामभावप्रसक्तिः, असच्चे असत्कार्यवादप्रसङ्ग इत्येवं सदसद्विकल्पग्रासात् । अथ नैयायिकादीनां यथा भूतले घटसच्चदशायां सतोsपि घटाभावस्य न सम्बन्धः, किन्तु तदपसारणदशायामेव तदपसारणकालावच्छिन्नस्वरूपात्मा सम्बन्धः, तथा ममापि सन्दुतरूपस्य प्राक्सवेsपि प्राकालावच्छिन्नस्वरूपात्मा न सम्बन्धो, घटसामग्रीसम्पत्तौ च सम्बन्धलाभाद्व्यवहारसिद्धिरिति चेत्, न, उभयोरपि वादिनोर्यथोक्तसम्बन्धस्याऽनेकान्तं विनाऽवाच्यत्वादिति दिक् ॥ १३ ॥
अथवा असंहृतरूपा रूपादयो यर्थान्तरभूताः संहतरूपत्वं सामूहिक प्रत्ययग्राह्यं निजम्, ताभ्यामादिष्टो घटोsवक्तव्यः यथा ह्यरूपादिव्यावृत्तरूपा रूपादयः तर्हि रूपादीनां घटतावाच्या, अरूपादित्वाद् घटस्थ; न हि परस्परविलक्षण बुद्धिग्राह्या रूपादय एकानेकात्मकप्रत्ययग्राह्याsरूपादिरूपघटतां प्रतिपद्यन्त इति रूपादीनामेकानेकप्रत्ययं ग्राह्यत्वलक्षण संहृतरूपतायामरूपादिस्वप्रसङ्गतो रूपादितैव नास्तीति संहृतरूपा रूपादयो घट इत्यत्र संहृतरूपत्वं विशेषणं रूपादयश्च विशेष्या इति विशेष्यीभूतानां रूपादीनां विलोपात्संहृतरूपा रूपादयो घट इत्येवं वक्तुं न शक्यते इत्यवाच्यः, यदि चारूपव्यावृत्तत्वेन रूपादीनां नोपगमः किन्त्वरूपत्वेनैव, एवमपि रूपादय एव न भवन्तीति तेषामभावे के
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सम्मति• काय , गा० ॥ संहतरूपतया विशेष्या? येन संहृतरूपा रूपादयो घटो भवेदित्येवमप्यवाच्या, अनेकान्तवादे च कथञ्चिदवाच्यः ॥ १४ ॥ .
अथवा घटो रूपादिमानिति यदुच्यते तत्र रूपादयोऽर्थान्तरभूताः, मतुबर्थो निजः, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्या, रूपाधात्मकैकाकारावभासप्रत्ययविषयव्यतिरेकेणापररूपसम्बन्धस्यानवगतेः रूपादिमानित्यत्र विशेष्यस्य सम्बन्धस्याभावाद्र्पादिमान् घट इति वक्तुं न शक्यत इत्यवाच्यः, घटात्मकैकाकारप्रतिभासग्राह्यघटस्वरूपव्यतिरेकेण नापरस्य रूपादे: प्रतिभास इति रूपादिमानित्यत्र मतुवर्थविशेषणस्य रूपादेरभावादपि रूपादिमान् घट इति वक्तुं न शक्यत इत्यवाच्यः, अनेकान्ते तु कश्चिदवाच्यः ॥ १५ ॥
अथवा बाह्योऽर्थान्तरमता, उपयोगस्तु निजा, ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः, तथाहि य उपयोगः स घट इत्येवमुपयोगत्वमनूय घटत्वं यदि विधीयते तद्युपयोगमात्रं घट इति सर्वोपयोगस्य घटत्वप्रसक्त्या विभिन्नोपयोगनिबन्धनविभिन्न स्वरूपलक्षणप्रतिनियतस्वरूपाभावात्तथा वक्तुं न शक्यत इत्यवाच्यः। अथ यो घटस्स उपयोग इत्येवं घटत्वमनूयोपयोगत्वं विधीयते तदाऽर्थात्मक उपयोग इत्युपयोगस्यार्थत्वप्रसक्याऽर्थातिरिक्तस्य तद्व्यवस्थापकस्योपयोगस्याभावाद् घटायर्थस्याभावात्कथं नावाच्यो घटः ॥ १६ ॥
इत्येवमुपदिष्टाः षोडशावक्तव्यविकल्पाः, तत्रैकादशसु विकल्पेषु प्रथमद्वितीयभङ्गानन्तरमवक्तव्यभङ्गप्रवृत्तिः, द्वादशादिषु पञ्चसु प्रथमत एवावक्तव्यभङ्गप्रवृत्तिः, तत्रोपाध्यायभगवन्त इत्थमनेकान्तव्यवस्थायां स्वविचारमावेदयन्ति-" अत्र च निजार्थान्तरपर्यायैरनेकान्तोपजीविनगमव्यवहारविशुद्धितारतम्योपदर्शकवसतिदृष्टान्तनीत्या यथाक्रमसहचद्भिः क्रमेण युगपचादिष्टैरुपदर्शितेषु षोडशस्ववक्तव्यविकल्पेषु मध्ये एकादशसु त्रयोऽपि भङ्गाः सम्भवन्ति, द्वादशादिषु च पञ्चसु च स्वतन्त्रैकान्ते नयापितस्तैः प्रत्येकं समुदाये च सर्वथा. ऽवक्तव्यत्वभङ्ग एवोत्तिष्ठते-सच बाधितः सन् कथञ्चिदवक्तव्यत्वे पर्यवस्यति, तस्य कथश्चित्वं च मङ्गडयाधीनम् , इत्थं च त्रयाणां भङ्गानां क्रमाभिधानमेव सम्प्रदायसिद्धमिति । व्युत्पत्तिमहिम्ना ततोऽपि स्याद्वादविदुषो भङ्गत्रयसम्भव इति विवेकः, इत्थं च यत्पशुपालेनोक्तम्-"सर्वत्रानेकान्ताभ्युपगमे 'सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ' इति वचनमेवानुपपन्नम्, स्वपररूपयोरप्यनिर्धारणादिति" तदपास्तं दृष्टव्यम्, पूर्व नयविशेषेण स्वपररूपयोः सङ्कोचविकासावुपजीव्य तदनुसारेणैव सप्तमङ्गीप्रवृत्तेः, अवच्छिन्नसप्रतिपक्षधर्मद्वयाभिधानस्थले एकान्ततोऽवच्छेदकनिर्णयस्य तवाप्यभावात् , इदानीं गोष्ठे गोर्न तु वाजिशालायामित्यादौ शुद्धगोष्ठादेरप्यवच्छेदकत्वस्य निर्णेतुमशक्यत्वात् , इह कोणे गोष्ठे गौ परकोणे इति प्रतिसन्धाने एतत्कोणावच्छिन्नगोष्ठस्यैतत्कोणस्य वा तथात्वसम्भवात् , अवच्छेदकावच्छेदकस्यावच्छेदकसकोचस्य वाऽपरिस्फूत्तौ शुद्धावच्छेदकपुरस्कारेण.
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सम्मतिः काग 1, गा• 0 तस्परिस्फूतौ तु सावच्छिन्नप्रकृतावच्छेदकपुरस्कारेणैव प्रतिनियतदेशदेशावच्छेदेन वा निर्णयस्त्वावयोः समानः, देशदेशस्य नावच्छेदकत्वमिति तु नीलपीतकपालिकास्थकपालसमवेतघटनीलप्रत्यक्षान्यथानुपपत्या परेण वक्तुमशक्यम्, तत्र नीलकपालिकावच्छिनचक्षुस्संयुक्तसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतयैव घटे नीलप्रत्यक्षोपपादनात् , इयोस्तु विशेष:-यत्परेषां देशदेशस्यावच्छेदकत्वं स्वाभाविकसम्बन्धविशेषेण, अस्माकं तु वैज्ञानिकसम्बन्धविशेषेण, तत्र परेषां परम्परासम्बन्धेन गोष्ठकोणस्य साक्षात्सम्बन्धेन कोणावच्छिमगोष्ठस्य गवावच्छेदकत्वमिति कोणे गौर्न तु गोष्ठे इति सूक्ष्मेक्षिकानुपपत्तिा, अस्माकं तु मध्यमनैगमभेदकृतवैज्ञानिकसम्बन्धेन गोष्ठकोण एव तथात्वं न तु गोष्ठ इति तदुपपत्तिा, न च कोणे गौ तु गोष्ठे इति सूक्ष्मेक्षिका न भवत्येव, किन्तु न तु सम्पूर्णगोष्ठ इत्येव, सा च यावत्कोणेषु गवावच्छेदकतावच्छेदकत्वपयोप्त्यभावमवगाहत इति परेषामपि नानुपपत्तिरिति वाच्यम्, एवं सति सम्पूर्णकोणेऽपि तदभावात्कोणे गोष्ठे गौरित्यस्याप्यनुपपत्तेर्नयविशेषकतसम्बन्धं विना न विचित्रप्रतीत्युपपत्तिरित्यधिकं नय. रहस्यादौ" इति । ननु सबहनयविषयं महासामान्यस्वरूपं सचमखण्डमेकं निरवच्छिमं प्रतिपादयन् प्रथमभङ्गः प्रवर्तत इति कथमस्य स्वद्रव्याचपेक्षया सन् घट इत्येवंरूपता, निरवच्छिनस्वरूपे निरुक्तसवे स्वद्रव्याद्यपेक्षत्वस्य स्वद्रव्याद्यवच्छिन्नत्वलक्षणस्याऽसम्भवात् , तथापि तथाप्रतिपादने तत्प्रतिपादकस्य प्रथमभङ्गस्य बाधितार्थकत्वापत्तिा, एवं निरुक्तसच. प्रतिपक्षभूताऽसत्ताऽपि तदभावरूपैका निरवच्छिन्नेति न तस्या अपि परद्रव्याघवच्छिन्नत्व. लक्षणं परद्रव्याद्यपेक्षत्वमिति व्यवहारनयविषयनिरुक्तासत्त्वप्रतिपादनप्रवणो द्वितीयभङ्गोऽपि परद्रव्याद्यपेक्षयाऽसन् घट इत्येवं रूपो न सम्भवति, निरवच्छिन्नस्यापि निरुक्तासत्वस्य सावच्छिन्नतया प्रतिपादने वा तथातत्प्रतिपादकस्य तस्यासम्भवितार्थप्रतिपादकत्वेन बाधितार्थकत्वापत्तिा, एवं भङ्गद्वयस्य बाधितार्थकत्वे तत्सापेक्षाणां तदनन्तरप्रवृत्तिकानां तृतीया. दिभङ्गानामपि बाधितार्थकत्वं स्यात्, तथा च निरुक्तसप्तभङ्गसमष्टिस्वरूपा सप्तमन्यपि बाधितार्थविषयाऽप्रमाणतामास्कन्दतीति सप्तभङ्गीवाक्यं प्रमाणवाक्यमिति सद्धान्तो जैनानां न सङ्गतिमश्चतीति चेत्, न, धर्मत्वेन हेतुना धर्ममात्रस्याव्याप्यवृत्तित्वं साधयतां स्याद्वादिनां मते निरवच्छिन्नत्वाखण्डत्वैकत्वादीनां महासामान्यसत्वगतानामन्याप्यवृत्तित्वेन महासत्ताया अखण्डत्वादिवत्सखण्डत्वादेरप्युपगमात्, सत्तायां सखण्डत्वाधसद्भावे अखण्डस्वादेस्तत्राच्याप्यवृत्तित्वस्यैव प्रमाणसिद्धस्यापलापतो महासामान्यस्य सत्वस्याखण्डत्वायेकान्ताकलितस्य दुर्नयात्मकसहविषयत्वेऽपि सुनयात्मकसनहाविषयत्वात् , सप्तमङ्गी च सुनयाश्रिता सुनयविषयप्रतिपादनप्रवणभङ्गासप्तकरूपेवेति तस्या अबाधितार्थकत्वात्प्रामाण्यमेव, द्वितीयभङ्गोऽप्युक्तदिशा नाखण्डत्वाद्येकान्ताकलितसत्त्वामावलक्षणाऽसस्वप्रतिपादनप्रवणः, किन्त्वनेकान्ताखण्डत्वाद्यास्पदासत्वप्ररूपणकुशल एव, किश्च महासामान्यस्या
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पम्नति. का-१, गा९ १६ खण्डस्वरूपत्वेऽपि तत्सनिविष्टं नावच्छेदकं स्वद्रव्यादिकम् , येन तद्घटितस्वरूपत्वादखण्ड. स्वरूपत्वं तस्य व्याहतं स्यात्, किन्तु स्वद्न्यादिना स्वद्रव्याद्यवच्छेदेन स्वद्रव्याद्यपेक्षया वा घटादेः सत्त्वमित्यादिप्रतीतिसिद्धं सत्त्वस्वरूपासन्निविष्टस्यापि स्वद्रव्यादेवछेदकत्वं सत्त्वनिरूपितं स्वीकरणीयमेव, एवं निरुक्तसवाभावलक्षणाखण्डासच निरूपितमवच्छेदकत्व. मपि परद्रव्यादिना परद्रव्याद्यवच्छेदेन परद्रव्याधपेक्षया वा घटादेरसस्वमित्यादिप्रतीतिसि. द्धमसत्त्वस्वरूपासनिविष्टस्यापि परद्रव्यादेः स्वीकरणीयमेव, एकस्यैव महासामान्यलक्षणस्य सत्त्वस्य सङ्ग्रहनयविषयत्वे स्वद्रव्यादिकं नास्त्येव, निरुक्तसत्वनिरूपितमवच्छेदकत्वादिकमपि नास्तीति कथं तन्नयाश्रितभङ्गः स्वद्रव्याद्यपेक्षया सत्वं प्रतिपादयेदिति तु नाशङ्कनीयम् , तथा सति तत्र प्रतिपाद्यपुरुषोऽपि नास्ति, प्रतिपादकः प्रमाताऽपि नास्ति, किञ्चिद्वचनमपि नास्तीति सङ्ग्रहः केवलं महासामान्यमेकमखण्डं स्वीकरोतीत्यस्यापि वचनस्य महासत्ताबनात्मकस्याभावात्तद्वक्तुमशक्यमेवेति व्यवहारमात्रोच्छेद एव स्यात् , तसादेकान्तसग्रहनयाभिनिवेशपरित्यागेनैव वचनादिप्रवृत्तिरिति प्रमाणविषयीकृते सत्त्वासत्त्वाद्यनेकान्तात्मके वस्तुनि घटादौ सवं सङ्ग्रहनयविषयो यद्येकान्तेन स्यात्तदा तत्प्रतिपक्षीभूतमसत्त्वं व्यवहारनयविषयस्तत्र न स्याद्विरोधादिति तद्विरोधभञ्जनाय स्याद्वादी स्यात्पदेन निमित्तभेदं तयोरुपदर्य विरोधमुपहस्तयति, निमित्तभेदेन तत्र सत्त्वं विषयीकुर्वतः सङ्ग्रहस्यासत्त्वं विषयीकुर्वतो व्यवहारस्य सुनयत्वमुपढौकयतीति सुनयाश्रिता सप्तभङ्गी प्रमाणतामाबिभ्रतीति,घटे स्वद्रव्याद्यपेक्षया सत्त्वं, महासामान्यमपि घटस्यैव स्वद्रव्यादिस्वरूपनियतं सङ्कचितस्वरूपं भवति,एवमसत्त्वादिकमपीति बोध्यम् । ननु सर्वस्य वस्तुनः सदसदात्मकत्वे सत्ता यथा सर्वगतका तथाऽ. सत्ताऽपि सर्वगतैकैव, एवञ्च सत्तैकैच असत्ता तु विशेषणभेदाद्भिद्यते इति प्राचीनोक्तिः कथं सङ्गतिमश्चतीति चेत् , उच्यते, सत्ता सङ्ग्रहनयविषयः, सहनयश्चैकमनेकानुगतं सामान्यमभ्युपैतीत्यतः सा भवत्येकैत्र, यद्यपि तस्या अपि घटसत्ता पटसत्ता मठसत्तेत्येवं घटवृत्तित्वपटवृत्तित्व-मठवृत्तित्वादिविशेषणभेदाढ़ेदो भवितुमर्हति तथापि विशेषणमेदाढ़ेद औपचारिक एव, उपचारश्च सहनयेन नेष्यत इत्यतो न तनयेन विशेषणभेदाझेदः, किन्तु विशिष्टशुद्धयोरक्यमेवेति, असत्ता तु सत्ताप्रतिपक्षभूता तदभावरूपा सम्भवत्येका, किन्तु व्यवहारनयविषयतयाऽभ्युपगता सा, व्यवहारनयश्च विशेषावगाहनप्रवणो न किश्चित्सर्वानुगतमेकमभ्युपतीत्यतो न सका, उपचारबहुलश्च व्यवहारः, पन्था गच्छति कुण्डिका प्रवति गिरि देहतीत्याधुपचारस्य तेनाभ्युपगमात् , तथा च विशेषणभेदानेदे सत्येवाननुगता सा व्यवहारनयविषय इति युक्तमुक्तमसत्ता तु विशेषणभेदाद्भिद्यत इति, यदेव स्वरूपसच्वं विभिन्न घटपटादीनां व्यवहारनयविषयस्तदेव परद्रव्याद्यपेक्षयाऽसवमित्युच्यते, तच विशेषरूपत्वादेवानुगतसामान्यरूपसत्तायाः प्रतिपक्षभूतमपि भक्तीति बोध्यम् , घटादेः स्वरूपसवस्य
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पम्मति• काम , गा• ३६. महासामान्यस्वरूपसत्त्वस्य वा प्रतिपचये सन् घटोऽस्ति घट इत्यायेव प्रयुज्यते, अतोऽस्तिशब्दप्रतिपाद्यं सत्वमेव, न तु वृत्तित्वम् , अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य आश्रितत्वमिहोच्यते इत्यादिवचनतो नित्यद्रव्यभिन्नस्यैव वृत्तिमवलक्षणमाश्रितत्वमुररीकुर्वतो नैयायिकादेरपि गगनमस्ति आत्माऽस्ति ईश्वरोऽस्तीत्यादावस्तीत्यस्य वृत्तित्वार्थकत्वासम्भवात् सत्वमेवाऽर्थोऽभ्यु. पगतवीथीमवतरति, अस्तित्वं सवलक्षणं विधिस्वरूपं यथा वस्तुधर्मस्तथा नास्तित्वमपि तत्प्रतिपक्षभूतं विधिनिषेधात्मनो वस्तुनो धर्म एव, अस्तित्ववत्तस्याप्यखण्डत्वमेवेति घटो नास्तीत्यस्याप्यखण्डस्वरूपाऽसत्त्ववान् घट इत्येवार्थः, न तु अभावप्रतियोगित्ववान घट इति, अभावस्य निषेधरूपत्वेऽपि प्रतियोगित्वस्य विधिरूपत्वेन तद्योगानिषेधात्मकत्वाच्यवस्थानात् , भूतले घटोऽस्तीत्यादावपि सप्तम्या आधारत्वमर्थ इति प्राचीनमते तत्र प्रकृत्यर्थस्याधेयत्वसम्बन्धेनान्वयः,तस्य च घटे निरूपकत्वसम्बन्धेनान्वय इति, सप्तम्या आधेयत्वमर्थ इति नव्यमते तत्र प्रकृत्यर्थस्य निरूपितत्वसम्बन्धेनान्वयः,तस्य च स्वरूपसम्बन्धेन घटेऽन्वय इति भृतले घट इत्येतावन्मात्रतो भूतलनिष्ठाधारतानिरूपको घट इति भूतलनिरूपिताधेयतावान् घट इति वा बोधः सम्भवत्येवेति अस्तीत्यधिकं पदं स्वरूपसत्त्वं महासामान्यलक्षणसत्त्वं वा प्रतिपादयदेव साफल्यमञ्चति, एवञ्च भूतलनिष्ठाधारतानिरूपको घटः सत्ववानिति भृतलनिरूपिताधेयत्ववान् घटः सत्ववानिति वा बोधो भूतले घटोऽस्तीति वाक्यप्रभवा, तत्र उद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेन विधेयान्वय इति नियमाद्भूतलनिष्ठाधारतानिरूपकत्वस्य भूतलनिरूपिताधेयत्वस्य वा सच्चावच्छेदकत्वमायात्येवेति, धर्मिवाचकपदोत्तरसप्तमीविभक्तिसमभिव्याहारे नाऽत्यन्ताभावः प्रतीयते इति नियमाद्भूतले घटो नास्तीत्यतो भूतलविशेष्यकघटाभावप्रकारकबोधस्य सम्मवेऽपि तत्र भूतलनिरूपितवृत्तित्वाभावप्रकारकपटविशेव्यकबोधोऽप्यनुभूयते, नत्रऽसमभिव्याहारस्थले यद्धर्मप्रकारकयद्विशेष्यकबोधो भवति नञ्समभिन्याहारे तद्धर्माभावप्रकारकतद्विशेष्यकबोध उपजायत इति नियमात् । नमः समानानार्थक एव नास्तीति न तत्रास्तीत्यधिकमिति घटविशेष्यकभूतलनिरूपितवृत्तित्वाभावप्रकारकस्यैव बोधस्योक्तवाक्यात् सम्भवेऽपि भूतले घटानधिकरणत्वस्याप्यर्थतः प्रतीतिसम्भवेन भूतलावच्छेदेन घटे नास्तित्वस्यापि सच्चामावलक्षणासखस्वरूपस्याप्यवगमा सम्भवत्येव, अथवा भूतलनिष्ठाधारतानिरूपकत्वं भूतलनिरूपिताधेयत्वं वा घटस्य स्वरूपसवमेव, भूतलसंयुक्ततयोत्पन्नस्यैव घटस्य तद्रूपेण प्रतीते, कार्यसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रयोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वस्य कारणत्वरूपत्वे दण्डत्वमेव कारणत्वं तदवच्छेदकं च, तथैव भूतलनिष्ठाधारतानिरूपकत्वादिकमेव स्वरूपसत्वं तदवच्छेदकश्चेति, एवं भृतलनिष्ठाधारतानिरूपकत्वाभावो भूतलनिरूपितवृत्तित्वाभावो वाऽसत्वं तदवच्छेदकश्चेति । यत्र चाधिकरणवाचकपदसमवधानं नास्ति तत्रास्तिपदात्सत्त्वमेव प्रतीयते न तु वृत्तित्वम्, सनिरूपकस्य तस्य निरूपकमन्तरेण प्रतीत्यसम्मवादिति दिक् ॥ ३६॥
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सम्मति० काण्ड , गा० ३७
१६३ .. अथ विधिमुख्यविषयताकबोषजनक आधभङ्गा, निषेधमुख्यविषयताकबोषजनको द्वितीयभङ्गः, युगपद्विधिनिषेधात्मनाऽवक्तव्यत्वमुख्यविषयताकस्तृतीयभङ्ग इत्येवं प्राधात्येनैकैकधर्मप्रतिपादकं भङ्गत्रयं निरवयववाक्यरूपं प्रतिपायाधुना क्रमात्सत्त्वासत्त्वोमय. मुख्यविषयताकबोधजनकं स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थभङ्गं सावयववाक्यरूपं प्रतिपादयितुमाह-यद्वाऽऽद्येन भङ्गेन प्राधान्येन सत्त्वे द्वितीयेन च प्राधान्येनासरवे तृतीयेन च प्राधान्येनाऽवक्तव्यत्वे प्रतिपादिते सति घटादिकं वस्तु प्राधान्येनैकैकधर्माकान्तमिव तत् स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेत्येवं क्रमार्पितोमयधर्मा. क्रान्तमस्ति न वेति संशये सति तत्प्रभवया क्रमेण स्यादस्तित्वस्यानास्तित्वोभयधर्मविषयक शानं मे जायतामिति जिज्ञासया तादृशोभयधर्मविषयकप्रश्नवाक्यं घटादिकं क्रमेण स्यादस्ति स्यामास्ति न वेत्याकारकमुचारयतः श्रोतुः तदीयजिज्ञासाविशेषं तथाविधेन प्रश्नावगम्य वक्ता जिज्ञासाकारणसंशयनिवृत्तिर्यादृशवाक्यात्स्यात् तादृशमेवोत्तरवाक्यरूपं घटादिकं क्रमेण स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेत्याकारकं चतुर्थमङ्गं प्रतिपादयत्राह-यद्वा विवक्षाकृतप्रधानभावसदाधेकधर्मात्मकस्यापेक्षितापराऽशेषधर्मक्रोडीकृतस्य . वाक्यार्थस्य स्यात्कारपदलाञ्छितवाक्यात्प्रतीतेः स्यादस्त्येव घटः । १। स्यानास्त्येव घटः।२। स्यादवक्तव्य एव घटः । ३ । इत्येतद्भङ्गत्रयं प्रतिपाद्य विवक्षाविरचितद्वित्रिधर्मानुरक्तस्य स्यात्कारपदसंसूचितसकलधर्मस्वभावस्य धर्मिणो वाक्यार्थरूपस्य स्यात्पदाङ्कितचतुर्थादिभङ्गवाक्यात् प्रतिपत्तेस्स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव घटः।१। स्यादस्त्येव स्यादऽवक्तव्य एवं घटः।२। स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्य एव घटः ।३। स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव च स्यादवक्तव्य एव घटः । ४॥ इत्येतद्वक्ष्यमाणभङ्गचतुष्टयं द्वित्रिसंयोगात्मकं प्रतिपादयिषुस्तत्राद्यभङ्ग मूलाधभङ्गापेक्षया चतुर्थभङ्गं प्रतिपादयितुमाह
अह देसो सम्भावे, देसोऽसम्भावपज्जवे णियओ।
तं दवियमत्थि नत्थि य, आएसविसेसियं जम्हा ॥ ३७॥ 'अह'-यदा, देसो-देशो वस्तुना एकदेशः अवयवः 'सम्भावे' सद्भावे अस्तित्वे, णियओ-नियतः-सनेवेत्येवं निश्चितः 'देसो' अपरश्च देश: 'असम्भावपज्जवे' अस. दावपर्याये नास्तित्वाख्ये, णियओ-इत्यस्यात्राप्यनुकर्षणाद् नियता-असन्नेवेत्येवं नियमेनावगतः, ननु वस्त्वेकदेशरूपस्य वस्त्ववयवस्य नियतं क्रमार्पितं स्यात्सत्त्वं स्यादसत्त्वं चेत्येवं पूर्वार्द्धन वक्त्रा प्रतिपादितम् , श्रोत्रा जिज्ञासया पृष्टश्च घटादिवस्तु किं क्रमार्पितसचासत्त्वोभयधर्मान्वितमस्ति न वेति, तथा चार्थान्तरदोषस्स्यादिति चेत् , सत्यम्, तथाऽप्यत्राऽवयवेभ्योऽवयविनः कश्चिदभेदो विवक्षित इति अक्षिगतकाणत्वयोगात्पादगतखञ्जस्वयोगाच्च काणा खञ्जश्च देवदत्त इत्यत्रेवावयवधर्माणामवयविनि व्यपदेशाचतुर्थभङ्ग
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पम्मति० काण्ड १, गा• ३॥ प्रवृत्तेनोक्तदोष इति अवयवगतसत्त्वासत्त्वधर्माभ्यामवयव्यपि तथाधर्माकान्तो वाच्य इत्याह'तं दवियमत्थि णत्थि य ' तद्रव्यमस्ति च नास्ति चेति भवति, तत्र हेतुमाह-" आएसविसेसियं जम्हा" यस्मात्तद्रव्यमादेशविशेषितम् , आदेशेनोभयप्रधानावयवभागेन विशेषितम्, सत्त्वासचोभयप्रधानकावयवद्वयाभेदेनापितं तद् द्रव्यं यस्मादिति यावत् , तथाहिएकोऽवयवोऽस्तित्वविशिष्टोऽपरश्च नास्तित्वविशिष्ट इत्यस्तित्वनास्तित्वधर्माश्रयावयवाभ्यां सह यद्रव्यमभिन्नतया विवक्ष्यते तद्रव्यमस्ति नास्ति चेति व्यवहियते, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विभक्तो घटः स्वद्रव्यादिरूपेणास्ति, परद्रव्यादिरूपेण च स एव नास्ति, अवय. वेन विशिष्टधर्मेण विभज्यैकमादिश्यमानं सुप्रसिद्धमेव, यथैक एव पुरुषो विवक्षितपर्यायेण बालादिना परिणता, कुमारादिना चापरिणत इति । अत्र यस्मात्तद्रव्यमादेशविशेषित. मित्यस्योभयप्रधानावयवाभेदेनाऽर्पित स्वाश्रयसमवायित्वरूपपरम्परासम्बन्धावच्छिन्नधर्मद्वयप्रकारतानिरूपितैकविशेष्यताकौपादानिकबोधेच्छाविषयीकृतमिति यावत् , इत्यष्टसहरुयामर्थः कृत इति । अत्र यथा श्रुते घटपदस्य देशपरस्यावृत्त्या प्रकारताद्वयनिरूपितविशेव्यताद्वयशालिन एव बोधस्य जननादौपादानिकबोधपर्यन्तानुधावनम् , एवमग्रेऽपि बोध्यम् । नन्वाद्यभङ्गेनाऽपि स्वद्रव्यादिना घटस्सन्निति द्वितीयभङ्गेनापि च परद्रव्यादिना घटोs. सन्निति विभज्यत एव घट इत्याद्याभ्यां भङ्गाभ्यां कोऽस्य भङ्गस्य विशेष इति चेत् , उच्यते, तत्रास्तित्वनास्त्विावच्छेदकद्वारा विभागेऽप्यवयवद्वारा विभागामावः, अत्र तु तद्द्वारा विभाग इत्यस्य विशेषो ज्ञेय इति । नन्वत्रावयवावयविनोः कथश्चिदभेदादवयवद्वारा ' कुण्ठो देवदत्तः' इत्यत्रेव तद्धर्माणामवयविनि व्यपदेशः कृतः, न तु साक्षादित्यवयवद्वारा विभागकरण एव किं वीजमिति चेत् ? सावयवनिरवयवात्मकवस्तुनस्तथाप्रतिपत्तिजनक सावयवनिरवयवत्वशवलैकखरूपवाक्यत्वेन तादृशवाक्यस्य प्रामाण्यरक्षार्थम् , अर्थात् एकस्थापि वस्तुनस्सावयवनिरवयवस्वरूपतया द्विविधत्वे तत्प्रतिपादकवाक्यस्यापि सावयवनिरवयवतया द्विविधत्वे सत्येव याथायन तत्प्रतिपादकत्वं सम्भवति, तत एव च तत्रार्थे तस्य प्रामाण्यमपि निवेहतीति सूचितं भवति ॥ ३७॥
एकस्य देशस्य सत्वेन प्राधान्यविवक्षणेनापरस्य च युगपत्सत्यासत्त्वोमयरूपेण प्राधान्यविवक्षणेन द्वितीयभङ्गं मूलाधभङ्गापेक्षया पञ्चमभङ्गं प्रतिपादयितुमाह---
सम्भावे आइट्ठो, देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अस्थि अवत्तव्वं, च होइ दविअं वियप्पवसा ।। ३८ ॥ 'जस्स' यस्य घटादेर्धर्मिणः, 'देसो' एको देशोऽवयवः, 'सम्भावे ' सद्भावेऽस्तित्वेऽव्यक्तव्यत्वानुविद्धस्वभावे 'आइट्ठो' आदिष्टो विवक्षितः, अन्यथा तदसत्चप्रसङ्गात् ,न झपरधर्माप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य सम्भवति, खरविषाणादेरिख, 'देसो य'
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सम्मति०] काण्ड १ ० ३९
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तस्यैव धर्मिणोऽपरो देशच ' उभयहा ' उभयथा, अस्तित्वनास्तित्वोभयप्रकारेण युगपदेव
•
आइडी' इत्यस्यात्राप्यनुकर्षणात् आदिष्टः अस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यत्वस्वभावे विवक्षितः, अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः, न ह्यस्तित्वाभावे उभयाप्रविभक्तता शशशृङ्गादेखि तस्य सम्भविनी । उक्तप्रकारादेशेन द्रव्यं किं स्वरूपं प्रतिपादकेन प्रतिपादितं भवतीत्यत आह' तं अस्थि अद्यत्तवयं च होइ दवियं ' तद्द्रव्यमस्त्यवक्तव्यश्च भवति, ननु घटाय वयविद्रयस्यैवैको देशोऽव्यक्तव्यत्वानुविद्वस्वभावेऽस्तित्वेऽपरश्चास्तित्वोपरक्तावक्तव्यत्वस्वभावे पूर्वार्देन विवक्षित इति द्रव्यं कथं तथाविधं प्रतिपादकेन व्यपदिष्टं भवतीत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह- -" विष्पवसा" इति, विकल्पवशादुक्तोभयधर्माक्रान्तदेशद्वारेण धर्मिणो विवक्षावशात् । अयम्भावः- तद्धर्मविकल्पवशाद्वर्मयोस्तथा परिणतयोस्तथाव्यपदेशे धर्म्यपि तद्वारेण तथैव हि व्यपदिश्यते । ननु प्रथमतृतीयभङ्गाभ्यामेवैतद्भङ्गकार्यसिद्धेः किमनेन भङ्गेनेति चेत्, उच्यते, आद्येन भङ्गेन संशयजिज्ञासाप्रश्नद्वारा द्रव्येऽस्तित्वमात्रं, तृतीयभङ्गेन चावक्तव्यत्वमात्रमेव प्रतिपाद्येनाधिगन्तुमिष्टं प्रतिपादकेनापि देशाविशेषितद्रव्य एव केवलधर्मविवक्षया तथैवाऽऽद्यतृतीयभङ्गाभ्यां प्रतिपादितम् अनेन भङ्गेन तु प्रतिपाद्येन संशयजिज्ञासामूलके किं द्रव्यमस्ति चाऽव्यक्तव्यञ्चास्ति न वेति पुनः प्रश्ने कृते प्रतिपादकेन प्रतिपाद्यप्रश्नानुबोधेनानन्तधर्मात्मकस्य धर्मिण उक्तोभयधर्माक्रान्तदेशद्वारोभयधर्माक्रान्तत्वेन प्रतिपादयितुमिष्टत्वादस्य ताम्यां भङ्गाभ्यां सुस्पष्ट एव मेद इति । अत्रेदमवधेयम् - तद्रव्यमस्त्यवक्तव्यश्च भवतीत्यत्र चकारवलाइ 'एकत्र द्वयम् ' इति न्यायेन विदेशे दण्डी कुण्डली चेत्यत्र विभिन्नदेशावच्छेदेन चैत्रे दण्डकुण्डलयोरिव प्रकृते घटे विभिन्नदेशावच्छेदेनाऽस्तित्वाऽवक्तव्यत्वयोः परस्पराऽविशेषणीभूतयोरेव शक्त्या भानं स्यादित्यतः प्रकृतेऽस्त्यवक्तव्य पदयोर्देशाऽस्तित्व विशिष्ट देशाऽवक्तव्यत्वविशिष्टयोरेव तात्पर्यानुपपत्त्या लक्षणा स्वीकार्या तयोश्च तादात्म्येन वैशिष्ट्यबोधस्यैतद्भङ्गफलत्वात्, अयमेव परस्परानुवेधाऽर्थोऽपि दृष्टव्य इति । चतुर्थभङ्गेऽप्युभयप्रधानावयवभागेनैव विशेषोपदेशादत्राग्रेऽपि च तस्यैव विशेषस्याऽविशिष्टत्वादिति दिकू ।। ३८ ।।
देशेऽसत्वस्य देशे च युगपत्सच्वासत्वोभयोर्विवक्षणेन तृतीयभङ्ग मूलाद्यभङ्गापेक्षया षष्ठभङ्ग प्रतिपादयितुमाह
आइट्ठोsसम्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं णत्थि अवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा ॥ ३९ ॥
4 जस्स ' यस्य घटादिवस्तुनः 'देसो ' देश एकोऽवयवः, ' असम्भावे ' असद्भावे ' आइट्ठो' आदिष्टः, असन्नेवायमित्यवक्तव्यत्वानुविद्धेऽसत्त्वे विवक्षितः, 'देसो य अपर देशोsसानुविद्धे ' उमयहा ' युगपत् सत्त्वासत्त्वोभयप्रकारेणावक्तव्यत्वस्वभावे
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सम्मति काण्ड , गा० ४०. 'आइडो' इत्यस्यात्राप्यनुकर्षणात् आदिष्टः विवक्षितः 'तं नत्थि अवत्तव्वयं च होह दवियं वियप्पवसा' तद् द्रव्यं नास्ति चावक्तव्यं च भवति विकल्पवशात् , अयम्भाव:-यद्यप्यनेन भङ्गेन तत्तदपरावयवावेवोक्तधर्माकान्ताविति प्रतिपादितं तथाप्यवयविनि तव्यपदेश्यावयवाग्मेदोपचारादवयविरूपद्रव्यमपि तव्यपदेशमासादयति । देशानुपरक्तद्वितीयत्तीयभङ्गव्युदासेनायं षष्ठो भङ्गः प्रवर्तते ॥ ३९ ॥
देशेऽस्तित्वस्य देशे नास्तित्वस्य देशे च युगपदस्तित्वनास्तित्वोमयोर्विवक्षायां चतुर्थभङ्ग मूलाधमङ्गापेक्षया सप्तमभङ्गं प्रतिपादयितुमाह
. सम्भावासम्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अस्थि नत्थि अवत्त-व्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥ ४०॥ 'जस्स' यस्य देशिनो 'देसो' देश एकः । 'सब्भावासम्भावे' सद्भावे सत्त्वे निश्चितः, 'देसो य' देशश्च द्वितीयः असद्भावे असत्वे, तृतीयस्तु 'उभयहा' सत्त्वासत्त्वोभयप्रकारेण युगपदादिष्ट इत्येवं सद्रूपासद्रूपावक्तव्यरूपव्यपदेश्यदेशाऽमेदोपचाराद्रव्यमप्यस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च भवतीत्याह-'तं अस्थि नत्थि अवत्तवयं च दवियं विअप्पवसा' इति । अनया विशिष्टविवक्षयाऽऽद्यमङ्गत्रयव्युदासः, एते च परस्परसाकाङ्क्षस्वभावेन सप्तमङ्गथास्मकाः प्रत्येकं स्वार्थ प्रतिपादयन्ति, नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदायो वा सप्तमङ्गात्मका प्रतिपाद्यमपि तथाभृतं दर्शयतीति सम्प्रदायविदो वदन्ति । तत्र प्रतिपर्यायं जिज्ञासितसप्तधर्मप्रकारकैकधर्मिविशेष्यकशाब्दबोधजनकत्वपर्याप्त्यधिकरणमहावाक्यत्वरूपसप्तमङ्गीत्वं समुदाय एव, निरुक्तजनकत्वाधिकरणवाक्यत्वरूपं च तत्प्रत्येकमपीति विवेकः, अत एवं स्यात्पदार्थलाञ्छितविवक्षितधर्मावधारकत्वेन स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणत्वेन च द्विधा सुनयत्वमुदाहरन्ति, आद्य सप्तमङ्गथात्मकमहावाक्यैकवाक्यतापनवाक्ये, अन्त्यश्चोदासीने धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाऽकारिणि, इत्थश्च स्यादस्तीत्यादि प्रमाणम् , तेनास्तित्वत्वेन रूपेणास्तित्वस्य तदभिन्नस्वेतरसकलधर्माणाञ्च प्रतिपादनात् । अयम्भाव:-अस्तिपदेन स्यात्पद. लाञ्छितेन स्वेतरानन्तधर्माभिन्नास्तित्वत्वेन रूपेणास्तित्वं धर्मिणि प्रतिपाद्यते, तदानीं प्रकारतया भासमानेऽस्तित्वेऽभेदसम्बन्धेन तद्विशेषणतया धर्मान्तराणामपि प्रथमभङ्गजन्यबोधे भानमिति तद्विशिष्टस्य भाने तस्यापि भानमिति न्यायेन धर्मान्तराणामपि धर्मिणि भानमिति प्रकारमुद्रया सर्वधर्मावगतिः प्रथमभङ्गात् । अथवाऽस्तित्वधर्मस्य स्यात्पदमहिम्ना स्वस्वेतरानन्तधर्मात्मकत्वसम्बन्धेन धर्मिणि प्रकारतया भानम् , तथा चाऽस्ति. स्वेतराऽशेषानन्तधर्मात्मकत्वस्य संसर्गविधया धर्मिणि भानम् । तथा च स्वामिन्नानन्तधर्मात्मकत्वसंसर्गेण. स्वाश्रयविशेष्यकैकधर्मप्रकारकबोधः, एवञ्च धर्मान्तराणां पदान्तरादनुपस्थितत्वेऽपि संसर्गविधया शाब्दबोधे भानस्योपपत्तिा, अनुपस्थितस्यार्थस्य प्रकारविधया
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अम्मतिः काण, गा० .. भानानुपगमेऽपि संसर्गविधया भानाम्युपगमे न काऽपि क्षतिः। एवं द्वितीयादिभङ्गजन्यबोधेऽपि प्रकृतधर्मात्मकत्ववत् तदितराशेषानन्तधर्मात्मकत्वस्यापि प्रकारविधया संसर्गविधया बोक्तदिशा मानमालोचनीयमिति । अत्राष्टसहस्रीविवरणे इत्थं विवेचितम्-प्रमाणवाक्यानां सर्वैः पदैमिलित्वा प्राधान्येनानन्तधर्मात्मकवस्तुबोधन. एव तात्पर्यम् , वेदान्तवाक्यानामिवाखण्डब्रह्मबोधने, तथा च स्यादस्त्येव द्रव्यमित्यतः स्वेतरसकलधर्मात्मकत्वसम्बन्धेनास्ति. त्ववदेव द्रव्यमिति प्राथमिकबोधानन्तरं तसादनन्तधर्मात्मकमेव सर्व वस्त्वित्यौपादा. निकबोधः सकलादेशजन्यस्स्वीक्रियते, स च द्रव्यार्थिकार्पणयाऽनुपचरितकविशेष्यताका पर्यायार्पणया चोपचरितैकविशेष्यताक इति तात्पर्यार्थमादाय तत्र न प्रधानैकार्थत्वव्यापातः, सकलादेशान्यार्थ एवं गुणप्रधानभावेन बोधकत्वनियमस्य चरितार्थत्वादित्यादि । स्यात्पदाऽलाञ्छितोऽवधारणैकस्वभावः अस्त्येवेत्यादिदुर्नया, एवकारेणेतरधर्मतिरस्कारेणैकान्तास्तित्वस्य तत्प्रतिपाद्यतयाऽभिमतस्य शशशृङ्गकल्पतयाऽसत्त्वाद् यथार्थतद्विषयकबोधस्यासम्भवेन तजनकत्वाऽसम्भवात् । अस्तीत्यादिका सुनयः, न तु स स्यात्कारवकारविनिमुक्तत्वेन धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाऽकरणात् स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणोऽपि व्यवहाराङ्गम् , स्यादस्त्येवेत्यादिकस्तु सुनय एव व्यवहारकारणम् , स्वपरानुवृत्तव्यावृत्तवस्तुविषयकप्रवर्त्तकवाक्यस्य व्यवहारकारणत्वात् । स्यादस्त्येवेत्यत्रास्तित्वरूपं यत्सामान्यं तदेवानुगतरूपं तदात्मकतया कथञ्चिदस्तित्वस्य विपरीतं सर्वथाऽस्तित्वं कथश्चिदस्तित्वात्मकस्वावच्छेदकावच्छेद्यनास्तित्वश्च तदेव तत्रावर्चमानत्वादेवकारव्यवच्छेद्य, तद्वथावृत्ततया च वस्तुनो भासमानत्वादुक्तवाक्यजन्यबोधस्य तथाविधार्थप्रवृत्तिजनकत्वेन तजनकोक्तवाक्यस्य स्वपरानुवृत्तव्यावृत्तवस्तुविषयकप्रवृतिजनकबोधजनकत्वेन व्यवहारकारणत्वमुपपद्यत एवेति । एवं स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गीवद् वस्तु स्यानित्यमेव ।११ स्यादनित्यमेव ।२। स्यादवक्तव्यमेव ।३। क्रमतः स्यानित्यमेव स्यादनित्यमेव ।४।इत्यादिसप्तभनथपि ज्ञेया, यथायोगमेतत्सप्तमङ्गीव्यवस्थापनप्रक्रिया नयप्रमाणापेक्षया योजनीया, अत्र च नित्यत्वानित्यत्वादि. व्यवहारे आकाशघटादौ द्रव्यार्थत्वपर्यायार्थत्वयोस्तुल्यवदाकाशत्वघटत्वादीनां च स्यास्पदद्योतनमर्यादया प्रतिस्वं ग्रहानातिप्रसङ्गः, नयवाक्येऽपि यद्धर्मविशिष्टविशेष्यवाचकपदसममिव्याहारेण नित्यत्वादिविशिष्टवाचकं पदं प्रयुज्यते तद्धविच्छेदेन तत्र नित्यत्वादिबोधन एवं तत्साकाङ्क्षामित्याकाशमनित्यं घटो नित्य इत्यादेनेयवाक्यस्य न प्रयोग इति बोध्यम् । नन्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि प्रतिपर्याय सप्तैव भङ्गा इत्यत्र किं वीजमिति चेत् , उच्यते, संशयजिज्ञाझाप्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां कार्यकारणभावापन्नानां सप्तविधत्वात् तत्प्रयुक्तभङ्गा अपि सप्तविधा एव; संशयादीनां सप्तविधत्वमपि स्वगोचरास्तित्वादिधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्ते, तथा च नाधिकभङ्गावकाशः । तथाहि-प्रथमद्वित्तीयभङ्गप्रतिपाद्यसत्त्वासत्त्वयोः क्रमेण विवक्षणे चतुर्थभङ्गप्रवृत्तिा, युगपद्विवक्षणे तृतीयमङ्गप्रवृत्तिः प्रथमत्तीयमङ्गसंयोगे पश्चमभङ्गाप्रसर
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सम्मति० काम , गा. ४. सहयात्, द्वितीयत्तीयमङ्गसंयोगे षष्ठभङ्गावकाशस्स्यात् , प्रथमद्वितीयतृतीयसंयोगे सप्तममङ्गो लब्धस्स्यात् , प्रथमचतुर्थादिभङ्गकल्पनायां पौनरुक्त्यदोषापत्तिस्स्यादिति । किञ्च प्रथमचतुर्थसंयोगे न भङ्गान्तरप्रवृत्तिः प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यचतुर्थभङ्गप्रतिपाद्ययोर्धर्मान्तरत्वेनाप्रतीतेः सत्त्वद्वयस्याऽसम्भवात् , विवक्षितस्वरूपादिना सत्त्वस्यैक्यांत , तदन्यस्वरूपादिना द्वितीयस्य सच्चस्य सम्भवेऽपि विशेषादेशात्तत्प्रतिपक्षभूताऽसत्त्वस्यापि परस्य मावादपरधर्मः सप्तकसिद्धेः सप्तभङ्गयन्तरसिद्धिस्स्यात् । एवं द्वितीयचतुर्थभङ्गसंयोगेनापि न भङ्गान्तर. प्रवृत्तिः, पूर्ववनास्तित्वद्वयाऽभावाद , न चात्र युगपदस्तित्वनास्तित्वोमयापेक्षया स्यादवक्त. व्य एव घट इति तृतीयभङ्गप्रवृत्तिवदस्तित्वादिप्रत्येकनिमित्तापेक्षया वक्तव्यत्वमप्यस्तीति तत्प्रतिपादकस्याद्वक्तव्य एव घट इत्यष्टमभङ्गोऽपि किन्न स्यादित्याशङ्कनीयम् , यतो न हि स्याद्वादिनामयमभ्युपगमो यावन्तो धर्मा घटे सम्भवन्ति तावद्धर्मप्रतिपादका भङ्गा एकस्यां सप्तमङ्गयां निवेशनीया इति, तथा सत्यनन्तभङ्गथेव स्यात् , न तु सप्तमङ्गी, किन्तु सप्तविधसंशयजिज्ञासापर्यनुयोगवशादस्तित्वादिप्रत्येकधर्माणामविरोधेन विधिनिषेधकल्पनया सप्तधर्मप्रतिपादिका सप्तमङ्गीत्येवाभ्युपगमः, तथा चात्रापि वक्तव्यत्वधर्म प्रधानीकृत्य तद्विधिनिषेधकल्पनया सप्तधर्मप्रतिपादिका स्याद्वक्तव्यत्वधर्मप्रतिपादकप्रथमभङ्गोत्थापिताकासाकमेण जायमानाऽन्येव सप्तभङ्गीत्यभ्युपगन्तव्यम् । अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि प्रतिधर्म सप्तभङ्ग्या नियतत्वादिति । ननु सप्तभङ्गीजन्याखण्डशाब्दबोध इव किमन्यज्ञानेऽपि सप्तधर्मावभासो भवति न वेति चेत्, तत्प्रतिमासे स्याद्वादव्युत्पत्तेरपि प्रयोजकतया स्याद्वादाऽव्युत्पन्नस्य प्रत्यक्षादिज्ञाने तदप्रतिभासेऽपि तद्व्युत्पन्नस्य ज्ञाने तत्प्रतिमासो भवत्येव, अत एव न्यायाचार्य श्रीमद्भिर्यशोविजयोपाध्यायैमहावीरस्तवे प्रत्यभिन्नाविचारे"पर्यायतो युगपदप्युपलब्धभेदं, किं न क्रमेऽपि हि तथेति विचारशाली। स्याद्वादमेव भवतः श्रयते स भेदा-भेदक्रमेण किमु न स्फुटयुक्तियुक्तम् ॥२७॥"
इति पद्येन शाब्दबोधातिरिक्तस्यापि भेदाभेदोभयात्मकस्यादर्थविषयकस्य प्रत्यभिज्ञानस्यापि स्यादभिन्न एवं स्याद्भिन एवेत्यादिसप्तभङ्गीसमभिरूढसप्तधर्मविषयकत्वमावेदितम् , व्युत्पादितश्चैतदेव तट्टीकायां न्यायखण्डखाद्याभिधायां तैरेव-" एवञ्च स्यात्स एव स्यादऽस एवेत्यादिसप्तभङ्गक्रमानुरोधी प्रत्यभिज्ञानबोधो वक्तव्य इत्यर्थः। एवं सति तदिदन्तास्पदाभेदविषयकमेव प्रत्यभिज्ञानमिति प्रवादस्य कथमुपपत्तिरिति चेत्, स्याद्वादव्यु. त्पन्नापेक्षयेति प्रतीहि । स्याद्वादव्युत्पत्तेः केहोपयोगः शाब्दबोध एव तदुपयोगादिति चेत्, न, स्वप्रभवसंस्कारोत्पन्नमतिज्ञानद्वारा तत्र तदुपयोगात्, अत एव कारणसाम्राज्य मपि दर्शितम् , तथाऽनुभवस्मरणयोः स्वप्रयोज्यक्षयोपशमद्वारकयोस्तथाप्रत्यभिज्ञानकार• णयोः सत्त्वाद, उद्देश्यविधेयमावविपर्ययस्याप्यैच्छिकत्वात् । वस्तुतः कररेखाविशेषवान्
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सम्मति• काड, पा... शतवर्षजीवीत्युपदेशश्रवणानन्तरमयं कररेखाविशेषवानिति ज्ञाने सति पथाऽयं शतवर्षजीवीति सङ्कलनात्मकं प्रत्यभिज्ञानम् , तादृशविषये मानान्तरानवकाशात, तथा सर्व वस्तु सप्तमङ्गीसमभिरूढधर्मात्मकमित्युपदेशं श्रुतवत इदं वस्त्विति ज्ञानानन्तरमेवेदं सप्तमङ्गीस. मभिरूढतत्ताश्रयाऽभिन्नमिति प्रत्यभिज्ञान व्युत्पन्नानां न दुर्घटमिति दिक्" इति ग्रन्थेन । एतेन वाक्यरचनां प्रति वाक्यार्थज्ञानस्य कारणत्वेनैकैकमङ्गस्य सप्तमङ्गयाश्च प्रयोक्तीने प्रत्यक्षाद्यात्मके तत्तद्भङ्गप्रतिपाद्यतत्तद्धर्मस्य सप्तमङ्गीप्रतिपाद्यसप्तधर्माणाश्च प्रतिभासनं स्थादित्यारेकापीष्टत्वेन निराकृतेति । यतो यदा परोक्षज्ञानात्मके प्रत्यभिज्ञाने क्षयोपशम. विशेषात्स्याद्वादव्युत्पत्तिसहकृतात्सप्तमङ्गीसमभिरूढसप्तधर्मभानं युक्तितो निष्टङ्कितं तदा प्रत्यक्षेऽपि तथैव सामग्रीसम्पच्या तथाभानस्य को वारयितेति विदांकुर्वन्तु सुधियः। ननु कि वाक्यं पूर्णोत्तरं किञ्चांशोत्तरमिति जिज्ञासापुरस्सरं प्रश्नोद्भवे किमुत्तरमिति चेत्, उच्यते, स्वेतरांशीदासीन्येन स्वविषयवस्त्वंशमात्र प्रतिपादनपरं प्रतिभङ्गरूपं वाक्यमंशोत्तरम् , तस्य खण्डवाक्यरूपतया देशजिज्ञासानिवर्तकत्वात् , अनन्तधर्मात्म के वस्तुन्येकैकपर्यायमाश्रित्य क्रमेण युगपद्वा विधिनिषेधप्रधानभावनोत्पद्यमानस्यात्कारलाञ्छितसप्तविधधर्मप्रकारकसप्तविधसंशयमूलकसप्तविधजिज्ञासाऽऽधीनसप्तविधप्रश्नतद्विषयविषयकज्ञानहेतुकप्रतिपिपादयिषापूर्वकाविरुद्धसप्तविधधर्मप्रकारकैकधर्मिविशेष्यकशाब्दबोधजनकतापर्याप्तिमत्साक्षात्परम्पराव. टिततदुत्थापिताऽऽकासानिवर्तकत्वतनिवर्तनीयाकाजोत्थापकत्वान्यतरवत्सप्तमगात्मकमहा-- वाक्यमेव च पूर्णोत्तरम् , प्रतिपर्यायं विधिनिषेधप्रकारापेक्षया सप्तभिरेव धर्जिज्ञासितस्य वस्तुनस्तावद्भिरेव धर्मेरभिधानेन श्रोतुरभिलषितपोधोपपत्तेजिज्ञासान्तरानुदयादुक्तवाक्यस्य शान्ताकासात्वात् । ननु यद्यपि महावाक्यार्थबोधे तत्तत्खण्डवाक्यार्थबोधस्य कारणत्वेन भवतु पूर्व तत्तत्खण्डवाक्यार्थबोधः, पश्चान्महावाक्यार्थबोधः, तथापि स्वद्रव्यक्षेत्रादिरूपेण घटस्स्यादस्त्येवेति प्रथमभङ्गरूपखण्डवाक्यतः स्वद्रव्यक्षेत्रायवच्छिन्नप्रधानीभूतकथञ्चिद. स्तित्वप्रकारकपटविशेष्यकबोधः प्रथम, पश्चात्परद्रव्यादिरूपेण घटस्स्यानास्त्येवेति द्वितीय. मङ्गजन्यः परद्रव्याधवच्छिन्नप्रधानीभूतकथञ्चिन्नास्तित्वप्रकारकघटविशेष्यकबोधः तत्पश्चा तृतीयादिभङ्गजन्यबोध इत्येवं सप्तविधबोधक्रमे को हेतुरिति चेत्, तत्र वाक्यक्रमगर्भतात्पर्यज्ञानमेव हेतु:, यद्वा पूर्वपूर्वभङ्गजन्यशाब्दबोधानामुत्तरोत्तरभङ्गजन्यशाब्दबोध. कारणत्वेन कारणक्रमात्कार्यक्रम इति सामान्यनियमावष्टम्भेन ताशकारणक्रम एव हेतुः। सदुक्तं खण्डखाये न्यायाचार्यैस्तातपादश्रीयशोविजयोपाध्यायः-" औदासीन्येन स्वार्थावधारणमात्रपरत्वेऽप्यंशोत्तरम् । सप्रतिपक्षधर्मद्वयस्थले सप्तधर्मजिज्ञासया सप्तमिः प्रश्नर्मिथः साकाङ्क्षसप्तभङ्गात्मकमहावाक्यस्यैत्र पूर्णोत्तरत्वात् , सबलं हि वस्तु यावद्धमैजिज्ञासितं तावद्धर्माऽभिधान एव वाक्यं निराकाङ्क्ष भवति, भङ्गार्थबोधक्रमो वाक्यक्रमगर्भवात्पर्य. २२
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पम्मति• कान्, गा• ४. ज्ञानात् , आधभङ्गादिजन्यबोधस्य द्वितीयादिभङ्गजन्यशाब्दबोधे हेतुत्वाच्चेति । " अत्र केचिदाचार्यास्तृतीयचतुर्थभङ्गयोय॑त्यासमिच्छन्ति । अत एव पूज्यश्रीमद्वादिदेवसरिभिः 'स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया | तृतीयः ४-१७ । स्याद्वक्तव्य. मेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः । ४-१८ । इति सूत्रद्वयं तृतीयचतुर्थभङ्गप्रदर्शकं प्रणीतम्, न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायैरपि पूर्णोत्तरात्मकं महावाक्यं स्वरूपतस्तथैव प्रदर्शितम् । तथाहि-बीजं स्यादराऽक्षेपकार्येव । १। स्यादपुरक्षेपकार्येव । २ । स्यादुभयमेव । ३ । स्यादवक्तव्यमेव । ४ । स्यादराऽक्षेपकार्येव स्यादवक्तव्यमेव । ५ ! स्याद
कुरक्षेपकार्येव स्यादवक्तव्यमेव । ६ । स्थादङ्कुराऽक्षेपकार्येव स्यादङ्गुरक्षेपकार्येव स्यादवक्तव्यमेव च । ७ । इति प्रमाणोत्तरं युक्तमिति । अस्तित्वादिधर्मः स्वाभावसमानाधिकरण: स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिभूतधर्मत्वात् धर्मत्वाद्वा कपिसंयोगवदित्यनुमानेनास्तित्वादावव्याप्यवृत्तित्वसिद्धौ तदन्यथाऽनुपपत्त्याभ्युपगम्यमानशाखामूलात्मकभिनमिन्ना. बच्छेदकावच्छेदेनैकस्मिन् वृक्षे कपिसंयोगतदभावयोरिव घटायेकैकवस्तुषु तत्तन्नयार्पणया भिन्नाभिन्ननिमित्तरूपावच्छेदकावच्छेदेन सच्चतदभावभेदाभेदनित्यत्वानित्यत्वादिसर्वधर्माणां सत्त्वेन निमित्तभेदापेक्षया तत्वदभावप्रतिपादनरूपकथञ्चिद्विध्यात्मा यस्स्याद्वादस्सोऽपि सप्तभङ्गथपेक्ष एव, नैकभङ्गापेक्षा, तेनैकस्यैव प्रकारस्य प्रतिपादनेन सप्तविधजिज्ञासाऽपूर्तेश्शान्ताकासात्वाभावात् । ननु " इयं सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च” ॥४३॥ इति प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारग्रन्थवचनादेकस्यापि भङ्गस्य विकलादेशत्ववत् सकलादेशत्वात्
"कालात्मरूपसम्बन्धाः, संसर्गोपक्रिये तथा ।
गुणिदेशार्थशब्दाश्चे,-त्यष्टौ कालावयस्स्मृताः॥१॥" इति पद्योक्तकालादिभिरष्टाभिारः पर्यायार्थिकनयसापेक्षद्रव्यार्थिकनयेनाऽभेदप्राधान्याद् द्रव्यार्थिकनयसापेक्षपर्यायार्थिकनयेनामेदोपचाराद्वा योगपधेन प्रमाणप्रतिपनानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकधर्ममुखेन तदन्येषां सर्वेषां धर्माणां प्रतिपत्तिजनकत्वेनास्तित्वाद्येकै कधर्मज्ञानेऽपि तद्धर्मद्वारा तदमिन्ननिखिलधर्मावबोध इति तद्घटकतया सप्तधर्मप्रतिपत्तिरप्ये. केनापि भङ्गेन सजातैवेति सप्तभङ्गकल्पनया किम् , तथापि तथाकल्पने आधेन भङ्गेन यदेव प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकं वस्तु प्रतिपादनीयं तदेव द्वितीयादिनेत्यर्थैक्यात् पौनरुत्यं स्यादिति चेत्, सत्यम् , तथापि भावार्थाऽनवबोधान्न युक्तम्, आधादिभङ्गेन स्वद्रव्यक्षेत्रादिनिमित्तापेक्षकास्तित्वादिमुखेन तदभिन्ननास्तित्वाचनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुना प्रतिपाद: नेऽपि परद्रव्यक्षेत्रादिनिमित्तापेक्षकनास्तित्वादिमुखेन तेनाऽप्रतिपादितस्यानन्तधर्मात्मकवस्तुनो द्वितीयादिभङ्गेन प्रतिपादनेन पौनरुक्याऽभावात् , तस्मादेकस्यापि भङ्गस्य वस्तुनि तत्प्रतिपाद्यैकधर्मद्वारा तदभिन्नतदितराशेषधर्मप्रतिपादकत्वेऽपि तत्रैतनिमित्तापेक्षयाऽयं धर्म
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सम्मति• कान १, गा• ४० एतदपेक्षया चायं धर्म इति पृथग्विवेचनं नैकभङ्गेनोपपादयितुं शक्यम् , किन्तु सप्तभङ्गायक, तदुक्तं खण्डखाये-'सकलादेशमहिम्नकाहेऽपि सर्वग्रहात्, निमित्तभेदविवेचनस्य च सप्तमङ्गथैवोपपत्तेरिति ।। अस्तित्वनास्तित्वादिवत्कारणत्वतदभावयोरप्यव्याप्यवृत्तित्वमेव, कस्या अपि कारणतायाः केनापि रूपेण स्याद्वादं विना नियन्तुमशक्यत्वात, स्याद्वादश्चैकाधिकरणवृत्तितत्तन्मयप्रयोज्यभिन्नभिन्नतत्तदवच्छेदकावच्छिन्नतत्तदभावस्वीकारात्मैव, न चात्र विरोधः, अपेक्षामेदेन तत्तदभावाभ्युपगमात् , तथापि तत्त्वे एकस्मिन्नेव वृक्षे शाखामूलावच्छिन्नकपिसंयोगतदभावाभ्युपगमस्येदमेतदपेक्षया इस्वमेतदपेक्षया च महदिति प्रतीतिसिद्धकाधिकरणवृत्तिमिन्नापेक्षकइस्वत्वदीर्घत्वाभ्युपगमस्य च विरोधदोषदुष्टत्वं स्यात्, किञ्च विरोधस्य किं लक्षणमिति वाच्यम् , तावदेकाधिकरणाऽवृत्तित्वं तद् , एकसम्बन्धेन प्रतियोगिमत्यपि सम्बन्धान्तरावच्छिन्नप्रतियोगिताकतदभावस्य परैरपि स्वीकारेण तत्तद. भावयोविरुद्धयोरप्यविरोधस्स्यात् । नापि येन सम्बन्धेन यस्य यदधिकरणं तस्मिमधिकरणे तत्सम्बन्धावच्छिन्नतभिष्ठप्रतियोगिताकाभावस्यावृत्तित्वं तत्, एकरूपेण तद्वत्यपि रूपान्तरेण तदभावस्य भावात् । नापि रूपविशेषस्योक्तविरोधलक्षणकोटौ निवेशेऽपि निस्तारः, तेन रूपेण तेन सम्बन्धेन तद्वत्यपि कालान्तरे तेनैव रूपेण तेनैव सम्बन्धेन तदभावस्य भावात् । नापि कालविशेषस्य तत्र प्रवेशेऽपि निर्वाहा, वर्तमानकालावच्छेदेन प्रतियोगिमत्यपि वर्तमानकालावच्छेदेनैव तदभावस्य देशभेदेन स्वीकारात्, तस्माद् यद्रूपेण यत्सम्बन्धेन यत्कालावच्छेदेन यद्देशावच्छेदेन यस्य यदधिकरणं तद्रूपावच्छिन्नतत्सम्बन्धावच्छिन्नतनिष्ठप्रतियोगिताकामावस्य तत्कालावच्छेदेन तद्देशावच्छेदेन तस्मिन्नधिकरणेऽवृतित्वमित्येवं तस्य लक्षणं वाच्यम् , तारशलक्षणविरोधस्य मिन्नमिभनिमित्तरूपावच्छेदकावच्छेदेनास्तित्वनास्तित्वमेदाऽभेदादीनामेकत्र स्वीकृतौ न भवति भावकाशः । अत एव स्यादस्ति स्यानास्तीत्यादौ सर्वत्राविरोधद्योतनाय स्यात्पदं प्रयुज्यते स्याद्वादतत्त्वज्ञैः, तथा च कस्या अपि कारणतायास्स्याद्वादनियन्त्रितत्वे च सिद्धे सापि सप्तमङ्गीमुपादायैव सम्भवति, अत एव " सप्तभङ्गीविधिसमारूढत्वेनार्थक्रियाकारित्वम्" इति प्राचीनोक्तिरपि सङ्गच्छते । ननु कार्यकारणभावग्रहोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां जायते, तौ च वीजत्वेन बीजसत्वेऽरत्वेनाऽरसत्रं तदभावे तदभाव इत्येवंरूपावेव, न च ती कथञ्चिद्घटिताविति कथं कारणतात्वव्यापकत्वं स्याद्वादस्येति चेत्, मैवम्, यतो नैवमन्वयोऽभ्युपगमाई, तथा सति कुशूलस्थदशायामपि बीजमहरोत्पादकं स्यात्, स्याच क्षेत्रस्थतादशायां यावद
रोत्पादकं बीजम्, किन्तु स्वेतरसकलकारणसमवहितस्य बीजस्य कस्यचिद् बीजत्वेन सत्वे कस्यचिदेवाङ्करस्याङ्करत्वेनोत्पादकं बीजमित्येवं स्वरूपा, व्यतिरेकोऽपि तद्घटित तदभाक्योरेवेति कथं न कश्चिद् घटितत्वं तयोर, उक्तविशेषणस्यैव कश्चिद्रूपत्वात् , उक्तान्वयव्यतिरेकगृहीतस्य यावत् किश्चिद्वीजं तावत्कथश्चिद् यावदारजनकम् , यावान्
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सम्मति. काम , गा० ४. कश्चिदरस्तावान् कथञ्चिद् यावद्वीजजन्य इत्याधाकारस्यैव कार्यकारणभावग्रहस्य स्याद्वादसंस्कृतात् ऊहप्रमाणात सिद्धेः कारणतात्वव्यापकत्वं स्याद्वादस्य सिद्ध्यत्येव । ननु कारणं स्यात्कार्यकारणमित्येकेनैव भङ्गेन कारणत्वे कथञ्चित्तवसिद्धौ किं तत्र सप्तमङ्गीकल्पनयेति चेत् , मैवम्, प्रथमभोक्ती किं कारणं स्यात्कार्याकारणं न वेत्यादि संशयोत्पत्तेस्तजिज्ञासा तत्पश्नद्वारा भङ्गान्तरप्रवृत्तेरावश्यकत्वेन नैवैकभङ्गमात्रेण निराकासप्रतिपत्तिर्जायते, किन्तु सप्तमङ्गथैव,तस्या एव पूर्णोत्तरत्वात् ,यादृशेन बोधेन प्राश्निकस्याकाजोपशाम्यति तादृशबोधस्यैव परिपूर्णबोधत्वेन तं प्रति जनकत्वात् , तदुक्तं खण्डखाये-" यावति विचारे किंवृत्तचिद्विधिः पूर्यते तावत एव प्रमाणत्वादिति । एतेन सप्तभङ्गीजन्यबोधस्य तत्तदभावप्रकारकत्वात्संशयात्मकत्वं स्यादित्यारेकाऽपि निरस्ता, एकत्र धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं संशय इति लक्षणे एकस्मिन्नेव वृक्षे विभिन्नावच्छेदेन कपिसंयोगतदभावप्रकारकज्ञानस्य प्रमात्मकस्य संशयत्वं मा प्रसासीदित्येतदर्थ विरुद्धेति नानाधर्मविशेषणं परेणापि स्वीक्रियत इति धर्मविशेषणतया संसर्गतया वा विरोधमानं संशये नियतमेव, विरोधमाने चाध्याप्यवृत्तित्वज्ञान प्रतिबन्धकमिति तदभाव: कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकाभावविधया कारणम् , सप्तमङ्गीपटकस्यात्पदेन चानेकान्तार्थस्य द्योतकेन वाचकेन वाऽव्याप्यत्तित्वमेव धर्मेऽवमासत इति कार्यसहभावेन कारणीभूतस्याव्याप्यवृत्तित्वज्ञानामावस्य प्रतिबन्धकामावस्याभावादेव सप्तभङ्गीजन्यज्ञाने विरोधभानस्यामावे तन्नियतस्य संशयत्वस्याप्यनवकाशात् । अत एव शिरोमणिस्तु निपुणंमन्यः प्राह-स्यादिति तिङन्तप्रतिरूपको निपातोऽनेकान्तवाची, दिगम्बरा वस्तूनां सत्चासत्त्वानिर्वचनीयत्वानि अनिर्धारितानि प्रतिजानते, तथाहि-सप्तमङ्गी. नामकं नयमाचक्षते, स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति नास्ति च, स्याद. स्ति चावक्तव्यश्च, स्यानास्ति चावक्तव्यश्च, स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्यश्चेति, वस्तु सत्त्वाश्रय इत्यनिर्धारितम् , तथाऽसत्त्वाश्रय इति, अनिर्वचनीयत्वाश्रय इति, सत्यासत्वाश्रय इति, सच्चाऽनिर्वक्तव्यत्वाश्रय इति, असत्त्वाऽनिर्वक्तव्यत्वाश्रय इति, सत्वासचाऽनिर्वक्तव्यत्वाश्रय इति । एवं सप्तधाऽप्यनिर्धारितमित्यर्थः । तथा च स्यात्पदस्यानिर्धारणार्थत्वाद्विरोध्युभयगोचरज्ञानस्य संशयत्वेनाप्रमाणत्वाच्च सप्तभङ्गीनयो न प्रमाणमिति । इत्थं वदतशिरोमणेस्स्याद्वादस्वरूपाऽनभिज्ञता प्रकटीकृता महोपाध्यायेन न्यायखण्डखाये-" न ह्येकत्र नानाविरुद्धधर्मप्रतिपादकरस्याद्वादः, किन्त्वपेक्षाभेदेन तदविरोधद्योतकस्यात्पदसमभिव्याहृत वाक्यविशेषः स इति, धोतिते च तदविरोधे संशयावकाशस्यैवाऽभावात् कथं स्वहृदयगत. मनवधारणमस्मास्वारोप्यते शिरोमणिना" इत्याधुत्तरग्रन्थेन ॥ अयम्भाव:-यद्यपीत्थमेवेति निश्चयस्तद्विरोधिधर्मान्तररूपत्वाभाव एव भवतीति नाहन्मते तथानिश्चयस्सम्भवति, विरोधिधर्मान्तराभ्युपगमात् । तथा च सत्यमेवेति वा असत्वमेवेति वा अनिर्वचनीयमेवेति वा सदसदुभयरूपमेव वेत्यादि नार्हता निश्चिन्वन्तीत्यनिर्धारितत्वं सच्चादीनामित्येवं नाई
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सम्मति० काण्ड १, गा० ४०
१७७ न्मतम् , स्वद्रव्याद्यपेक्षया वस्तुनि सत्वमेव, नासत्वम् , परद्रव्यायपेक्षया चासत्त्वमेव, न सच्चम् , एककालावच्छिन्नस्वद्रव्यादिपरद्रव्याधुभयनिमित्तापेक्षयाऽनिर्वचनीयमेव, न त्वेकैकरूपमित्येवमुत्तरभङ्गेऽपि तत्तन्निमित्तापेक्षया तत्तद्रूपमेव वाच्यमिति यनिमित्तापेक्षया सवादि तन्निमित्तापेक्षया तद्विरोध्यसञ्चादिरूपाऽभावेन तत्तनिमित्तापेक्षयेदमित्थमेवेति निश्चयसद्भावेन सवादीनां निर्धारितरूपत्वेनैवाभ्युपगमात् , तथापि तत् अहेन्मततयाऽभ्युपगम्य शिरोमणिना सच्चादीनामनिर्धारितत्वं प्ररूपितमिति तस्य सुस्पष्टं ध्यानध्यमेवेति । एतेन सप्तमङ्गधादिखण्डनपरं “ नैकस्मिन्नसम्भवात् ॥२॥ २॥ ३३ ॥ इति शारीरकमीमांसा. सूत्रमपि निरस्तम्, तदुक्तिप्रत्युक्तीनां पूर्वोक्तसाम्यात , यथैवैकस्मिन् वस्तुन्यस्तित्वधर्मविषयकपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तसमस्तविधिनिषेधकल्पनया स्यात्पदलाञ्छितसप्तधर्मप्रकारवाक्प्रयोगलक्षणसप्तमङ्गी प्रदर्शिता तथैव तदन्यभेदनित्यत्वाद्येकैकधर्मापेक्षयापि सप्तभङ्गी ज्ञेया, एवञ्च वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वेन तदपेक्षया सप्तमङ्गीनामानन्त्यं यदायातं तदप्यऽभीष्टमेवार्हतः। एतेनैकस्मिन् वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्मात्मकत्वेन तदपेक्षयाऽनन्तभङ्गप्रसक्त्या सप्तभङ्गीति वचो न युक्तमित्यारेकाऽपि निरस्ता, यत एकैकपर्यायमाश्रित्य वस्तुनि विधिनिषेधकल्पनाभ्यां व्यस्तसमस्ताभ्यां सप्तैव भङ्गारसम्भवन्ति, एवंविधास्सप्तमगाश्च अनन्ताः प्रतिपर्याय सप्तभङ्गीभावात पर्यायाणाश्चैकवस्तुन्यनन्तत्वादिति, यदुक्तं तातपादवादिदेवसूरिभि:-" एकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तमङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तमङ्गीति न चेतसि निधेयम् ।। ४ । ३७॥ विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्याय, वस्तुन्यनन्तानामपि समभङ्गीनामेव सम्भवात् ॥ ४ । ३८ ।। इति । एतेन स्यात्पदमनेकान्तवाचकमिति स्यात्सन् घटः स्यादसन् घट इत्यादिसप्तभङ्गी. वचनमनर्थकम् , स्यात्सन् घट इत्येकभङ्ग उत्तेऽपि तद्घटकस्यात्पदादेव सत्यासत्यादिधर्मसप्तकशबलत्वस्यापि स्याच्छब्दार्थकुक्षिप्रविष्टत्वात्तद्बोधोपपत्तेरित्यप्यारेका निरस्ता, सामा. स्यतोऽनेकान्तस्य प्रतिपत्तावपि विशेषार्थिना विशेषस्यानुप्रयोगात्, वृक्षो न्यग्रोध इति वचनवत् । अयम्भावः स्यात्पदादनेकान्तपदाद्वा एकान्तबुद्धिविलक्षणबुद्धिविशेषविषयताबच्छेदकत्वेनैवानन्तधर्मान्तर्गतसप्तधर्मबोधेऽपि प्रातिस्विकरूपेण तद्धोधनार्थं विशेष. प्रयोगोऽवश्यमाश्रयणीयः। यथा वृक्ष इत्युक्ते वृक्षत्वेन न्यग्रोधबोधेऽपि न्यग्रोधत्वेन तदोधार्थ विशेषप्रयोग आश्रीयते तथा प्रकृतेऽपि । स्यात्पदस्यानेकान्तत्वद्योतकत्वपक्षे तु न्यायप्राप्तं सदसदादिवचनम् , सदसदादिशब्दोक्तस्य स्वरूपपररूपचतुष्टयादिना सस्वासत्वादिविशिष्टः वस्तुनस्स्याच्छब्देन द्योतनादिति ग्रन्थगौरवमीत्या नाधिकं वितन्यते ॥ ४० ॥ . अथोक्तसप्तमङ्गयां केन नयेन को भङ्ग इति जिज्ञासया शिष्येण तत्प्रने कृते सतिं यस्य यस्य भङ्गस्य मूलभूतो यो यो नयस्तत्तद्भङ्गप्रवर्तकतत्तत्रयप्रदर्शनपूर्वकतदुत्तराभिधिसया सरिराह---
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सम्मति० काण्ड १ ० ४१
एवं सत्तवियप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपजाए पुण, सवियप्यो णिब्वियप्पो य ( उ ) ॥ ४१ ॥
,
"
' एवं ' उक्तप्रकारेण, ' सत्तत्रियप्पो' सप्तविकल्पः सप्तभेदः, 'वयणपहो ' वचनपथो वचनमार्गः, ' होइ अत्थपजाए ' भवत्यर्थपर्याये विषयस्य विषयिणि लक्षणया तद्राहिण्यऽर्थनये सहव्यवहारर्जुसूत्र लक्षणे । सप्ताप्यनन्तरोक्ता भङ्गा अर्थनये भवन्तीति भावः । तत्र प्रथमो भङ्गः सङ्ग्रहे सामान्यग्राहिणि, द्वितीयो भङ्गो व्यवहारे विशेषग्राहिणि, तृतीयभङ्गस्तु ऋजुसूत्रे सूक्ष्मवर्त्तमानक्षणग्राहिणि, एकदोभयार्पणाया वर्त्तमानक्षणनियतत्वात् चतुर्थः 'सङ्ग्रहव्यवहारयोः, पञ्चमः समहर्जुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहारजुसूत्रयोः, सप्तमः सहव्यवहारर्जुसूत्रेषु । वस्त्वेकांशग्राही नय इत्येकैकधर्मविषय केनैकैकन ये नै केकधर्मप्रतिपादकाद्यभङ्गत्रयप्रवृत्तिः । धर्मद्वयस्य नयद्वयविषयत्वात्तद्विषयकेण नयद्वयेन भङ्गद्वयसंयोगोत्था धर्मद्वयप्रतिपादकाश्चतुर्थपञ्चमषष्ठभङ्गाः प्रवृत्ताः, सप्तमभङ्गस्त्वाद्य भङ्गत्रय संयोगोत्थो धर्मत्रयप्रतिपादक इति धर्मत्रयस्य नयत्रयविषयत्वात्तद्विषयकेण नयत्रयेण स प्रवृत्तः तथाहिअर्थनयानाश्रित्य विचारे कर्त्तव्ये अस्तित्वस्य सामान्यस्य सङ्ग्रहविषयत्वेन तत्प्रतिपादको भङ्गः सङ्ग्रहनयात्प्रवर्त्तते, सामान्यरूपस्यास्तित्वस्य विशेषग्राहिव्यवहारनयाऽविषयत्वेन तत्प्रतिपक्षभूतं नास्तित्वं व्यवहारनयविषय इत्यतो नास्तित्वप्रतिपादको द्वितीयमङ्गस्तस्मा स्प्रवर्त्तते, अवक्तव्यत्वप्रतिपादकस्तु तृतीयो भङ्ग ऋजुसूत्रनयात्प्रवर्त्तते, यतस्सहव्यवहारौ न युगपदस्तित्वनास्तित्वे आदिशतः, अस्तित्वस्य सङ्ग्रहविषयत्वेऽपि नास्तित्वस्य तदविषयत्वेन तस्य स्वानभिमतस्यादेशे एवं नास्तित्वस्य व्यवहारविषयत्वेऽप्यस्तित्वस्य तदविषयत्वेन तस्य स्वानभिमतस्यादेशेऽनिष्टसाधनत्वप्रतिसन्धानात्, ऋजुसूत्रस्तु युगपदस्तित्वनास्तित्वे आदेष्टुमर्हति । यद्यपि परमार्थतोऽस्तित्वनास्तित्वे परमार्थतो वर्त्तमानक्षण मात्र वर्थावगाहिन ऋजुसूत्रस्य न विषयौ तथापि तन्मते सांवृत्तत्वेन रूपेण ते तद्विषयतां गच्छत एव, कल्पितेनापि रूपेण युगपदादिष्टयोस्तयोरवक्तव्यत्वप्रतिपादको मङ्गः पारमार्थिक एव, विषयस्याबाधितत्वात्, यथा धूमत्वेनारोपिताद् धूलिपटलाल्लिङ्गादः पारमार्थिकादपि वस्तुगत्या वह्निमति देशे वन्यनुमितिरवाधितविषयकत्वात्पारमार्थिकी । क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वप्रतिपादकश्च चतुर्थभङ्गः सङ्ग्रहविषयस्यास्तित्वस्य व्यवहारनयविषयस्य नास्तित्वस्य च प्रतिपादकत्वात्ताभ्यां प्रवर्त्तते । एवं संग्रहविषयस्यास्तित्वस्यर्जुसूत्रविषयस्य चावक्तव्यत्वस्य प्रतिपादकत्वात्ताभ्यां पश्चमभङ्गः प्रवर्त्तते । तथैव व्यवहारनयविषयस्य नास्तित्वस्यर्जुमूत्रविषयस्य चावक्तव्यत्वस्याभिधायित्वात्ताभ्यां षष्ठभङ्ग उत्तिष्ठते, सप्तमभङ्गश्व सङ्ग्रहविषयस्यास्तित्वस्थ व्यवहारविषयस्य नास्तित्वस्यर्जुमूत्रविषयस्य चाऽवक्तव्यत्वस्य प्रतिपादकत्वात्तैरुद्भवतीति । अत्र यद्धर्मप्रकार कसङ्ग्रहाख्यबोधः प्रथममङ्गफलत्वेनाभिमतस्तद्धर्माभावप्रकारको व्यवहाराख्यो बोध एव द्वितीयभङ्ग फलत्वेनैष्टव्यः,
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सम्मति० कान्ह १, गा० ४१
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अत एव स्याद् घट इति प्रथमभङ्गफलत्वेन घटत्वप्रकारकसङ्ग्रहाख्यो बोधोऽभिमत इति घटत्वाभावप्रकारको व्यवहाराख्यो बोधः स्यादऽघट इति द्वितीयमङ्गफलतया ज्ञातव्यः, तेन घटत्वलक्षणसामान्यविषयक सहनी लघटत्वलक्षणविशेष विषयकव्यवहाराभ्यां ' स्यादू घटः स्यान्नीलः' इत्याकारकौ यौ प्रथमद्वितीयभङ्गौ तद्द्घटितसप्तभङ्गीप्रवृत्तिर्न सम्भवति, न वा सामान्यमेकमाश्रित्यैकवचनमिति तद्विषयक सङ्ग्रहः, अनेकान् विशेषान् समाश्रित्य बहुवचनमिति तद्विषयको व्यवहार इति ताभ्यां 'स्यादुद्घटः स्यादुद्घटा:' इत्येवं रीत्याऽपि मङ्गान्तरवृद्ध्याऽष्टभङ्ग्यादिप्रवृत्तिरपि सम्भवतीत्यवधेयम् । शब्दनयानाश्रित्य विचारोपदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह - ' वंजण पजाए पुण' व्यञ्जनपर्याये पुनः, विषयस्य विषयिणि लक्षणया शब्दनये पुनः 'सवियप्पो' सविकल्पः, साम्प्रताख्याद्य भेदात्मकशब्दनये पर्यायशब्दवाच्यताविकल्प सद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् । अयम्भावः - घटकुटनिपकुम्भ कलशादिपर्यायशब्दभेदेऽपि घटरूपस्यार्थस्य न भेद इति सज्ञाभेदेऽप्यर्थाभेदाभ्युपगन्तरि तस्मिन्नये सविकल्पः, तनये घटवाचकयावत्पर्यायशब्दवाच्यत्वावच्छिन्न एको घटोऽस्त्येवेति प्रथमभङ्गस्यास्तित्वसामान्याभिधायकस्य प्रवृत्तिभावात् पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावाच्च । समभिदैवम्भूताख्यद्वितीय तृतीय भेदात्मकशब्दनये 'णिवियप्पो य' निर्विकल्पश्च द्रव्यार्थात्सामान्यलक्षणान्निर्गतस्य पर्यायरूपस्य विकल्पस्याभिधायकत्वादुक्तद्वितीयमेदयोः तथाहि समभिरूढस्य मते घटशब्दस्य योऽर्थः स न कुम्भकलशादिशब्दानां, किन्तु व्युत्पत्तिनिमित्तभेदेन भिन्नभिन्न एवार्थः, सञ्ज्ञा भेद नियतार्थ भेदाभ्युपगन्तृत्वं समभिरूढत्वमिति लक्षणस्य सैद्धान्तिकैरुक्तत्वात्तेन नयेन सज्ञामेदेनार्थ मेदस्याभ्युपगमेन यत्र सञ्ज्ञाभेदस्तत्र व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाभेदप्रयोज्यार्थभेदस्यावश्यम्भावात् । अत्रेदमवधेयम् - शब्दविषये शास्त्रे व्युत्पत्तिपक्षोऽव्युत्पत्तिपक्षश्चेति पक्षद्वयमुररीकृतम्, अव्युत्पत्तिपक्षे सर्वे शब्दाः सिद्धा एव, नैषां व्युत्पादनाय शब्दशास्त्ररूपप्रयास आश्रयणीयो भवति । व्युत्पत्तिपक्षे तु सर्वे शब्दा धातुना व्युत्पादनीयाः, अतस्सङ्क्षेपेण तेषां व्युत्पत्तिसाधनाय व्याकरणनिरुक्तादिकं प्रवृत्तम् । अत एवाह- नाम च धातुजमाह निरुक्ते, व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न विशेषपदार्थसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्व तदूह्यम् ||१|| इति । अस्यायमर्थः - निरुक्तनामके ग्रन्थे तद्रचयिता तथा स्वरचिते व्याकरणे शाकटायनः सर्वाणि नामानि प्रातिपदिकानि धातुजानि तत्तद्धातुभिः प्रकृतिभूतैः तान् तान् प्रत्ययागमानुबन्धादीन् कल्पयित्वा व्युत्पादितानि भवन्तीत्याह । एव येषां नाम्नां निरुक्ते व्याकरणे च व्युत्पादनं नास्ति तेषामपि नाम्नां व्युत्पादनमूहनीयमित्याशयेनाह - यनेत्यादि । यन्नाम निरुक्ते व्याकरणे च विशेषपदार्थेन प्रकृतिप्रत्ययविशेषेण समुत्थं व्युत्पादितं नास्ति तत् प्रत्ययतः प्रत्ययविशेषकल्पनया प्रकृतेः प्रकृतिविशेष कल्पनया अनुबन्धादिकल्पनया चोही व्युत्पाद्यम्, अत एव " उणादयो बहुलं " इति सूत्रं प्राणायि पाणिनिना । संवदति चात्र ।
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सम्मति० काण्ड १,या."
" सज्ञासु धातुरूपाणि, प्रत्ययाश्च ततः परे ।
__कार्याद विद्यादनुबन्ध-मेतच्छास्त्रमुणादिषु ॥ १॥" इति। - व्युत्पत्तिपक्षश्च समभिरूढनयाद्विनिर्गत इति तत्प्रकृतिभूतस्स नयो व्युत्पत्तिपक्षावलम्बी सर्वे शब्दाः क्रियानिमित्ताः, धातुजत्वात् , अत एव भिमार्थाः, निमित्तभेदाचार्थभेदो दृष्टः, छत्रिदण्ड्यादिवदित्यभ्युपगच्छति, एवञ्च तन्मते नैमिचिक्येव सज्ञाऽभ्युपगता। हन्तवं पारिभाषिकशब्दस्यानर्थकत्वमापन्नमिति चेदापन्नमेव, किं हन्तेति पूत्कारेण । तदुक्तं तत्चार्थे " पारिभाषिकी नार्थतन्वं ब्रवीति, यदृच्छामात्रप्रवृत्तत्वात्" इति । तथा च येषां नाम्नां व्युत्पत्तिः शास्त्रे विशेषरूपेण न प्रदर्शिता तेषामपि अर्थानुसारेण प्रकृतिभूतान् धातून प्रत्ययांश्च तत्र कार्यानुसारेण अनुबन्धादींश्च कल्पयित्वा साधनं कर्तव्यम् । तदेवं पर्यायशब्दानामपि व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाभेदादवश्यमर्थभेद इत्यतो वर्तमानेनाभिन्नलिङ्गादिनाप्येकेनैव ध्वनिनाऽभिधीयमानोऽर्थस्समभिरूढनये सम्यगुक्तो भवति, नान्यथेति । एवम्भूतनयमतेऽपि यद्यपि तत्तक्रियालक्षणव्युत्पत्तिनिमित्तभेदान्नैमित्तिकेनाप्यर्थेन मिलेन भाव्यमिति घटकुटकुम्भादिशब्दा भिन्नार्था एव, घटनकुटनकुम्भनादिक्रियालक्षणव्युत्पत्ति निमित्तभेदात् , तथापि यदा कदा घटनक्रियायामपि घट एव, यदा कदा कुटनक्रियायामपि कुट एवेति विवक्षितक्रियामुपलक्षणीकृत्य तस्यां सत्यामसत्यां वोपलक्षणविधया तद्विशिष्टं विवक्षितशब्दार्थमभ्युपगच्छति समभिरूढनयः, एवम्भूतनयस्तु ततोऽपि सूक्ष्मेक्षिका. पर्यालोचनतत्पर इति नैवमभ्युपगच्छति, किन्तु व्युत्पत्तिनिमित्तीभूततत्तत्क्रियां विशेषणी. कृत्यैव तत्सत्वकाल एव तद्विशिष्टमर्थ विवक्षितशब्दाभिधेयं मनुते, न वन्यदेति विवक्षितशब्दव्युत्पचिनिमित्तक्रियापरिणतिकाल एव तद्वस्तु, न प्राक् पश्चाद्वा, तथाहि परमैश्वर्यानुभवनकाल एवेन्द्रा, अन्यदाऽनिन्द्रः, इन्द्रोपयोगकाल एव वोपयोगेन्द्रः, तत्क्षणानन्तरं तत्पूर्व वाऽनिन्द्रः, पश्चात्तदुपरमात् पूर्व तदभावात् , पूर्दारणकाले तदुपयोगे वा पुरन्दरः, अन्यदा पुरन्दरो न, प्रतिक्षणातिकामित्वाद्वस्तुनः, यस्मिन् क्षणे योऽर्थोऽनाकारविज्ञानवादे ज्ञानार्थ. योविषयविषयिभावसम्बन्धस्वीकाराद् बुद्धिविषयः साकारविज्ञानवादे विषयविषयिभाव. सम्बन्धो न, किन्त्वाकाराकारिमावसम्बन्धोऽभ्युपगत इति तेन सम्बन्धेन विज्ञानगतत्व. मर्थस्येति बुद्धिस्थो वा तस्मिन्नेव क्षणे स शब्दार्थ इति तेन नयेन शब्दव्युत्पत्तिप्रतिपाद्यक्रियाकाल एव शब्दवाच्योऽर्थोऽभ्युपगतः। न तु सर्वदा, अत एव पदवाच्यप्रवृत्तिनिमित्ताऽभिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाकालव्यापकपदार्थसत्ताऽभ्युपगमपर एवम्भूतनय इति मनी. षिणस्तनिष्कर्षमाहुः, तथा च घटो नाम घटवाचकयावत्पर्यायशब्दवाच्या शब्दनये एकोऽ. स्येव, सममिरूढेवम्भूतयो त्स्येवेति द्वौ भङ्गो लभ्येते, लिङ्गसङ्ख्याकालकारकपुरुषादिभेदेन शब्दनयो भिन्नभिन्नक्रियाप्रवृत्तिनिमित्तकसञ्ज्ञाभेदेन समभिरूढश्च पूर्वोक्तप्रकारेण भिमकालावच्छिन्नक्रियाभेदेनैवम्भूतश्च भिन्ममर्थमभ्युपगच्छत्तीत्युक्तप्रकारेण भिमसार्थस्यैकशब्दावाच्य
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सम्मति० काण्ड १, गा० ४१.
૨૭૭
त्वात्तेषु त्रिषु नयेषु स्यादवक्तव्य इति तृतीय भङ्गः । प्रथमद्वितीयभङ्गसंयोगे चतुर्थः, प्रथमद्वितीयचतुर्थेषु भङ्गेष्वेव चानभिधेयसंयोगे पञ्चमषष्ठसप्तमा वचनमार्गा भवन्ति, अथवा प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी सङ्ग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्रेष्वेवार्थनयेषु भवतीत्याह- -' एवं सत्तवियप्पो' इत्यादि । 'एवं सत्तवियप्पो' पूर्वनीत्या सप्तविकल्पः सप्तभेदः "वयणपहो होइ अस्थपजाए " वचनपथः वचनमार्गों भवति अर्थपर्याये, विषयस्य विषयिणि लक्षणया अर्थनये ' वंजणपजाए उण " व्यञ्जनपर्यायेअत्रापि विषयस्य विषयिणि लक्षणया शब्दनये साम्प्रतसमभिरूढैवम्भूताख्यनयत्रयात्मके पुनः " सवियप्पो णिवियप्पो य" सविकल्पो निर्विकल्पच, आद्यद्वितीयावेव भङ्गौ भवत इति । एतत्तास्पर्यार्थश्चैवम् - अर्थनय एव सप्तभङ्गाः, शब्दादित्रिनयेषु त्वाद्यौ द्वावेव भङ्गौ, यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तृस्थः सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्यो मतिज्ञानात्मकः प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः, अर्धवशेन तदुत्पत्तेः, अर्थप्ररूपणायां प्रवीणत्वेनार्थं प्रधानतयाऽसौ व्यवस्थापयति, शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि शब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्द- समभिरूढ - एवम्भूताख्यः प्रत्ययश्श्रुतज्ञानात्मकः शब्दवाच्यार्थगोचरः, तस्य शब्द: प्रधानम्, तद्वशेन तदुत्पत्तेः, अर्थस्तूपसर्जनम्, तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात् स शब्दनय उच्यते, तत्र च वचनमार्गः सविकल्पनिर्विकल्पतया द्विविधः, सविकल्पं सामान्यम्, निर्विकल्पः पर्यायः, तदभिधानाद्वचनमपि तथा व्यपदिश्यते । तत्र शब्दस्सञ्ज्ञाभेदेऽप्यभिन्नमर्थमङ्गीकरोति, समभिरूढश्च तदानीं पूर्वं पश्चाद्वा व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियापरिणतिभावेन विवक्षितार्थो विवक्षितशब्दवाच्य एवेति शब्दप्रतिपाद्यक्रियायां सत्यामसत्यामप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयतीति शब्दसमभिरूढाभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः सञ्ज्ञाक्रिया भेदेनाभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेऽपि भेदजिज्ञासारूप विकल्पसाहित्यात्, एवम्भूतस्तु कालभेदेन क्रियाभेदाद् भिन्नमेवार्थं विवक्षितशब्दस्य प्रतिपादयति, यतो यदा घटते तदैवासौ घटः, न पुनरघटत घटिष्यते वा तदा घट इति व्यपदेष्टुं शक्यः सर्ववस्तूनां घटताप्रसङ्गात्, तन घटनसमयात्प्राक् पचाद्वा घटस्तद्व्यपदेशमासादयतीत्येतन्नयापेक्षया निर्विकल्पो द्वितीयमङ्गकरूपो वचनमार्गः । तदुत्तरं भेदजिज्ञासारूप विकल्प विरहादिति भङ्गद्वयमेवावतिष्ठते, अवक्तव्यभङ्गकस्तु जञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः शब्दश्रवणोद्गत श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाऽश्रवणात्, अवक्तव्यं त्वेकशब्देनोभयधर्मोपरक्तवस्तुविवक्षायामेकेन केनापि शब्दे - नैकदा न वाच्यमिति शब्दाप्रतिपाद्यत्वान्नाऽवक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्पनिर्विकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येण । ' च ' शब्दस्य गाथायामेव कारार्थत्वादिति ।
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OXULUI.
सप्तभङ्गीप्रकरणं समाप्तम् ॥
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सम्मति. काण्ड १, गा० ४३
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धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचनाऽर्थेऽनन्तधर्मात्मके, या प्रश्नर्विधिपर्युदासभिदया सा सप्तधा नाष्टधा । यद्धर्माः किल सप्त नाष्ट पुनरुक्तत्वाख्यदोषोद्भवात्, सन्देहा अपि सप्त तद्विषयका नैयत्यतस्तद्भवाः ॥१॥ जिज्ञासा अपि सप्त तत्र तदनु प्रश्नाश्च सप्त प्रति. पाद्यानां प्रतिपादकप्रतिवचांस्यत्रापि सप्तैव वै । इत्थं सागमयुक्तितो मितिनयापेक्षा प्रमात्वं गता,
तदूगर्भा प्रभुभारती विजयतां या श्रोतृवाक्शुद्धिदा ॥२॥ युग्मम् ॥ अथ गजनिमीलिकान्यायेनेतरांशौदासीन्येनैकांशावगाहिसनहायेककद्वित्रिनयाधीनप्रवृ. त्तिकसप्तभङ्गीस्वरूपं प्रतिपाद्य सप्तमङ्गीप्रवर्तकसङ्ग्रहादिनयमूलभूतद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक योर्मध्ये एकान्तपर्यायार्थिकनयवादं प्रदर्य तत्राप्रामाण्यं प्रदर्शयितुमाह
जह दवियमप्पियं तं, तहेव अस्थित्ति पज्जवणयस्स ।
ण य स समयपन्नवणा, पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥ ४२ ॥ __ यदर्थक्रियाकारि तदेव सत् , अर्थक्रियाकारि च वर्तमानक्षणवत्यैव वस्त्विति तदेव सत् , सद्विषयिकैव प्रतीतिः प्रमात्मिकेति तया कारणभूतया 'जह दवियमप्पियं' यथा वर्तमानक्षणसम्बन्धित्वप्रकारेण, अग्रे तच्छब्दोपादानाद् यत्तदोनित्यसम्बन्धाद् यदित्यध्याहृत्य यद्रव्यमर्पितं प्रतिपादयितुमभीष्टं तं तहेव अत्थित्ति' तत्तथैवास्ति तद्रव्यं वर्तमानक्षणसम्बन्धित्वप्रकारेणैवास्ति, सत्स्वरूपतां विभार्ति, नातीतानागतकालसम्बन्धित्वप्रकारेण, अतीतानागतकालसम्बन्धिनोविनष्टानुत्पन्नत्वेनासद्रूपत्वादिति 'पजवणयस्स' पर्यायार्थिकनयस्य पर्यायार्थिकनयवादस्य एतदनन्तरं " अभिप्रायः" इति शेषः, एतदेकान्तपर्यायार्थिकनयवादमन्तव्यं श्रोतगतयथार्थप्रतीत्यजनकत्वाअव प्रमाणमिति ज्ञापनायानेकान्तवादी उत्तरार्द्धमाह-'ण य स समयपण्णवणा पञ्जवणयमेत्तपडिपुराणा' न च स समयप्रज्ञापना पर्यायनयमात्रप्रतिपूर्णा, न इति प्रतिषेधे, तच्छब्दस्य पूर्वपरामर्शकत्वात् स इत्यनेन पूर्वव्यावर्णितस्वरूपैकान्तपर्यायार्थिकनयवादः परामृश्यते, समयः सम्यग् ईयते परिच्छिद्यत इति समय:, अर्थी, तस्य प्रज्ञापना प्रकर्षण असंदिग्धाविपर्यस्तस्वरूपत्वेन ज्ञाप्यन्ते बोध्यन्ते श्रोतबुद्धावर्था विषयीक्रियन्तेऽनया सा प्रज्ञापना, श्रोहगतप्रमात्मकाऽर्थबोधजनिका प्ररूपणेति यावत् , एवम्भूता सा 'पजवणयमेतपडिपुण्णा' पर्यायनयमात्रप्रतिपूर्णा, अत्र मात्रपदस्येतरवारकत्वाद्रव्यनयनिरपेक्षे केवले पर्यायनये प्रतिपूर्णा पुष्कला, “सर्व वाक्यं क्रियया परिसमाप्यते" इति वचनादध्याहतायां 'सम्पद्यते' इति क्रियायां पूर्वोक्तनोsन्वयान सम्पद्यते, न स पूर्वोक्तवादः श्रोरगतसम्यगर्थप्रत्ययं कत्तुं शक्नोतीति न स यथा
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सम्मति० काण्ड , गा०.४३. स्थितवस्तुस्वरूपप्ररूपणात्मक इति यावत् । एकान्तपर्यायनयप्रतिपाद्यैकान्तक्षणिकतचस्य यत्र मे हर्षः प्रागभूत्तत्रैव विषादो द्वेषो भयादिर्वा वर्तते, अहमेव पूर्व हर्षवानासम् , संप्रति विषादादिमान् वः नान्य इत्येवं हर्षविषादादिविचित्रप्रतिपत्त्या हर्षविषादादिपर्यायपूर्वोचरोक्ततत्तत्पर्यायानुगतात्मद्रव्याभ्यां भेदसंबलिताभेदविषयिकया बाधितत्वादिति । यद्वा 'स' इति एकान्तपर्यायार्थिकनयवादः परामृश्यते, तस्याप्रमाणत्वे हेतुमाह-"ण य समयपण्णवणा पञ्जवणयमेतपडिपुण्णा" यतः समयप्रज्ञापना पर्यायनयमात्रप्रतिपूर्णा न च सम्पद्यते, सर्व वाक्यं क्रियया परिसमाप्यत इति न्यायादध्याहतायां सम्पद्यत इति क्रियायां पूर्वोक्तनोऽभिसम्बन्धादित्यन्वयः, समयप्रज्ञापनेति-समयः सम्यग् ईयते परिच्छिद्यत इति समय:-अर्थः, प्रज्ञापना-प्रषणासंदिग्धाविपर्यस्तस्वरूपेण ज्ञापना प्रज्ञापना यथार्थप्रत्यायनेतियावत् , समयस्य प्रज्ञापना समयप्रज्ञापना, पर्यायनयमात्रप्रतिपूर्णेति-अत्र मात्र पदस्थेतरवारकत्वाद्रव्यार्थिकनयनिरपेक्षे केवले पर्यायार्थिकनये प्रतिपूर्णा सम्पूर्णेत्यर्थः । तथा चैकान्तपर्यायार्थिकनयवादो न प्रमाणात्मकः प्रतिपूर्ण समयप्रज्ञापनाऽनात्मकत्वात् एकान्तद्रव्यार्थिकनयवादवदित्यनुमानेन तत्राप्रामाण्यं सिद्ध्यति । न चात्र हेतोरसिद्ध्या न तसिद्धिरिति वाच्यम् , एकान्तपर्यायार्थिकनयवादः सम्यगर्थप्रत्ययजनकयथार्थप्ररूपणात्मको न, अध्यक्षवाधितैकान्ततत्वप्रतिपादकत्वात् , एकान्तद्रव्यार्थिकनयवादवदित्यनुमानेन तादृश. प्ररूपणात्मकत्वामावसिध्या पूर्वोक्तहेतुसिद्धितः प्रामाण्याभावसिद्धेरिति भावः ॥ ४२ ॥ : - अथैकान्तपर्यायार्थिकनयवाद इवैकान्तद्रव्यार्थिकनयवादोऽपि सम्यगर्थानुभवज्ञानाजनकत्वसाम्याम प्रमाणाई इत्युपदर्शयितुं प्राक्तदभिप्रायमाह
पडिपुण्णजोव्वणगुणो, जह लज्जइ बालभावचरिएण।
कुणइ य गुणपणिहाणं, अणागयमुहोवहाणत्थं ।। ४३ ॥ 'पडिपुण्णजोबणगुणो' यौवनमेव गुणो यौवनगुणः प्रतिपूर्णः सम्पूर्णतां गतो यौवनगुणो यस्य स एवंविधः पुरुषः सद्गुरूपान्ते सद्धर्मश्रवणे जागृतविवेकः 'लजई' लज्जते प्रपते, केनेति करणाकाङ्क्षायामाह 'बालभाक्चरिएण' बालभावचरितेन बालभावे बाल्या. वस्थायां चरितेन, चौर्यपरदारगमनादिकमतिनिन्धं कृत्यमशुभकर्मवशीभूतोऽहं दुर्जनसङ्गत्या कृतवानिति स्मृतिविषयतां गतेन । अतो य एव बाल आसीत् स एव युवा, 'अहमेव पूर्व चौर्याधनुष्ठितवान् ' इति लजानिबन्धनाभेदप्रत्यभिज्ञानाद् बालयूनोरभेद. सिद्धे, 'जहा.' यथा इत्युदाहरणार्थो गाथायामुपन्यस्तः, ततो यथाऽतीतवर्तमानयोरेकत्वं साधितं, तथाऽनागतवर्तमानयोरेकत्वं साधयितुमुत्तरार्द्धमाह-'कुणइ य गुणपणिहाणं' यः पुनरर्थे, करोति गुणेषु धर्मविषयोत्साहवैराग्यादिषु प्रणिधानं मनोवाकायैकाग्र्यम् , तस्किमर्थमित्यत आह-' अणागयसुहोवहाणत्थं ' अनागतं भावि यत्सुखं तस्योपधानार्थ प्रात्य
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सम्मति० काण्ड १, मा० ४४
थम् , प्रणिधानं हि भाविसुखैककारणं कृतिसाध्यश्चेतीष्टसाधनत्वज्ञानात्कृतिसाध्यत्वज्ञानाच भाविसुखप्राप्त्यर्थ प्रणिधानानुकूलकृतिमान् भवति, तथा च य एवं प्रणिधानकर्ता स एव भाविसुखप्राप्तिमा नित्यमेदप्रतिसन्धानाद्वर्तमानानागतयोरक्यं सिद्धमिति ॥ ४३ ॥
कालत्रयावच्छिन्नाभिन्नवस्तुप्रतिपादिकामेकान्तद्रव्यार्थिकनयमतप्ररूपणां प्रदर्य सा. ऽपि न यथावस्थितार्थानुभवज्ञानजनिकेति न परिपूर्णेति प्रतिपादयितुमाह
ण य होइ जोव्वणत्थो, यालो अन्नो वि ललह ण तेण ।
ण वि य अणागयवयगुण-पसाहणं जुज्जइ विभत्ते ॥ ४४॥ 'ण य होइ जोवणत्यो बालो' न च भवति यौवनस्थो पाला, बाल एव यूनो भावो यौवनं तस्मिन् तिष्ठतीति यौवनस्थो न च भवति, किन्तु कश्चित्ततो भिन्न एव स भवति, अन्यथा “ अयमिदानीं युवा, न बाला" इति भेदप्रतिभासोऽप्रामाणिकरस्यात् , न च बालस्वभावाऽपरित्यागे युवस्वभावपरिग्रहोऽपि सम्भवति, उत्तरस्वभावे पूर्वस्वभावपरित्यामस्य हेतुत्वात् , एतेन प्राप्तयौवनगुणः पुरुषो बालभावसंवृत्तात्मीयानुष्ठानस्मरणाल्लअत इत्यतो बाल एवं युवा, न तु ततो भिन्नस्स इति बालयुनोः पूर्वोक्तैकान्ताऽभेदो निरस्तः, नन्वेवं तर्हि युवत्वकाले यूनि बालत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकभेद एवैकान्तोऽस्तु 'इदानीं युवा न बाल इति प्रतीतेः' इत्याशङ्कायामाह-"अनो वि लाह ण तेण" अन्योऽपि लजते न तेन बालचरितेन, पुरुषान्तरवत् , अयम्भाव:-बालयूनोरेकान्त मेदश्चेत्तर्हि बालावस्थायामनुष्ठितदुराचरणः पुमान् पूर्वमहमस्पृश्यगोचरसंस्पर्शादिव्यवहारं कृतवानिति स्मरणतः तरुणावस्थायां लजां न प्राप्नुयात् , पुरुषान्तरवत् , लज्जां च प्राप्नोति, तस्माद्योवनस्थः पुरुषः कथञ्चिद्धालादनन्योऽपीत्यभ्युपगन्तव्यम्, ननु केन रूपेण बालयूनो: स्या दस्स्यादभेदश्चेति चेत् , उच्यते, बालत्वेन युवत्वेन भेदः, इदानीं युवाऽहं न बाल इति तत्तदवस्थाभेदप्रतीतेः, य एवाहं बालोऽभवं स एवाहं साम्प्रतं युवाऽस्मि' इति तत्तदवस्थानुगतात्माऽमेदप्रत्यभिज्ञानादात्मत्वेन रूपेण चाभेद इति जानीहि, वालवाद्यवस्थाऽनुगतधर्म्यनभ्युपगमे तु चालवाद्यवस्थाया अप्यभावप्रसङ्गस्स्यात् , धर्म्यमावे तद्धर्माणामप्यसत्वात् , न हि सायभावे कुण्डलाद्यवस्थायास्सम्भवोऽस्तीति । यतु आत्मा बालाघवस्थाभेदान निवर्त्तते, भिद्यते वा, नित्यैकरूपत्वात्तस्य, अपि तु बालायाः शरीरस्यैव नानाविधावस्था इति शरीरमेव तत्तदवस्थाभेदेन निवर्त्तते भिद्यते वा, परिमाणभेदेन तद्वच्छरीरभेदादिति नैयायिकादीनां मतम् , तदप्यसत्, 'अहं वालः अहं युवा' इत्यादि प्रतीत्या बालत्वाद्यवस्थानामहन्त्वसामानाधिकरण्यस्य सिद्ध्याऽऽत्मन एव बालत्वाद्यवस्थाः, न तु शरीरस्य, प्राग् 'बालोऽहमासम्, इदानी युवास्मि' इत्याद्यनुभवादहंतास्पदस्यात्मनोऽनुगतात्मत्वस्वरूपेणाभिन्नस्यापि तदीयवाल्ययौवनाद्यनुगतावस्थामेदेन भिन्नत्वात् , अत
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सम्मतिः काण्ड १, गा० ४४ एष पूर्वावस्थारूपेण विनाशेनोत्तरावस्थारूपेणोत्पादेनात्मत्वेन रूपेण धौव्येण च विनाशोत्पादध्रौव्यात्मकस्य तस्य सिद्धिः । न च गौरोऽहमित्यादिप्रतीतौ गौरत्वांशे भ्रान्तत्त्वमिवं बालोऽहमित्यादिप्रतीतौ बालत्वांशे भ्रान्तत्वमेवेति वाच्यम् , तत्र भ्रान्तत्वकल्पनायां बीजाभावात् । आत्मन्येव बाल्यादितत्तदयस्थानामवाधितानुभवसिद्धत्वात् , यत आत्मनश्शरीरपरिमाणनियतपरिमाणवत्तया पूर्व व्यवस्थापितत्वेनाहारादिपुद्गलोपचयापचयप्रयोज्यशरीरपरिमाणभेदे शरीरसंयुक्तात्मपरिमाणमेदोऽप्यवश्यंभावी, परिमाणभेदे च तद्वतोऽपि कथविद्भेदः, स एव च वाल्याद्यवस्थात्मका, तत्तत्परिमाणावच्छिनात्मन एव बाल्ययुक्त्वायवस्थारूपत्वात् , गोरोऽहमिति प्रतीतिरपि दृष्टान्तीकृता न गौरत्वांशे भ्रान्ता, आमवक्षयं कथचिन्मिथ: प्रदेशानुप्रविष्टशरीरात्मनोः कथञ्चिदभेदेन तदाश्रितरूपादिज्ञानादीनाम. न्योन्यानुप्रवेशेनात्मन्यपि कथञ्चिद् गौरत्वस्य सत्चात् । ननु स्वस्वभावतो नीरूपे आत्मनि गौरत्वस्य शरीरसम्बन्धोपाधिप्रयुक्तत्वाचदंशे सा प्रतीतिः काल्पनिक्येवेति चेत्, तर्हि कुण्डलित्वस्य कुण्डलसम्बन्धोपाधिप्रयुक्तत्वात् कुण्डली चैत्र इति प्रतीतिरपि तदंशे प्रामा. णिकी न स्यात् । वस्तुतस्तु आत्मा नैकान्तनित्यः, पूर्व तत्पक्षस्य निरस्तत्वात् , किन्तु कथञ्चिदेव, अत एवात्मनोऽसंख्येयप्रदेशमयत्वेन तत्प्रदेशसङ्कोचविकाशाभ्यां शरीरपरिमाणवृद्धिहानिवच्छरीरसंयुक्तात्मपरिमाणस्यापि वृद्धिहानी इति तप्ताऽयोगोलके परस्परप्रदेशानुप्रविष्टवहथयसोरिव मिथः प्रदेशानुषक्तशरीरात्मनोरप्येकलोलीभाव इति तद्रूपेण तन्वभिन्नस्याऽऽत्मनोऽपि बालाद्यवस्था अभ्युपगन्तव्या एव । एवञ्चातीतवर्तमानयोः कथञ्चिद्भेदा. भेदसिद्धौ तद्वद्वर्त्तमानानागतयोरपि कथश्चिद्भेदाभेदावेवाभ्युपगन्तव्याविति साधयितुमुत्तरार्द्धमाह ‘ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुइ विभत्ते' नाऽपि च अनागतवयोगुणप्रसाधनं युज्यते अविभक्ते । अनागतं क्यः अनागतवयः तस्मिन् , भाविवृद्धावस्थायाः मित्यर्थः, गुणः सुखात्मकोऽनागतवयोगुणः, तस्य प्रसाधनं कारणे कार्योपचारात् प्रसाध. नार्थमुत्साहा, तथा च नापि चानागतवृद्धावस्थायां सुखप्रसाधनार्थमुत्साहो यौवनस्थस्य युज्यते, कस्मिन् सति इत्यत आह-'विभत्ते' अत्राकारप्रश्लेषादविभक्त वर्तमानाना. गतयोरभेदे सति, अभेदपक्षे ह्यनागतवृद्धत्वावस्थाया अपि वर्तमानयुक्त्वावस्थारूपत्वेन प्राप्तव्यसुखादेर्युक्त्वावस्थायामेव प्राप्तत्वादिति । तस्मानाभेदैकरूपं वस्तु, इदानीमयं युवा न वृद्ध इत्याकारकमेदव्यवहृतिप्रतिभासबाधितत्वात् । नन्वेवन्तकान्तभेद एवास्त्वित्यारे कानिरासार्थ 'विभत्ते' इत्यस्य विभक्ते एकान्तभेदे इत्यप्यर्थोऽत्र कर्तव्या, तथा च यूनि वृद्धस्यैकान्तमेदे प्राप्तव्यसुखार्थमुत्साहो न युज्येत, यज्ञदत्तीयानागतसुखप्रसाधनाथ देवदत्ते उत्साहादर्शनात्, एवश्वातीतवर्तमानयोरिव वर्तमानानागतयोरप्यनुगतात्मत्वस्वरूपेणाभेदः, तत्तदवस्थामेदेन च भेदोऽनुगतव्यावृत्तप्रतीतितस्सिद्ध इति कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकमेव तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदनसक्तिस्स्यादिति ।। ४४ ।।
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सम्मति. काण्ड 1, गा० ४५-४६ ..' एवं कथश्चिद्भेदाभेदात्मकस्य पुरुषतवस्य यथा वालादिकालरूपातीतकालावच्छिन्नकृतचौर्याऽस्पृश्यस्पर्शक्रीडादिदोषनिन्दाऽनागतवृद्धावस्थाकालीनसुखप्रसाधनानुकूलोत्साहाभ्यां सम्बन्धस्तथैव कथश्चिद्भेदाभेदात्मकस्य तस्य जात्यादिभिर्बालादिभावैश्च सम्बन्ध इति दृष्टान्तदार्शन्तिकोपसंहारार्थमाह
जाइ-कुल-रूव-लक्खण, सण्णा-सम्बन्धओ अहिगयस्स ।
बालाइभावदिट्ठ,-विगयस्स जह तस्स संबंधो ॥ ४५ ॥ जाति-कुल-रूप-लक्षण-सञ्ज्ञा-सम्बन्धतोऽधिगतस्य, तत्र जातिः पुरुषत्वादिका, कुलं प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वम् , रूपं चक्षुधित्वलक्षणम् , लक्षणं तिलकरेखादि सुखदुःखादि. सूचकम् , सज्ञा प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वम् , एभिर्यः सम्बन्धस्तदात्मपरिणामा, 'संबंधओं इत्यत्र सम्बन्धपदोत्तरं तृतीयार्थे तसिल्, तथा च जन्मत आरभ्य मरणपर्यन्ताऽवस्थायिमिर्जात्यादिभिर्यस्सम्बन्धः तेन, चक्षुषाऽधिगतो घट इत्यत्र यथा चक्षुराश्रित्य ज्ञातो घट इत्यर्थस्तथाऽत्रापि सम्बन्धमाश्रित्येत्यर्थः, 'अहिगयस्स' अधिगतस्य ज्ञातस्य, जात्यादिभिसर्वदा पुरुषस्य सम्बन्धभावात्तदात्मकत्वेनाऽभिभावभासविषयस्य, यद्वा संबंधओ' अत्र तृतीयार्थे बहुत्ववाचकस्तसिल् प्रत्ययः, सम्बन्धश्चात्र जन्यजनकभावः, तथा च जातिकुलरूपलक्षणसञ्जासम्बन्धैः 'अहिगयस्स' अभेदप्रत्यभिज्ञानविषयस्य, जन्मादिमरणपर्यन्त न कदापि जात्यादिस्वभावान् पुरुषः परिजहातीति तद्रूपैरभिन्नस्वभावस्येति यावत् । एतेनाभेदं प्रतिपाद्य मेदप्रतिपादनायोत्तरार्द्धमाह- बालाइभावदिट्ठविगयस्स' इत्यादि, बालादि. भावदृष्टविगतस्य, बालादिभावैदृष्टैः प्रत्यक्षगोचरैर्विगतस्य ध्वस्तस्य पूर्वबालादिपर्यायेण ध्वंसे सति तस्यार्थान्तरमावगमनलक्षणतयाऽवश्यमुत्तरयुवादिपर्यायेणोत्पाद इति वालयुवादिभावविनाशोत्पादात्मकस्य, पूर्वोक्तजात्यादिभिरभिन्नस्यापि वालयुवादितत्तत्पर्यायरूपेण पुरुषस्य भेदप्रतीतेर्मिनस्वभावस्य 'जहा तस्स संबंधो' यथा तस्य पुरुषस्य सम्बन्ध उक्तप्रकारेण मेदाभेदपरिणतिरूपः, चाक्षुषाद्यध्यक्षतोऽनुगतच्यावृत्तस्वरूपतया भेदाभेदात्मकत्वातीतेरिति ।। ४५॥ ___ आध्यात्मिकाध्यक्षतोऽपि तथाप्रतीतेस्तथाभूतमेव तद्वस्त्विति दृष्टान्तदार्शन्तिकोपसंहारद्वारेण प्रतिपादयन्नाह... तेहिं अतीताणागय,-दोसगुणदुर्गच्छणभुवगमेहिं ।
तह बंध-मोक्ख-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवस्त ।। ४६ ॥ 'तेहिं ' ताभ्याम् , ' अतीताणागयदोसगुणदुर्गच्छणभुवगमेहिं' अतीतानागतदोषगुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्यां यथाऽतीतदोषजुगुप्साऽनागतगुणाभ्युपगमाभ्यां कथवि. द्वेदाभेदात्मकस्य पुरुषद्रव्यस्य सिद्धिा, तथा दान्तिकेऽपि " तह बंध-मोक्ख-सुह
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सम्मति. काण्ड 1, मा. ४५
१८३ दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स" बन्धमोक्षसुखदुःखप्रार्थना तत्साधनोपादानपरित्यागद्वारेण बालयुवाद्यात्मकपुरुषद्रव्यदृष्टान्तसिद्धकथञ्चिद्भेदाभेदात्मकस्यैव जीवद्रव्यस्य भवति,तथाहिय एवाहं पूर्व बद्धस्स एवाहं साम्प्रतं मुक्त इत्यवाधितवन्धमोक्षसामानाधिकरण्यानुभवाद् य एवात्मा बद्धस्स एवात्मा मुच्यते इत्येकस्यैवात्मनो पूर्वोत्तरकालावच्छेदेन बन्धमोक्षौ भवत इति बद्धावस्थामुक्तावस्थानुगतस्वस्वरूपेण तस्याऽभेदा, इदानीं संसारकारागारे मायावंशजालीबद्धोऽहं न ततो मुक्तः, यद्वा इदानीं मुक्तोऽहं न रागद्वेषपरिणतिरज्जुबद्ध इत्यवाधितप्रतीतेर्बद्धत्वेन मुक्तत्वेन च तस्य भेदः, एवं य एवाहं पूर्व दुःख्यभूवं स एवाहमिदानीं सुखी सञ्जात इत्यवाधितसुखदुःखसामानाधिकरण्यप्रतीतिबलादहम्पदा वाच्यस्यात्मनो सुखदुःखावस्थानुगतस्यात्मत्वस्वरूपेणाभेदः, इदानीमहं दुखी न तु सुखी, यद्वाऽधुना मुख्यहं न तु दुःखीत्यबाधितप्रत्ययात्, यद्वा संसारसुखमपि मधुलिप्तखड्गधाराऽऽस्वादनजन्यसुखमिवायत्यां दुःखजनकत्वाद् दुःखमेवेति संसारे दुःख्ये. वाहं न तु सुखीत्यबाधितप्रत्ययाच, तस्य सुखित्वेन दुःखित्वेन च भेद इत्येवं कथविभेदाभेदात्मकस्य जीवद्रव्यस्य संसारकारावासात्मकभावबन्धो हेयः, अनल्पदुःखहेतुत्वाद्, द्रव्यकारावासबन्धवदित्यनुमानसिद्धहेयभावस्य बन्धस्य तत्साधनपरित्यागद्वारेण संसारकारावासतो मुक्तिरुपादेया, अनल्पसुखहेतुत्वाद्, द्रव्यकारावासमुक्तिवदित्यनुमानसिद्धोपादेयभावस्य मोक्षस्य च तत्साधनोपादानद्वारेण संसारवन्धो मे वृदयतु मुक्तिश्च जायवामित्याकारिका प्रार्थना सुखं मे भूयात् दुःखं च मा भूदित्याकारिका सुखसाधनोपादानद्वारा सुखस्य दुःखसाधनपरित्यागद्वारा दुःखस्य च सा भवति । न च जीवस्यैव पूर्वोत्तरभवानुभवितुरभावात्तद्वन्धाभावेन ततस्तन्मुक्तेरप्यभाव इति वाच्यम् , " उत्पादच्ययधौव्ययुक्तं सत् " इति सत्त्वान्यथानुपपत्योत्पादादित्रयात्मकस्य तस्यानाय. नन्तस्य सिद्धेः, तथाहि-अहं यते, जानाम्यहमित्यादिप्रत्ययादात्मसिद्धिः, न चाहम्पदवाच्यो देह इति वाच्यम्, मृतदेहवद्देहत्वभूतत्वमूर्तस्वरूपादिमत्त्वादिना देहस्याऽचेतनत्वाद्, न च भूतसमुदायपर्यवसितं चैतन्य, प्रतिदिनं तस्यान्याऽन्यत्वे पूर्वपूर्वदिवसानुभूतस्याऽस्मरणप्रसङ्गात् , नापि प्रत्येकपर्यवसितम्, करचरणाद्यवयव विगमे तदनुभूतस्य स्मरणाऽयोगात, देहस्येव चैतन्ये च बालस्य स्तन्यपानादो प्रथमप्रवृत्त्यऽभावप्रसङ्गस्स्यात्, प्रवृत्ति प्रतीष्ट. साधनत्वज्ञानस्य कारणीभूतस्याभावात् , इह जन्मन्यननुभूतस्येष्टसाधनत्वस्य स्मरणाऽ. योगाद, जन्मान्तरानुभूतस्य च तस्यानुभवितरि भस्मसाभूते सत्यन्येनाऽस्मरणात् । अथोक्तकार्यकारणभावस्यैवाभाव इति न च वाच्यम् , अनुभवादीनां प्रवृत्त्यन्तानां कार्यकारणभावस्येहैव जन्मनि निश्चितत्वात् , कारणाभावे कार्याभावस्य सुलभत्वात्, अन्यथा तु तत्त्वव्यवस्थैव न स्यात् , न चाहम्पदवाच्यानीन्द्रियाण्येवेति वाच्यम् , तेषामप्युक्तयुक्त्याs. चेतनत्वेनैव सिद्धे, किश्च योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहं तं स्पृशामीत्येककर्तृकघटचाक्षुषस्पार्शना.
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सम्मति• काण्ड १, गा० ४७ श्रयत्वस्य चक्षुरादावसम्भवात्तव्यतिरिक्तात्मसिद्धिः, न च मनोऽप्यहंपदवाच्यम् , तस्य चक्षुरादिवत् करणत्वेनैवानुमानासिद्धेः, ननु पूर्व भवानुभवोत्तरभवस्मरणयोरेककर्तृकत्वेन परलोकात्मसिद्धिर्भवतु, तत्पूर्वतरमवे तु कथं तत्सिद्धिरिति चेत्, उच्यते, पूर्वजन्मन्यपि प्रथमप्रवृत्त्यनुरोधेन तत्पूर्वस्य एवं तत्तत्पूर्वस्य जन्मनस्सिद्धेर्वीतरागजन्मादर्शनन्यायेनानादित्वेनैव तस्य सिद्धिः, अनादित्वे च सिद्धे आत्मा अनन्तः अनादिभावत्वात् , यनैवं तन्नैवं, यथा घट इत्यनुमानेनानन्तत्वसिद्धरनाद्यनन्तस्वसिद्धिरिति । एतत्सर्व पूर्वमेव साधितमिति किं पिष्टपेषणेन ? नन्वात्मनोऽनाधनन्तत्वसिद्ध्या स्थैर्य मेव सिद्धं स्यात् , न तूत्पादन्ययाविति चेत , मैवम् , य एवाहं पूर्व मनुष्यादिरूपेणासं स एवाहं देवरूपेणोत्पन्न इत्यवाधितप्रतीत्यैवोत्पादादित्रयात्मकतयैव सिद्धेः, न च मनुष्यदेवाद्यवस्थाः शरीरस्यैव न त्वात्मन इति नोक्तं युक्तमिति वाच्यम्, यतो मनुष्याद्यवस्थाप्रयोज्यो गुणविशेष आत्मनि घटेत , एतत्पक्षः पूर्वमेव निरस्त इति ग्रन्थगौरवभीत्या नाधिकमुच्यत इति ।। ४६ ॥ .. अथ कर्मपुद्गलसङ्घातोपगूढस्य जीवस्य कार्मणशरीरस्य चात्मत्वेन शरीरत्वेन स्वस्वगः ताऽसाधारणधर्मेण भेद इव जीवकर्मप्रदेशयोरविभक्तत्वाचद्रूपेणासाधारणधर्मेणाऽभेदोऽपीति प्रतिपादयितुं यथाऽविभक्तत्वं तयोस्तथा तत् सदृष्टान्तमाह
अण्णोण्णाणुगयाणं, इमं व तं व त्ति विभयणमजुत्तं ।
जह दुद्ध-पाणियाणं, जावंत विसेसपज्जाया ॥ ४७ ॥ __" अण्णोण्णाणुगयाणं " अन्योन्यानुगतयोरेकलोलीभावेन परस्परानुप्रविष्टप्रदेशयोरात्मकर्मणोः " इमं व तं व ति" इदं वा तद्वा' इति-' इदं कर्म अयश्चात्मा' इति 'विभयणमजुत्तं-विभजनं पृथक्करणं, अयुक्तम् अघटमानकम् , तयोः पृथकर्तुमशक्यत्वात् , न हि दृष्टान्तं विना दार्शन्तिकसिद्धिर्भवितुमर्हतीति तत्साधनाथं तत्र दृष्टान्तमाह-'जह दुद्ध-पाणियाणं' यथा दुग्धपानीययोः परस्परप्रदेशानुप्रविष्टयोः, किं परिमाणोऽयमविमागो जीवकर्मप्रदेशयोरित्याशङ्कायां तनिवृत्यर्थमाह- जावंत विसेसपञ्जाया' यावन्तो विशेषपर्यायाः-तावानिति शेषः, यावन्तो विशेषपर्यायास्तावत्सु अयमात्मा इदं कर्म इति विभजन कर्तुमशक्यत्वादऽघटमानकम् , अयम्भाव:-" एगमेगेणं जीवस्स पएसे अणंतेहिं गाणावर. णिजपोग्गलेहिं आवेढिए पवेदिए" इत्यागमवचनाद् वह्नितप्तायःपिण्डवत् सर्वात्मप्रदेशै. स्सह कर्मसम्बन्धः, न तु सर्पकञ्चुकवद् बहिस्त्वपर्यन्तभागवर्तिप्रदेशमात्रेण सहेत्यात्मकमणोः प्रतिप्रदेशमन्योन्यानुस्यूतत्वादन्त्यप्रदेशमभिव्याप्याऽविभागः, न चैवं तर्हि तद्विभागो न स्यादिति वाच्यम् , यतो हंसेन स्वचञ्या क्रियमाणक्षीरनीरविवेकवजीवेन विशुद्धतमध्यानानुभवचञ्चवा सोऽपि कर्तुं शक्यत एवेति । तावत्पर्यन्तमेवाऽविभाग इति नियमने को हेतुरिति चेद, उच्यते, अन्त्यविशेषपर्यन्ता एव सर्वविशेषाः, अन्त्य इति विशेषणाऽन्यथाऽनुपपत्ते, इतराव्यावर्तकत्वादिति भावः ॥ ४७ ॥
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सम्मति० काण्ड १, ० ४८-४९
ननु जीवकर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशे सति तदाश्रितगुणानामप्यन्योन्यानुप्रवेश स्स्यादित्याममतज्ञानादयो देहे स्युः देहगतरूपादयोऽप्यात्मनीति चेत्, तथास्तु का नाम नः क्षतिः, सिद्धान्ते तथैवाभ्युपगमात् । तदेवाऽऽह
66
वाजवा जे, देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि ।
"
ते अण्णोष्णाणुमया, पण्णवणिज्जा भवत्थस्मि ॥ ४८ ॥ 'वाइपजवा जे " रूपादिपर्याया ये, आदिपदेन रसगन्धस्पर्शादयो ब्राशाः, 'देहे ' शरीरे तदाश्रिता इति यावत्, ये च ' जीवदवियम्मि सुद्धम्मि' जीवद्रव्ये शुद्धे - आत्मस्वरूपेणात्मद्रव्ये शुद्धे, वस्तुगत्याऽऽत्मा नीरूप इत्यतो रूपाद्यविशिष्टे, तदाश्रिता इति यावत्, ज्ञानादयो गुणाः 'ते अण्णोण्णाणुगया ' ते अन्योऽन्यानुगताः, देहवर्तिरूपादयो देहाभिन्नत्वादात्मनि आत्मगतज्ञानादयो जीवाsभिन्नत्वाद्देहे 'पण्णवणिजा भवत्थम्मि' प्रज्ञापनीया भवस्थे- संसारिणि, ' गौरोऽहं जानामि ' इत्यादिधियस्तथैवोपपत्तेः, तस्यां प्रामाण्यनिश्वयस्य तु प्रागेव कृतत्वादिह नाधिकं तन्यते । तदेवं न ह्यूर्ध्वगतिस्वभावस्य तुम्विकादेर्मृदादिसम्बन्धव्यतिरेकेण समुद्रेऽधोगमनं दृष्टमित्यतः पुद्गलोपष्टम्भव्यतिरेकेणोर्ध्वगतिस्वभावस्वात्मनोऽन्यदिग्गमनासम्भवेन भवान्तरे स्थूलशरीरसम्बन्धित्वं न स्यादिति तदन्यथाsनुपपत्या स्थूलशरीरसम्बन्ध प्रयोजकतया पौगलिक कार्मणाख्यसूक्ष्मशरीरस्यान्तरालेऽप्यभ्युपगन्तव्यस्वे नात्मकर्मप्रदेशयोरन्योन्यानुगमात्तदाश्रितगुणानामप्यन्योन्यानुप्रवेश आमवक्षमं सिद्ध इति । यद्वा भक्त्थम्मि ' इत्यत्राकारप्रश्लेषादभवस्थे, असंसारिणि, न च संसारावस्थायां देहात्मनोरन्योन्यानुबन्धाद्भवतु देहे चैतन्यादिमवम्, आत्मनि च रूपादिमत्त्वम्, सिद्धावस्थायां तु कथं तत्प्राज्ञैर्मान्यम्, तत्र देहाभावेनान्योन्यानुप्रवेशाSभावात्तयोरिति वक्तव्यम्, तदवस्थायामपि देहाद्याश्रितरूपादिग्रहणपरिणतज्ञानदर्शनपर्यायद्वारेणात्मनस्तथा विधत्वात्तथाव्यपदेशसम्भवात् । अयम्भावः तत्र शरीरस्याभावेऽपि कथञ्चिद्भेदाभेदस्य सम्बन्धव्यापकत्वेन ज्ञानज्ञेययोरपि विषयविषयिभावसम्बन्धव्यापकः कथञ्चिद्भेदाभेद एवेति मुक्तात्मगतज्ञानदर्शनयोर्देहाश्रितरूपादिविषयकत्वेन कथञ्चिंद्रपाभिनत्वम्, तथा च तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति नियमेन रूपाद्यभिज्ञानामित्रे मुक्तात्मनि रूपाद्यभिन्नत्वेन रूपादिमत्वमपि ज्ञानाद्यभिनाद्विषयीभूताद्रूपादेरभि ने देहे ज्ञानादिमत्वमपि च सम्भवत्येव । अत एव देहात्मनो रूपादिज्ञानादीनाञ्श्चान्योन्यानुप्रवेशात्कश्चिदेकत्वमनेकत्वं मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वश्च सिद्धिकोटिमुपढौकत इति ॥ ४८ ॥ आत्मन एकत्वानेकत्वप्रसाधनायैवाह
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एवं एगे आया, एंगे दंडे य होइ किरिया य । करणविसेसेण य तिविजोग सिद्धी वि अविरुद्धा ॥ ४९ ॥
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. सम्मति• काम , गा• ५. 'एवं ' अनन्तरोदितप्रकारेण 'एगे आया' एक आत्मा, यस्मिन् येषामनुप्रवेशस्ते तदात्मका एवेति व्यालेर्मनो-वाक्-कायद्रव्याणामात्मन्यनुप्रवेशान्मनःप्रभृतयः आत्मस्वरूपा एव न तद्वयतिरिक्तास्त इत्येक आत्मा, अत एव दण्डादीनामेकत्वमाह “एगे दंडे य होइ किरिया य" एको दण्ड एका क्रिया च भवति, मनोवाकायेषु दण्डक्रियाशब्दौ प्रत्येकममिसम्बन्धनीयौ, मनोदण्ड-वचनदण्ड-कायदण्डभेदेन त्रिविधस्यापि दण्डस्य, मनःक्रिया-वाकक्रिया-कायक्रियामेदेन च त्रिविधाया अपि क्रियाया एकात्माऽभिन्नस्वादेको दण्डः, एका च क्रिया भवति । अत एव स्थानाख्यतृतीयाङ्गैकस्थाने " एगे आया (सू० २) एगे दंडे (सू० ३) एगा किरिया (सू० ३) इत्यादिसूत्रोक्तमपि सङ्गच्छते । आत्मन एकत्वं प्रतिपाद्यानेकत्वप्रतिपादनायोत्तरार्द्धमाह-“करणविसेसेण य विविहजोगसिद्धी वि अविरुद्धा" इति, करणविशेषेण च मनो-वाक्-कायात्मककरणत्रयेण सह कथञ्चिदभिन्नत्वात्कर्वभूतस्यात्मनोऽपि त्रिविधयोगरूपत्वात् त्रिविधयोगसिद्धिरप्यात्मनो. ऽविरुद्धैव, तत एकस्य सतस्तस्य त्रिविधयोगात्मकत्वादनेकत्वमित्यात्मा नैकान्तकस्वरूपः किन्त्वेकानेकात्मकत्वादनेकान्तस्वरूप एवेति सिद्धम् ।। ४९ ॥
नन्वेवमात्मपुद्गलयोरन्योऽन्यानुप्रवेशादेकात्मकत्वे वाह्याभ्यन्तरविभागामाव: प्रसज्येत, ओमिति चेत् , तर्हि अन्तहर्षविषादायनेकविवत्मिकमेकं चैतन्यम् , बहिर्वाल-कुमार-यौवनायनेकावस्थात्मकमेकं शरीरमध्यक्षतः संवेद्यत इत्यस्य विरोधस्स्यादिति चेत् , सत्यम् , न च युक्तम्, आत्मभिन्नत्वाभिन्नत्वाभ्यां तदभावेऽपि मानसत्वामानसत्वाभ्यां तय. पदेशात् , तदाह--
ण य बाहिरओ भावो, अभंतरओ य अस्थि समयस्मि ।
नोइंदियं पुण पडुच होइ अभंतरविसेसो ॥ ५० ॥ पूर्वार्द्धस्यायमर्थः-सर्वस्यैव मूर्ताऽमृर्तादिरूपतयाऽनेकान्तात्मकत्वान्न च बाह्यो भावः, अभ्यन्तरश्च अस्ति समये, अयं बाह्यः, अयश्चाभ्यन्तर इति जैनसिद्धान्ते वास्तविकविभागाभावात् । नन्वेवं तर्हि किं प्रतीत्याऽभ्यन्तर इति व्यपदेश इत्याशङ्कायां तन्निवृत्त्यर्थमुत्तरार्द्धमाह-" णोइंदियं पुण पडुच्च होइ अन्मंतरविसेसो" इति, 'अब्भतरो भावो' इत्यप्यत्र पाठः 'णोइंदियं पुण पडुच्च-नोइन्द्रियं मनः पुनः प्रतीत्य 'होइ' भवति " अभंतरविसेसो" अभ्यन्तरविशेषः, अयमभ्यन्तरो भाव इति व्यपदेशः, तस्यात्मपरिणतिरूपस्य पराऽप्रत्यक्षत्वात् , अस्थायमभिप्रायः-भावमनस उपयोगरूपमननव्यापारलक्षणत्वेन तस्य चात्मपरिणतिरूपत्वेन तद्रूपे अन्तहर्ष-विषादायनेकविवर्तात्मकचैतन्ये द्रव्य. मनोजन्यमानसप्रत्यक्षरूपस्वसंवेदनविषयत्वेनाभ्यन्तरव्यपदेशः, तदविषये तु बाल-कुमाराद्यवस्थात्मकदेहादौ बाहोन्द्रियजन्य प्रत्यक्षविषयत्वाद् बाह्यव्यपदेश इति पदार्थत्वव्यापकमूर्तामूर्तोभयरूपत्ववाद्यईन्मतेऽपि बाह्याभ्यन्तरविभागो नानुपपन्न इति । अत्रेदं चिन्त्यम्
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सम्मति• काम , गा० ५.
१८७ यद्यन्मूर्त तत्तदुत्पद्यते,घटवत् ,मूर्तश्चात्माऽभ्युपगतस्स्याद्वादिभिः,तत उत्पमस्स्यादिति चेत्, मेवम् , तथाव्यालेरभावात् , मनस्येव व्यभिचारात् । एतेन मूतत्वादात्मा साक्यवस्स्यात् । ओमिति चेत्तर्हि घटवत्तस्य विनाशस्स्यादित्यारेकापि निरस्ता, मनसो मतत्वेऽपि सावयवत्वाभावात् । किश्चाष्टकर्मपुद्गलसबातोपगूढत्वात् सशरीरत्वाच भवस्थात्मनो मूर्तत्वं, तेन च. सावयवत्वमभ्युपगतं स्याद्वादिभिः, न तु स्वरूपत इति शरीरानुगतात्मस्वरूपेणैवोत्पत्तिस्त. नियतविनाशश्चापादनीयस्स्यात्, न तु शुद्धात्मत्वस्वरूपेण, तद्रूपेणामूर्त्तत्वाभ्युपगमात् , तथा च शरीरानुप्रवेशप्रयुक्तात्मीयवालकुमाराद्यात्मकपूर्वोत्तरपर्यायाभ्यामुत्पत्तिविनाशावभ्यु:: पगम्येते एवेत्युक्तप्रसङ्गो तदाभासावेव । एतेन देहात्मनोमिथोऽनुप्रवेशे तनुवदात्मनस्सा. वयवत्वं स्यादित्यापादनमपि कथचिदिष्टापत्त्या निरस्तम् । अत एव देहवदेवात्मनस्सावय. वत्वेन कार्यत्वापत्तिरपि निरस्ता, प्रागसतः सत्तालामरूपस्य कार्यत्वस्य त्रिकालानुगते. शुद्धात्मद्रव्येऽसम्भवात् , तत्तद्वालकुमाराद्यवस्थाविशिष्टात्मनि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारो पादानरूपस्य तत्वत्पर्यायनियतस्य च तस्याऽविरोधात्, न च सावयवत्वे तस्य प्राक्प्रसिद्ध. समानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिरित्यपि वाच्यम्, तथा व्याप्यसिद्धेः, षटादौ व्यभिचारात्, मृत्पिण्डाकपालिकानिष्पत्तिः, ततः कपालनिष्पत्तिः, ततः कपालद्वयसंयोगाद् घटोत्पत्तिरिति नैयायिकप्रक्रिया न प्रामाणिकी, यत उक्तक्रममन्तरेणैव मृत्पिण्डात्संस्थानविशेषरूपेण परिणतात् कपालद्वयसंयुक्तावस्थात्मकस्य घटस्योत्पत्तिस्साक्षाद् दृश्यते, अर्थात् मृद्रव्यमेव मृत्पिण्डपर्याय पूर्वतन परित्यज्योचरघटपर्यायरूपेण परिणमत इति परिणामवाद एव प्रमाणकोटि. मुपढौकते । अत एव सूच्यग्रेण त्रिचतुःपरमाणूनां विश्लेषो यत्र तत्राशेषावयत्रविशिष्टपर्याय त्यत्वाऽवशिष्टावयवविशिष्टपर्यायतयैवोर्ध्वतासामान्यात्मकघटस्य परिणमनं भवति, न तु तत्रावयव विभागपूर्वकद्रव्यारम्भकसंयोगनाशाद् द्वथणुकादिनाशक्रमेण घटस्य नाशः । तदनन्तरं पुनरपि परमाणुक्रियादिक्रमेण द्वथणुकाद्युत्पत्तिद्वारा घटान्तरोत्पत्तिा, अन्यथा पुद्गलानां विचटनचटनस्वभावत्वेन प्रतिक्षणं कतिपयपरमाणुसंश्लेषविश्लेषभावाद् घटादावपि स्थैर्याऽ. सिद्धिप्रसक्तिरिति तदृष्टान्तेन वस्तुत्वव्यापकं क्षणिकत्वं साधयन् बौद्ध एव विजयेत; अस्मन्मते तु तत्तत्पर्यायपरावृत्तावपि पूर्वापरपर्यायानुगतोलतासामान्यात्मकघटस्य स्थैर्य मेष, अत' एव प्रतिक्षणोत्पादादिलक्षण्यसिद्धिः, एतेन तत्रापि घटादयो न नश्यन्ति, कतिपयावयवनाशेऽप्यरशिष्टावयवानाश्रित्य कार्यावस्थानसम्भवात् , अन्यथा प्रत्यभिज्ञानाद्यनुपपत्तिरेवेति मीमांसकैर्यदुच्यते, तदपि निरस्तम् , अवयवावयविनोः कश्चिदभिन्नत्वेन कतिपया. वयवविश्लेषे तद्विशिष्टतया विनाशस्य शिष्टावयवविशिष्टतयोत्पत्तेश्वावश्यम्भावात् , प्रत्यभिज्ञाने तु समागसन्तत्यनुगाम्यूर्खतासामान्यात्मकघटविषयकमेवेति न किञ्चिदप्यनुपपन्नं जिनानुमानाम् । स्यादेतत् मिथोऽनुप्रवेशेनाविभक्तस्वरूपतया देहात्मनोरभेदे तनुबत्तनुमतोऽपि चाक्षुषप्रत्यक्षापत्तिरिति चेत्, तदपि तत्वानभिज्ञतासूचकमेव, यथाऽभावप्रतियोगिकाऽमावा. धिकरणकामावस्याधिकरणात्मकत्वमिति नियमाद् घटामावपटाभाव मेदयोरभिन्नत्वेन घटा.
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सन्मति० काण्ड 1, गा• ५. मावस्वेन रूपेण वटामाक्शाने तेन रूपेण पटाभस्वमेदस्य मानमिष्यते, न तु पटानाममेदस्वरूपेण, तेन रूपेण तज्ज्ञानम्प्रति प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वात् , तस्य च पूर्वममावात, तथा देहत्वेन रूपेण देहचाक्षुषज्ञामेऽपि तेन रूपेण देहाभिमात्मनो भानं भवति, न त्वात्मत्वरूपेण, तद्रूपेणात्मनो नीरूपत्वेन चाक्षुषप्रत्यक्षाऽयोग्यत्वादेवेति । एतेन वपुरवयवच्छेदे आत्मीयावयवच्छेदाभ्युपगमे छिन्नावयवे पृथगात्मत्वप्रसक्तिः, अनम्युपगमेऽन्यो. न्यानुप्रवेशत्वव्यापात इत्युभयतः पाशारज्जुरिति निरस्तम्, छिन्नावयवे कम्पोपलम्मान्य. याऽनुपपल्या छेदस्य एकान्तच्छिनावयवस्य देहसम्बद्धात्मप्रदेशेऽननुप्रवेशे सति तत्रात्मान्त. रत्वप्रसक्तिदोषभीत्या पद्मनालतन्तुवत् शरीरातुप्रविष्टात्मप्रदेशसम्बद्धत्वादच्छेदस्य चाम्युपगमात् । अदृष्टनिमित्त शरीरानुगतात्मप्रदेशैस्सह छिन्नावयवप्रविष्टप्रदेशानां पश्चात्सङ्घटनमप्य. विरुद्धम्, तत्रोत्तरकालं कम्पानुपलब्धिलिङ्गसद्भावात् । न च छिन्नमागस्थान्यत्र गमनात्तत्र कम्पादर्शन मिति वाच्यम् , प्रतिदेहमात्मन एकत्वेन शेषस्यापि देशान्तरगमनापत्तेः । अथ तत्रैव विनष्टत्वात्कम्पादर्शनमिति चेत् , तबशेषस्यापि विनाशप्रसक्तिः, आत्मन एकत्वेनाविभागरूपत्वाद, तस्माच्छिन्नप्रदेशानामन्यत्रागतेस्तत्राऽसत्त्वादविनष्टत्वाच खण्डिततनावनुप्रवेशोऽवसीयते, गत्यन्तराऽभावात् , न चाऽनेकपाच्छिन्नावयवसम्बद्धाऽन्तरालवात्मप्रदेशानां कोऽपि पुमान् हस्तपादादिना केनापि शस्त्रेण वाऽऽबाधा व्यावाधां वा हुतभुजा दग्धतां वा कर्तुं शक्नोति, शस्त्रायगोचरत्वात् , बादरपुद्गलस्यैव तद्गोचरत्वदर्शनात् । उक्तन पश्चमाङ्गेऽष्टमशतके तृतीयोद्देशके-अह भंते ! कुम्मे कुम्भावलिया गोहा गोहावलिया गोणा गोणावलिया मणुस्से मणुस्सावलिया महिसे महिसावलिया एएसिणं दुहा तिहा का संखेनहा वा छिमाणं जे अंतरा तेऽवि णं तेहिं जीवपएसेहि फुडा, हंसा फुडा । पुरिसेणं मंते ! ते अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्टेण वा कलिंचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अभयरेण का तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदमाणे वा विच्छिदमाणे वा अगणिकाएण वा संमोडहमाणे देसि जीवपदेसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पायइ, छविच्छेदं वा करेइ, नो इणढे समडे, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ, इति । प्रदेशानां शबलावयवन्यायेन सम्बद्धत्वादेव चैकस्यैव महर्द्धिकदेवस्य स्वीयप्रदेशविशिष्टानेकरूपनिर्माणेन परस्परं सद्रामकरणमपि युज्यते, नान्यथा, उक्त पश्चमानेऽष्टादशशतके सप्तमोद्देशके 'देवेणं भंते ! महड्डिए जाव महेसक्खे स्वसहस्सं विउवित्तए पभू, अनमन्त्रेणं सद्धिं संगाम संगामित्तए, हंता पभू ! ताओ णं भंते ! बोंदिओ किं एकजीवफुडाओ अणेकजीवफुडाओ, गोयमा! एंगजीवफुडाओ णो अणेकजीवफुडाओ, तेसि णं भंते ! नोंदीणं अंतरा किं एगजीवकुडा अणेगजीवकुडा, गोयमा ! एगजीवफुडा, नो अणेगजीवफुडा। पुरिसेणं भंते ! अंतरेणं हत्थेण वा एवं जहा अहमसए नतिए उद्देसए जाव नो खलु तत्थ सत्थं संकमह" इति । एतेन प्ररोहाया
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सम्मति काण्ड १ ० ५०
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पादनमषीष्टतया व्याख्यातम्, शरीशरमच्छेदादिविषये इयांस्तु विशेष:-शरीरस्थ हिनावयवस्वेनोत्पत्तिस्तच्छेदः, आत्मच्छेदस्तु वपुस्सम्बद्धात्मप्रदेशानां कतिपयानां शृङ्खलाarrrrrot foolarवेऽनुप्रवेश इति, छिनशरीरावयवप्ररोहस्तजातीयोत्पत्तिः, आत्मप्रदेश प्रहस्तु तत्रैवानुप्रवेश इति । अत एव सावयवत्वमुत्पत्तिमस्त्रं विनाशिवं चोह्यम् गृहान्तर्वर्तिप्रदीप प्रभावत् सङ्कोचविकाशशालित्वेन तस्य न्यायप्राप्तत्वात् । अयम्भावः - य एव कुन्ध्वादिशरीरस्थ आत्मा अल्पाल्पतरततच्छरीरपरिमाणनियतपरिमाणपरिणतिमान् स एव हस्त्यादिशरीरस्थो महन्महत्चश्वतच्छरीरपरिमाण नियतपरिमाणपरिणतिमान् भवतीति कारणीभूततत्तच्छरीरनामकर्म परिणतिवैचित्र्यप्रभवतच्छरीरपरिमाणनियततत्तदात्मपरिमाण परिणतिवैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्याऽऽत्मप्रदेशानामल्पाधिकक्षेत्रावगाहित्वलक्षणसङ्कोचविकाशशालित्वमेकस्यैव प्रदीपस्याल्पऽल्पतरमहन्महतगृहारमकाश्रय वर्तित्वान्यथानुपपत्त्या तदवयवानां सङ्कोचविकाशशालित्ववदभ्युपगन्तव्यम् । एतेनात्मा विधुर्नित्य महत्त्वाद्, गगनवदित्यपि निरस्तम्, आत्मपरिमाणपरिणतिविशेषे शरीरनामकर्मणो हेतुत्वेन तज्जन्यत्वात्तस्य नित्यत्वासिद्ध्या हेतोस्स्वरूपासिद्धत्वात् । नन्वेवं तत्तच्छरीरपरिमाण मेदेनैकस्यैवात्मनः परिमाण भेदाभ्युपगमे नानात्वापत्तिः, परिमाणभेदे द्रव्य मेदनियमादिति चेत्, मैवम्, यथा रूपनाशं प्रति न नियमेन समवायिकारणनाशस्य हेतुत्वं, पीलुपाकवादिनये परमाणुरूपनाशस्य पिठरपाकवादिनये चावयविरूपनाशस्याश्रयनाशमन्तरेणापि विलक्षण तेजस्संयोगलक्षणपाकतस्सम्भवात् तथा परिमाणनाशे प्रत्यपि नियमतो नाश्रयनाशस्य हेतुत्वम्, तदाधारभूतद्रव्ये सत्येवाहृताहारद्रव्योपचयापचयाभ्यामषगाहनापरिणामविशेषजननद्वारा पूर्वपरिमाणनाशस्य परिमाणान्तरोत्पादस्य च सम्म वादित्येकस्व घटे श्यामरक्तादिरूपमेदेऽपि घटामेदवत् परिमाणमेदेऽप्याऽऽत्माऽभेदोपपत्तेः । ननु तथापि पूर्वपरिमाणविशिष्टस्यात्मन उत्तरपरिमाणविशिष्टस्य चात्मनो विशेषणभेदाद्भेदोऽपरिहार्य इति चेत्, न, यतो विशिष्टरूपेण भेदश्शुद्धरूपेण चाऽभेद इष्ट एवेति नामयोर्विशेषः । इत्थमेव च कथञ्चित्क्षण मेदसमर्थनं सङ्गच्छते, एतेन बाल्युवशरीरादेरवात्मन उत्पत्तिस्यादित्यपि निरस्तम्, यतस्त्वाधिकरणक्षण ध्वंसानधिकरणक्षणसम्बन्धरूपा सातपर्यायनियता शुद्धात्मद्रध्ये न सम्भवत्येव, स्वपदेन शुद्धात्मद्रव्यग्रहणे तदधिकरणक्षणसाधिकरणमेव सर्वोऽपि क्षण इति तदधिकरणक्षण ध्वंसानधिकरणक्षणस्याऽप्रसिद्धे', विशिष्टत्वाधिकरण क्षण ध्वंसानधिकरण क्षण सम्बन्धरूपा तु सात्मद्रव्येऽपि सम्भविनी तत्रियतविनाशश्च न निषिध्येते, तत्र विशिष्टस्वपदेन बालयुवशरीरादिपरिमाणनियतपरिमाणविशि शत्मद्रव्यादिग्रहणसम्भवादिति । एतेन देहात्मनोरन्यान्यानुप्रवेशित्वे देहस्य भस्मसा भावे देहिनोऽपि तथात्वप्रसक्तिरिति निरस्तम्, क्षीरनीरयोरन्योन्यानुप्रवेशित्वेनैकत्वेऽपि क्षीरे क्वाथ्यमाने प्रथम कक्षयेऽपि क्षीराऽक्षयदर्शनेन व्यभिचारात् न च तत्र लक्षण
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१९.
सम्मति० काट 1, गा० ५१ मेदेन मेदाकक्षयेऽप्यपरस्य क्षय इति वाच्यम् , देहात्मनोरपि " भोगायतनं चेष्टाऽऽश्रयं वा शरीरम्" ज्ञानाधिकरणमात्मेति नैयायिकैरपि लक्षणभेदस्योक्तत्वात् । एतेन देहात्मनो. रस्योन्यानुप्रवेशित्वेऽप्याकाशवदात्मनि न शरीरपरतन्त्रतेत्यपि निरस्तम्, तन्निमित्तस्य मिथ्यात्वादेरात्मनि सद्भावात् , आकाशे च तदभावात् , न च शरीरायत्तत्वे सति तस्य मिथ्यात्वादिबन्धहेतुभिर्योगः, तस्माच तत्प्रतिबद्धत्वमितीतरेतराश्रयत्वमित्यपि वाच्यम्, अन्योन्यकार्यकारणभावबलेन पारतन्यमिथ्यात्वप्रवाहानादित्वाभ्युपगमात् , बीजाहरवत् । न च शरीरद्वाराऽऽत्मनो रूपित्वे आद्यप्राणसंयोगलक्षणजन्मनः प्राक् शरीराभावेनात्मनो. ऽरूपित्वं स्यादिति वाच्यम् , भवान्तरस्थूलशरीरसम्बन्धान्यथाऽनुपपत्तित आभवक्षयमात्मनस्सदा तैजसकार्मणशरीरसम्बन्धित्वेन तद्वारा रूपित्वोपपत्तेः । तदेवमात्मा स्वस्वरूपतोऽमूर्तस्सन् कर्मपुद्गलैस्सहैकलोलीमावेनाविभक्तस्वरूपतया मूर्तोऽपीति कथञ्चिन्मूर्तामोंभयस्वरूपोऽभ्युपगन्तव्य इति नाधिकं विस्तरभयाद्वितन्यते ॥ ५० ॥ ... “अथ स्वेतरनयनिरपेक्षेण द्रव्यार्थिकेन पर्यायाथिकेन चैकान्तनयेन स्वस्त्रमतानुसारिणी यथा प्ररूपणा क्रियते तथा प्रदर्शयितुमाह
दव्व हियरस आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ । - बीयस्स भावमेत्तं न कुणह ण य कोइ वेएह ॥ ५१ ॥ . 'दट्ठियस्स' द्रव्यास्तिकस्य द्रव्यास्तिकनयस्य, इयं प्ररूपणेति शेषः, 'आया पंधह' आत्मा कालत्रयस्थाय्येकात्मा द्रव्यात्मका 'बंधइ' बध्नाति सम्बद्धीकरोति, किमिति कर्माकाहायामाह-कम्म' कर्म, तत्फलं स्वात्मैव भुते, किम्बाऽन्य इत्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह'फलं च वेएई फलश्च तत्कार्यसुखदुःखात्मकं वेदयते अनुभवति, य एवात्मा यत्कर्म करोति स एव तत्फलं मुले, तन्मते तत्कर्मकर्तुस्तत्फलभोक्तुश्चक्यात् । नन्वेवं तर्हि पर्यायार्थिकनयोऽपि किं तथैवानुमनुते किं वाऽन्यथेत्याशङ्कायामुत्तरार्द्धमाह-बीयस्स' द्वितीयस्य पर्यायार्थिकनयस्य इयं प्ररूपणेति शेषः । 'भावमेत्तं ' भावमात्रं संव्यवहारोपयुक्तपूर्वोत्तरक्षणिकतत्तज्ज्ञानलक्षणप्रवृत्तिसन्ताने आलयविज्ञानरूपेण सन्तन्यमानान्यान्यात्मैव, न तु स्थिरात्मा, अयम्भाव:-यत्सत्तक्षणिकं, यथा विद्युदादि, सँश्चात्मा, ततस्स क्षणिक इति क्षणिकविज्ञानात्मक एवात्मा, न तु ज्ञानाश्रयः, तन्मते गुणगुणिभावाभावात् । अत एवं 'ण कुणइ ण प कोइ वेएइ न करोति न च कश्चिद्वेदयते, तत्फलं भुते । पर्यायनयो हि द्रव्यं स्थिरीभूतं नाभ्युपगच्छति, किन्तु पर्यायमेव, स चोत्पादव्ययलक्षण इत्युत्पत्तिक्षणाव्यवहितोचरक्षणविनाशशालिनो विज्ञानरूपात्मनः कर्मकर्तृत्वतदनुभवितृत्वाऽयोगात् ॥ ५१ ।। : ननु द्रव्यार्थिकनये आत्मा बध्नाति कर्म फलश्च वेदयत इत्युक्तम् , न चैतावता य एवात्मा कर्मक; स एव तत्फलभोक्ता चेति निश्चीयते, देवदत्तात्मा कर्म बध्नाति चैत्रात्मा
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सम्मतिः काण्ड , गा० ५२ तत्फलं ते इत्येतावताऽपि चरितार्थत्वात् , उभयोरप्यात्मत्वाऽविशेषादित्याशक दूरीकृत्य प एव कर्ता स एव मोक्ता इत्येतत्प्रतिपादयितुम् , एवं न करोति न च कश्चिद्वेदयते इत्युक्त्या पर्यायास्तिकनयमते उत्पत्तिसमनन्तरध्वंसिनः कर्तृत्वभोक्तृत्वाऽसम्भव इत्युक्तम्, तरिक तन्मते कर्ता भोक्ता च नास्त्येवेति चेत्, अस्त्येव, किन्तु यः कर्ता स न भोक्ता, यतः कर्तृत्वमुत्पत्तिक्षणे भोत्तृत्वश्च तदव्यवहितोत्तरक्षणे, तदानीं च पूर्वक्षणवर्तिनः कर्तुः क्षणिकत्वेन विनष्टत्वात् , किन्त्वन्य एवेत्येतत्प्रतिपादयितुं चाऽऽह
दवढियस्स जो घेव, कुणइ सो चेव वेयए णियमा। __ अण्णो करेइ अण्णो, परिभुजइ पज्जवणयस्स ॥ ५२ ॥ 'दघट्टियस्स' द्रव्यास्तिकस्य, एतदनन्तरं मत इति शेषा, 'जो चेव कुणइ सो व वेयए णियमा' य एव च करोति स एव च वेदयते तत्फलं भुङ्क्ते नियमात् , तन्मते आत्मनो नित्यत्वात् , 'पजवणयस्स' पर्यायनयस्य, अत्रापि मते इति शेषः । 'अण्णो करेइ अण्णो परिझुंजइ' अन्यः करोति अन्यश्च परिभुङ्क्ते, वस्तुमात्रस्य क्षणिकत्वेनात्मनोऽपि प्रतिक्षणमन्यान्यत्वात् , यस्मिन् क्षणे उत्पद्यते तस्मिन्नेव क्षणे करोति, "भूतियेषां क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यते " इति वचनात् , तदव्यवहितोत्तरक्षणे स विनष्टः, तदन्य आलयविज्ञानसन्तानगतस्वरूपेणोत्पन्नश्च तत्फलमनुभवति ।। ५२ ।।
अथ द्रव्यास्तिकनये एकान्तनित्यात्मनि वर्तमानकालावच्छिन्नकर्मकर्तृत्वस्वभाव इवोतरकालावच्छिन्नकर्मकर्तृत्वस्वभाव इदानीमस्ति न वा, अस्ति चेत्, तदा वर्तमानकाल एवोत्तरकालीनकर्मसम्बन्धात्मककार्योत्पत्तिप्रसङ्गः। अथ कारणान्तरविरहानोक्तप्रसङ्ग इति चेत्, तर्हि कारणान्तरेण किश्चिदुपक्रियते न वा, उपक्रियते चेत्, तर्हि स उपकारः पूर्वमस्ति न वा, अस्ति चेत्, तर्हि पूर्वमपि कर्मसम्बन्धात्मककार्योत्पत्तिप्रसङ्गः, नास्ति चेत्, तदा स उपकारस्वभावः पूर्व नास्ति पश्चादुत्पन्न इति स्वभावाऽनित्यत्वेन तद्वद्धर्मिणोऽप्यनित्यत्वप्रसङ्गः । अथ नोपक्रियते, तर्हि कारणान्तरापेक्षा व्यथैव । अथ सम्भूय कार्य क्रियत इत्येतावता कारणान्तरापेक्षेति चेत् , तर्हि सम्भूयकार्यकरणस्वभावः पूर्वमस्ति न वा, अस्तीति चेत् , तर्हि पूर्वमपि कर्मबन्धात्मककार्योत्पत्तिप्रसङ्गः, अथ पूर्व नास्ति, इदानीमस्तीति चेत्, तर्हि स्वभावमेदेन तद्धर्मिणोऽपि भेदप्रसङ्गः, अत एव न वेति द्वितीयनिषेधपक्षोऽपि न युक्तः, उत्तरकालावच्छिन्नकर्मकर्तृत्वस्वभावः पूर्व नास्ति पश्चादस्तीति तत्तदभावरूपविरुद्धधर्माध्यासाद्धर्मिणो भेदप्रसक्तेः, तस्मादेकान्तनित्यात्मनि कर्मकर्तृत्वस्वभावो नोपपद्यते, एवमुक्तयुक्त्यैकान्तनित्ये फलभोक्तृत्वस्वमावोऽपि नोपपद्यत इति । एवं पर्यायनयेऽपि प्रतिक्षणमात्मनोऽन्यान्यत्वे य एवात्मा कर्म करोति स एव तत्फलं भुङ्क्ते इति व्यवहारवाधस्स्यात् , अथ पूर्वापरविज्ञानव्यक्त्यात्मकात्मभेदेऽप्यालयविज्ञानसन्तानैक्थादेव स व्यवहार इति वेत् तर्हि मजयन्तरेणात्मैवाभ्युपगतस्स्यात् , तदेवमियं परस्परनिरपेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक
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सम्मति० काम , गा. ५३ स्मोतिन मुक्ता, निराकासबोधाऽजनकत्वेनाप्रमाणभूतत्वादिति सा न स्वसमयप्ररूपणा, किन्तु परस्परसापेक्षततमयसापेक्षसप्तमङ्गयात्मकस्याद्वादोक्तिरेव युक्का, शान्ताकालतया प्रोचरत्वेन निराकासाबाध्यबोधजनकत्वादिति सैव स्वसमयप्ररूपणेत्युपपादनायाह-या द्रव्यपर्यायोभयात्मके आत्मादिवस्तुनि पर्यायनयप्रतिपादितार्थानां सत्यत्वसाधने द्रव्यापिंकनययुक्तयो द्रव्यार्थिकनयव्युत्पादितार्थानाच सत्यत्वसाधने पर्यायार्थिकनययुक्ता यस्तुल्यवदेवोज्जृम्भन्त इति नैका क्वचन पक्षपातो विधेयः, किन्तु स्याद्वादेनोमयोपग्रह उररीकर्तव्य इति प्रतिपादनायाह
जे वयणिववियप्पा, संजुज्जतेसु होति एएसु।
सा ससमयपण्णवणा, तित्थयराऽऽसायणा अण्णा ॥ ५३॥ 'जे वयणिजवियप्पा' ये वचनीयविकल्पा:-वक्तुं योग्यं वचनीयमऽभिधेयं तस्य विकल्पास्तत्प्रतिपादका वचनप्रकाराः 'संजुअंतेसु' संयुज्यमानयोः अन्योन्यसापेक्षयोः 'एएसु' अनयोः द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयवाक्ययोः 'होति' भवन्ति, ते च स्यान्मृर्व एवात्मा ।। स्यादमूर्त एवात्मा ।२। स्यादवक्तव्य एवात्मा ।३। स्यान्मूर्त एव स्यादमूर्स एवात्मा।४। स्यान्मूत्ते एव स्यादवक्तव्य एवात्मा ५/ स्यादमूर्त एव स्यादवक्तव्य एवात्मा 1६। स्यान्मूर्त एव स्यादमूर्त एव स्यादवक्तव्य एवात्मा ७ एवं स्यानित्य एवात्मा ।। स्यादनित्य एवात्मा ।२। इत्यादयः। यत्र व्युत्पन्नपुरुषापेक्षया भङ्गद्धयप्रवृत्तिस्तत्रापि तदधीनसप्तमङ्गीप्रवृत्तिरपि वत्कृतात्पर्यभावाद् भावनीया, तत्प्रवृत्तिमन्तरेण स्यानित्यत्वस्याद. नित्यत्वादिस्यादेकत्वस्यादनेकत्वादिसप्तधर्मविषयकबोधस्यैवानुत्पत्तेः। ' सा ससमयपण्णवणा' सा एषा स्वसमयप्रज्ञापना सम्यगवैपरीत्येनेयन्ते अय्यन्ते वा ज्ञायन्ते जीवादयोऽर्था अनेनेति समय:, सिद्धान्त:, स्वस्य समयः स्वसमयः, तस्य प्रज्ञापना निदर्शना, जिनेन्द्र. प्रणीसागमप्ररूपणा, यद्वा स्वस्य अर्हत्प्रवचनस्य सम्यक् प्रमाणान्तराऽविसंवादित्वेनेयते परिच्छिद्यते इति समयः, तत्त्वभूताः, तस्य प्रशापना प्रकर्षेण संशयविपर्ययादिराहित्येन शापना प्रज्ञापना अबाध्यानेकान्तात्मकार्थविषयकप्ररूपणा, यथार्थवोधजनकत्वात् , 'अण्णा' अन्या स्वान्यनयनिरपेक्षककनयप्ररूपणा स्वतन्त्रनयद्वयप्ररूपणा च "तित्थपराऽऽसायणा" तीर्थकरस्याशातना अधिक्षेपः, तत्प्ररूपणोत्तीर्णत्वात् , उत्सर्गत: स्याद्वाददेशनाया एवं सम्यक्त्वप्रयोजिकायाः तीर्थकरेण विहितत्वात् । " संकेज याऽसंकित. भाव भिक्खू विभजवायं च वियागरेजा । भासादुयं धम्मसमुट्टितेहिं, वियागरेजा समया सुपण्णे" ॥ २२॥ इति सूत्रकृताङ्गचतुर्दशाऽध्ययनोक्तगाथायां 'विभजवायं च क्यिागरेजा' इत्युक्तेः। एष विभज्यवादः प्रवचनसारभूता, एतद्बोधनेनेच प्रवचनस्य फलवश्वात् । नन्वेवं तर्हि कालिकश्रुते नयाख्या न कर्तव्येति कथमुक्तमिति चेत् , उच्यते समाधिः, तत्राशेषनयप्रतिषेध आचार्यविनयविशिष्टबुद्ध्यभावापेक्ष एवोक्ता, श्रोतृवत्त
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सम्मति० काण्ड , गा० ५४
१९३ निर्मलविशिष्टबुद्धथुत्कर्षसद्भावे तु सम्प्रत्यपि श्रोत्धीपरिकर्मणानिमित्तं नयव्याख्याऽनुमतैक, उक्तश्च भाष्ये "मासिज वित्थरेण वि नयमयपरिणामणासमत्थम्मि । तदसते परिकम्मणमेगनएणं पि वा कुजा ॥२२७८॥" इति, सुगमा, नवरं वा शब्दाद् नयद्वयेन त्रयेण वा शिष्यमतिपरिकर्मणां कुर्यात, तथाविधमतिमान्ये तु नैकमपि नयं भाषेत, इत्येतदपि दृष्टव्यम् ॥५३॥ ___ अथोत्सर्गतो निखिलनयचतुरं प्रपञ्चितझं प्रतिपत्तारमुद्दिश्य अहमेवास्यार्थस्य वेत्ता नापर इत्येवमौद्धत्यं परिहरद्भिः स्याद्वादतत्त्वज्ञैः पारमेश्वरप्रवचनपरिणतबुद्धिभिरायच. रमलक्षणमाषाद्वयेन परस्परसापेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकोभयनयोक्तिरूपप्रमाणवाक्यात्मिका स्याद्वादप्ररूपणा कर्तव्या, तस्या एव परिपूर्णवस्तुप्रतिपादकत्वात् , न तु निरपेक्षप्रत्येकनयोक्तिरूपैकान्ततत्वप्ररूपणा, तस्या मिथ्यारूपत्वादिति प्रतिपाद्य अपवादतस्तु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकान्यतरनयज्ञमेकतरनयप्रियश्च श्रोतृजनमुद्दिश्य स्याद्वादप्रतिपत्तियोग्यतामाधातुं तदज्ञातैकनयप्ररूपणाऽपि कर्तव्या, तयाऽपि स्याद्वादप्रतिपादनयोग्यता कत्तुं शक्यत्वात् , 'असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा, ततः सत्यं समीहते' इति न्यायादिति प्रतिपादयितुमाह
पुरिसज्जायं तु पड-च जाणओ पन्नवेज अन्नयरं ।
परिकम्मणाणिमित्तं, दाएहि सो विसेसं पि ॥५४॥ 'पुरिसायं ' पुरुषजातं प्रतिपन्नद्रव्यपर्यायान्तरस्वरूपं श्रोतारं, ‘पडुच्च' प्रतीत्य आश्रित्य, उद्दिश्येति यावत् 'जाणओ' ज्ञका स्याद्वादतत्त्वज्ञः . पनवेज अनयरं' प्रज्ञापयेत् आचक्षीत अन्यतस्त्, द्रव्यं वा पर्यायं वा यदज्ञातम् , द्रव्यं ज्ञात्वा तदङ्गीकार श्रोतारम्प्रति पर्यायमेव, पर्यायं ज्ञात्वा तदुरीकर्तारं तम्प्रति द्रव्यमेव प्ररूपयेव, किमर्थमेवं प्रज्ञापयेदित्याशङ्कानिवृत्यर्थ तत्फलमाह-'परिकम्मणाणिमित्तं' परिकर्मणानिमित्तं, श्रोत्रा योऽज्ञातोशस्तद्विषयकबुद्धिपाटवार्थम्, न हि प्रत्येकतत्तदंशज्ञानाभावे निखिलांशविशिष्टार्थज्ञानं भवितुमर्हतीति द्रव्यांशपर्यायांशविशिष्टवस्तुज्ञाने द्रव्यांशविषयकज्ञानं पर्यायांशविषयकज्ञानश्च हेतुरित्यज्ञातांशज्ञानेन तद्विषयकबुध्युत्कर्षे सति परिकर्मितमतये श्रोत्रे 'दाएहि सो विसेसं पि' दर्शयिष्यति स स्याद्वादाभिज्ञः विशेषमपि, द्रव्यपर्याययोः परस्पराऽविनिर्मागरूपं द्रव्यं पर्यायसंयुक्तं पर्यायाश्च द्रव्यावियुक्ता इत्येवं लक्षणं स्याद्वाद. विशेषमपि, अन्यथैकांशविषयकविज्ञानस्य विपर्ययरूपता स्यात् , तदितराऽभावे तद्विषयस्याऽप्यभावात् , ततश्चेयमेकनयदेशनाऽपि परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायोमयात्मकवस्तुविषयक. स्याद्वादज्ञानोत्पादकत्वाद्रावतस्स्याद्वाददेशनैवेत्येकनयदेशनाया एकान्तविषयाऽसत्यत्वेन तद्विषयिकाया अयथार्थज्ञानजनकत्वान्मिथ्यारूपतया स्वरूपतोऽसत्यत्वेऽपि स्याद्वादन्युस्पादकतया फलतस्सत्यत्वं भावनीयम् ।। इति श्रीसम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यायां सम्मतितर्कटीकायां
प्रथमकाण्डं समाप्तिमगात् ॥
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सम्मति• कान, प्रसारितः ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ अईत्मभूक्ताखिलतत्त्वमित्थ-मेवेति सद्दर्शनशुद्धिहेतोः । द्रव्यानुयोगस्य सुसूक्ष्मतत्त्व-रत्नैर्भूतस्सम्मतितर्कनाम्नः ॥ १ ॥ ग्रन्थस्य पूज्याभयदेवमूरि, हब्धाऽध्यगाधा विकृतिर्षिशाला। तत्र प्रवेशोऽल्पषियामशक्यो, मत्वेति तेषामवगाहनार्थम् ॥२॥ तरीसमायामयतारिकाख्य-वृत्तौ कृतायां समयानुगायाम् । वर्यालदावादपुरे प्रभूता-हव्यचैत्याप्रतिरूपशोभे ॥३॥ श्रीन्यायवाचस्पतियुक्तशास्त्र-विशारदाचार्यपदाचितेन । श्रीसूरिसम्राङ्गुरुपद्विचातु-मस्यिाऽऽवसदर्शन सूरिणेयं ॥ ४ ॥ तुल्यास्यकान्तेश्शशिनाथविद्वत्-संगीयमानाच्छगुणोत्करस्य । श्रीनेमिसूरेः सुगुरो प्रभावात् , श्रीविक्रमाब्दे त्रिखशून्ययुग्मे(२००३)॥५॥ श्रीमार्गशीर्षे सितपक्ष एकादश्यां तिथौ चाsदिमकाण्डटीका ।।
आपुष्पदन्तं गुणकाङ्गिचित्ते, पूर्ति गताऽपूर्वमुदं तनोतु ।।।। पड्मिः कुलकम् । इति दूधमाकालनिशादिवाकरकल्पत्वेनावाप्तयथार्थाभिधान-प्रवचनोपनिषद्वेदि-महातर्कवादिशिरोमणि-श्रीसिद्धसेनदिवाकरभगवत्प्रणीतस्याखिलनयसंमदंगहनस्य सम्यग्दर्शनविशुद्धिकद्रव्यानुयोगतवरत्नरत्नाकरस्य सकलतचत्परनयपरिशुद्धिविधायकमहातर्कसङ्घटितस्य "श्रीसम्मतितर्कप्रकरणस्य" सार्वतत्त्वामृतरससङ्गविसमवाससुवर्णभावालङ्कुता ऽखर्वगर्ववादिवृन्दाप्रधृष्य-प्राज्ञपार्षदगण. चमत्कारद्वाणीविलाससमुद्भूतानुपमभव्यतातहृदखण्डप्रमोदभरप्रसृतशशभृद्धवलकीर्तिमरधवलितभूवलय-मच्यात्मसम्यग्दर्शनातिविशुद्धिकृदनल्पमहातीर्थसमुमतिबद्धकक्ष-श्रीतपागच्छनभोनभोमणि-परिसम्राइ-भट्टारकाचार्य-श्रीविजयनेमियूरीश्वरपट्टनमोभास्करसमवाप्त-न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारदविरुदभट्टारकाचार्य-श्रीविजयदर्शनसूरीश्वर• विरचितायां सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यटीकायां प्रथमकाण्डं समाप्तिमगात् ।।
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॥ श्रीसम्मतितर्कप्रकरणम् ॥
॥ द्वितीयकाण्डम् ॥
मंगलाचरणम्
यत्पादपद्माच्छरसाय नित्यम्, योगीन्द्रदेवेन्द्र नरेन्द्रवृन्दम् । द्विरेफति श्रीमधुमत्यभिख्य- पुराधिपस्सोऽस्तु शिवाय वीरः ॥ १ ॥ क्षान्त्यादयो भान्ति गुणाश्च यस्मिन्, विशेषतो त्याश्रयसद्गुणेन । दुग्धं स्वभावाद्धवलं तथाऽपि, चकास्ति शङ्खाश्रयतो विशिष्य ॥ २ ॥ धूराश्रिता यं जिनशासनस्य, निधिं धियां दूषणतोऽतिदूरम् । नमामि तं श्रीविजयादिनेमि - सूरिं गुरुं सूरिकदम्बसूरम् || ३ || युग्मम् | एवं सामान्यं न विशेषविकलं विशेषा अपि न सामान्यविकलाः खपुष्पवदसश्वात्, तदुक्तम् --- निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् ।
सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥ १ ॥ इति ।
?
तथा चान्योन्याsनुस्यूतत्वात्तयोस्तदुभयात्मकं ज्ञेयस्वरूपं प्रतिपाद्याधुनोपयोगोऽप्युपसर्जनीभूतविशेषाकारप्रधानीभूतसामान्याका रदर्शनोपसर्जनीभूतसामान्याकारप्रधानीभूतविशेषाकारज्ञानस्वरूपद्रयात्मकः प्रमाणम्, अयम्भावः -- उपयोगो दर्शनज्ञानोभयात्मक इति य एव दर्शनोपयोगस्स एव ज्ञानोपयोगतया ज्ञानोपयोगच दर्शनोपयोगतया परिणमंत इति दर्शनत्वेन ज्ञानत्वेन भिन्नमपि दर्शनं ज्ञानश्चोपयोगस्वरूपतयाऽभिन्नमित्यनेकान्तस्वरूपतया तदुभयात्मक उपयोगः प्रमाणम्, न त्वेकान्तभिन्नदर्शनात्मको न वैकान्तभिन्नज्ञानात्मकरसः । एतेन सामान्य ग्राहिदर्शनमेव प्रमाणमित्ये कान्तद्रव्यार्थिकनयमतं, विशेष - ग्राहिज्ञानमेव प्रमाणमित्येकान्तपर्यायार्थिकनयमतं निरस्तम्, एकान्तभित्रदर्शनज्ञानयोरप्रमाणत्वात्, तदेवोपदर्शयितुं द्वितीय काण्डमारिप्सुः सिद्धान्तपाथोधिश्रीसूरिर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभिमतप्रत्येक दर्शनज्ञानस्वरूपप्रतिपादिकां गाथामाह
जं सामण्णग्गहणं, दंसणमेयं विसेसियं नाणं । दोve वि णयाण एसो, पाडेकं अत्थपजाओ ॥ १ ॥ ५५ ॥
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सम्मति कान्ह २, गा.! " जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं " यत् सामान्यग्रहणं दर्शनमेतत् , द्रव्यास्तिकनयमते यदनुगतस्वरूपेण प्रतीतो भासते तदेव सत् , भासते च तत्र तद्रूपेण सामान्यमेवेति तदेव सत्, न विशेषा, तेषामननुगतत्वेन तत्राप्रतिभासनादिति सामान्यमेव तन्मते वस्तु, तदेव गृह्यतेऽनेन तत्सामान्यग्रहणम् , यद्वा गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणम् , सामान्यस्य ग्रहणं सामान्यग्रहणम् , तत्किमित्यत आह-'दसणमेय' दर्शनमेतत् , द्रष्यार्थिकस्य मते इति शेषः । 'विसेसिय' विशेषितं विशेषविषयकम् , अत्र सामान्यग्रहणमित्यस्माद् ग्रहणमित्यस्य विच्छिन विशेषविषयकमित्यर्थकेन 'विसेसियं ' इत्यनेन सम्बन्धः, तथा च विशेषात्मकवस्तुविषयकं यद्हणं तत् ' नाणं ' ज्ञानम् , पर्यायास्तिकस्य मत इति शेषः । यद्वा पर्यायास्तिकनयस्य मते वहनदोहनादितत्तक्रिया वाहगवादितत्तद्विशेषेरेव भवन्ति, न सामान्येनेत्यर्थक्रिया. कारित्वात्त एव सद्रूपाः, न सामान्यमिति तदात्मकमेव वस्त्वभिमतम् , एतच्च प्रागेव विवृतमिति नेह प्रतन्यते, तथा च विशेष एवं गृह्यते येन तद्विशेषग्रहणं ज्ञानमित्यभिधीयते, विशेषितमिति पदं लक्षणया विशेषग्रहणपरमित्यभिप्रायः । 'दोण्ह वि नयाण' द्वयोरपि अनयोनययोः 'एसो पाडेकं अस्थपज्जाओ' एष प्रत्येकमर्थपर्यायः, अर्थ विषयं पर्येति अवगच्छति यः सोऽर्थपर्यायः, ईटग्भूतार्थग्राहकत्वमित्यर्थः । द्रव्यार्थिकनयेन सामान्यमात्रग्रहणात्मकं दर्शनमभ्युपगतम्, पर्यायार्थिकनयेन तु विशेषमात्रग्राहकं ज्ञानमुरीकृतमितिभावः । “कतिविहे गं भंते ! उवओगे पन्नते ? गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते, तं जहासागारोवओगे य अणागारोवओगे य" इति प्रज्ञापनाऽष्टाविंशतितमपदेऽभिधानात , उपयोगस्साकारानाकारभेदाभ्यां द्विविधः, तत्राकार प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, "आगारो अविसेसो" इति वचनात् , सहाऽऽकारेण वर्तत इति साकारः, स चासावुपयोगश्च साकारो. पयोगः, सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुञ्जान आत्मा यदा सपर्याय मेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगस्साकार इत्युच्यते, न विद्यते यथोक्तरूप आकारो यत्र सोऽनाकार:, स चासावुपयोगश्चानाकारोपयोगः, यो वस्तुनः सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोपयोगा, तत्रानाकारोपयोगो दर्शनं, साकारोपयोगस्तु ज्ञानमित्युच्यते । तत्र द्रव्यार्थिकनयेन दर्शन मात्रं प्रमाणतया पारमार्थिकमभ्युपगतम् , पर्यायार्थिकनयेन तु ज्ञानमात्रं, न तु दर्शनमिति प्रत्येकनयार्पणा
"जं सामण्णपहाणं, गहणं इयरोवसनणं चेव । ___अत्थस्स दंसणं तं, विवरीतं होइ नाणं तु ॥१॥” इति धर्मसतहणीवचनादुमयनयार्पणया तु सामान्यप्रधान विशेषोपसर्जनं ग्रहणं दर्शनं विशेषप्रधान सामान्योपसर्जन ग्रहणं ज्ञानम् , तथा च तो द्वावप्युपयोगावुपसर्जनीकृततदितराकारौ प्रधानीकृतस्वस्वविषयावमासकत्वेन प्रवर्त्तमानौ प्रमाणम्, न तु निरस्तेतराकारी,
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सम्मति• काण्ड २, गा० ,
१९७ इतरांशविकलैकांशरूपविषयाभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेः, ननु भवत्येवं तथापि किं ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगो वा सर्वदा सर्वजीवेषु प्रवर्त्तते किंवा कदाचिन्न, सामग्यभावादिति चेत्, उच्यते, " उपयोगो लक्षणं " इति २-८ । तत्वार्थस्त्रवचनात् उपयोगो लक्षणमात्मनः, तच्चाशुशुक्षणेरौष्ण्यवत्स्वरूपलक्षणम्, न तु चैत्रस्य दण्डवत्तटस्थलक्षणमिति लक्ष्यलक्षणयोः कथञ्चिदभेदाल्लक्षणभूतोपयोगं परिहृत्यैकक्षणमात्रमपि कोऽपि लक्ष्यभूत आत्मा नैवावतिष्ठते, लक्ष्यतावच्छेदकसमनियतधर्मो हि लक्षणमिति यदा कदाऽप्युपयोगः लक्षणाभावे जीवे लक्ष्यतावच्छेदकीभूतं जीवत्वमपि न स्यात्, व्यापकाभावे व्यायामावस्यावश्यम्भावात् । ननूत्पत्तिकालावच्छेदेन निर्गुणमेव पृथिव्यादिद्रव्यमुत्पद्यते, अत एव प्रतियोगिव्यधिकरणतत्समानाधिकरणात्यन्ताभावाऽप्रतियोगिभूतगन्धादिवश्वमेव पृथिव्यादेलक्षणम् पर्यवसायितयोच्यते नैयायिकेन, तद्वत्प्रकृतेऽपीत्युपयोगाभावस्यापि कदाचिदा. स्मनि सद्भावेऽपि प्रतियोगिव्यधिकरणत्वाभावान्न स प्रतियोगिव्यधिकरणतत्समानाधि. करणात्यन्ताभाव:, किन्त्वन्यात्यन्ताभाव एवेति तदप्रतियोगिभूतोपयोगवश्वलक्षणस्यात्मनि सर्वदा सङ्घटनानाजीवत्वप्रसङ्ग इति चेत् , मैवम्, न हि प्रथमक्षणे निर्गुणं घटादिद्रव्यमुत्पद्यते, द्वितीयक्षणे च तत्र गुणोत्पत्तिरिति केनाप्यनुभूयते, अनुभूयते च यदैव मृत्पिण्डा. दिपूर्वपर्याय परित्यज्य घटाद्युत्तरपर्यायतया परिणमते मृद्रव्यं तदैव तत्र नीलपीतादिपूर्वपर्यायविनाशेनोत्तररक्तादिपर्यायोत्पादः, अत एव समवायस्य गुणगुणिनोरेकान्तमेदस्य च पूर्वमेव निषिद्धत्वात्समवाय्यादिकारणत्रयात्कार्योत्पत्तिरिति कारणगुणपूर्वकः कार्यगुण इति च नैयायिकवैशेषिकप्रवादस्याप्रामाय्यमवसेयमिति । यदुक्तं तत्त्वार्थप्रथमाध्यायतृतीयसूत्रटीकायाम्-“परिणामोऽचेतनपरमाण्वादीनां शुक्लादिरित्यादि । तत्त्वार्थचतुर्विंशतितमसूत्रभाष्ये "स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति " इत्यादि ।। " तेऽपि हि शुक्लादयः कृष्णादित्वेन परिणमन्ते वर्णादिसामान्यममुश्चन्तः" इत्युक्तं तस्वार्थपञ्चमाध्यायकचत्वारिंशत्सूत्रटीकायामिति । एवमेव देवमनुष्यादि-वालयुवादिपूर्वोत्तरपर्यायानुगाम्यात्मद्रव्यात्मनि पूर्वस्य दर्शनात्मकस्य ज्ञानात्मकस्य वोपयोगपर्याय. स्योत्तरेण ज्ञानात्मकेन दर्शनात्मकेन वोपयोगेन रूपेण परिणामो भवतीति तच्छ्न्य आत्मा न कदाप्यवतिष्ठते, सुषुयाद्यवस्थोत्तरकालावच्छे देन व्यक्तीभूतज्ञानलिनेन तत्पूर्वकालाबच्छिन्नाऽव्यक्तज्ञानस्य पयसि सर्पिष इवानुमीयमानत्वेन सुषुप्तिकालेऽप्यव्यक्तज्ञानमम्युपगम्यत एवेति, तत्र श्वासप्रश्वासादिसन्तानोऽव्यक्तचैतन्यप्रयुक्त एव, कथमन्यथा तत्र वासोच्छ्वासादिसन्तानोपपत्तिस्यात्, अत एव सुप्तमूञ्छितादीनां जलसेकादिप्रतिकारेणाव्यक्तचैतन्यमेवाभिव्यज्यत इत्यनुभवः, सुषुट्युत्थितस्य 'सुखमहमवाप्सं न किश्चिदवेदिषम्' इत्यनुभवस्तु न किञ्चित्पदोपरागेणाव्यक्तज्ञानमेवावगाहते । स्यादेवत् इन्द्रियवृत्तिनिरोधेन सुषुप्तौ ज्ञानमनुपपन्नम् , " द्रव्याध्यक्षे त्वचो योगो मनसा ज्ञानकारणम् " इति, कारिका
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बम्मति• काम २, प.. सीवचनाद् जन्पशानसामान्ये वचनोयोगस्य कारणत्वेन तदानीं त्वचं त्यक्त्वा पुरीततिनाडीवरीमानेन मनसा ज्ञानाऽजमनादिति चेत् , मैवम् , द्रव्येन्द्रियवृत्युपरोघेऽपि तदानी मावेन्द्रियजझानसम्भवात् , दर्शनावरणकर्मप्रकृतिकार्यविशेषरूपाया: सुषुप्लेय॑क्तचक्षुर्दर्शना. देषोपषावित्वात् । युक्तचैतत्-निश्चयतोऽविकलकारणस्यैव कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वात् , अविबलच कारणं ज्ञाने उपयोगेन्द्रियमेव, तचात्मलित्वाल्लिङ्गमन्तरेण लिनिनोऽनुपपत्ते सुषुप्तिकालेऽपि लब्धसत्ताकं कथं न स्वकार्य ज्ञानं जनयेदिति । अत एव
"जह सुहुमं भाविदियनाणं दविदियावरोहे वि" इति ।
जं किर बउलाईणं, दीसइ सेसेंदियोवलंभो वि ।
तेणत्थि सदावरणखओ-वसमसंभवो तेसिं ॥ ३० ॥ इति च विशेषावश्यकभाष्योक्तरेकेन्द्रियजीवेष्वपि द्रव्येन्द्रियपश्चकामावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियादिमावेन्द्रियपत्रकज्ञानं सिद्धान्तेऽभ्युपगतम् ,एसस्सर्व सविस्तरमस्मत्प्रणीततत्वार्थविवरणटीकायामुक्तमिति तत एवावसेयम् । तादृशोपयोगक्रमे च देशकालादिनियन्त्रितक्षयोपशमक्रम एव नियामक इति विभावनीयम् । ननु भवन्मतेऽपि केवलदर्शनावरणकेवलज्ञाना. वरणकर्मणोस्सर्वघातिप्रकृतित्वेन केवलदर्शनावरणेन सर्वथाऽऽत्मीयदर्शनगुणं केवलज्ञाना. परणेन सर्वात्मनाऽऽत्मीयज्ञानगुणं चाऽऽवृतमित्युपयोगशून्योऽप्यात्मा कथं नेति चेत् , तदपि म मनोरमम् , वस्तुतत्वानवबोधात् , तथाहि केवलज्ञानावरणस्य स्वावार्यो केवलज्ञानगुणा, स च यद्यपि तेन सर्वात्मनाऽऽव्रियते, तथापि सर्वजीवानां केवलज्ञानस्यानन्ततमो भागो. नावृत एवावतिष्ठते, केवलज्ञानावरणस्यापि तदावरणे सामर्थ्याभावात् । यदाहुः पूज्यश्री. देवर्द्धिवाचकवरा नन्दीसूत्रे-" सधजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतमागो निच्चुग्याडिओ विहा" इति । अयश्वानावृतोऽनन्ततमभागस्वभावः केवलज्ञानावरणाऽऽवृत्तस्य जीवस्य धनपटलछमस्य रवेर्मन्दप्रकाश इव मन्दप्रकाश इत्युच्यते । तत्र हेतुः केवलज्ञानावरणमेव, केवलज्ञानव्यावृत्तज्ञानत्वव्याप्यजातिविशेषावच्छिन्ने उद्धेतुत्वस्य शास्त्रोक्तत्वात् । ननूक्तकार्यकारणभावस्तदेव शोभेत यधुत्कटे स्पष्टप्रकाशप्रतिबन्धके मन्दप्रकाशजनकत्वं दृष्टिगोचरं स्यात्, न चैवम् , मित्यादौ तस्याऽदर्शनादिति चेत्, मैवम् , सूर्यस्पष्टप्रकाशप्रतिबन्धके उत्कटे सान्द्राम्राघावरणे मन्दप्रकाशजनकत्वस्य सर्वलोकानुभवसिद्धत्वात्, न चानावृतानन्ततमभागो सन्दप्रकाशसंज्ञकोशः केवलज्ञानस्यैव, अंशांशिनोश्च कश्चिदमेद इत्येकस्मिन्मेवाएतत्वाना. वृतत्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यासोऽनिष्ट आपद्यतेति वाच्यम् , एकस्मिन् तन्त्वात्मकेंशेऽनावृतेऽपि पट आवृत इति प्रतीतिबलात् पटात्मकांशिद्रव्यापेक्षयाऽऽवृतत्वमेकतन्त्वाऽऽत्मकांशाऽपे. श्रया चाऽनावृतत्वमितिवदत्रापि केवलज्ञानाश्यऽपेक्षयाऽऽवृतत्वमनन्ततमभागांशापेक्षया पानातत्वमित्येवमुभयोपपत्तावर्पितद्रव्यपर्यायात्मना कथञ्चिद्भेदाभेदवादे बाधका
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सम्मति काम २, गा० । भावात् । कथं तर्हि केवलज्ञानावरणस्य सर्वपातित्वमिति चेत् , उच्यते, यथाऽतिनहले जलद पटले समुनते बहुतरप्रभाया आवृतत्वात् सर्वाऽपि सूर्याचन्द्रमसोः प्रभाऽनेनाश्तेति व्यवहार। प्रवर्चते, अथ चायापि काचित् दिनरजनी विभागजनिका तत्प्रभा प्रसरति, “ सुड्ड वि मेहसमुदए होइ पहा चंदसराणं " इति नन्दीसूत्रवचनादनुभवसिद्धत्वाच, तथाऽनभ्युपमने दिनरजनीविभागामावस्स्यात्, तथाऽत्रापि प्रबल केवलज्ञानावरणाऽऽवृतस्यापि केवलज्ञानस्याऽनन्ततमो भागोऽनावृत एवास्ते, तथास्वाभाव्यादेव, यदि पुनस्तमप्यावृणुयात् तदा जीवोऽजीवत्वमेव प्राप्नुयात् । यदुक्तं नन्दीसूत्रे-" जइ पुण सो वि आवरिजा, ताणं जीवो अजीवत्तणं पाविजा" इति । सोऽपि चावशिष्टोऽनन्ततमो भागो जलघरानावृत. दिनकरकरप्रसर इव कटकुट्यादिभिर्मति-श्रुता-ऽवधि--मनःपर्यायज्ञानावरणरावियते, तथापि काचित् निगोदावस्थायामपि ज्ञानमात्राऽवतिष्ठते, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गास्स्यात् । तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानमात्रा सूक्ष्मनिगोदाऽपर्याप्तकानां प्रथमसमयोत्पन्नजीवानामभिधीयते, तस्मात्प्रभृतिक्षानविद्धिर्भवति । उक्तन
"सर्व निकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग एष बीरेण ।
सूक्ष्मनिगोदाऽपर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः ॥१॥ तस्मात्प्रभृतिज्ञानविवृद्धिष्टा जिनेन जीवानाम् ।
लब्धिनिमित्तैः करणः कायेन्द्रियवाल्मनोदग्भिः ॥२॥” इति । मतिज्ञानादिविषयभूतांधार्थान् यान् छद्मस्थात्मा न जानीते तत्र प्रतिबन्धका केवलज्ञानाचरणोदयो न भवति, तस्वाऽनन्तपदार्थविषयकप्रत्यक्षज्ञानोत्पत्तावेव प्रतिबन्धकत्वात् , किं तर्हि ? मतिज्ञानावरणाद्युदय एवेति । एवं केवलदर्शनावरणस्य समस्तवस्तुस्तोमसामा. न्यावरोध आवार्यः, तं सर्व हन्तीति सर्वघाति अभिधीयते, तदनन्ततमभागं त्विदमपि सामाभावामामोति, सोऽपि चानावृतोऽनन्ततमभागश्चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणैराक्रियते तथापि काचिनिगोदावस्थायामप्यव्यक्तदर्शनमात्रावतिष्ठते, अत्रापि जलपरदृष्टान्तादिभावना पूर्ववदेव, छयस्थात्मा यान् चक्षुदर्शनादिविषयानर्थान् न पश्यति तत्र प्रतिबन्धका केवलदर्शनावरणोदयो न भवति, तस्य निखिलसामान्यविषयकदर्शनोत्पत्तावेव प्रतिबन्धकत्वात, किं तर्हि ? चक्षुर्दर्शनावरणाद्युदय एवेति । तथा च केवलज्ञानावरणावृतस्यात्मनो घनफ्टलाच्छादितस्य सूर्यस्येव योऽनन्ततमभागात्मको मन्दप्रकाशः सोऽपान्तरालावस्थित. मतिज्ञानाधावरणक्षयोपशमभेदसम्पादितं नानात्वं भजते, यथा धनपटलावृतसूर्यमन्दप्रकाशोऽपान्तरालावस्थितकटकुव्यायावरणविवरप्रदेशभेदतः, स च नानात्वं क्षयोपशमानुरूपं तथा प्रतिपधमानः स्वस्वक्षयोपशमानुसारेणाभिधानभेदमश्नुते, यथा मतिज्ञानावरणक्षयोपशम. जनितः स मन्दप्रकाशो मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानावरमक्षयोपशमजनितः श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञाना.
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सम्मति सम , गा.. वरणक्षयोपशमजनितोऽवधिज्ञानम् , मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमजनितो मनःपर्यायज्ञानमिति । केवलज्ञानावरणीयेन सर्वात्मनाऽऽवृतेऽपि केवलज्ञाने तद्तमन्दविशिष्टविशिष्टतर. विशिष्टतमज्ञानप्रकाशरूपाः क्षायोपशमिकमावात्मका एते मतिज्ञानादयश्चत्वारोऽपि भेदाः सर्वथा केवलज्ञानावरणापगमे सति तदुत्पन्नस्य केवलज्ञानस्य
“पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभावमासन्ज ।
मणुए रोगपमाया, केवलमिच्छत्तगमणे वा ॥ १३७ ॥" इति बृहत्कस्पभाष्ये तत्क्षयोपशमनाशकतायाः प्रतिपादितत्वात्तेन मतिचानावावरणक्षयोपशमनाशे सति न भवन्ति, तदानीं मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमरूपनिमित्ताभावात् , केवल. ज्ञानव्यावृत्तज्ञानत्वव्याप्यजातिविशेषावच्छिन्ने केवलज्ञानावरणस्य हेतुत्वेन तदभावाच, अत एव न मतिज्ञानावरणक्षयादिनाऽपि तदानीं मतिज्ञानाद्युत्पादनप्रसङ्गः, अत एवं मतिज्ञानादेविभावगुणत्वमिति प्रसिद्धिः। तथा च सिद्धमेतन्निमित्तभेदात् ज्ञानं पञ्चविधमिति, तदपि प्रमाणेन विचार्यमाणं प्रत्यक्षपरोक्षद्वयरूपमेव भवति, तदन्यप्रमाणानां तत्रैवान्तः विाद , यथा च तेषां तदन्तर्भावस्तथा व्युत्पादितमस्मतप्रणीततत्वार्थविवरणटीकायामिति तत एवाऽवसेयं विस्तरार्थिना, नेह ग्रन्थगौरवभीत्या विस्तार्यते । ननु तथापि पञ्चज्ञानमध्ये इदं ज्ञानं प्रत्यक्षप्रमाणमिदञ्च परोक्षप्रमाणमिति विवेको नावधृत इति चेत्, सोऽप्युच्यते-अक्षमिन्द्रियं प्रतिगतं कार्यत्वेनाश्रितं यज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् , इन्द्रियजन्यं ज्ञानं प्रत्य. क्षमित्यर्थः, तत्स्वरूपश्च मतिज्ञानम् , तद्वयवहारनयतो यद्यपि प्रत्यक्षप्रमाणम् , लोकेऽपीन्द्रियजन्यज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वेन व्यवहारात् , अत एव विशेषावश्यकभाष्येऽपि-" इंदियमणो. भवं जं तं संववहारपञ्चक्खं" इत्युक्तम् । तथापि निश्चयनयतस्तत्परोक्षमेव, तद्घटकाक्ष. शब्दस्यात्मार्थत्वेन ततो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुद्गलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते-पृथग्वर्तन्त इत्यर्थः, तेभ्यो यदक्षस्यात्मनो ज्ञानमुदयते, न तु साक्षात् , तत्परोक्षम् , यदभिहितं भाग्ये--
"अक्खस्स पोग्गलकया जं दबिन्दियमणा परा तेणं ।
तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥ ९० ॥" इति । परोक्षलक्षणस्येन्द्रियमनोनिमित्तकज्ञानपर्यवसायितया तद्रूपत्वात्तस्य । श्रुतज्ञानं तु परोक्षमेव परनिमित्तज्ञानरूपत्वात् अनुमानवत् । यदुक्तं नन्दीमत्रे-परोक्खं नाणं दुविहं पमत्तं तं जहा-आभिणियोहियनाणपरोक्खं च सुअनाणपरोक्खं च । अक्षो जीवः, तं प्रति साक्षाद्तमिन्द्रियनिरपेक्षं वर्तते यज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् । यदुक्तं भाष्ये
" जीवो अक्खो अत्थव्वावण-भोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ वट्टइ नाणं जं पचक्खं तयं तिविहं ॥ ८९ ॥” इति ।
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सम्मति• काम २, गा ।
इदमपि व्युत्पत्तिनिमित्तमेव, नैश्चयिक प्रवृत्तिनिमित्तं तूत्पत्ताविन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वम् स्वस्वावरणकर्मक्षयोपशमक्षयान्यतरसहकतात्ममात्रजन्यत्वं वा, तदेव च निश्चयप्रत्यक्षलक्षणम्, तदाक्रान्तश्चावधिज्ञानादित्रयमिति तनिश्चयप्रत्यक्षप्रमाणरूपम् । यदभिहितं नन्दीसूत्रे-" से किं तं नोइंदिअपञ्चक्खं ? नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पन्नतं, तं जहाओहिनाणपञ्चक्खं मणपजवनाणपञ्चक्खं केवलनाणपञ्चक्खं " इति । ननु व्यावहारिकनैश्चयिकप्रत्यक्षानुगतं किं लक्षणमिति चेद, अर्थसाक्षात्कारित्वमेवेत्यवेहि, तच्च साक्षात्करोमि स्पष्टमवैमीति प्रतीत्योरेकाकारत्वात्तत्सिद्धस्पष्टतालक्षणम् । स्पष्टता यद्यपि ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यतावच्छेदकजातिरूपतया तत्क्षयजन्यतावच्छेदकजातिरूपतया च द्विविधा, तथापि स्पष्टताद्वयं स्पष्टतात्वेनानुगतीकृत्य स्पष्टं प्रत्यक्षमित्येवानुगतं लक्षणं कर्त्तव्यम् , स्पष्टलक्षणप्रत्यक्षमपि शास्त्रे गुणमुख्यभेदेन द्विविधं प्रोक्तम् , यदुक्तम्-" स्वार्थसंवेदनं स्पष्टमध्यक्षं मुख्यगौणतः" इति । तत्राद्यमसर्वपर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाद्यध्यक्षं विशदं संव्यवहारनिमित्तं मतिज्ञानात्मकम् , तदपि निश्चयतस्तु परोक्षमेव, श्रुतज्ञानवत् इन्द्रियाद्यपेक्षकत्वेनाविशदत्वात् । द्वितीयमप्युत्पत्तावात्ममात्रापेक्षं विकलसकलभेदेन द्विविधम्, तत्र विकलं अवधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजन्यरूपिद्रव्यमात्रविषयकारविज्ञानमनःपर्यायज्ञानावरणकमक्षयोपशमजन्यमनोद्रव्यपयायमात्रसाक्षात्कारिमनापर्यायज्ञा. नभेदेन द्विविधम् , सकलं तु केवलज्ञानावरणक्षयजन्यनिखिलद्रव्यनिखिलपर्यायागाहिकेवलज्ञानाख्यमेकविधमेवेति । अत्र बहु वक्तव्यं तथापि ग्रन्थगौरवभीतेोंच्यते, विस्तरार्थिनाऽस्मत्सन्हब्धतत्त्वार्थविवरणटीकातोऽवसेयमिति ।।
ननु लक्षणाधीना लक्ष्यव्यवस्थितिरित्यत्र लक्ष्यीभूते प्रमाणे तदितराप्रमाणभिन्नत्वज्ञापक, प्रमाणं प्रमाणस्वरूपतया व्यवहर्त्तव्यमित्याकारकव्यवहारप्रयोजकञ्च तल्लक्षणमेवेति तत्किमिति चेत् , उच्यते, स्वार्थसंवेदनं प्रमाणमिति । तदर्थश्चैवम्-स्वयोग्योऽर्थस्स्वार्थः, तस्य संवेदनं विशदतया निर्णयस्वरूपम् , तेन संशयविपर्ययाऽनध्यवसायलक्षणस्य ज्ञानस्य प्रमाणतापरिहार एवं सन्मात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य व्यवहारानङ्गस्य तथाऽज्ञानरूपस्येन्द्रियकारकसाकल्यादेश नैयायिकादिपरिकल्पितस्याऽविकल्पस्य वा सौगतपरिकल्पितस्य प्रामाण्यनिरासः कृतः । यद्वा स्वं चार्थश्च स्वार्थों तयोः संवेदनं यथावस्थितत्वेन निश्चयः स्वार्थसंवेदनम्, तत्र ज्ञानजन्यज्ञाततालिङ्गकातीन्द्रियज्ञानानुमानवादिना भाट्टानामेकात्मसमवेतोत्तरज्ञानेनाऽनुव्यवसायेन व्यवसायप्रत्यक्षमिति वादिनां नैयायिकमुरारिमिश्राणां प्रधानविवर्त्तत्वेनाचेतनज्ञानवादिनां कापिलानां च मतमपाकतुं स्वशब्दसंशब्दनम् , पारमार्थिकपदार्थसार्थापलापिज्ञानाद्वैतवादिमाध्यमिकवेदान्तिनां मतं निरसितुमर्थपदोपादानम् , सम्पूर्णप्रमाणलक्षणवाक्येन पुनः परपरिकल्पितस्यार्थोपलब्धिहेतुत्वस्याविसंवादकत्वस्यान
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सम्मति. काण २, मा० . धिगतार्थाधिगन्तृत्वादेश प्रमाणलक्षणता परिक्षिप्ताऽवसेयेति, स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणमप्युक्तस्वरूपमेवेत्यत्रैव गतार्थम् , तथापि किश्चिन्याख्यायते-प्रतिपाद्यानुसारेण यथायोग लक्ष्यं लक्षणं वा द्वयं वा विधीयते, परप्रतिपत्तये हि वाक्यमुच्चारयन्ति मनीषिणः, मोहपारतन्त्र्यवशात् परे चाऽनेकविधास्तत्तद्विषये संशयाना विप्रतिपद्यमानाथोपलभ्यन्त इति स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य प्रमाणत्वे विपर्ययसंशयानध्यवसायाः कस्यचित्समुत्पद्यन्ते, तत्प्रतिक्षेपाय तं प्रत्यदग्धदहनन्यायेनाप्रासं प्रमाणं विधीयते, तथा च विवादास्पदं ज्ञानं प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वादित्यनुमानेन तत्र प्रमाणत्वं सिद्धिकोटिमुपढोकयन्ति कृतिनः। तथा मोहपारतन्त्र्याधीनयथार्थतवानभिज्ञत्वादेव प्रमाणस्य स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वे कस्यचित्पुंसस्ते समुद्भवन्ति, प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानं न किन्तु कल्पनापोढत्त्वेन निर्विकल्पकज्ञानरूपमेवेत्यभ्युपगन्तुबौद्धस्थेवेति तदपनोदाय तं प्रति स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वं विधेयीकृत्य विवादास्पदं प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणत्वान्यथाऽनुपपत्तेरित्यनुमानेन स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वं सिद्धिसौधमारोपणीयम् , एवं प्रमाणप्रमेयापलापिशून्यवादिनम्प्रति समग्रं विधेयम् । तथा कदाचिल्लक्षणांशसिद्धये लक्षणांशस्यैव व्यापारणा, यथा ज्ञानं स्वव्यवसायि परव्यवसायित्वान्यथाऽनुपपचेरिति । अत्र यौगास्सङ्गिरन्ते-“ उक्तप्रमाणलक्षणं न युक्तिसङ्गतम् , यतो ज्ञानं प्रदीपवत्स्वप्रकाशात्मकत्वेन स्वपरव्यवसायिज्ञानरूपमिति सिद्धौ तत्सिद्ध्यति, न च तदद्यापि सिद्धम् , यतो ज्ञानस्य बाह्यार्थविषयकत्वेन तत्र परव्यवसायित्वं प्रमाणगोचरमपि न च स्वव्यवसायित्वं प्रमाणभावमनुभवति, स्वसंवेदनज्ञानस्यै वाऽसिद्धेः, तथाहि-अयं घट इति ज्ञाने घटविषयकत्वे किम्मानमिति चिन्तायामनुव्यवसाय एव मानत्वेन प्रदर्शनीयः, तस्य घटविषयकत्वविशिष्टज्ञानविषयकत्वेन विशेषणविधया घट. विषयकत्वस्यापि तत्र भानात् तेन तत्सिद्धः, यद्विषयकं यज्ज्ञानं तेन तत्सिद्धिरिति व्याप्तेः, तदनुपदर्शने घटज्ञाने घटविषयकत्वमेव न तु पटविषयकत्वमित्यत्र विनिगमकामावेन सर्व विषयकत्वं निर्विषयकत्वं वाऽऽपद्येत, तच्चानिष्टम् , न च किमनुव्यवसायप्रदर्शनेन, यज्ज्ञानं यदाकारं तज्ज्ञानं तद्विषयकमिति सामान्यव्याप्त्यैवायं घट इति ज्ञानस्य घटाकारत्वेन घटविषयकत्वसिद्धिस्स्यादेवेति वाच्यम् , बौद्धमते घटाकारत्वपटाकारत्वादेानधर्मत्वेऽपि तन्मते वास्तवाविषयविषयिभावस्यैवाऽभावेन तन्मताश्रयणस्यात्राऽयुक्तत्वेन प्रकृते न्याय. नयमवलम्ब्यैव विचारस्य प्रवर्तितव्यतया तन्मते घटाकारत्वस्य घटविषयकत्वाद्यतिरिक्त स्याभावेनात्माश्रयापत्त्या निरुक्तव्याझ्या तस्य साधयितुमशक्यत्वात् , तन्मताश्रयणेऽपि वा तज्ज्ञाने घटाकारत्वमेव, न तु पटाकारत्वमित्यत्रानुचाव्यवसायं विना मानान्तरं न पश्यामः, तथा चानुव्यवसायस्य घटविषयकज्ञानवानहमित्याकारत्वेन व्यवसायविशेष्यकघटविषयफत्वप्रकारकतया व्यवसाये घटविषयकत्वसिद्धावपि व्यवसाये व्यवसायविषयकत्वानवगाहनेन व्यवसायविषयकत्वाऽसिद्ध्या व्यवसायविषयत्वविषयकत्वं सुतरामसिद्धम् ,न हि घटानवगाहि.
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सम्मति. काण्ड २, गा.. ज्ञानस्य घटविषयकत्वविषयकत्वं केनाप्यनुमन्यते, तथा च व्यवसाये स्वविषयत्वरूपस्वप्रकाशत्वस्याऽसिख्या स्वप्रकाशज्ञानाऽसिद्धिरायातैव, न च सर्वज्ञानानां घटमहं जानामीत्याघाकारत्वात् प्रत्यक्षेणैव व्यवसायात्मकज्ञाने स्त्रविषयकत्वसिद्धिरिति ज्ञाने स्वसंविदितत्वं प्रत्यक्षसिद्धमेवेति वाच्यम् , तादृशानुव्यवसायस्य घटोऽयमिति व्यवसायोत्तरकालभावित्वेन भिन्नत्वेनैवानुभवात् । किञ्च घटमहं जानामीत्यस्य घटविषयकज्ञानवानहमित्यर्थकत्वेन कर्तृभूतमात्मानं तत्र कर्मद्वारा ज्ञानं तत्र च घटविषयकत्वं विशेषणविधयाऽवगाहमानं तज्ज्ञानं तेष्वेवात्मज्ञानविषयकत्वेषु प्रमाणं स्यात् , न तु व्यवसायात्मकज्ञाने स्वविषय. त्वेऽपि, न हि घटज्ञानतद्विषयकज्ञानयोरभेदोऽद्यापि सिद्ध इति ज्ञानस्य स्त्रविषयकत्वमेव नास्ति, स्वविषयकत्व विषयकत्वं तु दुरापेतम् , तथा च यज्ज्ञानं पद्विषयकत्वाभाववत् तज्ज्ञानं तद्विषयकत्वे प्रमाणं न भवितुमर्हतीति नियमवलादेव घटमहं जानामीत्यनुव्यवसायप्रत्यक्षं न व्यवसायगतस्त्रविषयकत्वे प्रमाणम् । अथ तदपि घटज्ञानविषयकत्वं विशेषणविधयाऽवगाहत एवेति चेत्, तर्हि घटज्ञानज्ञानवानित्याकारप्रसङ्गास्स्यादिति चेत् , अत्र समाधीयते-" एकस्मादेव विषयावभाससिद्धेः किं द्वयकल्पनया" इति नियमबलादेव पूर्वमयं घट इति व्यवसाय: तदनन्तरं घटमहं जानामीत्यनुव्यवसाय इति ज्ञानद्वयकल्पनाया गौरवमानसम्पादकतयाऽनुपादेयत्वेन लाघवाद् व्यवसाय एव कर्तृकर्मक्रियावगाहनुव्यवसायाकारतयोपादेयः, तादृशानुव्यवसाये च ज्ञानविषयकत्वे विवादाभावेन तस्य स्वाभिन्नत्वेन स्वविषयत्वमप्यविवादसिद्धमेव । न्यायमते प्रतियोगिताऽनुयोगिता विशेष्यता प्रकारता च यथाश्रयस्वरूपा नातिरिक्ता तथा जैनमतेऽपि स्वविषयत्वस्य स्वस्मादनतिरिक्तत्वेन ज्ञानात्मकस्वमाने तदात्मकविषयताया अप्यवश्यम्भानमिति स्वविषयत्वाविषयक त्वमप्ययत्नसिद्ध मेवेति भवति स्वप्रकाशत्वसिद्धिः, एतेन घटमहं जानामीति ज्ञाने ज्ञानावमासेऽपि तद्विषयत्वं नावभासत इति ज्ञानस्य स्वविषयकत्वमेव नास्ति, स्वविषयत्वविषयकत्वं तु दुरापेतमित्याद्यर्थकं यदुक्तं प्राक् तन्निरस्तमत्रसेयम् , विषयता हि विषयस्वरूपैव, नाति. रिक्तः पदार्थ इति व्यवसायात्मकविषयमाने तत्स्वरूपाया विषयताया भानमपि न्याय्यमेव, तथा च घटमहं जानामीति ज्ञाने ज्ञानविषयत्वं सर्वैरपि स्वीक्रियत इति ज्ञानस्वरूपज्ञाननिष्ठविषयत्वविषयकत्वमपि तत्र स्वीकरणीयमेव, पूर्वोक्तनीत्या व्यवसायस्यानुव्यवसायाभिनत्वेन तत्रापि तथात्वमयत्नसिद्धमेवेति, एतेन स्वस्यैव स्वविषयत्वे अभेद एव विषयविषयिभावस्स्वीकृतस्स्यात् , न चासौ युक्ता, भेदनियतत्वात्तस्येत्यपि निरस्तम्, भेदनियतो विशेषणविशेष्यमावः कथमभेद इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् , तस्माद् घटाभावे घटाभाव इति 'स्वस्मिन् ' स्वविशेषणत्वप्रतीत्यन्यथानुपपत्या यथा स्वभाव विशेषादभेदे विशेषणविशेष्यभावस्तथा प्रकृतेऽभेदेऽपि स्वभावविशेषादेव विषयविषयिभाव इति प्रतीहि । कोऽसौ स्वभावविशेष इति चेत, उच्यते, शर्करायाः कीदृशं माधुर्यमिति केनचित्प्रने कृते तं प्रत्युत्तरं दातुमशक्यमपि
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सम्मति• काण्ड १, गा० १ तेन तभिराकर्तुमप्यशक्यं यथा तथोक्तस्वभावविशेष आख्यातुमशक्योऽपि प्रत्याख्यातु. मप्यशक्य एवेति । येऽप्यत्र ज्ञानं स्वविषये घटादौ व्यवहार प्रवर्त्तयत्स्वाविषयेऽपि स्वस्मिन् व्यवहारं प्रवर्तयति, ज्ञानान्तरेण ज्ञानव्यवहारोपगमे गौरवं स्थादिति स्वव्यवहारशक्तत्वमेव स्वविषयत्वम् , तच्चाऽमेदेऽपि सम्भवत्येवेति स्वप्रकाशवादिप्रभाकरानुयायिनो वदन्ति, तन्मतमप्यसङ्गतमेव, यतस्स्वव्यवहारशक्तत्वं स्वव्यवहारानुकूलशक्तिमत्वं, शक्तावनुकूलत्वं च न जनकत्वं शक्तेरतीन्द्रियत्वेनाश्रयसापेक्षत्वेन च तत्र स्वातन्त्र्येणान्वयव्यतिरेकाऽसम्भवात् , किन्तु जनकतावच्छेदकत्वम् , तच्च शक्तौ तदा स्यात् यदि शक्तिमत्त्वेन रूपेण ज्ञानस्य स्वव्यवहारं प्रति कारणत्वं भवेत् , तच न सम्भवति, यतो यदि शक्तिर्जनकतारूपैवाम्युपगम्यते तदा स्वस्यैव स्वावच्छेदकत्वाद् व्यक्तमात्माश्रयः। अथ जनकतातो व्यतिरिक्ता सेति चेत्तदा तस्याः पदार्थान्तरत्वाभ्युपगमेनोक्तात्माश्रयदोषोद्धारेऽपि कारणत्वज्ञानम्प्रति कारणतावच्छेदकज्ञानस्य कारणत्वेन ज्ञाने स्वव्यवहारकारणत्वज्ञानार्थ शक्तिज्ञानमपेक्षणीयम्, तच्च स्वव्यवहारशक्तं ज्ञानमित्याकारकं न कारणत्वग्रहं विना, शक्तेरतीन्द्रियत्वेन कारणत्वग्रहाधीनग्रहकत्वादित्यन्योन्याश्रयदोषापचिस्स्यादिति । नन्वनुव्यवसाये घटज्ञानविषयकत्वस्याप्यवगाहने घटज्ञानज्ञानवानित्याकारप्रसङ्गस्स्यादित्युक्तं किं विस्मृतं ? न विस्मृतम् , ज्ञानस्येदं जानामीदं ज्ञानं जानामीत्युभयाकारत्वेनाऽभ्युपगमात् । ननु यद्येकमेव ज्ञानं घटं जानामि घटज्ञानं जानामीत्याकारद्वयशालि चेत्तदाऽऽकारद्वयवत्यैव तदभिलप्येत, न च तथाऽभिलप्यते इत्यतो नाकारद्वयशालि तत्, न वैकं विरुद्धाकारद्वयशालि युज्येतापि, तथा सत्येकमेव न स्यादिति चेद् , मैवम् , यतो घटावगाहनांशघटज्ञानावगाहनां. शयोर्भेदेन ज्ञानस्यापि कथश्चिद्भेदस्स्वीक्रियत एव, ततो घटमहं जानामीति घटज्ञानमहं जानामीति चामिलापभेदः, तत्र च विवव कारणम् , यदा परावबोधार्थ घटविषयकत्वेन ज्ञानं वक्ता वक्तुमिच्छति तदा घटं जानामीत्यभिलापः, यदा च घटविषयकज्ञानविषय. कत्वेन तदा घटज्ञानं जानामीत्यभिलाप इति नामिलापभेदो ज्ञानस्य सर्वथा भेदव्यवस्थापका, न वा कथञ्चिदेकत्वाभ्युपगन्तुस्वप्रकाशवादिमते कथश्चिद्भेदस्याप्यऽनुपपत्तिरिति । एतेन स्वविषयत्वे सिद्धे ज्ञानान्तरकल्पनागौरवसहकृतं झानगोचरताया ग्राहक प्रत्यक्ष स्वप्रकाशतायां प्रमाणं, तेन च मानेन तस्य स्वविषयताविषयतासिद्धिरित्यन्योन्याश्रय इत्याशङ्कापि निरस्ता, लाघवाद् व्यवसायस्यैव ज्ञानविषयत्वेनानुभूयमानानुव्यवसायरूपत्वेनाभ्युपगमे सति पूर्वोक्तरीत्या स्वप्रकाशत्वसिद्धेः । अयम्भावः-यद्ययं घट इति ज्ञानमाश्रित्य स्वप्रकाशत्वं साध्येत तदोक्तदिशाऽन्योन्याश्रयः स्यात् , यतस्तस्य ज्ञानविषयकत्वेनाननुभवात् , स्वविषयकत्वस्य प्रमाणान्तरेणैव साध्यत्वापत्तेः, न चैवम् , घटमहं जानामीत्यनुव्यव. सायमाश्रित्येव स्वप्रकाशत्वं व्यवस्थाप्यते, तत्र च ज्ञानविषयत्वमनुभवसिद्धमेव, न प्रमाणान्तरावतारसाध्यम् , विषयतापत्रस्य च व्यवसायात्मकज्ञानस्य लाघवेन विषयितापनेनानु
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सम्मति० काण्ड २, मा० १ व्यवसायात्मकज्ञानेनाऽभेदे च सिद्धे स्वविषयत्वमपि सिद्धमेव, तदेव च स्वप्रकाशत्वमिति काऽन्योन्याश्रय इति । ननु ज्ञानं स्वप्रकाशात्मकमित्यस्य स्वेनैव स्वस्य प्रकाशः स्वप्रकाशः तदात्मकमित्यर्थः स्वीकृतो जैन, तथा च स्वं स्वात्मनैव प्रकाशयति ज्ञानमिति सिद्धम् , अत एव " स्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुख्येन प्रकाशनं बाह्यस्येव तदाभिमुख्येन करिकल. मकमहमात्मना जानामीति" १-१७ प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्रोक्तमपि सङ्गच्छते, तच न युक्तम् , स्वात्मनि क्रियाविरोधात्, न हि सुतीक्ष्णोऽपि करवाल: कदाचित् स्वं विदारयति, न च विचित्रगतिसञ्चारचतुराऽपि नर्तकी निजस्कन्धमधिरोढुं शक्नोतीति चेत, अहो भवदीयाज्ञानविलासः, येन स्वदर्शनप्रसिद्धमपीश्वरज्ञानमावालगोपालप्रसिद्धमपि वा प्रदीपालोकादिकं स्वपरप्रकाशकं नावधारयति, न हि त्रिजगत्कर्वज्ञानं स्वप्रकाशे झानान्तरमपेक्षते, नापि प्रदीपदिनकराधालोकः स्वस्वरूपप्रकाशने प्रकाशान्तरमपेक्षते, प्रतीतिविरोधात् । एतेन घटमहं जानामीत्यादेानस्य कर्तृकर्मक्रियावगाहित्वे सत्येव तादृशत्रिपुटीप्रत्यक्षात्स्वसंवेदनशानसिद्धिस्स्यात्, न च तत्त्रितयावगाहित्वं तत्र सम्भवति, क्रियायाः कृतेर्वा समवा. यित्वलक्षणकर्तृत्वस्य परसमवेतक्रियाजन्यफलशालिवलक्षणस्य करणव्यापारविषयत्वलक्षणस्य वा कर्मत्वस्य धात्वर्थत्वलक्षणस्य कृतिजन्यत्वलक्षणस्य वा क्रियात्वस्यायोग्यत्वेन तत्रामासमानत्वादित्यपि निरस्तम्, उक्तलक्षणतत्रितयामानेऽपि आश्रयत्वलक्षणकर्तृत्वस्य विषयत्व. लक्षणकर्मत्वस्य विशेषणीभूतज्ञानत्वलक्षणक्रियात्वस्य च भाने बाधकाभावात् , आश्रयत्वादि. प्रयाणामाश्रयरूपत्वाऽभ्युपगमेन तद्भाने तद्भानस्यावश्यम्भावात् । एतेन विशिष्टबुद्धिम्प्रति विशेषणज्ञानं कारणमिति नियमेन विशेषणीभूतज्ञानं पूर्व नैव ज्ञातमिति जानामीत्यत्रापि तस्य विशेषणतया कथं भानं स्यात् , येन स्वसंवेदनज्ञानसिद्धिस्स्यादित्यारेकाऽपि निरस्ता, पूर्व विशेषणीभूतस्याभावत्वस्याऽज्ञानेऽप्यभावत्वविशिष्टबोधात्तत्र व्यभिचारवारणाय समानवित्तिवेद्यभिन्नविशेषणज्ञानत्वेन विशिष्टबुद्धो हेतुत्वं वाच्यम्, एवञ्च जानामीति ज्ञानविशिष्टात्मज्ञाने ज्ञानरूपविशेषणस्यात्मसमानवित्तिवेद्यत्वेन तज्ज्ञानं न हेतुरिति ज्ञानस्य पूर्वमज्ञातत्वेऽपि विशेषणत्वोपपत्तेस्वसंवेदनज्ञानस्यैव सिद्धेः। न चाहं सुखीत्यादिप्रत्यये आत्ममानेऽपि ज्ञानस्यामानान तस्य तत्समानवित्तिवेद्यत्वमिति वाच्यम् , अहं सुखीत्य. स्याप्यहं सुखं साक्षात्करोमीत्याकारत्वात् , अनम्यासादिदोषेण तदनभिलापात् । नन्वर्थनिश्चयत्वेन ज्ञानस्य प्रवर्तकत्वाद् घटपटाद्यर्थमात्रविषयकमेव ज्ञानमभ्युपगन्तुमर्हमिति चेत्, तदप्यसङ्गतम् , यतो व्यवसायस्यानुव्यवसायरूपतया स्वविषयकत्वेनाधिकविषयकत्वेऽपि तस्यार्थविषयकत्वेन प्रवर्तकत्वमप्यविरुद्धमेव, इष्टतावच्छेदकप्रकारकप्रवृत्तिविषयविशेष्यकज्ञानत्वेन प्रवर्तकत्वात् , तादशज्ञानत्वस्य च स्वसंवेदनबानेऽप्यक्षतिरेवेति तत्प्रवर्तकं स्यादेवेति नोक्तदोष इति । ननु प्रत्यक्षविषयतायाः प्रत्यक्षजनकत्वव्याप्यत्वनियमात् स्वसंवेदनपक्षेऽनुव्यवसायात्मकप्रत्यक्षाजनकस्य व्यवसायस्य कथमनुव्यवसायात्मकप्रत्यक्ष
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सम्मति• काण्ड २, गा० १ विषयत्वमिति चेत्, तदप्यसुन्दरम् , अतीतानागतार्थानामीश्वरसाक्षात्कारजनकत्वाऽभावेऽपि तत्र तत्साक्षात्कारविषयत्वस्य सद्भावेनोक्तव्याप्ती व्यभिचारात् , दोषविशेषजन्यसाक्षात्कारविषयेऽप्येवं व्यभिचारो दृष्टव्यः। उक्तव्यभिचारवारणाय दोषविशेषाजन्यजन्यप्रत्यक्षविषयत्वं यत्र तत्र प्रत्यक्षजनकत्वमिति व्याप्तिकरणे हेतुघटकप्रत्यक्षे उक्तविशेषणदानवस्वसंवेदनज्ञानभिमत्वविशेषणदानेऽपि दीयतां दृष्टिः, येन सर्व समञ्जसं स्यात् । एतेनेन्द्रियसन्निकर्पोत्पनं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणभावात् पूर्व व्यवसायात्मकज्ञानेन संहेन्द्रियसमिकर्षस्यामावात्कथं तत्प्रत्यक्षमित्यपि निरस्तम्, चक्षुषः प्राप्यकारित्वाऽसिद्धेस्तस्याऽर्थेन सह सनिकर्षाभावाचाक्षुषसंवेदने तस्य लक्षणस्याऽघटमानवेनाऽध्यापकत्वात् , तथाहि चक्षुर. प्राप्तार्थप्रकाशकं अधिष्ठानाऽसम्बद्धार्थग्राहकेन्द्रियत्वात् मनोवदित्यनुमानेन चक्षुषोऽप्राप्तार्थप्रकाशकत्वे सिद्धे तस्यार्थेन सन्त्रिकर्षाभावेऽपि प्रत्यक्षज्ञानोत्पादकत्व सिद्ध्योक्तलक्षणमच्यातिदोषसंवलितत्वान युक्तम् , न च चक्षुषोऽसनिकृष्टार्थप्रत्यक्षजनकत्वे प्रत्यक्षस्य प्रतिनियतविषयकत्वं न स्यादिति स्वजनकसन्निकर्षाश्रयत्वं प्रत्यक्षविषयत्वे तन्त्रं वाच्यमिति चक्षुषोऽर्थेन सह सन्निकर्षः प्रत्यक्षविषयत्वप्रयोजकोऽवश्यमभ्युपगन्तव्य इति नोक्तलक्षणमव्यापकमिति वाच्यम् , तत्तत्प्रतिनियतविषयत्वे स्वावरणकर्मक्षयोपशमादिलक्षणयोग्यताया एव तन्त्रत्वात् , तथा च प्रत्यक्षज्ञानस्य यद्विषयत्वावच्छेदेन साऽऽविर्भवति तद्विषयकत्वमेव भवति, नान्यविषयकत्वम्, एवं विषयस्यापि स्वावच्छेद्याविर्भूतावरणकर्मक्षयोपशमादिलक्षणयोग्यताविशिष्टं जन्यतासम्बन्धेन यज्झानं तद्विषयत्वमेव, नान्यज्ञानविषयत्वमित्युक्तं प्राव । अत एव परोक्षज्ञानस्यार्थसन्निकर्षाद्यजन्यतया परेणाभिप्रेतस्य प्रतिनियतविषयकत्वव्यवस्थोपपत्तिस्सङ्गच्छते । एतेनार्थाजन्यत्वे ज्ञानस्य कथं प्रतिकर्मव्यवस्था ? तदुत्पत्तित. दाकारताभ्यां हि सोपपद्यते, अर्थाऽनुत्पन्नस्यातदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वार्थान् प्रत्य. विशिष्टत्वादिति बौद्धमतमपि निरस्तम्, अर्थोत्पत्तिमन्तरेणाप्यावरणक्षयोपशमलक्षणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थप्रकाशकत्वोपपत्तेः, अर्थाद् ज्ञानोत्पत्तावपि च कारणीभृता तादृशयोग्यतावश्यमाश्रयणीया, अन्यथाऽशेषार्थसानिध्येऽपि कुतश्चिदेवार्थात् कस्यचिदेव ज्ञानस्य जन्मेति कौतस्कृतोऽयं विभाग इति । यदि च चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं स्यात्तर्हि वहिखङ्गाद्यर्थेन सह संयोगे तस्य दाहच्छेदापत्तिस्याद्, हस्तादेरिक, जलादिसंयोगे च शीतत्वं स्यात् , ननु मुहुर्मुहुस्सूर्यकिरणजलावलोकने दाहशैत्ये अपि भवत एवेतीष्टापत्या ततश्चक्षुषः प्राप्यकारित्वमेव सिद्ध्यतीति चेत् , मैवम् , यतश्चक्षुस्स्त्रयमुत्प्लत्यादित्यमण्डलादिसमाक्रान्त. प्रदेशं गत्वा समाश्लिष्य न रूपं परिच्छिनत्ति, किन्तु रविकिरणादिकमेव चक्षुर्देशमागच्छती. त्येतावन्मात्रेणैव दाहलक्षणोपधातोपपत्ता, शीतलजल-घृत-चन्द्राधवलोकने तु "मणेज अणुग्गहं पिव उपधायाभावओ सोम्म" इत्युक्तेर्दाहलक्षणोपघाताभावत एव शैत्यलक्षणानुग्रह उपचर्यत इत्युपचरितस्यैव तस्य सद्भावाच । यच्च चक्षुर्देशं स्वतः प्राप्तेन मूर्तिमता चन्द्र
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सम्मतिः काण्ड २, मा० .
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किरणेनेन्द्रनीलमणिकिरणेन च वस्तुगत्या शैत्यं भवति, तदपि चक्षुषस्तत्र गमनाभावेन सम्बद्धार्थग्राहकत्वाभावाद् विषयदेशमप्राप्तेनापि तेन रूपपरिच्छेदोपपत्तेश्च न तदप्राप्यकारित्वक्षतिमावति, यदि स्वत एव चक्षुरर्थन सह संयुज्य तत्प्रत्यक्षं जनयेत्तर्हि चक्षुष. सूर्यमरीचिदर्शनादुपधातो यथा तथा करवालदर्शनादपि स स्यात् , न चैवं भवतीति चक्षुरप्राप्तार्थप्रत्यक्षं करोतीति सिद्धम् । तदिदमुक्तं भाष्यकृता-" लोअणमपत्तविसयं मणोड जमणुग्गहाइसुन्नत्ति ।” अनेन भाष्यगाथापूर्वार्द्धन लोचनमप्राप्तग्राह्यार्थविषयकबोधजनक ग्राह्यवस्तुकृतानुग्रहोपधातशून्यत्वात् मनोवदित्यनुमानं प्रदर्शितम् । अत एवाग्रे " गन्तुं न स्वदेसं पासइ" इत्युक्तम् । अथ जाग्रदवस्थायां स्वप्नावस्थायां वा देहान्मनो निर्गत्य मेरुशिखरस्थजिनप्रतिमादिना ज्ञेयेन संश्लिष्यते, लोकेऽप्यनुभवसिद्धमेतत् , यतस्तत्रापि वक्तारो वदन्ति-अमुत्र मे मनो गतमिति, अतो मनसः प्राध्यकारित्वान्मनोवदिति दृष्टान्तस्साध्यविकल इति, तदुक्तं पूर्वपक्षमाशङ्कय भाष्ये--
"गंतुं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा।
सिद्धमिदं लोयम्मि वि अमुगत्थगओ मणो मेत्ति ॥ २१३ ॥" इति चेत्, उच्यते समाधि:-" मनो न ज्ञेयेन सह संश्लिष्यते ज्ञेयकृतानुग्रहोपघाताभावात् लोचनवत् , इतस्था तोयचन्दनादिचिन्तनकाले स्पर्शनेन्द्रियवन्मनोऽप्यनुगृह्येत, दहन-विष-शस्त्रादिचिन्तनसमये च तद्वदेवोपहन्येत, न चैवम् , तस्माल्लोचनवदप्राप्यकार्येव मनः । अमुत्र मे मनोगतमिति तु भ्रान्तिरेव । उक्तश्चोत्तरपक्षमाश्रित्य भाष्ये
" नाणुग्गहो-वधायाभावाओ लोयणं व सो इहरा।
तोय-जलणाइचिन्तणकाले जुज्जेन दोहिं पि ॥ २१४ ॥" किञ्च मनस्तावविधा द्रव्यमनो भावमनश्चेति, तत्र किं द्रव्यमनो भावमनो वा मेर्वादिविषयसन्निधौ गच्छेत् , न तावद्वितीयविकल्पो युक्तः, भावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपत्वात् , तस्य च जीवादव्यतिरिक्तत्वाजीव एव भावमनो भवति, जीवात्मकभावमनश्च देहमात्रव्यापित्वान्न देहादहिनिःसरत् प्रमाणगोचरम् । यद्देहमात्रवृत्ति न तस्य देहादहिनिःसरणमुपपद्यते, तद्गतरूपादिवत् , देहमात्रवृत्ति च जीवात्मकभावमनः, तस्मात्तन्न तवहिनिस्सरति । उक्तश्च भाष्ये
" दव्वं भावमणो वा वएज जीवो य होइ भावमणो ।
देहव्वावित्तणओ न देहवाहिं तओ जुओ ॥ २१५॥" जीवस्य देहमात्रव्यापित्वञ्च प्रागेव निर्णीतमिति । अथैवं तर्हि द्रव्यमनो विषयदेशं बजतीत्यात्मकाद्यपक्षोऽस्तु, यतो बहिनिर्गतं द्रव्यमना प्राप्य विषयं परिच्छिनत्ति, करणत्वात् , प्रदीप-मणि-चन्द्र-सूर्यादिप्रभावदिति चेत्, सोऽपि पक्षो न युक्तः, यतः करणं द्विधा
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सम्मति० काण्ड २, गा, भवति, शरीरगतमन्तःकरणम् , तबहिर्भूतं बाह्यकरणश्च, तत्रेदं द्रव्यमनोऽन्तःकरणमेवात्मनः, ततो यदन्तःकरणं तच्छरीरस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, स्पर्शनवत , अन्तःकरणच द्रव्यमन:, प्रदीप-मणि-चन्द्रप्रमादिकं तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलो दृष्टान्तः । ननु शरीरस्थमपि मूर्तत्वेन सक्रियत्वापद्मनालतन्तुन्यायेन तदहिनिस्सरतु, कोऽत्र दोष इति चेत्, तर्हि स्पर्शनेन्द्रियादेरपि तद्वदेव बहिर्निर्गमनप्रसङ्गात् , तस्माद् यदन्तःकरणं तच्छरीराबहिर्न निर्गच्छति स्पर्शनेन्द्रियादिवदित्यभ्युपगन्तव्यम् , युक्तश्चैतत् अनन्तसंयोगाद्यऽकल्पनलाघवात् । सुखदुःखादिसाक्षात्कारोऽपि न मनस्संयुक्तसमवायादिसन्निकर्षात् , येन मनसः प्राप्यकारित्वं स्यात् , समवायस्य पूर्वमेव निरासकरणात्, किन्तु मनस्सहकततदावरणीय. कर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यतावशादेवेति । अभिहितश्च भाष्ये
"अह करणभावओ तस्स तेण जीवो वियाणेजा ॥ २१७ ।। करणत्तणओ तणुसंठिएण जाणिज फरिसणेणं व ।
एत्तोच्चिय हेऊओ न नीइ बाहिं फरिसणं च ॥ २१८॥” इति ननु जाग्रदवस्थायां मा भृद् मनसो विषयप्राप्तिः, स्वापावस्थायां तु भवत्वसौ, अनु. भवसिद्धत्वात् , तथाहि—“ अमुत्र मेरुशिखरादिगतजिनायतनादौ मदीयं मनो गतम्" इति सुप्तः स्वप्नेऽनुभूयत एवेति मनसः प्राप्यकारित्वमेवेति चेत्, मैवम् , उक्तानुभवस्य भ्रान्तिरूपत्वात् , वृत्ताकारतया भ्रम्यमाणालातचक्रानुभववत् तद्विषयस्याऽसत्यत्वात् , तथाहि-यथो. ल्मुकं वृत्ताकारतयाऽऽशु भ्रम्यमाणं भ्रान्तिवशादचक्रमपि चक्रतया प्रतिभासमान न सत्यम् , अचक्ररूपताया एव तत्रावितथत्वात् , भ्रमणोपरमे स्वभावस्थस्य तथैव दर्शनात् । एवं स्वप्नानुभवोपलब्धं मनोमेरुगमनादिकमपि वस्तु न सत्यम् , स्वप्नोपरमे तदभावात् , तद्भावध जाग्रदवस्थायां देहस्थस्यैव मनसोऽनुभूयमानत्वादिति । ननु स्वप्नावस्थायां मे दो गत्वा जाग्रदस्वथायां निवृत्तं तद्भविष्यतीति चेत्, मैवम् , यथा कदाचिदात्मीयं मनः स्वप्ने मेर्वादौ गतं कश्चित् पश्यति तथा कोऽपि शरीरमात्मानमपि नन्दनतरुकुसुमावचयादि कुर्वन्तं तद्गतं पश्यति, न च तत्तथैव, इह स्थितैस्सुप्तस्य तस्यात्रैव दर्शनात् , द्वयोर्वपुषोईयोश्चास्मनोरसम्भवात् , कुसुमपरिमलाघवजनितपरिश्रमाद्यनुग्रहोपघाताभावाचेति। अभिहितश्च
"सिमिणो न तहारूवो वभिचाराओ अलायचकं व ।
वभिचारो य सदसणमुवघाया-णुग्गहाभावा ॥ २२४ ॥ इह पासुत्तो पेच्छइ सदेहमन्नत्थ, नय तओ तत्थ ।
न य तग्गयोवघाया-गुग्गहरूवं विबुद्धस्स ।। २२५ ॥" अयम्भाव:--स्वप्ने जिनस्नात्रदर्शनादिकं विज्ञानं स्वप्नानन्तरं जाग्रत्पुंसो हर्षादिकं तत्फलं भविष्यत्फलापेक्षया स्वप्नस्य निमित्तत्वञ्च तस्मात्स्वप्ननिमित्तादवश्यंभाविभविष्य
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सम्मनि० काम २, गा."
२०९ स्फलश्चानुभवसिद्धत्वाद्विजैन निवारयितुं शक्यम् , किन्तु यदेव मनसो मेरुगमनक्रियादिक युक्त्या नोपपद्यते तदेव निषिध्यते, न त्वेतानि विज्ञानादीनि, युक्त्युपपनत्वात् । न चैतैरभ्युपगतैरपि मनसः प्राप्यकारिता काचित्सिद्ध्यतीति । तदेवं भावमनसो द्रव्यमनसश्च बहिश्चारिताद्यभावादप्राप्यकार्येव मन इति मनोवदिति दृष्टान्तो न साध्यविकल इति सिद्धम् । नाप्युक्तदृष्टान्तो प्राद्यवस्तुकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वहेतुविकला, यतो यदि मनसो शेयेन सह सम्पर्कस्स्यात्तर्हि जल-चन्दनादिचिन्तनकाले पिपासानिवृत्तिशैत्यादिलक्षणानु. ग्रहः, वहिविषकरवालादिचिन्तनकाले च दाह-स्फोट-पाटनादिलक्षणोपघातश्च स्यात् । न च तो भवतः, तस्मान साधनविकलो मनोदृष्टान्त इति तस्मिन् दृष्टान्ते गृहीतव्याप्तिकेनो. क्तहेतुना लोचनमप्राप्यकार्येव सिद्ध्यति । अथ चक्षुषस्तेजस्त्वेन रश्मिमयत्वात्तद्रश्मय एव निर्गत्य रविकिरणवत्तं तमर्थ संसृज्य तत्प्रत्यक्षमुपजनयन्ति, अनुद्भूतस्पर्शवत्तैजसत्वेन तेषां वहयादिवन दाहजनकत्वम् , दाहम्प्रति उद्भूतस्पर्शवतेजसत्वेनैव कारणत्वात् , न वा तेषां तैजसत्वेन रविरश्मीनामिक पक्षचादिभिर्दाहादिरूपोपघात इति सिद्धं चक्षुषः प्राप्यकारित्वमिति चेत्, तदप्यसङ्गतमेव, चक्षुषस्तैजसत्त्वस्यैवाऽसिद्धेः, न च चक्षुस्तै जसं रूपादिषु मध्ये रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् प्रदीपवदित्यनुमानात्तत्सिद्धिरिति वाच्यम् , रूपप्रत्यक्षजनके चक्षुस्संयुक्तसमवायसन्निकर्षे तैजसत्वसाध्याभाववत्युक्तहेतोस्सत्त्वेन व्यभिचारात् । तन्निवारणाय हेतौ द्रव्यत्वे सतीति विशेषणोपादानमपि न युक्तम् , भूमिनिहितनिध्यादिप्रत्यक्ष जनकाऽञ्जनादिना व्यभिचारात् । ननु रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वमिह रूपविषयकप्रमात्मकप्रत्यक्षजनकत्वम् , अञ्जनादिना तु निध्यादिसाक्षात्कारो न प्रमात्मक इत्यञ्जनादौ प्रमा. घटितोक्तहेतोरभावान्न तत्र व्यभिचार इति चेद् , मैवम् , निध्यादिसाक्षात्कारे प्रमावस्य संवादिप्रवृत्तिजनकत्वहेतुना सिद्धेरुक्तहेतोय॑भिचारित्वात् । एतेन रूपसाक्षात्काराऽसाधारणकारणं तैजसं रसाऽव्यञ्जकत्वे सति स्फटिकाद्यन्तरितार्थचाक्षुषप्रत्यक्षजनकत्वात् प्रदीपवदित्यपि निरस्तम् , अञ्जनविशेषेण व्यभिचारात् । अथाञ्जनादिभिन्नत्वे सतीति हेतौ विशेषणोपादानानोक्तव्यभिचार इति चेत् , तर्षप्रयोजकोऽयं हेतुः प्रत्यक्षाजनकसुवर्णादौ भवदभ्युपगततेजसत्वाख्यजातेस्सत्वेनातिप्रसक्तत्वात् , चक्षुःप्रदीपयोरेकया तयाऽनुगत. जात्या रूपप्रत्यक्षम्प्रति कारणत्वाऽसिद्धेश्व, तम्प्रति चक्षुषः चक्षुष्टुन प्रदीपस्य च प्रदीपत्वे. नैव कारणत्वाभ्युपगमात् । एतेन स्वप्नादिवदञ्जनादिकं सहकृत्य मनसैव निध्यादिसाक्षात्कार तत्र च चाक्षुषत्वारोप इत्यतो निध्यादिकं चक्षुषा साक्षात्करोमीति भ्रान्त एव प्रत्यय इत्युक्तानुमाने नाञ्जनादिना व्यभिचारस, हेतौ प्रमेति विशेषणीकृते सति प्रमात्मकचाक्षुषप्रत्यक्षाजनकत्वात्तस्य, तथा च हेतापञ्जनादिभिन्नत्वे सतीति विशेषणं न देयमित्यपि निरस्तम्, व्यभिचारशङ्कानिवर्तकतर्काभावेनाप्रयोजकत्वादुक्तहेतोः। न च वस्तुगत्या तथा.
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सम्मति , मा. ऽभ्युपगन्तुमपि शक्यम् , अञ्जनादेः पृथकप्रमाणत्वापत्तेः, मनो यदसाधारणं सहकारिकारणं समासाध बहिगोचरां प्रमां जनयति तस्य प्रमाणान्तरस्वनियमात् । किश स्वसिद्धान्तकदा. बहावेशेन चक्षुषि पूर्वोक्तहेतुना तेजस्त्वस्य तेनच तत्र रशिमवश्वस्याऽभ्युपगमेऽपि तद्रश्मयो विषयदेशं गताः किं गोलकेनाऽसम्बद्धाः प्रत्यक्षजनकतयाऽभ्युपगम्यन्ते, किं वा सम्बद्धाः, आयपक्षेऽपि किं निखिला रश्मयस्तथाविधा उत कतिपये इति विकल्पद्वयम् । तत्र नाघ. विकल्पो युक्ता, तथा सति चक्षुरपि निर्गतं स्यात् , यतोऽशेषावयवाना देशान्तरगमने तदविध्वम्भूतावयविनोऽपि तथात्वमेय युक्तियुक्तम् , तथा च चक्षुर्विहीनस्य मोलकस्य निस्तेजस्वात्पुरुषाणामन्यत्वप्रसङ्गस्स्यात् । किश्च वस्तुनि नेत्राभिमुखे सत्यपि नेत्रदोषाद यदेव पुराऽस्पष्टत्वेनावमासते अञ्जनादिमिर्नयनसंस्कारे तदेवेदानीं यथाऽवस्थितस्वरूपेण स्पष्टं प्रकाशते इत्यविगानेन सर्वैरेवानुभूयते, गोलके विहितोञ्जनादिसंस्कारश्चक्षुश्शन्द. वाच्यत्वेनाभ्युपगतानां गोलकस्थनेत्ररश्मीनामुपकारं करोतीति तब युज्येत, सामस्त्येन विषयदेशस्थितानां तेषां प्रत्यक्षजनकत्वाभ्युपगमे तु तेषामेवाञ्जनादिना संस्कार उपयोगितामावहेत, ते च रश्मयो गोलकाऽसंयुक्ता इति तदनधिष्ठानस्य गोलकस्य प्रत्यक्षाजनकस्वासत्राजनादिना संस्कारस्य नैरर्थक्यमेव स्यात्, तथैव पक्षमपुटोन्मीलनस्यापि निरर्थकत्वम्बम् । यथा घटानयनकारणतनुसम्बद्धहस्ते आनयनकार्याक्षमत्वापनोदाय तत्र संस्कारो विधीयमानस्साफल्यमनुभवति, न च छिनत्वेनासम्बद्धे तदवयवे । अथ पूर्व रश्मीनां नेत्रस्थत्वेन तत्राञ्जनादिसंस्कारपक्ष्मपुटोन्मीलनयोस्तद्गतिप्रयोजकत्वेन नापार्थकत्वमिति चेत्, स्यादेतद्रश्मीना गोलकसम्बद्धत्वपक्षे, असम्बद्धत्वपक्षे तु न गोलकस्य कश्चिद्विशेषः । अथ तत्र गताना रश्मीनां गोलके पुनरावर्चनाभ्युपगमेन नोक्तदोष इति चेत्, मैवम् , आवर्तमानानामपि तेषां गोलकासम्बद्धत्वेऽन्धत्वप्रसङ्गस्य वारयितुमशक्यत्वात् । गोलकसम्बद्धत्वे च तैर्गोलकानुषक्तकामलादिप्रत्यक्षापत्तिरस्यात् । तदेवं खगधारासमानस्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मकाऽभ्यन्तरनिवृत्तीन्द्रियगतोपकरणेन्द्रियाख्यशक्तियोगितया चक्षुषस्तत्त. द्विषयकज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमसहकृतस्य विषयमप्राप्तस्याऽपि प्रत्यक्षजनकत्वसम्भवे तैजसचक्षु'कल्पनमध्यनर्थकमेव । नन्वेवं सर्हि दूरवर्तिनां मेर्वादीनामपि किमिति न प्रत्यक्षमिति चेत्, उच्यते, यस्मिन् पदार्थे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणतग्रहणयोग्यत्वं तस्यैव प्रत्यक्षं भवतीत्युक्तयोग्यत्वाभावादेवेति जानीहि । अथैतदोषमयादाद्यपक्षोक्तद्वितीयविकल्पपक्ष एवाश्रीयत इति चेत्, तदपि न मनोरथं पूरयितुं पारयति, यतो यावन्तो रश्मयो विषयसम्बन्धमाजस्तावन्तः पूर्वमपि गोलकेनाऽसम्बद्धा एवेति गोलकस्याञ्जनादिनोपकारे तत्रस्थरश्मय एवोपकृता। न तु विषयसम्बन्धमाज इति तदीयाsनुपकृतस्वभावस्य पूर्ववदविचलितस्य सत्वे सति न कश्रिदञ्जनादिना विशेषः । किञ्च तेऽवयवा रश्मयो यदि गोलकसंसक्तरश्मिभ्यस्सर्वथाऽसंयुक्ता एवं तदा चक्षुषोऽपि नाश
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सम्मति काण्ड २०१
आपतितः, तेषां वा तदवयवत्वाभावः, न ह्यवयविनः पदार्थस्यैकत्र स्थितस्यावयवानां खण्डीभूयासंयुक्तत्वेन परत्र गमने तस्य स्वरूपावस्थानं केनाप्यभ्युपगम्यते, न हि uttaraaपालस्य परदेशगमने घटस्य स्वरूपावस्थानं पामरा अपि प्रतीयन्तीति । ननु तर्हि यथा सहस्रांशुरश्मयः प्रदीपरश्मयो वा तत्सम्बद्धा विषयदेशं गत्वा प्रकाशन्ते तथा नयनरश्मयोऽपीत्यर्थको द्वितीयपक्ष एवोररीक्रियत इति तेषां तत्तद्विषयं प्रति गमनस्य तदर्थप्रकाशकत्वस्य चान्यथाऽनुपपस्याऽभ्युपगम्यमानस्य पक्ष्मपुटोन्मीलनस्य गोलक - संस्कृतेश्व तदुमयार्थत्वेन न वैयर्थ्यमिति चेत्, तदपि श्रपापात्रम्, तेषां गोलकानुषक्ततिमिररोगावयविन: प्रकाशकत्वापत्तेः, यतो न हि प्रदीपरश्मीनां स्वाधिष्ठान संयुक्त शलाकाद्यप्रकाशकत्वं काचकूपिकान्तर्गतानां प्रदीपरश्मीनां ततो निर्गच्छतां काचकूपिकासम्बद्धार्थप्रकाशाजनकत्वं च दृष्टम् । अथाधिष्ठानापेक्षयाऽत्यन्तासत्यभावस्यापि कारणत्वाभोक्तदोष इति चेत्, तर्हि गोलकसम्बद्वाञ्जनशलाकाया अग्रावच्छेदेनाप्यनुपलब्धिप्रसङ्गस्स्यात् । अथ यदंशेन तस्यास्तत्र संसर्गस्तदंशावच्छेदेनैवाप्रत्यक्षत्वम्, गोलकदेशावच्छेदेनैवाञ्जनशलाकासंसर्गस्य तत्प्रत्यक्षम्प्रति प्रतिबन्धकत्वादिति चेत्, मैत्रम्, प्रत्यक्ष प्रतिबन्धकत्व प्रत्यक्ष जनकत्वयोरेकस्मिन् वस्तुनि विरुद्धयोरपि भिन्नभिन्नदेशावच्छेदेनाविरोधं सम्पाद्यापेक्षिकयोस्तयोरम्युपगमे तद्धर्मभेदेन कथञ्चित्तदभिनधर्मिणोऽपि भिन्नत्वं स्वस्वरूपतश्चैकत्वं स्वीकृतं स्यादिति भवतामपि स्याद्वादामृतरसास्वादप्रसङ्गस्स्यात् स्याद्वादतश्वज्ञैरपि तथैवाभ्युपगमात् । किश्व चक्षूरश्मीनामुदीचीम्प्रति गमने तद्दिगवस्थित सभिकृष्टपदार्थ संयोगे यथा तत्प्रत्यक्षं तथा तद्दिग्वर्त्तिकाश्चनाच लोपलम्भोऽपि स्यात्, उभाभ्यां तत्संयोगाऽविशेषात् । दूरत्वदोषस्य तद्रश्मिगतिप्रतिबन्धकत्वे च निशाकरस्याप्यप्रत्यक्षत्वं स्यात् । अथ शशधरोंशुभिर्नेत्ररश्मीनां वृद्धिभावात्तत्र तेषां गमनेन तत्संयोगात्तत्प्रत्यक्षमिति चेत्, तर्हि तिग्मकरांशुभिरपि तद्रमिवृद्धिमावाऽविशेषाचैरप्यभिवृद्धानां तेषां सुराद्रिं प्रत्यभिसर्पणात् कथं न तत्प्रत्यक्षं स्यात् । अथ रविकराणां तिग्मत्वेन नेत्ररश्मीनां प्रतिघातकत्वास तैस्तदभिवृद्धिरतो नोक्तदोष इति वेद, तर्हि सहस्रांशुकिरणव्याप्तपदार्थ मात्रानुपलम्भप्रसङ्गस्स्यात्, यतो न हि रविकिरणेषु काञ्चनाचलापेक्षया नेत्ररश्मिप्रतिघातकत्वं घटपटाद्यपेक्षया तदमावचेति वक्तुं शक्यम्, शक्यत्वे वा स्याद्वादस्यैव साम्राज्यं स्यात् । अथ यद्यप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुस्तप्राप्तत्वाविशेषात् सर्वमपि त्रिभुवनान्तर्वर्त्तिवस्तुनिकुरम्यं प्रकाशयेदिति चेत्, तदप्यसङ्गतम्, चक्षुषो योग्यार्थग्रहणस्वाभाव्यादेव यत्स्वयोग्यं तस्यैव तेन प्रकाशनात्, अन्यथा चक्षुरसंयुक्तसमवायसभिकर्षो यथा कुवलयरूपे तथा तद्गन्धेऽपीति तचाक्षुपोदयप्रसङ्गेनान्येन्द्रियाणां वैयर्थ्य स्यात् । एतेन चक्षुषो विषयमप्राप्य प्रत्यक्षजनकत्वाम्युपगमे कुड्यादिव्यवहितस्यापि प्रत्यक्षं स्यादित्यपि निरस्तम्, विषयनिष्ठव्यवधानाsमावकूटरूपयोग्यताया अपि अञ्जनायजन्यचाक्षुषप्रत्यचम्प्रति कारणत्वेनाभ्युपगमात् ।
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सम्मतिः काल २, गा.. अञ्जनादिजन्यव्यवहितार्थचाक्षुषप्रत्यक्षम्प्रति चाञ्जनादिनिष्ठैव शक्तिलक्षणा योग्यता कारणमिति । किश्च चक्षुरश्मीनां प्राप्तार्थप्रकाशकत्वाभ्युपगमे भित्यादेरिव स्फटिकादेरपि नेत्ररश्मिगतिप्रतिबन्धकत्वेन तद्वयवहितार्थानामप्यनुपलब्धिस्स्यात् । यदि च स्फटिकादेरतिस्वच्छत्वान्न नायनरश्मिगतिप्रतिबन्धकत्वमिति विभाव्यते, तदा प्राप्यकारित्वपक्षे तद्रश्मिगतितजन्यविभागपूर्वसंयोगनाशोत्तरदेशसंयोगादिकल्पनायां गौरवाल्लायवाचाक्षुषज्ञानाs. प्रतिवन्धकत्वमेव स्फटिकादे। कल्प्यताम् , एवं भित्त्यादेरापि तद्रश्मिगतिप्रतिबन्धकत्वा. पेक्षया लाघवाचाक्षुषप्रत्यक्षं प्रत्येव प्रतिबन्धकत्वं कल्पनीयम् , एतेन चक्षुः प्राप्तार्थपरिच्छेदकं व्यवहितार्थाऽप्रकाशकत्वात् , यद् यद् व्यवहितार्थाऽप्रकाशकं तत्तन्नाप्राप्तार्थपरिच्छेदकम् , यथा प्रदीपा, व्यवहितार्थाऽप्रकाशकश्च चक्षुः, तस्मात् प्राप्तार्थपरिच्छेदकमिति व्योमशिवमतमपि निरस्तम्, व्यवहितार्थाऽप्रकाशकत्वहेतु सिद्ध्यर्थ व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वं चक्षुषः कथमिति कथंताप्रश्ने तदुत्तरतया व्यवधानस्य नेत्ररश्मिगतिप्रतिवन्धकत्वं वाच्यं स्यात् कथमन्यथा व्यवहितार्थप्रत्यक्षं न स्यात् । एवञ्च सति व्यवहितार्थाऽप्रत्यक्ष. स्याऽव्यवहितार्थप्रत्यक्षस्य चोपपत्तये व्यवधानस्य चाक्षुषज्ञानप्रतिबन्धकत्वं तदभावकूटस्थ च चाक्षुषज्ञानकारणत्वमेवाभ्युपगम्यताम् , येन क्लिष्टकल्पना परिहता स्यात् , तयोः प्रतिवध्यप्रतिबन्धकमावस्त्वेवम्-स्वप्राचीस्थपुरुषस्य विषयतासम्बन्धेन घटादिचाक्षुषप्रत्यक्षम्प्रति स्वप्रतीचीवृत्तित्वसम्बन्धेन भित्यादीनां प्रतिबन्धकत्वम् , एवं स्वप्रतीचीस्थ. पुरुषीयघटादिसाक्षात्कारम्पति स्वप्राचीवृत्तित्वसम्बन्धेन तेषां तत्त्वम् , तथा स्वोदीची. स्थपुरुषीयघटादिसाक्षात्कारम्प्रति स्वदक्षिणवृत्तित्वसम्बन्धेन तेषां तचमूबम् , यदि च तत्तन्नयनादिक्रियातत्तदुत्तरदेशादीनामेव संयोगनियामकत्वेनानतिप्रसङ्गाद्भित्त्यादीनां न प्रतिबन्धकत्वमिति मतं तदापि तत्तन्नयनोन्मीलनस्य चाक्षुपज्ञानं प्रति परम्पराकारणत्वकल्पनापेक्षया "तस्य हेतुत्वापेक्षया तद्धेतोरेव हेतुत्वम्" इति न्यायेन लाघवाचाक्षुषज्ञानं प्रति तस्य साक्षात्कारणत्वकल्पनमेव ज्यायः, किमनन्तसंयोगादिकल्पनया । एतेनेन्द्रियसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति स्वसिद्धान्तसिद्धसामान्यलक्षणाऽनुगमाऽनुरोधेन प्रत्यक्षवावच्छिन्नम्प्रति इन्द्रियसनिकर्षत्वेनेन्द्रिय सन्निकर्षस्य कारणत्वं ' यत्सामान्ययोः कार्यकारण मावस्तद्विशेषयोरपि सः' इति न्यायावलम्बनेन चाक्षुषप्रत्यक्षम्प्रत्यनन्तसंयोगानां चक्षुस्संयो. गत्वेनानुगमव्य तद्रपेणानुगतं कारणत्वचाभ्युपगम्यत इति तदुत्तरकालभाविगौरवं फलमुर्ख न दोषाय, तदुक्तं चिन्तामणिकारेण, " प्रत्यक्षविशेषे इन्द्रियार्थसन्निकर्षविशेषो हेतुरनुगत एव" इत्यपि निरस्तम्, प्रत्यक्षसिद्धसामीप्यसम्बन्धेनैव चाक्षुषप्रत्यक्षोपपत्तेरतीन्द्रियसंयोगकल्पनायां प्रमाणाभावात् , कार्यलिङ्गकेन कारणानुमानेन तत्सिद्ध्यभ्युपगमे वोक्तसम्बन्धेन तस्यान्यथासिद्धत्वात् । न चैवं तर्हि चक्षुरप्राप्यविषयं तत्प्रत्यक्षज्ञानकारीति स्वसिद्धान्तमङ्गप्रसङ्ग इति वाच्यम् चक्षुस्सभिकर्षवारा प्रत्यक्षजनकमिति चक्षुस्स्त्रविषयं घटादिक
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सम्मति० काण्ड २, गा० १
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संयुज्य तत्प्रत्यक्षं करोतीति न्यायमतनिरास एवोक्तसिद्धान्तस्य तात्पर्यात् । किश्च चक्षूरश्मीनां विषयेसह संयोगानन्तरं तत्प्रत्यक्षोत्पादकत्वाभ्युपगमे युगपदेव शाखानिशाकरयोः प्रत्यक्षं न स्यात्, युगपदुभयसंयोगाभावात् । अथ यद्यपि चक्षूरश्मीनामतिवेगाच्छाखासंयोगानन्तरमविलम्बेनैव शीतकर संयोगादनुकमेणैव शाखायाचन्द्रमसश्व साक्षात्कारस्तथापि शतपत्रशूची वेधदृष्टान्तबलेन तत्र यौगपद्याभिमान एवेति चेत्, तर्हि प्रथमे क्षणे शाखासंयोगः, द्वितीये च शाखानिर्विकल्पञ्चन्द्रमस्संयोगच, तृतीये शाखासविकल्पज्ञानं चन्द्रमोनिर्विकल्पज्ञानश्च चतुर्थे शाखाज्ञानज्ञानत्वनिर्विकल्पज्ञानं चन्द्रमस्सविकल्पज्ञानश्च शाखानिर्विकल्पज्ञाननाशश्च, पञ्चमे शाखां साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायज्ञानं, चन्द्रज्ञानज्ञानस्वनिर्विकल्पज्ञानं, शाखासविकल्पज्ञाननाशश्र, चन्द्रनिर्विकल्पज्ञाननाशश्च षष्ठक्षणे चन्द्रमसं साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायश्चन्द्रसविकल्पज्ञाननाशश्शाखा ज्ञानत्वनिर्विकल्पज्ञाननाशश्चेति प्रक्रियया क्रमेणैव तदुमयानुव्यवसायोत्पच्यभ्युपगमाद् युगपदेव शाखाचन्द्रमसौ साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायानुपपत्तिस्स्यात् । न च क्रमिकोत्पन्नशाखाचन्द्रसाक्षात्कारानुभवजनितक्रमिकसंस्कारद्वयस्य युगपदेव प्रबोधात्तदुत्पन्नायां शाखाचन्द्रोभयावगाहिन्यां स्मृतावेव साक्षात्कारत्वारोपाच्छास्वाचन्द्रमसौ युगपदेव साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसाय इति साम्प्रतम्, ताहगारोपादिकल्पनाय प्रमाणाभावात् । न च तिर्यग्भावावस्थितयोशाखाचन्द्रमसोर्युगपनेत्रतेजसा संयोगानोक्तानुपपत्तिरिति वाच्यम्, सन्निहित व्यवहितयोर्युगपत्संयोगे ऽतिप्रसङ्गात् । अथ नेत्राद्ध हिर्निर्गततेजसाऽर्थ संयोगसमकालमेव बाह्यालोकसहकारेणान्यचक्षुरारम्भादेकस्य चक्षुषश्शाखयाऽन्यस्य च चन्द्रमसा संयोगाद् युगपच्छाखाचन्द्रमसोर्ग्रह इति चेत्, मैवम्, उद्भूतरूपवदालोकात्मकतेजः संसर्गेणाऽनुद्भूतरूपवत्तेजो विशेषात्मकचक्षुराऽऽरम्भस्यायोगात्, योगे वा बाह्यचक्षुषा पृष्ठावस्थित वस्तुग्रहप्रसङ्गादित्यधिकं गौरवमीत्या नोच्यते । तदेवं चक्षुर्मनसोः प्राप्यकारित्वाऽसिद्धया इन्द्रियसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमिति प्रत्यक्षलक्षणाऽसङ्गतेः पूर्वं व्यवसायात्मकज्ञानेन सह मनस्संयुक्तसमवायसन्निकर्षस्याभावेऽपि ज्ञानस्य स्वप्रकाशात्मकत्वादेवानुव्यवसाये मानोपपत्तेस्तत्प्रत्यक्षं भवत्येवेति स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति सिद्धम् । अत एव ज्ञानाकरणकं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणमपि न युक्तम्, ज्ञायमानलिङ्गस्यैवानुमितिकरणत्वमित्यभ्युपगन्तृप्राचीन नैयायिकमतेऽनुमितेरप ज्ञानाकरणकत्वात्तत्रातिष्यातेः । किश्वोपयोगात्मकमात्मव्यापारमन्तरेण कस्या अपि स्वपरव्यवसितेरभावात् स एव तत्र प्रमाणम्, व्यापारी भूतोपयोगलक्षणं तदपि स्वार्थव्यवसितिफलान्न सर्वथा व्यतिरिक्तम्, किन्तु कथञ्चित् एतच्च विवेचयिष्यते, तथा च स्वपरार्थविषयकप्रत्यक्षप्रमाणमात्रस्यापि ज्ञान करणकत्वादुक्तलक्षणमसम्भवदोषग्रस्तत्वादुपेक्षणीयमेवेति । एतेनार्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणमाचक्षते वाचस्पतिमिश्रा इत्यपि निरस्तम्, यत इन्द्रियं सन्निकर्षो वा साक्षादुपलब्धौ फले व्याप्रियते, न तु प्रमाता, तस्य कर्तृत्वात्, न वा प्रमेयं, यतः
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सम्मति का २, गा० १
तस्य प्रत्यक्षादन्यत्रेोपलब्धौ हेतुत्वमेव नास्ति, प्रमाणविषयमात्रेणोपयुज्यमानत्वादिति यदीन्द्रियादिकं तत्सन्निकर्षादिकं वा साक्षादर्थोपलब्धौ हेतुरिंति तदेव सूक्ष्मदर्शिनोऽस्य मते प्रमाणं, तर्हि स्वपरव्यवसायिज्ञानमेव प्रमाणतयाऽभ्युपगन्तुमुचितम्, यथार्थपरिच्छेदफलस्य साक्षातत एव भावात्, यथा च ज्ञानरूपादपि प्रमाणात्तत्फलं स्वार्थव्यवसित्यात्मकं कथश्चिनिं तथा निर्णयिष्यते । " अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम्, बोधाबोधस्वभावा हि तस्य स्वरूपम्, अव्यभिचारादिविशेषणार्थोपलब्धिसाधनत्वं लक्षणम्" इति न्यायमञ्जय जरनैयायिकजयन्तमट्टोक्तमपि लक्षणं न युक्तियुक्तम्, यतस्सामग्री कारकसाकल्यरूपा, कारकसाकल्यस्य चाबोधस्वमावस्याज्ञानरूपत्वेन स्वपरव्यवसायिज्ञानफलोत्पादने साधकतमत्वामात्रान प्रमाणत्वम्, किश्वार्थप्रमितिफलं प्रति नाव्यवधानेन सामग्री प्रमाणम्, उपयोगरूपमावेन्द्रियस्त्र मावज्ञानेन तस्या व्यव धानात्, नाप्यव्यवहितव्यापारत्वेन साधकतमत्वाज्ज्ञानं प्रमाणं तद्धेतुत्वात्तु सामग्रयपि प्रमाणमित्येवं स्वरूपव्यवधानेन, तथा सति सा प्रधानं प्रमाणं न स्यात्, औपचारिकं तु तत् को नाम प्रामाणिको नाभ्युपैति । एवं सकलानां कारकाणां साधारणासाधारणस्वमावानां साकल्यस्य परिसमाझ्या सर्वत्र वर्त्तमानस्य कथं साधकतमत्वमित्यपि विचारणाई सुबुद्धिधनैः । अथोपात्तविषयाणामिन्द्रियाणां वृत्तौ सत्यां बुद्धेस्तमोऽभिभवे सति यः सवसमुद्रेकः सोsव्यवसाय इति वृत्तिरिति ज्ञानमिति चाख्यायते बुद्धिवृत्तिरेव च पुरुषमुपरञ्जयन्ती प्रमाणम्, तदुपरक्तो हि पुरुषः प्रतिनियतविषयद्रष्टा सम्पद्यत इति सामयमतमपि न च विदुषां हृदयङ्गमम्, तथाऽभ्युपगमे यो हि महान् जानाति बुद्धयतेऽध्यवस्यति न तस्यार्थदर्शनात्मकं तत्फलम्, अचेतनत्वान्महता, यस्य च पुंसोऽर्थदर्शनं न स जानाति न बुद्ध्यते नाध्यवस्यति तथा च ज्ञानादिधर्मयोगः प्रमाणं पुंसि न विद्यते, किन्तु बुद्धौ, तत्फलमर्थदर्शनं च बुद्धौ न वर्त्तते, किन्तु पुरुष इति मिन्नाधिकरणत्वं प्रमाणफलयोः प्राप्तम्, न च तत् प्रमाणगोचरचारि । अथ स्वच्छतया पुंसि बुद्धिवृत्यनुपातिनि बुद्धिधर्माऽध्यारोपाद् ज्ञानादिधर्मयोगोऽपि तत्र विद्यत इत्यर्थद्रष्टैव पुमान् ज्ञाता | बुद्धावपि वेतनाकारसंस्पर्शलक्ष्य माणायामिव पुरुषधर्माध्यारोपात् साध्यर्थदर्शनफलवतीति न मिनाधिकरणत्वदोष इति चेत्, तर्हि स्ववाचैव मिध्यात्वं ख्यापितं स्यात्, चिद्धर्मो हि बुद्धौ मिथ्या, बुद्धिधर्मश्च चिति मृषेत्यभ्युपगमात् साङ्ख्यमतश्च निखिलं पूर्वमेव निरस्तम्, निरस्यते चेति नात्राधिकं विव्रियते । यदप्यनधिगतार्थावगाहिज्ञानं प्रमाणमित्यभिधीयते मीमांसकैः, तदपि न साम्प्रतम्, प्रमाणस्य गृहीततदितरविषयप्रवृत्तस्य प्रामाण्ये विशेषाभावात् ।
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ननु गृहीतविषये प्रवृत्तं प्रमाणं किं कुर्यादिति चेत्, उच्यते, तद्विषयेऽभ्यासपाटवेन दृढतरनिश्चयात्मकप्रमान्तरोत्पच्या संस्कारदृढीकरणमेवेति तत्फलं किमिति चेत्, प्रवृत्तिनिवृत्यादिकमेव, चन्दनघनसारहारमहिलादावुपादेये पुनः पुनरुपलभ्यमाने प्रीत्यतिशय
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सम्मति काल , गा० . लक्षणसंस्कारमहिम्ना प्रवृत्तिः, हेये विषधरकण्टकादौ विषये पुनः पुनः परिहश्यमाने मन:सन्तापात्मकद्वेषसंस्कारवशानिवृत्तिः, शास्त्रीयविषये बन्धादौ निवृत्तिः, संवरादौ च प्रवृत्तिस्वसंवेदनसिद्धैवानुभ्यते, तथाऽनभ्युपगमे धारावाहिकज्ञानमध्यप्रमाणं स्यात् , तस्याधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वात् । एवं प्रत्यभिज्ञानमयप्रमाणं स्यात्, स्याच प्रत्यक्षाधिगतस्याप्यर्थस्य सिपाधयिषया तार्किक क्रियमाणाऽनुमितिरप्यप्रमाणम् । तस्मादनधिगतार्थवाहित्वे स्यज्यतामाग्रहः । अथैवं तर्हि स्मृतेरपि प्रामाण्यं स्यादिति चेत्, भवतु नाम प्रत्यभिज्ञानवस्त्रापि स्वपरव्यवसायित्वात् प्रामाण्यम्, का नाम ना क्षतिः, जिनानुगैस्तथैव स्वीकृतत्वात् । उक्त स्याद्वादरत्नाकरे
"अथाधिगतगन्तृत्वे, प्रामाण्यं स्यात् स्मृतेरपि ।
पदि स्यात् किं तदा जातं, क्षुण्णं जैनेन्द्रशासने ॥ १॥" इति अथ प्रत्यभिज्ञाने इदानीन्तनाऽस्तित्वं प्रमेयमधिकं प्रतिभासत इति न तदृष्टान्तबलात्स्मृतेः प्रामाण्यमभ्युपगन्तुं युक्तमिति चेद्, मैवम् , स्मृतावप्यतीतकालोपलक्षितार्थस्याधिकस्य प्रतिमासनात् । न चानर्थजन्यत्वादपि तस्या अप्रामाण्यम् , तस्याऽपामाग्य प्रत्यप्रयोजकत्वात् , अन्यथा घनाघनघनाडम्बरलिङ्गेन धृष्टिधर्मिणि भविष्यवस्यानु. मानमप्यप्रमाणं स्यात्, तद्विषयीभूतस्य भविष्यत्वस्येदानीमसद्रूपत्वात् , एवं करीषदर्शनोद मुद्धधूमस्मरणेनातीतवयनुमानमध्यप्रमाणं स्यात् , अतीतवस्तदानीमभावात् ,तदेवं मीमांस. काभ्युपगतप्रमाणसामान्यलक्षणमपि न सङ्गत्यहमिति । यच बौद्धाः पुनरविसंवादकत्वं प्रमाणसामान्यलक्षणमाचक्षते, तदुक्तं प्रमाणवार्तिके-" प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् ॥ २-१ इति, तत्र मानेऽविसंवादकत्वं यथाक्गतार्थप्रापकत्वलक्षणम् , अत एव "प्रापणशक्तिः प्रामाण्यम्" इत्युक्तमिति, तदप्यश्लीलम् , यतो नीलनिर्विकल्पज्ञानावगतं नीलस्वलक्षणम् , न च तत्प्राप्यते, तस्य क्षणिकत्वेन प्रवृत्तिकालेऽतिक्रान्तस्वरूपतया तदमावात् , अथ " यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इत्युक्तेर्नीलनिर्विकल्पज्ञानं नीलांशे नीलं नील. मिति विकल्पोत्पादकत्वात्तदंशे प्रमाणम् , उक्तविकल्पद्वारा नीलार्थप्रापकत्वात् । तद्गृहीते क्षणिकत्वांशे च तद्विकल्पानुत्पादकत्वादप्रमाणे, स्थैर्येऽप्यप्रमाणम् , विपरीतावसायकलुषितस्वादिति, चेद्, यद्येवं मन्यसे, तर्हि सुतरामिदं प्रमाणलक्षणं दुःस्थम्, यतोऽस्मिन् प्रक्रमे विकल्पो न स्वलक्षणविषयः, किन्तु तत्सन्तानावगाहित्वेन तदभ्यवसायरूप इति सोऽर्थप्रापणं प्रति प्रमाणस्य व्यापार इति वर्णितवानसि, तब न युक्तम्, यतो यथा तत्त्वं न तथाध्यवसाय:, यथाऽध्यवसायो न तथा तत्वमिति यथा मरीचिस्वलक्षणदर्शनमुदकाध्यवसायजननादप्रमाणमेवं स्वलक्षणदर्शनमपि तद्विपरीतसन्तानाध्यवसायजननादप्रमाणीभवेदिति । किा सन्ताने काल्पनिकेऽभ्यवसिते सति दृश्याभिमुखः किमिति प्रवर्तते,
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सम्मति• काम २, गा.. निर्विकल्प्यविकल्प्ययोस्थयोरेकत्वाध्यवसायादिति चेत् , तर्हि मुख्यवृत्या स्वयं निर्विकल्पज्ञानं नार्थक्रियार्थिनां तत्समर्थेऽर्थे संवादिप्रवृत्तिजनकत्वेनाविसंवादकं प्रमाणम् , किन्तु व्यवहारोपयुक्तोक्ताध्यवसायद्वारवेत्युपचरितं तस्य प्रामाण्यं स्यात् , तस्मादनुपचरितमवि. संवादकत्वं प्रमाणस्य लक्षणमिच्छद्भिः परीक्षकैर्व्यवहारार्थमेव प्रमाणान्वेषणं क्रियत इति तद्धेतोनिर्विकल्पोत्तरकालभाविनो निश्चयात्मकविकल्पस्यैव प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम्, न तु निर्विकल्पज्ञानस्य, तस्य साक्षाव्यवहाराऽप्रवर्तकत्वेन शिखण्डिकल्पत्वात् । एवं हि परम्परापरिश्रमः परिहृतो भवति, सन्तानस्यावस्तुभूतत्वेन तद्विषयकत्वाद्विकल्पस्याप्रामाण्ये कथं तनिमित्तो व्यवहारोऽविसंवादी ? | अथ यस्मिन् स्वलक्षणभृतेऽर्थे यनिर्विकल्पज्ञानं सजातं तन्मलकात्तत्सन्तानविषयकविकल्पात्प्रवृत्तौ मूलभूतवस्तुसन्तानीयार्थप्राध्या व्यवहारोऽविसंवादीति चेत्, स्यादेतत् सन्तानसिद्धौ, न च तत्सिद्धं, भेदाभेदविकल्पाभ्यामनुपपद्यमा. नत्वात् , तच्च प्रागेवोक्तं क्षणिकप्रक्रियानिरासे । तदेवं बौद्धाभ्युपगतप्रमाणलक्षणमपि न युक्तियुक्तमिति सिद्धम् । एतेन बाह्यार्थाऽभावेन तदालम्बनाभावान्निरालम्बनमेव ज्ञानं प्रमाणमिति स्वसंवेदनज्ञानाद्वैतवादियोगाचाराख्यबौद्धमतमपि निरस्तम् , इदं नीलमिति ज्ञानवज्ञानं नीलमित्यपि प्रतीतिप्रसङ्गस्स्यात् । कथं च बाह्यार्थाऽसत्त्वे प्रतीतौ तदुल्लेखोऽपि स्यात् ,वासनाs. भ्यासादिति चेत्,मैवम् ,अर्थमन्तरेण वासनाया अप्यनुपपत्तेः,अर्थानुभवसमाहितो हि संस्कारो वासना कथ्यते, सा कथमसदर्थप्रतिभासहेतुस्स्यात् । भवतु वाऽन्याशा वासना भवदम्युपगता तथापि सा बाह्यार्थाभावे वनकुसुमसौरभप्रतीति किमित्युपजनयति न गगनारविन्दसौरभप्रतीतिमिति कुतस्त्यो नियमः । किश्च ग्राह्यग्राहकावभिन्नौ विशेषतो नीलतद्धियावभिन्ने इत्यत्र को हेतुः, नियमेन सहोपलम्भ एवेति चेत् , तन्न तस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् । अधिकं गौरवमीत्या न प्रपश्यते तदेवं रविप्रकाशस्येव ज्ञानप्रकाशस्यापि बाह्यार्थप्रका. शकत्वोपपत्तेस्तन्मतमपि न युक्तियुक्तम् । ज्ञातताफलानुमेयो ज्ञानव्यापारो ज्ञानादिशब्दवाच्यः प्रमाणमिति मीमांसकमतं प्रमाणप्रमेयोभयनिहवशून्यवादिमतश्चाद्यकाण्ड एव निरस्तमिति किं पिष्टपेषणेन ? तदेवं तीर्थान्तराभिहितलक्षणस्य प्रमाणस्य निरपवादस्या:सिद्धेस्सिद्धं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति स्वपरव्यवसायिज्ञानपर्यवसायि स्वार्थसंवेदनं प्रमाणमिति च । ननु प्रमीयते यथावन्निश्चीयते वस्तुतत्वं येन तत्प्रमाणमिति करणे ल्युट्प्रत्यय. निष्पन्नस्य प्रमाणपदस्य प्रमाकरणार्थकत्वेन स्वार्थसंवेदनस्य प्रमाकरणत्वे तत्फलं किमिति चेत्, उच्यते, स्वार्थव्यवसितिरेव, नन्वहो जैनानामपूर्वेयं विचारचातुरी, यतस्तथाऽभ्युपगमे स्वार्थव्यवसितिरूपप्रमात्मकज्ञप्तिफलस्य स्वाभिन्नोपयोगेन्द्रियमेव करणं जिनानुगैरभ्युपगतं स्यादित्येकस्मिन्नेव ज्ञाने प्रमाणत्वप्रमात्वविरोध एव दुरुद्वरो दोषस्स्यादिति चेत् , स्यादेतत् , यकस्वभावेन तदुभयाभ्युपगमस्स्यात्, न चैवम् , पावको दहत्योष्ण्येनेत्यत्र पावके दहनक्रिया युगपद्दाहकत्वस्वभावेनौष्पयञ्चोष्ण्यत्वस्वभावेनेव साधकतमत्वस्वभावेन ज्ञाने प्रमाणत्वं
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सम्मतिः काण १, गा० २ ज्ञप्तिक्रियात्वस्वभावेन प्रमाफलत्वमित्येवमुररीकारात्, घटाभावीय प्रतियोगितावान् घट इत्यत्र प्रतियोगिताया प्रतियोग्यात्मकत्वपक्षे एकत्रैव घटत्वेन प्रतियोगितात्वेनाश्रयत्वाश्रितस्ववत् , प्रतियोगिताया अवच्छेदकात्मकत्वपक्षे घटाभावीय प्रतियोगिता घटत्वावच्छिन्नेत्यत्रैकत्रैव घटत्वत्वेन प्रतियोगितात्वेनावच्छेदकत्वावच्छिन्नत्ववच्च नैव तत्र स्वभाव भेदापेक्ष. योस्तयोः कोऽपि विरोध इति । ननु परश्वधादिकरणस्योद्यमननिपातनादिव्यापारद्वारा दादिद्वैधीभावात्मकं भिन्नमेव फलं दृश्यते, न त्वभिन्नं कुत्रापि, अभेदे कार्यकारणभावा. भावादिति चेत्, प्रदीपः स्वं स्वेनैव प्रकाशयतीति प्रतीतेः प्रदीपात्मनः कर्तुः कथचिदभिः अस्य प्रकाशात्मककरणस्य प्रकाशनक्रियायाश्च प्रदीपात्मिकायाः कथञ्चिदभेदस्य व्यवस्थापितत्वात् प्रकाशनक्रियात्मकफलस्य स्वाभिन्नप्रदीपः करणमित्यत्रापि दीयतां दृष्टिः, यदि च करणस्य भिन्नेनैव फलेन भाव्यमित्यत्रैवाग्रहस्तदा मत्यादिक्षायोपशमिकप्रमाणानां भिन्न फलमादानहानधी, उपादित्साजनिका जिहासाजनिका च बुद्धिरिति यावत् , उपेक्षा. बुद्धिश्च । अतः प्रमाणफलं प्रमाणात् कथश्चिद्भिन्नाभिन्नम् प्रमागफलत्वान्यथाऽनुपपत्तरिति सिद्धम् । क्षायिककेवलज्ञानस्य त्वौदासीन्यं फलमवेहि, केवलिभगवतां हेयस्य संसारतत्का. रणस्य हानात् , उपादेयस्य च मोक्षतत्कारणस्योपादानात् सिद्धप्रयोजनत्वेन प्रवृत्तिनिवृत्तिनिरीहत्वादिति । संवदति चात्र "पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत्फलमौदासीन्यम् ।" ६-४ | " शेषप्रमाणानां पुनरुपादानहानोपेक्षाबुद्धयः।" ६-५ । इति प्रमाणनयतचालोकालङ्कारसूत्रद्वयमिति दिक् ॥ १॥
अन्योन्यानुस्यूतसामान्यविशेषात्मके च प्रमाणप्रमेयरूपे वस्तुतत्त्वेऽनेकान्तदृष्ट्या व्यवस्थिते द्रव्यार्थिकनयविवक्षायां तन्मतेन सामान्यमात्रग्रहणलक्षणदर्शनस्यैव प्रमाणत्वेनाभ्युपगमात्तद्गोचरसामान्यमेव सत् , न विशेषाः, पर्यायार्थिकनयविवक्षायां तन्मतेन विशेष. मात्रग्रहणलक्षणज्ञानस्यैव प्रमाणतयोररीकरणात्तद्वोचरविशेषा एव सन्तः, न सामान्यमित्यु. पदयं तदुमयनयविषयविषयकप्रमाणार्पणायां तु द्रव्यपर्यायो सामान्यविशेषेत्यपराख्याधुपसर्जनीकृततदितराकारप्रधानीभूतवाकारदर्शनज्ञानग्राह्यावन्योन्याऽविनाभाविनावेव सद्भूता. विति गौणप्रधानमावेन सामान्यविशेषोभयग्राहकदर्शनज्ञानरूपं प्रमाणमिति दर्शयन्नाह
दव्वहिओ वि होऊण दंसणे पज्जवडिओ होइ।
उवसमियाईभावं पडुच णाणे उ विवरीयं ।। २॥ ॥ ५६ ॥ प्राधान्येन सामान्यांशग्रहणपरिणामे दर्शनेऽपि गौणतया विशेषांशग्रहणपरिणामो न निवृत्तः, नापि प्राधान्येन विशेषांशग्रहणपरिणामे ज्ञाने गौणतया सामान्यांशग्रहणपरिणामो निवृत्त इति तात्पर्यार्थः । शब्दार्थस्त्वेवम्-' दवडिओ वि' द्रव्यार्थिकोऽपि, अत्र द्रव्या
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पम्मति का , गा० २ पिकस्य नयात्मकज्ञानरूपत्वाद्विषयिणा नयेन विषयो द्रव्यार्थरूपो गृहीतः, यद्वा द्रव्यमेवाओं द्रव्यार्थः ततस्स्वार्थे प्रत्यये सति द्रव्याथिक इति रूपं निष्पद्यते, तथा व द्रव्यार्थोंऽपीत्यर्थः । तथा च 'दसणे दवडिओ वि होऊण' दर्शने सामान्यविषयके आत्मा द्रव्यार्थरूपोऽपि भूत्वा सामान्यग्रहणपरिणामोऽपि भूत्वा, तदेव ' पजवडिओ होइ' पर्यायास्तिको भवति, पर्यायास्तिकनयविषयविशेषग्रहणपरिणामोऽपि भवति, यदा हि सामान्यरूपतया आत्मा दर्शनविषयतासम्पमो भवति तदा स्वीयविशेषस्वमारमपि नैव परिजहाति, तदुमयस्वभावस्याविनामाविस्वाद, यदा च विशेषरूपतयाऽऽत्मा ज्ञानविषयीभूतो भवति, तदापि स्वीयसामान्यस्वभावमपि नेव परित्यजतीति स सामान्यपर्यालोचने दर्शने सामान्यग्रहण परिणामरूपेण प्रवृत्तोऽप्युपातविशेषग्रहणपरिणामः, न हि विशिष्टेन रूपेण विना सामान्य सम्भवति, एवं विशेषग्रहणोन्मुख ज्ञाने विशेषग्रहणपरिणामरूपेण प्रवृत्तोऽप्युपात्तसामान्य. ग्रहणपरिणामः, न हनुगतसामान्यस्वरूपं परित्यज्य विशेषा अपि प्रमाणभावं भजन्ते । एतदेवाह-उवसमियाईभावं पडुच' औपशमिकादिमावं प्रतीत्य इति, औपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिकादीन् भावान् अपेक्ष्याऽऽत्मनो विशेषरूपरवेन ‘णाणे उ विवरीय' झाने तु विपरीतं विशेषग्रहणपरिणामे झाने तु पूर्वोक्तसामान्यग्रहणपरिणामदर्शनतो विप. रीतम् , अस्य भावप्रधाननिर्दिष्टत्त्वाद्वैपरीत्यमित्यर्थः, अत एव 'जं सामण्णपहाणं गहणम' इत्यादिपूर्वोक्तधर्मसब्रहणीगाथायां प्रथमैकवचनान्तं "विवरीयं होइ नाणं तु" इत्युक्तम् । अयम्भाव:-ज्ञाने हि प्राधान्येन विशेषाकारतया भासमानस्सन् गौणतयाऽऽस्माद्यर्थस्सा. मान्याकारतयाऽपि प्रतिभासते, तथा च दर्शने सामान्यस्य विशेषरहितस्य ज्ञाने च विशेपाणां सामान्यरहितानामप्रतीयमानत्वादात्माद्यों विशेषरूपस्सन स एव सामान्यरूपोऽपि भवतीति सामान्यविशेषौ मिथोऽविनाभूतावेव प्रतीयते इति प्रमाणार्पणया तदुभयात्मक एवात्माद्यर्थ इति सिद्धम् । पूज्यपादाभयदेवसूरिकतैतडीकामनुसृत्य त्वौपशमिक-धायिकथायोपशमिकादीन् भावान् अपेक्ष्य विशेषरूपत्वेन ज्ञानस्वभावाद्वैपरीत्यं सामान्यरूपता प्रतिपद्यते, विशेषरूपस्सन् स एव सामान्यरूपोऽपि भवतीत्याद्यर्थोऽनुसन्धेयः ॥ २॥
. ननु यथाऽनाकारोपयोगसाकारोपयोगी दर्शनज्ञानाख्यो छअस्थानां छापस्थिकोपयोगस्वाभाब्यारक्रमेण भवतः, तथाहि-यदा चक्षुर्दर्शनाद्यन्यतमदर्शनोपयोगोपयुक्तछयस्थात्मा तदा न मतिज्ञानाद्यन्यतमज्ञानोपयोगोपयुक्तः, यदा च मतिज्ञानाद्यन्यतमज्ञानोपयोगोपयुक्तस्तदा न चक्षुर्दर्शनाद्यन्यतमदर्शनोपयोगोपयुक्त इत्येकतर एवोपयोगो भवत्येकस्मिसमये, "जुग नत्थि दो उपओगा" इति वचनात्, न तु युगपदर्शनज्ञानोपयोगी द्वौ, तथास्वाभाच्या, तथैव कि केवलिभगवतां केवलदर्शनोपयोगकेवलज्ञानोपयोगी क्रमेण भवतः, किंवा बुगपदेकस्मिनेष समये द्वावपि तो, किंवा यदेव केवलशानं तदेवं केवलदर्शनमिति चेत् , उच्यते, अत्र स्वस्वगुरुसम्प्रदायाविच्छिन्नवाचनापरम्पराज्या
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२१९ खासीयतचनसमर्मितहानसम्पत्प्रमोन्यामायाचनमानीनमिवामदायकमनत्रयम्, न. थापि न कस्मिषिदपि मतेऽप्रामाण्यशा कर्वच्या, मगवत्प्रवचनस्य तचमयाधीनमधिफत्वेन पथोपपत्रवनयप्रयोज्यस्त्रार्थगोचरत्वात्पक्षत्रयाणाम् , अत एव शासनानुरायशुभोपायवस्सु अविच्छिमगुरुपरम्पराऽऽयातस्त्रतात्पर्यमपक्षपातेन बन्वत्सु गरिमाक्रम केपचिदपि मिथ्यामिनिवेशिस्वाऽऽरोपोऽपि न कव्यः, वीतरागाप्रणीतशास्खतात्पर्यपाचप्रतिसन्धानपूर्वकान्यथावद्वानाऽभावात् , एतत्चचमग्रे विवेचयिष्यते इति नानाविकं तन्यते । अत्र युगपदुपयोगदयवादिनां पूज्यपादश्रीमल्लसदिप्रभृतीयामेवं मतम्केवलदर्शनकेवलज्ञानोपयोगी युमपद्भवतः, एकसमयावच्छिन्नस्तस्वसामग्रीजन्यत्वात् युपपदाविर्भतस्वभावत्वाद्वा, यावेवम् तावेवम् , यथा रवेः प्रकाशतापाविति । "जुपवं दो नस्थि वओगा" इति सिद्धान्तवचनात् महावार्किकशिरोमणितावपादधीसिद्धसेवदिवाकर स्तु नैवं मन्यते, किन्तु एकेनैव सिद्धे किं दूरकल्पनयेति न्यायेन यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमित्येक एव धर्मी, केवलदर्शन केवलज्ञानमेदव्यवहारस्तु वत्र ज्ञानत्वदर्शवत्व. पर्मद्वयकल्पनाप्रयुक्त एक, न तु वस्तुगत्येति । पूज्यपादश्रीजिनभद्रमणिक्षमाश्रमणादीन सिद्धान्तमवलम्बमानानां मतशेवम्-" सबाओ लद्धीओ सागारोवओमोवउत्तरस मवा" इत्याप्रवचनस्य विनिगमकत्वात् केवलज्ञानस्यापि लन्धित्वात्साकारोपयोगकाले तस्य भावादाघे समये तत, न च तदैव केवलदर्शनोपयोगोत्पत्तिः " जुगवं दो नत्थि उवोगा" इति सिद्धान्तवचनात्, किन्तु द्वितीयसमये, केवलदर्शनोपयोगस्य क्रममावित्वेनार्थसिहत्त्वाचदानीम् । अथ छअस्थज्ञानदर्शनोपयोमापेक्षमा तद्वचनमिति चेत्, मैवम् , विशेषाचमिधानात् ,भास्थोपयोगविषपरवेनोक्तसिदान्तवचनस्य सोचकरणे बीजाभावात् । बदतु क्रमिकोपयोगदपधारापासस्वरसत एवं प्रवेस्तृवीयसमये केवलज्ञानोपयोगः, चतुर्थे क्रमायात केवलदर्शनोपयोमः । एवमरेऽपीत्येवं सर्वकालं प्रतिक्षणं ऋमिक एक एव केलानकेरलदर्शनापतरोपयोग इति । ननु लोके क्रमिकसामग्रीमेदादेव ऋमिककार्यमेदो दृश्यते, नचान स इति कथं केवलिनां ऋमिकोपयोगरूपकार्यमेद इति चेत्, वम्, केवलकाने केवलज्ञानान्योपयोमसइतकेवलज्ञानावरणक्षयस्य केवलदर्शने न केवलज्ञानोपयो. मसहकतकेचलदर्शनावरणक्षयस्य हेतुत्वेनात्रापि ऋमिकसामग्रीमेदस्य सन्चाद, आयकेवलज्ञानात्पूर्व केवलदर्शनस्थामावालभिचारस्स्पादतः केवलदर्शनोपयोमसइकतेत्यनुक्त्वा केवलज्ञानान्योपयोगसहछतेति केवलज्ञानकारणकोटाबुकम् । नन्वेवं तर्हि सथोपवेता केवलज्ञानोपयोमः केवलदर्शनोपयोगध, तमाशस्तु समयान्तरे न स्यादेव, वाधकहेत्वमावादित्यपि न चाशनीयम्, अलिबचनस्थानेकनवसमूहयपत्त्वाचवलयविवक्षेत्र प्राधान्येन तत्कायोपयोगिनीत्वार्जुवन नयावलम्बनेन मारमात्रस्य विनाशस्वभावनियक्लेन स्वनाशम्प्रति स्वास्वहितोत्तरवववर्तिभावापेक्षणेन स्वत एव नाशा, पत
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सम्मति काण्ड २, गा० ३
er से निर्हेतुक इति तन्मतेनोच्यत इति केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्यापि च स्वत एव क्षणान्तरे विनाशात् । यद्वोक्तनयमतेन स्वस्य स्त्र एव नाशक इति केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च विनाशे प्रतियोगिन एव हेतुत्वात् द्वितीयक्षणे सस्थादेवेति मावनीयम् । अत्र केवलज्ञानकेवलदर्शने एकात्मनि युगपदुत्पद्येते न वा, केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणकेवलदर्शनोत्पत्तिक्षणोत्पत्तिकं न वेत्यर्थपर्यवसायिनी प्रथमा विप्रतिपत्तिः, केवलज्ञान केवलदर्शने क्रमेणैकात्मनि समुत्पद्येते न वा, केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरण केवलदर्शनोत्पत्तिक्षणा
वहितपूर्वक्षणोत्पत्तिकं न वेत्यनुगतार्था च द्वितीया इत्याद्या उक्तमतत्रयाणां साधारण्यो विप्रतिपत्तयः । आद्यविप्रतिपत्तौ विधिपक्षो महनीयमान्य पूज्यपाद श्री मल्लवादिसिद्धसेनदिवाकराणाम्, तत्रापि केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरण केवलदर्शनसमानकालीनमपि केवलदर्शनाद्भिन्नमेवेति तातपादश्रीमल्लवादिनः । प्रवचनोपनिषद्वे दिवादिमुख्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरास्तु तत् केवलदर्शनादभिन्नमेवेति प्राहुः । निषेधपक्षो भगवच्छ्रीजिनमद्रगणिक्षमाश्रमणादीनामिति । द्वितीयविप्रतिपत्तौ चोक्तवैपरीत्येन विध्यंशे निषेधांशे च ज्ञेयम् । नन्वेवं विप्रतिपत्तौ सत्यां किमत्र तत्वं सत्यमित्याशङ्कायां ' यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्प्रथमं युगपदुपयोगद्वयवादिमतप्रदर्शनायाह
मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलनाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं || ३ || ५७ ॥
'मजवणाणतो ' मनःपर्यायज्ञानमन्तं पर्यवसानं यस्य स मनःपर्यायज्ञानान्तः, स कः कस्य चेत्याशङ्कायामाह - ' णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो' ज्ञानस्य च दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्भाव इति साध्यम् । अत्रानुक्तमपि छद्मस्थोपयोगत्वं हेतुर्दृष्टव्यः । तथा च प्रयोगःचक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथक्कालानि छद्मस्थोपयोगात्मकज्ञानस्वात् श्रुतमनः पर्यायज्ञानवत्, सङ्केतस्मरणोबुद्धवाच्यवाचकभाव सम्बन्धतोऽर्थस्मरणद्वारा पदज्ञानजन्यतद्वाच्यार्थविषयके तत्तत्पदार्थोपस्थितिद्वारा पदसमूहरूपवाक्यार्थविषयके वा श्रुतज्ञाने यानि चिन्त्यमानपदार्थानुगुणानि संज्ञिपश्चेन्द्रियजीवैः काययोगेन गृहीतानि मनोवर्गणाद्रव्याणि मनोयोगेन च मनस्त्वेन परिणमितानि तत्पर्यायविषयके मनःपर्यायज्ञाने चक्षुरचक्षुरवधिदर्शन पृथक्कालत्व साध्यसिद्धेर्न दृष्टान्तासिद्धिरिति । अत्र दर्शनत्रयपृथकालत्वं कुत्रापि एकस्मिन्नसिसाधयिषितम्, यच्च स्वदर्शनपृथक्कालत्वं सिसाधयिषितं तनोक्तदृष्टान्तयोर्विद्यत इति दृष्टान्ताऽसिध्ध्याऽत्र सावरणत्वं हेतुः कर्त्तव्यः, व्यतिरेकी च प्रयोगः । ननु चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि स्वस्वदर्शनपृथक्कालानि सावरणत्वात् यचैवं तत्रैवमिति व्यतिरेक्यनुमानेऽपि व्यतिरेकदृष्टान्तीभूते केवलज्ञाने स्वदर्शनपृथकालत्वाभावो हेतुरद्यापि नैव सिद्ध इषि दृष्टान्ताऽसिद्धिस्तदवस्यैवेति चेत्, तर्हि तअन्यत्वमेव हेतुः क्रियताम्, यद् यजन्यं तत्ततः
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सम्मति० काम २, गा. ४
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पृथकालमिति सामान्यव्याप्तौ यथा दण्डाद् घट इति दृष्टान्तस्य सर्वाऽविगानेन सिद्धत्वाम दृष्टान्तासिद्धिरित्युक्तं ज्ञानबिन्दौ न्यायाचार्यः शब्दान्तरेण । यथा चक्षु नादिकं चक्षुदर्शनादिजन्यमित्यतस्ततः पृथक्कालं तथा केवलज्ञानं केवलदर्शनजन्यं नेति न केवलदर्शनपृथकालं किन्तु तदुभयमेकसमयावच्छिनोत्पत्तिकम् अव्यवहितपूर्वसमयावच्छिनस्वस्त्रसामग्री. जन्यत्वात् , मतिज्ञानश्रुतज्ञानलब्धिद्वयवदित्याशयेनोत्तरार्द्धमाह-'केवलनाणं पुण' केवलज्ञानं पुनः 'दसणं ति' दर्शन मिति-दर्शनोपयोग इति, 'नाणं ति य' ज्ञानमिति च ज्ञानोपयोग इति च 'समाणं' समानं तुल्यकालम् , तुल्यकालीनोपयोगद्वयात्मकः केवलाख्यो बोध इत्यर्थः । प्रयोगवात्र-केवलिनो ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगावेककालीनौ युगपदाविर्भूतस्वभावत्वात् , यावेवम् तावेवम् , यथा रवेः प्रकाशतापौ ॥ ३ ॥ अयमभिप्राय आगमविरोधीति केषांचिन्मतम् , तानधिक्षिपनाह
केई भणंति जइआ जाणइ तहआ ण पासइ जिणोत्ति ।
सुत्तमवलंबमाणा तित्थयराऽऽसायणाऽभीरू ॥४॥५८॥ केई केचित् पूज्यपादश्रीजिनभद्रानुयायिनो 'भणंति' भणन्ति, प्रतिपादयन्ति, कि भणन्तीति कर्माकासायामाह-' जदया' इत्यादि, 'जइया' यदा 'जाणइ' जानाति 'तइया' तदा ‘ण पासइ' न पश्यति, कर्नुराकासायामाह-'जिणोत्ति' जिन इति 'सुत्तमवलंबमाणा' सूत्रमवलम्बमानाः "केवली णं भंते ! इमं रयणप्पमं पुढवि आगारेहिं हेऊहिं उबमाहिं दिटुंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समय जाणति तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा ! नो इणढे समडे, से केणटेणं भंते! एवं वुचति-केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवं आगारेहिं० जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासइ नो तं समयं जाण! गोयमा ! सागारे से नाणे भवति, अणागारे से दंसणे भवति, से तेण?णं जाव णो तं समयं जाणति, एवं जाव अहे सत्तमे" इति प्रज्ञापनात्रिंशत्तमपश्यताख्यपदगतसूत्रमवलम्बमानाः, अस्य च सूत्रस्य किलायमर्थस्तेषामभिमतः-केवली-सम्पूर्गबोधा, णमिति वाक्यालङ्कारे, भन्ते इति भगवन् 'इमा रत्नप्रभा पृथिवीमाकारहेत्वादिभिरष्टाभिः करणभूतैः 'जं समयं जाणइ तं समयमिति' कालाधनोरत्यन्तसंयोग इति २-३-५ इति सूत्रेण द्वितीया अधिकरणसप्तमीचाधिका, तेन 'यं समयं जानाति' यस्मिन् समये जानाति 'तं समयं पासह' तस्मिन् समये पश्यति ? यस्मिन् समये पश्यति तस्मिन् समये जानाति ? इति भगवता श्रीगौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-गौतम ! नायमर्थस्समर्थः, नैव यस्मिन् समये जानाति तस्मिन्नेव समये पश्यतीत्यर्थो युक्त्युपपन्नः, ततोऽन्यस्मिन्समये जानाति अन्यस्मिंश्च समये पश्यतीति भावः, तत्वमजानानः पुनः पृच्छति, से केगडेणं भंते ! इत्याधुञ्चारणीयम् ,
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सम्मतिः अब ३, प्र.. अमरना-“साम्बारे से नाणे भवति अपसगारे से दसणं हा नि" साकार विशेष ग्राहि 'से' तस्य केलिनो झानं भवति, अनाकारं अतिक्रान्तविशेष सामान्यमाहि दर्शनं भवति "जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं निसेसियं नाणं" इति वचनात् । बानदर्शने कसमयावच्छेदेन मियो विरुद्धे, परस्पराभावनान्तरीयकत्वात् , परमाणुगतशीतोष्णत्ववत्, अत्र परमाणुगतेति विशेषणाद् जैनमते एकस्मिनक्यविन्येकसमयावच्छेदेन मिसावयवावच्छेदेन शीतोष्पत्स्योस्सवेऽपि नवतिः, एकस्मिन् परमाणौ शीतोष्णत्वयोर्विरुद्धयोरेकसमयावच्छेदेनाऽनभ्युपगमात् । उक्तानुमानेन केवलबानकेवलदर्शने मिथो विरुद्धे इति सिद्धे सत्येकस्मिमेव समये निरावरणस्यापि केवलिनस्ते तथाविधे युपपद्रवितुं नाईतः। न वैकस्मिमात्मनि साकारताऽनाकारतालक्षणनानत्वदर्शनत्वोभयात्मकविरुधर्मशाल्यभिमकेवलो. पयोगोऽपि सम्भवति, तथा च विशेषग्राहिज्ञानोपयोग: सामान्यग्राहिदर्शनोपयोगान्तरित, सामान्यावलम्विदर्शनोपयोगश्च विशेष प्रतिभासिज्ञानोपयोगान्तरितः, तत्स्वामाव्यादिति युगपदनेकप्रत्ययानुत्पत्तौ स्वभाव एच कारणं नान्यत् , यथा समिहितेऽपि च द्वयात्मके विषये सर्वविशेषानेव केवलज्ञानं सर्वसामान्यानि च केवलदर्शनं गृहातीत्यत्रानयोस्स्वमाव एव कारपम्, तथा प्रकृतेऽपि प्रयोगश्चात्र-एकात्मगते केवलबानकेवलदर्शने पृथकालीने एकसमयाबच्छेदेन परस्परविरुद्धस्वभावत्वात् , एकपरमाणुगतशीतोष्णत्ववत्, कममाविस्तमाक्त्वाश चक्षुनिश्रोत्रज्ञानवत् । अथवा केवलज्ञानकेवलदर्शने मिथोऽन्तरिततयैवाऽभ्युपगन्तव्ये तत्स्वा. भाज्या, यस्य यस्स्वभावस्स तथैवाऽभ्युपगन्तव्यः, यथा केवलज्ञानस्य विशेषत्राहकत्व. स्वमात्रा केवलदर्शनस्य च सामान्य ग्राहकत्वस्वभाव इति । एते च व्याख्यातारः किम्भूता इस्वाशङ्कायामाह-'तित्थयराऽऽसायणाऽभीरू' तीर्थकराऽऽशातनाऽमीरवः तीर्थकराऽऽक्षातगया अमीरवः। तीर्थकरमाशातयन्तो न बिभ्यतीति यावत् । एवं हि नि:सामान्यस्य निर्विशेषस्य वा वस्तुनोऽभावेन न किचिजानाति केवली न किश्चित्पश्यतीत्यधिक्षेपस्यैव पर्यवसानात् । न चान्यतरमुख्योपसर्जनविषयतामपेक्ष्योभयग्राहित्वेऽपि उपयोमक्रमाविरोधः, मुख्योपसर्जनमावेनोभयग्रहणस्य क्षयोपशमविशेषप्रयोज्यत्वात् , केवलज्ञाने उपस्थ. भानीययावद्विषयतोपगमे अवग्रहादिसङ्कीर्णरूपताप्रसङ्गाद, सामान्यज्ञानपूर्वक विशेषज्ञानं विशिष्टबुद्धौ विशेषमझानस्य कारणत्वादिति छवस्थज्ञानीयक्रमानुसारेण केवलिनोऽपि पूर्व केवलदर्शनं तदनु केवलज्ञानमिति क्रमप्रसङ्गाच । उक्तसूत्रस्य तु भवदुक्तोऽर्थो न च समी. चीनतामञ्चति, यतोऽस्मिन् सूत्रे समयमिति पदं न समयाख्यकालवाचकम् , किन्तु समकं तुल्यमित्यर्थवाचकम् , तथा च " अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, केवली इमां रत्नप्रमा पृथिवीं यैराकारादिभिः समकं तुल्यं जानाति न तैराकारादिभिस्तुल्यं पश्यति, पैराकारा. दिभिः समकं तुल्यं पश्यति न तैराकारादिभिस्समकं तुल्यं जानातीति प्रश्ने कृते तत्प्रतिवचनं भिमालम्बनप्रदर्शकम् , केवलिनो ज्ञानं साकारं भवति, तस्य दर्शनं चानाकारं भवतीत्यतो
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सम्मति० का २, मा० ५
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मित्रालम्बनावेतौ प्रत्ययावित्याहुः प्राचीनाः । ज्ञानचिन्दावुपाध्याय भगवच्छ्री यशोविजयास्त्वत्रैवं समालोचयन्ति - अत्र यद्यपि ' जं समयं ' इत्यत्र ' जं' इति अम्भावः प्राकृतलक्षणात्, यत्कृतमित्यत्र ' जं कयं ' इति प्रयोगस्य लोकेऽपि दर्शनादिति वक्तुं शक्यते, तथापि तृतीयान्तपदवाच्यैराकारादिभिः यैस्समकं यत्समकमिति लुप्ततृतीयान्तसमासस्थ पदार्थस्य समकपदार्थस्य चान्यूनानतिरिक्तधर्मविशिष्टस्य रत्नप्रभार्या भिन्नलिङ्गत्वादनन्वय इति ' यत्समकम् ' इत्यादि क्रियाविशेषणत्वेन व्याख्येयम्, रत्नप्रभाकर्म का कारादिनिरूपितयावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकज्ञानवान् न तादृशतावद न्यूनानतिरिक्तविषयताकदर्शनवान् केवलीति फलितोऽर्थः । यदि च तादृशस्य विशिष्टदर्शनस्य निषेध्य स्थाऽप्रसिद्धेर्न तषेधः, ' असतो नत्थि निसेहो ' विशेषा० गा० १५७४ इत्यादिवचनादिति सूक्ष्ममीक्ष्यते, तदा क्रियाप्रधानमाख्यातमिति वैयाकरणनयाश्रयणेन रत्नप्रभाकर्मका कारादिनिरूपित यावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकं ज्ञानं न तादृशं केवलिकर्तृकं दर्शनमित्येव बोधः, सर्वनयात्म के भगवत्प्रवचने यथोपपन्नान्यतरनयग्रहणे दोषाभावादिति । अत्र न तादृशे केवलिक दर्शनमित्यस्य रत्नप्रभाकर्म का कारादिनिरूपित तावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकस्वाभावषत् केवलिकर्त्तृकं दर्शनमिति पर्यवसितोऽर्थः । तेन ज्ञानतुल्यविषयताकदर्शनस्या - प्रसिद्धत्वेऽपि न क्षतिरिति ॥ ४ ॥
I
युगपदुत्पश्य विकलकारणकं यद् यद् तत्तद् युगपदुत्पद्यते यथा रूपोत्पत्तिकाले रसः, यथा वाऽऽदित्य प्रकाशोत्पत्तिकाले प्रतापः, युगपदुत्पश्यविकलकारणकञ्च केवलज्ञानोत्पत्तिकालें केवलदर्शनम्, तस्मात् केवलज्ञानोत्पत्तिकाल एव तेनैव साकमुत्पद्यते केवलदर्शनमित्याह
केवलनाणावरणक्खयजायं केवलं जहा नाणं ।
तह दंसणंपि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥ ५ ॥ ५९ ॥
ई
• केवलनाणावरण क्खयजाये ' केवलज्ञानावरणक्षयजातं कारणीभूते केवलज्ञानावरणवये सति जातं तेनोत्पन्नं ' केवलं जहां नाणं ' केवलं यथा ज्ञानम्, यथा निखिलविशेषग्राहकस्वभाव केवलज्ञानं ' तह दंसणं पि जुछाइ ' तथा दर्शनमपि युज्यते निखिल सामान्य. ग्राहकस्वभावं केवलदर्शनमपि युज्यते, कदेस्यत आह-' नियआवरणक्खयरसंते ' निजावरण यस्यान्ते दर्शनावरणश्चयानन्तरक्षणे, द्वादशगुणस्थानकचरमसमये केवलज्ञानावरणक्षयकेवलदर्शनावरणक्षयरूपकारणद्वयस्य युगपत्सद्भावे तत्कार्यभूते केवलज्ञानकेवलदर्शने युगपदेवोत्पद्येताम् अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन तदुमयोत्पत्तिकारण सद्भावात् युगपदुत्पद्य - मानाऽऽदित्यप्रकाशतापवद परमाणौ रूपरसादिवद्वा । ननु केवलज्ञानकेवलदर्शने सम कालीन केवलज्ञानावरणक्षय केवलदर्शनावरणक्षयहेतुके अपि क्रममावित्वस्वभावादेव क्रमेणेवीत्पयेते, न हि स्वभावे पर्यनुयोग इति न्यायादिति चेत्, युक्तिबलसाम्राज्ये सति न हि
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सम्मति• काम २, गा. ६-७ स्वभावमात्रेण सन्तोष्टव्यम् , यतो युगपत्कार्यद्वयोत्पादकाऽतुलसमबलकारणद्वयसद्भावेऽपि स्वमावमात्रेण कार्यक्रमाभ्युपगमे सर्वत्र स्वभावेनैव निर्वाह कारणमात्रस्यैवोच्छेदप्रसङ्गास्स्यात् , तथा सति स्वभाववादस्यैव साम्राज्यं स्यात् , तस्मादनन्यगत्या कार्योत्पत्तिस्वभावः कारणेनेव कार्यक्रमस्वभावोऽपि कारणक्रमेणैव जननीय इत्यभ्युपगन्तव्यम्, न चात्र कारणक्रमा, येनाभिलषितकार्यक्रमोऽपि स्यात् , एतेन सर्वव्यक्तिविषयकत्वसर्वजातिविषयकत्वयोः पृथगेवाधरणक्षयकार्यतावच्छेदकत्वादर्थतस्तदवच्छिन्नोपयोगद्वयसिद्धिरित्यपि निरस्तम्, तसिद्धाबपि तत्क्रमाऽसिद्धः, आवरणद्वयक्षयकार्ययोः समप्राधान्येनार्थगतेरप्रसराच्च । न च मतिश्रुतज्ञानावरणयोर्युगपत्क्षयोपशमेऽपि यथा तदुपयोगक्रमस्तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोर्यु गपत्क्षयेऽपि केवलिन्युपयोगक्रमस्स्यादिति शङ्कनीयम् , तत्र श्रुतोपयोगे मतिज्ञानस्य हेतुत्वेन शब्दादौ प्रत्यक्षादिसामग्याः प्रतिबन्धकत्वेन चोपयोगक्रमसम्भवात , अत्र तु क्षीणावरणत्वेन परस्पर कार्यकारणभावप्रतिवध्यप्रतिबन्धकमावाद्यभावेन विशेषात् ॥ ५ ॥ - एतदेवाह-भण्णइ वीणावरणे, जह मइनाणं जिणे ण संभवइ।
तह खीणावरणिजे विसेसओ दसणं नथि ॥६॥६० ।। 'मण्णइ' भण्यते, निश्चित्योच्यते 'वीणावरणे' क्षीणावरणे, क्षीणं धनधातिकर्मचतुष्टयमावरणं यस्य स तथा तस्मिन् , अस्य 'जिणे' इत्यनेनान्धयादेवम्भूते जिने 'जह मइनाणं' यथा मतिज्ञान मत्यादिज्ञानम् अवग्रहादिचतुष्टयरूपं वा मतिज्ञानं 'ण संभव' न सम्भवति ' तह खीणावरणिजे ' तथा क्षीणावरणीये तस्मिन्नेव 'विसेसओ' विश्लेषतः पृथग्भावतो ज्ञानोपयोगसमयभिन्न समये इति यावत् 'दसणं नस्थि' दर्शनं नास्ति, न सम्भवति, क्रमोपयोगत्वस्य मतिज्ञानाद्यात्मकछानस्थिमज्ञानत्वव्याप्यत्वात् , विशिष्टबुद्धिम्प्रति विशेषणज्ञानस्य कारणत्वमिति नियमेन पूर्व सामान्यालम्बनोपयोगः पश्चाद्विशेषालम्बनोपयोग इति क्रमोपयोगत्वस्य चावग्रहाद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात् , केवलज्ञानकेवलदर्शनयोःक्रमो. पयोगत्वे तचापत्तिस्स्यात् , व्याप्यसवे व्यापकस्यावश्यम्भावात् , उक्ततर्कीले नानुमानप्रयो. गश्चात्रवम्-केवलज्ञान केवलदर्शने एकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिके एकसमयवर्ति सामग्रीकत्वात् , यद्यदेकसमयवर्ति सामग्रीकं तत्तदेकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिकं "सम्मत्तचरित्ताई जुगवं" इति वचनात् 'सम्मत्तेणं समगं सवं देसं च कोई पडिबजे' इति पञ्चसनवचनाच एककालीनदर्शनमोहनीयकर्मक्षयोपशम चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमवतः कस्यचित्पुंसः सम्यग्दर्शनचारित्रे इव ॥ ६ ॥ न केवलं क्रमवादिनोऽनुमानविरोधा, अपि वागमविरोधोऽपीत्याह--
सुत्तमि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं ।
सुत्तासायणभीरुहिं, तं च दट्टव्वयं होइ ॥ ७ ॥ ६१ ॥ , 'सुमि' केवलज्ञानकेवलदर्शनयोस्साधपर्यवसितत्वाभिधायके " केवलनाणी णं पुच्छा
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सम्मति० काण्ड २, गा० ७ ..
२२५ गोयमा! साइ अपञ्जवसिए" "केवलदसणी णं पुच्छ। गोयमा! सातीए अपञ्जवसिए" इति प्रज्ञापनाऽष्टादशपदोक्तसूत्रे 'चैव' चैव-निश्चयेन " साइ-अपजवसियं ति केवलं वुत्तं" साद्यपर्यवसितमिति साधनन्तमिति केवलं ' केवलज्ञानं केवलदर्शनश्चोक्तम् । क्रमोपयोगे तु द्वितीयसमये तयोः पर्यवसानमिति कुतोऽपर्यवसितता ? । तेन 'सुत्तासायणभीरूहि' सूत्राशातनाभीरुभिः 'तं च ददृव्वयं होइ' तच दृष्टव्यकं भवति । चोऽप्यर्थः, न केवलं 'केवली णं मंते ! इमं रयणप्पमं पुढवि' इत्याधुक्तसूत्रयथाश्रुतार्थानुपपत्तिमात्रम् , किन्त्वस्य साद्यपर्यवसितत्वाभिधायकस्य सूत्रस्य विरोधोऽपीति भावः । न च यथा मतिज्ञानादिकमुत्पन्नं सत् मिथ्याभावादिप्राप्तौ " नवम्मि उ छाउमथिए नाणे केवलनाणं उववज्झइ" इति वचनात् केवलज्ञानावाप्तौ वा प्रतिपतति, न च तथास्वभावे केवलज्ञानकेवलदर्शने, तयोः क्षायिकत्वादिति ते सायपर्यवसिते स्यातामिति वाच्यम् , केवलज्ञान केवलदर्शनयोः क्रमिकोत्पादपक्षे यस्मिन् समये यस्य नोत्पत्तिस्तस्मिन् समये तस्याभावेन सपर्यवसितत्वमेव स्यात् । अथ तदानीं व्यक्तिरूपेण तत्सत्वाभावेऽपि लब्धिरूपेण तत्सत्वमस्त्येव, तथा च तद्रूपेण कदापि प्रतिपाताभावेनापर्यवसितत्वं तयोस्स्यादेवेति चेत् , तर्हि केवलज्ञानत्वावच्छिन्ने केवलदर्शनत्वावच्छिन्ने च विवादापन क्रमिकत्वं प्रसाधनीयमिति तद्धर्मरूपेण तत्रापर्यवसितत्वमभिलषितं सिद्धं न स्यात् , प्रत्युत लब्धिरूपेण तत्सिद्धं स्यात् , केवलज्ञानत्वधर्मरूपेण केवलदर्शनत्वधर्मरूपेण तत्रापर्यवसित. स्वमस्ति न वेति संशये सति प्रश्ने कृते यद्रपेण जिज्ञासितं तद्रूपेणैव तदुत्तरदानेनैव निराकासबोधभावाजिज्ञासानिवृत्तिस्स्यात् , नान्यथा, न च लब्धिपक्षे तत्सम्भव इति । न च भवन्मते. ऽपि द्वितीयसमये प्रथमसमयावच्छिन्नयोस्तयोविनष्टत्याद्वितीय समयावच्छिन्नयोस्तयोश्चोत्पादादऽपर्यवसितत्वं न स्यादिति वाच्यम्, तत्तत्समयविशिष्टत्वेनोत्पादविनाशशालित्वेऽपि केवलज्ञानत्वावच्छिन्न-केवलदर्शनत्वावच्छिन्नतदीयसन्तानस्य दीपशिखासन्तानवदविच्छेदात् , अत एवोत्पादादिलक्षण्योपपत्तिः। एवं प्रथमसमयवर्तिनो यान् निखिलाननन्त. पदार्थान् खस्त्रानन्तपर्यायविशिष्टान् वर्तमानप्रथमसमये वर्तमानस्वरूपेण तदनन्तरद्वितीयादिसमयवर्तिनस्ताननागतस्वरूपेण तत्पूर्ववर्तिनश्च तानतीतस्वरूपेण जानन्ति पश्यन्ति च, द्वितीयसमये च प्रथमसमयवर्तिनस्तान् षड्गुणहानिवृद्धिभावं प्राप्तानतीततया द्वितीय. समयवर्तिनश्च तान् षड्गुणहानिवृद्धिभावं प्राप्तान् वर्तमानतया अतीतांश्च षड्गुणहानिवृद्धिभावप्राप्तानन्तपर्यायविशिष्टान् तानेकसमयाधिकातीतस्वरूपेणाऽनागताँश्च तद्विशिष्टान् ताने. कसमयन्यूनानागतस्वरूपेण जानन्ति पश्यन्ति च, एवमग्रेऽपि, तथा च प्रदर्शितप्रकारेण वर्तमानादिस्वभावविशिष्टार्थग्राहकयोः केवलज्ञान केवलदर्शनयोस्तत्तत्समयविशिष्टार्थग्राहकस्वपरिणतिभेदेन प्रतिक्षणमुत्पादादिलक्षण्यसिद्धिः। एवं द्रव्यमात्रस्य प्रतिक्षणं पर्यायभेदेन
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२२१
सम्मति० काण्ड २, गा० ८-१ भिन्नरूपत्वात्तद्र्पज्ञेयपरिणतिभेदेन तद्वाहकत्वपरिणतिभेदतस्तयोः प्रतिक्षणं त्रैलक्षण्यसिद्धिविनीया, सर्वश्चैतद् भवन्मते तयोर्न सङ्कटते, तत्तत्समये तदुभयान्यतरस्यैव सद्भावेन तदुभयाभावात् । तथा च तत्तत्क्षणेऽन्यतरधामणोऽभावेन तत्र त्रैलक्षण्यधर्मस्य सुतरामभाव एव, न चास्मन्मतेऽपि विकलप्रकाशपरिणामेन नष्टा ध्रुवा चेतनत्र त्रयोदशगुणस्थानकाद्यक्षणे सम्पूर्णप्रकाशरूपकेवलज्ञानतया परिणता, अत एव त्रैलक्षण्योपपत्तिः, या चाद्यसमये केवलज्ञानस्वरूपेण परिणता सैव द्वितीयसमये केवलदर्शनरूपेण तृतीयसमये च केवलज्ञानस्वरूपेण च परिणमते, अत एवं प्रतिक्षणं त्रैलक्षण्यसिद्धिरिति, सा चानुकेवलज्ञानोत्पत्ति केवलोपयोगस्वरूप नैव कदापि परिजहातीति तद्रूपेण तस्यास्सर्वदा प्रवृत्तत्वेन तद्रूपेण केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरपर्यवसितत्वं स्यादेवेति वाच्यम् , केवलोपयोगस्वरूपेण तयोरपर्यवसितत्वाभ्युपगमे द्वितीयक्षणेऽपि तयोस्सद्भावप्रसक्तिः, अन्यथा तदभिन्नत्वाऽयोगस्स्यात् । किञ्च केवलज्ञानत्वकेवलदर्शनत्वात्मकस्वस्वासाधारणधर्मरूपेण साद्यपर्यवसितत्वश्वाऽमि. लषितं तयोस्सिद्धं न स्यात् । तदेवं क्रमाभ्युपगमे तयोरागमविरोध इत्युपसंहरबाह
संतंमि केवले दसणम्मि, नाणस्स संभवो नस्थि ।
केवलनाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सनिहणाई ॥८॥ ६२॥ केवलज्ञानत्वेन केवलदर्शनत्वेन च स्वस्वासाधारणधर्मेण द्वयोः क्रमिकत्वेऽन्यतरकाले. ऽन्यतराभावप्रसङ्ग इत्याशयेनाह- संतमि केवले दसणम्मि' सति केत्रले दर्शने, केवलदर्शने सति 'नाणस्स' ज्ञानस्य केवलज्ञानस्य ‘संभवो नत्थि' सम्भवो नास्ति । " केवलनाणम्मि य दंसणस्म" केवलज्ञाने च सति दर्शनस्य, एतदनन्तरं 'संभवो नत्थि' इत्यनुकर्षणीयम् । ' तम्हा सनिहणाई' तस्मात्सनिधने, अत्र ' दुवयणे बहुबयणं' इति प्राकृतनियमाद्विवचनस्थाने बहुवचनम् । निधनमन्तो विनाशस्तेन सहिते सनिधने, प्रसक्ते इति शेषः । तथा च केवलज्ञान केवलदर्शनयोरन्यतरकालेऽन्यतराऽभावात्ते सनिधने सविनाशे प्राप्ते, एवं च सति तदपर्यवसितत्वप्रतिपादकोक्तागमविरोधस्सुस्पष्ट एवेति भावः । अत्र 'तम्हा अनिहणाई' इति ज्ञानविन्दौ पाठः, तस्य चाऽयमर्थः-स्वरूपतो द्वयोः क्रमिकत्वेऽन्यतरकालेऽन्यतराभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तवक्ष्यमाणपणगणोपनिपातः, तस्माद् द्वावप्युप. योगी केवलिनः स्वरूपतोऽनिधनावित्यर्थः ।। ८॥ .. इत्थं ग्रन्थकदक्रमोपयोगद्वयाभ्युपगमेन क्रमोपयोगवादिनं पर्यनुयुज्य स्वपक्ष दर्शयितुमाह--
दसणनाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वयरं (यरो)।
होज समं उप्पाओ हंदि दुवे नस्थि उवओगा ॥ ९ ॥ ६३ ।। 'दसणनाणावरणक्खए समाणम्मि' दर्शनज्ञानावरणक्षये समाने निखिलसामान्य
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सम्मति• काम १, गा० १०
२२७ प्रतिभासिकेवलदर्शनावरणक्षयो यस्मिन् समये तस्मिक्षेत्र समये निश्शेषविशेषावगाहिकेवल. ज्ञानावरणक्षय इत्येकसमयावच्छेदेन दर्शनशानावरणक्षयलक्षणे तदुभयकारणे समाने सति 'कस्स पुष्वयरं ' कस्य प्रथमतरमुत्पादो भवेत् ? उभयसामग्रीसद्भावेऽप्यन्यतरोत्सादे तदितरस्याप्युत्पादप्रसङ्गास्स्यात् । लोके क्रमिकसामग्रीभेदादेव क्रमिककार्यभेदो दृश्यते, न चात्र स इति कथं केवलिभगवतां क्रमिकोपयोगरूपकार्यभेदः। अन्यतरसामग्री अन्यतरप्रतिबन्धिकेति चेत्तर्हि विनिगमनाविरहादुभयोरप्यभावप्रसङ्गस्स्यात् । ननु "सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स " इत्याद्यार्षवचनमेव केवलज्ञानकेवलदर्शनक्रमोत्पादे प्रमाणम् , पतः केवलज्ञानस्य लब्धित्वात्साकारोपयोगसमये तदुत्पत्तेराधसमये केवलज्ञानोपयोगः, न च तत्समय एव केवलदर्शनोपयोगोत्पत्तिः, किन्तु द्वितीयसमय एव "जुगवं दो नथि उव. ओगा" इति सिद्धान्तवचनादिति पूर्वमेवोक्तमिति चेत्, सत्यमुक्तम्, न तु युक्तियुक्तमुक्तम् , एतद्वचनस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्य लब्धियोगपद्य एव साक्षित्वात् , उपयोगक्रमाक्रमयोरौदासीन्यात् , केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्योगपद्येनापि निर्वाहेऽर्थादर्शनेऽनन्तरोत्पत्यसिद्धेः, एकक्षणोत्पत्तिककेवलज्ञानयोरेकक्षणन्यूनाधिकायुष्कयोः केवलिनोः क्रमिकोपयोगधाराया निर्वाहयितुमशक्यत्वाच, अयोगिगुणस्थानचरमक्षणे एकस्य केवलिनो धाराक्रमेण केवलशानं स्यात् , तदन्यस्य च दर्शनमिति तदव्यवहितोत्तरसिद्धिसमयेऽपि तथा स्यात् , न च तद्युक्तम् , सिद्धिलब्धेस्साकारोपयोगकाल एव भावादिति । ननूक्तबाधकवलाद्भिन्नसमयावच्छेदेन केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरुत्पादो माऽभ्युपगम्यताम् , अभ्युपगम्यताश्चैकसमया. वच्छेदेन सः, वाधकामावादित्याशङ्कते आराध्यपादश्रीमल्लवादी' होज समं उप्पाओ' भवेत् सममेककालमुत्पादस्तयोः, एकसमयावच्छिन्नकारणद्वयसद्भावे सत्येकसमयावच्छेदेनैव कार्यद्वयस्यापि भावात् । अत्र होज व समओप्पाओ' इत्यपि ज्ञानबिन्दुपाठा-भवेद्वा समयमेककालमुत्पादस्तयोरित्यर्थः । एकोपयोगी महनीयमान्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरस्स्वसिद्धान्तं निष्टयति-' हंदि दुवे नत्थि उपभोगा' ज्ञायतां द्वावुपयोगौ न स्तः एकदेति, सामान्यविशेषपरिच्छेदात्मकत्वात् केवलज्ञानस्य, यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमित्यत्रैव निर्भरः, उभयहेतुसमाजे समूहालम्बनोत्पादस्यैव अन्यत्र दृष्टत्वात् नात्रापरिदृष्टकल्पनाक्लेश इति भावः ॥९॥
अखिलसामान्याखिलविशेषोभयविषयकसमूहालम्बनज्ञानाभ्युपगमे सत्येव केवलिनस्सर्वज्ञतासम्भवः, नान्यथेत्याह
जह सव्वं सायारं, जाणइ एकसमयेण सव्वण्णू।
जुजह सयावि एवं, अहवा सव्वं न जाणाइ ॥१०॥ १४ ॥ 'जइ सव्वं सायारं ' यदि सर्व सामान्यविशेषात्मकं जगत् साकारं तत्तजातिव्यक्तिवृत्तिधर्मविशिष्टम् , साकारमिति क्रियाविशेषणं वा निरवच्छिन्नत तजातिनिष्ठप्रकारतानिरूपि
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सम्मति • काण्ड २, गा० ११
ततद्व्यक्तिनिष्ठविशेष्यतासहितं परस्परं यावद्रव्यपर्याय निरूपितविषयतासहितं वा यथा स्यात्तथेत्यर्थः । 44 जाणइ एकसमयेण सवष्णू " जानाति एकसमयेन सर्वज्ञः, पश्यति चेति शेषः, 44 जुह सावि एवं " तदा युज्यते ' सदाऽपि ' सर्वकालं ' एवं ' सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च तस्येत्यर्थः । अयम्भावः- सामान्य विशेषोभयात्मकत्वाद्वस्तुनो यदा सर्व विशेषात्मकं जानाति तदैव विशेषानुस्यूतसामान्यमपि सर्वं पश्यति, तत्पश्यन् वा तदविनिभगवृत्तं निखिलविशेषमपि तदैव जानाति, निखिलसामान्यविषयताकत्वे सति निखिल - विशेषविषयताकावबोधैकरूपत्वात् सर्वज्ञोपयोगस्य, तथाभ्युपगमे सत्येव तस्य सर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं सदापि युज्यते । ' अहवा' अथवा एतद्वैपरीत्ये सति " सवं न जाणाइ " सर्वं न जानाति, सामान्यविशेषोभयात्मकं निश्शेषपदार्थमात्रं सर्वज्ञो न जानीयात्, एकदेशोपयोगवर्त्तित्वात् मतिज्ञानिवत्, एकदेशोपयोगवर्त्ती च क्रमोपयोगपक्षे युगपदुपयोगद्वयपक्षे च सर्वज्ञः, तस्मात्सर्वं स न जानीयात्, तथा चोभयमतेऽसर्वज्ञत्वमसर्वदर्शित्वञ्च तस्य स्यात् न च तथाऽभ्युपगन्तुं युक्तमिति प्रतिक्षणं सर्वदर्शित्वसर्वज्ञत्वान्यथानुपपन्या निखिलसामान्यविशेषपरिच्छेदात्मकं यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमित्यभ्युपगन्तव्यमिति स्थितम् ॥ १० ॥
अव्यक्तत्वादपि पृथग्दर्शनं केवलिनि न सम्भवतीत्याह---
परिसुद्धं सायारं, अविअत्तं दंसणं अणायारं ।
ण य खीणावर णिज्जे, जुज्जइ सुविअत्तमविअत्तं ॥ ११ ॥ ६५ ॥
૨૨૪
'परिसुद्धं' परिशुद्धं - व्यक्तस्वरूपं ज्ञानमिति शेषः । तत्र हेतुमाह - 'सायारमिति' साकारमिति, यत्साकारं तद्व्यक्तस्वरूपम्, यथा घटोऽयमिति ज्ञानम् । ' अवियत्तं दंसणं ' अव्यक्तं दर्शनम्, तत्र हेतुमाह - 'अणायारमिति' अनाकारमिति, यदनाकारं तदव्यक्तम्, यथा घटत्वविषयकनिर्विकल्पज्ञानम्, चक्षुदर्शनादिकं वा न च क्षीणावरणेऽर्हति व्यक्तताऽव्यक्तते युज्येते इत्याह- ' ण य खीणावरणिजे जुजइ सुवियत्तमवियत्तं ' न च क्षीणावरणीये- क्षीणं निस्सत्ताकमावरणीयमात्मज्ञानादिगुणाच्छादकं घातिकर्म यस्य तस्मिन् सर्वज्ञे युज्यते सुव्यक्तमव्यक्तम् । अयम्भावः- दर्शनं स्वसामग्रीबलादव्यक्तस्वरूपमुपजायत इति तस्याऽव्यक्तता - स्वरूपम्, ज्ञानश्च व्यक्तस्वरूपमुपजायत इति तस्य व्यक्तता, न च क्षीणावरणीये सर्वज्ञे ते युज्येते, तस्य जगन्निखिलसामान्यविशेषोभयात्मकतच्चानां करामलकवत् सुव्यक्ततयैव प्रत्यक्षभावात् । तस्मात् सामान्य विशेषज्ञेय संस्पर्युभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्यय इत्यभ्युपगन्तव्यम् । न च सामान्यविशेषाख्यग्राह्यद्वित्वात् केवलदर्शन केवलज्ञानाख्यग्राहक द्वित्वेनापि भाव्यमिति नियमोsस्ति, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः । अथ ज्ञानभेदप्रयोजको न विषयभेद इति चेत्, तर्हि ग्राह्यद्वित्वाद् ग्राहकद्वित्वमित्यप्याग्रहो मुच्यताम्, आवरणय
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सम्मति० काण्ड २, गा० ११
२२९ क्षयादुभयैकस्वभावस्यैव कार्यस्य सम्भवात् । न चैकस्मिन् केवलिप्रत्यये वह्रो शीतोष्णत्वस्वभावद्वयस्येव ज्ञानत्वदर्शनत्वस्वभावद्वयस्य विरोध इत्याशङ्कनीयम् , एकदेवदत्ते दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयस्येत्र केवलिनिष्ठैककेवलोपयोगे ज्ञानत्वदर्शनत्वस्वभावद्वयस्याप्यविरोधात् , न च देवदत्ते दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयं लब्धिरूपम् , केवलिप्रत्यये दर्शनज्ञानस्वभावता कार्यरूपेति दृष्टान्तवैषम्यमित्यप्याशङ्कनीयम् , एकस्मिन् देवदत्ते शक्तिद्वयस्येवैकस्मिन्नपि केवलिप्रत्यये केवलज्ञानत्वकेवलदर्शनत्वस्वभावद्वयस्यापि न विरोध इत्यविरोधांशमात्र एव दृष्टान्तोपादानात् , केवलज्ञानत्वकेवलदर्शनत्वधर्मद्वयाभ्यां ज्ञानदर्शनयोर्भेदः न तु धर्मिभेदेनेति परमार्थः । अत एव स्तुतिकारेण
" एवं कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालाञ्छनं,
सर्वेषां तमसां निहन्तु जगतामालोकनं शाश्वतम् ॥ नित्यं पश्यति बुद्ध्यते च युगपन्नानाविधानि प्रभो!,
स्थित्युत्पत्तिविनाशवन्ति विमलद्रव्याणि ते केवलम् ॥ १॥" इत्युक्तं सङ्गच्छते । ग्रन्थकृन्मते न केवलं केवलिप्रत्यय एवैकः किन्तु चाक्षुषप्रत्ययोऽपि चाक्षुषज्ञानत्वचाक्षुषदर्शनत्वधर्मभेदप्रयुक्तभेदशाल्यपि वस्तुगत्यैक एव, एवमुक्त नीत्याऽवधिबोधोऽप्येक एव, इत्थश्च केवलज्ञानदर्शनावरणकर्माऽपि चाक्षुषज्ञानदर्शनावरण. कर्माऽपि चावधिज्ञानदर्शनावरणकर्माऽपि च परमार्थत एकम् , कार्यविशेषत उपादिभेदतो वा नकमित्यत्रापि स्याद्वादस्यैव साम्राज्यम् । यदुक्तं निश्चयद्वात्रिंशिकायां ग्रन्थकृतैव
" चक्षुदर्शनविज्ञानं, परमाण्वौष्ण्यरोक्ष्यवत् । तदावरणमप्येकं न वा कार्यविशेषतः ॥ ८ ॥ चक्षुर्वद्विषयाख्याति-रवधिज्ञानकेवले ।
शेषवृत्तिविशेषात्तु, ते मते ज्ञानदर्शने ॥ इति ॥" अयम्भावः-आकाशस्य घटपटाद्युपाधिभेदेन घटाकाशपटाकाशादिभेदेऽपि परमार्थवृष्यैकत्वेनेव केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणयोरप्युपाधिमेदतो भेदेऽपि परमार्थवृत्यैकत्वेन तजन्यतावच्छेदकमेकमेव केवलिप्रत्ययत्वम् , न तु केवलज्ञानावरणक्षयजन्यतावच्छेदकं केवलज्ञानत्वं केवलदर्शनावरणक्षयजन्यतावच्छेदक केवलदर्शनत्वम् , येन केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपधर्मिभेदेन क्षीणावरणे सर्वज्ञे व्यक्ताव्यक्तत्वे स्याताम् । न च दर्शनावरणीयकमक्षयोपशमजन्यतावच्छेदको दर्शने य एवाव्यक्तत्वस्वभावस्स एव तत्क्षये सति तजन्यतावच्छेदको व्यक्तत्वस्वभावो भवतीति वाच्यम् , यस्य यस्स्वभावस्तस्य साधकसहस्रेणापि परावतेयितुमशक्यत्वात् , न च दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमजन्यतावच्छेदकं दर्शनेऽव्यक्तत्वं तत्क्षयजन्यतावच्छेदकश्च तत्र व्यक्तत्वमित्येवं स्वभावद्वयं तत्रेति वाच्यम् , केवलज्ञानात्पृथक्केवलदर्शन
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सम्मति० काण्ड २, गा० १२-१३
मभ्युपगन्तव्यम्, तत्र च दर्शनावरणक्षय जन्यतावच्छेदकव्य क्तत्वधर्मोऽभ्युपगन्तव्यः, तदपेक्षया धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीति न्यायेन सिद्धकेवलिप्रत्यये ज्ञानत्वधर्मस्येव दर्शनस्यैव कल्पना श्रेयस्तरी, ताभ्यां धर्माभ्यामेव च ज्ञानदर्शनयोर्भेदः, न तु धर्मिभेदेन, केवलिप्रत्ययश्च व्यक्तस्वरूप एत्र, तथाऽभ्युपगमे न तत्र कोऽपि दोष इति ॥ ११ ॥ क्रमिकोपयोगपक्षे युगपदुपयोगद्वयपक्षे च दूषणान्तरमाह
२३०
अहिं अण्णायं च केवली एव भासह सया वि । एगसमयम्मि हंदी वयणविगप्पो ण संभवइ ।। १२ ।। ६६ ।।
एवेत्यस्य अद्दिमित्यत्र अण्णायमित्यत्र चान्वयात् क्रमिकोपयोगपक्षे ज्ञानकाले 'अद्दिट्टै' अदृष्टमेव-दर्शनकाले च 'अण्णायं' अज्ञातमेव, युगपदुपयोगद्वयपक्षे च सामान्यांशेज्ञातमेव विशेषांशे चादृष्टमेव " केवली भासह सया वि" केवली भाषते सदाऽपि तेन को दोष इत्याशङ्कायां तत्र दोषप्रदर्शनायोत्तरार्द्धमाह ग्रन्थकृत् - 'एग समयम्मि' एकस्मिन् समये सर्वांशे ज्ञातं दृष्टश्च भगवान् भाषत इत्येष ' वयणविगप्पो ण संभवह' वचनविकल्पो वचनस्य विकल्पो विशेषो भवत्पक्षे न सम्भवतीति गृह्यताम् । अथ केवलदर्शने मुख्यवृत्त्या यद्यपि निखिलतचज्जातय एव प्रतिभासन्ते तथापि गौणवृच्या निखिलतत्तद्व्यक्तिमानमपि तत्र भवत्येव, एवं केवलज्ञानमपि तद्वैपरीत्येन ज्ञेयमिति गौणविषया विषयान्तरग्रहणादुक्तवचनविकल्पोपपत्तिस्य देवेति चेत्, तर्हि, भ्रान्तछवस्थेऽपि तथाप्रयोगप्रसङ्गस्स्यात्, यदा कदाचित् शृङ्गग्राहिकतया ज्ञानदर्शनविषयस्यैव पदार्थस्य तद्बुद्धावनुप्रवेशादिति स्मर्तव्यम् ।। १२ ।। उक्तपक्षद्वये अज्ञातदर्शित्वात् अदृष्टज्ञातृत्वाच्च भगवतस्सर्वज्ञत्वं न सम्भवतीत्युपदर्शनापाह
अण्णायं पासंतो, अहिं च अरहा विद्याणतो ।
किं जाणइ किं पासह, कह सव्व णत्ति वा होइ ॥ १३ ॥ ६७ ॥
' अण्णायं पासंतो' अज्ञातं पश्यन् ' अहिं च अरहा वियाणतो ' अदृष्टञ्च अन् विजानानः 'किं जाणह किं पासह' किं जानाति किं वा पश्यति १ न किञ्चिदपीत्यर्थः । अयम्भावः अत्र काकुपाठात् किम्पदं निषेधार्थतात्पर्यकम् । तथा च त्वं किं जानासि १ अर्था किमपीत्यत्रेव जगत्येतद्विषयं को जानाति १ न कोऽपीत्यत्रेव ईश्वरे किं मानमिति निरीश्वरवादिप्रश्नवाक्ये किम्पदतात्पर्यं न किमपीत्यत्रेव वा किं सर्व जानाति किं सर्व पश्यति १ अर्थात् न किमपि, अशेषपर्यायविशिष्ट निखिल तत्तद्वस्तु विषयक दर्शनज्ञानाभावातस्य । कह सवण्णुत्ति वा होइ' कथं सर्वज्ञ इति वा भवति, सर्वज्ञ इत्यस्य भावप्रधानप्रयोगत्वलक्षणया सर्वज्ञत्वार्थकत्वेन कथं वा तस्य सर्वज्ञता भवेत् ? न कथमपीत्यर्थः ।
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सम्मति काण्ड० २, गा० १४-१५
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सामान्यांश विशेषांशद्वयशालिनिखिल तत्तद्वस्तुगतैकैकांशग्राहिणः केवलदर्शनस्य केवलज्ञानस्य चाsपरिपूर्ण तच्च ग्राहकत्वादिति ॥ १३ ॥
केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरन्यूनानधिकसङ्ख्यक विषयकत्वेनाऽप्येकत्वमित्याह—
केवलनाणमणतं, जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं । सागारग्गहणाहि य, नियमपरित्तं अणागारं ॥ १४ ॥ ६८ ॥ ' केवलनाणमणतं जहेव ' केवलज्ञानमनन्तार्थविषयकत्वादनन्तं यथैव ' तह दंसणं पि पण ' तथा दर्शनमपि केवलदर्शनमपि प्रज्ञप्तं अनन्तमित्यस्यावृच्याऽत्राप्यन्वयः । यदि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरेकत्वं न स्यात्तदाऽल्पविषयकत्वात् केवलदर्शनमनन्तं न स्यात्, तथा च 'अणते केवलनाणे अगते केवलदंसणे " इत्याद्यागमविरोधः प्रसज्येत । ननु केवलज्ञानात्केवलदर्शनस्य भेदे तदनन्तं न स्यादिति कुत इत्याशङ्कानिवृत्यर्थमुत्तरार्द्धमाह" सागारग्गहणाहि " इत्यादि । यतस्साकारग्रहणादनन्त विशेष प्राहिज्ञानात् " अणागारं ' अनाकारं सामान्य मात्रावलम्बि केवलदर्शनं ' नियमपरितं ' नियमेनैकान्तेनैव परीत. मल्पम् - अल्पविषयकं भवतीति विषयभेदात् कुतोऽनन्तता तस्य । युगपदुपयोगद्वयवादी तु दर्शनमनन्तं प्रज्ञप्तमित्यस्यां प्रतिज्ञायां ' सागारग्गहणाणि य नियमपरित्तं ' इत्यकारप्रश्लेषात् साकारे विशेषे गतं यत्सामान्यं तस्य यद्ग्रहणं दर्शनं तस्य नियमोऽवश्यम्भावस्तेनापरीतमपरिमाणमित्यर्थ करणेन साकारगतग्रहणनियमेनापरीतत्वादिति हेतुमभिधत्ते, यच्चापरीतं तदनन्तं यथा केवलज्ञानम्, अपरीतं च केवलदर्शनं तस्मात्तदनन्तम् । न च पक्षीभूते केवलदर्शने अपरीतत्वहेतोरभावात् स्वरूपासिद्धो हेतुरिति वाच्यम्, सामान्यविकलविशेषाणां प्रमाणागोचरत्वेन यावन्तो विशेषाः केवलज्ञाने प्रतिभासन्ते तावन्त्यखण्डसखण्डोपाधिरूपाणि जातिरूपाणि वा सामान्यानि केवलदर्शनेऽप्यवभासन्त एवेति नियमेन विशेषाणामानन्त्येन तत्समसङ्ख्यक सामान्यानामपि तथात्वादुक्तहेतुसिद्धेरिति भावः ॥ १४ ॥
अथ केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः क्रमिकत्वाभ्युपगमे तयोरपर्यवसितत्वादिकं न स्यादित्यमेवाद्युक्तदूषणस्य क्रभवादिना पूर्वार्द्धन क्रियमाणं यत् समाधानमुत्तरार्द्धेन तत्प्रतिसमाधत्ते मेवादी
भण्णइ जह चउनाणी जुज्जइ णियमा तहेव एवं पि ।
भण्णइ ण पंचनाणी जहेव अरहा तहेयं पि ।। १५ ।। ३९ ।।
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भण्णइ ' भण्यते - अभेदवाद्युक्तं पूर्वोक्तं दूषणं समाधीयते, क्रमवादिना जह यथा दृष्टान्तोपदर्शने, छाबस्थिकज्ञानव्यक्तीनामुपयोगापेक्षयोत्कृष्टतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त स्थितिकत्वेन परिणामवाद्यर्हन्मतेन मतिज्ञानाद्युपयोगानां श्रुतज्ञानाद्यपयोगरूपेण परिणमनात्
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· सम्मति० काण्ड २, गा० १५ तेषां जीवस्वाभाव्यादेव क्रमेणैव प्रवृत्तिः, अत एव सम्यक्त्वोत्पत्तिकाले समकालं भतिश्रुते लब्धिमात्रमङ्गीकृत्य प्रोच्येते, न तूपयोगम् , उक्तश्च-" इह लद्धिमइसुयाई समकालाई न तूवओगो सिं" इति । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानानि न युगपद्भवन्ति, भिन्नकालावच्छिन्नभिन्नसामग्र्युत्पद्यमानत्वात् , चाक्षुषरासनादिज्ञानवत् , प्रत्यक्षानुमानादिवद्वेत्यनुमानेनापि योगपद्यनिषेधेनार्थतः क्रमभावित्वसिद्धिश्चेत्यतः क्रमोपयोगप्रवृत्तोऽपि " चउ. नाणी जुजइ णियमा" चतुर्ज्ञानी युज्यते नियमात , अपर्यवसितमतिज्ञानादिचतुर्ज्ञानो ज्ञातदृष्टभाषी ज्ञाता द्रष्टा च नियमायुज्यते, तल्लन्धिभावात् । उक्तश्च चतु नित्वमेक. स्यापि जीवस्य पञ्चमाङ्गेऽष्टमशतकद्वितीयोद्देशकसूत्रे-"जे चउनाणी ते आभिणियोहिया नाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपजवनाणी । न च मत्यादिज्ञानानां लब्धिरूपत्वे सिद्धे सत्येव तेषामपर्यवसितत्वादिकं स्यादिति वाच्यम् , " नाणलद्वीणं भंते ! कविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-आभिणियोहियनाणलद्धी जाव केवलनाणलद्धी" इति पश्चमाङ्गाष्टमशतकद्वितीयोद्देशकसूत्रेण तेषां लब्धिरूपत्वस्य आभिणियोहियनाण. लद्धीणं भंते ! जीवा कि नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी ? अत्थेगतिया दुन्नाणी चत्तारि नाणाई भयणाए" इत्यादिसूत्रेणाभिनिबोधिकज्ञानलब्धिकानां केषाश्चि. जीवानां मतिश्रुतज्ञानयोः केषाश्चिच मतिश्रुतावधिज्ञानानां मतिश्रुतमनःपर्यवज्ञानानां वा केषाश्चिच्च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानानां लब्ध्यपेक्षया योगपद्यस्य च, मत्यादिज्ञानत्रयस्य च "उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई साइरेगाई" मन:पर्यायज्ञानस्य च " उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी" इति सिद्धान्तोक्तस्थितिकस्यैतावत्कालपर्यन्तमपर्यवसित्वस्य च प्रति. पादनात् । न चैतावत्कालान्तमुपयोगाऽपेक्षयोक्तस्थितिकत्वं तेषां सम्भवति, उत्कृष्टतोऽपि छाद्यस्थिकज्ञानोपयोगस्यान्तर्मुहूर्तिकत्वात् । एतेनानुपयोगात्मकतया युगपदवस्थितमत्ता. कानां मत्यादिचतुर्ज्ञानानां बोधस्वभावता चेत्, तदा स्वस्वयोग्यार्थविषयकज्ञानोपयोगेनापि सदा नियमेन भवितव्यमेव, अन्यथा जडत्वापत्या बोधस्वभावत्वाऽनुपपत्तिस्यादित्यारेकाऽपि निरस्ता, उक्तहेतोरुक्तनियमे मानाभावात् , कथमन्यथा " इहभविए भंते ! नाणे परभविए नाणे तदुभयभविए नाणे ? गोयमा ! इहभविए वि नाणे परभविए वि नाणे तदु. भयभविए वि नाणे" इति भगवतीप्रथमशतकप्रथमोद्देशकसूत्रोक्तमेतद्भवोत्पन्नस्य मतिश्रुतज्ञानद्वयस्य मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयस्य चेहमवे परभवे तदुभयभवे परतरभवे चानुगमनं सङ्ग. च्छते, एतद्भवे देहेन्द्रियादेस्सद्भावेऽप्यन्तरालगतौ तदभावेन तद्रूपकारणाभावेन स्वस्वयोग्यार्थविषयकज्ञानोपयोगस्यैवाभावात्तदपेक्षया मतिश्रुतज्ञानाद्यनुगमनाभावात् । तस्मादत्र स्वस्थयोग्यार्थविषयकज्ञानानुकूलशक्त्यपरनामलमध्यपेक्षयैव मतिज्ञानादिचतुष्टयस्यैककालावच्छिन्नस्वभिन्नज्ञानसामानाधिकरण्यलक्षणं योगपद्यमवसे यम् । उक्ताशयेनैव भगवतोमास्वातिना"एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुर्व्यः"।१ । ३१ । इति सूत्रं प्रणीतम्।"
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सम्मति० काण्ड २, गा० १५
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— तहेव एयं पि ' तथैवेतदपि, केवलज्ञान केवलदर्शनयोरन्यतरोपयोगप्रवृत्तावपि केवली अपर्यवसित केवलज्ञानी अपर्यवसित केवलदर्शनी ज्ञातदृष्टभाषी चेत्यादिकमपि सार्वदिक केवलज्ञानदर्शनशक्तिसमन्वयादुपपद्यत एवेत्यर्थः । भण्णइ ' भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते एकत्ववादिना, 'ण पंच णाणी जहेव अरहा तहेयंपि' न पञ्चज्ञानी यथैवान् तथैतदपि । "नट्ठम्मि य छाउमत्थिए नाणे केवलनाणं उववज्झद्द" आव० नि० गाथा ५३९ इति वचनात्केवलज्ञानोत्पत्तिर्मतिज्ञानादिचतुष्टयस्य क्षायोपशमिकस्य घातिकर्मक्षये सति क्षयोपशमरूपकारणस्याभावादभावे सत्येव भवति, अत एवैककालावच्छिन्नमत्यादिज्ञानचतुष्टया समानाधिकरणं केवलज्ञानमिति गीयते सैद्धान्तिकैः । तत्क्षयोपशमनाशकतायाश्र ' पण खलु पडिवाए ' इत्यादिवृहत्कल्प भाष्यगाथोक्तप्रकारेण पूर्वमेव प्रतिपादितत्वात्केव लिनि क्षयोपशमाभावेन क्षायोपशमिकानां मत्यादिज्ञानानामभावाद् यथैवार्हन पञ्चज्ञानी तथैतदपि क्रमवादिना यदुच्यते - भेदतो ज्ञानवान् दर्शनवाँचेति तदपि न भवतीत्यर्थः । मत्याद्यावरणक्षयेऽपि एकदेशग्राहिणो मतिज्ञानादेरिव ज्ञानदर्शनावरणक्षयेऽप्येकदेशग्राहिणो ज्ञानस्य दर्शनस्य च केवलिनि भेदेनानुपपत्तेरिति भावः । इयांस्तु विशेषः - यदमेदेनापि केवलज्ञाने केवलदर्शनसंज्ञा सिद्धान्तसम्मता, न तु मतिज्ञानादिसंज्ञेति, तत्र हेतू अन्वर्थोपपत्त्यनुपपत्ती एव द्रष्टव्ये । तथाहि केवलं सम्पूर्ण दृश्यतेऽनेनेति केवलदर्शनमित्यन्वर्थोपपत्तिसङ्घटनात्केवलदर्शनसंज्ञा तत्र युक्ता, मतिज्ञानादिसंज्ञा तु न युक्ता, मननं मतिः मतिज्ञानावरण कर्मक्षयोपशम सहकृत चक्षुरादीन्द्रियसापेक्षं यज्ज्ञानं तन्मतिज्ञानम्, श्रोत्रेन्द्रियद्वारिका श्रुतानुसारिण्यभिलापप्लावितार्थोपलब्धिश्रुतज्ञानम्, रूपिद्रव्यमात्रविषयकं यज्ज्ञानं तदवधिज्ञानम्, मनोद्रव्यपर्याय मात्र साक्षात्कारि यज्ज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानमित्यन्त्रर्थोपपश्यभावात्तत्र, क्षायोपशमिकभावातीतत्वात् केवलज्ञानस्येति अयश्च प्रौढिवादः । वस्तुतः क्रमवादे " केवली यदा जानाति तदा पश्यति" इत्यादेरनुपपत्तिरेव यतस्तत्र शू धातोर्दर्शनं आख्यातस्य चाश्रयत्वं वर्त्तमानत्वञ्चार्थः तथा च पश्यतीत्यस्य वर्तमानकालीनदर्शनाश्रय इत्यर्थः, न च स सङ्घटते, तदानीं दर्शनाभावात् । न च क्रमवादे केवलिनि यत्समयावच्छेदेन ज्ञानोत्पत्तिस्तत्समयावच्छेदेन दर्शनोत्पत्यभावेन दर्शनाश्रयस्वाऽभावेऽप्यत्र लब्धेरेवाख्यातार्थत्वेन दर्शनलब्धिसद्भावात्तदपेक्षयोक्तप्रयोगोपपत्तिरिति वाच्यम्, देवदत्तो घटं यदा नैव पश्यति तदानीमपि स घटं पश्यति' इति प्रयोगप्रसङ्गात्, घटदर्शनलब्धेस्तदानीमपि विद्यमानत्वात् । ननु भवन्मतेऽपि सर्वादर्शन वेलायामपि चक्षुष्मान् सर्वं पश्यति, न त्वन्ध इत्यादिप्रयोगस्य कथमुपपत्तिरिति चेत्, उच्यते, अत्रानन्यगत्या लब्धेर्योग्यताया वाऽऽख्यातार्थत्वाऽभ्युपगमेऽपि न तु सर्वत्राऽप्ययं न्यायोsनुसरणीयः, सुतश्चक्षुष्मान् सर्वं पश्यतीत्यादेरपि प्रसङ्गात् । निद्राकालेऽपि लब्धे
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सम्मति० काण्ड २, गा० १६ स्सद्भावात् । न च सिद्धान्ते विना निक्षेपविशेषमप्रसिद्धार्थे पदवृत्तिरवधार्यते, षट्पष्टिसागरोपमस्थितिकत्वादिकमपि मतिज्ञानादेर्लब्ध्यपेक्षयैवेति दुर्वचम् , एकस्या एव क्षयो. पशमरूपलब्धेस्तावकालमनवस्थानात् , द्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षया विचित्रापरापरक्षयोपशमसन्तानस्यैव प्रवृत्युपगमात् । किन्तु एकजीवावच्छेदेन अज्ञानातिरिक्तविरोधसामग्र्यसमनहितषट्षष्टिसागरोपमक्षणत्वव्याप्यस्वसजातीयोत्पत्तिकत्वे सति तदधिकक्षणानुत्पत्तिकस्वसजातीयत्वरूपं तत्पारिभाषिकमेव वक्तव्यम् , अत्र व्यक्तज्ञानोत्पत्यव्यवहितपूर्वक्षणातिरिक्त क्षणे नियमतोऽज्ञानात्मकविरोधिसामग्रीसमवधानस्य भावाद्विरोधिसामग्र्यसमवहितषट्पष्टिसागरोपमक्षणत्वमप्रसिद्धमतोऽज्ञानातिरिक्तेति विशेषणम् । एवमन्यदप्यूह्यम् ॥ १५ ॥
क्रमेण युगपद्वा परस्परनिरपेक्षस्वविषयपर्यवसितज्ञानदर्शनोपयोगी केवलिन्यसर्वार्थग्रहणात्मकत्वान्मत्यादिज्ञानचतुष्टयवन्न स्त इति दृष्टान्तभावनापूर्वमाह-- पण्णवणिज्जा भावा, समत्तसुअनाणदंसणाविसओ।
ओहि मणपजवाण य(उ), अण्णोण्णविलक्खणाविसओ ॥१६॥७०॥
अभिलाषयोग्यपर्यायैरेव स्थूलैः कालान्तरस्थायिभिर्व्यञ्जनपर्यायापराभिधानश्वेतनाचेतनस्य सकलवस्तुनोऽभिलाप्यत्वप्रतीतेरभिलाप्यस्वभावत्वमनभिलापयोग्यपर्यायैरेव सूक्ष्मैः प्रतिक्षणभाविभिरर्थपर्यायाऽपरनामधेयैस्सर्वस्यानभिलाप्यत्वप्रतीतेरनभिलाष्यस्वभावत्वमिति स्याद्वादरत्नाकरपश्चमपरिच्छेदाष्टमसूत्रटीकोत्ते, इह जगति भावा अभिलापयोग्यव्यञ्जनपर्यायानभिलापयोग्यार्थपर्यायापेक्षया प्रज्ञापनीयाप्रज्ञापनीय भेदेन द्विविधाः, तत्राप्रज्ञापनीयाः प्रतिक्षणभाविसूक्ष्माऽर्थपर्यायत्वेनावचनगोचरताऽऽपन्नाः केवलिभगवज्ज्ञानगोचरा अपि न श्रुतज्ञानगोचराः, तदनन्तभागवर्त्तिनो प्रज्ञापनीयानामेव तद्गोच. रत्वादित्याह-' पण्णवणिजा भावा' इति-प्रज्ञापनीयाः प्रकर्षेण संशयविपर्ययादिराहित्येन ज्ञापयितुं योग्या:, प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते इति प्रज्ञापनीया वा कालान्तरभाविस्थूलव्यञ्जनपर्यायपर्यवसायिवचनपोयत्वेन श्रुतज्ञानगोचरा इति यावत् , भावा ऊध्वाधस्तिर्यग्लोकान्तर्निविष्ट-भू-भवन-विमान-ग्रह-नक्षत्र-तारका-केन्द्रादयः,ते किंस्वरूपा! इत्याह-'सम्मत्तसुअनाणदंसणाविसओ' समस्तश्रुतज्ञानदर्शनाविषयः, समस्त श्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गवाक्यात्मकस्य दर्शनाया दर्शनप्रयोजिकायास्तद्वाक्योपजाताया बुद्धेविषय आलम्बनम् । नन्वस्यां गाथायां श्रुतज्ञानवन्मतिज्ञानमपि कथं न तथा भावितमिति चेत् , अत्र समाधीयते, “मतिश्रुतयोर्निवन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" ॥१॥ २७ ॥ इति तत्वार्थसूत्रेण मतिश्रुतज्ञानयोरसर्वपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्येषु विषयनियमः प्रदर्शित इति तयोरसर्व पर्यायसर्वद्रव्यविषयकत्वेन तुल्यार्थत्वप्रतिपादनान्मतिज्ञानमपि श्रुतज्ञानविषयविषयकमेव,
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सम्मति० काण्ड १, गा. १६
२३५ न हि पूर्वकालावच्छेदेनागृहीतशब्दसङ्केतादेव्युत्पत्रस्य मतिज्ञानं जायत इति श्रुतज्ञानपरिकर्मितमतेमेतिज्ञानोपयुक्तस्य तत्कालावच्छेदेन श्रुतपरिपाटीमन्तरेणापि पवम्यासाजाय. मानस्याऽसर्वपर्यायधर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यविषयकमानसज्ञानस्यैत्र मतिज्ञानत्वात् । यदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये
"आएसो त्ति व सुत्तं, सुउवलद्धेसु तस्स महनाणं ।
पसरह तम्भावणया, विणावि सुत्ताणुसारेण ।। ४०५॥” इति ॥ ननु श्रुतपरिकर्मितमतेश्रुतोपलब्धेष्वर्थेषु यज्ज्ञानं तच्छ्रुतमेव, कथं मतिज्ञानमिति चेत्, उच्यते, अत एवोक्तगाथायां 'तम्भावणया विणा वि' इत्युक्तेस्तन्मतिज्ञानम् , तद्भावनया विनापि-श्रुतोपयोगमन्तरेण तद्वासनामावत एवं यद् द्रव्य क्षेत्रकालभावेषु प्रवर्तते तत्सूत्रा. देशेन मतिज्ञानमिति भावः । तथा च मतिश्रुतयोरसर्वपर्यायसर्वद्रव्यविषयकतया तुल्यार्थस्वादेव मतिरपि श्रुतबदसर्वार्थग्रहणात्मकतया भावितैवेति भावनया प्रस्तुतगाथायां श्रुत. ज्ञानान्मतिज्ञानं पृथक नोक्तमिति । अत्रेदं चिन्त्यम् -ननु यदि धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्यनन्तपर्यायावलीढान्येव वस्तुत्वं विभ्रति तदा मतिश्रुतज्ञानाभ्यामनन्तपर्यायविशिष्टतयैव तद्ग्रहणेन भवितव्यमिति चेत्, मैवम् , तदितरमकलकारणसद्भावे सति मतिश्रुतज्ञानग्रहणयोग्य. त्वसवे मतिश्रुतज्ञान सच्चम् , तदभावे तदभाव इत्यन्वयव्यतिरेकाम्यां तद्ग्रहणयोग्यत्वस्य कारणत्वसिद्धेमैतिश्रुतज्ञानयोस्सावरणत्वेनानन्तपर्यायविशिष्टतया तद्ब्रहणयोग्यत्वस्यैवाभावाताभ्यामनन्तपर्यायविशिष्टतया तद्ब्रहणभवनाऽभावात् । तथाहि-मतिज्ञानं तत्तदिन्द्रियानि. न्द्रिययोग्यार्थग्राहकम्, तत्र च योग्यता मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणेति सा यस्य यस्य विषयस्य तस्य तस्य मतिज्ञानेन ग्रहणम् , नान्यस्य, तेन धर्मिग्रहणे न सर्वे तद्गताः पर्याया गृह्यन्ते, किन्तु कतिपया योग्या एव, न हि चक्षुषा योग्यदेशस्थघटधर्मिग्रहणे तद्गता अनन्तास्स्वपरपर्याया गृह्यन्ते, किन्तु रूपसङ्ख्यासंयोगादिनियतसङ्खयकाश्चक्षुर्विषयभाषमापना एवेति । नन्वेवं तर्हि धर्माधर्माकाशास्तिकायादीनां द्रव्याणामतीन्द्रियस्वान्नव मतिज्ञानेन ग्रहणं स्यादित्यसर्वतत्पर्यायग्रहणे का वाति मतेरसर्वपर्यायसर्व द्रव्यविषयनिबन्ध इत्ययुक्तमुक्तमिति चेत्, न, व्यवहारकालात्पूर्व श्रुतेन संस्काराधानरूप उपकारः कृतो यस्य पुंसस्तस्य मतिज्ञानोपयोगकाले पूर्वप्रवृत्तसंस्काराधायकश्रुतानपेक्षस्याऽसर्वपर्यायधर्मास्तिकायाद्यतीन्द्रियविषयकस्यापि मानसज्ञानरूपमतिज्ञानस्य प्रवृत्तेः, व्युत्पन्नपुंसः कतिपयपर्यायविशिष्टपरमाण्वायतीन्द्रियविषयकमानसज्ञानस्येव, अनन्तपर्यायग्रहणे तु मनो नैव व्याप्रियते, तथाशक्त्यभावात, केवलज्ञानगम्यत्वातेषाम् , यदभ्यधायि भाष्यकारेण
" आएसो त्ति पगारो, ओहादेसेण सव्वदन्वाइं । धम्मत्थिआइयाई, जाणइ न उ सव्वभेएण ॥ ४०३ ॥" इति ।
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सम्मति० का २, गा० १६ श्रुतज्ञानमपि श्रुतानुसारेण जायते, तत्र श्रुतं सङ्केतविषयपरोपदेशः श्रुतग्रन्थश्चेति शक्तिस्मरणद्वारा तद्वाच्यार्थगोचरेण तेन श्रुतज्ञानेन नैकैकद्रव्यगताः सर्वे स्वस्वाऽसाधारणधर्मरूपेण पर्याया अभिलाप्यानभिलाप्यात्मका विषयीक्रियन्त इति श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याणि जाननपि न तद्गतान् तान् पर्यायान् सर्वान् जानीते, तेषां सर्वेषां श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यत्वस्याऽभावादेवेति । अवधिमनापर्याययोविभिन्न विषयकत्वमभिधातु. मुत्तरार्द्धमाह-"ओहिमणपञ्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ" अवधिमनःपर्याययोः पुनरन्योन्यविलक्षणा विषयः, भावा इत्यस्यानाऽप्यनुकर्षणात् अन्योन्यविलक्षणा भावा विषय इत्यर्थः । अवधिज्ञानस्य रूपिद्रव्यमानं विषयः 'रूपिष्ववधेः।१।२८। इति तत्त्वार्थस्त्रस्य नियमपरतया तेनावधिज्ञाने रूपिद्रव्यत्वसमनियतविषयताकत्वस्यैव प्रतिपादनात् । यतः "परमोहिम्नाणविओ, केवलमन्तोमुत्तमित्तेण ६८९ । इति विशेषावश्यकभाष्योक्तेर्यदुत्प. क्यनन्तरमन्तर्मुहूर्त्तकालमात्रेण नियमेन केवलज्ञानमुत्पद्यते इत्येवं लक्षणेन सुविशुद्धेनापि 'स्वगयं लहइ सवं" इति भाष्योक्तेस्सर्वलोकान्तर्गतपरमाण्वादिभेदभिन्ननिखिलपुद्गलद्रव्यविषयकेण केवलज्ञानभास्करोदये प्रथमप्रभास्फोटकल्पेन परमात्मविशुद्धिसमुत्पन्नेन परमावधिज्ञानेन रूपीण्येव द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते, तान्यपि न सर्वपर्यायविशिष्टानि, किन्तु 'पेच्छा चउग्गुणाई जहण्णओ मुत्तिमंताई" ८०७ इति भाष्यवचनाद् जघन्यत एकैकद्रव्यापेक्षया चतुःपर्यायविशिष्टानि " पइदवं संखाईयपजयाई च सवाई" ८०८ इति भाष्योक्तरुत्कृष्ट. तस्त्वेकैकद्रव्यमाश्रित्यासङ्खयेयपर्यायविशिष्टानि अवधिज्ञानी जानीते । ननु यद्यवधिज्ञानी उत्कृष्टतोऽपि कृत्स्नलोकवर्तिनिखिलानि रूपीण्येव द्रव्याणि जानी तर्हि लोकप्रमाणान्यलोकेऽसङ्ख्यखण्डानि परमावधिः पश्यति, उक्तश्च-परमोहि असंखेजा लोकमिता" इत्यादि। ततः क्षेत्रस्यारूपित्वात्तत्कथं सङ्गच्छते इति चेत् , उच्यते, यदि तत्र तानि रूपिपुद्गलद्रव्याणि द्रष्टव्यानि स्युस्तदा पश्येदेवावधिज्ञानी, न च तानि तत्र सन्तीत्यतस्सामर्थ्यमात्रवर्णनमेतदिति नोक्तविरोधः। उक्तश्च भाष्यकृता___ " सामत्यमेत्तमेयं, जइ ददुव्वं हवेज पेच्छेना।
न य तं तत्थथि जओ, सो रूविनिबंधणो भणिओ॥६०५॥" इति मनःपर्यायज्ञानस्य च ' मुणइ मणोदवाई नरलोए सो मणिजमाणाई' ८१३ इत्युक्तेर्मानुषक्षेत्रे संक्षिपञ्चेन्द्रियजीवेन काययोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि मान. सिकविचारानुगुणानि अनन्तपरमाणुनिष्पन्नानि मनोद्रव्याणि विषयः । स च विषयोऽवधिज्ञानविषयसमसङ्कथको न, किन्तु तदनन्ततमभागरूपः " तदनन्ततमभागे मनःपर्यायस्य" १-२९ । इति तत्त्वाथेसूत्रेण यानि रूपीणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते ततोऽनन्ततमभागे मनःपर्यायज्ञानस्य विषयनिवन्धो भवतीति प्रतिपादनात् । ननु यदि मन:पर्यायज्ञानी अव.
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सम्मति० काण्ड २, गा.१७
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धिज्ञानविषयस्यानन्ततमभागरूपाणि अवधिज्ञानिनस्सकाशाद्वहुतरपर्यायाणि मनोद्रव्याग्येव जानीते तर्हि किं स संज्ञिजीवैर्मनसा चिन्तितं बाह्यवस्तु नैव जानातीति चेत् , क आह ? न जानातीति, तर्हि किं वेति ? अवगच्छत्येव यद्यवधिज्ञानं स्यात्तदा तेन संज्ञिजीवैश्चिन्ति. तमपि, नो चेत्तदेगिताकारं दृष्ट्वा ततोऽयमाचार्यभगवान् ईशाभिप्रायवान् ईदृशेगिताकाराऽन्यथानुपपत्तेरित्येवमनुमानेनान्तेवासी विनयमूर्तिः पूज्याचार्याभिप्रायं जानाति ।
" जाणइ य पिहु जणो वि हु, फुडमागारेहिं माणसं भावं।
एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे ॥ ३६ ॥” इति बृहत्कल्पभाष्यवचनाद् , यद्वा मलीमसं प्रशान्तं वा मुखाकारं चेष्टाविशेषवत्त्वं वा दृष्ट्वा ततोऽयं पुरुषो दुर्मनाः सुमना वा दृश्यमानेशमुखाकारस्येशचेष्टावचस्य वाऽन्यथानुपपत्ते. रित्यनुमानेनान्यप्राकृतपुरुषोऽन्यपुरुषस्य स्फुटं मानसं भावं वेत्ति यथा तथा मनोद्रव्यपरिणाम स्तम्माद्यविनामाविनं दृष्ट्वा ततो मनोद्रव्याणामीशपरिणामान्यथानुपपत्तेरनेन संज्ञिजीवेनेदं स्तम्भादि वस्तु मूर्त्तमात्माद्यमूर्त वा चिन्तितमस्तीत्यनुमानेन मूर्तीमूर्ते अपि द्रव्ये मनःपर्यायज्ञानी वेत्ति, न तु साक्षादध्यक्षता, यतश्चिन्तको मूतं परमाण्वादिकममूर्तमास्मादिकं ज्ञानादिकं च वस्तु चिन्तयेत् , न च मन:पर्यायज्ञानी मृतं परमाण्वादिकममर्त धर्मास्तिकायादिद्रव्यं चिन्तितज्ञानादिगुणादिकं च वस्तुमात्रं साक्षाद् जानाति, ततो ज्ञायते मनोद्रव्याणां तथाऽवस्थाकारपरिणामान्यथानुपपत्तिलिङ्गकानुमानादेव चिन्तनीयं वस्त्ववगच्छतीति, उक्तश्च विशेषावश्यकभाष्ये-" तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं" इति । भावमन:पर्यायग्राहकत्वे सति साक्षात्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यपर्यायाऽग्राहकं यज्ज्ञानं तन्मन:पर्यायज्ञानमिति पर्यवसिततल्लक्षणम्, एतत्सर्वविवेचनमस्मत्प्रणीततत्वार्थविवरणटीकातोऽवसेयमिति । तथा च सिद्धमेतन्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानानि तत्तत्क्षयोपशमकारणभेदप्रयुक्तपरस्परविलक्षणविषयकत्वेनासर्वार्थानीति ॥ १६ ॥
अत एव तेषां चतुर्णां विभागो युज्यते, न तु केवलिनि केवलज्ञानकेवलदर्शनयो. विभाग उपपद्यते, सर्वार्थत्वात्तयोरिति सहेतुकदार्शन्तिकोपपादनायाह
तम्हा चउविभागो जुञ्जह, ण उ नाणदसण जिणाणं ।
सयलमणावरणमणंत-मक्खयं केवलं जम्हा ॥ १७ ॥ ७१ ।।
तम्हा चउविभागो जुजह तस्मादुक्तहेतोः चतुर्विभागः चतुर्णां मतिज्ञानादीनां विभागो युज्यते तत्तत्क्षयोपशमरूपकारणभेदात् , ' न उ नाणदंसण जिणाणं' न तु ज्ञानदर्शनयोः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्जिनानां क्षीणरागद्वेषादीनां केवलिनाम् , 'नाणदंसणत्ति' अविभक्तिको निर्देशः सूत्रत्वात् । तत्र हेतूपदर्शनायोत्तरार्द्धमाह-सयलेत्यादि-सकलमना
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सम्मति का २, ०१७
वरणमनन्तमक्षयं केवलं यस्मादिति । यस्मात्केवलं केवलज्ञानं सकलविषयकत्वात्सकलं परिपूर्णम्, पदार्थस्वव्यापकविषयताकमिति यावत् । तत्कुत इत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थं तत्र हेतुमाह - अनावरणम्, निश्शेषावरण मलरहितम्, अनावरणत्वात्तत्सकलम्, न च प्रदीपोऽनावरणोऽपि न सकलार्थान् प्रकाशयतीति व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थं विशेषणान्तरमाह - अनंतंयदन्तरहितमपर्यवसितसत्ताकं तत् सकलार्थविषयकं न च प्रदीपोऽन्तरहित इति न तत्र व्यभिचारः । यद्वाऽनन्तार्थग्रहणप्रवृत्तम्, प्रदीपस्तु परिमितार्थग्रहणप्रवृत्त इति न तेन व्यभिचारः, तदपि कुतः ?, यतोऽक्षयम्, यथा भास्करस्य जगत्प्रकाशस्वभावोऽतिसमुन्नतघनाघनपटलाडम्बरेणावृतः प्रतिकूलवाय्वादिना सर्वथा तद्विगमे सति सर्व कलां येरभिव्यक्तोऽपि पुनरतिप्रबलवायुनाऽऽनीयमानमेघपटलाडम्बरेणाच्छाद्यते तद्वदात्मकेवलप्रकाशोऽतिनिविडतमज्ञानावरणकर्मावरणेनावृतश्शुक्लध्यानादिना निश्शेषतस्तद्विसे सति सर्वथाऽभिव्यक्तो न पुनरात्रियते, तत्प्रतिरोधक नव्य कर्मबन्धाभावाद, विरोधिगुणान्तराभावेन नापि पश्चात्तत्क्षयः, ततश्च तस्यानन्तत्वमिति भावः तस्मादक्रमोपयोगद्वयात्मक एक एव केवलोपयोग इत्यभ्युपगन्तव्यम् । तत्रैकत्वं व्यक्त्या, द्वयात्मकत्वञ्च नृसिंहत्ववदशिकजात्यन्तररूपत्वमित्येके, माषे स्निग्धोष्णत्ववद्व्याप्यवृत्तिजातिद्वयरूपत्वमित्यपरे, महनीयमान्यमतिवैभवन्यायाचार्य श्रीयशोविजयोपाध्यायास्तु केवलत्वमावरणक्षयात्, ज्ञानत्वं जातिविशेषः, दर्शनत्वश्च विषयताविशेषो दोषक्षयजन्यतावच्छेदक इत्याहुः || १७ || केवलज्ञान केवलदर्शनैक्यमभ्युपगच्छन् ग्रन्थकारस्स्वपक्षे आगमविरोधं परिहरन्नाह - परवत्तव्वयपक्खा, अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थई उ तेसिं, वियंजणं जाणओ कुणइ ॥ १८ ॥
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66
परवतवयपक्खा अविसिट्ठा " परवक्तव्यकपक्षाऽविशिष्टाः, वक्तुं योग्यानि वक्तव्यानि तान्येव वक्तव्यकानि परैर्वैशेषिकादिभिर्वक्तव्यकानि पश्वक्तव्यकानि तेषां पक्षा अभ्युपगमाः “ युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः " "नागृहीतविशेषणा विशिष्टबुद्धिः" इत्यादिरूपास्तैः ' अविसिद्धा' अविशिष्टा अभिन्ना एकार्थप्रतिपादका इति यावत् “तेसु तेसु सुत्तेसु " भगवन्मुखाम्भोज निर्गतेषु तेषु तेषु सूत्रेषु “ जं समयं पासह नो वं समयं जाणइ " इत्यादिषु अभ्युपगमाः प्रतिभासन्ते, नन्वेवं तर्हि तेषां सूत्राणां किं तथैव व्याख्या कर्त्तव्या किं वाऽन्यथेत्याशङ्कानिवृत्र्त्यर्थमुत्तरार्द्धमाह – ' अत्थगईअ उ तु शब्दस्यावधारणार्थत्वादर्थगत्यैव सामर्थ्येनैव ' तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ' तेषां व्यञ्जनं ज्ञकः करोति तेषां सूत्राणां व्यञ्जनं द्वादशाङ्ग्यात्मक प्रवचनाऽविरोधेनार्थव्यक्तीकरणम्, व्याख्यानमिति यावत्, जानातीति ज्ञः स एव ज्ञकः, अर्हदागमयथार्थज्ञाता करोति " जं समयं पास नो तं समयं जाणइ" इत्येतत्सूत्रं श्रुतावधिमनः पर्याय केवलिसंज्ञकत्रिविधकेवल्यन्यतराऽपेक्षयैव चरितार्थम्,
,
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२३९
सम्मति काण्ड २, गा. ८ न तु केवलकेवल्यपेक्षया, तस्याऽसर्वज्ञताप्राप्तेः। 'सोमिला दवट्ठयाए एगे अहं नागदसणयाए दुविहे अहं' इति सूत्रमपि ज्ञानत्वदर्शनत्वाभ्यां ज्ञानदर्शनभेदविवक्षयैवोक्तमिति सरेरभिप्रायः ॥ १८॥
यद्वा ननु यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमित्येवं केवलज्ञानकेवलदर्शनैक्योररीकारपरे भवन्मतेऽपि केवली णं भंते ! इमं स्यणप्पभं इत्यादिसूत्रे 'जं समयं' इत्यादौ यत्समकमित्याद्यों न सर्वस्वरससिद्धः, तादृशप्रयोगे तथाविवरणाभावात् , तथा पञ्चमाङ्गेऽष्टादशशतके दशमोदेशके "सोमिला दवढयाए एगे अहं नाणदंसणट्टयाए दुविहे अहं" इत्यनेनोत्पत्रकेवलज्ञानेन भगवता स्वयमेव स्वात्मनो ज्ञानदर्शनरूपभिन्नपर्यायापेक्षया द्वित्वविशिष्टत्वोक्त्या केवलज्ञानकेवलदर्शनयोस्स्पष्टाक्षरैर्भेदप्रतिपादनादुक्तागमविरोधोऽपि, यद्धर्मविशिष्टः विषयावच्छेदेन भेदनयार्पणं तद्धर्मविशिष्टापेक्षयैव द्वित्वादेस्साकासत्वात् , अत्र यद्धर्मपदेन ज्ञानत्वदर्शनत्वयोर्ग्रहणं, तद्विशिष्टं ज्ञानं दर्शनश्च, तद्विषयो विशेषः सामान्यञ्च, तदवच्छेदेनास्मनो भेदनयस्य भेदग्राहिनयस्यार्पणं विवक्षणं, विशेषात्मना सामान्यात्मना च आत्मनो मेदव्यवस्थापनम् , तद्धर्मविशिष्टापेक्षयैव केवलज्ञानत्वविशिष्टापेक्षया केवलदर्शनत्वविशिष्टापेक्षयैव च द्वित्वादेः साकासत्वात् , आत्मनि द्वित्वादेरन्वये “ नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं" इति वाक्यस्य साकासवादित्यर्थः । अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् इत्याशङ्कय युक्तिसिद्ध. स्सूत्राओं प्राह्या, तेषां स्वसमयपरसमयादिविषय भेदेन विचित्रत्वादित्यभिप्रायवानाह सूरि:
परवत्तव्वयपक्खा, अविसुद्धा तेसु तेसु अत्थेसु ।
अस्थगईअ उ तेसिं, विअंजणं जाणओ कुणइ ॥ १८ ॥ ७२ ॥ श्रीयशोविजयोपाध्यायरियं गाथैवं विवृता ज्ञानबिन्दौ, " परवत्तव्यपक्खा " परवक्ता व्यकपक्षाः परेषां वैशेषिकादीनां यानि वक्तव्यकानि तेषां पक्षाः "अविसुद्धा तेसु तेसु अत्थेसु" अविशुद्धास्तेषु तेष्वर्थेषु सूत्रे तत्तन्नयपरिकर्मणादिहेतोः निबद्धाः, नन्वेवं तर्हि ते किं तथैव स्याद्वादतत्वज्ञेन ग्राह्या उतान्यथेत्याशङ्कायां तन्निवृत्यर्थमुत्तरार्द्धमाह-'अस्थगईअ उ' तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् अर्थगत्यैव सामर्थ्येनैव 'तेसिं विअंजणं' तेषामर्थानां व्यञ्जनं व्यक्तिं सर्वप्रवादमूलद्वादशाङ्गाऽविरोधेन 'जाणओ कुणइ ' ज्ञको ज्ञाता करोति । तथा च 'जं समयं पासह' इत्यादेयथार्थतार्थे केवली श्रुतावधिमनःपर्यायकेवल्यन्यतरो ग्रायः परमावधिकाधोऽवधिकछमस्थातिरिक्तविषये स्नातकादिविषये वा तादृशसूत्रप्रवृत्ती तत्र परतीर्थिकवक्तव्यताप्रतिबद्धत्वं वाच्यम् , एवमन्यत्रापीति दिक् ॥ १८ ॥
अथ मनापर्यायज्ञानं पटुक्षयोपशमप्रभवत्वाद् विशेष मेव गृहदुत्पद्यते, न सामान्यमिति तद्विषयस्य विशेषकरूपत्वादेव तज्ज्ञानत्वेनैव निर्दिष्टं सूत्रे, अक्रमज्ञानोपयोगदर्शनोपयोग
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२४.
सम्मति० काण्ड १, गा० १९-२० द्वयात्मकैककेवलोपयोगस्तु तद्विषयस्य सामान्यविशेषभेदेन द्विविधत्वात्तदुभयांशे सर्वथाऽऽवरणकर्मक्षयसद्भावात् तदाहिज्ञानधर्मिण एकत्वेऽपि तदुभयग्रहणोन्मुखत्वेन केवलज्ञानत्वेन केवलदर्शनत्वेन च भिन्नप्रकारेण 'केवलनाणे केवलदसणे' इत्यादिसूत्रे निर्दिष्ट इत्युपपादनायाह
जेण मणोविसयगया-ण दंसणं नत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं, णियमा णाणं तु निद्दिढं ॥ १९ ॥ ७३ ॥ "जेण मणोविसयगयाण' येनेति हेत्वर्थे तृतीयाविधानात् , यस्माद्धेतोर्मनोविषयगताना मनःपर्यापज्ञानविषयतां प्राप्तानां संज्ञिजीवैः काययोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानां ' दवजायाण ' द्रव्यजातानां बाह्यपदार्थचिन्तनानुगुणमनोद्रव्यविशेषाणां बाह्यचिन्त्यमानार्थविषयकानुमितिजनकतोपयिकविशेषरूपस्यैव सद्भावात् 'दंसणं नत्थि' दृश्यतेऽनेन तदर्शन मिति विग्रहसिद्धं दर्शनं सामान्यविषयकं नास्ति " तो मणपजवनाणं णियमा णाणं तु निद्दिट्ट" अत्र तुरवधारणाथे, ततो मनःपर्यायज्ञानं नियमाज्ज्ञानमेव निर्दिष्टम् । यद्वा दृश्यते यत्तदर्शनमिति विग्रहेण दर्शनपदग्राह्यं सामान्यं नास्ति 'तो' ततः ग्राह्यस्य सामान्यस्याभावे सति मुख्यतया तद्हणोन्मुखदर्शनाभावात् 'मणपजवणाणं णियमा णाणं तु निद्दिद' तुशब्दस्यावधारणार्थत्वाद् मनःपर्यायज्ञानं विशेषाकारत्वानियमाज्ज्ञानमेव निर्दिष्टम् , आगम इति शेषः। केवलं तु सामान्यविशेषोभयविषयकैकोपयोगरूपत्वात्केवलज्ञानकेवलदर्शनोभयात्मकमेकमेव " केवलनाणे केवलदसणे" इत्यादितत्तत्सूत्रमपि केवलज्ञानत्वकेवलदर्शनत्वधर्मभेदेन धर्मिभेदप्रतिपादनपरमेव, न तु वस्तुगत्या धर्मिभेदप्रति. पादनपरमित्यागमे तदेकमेव निर्दिष्टमिति भावः ॥ १९ ॥
सूत्रे उभयरूपत्वेन परिपठितत्वादप्युभयरूपं केवलम् , न तु क्रमिकसामय्या क्रमेणोत्पादादेककालावच्छिन्नभिन्नसामग्रीतो भिन्नभिन्नविषयकत्वेन युगपदुत्पादाक्रेत्यभिप्रायवानाह सूरिः
चक्नुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणवियप्पा । परिपढिया केवलनाणदसणा तेण ते अण्णा(तेण विय अण्णा) ॥२०॥७४॥
' चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण' चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां ' समयम्मि ' समये अहंदागमे-कइविहे णं भंते ! दंसणे पण्णत्ते ? गोयमा! चउविहे, तं जहा-चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिंदसणे, केवलदसणे" इत्यनेन 'दंसणवियप्पा' दर्शनस्य विकल्पा भेदाः 'परिपढिया' परिपठिताः-भणिताः, ' तेण' तस्माद्धेतोः “ केवलनाणदसणा ते अण्णा" केवलज्ञानदर्शने ते अन्ये, मिने, अत्र 'तेण विय अण्णा' इत्यपि पाठो ज्ञानबिन्दौ,
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सम्मति काण्ड• २, गt० २१-३२ चक्षुरादिजन्यज्ञानवदेव केवलं ज्ञानमध्ये पाठात् ज्ञानमपि, दर्शनमध्ये पाठाच दर्शनमपीत्येकमेव तत् ज्ञानपदेन दर्शनपदेन च व्यवहार्यमिति परिभाषामात्रमेतदिति अन्यकृत स्तात्पर्यम् ॥ २० ॥
मतिज्ञानादेः क्रम इव केवलस्याक्रमेऽपि तस्मिन् केवलोपयोगेऽखिलसामान्यविषयकत्वं नाखिलविशेषविषयकत्वमृते, तदपि तद्विना न, अल्पबत्वप्रासरित्यतः सामान्यविशेषाजहानइत्यैकोपयोगरूपतया ज्ञानत्वं दर्शनवचेत्येकदेशिमतमुपन्यस्यति
सणमुग्गहमेत्तं घडोत्ति निव्वनणा हवह नाणं ।
जह इत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं घेव ॥ २१ ॥७५ ॥ मतिरूपे पोधे 'दसणमुग्गहमेतं' दर्शनमवग्रहमा इदं तदित्येवं निर्देशानहम् । 'घडोति निक्षमणा हवह नाणं' घट इति-पुरोवर्तिपदार्थे अयं घट इति निर्वर्णना निर्वर्णयितुं निश्चयेन व्यपदेष्टुं योग्या निवर्णना, तदाकाराभिलाप इत्यर्थः । 'हवह नाणं' भवति ज्ञानं मतिज्ञानम् । ननु निश्चयात्मिका वर्णना पटोऽयमित्याकारामिलापरूपा द्रव्यश्रुतम् , कथं मतिज्ञानमिति चेत्, उच्यते, कारणे कार्योपचाराद, तथा च घटाकारामिलापजनकं यज्ज्ञानं सन्मतिज्ञानमिति भावः । उक्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिके योजनामाह-"जह इत्थ केवलाण वि" यथा तथेत्यनयोर्नित्यसम्बन्धात्तथेत्यध्याहाराद् यथाऽत्र मतिरूपे बोधे तथा केवलयोरपि, यथा च मतिज्ञानात्केवलस्य लक्षण्यं तथा चाह-'विसेमणं एत्तियं चेव एतावन्मात्रेण विशेषः, एकमेव केवलं सामान्यांशे दर्शनं विशेषांशे च ज्ञानमित्यर्थः ।। २१ ॥ एकदेश्येव क्रमिकमेदपक्षं दूषयति--
दसणपुव्वं नाणं नाणनिमित्तं तदसणं नास्थि।
तेण सुविणिच्छियामो दसणनाणा ण अण्णत्तं ॥ २२ ॥ ७६ ।। 'दसणएवं नाणं' दर्शनं सामान्यज्ञानं पूर्व यस्मिन् तदर्शनपूर्व ज्ञानम्, दर्शनं प्राद पवाद ज्ञानमित्येवं पूर्वापरीमाव छाअस्थिकोपयोगावस्थायां भवति, यतो न हि सामान्य मनुपलभ्य कोऽपि क्षायोपशमिकज्ञानवान् विशेषमुपलभते, तथा च किमप्येतदिति प्राक सामान्यमुपलभ्यैव तत्पश्चाद् विशेषोपलम्माद् दर्शननिमित्वकं ज्ञानं छअस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम् , न चायं क्रमः केवल्युपयोगावस्थायाम्, पूर्व केवलदर्शनस्याभावेऽपि केवल. झानस्य लन्धिरूपत्वेन साकारोपयोगोपयुक्त पुंसि आधक्षण एवोत्पत्तेः, अथैवमुत्पद्यतामाध. क्षणे तन , तत्पश्चाद्वितीयक्षणे तन्निमित्तं दर्शन भविष्यतीत्याशवानिवृत्त्यर्थमाह-'णाणणिमिस तु दसणं नस्थि' ज्ञानं निमित्तं यस्य तज्ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्ति कुत्रापि,
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सम्मति०] काण्ड २ ० २३-२४
तथाऽप्रसिद्धेः ' तेण सुविणिच्छियामो' तेन सुविनिश्विनुमः ' दंसणनाणा म अम्मचं ' दर्शनज्ञाने नान्यत्वम्, न क्रमापादितमेदम्, केवलिनि भजत इति शेषः । क्रमाभ्युपगमे हि केवलिनि ज्ञाननिमित्तकं दर्शनमभ्युपगन्तव्यं स्यात्, तत्कारणं तु प्रागेवोक्तम्, न च तबू दृष्टमनुभूतं वेत्यदृष्टकल्पना न प्रामाणिकीति भावः । ' दंसणणाणण अण्णत्तं ' इति सम्मति पाठः, तदर्थस्तु भगवताऽभयदेवसूरिणा " तेनाध्यवगच्छामः कथश्चित्तयोर्भेद इति, अपक्ष क्षयोपशमनिबन्धनः क्रमः, केवलिनि च तदभावादक्रम इत्युक्तम्" इत्येवं कृतः ।। २२ ।। यदुक्तं मतिरूपे बोधे अवग्रहमात्रं दर्शनमित्यादि तदयुक्तमतिव्याप्तरित्याह
जइ ओग्गहमेतं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं नाणम् । मइनाणमेव दंसण - मेवं सइ होइ निष्कण्णं ॥ २३ ॥ ७७ ॥
' जह' यदि मत्यवबोधे “ ओग्गहमेसं दंसणं ति " अवग्रहमात्रं दर्शनमिति "विसेसियं गाणं " विशेषितं ज्ञानमिति च ' मण्णसि ' मन्यसे ' एवं सह ' एवं सति " महनानमेव दंसणं होइ निष्कण्णं " मतिज्ञानमेव दर्शनं निष्पन्नं प्राप्तं भवति, भवत्वेवं सिद्धम्, को दोष इति चेत्, सोऽपि 44 श्रूयताम्, 'कइविहे णं भंते ! उवओगे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे उनओगे प० ० सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, सागारोवओगे णं भंते ! कतिविधे प० १ गो० ! अट्ठविहे प०, तं० आभिणिबोहियनाणसामारोवओगे, सुयनाणसागारोवओगे, ओहिनाणसागारोवओगे, मणवजवनाणसागा० केवलनाणसागा० मतिअन्नाणसा० सुयअन्नाणसा० विभंगणाणसा० । अणामारोनओगे णं भंते ! कतिविहे प० ! गो० ! चउविहे प०, तं० चक्खुदंसणअणागारोवओगे, अचक्खुदंसणअणा० ओहिदंसणअणा०, केवलदंसणअणागारोवओगे य " इति प्रज्ञापनैकोनत्रिंशत्तमोपयोगाख्यपदाद्यसूत्र विरोधप्रसङ्गस्स्यादिति । अस्मिन्सूत्रे मतिज्ञानाख्यसाकारोपयोगतोऽनाकारदर्शनोपयोगस्य भेदेन प्रतिपादनात् मतिज्ञानस्याष्टाविंशति मेदोक्तिविरोधाच्च ॥
यद्वा मतिज्ञानमेवावग्रहात्मना दर्शनम्, अपायात्मना च ज्ञानमिति यदुक्तं दृष्टान्ताभार्थमेकदेशिना तद्दूषयन्नाह -
जह उग्गहमित्तं दं-सणं ति मण्णसि विसेसिज नाणं । महमाणमेव दंसण - मेवं सह होइ निष्कणं ॥
इति ज्ञान बिन्दु पाठः । तस्यायमर्थः - यदि मतिरेवावग्रहरूपा दर्शनम्, विशेषिता सा ज्ञानमिति मन्यसे, तदा मतिज्ञानमेव दर्शनमेवं सति प्राप्तम् तद्भिनं तनेति सिद्धं भवति, न चैतद्युक्तम् " स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः [ तत्त्वार्थ० अ० २, ०९] इति सूत्रविरोधादित्यर्थः ॥ २३ ॥ एवं सेसिंदियदं - सणम्मि णियमेण होइ ण य जुतं । अह तत्थ नाणमित्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥ २४ ॥
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सम्मति० का २, ० २५
२४३
" एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेज होइ " एवं शैषेन्द्रियदर्शने नियमेन भवति, एवं पूर्वोक्तनीत्या श्रोत्रेन्द्रियघ्राणेन्द्रियादिदर्शनेष्वप्यन ग्रहमात्रं दर्शनमित्यभ्युपगमे मतिज्ञानमेव तदिति नियमेन स्यात्, तच्च न युक्तमित्याह - ' ण य जुतं ' इति, पूर्वोक्तसूत्र विरोधतादवस्थ्यात् । ' अह तत्थ नाणमितं घेप्पड़' अथ तत्र ज्ञानमात्रं गृह्यते श्रोत्रादीन्द्रियेषु दर्शनमपि भवज्ज्ञानमेव गृझते, मात्रशब्दस्य दर्शनव्यवच्छेदकत्वात्, तद्व्यवच्छेद क्व चिदप्यागमे श्रोत्रदर्शनं प्राणदर्शनमित्यादिव्यवहाराभावात्, भोत्रज्ञानं प्राणज्ञानमित्यादिव्यपदेशस्तु शास्त्रे दृश्यत एवेति, तदुत्तरमाह - ' चक्खुम्मि वि तहेव ' चक्षुष्वपि तथैव, गृझतामिति शेषः, चक्षुरिन्द्रियेऽपि तजन्यावग्रहश्चक्षुर्ज्ञानमेव न तु चक्षुर्दर्शनमिति स्त्रीक्रियताम् । अथ तत्र दर्शनमिति चेत्, तर्हि श्रोत्रेन्द्रियादावपि तथैवाभ्युपगम्यताम्, युक्तेस्तौरयादिति ॥ २४ ॥
कथं तर्हि शास्त्रे चक्षुर्दशनादिप्रवाद इत्याशङ्कायां तत्कारणमाह---
नाणमपुट्ठे जो अविसए अ अत्थम्मि दंसणं होई । मुसूण लिङ्गओ जं अणागयाईयविसएसु || २५ ।।
नागमपुढे जो " चक्षुषोsप्राप्यकारित्वाद् घटादिविषयमप्राप्यैव ज्ञानं चक्षुः करोतीत्यतोऽस्पृष्टेऽर्थे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययस्य ज्ञानमेव सत् 'दंसणं होई' दर्शनं भवति, चक्षुदर्शनमित्युच्यते, परमाणावुन रूक्षस्पर्शद्वयसमावेशवच्चाक्षुषे ज्ञानत्वदर्शनत्वधर्मद्वयसमावेश इति भाव:, इत्थं श्रीसिद्धसेनदिवाकरमते चाक्षुषज्ञानावरण चाक्षुषदर्शनावरण कर्माऽपि परमार्थत एकम्, कार्यविशेषत उपाधिभेदतो वा नैकमिति सिद्धम् । तदुक्तं स्तुतौ ग्रन्थकृतैनचक्षुर्दर्शनविज्ञानं, परमाण्वौष्ण्यरोक्ष्यवत् ।
तदावरणमध्येकं, न वा कार्यविशेषतः || निश्चय० ८ इति ॥
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तच प्रागेव विवृतम् । 'अविसए य अत्थम्मि ' - इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादावर्थे ' नाणं जो ' इत्यस्यात्राभ्यन्वयाद् मनसा य उदेति प्रत्ययस्स ज्ञानमेव सत् ' दंसणं होह ' अचक्षुर्दर्शनमित्युच्यते । नन्वेवं तर्ह्यनुमित्यादिकमपि ज्ञानमस्पृष्टेऽविषये चार्थे मनसोपजायत एवेति तत्रापि दर्शनस्वापत्तिरित्याशङ्कायामुक्तातिप्रसङ्गनिवृत्तये उत्तरार्द्धमाह - 'मुत्तूणेत्यादि' लिङ्गतोऽनागताऽतीतविषयेषु यज्ज्ञानमुदेति तन्मुक्त्वा । अत्र जमित्यस्य नाणमित्यने नान्वयः । यत्तदोर्नित्य सम्बन्धात्तदित्यपि दृश्यम् । अयम्भावः - सातिशयोन्नतत्वादिधर्मोपेतवारिबाहलिङ्गोपलम्मेनायं काल आसमभविष्यद्दृष्टिक इत्यनुमित्यात्मकं पुनर्वसूक्ष्य लिङ्गदर्शनेन पुष्य नक्षत्रं मुहूर्त्तान्ते उद्देष्यतीत्यनुमित्यात्मकं वा कृतिकोदयान्यथानुपपत्तिलिङ्गज्ञानेन भरजिहूर्द्धावधिकपूर्वकालोदयवतीत्यनुमित्यात्मकं श्यामवाविशेषं दृष्ट्वा धूमलिङ्गस्मरथेनैतदेश आसनातीतवह्निमानित्यनुमित्यात्मकं वाऽनागतातीतविषयकं यज्ज्ञानमुदेति वन्मुक्तवेति,
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सम्मति• काण्ड २, गा० २६-२५ इदमुपलक्षणं-भावनाजन्यज्ञानातिरिक्तपरोक्षज्ञानमात्रस्थ, तस्यास्पृष्टाविषयार्थस्यापि दर्शनत्वेनाव्यवहारात् । भावनाजन्यस्य लतादौ कामिन्यादिज्ञानस्य परोक्षस्यापि दर्शनत्वेन व्यवहारासदुपलक्षणासम्भवाद्भावनाजन्यज्ञानातिरिक्तेति परोक्षज्ञानस्य विशेषणम् ॥ २५ ॥ . ननु यद्यस्पृष्टाविषयार्थविषयकं ज्ञानं दर्शनमित्यभ्युपगम्यते तर्हि मनःपर्यायज्ञानमपि तथाविधत्वात्तद्रूपं स्यादिति तत्रातिप्रसङ्ग इति पूर्वार्द्धनाशङ्कयोत्तरार्द्धन तदुत्तरमाह
मणपज्जवनाणं दं-सणंति तेणेह होइ ण य जुत्तं ।
भण्णइ नाणं नोइं-दियम्मि ण घडादओ जम्हा ॥ २६ ।। ‘मणपजवनाणं दसणंति' मन:पर्यायज्ञानं दर्शन मिति तेणेह होई' तेनोक्तलक्षणेनात्र सिद्धं भवति, परकीयमनोगतानां घटादीनामालम्ब्यानां तत्रासवेनास्पृष्टेऽविषये च घटादा. बर्थे तस्य भावात् । ‘ण य जुत्तं न च युक्तम्, एतदिति शेषः। मनःपर्यायज्ञानस्य आगमे दर्शनत्वेनानमिहितत्वात् ' भण्णइ' भण्यते, तदुत्तरमिति शेषः 'नाणं नोइंदियम्मि ज्ञानं नोइन्द्रिये, अयम्भाव:-संज्ञिजीवैः काययोगेन गृहीता ये मनोवर्गणापुद्गला मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामितास्तन्मयं मनो नोइन्द्रियसंज्ञयाऽईच्छाने गीयत इति मनोद्रव्यार्थग्राहकत्वेन प्रवर्त्तमानं मनःपर्यायबोधरूपं ज्ञानमेव, न तु दर्शनम् , तत्र हेतुमाह-'ण घडादओ जम्हा' यस्मादस्पृष्टा घटादयो नास्य विषय इति शेषः । नित्यं तेषां लिङ्गानुमेयत्वात् । अयम्माव:-मन:पर्यायज्ञानी द्रव्यमनश्चिन्तनीयान् तान् बाह्यान् घटादीन तादृशमनःपरिणामाऽन्यथानुपपत्तिलिङ्गतोऽनुमानेन जानाति, न तु साक्षात् । उक्तश्च भाष्यसुधाम्बुधिना
"तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं " ८१४ इति । एतच प्रागेव विकृतम् । मनस्त्वरूपेण परिणता मनोवर्गणास्तु परात्मगता अपि स्वाथयात्मस्पृष्टजातीया एवेति न तदंशेऽपि दर्शनत्वप्रसङ्ग इति । परकीयमनोगतार्थाकारविकरप एवास्य प्राया, तस्य चोभयरूपत्वेऽपि छामस्थिकोपयोगस्यापरिपूर्णार्थग्राहित्वान मनापर्यायज्ञाने दर्शनत्वसम्भव इत्यप्याहुः ॥ २६ ॥ किश्व
महसुचनाणणिमित्तो छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो।
एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो।। २७ ।। 'महसुयणाणणिमित्तो' मतिश्रुतज्ञाननिमित्तः 'छउमत्थे होइ अत्यउवलंभो' छपस्थे अक्षीणमोहादिधातिकर्मणि भवत्यर्थोपलम्मा, आगमे तथैवोक्तत्वात-एगयरम्मि वि तेसि' तयोरेकतरस्मिन्नपि तदुभयान्यतरस्मिन्नपीत्यर्थः ण सणं ' न दर्शनं, सम्भवतीति शेषः, न तावदवग्रहो दर्शनम् , तस्य ज्ञानात्मकत्वात् । ततः ' दंसणं कत्तो ? ' दर्शनं कुतः ? नास्तीत्यर्थः ॥ २७ ॥
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सम्मति● काव्य में, गा० १८-१९
नवस्पृष्टेऽर्थे श्रुतज्ञानं भवतत्किमिति दर्शनं न भवेदित्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह---
जं चक्वग्गहणं ण इंति सुअनाणसम्मिया अस्था । तम्हा दंसणसहो ण होइ सयले वि सुअनाणे ॥ २८ ॥
4 जं' यस्मात् ' पच्चक्रखग्गहणं न इति ' प्रत्यक्षग्रहणं न यन्ति, न यान्ति वा । यन्तीति क्रिया कर्तृसापेक्षेति तत्कर्तृभूतानर्थानाह - " सुअनाणसम्मिया अस्था 19 इति श्रुतज्ञानेन सम्यग्मीयन्ते निश्रीयन्त इति श्रुतज्ञानसम्मिताः, अर्ध्यन्ते परिच्छिद्यन्ते ज्ञानविषय क्रियन्त इत्यर्था: । अयम्भावः श्रुतज्ञानप्रमिता अर्थाः प्रत्यक्षेण न गृहान्ते, अक्षमिन्द्रियं प्रतिगतं कार्यत्वेनाश्रितं प्रत्यक्षमिति व्युत्परयाऽक्षजस्यैव व्यावहारिकप्रत्यक्षत्वात् । पर्यवसितार्थमुत्तरार्द्धेनाह- तम्हेत्यादि ' तम्हा ' तस्मात् श्रुतज्ञानस्याक्ष जत्वाभावात् परोक्षार्थ ग्राहकत्वाच ' सयले वि सुयनाणे ' सकलेऽपि श्रुतज्ञाने 'दंसणसदो न होइ ' दर्शनशब्दो न भवति, न प्रवर्त्तते श्रुतज्ञानं चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनशब्दवाच्यं न भवतीति तत्तदात्मकं नेति भावः । तथा च व्यञ्जनावग्रहाऽविषयार्थ प्रत्यक्षत्वमेव दर्शनत्वमिति पर्यवसन्नम् । प्रत्यक्षपदादेव श्रुतज्ञानवदनुमित्यादेर्व्यावृत्तौ परोक्षभिन्नत्वे सतीति विशेषणं न देयम् । 'मुत्तूण लिङ्गओ जं' इत्युक्तस्याप्यत्रैव तात्पर्य दृष्टव्यम् । इत्थं चाब्राह्मणमादायेत्यादाविवाचक्षुर्दर्शनमित्यत्रापि ननर्थः पर्युदासात्मक एवाभावो ग्राह्यः, न त्वघटं भूतलममनुष्य मरण्यमित्यादाविवात्यन्तनिषेधकृत् प्रसज्यात्मकः पर्युदासथ सदृग्ग्राहीति अचक्षुर्दर्शनपदेन मानसदर्शनमेव ग्राह्यम्, न तु श्रोत्रदर्शनघ्राणदर्शनादिकम्, अप्राप्यकारित्वेन मनस एव चक्षुर्मित्वे सति तत्सदृशत्वात् ।
पुढं सुणेइ स रूवं पुण पासए अपुढं तु । गंध रसं फासं च बद्धटुं विआगरे ॥ ५ ॥
२४५
इत्यावश्यक सूत्रोक्तेः श्रोत्रघाण जिह्वा स्पर्शनेन्द्रियाणां प्राप्तार्थविषयकप्रत्यचजनकत्वेनाप्रासार्थविषयकप्रत्यक्षजनक चक्षुस्सादृश्याभावादिति । प्रज्ञापनोपयोगाख्यपदटीकायां तु-अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् । ततोऽनाकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः इत्येवं " अचक्खुदंसण अणागारोवओगे " इत्यस्यार्थः कृतः, तथा च तत्राऽचक्षुर्दर्शनपदवाच्यं श्रोत्रम्राणरसनास्पर्शनेन्द्रियमनोदर्शनमित्युक्तं भवति ॥ २८ ॥
नन्वेवं दर्शनत्वस्य पारिभाषिकरूपत्वेऽवधिदर्शनमपि सिद्धं न स्यात्, तस्य व्यञ्जनावग्रहाविषयार्थग्राहित्वेऽपि व्यवहारतः प्रत्यक्षत्वाभावादित्याशङ्कां समाधत्ते -
जं अपुट्ठा भात्रा ओहिष्णाणस्स होंति पञ्चकखा । तम्हा ओहिणाणे दंसणसहो वि जवउत्तो ॥ २९ ॥
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'जे' यस्मात् 'अपुट्ठामावा' अस्पृष्टा मात्रा: परमाण्यादयः ते किमिरपाह'ओहिण्णाणस्स होइ पञ्चक्खा' अवधिज्ञानस्य भवन्ति प्रत्यक्षा, अश्नुते क्याप्नोति ज्ञानात्मना सर्वार्थान् , अनाति स्वः समृद्ध्यादीन, पालयति मुले वेति ' उणादिनिपातनात् ' अक्षो जीवा, तं प्रति साक्षाद् गतमिन्द्रियनिरपेक्षं वर्तते यत्तत्प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तिसिद्धं नैश्चयिकप्रत्यक्षमवधिज्ञानमपि, अवधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम महकतात्ममात्रजन्यत्वेन वनेन्द्रियाय. पेक्षत्वाऽभावादित्यवधिज्ञानप्रत्यक्षविषया भवन्ति, तथा चोक्तदर्शनत्वपर्यवसितलक्षणषटकीभूतप्रत्यक्षपदेन सांव्यवहारिकप्रत्यक्षपारमार्थिकप्रत्यक्षसाधारणप्रत्यक्षत्वावच्छिमं ग्रामम् , तथाविधश्चावधिज्ञानमपीति तदात्मकमवधिदर्शनं सिद्धं भवति । तदेवोत्तरार्द्धनाह___ "तम्हा ओहिण्णाणे दंसणसदो वि उवउत्तो" तस्मादवधिज्ञाने दर्शनशब्दोऽप्युपयुक्ता, दर्शनाभिधाननिमित्तस्योक्तलक्षणस्य सद्भावेन सावकाश इति ॥ २९ ॥
अवधिज्ञाने पारमार्थिकविकलप्रत्यक्षत्वक्त् केवलज्ञानेऽपि पारमार्थिकसकलप्रत्यक्षतसद्भावेनोक्तलक्षणमव्याहतमित्याह
जं अपुढे भावे, जाणइ पासइ य केवली नियमा।
तम्हा तं नाणं द-सणं च अविसेसओ सिद्धं ॥ ३०॥ * अपुढे भावे ' यस्मादस्पृष्टान् भावान् केपली नियमा' करामलकास्केवलश्रिया विधविश्वतवं कलयन् केवली नियमात-अवश्यम्भावेन, 'जाणइ पामह य' जानाति पश्यति घ, सामान्य विशेषोभयप्राधान्येन, न तु गौणप्रधानमावेन, तस्य क्षायोपत्रमिक. ज्ञाननिवन्धनत्वात्, केवलिनस्तु क्षायोपशमिकभावातीतत्वाम तज्ज्ञानं क्षायोपथमिक ज्ञानात्मकमिति तनिमित्त कसामान्यविशेषगौणप्रधानमावस्य तत्राभावात् । 'तम्हा तं नाणं दसणं च' तस्मात्तत्केवलोपयोगरूपं ज्ञानं दर्शनश्चोभयरूपं 'अविसेसओ सिद्धं' उभयाभिधाननिमित्तस्याविशेषात्सिद्धम् , अयम्भाव:--केवलावबोधो न क्रमिकज्ञानोपयोग. दर्शनोपयोगान्यतरात्मका, न वा युगपज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगभेदेनोपयोगद्यात्मका, अपि त्वेक एव धर्मी उभयाभिधाननिमित्तमद्धावाज्ज्ञानदर्शनोभयात्मक इति । मनापर्यायज्ञानस्य तु व्यञ्जनावग्रहाविषयार्थकप्रत्यक्षत्वेऽपि बाह्यविषये व्यभिचारेण स्वग्राह्यतावच्छेदका. वच्छेदेन प्रत्यक्षत्वाभावान दर्शनत्वमिति निष्कर्ष इत्युक्तं ज्ञानबिन्दौ । अयम्माव:-अजु. मतिविपुलमतिमेदतो द्विविधेनाऽपि चानेन मनःपर्यायज्ञानेन तत्तदर्थचिन्तनपरिणतानि मनोद्रव्याण्येव गृयन्ते, चिन्त्यमानास्स्तम्भकुम्भादयस्तु बाह्या पदार्था अनुमानेनैवाऽ. बगम्यन्ते, तावत्पर्यन्तमेकोपयोगाभ्युपगमेऽनुमित्यात्मकज्ञानस्य पक्षसाभ्यरूपं विषयांशे परोक्षत्वेऽपि मितिमात्रंशे स्वप्रकाशत्वपक्षे प्रत्यक्षत्ववन्मनोदव्यांशे प्रत्यक्षत्वेऽप्यत्र बायांशे परोक्षत्वमुपपादनीयम् , एकान्तप्रत्यक्षता तु स्ववाधावच्छेदेनैव वाच्या, लैङ्गिके एकान्त
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सम्मति काण्ड २, गा० ३१-३२
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परोक्षताया अपीत्थमेवोपपत्तेः । न्यायाचार्य महोपाध्याय पूज्यपाद श्री यशोविजय कृतत स्वार्थप्रथमाध्यायचतुर्विंशतितमसूत्रभाष्यविवरणोत्यनुसारेण तावत्पर्यन्तमेकोपयोगपक्षे यदि मनःपर्यायज्ञाने मनोद्रव्यवत् संज्ञिजीवचिन्तनीयघटादिवाद्यपदार्था अपि तद्विशेषणतया प्रतिभासन्ते तदा स्वं मनः पर्यायज्ञानं तद्ब्राह्यं मनोद्रव्यं तदवच्छेदेन मनःपर्यायज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि स्वग्राह्यतावच्छेदको घटादिवाद्यांशस्तदवच्छेदेन परोक्षत्वेन प्रत्यक्षत्वाभावान्न दर्शनत्वम्, अत्रत्यं विवेचनमस्मदृब्धतत्त्वार्थविवरण गूढार्थदीपिकातोऽव सेयमिति ॥ ३० ॥ तस्माद् द्वयात्मक एक एव केववलाबोध इति फलितं स्वमतमाह सूरिः -
साई अपज्जबसियं, ति दो वि ते ससमयं हवइ एवं । परतित्थियवत्तव्यं च एगसमयेतरुपपाओ ॥ ३१ ॥
पूर्वोक्तनीत्या केवलावबोधो द्वयात्मक एक एवेत्यभ्युपगमे स्वसमयः, अन्यथा परसमय इति तात्पर्यार्थः । एतद्गाथायास्तु पूज्याभयदेवसूरिभगवतैरेवमर्थः कृतः - द्वे अपि ते ज्ञानदर्शने यदि युगपन्न नाना भवतस्तदा स्वसमयः - स्वसिद्धान्तः साद्यपर्यवसिते इति घटते, यस्तु तयोरेकसमयान्तरोत्पादः “ यदा जानाति तदा न पश्यति " इत्येवमभिधीयते सं परतीर्थिकशास्त्रं नाईद्वचनं नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति । न्यायाचार्य श्री यशोविजयोपाध्यायाभिप्रायेण त्वेवं गाथाशब्दार्थः । साई अपञ्जवसियं ति ' साद्यपर्यवसितं केवलं शास्त्रे प्रोक्तमिति हेतोः ' दो वि ते ' द्वे अपि ते ज्ञानदर्शने, उभयशब्दवाच्यं तदिति यावत् । ' एवं ' एवमभ्युपगमे सति ' ससमयं हवइ ' स्वसमयः स्वसिद्धान्तोऽयं भवति, चस्त्वर्थे ' एगस्रमयंतरुप्पाओ ' यस्त्वेकसमयान्तरोत्पादः, तयोर्भण्यत इति शेषः, तत् " परतित्थियवत्त्वं " परतीर्थिकवक्तव्यं परतीर्थिकशास्त्रम् नाईद्वचनं नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति ॥३१ ॥ -
जिनप्रज्ञप्तनिखिलतश्वविषयकं भावतो यत्समूहालम्बनश्रद्धानं तल्लक्षणं सम्यग्दर्शनमपि मतिज्ञानस्यैव सम्यमुचिरूपो योऽपायांशस्तद्रूपमेव, न ज्ञानाद्यतेऽन्यदर्शनमस्ति, पृथग्विमागादिप्रक्रिया तु गोवृषन्यायात्, अत एव सम्यग्दर्शनत्वं सम्यग्ज्ञानत्वव्याप्यजातिविशेषः, विषयताविशेषो वा तदवच्छिन्ने च दर्शनावरणक्षयोपशमानामेकशक्तिमत्त्वादिना हेतुत्वमिति ज्ञानावरणविशेष एव दर्शनावरणमित्यभिप्रेत्याह
एवं जिणपण्णत्ते सहहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसहो हवह जुत्तो ॥ ३२ ॥
"
' एवं ' अनन्तरोक्तविधिना ' जिणपण्णत्ते' अस्य ' भावे ' इत्यनेनान्वयाजिनप्रज्ञतान् भावान् ' भावओ सद्दहमाणस्स ' भावतः सम्यमुचिरूपतया श्रदधानस्य समूहालम्बनया कच्याऽवगृहतः 'पुरिसस्सा भिणिबोहे दंसणसदो हवइ जुत्तो ' पुरुषस्याभिनिबोधे मतिज्ञानापायांशरूपे दर्शनशब्दो भवति युक्तः, जिनप्रझतजीवाजीवादिपदार्थनवकविषयक समूहालम्बन
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अम्मतिः काण २, पा. ३३-४ ज्ञानविशेषरूपाया रुचेः सम्यग्दर्शनशब्दवाच्यत्वात् , तथोक्तरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं मुख्यम् , भाक्तं च तत् अनेकान्तागमवासनोपनीत सर्वाऽनेकान्तताऽवगाहिघटाधपायात्मकमपीति भावः ॥ ३२ ॥
ननु यस्मिनात्मनि सम्यग्ज्ञानं तस्मिनियमेन सम्यग्दर्शनम् , तव्यतिरेकेण सम्यग्ज्ञानत्वस्यैवानुपपत्तेरितिवद् यस्मिन् रुचिरूपं दर्शनं तस्मिनियमेन सम्यग्ज्ञानमस्ति न वेत्याशङ्कायामाह
सम्मन्नाणे णियमे- देसणं दसणे उभयणिज्नं ।
सम्मन्नाणं च इमं, ति अधओ होइ उववणं ॥ ३३ ॥ 'सम्ममाणे णियमेण दंसणं' सम्यग्ज्ञाने नियमेन दर्शनं सम्यग्दर्शनम् , "दसणे उ भयणिज" दर्शने तु पुनर्भजनीयम् अस्ति न वेति विकल्पनीयम् , सम्यग्ज्ञानमिति शेषः । अनेकान्ततत्वाविषयकरुचिलक्षणसम्यग्दर्शने सति तदस्ति, एकान्ततत्वविषयकरुचिलक्षणदर्शने सति तन्नास्तीति भावः। अविशेषितदर्शनेन सह भजनोक्तावपि सम्यक्पदविशेषणे नेयं भजनेत्याशयेनोत्तरार्द्धमाह-सम्मन्नाणं चेत्यादि । ' इमं " इदमदसोः प्रत्यक्षे” इति वचनात् इदंशब्दप्रयोगः प्रत्यक्षविषय एवार्थे भवतीतीदमित्यस्य सम्यग्दृष्टिप्रत्यक्षविषयी. भूतमित्यर्थः । अस्य च सम्यग्ज्ञानमित्यनेनान्वया, चशब्दात्सम्यग्दर्शनम् । तथा चेदं सभ्यग्नानं सम्यग्दर्शनमित्यर्थत उपपन्नं भवति, अर्थापत्तिसिद्धमित्यर्थः, अयशार्थः तत्वाथेविवरणमनुसृत्योक्तः । यद्वा 'सम्मन्नाणं च इमं ति ' अतः सम्यग्ज्ञानं चेदंपदग्रावं सम्यग्दर्शनश्चेति “ अत्थओ होइ उपवनं " अर्थतः सामर्थ्यादेकमेवोपपत्रं भवति, तथा च सम्यग्दर्शनं मतिज्ञानापायांशरूपत्वाज्ञानविशेषरूपमेव, मिथ्यादर्शनमपि तद्ज्ज्ञानविशेषरूपमेवेति सिद्धम् ॥ ३३ ॥
सूत्रे च साद्यपर्यवसितं केवलज्ञानं दर्शितमिति तत्तत्वमजानानाः केचिदत्र व्याचक्षते, केवलज्ञानस्य प्रतिबन्धकं केवलज्ञानावरणमिति सर्वथा तदुच्छेदे सत्येव तदुत्पद्यत इति कारणो. पजायमानत्वाद् घटादिवत् तत्सादि, न चोत्पन्नं सत्तत्पुनर्विनश्यति प्रबलतरतद्विरोधिगुणा. न्तरामावेन तद्विनाशकसामध्यभावात् , न च कमोवरणेन पुनराब्रियते तत्, कारणाऽमावेन तदावारकनव्यकर्मवन्धाभावात् , विनाशाभावाच न पुनरुत्पद्यते, विनाशपूर्वकत्वादुत्पादस्येति पुनरुत्पादविनाशानात्मकं केवलम् , अत एवापर्यवसितमिति, तन्मतनिरासायाह
केवलणाणं साई अपजयसियं ति दाइयं सुत्ते ।
तेत्तियमित्तोत्तुणा के विसेसं ण इच्छंति ॥ ३४ ॥ 'केवलणाणं साई अपञ्जवसियं ति' केवलज्ञानं साद्यपर्यवसितमिति · दाइयं सुत्ते' दर्शितं सूत्रे ' तेत्तियमित्तोत्तूणा' तावन्मात्रेण ता:-एतावन्मात्रेण गर्विताः ' केइ विसेसं
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सम्मतिः काम २, गा० ३५-३६ ण इच्छंति ' केचन विशेष विशेषपर्यायं पर्यवसितत्वात्मकं सन्तमपि नेच्छन्ति नाभ्युपगच्छन्ति । ननु किं ते सम्यग्वादिनः किं वा नेति चेत् , नेति जानीहि ॥ ३४ ॥ तदेवाह
जे संघयणाईया भवत्थकेवलिविसेसपज्जाया।
ते सिजमाणसमये ण होति विगयं तओ होइ ॥ ३५ ॥ 'जे संघयणाईया' ये संहननादयः-वज्रर्षभनाराचसंहननादयो यद्यपि शरीरधर्मत्वेन तत्पर्यायास्तथापि भवस्थकेवल्याऽऽत्मतच्छरीरयोदुग्धपानीययोरिखान्योन्यसम्बद्धतयैव व्यपस्थितेर्भवस्थकेवलिविशेषपर्याया इत्याह-'भवत्थकेवलिविशेषपजाया' इति, भवे तिष्ठतीति भवस्थः, स चासौ केवली-केवलज्ञानवान् भवस्थकेवली, तस्य विशेषपर्यायाः " ते सिज्झ. माणसमये न होंति" ते सिध्यत्समये सिद्धस्वरूपाबाप्तिसमये न भवन्ति, अपगच्छन्तीत्यर्थः। भवस्थकेवलिविशेषपर्यायतया तवंसे सति किं भवतीत्याशङ्कायामाह-“विगयं तओ होइ" विगतं ततो भवति । भवस्थकेवलिविशेषपर्यायापगमे भवस्थकेवलज्ञानपर्यायतया केवलज्ञानं विध्वस्तं भवति । अयम्भावः-उक्तभवस्थकेवलिविशेषपर्यायनाशे तद्विशिष्ट. केवल्यात्मविनाशः, विशेषणनाशे तद्विशिष्टनाशस्याप्यवश्यम्भावात् , शिखाविनाशे शिखी विनष्ट इति प्रतीतेः, न चात्रापि शिखात्मकविशेषणस्यैव नाशः, न तद्विशिष्टस्य इति वाच्यम् , एकान्ततया भेदेऽभेदे च विशेषणविशेष्यभावस्यावस्थाऽवस्थातृभावस्य चाऽयोगेन कथञ्चि द्विनाशस्यापि भावात् , तादृशात्मविनाशे च केवल्यात्माऽव्यतिरिक्तं केवलज्ञानमपि तद्वारा विनष्टमिति ॥ ३५ ॥
अथ केवलभावेनापर्यवसितस्यापि केवलज्ञानस्य पूर्वपर्यायात्मकभवस्थ केवलज्ञानपर्यायतया सिद्धिप्रथमसमये विनाशवत्सिद्ध केवलज्ञानपर्यायलक्षणोत्तरपर्यायरूपेणोत्पत्तिरप्यवश्यम्भाविनी, अपर्यवसितभावस्यापि तत्तदवस्थाविशेषनियतनाशोत्पादावश्यम्भावात् अन्यथा त्रैलक्षण्यासिद्धिस्स्यादिति प्रतिपादयितुम् , यद्वा विनाशस्योत्पत्तिनियतत्वात्केवल ज्ञानस्य भवस्थकेवलज्ञानरूपपूर्वपर्यायरूपेण विनाशं प्रतिपाद्य सिद्ध केवलज्ञानपर्यायात्मकोसरपर्यायरूपेणोत्पत्ति प्रतिपादयितुमाह
सिद्धत्तणेण य पुणो, उप्पण्णो एस अत्थपनाओ।
केवल भावं तु पडुच, केवलं दाइयं सुत्ते ॥ ३६ ॥ 'सिद्धत्तणेण य पुणो' सिद्धत्वेन-अनादिसन्तत्यागतकाञ्चनोपलसंयोगस्येवानादिजीवकर्मसंयोगस्य सोपायं यस्सर्वथा विच्छेदस्तत्प्रयुक्तात्मकर्मसर्वाशपृथग्भावलक्षणं यत् सिद्धत्वं अस्य पूर्व सिद्धत्वं नासीद किन्त्वधुनै तत्सञ्जातमिति प्रतीतिसिद्धेन तेन रूपेण एष सिद्धस्थकेवलज्ञानाख्यार्थपर्याय उत्पन्ना, प्रागसतः सत्तालाभादित्याह-" उप्पण्णो एस अत्थप
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सम्मति० काग २, गा• ३७ आओ" इति । एतद्भावमपेक्ष्यैवोक्तं नन्दीसूत्रे-"केवलनाणे दुविहे पण्णत्ते भवत्थकेवलनाणे य सिद्धकेवलनाणे य" इति । नन्वेवं तर्हि केवलज्ञानमपर्यवसितं किमपेक्ष्य शास्त्रे गदित. मित्याशङ्कानिवृत्यर्थमुत्तरार्द्धमाह- केवलभावमित्यादि । केवलभावं तु प्रतीत्य-अपेक्ष्य, "केवलं-दाइयं सुत्ते" केवलज्ञानं दर्शितं सूत्रे, अपर्यवसितमिति शेषः। तत्तत्पूर्वोत्तरपर्यायपरि. त्यागोपादानभावेन विनाशोत्पत्तिशीलमपि प्रतिक्षणक्षेयपरिणति भेदेन समयभेदेन च प्रतिक्षणभिन्नस्वरूपमपि च केवलज्ञानं नैव कदापि तत्तत्पूर्वोत्तरपर्यायानुगतं केवलमा केवलोपयोगमावं द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिदभेद इति कथश्चिदात्मद्रव्याव्यतिरिक्तत्वात् तमित्यत्वेन तद्वारा नित्यस्वरूपं परिजहातीत्येतावता तदपर्यवसितमिति सिद्धान्ते गीयते इति भावः । तथा च केवलज्ञानस्य घातिकर्मचतुष्टयक्षयेणोत्पत्तिभावात्तत्सादिः तदनन्तरं शुद्धस्वभावव्यञ्जनपर्यायापेक्षितध्रुवसत्ताविनाशकसामग्यभावात् प्रतिक्षणं ज्ञेयभेदप्रयुक्तनिखिलतत्त. ज्ज्ञेयावगाहित्वस्वभावभेदतत्तत्समयविशिष्टत्वस्वभावभेदभित्रकेवलज्ञानानन्तार्थपर्यायानुगतव्यञ्जनपर्यायात्मकेन केवलभावेन न तत्कदाऽपि विनश्यति, विनाशाभावाच न तद्रूपेण तत्पुनरुत्पद्यत इति तदुभयामावात् केवलज्ञानोत्पत्तिप्रथमसमयादेव केवलभावेन सर्वदा ध्रुवत्वादपर्यवसितम्, अष्टकर्मविगमेन सिद्धस्वरूपावाप्सौ केवलज्ञानस्य पुनः पूर्ववत्सिद्धत्वेन सिद्धस्थकेवलज्ञानाख्योऽर्थपर्याय उत्पन्न इति भवस्थकेवलज्ञानपर्यायसिद्धकेवलज्ञानपर्यायाभ्यां विनाशोत्पत्तिभावात्तत्सादिसपर्यवसितमप्यभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा त्रैलक्षण्याऽनुपपत्त्या सत्वमपि न स्यात्, न स्याच केवलज्ञानं स्यात्साद्यपर्यवसितं स्यात्सादिसपर्यवसितमित्यादिरूपेण सप्तमङ्गीसङ्घटनाऽपि तत्रेति भावनीयम् ॥ ३६ ॥
ननु जीवोऽनादिनिधनः केवलज्ञानं पुनस्साद्यपर्यवसितम् , तथा च केवलज्ञानं जीवस्वरूपाद्भिनं विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात् , यच्च यतो विरुद्धधर्माध्यस्तं तत्ततो भिन्नं, यथा घटास्पटः, जीवाद्विरुद्धधमाध्यस्तं च केवलज्ञानं, तस्मात्तद्भिनमिति केवलज्ञानस्यात्मस्वरूपतामाश्रित्य तस्योत्पादविनाशाभ्यां केवलज्ञानस्य तौ भवत इत्युपपादनं कथं युक्तियुक्तमित्याशङ्कते
जीवो अणाइनिहणो केवलणाणं तु साक्ष्यमणंतं ।
इय थोरम्मि विसेसे कहं जीवो केवलं होइ ॥ ३७॥ 'अणाइनिहणो' आदि च निधनमन्तश्च आदिनिधने, ते न विद्यते यस्य सो अनादिनिधनः, एवम्भूतः क इत्याह-'जीवो' जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवः । 'केवलगाणं तु साइयं केवलज्ञानं तु सादिकं, आदिना सह वर्तत इति सादिकम् आदिमत् , पुनस्तद्विशिनष्टि-'अणत' न विद्यते अन्तो यस्य तदनन्तम्-अपर्यवसितम् , ' इअ थोरम्मि विसेसे' इति स्थूरे स्थूलबुद्धिगम्ये विशेषे विरुद्धधर्माध्यासलक्षणे सति आत्मकेवलज्ञा
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सम्मति० काण्ड १, मा० ३८-३९-४०
२५१
नयोर्घटपटवदत्यन्तमेदात् ' कहं जीवो केवल होइ ' कथं जीवः केवलं भवेत् ? कथं जीवस्वरूपं केवलज्ञानं भवेत् १ ॥ ३७ ॥
ननु भवतु तयोर्विरुद्धधर्माध्यासः, तेन किमित्यत आह
तम्हा अण्णो जीवो अण्णे णाणाइपञ्जवा तस्स । उवसमिआईलक्खणविसेसओ केइ इच्छंति ॥ ३८ ॥
4
तम्हा अण्णो जीवो' तस्माद्विरुद्धधर्माध्यासादन्यो जीवो ज्ञानादिपर्यायेभ्य इति शेषः । ' अण् णाणाइपजवा तस्स " 'तस्य जीवस्य ज्ञानादिपर्याया अन्ये जीवादिति शेषः । लक्षणमेदादपि तयोर्भेद इति प्रतिपादयितुमाह-उवसमियाईलक्खणविसेसओ' औपशमिकादिलक्षणविशेषतः । अथम्भावः - ज्ञानदर्शनयोः क्षायिकक्षायोपशमिकाऽन्यतरात्मको भावो लक्षणम्, जीवस्य तु पारिणामिकभावो लक्षणमित्येवं लक्षण मेदाज्ज्ञानदर्शनादिपर्याया जीवाद्भिमा इति ' केह इच्छंति ' केचिद्वयाख्यातारः इच्छन्ति-अभ्युपगच्छन्ति ।। ३८ ।। तन्मतं निरसितुमाह
अह पुण पुव्वपयुक्त अत्थो एगंतपक्खपडिसेहे ।
तहवि उयाहरणमिणं ति हेउपडिजोयणं वुच्छं ॥ ३९ ॥ अह पुण
•
अथ पुनः यद्यप्ययं ' एगंतपक्खपडिसेहे ' एकान्तपश्चस्य द्रव्यपर्यायैकान्तभेदाभेदवादस्य यः प्रतिषेधः तल्लक्षणः ' अत्थो ' अर्थ:
दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा नत्थि । उपायहिभंगा हंदि दत्रियलक्खणं एयं । १ । १२ ॥
इत्यादिना द्रव्यपर्यायौ कथचिद्भिन्नाभिनौ परस्परविविक्तयोस्तयोः कदाचनाप्यप्रतिमासनादित्येवमनेकप्रकारेण ' पुवपयुक्तो ' पूर्वमेव प्रयुक्तो योजितः पूर्वप्रयुक्तः, अनेकान्तस्वव्यवस्थापनात् ' नि ' तथापि ' ' हेउपडिजोयण' कथञ्चिद्भेदाभेद प्रसाधकस्य हेतोः केवलज्ञानपक्षे आत्मनः कथश्चिद्भेदा मेदसाध्येन सह प्रतियोजनं नियतसाहचर्य लक्षणव्याप्तिप्रदर्शक प्रमाणविषयं ' उयाहरणमिति वोच्छं ' उदाहरणमिदमिति वक्ष्ये ||३९|| तदेवाह -
जह कोइ सहिवरिसो तीसह रिसो नराहियो जाओ । उभयस्थ जायसहो वरिसविभागं विसेसेह ॥ ४० ॥
4
4 'जह कोइ ' यथा कश्चित् पुरुषः ' सडिवरिसो ' षष्टिवर्षः सर्वायुष्कमाश्रित्येति शेषः । arunafrat नराहिवो जाओ' त्रिंशद्वर्षस्सन्नराधिपो जातः, ' उभयस्थ ' उभयत्र मनुष्ये राजनि च ' जायसहो ' अयं मनुष्यो जातः, अयश्च राजा जात इत्येवं प्रयुक्तो जात
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सम्मति० काण्ड १, गा० ४१ शब्दोऽयं ' वरिसविभागं विसेसेइ वर्षविभागं विशेषयति दर्शयति, षष्टिवर्षायुष्कस्य पुरुषसामान्यस्य त्रिंशद्वर्षस नराधिपपर्यायोऽयं जाता, कथञ्चिदमेदसापेक्षभेदात्मकत्वात् पर्यायस्य, त्रिंशद्वर्षीयनराधिपपर्यायात्मकत्वेन चायं पुरुषः पुनर्जातः, कश्चिद्भेदसापेक्षाभेदात्मकत्वात्सामान्यस्य । अयम्भावः-जन्मादिमरणकालपर्यन्तं षष्टिवर्षायुष्कं पुरुषसामान्यं राजकुमारपर्याययुवराजपर्यायनराधिपपर्यायानुगतमभिन्नमेव, सर्वेषु पूर्वोत्तरपर्यायेषु पुरुषोऽयं पुरुषोऽयमित्यनुगतप्रतीतेः यदनुगतप्रतीतिविषयभृतं तदभिन्नम् , स्थासकोशकुशूलादिपर्यायानुगतमृद्रव्यवत् । पूर्वोत्तरकालावच्छिन्नपूर्वापरपर्यायानुगतत्वेनोव॑तासामान्याख्यस्य पुरुपद्रव्यस्यैव च राजकुमारयुवराजनराधिपाः पर्याया इति पर्यायस्वरूपतया तद्भिनमपि, पुरुष. द्रव्यमेव राजकुमारत्वेन युवराजत्वेन नराधिपत्वेन चोत्पन्नमिति व्यवहृतेः। न च पुरुषद्रव्य तत्पर्याययोरेकान्तभेदान्नैकधर्मस्तदन्यस्मिनिति नाभिन्नपुरुषद्रव्यस्वरूपतया राजकुमारादिपर्याया अभिन्नाः, विभिन्न राजकुमारादिपर्यायतया पुरुषद्रव्यमपि नैवाऽभिन्ममिति वाच्यम् , यत एकान्तभेदे सम्बन्धाऽयोगेन पुरुषद्रव्यस्यैते राजकुमारादिपर्याया इति व्यवहृतिरेव न स्यात् । नन्वेवं तीस्तु तयोरेकान्ताऽमेद एव, तैलस्य धारेति प्रतीतिवद् राहोशिशर इति प्रतीतिवचामेदेऽपि पुरुषस्यते राजकुमारादिपर्याया इति प्रतीत्युपपत्तेरिति न कथमपि कथञ्चिवेदामेदावकाश इत्यपि न च वाच्यम् , जन्मादिमरणान्तकालवर्तित्वेनानुगतं पुरुषद्रव्यमेकं, राजकुमारादिपर्यायास्तु पुरुषद्रव्यस्यैवावस्थाविशेषाः, तत्तत्कालोत्पनत्वेन भिन्न स्वरूपा इति पुरुषद्रव्यतत्पर्याययोर्विरुद्धधर्माध्यासा देनाप्युपलब्धेनैकान्तामेदस्तयो, तथा च तयोमिथो नान्तरीयकतयैकतराऽभावे तदन्यस्याप्यभावात्तौ प्रमाणार्पर्णया कथश्चिद्भिमाभिन्नौ, तथैव प्रतीयमानत्वादि त्यभ्युपगन्तव्यम् ।। ४० ।। दृष्टान्तं प्रसाध्य दान्तिके तदुपनयमाह
एवं जीवहव्वं, अणाइणिहणमविसेसियं जम्हा ।
रायसरिसो उ कवलि-पज्जाओ तस्स स विसेसो ॥४१॥ ‘एवं पूर्वोक्त दृष्टान्तनीत्या जीवद्दव्यं अणाइनिहणं' जीवद्रव्यमनादिनिधनम् आदि च निधनश्च आदिनिधने ते न विद्यते यस्य तदनादिनिधनम् , आद्यन्तरहितम् , कस्मादेवमित्यत आह--'अविसेसियं जम्हा' यस्मादविशेषितम्-यथा पुरुषद्रव्यं निर्विशेषितम् सामान्यरूपं तथा जीवद्रव्यमपि निर्विशेषं सामान्यरूपम् । अथ सामान्य विशेषविकलमसद्रपमिति पुरुषसामान्यस्य नराधिपत्वात्मको यो विशेषः प्रागुक्तस्तत्सदृशो जीवद्रव्यस्य सामान्यरूपस्य को विशेष इत्याशङ्कानिवृत्यर्थमुत्तरार्द्धमाह-रायसरिसो इत्यादि । ' रायस. रिसो उ' राजसदृशस्तु षष्टिवर्षायुषस्त्रिंशद्वर्षीयराजत्वपर्यायसदृशस्तु केवलिपजाओ' केवलिपर्यायः केवलित्वपर्यायः, केवलज्ञानात्मकपर्याय इति यावत् ' तस्स स विसेसो' तस्य ऊर्ध्वतासामान्यात्मकतथाभूतजीवद्रव्यस्य स केवलित्वपर्यायो विशेषः । तथा च
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सम्मति० काण्ड २, मा०४२
२५३ पुरुषद्रव्यस्य राजत्वपर्यायः प्रागसम्मेवोत्पन्नस्तद्वजीवद्रव्यस्य केवलित्वपर्यायोऽपि पूर्वमसनेवोत्पन्न इति द्रव्यपर्याययोः कथश्चिदभेदात्तदभिमजीवद्रव्यमपि तद्रपेण कथञ्चिदुत्पन्नम् , केवलज्ञानश छाअस्थिकज्ञाने नष्टे सत्येवोत्पद्यते इति प्राक्तनछामस्थिकज्ञानाधात्मकछमस्थत्वपर्यायविनाशे तद्रूपेण तदभिन्न जीवद्रव्यं कथश्चिद्विगतम् , न च तथापि कदापि पूर्वोत्तरपर्यायानुगतजीवद्रव्यसामान्यमुपयोगलक्षणासाधारणजीवस्वरूपं परिजहाति, अन्यथा जीवोऽजीवत्वं प्राप्नुयादिति तद्रूपेण ध्रुवमिति त्रिलक्षणात्मकं जीवद्रव्यम् , हेमद्रव्यं प्राक्तनकटकादिरूपेण विनष्टं सदुत्तराङ्गदादिपर्यायरूपेणोत्पन्नमपि नैव पूर्वोत्तरपर्यायपरित्यागोपादानप्रवृत्तमूर्खतासामान्यात्मकस्वस्वरूपं कदापि परिजहातीति तद्रूपेण ध्रुवमिति विलक्षणा. स्मकहेमद्रव्यवज्ज्ञेयम् । इत्थमेवोपदेशरहस्येऽपि “विकलप्रकाशपरिणामेन नष्टा ध्रुवा चेतनैव केवलज्ञानतया परिणमते इत्थमेव त्रैलक्षण्योपपत्तेः" इत्युक्तम् । तथा च विकलप्रकाशपरिणतचेतनाया एव घातिकर्मक्षये सति सकलप्रकाशस्वभावकेवलज्ञानरूपेण परिणमनभावात्केवलज्ञानं कथंचित् सादि, परिणामपरिणामिनोश्च कथञ्चिदभेदात्रिकालानुयायिचेतनापरिणामरूपमेव केवलज्ञानमिति परिणामिभूतायाश्चेतनाया अनादित्वात्तदभित्रकेवलज्ञानमपि तद्रूपेण कथश्चिदनादि, अत एव परिणामिकारणस्वरूपतया कथञ्चित्सदेवोत्तरपर्यायरूपकार्यस्वरूपतामधिगच्छतीति सिद्धान्तप्रवादोऽपि प्रमाणकोटिमाटीकते। घातिकर्मक्षये सत्येव केवलज्ञानमुत्पद्यत इत्युत्पत्तिमत्वाच्च तत्सादि । तथा समयभेदेन भिन्न भिन्नरूपाः केवलज्ञानपर्यायाः शास्त्रे प्रोक्ताः, " पढमसमयसजोगिभवस्थकेवलनाणं अपढमसमयसजोगिमवस्थकेवलनाणं " इति नन्दिसूत्रवचनात् , अत एव शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायात्मकस्य केवलज्ञानस्यापि ऋजुसूत्रादेशेन क्षणभेदभित्रकेवलज्ञानपर्याया अर्थपर्याया इति मन्तव्यम् । तथा च केवलज्ञानस्य क्षणभेदाद् भेदे सति प्रतिक्षण यपरिणतिभेदेन तदवगाहित्वस्वभावभेदेन भेदे च सति तत्सपर्यवसानम् । यद्वा भवस्थकेवलज्ञानपर्यायसिद्धकेवलज्ञानपर्याय. योरप्यर्थपर्यायत्वात् ताभ्यां केवलज्ञानस्य विनाशोत्पत्तिभावात्तत्सपर्यवसानम् , क्षणभेदेन प्रतिक्षणक्षेयपरिणति मेदेन च भिन्नमिनकेवलज्ञानार्थपर्यायाणां केवलज्ञानशब्दवाच्यत्वा. तत्रानुगतं स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायाख्यकेवलज्ञानमिति तद्भावात्मककेवलमा प्रतीत्याऽपर्यवसानमिति भावः ॥४१॥ नैकान्ततो द्रव्यं पर्यायेभ्यो भिन्नमेवेत्युपदर्शयितुमाहजीवो अणाइनिहणो 'जीव' ति य णियमओ ण वत्तव्यो ।
जं पुरिसाउय जीवो देवाउयजीवियविसट्ठो ॥ ४२ ॥ 'जीवो अणाइनिहणो' जीवोऽनादिनिधनः 'जीवत्ति य' जीव इति च, विशेषविकलो जीव एव, देवमनुष्यादिपर्यायाख्यविशेषेभ्य एकान्तभिन्नत्वेन तदनात्मकत्वात्तस्येति
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सम्मति० कान्ह २, पा० ४३ 'णियमओ ण वत्तव्यो' नियमतो न वक्तव्यम् , तत्र हेतुप्रदर्शनायोत्तरार्द्धमाह-'' यत् , यस्मात् , 'पुरिसाउयजीवो' पुरुषायुष्कजीवः 'देवाउपजीविय विसिट्ठो' देवायुकजीवितविशिष्टो-देवायुष्कजीवाशिनः । अयम्भाव:-द्रव्यस्य पर्यायेभ्य एकान्तभिभत्वाचचदनात्मकमेवेत्यतो जीवोऽपि पर्यायेभ्यो भिन्नत्वात्तदनात्मक एवेति मनुष्यजीवदेवजीवादिविशेषात्मकं जीवद्रव्यं न, किन्तु जीवैकस्त्ररूपत्वादभिन्नमेवैकं तदित्यभ्युपगमे तु सामान्यैकरूपतया सर्वथाऽभिन्ने जीवे पुरुषायुष्कजीवो देवायुष्कजीवाद्भिन्न इति भेदप्रत्ययव्यवहारौ न स्याताम् , एवं पर्याय मेदैर्जीवभेदानम्युपगमे मनुष्यजीवोऽयं देवजीवोऽयं तिर्यग्जीवोऽयं नारकजीवोऽयमित्यादिभेदप्रत्ययव्यवहारौ जीवे न स्याताम् , तनिमित्तस्य मनुष्यजीवदेवजीवादिविशेषस्य स्वयाऽनभ्युपगमात् , त्वदभ्युपगतस्य केवलजीवसामान्यस्य तु तदनिमित्तत्वात् , अनुभवातीतत्वात् , भेदप्रत्ययव्यवहारयोर्निमित्वं विनाऽप्यभ्युपगमे सामान्यप्रत्ययव्यवहारयोरपि निमित्तं विनाऽपि सम्भवात्तनिवन्धनभूतसामान्याभ्युपगमोऽप्ययुक्त. स्स्यादिति सर्वाभावप्रसङ्गः। न च विशेषप्रत्ययव्यवहारयोमिथ्यात्वमेवेति वाच्यं, बाधा. रहितयोरपि तयोमिथ्यात्वाऽभ्युपगमे सामान्य प्रत्ययव्यवहारयोरपि मिथ्यात्वप्रसक्त्या सामान्यस्याप्यसिद्धिप्रसक्तिस्स्यात् । तस्मात्सामान्यप्रत्ययव्यवहारयोरिव विशेषप्रत्ययव्य. वहारयोरपि प्रामाणिकतयैवाभ्युपगन्तव्यत्वेनानुगतसामान्यप्रतीतिव्यवहारसिद्धसामान्यजीवद्रव्यमवाधितविशेषप्रत्ययव्यवहारान्यथानुपपत्या विशेषात्मकमप्यभ्युपगन्तव्यमिति वस्तु द्रव्यपर्यायोभयात्मकं सिद्धमिति ॥ ४२ ॥
गुणगुणिनोः कथश्चिद्भिन्नाभिन्नतयैव पूर्व व्यवस्थापितत्वाद् व्यवस्थापयिष्यमाणत्वाच केवलज्ञानस्य कथञ्चिदात्माऽव्यतिरेकादात्मनो वा केवलज्ञानाऽव्यतिरेकात्कथञ्चिदेकत्वात्तयोमिथो धर्मसङ्क्रम इति प्रतिपादयितुमाह
संखेजमसंखेनं, अणंतकप्पं च केवलं नाणं ।
तह रागदोसमोहा, अण्णे वि य जीवपजाया ॥ ४३ ॥ वस्तुतत्त्वस्य प्रमाणनयैरधिगम इति प्रमाणार्पणया द्रव्यपर्याययोमिथोऽनुस्यूतत्वेनात्मा द्रव्यपर्यायोभयात्मकः, द्रव्यार्थिकनयविवक्षायां त्वेकद्रव्यरूपत्वात् स एका, कथश्चित्तदभिन्नकेवलज्ञानमप्येकम् , पर्यायार्थिकनयविवक्षायां तत्तत्पर्यायभेदभिन्नरूपत्वात्सङ्खयेयासङ्खयेय. पर्यायरूप आत्मेति तदभिन्न केवलज्ञानमपि संख्येयरूपमसंख्येयरूपश्चेत्याह-संखेजमसंखे इति, ' अणंतकप्पं च केवलं नाणं ' ज्ञेयज्ञानयोः कथञ्चिदभेदात् ज्ञेयाऽऽनन्त्यादनन्तकल्पमनन्तभेदं केवलज्ञानम् । अयम्भाव:-प्रतिक्षणं सम्भवदपरापरकालकृतबालकुमारतरुणनरनारकत्वादिपर्यायैरुत्पादविनाशयोगेऽपि द्रव्यार्थतयैक एवात्मा, पूर्वापरपर्यायानुगतैकद्रव्यस्वादिति कथश्चित्तदभिन्नं केवलमप्येकम् , केवलस्य वा ज्ञानदर्शनरूपतया द्विरूपत्वात्त
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सम्मति० काण्ड २, गा० ४३
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दव्यतिरिक्त आत्माऽपि द्विरूपः, प्रदेशार्थतथा स्वात्माऽसङ्ख्ययः, असंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्तस्य, प्रदेश प्रदेशिनोव कथञ्चिदभेदात्, असङ्ख्येयप्रदेश स्वरूपतयात्मनोऽसङ्ख्यत्वे च कथञ्चित्तदभिन्नं केवलमप्य संख्येयम्, विषयविषयिणोः कथञ्चिदमेदादनन्तार्थविषयकत्वेन केवलज्ञानमनन्तमिति तदभिन्न आत्माऽप्यनन्तः । यद्वा " अनन्तपर्यायं ज्ञेयानन्त्यात् " इति न्यायाचार्य श्री यशोविजयोपाध्यायकृततत्त्वार्थविवरणोक्तेर्निखिलरूप्यरूपिविषयाऽऽनन्त्येन तदवगाहितयाऽनन्तपर्यायं केवलज्ञानम् । अयम्भावः - यमेकं विषयं येन स्वभावेनावाहते केवलज्ञानं न तेनैव स्वभावेन विषयान्तरं, किन्तु भिन्नेनैवेति विषयाणामानन्त्येनाखिलतत्तद्विषयावगाहनस्वभावात्मका अपि पर्याया अनन्ता एव तस्मिन्नित्येकस्मिन् समयेऽप्यनन्तपर्यायं तत्, समयान्तरेऽपि निखिल पदार्थानामुत्पादादित्रयात्मकत्वान्यथाऽनुपपच्या कथञ्चित्परावर्त्तनस्वभावानामत एव प्रतिसमयं भिन्नानां प्रत्येकं भिन्नभिन्नस्वभावतयाऽवगाहित्वेनानन्तपर्यायं तदिति तदभिन्न आत्माऽप्यनन्तपर्याय इति । तह रागदोसमोहा अण्यो वि य जीवपजाया " केवलज्ञानं यथा सख्येयासङ्ख्येयानन्तभेदं तथैव रागद्वेषमोहा अन्येऽपि च जीवपर्यायाछवस्थावस्थाभावि नस्सङ्ख्ये या सङ्ख्ये यानन्त भेदाः, यत छवस्थस्यैकस्यापि जीवस्य तत्तत्कालभेदेन रागद्वेषमोहाद्यालम्बनानि सख्येयासख्येयानन्तभेदात्मकानीत्यालम्ब्य भेदात्तेऽपि तत्सङ्ख्यकाः, तदात्मकत्वात्संसार्या त्माप्युक्त भेदात्मकोऽवगन्तव्यः । सोमिल ब्राह्मणप्रश्नप्रतिवचनरूपं पञ्चमाङ्गाष्टादशशतकदशमोदेशक सूत्रमप्येतदर्थं संवदति, तथा च तत्सूत्रम् - एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अन्नए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावभविए भवं १ सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभवि वि अहं । से केणद्वेणं मंते ! एवं बुच्चइ जात्र भविए वि अहं ? सोमिला 1 Googयाए एगे अहं, नाणदंसणट्टयाए दुबे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्टिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं, से तेणट्टणं जाव भवि वि अहं " इति । रागादीनां चैकाद्यनन्तभेदत्वमात्मपर्यायत्वात्, यो ह्यात्मपर्यायः स एकाद्यनन्त मेदः, यथा केवलावबोधः, आत्मपर्यायाच रागादयः, तस्मादेकाद्यनन्तमेदास्ते इति द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां स्थित्युत्पत्तिनिरोधात्मकत्व महत्यपि सिद्धमिति ।
एतावता सम्मतिटीकैकवाक्यतापन्नेन व्याख्यानेन यथाश्रुतार्थसम्यगवबोधफलावाप्तिमात्र कृतकृत्यानां पूर्वोत्तरपक्षभावावबद्धमूलगाथा कदम्बान्यत मावगतज्ञानदर्शनोपयोगद्वययौगपद्याभ्युपगन्तुमहनीयमान्य - श्रीमल्लवादिमत -- तत्क्रमिकत्वाभ्युपगन्तु पूज्यपाद श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण मत- तद्वयाऽभेदोररी कर्तृ-सम्म तितर्कप्रणेतृश्रीसिद्ध सेनदिवाकरमतानां शासनप्रभावकसूरित्र यासत्व सन्देह पराङ्मुखतालक्षणमाध्यस्थ्याचान्तस्वान्तःकरणानां प्रदर्शितयुक्तिकदम्बोपेतमान निर्णीताखिलतत्वगतोत्पादव्ययधौ व्यात्मकत्वलक्षणसत्वसमर्थितसमव्याप्ताऽविरुद्ध भेदाभेद - नित्याऽनित्यत्वाद्यनन्तधर्मात्मकत्वलक्षणाने कान्तत्व भावनाहढा-.
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सम्मति० काण्ड २, गा० ४३
वाप्तिसम्भावितकतिपयोत्तरकालभावि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणात्मकरत्नत्रयस्वरूपमुक्तयवन्ध्य कारणाशिप्रभवाष्ट विश्वकर्मात्यन्तिकक्ष्यावश्यम्भाविस्वस्वरूपाखण्डनित्याऽबाध्य परमानदमनोरथानां न प्रस्तुतार्थे समीहितं किञ्चिज्ज्ञातव्यमवशिष्टमिति न तान् यथाश्रुतग्राहिणः समुद्दिश्य वक्तव्यम् । येऽपि तत्तन्मतैकान्तश्रद्धाप्लावितान्तःकरणतया तत्प्ररूपणाव्यतिरिक्तप्ररूपणादर्शनेऽपि पराङ्मुखा यथा तथा स्वस्वश्रद्धेय पक्षोद्गार-कदाग्रहग्रहिलस्वेनापरपक्षयुक्तिव्रातं मानोपेतमपि कदाग्रहविजृम्भितमेवेत्यभिमन्यमानास्तान् प्रति परपक्षदिग्दर्शन मध्य नाकाङ्क्षितत्वादरमणीयमिति न तानुद्दिश्याऽपि किञ्चिद् वक्तव्यम्, ये तु स्याद्वादराद्धान्तसम्मताबाध्यमभिमन्यमाना नात्र भवितव्यं कचिदप्यंशे विरोधेन, आपाततः परस्परविरुद्धतया भासमानोऽप्यंशोऽपेक्षा मेदेन परिहृतविरोध एव स्याद्वादशद्धान्तघटकः, नान्यथेति तथाविधांशेऽपेक्षाभेदान्वेषणपरायणाः कथमपि स्वसन्देहपथमुपनतं वस्त्वsसन्दिग्धं विधातुं तथाविदग्धपरीक्षकवचन शुश्रुवश्च तान् प्रतीदं किञ्चिदुपदर्श्यते---
1
+
नन्वर्हच्छास्त्रग्रन्थिस्थाननग भेदिवज्रोपममतिवैभव महनीय महत्तमाचार्यत्रय सत्कपक्षत्रयान्यतमस्यैकस्यैव पक्षस्य वस्तुगत्या प्रामाणिकत्वेन तद्भिन्नपक्षद्वयस्याईच्छास्त्र बाधितत्वात्तत्तत्प क्षाभ्युपगन्तृणामर्हच्छास्त्रविपरीत श्रद्धाशालित्वानू मिध्यात्वप्रसङ्ग इति न चात्र शास्त्रतत्वज्ञैराशङ्कनीयम्, प्रत्यात्मप्रदेशानुस्मृताविच्छिन्ना ईच्छासनानुरागशुभोपायालङ्कतानामविच्छिन्नगुरुपरम्पराऽऽयातसूत्रतात्पर्यमपक्षपातेन तन्वतां विदुषां मिथ्याभिनिवेशाभावात् तथाहिस्वाग्रहाऽग्रहिलस्वान्तास्त्रयोऽपि सूरयः स्वस्वाभ्युपगतमर्थं शास्त्रतात्पर्यवाधं प्रतिसन्धायाऽपि पक्षपातेन न प्रतिपन्नवन्तः किन्त्वविच्छिन्नस्वस्वगुरुपरम्परायातप्रावचनिकपरम्परया शास्त्रतात्पर्यमेव स्वाभ्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसन्धायेति न ते मिध्याभिनिवेशिनः वीतरागप्रभुप्रणीतशास्त्रतात्पर्यबाधप्रतिसन्धानपूर्व काऽन्यथाश्रद्धानाभावात् किञ्चानेकन यसमूहात्मके भगवत्प्रवचने - " नत्थि नएहिं विहूणं सुतं अत्थो अ जिणमए किंचि " इति सिद्धान्तवचनादनेन नयेनेदं सूत्र प्रवृत्तम्, अनेन नयेन चेदमिति सम्भविततत्तन्नयसमालोचनां विना नैव तत्तत्सूत्राणि याथार्थ्येन ज्ञायन्ते इत्यत्र स्वस्वगुरुसम्प्रदायाविच्छिन्नतत्तन्नयगfaraarataयातास्त्रयोऽपि सूरिपक्षाः प्रमाणकोटिप्रविष्टा इति तेषां सूरीणां केषामपि नापसिद्धान्तोक्त्या मिथ्यात्वप्रसङ्गः तथाहि यत् सत्तत्क्षणिकमिति सामान्यव्याश्या निखिलवस्तुनस्सद्रूपत्वेन क्षणिकत्वमिति पूर्वपूर्वक्षणिक वस्तुनस्त्रोतरोत्तरक्षणिक कार्यकुर्वद्रूपात्मकतया कारणत्वेन पूर्वपूर्वक्षणिकेनोत्तरोत्तरक्षणिककार्यं जायते इति पूर्वोतरक्षणवर्त्तिक्षणिक वस्तुद्वय कार्य कारणभावाऽभ्युपगन्तृबौद्धमतप्रकृत्यर्जुसूत्रनयापेक्षया केवलज्ञानकेवलदर्शनसूत्राभिप्रायं व्यवस्थापयन्तः पूर्वोत्तरक्षणवर्त्तिनोः ऋजुमूत्राभ्युपगतकार्यकारणभावांश एव प्रस्तुतोपयुक्तः न त्यर्जुत्राभ्युपगत निखिलतन्वभाग इति तत्रैौदासीन्यमुक्तकार्यकारणभावे च प्राधान्यमभिसन्दधानाः केवलज्ञान केवलदर्शन क्रमिकोत्पादं
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सम्मति० काण्ड २, गा० ४३
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पूज्य श्रीजिन भद्रगणिक्षमाश्रमणाः प्रतिपादयन्ति - यद्यपि चेतनालक्षणसामान्यात्मना केवलोपयोगलक्षणसामान्यात्मना वा केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरैक्यमेव तथापि सामान्यविशेषभेदग्राहितया तदुभय भेदग्राहकवैशेषिकनैयायिकमतप्रकृतिव्यवहारनयापेक्षया केवलज्ञान केवलदर्शन सूत्राभिप्रायमुररीकुर्वन्तो व्यवहारनयाभ्युपगत भेदान्यतत्त्वभागे औदासीन्यं भजमानाः तदभ्युपगतभेदमात्रस्य प्रस्तुतोपयुक्तत्वात्तं प्रधानीकृत्य एकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिक केवलज्ञान केवल दर्शनभेदं जगदयक्रमाब्जश्री मल्लवादिन ऊचुः - " सदेव सौम्येदमग्र आसीत्, एकमेवाद्वितीयम् नेह नानास्ति किञ्चन " इत्यादिश्रुत्या घटः सन् पटस्सन्नित्याद्यनुगतप्रत्ययगोचरीभूतेन सत्त्वेन रूपेणैकस्यैव सर्वजगतो घटत्व पटत्वाधुपाधिभेदेन यः काल्पनिकमेदो यद्वाऽखण्ड सच्चिदानन्दात्मकस्यैकस्यैव ब्रह्मणो मायावच्छिन्नत्वान्तःकरणावच्छिन्नत्वोपाधिभेदेन यः काल्पनिक मेदस्तद्राहिवेदान्तिमतप्रकृतिसङ्ग्रहनयापेक्षया केवलज्ञान केवलदर्शन सूत्राभिप्रायमभ्युपगच्छन्तः प्रवचनोपनिषद्वेदिमहातर्कवादिभगवच्छ्री सिद्ध सेनदिवाकराः, न तु व्यक्त्या भेदं, केवलज्ञानव्यक्तेरेकत्वात्, किन्तु ज्ञानत्वदर्शनत्वधर्मोपाधिभेदेनैकस्यापि केवलज्ञानस्य भेदं कथयामासुः, तथा चाविच्छिन्नश्रावचिकपरम्पराऽऽयाततत्तन्नयगर्भसूत्रतात्पर्यं स्वाम्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसन्धाय प्रतिपद्मवतां त्रयाणामपि भूरिभगवतां मध्ये नॅकोऽपि स्वाभ्युपगतेऽर्थे भगवत्प्रणीतशास्त्रतात्पर्यari प्रतिसन्धायैव पक्षपातेन तमर्थ श्रद्धत्ते इति तत्र शास्त्रतात्पर्यवाधप्रतिसन्धानाभाववति विदुषोऽपि स्वरसवाहिभगवत्प्रणीतशास्त्रवाधितार्थश्रद्धानमाभिनिवेशिकम् " इति लक्षणासङ्गतेनैकस्मिन्नपि सूरिवरे आभिनिवेशिकमिध्यात्वप्रसङ्गः प्रतिपादितञ्चोक्तमतत्रयेऽपि तत्तन्नयापेक्षाभेदप्रयोज्यं प्रामाण्यं न्यायाचार्य श्री यशोविजयोपाध्यायैर्ज्ञानबिन्दौ— " प्राचां वाचां विमुखविषयोन्मेष सूक्ष्मेक्षिकायां, astoorat भयमधिगता नव्यमार्गानभिज्ञाः । तेषामेषा समयवणिजां सम्मतिग्रन्थगाथा, विश्वासाय स्वनयविपणिप्राज्य वाणिज्यवीथी ॥ १ ॥ भेदग्राहिव्यवहृतिनयं संश्रितो मल्लवादी, पूज्याः प्रायः करणफलयोस्सीनि शुद्धर्जुसूत्रम् । भेदोच्छेदोन्मुखमधिगतः सङ्ग्रहं सिद्धसेनः,
(4
तस्मादेते न खलु विषमाः सूरिपक्षास्त्रयोऽमी (पि) ॥ २ ॥ चित्सामान्यं पुरुषपद भाक्केवलाख्ये विशेषे, तद्रूपेण स्फुटमभिहितं साधनन्तं यदेव । सूक्ष्मैरंशैः क्रमवदिदमप्युच्यमानं न दुष्टं, तत्सूरीणाभियमभिमता मुख्यगौणव्यवस्था ॥ ३ ॥
३३
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पम्मति• कार, गा• ४३ तमोपगमचिजनुः क्षणभिदानिदानोद्भवाः, श्रुताः बहुतराः श्रुते नयविवादपक्षा यथा । तथा क इव विस्मयो भवतु सूरिपक्षत्रये, प्रधानपदवी धियां क नु दवीयसी दृश्यते ॥ ४ ॥ प्रसह्य सदसत्त्वयोने हि विरोधनिर्णायकम्, विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकं यत्र न । गुणाऽगुणविभेदतो मतिरपेक्षया स्यात्पदात्, किमत्र भजनोजिते स्वसमये न सङ्गच्छते ॥५॥ प्रमाणनयसङ्गता स्वसमयेऽप्यनेकान्तधीनयस्मयतटस्थतोल्लसदुपाधिकिर्मीरिता । कदाचन न बाधते सुगुरुसम्प्रदायक्रम, समञ्जसपदं वदन्त्युरुधियो हि सद्दर्शनम् ॥ ६॥ रहस्यं जानते किमपि न नयानां हतधियो, विरोधं भाषन्ते विविधबुधपक्षे बत खलाः । अमी चन्द्रादित्यप्रकृतिविकृतिव्यत्ययगिरा:(रो),
निरातङ्काः कुत्राप्यहह न गुणान्वेषणपराः ॥७॥" इति । प्राचामिति-ये नव्यमार्गानभिज्ञाः प्राचां वाचां विमुखविषयोन्मेषसूक्ष्मेक्षिकायां अरण्यानीभयमधिगताः तेषां समयवणिजां विश्वासाय एषा सम्मतिग्रन्थगाथा सुनयविपणि प्राज्यवाणिज्यवीथीत्यन्वयः। सझेपतस्तदर्थस्त्वयम्-ये प्रमातृविशेषा नव्यमार्गानभिदा यन्मार्गानुसरणतः केवलज्ञान केवलदर्शनयोगपद्यक्रमभावित्वैक्यरूपपक्षत्रयाणामपि. पूर्वोक्तमूरित्रयप्रतिपादितानामविरोधभावप्राप्तिःसुखेनोपजायते तथाभूतं नव्यमार्गमनानन्तःप्राची वाचां प्राचीनयोगपद्याद्यभ्युपगन्तसस्त्रियवचसां विमुखविषयोन्मेषसूक्ष्मेक्षिकायाम् आपाततः परस्परविरोधभाक्तत्तत्सरिपक्षप्रतिपाद्यविषयेष्वपि वस्तुगत्या नैव विरोध इति प्रतिपत्तिकृत्तत्तभयगर्भसूक्ष्मविचारणायां नव्यमार्गानभिज्ञत्वादेव अरण्यानीभयमधिगताः अतिगहनतरुगुल्मकण्टकलतादिमयवनमध्योपगतानां तत्पारगमनमर्गमपश्यतां यादृशम रण्यावलोकनतस्करादिप्रभवं भयं भवति तादृशं भयमधिगताः प्राप्ताः, तेषां समयवणिजां जैनागमगतापूर्वतवरत्नपरीक्षाव्यापारपरायणानां, विश्वासाय प्राचां वचनेषु श्रद्धोत्पादनाय स्वनया एव परस्परसापेक्षभावं गता अन्यांशीदासीन्येनैकांशग्राहिणस्स्वनया अर्हत्प्रदशिंतनया एव विपणिः, सुनयेति पाठे तु सुनया एव विपणिः क्रयविक्रयस्थानं तत्र प्राज्यमुत्कृष्टं यद्वाणिज्यं क्रयविक्रयलक्षणं वणिजां कर्म तस्य वीथी-मार्गः, एषा सम्मतिअन्धगाथा यथास्थानं तत्तन्मताधिगतये मया दर्शितेति शेषः ॥ १॥
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सम्मति० काण २, गा० ४३
२५९ नयमेदावलम्बनेन केवले स्वस्त्राभ्युपगमविशेषमुपवर्णयतां त्रयाणामपि परिप्रवराणामनेकनयमयजैन सिद्धान्तानतिक्रमण मेवेत्युपदर्शयितुमाह-भेदग्राहीति । यद्यपि चिल्लक्षणसामान्यात्मना केवललक्षणसामान्यात्मना वा ज्ञानदर्शनयोरक्यमेव तथापि तयोर्भेदं ग्रहीतुं शीलं यस्य तं भेदग्राहिणं व्यवहृतिनयं संश्रित:-तमवलम्ब्य तयोर्योगपद्याभ्युपगमे प्रवृत्तो मल्लवादी, एकस्मिन्नेव समये विभिन्नकार्यजनकसामग्योस्सनिपाते युगपदेव कार्यद्वयं भवितुमर्हति, सामग्रीक्रमाभावे विभिन्नस्वरूपकार्ययोः क्रमस्याभ्युपगन्तुमनहत्वाद्विभिन्नस्वभावयोस्तयोरक्याभ्युपगमस्याप्यन्याय्यत्वादिति भेदग्राहिव्यवहुतिनयमाश्रितवतो महनीयमान्यमल्लवादिनो ज्ञानदर्शनयोगपद्याभ्युपगमनं न्याय्यमेवेति हृदयम् । यद्वा 'भेद. ग्राही' इति पाठे स्वेतत्पदं मल्लवादीत्यस्य विशेषणम् , तथा च भेदग्राही मल्लवादी व्यवहतिनयं संश्रित इत्यन्वयः। पूज्याः श्रीमन्तो जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः प्रायो बाहुल्येन, येषां मतिज्ञानाद्युपयोगानामन्तर्मुहूर्ताद्यवस्थानं सिद्धान्तनिर्णीतमित्थम् -पूर्वमत्याधुपयोगः कश्चिस्कालं स्वस्थितिमनुभूयैवान्ते उपयोगान्तरलक्षणकार्य जनयति, नोत्पत्यनन्तरमेवेति तेषु मतिज्ञानाद्युपयोगेषु क्षणिका एव सर्वे भावा इति पूर्वपूर्वक्षणानामुत्तरोत्तरक्षणकुर्वद्रूपस्वरूपाणां स्वोत्पत्यनन्तरक्षण एव स्वकार्यकारित्वमित्यभ्युपगमप्रवणशुद्धर्जुसूत्रसमाश्रयणाभावेऽपि केवलोपयोगस्थले पूर्वक्षणे ज्ञानोपयोगस्तदनन्तरक्षण एवं दर्शनोपयोगस्तदनन्तरक्षण एवं ज्ञानोपयोग इत्येवमुपयोगधाराया आगमसिद्धाया निर्वाहायात्र तदाश्रयणमित्यावेदयितु. मुक्तं प्राय इति, करणफलयोस्सीम्नि कार्यकारणभावव्यवस्थालक्षणमर्यादायां, शुद्धजुसून-वचनव्यत्यासेन संश्रिता इत्यस्यानुकर्षण सम्बन्धः, ये केवलज्ञानदर्शनयोयौंगपद्यमुरीकुर्वन्ति ये वा तयोरक्यमभ्युपगच्छन्ति तेषामपि मते द्वितीयादिक्षणे उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणसत्त्वोपपत्तये केवलोपयोगस्य केनचिद्रूपेणोत्पादः केनचिद्रूपेण विनाश: केनचिद्रूपेण ध्रौव्यमभ्युपेयमेवेति, तत्र पूर्वपूर्वकेवलपर्यायस्योत्तरोत्तरकेवलपर्यायहेतुत्वाभ्युपगमत एव केवलोपयोगधारोपपत्तिरिति तत्र शुद्ध सूत्रसमाश्रयणेन केवलदर्शनकुर्वद्रूपास्मकेन केवलझानेन केवलज्ञानकुर्वद्रपात्मकस्य केवलदर्शनस्योत्पत्तिस्तथाविधेन केवलदर्शनेन तथाविधस्य केवलज्ञानस्योत्पत्तिरित्येवं केवलोपयोगधारा निराबाधैव, तदपेक्षयाऽपर्यवसितत्वमपि सुसङ्गतम् । यथा च घटविषयकविज्ञानपटविषयकविज्ञानमठविषयकविज्ञानायविच्छिन्नप्रवाहस्य प्रवृत्तिविज्ञानसन्तानत्वं प्रवृत्तिविज्ञानत्वेन घटपटादिविज्ञानानां साजा. त्यमुपादाय निर्वहति, अन्यथा घटविज्ञानत्वादिना घटपटादिविज्ञानानां प्रत्यक्षत्वानुमानस्वादिना वा प्रत्यक्षानुमानादीनां च साजात्याभावात्प्रवृत्तिविज्ञानसन्ततिरपि जाग्रहशा. भाविनी न स्यात् , तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः केवलज्ञानत्वेन केवलदर्शनत्वेन वा साजात्याभावेऽपि केवलोपयोगत्वेन साजात्यात्प्रथमं केवलज्ञानं ततः केवलदर्शनं ततः केवलज्ञानमित्येवं केवलोपयोगाविच्छिन्नप्रवाहलक्षमा केवलोपयोगसन्ततिरनाकुलमवतिष्ठत
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२६०
सम्मति• काम २, गा० ४३ इत्यभिप्रायवतां पूज्यानां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणानां मतमतिमनोहरमेवेति । सिद्धसेन:केवलज्ञानमेव केवलदर्शनं, न तयोर्भेद इत्यभ्युपगन्ता सम्मतितर्कप्रणेता सिद्धसेनदिवाकर स्तु, भेदोच्छेदोन्मुखं-केवलज्ञानदर्शनयोर्यों भेदस्तदुच्छेदपरं तयोरक्यमेवेत्यभ्युपगमपरं सङ्ग्रहमधिगत:-उक्तसङ्ग्रहमवलम्ब्य केवलज्ञानदर्शनयोरैक्यं स्वीकृतवान् , केवलज्ञानदर्शनयोरक्ये यदेव केवलज्ञानावरणं तदेव केवलदर्शनावरणमिति तत्क्षयलक्षणकारणपटितसामग्र्या एकत्वात्सामग्रीभेदाभावान योगपद्यं तयोः, नापि च केवलदर्शनम्प्रति केवलज्ञानस्य कारणत्वान्तरं गौरवावहं कल्पनीयमिति न तयोः क्रमोऽपि, किन्त्वेकस्याप्येकसामग्रीतो जायमानस्य केवलोपयोगस्याशेषसामान्यविषयकत्वाद्दर्शनत्वमशेषविशेषविषयकत्वाज्ज्ञानत्वमित्युपाधिप्रयुक्तो भेदः, न तु वस्तुगत्येति युक्तम् । तथा च सर्वनयमये स्याद्वादे तत्तन्नयभेदावलम्बनेन तत्तत्पक्षत्रण सूत्रधारास्त्रयोऽपि भूरयः स्याद्वादसेवेकरसिका एवेति तेषां पक्षा युक्त्युपपन्नत्वान्न विषमा इत्युपसंहरति-तस्मादिति स्पष्टम् ।
अत्र-'अपि' इत्यस्य स्थाने 'अमी' इत्यपि पाठः ॥२॥ यथा चोपयोगलक्षणो जीव इति निरुपयोगस्स कदापि न भवतीति चित्सामान्यमुपयोगापराभिधानमनाद्यनन्तमेव तद्रूपं यत्पुरुषपदेनोच्यते तस्यैव च केवलोपयोगो विशेषस्सादिरनन्तश्चेति केवलोपयोगास्मना तदपि चित्साद्यपर्यवसितमिति गीयते, तथा तदेव चित्सामान्यं स्वविशेषस्य केवलोपयोगस्य यौ विशेषौ ज्ञानदर्शनस्वभावौ साकारोपयोगनिराकारोपयोगौ तद्रूपसूक्ष्मांशा. पेक्षया क्रमिकमपि सम्भवति । तथा च केवलोपयोगस्यैव चित्सामान्यविशेषस्य मुख्यतया विवक्षितत्वे तदंशयोस्वान्तरविशेषयोस्साकारानाकारोपयोगयोस्तद्रूपप्रविष्टत्वेन गौणतया विवक्षितत्वे साद्यपर्ययसितत्वं, साकारानाकारोपयोगयोरेव मुख्यतया विवक्षितत्वे उपयोगसामान्यस्य च गौणतयाऽऽश्रयणे क्रमिकत्वमित्येवं व्यवस्था सूरीणामभिमता सूपपादैवे. त्याशयेनाह-चित्सामान्यमिति, केवलाख्ये विशेष पुरुषपदभाक्-पुरि वपुषि शेत इति पुरुषः आत्मा, पुरुषपदं भजते सेवते इति पुरुषपदभाक् , स्याद्वादसिद्धान्ते गुणगुणिनोः कथञ्चिदऽभेदादात्मवाचिपुरुषपदवाच्यं यदेव चित्सामान्यं तदेव तपेण-केवलरूपेण साद्यनन्तं स्फुटं यथा स्यात्तथाऽऽगमे अभिहितम्-गदितम् , इदं-तदेवेदं चित्सामान्य सूक्ष्मैरंशः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणैः क्रमवदप्युच्यमानं पूज्यैरभिधीयमानं न दुष्टं दुष्टन भवति, अपेक्षाभेदेनानन्तत्वक्रमिकत्वयोरेका सत्वे विरोधाभावात् , तत्-तस्मात्कारणात् , सूरीणामियं मुख्यगौणव्यवस्थाऽभिमतेत्यर्थः ॥३॥ ___यदेत्थं नयभेदावलम्बनेन सूरिपक्षत्रयाभिमतमुख्यगौणव्यवस्था सामञ्जस्यमञ्चति तदा विस्मयोऽपि नात्र करणीयः, आगमे यथाऽन्ये नयविवादपक्षास्तथैतेऽपि सुसङ्गता एवेत्याहतमोपगमेति । यद्यपि निरावृताजन्यसर्वदावस्थितस्वयमाविर्भूतचैतन्यस्वरूप एवात्मा निश्चयतस्तथापि मतिज्ञानाद्यावरणकर्मलक्षणतमसोऽपगमे सति चिजनुः चैतन्यस्य जन्म
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सम्मति. काण्ड २, गा० ४३
२६१ भवति, क्षणभिवा प्रतिक्षणं चैतन्यमन्यदन्यदेव विशिष्टविशिष्टतरं भवति निदानोद्भवः स्वस्वनियतकारणतोऽस्योद्भव इत्याद्या नयविवादपक्षाः बहुतरा यथा श्रुते आगमे श्रुता अभिहिताः, अपेक्षाभेदेन तेषामुपपन्नत्वान्न तेषु कथमेतदघटमानं घटामटतीति विस्मयो भवति यथा, तथा सूरिपक्षत्रये क इव विस्मयो भवतु, न कोऽपि विस्मयः, पक्षत्रयस्यापि नयभेदावलम्बनेनोपपादितत्वात् , नु-वितर्के, क्व रिपक्षत्रयमध्ये कस्मिन् पक्षे, धियां प्रधानपदवी दवीयसी दृश्यते, काका न कुत्रापीत्यर्थः, वरिपक्षत्रयमप्यपेक्षाभेदेनोपपद्यत एवेति भावः ॥ ४॥
ननु विरोधे जाग्रति सति कथं पक्षत्रयमपि समीचीनतयाऽभ्युपगन्तुमर्हमित्यत आहप्रसवेति-यत्र स्वसमये जैनसिद्धान्ते, प्रसह्य हठादेव एकान्तत इति यावत् , सदस. स्वयोः सच्चासत्रयोः, एतच्च नित्यत्वानित्यत्वादीनामप्युपलक्षणम् , विरोधनिर्णायक यत्र सवन्तत्र नासत्वमित्येवमेकाधिकरणावृत्तित्वलक्षणस्य विरोधस्य निर्णायकं निर्णयजनकं, न-नैव किञ्चित् , सत्यासत्यनित्यत्वाऽनित्यत्वाद्योर्विरुद्धयोरप्यपेक्षाभेदेनाविरुद्धत्वात् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेन सत्त्वस्येव परद्रव्यक्षेत्रकालभावावच्छेदेनासत्त्वस्यापि द्रव्यापेक्षया नित्यत्वस्येव पर्यायापेक्षयाऽनित्यत्वस्यापि चैकस्मिन् वस्तुनि सत्त्वे बाधकप्रमाणाभावात् , कपिसंयोगतदभावयोरिव सत्त्वासत्चनित्यत्वानित्यत्वादीनामव्याप्यवृत्तिस्वेन भिन्नावच्छेदेन स्वाभावसामानाधिकरण्याऽनुभवात् तथा विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकं न-इदमस्य विशेषणमिदश्चास्य विशेष्यमित्येवं प्रतिनियतविशेषणविशेष्यभावस्यापि नियामकं न किञ्चित् , यद्यस्य विशेषणं तत्तस्य विशेष्यमपि सम्भवति, यद्यस्य विशेष्यं तत्तस्य विशेषणमपि सम्भवतीत्यर्थः। गुणेति स्यात्पदात्स्यादस्तीत्यादिवाक्यास्यात्पदवलादस्तित्वादेः प्रधानतया नास्तित्वादेगौणतया अपेक्षया स्वस्त्रनिमित्तभेदापे. क्षया मतिर्बोधो भवतीत्यतो भजनोर्जिते अपेक्षाभेदेन विरुद्धयोरप्यविरुद्धतया प्रतिपादके अत्र अस्मिन् स्वसमये जैनसिद्धान्ते किं न सङ्गच्छते-सर्वमेव सङ्गच्छते, स्याद्योगपy केवलज्ञानदर्शनयोः, स्यादेक्यं केवलज्ञानदर्शनयोः, स्यात्क्रमिकत्वं केवलज्ञानदशेनयोः, स्यादपर्यवसितत्वं स्यात्पर्यवसितत्वञ्च तयोरित्येवं स्यात्पदयोजनया जैनसिद्धान्ते सर्वमेव नयभेदावलम्बनेन चतुरस्रमिति भावः ॥५॥
न केवलमन्यविषयेष्वेव स्याद्वादः किन्तु स्याद्वादेऽपि स्याद्वादोऽनेकान्तेऽप्यनेकान्तः स्याद्वादः स्यादेकान्तवादः स्यादनेकान्तवाद इति अनेकान्तः स्यादेकान्तः स्यादनेकान्त इति प्रमाणापेक्षया स्याद्वादत्वमनेकान्तत्वं च नयापेक्षयकान्तवादत्वमेकान्तत्वच, सेयमनेकान्तधी. नयस्य प्राधान्यताटस्थ्याभ्यां विवक्षागोचरतापनकान्तत्वाने कान्तत्वाद्युपाधिसंवलितार्थावगाहिनी सती न गुरुसम्प्रदायक्रमवाधिका भवति, प्रत्युतेत्थमेव सदर्शनं धीधना आता सर्वथो
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सम्मति० काण्ड २, गा० ४३ पपमतास्पदं कथयन्तीत्याह-प्रमाणेति, स्वसमयेऽपि जैनसिद्धान्तेऽपि, स्याद्वादे अनेका. न्तत्वे च, अनेकान्तधीः कथञ्चिदेकान्तवादत्वकथश्चित्स्याद्वादत्वोभयधर्मप्रकारिका कथचि. देकान्तत्वकथञ्चिदनेकान्तत्वप्रकारिका वा बुद्धिः, प्रमाणनयसङ्गता प्रमाणनयावलम्बने. नानेकान्तत्वादिस्वविषयीभूतार्थे प्रवृत्ता नयस्य यः स्मयोऽभिमानः प्राधान्यमिति यावत् , या च नयस्य तटस्थता प्रमाणस्य प्राधान्ये नयस्य गौणता, ताभ्यामुल्लसन्तो वस्तुनि प्रकारतयाऽवभासमाना ये उपाधयोऽनेकान्तत्वादिधर्मास्तैः किर्मीरिता चित्रिता तादृशाशेषधर्मावगाहिनीति यावत् , एवम्भूता सती, सुगुरुसम्प्रदायक्रमं सुगुरुपरम्पराम्युपगतार्थपरिपार्टी कदाचन न बाधते, प्रत्युतैवंविधाऽनेकान्तधीस्तत्परिपोषिकैव भवति, हि-यतः, उरुधियः धीवैभवशालिनः, समञ्जसपदं समञ्जसस्थानं यथाभ्युपगमे सति सर्व समञ्जसं भवति सम्यगुपपद्यते तत् सदर्शनं वदन्ति, तदेव सदर्शनं यत्र सत्यासत्वादिकं सर्वमपि वस्तुनि सङ्गतिमङ्गति, एवम्भूतश्च स्याद्वाद एवेति स्याद्वाद एव सद्दर्शनमिति भावः ॥ ६ ॥ __. ये च नयानां तत्वमजानन्तः हतधियस्मरिपक्षेषु विरोधमुद्घोषयन्ति तानधिकृत्याहरहस्यमिति, बत आश्चर्ये, आश्चर्य खल्वेतत् , खला दुर्जनाः, हतधियो नष्टसद्बुद्धयो, नयानां सहादितत्तभयानां रहस्यं तात्पर्याथ, किमपि न जानन्ते, अल्पमात्रमपि नैवा. वगच्छन्ति,अत एव विविधबुधपक्षे तत्तन्नानाविधस्वस्ववृद्धसम्प्रदायायाततत्तन्मयापेक्षतत्त. सूत्राभिप्रायम्राजिष्णुपूर्वोक्ततत्तत्प्राज्ञपक्ष, विरोधं भाषन्ते, अमी चन्द्रादित्यप्रकृति. विकृतिव्यत्ययगिराः(रः) चन्द्रस्वभावं वावुद्गिरन्ति रविस्वभावं चन्द्रे प्रलपन्तीत्येवं स्वभावास्स्वीयातिजडत्वस्वभावं प्रकटितवन्तः, अहह खेदे कुत्रापि कस्मिंश्चिदपि विषये, निरातङ्का न गुणान्वेषणपरा-निरर्गला भवभयविनिर्मुक्तास्सन्तो यथातथाप्रलापिनो न गुणान्वेषणपराः किन्तु परदूषणान्वेषणतत्परा एवामीति भावः । यद्वा अमी चन्द्रादित्यप्रकृतिविकृतिव्यत्ययगिरः।
"सलिलमये शशिनि रवेधितयो मूच्छितास्तमोनैशम् ।
क्षपयन्ति दर्पणोदरनिहिता इव मन्दिरस्यान्तः ॥ १॥" इति वराहसंहितावचनाद् जलमये चन्द्रमसि सूर्यकिरणानां प्रवेशादेव तमोनाशकत्वं चन्द्रमसो भवतीत्यवगमात् चन्द्रमसो विकृतित्वं प्रकृतित्वन्तु आदित्यस्येति सिद्धं भवति तत्र चन्द्रमस एव प्रकृतित्वं सूर्यस्यैव विकृतित्वमित्याकारकं व्यत्ययं व्यत्यासं गिरन्तो जना यथा स्वीयमहत्वमेव प्रकटयन्ति एवं तत्तत्वरिपक्षेषु विरोधप्रदर्शनेन स्वीयमनवबोधमात्रं प्रकाशयन्तोऽमी जना अपि अहह कुत्रापि निरातङ्का न गुणान्वेषणपराः। तदर्थस्तु पूर्ववत् । ' अमी चन्द्रादित्यप्रभृतिविकृतिव्यत्ययगिर इति पाठे तु चन्द्रादित्यप्रभृतीनां चन्द्रसूर्यादीनां परस्परविरुद्धस्वभावानां विकृतेः-विकारस्य शीतोष्णस्पर्शादेः व्यत्ययं व्यत्यासं-चन्द्र उष्णस्पर्शवान सूर्यश्च शीतस्पर्शवानित्याकारकं विपरिवर्तनं ये गिरन्ति
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सम्मति० काण्ड २, गा० ४३
२६३
तद्वत् सूरिवचनेषु त्रयेषु विरोधमुद्भावयन्तः स्वीयमज्ञानमेव प्रदर्शयन्तोऽमी अहह कुत्रापि निरातङ्का न गुणान्वेषणपरा:, तदर्थस्तु पूर्ववत् ॥ ७ ॥ इत्यलं पल्लवितेन ।
भ्रान्तायां चिदि धर्मिणि प्रमितिरूपत्वं प्रकारांशके । भ्रान्तत्वञ्च यथा तयोर्न कणभुच्छास्त्रे विरोधस्तथा ॥ ज्ञाने स्वार्थविनिश्चयेऽपि करणापेक्षप्रमाणात्मता । कार्यापेक्षमात्मता पृथगपेक्षातो विरोधोऽत्र नो ॥ १ ॥ पक्षाः केवलबोधदर्शनसमुत्पत्तौ विरुद्धा इवाभासन्ते नयसूत्रकुण्ठितधियां सूरित्रयोक्तास्त्रयः । तत्सूत्रं किल तन्नयानुगतमेतत्तन्नयापेक्षकमित्थं सूत्रनयानुयोगविदुषां तथ्यास्त इत्यादिभिः ॥ २ ॥ तस्वैस्सम्मतितर्कसत्प्रकरणे रत्नैर्द्वितीये भृते । काण्डे देवगुरूत्तमातुलकृपा- भारेण पूतिं गता || श्रीमद्दर्शन सूरिणा विरचिता गाथार्थसम्बोधिनी । सेयं सद्विवृतिस्तनोतु विदुषां चित्ते मुदान्दोलनम् ॥ ३ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् |
अर्हदूधर्मधुरीणमन्त्रिविमलश्रीवस्तुपालादिभिदृग्धैरिन्द्र नरेन्द्रचित्तहर णैरभ्रंलिहैर्मन्दिरैः ॥ नानाचित्रविचित्र भावरसदे तीर्थेऽर्बुदाद्रौ वरे । काण्ड: पूर्त्तिमितश्चतुर्खगगनद्व्यन्दे शुचौ मास्ययम् ॥ ४ ॥ ज्ञानाथनन्त गुणरस्नपयोनिधे ऽर्हन् ?, नानाप्रफुल्लकुसुमैर्विजयादिदेवैः ।
स्वर्गेऽचित ! स्तुत ! मनोहरसूक्तिभिस्त्वत्प्रौढप्रभाव गुरुदर्शन प्राज्ञसूरिः । ॥ ५ ॥
स्वद्दर्शनाश्रयगुणो विजयप्रतिज्ञ -ज्ञानां जगत्सु तिलको विजयात्सभायाम् | उप्त्वा नृहृद्भुवि जिनेश्वरधर्मबीजं, सिक्त्वा जिनोक्तिसुधया शुभ
भावपत्रम् ॥ ६ ॥ वृक्षं सुमेषुविजयं त्रिजगज्जयाया-नन्द- प्रियङ्कर-महोदय- शान्तिपुष्पम् । सम्पाद्य मोक्षसुफलं जनयत्यरं य-स्तत्राऽस्ति नाथ ! जिन ! ते चरणानुभावः || ७ || त्रिभिर्विशेषकम् ||
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सम्मति• काम २, पा. ४३ सम्यग्दर्शन भावनोदयलसत्स्वानन्दनम्यक्रम, हृत्पने स्वगुरोः प्रविश्य मधुपं विज्ञानरेणोलिहे । शश्वद्वागमृतप्रचारकरणाल्लावण्यमूर्ति सुधीः, सूरि नेमिगुरुं नतश्च विबुधैर्न स्तौति ? कस्तूरसा ॥ ८॥ येऽसूयान्वितमानसाः परगुणान् सन्दूषयन्ति क्षणात् । ये वा द्वेषविशेषदूषितहृदो निन्दन्ति चास्मानिह ॥ तानुद्दिश्य न यत्न एष ममतु स्यात्तुल्यशीलो जनो।
ह्यर्थी कश्चिदनेन भूरतिपृथुः कालस्य वा नावधिः ॥९॥ इति दूपमाकालनिशादिवाकरकल्पत्वेनावाप्तयथार्थाभिधान-प्रवचनोपनिषद्वेदि-महातर्कवादिशिरोमणि-श्रीविक्रमादित्यादिमहाभूपतिप्रतिबोधक-श्रीसिद्धसेनदिवाकरभगव. स्प्रणीतस्याखिलनयसंमर्दगहनस्य सम्यग्दर्शनविशुद्धिकृद्रव्यानुयोगतवरत्नरत्ना. करस्य सकलतत्तत्परनयपरिशुद्धिविधायकमहातकसङ्घटितस्य निखिलवादनाय. कानेकान्तवादगोचरपदार्थत्वव्यापकाविरुद्धकथञ्चित्सदसदादितचप्रमापकस्य "श्रीसम्मतितर्कप्रकरणस्य" सार्वतत्वामृतरससङ्गतिसमवाप्तसुवर्णभावाऽलङ्कृता-ऽखर्वगर्ववादिवृन्दाप्रधृष्य--प्राज्ञपार्षदगणचमत्कारद्वाणीविलाससमुद्भूतानुपमभव्यजातहृदखण्डप्रमोदभरप्रसृतशशभृद्धवलकीर्तिभरधवलितभूवलय-न्यायव्याकरणसिद्धान्तादिपारा-- वारसमवगाहनसमुपलब्धानल्पतत्वरत्नसंदृब्धबृहत्सम्मतिवृत्तिवृत्ति-न्यायखण्डखाद्यवृत्त्याद्यनल्पग्रन्थसन्दर्भ-भव्यात्मसम्यग्दर्शनातिविशुद्धिकृदनल्पमहातीर्थसमुअतिबद्धकक्ष--श्रीतपागच्छनभोनभोमणिसरि-- सम्राइ- भट्टारकाचार्य-श्रीविजयनेमिसूरी-- श्वरपट्टनमोभास्कर-समवाप्न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारदविरुदभट्टारकाचार्य-श्रीविजयदर्शनसूरीश्वरविरचितायां सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यः टीकायां 'द्वितीयकाण्ड' समाप्ति मगात् ॥
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॥ श्रीसम्मतितर्कप्रकरणम् ॥
॥तृतीयकाण्डम्॥
मंगलाचरणम् सपर्या पर्याप्ता त्रिकरणसमापत्तिविहिता, फलं फुल्लं कर्तुं निखिलदुरितं हर्तुमनिशम् ॥ प्रभोर्यस्य प्राप्ता अगणितजनास्सिद्धिममला:, यत श्रीवीरेशोऽतुलमधुमतीपूर्मुकुटकः ॥ १ ॥ अपूर्वो यो मेघो भविकहृदये वर्षति भृशम्, वचोवारिस्वच्छं जनयति सुधर्माङ्कुरमरम् ।। भया बाल्येऽनल्पप्रणयभरता पूजित इति,
स मे हत्क्ष्मां तत्वाऽनुभवरसरम्यां रचयतु ॥ २॥ युग्मम् ॥ एवं परस्परानुस्यवसामान्य-विशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शन-ज्ञानस्वरूपद्वयात्मक उपयोग: प्रमाणार्पणया प्रमाणमिति प्रतिपायेदानी तद्विषयभूतो सामान्यविशेषावप्यन्योन्याविनिर्भागस्वरूपाविति प्रतिपादयितुं तृतीयकाण्डं प्रारिप्सुस्मुरिराह-यद्वा दर्शनज्ञानयोः परस्परमविनिर्मागरूपता प्रतिपाद्याधुना सामान्यं विशेषानुगतं विशेषाश्च सामान्यानुगता इति तयोरपि मिथोऽनुस्यूतस्वरूपता प्रतिपादयितुं तृतीयकाण्डं प्रारिप्सुस्मुरिराह
सामण्णम्मि विसेसो, विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो।
दव्यपरिणाममण्णं, दाएइ तयं च णियमेइ ॥१॥ . 'सामण्णम्मि' इदं सत् इदमपि सदित्याधनुगतप्रतीतिविषये सत्ताख्यसामान्ये आत्माऽनात्मपदार्थमात्रे अस्ति अस्तीत्यनुगतप्रतीतिविषयेऽस्तित्वसामान्ये वा — विसेसो' विशेष इदं द्रव्यं नाद्रव्यं इयं पृथिवी न जलादिकमित्येवं व्यावृत्तबुद्धिगोचरो द्रव्यपृथिव्याद्यात्मको विशेषः तथा " विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो" ' विशेषपक्षे च वचनविनिवेशः' द्रव्यपृथिवीघटाद्यात्मके विशेषपदार्थं च 'द्रव्यं सत् , पृथिवी सती, घटः पटश्च समित्याउनुगतवचनस्य यद्वा 'द्रव्यमस्ति पृथिव्यस्ति घटोऽस्ति पटोऽस्तीत्याद्यनुगत.
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सम्मति० काम ३, गा• १-२ वचनस्य-नामनामवतोरमेदात् सत्तासामान्यस्य अस्तित्वसामान्यस्य वा, यद्वा लक्षणयोक्तक्चनप्रतिपाद्यस्य सत्तासामान्यस्य अस्तित्वसामान्यस्य वा तथा पृथिवीजलादाविदं द्रव्यमिदमपि द्रव्यमित्यनुगतवचनस्य नामनामवतोरभेदात् द्रव्यसामान्यस्य यद्वा लक्षणयोक्तवचनप्रतिपाद्यस्य द्रव्यसामान्यस्य पृथिवीजलादिपूर्वोचरपर्यायानुयायितया त्रिकालानुगतत्वे. नोवंतासामान्यात्मकस्य विनिवेशः विनियोजनं प्रदर्शनमिति यावत् 'दबपरिणाममणं दाएइ' द्रव्यपरिणाममन्यं दर्शयति, सत्ताख्यसामान्यस्यास्तित्वसामान्यस्य वा द्रव्यपरिणामं द्रव्याख्यविशेषं तथा जैनसिद्धान्ते पुद्गलानामेकजातीयत्वात् पृथिवीजलादीनां पुद्गलद्रव्यपरिणामत्वेन पृथिवीजलादिपूर्वोत्तरपर्यायानुगतोर्वतासामान्यात्मकपुद्गलद्रव्यस्य पृथिव्याद्याख्यपरिणामं पृथिव्याद्याख्यविशेषमन्यं विशेषस्य सामान्यात्मकत्वात् सामान्यस्वरूपपरित्यागे विशेषस्स्वस्वरूपमपि परित्यजेदित्यतरसामान्यस्वरूपाऽपरित्यागेनैव वृत्तं दर्शयति, सामान्यानुविद्धविशेष इव सामान्यमपि विशेषानुविद्धमेव, यतो विशेषाऽभावे सामान्यस्याप्यभावप्रसक्तिस्स्यात्-यद् यदात्मकं तत्सदभावे न भवति, यथा मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलाद्यात्मकं मृद्रव्यमिति तदभावे तदभावः, विशेषात्मकश्च सामान्यमिति तदभावे तस्याप्यभावस्स्यात् । एतावत्प्रबन्धेन सामान्यविशेषयोमिथोऽनुस्यूतत्वेन सामान्यस्य विशेषात्मकत्वं प्रतिपाद्याधुना विशेषस्यापि सामान्यात्मकत्वं प्रतिपादयितुमाह-' तयं च णियमेह' तकंच नियमयति । तमित्यर्थकमकचप्रत्ययसिद्धं तकं विशेष नियमयति, द्वितीयपक्षे सामान्य विशेषात्मकमितिवद्विशेषोऽपि सामान्यात्मक एवेति गमयति, अन्यथा मृदभावे मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलायभाववत्सामान्याभावे विशेषस्याप्यभावप्रसङ्गस्यादिति भावः ॥१॥
न च सामान्यविशेषौ मिथो निरपेक्षत्वाद्विभिभबुद्धिग्राह्यत्वाच्चैकान्ततो मिन्नावेवेति न सामान्य विशेषात्मकं न वा विशेषास्सामान्यात्मका इति न तदुभयात्मकं वस्त्वित्यम्युपगन्तव्यम् , प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधप्रसङ्गात् , तथापि तथाभ्युपगमे यत्स्यात्तदाह
एगंतणिव्विसेसं, एयंतविसेसियं च वयमाणो।
दव्वस्स पनवे प-जवाहि दवियं णियत्तेइ ॥२॥ " एगंतणिबिसेसं वयमाणो दबस्स पञ्जवे णियत्तेइ " ' एकान्तनिर्विशेष वदन् द्रव्यस्य पर्यायान् निवर्तयति' एकान्तेन निर्गता विशेषा यस्मात्सामान्यात्तदेकान्तनिर्विशेषम् , विशेषानात्मकं सामान्यं वदन् द्रव्यस्य मृद्रव्यस्य पर्यायान् मृत्पिण्डस्थासकोशादीन् गोरसादेश्च पयोदधिघृतादीन एवं द्रव्यान्तरस्य स्वीयस्वीयपर्यायान् निवर्तयति, न च तन्निवृत्तियुक्तियुक्ता, यतस्तनिवृत्यभ्युपगमे मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलादिपूर्वोत्तरपर्यायात्मकमृद्रव्यस्य दुग्धदधिघृतादिपूर्वोत्तरपर्यायात्मकगोरसादिद्रव्यस्याप्यध्यक्षादिप्रमाणप्रतीयमानस्य निवृत्तिप्रसङ्गस्स्यात् , परिणामपरिणामिनोः परिणामपरिणामिभावेन कथञ्चिदमेदात्तत्तत्परिणा
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सम्मति काण्ड ३, पा० २
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मात्मकपर्यायाभावे परिणामिद्रव्याभावस्याप्यवश्यम्भावात् द्रव्यत्वजातियोगात् समवायिकारणत्वाच्च द्रव्यमित्यस्य तु प्रागेव निरस्तत्वान पुनस्तभिरस्यते, अत एवात्मानमधिकृत्य " न द्रव्यमेव तदसौ समवायिभावात् पर्यायताऽपि किमु नात्मनि कार्यमावात् । उत्पत्तिनाशनियतस्थिरतानुवर्त्ति, द्रव्यं वदन्ति भवदुक्तिविदो न जात्या || ६३ ॥ " इति खण्डस्वाद्याऽपरनाम महावीरस्तवोक्तं सङ्गच्छते, एयंत विसेसियं च वयमाणो पजवाहि दवियं णियत्तेइ " एकान्तविशेषश्च एकान्ततस्सामान्यरहितं विशेषं च वदन् पर्यायेभ्यो विशेषेभ्यो द्रव्यं निवर्त्तयति, न च तनिवृत्तिर्युक्ता यैव मृत्पिण्डव्यक्तिः सैव स्थासस्वरूपा सैव कोशस्वरूपा सैव कुशूलादिस्वरूपा, थ एव गोरसो दुग्धरूपः स एष दधिघृतादिस्वरूप इत्याद्याकारायास्तचत्पूर्वोत्तरपरिणामलक्षण विशेषानुगतो तासामान्याख्यद्रव्यप्रतीतेर्भावात् द्रव्यस्याबाधितानुगतप्रतीतिसिद्धत्वेऽपि निवृभ्यस्युपगमे एकस्यैवात्मद्रव्यस्य बालव वृद्धत्वादिदेवनरनारकादिपर्यायाः न त्वन्यद्रव्यस्येति व्यावृत्तबुद्धिग्राह्माणामपि विशेषाणां निवृत्तिप्रसङ्गाद्, सामान्यविशेषपोर्मिंथोऽनुस्यूतत्वेनानुभूयमानयोर्मध्यादेकस्याभावे तदपरस्याध्यभावो न्यायप्राप्त एव न च द्रव्यपर्यायावेकान्तभिन्नौ भिन्न बुद्धिग्राह्यत्वात् घटपटवदित्यनुमानेन द्रव्यपर्याययोरेकान्तभेदसिद्धौ तयोर्मिथोऽनुस्यूतत्वमे वाऽसिद्धमिति नोक्तं सङ्गतमिति वाच्यम्, य एवाहं पूर्व देवत्वेनाभूवं स एवाहं मनुष्यत्वेनोत्पन्नः, य एवाहं पूर्व बालस्स एवाहं युवास्मि य एव देवदतो बालत्वेन दृष्टस्स एव युवत्वेन मया दृश्यत इत्यादिप्रत्यभिज्ञाबलेन द्रव्यपर्यायरूपेण कथञ्चिद्भेदाभेदोभयस्वरूपस्यैव सिद्धेः, अत एव तयोरेकान्वाऽभेदोऽपि प्रतिक्षिप्तः, पूर्वोक्तयुक्तेः, यन्निवृत्तौ यस्य न निवृत्तिस्तत्ततो भिन्नं यथा घटनिवृत्तावपि परस्याऽनिवृत्तिरिति स ततो भिन्नो दृश्यते, पर्यायनिवृत्तावपि द्रव्यस्य न निवृत्तिः, ध्रुवस्वभावत्वादिति तस्य द्रव्यस्य पर्यायतो भिन्नत्वाच्च यतो द्रव्यपर्याययोरभेदें द्रव्यस्वरूपवत्पर्यायस्याप्यनिवृत्तिस्स्यात्, यद्वा द्रव्यस्यापि निवृत्तिस्स्यात् पर्यायस्वरूपवत्, न च तद् युक्तम्, यतो द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिद्भेदाभेदोभयस्वरूपतयैवानुभूयमानत्वेन द्रव्यस्वरूपाsनिवृत्तावपि पर्यायनिवृत्तिः पर्यायनिवृत्तावपि द्रव्यस्यानिवृत्तिरपि नानुपपन्ना, कथञ्चिद्भेदपश्चसमाश्रयणात्, तदेवं वस्तुमात्रं सामान्यविशेषोभयात्मकम् अबाध्यमानानुगतव्यावृतबुद्धिगोचरत्वाऽन्यथानुपपत्तेरभ्युपगन्तव्यमिति सिद्धम् । यदभिहितं स्याद्वादरत्नाकरे - तत्सामान्यविशेषाख्या -ऽनेकान्ताक्रान्तमूर्त्तिकम् । वस्तु प्रमेयमायातं, प्रमाणस्योपपत्तितः ॥ १ ॥ इति । नन्वेतत्तृतीयकाण्डं नारब्धव्यम् अनेकगाथासन्दोहैरनेकधा पूर्वप्रतिपादितविषयकत्वेन पुनरुक्तत्व दोषाघ्रा तत्वात्, पिष्टपेषणवदस्य निष्फलत्वाच्चेति चेत्, एवमेतत्, किन्तु प्रमेयप्राधान्येन तद्ब्राहकस्य प्रमाणस्यापि निरूपणमित्येतत्प्रदर्शनद्वारेण तत्प्रतिपादकवाक्यावतारः प्राविहितः, इह त्वविद्यमानप्रमेयस्य प्रमाणस्य प्रमाणत्वासम्भवात् प्रमाणनिरूपणद्वारेण प्रमेयनिरूपणमिति प्रदर्शनद्वारेण ' सामण्णम्मि विसेसो' इत्यादिवाक्यावतार
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ३ इत्यपेक्षाभेदप्रयोज्य एवैतत्काण्डारम्भ इति नोक्तदोषः । यद्वा नैयायिकवैशेषिकावेकस्मिन्नेव भ्रान्तझाने धर्यशप्रकारांशावच्छेदेन प्रामाण्याऽप्रामाण्ये शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी न तु मूले इति प्रतीतेरेकस्मिभेव वृशे शाखामूलावच्छेदेन कपिसंयोगतदभावो नितम्बे पर्वते वहिन तु शिखरे इति प्रतीतेरेकस्मिन्नेव पर्वते नितम्बशिखरावच्छेदेन वह्नितदभावौ चाम्यु. पगच्छतः, निरीश्वरसेश्वर मेदेन द्विविधावपि साङ्खथौ प्रकाशोपष्टम्भावरणादिविरुद्धकार्यकारित्वेन परस्परविरुद्धसस्वरजस्तमोगुणत्रयात्मकमेकं प्रधानं स्वीकुरुतः, स्वप्रकाशवादिनो वेदान्तिनोऽनुमिती पक्षांशे प्रत्यक्षत्वं साध्यांशे च परोक्षत्वं मन्वते । बौद्धस्तु नीलपीते इत्याद्याकारकज्ञानस्य स्वप्रकाशरूपत्वेन यद् ग्राहकाकारं चित्रज्ञानस्वरूपं तद्रूपेण तदेकं, नीलाकारस्य पीताकारस्य च भिमत्वेन तद्रूपेण चानेकम् , एवमेकस्यैव रूपस्य स्वाव्यवाहितो. तररूपं प्रत्युपादानकारणत्वं स्वाव्यवहितोत्तररसादिकं प्रति च निमित्तकारणत्वमुररीकरोति, इत्येवमपेक्षामेदेन तदतत्स्वभावमनेकान्तमभ्युपगच्छन्तोऽपि तत्तद्वादिनोऽनेकान्ततत्वे प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धे यद्विरोधादिदोषानुद्भावयन्ति तत्परिहारोऽनेकधा क्रियमाणो न दोषपोषायेति न कश्चिदोषः 'सामग्णम्मि विसेसो' इत्यादि सूत्रसन्दर्मविरचने ॥ २ ॥
एकस्मिन्नेव देवदत्ते पित्रपेक्षया पुत्रत्वम् , पुत्रापेक्षया पितृत्वम् , एकस्मिन्नेव बदरादौ अण्वपेक्षया महत्त्वम्, महदपेक्षया चाणुत्वम् , एकस्मिन्नेवाछुल्यादौ वक्रापेक्षया ऋजुत्वम् , ऋज्यपेक्षया च वक्रत्वम् , द्रव्यापेक्षया सामान्यात्मकत्वम् , पर्यायापेक्षया च विशेषरूपस्वमित्येवमापेक्षिकवचनमाप्तस्य, इदमित्थमेवेत्येवं नितिकस्वरूपप्रतिपादकतयकान्तवचनमनाप्तस्येत्येतत्स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-यद्वा सामान्यविशेषानेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकं वचः नमाप्तस्य, इतरदितरस्येत्येतदेव दर्शयन्नाह
पच्चुप्पन्नं भावं, विगयभविस्सेहिं जं समण्णेइ ।
एयं पडुच्चवयणं, दव्वंतरणिस्सियं जं च ॥ ३ ॥ 'पच्चुष्पन्नं भावं ' प्रत्युत्पन्नं भाव-निखिलजीवाजीवादिद्रव्यस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरीभूतं वर्तमानपर्याय 'विगयभविस्सेहिं ' विगतभविष्यद्भया अतीतानागतपर्यायाभ्यां 'जं समण्णेइ' यत्समन्वेति-कालत्रयानुगतोयतासामान्याख्यद्रव्यस्य भूतवर्तमानभविप्यत्पर्यायपरिणामितया तद्रूपेण समानरूपतया नयति प्रतिपादयति वचः 'एयं पडुच्चवयणं' एतत्प्रतीत्यवचनम् , आपेक्षिकवचनम् , सर्वज्ञवचनमित्यर्थः, अन्यच्चानातवचनम् , ननु वर्तमानपर्यायस्यातीतपर्यायात्मकत्वे तद्वत्तस्यापि प्राक् सवप्रसङ्ग इति सत्कार्यवादसाम्राज्यापत्तिः, तथा चेदानींतनतत्कारकव्यापारवैफल्यप्रसङ्गा, कार्यात् प्रागपि तत्सत्वस्य तत्कार्यस्य चोपलम्भप्रसङ्गश्च, अथ पूर्वमनाविर्भावाद् न तत्प्रसङ्ग इति चेत्, न, अनाविर्भावस्य निर्वक्तुमशक्यत्वात् , उपलम्भाभावरूपत्वे तस्यात्माश्रयात् , व्यञ्जकाय
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सम्मति काण्ड ३, गा० ३
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भावरूपत्वे च व्यञ्जकादयः किं पूर्व सन्तोऽसन्तो वाऽभ्युपगम्यन्ते, आधे तत्सस्वोपलम्भप्रसङ्गेन तदभावाsयोगः । द्वितीये च तदनुत्पत्तिप्रसङ्गः, असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाश्च सत्कार्यम् ॥ १ ॥ इत्युक्तेः । किश्चैवमुत्पत्तिपदार्थ एव विलीयेत, कार्यस्य प्रागपि सच्चेनाद्यक्षण सम्बन्धलक्षणायास्तस्या इदानीमयोगात् । अथ पूर्व कार्य शक्तिरूपेण सत् नाभिव्यक्त्याऽपीति नोक्तदोष इति चेत्, वर्धनायासेनैवासत्पक्षसिद्धिः पूर्वमभिव्यक्तिरूपेणाऽसतोऽपि कार्यस्योत्पादाभ्युपगमात् । एवं भविष्यत्पर्यायात्मकत्वे च वर्त्तमानपर्यायस्य तद्विनाशहेतुव्यापारवैफल्यम्, तेन तद्विनाशकार्याकरणात्, उत्तरकालावच्छेदेनापि घटादिकार्यसद्भावेन तदुपलब्धिजलाहरणादितत्कार्यप्रसङ्गच, ततो यद्यत्कालावच्छेदेन स्वीयकार्यकृत्तत्तत्कालावच्छेदेनैव सत्, वर्त्तमानपर्यायश्च स्वकालावच्छेदेनैव कार्यकृदित्यर्थक्रियाकारित्वात् तदानीमेव सत्, न पूर्वोत्तरकालावच्छेदेन तदानीमर्थक्रियाकारित्वाभावादिति चेत्, मैत्रम्, कथञ्चित्सदसत्कार्यवादे दोषाभावात्, द्रव्यरूपेण प्राक् सतः पर्यायस्य द्रव्यरूपेण प्रागप्युपलम्भात्, पर्यायरूपेणासतस्तस्याऽऽद्यक्षण सम्बन्धलक्षणोत्पत्तेः सुघटत्वाच्च न वेदेवम् उपादानकारणत्वमेव दुर्घटं स्यात् पूर्वं समवायस्य निरस्तत्वेन स्वसमवेत कार्यकारित्वलक्षणस्योपादानत्वस्यासिद्धेः कार्य प्रागभावाधिकरणत्वमुपादानत्वमित्यपि न, यतोऽसतः कार्यस्य पूर्व स्वरूपाभावे स्वरूपात्मकप्रतियोगित्वस्याप्यभावेन कार्यनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभावात्मकः कार्य प्रागभाव एव न सिद्धयेत् एवं तस्य स्वरूपात्मकविशेषणत्वसम्बन्धस्याभावे तेन सम्बन्धेन तदधिकरणत्वस्याप्ययोगादिति । अत्राह बौद्ध: - यद्यत्कुर्वद्रूपात्मकं तत्तस्योपादानकारणमिति चेत्, तदपि न सङ्गतम्, एकान्तक्षणिकतश्चस्यं पूर्वं निरस्तत्वेन तस्याऽप्यसिद्धेः, एवं वर्त्तमानपर्यायस्य भविष्यत्पर्यायात्मकत्वेन तद्वत्तस्यापि स्वस्वरूपेणोपलब्धिप्रसङ्ग इत्यपि न युक्तम्, ऊर्ध्वतासामान्याख्यद्रव्यस्य पूर्वकालावच्छिन्नतचंदनस्थावर्त्तित्वेनेवोत्तरकालावच्छिन्नतत्तदवस्थावर्त्तित्वेन कथञ्चित्तदभिन्नवर्त्तमानपर्याय सत्त्वमपि तदानीं द्रव्यरूपेणैवाऽभ्युपगमात्, न तु स्वस्वरूपेणेति न तदानीं भविष्यत्पर्याय स्वरूपेणोपलम्भप्रसङ्गः, पूर्वोत्तरतत्तदवस्थायां प्रतिभासमानेन द्रव्यरूपेण तदुपलम्भस्त्विष्ट एव, अत एव पर्यायरूपेण तद्विनाशहेतुव्यापार वैफल्यमपि न तेन रूपेण तद्विनाशभावदर्शनात्, तदेवं कारणे नैकान्तेन सत्कार्यमुत्पद्यते, कारण वैफल्यप्रसङ्गात्, न वैकान्तेनासत्, घटादेखि शशशृङ्गादेरप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् असच्चाऽविशेषात् । किन्तु कथञ्चित्सदेवेति कारणस्य कथञ्चित्सजननस्वभाव एवं युक्तः । नन्वेकान्ताऽसत्पक्षेऽपि शशशृङ्गाद्युत्पच्यापादनं न सम्यग्पदं धत्ते यतस्तदनुत्पत्तिः कारणाभावादेव, न त्वचादिति चेत्, सोऽपि कृतः १ । असत्वादिति चेत्, तदपि कुतः १ कारणाभावादिति चेत्, तर्ह्यन्योन्याश्रयः । ननु यदसतदुत्पद्यत एवेति नियमो नाम्युपगम्यते, येनोक्तदोषस्स्यात्, किन्तु यद्धर्मा
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सम्मति. काण्ड , गा० ३ बच्छिमं प्रति यद्धर्मावच्छिमस्य कारणत्वं तदर्मावच्छिमसवे तदितरसकलसहकारिसमा नभाने च पूर्वमसतोऽपि कार्यतावच्छेदकतद्धर्मावच्छिन्नस्योत्पत्तिरित्यभ्युपगमोऽस्माकम् , तथा च शशशृङ्गादिकं यदि कस्यचित्कारणस्य सन्निधानात्पूर्वमसदपि पश्चादुल्पद्यमानमुपलभ्येत तदाऽनायत्या शशशृङ्गत्वावच्छिन्नम्प्रत्यपि यत्किश्चिद्धविच्छिमस्स कारणत्वमभ्युपगतं भवेत् , तेन च तस्योत्पत्याचापादनं युक्तिसङ्गतं भवेत् , न चैवम् , तथा च पूर्वमसत्त्वाऽविशेषेऽपि तदनु कारणसमाजादुत्पद्यमानस्योपलम्भाच्छशशृङ्गादेश्च कदाचिदप्य. नुपलम्मादनुपलभ्यमानकार्यस्यानुपलभ्यमानतत्कारणस्य च कल्पनायाः प्रयोजनं विना गौरवमानसम्पादकत्वादापादकामावादेव न तदापत्तिरित्ति चेत्, मैवम् , यतो यदि कारणे असदेव कार्यमुत्पद्यते तहि किमिति तन्तुभ्य एव पटो न कपालादिभ्यः, विनिगमकाभावात् , एकस्मादपि कपालादेपेटपटादिनिखिलकार्योत्पत्तिस्स्यात् , सत्त्वपक्षे च यस्य कार्यस्य यत्र कारणे सत्त्वं तस्य तत्कारणादेवोत्पत्तिः, नान्यस्मात् , उपादानकारणानां कथञ्चित्सजननस्वभावस्यैकस्यैवाभ्युपगमेन लाघवम् , असत्वपक्षे तु प्रतिनियतकार्यजनकत्वस्वभावकल्पने कार्यकारणभेदेनानन्तस्वभावप्रसङ्गनाऽतिगौरवमित्यत्र दीयतां दृष्टिः, नन्वसदुत्पत्तिपक्षे शशशृङ्गाद्युत्पत्तिगौरवापादनं तदा शोभेत यदि निष्प्रामाणिकः कल्पनामात्रविषयोऽभ्युपगतो भवेत् , यावता प्रत्यक्षप्रमाणमेव प्रतिनियतकार्यकारणभावं निश्चिन्वत् कार्यस्य कारणभेदं पूर्वकालाऽसत्त्वं च निश्चिनोतीति प्रमाणसिद्धोऽसद्वादो वैकल्पिक सद. सहादं मिथ्यात्वेनाऽवबोधयति, अत एवोक्तमन्यत्र, “संविदेव हि भगवती वस्तूपगमे नश्श रणम्" इति चेत्, न, यैव संविद्भगवती प्रमाणत्वेन भवतोपन्यस्ता सा स्वयमेवात्मनः कथत्रिभेदाभेदवादं कथञ्चित्सदसद्वादश्चाऽन्तरेणानुपपना कथं तमेव वाघेत, तथाहि संविद् भवद्भिरप्यात्मगुणत्वेनाभ्युपगम्यते, सा चात्मत्वेन ज्ञानत्वेनात्मज्ञानयोर्भेदः, अन्योन्यानुस्यूतत्वेनाऽयुतसिद्धत्वेन चाभेद इत्येवं कथश्चिद्भेदाभेदमन्तरेणानुपपन्नेति । ननूक्तमेव गुणगुणिनोस्समवायलक्षणोऽतिरिक्तस्सम्बन्धस्तेन भिन्नमपि ज्ञानमात्मनि वर्तत इति तयोर्गुणगुणिमात्र इति तत्किं विस्मृतम् ? इति चेत् को नाम नोक्तमिति वदति, न वा विस्मृतं तत् , किन्तु योऽयं समवायात्मा सम्बन्धो भवद्भिरभ्युपगतस्स प्रमाणबाह्य इति श्रुतमप्यश्रुतकल्प कृत्वोपेक्षितः, प्रमाणागोचरवलक्षणप्रमाणबाह्यत्वं तु तस्य पूर्वमेवोक्तमिति न पुनरुच्यते, नन्वेवं सति सदुत्पादपक्ष एवास्तु प्रमाणा) न तु कश्चित्सदसत्पक्षः, अनुभवपथातीतत्वात इति चेत् , मैवम् , सत्पक्षे हि कार्यस्य कारणात्मकत्वेनेदमस्य कारणमिदमस्य कार्यमित्यसङ्कीर्णव्यवहारविलयनप्रसङ्गात् , यतो न हि यद्यतोऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्य कारणं वेति व्यपदेष्टुं शक्यम् , कार्यकारणयोर्मिनलक्षणत्वात् । तथा चोपादान कारणे कथश्चित्सजननस्वमावस्यैव प्रमाणगोचरत्वेन तत्र प्रागपि द्रव्यरूपेण सत्कार्य कार्यरूपेणानुत्पनत्वात्तपेण चाऽसदिति कार्यकारणभावस्य कथश्चित्सदसत्पक्ष एव घटमानत्वेनोपादानकारणस्य
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सम्मति• का , गा० ३ पूर्वोत्तरपर्यायरूपेण परिणमनात्तद्रपान्वयिद्रव्यस्य त्रिकालास्तित्वात्तद्वारेण वर्तमानपर्यायस्य त्रिकालाऽस्तित्वप्रतिपादकं प्रतीत्य वचनमिति सिद्धम् । 'दवंतरणिस्सियं जंच' द्रव्यान्तरनिस्सृतं यच्च तदपि प्रतीत्य वचनम् । यद्यप्युपादानकारणरूपाः परमाणव एव विमक्तत्वाणुत्वपरिणामबहुत्वसङ्खयादिरूपतया ये पूर्वमासन् त एव संयुक्तत्वमहत्व परिणामैकत्वससथादिभावमापना व्यणुकन्यणुकादिव्यपदेशं भजन्ते, अत एव नोक्तस्वरूपेण पूर्वकालावच्छिन्नसत्ताकपरमाणुभ्यस्सर्वथाऽतिरिक्तमवयविद्रव्यमस्ति, न चैवं तर्हि विमक्ता. नामिव संयुक्तानामप्यणूनां चाक्षुषप्रत्यक्षगोचरत्वं न स्यादिति वाच्यम् , विभक्तदशायां चाक्षुषप्रत्यक्षाजननस्वभावत्ववत् तेषां संहतदशायां चाक्षुषप्रत्यक्षजननस्वभावत्वात् , विप्रकृष्टसनिकृष्टेषु रेवादिषु चाक्षुषप्रत्यक्षाजननतजननस्वाभाव्यदर्शनात् , उक्तनानास्वभावत्वे च तद्विषयकचाक्षुषज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमभावाभावावेव कारणम् । तथापि नैयायिकवैशेषिकमतेन समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणेभ्योऽवयविद्रव्यमतिरिक्तमेवोत्पद्यते इति तदभिप्रायतस्समवायिकारणपरमाणुतः कार्यद्रव्यं ध्यणुकादि द्रव्यान्तरं तेन निस्सृतं सम्बद्धं कारणं परमाण्वादि, केन सम्बन्धेन सम्बद्धमिति चेत्, संयुक्ततया परिणतस्य परमाणुद्वयादेः संयोगात्मकपर्यायस्यैकत्वेन तदभिन्नत्वादभेदः परमाणुत्वद्वयणुकत्वादिना च मेद इति कथश्चिभेदविशिष्टाभेद एवं कथश्विझेदाभेद इति तदात्मकस्वरूपसम्बन्धेन, न तु सम्बन्धान्तरेण, समवायस्य निरस्तत्वात् एकान्तव्यतिरिक्तसंयोगादिसम्बन्धस्य चापटमानत्वात् , इत्थं यत्प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्य वचनम् , तथाहि-यदाऽणवो विभागबहुत्वसङ्ख्याऽणुपरिमाणादिपर्यायान् परित्यज्य संयोगैकत्वसङ्ख्यामहत्वादिपर्यायान् गृहन्ति तदा स्थूलकायेस्वरूपमासादयन्तीत्यणूनामेव संयोगैकत्वसङ्ख्यामहत्त्वादिपर्यायरुत्पत्तिः, विभागबहुत्वसङ्ख्याऽणुपरिमाणादिपर्यायव्यणुकादिपूर्वसूक्ष्मस्वरूपतया वा विनाशा, स्थूलकार्यनिष्पत्तावपि परमाणवो न मूलभूतद्रव्यस्वरूपं परमाण्वात्मकं परित्यजन्तीति तद्रूपेण ते नित्याः, परमाणुरूपतयाऽपि विनाशोत्पत्यभ्युपगमे तु पूर्वोत्तरावस्थयोनिराधारविगमप्रादुर्भावप्रसक्तिः, न च तदवस्थयोरेवाधारत्वम् तयोस्तदानीमसत्वात् । न च समवेतकार्य समवायिकारणे उत्पद्यत इति तदेव तदाधार इति वाच्यम्, तद्घटकसमवा. यस्य पूर्वमेव निरस्तत्वेन तदसिद्धेः, नन्वेवं तर्हि घटकार्योत्पत्तिः कथमिति चेत्, मृदुपादानात् , तथाहि-पूर्वमृत्पिण्डपर्यायं परिहायोत्तरघटपर्यायमुपादत्ते मृद्रव्यम् । उक्तश्च श्रीमहाचीरस्तवे " सामान्यमेव तव देव ! तर्खताख्य, द्रव्यं वदन्त्यनुगतं क्रमिकक्षणौघे" इति । एतेन कार्यैकार्थप्रत्यासत्या कपालद्वयसंयोगस्यासमवायिकारणत्वमित्यपि निरस्तम् , संयो. गस्य पर्यायरूपत्वेनातिरिक्तसंयोगगुणस्यैवाभावात् । तदुक्तमुत्तराध्ययनसूत्रे
" एगत्तं च पुहुत्तं संखा संहाणमेव च । संजोगो य विभागो य पञवाणं तु लक्खणं ॥" इति ।
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सम्मति• कार , गा. तदेवं कपालद्वयसंयुक्तावस्थैव घटोत्पत्तिरिति मन्तव्यम् । घटनाशस्तु मुद्गरादिना घटस्य विभक्तावयवात्मकतयोत्पन्नकपालकदम्बात्मकः, धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीय. सीति न्यायादुत्तरपर्यायेम्वेव नाशत्वधर्मकल्पनाया लघीयस्त्वात् , अतिरिक्तनाशस्याननुभूयमानत्वाच । तथा च व्यवस्थितमेतत् मृद्दव्यमेव कपालद्वयसंयुक्तावस्थारूपेणोत्पन्नं मृत्पिण्डपर्यायरूपतया विनष्टं मृद्रव्यरूपतया ध्रुवमिति त्रिलक्षणशालित्वेन सद्रूपम् , यदमिहितं स्याद्वादरत्नाकरे- " तेनोत्पादव्ययध्रौव्य-युक्तं सदिति मारती । ददाति विद्वल्लोकाय, नूनं जगति भारती ॥१॥" इति । अत एव कारणं कार्यतः कथञ्चिद्रिनाभित्रमिति कथविद् मेदाभेदात्मकस्वरूपसम्बन्धेन कार्यद्रव्येण सह सम्बद्धमिति तथाभूतवस्तुप्रतिपादकमेवाप्तवचनम् , एकान्ततत्वप्रतिपादकं त्वनातवचनमिति । अथवा एकद्रव्यादन्यद्रव्यं द्रव्यान्तरं तस्मिन् निस्सृतं सम्बद्धं यत्प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्य वचनम् , यथा दीर्घतरं मध्यमा. लिद्रव्यमपेक्ष्य इस्वतरमङ्गुष्ठकद्रव्यमिति वचः, इस्त्रत्व-दीर्घत्वादिकस्तु स्वधर्म एव द्रव्यान्तरविशेषाभिव्यङ्गयः पितेव पुत्रादिना । अयम्भाव:-अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि महत्त्वं इस्वत्वं गुरुत्वं लघुत्वमित्यादयो द्रव्यान्तरविशेषाभिव्यङ्ग्या ये धर्मास्ते तदंशा एवेति तत्र तेषामविरोधप्रतिपत्तये यानि निमित्तानि तानि तत्तत्रयप्रयोज्यानीति इदं वस्त्वेतदपेक्षया महद् इस्वं वेति बोधे तत्तनिमित्तोपनायकतया तत्तनिमित्तोपगमनपरा नया अपेक्षिता भवन्ति, तत्र महत्वहस्त्रत्वादीनामेकत्र सञ्चाविरोधाय यान्यपेक्षणीयानि तत्तन्नयप्रयोज्याव. ध्यादिरूपतत्तनिमित्तानि तदपेक्षं यद्वचस्तदपि प्रतीत्यवचनमापेक्षिकवचनम् , यथेदं वस्त्वे. तदपेक्षया महत्, एतदपेक्षया च इस्वं एतदपेक्षया गुरु एतदपेक्षया च लधिति वचः ॥३॥
ननु वर्तमानपर्यायश्चेद्वर्तमानकालावच्छेदेनेवातीतानागतकालावच्छेदेनापि संस्तदाऽ. वच्छेदकतासम्बन्धेन वर्तमानपर्यायाश्रयत्वाद्वर्तमानकालबदतीतानागतकालयोरपि वर्तमानकालतापत्या तेषामैक्यं स्यात्, अन्यथोक्तसम्बन्धेन वर्तमानपर्यायाश्रयत्वमेव तयोने स्यादिति वर्तमानपर्यायस्य त्रिकालावच्छिन्नसत्त्वमेवानुपपनं स्यादिति तथाभूतार्थप्रतिपादकं बचनमप्रतीत्यवचनमेवेत्याशङ्कथाह
दव्वं जहा परिणयं, तहेव अस्थित्ति तम्मि समयम्मि ।
विगयभविस्सेहि उ पज्जएहिं भयणा विभयणा वा ॥ ४ ॥ 'दई जहा परिणयं' द्रव्यं धर्मास्तिकायाख्यं तत्तजीवागमनभाषोन्मेषमनोयोगवचनयोगकाययोगादितत्तत्पुद्गलागमनगमनादिचलभावोपष्टम्भकरूपतया परसंयोगजपर्यायैश्च, अधर्मास्तिकायाख्यं च तत्तजीवस्थितिकायोत्सर्गशयनादितत्तत्पुद्गलस्थित्यादि स्थिरभावोपष्टम्भकतया परसंयोगजपर्यायैश्च, आकाशास्तिकायाख्यं च तत्तजीवतत्तत्पुद्रला. वगाहनक्रियोत्पत्तिनिमित्तभावतया परसंयोगजपर्यायैश्व, पुद्गलास्तिकायाख्यं परमाण्वादिकं षड्गुणहानिवृद्धिभावापन्नतत्तद्वर्णतत्तद्रसतत्तद्गन्धतत्तत्स्पर्शादिभावकार्यतया ध्यणुकन्य
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सम्मति. काण्ड ३, गा. ५
२७३ णुकादियावषटपटादिकार्यतया च, जीवास्तिकायाख्यञ्च मनुष्यनरकादितत्तद्गत्यादिपर्यायतया तत्तदर्थवाहिज्ञानदर्शनादिपर्यायतया च विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमाऽध्यवसायादिपर्यायतया च, कालाख्या तत्तत्पुद्गलनवपुराणादिमावहेतुतया हेमन्तातुवि. भागेन च समयविभागेन च परिणतं यत्तत् “ तहेव अस्थित्ति तम्मि समयम्मि" तयैव तस्मिन् समये वर्तमानकालेऽस्तीति । उक्तश्च भगवत्यां त्रयोदशशतके चतुर्थोदेशके "धम्मस्थिकाए गं भंते ! जीवाणं किं परत्तति ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए णं जीवाणं आगमणगमणभासोम्मेसमणजोगा वयजोगा कायजोगा जेयावण्णे तहप्पगारा चला भावा सवे ते धम्मत्थिकाए पवतंति गतिलक्षणे णं धम्मत्यिकाए । अहम्मस्थिकाए णं जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! अहम्मत्यिकाए णं जीवाणं द्वाणनिसीयणतुयट्टणमणस्स य एगत्तिभावकरणया जेयावण्णे तहप्पगारा थिरा मावा सवे ते अहम्मत्थिकाए पत्तंति" इत्यादि । “विगय-मविस्सेहि उ पञ्जएहिं भयणा " विगतभविष्यद्भिस्तु पर्याय जना-कथञ्चित्तस्तस्यैकत्वम् , ' विभयणा वा' विगतमजना विभजना कथनिकत्वम् 'वा' शब्दस्य कथञ्चिदर्थत्वात् । यतो यदेव द्रव्यमतीतपर्यायतया परिणतं तदेव वर्तमानपर्यायतया परिणमति भविष्यत्पर्यायतया परिणस्यतीति वदमिमाभित्रस्य तद. भिमत्वमिति नियममनुसृत्य वर्तमानपर्यायाऽभिन्नावयिद्रव्याभिन्नातीतानागतपर्यायाणां वर्तमानपर्यायाऽभिन्नत्वमिति द्रव्यार्थिकनय प्राधान्यविवक्षायामन्वयिद्रव्यद्वारा वर्तमान. पर्यायस्यातीतानागतपर्यायैरेकत्वम्, पर्यायार्थिकन यप्राधान्यविवक्षायामतीतानागतपर्या याणां विनष्टाऽनुत्पमत्वेनासपैस्तैर्वर्तमानपर्यायस्यार्थक्रियाकारित्वेन सद्रूपस्य मित्रत्वम् , ततो वर्तमानपर्यायस्यातीतानागतपर्यायाभ्यां स्वस्थासाधारगधर्मरूपेग मेदवदन्वयिद्रव्य. रूपेणाऽमेदोऽपीत्यन्वयिद्रव्यवत्तदभित्रस्य वर्तमानपर्यायस्यापि तद्रूपेण त्रिकालावच्छिम. सत्त्वं नानुपपत्रमिति कथं तत्प्रतिपादकाचनस्याप्रतीत्यवचनतेति सिद्धम् ॥ ४ ॥
नन्वारमघटादिवेतनावेतनपदार्थस्य कैः पर्यायैरस्तित्वं कैश्च नास्तित्वमिति चेत्, उच्यते, सदृशासदृशपर्यायाभ्यामेकान्तसदसद्विलक्षणस्य जात्यन्तरात्मकस्यैवानुभूयमानत्वेन सदृशपर्यायैरस्तित्वं विसदृशपर्यायैश्च नास्तित्वमित्युपपादनायाह
परपजवेहिं असरि-सगमेहिं णियमेण णिञ्चमवि नथि।
सरिसेहिं पि वंजणओ, अत्थि ण पुणत्थपनाए ॥ ५ ॥ 'परपजदेहि' परपर्यायैः वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूत-भविष्यत्पर्यायाः परपर्यायाः, तैः,कथम्भूतैस्तैरित्याह-'असरिसगमेहि असदृशगमैः, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इत्युक्तेर्विजाती यज्ञानग्राडा, अत्र “विसरिसगमेहि " इत्यपि पाठः, विसदृशगमैः विजातीयज्ञानप्राः
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सम्मति० काण्ड ३, गा०५
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विसदृशपर्यायैरिति यावत् " णियमेण णिश्चमवि नत्थि " नियमेन नित्यमपि नास्ति चेतनद्रव्यमचेतनद्रव्यश्च तैरपि तस्य सवं तदैव स्याद्यदि भूतभविष्यत्पर्यायात्मकपरपर्यायाणां वर्त्तमानकाले सवं स्यात्, तथा सत्यतीतानागतवर्त्तमानावस्थात्रय सङ्कीर्णताप्रसङ्गस्स्यात् “ सरिसेहिं पि बंजणओ अस्थि " सदृशैरपि व्यञ्जनतोऽस्ति येऽपि सदृशपर्यायास्तेऽपि सद्द्रव्यपृथिव्यादिशब्दप्रतिपाद्या व्यञ्जनपर्यायाः कालत्रयानुगताः सामान्यविशेषात्मकास्तेऽत्र ग्राह्याः, तेषां शब्दवाच्यत्वात्, न तु ऋजुमूत्राभिमता अर्थपर्यायाः, तेषामन्योन्यव्यावृत्तवस्तुस्वलक्षणग्राह कर्जु सूत्राभिमतानां स्वलक्षणात्मकत्वेन प्रतिक्षणभित्ररूपाणां शब्दाऽवाच्यत्वात्, अत एव " अभिलाप्यानभिलाप्यं, प्रमाणपर्यङ्कशायि विश्वमिदम् । तस्मादङ्गीकार्य, न त्वेकान्तव्यसनदुःस्थम् ॥ १ ॥ इत्युक्तेर्व स्तु मात्र मभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वधर्मद्वभाजनं, अन्यथा तदुभयधर्मरूपेणाने कान्तात्मकमेव तन्न स्यात् न च शब्दवाच्यत्वाद् यदेवाभिलाप्यत्वधर्मकं तदेव शब्दावाच्यत्वादनभिलाप्यत्वधर्मकमिति कथं सङ्गतम्, घटत्वपटत्वयोरिवैतद्धर्मयोर्विरुद्वत्वेनैकत्र समावेशाऽयोगादिति वाच्यम् हस्वत्वदीर्घत्वयोरिव तयोर्भिन्नापेक्षत्वेन विरोधाभावात् न च भिन्नापेक्षत्वं तयोरसिद्धमिति वाच्यम्, कालान्त रस्थायिस्थूलव्यञ्जनपर्यायैरभिलापयोग्य पर्यायापराऽभिधानैश्चेतनाचेतन वस्तुन्यमिलाप्यत्वस्य प्रतिक्षणविभिन्नसूक्ष्मार्थ पर्यायैरनभिलाप योग्य पर्यायाऽवराभिधानैश्वानभिलाप्यत्वस्य भावादित्युक्तलक्षणैस्सदृशव्यञ्जनपर्यायैस्त्रि कालानुगतैस्सर्वमस्ति तत्तद्रव्यं कालत्रये वर्त्तते, न त्वर्थपर्यायैरित्याह- 'ण पुणत्थपजाए' न पुननैवार्थ पर्यायैस्तदस्ति । अयम्भावःसामान्यविशेषात्मकमेव वस्तु गुणप्रधानभावेन शब्दवाच्यम्, न तु सामान्यमात्रम्, यतोऽग्निगोवाहादिशब्दप्रतिपाद्य सामान्य मात्रस्याग्निस्वगोत्वावत्वादिरूपस्य दहनदोहनाssaगगमनाद्यर्थक्रियाजनकत्वाभावेन सामान्यसाध्यायाश्व ज्ञानाद्यर्थक्रियायास्तदानीमेवोत्पत्तेर्दाहाद्यर्थिनां तत्र व्यक्त्यप्रतिभासे तदानयनफला प्रवृत्तिरेवोच्छिद्येत, न च निशश्रयस्य सामान्यस्यासम्भवेन सामान्यप्रतिपादनद्वारा स्वशक्यजात्याश्रयत्वसम्बन्धरूपलक्षणया • नुमानतो वाऽर्थक्रियाजनकस्य विशेषस्य प्रतिभासाभ्युपगमान्नाऽप्रवृत्तिः, लक्षणाबीजं तु गामानयेत्यादावानयन कर्मत्वादौ प्रकारताचादिमते, संसर्गतावादिमते खानयनादौ कर्मत्वादिसम्बन्धेन जातेरन्वयाऽनुपपत्तिरेवेति वाच्यम्, प्राक्सामान्यस्य प्रतिभासः पश्चाद्व्यक्त्यात्मक विशेषस्येति क्रमप्रतीतेरननुभूयमानत्वात् नन्वेवं तर्हि व्यक्त्यात्मकविशेषा एव शब्दवाच्या सन्त्विति चेत्, तदपि न मनोरमम्, तेषामानन्त्येन सङ्केतासम्भवात् । न च प्रत्येकगवादिव्यक्तिरेकैवेति तत्र शक्तिकल्पनायां यथा सकलगोव्यक्तिभानार्थं तावगोव्यक्तिषु शक्तिकल्पनापक्षे गौरवज्ञानं बाधकं विनिगमकं तथैकव्यक्तिशक्तिपक्षे तन्नेति वाच्यम्, यत एकस्यामेव व्यक्तौ शक्त्यभ्युपगमे व्यक्तयन्तरमानार्थं तत्र लक्षणायां स्वीकृतायां स्वसमवेताश्रयत्वं संसर्गः कल्पनीय इति गौरवज्ञानं बाधकं तदवस्थमेव ।
२७४
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सम्मति. काण्ड ३, गा. ६
२७५ अथानुगतजात्यवच्छिन्नयावद्व्यक्तिम्वनुगतजात्यवानिछन्नैकैव शक्तिः, अनुगतैककारणतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नकारणतावदिति जातिविशिष्टव्यक्तिशक्तिपक्षे गोस्वरूपेण सकलगोव्यक्तिमानमुपपद्यत एवेति चेत्, अस्त्वेवम्, न च तथापि जातिव्यक्योरेकान्ततो भेद एव, तत्र सम्बन्धस्यायोगाद्, विशिष्टयुद्ध्य नुपपत्तेः । न चैकान्तमिन्नयोरपि तयोस्समवायसम्बन्धोऽस्तीति तबलात्सा भविष्यतीति वाच्यम्, प्रागेव तस्य निरासात्, तत्र स्याद्वादस्य सम्बन्धत्वव्यापकत्वेन कथञ्चिद्भेदाभेदसंसर्गस्यैव विशिष्टबुद्धिनियामक त्वेनाभ्युपगन्तव्यतया गोत्वादेः कथञ्चिद्गवादिव्यक्तिस्वरूपस्यापि जातिरूपत्वादेव निर. वच्छिन्न प्रकारतया तव्यक्तिस्वरूपस्य तव्यक्तित्वस्येव भानोपपत्तेः किमतिरिक्त जातिकल्पनया। किश्च धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीतिन्यायेन कल्प्यमानजाती सामा. न्यत्वकल्पनापेक्षया सिद्धगवादिपिण्डेष्वेव गोसामान्यत्वकल्पनायां लाघवमिति तद्रूपेणानुगतस्य गोपदार्थस्य सङ्केतग्रहे तजन्यशाब्दबोधे च प्रकारतया भानोपपत्तेः सामान्यत्वेन रूपेणापूर्वव्यक्तिष्वपि सङ्केतविषयत्वमुपपद्यत एवेति सामान्यविशेषोभयात्मकमेव वस्तु गुणप्रधानभावेन शब्देनाभिधीयत इति शब्दप्रतिपाद्येस्सदृशैर्व्यञ्जनपर्यायैरेव सर्वमस्ति न त्वर्थपर्यायैरित्युपपमम् ॥ ५॥
नन्वेवमपि भावस्य प्रत्युत्पन्नपर्यायेण नियमेनाऽस्तित्व मेवेत्यभ्युपगमेऽप्येकान्तबादापत्तिरित्याशङ्कयाह-यद्वैकान्तवादापत्तिभिया न च वर्तमानपर्यायेणापि भावस्य नियमेन सत्वमेवाभ्युपगन्तव्यम् , किन्तु सच्चासत्त्वोभयमेवेति प्रतिपादयितुमाह
पच्चुप्पण्णम्मि वि प-नयंमि भयणागई पडह दव्वं ।।
जं एगगुणाईया, अणंतकप्पा गमविसेसा ॥ ६ ॥ 'पञ्चुप्पण्णम्मि वि ' प्रत्युत्पन्नेऽपि-वर्तमानेऽपि 'पजयम्मि' पर्याये, " भयणागई पडइ दवं" भजनागर्ति स्वपररूपतया सदसदात्मिकां अधो-मध्यो दिरूपेण च भेदाऽभेदात्मिका विकल्पपद्धति पतति-आसादयति द्रव्यम्, तत्र हेतुमाह-"जं एगगुणाईमा अणंतकप्पा गमविसेसा" इति, अत्र गुणविसेसा इत्यपि पाठो नयोपदेशवृत्ती, एनमेव पाठमनुसृत्य पूज्यैरमयदेवमूरिभिरप्यर्थः कृत इति मयाऽपि तथैवार्थः क्रियते, यद्-यस्माद्धेतोः एकगुणकृष्णत्वादयोऽनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषाः, कल्पशब्दः प्रकारवाची, तेषां च मध्ये केनचिदेव गुणविशेषेण युक्तं तव , तथाहि कृष्ण द्रव्यं तद् कुष्णद्रव्यान्तरेण तुल्यमधिकं न्यूनं वा भवेत् प्रकारान्तराऽभावात् , आद्यपक्षे विभेदकतयाऽभिमतधर्मेणापि तुल्यत्वे विरुद्धधर्माध्यासामावाद्भेदाभावेनैक्यं तयोस्स्यात् , तथा चैतकृष्णद्रव्य एतत्कृष्णद्रव्यापेक्षया कृष्णतरपर्यायं एतत्कृष्णद्रव्यापेक्षया च कृष्णतमपर्यायमिति कृष्णवर्णपर्यायतरतमादिप्रतीविवाधस्स्यात् , एवं नीलपीतादावपि ज्ञेयम्, उत्तरपक्षयोः कृष्णे ततवान्तर
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ७
जातीय कृष्णानां नीलादौ च तत्तदवान्तरजातीय नीलादीनामनेकविधानां स्वकारणोपजातानां सम्भवात्तत्तदपेक्षयोत्कर्षापकर्षप्र योज्य सख्ये या सख्ये यानन्त भागगुण वृद्धि हानिम्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिश्वश्यम्भाविनी, तथा च प्रतिनियतहानिवृद्धियुक्त प्रत्युत्पन्नकृष्णादिपर्यायेण सवं नान्येनेत्यत्रापि भजनागर्ति पतति द्रव्यमिति सिद्धम् ॥ स्यादेतत् पुद्गलद्रव्यं पुद्गलद्रव्यान्तरेण सह सच्चद्रव्यत्वादिना सजातीयबुद्धिग्राह्यत्वेनाऽभिन्नम्, स्वस्वासाधारणधर्मेण विजातीयबुद्धिग्राह्यत्वेन च मिन्नम्, घटपटादिवदिति तत्रानेकान्तास्मकता युक्ता, प्रत्युत्पन्ने चात्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपता युक्तेति चेत्, उच्यते, आत्मपर्यायस्यापि ज्ञानादेस्स्वग्राह्मार्थग्राहकत्वपरिणतिस्तत्र वर्तते, न तु तद्विपरीतेति ताभ्यां तत्र सवासवो मय सद्भावादऽनेकान्तरूपता पुद्गलवदविरुद्धा, अत एव ज्ञानत्वेनामिश्रमपि ज्ञेयपरिणतिमेदेन प्रतिक्षणं ज्ञानं भिन्नमेवोत्पद्यत इत्य मेदापेक्षया धौव्यम्, मेदा पेक्षयोत्पादव्ययाविति मत्रस्थसिद्धस्थ केवलज्ञानपर्यायेऽपि त्रैलक्षण्यं व्यवतिष्ठते, किकस्याध्यात्मनो द्रव्यात्म- कषायात्म - योगात्म - उपयोगात्म-ज्ञानात्म-दर्शनात्म- चारित्रा- वीर्यात्मभेदतोऽनेकविधत्वप्रतिपादनेन पुद्गलवदने कान्तात्मकता सिद्धान्तसिद्वैव यदुक्तं पञ्चमाङ्गे द्वादशशतके दशमोदेश के " कहविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता ! गोयमा ! अट्ठविहा आया पण्णचा, तं जहा -दवियाया- कसायाया- जोगाया-उबओगाया - णाणाया- दंसगाया - चरिचाया - वीरियाया" इत्यादिसूत्रे, एतद्विस्तृतार्थस्तीकात एवावसेयः । तथा चाह वाचकमुख्यः प्रशमरतौ ।
रम
द्रव्यं कषाययोगादुपयोगो ज्ञानदर्शने चैव । चारित्रं वीर्य चेत्यष्टविधा मार्गणा तस्य ॥ १९९ ॥ जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् || २०० || ज्ञानं सम्यग्दृष्टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानां । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥ २०१ ॥ द्रव्यात्मेत्युपचारः सर्वद्रव्येषु नयविशेषेण । आत्मादेशादात्मा भवत्यनात्मा परादेशात् ॥ २०२ ॥ एवं संयोगात्पबहुत्वायैनैकशः स परिमृग्यः । जीवस्यैतत्सर्वं स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दृष्टम् ॥ २०३ ॥ इति ॥ ६ ॥
प्रकारान्तरेणात्मनोऽनेकान्तरूपतामुपपादयितुमाह
कोवं उपायन्तो, पुरिसो जीवस्स कारओ होइ । ततो विभयन्बो (वि य भइअव्यो) परंभि सयमेव भहयब्वो ॥ ७ ॥
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सम्मति० काड ३, गा० .
२७७ 'कोवं' कोपपरिणामं ' उपायन्तो' स्वस्मिन् स्वयमुत्पादयन् उपनयन् वा 'पुरिसो' पुरुषः 'जीवस्स कारओ होइ' जीवस्य परभवप्रादुर्भावपरिणतिविशिष्टस्य कारको निर्वर्त्तको भवति, कोपपरिणतेः कर्मवन्धहेतुत्वेन तप्रिमिसकर्मण उपादानात् , तेन कथञ्चिद्भेदाभेदो. भयं व्यवस्थापयितुमुत्तरार्द्धमाह-'तत्तो विभएयद्यो' कोपपरिणतिपरिणतश्च पुरुषः ततः परभवोत्पद्यमानजीवाद् विभजनीयः, 'तत्तो वि य भइयो' इत्यप्यत्र पाठः, ततोऽपि च भजनीयः, कथश्चिद्भिन्नो व्यवस्थापनीयः, पूर्वस्य कारणत्वेनोत्तरस्य च कार्यत्वेन कार्यकारणरूपयोस्तयोर्मुत्पिण्डघटवत्कथनिद्भेदात् । एकान्ताऽभेदे कार्यकारणभाव एव न स्यात, मेदे सत्येव तद्भावात् । अथ वीतरागस्य जन्म न भवति किन्तु सरागस्यैव, संवदति चात्र "वीतरागजन्मादर्शनात् । ३।१।२५ इतिन्यायसूत्रम् , जातमात्रस्य रागश्च पूर्वानुभवं विना नेति । स्तन्यपानमिष्टसाधनमित्यादिस्मरणतः पूर्वभवीयानुभवतद्भवीयतत्स्मरणकर्तुर्जीवस्यैकतयैव सिद्धेः कथं भवभेदेन तद्भेद इति चेत् , मैवम् , भवरूपविशेषणमेदेन कथश्चित्तविशिष्ट मेदस्याप्यनुभवसिदत्वात् । अथ विशेषणमेदादेव विशिष्टयोआंदो न तु मुख्यवृश्येति चेत् , न, विशेषणविशेष्यभावस्य हि कथञ्चिद्भेदाभेदवाद एव घटमानत्वेन विशेषणभेदे तदभिमतद्वतोरपि कथाश्चिद् मेदो मुख्यवृत्त्यैवाश्रयितव्यः, न हि निमित्तभेदाश्रयणे मुख्यऐत्तिहीयते, येन विशेषण मेदाद्विशिष्ट भेदाभ्युपगमे सा न स्यात् , अन्यथा घटपटादीनामपि मुख्यतया मेदो न स्यात् , सत्चद्रव्यत्वादिनाऽभेदभाजां तेषामपि स्वस्वासाधारणधर्मरूपनिमित्तभेदेनैव भेदात् , तस्माद्भवभेदेनापि मुख्यवत्यैव तद्विशिष्टभेदोऽभ्युपगन्तव्यः । किश्च कारणं कार्याकारेण पूर्वस्वरूपं परिहायैव परिणमति, अन्यथा कार्यकारणावस्थाद्वयसङ्कीर्णताप्रसङ्गस्यादिति कारणीभूतकोपपरिणत्यात्मकपूर्वस्वभावो निरुद्धः, कार्यात्मकोत्तरभवोत्प. त्तिपरिणतिलक्षणस्वभावान्तरश्चोत्पममित्येकस्यापि जीवस्य स्वभावभेदेन कथाश्चिद्मदोऽभ्युपगन्तव्यः । नन्वेवं तर्हि परमवजीवात् कोपपरिणतिमापद्यमानः पुरुषो मिन्न एवास्त्वित्या. शङ्कानिरासार्थेमाह-'परंमि सयमेव भइयहो' परस्मिन् , भव इति शेषः, स्वयमेव पुरुषो भजनीयः पूर्वोत्तरभवानुयाय्यात्मद्रव्यस्वरूपेणाऽभिन्नतया व्यवस्थापनीयः, य एवाहं बालत्वेनासं स एवाहं युवत्वेन वृद्धत्वेन चोपजात इति प्रत्यभिज्ञानवद् य एवाहं देवमवादिपूर्वभवे आसं स एवाहमेत सञ्जात इत्यास्तिकानामभेदप्रत्यभिज्ञानात् । यद्वा जातिस्मृत्यादिमता कोपपरिणतिवशेनाहं पूर्वमनुष्यभवं परिहायात्र तिर्यक्षुत्पन्न इत्यभेदप्रत्यभिज्ञानात , तदेवमत्राsप्यनेकान्त एव प्रमाणकोटिमाटीकते, एतच्च निश्चयनयमाश्रित्यावसेयम् , यतो निश्चयनयः कोपपरिणति स्वात्मैवोत्पादयति न त्वन्यात्मेति मनुते । यद्वा कोपपरिणतिमन्यस्मिन् जीवे उत्पादयन् पुरुषः कारको भवति, ततोऽसौ कोपकारकत्वेन विभजनीयः, कोपपरिणतियोग्ये जीवे कारकः, अन्यत्राकास्क इति, एतच्च व्यवहारनयापेक्ष्यम् , यतस्स व्यवहारप्रधान इति कोपादिपरिणतिः परनिमित्तिकेति मनुते इति ॥ ७ ॥
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ८-९
अथ द्रव्यगुणयोः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नतयैव प्रतीतेस्तावने कान्तालिङ्गितावेवेति यजिनानुगैरुररीकृतं तदसहमानानां मतमुत्थापयति-
२७८
रूवरसगन्धफासा, असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा । तम्हा दव्वाणुगया, गुणत्ति ते केइ इच्छंति ॥ ८ ॥
46
4
' रूपरसगन्धस्पर्शाः
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रूवरसगन्धफासा >> असमाणग्गहण लक्खणा जम्हा यस्मादसमानग्रहणलक्षणाः । यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामीत्यनुसन्धानाद् दार्शनं स्पार्शनश्च घटादिद्रव्यमित्यादिव्यवहाराच द्वीन्द्रियग्राह्यत्वं घटपटादिद्रव्यस्य रूपरसादेवक्षुरादिप्रतिनियतेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षगोचरत्वमित्येवं द्रव्याद्गुणा असमानग्रहणाः, तथा संयोगजनकतावच्छेदकजातिमत्रं विभागजनकतावच्छेदकजातिमचं जन्यसञ्जनकतावच्छेदकजातिमत्त्वं वा द्रव्यस्य लक्षणम्, द्रव्यत्वव्यापकतावच्छेदकसत्ताभिन्नजातिमध्वम्, सामान्यवच्चे सति कर्मान्यत्वे च सति निर्गुणत्वं वा गुणस्य लक्षणमित्येवं द्रव्याद्गुणा अपमानलक्षणाः, संवदति क्रियागुणवत्समवायिकारणम् ” । १-१- १५ इति द्रव्यलक्षणम् । द्रव्याश्रय्य - गुणवान् संयोगविभागेष्व कारणमनपेक्षः ।। १-१- १६ इति च गुणलक्षणम् । द्रव्यगुणभिनलक्षणप्रतिपादनपरं वैशेषिकसूत्रद्वयमपि । तथा च गुणा द्रव्याद्भिन्ना भिन्नप्रमाणग्राह्यस्वाभिलक्षणत्वाच्च, यो यस्माद् भिन्नप्रमाणग्राह्यो भिन्नलक्षणांश्च स तस्माद्भिन्नः, यथाजीवद्रव्यादजीवद्रव्यं घटादात्मा वेत्यनुमानेन गुणानां द्रव्याद्भिन्नत्वे सिद्धे यत्स्यात्तदाह4 तम्हा दवाणुगया गुणत्ति' तस्माद्द्रव्यानुगता गुणा इति द्रव्यमनुगता द्रव्यानुगता द्रव्याश्रिता गुणा इत्यर्थः, ' ते केt इच्छन्ति ' ते केचन वैशेषिकाद्यास्स्वयूथ्या वा सिद्धान्ततत्रमजानाना इच्छन्ति-अभ्युपगच्छन्ति ॥ ८ ॥
चात्र
तन्मतनिशचिकिर्षयाऽऽह—
"
दूरे ता अण्णत्तं, गुणसद्दे चैव ताव पारिच्छं । किं पज्जवाहिए होज, पज्जवे चेव गुणसण्णा ॥ ९ ॥
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दूरे ता अण्णत्तं ' दूरे तावद् अन्यत्वं, गुणगुणिनोरेकान्तेन भिन्नत्वम्, असम्भावनीयमिति यावत्, 'गुणसद्दे चैव ताव पारिच्छं " गुणशब्द एव तावत्पारीक्ष्यम्, कथं पारीक्ष्यमित्याशङ्कायां तत्स्वरूपमाह - " किं पञ्जवाहिए होज पजवे चैत्र गुणसण्णा " किं पर्यायाधि के पर्यायाद्भिने गुणसंज्ञा गुणशब्दो भवेत्, किं वा पर्याय एव, अत्र 'पञ्जवे वा विगुणसण्णा' इत्यपि पाठः । वा विकल्पे, उत पर्यायेऽपि गुणसंज्ञा गुणशब्दः प्रवर्त्तते, अर्थात् पर्यायाद्भिने गुणात्मकेऽर्थे गुणशब्दः प्रवर्तते, किंवा पर्याय एव । गुणशब्दवाच्यः पर्यायाद्भिन्नो गुणात्मकोऽर्थः किं वा पर्याय एवेति विवेचनार्हमिति भावः । ननु पूर्वो केन भिन्नप्रमाणग्राह्मत्वभिन्नलक्षणत्वहेतुद्वयेन गुणा द्रव्याद्भिन्ना इति सिद्धे गुणशब्दः गुणात्मक
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सम्मति० काण्ड ३, गा.
२७९ एवार्थे प्रयोगाईः, न तु पर्यायात्मकेऽर्थे इति तत्र किं पारीक्ष्यमिति चेत् , तम विद्वन्मनो रञ्जकम्, उक्तहेतुद्वयस्य कथचिद्भिनत्वेनैव सह व्याप्यत्वेन तेन कश्चिद्भेदसाधने सिद्धसाधनात् । एकान्तभेदे साध्ये तस्य कचिदप्यप्रसिद्ध्या व्याप्यत्वाऽसिद्धेः । न च रूपवान घटः, ज्ञानवान् आत्मेत्यादिप्रतीत्या भेदे मतुष्प्रयोगाद् गुणगुणिनोरेकान्त मेदसिद्धेनॊक्तदोष इति वाच्यम् , नित्ययोगेऽत्र मतुबिधानात् , द्रव्यगुणयोस्तादात्म्यात् सदाऽविनिर्भागवर्तित्वात् , अन्यथा प्रमाणाधोपपत्तेः । संज्ञा-सङ्ख्या-स्वलक्षणार्थक्रियामेदाद्वा कथञ्चित्तयोरमेदेऽपि भेदसिद्धेर्न मतुबनुपपत्तिः । किञ्च नित्ययोगविहितमतुष्प्रत्ययार्थस्य नित्यसम्बन्धस्य संसर्गविधया कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकस्यैव भानम् , एकान्तभेदे सम्बन्धाऽयोगात् , अन्यथा हिमवद्विन्ध्याचलयोरपि संयोगसम्बन्धस्स्यात् । अथ व्यवधानाभावस्य संयोगकारणस्याभावान तदुभयसंयोग इति चेत, तर्हि ययोस्संयोगस्तयोस्संयुक्ततया परिणतिभावेन तद्रूपेण तयोः कथञ्चिदभेदेनैवोपपत्तेनैकान्तभेदः प्रमाणविषयतामास्कन्दति, नन्वेकान्तभिभयोरपि गुणगुणिनोस्समवायसम्बन्ध इति रूपवान् घट इत्यादिप्रतीतिस्समवायेनैवोपपत्स्यत इति चेत्, मैवम्, समवायस्य निरस्तत्वात् , सम्बन्धान्तरस्य चाऽभावात् , किञ्च गुणो धर्मितया पर्यायात्मकोऽभिप्रेतः, किंवा तदनात्मकः, नाद्यः, यतः पर्यायस्य कथञ्चिद्रव्यानतिरिक्तत्वेन तदात्मकगुणस्यापि द्रव्याऽव्यतिरिक्तवाद्वाधा, नान्त्यः आश्रयासिद्धेः, एतेन द्रव्यं गुणादिभ्यो भिन्नं गुणववादित्यनुमानं निरस्तम् , रूपादेरपि सङ्ख्यात्मकगुणवत्तया प्रतीयमानत्वेन तत्र व्यभिचारात् । एक रूपमत्र द्वे रूपे पहूनि रूपाणि इत्यादिप्रतीतिर्धान्त्यात्मिकेति चेत्, तहिं पृथिव्यादौ कथमभ्रान्तिरूपा सेति वक्तव्यम् । तत्र बाधकामावादिति चेत् , तुल्यमन्यत्रापि ! गुणस्य गुणवचायां द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्षः १-१-१६ इति गुणलक्षणमेव वैशेषिकसूत्रोक्तं बाधकमिति चेत् , न, अगुणवानिति लक्षणांशस्याद्याप्यसिद्धेः, संख्यावतया प्रतीतेर्विद्यमानत्वात् । असौ भ्रान्तिरिति चेत्, तर्हि परस्पराश्रयः, तथाहि-तस्या भ्रान्तित्वे लक्षणांशस्य सिद्धेविशिष्टलक्षणसिद्धिः, तत्सिद्धौ च बाधकबलात् सङ्ख्याप्रतीतेान्तित्वसिद्धिरिति । न च लिङ्गान्तराद्र्पादिष्वगुणवचसिद्धेस्तस्या भ्रान्तित्वमिति नान्योन्याश्रय इति वाच्यम्, तत्रोपन्यस्यमानदृष्टान्तस्यापि सङ्ख्यावत्तया प्रतीयमानत्वेनागुणवचासिद्धेः। सङ्ख्यायामनवस्थितिप्रसङ्गेन निस्सङ्खथत्वव्यवस्थितावगुणवचसिद्धेस्सैव दृष्टान्त इति चेत् , न, तत्रापि पृथक्वादिप्रतीतेस्तसिद्धरयोगात् । पृथक्त्वस्यापि च सङ्ख्यावत्वेन प्रतीतेन तदपि दृष्टान्तीकत्तुं योग्यमिति । न च द्रव्य एव सङ्कथास्वीकारे सङ्खथैकार्थसमवायसम्बन्धेन रूपादावपि सङ्ख्याप्रत्ययव्यवहारोपपत्तौ कल्पनालाघवाद् गुणे सङ्ख्याधस्वीकार इति वाच्यम् , घटे रूपरसगन्धस्पर्शा इति बहुत्वप्रतीतेरनुदयप्रसङ्गात् , आश्रयस्यैकत्वात् । व्यासज्यवृत्ति. संयोगादावेकत्वप्रत्ययानुदयप्रसङ्गाच, आश्रयस्यानेकत्वात् । किश्च गुण एव साक्षात्सम्बन्धेन
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૨૮૦
सम्मति ०
१० का ३, गा० ९
सङ्ख्यादिप्रत्ययव्यवहारौ, द्रव्ये तु स्वाश्रयसमवायित्वरूपपरम्परासम्बन्धेनैवेत्येवं कुतो न स्यात्, अन्यथा द्रव्य एव साक्षात्सम्बन्धेन सङ्ख्यादिवत् सत्ता वर्त्तते, गुणादौ सद्बुद्धिस्तु परम्परासम्बन्धेनैवेत्येवं कल्पनालाघवात् किमर्थं नाङ्गीक्रियते । किश्व गुणस्य सर्वथा द्रव्याद्वित्वाम्युपगमेऽवयवगुणानामवयविनि स्त्रस जाती योत्कृष्ट गुणारम्भकत्वनियमेनाऽवयवद्वय उत्कृष्टगुरुत्वादवयविन्य प्युत्कृष्टतर गुरुत्वोत्पत्तेरवयवस्यापि तदानीं सच्चेन तद्गुरुत्वसFare नमनोनमनादिलिङ्गकानुमानादिना द्विगुणगुरुत्वोपलब्धिप्रसङ्गः, तदानीमवयवानयुपगमे समवायिकारणनाशात् कार्यनाशोपगमेन घटस्यापि नाशप्रसङ्गः । अथावयवोत्कृष्टगुरुत्वापेक्षयाऽवयविन्यपकृष्टगुरुत्वेऽवयविनस्तत्तद्व्यक्तित्वेन कारणत्वमिति विशेषसामग्रीबलादवयविन्यपकृष्ट गुरुत्वमेवेत्यतो नोक्तदोष इति चेत्, मैवम्, अतिगौरवात्, गत्यन्तरे सति विशेषकल्पनाया अनवकाशत्वाच्च । तथा चेदमत्र तत्रं वस्तु द्रव्यपर्यायात्मकम्, तत्र कालत्रयावच्छिन्नं पूर्वोत्तरपर्यायेष्वनुगतबुद्धिग्राह्यं परिणामिकारणलक्षणं द्रव्यम्, व्यावृत्तबुद्धिप्राय पर्यायो द्रव्यविकारात्मक परिणामलक्षणः, स च क्रमभाविसहभाविभेदेन द्विविधः, तत्र क्रमभाविनः पर्याय इति सहभाविनो गुण इति च संज्ञा क्रममाविपर्यायाः पुद्गलादीनां नीलादयः, सहभाविगुणा रूपादयः, यतः पुद्गला नीलादिपूर्वपर्यायं परिहृत्यानीला भवन्तोऽपि न हि कदाप्यरूपिणो भवन्ति, स्वस्वरूपहानिप्रसक्तेः उक्तश्च श्रीमहावीरस्तवे खण्डखाद्यापरनामके 'स्वद्रव्यपर्यायगुणानुगता हि तचेत्यादिश्लोकटीकायां स्वद्रव्यं घटादि, तगुणो रूपादिः, तत्पर्यायो रक्तत्वादिरिति । आत्मनि क्रमभाविपर्यायाश्रोपाधिजन्य - सुखदुःखहर्षविषादघटादिज्ञानादयः, सहभाविगुणास्तूपयोगादयः, अत एव तच्चार्थश्लोकवार्तिके पञ्चमाध्यायद्विचत्वारिंशत्तमसूत्रटीकायां - ' पर्याय एव च द्वेधा, सहक्रमविवर्त्तित: ' इत्युक्तम् " विशेषोऽपि द्विरूपः गुणः पर्यायश्च ॥। ५-६ ।। गुणः सहभावी धर्म:, यथाss. त्मनि विज्ञानव्यक्ति - शक्त्यादिरिति ॥ ५-७ ॥ पर्यायस्तु क्रमभावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति ॥ ५-८ ||" इति प्रमाणनयतच्चालो कालङ्कारपञ्चमाध्याय सूत्रत्रयमप्युक्तमेवार्थं संवदति, यतो विशेषो भेदः पर्याय इत्येतेषां पर्यायशब्दत्वेनात्र विशेषपदस्य पर्यायत्वावच्छिन्नपर्यायसामान्यार्थकत्वात्तद्भेदोक्त्या पर्यायत्वावच्छिन्नपर्यायसामान्यस्यैव भेदद्वयोक्तिः प्रतिपादिता | गुणपर्याययोश्च पर्यायत्वेन रूपेणैक्येऽपि सहभाविनो गुणाः, क्रमभाविनश्व पर्याया इति लक्षणभेदेन कथञ्चिद्भेदमभिप्रेत्यैव " गुणपर्यायवद्रव्यम् " ५-३७ । इति पञ्चमाध्याय सप्तत्रिंशत्तमसूत्रं भगवतोमास्वातिना प्राणायि, तत्र गुणपदसाहचर्यात्पर्यायपदेन क्रममा विलक्षणपर्यायविशेष एव गृहीतः, न तु पर्यायत्वावच्छिन्नपर्यायसामान्यमिति सिद्धमेतत् वस्तुतो गुणाः पर्यायभेदरूपत्वात्तदन्तर्गता एव, न तु तद्व्यतिरिक्ता इति ॥ ९ ॥
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तथा च द्रव्यार्थिकनयगोचरद्रव्यत्वेन पर्यायार्थिकनय विषयपर्यायत्वेन द्रव्यं पर्यायाश्रेति विभागो युक्तः, न तु द्रव्यं गुणाः पर्यायाश्चेति द्रव्यत्वेन गुणत्वेन पर्यायत्वेनेति
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सम्मति० का ३, गा० १०-१२
२८१
प्रकारत्रयेण, यदि च गुणोऽपि पर्यायातिरिक्तस्स्यात्तदा तद्राहकतृतीयगुणास्तिकन योऽपि त्रिलोकाधिपतिप्रणा प्रवचनीयस्स्यादित्याह-
दो उण णया भगवया, दव्वट्ठियपज्जवट्टिया विद्यया । - एत्तो य गुणविसेसे, गुणद्वियणओ वि जुज्जंतो ॥ १० ॥
'
दो उण गया भगवया ' द्वौ पुनः नयौ द्वावेव मूलनयौ भगवता ' दवट्ठिय-पवडिया नियया' द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नियमितौ 'एत्तो य गुणविसेसे ' एतस्माच्च पर्यायादधिके गुणविशेषे ग्राह्मे सति तद्राहकः 'गुणद्वियणओ वि जुअंतो ' गुणार्थिकनयोऽपि युज्यमानः, नियमयितुं स्यादिति शेषः । अन्यथा नयानामव्यापकत्वं स्यात्, केवलिभगवतो वा तदपरिज्ञानं प्रसज्येत ॥ १० ॥
न च भगवता गुणार्थिकनयोऽपि नियमितः, किन्तु पर्यायार्थिकनय एवेत्याहजं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं ! पावसण्णा णिया, वागरिया तेण पजाया ॥ ११ ॥
जं च पुण अहिया तेसु तेसु सुत्तेसु' यच्च पुनरर्हता तेषु तेषु सूत्रेषु ' वष्णपजवे हिं गंधपखवेहिं' (भग० सू० शत० १४; उ० ४) इत्यादिना 'पजवण्णा नियया' पर्यायसंज्ञा नियमिता, वर्णादिष्विति शेषः 'गोयमाईणं वागरिया' गौतमादिभ्यो व्याकृता व्याख्याता 'तेण पजाया' तेन पर्यायाः, ततः पर्याया एव वर्णादयो न गुणा इत्यभिप्रायः ॥ ११ ॥ अथ तत्र गुण एव पर्यायशब्देनोक्तः किं न स्यादित्याशङ्कायामाह -
परिगमणं पज्जाओ, अणेगकरणं गुणत्ति तुल्लत्था ।
तह वि ण गुणत्ति भण्णइ, पज्जवणयदेखणा जम्हा ॥ १२ ॥
+
"
• परिगमणं पञ्जाओ' परि - समन्तात्सहभाविभिः क्रमभाविभिश्च भेदैर्वस्तुनः परिणतस्य गमनं 'ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था' इति वचनात् परिच्छेदो यः स पर्याय: । नन्वेवं सति शास्त्रान्तरे पर्येत्युत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्याय इति व्युत्पच्योत्पादविनाशशाली वस्त्वंश एव पर्याय: प्रतिपादित इति कथमनेन सह न विरोध इति चेत्, मैवम् अत्र विषयविषयिणोरभेदविवक्षणेन तथोक्तत्वात् । " अणेगकरणं गुणत्ति अनेककरणं गुण इति अनेकरूपतया वस्तुनः करणं 'करोतेर्ज्ञानार्थत्वात् ' परौ भुवोऽत्रज्ञाने' इति ज्ञापकात् ' धातूनामनेकार्थत्वात् ज्ञानं, पूर्ववद्विषयविषयिणोरभेदादेव गुणः, पर्यायस्य परिगमणमिति गुणस्यानेककरणमिति च व्युत्पत्तिनिमित्तमपेक्ष्य ' तुलत्था ' तुल्यार्थी गुणपर्यायशब्दौ 'वह विण गुणचि मण्णइ ' तथापि न गुणा इति भण्यन्ते, पर्याया गुणशब्दवाच्यत्वाद्रूपादिवगुणा एवेति नाभिधीयन्ते पर्यायविशेषवाचकस्य गुणशब्दस्य पर्यायविशेषोक्तावेव
4
३६
"
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૨૮૨
सम्मति• काड ३, गा० १३-४ प्रवत्तिभावात् पर्यायसामान्योक्तावपाते, न च गुणशब्दस्य पर्यायसामान्य एव शक्तिः कल्पनीया, तत्र हेतुमाह-पअवणयदेसणा जम्हा' यस्मात् पर्यायनयदेशना, पर्यायार्थिकनयद्वारेणैव भगवता देशना कृता, न तु गुणार्थिकनयद्वारा, अतो व्युत्पत्तिनिमित्ततौल्येऽपि गुणपर्यायशब्दयोस्सामान्यविशेषभावापनप्रवृत्तिनिमित्तभेदान पर्यायशब्दत्वमिति । अयम्भाव:-गवि गवये च व्युत्पत्तिनिमित्तस्य गमनाश्रयत्वस्येव गुणे पर्याये च व्युत्पत्तिनिमित्तस्य ज्ञानत्वस्य समानतया विद्यमानत्वेऽपि गुणशब्दस्य पर्यायविशेषत्वावच्छिन्नार्थ. कत्वेन तस्य पर्यायविशेषत्वप्रवृत्तिनिमित्तकत्वम्, पर्यायशब्दस्य च पर्यायत्वावच्छिन्नार्थकत्वेन तस्य पर्यायसामान्यत्वप्रवृत्तिनिमित्तकत्वमित्येवं तयोः गोगवयशब्दयोरिव प्रवृत्ति निमित्तभेदान्न पर्यायशब्दत्वमिति ॥ १२ ॥ . ननु पर्यायाणां प्रतिक्षणपरावर्तनस्वभावत्वात् पर्यायशब्दः क्रमभाविधर्मवाचक एव, गुणानां यावद्र्व्यावस्थायित्वाद् गुणशब्दश्च सहभाविधर्मवाचक एव, तथा च गुणाः पर्यायेभ्योऽतिरिच्यन्ते, पर्यायातिरिक्तगुणाभिधानान्यथाऽनुपपच्या च गुणार्थिकनयोऽपि भगवताऽर्थादुपदिष्ट एवेत्याशङ्का प्रतिपादयति
जंपंति अस्थि समए, एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो ।
रूवाइयपरिणामो, भण्णह तम्हा गुणविसेसो ।। १३ ॥
पंति' जल्पन्ति, प्रतिपादयन्ति द्रव्यगुणान्यत्ववादिन इति शेष:, कि जल्पन्तीति कर्माकाङ्क्षायामाह-' अस्थि समए, एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो' इति । अस्ति विद्यत एव, समये सिद्धान्ते, 'एगगुणकालए दुगुणकालए' इत्यादिवचनात् एकगुणकालः दशगुणकालः सङ्ख्यगुणकालः असङ्खथगुणकालः अनन्तगुणकाल इत्यादि व्यपदेशोरूपादौ, ततः किमित्यत आह-'रूवाइयपरिणामो, भण्णइ तम्हा गुणविसेसो' इति, तस्मादूपादिकपरिणामो गुणविशेष एवेति भण्यते, ततोऽस्ति गुणार्थिकोऽपि नयः, उपदिष्टश्च भगवतेति नात्रापसिद्धान्तत्वप्रसङ्गः ॥ १३ ॥ अत्राह सिद्धान्तवादी
गुणसहमंतरेणा-वि तं तु पनवविसेससंखाणं ।
सिजह णवरं संखा-णसत्थधम्मो तइ (न उ) गुणोत्ति ॥१४॥ "गुणसहमंतरेणावि तं तु पजवविसेससंखाणं सिजइ" तत्तु एकगुणकाल इत्यादि प्रागुक्तवचनं तु, गुणशब्दमन्तरेणापि गुणत्वावच्छिन्नरूपरसादिगुणात्मकार्थवोधानुकूलशक्तिमद्गुणशब्दं विनाऽपि, पर्यायविशेषसङ्कथानं पर्यायविशेषसङ्ख्यावाचकं सिद्ध्यति, न त्वतिरिक्तगुणगुणार्थिकनयप्रतिपादनपरम् , नन्वेवं तयंकगुणकालः दशगुणकाल इत्यादिव्यपदेशः किं निवन्धन इत्यत आह-वरं संखाणसस्थधम्मो तइगुणोत्ति, नवरं सङ्खथानशास्त्रधर्म:
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सम्मति० काम ३, गा• १५
२८३ ताबद्गुण इति, तत्र गुणशब्दस्यैतारताऽधिको न्यूनो वा भाव इति गणितशास्त्रधर्मवाचकस्वादिति । अत्र 'न उ गुणो त्ति' इति 'ण य गुणो ति' इत्यपि च पाठः । उक्तव्यपदेश एतावताऽधिको न्यूनो वा भाव इति गणितशास्त्रधर्मवाचकशब्देनैव भवति, न तु गुणगुणार्थिकनयप्रतिपादनाभिप्रायेण, येन च रूपेण विभिन्नमूलव्याकरणिनयग्राह्यता तेनैव रूपेण विभागः, अन्यथा विभागस्य सम्प्रदायविरुद्धत्वात्, अत एव "गुणपर्यायवद्रव्यम्" ५-३७ इति तत्वार्थसूत्रे गुणपर्यायपदाम्यां युगपदऽयुगपदाविपर्यायविशेषोपादानेऽपि न द्रव्यत्वेन गुणत्वेन पर्यायत्वेनेति त्रैविध्येन विभाग इति भावः ॥ १४ ॥ दृष्टान्तद्वारेणामुमर्थ दृढीकर्तुमाह
जह दससु दसगुणम्मि य, एगम्मि दसत्तणं समं चेव ।।
अहियम्मि वि गुणसद्दे, तहेव एयंपि पट्टव्वं ॥ १५॥ " जहा दससु एगंमि य" यथा दशसु, द्रव्येष्धिति शेषः, एकस्मिश्र, द्रव्य इति शेषा, तद्विशिनष्टि-'दसगुणम्मि' दशगुणे दशगुणिते “ अहियंमि वि गुणसद्दे " अधिकेऽपि गुणशन्दे, गुणशब्दातिरेकेऽपि, “दसतणं समं चेव" दशत्वं समं चैव, चस्य पादपूरणार्थकस्वात् सममेव । दृष्टान्तमुपदर्य दार्शन्तिके उपनयमाह-" तहेव एवं पि दट्ठवं" तथैवतदपि द्रष्टव्यम् , तथैवैतदपि न भिद्यते, परमाणुरेकगुणकृष्णादिरिति, एकादिशब्दाधिकगुणशब्देनापि तदधिकार्थाऽप्रतिपादनादिति द्रष्टव्यम् , तथा च तेनापि नातिरिक्तगुणसिद्धिरिति भावः । न चैवं गुणानां पर्यायानतिरेके वाचकचक्रवर्तिसूत्रं " गुणपर्यायवद् द्रव्यं " इति विरुध्यते, युगपदयुगपदाविपर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात्तस्य, सहभाविधर्मवाचकगुणशब्दसममिव्याहतस्य पर्यायशब्दस्य क्रमभाविधर्मवाचकस्यापि ' गोबलीवर्द 'न्यायेन तदतिरिक्तधर्मप्रतिपादकत्वे दोषाभावात् , न हि काल्पनिको गुणपर्याययो दो वास्तवं तदभेदं विरुणद्धि, कल्पनाबीजं च तत्र तत्र प्रदेशे व्युत्पत्तिविशेषाधानमेव ।। अत एव
गुणाणमासओ दव्वं, एगदम्वस्सिया गुणा।
लक्खणं पजवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ।। इत्युत्तराध्ययनाष्टाविंशतितमाध्ययनषष्ठगाथावचनं 'दबनामे गुणनामे पजवणामे' इत्यायनुयोगद्वारवचनं च शिष्यव्युत्पत्तिविशेषाय काल्पनिकगुणपर्यायभेदाभिधानपरमेत्र, स्वाभाविकतनेदाभिधानपरत्वे तु गुणार्थिकनयप्रसङ्गस्स्यात् । ' न च नाणदंसणट्टयाए दुवे अहं' इत्यादि भगवतीस्त्रवचनमेव गुणार्थिकनयप्रतिपादकमित्याशक्षितव्यम् , यत उक्तसूत्रवचनस्य द्रव्यार्थिकनयाभ्युपगतस्याऽऽत्मद्रव्यत्वरूपेणकस्यात्मनः पर्यायार्थिकनयमतेनैव ज्ञानदर्शनादिभेदेन द्वैविध्यादिप्रतिपादनपरत्वान्भातो गुणार्थिकनयप्रवृत्तिर्युक्तेति । तदेवं गुणस्य पर्यायान्तर्भावण पर्यायस्य च संज्ञासङ्ख्याऽर्थक्रियादिभेदेन कथश्चिद्भिनत्वेऽपि
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२८४
सम्मति० काम , गा• १६-१७ व्यक्तिरूपतया द्रव्यात्मकत्वेन गुणस्यापि कथञ्चिद्व्यात्मकत्वमिति नैकान्तभिन्मगुणसिद्धेश्वकाश इति सिद्धम् ॥ १५ ॥
एवं द्रन्यपर्याययोर्भेदैकान्तप्रतिषेधे सत्पमेदसिद्धावपि तद्दामार्थ सोपनयमुदाहरणममेदैकान्तवाचाह
एयंतपक्खवाओ, जो उण दळव-गुण-जाइभेपम्मि ।
अह पुष्वपडिकुडो, उयाहरणमित्तमेयं तु ॥ १६ ॥ __ " अह दहगुण-जाइमेयम्मि" अथ द्रव्य-गुण-जातिमेदे द्रव्य-गुणक्रियाभेदेषु, 'जो उण एयंतपक्खवाओ' यः पुनरेकान्तपक्षवाद एकान्तमेदाभ्युपगमवादः, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् स यद्यपि 'पुवपडिकुट्ठो' पूर्व प्रतिक्रुष्टः पूर्वमेव प्रतिक्षिप्तः, भेदैकान्तग्राहकप्रमाणाऽभावात् , अभेदग्राहकस्य च प्रमाणस्य पूर्वमेव प्रदर्शितत्वात् , तथाप्येकान्तामेदवाददृढीकरणार्थ " उयाहरणमित्तमेयं तु" उदाहरणमात्रं दृष्टान्तमात्रमेतत् प्रदर्यते ॥१६॥ ... अत्र द्रव्यव्यतिरिक्तं गुणकर्मादि किञ्चिन्नास्ति, रूपरसादयो द्रव्यद्वारेणैवोपलब्धिपथमायाता द्रव्यत्तिमात्रत्वेनावधार्यन्ते, न भिन्नजातीयत्वेन, चक्षुरसनादिग्रहण भेदात्तु रूपरसादिपरिणतयो द्रव्यस्य भियन्ते, पितृपुत्रमातुलाधने कसम्बन्धभेदादेकस्यैव पुंसः पुत्रपित्रादिनानापरिणतिवत्, यथैकस्यैव जिनदत्तादेर्जन्यजनकत्वायनेकसम्बन्धापेक्षाः पुत्रपित्रादिव्यपदेशाः प्रवर्तन्ते, न तु तस्मात्पुरुषवस्तुनोऽर्थान्तरभूतं पुत्रत्वं पितृत्वं वा नामार्थो जात्यन्तरमस्ति, पुरुषवृत्तिमात्रत्वात् , तथा द्रव्यमपि चक्षुर्ग्रहणादिविषयभूयमासादयद्पादिव्यपदेशमनेकमासादयति, अतो रूपरसादयो द्रव्यादनान्तरम् , कर्मापि विस्रसाप्रयोगसापेक्षो द्रव्यपरिणामस्तद्भावलक्षणो द्रव्यादव्यतिरिव्यमानो द्रव्यमेवेत्याशयं मनसि धृत्वा एकान्तद्रव्याऽभेदवादी पूर्व दृष्टान्तमेवाह
पिउ-पुत्त-णतु-भव्वय-( भाणिज्न )-भाऊणं एगपुरिससंबंधो। ण य सो एगस्स पियत्ति सेसयाणं पिया होह ॥ १७ ॥
'पिउ-पुत्तेत्यादि'-पितृ-पुत्र-नप्त-मागिनेय-भ्रातृणामेकपुरुषसम्बन्धः । अत्र षष्ठी. विभक्तेस्तृतीयाविभक्त्यर्थकत्वात् पित-पुत्र-नप्त-भागिनेय-भ्रातृमिरेकपुरुषस्य सम्बन्धः, पद्वा पित-पुत्र-नप्त-भागिनेय-भ्रातृणां एकपुरुषेण सह संसा, अत्र 'भवय' इति स्थाने 'भाणिज' इत्यपि पाठः । अयम्भावः-यथै कस्मिन्नेव देवदत्तादिपुंसि स्वपिटपुत्रपौत्रादिसम्बन्धतः पुत्रपित्राधनेकव्यपदेशानुकूलैकशक्तिमहिम्ना पुत्रपितृपितामहादिव्यपदेशो भवति । न च पुत्रादिसम्बन्धभेदेन भिन्नत्वम् , एकस्याप्यनेकत्वप्रसङ्गात् , न च पुत्रोत्पच्या तत्सम्बन्धतस्स एकस्य पितेति शेषाणामपि पिता भवतीत्याह-ण य सो इत्यादि ।। १७ ॥
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२८५
सम्मति काम ३, गा० १८-१९
तथातिरिक्तगुणाभावेऽप्येकस्मिन् द्रव्य एव चरसनाघ्राणत्वक्श्रोत्रात्मकतत्तदिन्द्रियसम्पन्धतश्चक्षुरसनाघ्राणत्वश्रीनेन्द्रियसन्निकर्षजानेकप्रत्यक्षानुकलैकशक्तिमत्वेन रूप-रसगन्ध- स्पर्श-शब्दव्यपदेशगोचरत्वं भविष्यति, किमन्तर्गडुनाऽतिरिक्तगुणेन, न चैकस्यानेकसज्ञाकरणमात्रेण नानात्वम् , एकस्यापि गीर्वाणनाथस्य शक्रेन्द्रपुरन्दरादिशब्दय॑वहियमाणत्वेन मिन्नत्वप्रसङ्गादिति द्रव्यैकान्तवादस्यैव प्रामाणिकत्वेन द्रव्यगुणयोः कथचिनेदवादो मिथ्येत्याशयेन द्रव्याद्वैतवाद्यवाह
जह संबंधविसिट्ठो, सो पुरिसमावनिरहसओ।
तह दव्वमिंदियगयं, रूवाइविसेसणं लहइ ॥१८॥ 'जह सो पुरिसो पुरिसमावनिरहसओ' यथा स पुरुषः देवदत्ताद्याख्यः पुरुषभावेन पुरुषत्वेन निरतिशयः पुरुषरूपतयाऽभिन्नोऽपि सन् ‘संबंधविसिट्ठो' सम्बन्धविशिष्टः पूर्वोक्तपित्पुत्रादिसम्बन्ध निमित्तीकृत्य पुत्रपित्रादिव्यपदेशं लमते, दृष्टान्तमुपदर्य तद्धर्म दार्शन्तिके उपदर्शयितुमुत्तरार्द्धमाह-'तह दवमिंदियगयं स्वाइविसेसणं लहइ' तथा द्रव्यमिन्द्रियगतं रूपादिविशेषणं लभते । अयम्भावः-तथा द्रव्यं द्रव्यस्वरूपतयाऽभिन्नमपि चलरसनादितत्तदिन्द्रियसम्बन्धं निमित्तमवाप्य रूप-रस-गन्धादिव्यपदेशमानं लमते, न चैतावता मिनरूपतामवाप्नोति, यतो न हि शक्रेन्द्रपुरन्दरादिशब्दभेदागीर्वाणनाथस्येव रूपादिशब्दभेदाद् घटादिवस्तुनो भेदो युक्तः, न चैवं देवदत्तादौ पित्रादिवद् घटादौ रूपादेरपि सावधिकत्वप्रसङ्गः, पित्रादिव्यवहारस्येव रूपादिव्यवहारस्य चक्षुरादीन्द्रिय. सम्बन्धापेक्षया सावधिकत्वेऽपि वस्तुनोऽतथात्वात् । न च चक्षु यताविशिष्टद्रव्यस्य रूपादित्वे ग्राह्यतायाः शक्तिरूपाया अतीन्द्रियत्वेन रूपादेरप्यतीन्द्रियतापत्तिः, विशेषणस्याऽ. प्रत्यक्षत्वेऽपि विशेष्यविधया तत्प्रत्यक्षत्वसम्भवात् , शक्तिभेदाच न चाक्षुषादिज्ञानसङ्कर इति दिक् ॥ १८ ॥ अस्यैकान्तद्रव्याद्वैतवादस्याप्रामाण्यज्ञापनाय स्याद्वादसिद्धान्तवाधाह
होजाहि दुगुणमहुरं, अणंतगुणकालयं तु जं दव्वं । ... ण उ डहरओ महल्लो, वा होइ संबंधओ पुरिसो ।। १९ ॥ __जं दवं दुगुणमहुरं अणंतगुणकालयं तु होजाहि' यद्रव्यं रसतो द्विगुणमधुरं रूपतोऽनन्तगुणकृष्णं तु भवेत् , तत्कुत इति शेषः । अयम्भावः-यदि नामाम्लादिद्रव्यमेव रसनेन्द्रियसम्बन्धवशाद्रस इति व्यपदेशमात्रमासादयेत् , तर्हि तद् द्विगुणमधुरं उपलक्षणन्यायेन त्रिगुणादिमधुरं यावदनन्त गुणमधुरं च रसतः कुतो भवेद , एवं नयनसम्बन्धादेव यदि नाम कृष्णरक्तादिप्रतीतिर्भवेत्तर्हि सङ्ख्यातगुणकृष्णमसङ्खथातगुणकृष्णमनन्तगुण कृष्णं तद् द्रव्यं कृतस्स्यात्, न हीन्द्रिय सम्बन्धमात्रेण पाणहानिवृद्धिरूपवैषम्यप्रतीविर्भवतीति वचो
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सम्मति० काण्ड ३, गा० २०-२१ भवद्धिविनाऽन्यैरसचेतोभिर्वक्तं शक्यते, भवदक्ते पुरुषष्टान्तेऽपि सर्वथैक्ये वयोमेदेनाल्यो महान्वेति विशेषप्रतीतिनैव भवेदित्याशयेनोत्तराद्धेमाह-ण उ इत्यादि-न स्वल्पको महान् वा भवति सम्बन्धतः पुरुषः । अयम्भाव:-पुत्रादिसम्बन्धद्वारेण पित्रादिरेव पुरुषो भवेत् , न स्वल्पो महान् वेति युक्तः, विशेषप्रतिपत्तिलाक्षणिकैत मिथ्यारूपैव वेति चेत्, तर्हि सामान्यप्रतिपत्तिरपि तथास्मिकैर स्यात्, विनिगमनायुक्त्यभावात् । एतेने कस्मिन्नपि पुरुषे पितृपुत्रादिगतपुत्रपित्रादिसंस्कारजनस्वभावतया तादृशसंस्कारलक्षणसहकारिभेदाझिमपुत्रपित्रादिव्यपदेशो भविष्यतीत्यलमेकानेकत्वकल्पनयेत्यपि निरस्तम्, कार्यताभेदेन तनिरूपककारणतास्वभावभेदस्यावश्यकत्वेनैकस्याप्यनेकात्मकत्वात् , अन्यथैकस्याने कसह. कारित्वाऽयोगेन विविक्तव्यवहारोच्छेदस्स्यात्, न चैवं तवेंकत्वेनानुभूयमानस्य घटस्य जलाहरणाधनेककार्यकारित्वेनानेकत्वापत्तिरिति वाच्यम् , तथाऽभ्युपगन्तनयमपेक्ष्येष्टापत्त्या परिहतत्वात् । योऽप्येकस्यानेकरूपताऽऽपादनतर्क उक्तः, सोऽपि तदाभासा, नयसमूहात्मकजैनसिद्धान्ते समभिरूढनयाभिप्रायेण सज्ञाभेदेनैकस्याप्यनेकत्वेन स्वीकृततयेष्टत्वात् ॥१९॥ अत्रैकान्ताभेदवाधारकते
भण्णइ सम्बन्धवसा, जइ संबंधितणं अणुमयं ते ।
नणु सम्बन्धविसेसे, संबंधिविशेषणं सिद्धं ।। २० ॥ 'भण्णइ ' भण्यते--एकान्तामेदवादिना समाधीयते, किं भण्यत इति कर्माकाक्षायामाहसंबंधवसा इत्यादि, 'संबंधवसा जइ' यदि सम्बन्धवशात् सम्बन्धसामान्यवशात , 'संबंधित्तणं अणुमयं ते ' सम्बन्धित्वमनुमतं सम्बन्धित्वसामान्य मनुमतं तर, तदा " नणु संबंधविसेसे संबंधिविसेसणं सिद्धं " ननु सम्बन्धविशेष सम्बन्धिविशेषणं सिद्धम् । सम्बन्ध विशेषद्वारेण सम्बन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यते ? इत्यर्थः ॥ २० ॥ स्याद्वादसिद्धान्तवादी समाधत्ते
जुलइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण एयं ।
णयणाइविसेसकओ( गओ)रूवाइविसेसपरिणामो ॥ २१ ॥ ' जुल्लइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं' युज्यते सम्बन्धवशात् सम्बन्धिविशेषण, सम्बन्धविशेषप्रयुक्तः सम्बन्धिविशेषोऽपि युक्त एव, यथा पुरुषसामान्यापेक्षया दण्डकुण्डलादि. सम्बन्धविशिष्टः पुरुषो भिन्न एव प्रतीयते, पुरुषसामान्ये दण्डी पुरुष इति कुण्डली पुल इति च प्रतीत्यभावात् , दण्डविशिष्टे कुण्डलविशिष्टे पुंसि चोक्तप्रतीतिमावात् । अत्र भिन्नताप्रयोजको दण्डकुण्डलाद्यात्मकसम्बन्धि विशेषजनितसंयोगसम्बन्धविशेष एवेति सम्ब. न्धविशेषात् सम्बन्धिविशेषोऽस्मन्मते सिद्धत्येवेति सम्बन्धविशेषद्वारेण सम्बन्धिविशेषापादनमप्यस्मन्मतानुकूलमेव, इष्टत्वात् , भवन्मते तु न सम्बन्धिविशेषो नापि सम्बन्ध.
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सम्मति० काण्ड ३, ना० २१
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विशेषस्सच्छत इति कुतो नयनादिसम्बन्धिविशेषजनितसम्बन्ध विशेष कृतो रूपादिविशेषपरिणाम इत्याह-' न उण एयं ' इत्यादि ॥ २१ ॥
नवनेकान्तवादिनां भवतां मतेऽपि रूपरसादेः पद्गुणहानिवृद्धिरूपवैषम्यपरिणतिः कथमुपपन्ना भवतीति पराशङ्कामुपदर्श्य तादृशपरिणत्युपपादनायाह ग्रन्थकारः-
rore विसमपरिणयं, कह एवं होहिइत्ति उवणीयं । तं होह परनिमित्तं, ण वत्ति एत्थत्थि एगंतो ॥ २२ ॥
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Home ' मण्यते द्रव्यैकान्तवादिना, तेन यद् भण्यते तदाह - " विसमपरिणयं कह एयं होहिह त्ति " विषमपरिणतं कथमेतत् भविष्यतीति । अयम्भावः - शीतोष्णस्पर्श व देकत्रैकदा विरोधादेतदाऽग्रफलादि द्विगुणाद्यनन्तगुणवृद्धिहानिरूपविषम परिणतिपरिणतं कथं भविष्यतीति, एवं परेण प्रेरिते सति तदुपपादनायाह-उवणीयं इत्यादि । 'विसमपरिणई कह एवं होहिइत्ति ' इत्येवं पाठे त्वयमर्थः - शीतोष्णस्पर्शवदेकत्रैकदा विरोधादेकत्रात्रफलादौ विषमपरिणतिः कथमेषा परिदृश्यमाना भवतीति यद्भण्यते परेण तदुपपादनायाह - उबणीयं इत्यादि, उपनीतं उपदर्शितमाप्तेनेति शेषः, तेन स्वगिरा श्रोतृश्रुतज्ञानगोचरीकृतमित्यर्थः, यदुपनीतं तदेवाह - 'तं होह परणिमित्तं तद् वैषम्यं भवति परनिमित्तम्, यथा कारणं तथा कार्यमिति न्यायेन कार्यमात्रे द्रव्यक्षेत्रकालभावानां कारणत्वात् तद्रूपसहकारिवैचित्र्यबलतः कार्यमपि विचित्रभावमवाप्नोतीति तदाऽऽम्रादिफलमपि तेन विषमरूपतया परिणमतीति वैषम्यं परनिमित्तमित्यर्थः ' ण वत्ति एत्थत्थि एगंतो ' न वा ' परनिमित्तमेव ' इत्य. त्रायेकान्तोऽस्ति, उपादानविषया स्वस्यापि कथञ्चिनिमित्तत्वात्, अन्यथा द्विगुणरसादीनां एष एवोपादानाख्याश्रयो न त्वन्य इत्याश्रयनियमो नैव स्यात्, विरोधश्व कालभेदेन देशमेदेन वा निरसनीयः, न चैकत्रैव प्रदेशे द्विगुणरसादित्वे एकगुणरसादिद्वयसमावेशाद्विरोधस्सम्भावनीयः, एकैकगुणापेक्षया द्विगुणपर्यायवतो रसस्य प्रत्येकातिरिक्तत्वेनाविरोधात्, अत एव परापेक्षया षट्स्थानपतितत्वमप्यविरुद्धम्, आपेक्षिकधर्मयो ईस्वत्वदीर्घत्वयोरिव विरोधासिद्धेरिति दिक् । तन्नैकान्तद्रव्याद्वैतवादः सङ्गतिमङ्गति । एतेन अथास्तु aff प्रमाणकोटिं नीत एकान्तगुणाद्वैतवादः, रूपादिगुणैरेव द्रव्यकार्योपपत्तेः, अनेकान्तवादस्य तु विरोधादिदोषाघातत्वेन कथमपि नावकाश इत्यपि निरस्तम् आश्रयाभावे आश्रितानुपपत्तेः, निराधार एवेति चेत्, न, यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामीति प्रतिसन्धानेन तदाश्रयद्रव्यस्यानुभूयमानत्वात् न च तद्विषयो रूपादिरेवेति वाच्यम्, जात्यन्धस्यापि नीलादिप्रत्ययप्रसङ्गेन तस्य द्वीन्द्रियाऽग्राह्यत्वात् न चैकमेव वस्तु नयनेन रूपत्वेन त्वचा - स्पर्शत्वेन गृह्यत इत्यपि वाच्यम्, तयोर्विरुद्धत्वेन तदाश्रयैकवस्तुनोऽभावात् । अथ रूपत्वस्पर्शत्वयोरेक एव धर्मी, विशेधे मानाभावादिति चेत्, आः ! कीदृशमज्ञानविलसितम्,
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सम्मति• काम ३, मा. २३-१४ येन तयोविरोधित्वेऽप्यविरोधित्वम् , मित्रापेक्षया कथश्विद्भेदाभेदयोस्त्वविरोधित्वेऽपि विरोधित्वमम्युपगतम् । किश्च रूपवान् घटा, ज्ञानवानात्मेत्यादिप्रतीतिर्नैवं भवेत् , किन्तु भवन्मते रूपं घटः ज्ञानमात्मेत्यादिप्रतीतिस्स्यात् । अन्यच्च पीतशङ्ख इति भ्रान्तप्रतीतो श्वैत्यानुपलम्भेऽपि तदाश्रयोपलम्भतो जात्यन्धपुंसा सचक्षुःपुंसाऽन्धकारे च रूपाग्रहेऽपि शङ्खस्य त्वचा ग्रहाच्च द्रव्यस्यैव साम्राज्यं किमिति न कल्पयसि । पीतात्मकतयोत्पमा शज एवोक्तभ्रान्तप्रतीतो भासत इति चेत्, न, स्वस्थपुरुषैः श्वैत्यस्यैवोपलम्मात् । भ्रान्त पुरुषापेक्षया पीतात्मकः, स्वस्थपुरुषापेक्षया च श्वैत्यात्मक एवैकदा शङ्ख उत्पन्न इति तून्म. त्तवचनवदुपेक्षणीयमेव, एकस्य शङ्खस्येककालावच्छेदेनोभयात्मकतया केनापि विदुषाऽनभ्यु. पगमात् । तदेवं सिद्धान्तोपनिषद्विचारारूप्रमाणकान्तमनेकान्तवादं स्वीकुरु, परिहर च द्रव्यैकान्तवादमिवोक्तदोषमुद्गरप्रहारभीत्या गुणैकान्तवादमपीत्यले प्रसङ्गानुप्रसङ्गेन ॥ २२ ॥ अथ द्रव्यगुणयोर्भेदैकान्तवादिनो द्रव्यगुणलक्षणानुपपत्तिमुद्भावयन्ति
दव्वस्स ठिई जम्मवि-गमा य गुणलक्खणं ति वत्तव्यं ।
एवं सह केवलिणो, जुज्जइ तं णो उ दवियस्स ॥ २३ ॥ 'दवस ठिई ' द्रव्यस्य स्थितिधौव्यं लक्षणमिति शेषः, यद्वा 'गुणलक्खणं' इत्यस्माद्विच्छिद्य लक्षणमिति सम्बन्धः। जम्मविगमा य गुणलक्खणं ति वत्तवं ' जन्म विगमौ उत्पादव्ययौ च गुणानां लक्षणं गुणलक्षणमिति वक्तव्यं स्यात् । ' एवं सह केवलिणो जुजइ तं' एवं सति, एवमभ्युपगमे सति, केवलिनः करामलकवत्साक्षात्कृतविश्वविश्व. तस्वस्य युज्यते तदेतल्लक्षणम् , तथाहि-केवलिनः केवलज्ञानमुत्पनं सत्क्षायिकत्वात् स्व: रूपतो न व्ययमेतीति तदभिन्नत्वात्तद्रूपेण केवलिनो ध्रौव्यम्-प्रतिक्षणचेतनाचेतनात्मकक्षेयपरिणतिपरावृत्या तद्विषयकं केवलज्ञानमपि प्रतिक्षणं परावर्तत इत्युत्पादव्ययस्वभाव. केवलज्ञानरूपेण तदभिन्नत्वात् केवलिनोऽपि प्रतिक्षणोत्पादव्ययाविति तस्य त्रिलक्षणत्वं घटते 'णो उ दवियस्स' न तु द्रव्यस्याण्वादेर्लक्षणमिदं युज्यते, न ह्यणौ रूपादयो जायन्ते अत्यन्तभिन्नत्वात् गवाश्चादिवत् , अथवा केवलिनोऽपि सकलज्ञेयग्राहिणो नैतल्लक्षणं युज्यते, न चापि द्रव्यस्याचेतनस्य, गुणगुणिनोरत्यन्तभेदे सति उत्पादव्ययधोव्यात्मकत्वलक्षणं सत्वं यद्भवतोऽनुमतं तन्न द्रव्ये,तत्र ध्रौव्यस्यैवैकस्य भावात् , नापि गुणे, तत्रोत्पादव्यययोरेव सद्भाबाद,तथा च असन्न किञ्चिल्लक्षणालिङ्गितं भवतीति भवदनुमतोक्तसत्त्वाभावादसतोश्च द्रव्यगुणयोः खरविषाणादेरिव लक्षणाऽसम्भवादिति द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिनो ब्रुवन्ति ।।२३।। अत्रोत्तरमाह सरि:
दव्वत्थंतरभूया, मुत्तामुत्ता य (व) ते गुणा होना। जह मुत्ता परमाणू, नस्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥ २४ ॥
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सम्मतिः काण्ड ३, गा०. २४ ...
ते दवत्यंतरभूआ गुणा मुत्ता मुत्ता व होजा' ते तव, मत इति शेषः । द्रव्यार्थान्तरभूता गुणा मूर्ता अमूर्ता वा भवेयुः, अथवा द्रव्यार्थान्तरभूतास्ते पूर्वोक्तलक्षणलक्षिता गुणा मूर्ती अमूर्ती वा भवेयुः, ते गुणाः किं मूर्ता अमूर्ती वेति भावः । 'जइ मुत्ता परमाणु नत्थि' यदि मूर्ताः यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात्तर्हि परमाणवो न सन्ति न भवन्ति, मूर्तिमद्रूपाधापारत्वाद, अनेकप्रादेशिकस्कन्धयत् । अथ यद्यमूर्तास्तहि तेषामग्रहणम् , अमूर्त्तत्वात् , आकाशवदित्याशयेनाह-'अमुत्तेसु अग्गहणं' अत्र सप्तम्याः षष्ठ्यर्थत्वात् अमूर्तानामग्रहणमित्यर्थः, ततो द्रव्यगुणयोः कश्चिद्भेदाभेदावभ्युपगमनीयौ, अन्यथा प्रतीतिविरोष स्स्यात्, तथाहि-द्रव्यगुणयोर्यथाक्रममेकानेकप्रत्ययावसेयत्वात्कथश्चिद्भेदः प्रतीयते, कथश्चिदभेदोऽपि, रूपाद्यात्मना द्रव्यस्वरूपस्य रूपादीनां च द्रव्यात्मकतया प्रतीते, अन्यथा तदभावापतेः ॥ २४ ॥ - एतच विवक्षामात्रेणोच्यते, अन्यथा जात्यन्तरात्मके वस्तुनि भेदाभेदाधन्यतरकथाया एवासम्भवाद, न हि चित्रं वस्तु नीलपीताद्यन्यतरतया कथ्यते चर्च्यते वा, एकतरजिज्ञासया केवलं तथा प्रतीयत इति । एतदेवाह-'सीसमई इत्यादि । यद्वा यद्यप्याईतसिद्धान्तोक्तानेकान्ततत्वाभ्यासजन्यतद्विषयकपरिपुष्टबुद्धीनां सप्तमङ्गयात्मकप्रमाणवाक्यस्येव सप्त. विधजिज्ञासानिवर्त्तकसप्तधर्मप्रकास्कैकर्मिविशेष्यकाखण्डबोधजनकतापर्याप्तिमन्चादुत्सर्गतस्स्याद्वादरूपप्रमाणवाक्यस्य तथाऽनन्तधर्मात्मकवस्त्वेकदेशोऽपि स्याद्वादरूप एवेति हेतो. रितरधर्माप्रतिक्षेपितयाऽन्याशेषदेशसाकाङ्क्षकदेशबोधजनकानां स्याद्वादेकवाक्यतापत्रतत्त अयवाक्यानां चाभिधानमेवोचितम् , ताभ्यामेव यथार्थतत्चाधिगते, संवदति चात्र " प्रमाणनयैरधिगमः।" १-६ इति तचार्थसूत्रमपि, न वितरधर्मानपेक्षितपैकधर्ममात्रप्रतिपादकस्वतन्त्रतत्तनयवाक्यानाम् । एकान्ततचानामसद्रूपत्वेन तत्प्रतिपादकानां तेषां मिथ्यारूपत्वात् , तथापि स्याद्वादवाक्यात्मकप्रमाणवाक्यतजन्याशेषांशविशिष्टपरिपूर्णवस्तुविषय कनिराकासशाब्दबोधात्मकज्ञानविशेष कार्यकारणभावविज्ञानरूपा पा स्याद्वादव्युत्पतिस्वदर्थितया शिष्याणामंशमाहिषु नयवादेष्वप्यपवादतः प्रवृत्तिरुचिव, न हि प्रत्येकतत्तदंश. ज्ञानामावे निखिलांशविशिष्टार्थनानं भवितुमर्हतीत्यशेषांशविशिष्टार्थबोधे एकैकतत्तदंशविष. यकनयज्ञानानामपि हेतुत्वम् । ननु तदितराशनिरपेक्षतसदंशविषयकनयवादाना मिथोविरोधिनां तद्विषयाऽसत्यत्वेनायथार्थज्ञानजनकत्वात्तसतो मिथ्यारूपत्वादसत्यत्वेन तदुक्तयुस्याश्रयणं नोचितमिति चेद , सत्यम् , तथापि " असत्ये वर्मनि स्थित्वा, ततः सत्यं समीहते" इत्यादिन्यायेन शिष्यमतिविस्फारणार्थ तदुक्तयुक्त्याश्रयणमपि न्याय्यम् , एकान्तविषयाऽसत्यत्वेन तत्प्रतिपादकानां सर्वेषां नयवादानां स्वरूपतोऽसत्यत्वेऽपि स्याद्वादव्युत्पादकतया फलतः सत्यवादित्याशयेनाह
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सम्मति० काण ३, गा० २५-२६ सीसमईविष्फारण-मेत्तत्थोयं को समुल्लायो ।
इहरा कहामुहं चेव, नस्थि एवं ससमयम्मि ॥ २५ ॥ "सीसमईविष्फारण मेत्तत्थोयं" शिष्यमतिविस्फारणमात्रार्थोऽयं, विनीतविनेयबुद्धिविकाशनमात्रफलकोऽयं, त्रिकरणयोगशुद्धिपुरस्सरश्रवणैकतानानामन्तेवासिनां विनयभक्तिभावेन सुगुरूपासकानां सप्तमङ्गयात्मकमहावाक्यजन्यप्रमाणात्मकाऽखण्डशाब्दबोधजनकावान्तरनयवाक्यार्थविषयकखण्डवोधोत्पादनमात्रफलकोऽयमिति यावत् । “कओ समुल्लावो" कृतः समुल्लापा, विहितः प्रबन्धः । 'इहरा' इतरथा स्याद्वादस्य वस्तुत्वव्यापकत्वेन वस्तुमात्रस्यानेकान्तात्मकत्वाद कहामुहं चेव नत्थि एवं ससमयम्मि' किमेते गुणा गुणिनो भिन्ना आहोस्विदभित्रा इत्येवं स्वसमये अर्हसिद्धान्ते कथैवैषा नास्ति, एकान्तनयविषयाऽसत्त्वेन तत्कथा नैव प्रमाणभावं भजत इति स्याद्वादागमतश्चझेन न सा प्रतिपादनीया, अत एव " नेवावधारणी भाषां भाषेत" इति सिद्धान्तोक्तमपि सङ्गच्छते । अयश्च निषेधः स्वतन्त्रनयविषय एव, स्याद्वाकवाक्यतापननयवाक्यानां तु परस्परनिरूप्यनिरूपकमावापन्नविषयताकनिराकासाऽखण्डमहावाक्यार्थबोधानुकूलांशबोधजनकतया सुनयरूपत्वादेव तत्कथा नाप्रतिपादनीया, अपेक्षावचनात्मकसुनयवाक्यचलादेव सापेक्षप्रतिनियतधर्मप्रकारकैकधर्मिविशेष्यकबोधद्वारा निर्दष्टस्य लक्ष्यलक्षणादिव्यवहारस्य विशेष्यविशेषणभावादिव्यवहारस्य प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिव्यवहारस्य च सिद्धेरिति भावः ।। २५ ॥
यद्वस्तु यद्धान्वितं तद्वस्तु तद्रूपेणैव प्रतिपादयन्तस्सम्यग्वादिनः, न त्वन्यथेति पूर्वोक्तनीत्या जीवाजीवादिनिखिलवस्तु अनेकान्तात्मकतया प्रत्यक्षानुमानागमादिप्रमाणसिद्धमप्येकान्तात्मकतया ये तत्प्रतिपादयन्ति ते मिथ्यावादिन इति न ते यथार्थतस्वमधिगच्छन्तीति प्रतिपादयितुमाह
ण वि अस्थि अण्णवाओ, ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि।
तं चेव य मण्णंता, अवमण्णंता ण याणंति ॥ २६ ॥ __ण वि अस्थि अण्णवाओ' अत्रापेरेवार्थत्वात्रैवास्ति अन्यवादा, गुणगुणिनोरेकान्तभेदवादः। 'ण वि तबाओ' नाऽपि तद्वादा, तयोरेकान्ताऽभेदवादा, कस्मिन् सिद्धान्त इत्याशङ्कायामाह-'जिणोवएसम्मि' जिनोपदेशे, अर्हत्प्रणीतसिद्धान्त, वस्तुत्वव्यापकत्वादनेकान्तात्मकत्वस्य, वस्तुमात्रस्य कथञ्चित्तदतदुभयधर्मोपेतत्वात् । ' तं चेव य मण्णंता' तदेव अभिनमेव चकारादेकान्तभिन्नमेव वा वस्त्विति मन्यमाना अर्थात् गुणगुणिनावेकान्तेनाभिन्नावेव भिमावेव वेति मन्यमाना ' अवमण्णता' अत्र मननीयं वादिनति शेषा, तथा च मननीयमवमन्यमाना वादिना, 'ण याणंति' न जानन्ति, यथार्थ- तत्त्वमिति शेषः, पारमेश्वरप्रवचनोक्तविषयाऽवगणनाविधायित्वादज्ञा भवन्ति, ये च जिनेन्द्रगदित.
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मम्मति० काम , ० २६
२९१ द्वादशाङ्गोक्तामलतत्वावगणनाविधायिनो न ते यथार्थतस्वमवगच्छन्ति, अन्यथावादिनिकवादिवदिति तात्पर्यार्थः ॥ २६ ॥
एतावता प्रबन्धेनाऽनेकान्तवाद एव सद्युक्त्या सिद्धिकोटिं नीतः, तथाहि-ज्ञानात्मनोर्घटरूपायोश्च न तावदेकान्तमेदः, तथा सति हिमवद्विन्ध्याचलयोरिव सम्बन्धाऽयोगत आत्मनोऽझत्वं घटादेश्च नीरूपत्वादि प्रसज्येत, भिन्नत्वाविशेषाद्वाऽऽकाशादावपि सचेतनत्वं रूपादिमवं च भवेत् । ननु नैवं भवेत् , यतः सर्वथा मिन्नयोरप्यव्यवहितयोर्घटभूतलयो. संयोगस्येवायुतसिद्धयो नात्मनोर्घटरूपायोश्चापि समवायसम्बन्ध इति तेनात्मनि ज्ञानस्य घटे च रूपादेस्सदावादिति चेत् , मैवम् , यतो न सम्बन्धिनोरसम्बद्धस्सम्बन्धी विशिष्ट बुद्धिमाधातुं क्षमा, तथा सत्यात्मज्ञानयोरिवाकाशज्ञानयोरपि समवायसम्बन्धो विशिष्टबुद्धि विदध्यात् , अतस्सम्बद्धस्सम्बन्धी विशिष्टबुद्धिं जनयतीत्यम्युपगन्तव्यम् , अथ समवाय. सम्बन्धस्स्वरूपसम्बन्धेनैव सम्बद्ध इति ज्ञानप्रतियोगिकरस आत्मना सहैव स्वरूपसम्बन्धेन सम्बद्ध इति तत्रैव विशिष्टबुद्धिं करोतीति चेत् , तर्हि वरं प्रथमत एव तस्याभ्युपगमनं, किमन्तर्गडना समवायेनेति, अधिकं पूर्वमेवोक्तमिति न पुनरुच्यते, तत्रैकान्त मेदो युक्तः । नाप्येकान्ताऽमेदा, तथा सत्यात्मनि ज्ञानं ज्ञानवानात्मा, घटे रूपं रूपवान् घट इत्यादि मेदावगाप्रितीतिर्नैव प्रामाणिकी भवेत् , अभिनयोराधाराधेयभावामावात् , प्रत्युत आत्मा शानं ज्ञानमात्मा पटो रूपं रूपं घट इति इति प्रतीतिरस्यात्प्रमात्मिकेति प्रमाणप्रथा मनोरथ. मात्रार्था स्यात् , घटादिवद्रपस्यापि द्वीन्द्रियवेधत्वं रूपादिवद् घटादेरपि प्रतिनियतेन्द्रिय. प्राद्यत्वं च स्यात् , अथाभिन्नयोरपि तादात्म्यसंसर्गेणाधाराधेयभावो भविष्यतीति चेत्, तदपि न युक्तम् , तस्य स्वस्मिन् स्वसम्बन्धित्वस्यैव नियामकत्वात् , अन्यथा घटे घटो घटवान् घट इत्यादिप्रतीतिरपि स्यात् प्रमात्मिका, ओमिति चेत् , तथाप्याधारस्वाधेयत्वधर्मभेदेनैव मित्रत्वप्रसङ्गः, धर्मयोर्धमिरूपत्वावमिति चेत् , तथाप्येकानेकत्वस्यैव सुदृढनिरूढत्वं प्राप्तम् , द्विरूपस्यैकरूपत्वान्यथाऽनुपपत्तो, आधारत्वाधेयत्वधर्मयोः काल्पनिकत्वेकथनं स्वनुचितमेव, तद्वतोऽपि तथात्वापत्तेः, विशेषणस्यापारमार्थिकत्वे विशिष्टस्याप्यपारमार्थिकत्वस्या. विमानेन सिद्धत्वादिति कथञ्चिद्भेदाभेदस्यैव सम्बन्धव्यापकत्वेन तदभावे तदभावस्स्यात्, ध्यापकामावस्य व्याप्यामावनान्तरीयकत्वात् , तथा च द्रव्यगुणौ भिन्नावच्छेदेनैकाधिकरणपत्तित्वसंसर्गेण मेदविशिष्टामेदवन्तौ सम्बन्धाऽन्यथाऽनुपपत्तेरित्याधनुमानेन मेदामेदारम. कत्वं सिद्धिसौधमध्यास्ते । अथ साध्याऽप्रसिद्धिश्वपाकसंस्पर्शमाजित्वात् तत् तत्साधनक्षम नेति चेत्, मैवम् , अनुयोग्युपस्थापकपदसमानविभक्तिकप्रतियोग्युपस्थापकपदसममिव्याइतस्य नो भेदप्रत्यायकत्वेन मूले महीरुहो न कपिसंयोगीति प्रत्ययबलात् प्राज्ञशिरोमणिना शिरोमणिना शाखामृगसंयोग्यऽभित्र एव पक्षे मूलावच्छेदेन कपिसंयोगिभेदप्रसाधनात् । अथास्तु तं प्रति तत्सिद्धिः, तदिनं प्रति सा कथमिति चेत्, उच्यते,
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सम्मति• काम, गा.२६ मेदाभेदोमयरूपत्वेन मेदाभेदोमयस्य साध्यतां विधाय सा प्रसाधनीयेति । न चोभयत्वस्याप्येकविशिष्टापरत्वरूपत्वेन पूर्वोक्तदोषतादवस्थ्यमिति वाच्यम् , विरुद्धयोरपि घटत्वपटत्व. योरुभयत्वेन प्रत्ययात् तस्य तदूपत्वाभावात् । मेदामेदोमयश्च पक्षे सिख्यन् ईश्वस्यादिमते क्षितिः सकर्नुका कार्यवादित्यनुमानेनोपादानापरोक्षज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्त्वमिति कर्तृत्वलक्षणेन किश्चिदज्ञानां व्यणुकोपादानपरमाणुविषयकप्रत्यक्षज्ञानाद्यसम्मवेन तद्बाधात् पक्ष. धर्मतावलादीश्वरसिद्धिवजात्यन्तरात्मक एव सिद्ध्यति, उक्तश्च श्रीमहावीरस्तवे पूज्यपादो. पाध्यायः " स्याद्वादतस्तव तु बाह्यमथान्तरङ्ग, सल्लक्षणं शबलतां न जहाति जातु" इत्यादि ।। अत्रैधर्मिणि स्वधर्मभेदाभेदावसहिष्णवस्तन्त्रान्तरीयास्सनिरन्ते, अहो आर्हता केनेदं सुहृदा युष्मचित्ते शल्यमकारि, येन परस्परविरहरूपत्वात् वह्निवह्वयभावावित्र विरुद्धावपि भेदाभेदावविरुद्धावित्यङ्गीकुरुथ । न च परस्परविरहरूपत्वहेतुरेवासिद्धः पक्षे दृष्टान्ते चेतिस्वरूपासिद्धिदृष्टान्तासिद्धिदोषद्वयग्रस्तस्स इति वाच्यम् , यतो चह्निमति वन्यभावस्याप्रतीतेस्तदभावस्य व्यवहाराच धूमध्वजो वन्यभावविरहात्मका, एवं वहन्यभाववति वनेरप्रतीतेस्तदभावस्य च संवेदनाद्वन्यभावो हुतभुम्बिरहात्मक इति न दृष्टान्तासिद्धिः, एवं घटभेदवति पटे घटाभेदस्याप्रतीतेः तदभावस्य च व्यवझियमाणत्वाच्च घटभेदो घटाभेद. विरहात्मकः, एवं घटाऽभेदोऽपि घटभेदविरहात्मको ज्ञेय इति न स्वरूपासिद्धिरपि, तथा चैकतरनिषेधेऽपरविधेरवश्यं भावेनैकरूपमेव वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा दृष्टहानेरदृष्टकल्पनायाश्च प्रसङ्ग इति चेत् अहो पण्डितमन्यानां भवतां न्यायनिष्णातत्वम् , विरोध. लक्षणमपि नैव सम्यग्ज्ञातम् , यतो विरोधस्य किं लक्षणमिति वाच्यम् । अथात्र किं वाच्यम् , एकाधिकरणावृत्तित्वं तदिति चेत्, तन्न सहृदयानां चमत्कृति विधत्ते, यत इदं रजत. मित्यादिभ्रान्तज्ञाने धम्यंशे प्रामाण्यं प्रकारांशे चाऽप्रामाण्यमिति तयोरप्येकस्मिनेत्र ज्ञाने वृत्तित्वाद्विरोधो न स्यात् , एवमिह पर्वते नितम्बे हुताशनो न शिखर इति प्रतीतेरेकत्रैव क्षितिधरे नितम्बशिखरदेशावच्छेदेन वह्नितदभावयोवृत्तित्वेन तयोरप्यविरुद्धवं स्यात् । एवमिदानी तन्तौ न घट इति प्रतीतेः घटवत्यपि काले तन्त्ववच्छेदेन घटामावस्य सद्भावाद् घटतदभावयोरपि विरोधो न स्यात् । अथ यद्देशावच्छेदेन प्रतियोगी यत्र वर्तते तद्देशावच्छेदे. नैव तदभावो न तत्र वर्तते इत्येतावता तयोविरोधोऽक्षत एवेति चेत्, तदपि न, इदानीन्तनधनञ्जयवत्यपि शैलेऽतीतानागतकालावच्छेदेन तदभावप्रतीतेभित्रकालावच्छेदेनाप्येकत्र तत्चदभावयोरपि वृत्तेविरोधो न स्यात् । अथ तथावृत्तिरेव नाभ्युपगम्यत इति चेत् , मैवम् , घटविनाशकाले इह कपाले न घट इति प्रतीर्घटवत्यपि कपाले घटनाशकालावच्छेदेन तदभावस्याप्यभ्युपगमात् । प्रतियोगिमतोरपि देशकालयोः कालदेशभेदावच्छेदेन तदभाव इति शिरोमणिवचनात् । अथ यद्देशकालावच्छेदेन यत्र यो वर्तते तद्देशकालावच्छेदेन तत्र तदभावो न वर्तत इत्येवं विरोधलक्षणं क्रियत इति नोक्तदोष इति चेत्, वदापि पर्वते
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सम्मति काण्ड३, गा० २६ संयोगेन वहिर्यदेशावच्छेदेन यत्कालावच्छेदेन च वर्त्तते सद्देशकालावच्छेदेन पर्वते समवायसम्बन्धावच्छिमवहिनिष्ठप्रतियोगिताकामावस्य विद्यमानत्वेन वहितदभावयोर्विरोषो न स्यात् । अथ येन सम्बन्धेन यद्देशकालावच्छेदेन यत्र प्रतियोगी तत्र तेन सम्बन्धेन तदेशकालावच्छेदेन तदभावो नेत्येवं सम्बन्धदेशकालघटितमेव विरोधलक्षणं क्रियत इति वेत् , तर्हि स्वद्रव्यक्षेत्रकालाभावैर्घटस्मन् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्वासन् द्रव्यार्थतया नित्यः पर्यायार्थतया चाऽनित्य इत्येवमेकवस्तुन्यापेक्षिकतत्तदभावप्रतिपादकस्याद्वादागमतत्व. दा. भेदयोभिनावच्छेदेनैकवस्तुन्यभ्युपगमे का प्रोक्तलक्षणविरोधक्षतिरिति विभाव्यताम् । अथ परस्परविरहनिष्ठापाद्यतानिरूपितापादकताकत्वलक्षणं विरोधस्येति चेत्, तदप्यत्र नोपयुक्तम् , यतश्शीतत्वोष्णत्वयोरिव ययोः परस्पराभावच्याप्यत्वं तयोरेवोक्तलक्षणविरोधो घटते, न तु घटतदभावयोरिव परस्परविरहरूपयोर्भेदाभेदयोः, तथा च यदि भेदस्स्यात् तर्षभेदो न स्यादित्यापादनमापादकस्य भेदस्यापाद्याभेदाभावरूपत्वेन तथा यद्यभेदस्स्यासहि मेदो न स्यादित्यापादनमभेदस्यापादकस्यापाद्यभेदाभावरूपत्वेनापाधापादकयोमेंदो नेति तयो
प्यव्यापकमावाऽभावानोक्तलक्षणं कर्तुं शक्यमिति प्रकृते तन्न सङ्गच्छते, सहानवस्थानलक्षणं स्वत्रैव चरितार्थमिति, तन्नानेकान्ततचाभ्युपगमे विरोधगन्धलेशोऽपि । यदुक्तमध्यात्मोपनिषदि
"भिन्नापेक्षा यथैकत्र, पितृपुत्रादिकल्पना ।
नित्यानित्यायनेकान्त,-स्तथैव न विरोत्स्यते ॥१॥" इति । एतेन यदवच्छेदेन भेदस्तदवच्छेदेन भेद एव, यदवच्छेदेनाभेदस्तदवच्छेदेनाभेद एवेति कथमेकमेवोमयरूपम् । अथ भेदावच्छेदकरूपेणाऽभेदोऽपि अभेदावच्छेदकधर्मेण भेदोऽपीति चेत्, तर्हि सङ्करदोषप्रसङ्गः, सर्वेषां युगपत्प्राप्ते, तदुक्तम् “ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः" इति, इत्यपि निरस्तम्, स्वस्वरूपापेक्षयकस्वरूपेऽपि धर्मिणि स्वीयस्त्रीयभिन्नभिन्ननिमित्तापेक्षयोमयरूपत्वे विरोधाभावात् , यतो न शेकापेक्षयैव भेदाभेदोभयेन माध्यमित्येवं तत्वविनीतिरिति । भेदावच्छेदकरूपेणाभेदोऽपीत्यादि न्यायानभिज्ञताविलसितमेव, यतो न हि सकर्णेन सनिरूपकपदार्थानामेकापेक्षयैवैकस्मिन् वस्तुनि सत्चमभ्युपगम्यते, अन्यथा पदपेक्षया इस्वत्वं तदपेक्षयैव दीर्घत्वं च स्यात् । एतेन सङ्करप्रसङ्गोऽपि निरस्तः, एकावच्छेदेन युगप वेदाभेदोमयस्यानभ्युपगमात् । अत एव भिन्नभिन्नापेक्षक भेदाभेदाधुभयावगाहिप्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरत्वाद्वस्तुमानं यथार्थमावाकितानेकान्तात्मकतयैव निश्चीयत इति न संशयाऽप्रतिपच्यादयः केऽपि दोषा उद्भावयितुं योग्याः । तदेवं विरोधादिदोषाकलङ्किततयाऽनेकान्ततस्वमेव प्रमाणकोटिमाटीकत इति सिद्धम् ॥ २६ ॥ । .: नन्वनेकान्तेऽनेकान्तोऽस्ति न वा, आधे तत्राप्यनेकान्ता, तत्राप्येवमित्येवमनेकान्त:
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सम्मति० काण ३, गा० २७ धाराया अविच्छित्तेरनवस्थालताऽऽकाशतलावलम्बिनी स्यात् , द्वितीये एकान्तत्वप्रसक्ति, द्वौ नौ प्रकृतं गमयत इति न्यायात् , तथा चात्र घटपटादिकमने कान्तात्मकं वस्तुत्वादिति पर्यवसितानुमानेऽनेकान्त एव व्यभिचारदोषप्रसक्तिः, अनेकान्तात्मकत्वाभाववत्यनेकान्त एव वस्तुत्वहेतोस्सत्वादिति चेत्, उच्यते, यो हि वस्तुमात्रमनेकान्तात्मकमिति ब्रूते से कथमनेकान्तेऽनेकान्तोऽस्ति न वेति पर्यनुयुज्येत, अनेकान्तत्वस्य वस्तुत्वसमनियतत्वेन जिनानुगैरुक्तत्वादनेकान्तेऽनेकान्तत्वाभावे वस्तुत्वव्यापकत्वांशासचनेन तथात्वं न स्यादिति तदन्यथानुपपत्याऽनेकान्तेऽप्यनेकान्तत्वस्येष्टत्वात् , न चानवस्था, तृतीयचतुर्थात्य. न्तामाक्योायमते प्रथमद्वितीयात्यन्ताभावात्मकत्ववत् तृतीयचतुर्थानेकान्तयोरपि प्रथमद्वितीयानेकान्तात्मकत्वाभ्युपगमात् , यथा नैयायिकादीनां घटाभावोऽतिरिक्त एक, तदभावश्च घट एव, तृतीयाभावश्चाद्याभाव एव, चतुर्थाभावश्च द्वितीयामाव एव, इत्यादिरीत्या नानवस्था तथाऽस्माकं " अनेकान्तः। १। अनेकान्ताऽनेकान्त एकान्तः ॥२॥ घटाभावामावो घट इवेति द्वितीय भेदः। तदनेकान्त आद्य एव, घटाभावाभावाभावो घटाभाव इवेति तृतीय मेदः । " तदनेकान्तश्च द्वितीय एवेति का नामानवस्थेत्याशयेनाह
भयणा वि हु भइयव्या, जह भयणा भयह सव्वदव्वाई।
एवं भयणा णियमो वि होइ समयाविरोहेण ।। २७ ।। "जह भयणा भयइ सबदवाइं" यथा भजना भजते सर्वद्रव्याणि, यथाऽनेकान्तो जीवाजीवसर्ववस्तूनि भिन्नाभिन्नं नित्यानित्यमित्यादितदतत्स्वभावात्मकतया ज्ञापयति तथा “ भयणा वि हु भइयबा" भजनाऽपि अनेकान्तोऽपि खलु भजनीया, स्यादेकान्तः स्यादनेकान्त इत्येवमनेकान्तोऽप्यनेकान्तः । यद् यद्वस्तु तत्तदनेकान्तात्मकम् , यथाऽऽत्म. घटादिकमिति व्यायाऽनेकान्तत्वस्य वस्तुत्वव्यापकत्वेन सिद्धेश्वेतनाचेतनयोरिवानेकान्तेऽपि व्याप्यस्य वस्तुत्वस्य नियमेन सत्वात्तध्यापकस्यानेकान्तत्वस्याऽप्यवश्यम्मावेना. नेकान्तस्थाप्यनेकान्तानुविद्वैकान्तगर्भत्वात् । कथमनेकान्तेऽनेकान्त इति चेत्, उच्यते, नयापेक्षया स्यादेकान्तः प्रमाणापेक्षया च स्यादनेकान्तः, “अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः" इत्यभिधानात् । तथाहि-यथा नित्यानित्यादिशचलैकस्वरूपे वस्तुनि नित्यत्वानित्यत्वाधेकतरधर्मावच्छेदकावच्छेदेनैकतरधर्मात्मकत्वम्, उभयधर्मावच्छेदकावच्छेदेन वोमयधर्मात्मकत्वं तथा नित्यत्वानित्यत्वादिसप्तधर्मात्मकत्वप्रतिपादकता. पर्याप्त्यधिकरणेऽनेकान्तमहावाक्येऽपि सकलनयवाक्यावच्छेदेनोक्तरूपमनेकान्तात्मकत्वं प्रत्येकनयवाक्यावच्छेदेन चैकान्तात्मकत्वं च न दुर्वचमिति भावः । एतदेवाह-" एवं मयणा णियमो वि होइ समयाऽविरोहेण" अत्रापिशब्दस्य चकारार्थत्वात् , एवं पूर्वोक्तनीत्या भजना अनेकान्तो नियमकान्तश्च समयस्य सिद्धान्तस्य " रयणप्पभा सिय सासया सिय
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सम्मति० काण्ड ३, गा० २७
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दबट्टयाए सासया पजवढ्याए असासया
असासया " इत्येवमनेकान्तप्रतिपादकस्य इत्येवं चैकान्ताभिधायकस्याऽविरोधेन सिद्धो भवति । खण्डखाद्ये -- देशेन देशदलनं भजनापथे तु, स्वच्छासने निजकरेण मलापनोदः । व्याघातकृन्न भजना भजना जनाना, मित्थं स्थितौ शबलवस्तुविवेकसिद्धिः॥४२॥
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इति श्लोकटीकायामित्थमुक्तम् - भजनामजना स्याद्वादेऽपि स्याद्वादः, न व्याघातकृत् न स्याद्वादलक्षणक्षतिकृत्, एकत्र धर्मिणि प्रतिधर्मं सप्तधर्मप्रकारकबोधजनकतापर्याप्तिमद्वाक्यत्वस्य स्याद्वादलक्षणस्य प्रतिभङ्गमेकधर्मावधारणत्वरूपनयत्वेऽप्यविरोधात् । तदाह समन्तभद्रः - अनेकान्तेऽप्यनेकान्त इत्यादि, प्रमाणत्वमाश्रित्याने कान्तः नयत्वमाश्रित्य चैकान्त इत्येतदर्थः । यदि च स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तमङ्गयात्मक महावाक्ये स्यात्पदस्थ वाचकत्वपक्षे बुद्धिविषयावच्छेदकावच्छिन्नत्वमेव तदर्थः, तदा सामान्यतोऽवच्छेदकला मे विशेषतस्तजिज्ञासायां तदनन्तरं स्वद्रव्यापेक्षयाऽस्त्येवेत्यादिरेकान्तेन नयवाक्यप्रयोग इति तस्यापि प्राक्तननेकान्तसापेक्षत्वेनानेकान्ताऽनेकान्तत्वं परिभाषते, अत एव नानवस्था, तृतीयचतुर्थाने कान्तयोः प्रथमद्वितीययोरेव विश्रामात्, अन्योन्याश्रयस्तु प्रामाणिक इति बहवः । विशेषतोऽवच्छेदकजिज्ञासाया अपि सप्तविधाया औत्सर्गिकत्वात् भङ्गद्वयप्रयोगस्य च व्युत्पन्नापेक्षत्वात्, सामान्यविशेषभावेन सप्तभङ्गीद्वयविश्रामे तदादिवत् स्यात्पदेन लब्धस्यार्थस्य विवरणेन स्पष्टत्वार्थं वोचरप्रयोगान्न दोषस्पर्शोऽपीति च यमित्यादि । अत्र प्रमाणत्वमाश्रित्येत्यादेरयमर्थः - स्याद्वादः प्रतिभङ्गमेकधर्मावधारणरूपत्वेन नयात्मकः, सप्तभङ्गयपेक्षया तु सप्तधर्मावधारणरूपत्वात् प्रमाणरूपः, अतो नयत्त्रप्रमाणत्वोभयधर्मशालित्वात् स्याद्वादोऽपि स्याद्वादरूप इति । अस्मिन् कल्पेऽवच्छेदकस्य सङ्कोच. विकास भावेनैकान्तत्वानेकान्तत्वविचारणा न कृता, यदि चेति कल्पे तु तथाविचारणा कृतेति विशेषः । अयम्भावः -- स्यादस्त्येवेति मङ्गे स्यास्पदस्य वाचकत्वपक्षे बुद्धिविषयत्वेन रूपेण स्वद्रव्यादीनां चतुर्णामप्युपसग्रहादने कावच्छेदकमुखेनावच्छेद्य प्रतिपादनादनेकान्तत्वम्, विशेषावच्छेदकजिज्ञासया प्रतिपाद्यमाने च स्वद्रव्याद्यपेक्षयाऽस्त्येवेत्यादिभङ्गे प्रतिनियतावच्छेदक विशेष मुखेनावच्छेद्यप्रतिपादनादेकान्तत्वमिति कृत्वा स्यादस्त्येवेत्यादि सप्तवाक्यापेक्षयाऽनेकान्तः स्वद्रव्याद्यपेक्षया स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गापेक्षयैकान्त इत्यनेकान्ते सामान्यतोऽवच्छेदकावच्छेदेनास्तित्वाद्यभिधायकस्य तत्तद्भङ्गस्यावच्छेदकांशे- नेकान्तत्वं विशेषतोऽवच्छेदकावच्छेदेनास्तित्वाद्यभिधायकस्य तत्तद्भङ्गस्यावच्छेदकांशे एकान्तत्वमित्येवमनेकान्तस्यैकान्तत्वो भय धर्म योगादनेकान्तता, पूर्व स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गथास्सामान्यतोऽवच्छेदकमादाय सप्तधर्मज्ञानम्, ततश्च सामान्यज्ञानाद्विशेषजिज्ञासया स्वद्रव्याद्यपेचया स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गीप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्या च प्रथमसप्तभङ्गयात्मकाने
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सम्मति० काण्ड ३, गा० २८
कान्तस्य स्वस्वरूपेणानेकान्तत्वेऽपि द्वितीयसतमङ्गयपेक्षया एकान्तत्वमित्यनेकान्तता, एवं द्वितीय सप्तभयास्स्वस्वरूपेणैकान्तत्वेऽपि प्रथमानेकान्तसप्तभङ्गयपेक्षयाने कान्तस्व मित्यनेकान्ततेति । अन्यत्सर्वमस्मत्प्रणीत महावीरस्तव कल्पलतिकातोऽवसेयम्, विस्तरमया नेह प्रतन्यते ॥ २७ ॥
नन्वनेकान्तत्वस्य वस्तुत्वव्यापकत्वे षड्जीवनिकायास्तवाते चाधर्म इत्यत्राप्यनेकान्तापतिरस्यादित्याशङ्कामिष्टापच्या परिहर्तुमाह
णियमेण सहहतो छक्काए भावओ ण सहहह ।
हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥ २८ ॥
,
" नियमेण सद्दहंतो " नियमेनावधारणेन पडेवैते जीवाः कायाश्वेत्येवं श्रद्दधानः aare भावओ ण सद्दह " षट्कायान् भावतः परमार्थतो न श्रद्धत्ते, जीवराशेरेकत्वेन तदपेक्षया जीवेष्वेकत्वस्य कायेष्वपि पुद्गलत्वेन रूपेणैकत्वस्य जीवपुद्गलप्रदेशानां परस्पराविनिर्भागवृत्तित्वाजीवप्रदेशेष्वपि कथञ्चिदजीवत्वस्य च निकायेष्वपि प्रत्येकं प्राधान्यवित्रक्षया कथञ्चिदनिका यत्वस्य च सद्भावेऽपि एवं प्रमादयोगेन प्राणव्यपरोपणं हिंसेति हिंसालक्षणोक्तेः प्रमादकृत हिंसा हिंसैवेति तथा स्यादधर्मः, अप्रमादकृतहिंसा त्वहिंसैव, उक्त हिंसालक्षणाऽघटनादिति तया नाधर्मः सूत्रविहितविधिना प्रवृत्तत्वात् इत्युभयधर्मस्य सद्भावेऽपि च तत्तद्धर्मरूपेण यथावस्थितानेकान्तात्मक वस्तुज्ञानाभावान्न भावसम्यग्दृष्टिरसौ, प्रमाण सकल तत्तन्नय गर्भससभङ्गीपथेन कथञ्चित् षट्त्वादिकथञ्चिदषट्त्वादिकथञ्चिन्निकायत्वकथञ्चिदनिकायत्वादिसप्तधर्म प्रकारकै कधर्मिविशेष्य कबोधाभावेन जिनप्रज्ञतषट्त्वापट्त्वादिसप्तधर्मान्वितभावविषयकसमूहालम्बनरुच्यमाबाद, प्रकृतधर्मघटितसत नङ्गजन्य सप्तधर्मवर्यासप्रकारताकाखण्डबोधजनितसमूहालम्बनरुचेरेव भावश्रद्वापदार्थत्वात्, द्रव्यसम्यग्दृष्टिस्तु स्वादेव, अन्यदर्शनासङ्ग्रहनिवृत्त्या जिनवचनरुचिस्वभावस्य संक्षेपसम्यक्त्रस्य तत्र सद्भा वात् । उक्तश्च सङ्क्षेपसम्यक्त्वलक्षणमुत्तराध्ययनाष्टाविंशतितमाध्ययने
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•
" अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइत्ति नायव्वो ।
अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु || २६ || " इति । नियमेन षट्कायान् श्रद्दधद् भावतो न श्रद्धत्ते इति भावतो न सम्यग्दृष्टिरित्यत्रैव हेतूपदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह-हंदीत्यादि । 'हंदि' इत्युपदर्शने, यतः अपर्यायेषु भङ्गान्तरसंवलन रहितेषु धर्मेषु अपेनिक्रमत्वात् श्रद्धाध्यऽविभक्ताऽसंपूर्णा भवति, द्रव्य श्रद्धापर्यवसन्ना भवतीति यावत् । यद्वा 'हंदि ' इत्युपदर्शने, यतः अपर्यायेषु एकया दिप्रकाररहितेषु षट्सु कार्येषु अपेर्मिनक्रमत्वात् श्रद्धाप्यविभक्ता अविविक्ता संक्षिप्ता भवति, द्रव्य श्रद्धापर्यवसन्ना भवतीति यावत् ।
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बाविक काम, मा०.४
एगविह दुविह तिविहा, चउबिहा पंच छविहा जीवा ।
यण-तस इयरेहिं, वेय-गइ-करण-कायेहिं ॥१॥ इति सिद्धान्तोक्रेकविधद्विविधत्रिविधत्वादिसिद्धान्तोक्तयावत्प्रकारेण यथाऽवस्थित. जीवतत्वावलोषो न तस्येति स्याद्वादेन विविक्तपदकायपरिज्ञानं विना स्वसमयपरसमयविवेचनं विना चौघतस्तद्रागमात्रसद्भावात् । अतएवोपदेशरहस्ये
" सदसदविसेसणाओ, विभजवायं विणा ण सम्मत्तं ।
जं पुण आणाहणो तं निउणा विंति दम्वेणं ॥ १०॥" इति गाथटीकायां " यत्पुनराबारुचेः प्रियगीतार्थाज्ञस्य मार्गानुसारिणः सम्यक्त्वम्, तनिपुणाः सिद्धसेनदिवाकरप्रभृतयः द्रव्येण ध्रुवते स्याद्वादप्रतिपत्तियोग्यतायास्तजन्य. निर्जराजनककर्मक्षयोपशमरूपायास्तेष्वखंडितत्वादित्युक्तम् ।
तथा च नियमतः षट्कायश्रद्धानेऽपि भगवतैवमुक्तमिति जिनवचनरुचिमत्वाद्व्यतः सम्यग्दृष्टित्वम् , न तु भावतः, भावसम्यग्दर्शनस्य सकलनयविषयविवेचनसाध्यत्वात् , एकविधद्विविधादिपर्यायाऽपरिच्छेदे तदनुपपत्तेरिति भावः । अत एव शास्त्रे सम्यक्त्वं तावद्रव्य. भावभेदाद् द्विविधं प्रोक्तम्, तत्र परमार्थाऽपरिज्ञानेऽपि भगवद्वचनतस्वरुचिराधम् , परमार्थपरिज्ञानतश्च द्वितीयम्, तच्च नयनिक्षेपादिपरिच्छेदाधीनयथाऽवस्थितसूत्रतात्पर्यार्थपरिज्ञानजन्यविशिष्टप्रवचनतस्वरुचिस्वभावम् । तदाह. "तुह वयणतत्तरूई, परमत्थमयाणओ वि दव्वगयं ।
इयरं पुण तुह समये, परमत्थावगमओ होइ ॥ १ ॥" इति । । उक्तलक्षणं द्रव्यसम्यक्त्वमपि शुभात्मपरिणामविशेषानुगतं भावसम्यक्त्यरूपमपि न व्यभिचरति, अर्पितानर्पितसिद्धेभयरूपाविरोधात , अत एवं रूचि भेदा अपि द्रव्यसम्ब. स्वरूपेण भासमाना अपि झायोपशमिकादिभेदेवताविता वाचकचक्रवर्तिना प्रजाती । तदयमपेक्षयैव द्रव्यभावविभागो भावनीय इत्युक्तं प्रतिमाशतकटीकायाम् । __ यद्वा अपर्यायेषु एकादिप्रकाररहितेषु षट्सु कायेषु श्रद्धाऽविभक्ता भवति, स्याद्वादज्ञानपरिसमाप्याकासाऽपरिपूर्णाऽविश्रान्ता भवति, एगविहदुविहेत्यादिपूर्वगायोक्तप्ररूपणयैन तद्विश्रान्तिसम्मवाद, यतो नियमेन षडेव जीवनिकाया इति श्रद्धानवतः प्रकृतषट्त्वादि. धर्मघटितसप्तमङ्गप्रतिपाद्यसप्तधर्मपर्याप्तप्रकारताकस्य स्याद्वादजन्यबोधस्याऽमावेन तत्परिसमायायास्तादृशबोधनिवाया आकाङ्क्षयास्सप्तविधधर्मजिज्ञासाया निवृत्तिलक्षणपरिप्रभावन पडेन जीवनिकाया इति श्रद्धा अविश्रान्ता अपरिपूर्णा भवति । अत्र विशेषजिज्ञासुभिर्नयोपदेशटीकाऽनेकान्तव्यवस्थाऽष्टसहस्त्रीप्रतिमाशतकादयोऽवलोकनीया इति ।
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सम्मति• काल , गा० ५ तदेवमत्राप्यर्हच्छास्त्रपरिकर्मितमतेर्जीवनिकायधर्मिणि स्यादेकत्वानेकत्वषड्विधत्वाषद्विधवादिना सप्तभङ्गीपथेन स्यादेकत्वस्यादनेकत्वस्यात्लड्विधत्त्वस्यादपविधत्वादिसप्तधर्मप्रकारकाखण्डबोधस्यैवोत्पत्तेन व्यापकोऽनेकान्त इति ध्येयम् ॥ २८ ॥
ननु वस्तुत्वस्यानेकान्तत्वव्याप्यत्वेन तदतत्स्वभावात्मकं वस्तुमात्रमित्यभ्युपगमे गच्छति तिष्ठतीत्यत्रापि तथास्वभावापत्या गमनक्रियावद्रव्ये गच्छति स्थितिक्रियावद्रव्ये च तिष्ठतीति नियतव्यवहारो विलुप्त एव स्यादित्याशङ्कासुद्धर्तुमाह
गहपरिणयं गई चेव, केह णियमेण दवियमिच्छंति ।
तं पि य उड्डगई, तहा गई अण्णहा अगई ॥ २९ ॥ " गइपरिणयं दवियं णियमेण गई चेव केइ इच्छति" गतिपरिणतं गतिक्रियापरिणतं द्रव्यं नियमेन गतिमदेव, एवकारेण नागतिमदित्युक्तं भवति, इत्येवं केचिदिच्छन्ति मन्यन्ते तनिषेधार्थमुत्तरार्द्धमाह-तं पि येत्यादि । तदपि च गतिक्रियापरिणतं जीवद्रव्य सर्वतोगमनाऽयोगादूर्वादिप्रतिनियतदिग्गतिकमिति तैर्वादिमिरम्पुपगमे कृते सत्येवोवं गच्छत्तीति विवक्षितप्रतिनियतदिगवच्छिन्नगतिव्यवहार उपपन्नो भवति, नान्यथा, यतस्सा. मान्यतो गच्छतीत्युक्तौ कस्यां दिशीति जिज्ञासा समुल्लसत्येव, सा च विवक्षितदिगुक्त्यैव शान्ता भवतीति, तथा च विवक्षितप्रतिनियतदिगपेक्षया गतिमत् , दिगन्तरापेक्षया चागतिमदेवेति सिद्धं भवति । अयम्भावः-यथा पर्वते शिखरे वह्निः, न तु नितम्बे इति प्रतीतिबलाच्छिखरावच्छेदेन पर्वतो वह्निमान् , न तु नितम्बदेशावच्छेदेनेति तथेदं द्रव्यमूर्ध्वदिशि गच्छति न तु दिगन्तर इति प्रतीतिभावाद् गतिक्रियापरिणतं द्रव्यमूर्धादिप्रतिनियतदिगवच्छेदेन गतिमत्, न तु दिगन्तरावच्छेदेनेति तत्तदन्यदिगवच्छेदेनोभयस्वभावं तदम्युपगन्तव्यम् , अन्यथाऽभिमतदिगवच्छेदेनेवानभिप्रेतदिगवच्छेदेनापि गतिमत् स्यात् , तथा चैककालावच्छेदेनानुपलभ्यमानविरुद्धोमयदेशप्राप्तिस्स्यात् , न च सानुभवसिद्धेत्यनुभवबाधा, न चैकदैकस्मिन्नेव पर्वते भिन्नदेशावच्छेदेन स्थितवहितदभावाविव एवमिदानीं तन्तौ न घट इति प्रतीतेपटवत्यपि काले तन्त्ववच्छेदेन घटाभावस्य घटविनाशकाले इह कपाले न घट इति प्रतीतेर्घटवत्यपि कपाले घटनाशकालावच्छेदेन घटाभावस्य च नैयायिकैरभ्युपगमेन भिन्न देशकालावच्छेदेनकाधिकरणावस्थितषटघटाभावाविव भिमभिन्नादिगवच्छिन्नगवितद ऽभावी विरुद्धौ, येनैकस्मिन् द्रव्ये एककाले तौ न स्याताम्-तथा च कारणसमाजेन विवक्षितप्रतिनियतदिगवच्छिन्नगतिपरिणामस्वभाववति द्रव्ये तदानीमेव तदन्यदिगवच्छिमाऽगति. परिणामस्वभावोऽप्युत्पद्यत इति नात्राप्यव्यापकोऽनेकान्तः । अथाभीष्टदेशगतिरेवानभि. मतदेशागतिरिति विध्येकस्वरूपत्वान्नानानेकान्तोऽवकाशं भजत इति चेत्, तर्हि यद् यस्य विरोधि तत् तदभावसच्च एव स्वस्वरूपं बिभर्तीति विरोधिन्या अनभिमतदेशगतेरभावा
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सम्मति का , गा० २९ मावेऽभीष्टदेशगतिकमेव द्रव्यं न स्यात् । किशानमिमतदेशागतिरेवामीष्टदेशगतिरिति विपर्ययमपि वक्तुर्वक्त्रं नैव वक्रीभवेत् , तथा चानमिमतदेशागतिस्वभावस्य प्राधान्ये बौद्धनयेनामावस्य तुच्छरूपत्वादभीष्टदेशावच्छेदेनापि द्रव्यं गतिकार्यार्जनाय समर्थन स्यात् । नवभीष्टदेशगतिस्वभाव. प्रतिनियतवस्तुन्येव वचेत इत्यसाधारणधर्मत्वात्तस्य स्वभावत्वाम्युपगमो युक्तः, न चैवमनमीष्टदेशागतिस्त्रमावस्य, तस्य वस्तुमात्रवृत्तित्वेन साधारणधर्मत्वादिति चेत् , मैवम् , यतोऽभीष्टदेशावच्छिानुयोगिकस्त्ररूपसम्बन्धेनानमि. प्रेतदेशागतिस्वमावस्याभीष्टदेशावच्छिमवस्तुन्येत्र सत्रवेनासाधारणधर्मत्वात्तस्य स्त्रमावत्वाभ्युपगमो नायुक्त इति । न चात्र शुद्धद्रव्यत्वेन रूपेणाभिमस्यापि गतिमरखे नागविमरवेन च मेदस्सिस्स्यात्तदाऽनेकान्तावकाशस्स्यात् , न चैवम् , तथा सति गच्छति द्रव्धे न गन्छ. तीत्यपि व्यवहारापत्तिस्स्यादित्याशङ्कितव्यम्, विवक्षितप्रतिनियनदेशावच्छेदेन गतिसामान्यववस्येव तदिनदेशावच्छिन्नानुयोगिकस्त्ररूपसम्बन्धेन गतिसामान्यामाववचस्यापि तद्रव्ये सफ्वेनोक्तव्यवहारस्येष्टत्वात् । एतेन गतिमदेवेत्येकान्तेन गतिसामान्यवति गति. सामान्याभावो निषिध्यते स च गतिविशेषामावेन न वाध्यते, न हि विशेषाभाव एवं सामान्याभाव इति कोऽयमनेकान्त इत्याशङ्कापि निरस्ता, सामान्यविशेषयोः कथश्चिद. भिमत्वेन गतिविशेषस्यापि गतिसामान्यरूपतया गतिविशेषाभावस्यापि गतिसामान्या. मावत्वात्, न हि विशेषस्सामान्याव्यतिरिक्त एव, तथा सति यत्र विशेषस्तत्र सामान्यस्य सत्वे पृथक् पृथक् विशेषः सामान्पश्चैकत्रोपलभ्येत, न च विशेषस्य कस्यचिदभावे सामान्यस्यास्ति सम्भव इति गतिसामान्यस्य गतिविशेषाभावस्य च संबलने स्यादेवानेकान्तः, यत्किश्चिद्गतिविशेषाभाववति योऽयमगतिव्यवहारस्म गतिविशेषमावस्वरूपमेव गत्यभावमुपादायेति यत्किञ्चिद्विशेषामावाधिकरणावच्छेदेन गतिसामान्यामावो गतिविशेषाभावानतिरिक्त एव, अर्थात् गतिसामान्यवति गतित्वेन रूपेण गतिसामान्यस्य सरवेऽपि गतिविशेषत्वेन रूपेण गतिसामान्यस्यामावोऽपि विद्यत इति तादृशस्य गतिसामान्याभावस्य गतिविशेषाभावानतिरिक्तत्वमेव, तादृशाभावसम्बलनेनानेकान्तोबारित. प्रसर एव, यश्च यावद्विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन विद्यमानो गतिसामान्यामावस्तस्य गतिविशेषाभावासमनियतत्वेन भवतु गतिविशेषाभावातिरिक्तत्वम् , तमुपादायानेकान्तत्वा. भावेऽपि न नो हानिः, गतिसामान्यस्य येन केनचिद्गतिसामान्याभावेन सहकत्र समावेशत एव भावाभावोभयरूपसमावेशप्रयुक्तानेकान्तवादसाम्राज्यात्, नन्वेकान्तवादिना यदेव निषिध्यते तस्यैव विधानेऽनेकान्तवादसाम्राज्यम् ,गतिपरिणतं गतिमदेवेत्येवकारेण गतित्वा. बच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव निषिध्यते, गतिविशेषत्वेन गतिसामान्याभावस्तु न गविस्वापच्छिन्नप्रतियोगिताक इति तद्विधानेऽपि नैकान्तव्यापात इति चेत्, न, गतित्वेन गति. विशेषाभावस्य गतित्वावच्छिमप्रतियोगिताकत्वेन तमुपादायकान्तव्याघातापतेः, न च
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मति• काय ३, मा० ३. गतित्वावच्छिनगतिसामान्यनिष्ठप्रतियोगिताकात्यन्ताभावेन सह गतिसामान्यस्य नैका समावेश इति तद्विरोधकान्ताच्याघात एवेति वाच्यम्, गतिसामान्यामावस्यैवैकस्य यत्किञ्चिद्गतिविशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन गतिविशेषत्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्वं यावद्गतिविशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन गतित्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्वमित्यस्याभ्युपगमेन याव.
द्रातिविशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन गतिसामान्याभावस्य गतिसामान्यविरुद्धत्वेऽपि गति. विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन तस्य गतिसामान्येन सममविरोधस्यापि भावेन विरोधा. विरोधयोरप्यनेकान्तस्य साम्राज्यादिति । एवमेव भूतलादिप्रतिनियतदेशापेक्षयैवैकस्मिन् द्रव्ये स्थितिमत्वं ने तु देशान्तरापेक्षयेति मिममिभदेशापेक्षया स्थितितदभावोमयसरवा. दत्राप्यनेकान्तो भावनीयः ।। २९ ॥
ननु वस्तुमात्रं तदतत्स्वभावात्मकमिति स्याद्वादपक्षे दहनात् अर्थादाहानुकूलशक्तिमवादहन इतीव स किमदहनात् अर्थाहादानुकूलशक्त्यभावात्तदानी मेवादहनोऽपि ! एवं पचनात् अर्थात् पाकानुकूलशक्तिमत्त्वात्पचन इव स किमपचनात् अर्थात् पाकानुकूलशक्त्यभावात्तदानीमेवाऽपचनोऽपि ! । ओमिति चेत् , तर्हि विरुद्धस्वभावापरया तेन स्वस्वरूपमपि परिहतं स्यादिति चेत्, स्यादेतद् यदि दहने यदपेक्षया दहनत्वस्वभावः पचनादौ च पचनत्वादिस्वभावस्तदपेक्षयैव तद्विरुद्धस्वभावस्स्यात्, न चैवम् , स्वभावद्वयस्य मिनापेक्षकत्वादित्युपपादनायाह
गुणनिवत्तियसपणा, एवं दहणादओ वि दट्टव्वा ।
जंतु जहा पडिसिद्धं, दवमदव्वं तहा होई ॥३०॥ "गुणनिवत्तियसण्णा दहणादओ वि" गुणनिर्वर्तितसंज्ञा दहनादयोऽपि, गुणेन दहतीति दहना पचतीति पचन इत्यादिव्युत्पत्तिसिद्धदाहानुकूलशक्तिमत्त्वलक्षणदहनत्वपाकानुकुलशक्तिमत्वलक्षणपचनत्वस्वभावात्मकेन निर्तिता उत्पादिता संज्ञा येषां तेऽपि दहनपचनादयः, 'एवं दवा' तथैवानेकान्तात्मका दृष्टव्या:, कथञ्चिद्दहनादहनोभयात्मका अभ्युपगन्तव्या, दहनस्य दाहपरिणामयोग्यतृणायपेक्षया दहनत्वात् , पचनस्य च पाकपरिणामयोग्यौदनाद्यपेक्षया पचनत्वात् , तत्परिणामायोग्यापेक्षया चातथात्वात् , तदेवाह-'जंदवं तु जहा पडिसिद्धं तहा अदछ होइ" यद्रव्यं तु यथा प्रतिषिद्धं तथा अद्रव्यं भवति, यद्रव्यं वदाह्याऽऽत्माकाशाप्राप्तवज्रावाद्यपेक्षया यथा दाहाऽऽद्यनुकूलशक्तिमचलक्षणदहनादिरूपतया प्रतिषिद्धं तद्रव्यं तदपेक्षया दाहकत्वादिशक्त्यभावात् अद्रव्य. मदहनादिरूपं, दहनाद्यऽभावरूपमिति यावत् , तथा मजनाप्रकारेण भवति, दाह्यं तृणादिकं दहनो दहति, न त्वदाह्यमात्माऽऽकाशादिकमिति प्रतीतेदेहनः स्याद्दहनः स्याददहन इत्यत्राप्यनेकान्त एव नितरां सिद्धिकोटिपढौकते, तथाऽदहन इत्यत्राप्यनेकान्तो भावनीया,
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सम्मति वास. ३, गा• ॥ तथाहि-यदुदकद्रव्यं दाहकत्वशक्यभावाइहनरूपेण प्रतिषिद्धं तदपि न सर्वथाऽदहनद्रव्य भवति, पृथिव्यादेरदहनरूपाद् व्यावृत्ततथा कश्चिदऽतथात्वात् , अन्यथा दहनव्यतिरिक्तभूतैकत्वप्रसङ्गर, इत्यत्राप्यऽनेकान्त एव, समयाऽविरोधेन भजनाप्रवृत्तेरिति दिक ॥ ३०॥
अथ जीवः स्वस्वरूपापेक्षया जीवः कुम्भादिपररूपापेक्षया च न जीवः, एवमजीवोऽपि स्वस्वरूपापेक्षयाऽजीवो जीवात्मकपररूपापेक्षया च नाजीव इति तयोः कश्चिदुभयात्मक स्वादनेकान्तात्मकत्वमित्युपपादनायाह
कुंभो ण जीवदवियं, जीवो वि ण होइ कुंभववियं ति।
तम्हा दोवि अदवियं, अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥ ३१ ॥ कुम्भो न जीवद्रव्यं भवति, जीवोऽपि न भवति कुम्भद्रव्यं, तस्माद् द्वावयद्रव्यमन्योन्यविशेषितौ परस्परल्यावृत्तात्मको भवतः। अयम्भावः-कुम्भाधजीवद्रव्यं जीवाद् व्यावृत्तं एवं जीवद्रव्यमपि कुम्मादेरजीवद्रव्याझ्यावृत्तम् , अन्यथा सर्वस्य सर्वात्मकत्वं स्यादिति प्रतिनियतरूपामावतस्तयोरभावस्स्यात् , खरविषाणवत् , तथा च प्रतिनियतरूपान्यथाऽनुपपश्या तयोः परस्परव्यावृत्तस्वरूपत्वे च स्वरूपापेक्षया जीवो जीवद्रव्यं कुम्मायजीवद्रव्यापेक्षया तु न जीवद्रव्यम्, एवमजीवोऽपि स्वस्वरूपापक्षयाऽजीवद्रव्यं जीवापेक्षया तु नाजीवद्रव्यम् , ततो वस्तुमात्रस्याऽऽपेक्षिकतदतत्स्वभावात्मकत्वात् सर्वमनेकान्तात्मकमिति व्यवस्थितम् । नन्वेवमजीवो जीवापेक्षया नाजीव इति द्वौ नौ प्रकृतं गमयत इति न्यायाद् जीवोऽपि स्यादिति चेत्, मैवम्, अभावपरिणतेः परापेक्षत्वेऽपि भावपरिणते: स्वापेक्षत्वात् स्वस्वरूपापेक्षया जीवः कुम्माद्यपेक्षया न जीवः, स्वस्वरूपापेक्षयाऽजीवोऽपि जीवापेक्षया नाजीव इति व्यवहारोऽपि स्याद्वादव्युत्पत्तिमहिम्ना सूपपाद एवेति सुधीभिर्भावनीयम् । न चायमनेकान्तः कल्पनामात्रनिर्मितवपुष्टुन न वस्तुगतसद्धर्मसाधकः, कल्पनाया निरहशत्वेनाप्रमाणभूतत्वादिति वाच्यम् , निपुणं निरूपणे प्रज्ञावद्भिः सर्ववस्तूनामनेकान्तात्मकतयेवाकलनादिति ॥ ३१ ।। ___ अथोत्पमकेवलज्ञानेन भगवता "उप्पजेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" इति त्रिपद्या प्रवचनाधारभूतया जीवाजीवात्मकं जगत् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावपेक्ष्य प्रतिक्षणोत्पादव्ययध्रौन्ययुक्तमाख्यायि, अत एव प्रवचनोपनिषद्वद्येतद्वन्थकृत्सरिवरेण-"उप्पायट्टिइभंगा हंदि दवियलक्षणं एयं" इत्यनेन नयद्वयविषयकप्रमाणार्पणया परस्परानुविद्धोत्पादस्थितिमहालक्षणं वस्तुत्वसमनियतं प्रोक्तम् , अत्रोत्पादः 'उत्पन्ममिदम्' इति धीसाक्षिको धर्म, स किमेकविध एव किंवा प्रकारान्तररूपोऽपीत्याशङ्कायामाह
यद्वोत्पादादयो “मृदि घट उत्पनो मृदि घटो विनष्टो मृद्रव्यरूपेण स्थिरश्शेति पीसाक्षिका आधारस्वादिक्दतिरिक्ता अपि, न स्वापक्षणसम्बन्धादिरूपा एव, क्षण एवा
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सम्मतिः काल गा. ३२ मावाद, क्षणे आद्यक्षणसम्बन्धरूपोत्पादसिद्धये तत्रापि क्षणान्तरस्याधस्य सम्बन्धकल्पना. यामनवस्थापत्तेः, तत्रोत्पादादीनां घटस्वादिना प्रतियोगित्वम्, मृवादिना चानुयोगि. स्वम्, द्रध्ये तु पर्यायोपहितरूपेण प्रतियोगित्वम् , तत्र चानुयोगितायाः प्रतियोगिन्येव समावेशाद् द्रव्यस्य नाऽनुयोगित्वम् , यथा 'घटविशिष्टं मृद्रव्यमुत्पन्नम् , ' इति । इदमत्रावधेयम्-कस्योत्पाद इत्याकासानिवृत्तिर्घटस्योत्पाद इत्युक्त्यैव भवति, कस्ये. त्याकासानिवर्तकस्य प्रतियोगित्वम् , यथा अयं गुरुरित्युक्तौ कस्य गुरुरित्याकासानिवृत्ति चैत्रस्येत्युक्त्या भवतीति शुरुत्वप्रतियोगित्वं चैत्रस्य, तथोत्पादप्रतियोगित्वं घटत्वेन घटस्य, एवं विनाशादिप्रतियोगित्वमपि, कुत्रेत्याकासानिवर्तकस्यानुयोगित्वम् यथा वह्वेः संयोग इत्युक्तौ कुत्रेत्याकासानिवृत्तिः पर्वते इत्युक्त्या भवतीति पर्वतस्य संयोगानुयोगित्वम् , तथा घट उत्पद्यते इत्युक्तौ कुत्रेत्याकाहानिवृत्तिः मृदि घट उत्पद्यते इत्युक्त्या भवतीति मृचादिना मृदादीनामनुयोगित्वम् , किमुत्पनमित्याकामानिवतेकं घटविशिष्टमृद्रव्यमुत्पन्न मिति, यहा कस्योत्पाद इत्याकासानिवर्तकं घटविशिष्टमृद्मव्यस्योत्पाद इति प्रयुज्यते यत्र तत्र घटात्मकपर्यायविशिष्टमृगव्यस्य किमित्याकाङ्क्षायाः कस्येत्याकासायाश्च निवर्तकत्वात्प्रतियोगित्वं, कुत्रेत्याकाक्षा त्वत्र नास्त्येव, यन्निवतेकत्वान्मृदोऽनुयोगित्वं सम्भाव्येतापि, घटस्य पर्यायमात्रस्योत्पादविवक्षायामेव मृदि घटस्योत्पादस्य भावादनुयोगित्वं स्यात् , सा विवक्षा तु नादृता, किन्तु घटपर्याय विशिष्टमृद्व्यस्यैवोत्पादो विवक्षित इति अनुयोगिन्या अपि मृद: प्रतियोगिकोटावेव प्रक्षिप्तत्वादिति । न चात्र विशेषणस्यैवोत्पादो विषय इति वाच्यम् विशिष्टस्यैव प्रतियोगित्वानुभवात् , इतरत्रान्वितस्य घटस्योत्पादेऽन्वयायोगाच । न च विशिष्टहेतुकल्पने गौरवम्, घटहेतूनामेव घटविशिष्टहेतुत्वात् । अत एव क्षणहेतूनामेव क्षणविशिष्टहेतुत्वात् उत्पत्त्यनन्तरक्षणेषु सर्वत्राविशिष्टवैससिकोत्पादसिद्धिः, तथा चात्रोक्तयुक्तिसिद्धातिरिक्तोत्पादः किमेकविध एव किं वा प्रकारान्तररूपोऽपीत्याशङ्कायामाह
उप्पाओ दुवियप्पो, पओगजणिओ अ विससा चेव । ... तत्थ य पओगजणिओ, समुदयवाओ अपरिसुद्धो ॥ ३२ ॥ - " उपाओ दुचियप्पो" उत्पादो द्विविकल्पः, प्रायोगिकवैनसिकमेदाभ्यां प्रकारद्वयात्मकः, विकल्पद्वयमेवाह-" पओगजणिओ अ विससा चेवत्ति" स्तम्भकुम्मादीनां प्रेक्षाकारिपुरुषक्रियाजन्यत्वात् प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण पुरुषप्रयत्नेनेति यावत् जनितो निर्वर्त्य उत्पादः प्रयोगजनिता, पुरुषव्यापाराजन्य उत्पादो विलसाजनितः, न च पुरुषतरकारकव्यापारजन्यत्वं विस्रसाजनितोत्पादस्य लक्षण मस्त्विति वाच्यम् , प्रायोगिकेऽतिव्याप्ते, तन्मात्रजन्यत्वं तु गुरुत्वादत्रैव विश्राम्यति, तस्मात्पुरुषतरकारकव्यापारजन्यत्वं स्वरूपकथनमात्रम् , न तु तल्लक्षणम् । तत्राबभेदस्वरूपप्रतिपादनायोत्तरार्द्धमाह-तत्थेत्यादि । तत्र च-उक्तमेद
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सम्मति• का , गा० ३३
३० द्वयमध्ये चेत्यर्थः, प्रयोगजनितो मूर्तिमद्व्यावयवारब्धत्वात्समुदयवादः, तथाभूतारब्धस्य समुदायात्मकत्वात् , तत एव चासावपरिशुद्ध इति गीयते, अत्रापरिशुद्धत्वं स्वाश्रययावदवयवोत्पादापेक्षया पूर्णस्वभावत्वम् , न ह्यपूर्णावयवो घट उत्पद्यमानः कात्स्येनोत्पन्न इति व्यवाहियत इति । ननु न प्रयोगजन्य उत्पादः, घटादेरेव प्रयत्नजन्यत्वात् , उत्पादस्य त्वाधक्षणसम्बन्धलक्षणस्यातथात्वात् , यता कपालादीनां घटत्वावच्छिनं प्रति कारणत्वम् , न तु घटोत्पादत्वावच्छिन्नं प्रतीति चेत्, मैवम् , ' मुद्गरपाताद् नष्टो घटः' इति व्यपदेशाद् नाशे मुद्गरपातजन्यत्ववत् 'पुरुषव्यापारादुत्पनो घटः' इति' व्यवहारा. दुत्पादेऽपि पुरुषव्यापारजन्यत्वस्यावश्यकत्वात् । विविच्याननुभूयमानत्वेनोत्पादापलापे च नाशस्याप्यपलापप्रसङ्गात् । उत्पत्तेराद्यक्षणसम्बन्धेनान्यथासिद्धी नाशस्यापि चरमक्षणसम्बन्धेनान्यथासिद्धेः सुवचत्वात् , घटप्रतियोगिकत्वेन नाशो विलक्षण एवानुभूयत इति चेत् तथोत्पादोऽपीति तुल्यम् । किञ्चाघक्षणे ' आद्यक्षणसम्बन्धवान् घटः' इतिवत् 'आबक्षण उत्पन्नो घटः' इति प्रयोगो न सूपपादस्स्यादिति न किश्चिदेतत् ॥ ३२ ॥ द्वितीयमेदरूपो विस्रसाजनितोऽप्युत्पादो द्विविध इत्याह-~
साभाविओ वि समुदयकओव्व एगत्तिओव्व होनाहि ।
आगासाईआणं तिण्हं परपञ्चओऽणियमा ॥ ३३ ॥ 'साभाविओ वि' स्वाभाविकोऽप्युत्पाद एकः ‘समुदयकओ व ' समुदयकृतो वा जीवप्रयत्नमन्तरेण विलसापरिणतपुद्गलसमुदायेन जनितो मूर्तिमद्रव्यावयवारब्धत्वात्समुदयजनित उच्यते इति भावः। द्वितीयश्च " एगत्तिओह होजाहि " ऐकत्विको वा भवेत् । तत्राद्यः स्वभावपरिणताभ्रेन्द्रधनुरादीनामुत्पादः, घटादीनामप्रथमतयोत्पादश्च प्रतिक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यान्यथानुपपत्तिसिद्धद्वितीयादितत्तत्क्षणविशिष्टविनाशस्य विशिष्टोत्पादनियतत्वात् , न हि मूर्तावयवसंयोगकृतत्वं समुदयजनितत्वम् , विभागकृतपरमाण्याद्युत्पादेऽव्याप्ते, किन्तु मृवियवनियतत्वम् , तच्च तदवस्थावयवस्यापि नवपुराणभावलक्षणावस्थाविशेषात् सम्भवत्ये. वेति । नन्वभ्रेन्द्रधनुरादिवदप्रथमतया घटाधुत्पादस्यापि स्वाभाविकत्वेन कारणान्तरानपेक्षत्वे घटोत्पादार्थ दण्डग्रहणादौ प्रवृत्तिर्न स्यादिति चेत्, मैवम् , उत्पादस्य प्रायोगिकवैनसिकभेदेन द्विविधत्वोक्त्या स्वाभाविकोत्पादे हेत्वनपेक्षायामपि प्रायोगिकोत्पादे तदपेक्षाधौ. व्यात्प्रवृत्त्युच्छेदाभावात् । एतेन कालादिहेतुपञ्चकसामग्याः कार्योत्पत्तिनियतत्वं जिनानुगैरभ्युपगतं तदपि स्वाभाविकोत्पादपक्षे न स्यादित्यपसिद्धान्तभीरपि निरस्ता, उक्तद्वैविध्यस्य प्रयोगविलसाप्राधान्येनैव व्यवस्थितेगौणविधया कालादिहेतुपश्चकसामग्रीनिष्ठकारणत्वा. भ्युपगमादिति । विस्त्रसापरिणामिनो वस्तुनो हेत्वन्तरमन्तरेण स्वभावत एव विनाशशीलत्व. मिव हेत्वन्तरमन्तरेण स्वभावादेवोत्पादशीलत्वमपि न्याय्यम्, एवं उत्पादविनाशयो।
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सम्मति• काठ , गा० ॥ कारणान्तरानपेक्षत्वे च व्यवस्थिते स्थितेरपि तत्वेन स्वाभाविकत्वं युक्तम् , स्वाचिकत्व स्येव कादाचित्कत्वस्यापि स्वभावनियतत्वात् , तथा च वित्रसापरिणामिनः कारणान्तरानपेक्षमेव स्वभावप्रयुक्तमुत्पादादित्रयमिति सिद्धम् , ऐकत्विकारूयद्वितीयभेदप्रतिपादनायोचराई. माह-'आगासाईयाणं' इत्यादि । “आगासाईयाणं तिह" आकाशादीनां त्रयाणाम् , आकाशास्तिकायधर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकायानां त्रयाणां 'परपञ्चओ' परप्रत्ययः, अब. गाहकगन्त-स्थाजीवपुद्गलात्मकपरद्रव्यनिमित्तो अवगाहनागतिस्थित्युपग्रहकारितयोत्पादः, सोऽपि न नियमेन, किन्तु कथश्चिद्भावेनेत्याह-'णियमा' अत्राकारप्रश्लेषकरणाद. नियमादनेकान्ताद्भवेत् , आकाशादीनां त्रयाणां तत्चदवगाहक-गन्द-स्थाद्रव्यसनिधानतोऽवगाहन-गति--स्थित्युपग्रहकरणक्रियोत्पत्तेरनियमेन स्यात्परप्रत्ययो मुर्तिमदमूर्ति मदवयवद्रव्यद्वयोत्पाद्यत्वादवगाहनादीनां स्यादैकत्तिकः स्यादनकत्विकथेत्यत्राप्यनेकान्त एवं सिद्धिसौधमध्यास्ते। अयम्भावः-न हि तेषु पौरुषेयः प्रयोगो विलसा वा क्रमत इत्यतः परप्रत्ययावुत्पादविनाशौ त्रयाणां, जीवपुद्गलानां तु प्रयोगविसमाभ्यामुत्पादव्ययौ सम्भवतः, धौम्यं तु सर्वेष्वविशिष्टमिति तत्वार्थटीकोक्त वपुद्गलानां प्रयोगविसमाभ्यामुत्पादव्ययौ यथा सम्भवतः, न तथाऽऽकाशादीनां त्रयाणाम् , किन्तु ततोऽन्याशौ तौ तत्र, तथाहिघटाधुत्पादवन्न चाकाशादित्रयेषु प्रायोगिक उत्पादः, न वा वित्रसापरिणतपुद्गलजनिताधेन्द्रधनुराग्रुत्पादवससिका, आकाशादेरुत्पादस्य प्रयोगविलसात्मकमूर्चिमद्व्यानारब्धत्वात् , किन्त्ववगाहकगन्तस्थाजीवपुद्गलात्मकपरनिमित्तस्तत्रोत्पादः, एवमेव विनाशोऽपि परनिमित्तो विज्ञेयः, अत एव खण्डखाये " आकाशादावपि परप्रत्ययोत्पादध्वंसानामागम सिद्धत्वादित्युक्तम्"। अस्य चायमर्थः-यस्समुपरततद्देशावच्छिन्नावगाहकस्वभावे चैत्रे सति तमिमित्तकतद्देशावच्छिन्नतदवगाहनादायित्वस्वभाववत्तयाऽपैति स एवाकाशास्तिकाया, समुपगततदन्यदेशावच्छिन्नावगाहकस्वभावे चैत्रे तनिमित्तकदेशान्तरावच्छिमतदवगाहना. दायित्वस्वभाववत्तयोत्पद्यते, एवं यस्समुपरतगतिव्यापारे चैत्रे तद्गत्युपग्रहव्यापारवचयाऽपैति स एव धर्मास्तिकायो जिगमिषदेवदत्ते तद्गत्युपग्रहदायित्वस्वभावतयोत्पद्यते,अधर्मास्ति कायेऽपि गतिपदस्थले स्थितिपदं संयोज्य तत्वं ज्ञेयम्, इत्येवमवगाहक-गन्त-स्थातव्यनिमित्तोत्पादध्वंसानामागमसिद्धत्वादिति । नन्वाकाशधर्माधर्मास्तिकायानां सर्वदाऽविचलितस्वरूपतयै. वावस्थितत्वेनाविक्रियात्मकानामन्यरूपेग पूर्वमवस्थितस्य तदन्यरूपेण परिणमन मेव नास्ती. ति तेषूत्पाद एव न सम्भवतीति कुतस्तत्रोत्पादानेकान्त इति चेत् , उच्यते, तेवपि स्वाभाविक उत्पाद ऐकत्विकोऽनकत्विकश्च द्विप्रकारोऽप्यस्ति भजनया, यतस्स्याद्वादपक्षे नैवाकाशादि. द्रव्यत्रयं सर्वप्रकारेणाविकार्येव, किन्तु द्रव्यार्थतया नित्यमपि पर्यायार्थत या पूर्वाऽनगाहकावगाहायुपग्रहकारिस्वभावत्वेन विनश्यति, पूर्वावगाहकादिव्यतिरिक्तावगाहकाधवगाहायुपग्रहकारिस्वमावत्वेनोत्पद्यते चेत्यनित्यमित्यतो विकार्यमपि, आकाशादित्रयाणां कथाबिद
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समातिर काण्ड , गा० ३४ नित्यत्वे च तेष्वप्यवगाहायुपग्रहकारिस्वभावत्वेनकत्विक उत्पादः कथशिडावेनैव, न स्वेकान्तेन । नन्वाकाशादित्रयाणामवगाहाद्युपग्रहकारिस्वभावतयोत्पादोऽवगाहावगाहकाभ्यां तारशस्वमावस्याऽऽत्मलाभलक्षणः, तस्य त्वेकमात्रनिवन्धनत्वामावादकत्विकत्वमेव न साटत इति व्युत्पचिनिमित्ताऽभावात्कथमैकत्विक इति संज्ञा तत्र युक्तेति चेत्, उच्यते, आकाशेऽवगाहकानुप्रवेशेवगाहोपष्टम्भकत्वस्वमावस्योत्पत्तिरभिव्यक्तिरेव, सा च ताहा. स्वभावस्याऽऽकाशगुणत्वादाकाशगतेव, तजनकत्वादवगाहकमवयाहोपष्टम्भकत्वस्वमावस्य म्याकमेव, नोत्पादकम् , व्यञ्जकचाकाशादन्यदेव भवति व्यङ्गयाद् घटादेवि प्रदीपादि, इत्थं चाभिव्यकेराकाशव्यतिरिक्ताऽवगाहकमात्रनिमित्तकत्वादेकत्विकत्वमेवेति तत्रैकत्विक इति संज्ञा युक्तैव, एवं धर्मास्तिकाये तत्तजीवपुद्गलगतौ सत्यां तदुपग्रहदायित्वस्वमावस्यो. त्पत्तिरभिव्यक्तिरेव, सा चोक्तस्वभावस्य धर्मास्तिकायगुणत्वाद्धर्मास्तिकायगतैव, तजनकत्वाद्गन्द्रव्यं गत्युपग्राहकत्वस्वभावस्य व्यञ्जकमेव, नोत्पादकम् , इत्यं चाभिव्यक्तेधर्मास्ति. कायव्यतिरिक्तगन्तद्रव्यमात्रनिमित्तकत्वाचल्लक्षणोत्पाद ऐकत्विका, एवमधर्मास्तिकायेऽपि स्वयमेव छेयम् , नन्वेवं तीनैकत्विक उत्पादः कथमिति चेत्, तदप्युच्यते, आकाशस्य तत्त. स्पुद्गलजीवावगाहनादायित्वस्त्रमावत्तयोत्पादोऽवगाहावगाहकद्वयसमुदायजन्यत्वात् , धर्मास्तिकायस्य च तत्तत्पुद्गल जीवगत्युपयाहकत्वस्वभाववत्तयोत्पादो गन्तृधर्मास्तिकायद्रव्यद्वयसमुदायकार्यत्वात् ,अधर्मास्तिकायस्यापि च तत्तत्पुद्गल जीवस्थित्यनुग्रहहेतुत्वस्वभावरूपेणोत्पा. दस्थात्रधर्मास्तिकायद्रव्यद्वयसमुदायअन्यत्वाचान कत्तिका, तत एव समुदायजनित इत्यपि च गीयते सैद्धान्तिकैः । विवेचितश्चैतत्तत्वार्थत्रिसूच्या विस्तरार्थिमिस्तत एवावसे यम् ॥ ३३ ॥ उत्पादवद्विगमोऽपि तथाविध एवेत्याह
विगमस्स वि एस विही, समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो। .
समुदयविभागमेतं, अत्यंतरभावगमणं च ।। ३४ ॥ " विगमस्स वि एस विही" विगमस्यापि नाशस्यापि एष विधिः, प्रायोगिका वैससिकश्रेति मेदद्वयम् , तहयातिरिक्तस्य वस्तुनोऽभावात् , पूर्वावस्थाविगमन्यतिरेकेणोद. रावस्थोत्परपऽनुपपत्तेः, तत्राद्य आत्मव्यापारानिष्पना, द्वितीयस्तु जीवव्यापारनिरपेक्षः। ननु विनाशो निर्हेतुका प्रतियोग्यतिरिक्तभावान्तरानपेक्षत्वादित्यनुमानेन विनाशस्य निर्हेतु. करवे सिद्धे कालान्तरे हेतुमपेक्ष्य जायमानो प्रायोगिकविनाश एव नास्तीति भेदद्वयस्यैवासिद्धिरिति वाच्यम् , मुद्रादिना पटो विनष्ट इति प्रात्यक्षिकप्रतीतिबलादेव विनाशस्य सहेतुकत्वे सिद्धे उक्तानुमानस्य बाधितत्वात् । ननु भारस्वहेतोरेवोत्पद्यमानस्तादृशो भवति, बेनोत्पत्तिसमनन्तरमेव विनश्यतीति, अयुक्तमेतत् , प्रतिज्ञामात्रत्वात् , क्यमपि मो-भाका
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सम्मति• काग ३, गा० ३४ स्वहेतोरेव तादृश उपजायते, येन कालान्तरमवस्थाय विनश्यतीति, अस्मिश्च पक्षे प्रत्यक्षायपि प्रमाणं सहकारि भवति । ननु भावो विनश्वरस्वभावोऽविनश्वरस्वभावो वा, आये नाशप्रतिबन्धका का ? येनोत्पत्त्यनन्तरमेव स न नश्यति । द्वितीयपक्षे च नैव कदापि विनय येत, यतो विनश्वरस्वभावस्यैव विनाशा, अन्यथा नित्यत्वेनाभ्युपगतानामपि विनाश. स्स्यादिति चेत्, मैवम् , " प्रागभूतात्मलाभवानाशः कारणवान् भवेत्" इत्युक्तेः प्रागसत्वे सति सवलक्षणकादाचित्कत्वहेतुना विनाशस्य सहेतुकत्वसिद्धहेतुसमवधाने सत्येव तद्भावादित्यलमतिग्रसङ्गेन । स्थितमिदम्-प्रायोगिकोऽप्यस्ति विनाश इति । स च समुदयजनित एवेत्येकप्रकारात्मकः, वैससिकस्तु द्विविधा-समुदयजनित ऐकत्विकच, तत्रैकस्विकविनाश आकाशादित्रयाणां तत्तत्पुद्गलतत्तजीवावगाह-गति-स्थित्युपष्टम्भकत्वपर्यायोत्पादस्य तदनुपष्टम्भकत्वलक्षणपूर्वावस्थाध्वंसपूर्वकत्वेनान्ततः क्षणध्वंसे तद्विशिष्टध्वंसनियमाचाभ्युपेयः । प्रयोगजनितविलसाजनितभेदद्वयान्तर्गतसमुदयजनितविनाशस्य द्वैविध्यप्रतिपादनायाह-' समुदय जणिअम्मि सो उ दुवियप्पो' समुदयजनिते स विनाशस्तु द्विविकल्पः, उभयत्रापीति शेषः । विकल्पद्वयमेवाह-"समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च" समुदयविभागमात्रम् , अर्थान्तरभावगमनश्च । तत्र समुदयविभागमानं केवलसमुदयविभाग लक्षण एकः, यथा पटादेः कार्यस्य तत्कारणीभूततन्त्वादिपृथक्करणे विनाशस्तन्तुविभागास्मा, घटविनाशश्व कपालविभागात्मा, न तु तदतिरिक्तस्सः, तथा सत्यतिरिक्तध्वंसाख्यो. ऽभावः कल्पनीयः, तत्र चानुयोगिताविशेषरूपं ध्वसत्वमिति धर्मिधर्मोभयाभ्युपगमापेक्षया " धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीति" न्यायाल्लाघवादुमयानुमते तत्तदवयव विभागा. स्मके धर्मिणि ध्वंयत्वधर्मसिद्धौ तद्रूपेण मुद्रेण घटो विनश्यति विनष्टो वेति प्रतीतिस्समुदायविभागात्मकध्वंसावगाहिन्यभ्युपगन्तव्येति तत्तदवयवविभागात्मैव चंसोऽभ्युपगन्त. व्यः । अयम्भाव:-पटावयवानां तन्तूनां विभक्तीकरणे नातिरिक्तः पटस्य विनाशो जायते किन्तु विभक्ततन्तुसंहतिलक्षणोत्तरकार्यात्मैवेति तल्लक्षणः प्रायोगिकः पटविनाशः, एवं मुद्रादिना नातिरिक्तो घटादिध्वंसो जन्यते, किन्तु विभक्तकपालकदम्बकायात्मक एव, अतिरिक्तनाशाऽदर्शनादिति विभक्तकपालकदम्बकात्मकोत्तरकार्यात्मा विनश्यमानस्य घटस्य प्रायोगिको विनाशोऽभ्युपगन्तव्यः । एवमभ्रेन्द्रधनुराधवयवानां विभक्ततयोत्पत्तौ विपद्यमानानामभेन्द्र• धनुरादीनां स्वाभाविको विनाशो विभक्ततत्तदवयवात्मैवाभ्युपगन्तव्यः । संवदति चात्रयदुत्पत्तो कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभाव इति ।३। ५७ ॥ यथा कपालकदम्बकोत्पत्ती नियमतो विपद्यमानस्य कलशस्य कपालकदम्बकमिति । ३। ५८। इति प्रमाणनय. तत्त्वालोकालङ्कारसूत्रद्वमिति । द्वितीयश्वार्थान्तरभावगमनलक्षणा, यथा तन्तव एव पटरूपा. र्थान्तरभावेन परिणमन्त इति तन्तूनां विनाश: पटरूपार्थान्तरभावप्राप्तिलक्षणः, न चैवं तर्हि पूर्वावस्थाविनाशेनैवोचरावस्थोत्पश्यऽभ्युपगमात् तन्त्वादिपरिणामनाशेनैव पटादिपरिणा
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सम्मति० काम , पा० १४
३०७ मोत्पत्तः पटकाले तन्तुप्रतीतिर्न स्यात् , नष्टस्यातीतवदग्रहणादिति वाग्यम् , यत्र पटस्य समुदिततत्तसन्त्ववयवास्ततो विभक्तास्तत्र समुदयविमागलक्षणपटविनाशस्य पटारमकप्रतियोगिप्रतीतिविरोधित्वेऽपि यत्र विभक्तानां तन्तूनां या संयुक्तावस्था तद्रपपटात्मकार्थान्तरमावलक्षणविनाशस्तेषां तत्र विभक्ततया तन्तूनां विनाशेऽपि संयुक्ततया तेषामविनाशासदप प्रतियोगिप्रतीत्यविरोधित्वाद , पटकाले तन्तुप्रतीतिमावाद , एवं मृत्पिण्डस्य विनाशो घट. रूपार्थान्तरमावलक्षणो विज्ञेयः। न चैवं तह तद्विनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिः, पूर्वोत्तरावस्ययोस्स्वभावतोऽसङ्कीर्णत्वात् , वर्तमानकालावच्छिमवस्त्वन्तररूपेऽतीतकालावच्छिन्नरस्त्वन्तरस्यापादयितुमशक्यत्वात् , अतीतस्य च वर्तमानत्वायोगात् । न च "आगाप्लाईगाणं तिण्हं परपञ्चओ नियमा" इत्युक्त्याऽऽकाशादित्रयाणामुत्पादव्यययोः परनिमित्त. कत्वातावौपचारिको स्यातामिति वाच्यम् , “ उप्पजेह वा धुवेइ वा विगमेह वा " इति त्रिपद्या भगवतोत्पादादित्रयात्मकतया जगत्स्वरूपमविशिष्टमेवोक्तमिति परमार्थभूतोत्पाद. व्ययशून्यं ध्रौव्यं न च कुत्रापि सम्भवतीति यत्र परमार्थभूतं ध्रौव्यं तत्र नियमेन पारमा र्थिकावुत्पादव्ययो, यथा पुद्गलजीवयो, परमार्थभृतं धौव्यश्चाकाशादिषु त्रिविति तत्रापि नियमेन पारमार्थिको तात्रभ्युपगन्तव्यौ, अन्यथा त्रिपद्या प्रतिपादितं यदुत्पद्यते यद्व्येति यञ्च ध्रुवं तत्सदिति सल्लक्षणं सिद्धं न स्यात् , सदात्मकलक्ष्यैकदेशे आकाशादावेव तदसगाते, सत्रोत्पादव्यययोरौपचारिकत्वेनासद्पत्वेन भवताऽभ्युपगमात् । अथोपचारो व्यवहारमूलक इति तत्सिद्धौ तौ तत्रेति चेद्, व्यवहारः प्रामाणिकोप्रामाणिको वा, आधश्चेत्तोऽनायासेन तौ पारमार्थिको सिद्धौ, प्रामाणिकव्यवहारस्यागममूलकत्वात् । द्वितीये सल्लक्षणमाकाशादा. वव्याप्तं स्यात् , तस्माद् व्यवहारतो नित्यस्याकाशादेरनित्यस्य च प्रदीपादेः स्याद्वादशैल्या द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयापेक्षया कथश्चिन्नित्यानित्यतयैव सिद्धस्तदपेक्षया वस्तुमात्रं पारमा. थिकोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्ततयैव सदित्याकाशादित्रयमपि तदूपतयैव सदिति व्यवस्थितम् । स्थितिश्चाविचलितस्वभावरूपत्वाम विभक्ता शास्त्रकारेणेति ।। ३४ ॥ __ अथाऽत्रोत्पादव्ययस्थितयः किं मिनकाला अभिनकालाश्च सन्ति न वेति चेत्, सन्तीति नमः। तथाहि-एकप्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वोत्पादव्ययस्थितीनां भिन्नकालता, यथा घटोत्पादसमये घटविशिष्टमृदुत्पादसमये वा न तद्वि. नाशः, अनुत्पत्तिप्रसक्तेः। नापि घटविनाशसमये घटविशिष्टमृद्विनाशसमये वा तदुत्पत्तिः, अविनाशप्रसक्तेः। न च तत्प्रादुर्भावसमय एव तत्स्थितिः, तद्रूपेणावस्थितस्यानवस्थाप्रसत्या प्रादुर्भावाऽयोगात् । अतो द्रव्यादर्थान्तरभूतास्ताः, भिन्नकालत्वेन नानास्वभावानों तासामेकद्रव्यरूपत्वाऽयोगात् । भिन्न प्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वाऽभिन्नकालता तासां, यथा कुशूलतद्विशिष्टमुन्नाशघटतद्विशिष्टमृदुत्पाद-मृत्स्थितीनाम् । अतो द्रव्यादनन्तरभूतास्ता, अमिनकालत्वेनैकरूपत्वादिति प्रतिपादनायाह
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doda
तिष्णि वि उत्पाबाई, अभिन्नकाला य भिन्नकाला य । अत्यंतरं अनत्थंतरं च, दवियाहि णायव्था ॥ ३५ ॥
46
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" तिणि वि उपायाई " प्रयोsव्युत्पाद-विगम-स्थितिस्वभावाः, ते किमित्यत आह- अभिकाला य भिकाला य" अभिनकालाच निकालाच, येतो यदा घटस्य कम्बुग्रीवाद्याकारावास्यात्मिकोत्पत्तिस्तदैव न विशकलितकर्परमावात्मिका तत्प्रच्युतिः, स्वोस्पतिपूर्वकत्वात्स्वविनाशस्य । नापि विभक्तकर्परसंहतिलक्षणोत्तर पर्यायात्मकतद्विनाशसमये तस्य कपालद्वयसंयुक्तावस्था लक्षणप्राकपर्यायात्मिका समुत्पत्तिः, तदा तदुत्पश्यभ्युपगमे तदानीमविनाशापत्तेः न च स्वप्रादुर्भात्रिकाल एव स्वस्थितिः, उत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात्, Free रूपेणामस्थितस्यानवस्थाप्रसक्तितः प्रादुर्भावाऽयोगाच्च न च घटरूपमृत्स्थितिकाले तस्था विनाशः, तंद्रूपेणावस्थितस्य विनाशानुपपत्तेः न च घटविनाशविशिष्ट मृत्काले घट विशिष्टाया एवं मृद उत्पाद:, नापि तदुत्पादविशिष्टमृत्समये तस्या एव मृदो ध्वंसः, अनुत्पत्तिप्रसक्तेः इत्येवमेकप्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वोत्पादादित्रयः परस्परतो मिनकाला, घटोत्पाद समये घटविनाशस्य घटविनाशसमये घटोत्पादस्य तदुत्पादविनाशयोरुत्पत्तिविनाशानवच्छिन्न कालसम्बन्धरूपायास्तत्स्थितेर्घदविनाश विशिष्टघटरूपमृत्स्थित्योर्वा विरोधेन परस्पराऽनात्मकत्वात् । अत एवान्योन्यव्यतिरिक्त कालोत्पादविनाशस्थित्यव्यतिरिक्तद्रव्यस्यैकत्वायोगात् तद्द्रव्यं नानास्वभावम् । भिन्नप्रतियोगिनिरूपितत्वेन तद्विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन वोत्पादादित्रयोऽभिन्नकालाच, तथाहि-- कुशूलाद्यात्मक पूर्व पर्यायस्वद्विशिष्टमृद्वा दैव विलीयते तदैव घटाद्यात्मकोत्तर पर्यायस्तद्विशिष्टमृद्रोत्यद्यते, यतो न हि पूर्वपर्यायविनाशोत्तर पर्यायोत्पादयोः पूर्वपर्यांय विशिष्टद्रव्यनाशोत्तरपर्याय विशिष्टद्रव्योत्पादयोर्वा भिन्नकालता दृश्यते, यदि च पूर्वस्य विनाशकालोऽन्यस्स्यात् उत्तरस्योत्पादकालोऽन्यस्स्यात् तदा प्राक्तनं विनष्टतरमनुत्पन्नम्, तथाऽभ्युपगमे च पूर्वस्य तस्मिन् क्षणे विनाशादेवोत्तरस्य चानुत्पादादेव न सत्त्वम्, ध्वंसानुत्पादयोस्तदानीं सध्वेऽप्यभावरूपत्वेन तुच्छत्वादेव न वस्तुत्वमिति वस्तुशून्यस्स कालस्स्यात् भवत्वेवमिति चेद, तर्ह्यतरं निष्कारणमुत्पद्येव, ध्वंसस्य तुच्छत्वेन जनकत्वाभावात्, अव्यवहितपूर्वक्षणे वस्त्वभावाच्च, एतेन नतु बलचत्पुरुषप्रेरितमुद्गराभिघाताद् घटावयवेषु क्रियोत्पत्तिः, ततोऽवयवविभागः, तत आरम्भकसंयोगनाशः, तेन च घटविनाशः, कपालस्तु विद्यत एव तद्विनाऽपि तदवयवा विद्यन्त एव, न तु तदुत्पाद इति तयोरेकस्माद्धेतोरभावान्न घटविनाशात्मा कपालोत्पाद इति निरस्तम्, अस्य विनाशोत्पादकारण प्रक्रियो द्घोषणस्याप्रातीतिकत्वात् बलवत्पुरुषप्रेरितमुद्गरादिव्यापारादेव घटविनाशकपालोत्पादयोरवलोकनात्, मुद्गरव्यापारेण घटो विनष्टः कपालश्चोत्पन्न इति प्रतीतेः, तस्मात्पूर्वोत्तरपर्याय विनाशोत्पादावभिन्न कालौ, ते च पूर्वोत्तरपर्याय विनाशोत्पतिकिये निराधारे न सम्भवत इति तदाधारभूतद्रव्यस्थितिरपि तदाऽभ्युपगन्तव्या इत्थं
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सम्मति ३.० १५
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सम्मति• कार , गा• ३५ मिनप्रतियोगिकानामुत्पादादित्रयाणामभिन्नकालत्वेनैकरूपस्वात्तदभि द्रध्यमेकस्वमावश ने नानास्वभावम् , अत एवोत्पादादयस्त्रयोऽपि द्रव्यादर्थान्तरमनान्तरश्न, उत्पादादित्रिभ्यो वा द्रव्यमर्थान्तरमनन्तर त्याह-" अत्यंतरं अनत्थंतरं च दवियाहि णायद्या" इति । अथ प्रमाणाधीना प्रमेयसिद्धिरित्युत्पादादयस्त्रयोऽप्येककाला विभिनकालाश्चत्यत्र कि मणि मिति चेत् , उच्यते,तत्रोत्पादविनाशयोरेककालतायां सिपाधयिपितायां उत्पादविनाशौ परस्पर मेककाली स्वात्मत्वाऽपृथग्भूतत्वात् , एकक्षणवर्येकरूपवदित्यनुमानमेव प्रमाणम्, न चोत्र हेतुस्स्वरूपासिद्धः, यतो न हि उत्पादविनाशयोः स्वात्मा भियते, यथैकस्मिमेकक्षणवर्तिनि रूपे विभागामावात् स्वात्मलाभकाल एवेकः कालो नान्यः समस्ति, यच्चैककालं न भवति तदेकमपि नियमेन न भवति, यथा गवाश्वयोर्जन्मविनाशाविति । एवं धौव्यात्मकस्य द्रव्यस्योत्पादविनाशाम्यां सहाभिनकालत्वसाधनाय धौव्यात्मकं द्रव्यमुत्पादविनाशकंकाल स्वात्मत्वापृथग्भूतत्वादित्यनुमानम् , उत्पादविनाशयोर्द्रव्येण सहाभिनकालत्वसाधनाय उस्पादविनाशौ द्रव्यैककालौ स्वात्मत्वाऽपृथग्भूतत्वादित्यनुमानश्चानुसन्धेयम् , उभयत्रैकक्षणवर्येकरूपवदेवेति दृष्टान्तो वाच्यः, न च सिद्धसाधनादुक्तानुमानानवतार इत्याशयम् , एकान्तवादिभिस्तेषां मित्रकालतया विमिन्नतयैव चैकान्तेनाभ्युपगमेन तान् प्रत्येवोक्तानुमानप्रयोगात् । नन्वेवं सत्युक्तहेतोस्स्वरूपासिद्धिदोषोपेतत्वमेव, एकान्तवादिमिरुत्पादविनाशयोः परस्परं धोव्यात्मकद्रव्यस्यापि च ताभ्यां सह, तयोश्च द्रव्येण सह स्वात्मत्वापृथग्भावस्यानङ्गीकारादित्यपि न चाशनीयम् । यदेव सर्पद्रव्यमुत्फणाकारेणोत्पद्यते तदेव च विफणाकारेण विनश्यति तदेव चोत्फणाकारविफणाद्याकारानुगतोर्वतासामान्यस्वरूपेण नुवमिति य एव सर्पद्रव्यात्मा पूर्व विफणाकारेणाऽऽसीत् स एवोत्फणाकारेणोत्पन्नोऽस्तीति सर्पद्रव्यात्मैवोभयाकारः, यतो न हि विफणाकारकाले यस्सर्पद्रव्यात्मा स नोत्फणाकारकाले, अनुभवविरोधात् । अत एव वस्तुमात्रं न केवलद्रव्यरूपम् , उत्पादव्ययरूपपर्यायस्वरूपत्वस्यापि तत्र सद्भावात् , नापि केवलोत्पादच्य यरूपपर्यायकरूपं, पूर्वापरपर्यायानुस्यूतधौव्यास्मकेंद्रव्यस्थमावत्वस्यापि सद्भावात् , किन्तविभक्तद्रव्यपर्यायोमयसंसर्गात्मकत्वात् जात्य: न्तरम, अतएव "अंत्येक यो मवेदोषो द्वयोर्मावे कथं न सः" इति न दोषापत्तिरपि । उक्तन
“नान्वयो भेदरूपत्वान्न भेदोऽन्वयरूपतः।।
मुद्रेवद्वयसंसर्ग-वृत्तिर्जात्यन्तरं घटः ॥ १॥" इति तथा च सर्पस्यापि प्रमाणार्पणया परस्परानुस्यूतद्रव्यपर्यायोमयरूपेण परस्परसाकाही. त्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वमिति तदभिन्नाभिनस्य तदमिन्नत्वमिति नियमेन विफणाकाराभिम. सर्पद्रष्यामिनस्योत्फणाकारस्य विफणाकाराऽमिन्नत्वं ततश्च स्वात्मत्वाऽपृथग्भाव उभयावस्थस्य सर्पस्य सिद्ध इति इतोर्न स्वरूपासिद्धिदोष इत्युक्तहेतुनैककालत्वसिद्धौ ततोऽ. नन्तिरताप्युत्पादविनाशयोस्सिस्यत्येव, अत्रानुमानप्रयोगश्चैवम्-भिन्नापेक्षावृत्पादविनाशी
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सम्मति कान्ड २ - ०-३६.
अनर्थान्तरं विनाशेन सहोत्पादस्यैककालत्वात्, यावेककालौ तावनर्थान्तरम्, कक्षणafर्त्तिरूपम्, एककालौ चोत्पादविनाशाविति सावनर्थान्तरमिति, एवमेव धौम्योत्पादधौव्यविनाशात्मकद्वयेऽनर्थान्तरता भावनीया, उक्तहेतूक्तदृष्टान्तबलादेव यथा चोत्पादादीनाममिमकालत्वमनर्थान्तरत्वञ्च तथैव घट उत्पद्य कञ्चित्कालं स्थित्वा विनश्यतीत्यतो भिन्नकालत्वमत एवार्थान्तरत्वश्च भावनीयम् । अनुमानप्रयोगश्चात्र एकप्रतियोगिनिरूपिता उत्पादादयो नान्योन्यमेकतां विभ्रति, अत्यन्त पृथग्भूतस्वरूपत्वादत्यन्तभिन्नकालत्वाच्च घटव्योमादिवत् । एवमुत्पादादयोऽर्थान्तरं मिथस्स्वलक्षणभेदात् घटपटादिवदित्यप्यनुमानं ज्ञेयम् । एवं भिन्नाभिकालतोत्पादादीनामर्थान्तरताऽनर्थान्तरता च स्याद्वादप्रक्रियायां सकलप्रमाणाऽविरोधिनी सिद्धिकोटिमुपढोकते, न स्वेकान्तवादप्रक्रियायाम्, तत्रोत्पादादित्रयाणां तत्र च मिन्नाभिन्नकालत्वादेरनभ्युपगमादिति भावः ॥ ३५ ॥
उक्तार्थस्पष्टीकरणार्थमेव प्रत्यक्ष प्रतीतमुदाहरणं प्रतिपादयितुं सूरिराहजो आउंचणकालो, सो चेव पसारियस्स वि ण जुत्तो । तेसिं पुण पडिवत्ती - विगमे कालंतरं नत्थि ॥ ३६ ॥
' जो आउंचणकालो' अङ्गुल्यादेर्द्रव्यस्य य आकुश्चनकाल: " सो चैव पसारियस विण जुचो " स एव प्रसारितस्यापि न युक्तः, अङ्गुल्यादेः प्रसारणस्यापि स एत्र कालो न युक्त इत्यर्थः । यदैवाङ्गुलिः आकुच्यते न तदैव प्रसार्यते, यदैव च सा प्रसार्यते न तदैवा कुच्यते, किन्तु भिन्नकाल एवेत्यङ्गुल्यादिद्रव्यस्याकुञ्चनात्मक पूर्वपर्ययविनाशकाल एव प्रसारणात्मकोत्तर पर्यायोत्पत्तेः तयोः पूर्वोत्तरपर्याययोर्मिन कालावच्छेदेनैव प्रतीतेर्भेदः, अत एव निकालः, अन्यथा तयोरुसङ्कीर्णतापच्या स्वीपासाधारणस्वरूपं परित्यक्तं स्यात् । कथञ्चित्तत्तत्पर्यायाऽभिन्नस्याङ्गुल्यादिद्रव्यस्यापि पूर्वोत्तरपर्यायविशिष्टतया भिन्नस्वभावत्वात् तदपि भिन्नमभ्युपगन्तव्यम्, यतो न हि भिन्नस्वभावमभिन्नरूपं युक्तम्, स्वभावभेदेनैव कथश्चिद्भेदाभ्युपगमात् । आकुञ्चनप्रसारणपर्याययोस्तद्विशिष्टद्रव्यस्य च भिन्नकालत्वमत एव भिन्नत्वं पूर्वार्द्धन प्रतिपाद्याङ्गुलिद्रव्यमेव प्रसारणभावमवलम्बमानमाकुञ्चनभावेन यदैव विनष्टं तदैव प्रसारणभावेनोत्पन्नमङ्गुलित्वेन सामान्यात्मनाऽवस्थितमित्या कुश्च नात्मक पूर्वपर्यायविनाशप्रसारणात्मकोत्तरपर्यायोत्पादाङ्गुलित्वावच्छिन्नाङ्गुलिद्रव्यावस्थिती नामभिन्नका लतामत एवाभिन्नरूपतां प्रतिपादयितुमुत्तरार्द्धमाह -- ' तेसिं पुण पडिवत्तीविगमे ' ' तयोः पुनः प्रतिपत्तिविगमे' प्रतिपत्तिश्व विगमश्च प्रतिपत्तिविगम, अनयोरसमाहारः प्रतिपत्तिविगमं, तस्मिन् प्रतिपत्तिः प्रादुर्भावः, विगमो - विनाशः, प्रसारणात्मकोत्तर पर्यायस्योत्पत्तिः आकश्चनात्मक पूर्व पर्यायस्य विध्वंसः तत्र, 'कालंतरं नत्थि ' कालान्तरं भिन्नकालत्वं नास्ति । आकुञ्चनात्मकपूर्वपर्ययविनाशप्रसारणात्मकोत्तरपर्यायोत्पत्यङ्खलिद्रव्यावस्थितीनामभिन्नका
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सम्मति का ३, गा. ३६ लता अत एवाऽभिन्नरूपता च प्रतीयते,आकुचनादिपूर्वपर्यायरूपेण परिणतमेवाङ्गुलिद्रव्यमाकुश्शनादिपूर्वपरिणामपरित्यागकाल एवं प्रसारणाद्यात्मकोत्तरपर्यायरूपेण परिणमत इत्येकस्यैव द्रव्यस्य तथापरिणामात्मकस्य यैवाङ्गुलिः पूर्वमाकुचिता सैव प्रसारितेति प्रत्यभिज्ञाप्रमाणतः प्रतीतेः । एतेन ये क्षणिकान् पदार्थानभ्युपयन्ति त एवं प्रतिपादयन्ति-उत्पतिसमनन्तरमेव स्वभावतो विलीयन्ते, न हेतुमपेक्षन्ते ध्वंसमानाः, स्वात्मलाभक्षणानन्तरं क्ष्यः षण उच्यते, निरुक्तविधानात् , तद्योगाद क्षणिकमिति । तथा चोक्तम्
क्षणो वाचेह नैरुक्तैरुत्पत्त्यनन्तरं क्षयः। निहेतुः सोऽनपेक्षत्वात् , तद्योगात् क्षणिकं मतम् ॥ १॥ इति ।
यथा पयाप्रदीपादयः प्रतिक्षणमन्ये चान्ये चोत्पद्यन्ते निरवशेषपूर्वनाशसमकालम् , एवमन्येऽपि महीध्रादयः इति, तन्मतमपास्तम्, पयःप्रदीपादिषु परिणामभावस्येव सद्भावेन सर्वथाऽन्यथात्वाभावात् , पूर्वोत्तरपर्यायानुगतोव॑तासामान्याख्यद्रव्यं स्वजात्यनुच्छेदेनैव कश्चित्पूर्वपर्यायं परित्यज्य पर्यायान्तरमुपादत्ते, पुद्गलत्वचैतन्यजात्यनुच्छेदेन तस्य तस्य तथाभावः परिणामः, सोऽन्यत्वबुद्धेः कारणम् , उत्कणविफणाकुण्डलप्रसारणाधनेकावस्थसर्पवदेकमन्वयि यद्व्यं तत्परिणमते, न तु सर्वथा पूर्वोच्छेदेनान्य उत्पद्यत इति, इत्थश्च ये यद्भाव प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः, यथान्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादनं प्रति, विनाश प्रत्यनपेक्षाश्च भावा इति विनाशनियतास्ते इति परेषां बौद्धानामभिधानमपि न प्रकृतबाधकम् , प्रत्युतानुकूलमेव, मावस्योत्तरपरिणामं प्रत्यनपेक्षतया तद्भावनियतत्वोपपत्तेः, पूर्वोत्तरपरिणामान्वयिद्रव्यगतपूर्वपरिणामस्य स्वयमेवोत्तरपरिणामी भवत उत्तरपरिणाम प्रत्यपरा. पेक्षाऽभावतस्तं प्रतिक्षेपायोगात् , तथा च नैकान्तक्षणिकत्वं युक्तम् । नन्वेवं तर्हि जलोमिवदुत्पादव्ययादिविकाराः काल्पनिका एवेति कूटस्थमेव नित्यं द्रव्यमस्त्विति चेत्, मैवं वद, यतो जलोर्मयोऽपि नैव काल्पनिकाः, तेषां प्रेक्षादक्षैरपि प्रत्यक्षप्रमाणेनानुभूयमानत्वेन वस्तु. भूतत्वात् , ततो जले पूर्वापरोर्मय इव पूर्वापरपर्यायानुगतप्रतीतिविषयीभूतद्रव्ये पूर्वापरस्वपर्यायाः प्रतिक्षणं विनश्यन्ति समुत्पद्यन्ते च । तदुक्तम्- अनायनिधने द्रव्ये, स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् ।
उन्मजन्ति निमज्जन्ति, जलकल्लोलवजले ॥ १ ॥ इति । - तदेवं पूर्वापरोमिभावेन जलमेव यथा परिणमते, तथैव तत्तद्रव्यमेव पूर्वापरपर्यायरूपेण परिणमत इति परिणामवाद एवं न्याययुक्तः, उत्पादविनाशादिविकाराणां काल्प. निकत्वे प्रमाणामावात् , प्रेक्षावद्भिर्यथार्थतयैव ग्रहणाद, न चोत्पादादित्रयाणां विरोधा, पर्यायत्वावच्छेदेनोत्पादव्यययोर्द्रव्यत्वावच्छेदेन धौम्यस्य चाविरोधात्, अन्यथा . गोवा
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अम्मति० काम , मा. कदम गन्यश्चमेदस्य ब्रह्मत्वावच्छेदेन तदमेदस्य चाविरोध औपनिषदामिमतोऽपि नं. स्वादिति भावः ।। ३६ ॥
अथ यथा भिन्ननिरूपितानामुत्पादादित्रयाणामेककालीनानामेकद्रव्याभिमानां परस्परस्वरूपत्वमिति हेतोस्तदन्तर्गत प्रत्येकमेकैकं रूपमुत्पादादित्रयात्मकम् , अन्यथा तदसत्वापश्या वस्तु अनेकान्तात्मकम् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकसल्लक्षणशालित्वात् ,यमेवं तन्मेवम् , वियत्कुसुमवदित्यनुमाने वस्त्वात्मकपक्षकदेशे उत्पादे व्यये ध्रौव्ये चैकैकस्मिन् हेतोरमावेन भागासिद्धिस्स्यात् , तथा भूतवर्तमानभविष्यत्कालत्रययोगेनाप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयतीति प्रतिपादयितुमाह
उपजमाणकालं उप्पणं ति विगयं विगच्छंतं ।
दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥ ३७॥ 'उप्पञ्जमाणकालं ' उत्पद्यमानकालमित्यनेनाद्यसमयादारभ्योत्पत्यन्तसमयं गावदुत्पद्यमानत्वस्येष्टत्वाद्वर्तमानमविष्यत्कालविषयं द्रव्यमुक्तम् , ' उप्पण्णं ' उत्पनमित्यनेन त्वतीतकालविषयम् , एवं विगयं' विगतमित्यनेनातीतकालविषय, “विगच्छंत' विगच्छदित्यनेन च वर्तमानमविष्यत्कालविषयं द्रव्यमुक्तम् , ततश्चोत्पद्यमानमुत्पन्नं विगतं विगच्छन् "दवियं पण्णक्यंतो" द्रव्यं प्रज्ञापयन् प्रज्ञस्तद् विसेसेह' विशेषयति विशिनष्टि, कथं ? 'तिकालविसयं ' त्रिकालविषयं यथा भवतीत्येवं गाथार्थः । भावार्थस्त्वयम्-यद्यपि निश्यनयेनैकस्मिन्नेव कार्योत्पत्त्यनुकूलव्यापारान्त्यसमये कार्योत्पत्तिरिति स एव कार्योत्पत्तिकाल: " भतिर्येषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते " इति वचनात , तथापि व्यवहारनयेन दीर्षः क्रियाकाल आंशिककार्यक्षणकोटिविषयोऽभ्युपगता, तथा च तस्मिन् दीर्षे कार्योत्पत्तिकाले विवक्षितकार्यस्य यस्मिन् समये वर्तमानपर्यायोत्पत्तिस्तस्मिन्नेव समयेऽतीतपर्यायविनाशः, विनाशपूर्वकत्वादुत्पत्तो, उत्पतिविनाशक्रिये निराधारे न सम्भवत इति तदाधारद्रव्य. स्थितिरपि तदाऽभ्युपगन्तव्येत्येवममिन्नकालानामुत्पादादित्रयाणां प्रत्येकमेकपर्मिसंसर्गि: तया त्रैकाल्यं तेन नयेन प्रतिपाद्यते, तथाहि-पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एव किञ्चिदशेनोत्पन्नो भवति तत्रोत्पद्यमानत्वं तस्य प्रथमवन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यत इत्येवं व्यवहारदर्शनात्प्रसिद्धमेव, उत्पनत्वं तूपपच्या प्रसाध्यते, तथाहिउत्पद्यमानः पट: प्रथमतन्तुप्रवेशकालावच्छेदेन किञ्चिदंशेन नोत्पमश्वेत्तदाऽऽद्यक्रियाया वैयध्ये स्यात्, यथा चाधक्रियया नोत्पन्नस्तथैवोत्तरक्षणेष्वप्युत्तरक्रियाभिनोत्पमस्स्यात्, को झुत्तरक्षणक्रियाणां विशेषो ? येन प्रथमया नोत्पमस्तदुत्तराभिस्तूत्पत्स्यते, अतः सर्व दैवानुत्पचिप्रसङ्गा, दृष्टा चोत्पत्तिा, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनात् । न च तन्तुसंयोगः स्यैव पटत्वावच्छिदं प्रत्यसमवायिकारणत्वात्तन्तुक्रियया तन्तुद्वयसंयोगे द्वितन्तुकपढोस्पतिः,
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सम्मति० काण्ड ३, पा० ३७
३१६ तत्र च तन्त्वन्तरसंयोगे त्रितन्तुकादिपटक्रमेणान्त्यतन्तुसंयोगे सत्येव महापटोत्पत्तिरिति नोक्तं युक्तमिति वाच्यम्, समवायसम्बन्धस्य सखण्डकारणत्वस्य च निषिद्धत्वेन समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणेभ्यस्त्रिभ्यः कार्योत्पत्तिरिति गौतमीयप्रवादस्याश्रद्धयत्वेन प्राप्रति. पादनात् शक्तिरेव कार्योत्पादिकेति प्रथमतन्तुप्रवेशकालेऽप्यंशतस्साऽस्त्येवेत्युत्पद्यमानमपि पटद्रव्यं तद्रूपकारणवशात्तदानीं किञ्चिदशेनोत्पमित्यभ्युपगन्तव्यम् , संवदति चैनमर्थ "चलमाणे चलिए जाव निअरमाणे निअिण्णे" इति भगवद्वचनम् । यथा चोत्पद्यमानं पटादिन्यं प्रथमतन्तुप्रवेशसमये किश्चिदंशेनोत्पन्नं तथैव द्वितीयतृतीयादितन्तुप्रवेशसमयेऽप्यपरापराशेनवोत्पन्नमभ्युपगन्तव्यम्, नोत्पन्नांशेनैव, तथा सति तस्मिन्नेव कार्याशे द्वितीयतृतीयादिसमयभावितन्तुक्रियाच्यापाराणां व्यग्रतया तैरपूर्वापूर्वाशेन कार्योत्पत्तिर्न स्यादित्यशेषांशविशिष्टपटादिकार्योत्पत्तिः कदापि न स्यादिति प्रथमतन्तुप्रवेशादारभ्यान्त्यतन्तुसंयोगावधियावत्प्रबन्धेनोत्पद्यमानं तत्तदंशेनोपनम् , तदेव चाभिप्रेतरूपतयोत्पत्स्यते इत्युत्पद्यमानमुत्पन्नमुत्पत्स्यमानश्च भवति । एवमुत्पन्नमप्युत्पद्यमानमुत्पत्स्यमान तथैवोत्पत्स्यमानमप्युत्पद्यमानमुत्पन्नश्च ज्ञातव्यमित्येवमेकैकमुत्पनादि. कालत्रयेण त्रैकाल्यं यथा प्रतिपद्यते तथा विगच्छदादिकालत्रयेणाप्युत्पद्यमानादिरेकैकस्ले. काल्यं प्रतिपद्यते, तथाहि-यद् यदैवोत्पद्यमानं तत्तदैव किश्चिदंशेन विगतं विगच्छद् विगमिष्यच, एवं यदेव यदैवोत्पन्नं तदैव तदपि विगतादिकालत्रयसंस्पर्शि ज्ञेयम् । एवमेवोत्पत्स्य. मानमपि द्रव्यं तथैव तद्रूपं ज्ञेयम् । एवमेवोत्पन्नोत्पद्यमानोत्पत्स्यमानभेदाः प्रत्येकशो विगतविगच्छद्विगमिष्यद्रूपैरिव स्थिततिष्ठत्स्थास्यद्रूपैरपि सप्रभेदा ज्ञेयाः, एवं स्थितिविगमावपि कालत्रयस्पर्शिविलक्षणयोगेनोत्पत्तिप्रणालिकया सप्रभेदी विज्ञातव्याविति, न चैते भेदाः कल्पनामात्रनिर्मितवपुषो, निपुणं निरूपणे प्रज्ञावद्भिः परमार्थस्वरूपतयैव सर्वेषामेवाकलनात् । यत्तु क्त्तेमानप्रागभावप्रतियोगित्वं भविष्यवं वर्तमानध्वंसप्रतियोगित्वं चातीतत्वमिति न वर्चमानक्रियाकाले कालत्रयवाचिप्रत्ययप्रयोगसम्भव इति नैयायिकादीनां मतम् , तत्स्थूलव्यवहारैकान्ताभिनिवेशविजृम्भितम् , नयविशेषेणैकदा त्रैकाल्यस्पर्शस्य सर्वसम्मतत्त्वात् , अन्यथोत्पत्तिकाले उत्पन्नोऽयमिति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वापत्तेः, सामुदायिकोत्पादे स्थूलकालभाविनि ऐकत्विकोत्पादानां सूक्ष्मकालस्पर्शिनां त्रैकाल्यस्पर्श तु न काचिदनुपपत्तिः, तस्मादर्तमानक्रियाकाले कालस्य स्थूलत्वसूक्ष्मत्वाभ्यां त्रैकाल्यं नयविशेषेण यौक्तिकमेवेति सिद्धा यथो. क्तमाः । सैद्धान्तिकास्तु क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात्सभागसन्ततिपतिततया निष्ठाभविष्यत्तयोः समावेशाच्चै कक्षणेऽपि कालत्रयवाचिप्रत्ययार्थाऽविरोधमादिशन्ति । तदेवं सर्वै. रेमिर्षमैत्रिकालस्पर्शिभिरविनाभूतं द्रव्यं प्रज्ञापयंत्रिकालविषयं विशेषयति, अनेन प्रकारेण त्रिकालविषयं द्रव्यस्वरूपं प्रतिपादयद्वाक्यं प्रमाणम् , तद्व्यतिरिक्तं तु वाक्यमप्रमाणम् ,
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ३८ अन्यप्रकारस्य द्रव्यस्यामावाद, अत्र व्यवहारनयाऽभिमते दीर्घ कार्योत्पत्तिकाले मित्र कालानां तदुत्पत्तिनाशस्थितीन प्रत्येकं कालत्रयस्पर्शिविलक्षणयोगेन सप्तविंशतिर्मगाः, मिनकालानां च कालत्रययोगेन सप्तविंशतेत्रिधा गुणने एकाशीतिर्भङ्गा यथा भवन्ति तथा--- "यद्यते तदिह वस्तु ग्रहीतमेव, तद्यते च न च यत्तु गृहीतमास्ते । इत्थं भिवामपि स किन विवांकरोतु,यः पाठितो भवति लक्षणभङ्गजालम् ॥५४॥"
इति श्लोकटीकायामस्मत्कृतमहावीरस्तवकल्पलतिकाख्यायां प्रदर्शिता इति मगजालजिज्ञासुभिस्तत एव ते वेदितव्याः । अत्र अन्धगौरवमीत्या न प्रतन्यन्त इति ।। ३७॥
नन्वन्तरगमनलक्षणस्य विनाशस्य विभागजस्य चोत्पादस्यासम्भवात् तवयामावे स्थितेरप्यभावात् तत्रैकाल्यं दरोत्सारितमेवेति मन्यमानान् वादिना प्रति तदम्युपगमप्रदर्शनपूर्वकमाह
दव्यतरसंजोगाहि केचि दवियस्स बेंति उप्पायं ।
उपायथाऽकुसला विभागजायं ण इच्छति ॥ ३८ ॥ संयोगानां द्रव्यम् । अ. १, आ. १, सू० २८ । इति वैशेषिकसूत्रस्य निस्स्पर्शानां द्रव्याणामन्त्यावयविनां च विजातीयद्रष्याणां च ये संयोगास्तान् विहाय बहूनां तत्त. तन्त्वादिसंयोगानां पटादिरूपमेकं द्रव्यं कार्यम्, अर्थात् अनेकेभ्यस्सजातीयतन्त्वादिसंयोगेभ्य एकं पटादिकार्यमुत्पद्यत इत्यर्थकस्य बलाद्वैशेषिकादयो यथा कार्यद्रव्योत्पादं व्यावर्णयन्ति तथा प्रदर्शयितुं पूर्वार्द्धमाह-" दवंतरसंजोगाहि केचि दवियस्स ति उप्पाय" केचि' केचिद्वैशेषिकनैयायिकादयः 'दवियस्स' पटादिकार्यद्रव्यस्य 'दई. तरसंजोगाहि' द्रल्यान्तरसंयोगैः, तन्मतेऽवयवावयविनोमदात्स्वमिनस्वीयावयवभूत. तन्वादिसंयोगैरनेकैः, अथवा तन्मते सजातीयासजातीयोत्पत्त्यभ्युपगमात् पृथिवीत्वेन सजातीयैस्तत्तत्तत्वाद्यवयवात्मकद्रव्यान्तरैस्तदन्यतन्त्वाद्यवयवलक्षणद्रव्यान्तराणां संयो. गैरसमवायिकारणभूतैः तत्तमिमिससह कृतैस्समवायिकारणे ' उपाय बेति' कार्यद्रव्योत्पादं ब्रुवते, अवयविकार्यद्रव्यं निमित्तकारणाऽसमवायिकारणसमवायिकारणत्रयेभ्य उत्पद्यत इति वदन्ति, द्वयोस्तन्त्वोस्संयोगेनापि तत्तग्निमित्तसहकृतेन द्वितन्तुकपटस्य तन्तौ, कपालद्वयसंयोगेनापि च कपाले समवायिकारणे घटस्योत्पादाभ्युपगमात्तदुपलक्षकमेतत् , ते चोत्पादविषयकयथार्थज्ञानाः किं वा नेत्यारेकायामाह-' उपायथाऽकुसला' उत्पादार्थाऽकुशला उत्पादानभिज्ञाः, 'विभागजायं ण इच्छन्ति ' विमागजातमुत्पादं नेच्छन्तिनाभ्युपयन्ति, आरम्मकसंयोगस्यैव कार्यद्रव्यासमवायिकारणत्वेन तैरभ्युपगमात्तद्र्पकारणाभावादिति भावः ।। ३८॥
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ३९
taarai योगेनैव कार्यद्रव्यस्योत्पादो भवति न तु विभागेन इत्थमभ्युपगन्तारो वैशेषिकनैयायिकादयः कुत उत्पादार्थ नाभिजानन्तीत्याशङ्कायामाह -
अणु दुअणुएहिं दबे आरद्धे तिअणुयंति ववएसो । ततो य पुर्ण विभत्तो अणुत्ति जाओ अणू होइ ।। ३९ ।।
३१५
•
दुअणुरहिं दवे आरद्धे ' द्वौ चाणुकौ च पणुकौ ताभ्यां द्वाभ्यां परमाणुभ्यां ' आरद्धे दवे ' आरब्धे द्रव्ये कार्यद्रव्ये ' अणु ' इत्यस्य " येन यस्याभिसम्बन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः" इति न्यायेन " इति ववएसो" इत्यनेन सम्बन्धात् अणुरिति व्यपदेशः, परमाणुयारब्धे यणुके परमाणुद्वयगत द्वित्वसङ्ख्याजन्याऽणुपरिमाणस्यैव सद्भावात् । त्रिभिणुकैरारब्धे द्रव्ये " तिअणुअंति नवएसो " "यणुकमिति व्यपदेशः, व्यणुके च व्यणुकायगतबहुत्वसक्थया महत्वपरिमाणसुंत्पद्यते, अन्यथा तत्प्रत्यक्षमेव न स्यात्, बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षं प्रति महस्वस्योद्भूतरूपवश्वस्य च कारणत्वात् । अयमंत्र भावःनैयायिकमते " सङ्ख्यातः परिमाणाच्च प्रचयादपि जायते " इत्युक्तेरनित्यपरिमाणं त्रिधोत्पद्यते, तत्र परमाणुगत द्वित्वसङ्ख्यातो व्यणुकेऽणुपरिमाणमुत्पद्यते, न तु परमाणुपरिमाणतः, एवं त्रसरेणुपरिमाणमपि न व्यणुकपरिमाणत उत्पद्यते, यतः परिमाणस्य स्वसमानजातीयोत्कृष्टपरिमाणजनकत्वनियमाद् व्यणुकस्याणुपरिमाणं तु परमाण्वणुत्वापेक्षया नोत्कृष्टम्, त्रसरेणुपरिमाणं तु न द्व्यणुकपरिमाणसजातीयम्, अतः परमाणुगत द्वित्वसङ्ख्या व्यणुकपरिमाणस्य व्यणुकगतत्रित्वसङ्ख्या च त्रसरेणुपरिमाणस्यासमवायिकारणम्, अत एव त्रिभिश्चतुर्भिर्वा पञ्चभिर्वा परमाणुभिर्न किमप्यणुपरिमाणं कार्यद्रव्यमारभ्यते, कारणगतबहुत्वसङ्घपया महत्परिमाणोत्पश्यभ्युपगमात्, संवदति चात्र " कारण बहुत्वाच " ७ अ० १ आ० ९ सू० इति वैशेषिकसूत्रम् एतत्प्रकरणकारेणापीत्येवं सूचयितुं अणु अणु द आरद्वे " इत्युक्तम् । द्वाभ्यां तन्तुभ्यामप्रचिताभ्यामारब्धे पढे केवलं महत्वमेवासमवायिकारणम् : बहुत्वप्रचययोस्तत्राभावात्, यत्र द्वाभ्यां तूलपिण्डाभ्यां तूलपिण्डारम्मस्तत्र परिमाणोत्कर्षदर्शनात् शिथिलसंयोगलक्षणप्रचयः कारणम्, बहुत्वस्याभावात्, महस्वस्य सवेऽपि परिमाणोत्कर्षं प्रत्यप्रयोजकत्वात् । एवं च सति यदि महत्वं तत्र कारणं तदा न दोषः । तदुक्तं " द्वाभ्यामेकेन सर्वैर्वा " इति । इत्थं नैयायिको वैशेषिकश्च व्यणु: कत्रसरेण्वादिकार्यद्रव्यस्य तत्र परिमाणस्य चोत्पत्तिप्रक्रियां निरूपयन्ताव प्रेक्षितवस्तुयाथात्म्यतया स्वीयाज्ञतां व्यञ्जयतः, यतो न व्यणुकं केवलं द्वयोः परमाण्वोः संयोगे सत्यन्योन्याश्लेषपरिणामलक्षणसङ्घातादुत्पद्यते, किन्तु यस्मिन्नेव समये व्यणुकस्कन्धादे को ऽणुर्भि यते तस्मिमेव समयेऽपरस्संहन्यत इत्येवमेकसामायिकाभ्यां सङ्गात भेदाभ्यामप्युत्पद्यते तत्, एवं पर्यन्तवर्त्तिस्कन्धादेक द्वित्र्यादिपरमाणु मेदक्रमेणाधोऽधो यावद्विप्रदेश स्कन्धोत्पत्तिः,
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ३९
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taurantargaोत्पत्तिश्च भेदमात्रेण भावनीया, त्र्यणुकमपि न केवलं द्व्यणुकायादेवोत्पद्यते, किन्तु द्विप्रदेशस्य स्कन्धस्य परमाण्वन्तरेण संयोगे सति त्रयाणां परमाणूनां वा संयोगे सति संघातपरिणामे व्यणुकमुत्पद्यते, चतुरणुकस्कन्धादेकोऽणुर्यदा पृथग्भवति तदैकाणुभेदाच्च तथैकस्मिन्नेव समये व्यणुकस्कन्धादेकोऽणुर्भिद्यते परस्संहन्यते समकमेवेत्यतः संघात मेदाभ्यामुत्पद्यते तत् एवमेव चतुःपञ्चपडा दिसङ्ख्ये या सङ्ख्येयानन्तप्रादेशिक स्कन्धो त्पत्तिर्भावनीया । उक्तञ्च तच्चार्थे ' सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ' ५-२६ इति । तत्र सङ्ख्यासयप्रदेशिक स्कन्धास्तु नैव चक्षुर्गोचराः, अनन्तप्रदेशिक स्कन्धा अपि यावत्सूक्ष्मपरिणामरूपास्तावम प्रत्यक्षतामायान्ति, अत एव त्रसरेणुचाक्षुषप्रत्यक्षमपि नैवार्हतैरभ्युपगतम्, सूक्ष्मपरिणामत्वात्तस्य, किन्तु सूक्ष्मपरिणामापत्रानन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानां सूक्ष्मपरिणामोपरतौ तत्र केचन परमाणवरसंहन्यन्ते केचन भिद्यन्ते इत्येवमेकसामायिकाभ्यां भेदसङ्घाताभ्यां रौक्ष्यस्नेहविशेषात् समुपजातस्थौल्य परिणामा एव चाक्षुषप्रत्यक्ष योग्यतां प्राप्ता बादरस्कन्धाः प्रत्यक्षगोचरा भवन्तीत्यभ्युपगतम् । उक्तञ्च तचार्थे “ भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः ५- २८ इति सूत्रवृत्तौ न सर्व एव सङ्घातश्चक्षुषा ग्राह्यः, यतोऽनन्तानन्ताणुसंहतिनिष्पाद्योऽपि स्कन्धो बादरपरिणतिमानेव नयनादिगोचरतां प्रतिपद्यते, न शेष इति । विचित्र परिणामाः पुद्गलाः कदाचिदष्टस्पर्शिवाद परिणाममनुभूय पश्चाच्चतुस्पर्शिसूक्ष्मपरिणाममाददन्तो न चक्षुर्गोचराः, सूक्ष्मपरिणाममप्यनुभूय कदाचिच्च रौक्ष्यस्नेह विशेषाद् बादरपरिणामपरिणताश्चक्षुर्गोचरतां प्रतिपद्यन्त इति चाक्षुषप्रत्यक्षे चादर परिणाम एव कारणम्, बादरपरिणामस्कन्धद्रव्यमप्यनुद्भूतरूपं व्यवहितश्च दूरवर्त्यादिकश्च नैव साक्षादूदृश्यते चर्मचक्षुर्भिरिति तत्प्रत्यक्षे उद्भूतरूपवत्त्वव्यवधानाभावालोकादिकं चाक्षुषज्ञानावरणीय कर्मक्षयोपशमाधायकतया कारणं वाच्यम् । एतेन " जालान्तरस्थसूर्यांशौ, यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । भागस्तस्य च षष्ठो यः परमाणुः स उच्यते || १ || " इति निरस्तम्, जालान्तरस्थसूर्य मरीचिप्रतिभासमानापेक्षिकसूक्ष्मरजोद्रव्यस्य बादरपरिणामवतोऽत्यन्तसूक्ष्मानैश्वयिकस्कन्धरूपाणां तीव्रशखा द्यच्छेद्या मेद्यचक्षुराद्यगोचरव्यावहारिक परमाणून । मनन्तानां स्कन्धरूपत्वेन तदनन्तभागरूपत्वान्नैश्वयिकपरमाणोरिति । न च नैयायिकादिवदार्हतैः परमाणुरपि नित्य एवाभ्युपगतः किन्तु विभक्तभावेनोत्पत्तिभावात् कथश्चिन्नित्यानित्योभयरूप इत्याशयेनोत्तरार्द्धमाह' ततो य पुणे विभत्तो' तस्मादेकत्वपरिणतिपरिणततया स्कन्धपरिणाममावमापन्नात्कार्यद्रव्याच्च पुनर्विभक्तः विभागात्मकपर्यायरूपेणोत्पन्नः ' अणुत्ति जाओ अणू होह' अणुरिति अणुपरिमाणं इति हेतोः अणुः परमाणुर्जात उत्पन्नो भवति । कार्यद्रव्ये स्कन्धात्मके संयुक्तावस्थारूपेण य एव पूर्व परमाणुः कथञ्चिदेकत्वपरिणामभावमापन्नो जघन्यत एकं समयमुत्कृष्टतोऽसङ्ख्येयकालं यावदासीत् स एव समयान्तरे असङ्ख्येयकालानन्तरं वा कथचि
न्त्यकारणात्मकनैश्चयिकपरमाणुभिरनन्तैस्समुत्पन्नानां
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ३९
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देकत्वपरिणामभावविनाशे ततो विभक्ते सति विभक्तावस्थारूपेणोत्पन्नस्सन् परमाणुसयां भजते, विभक्तावस्थापन परमाणुभावेन पूर्वमसच्वात्, सच्चे वा स्थूलकार्याभावप्रसङ्गात् । तदेवं पृथग्भावलक्षणभेदे सति विभागपर्यायरूपेण परमाणोरुत्पादस्सिद्धः, संवदति चात्र " मेदादणुः ।। ५-२७ ॥ इति तच्चार्थसूत्रम् ' मेदादेव परमाणुरुत्पद्यते न सङ्घातादिति " भाष्यसनाथम् । न च य एव कार्यद्रव्यारम्भकाः परमाणवस्त एवारम्भकसंयोगनाशप्रधु-क्ततद्र व्यनाशोत्तरकालं स्वस्वरूपेण व्यवस्थिता इति तेषां नित्यत्वानोत्पत्तिर्युक्तेति वाच्यम् कार्यद्रव्यप्रागभावप्रध्वंसाभावयोरेकत्वविरोधात्, घटद्रव्यप्रागभावात्मक मृत्पिण्ड तत्प्रध्वंसाभावात्मक कपालयोरिख, तथाहि यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभाव इति ।। ३ - ५५ । यथा मृत्पिण्डनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्ड इति ।। ३-५६ । great afterasi विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभाव इति । ३-५७ | यथा कपालकदastroat नियमतो विपद्यमानस्य कलशस्य कपालकदम्बकमिति । ३-५८ । इति प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारवचनाद् घटद्रव्यप्रागभावः पूर्वपर्यामृत्पिण्डात्मको घटद्रव्यप्रध्वंसाभावश्चोत्तरपर्यायकपालात्मकः, न चैवं तर्हि प्रागभावेऽनादित्वं ध्वंसे चानन्तत्वं न स्थादिति वाच्यम्, ऋजुसूत्रनयादेशात्तत्सन्तानापेक्षया तदुभयस्य निर्वाह्यत्वादिति तयोरेकत्वं यथा विरुद्धं तथैव परमाणूनां तादवस्थ्ये पूर्वकालावच्छेदेन वर्त्तमानकार्यद्रव्यप्रागभावात्मान उत्तरकालावच्छेदेन च तद्द्द्रव्यविनाशात्मानस्ते भवेयुरिति तेषामेकत्वं विरुद्धं स्यादिति द्रव्यार्थिकमयादेशाद् द्रव्यस्वरूपतयाऽवस्थिता एव परमाणवस्तत्तत्कार्यात्मना पर्यायनयादेशात् परिणमन्त इत्यणुत्वपरिणामपरिणतत्त्रमपहाय रौक्ष्यस्नेहविशेषाद् यदा स्थूलपरिनाममाप्नुवन्ति तदैकत्वसङ्ख्या-संयोगमहत्वापरत्वादिपर्यायैरुत्पद्यन्ते इति ते कार्यात्मकाः, यथा च स्नेहरौक्ष्यविगमात् स्थितिक्षयाद् द्रव्यान्तराभिघातेन भेदात् स्वभावगत्या च तद्द्रव्यमेदादणुपरिणामं भजन्ते सदा बहुत्वसङ्ख्या- विभागाणुपरिणाम - परत्वादिपर्यायैरुत्पद्यन्ते इति पर्यायनयादेशाततत्कार्यभावेनोत्पद्यमानाः कथञ्चिद्भिन्नास्तेऽभ्युपगन्तव्याः । नन्वेवं पूर्वपरिणामोपमर्देनोसर परिणामभावात्तदानीं पूर्वपरिणामस्याभाव एव भावान्तरापत्तिफलस्वात्परिणामस्येत्य तस्सूक्ष्म परिणामाद्वादरपरिणामस्यार्थान्तरत्वासत्राणुपरिणामाभाव एव, तथा च बादरपरिणामपरिणतमहाद्रव्ये परमाणवः स्वेन रूपेण न सन्ति, परिणामान्तरापास्यात्, सिन्धुपरिणतौ गुडादय इवेति तदानीं परमाणुभावेन परमाणूनां नाशाभ्युपगमात्, अवयवविभागोत्तरं परमाणुभावेन विभक्ततथा चोत्पादाभ्युपगमात् --
" कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥ "
इंति पारमपतिविरोधस्यादिति चेत्, मैक्म्, यतस्सर्वमेव मूर्त्तद्रव्यं स्थूलं विदार्य
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धम्मति काम ३, गा० ३९ माणमशक्यमेदपरमाणुपर्यवसानं जायते, न पुनरत्यन्ताभावरूपं निरूपाख्यमिति सूचनाय तदुक्तिरिति न विरोधः । यद्वा कारणमेवेत्याद्यवधारणेन ज्ञापितमेतत् द्रव्यार्थिकनयापेक्षया सर्वेषां द्वथणुकश्यणुकादिद्रव्याणां परमाणुरेव मूलकारणमिति, ततस्तमयादेशाद्वयक्त्यात्मना तस्य नित्यत्वमक्षतमेवेति विरोधाभाव एव । एतेन द्वथणुकाद्युत्पत्तिकाले परमाणोः परमाणुभावेन नाशस्य तदवयव विभागकाले च विभागरूपेणोत्पादस्याभ्युपगमादनित्यत्वप्रसङ्गेन परमाणुर्नित्य इति व्यवहारोऽपि प्रान्तस्स्यादित्यारेकाऽपि निरस्ता, यतो ध्वंसाऽप्रतियोगित्वे सति प्रागभावाऽप्रतियोगित्वमिति व्यावहारिकनित्यतालक्षणे विशेषणविधया समुदायवि. भागलक्षणध्वंस एवोपादेयः, स च द्वयणुकादिरूपपूर्वपर्यायस्यैव, न तु परमाणोः, तस्य तु द्वथणुकाद्युत्पत्तौ तद्रूपेण परिणमनादर्थान्तरभावगमनलक्षणध्वंसस्यैव भावात् । तथा चोक्तलक्षणनित्यत्वं परमाणावक्षतमेव, समुदायविभागलक्षणध्वंसप्रतियोगित्वस्य द्वथणुकादि. पूर्वपर्याय एव सखेन तदप्रतियोगित्वस्य परमाणौ सद्भावात् , व्यणुकाद्युत्पत्तौ तदात्मनाकार्यभावात्परमाणोः परमाणुतारूपेण निवृत्तावपि द्रव्यस्वरूपतया नैव तस्य निवृत्तिरिति प्रागभावाप्रतियोगित्वस्यापि द्रव्यरूपेण सद्भावाञ्चति तत्र नित्यत्वव्यवहारे न भ्रान्तत्वप्रसङ्ग इति । एतेन पृथिव्यादयश्चत्वारः परमाणुरूपा नित्या एव, कार्यरूपास्त्वनित्या इति नैयायिकादिप्रक्रिया निरस्ता, परमाणूनामपि कार्याभिन्नतयाऽर्थान्तरमावगमनरूपस्य नाशस्य विभागजातस्य चोत्पादस्य समर्थनात् । अत एव द्वादशारनयचक्रटीकायां " यदि कारणं यदि कार्य ततः को दोषः १, दृश्यते हि कारणमपि कार्यमपि, यथा परमाणुः कारणं व्यणुकादेमृत्पिण्डशिवकादीनां कार्यमपि, तद्भेदजवादित्यायुक्तं सङ्गच्छते ॥ ३९ ॥
ननु जन्यपृथिवीत्वाधवच्छिन्ने पृथिवीत्वादिना समवायिकारणत्वात्परमाणनां नित्यस्वा. दुक्तकार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वात्तदुत्पत्तिर्न युक्तेति न चाशनीयम् , समवायस्य निषिद्धस्वात् , तादात्म्यसम्बन्धेन पृथिवीत्वाधवच्छिन्ने स्वध्वंसत्वसम्बन्धेन पृथिवीत्वादिनोपादानकारणत्वस्यैवोचितत्वेन विभागजातोत्पत्तिस्थलेऽपि व्यणुकादिवसरूपाया एव परमाणूत्पत्ते.
र्भावात् । नन्वेवं सत्यपि कार्यद्रव्यत्वावच्छिन्न प्रति संयोगत्वेन कारणत्वे तमन्तरेणापि विभागात कार्यद्रव्योत्पत्तेर्व्यतिरेकन्यभिचारा,एवं विभागत्वेन कारणत्वे तदभावेऽपि संयोगास्कार्यद्रव्योत्पत्तेर्व्यतिरेकव्यभिचारो ज्ञेय इति चेत् ,मैवम् , संयोगजातकार्यद्रव्ये विभागजात. कार्यद्रव्ये च वैजात्योपगमात, यद्वा संयोगाव्यवहितोत्तरजायमानकार्यद्रव्यं प्रति संयोगत्वेन विभागाव्यवहितोत्तरजायमानकार्यद्रव्यं प्रति च विभागत्वेन कारणत्वोपगमात् फलबलकल्प्यगौरवदोषस्यादोषत्वात् , अथवा संयोगविभागयोस्सचातभेदाख्ययोरपि कार्यद्रव्यत्वावच्छिम प्रत्येकशक्तिमत्वेनोभयानुगतस्य कारणत्वस्योपगमात् । तथाऽनम्युपगमे तु त्रिप्रदेशिकस्कन्धा. देकाणुमेदे द्विप्रदेशिकस्याकस्मिकत्वापत्तेः, तत्कारणसङ्घातविशेषाभावात् , सर्वत्र परमाणुपर्यन्तमेदेन परमाणुद्वयादिसंयोगाद् व्यणुकाद्युत्पत्तिकल्पने महागौरवात् । उक्तत्र
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सम्मति• काड ३, मा० ४०
"संयोगाच विभागाच, द्रव्यमुत्पद्यते द्वयात् ।
बैजात्यं वापि वैशिष्टयं, कार्ये तत्र प्रकल्प्यते ॥१॥ अणुद्ध्यणुकसंयोगा-दणुकोत्पत्तिमिच्छताम् । तद्विभागादणूत्पत्ती, प्रद्वेषः किं निवन्धनः ? ॥ २ ॥ केयूरकुण्डलीभावे, तत्र स्वर्णवदिष्यताम् । साधारणमुपादानं, मादि किं चिन्तयाऽत्र नः १ ॥३॥ तादात्म्यनियताधारा-धेयभावनिवन्धनम् । कारणं प्रत्युपादेयं, विभिन्न परिणामि वा ॥४॥ तावत् सङ्घातभेदा वा, हेतुस्तच्छालि वस्तु वा।। गच्छत्यविनिगम्यत्व-मप्यत्रैतत् सहायताम् ॥५॥ जात्यन्तरात्मके वस्तु-न्येवं किश्चिन्न दुष्यति । कार्याकार्यभेदाभेद-व्यवसायव्यवस्थितेः ॥ ६ ॥ संयोगवद्विभागेऽपि, वैजात्यस्य व्यवस्थितौ । एकस्य हेतुताऽन्यस्य, नेति मोहविजृम्भितम् ॥७॥ संयोगे समवायश्चे-हेतुताया नियामकः । मृद्रव्ये सविभागे स्ता-दंशांशो वा विभज्यताम् ॥ ८ ॥ स्वध्वंसत्वेन योगेनो,-पादानं हेतुरस्तु वा । तद्व्यव्याप्तिरत्र स्यान्नभोव्याप्तिर्वा दीर्घिकी ॥ ९ ॥ संयोगजन्यता जन्य-द्रव्ये हि भवतोच्यते ।
मया तत्र विजातीय इति गौरवभीः कुतः ॥१०॥ इति ।। __ यथा बहूनां संयोगे एकप्रत्ययव्यवहारनिदानं समुदयजनित उत्पादोऽभ्युगतस्तथैकस्य कार्यद्रव्यस्य विनाशे बहुप्रत्ययव्यपदेशनिदान विभागजातोऽप्युत्पादा किमाभ्युपेयः ? व्यवहरन्ति हि ' भग्ने घटे बहूनि कपालान्युत्पन्नानि' इति, एवं परमाणूनामप्येककार्यनाशे युक्तो विभक्ततया बहुत्वेनोत्पादः । तदेवाक्षेपद्वारेणाह
बहुआण एगसहे जइ संजोगाहि होइ उप्पाओ ।
न णु एगविभागम्मि वि जुबह पहुआण उप्पाओ ॥ ४० ॥ 'जइ बहुयाण संजोगाहि' यदि बहूनां व्यणुकादीनां संयोगैः, 'एगसहे' एकशब्दा-एकशम्दव्यपदेशनिदानं 'होइ उप्पाओ' मवत्युत्पादः, एकस्य ज्यणुकादेरिति
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सम्मति० काण ३, गा... शेषः, अन्यथैकाऽभिधानप्रत्ययव्यवहारौ न स्याताम् , यतो न हि बहुपूत्पन्भेषु एको घट उत्पम इति प्रयुके प्रत्येति वा प्रेक्षादक्षः, 'नणु' नन्वित्यक्षमाया, 'एगविभागम्मि वि' एकविभागेऽपि, एकस्य कार्यस्य विनाशे तत्कारणावयबविभागेऽपि, " जुजइ बहुआण उप्पाओ" युज्यते बहूनां विभक्तानामवयवानामुत्पादः, मुद्रादिसहकारिकलापाद् घटस्य तदवयव विभागलक्षणे विनाशे सति बहूनि विभक्तानि कपालानि, कपाले च मग्ने विभक्तानि बहूनि शकलानि जातानीति व्यवहाराऽन्यथाऽनुपपत्तेः, न च मुद्गरपाताद् विनष्टो घट इत्येव प्रतीयते व्यवहियते चेत्यतिरिक्तनाशस्यैव सिद्धिरिति वाच्यम् , यतो घटविनाशत्वरूपेण विभक्तकपालकदम्बकात्मकोत्तरकार्यात्मैव प्रायोगिको घटविनाशः प्रतीयते, न तु तब्यतिरिक्तः, पूर्वपर्यायनाशस्योत्तरपर्यायोत्पादनान्तरीयकत्वानुभवात् , दीपादिनाशेऽपि तम पर्यायोत्पादानुभवात्, पूर्वोत्तरपर्यायविनाशोत्पादयोरेकसामग्री प्रभवत्वाच । उक्तश्च “ दृष्टस्तावदयं घटोत्र निपतन् दृष्टस्तथा मुद्रो, दृष्टा कर्परसंहतिः परमतोऽमावो न दृष्टोऽपरः । तेनाभाव इति श्रुतिः क निहिता किं वाऽत्र तत्कारणम् , स्वाधीना कलशस्य केवलमियं दृष्टा कपालावली ॥१॥” इति । ये तु लाघवप्रणयिनोऽपि कपालोत्पादिकां भिन्नां सामग्रीम् , घटनाशोत्पादिकां च भिन्नामेव कल्पयन्ति तेषां काचिदपूर्वत्र वैदग्धी । न च ध्वंसस्योत्तरपर्यायस्वरूपत्वे तस्य सान्तत्वात्सायनन्तो ध्वंस इति ध्वंसलक्षणमेवानुपपन्नं स्यादिति वाच्यम् , क्लसे उत्तरपर्याये घटध्वंसत्वकल्पने लाघवात्तद्: व्यक्तित्वादिना सादित्वेऽपि घटध्वंसत्वेनानन्तत्वस्याप्यऽक्षतेः, अत एव पूर्वपर्यायात्मा प्रागभावोऽपि तव्यक्तित्वादिना सादिरूपोऽपि प्रागभावत्वेनानादिरूपो भावनीयः । तदेवं मृद्रव्यस्यैवानुगतस्य मृत्पिण्डशिवक-स्थासक-कोशक-कुशूल-घट-कपाल-शकल-शर्करापाश्वादियावत्रसरेणुद्वथणुकपरमाणुपर्यन्तक्रमिकपर्याया इति तत्तत्पर्यायरूपेण परिणममानं मृद्रव्यं तत्तत्पूर्वपर्यायान् परित्यज्यत्र तत्तदुत्तरपर्यायानुपादत्त इति तद् द्रव्यरूपेण ध्रुवं सत् पूर्वोत्तरपर्यायाभ्यां विनाशोत्पादात्मकमिति तत्रयात्मकम् , तत्रितयविकलस्य तस्यानुपलब्धेरसवात् सिद्धम् , यथा चोत्पादव्ययधौव्यस्वभावा नैव मिथ एकान्तेन भिन्नाः, किन्तु द्रव्यार्थतयाऽभिन्नाः पर्यायार्थतया च लक्षणभेदेन भिन्ना इति कथश्चिद् भिन्नाभिनस्वभावाइत्येककालीनधर्मिरूपतया परस्परात्मकत्वेन तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति न्यायेन प्रत्ये. कमेकैकरूपं त्र्यात्मकं तथैव कालत्रयापेक्षयाऽपि पूर्ववत्ल्यात्मकमभ्युपगन्तव्यम् , अतोऽनन्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यमिति व्यवस्थितमेतत् ॥ ४०॥
ननु यद्यप्युत्पत्त्यादीनां भेदप्रभेदा यदैकपर्यायमाश्रित्यैकस्मिन् द्रव्येऽनेकस्वरूपतामानयन्ति तदा प्रतिक्षणभाविभिन्नभिन्नपर्यायसमाश्रयणेनानन्तकाले स्वयमनन्ततां बिभ्राणाः कथश्चित्स्वाभिन्ने द्रव्येऽनन्ततामानयन्तीति कैमुतिकन्यायप्राप्तमेवेति न तत्र विप्रतिपद्यामहे, तथाप्येकक्षण एवैकस्मिन् द्रव्येऽनन्तपर्यायत्त्वमिति कौतस्कृतमिति न चाशनीयम् ,
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अम्मति माह ३, गा० ४१-४२ एकक्षणेऽप्यनन्तानामुत्पादानां तदन्यूनानतिरिक्तसङ्खथकविगमानां तन्नियतस्थितीनां च सम्भवात् । तदेवाह
एगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया वि होति उप्पाया। उप्पायसमा विगमा ठिई उ (ठिइओ) उस्सग्गओ णियमा ॥४१॥
'एगसमयम्भि' एकसमये-एकस्मिन् क्षणे 'एगदवियस्स' एकद्रव्यस्य 'बहुया वि होति उप्पाया' बहवोऽपि भवन्त्युत्पादाः । उप्पायसमा विगमा' उत्पादसमा उत्पादसमसङ्घयका विगमाः पूर्वपर्यायविनाशा अपि तदैव भवन्ति, तद्व्यतिरेकेणोत्पादासम्भवात् , 'ठिई उ उस्सग्गओ णियमा' अत्र तुशब्दस्याप्यर्थकत्वात्स्थितिरपि उत्सगतो नियमात्, स्थितिरपि उत्सर्गतस्सामान्यरूपतया अन्वितरूपेण तथैव नियता, स्थितिरहितोत्पादव्यया. सम्भवात् , तत्सम्भवे वा शशशृङ्गादेरप्युत्पत्तिव्ययप्रसङ्गस्यादिति । अत्रैकक्षणेऽप्यनन्तानामुत्पादानां तत्समानां विगमानां तन्नियतस्थितीनां च सम्भवादिति शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकोक्तेरनन्तोत्पादव्ययवत्तत्समसङ्खथकस्थितयोऽप्यनन्ता एकक्षणे एकर्मिणि सम्भवन्तीति सिद्धं भवति, तत्सङ्गतिः प्रकृतगाथोक्तजात्येकवचनान्त "ठिई" इतिपदमहिम्ना कर्तव्या, यतस्तसत्पर्यायोत्पादावच्छिन्ना तत्तत्पर्यायविगमावच्छिन्ना च स्थितिर्भिमा भिन्नैव विशेषण मेदेन विशिष्टस्यापि मेदादित्युत्पादव्ययनियतत्वेन तत्समसङ्ख्यकस्थितयोऽपि नियमावन्तीति । 'ठिइओ उस्सग्गओ णियमा' इत्येवं पाठे तु तस्य चायमर्थ:-स्थितय उत्सर्गतो नियमात् , यद्यपि पूर्वोत्तरपर्यायेपूर्वतासामान्यद्रव्यस्यानुगतत्वात्तदात्मकसामान्यरूपतया स्थितिरेकैव, तथापि तत्तत्पर्यायोत्पादावच्छिना तत्तत्पर्यायविगमावच्छिन्ना च स्थिति. मिमा भिन्नैव, विशेषणभेदेन विशिष्टस्यापि भेदादित्युत्पादव्ययनियतत्वेन तत्समसङ्खथकस्थितयोऽपि नियमावन्तीति भावः ॥ ४१ ।। ___ एकक्षणावच्छिन्नसंयोगविभागजानन्तोत्पादतावनाशकिर्मीरितधौव्यकस्वभाववस्तु दृष्टान्तद्वारेण विनिश्चेतुमाह
काय-मण-धयण-किरिया-रूवाइ-गई विसेसओ वावि ।
संजोयभेयओ जाणणा य दवियस्स उप्पाओ ॥ ४२ ॥ कायेति-यदेवानन्तानन्तप्रदेशिकाहारमावपरिणतपुद्गलोपयोगोपजातरसरुधिरादिपरिणतिवशाविर्भूतशिरोऽल्याद्यङ्गोपाङ्गमावपरिणतस्थूल-सूक्ष्म-सूक्ष्मतरादिभेदभिन्नावयवात्मकस्य कायस्योत्पत्तिस्तदैवानन्तानन्तपरमाणूपचितमनोवर्गणापरिणतिपरिणतमनस उत्पादोऽपि, तदेव च वचनस्यापि काययोगाकृष्टभाषावर्गणापरिणतिप्रतिलब्धवृत्तिरुत्पादः, तदैव च काया
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ४६ स्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद्विषमीकृताऽसङ्खथातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः, तदैव च षड्गुणहा. निवृद्धि भावेन नीलरक्तादिरूपमधुराम्लादिरससुरभ्यादिगन्धशीतोष्णादिस्पर्शात्मकपर्यायाणामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिनश्वराणां सजातीयविजातीयस्वभावतयोत्पत्तिः, तदैव च मिथ्यात्वा. विरति-प्रमाद-कषायादिपरिणतिसमुत्पादितकर्मवन्धनिमित्ताऽऽगामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमानानन्तपरमाण्यापादिततत्प्रमाणसंयोगविभागानामुत्पत्तिः, तदैव च तत्तज्ज्ञानविषयत्वादीनामुत्पत्तिः, यदैव शरीरादेरेकस्य द्रव्यस्योत्पत्तिस्तदैव त्रैलोक्यान्तर्गतसमस्तद्रव्येस्सह साक्षात्पारम्पर्येण वा सम्बन्धानामुत्पत्तिः, सर्वद्रव्यव्याप्तिव्यवस्थिताकाश-धर्माधर्मास्तिकायादिद्रव्यसम्बन्धाद , एवं तत्र त्रैलोक्यान्तर्गताशेषपदार्थान्तर्गतैकैकार्थापेक्षया भिन्नत्वादिपर्यायाणानोत्पत्तिः, किंबहुना ? मयूराण्डकरसे प्रथमक्षण एव शिरो-ग्रीवा-चच-नेत्र-पिच्छो-दर-चरणाधनेकावयवोत्पादनानुगुणशक्त्युत्पत्तिवद् भाव्यनन्तस्वपरपर्यायोत्पत्त्यनुकूलशक्तीनाश्चोत्पत्तिा, अन्यथा तत्र तेषामुत्तरकालमप्यनुत्पत्तिप्रस. ङ्गस्स्यात्, तदेवं कायमनोवचनक्रियारूपादिगतिविशेषापेक्षया संयोगभेदापेक्षया च ज्ञानविषयत्वाद्यपेक्षया चैकस्यैव द्रव्यस्यानेकधोत्पत्तिभावादनन्तपर्यायात्मकत्वं सिद्धम् । भिन्न भिन्नवस्तुनोऽपि कथञ्चित्सम्बन्ध एकद्रव्येण सह समस्तीति सम्बन्धितयैक्यमतस्तदुत्प. क्याऽपि तदुत्पत्तिभावात् । अथ यद्यप्येकक्षणेऽप्यनन्तानामुत्पादानां तत्समानां विगमानां तन्नियतस्थितीनां च पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भवादस्त्वेकद्रव्यमनन्तपर्यायात्मकम् , तथापि न च तत्तथात्वेनास्मदादिभिरध्यक्षेण गोचरीक्रियत इति तत्तथात्मकमिति कथं श्रद्धेयमिति चेत्, मैवम् , यतोऽस्मदाद्यध्यक्षस्याखिलस्वस्थासाधारणधर्मरूपेण निरव शेषधर्मविशिष्टवस्त्वग्राहक. त्वस्वभावत्वादेव तथा तथोल्लेखेन तदग्रहणम्, न तु तदभावात् , अन्यथा गुरुत्वादेरस्मदध्यक्षाग्रहणादसत्त्वं स्यात् , अथ नमनोन्नमनादिकार्यलिङ्गेनानुमीयमानत्वात्तत्सत्त्वमिति चेत्, अत्रापि यद्येकैकं द्रव्यमनन्तपर्यायात्मकं न स्यात् तर्हि साक्षात्सम्बन्धेन स्वपर्यायाणां त्रिभुवनान्तर्गतस्वभिन्न सर्वद्रव्यपर्यायात्मकपरपर्यायाणां च स्वाभाववत्त्वरूपपरम्परासम्बन्धेन तत्र सत्त्वमेव न स्यात् , सच्चश्वास्ति, तस्मात्तदनन्तपर्यायात्मकमिति प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां तसिद्धः, तथा च त्रैलोक्यव्यावृत्तस्वलक्षणान्यथाऽनुपपत्तिलिङ्गकानुमानेनानन्तपर्यायात्मक द्रव्यमिति सिद्धम् । अत एवानन्तधर्मात्मकं तत्वमित्यहत्सिद्धान्तदृढसंस्कारवतां प्रयोजनवशादेकमपि पर्यायं गृह्नता भावतस्तथा परिज्ञानमस्त्येव, तदानीं तेषां मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजनितस्याद्वादसंस्कारसद्भावेन भावतोऽनन्तपर्यायात्मकतया वस्तुग्रहणपरिणाम स्याक्षीणत्वादिति सिद्धान्ते गीयते । तदाह-भाष्यसुधासुधाम्भोधिः
पज्जायमासयन्तो, एक पि तओ पओयणवसाओ। तत्तियपजायं चिय, तं गिण्हइ भावओ वत्थु । ३२२ । इति ॥ ४२ ॥ अथ प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन प्रमाणं द्विविधं प्राक् प्रोक्तम् , तत्र प्रत्यक्षभेदस्वरूपमुक्त्वा
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सम्मति काण्ड० ३, गा• ४३ परोक्षान्तर्गतागमप्रमाणं प्रमाणान्तरावगतवस्त्वस्तित्वप्रतिपादकत्वेन हेतुवादात्मकम् , प्रमा. णान्तरानवगतार्थाऽस्तित्वप्रतिपादकत्वेन चाहेतुवादात्मकमिति तद्भेदद्वयनिरूपणायाह
दुविहो धम्मावाओ, अहेउवाओ य हेउवाओ य ।
तत्थ उ अहेउवाओ, भवियाऽभवियादओ भावा ॥ ४३ ।। 'दुविहो धम्मावाओ' द्विविधो धर्मावादा, धर्माणां वस्तुगतास्तित्वादीनामा समन्तात् वादस्तत्प्रतिपादक आगमः, तद्वैविध्य मेवाह-' अहेउवाओ य हेउवाओ य ' अहेतुवादश्व हेतुवादश्च । तत्रेन्द्रियव्यापारहेतुयुक्त्याद्यभावेन प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणैर्ये नावगम्यन्ते एवम्भूतार्थप्रतिपादक आगमोऽहेतुवादः, तद्विपरीतो हेतुवादः, हेतो. तुपरिच्छिन्नस्य वादो हेतुवाद इति व्युत्पत्तेः, यद्वा हिनोति-गमयत्यर्थमिति हेतुः, तत्परिच्छिन्नोऽर्थोऽपि हेतुः, तं वदति य आगमः स हेतुवादः, हेतुबहुलत्वात् प्रायो दृष्टिवादाख्य आगमो हेतुबादः, तदितरश्चाहेतुवाद उच्यते, तबाहेतुवादात्मकाय भेदे ज्ञाते सति तद्विपरीतत्वाद्धेतुवादात्मकद्वितीयमेदोऽपि स्वयमेव सुतरां ज्ञातुं शक्यत एवेत्याशयेनाद्यभेदप्रतिपादनायोत्तरार्द्धमाहतत्थेत्यादिना । तत्र त्वहेतुवादः, तत्र भेदद्वयमध्ये, अहेतुवादस्तु" भवियामवियादओ भावा" भव्यामव्यादयो भावाः, भव्याभव्यत्वादिप्रतिपादक आगम इत्यर्थः । प्रतिपाद्यग्रहणेन प्रतिपादकग्रहणात् । न हि 'अयं भव्या, अयन्त्वमव्या' इत्यत्रास्मदादीनामागममृते प्रमाणान्तरं प्रवत्तेते, नन्यत्रापि भव्याभव्यविभागप्रतिपादकं वचनं यथार्थम् अर्हद्वचनत्वात् , जीवाजीवाख्यद्रव्यमनन्तपर्यायात्मकमित्यादिवचोवदित्यनुमानप्रवृत्तेनोक्तं युक्तमिति चेत् , मैवम् , अस्याप्यनुमानस्य पक्षप्रविष्टभव्याऽभव्यविभागांशसिद्धिविधायकाऽऽगमसापेक्षस्यैव प्रवृत्ता, न घागमवचनमन्तरेण स्वतन्त्रानुमानेनायं भव्या, अयश्चाभव्य इति ज्ञातुमस्मदादिमिश्शक्यते। अयम्भाव:-यो हि मुक्तिगमनयोग्यः स मुक्तिस्वरूपयोग्यतावच्छेदकधर्मवानेव, ताशधर्ममन्तरेण मुक्तिगमनानुपपत्तेरिति स धर्मो भव्यत्वं तद्वान् भव्या, एतद्विपरीतश्चाऽभव्य इत्येवं वचनविभागस्य यथार्थनिर्णायकत्वेनोक्तानुमानस्य प्रवृत्तावपि आगममन्तरेणागमैकगम्यभव्याभव्यस्वरूपे स्वतन्त्राऽनुमानस्य प्रवृत्तिनोपपद्यते इत्येतावताऽहेतुवादत्वं भव्याभव्यत्वप्रतिपादकागमस्थ प्रतिपाद्यते, तथा च भव्यामव्यत्वादयोऽ. हेतुवादसिद्धाः, तदन्ये च हेतुवादसिद्धा इति सिद्धम् ॥ ४३ ॥
अथ भव्यामन्यादिभावानामहेतुवादविषयत्वं प्रतिपाद्य आगमोपगृहीतहेतुप्रवृत्तानुमानगम्यत्वाद्धेतुवादविषयत्वप्रतिपादनायाह-अथवा अहेतुवादागमसिद्धस्याप्यर्थस्य तत्तद्धर्मिण्यहेतुवादागमप्रतिपादितलिङ्गेन हेतुवादागमसिद्धत्वमपीति तत्प्रतिपादनायाह
भविओ सम्मइंसण-नाणचरित्तपडिवत्तिसंपन्नो । णियमा दुक्खंतकडो-त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥४४ ॥
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सम्मतिः काय ३, गा• ४ भविओ इत्यादि । 'सम्मइंसणनाणचरित्तपडिवत्तिसंपन्नो' इति-अत्र 'सम्मइंसणनाणचरित्तगुणलद्धिसंपन्नो" इत्यपि चास्पृशद्गतिवादे पाठः, साध्यहेतुघटितोऽयं प्रयोगः, तथा च अयं भव्यः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपत्तिसम्पूर्णत्वात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रगुणलब्धि सम्पन्नत्वाद्वा सम्प्रतिपनपुरुषवदित्यनुमानं पर्यवस्यति । उक्तहेतोः किमित्याशङ्कानिवृत्यर्थः मुत्तरार्द्धमाह-'णियमा दुक्खंतकडोति' नियमाद् दुःखान्तकृदिति, नियमात्संसारदुःखान्तं करिष्यति कर्मव्याधेस्समूलकापं कषणमनुभविष्यति, तन्निबन्धनमिथ्यात्वादिप्रतिपक्षाभ्यास. सात्मीभावात् व्याधिनिदानप्रतिकूलाचरणप्रवृत्ततथाविधातुरवत् । यः पुनर्न तत्प्रतिपक्षाम्यास. सात्म्यवान् नासौ दुःखान्तकृद्भविष्यति, तन्निदानानुष्ठानप्रवृत्ततथाविधातुरवत् , इति 'लक्खणं हेउवायस्स' हेतुवादस्य लक्षणम् । ननु भव्याभव्यादेलेक्षणमागम एव प्रोक्तमित्यागमात्त. लक्षणे ज्ञाते सति तेनैव तज्ज्ञानं भविष्यतीति किमेतादृशानुमानप्रयोगपरिक्लेशेनेति चेत्, मैवम् , यत आगमानिश्चितमप्यर्थ सिसाधयिषयाऽनुमिन्वतेऽनुमानरसिकाः, इत्थमेव मनन· साध्यश्रद्धाविशेषस्योत्पत्तेः । अत एव " प्रत्यक्षपरिकलितमप्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिकाः" इति पक्षताग्रन्थोक्तं शिरोमणिवाक्यमपि सङ्गच्छते,ततोऽहेतुवादसिद्धेऽप्यर्थेऽनेकान्ता. स्मकत्वसाधिका निराकास तात्पर्यार्थप्रतिपत्तिपर्यन्ताश्च या उपपत्तयस्ता हेतुवादसिद्धत्वमुपपादयन्ति, श्रुतमात्रेण ज्ञातस्याज्ञातप्रायत्वात् , ताश्चोपपत्तयः श्रुतोपयोगाऽनन्यवान श्रुतत्वव्याहन्न्यः, श्रुतानुसारिमतेः श्रुतान्तर्भूतत्वेन शास्त्रोक्तत्वात् । अत एव प्रेक्षावन्त आगमादनुमानाच्च प्रवर्समानास्तत्त्वं लभन्ते, न केवलादनुमानाद, प्रत्यक्षादितस्तेषामप्रवृत्तिप्रसङ्गात् , नापि केवलादागमादेव, विरुद्धार्थमतेभ्योऽपि प्रवर्त्तमानानां प्रेक्षाववप्रसस्ते, एतेन हेतुबादकान्तवादिनो ये केचिद् हेतुत एव सर्वेमुपादेयतत्वं सिद्ध्यति, न प्रत्यक्षात् , तस्मिन् सत्यपि विप्रतिपत्तिसम्भवाद, युक्त्या यन्न घटनामुपैति तदहं दृष्ट्वाऽपि न श्रधे, इत्यादेरेकान्तस्य बहुलं दर्शनात् अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानाश्रयत्वात् तद्विप्रतिपत्तेस्तव्यवस्थापनाया हेत्वादिवचनात् । प्रत्यक्षतदाभासयोरपि व्यवस्थितिरनुमानात् , अन्यथा सङ्करव्यतिकरोपपत्तेरा. नर्थविवेचनस्य प्रत्यक्षाश्रयत्वासम्भवादिति मन्यन्ते तन्मतं निरस्तम्, यतस्तेषां मतेऽनुमान प्राकालेऽपि प्रत्यक्षप्रमाणात् पक्षस्य साधनस्योदाहरणस्य च ज्ञानं न स्यात् , तज्ज्ञानाभावे च न च कस्यचिदनुमानं प्रवर्तेत, अनुमानान्तरात्तज्ज्ञानाभ्युपगमे तस्यापि पक्षादिज्ञानपूर्वकत्वादनुमानान्तरमपेक्षणीयमित्यनवस्था स्यात् । तथा च प्रामाण्यसंशयमूलार्थसंशय. निराकरणरूपविवेचनेऽनुमानस्येव तन्मूलव्यायादिपरिच्छेदे प्रत्यक्षस्याप्युपयोगाद्द्योस्तुल्यत्वमिति नैकान्तश्रेयान् । आगमैकान्तवादिनो ये च केचिदागमादेव सर्व सिद्ध्यति, अनुमानप्रतिपन्नेऽपि चिकित्सादावागमापेक्षणात् आगमबाधितपक्षस्यानुमानस्याऽगमकत्वाचेति मन्यन्ते तेषां मते विरुद्धार्थमतान्यपि शास्त्रोपदेशेभ्यः सिद्ध्यन्तु, विशेषाभावात् । सम्यगुपदेशेभ्यस्तत्त्वसिद्धिरिति चेत् , तर्हि युक्तिरपि तत्वसिद्धिनिबन्धनम्, तत एव सेषां
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पम्मति का ३, गा० ४५ सम्यक्त्वनिर्णयात् । अदृष्टकारणअन्यत्षमाधवर्जितत्वाभ्यां तदुपगमात् । न चैते सम्यगुपदेशा युक्तिनिरपेक्षाः, अन्यथा परस्परविरुद्धार्थतत्व सिद्धिप्रसङ्गस्स्यात् । युक्तिवानुमानात्मिकैव । ततः कुतश्विदागमात्तत्वसिद्धिमनुरुध्यमानेन प्रत्यक्षानुमानाभ्यामपि तत्त्वसिद्धिरभ्युपगन्तव्या, अन्यथा तदसिद्धिप्रसङ्गादित्यत्रापि नैकान्तो युक्तः। प्रत्यक्षानुमानाम्यामेव तस्वसिद्धिनागमादित्यपरे, तेऽपि न सत्यवादिनः, अहोपरागादेस्तत्फलविशेषस्य च ज्योति:शाखादेव सिद्धेः, यतः प्रत्यक्षानुमानाभ्यामुपदेशमन्तरेण न ज्योति नादिप्रतिपत्तिा, अथ सर्वविदः प्रत्यक्षादेव तत्प्रतिपत्तिः, अनुमानविदां पुनरनुमानादपीति चेत्, न, सर्वबिदामपि योगिप्रत्यक्षात्पूर्वमुपदेशाऽभावे तदुत्पत्त्ययोगात्, ते हि श्रुतमयीं चिन्तामयीं च भावना प्रकर्षपर्यन्तं प्रापयन्तोऽतीन्द्रियप्रत्यक्षमात्मसात्कुर्वते, नान्यथा, तथाऽनुमानविदामपि नात्यन्तपरोक्षेष्वर्थेषु परोपदेशमन्तरेण साध्याऽविनामाविसाधनप्रतिप्रत्तिः सम्भवति, सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् , ततो नात्राप्येकान्तः प्रामाणिक इति । तदुक्तमष्टसहस्याम्
"सिद्धं घेद्धेतुतः सर्व, न प्रत्यक्षादितो गतिः ।
सिद्धं चेदागमात्सर्व, विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ १॥" इति । तदेवमागमप्राधेऽप्यर्थे हेतग्राह्यत्वमविरुद्धमिति व्यवस्थितम् । अत एव भव्यो ज्ञानादिमान् सिध्यति' इत्याज्ञागम्येऽर्थे हेतुग्राह्यत्वमविरुद्धमित्यस्पृशद्गतिवादेऽमिहितं सङ्गच्छते ॥४४॥
अथागमस्याहेतुबादहेतुवादागमोमयरूपत्वे सिद्धे स्वसमयप्रज्ञापकत्वस्य तत्परिज्ञाननिबन्धनस्वात्तदुभयज्ञ एव स्वसमयस्य प्रज्ञापकः, किमत्र प्रमाणमिति तर्कानुसारिप्रश्नविषयभूते हेतुवादागमविषयेऽर्थेऽप्रधृष्यामोघहेतुयुक्तिप्रकरलक्षणैः अहेतुवादागममात्रगम्येऽर्थे आगममात्रप्रज्ञापनालक्षणैस्तैस्तैर्यथोचितोपायैः प्रतिपादकवचसि श्रोत्गतावितथाविचलश्रद्धाविधायित्वात्तस्य, तदितरस्तु तद्विराधका प्रतिपादकवचस्यऽनास्थादिदोषोत्पादकत्वादित्युपपादनायाह
जो हेउवायपक्खम्मि, हेउओ आगमे य आगमिओ।
सो ससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ(गो) अन्नो ॥ ४५ ॥ 'जो हेउवायपरखम्मि' यः कश्चिद्धेतुवादपक्षे जीवकर्मादौ युक्तिमार्गसहे वस्तुनि 'हेउओ' हेतुक: प्रबलतमयुक्तिप्रणयनप्रवीणा, 'आगमे य आगमिओ' आगमे च देवलोकपृथीसङ्ख्यादावर्थे आगममात्रगम्ये, आगमिका, आगममात्रप्रज्ञापनाप्रवीण: 'सो ससमयपण्णवओ' स स्वसमय प्रज्ञापका स्वसमयस्य द्रव्यानुयोगादिभेदभिमस्प अरूप: तैस्तैरुपायैरुपदेशक उच्यते, ननु यदि हेतुबादागमविषयमर्थ हेतुबादागमेन यः प्रदर्शयति,
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पम्मति• काट ३, गा. . अहेतवादागमविषयं चार्थमागममात्रेण प्रज्ञापयति, न तु तत्रापि मतिमोहिनी युक्तिं तनोति स स्वसमय प्रज्ञापकस्तर्हि तद्विपरीतः कीदृश इत्याशङ्कायामाह-'सिद्धंतविराहगो अण्णो' सिद्धा. न्तविराधको जिनवचनानुयोगविनाशकोऽन्यः, प्रागुक्तविशेषणविकलः साधुः, तल्लाघवापादनात् । तथाहि-युक्तिप्रकरसहेवप्यागमगम्यत्वमेव पुरस्कुर्वन् स नास्तिकादिप्रणीतकु. युक्तिनिराकरणामावान्न श्रोतृणां तर्कानुसारिणां दृढां प्रतीति कत्तुं शक्नोति, आगमगम्येषु तु युक्तिपथातीतेषु युक्तिमुकयन्नसम्पादितनियतार्थप्रतीतिर्विकलारम्भत्वेन स्वयमेव वैलक्ष्यं भजते, श्रोतुधानादेयवचनो भवतीति न विपरीतव्यवहारिणा तेन सम्यसिद्धान्त आरा. धितो भवतीति । तदेवमागमोक्तविधिना श्रोतारमालोच्यागमोत्या हेतुयुक्त्या वा यथा यथाऽसौ बुध्यते तथा तथा तत्वोपदेशश्रोतृविवेचका कार्योऽर्हत्समयज्ञेनेति । पञ्चवस्तु. केऽप्युक्तं गाथाचतुष्टयम्
अह वक्खाणेअव्वं, जहा जहा तस्स अवगमो होइ । आगमिअमागमेणं जुत्तीगम्मं तु जुत्तीए ॥ ९९१ ॥ जम्हा उ दोण्हवि इहं, भणि पन्नवग कहणभावाणं । लक्षणमणधमईहि, पुवायरिएहिं आगमओ ॥ ९९२ ।। जो हेउवायपक्खम्मि, हेउओ आगमे अ आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥ ९९३ ॥ आणागिज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयव्यो ।
विट्ठति अ दिटुंता, कहणविहि विराहणा इहरा ।।९९४॥ इति । यो हेतुवादसिद्धमर्थ हेतुना साधयति, आगमसिद्धं चागमेन, तस्य नयवादः परिशुद्धः, नान्यस्येति प्रतिपादयत्राह-यद्वा वस्तुधर्मप्रतिपादकस्याहेतुहेतुवादभेदभिन्नागमस्य वाक्यनयरूपस्य परिशुद्धतरभेदेन द्विरूपतां प्रतिपादयितुमाह
परिसुद्धो नयवाओ, आगममेत्तत्थसाहओ होइ ।
सो चेव दुपिणगिणो, दोषिण वि पक्खे विधम्मेइ ॥ ४६ ।। "आगममेत्तस्थसाहओ नयवाओ परिसुद्धो होइ" आगममात्रार्थसाधको न त्वनागमार्थसाधकः, नयवादः श्रुतप्रमाणपरिच्छिन्नानन्तधर्मात्मके वस्तुनि प्रयोजनवशान्मुख्यवृत्त्यैकधर्मस्य गुणीभूतसकलस्वेतरधर्मस्य प्रतिपादको नयवादः, परि समन्तात् शुद्धः परिशुद्धो भवति, स्वेतरनिखिलांशसापेक्षवस्त्वेकांशावगाहियथार्थनिश्चयात्मकबोधजनकनयवाक्यस्यैव सुनयवाक्यत्वात् , गजनिमीलिकान्यायेन वप्रतिपाद्यांशभिन्नाशेषांशविधाननिषेधाकरणाद, स एव स्वप्रतिपाद्यांशेतरसकलांशनिषेध करणे स्वपरिशुद्धा अपेक्षामन्तरेणैकधर्म
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ४७
કરણ
निश्चायकवाक्यस्य दुर्नयवाक्यत्वादिति प्रतिपादयितुमुत्तरार्द्धमाह-' सो चेव ति' अयम्भावःवस्तुमात्रं किं नित्यमनित्यं वा, आद्यपक्षे एकान्तनित्यस्य पूर्वोत्तरतत्तरकालावच्छेदेन तत्तदर्थक्रियायाः कारित्वे कार्यभेदेन स्वभावभेदप्रसक्त्याऽनित्यत्वापत्तिः, अकारित्वे चासस्वापतिः । सतायोगात्सदिति चेद्, न, प्राग् विहितोत्तरत्वात्, अथैकान्तनित्योऽप्यर्थोऽनेक कार्यानुकूलैकशक्त्यैव तत्तत्कार्याणि करोतीति नोक्तदोष इति चेद्, मैवम्, कार्यतामेदेन तनिरूपित कारणतास्त्र भाव मेदस्याप्यवश्यम्भावेन पूर्वोक्तदोषतादवस्थ्यात् । द्वितीयपक्षे चैकक्षणवर्त्तिनोऽप्यर्थस्य तत्तदन्यदेशावच्छेदेन सामर्थ्यासामर्थ्याभ्याम् एवं पूर्वरूपस्याव्यवहितोत्तररूपं प्रत्युपादानकारणत्वम्, अव्यवहितोत्तररसादिकम्प्रति च निमित्तकारणत्वमिति स्वभावभेदाभ्यां विरुद्धधर्माध्यासाद्भेदप्रसक्तिः, तदेवं यत्सत्तत्सर्वमनेकान्तात्मकं अर्थक्रियाकारित्वात् स्वविषयाकारसंवित्तित्रत्, तथा वस्तुतवं न किश्विदेकान्तं तथात्वे सर्वथाऽर्थक्रियासम्भवादित्यादिनाऽनेकान्त तन्त्र सिद्ध्यैकान्ततत्वस्य बाधेनासद्रूपतया तथाभूतविषयाभावेन तद्विषयिणोऽप्यप्रमाणत्वमिति यदा ' सो चेत्र दुण्णिगिण्णो' स एव नयवादः दुर्निगीर्णः दुर्निक्षिप्तः प्रमाणविरुद्वैकान्तार्थप्रतिपादकत्वेन प्रयुक्तस्तदाऽपेक्षामन्तरेण कस्यापि धर्मस्य सद्रूपत्वं नेति निरपेक्षस्य तद्विषयस्यासद्रूपस्यापि सद्रूपतया प्रतिपादना भ्रान्तबुद्धिजनकत्वेनापरिशुद्धो भवति, ततन्महद्वस्तुनि स्वावधिक महत्रापेक्षया लघुत्ववत्ततदपेक्षगर्भतत्तदनेक पर्यायधर्माणां सद्भावेऽपि तन्निराकृतेर्दुर्नयरूपत्वात्, अत एव " दोण्णि fa पक्खे विधम्मे " द्वावपि पक्षौ विधर्मयति सुन्दोपसुन्दन्यायेन परस्पराप्रामाण्यज्ञापकनययुक्तिभिः परस्परनय विषयाऽसद्रूप करणेना सद्रूपतया ज्ञापयति दुर्निक्षिप्तो नयवाद एव । तदेव महेतुवादागमः श्रुतप्रमाणम्, हेतुवादागमो नयवादः, ताभ्यां संस्कृतमलङ्कृतं तच्चज्ञानं प्रमाणं युक्तिशास्त्राऽविरुद्धार्थगोचरत्वात् सुनिश्चितासम्भवद्वाधकत्वादिति भावः ॥ ४६ ॥
अथानन्तधर्मात्मकवस्त्वेकधर्मोऽपि स्वेतरसकलधर्मापेक्षितया स्याद्वादरूप एवेति तस्प्रतिपादकः परिशुद्धनयवादः स्याद्वादैकवाक्यतापन्नः तचाधिगमकारणत्वेन सम्यग्रूपतया स्वसमयरूपः इतरधर्मप्रतिक्षेपितया वस्त्वेकधर्मप्रतिपादकत्व परिशुद्धनयवादः स्या द्वादैकवाक्यतारहितो मिध्यारूपतया परसमयात्मकः । नन्वेवं तर्हि स कियत्सक इत्याशङ्कायामाह -
जावया वयणपहा, तावइया चेव हुंति णयवाया । जावइया णयवाया, तावइया चैव परसमया ॥ ४७ ॥
जावइया वयणपहा ' यावन्तो वचनपथाः- वक्तृविकल्पहेतवोऽध्यवसाय विशेषाः , तावया चैव हुंति णयवाया तावन्त एव भवन्ति नयवादाः तज्जनितवक्तृविकल्पाः शब्दात्मकाः, सामान्यतो नैगमादिसप्तभेदोपग्रहेऽपि प्रतिव्यक्ति तदानन्त्यात् । 'जावहया
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सम्मति• काल ३, गा० ४. णयवाया' यावन्तो नयवादा: 'तावहया चेत्र परसमया' तावन्त एव परसमया:, स्वेच्छापरिकल्पितवक्तृविकल्पमात्रकल्पितत्वात्तेषाम् । स्याद्वादैकवाक्यतारहिता एकैकनया वस्तुनो यावन्तोऽनन्ता अंशास्तान् सर्वान् नाभ्युपगच्छन्ति, किन्त्वेकैकांशानित्येकैकांशग्राहका यावन्तः प्रतिपत्तुणामभिप्रायास्तावतां नयानां वचनपथतुल्यसंख्यकानामपरिमितत्वेन तत्कल्पितनयवादात्मकपरसमया अप्यपरिमिता एव, अभिनिवेशान्वितवस्त्वेकैकांशविषयकप्रतिपत्रभिप्रायलक्षणनयप्रभवनयवादस्यैव परसमयलक्षणत्वादिति परमार्थः । नन्वेवं नयवादानां वचनपथतुल्यसङ्ख्यकानामपरिमितत्वेन तत्तनयवादात्मकपरसमयानामपि परिमितिर्न विद्यते, तर्हि तन्निबन्धनभूतानां नयानामध्यवसायलक्षणानां " से किं तं णए ? सत्त मूलण या पण्णत्ता, तं जहा-णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसूए सद्दे समभिरूढे एवंभूए" इत्यनुयोगद्वारसूत्रेण यः सप्तधा विभागो विहितस्सोऽपि प्रमाणतां नैव प्राप्नुयादिति, चेत्, उच्यते, स्थूलन्यायेन मूलजातिभेदतस्सोऽपि प्रमाणभावमश्चत्येव, ततोऽपि सूक्ष्मतरभेदविवक्षायामेकैकनयः शतभेद इति नयत्वसाक्षाव्याप्यजात्यवच्छिमानां सप्तनयानां प्रमेदारसप्तनयशतानि भवन्ति, नयत्वव्याप्यजातिव्याप्य जात्यवच्छिन्नत्वात् , तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये--" इकिको य सयविहो सत्तनयसया हवंति एमेव" इति । उपर्दाशतनयसङ्खथाऽपरिमाणत्वविधानन्तु ततोऽपि सूक्ष्मतरदृष्टिपर्यालोचनयैव, ततोऽनन्तां. शात्मके वस्तुन्येकांशपयेवसायिनो यावन्तः प्रतिपत्तृणामभिप्रायास्तावन्तो नया:, ते च नियतसङ्कथा सङ्ख्यातुं न शक्यन्ते, अत एव तदुत्थनयप्रवादानामपि परसमयरूपाणां सावधारणत्वेनैकान्ततत्त्वप्रतिपादकानां नियतसङ्खथा न विद्यत इति । एतेन मूलत एव नयविचारो नारम्भणीयः निष्फलत्वात् , काकदन्तपरीक्षावदिति तत्सङ्खथा भवतु मा वा किं तद्विज्ञानेनेति निरस्तम् , नयविचाराऽकरणे नयविधिमजानता नयज्ञानाऽभावेन सम्य. ग्वागुच्चारणमेव अन्योन्यवाग्युक्तायुक्तत्वविवेकोऽपि च न स्यात्, एवं नैगमादितत्तभयाऽन. पेक्ष्य जीवाजीवाद्यर्थ एवंस्वरूप इति सूक्ष्मेक्षिकया विचाराऽकरणे यथार्थज्ञानाऽमावेनऽ. युक्तमपि युक्तं युक्तमप्ययुक्तं प्रतिभासेत, किश्च परसमयरूपं यदेकान्तनित्यत्वादिप्रतिपादकमेकनयमतं तदेकान्तानित्यत्वादिप्रतिपादकेन तत्प्रतिपक्षभूतेनान्येन नयेन नयविधिज्ञो यदि स्यात्तदा निराकुर्याद, नान्यथा, किश्च स्वसिद्धान्तेऽपि यदज्ञानद्वेषादिकलुषितस्सन् कोऽपि दोषबुद्ध्या किमपि यजीवादिवस्तु अन्यथा परिगृहीयात् तदपि यो नयविधिज्ञस्स एव नयोक्तिभिर्यथार्थतया स्थापयेत् , अन्यथा तु कथं, तस्मात्रयविचारस्सफलत्वेनारम्भणीय एवेति सिद्धम् । नन्वेवं तर्हि जीवो जीवस्वरूपतया व्यवहर्त्तव्यः वेतनावचात् , यन्नैवं सौवम् , घटादिवत् , एवमजीवोऽजीवस्वरूपतया व्यवहर्तव्यः अवेतनावस्यात् , यनैवं तवम् , आत्मवदित्येवं लक्ष्यस्य लक्ष्यस्वरूपतया व्यवहारप्रयोजनकत्वेन लक्ष्यव्यवस्थापक लक्षणमेव, अत एव लक्षणाधीना लक्ष्यव्यवस्थितिरिति गीयते तत्वज्ञैः, जीव इतरमिन्न:
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सम्मति मण्ड, गा० ४७ चेतनायचात् , यभेतरभिसम घेतनावत् यथा घटः; एवमजीव इतरमिनः अवेतनावत्वात् , यौवं तवं यथात्मा इत्येवमितरभेदानुमापकमपि लक्षणमेव, तथा च नयो नयत्वेन व्यवहतेष्य इति व्यवहारज्ञानप्रयोजनको नयः स्वेतरसंशयविपर्ययादिभिन्न इत्यनुमित्युपपादकच नयसामान्यलक्षणं किमित्याशङ्कायां तत्प्रतिपादनीयम् , तभिरूपणे च कृते समानेन नयो नयत्वेन व्यवहर्त्तव्य इतरभिन्नत्वेन च ज्ञातव्य इति सामान्यतो नयगोचरक्षाने जाते सति नयभेदजिज्ञासया कतिभेदा नयानामिति प्रश्ने कृते मूलजातिभेदतो नया नैगमादयस्सप्रेत्युत्तरे दत्ते नबत्वावान्तरतत्तद्धर्मावच्छिन्नतत्तत्रयलक्षणजिज्ञासया नैगमादितसम्बयलक्षणमच्याप्त्यादिदोषाऽकलङ्कितं किमिति प्रश्ने कृते शिष्येण तदपि वाच्यमिति चेत् , उच्यते, श्रूयतां सावधानीभ्य, श्रुतप्रमाणपरिच्छिन्नानन्तधर्माध्यासितवस्तुनो गजनिमीलिकान्यायेन तदितरधौंदासीन्यतस्स्वाभिप्रेतकधर्मावगाही प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय इति नयसामान्यलक्षणं जानीहि । तदुक्तं प्रमाणनयतत्वालोकालकारे सप्तमपरिच्छेदे - "नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदि
तरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः॥१॥" इति तत्संवादी चायं श्लोकः
" श्रुताांशांश एवेह, योऽभिप्रायः प्रवर्तते ।
इतरांशाप्रतिक्षेपी, स नयः सुव्यवस्थितः ॥१॥" इति । न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायभगवन्तस्तु अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि प्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्षात्मकशाब्दबोधत्वं ज्ञानात्मकनयत्वं, वाक्यात्मकन यत्वं तु तादृशशाब्द. बोधजनकवचनत्वमिति नयलक्षणं प्राहुः । तदुक्तं नयोपदेशे
" सस्वासस्वायुपेतार्थे-ध्वपेक्षावचनं नयः ।
न विवेचयितुं शक्यं, विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् ॥ २ ॥” इति। अपेधात्वच क्षयोपशमजन्यतावच्छेदको जातिविशेषो विषयिताविशेषो वेत्यन्यदेतत् । ननु घटोऽस्तीत्यादिवाक्यश्रवणाद् घटत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितनिरवच्छिन्नविशेष्यत्वाऽभिभघटत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितास्तित्वनिष्ठप्रकारताकशाब्दबोधो मे जात इत्येव लोकाः प्रतीयन्ति, न तु तत्रापेक्षात्वमपीत्यपेक्षात्मकन यज्ञान सच्चे किं प्रमाणमिति चेत् , उच्यतेविरुद्धत्वेन प्रतीयमाना ये सच्चासत्चनित्यत्वानित्यवादयो नानाधर्मास्तद्विशिष्टं वस्त्वपेक्षा विना विवक्षितकधर्मप्रकारकनिश्चयविषयी कत्तुं न शक्यम् , तद्विरुद्धधर्मवत्ताज्ञानस्यानपेक्षास्मासानुपपसे, तथाहि-तदभावतथाप्यवत्तादिनिश्चयदशायामपि तद्वत्ताज्ञानस्थाव्याप्य. .४२
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सम्मति० काम , गा० ४५ वृत्तित्वज्ञानकालीनस्याहार्यस्य च दोषविशेषजन्यस्य च लौकिकसम्भिकर्षजन्यस्य चोदयेन तेषां सर्वेषां प्रत्येक भेदानां प्रतिवध्यतावच्छेदकतया निवेशापेक्षया तेषु सर्वेष्वपेक्षात्वजातिमभ्युपगम्य तद्वदन्यत्वनिवेशे लाघवमिति प्रतिबध्यतावच्छेद कभेदप्रतियोगितावच्छेदकतया तसिद्धिः, एवञ्च तद्धर्मप्रतिपक्षवत्तया निश्चिते धर्मिणि तद्धर्मवत्ताज्ञानमन्यथानुपपन्नं सत्स्वगतत्वेनाऽपेक्षात्वं निश्चयतीत्यन्यथाऽनुपपत्तिस्तत्र प्रमाणम् , सैव सर्वचलाधिका, पलवत्प्रमाणत्वात् । तदाह श्रीहर्षेः-खण्डनखण्डखाद्ये परि० १, श्लो०६
" अन्यथानुपपत्तिश्चेदस्ति वस्तुप्रसाधिका ।। पिनट्यदृष्टवैमत्यं, सैव सर्वषलाधिका ॥१॥ वाच्याऽन्यथोपपत्तिा , त्याज्यो वा दृष्टताऽऽग्रहः ।
न येकत्र समावेश-छायाऽऽतपवदेतयोः ॥२॥" इति । न चापेक्षा विना लौकिकोऽपि व्यवहारः सङ्गच्छते, शाखायां कपिसंयोगी वृक्षो न तु मूल इत्येवं मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाववति वृक्षे शाखापेक्षयैव कपिसंयोगवत्त्वव्यवहारात्, न च शाखावच्छेदेन कपिसंयोगावगाह्येवायं व्यवहारो न त्वपेक्षात्मक इति वाच्यम् , शाखावच्छिन्नो वृक्षः कपिसंयोगवान् न तु सम्पूर्ण इति प्रत्ययस्य स्कन्धदेशापेक्षा विनाऽनुपपत्ते, यतः शाखावच्छिन्ने वृक्षे कपिसंयोगवत्वे सम्पूर्णे तत्र कपिसंयोगाभावः स्कन्धरूपदेशे कपिसंयोगाभावयुक्त एव, अन्यथा शाखावच्छिन्ने वृक्षे कपिसंयोगवत् स्कन्धावच्छिन्नेऽपि यदि कपिसंयोगस्स्यात् , तर्हि कोऽयं शाखा-स्कन्धाभ्यामन्यः सम्पूर्णी वृक्षः १ यत्र कपिसंयोगाभावो भवेदिति, ततश्च स्कन्धे कपिसंयोगो नास्तीत्येतावतैव सम्पूर्णो वृक्ष: ' कपिसंयोगाभाववान्' इति व्यवहियते, अतरस्कन्धात्मकदेशापेक्षामाश्रित्यैव तथा व्यवहारः, अन्यथा तदनुपपत्तेरिति । घटपटयो। रूपमिति प्रत्ययः सङ्ग्रहनयाश्रयणेन रूपत्वेन रूपेण सर्वत्र रूप. सामान्यमेकमेवेति तद् घटपटोभयत्र वर्तत इति सामान्यापेक्षया यथार्थ इति सोऽपेक्षां निष्ट.
यति, घटपटयोन रूपमिति प्रत्ययश्च व्यवहारनयाश्रयणेन नीलपीतादिरूपविशेषातिरिक्तं रूपसामान्य नास्त्येवेति तत्तद्रूपव्यक्तित्वेन रूपेण तत्तद्रूपविशेषो नोमयत्रेति विशेषापेक्षया यथार्थो भवन्नपेक्षामिदं वस्त्वेतदपेक्षया महत् एतदपेक्षया च इस्वमिति प्रत्ययोऽपि च तां साधयत्येव, दुर्नयानामपि सम्यग्दृष्टिभिः परिग्रहे सति तेषां सुनयीकरणमप्युक्तापेक्षयैव, तादृशापेक्षाविनिर्मोके तु वस्तुस्थि त्या दुर्नयत्वमेव, तव्यतिरेकेणैकान्त तत्वावगाहित्वात्तेषामित्यलं पल्लवितेन ॥ अधिकाजिज्ञासुभिनयोपदेशवृत्तिरवलोकनीया, गौरवभीत्या नाधिकमुच्यते। __ तत्तन्नयलक्षणं त्वेवम्-निगमेषु येऽभिहिताश्शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानन देशसमग्रमाही नैगम इत्युक्तं नैगमलक्षणं तत्त्वार्थभाष्ये । अस्य चायमर्थः-निश्चयेन गम्यन्ते उच्चार्यन्ते प्रयुज्यन्ते येषु शब्दास्ते निगमा जनपदाः, तेष्वभिहिता उचारिता ये शन्दा
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महैि, गा ४७
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टादय:, तेषामर्थो जलाहरणादिसमर्थः, शब्दार्थ परिज्ञामञ्च, अयं शब्द एतस्यार्थस्य वाचकः, अयमर्थ एतस्य शब्दस्य वाच्य इत्येवं वाच्यवाचकभावपरिज्ञानञ्च नैगमनयः, स 'व सामान्य विशेषावलम्बीत्येतद्दर्शयति-देशो विशेषः समयं सामान्यं तद्वाही, अयं हि सामान्यग्राही जातिमेव पदार्थमाह, विशेषग्राही च द्विकत्रिकाविकम्, तथा चोक्तं विचित्रप्रकारं नैगमनयमाश्रित्य -
" एकं द्विकं त्रिकं चाथ, चतुष्कं पञ्चकं तथा ।
नामार्थ इति सर्वेऽमी, पक्षाः शास्त्रे निरूपिताः ॥ १ ॥ " इति ॥
तत्रैकमिति केवलजातिम्, पक्षान्तरे केवलव्यक्ति जातिविशिष्टं वेत्यर्थः, द्विकमिति जातिव्यक्ती इत्यर्थः, त्रिकमिति जातिव्यक्तिलिङ्गानीत्यर्थः, चतुष्कमिति सङ्ख्यासहितं त्रिकमित्यर्थः । पश्चकमिति कारकसहितं चतुष्कमित्यर्थः । केचित्तु शब्देन सह षडपि नामार्थाः, तस्यापि नियतं शाब्दबोधे मानाद, अन्यथा विष्णुमुच्चारयेत्यादावगतेः, अर्थोच्चारणासम्भ वादित्याहुः । अन्ये च बुद्धिप्रतिबिम्बकान्यापोह एव शब्दार्थ इति प्रतिपादयन्ति । अस्य विस्तरतोऽर्थः तच्चार्थ प्रथमाध्यायविवरणतोऽस्मत्प्रणीत तट्टी का तचावसेयः । एवमेते सर्वेsपि शब्दार्थाव्यवसाया नैगमनये सम्भवन्ति, प्रस्थकवसतिदृष्टान्तेन विचित्रस्य तस्य सूत्रे प्रतिपादनात् तथा चैतादृशाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्रं नैगमलक्षणमनुगतं बोध्यम् । अत्र नैगमनयस्य नानाप्रकारत्वान्नैगमत्वजातिमादाय तत्सर्वप्रकारसंग्रहार्थं द्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिपर्यन्तानुधावनं कृतमिति । तद्वृत्तिजातिमात्रनिवेशे नैगमस्वजातिमादाय नानाप्रकार सर्वनैगमनय सङ्ग्रहेणाव्याप्तिदोष निवृत्तावपि महासामान्यसत्ताजातिमादाय वस्तुमात्रेऽतिव्याप्तिस्स्यात्, तन्निवारणाय तद्वृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिनिवेशे नयत्वजातिमादाय पर्यायार्थिकनयेऽतिव्याप्तिस्स्यात्, तद्वारणाय तद्वृत्तिनयत्वव्याप्यजातिनिवेशे द्रव्यार्थिकत्वजातिमादाय सङ्ग्रहादावतिव्याप्तिस्स्यादित्यतस्तद्वत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिनिवेशः कृतः, न चैत्रमपि द्रव्यार्थिकत्वजाते स्वाभाववदवृत्तित्वात्स्वव्याप्यत्वेन तामादाय सङ्ग्रह - नयादावतिव्याप्तिस्तदवस्थैवेत्याशङ्कनीयम्, तत्समानाधिकरण मेद प्रतियोगितावच्छेदकत्वलक्षणन्यून वृत्तित्वार्थकस्य व्याप्यत्वस्यात्र ग्रहणात्, यदि तदभाववदवत्तित्वमेव व्याप्यस्त्रमित्येवाग्रहस्तदा स्वस्य स्वव्याप्यत्ववारणाय स्वभिन्नत्वेनापि व्याप्यजातिर्विशेषणीयेति । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । दवत्थिओत्ति कोइ नत्थि णओ नियमसुद्धजाइओ || ९ || इत्यादि सम्मतिग्रन्थपर्यालोचनया अनुगतद्रव्यार्थिकत्वजात्यभावपक्षे तु नैगमनयस्य यावन्तोऽध्यवसायविशेषास्तावदध्यवसाय विशेषान्यतमत्वं नैगमलक्षणमवसेयम् । एवमग्रेऽपि यस्य नयस्य यावन्तोऽध्यवसाय विशेषास्तस्य नयस्य तावदध्यवसायविशेषान्यतमत्वमेव लक्षणं बोध्यमिति । " सामान्यविशेषोभयस्वी कर्तृजातीयैकदेशबोधत्वं नैगमत्वम् "इति नयोपदेश
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सम्मति ३,०४७
मृत्युक्तनैगमलक्षणमवसेयम्, अथवा प्राधान्येन सामान्यविषय का ध्यवसायवृत्तित्वे सति प्राधान्येन विशेषविषयका व्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्त्वं नैगमत्वमित्याद्यपि लक्षणम् । अत्र सत्यन्दनिवेशान्न व्यवहारेऽतिष्याप्तिः, सुनयवृत्तेर्व्यवहारत्वस्य गौणवृष्या सामान्यविषयकाध्यवसायवृत्तित्वेऽपि प्राधान्येन तद्विषयकाध्यवसायवृत्तित्वाभावात्, व्यवहारनयेन प्रधानतया विशेषविषयका व्यवसायस्यैवाऽभ्युपगमात् प्राधान्येन विशेषविषयकेत्याद्युपादानाम सहनयेऽतिव्याप्तिः, सुनयवृत्तेस्समहत्वस्य गौणतया विशेषविषयकाध्यवसायवृत्तित्वेऽपि प्रधानवश्या तद्विषयकाभ्यवसायवृत्तित्वाभावात्, प्राधान्येन सामान्यविषयकत्वे सति प्राधान्येन विशेषविषयकाध्वसायत्वं नैगमत्वमित्येतावन्मात्रोक्तौ च यद्यपि प्रमाणात्मकज्ञाने नातिव्याप्तिः यतस्तस्य प्राधान्येन सामान्यविशेषोभयविषयकत्वेऽपि सामान्यविशेषोभयात्मकत्वेन जात्यन्तरस्वरूपवस्त्ववगाहित्वत एव तस्य निरुक्तोमयानगाद्दित्वमिति तत्र सामान्यविषयत्वविशेषविषयत्वयोरेकवस्त्ववच्छेदेन समानाधिकरणयोरबच्छेद्यावच्छेदकभावः, नयनिरूपितयोश्च तयोरेकवस्तु विभिन्नांश मात्रगतयोर्नाविच्छेद्यावच्छेदकभाव इति मिथोऽवच्छेद्यावच्छेदकभावानापन्नयोरेव सामान्यविशेषविषयत्व विशेषयोनिरुक्तनैगमलक्षणे प्रवेशात् । तथापि -
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इत्युक्तलक्षणनैगमस्य " सचैतन्यमात्मनि १ । वस्तु पर्यायवद्रव्यं २ | क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीवः ३ । इति नैगमनयोदाहरणत्रयेष्वव्याप्तिस्स्यात्, तत्र प्रधानोपसर्जनभावविवक्षणादिति तद्वारणाय प्राधान्येन सामान्य विषयकाध्यवसायवृत्तित्वे सति प्राधान्येन विशेषविषयकाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमन्त्रमित्युक्तम् । तथा च नैगमस्थ धर्मद्वयविषयके प्रथमभेदे धर्मियुग्मगोचरे द्वितीयमेदे धर्मधर्म्यालम्बने तृतीयभेदेऽपि च नैगमत्वजातिमादायोक्तलक्षण समन्वयान्नाव्याप्तिः, एवञ्च घटोऽयं पटोऽयमित्याद्येकैकधर्ममात्रावगाह्यध्यवसायेष्वपि तादृशाध्यवसाय वृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यनैगमत्वजातिर्वर्तत इति न तेष्वप्यव्याप्तिः । अत्रापि अन्यत्सर्व पूर्ववदाम् इति ।
" धर्म योधर्मिणोर्धर्म- धर्मिणोश्च विषक्षणम् । गुणप्रधानभावेन, नैगमस्तद्विदां मतः ॥ १॥
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इति श्लोकेन " धर्म योधर्मिणोर्धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जन भावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः ॥ ७-७ इति प्रमाणनयनस्वालोकालङ्कारसूत्रानुसारिणोक्तस्य नैगमनयलक्षणस्य पर्यवसनश्चैवं ज्ञेयम्-पर्याययोर्द्रव्य वस्तुनोः पर्यायद्रव्ययोश्च मुख्याम्मुख्यरूपतया यो विवक्षात्मकाऽभिप्रायस्तद्वृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्त्वं नैगमनयत्वमिति । अत्र नैगमस्य धर्मद्वयगोचरप्रथमभेदस्योदाहरणम् -" सचैतन्यमात्मनीति " तत्र चैतन्याख्यस्य व्यञ्जनपर्यायस्प
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सम्मति० काम , गा० ४४ विशेष्यतया मुख्यत्वेन सत्तास्यस्प च व्यञ्जनपर्यायस्य चैतन्यविशेषणत्वेनामुख्यत्वेन विवक्षणम् , नैगमस्य धर्मियगोचरद्वितीयभेदस्योदाहरणम्-" वस्तु पर्यायवद्रव्यमिति" अत्र पर्यायवद्रव्य वस्तु वर्तत इति विवक्षायां पर्यायवद्रव्याख्यस्य धर्मिण उद्देश्यतया विशेष्यत्वेन प्राधान्यम् , वस्त्वाख्यस्य तु धर्मिणो विधेयत्वेन प्रकारतया गौणत्वम् । यदा किं वस्तु पर्यायवद्रव्यमिति विवक्षायां वस्तुनो विशेष्यत्वात् प्राधान्यं, पर्यायवद्रव्यस्य विधेयतया प्रकारत्वविवक्षणाद्गौणत्वम् , धर्मधर्मिगोचरतृतीय भेदस्योदाहरणम्-"क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति"। अत्र विषयासक्तजीवाख्यस्य धर्मिणो मुख्यता, विशेष्यत्वात् , सुखलक्षणस्य तु धर्मस्याप्रधानता तद्विशेषणत्वेनोपात्तत्वादिति। न चास्यैवं प्रमाणत्वानुषः, धर्मधर्मिणोद्धयोः प्राधान्येनात्र ज्ञप्तेरसम्भवात् । तयोरन्यतरमेव हि नैगमनयः प्रधानतया विषयीकरोति "प्राधान्येन द्रव्यपर्यायद्वयात्मकं चार्थमनुभवद्विज्ञानं प्रमाण प्रतिपत्तव्य नान्यत्" इत्याकरे प्रोक्तत्वात्प्रमाणं तु प्राधान्येन द्रव्यपर्यायोमयरूपं जात्यन्तरात्मकमर्थ गृहाति न तु नयवत्प्रधानगुणभावेनेति तत्रोक्तनयलक्षणसङ्गत्यभावानातिप्रसङ्ग इति । ..
सनहलक्षणं त्वेवम्-" अर्थानां सर्वैकदेशसङ्ग्रहणं सहः" इति तत्त्वार्थमाध्ये प्रोक्तम् । तस्यायमर्थ:-अर्थानां घटादीनां सर्व सामान्यमेकदेशो विशेषस्तयोः सधहणमेकी. मावेनाश्रयणं सर्वमेकं सदविशेषादित्यध्यवसाय इति यावत्स सत्रहो भण्यते । तत्र सद. विशेषादित्यस्य चेतनाचेतनपदार्थमात्रे सन् सनित्यनुगतप्रतीतिभावात्तद्विषयीभूतसत्वेन रूपेणाशेषार्थानामविशेषादमेदादित्यर्थः । तथा चाशेषविशेषेचौदासीन्यं भजमानो यस्सत्तारूपेण वस्तुमात्राभेदाध्यवसायस्तढुसिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्त्वमिति पर्यवसितसबहनयलक्षणमवसेयम् , तेनापरसङ्ग्रहस्य द्रव्यत्वादिरूपेण धर्मास्तिकायादिद्रव्याऽमेदावमाहिन उक्ताध्यवसायत्वाभावेऽप्युक्ताध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यसङ्ग्रहत्वजातेस्तत्र सत्चामाव्याप्तिः, अत एव न प्रस्थकस्थलप्रदर्शितसमहेऽप्यव्याप्तिः, तस्मिन्नपि तादृशसमहत्वजातिसद्भावात् , न वा नैगमनयेऽतिव्याप्तिः, तन्मते द्रव्यादित्रयवृत्तिसत्ताजातिस्वीकारेऽपि तद्रूपेण निखिलवस्तुन्यभेदाध्यवसायानभ्युपगमादिति । अन्यत्सर्व पूर्ववद्राव. नीयम् । सनहस्यापि प्राधान्येन विशेषविषयको य एकदेशबोधस्तद्वयत्यवृत्तिप्राधान्येन सामान्यविषयकैकदेशबोधवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वसाक्षाद्वयाप्य जातिमचं समहत्वमिति पर्यवसितं लक्षणान्तरमप्यवसेयम् । अत्रावृत्यन्तोपादानागमत्वजातिमादाय नैगमे नातिव्याप्तिः । न्यवहारस्वजातेरपि तत एवोपादानासम्भवेन गौणतया सामान्यविषयके व्यवहारेऽति. व्याप्त्यमावेन प्राधान्येन सामान्यविषयकैकदेशलोधवृतीत्यन्तं स्वरूपोपरचकमेव । तब लक्षणस्य व्यवहारप्रयोजनकत्वे उपादातुं शक्यते, इतरमेदानुमितिप्रयोजनकत्वे तु स्वभिपारस्वरूपाऽसिद्धयायवारकस्योक्तविशेषणस्य लक्षणात्मकहेतोर्व्यर्थविशेषणपटितत्वप्रयोजक तया व्याप्तत्वासिद्धिदोषपोषकत्वेन नोपादानं यद्यप्युचितं, तथाप्युक्तयुक्त्या वाजाते:
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ब्रम्मति काण्ड ३ ० ४०
स्वभावविशेषाऽऽलिङ्गितव्यक्तयभिव्यङ्ग्यत्वेन तादृशव्यक्तेर्लक्षणाsसनिवेशे जातिघटितलक्षणस्य जातिविशेष जिज्ञासून् एति दुर्ज्ञेयत्वमेव स्यादिति हेतुस्वरूपाज्ञानरूपासिद्धिवारकतथा न तस्य व्यर्थविशेषणघटितत्व प्रयोजकतेत्युपादेयमेव तदितरभेदानुमितिपक्षेऽपीति । द्रव्यार्थिकत्वसाक्षाद्व्याप्येति विशेषणस्य जातावनुपादाने यद्यपि ज्ञानत्वनयत्वद्रव्यार्थिकत्यादिव्यापक जातीरादाय नातिव्याप्तिरत्र समुन्मिषति, तासां प्राधान्येन विशेषविषयकदेशबोधव्यक्तिवृत्तित्वेनाऽवृश्यन्तेनैव वारणात्, तथापि नैगमत्वव्याप्यमासान्यमात्रविषयबोधगतजातिमादाय नैगमविशेषेऽतिव्याप्तिवारणायोपादेयमेवेति ।
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'लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः " इति तत्त्वार्थभाग्य स्वारस्यालौकिकव्यवहारप्रधान उपचारबहुलो विस्तृतार्थविषयको योऽध्यवसायस्तद्वृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमध्वमिति व्यवहारनय पर्यवसितलक्षणं सिद्ध्यति । लौकिकव्यवहारप्रधान इत्यनेनार्जुत्रादौ नातिव्याप्तिः, तन्मते क्षणिकपदार्थस्यैवाभ्युपगमेन घटादिपदार्थानां स्थैर्ये सत्येव दृश्यमानस्य तदानयादिलौकिकप्रवृत्त्यादिव्यवहारस्यैवानुपपत्तेः, उपचारबाहुल्यश्च स्वेतरनयापेक्षया विवक्षणीयम्, नातः सग्रहे नैगमे नयेऽपि च स्वस्वसिद्धान्तोचितो - पचारसद्भावेऽप्यतिव्याप्तिः । उपचारबाहुल्यस्यास्मिन्नेव नये सद्भावात् । नानाव्यक्तिकशब्दसङ्केतग्रहणप्रवण इत्यर्थकं विस्तृतार्थ इति विशेषणं नयान्तरतो व्यवहारस्य विषयवैलक्षण्यप्रदर्शनेन विविक्तानेकविशेषविषयकलौकिकव्यवहारस्वरूपावबोधार्थमुपात्तम् । उक्तलक्षणे नयत्वव्याप्यजातिनिवेशे द्रव्यार्थिकत्वजातिमादाय सङ्ग्रहादावतिव्याप्तिस्स्यात्, अतस्तद्वारणाय द्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिनिवेशः कृत इति । व्यवहारनयलक्षणान्तर श्चैवम् - व्यवहारो हि सामान्यमतद्वयावृत्यात्मनैवाभ्युपगच्छति, न तु विध्यात्मनेत्यतो विध्यात्मना सामान्याभ्युपगन्तुव्यक्त्यवृत्तिस्थिर विशेषाभ्युपगमवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिमत्रं व्यवहारनयत्वम्, अत्रावृत्तीत्यन्तोपादानाम नैगमेऽतिव्याप्तिः तेन नयेन विध्यात्मना सामान्याभ्युपगमात् । सङ्ग्रहत्वव्युदासस्याप्युक्तविशेषणेनैव सम्भवे स्थिरविशेषाभ्युपगमवृत्तीत्युक्तिर्जातिविशेषस्वरूपाभिव्यक्त्यर्थमेवेति द्रव्यार्थिकत्वसाक्षाद्वयाtयत्वस्य जातिविशेषणतयोपादानात्रैगमत्वावान्तर स्थिरविशेषाभ्युपगममात्रवृत्तिजातिमादाय नैगमविशेषे नातिव्याप्तिः । अस्मिँल्ललक्षणे व्यवहारत्वजातिमादाय सर्वव्यवहारनयस्य हो भावनीय इति । दवडियपयडी सुद्धा ' इत्याद्युक्त्या द्रव्यार्थिकन य प्रकृति शुद्धा सङ्ग्रहाख्या, अशुद्धा तु सा व्यवहाराख्येति द्रव्यार्थिकस्य सङ्ग्रहव्यवहाराभ्यामेव विभागकरणादेतत्प्रकरणकारमते नातिरिक्तो नैगमनयः, अत एव ' एवं सत्त वियप्पो' इत्यादिगाथा व्याख्याने सप्तभङ्गथा न कश्चिद्भङ्गो नैगमनयोत्थः प्रतिपादितः, अर्थनये सङ्ग्रह - व्यवहारर्जुम्रत्रात्मकनयत्रयस्यैव ग्रहणादिति तलक्षणायासो निष्फल एव एतन्मते सङ्ग्रहस्य परसहापरसग्रहाभ्यां भेदद्वयमपि नास्ति, तथा चैतन्मते सगृहणाति सश्वेन
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सम्मति काण्ड ३,०४७
E
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रूपेण सर्वे वस्तु क्रोडीकरोति एकीकरोतीति सङ्ग्रह इति व्युत्पत्तिबललभ्यं सश्वेन रूपेण सर्ववस्त्वभेदग्राहिनय सङ्ग्रहनय इति सङ्ग्रहनयलक्षणं पर्यवस्यति, व्यवहारनये हि घटोऽस्ति पटोsस्ति कटोऽस्तीत्यादि व्यवहारस्सोऽपि स्वरूपसत्तयैव, न त्वतिरिक्तैकानुगतसत्तया, स्वरूपसत्ता घटोsस्ति पटोऽस्तीत्यादेर्घटस्स्वरूपसन् पटस्स्वरूप सन्नित्यर्थकत्वेन प्रतिव्यक्ति नियतभिन्नभिन्नरूपैवेत्येकानुगतसत्तालक्षणं महासामान्यं नास्त्येव, अत एव स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घट इत्यादिसप्तभङ्गयाः सत्तारूपास्तित्वप्रतिपादकस्य प्रथमभङ्गस्य सङ्ग्रहमूलकत्वम्, सच्चाभाव पर्यवसितसत्ताप्रतिपक्षरूपनास्तित्वात्मकविशेषप्रतिपादकस्य द्वितीयभङ्गस्य व्यवहा रमूलकत्वं सङ्गच्छते, न चैतत्स्वकल्पनामूलम् ' एवं सत्त विप्पो' इत्यादिसम्मतिगाथाटीकायां " तत्र सामान्यग्राहिणि सग्रहे प्रथमः, विशेषग्राहिणि व्यवहारे द्वितीय इत्यादिनोक्तत्वादिति । उपपादितश्चैतन्नयोपदेशवृत्तौ यद्धर्मप्रकारकः सङ्ग्रहाख्यो बोधः प्रथमभङ्गफलत्वेनाभिमतः तद्धर्माभावप्रकारको व्यवहाराख्यो बोध एव द्वितीयभङ्गफलत्वेनैष्टव्य इति निरूपणेन, किन्तु द्रव्यत्वपृथिवीत्वघटत्व पटत्वादिलक्षणमवान्तरसामान्यमेवास्ति तत्तदवान्तरसामान्यात्मकोपादेयतावच्छेद की भूतधर्मेणोपादेये इष्टसाधनत्वज्ञाने नोक्तधर्मावच्छि भोपादेयार्थविषयकप्रवृत्तेः हेयतावच्छेदकेन तत्तदवान्तरसामान्यधर्मेण हेयेऽनिष्टसाधनत्वज्ञानेनोधर्मावच्छिन्नयार्थविषयक निवृत्तेश्वोपेक्षणीये चोपेक्षणीयतावच्छेद के नेष्टसाधनत्वानिष्टसाधनत्वान्यतरानवच्छेदकधर्मपर्यवसितैन तत्तदवान्तरसामान्यधर्मेणेष्टसाधनत्वानिष्ट
साधनत्वाऽन्यतराभावज्ञानेन तादृशधर्मावच्छिन्नोपेक्षणीयार्थविषयकोपेक्षायाश्च भावात् । तथा चोपादेययोपेक्षणीय विषयक प्रवृत्तिनिवृत्यु पे क्षालक्षणव्यवहारसम्पादक प्रतिवस्तुवचनार्थनिश्वयो व्यवहारनय इति व्यवहारनयस्य पर्यवसितलक्षणम् । यद्वा सत्ताभित्र परापरसामान्ययावदन्त्य विशेषाभ्युपगमप्रवणनयो व्यवहारनय इत्येतत्प्रकरणकृत्सूरिभगवदाशयः । इदन्वावधेयम्, प्रतिव्यक्तिस्वरूपसत्ताऽभ्युपगमो यो व्यवहारनयस्य स महासामान्यसवानभ्युपगमपरो ज्ञेयो न तु महासामान्यमश्वानभ्युपगमत्रद् द्रव्यत्वादिसामान्यविशेषामामनभ्युपगमोऽपि तस्य, तथा सति द्रव्यत्वादिरूपेणास्तित्वप्रतिपादके द्रव्यतयाऽस्त्येव घटइति प्रथमभङ्गे सति स्यान्नास्त्येव घट इति द्वितीयभङ्गो यदि व्यवहारनयसमुत्थः तदा प्रथमभङ्गो नैगमानभ्युपगन्तु सिद्धसेनमते न नैगमनयसमुत्थो, न वा केवल महासामान्यसब्वाभ्युपगन्तृसङ्ग्रहाभ्युपगमप्रवणे तन्मते सङ्ग्रहनयसमुत्थ इति मूलीभूतस्य कस्यचिन्नयस्याभावाद्द्रव्यतयाऽस्त्येव घट इति प्रथमभङ्ग एव न प्रवर्तेत, तदभावे तत्प्रतिपक्षप्रतिपादको द्वितीयभङ्गोऽपि द्वितीयस्थाने नाभिधातुं शक्येत, अतो नैगमानभ्युपगन्तृसिद्धसेन मते महा. सामान्यसन्च मात्राभ्युपगमप्रवणत्वं सङ्ग्रहस्य, तदतिरिक्तावान्तरद्रव्यत्वपृथिवीत्वादिसर्वसामान्यविशेषाभ्युपगन्तृत्वं यसैगमगतं पराभिप्रेतं लक्षणं तद्व्यवहारस्य, तथा नैगमनयाभ्युपगन्तुमते यत्तत्तद्व्यक्तिविशेषात्मक स्थिराभ्युपगन्तृत्वं व्यवहारस्य तदप्यवश्यमभ्युपेयम्,
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सम्मति काण्ड ३,०४७
एवच व्यवहारस्याशुद्धद्रव्यार्थिक प्रकृतिकस्वाशुद्धता तदैव स्याद्यदि तस्य सङ्ग्रहविषय योग्यविधिरूप सामान्यमिश्रितस्वरूपविषयकत्वं भवेत्, तथा च शुद्धद्रव्यार्थि कसङ्ग्रहश्शुद्धत्वाद्विशेषात्मकत्वेनाशुद्धमवान्तरसामान्यं मा नाम विषयीकरोतु तथापि तत्सहविषय योग्यतावच्छेदकविधिरूप सामान्यत्वाकान्तत्वेन सङ्ग्रहविषययोग्यं भवति, तच्च विशेषावगाहित्वस्त्रभावेन व्यवहारेण विधिरूपतया विषयीकर्तुमशक्यमपि तद्व्यावृत्तिरूपतया विषयीक्रियते, तदमिलापकश्च द्रव्यत्वादिशब्दो यादृशं तद्भवेतादृशं संग्रहविषय योग्यतावच्छेदकविधिरूपसामान्यत्वाक्रान्तं तदवगमयति, यदि व्यवहारन यादेशादतद्व्यावृत्तिस्त्ररूपतयैव तदवगमयेतदा सङ्ग्रहविषययोग्य विधिस्वरूपाऽविश्रमणादशुद्धतैव तदादेशकस्य व्यवहारस्य न स्यात्, अम्युपगम्यते चाशुद्धता तस्य, न चैत्रमेकान्तेनाशुद्वतैव व्यवहारस्य, स्थिरान्त्यविशेषविषयकत्वेन शुद्धत्वस्यापि सम्भवात् एवञ्च सङ्ग्रहस्यापर सहप्रभेदानभ्युपगमे अपरसग्रहस्थानाभिषिक्तेनाशुद्धव्यवहारविशेषेण विधिरूपाऽजहद्वृत्यतद्व्यावृत्तिस्त्ररूपेण द्रव्यत्वादिना - ऽस्त्येव घट इति प्रथमो भङ्गस्संग्रहविषय योग्यतावच्छेदकविधिरूप सामान्यत्वाक्रान्ताऽतद्व्यावृत्तिविषयकव्यवहारमूलकः प्रवर्तते, केवलैकातद्वयावृत्तिस्त्ररूपेण चान्त्यविशेषेण स्याना - स्त्येव घट इति द्वितीयभङ्गः प्रथमभङ्गविषय धर्मप्रतिपक्षधर्मविषयकोऽन्यादृशव्यवहारमूलकः प्रवर्तत इति द्रव्यत्वादीनां यदतद्व्यावृत्तिरूपत्वं तदेव विशेषरूपत्वं, अतद्वयावृत्तिरूपात्मनैव द्रव्यत्वादिकं विषयीकरोति प्राधान्येन व्यवहार इति व्यवहाररूपत्वमेवं सति सुरक्षितं भवति, विधिरूपता तत्र द्रव्यत्वादौ सती नापलपितुं योग्या, तथा सत्यशुद्धतैव तस्य न स्यादिति विधिरूपेण व्यवहरणमपि युक्तमेव, स्वरूपसत्ताभ्युपगमस्तु व्यवहारस्य महासत्ताभ्युपगम विरोधी न तु द्रव्यत्वाद्यभ्युपगमविरोधी, इत्थमभ्युपगमे न कापि शङ्का समुद्भवतीति ।
"
सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञान मृजुसूत्र इति तच्चार्थभाष्यम्, ऋजुसूत्रनयेऽतीतानागतकालावच्छिन्नार्थयोर्विनाशानुत्पत्तिभ्यामसम्वमेव, यदि स्यातामतीतानागतेन तर्हि मृतपुत्रिका युवतिः पुत्रकमुद्दिश्य रुद्यात्, न च पुत्रार्थिनी योषित् औपयाजिकादि विशिष्टदेवतासन्निधौ विदध्यात् रोदनादिकार्यदर्शनात्ते न स्तः, तयोरसद्रूपयोरभ्युपगमश्च कुटिल इति हेतोरतीतानागतकालभेदेनार्थभेदः, तद्भेदे च तद्वत्तद्वाचकशब्दोऽपि भिन्न एव, वाच्यभेदे वाचकभेदस्यावश्यम्भावात्, तज्ज्ञानमपि भिन्नमेव, न त्वेकम्, अतीतार्थावगाहित्वस्वभावानागतार्थावगाहित्वस्वभावात्मक धर्ममेदेन ज्ञानात्मक धर्मिभेदस्यापि भावात्, अत एवोक्तभाष्यस्य - ' अर्धमभिधानं परिज्ञानञ्च वर्त्तमानमेव योऽध्यवसायोऽभ्युपैति स ऋजुसूत्र :' इत्यर्थस्तत्रोपाध्यायैः कृतः । अत्र यद्यपि वर्त्तमानक्षणमात्रवर्त्तिपरमार्थसदर्थशब्दपरिज्ञानाभ्युपगन्ध्यध्यवसायविशेषा यावन्तस्तावदध्यवसायविशेषान्यतमस्वमृजुसूत्रत्वमित्यूजुसूत्रलक्षणं पर्यवस्यति तादृशान्यतमत्वेन सर्वर्जुमूत्रप्रकाराणां सङ्ग्रहणान कुत्राप्यन्यायादिदोषः, तथाप्यस्य —
"
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सम्मति काय, गा• ४०
" अतीतानागताकार-कालसंस्पर्शिवर्जितम् । वर्तमानतया सर्व-मृजुसूत्रेण सूश्यते ॥ १॥ इत्युक्ति भावत्वे वर्तमानत्व-व्याप्तिधीरविशेषिता।
ऋजुसूत्रः श्रुतः सूत्रे, शब्दार्थस्तु विशेषितः ॥ २९॥" इति नयोपदेशपद्योक्तिश्चानुसृत्य अविशेषिताऽतीतानागतसम्बन्धाभावव्याप्यभावस्थाव्यवसायविशेषा ये ये तदन्यतमत्वमृजुसूत्रत्वमित्यजुसूत्रानुगतलक्षणमित्यत्रैव तात्पर्यमव. सेयमिति " पच्चुप्पभग्गाही उज्जुसुओ गयविही मुणेयहो" इत्यनुयोगद्वारसूत्रतात्पर्यमप्यत्रैव बोद्धव्यमिति । अत्राविशेषितपदोपादानाद्विशेषितविशेषिततरविशेषिततमार्थग्राहिणि शन्दादिनयत्रये नातिव्याप्तिः, अतीतेत्यादिविशेषणान नैगमादावप्यतिव्याप्तिः, द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वजातिपक्षे त्वविशेषितातीतानागतसम्बन्धाभावव्याप्यभावत्वाध्यवसाय. त्तिपर्यायार्थिकत्वव्याप्यजातिमच अजुसूत्रत्वमिति लक्षणं महातार्किकानुसारिपक्षे, पर्यायार्थिकत्वव्याप्यर्जुसूत्रत्वजातिमादाय अजुसूत्रप्रवर्तितसौत्रान्तिकाद्यम्युपगता यावन्तः प्रकारा: क्षणिकत्वाभ्युपगमोपपादनपरा एकान्तत्वाऽकटाक्षितास्तावत्सु सर्वप्रकारेषु लक्षणसमन्वयः । ऋजुत्रनयो द्रव्यार्थिकनयभेदात्मक एवेत्यभ्युपगन्तसिद्धान्तानुसारिपक्षे तु अतीतानाग. वसम्मन्धाभावच्याप्यमावत्वाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्वमित्येवमृजुसूत्रलक्षणं कर्तव्यम् , तत्र शब्दादिनयत्रये द्रव्यार्थिकत्वव्याप्य जात्यभावादेव नातिव्याप्तिरिति तनिवारणायाऽविशेषितपदोपादानं न कर्त्तव्यमिति दिक।
"नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छन्दादर्थे प्रत्ययः साम्प्रतः" इति तत्वार्थमाध्य. निष्कर्षलभ्यं भावमात्रप्रमितशक्तिकशब्दजन्यं ज्ञानमिति साम्प्रतापरसंबकशब्दनयलक्षणम् , जन्यता चात्र नयत्वसाक्षाद्वयाप्यजात्यवच्छिन्ना ग्राह्या, अत्र साक्षात्पदोपादानाद् विचित्रस्वाभेगमस्य मावमात्रग्राहिणि तद्भेदे नातिव्याप्तिः, नैगमावान्तरभेदे उक्तशब्दजन्यताया नैगमत्वन्याप्यजात्यवच्छिमत्वेन नयत्वसाक्षाव्याप्यनगमत्वजात्यवच्छिन्नस्थामावाद , जनकताच निरुक्तशब्दत्वेन, तेन समभिरूढनये संज्ञामेदेनार्थभेद इति तत्तच्छन्दवाच्यविषयकशाब्दबोधत्वावच्छिन्नम्प्रति तत्तत्पदविषयकज्ञानत्वेन, एवमेवम्भूतनयेऽपि तत्तत्कालावच्छिमव्युत्पत्तिनिमित्तक्रिया देनाप्यर्थभेद इति तत्तक्रियाकालविशिष्टार्थविषयकशाब्द. दोषत्वावच्छिन्नम्प्रति तत्तक्रियान्युत्पत्तिकतत्तत्पदज्ञानत्वेन हेतुत्वाभ्युपगमेन निरुक्तशन्दत्वेन कारणत्वानभ्युपगमान्न तत्रातिव्याप्तिः, एतत्सविस्तृतविवेचनमस्मत्कृततचा. र्थविवरणटीकायां कृतमिति तत एव विस्तरार्थिनाऽवसेयम्, गौरवभीत्या नेह प्रतन्यते । " इच्छह विसेसियतरं पञ्चुप्पण्णं नओ सहो" इति विशेषावश्यकनियुक्त्यनुयोगद्वारसूत्रो. स्यनुसारेण तु विशेषिततरर्जुसूत्रामिमतार्थग्राहिनयवृत्तिपर्यायार्थिकत्वव्याप्य जातिम शब्द.
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३१
सम्मति० काण्ड १, गा. ..
नयत्वमित्यनुगतशब्दनयलक्षणं सिद्धथति, न च समभिरूढनयादावतिव्याप्तिः, तस्य विशेषिततमार्थग्राहित्वात् । अत्र ऋजुसूत्रनयो लिङ्गवचनकारकादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभ्युपगच्छति शब्दनयस्तु न तथा, यतस्तटस्तटीतटमित्यादिशब्दानां भिन्नान्येवाभिधेयानि, भिन्नलिङ्गवृत्तित्वात् स्त्रीपुरुषनपुंसकवत् , तथा गुरुर्गुरव इत्यत्राप्यभिधेयभेद एव, भिन्नवचनवृत्तित्वात पुरुषः पुरुषा इत्यादिवदित्येवमसौ प्रतिपद्यते । नामस्थापनाद्रव्यरूपाथ नेन्द्राः तत्कार्याकरणात् खपुष्पवत् , किन्तु भावरूप एवेन्द्र इत्यजुसूत्रापेक्षया विशुद्धत्वाद्विशेषिततरोऽस्याम्युपगमः, समानलिङ्गवचनानां तु बहूनामपि शब्दानामेकमभिधेयमसो मन्यते, यथेन्द्रशक्र पुरन्दरादिशब्दानामिन्द्ररूप एकोऽभिधेयः, घटकुम्भकलसादिशब्दानाञ्च घटात्मक एकोऽमि. धेयः। तथा चोक्तलक्षणस्यापि लिङ्गसङ्ख्याकारकपुरुषभेदप्रयुक्तार्थमेदाभ्युपगन्तृत्वे सति भावनिक्षेपमात्रायभ्युपगन्तृत्वे सति समानलिङ्गकशब्दवाच्यार्थाभेदाभ्युपगन्ता च य ऋजु. सूत्राभिमतार्थग्राहकोऽभिप्रायविशेषस्तढुचिपर्यायार्थिकनयत्वव्याप्यजातिमत्त्वं शन्दनयत्वमिति पर्यवसितोऽर्थः । अत्राद्यविशेषणेन सूत्रनयातिव्याप्तिनिवृत्तेर्द्वितीय विशेषणं स्वरूपो. पराकमेव, यद्वा द्वितीयविशेषणे मात्रपदोपादानेन सूत्रातिव्याप्तिनिराससिद्धेरायविशेषणं स्वरूपोपरञ्जकमेव, समानलिङ्गेत्याद्युक्तेन समभिरूढादावष्यतिव्याप्तिरिति ।
"वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थु नए समभिरूढे" इत्युक्तमनुयोगद्वारसूत्रे विशेषावश्यकनियुक्तौ च, वस्तुन इन्द्रादेः सङ्क्रमणमन्यत्र शक्रादाविति दृश्यम् , भवति अवस्तु, अवस्तु भवतीत्यर्थ, केत्याह-नये समभिरूढे, समभिरूढमतेनेत्यर्थः। यदा इन्द्रशब्दः शक्रशब्देन सहकार्थ उच्यते तदेन्द्रशब्दार्थपरमैश्वर्यलक्षणवस्तुनः शकनलक्षणे शकशब्दार्थे वस्त्वन्तरे सङ्क्रमणं कृतं भवति, तयोरेकत्वमापादितं भवतीत्यर्थः, तच्चासम्भवित्वादवस्तु, नहि य एवं परमैश्वर्यपर्यायः स एव शकनपर्यायो भवितुमर्हति, सर्वपर्यायसाङ्कर्यापत्तितोऽतिप्रसङ्गात्, तथा च वस्तुनो वस्त्वन्तरसङ्क्रमणाभाव एव लक्षणं समभिरूढनयसम्मतमित्यभिप्रेत्य "सत्स्वर्थेष्वसङ्कमा समभिरूढः" इत्युक्तं तत्वार्थभाष्ये, सत्सु वर्तमानेषु भावरूपेषु च घटादिष्वर्थेषु, असङ्क्रमः स्ववाचकत्वाभिमतशब्दान्तरस्यावाच्यत्वं समभिरूढः, अयम्भाव:घटशब्दवाच्यः कुम्भोऽपि इन्द्रशब्दवाच्यश्शक्रोऽपि चाभिमन्यते शब्दनयः, तेन समान लिङ्गाकशब्दानामेकार्थकत्वेनाभ्युपगमात् , तन्मते हि न यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तिनिमित्तं, किन्तु भिन्नमेव, तथा च समानलिङ्गकपटकुम्भादिशब्दा एकार्थवाचका! अघटव्यावृत्तिलक्षणघटत्वात्मकैकप्रवृत्तिनिमित्तकत्वात् , ये चैकार्थवाचका न, न ते एकप्रतिनिमित्तका घटपटादिशब्दवत् । प्रवृत्तिनिमित्तव्युत्पत्तिनिमित्तयोरैक्यमेवेत्यभ्युपगतवता समभिरूढनयेन तु विरुद्धलिङ्गादिशब्दानामिव समानलिङ्गकघटकुटकुम्भादिशब्दानामप्यर्थ: भेद एवाभ्युपगतः, भिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकत्वात् , घटपटादिशब्दवदिति, घटादिष्वर्थेषु स्व.
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सम्मति० काण्ड, गा. ४४
वाचकत्वाऽभिमतकुम्मादिशब्दान्तरवाच्यत्वं नेति तादृशासङ्गमलक्षणं नासङ्गतम् , तथा च व्युत्पत्तिनिमित्तमेदव्याप्यशब्दार्थ भेदाभ्युपगमप्रवणो भिमव्युत्पत्तिनिमित्तकशब्दनिष्ठकारणतामेदप्रयुक्त मेदशालिकार्यताश्रयः शान्दवोधो वा सममिरूढनयपर्यवसितलक्षणम् । नयः समभिरूढोऽसौ यः सत्स्वर्थेष्वसङ्क्रमः । शब्दमेदेऽर्थभेदस्य व्याप्त्यभ्युपगमश्च सः ॥३६ ॥ इति नयोपदेशश्लोकव्याख्यायां यत्र यत्र सध्क्षाभेदस्तत्र तत्रार्थभेद इति व्यास्यभ्युपगमोऽसङ्कमपदार्थ उक्तः, तथा च सद्भामेदनियतार्थ मेदाम्युपगन्तृत्वं समभिरूदत्तमिति सममिरूढनयलक्षणं पर्यवस्यति । अत्र घटपटादिसंज्ञाभेदेनार्थ मेदाम्युपगन्तरि नैगमनयादा. बतिव्याप्तिवारणाय नियतपदोपादानम् , तथा चैकस्यैव घटस्य घटकुटकुम्भकलशादिनानासंज्ञाऽस्ति नैगमादिनय इति न संज्ञामेदनियतोऽर्थभेदस्तत्रेति नातिव्याप्तिः, एवम्भूत नयोऽप्युक्तलक्षणभागिति तत्रातिव्याप्तिवारणाय तदन्यत्वे सतीति विशेषणोपादानमपि तत्र कर्तव्यम् । ननु यस्मिन् लक्षणेऽतिव्याप्तिस्तद्धेतुकानुमाने व्यभिचारदोष इति लक्षणेऽतिव्याप्तिवारकविशेषणमनुमितिसाधकहेतौ व्यभिचारनिवारकमेवेति लक्षणे व्यभिचारस्थला. न्यत्वपर्यवसाव्यतिव्याप्तिवारकविशेषणोपादाने न कोऽपि हेतुरसद्धेतुस्स्यादिति यदि कोऽपि ब्रूयात्तदा प्रतियोगिव्यधिकरणो यस्स्वव्युत्पत्तिनिमित्ताभावस्तदभाववत्वलक्षण स्त्रप्रवृत्ति निमित्तक्रियोपलक्षितत्वालिङ्गितार्थवाचकत्वस्य नामत्वव्यापकतयाऽभ्युपगन्तृत्वं समभिरूहत्वमित्येवं समभिरूढनयलक्षणं कर्तव्यम् । तेन व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाकालावच्छिन्नार्थवाचकत्वस्यैव नाम्न्यभ्युपगन्तरि एवम्भूतनयेऽपि नातिव्याप्तिः,उक्तलक्षणसङ्गमनश्चैवं कर्तव्यम्-स्त्रं घटपदं तद्वयुत्पत्तिनिमित्तं घटनक्रिया, तदमावः प्रतियोगिव्यधिकरणस्मन् न घटनक्रियामकुर्वति गृहकोणादिस्थितघटात्मकेऽर्थे, प्रतियोगिभूतव्युत्पत्तिनिमिचघटनक्रियाया घटनक्रियाकालावच्छेदेनाधिकरणे तस्मिन् तदभावस्य घटनक्रियाकरणामावकालावच्छेदेन सच्चन प्रतियोगिसमानाधिकरणत्वात् , किन्तु कटनादिक्रियां कुर्वति कटादावेव वर्तते, तदभाववत्वं घटनक्रियां कुर्वतीव घटनक्रियामकुर्वत्यपि घटात्मकेऽर्थे, तल्लक्षणस्वप्रवृत्तिनिमिचोपलक्षितत्वाः लिङ्गितघटात्मकार्थवाचकत्वं व्याप्यीभूतघटनामत्ववति घटनाम्नि वर्तते इत्येवमभ्युपगन्तत्वं समभिरूढनये इति लक्षणसमन्वयः । तथा च तन्मते सर्वेषां शब्दानां क्रियाशब्दत्वाद् व्युत्पचिनिमित्तक्रियैव प्रवृत्तिनिमिचमित्युक्तस्वरूपव्युत्पत्तिनिमित्तोपलक्षितत्वात् तदानीं न घटनक्रियां करोति किन्तु तामऽघटत घटिष्यते वेत्येवं यदा कदापि घटनक्रियां करोति सोऽपि घटो घट एव इत्यभ्युपगमस्समभिरुदनयस्य, एवम्भूतनयस्तु व्युत्पचिनिमित्तमुपलक्षणीकृत्य नामार्थ न प्रतिपद्यते किन्तु विशेषणीकृत्येति घटनसमयात्प्राक् पश्चाद्वा घटो घट इति व्यपदेशं नासादयति, अत एवैतन्मते घटपदजन्यतावच्छेदकं जलाहरणकर्तृत्वविशिष्टविषयकशाब्द. बोषत्वमेव, समभिरूढनये व्युत्पत्तिनिमित्तमुपलक्षणीकृत्य बोध इत्यनयोर्नययोविशेष इति ।
एवम्भूतनयस्वरूपं विशेषावश्यकभाष्ये एवमुक्तम्
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सम्मति० का ३, गा० ४० "एवं जह सहत्थो, संतो भूओ तदनहाभूओ। .. तेणेवंभूयनओ, सहत्थपरो विसेसेणं ॥ २२५१ ॥" इति।
एवं यथा 'घट चेष्टायाम्' 'पट आच्छादने इत्यादिरूपेण शब्दार्थो व्यवस्थित तथैव यो वर्तते घटादिकोऽर्थः स एव सन् भूतो विद्यमानः। तदनहाऽभूओ त्ति' यस्तु तदन्यथा शब्दार्थोल्लानेन वर्त्तते स तवतो घटाद्यर्थोऽपि न भवति, किन्त्वभूतोऽविद्यमानः, तत्त्वतो घटनामार्थ एव न भवति । येनैवं मन्यते तेन कारणेन शब्दसमभिरूढनयाभ्यां सकाशा. देवम्भूतनयो विशेषेण शब्दार्थतत्परः । अयं हि घटपदव्युत्पत्त्यर्थाविष्टत्वाभावात् कुटपदार्थ न घटपदार्थमङ्गीकुरुते यथा तथा जलाहरणादिविरहकालावच्छेदेन गृहकोणादिव्यवस्थित घटमपि घटशब्दार्थ नाभ्युपगच्छति, अचेष्टावचाऽविशेषात् , किन्तु योषिन्मस्तकारूढ़ जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव चेष्टमानमेव घटं घटशब्दार्थ मनुते इत्येवं विशेषतः शब्दार्थतत्परोऽयमित्यर्थः । तथा चेतेन व्युत्पत्तिनिमित्त विशिष्टार्थवाचकत्वस्य नामत्वव्यापकतयाऽभ्युपगन्तृत्वं, पदानां स्वव्युत्पत्तिनिमित्तावच्छिन्नाऽर्थबोधकत्वाऽभ्युपगन्तृत्वं वा, पदवाच्यव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाकालव्यापकपदार्थसत्ताऽभ्युपगन्तृत्वं वैवम्भूतनयत्वमित्येव. म्भूतनयलक्षणं लभ्यते । “वंजण-अत्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ" इति नियुक्ति " व्यञ्जनार्थयोरेवंभूतः" इति तत्वार्थभाष्यश्चानुसृत्योक्तस्य ।
" एवम्भूतस्तु सर्वत्र, व्यञ्जनार्थविशेषणः ।
राजचिहेर्यथा राजा, नान्यदा राजशब्दभाक् ॥ ३९ ॥" इति नयोपदेशश्लोकस्य व्याख्यायामुपाध्यायः पदाना व्युत्पत्यर्थान्वयनियतार्थबोधकस्वाभ्युपगन्तृत्वमेवम्भूतत्त्वमित्येवम्भूतनयलक्षणं निष्कर्षितम् । नियमश्चात्र कालतो देशतथेति न समभिरूढातिव्याप्तिरिति । यद्यपि विषयनिरूप्यं ज्ञानमिति तत्तमयलक्षणवत्तत्तत्रयविषयोऽ. प्यत्र व्याख्येयतयोपयुक्तस्तथापि तत्तनयलक्षणान्तर्गततया पृथक्तया चानेकपा विवेचित इत्यत्र ग्रन्थगौरवभीत्या स नोच्यते, परन्तु प्रस्तुते उपयोगित्वात्संक्षिप्ततया सप्तनयविषयोपदर्शकानि प्राचीनाचार्योक्तसूक्तान्युल्लिख्यन्ते । तथाहि
"शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य, सहस्तदशुद्धितः । नैगमव्यवहारौ स्तां, शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥ १ ॥ अन्यदेव हि सामान्य-मभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति, मन्यते नैगमो नयः ॥२॥ सद्रूपतानतिक्रान्तं, स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व, सगृह्णन् सङ्ग्रहो मतः ॥ ३ ॥ व्यवहारस्तु तामेव, प्रतिवस्तु व्यवस्थितां। तथैव दृश्यमानत्वाद्, व्यापारयति देहिनः ॥ ४ ॥
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सम्मति० का ३, गा० ४४
तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात्, शुद्ध पर्यायसंश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य, भावास्थितिवियोगिनः ॥ ५॥ विरुद्धलिङ्गसख्यादि,-भेदाद भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ।। ६ ॥ तथाविधस्य तस्यापि, वस्तुनः क्षणवर्तिनः।। ब्रूते समभिरूढस्तु, संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ७॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं, सदा तन्नोपपद्यते ।
क्रियाभेदेन भिन्नत्वा-देवंभूतोऽभिमन्यते ॥ ८॥" इति ॥४७॥ ननु यदि परस्परसापेक्षाशेषनयसमूहात्मकाऽसमगांभीर्यशालिसकलनयवादनायकाने कान्तवादजैनेन्द्रागमसमुद्रबिन्दुकल्पा वस्त्वेकैकांशावगाह्यन्यनयनिरपेक्षकैकनयविकल्पप्रसुता. स्तत्तत्परसमयाः, अत एव तत्तदर्शनमूलकारणत्वात्तत्तत्रयः प्रकृतिः, तस्मादाविर्भूतत्वात् परसमयात्मकतत्तद्दर्शनं विकृतिस्तर्हि किं दर्शनं किं मूलभूतनयप्रभवमित्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह
जं काविलं दरिसणं, एयं दव्वद्वियस्स वत्तव्वं ।
सुद्धोअणतणयस्स उ, परिसुद्धो पज्जववियप्पो ॥४८॥ ... काविल दरिसणं' यव कापिलं कपिलस्येदं कापिलं, कपिलर्षिणा प्रणीतं दर्शनम् ; सारख्यदर्शन मिति यावत् “ एवं दवहिमस्स वत्तई " एतद् द्रव्यार्थिकस्य वक्तव्यम् । एकान्ताशुद्धद्रव्यार्थिकनयविकल्पप्रस्तमित्यर्थी, द्रव्यार्थिकपदमत्र व्यवहारनयलक्षणाऽशुद्धद्रव्यार्थिकपरं दृष्टव्यम् । शुद्धद्रव्यार्थिकनयप्रकृतेः सहनयरूपाया वेदान्तदर्शनोत्पचिमूलाया: " दवडियनयपयडी सुद्धा संगहपरूषणाविसओ" इत्यनेन पूर्वमुक्तत्वात् । अत एव अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयार्थावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाश्रित इति सम्मतिटीकाकारवचनमपि सङ्गच्छते, सङ्गच्छते चामुमभिप्रायमादृत्य
" अशुद्धाद्वयवहाराख्यात्ततोऽभूत् साङ्ख्यदर्शनम् ।
चेतनाचेतनद्रव्या-नन्तपर्यायदर्शकम् ॥ १११ ॥" इति।। नयोपदेशोतं, तस्यायमर्थस्तत्र कृतः-ततो द्रव्यार्थिकनयात्सालयदर्शनमभूद, कीदृशं तत् चेतनधाचेतनद्रव्यं च अनन्तपर्यायाचाविर्भावतिरोभावात्मका, तेषां दर्शकं प्रतिपादकमिति । अत एव
"सावधशास्त्रे च नानात्म-व्यवस्था व्यवहारकृत् ।
इत्येतावत्पुरस्कृत्य, विवेकः सम्मता वयम् ॥ ११६ ॥" इति । नयोपदेशश्लोकव्याख्यायामेवमुक्तम्-" साङ्ख्यशास्त्रे च नानात्मनां व्यवस्था प्रति नियतजन्ममरणादिव्यवहारकद्रवति, इत्येतावत्पुरस्कृत्यायं विवेका सम्मतो, यदुत व्यवहार
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ર
सम्मति० का ३, गा० ४८
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"
प्रकृतिकं साङ्ख्यदर्शनम्, सग्रहप्रकृतिकञ्च वेदान्तदर्शनमिति वेदान्त प्रकृतिभूतसहन येनैकतया विषयीकृतस्यात्मनो भेदकरणेन सङ्ग्रहविषय मेदकत्वलक्षणसमन्वयाद् व्यवहारप्रकृतिकत्वं साङ्ख्यदर्शनस्य विवक्षितमिति तात्पर्यम्, तेन सत्कार्याद्यंशे व्यवहारप्रकृतित्वाऽभावेऽपि न क्षतिः, आत्मन एव सकलशास्त्रप्रयोजनभागित्वेन मुख्यत्वात्, मुख्योद्देशेनैव च नयानां प्रकृतिविकृतिचिन्ताया युक्तत्वादिति भावः । निरीश्वरवादिसाङ्ख्यदर्शनस्यान्यनयान - पेक्षव्यवहारनयप्रवृत्तस्य मिध्यात्वे च जीवातिरिक्तं कर्मक्लेशाशयाऽपरामृष्टं पुरुषविशेषमीश्वरं कपिलाननुमतमभ्युपगच्छदपि पातञ्जलदर्शनमन्यांशे समानमेव, यतस्सेश्वरसाङ्ख्य मतप्रवर्तकपतञ्जलमुनेरपि प्रधानादीनि पञ्चविंशतितत्वानि प्राचीनान्येव सम्मतानीति व्यवहारनयसमुतं तदपि मिध्यात्वेन व्याख्यातम् । सुद्धो अणतणस्स उ शुद्धोदनतनयस्य तु शुद्धोदनतनयबुद्धप्रणीतस्य तु बौद्धदर्शनस्य ' परिसुद्धो पजत्रवियप्पो' परिशुद्धः पर्यायविकल्पः पर्यायविशेषः 4 वत्त 'मित्यस्यानुकर्षणीयस्य लिङ्गव्यत्यासाद् वक्तव्यः । अयः म्भावः - बौद्धदर्शनं निरपेक्षशुद्धपर्यायास्तिकनय विकल्पजनितम्, यतस्तस्य मूलनयः पर्यायाथिंकः, बौद्धदर्शनश्च सौत्रान्तिकवैभाषिकयोगाचार माध्यमिकभेदेन चतुर्विधम्- पर्यायार्थिकनयोऽप्यृजुसूत्र शब्दसममिरूदैवम्भूतभेदतश्चतुर्विध इत्यतः सौत्रान्तिकाख्यबौद्धदर्शनमृजुसूत्रनयप्रतम्, वैभाषिकाख्यबौद्धदर्शनं शब्दनयप्रसृतम्, योगाचाराख्यबौद्धदर्शनं समभिरूढनयप्रभवम्, माध्यमिकाख्यसुगत दर्शन मे वस्भूतनयोत्थमित्यतस्सौत्रान्ति कवै माषिकादिचतुर्विधशौद्धोदनिदर्शनस्यर्जुसूत्रादिनय चतुष्टयात्मकपर्यायार्थिकनय प्रकृतिकत्वमवसेयम् । अत एव खण्डखाद्ये वैभाषिकादिक्रमेण चतुर्विधस्यापि ताथागतमतस्यर्जुसूत्रादिन यचतुष्टयप्रकृतिकत्वस्य सम्मत्यादिसिद्धत्वादि युक्तं सङ्गच्छते । तथैवोक्तश्च नयोपदेशेऽपि -
" ऋजुसूत्रादितः सौत्रा - न्तिकवैभाषिकौ क्रमात् । अभुवन सौगता योगा-चारमाध्यमिकाविति ॥ १२० ॥ " सौत्रान्तिकादीनां स्वरूपमेतेन काव्येन ज्ञेयम्
" अर्थों ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेष्यते । प्रत्यक्षो न हि बाह्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः ॥ योगाचार मतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा ।
मन्यन्ते यत मध्यमाः कृतधियः स्वच्छां परां संविदम् ॥ १ ॥ " इति । अयम्भावः - ज्ञेयज्ञानोमयं सर्वं सत्यं, किन्तु यत्सत्तत्क्षणिकमिति व्याप्तेः क्षणिकमेवेत्यास्थाशीलसौत्रान्तिकवैभाषिकयोः क्षणिकवाह्मार्थाभ्युपगमस्समान एव, परमाद्यस्य मते ग्राह्यग्राहकयोर्विभिन्नक्षणे निष्पत्तिः, ज्ञानज्ञेयस्वलक्षणयोर्विषयविषयिभावाभावेऽपि प्रतिकर्मव्यव स्था ज्ञानस्य प्रतिनियततत्तदर्था कारत्व लिङ्ग का नुमानाद्भवति यदाकारं यज्ज्ञानं तेन तत्सिद्धि
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सम्मति •
० का ३ गा० ४८
真嗣道
रिति व्यासे, अत एवैतन्मतेऽनुमानादर्थसिद्धिः, न तु प्रत्यक्षत इति साकारविज्ञानवादस्तस्य । द्वितीयस्य मते ज्ञानज्ञेययोरेकक्षण एवोत्पत्तिः, प्रतिनियत तत्तदर्थोत्पादकसामग्रीप्रभवत्वादेव ज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्थेति निराकारविज्ञानवादस्तस्य । ज्ञानज्ञेययोस्सहोपलम्भनियमावू विज्ञानमात्राभ्युपगमपरस्य तृतीययोगाचारस्य मते तु बाझं नास्त्येव, योऽयं व्यवहारो भूतभौतिकाद्याश्रयः स सर्वः सांवृतः, न परमार्थः, ज्ञानस्य तु स्वात्मैव तत्तदाकारो विषयः, ज्ञानज्ञेययोस्तादात्म्यमेव सम्बन्धः, आकारप्रतिनियमोऽपि पूर्वपूर्वविज्ञानवैचित्र्योद्भावित - वासनाविशेषपरिपाकतः, ततो विज्ञानमेव पूर्वपूर्ववासनावैचित्र्यात्स्वाभिन्ननीलपीताद्याकारमनभासते, अतो न बाह्योऽर्थः परमार्थः । उक्तश्च –
" बाह्यो न विद्यते ह्यर्थो, यथा बालैर्विकल्प्यते । वासनालुण्ठितं चित्त-मर्धाकारं प्रवर्त्तते ॥ १ ॥ " इति ।
तस्मात् अयं नील इत्यादिजाग्रद्विज्ञानं स्वाप्नविज्ञानवत्स्वावभासमात्रम्, बहिर्वदवभासस्तु वासनाविपर्ययकृतो भ्रम एव, ननु अनेनेदमुक्तं भवति-विज्ञानं ग्राहकान्तरनिरपेक्षं ग्राह्यान्तरनिरपेक्षं च स्वात्मानं स्वस्मादभिन्ननीलाद्याकारश्च गृह्णातीति, इदश्चानुपपन्नम् एकस्यैव कर्तृकर्मक्रियात्मकतानुपपत्तेरिति चेत्, सत्यम्, न वयमात्मसंवेदनम् ग्राह्मग्राहकभावलक्षणं ब्रूमः, तद्वैधुर्यात्, किन्तु स्वप्रत्ययेभ्यो जडभिन्नत्वेन रूपेणास्य प्रकाशात्मतयो - त्पत्तिरेव स्वसंवेदनम् । तदुक्तं तत्त्वसङ्ग्रहे
विज्ञानं जडरूपेभ्यो, व्यावृत्तमुपजायते । इयमेवात्मसंवित्ति - रस्य याऽजडरूपता ॥ १ ॥ क्रियाकारकभावेन, न स्वसंवित्तिरस्य तु । एकस्यानंशरूपस्य, त्रैरूप्यानुपपत्तितः ॥ २ ॥ तदस्य बोधरूपत्वाद्, युक्तं तावत्स्ववेदनम् | परस्य त्वर्थरूपस्य तेन संवेदनं कथम् ? ॥ ३ ॥ " इति ।
"
सोऽयं ब्राह्मनिरपेक्षः क्षणिकसा कारवादस्तस्य । सर्वशून्यतावादिमाध्यमिकमते तु -
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न सन्नासन्न सदसत्, न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका जगुः ॥ १ ॥
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इत्युक्तेर्ज्ञानस्यापि विचारत उपप्लुतत्वात्तदपि सदसदादिचतुष्कोटिविनिर्मुक्तमेव तत्वम्, यत्सर्वभावानां शून्यतेति गीयते, सर्वशून्यतां पश्यत एव परमं निर्वाणम्, हेयोपादेयतसाधनविरहे निषिद्धभयविहितरागादिविरहात्, तन्मते तच्वविचारकुशलैर्विचार्यमाणाः सर्व एव भावा निस्स्वभावा अविद्यातिमिरोपहतमतिनयनानां बालकानां भासमानाः
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सम्मति, बाल, पा. ४९ कर्ता कर्म, गन्ता गम्यं, हेतुः कार्य, दृष्टा दृश्यमिति परस्परसापेक्षतामात्रेण प्रसिद्विमुपगता गन्धर्वनगरायन्ते । उक्तश्च
" बुद्ध्या विविच्यमानानां, स्वभावो नावधार्यते ।
अतो निरभिलप्यास्ते, निस्स्वभावाश्च कीर्तिताः ॥ १॥ इदं वस्तुषलायातं, यद्बदन्ति विपश्चितः।
यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते, विशीर्यन्ते तथा तथा ॥२॥" इति । यद्यप्ययं स्कन्धायतनधातुविभेदः प्रदृश्यते नाम तथापि सांश्त एवायम् , संवत्याआवरणेन मायया कल्पितोऽयं मेदव्यवहारः । उक्तञ्च
"फेनपिण्डोपमं रूपं, वेदना बुबुदोपमा । मरीचिसदृशी संज्ञा, संस्काराः कदलीनिभाः॥१॥
मायोपमं च विज्ञान-मुक्तमादित्यवन्धुना ॥” इति । अन्यत् सर्व तद्वन्थेभ्योऽवसेयम् । उक्तबौद्धमतचतुष्टयनिरासस्तु प्रागेव विहित इत्यधिक प्रन्थगौरवभीत्या नोच्यते, नन्वेवं परस्परनिरपेक्षकैकनयावलम्बिनोः साङ्खथसौगतमतयोमिथ्यात्वे द्रव्यार्थिकनयविषयं सामान्यं पर्यायाकन यविषयं विशेषमभ्युपगच्छतो वैशेषिकदर्शनस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयद्वयावलम्बित्वेन सम्यक्त्वं स्यादित्याशङ्कय तनिषेधार्थमाह
दो हि वि नएहि णीयं, सत्यमुलूएण तहवि मिच्छत्तं ।
जं सविसयप्पहाण-तणेण अण्णोण्णनिरवेक्खा ॥४९॥ 'दोहि वि नएहि' द्वाभ्यामपि द्रव्यास्तिनय-पर्यायास्तिकनयाभ्यां, 'णीयं सस्थमुलूएण' नीतं पृथव्यवस्थापितं द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायामावात्मकसप्तपदार्थप्ररूपकं शास्त्रमुलूकेन वैशेषिकदर्शनाद्यप्रवर्तकेन 'तह वि मिच्छत्तं' तथापि मिथ्यात्वम् , एकान्तवादिना तेन प्रवर्तितं तन्मिथ्यारूपमेव, तत्र हेतूपदर्शनायोत्तरार्द्धमाहजं यत् यस्मात् ताविति शेषः, तौ वैशेषिकदर्शनप्रवर्तकतया मूलभूतौ द्रव्यार्थि कपर्यायाधिक नयो " सविसयप्पहाणतणेण अण्णोण्णनिरवेक्खा" स्वविषयप्रधानत्वेन सावधारणस्ववि. षयावगाहित्वेन, अन्योन्यनिरपेक्षौ स्वस्वकल्पनाशिल्पिविरचितकुयुक्तिभिरितरांशापलापिनी, जैनाभिमतौ तु तो स्याच्छब्दलाञ्छितत्वेन परस्परसापेक्षत्वान्न मिथ्यारूपी इत्युक्तमर्थतो. ऽनेकान्तव्यवस्थायां विशेषावश्यकभाष्ये उक्तगाथाटीकायां नयविवेचने चेति । तथा च वैशेषिकदर्शनं मिथ्या मिथो निरपेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायाथिकनयविषयपरस्परविविक्तसामान्यविशेषोभयात्मकैकान्ततत्वप्रतिपादकत्वात् यदेकान्ततत्वप्रतिपादकं तन्मियारूपम् , यथा सालधादिदर्शनम् , एकान्ततत्वप्रतिपादकश्च वैशेषिकदर्शन मिति तदपि मिथ्यारूपम् । यद्वा नन्वेषं नयान्तरनिरपेक्षकैकनयावलम्बिनोः सालयसौगतमतयोमिथ्यात्वे सनहनयव्यवहार
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सम्मति काण्ड० ३, गा• ४९ नयद्वयविषयसामान्यविशेषोमयमभ्युपगच्छतो वैशेषिकदर्शनस्य सङ्ग्रहव्यवहारनयोभयाऽवलम्बित्वेन सम्यक्त्वं स्यादित्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह-'दोहि वि नएहि णीअं' इत्यादि ।
"दोहि वि णएहिं " द्वाभ्यामपि सामान्यविशेषग्राहिभ्यां सहव्यवहाराम्यां नयाभ्यां " णीयं सत्थं " पृथग्व्यवस्थापितं शास्त्रं द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावाः सप्त पदार्था इति सप्तपदार्थप्रतिपादक, केनेत्यत आह-' उलूएण' उलूकेन वैशेषिकदर्शनाद्यप्रवर्त.' केन, तत्कि प्रामाणिकं न वेत्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह-'तह वि मिच्छत्तं' तथापि मिथ्यात्वम् , एकान्तवादिना तेन प्रवर्तितं तन्मिथ्यारूपमेव, तत्रैव हेतूपदर्शनायोत्तरार्द्धमाह-जं यत् यस्मात् ' सविसयप्पहाणत्तणेण अण्णोण्णनिरवेक्खा' स्वविषयप्रधानत्वेन सामान्य विशेषे. भ्यो भिन्नमेव अनुगतबुद्धिहेतुत्वात् , विशेषा अपि सामान्याद्भिन्ना एवं व्यावृत्तबुद्धिहेतु. त्वात् , एवमाश्रयादपि सामान्यं मिन्नमेव, अन्यथा व्यक्तिवदनुगतत्वानुपपत्तिस्स्थादित्येवं स्वमताग्रहेण सावधारणस्वविषयावगाहित्वेन अन्योन्यनिरपेक्षात् , अस्य प्रयोगस्य भावप्रधानत्वादन्योन्यनिरपेक्षत्वादित्यर्थः, एकान्ततः परस्परविविक्तसामान्यविशेषोभयप्रतिपादकत्वादिति भावः । उक्तश्च नयोपदेशे " द्वाभ्यां नयाभ्यामुनीतमपि शास्त्रं कणाशिना । अन्यो. न्यनिरपेक्षत्वान्मिथ्यात्वं स्वमताग्रहात् ॥ १९८ ॥” इति ।
नहि नयद्वयावलम्बनमेव शास्त्रस्य सम्यक्त्वप्रयोजकम् , किन्तु यथास्थाने तद्विनियोजनम् , तच्च यद्यपि सामान्यग्राहकसमहनयाभिप्रायेणाधमङ्गः प्रवर्तते, विशेषाभ्युपगन्तु। व्यवहारनयप्रयुक्तश्च द्वितीयभङ्ग इत्येवं भङ्गद्वयं प्रधानीभूतसनव्यवहारेकैकनयप्रभवम् , तथापि तद्भिन्नपरस्परसाकाङ्क्षस्याद्वादलाञ्छिततीयादिभङ्गविवेचने तृतीयभङ्ग ऋजुसूत्राधीन. प्रवृत्तिक एव, चतुर्थभङ्गश्च सङ्ग्रहव्यवहाराधीनप्रवृत्तिकः, पञ्चमः सङ्घहर्जुसूत्राभिप्रायेण प्रवृत्तः, षष्ठो व्यवहारजेंसूत्राधीनप्रवृत्तिका, सप्तमश्च सङ्ग्रहव्यवहार सूत्रनयत्रयाश्रितः, तत्राद्यत्रिभना एकनयनियम्या:, चतुर्थादिभङ्गा अन्योन्यसम्बद्धनयद्वयत्रयापेक्षका भवन्तीत्येवं रूपे तात्पर्य सत्येव सम्पद्यते, तदेव सम्यक्त्वप्रयोजकम्, एकतरस्यापि भङ्गस्याऽतात्पर्य सिद्धान्त. विराधनाया अपरिहारात्। परस्परसापेक्षतत्तत्रयविनियुक्तमिथःसाकाङ्क्षस्यात्पद्घटितसप्तभनात्मकमहावाक्यस्यैव सप्तविधधर्मप्रकारकैकधर्मिविशेष्यकसमूहालम्बनाखण्डबोधजनकत्वेन पूर्णोत्तररूपत्वात् । अनन्तधर्माध्यासितवस्तु यावद्धमैजिज्ञासितं तावद्धर्माभिधान एव वाक्यस्य निराकासताभावात् । यच वक्त्रा क्वचिद्भङ्गद्वयमात्रप्रतिपादनं विधीयते तत्तु स्याद्वादव्युत्पन्नपुरुषापेक्षयैवेति प्रतीहि । तत्रापि हि वक्तुस्तद्भिन्नभङ्गविवेचने तात्पर्यमस्त्येव, स्याद्वादाव्युत्पन्नश्रोतृणां भङ्गद्वयप्रयोगमात्रेण न सप्तधर्मावगतिरिति तदर्थ तान् प्रति सप्तविधमङ्गप्रतिपादनमावश्यकमेव । तच्चकैकस्मिन् वस्तुनि परस्परसापेक्षसामान्यविशेषनित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदाद्यनन्तधर्माध्यासिते एकैकं पर्यायमाश्रित्य विधिनिषेध
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सम्मति• काण्ड ३, ना०४९
प्रकाराभ्यां ये सप्तभङ्गाः प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्य पर्यनुयोग सप्तकाधीन सप्तविध नियतत जिज्ञासाप्रयुक्ततत्संदेह सप्तकाधीनास्तत्प्रतिपाद्य सप्तविधधर्माभ्युपगमे सत्येव सम्भवति, सैषा पूर्णोत्सररूपा प्राक् प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गीप्ररूपणा स्याद्वादनियन्त्रिता स्वसमयार्थप्रज्ञापना, अर्हद्भा षितकथञ्चित्सामान्यविशेषात्मकयथावस्थित वस्तु तत्त्वप्रतिपादकत्वात् यचैवं तत्रैवम्, यथैकान्तत चद्दर्शनप्रज्ञापना, तदिहै कान्तभिन्नसामान्यविशेषप्रतिपादकं वैशेषिकदर्शनं तत्समानतन्त्रत्वान्नैयायिकदर्शनश्च परस्परनिरपेक्षसङ्ग्रह व्यवहारनयद्वयावलम्ब्यपि न यथोचितद्विनियोगकारीति न सम्यक्त्व प्रयोजकम्, अत एव मिथ्यारूपं तदुभयमिति सिद्धमिति । वैशेषिकदर्शनस्य सङ्ग्रहव्यवहारप्रकृतिकत्वे च नैगमनयो न कस्यापि दर्शनस्य प्रवर्त्तको यतस्सामान्यग्रहाय प्रवृत्तस्य तस्य सङ्ग्रह एव विशेषग्रहाय च प्रवृत्तस्य व्यवहारनय एवान्तर्भाव इति तदुभयभिन्नस्य सङ्ग्रहव्यवहारविषयातिरिक्ततद्विषयाऽसिद्धे स्स्वात्मानमेवालममानस्य तस्य न भिन्नदर्शनप्रकृतित्वमभिधातुं युज्यत इत्ययं प्रवचनोपनिषद्विदां श्रीसिद्धसेनदिवाकराणां पक्षः । अत एव नयोपदेशेऽपि -
" हेतुर्मतस्य कस्यापि, शुद्धाशुद्धो न नैगमः ।
अन्तर्भावो यतस्तस्य सङ्ग्रहव्यवहारयोः ॥ ११७||" इत्युक्तम् ॥ येषां पूज्यश्रीमद्वादिदेवसूर्याद्याचार्याणां तु मते पृथक् नैगमनयो विद्यते तन्मतेन नैगमनयप्रकृतिकं वैशेषिकदर्शनम् । अत एवानेकान्तव्यवस्थायां
" दर्शितेषं यथा शास्त्रं, नैगमस्य नयस्य दिक् । कणाददृष्टिहेतु श्रीयशोविजयवाचकैः ॥ १ ॥
"
स्याद्वादरत्नाकरे च सप्तमपरिच्छेदे द्वादशसूत्रटीकायां "नैयायिकवैशेषिकयोर्दर्शनं चैतदाभासतया ज्ञेयम् " इत्युक्तं सङ्गच्छत इति । नैगमनयस्य चान्यनयनिरपेक्षस्य मिथ्या. ज्ञानरूपतया तत्प्रकृतिकवैशेषिकदर्शनस्य तत्समानतन्त्र नैयायिकदर्शनस्यापि च तथात्वमवसेयमिति ।
जं सविसय पहाणत्तणेण, अण्णुण्णनिरवेक्खं ।
इत्यपि शास्त्रवार्तासमुच्चये धर्मपरीक्षायाञ्च पाठः- तत्रोत्तरार्द्धेन हेतुमाह-' जं' इत्यादि, यस्मात् स्वविषयप्रधानत्वेन अन्योन्यनिरपेक्षं अन्योन्यनिरपेक्षोभयन्याश्रितं तत्, अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितत्वस्य च मिथ्यात्वादिनाऽविनाभूतत्वादित्यर्थः । एवं “ सदेव सौम्य इदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् " || १ || " स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो " ॥ २ ॥ “ नेह नानास्ति किञ्चन " || ३ || इत्यादि श्रुत्या सच्चिदानन्दस्वरूपं ब्रह्मैव सत्, तदन्याशेषजगतो मिथ्यात्वमेव, घटपटादिरूपजगतस्सत्ता ब्रह्मसत्चैव यतो ब्रह्मैव तेन तेन बटाद्यात्मनाऽवभासते, तथा चायं सर्प इयं माला इदं वस्त्रमित्यादाविदं स्वरूपमनुगामि
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सम्मति • काण्णा ३, ०४९
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तथा घटस्सन् पटस्मन् मठस्वमित्यादौ सर्वत्र ब्रह्मात्मकमद्रपमनुगामि, अतो ब्रह्मरूपेण सर्वस्यैकत्वमिति सङ्ग्रहनयमूलकस्य वेदान्तदर्शनस्य, एवं
" अनादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतस्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थ भावेन, प्रक्रिया जगतो यतः ॥ १ ॥ "
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इत्युक्तेः सर्वेषां शब्दानां सर्वेषां चार्थानां प्रकृतिः शब्दस्वभावं प्रणवस्त्ररूपं ब्रह्मैवेति शब्दसन्मात्रस्वरूपब्रह्मवादस्य च भर्तृहरिणा स्त्रीकृतस्य शब्दार्थयोरभेद एव सम्बन्ध इति वैयाकरणाभ्युपगममूलकस्य शब्दब्रह्मत्वेन सर्वस्यैकत्वेनाभ्युपगमात् सङ्ग्रहनयप्रकृतिकस्य, तथा शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणभित्रसम्बन्धः, स च सम्बन्धो नित्य एव, औत्पत्तिस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः ( मीमां० १. १.५. ) इति मीमांसकसूत्रे औत्पत्तिक इत्यस्य विरुद्धलक्षणया नित्य इत्यर्थकत्वेन व्याख्यानादित्येवं प्रतिपादकस्याशुद्धद्रव्यार्थिकप्रकृतिव्यवहारनयप्रसृतस्य मीमांसकादिदर्शनस्यैकान्तैकै कनयावलम्बित्वान्मिथ्यात्वमवसेयमिति दिक् । नन्वनेकान्तवादिनामिवैकान्तनयवादिनामपि घटत्वविशिष्टे घटे घटोsयं पटत्वविशिष्ठे पटे पटोऽयं तद्गतरूपादौ चेदं रूपम् अयं रस इत्येवमेव प्रत्यक्षज्ञानं भवतीति तज्ज्ञानस्य मिथ्यात्वे किं बीजमिति चेत्, उच्यते - परमार्थवच्या घटे घटत्वधर्मवत् पटे च पटत्वधर्मवत् रूपे च रूपत्वधर्मवत्तदितरानन्तधर्मसद्भावेऽप्येकान्तनयवासना संवलित तयैकान्तवादिनां घटत्वमात्रस्य पटत्वमात्रस्यैकस्यैव धर्मस्य ग्राहकं घटोऽयमिति पटोऽयमिति प्रत्यक्षाद्यात्मकं यज्ज्ञानं समुत्पद्यते तन्मिथ्याज्ञानमेव, एकान्तधर्माभाववति घटादिवस्तुन्येकान्तधर्मावगाहित्वेनै कान्तनयात्मकत्वाद्, यतो घटस्यापि परस्थापि तगतरूपादेश्वाप्यनेकान्तात्मकतयाऽनन्तस्त्रपर्यायाणां साक्षात्सम्बन्धेन परपर्यायाणां च स्वाभाववत्वरूप परम्परासम्बन्धेन परमार्थवृध्या तत्र सद्भावेऽपि मिध्यात्वदोषबला तज्ज्ञानाभावेन तन्निराकरणपूर्वकवस्त्वेकदेश मात्रग्राहिमिथ्यानयजनितवासनादोषप्रभवं सर्वथा घट एवायं पट एवायं इदं रूपमेवेत्येवमेकन यगोचरघटत्वपटस्त्रादिप्रतिनियतैकधर्मवश्वलक्षणेकान्ततच्च प्राहित्वेन तज्ज्ञानं भ्रान्तमेव, एकस्मिन्नपि कलानिधौ तिमिरादिदोषबलाक्ष् आन्तद्वित्वप्रत्ययवत् । अयम्भावः - मिध्यादृष्टेर्यषटे घट एवायं पटे पट एवायमित्याद्याकारमेकान्तज्ञानं तत् तद्वति तत्प्रकारकत्वाद् व्यवहारदृष्या प्रामाण्यकमप्यवधारणेन घटत्वपटत्वाद्यन्यानन्तधर्माणां सतामपि प्रतिषेधकरणान निश्वयदृष्ट्या प्रामाण्यकम् - अनेकान्तवासनोपनीतानेकान्तविषयक ज्ञानस्यैव स्यादस्त्येव घट इत्याकारकस्य सर्वनयविषयताव्यापक विषयताकत्वेन प्रामाण्याभ्युपगमादिति मिध्यादृष्टेर्ज्ञानमज्ञानमेव सदसतो: कथञ्चिद्भावेनानवगाहित्वादिति, अत एव तद्भववीजमिति गीयते त्रिभुवन गुरूपदिष्टाने कास्वात्मक वस्तुतः स्याद्वादिनान्तु जिनेन्द्र भगवन्मुखारविन्द विनिर्गतस्याद्वादस्य
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सम्मति भण्ड ३, गा. ५. पदार्थवव्यापकत्वेन ज्ञानादनेकान्ततस्वविषयकसुदृढवासनावासिततया स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण घटोऽयं पटोऽयं न तु परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेणापीति कथञ्चिपटोऽयं कथञ्चि स्पटोऽथमित्येवं घटे पटे च कश्चिद्घटत्वपटत्वप्रत्यक्षज्ञानं समुत्पद्यते, तत्रानन्तधर्मात्मकत्वद्योतककश्चित्पदेनैवानुवृत्तिव्यावृत्तिधर्मद्वारा सर्वधर्मज्ञानमिति तज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् , प्रमाणज्ञानमिति यावत् , यद्यप्यनुवृत्तिव्यावृत्तिद्वारा सर्वस्य सर्वात्मकस्यानन्तपर्यायस्य वस्तुनः प्रयोजनादिवशादेकपर्यायप्रकारेण ग्रहणेऽपि “जे एगं जाणइ से सवं जाणह" इत्याधुक्तेः सर्वमनन्तपर्यायात्मकमित्याद्यागमार्थश्रद्धानोपनीतसर्वात्मकत्वानन्तपर्यायास्मकत्वावगाहित्वं सम्यग्दृष्टिज्ञाने सर्वत्रैवेति तदेव प्रमाणम् , अत एव मोक्षोपयिकं तदेव ज्ञानमिति तत्वज्ञैर्गीयते, अत एव परदर्शनाभिमतेऽथै स्यात्पदोपादानमात्रेण तत्तत्परदर्शनस्यापि स्वदर्शनरूपतया तत्रापि स्वदर्शनत्वबुद्धिरिति तत्तदर्शनीयेषु स्वीयत्वावधारणा. ब्रवति मोक्षौपयिकी साम्यसम्पत्तिः स्याद्वादिनां कर्मदोषादज्ञाननिमनं परं पश्यताम् । परेषां तु स्वपक्षसिद्धावन्योन्यं सुन्दोपसुन्दन्यायेन कलहायमानानां यावजीवमपि वक्त विकल्पानुपरमेन द्वेषानुच्छेदाद् नास्त्येव साम्यवार्ताऽपीति संसारहेतुत्वासेषां ज्ञानमप्यज्ञानमिति परिभाषन्ते परमप्रावचनिकाः, ततो मिथ्यादर्शनगरलव्यथानिवृत्तये स्याद्वादामृतपानमेव विधेयं विवेकिनेति परमरहस्यम् ।। ४९ ॥ अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितस्य मिथ्यात्वाऽविनाभ्तत्वमेवेत्याह
जे संतवायदोसे, सकोल्या भणंति संखाणं ।
संखा य असव्वाए, तेसि सव्वे वि ते सच्चा ॥ ५० ॥ "जे संतवायदोसे' यान् सद्वाददोषान् , एकान्तसद्वादपक्षे यान् दोषान् ‘संखाणं' साजथाना प्रकृतिमहदादिपञ्चविंशतितत्त्वप्रतिपादककपिलमुनिप्रणीतसाङ्खथदर्शनाश्रितानां 'सकोलूया भणन्ति' शाक्यौलूक्या भणन्ति बुद्धकणभुक्प्रणीतदर्शनभक्ताः प्रतिपादयन्ति, 'संखा य असबाए' साङ्ख्याश्चासद्वादे, शाक्यौलुक्याभ्युपगते असत्कार्यवादे यान् दोषान् साथाश्च भणन्ति 'तेसिं सच्चे वि ते सच्चा तेषां पूर्वोक्तवादिनां सर्वेऽपि ते दोषाः सत्याः, तत्तच्छास्त्रोक्तैकान्तविषयाऽसत्यत्वज्ञापकाः, तत्तच्छास्त्रोक्तैकान्ततत्वविषयकज्ञानाप्रामाण्य. ज्ञानोत्पादकत्वात्तेषाम् , अत एव सदोषतत्त्वप्रतिपादकत्वादेकान्तनयप्रणीतशास्त्रं सर्व मिथ्या. रूपमिति सिद्धम् । अयम्भाव:-साजथाभ्युपगतसत्कार्यवादे असत्कार्यवादिन एवं दोषान् प्रतिपादयन्ति, सत्पक्षे कार्यस्य कारणात्मकत्वेनेदमस्य कारणमिदमस्य कार्यमित्यसङ्कीर्णव्यवहारविलयनप्रसङ्गस्यात् , यतो न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्य कारणं वेति व्यपदेष्टुं शक्यम् , कार्यकारणयोर्मिनलक्षणत्वात् , अथोच्येत न सर्वात्मना कारणे कार्यस्य सचमभ्युपगतं, येनोक्तदोषस्स्यात् , किन्तु शक्या, नाभिव्यक्यापीति, येन यस्यामिव्यक्तिर्जायते तत्तस्य
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सम्मति• बाम , गा० ५. कार्यमिति नोक्तदोष इति चेत् , तर्मनायासेनैवासत्पक्षसिद्धिः, पूर्वमसत्या अप्यमिव्यक्तरुत्पादाभ्युपगमात् । अयश्च सत्कार्यवादः प्रागेव निरस्त इति किं पिष्टपेषणेन । एतेन प्रधानस्य महद्रूपेण महदादेश्वाहङ्कारादिरूपेण परिणतत्वात् , कारणमेव कार्याकारेण परिणमत इति परिणामवादोऽपि निरस्तः, कारणं कार्याकारेण किं पूर्वस्वरूपं परिहाय परिणमति उत अन्यथेति कक्षाद्वयम् , तत्राद्यायां पूर्वस्वभावो निरुद्धः, अन्यस्वभावश्चोत्पन्न इति स्वरूपहानिप्रसक्तेनित्यैकस्वरूपताविरोधः । द्वितीयकक्षायां चावस्थाद्वयसाङ्कर्यप्रसङ्गः । किञ्च कार्याकारोऽपि कारणव्यापारात् पूर्व सनसन् वा किंवा सदसदात्मकः, आये कारणव्यापारवैफल्यप्रसङ्गा, द्वितीये च शशशृङ्गादिवदनुत्पत्तिप्रसक्तिः, असदकरणादुपादानग्रहणादित्यादिभवदी. योक्तेरेव, तृतीये चानेकान्तापत्तिः, कारणाकारेण सत एव पूर्वकालावच्छिन्नासद्भूतकार्याकारेण परिणमनाभ्युपगमात् । एवं बौद्धवैशेषिकाभ्युपगतासत्कार्येऽपि साङ्ख्या एवं दोषानमिदधति, असत् चेत्कारणव्यापारात्पूर्व कार्य नास्य सत्त्वं कत्तु केनापि शक्यम्, न हि नीलं शिल्पिसहस्रेणापि पीतं कर्तुं शक्यम् , तत उपादानकारणे यदेव सत् तस्यैव कारणव्यापारादमि. व्यक्तिर्जायते, पीडनेन तिलेषु तैलस्येव, अवघातेन धान्येषु तण्डुलानामिवेत्यम्युपगन्तव्यम् , किश्व कार्येण सम्बद्धं कारणं कार्यस्य जनकम् , सम्बन्धश्च कार्यस्यासतो न सम्भवतीति कारणब्यापारात् प्राक सदेव कार्यमभ्युपगन्तव्यम् । नन्वसम्बद्धमेव कार्य कारणव्यापारेण बन्यताम् , तत्र को दोष इति चेत्, तबसम्बद्धत्वाऽविशेषेण सर्व कार्यजातं सर्वस्माद्भवेत् , अथ नैवं भवेत् , असम्बद्धमपि सत्तदेव करोति यस्मिन् कार्ये यत्कारणं शक्तम्, तत्सत्कार्यानुकूलकुर्वद्रूपत्वशक्तिश्च कार्यदर्शनादवगम्यते इति चेत्, हन्त भो! कारणगता शक्तिः कार्यसम्बद्धा असम्बद्धा वा, आये तादृशशक्ते सता कार्येण सम्बन्ध इति सत्कार्यमभ्युपगन्तव्यम् , तथा च सत्कार्यजननशक्तियस्मिन् कारणे तस्मादेव कारणात् सत्कार्योत्पत्तिरिति सत्कार्यवादप्रसङ्ग इति भावः । द्वितीये असम्बद्धत्वाऽविशेषात्सर्वस्मात्सर्वकार्योत्पत्तिप्रसङ्ग इत्यव्यवस्थातादवस्थ्यम्, कार्यस्य कारणात्मकत्वाच्च सत्कार्यम् , न हि कारणाद्भिवं कार्यम् , कारणश्च सदिति कथं तदभिन्नं कार्यमसद्भवेत् , तथा च कारणे कार्यजननशक्तिरूपेण कार्यमस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्, सा च शक्तिर्षटकार्यानुकूला कपालोपादान एवेति तस्मादेव सहकार्यन्तरसहकृताद् घटकार्यनिष्पत्तिः, न तु तन्तुभ्यः, तत्र घटकार्यानुकूलशक्यभावात् , यद्यपि तत्तस्कार्य मेदेन तत्तस्कार्यानुकूलशक्तिभिनव, तथापि शक्तित्वेन शक्तिरेकैवेति कार्यानुकूलशक्तिमत्वेन कारणत्वाभ्युपगमे एक एव कार्यकारणभावः, असत्कार्यवादपक्षे तु प्रतिनियततत्तद् धर्मावच्छिन्नकार्य प्रति प्रतिनियततत्तद्धर्मावच्छिन्नस्य कारणत्वमभ्युपगतं स्यादित्यनेककार्यकारणभावापतिर्दोषः। तदुक्तम्
" असदकरणादुपादानग्रहणात्, सर्वसम्भवाऽभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच सत्कार्यम् ॥१॥" इति।
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सम्मति• काण्ड ३, गा. ५॥ तदेवं सुन्दोपसुन्दन्यायेनासद्वादिबौद्धौलूक्योक्तयुक्तयस्साङ्ख्याभ्युपगतसत्कार्यपक्षं सालयोक्तयुक्तयश्च बौद्धौलूक्याभ्युपगताऽसत्कार्यपक्षं प्रतिघ्नन्ति, न तु कार्यकारणयोः कथशिद मेदादुपादानकारणद्रव्यात्मना कारणे कार्य सत् पर्यायलक्षणतत्कार्यात्मनाऽसदित्येवं कथञ्चित्सदसदात्मकानेकान्तपक्षम् , यतोऽनेकान्तत्वं जात्यन्तरमेव, अविभक्तपरस्परसापेक्षसदसद्रुपद्वयसंसर्गात्मकत्वात् , न पुनरेकान्तपरस्परनिरपेक्षसदसदुमयात्मकत्वरूपं तत् , प्रत्येकपक्षदोषस्योभयपक्षेऽपि सद्भावात् ।" प्रत्येकं यो भवेदोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इत्युक्तेः, किन्तु नरसिंहादिवद्विलक्षणमखण्डस्वरूपमेव, अत एव प्रत्येकपक्षोक्तदोषाऽस्पृष्टम् । यदाह
"न न सिंहरूपत्वात्, न सिंहो नररूपतः।
शब्दविज्ञानकार्याणां, भेदाजात्यन्तरं हि तत् ॥१॥" इति । तथा च शास्त्रान्तरयुक्त्यप्रतिहन्यमानं परस्परसापेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयप्रतिपाद्यभजनाङ्किततत्त्वप्रतिपादकमर्हच्छास्त्रमेव सम्यम्भावं धत्ते, तदन्यत्तु परस्परशास्त्रयुक्तिमिनिराक्रियमाणमन्यनयनिरपेक्षेण केवलद्रव्यार्थिकनयेन केवलपर्यायार्थिकनयेन वा परस्परनिरपेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां वा व्यवस्थापितं सर्व शास्त्रं मिथ्येति सिद्धम् । अत एवं शाक्यौलूक्यानां सत्कार्यवादे साङ्खथानां चासत्कार्यवादे पर्यनुयोगा एकान्तपक्षनिवृरयंशे फलवन्त एव सैद्धान्तिकैरुक्ता इति ।। ५० ॥ अमुमेवार्थमन्वयव्यतिरेकाभ्यां दृढीकर्तुमाह
ते उ भयणोवणीया, सम्मइंसणमणुत्तरं होति । __जं भवदुक्खविमोक्खं, दो वि न पूरति पाडिकं ।। ५१ ॥ (ते उ भयणोवणीया' तौ तु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयो भजनोपनीतौ उपसर्जनीभूतस्वेतरनयविषयप्रधानीभूतस्वविषयप्रतिपादकतयोपयोजितो, अत्र यदा भवतस्तदेति शेषः 'सम्मइंसणमणुत्तरं होति' सम्यग्दर्शनमनुत्तरं नास्ति उत्तरं प्रधानं यस्मादिति व्युत्पत्या यदवधिकोत्कर्षविशिष्टमन्यन्नास्ति तत्तथाभूतं भवतः, तादृशसम्यग्दर्शनरूपतामवाप्नुता, परस्पराविनिर्मागवर्तिद्रव्यपर्यायात्मकैकवस्तुतचविषयकरुच्यात्मकाबाधितावबोधस्वभावत्वाद् भजनाघटिततदुभयपक्षस्य सर्वनयसम्मतत्वेन जिनमतरूपतया सम्यग्रूपत्वात् । यदा स्वन्योन्यनिरपेक्षतया स्वतन्त्रद्रव्यपर्यायप्रतिपादकत्वेनोपनीतौ तौ भवतस्तदा न सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, नयान्तरानपेक्षतया स्वतन्त्रै कनयपक्षस्य दुर्नयत्वेन मिथ्यारूपत्वात् तयोरेकान्त. द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोमिथ्यात्वे च यत्स्यात्तदाह-'जं भवदुक्खविमोक्खं ' यद् यस्मा. द्ववदुःखविमोक्षं भवे संसारे जायमानं यजन्ममरणादिदुःखं तस्माद् विमोक्षं विशेषेणापुनरावृत्या मोक्षं परिमोचनं अथवा भवस्य दुःखं भवदुःखम् , तस्य विमोक्षम् , दुःखपदमत्र लक्षणया स्वकारणीभूतकर्मपरम् , षष्ठ्यर्थश्च सम्बन्धः कार्यकारणभावात्मा,
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प्रम्नति• काण्ड ३, गा० ५२
GK
तस्य
प्रकारतया भानाभ्युपगमे भवनिष्ठ कार्यतानिरूपित कारणताऽऽश्रयी भूतकर्माऽत्यत्रोच्छेदमित्यर्थः । संसर्गतया भानस्वीकारे तु स्वनिष्ठ कार्यतानिरूपितकारणतासम्बन्धेन विशिष्टं यत् कर्म तस्याऽत्यन्तोच्छेदमित्यर्थः । ' दो वि न पुरेंति पाडिक्कं ' द्वावपि प्रत्येकं न पूरयतः, तौ द्वावपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनया वेकैको परस्पर निरपेक्षौ न विवत्तः, मिथ्याज्ञानरूपत्वाद्, यच्च मिथ्याज्ञानात्मकं तन्न दुःखविमोक्षं विश्वत्ते, यथा मरुः मरीचिकादौ जलभ्रान्तिः मिथ्याज्ञानरूपौ च तौ नयाविति तावपि सम्यक्क्रियाऽनङ्गतया भवदुःखविमोक्षं न विधत्तः, तयोर्नययोर्मिथ्यात्वे च कारणात्कार्यमभिन्नमत एव सत्कार्य - मित्येवमेकान्तद्रव्यार्थिकनय प्रतिपादितमेवं पूर्ववर्त्तिनः कारणात् पश्चाद्भावि कार्य भिन्नमेव, अत एवासत्कार्यम् असतः सत्तालामलक्षणत्वात्कार्य स्वस्येत्येव मे कान्तपर्यायार्थिकनयप्रतिपादितश्चासत्यमेव, नन्वेवं तर्हि किमत्र तत्त्वं सत्यमिति चेत्, उच्यते - कारणात् कार्यं कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नश्च अत एव कथञ्चित्सच्चाऽसचेत्युभयरूपमिति जानीहि ॥ ५१ ॥
अनुमेवार्थमुपसंहरति---
नत्थ पुढवविसि घडोत्ति जं तेण जुजइ अणण्णो । जं पुण घडोत्ति पुष्यं ण आसि पुढवी तओ अण्णो ॥ ५२ ॥
"नत्थि पुढवीविसिडो घडो त्ति जं " यद् यस्मात् पृथ्वीविशिष्टः पृथिव्या मृत्तिकायाः कारणीभूताया विशिष्ट विश्लिष्टो वा व्यतिरिक्तो भिन्नः कार्यभूतो घटो नास्ति मृत्तिका - व्यतिरिक्तस्वभावतया न दृश्यते ' तेण जुजइ अणन्नो ' तेन तस्माद्धेतोर्युज्यते अनन्यः, मृतिकातोऽभिन्नः, यत्कार्यं यत्कारणात्मकं तत्तदभिन्नं यथा जलबुबुदो जलस्वरूपकारणात्मक इति स तदभिन्नः, मृत्तिकास्वरूपकारणात्मकच घट इति सोऽपि तदभिन्नः, यद्वा यत्कार्य यद्विकारात्मकं तत्तदभिन्नं यथा जलबुद्बुदो जलविकारात्मक इति तदभिन्नः, यथा वा वेदान्तमते मायाविकारात्मकं घटपटादिजगत् इति तदभिनं, पृथिवीविकारात्मकथ घट इति सोऽपि तदभिन्नः, नन्वेवं सति कार्यकारणयोर्दृश्यमाना भेदप्रतीतिरेव लुप्ता स्यात् । किश्च तयोरभेदे कार्यकारणभाव एव न स्यात्, भेद एव तद्भावादित्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमुत्तरार्द्धमाह - ' जं पुण' यत्पुनः ' घडोत्ति' घट इति, पृथुबुध्नोदराद्याकारतालक्षणव्यक्तस्त्ररूपेण 'पुवं न आसि ' पूर्वं घटोत्पत्तेः प्राक् स नासीत्, नाभूत्, किन्तु ' पुढवी ' पृथ्वी मृत्तिकै वासीत्, अथम्मान:- कार्यकारणयोस्सर्वथैक्ये स्त्रकाल इव मृत्तिकात्मक पृथ्वीका लेsपि घटः पृथुबुनोदराद्याकारेणोपलभ्येत, न चोपलभ्यते ' तओ अण्णो ' ततः तस्मात्कारणात् ज्ञायते कारणीभूतमृदात्मक पृथ्वीतोऽन्यो घट इति । दशवैकालिकप्रथमाध्ययनबृहट्टीकायां साक्षिभूतगाथोत्तरार्द्धपाठस्त्वेवम् - " जं पुण घडत्ति पुढं नासी पुढवीह तो अन्नो " इति । यत्पुनर्घट इति पूर्व नासीत् ततः तस्मात्कारणात् पृथिव्या अन्य इत्यर्थः । अयम्भावः- यो घटस्सोऽपि
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सम्मति० कामा ३, गा० ५३
मृत्तिकैव, यतो घटो मृत्स्वरूपं परित्यज्य न स्वस्वरूपं धत्ते, ततोऽनुगतद्रव्यसामान्यस्वरूपमन्तरेण घटात्मकविशेषस्वरूपानुपपत्तेर्घटो मृद्रव्यात्मक एव, मृत्तिकाऽपि तदानीं घट एव, यतस्वापि घटात्मकविशेषस्वरूपं परित्यज्य तदानीमन्यत्स्वस्वरूपं न बिभर्त्ति ततो घटात्मकविशेषस्वरूपमन्तरेण मृद्रव्यसामान्यस्वरूपाऽनुपपत्तेर्मृद्रव्यमपि घटविशेषात्मकमेव, तयोरन्योन्यानुस्यूतत्वादिति तयोस्तद्रूपेणाऽभेदः, यदेव नियमेनाव्यवहितपूर्ववर्त्तिं तदेव कारणम्, यच्च तज्जायमानत्वेन तदव्यवहितोत्तरवर्त्ति तत्कार्यमिति मृदः कारणत्वेन घटस्य च कार्यत्वेन पूर्वापरवर्त्तितया तयोर्भेद इत्येवं यथा मृद्घटयोः कथञ्चिद्भेदाभेदो भयात्मकत्वम् एवं सर्वत्र कार्यकारणयोस्तद्भावनीयम्, अत एव कार्यकारणयोः कथञ्चिदभेदात् कारणात्मना कार्य सत्, तयोश्च कथञ्चिद्भेदात् कार्यात्मना कार्य पूर्वमसदिति कार्य कथञ्चित्सदसदात्मकमवसेयम् ॥ ५२ ॥
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सदाद्येकान्तवादवत् कालाद्येकान्तवादेऽपि मिथ्यात्वमेवेत्याह
कालो सहाव णियई, पुष्वकर्य पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होंति सम्मत्तं ॥ ५३ ॥
कैश्विदेकान्तवादिभिः 'कालो' काल एवासाधारणत्वेन हेतुः कार्य मात्रं प्रति मन्यते । यदाह
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कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १ ॥ " इति । 'सहावणियई '
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कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ! स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रसङ्गः १ ॥ १ ॥ " इति वचनात् कैचिच स्वभावो हेतुत्वेनाभ्युपगम्यते ।
"प्रातव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ १॥" इत्युक्तेः अन्यैव नियतिः, तदपरैश्व -
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यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥ १ ॥ इत्यभिधानात् ' पुवकथं ' पूर्वकृतं कर्माख्यं, अन्यैश्व ' पुरिसकारण ' पुरुषकारणं ब्रह्माख्यपुरुषोऽसाधारण हेतुत्वेन
" ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवांभसां । प्ररोहाणामिव लक्षः, स हेतुः सर्वजन्मनां ॥ १ ॥ " तथा - " पुरुष एवैतत्सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् " इत्यादिवचनान्मन्यते, इत्येवं "एगंता
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सम्मति० का ३, गा० ५४ मिच्छतं" एकान्ता मिथ्यात्वम् , जगनिखिलकार्य प्रति यत्कारणीभूतं कालायेकैकं, तत्प्रतिपादकैकान्तवादास्सर्वेऽपि मिथ्यावादाः, यतो न हि किमप्येकमात्रं स्वान्यहेत्वनपेक्षं कारणं कार्यमुत्पादयदृष्टम् , दृष्टानुसारिणी कल्पना प्रमाणभावमश्चति, न तु यथा तथा कल्पना, सामग्री वै जनिति न्यायाद तदितरसकलकारणसत्त्वे सति तत्सच्चे तत्सवम् , तदमावे तदभाव इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां तदितरनिखिलकारणसहकृतस्यैव विवक्षितस्यैकस्य प्रधानतया कारणत्वे सिद्धे सति तदन्येषां गौणतया कारणत्वं सिद्ध्यत्येवेति स्वान्यकारणनिरपेक्षकमात्रकारणपक्षस्य दुर्नयत्वात् , ननु यदि कालाधेकैकहेत्वभ्युपगमरूपैकान्तपक्षा एकैकनयवादरूपत्वेन मिथ्यारूपास्तहि सर्वनयदृष्ट्याऽहत्सिद्धान्तसिद्धास्सम्यगुरूपा के इत्याशहां परिहरनाह-"ते चेव उ समासओ हुन्ति सम्मतं" त एव तु समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् , अयम्भाव:-त एव तु समुदितास्सामग्रीप्रविष्टत्वेन मिथस्सहकारिभावं प्राप्ताः, तत्राप्येको विवक्षितो हेतुः प्रधानीभूतः, तदितरहेतवो गुणीभूता इत्येवमङ्गाङ्गिभावेन परस्पराजहवृत्त यस्सम्यग्भावमधिगच्छन्ति, परस्परसापेक्षकालादिपञ्चकारणसमुदायपक्षस्यैव सम्यग्रूपत्वेन सर्वनयदृष्ट्या सिद्धान्तसिद्धस्य जिनमतरूपत्वात् । “सवणयमयं जिणमयं" इत्युक्तेः । एकैककारणमात्रेण वापि जायमानस्य कस्यापि कार्यस्यानुपलब्धेः कालादिकारणसमुदाये कार्योंपधायकत्वनियमादेककारणपरिशेषपक्षस्य च दुर्नयत्वेन मिथ्यारूपत्वादिति ।। ५३ ॥
अन्यनिरपेक्षकालादिप्रत्येककारणाभ्युपगमात्मकैकान्ततत्तत्पक्षा मिथ्यारूपा, स्यात्पदोपादानेनाशेषान्यकारणसापेक्षास्तु त एव सम्यग्रूपा इति प्रतिपाद्य नास्त्येवात्मा १ न नित्य आत्मा २ न कर्ता ३ कृतं न वेदयते ४ नास्ति निर्वाणम् ५ नास्ति मोक्षोपायः ६ इति षडे कान्तविकल्पा अपि स्वस्वदर्शनप्रक्रियावादिभिश्चार्वाकरौद्धसायवेदान्तिमीमांसकादिभिः प्रकल्पिता मिथ्यारूपाः, त एव स्यात्पदाङ्कितास्तु सम्यग्रूपा इति प्रतिपादयितुमाह
नस्थि ण निच्चो ण कुणइ, कयं ण वेएइ नस्थि निव्वाणं ।
नत्थि य मोक्खोवाओ, छम्मिच्छत्तस्स ठाणाइं ॥ ५४॥ मद्यानेभ्यो मदशक्तिवजले बुद्बुद्वद्वा पञ्चभूतेभ्यः कायाकार आत्मात्पद्यते तत्रैव च विनश्यतीति भूतपरिणामत्वान्न तद्व्यतिरिक्त आत्मा परलोकानुयाय्यस्ति । तदुक्तम्"विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति" इति । यदि तश्यतिरिकस्स्यात्तर्युपलभ्येत, न चोपलभ्यते चक्षुरादीन्द्रियः, ततो नास्त्येवात्मेति चार्वाकमतमाश्रित्याह 'नस्थि' नास्ति आत्मेति शेषः ॥१॥
"सुखी भवेयं दुःखी च, मा भूवमिति तृष्यतः ।
यैवाहमिति धीः सैव, सहजं सत्त्वदर्शनम् ॥१॥"
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धम्मति० कान्ह ३, गा० ५४ तत्र सन्चमात्मेत्यर्थः । कामयमानाश्च सुखादिकं विहितनिषिद्धसाधनमस्यानुतिष्ठन्तः कर्माशयानाचिन्वाना जन्मादिकमनुभवन्ति । यदुक्तम्--
" आत्मनि सति परसंज्ञा, स्वपरविभागात्परिग्रहद्वेषौ।
अनयोः सम्प्रतिबद्धाः, सर्वक्लेशाः प्रजायन्ते ॥ १॥" इति । यदि पुनरमी, नाहं कश्चित् , किमपि मम नास्ति, न किश्चिदपि वस्तु स्थिरम् , विश्वमेव क्षणभङ्गुरमलीकञ्चेत्यवधारयेरन् , न किञ्चिदपि कामयेरन् , न चाकामयमानाः केचिदपि प्रवर्तन्ते, न चाप्रवर्त्तमाना अपि कर्माशयेन सिच्यन्ते, न चान्तरेणापि कर्माशयं सम्भवो भोगस्येति भवति नैरात्म्यदर्शनं साधनमपवर्गस्येत्यम्युपगन्तवौद्धमते चिन्मात्रमात्मा, यत्सत्तक्षणिकम् , यथा जलधरपटलम् , संश्चात्मेति सोऽपि क्षणिक: 'सर्वे संस्काराः क्षणिकाः' इत्युक्तरित्यत आह-'ण निच्चो' न नित्य इति क्षणिकवादिमते ॥ २ ॥
साङ्ख्यमते अस्त्यात्मा नित्यः, तथापि पुरुषः पुष्करपलाशवनिर्लेप इति स भोक्ताऽपि न कर्ता, किन्तु की प्रकृतिरेव । उक्तश्च साङ्ख्यतत्त्वकौमुद्याम्
" इत्येष प्रकृतिकृतो, महदादिविशेषभूतपर्यन्तः ।
प्रतिपुरुषविमोक्षार्थ, स्वार्थ इव परार्थ आरम्भः ॥ ५६ ॥" "प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुते" तथा "बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते" इति च । तन्मतमाश्रित्याह-' न कुणइ' न करोति आत्मा । ३ । अन्तःकरणावच्छिमचैतन्यं जीव इति वेदान्तिभिरभ्युपगमादन्तःकरणधर्मत्वाद्भोक्तृत्वस्य तदुपाधिकजीवे चौपचारिकमेव भोक्तृत्वम् , न तु पारमार्थिकमिति वेदान्तिमतमाश्रित्याह " ण वेएइ" न वेदयते, न सुखादिकमुपभुते आत्मा परमार्थवृत्त्या । यद्वा येन कृतं कर्म नासौ तद्भुङ्क्ते क्षणिकत्वाचित्तसन्ततः, अत एव कृतं न वेदयते इति बौद्धमतमाश्रित्योक्तम्-"ण वेएइ" इति । अत्र यद्यपि वासनावासितपूर्वपूर्वविज्ञानमुत्तरोत्तरं विज्ञानमुपनिबध्नातीति वासनावासितैः पूर्वपूर्वविज्ञानरुत्तरोत्तरविज्ञानोत्पादे सिद्धे मरणकालिकं विज्ञानमप्यनपेतवासनतया तत्पश्चादपि गर्भादौ विज्ञानान्तरमुत्पादयेदेव, तच्चेदं मनोविज्ञानमालयविज्ञानस कं विविधवासनावासितं जन्मनः पूर्व मरणतः पश्चादनुपद्धसन्तानक्रममेवेत्येवं युक्तिसिद्धोऽनायनन्तो विज्ञानसन्तान एवं कर्म करोति तत्फलचोपभुङ्ग इति बौद्धरुपगमात्तन्मतमाश्रित्य 'ण वेएइ ' इति न युक्तम् , तथापि ज्ञानसन्तानस्य सन्तानिभ्यो ज्ञानव्यक्त्यात्मकेभ्यो भिन्नत्वाभ्युपगमे नामान्तरेणात्मैवाभ्युपगतस्स्यादिति तदभिन्नस्य तस्यापि पूर्वोत्तरज्ञानव्यक्तीनां प्रतिक्षणमन्यान्यत्वेन तथात्वापच्या परमार्थवृत्याऽननुगामित्वेन न तत्र कर्मकर्तृभोक्तभावो. पपत्तिरित्यभिप्रेत्य तथोक्तिरित्यवधेयम् ।। ४ ।।
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सम्मति० का ३, गा० ५४
न केनापि पुंसा रागादीनामत्यन्तक्षयः कर्तुं शक्यत इति सर्वज्ञो न सम्भवति, किश्च ये सातिशया दृष्टास्तेऽपि स्वस्त्रविषय एव न विषयान्तर इति देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थविषयकमिन्द्रियजज्ञानं न सम्भवति, तदुक्तं मट्टैः सर्वज्ञनिराकरणप्रस्तावे--
" यत्राप्यतिशयो दृष्टः, स स्वार्थाऽनतिलानात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्या-न्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥१॥ येऽपि सातिशया दृष्टाः, प्रज्ञामेधादिभिर्नराः ।
स्तोकस्तोकान्तरत्वेन, न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥२॥" इति सर्वज्ञाभावात् 'अग्निहोत्रं जरामर्य वा कुर्यात्' इति श्रुत्या यात्रजीवमग्निहोत्र क्रियाविधानतो मोक्षसाधकक्रियानुष्ठानकालाऽप्रदर्शनाच सर्वज्ञाऽनम्युपगन्तृणां यज्वनां मते सर्वदुःखविमुक्तिलक्षणस्य निर्वाणस्याभाव एवेत्याशयेनाह-' नथि निहाण' नास्ति निर्वाणमिति ॥ ५॥ अस्ति मुक्तिः परं तदुपायो नास्ति, सर्वभावानां नियतत्वेनाकस्मादेव मावादिति नियतिवादिमतेन यद्वा स्वभावादेव मुच्यते न मुक्ती स्वभावादन्यः कोऽपि हेतु. रिति मोक्षोपायो नास्तीति स्वभाववादिमतेनाह-" नस्थि य मोक्खोवाओ" नास्ति च मोक्षोपाय इति ।। ६॥ एतानि षट् किमित्याशङ्कायामाह-"छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई." षट् मिथ्यात्वस्य स्थानानि, षड्भिस्थानस्तत्वार्थाऽश्रद्धानलक्षणं मिथ्यात्वं भवति । चार्वाक बौद्धसालयवेदान्तिमीमांसकादीनां स्वस्वदर्शनप्रक्रियावादिनां अनाकलिततत्वाऽप्रज्ञापनीय. ताप्रयोजकस्वस्वाभ्युपगतार्थश्रद्धानलक्षणमाभिग्रहिकमिथ्यात्वं भवतीति यावत् । तत्तन्मतखण्डनश्चैवम्-चार्वाकमतेन “यथा जलबुद्बुदो जलातिरेकेण नापः कश्चिद् विद्यते, तथा भूतव्यतिरेकेण नापरः कश्चिदात्मा" इत्यादिप्रकारेणात्मा नास्तीत्यर्थ " नत्थि" इति प्रथमस्थानमुक्तम् , तन्महामोहविजृम्भितम् , यतश्शरीरं विद्यमानकर्तृकं आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् यद् यदादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तद्विद्यमानकतेक दृष्ट, यथा घटः, यच्चाविद्यमानकर्टकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽऽकाशम् , आदिमत्प्रतिनियताकारं च शरीरं दृश्यते तस्माद्विद्यमानकर्टकमिति यस्तकर्ता स एवात्मा, न चारादिवनस्पती वल्मीकादौ च व्यभिचारः, तत्रापि गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिनानाविधविचित्रकर्मोदयपरिणामिन आत्मन एव शरीरकत्वेनाभ्युपगमात्, ननु तथाप्यस्यानादित्वं कथमिति चेत्, उच्यते-उपयोगलक्षण आत्मा गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गाद्यनु भवनोपयोगात्मतया तान् पुद्गलान् परिणमयतीत्यात्मनः परिणामकत्वं, तेषां परिणाम्यत्वम्, पुद्गलाथात्मानं मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकपाययोगसुखदुःखोदयक्षयोपशमादि. भावेन परिणमयन्ति, तद्भावेनारमा परिणम्यते, स च मिथ्यादर्शनोदयादिभावो भवभ्रमणहेतुः, तद्वशस्य संसरणात्, एतस्य कर्मकर्मिद्वयस्यान्योन्यपरिणामकत्वादनादित्वम्, अत एव कर्मजीवसम्बन्धस्य बीजाहरन्यायेनानादित्वेनोक्तसम्बन्धजस्य संसारस्याप्यनादित्वं
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प्रम्मति काण्ड ३, गा० ५४
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सिद्धम्, किं स्वमनीषिकया तदुच्यते ? आहोस्विदस्त्यस्य किञ्चिदुपनिबन्धनमार्षमपीति १ अस्तीत्युच्यते उपनिबन्धनमस्य - ' पु िभंते ! कुक्कुडी पच्छा अंडए, पुर्वि अंडए पच्छा कुक्कुडी ' इत्यादि प्रश्नव्याकरणम् ' रोहा पुर्वि एते पच्छावि एते, दोषि एते सासया भावा toryवी एसा रोहा इत्यादि । (भग० श० १, उ०६, सू० ५३) एवमग्रेऽपि ज्ञेयम् । एवं पुरुषतनुवन्नियताकारतत्तनूत्पत्तिष्वृद्विक्षत भग्नसंरोहणस्वापविबोधाङ्करोद्भेदपल्लव कुसुमोद्गमभावानां कर्तुतयाऽपि वनस्पत्यादावात्मसिद्ध्या नोक्तव्यभिचारः, निष्टङ्कयति तत्प्रामाण्यमाचाराङ्ग प्रथमाध्ययनपञ्चमोद्देशकं वचनम् -' से बेमि इमं पि जाइ धम्मयं, एयं पि जाइ धम्मयं, इमं पि बुडिधम्मयं एयं पिबुडिधम्मयं, इमं पिचित्तमंतयं एयं पि चित्तमंतयं, इमं पि छिष्णं मिलाइ एयं पि छिण्णं मिलाइ, इमं पि आहारगं एयं पि आहारगं, इमं पि अणिश्चयं एयं पि अणिचयं, इमं पि असासयं एयं पि असासयं, इमं पि चओवचइयं एयं पि चओवचइये, इमं पि विपरिणाममयं एयं पि विपरिणामधम्मयं ' ॥ ४७ ॥ इति । न च वैस्र सिकेऽन्द्रधनुरादौ व्यभिचार इति वाच्यम्, यद्यत्प्रायोगिकं प्रतिनियताकारमित्येव हेत्वर्थत्वात्, यद्वा वैत्रसिकमिन्नत्वे सतीति हेतौ विशेषणात् । न च शरीरमपि वैत्र सिक मेवेत्युक्तानुमानानोतसाध्यसिद्धिस्तत्रेति वाच्यम्, तथा सति तस्मिन् विलक्षणचेष्टावत्त्वोपपत्तिरेव न स्यान्मृतशरीरवदिति । तथा इन्द्रियाणि विद्यमानाधिष्ठातृकाणि करणत्वात्, यद्यदिह करणं तत्तद्विद्यमानाधिष्ठातृकं दृष्टम्, यथा दण्डवास्यादिकम् अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वानुपपत्ति, यथाकाशस्य, हृषीणां करणभूतानामधिष्ठाता स एवात्मा, स च तेभ्योऽन्यः, तथा इन्द्रियविषयक - दम्बकं विद्यमानादातृकं आदानादेयसद्भावात्, इह यत्र यत्रादानादेयसद्भावस्तत्र तत्र विद्यमान आदाता ग्राहको दृष्टः, यथा संदेशका यः पिण्ड योस्तद्भिन्नोऽयस्कारः, यश्चात्रेन्द्रियैः करणैर्विषयाणामादावा- ग्राहकः स तद्भिन्न आत्मेति, यथा च तिले तैलें कुसुमे सौरभं ततः पृथक् तथा शरीरादात्माऽपि पृथक्, न च तिलेन्धनादिभ्यस्तै लाम्यादयः कार्यात्मकाः पृथग्भूतास्साक्षाद्दृश्यन्ते इति तिरोभूततया ते तत्र सन्तीति कार्यलिङ्गतोऽनुमीयन्ते, न चात्मा शरीरात्पृथग्भूत उपलभ्यत इति स तत्र नास्त्येवेति वाच्यम्, अरूपित्वादेव स बाझेन्द्रियैर्नोपलभ्यते न स्वभावतः, कालादिवत्, अहं जाने, अहं यते, अहं सुखी, अहं दुःखी, इत्यादिमानसप्रत्यक्षेण तूपलभ्यत एव न चाहम्पदवाच्यं शरीरमेवेति वाच्यम्, अन्धकारेऽपि सोऽहं सोऽहं मुख्यहं दुःख्यहमित्यादिप्रतीतेः, यच्च ' विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य' इत्याद्युक्तं तेनाप्यात्मसत्ता प्रतीयत एव, तथाहि - ' विज्ञानघनो' प्रतिप्रदेशमात्मनोऽनन्तज्ञानपर्याय मयत्वाद्विज्ञान पिण्ड आत्मा 'एतेभ्यो भूतेभ्यस्समुत्थायेति' प्राक्तनकर्मवशात्तथाविधकायाकारात्मपरिणामं प्रति कायाकारपरिणत भूतानामपि कारणत्वात्तेभ्यः कायाकारात्मपर्यायतया समुत्पद्य कायद्वारा स्वकर्मफलमनुभूय पुनः कार्याविनाशे आत्माऽपि तदानीं तेनाकारेण विनश्यापरकायाकारात्मपर्यायान्तरेणोत्पद्यते, न पुनस्तैर्भूतैरेव सह विनश्यतीति परलोके प्राक्तनी संज्ञा
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सम्मति काण्ड ३, गा० ५४
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नास्ति, तदुत्तरभवीयसंज्ञाभावादिति । भूतचैतन्यादिवादस्तु पूर्वमेव निरस्त इत्यत्र नाधिकं विस्तृतभयादुच्यते |१| एतेन भवतु पूर्वोक्तयुक्त्वाऽऽत्मसिद्धिस्तथापि स क्षणिकज्ञानसन्तामात्मैव न तु तदाश्रयत्वेन तद्व्यतिरिक्तो नित्य आत्मास्तीत्यथर्कम् 'ण निधो ' इति द्वितीयस्थानमपि बौद्धानां निरस्तम्, नित्यात्मनोऽभावे योऽयं स्वसंविदितः सुखदुःखानुभवः स कस्य भवतीति वाच्यम्, आलय विज्ञानस्कन्धस्यायमनुभव इति चेत्, न, तस्यापि क्षणिकत्वात् ज्ञानक्षणस्य चातिसूक्ष्मत्वात् सुखदुःखानुभवाभावप्रसङ्गः, क्रियाफलवतोच क्षणयोरत्यन्तभिन्नत्वात् कृतनाशाऽकृताभ्यागमापत्तिरिति, आलयविज्ञानसन्तान एकोऽस्तीति चेत् तस्यापि सन्तानिव्यतिरिक्तस्याभावाद् यत्किश्चिदेतत् भावे वा पर्यवसितं विवादेन, नामान्तरेणात्मन एव स्वीकारात् । कः पुनरात्मस्थैर्यसाधकन्यायप्रयोग इति चेत्, उच्यते, परप्रतीतिः पूर्वप्रतीत्याश्रयाश्रिता पूर्वप्रतीत्याश्रये साक्षात्क्रियमाणत्वात् पूर्वप्रतीतिवदिति । न च हेत्वसिद्धिः, योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहं तं स्पृशामि स्मरामि वेति प्रत्यभिज्ञया पूर्वप्रतीत्याश्रये उत्तरप्रतीतेः साक्षात् क्रियमाणत्वात् । सा च प्रत्यभिज्ञा कर्तृभेदेऽनुपपद्यमाना पूर्वापरप्रतीत्योरेककर्तृकत्वं व्यवस्थापयति, प्रत्येतव्यादनन्यस्यैव प्रत्येतुरहमास्पदत्वात्, न हि भवति चैत्रोऽहं यमद्राक्षं मैत्रोऽहं तं स्पृशामि स्मरामि वेति प्रतिसन्धानम्, अथ पूर्वापरप्रतीतीनामेककर्तृकत्वनिश्चयोऽपि तासामुपादानोपादेयभावेनैवोपपद्यते, तथा चोक्तप्रत्यभिज्ञानेन द्रष्टुः पूर्वज्ञानस्याभेदो घटविषयकस्पार्शनप्रत्यक्षात्मके घटविषयक स्मरणात्मके वा स्मर्तर्युतज्ञाने आरोप्यते, तद्बलादेव चानुभवितरि पूर्वज्ञाने स्पार्शनप्रत्यक्षवत्रं स्मरणवचं वाऽऽरोप्यत इत्येवं दिशा स्थैर्याभावेऽपि प्रत्यभिज्ञानस्यो - पपत्तिरिति चेत्, मैवम्, एकजातीयत्वे सति येन यदुत्पन्नं तयोरुपादानोपादेयभाव इति लक्षणस्यैव भवद्भ्युपगतस्याऽसङ्घट्टमानत्वात्, तथाहि - तत्रोत्पत्तिस्साक्षाद्विवक्षिता, किंवा परंपरयाऽपीति विकल्पद्वयम्, आद्यपक्षे यत्र चैत्रस्य प्राग् घटानुभवः, अन्तरा ज्ञानान्तरं कालान्तरे पुनर्घटस्मृतौ यं घटमद्राक्षं तमेव स्मरामीत्याकारकं प्रतिसन्धानं तत्रापि व्यवहित. योरेकसान्तानिकयोर्घटानुभवघटस्मृत्योरुपादानोपादेयभावाभावप्रसक्त्या प्रतिसन्धानं न स्यात्, द्वितीयपक्षे च शिष्याचार्यधियामप्युपादानोपादेय भावप्रसङ्गस्यात्, तथा च तत्रापि कदाचित् प्रतिसन्धानापतेः । अथ तत्र शिष्याचार्यविवक्षाप्रयत्नादिना विजातीयेन व्यवधानाम तत्प्रसङ्गः, सति सम्भवे सजातीयव्यवधानस्यैव विवक्षितत्वादिति चेत्, तर्हि एकसन्तानान्तःपातिनामपि विजातीयविवक्षादिना व्यवधानं केन निवारणीयम्, तथा च तत्रापि प्रतिसन्धानं न स्यात् । अथैकाधारत्वे सति कार्यकारणभाव एवोपादानोपादेयमात्र इति शिष्याचार्यधियां न प्रतिसन्धानप्रसङ्ग इति चेत्, तदप्यसङ्गतमेव, यतस्तत्रैकाधारत्वं किमेकदेशवृत्तिस्वरूपम्, किं बैककालवृत्तित्वात्मकम्, नाद्यः, यतो ययोः पूर्वापरक्षणवर्तिनोः कार्यकारणarataयो नैकदेशवृत्तित्वम्, आधारस्य भवन्मते क्षणिकत्वेन क्षणद्वयावस्थायित्वाभावात्,
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पम्मति० काम ३, गा• ५४. म द्वितीयः, ययोरेकक्षणवर्तिनोरेकाधारत्वं तयोः कार्यकारणभावाभावात् । काल्पनिकैकाधारत्वाऽम्युपगमे तु शरीरबुद्धयाघोरप्येकदेशताऽभिमानात्कार्यकारणभावाभिमानाचोपादानोपादेयभावप्रसङ्गस्स्यात् । तदेवं बौद्धमते उपादानोपादेयभावलक्षणस्यैवाऽसङ्गतेनॊक्तं युक्तमिति पूर्वोक्तप्रत्यभिज्ञया पूर्वापरप्रतीत्योरेकककत्वसिद्धेराऽऽत्मनो नित्यत्वाभ्युपगम एव श्रेयान् । तथा बौदागमोऽपि नित्यात्मप्रतिपादकोऽस्ति, स चायम्
"इत एकनवते कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः।
तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवा!॥१॥" तथा"कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनूभवन्त्यात्मनि गर्हणेन ।
प्रकाशनात्संवरणाच तेषा-मत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ॥१॥" इत्येवमादिः । गौरवभीत्याऽधिकं यदत्र नोक्तं तदस्महन्धखण्ड खाद्यकल्पलतिकातोऽत्रसेयम् , सविस्तरपूर्वकृतक्षणिकत्वपक्षनिरासेनाप्यात्मनो नित्यत्वं बोद्धव्यम् ।। एतेन भवत्वास्मनो नित्यत्वम् , तथापि स पुष्करपलाशवनिर्लेप इति न कर्ता, प्रकृतेरेव कर्तवादित्यर्थक 'न कुणइ' इति तृतीयस्थानमपि निरस्तम्, चेतनोऽहं करोमीत्यनुभवेनात्मन एवं कर्तृस्वात् , तथाभ्युपगम एव य एव शुभामशुभा वा प्रवृतिं करोति स एव शुभमशुभं वा कर्म करोति स एव च सुखदुःखादिकं स्वर्गनरकादौ तत्फलमनुभवतीति प्रतीतिरप्युपपद्यते, अन्यथाऽन्यः कर्ताऽन्यश्च मोक्तेत्यसमञ्जसापत्तिस्स्यात् । 'प्रकृतिः करोति पुरुष उपके इति पुरुषे भुजिक्रिया या समाश्रिता साऽपि न सिक्ष्यति, तस्या अपि क्रियास्वात् , य एव क्रियां करोति स एव तत्फलमुपभुत इत्यनुभवसिद्धस्य क्रियाकर्तवैव भोक्तृत्वस्याऽभ्युपगमश्रेयान् । अथ मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोग इति चेत्, एतत्तु निरन्तराः सुहृदः प्रत्ये. ज्यन्ति, वाङ्मात्रत्वात् , प्रतिबिम्बोदयस्यापि च क्रियाविशेषत्वादेव । तथा नित्ये चाविकारिण्यात्मनि प्रतिबिम्बोदयस्याभावाद् यत्किञ्चिदेतदिति । ननु कर्तृत्वाश्रयो न चेतनो जन्यधर्माश्रयत्वाद् घटवदिति बाधकसत्वाचेतनोऽहं करोमीति चैतन्यांशे भ्रम इति चेत् , कुत्यंशेऽपि स किं नेष्यते, तत्रापि बुद्धिः कर्तृत्वाभाववती जन्यत्वाद् घटवदिति बाधकस्य सत्त्वात् , चेतनत्वकर्तृत्वयोस्सामानाधिकरण्यप्रतीतावपि चेतनस्याकर्तृत्वे तस्मिन् सुखदुःखौ न स्यातामिति सुखार्थ दुःखोच्छेदार्थच न कोऽपि प्रवृत्ति कुर्यादिति निरीहं जगआयेत, न च निरीहं जगदिति चेतनाख्यात्मैव कति सिद्धम् ॥ ३॥
वेदान्तिमतमाश्रित्य 'ण वेएइ' न वेदयते इति तुरीयं स्थानं यदुक्तं तदपि न युक्तम् , जगतोऽनेकान्तस्वरूपस्य पारमार्थिकसतो निराकर्तुमशक्यत्वेन ब्रह्मवाद्वितीयं सत्, प्रपश्चा कल्पितोऽविद्या दोषविधया तत्र कारणम् , ब्रह्मैवाविद्यालक्षणदोषवशाजगदूपेणावभासते, ब्रमेव सर्व, मधभिन्न किश्चित्पारमार्थिकं नास्तीत्यादिरूपाया वेदान्तिप्रक्रियाया अयुक्तत्वेना.
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अम्मति का ३, गा० ५४ न्त:करणावच्छिमचैतन्यरूपत्वस्यैवात्मन्यऽसिद्धत्वेन तत्र कल्पिते कल्पितस्यापारमार्थिकस्य सुखदुःखादिसंवेदकत्वस्य वक्तुमशक्यत्वात् , यथा च वेदान्तिप्रक्रिया युक्तिरिक्ता तथा प्रागेवोपदर्शितेति पुनर्ग्रन्थगौरवमयान्नेह प्रदर्श्यते । बौद्धमतमाश्रित्य च "ण वेएइ" इत्यस्य यत्समर्थनं कृतं तदपि न युक्तम् , स्थिरात्मनः पूर्वमेव साधितत्वेन येनात्मना पूर्वकाला. वच्छेदेन यत्कर्म कृतं तस्मिनेवात्मनि तदुदयकाले तत्फलवेदनोपपत्तेः, मयैव यत्कृतं पुण्य. पापकर्म तस्य सुखदुःखफलमहमेवानुभवामीति प्रतीतेः। ४॥ यच्च मीमांसकमतमाश्रित्य सर्वज्ञाभावात् ' नत्थि निहाणं' इति पञ्चमस्थानमुक्तम् , तदप्ययुक्तम्, रागादयस्सर्वथा क्षयिणः, देशतः क्षयोपलब्धेः, दिनकरकरनिकरप्रतिरोधकमेघमालावत् । तथा चोक्तम्--
"दोषावरणयोर्हानि-नि:शेषाऽस्त्यतिशायिनी।
कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥१॥" इत्यादिना प्राक् सर्वज्ञस्य साधितत्वात् तस्य परमशुक्लध्यानजन्याशेषकर्मक्षये सति तजन्यपरमानन्दरूपस्य निर्वाणस्य सिद्धेः। “यच्च यत्राप्यतिशयो दृष्टः" इत्यायुक्तं, तदप्यज्ञानविलसितमेव, तस्येन्द्रियप्रत्यक्षापेक्षयैव चरितार्थत्वात् , सर्वज्ञज्ञानं स्वतीन्द्रियप्रत्यक्षमेवेति । ननु सुशिक्षितोऽपि नटोऽतिशयितव्यायामसमासादितलङ्घनातिशयो विंशतिहस्तादिविस्तीर्णी क्षुद्रनदिकां लङ्घयति, न त्वतिशयितपरिणाहाम्भागीरथ्यादिनदीमिति । यदुक्तम्
"दशहस्तान्तरं व्योम्नि, यो नामोत्प्लुत्य गच्छति ।
न योजनमसौ गन्तुं, शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ १॥” इति । यथा लङ्घनस्य व्यवस्थितोत्कर्षता, तथैव ज्ञानस्यापि, दृश्यते च न्यायादिशास्त्रपारंगतोऽपि व्याकरणशास्त्रविज्ञानशून्यो व्याकरणादिशास्त्रपरिनिष्ठितोऽपि न्यायादितन्त्रधियाsस्पृष्टा, एवश्व प्रकर्षप्राप्तमपि ज्ञानं व्यवस्थित प्रकर्षत्वान्न सर्वथा मिथ्याज्ञानमुन्मूलयितुमलम् , एवं वैराग्यादेरपि व्यवस्थित एवोत्कर्षः, अतो न रागादेरपि सर्वथा विलयो न्याय्य इति चेत् , अबोधविलसितमेतत् , यतो दृष्टान्तीकृतं लङ्घनं क्रियाविशेषश्शरीरधर्मस्तस्पटुता. प्रसाध्यः, पटुता च शक्तिविशेषरूपा व्यवस्थितलङ्घनानुकूलैव, कायो हि तत्तत्पूर्वोत्तरदेश. विभागसंयोगार्थमेव तादृशक्रियामपेक्षते, तौ च कायस्योपादेयौ तदन्यदेशता नात्मसात्कतुं प्रभविष्णू, लङ्घनमपि तदर्थमपेक्षमाणं न कायान्यदेशतामवलम्बते, कायोऽपि च यावल्लङ्कयितव्यदेशप्रापकोक्तशक्तिविशेषसहकृतस्वगत्युपष्टम्भकत्वेन परिणतधर्मास्तिकायसहकृतश्च तावद्देशव्याप्येव गतिविशेषलङ्घनमुत्पादयितुं प्रभु न्यथा, धर्मास्तिकायश्च लोकव्याप्यपि तं तं जीवं पुद्गलं प्रति तथैव तत्सत्स्वभावसव्यपेक्षं परिणतो, यथा कस्यचित्कुत्रचिदेव गत्युपटम्भको न तु सर्वस्य सर्वत्र, उक्तशक्तिविशेष एव तादृशलङ्घनप्रतिबन्धक श्लेष्मापनयनद्वारा व्यायामप्रयत्न उपोद्वलको, नत्वपूर्वलकनातिशयजनका, श्लेष्माणश्च तत्तल्लइनविषातका
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सम्मति० काट ३, गा० ५४ भूयो भूय उत्पादशीला न तत्तदेकप्रयत्नेनैव निर्मलयितुं योग्याः, यतो निष्पन्नपञ्चसप्तादि. हस्तमानलङ्घनोऽपि भूयो व्यायामाऽनासेवने नोत्तरकालन्तल्लङ्घयति, तत्कस्य हेतोः, उद्भूतोऽपि तदतिशय: पुन: xलेष्मोपचयादभिभूत एव सम्पद्यते, अत एव युवावस्थायामनवरत. व्यायामलब्धविंशत्यादिहस्तमानव्यापिलङ्घनातिशयो यावल्लङ्घयति न ताववृद्धावस्थायामित्युपलभ्यमानमुपपनतरम्, तत एव च द्विहस्तादिपरिच्छिन्नलङ्घनप्रयत्न एकहस्तादिमितलखनोपष्टम्भकारी, न ह्येकं हस्तमलङ्घयित्वैव द्विहस्तं लङ्घयति कश्चित् , द्विहस्तादिकमलचयि. त्वा त्रिहस्तादिकमिति द्विहस्तादिलङ्घनातिशये एकहस्तादिलङ्घनस्यान्तर्भावात् तत्प्रयत्नस्तदुपष्टम्मक इति न्यायप्राप्त एवेति लनातिशये व्यवस्थितप्रकर्षत्वं युज्यते । एतेन ताप्यमानोदकस्य व्यवस्थितप्रकर्षतादृष्टान्तेन ज्ञानस्य व्यवस्थितप्रकर्षताऽपि निरस्ता, काथ्यमानस्योदकस्य प्रतिक्षणमपचयतोऽत्यन्ततापप्रकर्षे नाशस्यैवावाप्या तदाश्रिततापप्रकस्य व्यवस्थित. त्वस्यैव न्याय्यत्वात् , दार्शन्तिके तु लङ्घनादिवज्ज्ञानस्य प्राप्य कारित्वेनार्थक्रियाकारित्वाभावेन यद्यद्विषयावच्छेदेन स्वप्रतिबन्धकावरणापगमस्तत्तद्विषयप्रकाशकत्वं, तपोऽध्ययना. दीनां च प्रतिबन्धकापगम एवं व्यापारः, न त्वपूर्वज्ञानोत्पादने, जीवसहमाविनो ज्ञानस्या. पूर्वत्वाभावात् , सर्वथा प्रतिबन्धकापगमे च यावद्वस्तुपरिच्छेदिज्ञानमाविर्भवत्येव, न च ज्ञानस्य प्रतिनियतज्ञेयपरिच्छेदकत्वमेव स्वभावो न तु यावद्वस्तुपरिच्छेदकत्वमित्यत्र मानं, स्वपरिच्छेद्यत्वेनाभिमतादन्यस्यापरिच्छेदकत्वे च नावरणं प्रतिवन्धकम् , तस्यापि तद्विषय एव व्यवस्थितरूपत्वात् , नायोग्यत्वं, परिच्छेद्यत्तयोग्यतावच्छेदकत्वस्य लाघवेन वस्तुत्व एव कल्पनीयत्वात् , तत्तज्ज्ञानपरिच्छेयत्वयोग्यतावच्छेदकप्रतिनियततत्तद्विषयमात्रगतानेकानुगतधर्माणां कल्पने महागौरवात् । न च लखनप्रयत्नाभ्यासवदुत्तरोत्तरज्ञानजनकाभ्या. सादेः पूर्वपूर्वज्ञानव्यवस्थितौ व्यापारः । तत्र हि उत्तरोचरलङ्घनस्य पूर्वपूर्वलङ्घननियतत्वम् , न चैवं प्रकृते, व्याकरणादिशास्त्रज्ञानस्य न्यायादिशास्त्रज्ञानतो मिन्नविषयत्वेन नियत. स्वाभावात् , अत एव श्रुतविस्मरणादिशीलस्य पुंसो व्याकरणादिशास्त्रमधीत्य न्यायादिशा. स्त्रमध्येतुरुत्तराध्ययनकाले पूर्वस्य विस्मरणमपि सङ्गच्छते, अन्यथा द्विहस्तादिलचनाम्यासे एकहस्तादिलङ्घनानुवृत्तिवदृढतयाऽनुवृत्तिरेव स्यात्, न तु विस्मरणं, पूर्वजन्माभ्यस्तलखनातिशयः शरीरनिष्ठत्वान्न यथा जन्मान्तरमनुव्रजति न तथा ज्ञानातिशया, तथा सति एकत्र शास्त्रेऽलभमानप्रवेशो बटुः पित्रादिभिश्शास्त्रान्तरे समासाद्यमानपटुतातिशया कथं सङ्गच्छेत, तस्मिन् जन्मन्युभयोरपि शास्त्रयोस्तं प्रत्यविशेषात् । तस्माद् यद्धि शास्त्र येन पूर्वजन्मन्यधीतं तस्य तद्विषयकस्संस्कारोऽनुवर्तत इत्युत्तरजन्मनि तत्र झटिति प्रवेशो नान्यत्रेत्यनेकजन्माभ्यस्तभिन्नभिन्नशास्त्रार्थविषयकसंस्कारेभ्यस्समुद्बुद्धेभ्योऽपि प्रभूतातिप्रभूतविषयकज्ञानानामुत्पत्तिस्सम्भवतीति न तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता युक्तिमती । तथा ज्ञानस्य जीवस्वभावत्वेन न प्रकर्षगमनेऽप्याश्रयनाश इति न ताप्यमानोदकेन समानौ
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सम्मति. काण्ड ३, गा० ५४ योगक्षेमाविति । सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षस्य विषयाः प्रमेयत्वात् घटादिवदित्यनुमान च तत्र प्रमाणम् । अथात्र सकलपदार्थसाक्षात्कार्येकज्ञानविषयत्वं साध्यते ? किं वा प्रतिनियतप्रतिमासकभिन्नभिभप्रत्यक्षविषयत्वम् ?, तत्र नायः, घटादिषु प्रमेयत्वहेतोनियतावगायनेक प्रत्यक्षविषयत्वव्याप्ततयैवोपलभ्यमानत्वेन हेतोर्विरोधाघ्रातत्वात् , साध्यविकलत्वाच दृष्टा. न्तस्य । नापि द्वितीया, अर्थान्तरत्वावाः। एवमशेषज्ञेयावलम्बिप्रमाणविषयत्वमुत तत्तद्विषयकप्रमितिविषयत्वं किं वान्यल्लक्षणं प्रमेयत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्यते १-तत्राबस्तु विवाद. गोचरीभूतेषु प्रत्येकरूपेण तस्याऽसम्भवेन भागासिद्धिप्रसङ्गतोऽसम्भवी, सम्भवे वा तत एव साध्यसिद्धेस्नर्थकमनुमानोपन्यसनम् , दृष्टान्ते च तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्याद्याप्यसिद्धे. रसिद्धान्वयश्च हेतुः। द्वितीयपक्षोऽप्यसङ्गत एव, पक्षान्तर्गतेष्वतीन्द्रियेषु तस्थासम्भवेन मामासिद्धत्वात् , अन्त्योऽप्यसिद्ध एव, तादृशस्य प्रामाणिकैरनभ्युपगमादिति न च प्रेर्यम् , सकलानुमानस्यैवमेवोच्छेदप्रसङ्गात् , तथा हि, पर्वतो वलिमानित्यत्रापि कशानुः प्रतिनियता किं वा पक्षदृष्टान्तोमयवृत्तित्वविशिष्टस्साध्यते, तत्राये यदि महानसर्मिकस्तदा तव्याप्य धूमः पक्षेऽभावात्स्वरूपासिद्धः, पर्वतधार्मिकस्तदा धूमस्तस्थाप्यतयाऽगृहीतत्वाद् व्याप्य. स्वासिद्धः । न द्वितीयोऽपि, कस्यापि बढेरुक्तोमयवृत्तित्वाभावात् । एवं धूमहेतावप्येवमेव कक्षाद्वयी, तत्रायस्साध्यधर्मिधर्मो दृष्टान्तेऽनन्वयी, दृष्टान्तधर्मिकश्च स्वरूपासिद्ध इत्यसम्भवी। द्वितीयोऽप्यसिद्धः, कस्यापि धूमस्योभयवृत्तित्वासम्मवात् । अथ नैवं सविशेषणी साध्य हेतू क्रियेते, किन्तु निर्विशेषणौ सामान्यरूपावेवेति चेत् , तर्हि प्रकृतेऽपि कथं नैवं विचारपद्धतिशरणं क्रियते । न च वाच्यं धूमत्वावच्छिन्नस्य वह्नित्वावच्छिन्नजन्यत्वेन तयोः कार्य कारणभावतः कार्येण कारणानुमानं प्रमाणभावमवलम्बते, अत्र तु कार्यलिङ्गस्यैवाभावतो नोक्तसिद्धिरिति, ग्रहोपरागमन्त्रौषधिशक्त्यादितथाविधफलप्रसाधकातीन्द्रियगोचरवचनविशेषः तत्साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकस्तद्विषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचन विशेषत्वाद् अस्मदादिप्रवर्तितथाभूतवचनविशेषवदित्येवं तथाभूतवचनविशेषात्मककार्यलिङ्ग. स्यापि तत्प्रसाधकस्य सद्भावात, इदश्च प्रागेर विवेचितमिति नेह विविच्यते, तदेवं सिद्धः सर्वक्षः, सिद्धे च तस्मिन् परमशुक्लध्यानेनावशिष्टभवोपग्राहिकर्मणि निश्शेषतः क्षीणे तस्य मुक्त्यवाप्तिरित्यस्त्येव निर्वाणमिति सिद्धम् ' अग्निहोत्रं जरामयं वा कुर्यात् ' इति श्रुतावपि विकल्पार्थक 'वा' शब्देन मोक्षार्थिनां मोक्षसाधकक्रियाकालोऽपि प्रदर्शित एवेति । अधिकच प्रथमगाथाविवृतावेवोक्तमिति नेह विस्तार्यते ।५। एतेन 'नस्थि य मोत्थोवाओ' सर्वभावानां नियतत्वेनाकस्मादेव भावात् , स्वभावाद्वा भावादित्यनुपायवादिमतात्मकं षष्ठं मिथ्यात्वस्थानमपि निरस्तम् , अकस्माद्भवतीत्यत्र यदा किं शब्दो हेतुपरस्तदा तस्य नाऽभि. सम्बन्धाद्धत्वभावे सति भवतीत्यर्थो लभ्यते, यदा तु भवनक्रियाया ना सम्बन्धस्तदा
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ५५
प्रसज्यप्रतिषेधे भवननिषेधोऽर्थो लभ्यते, किंशब्दसमस्यमानेनापि नञा सह भवतीत्यस्यान्च यात् । तथा चाकस्माद्भवतीत्यस्य हेतोर्न भवतीति फलितार्थः । यद्वा अकस्माद्भवतीत्यस्य स्वस्माद्भवति यद्वाऽनुपाख्याद्भवतीत्यर्थः, अथवा अकस्मादिति स्वभावादित्यर्थे रूढतया स्वभावादेव कादाचित्कत्वमिति पञ्चविकल्पाः, तत्र नाद्यः पक्षो युक्तः, हेतुनिषेधे भवनस्यानपेक्षत्वेन कालत्रयावच्छिन्नस्य सत्वस्यासत्वस्य वा प्रसङ्गात् । यदुक्तं --
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" नित्यं सत्त्वमसत्वं वा, हेतोरन्यापेक्षणात् ।
अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ॥ १ ॥ " इति ।
न द्वितीयोऽपि पक्षस्सङ्गतः भवन प्रतिषेधे प्राक्पश्चादिव मध्येऽप्यभवनप्रसङ्गात्, न तृतीयोऽपि यतस्स्वोत्पत्तेः पूर्वं यदि स्वं स्यात्तदा नियतकालीन कार्योत्पत्तौ हेतुस्स्यात्, न चैवम्, स्वोत्पत्तेः पूर्वं स्वस्यैवाभावेन हेतुत्वं न सम्भवतीति भावः । न चतुर्थोऽपि, अनुपाख्यस्य कार्यकारित्वाभावात्, तथाऽपि कार्यजनकत्वाऽभ्युपगमे प्रागप्यनुपाख्यस्यानुपाख्यतया भावात्ततः कार्यस्य सत्वप्रसक्तौ सदातनत्वं स्यात् । नापि पञ्चमः, स्वभाव इत्यस्य कोऽर्थः । किं स्वस्य भावः स्वभावः, किं वा स्वमेव भावः स्वभावः, तत्र नाद्यः, स्वस्य भावः स्वधर्मः तथा च स्वधर्मात्स्विस्योत्पत्तिः प्रतिज्ञाता स्यात्, सा च न युक्ता, स्वधर्मेण स्वस्यानुत्पत्तेः स्त्रपूर्वं स्वधर्मस्यैवाभावात्, आश्रयाभावे आश्रितानुपपत्तेः न च द्वितीयोऽपि, पौर्वापर्यनियतस्य कार्यकारणभावस्यैकस्मिन् स्वात्मक वस्तुन्यसम्भवात् नहि स्वमेव स्वस्मात्पूर्वमुत्तरं च भवितुमर्हतीति, तदेवं पञ्चविकल्पमध्ये एकोऽपि विकल्पो न युक्तः, नियतावधिकार्यदर्शनात् अनियतावधित्वे निरखधित्वे वा कादाचित्कत्वस्वभावव्याकोपापातात्, तत्स्वाभाव्ये च सहेतुकत्वस्यावश्यकत्वात्, तदुक्तं कुसुमाञ्जलावुदयनाचार्येण —
↑
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हेतुभूतिनिषेधो न, स्वानुपाख्यविधिर्न च । स्वभाववर्णना नैव-मवधेर्नियतत्वतः ॥ ॥ " इति ।
तदेवमेकान्त नियतिवादस्यैकान्तस्वभाववादस्य चाडप्रामाण्ये सिद्धे तदितरस्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षोपायोऽस्तीति सिद्धम् | ६| तस्माद्व्यवस्थितमेतदेकान्तरूपतया षडप्येतानि मिथ्यात्वस्य स्थानानीति ॥ ५४ ॥
नैतान्येव मिथ्यात्वस्थानानि किन्तूक्तविपरीतान्यप्येकान्तवादे तथैवेत्याह
अत्थि अविणासधम्मो, करेइ वेएइ अस्थि निव्वाणं । अस्थि य मोक्खोवाओ, छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥ ५५ ॥ 'अस्थि' अस्त्यात्मेत्येकं स्थानम् 'अविणासधम्मो ' अविनाशधर्म इति द्वितीयस्थानम्,
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सम्मति काण्ड ३, गा०५६
३६.३
' अविणासघम्मी' इत्यपि मुद्रितसम्मतिग्रन्थे पाठः, अविनाशधर्मी, उभयत्र नित्व इत्यर्थः ' करेह ' करोतीति तृतीयं ' वेएइ ' वेदयत इति चतुर्थम्, अनयोः क्रमेणात्मा कर्त्ता भोक्ता चास्तीत्यर्थः, ' अस्थि निवाणं ' अस्ति निर्वाणमिति पञ्चमम्, 'अस्थिय मोक्खोवाओ ' अस्ति च मोक्षोपाय इति षष्ठम् ' छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ' एतानि षड् मिथ्यात्वस्य तस्वार्थाsश्रदानलक्षणस्य स्थानानि । तत्र 'अस्थि' अस्त्यात्मेति पक्षः चार्वा कमिमात्मवादिनाम्, 'अविणासघम्मी' अविनाशधर्मीति पक्षश्च नैयायिकसायमीमांसाकादीनामात्मनित्यत्ववादिनाम् । ' करेइ' करोतीति मतमात्मनिष्ठकर्मादिकर्त्तृत्ववादिनां नैयायिकमीमांसकादीनाम् ' वेएह ' वेदयते आत्मा स्वकृतकर्मफलं सुखदुःखमनुभवतीत्यस्युपगमस्तेषामेव । ' अस्थि निवाणं' अस्ति निर्वाणमिति ' अस्थि य मोक्लोवाओ ' अस्ति च मोक्षोपाय इति च पक्षद्वयं नास्तिकमीमांसकव्यतिरिक्तानां ' छम्मिच्छतस्त ठाणाई' एतानि षट् आत्मत्वस्वस्वरूपेणात्माऽस्ति, अनात्मत्वात्मकपररूपेण नास्ति, स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावापेक्षया कर्मकर्त्ता तत्फलभोक्ता च परद्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षया चाकर्त्ता अमोक्ता चेत्यादिस्याद्वादमुद्रा मुद्रणरहितानि मिथ्यात्वाधारतां भजन्ते । एतद्विवेचनमनेकधा पूर्वमुक्तमिति नोच्यते, चतुर्थपादं तु गाथायाः केचिद् अन्यथा पठन्ति 'छस्सम्मतस्त ठाणाई ' इति, अस्य च पूर्वोक्तस्याद्वादमर्यादयेतरधर्माऽजहद्वृच्या प्रवर्त्तमाना एते पद पक्षाः सम्यक्त्वस्याधारतां प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः उक्तार्थसंवादिनयोपदेशग्रन्थोक्तस्य " षडेतद्विपरीतानि, सम्यक्त्व स्थानकान्यपि " इति श्लोकार्द्धस्य वृत्तिचैनम् एतेभ्यः प्रागुक्तेभ्यो विपरीतानि षट् सम्यक्स्थानान्यपि भवन्ति, अस्त्यात्मा, नित्यः, कर्चा, साक्षाद्धोक्ता, अस्ति मुक्तिः, अस्ति च तत्कारणं रत्नत्रयसाम्राज्यमिति । तदिदमुक्तम्
" अस्थि जिओ तह णिच्चो, कत्ता भुत्ता स पुण्णपावाणं ।
अत्थि धुवं निव्वाणं, तस्सोबाओ अ छट्टाणा ॥ १ ॥ " इति ॥ ५५ ॥ अथानेकान्तवादमवलम्ब्यैवा विसंवाद्यनुमानप्रमाणप्रवृत्तेस्स्याद्वादिन एवाऽन्यथाऽनुपपचिलक्षण व्याप्तिमद्धेतोः पक्षे सांध्यानुमितिरुपपद्यते, न त्वेकान्तवादिनः, साधर्म्य वैधर्म्यतो वा एकान्तसाध्यसाधकानुमानप्रमाणस्यैवानवतारादिति प्रतिपिपादयिषुस्सूरिशह-साहम्मओ व अत्थं, साहेब परो विहम्मओ वावि । अन्नोनं पडिकुडा, दोण्ण वि एए असव्वाया ॥ ५६ ॥
“ साहम्मओ व अत्थं साहेज परो " साधर्म्यतो वा अर्थ साधयेत् परः, समानस्तुल्यः साध्यसामान्यान्त्रितः साधनधर्मो यस्य असौ सधर्मा, तस्य भावः साधर्म्यम्, ततोऽर्थं साध्य. धर्माधिकरणतया धर्मिणं साधयेत् परः एकान्तनयवादी, अन्वयिहेतुप्रदर्शनात् साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि वैशेषिकादिः साधयेत्, यद्वा समानो धर्मो यस्यासौ सघर्मा, सधर्मणो
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३६४
सम्मति० काण्ड ३, गा० ५६
भावः साधयं, तस्मात् , साध्येन सह हेतोरन्वयच्याप्तिदृहीता यत्र तल्लक्षणसाधर्म्यदृष्टान्त द्वाराऽन्वयिहेतीरित्यर्थः, अर्थ साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि परो वैशेषिकादिः साधयेत् तदा अयं श्यामः तत्पुत्रत्वात् अपस्तत्पुत्रवदित्यनुमाने तत्पुत्रत्वादेरपि गमकत्वं स्यात, अन्वयमात्रस्य तत्रापि भावात् । " विहम्मओ चा वि" वैधाद् विगतस्तथाभूतः साधनधर्मो यस्मादसौ विधर्मा, तस्य भावो वैधर्म्यम् , तस्माद् व्यतिरेकिणो हेतोः प्रकृतं साध्यं साधयेत् । यद्वा विसदृशो धमों यस्य स विधर्मा विधर्मणो भावो वैधर्म्यम् , तस्मात् , अर्थात् साधनाभावेन सह साध्याभावस्य व्याप्तिर्गृह्यते यत्र तल्लक्षणवैधHदृष्टान्तद्वारा व्यतिरेकिहेतो. येदि साध्यं साधयेत् , गाथायां वाशन्दस्य समुच्चयार्थत्वाद् वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वे त्वपि. शम्दस्य समुच्चयार्थत्वादुभाभ्यो वा, तथापि तत्पुत्रत्वादेरेव गमकत्वप्रसक्तिः, श्यामत्वाभावे तत्पुत्रत्वादेरन्यत्र गौरपुरुषेऽभावात् , उभाभ्यामपि तत्साधने अत एव साध्यसिद्धि. प्रसक्तिस्स्यात् । “अन्नोनं पडिकुट्ठा दोण्णवि एए असहाया" अन्योन्यं प्रतिक्रुष्टौ द्वावपि एतावसद्वादौ । अयम्भाव:-पर: साध्यं साधयन् न तावत्सामान्यं साधयेत् , केवलस्य तस्य वशित्वाश्वत्वगोत्वादेर्दहनवेगगमनदोहनाधक्रियाकारित्वाभावेनासद्रपतया प्राक् प्रति. पादितत्वात् । नाऽपि विशेषम्, प्रतिव्यक्तिभिन्नरूपत्वेन तस्याननुगतत्वेन व्याप्तिग्रहामावेन साधयितुमशक्यत्वात् । न च विशेषरूपयोस्साध्यहेत्वोस्सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहाभावेऽपि सामान्यरूपेणानुगतत्वात् समवायसम्बन्धेन तद्विशिष्टयोस्तयोस्स भविष्यत्येवेति वाच्यम् , समवायस्य पूर्व निषिद्धत्वेन तेन सम्बन्धेन तद्विशिष्टत्वाऽसिद्धेः, " पर्वतो जातिमद्वान इत्या. दावतिप्रसङ्गाच" अस्यायम्भावः-यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र जातिमानित्येवं सामान्यरूपेणान्वयव्यालेस्सद्भावेन धूमावर्वद्वित्वेनेव सामान्यतो जातित्वालिङ्गितवाहित्वेनापि बढेस्सिद्धिप्रसङ्गस्यात्, न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम् , धूमवहयोधूंमत्वेन ववित्वेन यः कार्यकारणभाव. स्तद्वलादेव तयोरन्ताप्तिग्रहामेन वहथनुमान युक्तम् , यद्यपि यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र जातिमानिति व्याप्तिस्सम्भवति परं सा न कार्यकारणभावमूलिका, न हि धूमत्वावच्छिन्नम्प्रति वह्नित्वावच्छिन्नस्य यत्कारणत्वं तजातित्वावच्छिन्नवतित्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितं किन्तु निरवच्छिन्नवतित्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितमेवेति तत् धूमत्वेन धूमहेतुना निरवच्छिभवह्नित्वेन बहेरेवानुमानेऽन्ताप्तिग्राहकतोपयुक्तमितीष्टापत्तेः कर्तुमशक्यत्वात् । नाप्यु. भयम् , उभयदोषानतिवृत्तेः, नाप्यनुभयम् , तस्याऽसतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वाऽयोगाद , तदेवमन्योन्यं प्रतिक्रुष्टौ प्रतिक्षिप्तौ द्वावप्येतो सामान्यविशेषकान्तावसद्वादाविति सिद्धम् , इतरविनिर्मुक्तस्यैकस्य शशशृङ्गादेखि साधयितुमशक्यत्वात् । अत्राह नैयायिक:-नन्वनौपाधिकसम्बन्धो व्याप्तिरिति तत्पुत्रत्वहेतौ शाकपाकजत्वस्य साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकतयोपाधित्वेन सोपाधिकतयोक्तलक्षणव्यायभावादुक्तहेतुाप्यत्वाऽसिद्धः, यस्मिश्च हेतौ व्याप्यत्वासिद्धिस्तत्र व्यापकव्यभिचारिणो व्याप्यव्यभिचारित्वनियमाद् व्यभिचार
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सम्मतिः कान्ड ३, गा. ५६
३६५ दोषोऽपि, अत एष सकलविपक्षव्यावृत्तिनिश्चयाभावेन पञ्चरूपाऽमावाभास्य गमकत्वमिति चेत् , तईन्यथाऽनुपपनत्वनिश्चयाभावादेवागमकत्वं तत्पुत्रत्वहेतोरुक्तं स्यादिति निश्चिताऽन्यथाऽनुपपनत्वस्यैव हेतुलक्षणत्वमस्तु । एतेन रूपत्रयवादी बौद्धोऽपि तत्पुत्रत्वहेतौ विपक्षे असत्वं निश्चितं नास्ति, न हि श्यामत्वाऽसत्वे तत्पुत्रत्वेनावश्यं निवतेनीयमित्यत्र प्रमाणमस्तीति वदन् निरस्तः। निश्चितान्यथानुपपनत्वमात्रस्यैकरूपस्य हेतुलक्षणत्वो. पपत्तेस्त्रैरूप्यस्यापि पचरूयत्वस्येवाऽकिश्चित्करत्वात् " तदेवं अनुपलब्धिा स्वभावकार्ये घेति " न्यायबिन्दुद्वितीयपरिच्छेदसूत्रोक्तानुपलब्धिस्वभावकार्यभेदभिन्नहेतुत्रयेषु “ उदा. हरणमाघात्साध्य साधनं हेतुः" । ३४ । " तथा वैधात् " ३५ इति प्रथमाध्याय. प्रथमाहिकचतुतिशतपश्चत्रिंशन्यायसूत्रोक्तान्वयिव्यतिरेक्यन्वयिव्यतिरेक्यात्मकहेतुत्रयेषु च "अस्येदं कार्य कारणं संयोगिविरोधिसमवायि चेति" ९-२-१ इति वैशेषिकसूत्रनवमा. ध्यायद्वितीयाहिकप्रथमसूत्रोक्तकार्यकारणसंयोगिविरोधिसमवायिरूपेषु हेतुभेदेषु च एवमन्यवाद्युक्तसकलहेतुमेदेषु प्रवर्तमानस्य सद्धेतुरूपलक्ष्यव्यापिन: सर्वसाचालक्ष्यादसिद्धादिहेत्वाभासप्रपश्चाद् व्यावर्तमानस्य निश्चितान्यथानुपपन्नत्यस्य हेतुलक्षणत्वं युक्तिसिद्धमभ्युपगन्तव्यम्, तथाविधस्यापि तदलक्षणत्वे हि न किञ्चित्कस्यचिल्लक्षणं स्यादिति लक्ष्यलक्षणभाव एवोच्छिद्येत, तदुक्तं प्रमाणन यतत्त्वलोकालङ्कारे
" निश्चितान्यथानुपपत्येकलक्षणो हेतुः ॥ ३ ॥११ । न तु त्रिलक्षणकादिरिति । ३ । १२ ।
तस्य हेत्वाभासस्यापि सम्भवादिति । ३ । १३ ।" अत्र बौद्धाः प्राहुः-ननु निश्चितसाध्याविनाभूतहेतावेवान्यथाऽनुपपनत्वं रूपम्, तत्र पक्षसमवसपक्षसत्त्वविपक्षासस्वात्मकरूपत्रयमप्यस्त्येवेति तद्वत्त्वमेव हेतुलक्षणमस्तु, यतः पक्ष. सवस्य हेतुलक्षणाऽघटकत्वे शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वात् रूपवदित्यत्र शब्दरूपपक्षे चाक्षुषत्वहेतोरभावात्स हेतुस्स्वरूपाऽसिद्धोऽपि सपक्षे घटादौ वर्तते विपक्षे च शशशङ्गादौन वर्तत इति तस्य सपक्षसचविपक्षासवद्वयरूपसद्भावात्सद्धेतुत्वापच्या तज्ज्ञानेनानुमित्या. पतिस्स्यात्, न च सा भवतीत्यसिद्धत्वव्यवच्छेदार्थ पक्षधर्मत्वं गमकताङ्गमभ्युपगन्तव्यम् , सपक्षसवस्य हेतुलक्षणाघटकत्वे च विरुद्धत्वव्युदामाऽसम्भवेन शब्दो नित्यः कृतकत्वादित्यत्र नित्यत्वसाध्यामावव्याप्यतया विरुद्धेनापि कृतकत्वहेतुना साध्यानुमितिस्स्यात्, न च सा भवतीति विरुद्धत्वव्यवच्छेदार्थ सपक्षसचमप्यभ्युपगन्तव्यम् । विपक्षासत्त्वस्य हेतुलक्षणघटकत्वाऽभावे इदो वहिमान् प्रमेयत्वादित्यत्रानैकान्तिकत्वव्युदासस्याऽसम्भवेन व्यभिचारिणः प्रमेयत्वहेतोः पक्षे इदे सपक्षेच महानसादौ सवेन पक्षसत्रसपक्षसत्वरूपद्वय. विशिष्टेन तेन हेतुना ज्ञातेनानुमित्युत्पत्तिस्स्यादिति तत्रानकान्तिकत्वव्यवच्छेदार्थ विपक्षा
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३६६
सम्मति० काण्ड ३, गा० ५६
सभ्वरूप मध्यभ्युपगन्तव्यमिति पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयमेव सर्वस्मिन् हेतावस्तीति तदेव लक्षणमप्युपगन्तव्यमिति चेत्, अस्तु, न च नियमेनानुमित्युपयुक्तं तत्, निश्चितान्यथाSनुपपन्नत्वात्मक नियतैकरूपमात्रेणाप्यनुमित्युपपत्तेरिति तत्सचमकिञ्चित्करम्, अत एव पात्रस्वामिनाऽप्येवमुक्तम्---
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अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् १ |
"
"
नान्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥ १ ॥ इति । किश्च न खलु कृतिकोदयाच्छकटोदयाद्यनुमाने पक्षधर्मता सम्भवति अथ कालाकाशादि भविष्यच्छकटोदयादिमत् कृतिकोदयादिमत्त्वात् पूर्वोपलब्ध कालाकाशादिव दितीत्थमत्र पक्षधर्मताऽभिधीयते इति चेत्, तर्हि न कश्विदपक्षधर्मत्व हेतुः स्यात्, ran प्रासादधावल्यादौ साध्ये जगतो धर्मित्वेन पक्षधर्मत्वस्य कर्तुं शक्यत्वात् । तथाहि जगत् प्रासादघावल्ययोगि काककार्ण्ययोगित्वात् । तन्न नियमेन पक्षधर्मत्वं साध्यगमकताङ्गम्, अत एव भट्टोऽप्याह
" पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन, पुत्रब्राह्मणताऽनुमा । सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥ १ ॥ नदीपुरोऽप्यधो देशे दृष्टः सन्नुपरिस्थिताम् । नियम्यो गमयत्येव, वृत्तां वृष्टिं नियामिकाम् || २ || " इति ।
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ननु हेतोर्बलद्वयम् एकं व्याप्तिरूपम्, द्वितीयञ्च पक्षधर्मतारूपम्, तत्राद्यबलेनानुमितौ नियतसाध्यस्थ भानम्, द्वितीयबलेन पक्षस्य तत्र भानमिति, यदि पक्षधर्मता नाहीक्रियते तदाऽनुमितौ कथं पक्षभानं नियमेन स्यादिति चेत्, उच्यते, अनुमितौ पक्षधर्मत्वस्यानङ्गत्वेऽपि यद्धर्म्यवच्छेदेन हेतोरसाध्यं विनाऽनुपपत्तिः प्रतिसन्धीयते तस्य धर्मिणोऽनुमितौ धर्मितया मानमित्येवं प्रतिनियतधर्मिमानं निर्वहत्येव, यथा नभश्चन्द्रास्तित्वं विना जलचन्द्रोऽनुपपन इत्यत्र, अत्र नहि समुद्रादिदेशान्तरवर्ति चन्द्रं विना जलचन्द्रोऽनुपपन्नः, किन्तु नभसि चन्द्रं विनैवेति नभ एव बिम्बभूतचन्द्रानुमितौ धर्मितया भासते, यद्वा यद्धर्मिणि हेतोर्ग्रहणं पक्षधर्मताज्ञानात्मकं साध्यानुमितिं जनयितुमलं तस्य धर्मिणोऽनुमितौ धर्मितया मानम्, यथा पर्वतो वह्निमान् धूमवश्वादित्यत्र, अत्र नहि अन्यदेशस्थितो धूमो गृहीतस्सन स्वाधिकरणदेशातिरिक्त देशस्थितत्रयनुमितिं जनयितुं समर्थः, किन्तु यस्मिन् देशे गृहीतस्सन अनुमितिं जनयति स एव देशोऽनुमितौ धर्मितया भासत इति । न चात्राप्यन्यथाऽनुपपन्नत्वलक्षणन्यात्यवच्छेदकतयैव पर्वतस्यानुमितौ कथं न भानमिति वाच्यम्, सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहणे धूमाधिकरणमात्राननुगामिनः पर्वतस्य विशिष्याप्रतिमासनेनावच्छेदकत्वाऽसम्भवादिति । पक्षसच्ववदेव सपक्षसच्वं विपक्षासत्वमपि च साध्यगमकतान
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ५६
३६७ ज्ञेयम् , सर्वमनेकान्तात्मकं उत्पादव्ययधौव्यलक्षणसस्वान्यथाऽनुपपत्तेः, सर्वममिधेयं प्रमे. यत्वादित्यादौ सपक्षविपक्षाभावात् सपक्षसत्त्वविपक्षासवाभावेऽप्यनुमित्युपपत्तेः । ननु सपक्षसस्वस्थ साध्यगमकतानङ्गत्वे तेन साध्यवदसवलक्षणविरोधदोषाऽन्युदासाद्विरुद्धेनापि हेतुना, एवं विपवासस्वस्य तदनङ्गत्वे तेन साध्याभाववद्वत्तित्वलक्षणव्यभिचारदोषाऽभ्युदासाहयामि। चारिणापि हेतुनाऽनुमित्युत्पत्तिस्स्यादिति न च वाच्यम्, निश्चितान्यथानुषपणत्व. लक्षणत्वादेव हेतोविरुद्धत्वादिदोषपरिहारसिद्धः, न यसिद्धविरुद्धादिषु हेत्वाभासेषु निशितान्यथाऽनुपपत्तिस्सम्भवतीति न विरुद्धादिहेतुनाऽनुमित्युत्पत्तिप्रसङ्ग इति निषितान्यथाऽनुपपत्तिरेव लक्षणं हेतोरभ्युपगन्तव्यमिति । अत्र नैयायिकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते, बौद्धाभ्युपगतं त्रैरूप्यं हेतोर्लक्षणं मा भूत , एतानि सहकारफलानि पक्वानि एकशाखाप्रभवत्वाद् उपयुक्तसहकारफलवदित्यादावामताग्राहिप्रत्यक्षबाधितविषये, अयं देवदत्तो मूर्खः चैत्रपुत्रत्वात् अपरतत्पुत्रवदित्यादौ अयं देवदत्तो मूखों न भवति विविधशास्त्रव्याख्यानादिकलाकौशलशालित्वात् प्रतिपन्नप्राज्ञपुरुषवदिति प्रतिपक्षानुमानेन सत्प्रतिपक्षितेऽपि च हेतावस्य सम्भवात् , पचरूपत्वं तु हेतुलक्षणं भवत्येव, निर्दोषत्वात् , तथाहि यस्य पक्षधर्मता नास्त्यसावसिद्धो हेत्वाभासः, यथा शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वात् रूपवदिति, सपक्षे सत्वं यस्य नास्ति स विरुद्धः, यथा शब्दो नित्यः कृतकत्वादिति, यस्य विपक्षाच्यावृत्ति स्त्यसावनकान्तिकः यथा पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वात् शब्दो नित्यः प्रमेयत्वाद्वेति, यस्याषाधित. विषयत्वं नास्ति स कालात्ययापदिष्टः, यथा वहिरनुष्णो द्रव्यत्वादिति प्रत्यक्षबाधितविषयः, ब्रामणेन जैनेन वा सुरा पेया द्रवत्वात् क्षीरवदित्यागमवाधितविषयः, अतः स हेतु: कालात्ययापदिष्टः, यस्य निष्प्रतिपक्षता नास्ति स प्रकरणसमः, यथा शब्दोऽनित्या नित्यधर्माऽनुपलब्धेर्घटवत् , शब्दो नित्योऽनित्यधर्माऽनुपलब्धेः आकाशवदिति । तथा च पवरूपाणि यस्मिन् हेतो स एव निर्दुष्ट इति ज्ञातस्सन् व्याप्तिस्मृतिद्वाराऽनुमित्युत्पादक इति पश्चरूपत्वमेव हेतुलक्षणमभ्युपगन्तव्यम् । यथोक्तं जयन्तेन
" पञ्चलक्षणकाल्लिङ्गाद् , गृहीतानियमस्मृतेः।
परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञान-मनुमानं प्रचक्षते ॥ १ ॥” इति । अत्रोच्यते प्रतिविधानम्-हेतोः पश्वरूपत्वं लक्षणं न युक्तम् , त्रैरूप्यवत्तस्यापि हेत्वाभासेऽपि भावात् । यतोऽग्निजन्योऽयं धूमः सत्वात् , पूर्वोपलब्धधूमवदित्यत्र अग्निजन्यस्वाभावषति षटे सत्त्वहेतोर्विद्यमानत्वेन व्यभिचारदोषाक्रान्ततया हेत्वामासरूपेऽपि तस्मिन् हेतो पक्षधर्मत्वं तावदस्ति, पक्षीभूते धूमे सचहेतोरसंदिग्धत्वात् , सपक्षसवमपि तत्र विद्यते, पूर्वदृष्टे धूमेऽमिजन्यत्वेन निश्चिते सत्वहेतोस्सद्भावात् , विपक्षाऽसत्वमपि तत्र विद्यते खरविषाणादौ साध्यामावे साधनस्य सत्वस्याभावनिश्चयात् । अबाधितविषयत्वमप्यत्रास्ति,
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सम्मति• काण्ड ३, गा०,५६ विवादापने धूमेऽग्निजन्यत्वस्य बाधकामावात् , विवादापनो धूमोऽनिजन्यो न स्यात्तर्हि धूमार्थी वलयानयनार्थ नैव प्रवर्त्तत, प्रवर्तते च तदर्थी तस्माद् धूमो धनञ्जयजन्य इति प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां विवादापने धूमेऽग्निजन्यत्वस्य सिद्धेः । एरमसत्प्रतिपक्षत्वमपि, अनग्निजन्यत्वसाधकस्यानुमानस्यात्राऽसम्भवादिति सिद्धं हेत्वामासेऽपि सत्वहेतौ पश्वरूपत्वम् , तथा चालक्ष्ये सत्चहेतायुक्तलक्षणगमनादतिव्याप्तं तल्लक्षणं न समीचीनतामञ्चति । सामस्त्येन व्यतिरेकव्याप्तिनिश्चयस्यात्राभावात् सचहेतावसिद्धं पश्चरूपत्वमिति चेत्, न, तस्य निश्चितान्यथाऽनुपपन्नत्वरूपत्वेन तदभावे शेषरूपाणामकिश्चित्करत्वापत्तेस्तद्विकलस्यैव पश्चलक्षणत्वस्यालक्षणत्वेन साध्यत्वात् , यत्पुनरबाधित विषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वयोरमावादेकशाखाप्रभवत्वतत्पुत्रत्वहेतोरगमकत्वमगादि, तत्राप्यन्यथानुपपन्नत्वाभाव एव निमित्तम् , न पुनरवाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वयोरभावः । तयोः सतोरप्यगमकत्वस्थानन्तरमेव दर्शित. स्वात् । किश्चाबाधितविषयत्वस्य तानिश्चितस्यैव हेत्वङ्गत्वमङ्गीकार्यम् , अन्यथा पक्षधर्मः त्वादेरप्यनिश्चितस्य हेत्वङ्गत्वप्रसङ्गस्स्यात् । न च तनिश्चयः सम्भवति, तनिश्चयसाध्यनिश्चययोः परस्पराश्रयणात् । सति हि बाधाभावनिश्चये हेतोः साध्यनिश्चयः, तनिश्चयाच नाधाभावनिश्चय इति न तयोरन्यतरस्य सिद्धिः। यच्चान्यतः कुतश्चिद् बाधाऽभावनिश्च यात परस्पराश्रयपरिहारप्रतिपादनं क्रियते, तदपि न मनोरमम् , यतस्तनिवन्धनमनुपलम्भः संवादो वा स्यात्, न तावदनुपलम्भः, सर्वसम्बन्धिनस्तस्याऽसिद्धेः, आत्मसम्बन्धिनस्तस्यानैकान्तिकत्वात् । नाऽपि संवादः, प्रागनुमानप्रवृत्तस्तस्यासिद्धेः, अनुमानोत्तरं तत्सिद्ध्य. भ्युपगमे परस्पराश्रयः, अनुमानात्प्रवृत्तौ संवादनिश्चयः, ततश्चाबाधितविषयत्वाऽवगमेऽनु. मानप्रवृत्तिरिति, न चाविनाभावनिश्चयादेवाबाधितविषयत्वनिश्चयः, हेतौ पञ्चरूपयोगिन्यवि. नाभावपरिसमाप्तिवादिनामबाधितविषयत्वाऽनिश्चयेऽविनाभावनिश्चयस्यैवाऽसम्भवात् । नन्वे. वमन्यथानुपपत्तिलक्षणाऽविनाभावोऽपि हेतुलक्षणं न सम्भवति, तनिश्चयोऽपि साध्यसद्भावनिश्चयायत्तः, सोऽपि चाविनाभावनिश्चयाधीन इत्येत्रमितरेतराश्रयस्य प्रसङ्गादिति चेत्, न, अविनाभावनियमस्य हेतो तख्यिप्रमाणान्तरानिश्चयोपगमादितरेतराश्रयानवकाशात्, नन्वेवं तर्हि यस्मात्तारख्यप्रमाणादविनाभावनिश्चयो हेतौ तत एव साध्यस्यापि सिद्धेस्तत्र हेतोरकिश्चित्करत्वमिति चेत् , न, हेतोर्देशादिविशेषावच्छिन्नस्य साध्यस्य साधनात् । तकेंप्रमाणात्तु सामान्यत एव तत्सिद्धेः। तकशाखाप्रभवत्वादेर्वाधित विषयत्वाद्धेत्वाभासस्वम्, किन्त्वन्यथानुपपत्यभावादेवेति । नाऽपि तत्पुत्रत्वादेस्सत्प्रतिपक्षत्वाद्धेत्वाभासत्वम् , यतः प्रतिपक्षस्तुल्यवलोऽतुल्यबलो वा स्यात् , द्वयोस्तुल्यबलत्वे बाध्यबाधकभावाऽनुपपत्तिः, अतुल्यबलत्वं वनयोः किं पक्षधर्मत्वादिभावाभावकतमनुमानबाथजनितंबा, न तावदाय: पक्षो निरवद्यः, पक्षधर्मत्वादेरुक्तहेतुद्वयस्याऽविशेषाद , मूर्खत्वाभावे साध्ये शास्त्रव्याख्यानादिकलाकौशलशालित्त्वस्येव मूर्खत्वे साध्ये तत्पुत्रत्वस्यापि पक्षधर्मत्वादिसम्भवात् । द्वितीय
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सम्मति• काल ३, गा० ५६ पक्षोऽप्यसम्भाव्या, अनुमानवाघजनिताऽतुल्यबलत्वस्याऽऽद्याप्यसिध्धेः, नहि द्वयोः पक्षधर्मत्वाद्यविशेषे एकस्य बाध्यत्वमपरस्य बाधकत्वं युक्तम् , अविशेषेणैव तत्प्रसङ्गात्, परस्पराश्रयश्व, तथाातुल्यबलत्वे सत्यनुमानबाधा, तस्यां च सत्यामतुल्यबलत्वमिति । तदेवं हेतो पक्षधर्मत्वादिपञ्चरूपायहं मुश्च स्वीकुरु च निश्चितान्यथाऽनुपपनत्वमात्रमेकरूपम् । तदुक्तम्
" अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं, रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ? ॥१॥" इति । तथा च निश्चितान्यथाऽनुपपनत्वैकलक्षणको हेतुरिति सिद्धम् । तदन्यो हेत्वाभासः, हेतुबदाभासते इति व्युत्पत्तेर्दुष्टहेतुरिति यावत् । अत्र नैयायिकास्तल्लक्षणन्त्वेवं वदन्ति-अनु. मितितत्करणान्यतरप्रतिवन्धकयथार्थज्ञानविषयवचं दुष्टहेतुत्वम् । दोषसामान्यलक्षणन्तुअनुमितितत्करणान्यतरप्रतिबन्धकयथार्थज्ञानविषयत्वम्, अनुमितितत्करणान्यतरप्रतिबन्धकतावच्छेदकयथार्थज्ञानविषयत्वमिति यावत् , तेनोदासीनविषयस्य समूहालम्बनात्मकता. दृशज्ञानविषयत्वेऽपि नातिप्रसङ्ग इति बोध्यम् । अस्यापि यद्पावच्छिन्नविषयकज्ञानसामान्यमनुमितिप्रतिबन्धकं तद्रूपावच्छिन्नत्वं दोषत्वमित्यौत्र तात्पर्यम् , तेन न वलयमावादावतिव्याप्तिः, वह्वयभावत्वावच्छिन्नविषयकस्य ' वह्नयमाववान् इदः' इति ज्ञानस्यानु. मितिप्रतिबन्धकत्वेऽपि तादृशज्ञानसामान्यान्तर्गतस्य ' वह्नयमावः' इत्याकारकज्ञानस्या. ऽप्रतिबन्धकत्वेन वह्वयभावत्वादेर्यद्रपपदेनोपादानाऽसम्भवात् जैनमते तु सद्धेतुभिमः हेतुत्वमेव दुष्टहेतोर्लक्षणम् , अत एवं जैनतर्कपरिभाषायां " सोऽयमनेकविधोऽन्यथाऽनु. पपत्येकलक्षणो हेतुरुक्तः, असोऽन्यो हेत्वाभासः" इत्युक्तं सङ्गच्छते । स त्रिविधः असिद्ध. विरुद्धानकान्तिकमेदाद, तत्राप्रतीयमानस्वरूपो हेतुरसिद्धः, स्वरूपाप्रतीतिश्च कस्यचित्पुंसो हेतोरज्ञानात् , कस्यचित् हेतुस्वरूपे सन्देहात्, कस्यचित्पुनः विपर्ययाद्भवति, असिद्धोऽपि हेत्वाभास उभयासिद्धाऽन्यतरासिद्धभेदेन द्विविधः, यो हेतु दिप्रतिवाद्युभयमतेन पक्षास्मके धर्मिण्यसिद्धः स आधः, उमाभ्यामपि पक्षे हेत्वभावाभ्युपगमात् , यथा शब्दा परिणामी चाक्षुषत्वादिति, अत्र चाक्षुषत्वहेतुः परिणामवादिना जैनेन नैयायिकेन च प्रतिवादिना शन्दात्मके पक्षे नाभ्युपगत इति उमयासिद्धः, यश्च हेतुः पक्षे वादिप्रतिवाद्यन्यतरेणासिद्धः स द्वितीयः, यथा अचेतनास्तरवः विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणमरणरहितत्वादिति प्रयोग बौद्धौ जैन प्रति कुर्यात्तदा “से बेमि इमं पि जाधम्मयं एयं पि जाइधम्मयं, इमं पि बुड्दिधम्मयं एयं पि वुविधम्मयं, इमं पि चित्तमंतयं एवं पि चित्तमतयं, इमं पिछिण्णं मिलाइ एयं पि छिण्णं मिलाइ, इमं पि आहारंग एयं पि आहारगं, इमं पि अणिचयं एवं पि अणिश्चयं, इमं पि असासयं एयं पि असासयं, इमं पिचओवचयं एयं पि चओवचइयं,
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सम्मति• काय ३, गा० ५६ इमं पि विपरिणामधम्मयं एवं पि विपरिणामधम्मयं" (सू०४७) इत्याचारागसूत्रोक्तोतरूणां विज्ञानेन्द्रियायुनिरोधलक्षणमरणमभ्युपगच्छतः प्रतिवादिनो जैनस्योक्तहेतुर्न सिद्ध इति प्रतिवाद्यसिद्धोऽयं हेतुः। एवं बौद्धो वैशेषिकादिकं प्रत्युक्तानुमानं कुर्यात्तदापि " यद्यपि वृक्षादयोऽपि शरीरभेदा एव भोगाधिष्ठानत्वात् , न खलु भोगाधिष्ठानत्वमन्तरेण जीवनमरणस्वप्नजागरणभेषजप्रयोगबीजसजातीयानुबन्धानुकूलोपगमप्रतिकूलापगमादयः सम्भवन्ति, इद्धिशतभग्नसंरोहणे च भोगोपपादके स्फुटे एव । आगमोऽप्यस्ति
" नर्मदातीरसम्भूताः, सरलार्जुनपादपाः।
नर्मदातोयसंस्पर्शात् , ते यान्ति परमां गतिम् ॥१॥” इत्यादि । " श्मशाने जायते वृक्षः कङ्कगृध्रादिसेवितः" इत्यादि च, इत्येवं वैशेषिकदर्शनचतुर्थाध्यायद्वितीयाहिकपञ्चमसूत्रटीकायामुक्तत्वात्तरूणां विज्ञानेन्द्रियायुनिरोधलक्षणमरणमुपगच्छतः प्रतिवादिनो वैशेषिकादेरपेक्षयोक्तहेतुर्न सिद्ध इति प्रतिवाद्यसिद्धोऽयं हेतुः। सुखादयोऽचेतना उत्पत्तिमचादित्येवं जैनं प्रति साङ्ख्यो यद्यनुमानं विदधीत तदैकान्तसत्कार्यवादिसालथमते प्रागसतः सत्तालाभलक्षणोत्पत्तिमत्वं क्वचिदपि न सिद्धमिति सुखादिपक्षेऽप्यसिद्धमेतदिति वाद्यसिद्धत्वादन्यतरासिद्धोऽयं हेतुः । साध्याभावव्याप्तो हेतुविरुद्धः, अत एव जैनतर्कभाषायां साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्ध इत्युक्तं तल्लक्षणम् , तत्र साध्यविपरीत इत्यस्य साध्यस्य तदभावेन सह परस्परामावरूपत्वलक्षणप्रतिषेध्यप्रति षेधकमावो विरोध इति साध्यस्य विपरीत: साध्यस्याऽभाव एवेत्यर्थः, यथा शन्दो. ऽपरिणामी कृतकत्वादिति, अत्राऽपरिणामित्वस्य साध्यस्याभावः परिणामित्वमेव, अभावाभावस्य प्रतियोगिरूपत्वात् , तस्य व्याप्तत्वात्कृतकत्वहेतुर्विरुद्धः । यस्याऽन्यथाऽनुपपत्तिः सन्दिह्यते सोऽनैकान्तिका, अस्याप्यनिर्णीतसाध्यान्यथाऽनुपपत्तिको हेतुरनैकान्तिक इत्यत्रैव पर्यवसानम् , यतो यस्मिन् हेतो साध्याभावववृत्तित्वं सन्दिह्यते यदा तदानीं तस्मिन् हेतौ साध्यं विनाऽनुपपत्तिनिर्णयो न विद्यत इत्यनिर्णीतसाध्यान्यथाऽनुपपत्तिको हेतु:, यस्मॅिश्च हेतौ तन्निीयते यदा तदानीं तनिर्णयात्मकप्रतिबन्धकसचात् साध्याभाववदवृत्तित्वात्मकव्याप्तिलक्षणाऽन्यथानुपपत्तिनिर्णयाऽसम्भवादप्यनिर्णीतसाध्यान्यथाऽनुपपत्तिको हेतुरनैकान्तिका, अस्य सव्यभिचार इति नामान्तरम् । स द्वेधा निर्णीतविपक्षवृत्तिका सन्दिग्धविपक्षवृत्तिकच, आयो यथा शब्दो नित्यः प्रमेयत्वात् आत्मवदिति, अत्र नित्यस्वसाध्यस्याऽभावोऽनित्यत्वं तद्वत्तया निश्चिते विपक्षे घटादौ प्रमेयत्वस्य हेतोत्तिनिर्णीतेति भवति प्रमेयत्वहेतुनिर्णीतविपक्षवृत्तिकानै कान्तिका, द्वितीयो यथा अभिमतः सर्वज्ञो न भवति वक्तृत्वात् रथ्यापुरुषवदित्येवं मीमांसकेन जैनाभ्युपगतसर्वज्ञे सर्वज्ञत्वाsमावसाधने वक्तृत्वहेतुस्सन्दिग्धविपक्षपत्तिका, सर्वज्ञत्वाभावात्मकसाध्यस्याभावः सर्व
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ५६
३७१ ज्ञत्वं तद्वति सर्वच वक्तृत्वहेतोस्सन्देहात् । एवं स श्यामो मित्रातनयत्वादित्यायप्युदा. हार्यम् । एतेनोक्तानुमाने शाकपाजत्वस्य मित्रातनयत्वसाधनावच्छिन्नश्यामवसाध्यव्या. पकत्वे सति मित्रातनयत्वसाधनाऽव्यापकत्वादुपाधित्वेन तद्वस्वेन सोपाधिकतया मित्रातन. यत्वहेतुाप्यत्वाऽसिद्ध इति नैयायिकाऽभ्युपगमोऽपि निरस्ता, मित्रातनयत्वहेतोश्श्या. मत्वसाध्याभाववति विपक्षे वृत्तिस्सन्दिग्धेत्यस्यापि सन्दिग्धविपक्षवृत्तिको हेतुरनैकान्तिक इत्यत्रैवान्तावादिति । एतेनाप्रयोजकापरनामाऽकिश्चित्कराख्यश्चतुर्थोऽपि हेत्वाभास मेदो धर्मभूषणेनाभिहितो निरस्तः, सिद्धसाधनबाधितविषयभेदाभ्यां द्विविधतया व्यावर्णित स्यास्य प्रतीतनिराकृताख्यपक्षाभासभेदानतिरिक्तत्वात् । अयम्भाव:-पत्र सिद्धसाधनदोषस्तत्र साध्यस्य सिद्धत्वेन यत्र च बाधितविषयत्वं तत्र साध्यस्य निराकृतत्वेन " अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साभ्यम्" ३-१४ ॥ इति प्रमाणनयतचालोकालङ्कारत्तीयपरिच्छेदचतुर्दशसूत्रोक्तलक्षणलक्षितसाध्यस्यैवाभावेन तद्विशिष्टस्य सत्पक्षस्याभावात्तत्र पक्षाभास एवेत्यतस्तदात्मकदोषाभिन्नत्वातदुभयदोषस्य न तदुभयमेदमिन्नाऽकिश्चित्कराख्यश्चतुर्थों दोषोऽतिरिक्त इति । अत एव कालात्ययापदिष्टोऽपि नैयायिकादिनाऽतिरिक्तदोषतयाऽभ्युपगतो निरस्तो वेदितव्यः, साध्यसन्देहकाल एव साध्यसाधनकालस्तदत्ययस्तदतिक्रमस्तस्मिन् काले बाधितसाध्यसाधनायाऽपदिष्टः प्रयुक्तो हेतु: कालात्ययापदिष्ट इत्यनेन बाधितविषय एवोक्तो भवति, तस्य पूर्वोक्तरीत्या निराकृतपक्षाभासदोषरूपतया हेत्वाभासत्वाऽसम्भवात् । न च यत्र पक्षदोषस्तत्र नियमेन हेतुदोषोऽपीति वाच्यम् , तथा सति साध्यविकल-साधन विकल-तदुभयविकल-दृष्टान्तलक्षणसाधर्म्यदृष्टान्तदोषाणां साध्याभाव विकल-साधनामावविकल-साध्याभावसाधनाभावोभयविकलदृष्टान्तलक्षणवैधयदृष्टान्तदोषाणामपि वाच्यत्वापत्तेः । प्रकरणसमोऽपि नैयायिकेन पश्चमभेदतयाऽभ्युपगतो हेत्वाभासो नातिरिक्तः, तुल्यबलसाध्यतद्विपर्ययसाधकहेतुद्वयरूपे सत्यस्मिन् प्रकृतसाध्यसाधनयोरन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणाविनामावाऽनिश्चयेऽसिद्ध एवान्तर्भावात्तस्येति । यथा न्यायमते सव्यभिचारस्य साधारणासाधारणानुपसंहारिमेदेन त्रयो मेदा, न तथा जैनराद्धान्ते, यता पक्षमात्रवृत्तिहेतुरसाधारणोऽभिमता, तस्य साध्येन सहान्ताप्तिसद्भावे सद्धेतुत्वमुररीकृतमेव स्याद्वादिमिः, अत एव प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र पक्षमात्रवर्तिनोऽपि प्रमाणत्वस्य गमकत्वम् , शब्दस्यानित्यत्वे कृतकत्वमेव प्रयोजकम् , न तु शब्दत्वमित्यप्रयोजकत्वादन्ताप्रमावादेवागमकत्वं, तस्य पौद्गलिक. त्वादनित्य एव शब्द इत्यनित्यमात्रवृत्तित्वादनित्यत्वेन सह शब्दत्वस्य व्याप्तिरस्त्येवेति यदि विमाध्यते तदा गमकमनित्यत्वस्य तद्भवत्येवेति न तत्र कोऽपि दोषा, सर्वमनेकान्ता. त्मकं वस्तुत्वादित्यत्र पक्षतावच्छेदकस्य साध्यस्य च केवलान्वयित्वेऽपि सदनुमान मिष्ट. मिति नानुपसंहारिण्यपि कोऽपि दोष इति जैनमते साधारणनि कान्ति कलक्षण एक एव
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ५. सव्यभिचारः, शब्दो नित्या प्रमेयत्वादित्यत्र निर्णीतविपक्षवृत्तिक: अमेयत्वहेतुरनैकान्तिक एव, गगनारविन्दं सुरमि अरविन्दत्वादिस्यत्र हेतुर्न दुष्टा, किन्तु पक्षाप्रसिद्धौवानुमान न सम्मवतीति पक्षासिद्धिस्तत्र पक्षदोष इति । तदेवं सिद्धे च हेतुदोषत्रये तद्रहितत्वा. मिश्चितान्यथाऽनुपपश्येकलक्षपाको हेतुर्गमकोऽभ्युपगन्तव्यः, न तु त्रिलक्षणकः पश्चलक्षणको वा, उक्तदोषमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वात् , सोऽपि गमको न साधर्म्यमात्रात्, न वा वैधHमात्रात्, न वा परस्पराननुविधोमयमात्रात्, किन्तु प्रधानगौणभावेन परस्परस्वरूपा. जहात्तिसाधर्म्यवैधर्म्यरूपात् । नन्वेवं तर्हि केवलान्वयिहेतुना केवलव्यतिरेकिहेतुना च कथं साध्यानुमितिरिति चेत् , उच्यते समाधिः, जैनमते नैव कश्चिदेकान्तेन केवलान्वयी, वस्तु. स्वप्रमेयत्वादिरपि यत्र तत्र यदवच्छेदेन वस्तुस्वप्रमेयत्वादिकं तदन्यावच्छेदेन तदभावोऽपीति वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वलक्षणकेवलान्वयित्वस्य तत्रामावात् , नाप्येकान्तेन कश्चिद् व्यतिरेकी, अन्वयरहितस्य व्यतिरेकस्याप्रसिध्धेः, व्यासरन्यथानुपपनत्वरूपतया तथैः वोपपनत्वरूपतया चाभिधानं भवति, तत्र प्राथमिकी अन्वयव्याप्तिरभिधीयते द्वितीया व्यति. रेकच्याप्तिरिति गीयते, तत्र वस्तुत्वप्रमेयत्वादेाप्तिद्वयसद्भावेऽपि व्यवहारोऽन्वयव्याप्तित एवेति केवलान्वयीति व्यवाहियते, लक्षणाद्यात्मकहेतोश्च व्यवहार इतरभेदसाधने व्यतिरेकब्याप्तित एवेति केवलव्यतिरेकीति व्यवाहियते, तथैवोपपत्तिलक्षणव्याप्तिज्ञानता केवलान्वयिहेतुनाऽनुमितिः,अन्यथानुपपत्तिलक्षणव्याप्तिज्ञानतः केवलव्यतिरेकिहेतुनाऽनुमितिरिति ज्ञेयम्। तारशहेतुरपि नैकान्ततस्मामान्यात्मा,न वा विशेषात्मा,न वा परस्पराननुविद्धोभयात्मा साध्य. साधकः, साध्यमपि नैकान्ततस्सामान्यात्मकं, न वा विशेषात्मकं, न वा परस्पराननुविद्धोभया त्मकं साधयितुं शक्यम् , एकान्तसामान्यात्मकस्य एकान्तविशेषात्मकस्य परस्पराननुविद्धसामान्यविशेषोभयात्मकस्य चार्थस्य पूर्वमेव विस्तरेण निरस्तत्वात् , किन्तु परस्पराजदुत्त्या सामान्यविशेषात्मक एव हेतुस्तदात्मकस्यैव साध्यस्य साधक इत्यभ्युपगन्तव्यमिति ।। ५६ ।।
अथ सामान्यमनुगतबुद्धिहेतुत्वेनानुगतस्वरूपम् , विशेषाश्च विभित्रसामग्रीजायमानत्वेन व्यावृत्तबुध्धिहेतुतया च प्रतिव्यक्तिभिन्नरूपा इति तयोस्स्वरूपं मिथो विभिन्नमेव, अत एव परस्परनिरपेक्षमेवेत्यनूय तन्निराचिकीर्षुस्सरिराह
दव्यट्टियवत्तव्वं सामण्णं, पज्जवस्स य विसेसो।
एए समोवणीया, विभजवायं विसेसेंति ॥ ५७ ॥ " दवट्ठियक्त्तवं सामण्णं " द्रव्यार्थिकवक्तव्यं सामान्यम् , द्रव्याथिकनयमते वक्तव्यं मन्तव्यमभ्युपगमनीयमिति यावत् , विशेषनिरपेक्षं सामान्यमान, यदनुगतबुद्धिविषयः तदेव सद, तद्रूपं च सामान्यमेवेति तदेव सत्, न विशेषा अननुगतत्वात्तेषामित्येवं सामान्यवादित्वात्तस्य, " पअवस्स य विसेसो" पर्यायस्य च विशेषः, पर्यायास्तिक
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सम्मति कान्ड • ३, गा० ५७
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नयमते वक्तव्य सामान्यनिरपेक्षो विशेष एव तन्मते यदेवार्थक्रियाकारि तदेव सत् जलाहरणाच्छादनाद्यर्थक्रियाकारी च घटपटादिविशेषः, न पुनर्घटत्व पटत्वादिसामान्यमिस्यर्थक्रियाकारित्वेन विशेष एव सन्, न तु सामान्यमित्येवं विशेषवादित्वातस्य, एए समोवणीया " " एतौ समुपनीतौ ” एतौ सामान्यविशेषौ अन्योन्यनिरपेक्षौ एकैकरूपतया परस्परप्राधान्येन वा एकत्रोपनीतौ प्रदर्शितौ " विभजवायं विसेसेति " विभज्यवादं सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः कथमित्थमित्याकाङ्क्षानिवृत्तये विभज्य स्वस्वप्रतिनियतनिमित्तं पृथगुपदर्श्य वादः एतन्निमित्तापेक्षया सामान्यात्मकम् एतमिमित्तापेक्षया च विशेषात्मकं वस्त्वित्येवं प्रतिपादनात्मा, इत्यतोऽनेकान्तवादी विभज्यवादः, तं विशेषयतः, अतिशयाते । अयम्भावः- वस्तुमात्रं परस्परानुषक्तसामान्यविशेषोभयात्मकं तथैवाध्यक्षादिप्रमाणेनानुभूयमानत्वात् । न च हेत्वसिद्धिरिति वाच्यम्, यतो नहि पुरुष- सर्प- हेमद्रव्यादिसामान्यावस्था बाल-कुमारादिवक्रो सरलादिकुण्डलमुद्रिकाद्याकारात्मकनानाविधावस्थाः परित्यज्याऽनुभूयते, पूर्वोक्तततदवस्थानुस्यूaaयैव तस्याः प्रतीतेः, बालकुमारादिवक्रोध्र्ष्यादिकुण्डलमुद्रिकादितत्तद्विशेषावस्था अपि नहि पुरुषसर्पमद्रव्यादिसामान्यावस्थाविनिर्मुक्ता अनुभूयन्ते, अनुगतैका कार पुरुषसर्पहेमद्रव्यादिसामान्यानुविद्धतयैव तासां प्रतीतेः एवं तिर्यग्टत्व पटत्वादिसामान्यमतिरिक्तं परिकल्प्य तत्र सामान्यत्वधर्मकल्पनाऽपेक्षया ' धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीति न्यायात् सिद्धघटादिव्यक्तावेव सामान्यत्वकल्पना युक्तेति परस्परसापेक्षसामान्यविशेषोमयात्मक यथार्थ वस्तुस्वरूपप्रतिपादकतयाऽनेकान्तवादं सत्यवादस्वरूपं परस्परनिर पेक्षौ सामान्यविशेषौ अतिशयाते प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितत्वेनाऽसत्यरूपतयाऽनेकान्तवा - दतः तावतिशयं लभेते, अप्रमाणभावं भजेते इति यावत् । विशेषे साध्येऽनुगमाभावतः, सामान्ये साध्ये सिद्धसाधनतया साधनवैफल्यतः । कथं सिद्धसाधनमिति चेत्, इत्थं धूम सामान्यस्य वह्निसामान्येन यद्व्याप्तिग्रहणं तेन सर्वत्र धूमसामान्याधिकरण देशे वसामान्यमवधारितमेव, तस्यैव साधने सिद्धसाधनं स्यादेवेति । प्रधानोमयरूपे साध्ये उमय दोषापत्तितः, अनुभयरूपे साध्ये उभयाभावतः साध्यत्वाऽयोगात्, तथाहि -वस्तु सामान्यस्वरूपं विशेषस्वरूपं वा भवेत् यच्च न सामान्यस्वरूपं न वा विशेषस्वरूपं तत्वरविषाणकल्पं न साध्यं भवितुमईतीति । अनेकान्ते तु न साध्यसिद्धिरनुपपन्ना, कथञ्चिद्वह्निमत्तायाः साध्यत्वेन ' पर्वतो द्रव्यवान्' इत्यादावनतिप्रसङ्गात्, वह्निमत्ताया द्रव्यवत्तासामान्य क्रोडीकृतत्वेऽपि कथञ्चिदतिरेकात्, विवादास्पदी भूतसामान्यविशेषोभयात्मक साध्यधर्माधारधर्मिसिद्धेश्व, अन्यथा ' पर्वतसामान्यं वह्निमत्तयाऽनुमिनोमि इमं पर्वतं वह्निमत्तयाऽनुमिनोमि ' इत्यादि विभज्याध्यवसायाकारानुपपत्तेः, इतरत्र संशयाऽनिवृत्तिप्रसङ्गाच, केवल सामान्यात्मकधर्मिणि साध्यसिद्धावस्मिन्
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ५८-५९ पर्वते वहिरस्ति न वेति संशयो न निवर्तत, एवं पर्वतविशेष साध्यसामान्यस्य पर्वतोऽयं द्रव्यवानित्येवं सिद्धौ पर्वतोऽयं धृमजनकतावच्छेदकेन अहित्वात्मकसामान्यविशेषेण पर्वतीयवहिव्यक्तिविशेषवान वेति संशयश्च न निवतेंतेति । तदेवं विवादास्पदी. भूतसामान्यविशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारधर्मिणि अन्योन्यानुविद्धसाधर्म्यवैधर्म्यस्वभाव. द्वयात्मकैकहेतुप्रदर्शनतो नैकान्तपक्षोक्तदोषावकाशः सम्मत्री, अत एव गाथापचार्थेन-एतौ सामान्यविशेषौ समुपनीतौ परस्परसव्यपेक्षतया 'स्यात्पदप्रयोगतो धर्मिणि अवस्थापितो विमज्यवादं परस्परसापेक्षसामान्यविशेषोभयात्मकवस्तुनो विभज्य पृथक्कृत्य सामान्याद्विशेष विशेषात्सामान्यं परस्परनिरपेक्षतया सर्वथा भेदमवलम्ब्य वादो विभज्यवाद एकान्तसामान्यवाद एकान्तविशेषवादश्व, तं विशेषयतः निराकुरुतः, एवमेव तयोरात्म. लाभात् अन्यथाऽनुमानविषयस्योक्तन्यायतोऽसत्त्वादित्यपि दर्शितम् ।। ५७ ॥
अनुमाने विधेयतयोपन्यस्ते यस्मिन् साध्ये अतिकुशाग्रबुद्धिरपि परप्रवादी एकमपि दक्षणं नोचारयितुं शक्नोति तदेव साध्यं साधयितुं योग्यम्, नापरम् , तच्च स्याद्गर्ममेव, न त्वेकान्तात्मकमित्युपदर्शयमाह
हेउविसओवणीयं, जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ ।
जइ तं तहा पुरिल्लो, दाइंतो केन जिव्वंतो ॥ ५८ ॥ " हेउविसओवणीयं ' हेतुविषयोपनीतम् , हेतुविषयतया हेतुज्ञानजन्यानुमितिविधेयसयोपनीतमुपन्यस्तं साध्यधर्मिलक्षणं वस्तु पूर्वपक्षवादिना "कार्यत्वलिङ्गतश्शब्दोऽनित्यः" इत्येवं "जह वयणिजं" यथा वचनीयं यथा प्रतिपाद्यं ' परो नियत्तेह' परो क्षणवादी निवर्तयति दूषयति, बौधमतेन शब्देऽनित्यत्वस्येष्टत्वेन कार्यत्वस्य कालिकसम्बन्धेन घटत्वपटत्वादिमस्खलक्षणस्याननुगतत्वेन प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणस्यापि च प्रतियोगिमेदेन मिनरूपतयाऽननुगतत्वेन सिद्धसाध्यताऽननुगमदोषाधुपन्यासेन एकान्तवचनीयस्य तदितरधर्माननुषक्तस्यानेकदोषदुष्टतया निवर्तयितुं शक्यत्वात् , ' जइ तं तहा' यदि तसथा द्वितीयधर्माकान्तं, स्यात्पदगर्भमिति यावत् 'पुरिल्लो दाइंतो' पुरिल्लः पूर्वपक्षवादी अदर्शयिष्यत् ततोऽसौ केन जिवंतो' केनाजेष्यत ?, स्यात्पदगम साध्यविशिष्टधर्मिणं दर्शयन् वादी न केनापि जेतुं शक्य इत्यर्थः। तदेवं विजिगीषुणा शास्त्रतत्त्वज्ञेन स्याद्गर्भसाध्यप्रयोग एव कर्तुमुचितः। तदकरणे त्वेकान्तसाध्यस्यासन्चात् तत्पदर्शकोऽसत्यवादितया निग्रहस्थानमवाप्नुयात् ॥ ५८ ॥ एतदेवाह
एयन्तासब्भूयं, सन्भूयमणिच्छियं च वयमाणो । लोइयपरिच्छियाणं, वयणिजपहे पडइ वादी ॥ ५९॥ ..
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सम्मति• काण्ड ३, गा..
' एयन्तासम्भ्यं । एकान्ताऽसद्भूतम् , “ सम्भ्यमणिच्छियं च वयमाणो " सद्भूतमनिश्चित वदन् ' लोइयपरिच्छियाणं ' ( परिच्छयाणं इत्यपि पाठः ) लौकिकपरीक्षकाणां लौकिकाच ते परीक्षकाच लौकिकपरीक्षकाः, तेषां लौकिकानां परीक्षकाणाश्चेत्यर्थः 'वयणिजपहे पडइ वादी' वचनीयपथं वचनीयमार्ग निन्धमार्गमिति यावत् पतति वादी, निन्धमार्गमवाप्नोति वादीत्यर्थः, स्याद्गर्भहेतोः स्याद्गर्भसाध्यं परस्परसामान्यविशेषात्मके पक्षे साधयन् वादी यथार्थतत्ववादितया निग्रहस्थानं तत्ववित्पर्षदि नासाद. यतीति निश्चितान्यथाऽनुपपन्न एव हेतुः पक्षे तेन प्रयोक्तव्यः, तन्मात्रादेव साध्यप्रतिपत्ते, त्रिरूपादिकं विद्यमानमप्यऽकिश्चित्करत्वेन न प्रदर्शनीयम् , इतरथा हेतुगतेतरधर्मा अपि प्रदर्शनीयास्स्युः। प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनात्मकं पञ्चावयववाक्यमपि नैव नियमेन परार्थानुमितिजननोपयुक्तम् , मन्दमतिश्रोत्रपेक्षया तदुपयुक्तत्वेऽपि व्युत्पन्नमतिश्रोत्रपेक्षया तदनुपयुक्तत्वाचस्य, प्रतिज्ञाहेतुमात्रादप्यनुमित्युत्पत्तेः, उक्तश्च प्रमाणनयतवालोकालङ्कारे " पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थानुमानमुपचारात् । ३-२३ ॥ पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्वयमेव परप्रतिपत्तेरझं न दृष्टान्तादिवचनम् ।। ३-२८ ।। इति " ॥ ५९ ।।
अनेकान्तात्मकवस्तुन एवाऽध्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वेनाऽबाधिततया तत्प्ररूपणैव सन्मार्ग इत्युपसंहरमाह
दव्वं वित्तं कालं, भावं पज्जाय-देस-संजोगे।
भेदं च पडुच समा, भावाणं पन्नवणपजा ।। ६०॥ "दवं खितं कालं भावं पजाय-देस संजोगे भेदं च पञ्च" द्रव्यं क्षेत्र कालं भावं पर्याय-देशसंयोगान् भेदं च प्रतीत्य' उक्तानष्टौ भावानाश्रित्य वस्तुनो भेदे सति "समा मावाणं पण्णवणपजा" "समा भावानां प्रज्ञापनापर्या "-समा समानरूपतया भावानां निखिलवस्तूनां प्रज्ञापना प्रकर्षेण प्रत्यक्षादिप्रमाणाऽबाधिततया ज्ञापना प्ररूपणा स्याद्वादात्मिका या सा पर्या पन्था मार्ग इति यावत् , सैव परमार्थ त्या वस्तुतश्वसाधिकेत्यर्थः । तत्र द्रव्यं पृथिव्यादि,क्षेत्रं स्वारम्भकावयवस्वरूपं तदाश्रयं वाऽऽकाशम् ,कालं युगपदयुगपचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गानुमेयम् , नवपुराणभावलक्षणवर्तनात्मकं वा, भावं मूलारादिलक्षणम् , पर्याय रूपादिस्वभावम् , देशं मूलारपत्रकाण्डादिक्रममाविविभागम् , संयोगं भूम्यादिप्रत्येक समुदायम् , भेदं द्रव्यपर्यायलक्षणं प्रतिक्षणविवर्तात्मकं वा, जीवाजीवादिभावानां प्रतीत्य समानतया तदतदात्मकत्वेन प्रज्ञापना निरूपणा या सा सत्पथ इति । यतो न द्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायदेशसंयोगमेदरहितं वस्तु केनचित् प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेनावबोधुं शक्यम् , न च प्रमाणागोवरस्य सत्यवहारयोग्यतेत्येकानेकात्मकत्वेनानुभूयमानं वस्तुमात्रमनेकान्तास्मकमभ्युपेयम्, एवमनुभवसिद्धमप्येकानेकात्मकं वस्तु प्रतिक्षिपन विरोधमीतो वैशेषिको
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सम्मति० काण्ड ३, गा० . नैयायिको वा चित्रपटे चित्रैकरूपमपि कथमभ्युपेयात् , अत्र नव्यनैयायिका अवच्छेदकता. सम्बन्धेन शुक्लादिकं प्रति शुक्लादेः कारणत्वात् चित्रपटे तत्तदवयवगतशुक्लनीलादितश्शुक्ल नीलादिनी नानारूपाण्येवाच्याप्यवृत्तिन्युत्पद्यन्ते, चित्रत्वव्यवहारस्तु परस्परसमानाधिकरणनानारूपनिबन्धन इत्यभ्युपयन्ति । प्राचीननैयायिकास्तु सविषयावृत्तिव्याप्यवृत्तिवृत्तिजातीपानामव्याप्यत्तित्वविरोधाञ्चित्रपटे न नानारूपं, किन्तु विजातीयं चित्ररूपमेवातिरिक्तमभ्युपगच्छन्ति, अत एवैकं चित्ररूपमिति प्रतीत्युपपत्तिः, अतिरिक्तचित्ररूपत्वावच्छिक विषयताकस्पनायां लाघवात् , अन्यथा चित्रमितिप्रतीतेनीलत्वपीतत्वायत्रच्छिमनानाविषयता कल्पनीया स्यादिति गौरवं स्यात्, तदुभयमप्यनुभव विरुद्धं, शुक्लनीलादिनानारूपाणामेकस्य चित्ररूपस्य च चित्रपटेऽनुभूयमानत्वात् , तत्र तत्तदवयवावच्छेदेन शुक्तनीलादिरूपाणां सम्पूर्णावयवावच्छेदेन चित्ररूपस्यैकस्य चैकत्र चित्रपटे वृत्तौ विरोधाभावे. नानुभवानुरोधेन नानारूपसमानाधिकरणचित्ररूपस्य स्वीकार एव ज्यायान् । न चावयव. गत शुक्लनीलादीनामेव परम्परासम्बन्धेनावयविनि प्रतीत्युपपत्तेरवयविनि साक्षात्सम्बन्धेन चित्ररूपमेवैकं रूपं, तथाकल्पनायामवयविगतनानारूपाऽकल्पनेन लापवमिति वाच्यम् , शुक्लादीनां साक्षात्सम्बन्धेनैव तत्रावयविनि प्रतीतेरित्थं बाधकल्पने त्रुटिमात्रगतत्वमेव नीलाधशेषरूपाणां स्यात् , यतस्त्रुटिगतानामेव शुक्लादीनां परम्परासम्बन्धेनावयविनि प्रतीत्युपपत्या तत्र नानारूपाऽकल्पनप्रयुक्तलाघवं सुस्पष्टमेव । यदि साक्षात्सम्बन्धेना. वयविनि शुक्लादिप्रतीतेरनुभूयमानायास्तद्वाधान्नैवमम्युपगन्तुं शक्यं, तर्हि चित्रपटेऽपि साक्षात्सम्बन्धेनैव चित्रप्रतीतेरिव नानाशुक्लादिरूपप्रतीतेरप्यनुभूयमानत्वात् तद्वाधान परम्परासम्बन्धेनावयवगतशुक्लादिरूपविषयकत्वेन तत्रावयविनि शुक्लादिप्रतीत्युपपादनं युक्तिसङ्गतम्, किन्तु साक्षात्सम्बन्धेनैव शुक्लादिविषयकत्वेनैव, एतेन चित्रपटादौ न शुक्लादिविशेषरूप, नापि चित्ररूपं, किन्तु सामान्यमेव रूपं चित्रपटप्रत्यक्षान्यथाऽनुपपत्त्या कल्पनीयम् , अन्यथा प्रत्यक्षम्प्रति उद्भूतरूपस्य कारणत्वेन तदभावे चाक्षुषतत्प्रत्यक्षमेव न स्यादित्यपास्तम् । रूपविशेषाणामभावे चित्ररूपः पट इति प्रतिभासो न भवेत् , किन्तु रूपवान् पट इत्येव स्यात् , यद्यपि अशेषविशेषविनिर्मुक्तं सामान्य नास्त्येवेति तथा कल्पना न सम्भवत्येव, तथापि यदि कश्चिदेवं कल्पयेत् सोऽपि उक्तप्रतिमासामावप्रसक्त्या निरसनीयः, अत्र यथा चित्ररूपः पट इति प्रतिभासो न भवेदिति दोषस्तथा तत्तदवयवावच्छेदेन चित्रपटे चक्षुस्सन्निकर्ष सति शुक्ला पटः पीतः पट इत्यादिप्रतिभासानामनुभूयमानानामभावप्रसङ्गोऽपि दोषः, स चैकाधिकरण्यावच्छिन्नशुक्लादिसमुदाय एव कथञ्चित्समुदाय्य. तिरिक्तं चित्रमिति शुक्लादिग्रहे सत्येव चित्रप्रतिभास इति चित्रप्रतिमासाभावाशुक्लादि. प्रतिमासामावप्रयुक्त एवेति हेतोश्वित्रप्रतिभासामावप्रसत्या शुक्लादिप्रतिमासामावप्रसक्तिरप्याक्षिसेव, यतः शुक्लादीनां द्विव्यादीनां तत्र प्रतिमासे तत्समुदायात्मकस्य
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सम्मति काण्ड ३, गा० ६०
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चित्ररूपस्यापि प्रतिभासस्स्यादेव, तस्माच्चित्रपटे चित्ररूपमिव शुक्लादिनानारूपमप्युररीकर्त्तव्यम् । किश्च यदि चित्ररूपमिव शुक्लादिनानारूपमपि पटे स्वीक्रियते तदा शुक्लाद्येकैकावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे शुक्लाद्येकैकरूपस्य प्रत्यक्षं शुक्लपीतादिनानावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे चित्ररूपस्य प्रत्यक्षमिति विभाग उपपद्यते, चित्ररूपस्यैकस्यैव सद्भावे तु शुक्लाद्येकै कावयवावच्छेदेनापि चक्षुस्सन्निकर्षे चित्ररूपप्रत्यक्षं स्यात्, तत्र तत्सद्भावात्, शुक्लादिनानारूपाणामभावेन तत्प्रत्यक्षं न स्यात् । ननु रूपप्रत्यक्षं तत्र भवत्येव, चित्रत्वप्रत्यक्षे तु परम्परयाऽवयवगतनी लेतररूपपीते वररूपादिग्रहस्य कारणत्वेन शुक्लाऽवयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे शुक्केतररूपग्रहस्याभावेन एवं पीतावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे पीतेतररूपग्रहस्याभावेन कारणाभावादेव न चित्रत्वस्य प्रत्यक्षम्, अत एव च व्यणुकावयवगतरूपस्याऽप्रत्यक्षत्वेन परम्परया त्रसरेणावपि तस्य ग्रहाभावेन तद्रूपकारणाभावात् त्र्यणुकचित्रस्य प्रत्यक्षं न भवतीति स्वीकुर्वन्त्युदयनाचार्याः । यदि च चित्रत्वनिष्ठविषयतासम्बन्धेन प्रत्यक्षे स्वविशेष्यसमवेतसमवेतत्वसम्बन्धेन परम्परयाऽवयवगतनीलेतरपी ते तररूपादिमश्वग्रहस्य हेतुत्वे परम्परया घटावयत्रगत नीलेतररूपादिग्रहस्यापि स्वविशेष्यसमवेतसमवेतत्वसम्बन्धेन चित्रपटगतचित्ररूपगतचित्रत्वे सच्चम् यतः स्वं घटावयवगतनीले तररूपादिग्रहः तद्विशेष्यो घटः तत्समवेतं घटगतचित्ररूपं तत्समवेतत्वं चित्रत्वे, तच्च चित्रत्वं यथा घटगतचित्ररूपे तथा पटगतचित्ररूपेऽपीति तादृशग्रहात्मक हे तो सच्चाच्छुक्लावयवावच्छेदेन चित्रपटेन सह चक्षुस्सन्निकर्षे सति चित्रपटगत चित्ररूपवृत्तिचित्रत्वस्य प्रत्यक्षापत्तिस्स्यादिति विभाव्यते, तदा विशेष्यतासम्बन्धेन चित्रत्वप्रकारकप्रत्यक्षं प्रत्येव परम्परयाऽवयवगतनीलेतरपीतेतररूपादिमध्वग्रहस्य स्वविशेष्यसमवेतत्वसम्बन्धेन हेतुत्वम् एवञ्च घटावयवगतनीलेतररूपादिग्रहस्य स्वविशेष्यसमवेतत्वसम्बन्धेन घटगतचित्ररूप एव सच्यं, न तु चित्रपटगतचित्ररूपे इति न तस्योक्तकारणाभावात् प्रत्यक्षापत्तिः, न चावयवगतनीलेतररूपादिग्रहस्य नीलेतररूपत्वाद्यवच्छिन्न प्रकारताकग्रहत्वेन हेतुत्वं न सम्भवति, यत्रावयवगतनीलेतररूपादेर्न नीलेतररूपत्वादिना ग्रहः, किन्तु पीतत्वनीलत्वशुक्लत्वादिना ग्रहस्तत्राप्यवय विचित्रप्रत्यक्षोत्पत्तिर्भवति, न च तत्र नीलेतररूपत्वादिना ग्रह इति व्यभिचारेण तद्रूपेण चित्रप्रत्यक्षं प्रति कारणत्वासम्भवादिति वाच्यम्, विलक्षणचित्रप्रत्यक्षम्प्रति नीलेतररूपत्वादिना ग्रहस्य कारणत्वं द्विलक्षणचित्रप्रत्यक्षम्प्रति तु नीलत्वापीतत्वादिनाऽवयवगतनीलपीतादिग्रहस्य कारणत्वमित्येवं कार्यतावच्छेदकभेदेन कारणताभेदोपगमे व्यभिचाराऽप्रसक्तेः । अथवा नीलेतररूपादेः पीतादेश्व नीलेतररूपत्वादिव्याप्यधर्मेण ग्रहस्य चित्रप्रत्यक्षे कारणत्वं नीdarरूपत्वादिव्याप्यं च नीलेतररूपत्वं पीतत्वादिकञ्चेति नीलेतररूपादिग्रहस्य पीतादिग्रहस्य च नीलेतररूपत्वादिव्याप्यधर्मप्रकारक ग्रह त्वेनैकरूपेण कारणत्वसम्भवाद्वैलक्षण्यस्य
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ब्रम्मति काण्ड ३, गा० ६० कार्यतावच्छेदकको टावप्रवेशेऽपि न व्यभिचारः, तथा चोक्तकारणाभावात् व्यणुकचित्ररूपप्रत्यक्षं न भवतीत्युदयनाचार्यमतं सङ्गतमेवेति चेत्, अत्र समाधीयते - अवयवगतनीलेतररूपपीतेतररूपादिमवग्रहरूपकारणस्य पूर्वोक्तस्याभावाल्यणुक चित्ररूपप्रत्यक्षानभ्युपगमे चतुरणुकचित्रप्रत्यक्षं न स्यात्, यतो यत्र चित्ररूपं तत्र शुक्लादिनानारूपं यदीष्टं भवता स्याचदा त्र्यणुक चित्ररूपाग्रहेऽपि शुक्लादिरूपग्रहसम्भवेन नीलेतररूपादिग्रहत्वेन तस्य चित्ररूप ग्रहम्प्रति कारणत्वतस्तेन चतुरणुकचित्रप्रत्यक्षं भवदुक्त कार्यकारणभावचलात्सम्भवेदपि, न च तथेष्टम्, तथा च चित्रावयवारब्धचित्रावय विचित्र ग्रहेऽवयवविशेष्य कनी लेतररूपत्वादिव्याप्यचित्रत्वावच्छिन्न प्रकारकग्रहस्यैव हेतुत्वं वाच्यम्, तद्बलात् चतुरणुकचित्रप्रत्यक्षं तदा स्याद्यदि व्यणुकचित्र प्रत्यक्षं भवेत्, न च भवदुक्तकार्यकारणभावे तत् सम्भवतीति विशेष्यतासम्बन्धेन चित्रत्वप्रकारकप्रत्यक्षे परम्परयाऽवयवगतनी लेतररूपादिमवग्रहस्य स्वविशेष्यसमवेतत्वसम्बन्धेन हेतुत्वं न युक्तम्, तथा च सन्निकर्षमात्रस्यैव हेतुत्वेन यदि चित्रावयविनि नानारूपं नाभ्युपगम्यते तदा शुक्लावयवावच्छेदेनापि चक्षुस्सन्निकर्षे चित्रप्रत्यक्षापत्तिस्स्यादेवेति चित्रावयविनि नानारूपमभ्युपेयमिति चित्रावयविनि शुक्लावयवावच्छेदेन शुक्लरूपस्यैव प्रत्यक्षमिति निर्गलितार्थः । यदि चावयविनि शुक्लादिनानारूपस्याभावेऽपि न शुक्लावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे सति चित्ररूपप्रत्यक्षापत्तिः, शुक्लेतरनीलेवर पीतेतररूपादिमदवयवावच्छेदेनेन्द्रियसन्निकर्षस्य चित्ररूपप्रत्यक्षे कारणत्वेन शुक्लावयवावच्छेदेन चक्षुस्सनिकर्षस्थले तदभावात् न च यत्रावयवनीलादिगतनीलत्वादिग्रहप्रतिबन्धक दोषसद्भावस्त श्रावयवनीलाद्यग्र हे चित्ररूपप्रत्यक्षं न भवति, तदपि स्यात्, नीलेतरपीतेतररूपादिमदवयवा बच्छेदेन सन्निकर्षस्य सद्भावात् । यदि च तदनुरोधेनावयव गतनी लेतररूपादिमध्चग्रहस्यापि कारणत्वं तत्रोपेयते तदा त्रसरेणुचित्र प्रत्यक्षानुपपत्तिस्तदवस्थैवेति वाच्यं, अवयवगत नीलादिगतनीलत्वादिग्रह प्रतिबन्धक दोषाभावानामपि चित्रत्वप्रत्यक्षे हेतुत्वाभ्युपगमेन तत्र चित्रत्वप्रत्यक्षापत्तिवारणात् । एवञ्च त्रसरेणुचित्र प्रत्यक्षमप्युपपद्यते, यतो यत्रैकस्य द्व्यणुकस्य नीलं रूपमपरस्य पीतमित्यादिस्थल एव चित्रं त्र्यणुकं भवति, तत्र नीलेतरपी तेतररूपादिमद्व्यणुकात्मकावयवावच्छेदेन व्यणुके चक्षुस्सन्निकर्षो विद्यते, द्वयणुके महश्वाभावादेव न तद्गतनीलादिप्रत्यक्षमिति तत्प्रतिबन्धको दोषस्तत्र नास्तीति तदभावोऽपि विद्यत इति व्यणुकचित्रप्रत्यक्षं तेन स्यादेवेति विभाव्यते, तदा नीलपीतादिव्यक्तीनां भेदात्तद्गतनीलत्वादिग्रहप्रतिबन्धक दोषाणामननुगतत्वात्तदभावानामप्यनेकत्वात्तेषां चित्रप्रत्यक्षे कारणत्वेऽनन्तहेतु. हेतुमद्भावकल्पनगौरवं स्यात्, अतः क्लुप्तेष्वेव नीलादिनानारूपेषु चित्रत्वं व्यासज्यवृत्य. भ्युपगन्तव्यम्, तस्य च समानाधिकरणनानारूपग्रह व्यङ्ग्यत्वमिति नानारूपग्रहे सत्येव चित्रत्वग्रह इति शुक्लाद्ये कावयवावच्छेदेन चक्षुस्सन्निकर्षे शुक्लाद्येकरूपस्यैव ग्रहात्समानाधिकरणनानारूपग्रहरूपव्यञ्जकाभावेन न तत्र चित्रत्वग्रहः । न चैत्रमपि गौरवम्, समानाधिकरणनाना
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सम्मति० काय ३, गा. . रूपाणामननुगतत्वेन समानाधिकरणनीलपीतग्रहा, एवं समानाधिकरणरक्तशुलग्रहः, इत्या. दीनां मिमानां भिन्नरूपेण कारणत्वेनानेकविधकारणत्वप्रसङ्गादिति वाच्यम् । समानाधि. करणनानारूपग्रहाणां भेदगर्भसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन रूपविशिष्टरूप ग्रहत्वेनैकरूपेण कारणस्वस्यैव चित्रत्वप्रत्यक्षम्प्रत्यभ्युपगमेनोक्तगौरवाभावात् । यत्र रूपविशिष्टरूपग्रहो नास्ति तत्र सन्निकर्षमात्राचित्रत्वानवगा व चित्रप्रत्यक्ष भवति। एतच्च परम्परयाऽवयवगत नीलेतरपीतेतररूपादिमत्त्वग्रहस्य चित्रत्वप्रकारकचित्रप्रत्यक्षे हेतुत्वपक्षेऽपि भवदभ्युपगते समानम् , एतत्पक्षे चित्ररूपमतिरिक्तं नास्ति, किन्तु नानारूपाणामेव चित्रत्व जात्या व्यासज्यवृत्तिरूपया ग्रहणे सति चित्रत्वव्यवहारो भवति । यदि च यत्र शुक्लादिनानारूपाण्यत्रयविन्यनुभूयन्ते सत्र नानावयवावच्छि अपर्याप्तवृत्तिकमेकं चित्ररूपमप्यनुभूयते, तस्य चैकावयवावच्छेदेना. भावादेवैकावयवावच्छेदेन चित्राभावप्रतीतिरप्युपपद्यते तदा चित्रावयविद्रव्यस्य शुक्लादिनानारूपस्वभावत्वं चित्रैकरूपात्मकस्वभावत्वञ्चेत्येकानेकचित्रद्रव्यस्वभावः स्याद्वादतच. विद्भिः परिदृष्टोऽभ्युपगन्तव्य एव, तत्र शुक्लादिस्वभावो देशनियतधर्मी, चित्रस्त्रमाव: स्कन्धनियतधर्म इति देशग्राहकसामग्रीत: शुक्लादिग्रहः, स्कन्धग्राहकसामग्रीत: चित्ररूप. स्वभावग्रहः इति कदाचिद्देशावच्छेदेनेन्द्रियसन्निकर्षे शुक्लायेकैकरूपवत्तया शुक्ला पट इत्याकारकं चित्रपटप्रत्यक्षं कदाचिच्च स्कन्धावच्छेदेनेन्द्रियसत्रिकर्षे चित्र: पट इत्याकारक चित्रप्रत्यक्षमिति नियम उपपद्यते, अनयैव दिशा द्विहस्तादिमितेऽवयविनि देशावच्छेदेन क्तिस्त्यादिमितानेकपरिमाणवत्त्वं स्कन्धावच्छेदेन द्विहस्तादिमितैकपरिमाणवत्वमित्येकाने कपरिमाणवत्वमपि स्वीक्रियते, तत्र च नानापरिमाणानि देशनियतधर्मात्मकानि, विवक्षितेकपरिमाणं तु स्कन्धनियतधर्मात्मकमिति देशावच्छेदेन सन्त्रिकर्षे देशनियतवितस्त्यादिपरिमाणस्य प्रत्यक्षं स्कन्धावच्छेदेन सन्निकर्षे स्कन्धनियतविवक्षितपरिमाणस्य प्रत्यक्षम् , एवं चित्ररसस्पर्शगन्धादिस्थलेऽपि ज्ञातव्यमिति दिछ । चित्रद्रव्यमेव स्वसामग्रीप्रभवमभ्युपगन्तव्यम्, तत एवं चित्रतदितररूपोमयस्वभावस्य द्रव्यस्य सम्भवः, न त्ववयवगतशुक्लादिप्रत्येकरूपेणावयविनि शुक्लादिसमानजातीयरूपस्य शुक्लेतररूपादिषट्केनावयवगतेन तत्र चित्ररूपस्य चोत्पत्तिरित्येकान्ताभ्युपगमो युक्तः, तथा सति यत्रैकस्मिन्नवयवे उत्कृष्टं नीलमपरस्मिंश्वापरुष्टं नीलं तदन्यस्मिन्नवयवेऽपकृष्टतरं नीलं तैरप्यवयविनि चित्रस्पमुत्पद्यते, उत्कर्षापकर्षाश्च नीलादिप्रत्येकगता अनन्तप्रकाराः, तैरुत्पद्यमानमपि चित्ररूपमनन्तप्रकारं तत्र नैयायिकपरिकल्पितनीलेतररूपादिषट्कं नास्ति । अथ च चित्ररूपं भवदीति व्यभिचारेण नीलेतररूपादिषट्कस्य चित्ररूपसामान्य प्रति कारणत्वं न सम्भाति, विजातीयचित्रम्प्रति नीलेतररूपादिषट्कस्य कारणत्वं तदन्यविजातीयचित्रम्प्रति उत्कृष्ट नीला अपकृष्टनीलादिसमुदायस्य कारणत्वमित्यभ्युपगमे तरतमभावेन नीलत्वाद्यवान्तरजातिमेदानामनन्तत्वेन तद्वत्समुदायप्रभवचित्ररूपवजात्यानामप्यनन्तत्वेन तत्तद्विजातीयचित्रप्रति
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३८०
सम्मति काम ३, गा• . तत्चद्विजातीयोत्कृष्टापकष्टनीलादिसमुदायस्य कारणत्वेऽनन्तकार्यकारणभावप्रसङ्गतो गौरवं स्यादतो वृद्धिहानिभ्यां पदस्थानपतितवर्णपर्यायवचित्रद्रव्यं स्वसामग्रीप्रभवमेवाभ्युपेयम्, न च तत्र नीलत्वादिकमवयवगतनीलादिकार्यतावच्छेदकं, चित्रत्वश्चोत्कृष्टापकृष्टावयवगतनीलादिकार्यतावच्छेदकम् , पटत्वादिकश्च तन्स्वादिकार्यतावच्छेदकमिस्येवं तत्तकारणनियम्यतत्तत्कार्यतावच्छेदकसमष्टिसद्भावत एकानेकस्वभावचित्रद्रव्यत्वस्यार्थसमाजसिद्धत्वेन न तदवच्छिन्नम्प्रति कस्यचित्कारणत्वमिति चित्रद्रव्यस्य स्वसामग्रीप्रमवत्वाभ्युपगमो न सम्भवतीति वाच्यम्, उक्तदिशाऽर्थसमाजसिद्धतया परसमर्थितस्य निरुक्तचित्रद्रव्यत्वस्य तथामव्यत्वस्य स्वभावविशेषस्य कार्यतावच्छेदकत्व स्वीक्रियते, तथामवत्वस्वभावनलायोत्पद्यमानं तद्रव्यमेकानेकस्वभावमेवोत्पद्यते, न तु तदन्तम्पत्रिष्टनीलवचित्रत्वादिधर्माणां स्वस्वप्रतिनियतसामग्रीबलात्तत्र सम्पत्तिा, अतो वस्तुतो नार्थसमाजसिद्धत्वं निरुक्तचित्रद्रव्य. त्वस्येति । एतेन यत्र शुक्लायेकैकावयवावच्छेदेन चक्षुस्सनिकर्षस्तत्रैकचित्ररूपपक्षे चित्र. प्रत्यक्षापादनं यत्प्राकृतं तन युक्तम्, चित्रप्रत्यक्षजनकतावच्छेदकतया चक्षुस्संयोगगतवैजात्यस्य स्वीकारेण तादृशवैजात्यस्यैकावयवावच्छेदेन चक्षुस्संयोगेऽमावेन तत्र चित्रप्रत्यक्षापत्यसम्भवादिति निरस्तम्, सूक्ष्मेक्षिकयाऽनन्तावान्तरचित्रानुभवादनन्तवैजात्यकल्पनापते. रत्यन्ताप्रामाणिकत्वादिति दृष्टव्यम् । चित्रावयविनि नैकं चित्ररूपं किन्त्वव्याप्यवृत्तीनि शुक्लनीलादीनि नानारूपाण्येवेति नव्यनैयायिकमतेऽन्यवयवगतोत्कृष्टापकृष्टनीलाभ्यामवयविन्यवच्छिन्नयोरुत्कृष्टापकृष्टनीलयोरुत्पत्तिः स्यात्, तत्चदवयवावच्छिन्नोत्कृष्टनीलम्प्रति कारणस्य तत्तदवयवगतोत्कृष्टनीलस्य तत्तदवयवावच्छिभापकृष्टनीलम्प्रति कारणस्य तत्तदवयवगतापकृष्टनीलस्य च सत्चात्, तथा समवायसम्बन्धेन नीलम्प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलं कारणमिति तद्घटितसामान्यसामग्रीवलादनवच्छिमस्य नीलस्य चोत्पत्तिा प्रसज्येत, यदि च अवयविगतनीलतरत्वाधवच्छिन्नं प्रति अवयवगतनीलतरत्वादिनाऽवयवगतनीलतरादेरेव कारणत्वमुपेयते, न तु नीलम्प्रति नीलस्य सामान्यतः कार्यकारणभाव इति न तत्रानवच्छिन्नस्य नीलस्योत्पत्तिः, तदा एतावत्कारणसमुदायलक्षणसामग्रीसचे नीलत्वावच्छिन्नस्योत्पत्तिरिति निश्चयाभावलक्षणाकस्मिकत्वतो नीलत्वावच्छिन्नार्थितया प्रवृत्तिविरह आसज्येत, यत्र चोत्कृष्टापकष्टनीलादिलक्षणावच्छिन्ननीलविशेषाः प्रतीयन्ते तत्रानवच्छिन्नं नीलसामान्यमपि प्रतीयते तादृशप्रतीतेर्नीलसामान्यानुत्प. तावनुपपद्यमानत्वं स्यात् , यत्र च पटे केवलशुक्लमेव रूपं, तत्रापि स्वल्पबह्ववयवावच्छेदेने. न्द्रियसन्निकर्षेऽणुमहत्वोपेतशुक्लविशेषास्तदनुषक्तं शुक्लसामान्यं च प्रतीयत एवेत्येकानेकरूपविशिष्टतया द्रव्यप्रतीतिरेकानेकवर्णविशिष्टद्रव्यपरिमाणाभ्युपगम विना न कथमपि सम्भवतीत्येकानेकस्वरूपद्रव्याभ्युपगमः स्याद्वादिनः प्रमाणचूलामवलम्बते । एतेन चित्ररूपस्य व्याप्यवसेरेकस्याभ्युपगमपक्षे रूपमात्रस्य सर्वत्र व्याप्यचेरेवाभ्युपगमाम तस्य
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सम्मति का , गा० .
३८१ किञ्चिदवच्छेदेन प्रत्यक्षं, यदुपपत्तये कारणान्तरं कल्पनीयं भवेत् , अव्याप्यतिनीलाधम्यु. पगमपक्षे तु किश्चिदवच्छेदेन तत्प्रत्यक्षोपपतये कारणान्तरं कल्पनीयमिति गौरव मिति न, यतोऽव्याप्यत्तिसंयोगादिप्रत्यक्षानुरोधेन अन्याप्यत्तिद्रव्यसमवेतनिष्ठविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति चक्षुरिन्द्रियस्य स्वसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धा. बच्छिमाधारतासन्निकर्षेण यत्कारणत्वं तेनैवाव्याप्यवृत्तिनीलादिप्रत्यक्षस्य सम्भवे न तदर्थ कारणान्तरं कल्पनीयं, यत्र नीलपीतकपालिकाभ्यामेकं नीलपीतोमयरूपवत्कपालं द्वितीयमपि तथाविधमेव कपालं ताभ्यामारब्धस्य घटस्य नीले नीलकपालिकैव परम्पराsवच्छेदिकेत्युक्तसभिकर्षतश्चक्षुषा तत्प्रत्यक्षमप्युपपद्यत इति निरस्तम्, शाखामूलोभयावच्छेदेन वृक्षे दीर्घतन्तुसंयोगस्यानुभवसिद्धस्य प्रत्यक्षे चक्षुषो यथा स्वसंयोगावच्छेदकशाखामूलोमयावच्छिमसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतासभिकर्षण कारणत्वं तथा नीलनीलतरोभयाद्यवयवावच्छिन्नविलक्षणरूपस्यानुभवसिद्धस्य प्रत्यक्षे चक्षुषः स्वसंयोगावच्छेदकनीलनीलतरोभयपर्याप्तावच्छेदकताकसमवायसम्बन्धावच्छिनाधारतासभिकर्षण कारणस्वकल्पनस्यावश्यकत्वात् , यदि चोक्तसंयोगस्थले नैकः संयोगोऽवयवद्वयावच्छिन्ना, किन्त्वेकैकावयवावच्छिन्नसंयोगद्वय एव, एवं नीलनीलतरावयवोभयावच्छिन्नमपि न विलक्षणेकरूपं, किन्तु नीलाक्यवावच्छिन्ननीलमवयविन्यन्यदन्यच्च नीलतरावयवावच्छिन्नं नीलतरमिति न नीलनीलतरोमयपर्याप्तावच्छेदकताकसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतासभिकर्षकल्पनस्यावश्यकत्वमित्युच्यते, तदा सजातीयविजातीयपदार्थेषु जायमानं समूहालम्बनं शानं यथैकं तथा नीलनीलतरावयवरूपैश्च सर्वैरवयविनि स्वस्वावच्छेदेन समुत्पद्यमानं रूपमविरोधायापकमेवोत्पद्यत इति वृत्तिकृतोऽमिमतमसङ्गतमापयेत, ननूपदर्शितसंयोगस्थले तत्तदवयवावच्छेदेन संयोगद्वयमप्यनुभूयते कात्स्ये नैकसंयोगोऽप्यनुभूयत इत्येकानेकसंयोगकल्पनं तथैवैकानेकरूपकल्पनमपि युक्तमेवेत्युच्यते तदैकानेकस्वरूपवस्तुस्वीकर्वस्याद्वादिन एव जेतृता, एतेन नानारूपवदवयवाररुधे व्याप्यवृत्तीन्येव नीलपीतादीन्युत्पद्यन्ते, नीलादिकं प्रति नीलेतरादिप्रतिबन्धकत्वनीलादिकारणत्वकल्पनापेक्षया व्याप्यत्तिनीलादिकल्पनाया एव न्याय्यत्वादित्यपि परेषां मतं निरस्तम्, नीलकपालावच्छेदेन चक्षुसभिकर्षे पीतायुपलम्भापत्तेरपि तत्र दोषत्वात् , तदाहुः सम्मतिटीकाकृत:-" आश्रयव्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽप्यवयविन्युपलभ्यमानेऽपरावयवानुपलब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात् , सर्वरूपाणामाश्रयव्यापित्वादिति "। न च नीलाद्यवयवावच्छिमसन्निकर्षस्य नीलादिप्राहकत्वकल्पनया न दोषः, यत्र नीलपीतकपालिकाभ्यां नीलपीतरूपद्वयवत्कपालमेकमपरश तथा ताभ्यां नीलपीतोमयवद्घटस्योत्पत्तिा, तत्र निरुक्तघटे नीलरूपस्य पीतकपालिकावच्छिन्ननीलपीतोमयकपालावच्छेदेन चक्षुस्सन्त्रिकर्षात्प्रत्यक्षापत्तेः । नीलग्राहकस्य नीलपीतोभयरूपवत्कपालात्मकनीलावयवावच्छिन्नसनिकर्षस्य सद्भावात् , न च नीलप्रत्यक्षे
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सम्मति काण्ड रे, गा० ६१
hreatoranवावच्छिन्नसन्निकर्ष एव कारणमिति नीलपीतोभयवत्कपालस्य केवलनीलावयवरूपत्वाभावात्पीत कपालिकायाश्च नीलरूपवस्वस्यैवाभावान्न पीतकपालिकावच्छिन्ननीलपीतोमय कपालावच्छेदेन सन्निकर्षाद् घटनीलप्रत्यक्षापत्तिरिति वाच्यं यत्र नीलपीतपरमाणुयामेकं नीलपीतोभयवद्व्यणुकं तथा द्वितीय तथा तृतीयं च व्यणुकमुत्पन्नं, तैथ त्रिभिर्नीलपीतो भवद्भिणुकैर्नीलपीतोभयवणुकमुत्पद्यते तस्य त्रसरेणोनलस्य प्रत्यक्षं न स्यात्, daarata व्यणुकस्य केवलनीलत्वाभावेन तदवच्छिन्नत्रसरेणुचक्षुस्सन्निकर्षस्य केवलनीलावयवावच्छिन्नसन्निकर्षत्वाऽभावात्, नीलपरमाणुरूपावयव परम्परावच्छिनत्रसरेणुचक्षुस्सभि कर्षस्य केवलनीलावयवावच्छिन्नसन्निकर्षरूपत्वेऽपि तस्य परमाणुसन्निकर्षस्येव द्रव्याग्राहकत्वेन तद्गतरूपाग्राहकत्वादिति, यथा चोतदिशा एकानेकतया रूपस्य चित्रत्वं व्यवस्थितिपद्धतिमेति तथा वस्तुमात्रेऽपि, ग्राह्ये यथा चैकानेकतया चित्रस्वभावत्वमनुभवसिद्धं तथा ग्राहके ज्ञानेऽपि तत्राखण्डाया एकाकारतायाः सखण्डानाश्च नानाप्रकारताविशेष्यतासांसर्गिकविषयतानां परनिरूपितानां शुद्धानां चानुलोमप्रतिलोमभावेन समान संवित्संवेद्यतानियामक वैचित्र्यशालिनीनाश्च बह्वीनामनुभवात्, अत एव " सावज्जजोगविरओ तिगुत्तो छसु संजओ, उवउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होइत्ति " सप्तनयात्मक महावाक्यार्थजज्ञाने एका विशिष्टा प्रमाणाकारता अनेकाचांशिक्यो नयविषयताः परस्परसंयोगजाथ बहयोऽनुभूयन्त इति, यदा च चित्ररूपदृष्टान्तावष्टम्भेन सर्वेषां ग्राह्माणां ग्राहकाणाश्वाने कान्तात्मत्वं प्रमाणकोटिमाटीकते तदा तन्निराकरणं चित्रे एकानेकस्वरूपं रूपं प्रामाणिकमभ्युपगयायिकवैशेषिकैः कर्तुमशक्यमिति सुष्ठुक्तम्
ર
" चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
योगो वैशेषिको वाsपि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ १ ॥” इति ॥ ६०॥ ये तु स्वीयागमसूत्र तात्पर्यविवेचनाऽकुशलिनः प्रत्यक्षादिप्रमाणवाधितार्थस्याप्यागमस्यान्धपरम्परान्यायेन प्रामाण्यमाश्रयन्ति ते परमार्थदृष्ट्वाऽनवगतसूत्र तात्पर्यार्था एवेति प्रतिपादयितुमाह
पाडेक्कनय पहगयं, सुत्तं सुत्तहरसहसंतुट्ठा |
अविकोवियसामत्था, जहागमविभत्तपडिवत्ती ॥ ६१ ॥
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" पाडेक्कनयपहगयं सुत्तं " प्रत्येकनयपथगतं सूत्रम् - एकैकसङ्ग्रहादितत्तन्नय प्रसृततत्तस्परवाद्यागमगतं सूत्रं ' अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ' जन्माद्यस्य यतः ' इत्यादिवेदान्तदर्शनसूत्रं, ' अथातो धर्मजिज्ञासा ' ' चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' इत्यादिमीमांसादर्शनसूत्रम् ।
धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधयां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ ४ ॥ इत्यादि वैशेषिकदर्शनसूत्रम् ।
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सम्मति काण्ड ३, गा० ६२
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प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्त सिद्धान्तावयव तर्कनिर्णय वा दजल्पवितण्डा हेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानाद् निःश्रेयसाधिगमः ॥ १ ॥ इत्यादिनैयायिकदर्शनसूत्रम्, परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः । १ । इत्यादिचार्वाकमतसूत्रम्, " क्षणिकाः सर्वसंस्कारा विज्ञानमात्रमेवेदं भो जिनपुत्राः । यद् इदं त्रैधातुकं " इति " ग्राह्यग्राहकोभय1 शून्यं तवम्" इति बौद्धदर्शन सूत्रश्चाधीत्य " सुत्तहरसद संतुडा सूत्रधरशब्द सन्तुष्टाःसूत्रधरा वयम्' इति शब्दमात्र सन्तुष्टा अखर्वगर्व गर्विष्ठाः, ' अविकोवियसामत्था ' अविकोविदसामर्थ्या:- विशिष्टाः कोविदाः पण्डिता विकोविदाः पण्डिततमाः, न विकोविदा इत्यविकोविदाः, तेषां सामर्थ्यमिव सामर्थ्यं येषां ते अविकोविदसामर्थ्याः, अविदितसूत्रान्तर्गतपरमरहस्यभूतभावार्थाः । कथं ते तथाविधा इत्याशङ्कायां तत्र हेतुमाह — यथागमविभत्तपडिवत्ती - अत्राकारमश्लेषाद् यथागमाविभक्तप्रतिपत्तयः आगममनतिक्रम्येति यथागमं यथाश्रुतमित्यर्थः यथागममेवाविभक्ता अविविक्ता प्रतिपत्तिर्बोधो येषां ते तथा, यस्मिन्नर्थे सूत्राभिप्रायस्तदनभिज्ञत्वेन तद्व्यतिरिक्तविषयप्रतिपत्तित्वादितरजनवत्, तत्तन्नयाधीन सप्तभङ्गथादिसङ्घटितयथार्थसूत्रार्थवियेवनतत्परबुद्धिहीना इत्यर्थः । अथवा स्वयूथ्या एव एकनदर्शनेन कतिचित्सूत्राणि अधीत्य केचित् ' सूत्रधरा वयम्' इति गर्विता यथावस्थिताऽन्यनयसव्यपेक्षसूत्रार्थापरिज्ञानाद् अविदितस्ववैदुष्यस्वरूपा यथागमाविभक्तप्रतिपचय इत्यभिप्राय: ॥ ६१ ॥
अन्यनयानपेक्षैकनयमाश्रित्य सूत्राभिप्रायं व्यावर्णयतां तेषां दूषणोपदर्शनायाहसम्म हंसणमिणमो सयलसमत्तवय णिज्वणिद्दोसं । अतुक्कोसविणट्ठा सलाहमाणा विणाति ॥ ६२ ॥
' सम्महंसणमिणमो' सम्यग्दर्शनमेतत् तर्हिक स्वरूपमित्याशङ्कायामाह - 'सयलसमत्तवणिणिद्दोसं 'सकलसमाप्तवचनीयनिर्दोषम् - गजनिमीलिकान्यायेन परस्परस्वविषयेतरविपयापरित्यागप्रवृत्ताशेषतत्तन्नयगोचरजिनप्रज्ञप्ताशेष भावविषयकसमूहालम्बनज्ञानविशेषात्मकं सम्यग्दर्शनम्, तच्च स्यान्नित्यमित्यादिसकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयतया निर्दोषम् निरुक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनं स्यात्पदघटितमेव वचनं प्रवर्त्तयति, स्यात्पदञ्च तत्रैकैकधर्मप्रतिपादकवचनघटकमपि सदनेकान्तद्योतकत्वात्सकलानपि धर्मानवबोधयतीति तद्वदितं स्यानित्यमित्यादिवचनं सकलधर्मप्रतिपादकत्वलक्षणसकलधर्म परिसमाप्तत्ववदिति तत्प्रवर्त्तकं सम्यग्दर्शनं सकलधर्म परिसमाप्तवचनीयं तच्चेन च निर्दोषम् । ननु स्यात्पदघटितं वचनं सकलधर्मप्रतिपादकं चेत्तर्हि सकलधर्मान्तर्गताऽनभिलाप्यधर्मप्रतिपादकमपि स्यात्, ओमिति चेर्हि वचनप्रतिपाद्यत्वादनभिलाप्यभावा एव न स्युरिति चेद्, मैवम्, थतोऽनभिलाप्यमावा अपि स्वस्वासाधारणधर्मस्वरूपेणानभिलाप्याः, न तु प्रमेयत्वादिस्वरूपेणापि,
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सम्मति० काम ३, गा० ११ अन्यथा प्रमेयत्वादिविकलास्ते शशशृङ्गकल्पास्स्युः । अत एवानभिलाप्यमावे प्रमेयत्वादिना स्याद्वक्तव्यः स्वासाधारणधर्मस्त्ररूपेण स्यादवक्तव्य इत्यादिसप्तमङ्गीसङ्घटना युज्यते, नान्यथेति । तरिक कुर्वन्तीत्येवं कियाकाङ्क्षायामाह-' विणासेंति' विनाशयन्ति, ते के इत्याशङ्कायां तत्कर्वभूतपदमाह-' अत्तुकोसविणट्ठा सलाहमाणा' आत्मोकर्षविनष्टा: श्लाघमानाः। अयम्भाव:-एकनयवादिनस्त्वविषये सूत्राभिप्राय व्यावर्ण्य सूत्रचरितार्थीकरणेनात्मोत्कर्षेण विनष्टा अनेकान्तकरम्बितवस्तुबोधं प्रत्यनादरभावप्रदर्शनेन स्याद्वाद. तत्वप्रतिपादकागमनत्यनीकाः 'वयं सूत्रधराः' इत्येवं स्त्रं प्रशंसन्तः सम्यग्दर्शनं न स्वात्मनि व्यवस्थापयन्ति ॥ ६२ ॥
अथ न ते आगमप्रत्यनीकास्तद्भक्तत्वात् तद्देशपरिज्ञानवन्तश्चेति कथं तविनाशपन्तीत्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह
न हु सासणभत्तीमत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ।
न विजाणओ वि णियमा पण्णवणाणिच्छिओ णामं ॥ ६ ॥ 'न हु सासणभत्ती' इत्यादि-न खलु शासनभक्तिमात्रेण सिद्धान्तज्ञाता प्रमाणगोचरानन्तधर्माध्यासितैकैकवस्तुप्रतिपादकस्याद्वादसिद्धान्तस्य ज्ञाता भवति, न च सिद्धान्तप्रतिपाद्यस्याद्वादगर्भयथाऽवस्थितवस्तुतवपरिज्ञानमन्तरेण भावसम्यक्त्वम् , जिनप्रज्ञप्तभिन्नाऽपेक्षाऽविरुद्धनित्यानित्यत्वादिस्याद्वादधर्माङ्कितनिखिलभावावगाहिसमूहालम्बनापायज्ञानात्मकरुचिरूपत्वात्तस्य, स्याद्वादतचरूपेणाज्ञातस्यार्थस्य तद्रूपेण रुचिविषयत्वानुपपत्तेः, अतथाभूतार्थज्ञानस्य च परमार्थदृष्ट्याऽवग्रहादिरूपतयाऽनेकान्तविषयस्यापि तदावरणदोषेणानेकान्तविषयकत्वेनानुल्लिखितस्य तथा रोचयितुमशक्यत्वात् , यच्चासादृशां प्रमादग्रस्तानां प्रवचनानुराग एव शुभोपाय इति मन्यमानानां शासनभक्तिमात्रेण श्रद्धानुसारिणां सम्यक्त्वं तत् 'सत्संख्यादिमार्गणास्थानस्तनिर्णयो भावसम्यक्त्वं, सामान्यतस्तु द्रव्यसम्यस्वम्' इति झानबिन्दुवचनात् तेषामोघतो प्रवचनानुरागमात्रेण " तदेव सत्यं निश्शई यजिनेन्द्रैः प्रवेदितम्" इति ज्ञानाहितवासनारूपं द्रव्यसम्यक्त्वमेवेति जानीहि, 'ण विजाणओ वि णियमा पण्णवणानिच्छिओ णाम' न विज्ञातापि जीवादितत्वैकदेशविज्ञातापि, नियमात् प्रज्ञापनानिश्चितो नाम-नामेति कोमलामन्त्रणे, अनेकान्तात्मकवस्तुस्त्ररूपयथार्थप्ररूपणायां निश्चितो भवति, एकदेशज्ञानवतस्सकलपर्यायविशिष्टवस्तुज्ञानविकलतया सम्यक तत्प्ररूपणाऽसम्भवात् , तथा च पूर्वापरैकवाक्यतया सकलानन्तधर्मात्मकजीवादितत्त्वप्रतिपादकत्रसन्दर्भस्य प्रमाणनयद्वारेण प्रवृत्तस्य तात्पर्यज्ञातैव सिदान्तज्ञाता, न पुनरपरिहृतविरोधतदेकदेशज्ञाता, तस्यैकनयद्वारा प्रवृत्तत्वात् , अत एव न स स्याद्वादग्ररूपणायां सम्यक् समर्थ इति सिद्धम् । जीवाजीवानवादिसप्तपदार्थतत्वनिरूपणं बृहवीकायामसत्कृत
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ब्रम्मति का है, गा० ६४
तच्चार्थप्रथमाध्यायविवरणटीकायां च विस्तरेण कृतमिति तत एव चावसेयम् ग्रन्थगौरवभीत्या नेह प्रतन्यते ॥ ६३ ॥
अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोममनवद्यञ्च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ १ ॥ इति लक्षणं सूत्रम्, अत एव महापुरुषप्रणीतत्वेन गम्भीरार्थमिति न तन्मात्रं प्रमाणनय गर्भतात्पर्यार्थबोधक्षमम्, किन्तु पदार्थ वाक्यार्थ महावाक्यार्थेदम्पर्यार्थ मेदभिन्नव्याख्यानद्वारैवेति प्रतिपादयितुमाह
सुत्तं अत्थनिमेणं न सुत्तमेत्सेण अत्थपरिवत्ती । अस्थाई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥ ६४ ॥
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सुतं ' अल्पाक्षरैर्बह्रर्थान् सूचयतीति सूत्रम् ' अस्थनिमेणं' अर्यते परिच्छिद्यत इत्यर्थः, स च द्विविधः, तत्रैकोऽर्थस्सूत्रेण सूत्रितः साक्षात्सूत्रस्याऽभिधेयः, द्वितीयश्च सूचितोऽपयाक्षिप्त, सामर्थ्यगम्य इति यावत्, अत एव चतुर्दशभिरपि पूर्वैः कश्चित्साक्षाद, कचित्तु गम्यतया सर्वोऽप्यभिलाप्यः पदार्थोऽभिधीयत एवेति विशेषावश्यकटीकोक्तं सङ्गच्छते, तस्य निमेनं स्थानं सूत्रम्, अनन्तार्थभृतमेव सूत्रम्, अर्थप्रतिपत्तित्र न निर्युक्त्यादिनिरपेक्षसूत्रमात्रेण, 4 यतुः मूअं केवलसुत्तं जीहा पुण होइ पायडा अत्थो ॥ १५५ ॥ इत्युपदेशरहस्यो क्तेर्व्याख्यानरहितं सूत्रं मूकं मूकपुरुषतुल्यम् कस्यचिदर्थस्यावाचकम्, सूत्रमात्रेण प्रमाणतत्तभयगर्भतास्विकार्थाऽप्रतीतेः, अर्थः पुनः प्रकटा जिह्वा, परावबोधहेतुत्वात् । अर्थः पुन:-" पयवकमहावकत्थमेदपजं च एत्थ चत्तारि । सुयभावावगमम्मि हंदि पगारा विणिदिट्ठा || ८५९ ॥ " इत्युपदेशपदोक्तेः सूत्रभावावगम हेतु भूतः पदार्थवाक्यार्थमहावाक्यार्थेदम्पर्यार्थभेदेन चतुर्द्धा भणितः । तत्र पदार्थो यथाश्रुतार्थः, पद्यते गम्यतेऽर्थः सामान्यरूपोऽचालिताऽप्रत्यवस्थापितो येनेति व्युत्पत्तेः । तदाह - " अत्थपदेण हु जम्हा एत्थ पर्य होह सिद्धं " इति । वाक्यार्थो दूषणोक्तिलक्षणचालनात्मकः, महावाक्यार्थश्च युक्त्या दूषणपरिहारलक्षण प्रत्यवस्थानायोच्चरितस्य वाक्यसमूहात्मक महावाक्यस्यार्थः, ऐदपर्यार्थ तात्पर्यार्थः । एवं प्रतिसूत्रमुक्तक्रमेण व्याख्याने निश्चितप्रामाण्यकं सम्यग्ज्ञानं व्युत्पस्य निराकाङ्क्षप्रतीतिरूपं स्यात्, तच्च वाक्यार्थादिज्ञानं शब्दप्रयोज्यमतिरूपं श्रुतज्ञानाभ्यन्तरं वते श्रुतवृद्धाः, अत एव समानाक्षरलामानां चतुर्दशपूर्वविदामपि षट्स्थानपतितत्वं यथोक्ताक्षरलामानुसारिभिरेव तैस्तैर्गम्यार्थविषयकैः क्षयोपशमवैचित्र्याद्विचित्रतिविशेषैश्रूयते, तथा चोक्तं विशेषावश्यकभाष्ये - " अक्बरलम्भेण समा ऊनहिया होंति मईवि सेसेर्हि । ते वि य मईविसेसे सुचना मंतरे जाण । १४३ ।" इति । 'अत्थो वक्खाणं विय एगट्ठा ।। ८५६ ॥ इत्युपदेशपदवचनाद् जिह्वातुल्यनिर्युक्यादिव्याख्यानात्म
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सम्मति• काण्ड ३, गा० ६५ कार्थसापेक्षसूत्रेण निश्चितप्रामाण्यकतात्पर्यार्थप्रतीतिः, न तु सूत्रमात्रेणेत्याह - न सुत्तमेत्तेण अस्थपडिवत्ती' न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः, निस्सीमसिद्धान्ताचाधितपरमार्थग्राहिबुद्धिरत्ननिधिसुगुरुपरम्पराविदितस्त्रार्थभावाचार्यकृतव्याख्यानरहितेन सूत्रेणार्थप्रतिपत्तिः पौर्वापर्यावाधितार्थप्रतिपत्तिर्न, अविवृतेन सूत्रेणायथार्थप्रतीतेरपि भावात् । यथाऽवस्थितार्थ. प्रतिपत्तिस्सूत्रमात्रेण दुश्शक्येत्यत्र हेतुगर्भविशेषणमाह 'अत्थगई पुण णयवायगहणलीणा' ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति वचनाद् अर्थगतिः अर्थस्य यथाऽवस्थितस्य गतिः प्रतिपत्तिः पुनर्नयवादगहनलीना, “नथि गएण विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किश्चि" इत्युक्तेः शतशतप्रभेदविशिष्टैकैकनैगमाजुसूत्रादिनयभेदविशिष्टद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयवादावेव गहनं विपिनम् , तत्र लीना तद्याप्ता तद्विषयविषयिकेति यावत् , अत एव 'दुरभिगम्मा' दुरधिगम्या दुरवयोधेत्यर्थः ॥ ६४ ॥ __ अशेषतत्तभया अतिसूक्ष्मविषमतमार्थविषयकत्वेन कुशाग्रबुद्धिभिरेवाक्सेया इति तत्सटितसूत्रार्थप्रतिपत्तिरपि मन्दमेघसा दुश्शक्येत्यतोऽधीतसूत्रेणार्थसम्पादने विधिनाधिकतरो यत्नः कर्त्तव्यः, यतोऽर्थशुद्धरुभयविशुद्धिस्सूत्रार्थोभय निर्मलतारूपा सम्पद्यते, अन्यथा विपरीतशास्त्रार्थप्रतिपत्तिलक्षणविपर्यासाद्यापत्तेश्शासनमालिन्यकारित्वं स्यादित्याशयेनाह
तम्हा अहिगयसुत्तेण, अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं ।
आयरियधीरहत्था, हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥ ६५ ।। ' सम्हा अहिगयसुत्तेण' तस्मात् सूत्रादर्थो बलीयानिति हेतोः, अधिगतसूत्रेण अधिगतमधीतमशेष सूत्रं येनासौ अधिगतसूत्रः, तेन, ' अत्थसंपायणम्मि जइयवं' अर्थसम्पादने, अर्थविषयकप्रमाणतत्तन्नयस्वरूपावधारणे, यतितव्यं दृढयत्नपरेण भाव्यम् , दृढी यत्नः कर्तुमुचित इति यावत् । अधीत्य सूत्रं तत्तन्नययुक्तितत्तत्प्रतिस्पर्धि नययुक्ति. संवादः श्रोतव्यः, श्रुत्वा च सर्वनयसंवादविनिश्चयपरिशुद्धयथावस्थितार्थतया सूत्रं भाव. नीयम्, प्रमाणपरस्परसापेक्षतचन्नयापेक्षानेकान्तार्थप्रतिपादकतया सूत्रयथावत्तात्पर्यभावनाऽकरणे शासनविडम्बनाकारित्वदोषप्रतिपादनायोत्तरार्द्धमाह-" आयरिपधीरहत्था " आचार्यधीरहस्ताः, धीरो लज्जाविनयशिक्षाकलादिरहितत्वेन धृष्टताशाली हस्तो येषां ते धीरहस्ताः, आचार्याश्च ते धीरहस्ताश्च आचार्यधीरहस्ताः, यथा केचिदनभ्यस्तकर्माणोऽपि धृष्टतया कर्मणि व्यापृतहस्ताः तथा सद्गुरूपासनादिभिरशिक्षिततत्तनयगर्भशास्त्रार्था अपि शास्त्रार्थविवेचने धृष्टतया व्यापृताः, एवम्भूताऽऽचार्याः किं कुर्वन्तीत्याशङ्कायामाह-" इंदि महाणं विलंबेति" महाऽऽज्ञामातशासनं विडम्बयन्तीति ज्ञायताम् , तदेवमनधीताऽश्रुत. यथावदपरिभावितागमतात्पर्या जिनशासनं विगोपयन्तीति सिद्धम् ॥ ६५ ॥
बहुश्रुतत्वादिदर्यात्सूत्रतात्पर्यानवयोधादनिश्चितशास्त्रार्थस्य सिद्धान्तप्रत्यनीकत्वमाह
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सम्मति काण्ड ३, ० ६६
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जह जह बहुस्सुओ संमओ अ, सिस्सगणसंपरिवुडो अ । अविणिच्छिओ अ समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥ ६६ ॥ 4 जह जह बहुस्तुओ ' यथा यथा बहुश्रुतः परिपठितवह्नागमः श्रुतपल्लरग्राहितया बहुश्रुतत्वख्यातिमानिति यावत्, 'संमओ अ' सम्मतच सिद्धान्तोपनिषद्विचारचतुरजनाविदितशास्त्राभिप्रायाणां गतानुगतिकप्रवाहपतितानां तदनुवर्तिनां चान्येषां बाह्याडम्बरदर्शनमात्रोदितविस्मयानां मुग्धमतीनां च शास्त्रज्ञत्वेन बहुमतः, 'सिस्मगणसंपरिवुडो अ शिष्यगण संपरिवृतश्च शास्त्रतच्चानभिज्ञैर्विनेयवृन्दैः समन्तात् परिवृतश्च 'अविणिच्छिओ अ ' अविनिश्चितच तथाविधपरिवार दर्पाच्छास्त्र पर्यालोचनेऽनादराद विनिश्चितागमैदम्पर्यथ, यद्वा सम्यगपरिणतश्च प्रवचने ऐदम्पर्याऽज्ञानात् विरत्यप्रहृत्वाच्च, ' तह तह सिद्धतपडिणीओ तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः, यथावदपरिभावितागमतात्पर्य स्सोऽपरिणतदेशनया यथास्थितसिद्धान्तस्य विपर्यासापादनान्मुग्धजनानामश्रद्धोत्पादकत्वेन वस्तुस्थित्या सिद्धान्तविनाशकः, अन्यागमेभ्यस्तलाघवापादनादिति । अभिहितञ्च सिद्धान्ते
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'सव्वन्नूहि पणीयं, सो उत्तममइसएण गंभीरं । तुच्छकहणार हिट्ठा, सेसाण वि कुणइ सिद्धतं ॥ १ ॥ अविणिच्छिओण सम्मं, उस्सग्गाववायजाणओ होइ । अविसपओगओ सिं, सो सपरविणासओ नियमा ॥ २ ॥ " इति ।
तदर्थश्चायम् - सर्वज्ञैः प्रणीतं सोऽविनिश्चित उत्तमं प्रधानमतिशयेन गंभीरं भावार्थसारं तुच्छकथनया अपरिणतदेशनयाऽधः शेषाणामपि सिद्धान्तानां करोति तथाविधलोकं प्रति सिद्धान्तमिति गाथार्थः । अविनिश्चितः समये न सम्यगुत्सर्गापवादज्ञो भवति सर्वत्रैव, ततश्चाऽविषयप्रयोगतोऽनयोरुत्सर्गापवादयोस्तथाविवस्त्रपरविनाशको नियमात् कूटवैद्यवदिति गाथार्थः ॥ ६६ ॥
तस्माच्छाखमधीत्य तदर्थावधारणं विधेयम्, अवधृतश्च तदर्थो प्रमाणनयाभिप्रायतो यथावत्परिमावनीयः, अन्यथा तत्फलपरिज्ञानविकलताप्रसक्तिस्स्यादित्यत आह
"
यद्वा स्याद्वाद एव प्रवचनसार, एतद्बोधेनैव प्रवचनस्य फलवत्वात्, " एगे आया " इत्यादिनापि तन्त्र परिकर्मितमतीनामात्मा स्यादेकः स्यादनेक इत्यादिसस भङ्गी परिकरितबोधस्यैवोत्पत्तेः, एकनयावधारणे मिध्यादृष्टिवचनाऽविशेषप्रसङ्गात् । अत एव भगवदुपदिष्टया प्रवचनमूलत्रिपद्याप्येकवस्तुनि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकन यापेक्ष कथञ्चिनित्यत्वानित्यत्वो मयधर्ममाdaareerद्वाद एव प्रोक्त इत्येतस्मिन्नऽविज्ञाते चरणकरणानुष्ठानस्य निश्रयशुद्धस्सरोऽविज्ञातस्स्यात्, स्याद्वादमुद्रा मुद्रित जीवाजी वादिनवतस्त्रविषय कापायज्ञानात्मकरुचिरूपसम्यग्दर्शन शुद्धिशून्यत्वादिति प्रतिपादयितुमाह -
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सम्मति• काण्ड ३, गा. १५
चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा।
धरणकरणस्स सारं, निच्छयशुद्धं न याति ॥ ६७ ॥ चरणकरणप्पहाणा' चरणकरणप्रधाना:-चरणं " वयसमणधम्म " इत्यादिगाथो. क्तसप्ततिभेदम्, करणमपि " पिंडविसोही समिई" इत्यादिगाथोक्तसप्ततिमेदम्, ताभ्यां प्रधानाः, तदुभयानुष्ठानसततप्रत्येकलीनाः, 'ससमयपरसमयमुकवावारा' स्वसमयपरसमयमुक्त व्यापारा, स्वसमयपरसमययोर्मुक्तोऽनाहतो व्यापारः स्याद्वादपरिकर्मितधिया विवेचनात्मा यैस्ते तथा, चरणकरणाऽनुष्ठानेनैव कृतार्था वयं किमस्माकं तर्ककर्कशेन वादरसिकरमणीयेन स्याद्वादेन प्रयोजनमित्येवं द्रव्यानुयोगशास्त्राभ्यासायावृता इत्यर्थः, 'चरणकरणस्स सारं' चरणकरणस्य चरणकरणानुष्ठानस्य सारं स्वजन्यफलोत्कर्षाङ्गम, 'निच्छयसुद्धं ' निश्चयशुद्धं परमार्थदृष्ट्याऽवदातम्, न तु बाह्यक्रियावल्लोकदृष्टौवापाततो रमणीयमित्यर्थः, न याणंति' न जानन्ति, न विचारयन्ति, तदावरणदोषात् , एवञ्च तेषामल्पफलमेव चरणकरणानुष्ठानमित्यर्थः ।
यद्वा पूर्वोक्तयोश्चरणकरणयोः प्रधानास्तदनुष्ठानतत्पराः,स्वसमय-परसमयमुक्तव्यापारा अयं स्वसमय: प्रमाणनयाभ्यां यथावस्थितानेकान्तात्मकवस्तुतत्वप्रतिपादकत्वात् , अयश परसमयः प्रमाणान्तरवाधितैकान्ततस्वप्रतिपादकत्वात् , न चात्र प्रमाणान्तरवाधितस्वस्य विशेषणस्याऽसिद्ध्या तद्विशिष्टोक्तहेत्वसिद्धिरिति वाच्यम्, तत्तनयप्रवर्तिततत्तत्समयान्तरतत्त्वेषु नयान्तरप्रतिपाधयुक्तिप्रकरैरनेको बाधितत्वस्य प्रदर्शनादित्येतस्मिन् परिज्ञानेऽना. दृताः, नरसिंहबजात्यन्तररूपमत एव समयान्तरतत्त्वविलक्षणमनेकान्ततत्त्वं यथावदनवबुध्यमानाश्चरणकरणयोः सारं फलं निश्चयशुद्धं निश्चयश्च तच्छुद्धश्च ज्ञानदर्शनोपयोगात्मक निकलकं न जानन्ति नानुभवन्ति, शानदर्शनचारित्रात्मककारणप्रभवत्वात्तस्य, कारणाभावे च कार्यस्याऽसम्भवात् , अन्यथा तस्य निर्हेतुकत्वापत्ते, चरणकरणयोश्च चारित्रात्मकस्वात् , द्रव्यपर्यायात्मकजीवादितत्वावगमखमावरुच्यभावेऽभावात् , अथवा चरणकरणयोस्सारं निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति, न हि यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधमन्तरेण तद्रुचिा, न च स्वसमयपरसमयतात्पर्यार्थानवगमे तदवबोधो बोटिकादेरिव सम्मवी | अथ जीवादिद्रव्यार्थपर्यायार्थाऽपरिज्ञानेऽपि यदर्हद्विरुक्तं तदेवैकं सत्यमित्येतावतैव सम्यग्दर्शनसद्भावः " मण्णइ तमेव सचं णिस्संकं जं जिणेहिं पणतं" इत्याद्यागमप्रामाण्यात, न, स्वसमयपरसमयपरमार्थाऽनभिज्ञैर्निरावरणज्ञानदर्शनात्मकजिनस्वरूपाज्ञानवद्भिस्तदमिहितभावानां सामान्यरूपतयाप्यन्यव्यवच्छेदेन सत्यस्वरूपत्वेन झातुमशक्यत्वात् , नन्वेवमागमविरोधः सामायिकमात्रविदो माषतुषादेर्यथोक्तचारित्रिणस्तस्य मुक्तिप्रतिपादनात् सकलशास्त्रार्थनताविकलव्रतस्य व्रताद्याचरणनैरर्थक्यापत्तिश्च, तत्साध्य
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सम्मति• कान ३, गा.. फलाऽनवासे, न च यथोपदर्शितचरणकरणे सम्यग्दर्शनवैकल्ये सम्मवता, शानादित्रितय. स्यापि तत्र पाठादिति, मैवम् , ये यथोदितचरणकरणप्ररूपणासेवनद्वारेण प्रधानादाचार्यात्स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्तीति ननोऽत्र सम्बन्धात् ते चरणकरणसारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येव, गुर्वाज्ञया प्रवृत्तेः, चरणगुणस्थितस्य साधोः सर्वनयविशुद्धतयाऽभ्युपगमात् " तं सबणयविसुद्धं जं चरणगुणढिओ साहू" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । अगीतार्थस्थापि गीतार्थनिश्रितस्य तत्परतन्त्र्यस्यैव फलतो ज्ञानदर्शनलक्षणत्वात् । आह च हरिभद्राचार्य:
" गुरुपारतंतनाणं, सद्दहणं एय संगयं चेव ।
एत्तो उ चरित्तीणं, मासतुसाईण निहिडें ॥ ११-७ ॥ त्ति" गीतार्थाऽनिश्रितागीतार्थस्य स्वतन्त्रचरणकरणप्रवृत्तेर्वताधनुष्ठानवैफल्यं त्वम्युपगम्यत एव । "गीयस्थो य विहारो, बीओ गीयत्थमीसि(निस्सि )ओ भणिओ। इत्तो तहयविहारो, नाणुनाओ जिणवरेहिं ।। १ ।।" इत्याद्यागमप्रामाण्यादिति ।।
यद्वा पूर्वोक्तयोवरणकरणयोः प्रधाना:-तदनुष्ठानार्पितत्रिकरणाा, स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा:-अयं स्त्रसमयः द्रव्यार्थिकनयापेक्षया स्यानित्यमेव पर्यायार्थिकनयापेक्षया स्यादनित्यमेवेत्यादिसप्तमङ्गीपरिकरितार्थबोधजनकत्वात् , अयश्च परसमयः अन्यनयानपेक्षनयगोचरेकान्ततत्त्वप्रतिपादकत्वात् , इत्येतस्मिन् परिज्ञानेऽनादृताः, तत्तत्रयप्रसुतत. तत्परसमयप्रतिपाद्यैकान्ततत्तत्तत्त्वज्ञाने नयान्तरप्रतिपाद्येन तत्तत्तत्त्वनिराकरणयुक्तिसमूहे. नाप्रामाण्यवाने सत्येव तद्विषयासत्यत्वनिश्चयः, तस्मिश्च सति प्रमाणनयाभ्यां स्वसमयप्रतिपाभिमापेक्षाविरुद्धक्षणिकाऽक्षणिकत्व नित्यानित्यत्वाद्यनन्तधर्माकान्तानेकान्तात्मकार्थयथार्थनिश्चयो भवितुमर्हतीति स्वपरसमयतत्वसत्यासत्यत्वविवेचनानुधमवन्तोऽनेकान्त. तवं यथावदनवबुध्यमानाः चरणकरणयोस्सारं निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति, यतो भगवता प्रवचनं भव्याङ्गिवातानां स्याद्वादज्ञानार्थमेवोपदिष्टमिति यथार्थवाद्वाद. निधयबोधमन्तरेण स्वपक्षस्सन् परपक्षश्वासन्नित्येवं स्वपक्षपस्पक्षयोर्विधिनिषेधयोः कर्तुमशक्यत्वात् नास्ति स्याद्वादत वरुचिलक्षणसम्यक्त्वम् , जिनप्रज्ञप्तभावविषयकसमूहालम्बनज्ञानविशेषस्यैव रुचितयाऽऽम्नातत्वात् , तादृशवोधश्च वस्तुत्वव्यापकाऽनेकान्तत्वप्रतिसन्धानाहितवासनावतामेव, तादृशवासनाऽपि च स्वपरसमयनिरन्तरषद्धव्यापाराणामेव, न च ते तादृशष्यापारा इति न निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनमनुभवन्ति, “छप्पिय जीवनिकाए, सद्दहमाणो ण सदहा भावा" इत्यादिनाऽत्र प्रागेवोक्तत्वादविविक्तषट्कायपरिशानेऽपि स्याद्वादेन विविक्तषटकायपरिज्ञानं विनौषतस्तद्रागमात्रेण द्रव्यसम्यक्त्वस्येवात्रापि स्वसमयपरसमयविवेचनं विना द्रव्यसम्यक्त्वस्यैव भावात् । नन्वेवं तथाविधाऽमीवार्थस्य संक्षेपरुचिसम्यक्त्वच्छिद्यतेति चेत्, मैवम् , यत आज्ञारुचेः प्रियगीतार्थाऽऽस्प
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सम्मति ० काण्ड ३, गा० ६०
मार्गानुसारिणो यत्सम्यक्त्वं तद्रव्येण ब्रुवते निपुणाः स्याद्वादप्रतिपत्नियोग्यतायास्तअन्य निर्जरा जनक कर्मक्षयोपशमरूपायास्तेष्वखण्डितत्वात् । अभिहितश्च
" जिणवयणमेव तत्तं एत्थ रुई होइ दव्वसम्मत्तं । जह भावा नाणसिद्धा, परिसुद्धं तस्स सम्मत्तं ॥ " इति ।
ear विवेचितं प्रागेव । यद्वा ये यदोदितचरण करण प्ररूपणा सेवनद्वारेण प्रधानादाचार्यात् स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्तीति नवोऽत्र सम्बन्धात् ते चरणकरणसारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येव, गुर्वाज्ञया प्रवृत्तेरिति ॥ ६७ ॥
परस्परनिरपेक्षे ज्ञानक्रिये न मोक्षसाधिके किन्तु परस्परसापेक्षे एव ते, यतो मोक्षत्वानिम्प्रति न केवल क्रिया, न वा ज्ञानमात्रं कारणम्, किन्तु मोक्षानुकूलशक्तिमश्वेन रूपेण मिथस्सापेक्षज्ञान क्रियोभयमेवेति प्रतिपादयितुमाह
नाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दो वि एगंता । असमस्था दाएउं, जम्म-मरणदुक्खमा भाई ॥ ६८ ॥
' नाणं किरियारहियं ' ज्ञानं स्याद्वादाङ्कितजीवादिपदार्थसार्थप्रकाशकं ज्ञानं क्रियारहितं
शाखविहितपश्च महाव्रतादिसदनुष्ठानक्रियानिरपेक्षम्, ' किरियामेतं च ' क्रियामात्रं च,
,"
एकश्चासावन्त
मात्रपदेन तदितरव्यवच्छेदादुक्तलक्षणज्ञाननिरपेक्षा क्रिया च यथोक्तानुष्ठानात्मिका, ' दो वि एगंता ' ' द्वावप्येकान्तौ ' अम्यते गम्यते निश्चीयते इत्यन्तः, धर्मः, चैकान्तः, एकान्तचैकान्तश्चैकान्तौ मित्रापेक्षाऽविरुद्धधर्मान्तरविनिर्मुक्तत्वेन केवलैकधर्मात्मकौ द्वावपि पक्षौ ' जम्ममरणदुक्खमाभाई' जन्ममरणदुःखेभ्यो मा भैषीरिति 'दाउ असमत्था ' दर्शयितुमसमर्थौ । नन्वेवं तर्हि तेभ्यो मा भैषीरिति दर्शयितुं कस्समर्थ इति चेत्, उच्यते, परस्परसापेक्ष समुदिततदुभयात्मकपक्ष एव, तथाहि पुरुषो न ज्ञानमात्रेण भयेभ्यो मुच्यते क्रियारहितत्वात्, महानगरे दह्यमाने सति दृष्टपलायन मार्गपवत्, न वा पुरुषः क्रियामात्रेण भयेभ्यो मुच्यते सज्ज्ञानरहितत्वात्, महानगरे प्रदीप्यमाने सति दशमानगृहाद्यभिमुखपलायमानान्धवत् । तदुक्तं विशेषावश्यक निर्युक्तौ
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हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पातो पंगुलो दडो, धावमाणो अ अंधओ ॥ १ ॥ " इति ॥ ११५९ ॥ यद्वा ज्ञानमात्रं नेप्सितार्थप्रापकं सत्क्रियाऽसहकृतज्ञानत्वात्, महारण्यदाहे सति दृष्टपलायन मार्गस्वदेशप्राप्त्यभिमुखगमनक्रियाशून्यपङ्गुज्ञानवत्, क्रियाऽपि केवला नेप्सितार्थसाधिका सज्ज्ञानासह कृतक्रियात्वात् अतिसंकटपुरदाहे दह्यमानगृहाद्यभिमुखप्रपलायमानान्धपुरुषगतिक्रियावत् । समुदितज्ञानक्रियोभयपक्षे त्वेवमनुमानप्रयोगः- सम्यग्ज्ञान
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सम्मति• काण , पा. " सम्पविक्रयोभयवान् पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते उभयसंयोगवश्वात् , महाऽऽरण्यदाहमीतान्धस्कन्धारूढपलवदिति । तदुक्तं विशेषावश्यकनियुक्तौ-- " संजोगसिद्धीए फलं वयंति, न हु एकचक्केण रहो पयाइ ।
अंधो य पड्गू य वणे समिचा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥१॥" इति । . एतदर्थसंवादकतयोक्तश्चान्यत्र
"चक्षुष्मानेकः स्यादन्धोऽन्यस्तन्मतानुवृत्तिपः ।
गन्तारौ गन्तव्यं प्राप्नुत एतौ युगपदेव ॥१॥" इति । यद्वा सम्यकक्रियासम्यग्ज्ञानोभयं इष्टफलसिद्धिजनकं परस्परसहकारित्वात् , अन्धपरसम्यकक्रियाज्ञानोभयवदिति । नन्वनेन ज्ञानक्रियाभ्यां द्वाभ्यां जन्ममरणभयविमुक्तिलक्षणमोक्ष इति प्रतिपादितम् ।
" नाणं पयासयं सोहओ, तवो संजमो य गुत्तिकरो।
तिण्हं पिसमाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥११६९॥" इति ॥ विशेषावश्यकनियुक्त्या तु ज्ञानतपःसंयमेभ्यस्त्रिभ्यो मोक्ष इत्यभिहितमिति कथं न विरोध इति चेद, अज्ञानविलसितमेतत् , तपःसंयमयोः क्रियारूपत्वेन तयोः क्रियायामेवान्तर्भावात् । तदुक्तम्-- __ "संजमतवोमई जं संवरनिवरफला मया किरिया ।
तो तिगसंजोगो वि हु, ताउ चिय नाण-किरियाओ॥११७४॥" इति । एतेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति तत्त्वार्थाधिगमाद्यसूत्रेणापि सह विरोधो निरस्तः, यतो ज्ञानग्रहणेनैवेह सम्यग्दर्शनमाक्षिप्यते, तदन्तरेण तस्याप्यभावात् , मिथ्यादृष्टिज्ञानस्याज्ञानत्वेन पूर्वमेव प्रतिपादनात् । यद्वा मतिज्ञानस्यैव रुचिरूपो योऽपायांश: स्तद्रूपत्वेन सम्यग्दर्शनस्य ज्ञानात्मकतया सहनयाभिप्रायेण सम्यग्दर्शनज्ञानयोनित्वेन रूपेणैकत्वविवक्षणादिति, गोवृषन्यायेन सम्यग्दर्शनज्ञानयोः पृथग् विवक्षया तु सम्यग्दर्शनादित्रितयस्यैव मोक्षानुकूलैकशक्तिमत्त्वावच्छिन्नकारणत्वलक्षणं मोक्षमार्गत्वं तस्वार्थाधिगमायसूत्रेण विहितमिति सर्वमवदातम् । ननु सम्यग्दर्शनादित्रयस्य ज्ञानक्रियोमयस्य वा मोक्षकारणत्वमस्तु तथापि तत्केन रूपेणेति चेत् , उच्यते, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावग्रह इति ताभ्यां सम्यग्दर्शनत्वेन सम्यग्ज्ञानत्वेन सम्परचारित्रत्वेन यद्वा ज्ञानत्वेन क्रियात्वेन प्रत्येकरूपेण मोक्षम्प्रति स्वेतरसकलकारणसहकृतस्य सम्यग्दर्शनादे कारणत्वग्रहात्तत्तयापेक्षयकैकस्यापि परस्परसापेक्षस्य कारणत्वम्, सामग्री
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सम्मति० काम , मा. वै जनिति न्यायात्प्रमाणापेक्षया सम्यग्दर्शनादित्रयसमूहस्य ज्ञानक्रियोमयस्य वा मोक्षा. नुकूलशक्तिमत्वेन रूपेणैकमेव कारणत्वमित्यभ्युपगन्तव्यम् , तत्र द्वारद्वारिभावकल्पनादिकमधिकं पूर्वमेवोक्तमिति ॥ ६८॥
दुरवगाहगम्भीराक्षोभ्यपदार्थरत्नरत्नाकरस्य नानाविधतरङ्गोपमविविधततनयभरच. नाऽऽत्मकस्थानेकादित्यसमूहवत्कृताविकलपदार्थप्रकाशस्य सविसहस्रवद्धास्वरत्वात्केनाप्य. नभिभवनीयस्य जिनवचनस्यापूर्वमाहात्म्यज्ञापनात्मकस्तुतिरूपं शिष्यप्रशिष्यादावेतत्प्रकरणाध्ययनाविच्छेदार्थचाऽन्तिममङ्गलं प्रतिपिपादयिषुः जिनवचनयथार्थगुणस्तक्करणकलालसो विश्वविश्वार्यक्रमाब्जश्रीहरिः प्रकरणपरिसमातावन्तिमगाथामाह
भई मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ, संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। ६९ ॥
भई' इत्यस्य 'जिणवयणस्स' इत्यनेनान्वयः, भद्रं-कल्याणं यथास्थिततत्वज्ञानोत्पादनद्वारा भव्याङ्गिवाताखण्डाऽप्रतिद्वन्द्वाऽऽनन्दसन्दोहाऽप्रतिघातिनीरुषत्वप्रापकत्वं सर्व वाक्यं क्रियया परिसमाप्यत इतिवचनात् अस्त्विति शेषः, रागद्वेषमोहान् भावारीन् जयन्तीति जिनाः, उच्यते यत्तद्वचनम् , जिनानां वचनं जिनवचनं तस्य,जिनप्रणीतवचनस्येति यावत् , अनेनास्य 'जिणाणं सासनं सिद्धं' इत्यनेनोक्तं विशिष्टपुरुषप्रणीतत्वनिवन्धनं प्रामाण्यं निगमयति, " सधणयमयं जिणवयणं " इत्यागमोक्तिमनुस्मरबाह-'मिच्छादसणसमूहमद यस्स' इति-मिथ्यादर्शनसमूहम यस्य-एकान्ततत्तन्नयप्रसुतनिखिलपरसमयार्थविषयताव्या. पकविषयताकबोधोत्पादकस्य, अथवाऽत्रावयवार्थे मयट्प्रत्ययविधानान्मिथ्यादर्शनसमूहा नैगमादयः, " एकेको वि सयविहो" इत्यावश्यकनियुक्तिवचनात् एकैकस्य नैगमादेनयस्य शतभेदत्वेन पूर्व प्रतिपादितत्वात् शतशतप्रभेदविशिष्टा नया: परस्परसापेक्षतत्तभयवाक्यवातघटिततया अवयवा यस्य तन्मिथ्यादर्शनसमूहमयं, तस्य । सर्वैरेव ह्येकैकांशमाहि. भिर्नयैर्मिलितैः सम्पूर्णमनन्तधर्मात्मकं वस्तु निश्चीयते इति तनिश्चयजनकत्वाद्भगवच्छासनं नयसमूहात्मकं प्रमाणम् , अत एव सम्पूर्णाभिमतफलसाधकम् , तदन्यशासनं त्वेकयादिनय. मात्रमतावलम्बित्वेन समग्रनय विकलमप्रमाणम् , अतो न सम्पूर्णाभिमतफलसाधकं विकलक्रियावत् , यथा भिषकप्रतिचारकातुरौषधाद्यन्यतराङ्गविकला क्रिया न संपूर्णाभिप्रेतफल. साधनी तथाऽन्यशासनमपि । जिनशासनं तु सकलनयात्मकाविकलाङ्गसम्पनत्वेन न तथा. विधमित्थंभूतस्य तस्य । ननु मिथ्यादर्शनानां तत्तत्रयप्रसृतपरप्रवादानां प्रत्येकावस्थायां मिथ्याष्टित्वात् तत्समूहेऽपि प्रचुरविषलवसमुदाये विषप्राचुर्यवत् महामिथ्यादृष्टित्वप्रसच्या तन्मयं जिनवचनमपि कथं सम्यम्भावं प्रपद्यते, यतो न हि विषकणिकासमूहमयं किमपि वस्तु अमृतभावं प्रपद्यमानं केषामपि दृष्टिगोचरं भवतीति चेत्, मैवम् , वस्तुतश्चानव
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सम्मति० काण्ड ३, गा० ६९ अन्त्यमङ्गलम्
३९३ बोधात् , यतस्साक्षाद् दृश्यत एव प्रचुरविषलवसमूहोऽपि प्राज्ञकुशलक्रियपीयूषपाणिमहावैद्य. कुतमिथोविशिष्टद्रव्यसंयोगविशेषापादितपरिणामान्तराऽऽपन्नो निर्विषीसनगदरूपता लोहसमूहोऽपि स्पर्शमणिस्पर्शतस्सुवर्णभावमात्मसात्कुर्वाण इत्येतस्मिन् लोकसिद्धे किं विवादेन ? तद्वत् मिथ्यादर्शनसमूहोऽपि स्याद्वादतवजयथास्थानविनियोजितपरस्परसापेक्षभावोऽत एवं दरीभूतविरोधभावत्वेनाऽविरोधमावङ्गतः समासादितस्याद्वादस्वरूपस्सम्यक्त्वमासादयतीति यथार्थमावेन सर्वनयविषयप्रतिपादकतया तन्मयं जिनवचनमपि सम्यग्रूपमेव, अत एव जिनवचनसमुद्रस्यैते प्रत्येकनयास्तरङ्गा वेदान्तसाङ्खयबौद्धादितत्तदर्शनप्रकृतिभूताः, तन्मयश्च जिनवचनसमुद्रो रत्नत्रयममलं प्रसूत इति तदर्थिनस्तकर्तारं भवन्तं नम्रीभूया. श्रयन्ते, अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिगजकेशरिश्रीसिद्धसेनदिवाकरभगवद्वचनम्" नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥१॥" इति।
'अमयसारस्स'इति-न विद्यते मृत मरणं यस्मिन् असो अमृतो मोक्षः, तं सारयतिगमयति मोक्षस्वरूपप्रतिपादकत्वाद् बोधयति मोक्षकहेतुतया तं प्रापयतीति वा यत्तत् अमृतसारम्-तस्येत्यर्थः । 'अमयसायस्स' इति पाठे तु अमृतवत् स्वाद्यते यत्तदमृतस्वादम्अमृततुल्यमिति यावत् , अमृतमास्वाधमानमनिर्वचनीयानन्दसन्दोहं जनयति तद्वदिदमपि जिनवचनमधीयमानं श्रूयमाणं वा शुक्लपाक्षिकसंविग्नभविवातानामनुपमप्रमोदभरमुत्पादयति, एवंविधस्य तस्येत्यर्थः । भगवओ-क्षीरावाद्यनेकलब्ध्याद्यैश्वर्याद्यर्थसमन्वितत्वेन भगवतः, अनेन विशेषणेन तस्य ऐहिकसम्पद्विशेषजनकत्वमाह । संविग्गसुहाहिगम्मस्स' संविग्नसुखाधिगम्यस्य, संविग्नः । यथेह लवणाम्भोभिः परितो लवणोदधिः । शारीरमानसैदुःखैरसङ्खथेयैर्भवस्तथा ॥१॥" इत्येवं भवस्वरूपभावनया भवविमुखैः, कारागारविमुखैः कारागार इव संसारोऽनन्तदुःखभयस्थानत्वेन तैहय एव, अव्या. बाधाखण्डपरमानन्दैकनिकेतनत्वेन तद्विपरीतलक्षणो मोक्षश्चोपादेय एवेत्येवं परमार्थतत्वविचारणया मोक्षमभिलिप्सुभिः "काम ! जानामि ते मूलं, सङ्कल्पात् किल जायसे । अतस्तं न करिष्यामि, ततो मे किं करिष्यसि ? ॥१॥" इति भावनया कारणात्मकसङ्कल्पोच्छिच्या तत्कार्यभूतकामभोगासक्तिनिवृत्तः, भवामिनन्दिना जिनवचनं कर्णशूलाय. मानमिति न तु तैः, इदमेव जिनवचनं श्रोत्यथार्थावबोधजनकत्वेन तथ्यं भ्रमप्रमादविप्रलिप्साधनासक्तपुरुषप्रणीतत्वेनाऽविसंवाघऽसंदिग्धत्वादिगुणोपेतमित्यतः सुखेनाधिः गम्यतेऽवयोध्यते यत्तत् संविग्नसुखाधिगम्यम् , एतद्विशेषणेनापि विशिष्टषु त्यतिशयसंवित्समन्वितयतिवृषनिषेव्यत्वमस्य प्रतिपादितम् । एवंविधगुणगणालङ्कतस्य जिनवचनस्य
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सम्मति० काण्ड ३, अन्त्यमालम्सामायिकादिमिन्दुसारपर्यन्तश्रुताम्भोधेः कल्याणमस्त्विति प्रकरणपरिसमाप्तौ अन्त्यमङ्गल. सम्पादनार्थमसाधारणयथार्थगुणोत्कीर्तनात्मिकां स्तुतिमाह हरिभगवानिति भावः ।
कल्याणकदर्शनसूरिगीत-गुणौधतीर्थोदयसूरसूरिम् । भक्त्या सदाऽऽनन्दनताङ्गिसूरिम् , विशुद्धविज्ञानविकाशत्रिम् ॥१॥ मध्यात्मपामोल्लसनार्कसूरिं, पिपासुतत्वाऽमृतपायिसूरिम् ।
अपूर्वलावण्यवरास्यसूरिं, कस्तूरसा स्तौति न नेमिसूरिम् ॥ २॥ दिङ्मात्रमेव समदर्शि तृतीयकाण्डे, द्रव्यानुयोगमितिभङ्गनयागमाब्धेः ।
नव्योक्तिमेरुमथनात् पिचतात्तदुत्थं, सन्त्यज्य दुनयविष सुनयामृतं ज्ञः ॥३॥ पवित्रेऽहंश्चैत्यैथुपुर इव प्रलादनपुरे, चतुर्मासं स्थित्वा स्वगुरुकृपया वैक्रमशुभे । शराप्रद्युधब्दे नवतिजिनकल्याणकदिने, तृतीये काण्डेऽहं लघुविवृतिपूर्ति विहितवान् ॥४॥
इत्यतिविषमैदंयुगीनकालप्रमावक्रमिकाहीयमानायुर्बलोत्साहश्रद्धासंवेगश्रवणाकासाऽव. धारणादिशक्तीनां भव्याङ्गिनातानां प्रमाण नानाविधनयनिक्षेपसप्तमङ्गयादिसटितजिनवचनप्रतिपाद्यानेकान्ततत्वश्रवणमेव दुर्लभम् , श्रुत्वाऽप्यतिकुण्ठितप्रज्ञत्वात्तेषां सर्वनयप्रपश्च. संस्कृतधीगम्यतत्वावबोधो दुश्शक्यः कदाचित्कथञ्चिदुपजाततथाविधज्ञानावरणकर्मक्षयोपअमावल्यात्तचावबोधे सुशक्येऽप्यध्यापनकाले परप्रत्यायनं प्रत्यादरः कार्यसन्मुखमावं गमयितुमशक्या, तस्य तथाभावेन गमयितुं शक्यत्वेऽपि महाग्रन्थार्थसंस्मरणं स्मृतार्थप्रतिपाद. नश्चात्यन्तक्लेशायेति मत्वा जिनाभिहिततत्वजिज्ञासवो विस्तरग्रन्थभीरवोऽमी विनीतविनेया मध्यस्थवृत्तयोऽत एवाऽनाग्रहिणो विनेयभावेनोपसन्नाः कथं नामाल्पग्रन्थेनाल्पीयसा कालेन पूर्वोक्ततत्वमधीयेरन्नित्यनुग्रहबुद्ध्या " दूसमनिसादिवागरकप्पत्तणओ" इत्यादि पञ्चवस्तुवचनाद् दुःषमाकालनिशादिवाकरकल्पत्वेनावाप्तयथार्थनाम्ना तार्किकशिरोमणिश्रीसिद्धसेनदिवाकरेण प्रणीतस्य निर्झरदतुच्छवाग्छटामदवारिप्रवादिद्विरदघनघटाकुण्ठधीनियोजित. युक्तिवातात्मककुम्भपीठभेदिवजोपमद्रव्यानुयोगप्रतिपाद्यापेक्षाभेदप्रयोज्याविरोधमाक्तदत. दात्मकानेकान्ततत्वप्रामाण्यनिश्चायकाऽभेद्ययुक्तिवातसङ्घटितस्य सम्मतितर्कप्रकरणस्य विश्वानुपमप्रौढप्रभावप्रभावितवीतरागप्रभुशासन-तीर्थोद्धारकधुरीण--श्रीतपोगच्छनभोनभोमणि-शासनसम्राड्--भट्टारकाचार्य-श्रीविजयनेमिसूरीश्वरचरणारविन्देन्दिन्दिरायमाण-तत्पवाब्धिचन्द्र-समवाप्तन्यायवाचस्पति-सिद्धान्तविशारदविरुद-तपोगच्छभट्टारकाचार्यविजयदर्शनसूरि-विरचिता सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यसम्मतितर्कलधुटीका समाप्तिमगादिति ।
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सम्मति. काण्ड ३, प्रशस्ति:
॥ अथ प्रशस्तिः ॥ ग्रन्थे सम्मतितर्कनामविदिते काण्डप्रयोल्लासिते, मूले वृत्तिरगायधीधनवता वादप्रथोल्लासिनी। अन्ध्यामाऽभयदेवसरिविदुषा विद्वन्मनोरञ्जिनी, दृन्धा या प्रभवन्ति कुण्ठमतयस्तत्राऽवगाहुं न वै ।। १ ॥ तेषां तत्र सुखावगाहनकृते नौकोपमेयं मया, व्याख्याल्पा रचिता प्रमाणनयनिक्षेपैश्च भलीभरैः। तत्तत्तत्वविचारसारकलिताऽस्त्वानन्दकेल्यै सदा, न्यायाचार्ययशस्समीकृतपथोल्लासा विदां दृष्टिगा ॥२॥ नित्यो नागम एति मानपदवी नापौरुषेयस्ततो, नेशो विश्वविधायकोऽस्ति प्रमितस्तत्कर्तृको नागमः। आप्तः किन्तु जिनस्तदुक्तिरमलाऽनेकान्ततच्चान्वया, स्याद्वादागमसंज्ञिता ननु भवेन्मानं न चान्यागमः ॥ ३ ॥ वादिवातसमर्थिता तु सकलैकान्तप्रथा युक्तितो, वादेऽन्योऽन्यकर्थिता न विमला सिद्धि प्रयाति स्फुटम् । स्याद्वादोऽमलनीतिसप्तकलितो यत्सप्तमङ्गीमयो, निक्षेपानुगतो न वादिनिकरैयो भवेत्तत्वतः ॥४॥ नीतिप्ससमासतोऽत्र सकला संलक्षिता लक्षणं, प्रत्येकं तु विभावितं बुधवरैर्यद्यबथा दर्शितम् । सुरीणां वचनं तदिष्टगतये संवादनायादृतम्, यत्तन्त्रं च यदुवं तदपि तद्युक्त्या समुल्लासितम् ।। ५ ।। मङ्गास्सप्तनयप्रचारसुभगाः सन्दर्शिता भेदतो, यो मनच यतो नयादुदयते प्रत्येकमावेदितम् । यो धर्मों यदपेक्षयाऽत्र घटते तस्यापि निस्संशयं, युक्तिवातसमर्थनं सुविहितं यस्माद्विरोधो हतः ॥ ६ ॥ मुख्यैकैकसदादिधर्मविषया आद्या निरंशाखया, भगा दित्रिकधर्मवोधनपरास्साशास्तदन्ये च ते । तेषामत्र विचारणा मितिनयाऽऽस्थां ससमयाश्रितां, कतुं पल्लविता यथाऽत्र सुगमा स्यात्सप्तमङ्गीगतिः ॥७॥
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३९६
सम्मति. काण्ड ३, प्रशस्तिः
निक्षेपेषु सुलक्षितेषु सकलव्यापित्वमेकैकशो, नामादेरुपपादितं मतभिदाप्याविष्कृता सागमा । नीतीनामिह योजना नियमिता संवादिता कल्पनाशिल्पानां वचनैः सुयुक्तिकलितैः पक्षप्रथाभासुरैः ॥ ८॥ द्रव्यार्थस्य नयस्य यश्च विषयः सामान्यनामाखिलव्यापी द्रव्यपदार्थ एक उदितो नित्योऽनुगामित्वमाक् । यः पर्यायनये विशेष इतराऽसम्भित्ररूपस्तयोरेकान्ताऽनुमति विधूय विमता सापेक्षता स्थापिता ॥ ९॥ ध्रौव्यं द्रव्यनयाश्रितं जनिलयो पर्यायनीत्याश्रितो, संमिनं त्रितयं प्रतिक्षणगतं सत्त्वं समस्तेष्वपि । प्रोक्तं तत्प्रभुणा यथा प्रमितितो विज्ञैस्तथा साधितम् , यच्चैकान्तिमतं कदाग्रहगतं सचं हतं तत्स्फुटम् ॥१०॥ सत्कार्यादिप्रथाऽपि कापिलमुखैरावेदिता खण्डिता, धन्योन्यप्रतिपक्षभावलसिता साऽन्योऽन्ययुक्त्याऽऽहता । स्याद्वादिप्रचिभाविता तु सदसत्कार्यप्रथा मानतो, निर्णीता परवादियुक्तिनिकरै वापनेया वरा ॥११॥ एकान्त्यन्यतमप्रवर्तितमते कुत्रापि नो युज्यते, हिंसादिनिजलक्षणैकनियतो भेदप्रभेदाश्चितः । स्थाद्धिसादिकमाईते तु सकलं षट्कायगं युक्तितोऽऽनेकान्तं परकीययुक्तिनिवहाऽनालीदात्तम्भितम् ॥ १२ ॥ संसारो न च युज्यते परमते तत्कारणाऽयोगतो, नो मुक्तिः परवादिकल्पनगता तद्धत्वयोगात्ततः । स्याद्वादोक्तिसमर्थिती सजनको स्तो बन्धमोक्षौ वरावित्यादि स्फुटमार्हते तु सकलं युक्त्या व्यवस्थापितम् ॥ १३ ॥ ज्ञानं चैकमपि स्वभावबलतः सर्वावभास्येव यत् , तत्किश्चिद्विषयावमासि नियताऽऽवृत्यैव कर्मोत्थया । ज्ञानं पश्चविधं ततस्त्वभिमतं नैव स्वतस्तत्कृतस्तत्तद्गोचरहेतुशक्तिनियमः संस्थापितो युक्तिभिः ॥ १४ ॥ सर्वज्ञस्य प्रसिद्धिरेव-मुदिता तत्खण्डनप्रक्रिया, मिमांसाापढौकिता प्रतिहता संक्षेपतो मानतः ।
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सम्मति काम. ३, प्रशस्तिः
चर्चा चात्र प्रसङ्गतो बहुविधा सन्दर्शिता सागमाऽनेकान्तप्रविचारणा परमतोत्खातेन पुष्टिङ्गता ॥१५॥ स्याद्वादे सकलार्थगे स्वयमपि स्याद्वादयुक्त ततोऽनेकान्तस्त्वनवस्थया न हि यथा दृष्यो भवेद्वादिभिः । तत्तद्युक्तिप्रदर्शनं ननु तथा नव्योक्तिकान्तं कृतं, श्रीमद्वाचकपुङ्गवोक्तिविमलाऽऽलोकोऽत्र सन्दर्शितः ॥ १६ ॥ यत्कर्माष्टकमाईते तनुतयाऽनाद्यात्मसंयोगि तत् , मान्यं पौद्गलिकं भवभ्रमणकृत् संछादनादावृतिः । तत्संपूर्णलये निरावृतिरसौ जीवोऽमलज्ञानवान् , मुक्तस्सिद्धिशिलातले विजयते वानन्दपूणों विभुः ।। १७ ॥ मुक्तेर्मार्ग उदीरितो जिनवरै रत्नत्रयं त्वात्मनो, ज्ञानं दर्शनमस्खलद्गति तथा चारित्रमेतत्रिकम् । एकैकं न च तत्समर्थमभितो मुक्तौ न चैवावृतम् , सम्यक तत्रितयं सुनितिकते वाञ्छन्ति तद्योगिनः ॥ १८ ॥ तत्राशेषविशेषगोचरचरं ज्ञानं मतं केवलं, सामान्यं त्वखिलं प्रकाशयति यत् तत्केवलं दर्शनम् । एकस्मिन्समये तयोस्तु भवनं श्रीमल्लवादी जगौ, मिने श्रीजिनमद्र आप्तप्रवरस्सैद्धान्तिकस्तरक्षणे ॥१९॥ नव्योक्तिप्रविताननैकनिपुणः श्रीसिद्धसेनो जगौ, मेदो नैव तयोरस्वतो न च तदाऽऽवृत्योभिंदा कर्मणोः। स्यात्सामान्यविशेषगोचरकता मेदप्रथौपाधिकी, तसात्केवलमेकमेव मितितो ज्ञानश्च तदर्शनम् ॥ २० ॥ इत्येवं मिथ एव युक्तिवलतो राद्धान्तकान्तं त्रिक, तत्समीत्यवलम्बनेन प्रथितं नेदं विरोधास्पदम् । नाज्ञानादुपढौकितं न च निजोत्प्रेक्षकसारं यथा, श्रीमद्वाचकपुङ्गवेन यशसा तद्भावितं तत्तथा ।। २१ ॥ एकं मिनमथाप्यपर्यवसितं सादीति यत्केवलं, तत्सापेक्षमुदीरितं तु सकलं नो वै विरोषस्ततः । स्यात्सामान्यविशेषरूपमननं जीवे चिदेकात्मके, माला चात्र निदर्शनं सुगमितं भिन्नैकनामोद्भवे ॥२२॥
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सम्मति• काण्ड ३, प्रशस्तिः मिथ्यकान्तनयोष एव प्रथितथैकान्तताऽपाकृती, सापेक्षोक्तिविराजितस्सुसमयः स्याद्वादनामाऽमला। सम्यग्दर्शनमेष एव सुनयः श्रद्धाऽत्र सज्ज्ञानजा, येषां ते चरणैकतानहृदया मुत्यङ्गनालिङ्गिताः ॥ २३ ॥ नानेकान्तमतं निरर्गलतया सर्वत्र लब्धोदयं, क्षेप्तुं कोऽपि कृती विवेकचतुरो योग्यो भवेद्वादिषु । यसाचित्रमनेकमेकमुदितं वैशेषिकाद्यैस्तथा, बौद्धैनिमपीदृशं च प्रकृतिः साङ्खयैश्रिता तादृशी ॥ २४ ॥ इत्याद्या विषयाः प्रसङ्गवशतश्चान्ये विवादालया, युक्तिवातसमर्थिता ननु मया मोदाय विद्यावताम् । गङ्गाम्भोमिलिता भवन्ति शुचयो नापः कुगर्लोद्गता, कि तद्विषया इमेऽपि प्रथिताः स्याद्वादसङ्गोद्धराः ॥ २५ ॥ प्राचीनोक्त्युपशोभिता श्रुतवचस्संवादवद्धादरा, वृत्तिस्सम्मतितकेंगूढविषयैदम्पर्य मात्रान्वया । नव्यैवास्तु तथापि नूतनधिया नोपेक्षणीया बुधैयस्मान् मूलमशेष मेव सुगम संसर्गतोऽस्याः स्फुटम् ।) २६ ॥ धीमन्तो वसुधाधिपाऽऽलिमहिता वाचंयमानां वरा:, न्यायव्याकरणादिशास्त्रनिचयप्रोल्लासबद्धोद्यमाः। हैमव्याकरणोक्तिसङ्गमनया हेमप्रभाधा कृर्ति, कृत्वा पाणिनिजां कृति बहुमतां कुर्वन्त ईपत्प्रभाम् ॥ २७॥ जैनन्यायविचारसारघटितां न्यायप्रभाख्या कृर्ति, कृत्वा बौद्धविचारखण्डनपरे सत्खण्डखाधेऽमले । न्यायकान्तकथामशुदयपनयात्कुर्वन्त आप्तोद्गतां, जैनन्यायकथाप्रचारनिरताः शास्त्रार्थबद्धादराः ।। २८॥ नीतिव्रातसमर्थनैकमनसो नीत्यर्थशास्त्रोद्यमा:, स्याद्वादोन्नतिबुद्धयो निजकृतिप्रोभूतसूत्रोचयाः। *अन्याऽभातविभातकल्पनिकरश्रीसप्तमङ्गीगिरो ।
युक्तिवातसुगुम्फितैकलसितश्रीन्यायसिन्धुप्रभाः ॥ २९ ॥ * अन्येषामभातोऽपि अविदितोऽपि विभातो विशेषेणावगतः कल्पनिकरः पक्षसमूहो यत्रैताहशसप्तभङ्गीगिरो येषां ते तथा, अर्थाद्विशिष्टसप्तभङ्गीग्रन्थप्रणेतार इत्यर्थः ॥ २९ ॥
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सम्मति. काण्ड ३, प्रशस्तिः
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न्यायालोकविराजमानकृतयोऽर्हत्स्थापनापूजनाssचान्तस्वान्तसुभक्तिजातप्रतिमामार्तण्डसत्कीर्तयः। स्पृश्यास्पृश्यविवेकबोधफलकग्रन्थक्रियाकर्मठा, वृक्ष्या सम्मतितर्कवृत्तिगतया विद्वजनामोददाः ॥ ३० ॥ तीर्थोद्धारपरायणाः प्रतिदिनं व्याख्यानतो धर्मगान् , श्रीसिद्धाचलदर्शनादिकृतये श्रीसङ्घयात्रोन्मुखान् । सत्क्षेत्रेषु विविच्य भव्यमनसः सव्यदानोधतान् , भव्यान् जैनमतप्रचारचतुरान् कुर्वन्त इष्टार्थिनः ।। ३१ । श्राद्धः कोऽपि जिनाचनादिविधुरो माभूत्क्वचिद्भावुको, धर्माराधनकृत्कदाऽपि समये चेत्याशयालिङ्गिताः। श्रीसेरीसकदम्बतीर्थमहुवातालध्वजादौ जिनचैत्यानि प्रतिमाश्च कारयितुमत्युत्काः प्रतिष्ठां जनैः ।। ३२ ॥ सूरीणां प्रवराः श्रुतोक्तविधिना सम्यक्रियाऽऽराधकाः, सम्यग्ज्ञानविराजिता हतरिपुवाताश्च सद्दर्शनाः । मन्त्राराधनतत्पराः सुरगुरुप्रज्ञाभिमानापहा, अस्माकं गुरवो जयन्ति भुवने श्रीनेमिसूरीश्वराः ।। ३३ ।। *यस्या नाऽऽस्यतुलाकथाऽपि शशिनाऽधाविष्कृतोपेक्ष्यते ? स्यात्पादेऽप्यवरोपिता कमलशी-तांश्वादिता नो वरा । माता सुन्दरतादिकस्य न धनी बुद्ध्यादिभिस्सम्मतः,
सा वीरप्रतिमाऽवरा मधुपुरी-संस्थाऽस्तु भूत्यै सदा ॥ ३४ ॥ * यस्या वीरप्रतिमायाः शशिना चन्द्रेण सम, आस्यतुलाकथाऽपि मुखसादृश्यवर्णनाऽपि, नोपेक्ष्यते, काक्वा उपेक्ष्यते एव, यस्याः पादेऽपि चरणेऽपि, अवरोपिता कल्पिता कमलशीतां वादिता कमलचन्द्रत्वादिका, नो नैव, वरा श्रेष्ठा स्यात्, सा कल्पनाऽपि वास्तविकसादृश्याऽभावादऽयुक्कैन । यस्याः प्रतिमायाः सुन्दरतादिकस्य सौन्दर्या दिगुणस्य माता एतादृशमस्यास्सौन्दर्याविकभित्येवं नियमनकर्ता, अपरिमितसौन्दर्यादिगुणस्य परिमितसौन्दर्यादिवर्णनमबोधविल. सितमित्येतस्मात्कारणाद् बुद्ध्यादिभिः बुद्ध्यायात्मकधनेन धनी धनवान् न सम्मतः, परीक्षकाणामिति शेषः, चतुर्थचरणार्थस्तु व्यक्त एव, अत्र शशिनाथाऽऽख्याध्यापकनाम, पिता कमलशी, मावा पनी, स्वनामसुन्दर प्रति ख्यापितं भवति । इत्येवं चतुर्विंशसमपद्यार्थो शेयः ।
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सम्मति० का ३, प्रशस्तिः तद्वक्त्या गुरुभक्तिसम्बलितया वृत्तिर्मयोल्लासिता, येयं सम्मतितर्कतत्वमननैकान्तप्रसक्ताऽमला । साऽनेकान्तमतावगाहचतुरां बुद्धिं विधायोज्वला, संसारे च शिवे समानमनसा मुक्ति विधत्तात्सताम् ॥ ३५ ॥ श्रीमदर्शनसूरिणा जिनमते श्रद्धा स्वकीयां दृढां, कतुं वृत्तिरियं जिनागमगतानेकान्ततत्त्वार्थगा। दृब्धाऽतो न परोपकारजननं चेन्मास्तु भक्तिर्दृदा, स्वस्यैवास्तु निरन्तराभ्यसनतो जैनागमे कामिता ॥ ३६ ।। वर्ये वाणखखाक्षिभिः (२००५) परिमिते संवत्सरे वैक्रमे । मार्गेऽके धवले च पालनपुरे विश्वाधिपे सत्तिथौ । लध्वी सम्मतितर्कशास्त्रविवृतिश्शास्त्रीयतत्त्वानुगा, पत्ति दर्शनसूरिणा वरगुरोर्नीता सुधाष्टितः ।। ३७ ।। द्वेषः सूक्तिभिरस्ति कुत्सितधियामज्ञास्तु नैवार्थिनः, प्राझं मन्यजना मनागपि न तत्स्पर्श क्षमन्ते ततः । स्यादेतेन परोपकार इति मे चित्तेऽपि नोजृम्भते, स्वान्तस्तोषकृते श्रुतव्यसनिताऽत्रास्मान् न्ययुक्त ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ अनुपयोगतो जाता, स्खलना काचिदत्र ताम् ।। गुणकदृष्टयस्सन्तः क्षमन्तामिति प्रार्थये ॥ ३९ ॥
विश्वातिशायिश्रीवीरप्रभुशासनसमुन्नतिसमुन्नतमतिप्रकर्षाखण्डप्रौढप्रभावशालि-सूरिसार्वभौम-शासनसम्राट्-सुगृहीतनामधेयश्रीतपोगच्छभद्वारकाचार्य-श्रीविजयनेमिसूरीश्वर-पट्टालकाराऽऽप्तन्यायवाचस्पतिशास्त्रविशारदविरुद-तपोगच्छाचार्य-श्रीविजयदर्शनसूरिप्रणीत-सम्मतितर्कमहार्ण
वावतारिकाख्यलघुटीकासधीचीनं
॥ श्रीसम्मतितर्कप्रकरणं समाप्तम् ॥
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॥ सम्मतितर्कमहार्णवावतारिकाख्यटीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।। पृष्ठम् । पङ्क्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् तमसां इत्यादि म
इत्यादिन समुग्धा
यितुं
तमसाम्
संमुग्धा
यितु
सिद्ध
सिद्धं
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प्रामाण्यप्रा भास्वर ज्ञानमपि दोपवलाद्वा मुष्टाद्य दिनकरनिकर इत्यादि सिद्धा त्मनः परशौ पत्या हाराति व्यवहियते गुणिभूता योगः काल नय शाखा
प्रामाण्याऽग्रा चाकचक्य ज्ञानद्वयमपि दोषवलाद्वा मुष्टयाध दिनकरकरनिकर इत्यादिसिद्धा त्ममनः परेशो पत्त्या हारविषयाति अवहियते गुणीभूता योगकाल नयः शाखा
सूत्र
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विशेष्यस्य
र्थाभ्यु
मेतत् , तस्य ध्योऽर्थः तदे बोधानुपपत्ति वस्त्वगाहि
द्रष्टव्यः विशेषस्य थैमभ्यु मेतत् तस्य ध्योऽर्थः, तदे बोधानुत्पत्ति वस्त्ववगाहि
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७८
স্বয় रिति स्वात इति ताम तत्तदप्रेक्षाइति, ताव चोत्तरापे पर्यायाश्चापि
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शुद्धम् रिति, स्वात इति नाम तत्तदपेक्षाइतिताव चोत्तरोत्तरापे पर्याया अपि, दिच रुया निरस्ता, द्रव्यत्वमि वचने न भेदः, स्तिकनयाभ्यु गुणाः ख विज्ञाय गार्थ त मितिकर्म वढययः त्तत्वे
स्या निरस्ता द्रव्यमि वचनेन भेदः, स्तिकनयास्तिकनयाभ्यु० गुणा ख विज्ञाता गार्थ त मिति "कर्म वहयः त्तत्त्वे तादऽभावे ज्ञानमा
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तदभावे ज्ञानापा
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षयस
११८
तत्या वाक्यप्रा मन्य प्रत्तिकारणे: द कमन्धकारं घटावारक रेव भूतत्वात् अ
षयास तदप्रा वाक्यापा मन्योन्य प्रतिकारणे द कोऽन्धकारो घटावारका रेव हि भूत-- त्वात् , अ
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पृष्ठम्
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४०३
अशुद्धम्
नायुकारेण
दिति तदेव
नुलब्धि
भेदाs
दान
उत्पादान
नुलब्धि
कोsपि हि कु
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बौद्धा धियं
ञ्चित्सद्रव
कारत्वात्
दृष्टव्य
पुद्रगले:
इत्यस्या
तुल्लता
चिद्भेदा दस्तित्व
दृष्टव्य
पृथक् ल
भवेद्विरोधः
भूरः
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पञ्चत्वा
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रसत्व
दकव्य
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तनि
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शुद्धम्
नाप्युपकारेण
दिति । तदेव
नुपलब्धि
भेदाs
दान
उपादान नुपलब्धि कोऽपि कु
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बौद्धो धियं
ञ्चित्सद्रप
कारकत्वात्
द्रष्टव्य
पुद्गलैः
इति, अस्या
तुल्यता
चिद्भेदा
दस्तित्व
द्रष्टव्यः
पृथग्लक्षणल
भवद्विरोधः
भूतः
प्रसार्य
पञ्चचत्वा
दिवत्स
रसत्वं
दकत्वव्य
तावि तविधिनि
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पङ्क्तिः
पृष्ठम् १५४
४०४ অযু तत्वेन क्रमसङ्ख स्कारणणियओ-नियतः
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शुद्धम् तत्वेन क्रम सङ्क स्कारेण णियओ इति व्यवहितोत्तरस्यात्रापि सम्बन्धानियतः नियओ-नियतः
अवत्तव्यं च व्यश्च भवति
१७०
१७०
णियओ-इत्यस्यात्रा
प्यनुकर्षणाद् नियतः अव्यत्त्वयं च व्यञ्चास्ति दृष्टव्य अवतव्वयं दिदुर्नयः ज्ञानस्यापि या ! तृतीय काङ्क्षात्वा वाच्यम् , ताव तद्, एक पटिन जिज्ञासा रत्वात् पर्यायं, वस्तु दंशे गतः । न तु एकोत्स्येव, तृतीय भङ्गः अर्थनये योगात् णेन १ तद्रूपेणासाधा
अवत्तव्वं दिर्दुनयः ज्ञानस्य या, तृतीय काहत्त्वा वाच्यम्, न ताव तत्, तथा सति एक घटितजिज्ञासारत्वात् पर्यायं वस्तु
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१७२
देशे
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गतः, न तु एकोऽस्त्येव, तृतीयभङ्गः अर्थनये, योगप्रसङ्गात् पोन १। तद्रुपेण साधा
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४०५
पतिः
अशुद्धम्
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नाशः। स्याल्पऽल्प भु इत्ये नां सत्य नाश्च स वा शब्दाद् द्वयेन त्रयेण दृष्टव्यम् गतम्, मवाप्स वचो नुचाव्यव ज्ञान विषय इति 'स्वस्मिन्' मुत्प्लत्या रश्मिवत्त्व प्रकाशन्ते वाऽन्याशा हेतुर्दृष्टव्यः बिभ्यतीति कातुलसमबल केवलज्ञानो चक्षुदर्शना नयाऽनपेक्ष्य प्रयोजनको उपादिभेदतो ॥ इति तजन्य ज्ञानाद्यपयोग
नाशः, स्याल्पाल्प भुले इत्ये नामऽसत्य नाञ्चास वाशब्दाद् द्वयेन नयत्रयेण द्रष्टव्यम् गतम् , न तु ज्ञानम् , मवाप्स स्वचो नुव्यव ज्ञानघटविषय इति स्वस्मिन् मुत्प्लुत्या रश्मिमत्व प्रकाशयन्ति वाऽन्याशी हेतुर्द्रष्टव्यः बिभ्यन्तीति कसमबल केवलज्ञानदर्शनो चक्षुर्दर्शना नयानऽपेक्ष्य प्रयोजनकं उपाधिभेदतो ॥३० इति तत्क्षयजन्य ज्ञानाधुपयोग
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पङ्क्तिः
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अशुद्धम् विरोधसामग्र्य अभिलाष सर्वार्थत्वा दृष्टव्यम् रूपं विषयांशे मस्महब्ध नवकविषयक नीत सर्वा वात्तत्सादिः, साउय जीवो त्वात्माऽसङ्ख्ययः, प्रावचिक रण्यानी भय चिदि सत्,
शुद्धस् विरोधिसामध्य अभिलाप सर्वार्थविषयकत्वा द्रष्टव्यम् रूपविषयांशे मस्मदृब्ध नवविषयक नीतसर्वा वात्तत्सादि, साउयजीवो त्यात्माऽसङ्ख्येयः, प्रावनिक रण्यानीभय चिति सन् ,
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त्तद्रूपा
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पत्या नेति । स्तन्य लक्षणवांश्च पर्यायगुणा पर्यायाचे गुणाःपर्यायाश्चे मोति, यतो नहि निकत्वेकथनं स्याद्वादतस्तव तु कालाभावै गाथटीकायां ब्रुवते मन्यन्ते
पत्या नेति स्तन्य लक्षणश्च पर्ययगुणा पर्यायश्चे गुण:पर्यायश्चे मोति, नहि निकत्वकथनं स्याद्वादतस्तु तव कालभावे गाथाटीकायां ब्रुवते, मन्यन्ते,
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पङ्क्तिः
पृष्ठम् ३०० ३०५
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३११
अशुद्धम् दृष्टव्याः स्वभावत्तयो वस्तुनोऽभावात् प्रतिक्षेपा भ्योत्पत्यन्त महत्त्वा तदात्मनासामग्री शिरोमणिवाक्यमपि
س
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३३२
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शुद्धम् द्रष्टव्याः । स्वभाववत्तयो विगमस्याभावात् प्रति क्षेपा भ्योत्पत्त्यन्त महत्त्वा तदात्मना सामग्रीशिरोमणिधृतवाचस्पति मिश्रवाक्यमपि त्तदपेक्षा नियतसङ्ख्यया भावेना निश्वाययती उक्तनगमलक्षगस्य नयतत्त्वा तदानयनादि अस्मिल्लक्षणे त्यादिव्यव प्रकृतिकस्या भ्युपगमगते न यथेन्द्रशक्रप्रसूता प्रसूता द्रष्टव्यम् । सम्मतावयम् अभूवन् उपप्लुत
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३३४
३३४ ३३५
त्तदपेक्ष नियतसङ्ख्या भावेनsनिश्चयती इत्युक्तलक्षणनैगमस्य नयनत्वा तदानयादि अस्मिल्ललक्षणे त्यादि व्यव प्रकृतिकस्का भ्युपगम गतेन यथेन्द्रशक प्रसृता प्रमृता दृष्टव्यम् । सम्मता वयम् अभुवन उपप्लुत
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سه سر سه س
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________________ 408 पङ्क्तिः 344 345 346 347 355 355 357 357 चेत्, و مه ه ه ه ه ه ه س م ه ه ه ه ه ه ه ه س س همه 362 अशुद्धम् दृष्टा द्रष्टा द्वयत्रय द्वयनयत्रय स्यात्पद् . स्यात्पद तथा चाय यथा चार्य प्रसृत प्रसूत कारत्वात् कारत्वात् , दृश्यते दृश्यते, मात्मेव, नात्मेव, चेत् पत्तेः। पत्तिः / प्रवर्तितथा प्रवर्तिततथा स्न्यापे स्न्यानपे देर्वाधित देबाधित प्राथमिकी अन्वयव्याप्ति प्राथमिकी व्यतिरेकव्याप्ति द्वितीया व्यतिरेकव्याप्ति द्वितीया अन्वयव्याप्ति भया भयाबौध बौद्ध नीलादिनी नीलादीनि व्याप्यवृत्तिन्यु व्याप्यवृत्तीन्यु ग्रहः इति ग्रह इति तथाभवत्व तथाभव्यत्व दृष्टव्यम् / द्रष्टव्यम्। तर वरुचि तत्त्वरुचि यदोदित यथोदित नयप्रसृत नयप्रसूत 368 રૂર 372 372 374 376 376 380 380 390 تم 17-27 "Aho Shrutgyanam"