Book Title: Namaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Author(s): Dhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय 6 C प्रकाशक व जैन साहित्य-विकास-मण्डल विलेपारले बम्बई-२४ રમક. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमार स्वाध्याय 04 [प्राकृत विभाग] जेणं एस पंचमंगलमहासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरोववत्ती तिलतेलकमलमयरंद व्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव......। [जेम तलमां तेल, कमलमां मकरंद अथवा सर्वलोकमां पंचास्तिकाय व्याप्त छ तेम आ पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध सकल आगमोमां व्याप्त छे।। -श्रीमहानिशीथसूत्र, न. स्वा. पृ. 41. अनुवादको : पंन्यास श्री धुरंधरविजयजी गणिवर्य मुनिवर्य श्री जंबूविजयजी . मुनिवर्य श्री तत्त्वानंदविजयजी संशोधक: मुनिवर्य श्री तत्त्वानंदविजयजी प्रयोजक : अमृतलाल कालिदास दोशी, बी. ए. प्रकाशक: जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई 57 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक नवीनचन्द्र अंबालाल शाह, एम.ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मण्डल 112, घोडबंदर रोड, इरलाब्रीज विलेपारले, मुंबई - 57 प्रथम आवृत्ति ईस्वीसन 1961 विक्रम संवत 2017 मूल्य : रु. 20 (1) मुद्रक लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी निर्णयसागर प्रेस 26-28, कोलभाट स्ट्रीट, मुंबई 2 (2) वि. पु. भागवत मौज प्रिंटिंग ब्यूरो, खटाउ मकनजी वाडी गिरगांव, मुंबई 4 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका मङ्गलपञ्चकम् 2. निवेदन ... ... 3. यंत्र-चित्र सूचि ... 4. यंत्र-चित्र परिचय ... विषय विषयानुक्रम क्रमांक (1) भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं (श्रीअभयदेवसूरिरचिता भगवतीसूत्रवृत्तिः) **(2) सप्तसु स्मरणेषु प्रथमं नमस्कारस्मरणम् (1) श्रीसिद्धिचन्द्रगणिकृता व्याख्या (2) श्रीहर्षकीर्तिसूरिकृता व्याख्या *(3) नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः (1) पण्डितगुणरत्नमुनिवरकृता नमस्कारप्रथमपदार्थाः (2) आगमिक श्रीदेवरत्नसूरिरचिताः नमस्कारमन्त्रान्तर्गत 'नमो लोए सव्वसाहूणं' पञ्चमपदगत सव्व'शद्वस्यानेकार्थाः (4) सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो (5) चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः (6) सिरिमाणदेवसूरिरइयं उवहाणविहिथुत्तं (7) वद्धमाणविज्जाविही भयवया सिरिभबाहुसामिणा विरइया सिरिआवस्सयसुत्तंतग्गया णमोक्कारणिज्जुत्ती 'श्रीपुष्पदन्त-भूतबलिप्रणीतस्य श्रीवीरसेनाचार्यरचितधवलाटीकया समन्वितस्य षटखण्डागमस्य संदर्भः / (छक्खंडागमसंदब्भो) 165 अरहंतणमोक्कारावलिया-अर्हन्नमस्कारावलिका (श्रीअर्हतोऽष्टोत्तरशतगुणवर्णनम्) (11) सिद्धणमोक्कारावलिया-सिद्धनमस्कारावलिका (श्रीसिद्धपरमात्मनोऽष्टोत्तरशतगुणवर्णनम्) 194 (12) अरिहाणाइथुत्तं [पंचपरमिहिनमुक्कारथुत्तं] 204 (13) श्रीभद्रगुप्तस्वामिप्रणीतः पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः 213 [पञ्चपरमेष्ठिचक्रं, वर्धमानचक्रं वा] (14) ध्यानविचारः 225 *(15) सिरिमाणतुंगसूरिविरइयं नवकारसारथवणं *(16) श्रीमानतुङ्गसूरिरचित नवकारसारथवणस्य नमस्कारव्याख्यानटीका 271 (17) कुवलयमालासंदब्भो 339 *(१७अ) परमेष्ठयादिपदगर्भितमन्त्रादयः 360(7) (18) सिरिजिणचंदसूरिविरइयं पंचनमुक्कारफलथुत्तं ध:-प्रत्येक स्तोत्रनो अनुवाद तथा तेनो ढूंक परिचय साथे ज आप्यो छे अने जे स्तोत्रनो अनुवाद नथी तेनी आगळ * एवं चिह्न कयु छ। 184 261 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 438 442 अनुक्रमणिका क्रमांक विषय पंचनमुक्कारफलं 380 (20) सिरिजिणदत्तसूरिविरइयं नमुक्काररहस्सथवणं सिरिजयचंदसूरिविरइयं पण्हगम्भं पंचपरमिट्टिथवणं (22) चउविहज्झाणथुत्तं चतुर्विधध्यानस्तोत्रम् ] सिरिणिकित्तिसूरिरइयं सोववण्णवक्खासमेयं पंचपरमिट्टिनमुक्कारमहथुत्तं परमेट्टिथयं 426 (25) सिरिगणिविजाथुत्तं (26) पंच-महा-परमिट्टि-संथयं (27) पंचपरमिट्टि-जयमाला (28) नवकारलहुकुलक (29) भत्तपरिन्नासंदब्भो (30) पंचसुत्तसंदभो (31) अंगविजापइण्णय-संदब्भो 443 (32) श्रीमद्हरिभद्रसूरिरचित संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः 445 प्रवचनसारोद्धार-तट्टीका-संदर्भः . 450 (मूलकर्ता - श्रीनेमिचन्द्रसूरिः-टीकाकर्ता - श्रीसिद्धसेनसूरिः) (34) सिरिसिड्ढरिसिरहय 'चंदकेवलिचरिय'संदब्भो (35) सिरिदेवभरिरइय 'कहारयणकोस'संदब्भो 457 सिरिपउमसीहमुणिविरइय 'णाणसार'संदब्भो 464 सिरिरयणसेहरसूरिविरइय-'सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदभो श्रीक्षमाकल्याणगणिकृतव्याख्यासमेतः (38) सिरिरयणसेहरसूरिविरइय सिरिसिरिवालकहा'तो पंचपरमिट्ठिपयाराहणविहिसंदब्भो 477 (39) श्रीमद्रत्नशेखरसूरिरचित सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्टिनः पञ्चनवकात्मकः संदर्भः 442 (40) उपदेशमालासंदभो 493 41) श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिविरचितस्य प्राकृतद्वयाश्रयकाव्यस्य श्रीपूर्णकलशगणिरचितटीकोपेतस्य सप्तमसर्गस्य संदर्भः सिरिजिणदत्तसूरिविरइयस्स सिरिसमयसुंदरगणिकयवक्खोपेयस्स 'तं जयउ' थवणस्स संदब्भो (43) सिरिदेविंदसूरिविणिम्मिय—'सुदंसणाचरिय'संदबभो [अरिहंताइवण्णनं] (44) श्राद्धदिनकृत्यान्तर्गतो नमस्कारविषयकः संदर्भः चउसरणपयन्नासंदब्भो प्रकीर्ण यंत्र-चित्रो शुद्धिपत्रक (37) 495 تم 0 0 0 می گ 0 گی 0 0 0 گی 0 0 یک تک 0 4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REAKERNET TRAMATAITTTTRALIA Seleven SHREE IMAGE TITUTITUTILITILITY SEARCH EALTAL UNUALIMALAMALINUTE D HTHHTHHA SENDE LAMILLLLIDUALLANA AAA H TSENSE जलय MPA HALUMIHIRTHDDRESS Nila LARTHAIRUSSIA SURPROO LATHIHIRURA REE CES CATI TAITRINTRIES iiiiiiiilhulhlil AN ALLAHULSpain ક્ષારક सकलरागादिमलकलङ्कविकलाय योगक्षेमविधायिने परमेश्वर-परमेष्टिने देवाधिदेवायार्हते नमोनमः / Page #7 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KGDP AKOT VAL FIL महाकविगुणपालविरचित 'जंबुचरिय' संस्थितं // मङ्गलपञ्चकम् // जम्मजरमरणभवजलहिउत्तारए, सिद्धिपुरगमणसुहसंपयागारए / असुरसुरमणुयपरिवंदिए जे जिणे, मंगलं पढमयं इंतु ते बुहयणे // 814 // सयलसंसारपरिमुक्कसंवासए, भवियलोयाण सद्दिन्नसुहवासए। कम्मवणगहणयं सोसिउं सिद्धए, मंगलं बीययं हुंतु तुह सिद्धए // 815 // कुमयवाईकुरंगाण पंचाणणे, ससमयपरसमयसब्भावपंचाणणे / पंचहायारपडिपुन्नसंधारए, मंगलं तइययं हुंतु तह सुहयरे // 816 // सव्वसाहूण उवएससंपदायए, उभयमुत्तत्थकयपवरसज्झायंए / धम्मसुक्काण झाणाण सज्झायए, मंगलं चोत्थयं हुंतुवज्झायए // 817 // नाणतवचरणसम्मत्तगुणपुन्नए, कोहमयमाणभयलोहसंचुन्नए / सयलसावजवावारकयसंवरे, मंगलं पंचमं हुंतु तह मुणिवरे // 818 // A ND SMINAR का PHOTOS ANANhW सार AWAR Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन घणां वर्षांनी प्रतीक्षा कराव्या बाद 'नमस्कार स्वाध्याय' ना विशाळकाय ग्रंथनो प्रथम प्राकृत विभाग समाज असमक्ष मूकतां अत्यंत आनंद अनुभवीए छीए / लगभग सात वर्ष पहेलां आ ग्रंथन संशोधनकार्य शरू करवामां आव्यु हतुं। शरूआतमां एम लाग्युं के आ मुख्यत्वे संग्रहनुं कार्य छे अने थोडाक समयमा पूर्ण थई जशे; परंतु जेम जेम अनेक जैन ज्ञानभंडारो तपासता गया अने शोधखोळनी दृष्टिए ऊंडा ऊतरता गया तेम तेम जणायु के संग्रह करवामां पण खूब चीवट, चोकसाई तथा परिश्रमनी आवश्यकता छे अने तेना अनुवाद तेमज अर्थाभिव्यक्तिमां तो तेथी पण अधिक काळजीनी जरूर पडे छे। आ कारणे ज केटलाक फर्मा छपाई गया पछी पण खास करीने तेना अनुवाद अंगे असंतोष रह्यो; परंतु संस्था तेमज समाजना सद्भाग्ये पू. मुनिश्री जंबूविजयजी तथा पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीनो निकट संपर्क थतां आ कार्य सरळ बन्यु / छपाई गयेल केटलोक अनुवाद न रुचतां लगभग बे तृतीयांश फर्मा व्यवस्थित सुधारीने फरी छपाववानी तेओश्रीए सूचना करी। आ सूचनानो अमे सादर स्वीकार को अने आवा. अपूर्व ग्रंथने बने एटलो शुद्ध, समृद्ध तेमज सुगम बनाववानी दृष्टिए पांत्रीश जेटला फर्मानुं पुनःमुद्रण करवानुं पण नक्की कर्यु। आ कारणे पण आ ग्रंथना प्रकाशनमा विशेष विलंब थवा पाम्यो। आ ग्रंथप्रकाशननी पाछळनो मुख्य उद्देश नव स्मरण पैकी प्रथम स्मरण "श्री नमस्कार महामंत्र" ने यथार्थ स्वरूपमा स्फुट करवानो छे। संस्था तरफथी प्रकाशित थयेल 'श्री प्रतिक्रमणसूत्र-प्रबोधटीका' ना त्रण भागमां नव स्मरण लई लेवानी भावना हती पण अति विस्तार थई जवाना कारणे मात्र पांच ज स्मरणनो तेमा समावेश करी शक्या / वळी, प्रबोधटीकार्नु संशोधनकार्य जेम जेम आगळ वधतुं गयु तेम लाग्यु के नव स्मरणो पैकी दरेक स्मरण पर एटलु बधुं विस्तृत अने समृद्ध साहित्य रचायेलुं छे के प्रत्येक स्मरण पर एक मोटो ग्रंथ प्रकट करी शकाय। आ संजोगोमां संस्थाना प्रमुख शेठ श्री अमृतलालभाईने दरेक स्मरण पर स्वतंत्र ग्रंथ प्रकट करवानी प्रेरणा थई अने ते पैकी प्रथम स्मरण "श्री नमस्कार मंत्र" अंगेनो ग्रंथ सौथी पहेलां हाथ पर लीधो। "श्री नमस्कार मंत्र" - संग्रहकार्य आगळ वधतुं गयुं तेम जणायुं के आ परममंत्रना माहात्म्य माटे एटलं बधुं अने एवं सुंदर, उत्तम तेमज विस्तृत साहित्य छे के तेने मात्र एक ज ग्रंथमा प्रकाशित करी शकाशे नहि; कारणके तेम करतां तेनुं प्रकाशन करवामां घणो समय जशे एटलं ज नहीं पण पुस्तकनु कद पण घणुं वधी जशे। तेथी आ बधा साहित्यने त्रण विभागमा प्रकाशित करवानो निर्णय कोः-(१) नमस्कार स्वाध्यायः प्राकृत विभाग (2) नमस्कार स्वाध्यायः संस्कृत विभाग (3) नमस्कार स्वाध्याय : अपभ्रंश-हिंदी-गूजराती विभाग। तेमाथी लगभग साडा पांचसो पृष्ठ प्रमाणनो प्रथम प्राकृत विभाग रजू करीए छीए। बाकीना बे विभाग पण संपूर्ण तैयार छे। तेनुं मुद्रणकार्य झडपथी थशे तो ते बन्ने विभागोन प्रकाशन करतां झाझो समय लागशे नहीं। प्रस्तुत प्रकाशनमां अनेक पूज्य मुनिवरो, व्यक्तिओ तेमज संस्थाओनो महामूलो फाळो छे; एटले आ ग्रंथ अनेक विद्वानोना सामूहिक प्रयासोनु शुभ परिणाम छे एम कहेवं विशेष समुचित छे / / संस्कृत अने प्राकृत भाषाना समर्थ विद्वान तेमज 'न्याय'ना ऊंडा अभ्यासी पू. मुनिश्री जंबूविजयजीए 'भगवतीसूत्र', 'महानिशीथसूत्र', 'चैत्यवंदनमहाभाष्य', 'ध्यानविचार' वगेरे नमस्कारविषयक संदर्भोनो संपूर्ण अनुवाद करी आपी अमारा कार्यने अतीव सरळ बनाव्यु छे। पू. मुनिश्री जंबूविजयजी तथा तेओश्रीना पूज्य गुरुदेव स्व. मुनिश्री भुवनविजयजीनो आ ग्रंथनी शरूआतथी ज खूब भावनाभर्यो आवकार मळ्यो छे अने तेना संशोधनमां सतत प्रेरणा, प्रोत्साहन तेमज सहकार प्राप्त थयेल छ। 'नयचक्र'ना संपादनकार्यमां सतत उद्यमी रहेवा छतां पू. मुनिश्री जंबूविजयजीए संस्थाना संशोधनकार्य माटे ज्यारे ज्यारे जरूर पडी त्यारे पोताना किंमती समयनो विना संकोचे भोग आप्यो छे अने ते उपकार बदल तेओश्रीना तथा स्वर्गस्थ मुनिश्री भुवनविजयजीना खूब ज ऋणी छीए / खास करीने पू. मुनिश्री जंबूविजयजीए अनुवादित करेल उपर्युक्त विषयो उपरांत बीजा पण घणा विषयोनी बाबतमां अमुक मूळपाठ नियत कखामा, भिन्न भिन्न पाठांतरोनी नोंध आपवामां तेमज उपयोगी पुस्तको अने प्रतो मेळवी आपवामां आगमप्रभाकर पूज्य मुनिश्री पुण्यविजयजीए अमने तात्कालिक सहकार आप्यो छे अने ते उपकार माटे तेओश्रीना अमे अत्यंत आभारी छीए। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय संस्कृत अने प्राकृत साहित्यना एकनिष्ठ उपासक परम पूज्य पंन्यास श्री धुरंधरविजयजी गणिवरे 'उवहाणविहिथुत्तं', 'कुवलयमाला', 'सिरिगणिविज्जाथुत्तं' 'पण्हगब्भं पंचपरमिहिथवणं' वगेरे विषयो- सुंदर भाषांतर करी आपी तेमज बीजा अनेक विषयोनी बाबतमां मूळपाठ, अनुवाद आदि अंगे उपयोगी समज मेळववानी आवश्यकता ऊभी थई त्यारे पोताना किंमती समयनो भोग आपीने पण तेओश्रीए अमने अति महत्त्वनी सलाह-सहाय आपी छ। चातुर्मास दरम्यान संस्थाना कार्यालय पासे आवेली श्री करमचंद जैन पौषधशाळामां तेओश्रीनी स्थिरता हती अने ते कारणे अमारा संशोधनकार्यने सविशेष प्रवेग तेमज प्रोत्साहन मळ्यां छे। ज्यारे ज्यारे गूंच ऊभी थाय त्यारे प. पू. पंन्यासजी महाराज पासे तेना उकेल माटे दोडी जईए अने विना विलंबे अमारूं कार्य आगळ चाले। पुस्तक पूरु थया बाद तेओश्रीए ज ग्रंथनी शरूआतमां मूकी शकाय एवा पांच श्लोको शोधी आप्या हता। तेओश्रीए सूचवेल आ श्लोको 'मङ्गलपञ्चकम् ' ना शीर्षकथी आ निवेदननी शरूआतमां आपेल छे। ते श्लोको 'जंबुचरियं' (सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन; बम्बई 7) ना पृष्ठ 199-200 माथी लेवामां आव्या छ। आ श्लोको अर्थनी दृष्टिए जेवा उत्तम छे तेवा ज माधुर्यसभर, लालित्यपूर्ण अने गेयतायुक्त छ। आ रीते तेमना तरफथी अमने घणो लाभ मळ्यो छे। पू. पंन्यासजीनी आवी सदभावना माटे अमे तेओश्रीनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानीए छीए। आलुं पुस्तक तैयार थया पछी तेनुं समग्र रीते विहंगावलोकन करी तेने संपूर्ण शुद्ध स्वरूप आपवानुं भगीरथ कार्य हजु बाकी हतुं / आ कार्य माटे संस्कृत अने प्राकृतना गहन अभ्यासनी, व्याकरणना सचोट ज्ञाननी अने सूक्ष्म निरीक्षणशक्तिनी अनिवार्यता हती। आवो त्रिवेणीसंगम ज्यां थयो होय तेवी समर्थ व्यक्तिने शोधवानुं अने शोध्या पछी आ कार्यनी उपयोगिता दर्शावी तीव्र धगश जागृत करवान कार्य पण सरळ न हतुं; परंतु संस्थाना माननीय प्रमुख शेठश्री अमृतलालभाईना सतत प्रयासोने कारणे सुयोग्य व्यक्तिनो संयोग थतां वार न लागी। तेओश्री जाते ज सिद्धांतमहोदधि परम पूज्य आचार्य श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजसाहेब पासे गया अने 'नमस्कार स्वाध्याय 'ना शुद्धिकार्य तेमज संशोधनकार्य अर्थे एक शिष्यरत्नने आपवा खास विज्ञप्ति करी। पू. आचार्यश्रीए संस्थानी संशोधन प्रवृत्तिओनी अनुमोदना करी अने ए कार्यमा अत्यंत सहायक बनी शके ते माटे विद्वदूशिरोमणि प. पू. पं. श्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्यरत्न, संस्कृत-प्राकृतना एकनिष्ठ उपासक पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीनी भलामण करी। प. पू. आचार्यश्रीनी आज्ञाने विनम्रभावे अनुमोदता पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए अमारं कार्य सहर्ष आवकायु अने तेने जलदी पार पाडवा माटे कठिन साधना आदरी। दररोज सात-आठ कलाक सतत परिश्रम लई 'नमस्कार स्वाध्याय'र्नु अथ थी इति सुधी तीक्ष्ण बुद्धिपूर्वक अवलोकन कयु अने एकेएक पंक्ति ध्यानपूर्वक वांची जई शुद्धिपत्रक तैयार कयु। मूळपाठ उपरांत खास करीने भाषांतर अंगे तेओश्रीए महत्त्वनी शुद्धिओनो निर्देश को अने - घणा उपयोगी-फेरफारो सूचव्या। केटलांक स्तोत्रोनो अनुवाद फरी करवानी पण जरूर जणाई अने ते अनुसार 'अर्हन्नमस्कारावलिका' 'सिद्धनमस्कारावलिका', 'अरिहाणाइथुत्तं', 'नमुक्काररहस्सथवणं', 'भत्तपरिन्ना', 'संबोधप्रकरण', 'णाणसारसंदब्भो', 'चउसरणपयन्नासंदब्भो' वगेरेनो अनुवाद नवेसरथी करवानुं सूचन कर्यु। आ सूचननो अमे सादर स्वीकार को अने ते बधां स्तोत्रोना पुनः अनुवाद माटे तेमने ज नम्र विज्ञप्ति करी। अमारी विनंतीने मान आपी अति श्रम अने समयना भोगे पार पडे एवा ए कार्यने पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए अति सफळतापूर्वक पूर्ण कयु अने ए रीते आ ग्रंथ नवु स्वरूप पाग्यो। लगभग बे तृतीयांश जेटला फर्मा बदल्या छतां थोडाक फर्माओमां केटलीक अशुद्धिओ रही जती हती; तेथी तेनुं एक शुद्धिपत्रक तैयार करी ग्रंथने अंते रजू कयु छे / शुद्धिकरणना आ कार्यमा अर्थव्यय थवा उपरांत समयव्यय पण विशेष थयो अने परिणामे ग्रंथप्रकाशन घणुं लंबायु; तेम छतां ए बधाने अंते समाजने जे महामूली साहित्यमूडी प्राप्त थई छे तेनो इनकार थई शके एम नथी। पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए करेला श्रमने लीधे समाजने एक अति शुद्ध, समृद्ध तेमज उपयोगी ग्रंथ प्राप्त थयो छे अने आवी चीवटपूर्वकनी निःस्वार्थ महेनत बदल तेओश्रीनो जेटलो उपकार मानीए एटलो ओछो छ। पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीना निकट परिचय माटे सिद्धांतमहोदधि प. पू. आचार्य श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब, प. पू. पं. श्री भद्रं विजयजी गणिवर्य तथा प. पू. पं. श्री भानुविजयजी गणिवर्य महत्त्वना निमित्तरूप बनेल छे अने आ परमार्थ .. बदल तेओश्री प्रति अमारो नम्र पूज्यभाव व्यक्त करी हर्षोर्मि अनुभवीए छीए। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन __उपर्युक्त शुद्धिपत्रक तैयार करवामां पू. मुनिश्री अभयसागरजीए आपेल फाळो पण खास नोंधपात्र छ / तेओश्री आ ग्रंथने साद्यंत वांची गया हता अने वांचतां वांचतां जे जे अशुद्धिओ जणाई के फेरफार करवा योग्य लाग्या तेनी नोंध करता गया। फर्माओना पुनःमुद्रणमां अमे तेओश्रीनां सूचनो आमेज करी लीधां अने ते सिवायनी शुद्धिओ ग्रंथने छेडे आपेल शुद्धिपत्रकमां समाविष्ट करी लीधी। पू. मुनिश्री अभयसागरजीनी आ सहाय प्रशंसापात्र छे अने तेनी साभार नोंध लेतां अमने अत्यंत आनंद थाय छे।। आ उपरांत 'श्री नमस्कार महामंत्र' अंगेनुं साहित्य एकत्र करवामां, अनुवाद अंगे सूचनो करवामां, स्तोत्रोनी पसंदगीमा तेमज अन्य जरूरी माहिती पूरी पाडवामां नमस्कारमंत्रना परम आराधक प. पू. पंन्यास श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य, प. पू. पंन्यास श्री भानुविजयजी गणिवर्य आदिए अति किंमती सलाह आपेल छे, जे बदल ते गुरुवर्योनो हार्दिक उपकार मानीए छीए। 'नमस्कार स्वाध्याय' ना त्रणे विभाग माटे अनेक यंत्रो तथा चित्रो तैयार करवामां आव्यां छे अने ए बधुं कार्य डभोईना जाणीता चित्रकार श्री रमणीकलाले खूब परिश्रमपूर्वक कर्यु छे। चित्रोना ब्लॉको बनाववामां मेसर्स एच. पी. मित्र तथा प्रेस प्रोसेस स्टुडीओए जवाबदारी लीधी हती अने पोतानी आ फरज तेओए सारी रीते अदा करी हती, जे बदल संस्था तरफथी तेमने धन्यवाद पाठवीए छीए। प्रस्तुत ग्रंथ- मुद्रणकार्य निर्णय सागर प्रेसमां शरू करवामां आव्यु हतुं अने घणुखरुं छापकाम त्यां ज थयु 'छे। ए बदल ते प्रेसना कार्यवाहकोने अमे आभार मानीए छीए / पाछळथी केटलाक फर्मा बदलवानी जरूर ऊभी थतां तेमज केटलुक मॅटर तद्दन बाकी होवाने लीधे अने वळी शीघ्रगतिए काम थाय ए दृष्टिए पंदरेक फर्मा जेटलुं मॅटर अमारे मौज प्रिंटिंग प्रेसमां छपावq पड्युं / आम करवा जतां कागळ, टाईप आदिमां विभिन्नता आववा पामी अने मुद्रणनी एकवाक्यता जाळवी न शकाई; तेम छतां मौज प्रेसना झडपी अने सुंदर छापकामथी अमने घणो ज संतोष थयो। आवं संतोषकारक काम आपवा बदल मौज प्रेसना प्रोप्राईटर श्री. वि. पी. भागवतनो अने तेमनी साथे निकट परिचय करावी आपनार श्री. कान्तिलाल डाह्याभाई कोरानो अमे हार्दिक आभार मानीए छीए। संशोधन अने संग्रहना आ कार्यमा खास करीने हस्तप्रतो पूरी पाडवामां अनेक संस्थाओ, जैन ज्ञानभंडारो अने प्रतिष्ठित व्यक्तिओ तेमज विद्वानो तरफथी अमने भावभीनो सहकार मळ्यो छ। एमां मुख्यत्वे नीचे जणावेल ज्ञानभंडारो अने संस्थाओनो समावेश थाय छे: (1) श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालीताणा (2) श्री विजयमोहनसूरीश्वरजी हस्तलिखित शास्त्रसंग्रह, पालीताणा (3) शेठ श्री आणंदजी कल्याणजीनी पेढी हस्तक श्री. जैन श्वेतांबर ज्ञानभंडार, पालीताणा (4)" " " " " " " "" " " लोंबडी (5) श्री हीरजी जैन शाळा ज्ञानभंडार, जामनगर श्री अंचलगच्छ ज्ञानभंडार, जामनगर श्री डेला जैन उपाश्रय ज्ञानभंडार, अमदावाद (8) श्री विजयदानसूरि ज्ञानमंदिर, अमदावाद (9) श्री संवेगीनो उपाश्रय जैन ज्ञानभंडार, अमदावाद (10) श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमंदिर, वडोदरा (11) श्री आत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिर, वडोदरा (12) श्री जैनानंद पुस्तकालय, सूरत (13) श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिर, पाटण (14) श्री अमरविजयजी जैन ज्ञानभंडार, डभोई (15) श्री मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई (16) श्री लावण्यविजय जैन ज्ञानभंडार, राधनपुर (17) श्री वीरसूरीश्वरजी जैन ज्ञानभंडार, राधनपुर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय (18) श्री आत्मकमल लब्धि जैन ज्ञानभंडार, दादर; मुंबई (19) श्री शांतिनाथजी जैन देरासर-श्री सागरगच्छ प्रवचन पूजक सभा, मुंबई (20) श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई (21) श्री भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिटयूट, पूना (22) श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर उपर्युक्त संस्थाओना अमे खूब ज ऋणी छीए / आ उपरांत प. मुनिश्री यशोविजयजी, श्री जिनविजयजी, श्री अगरचंदजी नाहटा, स्व. मोहनलाल भगवानदास झवेरीनां विधवा सुधाबहेन वगेरेनो हस्तप्रतो आपवा बदल खास आभार मानीए छीए / तदुपरांत आ विशाळ पाया परना कार्यमा अनेक व्यक्तिओ तरफथी भिन्न भिन्न रीते सहकार मळ्यो छे अने ते बधांनो प्रत्यक्ष नामोल्लेख अहीं न करी शकीए तो पण ते सौनो परोक्ष रीते आभार मानवानी अहीं तक लईए छीए। प्रस्तुत ग्रंथना वस्तु अंगे विचार करतां एटलुं स्पष्ट कही शकाय के अहीं आपेल संग्रहमांथी 'श्री नमस्कार महामंत्र'ने लगती घणी उपयोगी महत्त्वनी विगतो तारवी तेने व्यवस्थित रीते कडीबद्ध सांकळी शकाय। तेमां घणां स्तोत्रो एवां छे के ते प्रत्येक पर विस्तृत विवेचन तैयार करी स्वतंत्र पुस्तिका रूपे प्रकट करी शकाय। अही त प्राकृत भाषामां रचायेल नमस्कारविषयक जे श्रेष्ठ साहित्य मळ्यु छ तेनो संग्रह मात्र करवामां आव्यो छे, परंतु आ विषयना अभ्यासीओ अने आराधको माटे ते अमूल्य सामग्री पूरी पाडे छे। आमां घणी एवी वातो छ के जे वर्षोथी भूलाई जवा पामी छे। विस्मृतिना प्रवाहमा तणाई जती आवी धर्मप्रणालीओने बचावी लई तेनुं पुनरुत्थान करवू अनिवार्य छ / ज्यांसुधी तेनी पारिभाषिकतानुं वैज्ञानिक रीते व्यवहारु निरुपण नहीं करवामां आवे त्यांसुधी आ अचिन्त्य चिंतामणिकल्प अने सर्व महामंत्रो तथा प्रवर विद्याओना परमबीज तरीके वर्णवायेल श्री पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधने तेना यथार्थ स्वरूपमां समजी शकाशे नहीं / प्रस्तुत ग्रंथ आवा स्वाध्याय माटे पुष्कळ माहिती पूरी पाडे छे अने संशोधकोने माटे अमूल्य खजानो खुल्लो करे छ। आ परममंत्र केटला अक्षर परिमाणनो छे; तेमां निर्दिष्ट आलापक, संपदा, स्वर, व्यंजन, वर्ण, पद, पदाक्षर, मात्रा, बिंदु वगेरे शुं छे, पंचमंगल एटले शु; आ महामंत्रमा नमस्कार कोने करवामां आवे छे, केवी रीते करवामां आवे •छे अने शा माटे करवामां आवे छे; तेनुं विनयोपधान कई विधिथी सिद्ध थई शके; कयां लक्षणो आराधकनी योग्यता सूचवे छेः कया समये, केवा स्थळे, कोनी पासेथी अने केवी रीते तेनी वाचना लेवी जोईए, तपोपधान केटलुं अने केवी रीते करवु जोईए, सर्व जीवो प्रति आत्मतुल्यतानी दृष्टिने (अत्तसमदरिसित्तं) शा माटे महत्त्व आपवामां आव्यु छ; अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए शब्दो शाना द्योतक छे; ए शब्दो व्युत्पत्ति अने व्याख्यानी दृष्टिए केटली रीते विचारी शकाय; तेनो गर्भार्थ एटले के परम रहस्यभूत अर्थ शो छे; ए पांच पदोनो समग्र विश्व साथे संबंध केवी रीते छे; बोधिलाभ शुं छे अने ते केवी रीते सुलभ थाय; मांत्रिक, तांत्रिक अने योगिक दृष्टिए आ महामंत्रनुं स्थान सर्वश्रेष्ठ केवी रीते छे; तेनाथी कई सिद्धिओ, रिद्धिओ अने लब्धिओ प्राप्त थाय छे-वगेरे अनेक प्रश्नो उपस्थित थाय छे अने ते बधा प्रश्नोनी समालोचना करवा माटे आ ग्रंथ अत्यंत अद्भुत माहिती प्रकाशमां लावे छे। श्री महानिशीथसूत्रमा आ विषय अंगे जे पाठ मळ्यो छे ते श्री नमस्कार महामंत्रना आराधको माटे अजोड मार्गदर्शन करावे छ। एमां श्री अरिहंत परमात्मानुं सुंदर वर्णन पण छे। श्री चैत्यवंदनमहाभाष्य उपरनी श्री धर्मकीर्तिसूरिनी टीकामां श्रीमहानिशीथसूत्रना घणा उपयोगी फकराओनी नोंध लेवामां आवी छे, जे तेनी अनेकविध महत्ता स्थापित करे छे। ए टीकामां श्री महानिशीथसूत्र उपरांत नमस्कारपंजिका, सिद्धचक्र, अष्टप्रकाशी, छंदःशास्त्र उपधानविधि, प्रवचनसारोद्धार, बृहन्नमस्कारफल, भगवतीसूत्र, नमस्कारनियुक्ति, प्रत्याख्याननियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति छेदसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र वगेरे अनेक ग्रंथोनो उल्लेख करवामां आव्यो छे। श्री नमस्कार महामंत्रना आराधके आ ग्रंथो १.श्रीमहानिशीथसूत्रसंदर्भ', पृ. 36. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन अवश्य अवलोकवा जोईए। आ ग्रंथोमांथी जे प्राप्त थया तेमांथी नमस्कारविषयक संदर्भो तारवीने प्रस्तुत ग्रंथमां रजु कर्या छे। ते पैकी उपधानविधि (उवहाणविहिथुत्तं) मां श्री नमस्कार महामंत्रनी वाचना लेवा माटेना उपधाननो व्यवस्थित आम्नाय आपवामां आव्यो छे अने ते मंत्रना उपासकनुं स्थान केटलुं ऊंचुं छे ते सुंदर रीते बताववामां आव्यु छे; श्री नमस्कारनियुक्तिमां (णमोक्कारणिज्जुत्ती) उत्पत्ति, निक्षेप आदि अगियार द्वारथी तेनी विशद विचारणा करवामां आवी छे अने श्री' बृहन्नमस्कारफलमां नमस्कार महामंत्रनो सर्वागी महिमा गावा उपरांत तेनी आराधनाथी प्राप्त थतां विशिष्ट फळोनी विस्तृत नोंध लेवामां आवी छ। उपर्युक्त तात्त्विक बाबतोनी विवेचना करतां स्तोत्रो उपरांत श्री नमस्कार महामंत्रनो भिन्न भिन्न दृष्टिए विविध - उल्लेख करतां, तेर्नु उचित फळ पामेल प्रभावशाली व्यक्तिओनो निर्देश करतां, स्वानुभवने लीधे श्री नमस्कारमंत्रना प्रभावथी उल्लसित थयेल महात्माओनो अहोभाव व्यक्त करतां; अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु भगवंतनुं पृथक् पृथक रीते यशोगान करतां तथा गूढ अने मंत्रगर्भित एवां अनेक स्तोत्रोनो प्रस्तुत ग्रंथमा समावेश करवामां आव्यो छे। . ध्यानविचार, नवकारसारथवण, नमस्कारव्याख्यानटीका आदि कृतिओ आ ग्रंथनी यशकलगीरूप छ। ध्यान. शून्य, कला, ज्योति, बिन्दु, नाद, तारा वगेरे ध्यानना चोवीश मार्गोनुं व्यवस्थित निरूपण 'ध्यानविचार' सिवाय अन्य कोई ग्रंथमां मळतुं नथी। मंत्रगर्भित एवा 'अरिहाणाइथुत्तं' मां ते पारिभाषिक शब्दोनो नामोल्लेख मळे छे, पण तेनुं यथार्थ रहस्य तो 'ध्यानविचार' मां ज स्फुट थाय छे, जो के ध्यानविचारनी रचना पण कोई महान मौलिक ग्रंथने आधारे थई होवी जोईए अने ज्यांसुधी एवो कोई ग्रंथ प्राप्त न थाय त्यांसुघी 'ध्यानविचार' नी संपूर्ण समज मेळववी कठिन पडे। पू. मुनिश्री जंबूविजयजी तथा पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए करेल परिश्रमने लीधे 'ध्यानविचार' ने सारी रीते गुजरातीमां उतारवार्नु कार्य सफळ थयु छे / आ किंमती कृति अनेक दृष्टिए योगाभ्यासीओने उपकारी थाय तेम होवाथी तेनी एकसो जेटली वधु नकलो अलग प्रकट करीने पोष सुद 1, वि. सं 2017 ना रोज मुमुक्षुवर्गने अध्ययन अध्यापन माटे संस्था तरफथी भेट धरवामां आवी छ। ध्यानविचारनुं रहस्य पामवा जेवो नोंधपात्र प्रयास थयो छे तेवू 'नवकारसारथवण' अने तेना उपरनी विस्तृत 'नमस्कारव्याख्यानटीका'नी बाबतमां कई थई शक्यु नथी। नवकारसारथवणनो गुजराती अनुवाद छापवामां आव्यो हतो, परंतु ए अनुवाद संतोषकारक न होवाथी ते विषयना जाणकार पूज्य गुरुवर्योनी सलाहने मान आपी ज्यांसुधी आवां स्तोत्रो संतोषकारक रीते न समजाय त्यांसुधी तेनुं मूळ मात्र आपq एम नक्की कर्यु। ए रीते प्रस्तुत ग्रंथमां नवकारसारथवण, नमस्कारव्याख्यानटीका अने परमेष्ठयादिपदगर्भितमन्त्रादयः एम त्रण विषयोनो अनुवाद आप्यो नथी। आमांथी नमस्कारने लगता मन्त्रो बिलकुल न ज आपवा एवं एक सूचन हतुं। ज्यांसुधी आवा प्रबळ मन्त्रोनी शुद्धि अंगे छेवटना निर्णयो न लेवाय त्यांसुधी तेने प्रकट करवाथी तेनो हेतु सरतो नथी; परंतु पाछळथी विचारविनिमय करतां पूज्य गुरुवर्योनी संमति मळी के हस्तलिखित प्रतोमा जे स्वरूपे मळ्या ते स्वरूपे मात्र मूळ मंत्रोने अनुवाद कर्या विना आपवामां खास बाध नथी। आवी अनुमति मळतां नमस्कारने लगता महत्त्वना मंत्रोने फरी छापवान नक्की की। पहेलां विषय नं. 17 तरीके मन्त्रोने अनुवाद सहित छापवामां आव्या हता, परंतु ते रद करवानुं नक्की थतां तेनी जगाए नंबर 17 तरीके 'कुवलयमाला' माथी तारवेल नमस्कारविषयक श्लोकोने छाप्या। आ छपाई गया बाद उपर का तेम नमस्कारमन्त्रोने मूळ स्वरूपे आपवानुं जरूरी जणायु अने तेथी तेनो विषय नं. १७अ तरीके समावेश करी लीधो। आम करवाथी बे फर्मा वध्या अने तेने ४५अ तथा ४५ब एम नंबर आपी क्रम जाळवी लीधो। अनुवाद विनानी उपर्युक्त त्रणे कृतिओ हजु ऊंडु संशोधन मागे छे। उपर प्रस्तुत ग्रंथना वस्तु प्रति जे अंगुलिनिर्देश करवामां आव्यो छे ते तो मात्र उपलक परिचय ज छे; तेनुं यथार्थ ज्ञान तो त्यारे ज प्राप्त थाय के ज्यारे आ ग्रंथमांना दरेके दरेक स्तोत्रनो निष्ठापूर्वक स्वाध्याय करवामां 1. प्रस्तुत ग्रंथमां आ स्तोत्र 'पंचनमुक्कारफलथुत्तं' नामे छापायेल छे-जुओ पृष्ठ 363 थी 378. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय आवे। श्री नमस्कार महामंत्रना संशोधको तथा आराधकोने आ साहित्यसामग्री अनेक रोते उपयोगी थशे एवी आशा छ। प्रस्तुत ग्रंथमाथी उपस्थित थतां 17 यंत्र-चित्रो तेमज बीजां उपयोगी यंत्रो तथा चित्रो ग्रंथने छेडे आपवामां आव्यां छे। प्रथम त्रण यंत्र-चित्रो पुस्तकना आकार करतां मोटां होवाथी जुदी जुदी योग्य जगाए मूक्यां छे। ग्रंथनी शरूआतमां पण पांच चित्रो आपवामां आव्यां छे। आ चित्रोनी सूचि तथा ढूंक परिचय हवे पछी आप्यो छे। आ ग्रंथना संपादनकार्यमा अनेक हस्तप्रतो अने आधारभूत ग्रंथोनो उपयोग करवामां आव्यो छे। ते बधानी नोंध करीए तो घणी मोटी यादी तैयार थाय, परंतु घणीखरी प्रतो अने प्रकाशित ग्रंथोनो उल्लेख दरेक स्तोत्रना छेडे आपेल परिचयमा कर्यो छे एटले तेनी जुदी यादी आ ग्रंथमां आपी नथी। आवी एक विस्तृत यादी श्री नमस्कार महामंत्रना अभ्यासीने अवश्य उपयोगी बने अने तेनो श्री 'नमस्कार स्वाध्याय' ना छेल्ला विभागमा समावेश करी लेवानी भावना छे। तदुपरांत 'नमस्कार स्वाध्याय' ना त्रणे विभागनो नीचोड जेमा आवी जाय अने त्रणे विभागना समग्र वस्तुने ढूंकमां छतां सचोट रीते आवरी ले एवो एक अभ्यासपूर्ण परिचयात्मक लेख तथा उपोद्घात छेल्ला विभागमां आपवानी धारणा छ / . अमे जाणीए छीए के आग्रंथना केटलाक विषयो अतिगूढ छे, विषयोना शुद्ध पाठो अने अर्थना विशिष्ट ज्ञान माटे जेवी जोईए तेवी सामग्री आजे उपलब्ध नथी; छतां अमारी अल्पशक्ति मुजब अमे अनुवाद वगेरेमा प्रयत्न कर्यो छे। जेओ ए विषयमां वधु जिज्ञासाने धरावे छे तेमने अमारो आ प्रयत्न उपयोगी थशे अने आ माहिती परथी तेओ ते विषयोमां वधु ऊंडा जई शकशे; एवी अमारी आशा अस्थाने नथी। आ ग्रंथना संपादन अने प्रकाशनमा जो कोई त्रुटिओ रही जवा पामी होय, तो ते माटे अमे चतुर्विध संघनी अंतःकरणपूर्वक क्षमा मागीए छीए अने श्री नमस्कार महामंत्रना अग्यासीओ अने आराधकोने विनंती करीए छीए के तेमणे अनुग्रह करीने अमोने उदारभावे ते विषे लखी जणावq। आवां सूचनोनी अमे साभार नोंध लईशृं। - जो के संशोधको वगेरे माटे आ ग्रंथमां समाविष्ट करेल वस्तु अति लाभदायी नीवडशे; छतां श्री 'नमस्कार * महामंत्र'नुं पारमार्थिक स्वरूप सर्व शब्दोथी पर छे-अनिर्वचनीय छ। ए स्वरूपने पामवानो मार्ग केवळ ध्यानादिद्वारा - स्वानुभवनो छे। जगतना सर्व जीवो ए दिव्य परमामृततुल्य परम स्वानुभवने पामो, एवी मंगल कामना / महा वद 4, वि. सं. 2017 ता. 5-2-1961. विलेपारले, मुंबई-५७. सेवक नवीनचन्द्र अंबालाल शाह, एम. ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मंडल. pat Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्र सूचि ग्रंथनी शरूआतमां आपेल प्रथम पांच चित्रोनो अनुक्रम: (1) परमेश्वर-परमेष्ठी श्री अरिहंतदेव (2) शासनरक्षिका देवी चक्रेश्वरी-विमलवसही, देलवाडा; आबु (3) ह्वीकारमध्यस्थित पार्श्वप्रभुः (4) पञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्रः (5) मङ्गलमुखपाठः ग्रंथमांथी सूचित थतां सत्तर यंत्र-चित्रोनो अनुक्रमः(१) श्रीपञ्चनमस्कारचक्रम् पृष्ठ : 207 (पं. 19), 211 (पं. 23), 213, 224 (पं. 20) (2) 'ध्यानविचार' प्रस्तावे ध्यानमार्गस्य विंशतितमे भेदे परममात्रानामा चतुर्विंशतिवलयैः परिवेष्टित . आत्मध्यानप्रकारः पृष्ठ : 229 (पं. 22), पृष्ठ 228 नी सामे (3) वर्धमानविद्यायन्त्रपटः पृष्ठ : 104 नी सामे (4) परस्परावलोकनब्यग्रवामजानुन्यस्ततीर्थकरमातरः पृष्ठ : 230 (पं. 3), 282 (पं. 5, 24), 513 (5) शृंखलाजाति चित्रबंध पृष्ठ : 389 (पं. 15), 514 (6) अष्टदलकमलबंध पृष्ठ : 395 (पं. 14), 514 (7) गुदलिङ्गमध्ये आधारचक्रं प्रथमम् पृष्ठ : 396 (पं. 20), 514 (8) लिङ्गमूले स्वाधिष्ठानचक्रं द्वितीयम् पृष्ठ: 396 (पं. 23), 515 (9) नाभौ मणिपूरचक्रं तृतीयम् पृष्ठ : 396 (पं. 27), 515 (10) हृदये अनाहतचक्रं चतुर्थम् पृष्ठ : 396 (पं. 31), 516 (11) कण्ठे विशुद्धचक्रं पञ्चमम् पृष्ठ : 397 (पं. 15), 516 (12) घण्टिकायां ललनाचक्रं षष्ठम् पृष्ठ 397 (पं. 18), 517 (13) भ्रमध्ये आज्ञाचक्रं सप्तमम् पृष्ठ : 397 (पं. 20), 517 (14) मस्तके सोमकलाचक्र अष्टमम् पृष्ठ : 397 (पं. 23), 517 (15) ब्रह्मद्वारे ब्रह्मबिन्दुचक्रं नवमम् पृष्ठ : 397 (पं. 25), 518 (16) ब्रह्मद्वारोपरि हंसनादचक्रं दशमम् पृष्ठ : 398 (पं. 5), 518 (17) नादवलयितह्रीकारोदरस्थौकारोदरस्थ--अर्हकारः . पृष्ठ : 467 (पं. 23), 518 अंथने छेडे आपेल अन्य उपयोगी यंत्र-चित्रोनो अनुक्रमः(१) ॐकारः पृष्ठ : 519 (2) ॐकारयन्त्रम् पृष्ठ : 519 (3) ह्रीकारः पृष्ठ : 520 (4) नमस्कार-यंत्रम् पृष्ठ : 521 (5) गीर्वाणयंत्रम् पृष्ठ : 521 (6) नमस्काराष्टकम् पृष्ठ : 522-523 (7) शुङ्ख-नन्दि-नवपद-ॐकाररूपावर्तचतुष्कम् पृष्ठ : 524 (8) ह्री-श्री-सिद्धात्मकावर्तत्रिकम् पृष्ठ : 525 .. (9) मुद्राषट्कम् पृष्ठ : 526 (10) पञ्चपरमेष्ठि नमस्कारप्रथितरम्यसूत्रपटी पृष्ठ : 527 (11) वापीयन्त्रम् पृष्ठ : 528 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCIAOMIND Vay NODEMAMAYS M COM IPIHCN शासनरक्षिका देवी चक्रेश्वरी-विमलवसही, देलवाडा; आबु Page #17 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्र परिचय नोंध: 'नमस्कार स्वाध्याय 'ना आ प्राकृत विभागनी शरूआतमां आपेला पांच चित्रोमांथी त्रण अने यंत्रो सिवायनां बीजां छूटांछवायां अनेक चित्रो के जे जैन शिल्प-स्थापत्यना महत्त्वना नमूनारूप छे ते मथुराना कंकालीटीलाना खोदकाममांथी मळी आवेल अवशेषोना फोटाओने आधारे तैयार करावेल छे। जेम जेम विशेष संशोधन थतुं गयुं तेम तेम जैन शिल्प-स्थापत्यनी दृष्टिए कंकालीटीलानी अगत्य वधती रही छे। कंकालीटीलामांथी जूनां प्राचीनतम स्मारको, अवशेषो आदि मळी आवतां ते स्थळ जैनटीला 'Jaina Mound' तरीके प्रसिद्धि पामेल छे। आ रीते जैन संस्कृतिने समजवा माटे मथुरा नगरी अति महत्त्व- स्थान बनी गई छे।। आ मथुरा नगरीनो उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथमां छपायेल 'श्री महानिशीथ सूत्र'मां अति विशिष्ट रीते थयो छे। पृष्ठ 53 पं. 16-17 तथा पृ. 68 पं. 8-9 मां ऐतिहासिक विगत रजू करवामां आवी छे के “अचिन्त्यचिंतामणि तुल्य आ महानिशीथ श्रुतस्कंधनो जे प्राचीन आदर्श (प्रति) मथुराना सुपार्श्वनाथ भगवानना स्तूपमां हतो ते पंदर दिवसना उपवास करवाथी शासनदेवीए मने आप्यो, पण तेमां खंडित थई जवाथी तेमज उधेइ वगेरे कारणोथी घणां पानां सडी गयां छे (खंडित थई गयां छे) तो पण अत्यंत महान अर्थातिशयवाळा आ महानिशीथश्रुतस्कंघने समग्र प्रवचनना परम सारभूत परम तत्त्व तथा महा अर्थयुक्त समजीने प्रवचन उपरना वात्सल्यथी, वळी; घणा भव्य जीवोने उपकारक छे एम समजीने तेमज पोताना आत्माना कल्याण माटे आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजे ते आदर्शमां जे जोयुं ते बधु पोतानी मति प्रमाणे शुद्ध करीने लख्युं छे / " . आ रीते मथुरा नगरीनी अनेकविध विशिष्टता छ / तेथी 'नमस्कार स्वाध्याय'ना त्रणे विभागोमां मथुराना शिल्पने खास महत्त्वचें स्थान आप्यु छ। प्रस्तुत विभाग तेमज ते पछीना विभागोमां मथुराना शिल्पनां मूळ चित्रो परथी विशेष काळजीपूर्वक नवा छतां मूळने संपूर्ण वफादार रहेतां एवां चित्रो तैयार करावी रजू कर्या छ / - ग्रंथनी शरूआतमां आपेल प्रथम पांच चित्रोनो क्रमानुसार परिचय :(1) परमेश्वर-परमेष्ठी श्री अरिहंतदेव परमेश्वर परमेष्ठितुं आ प्रतिमा-चित्र विन्सेन्ट ए. स्मिथ रचित " The Jaina Stupa and other Antiquities of Mathura" (Archaeological Survey of India, New Imperial Series Volumexx; published in 1901) नामना परिचयात्मक ग्रंथनी नं. XCII अने XCVI-एम बे प्लेटो परथी चित्रकार पासे तैयार कराव्यु छ। प्लेट XCVI मां आपेल प्रतिमा-चित्रमा बन्ने भुजाओ खंडित थयेली छे, जे अन्य प्लेटो परथी तेमज प्रतिमाने लक्ष्यमा लइ चित्रकारे पोतानी बुद्धिथी पूर्ण करी छे / मुखना भाव जेवा छे एवा ज राखवा प्रयास कर्यो छे। वळी आ मूर्तिना मस्तक पाछळ आपेल भामंडळ आ प्लेटमां नथी, जे प्लेट नं. XCII मांथी लेवामां आव्यु छ। भामंडळ परना आजुबाजुना. बे इन्द्रोमांथी एक ज इन्द्र प्लेट नं XCII मां छे अने बीजी बाजुनी मूर्ति खंडित 'थयेली छे, जे चित्रकारे प्रथम इन्द्रना चित्रना आधारे पूर्ण करेल छ / आ रीते जुदाजुदा भागोने एकत्र करी तीर्थकर भगवंतनुं आ भव्य प्रतिमा-चित्र खडं करवा प्रयास को छे / जे मुख्य प्लेट परथी आ भव्य प्रतिमा-चित्र तैयार थयु छे ते प्लेट नं. XCVI ना मथाळे - Colossal Image of Seated Tirthamkara, dated Samvat 1134"ए प्रमाणे लखेलुं छे, ज्यारे बीजी प्लेट XCII पर "Life-size image of seated Jina"-लखेलुं छे / आ प्रतिमा-चित्रनी विशिष्टता ए छे के सामान्य रीते आवा आकारनी प्रतिमाओ श्री गौतमबुद्धनी प्रतिमा तरीके प्रचलित छे; परंतु आ मूर्ति परथी सिद्ध थाय छे के जैनोमां पण एवा ज आकारनी प्रतिमाओ हती। (2) शासनरक्षिका देवी चक्रेश्वरी-विमलवसही, देलवाडा; आबु चक्रेश्वरी देवीनुं आ शिल्प आबु परना देलवाडाना देरासरमां कंडारेलुं छे / तेना फोटोग्राफ परथी चित्र तैयार करी अहीं रजू करवामां आव्युं छे। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्र परिचय (3) ह्रींकारमध्यस्थितः पार्श्वप्रभुः आ आकारनी प्रतिमा मुंबईना भायखला जैन देरासरमा बिराजमान छ / चित्र जोतां तुरत जणाशे के 'ह्री' कारनी मध्यमां श्री पार्श्वनाथ भगवंतनी मूर्ति प्रतिष्ठित करेली छे / मूर्तिनी जमणी बाजु धरणेन्द्र छे अने डाबी बाजु पद्मावती छे / कला, बिन्दु अने नाद सहित एवा ह्रीकारनी शुद्ध आकृति आपणने अहीं शिल्पमां लब्ध थाय छे / आवी धातुनी मूर्तिओ भाग्य ज जोवा मळे छे अने तेथी आ मूर्तिने विशिष्ट लेखी शकाय। मूर्ति खूब ज पौराणिक छ / आ मूर्ति आरसनी नहि परंतु धातुनी छे एनो ख्याल चित्रमा देखातां अंगो परनां चिह्नो परथी आवे छे / जेवी छे एवी ज तादृश मूर्ति रजू करवा अहीं प्रयास कर्यो छे / . (4) पञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्रः विन्सेन्ट ए. स्मिथना उपर्युक्त ग्रंथमांनी प्लेट XII परथी आ चित्र तैयार करवामां आव्यु छे। जेतुं छे एवं ज प्रवेशद्वार दोरवामां आव्यु छे; फक्त नीचे तेनी बे बाजुए बतावेल रक्षिकाओ आ प्लेटमां नथी। स्तूपना आ प्रवेशद्वारनी उपर तोरण छे अने तेनी उपर बन्ने बाजु 'तिलकरत्न' छे, जे 'अष्टमंगल' पैकी एक मंगल छे। आवं 'तिलकरत्न' आ सिवाय बीजी घणी प्लेटोमां (दा. त. VI, VII, X,XI) जोवा मळे छे। बे 'तिलकरत्न'नी वच्चे 'श्रीवत्स' मूकवामां आवेलुं छे। प्रवेशद्वारनी वच्चेनो नमस्कारमंत्रनो मूलपाठ अमे मूकेलो छे। . आ चित्रनी प्लेटने मथाळे नीचे प्रमाणे लखेलुं छे: "Ayagapata or 'Tablet of Homage'. The gift of sivayasa, the wife of the Dancer Phaguyasa." (5) मङ्गलमुखपाठः आ चित्र पण उपर्युक्त विन्सेन्ट ए. स्मीथना ग्रंथमांनी प्लेट VII परथी तैयार करवामां आव्यु छ। आ पण., आयागपट छे, जेमां वच्चेनी जगाए अरिहंत भगवंत पद्मासने स्थित छ। तेओ ध्यानमुद्रामां लीन छे अने शिर पर छत्र शोभी रह्यं छे। तेमनी आजुबाजु चार तिलकरत्न हतां ते न लेतां तेनी जगाए अहीं चत्तारि मंगलादिनो मूळ पाठ मूकेल छे। आ आयागपटनी उपरनी बाजुए चार अने नीचेनी बाजुए चार-एम मळी कुल आठ मंगल आपेलां छ / खूब ज प्रचलित एवां आ 'अष्टमंगल' जैन रीतिनां अति प्राचीन प्रतीको छे। आनाथी प्राचीनपर अने आवी सारी रीते एक साथे जळवायेल 'अष्टमंगल' हजुसुधी बीजे क्यायथी प्राप्त थयां नथी। डॉ. उमाकान्त पी. शाहे पोताना 'Studies in Jaina Art' नामक कलाग्रंथमां आ मंगलोर्नु नीचे प्रमाणे नामकरण कयें छे:___ उपरनी हरोळ (जमणी बाजुएथी)- नीचेनी हरोळ (जमणी बाजुएथी)(१)A pair of Fish(मत्स्ययुगल-मत्स्ययुग्म) (5) A Tilakaratna (तिलकरत्न) (2)A heavenly Car (पवनपावडी) (6) A Full Blown Lotus (पुष्पचंगेरिका-पुष्पगुच्छ) (3)A Srivatsa Mark (श्रीवत्स) (7) An Indrayasti or Vaijayanti (इन्द्रयष्टि or वैजयन्ती) (4)A Powder Box (शरावसंपुट) (8)A Mangala-Kalasa (Auspicious Vase) (मंगल-कलश) मूळ पाठनी बे बाजु आपेल स्तंभो " Persian Achaemenian" रीतिना छे अने प्रत्येक स्तंभनी उपर तथा नीचे भिन्न भिन्न प्रतीको आपेल छे। जमणी बाजुना स्तंभनी सौथी उपर 'धर्मचक्र' छे अने डाबी बाजुना स्तंभनी उपर 'कुंजर' (हाथी) कंडारेल छे। बन्ने स्तंभोनी नीचे पण जुदांजुदां बे प्रतीको छे। आ चारे प्रतीकोनी विसंवादिता शिल्पनी दृष्टिए विचारणीय लागे छे। - जे परथी आ चित्र तैयार कर्यु छे ते प्लेट नं. VII ने मथाळे नीचे प्रमाणे लखेलुं छे: "Ayagapata, or Tablet of Homage or of Worship', set up by Sihanadika for the worship of the Arhats." Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय ग्रंथमांथी सूचित थतां सत्तर यंत्र-चित्रोनो परिचय :यंत्र-चित्र नं. १-श्री पञ्चनमस्कारचक्रम् आ यंत्रनी आकृति अगर तो तेनो पट हजुसुधी लब्ध थयो नथी। अहीं जे यंत्र रजू करवामां आव्युं छे ते पृष्ठ 213 पर आपेल 'पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधि' मांना आम्नाय अनुसार चित्रकार पासे तैयार कराव्युं छे। आ आलेखनविधिनो मंत्रोल्लेख “अरिहाणाइथुत्तं "मां आवे छे। (जुओ पृष्ठ 207). आ यंत्रने 'वर्धमानचक्र' अथवा 'पंचपरमेष्ठिचक्र' तरीके पण ओळखाववामां आवे छे। विशेष परिचय माटे जुओ पृष्ठ 211 तथा पृष्ठ 224 / आ यंत्र-चित्र पृष्ठ 212 नी सामे आपवामां आव्यु छे / यंत्र-चित्र नं.-ध्यानविचार' प्रस्तावे ध्यानमार्गस्य विंशतितमे भेदे परममात्रानामा चतुर्विंशति वलयैः परिवेष्टित आत्मध्यानप्रकार: आ यंत्र पृष्ठ 225 उपर प्रकाशित करेल ध्यानविचारान्तर्गत 'परममात्राध्यानम्' (पृ. 229) ना आम्नाय परथी तैयार करवामां आव्यु छ / आ विषय हजु विशेष विचारणा मागे छे / तेना वधु परिचय माटे जुओ संस्था तरफथी अलग प्रकट थयेल 'ध्यानविचार' नुं निवेदन। यंत्र-चित्र पृष्ठ 228 नी सामे आपवामां आव्यु छ / यंत्र-चित्र नं.३-वर्धमानविद्यायन्त्रपटः . श्री वर्धमानविद्याना यन्त्रपटनी गणि-पाठक-पंन्यास पदधारी मुनिवरो आराधना करे छे। आ यन्त्रनी आराधनानो आम्नाय गुरुगमथी जाणी लेवो। तेमां आवता मंत्र वगेरे माटे जुओ प्रस्तुत ग्रंथमां पृष्ठ 104 पर आपेल 'वद्धमाणविज्जाविही' / यंत्र-चित्र पृष्ठ 104 नी सामे आपेल छे। यंत्र-चित्र नं. ४-परस्परावलोकनव्यग्रवामजानुन्यस्ततीर्थकरमातरः : चोवीश तीर्थकरोनी चोवीश माताओनो आ पट पाटणमा कोकाना पाडाना देरासरमां तेमज श्री शंखेश्वरजी तीर्थमा भमतीमा बन्ने बाजु कंडारेलो जोवा मळे छे। आ ग्रंथमा प्रकाशित थयेल उपर्युक्त 'ध्यानविचार' मां पृष्ठ 230 पर 'तीर्थकरमातृवलयम्'नो उल्लेख छे अने तेना अनुसंधानमां आ चित्र अहीं आपेलुं छे। तीर्थकरनी माताओना नामो माटे जुओ पृष्ठ 230 नीचे आपेल फूटनोट / यंत्र-चित्र पृष्ठ 513 पर आपवामां आव्युं छे। विशेष परिचय माटे जुओ संस्था तरफथी अलग प्रकट थयेल 'ध्यानविचार 'न निवेदन / यंत्र-चित्र नं. ५-शृङ्खलाजाति चित्रबंध - पृष्ठ 389 पर प्रकट थयेल "पण्हगब्भं पंचपरमिहिथवणं "मां 'शृङ्खलाजातिस्त्रिर्गत' नो उल्लेख छे ते परी आ यंत्र तैयार करवामां आव्यु छे। विशेष परिचय माटे जुओ पृ. 395. यंत्र-चित्र माटे जुओ पृष्ठ : 514. यंत्र-चित्र नं.-अष्टदलकमलबंध आ यंत्र पण उपर्युक्त "पण्हगब्भं पंचपरमिट्टिथवणं" मां निर्दिष्ट 'अष्टदलकमलम्' (पृष्ठः 394) परथी तैयार कराव्यु छ / विशेष परिचय माटे जुओ पृष्ठ 395. यंत्र-चित्र माटे जुओ पृष्ठः 514. यत्रं-चित्र नं.७थी यंत्र-चित्र नं.१६-पृ. 514 थी 518 आ दश यंत्र चित्रो (स्वाधिष्ठान आदि दश चक्रो) पृष्ठ 396 पर प्रकट थयेल "चडस्विहयाणवतं" नामना एक ज स्तोत्र परथी तैयार कराव्यां छे। जेमाथी आ स्तोत्र प्राप्त थयुं ते सद्गत श्री मोहनलाल भगवानदास झवेरीनी नोटबुकमां आ यंत्रोनी आकृतिओ हाथथी दोरेली हती अने एने आधारे ज आ यंत्रो विशेष व्यवस्थित रीते चित्रकार पासे तैयार करावी रजू करवामां आव्यां छे। वधु परिचय माटे जुओ पृ. 398 / आ दश चक्रो पैकी यंत्र-चित्र नं. 10 (हृदये अनाहतचक्रं चतुर्थम् ) मां 'पज्ञप्ती' ने स्थाने 'प्रज्ञप्ति' वांचq / यंत्र-चित्र नं. 11 (कण्ठे विशुद्धिचक्रं पञ्चमम् ) मां 'विशुद्धि' ने बदले 'विशुद्ध' तथा 'यक्षेट्' ने स्थाने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्र परिचय 'मनुज' वाचवू / यंत्र-चित्र नं 15 (ब्रह्मद्वारे ब्रह्मबिन्दुचक्रं नवमम्) मां 'ब्रह्मद्वारे' शब्दने बदले 'ब्रह्मनाडीद्वारे वांचवू अने यंत्र-चित्र नं. 16 (ब्रह्मद्वारोपरि हसनादचक्रं दशमम्) मा 'हसनाद' ने स्थाने 'हंसनाद' वांचएँ / यंत्र-चित्र नं. १७-नादवलयितह्रींकारोदरस्थौकारोदरस्थ-अहूंकारः श्री सिद्धचक्रयन्त्रना मूळपीठमां आदिबीज तरीके जे ॐ ह्री अहूंनी स्थापना थाय छे ते अहीं अनाहतनादना वलय सहित दर्शाववामां आवेल छे। विशेष परिचय माटे जुओ पृष्ठ 467. यंत्र-चित्र माटे जुओ पृष्ठ 518. ग्रंथने छेडे आपेल अन्य उपयोगी यंत्र-चित्रोनो परिचय:(१) ' 'कारः (पृ. 519) आ प्राकृत शैलीनो 6कार छ / आकृति जोतां तुरत समजाशे के 'उ' उपरना छेडाने लंबाववाथी 'ई' (ओ) बनावेल छ; अने तेना उपर कला, बिन्दु तथा नाद आलेखेल छ / अहीं नाद A सौथी उपर छ / (2) बँकारयन्त्रम् (पृ. 519) ___ आ यंत्र एक हस्तप्रतमा दोरेलु मळ्यु हतुं, ते परथी तैयार करवामां आव्यु छे / 'ॐ' कारना ध्यान . माटे आ उपयोगी यंत्र छ / (3) ह्रीकारः (पृ. 520) __आ प्राकृत शैलीनो 'ह्रीं'कार छ / तेमां अनुक्रमे कला, बिन्दु तथा नादनी स्पष्ट आकृतिओ आलेखवामां आवी छ। (4) नमस्कार-यंत्र (पृ. 521) . आ यंत्रमा सचित्र 'नमस्कार मंत्र' आपवामां आव्यो छे / आथी ध्याताने विशेष भक्तिपूर्वक मन केंद्रित करवानुं सरळ पडे / (5) गीर्वाणयन्त्रम् (पृ. 521) आ यत्र श्री मोहनलाल भगवानदास झवेरीनी नोट-बुकमाथी प्राप्त थयुं हतुं / तेओश्रीए मुनिश्री मोहनलालजी महाराज पासेथी आ साहित्य प्राप्त कर्यु हतुं एवो तेमा उल्लेख छ / यंत्र- अहीं आपेल नाम ए नोटबुकना आधारे छे। तेमां 'गीर्वाणयन्त्रम्' एवं नाम शाथी आपवामां आव्यु छे ते यंत्रने लक्ष्यमा राखतां बराबर समजातुं नथी / 'गीर्वाणयन्त्रम्'ने बदल 'निर्वाणयन्त्रम्' नाम ठीक लागे छ। 'नमस्कार मंत्र अडसठ अक्षर प्रमाण छे' ए मान्यतानुं आ यंत्र समर्थन करे छे / (6) नमस्काराष्टकम् (पृ. 522-23) पृ. 522 अने 523 परना बे चित्रोमां अनुक्रमे चार चार एम कुल मळी नमस्कारना भिन्न भिन्न आठ प्रकारो रजू करवामां आव्या छे / ते दरेक प्रकारनां चोक्कस नाम नीचे प्रमाणे छः (1) कायिक नमस्कार [पञ्चाङ्ग प्रणिपात-पणिवयामि] (5) द्रव्यसमर्पण नमस्कार [पूजन-अर्चन-नमंसणयं] (2) वाचिक नमस्कार [प्रणिधान स्तवाञ्जलि-थोसामि] (6) आत्मसमर्पण नमस्कार [शरणोपसरण-सरणं] (3) मानसिक नमस्कार [भावावनमन-नमो] (7) विनय नमस्कार [पर्युपासना-उवणमे] (4) स्मरण नमस्कार [नामकीर्तन-कित्तणं] (8) आध्यात्मिक नमस्कार [प्रणाम कायोत्सर्ग-पणमामि] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 नमस्कार स्वाध्याय (7) शङ्ख- नन्दि - नवपद-उकाररूपावर्तचतुष्कम् (पृ. 524) (8) ही -श्री-सिद्धात्मकावर्तत्रिकम् (पृ. 525) जाप करवाना अनेक प्रकारोमा कर जप ए एक विशिष्ट प्रकार छ। कर जप जुदी जुदी अनेक रीते करवामां आवे छे। तेमाथी आ बन्ने चित्रमा मळी कुल सात रीतो आपवामां आवी छ : 1. शङ्खावर्त-दक्षिणावर्त शङ्खनी जेम अहीं करांगुलिओमां आवर्त थाय छ / आ रीते इष्ट जाप करवाथी सौभाग्यादिनी प्राप्ति थाय छे / ___2. नन्द्यावर्त-नन्द्यावर्त ए एक मंगळ छ। स्वस्तिकने मळतुं आ मंगळ चिह्न समृद्धिनी वृद्धि करनालं छ। एनं नाम पण ए अर्थन सूचक छ। अहीं वेढाओनी गणना एवा प्रकारे छे के जेथी नन्द्यावर्तनी आकृति ऊठी आवे छे। 3. नवपदावर्त-आ आवर्तमां नवपद मंडल जे रीते स्थापन करवामां आवे छे ते रीते क्रमांक लेवाना छ / 4. जॅकारावर्त-अहीं जैन परिभाषानो नकार स्पष्ट थाय ए रीते अंको गणवाना छे अने चित्रमा ए स्पष्ट छ / 5-6. ह्रीकारावर्त अने श्रीकारावर्त-ए बन्ने आवर्ती उपर जणावेल जॅकारावर्त मुजब छ / 7. सिद्धावर्त बन्ने हाथ भेगा कखाथी सिद्ध शिलानी आकृति स्पष्ट थाय छे अने तेमां आठ आंगळीओनां त्रण त्रण वेढा गणतां 24 संख्या चोवीशीनी सूचक छ। 24 जिनेश्वरोनो ए रीते जाप करवाथी कर्मक्षय शीघ्र थाय छे / . (9) मुद्राषटुम् (पृ. 526) 1. आवाहनी मुद्रा-आ मुद्रा कोईपण इष्ट देवता वगेरेने बोलाववा माटे उपयोगमां आवे छे / 2. स्थापनी मुद्रा-बोलावेला देवता वगेरे स्थापन करवा माटे आ मुद्रानो उपयोग थाय छे। 3. संनिधापनी मुद्रा-आ मुद्राथी स्थापन थयेला देवता वगेरेने आराधक स्वाभिमुख करे छे / 4. संनिरोधनी मुद्रा-स्वाभिमुख करेला देवता वगेरेने आ मुद्राथी नियंत्रित करवामां आवे छे / 5. अवगुण्ठनी मुद्रा-आ मुंद्राथी नियंत्रित करेला देवता वगेरेने बीजाओथी सुरक्षित करवामां आवे छे / 6. सौभाग्य मुद्रा-आ मुद्रा सौभाग्यादिनी वृद्धि करे छ। (10) पञ्चपरमेष्ठि नमस्कारग्रथितरम्यसूत्रपटी (पृ. 527) - श्री नमस्कारमंत्रना पांच पदोना पडिमात्रानो पाठ गूंथणीमां आवे तेवी रीते ऋषि मनोहरे रंगीन पाटी गूंथी छे एर्नु आ चित्र छे / ते पाटी संवत 1739 ना भादरवा वद पांचमना दिवसे गूंथी छे एवं तेमां दर्शाव्यु छे / आ .. पाटी बार फूट लांबी अने पोणो इंच पहोळी छे अने तेमां अक्षरो सिवाय आगळ-पाछळ सुशोभनो छे। ते सुशोभनो शाना संकेत छे ए समजातुं नथी। (11) वापीयन्त्रम् (पृ. 528) आ यंत्रनो निर्देश नमस्कार अंगेना मंत्रोमां आवे छे, जो के तेमां यंत्रनो स्पष्ट नामोल्लेख नथी; परंतु तेमां जे वर्णन छे ते परथी तुरत समजाय छे के 'मंत्रमहार्णव'मां जे 'वापीयन्त्र' तरीके ख्यात छे ते ज यंत्रनुं आ वर्णन छे। सुगंधी द्रव्योथी भीत अगर पटमां आ यंत्रनुं आलेखन करीने सुवासित पुष्पो अने धूप वगेरेथी पूजा करतां मरकी 'अने नाना उपद्रवो शांत थई जाय छे / यंत्रनो आकार 'वाव' जेवो होवाथी तेने 'वापीयन्त्रम्' कहेवामां आवे छे। आ यंत्र "नमस्कार महामंत्र अडसठ अक्षर परिमाणनो छे" ए हकीकत पर प्रकाश पाडे छ। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थानां प्रकाशनो रु. =37 प्रयोजक : अमृतलाल कालिदास दोशी, बी. ए. 1 श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग पहेलो (बीजी आवृत्ति) 2 श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग बीजो 3 श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग त्रीजो 4 श्री प्रतिक्रमणनी पवित्रता (बीजी आवृत्ति-अप्राप्य) 5 श्री पंचप्रतिक्रमण-सूत्र (प्रबोधटीकानुसारी) शब्दार्थ, अर्थ-संकलना तथा सूत्र-परिचय साथे (अप्राप्य) 6 श्री पंचप्रतिक्रमण-सूत्र -हिंदी (प्रबोधटीकानुसारी) शब्दार्थ, अर्थ-संकलना तथा सूत्र-परिचय साथे (अप्राप्य) 7 सचित्र सार्थ सामायिक-चैत्यवंदन (प्रबोधटीकानुसारी-अप्राप्य) 8 योगप्रदीप (प्राचीन गुजराती बालावबोध अने अर्वाचीन गुजराती अनुवाद सहित) 9 ध्यानविचारः (गुजराती अनुवाद साथे) 10 नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत विभाग) रु. 2:00 . 2:00 A : रु. 2000 - छपाय छे: 11 नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत विभाग) 12 नमस्कार स्वाध्याय (अपभ्रंश-हिंदी-गूजराती विभाग) 13 जिनस्नात्रविधि 14 मातृका प्रकरण 15 योगसार 88 A Comparative Study of the Jaina Theories of Reality and Knowledge जैन साहित्य विकास मंडळ इरलाबीज, 112 घोडबंदर रोड विलेपारले, मुंबई-५७. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्रींकारमध्यस्थितः पार्श्वप्रभुः IIT. 111 ) / / / / / / AAPIRT AVAVA LATATATA. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न म स्का र स्वाध्या य (प्राकृत विभा ग) ///IN Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ण साहित्य माण घायPRAKER विकास मंडल Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TILIT T A TELLLLLIAN MPOADANHARI THREP 4 ///// T COUNDEATRA CANANE GOANO ALLL IA LILA III RAM 2-29 AMMADVAN A Dase TILITY ALLIT PramNET TIII BHARTILIATRA ANSORA Pawww wwwwwwwwA LLLLLLLI IITTM IIIIIIII TITI 1. A LLLLL मंगलमहास्यकला 6 (नमुक्कारो)ी नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व-साहूणं एसी पंच- नमुक्कारों सव्व-पाव-प्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसि पढम हवइ मंगलं NEWS રમણી[કે D. . LURIHITala परितोमधुरास्तूपद्वारसुशोभनविभूषितपञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्रः Page #29 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMAR NOIDUA REE R unu HOTO ANOR VEERINR -- - NIN - E -- HOM : - HETASEAN Stage : : -.--. चत्तारि मंगलं- अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं॥ - चत्तारि लोगुत्तमा - अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, | केवलिपन्नत्तो प धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि अरिहंते सरणं पवज्जामि, / सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवन्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि॥ न 2 - .. E-.:- 2- - - --- SAHE - Drulinein HIO KEHINDE कि iskasaNDH WKARO KARASI . . . / / / / / / / '... .' / . .. I. I..' 11 का SIA ANAMA " ... . / / / / / / / / / / / / / / / / / IIIIIIII I / / मन: मधुरायागपटमध्यस्थापितमंगलमुखपाठः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री शंखेश्वरपार्श्वमाथाय नमः॥ [1] भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं॥ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं . ममो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो सव्वसाहूणं // श्री अभयदेवसूरिरचिता भगवतीसूत्रवृत्तिः। नमो अरहंताणमित्यादि / तत्र नम इति नैपातिकं पदं द्रव्यभावसङ्कोचार्थम् , आह च- 10 * "नेवाइयं पयं दव्वभावसंकोयण पयत्थो"। मनःकरचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वित्यर्थः / केभ्य इत्याह-'अर्हग्यः' अमरवरविनिर्मिता. शोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, यदाह भगवतीसूत्रना मंगलाचरणनो अनुवाद अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो। सिद्ध भगवंतोने नमस्कार हो। आचार्य भगवंतोने नमस्कार हो। उपाध्याय भगवंतोने नमस्कार हो। सर्व साधु भगवंतोने नमस्कार हो। श्रीअभयदेवसरिरचित वृत्तिनो भावानुवाद 'नमो अरहताणं' वगेरे। अहीं 'नमः' शब्द नैपातिक पद छे अने तेनो द्रव्यसंकोच तथा भावसंकोच ए अर्थ छ; (कारणके आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के- " 'नमः' ए निपातरूप पद छे अने द्रव्यसंकोच तथा भावसंकोच ए एनो अर्थ छे / " .. मन, हाथ, पग तथा मस्तकना सुप्रणिधानरूप नमस्कार हो / कोने नमस्कार हो तो जणावे. केके, अरहंतोने नमस्कार हो / देवोए रचेली अशोकवृक्ष आदि (आठ) महाप्रातिहार्यरूप पूजाने 25 मेलो योग्य छे ते अरहंत कहेवाय छे / (आवश्यकनियुक्तिमां) कह्यु छ के-.. 20 आव०नि० गा.८९० / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 114 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं // अरहंति वंदणनमंसणाणि अरहंति पूयसकार। सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुच्चंति // " अतस्तेभ्यः। इह च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् / अविद्यमानं वा रहः- एकान्तरूपो देशः अन्तश्च-मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरः, 5 अतस्तेभ्योऽरहोऽन्तीः / अथवा अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च विनाशो ज़राद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ताः, अतस्तेभ्यः / अथवा 'अरहंताणं' ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात् , अथवा अरहयद्भयः-प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं खं स्वभावमत्यजन्य इत्यर्थः। "वंदन अने नमस्कारने योग्य छे, पूजा अने सत्कारने योग्य छ, तथा सिद्धिगमनने योग्य 10छे तेथी (जिनेश्वर भगवंतो) अरहंत कहेवाय छे / " आवा अरहंत भगवतोने नमस्कार हो। .. - 'अरहंताणं' मा प्राकृतभाषानी शैलीना नियम मुजब षष्ठी विभक्तिनो प्रयोग करेलो छे, पण तेनो अर्थ चतुर्थी विभक्तिनो लेवानो छे (कारणके नमः शब्दना योगमां चतुर्थी विभक्ति आवे छे / ) * अथवा अहीं 'अरहताणं' नो 'अरहोन्तभ्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ / 'रहः' एटले एकान्तरूप गुप्त प्रदेश अने 'अंतर' एटले पर्वतनी गुफा वगेरेनो मध्यभाग / भगवान सर्वज्ञ होवाने 15 लीधे जगतनी सर्व वस्तुओ पैकी कोईपण वस्तु एमनाथी गुप्त होती नथी; तेथी भगवानने 'रहः' तथा 'अंतर्' न होवाथी भगवान 'अरहोन्तर' कहेवाय छे / आवा 'अरहोन्तर' (अरहंत ) भगवानने 'नमस्कार हो। अथवा अहीं 'अरहंताणं' नो 'अरथान्तेभ्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ। 'रथ' शब्दनो उपलक्षणथी 'सर्व प्रकारनो परिग्रह' एवो अर्थ समजवो। 'अंत' एटले विनाश तथा उपलक्षणथी 20 (जन्म) जरा वगेरे समजवां / अर्थात् 'रथ' एटले सर्व प्रकारनो परिग्रह अने 'अंत' एटले जन्म-जरा-मृत्यु जेमने नथी एवा अरथान्त अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो। अथवा 'अरहंताणं' एटले रागनो क्षय थयो होवाथी कोई पण पदार्थ ऊपर आसक्तिने नहीं धरावता एवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा 'अरहंताणं' एटले 'अरहयङ्ग्यः' ('रह्' धातुनो 'त्यजी देवु एवो अर्थ थाय छ।) 25 अर्थात् प्रकृष्ट राग तथा द्वेषना कारणभूत अनुक्रमे मनोहर तथा अमनोहर विषयोनो संपर्क थवा छतां पण वीतरागत्व वगेरे जे पोतानो स्वभाव तेनो त्याग नहीं करनारा एवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो। 1 आव मि० गा० 921 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 132. 2 "रहि गतौ" पाणिनीयधातुपाठः३७४.. 3 “रह त्यागे" - पाणिनीयधातुपाठः 2001 / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm. विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 'अरिहंताणं' ति पाठान्तरम् , तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः, आह च “अट्ठविहंपि य कम्मं अरिभूयं होइ सयलजीवाणं / तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति // " 'अरुहंताण' मित्यपि पाठान्तरम् , तत्र 'अरोहद्भयः' अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात् , आह च "दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः॥" नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति // 1 // 'णमो सिद्धाणं ति / सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन 10 यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः / अथवा 'पिधु गतौ इति वचनात्, सेधन्ति स्म-अपुनरावृत्त्या ___ अथवा 'अरहताणं ने बदले. 'अरिहंताणं' एवो पाठ पण मळे छ / 'कर्मरूप शत्रुओने हणनारा अरिहंत भगवानोने नमस्कार थाओ' एवो अर्थ त्यां समजवो। ( आवश्यकनियुक्तिमां ) का छे के-"आठ प्रकारनुं कर्म ज सर्व जीवोने शत्रुरूप छे; ते कर्मरूपी शत्रुनो नाश करे छे तेथी अरिहंत कहेवाय छ / " 15 _ 'अरहताणं' ना बदले 'अरुहंताणं' एवो पाठ पण मळे छे। 'जन्म नहि लेता' एवो ए पाठनो अर्थ छे; कारणके कर्मरूपी बीज क्षीण थई गयां होवाथी भगवान फरीथी जन्म लेता नथी। का छे के-'जेम बीज अत्यंत बळी जाय त्यारे अंकुरो प्रगट थतो नथी तेम कर्मरूपी बीज बळी जवाथी संसाररूपी अंकुरो उत्पन्न थई शकतो नथी।" संसाररूपी भयंकर अटवीमां भ्रमण करवाथी भय पामेला प्राणीओने अनुपम आनंदरूप 20 परमपदरूपी नगरना मार्गने दर्शवनारा होवाथी अरिहंत भगवंतो परम उपकारी छे अने तेथी तेओ नमस्कारने योग्य छ। ___णमो सिद्धाणं / सित' एटले बांधेलं जे आठ प्रकारनुं कर्मरूपी इंधण जेमणे 'ध्मात' एटले जाज्वल्यमान शुक्लध्यानरूपी अग्निथी बाळीने भस्मीभूत कयुं छे ते सिद्ध कहेवाय छे / आ प्रमाणे 'सिद्ध' शब्दनो 'निरुक्तविधि' थी अर्थ थाय छे / 25 अथवा 'षिध्' धातुनो 'गति' एवो अर्थ थाय छे एटले गया पछी कदी पाछा फरवु न पडे तेवी रीते जेओ मोक्षनगरीमां गया छे तेओ सिद्ध कहेवाय छ। 1 आव. नि. गा. 920 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 132. 2 तत्त्वार्थसूत्रनी अंतिम कारिकाओमा 8 मी कारिका. ३"षिध गत्याम्"-पाणिनीयधातुपाठः 48. . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं // [प्राकृत निर्वृतिपुरीमगच्छन् , अथवा 'पिधु संरादौ इति वचनात् सिद्धयन्ति म-निष्ठितार्था भवन्ति स्स, अथवा 'षिधूञ् शास्त्रे माङ्गल्ये च" इति वचनात् सेधन्ति स्म-शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धाः-नित्याः, अपर्यवसानस्थितिकत्वात् , प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , आह च "मातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निर्वृतिसौधमूर्ध्नि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे // " अतस्तेभ्यो नमः / नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भन्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति // 2 // णमो आयरियाणं' ति / आ–मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थों10 पदेशकतया तदाकातिभिरित्याचार्याः / उक्तञ्च ___ "मुक्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य। ___गणततिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरियो // " अथवा 'षिध्' धातुनो 'संसद्धि' (निष्ठा) एवो अर्थ थाय छे / जेओनां प्रयोजनो सिद्ध थई , गयेलां छे ते सिद्ध कहेवाय छ / अथवा 'षिध्' धातुनो शास्त्र अने मांगल्य एवो अर्थ थाय छे। 15 एटले जेओ शासक छे तथा जेओ मंगळरूप छे ते सिद्ध कहेवाय छे / अथवा सिद्ध एटले नित्य, कारणके तेमनी स्थिति अनंत होय छे / अथवा सिद्ध एटले प्रख्यात; कारणके भव्य जीवो एमना गुणसमूहने सारी रीते जाणता ज होय छे / कयुं छे के- “बांधेलुं प्राचीन कर्म जेमणे बाळी नाख्युं छे, जेओ मोक्षरूपी महेलनी टोच उपर जईने बेठेला छे, जेओ प्रसिद्ध छे, जे अनुशासन करनार छे अने जेओ कृतार्थ छे ते सिद्ध भगवान मने मंगल करनारा थाओ।" आवा सिद्ध 20 भगवतीने मारो नमस्कार हो। सिद्ध भगवंतो अविनाशी, ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य वगेरे गुणोथी युक्त होवाने लीचे तेमना प्रति उत्कृष्ट आनंद उत्पन्न थाय छ / आ रीते तेओ आनंदने उत्पन्न करनारा होवाथी भव्य जीवोने अत्यंत उपकार करनारा छे तेथी सिद्ध भगवंतो नमस्करणीय छ / ___ णमो आयरियाणं / जिनशासनना अर्थना उपदेशक होवाने लीधे तेना अभिलाषी मनुष्यो 20 विनयरूपी मर्यादाथी जेमनी सेवा करे छे तेमने आचार्य कहेवामां आवे छे / कां छे के "सूत्र तथा अर्थने जाणनारा, लक्षणथी युक्त, गच्छना आलंबनभूत तथा गच्छनी चिंवाथी रहित एषा आचार्य भगवान् अर्थनी वाचना आपे छे।" 1 पाणिनीयधातुपाठः 1269. 2 "षिधू शाख्ने माङ्गल्ये च"-पाणिनीयधातुपाठः 49. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय। अथवा आचारो- ज्ञानाचारादिः पञ्चधा, आ-मर्यादया वा चारो-विहार आचारः, तत्र साधवः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाचेत्याचार्याः, आह च "पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता / ' आयारं दंसंता आयरिया तेण वुचंति // " अथवा आ- ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः चारा- हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः, / युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः, अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्याः, अतस्तेभ्यः / नमस्सता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् // 3 // 'णमो उवज्झायाणं ति / उप-समीपमागत्याधीयते 'ईङ् अध्ययने' इति वचनात् पठ्यते 'इणु गताविति वचनाद्वा अघि-आधिक्येन गम्यते, 'इक् स्मरणे' इति वचनाद्वा मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः, यदाह 10 ___ अथवा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार, वीर्याचार-आ पांच प्रकारना आचारने आचार कहेवामां आवे छे / अथवा मर्यादापूर्वक जे विहार करवामां आवे तेने आचार कहेवामां आवे छे / आ प्रकारना आचरने जेओ पोते पाळे छे, अर्थथी उपदेशे छे तथा क्रियाथी वीजाने करी बतावे छे ते आचार्य कहेवाय छे / (आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के–“पांच प्रकारना आचार पाळता, तेनो अर्थ कहेता तथा (पडिलेहण आदि क्रिया द्वारा) आचारने 15 दर्शावता होवाथी आचार्य कहेवाय छ / " . अथवा बीजी व्युत्पत्ति प्रमाणे आचार शब्दनो 'योग्य-अयोग्यनो विभाग करवामां निपुण शिष्यो' एवो अर्थ थाय छे / तेमने जेओ शास्त्रनो अर्थ यथावत् बतावे छे ते आचार्य कहेवाय छ। आवा आचार्य भगवंतोने नमस्कार हो / आचारना उपदेशकपणाने लीधे उपकारी होवाथी आचार्य भगवंतो नमस्कार करवाने योग्य छ / 20 णमो उवज्झायाणं' / उपाध्याय शब्दमां त्रण शब्दो छ / उप+ अधि+इ / आमां 'उप' एटले समीप / 'अधि' एटले आधिक्य / 'इ' धातुना त्रण अर्थ छे:-अध्ययन करवू, जर्बु (जाणवू) अने स्मरण करवू / अर्थात् जेमनी पासे जईने अधिकपणे जिनप्रवचन- सूत्रथी अध्ययन करवामां आवे छे, ज्ञान मेळववामां आवे छे अने स्मरण करवामां आवे छे तेओ उपाध्याय कहेवाय छ। (पावश्यकनियुक्तिमां) कडं ले के 25 1 आव० नि० गा० 994 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 152. 2 सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थकाः-गति अर्थवाची सर्व धातुओ ज्ञानना अर्थमां पण वपराय छ। एटले अहीं 'जर्नु नो अर्थ 'जाणवू समजवो। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवईसुत्तरस मंगलायरणं // [प्राकृत "बारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ बुहेहिं / ' तं उवइसति जम्हा उवझाया तेण वुच्चंति // अथवा उपाधानमुपाधिः-- सन्निधिस्तेनोपाधिना उपाधौ वा आयो-लाभः श्रुतस्य येषाम् , उपाधीनां वा–विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो- लाभो येभ्यः, अथवा उपाधिरेव-सन्निधिरेव 5 आयम् - इष्टफलं दैवजनितत्वेन आयानाम् - इष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद् येषाम् , अथवा आधीनां - मनःपीडानामायो-लाभ आध्यायः, अधियां वा- नत्रः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीनामायोऽध्यायः 'ध्यै चिन्तायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगान्ननः कुत्सार्थत्वादेव च दुर्ध्यानं वाऽध्यायः, उपहत आध्यायः अध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः, अतस्तेभ्यः / नमस्यता चैषां सुसम्प्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयनेन भव्यानामुपकारित्वादिति // 4 // 10. णमो सव्वसाहणं' इति / साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोशमिति साधवः, समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात् साधवः, यदाह - "जिनेश्वरे प्ररूपेली द्वादशांगीने पंडित पुरुषो स्वाध्याय कहे छे / (उपाध्याय भगवंतो) आ स्वाध्यायनो वाचनारूपे उपदेश आपता होवाथी उपाध्याय कहेवाय छ / " . अथवा ( उपाध्याय शब्दना बीजा पण अनेक अर्थो नीकळे छे, जेम के-) 'उपाधि' एटले 15 'संनिधि' / जेमनी संनिधिथी अथवा जेमना सांनिध्यमा रहेवाथी श्रुत ज्ञाननो 'आय' एटले लाभ * थाय अथवा जेमनी पासेथी उपाधि एटले सुंदर विशेषणोनो लाभ थाय तेमने उपाध्याय कहेवामां आवे छे / अथवा जेमनी उपाधि एटले जेमनुं सांनिध्य 'आय' एटले इष्ट फळोनां समूहमां कारणभूत छे ते उपाध्याय कहेवाय छे। अथवा बीजो पण अर्थ छ। 'आधि' एटले 'मननी पीडा' तेनो 'आय' एटले 'लाभ' ते 20 'आध्याय' / अथवा 'अधी' एटले 'कुबुद्धि' तेनो 'आय' एटले 'लाम' ते 'अध्याय' / अथवा 'अध्याय' एटले 'दुर्ध्यान' / आ 'आध्याय' तथा 'अध्याय' ने जेमणे उपहत कर्या छे ( अर्थात् हणी नाख्या छे) ते उपाध्याय कहेवाय छे / आवा उपाध्याय भगवंतोने मारो नमस्कार हो। __सुसंप्रदायथी (प्रतिष्ठित परंपराथी ) चाल्या आवता जिनवचन- भव्य जीवोने (अध्ययन कराववा) द्वारा विनीत बनावीने उपकार करता होवाथी उपाध्याय भगवंतो नमस्कारने योग्य छ / 38: णमो सवसाहणं / ज्ञान वगेरे शक्तिओथी मोक्षनी जे साधना करे छे ते साधु कहेवाय छे। अथवा सर्व प्राणीओ प्रति समभावनुं जे ध्यान करे छे ते साधु कहेवाय छे / (आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के 1 आव. नि. गा० 1.01 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 154. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] - नमस्कार स्वाध्याय। . निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो // " साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः, निरुक्तेरेव / सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकादयो वा जिनकल्पिक-प्रतिमाकल्पिक - यथालन्दकल्पिक - परिहारविशुद्धिकल्पिकस्थविरकल्पिक - स्थितकल्पिक - स्थितास्थितकल्पिक - कल्पातीतभेदाः, प्रत्येकबुद्ध-स्वयंबुद्ध-बुद्धबोधितभेदाः, / भारतादिभेदाः, सुषमदुष्षमादिविशेषिता वा साधवः सर्वसाधवः, सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम् , इदं चाहदादिपदेष्वपि बोद्धव्यं, न्यायस्य समानत्वादिति / अथवासर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सर्वास्ते च ते साधवश्व, सार्वस्य वा - अर्हतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः, सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति - कुर्वन्ति, सार्वान् वा- अर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकरणादिति सर्वसाधवः सार्वसाधवो वा। अथवा श्रव्येषु - श्रवणाहेषु 10 वाक्येषु, अथवा सव्यानि - दक्षिणान्यनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु साधवः-निपुणाः श्रव्यसाधवः सव्यसाधवो वा; अतस्तेभ्यः / “निर्वाणना साधक योगोनी साधुओ साधना करे छे तेमज सर्व जीवो उपर समभावने धारण करे छे तेथी ते भावसाधु कहेवाय छ / " अथवा संयमनुं पालन करनारा आत्माओने सहाय करे छे तेथी साधु कहेवाय छ। 'सर्व साधु' शब्दथी सामायिकादि विशेषणोथी युक्त, प्रमत्त 15 बगेरे, पुलाकै वगेरे, जिनकल्पिक, प्रतिमाकल्पिक, यथालंदकल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, स्थविरकल्पिक, स्थितकल्पिक, स्थितास्थितकल्पिक, कल्पातीत; प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध, बुद्धबोधित, भरत वगेरे क्षेत्रना तेमज सुषम, दुषमा वगेरे काळना साधुओ-एम सर्व प्रकारना साधुओ समजवा / - सर्व गुणवान पुरुषो भेदभाव विना नमस्कार करवालायक छे ते जणाववा मादे, " * 'सर्व'शब्दनो अहीं प्रयोग करवामां आव्यो छे। एज न्याये 'सर्व' शब्दनो योग अरिहंत वगेरे 20 पदोमां पण समजी लेवो। अथवा ('सव्वसाहूणं' ना बीजा पण अनेक अर्थो थाय छे, जेम के-) 'सार्व' एटले सर्व जीवोनुं हित करनारा साधुओ ते 'सार्वसाधु' / अथवा बुद्ध वगेरेना नहि परंतु 'सार्व' एटले अरिहंतना जे साधुओ ते 'सार्वसाधु' / अथवा सर्व शुभ योगने साधे ते 'सर्वसाधु' / अथवा आज्ञानुं पालन करीने 'सार्व' एटले अरिहंतने जेओ आराधे छे किंवा दुर्नयने दूर करीने (अन्य 25 मतोतुं खंडन करीने ) जिनेश्वर भगवानना मतने प्रतिष्ठित करे छे ते 'सार्वसाधु' / आवा 'सर्वसाधु' अथवा 'सार्वसाधु'ने मारो नमस्कार हो। ... अथवा 'श्रव्य' एटले श्रवण करवालायक वाक्यो; तेमां निपुण ते 'श्रव्यसाधु' / अथवा (सव्य' एटले अनुकूळ कार्यो, तेमां निपुण ते 'सव्यसाधु' / आवा 'श्रव्यसाधु' अथवा 'सव्यसाधु'ओने नमस्कार हो। .... आव० नि० गा० 10 10 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 155. 2 प्रमत्त वगेरे एटले छट्ठा प्रमत्त गुणस्थानथी. मांडी चौदमा गुणस्थान सुधौना साधुओ। 3 पुलाक ए एक प्रकारनी लब्धिमुं नाम छ। .... . ... . .30 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवासुत्तस्स मंगलायरणं // [प्राकृत 'णमो लोए सव्वसाहूर्ण' ति क्वचित् पाठः, तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते 'लोके' मनुष्यलोके, न तु गच्छादौ, ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नम इति / एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् , आह च "असहाए सहायत्तं, करेंति मे संयमं करेंतस्स / एएण कारणेणं, णमामिऽहं सव्वसाहणं // " ति' ननु यद्ययं सझेपेण नमस्कारस्तदा सिद्धसाधूनामेव युक्तः, तद्ब्रहणेऽन्येषामप्यर्हदादीनां ग्रहणात् , यतोऽर्हदादयो न साधुत्वं व्यभिचरन्ति / अथ विस्तरेण तदा ऋषभादिव्यक्तिसमुच्चारणतोऽसौ वाच्यः स्यादिति, नैवं, यतो न साधुमात्रनमस्कारेऽहंदादिनमस्कारफलमवाप्यते, मनुष्यमात्रनमस्कारे राजादिनम स्कारफलवदिति कर्त्तव्यो विशेषतोऽसौ, प्रतिव्यक्ति तु नासौ वाच्योऽशक्यत्वादेवेति / ननु यथा प्रधानन्याय10मङ्गीकृत्य सिद्धादिरानुपूर्वी युक्ताऽत्र, सिद्धानां सर्वथा कृतकृत्यत्वेन सर्वप्रधानत्वात् , नैवम् , अहंदुपदेशेन सिद्धानां ज्ञायमानत्वादर्हतामेव च तीर्थप्रवर्त्तनेनात्यन्तोपकारित्वादित्यर्हदादिरेव सा। .. ____ कोईक प्रतमां णमो लोए सव्वसाहणं' एवो पाठ पण मळे छ। 'सर्व' शब्द देशसर्वतानो पण वाचक होवाथी संपूर्ण सर्वता बताववाने माटे 'लोए' शब्दनो प्रयोग करेलो छ / अर्थात् मात्र गच्छ वगेरेमा नहि परंतु आखा मनुष्यलोकमा रहेला जे सर्व साधुओ तेमने मारो नमस्कार हो / 15 ए प्रमाणे 'णमो लोए सव्वसाहूणं' नो अर्थ समजवो। ___ मोक्षमार्गमां चालता जीवोने सहाय करवा वडे उपकारी होवाथी साधुओ नमस्कार करवा· लायक छ / ( आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के- 'असहाय एवा मने संयम पाळती वखते सहाय करे छे तेथी सर्व साधुओने हुं नमस्कार करूं छु।' शंका-जो आ नमस्कार संक्षेपथी करवो होय तो सिद्ध अने साधुने ज करवो योन्य छे; 20 कारणके सिद्ध अने साधुमां अरिहंत वगेरे आवी जाय छे, केमके अरिहंत वगेरेमा साधुपणुं अवश्य होय छ ज / अने जो विस्तारथी नमस्कार करवो होय तो ऋषभदेव वगेरे भगवानोनां व्यक्तिगत नामो उच्चारीने नमस्कार करवो जोईए। समाधान-तमारी बात बराबर नथी; कारणके जेम मात्र मनुष्यने नमस्कार करवाथी राजा वगैरेने नमस्कार करवानुं फळ प्राप्त थतुं नथी, ते प्रमाणे मात्र साधुने नमस्कार करवायी अरिहंत 25 वगेरेने नमस्कार करवानुं फळ प्राप्त थतुं नथी। माटे अरिहंतोने विशेषतापूर्वक नमस्कार करवो जोईए। अने व्यक्तिशः नमस्कार तो उच्चारी शकाय तेम नथी; कारणके व्यक्तिओ अनंत होवाथी ए अशक्य छ / __शंका-मुख्य होय तेने पहेला नमस्कार करवो जोईए / आवो न्याय होवाथी सिद्ध भगवंतोने पहेला नमस्कार करवो जोईए अने अरिहंत वगेरेने पछीथी नमस्कार करवो जोईए; कारणके सिद्धो सर्वथा कृतकृत्य होवाने लीधे बधामां मुख्य छे / / 30 समाधान-तमारी वात बराबर नथी / सिद्धो पण अरिहंतना उपदेशथी ज जणाय छे अने अरिहंतो ज तीर्थने प्रवर्तावे छे; तेथी अत्यंत उपकारी होवाने लीचे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए-क्रम ज बसबर-छे। 1 आव. नि. गा० 1013 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 156.. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। नन्वेवमाचार्यादिः सा प्रामोति, क्वचित्काले आचार्येभ्यः सकाशादर्हदादीनां ज्ञायमानत्वात्, अत एव च तेषामेवात्यन्तोपकारित्वात् , नैवम् , आचार्याणामुपदेशदानसामर्थ्यमर्हदुपदेशत एव, न हि स्वतत्रा आचार्यादय उपदेशतोऽर्थज्ञापकत्वं प्रतिपद्यन्ते, अतोऽर्हन्त एव परमार्थेन सर्वार्थज्ञापकाः, तथा अर्हत्परिषद्रूपा एवाचार्यादयोऽतस्तान् नमस्कृत्यार्हन्नमस्करणमयुक्तम् , उक्तं च “ण य कोइवि परिसाए, पणमित्ता पणमए रन्नो" त्ति // 5 // शंका-जो तमे एम कहेशो तो आचार्योने ज प्रथम नमस्कार करवो जोइए; कारणके कोईक काळे अरिहंत वगेरे आचार्यों द्वारा ज जणाय छे तेथी आचार्यो ज अत्यंत उपकारी छ। समाधान-ए वात बराबर नथी, कारणके आचार्योमा उपदेश आपवानुं सामर्थ्य अरिहंतना उपदेशमाथी ज आवे छे; आचार्यो स्वतंत्र रीते उपदेशथी अर्थाने जणावता नथी। (अरिहंते जे आपेलो उपदेश तेना आधारे ज आचार्यो उपदेश आपता होय छे, परंतु स्वतंत्र रीते 10 नहीं) तेथी वस्तुतः अरिहंतो ज सर्व अर्थाने जणावनारा छे / वळी आचार्य वगेरे तो अरिहंतनी पर्षदारूप छे, माटे तेमने (आचार्य वगेरेने ) नमस्कार करीने अरिहतोने नमस्कार करवो ते अनुचित छ / ( आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के-“कोई पण माणस पर्षदाने प्रणाम करीने पछी राजाने प्रणाम करतो नथी।" परिचय 15 .. जैन आगमग्रंथो पैकी पांचमा अंग तरीके प्रसिद्ध 'श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र', जेनुं बीजं नाम 'श्रीभगवतीसूत्र' छे, तेमां मंगलाचरणरूपे श्रीनमस्कारसूत्रनां पंचपरमेष्ठी पदोनो उल्लेख प्रथम करवामां आव्यो छे / ते सूत्र उपर नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिए व्याख्या रची छे / तेमांथी पांच पदोनी व्याख्या पूरतो भाग अहीं लेवामां आव्यो छे / आगमोदय समिति ( सूरत ) द्वारा वि. सं 1974 मा प्रकाशित 'श्रीमद् भगवतीसूत्रम्' 20 भा. 1 मां आ व्याख्या छपायेली छे / तेमां मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजे प्राचीन अनेक हस्तलिखित प्रतिओ साथे मेळवीने मूळमां तथा व्याख्यामां पाठांतरो नोंघेलां छे / तेना आधारे आ सूत्र अने व्याख्या अमे अहीं मुद्रित करी छे / तेनो गुजरातीमां भावानुवाद करीने ते पण साथे प्रगट करेल छ / आ टीकाना कर्ता श्रीअभयदेवसूरि, श्रीजिनेश्वरसूरिना शिष्य हता / श्रीअभयदेवसूरिने 25 वि. सं. 1088 मां आचार्यपद मन्युं हतुं अने सं. 1120 थी 1128 सुधीमां नव अंगो पर तेमणे टीका रची हती / ए सिवाय 'पंचाशक प्रकरण', 'आगम अष्टोत्तरी प्रकरण' वगेरे अनेक ग्रंथो रच्यानी माहिती मळे छ। 1 आव०नि० गा० 1021 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 159. 2 तेमनी विशेष माहिती माटे जुओः 'श्रीअभयदेवसूरिं। ले. पं. श्री बेचरदास, प्रका. श्री वाडीलाल एम्. पारेख, कपडवंज / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [2] सप्तसु स्मरणेषु प्रथमं नमस्कारस्मरणम् / नमो अरिहंताणं / नमो सिद्धाणं / नमो आयरियाणं / नमो उवज्झायाणं / नमो लोए सव्वसाहूणं / एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलं // (1) श्रीसिद्धिचन्द्रगणिकृता व्याख्या // श्रीनाभेयः श्रियं दद्यात् ; सुरासुरनमस्कृतः। 'विघ्नानेकपपञ्चास्यो, दधद् विश्वजनीनताम् // 1 // अकब्बरसुरत्राणहृदयाम्बुजषट्पदः / भानुचन्द्रश्चिरं जीयाद्, गुरुर्मे वाचकाग्रणीः // 2 // . अष्टोत्तरशतानां योऽवधानानां विधायकः / दधानः खुश्फहमिति, बिरुदं शाहिनाऽर्पितम् // 3 // तेन वाचकचन्द्रेण, सिद्धिचन्द्रेण सर्वदा / बुद्धिवृद्ध्यै वितन्द्रेण, बालानामल्पमेधसाम् // 4 // शश्वत् सप्तस्मरणानां, वृत्तिरेषा विधीयते / तत्र तावन्नमस्कारः, एव व्याख्यायते मया // 5 // त्रिभिर्विशेषकम् / __नमो अरिहंताणमिति / नमो नमस्कारः / केभ्यः ? 'अर्हद्भ्यः ' शक्रादिकृतां पूजां सिद्धिगतिं चाहन्तस्तेभ्यः / उक्तं च ( आवश्यकनियुक्तौ नमस्कारनियुक्तौ 406 तमे पत्राङ्के)20 "अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूयाइसक्कारं / सिद्धिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वुच्चंति" // 1 // नमो-नमस्कारः / केभ्यः ? 'सिद्धेभ्यः' सितं-प्रभूतकालेन बद्धं अष्टप्रकारं कर्म शुक्लध्यानामिना ध्मातं-भस्मीकृतं यैस्ते निरुक्तिवशात् सिद्धास्तेभ्यः इति 'बहुव्रीहिः' / यदुक्तं ( आव० नम० 438 तमे पत्राङ्के) "दीहकालरयं जं तु, कम्मं से सिअमट्टहा / 25 सि धंतं ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायइ // " // 2 // 15 नोधः-१. उपाध्याय श्रीसिद्धिचंद्रगणिकृत व्याख्या अने 2. श्रीहर्षकीर्तिसूरिकृत टीकानो अनुवाद अहीं आप्यो नथी केमके, तेनो भावार्थ श्रीअभयदेवसूरीए रचेली व्याख्याना अनुवादमा प्रकारान्तरे आवी ज जाय छ। 1 अनेकपाः हस्तिनः। 2 पाठान्तरम्-जंतुकम्मं से सिअमट्टहा। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर. 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / _ नमो नमस्कारः / केभ्यः ? 'आचार्येभ्यः' स्वयं पञ्चविधाचारवन्तोऽन्येषामपि तत्प्रकाशकत्वाद आचारे साधवः आचार्यास्तेभ्यः इति 'तत्पुरुषः' / यथा (आव० नम० 448 तमे पत्राङ्के, विशेषावश्यकेऽपि गा० 3190) " पंचविहमायारं, आयरमाणा तहा पयासंता / आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चंति // " 'अनुयोगकृदाचार्यः' इति हैमः (अभिधानचिन्तामणौ का० 1, श्लो० 78 ) // 3 // नमो-नमस्कारः / केभ्यः ? 'उपाध्यायेभ्यः' उप एत्य-समीपमागत्य येभ्यः सकाशादधीयन्त इत्युपाध्यायाः तेभ्यः इति 'तत्पुरुषः' / यदुक्तं ( आव० नम० 448 तमे पत्राङ्के, विशेषावश्यकेऽपि गा० 3197) "बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं / तं उवइसंति जम्हा उवज्झाया तेण वुच्चंति // " "उपाध्यायस्तु पाठकः” इति हैमः (अभि. का. 1 श्लो. 78 ) // 4 // नमः नमस्कारः / केभ्यः ? 'लोके सर्वसाधुभ्यः' / लोके-मनुष्यलोके सम्यग्ज्ञानादिभिर्मोक्षसाधकाः सर्वसत्त्वेषु समाश्चेति साधवः, सर्वे च ते स्थविरकल्पिकादिभेदभिन्नाः साधवश्चेति सर्वसाधवस्तेभ्यः इति 'कर्मधारयः' / यथा “निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहंति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते सव्वसाहुणो” // 5 // एष पञ्चनमस्कारः / एष-प्रत्यक्षो विधीयमानः पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कारः-प्रणामः / स च कीदृशः ? 'सर्वपापप्रणाशनः' सर्वाणि च तानि पापानि च सर्वपापानि इति 'कर्मधारयः' / सर्वपापानां प्रकर्षेण नाशनो-विध्वंसकः सर्वपापप्रणाशनः इति 'तत्पुरुषः' / सर्वेषां द्रव्य-भावभेदभिन्नानां मङ्गलानां 20 प्रथममिदमेव मङ्गलम् / 'होइ मंगलं' इति पाठस्त्वप्रामाणिकः, सर्वत्र "हवइ मंगलं" इत्येव दर्शनात् / चः समुच्चये / पञ्चसु पदेषु चतुर्थ्यर्थेषु षष्ठी / अत्र चाष्टषष्टिरक्षराणि, नव पदानि, अष्टौ च सम्पदोविश्रामस्थानानि, तत्र सप्त एकैकपदा, अन्त्या तु द्विपदा इति नमस्कारार्थः // 6-9 // 15 (2) श्रीहर्षकीर्तिमूरिकृता व्याख्या // प्रणिपत्य जिनं वक्ष्ये, सप्तस्मरणेषु विवरणं किञ्चित् / यस्मान्मन्दमतीनामपि भवति सुखेन तद्बोधः // 1 // 25 : यतः पर्वदिनेषु सकलश्रेयोऽर्थ क्षुद्रोपद्रवादिदोषनिवारणार्थं च कारणादौ सुखशान्त्यर्थं च सप्त मिलितानि] एव स्मर्यन्ते-गुण्यन्त इति सप्त स्मरणान्युच्यन्ते / तेष्वादौ चतुर्दशपूर्वाणामादिभूतं अनाद्यनन्तं Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तसु स्मरणेषु प्रथमं नमस्कारस्मरणम् / [प्राकृत च पञ्चपरमेष्ठिनमस्काररूपं प्रथमस्मरणमादौ व्याख्यायते 'नमो अरिहताणं' इत्यादि / अत्र पाठत्रयम्अरहंताणं, अरिहंताणं, अहंताणं / तत्र अर्हन्ति सुरेन्द्रादिकृतां पूजां इत्यर्हन्तः तेभ्योऽहभ्यः / अरीन्-रागद्वेषादीन् घ्नन्तीति अरिहन्तारः तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः। न रोहन्ति–नोत्पद्यन्ते दग्धकर्मबीजत्वात् , पुनः संसारे न जायन्ते इत्यरुहन्तः तेभ्योऽरुहभ्यो नमो नमस्कारोऽस्तु / प्राकृतत्वात् चतुर्थ्यर्थे षष्ठी // 1 // 5 तथा नमः सिद्धेभ्यः / 'षिञ् बन्धने' (पाणिनीयधातुपाठे 1478) सितं-बद्धं प्रस्तावादष्टविधं कर्म तद् धमिति ध्मातं-शुक्लध्यानामिना दग्धं-भस्मीकृतं यैस्ते निरुक्तिवशात् सिद्धाः / यद्वा सिद्धिगतिनामधेयं स्थान प्राप्ताः सिद्धाः / यद्वा सिद्धाः-सुनिष्ठितार्था मोक्षप्राप्त्या अपुनर्भवत्वेन सम्पूर्णार्थास्तेभ्य सिद्धेभ्यो नमः // 2 // तथा नम आचार्येभ्यः / स्वयं ज्ञानादिपञ्चविधाचारवन्तोऽन्येषामपि तत्प्रकाशकत्वाद् आचारे 10 साधव आचार्याः तेभ्यः / योग्यः कुशलो हितश्च साधुरुच्यते // 3 // तथा नम उपाध्यायेभ्यः / उप-समीपमागत्य येभ्यः सकाशादघीयत इत्युपाध्यायाः / अथवा उप-समीपे अध्यायो-द्वादशाझ्याः पठनं सूत्रतोऽर्थतश्च येषां ते उपाध्यायाः तेभ्यः उपाध्यायेभ्यो नमः // 4 // * तथा नमो लोके सर्वसाधुभ्यः / सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रादिभिः साधयन्ति मोक्षमार्गमिति 15 साधवः / लोके-सार्धद्वयद्वीपलक्षणे पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणे मनुष्यलोके सर्वे च ते साधवश्च / यद्वा सार्वस्य–अर्हतः साधवः सार्वसाधवः, तेभ्यो नमः-नमस्कारोऽस्तु // 5 // एषः-पूर्वोक्तः 'पञ्चनमस्कारः' पञ्चानाम् अर्हत्-सिद्धाऽऽचार्योपाध्याय–सर्वसाधूनां नमस्कारःप्रणामः, सर्वपापप्रणाशनः ( समस्तदुरित ) निवारकः / पुनः सर्वेषां मङ्गलानां–मङ्गलकारकवस्तूनां दधि-दूर्वा-ऽक्षत-चन्दन–नालिकेर-पूर्णकलश20 स्वस्तिक-दर्पण-भद्रासन-वर्धमान-मत्स्ययुगल-श्रीवत्स-नन्द्यावर्तादीनां मध्ये प्रथमं- मुख्यं मङ्गलं मङ्गलकारको भवति / यतोऽस्मिन् पठिते जपिते' स्मृते च सर्वाण्यपि मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः // 6-9 // इदं च स्मरणमनादिभूतं, यतो जिनानां चतुर्विंशतयोऽनन्ताः सञ्जाताः अनन्ताश्च भविष्यन्ति तदा सदैवेदमेव, अतोऽनाद्यनन्तमित्यर्थः // अत्र पदानि नव (9), सम्पदः अष्टौ (8), अक्षराणि अष्टषष्टिः (68), लध्वक्षराणि 25 एकषष्टिः (61), गुर्वक्षराणि सप्त (7 ) ज्ञेयानि // नागपुरीयतपोगण-राजः श्रीहर्षकीर्तिसूरिवरः / प्रथमस्मरणे व्याख्यां, सङ्केपाद् विहितवान् सम्यक् // // इति प्रथमस्मरणव्याख्या // १जते। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। परिचय प्रथम टीकाना रचयिता श्रीसिद्धिचंद्रगणि छे, तेओ श्रीभानुचंद्रगणिना शिष्य हता। तेमणे संस्कृत भाषामां अनेक ग्रंथो अने टीकाओ रची छे / तेओ फारसी भाषाना पण जाणकार हता अने मांत्रिक हता / सम्राट अकबर अने जहांगीरना दरबारमा एक विशिष्ट विद्वान् तरीके आदर पाम्या हता। तेमणे सात स्मरणो उपर टीका रची छे, ते पैकी 'नमस्कारसूत्र' परनी टीका-श्रेष्ठी देवचंद्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड ग्रंथांक 81 मां प्रसिद्ध 'अनेकार्थरत्नमंजूषा' ना परिशिष्टमां आपेली छे, तेमांथी उद्धृत करवामां आवी छ / ___बीजी टीकाना कर्ता श्रीचंद्रकीर्तिसूरि (नागोरीतपागच्छीय )ना शिष्य श्रीहर्षकीर्तिसूरि छ / तेओ सत्तरमा सैकाना प्रसिद्ध विद्वान् हता। तेमणे अनेक टीकाग्रंथो उपरांत वैद्यक विषयना 10 'वैद्यकसारोद्धार' अने 'योगचिंतामणि' जेवा ग्रंथो रचेला छे / वळी 'सारस्वत-दीपिका' नामक व्याकरण ग्रंथनी टीका पण रचेली छे / - तेमणे सात स्मरणो उपर टीका रची छे, ते पैकी नमस्कारसूत्र उपरनी टीका उपर्युक्त 'अनेकार्थरत्नमंजूषा' ना परिशिष्टमांथी लेवामां आवी छ / 1 तेमनी विशेष माहिती माटे जुओः प्रस्तावना 'भानुचंद्रचरित' प्रकाशकः-सिंघी जैन ग्रंथमाला, अमदाबाद / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः / (1) पण्डितगुणरत्नमुनिवरकृता नमस्कारप्रथमपदार्थाः॥ ( नमोर्हद्भ्यः ) नमो अरिहंताणं / नमोऽर्हद्भ्य इति मुख्योऽर्थः // 1 // ( नमोऽरि-हन्तृभ्यः ) अरयः वैरिणस्तेषां हन्तारः अरिहंतारः-सर्ववैरिविनाशकाः, चक्रवर्तिनः 5 इत्यर्थः, तेभ्यो नमोऽस्तु इति तत्सेवकवचः // 2 // ( नमोऽरि-हन्तृभ्यः ) अथवा अरा विद्यन्ते यत्र तत् अरिचक्रं, तेन हन्तारो वैरिविनाशकाः, चक्रवर्तिन इत्यर्थः, तेभ्यो नमोऽस्तु // 3 // (न-मोदा-ऽरि ह-त्राणम् ) हो-जलं तस्य त्राणं-रक्षणं, सरोवरमित्यर्थः, तद् वर्तते किंभूतम् ! मोदो-हर्षः तस्य अरिरिव अरिः शोकः, न विद्यते मोदारिः-शोको यस्मात् तद् नमोदारि / नखादि10 गणान्नोऽवस्थानम् / “प्रक्रियां नातिविस्तरां" ( सारस्वतादौ ) इत्यादिवत् // 4 // (नम ओ अरि-हं त्राणम् ) अरि-चक्र हन्ति-गच्छति प्राप्नोति इति अरिहं-चक्रधरं, विष्णुम् / 'नम' इति क्रियापदं पञ्चम्या मध्यमपुरुषैकवचने / किंभूतं विष्णुम् ? त्राणं शरणभूतं, तत्सेवकानाम् / 'ओ' इति सम्बोधने // 5 // (नमोदलि ह-तानं ) हो-जलं तस्मात् तानो-विस्तारः उत्पत्तिः यस्य तत् हतानं-कमलम् / [ तद् ] 15 वर्तते / किंभूतम् ? 'नमोदलि' नमः-प्रतीभावः तेन उत्-प्रबला उद्धता अलिनः-भ्रमरा यत्र एवंविधम् / अनुस्वाराभावः चित्रत्वात् , रलयोरक्यं च तस्मादेव // 6 // (नमोदरि हन्ता-ऽऽनम् ) नमो अरि० / नम-नमत् उदरं नमोदरं, नमोदरं विद्यते यस्य तत् नमोदरि, बुभुक्षाक्रान्तोदरं भिक्षाचरवृन्दमित्यर्थः / तद् वर्तते, किंभूतम् ? 'हन्ताणं' हन्तशब्देन भिक्षा उच्यते / देशीभाषया हन्त-भिक्षा, तया आनं-जीवनं यस्य [ तत् ] हन्तानम् // 7 // 20 (न मोअ-लिह-त्राणम् ) मोअशब्देन प्रश्रवणम् / 'अणाहारे मोअनिंबाइ' इति प्रश्रवणस्य लिहः-पानकारी / 'लिहीक् आस्वादने' (सिद्ध० धा० ) तस्यैवंविधकष्टकर्तुरपि त्राणं शरणं न स्यात् / ज्ञानं विनेत्युपस्कारः / “सोपस्काराणि सूत्राणि भवन्ति” इति न्यायः // 8 // __(न मौकलि-हत्रा-ऽऽनम् ) मौकुलिः-वायसः 'स्वराणां स्वराः' (सिद्ध० 8. 4. 238.) इत्यकारः / तस्य हन्ता-घातकः, तस्य आनं-जीवनं न स्यात् / लोके हि एवं रूढि:-"वायसस्य भक्षकश्चिरजीवी स्यात् / " तत्रायं अर्थो न समर्थः / तस्य हननेऽपि अधिकं जीवनं नैवेत्यर्थः // 9 // नोंध पं. गुणरत्नमुनिकृत-'नमस्कारप्रथमपदार्थाः' अने श्रीदेवरत्नसूरिए रचेल 'पञ्चमपदगत'सव्व'-शब्दनी अनेकार्थीनो अनुवाद शब्दशास्त्रीओने मूळथी ज जाणी शकाय एवो छे तेथी तेनो अनुवाद पण अहीं आप्यो नथी. 1. 'नखादयः' इति सिद्धहमे (3-2-128) 2. 'अलयः' इति ख-पाठः। 3. श्रीदेवेन्द्रसूरिकृतस्य प्रत्याख्यानभाष्यस्य पञ्चदशगाथायाश्चतुर्थचरणमिदम् / सम्पूर्ण गाथा चैवम् "खाईमे भत्तोसफलाइ साइमे सुंठि-जीर-अजमाइं। महु-गुड-तंबोलाइ. अणाहारे मोअनिंबाइ॥" . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। (न-मोदा-ऽऽरि भ-त्राणम् ) 'हंताणं' भानि नक्षत्राणि तेषां त्राणं-रक्षणं यस्य, सर्वनक्षत्रत्राता, चन्द्रः इत्यर्थः / “पश्यत' इति क्रियाऽध्याहारः / चन्द्रं किंभूतम् ? 'नमोदारि' नो-बुद्धिः मोदो-हर्षः आर:-प्रापणम् , आरो विद्यते यस्य स आरी, बुद्धिमोदयोः आरी / शुभे चन्द्रे हि शुभा बुद्धिः हर्षश्च प्राप्यते / 'आरि' इत्यत्रानुस्वाराभावो न दोषाय, चित्रत्वात् / 'ख-ध-थ-ध-भां हः' (सिद्ध० 8. 1. 187.) इत्यादौ भकारस्य हकारः क्वचित् आदावपि भवतीति वचनात् , बाहुलकाच्च // 10 // (न-मोदा-ऽहं त्राणं ) त्राणं-सत्पुरुषशरणं वर्तते / किंभूतम् ? 'नमोदाई' नो-ज्ञानं मोदो-हर्षः तयोः अर्ह-योग्यम् // 11 // (नृ-मोदह तानम् ) तानं-वस्त्रम् / लोके हि तानकयोगाद् वस्त्रनिष्पत्तिः / कारणे कार्योपचारात् तानं-वस्त्रम् / किंभूतम् ? 'नमो अरिहं' नृणां-मनुष्याणां मा-शोभा, तस्या उदर्ह-भृशं योग्यम् , मनुजशोभाकारि इत्यर्थः // 12 // 10 __ (नमोदरी हन्त आ-नम् ) 'हन्त' इति खेदे / नम-नमत् कृशं उदरं यस्याः सा नमोदरी-कृशोदरी, स्त्री इत्यर्थः / सा 'आनं' आ-समन्ताद् नं-बन्धनम् / स्त्रियः सर्वत्र बन्धनरूपा इति // 13 // (नम अर्हदाज्ञाम् ) 'अरिहंताणं' अर्हदाज्ञां प्रति नम-प्रह्वीभवेति शिष्यस्य कथनम् // 14 // (न मोपरि हन्ता ) मः शिवः / 'शिव'शब्देन मोक्षो ज्ञेयः / तस्य उपरि हन्ता-गन्ता न वर्तते कश्चिद् जीवः, मुक्तरुपरि अलोकसद्भावेन कस्यापि गमनाभावात् / 'हन्ता' इत्यत्र 'हनं हिंसा-गत्योः' 15 (सिद्ध० धा०) इति गत्यर्थः // 15 // - (न म उअ र इह अ-तानम् ) इह-जगति अं-परब्रह्म तस्य तानं-विस्तारं त्वं 'उअ पश्य' (सिद्ध० 8. 2. 211.) सर्वस्मिन् जगति ब्रह्मैवास्तीति वेदान्तिमतम् / न मः-विधाता, "मश्चन्द्रे [च ] विधौ शिवे" (श्रीसुधाकलशप्रणीतायामेकाक्षरनाममालिकायां श्लो० 34.), विधाता-जगत्कर्ता कोऽपि तन्मते न वर्तते इत्यर्थः // 16 // (न मा ऊ अ रि हा-ऽतानम् ) न विद्यते रा-द्रव्यं यस्य तद् अरि, निद्रव्यं कुलमित्यर्थः / तत् किम्भूतम् ? 'हंताणं' हो-निवासः तस्य अतानं-लाघवं यस्य तत् / निर्घनस्य गृहलाघवं स्यात् / तानोविस्तारः, अतानं लाघवम् / 'न मा' इति निषेधद्वयं प्रकृतमथं ब्रूते / 'ऊ' इति पूरणे // 17 // . (नमोत्परिघं ता-ऽऽ-नम् ) तः-तस्करः तस्य आ-समन्ताद् नं-बन्धनम् / किंभूतम् ? 'नमोत्परिघं' नमन्-आरतः परतोऽपि द्वारादिषु मिलन् उत्-प्रबलः परिघः-अर्गला यत्र तदेव चौरबन्धनं स्यात् // 18 // 25 (न मा ऊ अरि-ह सन्तानम् ) अरी-प्राप्नुवन् हकारो यत्र / एतावता सकारः तस्मात् अन्तानं इति योज्यते / तदा स(सा? )-तानं इति स्यात् / ततः सन्तानं मा-लक्ष्मीः च ऊ:-रक्षणं न स्यात् , दुर्गतिपातत इति // 19 // . 1. 'गमनं नास्ति' इति ख-पाठः। 2. उअ पश्येत्यस्यार्थे श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः प्राकृतव्याकरणस्य खोपज्ञवृत्तौ निर्दिष्टेयं गाथा यथा "उअ निचलनिप्फंदा भिसिणी पत्तम्मि रेहइ बलाआ // " 20 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत (नमोऽर्हद्भ्यः ) अर्हन्तः-सामान्यकेवलिनः तेभ्यो नमः // 20 // (नमोऽर्हद्भ्यः ) अर्हद्भ्यः पूज्येभ्यो मातापित्रादिभ्यो नमः // 21 // (नं ओ अर्हन्तं अत णं) 'ओ' इति सम्बोधने / नं-बुद्धिं अर्हन्त-प्राप्नुवन्तं बुद्धिनिधानं मन्त्रिणम् / 'अत सातत्यगमने' (सिद्ध० धा०)। अत–जानीहि / 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इति / 'स्वराणां 5 स्वराः' (सिद्ध० 8. 4. 238.) इत्याकारः / 'ण' वाक्यालङ्कारे // 22 // (नमोऽर्हतः) अर्हतः-स्तुल्यान् सत्पुरुषान् [प्रति] नमः, सुग्-द्विषार्हः सत्रि-शत्रु-स्तुल्ये इति ( सिद्ध० हे० 5. 2. 26) // 23 // (नं अर्हतः उअ) नं-ज्ञानम् , अर्हतः प्राप्तान् श्रुतकेवलिनः / 'उअ पश्य' ( सिद्ध० 8. 2. 212.) // 24 // 10 (न-मा-ऊ-अरिहं ता अणं) नं-ज्ञानं तस्य मा-प्रामाण्यम् / उ:-धारणं तस्य अरिहं योग्यं / ज्ञानप्रामाण्यवादिनं जनं त्वं अण-वद / 'अणरण [वण-व्रण-बण-भण-श्रण-मण-धण-ध्वण-ध्रण-कण-कण-चण शब्दे ]' ( सिद्ध० धा० ) इति दण्डकधातुः / ता-तावत् प्रक्रमे / अन्तेऽनुस्वारः प्राकृतत्वात् // 25 // (नमः अर्हा-ऽन्त-अणं) अर्हः-प्रान्तोऽन्तो यैः / एवंविधा 'अण'त्ति अनन्तानुबन्धिनो यस्य तम् , पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् / सम्यग्दृष्टिपुरुषं क्षायिकसम्यक्त्ववन्तं प्रति नमः // 26 // 15 (नम उत-लिहं त्राणं ) त्राणं-भोजनभाजनमण्डनयोग्यं वस्तु, तं नम-अन्तर्भूतणिगर्थत्वात् प्रह्वीकुरु, मण्डयेति भोजनकारिवचः / तत् किंभूतम् ? उतं-सम्बद्धं, लिहं-भोजनं यस्मात् [ तत् ] // 27 // (नमौको-हं तार्णम् ) ताण-तृणसमूहो वर्तते / किंभूतम् ? नम-नमत् कुटीरप्रायं यत् ओको-गृहं तस्याः तृणैराच्छाद्यते गेहमिति // 28 // ( न मोदा-रि-हं तृणम् ) तृणं वर्तते / किंभूतम् ? 'मोदारिहं' मोदो-हर्षः तत्प्रधाना अरयस्तान् 20 हन्ति-हिनस्ति मोदारिहम् / 'न' इति निषेधे / तृणमुखास्ते वैरिणो जीवन्तीत्यर्थः // 29 // (न-मोदा-ऽरि हन्त ऋणम् ) ऋणं वर्तते / 'हन्त' इति खेदे / किंभूतम् ? 'नमोदारि' नं-बुद्धिः मोदः-हर्षः तस्य अरिः-वैरिभूतं वर्तते / ऋणे सति बुद्धिहर्षों नश्यत इत्यर्थः // 30 // (नं मोऽरिभा-ऽतः णं) अरिभं-रिपुनक्षत्रं तत्र अतः गमनं यस्य सः / 'अत सातत्यगमने' (सिद्ध० धा० ) एवंविधो मः-चन्द्रः / नं–बन्धनं, विग्रहमित्यर्थः तम् / “णकारो निष्फले प्रकटे च" 25 ( सुधा० एकाक्षरनाममाला श्लो० 22) इति वचनात् णं-निष्फलम् / करोतीत्यध्याहारः / “अरिहन्ताग्रे प्रथमैकवचनस्य व्यत्ययोऽप्यासाम्" ( ) इति वचनादपभ्रंशापेक्षया 'स्यम्-जस्-शसां लुक्' (सिद्ध० 8. 4. 344.) इति लुक् / एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् // 31 // (न मोऽरि-भं आकः अणं ) भशब्देन राशिरप्युच्यते, भवनमपि, ततो अरिभं-रिपुभवनम् / यदा मः-चन्द्रो न आकः-न प्राप्तः तदा अणं-सफलं कार्य स्यादिति शेषः / षष्ठभवने चन्द्रस्त्याज्य इत्यर्थः॥३२॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / (नमोदरि-हं ता अनः ) ता-तावत् अनः-शकटं वर्तते / किंभूतम् ? 'नमो अरिहं' नमोदरिहं नम-नमत् नीच्चैर्भवत् पुनः उत्-उच्चैर्भवत् एवंविधं यद् अरिचक्रं ताभ्यां हन्ति-गच्छति / शकटं हि चक्राभ्यां चलतीति // 33 // ' (न मोऽरि-हन्ता णं ) मः-ईश्वरो वर्तते / किंभूतः ? 'अरिहन्ता' अरं-शीघ्रम् , इ:-कामः तस्य हन्ता 'ण' अलङ्कारे // 34 // (न ओजोऽहं ता-ऽणः) ता-शोभा तत्प्रधानोऽणः-शब्दः साधुशब्दो यशः / 'न ओजोह' ओजो-बलं तस्य योग्यं न, बलेन यशो न स्यादित्यर्थः / मकारोऽलाक्षणिकः / 'अणं' इत्यत्र 'लिङ्गमतन्त्रम्' (सिद्ध० 8. 4. 445.) इति क्लीबत्वेन न दोषः // 35 // (नामूः अरमिभान्ता-ऽणः) अरम्-अत्यर्थम् / इभान्तः-हस्तिविनाशी सिंहः तस्य, अणःशब्दः; सिंहनाद इत्यर्थः / तं त्वं अय-प्राप्नुहि / इति सुभटस्योच्यते / यतो अमूः बन्धनं न स्यात् / 10 'स्वराणां स्वराः' ( सिद्ध० 8. 4. 238.) इत्योकारः // 36 // (नमोऽजारि-हन्तृभ्यः) “अजश्छागे हरे विष्णौ रघुजे वेधसि मरे" (हैमे का० 2, श्लो० 80.) इत्यनेकार्थवचनाद् अजः-ईश्वरः सोऽरिर्यस्य सः अजारिः-कन्दर्पः, तस्य हन्तृभ्योनीरागेभ्यो नमः // 37 // ___(न मा ओ! अ-लिहं त्राणम् ) कस्यचिद् धनवतो धर्मपराङ्मुखस्योच्यते / 'लिहीक् आस्वादने' 15 (सिद्ध० धा० ) लिहनं लिहः बाहुलकाद् भावे कः / न विद्यते लिहो यस्य [ तद् ] अलिहम्-अभक्ष्यत्वं अज-क्षिप, त्यजेत्यर्थः / अवतेर्वृद्धयर्थात् क्विपि औस्तस्यामन्त्रणे हे ओ! धनवृद्ध ! मा-लक्ष्मीः त्राणं न भवतीति, विरतिरेव त्राणं स्यादिति अभक्ष्यार्थं त्यजेत्यर्थः // 38 // . (न मोचः अज-लिह-तानाम् ) अजः-छागः तं लिहन्ति भक्षयन्तीति अजलिहाः। एवंविधास्ताःतस्करास्तेषां मोचो-मोक्षो न स्यात् / ते कर्मभिः न मुच्यन्ते इत्यर्थः / मोचनं मोच इति 20 णिगन्तादच् // 39 // (न मोचा लिह-ता न ) मोचा-कदली वर्तते / किंभूता ? लिह:-भोज्यं तस्य ता-शोभा यस्याः सा / भोज्ये सारभूता / न नेति निषेधद्वयं प्रकृतार्थम् // 40 // - (न मा अर्हा-ऽन्ता णं ) अर्हा-पूजा तस्या अन्तो-विनाशो यस्यां सा अन्तिा / ईदृशी मा-लक्ष्मीः न भवति / लक्ष्मीः सर्वत्र पूजां प्रामोतीत्यर्थः / 'ण' अलङ्कृतौ // 41 // 25 (न मोऽजा-रि-हन्ता न ) मातीति मः 'क्वचिड्डः' (सिद्ध० 5. 1. 171.) प्रमाणवेदी पुरुषः / किंभूतः ? अजः-परमात्मा तस्य अरिः-निषेधकः, प्रतिवादीति यावत् , तस्य हन्ता निवारकः / परमेश्वरं यो न मन्यते तं निवारयति / प्रमाणवेत्ता पुरुषः, सर्वज्ञं स्थापयतीत्यर्थः / नञ्द्वयं प्रकृत्यर्थे // 42 // 1. 'कर्ममुक्तिर्न स्यादित्यर्थः' इति ख-पाठः / 2. अलङ्कारे इति ख-पाठः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत नमस्कारान्तगत-पदविशेषानेकार्थाः / (नमोऽजा-ऽर्ह-ता-अणं) अजः-सर्वज्ञः तस्य अर्हः-पूजा तस्य तां-शोभा अणति वदति उपदिशति यः तं पुरुषं [प्रति ] नमोऽस्तु / पूजास्थापकः पूजार्हः स्यादित्यर्थः // 43 // (न मोऽर्हा-ऽन्ता-ऽणः) “अन्तःस्वरूपे निकटे, प्रान्ते निश्चय-नाशयोः / अवयवेऽप्यथाऽर्हन् स्यात् , पूज्ये तीर्थकरेऽपि च // " (हैमे का० 2, श्लो० 171.) इति वचनाद् मः शिवोऽस्ति / किंभूतः ? 'अन्तिाणः' अर्ह-सर्वेषां योग्यम् अन्तः-स्वरूपं तस्य अण–उपदेष्टा / 'अण शब्दे' (सिद्ध० धा० ) / “मश्चन्द्रे [च] विधौ शिवे" (सुधा० श्लो. 34) इत्येकाक्षरनिघण्टुः / ईश्वरः सर्वपदार्थयथास्थितवादी न स्यात् , तदुक्ततत्त्वव्यभिचारात् // 44 // ( नमोऽजा-अरिहं ता-ऽणं ) अजः-छागः तेन, 'ऋक् गतौ' ( सिद्ध० धा० ) इयर्ति अजारीः10 छागवाहनो वह्निः शीलार्थ इन् / तं 'हिंट् गति-वृद्ध्योः' (सिद्ध० धा०) हाययति-वर्धयतीति अजारिहःवह्निवर्धकोऽमिहोत्री, तं पुरुष नमोऽस्तु इत्युपहासः / तं किम्भूतम् ? 'ताणं' तां-शोभाम् अणति ताणः, वयं अग्निहोत्रिण इत्यभिमानी // 45 // (न मोचां अलि-हन् अत णं ) "मोचा शाल्मलि-कदल्योर्मोचा शिग्रौ" इत्यनेकार्थः (हैम० का० 2, श्लो० 73.) मोचा-शाल्मली तां त्वं न अत / 'अत सातत्यगमने' (सिद्ध० धा०) मा 15 गच्छेति / यतः 'अलिहन्' अलीनां-भ्रमराणां हन्-गमनं, णं-निष्फलं वर्तते / 'हनंक हिंसा-गत्योः' (सिद्ध० धा०) विचि रूपम् / भ्रमराणां भ्रमणं निष्फलं, सौरभरहितत्वात् / ततस्त्वं मा गच्छेति मित्रस्योक्तिः // 46 // (नमोऽरि-हतेभ्यः) अरयः वैरिणः अष्टविधकर्माणि / यदुक्तं (आवश्यकनियुक्तौ गा० 920.) "अट्ठविहं पि अ कम्मं अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं / तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति // " 20 इति तैर्हतेभ्यः कर्मपीडितेभ्यो नमोऽस्तु / इति उपहासनमस्कारः // 47 // (न मोचं अर्हत्-त्राणम्) 'अरिहं' अर्हन्–तीर्थकरः तस्य त्राणं-शरणं, न मोचन मोच्यमिति // 48 // (न मोचं अर्हत्-त्राणम् ) अर्हन्-तीर्थकरैः तस्य त्राणं-शरणं न मोच्यम् // 49 // (न मोचं अरि-ह-त्राणम् ) अरि-अष्टविधं कर्म हतवन्तः ते अरिहाः-सिद्धाः तेषां त्राणं शरणं न मोच्यम् // 50 // 25 (न मः मोदा-ऽरि-हतानाम् ) मोदारिः-शोकः तेन हताना-पीडितानां न मः--शिवं न स्यात् // 51 // (न मोदोऽरि-हतानाम् ) अरिहतानां-बाह्यवैरिपीडितानां न मोदः-हर्षो न स्यात् // 52 // (नमः अरि हतेभ्यः) अरि इति अव्ययं, सम्बोधने / हतेभ्यो निन्धेभ्यो नम इत्युपहास्यम् // 53 // 1 'नमो० अरिभिर्हतानाम्-अष्टविधकर्मपीडितेभ्यो नमः-उपहासनमस्कारः' इति ख-पाठः / 2 'जिनः' इति ख-पाठः। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / / ( नमोऽगा-ऽरि-हा-ऽन्ता-ऽणं ) अगाः-पर्वताः तेषां अरिः-इन्द्रः तस्य हो-निवासः स्वर्गः तस्य अन्तः-स्वरूपं, “अन्तः स्वरूपे निकटे” इति (हैमे का० 2, श्लो० 171.) वचनात् , तं अणतिवदति यः तं प्रज्ञापनादिसिद्धान्तवेदिनं नमः-प्रणतो-ऽस्मीत्यर्थः / अगारिरित्यत्र ‘अवर्णो यश्रुतिः' (सिद्ध० 8. 1. 180.) न, यकारबाहुलकाद् इति // 54 // ..(नमोऽहं त्वमत णम् ) णं-ज्ञं पण्डितं पुरुषं त्वम् अत–जानीहि / 'अत सातत्यगमने' (सिद्ध० / धा०)। 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः' / किंभूतम् ! नमोऽहं प्रणामयोग्यम् // 55 // (न-म-उ अर्हदृणम् ) 'अरिहंताणं' अर्हन्-तीर्थकरः तस्य ऋण-कर्म, तीर्थकरनामकर्मेत्यर्थः / किम्भूतम् ? 'नमो' नः-ज्ञानं, मः-शिवं तयोः ऊः-प्राप्तिः यस्मात् / यत् कर्मण्युदिते परमज्ञानं मोक्षश्च प्राप्यत एवेत्यर्थः // 56 // (नमोत्तरीः हा-ऽन्ता) 'नमोत्तरीः' नमा-नमन्ती उत्-ऊर्ध्वं गच्छन्ती एवंविधा तरी नौः / 10 किम्भूता ? 'हान्ता' हं-जलं तस्य अन्तः-प्रान्तो यस्याः एवंविधा न स्यात् / क्षणं नमति क्षणाच्चोर्द्ध याति तया नावा जलप्रान्तो न स्यात् , जलप्रान्ते न गम्यते इत्यर्थः // 57 // (नृ-मोऽरि ह-ता-ऽऽनः) ना-पुरुषः तस्य मः-मस्तकः / किम्भूतः ? 'हतानः' “हः शूलिनि करे नीरे" (सुधा० श्लो० 45.) इति हः-ईश्वरः तस्य ता-शोभा तां आनयति-वर्धयति [इति] हतानः / नरमस्तको हि ईश्वरशोभाकरः तदाभरणं शिवस्य वर्तते / 'अरि सम्बोधने' // 58 // 15 (न म अजं र हता-ऽनम् ) अजं-विष्णुं, नम-प्रह्वीभव / किम्भूतम् ? 'हतानः' हतः अनःशकटदैत्यो येन तम् / 'इ-जे-राः पादपूरणे' (सिद्ध० 8. 2. 217.) इति सूत्राद् इकारमुक्तो रेफः पादपूरणे // 59 // ____(न मा अजोऽरिहन्ता णम् ) अजः-रघुतनयः, अरिहन्ता-सर्ववैरिविनाशी अभूत् / 'ण' अलङ्कारे 'मा' 'न' इति निषेधद्वयं प्रकृतार्थम् // 60 // 20 ___ (नृ-मोदं रह तानम् ) 'नमो अरहंताणं' अयमपि पाठोऽस्ति / ताना एकोनपश्चाशत् , तानंगीतगानं, रह-जानीहि / 'रहुण् गतौ' (सिद्ध० धा०)। गत्यर्थाश्च ज्ञानार्थाः। तानं किम्भूतं ? 'नृमोदं' नृणां पुरुषाणां मोदो यस्मात् // 61 // (न मोचय अर्हदाज्ञाम् ) अनेन पदेन अनुयोगचतुष्टयं व्याख्यायते / अरहंताणं अर्हदाज्ञां न मोचय / मोचा-शाल्मली मोचां करोति मोचयति / मध्यमपुरुषैकवचने मोचयेति सिद्धम् / शाल्मलि- 25 तुल्यामसारां जिनाज्ञां मा कुरु / तत्त्वरूपां तां जानीहि इति चरणकरणानुयोगः // 62 // ___(नमः अर्हन्नकं त्राणम् ) 'अरहं' अर्हन्नकं साधु, त्राणं-शरणभूतं नमस्कुरु / पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् अरहं-अर्हन्नकम् / इति धर्मकथानुयोगः // 63 // 1. अनेन विग्रहेण 'नमो' इति पदस्य कर्मविशेषणत्वे संशीतिः; नपुंसकत्वे हखेन भाव्यम् / 2. अत्र रह' इति रूपेण भवितव्यम्, अनुखाराभावश्चित्रत्वात् / चान्द्रमते णिचोऽनित्यात्वाणिजभावे 'रह इति सिद्धम् / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत (न मोच-र-हन्ता ऋणम् ) ऋधातोस्तप्रत्यये 'ऋ-ही-वा-धा (त्रोन्दनुदविन्तेर्वा ) (सिद्ध० 4. 2. 76 इति ऋणप्रयोगः / न ऋण-क्षीणम् पुरुषं, मोचः-शिग्रुः तस्य 'र'शब्देन रसो हन्ताघातको भवति / क्षयरोगी पुरुषः शिंगुरसेन नीरोगः स्यादिति तात्पर्यम् / पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'र'शब्देन रसः / नेयं स्वमतिकल्पना श्रीजिनप्रभसरिरपि 'पउमाभवासुपूज्जा' इत्यस्यां गाथायां 5 चतुरनुयोगी व्याख्यानयद्भिरेवं व्याख्यातम्–“पउ इति पौषः / मा इति माघः / भ इति भाद्रपदः / तत्र अव इति अवमरात्रे सतीत्यर्थः / असु इति असुभिक्षं-दुर्भिक्षं स्यात् / पु इति पुहवी / लोगो पुहवी सोवा, तस्य ज्या ज्यानिः-हानिः स्यादित्यर्थः" / इति द्रव्यानुयोगः // 64 // (न मोऽलि हन् त्राणम् ) 'नमो अरिहंताणं' अलि:-वृश्चिकराशिः, तत्र 'हनं हिंसा-गत्योः' (सिद्ध० धा० ) हन्ति गच्छतीति विचि अलिहन्-वृश्चिकराशिगतो मः-चन्द्रः त्राणं-विपद्रक्षको न 10भवति / वृश्चिकराशौ चन्द्रस्य नीचत्वाद् दौर्बल्यम् / इति गणितानुयोगः // 65 // ( नमः अलि-हा-ऽन्तेभ्यः) “अलिः सुरा-पुष्पलिहोः" इति ( हैमे अनेकार्थे का० 2, श्लो० 480.) वचनात् अलि-सुरा तां जहाति, अलिहं-सुरावर्जकम् / सुराया उपलक्षणत्वाद् मांसाद्यपि ग्राह्यम् / मद्यादिवर्जकं अन्तः-स्वरूपं येषां तानि अलिहान्तानि-श्राद्धकुलानि तेभ्यो नमः-उद्यमो भवतु / श्राद्धकुलानि उदितानि सन्त्वित्यर्थः // 66 // 15 (नमः अरे हं अताणम् ) कश्चिच्छेवो वक्ति, हं-अहं रे-रामविषये नमो-नमस्कारम् , अताणं-अतनवम् , कृतवानित्यर्थः / 'र' शब्देन राम उच्यते एकाक्षरनाममालायाम् / अतनवमिति बस्तन्युत्तमैकवचनम् / अकारः पादपुरणे // 67 // (नमः अरे हं अताणम् ) कश्चिज्जैनो वक्ति, अहं रामे नमः नातनवम् / अकारो निषेधे "अमा-नो-नाः प्रतिषेधवाचकाः" इति माला // 68 // 20 (नमोऽर-भन्ता णम् ) नमो अरहताणं नं-बन्धनं / 'मींग्श् हिंसायां' ( सिद्ध० धा० ) मीनातिहिनस्ति / उप्रत्यये नमः-बन्धच्छोटकः, बन्दिमोक्षकरः स वर्तते / किम्भूतः ? 'अरहन्ता' रः नरः, नरः अरः-अमर्त्यः-देव इत्यर्थः / अरान्–देवान् भनक्तीति अरभन्–दैत्यः / तेभ्यः 'ताय॒ङ सन्तान-पालनयोः' (सिद्ध० धा०) तायते इति ताः विपि / 'य्वोः प्वव्यञ्जने लुक्' (सिद्ध० 4. 4. 121.) इति यलोपे अरहन्ता / बन्दिमोक्षकरः-मन्त्रमण्यादिः पदार्थो दैत्यभयवारको भवति / 'ण' पूरणे // 69 // 25 (न-मोऽरहन् त्राणम् ) 'न' शब्देन ज्ञानं तच्च पञ्चसङ्ख्यम् / एतावता नं पञ्चसंख्याया मं-ज्ञानं यस्य स नमः–पञ्चमज्ञानवान् केवली 'माङ् मान-शब्दयोः' (सिद्ध० धा० ) / मीयते इति मं-ज्ञानम् / बाहुलकाद् भावे डप्रत्यये सिद्धम् / केवली किम्भूतः ? 'अरहन्' अरा-देवाः तान् हन्तिगच्छति-प्राप्नोति अरहन् / देवस्य सेव्य इत्यर्थः त्राणं षट्कायरक्षकश्च // 70 // 1. सम्पूर्णा गाथा चैवम् "पउमाभ-वासुपूजा, रत्ता ससि-पुप्फदंत ससिगोरा / सुव्वय-नेमी काला, पासो मल्ली पियंगाभा // " Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / (न-मा-ऊ अ-र-हा-ऽन्तेभ्यः / अकारं रियन्तीति डे अराः / 'रित् गतौ' अकारप्रापकाः / हकारोऽन्ते येषां ते हान्ताः / अकारादयो हकारान्ता वर्णाः इत्यर्थः। 'नमो' नं-ज्ञानं, मा-शब्दः 'माङ् मान-शब्दयोः' (सिद्ध० धा० ) इति तयोः औः-अवगमनं भवति / अव-धातुरवगमनार्थेऽपि वर्तते / अवनं ऊः भावे क्किपू / 'अरहंताणं' इत्यत्र चतुर्थी ज्ञेया / वर्णेभ्यो ज्ञानं शब्दावगमश्च स्यादित्यर्थः // 71 // (नमोदरा-भक्-त्राणम् ) त्राणशब्देन बृहत्पूपिकोच्यते जैनमुनिभाषया / ये लोके मण्डका इति प्रसिद्धाः ते साधूनां त्राणका इति / त्राणानां समूहो त्राणम् / समूहार्थे अण् / त्राणं किम्भूतम् ? नमं-नमत् उदरं यस्याः सा नमोदरा-बुभुक्षा तां भनक्तीति किम् // 72 // (न मौकरहः ता-ऽऽनः ) “मूको दैत्याऽवाग्दीनेषु इत्यनेकार्थसङ्ग्रहः / ( हैमे का० 2. श्लो० 3.) मूकानां समूहो मौकम् / 'षष्ठयाः समूहे' (सिद्ध० 6. 2. 9.) इत्यण् / 'रह त्यागे' 10 (सिद्ध० धा० ) मौकं रहति मौकरहो न स्यात् / कः ? तां-लक्ष्मी आनयतीति तानः / धनोपार्जक: दीनसमूहवर्जको न स्यात् / दीनसमूहं प्रीणयतीति स दीनैः सेव्यत इत्यर्थः // 73 // (नमो-गा ण-रहन्तः ) “णः प्रगटे निष्फले च प्रस्तुते ज्ञान-बन्धनयोः” इति (सुधा० ) एकाक्षरनाममाला (श्लो० 22.) वचनात् णः-बन्धः कर्मबन्ध इत्यर्थः / तं रहन्तः त्यजन्तः पुरुषाः 'नमोगाः' स्युः / नमः-नमस्कारं, गच्छन्ति-प्रामुवन्तीति नमोगाः-नमस्कारार्हाः स्युः // 74 // 15 ... (नमोचः ण-रहन्तः ) णं-ज्ञानं, रहन्तः-प्राप्नुवन्तः पुरुषाः 'नमोचः' स्युः / नमन्तीति डे नाः-प्रणामकारिणः तान् मोचयन्ति संसाराद् नमोचः, णिगन्तात् क्विपू / 'रहु गतौ' (सिद्ध० धा० ) रहन्त इत्यत्रानुस्वाराभावश्चित्रत्वात् // 75 // * (न मा ऊः अरहन्तः णं) 'णसि कौटिल्ये' (सिद्ध० धा० ) नसनं नः-कौटिल्यम् / अरहन्तः–अप्राप्नुवन्तः पुरुषाः णं-प्रकटं यथा स्यात् तथा, अवन्ति–दीप्यन्ते इति क्विपि ऊः / प्राकृत-20 त्वाज्जस्लुक् 'स्यम्-जसू शसां लुक्' (सिद्ध० 8. 4. 344.) अपभ्रंशे 'व्यत्ययश्च' (सिद्ध० 8. 4. 447.) इति भाषाव्यत्ययात् प्राकृतेऽपि // 76 // (न मोऽरि-हन्ता आः न ) मृदं करोति णिजि अचि मः-कुम्भकारोऽस्ति / किम्भूतः ? अरिचक्रं तेन अंहते-दीप्यते अरिहन्ता से क् / न न भवतीति भवत्येवेत्यर्थः / आः पादपूरणे // 77 // __(नः मोक-रहन्तानाम् ) मोकं–कायिकी रहन्ताणं-त्यजतां परिष्ठापयतां साधूनां नो भवति 25 अविधिना त्यजतां नः-कर्मबन्धः, विधिना त्यजतां तु नः-ज्ञानं स्यादिति विवक्षयार्थद्वयम् // 78 // ... अथ चतुर्दशस्वप्नवर्णनम्- ( नम-करी ऋण-हन्ता णं ) नमः-प्रह्वीभावः सौम्यत्वमिति यावत् , तेन अवति-दीप्यते / अव-धातुरेकोनविंशत्यर्थेषु / तत्र दीप्त्यर्थोऽप्यस्ति / नमश्चासौ करी-हस्ती / सौम्यो गज इत्यर्थः / सोऽदुःखहेतुत्वात् ऋणं-दुःखं, कारणे कार्योपचारात् हन्ति-विनाशयति / अण Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः / [प्राकृत मित्यत्र 'स्वराणां स्वराः' ( सिद्ध० 8. 4. 238.) इत्यात्वम् / 'हन्ताणं' इत्यत्र 'पदयोः सन्धिर्वा' ( सिद्ध० 8. 1. 5.) इति सन्धौ ‘अघो म-न-याम्' ( सिद्ध० 8. 2. 78.) यलोपे सिद्धिः // 79 // (नम! उअ रथ-तानं) रह-रथं तानयति-विस्तारयति स्थानात् स्थानान्तरं नयति, 'नवाऽखित् कृदन्ते रात्रेः' (सिद्ध० 3. 2. 117.) इति मोऽन्ते रथंतानो-वृषभः तं 'उअ पश्य' (सिद्ध० 58. 2. 211.) नमेति हे नम ! नमतीति नमः तत्सम्बुद्धिः // 80 // (न-मोक्-करिहन्ता आनाम् ) 'णहींच वन्धने' (सिद्ध० धा०) नह्यते इति भावे डप्रत्यये नं-बन्धनं, तस्योपलक्षणादन्याऽपि पीडा ग्राह्या / तस्मान्मोचयति नमोग् णिगन्ताद् विच करिहन्तासिंहः / नमोक् चासौ करिहन्ता च स तथा / केषाम् ? 'आनाम् ?' 'अषी असी गत्यादानयोश्च' (सिद्ध० धा० ) इति चानुत्कृष्टशोभार्थादषेर्डे प्रत्यये अः-शोभमानः, पुण्यवान्नर इत्यर्थः / तेषां एवं10 विधः सिंहो दृष्टः / पीडाहरः स्यादित्यर्थः // 81 // (नमोदर-हं ता-ऽऽनम् ) ता-लक्ष्मीः तस्याः आनं वर्णच्युतकादासनं वर्तते / किम्भूतम् ? / 'नमोदरहं' नम-नमत् उदरं हं-जलं यत्र तत् तथा / 'एकार्थ चानेकं च' (सिद्ध० 3. 1. 22.) इति समासः / आसने स्थिता लक्ष्मीः खं जलेन सिञ्चति इति लक्ष्म्या अभिषेकः / स्वप्ने दृष्ट इति तथा वणितम् / वर्णच्युतिश्च नैषधस्यादिकाव्ये (स० 1, श्लो० १.)-"तथाऽऽद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि" 15 इत्यत्र सुधाशब्देन वसुधां व्याकुर्वता टीकाकारण महाकविना दर्शिता // 82 // गज-वृषम-सिंह-पद्मासना-सक्-चन्द्र-तपन-पताकाः / कुम्भा-ऽम्भोजसरो-ऽम्बुधि-विमान-रत्रोच्चयाऽग्नयः स्वप्नाः / / -गीतिः [इति ] चतुर्दशस्वप्ननामानि, तत्र चत्वारि व्याख्यातानि / अथ स्रक् व्याख्यायते (नम-ऊ-अलि-हन्त-आः नम् ) हं-जलं तस्मात् तन्यते-विस्तरति उत्पद्यते इति यावत् , हन्तंकमलं 20 कर्मकर्तरि डः कमलस्योपलक्षणादन्यान्यपि पुष्पाणि गृह्यन्ते। 'आसिक् उपवेशने' (सिद्ध० धा० ) आसनं आस् कमलादिपुष्पाणाम् आः-स्थानम् , एवंविधो यो नः-बन्धो रचनाविशेषः सकपः तत् हन्तानं क्लीबत्वं प्राकृते लिङ्गस्यातन्त्रत्वात् / किम्भूतम् ? 'नमो अरि' रलयोरैक्यम् / नमः-प्रहीभावः परितो भ्रमणं तेन ऊः-शोभमाना अलयो यत्र तत् / अवतेः शोभावाचिनः विपि ऊः // 83 // (न मोऽरिहन्ता न ) मः-चन्द्रो वर्तते / किम्भूतः / ‘णसि कौटिल्ये' ( सिद्ध० धा० ) नसते 25 इति नः क्विप् / 'अभ्वादेः [ अत्वसः सौ ' (सिद्ध० 1. 4. 90.) इति न दीर्घः / श्रादित्वात् न नः-न कुटिलः, पूर्ण इत्यर्थः / एवंविधश्चन्द्रोऽरिहन्ताऽस्तु / न इत्यत्रानुस्वाराभावश्चित्रत्वात् // 84 // अथ सूर्यः ( नमो अर्-अहस्तानम् ) अहर-दिनं, तनोति-करोति अहस्तानः-दिनकरः अरा विद्यन्ते यत्र तत् अरि-चक्रं तद्वदाचरति वृत्तत्वादाचारे क्यनि किपि तयोर्लोपे अर, अर चासौ अहस्तानश्च वृत्तो दीप्यमानश्च सूर्यस्तं [प्रति ] नमः // 85 // Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। (नमोदन रंह तानम् ) तानोद्भवत्वात् तानं वस्त्रं, कारणे कार्योपचारात् / तानं किम्भूतम् ? नमोदन्' नमं-नमनं सर्वदिक्षु प्रसरणं तेन अवति-कान्तिमद् भवति, किपि नमु / दण्डं श्रयति, णिजि किपि पदस्य उलोपे दन् / न मु च तद् दन् च नमोदन् / एतावता ध्वज इत्यर्थः / 'स्वराणां स्वराः' (सिद्ध० 8. 4. 238.) इत्योकारः / तं ध्वजं त्वं रंह-जानीहि / 'रहुण् गतौ' (सिद्ध० धा०) 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इति वचनाद् ज्ञानार्थत्वम् / चान्द्रमते णिचोऽनित्यत्वाणिजभावे रहेति सिद्धम् / / अनुखारस्तदसत्त्वं चित्रत्वाददुष्टम् // 86 // _____ अथ कुम्भः (न मा ओ कलः हाऽन्तं अण) ओ कल:-कलशं श्रयति णिजि किपि सम्बोधने / ओ कल: 'ओ' इति सम्बोधनपदम् / हे कलशाश्रयिन् ! पुरुष ! त्वम् / 'हिंट गति-वृद्धयोः' (सिद्ध० धा० ) हयनं हः-वृद्धिः तस्या अन्तं-विनाशं, न-मा, अण–वद / कलशाश्रयिणः पुरुषस्य वृद्धिरतो न स्यात् / कामकुम्भो हि कामितकरः, तेनैवमुच्यते / नकार-मकारौ निषेधवाचकौ / एक-10 निषेधेऽर्थसिद्धौ द्वितीयनिषेधः “द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति" इति न्यायादवगन्तव्यः। लोकप्रधानत्वापेक्षया च निषेधद्वयं 'मा' 'न' 'करि करि' इत्यादि // 87 // अथ पद्मसरः (न मोद् रः हान्ताः नऽम्') रो वर्तते। किम्भूतः ? 'हान्ताः' हकारोऽन्ते यस्य / एतावता संकारः तेन असति-शोभते इति हान्तास् / एतावता सर इति जातम् / अब्जानिकमलानि श्रयतीति णिचि किपि तल्लोपे अन्त्यस्वरादिलोपे। ‘पदस्य' (सिद्ध० 2. 1. 89.) इति 15 जलोपे च अब् इति जातम् / 'अन्त्यव्यञ्जनस्य' (सिद्ध० 8. 1. 11.) इति प्राकृते वकारस्यापि लोपे अम् इति स्थितम् / एतावता पद्माश्रितं सर इत्यर्थः / किम्भूतम् ? मोदयति मोद् एवंविधं न न / प्रकृतार्थे द्वौ निषेधौ / हर्षकारकमेवेत्यर्थः // 88 // अथ सागरः / ( नम-ऊ-जलध्यन्तः-आनन् ) नमं नमनं-सर्वत्र प्रसरणं तेन ऊः-शोभमान एवंविधो जलध्यन्तः-समुद्रः / अन्तशब्दः स्वरूपे। किम्भूतः ? 'टुनदु समृद्धौ' (सिद्ध० धा० )20 आपूर्वः नद् / आनन्दयति-समृद्धि प्रापयति सेवकान् , रत्नाकरत्वात् / विचि ‘आनन्' इति सिद्धम् // 89 // ___ अथ विमानः ( नम ओ अ-र-ह-अन्त ! ऋणम् ) अन्तशब्देन 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' निशान्तं-गृहम् / “रः कामे तीक्ष्णे वैश्वानरे नरे” इत्येकाक्षर (सुधा० श्लो० 36) वचनात् र:-नरः न रः अरः / अरो-देवः / अरान्–देवान् , हन्ति–गच्छति प्राप्नोति देवाश्रितत्वात् अरहम् , 25 एवंविधं अन्तं-निशान्तं अरहन्तं, अमरविमानमित्यर्थः / तस्य सम्बुद्धौ हे अरहन्त ! त्वं ऋणं-दुःखं, नामय–पराकुरु / 'नम' इत्यत्रान्तर्भूतो णिगर्थः / 'ओ' इति 'हे' इत्यर्थे // 90 // (नः म-ऊत-र-अहर्-अन्त-गण ) 'मश्चन्द्रे [च ] विधौ शिवे' इति ( सुधा० श्लो० 34) वचनात् मः-चन्द्रः तेन उतं-कान्तं मोतं, चन्द्रकान्तमित्यर्थः / र:-अग्निः तत्तुल्यं, तथा अहर्-दिनम् / अहः करोति णिजि क्विपि अहः-सूर्यः तद्वदन्तः स्वरूपं यस्य, सूर्यकान्त इत्यर्थः / एतावता चन्द्रकान्ते 30 1 टीकामां 'अम्' नी सिद्धि छ / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत वह्निवर्णसूर्यकान्तादीनि रत्नानि / उपलक्षणादन्यान्यपि रत्नानि ग्राह्याणि / तेषां गणः-समूहोऽस्ति / 'क-ग-च-ज- [त-द-प-य-वां प्रायो लुक् ]' (सिद्ध० 8. 1. 177.) इति गलुक् / ‘पदयोः सन्धिर्वा' (सिद्ध० 8. 1. 5.) इति सन्धिः / यथा चक्काउ-चक्रवाकः। ‘णिश समाधौ' (सिद्ध० धा० ) नेशति-समाधिं करोति चित्तस्वास्थ्यं निर्मापयतीति डे नः // 91 // . 5 अथामिः / (नम ओ अज-रथं त्रि-अणम् ) अजः-छागः, रथः-वाहनं यस्य सः अजरथः-वह्निः तं त्र्यणं त्रयोऽणाः शब्दा यस्य सः, त्रिविधोऽमिरिति कविसमयः / 'ओ' इति सम्बोधने / तं नमप्रणमेति स्वप्नाः 14 // 92 // . (नमो अरहंताणं ) नं-ज्ञानं / अरहन्ताणं-अत्यजतां पुरुषाणां उख भवति / 'उख्नखे' ति गत्यर्थो दण्डकधातुः / 'ओखणं ओग्' विचि सिद्धम् / अन्त्यव्यञ्जनलोपे ओ-गतिर्भवतीत्यर्थः / गतिः 10 सैव या सद्गतिः / यथा “कुले हि जातो न करोति पापं" इत्यत्र कुलं तदेव यत् सत्कुलमिति // 93 // (नं ओ तर हन् ! तां नः) हंसं अणति-श्रयति वाहनतया णिजि क्विपि हन् / 'ओ' इति सम्बोधने / हे हन् ! हे सरस्वति / नः-अस्माकं, नं-ज्ञानं, तां-शोभां च, तर-देहि / 'तृ' धातुः दाने वर्तते / ( अन्यथा विपूर्वोऽपि दाने न प्रवर्तेत ) उपसर्गाणां धात्वर्थद्योतकत्वात् , तृधातौ दानार्थो ऽस्तीति // 94 // 15 (नम् ओ अर अहर् अन्त ! णं ) अन्तशब्देन [ पदैक ] देशे [ पद ] समुदायोपचाराद् हेमन्त इति / अहर-दिनं, नमतीति नमं-कृशं, हे हेमन्तऋतो! त्वं नमं-कृशं दिनं, अर-प्रामुहि / 'णं' अलङ्कारे / हेमन्ते दिनलघुता इति प्रसिद्धम् // 95 // (नमः अरे ह-तानाम् ) “रः तीक्ष्णे" इति ( विश्वशम्भुनाममालायां श्लो० 101) वचनात् रं-तीक्ष्णं उष्णमिति यावत् / न रं अरं-अतीक्ष्णः, शिशिरऋतुः इत्यर्थः, तस्मिन् अरे-शिशिरऋता20 वित्यर्थः / अपभ्रंशे इकारः / 'व्यत्ययोऽप्यासाम्' इति व्यत्ययः स्याच्च / हं-जलं तस्मात् तन्यन्तेविस्तारं यान्ति, हतानि जलरुहाणि, पद्मानीत्यर्थः / तेषां नमो नमनं-कृशता भवति / शिशिरे हि कमलानि हिमेन शुष्यन्तीति प्रसिद्धम् // 96 // (नम् उ सुरभ् हान्तास् णं) हकारोऽन्ते यस्य स हान्तः / सकार इत्यर्थः / तेन असति-शोभते हान्तास् / एवंविधो रभशब्दः / पुनः किम्भूतः ? 'उ''अ' उकारेणासति-शोभते उ अष् ‘अन्त्य25 व्यञ्जनस्य' (सि० 8. 1. 11.) इति षलोपः / उरह् (हः ) इति शब्दः स सकारयुक्तः क्रियते तदा सुरह इति जातम् / कोऽर्थः ? सुरभिः–वसन्तऋतुः, तमाचष्टे स्तौति इच्छति वा यः पुरुषः स सुरभ् णिजि तलोपे सिद्धम् / किप् लोपश्च / उ अरह् इत्यत्र अन्त्यव्यञ्जनलोपः / सुरभशब्देन वसन्तस्तावकः पुरुष इत्यर्थः / “णः प्रकटे निष्फले च" ( सुधा० श्लो० 22) वचनात् णं-प्रकटं यथा स्यात् तथा नम् स्यात् , नमतीति नम्-प्रहीभावः, उद्युक्तः सर्वकर्मणीत्यर्थः // 97 // 30 (न मोदः रः हा-ऽन्तानः ) “रः तीक्ष्णे” (विश्व० श्लो० 101) इति वचनात् / रः-उष्णः ग्रीष्मऋतुरित्यर्थः / किम्भूतः ? हं-जलं अन्तं आनयतीति हान्तानः, ग्रीष्मे जलशोषः स्यादित्यर्थः / मोदयतीति मोदः / एवंविधो न / ग्रीष्मः [प्रायः ] परितापकरत्वान्न मोदकृत् // 98 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। 25 विभाग] - (नमोऽरः हन्तानः ) उ अर / कोऽर्थः ? / ऋत्वरः ‘रह त्यागे' ( सिद्ध० धा० ) रह्यते त्यज्यते इति भावे डप्रत्यये र:-निन्द्यः, न रः अरः-उत्तम इत्यर्थः / ऋतुषु अरः-उत्तमः ऋत्वरः, सर्वऋतुप्रधान इत्यर्थः / स क इति विशेषणद्वारेणाह-'हन्तानः' हं-जलं, तानयति-विस्तारयति हन्तानः / वर्षाऋतुरित्यर्थः / किम्भूतः ? 'नमः' नमति–प्रह्वीकरोति खोपमान् सर्वजनान् करोति अन्तर्भूतणिगर्थत्वाद् नम् / सर्वव्यापारप्रवर्तक इत्यर्थः // 99 // (नम अरहा-ऽन्त ! न ) 'अरहन्त०' आपः-जलं / ‘रह त्यागे' ( सिद्ध० धा० ) रहन्तित्यजन्ति मुश्चन्तीति अरहः-मेधाः, तस्य (तेषां ) अन्तः-विनाशो यस्मात् सः अरहान्तो-धनात्ययः, शरद् इत्यर्थः / हे अरहान्त ! हे शरत् ! त्वं / न निषेधे / 'नम' इति क्रियापदम् / मा नम-मा कृशीभव / शरदोऽतिरमणीयत्वादेवमुक्तिः // 100 // इति षड् ऋतवः सम्पूर्णाः // अथ नव ग्रहा वर्ण्यन्ते / तत्र सूर्य-चन्द्रौ पूर्व, तत्रापि चन्द्रः प्रथमः सिद्धान्तवेदिनां मते / 10 ( नमोऽरभं त्राणम् ) "रः तीक्ष्णे” इति ( विश्व० श्लो० 101 ) वचनाद् रः-तीक्ष्णः, न रः अरः, शीत इत्यर्थः / अरा-शीता, भा–कान्तिः यस्य स अरभः-शीतगुः तं नमोऽस्तु / चन्द्रं किम्भूतम् ? जाणं--शरणं, सर्वनक्षत्राणां ग्रहाणां च नायकमित्यर्थः // 101 // __ अथ सूर्यः / ( नमो च रभं ता-ss-नम् ) रा तीक्ष्णा, भा–कान्तिः यस्य स रभः सूर्य इत्यर्थः / रमाय-सूर्याय नमः / 'व्यत्ययोऽप्यासाम्' [ आसां ] विभक्तीनां व्यत्ययोऽपि स्यादिति वचनात् चतुर्थ्यर्थे 15 द्वितीया / चः पूर्वोक्तार्थसमुच्चये / किम्भूताय रभाय ? 'तानाय' / “तकारस्तस्करे युद्धे" ( सुधा० लो० 23) इत्येकाक्षरवचनात् ताः-चौराः तेषां आ-समन्तादू नः-बन्धनं यस्मात् स तानः तस्मै / सूर्योदये हि चौराणां बन्धनं भवति // 102 // _____ अथ भौमः / (न मौ अर ! हन्ताऽऽन ! ) हे अर ! / अरः किम्भूतः ? 'आनः' अकारस्य न:-बन्धो यत्र, एतावता आरः-कुजः / किम्भूतः ? 'हन्तः' हः-जलं तस्य अन्तो यस्मात् स तथा, 20 एवंविधो न, जलदाता इत्यर्थः / किम्भूतः सन् ? 'मौः' "मश्चन्द्रे [च ] विधौ शिवे” इति ( सुधा० श्लो० 34 ) वचनात् मः-चन्द्रः, तं अवति-प्राप्नोति विपि मौः / चन्द्रयुक्तो हि भौमो वर्षाकाले वृष्टिदः // 103 // ___ अथ बुधः / (न मौजो रै० भं तानः ) मः-ब्रह्मा / सः अवति-देवतात्वेन स्वामी भवति क्विपि मौः / स्वाम्यर्थे 'अव' धातुः / ततो मौः-रोहिणीनक्षत्रं, तस्मात् जायते इति मौजः-बुधः / “श्यामाङ्गो 25 रोहिणीसुतः” इति ( अभिधान० का० 2, श्लो० 31) वचनाद् 'रिहं' राः-धनं, तदेव भं-भवनं, धनभवनमित्यर्थः / तत्र गत इति शेषः / 'तानः' तां लक्ष्मी आनयतीति तानः एवंविधो न ? किन्तु एवंविध एवेति काकूक्त्या व्याख्येयम् / धनभवनस्थो हि बुधः-लक्ष्मीप्रद इति ज्योतिर्विदः / रैशब्दस्य 'एत ऐत्' ( सिद्ध० 8. 1. 148.) 'स्वराणां स्वराः' (सिद्ध० 8. 4. 238.) इतीकारः // 104 // ___अथ गुरुः / ( नमः अद-ल-हन्ता आ-नः) " लश्वामृते” इति (सुधा० श्लो० 39) 30 वचनाद् लः-अमृतम् , अदनम् अदः-भोजनम् , अदे-भोजने, ल:-अमृतं येषां ते अदलाः-देवाः; तान् Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत हन्ति-गच्छति आचार्यतया प्राप्नोति अदलहन्ता-सुराचार्यः, जीव इत्यर्थः / किम्भूतः / 'आनः' आ समन्तात् नः-ज्ञानं यस्मात् स आनः-ज्ञानदाता / किम्भूतः सन् ? 'नमः' नः बुद्धिः पञ्चमं भवनं तत्र 'मदुङ् स्तुति-मोद-मद-स्वप्न-गतिषु' मन्दते-गच्छति नमः डप्रत्यये सिद्धम् / लमे हि पञ्चमभवनस्थो गुरुर्ज्ञानदाता स्यादिति // 105 // 6 अथ शुक्रः / ( नम उन्द-ल-भं तानम् ) 'तानः' तकारस्य षोडशव्यञ्जनत्वात् तशब्देन षोडश उच्यन्ते / 'अषी असी गत्यादानयोश्च' (सिद्ध० धा० ) इत्यत्र चानुकृष्टदीप्त्यर्थाद् 'अस्' धातोः क्विपि अस् इति रूपम् / असः दीप्तयः किरणा इति यावत् / ततः ताः-षोडश, असः-किरणाः तेषां नःबन्धो योजना यस्य स तानः-शुक्रः / सन्धौ, दीर्घे 'अन्त्यव्यञ्जनस्य' (सिद्ध० 8. 1, 11.) इति सलोपे प्राकृते रूपसिद्धिः / व्यञ्जनैश्च सङ्ख्याप्रतिपादनं ग्रन्थप्रसिद्धम् / यदुक्तं आरम्भसिद्धौ10 “विद्युन्मुख १-शूला २-ऽशनि ३-केतूल्का ४-५-वज्र ६-कम्प ७-निर्घाताः 8 / ___ङ ५-ज ८-ढ 14 - द १८-ध १९-फ 22 -ब 23- भ 24 सङ्खये रविपुरत उपग्रहा धिष्ण्ये॥" इत्यादि। “घोडशाचिर्दैत्यगुरुः" इति (अभिधान० का० 2, श्लो० 34) वचनात् तानः षोडशकिरणः, शुक्र इति यावत् / तं शुक्र नम; धातूनामनेकार्थत्वाद् भजस्वेत्यर्थः / किम्भूतम् ? ऊ अरहं / 'उन्दैप् क्लेदने (सिद्ध० धा०) उनत्ति-रोगैः क्लिन्नो भवति उन्दः तस्य / 'लश्वामृते' इति (सुधा० श्लो० 39) 15 वचनाद् ल:-अमृतं तं भवतेऽन्तर्भूतणिगर्थत्वात् 'भूङ् प्राप्तौ' [ सौत्रधातुरयम् , 'भूङ् प्राप्तौ णिङ् / ' सिद्ध० 3-4-19] धातोः प्रापयति डे रूपं उन्दलभः तम् ; रलयोरैक्यम् / रोगार्तस्य हि शुक्रोऽमृतदाता सञ्जीवनीविद्या शुक्रस्यैवेति तद्विदः / अथवा “भश्चालिशुक्रयोः" इति ( सुधा० श्लो० 33) वचनाद् भः-शुक्रः / अरः-शीघ्रगामी चासौ भश्च अरभः तं नम-सेवस्व / उ इति सम्बोधनम् / किम्भूतं भम् ? 'तानं' शुभकार्याणि तानयति-विस्तारय[ ती]ति तानः तम् , शुक्रो हि शीघ्रगामी अनस्तमितः 20 शुभः, शुभकार्याय भवति / / 106 // अथ शनिः / ( नमोऽरं हन्ता आनम् ) "आरः क्षितिसुतेऽर्कजे” इति विश्वप्रकाश ( वर्गे 22) वचनाद् आरः-शनिः / 'स्वराणां स्वराः' (सिद्ध० 8. 4. 238.) इति प्राकृते अर इति जातम् / अथवा अरः कथम्भूतः ? 'आनः' अकारस्य न:-बन्धो यत्रेत्यनया व्युत्पत्त्या आर इति जातम् / आरं-शनि नमोऽस्तु इत्युपहासनमस्कारः / यतो हन्ता-जनपीडकः तस्माद् हे आर ! त्वां नमोऽस्तु इत्यर्थः // 107 // 28 अथ राहुः / (न-म उदरहः तानः ) 'उअरह' उदरेण हीयते उदरहः-राहुः / राहुस्तु उदरहीनः, शिरोमात्ररूपत्वात् , तस्य / किम्भूतः ? 'नमः' 'नशौच अदर्शने' (सिद्ध० धा० ) नश्यतीति डे नः / एवंविधो मः-चन्द्रो यस्मात् सः, उपलक्षणत्वात् सूर्योऽपि / राहुस्तु चन्द्र-सूयौं सते इति राहोश्चन्द्रनाशः / पुनः किंविशिष्टः ? 'तानः' तः युद्धं तस्य न:-बन्धो रचना यस्मात् स तथा / राहुसाधनापूर्व [ सूर्यशशिभ्यां ] युद्धं क्रियते इतीदं विशेषणं युक्तिमत् // 108 // 1 आरम्भसिद्धौ प्रथमविमर्श श्लोक 63 टीकायाम् / आरम्भसिद्धौ अयं श्लोकः 'नारचंद्र' ग्रन्थाद् उद्धृतः / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 27 अथ केतुः / (न मा उदरह-त-ऋणम् ) उदरहः-राहुः / पूर्ववद् व्याख्या / तस्य तः-पुच्छं केतुः / “तकारस्तस्करे युद्धे कोडे पुच्छे च” (सुधा० श्लो० 23) इत्येकाक्षरवचनम् / केतुस्तु राहुपुच्छत्वेन ज्योतिर्विदां सम्मतः / यतः-"तत्पुच्छे मधुहायां आपदुःखं विपक्षपरितापः” (नीलकण्ठ्यां ? ) अत्र तत्पुच्छ इति राहुपुच्छं, केतुरित्यर्थः इति ताजिके / हे उदरह [त ] ? त्वं ऋण ऋणवदाचर / मा निषेधे / ऋणं यथा दुःखदायि तथा केतुरपि उदितः सन् जनपीडाकरः, तत एवमुच्यते / त्वं मा ऋण। 5 नकारोऽपि निषेधार्थे / “द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति" इति निषेधद्वयं विशेषेण निषेधाय इति // 109 // ___ अथ नव रसा वर्ण्यन्ते / तत्र पूर्व शृङ्गाररसः / ( नमोदरि ! हन्त अण) यथा कश्चित् कामी कुपितकामिनीप्रसत्तिकृते वक्ति हे नमोदरि ! हे कृशोदरि ! त्वं अण-वद / हन्तेति कोमलामत्रणे / नमं–नमत् , कृशं उदरं यस्याः सा नमोदरी-क्षामोदरी तस्याः सम्बोधनम् // 110 // इति नमस्कारप्रथमपदार्थाः॥ 10 पं० हर्षकुलगणिपादकृताः पं० समयकलशस्य लघुशिष्येणालेखि( षत ) / (2) आगमिक-श्रीदेवरत्नसूरिरचिताः नमस्कारमन्त्रान्तर्गत-'नमो लोए सव्वसाहूणं' पञ्चमपदगत 'सव्व' शब्दस्यानेकार्थाः / ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः // श्रीवीरजिनं नत्वा, पञ्चमपरमेष्ठिपदगतं किञ्चित् / कुर्वेऽर्थलेशदीपनमात्मनि साधुत्वपरिवृद्धयै // 1 // नमो लोए सव्वसाहूणं / नमो लोके सर्वसाधुभ्यः / तत्र 'नमः' इति प्रहत्वार्थेऽव्ययम् / लोकेऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्रादिलक्षणे, ऊर्ध्व-तिर्यगधोलोकलक्षणे वा वर्तमानेभ्यः / 1. सर्वे सकलाश्च ते साधवश्च सर्वसाधवः // "केवलिणो परमोही, विउलमई सुयहरा जिणमयम्मि / आयरिय-उवज्झाया, ते सव्वे साहुणो सरणं // 2 // चउदस-दस-नवपुज्वी, दुवालसिक्कारसंगिणो जे य / जिणकप्पाऽऽहालंदिय, परिहारविसुद्धिसाहू य // 3 // खीरासव-महुआसव, संभिन्नस्सोय-कुट्ठबुद्धी य / चारण-वेउव्वि-पयाणुसारिणो साहुणो सरणं // 4 // " इति गाथात्रयोक्ताः, उपलक्षणादन्येऽप्यशेषविशेषवन्तः / अथवा 2. सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकादयो जिनकल्पिक-प्रतिमाकल्पिकस्खविरकल्पिकाः स्थितास्थितकल्पिक-कल्पातीतभेदाः / प्रत्येकबुद्ध-स्वयंबुद्ध-[बुद्ध ]बोधितभेदाः / भारतादिविभेदाः सुखम-दुःखमादिविशेषिता वा साधवः सर्वसाधवः, तेभ्यः सर्वसाधुभ्यो नमोऽस्त्विति कियासंटकः इति // 15 25 30 १चउसरणपयन्ना 32-34 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 -10 नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत अथ प्रकारान्तरैः साधुगुणविशेषप्रकटीकरणार्थ प्राकृतभाषामयं 'सव्व' इति पदं विव्रीयते / 3. सार्वाः। सार्वो जिनस्तस्येमे सार्वाः। ते च ते साधवश्च सर्वसाधवः / जिनोक्तद्रव्य-भावलिङ्गधारिणो जैनमुनय इत्यर्थः / अस्यामवसर्पिण्या श्रीपुण्डरीकाद्याः / "पंच य पुत्तसयाई, भरहस्स य सत्त नत्तूयसयाई / सयराहं पव्वइया, तम्मि कुमारा समोसरणे // 5 // " ___4. शर्वो रुद्रस्तत्समाः / अनङ्गस्य तथा राग-द्वेष-मोहरूपत्रिपुरु [षैः ] वा भस्मीकरणात् / सकलकर्मशत्रून् प्रति संहारमूर्तित्वाद् वा / शर्वा इव शर्वाः, ते च ते साधवश्च शर्वसाधवः / भावसाधुशिवकुमारवत् / "धन्नो सो सिवकुमरो, जो पणसयइत्थिअग्गिकुंडम्मि / वसमाणो वि न दद्धो, मयणाइरिऊण संहरणो // 6 // " 5. श्रव्याः / श्रोतुमुचिता दाक्षिण्य-क्षान्त्यादिगुणैः श्रवणीयचरिताः, ते च ते / श्रीचण्डरुद्राचार्यशिष्यादिवत् / __“केइ सुसीला सुहम्माइ सजणा गुरुजणस्स वि सुसीसा / विउलं जणंति सद्धं, जह सीसो चंडरुदस्स // 7 // " 15 6. श्राव्याः / श्रावणीयचरित्रा अन्येषां प्रत्यनीकनिराकरणेन प्रव[ च ]नप्रभावनादिभिः / विष्णुकुमारादिवत् / " जो तित्थस्स पभावणमकासी वेउव्विदेहलद्धीए। , तं विण्डं गयतिण्हं, नमामि पत्तं सिवपुरम्मि // 8 // " (2-22) * 7. सव्याः / अनुश्रोतः सुखात् संसारसागरात्, कष्टानुष्ठानपरतया प्रतीपगामित्वात् प्रतिकूला 20 भवाद् वामगामिन इत्यर्थः / "अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं / अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो // 9 // " मृगापुत्रादिवत् / " दद्दूण समणमणहं सरित्तु जाई य भवविरत्तमणो / अणुचरिउं मियचरियं, मुक्ख पत्तो मियापुत्तो // 10 // " (5-93) 8. साव्याः / सां लक्ष्मी विविधलब्धिरूपां तदनुपजीवकत्वेन व्ययन्ति संवृण्वन्तीति साव्याः / श्रीसनत्कुमारचक्रिसाध्वादिवत् / 1 उपदेशमाला 167 * अहीं गाथाओना ( ) आवा कौंसमा अंक आप्या छे ते श्रीधर्मघोषसूरिकृत 'ऋषिमंडलप्रकरणना छ। तेमा प्रथम अंक विश्रामनो अने बीजो अंक गाथानो समजवो। जेम बीजा विश्रामनी आ बावीसमी गाथा छे, तेम अहीं बधे समजवू। 2 श्रीदशवकालिकसूत्रम्, चूलिका 2, गा०३। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। “सो वि य सणंकुमारो, सलहिज्जइ जोइ तहासमत्थो वि / मोत्तूण दव्वरोगे, विकिच्छगो भावरोगाणं // 11 // " ___9. सार्वाणः / सह अर्वणा तुरङ्गमेन वर्तते ते सार्वाणः / सार्वाण इव सतुरङ्गा इव शीघ्र भवपथोल्लङ्घनेन लोपात् सार्वसाधवः / गयसुकुमालादिवत् / . "वंदामि नेमिसीसं, वयदिणगहिएगराइवरपडिमं / सोमिलकयउवसग्गं, गयसुकुमालं सिवं पत्तं // 12 // " (3-32) 10. सार्वाः / सारं तत्त्वोपदेशमाचष्टे णिजि सारयतीति सारः जिनो गुरुर्वा / तं वान्ति गच्छन्ति भवोद्विनाः सन्तः शरणतया सेवन्ते इति सार्वाः / रामपुत्रकुन्जवारक-हल्ल-विहल्लादिवत् / "जलणाओ नेमिसीस त्ति, भणंतो जंभएहिं उक्खित्तो। सिरिकुजवारयमुणी, रामसुओ जयउ सिद्धि गओ // 13 // " (3-47) 10 "सामिस्स वयं सीस त्ति, चत्तवेरा सुरीइ साहरिया / सेयणए रयणाए, उववन्ने हल्लय-विहल्ला // 14 // " (5-146) "कयगुणरयणा इक्कारसंगिणो सोल-बारवरिसवया / हल्लु जयंते पत्तो, अवरो अवराइयविमाणे // 15 // " (5-147) 11. सव्याः / वि[:] पक्षी तस्य आ लक्ष्मीः व्या, तया सह वर्तन्ते इति सव्याः। 15 “संनिहिं च न कुग्विजा, लेवमायाइ संजए। पक्खीपत्तं समादाय, निखेक्खो परिव्वए // 16 // "" इति वचनादल्पसङ्गतया लघुभूतविहारिणः पक्षिसमा इत्यर्थः / नमिराजर्षिवत् / "सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचणं / मिहिलाएं डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचणं // 17 // " 12. स्वद्वाः / सुष्ठु शोभनं कृपामयचित्ततया सयतनं यथा स्यात् / अप्सु जलेषु नद्याद्युत्तरणसमये वान्ति गच्छन्तीति स्वद्वाः / अन्निकासुतगुरुवत् / "जायं पयागतित्थं, देवेहि कयाइ(ए) जस्स महिमाए। गंगाए अंतगडं, तं वंदे अन्नियापुत्तं // 18 // " (5-122) 13. शव्याः / 'इं दुं दुं शुं श्रृं गतौ' शुश्रूयन्ते गम्यन्ते शान्ततया मृगादिभिरपि आश्री-25 यन्ते इति शव्याः / बलदेवमुन्यादिवत् / 20 1 सिद्धिं गतः, प्राकृतत्वादनुवारलोपः [जुओ-ऋषिमंडलप्रकरण टीका] 3 उत्तराध्ययनसूत्रम् 9-14 / 2 उत्तराध्ययनसूत्रम् 6-15 / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। [प्राकृत "जस्स समयाइवासिय, वित्ताहरिणोवि सुकयपरिणामो। रहकारमुणीण गई, पासू' सो जयउ राममुणी // 19 // " 14. सव्याः / पूडौच् प्राणिप्रसवे' सूयन्ते जन्यन्ते जनन्या नरजन्मना एते एव महासत्त्वाः स्वप्राणप्रहाणमप्यादृत्य षड्जीवनिकायरक्षापरत्वेन भुवनोपकारिण इति सव्याः वरदत्तादिसाधुवत् / "तह होज्जेरियासमिओ, देहे वि अमुच्छिओ दयापरमो। जह संथुओ सुरेहिं वि, वरदत्तमहाभागो // 20 // " 15. सव्याः। 'सूं प्रसवैश्वर्ययोः, सूयन्ते दुःखाकारकाः सन्तः देवेन्द्रादिभिरपि वन्द्यत्वेन ईश्वरीक्रियन्ते इति सव्याः / दशार्णभद्रराजर्षिवत् / "वंदे दसण्णभदं, समसीसाए अहो सुरिंदस्स / ___ गहिऊण तहा विरई, जेण पइन्ना सुनिव्वूढा // 21 // " 16. सार्वाः / सां लक्ष्मी चक्रवर्त्यादिसंपदमपि / 'अ भत् शत् हिंसायाम्' अर्वन्ति हिंसन्ति दूषयन्ति त्यजन्तीति सार्वाः / स्वयमाभरणोत्तारणसमये श्रीभरतचक्रयादिसाधुवत् / "भरहमहारायरिसिं, गिहिवेसुप्पन्ननाणवररयणं / / दसहिं सहस्सेहि समं, निक्खंतं वंदिमो सिरसा // 22 // "(1-4) 15 17. शर्वाः। 'शोंच तक्षणे' शानं शा तनूकरणं, जीवानां परितापजननं तमर्वन्ति स्वदेह‘बाधयाऽपि स्फेटयन्तीति शार्वाः / मेतार्यादिसाधुवत् / "नवपुव्वी जो कुंचगमवराहिणमवि दयाइ नाइक्खे / तं नियजीयनिरविक्खं, नमामि मेयज्जमंतगडं // 23 // " (5-86) 18. एवं सार्वाः। 'पोंच् अन्तकर्मणि' सानं सा किप् , अन्तकर्म प्राणिनां हिंसेत्यर्थः। तामप्यर्व20न्तीति सार्वाः / कटुतुम्बकमोजिधर्मरुचिमुन्यादिवत् / / "गुट्ठीभत्ते मासस्स, पारणए रोहिणीइ कडुतुंबं / दिन्नं दयाइ भुत्तु(तं), धम्मरुई मुत्तिमणुपत्तो // 24 // " (5-123) 19. शर्वाः। 'अ भ शत् हिंसायाम्' शर्वन्ति हिंसन्ति परीषहादिशत्रूनिति शर्वाः / रुद्रवा चीति शर्वशब्दः 'शृ हिंसायाम्' वे प्रत्यये सिद्धः / दृढप्रहारिसाधुवत् / "छम्मासनिराहारो, तवसोसियघोरकम्मपन्भारो। सिद्धिसुहं संपत्तो, दढप्पहारी महासत्तो // 25 // " 20. शाः / शरं बाणं कुर्वन्ति व्यापारयन्तीति णिजि विपि प्रथमा-बहुवचने जसि शरः, बाणक्षेपेण युद्धकारका इत्यर्थः / तान् व्ययन्ति संवृण्वन्तीति शाः / सङ्ग्रामनिषेधका इत्यर्थः / द्रविडवालि(रि)खिल्लनृपयुद्धवारकचारणश्रमणवत् / 1 पासू-अपश्यत् 25 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / "निवदविड-वालिखिल्ला, दस दस भडकोडिसंजुया जुद्धे / पण पण कोडि भडखए, वासारत्तं ठिया तत्थ // 26 // सरयम्मि जुद्धसज्जा, चारणसमणेण तत्थ पत्तेण / पडिबोहिया ससिन्ना, सिद्धा सत्तुंजए सव्वे // 27 // " नमिनृपमातृमदनरेखा-करकण्डुमातृपद्मावतीवद् वा / 21. एवं शााः / 'शृश् हिंसायाम्' शरणं शारो वधः, तं करोतीति णिजि क्विपि शारः वधक इत्यर्थः / तं व्ययन्ति संवृण्वन्तीति शााः / मृगयाप्रसक्तसंजयराजप्रतिबोधकगईभालिगुरुवत् / ' “सिरिगद्दभालिमुणिदेसणाए मिगयापसंगदोसिल्लो / संजयनिवो वहाओ, विणियट्टो तक्खणा चेव // 28 // " 22. खर्वाः / सुष्टु अर्वन्ति नन्ति संघाद्युपद्रवमिति स्वर्वाः / उपसर्गहरस्तोत्रकारश्रीभद्रबाहु-10 वाम्यादिवत् / "उवसग्गहरं थुत्तं, काऊणं जेण संघकल्लाणं / / / करुणापरेण विहियं, स भद्दबाहुगुरू जयउ // 29 // " 23. स्वाः / तथाविधमनोवीर्यायुष्कादिहीनतया मोक्षगमनाभावे स्वः स्वर्गमेव वैमानिकदेवगतिलक्षणं वान्ति गच्छन्तीति स्वर्वाः / धन्यशालिभद्रवत् / 16 "ते धन्न-सालिभद्दा, अणगारा दो वि तवमहड्डिया / मासं पाओवगया, पत्ता सव्वट्ठसिद्धम्मि // 30 // " (4-152) एवमन्येऽपि जघन्यतोऽपि यावत् सौधर्मकल्पं यान्ति, नाधस्तात् / "छउमत्थसंजयाणं, उववाओ उक्कोसओ अ सव्वढे / तेसिं सड्डाणं पिय, जहन्नओ होइ सोहम्मे // 31 // " इति वचनप्रामाण्यात् / 24. साः / सर्वेभ्यः चराचरजीवेभ्यो हिताः, 'तत्र साधौ' ( सिद्ध० हे० 7-1-15) इति यः प्रत्ययः, ये ते साः / नौतारणक्रीडानन्तरमिथ्यादुष्कृतपरातिमुक्तकमुन्यादिवत् / "छव्वरिसो पव्वइओ, निग्गंथं रोइऊण जिणवयणं / सिद्धं विहुयरयमलं, अइमु(त) रिसिं नर्मसामि // 32 // " 25 25. साः / सर्वो जिनः, तस्य शासनप्रभावकत्वाद् हितास्ते सााः / वज्रस्वाम्यादिवत् / "शिशुत्वे चारित्रं सुरवरपरीक्षाऽप्रतिमधीः, पदैर्वा गीर्वाणैर्धनयुवतिमोक्षोऽन्ननयनम् / सुभिक्षे संघस्यानयनमिह पुष्पैरुपकृतिर्गुरोर्वज्राज्जैनप्रवचनहितान्येवमभवन् // 33 // " Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः / [प्राकृत 26. स्राव्याः / स्रावो द्रुः कर्ममलगालनं स्व-परेषां दुष्टरक्तस्राववत् , तत्र साधवः 'तत्र साधौ' यः, साव्याः कर्ममलापनयनसमर्था इत्यर्थः / प्रदेशिराजप्रतिबोधककेशिकुमारवत् / "बहुसुक्खसयसहस्साण, दायगा मोयगा दुहसयाणं / आयरिया फुडमेयं, केसि पएसी य ते हेऊ // 34 // 5 27. श्राव्याः / श्रावः सिद्धान्तस्य श्रवणं वा परेषां प्राणिनाम् / तत्र साधवः, 'तत्र साधौ' यः, ते श्राव्याः / शकुनिकानमस्कारदातृसाध्वादिवत् / "भरुअच्छे करुणाए, जइ स मुणी सउणीयाए नवकारं / न हु सावितो तो कह, सुदंसणा हुज्ज जयपयडा // 35 // " 28. शार्वाः / शर्वः शिवः, तस्येमे शार्वाः / इन्द्रियसुखाऽनिन्द्रियसुखरूपकामतत्त्व-शिवत्वप्रधाने 10 जगति लोकरूढ्या शिवपक्षीया एते साधवः मोक्षसुखाकाङ्क्षिण इति हृदयम् / जम्बूस्वामिवत् / "रूवेण जोव्वणेण य, कन्नाहिं सुहेहिं वरसिरीए य / ___ न य लुब्भंति सुविहिया, निदरिसणं जंबुनामु त्ति // 36 // 29. शव्वाः / शवन्ति शब्दं कुर्वन्ति / जीवन्तमपि छागादिकं गलामोटनादिना निर्जीव 'जे णिये' क्विपि, ते शवाः याज्ञिकादयः तान् , 'वाक् गति-गन्धनयोः ' गन्धनं परदोषोद्धट्टनं, वान्ति दूषयन्तीति ते 15 शव्वाः / दत्तमातुलश्रीकालिकाचार्यवत् / "दत्तेण पुच्छिउ जो, जन्नफलं कालओ तुरमिणीए / समयाइ आहिएणं, सम्मं बुइअं भयंतेणं // 37 // " यज्ञानां नरकं फलम् / 30. शव्वाः। 'शपी आक्रोशे' शपनं शप् आक्रोशस्तं वान्ति गच्छन्ति प्रामवन्ति परीषहकाले 20 सहन्ते इत्यर्थः, ते शव्वाः / अर्जुनमालाकारसाध्वादिवत् / "छटेणं छम्मासे, सहित्त अक्कोसतालणाईणि / अज्जुणमालागारो, खवित्तु परिनिव्वुडो कम्मे // 38 // "(5-76) ___31. पुनः सव्याः / सह विना प्रक्रमाद् गरुडपक्षिणा वर्तते यः स सविः / सव्वासौ अश्वदिग्विजयोद्यतवासुदेवः सव्यः, तत्तुल्याः शासनप्रतिपक्षदैत्यजेतृत्वात् सव्याः सिद्धसेनभट्टजैत्रश्रीवृद्धवाद्यादिवत् / 25 “मद्गोः शृङ्गं शक्रयष्टिप्रमाणं, शीतो वह्निर्मारुतश्चाप्रकम्पः। ___ यद्वा यस्मै रोचते तन्न किञ्चित् , वृद्धो वादी भाषते कः किमाह ? // 39 // "" इति तच्छक्तिः। 32. सव्याः / उश्च इश्च आश्च व्याः हर-काम-ब्रह्माणः, तदभेदोपचारात् तेषां विशिष्टगुणाः / लोकरूढ्या परमयोगित्व-जगत्प्रियत्व-वेदाध्ययनलक्षणास्ते व्याः, तैः सह वर्तन्ते ये ते सव्याः, 30 श्रीगौतमस्वाम्यादिवत् / mmmmmmmm 1 उपदेशमाला 102 / 2 उपदेशमाला 153 / 3 आवश्यक नियुक्ति गा. 871 / 4 मुद्गोः / 5 श्रीवृद्धवादिसूरिचरितम् श्लो. 32 [जुओः 'प्रभावक चरित' पृ० ५५-सिंघी जैन ग्रन्थमाला] / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। . "सिरिवीरपढमसीसो, सोहम्गमहानिही सुअसमुद्दो / नाणाविहलद्धिधरो, सिरिगोयमगणहरो जयइ // 40 // " 33. स्वः / सुष्ठु अर्वन्ति अगम्यं स्थानं मोक्षमपि यावद् गच्छन्तीति स्वर्वाः / अतिशयिगमनशक्तिभाज इत्यर्थः / सप्तमपृथ्वीगमनयोग्यत्वेऽपि तत्कालं केवलज्ञानोत्पत्त्यादिसिद्धिगमनयोग्याः, प्रसन्नचन्द्रराजर्षिवत् / "वीरजिणकहियसत्तमपुढवीसव्वट्ठसिद्धिगइजोग्गो। नंदउ पसन्नचंदो, तक्कालं केवलं पत्तो // 41 // " (5-65) 34. शर्वाः / शर्वन्ति गच्छन्ति ज्ञानाद्युपसंपन्निमित्तं गुर्वन्तरसमीपमिति शर्वाः, श्रीआर्यरक्षितादिवत् / "तोसलिपुत्तायरियाण सीसरयणं गुरूणऽणुनाए। 10 सिरिअज्जरक्खियमुणी, सिखियरंते सुअं भणिओ // 42 // " ___35. साः / सर्व्यन्ते गम्यन्ते धर्मतत्त्वार्थिभिराश्रीयन्ते इति साः / चिलातीपुत्रेण मार्गतटस्थसाधुपाचे गत्वा समासेन धर्मतत्त्वे पृष्टे तदुपदेशकचारणश्रमणसाधुवत् / "इत्थिवहस्सवसाणे, चिलाइपुत्तो मणम्मि उव्विग्गो / पुच्छित्तु धम्मतत्तं, मुणिपयठाणे ठिओ अचलो // 43 // " 15 ____36. पुनः साव्याः / अविर्मेषस्तस्य आ लक्ष्मीः, अरस-विरसाहारभक्षणजलपङ्कभीरुत्व-शान्तत्वलक्षणा अव्या तया सह वर्तन्ते ये ते साव्याः / श्रीवीरप्रशंसिततपोरूपलक्ष्मीकः काकन्दीपुरीयधन्यसाधुवत् / "बत्तीसं जुवइवई, जो काकन्दीपुरीइ पव्वइओ। छठुस्स सया पारणमुज्झियमायंबिलं जस्स // 44 // (5-128) वीरपसंसियतव-रूव-लच्छि( द्धि ) नवमाससुकयपरियाओ / सो धन्नो सव्वटे, पत्तो इक्कारसंगविऊ // 45 // " (5-129) ___37. साप्याः / आपो जलं तस्य आ लक्ष्मीः, सहजनैर्मल्य-तापशान्ति-लालित्य-तृष्णाविच्छेदमलविशुद्धिलक्षणा या, तया सह वर्तन्ते ये ते साप्याः, / ऋजुता-क्षमा-मार्दव-विषयवैमुख्य-केवलज्ञानोत्पत्तिकलितकूरगडुकमुनिवत् / “सा कावि खमा तं किंपि मद्दवं अज्जवं च तं किंपि / - जह कूरगडू अ महेसिणो समत्ताइं कज्जाइं // 46 // " 38. शव्याः / शः शर्वः, विर्विष्णुः, अः अजः स्वयम्भूः, आद्यवर्णैः शव्याः, शिव-विष्णु-स्रष्टारः, तत्तुल्याः, मिथ्यात्वाविरति-कषायादीनां स्वदोषाणां संहारकत्वेन तमोगुणमयत्वात् शर्वसदृशाः, जगज्जन्तुपालकत्वेन सत्त्वगुणमयत्वाद् विष्णुसमाः, सम्यग्ज्ञान-दर्शनादीनामात्मगुणानामुत्पादकत्वेन रजोगुणमयत्वाद-30 जतुल्याः। 'मिच्छामि दुक्कडं' वत् प्रथमाक्षरैः संज्ञा / श्रीरामचन्द्रादिमुनिवत् / 5 25 www Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 - नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः। . [प्राकृत "रिउगणमिव दोसे अप्पणो संहरंतो, जणपयमिव सुत्त्थं...जायं करितो / सिरिभरमिव लोए नाणलच्छि जणितो, जयइ कुसलकंदो रामचंदो मुणिंदो // 47 // " 39. तथा खव्याः / सुष्टु अतिशयेन अव्याः / 'अव रक्षण'-गति' कान्ति' प्रीति-तृप्ति'-अवगमन-प्रवेशैं-श्रवण-स्वाम्येर्थ-यांचनक्रियेच्छी दीप्त्यवाप्त्याँलिङ्गन-हिंसा-दहन-भाँव-वृद्धिषुः / इति रक्षणीयाः 5 श्रमणोपासकैः प्रत्यनीकोपद्रवेभ्यः 1 / एवं शेषार्थेष्वपि भाव्यते / अव्या गमनीयाः सेव्या इत्यर्थः 2 / एवं कमनीयास्तत्तद्गुणैरभिलषणीयाः 3 / प्रीणनीयाः सम्मानादिभिः प्रमोदनीयाः 4 / तर्पणीयाः शुद्धान्नपानादिभिस्तृप्तिं प्रापणीयाः 5 / अवगमनीया यथावत् तत्स्वरूपभेदपरिकलनेन ज्ञातव्याः 6 / प्रवेशनीया यथाकृतवसत्यादिषु स्थापनीयाः 7 / श्रवणीया दूरस्थितानां तत्कुशलोदन्तग्रहणेन तद्गुणाकर्णनेन वा 8 / स्वस्य खामित्वं प्रापणीयाः 9 / याचनीयाः सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि 10 प्रार्थनीयाः 10 / करणीयाः सदुपदेशदानादिभिः प्रतिबोध्य प्रव्राजनीयाः 11 / एषणीयाः स्वयमपि चारित्रेच्छया तद्रूपतां प्रतिपत्तुकामैः श्रमणोपासकैर्वाञ्छनीयाः 12 / दीपनीयास्तद्गुणप्रशंसनेन प्रकाशनीयाः 13 / अवापनीयाः स्थानस्थिता आगच्छन्तो वाऽभियानादिना समाश्रयणीयाः 14 / आलिङ्गनीयास्तद्गतैकमानसमाश्लेषणीयाः 15 / एवं संयमयोगे प्रमादवन्तः सन्तः संप्रति नोदनीयाः पीडनीयाः, एतदपि भावहितम् 16 / दहनीयाः शीतलविहारिणः सन्तः क्षारखचोभिस्तापनीयाः 17 / 15 भावनीयास्तत्तत्स्वरूपख्यापनेन महापुरुषपतिषु विद्यमाना गणनीयाः कार्याः / अस्य भावस्याज्ञातज्ञापनेन दीपनाद् विशेषः 18 / श्रमणोपासकैः सुष्ठु वर्धनीयाः सर्वप्रकारैर्वृद्धि प्रोत्सर्पणां नेतव्याः साधवः 19 / स्वव्याश्च ते साधवश्च स्वव्यसाधवः श्रीआर्यसुहस्तिवत् संप्रतिमहाराजेन पूजिताः / __“जह संपइरायराइणा जह नियगुरू सूरिसुहत्थिनामधिज्जा [य] महिया विविहपयारभत्तीकरणेहिं तह सावएहिं कज्जं // 48 // " 20 अत्र च धातूनामनेकार्थतावत् क्वचिदन्तर्भूतण्यर्थताऽप्यदुष्टैव / तथा श्रीगौतमस्वाम्याद्याचार्या अपि साधुत्वेन विवक्षितास्तेषामपि साधुत्वेन साधुत्वाव्यभिचारादिति शुभम् // . [कर्तुः प्रशस्तिः-] निजैर्गुणैर्ये परमेष्ठिनोऽमी, व्याप्ताः समग्रा अपि पूज्यपूज्याः। ते साधवः सन्तु मयि प्रसन्ना, देवेन्द्रमुख्यत्रिदशाभिवन्द्याः॥१॥ पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रे, पञ्चमपरमेष्ठिपदगतौ वर्णौ / पञ्चम-षष्ठौ बर्थरसभृतौ शाश्वतंहदवत् // 2 // तद्गतसदर्थबिन्दुनादात्, कश्चन साधुगुणतृषितः / आगमिकगुरुजयानन्दशैक्षको देवरलाख्यः // 3 // आर्षप्राकृतलक्षणमतिसंकुलं वीक्ष्य पदमिदं क्षुण्णम् / 30 यदनुचितमिह तदा3ः, शोध्यं श्रुतभक्तितः सम्यक् // 4 // .. इति संपूर्णः॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। विभाग] परिचय प्रथम टीकाना कर्ता श्रीगुणरत्नमुनि छ / आ नामना त्रणेक आचार्योनो परिचय मळे छ। एक खरतरगच्छीय गुणरत्नमुनि, जेमणे नेमिचंद्र भंडारीए रचेला प्रसिद्ध षष्टिशतक' ऊपर सं. 1501 मां टीका रची हती। बीजा आगमगच्छीय गुणरत्नसूरि, जेमना शिष्य देवरत्ने ‘गजसिंहकुमाररास'नी रचना करी हती अने त्रीजा गुणरत्नसूरि, तपागच्छीय श्रीदेवसुंदरसूरिना शिष्य 5 हता; जेमणे ‘क्रियारत्नसमुच्चय', 'षड्दर्शनसंग्रह' ऊपर टीका वगैरे ग्रंथोनी रचना करी हती / आ त्रण पैकी कया गुणरत्नसूरिए 'नमस्कारप्रथमपदपदार्थाः' एटले 'नमो अरिहंताणं' पदना 110 अर्थों लख्या छे, ते जाणवा मळ्युं नथी / 'शब्दोना अनेक अर्थो होय छे' ए उक्तिने ध्यानमा राखीने तेमणे अर्थो कर्या छे। आटला अर्थो उपजाववानी कर्तानी व्युत्पन्न शक्तिनो ख्याल आ जोतां मळे छ / 'अनेकार्थरत्नमंजूषा' नामक ग्रंथना पृ. 103 थी 118 मांथी 10 आ टीकाभाग उद्धृत करवामां आव्यो छे। द्वितीय टीकाना कर्ता आगमगच्छीय देवरत्नसूरि छे; जेओ गुणरत्नसूरिना शिष्य हता अने उपर्युक्त 'गजसिंहकुमाररास'ना कर्ता हता। तेमणे "नमस्कारमन्त्रान्तर्गत-नमो लोए सन्वसाहणं-पञ्चमपदगत 'सव्व'. शब्दस्यानेकार्थाः" नामे पांचमा पदमा आवता 'सव्व' दना अनेक अर्थो जुदी जुदी रीते बताव्या छे / .. 15 YONI . . . Eml atta LADA hasha ba Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो। स भयवं ! जइ एवं ता किं पंचमंगलस्स णं उवहाणं कायव्वं ? ' गोयमा ! पढमं नाणं तओ दया, दयाए य सव्वजगजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसमदरिसितं, 5 सव्वजगंजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसमदंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टणपरियावणकिलावणोदावणाइदुक्खुप्पायणभयविवजणं, तओ अणासवो, अणासवाओ य संवुडासवदारत्तं, संवुडासवदारत्तेणं च दमोपसमो, तओ य समसत्तुमित्तपक्खया, समसत्तुमित्तपक्खयाए य अरागदोसत्तं, तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया, अकोहमाणमायालोभयाए य अकसायत्तं, तओ य सम्मत्तं, सम्मत्ताओ य जीवाइपयत्थपरिन्नाणं, तओ य सव्वत्थ अपडिबद्धत्तं, सव्वत्थापडिबंद्धत्तेण य अन्नाणमोहमिच्छत्तक्खयं, तओ विवेगो, विवेगाओ 10य हेयउवाएयवत्थुवियालगेगंतबद्धलक्खत्तं, तओ य अहियपरिचाओ हियगयरणे य अच्चतमैचुजमो, अनुवाद "भगवान, जो एम छे तो शुं पंचमंगल( नमस्कार मंत्र )नुं उपधान करवू जोईए ?" "गौतम, प्रथम ज्ञान प्राप्त थाय छे अने पछी दया आवे छे / (मारा आत्माने जेम सुख प्रिय छे अने दुःख अप्रिय छे तेम जगतना सर्व जीवो, प्राणीओ, भूतो अने सत्त्वोने सुख प्रिय छे 16 अने दुःख अप्रिय छे एवी ) जगतना सर्व आत्माओ प्रत्ये आत्मतुल्यतानी दृष्टि दयाथी प्राप्त थाय छ। सर्व आत्माओ प्रति आत्मतुल्यतानी भावनाथी ते जीवोने संघटना', परितापना', किलामणा', अवद्रावणा' वगेरे दुःखो उपजावां तथा भय उत्पन्न करवो तेनो मनुष्य त्याग करे छे / ए त्यागथी अनास्रव थाय छ। अनास्रव थवाथी आस्रवनां द्वारो बंध थई जाय छे। आस्रवनां द्वार बंध थई जवाथी दम (इंद्रियोनो निग्रह ) अने उपशम थाय छे। तेथी (दम अने उपशमथी ) शत्रु अने 20 मित्र ए बन्ने उपर समभाव उत्पन्न थाय छे। शत्रु अने मित्र उपर समभाव उत्पन्न थवाथी राग अने द्वेषथी रहित थवाय छे। रागद्वेषथी रहित थवाथी क्रोध, मान, माया अने लोभथी रहित थवाय छे। क्रोध, मान, माया अने लोभथी रहित थवाथी अकषायत्व प्राप्त थाय छे / अकषायत्वथी सम्यक्त्व प्राप्त थाय छ। सम्यक्स्वथी जीव वगेरेनुं ज्ञान थाय छे। जीवादि पदार्थोनुं ज्ञान थवाथी सर्वत्र अप्रतिबद्धपणुं (निर्ममत्व ) प्राप्त थाय छे। सर्वत्र अप्रतिबद्धपणाथी अज्ञान, 25 मोह अने मिथ्यात्वनो क्षय थाय छे / परिणामे विवेक प्रगट थाय छे। विवेकथी हेय अने उपादेय वस्तुनी विचारणामां एकांते लक्ष्य बंधाय छे। तेथी अहितनो त्याग थाय छे अने हितनुं आचरण 1. गजीव A / 2. गजीव B / 3. दुक्खपाय P / 4. ततो अ° B / 5. सनो / 6. च देमो' / / 7. 'या अलों / / 8. तओ स°। 9. डिबंधत्ते / / 10. वत्थूवि P / 11. हियाग P / 12. मब्भुओ MI 1 संघटना = थोडो स्पर्श करवो। 2 परितापना = परिताप उपजाववो, दुःख उपजावq। 3 किलामणा = खेद पमाडवो। 4 अवद्रावणा = बिवरावq, अतिशय त्रास पमाडवो। 5 कर्मोना बंधनुं कारण जे हिंसा वगेरे ते आस्रव कहेवाय छ। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 37 तओ य परमत्थपवित्तुत्तमखंतादिदसविहअहिंसालक्खणधम्माणुढाणिक्ककरणकारावणासत्तचित्तया, तओ य खंतादिदसविहअहिंसालक्खणधम्माणुढाणिक्ककरणकारावणासत्तचित्तयाए य सव्वुत्तमा खंती, सव्वुत्तम मिउत्तं, सव्वुत्तमं अजवभावत्तं, सव्वुत्तमं संबज्झन्मंतरं सब्वसंगपरिच्चागं, सव्वुत्तमं संबज्झब्भंतरदुवालसविहअच्चंतघोरवीरुग्गकट्ठतवचरणाणुट्ठाणाभिरमणं, सव्वुत्तमं सत्तरसविहकसिणसंजमाणुट्ठाणपरिपालणेक्कबद्धलक्खत्तं, सव्वुत्तमं सच्चुम्गिरणं छक्कायहियं अणिगूहियबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमपरितोलणं च सव्वुत्तम- 5 सज्झायज्झाणसलिलेण पावकम्ममललेवपक्खालणं ति / ता गोयमा ! एगतियअचंतियपरमसौंसतधुवनिरंतरसव्वुत्तमसोक्खकंखुणा पढमयरमेव तावायरेणं सामाइयमोइयलोगबिंदुपज्जवसाणं दुवालसंगं सुयनाणं कालंबिलादिजहुत्तविहिणोवहाणेणं हिंसौदियं च तिविहंतिविहेणं पडिकंतेण य सरवंजणमत्ताबिंदुपयक्खराणूणगं पयच्छेदघोसबद्धया पुचि पुव्वाणुपुब्वि-10 करवामां अत्यंत उद्यम प्राप्त थाय छे। तेनाथी परम पवित्र उत्तम क्षमा आदि दश प्रकारनो* अहिंसालक्षण जे धर्म तेनुं अनुष्ठान करवा अने कराववा माटे चित्तमां खूब अनुराग उत्पन्न थाय छे। ते क्षमा आदि दश प्रकारना अहिंसालक्षण धर्मनुं अनुष्ठान करवा अने कराववा माटे चित्तमां अत्यंत अनुराग उत्पन्न थवाथी सर्वोत्तम क्षमा, सर्वोत्तम मृदुता, सर्वोत्तम सरळता, सर्वोत्तम बाह्य अने आभ्यंतर सर्व संगनो परित्याग, बाह्य तथा आभ्यंतर एवां बार प्रकारनां अत्यंत घोर-वीर-उग्र अने 15 कठोर तपने आचरवामां सर्वोत्तम रमणता, सत्तर प्रकारना संयमनुं संपूर्ण अनुष्ठान अने परिपालन करवा माटे सर्वोत्तम बद्धलक्ष्यत्व ( लक्ष्य बांधवू ते ), सर्वोत्तम सत्यभाषित्व, ( सर्वोत्तम ) छकायर्नु हित, छूपाव्या विना ( सर्वोत्तम ) बल-वीर्य-पुरुषार्थ अने पराक्रमनुं परितोलन, स्वाध्याय अने ध्यानरूपी पाणीथी पापकर्मरूपी मेलना लेपनुं सर्वोत्तम प्रक्षालन-आ दश वस्तुओ प्राप्त थाय छे।" xx 20 "माटे हे गौतम ! एकांतिक, आत्यंतिक, परम शाश्वत, ध्रुव, निरंतर एवा सर्वोत्तम (मोक्ष) सुखना आकांक्षीए सौथी प्रथम आदरपूर्वक सामायिकथी मांडीने लोकबिंदु (चौदमुं पर्व) सुधीना बार अंग प्रमाणना श्रुतज्ञान- काळ लक्ष्यमा राखीने तथा आयंबिल वगेरे विधिपूर्वक उपधानथी; हिंसा वगेरेनो त्रिविधे त्रिविधे त्याग करीने; स्वर-व्यंजन-मात्रा-बिंदु-पद तथा अक्षर जरापण न्यून न आवे एवी रीते; पदच्छेद, घोषबद्धता, आनुपूर्वी, पूर्वानुपूर्वी तथा 25 1. परमपवित्तु / / 2. ठाणेक / / 3. कारवणा B / 4. तओ खं° B / 5. ठाणेक° B / 6. °कारवणा P / 7. सबब्झंतर° / 8. सत्तसंग / 9. सव्वज्झ / 10. सच्चगिरणं P / 11. सासय धु। 12. माइलोगबिंदुसारप P / 13. जहुत्तं विहिणोवहाणाणं B / 14. हिंसादीयं P / 15. हेण प° / 16. मत्तबिंदु A / 17. पुव्वि पु / * "खंती मुत्ती अजव, मद्दव तह लाघवे तवे चेव / संजम चाओऽकिंचन, बोद्धव्वे बंभचेरे य // " अर्थः-"क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, तप, संयम, त्याग, अकिंचन्य अने ब्रह्मचर्य ए दशविध यतिधर्म जाणवो।" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो। [प्राकृत अणाणुपुब्वीए सुविसुद्धं अचोरिक्कायएण एगत्तेण सुविन्नेयं / . .. तं च गोयमा ! अणिहणेऽणोरपारसुवित्थिण्णचरमोय हिं पिव य सुदुरवगाहं सयलसोक्खपरमहेउभूयं च, तस्स य सयलसोक्खहेउभूयाओ न इट्ठदेवयानमोक्कारविरहिए के. पारं गच्छेज्जा, इट्टदेवयाणं चं णमोक्कार पंचमंगलमेव गोयमा ! णो णमन्नति, ता णियमओ पंचमंगलस्सेव पढमं ताव विणओवँहाणं 5 कायव्वं ति। से भयवं ! कयराए विहीए पंचमंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं ? गोयमा ! इमाए विहीए पंचमंगलस्स णं विणओहावणं कायव्वं, तं जहा सुपसत्थे चेव सोहणे तिहिकरणमुहुत्तनक्खत्तजोगलग्गससीबले विप्पमुक्कजायाइमयासंकेण संजाय सद्धासंवेगसुतिव्वतरमहंतुल्लसंतसुहज्झवसायाणुगयभत्तीबहुमाणपुव्वं णिणियाणं दुवालसभत्तट्ठिएणं चेइयालए 10जंतुविरहिओगासे भत्तिभरनिब्भरुद्भुसियससीसरोमावलीपेप्फुल्लवयणसयवत्तपसन्तसोमथिरदिट्ठी गवणवअनानुपूर्वीथी खूब विशुद्धरीते तेमज भूल्या विना एकांते ज्ञान मेळवq जोईए। . . हे गौतम, ते द्वादशांत श्रुतज्ञान अनंत, अपार, सुविस्तीर्ण, स्वयंभूरमण समुद्रनी पेठे महामुशीबते अवगाहन करी शकाय तेवु छ / तेमज सकल सुखना परम हेतुभूत छ / इष्टदेवताने नमस्कार कर्या सिवाय कोईपण मनुष्य सकल सुखना हेतुभूत ए श्रुतज्ञाननो पार पामी शके नहि 15 अने पंचमंगल (पंचपरमेष्ठिनमस्कार ) ए ज इष्टदेवतानो नमस्कार छे; माटे गौतम, सौथी प्रथम पंचमंगलसूत्र- विनयोपधान करवू जोईए।" "भगवन् कई विधिथी पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनुं विनयोपधान करवू ?" "गौतम, पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनुं विनयोपधान आ (नीचे मुजबनी) विधिथी करवु: सुप्रशस्त अने सुंदर तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न अने चंद्रबल होय त्यारे; 20 जाति* वगेरे मद अने आशंकाथी रहित थईने; उत्पन्न थयेल श्रद्धा, संवेग अने अत्यंत तीव्रतर महा उल्लसित शुभ अध्यवसाय सहित; भक्ति अने बहुमानपूर्वक; (आ लोक अने परलोकना पौगलिक सुखोनी आशंसारूप.) नियाणा विना पांच उपवास करीने; जिन चैत्यमां जंतुररहित स्थानमा भक्तिथी सभर बनी; नतमस्तके; प्रफुल्लित रोमावली, विकसित वदनकमळ, प्रशांत सौम्य अने स्थिर दृष्टि, अने नवानवा संवेगथी उछळता अत्यंत निरंतर अचिंत्य परम शुभ परिणाम 1. एगत्तणेणं P / २.हऽणोर / / 3. °सुविच्छिन्न A / 4. °मोयहिमिय P / 5. केई पा° PI 6. च नमो° A / 7. ओहावणं A / 8. °याण दु / / 9. °पफुल P. पप्फुल[ण]वयण T / 10. °णवणसं° A / * जाति वगेरे आठ मद छे, जेनुं वर्णन नीचेना श्लोकमां छे: जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुतैः / कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः॥ -योगशास्त्र, चतुर्थ प्रकाश श्लो. 13 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। संवेगसमुच्छलंतसंजायबहलघणनिरंतरअचिंतपरमसुहपरिणामविसेसुल्लासियजीववीरियाणुसमयविवडतपमोयेसुविसुद्धनिम्मलविमलथिरदढयरंतकरणेणं खितिणिहियजाणुणिसिउत्तमंगकरकमलमउलसोहं[ तं]जलिपुडेणं सिरिउसभाइपवरवरधम्मतित्थयरपडिमाबिंबविणिवेसियणयणमाणसेगग्गतग्गयज्झवसाएणं समयण्णुदढचरित्तादिगुणसंपओवेयगुरुसद्दत्थाणुट्ठाणकरणेक्कबद्धलक्खत्तऽबाहियगुरुवयणविणिग्गयं विणयादिबहुमाणपरिओसाणुकंपोवलद्धं अणेगसोगसंता(वेगमहावाहिवियणाघोरदुक्खदारिदकिलेसरोगजम्मजरामरणगब्भवासाइट्टसौवगावगाहभीमभवोदहितरंडगभूयं इणमो सयलागममज्झवत्तगम्स मिच्छत्तदोसोवहयविसिट्टबुद्धीपरिकप्पियकुभणियअघडमाणअसेसहेउदिटुंतजुत्तीविद्धसणिक्कपच्चलपोट्टस्स पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स पंचज्झयणेगचूलापरिक्खित्तस्स, पवरपवयणदेवयाहिट्ठियस्स तिपदपरिच्छिन्नेगालावगसत्तक्खरपरिमाणं अणंतगमपज्जवत्थपसाहगं सव्वमहामंतपवरविजाणं परमबीयभूयं 'नमो अरहंताणं 'ति पढमज्झयणं अहिज्जेयव्वं, तद्दियहे य आयंबिलेणं पारेयव्वं / / तहे बीयदिणे अणेगाइसयगुणसंपओववेयं अणंतरभणियत्थपसाहगं अणंतरुत्तेणेव कमेणं दुपयपरिच्छिन्नेगालावगपंचक्खरपरिमाणं 'नमो सिद्धाणं'ति बीयमज्झयणं अहिजेथव्वं ति, तद्दियहे य आयंबिलेण पारेयव्वं / विशेषथी; उल्लसित आत्मवीर्य अने प्रतिसमय वृद्धि पामता प्रमोदथी विशुद्ध, निर्मळ, स्थिर दृढ एवा अंतःकरणवाळा थईने; जमीन उपर ढींचण, मस्तक तथा करकमळ स्थापीने; अंजलिपुट 18 रचीने; श्रीऋषभदेव वगेरे श्रेष्ठ धर्मतीर्थंकरोना प्रतिमाबिंब उपर दृष्टि तथा मनने स्थिर करीने; एकाग्र अध्यवसाय करीने; समयज्ञता, दृढ चारित्र्य वगेरे गुणसंपदाथी सहित, गुरु शब्दना अर्थ प्रमाणे अनुष्ठान करवामां बद्धलक्ष्य एवा अबाधित गुरुना मुखमाथी नीकळेल; विनय वगेरे बहुमानपूर्वक तेमना (गुरुना) संतोष तथा कृपाथी मळेल; अनेक शोक, संताप, उद्वेग, महाव्याधि, वेदना, घोर दुःख, दारिद्रय, क्लेश, रोग, जन्म, जरा, मरण तथा गर्भवास वगेरे रूप दुष्ट जळजं-20 तुओना अवगाहनथी भयंकर एवा संसारसमुद्रनी अंदर नौका समान; सकल आगमोमां व्यापीने रहेल, मिथ्यात्वना दोषथी हणायेल विशिष्ट बुद्धिवाळाओए कल्पेल, मिथ्यात्वी तेमज अघटित सर्व हेत. यक्ति अने दृष्टांतोनो ध्वंस करवामां समर्थ. पांच अध्ययन अने एक चलिकाथी बनेल, प्रवर प्रवचनदेवताथी अधिष्ठित थयेल आ पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनु, 'नमो अरहंताणं' एवं प्रथम अध्ययन के जे त्रण पद. एक आलावा तथा सात अक्षर प्रमाणन छे, अनंतगम-पर्यवार्थर्नु प्रसाधक छेर अने सर्व महामंत्र तथा प्रवर विद्याओगें परम बीजरूप छे-तेनुं अध्ययन करवू जोईए, अने ते दिवसे आयंबिलथी पारद् जोईए। ___एज रीते बीजे दिवसे अनेक अतिशय तेमज गुणसंपदा सहित; पूर्वे कहेला अर्थने सिद्ध करनालं; बे पद, एक आलावा अने पांच अक्षर प्रमाण- 'नमो सिद्धाणं' नामनुं बीजं अध्ययन उपर जणावेला क्रम प्रमाणे ज भणवू, अने ते दिवसे आयंबिल करवू / 1. °सियसजीव° P / 2. °यसुद्धनिम्मलथिर° A / 3. जाणुणसि P / 4. 'सोहंज° P / 5. समयं तु दृढचरि P / ६.°ववेयागुरुसहत्थत्था° P / 7. लक्खतवाहिय / / 8. °णुकप्पोव° P / 9. अणेगमहावाहिवियणा / / 10. वुव्वेवग° / 11. वासानिवासाइ° P / 12. °सावगागाह° P / 13. असेसेहेउ P / 14. °सणेक्कपच्चलपोढस्स P / 15. °पयर° P / 16. अरिहं° A / 17. तड्डियहे P / 18. तहेय वी। 19. बितिय° P, बीयज्झA / 20. व्वं त°AI. 30 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो। एवं अणंतरभणिएणेव कमेणं अणंतरुत्तत्थपसाहगं तिपयपरिच्छिन्नेगौलावगं सत्तक्खरपरिमाणं 'नमो आयरियाणं'ति तइयमज्झयणं आयंबिलेणं अहिज्जियव्वं / तैहा अणंतरभणियत्थपसाहगं तिपयपरिच्छिन्नेगालावगं सत्तक्खरपरिमाणं 'नमो उवज्झायाणं' चउत्थमज्झयणं अहिज्जेयव्वं, तद्दियहे य आयंबिलेण पारेयव्वं / 5 एवं 'नमो लोए सव्वसाहणं 'ति पञ्चममज्झयणं पंचमदिणे आयंबिलेण, तहेव तयत्थाणुगामियं एक्कारसपयपरिच्छिन्नतितयालावगतित्तीसक्खरपरिमाणं 'एसो पंचनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं 'ति चूलं ति छट्ठसत्तमट्ठमदिणे तेणेव कमविभागणं आयंबिलेहिं अहिज्जेयव्वं / / एवमेयं पंचमंगलमहासुयक्खधं सरवन्नपयसहियं पयक्खरबिंदुमत्ताविसुद्धं गुरुगुणोववेयगुरूवइटें 10 कसिणमहिज्जित्ताणं तहा कायव्वं जहा पुव्वाणुपुव्वीए पच्छाणुपुव्वीए अणाणुपुब्बीए जीहग्गे तरेज्जा / एज प्रमाणे उपर्युक्त क्रमपूर्वक; उपर जणावेल अर्थने सिद्ध करनार; त्रण पद, एक आलावा अने सात अक्षर प्रमाणना 'नमो आयरियाणं' ए त्रीजा अध्ययननी आयंबिल करवापूर्वक वाचना लेवी। एज रीते उपर्युक्त अर्थने सिद्ध करनार; त्रण पद, एक आलावा अने सात अक्षरोना 15प्रमाणवाळा 'नमो उवज्झायाणं' ए चोथा अध्ययननी वाचना लेवी अने ते दिवसे आयंबिल करवू / ए जरीते 'नमो लोए सव्वसाहूणं' ए पांचमा अध्ययननी पांचमा दिवसे आयंबिल करवापूर्वक वाचना लेवी। __ एज रीते ते अर्थने अनुसरनारी अगियार पदो, त्रण आलापको अने तेत्रीश अक्षरोना परिमाणवाळी—'एसो पंचनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ 20 मंगलं / ' ए चूलिकानी छट्ठा, सातमा, आठमा दिवसे एज क्रमविभाग वडे आयंबिल करवापूर्वक वाचना लेवी। ____ ए रीते गुरुना गुणोथी युक्त एवा गुरुनी पासेथी पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनो पाठ लईने; खर, वर्ण अने पद सहित; पदाक्षर, मात्रा तेमज बिंदु वडे संपूर्णपणे विशुद्ध एवी रीते अध्ययन कर जोईए के जेथी ते पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वीथी जीभना टेरवे रमी रहे / 1. तिपदप / 2. °लावग स / / 3. अहिजेयव्वं / 4. तहा य अ° / / 5. अणंतरुत्थ A / 6. 'एवं' इति पाठः B प्रतौ नास्ति / 7. पञ्चमझP। 8. तमच्छाणु , तहेवमत्थाणु B / 9. "तियालावगतेत्तीस / / 10. मागेण आ° P / 11. वत्तयरहियं , वन्नयरहियं / / 12. गुरुगणो° P / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय / ____ तओ तेणेवाणंतरभणियतिहिकरणमुहुत्तनक्खत्तजोगलागससीबलजंतुविरहिओगासचेइयालगाइकमेणं अट्ठमभत्तेणं समणुजाणाविऊणं गोयमा ! महया पबंधेण सुपरिफुडं णिउणं असंदिद्धं सुत्तत्थं अणेगहा सोऊणावधारेयव्वं, एयाए विहीए पंचमंगलस्स णं गोयमा ! विणओहाँवणो कायव्वो। से भयवं ! किमेयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स णं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं ? गोयमा ! एमाइयं एयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स णं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स णं सुत्तत्थं / पण्णत्तं, तं जहा-जे णं एस पंचमंगलमहासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरोववत्ती तिलतेलकमलमयरंद व्व सव्वलोए पंचत्थिकायमिव जहत्थकिरिया[गयसब्भूयगुणुक्त्तिणे जहिच्छियफलपसाहगे चेव परमथुइवाए / सा य परमथुई केसि कायव्वा ? सव्वजगुत्तमाणं, सव्वजगुत्तमुत्तमे य जे केई भूए जे 'केई भविस्संति ते सव्वे चेव अरहंताओ चेव, णो णमन्नेत्ति, ते य पंचहा-अरहंते सिद्धे आयरिए उवज्झाए साहवो य / तत्थ एएसिं चेव 10 गब्भत्थसब्भावो इमो / तं जहा त्यारपछी पूर्वे कहेलां तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न अने चंद्रबळ होय त्यारे .जंतुरहित स्थळमां चैत्यालय (जवा) वगेरेना क्रमपूर्वक त्रण उपवास करीने; सम्यक् प्रकारे (गुरुनी ) अनुज्ञा मेळवीने; हे गौतम ! मोटा विस्तारथी अत्यंत स्फुट, निपुण अने शंकारहितपणे सूत्र तेमज अर्थाने अनेक प्रकारे सांभळीने अवधारण करवां / हे गौतम ! आ प्रकारनी विधिथी 15 पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनुं विनयपूर्वक उपधान करवू जोईए / " / "हे भगवन् ! अचिन्त्य चिंतामणिकल्प श्रीपंचमंगलमहाश्रुतस्कंध सूत्रना अर्थ केव कहेला छे ?" . "हे गौतम ! आ अचिन्त्य चिंतामणिकल्प श्रीपंचमंगलमहाश्रुतस्कंध सूत्रना अर्थ जे कहेला छे ते आ प्रकारे छे—जेम तलमां तेल छे, कमलमां मकरंद छे अने सर्व लोकमां पांच 20 अस्तिकाय रहेल छे तेम आ पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध सकल आगमोमां अन्तर्गत रहेल छ; अने ते यथार्थ क्रियानुगत सद्भूत गुणोना कीर्तनस्वरूप तथा यथेच्छ फलप्रसाधक परम स्तुतिवादरूप छ / " "ए परमस्तुति कोनी करवी जोईए ?" "सर्व जगतमा जे उत्तम होय तेनी परमस्तुति करवी जोईए। सर्व जगतमा जे कोई 25 उत्तमोत्तम थई गया अने जे कोई थशे ते सर्वे अरिहंत आदि ज छे; ते सिवाय बीजा नथी ज। ते (अरिहंतादि ) पांच प्रकारे छे-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु / ते पांचेनो गर्भार्थ-सद्भाव एटले परम रहस्यभूत अर्थ आ रीते छे ... 1. महया बंधेण P / 2. दिटुं सु P / ३.°वणे कायव्वे P / 4. मा इमा° s, मा इयमा° B, 'मा इयं / / 5. 'एस' इति पाठ: B प्रतौ नास्ति। 6. °णुराया[गए]सव्वभयगुणकित्तणे P, णुरायसब्भूय° BI 7. मत्थुइवाए सेय P / 8. केसि का P / 9. केइ भविसु ते P, नास्त्ययं पाठः B प्रतौ। 10. ओ चेवा PI Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत सनरामरासुरस्स णं सव्वस्सेव जगस्स अट्ठमहापाडिहेराइप्याइसओवलक्खियं अणण्णसरिसमचितमाहप्पं केवलाहिट्ठियं पवरुत्तमत्तं अरहंति त्ति अरहंता / असेसकम्मक्खएणं निद्दड्डमवंकुरताओ न पुणेह भवंति जम्मति उववज्जंति वा अरुहंता वा णिम्महियनिहँयनिहलियेविलीयनिट्ठवियअभिभूय सुदुज्जयासेसअट्टपयारकम्मरिउत्ताओ वा अरिहंतेति वा, एवमेते अणेगहा पन्नविजंति परूविजंति 5 आघविज्जति पट्टविजंति दंसिज्जंति उवदंसिजति / / तहा सिद्धाणि परमाणंदमहूसवमहाकल्लाणनिरुवमसोक्खाणि णिप्पकंपसुक्कज्झाणाइअचिंतसत्तिसामत्थओ सजीववीरिएणं जोगनिरोहाइणा महापयत्तेण ति सिद्धा, अर्दुप्पयारकम्मक्खएण वा सिद्धं सज्झमेतेसिं ति सिद्धा, "सियं झायमेसिमिति वा सिद्धा, सिद्धे निट्ठिए पहीणे सयलपओयणवायकैयंबमेतेसि मिति सिद्धा। 10 एवमेते इत्थीरिसनपुसंसलिंगण्णलिंगगिहिलिंगपत्तेयबुद्धबोहिय जाव णं कम्मक्लयसिद्धाईभेएहि णं अणेगहा पन्नविजंति / [अरिहंत (वगेरेनो संक्षिप्त ) अर्थ-] ___ मनुष्य, देवता अने दानवोवाळा आ समग्र जगतमा आठ महाप्रातिहार्य वगेरेना पूजातिशयथी उपलक्षित, अनन्यसदृश, अचिंत्य माहात्म्यवाळी, केवलाधिष्ठित, प्रवर उत्तमताने जेओ योग्य 15 छे ते 'अरहंत' छे। समग्र कर्मोनो क्षय थवाथी, संसारना अंकुरा बळी जवाथी फरीवार अहीं आवता नथी, जन्म लेता नथी, उत्पन्न थता नथी ते कारणे ए 'अरुहंत' पण कहेवाय छे / वळी, तेमणे आठ प्रकारना कर्मरूपी शत्रुओने मथी नाख्या छे, हणी नाख्या छे, दळी नाख्या छे, पीली नाख्या छे, नसाडी मूक्या छे अथवा पराजित कर्या छे; तेथी ते 'अरिहंत' पण कहेवाय छ / आ रीते तेओ अनेक प्रकारे कहेवाय छे, निरूपण कराय छे, उपदेश कराय छे, स्थापन कराय छे, 20 दर्शावाय छे अने बधी रीते बतावाय छे। [सिद्धनो अर्थ-] परम आनंदरूप, महोत्सवरूप, महाकल्याणरूप, अनुपम सुखने अचळ एवा शुक्लध्यान वगैरेनी अचिन्त्य शक्तिना सामर्थ्यथी जीवना पराक्रमपूर्वक योगनो निरोध करवा वगेरे वडे जेओए महाप्रयत्नथी सिद्ध कयुं छे ते 'सिद्ध' कहेवाय छे / वळी, आठ प्रकारनां कर्मोनो क्षय करवाथी सिद्ध 25 थया छे ते 'सिद्ध' कहेवाय छ / बांधेलां कर्मो तेमनां भस्मीभूत थयां छे तेथी पण ते 'सिद्ध' कहेवाय छ / अथवा तेमनां सकल प्रयोजनो सिद्ध एटले समाप्त थई गयां छै तेथी पण ते 'सिद्ध' कहेवाय छ। आ रीते स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग, नपुंसकलिंग, अन्यलिंग, (वेश ) गृहस्थलिंग, प्रत्येकबुद्ध अने बुद्धबोधितथी मांडीने यावत् कर्मक्षयसिद्ध वगैरे अनेक रीते सिद्धोनी प्ररूपणा कराय छ / 1. मप्पमेयं के°P। 2. त्तमं / 3. °त्ताउ न / 4. यणिहूय P / 5. विलय P, विल्लिय SBI 6. तेइ वा P / 7. ति महा B / 8. महक P / 9. महपयत्तेणेति P, महापयत्तेणिति A / 10. अट्ठपयार° A P / 11. सियमज्झाय° P, सियमझोय B / 12. कयं च मे P / 13. पुरुस M / 14, सगलिंग MI 15. सिद्धा य में / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। - तहा अट्ठारससीलंगसहस्साहिट्ठियतणू छत्तीसइविहमायारं जहट्ठियमगिलाए अहण्णिसाणुसमयं आयैरति त्ति पवत्तयंति त्ति आयरिया, परमप्पणो अ हियमायरंति आयरिया, सव्वसत्तस्स सीसगणाणं वा हियमायरंति आयरिया, पाणपरिच्चाए वि उ पुढवादीणं समारंभं नायरंति णारभंति नाणुजाणंति वा आयरिया, सुमहावरद्धे वि ण कस्सई मणसावि पावमायरंति त्ति वा आयरिया, एवमेते णामठवणादीहिं अणेगहा पन्नविजंति / तहा सुसंवुडासवदारे मणोयकायजोगत्तउवउत्ते विहिणा सरवंजणमत्ताबिंदुपयक्खरविसुद्धदुवालसंगसुयनाणज्झयणज्झावणेणं परमप्पणो अ मोक्खोवायं झायंति ति उवज्झाए, थिरपरिचियमणंतगमपज्जवत्थेहिं वा दुवालसंग सुयनाणं चिंतंति अणुसरंति एगग्गर्माणसा झायंति त्ति वा उवज्झाए, एवमेतेहि [ मेएहिं ] अणेगहा पन्नविजंति / [आचार्यनो अर्थ-] शरीरमां. अढार हजार शीलांगने धारण करनारा जेओ छत्रीश प्रकारना आचारोने स्मार्थपणे ग्लानि विना प्रतिसमय आचरे छे-प्रवावे छे ते 'आचार्य' कहेवाय छे। बीजाना मने पोताना हितनुं आचरण करता होवाथी पण ते 'आचार्य' कहेवाय छ / प्राणनो नाश थतां सुधीये पृथ्वीकाय वगेरे जीवनो समारंभ करता नथी, करावता नथी अने करवानी आशा आपता नयी तेथी पण तेओ 'आचार्य' कहेवाय छे / कोईए मोटो अपराध को होय तोये तेओ कोईनुं 15 मनथीये पाप आचरता नहीं होवाथी 'आचार्य' कहेवाय छ। आ प्रकारे नाम-स्थापना वगेरेथी अनेक प्रकारे तेमनी प्ररूपणा करवामां आवे छे / [उपाध्यायनो अर्थ-] जेओ आस्रवनां द्वार बंध करी; मन, वचन अने कायाना योगमा लागी जई; विधिपूर्वक खर, व्यञ्जन, मात्रा, बिंदु, पद अने अक्षरोथी विशुद्ध एवां बार अंगोरूप श्रुतज्ञान- पोते अध्ययन 20 करीने तथा वीजाने अध्ययन करावीने बीजाना अने पोताना मोक्षना उपाय- ध्यान करे छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / अथवा जेओ अनंतगम अने पर्यायना अर्थो वडे स्थिर परिचित बार अंगोरूप श्रुतज्ञानतुं चिंतन करे छे, अनुस्मरण करे छे अने एकाग्र मनथी ध्यान करे छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / आ प्रकारे अनेक रीते उपाध्यायनी व्याख्या करवामां आवे छे / 1. अहनिसा M, महण्णिसा° P / . 2. रति पर्व / / 3. ति त्ति भय° M / 4. °या भव्वसत्तसीस. P / 5. सुट्टमवरद्धे M, सुहमावरद्धे B / 6. °वइका P / 7. वाय झा° P / ८.चितिति / / 9. माणसे झा / / 10. °तेहि अॅP। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत तहा अच्चंतकट्ठउग्गुग्गयरघोरतवचरणांइअणेगवयनियमोववासनाणाभिग्गहविसेससंजमपरिवालणसम्म परीसहोवसग्गाहियासणेणं सव्वदुक्खविमोक्खं मोक्खं सौहयंति त्ति साहवो। अयमेव इमाए चूलाए भाविजइएतेसिं नमोक्कारो एसो पंचनमोक्कारो, किं करेजा ? सव्वं पावं-नाणावरणीयादिकम्मविसेसं तं पयरिअपरिसेणं दिसोदिसंणासयइ सव्वपावप्पणासणो, एस चूलाए पढमो उद्देसओ / एसो पंचनमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो "किंविहो उ ? / मंगो-निव्वाणहिसाहणेक्कखमो सम्मेदंसणाइ आरहओ अहिंसालक्खणो धम्मो, तं मे लाएज त्ति मंगलं, ममं भवाओ-संसाराओ "गलेज्जा-तारेजा वा मंगलं, बद्धपुट्ठनिकाइयट्टप्पगारकम्मरासि मे गालिज्मा-विलिज्जवेज ति" वा मंगलं / 10 एएसि मंगलाणं अन्नेसिं च मंगलाणं सव्वेसिं किं ? पढम-आदीए अरहंताईणं थुई चेव हवइ मंगलं ति। [साधुनो अर्थ-] ___ अत्यंत कठोर, उग्र, उग्रतर, घोर तपनी आचरणा वगेरे अनेक प्रकारनां व्रत, नियम, उपवास, विविध अभिग्रहविशेषथी संयमर्नु परिपालन करवा वडे तेमज परीषहो अने उपसर्गोने 15 सारी रीते सहन करवा वडे जेओ बधा प्रकारनां दुःखोथी मुक्त करनार एवा मोक्षने साधे छे ते 'साधु' कहेवाय छ। ___ आ ज पंचपरमेष्ठि नमस्कार नीचे प्रमाणे चूलिकाथी भावित करवामां आवे छे(तेना महत्त्व तथा फळनो निर्देश करवामां आवे छे।) .. [चूलिकानो अर्थ-] 20 ए पांचने करेलो नमस्कार एटले 'एसो पंचनमोक्कारो' शुं करे छे ? __'सव्वपावप्पणासणो'-एटले के सर्व ज्ञानावरणीय जे पापकर्म तेने प्रकर्षथी नष्ट करी नाखेछ। एसो पंचनमोकारो सव्वपावप्पणासणो'-ए चूलिकानो प्रथम उद्देशो छ / ते केवो छ ? 'मंग'-एटले निर्वाणसुख (मोक्षसुख) ने सिद्ध करवामां समर्थ सम्यद्गदर्शन वगेरे अरिहंतोए प्ररूपेला अहिंसालक्षण धर्मने जे मने आणी आपे ते मंगल। 1, अथवा मने संसारथी गाळे 25 अर्थात् तारे ते मंगल / 2, अथवा बद्ध, स्पृष्ट, अने निकाचित एवा आठ प्रकारना मारा कर्मना राशिने जे गाळे अर्थात् शमावे ते मंगल / 3. आ मंगलोमां तथा बीजा मंगलोमां अरिहंतो वगेरेनी स्तुति एज प्रथम-उत्कृष्ट मंगल छे। . 1. °णाइ अP। 2. साहियंति B / 3. तेसि णमोकारो एस पंचा / 4. रिसेसेणं / / 5. दिसिं णा / / 6. एस प° P / 7. किंविहे उ P / 8. सुसाहणे° P / 9. सम्मइंस T B / 10. भवाउ सं°s। 11. गमेजा P / 12. तारेज वा B / 13. मे गालेज विP, मे गलिबा वि. A / 14. विलेजवज / 15. ति मंगलं B / 16. °ल ते एस P / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। एस समासत्थो, वित्थरत्थं तु इमं, तं जहा तेणं कालेणं तेणं समएणं गोयमा ! जे केई पुव्ववावन्नियसदत्थे अरहते भगवंते धम्मतित्थंगरे भवेज्जा से णं परमपुज्जाणं पि पुज्जयरे भवेजा, जओ णं ते सव्वेवि एयलक्खणसमन्निए भवेज्जा, तं जहा अचिंतअप्पमेयनिरुवमाणेण्णसरिसपवरवरुत्तमगुणोहाहिट्ठियत्तेणं तिण्डंपि लोगाणं संजणिर्यगुरुयमहतमाणसाणंदे, तहा य जम्मंतरसंचियगुरुपुण्णपब्भारसंविढत्ततित्थयरनामकम्मोदएणं दीहरगिम्हाय-5 वसंतावकिलंतसिहिउलाणं व पढमपाउसधाराभरवरिसंतघणसंघायमिव परमहिओवएसेंपयाणाइणा घणरागदोसमोहमिच्छत्ताविरईपमायदुट्ठकिलिट्ठझवसायाइसमज्जियासुहघोरपावकम्मायवसंतावस्स णिण्णासगे भव्वसत्ताणं सव्वन्नू अणेगजम्मंतरसंविढेत्तगुरुयपुन्नपब्भाराइसयबलेणं समज्जियाउलबलवीरिएसरियसत्तपरकमाहिट्ठियतणू सुकंतदित्तचारुपायंगुढग्गरूवाइसएणं सयलगहनक्खत्तचंदपंतीणं सूरिएँ इवे पायंडप्पयावदसदिसियासविप्फुरंतकिरणपब्भारेणं णियतेयसा विच्छायगे सँयलाण वि विज्जाहरामरीणं सदेवदाण-10 __आ प्रकारे आनो संक्षेपमा अर्थ छे, ज्यारे विस्तारथी अर्थ नीचे मुजब छे ते काळे .ते समये, हे गौतम ! जेनो शब्दार्थ पहेलां वर्णववामां आव्यो छे एवा जे कोई धर्मतीर्थकर अरिहंत भगवंतो होय छे ते परमपूज्योना पण पूज्य होय छे; कारणके ते बधा ज नीचे जणावेल लक्षणोथी युक्त होय छे: अचिंत्य, मापी न शकाय, उपमा आपी न शकाय, अनन्यसदृश, श्रेष्ठ अने उत्तमोत्तम एवा 16 गुणसमूहथी अधिष्ठित होवाने लीधे तेओ त्रणे लोकमां महान मानसिक आनंद उत्पन्न करनारा होय छे। तेमज वर्षांनी प्रथम धाराओ वरसावतो मेघनो समूह जेम दीर्घ ग्रीष्म ऋतुना तापथी संतप्त थयेल मयूरोना समुदायना संतापने शमावे तेम अन्य जन्ममां संचित करेला महापुण्यना कारणे बांधेला तीर्थकरनामकर्मना उदयथी अरिहंत भगवंतो परम हितोपदेश. आपवा वगेरे द्वारा निबिड (गाढ ) राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, दुष्ट अने संक्लिष्ट एवा अध्यवसाय 20 वगेरेथी बांधेलां अशुभ घोर पापकर्मोथी थता भव्य जीवोना संतापने शमावनारा होय छे / तेओ सर्वज्ञ होय छे / अनेक जन्मोमां संचित करेला महान पुण्यना अतिशयथी जगतमां कोईनी तोले न आवे तेवां अतुल बळ, वीर्य, ऐश्वर्य, सत्त्व तथा पराक्रम तेमनामां होय छे / तेमना मनोहर देदीप्यमान पगना अंगुठाना अग्रभागर्नु पण रूप एटलुं बधुं अतिशय होय छे के सूर्य जेम दशे दिशामां प्रकाशथी स्फुरायमान प्रकट प्रतापी किरणोना समूहथी सर्व ग्रह नक्षत्र अने चंद्रनी 25 पंक्तिने निस्तेज बनावी दे छे तेम तेओ पोताना तेजथी सर्व विद्याधरो देवीओ देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र 1. केई पु / 2. पुव्वं वा° P / 3. तित्थकरे P / 4. वि एय ल° A / 5. °णणंस° P / 6. यगरुय / / 7. °यगरुयपु° P, °यगुरुयपु / 8. 'णं च 5 / 9. पमाणा° P / 10. विरतिप P / 11. ताणं अणेगा / 12. °ढत्तागरुय पुण्ण प° P, °ढत्तगरुय° B / 13. यमत्त / / 14. ए वा पा° P / 15. इव पर्यड T / 16. दिसप° P / 17. °णप्पसारेणं 18. सयलसवि P, सयलग्गवि BI Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत विंदाणं सुरलोगाणं सोहग्गकंतिदित्तिलावन्नरूवसमुदयसिरीएं-साहावियकम्मक्खयजणियदिव्वकयपवरनिरुवमाणन्नसरिसविसेसीइसयाइसयलक्खणकलावविच्छड्डेपरिदंसणेणं भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणियाहमिंदैसइंदच्छराकिन्नरणरविजाहरस्स ससुरासुरस्सावि णं जगस्स 'अहो अहो अहो अज्ज अदिट्ठपुव्वं दिट्टमम्हेहिं' इणमो सविसेसउलमहंताचिंतपरमच्छेरयसंदोहं समगालमेवेगट्ठसमुंइयं दिढे ति तक्खणउप्पन्नघणनिरंतर5 बहलप्पमोया चिंतयंतो सहरिसपीयाणुरायवसपवियंभंताणुसमयअहिणवाहिणवपरिणामविसेसत्तेणे महमहंति "जंपिर परोप्पराणं विसायमुवगयहहहधीधिरत्थुअधन्नाऽपुन्ना वयमिइ णिदिरअत्ताण गमणंतरसंखुहियहिययमुच्छिरसुलद्धचेयणसुघृण्णसिढिलियसगत्तआउंचेणं पसण्णो उम्मेसनिमेसाइसारीरियवावारमुक्ककेलं अणोवलक्खैक्खलंतमंदमंददीहहुंहुंकार विमिस्समुक्कदीहउण्हबहलनीसाँसगत्तेणं अइअभिनिविट्ठबुद्धी सुणिच्छिय मणैस्स णं जगस्स, 'किं पुण तं तवमणुचिट्ठेमो जेणेरिसं पवरिद्धि लभिज्जत्ति,' तग्गयमणस्स णं दसैणा 10 चेव णियणियवच्छत्थलैंनिहिजंतंतकरयलुप्पाँइयमहंतमाणसचमक्कारे। सहित देवगणोना सौभाग्य, कान्ति, दीप्ति, लावण्य अने रूपनी शोभाने ढांकी दे छे ( निस्तेज बनावी दे छे) / स्वाभाविक (4) कर्मक्षयजनित (11) तथा देवकृत (19) एवा चोत्रीश अतिशयोना ते धारक होय छे अने ते चोत्रीश अतिशयो एवा श्रेष्ठ निरुपम अने अनन्यसदृश होय छे के तेनां दर्शन करवाथी भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, अहमिन्द्र, इन्द्र, 15 अप्सरा, किन्नर, नर, विद्याधर अने सुर तथा असुर सहित जगतना जीवोने एटलुं बधुं आश्चर्य थाय छे के 'अहो अहो अहो आपणे कोई दिवस नहीं जोयेलं आजे जोडे / एक ज व्यक्तिमां एक साथे एकत्रित थयेलो अतुल, महान अचिन्त्य परम आश्चर्योनो समूह आजे आपणे जोयो।' एवा विचारथी ते क्षणे अयंत आनन्दित थयेला तेओ हर्ष अने अनुरागथी फुरायमान थता नवा नवा परिणामोथी परस्पर अत्यंत हर्षना उद्गारो काढे छे अने विहार करीने भगवान आगळ 20 चाल्या गया पछी साथे साथे पोताना आत्मानी निन्दा करे छे के 'अमने धिक्कार छे, अमे अधन्य छीए, अमे पुण्यहीन छीए'। भगवान चाल्या गया पछी तेमना हृदयने खुब क्षोभ थवाथी तेओ मूर्छित थई जाय छे अने महामुशीबते तेमनामां चैतन्य आवे छे। तेमनां गात्र अत्यन्त शिथिल थई जाय छे / आकुश्चन प्रसारण उन्मेष निमेष आदि शारीरिक व्यापारो बंध पडी जाय छे। नहीं ओळखाता अने स्खलना पामता मंद मंद दीर्घ हुंकारोथी मिश्रित दीर्घ 25 उष्ण बहु निसासाथी ज मात्र बुद्धिशाळीओ समजी शके छ के तेमनामां मन (चैतन्य ) छे / जगतना जीवो भगवाननी ऋद्धि जोईने एक मात्र विचार करे छे के आपणे एवं कयुं तप करीए के जेथी आपणने पण आवी प्रवर ऋद्धि प्राप्त थाय / भगवानने जोतां ज तेओ पोतानां वक्षःस्थल उपर हाथ मूके छे अने तेमना मनमां महान आश्चर्य उत्पन्न थाय छे। 1. ए सहाविय° P / 2. °सासाइसया कला P, °साइसयकला° TB | 3. °विच्छेड्ड / / 4. मिदं स° P / 5. अद्दिट्ट B / 6. °साओल° P / 7. समग्गल° M / 8. यं चिट्ठति / / 9. तक्खणुप्प° PI 10. ०प्पमेयचिंता अंतो P, प्पमेयचिंतयंतो / 11. °णपरि° M / 12. त्तेणं महमहमहं त्ति P / 13. हहहहधी B,°हहहवीविर° P / 14. °सुण्णपुण्ण' P / 15. चणपसण्णा उ° P / 16. उमेस A1 17. निम्मेसा B | 18. वल अ A / 19. क्खखलंत P / 20. विमिस्सामुक्कदीहुण्ह° P / 21. °सासेगंतेणं P / 22. °णसण P / 23. °णुचेटेमो P / 24. लभेजंति / 25. दंसणं चेव / / 26. लणिहिप्पंतक / 27. °इयामा / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / ता गोयमा ! णं एवमाइ अणंतगुणगणाहिट्ठियसरीराणं तेसिं सुगहियनामधेज्जाणं अरहंताणं भगवंताणं धम्मतित्थगराणं संतिए गुणगणोहरयणसंघाए अहन्निसाणुसमयं जीहासहस्सेणंपि वागरंतो सुरवैई वि अन्नयरे वा केई चउनाणी महाइसई य छउमत्थे सयंभुरमणोयहिस्स इव वासकोडीहिंपि णो पारं गच्छेज्जा, जओ णं अपरिमियगुणरयणे गोयमा ! अरहंते भगवंते धम्मतित्थगरे भवंति, ता किमत्थे भन्नउ ?, जत्थ य णं तिलोगनाहाणं जगगुरूणं मुँवणेक्कबंधूणं तेलोक्कतग्गुणखंभपवरधम्मतित्थंकराणं केई। सुरिंदोंईपायंगुढग्गएगदेसीउ अणेगगुणगणालंकरियाँउ भत्तिभरनिभरिक्करसियाणं सव्वेसि पि वाँ पुरीसाणं . अणेगभवंतरसंचियअणिट्ठदुट्ठट्टकम्मरासिजणियदोगच्चदोमणस्सादिसयलदुक्खदारिदकिलेसजम्मजरामरणरोगसोगसंता(बेयवाहिवेयणाईण खयट्टाए एगगुणस्साणंतभागमेगं भणमाणाणं जमगसमगमेव दिणयरैकरे इव अणेगगुणगणोहे जीहग्गे विप्फुरति ताई च न सका सिंदा वि देवगणा समकालं भणिऊणं, किं पुण अकेवली मंसचक्खुणो ? ता गोयमा ! णं एस इत्थं परमत्थे वियाणेयव्वो, जहा णं जइ 10 तित्थगराणं संतिए गुणगणोहे तित्थयरे चेव वायरंति, ण उण अन्ने, जओ णं सातिसया तेसिं भारती / ___आथी हे गौतम ! आ वगेरे अनन्त गुणसमूहथी युक्त शरीरवाळा, पुण्यशाळी नामवाळा अने धर्मतीर्थना प्रवर्तावनारा अरिहंत भगवंतोना गुणगणोरूपी रत्नसमूहनुं इंद्र, कोई चार ज्ञानवाळा, अथवा महा अतिशयवाळा छद्मस्थ पण रातदिवस प्रतिपळे हजारो जीभथी करोडो वर्षों सुधीये वर्णन करे तोपण जेम स्वयंभूरमण समुद्रनो पार पामी शकाय नहि तेम पार न पामे / कारणके 15 हे गौतम ! धर्मतीर्थने प्रवर्तावनार अरिहंत भगवंतो मापी न शकाय एवा गुणरत्नोवाळा होय छे; तेथी अहीं विशेष शुं कहेवू ? ज्यां त्रण लोकना नाथ, जगतना गुरु, त्रण भुवनना एक मात्र बंधु, त्रण लोकना ते ते गुणना स्तंभरूप-आधाररूप श्रेष्ठ धर्मना तीर्थंकरोना पगना अंगूठाना टेरवानो अग्रभाग के जे अनेक गुणोना समूहथी अलंकृत छे तेना अनंतमा भागनुं सुरेन्द्रो अथवा भक्तिना ज अत्यन्त रसिक सर्व पुरुषो अनेक जन्मांतरोमां संचित अनिष्ट दुष्ट कर्मराशिजन्य दुर्गति दौर्मनस्य आदि 20 सकल दुःख दारिद्र्य, क्लेश, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, सन्ताप, उद्वेग, व्याधि, वेदना आदिना क्षयने माटे वर्णन करवा मांडे त्यारे सूर्यना किरणोना समूहनी जेम भगवानना जे अनेक गुणोनो समूह एक साथे तेमना जिह्वाग्रे स्फुरायमान थाय छे तेने इन्द्र सहित देवगणो एकी साथे बोलवा मांडे तो पण ज्यां वर्णववा समर्थ नथी त्यां चर्मचक्षुधारी अकेवलीओ शुं कही शके ? तेथी गौतम ! आ विषयमा खरी हकीकत ए छे के तीर्थंकरोना गुणोना समूहोने मात्र तीर्थंकरो ज वर्णववा 25 समर्थ छे। बीजाओमां तेवु सामर्थ्य नथी; कारणके तीर्थंकरोनी ज एवी अतिशयवाळी वाणी होय छे के तेओ ज वर्णववा समर्थ छ / 1. तित्थकराणं P / 2. °णसंदोहोहसं P, णसंदोहसं० / / 3. °वरा वि P / 4. गोवहिस्स चउवास P / 5. किमेण भP, किमित्थं भ° B, किमित्थ भ / / 6. भुयणे / / 7. कलग्गण° P / 8. तित्थक P / 9. दाई पायपुढे / 10. °साओ अॅP। 11. °याओ भ P / 12. निब्भरेक° P / 13. वा सुरी M | 14. णसादि° P / 15. दालिद्द B / 16. °संतापवुव्वेय° A, संतावुव्वेवगता वा P / 17. ईणं ख° P / 18. करे वा अP। 19. सक्का सिवा वि / / 20. कालं भाणि° P / 21. एस एत्थं P / 22. तित्थयराणं P / 23. गणोह ति° B / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत ___ अहवा गोयमा ! 'किमित्य पभूयवागरणेणं ?, सारस्थं भन्नए / तं जहाणामं पि सयलकम्मट्ठमलकलंकेहिं विप्पमुक्काणं / तियसिंदच्चियचलणाण जिणवरिंदाण जो सरइ // तिविहकरणोवउत्तो खणे खणे सीलसंजमुज्जुत्तो। अविराहियवयनियमो सोऽवि हु अइरेण सिज्झेज्जा // जो पुण दुहउब्विग्गो सुहतण्हालू अलि ब्व कमलवणे / थयथुइमंगलजयसद्दवावडों रुणरुणे किंचि / / 5 भत्तिभरनिब्भरो जिणवरिंदपायारविंदजुगपुरओ। भूमीनिट्टवियसिरो कयंजलीवावडो चरित्तड्डो // एक्कं पि गुणं हियए धैरेज संकाइसुद्धसम्मत्तो / अक्खंडियवयनियमो तित्थयरत्ताए सो सिझे // जेसिं च णं सुगहियनामग्गहणाणं तित्थयराणं गोयमा ! एस जगपायडे महच्छेरयभूए भुवैणस्स वियडपायडे महंताइसेए पवियंभे, तं जहा--- खीणद्वैपायकम्मा मुक्का बहुदुक्खगब्भवसहीणं / पुणरवि अपत्तकेवलमणपज्जवणाणचरिमतणू // 10 महजोइणो विविहर्दुक्खमयरभवसागरस्स उब्विगा / दृढूणऽरहाइसए भवहुत्तमणा खणं जंति // . अथवा गौतम ! आ विशे वधारे शुं कहेQ ? सारभूत अर्थ तने कहुं छं जे समग्र एवां आठ कर्मोना मळरूप कलंकथी मुक्त थयेला छे अने देवताओना इंद्रोए जेमना चरणनी पूजा करी छे ते जिनेश्वर देवोना नाम, पण स्मरण करनार, (मन, वचन, कायारूप ) त्रण करणथी उपयुक्त, क्षणे क्षणे शील अने संयममां उद्यमशील अने व्रत-नियमनी 16विराधना न करनारो मानवी निश्चये जलदीथी सिद्धिने मेळवे छे / दुःखथी खेद पामेलो अने सुखनी तृष्णावाळो जे मानवी कमळवनमां भ्रमरनी जेम स्तवन, स्तुति अने मांगलिक एवा जय जय शब्दनो उच्चार करतो कंईक गुंजारव करे छे; तेमज भक्तिमां अत्यंत गरकाव बनेलो, चारित्रनो अर्थी जिनेश्वर भगवंतनां बे चरणकमळो आगळ जमीन ऊपर पोतानुं मस्तक स्थापीने अंजलि करीने शंका वगेरेथी शुद्ध (रहित ) सम्यक्त्ववाळो तथा अखंडित व्रत-नियमवाळो 20जे मानवी तेमनो एक पण गुण हृदयमा धारण करे छे ते तीर्थंकर थईने मोक्षमां जाय / हे गौतम ! जेमनुं नाम लेवु पुण्यरूप छे ते तीर्थंकरोनो, जगतमां प्रगट महान आश्चर्यभूत त्रणे भुवने विकट प्रगट' अने महान एवा अतिशयनो विस्तार आ प्रकारे छे जेमणे केवळज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा चरम शरीर प्राप्त नथी कयु एवा जीवो पण अरिहंतोना अतिशयोने जोईने अष्ट प्रकारनां कर्मोनो क्षय करनारा बने छे, बहु दुःखदायक 25 गर्भावासथी मुक्त थाय छे, महायोगी बने छे, विविध दुःखमय भवसागरथी उद्विग्न थाय छे अने संसारथी अलग थई जाय छे। . 1 गोयमा पभूय ATS | 2. किमेत्थ P / 3. जो उण P / 4. °डो झणझणे A,डो रुनुरुणे PI 5. भूमिनि° / 6. चरित्तट्ठो A / 7. धरेइज / 8. °नामगह° P / 9. पायड A, पयडे PI 10. भुयणस्स वि पयड P / 11. पायडम / 12. इसयपवियंभो A / 13. टूकम्मपाय मुहै। 14. चरिततणू A / 15. णो वि बहुदुक्खगयर P / १६.सए लव / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। विभाग] अहवा चिट्ठउ ताव सेसवागरणं गोयमा ! एवं चेव धम्मतित्थगरेति नाम 'सन्निहियं पवैरक्खरुव्वहणं तेसिमेव सुगहियनामधेज्जाणं भुवणेक्कबंधूणं अरहंताणं भगवंताणं जिणवरिंदाणं धम्मतित्थंकराणं छज्जे, ण अन्नेसि, जओ य णेगॅजम्मंतरपुट्ठमोहोवसमसंवेगनिव्वेयाणुकंपाअस्थित्ताभिवत्तीसलक्खणपवरसम्मइंसणुल्लसंतविरियाणिगूहियउग्गकट्टघोरदुक्करतवनिरंतरज्जियउत्तुंगपुन्नखंधसमुदयमहपब्भारसंविढत्तउत्तमपवरपवित्तविस्सकसिणबंधुणाहसामिसालअणंतकालवत्तर्भवभावणच्छिन्नपावबंधणेकअबिइज्जतित्थयरनामकम्मगोय-5 णिसियसुकंतदित्तचारुरूवदसदिसिपयासनिरुवमट्ठलक्खणसहस्समंडियजगुत्तमुत्तमसिरीनिवासवासवावी इव देवमणुयदिट्ठमेत्ततक्खणंतकरणलाइयचमक्कनयणमाणसाउलमहंतविम्हयपमोयकारया असेसकसिणपावकम्ममलकलंकविप्पमुक्कसमचउरंसपैवेरपढमवज्जरिसहनारायसंघयणाहिट्ठियपरमपवित्तुत्तममुत्तिधरे, ते चेव भगवंते महायसे महासत्ते महाणुभागे परमेट्ठी सद्धम्मतित्थंकरे भवंति / अण्णं च अथवा, बीजें वर्णन दूर रहो। हे गौतम ! आ प्रकारे धर्मतीर्थंकर एबुं श्रेष्ठ अक्षरोवाडं 10 जे नाम छे ते सुगृहीतनामधेय, त्रण भुवनना बंधु अरिहंत भगवंत जिनवरेंद्र धर्मतीर्थकरोने ज छाजे छे, बीजाने नहीं; केमके तेमणे मोहनो उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा तथा आस्तिक्यलक्षणयुक्त अने अनेक जन्मोमां स्पर्शल उल्लसित सम्यग्दर्शनना बळथी तेमज वीर्यने छूपाव्या विना उप्र कष्ट अने घोर दुष्कर तपना निरंतर सेवनथी उत्तुंग महापुण्यनो राशि उपार्जित कर्यो होय छ; उत्तम, प्रवर, पवित्र, समग्र विश्वना बंधु नाथ तथा श्रेष्ठ स्वामी थया होय छे; अनंतकाळमां 15 थयेला भवोनी भावनाथी पापना बंधनोने छेदीने अद्वितीय तीर्थकरनामकर्म गोत्र तेमणे प्राप्त कर्यु होय छे; अत्यंत मनोहर, देदीप्यमान, दशे दिशाओमा प्रकाशमान, निरुपम एवा एक हजार अने आठ लक्षणोथी तेओ सुशोभित होय छे; जगतमा उत्तम जे श्रेष्ठ शोभा तेना निवास माटेना तेओ जाणे के वासगृह छे; तेमनां दर्शन थतांनी साथे ज तेमनी शोभा जोईने देवो तथा मनुष्यो अंतःकरणमां चमकी उठे छे अने नेत्रमा तथा मनमा महान विस्मय तथा प्रमोदने 20 अनुभवे छे; सघळाये पापकर्मोरूपी मेलना कलंकथी तेओ मुक्त थई गया होय छे; समचतुरस्र संस्थान तथा श्रेष्ठ जे प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयण तेनाथी युक्त परम पवित्र अने उत्तम शरीरने तेओ धारण करनारा होय छे / आवा भगवंतो ज महायशस्वी महासत्त्वशाळी महाप्रभावी परमेश्वर तथा सद्धर्मना तीर्थकरो होय छे। वळी का छे के 1. एयं चेव धम्मतित्थकरे त्ति P / 2. संत्तिहियं P / 3. पवरुक्खरु P / 4. नामधिज्जाणं भुवणबंधूणं AI 5. जम्मभरब्भत्थमहो° P / 6. निव्वेयणु A / 7. जिओरुतंगपुण्णखंध P / 8. महप्पभार° PI 5. भव्वभावछिण्णपाव / / 10. °निवासवावास B, निवासवासवाइ दे° P / 11. °कारय अ° P / 12. पवरवरपढम / / 13. परमिट्टी / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो। [प्राकृत सयलनरामरतियसिंदसुंदरीरूवकंतिलावणं / सव्वंपि होज्ज जई एंगरासिण संपिंडियं कहवि // तं च जिणचलणंगुट्ठग्गकोडिदेसेगलक्खभागस्स / संनिम्मि न सोहइ जैह सारउडं कंचणगिरिस्स॥ त्ति . अहवा नाऊण गुणंतराइं अन्नेसिं ऊण सव्वत्थ / तित्थयरगुणाणमणंतभागमलभंतमन्नत्थ // . जं तिहुयणं पि सयलं, एगीहोऊणमुभमेगदिसिं / भागे गुंणाहिओऽम्हं तित्थयरे परमपुज्जेत्ति // 5 ते च्चिय अच्चे वंदे पूंए अरिहे गइमइसमन्ने / जम्हा तम्हा ते चेव भावओ णमह धम्मतित्थयरे // लोगे वि गामपुरनगरविसयजणवयसमग्गभरहस्स / “जो जित्तियस्स सामी, तस्साणत्तिं ते 'करेंति // नवरं गामाहिवई सुट्ट सुतुढे एक्कगाममज्झाओ / किं देज ? जस्स नियेंगे तेलोए एत्तियं पुव्वं // चक्कहरो लीलाए, सुङ्गु सुथेवंपि देइ" जमगणं / तेण य काँगयगुरुदरिद्दनौमं णासेइ / / "सो मंता चक्कहरं सुरवइत्तणं कंखे / "इंदो तित्थयरे उण, जगैस्स जहिच्छियसुहफलए // 10 तम्हा जं "ईदेहिं वि कंखिज्जइ एगबद्धलक्खेहिं / अइसाणुरागहियएहिं उत्तम तं न संदेहो / . समग्र मनुष्यो, देवो, इंद्रो अने सुंदरीओनां रूप, कांति तेमज लावण्य-ए बधुं जे होय, "तेने कोईपण रीते एकठां करीने एक बाजु पिंड बनाववामां आवे अने तेने जिनेश्वर भगवंतना चरणना अंगूठाना टेरवाना करोडमा भाग, अथवा लाखमा भागनी सामे मूकबामां आवे तो ते देवदेवीओना रूपनो पिंड एटलो बधो शोभाहीन बनी जाय छे के सुवर्णना पर्वत ( मेरु) नी 15 पासे राखनो ढगलो जेवो शोभाहीन लागे तेवो ते लागे छ / अथवा जगतना सर्व गुणोने भेगा करवामां आवे तो पण ते जिनेश्वरना गुणोना अनंतमा भागे पण आवता नथी / एक बाजु त्रणे जगत एकत्रित थईने एक दिशामां उभा होय अने बीजी बाजु तीर्थकर होय तो तीर्थंकर गुणमां चडी जाय छे; तेथी तीर्थंकरो परमपूज्य छ / ते ज अर्चनीय छे, वंदनीय छे, पूजनीय छ, अहंत छे, गति तथा मतिथी समन्वित छे; माटे ते ज धर्मतीर्थ20 करोने भावथी नमस्कार करो। . ____लोकोमां पण गाम, पुर, नगर, विषय, जनपद के समग्र भरतनो जे जेटला प्रदेशनो स्वामी होय छे तेनी आझाने ते प्रदेशना लोको स्वीकारे छे; परंतु प्रामाधिपति तुष्ट थाय तो एक गाममांथी केटलं आपे ? जेनी पासे जेटलं होय तेटलुं आपे / चक्रवर्ती थोडं आपे तो पण तेनाथी कुळपरंपराथी चाल्युं आवतुं दारिद्र्य नष्ट थई जाय छ। आवो चक्रवर्ती देवेन्द्रपणानी आकांक्षा सेवे 25 छे, देवेन्द्रो यथेष्ट सुखफळने आपनारा तीर्थंकरपदनी आकांक्षा राखे छे। अतिशय अनुरागी हृदयवाळा इन्द्रो पण एक लक्ष्य बांधीने जे तीर्थंकरपदनी आकांक्षा राखे छे ते तीर्थंकरो जगतमां सौथी श्रेष्ठ छे एमां संदेह ज नथी / 1. लावन्नं A / 2. एगरास सं°P, एगरासि सं° B / 3. ता तं च P / 4. संनिज्झे वि ण सोP / 5. जह छार° P / 6. मेगदिसं P / 5. हिउन्हें P, °हिउम्हं B 8. पूए आराहे गई / / 9. समण्णे य P, समण्णे / 10. जो जेत्तिय / 11. तस्साणत्ति / 12. करिति / / 13. सुट्ट सतुढे P, सुतुद्धे / / 14. नियगं छेलाए तेत्तिय पुंछं P / 15. देइ न हु मन्ने / / 16. कम्मामत° P / 17. नामं समासेइ M / 18. सा मंता P / 19. चक्कहरं चक्कहरो सु° P / 20. इंदो तित्थयरत्तं ति / / 21. जयस्सा वि ज° P / 22. इंदेही वि A1 23. रायहि / / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय / तो सयलदेवदाणवगहरिक्खसुरिंदचंदमादीणं / तित्थयरे पुज्जयरे ते चिय पावं पणासंति // तेसि य तिलोगमहियाण धम्मतित्थंकराण जगगुरूणं / भावच्चणदव्यच्चणभेदेण दुहचणं भणियं // भावच्चण चारित्ताणुट्ठाणकटुग्गघोरतवचरणं / दव्वच्चण विरयाविरयसीलपूयासक्कारदाणादी // ___ता गोयमा ! णं एसेऽत्थ परमत्थे तं जहाभावच्चर्णेमुग्गविहारया य दव्वच्चणं तु जिणपूया / पढमा जॅईण दोन्नि वि गिहीण पढम च्चिय पसत्था // 5 ___एत्थं च गोयमा ! केई अमुणियसमयसब्भावे ओसन्नविहारी णियवासिणो अदिट्ठपरलोगपञ्चवाए संयमतीइड्डिरससायगारवाइमुच्छिए रागदोसमोहाहंकारममीकाराइसु पडिबद्धो कसिणसंजमसद्धम्मपरंमुहे नियनित्तिसनिग्धिणअकलुणनिक्किवे पावायरणेक्कअभिनिविट्ठबुद्धी एगंतेणं अइचंडरोदकूराभिग्गहिए मिच्छहिद्विणो कयसव्वसावज्जजोगपञ्चक्खाणे विप्पमुक्कासेससंगारंभपरिग्गहे "तिविहं तिविहेणं पडिवन्नसौमाइए य दव्वत्ताए, न भावत्ताए, नाममेव मुंडे अणगारे महव्वयधारी समणेऽवि भवित्ताणं एवं मन्नमाणे, सव्वहा 10 - तेथी समग्र देव, दानव, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य अने चंद्रमा वगेरेने पण तीर्थंकरो पूज्य छे अने तेओ खरेखर पापनो नाश करे छे / ते त्रण लोकथी पूजायेला धर्मना तीर्थंकरो अने जगतना गुरुनी अर्चना भावथी अने द्रव्यधी एम बे प्रकारनी कहेली छे। .... चारित्रनुं अनुष्ठान तेमज कष्टपूर्वकनां उग्र अने भीषण तपर्नु आचरण-ए भावअर्चन छे; अने 15 विरताविरतो एटले देशविरत श्रावको पूजासत्कार तेमज दान करे-ए द्रव्यअर्चनरूप प्रकार गणाय छे। .. माटे हे गौतम ! अहीं आनुं रहस्य आ प्रकारे छे भावअर्चन ए उग्र विहाररूप छे, ज्यारे द्रव्यअर्चन ए जिनपूजा छे / प्रथम प्रकार मुनिओना माटे छे अने गृहस्थ माटे बनेय प्रकारो छे; तेमां प्रथम प्रकारनुं भावअर्चन ते प्रशंसनीय छ / 20 ..हे गौतम ! जे केटलाक शास्त्रनो सद्भाव नहीं जाणनारा; शिथिलविहारी; नित्यवासी; 'परलोकमां शुं नुकसान थशे' एनो विचार नहीं करनारा; ऋद्धिगौरव, रसगौरव, शातागौरवमां मूछित थयेला; राग-द्वेष-मोह-अहंकार-ममत्वादिमां प्रतिबद्ध; संयमरूप सद्धर्मथी पराङ्मुख; निर्दय, निर्लज, घृणित, क्लेश करनारा, कृपा विनाना अने जेमनी बुद्धि एक मात्र पापाचरणमां लागेली छे; एकांतपणे जे अत्यंत चंड, रुद्र अने क्रूर अभिग्रहोथी मिथ्यादृष्टिओ; सर्व पापकारी 25 व्यापारना पच्चक्खाण करीने समग्र संग, आरंभ अने परिग्रहथी रहित थई, त्रिविधे त्रिविधे (मन-वचन-कायाथी कृत-कारित-अनुमतिथी ) सामायिक द्रव्यथी स्वीकारे छे पण भावथी करता नथी; नामना ज मुंड छे, नामना ज अनगार छे, नामना ज महाव्रतधारी छे; श्रमण थया 1. ता.स / / 2. पणासेंति P / 3. °हिया ध° B / 4. मुवग्ग° P / . 5, जतीण P / .6. केइ / 7. विहारीणीय° P / 8. बद्ध के B / .9. हियमिच्छदद्विणो P / १०.कखाण वि° PI 11. 'तिविहं' इति पाठो। प्रतौ नास्ति / 12. सामइए PM Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहनुससंदम्भो। [पाहत उम्मग्गं पवत्तं ति, जहा किल अम्हे अरहंताणं भगवंताणं गंधमल्लपदीवसमजणोवलेवणविचित्तवत्थबलिधूवाइएहिं पूयासक्कारेहिं अणुदियहमन्भचणं पकुव्वाणा तित्थुच्छप्पणं करेमो, तं च णो णं तहत्ति, गोयमा ! तं वौयाएबि णो णं तहत्ति समणुजाणेज्जा। 5 एयं तु पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अणंतगमपज्जवेहि सुत्तस्स य पिहभूयाहिं निज्जुत्ती-भास-चुण्णीहिं / जहेव अणंतनाणदंसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं तहेव समासओ वक्खाणिज्जंतं आसि, अहऽनया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ निज्जुत्ती-भास-चुन्निओ वोच्छिन्नाओ। इओ य वच्चंतेणं कालसमएणं महिड्डीपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुयहरे समुप्पन्ने, तेणेयं पंचमंगलमहासुयधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ, मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहि 10 अस्थत्ताए अरहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थंगरेहिं तिलोगमहिएहिं वीरजिणिंदेहिं पन्नवियं ति एस वुड्डसंपयाओ। पछी पण 'अमे अरिहंत भगवंतनी गंध, माल्य, दीप, संमार्जन, उपलेपन, वस्त्र, बलि, धूप आदि पूजा-सत्कारथी हमेशां अभ्यर्चन ( पूजन ) करीने तीर्थनी प्रभाषना करीए छीए'-ए प्रमाणे माने छे ते बका उन्मार्गने प्रवावे छे, तेमनुं आ कृत्य व्याजकी नथी; गौतम ! वचनथी पण एने 15 अनुमति आपकी नहीं।" पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध (नवकार) नी जे आ व्याख्या छे ते खूब विस्तारथी अनंतगम अने अनंत पर्यायोपी सूत्रथी पृथक्भूत नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णि. द्वारा-जेवी रीते अनंत ज्ञानदर्शनधारक तीर्थंकरोए व्याख्या करेली हती तेवी ज रीते संक्षेपथी-चाली आवती 20हती; परंतु पडता कालने लीघे कोईक समये aa नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णिनो विच्छेद थई गयो। त्यारपछी केटलाक समये महाऋद्धिमां पदानुसारी लब्धिवाळा वनखामी नामना द्वादशान्त श्रुतज्ञानना धारक आचार्य उत्पन्न थया / तेमणे आ पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनो उद्धार करीने मूळसूत्रनी अंदर लख्यो / मूळसूत्र ए सूत्रथी गणधरोए रचेलं छे अने अर्थथी अरिहंत भगवंत, 25 धर्मतीर्थकर, त्रैलोक्यपूजित श्रीवीरजिनेश्वरे प्ररूपेलं छे / आ प्रमाणे वृद्धसंप्रदाय छे / (अर्थात् पूर्वाचार्योथी चाली आवती मान्यता छ।) 1. ति तहा P / 2. धूवाइतेहिं P / 3.11 एतचिहान्तर्गतः पाठः P प्रतौ पतितः। 4. पिहम्भूयहिं P / 5. वोच्छिनाओ इति पाठः / प्रतो नाखि। ६.तित्थकरेहिं P जुओ-हवे पछी छपायेल 'चैत्यवंदनमहाभाष्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। एत्थ य जत्थ जत्थ पयंपएणाणुलागं सुत्तालावगं न संपज्जइ तत्थ तत्थ सुयहरेहिं कलिहियदोसो न दायव्वो त्ति, किंतु जो सो एयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंधस्स पुव्वायरिसो ओसी तहिं चेव खंडाखंडिए उद्देहियाइएहिं हेऊहिं बहवे पत्तगा परिसडिया तहावि अच्चंतसुमहत्थाइसयं ति इमं महानिसीहसुयक्खंधं कसिणपवयणस्स परमसारभूयं परं तत्तं महत्थं ति कलिऊणं पवयणवच्छल्लतणेणं बहुभव्वसत्तोवयारियं च काउं तहाय ऑयहियट्ठाए आयरियहरिभद्देणं जं तत्थायरिसे दिटुं तं सव्वं समतीए सोहिऊणं लिहियं ति, अन्नेहिं पि सिद्धसेणदिवाकखुर्दुवाइ–जक्खसेण-देवगुत्त-जसवद्धणसमासमणसीररविगुत्त-णेमिचंद-जिणदासगणि-खमगर्सच्चसिरिपमुहेहिं जुगुप्पहाणसुयहरेहिं बहु मन्नियमिण ति। से भयवं! एवं जहुत्तविणओवहाणेणं पंचमंगलमहासुयक्खंधमहिजित्ताणं पुव्वाणुपुवीए पच्छाणुपुन्वीए अणाणुपुवीए सरवंजणमत्ताबिंदुपयक्खरविसुद्धं थिरपरिचियं काऊणं महया पबंधेणं सुत्तत्थं च 10 विनाय तओ य णं किमहिजेज्जा ? गोमया ! ईरियावहियं / आमां परस्पर एक पदनो बीजा पद साथे संबंध होय एवी रीते सळंग सूत्रना आलावा ज्या ज्यां जोवामां न आवे त्यां त्यां बराबर लख्युं नथी एवो दोष श्रुतधरोए काढवो नहि; 15 कारणके अचिंत्यचिंतामणि तुल्य आ महानिशीथश्रुतस्कंधनो जे प्राचीन आदर्श (प्रति) मथुराना सुपार्श्वनाथ भगवानना स्तूपमा हतो ते पंदर दिवसना उपवास करवाथी शासनदेवीए मने आप्यो, पण तेमां खंडित थई जवाथी तेमज उधेई वगेरे कारणोथी घणां पानां सडी गयां छे (खंडित थई गयां छे ) तो पण अत्यंत महान अर्थातिशयवाळा आ महानिशीथश्रुतस्कंधने समग्र प्रवचनना परम सारभूत परम तत्त्व तथा महा अर्थयुक्त समजीने प्रवचन उपरना वात्सल्यथी, वळी, घणा 20 भव्य जीवोने उपकारक छे एम समजीने तेमज पोताना आत्माना कल्याण माटे आचार्य हरिभद्रे से आदर्शमा जे जोयुं ते बधुं पोतानी मति प्रमाणे शुद्ध करीने लख्युं छे / अने बीजा पण सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमणना शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि, क्षमक, सत्यश्री वगेरे युगप्रधान श्रुतधरोए एने बहुमान्य राखेलुं छे।। प्रश्न-भगवन् ! अगाउ कह्या मुजबना विनय-उपधान वडे पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधने 25 पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी अने अनानुपूर्वी वडे स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु अने पदाक्षरोथी शुद्ध रीते मणी, तेने (हृदयमां ) स्थिर अने परिचित करी महाप्रबंध वडे सूत्र तेमज अर्थोने जाण्या पछी शुं भणq जोईए? उत्तर-हे गौतम ! ते पछी 'ईरियावहिय' सूत्र भणवू जोईए। 1. जत्थ पयं / / 2. आसि तहिं / / 3. आयहियट्टयाए / 6. 'सच्चरिसिप / / 7. हिजे ? यो / 4. अत्तेहिं P / 5. वुद्धवाइ / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 सिरिमहानिसीहसुससंदभो। [प्राकृत एवं चाभिग्गहबंधं काऊणं जावज्जीवाए, ताहे य गोयमा ! इमाए चेव विज्जाए अहिमंतियाओ सत्तैगंधमुट्ठीओ तस्सुत्तमंगे नित्थारगपारगो भवेज्जासि त्ति उच्चारेमाणेणं गुरुणा खेत्तव्वाओ "अउम् णमउ भगवओ अरहओ स्इ उ म्ए भगवती महाविआ ईरए महआईएँ जयए ईरए स्एणव्ईए वद्धम्आणव्ईरए जय्ए व्इजयए जय्अंत्ए अपआइए स्व् आ हा // " 5 उपचारो चउत्थभत्तेणं साहिज्जइ, एयौए विजाए सव्वगओ नित्थारगपारगो होइ, उट्ठावणाए वा गणिस्स वा अणुन्नाए वा सत्तवार परिजवेयव्वा / नित्थारगपारगो होइ, उत्तमट्ठपडिवण्णे वा अभिमंतिज्जइ आराहगो भवइ, विग्धविणायगा उवसमंति, सूरो संगामे पविसंतो अपराजिओ भैवइ, कप्पसमत्तीए मंगलवहणी खेमवहणी हवइ / तहा साहुसाढणीसमणोवासगसड्डिगासेसासन्नसाहम्मियजणचउव्विहेणंपि समणसंघेणंः निथारग10 पारगो भवेजा, धन्नो सुपुन्नसलक्खणोऽसि तुमं ति उच्चारेमाणेणं गंधमुट्ठीओ घेखे]त्तव्वाओ, तओ जगगुरूणं जिणिंदाणं पूएगदेसाओ गंधड्ढामिलाणसियमल्लदामं गहाय सहत्थेणोभयखंधेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा __ हे गौतम ! आ प्रकारे यावज्जीवपर्यंत अभिग्रहनो नियम लईने आ (नीचे आपेली) विद्याथी सारी रीते मंत्रेली गंध ( वासक्षेप ) नी सात मूठीओ उपधान करनारना मस्तक उपर 'तुं संसारसमुद्रने तरीने पार था' ए प्रकारे उच्चारण करवापूर्वक (ते मूठीओ) नाखवी जोईए। 15 ए विद्या आ प्रकारे छे "ॐ नमो भगवओ अरहओ सिज्झउ मे भगवती महाविजा, वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जये विजये जयंते अपराजिते स्वाहा // ". .. ___ आ मंत्रनो प्रयोग चतुर्थभक्त-एक उपवास करीने करवो जोईए / आ विद्याथी सर्वज्ञ तथा संसारपारगामी थवाय छ। वडी दीक्षामां अथवा गणिपदनी अनुज्ञामां आ विद्याने सात 20 वार भणवी तेथी संसारपारगामी थवाय छे, अथवा मरण वखते, अंतिम अनशनवेळाए जे आ मंत्रने भणे ते आराधक बने छ / तेनां विघ्नकारक तत्त्वो शांत थाय छे। शूरवीर माणस जो संग्राम-युद्धमा प्रवेश करे तो ते अपराजित थाय छे / कल्पनी समाप्तिमां (आ विद्या) मंगल आपनारी अने सुख देनारी बने छ। तेमज साधु, साध्वी, श्रमणोपासक तथा श्राविकाओ रूप ज़े समग्र साधर्मिक चतुर्विध 25 जैनसंघ हाजर होय ते साथे श्रमणसंघे पण 'नित्थारग-पारगो भवेजा (संसारना समुद्रने तमे तरी जाओ), तेमज तमे धन्य छो, पुण्यशाळी लक्षणवाळा छो' ए प्रकारे उच्चारण करी, वासक्षेप लईने नाखवो / ते पछी जगतना गुरु एवा जिनेश्वर भगवंतनी पूजामांथी गुरु अत्यंत सुगंधी करमायेली न होय एवी श्वेत पुष्पोनी माला ग्रहण करी पोताना हाथ वडे तेने बने खभे आरोपण 1. जावजीवाए A / 2. याउ स A / 3. सव्वगंधसुद्धीओ P / 4. नित्थारपारगो P / 5. णा घेत्त P / 6. उ स् ए P / 7. ए जय P / 8. आणाव P / 9. जय अंतए P / 10. आईए P / 11. एगाए / 12. उत्तिमट्ट P / 13. भवति / / 14. हुणिस P / 15. स्थारपा / 16. धण्णो संपुण्ण स° PM Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / जीसंदेहमेवं भणियव्वं जहा-'भो भो जम्मंतरसंचियगुरुयपुन्नपब्भार ! सुलद्धसंविढत्तसुसहलमणुयजम्म ! देवाणुप्पिया ! ठइयं च णरय-तिरियगइदारं तुज्झं ति, अबंसगोय अयसँअकित्तीनीयागोत्तकम्मविसेसाणं तुम ति, भवंतरगयस्सावि उणईदुलहो तुज्झ पंचनमोकारो, भाविजम्मंतरे पंचनमोक्का(पभावओ य जत्थ जत्थोववैज्जिज्जा तत्थ तत्युत्तमा जाई उत्तमं च कुलरूवारोग्गसंपयं ति, एयं ते निच्छइओ भवेज्जा / ' ___ अन्नं च-पंचनमोक्कारपभावओ ण भवइ दासत्तं, ण दारिदैदोहग्गहीणजोणियत्तं, ण विगलिंदि- 5 यत्तं ति, किं बहुएणं ? गोयमा ? जे केई एयाए विहीएपंचनमोक्कारादिसुयणाणमहिजित्ताणं तयत्थाणु[सा रेणं पयओ सव्वावस्सगाइणिचाणुठणिज्जेसु अट्ठारससीलंगसहस्सेसु अभिरमेज्जा, से णं सरागत्ताए जइ णं ण निव्वुडे तओ गवेज्जणुत्तरादी\ चिरमभिरमेउणेह उत्तमकुलप्पसुई उक्किट्ठलट्ठसव्वंगसुंदरत्तं सव्वकलापत्तट्ठजणमणाणंदयारियत्तणं च पाविऊणं सुरिंदोवमाए रिद्धीए एगंतेण च दयाणुकंपापरे निम्विन्नकामभोगे सद्धम्ममणु-10 टेऊणं विहुयरयमले सिज्झेज्जा / 20 करती वखते निःशंक रीते आम कहे, जेम के-“हे जन्मांतरमा मोटा पुण्यने मेळवनार ! वळी, सारी रीते प्राप्त अने उपार्जन करेला मनुष्यजन्मने सफळ करनार ! हे देवानुप्रिय ! तारां नरक अने तिर्यंचगतिनां द्वार बंध थयां छे; वळी अपयश, अकीर्ति, नीच गोत्ररूप कर्मविशेषो पण तारे 15 बंधाशे नहीं / भवांतरमा जतां पंचनस्कार तने अतिदुर्लभ नहीं थाय, जन्मांतरमां पंचनमस्कारना प्रभावथी ज्या ज्यां तुं उत्पन्न थईश त्यां त्यां उत्तम जाति, उत्तम कुळ, रूप, आरोग्य अने संपत्ति-आ बधुं तने निश्चयथी मळशे / " / .. वळी, पंचनमस्कारना प्रभावथी दासपणुं मळतुं नथी; दारिद्र्य, दौर्भाग्य, हीनयोनिपणुं अने विकलेन्द्रियपणुं पण मळतुं नथी / बहु कहेवाथी शुं ? हे गौतम ! जे कोई पण आ विधिथी पंचनमस्कार वगेरे अने श्रुतज्ञानने भणीने तेना अर्थ प्रमाणे प्रयत्नशील बनीने आवश्यक आदि सर्व क्रियाओमां अने अढार हजार शीलांगमां अभिरमण करे छे ते जो सराग संयमने लीधे मोक्ष प्राप्त न करे तो त्रैवेयक अने अनुत्तरविमान वगैरेमा लांबा काळ सुधी रमण करीने अहीं (मनुष्यलोकमां ) उत्तम कुळमां जन्मे छे अने उत्कृष्ट, पुष्ट, सर्व अंगोथी पूर्ण सौंदर्यवान अने बधीये कळाओनो अर्थ पामीने मनुष्योना मनने 25 आनंदकारकपणुं प्राप्त करीने, तेमज सुरेन्द्र जेवो महा ऋद्धिमान, एकान्ते दया अने अनुकंपामां तत्पर तथा काम अने भोगोथी पराङ्मुख थयेलो ते सद्धर्मनुं आचरण करीने कर्मरूप मेल धोई नाखीने सिद्धि पामे छे। + 1. °संचियं P, यगरुय° B / 2. 'द्धसुवि / 3. °सऽकित्तीणीया / / 4. तरभयस्साधि P1 5. ण दुल्लहो / 6. पभावाओ P / 7. वजेजा P / 8. ति पयंते निच्छयओ P / 9. हृदुहग्ग PI 10. केइए / 11. 'महीएत्ताणं P, महीयत्ताणं B / 12. रसीलंग B / १३.णं स नि degp, णं नि / / 14. दीसं चि / / 15. मेजणेह / / 16. सुरिंदे विव महरि° P, सुरिंदोवमरि BI .......... Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत से भयवं ! सुदुक्करं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स विणओवहाणं पत्नत्तं, महती य एसा णियंतणा कहं बालेहिं कज्जइ ? ____ गोयमा ! जे णं केई ण इच्छेज्जा एवं नियंतणं अविणओवहाणेणं चेव पंचमंगलाइसुयनाणं अहिजिणे अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अणुन्नं वा पयाइ से णं ण भविज्जा पियधम्मे ण हवेज्जा 5 दढधम्मे ण भवेजा भत्तीजुए हीलिज्जा सुत्तं, हीलेजा अत्थं, हीलिज्जा सुत्तत्थ उभये, हीलिजा गुरुं, जे णं हीलिज्जा सुत्तत्थोभए जाव णं गुरुं से णं आसाएज्जा अतीताणागयवट्टमाणे तित्थयरे ऑसाइज्जा आयरिय-उवज्झाय-साहुणो जे णं आँसाइज्जा सुयणाणमरिहंत-सिद्ध-साहू से तस्स णं सुदीहयालमणंतसंसारसागरमाहिंडेमाणस्स तासु तासु संतूंडवियडासु चुलसीइलक्खपरिसंखाणासु सीओसिणमिस्सजोणीसु तिमिसंधयारदुग्गंधऽमिज्झविलीणखारमुत्तोज्झसिंभपडिहत्थवैसाजलुल[स] पूयदुद्दिणचिलिचिल्लरुहिरचिल्लंदु10 इंसणजंबालपंकबीभच्छधोरगब्भवासेसु कढकढकढेत चलचलचलस्स टैलटलटलस्स रज्जंतर जंत] संपिंडियंगमंगस्स सुइरं नियंतणा, जे उण एवं विहिं फासेज्जा नो णं मणयं पि अइयरेज्जा, जहुत्तविहाणेणं चेव पंचमंगलपभिइसुयनाणस्स विणयोवहाणं करेज्जा, से णं गोयमा ! नो हीलिजा सुत्तं, . प्रश्न हे भगवन् ! पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधD अत्यंत दुष्कर एवं विनयोपधान आपे कह्यु, आ तो महानियंत्रणा स्वरूप छे, तो ते बाळ जीवो कई रीते करे ? 15 उत्तर हे गौतम ! जे कोई आ प्रकारनी नियंत्रणाने न इच्छे, विनय-उपधान विना पंचमंगल श्रुतज्ञानने भणे, भणावे अने तेवी रीते भणावनारने अनुज्ञा आपे तेने खरेखर धर्म प्रिय नथी, ते धर्ममां दृढतावाळो नथी, ते भक्तिवाळो नथी, ते सूत्रनी हीलना करे छे, अर्थनी हीलना करे छे, सूत्र अने अर्थ ए बनेनी अवहेलना करे छे, ते गुरुनी पण अवहेलना करे छे / अने जे माणस सूत्र अने अर्थनी उभय तथा गुरुनी अवहेलना करे छे ते भूत, भविष्य अने वर्तमानकाळना 20 तीर्थंकरोनी, आचार्यो अने उपाध्यायो तेमज साधुओनी पण आशातना करे छे / जे मनुष्य श्रुतज्ञान, अरिहंत, सिद्ध अने साधुनी आशातना करे छे ते लांबा काळ सुधी अनंत एवा संसारसागरमां ते ते संवृत अने विवृत एवी चोराशी लाखनी संख्यावाळी शीत, उष्ण अने मिश्र एवी योनिओमां भमे छे; गाढ अंधकार, दुर्गंध अने अपवित्र पदार्थोथी लेपायेल; क्षार, मूत्र, बळखाथी पूर्ण; चरबी, पाणीना कीडाओ, परु, दुर्दिनथी भीजायेल; रुधिर, आर्द्र अने दुःखे 25 जोई शकाय एवा कीचड-कादवथी बीभत्स, घोर एवा गर्भावासमा कढकढे छे, आमतेम आळोटे छे, टळवळे छे, अंदरोदर एकबीजां अंगो साथे जकडाईने पडी रहे छे-आ रीते लांबा काळ सुधी नियंत्रणा पामे छ / परंतु जे कोई आ विधिने स्पर्शे छे अने जरा पण विधिनी अतिचरणा (उलंघना ) करतो नथी, उक्त विधिपूर्वक ज पंचमंगल वगेरे श्रुतज्ञान- विनयोपधान करे छे ते 1. सुयणाण / 2. माणसस्स / 3. वा एयाइ / 4. हीलेज्जा P / 5. हीलेजा P / 6. हीलेज्जा / / 7. आसाएजा P / 8. आसाएजा P / 9. सुद्धीह° P / 10. संकुड° P / 11. संखणासु P / 12. दुग्गंधा मिज्झ B, दुग्गंधा मज्झ। 13. हच्छवसज° P / 14. चिलिव्विल्लरुढिरचिख्खाल P / 15. चिल्लखलदु° B / 16. बीभत्सघो° B / 17. ढलढलढलस्स B / 18. रसं B / 19. वि ओहा है। 20. हीलेज्जा / / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / णो हीलिज्जा अत्थं, णो हीलिज्जा सुज्जथोभए से णं नो औसाइज्जा तिकालभावी तित्थकरे, णो आसाइज्जा तिलोगसिहरवासी विहुयरयमले सिद्धे,' णो आँसाइज्जा आयरिय-उवज्झाय-साहुणो, सुट्टयरं चेव भवेजा पियधम्मे दढधम्मे भत्तीजुत्ते एगंतेणं भवेजा / सुत्तत्थाणुरंजियमाणसे सद्धासंवेगमावन्नो, से एस णं ण लभेज्जा पुणो पुणो भवचारगे गब्भवासाइयं अणेगहा जंतणं ति / ... णवरं गोयमा ! जे णं बाले जाव अविन्नायपुन्नपावाणं विसेसो ताव णं से पंचमंगलस्स णं गोयमा ! एगंतेणं अओगे, ण तस्स पंचमंगलमहासुयक्खधं दायव्वं न तस्स पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स एगमवि आलावगं दायव्वं, जओ अणाइभवंतरसमज्जियासुहकम्मरासिदहणट्टमिणं लभेत्ताणं न बाले सम्ममाराहेज्जा लहुत्तं च आणेइ, ता तस्स केवलं धम्मकहाए गोयमा ! भत्ती समुप्पाइज्जइ, तओ नाऊणं पियधम्मं दढधम्म भत्तिजुत्तं, ताहे जावइयं पच्चक्खाणं निव्वाहेउं समत्थो भवैइ तावइय कौरवेज्जइ, राईभोयणं दुविह-तिविह-चउव्विहेण वा जहासत्तीए पञ्चक्खाविज्जइ / 10 मनुष्य हे गौतम ! सूत्रनो अनादर करतो नथी, अर्थनो अनादर करतो नथी, सूत्र अने अर्थ ए बनेनो अनादर करतो नथी, त्रणे काळमां थनारा तीर्थंकरोनी आशातना करतो नथी, त्रण लोकना शिखर उपर रहेला कर्ममलरहित सिद्ध भगवंतोनी आशातना करतो नथी तेमज आचार्य, उपाध्याय अने साधुओनी पण ते आशातना करतो नथी / ते सारी रीते प्रियधर्मा, दृढधर्मा अने एकांत भक्तियुक्त बने छ / सूत्र अने अर्थनी अंदर अनुरागी मनवाळो अने श्रद्धासंवेगथी युक्त 15 बनेलो ते भवरूपी कारावासमां गर्भावासनी अनेकविध यंत्रणाओने वारंवार पामतो नथी / ____ परंतु हे गौतम ! जे बाळ छे अने जेणे पुण्य अने पापनी विशेषता ज्यां सुधी जाणी नथी त्यां सुधी तेनो जीव हे गौतम ! ए पंचमंगलने माटे एकांते अयोग्य छे / एवा (बाळक )ने समग्र पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध न आपवो जोईए, पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनो एक आलापक पण आपवो न जोईए; केमके अनादिकाळथी जन्मांतरमा उपार्जन करेलां अशुभ कर्मोना समूहने 20 बाळनार आ (नमस्कार )ने मेळवीने बाळक सारी रीते आराधना करतो नथी अने उलटी ए (नमस्कार )नी लघुता करे छे / ए माटे हे गौतम ! तेवा (बाळक )ने प्रथम धर्मकथामां भक्ति उपजाववी जोईए / ते पछी धर्ममां प्रेम, धर्ममां दृढता अने (धर्ममां ) भक्तियुक्त थयेलो जाणीने पछी जेटलुं पञ्चक्खाण पाळवाने शक्तिमान होय तेटलुं (पञ्चक्खाण ) कराव, जोईए।' बे प्रकारे, त्रण प्रकारे अथवा चार प्रकारे रात्रिभोजननां शक्ति मुजब पञ्चक्खाण कराववां जोईए 25 ( अर्थात् दुविहार तिविहार के चउविहारतुं पच्चक्खाण करावq जोईए / ) 1. हीलेज्जा P / 2. हीलेजा P / 3. आसाएजा P / 4. विहूय° P / 5. सिद्धो णो P | 6. आसाएजा / / 7. °माणस स P / 8. विसेसे ताव B / 9. °सुयक्खंधस्स A B / 10. लभित्ताणं P / 11. भवति ता° P / 12. कारविजइ / 13. राइंभो° P, रायभो° A, राईभो° T / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 सिरिमहानिसीहसुत्तसंदभो। [प्राकृत ता गोयमा ! णं पेणयालाए नमोक्कारसहियाणं चउत्थं चउवीसाए पोसीहिं बारसहिं पुरिमड्वेहि दसहिं अवड्डेहिं तिहिं निव्वीइएहिं चउहिं एगट्ठाणगेहिं दोहिं आयंबिलेहिं एगेणं सुद्धच्छायंबिलेणं, अव्वावारत्ताए रोइँट्टज्झाणविगहाविरहियस्स सज्झाएगग्गचित्तस्स गोयमा ! एगमेयायंबिलं मासखेमणं विसेसेज्जा, तओ य जावइयं तवोवहाणगं वीसमंतो करेजा तावइयं अणुगणेऊणं जाहे जाणेज्जा जहा णं 5 एत्तियमित्तेणं तवोयहाणेणं पंचमंगलस्स जोगीभूओ ताहे आउत्तो पाढेजा, ण अन्नह ति / से भयवं पभूयं कालाइक्कम एयं, जइ कयाइ अवंतराले पंचत्तमुवगच्छे तओ नमोक्कारविरहिए कहमुत्तिमढे साहेज्जा ? ___ गोयमा ! जं समयं चेव सुत्तोवयारनिमित्तेणं असढभावत्ताए जहासत्तीए किंचि तवमारभेज्जा तं समयमेव तदेहीय सुत्तत्थोभयं दट्ठव्वं, जओ णं सो तं पंचनमोकार सुत्तत्थोभयं ण अविहीएं 10 गिण्हे, किंतु तह गेण्हे जहा भवंतरेसुं पि ण विप्पणस्से एयज्झवसायत्ताए आराहगो भवेजा। से भयवं ! जेणे पुण अन्नेसिमहीयमाणाणं सुयावरणक्खओवसमेण कण्णहाडित्तंणेणं पंचमंगलमहीयं भवेजा सेऽविर्य किं तवोवहाणं करेजा ? तेथी हे गौतम ! पिस्तालीस नवकारसीए, चोवीश पोरसीए, बार पुरिमड्ढथी, दश अवड्डथी, त्रण नीवीए, चार एकासणाथी, बे आयंबिलथी अथवा एक आयंबिल शुद्धपणे करवाथी ते एक 15 उपवास बराबर थाय छे / तेमां (कोई जातना) व्यापार विना अने आर्तध्यान, रौद्रध्यान तेमज विकथाओना त्यागपूर्वकना स्वाध्यायमां एकाग्रचित्तवाळो थाय तेने, हे गौतम ! एक ज आयंबिल पण मासखमणथी अधिक गणाय / तेथी विश्रांति लेतो लेतो जेटलुं तपोपधान करे तेटलुं गणतरीपूर्वक करीने ज्यारे जाणे के, आटला प्रमाणना तपोपधानथी पंचमंगलने ए योग्य बन्यो छे त्यारे तेने उपयोगपूर्वक भणावे, अन्यथा नहीं। 20 प्रश्न-हे भगवन् ! आमां घणो काळ व्यतीत थाय / जो कदाचित् अंतराले नमस्कार विना ज पंचत्वने पामे तो ते कई रीते मरणने साधे ? ____ उत्तर-हे गौतम ! जे समये सूत्रना उपचार निमित्ते सरळभावथी शक्तिपूर्वक कई पण तपनी शरूआत करे ते समयथी ज तेणे सूत्र, अर्थ अने सूत्रार्थ-ए उभयतुं अध्ययन करी लीधुं एम समजवू जोईए; कारणके ते पंचनमस्कारना सूत्र, अर्थ अने ते बनेने ए अविधिए ग्रहण करतो नथी, परंतु एवी रीते विधिथी ग्रहण करे छे के जेथी जन्मांतरमां पण नमस्कार नाश पामतो नथी / आ अध्यवसायने लीधे ते आराधक थाय छे। प्रश्न-वळी, जेणे बीजाओ भणता होय त्यारे श्रुतज्ञानना क्षयोपशमने कारणे पंचनमस्कारने कानथी सांभळीने भणी लीधो होय तो शुं तेणे पण तप-उपधान करवां जोईए ? 1. मा गो° P / 2. पणयलाए A / 3. पोरिसीहिं / / 4. रोद्दज्झाण° P / 5. °खवणं है / 6. °णग वी° P / 7. त्तो पढेजा P / 8. कहाइ P / 9. तमहीय सुत्तोभयं / / 10. °ए गेण्हे P / 11. तहा गेण्हे P / 12. जेण ऊण / 13. °सेणं क° P / 14. सेऽविउ किं / / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। गोयमा ! करेजा। से भयवं ! केण अटेण ? गोयमा ! सुलभबोहिलाभनिमित्तेणं, एवं चेयाइं अकुब्वैमाणे णाणकुसीले णेए / तहा गोयमा ! णं पवज्जादिवसब्पभिईए जहुत्तविणओवहाणं जे केइ साहू वा साहुणी वा अपुव्वनाणगहणं न कुज्जा, तस्सासयिं विराहि सुत्तत्थोभयं, सरमाणे एगग्गचित्ते पढमचरमपोरिसीसु दिया राओ / य णाणुगुणेज्जा, से णं गोयमा ! णाणकुसीले णेए / ___ से भयवं ! जस्स अइगरुयनाणावरणोदएणं अहंनिसं पहोसेमाणस्स ण संवच्छरेणावि सिंलोगद्धमवि थिरपरिचियं भवेज्जा, तेणावि जावज्जीवाभिग्गहेणं सज्झायसीलाणं वेयावच्चं तहा अणुदिणं अड्डाइज्जे सहस्से पंचमंगलाणं सुत्तत्थोभए सरमाणेगगर्गमाणसे पहोसिज्जा, से भयवं ! केणं अटेणं ? ___गोयमा ! जे भिक्खू जावज्जीवाभिग्गहेणं चाउकालियं वायणाइ जहासत्तीए सज्झायं न 10 करेजा, से णं णाणकुसीले जेए। __अन्नं च जे केई जावज्जीवाभिग्गहेण अपुव्वं नाणाहिगमं करेज्जा तस्सासत्तीए पुव्वाहियं गुणेज्जा तस्सावि यासत्तीए पंचमंगलाणं अड्डाइज्जे सहस्से परावत्ते, "सेवि आराहगे, तं च नाणावरणं खवेत्ताणं तित्थयरेइ वा गणहरेइ वा भवेत्ताणं सिज्झेज्जा / उत्तर-हे गौतम ! तेणे पण (तप-उपधान ) करवां जोईए / ___15 प्रश्न-हे भगवन् ! शा माटे (तेणे तप-उपधान ) करवां जोईए ? उत्तर-हे गौतम ! बोधिलाभ सुलभ थाय ए माटे करवां जोईए / आ प्रमाणे न करे तो तेने ज्ञानकुशील जाणवो। ____वळी, हे गौतम ! जे कोईपण साधु अथवा साध्वी प्रव्रज्या-दीक्षाना दिवसथी लईने यथोक्त प्रकारे विनय-उपधान पूर्वक अपूर्व एबुं ज्ञान ग्रहण न करे तो तेने सूत्र, अर्थ-ए बनेनी 20 वारंवार विराधना लागे / पहेली अने छेल्ली पोरसीमां दिवस अने राते एकाग्रचित्ते स्मरण करतो गणे नहीं (पुनरावर्तन करे नहीं ) तो, हे गौतम ! तेने ज्ञानकुशील जाणवो। प्रश्न-हे भगवन् ! अत्यंत भारे एवा ज्ञानावरणकर्मना उदयथी निरंतर गोखवा छतांये वर्ष सुधीये अडधो श्लोक पण जेने स्थिरपरिचित न थाय (न समजाय ) तेणे पण यावज्जीवनो अभिग्रह करीने स्वाध्यायशील ( साधुओ )नी वेयावच्च-सेवा करवी जोईए, तेमज प्रतिदिन अढी 25 हजार वार पंचमंगलसूत्र, अर्थ अने ते बन्नेनुं एकाग्र मनथी स्मरण करतां रटण क जोईए / हे भगवन् एम शा माटे ? उत्तर-हे गौतम ! जे भिक्षु यावज्जीव अभिग्रहपूर्वक चारे कालमां शक्ति मुजब वाचना आदि स्वाध्याय न करे तेने ज्ञानकुशील जाणवो / ____वळी, जे यावज्जीव अभिग्रह करवापूर्वक अपूर्व एवा ज्ञाननी प्राप्ति करे, तेनी शक्ति न 30 होय तो ते पहेलां जे भणेलं होय तेनुं पुनरावर्तन करे, ते माटे पण अशक्त होय तो पंचमंगलनो अढी हजार वार जाप-पुनरावर्तन करे तो ते पण आराधक छे / ते ज्ञानावरणकर्म खपावीने तीर्थंकरपणाने अथवा गणधरपणाने पामीने सिद्ध थाय छे / 1. चेइयाई P / २.०णे नाणं कु. P3. विहीणोव / / 4. °सई विराहीअंश। ५.अनिसंA | ६.स्स संवत्सरे B / 7. सिलोगद्दमपि णो थिर' P / 8. स्से 2500 य पं° P / 9. °गसे मा° P | १०.ण कुसीले / / 11. अपुव्वनाणा P / 12. तस्सामतीए P / 13. °वि य से तीए / 14. से भिक्खू आ° P / 15. खवेतुणं P / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिमहानिसीहसुत्तसंदम्भो। [प्राकृत श्रीमहानिशीथसूत्रमा नमस्कारसूत्रना तपोमय अनुष्ठान अने अध्ययन-अध्यापन माटे सूचित विगतो, कोष्टक *तप (उपप्रवरदेवता अधिष्ठित आला तपना अध्ययन पद पदच्छेद अक्षर स्वर व्यञ्जन मात्रा बिंदु धानविधि, नमस्कारसूत्र पक दिवसो मुजब)। 1 णमो अरिहंताणं | पहेलु || 3 | 1 पांच 2 णमो सिद्धाणं बीजुं 1 उपवास प्रमाण 3 णमो आयरियाणं त्रीजें तपथी 4 णमो उवज्झायाणं 2 पांच पदनी 10 5 णमो लोए सव्वसाहूणं / पांच, + 999 16 - 6 1 वाचना م م चोथु 14 साडा सात . -चूलिका - (11) 6 एसो पंचणमुक्कारो 7 सव्वपावप्पणासणो 13 1 8 810 13 - उपवासप्र माण तपथी 8 मंगलाणं च सव्वेसि 14 3 चार पदनी 9 पढम हवइ मंगलं 12 | 3 | वाचना | 68 / 68 / 69 112 13 साडा बार| 1. उपवास उपरना कोष्टकमां आवता केटलाक पारिभाषिक शब्दोनी ढूंकी समजःअध्ययनः-चित्तने जे सारी रीते अध्यात्मवाळु बनावे ते 'अध्ययन' कहेवाय / चित्तने जे सारी रीते अध्यात्म तरफ खेंची जाय ते 'अध्ययन' कहेवाय / बोध, संयम अथवा मोक्षनो अधिक लाभ करावे तेने पण 'अध्ययन' कहे छ / 20 जेण सुहज्झप्पजणं अज्झप्पाणयणमयिमयणं वा। बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व जं तमज्झयणं // (वि. भा. 960) * उपधान तपनी विशेष हकीकत प्रस्तुत ग्रंथमा हवे पछी शीर्षक 6 हेठळ छपायेल 'उवहाणविहिथुत्त' नामना स्तोत्रमा जणावी छ। x णमो उवज्झायाणं' नी संपदामा ‘उवज्झायाण पदमा उ+ झा अने प्रथमर्नु णमो' पद उमेरतां त्रण पदो थाय; ते माटे 'आवश्यकसूत्र-नियुक्तिमां का छे के-- "उ त्ति उवयोगकरणे झत्ति य ज्झास्स होइ निद्देसो / - एएण उवज्झाओ एसो अण्णो वि पज्जाओ // 3198 // " ( 334) अथवा, उपाधि + आयः, अने ‘णमो' पद गणतां पण त्रण पद थाय / जुओः-भगवतीसूत्र व्याख्या, प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 6; पं. 3. _ + णमो लोए सव्वसाहूणं' ए पदमा 'श्रीमहानिशीथसूत्र'मां पदच्छेद अने आलापक जणाव्यां नथी ते अहीं बीजां पदोनी माफक गणीने मूक्यां छ। संभव छ के 'श्रीमहानिशीथसूत्र' मां आ पाठ पडी गयो होय / जुओ 'पदच्छेद' शब्द परनी नोंध / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। विभाग] शास्त्रनुं प्रकरण ते 'अध्ययन' (अर्ध० को०) पदा-अंतमा विभक्तिवाळा शब्दने 'पद' कहेवाय / “तदन्तं पदम्" (सिद्धहेम व्या० 1.1.20) अर्थनुं जे वाचक होय अथवा द्योतक होय तेने 'पद' कहे छ। “पयमत्थवायगं जोयगं च तं नामियाइं पंचविह" (वि० भा० 1003) शब्दोनो समूह, वाक्य तेने 'पद' कहे छे।। पद्यना चोथा भाग ( पाद ) ने 'पद' कहे छे। (पा० म०) अर्थनी परिसमाप्तिवाडं वाक्य ते 'पद' कहेवाय / 'अत्थुवलद्धी जत्थ तु तं होति पदं ति' (पंचकल्पभाष्य, 1) पदच्छेदः-अर्थना नियमन माटे (प्रायः) सामासिक पदोनु ज विश्लेषण (विग्रह) तेने 10 पदविच्छेद अगर 'पदच्छेद' कहे छे पायं पयविच्छेओ समासविसओ तयत्थनियमत्थं // ' (वि० भा० गा० 1006) जेम 'नमस्कारसूत्र' मां "अरि, हंताणं," वगेरे; ए ज प्रकारे 'आयरियाणं, उवज्झायाणं' वगेरेनो पण पदच्छेद समजवो। 'पंचणमुक्कारो'-ए अखंडित विशेषनाम होवाने कारणे तेनो पदच्छेद गणतरीमा लीधो नथी / 15 आलापक:-एक संबंधवाळा वाक्योनो समूह / (अर्ध० को०); परो, परेग्राफ (पा० म०) अक्षरः-जे (आत्माथी ) प्रच्यवे नहीं ते 'अक्षर' (वर्ण ) कहेवाय; ते ज्ञान, चेतनना अर्थमां पण वपराय छे। ___न क्षरतीत्यक्षरम् , तच्च ज्ञानं, चेतनेत्यर्थः // " (आवश्यकसूत्र, गा० १९,-व्याख्या) मात्रा:-हस्व वर्णनो उच्चारणकाळ (शब्दचिन्तामणिकोश ) अहीं 'छन्दःशास्त्र' अनुसार ह्रखनी 20 एक मात्रा अने दीर्घनी बे मात्रा गणीने जणावी छ / बिंदुः-सानुनासिक उच्चारण दर्शावतो अनुस्वार (पा० म०) चूला-चूलिकाः-चूला एटले अलंकार अथवा शिखर / "चूला विभूसणं ति य सिहरं ति य होंति एगढे।” (निशीथचूर्णि-१) श्रुतरूपी पर्वत उपर चूला-शिखरनी माफक शोभे ते 'चूला' कहेवाय / 25 "श्रुतपर्वते चूला इव राजन्ते इति चूलाः।” (-नंदीसूत्र-५७, व्याख्या-पृष्ठ 246 अ) मूलसूत्रमा न बतावेल हकीकत बताववी तेने 'चूलिका' कहे छे / (अर्ध० को०); अथवा ग्रन्थ- परिशिष्ट / (पा० म०) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाया छेते। सिरिमहानिसीहसुत्तसंदब्भो। [प्राकृत परिचय श्रीमहानिशीथसूत्रना त्रीजा अध्ययननो आ संदर्भ श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालीताणाथी प्रकाशित “आगमरत्नमञ्जूषा" अंतर्गत महानिशीथसूत्रना पृ. 282-1 थी 283-3 मांथी लेवामां आव्यो छे / तेना पाठभेदो पू० मुनिराज श्रीपुण्यविजयजीनी प्रेसकॉपीमांथी लीधा छ / तेमणे 5जे प्रतिओनो उपयोग को छे तेनी जे संज्ञा तेमां आपेली छे ते संज्ञाओनो अहीं आ रीते परिचय आप्यो छे:P संज्ञा ए पू. मु. श्रीपुण्यविजयजी महाराजे ह. लि. ताडपत्रीय प्रति उपरथी मूळ आदर्शरूपे प्रेस कॉपी करावी ते। B पू. महाराजश्रीनी प्रेसकॉपीमां B संज्ञाथी पाठो लेवाया छे ते / 10 T पू. महाराजश्रीनी प्रेसकॉपीमा 2 संज्ञाथी पाठो लेवाया छे ते। S पू. महाराजश्रीनी प्रेसकॉपीमां 'सु' नी संज्ञाथी पाठो लीधा छे ते। A संज्ञा आगमरत्नमंजूषा-पू. आ. श्रीसागरानंदसूरिजीए जे प्रति उपरथी पाठ तैयार करेल छे ते / पू. पुण्यविजयजीए जे पाठांतरो नोंध्यां छे तेमांथी केटलांक पाठांतरो मूळपाठना 15 व्यवस्थित अनुवाद माटे खूब ज जरूरी अने उपयोगी होवाथी ते पू. मुनिश्री जंबूविजयजीनी सूचनानुसार मूळपाठमां उपर लई लीधां छे अने तेनी जगानो पाठ नीचे M संज्ञाथी निर्देश्यो छे। आ पाठभेदोमां ण, न अने अशुद्ध पाठोने अहीं लीधा नथी। .. समग्र रीते नमस्कारमंत्रनी चूलिका साथेनी संकलना अने ते पदोनुं महत्त्व आ सूत्रमा जोवा मळे छ / उपधानतप विना नमस्कार वगेरे सूत्रोनी वाचना लई न शकाय ए विशे आ सूत्र भार20 पूर्वक निर्देश करे छे / वळी, आ नमस्कारमंत्रनी संहिता (उच्चारण पद्धति ) विशे जेटली माहिती अहीं मळे छे तेटली बीजे मळती नथी / मंत्रना उच्चार विशे स्वर, वर्ण, पद, पदाक्षर, मात्रा, बिंदु अने घोष ( उदात्त, अनुदात्त, स्वरित भेदपूर्वक) उच्चार करवानुं विधान करे छे / एटलं ज नहीं, परंतु तेनी बहुमानपूर्वक कराती तपोमय आराधना प्रसंगे विघ्नो आवी न पडे ते माटे तेना आरंभयोग्य शुभ काळनुं निरीक्षण करी ते करवानुं विधान छे अने ते माटे एनी पवित्रता बताववा अने 25 जाळववा वाचना लेतां शुभ तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न अने चंद्रबळ जोवानो आदेश करे छे / आ सूत्रने महामंत्र अने प्रवर विद्याओना बीजभूत जणावे छ / ___श्रीहरिभद्रसूरि आ महानिशीथसूत्रना आदर्श माटे ऐतिहासिक विगत रजू करे छे के-आ सूत्रमा ज्यां सूत्रना आलापकोनो संबंध न मळे त्यां श्रुतधरोनी खामी न काढवी / तेओ तेनुं कारण आपता कहे छे के-आ महानिशीथसूत्रनो प्राचीन आदर्श खंडित-त्रुटित हतो, ऊघेईथी 30 केटलांये पानां सडीने जीर्णशीर्ण थई गयां हतां, छतां अत्यंत महार्थवाळो 'महानिशीथश्रुतस्कंध' ए समग्र प्रवचनना सारभूत छे एम समजीने प्रवचनवात्सल्यथी आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिए Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। अनेक भव्य जीवोना उपकार माटे अने पोताना आत्महितार्थे ते आदर्शमां जे लख्युं हतुं तेने बुद्धिपूर्वक संशोधीने लख्युं छे, अने बीजा आचार्यो पैकी सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमणना शिष्य रविगुप्त, नेमिचंद्र, जिनदासगणि, क्षमक, सत्यश्री वगेरे युगप्रधान श्रुतधरोए ते सूत्रने बहुमान्य कयु हतुं / हवे पछी तुरत ज शीर्षक 5 हेठळ छपायेल श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत 'चैत्यवंदन महाभाष्य' उपर श्रीधर्म-5 कीर्तिनी जे टीका छे तेमां पण आ महानिशीथसूत्रना संकलयिता आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि विशे खास नोंध लीधी छे के-आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिए मथुराना श्रीसुपार्श्वनाथना स्तूपमा रहीने पंदर दिवसना उपवास कर्या तेथी प्रसन्न थयेली शासनदेवीए आ महानिशीथसूत्रनो प्राचीन आदर्श तेमने आप्यो / [आ हकीकतनो निर्देश करती पंक्ति ( "महुराए...अप्पिउ त्ति" जुओ- चैत्यवंदन महाभाष्य' पृ. 68, पं. 8-9) श्रीमहानिशीथसूत्र'मां मळती नथी; जो के तेनो अनुवाद नीचे आप्यो छे / 10 जुओ पृ. 53, पं. 16-17] ____ आ हकीकत उपरथी ए जणाय छे के श्रीहरिभद्रसूरिए महानिशीथसूत्रनुं संकलन कर्यु एटलं ज नहीं, ए सूत्रनो मूळ आदर्श मेळववा माटे तेमने खास आराधना करवी पडी। नमस्कारसूत्रनो इतिहास आपतां आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि कहे छे के-पूर्व पंचमंगलश्रुतस्कंध (पंचनमस्कार ) पृथक् सूत्र हतुं, तेनी उपर घणी नियुक्तिओ, घणां भाष्यो अने घणी चूर्णीओ 15 हती, पण काळदोषथी ते बधानो नाश थई गयो / ए पछी महर्द्धिप्राप्त पदानुसारी शक्तिवाळा द्वादशांगधारी वनस्वामी थया, जेमणे पंचमंगलश्रुतस्कंधने मूळसूत्रोमा लख्यो / आ उपरथी एम समजाय छे के, पूर्वे नमस्कारसूत्र खतंत्र सूत्र हतुं पण श्रीवज्रस्वामीए सूत्रग्रंथोना आरंभमां गोठव्या पछी आज सुधी ते सूत्रोना आरंभ-मंगळ तरीके सूत्रोनी साथे ज जोडायेलं मळे छ / ___अनुवाद मूळपाठनी नीचे आपवामां आव्यो छे / महानिशीथमां अनेक स्थळे सूत्रपाठ 20 खंडित होवाने लीधे अर्थ संतोषकारक समजातो नथी, छतां अनुवादनी सळंगसूत्रता जाळववाना हेतुथी ज पूर्वापर भागोने ख्यालमां राखीने अर्थ जोडवानो ते ते स्थळे प्रयास कर्यो छे ए बाबत लक्ष्यमां राखवा वाचकोने खास विनंती छे / तेनुं एक कोष्टक अने केटलीक विगतो पण साथे ज मूकेली छे / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 [.5] चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः वनसहि नव पय नवकारे अट्ठ संपया तत्थ / सग संपय पयतुल्ला सतरक्खर अट्ठमी दुपया // 30 // धर्मकीर्तिमरिरचिता टीका वर्णा-अक्षराणि अष्टषष्टिः नमस्कारे-पंचपरमेष्ठिमहामंत्ररूपे भवन्तीति शेषः, उक्तं च नमस्कारपञ्जिका-सिद्धचक्रादौ "पंचपयाणं पणतीस वण्ण चूलाइ वण्ण तित्तीसं / ___एवं इमो समप्पइ फुडमक्खरअट्ठसठ्ठीए // " 10 तथा अष्टप्रकाश्यां "आग्नेय्यादिविदिग्व्यवस्थितेषु दलेषु चूला पादचतुष्कम् / " 'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं // 1 // ' इति ध्यायेत् , तथा नव पदानि विवक्षितावधियुक्तानि नमोऽरिहंताणमित्यादीनि, न तु स्त्याद्यतानि, भणितं च ___ "सत्त पणे सत्त सत्त य नवे अहूँ य अहूँ अहूँ नवें हुंति / इय पय अक्खरसंखा असहू पूरेइ अडसट्ठी // " अनुवाद गाथार्थ-नमस्कार महामंत्रमा वर्ण एटले अक्षरो अडसठ छे, पदो नव छे अने संपादाओ आठ छे / तेमां सात संपदाओ एक एक पदनी बनेली छे अने आठमी संपदा सत्तर अक्षरोनी तथा बे पदनी बनेली छे। 20 टीकार्थ-पंचपरमेष्टिमहामंत्ररूप नमस्कारसूत्रमा वर्ण एटले अक्षरो अडसठ छे / नमस्कारपञ्जिका तथा सिद्धचक्र वगेरेमां कह्यु छ के–“पांच पदना पांत्रीश अक्षरो तथा चूलिकाना तेत्रीश अक्षरो-ए प्रमाणे मळीने आ नमस्कारमंत्र अडसठ अक्षरोमां स्फुट रीते समाई जाय छे।" ___तथा अष्टप्रकाशीमां (श्रीमद् हेमचंद्रसूरिमहाराजप्रणीत योगशास्त्रना आठमा प्रकाशना 25 34 मा श्लोकनी स्वोपज्ञवृत्तिमां) कयुं छे के-"आग्नेय आदि विदिशाओमां रहेली चार पांखडी ओमां-१ एसो पंचनमुक्कारो 2 सव्वपावप्पणासणो 3 मंगलाणं च सव्वेसिं 4 पढमं हवइ मंगलं-(नवकारनी) आ चार चूलिकाना पदोनुं ध्यान करवू / अहीं 'पद' शब्दथी विवक्षित अवधिवाळा 'नमो अरिहंताणं' वगेरे नव पदो अभिप्रेत छे, परंतु 'सि' अने 'ति' वगेरे जेना अंतमां होय एवां (व्याकरणनी परिभाषावाळां) पदो अभिप्रेत नथी / कयुं छे के-“सात, पांच, 30 सात, सात, नव, आठ, आठ, आठ, अने नव-आ प्रमाणे पदना अक्षरोनी संख्या अडसठ छे / " 1. आ पहेला 'योगशास्त्र' मां नीचे मुजब उल्लेख छे: "हृदयकमळमां मध्यनी कर्णिकामां 'नमो अरिहंताणं' पदनु, तथा पूर्व आदि चार दिशामा रहेली चार पाखडीओमा अनुक्रमे 'नमो सिद्धाण 'नमो आयरियाणं' 'नमो उवज्झायाण' तथा 'नमो लोए सव्वसाहणं' नुं ध्यान करवं" - योगशास्त्र' आठमो प्रकाश श्लो. 33-34 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। न चैवं एसो पंचेत्यत्र श्लोकच्छंदोभंग इति वाच्यं, गाथानाम छंदोऽन्तररूपत्वादस्य, उक्तं च छंदःशास्त्रे “विषमाक्षरपादं वा पादैरसमं दशधर्मवत् यच्छन्दो नोक्तमत्र गाथेति तत्सूरिभिः प्रोक्ता / " एवंविधाश्च त्रयस्त्रिंशदक्षरप्रमाणा अनेकश आगमे दृश्यन्ते तथाहि ‘जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं' तथा 'अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो' इत्यादि / शंका—आ प्रमाणे अक्षरोनी संख्या स्वीकारवाथी 'एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलं' मां श्लोक ( अनुष्टुप ) नामना छंदनो भंग थशे / ' समाधान-अहीं श्लोक ( अनुष्टुप ) नामनो छंद नथी, पण 'गाथा' नामनो जुदा 10 प्रकारनो छंद छे / (तेथी छंदोभंगनो दोष अहीं लागतो नथी ) छंदःशास्त्रमा कयुं छे के-"विषम अक्षरवाळा जेमां पादो होय अथवा 'दशधर्म'वाळा' श्लोकनी जेम जेमां पादो विषम होय तेवा जे छंद- अहीं (छंदःशास्त्रमा ) वर्णन जोवामां न आवे तेने आचार्यो 'गाथा' कहे छ / " ___ आवी तेत्रीश अक्षरनी गाथाओ आगमोमां अनेकवार जोवामां आवे छे, जेमके..'जहाँ दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं / ......' तेमज 15 .. 'अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो / .........' वगेरे 1 श्लोक ( अनुष्टुप ) नामना छंदमां चार पाद होय छे अने दरेक पादमा आठ आठ अक्षर होय छे / अहीं 'पढमं हवइ मंगलं'-ए पादमानव अक्षर होवाथी छेदनो नियम जळवातो नथी, तेथी छंदोभंग थशे एवो शंकाकारनो आशय छ / 2 महाभारतना पांचमा पर्वना तेत्रीशमा अध्यायमा 'दश धर्म' थी शरू थतो नीचे मुजबनो 82 मो श्लोक छे: दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोधनात् / ___ मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः क्रुद्धः श्रान्तो बुभुक्षितः / त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामीति ते दश // - [अर्थः-हे धृतराष्ट्र ! 1 गर्विष्ठ 2 प्रमादी 3 उन्मत्त 4 क्रोधी 5 थाकेलो 6 भूख्यो 7 उतावळ करी रहेलो 8 भीरु 9 लोभी अने 10 कामी-आ दश माणसो समजाववा छतां पण धर्मने समजी शकता नथी।] - आमा छ पाद छ। एटले व्रण त्रण पादनी बे गाथाओ अथवा छ पादनी एक गाथा समजवी, एम आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिमहाराजे खोपज्ञवृत्तिसहित 'छंदोनुशासन' मां नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे:-- .. __ "गाथात्रानुक्तम् / अत्र शास्त्रे यन्नोक्तं छन्दस्तद् गाथासंज्ञम् , यथा-'दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोधनात् / मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः क्रुद्धः श्रान्तो बुभुक्षितः। त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामीति ते दश॥' अत्र त्रिभिः षड्मिा पादैः श्लोकः ॥"-पृ. 46 3 'श्रीदशवैकालिकसूत्र' ना प्रथम अध्यायनी आ बीजी गाथा छे अने आखी गाथा नीचे प्रमाणे छे: "जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं। ___ण य पुप्फ किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं // 2 // " 4 'श्रीदशवैकालिकसूत्र' ना द्वितीय अध्यायनी आ आठमी गाथा छे अने आखी गाथा नीचे प्रमाणे छे: "अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगव(वि)ण्हिणो।' मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर // 8 // ". 5 आ बन्ने छंदोमां बीजा पादमां नव अक्षरो छे तेथी तेत्रीश अक्षरनी गाथा अहीं समजवानी छ। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लखः। [प्राकृत तथा अष्टौ संपदो- महापदापरनामानि विश्रामस्थानानि, उपधानविध्यादावष्टाध्ययनाद्यात्मकतया प्रत्यध्ययनाचेकैकाचामाम्लकरणेनाष्टानामेवाचामाम्लानां भणनात् , शेषविशेषस्तु प्रागुक्तसंपवारख्याख्यानुसारतो बोध्यः / अथ कथं नवसु पदेषु अष्टसंपद इत्याह- 'तत्थ' त्ति तासु अष्टासु संपत्सु मध्ये क्रमेण सप्त संपदः 5 पदैः पूर्वोक्तस्वरूपैस्तुल्याः- समानाः, अष्टमी पुनः संपत् सप्तदशाक्षरप्रमाणा पर्यंतवर्तिपदद्वयात्मिका च यथा-'मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं,' यदुक्तं चैत्यबंदनाभाष्यप्रवचनसारोद्धारादिषु "पंचपरमिट्ठिमंते पए पए सत्त संपया कमसो / पजंत सत्तरक्खरपरिमाणा अट्ठमी भणिया // " एवं वा चतुर्थपदस्य पाठः- 'नवक्खरऽट्ठमि दुपय छट्ठी' अष्टमी संपत् ‘पढमं हवइ मंगलं' 10इति नवाक्षरप्रमाणा ज्ञेया, षष्ठी पुनः ‘एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो' ति द्विपदमाना, अभ्यधायि तथा नवकारमा आठ संपदाओ छे अर्थात् विश्रांतिनां आठ स्थानो छे, जेने महापद पण कहेवामां आवे छे; कारणके उपधानविधि' वगेरेमा (नवकार ) आठ अध्ययनादिरूप होवाथी अने दरेक अध्ययनादि दीठ एक एक आयंबिल करवानी विधि मुजब आठ ज आयंबिल करवानुं कह्यु होवाथी नवकारमा आठ संपदाओ छ। बाकी जे विशेषता छे ते पहेलां जणावेला संपवारनी 15 व्याख्याने अनुसारे समजी लेवी / नवपदमा आठ संपदाओ शी रीते समजवी ? तेनो उत्तर आपतां जणावे छे के ते आठ संपदाओमां पहेली सात संपदाओ एक एक पद जेटली छे, ज्यारे आठमी संपदा 'मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं'-ए प्रमाणे सत्तर अक्षरनी अने बे पदनी बनेली छे / चैत्यवंदनाभाष्य तथा प्रवचनसारोद्धारमा कयुं छे के "-पंचपरमेष्ठिमंत्रमा एक एक पदमां अनुक्रमे सात 20 संपदाओ छे अने छेल्ली आठमी संपदा सत्तर अक्षर प्रमाणनी छ / " अथवा अहीं गाथाना चोथा पादमा 'नवक्खरऽहमी दुपय छट्ठी' एवो पाठ समजवो / तेथी आठमी संपदा ‘पढमं हवइ मंगलं ' ए प्रमाणे नव अक्षर प्रमाणनी समजवी। छट्ठी संपदा 'एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो' एम बे पदनी समजवी / 1 सळंग बोलता बोलतां थाकी न जवाय तथा अर्थनी संगति सचवाय ए माटे वचमां ते ते पदो आगळ थोडी विश्रांति लेवानी होय छे। आवां विश्रांतिनां स्थानोने संपदा कहेवामा आवे छे / आ संपदाओमां केटलीकवार अनेक पदोनो समावेश होय छे तेथी एने 'महापद' पण कहेवामां आवे छे। 2 प्रस्तुत ग्रंथां आ पछी तुरत ज 'उपधानविधि छपायेल छे। 3 प्रस्तुत ग्रंथमा पृ० 450 पर 'प्रवचनसारोद्धार'नी आ गाथा छपायेल छे। 4 अहीं भाष्यनी जे गाथार्नु विवेचन चाले छे ते प्रस्तुत संदर्भनी शरुआतमा जे गाथा आपेली छे ते अभिप्रेत जणाय छ। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 विमाग] नमस्कार स्वाध्याय। च नवकारपञ्जिका-सिद्धचक्रादौ 'अंतिमचूलाइ तियं सोलऽठुनवक्खराजुयं चेव / जो पढइ भत्तिजुत्तो, सो पावइ सासयं ठाणं // ' एवं च वाचनाद्वयेऽपि त्रयस्त्रिंशदक्षरप्रमाणचूलिकासहितो नमस्कारो भणनीय इत्युक्तं भवति, तथा चोक्तं बृहन्नमस्कारफले ‘सत्त पण सत्त सत्त य, नवक्खर पमाण पयडपंचपयं / तित्तीसक्खरचूलं, सुमरह नवकारवरमंतं // ' सिद्धान्तेऽपि स्फुटाक्षरैः 'हवइ मंगलं' इति भणितम् , तथाहि महानिशीथचतुर्थाध्ययनसूत्रं"तहेव य तदत्थाणुगमियं इक्कारसपयपरिच्छिन्नं तिआलावगतित्तीसक्खरपरिमाणं 'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं' इय चूलं" ति ‘अहिज्जंति' इति 10 तत्र प्रकृतं, तदेवं 'हवइ मंगलं' इति अस्य साक्षादागमे भणितत्वात् प्रभुश्रीवज्रस्वामिप्रभृतिसुबहुबहुश्रुतसुविहितसंविमपूर्वाचार्यसंमतत्वाच्च पढमं हवइ मंगलमिति पाठेन अष्टषष्टिअक्षरप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः / तथा च महानिशीथेनमस्कारपंजिका तथा सिद्धचक्र वगेरेमां कयुं छे के "छेवटनी सोळ, आठ अने नव अक्षरनी त्रण चूलिकाओ सहित नवकारने भक्तिपूर्वक जे मनुष्य गणे छे ते शाश्वत स्थान-15 (मोक्ष)ने प्राप्त करे छे।" ___ आ प्रमाणे बन्ने वाचना मुजब तेत्रीश अक्षरनी चूलिकासहित नवकार गणवो जोईए एम फलित थाय छे / बृहन्नमस्कारफलमां कयुं छे के-“सात, पांच, सात, सात अने नव अक्षरना प्रमाणवाळा पांच पदो जेमां प्रगट छे तथा तेत्रीश अक्षरनी जेमां चूलिका छे तेवा नमस्कार महामंत्र- स्मरण करो।" सिद्धांतमां पण स्पष्ट अक्षरोमां 'हवइ मंगलं' एवो पाठ जणावेलो छ / महानिशीथसूत्रना' चोथा अध्ययनमां नीचे मुजब उल्लेख छे–“ते ज प्रमाणे तेना अर्थने अनुसरती अगियार पदनी त्रण आलावानी अने तेत्रीश अक्षरना परिमाणवाळी 'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं' ए चूलिकानो पाठ गणवो / " आ रीते 'हवइ मंगलं' एवो पाठ साक्षात् आगममा जणावेलो छे तेमज प्रभुश्री वज्रस्वामी वगेरे अनेक बहुश्रुत सुविहित संविन 25 पूर्षाचार्योए ए पाठने मान्य करेलो छे तेथी 'पढम हवइ मंगलं' एवो पाठ अडसठ अक्षरो प्रमाणमां ज नवकारमंत्र गणवो जोईए / महानिशीथसूत्रमा कयुं छे के 20 १'बृहन्नमस्कारफलस्तोत्र' प्रस्तुत ग्रंथमां 'पंचनमुक्कारफलथुत्तं' नामे पृ० 363 थी 378 सुधीमां छपायेल छ / तेमां आ 117 मी गाथा छ। - 2 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 40 पं० 18 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 52, पं. 5 थी पृ. 53, पं. 24, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत " एयं तु जं पंचमंगलमहासुअक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तस्स पिहब्भूयाहिं निजुत्ति-भास-चुण्णीहिं जहेव अशंतनाण-दसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणिसं, तहेव समासओ वक्खाणिजंतं आसि, अहऽन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ निज्जुत्ति-भास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ, इओ य वच्चंतेणं कालसमएणं महिड्डीपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने, तेणेसो 5 पंचमंगलमहासुअक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ, मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहिं, अत्थत्ताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थगरेहिं तिलोयमहिएहिं वीरजिणिंदेहिं पन्नविअंति, एस वुड्डसंपयाओ। इत्थ य जत्थ जत्थ पयं पएणाणुलागं सुत्तालावगं न संबज्झइ तत्थ तत्थ सुयहरेहिं कुलिहियदोसो न दायव्वु त्ति, किंतु जो सो एयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंधस्स पुवायरिसो आसी महुराए सुपासनाहथूहे, पनरसहिं उववासेहिं विहिएहिं सासणदेवीए मम अप्पिउ ति, तहिं चेव खंडाखंडीए 10 उद्देहियाइएहिं हेऊहिं बहवे पत्तगा परिसडिया, तहावि अच्चंतसुमहत्थाइसयं इमं महानिसीहसुअक्खंध कसिणपवयणस्स परमसारभूयं परं तत्तं महत्थं ति कलिऊण पवयणवच्छल्लत्तणेणं बहु भव्वसत्तोवयारयं च काउं तहा य आयहियट्ठयाए आयरियहरिभद्देणं जं तत्थायरिसे दिळं तं सव्वं समईए सोहिऊण लिहिअंति, "पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध( नवकार )नी जे आ व्याख्या छे ते खूब विस्तारथी अनंतगम अने अनंत पर्यायोथी सूत्रथी पृथक्भूत नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णि द्वारा-जेवी रीते अनंत 15 ज्ञानदर्शनधारक तीर्थंकरोए व्याख्या करेली हती तेवी ज रीते संक्षेपथी-चाली आवती हती; परंतु पडता काळने लीधे कोइक समये आ नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णिनो विच्छेद थई गयो / त्यारपछी केटलाक समये महाऋद्धिमा पदानुसारी लब्धिवाळा वज्रस्वामी नामना द्वादशान्त श्रुतज्ञानना धारक आचार्य उत्पन्न थया। तेमणे आ पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधनो उद्धार करीने मूळसूत्रनी अंदर लख्यो / मूळसूत्र ए सूत्रथी गणधरोए रचेलं छे अने अर्थथी अरिहंत 20 भगवंत, धर्मतीर्थंकर, त्रैलोक्यपूजित श्रीवीरजिनेश्वरे प्ररूपेलं छे। आ प्रमाणे वृद्ध संप्रदाय छे ( अर्थात् पूर्वाचार्योथी चाली आवती मान्यता छ / ) __आमां परस्पर एक पदनो बीजा पद साथे संबंध होय एवी रीते सळंग सूत्रना आलावा ज्यां ज्यां जोवामां न आवे त्यां त्यां बराबर लख्युं नथी एवो दोष श्रुतधरोए काढवो नहि; कारणके अचिंत्यचिंतामणि तुल्य आ महानिशीथश्रुतस्कंधनो जे प्राचीन आदर्श (प्रति ) मथुराना 25 सुपार्श्वनाथ भगवानना स्तूपमा हतो ते पंदर दिवसना उपवास करवाथी शासनदेवीए मने आप्यो, पण तेमां खंडित थई जवाथी तेमज उधेई वगेरे कारणोथी घणां पानां सडी गयां छे ( खंडित थई गयां छे ) तो पण अत्यंत महान अतिशयवाळा आ महानिशीथश्रुतस्कंधने समग्र प्रवचनना परम सारभूत परम तत्त्व तथा महा अर्थयुक्त समजीने प्रवचन उपरना वात्सल्यथी, वळी, घणा भव्य जीवोने उपकारक छे एम समजीने तेमज पोताना आत्माना कल्याण माटे आचार्य हरिभद्रे 30 ते आदर्शमा जे जोयुं ते बधुं पोतानी मति प्रमाणे शुद्ध करीने लख्युं छे। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / अन्नेहिपि सिद्धसेणदिवायर-वुड्डवाई-जक्खसेण-देवगुत्त-जसवण-खमासमणसीसरविगुत्त-नेमिचंद-जिनदासगणिखमग- सच्चसिरिपमुहेहिं जुगप्पहाणसुअहरेहिं बहु मन्नियमिणं " ति / ___ अन्यत्र तु संप्रति वर्तमानागमसूत्रमध्ये न कुत्राप्येवं नवपदाष्टसंपदादिप्रमाणो नमस्कार उक्तो दृश्यते, यतो भगवत्यादौ चैवं पञ्चपदान्युक्तानि___नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सव्वसाहूणं नमो। बंभीए लिवीए' इत्यादि। __क्वचित् 'नमो लोए सव्वसाहूणं' ति पाठ इति तवृत्तिः / प्रत्याख्याननिर्युक्तौ तु-नमस्कारसहितप्रत्याख्यानपारणप्रस्तावे चूर्णाविदमुक्तम्- नमो अरिहंताणं 5 भणित्वा पारयति, नवकारनियुक्तिचूर्णौ त्वेवमुक्तं, तथाहिअने बीजा पण सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमणना शिष्य 10 रविगुप्त, नेमिचंद्र, जिनदासगणि, क्षमक, सत्यश्री वगेरे युगप्रधान श्रुतधरोए एने बहुमान्य राखेल्छे।" - महानिशीथ सिवाय अत्यारे जे आगमसूत्रो वर्तमान छ एमां तो कोईपण स्थळे आ रीते नव पद अने आठ संपदा वगेरे प्रमाणवाळो नमस्कारमंत्र जोवामां आवतो नथी; कारणके भगवतीसूत्र वगेरेमां तो पांच ज पद कहेलां छे, जेमके- 'नमो अरहंताण, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सव्वसाहूणं, 15 नमो बंभीए लिवीए' वगेरे। '. तेनी ( अभयदेवमूरिए) रचेली वृत्तिमां' कहेलं छे के "कोईक प्रतिमा 'नमो लोए सव्वसाहूगं' पाठ पण मळे छे” प्रत्याख्याननियुक्तिमा नमस्कारसहित( नोकारशी )नु पञ्चक्खाण पारवाना प्रसंगमां चूर्णिमी आ प्रमाणे कर्तुं छे के "नमो अरिहंताणं 5 बोलीने पञ्चक्खाण पारे / नमस्कारनियुक्तिनी चर्णिमां तो आ प्रमाणे कयुं छे 20 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 1 . 2 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 8, पं. 12 3 भद्रबाहुखामिप्रणीत आवश्यकनियुक्तिमा 'प्रत्याख्यान' उपर जे नियुक्ति छे तेटलो भाग 'प्रत्याख्याननियुक्ति'ना नामथी ओळखाय छ। - 4 णमोकारं अकाऊणं जेमेउं ण वदृति तम्हा जेमणवेलाए भाणियव्वं-नमो अरहताणं मत्थएण वंदामो खमासमणो! णमोकार पारेमित्ति ।-आवश्यकचूर्णि ( उ. भाग) पृ० 315 / 5 नमो अरिहंताणं पछी 5 अंक लख्यो छे ते परथी 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहणं' ए पांच पद समजवानां होय एम लागे छे। 6 भद्रबाहुत्वामीरचित आवश्यकनियुक्तिमां नवकार उपर जे नियुक्ति छे तेटला भागने 'नमस्कारनियुक्ति' कहेवामां आवे छ / . 7 आवश्यकचूर्णिमां पृ० 504 मां जे पाठ छपायेलो छे तेमां 'नमो अरहताणं, सिद्धाणं, आयरियाणं, उवज्झायाणं, सव्वसाहूर्ण' ते प्रमाणे छ पद जणावेलां छे। . “सो पुण णमोकारो कति पदाणि ?, छ वा दस वा, तत्थ छप्पदाणिं णमो अरहताणं सिद्धाणं आयरियाणं उवज्झायाणं सव्वसाहूणं एते छप्पदा, इमाणि दस पदाणि-णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं एवं दस ।"-आवश्यकचूर्णि (पूर्व भाग) पृ० 504 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। [प्राकृत “सो नमुक्कारो कइ पयाणि दस वा छ वा / तत्थ छ पयाणि- 'नमो अरिहंत-सिद्धआयरिय-उवज्झाय-साहूँणं' ति, दश त्वेवं- 'नमो 1, अरिहंताणं 2, नमो 3, सिद्धाणं 4, इत्यादि," यत् पुनर्नमस्कारनिर्युक्तावशीतिपदमाना विंशतिर्गाथाः सन्ति यथा— 'अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ।' इत्यादयः ता नवकारमाहात्म्यप्रतिपादिकाः, न पुनर्नवकाररूपा भवितुमर्हन्ति, 5 बहुपदत्वात् तासां, नवकारस्य तु नवपदाद्यात्मकत्वात् / किश्च-तास्वपि गाथासु वर्षशतात् तवयाच्च पूर्वपूर्वतरप्रतिषु 'हवइ' इति पाठो दृश्यते, श्रीमलयगिरिणाऽप्यावश्यकवृत्तिं कुर्वता वृत्तिमध्ये ता गाथा 'हवइ ' इति पाठत एव लिखिताः, एतन्निश्चयार्थिना तवृत्तिनिरीक्षणीया, इति परमार्थ ज्ञात्वा कदाग्रहाभिनिवेशादिविलसितकल्पितं आगमानुक्तं 'होइ' इति मुक्त्वा साक्षात् परमागमसूत्रान्तर्गतं श्रीवज्र स्वामिप्रभृतिदशपूर्वधरादिबहुश्रुतसंविग्नसुविहितव्याख्यासमादृतं 'हवइ' त्ति पाठयुतं अष्टषष्टिवर्णप्रमाणं 10 परिपूर्ण नवकारसूत्रमध्येतव्यं, तच्चैवम् 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं / एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं // ' ___ अस्य च व्याख्यानं यदेव श्रीवज्रस्वाम्यादिभिः च्छेदग्रन्थादिमध्ये लिखितं तदेव भक्तिबहुमानातिशयतो विशेषतश्च भव्यसत्त्वोपकारकमिति दर्श्यते, तथाहि--- 15 "नमुक्कार ते नमस्कार केटला पदनो छ ? छ अथवा दस पद। तेमा छ पद आ प्रमाणे छे:-'नमो अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-साहूणं' अने दस पद आ प्रमाणे छे:-'१ नमो 2 अरिहंताणं 3 नमो 4 सिद्धाणं 5 नमो 6 आयरियाणं 7 नमो 8 उवज्झायाणं 9 नमो 10 सव्व साहूणं' नवकारनियुक्तिमा 80 पदना प्रमाणनी 'अरिहंतनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ' (गा० 923) वगेरे जे वीश गाथाओ जोवामां आवे छे ते नवकारतुं माहात्म्य प्रतिपादन 20 करनारी छे, परंतु ते नवकाररूपे समजवानी नथी; कारणके एमां घणां पदो छे, ज्यारे नवकारमा तो नव ज पद छे / वळी ए गाथामां पण सो वर्षे तथा बसो वर्षे पूर्वनी प्राचीन प्राचीनतर प्रतिओमां 'हवई' एवो पाठ जोवामां आवे छे / आचार्य श्रीमलयगिरिए पण आवश्यकनियुक्ति रचती वखते ते गाथाओने 'हवई' एवा पाठ साथे लखेली छे / आ बाबतनी जेमणे खातरी करवी होय तेमणे आवश्यकनियुक्ति जोई लेवी। माटे परमार्थथी आ प्रमाणे वस्तुस्थिति छ एम समजीने 25 (सुज्ञ मनुष्योए) बीजा कोईए कदाग्रह, अभिनिवेश वगेरेथी कल्पेलो तथा आगममां नहि कहेलो 'होई' पाठ त्यजी दईने परम आगमसूत्रमा साक्षात् जणावेलो तथा श्रीवज्रस्वामी वगेरे दश पूर्वधर वगेरे बहुश्रुत संविग्न सुविहित गीतार्थोए व्याख्या करीने मान्य करेलो 'हवई' पाठवाळो ज अडसठ अक्षर प्रमाणनो संपूर्ण नवकार आ प्रमाणे गणवोः 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व 30 साहूणं / एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं / ' आ नमस्कारमंत्रनी वज्रस्वामी वगेरेए छेदसूत्र वगेरे ग्रंथमा जे व्याख्या रची छे ते ज व्याख्या अमे अतिशय भक्ति तथा बहुमानथी प्रेराईने तेमज भव्य जीवोने विशेषतः उपकारक छे एम समजीने नीचे मजब जणावीए छीए: 1 जुओ-मलयगिरिरचित आवश्यकवृत्ति पृ० 511 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / . से भयवं ! किमयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स पंचमंगलमहासुअखंधस्स सुत्तत्थं पन्नत्तं ? गोयमा ! इय एयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूअस्स पंचमंगलमहासुअक्खंधस्स णं सुत्तत्थं पन्नत्तं, तं जहाजेणं पंचमंगलमहासुअक्खंधे से णं सयलागमंतरोववत्ती तिलतिल्ल 1 कमलमयरंद 2 सव्वलोअपंचत्थिकायमिव 3 जहत्थकिरियाणुवायसब्भूयगुणकित्तणे जहिच्छियफलपसाहगे चेव परमथुइवाए। सा य परमथुई केसिं कायव्वा ? सव्वजगुत्तमुत्तमाणं, सव्वजगुत्तमुत्तमे य जे केइ भूए, जे केइ भवंति, जे केइ भविस्संति ते / सव्वेवि अरहंतादओ चेव, नो णमन्ने त्ति, ते य पंचहा-अरिहंते 1 सिद्धे 2 आयरिए 3 उवज्झाए 4 साहुणो 5 / ___तत्थ एएसिं चेव गब्भत्थसब्भावो इमो, तं जहा-सनरामरासुरस्स णं सव्वस्सेव जगस्स अट्ठमहापाडिहेराइप्याइस उवलक्खि अणन्नसरिसमचिंतमप्पमेयं केवलाहिट्ठिअं पवरुत्तमत्तं अरहंत त्ति, 10 वंदणादि ते अरहंता आह च 'अरहं ति वंदणनमंसणाणि अरिहं ति पूअसक्कारं / सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुचंति // ' "(प्र०) 'भगवन् ! आ अचिंत्यचिंतामणि समा पंचमंगलमहाभुतस्कंधना सूत्रनो अर्थ शोछे ?' (उ० ) गौतम ! आ अचिंत्यचिंतामणि तुल्य पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधना सूत्रनो अर्थ आ lb प्रमाणे छे-जेम तलमां तेल छे, कमलमां मकरंद छे अने सकल लोकमां जेम पांच अस्तिकाय व्यापीने रहेला छे तेम पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध सर्व आगमोमां व्यापीने रहेलो छे, यथार्थ क्रियानुगत सद्भूत गुणोनी स्तुतिरूप छे, तथा यथेच्छित फळने सिद्ध करनार परम स्तुतिवाद छ / ' ___'आ परमस्तुति कोनी करवी जोईए ?' - सर्व जगतमा जे उत्तमोत्तम होय तेनी स्तुति करवी जोईए / सर्व जगतमा उत्तमोत्तम जे कोई 20 थया छे, थाय छे अने थशे ते बधा अरिहंत वगेरे ज छे / अरिहंत वगेरे सिवाय सर्व जगतमां बीजा कोई उत्तमोत्तम नथी। ते अरिहंत वगेरे पांच प्रकारे छे–अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु। . आ बधानो रहस्यभूत अर्थ आ प्रमाणे छे–मनुष्य, अमर तथा असुर सहित सर्व जगतमां जेओ आठ महाप्रातिहार्य वगेरे पूजातिशयथी उपलक्षित, बीजामां न होय तेवी, अचिंत्य 25 माहात्म्यवाळी तथा केवलज्ञानथी युक्त श्रेष्ठ उत्तमताने योग्य छे तेओ अरिहंत कहेवाय छ / " ' (महानिशीथसूत्र ) वंदन वगेरेने जे योग्य छे तेओ अरिहंत कहेवाय छे। (आवश्यकनियुक्तिमां') कडुं छे के-"वंदन, नमस्यन, पूजा, सत्कार तथा सिद्धिगमनने योग्य होवाथी अरहंत कहेवाय छे" ... 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 41, पं. 4 थी पृ. 42, पं. 15 आवश्यकनियुक्ति गा० // 921 // जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 132 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। [प्राकृत एतदर्थः- 'वंदण' त्ति–सामान्येन वचःकायादिकृतस्तुत्यवनामनादीनि, उक्तं च चूर्णी-प्रशस्तवागादीनां दानं वंदणं, नमस्यनानि अञ्जलिबन्धादिबहुमानादिप्रणिधानादिभिः सम्यग्मानादीनि, 'पूय' त्ति-गंधमाल्यादिभिः, उक्तं च उमास्वातिवाचकेन-पूजाश्च गन्धमाल्याधिवासधूपदीपाद्यैः' अधिवासो युगपद् गंधमाल्यादिभिः पूजाविशेषः / दृष्टश्चायमन्यत्राप्यागमे गंधमाल्यपूजादिभ्यः पृथग् , तथा च 5 द्वितीयोपाङ्गादौ " अग्गेहिं वरेहिं य गंधेहि मल्लेहिं य अच्चेइ 2 पुप्फारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणमित्यादि जाव करेइ / सत्कारो जुवलिकाभरणादिभिः / " ___ तथाभव्यत्वपरिपाकादिना परमार्हन्त्यमहिमोपयोगपूर्व सिद्धिगमनास्तेिभ्योऽर्हद्भयः नमः-नमस्कारो द्रव्यतो भावतश्च, मदीयो भवत्विति गम्यम् , भणितं च इत्थ नमु त्ति पयं दव्व-भावसंकोयरूवपूयत्थं / ___ करसिरनमाई दव्वे मण पणिहाणाई भाव नमो // " अहीं वंदन शब्दथी सामान्य रीते वचनथी करेली स्तुति तथा कायाथी करेलुं नमन वगेरे समजवां / चूर्णिमां 'कयुं छे के–“प्रशस्त वाणी वगेरेनुं जे दान ते वंदन अने हाथ जोडवा, बहुमान तथा प्रणिधान वगेरेथी सारी रीते जे सन्मान वगेरे करवू ते नमस्यन समजवू / गंध, माल्य वगेरेथी पूजा समजवी / उमास्वातिवाचके का छे के–“गंध, माल्य, अधिवास, धूप तथा दीप वगेरेथी 15 पूजा करवी / " आमां एकी साथे गंध अने माल्य वगेरेथी जे पूजा करवामां आवे ते अधिवास पूजा कहेवाय छ / आगममां पण अन्य स्थळे गंध, माल्य, पूजा वगैरेथी जुदो आ अधिवास नामनो पूजाविशेष जोवामां आवे छे / बीजा उपांग (राजप्रश्नीयसूत्र ) ,वगेरेमां नीचे मुजब उल्लेख छ : "अग्गेहिं वरेहिं य गंधेहिं मल्लेहिं य अच्चेइ। पुप्फारुहणं मल्लारुहणं गंधारहणमित्यादि जाव करेइ / " जुवलिका तथा आभरण वगेरेथी जे पूजा करवामां आवे तेने सत्कार समजवो। * तथा भव्यत्वना परिपाक वगेरेथी परम आर्हन्त्य महिमाना उपयोगपूर्वक सिद्धिगमनने जे योग्य छे ते अरिहंत कहेवाय छे / ते अरिहंतोने द्रव्य तथा भावथी मारो नमस्कार हो / (आवश्यकनियुक्तिमां) कहुं छे के-"अहीं 'नमो अरिहंताणं' मा 'नमो' ए पद द्रव्यसंकोच 25 तथा भावसंकोचरूपी पूजाना अर्थमां छे / द्रव्यसंकोच एटले हाथ, मस्तक आदि अवयवोनो संकोच अने भावसंकोच एटले मननुं प्रणिधान वगेरे।" 20 . 1 अरिहंति वंदणणर्मसणाणि // 9-35 // 921 // वंदणं सिरसा, णमंसणं वयसा, पूया वत्थादीहि, सक्काशे अन्भुट्ठादीहिं / आवश्यकचूर्णि पूर्वभाग पृ० 537 - 2 राजप्रश्नीयसूत्र 43 मां आ पाठ छूटो छूटो नीचे मुजब मळे छ:-"पुप्फारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणंचुण्णाहणं वन्नारुहणं वत्थारुहणं आभरणारुहणं करेइ. आ पाठ पछी थोडे दूर गया बाद नीचे प्रमाणे पाठ छ-"सुरभिणा गधोदएणं पक्खालेइ पखालित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि य मल्लेहि य अञ्चइ धूवं दलया।" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / ____ नमोयोगे चतुर्थीप्राप्तौ षष्ठीह प्राकृतवशाद , बहुवचनं सर्वकालिकाहत्प्रतिपत्त्यर्थम् / तत्रातीताः केवलज्ञानिप्रभृतयः , अनागताः पद्मनाभादयः, वर्तमाना ऋषभादयः सीमन्धरादयो वा, अथवा अहा॑तेभ्यः-स्तवनादियोग्यानां सर्वेषामपि मध्ये प्रधानेभ्यः, सर्वगुणसम्पूर्णतया सर्वोत्तमत्वात् , आह च 'देवासुरमणुएसुं, अरिहा पूआसुरुत्तमा जम्हा / '' तथा 'अरिहा जुग्गा उचिय त्ति सुगुणपुन्नत्तणा थयाईणं / तेसु वि अन्ता पगरिसपत्ता जमिहेरसानन्ने // ' भीमभवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपुरपथप्रदर्शकत्वेन सार्थवाहादिभ्यः परमोपकारित्वाच्च, उक्तं च नियुक्तौ-- " अडवीइ देसिअत्तं, तहेव निजामया समुद्दस्स / छक्कायरक्खणट्ठा, महगोवा तेण वुच्चंति // 'नमो' शब्दना योगमां (संस्कृत) व्याकरणना नियम मुजब चतुर्थी विभक्ति थवी जोईए, 10 छतां ( 'अरिहंताणं' शब्दमां) प्राकृतभाषा होवाने लीधे षष्ठी विभक्तिनो प्रयोग करेलो छ / 'अरिहंताणं' मां बहुवचनथी सर्व काळना अरिहंतो समजवाना छे / तेमां अतीतकाळना केवळज्ञानी वगेरे तीर्थंकरो समजवा / 'पद्मनाभ' वगेरे भविष्यकाळना अने 'ऋषभदेव' वगेरे तथा 'सीमंधर: खामी' वगेरे वर्तमानकाळना तीर्थंकरो समजवा / अथवा अरहताणंनो अर्थ 'अन्तेिभ्यः' एम लेवो। अर्थात् 'अहं' एटले 'स्तुति' आदिने योग्य जे पुरुषो ते बधामां ( 'अंत' एटले ) श्रेष्ठ एवा अरिहंत 15 भगवंतोने नमस्कार हो; कारणके तेओ सर्व गुणोथी संपूर्ण होवाने लीधे सर्वोत्तम छ / (आवश्यकनियुक्ति गाथा नं. 922 मां) कयुं छे के "देवो करतां पण उत्तम होवाने लीधे देव, असुर तथा मनुष्योथी कराती पूजाने प्राप्त करे के तेथी अरिहंत कहेवाय छ / " तथा कयुं छे के–“सद्गुणोथी पूर्णपणाने लीधे जे पुरुषो स्तुति आदिने योग्य होय तेओ 'अहं' कहेवाय छे अने तेमां अंत एटले प्रकर्षने पामेला होवाथी अरिहंतो 20 'अन्ति' पण कहेवाय छे; कारणके तेमना जेवा बीजा कोई श्रेष्ठ पुरुषो होता नथी / " - भयंकर संसाररूपी अटवीमां परिभ्रमण करवाथी भय पामेला प्राणीओने अनुपम आनंदरूप जे परमपुर ( मोक्षना ) मार्गने दर्शावनार होवाने लीधे अरिहंत भगवंतो सार्थवाह वगेरेथी पण परम उपकारी छे; तेथी तेओ जगतमा सर्वोत्तम छे / ( आवश्यक ) नियुक्तिमां कडं छे के "अरिहंतोए (संसाररूप जंगलमां भूला पडेला मानवीओने) मार्ग बताव्यो ते कारणे 25 तेओ ‘मार्गदर्शक' कहेवाय छे / तेओ संसाररूप समुद्रमां डूबता अगर खोटवाई गयेला नावने पार पहोंचाडवामा कर्णधारपणुं करता होवाना कारणे 'निर्यामक' कहेवाय छे अने ते भगवंतो छ काय जीवोना रक्षण माटे प्रयत्न करता होवाने कारणे 'महागोप' कहेवाय छे / ___1 आवश्यकनियुक्ति पूर्व भाग गा० 922 / आखी गाथा माटे जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 133 [ देवासुरमनुजेभ्यः पूजामर्हन्ति-प्राप्नुवन्ति तद्योग्यत्वात् , सुरोत्तमत्वादिति युक्तिः-आ. नि. गा. 922 टीका ] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत अडविं सपच्चवायं, वोलित्ता देसिओवएसेणं / पावेंति जहिट्ठपुरं भवाडविं पी तहा जीवा // . पावेंति निव्वुइपुरं, जिणोवइटेण चेव मग्गेणं / अडवीइ देसियत्तं, एवं नेयं जिणिंदाणं // जह तमिह सत्थवाहं, नमइ जणो तं पुरं तु गंतुमणो / परमुवगारित्तणओ, निविग्वत्थं च भत्तीए // अरिहो उ नमुक्वारस्स भावओ खीणरागमयमोहो। मुक्खत्थीणं पि जिणो, तहेव जम्हा अओ अरिहा // 5 संसारअडवीए, मिच्छत्तऽन्नाणमोहिअपहाए / जेहि कयं देसिअत्तं, ते अरिहंते पणिवयामि // सम्मइंसणदिट्ठो, नाणेण य तेहिं सुट्ठ उवलद्धो / चरणकरणेण पहओ, निव्वाणपहो जिणिंदेहिं॥ सिद्धिवसहिमुवगया, निव्वाणसुहं च ते अणुप्पत्ता / सासयमव्वाबाहं, पत्ता अयरामरं ठाणं // पाविंति जहा पारं सम्मं निजामया समुद्दस्स / भवजलहिस्स जिणिंदा, तहेव जम्हा अओ अरिहा // मिच्छत्तकालियावायविरहिए सम्मत्तगज्जभपवाए / एगसमएण पत्ता, सिद्धिवसहिपट्टणं पोआ // 10 निजामगरयणाणं, अमूढनाणमइकण्णधाराणं / वंदामि विणयपणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं // अनेक विघ्नोवाळी अटवीने ओळंगवामां साचा मार्गनो उपदेश करवाथी जेम जीवो पोताने इष्ट एवा नगरमां पहोंचे छे तेम भवरूप अटवीमांथी पण मुक्तिरूप नगरीमा पहोंचे छ / जिनेश्वरोए उपदेशेला मार्गथी जीवो निर्वृत्तिपुर-मोक्षपुरमा पहोंचे छ / आथी जिनेश्वरो संसाररूप अटवीमां उपदेशकरूप छे, एम समजाय छे / 15 जेवी रीते ( कोई ) सार्थवाह ते ते नगरमा जवानी इच्छावाळा मनुष्योने मार्ग बताववाना कारणे ते मनुष्यो सार्थवाहने भक्तिपूर्वक नमे छे तेम राग, द्वेष अने मोह जेना नष्ट थई गया छे एवा जिनेश्वर भगवान पण मोक्षार्थीओने निर्विघ्नपणे मोक्षमार्गे लई जवाना कारणे भावथी नमस्कारने योग्य छे / ए ज कारणे तेओ अर्हत्-अरिहंत कहेवाय छे। ( तेथी) मिथ्यात्व अने अज्ञानथी मोहित बनेल पंथवाळी संसाररूप अटवीमां जेमणे 20 उपदेशकपणुं कयु छे ते अरिहंतोने हुं नमस्कार करूं छु। ___ श्रीजिनेश्वर भगवंतोए सम्यग्दर्शनथी जोयेलो, ज्ञानथी सारी रीते जाणेलो अने चरणकरण वडे सेवेलो एवो निर्वाणमार्ग छे / . सिद्धिवसतिए पहोंचीने तेमणे (जिनेश्वरोए) जे शाश्वत बाधा-पीडा रहित, अजर अने अमर स्थान छे तेवा निर्वाणसुखने प्राप्त कर्यु छ / के समुद्रमा वहाणना निर्यामको एटले कर्णधारो सारी रीते पार पहोंचाडे छे ते रीते जिनेश्वरो पण भवरूप समुद्रनी पार पहोंचाडे छे तेथी तेओ अरिहंत-नमस्कारने योग्य छे, एम कहेवाय छ / ___ समुद्रमा जेम कालिकावात न होय पण गर्जभनो अनुकूळ वायु होय तो कुशळ कर्णधारो साथेनु, छिद्र विनानुं वहाण इच्छित नगरे पहोंचे छे तेम मिथ्यात्वरूप कालिकावातथी रहित अने सम्यक्त्वरूप गर्जभ वायुनी अनुकूळताथी एक ज समयमां वहाणो सिद्धिवसतिरूप नगरने पहोंचे छ / 30 यथार्थ ज्ञान अने मति ए ज जेमना कर्णधार स्वरूप छे अने जेओ त्रिदंड (मन, वचन अने कायाना दंड )थी रहित छे एवा निर्यामकरत्नस्वरूप अरिहंतोने त्रण प्रकारे (मन, वचन अने कायाथी ) विनयथी नमीने वंदन करूं छु / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग नमस्कार स्वाध्याय / पालेति जहा गावो, गोवा अहि (इह ? ) सावयाइदुग्गेहिं / पउरतणपाणि आणि य, वणाणि पावेंति तह चेव // जीवनिकाया गावो, जं ते पालंति ते महागोवा / मरणाइ भयाउ तहा निव्वाणसुहं (वणं ?) च पावंति // तो उवगारित्तणओ, नमोऽरिहा भवियजीवलोगस्स / सव्वस्सेह जिणिंदा, लोगुत्तमभावओ तह य // " उपदेशित्वादेव च प्रथममर्हतां नमस्कारः, आह च--- " अरिहंतुवएसेणं, सिद्धा नजंति तेण अरिहाई / " 2 अथवा अरिहंताणं ति पाठः, तत्राह-निम्महिय-निहय-निद्दलिय-पेल्लिय-निट्ठविअ-अभिभूअसुदुज्जयासेसअट्ठपयारकम्मरिउत्ताओ वा अरिहंता / ' अरुहंता वा पाठः, असेसकम्मक्खएणं निद्दड्वभवंकुरत्ताओ न पुणेह रुहंति-जम्मति उववज्जंति वा अरुहंता, एवमेए अणेगहा पन्नविजंति परूविजंति आघविजंति पट्टविजंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति। जेम गोवालियो गायोनुं सर्प, जंगली पशुओ वगेरेना कष्टोथी रक्षण करे छे अने घास 10 तेमज पाणीथी भरेलां जंगलमां लई जाय छे तेम जीवसमूहरूप गायो- मरण वगेरे भयोथी जिनेश्वरो रक्षण करे छे अने तेमने निर्वाणस्वरूप वनमा लई जाय छे / ए रीते जिनेश्वरो सर्व भव्य जीवलोकनो उपकार करता होवाथी लोकोत्तम पुरुषनी भावनाथी नमस्कारने योग्य छे।” ____ उपदेशक होवाने लीधे प्रथम अरिहंतने नमस्कार करवामां आवे छे ( आवश्यकनियुक्ति गा. 1021 ) मां कह्यु छ के–'अरिहंतना उपदेशथी ज सिद्धोनुं ज्ञान थाय छे तेथी पंचपरमेष्ठिमां 15 अरिहंतो आदि (प्रथम) छे / " अथवा 'अरिहंताणं' एवो पण पाठ छे / ते संबंधमां ( महानिशीथसूत्रमा ) कहुं छे के-"दुःखे करीने समजी शकाय एवा आठ प्रकारना कर्मरूपी समग्र शत्रुओने मथी नाख्या होवाथी, हणी नाख्या होवाथी, दळी नाख्या होवाथी, पीली नाख्या होवाथी, खलास करी नाख्या होवाथी अने पराजित कर्या होवाथी तेओ अरिहंत पण कहेवाय छ / " ___ 'अरुहंताणं' एवो पाठ पण छे। सर्व कर्मोनो क्षय थई जवाथी संसारना अंकुराओ बळी गया होवाने लीधे जेओ फरीवार ऊगता नथी अर्थात् जन्म लेता नथी, उत्पन्न थता नथी तेओ 'अरुहंत' पण कहेवाय छे / आ प्रमाणे अनेक रीते तेओनी प्रज्ञापना, प्ररूपणा, उपदेश, प्रस्थापना, निदर्शन तथा उपदर्शन कराववामां आवे छे। (अर्थात् अनेकरीते तेमनी व्याख्या करवामां आवे छे / ) 20 25 1 आवश्यकनियुक्ति पूर्व भाग गा० 904 थी 917 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 127 थी 130 / 2 आवश्यकनियुक्ति गा० 1021 / आखी गाथा माटे जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 159 / 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 42, पं. 17-18 / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत तच्चानेकविधत्वमेवं भगवत्यादावुक्तं ___'अरहोन्तयः' अविद्यमान रह:- एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च- मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरस्तेभ्यः, यदाह " नत्थि व रहो य छन्नं, अंतो मज्झं च सयलवत्थूणं / पर-अवरभागवेइत्तणेण जेसिं ति अरहंता // " अथवा अत्यर्थ राजन्ते समवसरणादिबहिर्लक्ष्म्या सज्ज्ञानाद्यान्तरलक्ष्म्या वा, रान्ति सद्दर्शनादि, घ्नन्ति च मोहादीन् ,गच्छन्ति वा तदुपकृत्यै ग्रामानुग्रामं तन्वन्ति च धर्मदेशनां, तायन्ते तारयन्ति वा सर्वजीवानिति निरुक्तिवशादरहन्तास्तेभ्यः, अथवा अरहयद्भ्यः प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात्, यद्वा अरहयद्भयः सिद्धिगतावप्यनन्तज्ञानमयत्वाद् 10 आत्मस्वभावमत्यजद्भ्यः ‘रह त्यागे' इति वचनात् , अनेकार्थत्वाद् वा धातूनामवस्थित्यर्थे, आ अनेक रीते जे व्याख्या करवामां आवे छे ते भगवती( सूत्रनी वृत्ति) वगेरेमां नीचे मुजब जणावेली छे : ''अथवा अहीं 'अरहताणं' नो 'अरहोन्तर्व्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ / 'रहः' एटले एकान्तरूप गुप्त प्रदेश अने 'अंतर' एटले पर्वतनी गुफा वगेरेनो मध्यभाग / भगवान सर्वज्ञ 15 होवाने लीधे जगतनी सर्व वस्तुओ पैकी कोईपण वस्तु एमनाथी गुप्त होती नथी, तेथी भगवानने 'रहः' तथा 'अंतर्' न होवाथी भगवान 'अरहोन्तर' कहेवाय छे / आवा 'अरहोन्तर्' ( अरहंत) भगवानने नमस्कार हो / " कहुं छे के–“जेमने कशुं छानुं नथी तेमज समग्र वस्तुओना पर-अपर भागोने जाणता होवाने लीधे जेमने कई मध्य नथी तेओ 'अरहंत' कहेवाय छ / " अथवा समवसरण आदि बहारनी शोभाथी तेमज साचा ज्ञानरूप आंतरिक शोभाथी जेओ 20 अत्यंत शोभे छे तथा मोह वगेरेने जेओ हणे छे तेओ 'अरहंत' कहेवाय छे / अथवा जेओ सर्व जीवोना उपकारने माटे एक गामथी बीजे गाम विचरे छे, धर्मदेशना आपे छे, सर्व जीवोनुं रक्षण करे छे तथा तेमने तारे छे तेओ 'अरहंत' कहेवाय छे / अथवा मोक्षमां गया पछी पण अनंत ज्ञानमय होवाने लीधे पोताना आत्मस्वभावने नहीं त्यजता तेवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा 'अरहताणं' नो अहीं 'अरयङ्ग्यः' एवो अर्थ समजवो / अर्थात् रागनो क्षय 25 थयो होवाथी प्रकृष्ट राग तथा द्वेषना कारणभूत अनुक्रमे मनोहर के अमनोहर विषयनो संपर्क थवा छतां पण कोईपण पदार्थ उपर आसक्ति नहीं पामता एवा अरहंत भगवंतोने मारो नमस्कार हो / अथवा 'रह्' धातुनो 'त्याग' एवो पण अर्थ थाय छे / एटले मोक्षमां गया पछी पण अनंत ज्ञानमयपणुं तेमने विद्यमान होय छे तेथी आत्मस्वरूपनो त्याग नहीं करता अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा धातुना अनेक अर्थो थता होवाथी 'रह्' धातुनो 'अवस्थान' एवो अर्थ समजवो / 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ॰ 2, पं. 13 थी पृ. 3, पं. 22 / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। अरहयद्यः सर्वकर्मक्षयानन्तरसमय एव लोकाग्रगमनाद् भवमध्येऽतिष्ठद्भयः, भणितं च " न रहन्ति व न चयन्ती नाणाइ सिवेऽवि तेउ अरिहंता / / न रहन्ति न चिट्ठन्ति य भवम्मि जं तेण अरिहंता // " यदा ‘अरथान्तेभ्यः' अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च-विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ताः ‘खघथधभाम्' इतिसूत्रात् थस्य हत्वे अरहंता, भणितं च- 5 “संगुवलक्खणभूओ रहो अ जाणं न जेसि अंतो य / नासो जराइउवलक्खणं तु ते हंति अरहंता // " अरभमानेभ्यो वा- अतुच्छस्वच्छतादिभावमयत्वेन राभसिकवृत्त्यादिनिवृत्तेभ्यः इत्यादिव्याख्यान्तराण्यपि भावनीयानि। अरिहंताणमिति वा पाठे इन्द्रियविषयाद्यरिहन्तृभ्यः, न्यगादि च--- 10 " इंदियविसयकसाए, परीसहे वेयणा य उवसग्गे / रागद्दोसे कम्मे, अरी हणंतीति अरिहंता // " अर्थात् 'अरहयद्भ्यः' एटले सर्व कर्मनो क्षय थया पछी तरतना समये लोकना अग्रभागे जता होवाथी जेओ संसारनी अंदर रहेता नथी तेवा अरहंत भगवंतोने मारो नमस्कार हो / कयुं छे के: “मोक्षमां गया पछी ज्ञानादिने त्यजता नथी ते अरिहंत कहेवाय छे तथा संसारमा रहेता 15 नथी तेथी पण तेओ अरिहंत कहेवाय छ / " * अथवा अहीं 'अरहंताणं' नो 'अरथान्तेभ्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छे। 'रथ' शब्दनो उपलक्षणथी 'सर्व प्रकारनो परिग्रह' एवो अर्थ समजवो / 'अंत' एटले 'विनाश' तथा उपलक्षणथी (जन्म) जरा वगेरे समजवां / अर्थात् 'रथ' एटले 'सर्व प्रकारनो परिग्रह' अने 'अंत' एटले जन्म-जरा-मृत्यु जेमने नथी तेओ 'अरथान्त' कहेवाय छे / 'खघथधभाम्' ए प्राकृत सूत्रथी 'थ' 20 नो 'ह' थवाथी 'अरथान्त' नुं 'अरहंत' एवं रूप बने छ / कयुं छे के___ "परिग्रहना उपलक्षणभूत जेमने 'रथ' एटले 'वाहन' नथी अने जरा वगेरेना उपलक्षणभूत जेमने अंत (एटले नाश) नथी ते अरहंत कहेवाय छ / " अथवा 'अरभमानेभ्यः' एवो पण अर्थ नीकळे छ / अर्थात् अत्यंत श्रेष्ठ स्वच्छता वगेरे भावोवाळा होवाथी जेओ राभसिक वृत्ति ( उतावळियापणुं ) वगेरेथी निवृत्त थयेला छे तेमने मारो 25 नमस्कार हो / आ वगेरे बीजी व्याख्याओ पण समजी लेवी / अथवा 'अरिहंताणं' ए पाठमां इंद्रिय, विषय वगेरे शत्रुओने हणनारा अरिहंत भगवंतोने मारो नमस्कार हो-ए प्रमाणे अर्थ समजवो / कह्यु छ के___ "इंद्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना, उपसर्ग, राग, द्वेष तथा कर्मरूपी शत्रुओनो नाश करे छे ते अरिहंत कहेवाय छ / " 30 +जुओः-'श्रीसिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासनम्' अध्याय 8, पाद 1, सूत्र // 187 // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्रार्फत अरिणा वा धर्मचक्रेण भान्तस्तेभ्यः, अरिसमुपलक्षिताखिलहतहेतिसंहतिहानिकृद्भयो वा, आह च "अरिणा व धम्मचक्केण, भंति सोहंति ते उ अरिहंता / अरिउवलक्खियसत्थे जहंति व चयंति अरिहंता // " 5 'अरुहंताणं' ति तु पाठे "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः / कर्मबीजे तथा दग्धे, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः (न रोहति भवाङ्कुरः) // " / अरुरुपलक्षितपीडादिकृद्रोगादि तत्कारणभूत कर्मादि च नन्ति वा अरुहंतारः तेभ्यः अरुहन्तृभ्यः, अरुन्धद्भयो वा आवरणाभावेन पुनर्भवेऽवरोधाभावादित्यादि / 10 तथा 'नमो सिद्धाणं परमानन्दमहूसवमहाकल्लाणनिरुवमसुक्खाणि सिद्धाणि निप्पकंपसुक्कज्झाणाइअचिंतसत्तिसामत्थओ सजीववीरिएणं जोगनिरोहणाइणामहापयत्तेणमेसिं ति सिद्धा 1, अट्ठपयारकम्मक्खएण मथवा 'अरि'' एटले धर्मचक्रवडे शोभता अरिहंत भगवंतने नमस्कार थाओ / अथवा अहीं अरि शब्द उपलक्षणरूप छे अर्थात् 'अरिं' एटले जे सर्व विनाशक शस्त्रो तेना समुदायनो त्याग करनारा ते अरिहंत कहेवाय छ। कयुं छे के–“अरि एटले धर्मचक्रथी जेओ शोभे छे अने 15 अरिथी उपलक्षित जे शस्त्र तेनो त्याग करे छे ते अरिहंत कहेवाय छ / " _ 'अरुहंताणं' ए पाठमां (आ प्रमाणे अर्थ समजावो के ‘फरीथी जन्म नहि धारण करता' अरुहंत भगवंतने मारो नमस्कार हो। कयुं छे के-) "जेम बीज अत्यंत बळी गया पछी अंकुरो उत्पन्न थतो नथी ते प्रमाणे कर्मबीज बळी गया पछी संसाररूपी अंकुरो प्रगट थतो नथी।" अथवा 'अरु' ए उपलक्षणरूप छे एटले पीडा वगेरे करनार रोगादि अने तेना कारणभूत 20 कर्मादिनो नाश करे छे ते अरुहंत-तेमने मारो नमस्कार हो। अथवा 'अरुहंताणं' नो अर्थ 'अरुन्धयः' थाय छे एटले के आवरणना अभावने लीधे अवरोध नहि करता अरुहंत भगवानने मारो नमस्कार हो; कारणके फरीथी संसारमा तेमनो अवरोध होतो नथी / ...... वगेरे अनेक अर्थो थाय छे। नमो सिद्धाणं25 "निष्प्रकंप (अचल ) शुक्लध्यान वगैरेनी अचिंत्य शक्तिना सामर्थ्यथी सजीव वीर्य वडे योगनिरोध वगेरेथी महाप्रयत्ने परम आनंदरूप, महा उत्सवरूप, महा कल्याणरूप निरुपम सुखो जेमने सिद्ध थया छे ते 'सिद्ध' कहेवाय छे। अथवा आठ प्रकारना कर्मोनो क्षय 1 हेतिः अस्त्रम्, हतिः शस्त्रं विघ्नं वा, संहतिः विनाशः / 2 'अर' एटले आरा अने आरा जेमां होय ते 'अरि' अथवा 'चक्र'। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / वा 'सिद्धं सज्झमे एसिं ति सिद्धा 2, सियं-बद्धं कम्मं आज्झायं-भसमीभूयमेएसिमिति वा सिद्धाः 3, अत्र गाथा " दीहकालरयं जंतु कम्मं से सिअमट्टहा / सिअं धंतंति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजांयइ // " सिद्धे निट्ठिए पहीणे सयलपओयणजाए कयं वा एएसिमिति वा सिद्धा // 4 // एवमेए इत्थी- 5 पुरिस-नपुंसग-मुणिलिंग-अन्नलिंग-गिहिलिंग-पत्तेयबुद्ध-बुद्धबोहिय जाव णं कम्मक्खयसिद्धाइभेएहि णं अणेगहा पन्नविजंति इत्यादि, अत्र गाथा "तित्थातित्थ-जिणाजिण-गिहि-ऽन्नमुणिलिंग-थी-नर-नपुंसा / पत्तेय-सयंबुद्धा बुद्ध-बोहिय अणेग-इग-सिद्धा // " 10 थवाथी जेमने साध्य 'सिद्ध' थयेलुं छे ते सिद्ध कहेवाय छे / अथवा बांधेलु कर्म जेमनुं भस्मीभूत थई गयुं छे ते सिद्ध कहेवाय छे' (महानिशीथसूत्र ) ( आवश्यकनियुक्तिमां) गाथा छ के-"दीर्घस्थितिवाळु आठ प्रकारनुं बांधेलु जे कर्म तेने ध्यानरूपी अग्निथी भस्मीभूत कर्यु होवाथी सिद्धने सिद्धपणुं प्राप्त थाय छ / " "अथवा जेमनां सकल प्रयोजनो अने कार्य परिपूर्ण थयां छे ते सिद्ध कहेवाय छे / आ 15 .प्रमाणे स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध, नपुंसकलिंगसिद्ध, मुनिलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गृहस्थलिंगसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध यावत् कर्मक्षयसिद्ध वगेरे भेदोथी अनेक प्रकारे सिद्ध भगवंतोनी प्ररूपणा करवामां आवे छे / " ( महानिशीथसूत्र ) आ संबंधमां आ प्रमाणे गाथा जोवामां आवे छे "तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, जिनसिद्ध अजिनसिद्ध, गृहलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, मुनिलिंग-20 सिद्ध, स्त्रीसिद्ध, पुरुषसिद्ध, नपुंसकसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध, स्वयंबुद्धसिद्ध, बुद्धबोहितसिद्ध, अनेकसिद्ध, एकसिद्ध-एम अनेक प्रकारना 'सिद्धो छ / " 1 मूळमां आ पाठ 'सिद्धी सद्धाम' छ / तेने महानिशीथसूत्रने आधारे उपर मुजब सुधारेल छ / 2 आवश्यकनियुक्ति गा. 953 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 143 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 42, पं. 22 थी 25 4 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 42, पं. 26 थी 28 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। [प्राकृत प्राग्वद् विशेषाद् व्याख्या इमा / यथा- 'षिधू गत्याम् ' षेधन्ति स्म-अपुनरावृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन् , अथवा 'षियूं च संराद्धौ' सिद्धयन्ति स्म-निष्ठितार्था भवन्ति स्म, यदिवा 'पिधू शास्त्रमाङ्गल्ययोः' सेधन्ति स्म-शासितारोऽ भूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धा-नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् 5 प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , उक्तं च-- - "ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसौधमूर्ध्नि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे // " तेभ्यो नमः इत्यादि प्राग्वत् / नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञान-सुख-वीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषय प्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति / 10 तथा 'नमो आयरियाणं' अट्ठारससीलंगसहस्साहिट्ठियतणू छत्तीसइविहमायारं जहट्ठियमगिलाए अहन्निसाणुसमयं आयरंति पवत्तयंति आयरिया 1, ___ 'अरिहंत' पदमां जेम अनेक प्रकारे व्याख्या करी हती तेम 'सिद्ध' पदनी व्याख्या पण नीचे मुजब अनेक प्रकारे थाय छे; जेमके: ___षिध्' धातुनो अर्थ 'गति' थाय छे / एटले जेओ फरीथी पाछा फरवू न पडे ए रीते 15 मोक्षनगरीमां गया छे ते 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा 'षिध्' नो 'संराद्धि' अर्थ थाय छे एटले जेओ निष्ठितार्थ ( कृतार्थ ) थयेला छे तेओ 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा 'षिध्' धातुनो अर्थ 'शास्त्र' अने 'मांगल्य' थाय छे एटले जेओ शासक थया अने जेओ मांगल्यरूपताने पाम्या ते 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा सिद्ध एटले 'नित्य'; कारणके तेमनी स्थिति अनंत होय छे। अथवा सिद्ध एटले प्रख्यात; कारणके भव्य जीवो एमना गुणसमूहने सारी रीते जाणता होय छे / कयुं छे के20 "बांधेलुं प्राचीन कर्म जेमणे बाळी नाख्युं छे, जेओ मोक्षरूपी महेलनी टोच उपर जईने बेठेला छे, जेओ प्रसिद्ध छे, जे अनुशासन करनार छे अने जेओ कृतार्थ छे ते सिद्ध भगवान मने मंगल करनारा थाओ।" आवा सिद्ध भगवंतोने मारो नमस्कार हो / सिद्ध भगवंतो अविनाशी ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य वगेरे गुणोथी युक्त होवाने लीधे तेमना प्रति उत्कृष्ट आनंद उत्पन्न थाय छे / आ रीते तेओ आनंदने उत्पन्न करनारा होवाथी भव्य जीवोने अत्यंत उपकार 25 करनारा छे / तेथी सिद्ध भगवंतो नमस्करणीय छ / नमो आयरियाणं "अढार हजार शीलांगने धारण करनारा छत्रीश प्रकारना आचारने यथास्थित रीते ग्लानि विना रात अने दिवस प्रतिसमय जेओ आचरे छे अने प्रवर्तावे छे ते 'आचार्य' कहेवाय छे" (महानिशीथसूत्र) 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 11-12 / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] . . नमस्कार स्वाध्याय / अत्र गाथा " नाणाई छत्तीसं तस्सायरणा पयासणाओ अ / जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य॥" परमप्पणो अ हियमायरंति वा आयरिया 2, सञ्वसत्ते सीसगणाण वा हियमायरंति आयरिया 3, “जिणपहअपंडियाणं पाणहराणं पि पहरमाणाणं / न करती पावाइं पावस्स फलं वियाणंता // " पाणपरिच्चाएऽवि पुढवाईणं समारंभ. नायरंति नारभंति नाणुजाणंति वा आयरिया 4, सुट्ठ अवरुद्धे वि न कस्सइ मणसावि पावमायरंति त्ति वा आयरिया 5, एवमेए नाम-ट्ठवणाईहिं अणेगहा पन्नविजंति इत्यादि.६ / ____ तत्र प्राग्वद् अर्थविशेषः, आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यते- सेव्यते जिनशासनार्थोप-10 देशकतया तदाकाटिभिरित्याचार्याः, उक्तं च (आव. नि. नी 995 मी) गाथामां कहुं छे के- "ज्ञान वगेरे छत्रीश वस्तुओर्नु आचारण करता होवाथी तेमज उपदेश देता होवाथी जे भाव आचारथी युक्त होय ते 'भावाचार्य' कोवाय छे।" ____ "अथवा पारकाना अने पोताना हितने जे आचरे छे ते 'आचार्य' कहेवाय छे / अथवा 15 सर्व जीवो अने शिष्यसमुदायतुं हित आचरे ते आचार्य" (महानिशीथसूत्र) (कयुं छे के-) "जिनमार्गने नहि जाणनारा, बीजानुं प्राणहरण करनारा अने प्रहार करनारा जीवो प्रत्ये पापना फळने जाणनारा ( आचार्य ) पापाचरण करता नथी।" “प्राण जाय तो पण पृथ्वीकायिक आदि जीवोनो जेओ आरंभ-समारंभ करता नथी अने तेनी अनुज्ञा पण आपता नथी ते आचार्य / कोईए खूब अपराध को होय तो पण तेना उपर 20 मनथीए जेओ पापी आचरण करता नथी ते 'आचार्य' कहेवाय छे / आ प्रमाणे नाम-स्थापना वगेरे अनेक प्रकारे आचार्यनी प्ररूपणा करवामां आवे छे।” (महानिशीथसूत्र) पहेलांनी जेम अहीं अर्थविशेष आ प्रमाणे छ:-"जिनशासनना अर्थोना उपदेशक होवाने लीचे तेना अर्थी आत्माओ विनयरूपी मर्यादाथी जेमनी सेवा करे छे ते 'आचार्य' कहेवाय छ / कधु छ के-.. 25 1 आवश्यकनियुक्ति गा. 995 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 153 ['णमोकारविजती'मां छपायेल आ गाथामां 'नाणाई छत्तीस' ने बदले 'आयारो नाणाई' पाठ छे. ] . 2 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 12-13 / - 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 13-16 / 4 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 4-5 / 11 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। . [प्राकृत "सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य / गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं भासेइ आयरियो // " अथवा, आचारो ज्ञानाचारादिभिः पञ्चधा, आ- मर्यादया वा मासकल्पादिकरणरूपया चारोविहारः आचारः तत्र साधवः स्वयंकरणादन्यप्रदर्शनाच्चेत्याचायोः, आह च-... "पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता / आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चंति // " तथा “पडिमापडिवन्नाणं एगाहं पंच हंति हालंदे। जिणसुद्धाणं मासो निक्कारणओ य थेराणं // मासं व चउम्मासं परं पमाणं तहेगखित्तम्मि / बीयं तइयं च तहिं मासं वासं व न वसिज्जा // " अथवा आईषत् अपरिपूर्णा इत्यर्थः चारा हेरिका ये ते आचाराः चरकल्पा इत्यर्थः / युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणाः मुनयः तेषु साधवो यथावच्छात्रोपदेशकत्वात् इति आचार्यास्तेभ्यो नमः, नमस्करणीयता चैतेषां आचाराद्युपदेशकतयोपकारित्वात् / / 15. "सूत्र अने अर्थने जाणनारा, लक्षणथी युक्त, गच्छना आलंबनभूत अने गच्छनी चिंताथी रहित एवा आचार्य अर्थनो उपदेश आपे छ / " अथवा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार-ए पांच प्रकारना आचारनो आचार ते आचार कहेवाय छे। अथवा 'मासकल्प' वगेरे मर्यादाथी जे विहार करवो ते पण आचार कहेवाय छे / आ बन्ने प्रकारना आचारने जेओ पोते सुंदर रीते पाळे छे अने 20 बीजाओने पण दर्शावे छे ते आचार्य कहेवाय छे / कयुं छे के- .. "पांच प्रकारना आचारने आचरनारा तथा उपदेश आफ्नारा तेमज आचारने बतावनारा होवाथी ते आचार्य कहेवाय छे / " . तथा कयुं छे के - “भिक्षु प्रतिमा जेमणे स्वीकारी छे एवा साधु एक क्षेत्रमा एक दिवस रही शके, यथालंदक मुनि एक क्षेत्रमा पांच दिवस रही शके, जिनकल्पीओ अने परिहारविशु25 द्धिक एक महिनो रही शके, स्थविरकल्पीओ निष्कारण एक महिनो अथवा तो चार मास एक क्षेत्रमा रही शके, परंतु शेषकाळमां एक मासथी विशेष अथवा चोमासा बाद एक मासथी विशेष बीजो के त्रीजो मास रही शके नहीं।" . .. ___ अथवा आ+चार एटले योग्य अने अयोग्यनो विभाग करवामां निपुण एवा साधुओने शास्त्रोनो यथावत् उपदेश आपे छे तेथी पण 'आचार्य' कहेवाय छे / तेमने मारो नमस्कार हो / 30 आचार वगेरेना उपदेशक होवाथी उपकारीपणाने लीधे आचार्यो नमस्करणीय छ / १आवश्यकनियुक्ति गा. 994 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 152 / / 2 सामान्य रीते साधुओ चातुर्मास सिवायना समयमा एक ज ठेकाणे एक महिना सुधी रही शके ते नियमने 'मासकल्प' कहेवामां आवे छे। 3 पंचविध आचार ते-१ ज्ञानाचार 2 दर्शनाचार 3 चारित्राचार. 4 तप आचार अने 5 वीर्याचार-आ आचारोने पाळनारा, अनुष्ठानथी आचारण करनारा, व्याख्यानथी उपदेश देता, तेमज पडिलेहणा चगेरे आचारने बतावता होवाथी आचार्य कहेवाय छ / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 . विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। __तथा 'नमो उवझायाणं // सुसंवुडासवदारे मणोवइकायजोगत्तयउवउत्ते विहिणा सरवंजणमत्तबिंदुपयक्खरविसुद्ध दुवालसंग सुयनाणऽज्झयणज्झावणेणं परमप्पणो य मुखोवायं झायंतित्ति उवज्झाया 1 // अत्र गाथा बारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ बुहेहिं / तं उवइसति जम्हा, उवज्झाया तेण वुच्चंति // थिरपरिचियमणंतगमपज्जवत्थेहि वा दुवालसंग सुयनाणं चिंतंति अणुसरंति एगग्गमाणसा झायंतित्ति वा उवज्झाया 3, एवमेए अणेगहा पन्नविजंति अनेकविधत्वम् त्विदम्___ 'उ' त्ति उवओगकरणे, 'व' ति य पावपरिवज्जणे होइ / 'झ' त्ति य झाणस्स कए, 'उ' त्ति य ओसकणा कम्मे // त्ति निरुक्तिवशादुपाध्यायाः / नमो उवज्झायाणं 10 - "जेमणे आश्रवनां द्वारो बंध करेलां छे, मन-वचन अने काया ए त्रणेना योगोमां उपयोगवाळा, विधिपूर्वक स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पद अने अक्षरोथी विशुद्ध द्वादशांत जे श्रुतज्ञान तेनुं अध्ययन अने अध्यापन करवा वडे पोताना तथा पारकाना मोक्षना उपाय- जेओ ध्यान करे छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छ / " ( महानिशीथसूत्र ) . .. आ विशे (आवश्यकनियुक्तिमा )गाथा छे के-"जिनेश्वरोए प्ररूपेल द्वादशांगीने गणधर 15 आदि पुरुषो स्वाध्याय कहे छ। एवा स्वाध्यायनो शिष्योने ( सूत्रथी )उपदेश आपे छे तेथी ते भाव उपाध्याय' कहेवाय छे।" "चिरपरिचित द्वादशांत श्रुतज्ञानने अनंतगम अने पर्यायार्थ वडे जेओ चिंतवे छे, अनुस्मरण करे छे अने एकाग्र मनवाळा थईने तेनुं ध्यान धरे छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / आ प्रमाणे 'उपाध्याय' शब्दनी अनेक प्रकारे व्याख्या करवामां आवे छे / " ( महानिशीथसूत्र ) 20 व्याख्याना अनेक प्रकारो आ प्रमाणे छे: " 'उ' एटले उपयोग करवो, 'व' एटले पापनुं वर्जन, 'झ' एटले ध्यान करवू अने 'उ' एटले कर्मो दूर करवां-अर्थात् उपयोगपूर्वक पापने छोडतां ध्यान आरूढ थईने कर्मोने दूर करे ते 'उपाध्याय' कहेवाय / ( आ अक्षरार्थ छे, अक्षरार्थना अभावे पदार्थना अभावनो प्रसंग आवे / पद ए समुदायरूप होवाथी अहीं अक्षरार्थ समजवो।)” आ प्रमाणे नियुक्तिथी 'उपाध्याय' शब्द 25 बने छ। 1 आवश्यकनियुक्ति गा. 1001 / जुओ-प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 154 / 2 आवश्यकनियुक्ति गा० 1003 / जुओ-प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 154 / 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 19-22 / 4 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 22-24, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत 'उ' त्ति उवओगकरणे, 'झ' ति य झाणस्स होइ निद्देसो / एएण हुँति 'उज्झा' एसो अन्नो वि पज्जाओ // ' तथा उप-समीपमागत्याधीयते 'इङ्' अध्ययने इति वचनात् पठ्यते, इण गताविति वचनाद्वा 'अधि' आधिक्येन गम्यते, इक् स्मरणे इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनवचनं येभ्यः ते उपाध्यायाः, 5 यदाह-बारसंगो जिणक्खाओ० गाथा / अथवा उपाधानमुपाधिः-सन्निधिः तेन उपाधिना उपाधौ वा आयो लाभः श्रुतस्य येषाम् / उपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो लाभो येभ्यः / अथवा उपाधिरेव संनिधिरेख आयम्-इष्टफलं दैवजनितत्वेन आयानामिष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद् येषाम् / __ अथवाऽऽधीनां मनःपीडानामायो लाभ आध्यायः, अधियां वा, नञः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीना10 मायोऽध्यायः, 'ध्यै चिंतायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगान्नञः कुत्सार्थत्वादेव च दुर्ध्यानं वा अध्यायः, उपहत आध्यायो अध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः, तेभ्यो नमः इत्यादि चर्चः प्राग्वत् / नमस्यता चैषां सुसम्प्रदायायातजिनवचनाऽध्यापनतो विनयविनयनेन भव्यानामुपकारित्वात्॥ " 'उ' एटले उपयोग करवो, अने 'ज्झा' एटले ध्यान कवु। आथी ‘उज्झा' अर्थात् उपयोगपूर्वक ध्यान करनार एवो एनो बीजो पर्याय-नाम छे / " 15 अथवा 'उपाध्याय' शब्दना बीजा अर्थो नीचे मुजब छे "उपाध्याय" शब्दमां त्रण शब्दो छः उप+अधि+इ / आमां 'उप' एटले समीप, 'अधि' एटले आधिक्य / अने 'इ' धातुना त्रण अर्थ थाय छः अध्ययन करवू, जवु (जाणवू) अने स्मरण करवू / एटलेके जेमनी पासे जईने सूत्रथी जिनवचन- अध्ययन करवामां आवे छे, अधिकपणे ज्ञान मेळववामां आवे छे तथा स्मरण करवामां आवे छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छ। (आवश्यक20 नियुक्तिमां) कयुं छे के-"जिनेश्वरोए प्ररूपेल द्वादशांगीने गणधर आदि पुरुषो स्वाध्याय कहे छ / एवा स्वाध्यायनो शिष्योने (सूत्रथी) उपदेश आपे छे तेथी ते 'भाव उपाध्याय' कहेवाय छ / " ___ अथवा ( 'उपाध्याय' शब्दाना बीजा पण अनेक अर्थो नीकळे छे, जेमके-) 'उपाधि' एटले 'संनिधि' / जेमनी संनिधिथी अथवा जेमना सांनिध्यमा रहेवाथी श्रुतज्ञाननो 'आय' एटले 'लाम' थाय अथवा जेमनी पासेथी 'उपाधि' एटले सुंदर विशेषणोनो लाभ थाय तेमने 'उपाध्याय' 25 कहेवामां आवे छे / अथवा जेमनी उपाधि एटले जेमनु सांनिध्य 'आय' एटले इष्ट फळोना समूहमा कारणभूत छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / अथवा बीजो पण अर्थ छ / 'आधि' एटले 'मननी पीडा' तेनो 'आय' एटले 'लाभ' ते 'आध्याय' / अथवा 'अधि' एटले 'कुबुद्धि' नो 'आय' एटले 'लाभ' ते 'अध्याय'। अथवा अध्याय एटले 'दुर्ध्यान' / आ 'आध्याय' तथा 'अध्याय' ने जेमणे उपहत कर्या छे अथवा हणी 30 नाख्या छे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / आवा उपाध्याय भगवंतोने मारो नमस्कार हो / वगेरे चर्चा पहेलांनी जेम समजी लेवी। सुसंप्रदायथी (प्रतिष्ठित परंपराथी) चाल्या आवता जिनवचन- भव्य जीवोने अध्यापना करवा द्वारा विनीत बनावीने उपकार करता होवाथी उपाध्याय भगवंतो नमस्कारने योग्य छ। (भगवतीसूत्र) 1 आवश्यकनियुक्ति गा० 1002 / जुओ-प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 154 / 2 आवश्यकनियुक्ति गा० 1001, जे उपर आवी गई छ / 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 5-6 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। विभाग] तथा 'नमो लोए सव्वसाहूणं' // अञ्चंतकट्ठ उग्गतरघोरतवचरणाइअअणेगवयनियमोववासानाणाभिम्गहविसेससंजमपरिपालणेण सम्मं परीसहोवसग्गाहियासणेणं सव्वदुक्खविमोक्रवं मोक्खं साहयंति साधवो 5 / ___ अत्रापि विशेषार्थः / साधयन्ति मोक्षसाधकज्ञानादिशक्तीरिति साधवः, साम्यं वा सर्वभूतेषु ध्यायन्ति निरुक्तिवशात् साधवः / यदाह “निव्वाणसाहए जोए जम्हा साहंति साहणो / समा हि सव्वभूएसु तम्हा ते भावसाहुणो // " साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः निरुक्तेरेव / सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तसंयतादयः पुलाकादयो जिनकल्पिक-प्रतिमाकल्पिक-यथालंदकल्पिक-परिहारविशुद्धिकल्पिक-स्थविरकल्पिक-स्थितकल्पिकाऽस्थितकल्पिकभेदाः प्रत्येकबुद्ध-स्वयंबुद्ध-बुद्धबोधितभेदाः भारतादिमेदाः सुषमदुःष-10 मादिविशेषान्ता वा सांधवश्च सर्वसाधवः / सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषेणनमनीयताप्रतिपादनार्थ, यदाहनमो लोए सव्वसाहूणं - "तथा अत्यंत कठिन उग्रतर अने घोर तपश्चर्या वगेरे अनेक व्रत, नियम, उपवास, अनेक प्रकारना अभिप्रहविशेष तथा संयमनुं परिपालन करीने अने सारी रीते परीषह तेमज उपसर्गोने 15 सहन करीने जेओ सर्व दुःखमांथी मुक्तिने साधे छे ते 'साधु' कहेवाय छे / " (महानिशीथसूत्र) . अहीं विशेषार्थ आ प्रमाणे छे:- 'मोक्षसाधक ज्ञान वगेरे शक्तिओने जे साधे छे ते साधु कहेबाय छे / अथवा सर्व प्राणीओ प्रति समभाव- जे ध्यान करे छे ते 'साधु' कहेवाय छ / . (आवश्यकनियुक्तिमां ) कयुं छे के ___“निर्वाणना साधक योगोनी साधुओ साधना करे छे तेमज सर्व जीवो उपर समभावने 20 धारण करे छे तेथी ते 'भावसाधु' कहेवाय छ / " अथवा संयमर्नु पालन करनारा आत्माओने सहाय करे छे तेथी साधु कहेवाय छे / 'सर्व साधु' शब्दथी सामायिकादि विशेषणोथी युक्त, प्रमत्त वगेरे, पुलाक वगेरे जिनकल्पिक, प्रतिमाकल्पिक, यथालंदकल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, स्थविरकल्पिक, स्थितकल्पिक, अस्थितकल्पिक, प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध, बुद्धबोधित, भरत वगेरे क्षेत्रना तेमज सुषम, दुःषमा वगेरे काळना 25 साधुओ-एम सर्व प्रकारना साधुओ समजवा / सर्व गुणवान पुरुषो भेदभाव विना नमस्कार करवा लायक छे ते जणाववा माटे 'सर्व' शब्दनो अहीं प्रयोग करवामां आव्यो छे / कयुं छे के 1 आवश्यकनियुक्ति गा. 1010 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 155 2 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 44, पं. 13-16. 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 6-7 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत प्राकृत " नाणं च दंसणं वा, तवो य तह संजमो य साहुगुणा / इक्के सव्वेसुवि हीलिएसु ते हीलिया हुंति // " एमेव पूइयम्मी, इकंमी वि पूइया जइगुणाउ। थोवं बहुनिव्विसं, इय नच्चा पूयए मइमं // " 5 तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनात् अपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते / 'लोके' मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवः सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति कुर्वन्ति सर्वसाधवः अथवा सर्वेभ्यो जीवाऽजीवादिपदार्थसार्थेभ्यो यथावस्थितावितथस्वरूपनिरूपणरक्षणादिना हिताः सार्वाः अरिहन्तारः तेषां साधवः, न तु बुद्धादेः सार्वसाधवः / उक्तं च चूर्णी - “ए ए ताव न वंदिजंति समणसदे हुंतए वि बुद्धा तावसा गेरुया आजीवगा बोडिया य / " 10यद्वा सार्वानर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्णयनिराकरणादिभिः सार्वसाधवः। "ज्ञान, दर्शन, तप तथा संयम-आ साधुना गुणो छे एटले एक अथवा सर्व साधुनी हिलना ( अपमान ) करवामां आवे तो तेमां गुणोनी ज हिलना थाय छे।” . "ते ज प्रमाणे एक साधुनी पूजा करवामां आवे तो पण तेमां साधुना सर्व गुणोनी ज 15 पूजा रहेली छे; माटे थोडी पण साधुनी पूजा बहु लाभकारक छे एम समजीने बुद्धिमान पुरुषोए साधुओनी पूजा करवी जोईए / " ___ 'सर्व' शब्द देशसर्वतानो पण वाचक होवाथी संपूर्ण सर्वता बताववाने माटे 'लोए' शब्दनो प्रयोग करेलो छ / अर्थात् मात्र गच्छ वगेरेमां नहि परंतु आखा मनुष्यलोकमां रहेला जे सर्व साधुओ अथवा सर्व शुभयोगोने जे करे ते 'सर्वसाधु' / अथवा सर्व जीव अजीव वगेरे 20 पदार्थसमूहनुं जे यथावस्थित अने सत्यस्वरूप निरूपण तेमज रक्षण वगेरे. करवा वडे सर्व पदार्थोने ।हित करनारा (न्याय आपनारा) ते 'सार्व', एटले अरिहंत भगवान अने तेमना साधु ए 'सार्वसाधु'; बुद्ध वगेरेना साधु नहीं। चूर्णिमां कयुं छे के "श्रमण कहेवाता होवा छतां पण बौद्ध साधुओ, तापसो, गेरुक ( परिव्राजक ), आजीवक अने बोटिकने वंदन करवू नहि / " 25 अथवा 'सार्व' एटले अरिहंतोने जेओ आज्ञानुं पालन करीने आराधे छे अथवा दुर्नयने दूर करीने (अन्य मतोनुं खंडन करीने ) जिनेश्वर भगवंतना मतने प्रतिष्ठित करे छे ते 'सार्वसाधु'। 1 ओघनियुक्ति गा. 531 2 ओघनियुक्ति गा. 532 . 3 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ.८. ४“किं च-इमेवि पंच ण वंदियव्वा समणसदेवि सति, जहा आजीवगा तावसा परिव्वायगा तचणिया. बोडिया......" __ आव० चूर्णि पृ. 20 पं. 4, उत्तरभाग, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / अथवा सार्वाः सर्वजीवादिहितकारिणः ते च ते साधवश्च सार्वसाधवः / उक्तं च 'पाणच्चए वि पावं०' गाहा // यदि वा सव्यानि-दक्षिणानि अनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु, श्रव्येषु वा श्रवणाहेषु मृदुमधुरादि वाक्येषु साधवो निपुणाः सव्यसाधवः-श्रव्यसाधवो वा तेभ्यो नमः इत्यादि प्राग्वत् / एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् / आह च____ " असहाए सहायत्तं करेंतिमे संजमं कुणंतस्स एएण कारणेणं नमामि हं सव्वसाहूणं // "" अर्थतन्नमस्कारप्रयोजनफलनिरूपणार्थमाहुः श्रीवज्रस्वामिपादाः- अयमेव इमाए एक्कारसपयपरिच्छिन्न तिआलावग तित्तीसक्खरपरिमाणाए चूलाए भाविजइ! 'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं // 1 // ' 10 अथवा 'सार्व' एटले सर्व जीव वगेरेनुं हित करनारा साधुओ ते 'सार्वसाधु' / कयुं छे के "प्राणनो अत्यय थाय तो पण......" वगेरे अथवा 'सव्य' एटले जे अनुकूळ कार्यो तेमां निपुण ते 'सव्यसाधु' / अथवा 'श्रव्य' एटले श्रवण करवा लायक जे मृदु मधुर आदि वाक्यो तेमां निपुण ते 'श्रव्यसाधु' / आ 'सर्वसाधु', 'सार्वसाधु', 'सव्यसाधु' तथा 'श्रव्यसाधु'ओने मारो नमस्कार हो / मोक्षमार्गमां सहाय करवा 15 वडे उपकारी होवाथी आ साधुपुरुषो नमस्करणीय छे / (आवश्यकनियुक्तिमां) कयुं छे के... "असहाय एवा मने संयमनुं पालन करवामां सहाय करे छे ते कारणथी सर्व साधुओने नमस्कार करूं छु।” ___ हवे आ नमस्कार करवाना प्रयोजन अने फळनु निरूपण करतां वज्रस्वामी महाराज जणावे छे के-"आ ज नमस्कार अगियार पद प्रमाणनी त्रण आलावानी अने तेत्रीश अक्षरनी 20 'एसो पंचनमुक्कारो सव्यपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं' ए चूलिकाथी भावित कराय छ / 1 आवश्यकनियुक्ति गा० 1013 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 156 2 चैत्यवंदनमहाभाष्यनी त्रण प्रकारनी हस्तप्रतो मळे छे। एक लघुप्रत छे, जेमां अमुक बाबतो टूकमां समजावी छे, ज्यारे बीजी बृहत् प्रत मळे छे जेमां एनी ए हकीकतो विस्तृत रीते समजावेली छे; अने त्रीजा प्रकारनी प्रत मध्यमप्रत छे, जे आ बे करतां जुदी पडे छे। आवी प्रतो पू० पुण्यविजयजी महाराजसाहेबे खंभातना श्री शांतिनाथजी ताडपत्रीय भंडारमाथी मेळवीने श्री चैत्यवंदनमहाभाष्यनो पाठ तैयार कर्यो छे, अने तेने आधारे आ बे हाथ 7 वच्चेनो पाठ अहीं लीधो छ / श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन पेढी, रतलाम तरफथी छपायेल प्रतमां तेनी जगाए नीचे प्रमाणे पाठ मळे छ:___अयमेव इमाए चूलाए भाविजइ एएसिं नमुक्कारो एसो पंचनमुक्कारो, किं करेजा ?-सव्वं पावं-नाणावरणीयाइ कम्मं निस्सेसं तं पयरिसेणं दिसोदिसिं नासइ सव्वपावप्पणासणो, (जुओ-महानिसीहसुत्तसंदब्भो प्रस्तुत ग्रं.पृ.४४ पं. 3-6) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत एएसिं पञ्चण्डं नमुक्कारो-एसो पंचनमुक्कारो / किं करिज्जा ? सव्वं पावं नाणावरणीयाइकम्मं निस्सेसं पयरिसेणं दिसोदिसं नासइ सव्वपावप्पणासणो, तक्कज्ज वा नरगभवाइ। इत्थ गाहाओ जेणेस नमुक्कारो पत्तो पुण्णाणुबंधिपुण्णेण / नारयतिरियगईओ, तस्सावसं निरुद्धाओ // 1 // पंचनमुक्कारसमं अंते वच्चंति जस्स दसपाणा / सोजइ न जाइं मुक्खं, अवस्सममरत्तणं लहइ // 2 // अन्नं च इमाउ चिय, न होइ मणुओ कयाइ संसारे / दासो पेसो दुहिओ, नीओ विगलिंदिओ चेव // 3 // 10 तथा करआवत्ते जो पंचमंगलं साहुपडिमसंखाए / नववारा आवत्तय( इ ) छलंति तं नो पिसायाई // 4 // जओ मंताण मंतो परमो इमो त्ति, धेयाण धेयं परमं इमं ति / 15 - तत्ताण तत्तं परमं पवित्तं, संसारसत्ताणंदुहाहयाणं // 5 // ' एसो पंचनमुक्कारो एटले आ पांच परमेष्ठिने करेलो नमस्कार शुं करे छे ? 'सव्वपावप्पणासणो'–एटले सर्व प्रकारना ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोने संपूर्णपणे नष्ट करे छे, अने कर्मनुं फळ जे नरकादि गति तेनो पण नाश करे छे।” (महानिशीथसूत्र) ____आ संबंधमां नीचे प्रमाणे गाथाओ मळे छे:20 "पुण्यानुबंधी पुण्यवाळा जे आत्माए आ नवकारने प्राप्त कर्यो छे, तेनी नरक अने तिर्यंच . गतिओ अवश्य रोकाई गई छे।” // 1 // "दश प्राणो जाय त्यारे ( मृत्युसमये ) पंचपरमेष्ठि नमस्कारहुँ जे स्मरण करे छे ते भले मोक्षमा न जाय तो पण देवलोकमां अवश्य जाय छ / " // 2 // ___"वळी, आ नमस्कारथी मनुष्य संसारमा कदीपण दास, प्रेष्य, दुर्भग, नीच के विकलेन्द्रिय25 अपूर्ण इन्द्रियवाळो थतो नथी" // 3 // तथा "हाथनी आंगळीना वेढा उपर बारनी संख्याथी नववार (108 वार ) नमस्कारमंत्रने जे गणे छे तेने पिशाच वगेरे छळी शकतां नथी / " // 4 // "दुःखोथी आघात पामेला संसारी मनुष्योने माटे आ (नवकारमंत्र) मंत्रोमां 30 परममंत्र छे, ध्यान करवा योग्यमां आ परमध्येय छे अने तत्त्वोमां परमतत्त्व छे" // 5 // 1 पंचनमुक्कारफलथुत्तं गा० 55 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 370 / 2 पंचनमुक्कारफलथुत्तं गा०६० / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ०३७० / 3 नवकारलहुकुलकं गा०२। जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 438 / 4 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 44, पं. 15-22. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। ताणं अन्नं तु नो अस्थि जीवाणं भवसायरे। बुड्डताणं इमं, मुत्तुं नमुक्कारं सपोययं // 6 // अणेयजम्मंतरसंचियाणं, दुहाण सारीरियमाणसाणं / कत्तो य भव्वाण भविज नासो, न जाव पत्तो नवकारमंतो // 7 // अवि य नवकाराओ अन्नो, सारो मंतो न अस्थि तियलोए / तम्हाउ अणुदिणं चिय पढियव्वो परमभत्तीए // 8 // एस चूलाए पढमो उद्देसओ-एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, किंविहो उ ? मंगो निव्वाणसुक्खसाहणिकखमो सम्मदंसणाइआरहओ अहिंसालक्खणो धम्मो तं मे लाइज्जति मंगलं 1, मं वा भवाओ-संसाराओ गलिज्जा तारिज वा इति मंगलं 2, बद्धपुट्ठनिधत्तनिकाइयट्ठ-10 पयारकंमरासिं मे गालिज्जा विलिज्जविज्जत्ति वा मंगलं 3 / - "संसाररूपी समुद्रमा डूबता जीवोने नमस्काररूपी नौका सिवाय बीजं कई रक्षण करनार न्थी // 6 // ... "भव्य मनुष्योए ज्यांसुधी नवकारमंत्रने प्राप्त कर्यो नथी त्यांसुधी अनेक जन्मोमां एकठां करेला तेमनां शारीरिक अने मानसिक दुःखोनो नाश शी रीते थाय ? / " // 7 // 15 - "त्रण लोकमां नवकारथी सारभूत (प्रधान) अन्य कोई मंत्र नथी, तेथी प्रतिदिन परमभक्तिथी तेनुं ध्यान करवू जोईए / " // 8 // 'एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो'-ए चूलिकानो प्रथम उद्देशो छ / ते केवो छ ? 'मंग' एटले निर्वाणसुख (मोक्षसुख )ने सिद्ध करवामां समर्थ सम्यद्गर्शन वगेरे अरिहंतोए प्ररूपेल अहिंसालक्षण धर्मने जे मने आणी आपे ते मंगल 1, अथवा मने संसारथी गाळे 20 अर्थात् तारे ते मंगल 2, बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त अने निकाचित एवा आठ प्रकारना मारा कर्मना राशिने जे गाळे अर्थात् शमावे ते मंगल 3 / 1 नवकारलहुकुलकं गा० 1 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 438 / 2 पंचनमुक्कारफलं गा० 26 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 383 / तथा नवकारलहुकुलकं गा०८। जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ.४३९ / 12 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 . चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। [प्राकृत एएसिं सव्वेसि अन्नसिं च दव्वभावभेदभिन्नाणं दधिदुव्वाइतवोविहाणाईणं मंगलाणं किं ?, पढमं आईए, अरिहंताईणं थुई चेव हवइ मंगलं हितादिविधानसमर्थम् , मंग्यते हितादि अनेनेति व्युत्पत्तेः भावमंगलतया ऐकान्तिकत्वात् आत्यन्तिकत्वाच्च / एवं प्रयोजनाद्यप्युक्तम् / तथा नियुक्तिः इत्थ य पओयणमिमं कम्मखय मंगलागमो चेव / इहलोयपारलोइय दुविहफलं तत्थ दिटुंता // ' इहलोइ अत्थकामा आरुग्गं अभिरईइ णिप्फत्ती / सिद्धी य सग्ग सुकुले उववाओ ईय परलोए // ' किंच ताव न जायइ चित्तेण चिंतियं पत्थियं च वायाए / काएण समाढत्तं जाव न सुमरिओ नमुक्कारो॥ एस समासत्थुत्ति / विस्तरार्थिना तु नवकारपंजिका नवकारपटल सिद्धचक्र बृहन्नमस्कारफलादि शास्त्राण्यवलोकनीयानीति // छ // ___ आ मंगलोमां अने बीजां पण सर्व दहीदुर्वा वगेरे द्रव्यमंगलो अने तपोनुष्ठान वगेरे भावमंगलोमां अरिहंत वगैरेनी स्तुति प्रथम मंगल छे / अर्थात् हित वगेरे करवामां समर्थ छे, 15 कारणके जे हित वगेरे करे तेनुं नाम मंगल / आ प्रमाणे ' मंगल' शब्दनी व्युत्पत्ति थती होवाने लीधे अरिहंत वगेरेनी स्तुति भावमंगलपणाथी एकांते अत्यंत हित करनार छ / आ रीते आमां प्रयोजन वगैरे पण कहेवाई गयुं / ( आवश्यक ) नियुक्तिमा कयुं छे के ___ "नमस्कार करवामां कर्मनो क्षय अने मंगलनु आगमन ए प्रयोजन छे तेमज लोकसंबंधी अने परलोकसंबंधी एम बे प्रकारनुं फळ छ / तेनां दृष्टांतो नीचे प्रमाणे छ / ":20 "आ लोकमां अर्थ, काम, आरोग्य, अने अभिरतिनी प्राप्ति थाय छे / अने परलोकमां सिद्धि, स्वर्ग अने उत्तम कुळनी प्राप्ति थाय छे।" बीजुं पण कयुं छे के "मनथी चिंतलं, वचनथी प्रार्थेलं अने कायाथी आरंभेलं कार्य त्यांसुधी ज सिद्ध थतुं नथी ज्यांसुधी नमस्कारमंत्रनुं स्मरण करवामां आवतुं नथी।" (अर्थात् नमस्कारमंत्रनुं स्मरण करवामां 25 आवे तो मनथी ईच्छेखें, वचनथी प्रार्थेलु अने कायाथी प्रारंभेलं दरेक कार्य सिद्ध थई जाय छ।) आ प्रमाणे नमस्कारमंत्रनो संक्षिप्त अर्थ छ / विस्तारना अर्थीए नवकारपंजिका, नवकारपटल, सिद्धचक्र, बृहन्नमस्कारफल वगेरे शास्त्रोनुं अवलोकन करवू / 1 आवश्यकनियुक्ति गा०१०२२ / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 159 2 आवश्यकनियुक्ति गा० 1023 / जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 160 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / चैत्यवन्दनमहाभाष्यमां नमस्कारसूत्र विशे सूचित विगतोनु कोष्टक नमस्कारसूत्र (पंचपरमेष्ठी पद) पद संपदा अध्ययन आला- गुरु- लघु- तप अक्षरो। पक अक्षर अक्षर आयंबिल पी 46 ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ ܩ و و و و و . 1 णमो अरिहंताणं 2 णमो सिद्धाणं '3 णमो आयरियाणं 4 णमो उवज्झायाणं 5 णमो लोए सव्वसाहूणं (चूलिका) 6 एसो पंचणमुक्कारो 7 सव्वपावप्पणासणो 8 मंगलाणं च सव्वेसि 9 पढम हवइ मंगलं 06.06 परिचय 15 20 श्रीचैत्यवंदनमहाभाष्यना कर्ता श्रीदेवेन्द्रसूरि छ / तेओ तपागच्छना स्थापक श्रीजगच्चंद्रसूरिना शिष्य हता अने वि. सं. 1270 थी 1327 सुधीमा विद्यमान हता। तेओ एमना समयना महाप्रभावशाली विद्वान् हता / तेमणे 'षट्कर्मग्रंथ-खोपज्ञटीका सहित' 'श्राद्धदिनकृत्यसूत्र-वृत्ति' वगेरे अनेक प्रकरणग्रंथो अने 'सुदर्शनचरित' जेवा चरितग्रंथोनी प्राकृतमा रचना करेली छे / श्रीचैत्यवंदनमहाभाष्य उपर श्रीधर्मकीर्तिसूरिए टीका रची छे / श्रीधर्मकीर्तिसूरिनुं बीजं नाम श्रीधर्मघोषसूरि हतुं / तेओ महाविद्वान् हता / तेमना उपदेशथी मांडवगढना पेथडकुमारे सं. 1320 लगभगमा जुदे जुदे स्थळे 84 जिनप्रासादोनुं निर्माण कयुं हतुं। चैत्यवंदनमहाभाष्यमां गा. 30 मां 'नमस्कारसूत्र'नो उल्लेख कर्यो छे, तेना उपर श्रीधर्मकीर्तिसूरिए नमस्कारविषयक अनेक हकीकतोनो टीकामां संग्रह कर्यो छे। आ संदर्भ 'देववंदनभाष्य' प्रकाशकः-श्रीऋषभदेव केशरीमलजी जैन पेढी, रतलाम, सं० 1994 ना पृष्ठ : 210 थी 218 मांथी उद्धृत कर्यो छे; परंतु ते सीधेसीधो न लेतां तेमां पू. पुण्यविजयजी महाराजसाहेबे प्राप्त थयेल हस्तप्रतो परथी जे सुधारा वधारा कर्या छे तेने आधारे मा मूळपाठ तैयार करेल छे। 25 1 जुओः श्रीमुनिसुंदरसूरिकृत-'गुर्वावली' अने विशेष माहिती माटे जुओः मो. द. कृत 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' पृ. 404 / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM ESTIEcon TV ATE M UPA EATRE STML [प्राकृत V ITNA TEMS MET AISALyr Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] सिरिमाणदेवसरिरइयं उवहाणविहिथुत्तं // पंच नमोकारे किल दुवालस तवो उ होइ उवहाणं / अट्ठ य आयामाई एगं तह अट्ठमं अंते // 1 // एवं चिय निस्सेसं इरियावहियाइ होइ उवहाणं / सकत्थयम्मि अहममेगं बत्तीस आयामा // 2 // अनुवाद 'नमस्कार' (पंचमंगल महाश्रुतस्कंधसूत्र )नुं उपधान' (ज्ञान आराधन माटेनुं तपोमय अनुष्ठान ) बार उपवासना तपथी कराय छे / तेमां प्रथम पांच लागट उपवास पछी पहेली वाचना 10 अने ते पछी आठ आयंबिल तेमज अंते एक अट्ठम (त्रण उपवास लागट) करवाना होय छे। (ते पछी बीजी वाचना आपवामां आवे छे। ) [ नमस्कार मंत्रना उपधानमा 12 (चालु विधि प्रमाणे 12 // ) उपवास 18 दिवसमां करवाना होय छे / प्रथम वाचना 'नमो लोए सव्वसाहूणं' सुधीनी अने बीजी वाचना 'पढमं हवइ मंगलं' सुधीनी छे / ] // 1 // - 'ईरियावहिय' (सूत्र )ना उपधानमां पण आ प्रकारे (नमस्कार मंत्र माटे जणान्यो छे ते) तप करवानो होय छे / ( अर्थात् पांच लागट उपवास पछी पहेली वाचना अने आठ आयंबिल तेमज त्रण लागट उपवास कर्या पछी बीजी वाचना अपाय छे / ) [ईरियावहियना उपधानमा 12 (चालु विधि प्रमाणे 12 // ) उपवास 18 दिवसमां करवाना होय छे / प्रथम वाचना 'जे मे जीवा विराहिआ' सुधीनी अने बीजी वाचना 'ठामि 20 काउस्सग्गं' सुधीनी छे।] 'शकस्तव' (नमोत्थु णं) सूत्रना उपधानमा एक अट्ठम अने बत्रीश आयंबिल करवानां होय छे (एटले तेमां लागट त्रण उपवास पछी पहेली वाचना, सोळ आयंबिल पछी बीजी वाचना अने ते पछी बीजां सोळ आयंबिल पछी त्रीजी वाचना अपाय छे / ) [शक्रस्तवना उपधानमां 19 (चालु विधि प्रमाणे 19 // ) उपवास 35 दिवसमां करवाना 25 होय छे / पहेली वाचना 'पुरिसवरगंधहत्थीणं' सुधीनी, बीजी वाचना 'चाउरंतचक्कवट्टीणं' सुधीनी अने त्रीजी वाचना 'सव्वे तिविहेण वंदामि' सुधीनी छे / ] // 2 // -- 1. उपधानना अर्थविस्तार माटे जुओ-'श्री प्रतिक्रमणसूत्र-प्रबोधटीका' भा. 2, पृ० 59 थी 61. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणविहिथुत्तं / [प्राकृतं अरहंतचेइयथए उवहाणमिणं तु होइ कायद्धं / एग चेव चउत्थं तिनि अ आयंबिलाणि तहा // 3 // एग चिय किर छठें चउत्थमेगं च होइ कायव्वं / पणवीसं आयामा चउवीसथयम्मि उवहाणं // 4 // एगं चेव चउत्थं पंच य आयंबिलाणि नाणथए / चिइवंदणाइसुत्ते उवहाणमिणं विणिद्दिढं // 5 // अव्वावारो विगहाविवजिओ रुद्दझाणपरिमुक्को / विस्सामं अकुर्णतो उवहाणं वहइ उवजुत्तो // 6 // अह कहवि होज बालो वुड्डो वा सत्तिवजिओ तरुणो / सो उवहाणपमाणं पूरिज्जा आयसत्तीए // 7 // 'अरिहंतचैत्यस्तव' (अरिहंतचेईयाणं) सूत्रना उपधानमा एक उपवास अने त्रण आयंबिलमुं तप करवू जोईए। [ कुल अढी उपवास चार दिवसमां करवाना होय छे / तेनी एक ज वाचना 'अप्पाणं वोसिरामि' सुधीनी छ / ] // 3 // . 15 'चउवीसथय' (लोगस्स ) सूत्रना उपधानमां एक छठ्ठ अने एक उपवास (लागट त्रण उपवास पछी पहेली वाचना) अने पचीस आयंबिल ( बार आयंबिल पछी बीजी वाचना अने बीजां बार आयंबिल पछी त्रीजी वाचना अपाय ) छे / [कुल 15 ( चालु विधि मुजब 15 // ) उपवास 28 दिवसमां करवाना होय छे / तेनी त्रण वाचनाओ छे / पहेली वाचना 'चउवीसं पि केवली' सुधीनी, बीजी वाचना 'पासं तह वद्ध20 माणं च' सुधीनी अने त्रीजी वाचना 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु / सव्वलोए०' सुधीनी छे।] // 4 // ए ज प्रकारे चैत्यवंदन आदि सूत्र ( श्रुतस्तव-पुक्खरवरदि अने सिद्धस्तव-सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्रो)ना उपधानमा एक उपवास (पछी श्रुतस्तव-पुक्खरवरदिनी पहेली वाचना अपाय छे। ) अने पांच आयंबिल पछी एक उपवास ( पछी बीजी सिद्धस्तव-सिद्धाणं बुद्धाणंनी बीजी वाचना अपाय ) छ। [कुल साडा चार उपवास सात दिवसमां करवाना होय छे / तेनी बे वाचनाओ छ। पहेली 25 वाचना 'पुक्खरवरदि० थी सुअस्स भगवओ०' सुधीनी अने बीजी वाचना 'सिद्धाणं बुद्धाणं थी वेयावच्चगराणं थी सम्मदिहिसमाहिगराणं' सुधीनी छे / ] // 5 // ___ उपधान तप वहन करनार मनुष्ये कोई प्रकारनो (मन, वचन, कायाना योगनो) व्यापार करवो न जोईए / क्लेशथी रहित तेमज रौद्र ध्यानथी मुक्त थईने विश्राम कर्या विना ज (निरंतर) उपधान तपने वहन कर जोईए // 6 // 30 ( अनुसंधानमां कहे छे के-) ते उपधान वहन करनार जो कोई बाळक के वृद्ध होय अगर शक्ति विनानो युवक होय तो ते उपधाननु (तप) प्रमाण पोतानी शक्ति मुजब पूरुं करे // 7 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / राईभोयणविरई दुविहं तिविहं चउव्विहं वावि / नवकारसहियमाई पच्चक्खाणं विहेऊण // 8 // एकेण सुद्धअच्छंबिलेण इयरेहिं दोहिं उववासो / नवकारसहियएहिं पणयालीसाए उववासो॥९॥ पोरसिचउवीसाए होइ अवड्डेहिं दसहिं उववासो / विगईचाएहिं छहिं एगट्ठाणेहिं य चऊहिं // 10 // जीएण निव्वियतियं पुरिमड्डा सोलसेव उववासो। एक्कासणगा चउरो अट्ठ य बिक्कासणा तह य // 11 // भयवं! पभूयकालो एवं करेंतस्स पाणिणो होजा / तो कहवि होज मरणं नवकारविवन्जियस्सावि // 12 // नवकारवञ्जिओ सो निव्वाणमणुत्तरं कह लभिञ्जा। तो पढमं चिय गिण्हइ, उवहाणं होउ वा मा वा // 13 // गोयम ! जं समयं चिय सुओवयारं करिञ्ज सो पाणी / तं समयं चिय जाणसु गहियतयह जिणाणाए // 14 // ते (पूर्वोक्त बालादि) रात्रिभोजननो त्याग करीने (सांजे ) दुविहार, त्रिविहार के 15 चउविहार- अने सवारे नवकारसी वगेरेनां पञ्चक्खाण करीने उपधानप्रमाण पूरुं करे // 8 // ___ एक शुद्ध-उत्कृष्ट आयंबिल वडे अथवा बीजा ( अनुत्कृष्ट) बे आयंबिले एक उपवास . गणाय अने पिस्तालीश नवकारसी (नां पञ्चक्खाण ) करवाथी एक उपवास गणाय छे // 9 // ___चोवीश पोरसीए अगर दश अवड्ढे एक उपवास गणाय छे / वळी, छए विगईओनो छ अहोरात्र त्याग करवाथी अथवा चार एकल ठाणां करवाथी एक उपवास गणाय छे // 10 // 30 त्रण नीवीओ करवाथी अगर सोळ पुरिम करवाथी एक उपवास गणाय / तेमज चार एकासणां अने आठ बेआसणां करवाथी एक उपवास गणाय छे // 11 // - शंका-भगवन् ! आ रीते करतां जीवने-मनुष्यने लांबो काळ वीती जाय अने कोई कारणे नवकार न पामतां ज मरण थई जाय तो नवकारथी रहित एवा जीवने अनुत्तर ( श्रेष्ठ ) एवं निर्वाण (मुक्ति) सुख क्याथी मळे ? तेथी उपधान थाय के न थाय तो पण प्रथम ज नवकार ग्रहण 25 करवो जोईए // 12-13 // समाधान-हे गौतम ! जे समये ते जीव श्रुतनो उपचार करे ( श्रुत लेवानी विधि आदरे) ते ज समये ते जीव श्री जिनेश्वरभगवाननी आज्ञाथी नमस्कारना अर्थनो ग्रहण करनारो बन्यो छे एम जाणवू // 14 // 1 शुद्ध आयंबिलमां केवळ भात लई शकाय। पोताने जरुर होय तेटला भात एक पात्रमा नाखवामां आवे छे अने पछी तेना उपर चार आंगळ (ऊंचाईमां लगभग 2") जेटलुं पाणी नाखवामां आवे छे।। 2 वर्तमानकाळमां-एक उपवास=४८ नवकारसी, 24 पोरसी, 16 साढपोरसी, 16 नीवी (एकासणाबिनानी), 8 पुरिमड्ड, 4 अवड्ड, 8 ब्यासगा, 4 एकासणा, 3 लुक्खी नीवी, 2 आयंबिल अथवा 1 शुद्ध आयंबिल गणाय छ। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 उवहाणविहिथुत्तं। [प्राकृत एवं कयउवहाणो भवंतरे सुलभबोहिओ होजा / एयज्झवसाणो वि हु गोयम ! आराहगो भणिओ // 15 // जो उ अकाऊणमिमं गोयम ! गिहिज भत्तिमंतो वि / सो मणुओ दट्टव्वो अगिण्हमाणेण सारिच्छो // 16 // आसायइ तित्थयरं तव्वयणं संघ-गुरुजणं चेव / आसायणबहुलो सो गोयम! संसारमणुगामी // 17 // पढमं चिय कन्नाहेडएण जं पंचमंगलमहीयं / तस्स वि उवहाणपरस्स सुलहिया बोही निहिट्ठा // 18 // इय उवहाणपहाणं निउणं सव्वं पि वंदणविहाणं / जिणपूयापुव्वं चिय पढिज सुयभणियनीईए // 19 // तं सर-वंजण-मत्ता-बिंदु-परिच्छेयठाणपरिसुद्धं / पढिऊणं चियवंदणसुत्तं अत्थं वियाणिज्जा // 20 // तत्थ वि य जत्थे (जत्थ) य सिया संदेहो सुत्त-अत्थविसयम्मि / तं बहुसो वीमंसिय सयलं निस्संकियं कुणसु // 21 // 15 आ प्रकारे जेणे उपधान काँ छे ते जीव भवांतरमा सुलभबोधि थाय छे / हे गौतम! आ ( उपधान )ना अध्यवसायवाळो जीव आराधक कहेवाय छे // 15 // हे गौतम ! आ उपधान कर्या विना जे भक्तिवाळो मनुष्य आ नवकारने ग्रहण करे ते नवकारने नहि ग्रहण करवावाळा मनुष्यना जेवो छ एम जाणवू / ( अर्थात् नमस्कारनी वाचना माटे उपधानतप आवश्यक अंग तरीके कहेलुं छे / ) // 16 // 20 ए रीते (उपधान कर्या विना ज नवकार ग्रहण ) करनार मानवी श्रीतीर्थंकरदेवनी, तेमना वचननी, संघ अने गुरुनी अशातना करे छे / हे गौतम! अनेक आशात्तनावाळो ते संसारमा परिभ्रमण करे छे // 17 // _पहेली ज वार जेणे पंचमंगल कर्ण द्वारा सांभळ्युं छे ते पण जो उपधान करे तो तेने बोधिबीज-सम्यक्त्व सुलभ थाय छे एम का छे // 18 // 25 आ प्रकारे जिनपूजापूर्वक ज श्रुतमां बतावेली विधिथी उपधानप्रधान समग्र वंदनविधान निपुणताथी भणदुं जोईए // 19 // ते चैत्यवंदनसूत्रने स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पदच्छेद अने विश्रामस्थान वडे परिशुद्ध भणीने तेनो अर्थ जाणवो जोईए (अथवा-स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पदच्छेद अने विश्रामस्थान वडे परिशुद्ध एवा ते चैत्यवंदनसूत्रने भणीने तेनो अर्थ जाणवो जोईए / ) // 20 // 30 ते सूत्र अने अर्थना विषयमा ज्यां क्यांय संदेह थाय ते स्थळे खूब विचार करीने बधुं शंकारहित करे // 21 // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। अह सोहणतिहि-करणे-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्गम्मि / अणुकूलम्मि ससिबले सस्से सस्सेयसमयम्मि // 22 // निययविहवाणुरूपं संपाडियभुवणनाहपूएणं / फुडभत्तीए विहिणा पडिलाहियसाहुवग्गेण // 23 // भत्तिभरनिब्भरेणं हरिसवसोल्लसियवहलपुलएणं / सद्धा-संवेग-विवेग-परमवेरग्गजुत्तेणं // 24 // निट्टियघणराग-दोस-मोह-मिच्छत्त-मलकलंकेणं / अइउल्लसंतनिम्मलअज्झवसाएण अणुसमयं // 25 // तिहुयणगुरुजिणपडिमाविणिवेसियनयणमाणसेण तहा / जिणचंदवंदणाए धन्नोऽह्मि मन्नमाणेण // 26 // निययसिररइयकरकमलमउलिणा जंतुविरहिओगासे / निस्संकं सुत्तत्थं पयं पयं भावयंतेण // 27 // जिणनाहदिवगंभीरसमयकुसलेण सुहचरित्तेणं / अपमायाईबहुविहगुणेण गुरुणा तहा सद्धिं // 28 // चउविहसंघजुएणं विसेसओ निययबंधुसहिएणं / इय विहिणा निउणेणं जिणबिंबं वंदणिजं च // 29 // शुभ तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न अने अनुकूळ तेमज प्रशस्त चंद्रबळ होय त्यारे प्रशस्त समयमा पोताना वैभव अनुसार भुवननाथ (श्री जिनेश्वरदेव )नी पूजा करीने अने विधिपूर्वक प्रगट भक्तिथी साधुवर्गने वहोरावीने भक्तिना भारथी नम्र बनेलो; हर्षथी उल्लसित थयेला पुष्कळ रोमयुक्त (हर्षथी विशेष रोमांचित थयेलो ); श्रद्धा, संवेग, विवेक अने परम 20 वैराग्यवाळो; जेना धन राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्वरूप कलंको दूर थया छे एवो; प्रतिसमय अत्यंत प्रवर्धमान निर्मळ अध्यवसायवाळो; त्रिभुवनना गुरु एवा श्रीजिनेश्वरभगवंतनी प्रतिमामां दृष्टि अने मनने परोवतो; श्रीजिनेश्वरदेवने करायेल वंदना वडे 'हुं धन्य बन्यो छ' एम मानतो; जंतुथी रहित स्थळमां पोताना मस्तक उपर रची छे करकमळनी अंजलि जेणे एवो अने पदे पदे सूत्रना अर्थने निःशंकपणे मावतो एवो ते श्री जिनेश्वर भगवाने बतावेला गंभीर सिद्धांतमां निपुण, पवित्र 25 चरित्रवाळा तेमज अप्रमाद वगेरे बहुविध गुणवाळा एवा गुरुनी साथे, चतुर्विध संघनी साथे तथा विशेषतः पोताना स्वजन संबंधी बंधुवर्गनी साथे आ (कहेली) विधिथी कुशळपणे श्री जिनेश्वर भगवानना बिंबने वंदन करे // 22 थी 29 // 15 1 सश्रेयःसमये-मांगलिक समये / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राईत उवहाणविहिथुत्तं / तयणंतरं गुणड्ढे साहू वंदिज परमभत्तीए / साहम्मियाण कुजा जहारिहं तह पणामाई // 30 // जाव य महग्ध-माउक चोक्ख-वत्थप्पयाणपुन्वेणं / पडिवत्तिविहाणेणं काययो गुरुयसम्माणो // 31 // . एयावसरे गुरुणा सुविइयगंभीरसमयसारेण / अक्खेवणि-विक्खेवणि-संवेयणिपमुहविहिणा उ // 32 // भवनिव्वेयपहाणा सद्धासंवेगसाहणे पउणा। गुरुएण पबंधेणं धम्मकहा होइ कायया // 33 // सद्धासंवेगपरं सूरी नाऊण तं तओ भव्वं / चिइवंदणाइकरणे इय वयणं भणइ निउणमई // 34 // भो भो देवाणुप्पिय ! संपावियसयलजम्मसाफल्ल! / तुमए अञ्जप्पमिई तिकालं जावजीवाए // 35 // वंदेयव्वाई चेइयाई एगग्गसुथिरचित्तेणं / खणभंगुराओ मणुयत्तणाओ इणमेव सारं ति // 36 // 15 ते पछी गुणाढ्य एवा साधुओने परमभक्तिथी वंदन करे अने साधर्मिकोने यथोचित रीते प्रणामादि करे // 30 // ते समये बहुमूल्य, मृदु अने चोक्खां वस्त्रो आपवापूर्वक प्रतिपत्तिविधानवडे ( सेवा-भक्ति वडे ) गुरुतुं सन्मान करवू जोईए // 31 // ए अवसरे सारी रीते जाण्यो छे गंभीर एवा सिद्धांतना सारने जेणे एवा गुरुए 20 आक्षेपणी (श्रोताओना मनने आकर्षण करनारी ), विक्षेपणी (कथानो एक भेद ), संवेदनी (वैराग्यजनक कथा) प्रमुखविधिथी भवनिर्वेदप्रधान तथा श्रद्धा अने संवेगने साधवामां (प्राप्त कराववामां) प्रगुण (पटु, निपुण ) एवी धर्मकथाने मोटा प्रबंधपूर्वक करवी जोईए // 32-33 // ते पछी श्रद्धा अने संवेगमां परायण एवा तेने 'भव्य' जाणीने (ते व्यक्तिमा देखाता श्रद्धा अने संवेगना चिह्नोथी "ते भव्य छे” एम जाणीने ) निपुणमतिवाळा आचार्य चैत्यवंदन करवा 25 माटे आ प्रकारनां वचन भणे // 34 // हे देवानुप्रिय! आ जन्मनी समग्र सफळताने प्राप्त करनार ! तारे आजथी जीवनपर्यंत त्रणे काळ एकाग्र अने अत्यंत स्थिर चित्तथी चैत्योर्नु वंदन करवू जोईए; कारणके आ क्षणभंगुर एवा. मनुष्यपणानो सार आ ज छे // 35-36 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 15 तत्थ तुमे पुन्वण्हे पाणं पि न चेव ताव पेयव्वं / / नो जाव चेइयाई साहू विय वंदिया विहिणा // 37 // मज्झण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण कप्पए भोत्तुं / अवरण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण सयणं ति // 38 // एवमभिग्गहबंधं काउं तो वद्धमाणविजाए / अभिमंतिऊण गेण्हइ सत्त गुरू गंधमुट्ठीओ // 39 // तस्सोत्तमंगदेसे 'नित्थारगपारगो भविज' ति / उच्चारेमाणु च्चिय निक्खिवइ गुरू सुपणिहाणं // 40 // एयाए विजाए पभावजोगेण जो स किर भन्यो। अहिगयकजाण लहुं नित्थारगपारगो होइ // 41 // अह चउविहो वि संघो 'नित्थारगपारगो भविज तुम धन्नो / सुलक्षणो जंपिरो त्ति से निक्खिवह गंधे // 42 // तत्तो जिणपडिमाए पूयादेसाउ सुरहिगंधड्ढे / अमिलाणं सियदामं गिहिय विहिणा सहत्थेणं // 43 // तस्सोभयखंधेसुं आरोवितेण सुद्धचित्तेणं / निस्संदेहं गुरुणा वत्तव्वं एरिसं वयणं // 44 // - तेथी तुं दिवसना पूर्व भागमां-सवारे ज्यां सुधी चैत्यो अने साधुओने विधिपूर्वक वंदन न करे त्यां सुधी तारे पाणी पण न पीवं; मध्याह्ने पण फरीथी चैत्यो अने साधुओने वांदीने ज (वांद्या पछी ज) आहार करवो तने कल्पे (भोजन क) अने दिवसना पाछला भागमां पण 'फरीथी ए ज रीते वंदन कर्या पछी ज रात्रिए शयन करवू तने कल्पे // 37-38 // 20 आ प्रकारे अभिग्रहबंध करीने (अभिग्रह करावीने ) गुरु गंध( वासक्षेप )नी सात मूठीओने वर्धमानविद्याथी मंतरीने ग्रहण करे छे अने ते ( उपधान करनार )ना मस्तक उपर 'नित्थारगपारगो भविज'–'तुं संसारने पार करनारो था' ए प्रकारे कहेता तेओ (गुरु) प्रणिधानपूर्वक (वास) निक्षेप करे छे / / 39-40 / / ___ आ विद्याना प्रभावनायोगथी जो ते खरेखर भव्य होय तो स्वीकारेला कार्योना पारने 25 शीघ्रतः पामनारो थाय छे // 41 // हवे चतुर्विध संघ पण-तमे संसारने पार करनारा थाओ, तमे धन्य छो, सुलक्षण छो' एम बोलीने ते गंध (वासक्षेप ) तेना उपर नाखे छे // 42 // ते पछी (गुरुए ) श्री जिनेश्वर भगवाननी प्रतिमानी पूजाना आदेशथी सुरभिगंधथी आढय, नहीं करमायेली एवी श्वेत माळाने ग्रहण करीने पोताने हाथे विधिपूर्वक शुद्ध चित्तथी तेना बन्ने 30 खभा उपर नाखता गुरुए आ प्रकारे निःसंदेह कहेQ जोईए // 43-44 // Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 उवहाणविहिथुत्तं [प्राकृत 'भो भो सुलद्धनियजम्म! निचियअइगुरुअ-पुण्णपब्भार!। नारय-तिरियगईओ तुज्झ अवस्सं निरुद्धाओ // 45 // नो बंधगो य सुंदर! तुममित्तो अयस-नीयगोत्ताणं / न य दुलहो तुह जम्मंतरे वि एसो नमोकारो // 46 // पंचनमोक्कारपभाषओ य जम्मंतरे वि किर तुज्झ / जातीकुलरूवारोग्गसंपयाओ पहाणाओ // 47 // अन्नं च इमाउ चिय न हुंति मणुया कयावि जियलोए / दासा पेसा दुभगा नीया विगलिंदिया चेव // 48 // किं बहुणा जे गोयम ! विहिणा एवं सुयं अहिञ्जित्ता। ... सुयभणियविहाणेणं सुद्धे सीले अभिरमिञ्जा // 49 // ते जइ नो सेणं चिय भवेण निव्वाणमुत्तमं पत्ता। ताऽणुत्तरगेविआइएसु सुइरं अभिरमेउं // 50 // उत्तमकुलम्मि उक्किट्ठलट्ठसव्वंगसुंदरा पयडी / सयलकलापत्तट्ठा जणमणआणंदणा होउं // 51 // 15 पोताना जन्मने सारी रीते सफळ करनार, मोटा पुण्यभारने एकत्रित करनार हे ( उपधान करनार ) आराधक! तारी नारक अने तिर्यंच गतिओ अवश्य रोकाई गई छे // 45 // हे सुंदर ! तुं हवे पछी अपयशनामकर्म अने नीचगोत्रकर्मनो बंधक नहीं बने ! अने तने चीजा जन्मोमां पण आ नमस्कार दुर्लभ नहीं थाय // 46 // पंच नमस्कारना प्रभावथी तने बीजा जन्ममां पण उच्च जाति, कुळ, रूप अने आरोग्यरूप 20 संपत्तिओ अवश्य प्राप्त थशे // 4 // वळी, खरेखर आथी मनुष्यो कोईपण काळे जीवलोकमां दास, चाकर, दुर्भागी, नीच अने इन्द्रियोनी खोडखांपणवाळा थता नथी // 48 // हे गौतम ! वधु शुं कहुं ? विधिपूर्वक आ श्रुतनो अभ्यास करीने श्रुतमां दर्शावेला विधान अनुसार शुद्ध शीलमां तुं रमणशील बन // 49 // 25 जो तेओ ते ज भवमा उत्तम निर्वाण ( मोक्ष )ने प्राप्त न करे तो अनुत्तरविमान अथवा गैवेयक बगेरेमा लांबा समय सुधी सुखो भोगवीने; उत्तम कुळमां (जन्म लईने ); शरीरथी उत्कृष्ट, लष्ट अने सर्वांगसुंदर, सर्व कळाओमां निष्णात, मनुष्योना मनने आनंद आपनारा थईने; Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] . नमस्कार स्वाध्याय। देविंदोवमरिद्धी दयावरा विणयदाणसंपन्ना। निम्विन्नकामभोगा धम्म सयलं अणुढेउं // 52 // सुहझाणानलनिद्दघाइकम्मिधणा महासत्ता / उप्पन्नविमलनाणा विहुयमला झत्ति सिझंति // 53 // इय विमलफलं सुणिउं जिणस्स महमाणदेवसरिस्स / वयणा उवहाणमिणं साहेह महानिसीहाओ // 54 // उपहाणविही समत्तो॥ 15 देवेन्द्र जेवी ऋद्धिवाळा, दयामां तप्तर, विनय अने दानथी युक्त, कामभोगथी निर्वेद पामेला, सकल धर्मने सेवीने शुभ ध्यानरूपी अग्निथी घातीकर्मरूपी इंधणने बाळनार एवा ए महान (सत्त्ववाळा ) आत्माओ निर्मळ ज्ञाननी प्राप्तिवाळा मलरहित ( बनीने ) सिद्धिपदवीने शीघ्रत: 10 पामे छे // 50-53 // आवी रीते ( उपर कह्या मुजब ) देवो अने आचार्योवडे (पण) पूजाता' एवा श्री जिनेश्वर भगवानना वचनथी श्री महानिशीथसूत्रना आधारे 'आ उपधान विमल फळवारों छे' एम सांभळीने तेने तमे साधो // 54 // परिचय ___ आ 'उपधानविधिस्तोत्र' श्रीजिनप्रभसूरिरचित 'विधिमार्गप्रपा' नामक ग्रंथ (प्रकाशकः श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फंड, सूरत, ग्रंथांकः 44, वि० सं० 1997 ) मांथी उपलब्ध थयुं छे / नमस्कारमंत्रनी वाचना लेवा माटे जे प्रकारनी तपस्या करवानी आवश्यकता रहे छे ते तपस्याप्रकार उपर श्रीमानदेवसूरिए करेली आ रचना ठीक ठीक प्रकाश पाडे छे। श्रीजिनप्रभसूरिए आ स्तोत्रने पोताना ग्रंथमां मानभेर स्थान आप्युं छे। श्रीमानदेवसूरि नामना बे आचार्यो थयानुं वर्णन पट्टावलीओमाथी जाणवा मळे छ / वेमा पहेला मानदेवसूरिनो 20 मा पट्टधर तरीके अने बीजा मानदेवसूरिनो 28 मा पट्टधर तरीके उल्लेख करायो छे। पहेला मानदेवसूरि ते 'लघुशांतिस्तोत्र' ना कर्ता, जेओ वीर निर्वाण सं० 721 (वि० सं० 261) पछी स्वर्गवासी बन्या; अने बीजा मानवदेवसूरि प्रसिद्ध आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिना मित्र हता एम जाणवा मळे छे / केटलीक पट्टावलीओमां बने मानदेवसूरिनो 21 मा अने 25 29 मा पट्टधर तरीके पण क्रम बताव्यो छे / आ बंने पैकी कया मानदेवसूरिए आ स्तोत्रनी रचना करी ए जाणवानुं साधन उपलब्ध नथी / 20 १बीजो अर्थ वधु संगत न लागवाथी 'महमाण' नो अर्थ 'पूजाता' एवो करीने, आ अर्थ कर्यो छे, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 उवहाणविहिथुत्तं / [प्राकृत आ स्तोत्रमा नमस्कार सूत्र, ईरियावही-तस्स उत्तरी सूत्र, नमोत्थु णं सूत्र, अरिहंत चेईयाणं सूत्र-अन्नत्थ सूत्र, लोगस्स सूत्र, पुक्खरवरदीवड्डे सूत्र, सिद्धाणंबुद्धाणं सूत्र अने वेयावच्चगराणं सूत्रनी वाचनाना उपधान-दिवसो अने तप विशे माहिती आपी छ। ___ आ उपधानविधिनुं मूळ 'महानिशीथसूत्र' मां गद्यस्वरूपे आलेखेलु मळे छे अने ते उपरांत 5 बीजां पण उपधानविषयक स्तोत्रो उपलब्ध छे, छतां श्रीमानदेवसूरिनी आ कृति प्राकृतमा पद्यबद्ध स्तोत्ररूपे विशेष माहिती आपती होवाथी अने श्रीजिनप्रभसूरिए प्रमाण तरीके उल्लेखेल होवाथी अहीं आपवामां आवी छ। ___ आ उपधानविधिमां अने चालु उपधानविधिमां तपस्या अंगे कंईक फरक छ / जेम केनमस्कार सूत्रनी वाचनामां आ स्तोत्र मुजवनी विधिमा 12 उपवासनुं विधान छे, ज्यारे चालु 10 विधि तेने बदले 12 // उपवास करवानुं जणावे छे / आ प्रकारनो जे फरक पडे छे ते अनुवादमा कौंसमां आपवामां आव्यो छे। चालु विधिमां-(१) पंचमंगल महाश्रुतस्कंधना उपधानमा 18 दिवसमां 12 // उपवास करवामां आवे छे / पांच उपवासे प्रथम पांच पदनी वाचना अपाय छे अने 12 // उपवासे छेल्लां चार पदोनी वाचना आपवामां आवे छे। . 15 (2) प्रतिक्रमण-श्रुतस्कंध (ईरियावहि, तस्सउत्तरी सूत्र )ना उपधानमा 18 दिवसमां 12 // उपवास करवाना होय छे / तेमां 5 उपवासे 'जे मे जीवा विराहिया' सुधीनी प्रथम वाचना अपाय छे अने 12 // उपवासे 'ठामि काउसग्गं' सुधीनी बीजी वाचना अपाय छ / (3) शक्रस्तव-अध्ययन (नमोत्थु णं सूत्र ) ना उपधानमा 35 दिवसमां 19 // उपवास करवाना होय छे / 3 उपवासे 'पुरिसवरगंधहत्थीणं' सुधीनी प्रथम वाचना, 11 उपवासे 'धम्म20 वरचाउरंतचक्कवट्टीणं' सुधीनी बीजी वाचना अने 19 // उपवासे 'सव्वे तिविहेण वंदामि' सुधीनी त्रीजी वाचना आपवामां आवे छे। (4) चैत्यस्तव-अध्ययन (अरिहंतचेईयाणं, अन्नत्थ सूत्र )ना उपघानमा 4 दिवसमां 2 // उपवास करवाना होय छे / 2 // उपवासे 'अप्पाणं वोसिरामि' सुधीनी वाचना आपवामां आवे छे। 25 (5) नामस्तव-अध्ययन (लोगस्स सूत्र )ना उपधानमा 28 दिवसमा 15 // उपवास करवाना होय छे / 3 उपवासे पहेली गाथा सुधीनी प्रथम वाचना, 9 उपवासे बीजी, त्रीजी अने चोथी गाथा सुधीनी बीजी वाचना अने 15 // उपवासे पांचमी, छठ्ठी, सातमी गाथा सुधीनी त्रीजी वाचना अपाय छ। (6) श्रुतस्तव-सिद्धस्तव-अध्ययन (पुक्खरवरदिवड्डे, सिद्धाण बुद्धाणं, वेयावच्चगराणं 30 सूत्र) ना उपधानमा 7 दिवसमा 4 // उपवास करवाना होय छे / 2 उपवासे पुक्खरवरदीवड्ढे सूत्र (पूर्ण ) नी प्रथम वाचना, 4 // उपवासे सिद्धस्तव तेमज वेयावचगराणं सूत्र (पूर्ण) नी बीजी वाचना आपवामां आवे छे। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 103 उपवासनुं प्रमाण आ रीते गणवामां आवे छे-तिविहार के चउविहार उपवास करे तो ते एक उपवास गणाय छ; अथवा 2 आयंबिल, 3 नीवी, 4 एकासणां, 8 चउविहार पुरिमड्ड, 12 तिविहार पुरिमड्ड के 16 दुविहार पुरिमड्ड करे तो ते एक उपवास गणाय छ / __ आ प्रमाणने ध्यानमा राखीने उपधानमां बतावेला तपनुं प्रमाण आ रीते पूर्ण करवामां आवे छे प्रथमना 18 दिवस(अढारिया) ना तपमा 9 उपवास अने 9 एकासणां एकांतरे कराय छ / तेमां 9 एकासणांना 21 उपवास गणतां कुल 111 उपवास थाय / दरेक एकासणाना दिवसे चउविहार पुरिमट्ट कराय छे ते दरेकना ? उपवास गणतां 11 उपवास थाय / ते उमेरतां 11+1=123 उपवासनुं प्रमाण थाय छ। आमां जे 12 // उपवास पूर्ण करवामां ? उपवास खूटे ते एक एकासणाना बदले आयंविल करावीने ए तपस्यानुं प्रमाण पूरुं करवामां आवे 10 छ। आयंबिल अने उपवासना दिवसोमां जे पुरिमट्ट करवामां आवे छे ते ए तपस्यानी अंतर्गत गणवामां आवे छे / वळी, शुक्ल पक्षनी पांचम, आठम, चौदश अने कृष्ण पक्षनी आठम, चौदशनी तिथिओमा एकासणुं आवे तो आयंबिल करवानुं होय छे / आ रीते पहेलु उपधान तप पूर्ण कराय छ / बीजा उपधान तपना अढारियामां पण उपर मुजब तप करवानुं होय छे / त्रीजु उपधान जे 35 दिवसतुं अने पांचमुं उपधान जे 28 दिवसतुं करवामां आवे छे ते 15 पहेला अने बीजा उपधान तपनी साथे ज वहन करवामां आवे तो एकांतरे उपवास अने एकासणानुं तप करवानुं होय छे अने ए उपधान तपो जूदां वहन करवानां होय तो पहेलां 3 उपवास, ते पछी 31 आयंबिल अने छेल्लो उपवास करीने 19 // उपवासर्नु तप पूर्ण कराय छे / पांचमा उपधान-तपमा प्रथम 3 उपवास अने ते पछी 25 आयंबिल करीने 15 // उपवासनुं तप पूर्ण कराय छे। चोथु उपधान चार दिवसनु होय छे / तेमां पहेलां 1 उपवास अने ते पछी 3 आयंबिल करीने कुल 2 // उपवासनी तपस्या पूर्ण थाय छे / छ8 उपधान सात दिवसर्नु होय छे / तेमा प्रथम उपवास, ते पछी 5 आयंबिल अने छेल्लो उपवास करीने 4 // उपवासनुं तप पूर्ण कराय छ / ____ आ स्तोत्रमा ( गाथा 7 ) तेमज 'महानिशीथसूत्र' मां 'उपधान करनार अशक्त होय तो 25 उषधान तपनुं प्रमाण पोतानी शक्ति अनुसार पूर्ण करे' एम जे कहेवामां आव्युं छे ते विधि आजे प्रचलित नथी। 20 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] वद्धमाणविज्जाविही // ॐ नमो अरिहंताणं, ऊँ नमो सिद्धाणं ऊँ नमो आयरियाणं, जै नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं; उ नमो अरहओ भगवओ महईमहावीरवद्धमाणसामिस्ससिझउ 5 मे भगवई महई महाविजा वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जए विजए जयंते अपराजिए अणिहए ॐ ह्रीं ह्रः ठः ठः स्वाहा // // विधिः // (पूज्याराध्यपं० श्रीअमरहंसगणिचरणपादुकेभ्यो नमः // श्रीवर्द्धमानस्वामिने नमः।). पञ्चाङ्गशौचं कृत्वा-ॐ भूरिसि भूतधात्रि सर्वभूतहिते भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा / ' 10त्रिः सृष्ट्या वासक्षेपेण भूमिशुद्धिं कुर्यात् // 1 // 7 अमले विमले सर्वतीर्थजले पाँ पाँ वां वां अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा / ' अञ्जलौ सर्वतीर्थजलं संकल्प्य ललाटादारभ्य पादतलं यावत् स्नायात् // 2 // 'ॐ ह्रीँ इवीं वीं पाँ पाँ वस्रशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा' इति वस्त्रशुद्विः // 3 // 'हाँ ह्रीं हूँ ह्रौँ ह्रः / ' अङ्गुष्ठादिषु वामकरेण न्यसेत् // 4 // अनुवाद प्रथम पंचांग एटले बे हाथ, बे ढींचण अने मस्तक एम पांचे अंग उपर हाथ फेरवी पवित्र बनाक्बां, ते पछी भूमिने शुद्ध करवा माटे आ मंत्र बोलवो "ॐ भूरिसि भूतधात्रि सर्वभूतहिते भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा / " आ मंत्र बोलीने (भूमिनी आसपास ) त्रण वार जमणा आवर्त ( एटले घडियाळना कांटा 20 जे बाजुएथी फरे ते रीत )थी वासक्षेप वडे भूमिने शुद्ध करवी // 1 // पछी-"ॐ अमले विमले सर्वतीर्थजले पाँ पाँवां वां अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा / " . आ मंत्र बोलतां अंजलि-खोबामा समप्र तीर्थोनुं पाणी छे एवो संकल्प करीने ललाटथी मांडीने पगनां तळियां सुधी स्नान करुं छं एवो विचार करवो // 2 // पछी-"ॐ ह्रीँ झ्वी क्ष्वीं पा पाँ वस्त्रशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा / " आ मंत्र बोलता बोलतां वस्रो उपर हाथ फेरवीने वस्त्रोनी शुद्धि करवी // 3 // पछी-"हाँ ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः”—आ मंत्राक्षरो बोलतां डाबा हाथ वडे जमणा हाथनो अंगूठो वगेरे पांचे आंगळीमा क्रमशः एकेक अक्षरनो न्यास करवो // 4 // Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 . 10 नमस्कोर खाध्याय / में विद्युत्स्फुलिङ्गे सर्वकल्मषं दह दह स्वाहा / ' निर्मुजामध्यस्पर्शेन कल्मषदहनं कुर्यात् // 5 // 'ॐ विमलाय विमलंचित्ताय झ्वा वीं स्वाहा / ' हृदयशुद्धिं कुर्यात् // 6 // 'नमो अरिहंताणं अङ्गुष्ठयोः, नमो सिद्धाणं तर्जन्योः, नमो आयरियाणं मध्यमयोः, नमो उवज्झायाणं अनामिकयोः, नमो लोए सव्वसाहूणं कनिष्ठयोः, हृत् - कण्ठे - तालु-भ्रूमध्यं - ब्रह्मरन्ध्रेषु यथासंख्यं हाँ हाँ हूँ है हाँ वामकरण न्यसेत् / ततः 'ॐ कुरु कुल्ले स्वाहाँ वामकरेण वामांस-। वामकुक्षि'-वामचरण -दक्षिणचरण-दक्षिणकुक्षि -दक्षिणांसेएं, ततो वैपरीत्येन तेष्वङ्गेषु 'ही स्वा ले है कुंड' दुःस्वाम-दुर्निमित्ताशनि-विद्युत्-शत्रुभयादिरक्षा // 7 // ____ ततः 'क्षिप में स्वाहा' 'क्षि' पीतवर्ण पदोः, 'प' श्वेतवर्ण नाभौ, '' रक्तवर्ण हृदि, 'स्वा' नीलवर्ण मुखे, 'हा' मृगमदवणं भाले; ततो वैपरीत्येन 'हा स्वा , पक्षि' इति पृथिव्यप्-तेजो-वाय्वाकाशैर्महाभूतैः सकलीकरणम् // 8 // पछी-" विद्युतस्फुलिङ्गे सर्वकल्मषं दह दह स्वाहा / " आ मंत्र बोलतां त्रण वार भुजाओ उपर स्पर्श करीने पापने दहन करवू // 5 // पछी-" विमलाय विमलचित्ताय झ्वी वीं स्वाहा / " आ मंत्र बोलतां हृदय उपर हाथ फेरवीने हृदयशुद्धि करवी // 6 // पछी- अंगूठामा 'नमो अरिहंताणं' बोलीने न्यास करवो / तर्जनीमा 'नमो सिद्धाणं बोलीने न्यास करवो / मध्यमामा 'नमो आयरियाणं' बोलीने न्यास करवो / अनामिकामा 'नमो उवज्झायाणं' बोलीने न्यास करवो / कनिष्ठामा 'नमो लोए सव्वसाहणं' बोलीने न्यास करवो। - पछी-हृदयमा 'हाँ', कंठमा 'ही', ताळवामां 'हूँ, भवां वच्चे हैं अने मस्तकमां-ब्रह्मरंध्रमां 20 't नो क्रमशः डाबा हाथे न्यास करवो। . पछी- डाबा पडखामा 'कु' नो न्यास करवो, डाबी कुक्षीमा 'ह' नो न्यास करवो, डाबा पगमा 'कु' नो न्यास करवो, जमणा पगमा 'ल्ले नो न्यास करवो, जमणी कुक्षीमां 'स्वा' नो न्यास करवो अने जमणा पडखामां 'हा' नो न्यास करवो। . ते पछी ऊलटा क्रमे- जमणा पडखामां 'हा' नो न्यास करवो, जमणी कुक्षीमां 'खा' नो 25 भ्यास करवो, जमणा पगमां 'ल्ले नो न्यास करवो, डाबा पगमा 'कु' नो न्यास करवो, डाबी कुक्षीमा 'ह' नो न्यास करवो; डावा पगमा 'कु' नो न्यास करवो। आ रीते "कुरुकुल्ले स्वाहा" ए रक्षामंत्रथी विधि करतां खराब स्वप्नो, खराब निमित्तो, अग्नि, बीजळी अने शत्रु वगेरेना भय सामे रक्षण थाय छे // 7 // ते पछी-'क्षिप 3 स्वाहा' ए मंत्रथी सकलीकरण क, ते आ रीतेपगमां पीतवर्णनो 'क्षि' छे एवो संकल्प करवो। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वढमाणविजाविही। ॐ ॐ नमः' सामान्यार्थः, वासैः संवृतपट्टपूजा / ततो मण्डलोद्घाटनं पट्टनिश्चलीकरणं, गर्भादारभ्य मण्डलपूजां कृत्वा आवाहनादिपञ्चकं स्वस्वमुद्राभिः कुर्यात् / तद् यथा “ॐ ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानस्वामिन् ! एोहि संवौषट् / ' इत्याहानं आवाहन्या मुद्रया // 1 // 5 ॐ हाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः / ' स्थापन्या स्थापनम् // हत्कमलादवतार्य पटे स्थापयेत् // 2 // ॐ हाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! मम संनिहितो भव वषट् / ' संनिधापन्या संनिधापनम् // 3 // नाभिमां श्वेतवर्णनो 'प' छे एवो संकल्प करवो / 10 हृदयमा लाल वर्णनो 'ॐ' छे एवो संकल्प करवो / मुखमां नील वर्णनो 'खा' छे एवो संकल्प करवो। ललाटमां कस्तूरी जेवा (श्याम ) वर्णनो 'हा' छे एवो संकल्प करवो। . ते पछी ऊलटा क्रमे - ललाटमां श्याम वर्णनो 'हा' छे एवो संकल्प करवो। मुखमां नील वर्णनो 'खा' छे एवो संकल्प करवो। हृदयमां लाल वर्णनो ''छे एवो संकल्प करवो। नाभिमां श्वेत वर्णनो पछे एवो संकल्प करवो। पगमां पीत वर्णनो 'क्षि छे एवो संकल्प करवो। आ रीते पृथ्वी, अप, तेज, वायु अने आकाश ए पंच महाभूतोनो विचार करतां 'सकलीकरण' थाय छे // 8 // 20 ' , नमः' ए सर्वसाधारण अर्थसूचक मंत्र छे / ए मंत्र बोलीने बांधेला अने वीटी राखेला 'वर्धमानविद्या' ना पटनी पूजा करवी।। ते पछी ए पटने खोलवो अने बराबर स्थिर करवो / तेयां गर्भ-वच्चेना बिंदुथी मांडीने समप्र पटनां मंडलो-आवर्तानी पूजा करवी / ते पछी आवाहन वगेरे (1 आवाहन, 2 स्थापना, 3 संनि धान, 4 संनिरोधन अने 5 अवगुंठन ) पांच उपचार-पूजाओ पोतपोतानी मुद्राओथी करवी; 25 ते आ रीते " ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानस्वामिन् ! एोहि संवौषट् / " आ मंत्र बोलीने आवाहनी मुद्रावडे आवाहन करवू / (1). “ॐ हीं नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानखामिन् ! तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।" आ मंत्र बोलीने स्थापनी मुद्रावडे स्थापना करवी / अर्थात् (भगवानने ) हृदयकमळमाथी 30 उपाडीने पटमां स्थापन करवा / (2) " हाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानवामिन् ! मम संनिहितो भव वषट् / " : आ मंत्र बोलतां संनिधापनी मुद्रावडे संनिधापन करतुं' एटले सामीप्य कर / (3) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 107 'ॐ ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! पूजान्तं यावदत्रैव स्थातव्यम्' संनिधिन्यासनिरोधनम् // 4 // ___उहाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! परेषामदृश्यो भव / ' अवगुण्ठन्याऽवगुण्ठनम् इति // 5 // ___ततः 'ॐ हाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! गन्धादीन् गृह्ण गृह्ण नमः / ' गन्धादीभिः / पूजा / अमृतमुद्रया सजीवितापादनं, समवसरणभगवद्रूपध्यानम् // 6 // ततश्छोटिका विघ्नत्रासार्थम् // 7 // सौभाग्य-परमेष्ठि-प्रवचन-सुरभि-कुताञ्जलीलक्षणमुद्रापञ्चकं मूलमन्त्रजापपूर्व दर्शयेत् / ततो 108 जापो मेरूल्लङ्घन-भूकम्पोष्ठचालनदन्तविवृतित्यागः / जापान्तेऽस्त्रमुद्रयाऽऽसनक्षोभणम् // 8 // __ "G आज्ञाहीनं क्रियाहीनं, मन्त्रहीनं च यत् कृतम् / ___ तत् सर्वं कृपया देव ! क्षमस्व परमेश्वर ! // " इति श्लोकं पठित्वा-'ॐ हाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्द्धमानस्वामिन् ! पुनरागमनाय स्वस्थानं गच्छ गच्छ यः यः यः' इति संहारमुद्रया विसर्जनम् / सुष( षु )म्णया पूरकेण हृत्कमलं प्रत्यानयेत् // "ॐ हौँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानस्वामिन् ! पूजान्तं यावदत्रैव स्थातव्यम् / " .. आ मंत्र बोलतां संनिधिन्यासनो निरोध करवो-(अर्थात् भगवानना सामीप्यने वधु स्थिर 15 करवु।) (4) "उहाँ नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानस्वामिन् ! परेषामदृश्यो भव / " आ मंत्र बोलतां अवगुंठनी मुद्रावडे अवगुंठन एटले आच्छादन करवू / (5) ते पछी- " ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानस्वामिन् ! गन्धादीन् गृह्ण गृह्ण नमः।" आ मंत्र बोलतां गंध( वासक्षेप )वडे पूजा करवी / अमृतमुद्राथी तेओ जीवंत छे एवो 20 संकल्प करवो अने भगवान समवसरणमां बेठेला छे एबुं ध्यान करवु / (6) पछी विनोना नाश माटे छोटिका करवी ( अर्थात् दश दिशाओने बांधी लेवी / ) (7) वर्धमानविद्याना मूल मंत्रनो जाप करतां 1. सौभाग्यमुद्रा, 2. परमेष्ठीमुद्रा, 3. प्रवचनमुद्रा, 4. सुरभिमुद्रा अने 5. अंजलीमुद्रा-ए पांच मुद्राओ करी बताववी।। ___ए पछी ( वर्धमानविद्या) मंत्रनो 108 वार जाप करवो / जापमां नवकारवाळीना मेरुने, ओळंगवो नहीं, ( एटले मेरुपूर्वक जाप करवो, ) भवां हलाववां नहीं, ओठ फफडाववा नहीं, दांत खुल्ला करवा नहीं / जाप पूरो कर्या पछी अस्त्रमुद्रा वडे आसनने हलावतुं / (8) पछी- “ॐ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं मत्रहीनं च यत् कृतम् / तत् सर्व कृपया देव! क्षमख परमेश्वर ! // " * *(आ प्रकारे विधि करतां-) हे देव परमेश्वर! आपनी आज्ञा ऊठाववामां, क्रिया-विधिमा अने मंत्रमा जे सेंबली भावी होय ते कृपा करीने माफ करजे। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 वद्धमाणविजाविही। [मा इति देवतावसरे नित्यकृत्यं वाचनाचार्योपाध्याययोः // यदा वर्धमानविद्याजापप्रारम्भो विधीयते तदा- 'इमं विजं पउंजामि सिज्झउ मे पसिज्मउ / ' इति प्राक् सर्यते / जापः सफलीभवति सर्वः / सावित्रीमूलस्थापिताङ्गुष्ठाञ्जलिरावाहनी // 1 // सैवाधोमुखी स्थापनी // 2 // ऊर्धाङ्गुष्ठे मुष्टी मिलिते संनिधापनी // 3 // अभ्यन्तराङ्गुष्ठे मुष्टी मिलिते संनिरोधिनी // 4 // मुष्टिं बद्धा प्रसारिततर्जनी - मध्यमोपरि निवेशिताऽङ्गुष्ठाऽवगुण्ठनी // 5 // दक्षिणमुष्टिं बद्धा तर्जनी - मध्यमे प्रसारयेद् इति अस्त्रमुद्रा // 6 // अङ्गुलीक्रमसंकोचनलक्षणः दक्षिणकरसंनिवेशः संहारमुद्रा // 7 // यासां विद्यानां यावान् जापः तावतो समाप्तौ स्वापस्खलिते जापनष्फल्यं, अतः पुनः प्रारब्धव्यः॥ आ श्लोक बोलीने नीचेनो मंत्र भणवो " ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानखामिन् ! पुनरागमनाय खस्थानं गच्छ गच्छ यः यः यः।" 15 आ मंत्र बोलतां संहारमुद्रा करीने (देवनुं) विसर्जन कर। एटले सुषुम्णा नाडीमां पूरक करीने (श्वास लईने ) हृदयकमलमां (भगवानने ) पाछा स्थापन करवा। आ रीते देवनी पूजा करतां वाचनाचार्य अने उपाध्याये आ कृत्यविधि नित्य करवी। ज्यारे वर्धमानविद्याना जाप करवामां आवे त्यारे सौ प्रथम-"इमं विजं पउंजामि सिन्काउ मे पसिज्झउ" एम बोलीने जापनी शरूआत करवी जोईए / आम बोलवाथी बधो आप सफल 20 थाय छे। (मुद्राओ) . 1. बे हाथ वडे अंजलि करीने अनामिकाना मूळना पर्वमा अंगूठा लगाडी राखवा तेने ___'आवाहनी मुद्रा' कहे छ। 2. आह्वाहनी मुद्राने ज ऊलटी रीते बताववी तेने 'स्थापनी मुद्रा' कहे छ / 28 3. बने हाथनी मूठीओ वाळी अंगूठाने ऊंचा करवा तेने 'संनिधापनी मुद्रा' कहे छ। 4. बने हाथनी मूठीओमां अंगूठा दबावी राखवा तेने 'संनिरोधिनी मुद्रा' कहे छ। 5. बने हाथनी मूठीओ वाळी तर्जनी आंगळीओने लांबी करवी अने मध्यमा आंगळी उपर अंगूठा लगाडवा तेने 'अवगुंठनी मुद्रा' कहे छ। 6. जमणा हाथनी मूठी वाळी तर्जनी अने मध्यमा आंगळीओने लांबी करवी तेने 'असमुद्रा' कहे छ। 7. जमणा हाथनी आंगळीओने एक पछी एक एम संकोची लेवी तेने 'संहारमुद्रा' कहे छ। 30 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 नमस्कार स्वाध्याय / 109 ___“ॐ नमो भगवओ महइ महापद्धमापसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महई महाविजा वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाप्यवीरे जये विजये जयंते अपराजिए स्वाहा // प्रातरवश्य वार 21 या - अथवा 108 बप्त्वा ] भुञ्जीत / एतत्प्रभावात् सौभाग्यमापदां नाशो, राजपूज्यः श्रियां पतिः / ___ दीर्घायुः शाकिनीरक्षा, सुगतिः स्पाद् भवान्तरे // इमां ग्रामप्रवेशे 21 वार जाप्त्वा प्रविशेत्, शोभनं कार्य भवति / तथा गोरोचन - कुङ्कुम - चन्दन- केसर-जाती-फल -कर्पूर - कस्तूरी-एतचूर्णमनुकूले चन्द्रे प्रीतौ सौभाग्ये वा योगे वा 108 अभिमन्य चूर्णेन तिलके कृते राजकुले राजकार्यकारी स्यात् / “ॐ नमो भगवओ महइ महावद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महई महाविज्जा वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जये विजये जयंते अपराजिते स्वाहा / ' उत्तरफाल्गुन्यामुपवासो जातिकुसुमैर्वर्द्धमानजिनस्याग्रतः सहस्रजापात् सिद्धयति / उत्तरकालं शुचिर्भूत्वा वार 21 मुखमभिमध्य यत्र व्रजेत् तत्र सर्वजनप्रियो भवति / अनयैव विद्यया बीजमभि जे विद्यानो जेटलो जाप कहेवामां आव्यो होय ते पूर्ण करतां वच्चे ऊंघ आवी जाय तो .. नाप निष्फळ थाय छे; तेथी ए जाप फरी करवो जोईए / - "ॐ नमो भगवओ महइ महावडमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महई महाविजा 16 वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे बद्धमाषवीरे जये विजये जयंते अपराजिए वाहा // " .... आ 'वर्धमानविद्या'नो प्रबिदिन सकारे 21 अथवा 108 वार जाप कर्या पछी जमवू जोईए / .. आ विद्याना प्रभावथी-सौभाग्य मळे, आपत्तिओनो नाश थाय, राज्यमां मान वधे, धनवान् थाय, लांबुं आयुष्य मळे, शाकिनीओ सेनुं रक्षण करे अने भवांतरमां तेने सद्गतिनी प्राप्ति थाय छ / __गाममा प्रवेश करवानो होय त्यारे आ विद्यानो 21 वार जाप करीने प्रवेश करतां बधां 20 कार्यों सारी रीते पार पडे छ। वळी, गोरोचन, कुंकुम, केसर, जाईनुं फूल, फळ, (श्रीफळ ?) कपूर, कस्तूरी-ए बधांनुं चूर्ण बनावीने चंद्र अनुकूळ होय अने प्रीतियोग अगर सौभाग्ययोग होय त्यारे आ वर्धमानविद्याथी 108 वार मंतरीने ए चूर्णथी तिलक करवामां आवे तो राजकुळमां राज्यकार्योमां यश मळे / ___ "ॐ नमो भगवओ महइ महावद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महई महाविजा 25 वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जये विजये जयंते अपराजिते स्वाहा // " / ___ आ वर्धमानविद्यानो, जे दिवसे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र होय ते दिवसे, उपवास करीने, जाईनां पुष्षो वडे, श्रीवर्धमानस्वामीनी मूर्ति आगळ एक हजार वार जाप करवाथी ते विद्या सिद्ध थाय छे। ___पछी (विद्या सिद्ध थया पछी कार्यप्रसंगे) पवित्र थईने 21 वार पोतानुं मुख मंतरीने ते ज्यां जशे त्यां दरेक माणसने प्रिय थई पडशे / 30 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद्धमाणविजाविही। मयोपोषणपूर्व कोष्ठागारे निक्षिपेत् धान्यराशिर्न व्यति / मुखं कर्ण वाऽभिमत्र्य स्वपिति स्वमे शुभाशुभं वक्ति / अनयैवाभिमन्य सर्वान् भोजयति, छुते च दैवापराजितो भवति // इति गौतमवाक्यम् // वाचकश्रीहंससोमगणिना लिपीकृतम् // श्रीः॥ आ ज विद्याथी (धान्यना बीजने ) मंतरीने, उपवास करी धान्यभंडारमा नाखवामां आवे 5 तो अनाजनो ढगलो खूटतो-ओछो थतो नथी / आ विद्याथी मों अगर कानने मंतरीने सूई जाय तो तेने स्वप्नमां शुभ-अशुभ कार्यनी सूचना मळे छे / आ विद्याथी ज मंतरीने गमे तेटला माणसोने जमाडी शकाय, जुगारमा नसीबना कारणे अपराजित बने छ / आ गौतमस्वामीनुं वचन छ। . (प्रति-परिचयः) 'उवहाणविहिथुत्त'मां वर्धमानविद्यानो उल्लेख आवे छे, तेथी ए विद्यानो परिचय विधि10 सहित कराववा माटे आ रचना अहीं आपवामां आवे छे / जो के 'वर्धमानविद्या' अनेक प्रकारे जूदे जूदे स्थळे नोंधायेवी मळे छ। 'महानिशीथसूत्र'मां एनो पाठ आपेलो छे, तेमज 'सूरिमन्त्रकल्पसंदोह' मां पण वर्धमानविद्याना पाठो अने कल्पो जोवामां आवे छे / वळी, 'नमस्कार-व्याख्यानटीका'मां पण आ विद्यानो पाठ आपेलो छे, पण तेमां केटलोक पाठभेद छ / आ रचनामां 'वर्धमानविद्या' नो पाठ विधिसहित छे अने व्यवस्थित रीते 16 तारवीने आपेलो छे ते साधकने उपयोगी थई पडशे / आ रचनानी एक पानानी प्रति पूज्य मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराजश्री पासेथी मळी हती; तेना उपरथी आ विधिने संपादित करवामां आवेल छे अने तेनो अनुवाद पण आप्यो छे। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [8] भयवया सिरिभद्दबाहुसामिणा विरहया सिरिआवस्सयसुत्तंतग्गया णमोकारणिज्जुत्ती॥ उप्पत्ती निक्लेवो' पर्य' पयत्थो परूवणी वत्थु / अक्खेवं पसिद्धिं कमो' पओयणं फलं' नमुकारो // 1 // 887 // भाववाही अनुवाद। नमस्कारनुं ज्ञान मेळववा नीचेना विषयो ( द्वारो) जणावे छेशब्दार्थ-१. उत्पत्ति, 2 निक्षेप, 3 पद, 4 पदार्थ, 5 प्ररूपणा, 6 वस्तु, 7 आक्षेप, 8 प्रसिद्धि, 9 क्रम, 10 प्रयोजन अने 11 फळ—आ अगियार द्वारोथी-प्रश्नोथी नमस्कारनो विचार ____कराय छे / (1) विवेचन-१. उत्पत्ति द्वार-उत्पत्ति एटले उद्भव / नमस्कारनो भाव उत्पन्न थवो ते उत्पत्ति द्वार कहेवाय छ / विशेष प्रकारे तो नमस्कारनी उत्पत्ति अने अनुत्पत्ति नयनी विचारणा द्वारा ___जाणी शफाय / 2. निक्षेप द्वार-निक्षेप एटले न्यास / नमस्कारनो न्यास नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव ए चार . प्रकारोथी थाय छ / 3. पद द्वार-नाम, अव्यय, आख्यात ए बधां पद कहेवाय छे / ए द्वारा बस्तुनो बोध थाय छ। - नमस्कार पण ए पदोथी जणाय छे। .:4. पदार्थ द्वार-द्रव्य अने भाव पूर्वक नमस्कारनां पदोनी व्याख्या करवी तेने पदार्थ द्वार कहे छ / . पदार्थ नमस्कारने बतावनारो छ। आगळनी गाथाओ (9-859) ना व्याख्याननो ए विषय छ। 5. प्ररूपणा द्वार-वाच्य-वाचकभाव, प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव, अने विषय-विषयी भावनी दृष्टिए 20 ... नमस्कारनां पदोनुं व्याख्यान करवू तेने प्ररूपणा द्वार कहे छ। 6. वस्तु द्वार-जेमां गुणो रहे ते वस्तु कहेवाय / ते गुणोने योग्य वस्तु वस्तु द्वारमा कहेवाय छ / गुण अने गुणीमां कथंचित् भेद-अभेदपणुं होवाथी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए पंच परमेष्ठी ज नमस्कारने योग्य वस्तु छ। 7. आक्षेप द्वार-नमस्कार मंत्रना विषयने समजवा माटे विशेष रीते केटलीक आशंकाओ कल्पवी 25 जोईए, तेनुं विवरण आ द्वारमा करवामां आव्युं छे / 8. प्रसिद्धि द्वार-उपर्युक्त द्वारमा उपस्थित करेली आशंकाओनुं समाधान प्रसिद्धि द्वारमा करेलुंछे। 9. क्रम द्वार-नमस्कार मंत्रमा अरिहंत, सिद्ध वगेरेनो जे क्रम राखवामां आव्यो छे तेनो विचार - क्रम द्वारमा करायो छे। 10. प्रयोजन द्वार-नमस्कार मंत्रनुं प्रयोजन जे मोक्ष, तेनो विचार प्रयोजन द्वारमा कर्यो छे। 30 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 णमोक्कारणिबुत्ती। [प्राकृत उप्पन्नाणुप्पन्नो इत्थ नवाऽऽइ निममस्सप्पनो। सेसाणं उप्पन्नो जइ कत्तो ? तिविहसामित्ता // 2 // 888 // समुट्ठाणचायणा लद्धिओ पढमे नयत्तिए तिविहं / उज्जुसुय पढमवजं, सेसनया लद्धिमिच्छंति // 3 // 889 // 511. फळ द्वार-क्रिया कर्या पछी जे मळे ते फळ / नमस्कारतुं फळ स्वर्ग वगेरे, तेनो विचार फळ द्वारमा कर्यो छे / केटलाक स्वर्ग वगेरेने प्रयोजन कहे छे अने अपवर्गने फळ जणावे छे। नमस्कार मंत्र आ बधां अगियार द्वारोथी जाणचा योग्य छे // 1. (887) // 1. उत्पत्ति द्वार। श-नमस्कार उत्पन्न छे के अनुत्पन्न छ ? सेमा आदि नैगमनय अनुसारे अनुत्पन्न छ, 10ज्यारे बीजा नयो अनुसारे उत्पन्न छ / जो उत्पन्न छे तो केवी सते ? ए त्रण प्रकारना खामीपणाथी छ / ते त्रण प्रकारो-समुत्थान, वाचना अने लब्धिरूप कारणथी, नैगम आदि त्रण नयोमा ए त्रिविध कारणो छे, अने बीजा नयोमा लधि मात्र ज एक कारण छे / (2-3). वि०-नमस्कार बे प्रकारनो छ। 1 उत्पन्न एटले अनित्य अने 2 अनुत्पन्न एटले नित्य / आदि नैगम नय (सर्वसंग्राही नैगम नय) वस्तुना सामान्य विषयने ज ग्रहण करे छे, तेथी 16 ते मात्र नित्यपणाना विषयने ज अवलंबे छे, उत्पाद अने व्ययने ते ग्रहण करतो नथी, माटे नमस्कारनो आदि नैगम नयनी अपेक्षाए विचार करीए तो ते (नमस्कार) नित्य छे, अर्थात् अनुत्पन्न छे; ज्यारे वीजा नयो-देशसंग्राही नैगम, व्यवहार वगेरे नयोथी नमस्कार मंत्र उत्पन्न एटले अनित्य छ। प्रश्न-नमस्कार उत्पन्न (अनित्य ) छे तो ते कयी रीते ? उत्तर-नमस्कारनी उत्पत्तिमा 1 समुत्थान, 2 वाचना अने 3 लब्धि ए त्रण हेतुओ छ। 20 आ त्रणे हेतुओनो ए (नमस्कार) स्वामी छे तेथी ते उत्पन्न छ / 1. समुत्थान-देहधारी प्राणी ज नमस्कार मंत्रने. धारण करे छे / अने देहनी प्राप्ति तो बीज-अंकुर (बीजथी अंकुर अने अंकुरथी बीज) न्याये अनादि काळ्थी थती रहे छ / वळी, प्रत्येक जन्ममा शरीर भिन्न भिन्न होय छे ए कारणे वर्तमान जन्मना शरीरनी अपेक्षाए नमस्कार मंत्र आदिवाळो छे-तेनी उत्पत्ति थाय छे। . 2. वाचना-नमस्कार मंत्रनी प्राप्ति गुरुवचनोथी थाय छ आथी ते उत्पन्न छे अने आदिवाळो छ। 3. लब्धि-नमस्कार मंत्रनी प्राप्ति योग्य श्रुतावरणनां कर्मोनो क्षय थतां ज थाय छ। आ अपेक्षाए नमस्कार मंत्र उत्पाद-व्ययवाळो छे, एटले अनित्य छे एम प्रतीत थाय छ / नमस्कार उत्पन्नानुत्पन्नम् एटले उत्पन्न अने अनुत्पन्न छतां बनेनुं अधिकरण-आश्रय एक .. ज छे / केम के स्याद्वादीओ बनेनुं समानाधिकरण मानीने एकवचनना प्रयोगथी एषो समास की Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 113 शके, पण बीजा एकांतवादीओ एवा एकवचनना प्रयोगथी समास करी शकता नथी। केम के ते एकांतवादीओनो मत एवो छे के, वस्तुमा एक ज समये परस्पर विरुद्ध एवा धर्मो-गुणो रहेता नथी। ज्यारे अनेकान्तवादीओ एक ज वस्तुमा एक ज समये परस्पर विरोधी गुणो रही शके एम माने छे'। 1. समुत्थान-प्रणिपात माटे शरीर( ना हाथ-पग वगेरे )नुं समुचित उत्थान / तेनाथी नमस्कार उत्पन्न थाय छे / नमस्कार माटे देह सिवाय बीजु कारण सांभळवामां आवतुं नथी। आथी 5 नमस्कारनो आधार अने सामीप्य देहर्नु ज गणाय। नमस्कारना भावनी सत्ता तेमां होवाना कारणे समुत्थानथी नमस्कार उत्पन्न थाय छे। 2. वाचना-बीजा पासेथी अध्ययन ग्रहण करवं, तेनुं श्रवण करवू अथवा तेनुं अर्थ सहित ज्ञान प्राप्त करतुं अथवा तेनो उपदेश लेवो तेने 'वाचना' कहे छे। ते नमस्कारनुं कारण होवाथी तेनाथी नमस्कार उत्पन्न थाय छ / 10 3. लब्धि-तेवा प्रकारनां श्रुतावरणीय कर्मोनां आवरणनो क्षयोपशम थाय तेने 'लब्धि' कहे छे। ते लब्धिथी नमस्कार उत्पन्न थाय छे / ____ आ त्रण प्रकारना स्वामित्वरूप कारणथी आदि नैगम, संग्रह अने व्यवहार ए त्रण नयोमा समुत्थान, वाचना अने लब्धि ए त्रणे कारणो होय छे। ऋजुसूत्रनयमां समुत्थान सिवायनां बे जयाचना अने लब्धि कारणो होय छे; केमके, तेमां समुत्थान घटतुं नथी अने शब्द, समभिरूढ तेमज 15 एवंभूत ए नयोमा मात्र लब्धि ज एक कारण मनाय छे; तेमां वाचना घटती नथी। केमके, भारे 1. आ विषयने नयना प्रकारोथी विस्तारपूर्वक जणावे छे-१ नैगम, 2 संग्रह, 3 व्यवहार, 4 ऋजुसूत्र, 5 शब्द, 6 समभिरूढ अने 7 एवंभूत; एम सात नयो छ / नैगमनय बे प्रकारे छ। 1 सर्वसंग्राही नैगम अने 2 देशसंग्राही नैगम। - सर्वसंग्राही नैगमनय सामान्य मात्र विषय- अवलंबन करतो होवाथी अने नमस्कार पण सामान्यमा अंतर्गत होवाथी तेना मते नमस्कार उत्पाद अने व्ययथी रहित छे। बाकीना नयो विशेषग्राही होवाथी तेनी उत्पत्ति अने नाश थया करे छे / जो उत्पत्ति अने नाश न थतो होय तो ते नमस्कार वन्ध्यापुत्रनी माफक अवस्तु गणात; पण नमस्कार वस्तु छे तेथी ते उत्पन्न थाय छे। प्र०-बाकी नयोमां संग्रहनय तो विशेषने ग्रहण करतो नथी, ए तो सामान्यनुं ग्रहण करे छे तो बाकीना नयोमा तेने शा खातर गण्यो? उ०-संग्रह नयनो प्रथमना सर्वसंग्राही नैगम नयमा समावेश थाय छे एटले बाकीना नयोमा संग्रहने गणवानो नथी। मतलब के, सामान्य एवा 'सत्ता' वगेरे धर्मोनी अपेक्षाए नमस्कार मंत्र अनुत्पन्न छे; ज्यारे संस्थान, आनुपूर्वी वगेरे विशेष धर्मोनी अपेक्षाए ते उत्पन्न थाय छ / प्र०-सत् मात्रग्राही आदि नैगम नयनी अपेक्षाए नमस्कार अनुत्पन्न एटले नित्य छे तो ते जणातो केम नथी? उ०-आवरणना कारणे जेम आत्मानुं खरूप जणातुं नथी तेम नमस्कारने पण कोई जाणी शकतुं नथी; एटले अभावना कारणे नमस्कार जणातो नथी एम नहि. पण आवरणथी ते जणातो नथी / (विशेष समजूती माटे जूओ 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय 1, सूत्र 34-35, उपरनुं पं. सुखलालजीनुं हिंदी विवेचन-पृ. 58 थी 75.) 15 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत निहाइ दव्व-भावोवउत्त जं कुज सम्मदिट्ठी उ / नेवाइअं पयं दव्व-भावसंकोयणपयत्थो॥ 4 // 890 // कर्मी जीव वाचना लेवा छतां नमस्कारने पामतो नथी ज्यारे लघुकर्मी जीव वाचना विना पण तदावरण कर्मना क्षयोपशमथी ते नमस्कारने अवश्य पामे छे, माटे लब्धि ज तेनो हेतु छे, वाचना नथी / 5 पहेला त्रण नयो समुत्थान, वाचना अने लब्धिने कारण माने छ / ऋजुसूत्र वाचना अने लब्धिने कारण माने छे अने शब्द, समभिरूढ तेमज एवंभूत ए नयो एक ज लब्धिने ज कारण माने छे'। 2-3, (888-889) 2. निक्षेप द्वार। श-निह्नव वगेरे जे नमस्कार करे ते द्रव्य नमस्कार छे अने उपयोगवंत सम्यग्दृष्टि जे 10 नमस्कार करे ते भाव नमस्कार छ। 'नमः' ए नैपातिक 'पद' छे अने द्रव्य, तथा भाषनो संकोच ते 'नमो' शब्दनो 'पदार्थ' छे / (4) वि०-निक्षेप एटले न्यास। दरेक शब्दना ओछामा ओछा चार अर्थो जोवामां आवे छे। ए ज चार अर्थ ए शब्दना अर्थ-सामान्यना चार विभाग छे / ए विभागने ज निक्षेप एटले 'न्यास' कहे छे, ते न्यास चार प्रकारनो छ / 16 1. नाम निक्षेप-जे अर्थ व्युत्पत्तिसिद्ध न होय पण फक्त लोकोना संकेतबळथी जाणी शकायते। 2. स्थापना निक्षेप-जेमां मूळ वस्तुनो आरोप करायो होय ते। 3. द्रव्य निक्षेप-भाव निक्षेपनी पूर्व अथवा उत्तर अवस्था होय ते। 4. भाव निक्षेप-जे अर्थमां व्युत्पत्तिनिमित्त अने प्रवृत्तिनिमित्त घटतुं होय ते / ए रीते नमस्कारना चार निक्षेपो थाय छ / 1. नाम नमस्कार-कोई वस्तुविशेषने 'नमः- नमस्कार' एवं नाम आप्युं होय ते नाम नमस्कार / 20 2. स्थापना नमस्कार-कोई वस्तुविशेषमां 'नमः' एम लखीने स्थापना करवामां आवे, ते स्थापना नमस्कार। 3. द्रव्य नमस्कार-निह्नव वगेरे जे नमस्कार करे ते अथवा भाव नमस्कारनी पूर्व के उत्तर अवस्था होय ते द्रव्य नमस्कार / १.प्र०-वाचना क्षयोपशमरूप कारणर्नु परंपरा कारण होवाथी नमस्कारनुं कारण छे एम केम न मनाय? ७०-ना, एम मानवामां आवे तो, बधी बाह्य वस्तु पृथ्वी, आसन, शयन, आहार, वस्त्र, पात्र वगेरे जे क्षयोपशमना कारण छे तेथी ते पण परंपराए नमस्कारर्नु कारण बनी जशे। प्र०-वाचनारूप शब्द मात्रमा ज कारणनो नियम शा माटे कहो छो? परंपराए तो बधी बाह्य वस्तुओ पण नमस्कारना कारणने उपकारी छे, तोपण वाचना नजीकर्नु उपकारी होवाथी ते तेनुं कारण छ एम केम न मनाय ? उ०-एम थाय तो तो मात्र लब्धिने ज तेनुं ऐकांतिक कारण मानी लेवू जोईए; केमके ते ज नमस्कारनुं नजीकर्नु कारण छे / जो एम मानवामां आवे तो वाचना मात्रनो नियम सिद्ध नहीं थाय, अने पूर्वोक्त पृथ्वी, आसन, शयन वगेरे पण तेनां कारण बनी अशे। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय / 115 4. भाव नमस्कार - उपयोगवंत सम्यग्दृष्टि जीव अरिहंत वगेरेने नमस्कार करे ते भाव नमस्कार। नमस्कार अने नमस्कारवानना अभेद उपचारथी निहव तेमज द्रव्यने माटे जे कोई विद्या, मंत्रदेवता वगेरेने नमस्कार करे ते 'द्रव्य नमस्कार' कहेवाय छे; ज्यारे उपयोगवंत सम्यग्दृष्टि जीव अरिहंत वगेरेने नमस्कार करे ते 'भाव नमस्कार' कहेवाय छ / . द्रव्य नमस्कार बे प्रकारनो छे-१ आगमथी अने 2 नोआगमथी। जे उपयोग रहितपणे / 'नमः' नमस्कार भणे ते आगमथी द्रव्य नमस्कार कहेवाय / नोआगमथी द्रव्य नमस्कार त्रण प्रकारे छे-१ ज्ञशरीर (ज्ञायक), 2 भव्य शरीर अने 3 तद्व्यतिरिक्त / जेणे नमस्कार जाणेल छे एवा आत्मानुं शरीर ते 'ज्ञशरीर द्रव्यनमस्कार' कहेवाय छे / जे शरीरथी आत्मा भविष्यमा नमस्कार जाणशे ते शरीर 'भव्यशरीर द्रव्यनमस्कार' कहेवाय छे अने मिथ्यात्वथी रंगायेल निह्नव वगेरे भावथी जे नमस्कार करे छे ते अने सम्यग्दृष्टि 10 जीव उपयोग रहितपणे जे नमस्कार करे ते 'तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनमस्कार' कहेवाय छ। ___मिथ्यादृष्टिनुं ज्ञान सद्, असना विशेषोथी रहित होय छे, ते भवहेतुक होय छे, स्वेच्छाए प्राप्त करेलुं होय छे अने तेमां ज्ञानना फलनो अभाव होय छे तेथी ते अज्ञानरूप छे / एटले भावपूर्वक नमस्कार करनारा निह्नवो जे नमस्कार करे ते, तेमज द्रव्यने माटे देवता वगेरेने नमस्कार कराय ते, अगर भय वगेरेना कारणथी, जेम भिखारी राजाने नमस्कार करे तेम, असंयतिने नमस्कार 15 कराय ते 'द्रव्य नमस्कार' कहेवाय छे। भाव नमस्कार पण बे प्रकारनो छे-१ आगमथी अने 2 नोआगमथी। नमस्कारना अर्थने जाणनार अने तेमां उपयोगवान् जे होय ते 'आगमथी भावनमस्कार' कहेवाय छे, अने नमस्कार करवामां मन वडे उपयोगवंत 'अरिहंतने नमस्कार थाओ' एम वचनवडे बोले तेमज हाथ-पग संकोचवा वडे नमस्कार करे त्यारे ते नमस्कार 'नोआगमथी भावनमस्कार' कहेवाय छे।। 3. पद द्वार / जेनी द्वारा अर्थनो बोध थाय ते 'पद' कहेवाय छे। तेना पांच प्रकारो छे-१ नामिक, 2 नैपातिक, 3 औपसर्गिक, 4 आख्यातिक अने 5 मिश्र।। 1. संज्ञावाचक प्रत्ययोथी सिद्ध थता शब्दो ते 'नामिक पद' कहेवाय छे, जेम-अश्व, घट वगेरे। 2. अव्ययवाची शब्द 'नैपातिक पद' कहेवाय छे, जेम-खलु, ननु वगेरे। 3. उपसर्गवाचक शब्द 'औपसर्गिक पद' कहेवाय छे, जेम-परि, परा वगेरे।। 4. क्रियावाचक धातुओथी निष्पन्न थता शब्दो 'आख्यातिक पद' कहेवाय छे, जेम-धावति, पचति वगेरे। 5. कृदंत-कृत्प्रत्यय अने तद्धित प्रत्ययोथी निष्पन्न शब्दो 'मिश्रपद' कहेवाय छे, जेम-संयत, नायक, पावक वगेरे / 20 25 30 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत आ प्रकारना पदोमांथी अहीं नैपातिक पदनो अधिकार छे, जे 'नमः' पद अर्हत् वगेरेनी आदिमां के अंतमां आवेलुं छे ते 'नैपातिकपद' छ / नमस्कारमंत्रमा प्रयुक्त शब्दोनुं वर्गीकरण करीने तेना अर्थोनुं अवधारण करवू ए पदद्वारनुं प्रयोजन छे / शब्दोनी निष्पत्तिने ध्यानमा राखी नैपातिक वगेरे शब्दोनो अर्थ अने तेनुं रहस्य 5 जाणवू ए ज आ द्वारनो उद्देश छ। तात्पर्य ए छे के, नमस्कारमंत्रना पदोनी प्रकृति अने प्रत्ययनी दृष्टिए व्याख्या करवी ए पदद्वार छे। 4. पदार्थ द्वार। नमस्कारमंत्रना पदोनी द्रव्य अने भावपूर्वक व्याख्या करवी ते पदार्थ द्वार छ / 'नमो अरिहंताणं आ पदोमा 'नमो' शब्द पूजार्थक छ। पूजा बे प्रकारे संपन्न थाय छे-१ द्रव्य संकोचथी 10अने 2 भाव संकोचथी। द्रव्यसंकोचनो अर्थ ए छे के, हाथ, मस्तक वगेरे झुकाववां-नम्र बनाववां अने भावसंकोचथी ए अभिप्राय छे के, अरिहंत वगेरेना गुणोमां विशुद्ध मनने जोडवू / द्रव्यसंकोच अने भावसंकोचना संयोगथी चार भंग थाय छे-१. द्रव्यसंकोच होय पण भावसंकोच न होय / 2. भावसंकोच होय पण द्रव्यसंकोच न होय / 3. द्रव्यसंकोच होय अने भावसंकोच पण होय / 4. द्रव्यसंकोच न होय तेम भावसंकोच पण न होय / / 15 हाथ, मस्तक वगेरेने नम्र करे पण अंतरंग परिणतिमां नम्रतानो भाव प्रवेश न पामे अर्थात अंतरंग परिणतिमां श्रद्धानो अभाव होय अने श्रद्धा होवानो देखाव करे ते प्रथम भंगनो अर्थ छ। आ रीते करेला नमस्कारतुं फळ जेम पालकने मळ्युं नहीं। बीजा भंग अनुसार अंतरंग परिणाममां श्रद्धाभाव होय पण बहारथी श्रद्धा न बतावे; अर्थात नमस्कार करती वेळा अंतरंग श्रद्धाभाव होवा छतां बहारथी हाथ अने मस्तक झुकावे नहीं / अनुत्तर 20 विमानवासी देवो आ रीते नमस्कार करे छे, तेनुं फळ तेओ पामे छे। त्रीजा.भंग मुजब अंतरंग परिणाममां श्रद्धाभाव होय अने हाथ, मस्तक झुकावीने नमस्कार करे। शांबकुमारे आ रीते करेलो हतो। चोथा भंग प्रमाणे अंतरंग परिणाममां श्रद्धा न होय अने हाथ, मस्तक पण झुकावे नहीं। आवो प्रकार निष्फळ छे। तात्पर्य ए छे के, द्रव्यसंकोच अने भावसंकोचमां, भावसंकोच एकांते श्रेष्ठ छे; केमके ते ज 25 बाह्य शुद्धिनुं पण कारण छ। 1. तीर्थंकर नेमिनाथ प्रभु ज्यारे द्वारकामां पधार्या त्यारे कृष्ण महाराजे तेमना पालक अने शांबकुमार नामना पुत्रोने कह्यु : 'आवती काले प्रभुने जे पहेली वंदना करशे तेने इनाम तरीके घोडो आपवामां आवशे। आ सांभळी पालके सवारमा वहेला ऊठी घोडा उपर बेसी प्रभु ज्यां समवसर्या हता त्यां जईने ईनामनी लालचथी भावरहितपणे केवळ शरीरथी वंदना करी। ज्यारे शांबकुमारे सवारमा ऊठतांवेंत शय्यामा रह्या रह्या प्रभुने भाववंदना करी। आ बनेमा पहेलो नमस्कार कोणे कर्यो ते जाणवा ज्यारे कृष्ण महाराजे प्रभु आगळ जईने पूछ्युं त्यारे नेमिनाथ प्रभुए कह्यु के, 'शांबकुमारे प्रथम वंदना करी छ। आथी शांब कुमारने ईनाम तरीके घोडो आपवामां आव्यो। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। दुविहा परूवणा छप्पया य नवहाँ य छप्पया इ णमो। किं' कस्स केण वै कहिं कियचिरं' कइविहो व भवे // 5 // 891 // किं जीवो तप्परिणओ पुच्वपडिवनओ अ जीवाणं / जीवस्स व जीवाण व पडुच्च पडिवजमाणं तु // 6 // 892 // पदार्थद्वारनो अभिप्राय छे के, द्रव्य-भाव पूर्वकनी विशुद्धि द्वारा नमस्कारमंत्रनुं स्मरण, मनन / अने जाप करवो जोईए / श्रद्धापूर्वक पंच परमेष्ठीनुं शरण लेवू अने ए शरणसूचक शारीरिक क्रियाओने करवाथी आत्मामां शक्ति जागृत थाय छ। कर्मथी बंधायेला आत्माओ विशुद्ध आत्माओने द्रव्य अने भावनी शुद्धिद्वारा नमस्कार करे तो तेमना जेवा बनवानो आदर्श फळीभूत करे छ। 4, (890) / ५.प्ररूपणा द्वार। श०-प्ररूपणा बे प्रकारे छे-एक छ प्रकारनी अने बीजी नव प्रकारनी प्ररूपणा छ / तेमां 10 नमस्कार शुं छे ? कोने छे ? कोना वडे थाय छे ? क्यां रहे छे ? केटलो समय रहे छे ? अने ए केटला प्रकारे छे ? एम छ प्रकारो छ / ____ नमस्कार शुं छे ? नमस्कारना परिणामवाळो जीव नमस्कार छ / पूर्वप्रतिपन्ननी अपेक्षाए घणा जीवोनो नमस्कार छे, अने प्रतिपद्यमाननी अपेक्षाए एक जीवनो अथवा घणा जीवनो नमस्कार छ।(५-६) . वि०-प्ररूपणा बे प्रकारे छे–१ छ प्रकारनी अने 2 नव प्रकारनी छे / अहीं प्रथम छ 15 प्रकारनी प्ररूपणानो विचार करवामां आवे छे-तेमां 1 किम्- (निर्देश-खरूप) नमस्कार ए शुं छे ? 2 कस्य-(वामित्व-अधिकारित्व) नमस्कार कोनो ? 3 केन-(साधन-कारण) नमस्कार कोना वडे थाय छे ? 4 क-(अधिकरण-आधार) नमस्कार क्यां रहे छे ? 5 कियत् कालं-(स्थिति-काळ मर्यादा ) नमस्कार केटलो वखत रहे छे ? अने 6 कतिविधं(विधान-प्रकार) नमस्कार केटला प्रकारे छे ? 20 . (1. निर्देश-स्वरूप - 'नमस्कार ए शुं छे ?') प्र०-नमस्कारमंत्र ए शुं वस्तु छे ? एनुं स्वरूप शुं छे ? ते जीव छे के अजीव ? उ०-नैगम आदि अशुद्ध नयनी अपेक्षाए नमस्कार ए जीव छे, अजीव नथी / जीव मानमय छे अने ज्ञान जीवथी अभिन्न छे, तेथी जीव नमस्कार छ / प्र०-नमस्कार ए गुण छे के द्रव्य छे ? . उ०—द्रव्यास्तिकाय नयना मते गुणाश्रित जीवद्रव्य ज नमस्कार छे अने पर्यायास्तिकाय नयना मते जीवनो गुण ज नमस्कार छ / 25 1. द्रव्यनय सत्यरूपे तो द्रव्यने ज ग्रहण करे छे, ज्यारे गुणोने ते उपचारथी माने छे, तेथी नमस्कार गुणविशिष्ट जीवद्रव्य ज नमस्कार छे एवो द्रव्य नयनो अभिप्राय छ / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत (जीवस्वरूप नमस्कार पंचास्तिकायात्मक स्कंधरूप नथी, तेमज अविशिष्ट प्रामरूप पण नथी, परंतु जीवरूप नमस्कार पंचास्तिकायात्मक स्कंधनो एकदेश छे तेथी ते 'नोस्कंध'रूप छे अने चौद भूतग्रामनो पण एक देश होवाथी ते नोग्रामरूप छे' / ) तात्पर्य ए के, नैगम आदि नयोनी अपेक्षाए जीव ज नमस्कार छ। केमके जीव ज्ञानमय छे 5 अने नमस्कारमंत्र श्रुतज्ञानात्मक छ। आथी पंच परमेष्ठीवाचक नमस्कारमंत्र जीव छे / तेनी रूपाकृति स्वरूप शब्दो अजीव कही शकाय पण तेनो भाव तो ज्ञानमय छे ते जीवस्वरूप छे / द्रव्य अने गुणना प्रश्नोमां गुणोनो समुदाय द्रव्य कहेवाय छे, अने द्रव्य तेमज गुणमां कथंचित् भेदाभेदात्मक संबंध छे तेथी नमस्कारमंत्र कथंचित् द्रव्यात्मक अने कथंचित् गुणात्मक छ / (2. स्वामित्व-अधिकारित्व-'नमस्कार कोने करवामां आवे छे ?') 10 नमस्कार पामता जीवो एक अथवा अनेक होय छे एम संग्रहनय सिवायना बधा नयो माने छे। पूर्वप्रतिपन्न नमस्कारवाळा जीवो तो अवश्य अनेक होय छे, एम ते नयोथी जणाय छ / केमके, चारे गतिमां पूर्वप्रतिपन्न नमस्कारवाळा सम्यग्दृष्टि जीवो सदा असंख्याता होय छ / संग्रहनय सामान्यवादी होवाथी पूर्वप्रतिपन्न अने प्रतिपद्यमान ए उभय पक्षमा बहुत्व मानतो नथी / आ उपरथी 'नमस्कार कोनो छे ?' ए प्रश्नना उत्तरमा एक जीव अथवा अनेक जीवो नमस्कारना 15 स्वामी छे एम सिद्ध थाय छे। प्र-नमस्कारनो स्वामी जीव छे तो ते नमस्कार करवायोग्य पूज्य जीव स्वामी छे के नमस्कार करनार जीव स्वामी छे ? पर्यायनयना मते पर्याय ज सत्य वस्तु छ। द्रव्य तो उपचारथी छ। पर्यायथी भिन्न द्रव्य होतुं नथी, आथी (ज्ञान )गुण पर्याय ज नमस्कार छ। जेम घट तेना रूपथी भिन्न नथी तेम ज्ञान आदिथी भिन्न एवो जीव नथी, एवो पर्यायनयनो अभिप्राय छ। 2 सर्वपंचास्तिकाय ते 'स्कंध' कहेवाय छ। जीव ते स्कंधनो एक देश-भाग होवाथी नमस्कार पण तेनो एक देश छे केमके, नमस्कारवान् अने नमस्कार ए बनेनो अहीं अमेद उपचार छे, तेथी ते तेनो एकदेश छ। ए कारणे नमस्कारवान् जीव 'नोस्कंध रूप कहेवाय छ। एकेन्द्रिय आदि जीवना चौद भेदरूप भूतग्राम ते 'ग्राम' कहेवाय छे। ते ग्रामनो देव, मनुष्य आदिरूप नमस्कारवान् जीव एकदेश होवाथी नमस्कार 'नोग्राम' कहेवाय छ। वळी शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत-ए त्रणे नयोना अभिप्राये जीव ज्यारे नमस्कारना परिणामवाळो थाय त्यारे ज नमस्कार कहेवाय छे, अने बाकीना नेगम आदि अशुद्ध नयोनी अपेक्षाए नमस्कारमा उपयोग रहित होय तो पण जो लब्धिसहित होय अथवा नमस्कारने योग्य होय तेवो जीव नमस्कार कहेवाय छ। प्र०-नमस्कार भूतग्रामनो एकदेश होवा छतां ते एक छे के अनेक ? उ०-आ हकीकत नयोना अभिप्रायथी जाणी शकाय एम छे। संग्रहनय नमस्कार जातिसामान्यथी सदा एक ज नमस्कार होय छे एम जणावे छे अने व्यवहारनय एक नमस्कारवान् जीवने एक नमस्कार माने छे, तेमज बहु जीवोने बहु नमस्कार माने छ / वळी, ऋजुसूत्र वगेरे नयो वर्तमान समयवा स्वकीय वस्तुने ज वस्तु माने छे तेथी तेमना मते उपयोगवान् बहु जीवो नमस्कार छ / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। उ०-आ प्रश्ननो जवाब पण नयथी विचारवो जोईए / तेमां प्रथम नैगमनय तथा व्यवहारनयना अभिप्राय प्रमाणे नमस्कार करवायोग्य पूज्य आत्मा ज नमस्कारनो स्वामी छे; पण नमस्कार करनार जीव तेनो स्वामी नथी; कारण के, नमस्कार पूज्यने अपाय छे। लोकव्यवहारमा पण जेम-'भिक्षा कोनी ?' तो ते 'भिक्षुकनी, यतिनी' एम कहेवाय छे पण आपनारनी कहेवाती नथी तेवी रीते अहीं पण समजवू / _____ अथवा घडाना पोताना रूप आदि धर्मो घडानी अंदर घडानी प्रतीति करावनार होवाथी घडाना पर्यायो छे तेम नमस्कार पण पूज्यनी अंदर 'आ पूज्य छे' एवी प्रतीति करावनार होवाथी ते पूज्यनो पर्याय छे / अथवा घट संबंधी ज्ञान अने तेनुं कथन घडाना हेतु होवाथी धडाना पर्यायो छे तेवी ज रीते नमस्कार करवायोग्य अरिहंत आदिने जोवाथी भव्य जीवने विशिष्ट उल्लासथी नमस्कार करवानो अभिप्राय उत्पन्न थाय छे तेथी ते पूज्य आत्मा नमस्कारनो हेतु होवाथी नमस्कार 10 ए पूज्यनो पर्याय छ / - वळी, नमस्कार करनार ते पूज्य नमस्कार्य जीवात्मानुं दासत्व पामे छे तेथी नमस्कार उपर नमस्कार करनारनो अधिकार नथी। . अहीं एक विशेष वात ए समजवानी छे के, पूज्य वस्तु जीव अने अजीवरूपे बे प्रकारनी होय छे / जीवरूप ते अरिहंत वगेरे होय छे अने अजीवरूप तेमनी प्रतिमाओ वगेरे होय छे / आ 15 जीव, अजीव पदना एकवचन अने बहुवचन वडे आठ प्रकारो नीचे मुजब थाय छे:. 1. जिनेश्वरने नमस्कार करवा ते जीवनो नमस्कार / 2. जिनेश्वरनी प्रतिमाने नमस्कार करवो ते अजीवनो नमस्कार / 3. मुनिओने नमस्कार करवो ते जीवोनो नमस्कार / 4. प्रतिमाओने नमस्कार करवा ते अजीवोनो नमस्कार / 5. मुनिने तथा प्रतिमाने नमस्कार करवो ते जीवनो अने अजीवनो नमस्कार। 6. मुनिने तथा प्रतिमाओने साथे नमस्कार करवो ते जीवनो अने अजीवोनो नमस्कार / 7. घणा मुनिओने तथा एक प्रतिमाने साथे नमस्कार करवो ते जीवोनो तथा अजीवोनो नमस्कार। 8. धणा मुनिओ तथा घणी प्रतिमाओने साथे नमस्कार करवो ते जीवो तथा अजीवोनो नमस्कार। 25 संग्रहनयना मते 'नमः' ए सामान्य मात्र छे अने तेनो स्वामीमात्र वस्तुनो जीव ते ज 'नम:' छ / एटले ए बनेनो अभेद अर्थ लईए तो बनेनुं अधिकरण एक ज छे पण कोई शुद्धतर संग्रहनय पूज्य जीव अने पूजक जीव ए बनेना संबंधथी 'जीवनो ज नमस्कार' एवा एक ज भांगाने स्वीकारे छ। ऋजुसूत्रना मते ते नमस्कार ए ज्ञान, क्रिया अने शब्दरूप होवाथी अने ते ज्ञान-क्रिया-शब्द कर्ताथी अभिन्न होवाथी नमस्कारनो कर्ता ए ज स्वामी छे, एम माने छ / 30 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकारणिजत्ती। [प्राकृत नाणाऽऽवरणिजस्स य दंसणमोहस्स तह खओवसमो। जीवमजीवे अट्ठसु भंगेसु उ होइ सव्वत्थ // 7 // 893 // शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत-ए त्रण नयोना मते ज्ञान ज नमस्कार छ, उपयोगवान् कर्ता ज स्वामी छे; कारण के, नमस्कार ज्ञान स्वरूप ज छे, पण शब्द तथा क्रिया नमस्कार नथी / केमके 6 उपयोगथी ज फळनी प्राप्ति थाय छे / उपयोग न होय तो शब्द तथा क्रिया फळ आपतां नथी / तेथी तेवा प्रकारना उपयोगवाळा पूजकनो नमस्कार छ एम माने छे / 5-6, (891-892) // (3. साधन-कारण-'नमस्कार शा वडे थाय छे ?') श०-ज्ञानावरणीय अने दर्शनमोहनीयना क्षयोपशमथी नमस्कार प्राप्त थाय छे अने जीव तथा अजीव वगेरे आठे भांगा-प्रकारोमां नमस्कार होय छे / (7) 10 वि०-नमस्कार मंत्रनी उपलब्धि कयी रीते थाय छे तेनी प्ररूपणामां ज्यां सुधी अंतरंगा कर्मोने क्षयोपशम' न थाय त्यां सुधी आ नमस्कारमंत्र उपर श्रद्धा उत्पन्न थती नथी, तेथी ज्ञानावरणीय अने दर्शनमोहनीय कर्मोना क्षयोपशमथी नमस्कारनी प्राप्ति थई शके छे। नमस्कारनो उपघात करनारां मति-श्रुतज्ञानावरण अने दर्शन-मोहनीय कर्मनां स्पर्धको बे प्रकारनां छे। 1 सर्वघाती अने 2 देशघाती। तेमां सर्वघाती स्पर्धको सर्व नाश पाम्या पछी 15 देशघाती स्पर्धकोना अनंतमा भागोथी समये समये मुकाता जीवने प्रथम नकार अक्षर प्राप्त थाय अने ते पछी उत्तरोत्तर विशुद्ध थतां अनुक्रमे बीजा पण एकेक अक्षर प्राप्त थाय छे अने ए रीते समस्त नमस्कारमंत्र प्राप्त थाय छ / ___ नमस्कार स्वयं श्रुतरूप छे अने ते श्रुत मतिपूर्वक होय छे। ए बने सम्यग्दृष्टि जीवने होय छ / तेथी नमस्कारनो लाभ थतां एकीसाथे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने सम्यक्त्वनो लाभ थाय छे, आ 20 कारणे ज मति-श्रुतज्ञानावरण अने दर्शनमोहनीयनो क्षयोपशम अहीं ग्रहण को छ / वास्तवमा आनुं तात्पर्य ए छे के, जीवने ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोमांथी मतिज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमनी साथे ज मोहनीय कर्मनो क्षयोपशम थतां नमस्कारमंत्रनी प्राप्ति थाय छ / नमस्कारमंत्र श्रुतज्ञानरूप छे अने श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ज थाय छे, आथी मतिज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमनी साथे मोहनीय कर्मनो क्षयोपशम थवो आवश्यक छ / केमके मिथ्यात्वकर्मना अभावमा 25 ज आत्मस्वरूप प्रत्ये श्रद्धा उत्पन्न थाय छे / अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभनी साथे मिथ्यात्वनो क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम थाय ए नमस्कारमंत्रनी उपलब्धिने माटे आवश्यक छ / आ मंत्रनी प्राप्तिमा अंतरायकर्मनो क्षयोपशम पण एक कारण छे, जेथी आंतरिक योग्यता प्रगट' थतो ज आ नमस्कार महामंत्रनी प्राप्ति थई शके छे / 1. उदित कर्मोनो क्षय अने बाकीनां अनुदित कर्मोनो उपशम तेने 'क्षयोपशम' कहे छ। क्षय सहित उपशम ते 'क्षयोपशम' कहेवाय। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। ___121 121 उवओग पडुच्चंतोमुहुत्त लद्धीइ होइ उ जहन्नो उक्कोसटिइ छावट्टि सागरापरिहाइ पंचविहो // 8 // 894 // (4. अधिकरण-आधार-'नमस्कार शेमां होय छे ?') नमस्कारमंत्रनो आधार शो छे ? आधार चार प्रकारनो छ। 1 व्यापक, 2 औपश्लेषिक, 3 सामीप्यक अने 4 वैषयिक / 5 1. 'तलमां तेल छे' ते व्यापक आधार कहेवाय / 2. 'सादडी ऊपर बेठेलो छे' ते औपश्लेषिक आधार कहेवाय / 3. 'गंगामां गोवाळियाओनो वाडो छे' (अर्थात् गंगाना किनारा उपर गोवाळियाओनो वाडो छे) ते सामीप्यक आधार कहेवाय / 4. 'रूपमां आंख छे' ते वैषयिक आधार कहेवाय / आ चार प्रकारोमा प्रथम प्रकार 'व्यापक आधार' ए अभ्यंतर छे, ज्यारे बीजा त्रण प्रकारो बाह्य छ / नैगम अने व्यवहार नय ए बाह्य प्रकारोने अवलंबे छ / 10 नमस्कार ए जीवनो गुण होवाथी जीव छे / ते (नमस्कार) नमस्कार करनार जीव ज्यारे हाथी वगेरे पर स्थित होय त्यारे जीवमां, अने सादडी वगेरे पर बेठेलो होय त्यारे अजीवमां, अने बंने पर (जीव अने अजीव पर) स्थित होय त्यारे जीवमां अने अजीवमां छे एम समजवू / आ प्रकारे एकवचन अने बहुवचनना प्रयोगथी एना आठ प्रकारो अगाऊ जणाव्या मुजब थाय छे ___ आ नमस्कार 1 जीवमां, 2 अजीवमां, 3 जीवोमां, 4 अजीवोमां, 5 जीव-अजीवमां, 6 जीव-15 अजीवोमां, 7 जीवो-अजीवमां अने 8 जीवो-अजीवोमां कथंचित् भेदाभेदात्मकता होवाना कारणे उपर्युक्त आठ भागोमांथी कोई पण समये कोई पण एक भंगनो आधार बने छ / . प्र०--नैगम अने व्यवहार नयनी अपेक्षाए पूज्यनो नमस्कार होय छे तेथी ते ज आधार केम न बने ? शा खातर अलग आधार मानवो पडे छे ? उ०—ते नमस्कार पूज्यनो होवाथी पूज्यमां ज रहे एवो नियम नथी; केम के जे वस्तु जेनी 20 होय ते ज तेनो आधार होय एवो नियम नथी, बीजे पण ए जणाय छे। जेम—'देवदत्तनुं धान्य'। अहीं धान्य देवदत्तमां होतुं नथी पण आधारभूत क्षेत्रमा होय छे, तेम अहीं पण समजवू / बीजा नयोथी पण आ आधार विशे विशेष समजूती मळे छे। जेम संग्रहनय अभेदने परमार्थ मानतो होवाथी शुद्ध संग्रहनय वस्तुमात्रमा तेने ग्रहण करे छे, तो अशुद्ध संग्रहनय जीवनो धर्म होवाथी जीवमा रहे छ एम कहे छ / ऋजुसूत्र तो नमस्कार जीवनो गुण होवाथी ए जीवमां रहे छे, एम कहे छे / 25 शब्दादि नयो तो उपर्युक्त ज्ञानरूप जीवमां ज छे, पण बीजे नहि एम माने छे / 7, (893) श०–उपयोगनी अपेक्षाए नमस्कारनी स्थिति (जघन्य तेमज उत्कृष्टथी) अंतर्मुहूर्तनी छे अने लब्धिनी अपेक्षाए जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्टथी छासठ सागरोपमथी अधिक छे। नमस्कार अरिहंत आदिना संबंधथी पांच प्रकारनो छे / (8) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 [प्राकृत णमोक्कारणिज्जुत्ती। संतपयपरूवर्णया दवपमाणं च खित्तै फुस) य। कालो अ अंतरं भाग भार्वं अप्पाबहुं चेव // 9 // 895 // (5. स्थिति-काळमर्यादा-'नमस्कार केटलो काळ सुधी होय छे ?') वि०-नमस्कारनी स्थिति उपयोगनी अपेक्षाए जघन्य अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्तनी छे, अने 5 क्षयोपशमरूप लब्धिनी अपेक्षाए जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी छे, ज्यारे उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपमथी किंचित् अधिक होय छे। (सम्यक्त्वनी पण आ ज काळमर्यादा छे / ) ___ एक जीवने आश्रयीने आ स्थिति जणावी छे। विविध जीवोनी अपेक्षाए पण जघन्य अने उत्कृष्टथी ए ज स्थिति जाणवी। लब्धिथी तो समग्र काळ समजवो। (6. विधान-प्रकार-'नमस्कार केटला प्रकारे छे ?') 10 नमस्कार केटला प्रकारे छे ए प्ररूपणामां अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु आ पांच पदोनी पूर्वमा 'नमः' पद जोवाय छे, तेथी अरिहंत वगेरे पांच प्रकारना अर्थ साथे संबंधित होवाथी अरिहंत आदिथी पांच प्रकारे नमस्कार थाय छे, तेथी नमस्कार पांच प्रकारे छ। ___पूर्वे (पदद्वारमा) नैपातिक पदनो पदार्थ मात्र नमस्कार कह्यो छे अने अहीं नमस्कार केटला प्रकारे छे ते द्वारमा अरिहंत आदि पांच प्रकारना पदोना पदार्थ साथे संबंधित होवाथी नमस्कार पांच 15 प्रकारनो छे एम कर्दा छ। 8, (894) नव प्रकारनी प्ररूपणा। श०-१ सत्पद प्ररूपणा, 2 द्रव्यप्रमाण, 3 क्षेत्र, 4 स्पर्शना, 5 काळ, 6 अंतर, 7 भाग, 8 भाव अने 9 अल्पबहुत्व—आ नव द्वारोथी नमस्कारनी नव प्रकारे प्ररूपणा कस्वी। (नमस्काररूप) सत्पदने पामेला अने पामता जीवोनी अपेक्षाए मार्गणाओ-१ गति, 2 इंद्रिय, 20 3 काय, 4 योग, 5 वेद, 6 कषाय, 7 लेश्या, 8 सम्यक्त्व, 9 ज्ञान, 10 दर्शन, 11 संयम, 12 उपयोग, 13 आहारक, 14 भाषक, 15 परित्त, 16 पर्याप्त, 17 सूक्ष्म, 18 संज्ञी, 19 भव्य अने 20 चरमद्वारमा विचारणा करवी। 1. (नमस्कार) पूर्वप्रतिपन्न जीवो (जघन्यथी) सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागना प्रदेशराशीप्रमाण होय छे। (उत्कृष्टथी तेथी विशेष अधिक होय / ) 2 (नमस्कारवाळा जीवो) क्षेत्र25 लोकना चौद भागमांथी सात भाग प्रमाण क्षेत्रमा होय छे। 3 (नमस्कारवाळा जीवोनी) स्पर्शना पण ए ज प्रमाणे समजवी। 4 एक जीवनी अपेक्षाए नमस्कारनो काळ 894 मी गाथामां कह्या प्रमाणे छ / नानाविध जीवोनी अपेक्षाए सर्वकाळ छ। 5 एक जीवनी अपेक्षाए नमस्कारनुं अंतर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त काळनुं छे अने उत्कृष्टथी अर्धपुद्गलपरावर्तमां कंईक न्यून अनन्त काळ सुधीनुं छे / नाना जीवोनी अपेक्षाए Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। संतपयं पडिवन्ने पडिवजंते अ मग्गणं गइसुं। इंदिों काएँ वेएँ जोएं अ कसार्य-लेसासु // 10 // 896 // सम्मतनाणं-दसण-संजय-उवओगेओ अ आहारे / भासर्ग-परित्त-पजत्त-सुहुमे सैन्नी अ भवें चरमे // 11 // 897 // पलिआसंखिज्जइमे पडिवन्नो हुञ्ज खित्त लोगस्स / सत्तसु चउदसभागेसु हुज फुसणा वि एमेव // 12 // 898 // एग पडुच्च हिट्ठा तहेव नाणाजिआण सव्वद्धा / अंतर पडुच्च एगं जहन्नमंतोमुहुत्तं तु // 13 // 899 // उक्कोसेणं चेयं अद्धापरिअट्टओ उ देसूणो। णाणाजीवे णत्थि उ भावे य भवे खओवसमे // 14 // 900 // जीवाणणंतभागो पडिवण्णो सेसगा अणंतगुणा / वत्थु तरिहंताइ पंच भवे तेसिमो हेऊ // 15 // 901 // 10 तो अंतर ज नथी। 6 भावमां क्षयोपशमभावमां घणु करीने नमस्कार होय छ। 7. सर्व जीवोना अनंतमा भागे नमस्कार पामेला जीवो होय छे, अने बाकीना नहि पामेला तेथी अनंतगुणा होय छे / (8 अल्पबहुत्वद्वार * मतिज्ञाननी पेठे समजवू / ) 9 नमस्कारने योग्य अरिहंत आदि पांच वस्तु द्रव्य 15 छे, तेमनी ते योग्यतामां जे हेतु छे, ते आगळ कहेवाशे / (9-15) वि० 1. सत्-सत्ता नमस्काररूप सत्पदने पूर्व पामेला अने पामता जीवोनी अपेक्षाए गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेझ्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहारक, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव्य अने चरमभावनी आ द्वारमा विचारणा करवी / सत्ताद्वारनो विचार करतां नमस्कारने पहेलां पामेला जीवो चारे गतिमां नियमथी होय छे ज, 20 पण नमस्कार पामतानी भजना होय छे / अर्थात् नमस्कार पामता जीवद्रव्यो कदाचित् होय अने कदाचित् न होय / जो होय तो जघन्यथी एक, बे अथवा त्रण होय अने उत्कृष्टथी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपमना असंख्येय भागना प्रदेशराशिप्रमाण होय छे / 2. द्रव्य प्रमाण संख्या, नमस्कार पूर्वप्रतिपन्न जीवद्रव्यो जघन्यथी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपमना असंख्यातमा भावना प्रदेशराशिप्रमाण होय अने उत्कृष्टथी ते करतां विशेषाधिक होय / 3. क्षेत्र—लोकाकाश / नमस्कारवान् जीव ऊंचे अनुत्तर विमानमा जतां लोकना सात भाग प्रमाण क्षेत्रमा होय अने नीचे छठी पृथ्वीमा जतां पांच भाग प्रमाण क्षेत्रमा होय छे। 25 * जुओ आवश्यकसूत्रनी पीठिका। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत 4. स्पर्शना–निवास स्थानरूप आकाशना चारे बाजुना प्रदेशोने अडकवू ए ज स्पर्शना छ / क्षेत्र अने स्पर्शनामां तफावत एटलो के, क्षेत्रमा फक्त आधारभूत आकाश ज लेवाय छे अने स्पर्शनामां आधारक्षेत्रनी चारे बाजुनो आकाशप्रदेश, जेने अडकीने आधेय रहेलं होय ते लेवाय छ। एटले नमस्कारवान् जीवनी स्पर्शना पण क्षेत्रद्वार पेठे समजवी। 5 5. काळ-नमस्कारनो काळा बे प्रकारे छ। 1 उपयोगथी अने 2 लब्धिथी। उपयोगनी अपेक्षाए नमस्कारनो काळ जघन्यथी अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्तनो छ। लब्धिनी अपेक्षाए जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपमथी कंईक अधिक होय छे, नाना जीवोनी अपेक्षाए सर्वकाळ छे। 6. अंतर-विरहकाळ / एक जीवनी अपेक्षाए नमस्कारनुं अंतर जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने 10 उत्कृष्टथी अर्धपुद्गल परावर्तमां कंईक न्यून एवा अनंतकाळ सुधीनुं छे। नाना जीवोनी अपेक्षाए तो अंतर ज नथी। नाना जीवोनी अपेक्षाए तो विरहकाळ बिलकुल होतो नथी। केमके, विविध जीवोमां कोईने अने कोईने तो नमस्कार होय छ ज / 7. भाग-जीवराशिना केटलामे भागे नमस्कार होय ते भागद्वार / तेनी विचारणामां तो नमस्कार पामेला जीवो सर्व जीवोना अनंतमा. भागे होय छे अने बाकीना एटले नमस्कार नहि पामेला जीवो 15 तेथी (पामेलाथी) अनंतगुणा होय छे / 8. भाव–उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक ए त्रण भावो पैकी नमस्कार क्षयोपशम भावमां होय छे। (केटलाकनुं कहेतुं छे के आ बाहुल्यथी समजवू, कारण के क्षायिक अने औपशमिक भावमां पण होय छे। क्षायिकभावमां श्रेणिक वगेरेने हतो अने उपशमभावमा उपशमश्रेणिमा रहेला जीवोने होय छे / ) 9. अल्पबहुत्व-ओछावत्तापणुं, नमस्कार पामेला अने पामताओD ओछावत्तापणुं आ द्वारथी 20 जणाय छे / नमस्कार पामता होय एवा जीव सर्वथी थोडा होय अने ते करतां नमस्कार पामेला होय ए जीव ओछामां ओछा तेनाथी असंख्यात गुणा होय छे, तथा नमस्कार पामेला होय एवा जीवो जघन्यपद करतां उत्कृष्टपदमा विशेष अधिक होय छे / नमस्कारने पामेला उपशमभाववाळा सौथी अल्प होय छे, क्षयोपशमभाववाळा तेथी विशेष होय छे अने क्षायिक भाववाळा (सिद्धोनी अपेक्षाए) सर्वथी अधिक होय छ / संसारीनी अपेक्षाए क्षायिक भाववाळा करतां क्षयोपशमभाववाळा अधिक होय छे / 9-15, 25 (895-901) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 125 आरोवणा य भयणा पुच्छा तह दायणा य निजवणा। नमुक्कारऽनमुक्कारे नोआइजुए व नवहा वा // 16 // 902 // ___15 नव प्रकारनी परूपणा / श०-१. आरोपणा, 2 भजना. 3 पृच्छा, 4 दायना (दर्शना के दापना) अने 5 निर्यापणा, 6 नमस्कार, 7 अनमस्कार, 8 नोनमस्कार अने 9 नोअनमस्कार एम नव प्रकारे पण प्ररूपणा छ / (16) 5 वि०-१. जीव ज नमस्कार छे के नमस्कार ज जीव छे ? ए प्रमाणे परस्पर अवधारणथी जे - अध्यारोप करवो अथवा पर्यनुयोग करवो ते ‘आरोपणा' कहेवाय छे / 2. सम्यग्दृष्टि जीव नमस्कार होय अने मिथ्यादृष्टि न होय तेथी जीव नमस्कार होय अथवा न पण होय, परंतु नमस्कार तो अवश्य जीव छ / आ रीते एक पदना व्यभिचारने 'भजना' कहे छ / 3. जो सर्व जीव नमस्कार न होय तो शुं कोईक जीव ज नमस्कार छे? जो एम होय तो ते केवा 10 प्रकारनो जीव नमस्कार छे अथवा कयो जीव नमस्कार छे? आवा प्रश्नने 'पृच्छा' कहे छे / 4. नमस्कारथी परिणत जे जीव ते नमस्कार अने तेथी अपरिणत होय ते अनमस्कार ए प्रमाणे अगाऊ पूछेला प्रश्ननी निर्वचना ते 'दायना' कहेवाय छे / 5. नमस्कार परिणत जे जीव ते ज नमस्कार अने नमस्कार पण जीव परिणाम ज छे, अजीव परिणाम नथी एवी विचारणाने 'निर्यापना' कहे छ। - प्र०—दायना अने निर्यापनामां शो तफावत छे ? उ०-दायना नमस्कारना अर्थन व्याख्यान करे. छे ज्यारे निर्यापना ए बतावेला अर्थवारंवार उच्चारण करवारूप निगमन करे छ। दायनामां जेम नमस्कार परिणत जे जीव होय ते ज नमस्कार छे, अन्य नथी, एम नियमित छे, तेवी रीते निर्यापनामां नमस्कार परिणत जे जीव होय ते ज नमस्कार मानेल छे अन्य नहीं, ए प्रमाणे 20 * फरीथी अवधारण कराय छे, केमके ते बंने अभिन्न छे. 6. नमस्कार = नमस्कार परिणत जीव / 7. अनमस्कार = नमस्कारापरिणत जीव / 8. नोनमस्कार = नमस्कारनो एक देश अथवा अनमस्कार / 9. नोअनमस्कार =अनमस्कारनो एक देश अथवा नमस्कार / 25 आ चारने अनुक्रमे प्रकृति, अकौर, नोकार अने नोकार-अकार प्ररूपणा कहेवाय छे। जेमके नमस्कार परिणत जीव नमस्कार छे, ए प्रकृति प्ररूपणा छ। एथी विपरीत ‘नमस्कार अपरिणत जीव नमस्कार नथी' ए निषेधवाचक अकार प्ररूपणा छ / ए ज रीते प्रकृतिने नोकार अने नोअकार लगाडीने पण प्ररूपणा थई शके छे। 'नो' देशनिषेध अथवा सर्वनिषेधमां वपराय छे / 16, (902) 6. वस्तु द्वार। 30 [पंच परमेष्ठीओने नमस्कार] नमस्कारने योग्य अरिहंत आदि पांच वस्तु छे (जूओ गाथा 15-901), अहीं तेनो विशेषार्थ कहे छे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत मग्गो' अविप्पणासो आयारे विणयों सहायत्तं / पंचविहनमुक्कारं करेमि एएहिं हेऊहिं // 17 // 903 // प्र०—जे नमस्कार नामने लायक-पूज्य अथवा योग्य वस्तु छे ते कोण छे ? उ०—गुणना समूहभूत अरिहंत वगेरे पांच प्रकारनी वस्तु छे / अथवा भेदोपचारथी कहीए 5 तो ज्यां ज्ञान आदि गुणो वसे छे ते असाधारण गुणोना स्थानरूप पांच प्रकारनी वस्तु छे। ते वस्तु अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु रूप जाणवी / तेओ गुणमय होवाथी मूर्तिमान् गुणो जेवा छे। तेथी गुणार्थी भव्य जीवोने तेओ पूजवायोग्य छे, अथवा सम्यग्दर्शन वगेरे त्रणनी पेठे अरिहंत वगेरे मोक्षार्थी जीवोने मोक्षना हेतु छे तेथी तेमने ते पूजवायोग्य छ। ___ तात्पर्य ए छे के, गुण-गुणीमां कथंचित् भेदाभेदात्मकता होवाथी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपा10 ध्याय अने साधु-ए पांचे परमेष्ठी नमस्कार करवायोग्य वस्तु छे। व्यक्ति रत्नत्रयरूप गुणोने ए खातर नमस्कार करे छे के ते गुणोनी प्राप्ति तेने अभीष्ट छ / संसाररूप अटवीने पार करवानुं एक मात्र साधन रत्नत्रय छे, आथी गुण-गुणीमां भेदाभेदात्मकता होवाना कारणे रत्नत्रय गुणने अने तेना धारण करनारा पंच परमेष्ठीओने नमस्कार करवामां आवे छे / आ ज नमस्कारमंत्रनी वस्तु छ। अरिहंत आदि मोक्षमार्गना हेतु केवी रीते छे ते जणावे छे15 श०–मोक्षमार्ग, अविनाशीपणु, आचार, विनय अने सहायत्व ए हेतुओ वडे हुं पांच प्रकारे नमस्कार करुं छु. (17, 903) वि०-मोक्षमार्गनो उपदेश करवाथी अरिहंतो मोक्षना हेतुभूत छे। . प्र०–सम्यग्दर्शन आदि मार्ग ज मोक्षनो हेतु छे पण ते मार्गना हेतुभूत अरिहंत आदि मोक्षना हेतु कयी रीते गणाय ? 20 उ०—मोक्षमार्ग तेमने आधीन होवाथी तेनो उपदेश करवाना कारणे तेओ तेना हेतु छे, अथवा कारणमां कार्यनो उपचार करवायी तेओ मोक्षना हेतु छे एम कही शकाय / प्र०-अरिहंतो वगेरे मोक्षमार्गनो उपदेश करवाना कारणे तेमना उपकारीपणाथी पूय छे, तो गृहस्थो पण तेना साधनभूत आहार, वस्त्र आदि आपवाथी मोक्षमार्गना उपकारी छे एथी परंपराए सर्व कांई पूज्य न गणाय ? 25 उ०--जे वधारे नजीकनुं अने एकांतिक कारण होय ते हेतुरूप गणाय / ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रण मोक्षमार्ग छे / तेने आपनारा अरिहंतो छ / वळी, पोते ज मोक्षमार्गना हेतुभूत छे, तेथी तेओ पूज्य छ / आहार आदि तो वधु दूरवर्ती मोक्षना हेतु गणाय / ज्ञान आदि त्रणनी पेठे नियमथी ते मोक्षना ऐकांतिक हेतु नथी / आथी बाह्य साधन आपनारा गृहस्थो मोक्षना हेतु नथी। वळी, ते गृहस्थो स्वयं पण मार्गभूत नथी, माटे पूज्य नथी। (हवे नमस्कार करवाने योग्य सिद्ध भगवंतनो अविनाशीरूप हेतु कहे छे-) सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मार्गवडे सिद्धो अविच्छिन्न संतानभावे मोक्ष पामेला छे / ए रीते कृतार्थ होवाथी तेओ पूज्य छ / वळी अरिहंत आदिनी जेम ज्ञानादि गुणमय होवाथी पूज्य छ। प्र०—सम्यग्ज्ञान आदि गुणोनी पूजा मात्रथी स्वर्ग, अपवर्ग वगेरे विशिष्ट फळ थाय छे तेथी ते गुणवाळानु पूज्यपणुं मानी शकाय पण तेओ अरिहंतनी पेठे मार्गोपकारी छे ते केवी रीते ? 30 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 127 अडवीइ देसिअत्तं तहेव निजामया समुद्दम्मि / छक्कायरक्खणट्ठा महगोवाँ तेण वुच्चंति // 18 // 904 // उ०—गुणवानना गुणोनी पूजा करवाथी विशिष्ट फळ मळे छे एम मानवामां आवे तो ते उपकार पण सिद्धोथी ज थाय छे ए स्पष्ट छे; केमके सिद्धोना अभावे मोक्षमा अविनाशीपणानी बुद्धि पण न थाय, तेथी ए उपकार सिद्धोथी थाय छे एम मानवू जोईए / 5 अथवा अभीष्ट एवा मोक्षनगरनो आ ज्ञानादि सन्मार्ग छे एवो निश्चय सिद्धोना कारणे ज थाय छे / मोक्षनगरना अविनाशीपणाना कारणे सम्यग्दर्शन आदि सन्मार्ग छे एवो प्रत्यय मुमुक्षुने थाय छ / सिद्धोना अभावमां एवो विश्वास क्यांथी थाय ? आथी सिद्धो उपर्युक्त प्रत्यय उत्पन्न करता होवाथी मार्गोपकारी छे अने तेथी ज पूज्य छ। वळी, सिद्धोना अविनाशीभावथी तथा तेमना अनुपम सुखरूप फळने जाणवाथी सम्यग्दर्शन 10 आदि मोक्षमार्गमां जे प्रीति थाय छे ते सिद्धोथी ज थाय छे, बीजाथी थती नथी / आथी मोक्षमार्गमां रुचि उत्पन्न करवारूप उपकार सिद्धोनो ज छे / प्र०-मोक्षमार्गमां रुचि अने ए मार्ग- मोक्षसुखरूप फळ, तेनुं ज्ञान तो अरिहंतना वचनथी थाय छे तो पछी सिद्धोना अविनाशी भावरूप हेतुनुं निरूपण करवानुं प्रयोजन शुं ? उ०--ए प्रश्न साचो छे, छतां मार्गना सिद्धत्वप्राप्तिरूप फळना सद्भावथी मोक्षमार्गमां 15 * विशेष प्रीति थाय छे / तेथी ज सिद्धोनो अविनाशी हेतु अहीं जणाव्यो छे / प्र०--निश्चय नयना मते आत्मा ज मोक्षमार्ग छे अने रुचि ए सम्यक्त्व छे, ते पण आत्मा ज छे, बीजं कई नथी / तो पछी अविनाशीरूप बाह्य हेतु अहीं कहेवाथी शुं ? उ०—ए वात साची छे, पण व्यवहारनयना मते जेम अरिहंतो मार्गोपकारी छे तेम क्षीणसंसारी . सिंद्धो पण अविनाशीभावना कारणे मार्गोपकारी कह्या छ / ___(हवे आचार्य, उपाध्याय अने साधुना नमस्कारनी योग्यतानो हेतु जणावे छे-) आचार्य महाराज आचारनो उपदेश आपवाना कारणे परमोपकारी होवाथी पूज्य छ / सूत्रपाठ आपनार उपाध्याय महाराज विनय गुणने ग्रहण करावनार होवाथी पूज्य छे अने आचारवान् विनयवान् साधु महाराज मोक्षसाधनमां सहाय आपवाना कारणे पूज्य छे / वळी, अरिहंत आदि पांचे, ज्ञान आदि गुणोनी पूजाना स्वर्ग, अपवर्ग आदि फळना निमित्त बने छे तेथी तेओ पूज्य छे / 17, (903) 25 20 अरिहंत भगवंतने नमस्कार। श-अरिहंतो संसाररूप अटवीमां भूला पडेला जीवोने मार्ग बतावता होवाथी तेओ 'मार्गदेशक' कहेवाय छे / तेओ संसाररूप समुद्रमां डूबता अगर खोटवाई गयेला नावने पार पहोंचाडवामां कर्णधारपणुं करता होवाना कारणे 'निर्यामक' कहेवाय छे, अने ते भगवंतो छकाय जीवोना रक्षण माटे प्रयत्न करता होवाना कारणे 'महागोप' कहेवाय छे / 18, (904) 30 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 [प्राकृत णमोक्कारणिज्जुत्ती। अडविं सपच्चवायं वोलित्ता देसिओवएसेणं / पावंति जहिट्ठपुरं भवाडविपी तहा जीवा // 19 // 905 // पावंति निव्वुइपुरं जिणोवइटेण चेव मग्गेणं / अडवीइ देसिअत्तं एवं ने जिणिंदाणं // 20 // 906 // जह तमिह सत्थवाहं नमइ जणो तं पुरं तु गंतुमणो / परमुवगारित्तणओ निविग्घत्थं च भत्तीए // 21 // 907 // अरिहो हु नमुक्कारस्स भावओ खीणरागमयमोहो / मुक्खत्थीणं पि जिणो तहेव जम्हा अओ अरिहा // 22 // 908 // संसाराअडवीए मिच्छत्तऽनाणमोहिअपहाए। जेहिं कय(य) देसिअत्तं ते अरिहंते पणिवयामि // 23 // 909 // सम्मइंसणदिट्ठो नाणेण य सुट्ट तेहिं उवलद्धो / चरण-करणेण पहओ निव्वाणपहो जिणिंदेहिं // 24 // 910 // ( 'मार्गदेशक' आदि प्रत्येक गुणोना अवयवार्थ जणावे छे-) श०--मार्ग बतावनारना उपदेशयी अनेक विघ्नोवाळी अटवीने ओळंगीने जेम जीवो पोताने 15 इष्ट एवा नगरमां पहोंचे छे तेम जिनेश्वरोए उपदेशेला मार्गथी ज जीवो भवरूप अटवीने ओळंगीने निवृतिपुरमोक्षपुरमां पहोंचे छे। ए रीते श्री जिनेश्वरोनुं संसाररूप अटवीमां मार्गदेशकपणुं ,जाणवू / 19, (905); 20, (906) श-जेम ते ते नगर प्रति जवानी इच्छावाळो माणस ते सार्थवाहने परम उपकारीपणाना कारणे अने निर्विघ्नताना अर्थे भक्तिपूर्वक नमे छे तेम मोक्षार्थीओ माटे पण क्षीण थया छे राग, द्वेष अने मोह 20 जेमना एवा श्री जिनेश्वर भगवान भावसहित नमस्कारने योग्य छे / भाव नमस्कारने योग्य होवाथी ज तेओ अरिहंत छ। 21-22, (907-908) श०-( तेथी ) मिथ्यात्व अने अज्ञानथी मोहित बनेला पंथवाळी संसाररूप अटवीमां जेमणे उपदेशकपणुं कर्यु छे ते अरिहंतोने हुं नमस्कार करुं छु / 23, (909) श०--श्रीजिनेश्वर भगवंतोए सम्यग्(केवल)दर्शनथी जोयेलो (केवल)ज्ञानथी सारी रीते जाणेलो 25 अने सम्यक् चरण-करण वडे सेवेलो एवो निर्वाणमार्ग छे / 24, (910) 1. पांच व्रतो, दशविध श्रमणधर्म, सत्तर प्रकारनो संयम, दश प्रकारचें वेयावच्च, नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बार प्रकारचें तप, चार प्रकारना क्रोधनो निग्रह ए चरण-चारित्र छ। 2. चार प्रकारे पिंडविशुद्धि, पांच प्रकारनी समिति, बार प्रकारनी भावना, बार प्रकारनी प्रतिमा अने पांच प्रकारनो इंद्रियनिरोध, पचीश प्रकारे पडिलेहण, त्रण प्रकारनी गुप्तिओ, चार प्रकारे अभिग्रहो ए करण-चारित्र छ / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 विभाग नमस्कार स्वाध्याय। सिद्धिवसहिमुवगया निव्वाणसुहं च ते अणुप्पत्ता / सासयमव्वाबाहं पत्ता अयरामरं ठाणं // 25 // 911 // पावंति जहा पारं सम्मं निजामया समुदस्स / भवजलहिस्स जिजिंदा तहेव जम्हा अओ अरिहा // 26 // 912 // मिच्छत्तकालियावायविरहिए सम्मत्तगजभपवाए / एगसमएण पत्ता सिद्धिवसहिपट्टणं पोया // 27 // 913 // (आ मार्ग केवळ आचरण करायो नथी परंतु आ मार्गे तेओ मोक्षपुरीने पहोंच्या छे ते दर्शावतां कहे छे-) श-सिद्धिवसतिए पहोंचीने तेमणे (जिनेश्वरोए) जे शाश्वत बाधा-पीडा रहित, अजर अने अमर स्थान छे तेवा निर्वाणसुखने प्राप्त कयुं छे / (25) वि०-सिद्धिवसति एटले मोक्षालय, तेने नजीकमां ज कर्मनाशरूप लक्षण वडे प्राप्त कर्यु छे / आम कहेवाथी (सिद्धिलशिामा रहेला ) एकेंद्रिय जीवोनो एमां समावेश थतो नथी / ___केटलाक एवो सिद्धांत बतावे छे के, तेओ ( सिद्धो ) त्यां सुख-दुःखथी रहितपणे रहे छे, सारे केटलाक एवो सिद्धांत स्थापे छे के, धर्मनी ग्लानि थतां सिद्धो अहीं संसारमा आवे छे। . जैनो ए हकीकतनो निषेध करतां कहे छे के, सिद्धोनुं सुख शाश्वत एटले सदाकालीन छे 15 अने अव्याबाध एटले पीडारहित एवा स्थानने प्राप्त थया छे / वळी, ते स्थान वृद्धावस्था अने मरण विनानुं छे / 25, (911) 1. अरिहंतने नमस्कार / . (बीजु द्वार कहे छे-) श०-समुद्रमां वहाणना निर्यामको एटले कर्णधारो सारी रीते पार पहोंचाडे छे ते रीते 20 जिनेश्वरो पण भवरूप समुद्रनी पार पहोंचाडे छे तेथी तेओ अरिहंत-नमस्कारने योग्य छे, एम कहेवाय छे / (26) __श०–समुद्रमा जेम कालिकावात न होय पण गर्जभनो अनुकूळ वायु होय तो कुशळ कर्णधारो सायेनु, छिद्र विनानुं वहाण इच्छित नगरे पहोंचे छे तेम मिथ्यात्वरूप कालिकावातथी रहित अने सम्यक्त्वरूप गर्जभ वायुनी अनुकूळताथी एक ज समयमा वहाणो सिद्धिवसतिरूप नगरने पहोंचे छ / (27) 25 (जेम यात्रिकोनो सार्थ [जीवस्वरूप वहाणना] प्रसिद्ध एवा कर्णधारने लांबा समय सुधी यात्रानी सिद्धि माटे उपकारना कारणे पूजे छे तेम ग्रंथकार सिद्धिनगर तरफ जनाराओनी इष्ट यात्रानी सिद्धि माटे निर्यामकरत्न एवा तीर्थंकरोतुं स्तवन करवानी इच्छाथी कहे छे-) 1. वायु आठ प्रकारना छ। 1 प्राचीन, 2 प्रतीचीन, 3 उदीचीन, 4 दाक्षिणात्य, 5 सत्त्वासुक, 6 तुंगार, बीजाप अने 8 गर्जभ / तेमज उत्तरसत्त्वामुक वगेरे आठ प्रकारो भळवाथी वायुना सोळ प्रकारो एकंदरे थाय छ। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत निजामगरयणाणं अमूढनाणमइकण्णधाराणं / वंदामि विणयपणओ तिविहेण तिदंडविरयाणं // 28 // 914 // पालंति जहा गावो गोवा अहि-सावयाइदुग्गेहिं / पउरतणपाणिआणि अ वणाणि पावंति तह चेव // 29 // 915 // जीवनिकाया गावो जं ते पालंति ते महागोवा / मरणाइभया उ जिणा निव्वाणवणं च पावंति // 30 // 916 // तो उवगारित्तणओ नमोरिहा भविअजीवलोगस / सव्वस्सेह जिणिंदा लोगुत्तमभावओ तह य // 31 // 917 // श०-यथार्थ ज्ञान अने मति ए ज जेमना कर्णधार स्वरूप छे अने जेओ त्रिदंड (मन, 10वचन अने कायाना दंड )थी रहित छे एवा निर्यामकरत्न स्वरूप अरिहंतोने त्रण प्रकारे (मन, वचन अने कायाथी) विनयथी नमीने वंदन करुं छं / 28, (914) . (त्रीजु द्वार कहे छ-) श-जेम गोवाळियो गायोनुं सर्प, जंगली पशुओ वगेरेना कष्टोथी रक्षण करे छे अने घास तेमज पाणीथी भरेलां जंगलमा लई जाय छे तेम जीवसमूहरूप गायोनु मरण वगेरे भयोथी 15 जिनेश्वरो रक्षण करे छे अने तेमने निर्वाणस्वरूप वनमां लई जाय छे / ए रीते जिनेश्वरो सर्व भव्य जीवलोकनो उपकार करता होवाथी लोकोत्तम पुरुषनी भावनाथी नमस्कारने योग्य छ / 29-31, (915-917) (बीजा प्रकारे अरिहंतना नमस्कारनी योग्यताना कारणरूप गुणो कहें छे-) श-राग, द्वेष, कषाय, पांच इंद्रियो', परीषह अने उपसर्गोने नमावे ते नमस्कारने 20 योग्य छे / ( 32 ) वि०-स्वीकारेला धर्ममार्गमां टकी रहेवा अने कर्मबंधनोने खंखेरी नाखवा माटे जे जे स्थिति समभावपूर्वक सहन करवी घटे छे ते 'परीषह' कहेवाय छ। जो के परीषहो ओछावत्ता गणावी शकाय छतां त्यागने विकसाववा माटे जे खास आवश्यक छे ते बावीश परीषहो शास्त्रमा गणावेला छे / एवा परीषहोने जे नमावे ते अंरिहंत छ / 1. क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय कहेवाय छ। 2. (1) श्रोत्र (कान), (2) चक्षु (3) घ्राण (नासिका ), (4) रसना (जीभ), (5) स्पर्श (त्वक् ) आ पांच इंद्रियो कहेवाय छे / / 3. बावीश परीषहोने नीचे प्रकाणे सहन करीने जीती लेवाना होय छे-(१-२) गमेतेवी क्षुधा अने तृषानी वेदना छता स्वीकारेली मर्यादा विरुद्ध आहार-पाणी न लेतां समभावपूर्वक एवी वेदनाओ अनुक्रमे 'क्षुधापरीषह अने 'पिपासापरीषह'मां सहन करवानी होय छे। (3-4) गमे तेवी टाढ अने गरमीनी मुश्केली छतां तेने दूर करवा अकल्प्य-न खपे तेवी कोई पण वस्तुनुं सेवन कर्या विना ज ए वेदनाओ अनुक्रमे 'शीतपरीषह' अने 'ऊष्णपरीषह'मां सहन / करवानी होय छे। (5) डांस, मच्छर, वगेरे जंतुओना आवी पडेल उपद्रवमा खिन्न न थतां तेने समभावपूर्वक सही लेवाथी 'दंशमशकपरीषह' जिताय छे / (6) नग्नपणाने एटले सर्वथा वस्त्र न मळे अगर जीर्णप्रायः मळे तो पण समभाव Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 131 रागद्दोसकसाए इंदियाणि अ पंच वि परीसहे / उवस्सग्गे नामयंता नमोरिहा तेण वुचंति // 32 // 918 // इंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे / एए अरिणो हंता अरिहंता तेण उच्चति // 33 // 919 // जे वडे अथवा जेनाथी पीडा थाय ते 'उपसर्ग' कहेवाय छे / ए उपसर्ग चार प्रकारे थाय / छे' / एवा उपसर्गोने जे नमावे ते अरिहंत कहेवाय छे / 32, (918) ... (अरिहंतनी निरुक्ति बतावे छे-) श०-इंद्रिय, विषयकषाय, परीषह, वेदना, उपसर्गो-आ बधा शत्रुओनो नाश करनार जे होय ते अरिहंत कहेवाय छे / (33) वि०-आमों इंद्रिय, विषयकषाय, परीषह, अने उपसर्गोनुं वर्णन आगळनी (918 मी) 10 गाथामां आवी गयुं छे पण वेदना विशे अहीं जणावे छे के, वेदना त्रण प्रकारनी होय छे / पूर्वक सहन करवाथी ते 'नग्नपरीषह' जिताय छे / (7) स्वीकारेल मार्गमां अनेक मुश्केलाओने लीधे कंटाळानो प्रसंग आवे त्यारे कंटाळो न लावतां धैर्य अने स्वस्थतापूर्वक आत्मरमणता करवाथी 'अरतिपरीषह' जिताय छ। (8) साधक पुरुष के स्त्रीए पोतानी साधनामा विजातीय आकर्षणथी न ललचावाथी 'स्त्रीपरोषह जिताय छे। (9) स्वीकारे , जीवनने पुष्ट राखवा असंगपणे जुदा जुदा स्थानोमां विहार करवो अने कोई पण एक स्थानमां नियतवास न स्वीकारवाथी 'चर्यापरीषह' जिताय छे ! (10) साधनाने अनुकूल एकांत जग्यामां मर्यादित वखत माटे आसन बांधी बेसतां आवी पडता भयोने आडोळपणे जीतवा अने आसनथी च्युत न थवाथी 'निषद्यापरीषह' जिताय छ। (11) कोमळ के कठिन ऊंची के नीची जेवी सहज भावे मळे तेवी जग्यामां समभावपूर्वक वसवाथी 'शय्यापरीषह' जिताय छे / (12) कोई आधीने कठोर के अणगमतुं कहे तेने सही लेवाथी 'आक्रोशपरीषह' जिताय छे / (13) कोई ताडनतर्जन करे त्यारे तेने क्षमापूर्वक सहन करवाथी 'वधपरीषह' जिताय छ। (14 ) दीनपणुं के अभिमान राख्या सिवाय मात्र धर्मयात्राना निर्वाह अर्थे याचकवृत्ति स्वीकारवाथी 'याचनापरीषह' जिताय छ। (15) याचना कर्या छतां जोईतुं न मळे त्यारे 'प्राप्ति करतां अप्राप्तिने खरूं तप गणी तेमां संतोष राखवाथी 'अलाभपरीषह जिताय छ। (16) कोई पण रोगमा व्याकुळ न थतां समभावपूर्वक तेने सहन करवाथी 'रोगपरीषह' जिताय छ। (17) संथारामां के अन्यत्र तृण आदिनी तीक्ष्णतानो के कठोरतानो अनुभव थाय त्यारे मृदुशय्यामां रहे तेवो उल्लास राखवाथी ए 'तृणस्पर्शपरीषह' जिताय छ। (18) गमे तेटलो शारीरिक मळ थाय छतां तेमां उद्वेग न पामवो अने स्नान आदि संस्कारोनी इच्छा न करवाथी 'मलपरीषह' जिताय छे। ( 19) गमे तेटलो सत्कार मळ्या छतां तेमां न फुलावाथी अने सत्कार न मळे तो खिन्न न थवाथी 'सत्कारपुरस्कारपरीषह' जिताय छ। (20) प्रज्ञा-चमत्कारी बुद्धि होय तो तेनो गर्व न करवो अने न होय तो खेद न करवाथी 'प्रज्ञापरीषह' जिताय छे / (21) विशिष्ट शास्त्रज्ञानथी गर्वित न थर्बु अने तेना अभावमा आत्मावमानना न राखवाथी 'ज्ञानपरीषह' अथवा 'अज्ञानपरीषह' जिताय छ। (22) सूक्ष्म अने अतींद्रिय पदार्थोनुं दर्शन न थवाथी स्वीकारेल त्याग नकामोभासे त्यारे विवेकी श्रद्धा केळवी ते स्थितिमां प्रसन्न रहेवाथी 'अदर्शनपरीषह' जिताय छ। 4. (1) देवथी, (2) मनुष्यथी, (3) तिर्यचथी अने ( 4 ) आत्मसंवेदनथी उपसर्ग थाय छ / देवो हास्यथी, पूर्वभवना द्वेषथी, विमर्श (परीक्षा करवानो उद्देश ) अने विमात्राथी ( कईक हास्यथी कईक द्वेषथी, कईक विमर्शथी) उपसर्गो करे छे / ए ज प्रमाणे मनुष्यो पण चार प्रकारे उपसर्ग करे छे तेमां चोथो प्रकार कुशीलनी प्रतिसेवा माटे करातो उपसर्ग समजवो / तियचो भयथी, द्वेषथी, आहार माटे, बच्चांओना माळा के गुफाना रक्षण माटे उपसर्ग करे छ; अने आत्मसंवेदनथी ते आखमां पडेला क गां वगेरे खूचपाथी अंगो जकडाई जबाथी, अंगनां खाडा पडवाथी, हाथ वगेरे अंगोने परस्पर मसळवाथी जे पीडा थाय छे ते समजवी / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं / तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण बुचंति // 34 // 920 // अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूअसक्कारं। सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुचंति // 35 // 921 // 5 1. शारीरी एटले शरीर संबंधी, 2 मानसी एटले मन संबंधी, अने 3 ऊभयरूप एटले शरीर अने मन ए बने संबंधी समजवी / आ बधा शत्रुओने हणनारा ते अरिहंत कहेवाय एवी निरुक्ति छ। प्र०-पूर्वनी गाथामां आंतर शत्रुओ विशे जणाव्युं छे तो पछी आ गाथामां फरीने तेमनो निर्देश केम कर्यो ? उ०—पूर्वनी गाथामां तो नमस्कारने योग्य एवा हेतुओ द्वारा अरिहंतने जणाव्या छे, पण 10 वा गाथामां तो अरिहंतना नामनी निरुक्ति बताववा खातर तेमनो निर्देश करेलो छ / 33, (919) (बीजा प्रकारे अरिहंतनी निरुक्ति बतावे छे-) श०-बधा जीवोने आठ प्रकारनां कर्मो पण शत्रुरूप छे / ते कर्मरूप शत्रुओना नाश करनारा ते अरिहंत कहेवाय छे / (34) वि० ते आठ प्रकारनां कर्मो आ प्रकारे छे–१ ज्ञानावरण, 2 दर्शनावरण, 3 वेदनीय, 15 4 मोहनीय, 5 आयुष्य, 6 नाम, 7 गोत्र अने 8 अंतराय / 1 जेना वडे ज्ञान-विशेष बोध अवराय ढंकाय ते ज्ञानावरण / 2 जेना वडे दर्शनसामान्य बोध अवराय ते दर्शनावरण / 3 जेथी सुख के दुःख अनुभवाय ते वेदनीय / 4 जेना वडे आत्मा मोह पामे ते मोहनीय / 5 जेथी भव धारण थाय ते आयुष् / 6 जेथी विशिष्ट गति, जाति, आदि प्राप्त थाय ते नाम / 7 जेथी उच्चपणुं के नीचपणुं पमाय ते गोत्र / 8 जेथी देवा-लेवा 20आदिमां विघ्न आवे ते अंतराय कहेवाय छ / मूळमां अपि शब्द छे तेथी कर्मना विविध स्वभावोनी उत्तर प्रकृतिओ 97 थाय छे / ए अपेक्षाए कर्मो अनेक प्रकारनां छे / अहीं तो ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारनां कर्मो ज शत्रुरूप बतावेल छ / बधा प्राणीओने अज्ञान वगेरेनां दुःखो ज कारणभूत छे / एवां दुःखोने जे हणी नाखे छे ते अरिहंत छ / 34, (920) 25 श०-वंदन अने नमस्कारने जे योग्य होय, पूजा अने सत्कारने जे योग्य होय अने सिद्धि एटले मुक्तिमां जवाने जे योग्य होय ते अरहंत कहेवाय छे / (35) वि०-अहं धातु पूजार्थक छे / 'वंदन' मस्तक वगेरे नमाववाथी थाय छे ज्यारे 'नमस्कार' वाणीद्वारा स्तुति करवाथी थाय छे / एटलो बनेनो तफावत छ / वळी, वस्त्र अने गंधमाळाथी जे नमस्कार थाय ते 'पूजा' कहेवाय अने ऊभा थवं, हाथ जोडवा वगेरेथी विनय बताववो ते 'सत्कार' कहेवाय / एटलो बनेमां तफावत छे / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमाग] नमस्कार स्वाध्याय / 133 देवासुरमणुएसुं अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा / अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुचंति // 36 // 922 // अरिहंतनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ / भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए // 37 // 923 // अरिहंतनमुकारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ // 38 // 924 // अरिहंतनमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थुत्ति / जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो // 39 // 925 // जेमां जीवो स्थिरभावने पामे ते सिद्धि, ते लोकना अग्रभागे छे / तेमां गमन करनारा होय ते अरहंत छ / एटले एवी योग्यताने धारण करनारा अरिहंत कहेवाय छे / 35, (921) 10 श०-देवताओमां उत्तम होवाथी जेओ देव, असुर अने मनुष्योथी करायेली पूजाने प्राप्त करे छे / वळी, जे शत्रुओना हणनारा छे अने कर्मरूप रज एटले मेलनो नाश करनारा छे ते अरिहंत कहेवाय छ / 36, (922) / श-अरिहंतने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी ( हृदयपूर्वक ) करेलो होय तो ते हजारो भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार छेवटे बोधिबीज एटले सम्यक्त्वने आपनारो बने छ / (37 ) 15 वि०-आ गाथामां अरहंत शब्दथी स्थापना नमस्कार, नमुक्कारो-नमस्कार शब्दथी नाम नमस्कार, भावेण थी भावनमस्कार अने अंजलि वगेरे द्वारा करातो नमस्कार ते 'द्रव्य नमस्कार'एम चार प्रकारो दर्शाव्या छ / 37, ( 923) श०-भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो पोताना हृदयमां अरिहंतने नमस्कार करवानुं छोडता नथी तेमना दुर्ध्यानतुं निवारण ते जरूर करे ज छे / ( अर्थात् एक मात्र धर्म 20 ध्यानमा तेमने जोडी राखे छे / ) 38, (924) श-आ प्रकारे करेलो नमस्कार महान अर्थवाळो छे, अने मरण नजीकमां होय त्यारे निरंतर अने घणी वार ते गणवामां आवे छे / (39) वि०-भाष्यकारे तेनो महिमा आ रीते जणाव्यो छे-अग्निनो भय आवे त्यारे बधुं छोडीने एक मात्र महामूल्यवान रत्नने ग्रहण कराय छे, अने युद्धमा मोटो भय उत्पन्न थतां 25 1. अहीं अरहंत शब्दथी बुद्धिमां अरिहंतना आकारनी स्थापना समजवी। 2. सहस्र शब्दथी हजार सुधीनी संख्या गणाय पण अहीं अनंत संख्या समजवी। 3. जो के भावथी नमस्कार करनार बधाने ते भवे मोक्ष मळतुं नथी, छतां भावनाविशेषथी ते बोधिबीजने माटे तो थाय छे, अने जेने सम्यक्त्व प्राप्त थाय तेने नजीकना समयमां अविकलपणे मोक्षनी प्राप्ति थाय छ / 4. धन्य मनुष्यो एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए ज जेमनुं धन छे एवा साधु पुरुषो। 5. थोडा अक्षरोनो होवा छतां तेमां बारे अंगना अर्थनो समावेश छ / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 णमोकारणिजुत्ती। [प्रांकृत अरिहंतनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं // 40 // 926 // कम्मे सिप्पे' अ विजों य मंते जोगे' अ आगमे / अत्थे जत्ती अभिप्पाएं तवे कम्मक्खए इय // 41 // 927 // 5 अव्यर्थ एवं शस्त्र धारण कराय छे ते प्रमाणे मरण समये बारे अंगोने छोडीने जे कारणे अरिहंतने. नमस्कार करवामां आवे छे ते कारणथी ते वार अंगना अर्थवाळो कहेवाय छ / बधाये बारे अंगो परिणामनी विशुद्धि मात्रनां कारण छे, अने नमस्कार पण तेनुं ज कारण छे, तेथी नमस्कारने बार अंगनो सार कह्यो छे / एवा प्रकारना ( मरण समयना) देश-काळमां समग्र बार प्रकारना श्रुतस्कंधर्नु अनुचिंतन 10 करवानुं अत्यंत शक्तिशाली चित्तवाळाने पण शक्य होतुं नथी / माटे अरिहंत नमस्कारहुँ ज अनुस्मरण-चिंतन शुभचित्ते करवू जोईए / 39, (925) (अरिहंत विशे उपसंहार करतां कहे छे-) श०–अरिहंतने करेलो नमस्कार बधांये पापनो नाश करनारो छे अने बांये मंगलोमां उत्कृष्ट मंगल स्वरूप छे / (40) . 15 वि०-जे नीचे पाडे ते 'पाप', अथवा हितने पी जाय तेने 'पाप' कहे छे / जाति सामान्यनी अपेक्षाए आठे प्रकारनां कर्म पाप कहेवाय छे / अरिहंतने करेलो नमस्कार, ते पापोनो नाश करे छ। बधांये नाम आदि मंगलोमां उत्कृष्ट अर्थकारी होवाथी प्रथम मंगल कहेवाय छे अथवा पांचे परमेष्ठीओ जे भावमंगल स्वरूप छे तेमां आ अरिहंत प्रथम मंगलरूप छे / 40, (926) (2) सिद्ध भगवंतने नमस्कार / . 20 सिद्ध शब्द पिधु, साधू अथवा विधू ए धातुओथी बने छ। जेणे ते ते गुणो पूर्णरूपे प्राप्त करी लीधा छे तेने 'सिद्ध' कहे छे / ते सिद्ध सामान्यथी चौद प्रकारे छे। तेमां 1 नामसिद्ध, 2 स्थापनासिद्ध अने 3 द्रव्यसिद्ध / 1. कोईनुं सिद्ध एवं नाम राख्युं होय ते 'नामसिद्ध' कहेवाय / 2. कोई वस्तुविशेषनी सिद्धरूपे स्थापना करीए ते 'स्थापनासिद्ध' कहेवाय / 3. द्रव्य सिद्ध (रंधाई गयेला चोखानी माफक ) जे गुणवडे संपूर्ण छे अने सामान्यपणे ते द्रव्य पण छे तेथी ते 'द्रव्यसिद्ध' कहेवाय / (आ त्रण भेद पछी बाकीना अगियार भेदो विशे गाथामां कहे छे-) श०–४ कर्मसिद्ध, 5 शिल्पसिद्ध, 6 विद्यासिद्ध, 7 मंत्रसिद्ध, 8 योगसिद्ध, 9 आगमसिद्ध, 10 अर्थसिद्ध, 11 यात्रासिद्ध, 12 अभिप्रायसिद्ध, 13 तपसिद्ध, अने 14 कर्मक्षयसिद्ध-ए प्रकारे सिद्धो छ / 41, (927) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाग] नमस्कार स्वाध्याय। कम्मं जमणायरिओवएसयं सिप्पमन्नहाभिहि / किसिवाणिजाईयं घडलोहाराइभेअं च // 42 // 928 // जो सव्वकम्मकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ / सिज्झगिरिसिद्धओविव स कम्मसिद्ध त्ति विन्नेओ // 43 // 929 // जो सव्वसिप्पकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ / कोकासवडईविव साइसओ सिप्पसिद्धो सो // 44 // 930 // : श०-आचार्यना उपदेश विना ज अनन्य साधारण जे कळा प्राप्त होय ते 'कर्म' कहेवाय / आयी विपरीत एटले आचार्यना उपदेशथी जे कळा जाणी होय ते 'शिल्प' कहेवाय छे; तेमां खेती, बेपार वगेरे कर्मो कहेवाय छे, ज्यारे कुंभार अने लुहार वगेरेनां कार्योने 'शिल्प' कहे छ / बनेमां एटलो तफावत छ / 42, (928) 10 ___(कर्मसिद्धने उदाहरणपूर्वक समजावे छे-) श-जे बधांये कर्मोमां कुशळ होय अथवा कर्ममां बराबर ओतप्रोत थयेलो होय ते 'कर्मसिद्ध' कहेवाय / जेम, सह्याद्रिमा जे सिद्ध रहेतो हतो तेने कर्मसिद्ध जाणवो / 43, (929) (शिल्पसिद्धने दृष्टांत साथे जणावे छे-) श-जे कोई बधां शिल्पोमां कुशळ होय ते अथवा गमे ते एक शिल्पमां निष्णात होय 15 से शिल्पसिद्ध कहेवाय छे / जेमके-कोकास नामनो सुथार / ( तेनी कथा प्रकारे छे-) : "सोप्पारकमां' एक सुथार रहेतो हतो। एनी दासीने ब्राह्मणथी एक पुत्र थयो। ए दासचेट गुप्तरीते रहेवा लाग्यो / सुथारे, हबे हुँ जीवीश नहि, एम विचारीने ते पोताना पुत्रोने शीखववा लाग्यो, पण ते मंदबुद्धि होवाथी कई शीख्या नहीं, परंतु ते दासचेटे ( कोकासे ) बधुं ग्रहण कयुं / पेलो रथकार मरण पाम्यो / ए नगरना राजाए दासचेटने आखं घर आपी दीधुं / ए घरनो स्वामी बन्यो / 20 .. आ तरफ उज्जैनीमां एक जैन राजा हतो / ए राजाने चार श्रावको हता / 1. एक रसोईओ हतो, जे रांधतो। (ए एवी रसोई बनावतो के जे जमवाथी राजाने) जमतांत खाधेलु पची जतुं / अथवा एक, बे, त्रण, चार, अगर पांच पहोर पछी पची जाय एवी इच्छा करे तो पण पचे नहीं। . 2 तेल चोळनार हतो / ए कुडप' जेटलुं तेल शरीरमा समावी देतो अने ए बधुं पार्छ काढतो। 25 3. शय्या रचनार हतो। राजाने बीजे, त्रीजे के चोथे पहोरे (ज्यारे जागq होय त्यारे) जागी शके तेवी के ऊंध्या कर होय तो ते प्रकारनी शय्या ए रचतो। 4. भंडारी हतो / ए एवो भंडार बनावतो के जेनी अंदर गया पछी कई ज न देखाय / १.कोकण देशमा दरियाकिनारे आवेलुं नगर / आजे सुप्पारक ते थाणा जिल्ला- सोपारा मनाय छ। 2. कुडपकरब एटले बार मूठी अथवा सोळ तोलानुं माप / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत आ चारेना आवा गुणो हता। ते राजाने पुत्र नहोतो, तेथी काम-भोगथी निर्वेद पामीने प्रव्रज्या लेवानी इच्छा राखतो हतो। ___ आ तरफ पाटलीपुत्र नगरना जितशत्रु राजाए तेनी नगरीने घेरो घाल्यो। ए वेळाए राजाने पूर्वकर्मना परिणामथी भारे शूळ ऊपज्युं / तेथी एणे भोजन न लेवानुं पञ्चक्खाण कर्यु / ए मरीने 5 स्वर्गे गयो / नगरजनोए ए नगर जितशत्रुने आपी दीधुं / एणे पेला चार श्रावकोने बोलावीने पूछ्यु के, तमे शुं काम करो छे ? भंडारीए राजाने भंडारमा दाखल कर्यो पण एणे कई दीठं नहीं / बीजा द्वारथी (प्रवेश करावी भंडार ) बताव्यो / शय्यापाले एवी शय्या रची के, मुहूर्ते मुहूर्ते ने ऊठी जतो / रसोईयाए एवी रसोइ बनावी के जेथी ते वारंवार जमवा लाग्यो / तेल चोळनारे ( बने पगमा तेल चोळी) 10 एक पगमाथी बधुं तेल बहार काढ्यं, पण बीजामाथी काढ्यु नहीं, अने मारा जेवो बीजो कोई चालाक होय तो ते काढी आपे, एम कर्दा। ___ चारे जणे दीक्षा लीधी / पेलो जितशत्रु राजा तेलथी दाझ्यो अने ए काळो पडी गयो / आथी एनुं नाम काकवर्ण पड्यु / ___आ तरफ सोपारामां दुकाळ पड्यो / कोकास उज्जैनी गयो / राजाने केवी रीते जाण करवी 15 ए विचारता (यांत्रिक) कबूतरो द्वारा राजाना गंधशालि (एक जातना सुगंधी चोखा) हरवा मांड्या / कोठारीओए (राजाने) कह्यु, तपास करतां कोकास नजरे पड्यो, एने (राजा पासे) लाववामां आव्यो / राजाए एने ओळख्यो अने एना भरणपोषणनी व्यवस्था करी। ___ कोकासे गरुडयंत्र बनाव्यु / राजा, राणी अने आ कोकास साथे (आकाशमा) विहरवा लाग्या / जे कोई राजा एने नमतो नहि तेने ए कहेतो के, हुं आकाशमाथी आवीने तमने मारीश / 20 (बीकना मार्या) बधा (राजाओ) वश थया / __काकवर्णनी राणीने बीजी राणीओ (एमां बेसवाने ) पूछ्या करती। एके आ (गरुडयंत्र) जतुं हतुं त्यारे एनी पाछा फरवानी एक खीली ईर्ष्याना कारणे लई लीधी / गरुडयंत्र उड्यु / पाछा फरवानो विचार थयो त्यारे पार्छ फरतुं नथी एवी खबर पडी। (आखरे ए यंत्र ) ऊंचे ऊंचे जतां कलिंगमा तरवारनी धारा जेवी वेलथी एनी पांखो भांगी गई अने ए त्यां पड्यु / कोकास ए जोडवा माटेनां साधनो लेवा ते नगरमा गयो। त्यांनो सुथार रथ बनावतो हतो। एणे एक चक्र पूरूं बनाव्युं हतुं, बीजुं कंईक बाकी हतुं, त्यारे कोकासे ओजारो माग्यो / रथकारे कह्यु, आ तो राजानां होवाथी बहार कढातां नथी एटले घेरथी लावी आपुं / (एम कही) ए गयो / एटलामा कोकासे एबुं चक्र बनाव्यु के, ऊंचु राखवामां आवे तो (उपर ) जाय / कोई साथे अथडाय तो पार्छ फरे अने पाछळ मों राखीने जाय तो पडे नहीं, बीजानुं ( कोई यंत्र ) 30 होय तो नाश पामे, अथडाय तो पडे / ते ( रथकार ) आव्यो अने जूए छे तो ते (यंत्र ) तैयार थई गयुं हतुं / एणे वेगथी जईने राजाने खबर आपी के कोकास आव्यो छे, जेना बळना कारणे काकवणे बधा राजाओने वश कर्या छ / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 137 इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतु त्ति तबिसेसोयं / विजा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतु त्ति // 45 // 931 // विजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि / सिज्झिन्ज महाविजा विजासिद्धजखउडु व्व // 46 // 932 // तेने पकडी लेवामां आव्यो / एने मार मारवामां आव्यो त्यारे एणे (राजा, राणी अमुक / स्थळे होवानुं) कही दीर्छ / राजाने राणीनी साथे पकडी लेवामां आव्यो / एमने भोजन आपवानो निषेध कर्यो / नगरजनोए अपयशनी बीके कापिंड प्रवर्ताव्या। कोकासने ( राजाए ) कह्युः ‘मारा पुत्रने माटे सात माळनो महेल बनाव अने वच्चना भागमा मारा माटे (महेल) बनाव, जेथी हुं बधा राजाओने अहीं लावी शकुं। कोकासे एवी रचना करी दीधी। ___ कोकासे काकेवर्णना पुत्रने लेख मोकल्यो के तमे अहीं आवो, एटलामा हुं आ( राजा )ने 10 मारी नाखुं छु / तमारा पिताने अने मने छोडावो / ए रीते दिवस नक्की करायो। - ए दिवसे राजा पुत्रनी साथे महेलमा पेठो। ( कोकासे) खीली उपर प्रहार कर्यो एटले ए (महेल) संपुट बनी गयो ( अर्थात् बीडाई गयो) राजा अने एनो पुत्र मरण पाम्या / काकवर्णना पुत्रे ए नगर लई लीधुं / मा-बाप अने कोकासने मुक्त कर्या / " (विद्यासिद्धनुं स्वरूप कहे छे-) श-विद्या अने मंत्रमा एटलो ज तफावत छे के, स्त्री-देवताथी अधिष्ठित होय ते 'विद्या' कहेवाय अने पुरुष-देवताथी अधिष्ठित होय ते 'मंत्र' कहेवाय छे / अथवा विद्या (होम बगेरे ) साधनाथी सिद्ध थाय छे, ज्यारे मंत्र साधन विना ज सिद्ध थाय छे / 45, ( 931) (विद्यासिद्धने दृष्टांतपूर्वक जणावे छे-) श-जे सर्व विद्याओना चक्रवर्ती छे अथवा जेमणे एक पण विद्याने सिद्ध करी छे ते 'विद्या- 20 सिद्ध' गणाय छे / जेम आर्य खपुटाचार्य विद्यासिद्ध तरीके प्रसिद्ध हता। तेमनी कथा आ प्रकारे छे "आर्य खपुटाचार्य विद्यासिद्ध हता। तेमनो बाळ भाणेज (भुवन नामे ) शिष्य हतो। तेणे तेमनी पासेथी विद्या सांभळीने ग्रहण करी लीधी; विद्यासिद्धने नमस्कार करवाथीये विद्या सिद्ध थाय छे, एवा ते विद्याचक्रवर्ती (आर्य खपुटाचार्य ) ते भाणेजने भरूचमां ( कोई ) साधु पासे मूकीने पोते गुडशस्त्रनगरमां गया / त्यां कोई (बौद्ध) भिक्षुने (जैन) साधुओए वादमा हराव्यो हतो / 25 हार सहन न करी शकवाथी ते (अनशन करी) मरी गयो, अने गुडशस्त्रनगरमां बृहत्कर नामे ध्यंतर थयो / त्यां तेणे ( जैन ) साधुओने उपद्रव करवा मांड्या / ए माटे आर्य खपुटाचार्य त्यां गया। नगरमां आवीने ते यक्षमंदिरमा आचार्य महाराज ते मूर्तिना कान उपर पग मूकीने सूई गया / मंदिरना पूजारीए आवीने जोयुं अने त्यांथी जईने ते माणसोने बोलावी आव्यो / आचार्य 15 1. जे द्वारा आहार मळी शके। 18 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत णमोक्कारणिज्जुत्ती। साहीणसव्वमंतो बहुमंतो वा पहाणमंतो वा। नेओ स मंतसिद्धो खंभागरिसु व्व साइसओ॥४७॥ 933 // वस्त्रने बराबर लपेटीने सूता हता, तेथी तेमने उठाडवानो प्रयत्न नकामो गयो / राजाने जईने निवेदन कर्यु, तेमणे पण आवीने जोडे / लाकडीथी तेमना उपर प्रहारो करवामां आव्या / ते प्रहारो अंत:5 पुरमा थवा लाग्या, एटले मारवानुं छोडी दीधुं / आचार्य ऊठ्या अने तेमनी पाछळ बृहत्कर अने बीजा व्यंतरो आगळपाछळ चालवा लाग्या / लोको पण आचार्यने पगे पडीने विनंति करवा लाग्या के हवे छोडो / ए यक्षमंदिरमा पथ्थरनी बे मोटी कुंडीओ हती / तेने पण आचार्ये पाछळ पाछळ चलावी। व्यंतरो अवाज करता करता आचार्यनी पाछळ चाल्या आवता हता। माणसोए आचार्यने विनंति 10 करीने ते बृहत्कर अने व्यंतरोने छोडाव्या / ते कुंडीओने पण सूरिजीए आगळ करी अने जे कोई मारा जेवो आवशे ते आ कुंडीओने पाछी मूकशे एम कहीने ते कुंडीओ नगरमां मूकी। ____ आ तरफ भरूचमां तेमनो भाणेज आहारनी लोलुपताथी बौद्ध साधु बनीने रह्यो छे / तेनी विद्याना प्रभावथी पात्रो आकाश मार्गे भराईने भक्तोना त्यां आवे छे / आ प्रभावथी केटलाये माणसो तेना भक्त बनी गया छ / आ हकीकत आचार्यने जणाववा श्रीसंघे माणसने मोकल्या / ते 15 त्यां पहोंच्या ने आचार्यने बधी वात करी। आचार्य भरूचमां पधार्या / . एवा प्रकारनी अक्रिया उत्पन्न थई छे के आकाशमार्गे गयेलां पात्रोनी आगळ वस्त्रथी वीटायेलं एक मोटुं पात्र भराईने आवे छे अने तेने श्रेष्ठ आसन उपर स्थापन करीने बीजां पात्रोथी भरवामां आवे छे / आचार्ये आकाशमार्गनी वच्चे एक शिला विकुर्वीने स्थापन करी, तेथी ते पात्रो फूटी गयां / आथी ते क्षुल्लक भय पामीने नासी गयो। आचार्य ए स्थळे (बौद्धोना आवासमां) गया / बौद्ध 20 साधुओ आचार्यने कहेवा लाग्या 'आवो, बुद्ध भगवानना पगे पडो।' आचार्ये जवाब आप्यो के, 'आव, हे शुद्धोदनपुत्र बुद्ध ! मने वंदन कर।' त्यारे प्रतिमारूपे रहेल बुद्ध तेमना चरणमा पड्या। त्यांना स्तूपना दरवाजामां जे सेवकनी मूर्ति हती तेने आचार्ये कह्युः 'आव, पगे पड / ' आथी ते पण पगमां पडी / आचार्ये ते मूर्तिने कयुः 'हवे ऊठ' / त्यारे अर्ध नमेली दशामा हती ते वखते आचार्य कह्युः 'बस, आ प्रकारे रहे / ' आथी ते अर्ध नमेली दशामां रही। पडखे नमेली होवाथी ते मूर्ति 25 'निर्ग्रन्थनामित' नामे ओळखावा लागी।" विद्यासिद्ध आवा प्रकारना होय छे / 46, (932) (मंत्रसिद्धने जणावे छे--) श-जेमणे समग्र मंत्रोने स्वाधीन कर्या होय अगर घणा मंत्रो के प्रधान मंत्रने सिद्ध कर्यो होय ते मंत्रसिद्ध कहेवाय छे / जेमके, स्तंभनुं आकर्षण करनारा अतिशयवान् साधु / तेमनी 30 कथा आ प्रकारे छे Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार खाध्याय। 139 सव्वेवि दव्वजोगा परमच्छेग्यफलाऽहवेगोवि / जस्सेह हुज सिद्धो स जोगसिद्धो जहा समिओ // 48 // 934 // आगमसिद्धो सव्वंगपारओ गोअमु व गुणरासी / पउरत्थो अत्थपरो व मम्मणो अत्थसिद्ध त्ति // 49 // 935 // ___“कोई एक नगरमा एक सौंदर्यवती साध्वीने कोई विषयलोलुप राजाए पकडी, त्यारे संघ / एकठो थयो अने एक सिद्धमंत्र आचार्य राजाना महेलना प्रांगणमा जे स्तंभो हता तेने आकर्षित कर्या / ते स्तंभो अवाज करता आकाशमां ऊंचे जवा लाग्या, अने महेलना बीजा स्तंभो पण हाली ऊठ्या / आथी राजा भय पाम्यो अने साध्वीने छोडी मूकी, तेणे श्रीसंघनी माफी मागी।" आ प्रकारना होय ते 'सिद्धमंत्र' कहेवाय छे / 47, (933) ( योगसिद्धने बतावे छे-) 10 श०–भारे आश्चर्यकारक समग्र द्रव्योनी मेळवणी जे जाणता होय अथवा जेमणे एक पण योग सिद्ध कर्यो होय ते 'योगसिद्ध' कहेवाय छे / एवा योगसिद्ध तरीके आर्य समिताचार्य जाणीता हता। तेमनी कथा आ प्रकारे छः ___"आभीर देशमां कृष्णा अने बेन्ना नामनी नदीओनी वच्चे (एक टापु उपर) केटलाक तापसो रहेता हता। त्यांनो एक तापस पगे लेप करीने पाणीमां फरतो फरतो ( नदीकिनारे) 15 आवतो-जतो / आथी लोको तेने मान आपवा लाग्या / श्रावकोनी श्रद्धा पण चलायमान थवा लागी। .. श्रीवज्रस्वामीना मातुल आर्य समितसूरि विहार करता त्यां आव्या। श्रावको तेमनी पासे गया। तेमणे ( पेला तपासनी हकीकत जाणीने ) कह्यु के, आ अक्रिया छ। एम थाय ए आचार्यने गम्युं नहीं। - तेमणे कयुं के, आर्यो ! शा माटे राह जूओ छो ? आ (तापस) कोई योगचूर्ण (पगे) घसी लावे छे, तेथी ते आ रीते फरी शके छे / ते तापसने बोलाववामां आव्यो। कोई श्रावके कडं के, अमे 20 पण तमने दान आपीए छीए, माटे हे भगवन् ! पहेलां आप पग धोई नाखशो तो अमे आभारी थईशं। ___ ते तापसे अनिच्छाए पग अने पादुकाओ धोई नाखी / ते पछी ते पाणीमां गयो अने डूबवा लाग्यो / आथी तेनी भारे निंदा थवा लागी / आवा दंभना कारणे ए लोकजीभे चवाई गयो। आचार्य (पोताना स्थानथी) बहार नीकळ्या / तेमणे नदीमा योगचूर्ण नाखीने नदीने कह्युः 'हे पुत्री बेन्ना नदी ! किनारो आप। मारे पूर्व तरफना किनारे जq छ।' आथी बने किनारा भेगा थई गया। 25 आचार्ये ते बधा तापसोने (जैन) दीक्षा आपी। ते बधा ब्रह्मद्वीपमा रहेनारा 'ब्रह्मद्वीपिक' कहेवाया।" 'योगसिद्ध' आ प्रकारना होय छे / 48, (934) (आगमसिद्ध अने अर्थसिद्ध विशे कहे छे-) श०-समग्र अंगोना पारगामी ते 'आगमसिद्ध' कहेवाय / एवा आगमसिद्ध तरीके गुणोना भंडार श्रीगौतमस्वामी प्रसिद्ध हता। एम ज जे महाधनवान् के धनमां ज निष्ठावाळो होय ते 30 मम्मण श्रेष्ठीनी माफक 'अर्थसिद्ध' कहेवाय छे / (49) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत जो निच्चसिद्धजत्तो लद्धवरो जो व तुंडियाइ व्व / सो किर जत्तासिद्धोऽमिप्पाओ बुद्धिपजाओ // 50 // 936 // विउला विमला सुहुमा जस्स मई जो चउबिहाए वा / बुद्धीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो इमा सा य // 51 // 937 // उप्पत्तिओं वेणइओं कम्मियों पारिणामिओँ / बुद्धी चउव्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भए // 52 // 938 // पुव्वमदिट्ठमस्सुअमवेइअ तक्खणविसुद्धगहिअत्था / अव्वायफलजोगिणि बुद्धी उप्पत्तिआ नाम // 53 // 939 // वि०-'आगमसिद्ध' पुरुष महा अतिशयवाळा होय छे / ते असंख्य भवोनी वात कही शके छे। 10 जे पुरुष पुष्कळ पैसावाळो छे अगर पैसामां परायण रहे छे ते मम्मण श्रेष्ठीनी माफक 'अर्थसिद्ध' कहेवाय छे / (यात्रासिद्ध अने अभिप्रायसिद्ध विशे कहे छे-) 49, (935) / श०-जे सदा (जळमार्ग अथवा स्थळमार्गनी) यात्राने (शंका राख्या विना) सिद्ध करे छे अगर तुंडिक( वणिक )नी माफक जेणे वरदान प्राप्त कयुं छे ते 'यात्रासिद्ध' कहेवाय छ। अभिप्राय एटले बुद्धि / जेनी बुद्धि विस्तारवाळी (एटले एक पद जाणवा मात्रथी अनेक पदोनुं ज्ञान 15 मेळवी ले ) विमळ ( एटले संशय, विपर्यास अने अनध्यवसायथी रहित ) तेमज सूक्ष्म होय अगर (औत्पातिकी वगेरे) चार प्रकारनी बुद्धिथी जे संपन्न होय ते 'बुद्धिसिद्ध' अगर 'अभिप्रायसिद्ध' जाणवो / ते चार प्रकारनी बुद्धि आ प्रमाणे छे- / 50-51, (936-937) श०-१ औत्पातिकी, 2 वैनयिकी, 3 कर्मजा अने 4 पारिणामिकी-आ चार प्रकारनी बुद्धि कहेली छे / पांचमो प्रकार जणातो नथी / (52) 20- वि०-(१) स्वभावथी ज जेनी उत्पत्ति थती होय अने जेमां बीजां शास्त्रो तेमज कर्मना अभ्यासनी अपेक्षा नथी ते 'औत्पातिकी बुद्धि' (हाजरजवाबी) कहेवाय छ / (2) गुरुनी सेवाशुश्रूषा ए ज जेनुं मुख्य कारण छे ते 'वैनयिकी बुद्धि' कहेवाय छ / (3) आचार्य एटले शिक्षक / तेमना विना ज जे कार्य थाय ते 'कर्म' कहेवाय, अने शिक्षकपूर्वक जे कार्य थाय ते 'शिल्प' कहेवाय / अथवा कोई समये जे कार्य कराय ते 'कर्म' 25 कहेवाय अने नित्य जे कार्य करवामां आवे ते 'शिल्प' कहेवाय-आमां कर्म करवाथी उत्पन्न थती जे बुद्धि ते 'कर्मजा बुद्धि' कहेवाय छे / (4) लांबा समयना पूर्वापरना अवलोकनथी-अनुभवथी उत्पन्न थती जे बुद्धि तेने 'पारिणामिकी बुद्धि' कहे छ। 52, (938) (औत्पातिकी बुद्धिनुं लक्षण जणावे छे-) 30 श०—पूर्वे जोयेलुं न होय, सांभळेलुं न होय अने अनुभवेलुं न होय छतां ते ज क्षणे विशुद्ध अर्थने ग्रहण करनारी अने अबाधित फळना योगवाळी बुद्धिने 'औत्पातिकी बुद्धि' कहे छे। (53) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 141 भरहसिल पणिों रुक्खे खुड्डग पडें सरर्ड काग उच्चारे / गर्य घयण गोल खंभे खुड्डग मग्गित्थिं पई पुत्ते // 54 // 940 // भरहसिल मिढे कुक्कुडै तिर्ल वालु हथिं अगड़ें वणसंडे / पायसे अइओं पत्ते" खाडहिली पंचपिअरो३_१६ अ // 55 // 941 // महुसित् मुद्दि अंके अ नाणएँ भिक्खं चेडगनिहाणे / सिक्खों य अत्थसत्थे" इच्छा य महं" सयसहस्से // 56 // 942 // भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेयाला / उभओ लोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी // 57 // 943 // निमित्ते' अत्थसत्थे अलेहे गणिएँ अ कूवे अस्से अ। गद्दह लक्खण गंठी अगएँ गणिआ य रहिओ" अ॥ 58 // 944 // 10 सीआ साडी दीहं च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स / / निव्वोदएँ अ गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ" // 59 // 945 // वि०-पूर्व एटले बुद्धि उत्पन्न थाय ते पहेलां पोते जोयेलुं न होय, बीजेथी सांभळ्युं न होय, अने मनथी विचारेलुं न होय छतां ते ज क्षणे बराबर अभिप्रेत अर्थने ग्रहण करे अने आ भवमा ऐकांतिक अने परभवमा अविरुद्ध एवा अबाधित फळने जे मेळवी आपे तेने 'औत्पातिकी 15 बुद्धि' कहे छे; अर्थात् शास्त्राभ्यास के अनुभव वगेरे विना ज केवळ उत्पातथी ज जे उत्पन्न थाय ते 'औत्पातिकी बुद्धि' कहेवाय छे / 53, (939) . (औत्पातिकी बुद्धिनां दृष्टांतो जणावे छे-) श०-१ भरतशिला, 2 पणित (जुगार), 3 वृक्ष, 4 मुद्रिका, 5 पट, 6 सरद (जंतुविशेष ), 7 कागडो, 8 उच्चार, (मलपरीक्षा), 9 हाथी, 10 भांड (अकीर्ति ), 11 गोलक, 20 12 स्तंभ, 13. क्षुद्रक (बाळक), 14 मार्ग, 15 स्त्री, 16 पति, 17 पुत्र / 54, (940) श०-१ भरतशिला, 2 घेटो, 3 कुकडो, 4 तल, 5 रेती, 6 हाथी, 7 कूवो, 8 वनखंड, 9 खीर, 10 अतिग, 11 पत्र, 12 खाडहिला (प्राणीविशेष), 13 थी 16 पंच पिता, 17 मधुछत्र, 18 मुद्रिका, 19 अंक, 20 नाणुं, 21 भिक्षु, 22 चेटक अने निधान, 23 शिष्य, 24 अर्थशास्त्र, 25 इच्छा महत् , 26 शतसहस्र / 55-56, (941-942) 25 (वैनयिकी बुद्धि विशे जणावे छे-) श०–मुश्केल कार्यने पार पाडवामां समर्थ अने त्रण वर्ग (धर्म, अर्थ अने काम )ना उपायर्नु प्रतिपादन करनारां शास्त्रोना रहस्यने जाणनारी, वळी बंने लोक( आ लोक अने परलोक )मां फळ आपनारी एवी बुद्धिने 'विनयथी उत्पन्न थनारी' अर्थात् 'वैनयिकी बुद्धि' कहे छ / 57, (943) (वैनयिकी बुद्धिनां दृष्टांतो जणावे छे-) श०-१ निमित्त, 2 अर्थशास्त्र, 3 लिपिज्ञान, 4 गणित, 5 कूवो, 6 अश्व, 7 गर्दभ, 8 लक्षण, 9 ग्रंथि, 10 अगद (दवा), 11 गणिका अने रथिक, 12 शीता साडी, लांबु घास, 30 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 142 णमोकारणिज्जुत्ती। उवओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला / साहुक्कारफलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी // 60 // 946 // हेरन्निएं करिसए कोलिऔ डोवे अ मुत्ति' घय पवएँ / तुन्नार्ग वड्डई पूइएँ अ घडे चित्तकारे अ॥ 61 // 947 // अणुमाणहेउदिटुंतसाहिया वयविवागपरिणामा / हिअनिस्सेअसफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम // 62 // 948 // अभएँ सिद्धि कुमारे देवी उदिओदए हवई राया। साहू अ नंदिसेणे धणदत्ते सावर्ग अमच्चे // 63 // 949 // खवगे अमच्चपुत्ते' चाणक्के" चेव थूलभद्दे अ। नासिकसुंदरी नंदे" वइरे" परिणामिआ बुद्धी // 64 // 950 // चलणाहय आमंडे" मणी अ सप्पे" अ खग्गि थूमि" दे"। परिणामिअबुद्धीए एवमाई उदाहरणा // 65 // 951 // क्रौंचवें वामभ्रमण, 13 वरसादनुं पाणी, 14 बळदनी चोरी अने प्रहारथी घोडानुं मरण / 58-59, (944-945) (कर्मजा बुद्धिनुं लक्षण जणावे छे-) श०–एकाग्र चित्तथी उपयोगपूर्वक कार्यना परिणामने जोनारी तथा अनेक कार्योना अभ्यास अने चिंतनथी विशाल तेमज विद्वानोए करेली प्रशंसारूप फळने आपनारी बुद्धि 'कर्मजा बुद्धि' कहेवाय छे / 60, (946) .... (कर्मजा बुद्धिनां दृष्टांतो जणावे छे-) 20 श०-१ सोनी, 2 खेडूत, 3 वणकर, 4 लुहार, 5 मणिकार, 6 घी वेचनार, 7 कूदनारो, 8 दरजी, 9 सुथार, 10 कंदोई, 11 कुंभार अने 12 चित्रकार / 61, (947) (पारिणामिकी बुद्धिनां लक्षण जणावे छे-) श०–अनुमान, हेतु अने दृष्टांतथी साध्यने सिद्ध करनारी, अवस्थाना परिपाकथी पुष्ट तेमज अभ्युदय अने मोक्षरूपी फळने आपनारी बुद्धि ते 'पारिणामिकी बुद्धि' कहेवाय छ / 62, (948) 28 (पारिणामिकी बुद्धिनां दृष्टांतो जणावे छे-) श०-१ अभयकुमार, 2 शेठ, 3 कुमार, 4 देवी, 5 उदितोदय राजा, 6 साधु अने नंदिषेण कुमार, 7 धनदत्त, 8 श्रावक, 9 अमात्य, 10 क्षपक साधु, 11 अमात्यपुत्र, 12 चाणक्य, 13 स्थूलिभद्र, 14 नासिकपुरमां सुंदरीपति नंद, 15 वज्रस्वामी, 16 मस्तक पर चरणप्रहार, 17 आमलक, 18 मणि, 19 सर्प, 20 गेंडो (अरण्य पशु ) अने 21 स्तूप वगेरे ए पारिणामिकी 30बुद्धिनां उदाहरणो छ / 63-65, (949-951) / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय / 143 न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो दढप्पहारि व्व / सो कम्मक्खयसिद्धो जो सव्वक्खीणकम्मंसो // 66 // 952 // दीहकालरयं जं तु कम्मं सेसिअमट्ठहा / सिअं धंतं ति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ // 67 // 953 // नाऊण वेअणिजं अइबहुअं आउअंच थोवागं / गंतूण समुग्घायं खवंति कम्मं निरवसेसं // 68 // 954 // दंड कवाडे मंथंतरे अ साहरणया सरीरत्थे / भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझणा चेव // 69 // 955 // जह उल्ला साडीआ आसु सुक्कइ विरल्लिआ संती / तह कम्मलहुअ समए वचंति जिणा समुग्घायं // 70 // 956 // 10 (तपसिद्ध अने कर्मक्षयसिद्धनां लक्षण जणावे छे-) श०-जे मानवी (बाह्य अने अभ्यंतर ) तपथी क्लेश पामतो नथी ते दृढप्रहारीनी जेम 'तपसिद्ध' कहेवाय छ; अने जेमणे कर्मना बधा अंशोनो नाश कर्यो छे ते 'कर्मक्षयसिद्ध' कहेवाय छे / 66, (952) (कर्मक्षय सिद्धनुं लक्षण जणावे छे-) ___16 श०-दीर्घ स्थितिवाळु आठ प्रकारनुं बांधेलु जे कर्म तेने ध्यानरूपी अग्निथी भस्मीभूत कर्यु होवाथी सिद्धने सिद्धपणुं प्राप्त थाय छे / 67, ( 953 ) श-वेदनीय कर्म घणुं वधारे छे अने आयुष्यकर्म थोडं छे एम जाणीने केवली भगबानो समुद्घात करीने समग्र कर्मनो क्षय करी नाखे छे / 68, (954) ___ श०–शरीरमा रहेल होवा छतां आत्मप्रदेशोने दंड, कपाट, मंथान अने अंतरने पूर्ण करतां 20 भाषायोगनो निरोध करीने शैलेशीकरण पामे त्यारे सिद्ध थाय छे / (69) वि०-समुद्घात करती वखते पहेला समये दंड, बीजा समये कमाड अने त्रीजा समये खयो करीने, चोथा समये अंतर (बाकी रहेली बधी खाली जगा)ने पूर्ण करीने समग्र लोकमां आत्माने व्याप्त करी दे छे, पछी ते ज क्रमे आत्मप्रदेशोने संहरीने आठमा समये शरीरस्थ थई आय छ / त्यार पछी भाषायोगनो (मनोयोगनो अने काययोगनो पण ) निरोध करीने, शैलेशीकरण 25 करीने सिद्ध थाय छे-मोक्ष प्राप्त करे छे / 69, (955) (समुद्धातने दृष्टांतथी बतावे छे-) श-जेम भीनी साडी पहोळी करी होय तो ते सुकाई जाय छे ते प्रमाणे प्रयत्नविशेषथी मरूप पाणी पण सूकाई जाय छे माटे कर्मनी लघुताना समये जिनेश्वरो समुद्घात करे छे / 70, (956) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत लाउअ एरंडफले अग्गी धूमे उसू धणुविमुक्के / गइ पुव्वपओगेणं एवं सिद्धाण वि गईओ // 71 // 957 // कहिं पडिहया सिद्धा कहिं सिद्धा पइट्ठिया / कहिं बोंदि चइत्ता णं कत्थ गंतूण सिज्झई 1 // 72 // 958 // अलोए पडिहया सिद्धा लोअग्गे अ पइद्विआ। इहं बोंदि चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिज्झई // 73 // 959 // ईसीपभाराए सीआए जोअणम्मि लोगंतो / बारसहिं जोअणेहिं सिद्धी सव्वट्ठसिद्धाओ // 74 // 960 // (सिद्धोनी गति उदाहरणथी बतावे छे-) 10 शजेम तुंबडु, एरंडानुं फळ, अग्नि, धुमाडो अने धनुष्यमाथी छूटेखें तीर ए बधांनी पूर्वप्रयोगथी जेवी गति थाय छे तेवी ज सिद्धोनी पण गति थाय छे / (71).. वि०-कर्मथी मुकायेलो जीव एक क्षणमां ऊंचे लोकना अग्रभाग सुधी जाय छे। ते विशे दृष्टांतो जणावतां जेम तुंबडाने आठ वार माटीना लेप करेला होय अने पाणीमां नांखवामां आवे तो ते पाणीनी नीचे रहे छे पण माटीनो लेप ओछो थतां थतां पाणीना तळियानी मर्यादाथी 18 ऊंचे आवे छे तेम सिद्धोनी गति पण समजवी। ___जेम एरंडानुं फळ बंधन छेदाई जतां ऊंचे गति करे छे तेम सिद्धोनी गति थाय छे / वळी, अग्नि अने धुमाडो स्वाभाविक परिणामना कारणे जेम ऊंचे जाय छे तेम सिद्धोनी गति थाय छ / धनुष्यमाथी जेवी रीते तीर छूटे छे ते रीते सिद्धोनी गति थाय छे / 71, (957) (सिद्धोनी गतिनो अवरोध अने स्थिति विशे प्रश्न करे छे-) ' 20 श०-सिद्ध आत्मा क्यां प्रतिहत थाय छे ? सिद्धो क्यां प्रतिष्ठित छे ? क्यां तेओ शरीर छोडीने क्या जईने सिद्धि पामे छे ? 72, (958) (प्रश्नकारना पक्षने अवलंबीने कहे छे-) श०—सिद्धना जीवो अलोकमां प्रतिहत छे। लोकना अप्रभागे प्रतिष्ठित छे अने अही शरीर छोडीने त्यां जईने सिद्धि पामे छे / (73) 25 वि०-अलोक एटले ज्यां धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय नथी पण केवळ आकाशास्तिकाय छे त्यां सिद्धो स्खलना पामे छे / लोकाकाशमां तेओ अप्रतिहत छे / लोकनो अग्रभाग एटले पांच अस्तिकायरूप लोकना मस्तक भागमा प्रतिष्ठित छे, त्यांथी फरी वार आववानुं नथीए रीते प्रतिष्ठित छ। वळी, अढी द्वीप समुद्रनी अंदर ज सर्वथा शरीर छोडीने त्यां-लोकना अग्रभागमा अस्पृशद्गतिथी जईने सिद्ध थाय छे, एटले स्थिर थाय छे / 73, (959) (लोकनो अग्रभाग क्यां छे ते जणावे छे-) श-ईषद्प्राग्भारा जे सिद्धिभूमि छे अने जेनुं बीजं नाम सीता छे तेनाथी एक योजन दूर लोकनो अंतभाग छ / सर्वार्थसिद्ध विमानथी बार योजन दूर ते सिद्धिभूमि छ। 74, (960) 1 बीजाओ एम माने छे के लोकना अंतभागरूपी सिद्धिभूमि बार योजन दूर छे। तत्त्व तो केवलीओ ज जाणे / 30 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 145 15 निम्मलदगरयवण्णा तुसारगोखीरहारसरिवन्ना / उत्ताणयछत्तयसंठिआ य भणिया जिणवरेहिं // 75 // 961 // एगा जोअणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई / तीसं चेव सहस्सा दो चेव सया अउणवन्ना // 76 // 962 // बहुमज्झदेसभागे अढेव य जोअणाणि बाहल्लं / चरमंतेसु अ तणुई अंगुलऽसंखिजईभागं // 77 // 963 // गंतूण जोअणं जोअणं तु परिहाइ अंगुलपुहुत्तं / / तीसेविअ परंता मच्छिअपत्ताउ तणुअयरा // 78 // 964 // ईसीपभाराए सीआए जोअणम्मि जो कोसो। कोसस्स य छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ // 79 // 965 // 10 (सिद्धिभूमिर्नु स्वरूप वर्णवे छे-) श० ते ( सिद्धभूमि ) निर्मळ पाणीना बिंदुओना वर्ण जेवी छे, हिम जेवा वर्णनी छे, गायनुं दूध अगर हारना जेवा वर्णवाळी छे / (अने तेनुं संस्थान-) चत्ता छत्रनी माफक रहेली होय तेवी सिद्धिभूमि छे; एम जिनेश्वर भगवंतोए कहेलुं छे / 75, (961) (सिद्धिभूमिनी परिधि जणावे छे-) श-एक करोड, बेंतालीस लाख, त्रीश हजार, बसो ने ओगणपचास योजन ए सिद्धिभूमिनी परिधि छे / (76) वि०—आ परिधिनुं प्रमाण स्थूल दृष्टिए अहीं बताव्यु छे पण क्षेत्रनी परिधिनो बीजो थोडोक वधारो अने विस्तार ‘पन्नवणासूत्र'थी जाणी लेवो / 76, (962) (सिद्धिभूमिनी जाडाई-पातळाई बतावे छे-) श-सिद्धशिलाना मध्य भागमा आठ योजननी जाडाई होय छे अने छेडे अंगुलना , असंख्यातमा भाग जेटली ते पातळी होय छे / 77, (963) (सिद्धिभूमिनी पातळाईनो क्रम जणावे छे-) श०-योजन योजन आगळ (वधीए तो) अंगुल पृथक्त्वभाग प्रमाण ओछी ओछी थती जाय छे ( अने एम ओछी थतां थतां ) तेना छेडाना भागो माखीनी पांख करतांये पातळा 25 होय छे / 78, (964) (सिद्धोनी अवगाहना बतावे छे-) ___ श०-सीता (जेनुं बीजुं नाम छे) एवी ईषद्प्राग्भाराथी उपर एक योजनमा जे छेल्लो गाउ छे तेना उपरना छठ्ठा भागमां सिद्धोनी अवगाहना होय छे / ए प्रकारे लोकना अग्रभागमां सिद्धो प्रतिष्ठित छे / ) 79, (965) 20 30 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत तिनि सया तित्तीसा धणु त्ति भागो अकोस छब्भाओ। जं परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छब्भाए // 80 // 966 // उत्ताणउ व्व पासिल्लउ व्व अहवा निसन्नओ चेव / जो जइ करेइ कालं सो तह उववजए सिद्धो / / 81 // 967 // इहभवभिन्नागारो कम्मवसाओ भवंतरे होइ। न य तं सिद्धस्स जओ तम्मी तो सो तयागारो // 82 // 968 // जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरमसमयम्मि / आसी अ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // // 83 // 969 // दीहं वा हस्सं वा जं चरमभवे हविज संठाणं / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिआ // 84 // 970 // 10 ( उपर्युक्त अवगाहनानुं फरीने समर्थन करे छे-) श-त्रणसो ने तेत्रीश धनुष्यनो जे त्रीजो भाग अर्थात् कोशनो छठ्ठो भाग थाय एवा कोशना छठा भागे सिद्धोनी उत्कृष्ट अवगाहना होय छे / 80, (966) (सिद्धोना उपपात विशे कहे छे-) 15 श०-चत्तो, पडखे, अर्ध नमेलो, बाजुमां रहेलो, तीर्थो रहेलो अथवा बेठेलो जे आत्मा जे रीते काळ करे छे ते ते रीते ज सिद्धपणे उत्पन्न थाय छे / 81, (967) श०-(जीव) आ भवमांथी बीजा भवमां (स्वर्ग वगेरेमां) जतां भिन्न आकार प्राप्त थाय छे पण सिद्धने तो ते (कर्मों) नथी एटले तेमां पहेला जेवो ज आकार होय छे / (मतलब के, अपवर्गमां आ सिद्ध जीवो पूर्वभवना आकारवाळा ज ऊपजे छे) 82, (968) 20 (वळी कहे छे-) श०-आ भवने त्यजती वखते छल्ला समये (सिद्धना जीवोने) जे संस्थान होय ते ज घन प्रदेशवाळु संस्थान ते सिद्धने होय छे / 83, (969) (वळी कहे छे—) श०-लांबु अथवा ट्रॅकुं एवं जे संस्थान छेल्ला समये होय, तेनाथी त्रीजे भागे ( 1 भागे) 25 न्यून एवी सिद्धोनी अवगाहना (जिनेश्वरोए) कहेली छे / (84) वि०-लांबु एटले पांचसो धनुष्य प्रमाण, ट्रंकुं एटले बे हाथ प्रमाण, मध्यम एटले विचित्र / प्र०-छेल्ला भवमां जे संस्थान होय तेनाथी त्रीजा भागे न्यून एम शा माटे कहो छो ? उ०-छिद्रो जेटलो त्रीजो भाग पूराई जाय छे तेथी सिद्धोनी अवगाहना एटली होय छे। अवगाहना एटले अवस्था / 84, (970) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / तिनि सया तित्तीसा धणु ति भागो अ होइ बोधव्यो / एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिआ // 85 // 971 // चत्तारि य रयणीओ रयणितिभागूणिआ य बोधव्वा / एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिआ // 86 // 972 // एगा य होइ रयणी अटेव य अंगुलाइ साहीआ। एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ॥ 87 // 973 // ( हवे उत्कृष्ट वगेरे अवगाहनाना प्रकारो बतावे छे--) श-त्रणसो ने तेत्रीश धनुष्य अने धनुष्यनो त्रीजो भाग एटले पांचसो धनुष्य प्रमाणवाळा जीवोनी सिद्धिगतिमा उत्कृष्ट अवगाहना जाणवी / 85, (971) श०-सांत हाथनी कायावाळानी चार हाथ अने सोळ आंगळ ए सिद्धोनी मध्यम 10 अवगाहना जाणवी / 86, (972) श-एक हाथ अने आठ आंगळ ए सिद्धोनी जघन्य अवगाहना जाणवी / (87) वि०-आ त्रणे गाथानो अर्थ स्पष्ट छे पण भाष्यकारे आक्षेप-परिहार करीने आ हकीकतने वधारे स्पष्ट करी छे ते आ प्रमाणे प्र०-नाभि कुलकरना शरीरनी ऊंचाई पांचसो ने पचीस धनुष्य प्रमाण हती त्यारे मरुदेवा 15 मातानी सिद्धावस्थानी अवगाहना आमां केवी रीते घटी शके ? उ०-मरुदेवा माता नाभिकुलकरथी कईक न्यून अवगाहनावाळां हता, तेथी तेमनी पण पांचसो धनुष्यनी अवगाहना कहेवाय / अथवा हाथी उपर बेठेला होवाथी अंगने संकुचित करीने मोक्ष पामेला छे, तेथी एमनी अवगाहनामां कई ज विरोध आवतो नथी / प्र-सिद्धांतमा जघन्यथी सात हाथ प्रमाण ऊंचाईवाळाने मोक्ष थाय एम कहेलुं छे अने 20 अहीं बे हाथ प्रमाणवाळाने शा खातर जणाव्या छे ? उ०-सात हाथ प्रमाण तो तीर्थंकरो माटे कहेलुं छे, पण बाकीना सामान्य केवलीओ मोक्ष पामे छे तेवानुं बे हाथ प्रमाण जणावेलुं छे, जेम कुर्मापुत्र सिद्ध थया तो ते बे हाथ प्रमाणवाळा हता, तेथी आ प्रमाण जघन्यथी समजवू जोईए। अथवा सूत्रमा जघन्यथी सात हाथ प्रमाण अने उत्कृष्टथी पांचसो धनुष्य प्रमाणवाळा 25 मोक्षे जनारनी अवगाहना होय छे एम जे कयुं छे ते बहुलताथी छे एम समजवू / अन्यथा कोई वखते जघन्यपदे अंगुलपृथक्त्व अने उत्कृष्टपदे धनुष्यपृथक्त्व पण न्यूनाधिक होय छे। सामान्य श्रुतमां अच्छेरां (आश्चर्यो ) वगैरे बधुं कहेलं होतुं नथी / सिद्धमा जनारा जेम बे हाथ प्रमाणवाळा अने सवा पांचसो धनुष्यवाळा मानव होय तेम श्रुतमां कयुं न होय तो पण मानवू जोईए / 87, (973) 30 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत ओगाहणाइ सिद्धा भवत्तिभागेण हुंति परिहीणा / संठाणमणित्थंत्थं जरा-मरणविप्पमुक्काणं // 88 // 974 // जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अनुन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे अ लोगते // 89 // 975 // फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहि नियमसो सिद्धो / तेऽवि असंखिजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा // 90 // 976 // असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे अ नाणे अ / सागारमणागारं लक्खणमेअं तु सिद्धाणं // 91 // 977 // ( हवे सिद्धोनां संस्थान वगेरे जणावे छे-) 10 श०-भवना त्रीजा भागे न्यून एवी सिद्धोनी अवगाहना होय छे / वृद्धावस्था अने मरणथी छूटेला एवा सिद्धोनुं कोई लौकिक संस्थान होतुं नथी / 88, ( 974) श०-ज्यां एक सिद्ध छे त्यां भवनो क्षय थवाथी मुक्त थयेला अनंता सिद्धो छ। ते परस्पर अवगाहीने अने सर्व लोकना अंतने स्पर्शीने रहेला छे / 89, (975) श०–एक सिद्ध सर्व प्रदेशो वडे नियमथी अनंता सिद्धोने स्पर्शे छे अने जे प्रमाणे देश15 प्रदेशोथी स्पर्शायेला छे ते तेनाथी पण असंख्यात गुणा छे / (90) वि०—आ गाथानो तात्पर्यार्थ ए छे के एक क्षेत्रमा अनंता सिद्धो अवगाहीने रहेला छे तेवा करतां प्रदेशनी वृद्धि-हानिथी जे अवगाहीने रहेला छे ते तो असंख्येय गुणा छे, केमके एक सिद्धनी अवगाहना असंख्येय प्रदेशनी छे / 90, (976) (हवे सिद्धोनुं लक्षण प्रतिपादन करे छे-) 20 श. जे अशरीरी छे, जेमना जीवप्रदेशो घन थयेला छे, वळी जे दर्शन अने ज्ञानमां उपयुक्त बनेला छे, अने जे साकार उपयोगवाळा छे तेमज निराकार उपयोगवाा छे ते सिद्धो कहेवाय छे आ प्रकारे सिद्धोनुं लक्षण छ / वि०-जेमने औदारिक वगेरे पांच प्रकारनां शरीरो पैकी एके नथी / वळी, जे छिद्रोने पूरी देवाना कारणे जीवप्रदेशोथी घन छे; वळी, जेओ केवळदर्शन अने केवळज्ञानना उपयोगवाळा 28छे / जे सामान्य विषयवाळू होय ते 'दर्शन' कहेवाय छे अने विशेष विषयवाळु होय ते 'ज्ञान' कहेवाय छे / तेथी अहीं सामान्य एवा सिद्धोनुं लक्षण बताववा माटे सामान्यना अवलंबनभूत दर्शनने आदिमां जणावेलुं छे / __ आ गाथा पछी सिद्धिमा व्यवस्थित थयेला सिद्धोना निरुपम सुखनुं स्वरूप बतावे छे / 91, (977) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे / पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहिऽणंताहिं // 92 // 978 // नाणम्मि दंसणम्मि अ इत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता / सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा // 93 // 979 // नवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सव्वदेवाणं / जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं // 94 // 980 // सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिंडिअं अणंतगुणं / न य पावइ मुत्तिसुहंऽणंताहि वि वग्गवग्गूहिं // 95 // 981 // (केवळज्ञान अने केवळदर्शनना समग्र विषयने बतावे छे-) श०–केवळज्ञानना उपयोगवाळा जीवो सर्व द्रव्योना गुण अने भावने जाणे छे तेमज 10 अनंत एवा केवळ दर्शने वडे चारे बाजुएथी जूए छे / (92) / वि०—ाथामां बतावेल 'सव्वभावगुणभावे' ए शब्दमा पहेलो 'भाव' शब्द पदार्थवाची छे, ज्यारे बीजो 'भाव' शब्दपर्याय वाची छे। गुणो सहवर्ती होय छे अने पर्यायो क्रमवर्ती होय छे एटलो गुण अने पर्यायमां तफावत छ / सिद्धो अनंत केवळदर्शन वडे चारे बाजूए जूए छे, केमके सिद्धो अनंत छे / अहीं पहेला ज्ञान जणाव्युं छे; कारण के, प्रथम ज्ञानोपयोग थाय छे। 15 प्र०-ज्ञानोपयोग अने दर्शनोपयोग साथे होय छे के क्रमशः ? उ०-ते क्रमशः होय छे। प्र०-क्रमशः होय छे ते केम जणाय ? उ०-ए माटे आगळनी गाथामां जणावे छेः-९२, (978) श-सिद्धो ज्ञानमां के दर्शनमा एक ज समये एकमां उपयोगवाळा होय छे / कारण के 20 षधाये केवली जीवोने एकी साथे बे उपयोग होता नथी। 93, (979) (सिद्धोना निरुपम सुख विशे जणावे छे-) श-अव्याबाधपणाने पामेला एवा सिद्धोनुं जे सुख छे ते न तो मनुष्यने छे अथवा न सर्व देवोने एवं सुख छ / (94) - वि०—मनुष्योमा चक्रवर्तीने पण एवं सुख नथी। वळी, अनुत्तर विमान पर्यंतना सर्व 25 देवोने पण एवा प्रकारनुं सुख नथी / विविध प्रकारनी पीडाओ जेमने होती नथी एवं सुख सिद्धोने होय छे / 94, (980) (प्रकारभेदथी सिद्धोनुं सुख वर्णवे छे-) . श०–समस्त देवोना समूहनुं बधा समयनुं सुख एकळं करेलुं होय अने ते अनंतगणुं थाय तोपण ते अनंत वर्गोथी वर्गित करेला एवा मुक्तिना सुखनी साथे तुलनामां आवी शकतुं नथी / (95) 30 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत . णमोक्कारणिज्जुत्ती। सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिंडिओ जइ हविजा / सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासे न माइजा // 96 // 982 // जह नाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे विआणतो।। न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहिं असंतीए // 97 // 983 // इअ सिद्धाणं सुक्खं अणोवमं नत्थि तस्स ओवम्म / किंचि विसेसेणित्तो सारिक्खमिणं सुणह वुच्छं // 98 // 984 // जह सव्वकामगुणिअं पुरिसो भोत्तूण भोअणं कोइ / तण्हा-छुआविमुक्को अच्छिज जहा अमिअतित्तो // 99 // 985 // इअ सव्वकालतित्ता अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 100 // 986 // वि०-देवताओना समूहर्नु समग्र सुख ते भूतकाळ, भविष्यकाळ अने वर्तमानकाळजें एकतुं करवामां आवे, तेने बधा समयथी गुणीए अने ते अनंतगणुं थाय तेने अनंत एवा वर्गोथी गुणवामां आवे तोपण मुक्तिना सुखनी तुलना करी शके नहीं / 95, (981) (ए ज वस्तुने जूदा प्रकारे बतावे छे-) 15 श०-सिद्धोना जीवोनो सुखनो राशि-समूह जो बधाये समयने एकत्रित करवामां आवे .. अने तेने अनंत वर्गोथी विभाजित करीए तो ते भाग समग्र आकाशमां पण माई शके नहीं / (96) वि०-आ गाथानो रहस्यार्थ ए छे के, सुख ए विशिष्ट आहादरूप छे / ज्यारथी आरंभीने शिष्ट मनुष्योमा सुख शब्दनी प्रवृत्ति थयेली छे त्यारथी ते आह्लादथी मांडीने शरूआत करीए अने एकेक गुणनी वृद्धिनी तरतमताथी आ आह्लादने त्यां सुधी विशेषित करीए के ते अनंत 20गुण–वृद्धिथी निरतिशय गुणनी पूर्णताने पामे / तेथी आ आह्वाद अत्यंत, उपमातीत, एकांत, उत्सुकता वगरनो, स्थिर एवो जे छेल्लो आह्लाद ते हमेशां सिद्धोने होय छे / 96, (982) (सिद्धोना सुखने दृष्टांतथी बतावे छे-) श०-जेम कोई म्लेच्छ नगरना अनेक प्रकारना गुणो जाणवा छतां उपमा न मळती होवाना कारणे (ते नगरना गुणोने ) कहेवाने शक्तिमान थतो नथी। (तेम आ मोक्षसुख उपमाथी 25 बतावी शकातुं नथी।) 97, (983) श—आ प्रकारे सिद्धोनुं सुख अनुपम छे; केमके तेनी कोईनी साथे उपमा आपी शकाय एम नथी; छतां बाळ मनुष्योने समजाववा माटे कंईक विशेषतापूर्वक महापुरुषोए जे सादृश्य बतावेलुं छे ते जणावीए छीए, ते तमे सांभळो / / (98) वि०–अर्थात् समग्र दोषोना क्षयथी शाश्वत अने अव्याबाध एवा सुखने प्राप्त थयेला सुखी 30 बनीने ते सिद्धो रहेला छ। 'तेओ दुःखना अभाव मात्रथी युक्त छे' एम नथी ज / 98, (984) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 * विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / सिद्ध त्ति अ बुद्ध त्ति अ पारगय त्ति अ परंपरगय त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य // 101 // 987 // निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइ-जरा-मरण-बंधणविमुक्का / अव्वाबाहं सुक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा // 102 // 988 // सिद्धाण नमोकारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए // 103 // 989 // सिद्धाण नमुक्कारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / हिअयं अणुम्मुयंतो विसुत्तियावारओ होइ // 104 // 990 // श-जेम कोई मनुष्य बधा प्रकारना इच्छित गुणोवाळु भोजन करीने तृषा अने क्षुधाथी विमुक्त बनी पीडा विना जेम अमृततृप्त बनीने रहे छे, ए प्रकारे बधाये (भूत, भविष्य अने वर्तमान) 10 काळमां तृप्त बनीने रहेला, तुलना करी न शकाय तेवा निर्वाण अर्थात् मोक्षने प्राप्त थयेला सिद्धो शाश्वत, अने अव्याबाध एवा सुखने प्राप्त करीने सुखी थईने रहेला छे / 99-100, (985-986) (सिद्धना पर्यायवाची शब्दो कहे छे-) श०-सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परंपरागत, उन्मुक्तकर्मकवच, अजर, अमर अने असंग-ए प्रकारे (सिद्धनां नामो) छे / (101) . वि० तेओ कृतकृत्य बनी गया होवाथी 'सिद्ध' कहेवाय छे / तेमणे केवळज्ञान वडे समग्र वस्तुओने जाणी लीधी छे तेथी 'बुद्ध' कहेवाय छे / तेओ संसाररूप समुद्रनो पार पामी गया होवाथी 'पारगत' कहेवाय छे / पुण्य बीज सम्यक्त्व, ते पछी ज्ञान अने ते पछी चारित्र एम क्रमप्राप्त उपायथी मुक्त थया होवाना कारणे 'परंपरागत' कहेवाय छे / तेओ बधां कर्मोथी छूटी गया होवाथी 'उन्मुक्तकर्मकवच' कहेवाय छे / तेमने ऊमर( बाल, युवा, जरा )नो अभाव छे तेथी तेमने 20 'अंजर' कहे छे अने बधा प्रकारना क्लेशोनो त्यां अभाव छे तेथी 'असंग' कहेवाय छ। 101, (987 ) (हवे उपसंहार करतां कहे छे-) ___ श० ते सिद्धोए बधां दुःखो छेदी नाख्यां छे, वळी ते जन्म, जरा, मरणनां बंधनोथी मुकायेला छे अने अव्याबाध तेमज शाश्वत एवा सुखनो अनुभव करे छे / 102, (988) . श०-सिद्धोने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी (हृदयपूर्वक) करेलो होय तो ते हजारो 25 भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार अंते बोधिबीज-सम्यक्त्वने अपनारो बने छ / (103) वि०-आ गाथामां 'सिद्ध' शब्दथी स्थापना नमस्कार, 'नमुक्कारो' शब्दथी नामनमस्कार, 'भावेण'थी भावनमस्कार अने अंजलि वगेरेथी करातो नमस्कार ते 'द्रव्यनमस्कार' छे एम चार निक्षेपो जणाव्या छे / 103, (989) श०-भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो, पोताना हृदयमां सिद्धने नमस्कार 30 करवानुं छोडता नथी, तेमना दुर्ध्यान- निवारण तो ते जरूर करे ज छे / ( अर्थात् एक मात्र धर्मध्यानमा जोडी राखे छे / 104, (990) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत सिद्धाण नमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थु त्ति / जो मरणम्मि उवग्गे अमिक्खणं कीरए बहुसो // 105 // 991 // सिद्धाण नमुकारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि बिइअं होइ मंगलं // 106 // 992 // नामं ठवणादविए भावम्मि चउविहो उ आयरिओ। दवम्मि एगभविआई लोइए सिप्पसत्थाई // 107 // 993 // पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता / आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चंति // 108 // 994 // श-आ प्रकारे करेलो नमस्कार महान् अर्थवाळो छ अने मरण नजीकमां होय त्यारे 10 निरंतर अने घणीवार ते गणवामां आवे छे / 105, (991) / श-सिद्धने करेलो नमस्कार बधांये पापोनो नाश करनार छे अने बधांये मंगलोमां आ बीजं मंगल छे / 106, (992) (3) आचार्य भगवंतने नमस्कार / आचार्य शब्द आङ् उपसर्गपूर्वक चर् धातुने ण्य प्रत्यय लागतां बन्यो छे / ते ते विषयनी 15 मर्यादाथी आचरणा करे ते 'आचार्य' कहेवाय छ / अथवा मुमुक्षु भक्तो वडे जेमनी सेवा थाय तेमने ' आचार्य कहे छ। श०-१ नाम आचार्य, 2 स्थापना आचार्य, 3 द्रव्य आचार्य अने 4 भाव आचार्यएम चार प्रकारना आचार्यो छे / एकभविक आदि अथवा लौकिक शिल्पशास्त्र वगैरे जाणनार होय ते द्रव्य आचार्य कहेवाय छे / (107) 20 वि०-नाम अने स्थापना सुगम छे .(अगाऊ अरिहंत अने सिद्धना वर्णनमा जणावी दीघेल छे अने द्रव्य आचार्यना आगमथी तेमज नोआगमथी वगेरे भेदो अरिहंत अने सिद्धना वर्णनमां बतावेला छे ते मुजब द्रव्य आचार्यना भेद पण समजी लेवा / ). एकभाविक एटले जेमने आचार्यपद प्राप्त थाय छे एवा प्रकारनुं मनुष्यनुं आयुष्य बांधेलु होय एवा आत्मा अथवा आदिशब्दथी द्रव्यभूत आचार्य ते द्रव्याचार्य / द्रव्य निमित्त जे आचार25 वाळा होय ते भावाचार्य कहेवाय छे / ते लौकिक अने लोकोत्तर एवा बे भेदे छे / तेमां लौकिक ते शिल्पशास्त्र वगेरे। तेना ज्ञानथी तेनो अभेद उपचार करतां ते आचार्य कहेवाय / 107, (993) (हवे लोकोत्तर एवा भावाचार्य- प्रतिपादन करे छे-) श०-पांच प्रकारना आचारने आचरनारा, तथा उपदेश आपनारा तेमज आचारने बतावनारा होवाथी ते आचार्य कहेवाय छे / (108) 30 वि०-पंचविध आचार ते-१ ज्ञानाचार, 2 दर्शनाचार, 3 चारित्राचार, 4 तप आचार अने 5 वीर्याचार-आ आचारोने पाळनारा, अनुष्ठानथी आचरण करनारा, व्याख्यानथी उपदेश देता, तेमज पडिलेहणा वगेरे आचारने बतावता होवाथी आचार्य कहेवाय छे। 108, (994) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणाओ वा / जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य // 109 // 995 // आयरियनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो होइ पुमो बोहिलाभाए // 110 // 996 // आयरियनमुक्कारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / हिअयं अणुम्मुयंतो विसुत्तियावारओ होइ // 111 // 997 // आयरियनमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थु त्ति / जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो // 112 // 998 // आयरियनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो।। मंगलाणं च सव्वेसिं तइ होइ मंगलं // 113 // 999 // नामंठवणादविए भावम्मि चउव्विहो उवज्झाओ। दव्वे लोइअ सिप्पाइ निण्हगा वा इमे भावे // 114 // 1000 // श–आचार ते ज्ञान वगेरे / तेनुं आचरण करता होवाथी तेमज उपदेश देता होवाथी जे भाव आचारथी युक्त होय ते 'भावाचार्य' कहेवाय छे / 109, (995) __(उपसंहार करतां कहे छे-) ____ श–आचार्यने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी ( हृदयपूर्वक ) करेलो होय तो ते हजारो भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार अंते बोधिबीज-सम्यक्त्वने आपनारो बने छ / 110, (996) ... श०–भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो, पोताना हृदयमा आचार्यने नमस्कार करवानुं छोडता नथी, तेमना दुर्ध्याननिवारण तो ते जरूर करे ज छे / 111, (997) श०-आ प्रकारे करेलो नमस्कार महान् अर्थवाळो छे अने मरण नजीकमां होय त्यारे 20 निरंतर अने घणीवार ते गणवामां आवे छे / 112, (998) - श०-आचार्यने करेलो नमस्कार बधांये पापोनो नाश करनारो छे अने बधांये मंगलोमां आ त्रीजुं मंगल छे / 113, (999) (4) उपाध्याय भगवंतने नमस्कार / उपाध्याय शब्द 'उप' उपसर्गपूर्वक 'इ' धातुने 'घ' प्रत्यय लागतां बनेलो छ। जेमनी 25 पासे आवीने साधुओ सूत्रनो अभ्यास करे ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / ते उपाध्याय नाम आदि प्रकारो वडे चार भेदे छे। श-१ नाम उपाध्याय, 2 स्थापना उपाध्याय, 3 द्रव्य उपाध्याय अने 4 भाव उपाध्याय-एम उपाध्यायना चार प्रकारो छे / द्रव्य उपाध्यायमां लौकिक शिल्प आदिने भणावनारा तथा निह्नवो पण गणाय छे / उपाध्याय नीचे प्रमाणे छे। (114 ) वि०–आचार्यना वर्णनमा जेम कहेलुं छे तेम आमां पण नाम आदि भेदो माटे समजवू परंतु तेमां जे निह्नव कयुं छे तेनो अर्थ ए छे के, एक पण पदार्थने अभिनिवेशथी विरुद्धरीते प्ररूपणा करता होय ते मिथ्यादृष्टिओ 'द्रव्य उपाध्याय' कहेवाय छे / 114, (1000) 30 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं / तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वुचंति // 115 // 1001 // उ ति उवओगकरणे ज्झ त्ति अ झाणस्स होइ निदेसे / एएण हुँति उज्झा एसो अनोवि पजाओ // 116 // 1002 // उ त्ति उवओगकरणे व ति अ पावपरिवजणे होइ। झ त्ति अ झाणस्स कए उ ति अ ओसक्कणा कम्मे // 117 // 1003 // उवज्झायनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ / भावेण कीरमणो होइ पुणो बोहिलाभाए // 118 // 1004 // उवज्झायनमुक्कारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ // 119 // 1005 // (भाव उपाध्यायन प्रतिपादन करे छे-) श०-जिनेश्वरोए प्ररूपेल द्वादशांगीने गणधर आदि पुरुषो स्वाध्याय कहे छे। एवा स्वाध्यायनो शिष्योने ( सूत्रथी) उपदेश आपे छे तेथी ते 'भाव उपाध्याय' कहेवाय छे / (115) वि०-जिनेश्वरोए द्वादशांगने आचारांग वगेरे भेदोथी रचेला छे। ते स्वाध्याय अहीं 15 सूत्ररूपे ज ग्रहण करवो / ते सूत्ररूप द्वादशांग गणधरोए रचेलो छ। ए स्वाध्यायनो जेओ उपदेश करे छे ते कारणथी ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / कारण के जेमनी पासे जईने अध्ययन-भणाय ते 'उपाध्याय' कहेवाय छ। 115, (1001) (हवे आगमशैलीए अक्षरार्थने अवलंबीने उपाध्यायनो शब्दार्थ कहे छे-) श–'उ' एटले उपयोग करवो, अने 'ज्झा' एटले ध्यान कर / आथी उज्झा अर्थात् 20 उपयोगपूर्वक ध्यान करनार एवो एनो बीजो पर्याय-नाम छ / 116, (1002 ) श०-'उ' एटले उपयोग करवो, 'व' एटले पापर्नु वर्जन, 'झ' एटले ध्यान करवू अने 'उ' एटले कर्मो दूर करवां अर्थात् उपयोगपूर्वक पापने छोडतां ध्यान आरूढ थईने कर्मोने दूर करे ते 'उपाध्याय' कहेवाय / (आ अक्षरार्थ छे, अक्षरार्थना अभावे पदार्थना अभावनो प्रसंग आवे / पद ए समुदाय रूप होवाथी अहीं अक्षरार्थ समजवो।) 117, (1003) __ (उपसंहार करतां कहे छे-) श०-उपाध्यायने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी (हृदयपूर्वक ) करेलो होय तो ते हजारो भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार अंते बोधिबीज-सम्यक्त्व आपनारो बने छ। 118,(1004) श०-भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो, पोताना हृदयमा उपाध्यायने नमस्कार करवानुं छोडता नथी, तेमना दुर्ध्यान, निवारण तो ते जरूर करे ज छ / 119, (1005) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग नमस्कार स्वाध्याय / उवज्झायनमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थु त्ति / जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो॥ 120 // 1006 // उवज्झायनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं चउत्थं होइ मंगलं // 121 // 1007 // नामं ठवणासाहू दव्वसाहू अ भावसाहू अ। दव्वम्मि लोइआई भावम्मि अ संजओ साहू // 122 // 1008 // घडपडरहमाईणि उ साहंता हुंति दव्वसाहु त्ति / अहवावि दव्वभूआ ते हुंती दव्वसाहु त्ति // 123 // 1009 // निव्वाणसाहए जोए जम्हा साहंति साहुणो। समा य सव्वभूएसु तम्हा ते भावसाहुणो // 124 // 1010 // 10 किं पिच्छसि साहूणं तवं व निअम व संजमगुणं वा / तो वंदसि साहूणं एअं मे पुच्छिओ साह // 125 // 1011 // श-आ प्रकारे करेलो नमस्कार महान् अर्थवाळो छे अने मरण नजीकमां होय त्यारे निरंतर अने घणीवार ते गणवामां आवे छे / 120, (1006) . श०-उपाध्यायने करेलो नमस्कार बधांये पापोनो नाश करनारो छे अने बांये मंगलोमां 15 . ए चोथु मंगल छे / 121, (1007) (5) साधु भगवंतने नमस्कार / __साधु शब्द 'साध्' धातुने 'उण्' प्रत्यय लागतां बनेलो छे / जे इच्छित अर्थने साधे ते 'साधु' कहेवाय छे / ते नाम आदि भेदोथी चार प्रकारे छे... श०-१ नाम साधु, 2 स्थापना साधु, 3 द्रव्य साधु, अने 4 भाव साधु-एम चार 20 प्रकारे छे / द्रव्य साधु ते लौकिक वगेरे अने भाव साधु ते संयत-संयमी साधु / 122, (1008) (द्रव्य साधुनुं प्रतिपादन करे छे-) श-घडो, वस्त्र अने रथ वगेरे जे बनावता होय ते 'द्रव्य साधु' कहेवाय, अथवा जे द्रव्यभूत (भावपर्यायथी शून्य ) होय ते 'द्रव्य साधु' कहेवाय / 123, (1009) (भाव साधुनुं प्रतिपादन करे छे-) श०–साधुओ निर्वाणने साधनारा योगो( सम्यग्दर्शन वगेरे )ने साधे छे ( अनुष्ठानो करे 25 छे) तथा बधा प्राणीओ प्रत्ये समभावी होय छे तेथी ते 'भाव साधु' कहेवाय छे / ( योगर्नु प्राधान्य बताववा माटे आ समभाव कह्यो छे / 124, (1010) (साधु विशे प्रश्न-) . श–'साधुओमां तमे कयो तप, नियम अने संयमनो गुण जूओ छो के जेथी तेमने तमे वंदन करो छो ?' एम में पूच्यं त्यारे गुरु कहे छे–१२५, (1011) 30 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत विसयसुहनिअचाणं विसुद्धचारित्तनिअमजुत्ताणं / तच्चगुणसाहयाणं सदायकिञ्चुजयाण नमो // 126 // 1012 // असहाइ सहायत्तं करंति मे संजमं करितस्स / एएण कारणेणं नमामिऽहं सव्वसाहणं // 127 // 1013 // साहूण नमोकारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ / भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए // 128 // 1014 // साहूण नमोकारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / / हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ // 129 // 1015 // साहूण नमोकारो एवं खलु वण्णिओ महत्थु त्ति / जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो // 130 // 1016 // साहूण नमोकारो सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वेसिं पंचमं होइ मंगलं // 131 // 1017 // नवि संखेवो व वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्ध-साहूणं / वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुञ्जई तम्हा // 132 // 1018 // 18 श०—विषय सुखथी दूर रहेनारा, निर्मळ चारित्ररूपी नियमवाळा; वळी, तथ्य गुणोने साधनारा तेमज आत्मकार्यमां हमेशां उद्यमशील एवा साधुओछे तेथी हुं तेमने नमस्कार करुं छु। 126, (1012) श-असहायपणामां मने सहाय करे छे ए कारणथी हुं सर्व साधुओने नमस्कार करुं छु। (127) वि०-परमार्थ साधननी प्रवृत्तिमां जगत् ज्यारे असहाय बने छे त्यारे सहाय वगरना एवा मने संयम राखवामां मदद करे छे ते कारणे हुं ए बधा साधुओने नमस्कार करं छं / 127, (1013) 20 (उपसंहार करतां कहे छे-) श–साधुने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी ( हृदयपूर्वक) करेलो होय तो ते हजारो भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार अंते बोधिबीज-सम्यक्त्व आपनारो बने छ / 128, (1014) श-भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो, पोताना हृदयमा साधुने नमस्कार करवानुं छोडता नथी, तेमना दुर्ध्यान, निवारण तो ते जरूर करे ज छ। 129, (1015) 25 श०-आ प्रकारे करेलो नमस्कार महान् अर्थवाळो छे अने मरण नजीकमां होय त्यारे निरंतर अने घणीवार ते गणवामां आवे छे / 130, (1016) श०–साधुने करेलो नमस्कार, बधांये पापोनो नाश करनारो छे, अने बधांये मंगलोमां ए पांचमुं मंगल छे / 131, (1017) 7. आक्षेप द्वार। 30 नमस्कार मंत्रना विषयने समजवा माटे विशेषरीते केटलीक शंकाओ करवामां आवे छे / ते शंकाओ विवरण मात्र आ द्वारमा करेलुं छे / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / अरिहंताइ निअमा साहू साहू अ तेसु भइअव्वा / तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो // 133 // 1019 // श-नमस्कार संक्षिप्त नथी तेम विस्तृत पण नथी / जो संक्षिप्त होय तो ते सिद्ध अने साधुने एम वे प्रकारे होय, अने विस्तारथी तो अनेक प्रकारे होय, माटे पंचविध नमस्कार योग्य नथी / (132) वि०—आ सूत्र संक्षेप अने विस्तार ए बेनी मर्यादामां नथी / ए 'सामायिकसूत्र'नी माफक 5 संक्षिप्त नथी अने चौद पूर्वनी माफक विस्तृत पण नथी; परंतु आ 'नमस्कारसूत्र' ए बेथी भिन्न छ। ___संक्षेप बे प्रकारना होय छे एटले जो आ संक्षिप्त होय तो तेमां पण बे प्रकारो संभवे / 'सिद्ध' अने 'साधु' एम बे प्रकारनो ज नमस्कार संभवित छे, केमके परिनिर्वाण पामेला अरिहंत वगेरे 'सिद्ध' शब्दथी ग्रहण करी शकाय, अने संसारवर्ती आचार्य, उपाध्याय पण 'साधु' शब्दथी प्रहण करी शकाय / 10 वळी, आ नमस्कारसूत्र विस्तृत पण नथी / एनो विस्तार तो अनेक प्रकारनो जाणवा मळे छ / अरिहंतोमां तो श्रीऋषभदेव, श्रीअजितनाथ, श्रीसंभवनाथ, श्रीअभिनंदनस्वामी, श्रीसुमतिनाथ, श्रीपद्मप्रभस्वामी, श्रीसुपार्श्वनाथ, श्रीचंद्रप्रभस्वामी वगेरेथी श्रीमहावीरस्वामी पर्यंत चोवीश अरिहतो तेमज सिद्धोने पण नमस्कार थाओ एवो विस्तार थई शके। ___वळी, सिद्धोमां अनन्तरसिद्ध, परंपरसिद्ध, प्रथम समयसिद्ध, द्वितीय-तृतीय समयसिद्ध 15 वगेरेथी मांडीने असंख्येय, अनंत समयना सिद्धोने नमस्कार थाओ; तेमज तीर्थसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध आदि विशेषणोथी विशिष्ट एवा तीर्थंकर सिद्धोने नमस्कार थाओ; तेमज आचार्य अने उपाध्याय परमेष्ठीना पण अनेक भेदो थाय छे-आ प्रकारे तो अनंतगणो विस्तार छ। * जे कारणथी आम थाय छे ते कारणथी बने पक्षो जोतां पांच प्रकारनो नमस्कार युक्त नथी; एवो 'आक्षेप' मानी शकाय। 132, ( 1018) 20 8. प्रसिद्धि द्वार। उपर्युक्त द्वारमा उपस्थित करेली शंकाओनुं समाधान आ प्रसिद्धि द्वारमा करवामां आवे छे उपर्युक्त द्वारमा जे 'ण वि संखेवो' एम कर्दा छे ते ठीक नथी, कारण के, ते नमस्कार संक्षेपात्मक छे अने 'सिद्ध' तेमज 'साधु' मात्र कहेवाथी बधानो संग्रह थई जात एम कहेवू पण बराबर नथी, केमके, तेनां बीजां कारणो पण छे / ते जो के अगाउ जणावेलां छे पण अहीं 25 था गाथामा जणावीए छीए श०-अरिहंत वगेरे नियमथी साधु छे पण साधुओ तेमां भजनाए छे, माटे पांच प्रकारना हेतु निमित्तथी नमस्कार पांच प्रकारनो छे / ( 133 ) वि०-अरिहंतो वगेरे नियमथी साधुओ छे, कारण के तेमना गुणोमां तेनो सद्भाव छे; पण ते अरिहंतोमा साधुओ भजनाए छे, तेथी बधा साधुओ अरिहंत वगेरे नथी। केटलाक अरिहंतो 30 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत पुव्वाणुपुव्वि न कमो नेव य पच्छाणुपुबि एस भवे / सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई // 134 // 1020 // छे, जे केवलीओ छे; केटलाक आचार्यो छे, जेओ सूत्र अने अर्थना जाणकारो छे; केटलाक उपाध्यायो छे, जेओ सूत्रने जाणे छे; केटलाक एमनाथी भिन्न साधुओ छे, ते बंधा कंई अरिहतो 5 नथी / तेथी एक पदमां व्यभिचार आवतो होवाथी तेमने नमस्कार करवाथी बीजाओने नमस्कार : कर्यानुं फळ मळी न शके। प्रयोग पण छे के, साधु मात्रने करेलो नमस्कार विशिष्ट एवा अरिहंत वगेरेना गुणोने कराता नमस्कारनुं फळ आपवामां समर्थ नथी / कारण के एर्नु सामान्य एबुं नमस्कार नाम छ / मनुष्य मात्रने नमस्कार करीए तेना जेवू छे / तेथी नमस्कार पांच प्रकारनो ज छे। 10 तात्पर्य ए छे के, बे प्रकारनो नमस्कार करी शकातो नथी / ए प्रकारे करवाथी अव्यापकपणानो दोष आवशे / 'सिद्ध' कहेवाथी अरिहंतना समस्त गुणोनो बोध थतो नथी। ए रीते 'साधु' कहेवाथी आचार्य अने उपाध्यायना गुणो पण ग्रहण करी शकाता नथी / आ कारणे संक्षेपमा बे प्रकारना परमेष्ठीने नमस्कार करवो युक्त नथी / 'साधु'मात्र कहेवाथी आचार्य अने उपाध्यायना गुणोनुं स्मरण थई शकतुं नथी। केमके 16 सामान्य कथनथी विशेषनी उपलब्धि थई न शके / जेम मनुष्य सामान्यने नमस्कार करवाथी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधुना गुणोनुं स्मरण थई शकतुं नथी, अने तद्रूप बनवानी प्रेरणा पण मळी शकती नथी, आथी पंच परमेष्ठीने नमस्कार करवो जरूरी छ। जे अनंत परमेष्ठीओनी नमस्कार करवानी वात कहेवामां आवी छे तेनुं समाधान 'सव्व' पदद्वारा थई शके छ / आ पद बधाये परमेष्ठीओने जोडवामां आवे छे, जेनाथी अनंत अरहंत, अनंत सिद्ध, अनंत * 20 आचार्य, अनंत उपाध्याय अने अनंत साधुओ ग्रहण थई शके छे / शक्ति सीमित होवाथी अलग अलग अनंत परमेष्ठीओनुं निरूपण करवामां आव्युं नथी / सामान्यनी अंदर ज विशेष भेदोनुं पण ग्रहण थई जाय छे / 133, (1019) 9. क्रम द्वार। ___ नमस्कार मंत्रमा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य वगेरे क्रम राखवामां आव्यो छे तेनो विचार आ 25 क्रम द्वारमा करवामां आव्यो छे / श०—आ क्रम पूर्वानुपूर्वीथी नथी, तेम पश्चानुपूर्वीथी पण नथी, केमके पहेलामां ( पूर्वानुपूर्वी क्रमथी) सिद्ध आवे बीजामां (पश्चानुपूर्वीक्रमथी ) साधु वगेरे आवे। (134) वि०-क्रम बे प्रकारनो होय छे / 1 पूर्वानुपूर्वी अने 2 पश्चानुपूर्वी / अनानुपूर्वी ए क्रम नथी, कारण के ते आडो अवळो होय छे। नमस्कारमा अरिहंत आदिनो क्रम पूर्वानुपूर्वी नथी, केमके सिद्धो एकांते कृतकृत्य होवाथी अरिहंत करतां प्रधान छ / प्रधाननु श्रेष्ठपणुं होवाथी पूर्वमा 30 कहेवा जोईए। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / अरिहंतुवएसेणं सिद्धा नजंति तेण अरिहाई / नवि कोई परिसाए पणमित्ता पणमई रण्णो / / 135 // 1021 // इत्थ य पओअणमिणं कम्मक्खओ मंगलागमो चेव / इहलोअ-पारलोइअ दुविहफलं तत्थ दिटुंता // 136 // 1022 // एज प्रमाणे आ पश्चानुपूर्वी क्रम पण नथी। जो एम होत तो साधुने प्रथम कह्या होत पण / साधुने तो अप्रधानपणे बधानी अंते कह्या छ / साधुने प्रथम कहीने छेवटे सिद्धोनुं नाम होत तो ते क्रम पश्चानुपूर्वी बनत / 134, (1020) (उपर्युक्त शंकाना समाधानरूपे पूर्वानुपूर्वी क्रमनुं प्रतिपादन करतां कहे छे-) श०-अरिहंतना उपदेशथी सिद्धोनुं ज्ञान थाय छे, तेथी अरिहंतने आदिमां कह्या छ / कोई पण मनुष्य प्रथम पर्षदाने नमस्कार करीने राजाने नमस्कार करतो नथी / (135) 10 वि०-अरिहंतना उपदेशथी-आगमथी सिद्धोनुं ज्ञान थाय छे, कारण के सिद्धो प्रत्यक्ष आदि विषयथी पर छे तेथी अरिहंतपूर्वकनो क्रम पूर्वानुपूर्वी छ / आथी अरिहंतो ज वधु नजीक छ / अल्प समयनु ज अंतर होवाथी कृतकृत्यपणुं ए तो प्रायः सरखं ज गणाय / प्र-अरिहंत वडे सिद्धो जणाय छे एम मानवामां आवे तो अरिहंतो प्रधान थवाथी तेओ सिद्धोने पण नमस्कार्य छे एवो अर्थ थाय / 15 ... उ०—जो एम मानवामां आवे तो अरिहंतो पण आचार्यना उपदेशथी जणाय छे, तेथी आचार्यो प्रधान बनी जशे / वस्तुतः अरिहंत अने सिद्ध ए सरखा बळवाळा छे तेथी एमनो विचार करवो श्रेयस्कर छ / तेओ बनो परमनायकरूपे छे / आचार्यो तो तेमनी सभाना सदस्यो जेवा छे / कोई पण मनुष्य सभाने नमस्कार कर्या पछी राजाने नमस्कार करतो नथी / आथी ज आ क्रम बराबर छ। 135, (1021) 20 10-11. प्रयोजन द्वार अने फळ द्वार / जे कारणने लईने प्रयोग कराय ते नमस्कारमंत्रनुं मोक्ष प्रयोजन छे / तेनो विचार आ प्रयोजन द्वारमा कराय छे अने क्रिया कर्या पछी जे स्वर्ग वगेरे मळे ते नमस्कारनुं फळ छे / तेनो आ फळ द्वारमा विचार करायो छ / श-नमस्कार करवामां कर्मनो क्षय अने मंगळवें आगमन ए प्रयोजन छ / तेमज लोक 33 संबंधी अने परलोकसंबंधी एम बे प्रकारचें फळ छे / तेनां दृष्टान्तो नीचे प्रमाणे छे। ( 136) वि०-नमस्कार करवाना समये जलदीथी ज्ञानावरणीय आदि कर्मोनो क्षय थाय छे ए नमस्कारनुं प्रयोजन छ / भावथी नमस्कार कर्या विना अनंत कर्मपुद्गलोनो नाश थतो नथी। वळी, नमस्कार करवाना समये मंगळनी प्राप्ति थाय छे / काळांतरे जे मळे ते आलोक अने परलोक संबंधी फळो कहेवाय छे / 136, (1022) 30 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 णमोकारणिज्जुत्ती। . [प्राकृत इहलोइ अत्थकामा 'आरुग्गं अभिरई 'अ निष्फत्ती / सिद्धी असग्ग सकुलप्पच्चयाई अ परलोए // 137 // 1023 // इहलोगम्मि तिदंडी' सादिव्वं ' माउलिंगवणमेव / परलोइ चंडपिंगल" हुंडिअजक्खो' अ दिटुंता // 138 // 1024 // 6 (फळ विशे जणावे छे-) श-आ लोकमां अर्थ, काम, आरोग्य अने अभिरतिनी प्राप्ति थाय छे। अने परलोकमां सिद्धि, स्वर्ग अने उत्तम कुळनी प्राप्ति छे / (137) वि०-अर्थ अने कामनी प्राप्ति थाय छे एटले ए शुभ विपाकवाळा बने छे अने आ लोकमां अर्थ वगेरेथी अनुकूळ आनंद मळे छे तेने 'अभिरति' कहे छे / शुभ पुण्यनुं कारण होवाथी परलोकमां 10पण तेनी प्राप्ति थाय छे / वळी सिद्ध, स्वर्ग अने उच्चकुळपणुं ए परलोक संबंधी फळो मळे छ / ___ अहीं सिद्धि प्रथम दर्शावी छे, केमके मुख्य फळने उद्देशीने उपाय कहेवामां आव्यों छे। वळी, विरल मनुष्यो ज एक भवमां सिद्धिने प्राप्त करे छे / जे एक भवमां सिद्धि मेळवी शकता नथी एवा अविराधकोने स्वर्ग अने सुकुळनी प्राप्ति थाय छे / : 37, (1023) (अंते उदाहरणो बतावे छे.-) 18 श०—आ लोकमां त्रिदंडी, दिव्य अने मातुलिंग (बीजोरां) वननां दृष्टांतो छ अने परलोकनां दृष्टांतो चंडपिंगल अने हुंडिक यक्षना छ / (138) (1) त्रिदंडी। नमस्कार मंत्र धन पण आपे छे तो ते कयी रीते ए विशे त्रिदंडीनुं उदाहरण कहे छे "एक श्रावकनो पुत्र हतो / ते कोई प्रकारनो धर्म करतो नहीं / तेनो बाप मरी गयो अने 20 ते व्यवहारमा पाछो पडवाथी आमतेम भम्या करतो हतो। कोई वेळा तेना घरनी पासे एक संन्यासी आव्यो / तेनी साथे तेने ( श्रावकपुत्रने ) मैत्री बंधाई / एक दिवसे संन्यासीए तेने कह्यु: 'जो तुं अखंडित अने मालिक विना- कोई मूडहूँ लई आवे तो तने धनवान बनावी दऊं / ' शोध करतां श्रावकपुत्र मूडहुँ लई आव्यो अने संन्यासीने वात करी / ते स्मशानमा लई 25 गयो / कारण के, तेनी विधि त्यां ज थई शके / ते श्रावकपुत्रने तेना पिताए नमस्कारमंत्र शीखवाड्यो हतो, अने तेनुं फळ जणावता कह्यु हतुं के, ज्यारे तने कोईनी बीक लागे त्यारे आ मंत्र गणजे, कारण के, आ विद्या छ / संन्यासीए ते श्रावणपुत्रने मूडदा पासे बेसाड्यो अने ते मूडदाना हाथमा तरवार आपी / पछी संन्यासी विद्यानो जाप करवा लाग्यो / वेतालथी अधिष्ठित ते मूडढुं ऊभुं थवा लाग्युं / 30 आथी ते श्रावकपुत्र भय पाम्यो अने हृदयमां नमस्कारमंत्रनो जाप करवा लाग्यों / नमस्कारना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 10 प्रभावथी ते वेताल नीचे पड्यो। संन्यासीए फरीथी जाप करवा मांड्यो अने वेताल फरी ऊभो थयो। त्यारे पण ते श्रावकपुत्र नमस्कारमंत्रनो सारी रीते जाप करवा लाग्यो / आथी ते वेताल फरीथी नीचे पटकाई पड्यो। संन्यासीए ते श्रावकपुत्रने पूज्यु के, 'तुं कई मंत्र-तंत्र जाणे छे ?' प्रावकपुत्रे ना कही / फरीथी ते संन्यासी विद्यानो जाप करवा लाग्यो अने त्रीजीवार ते वेताल ऊभो थयो अने नीचे गबडी पड्यो / संन्यासीए फरी तेने पूछ्युं / ते श्रावकपुत्र वारंवार नमस्कार- 5 मंत्रनो जाप करवा लाग्यो। ___आ कारणे ते वेताल-व्यंतरदेव कोपे भरायो अने तेणे तरवार लईने ते त्रिदंडीना बे कटका करी नाख्या / ते संन्यासी सुवर्णपुरुष बनी गयो। तेना अंगे अंगना जूदा जूदा भाग करीने ते श्रावकपुत्र प्रत्येक रात्रिए सोनुं लई जवा लाग्यो, आथी ते श्रीमंत बनी गयो / नमस्कारमंत्रतेने फळ मळ्युं। . जो नमस्कार मंत्र तेने आवडतो न होत तो वेताल तेने मारी नाखत अने ते सुवर्णपुरुष बनी जात।" नमस्कारमंत्र आ रीते धन आपे छ / (2) श्राविका। नमस्कारमंत्र काम-इच्छाओने पण पार पाडे छे ते कयी रीते तेनुं दृष्टांत कहे छे__ "कोइ एक श्राविकानो पति मिथ्यादृष्टि हतो / ते बीजी पत्नी लाववानी पेरवीमा हतो / तेने 15 आ पत्नी होवाथी बीजी मळी शकती नहीं / त्यारे तेने मारी नाखवानो तेणे उपाय विचार्यो / एक दिवसे ते एक काळो साप घडामां नाखी लाव्यो अने ते घडो घरमां छुपावीने मूक्यो / जम्या पछी पतिए पत्नीने काः 'पेला घडामां फूल मूक्यां छे ते लई आव / ' ते ओरडामा गई अने अंधारुं होवाथी नमस्कारमंत्रनो जाप करवा लागी / जाप करतां करतां ते एवं पण विचारती हती के, 'जो मने कोई खाई जाय तो मरतां मरतांये हुं नमस्कार-20 मंत्र- स्मरण छोडुं नहीं। तेणे घडामां हाथ नाख्यो / देवीए घडामांनो साप लई लीधो हतो अने तेने बदले फूलनी माग तेमां मूकी हती, ते तेणे लीधी / ते तेना पतिने आपी / पति तो आकुलव्याकुल बनीने बीजो ज विचार करवा लाग्यो / तेणे पत्नीने पूछ्युं अने जईने जूए छे तो घडो सुगंधथी महेकतो हतो। एमां कोई साप नहोतो। ते समजी गयो अने पत्नीना पगे 25 पड्यो / तेणे बधी हकीकत जणावी अने तेनी क्षमा मागी। पछीथी तो ते ज घरनी मालिक बनी।" नमस्कारमंत्रथी आ रीते कामना फळे छ / (3) बीजोरु। नमस्कारमंत्री आरोग्य अने अभिरति मळे छे ते कयी रीते ए विशे दृष्टांत कहे छे "एक नगरमां नदीना कांठे शौच करवा गयेला पुरुषे नदीमां तरी आवतुं बीजोरु जोयुं / 30 ते लईने तेणे राजाने भेट कर्यु, राजाए रसोइयाने आप्युं / जमती वेळाये ते राजाने पीरसवामां . 21 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत आव्युं / प्रमाणमां मोटुं अने वर्ण तेमज गंधमां विशिष्ट एवं बीजोरु खाईने राजा ते आपनार माणस उपर प्रसन्न थयो / तेने ईनाम आपवामां आव्यु / राजाए माणसोने आज्ञा करी के, 'नदीना किनारे किनारे जतां ज्यांथी आ बीजोरु वहेतुं आव्युं छे ते स्थळनी भाळ मेळयो।' पुरुषो भातु बांधीने गया। आगळ चालता चालतां एक उद्यान 5 आव्युं / त्यांना कोई पुरुषे चेतवणी आपी के, 'जे आ उद्याननुं फळ तोडे छे ते मरी जाय छ / ' पुरुषोए आ हकीकत राजाने कही। राजाए कह्यु: 'बीजोरु तो अवश्य लावq ज जोईए / वारा फरती एकेक माणसने मोकलो' एवो हुकम राजाए राजपुरुषोने कर्यो / ए रीते एकेक माणसने मोकलवामां आवे छे ने बीजोर आव्या करे छे / एटले के, एक 10 माणस उद्यानमा प्रवेश करे अने बीजोरु तोडीने बहार फेंके पछी ते मरी जाय / आ रीते बीजा बीजा माणसोने मोकलवामां आवता, ते बीजोरु लावता अने मरी जता / ए प्रमाणे समय वीततां हवे श्रावकोनो वारो आव्यो। ___ एक श्रावक गयो / ते विचारवा लाग्यो के 'श्रमणचारित्रनी विराधना ना थाओ' एम नैषेधिकी-निसीहि करीने नमस्कारमंत्रनो जाप करतो उद्यानमा पेठो / उद्यानमा रहेला व्यंतरने 15 आथी चिंता थई, ने विचार करतां तेने ज्ञान थयुं / श्रावकने ते वंदन करवा लाग्यो अने कह्यु: 'हुं रोज एकेक बीजोरु घेर पहोंचाडीश / ' ____ आ वातनी राजाने खबर आपवामां आवी / श्रावकनुं सम्मान करवामां आव्युं / तेनी दिवसे दिवसे उन्नति थवा लागी / " आ रीते नमस्कारमंत्रथी अभिरति अने भोग प्राप्त थाय छे / ते श्रावक बची गयो, एनाथी 20 बीजं आरोग्य शुं होई शके ? अने राजा संतुष्ट थयो / (4) चंडपिंगल। नमस्कारमंत्रथी परलोकनुं फळ पण मळे छे ते कयी रीते ए विशे दृष्टांत कहे छे "वसंतपुरमा जितशत्रु नामे राजा हतो। त्यां एक गणिका श्राविका हती / ते गणिका चंडपिंगल नामना चोरनी साथे रहेती हती। 25 कोई वेळा ते चोर राजाना महेलमांथी मूल्यवान हार चोरी लाव्यो। बीकना मार्या ते हार छुपावी देवामां आव्यो। एक समये उद्यानयात्राना प्रसंगे बधी गणिकाओ अलंकार सजीने उद्यानमां गई। बधी गणिकाओमां 'हुं वधारे सारी लागुं' एम विचारीने तेणे ते हार पहेर्यो हतो / जे राणीनो आ हार हतो तेनी दासीओ ए हारने ओळखती हती / आ हकीकत राजाने कहेवामां आवी। . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 163 10 ते गणिका कोनी साथे रहे छे तेनी बातमी राजाए मेळवी / चंडपिंगळने पकडवामां आव्यो अने तेने शूलीए चडाववानुं फरमान करवामां आव्युं / ____ गणिकाए विचार्यु के, मारा अपराधथी तेने फांसी देवाय छे तेथी ते तेने नमस्कारमंत्र आपवा लागी अने कह्यु के, 'तुं एवं निया' कर जेथी आ राजाने त्यां पुत्ररूपे उत्पन्न थाय / ' नमस्कारमंत्रने गणतां तेणे एबुं निया' कयुं / ते पटराणीना पेटे जन्म्यो / बाळक थयो। 5 ते श्राविका गणिका तेने रमाडनारी धाई बनी।। कोई वखते रमाडता रमाडतां ते गणिकाए कह्युः 'चंडपिंगल, रडीश ना / ' आ हकीकतथी तेने शान थयुं / __ राजा मरण पाम्यो अने ते बाळक राजा थयो / लांबो काळ वीततां ते राजा अने गणिका बनेए दीक्षा लीधी / ए रीते ऊंचा कुळमां जन्म पामीने मोक्षनी प्राप्ति करी।" / आ रीते नमस्कारमंत्र परलोकनुं फळ पण आपे छ / (5) हुंडिकयक्ष / परलोकना फळ विशे बीजं दृष्टांत कहे छे "मथुरा नगरीमां जिनदत्त नामे श्रावक रहेतो हतो। त्यां ज हुँडिक नामे चोर पण वसतो हतो।ते रोज नगरमां चोरीओ करतो हतो। एक वेळा ते पकडाई गयो अने तेने फांसीनी सजा करवामां आवी / 15 फांसीए जतां पहेलां तेना कोण कोण मददगारो छे तेनी बातमी मेळववा राजाना अनुचरो तेनी पाछळ फरी रह्या हता / ते चोर नजीकमां उभेला कोई श्रावकने कहेवा लाग्योः 'तुं दयाळु छे, हुं तरस्यो छ मने पाणी आप / तरसथी मारो जीव जाय छे।' श्रावके कह्युः . 'आ नमस्कारमंत्र आपुं छु, तेनो जाप कर त्यां सुधीमां पाणी लावी आपुं। जो आ गणवानुं भूलीश तो पाणी लाव्यो हईश तोये आपीश नहीं / ' आवी लालचथी ते नमस्कार-20 मंत्र गणवा लाग्यो / श्रावक पाणी लईने आव्यो / 'हवे तने पाउं छु' एम कहेतां ते चोर नमस्कारनो जोरथी उच्चार करतो मरण पाम्यो। ते मरीने यक्ष थयो / राजाना अनुचरोए ते श्रावकने पकडी लीधो। तुं चोरने भोजन आपनारो छे माटे तने पकड्यो छे, एम कहीने आ श्रावकनी वात राजाने निवेदन करी / राजाए हुकम कर्यो के, 'तेने पण फांसीए चडावो।' ते श्रावकने जेवो मारवामां आवे छे के तरत यक्षे अवधिज्ञानना उपयोगथी जाणी लीधुं / - श्रावकने ते पोताना आत्मा बराबर लेखे छे, तेथी ते यक्षे कोई पर्वतनी शिला हाथमां उपाडीने राजपुरुषोने कह्युः 'आ उत्तम श्रावकने पण तमे ओळखता नथी ? तेनी माफी मागो, नहितर तमारा चूरा थई जशे / ' राजाए पूर्वदिशामां ते यक्षनुं मंदिर बांध्यु / " नमस्कारमंत्रथी आ रीते परलोकनुं फळ पण मळे छ / 138, (1024) 25 30 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत (नियुक्ति-परिचय) आ 'नमस्कार-नियुक्ति' श्रीआगमोदयसमिति तरफथी सं. 1972 मां प्रगट थयेल 'श्रीमदावश्यकसूत्र' ना पृष्ठः 377 थी 454 मां श्रीमद् हरिभद्रसूरिए रचेली शिष्यहिता टीका साथे प्रसिद्ध थई छ / तेमांनी मूळ गाथाओ 887 थी 1024 एटले 138 गाथाओ अहीं आपी 5 छे अने तेनो भाववाही अनुवाद खास करीने श्रीहरिभद्रसूरिनी टीका अने श्रीविशेषावश्यक-भाष्यना आधारे करीने अहीं आपवामां आव्यो छे / __ 'आवश्यकसूत्र' वगेरे उपर नियुक्तिओना रचयिता श्रीभद्रबाहुस्वामीनुं नाम सुप्रसिद्ध छ; परंतु जैन ग्रथोमांथी भद्रबाहुस्वामी नामना बे आचार्योनो परिचय मळे छ / एक श्रीभद्रबाहुस्वामी, जेओ चतुर्दश पूर्वधारी हता, अने वीरनिर्वाण संवत् 170 मा स्वर्गस्थ थया हता / ज्यारे बीजा 10 भद्रबाहुस्वामी प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिरना भाई हता अने नैमित्तिक तरीके ओळखाता हता ते छट्ठी शताब्दीमा विद्यमान हता। __आ बंने भद्रबाहुस्वामीओ पैकी नियुक्तिना रचयिता कोण ए विशे विद्वानोमां भारे मतभेद छे। एक वर्ग एम कहे छे के, छेदसूत्रो अने नियुक्तिओनी रचना करनार प्रथम भद्रबाहुस्वामी चौद पूर्वधर हता; त्यारे बीजो वर्ग एम कहे छे के, छेद सूत्रकार अने नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी एक नथी / 15 बंने वर्गो छेदसूत्रकार भद्रबाहुस्वामी चतुर्दश पूर्वधर होवा विशे एकमत छे पण बीजो वर्ग बीजा भद्रबाहुस्खामी, जेओ नैमित्तिक हता, तेमने ज नियुक्तिकार तरीके ओळखावे छ / ए मतभेदमां ऊंडा न ऊतरीए तोये आ 'नमस्कार-नियुक्ति'नी रचना करनार प्रतिभाशाली अने श्रुतसाहित्यना रहस्यवेत्ता छे एमां शंका नथी / तेमणे अगियार द्वारोथी नमस्कार सूत्रनी जे महत्ता बतावी छे ए ज एमनी प्रतिभानो 20 परिचय करावे छे / नमस्कार विशे तेमणे भाग्ये ज कोई विषय उपर विचार करवानुं बाकी मूक्यु होय एवँ एमनुं सर्वांगीण वक्तव्य अने वेधक दृष्टि छ / ___ आ अनुवादमा मूळ गाथाओमां निर्दिष्ट केटलीक महत्त्वनी कथाओ आपी छे, ज्यारे बीजी कथाओने विस्तारभये छोडी दीधी छे / तेनो परिचय टीकामांथी मळे एम छे / RUILDINApangenupamuos Apara Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] श्रीपुष्पदन्त-भूतबलिप्रणीतस्य श्रीवीरसेनाचार्यरचितधवलाटीकया समन्वितस्य षटखण्डागमस्य संदर्भः। [छक्खंडागमसंदब्भो] 10 णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं / णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं // 1 // कधमिदं सुत्तं मंगल-णिमित्त-हेउ-परिमाण-णाम-कत्ताराणं सकारणाणं परूवयं ? ण, तालपलंबसुत्तं व देसामासियत्तादो। विवेचन। अरिहंतोने नमस्कार थाओ, सिद्धोने नमस्कार थाओ, आचार्योने नमस्कार थाओ, उपाध्यायोने नमस्कार थाओ अने लोकमां रहेला सर्व साधुओने नमस्कार थाओ। विशेषार्थ-आ ज मंगलसूत्र 'नमोकारमंत्र' ना नामे प्रसिद्ध छे / एना अंतिम भागमा जे 'लोए' एटले 'लोकमां' अने 'सव्व' अर्थात् 'सर्व' पदो आवेलां छे, तेनो संबंध णमो अरिहंताणं आदि प्रत्येक नमस्कारपदनी साथे करी लेवो जोईए। एनो खुलासो आचार्ये स्वयं आगळ उपर कर्यो छे। - शंका-आ सूत्र मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम अने कर्तार्नु सकारण प्ररूपण करे छे ए कयी रीते संभवित छे ? शंकाकारनो ए अभिप्राय छे के, आ सूत्रमा ज्यारे केवळ मंगळ 15 अर्थात् इष्ट देवताने नमस्कार करवामां आव्यो छे त्यारे तेनाथी निमित्त आदि बीजा पांच अधिकारोनुं सष्टीकरण कई रीते संभवे ? समाधान-आ मंगळसूत्र 'तालप्रलम्ब' सूत्रनी समान देशामर्षक होवाथी मंगल आदि छये अधिकारोनी सकारण प्ररूपणा करे छे, आथी उपर्युक्त शंका ठीक लागती नथी। . विशेषार्थ-जे सूत्र अधिकृत विषयोना एकदेश कथनद्वारा समस्त विषयोनी सूचना करे 20 तेने 'देशामर्षक सूत्र' कहे छे, आथी 'तालप्रलंब सूत्र'नी समान आ मंगलसूत्र पण देशामर्षक छ / 'कल्पसूत्रना' 'कल्प्याकल्प्य' नामक प्रथम उद्देशना प्रथम सूत्रमा 'तालप्रलंब' पद आवे छे, जेनो भाव ए छे के, तालवृक्षने प्रथम मानी लईने जेटली पण वनस्पतिनी जातिओ छे, तेनाथी अभिन्न (तोड्या विना अथवा कापेलां) अने अपक्क अथवा काचां अर्थात् सचित्त मूल, पत्र, फळ, पुष्प वगैरे लेवा ए साधुने योग्य नथी / आ सूत्रमा तो केवल 'तालप्रलंब' पद ज आपेलं छे, तेम छतां 25 तेने उपलक्षण मानीने समस्त वृक्षजाति अने तेमनां पत्र-पुष्प वगेरेने ग्रहण करवामां आव्यां छे / 'एज प्रकारे आ नमस्कारात्मक सूत्र पण देशामर्षक होवाथी मंगलनी साथे अधिकृत निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम अने कर्तानो पण बोध करावे छे / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत ___ तत्थ धाउ-णिक्खेव-णय-एयत्थ-णिरुत्ति-अणियोग-दारेहिं मंगलं परूविजदि / तत्थ धाउ 'भू सत्तायां' इच्चेवमाइओ सयलत्थ-वत्थूणं सद्दाणं मूल-कारणभूदो / तत्थ 'मगि' इदि अणेण धाउणा णिप्पण्णो मंगलसद्दो।x xxxx शब्दात् पदप्रसिद्धिः, पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति / ___ अर्थात् तत्त्वज्ञानं, तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः // 2 // इति / णिच्छये णिण्णए खिवदि त्ति मिख्खेवो / सो वि छव्विहो, णाम-ट्ठवणा-दव्व-खेत्त-कालभावमंगलमिदि। x x x x x ___ मङ्गलस्यैकार्थ उच्यते, मङ्गलं पुण्यं पूतं पवित्रं प्रशस्तं शिवं शुभं कल्याणं भद्रं सौख्यमित्येवमादीनि मङ्गलपर्यायवचनानि / एकार्थप्ररूपणं किमिति चेत्, यतो मङ्गलार्थोऽनेकशब्दाभिधेयस्ततो10ऽनेकेषु शास्त्रेषु नैकाभिधानैः मङ्गलार्थः प्रयुक्तश्चिरन्तनाचार्यैः। सोऽव्यामोहेन शिष्यैः सुखेनावगम्यत इत्येकार्थ उच्यते 'योकशब्देन न जानाति ततोऽन्येनापि शब्देन ज्ञापयितव्यः' इति वचनाद् वा / ____ मङ्गलस्य निरुक्तिरुच्यते, मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मङ्गलम् / तन्मलं द्विविधं, द्रव्य - भावमलभेदात्। द्रव्यमलं द्विविधम् , बाह्यमाभ्यन्तरं च / तत्र वेद ते उक्त मंगल आदि छ अधिकारोमांथी पहेलां धातु, निक्षेप, नय, एकार्थ, निरुक्ति अने 15 अनुयोग द्वारा 'मंगल'नी प्ररूपणा करवामां आवे छे / तेमां 'भू' धातु सत्ता अर्थमां छे, तेने प्रथम मानी लईने समस्त अर्थवाचक शब्दोनुं जे मूळ कारण छे तेने 'धातु' कहे छे। तेमांथी 'मगि धातुथी मंगल शब्द निष्पन्न थयेलो छ / अर्थात् 'मगि' धातुमां अलच् प्रत्यय जोडी देवाथी 'मंगल' शब्द बने छ। x x x x x x x . शब्दथी पदनी सिद्धि थाय छे, पदनी सिद्धिथी तेना अर्थनो निर्णय थाय छ; अर्थनिर्णयथी 20 तत्त्वज्ञान अर्थात् हेय-उपादेय विवेकनी प्राप्ति थाय छे, अने तत्त्वज्ञानथी परम कल्याण थाय छे / 2 / जे कोई एक निश्चय अथवा निर्णयमा क्षेपण करे अर्थात् अनिर्णीत वस्तुनो तेना नामादिक द्वारा निर्णय करावे, तेने 'निक्षेप' कहे छे / ते नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावनाना भेदोथी छ प्रकारे छे, अने एना संबंधथी मंगल पण छ प्रकारतुं थाय छ। 1 नाम मंगल, 2 स्थापना मंगल, 3 द्रव्य मंगल, 4 क्षेत्र मंगल, 5 काल मंगल अने 6 भाव मंगल / x x 25 हवे मंगळनां एकार्थवाची नामो कहे छे / मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र अने सौख्य इत्यादि मंगलनां पर्यायवाचक नामो छ। __ शंका-अहीं मंगलना एकार्थवाचक अनेक नामोनुं प्ररूपण शा माटे करवामां आव्यु छ ? समाधान—केमके, मंगलरूप अर्थ अनेक शब्दनो वाच्य छे, अर्थात् अनेक पर्यायवाची नामो द्वारा मंगलरूप अर्थन प्रतिपादन करवामां आवे छे, एटला माटे प्राचीन आचार्योए अनेक 30 शास्त्रोमा अर्थात् भिन्न भिन्न शब्दो द्वारा मंगलरूप अर्थनो प्रयोग कर्यो छे। आथी शिष्योने मतिभ्रम विना मंगलना पर्यायवाची ते बधां नामोनुं सरळतापूर्वक ज्ञान थई जाय, एटला माटे अहीं मंगलनां एकार्थवाची नामो कह्यां छे। हवे मंगलनी निरुक्ति (व्युत्पत्तिजन्य अर्थ) कहे छ। जे मळनुं गालन करे, मलनो विनाश Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 167 रजोमलादि बाह्यम् / घन-कठिन - जीव - प्रदेश - निबद्ध - प्रकृति - स्थित्यनुभाग- प्रदेश - विभक्त - ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्माभ्यन्तरद्रव्यमलम् / अज्ञानदर्शनादिपरिणामो भावमलम् / ___अथवा, अर्थाभिधान-प्रत्ययभेदात् त्रिविधं मलम् / उक्तमर्थलम् / अभिधानमलं तद्वाचकः शब्दः / तयोरुत्पन्नबुद्धिः प्रत्ययमलम् / अथवा चतुर्विधं मलं नाम - स्थापना - द्रव्य - भावमलभेदात् / अनेकविधं वा / तन्मलं गालयति विनाशति विध्वंसयतीति मङ्गलम् / अथवा मङ्गं सुखं तल्लाति 5 आदत्त इति वा मङ्गलम् / उक्तं च मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्टः, पुण्यार्थस्याभिधायकः / तल्लातीत्युच्यते सद्भिर्मङ्गलं मङ्गलार्थिभिः // 16 // पापं मलमिति प्रोक्तमुपचारसमाश्रयात् / तद्धि गालयतीत्युक्तं, मङ्गलं पण्डितैर्जनैः / / 17 // अथवा, मंङ्गति गच्छति कर्ता कार्यसिद्धिमनेनास्मिन् वेति मङ्गलम् / मङ्गलशब्दस्यार्थविषयनिश्चयोत्पादनार्थं निरुक्तिरुक्ता / मङ्गलस्यानुयोग उच्यतेकरे, घात करे, नाश करे, शोधन करे, विध्वंस करे तेने 'मंगल' कहे छे। द्रव्यमल अने भावमलना भेदथी ते मल बे प्रकारनो छ / द्रव्यमल पण बे प्रकारनो छे। बाह्य द्रव्यमल अने आभ्यंतर द्रव्यमल / आमांथी परसेवो, धूळ अने मेल वगेरे बाह्य द्रव्यमल छे / सांद्र अने कठण 15 स्वरूपे जीवना प्रदेशोनी साथे बंधायेलां प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अने प्रदेश-आ भेदोमां विभक्त एवां ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो आभ्यंतर द्रव्यमल छे / अज्ञान अने अदर्शन वगेरे परिणामोने 'भावमल' कहे छ। - अथवा अर्थ, अभिधान (शब्द) अने प्रत्यय( ज्ञान )ना भेदथी मळ त्रण प्रकारनो होय छ। अर्थमल विशे तो हमणां पहेला ज कहेवायुं छे; अर्थात् जे पहेलां बाह्य द्रव्यमल, आभ्यंतर 20 द्रव्यमल अने भावमल कहेवामां आव्या छे तेने ज अर्थमल समजवो जोईए। मलना वाचक शब्दोने अभिधान मल कहे छ; अथवा अर्थमल अने अभिधानमलमा उत्पन्न थयेली बुद्धिने प्रत्ययमल कहे छ / अथवा नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल अने भावमल ए भेदोथी मल चार प्रकारनो छ। अथवा आ ज प्रकारे विवक्षाभेदथी मल अनेक प्रकारनो छ / आ प्रकारे ऊपर कहेवामां आवेला (1) मलनुं गालन करे, विनाश करे अथवा ध्वंस करे तेने 'मंगल' कहे छे।। (2) अथवा मंग शब्द सुखवाची छे; तेने जे लावे, प्राप्त करे तेने 'मंगल' कहे छे. कर्दा पण छे के___(३) आ मंगशब्द पुण्यरूप अर्थ- प्रतिपादन करनारो मानवामां आव्यो छे। ए पुण्यने जे लावे छे तेने मंगळना इच्छुक सत्पुरुषो 'मंगल' कहे छ। 16 / . (4) उपचारथी पापने पण मळ कह्यो छे, एटला माटे जे एनुं गालन अर्थात् नाश करे 30 छे तेने पण पंडितपुरुषो 'मंगल' कहे छ। 17 / (5) अथवा कर्ता अर्थात् कोई उद्दिष्ट कार्यने करनारो, जेनी द्वारा अथवा जे करतां कार्यनी सिद्धिने प्राप्त थाय छे तेने पण 'मंगल' कहे छ / आ ज रीते मंगलशब्दनो अर्थविषयक निश्चय 25 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो त्ति। छहि अणिओग - हारेहि सव्वे भावाणुगंतव्वा // 18 // इदि वयणादो। कि मङ्गलम् ? जीवो मङ्गलम् / न सर्वजीवानां मङ्गलप्राप्तिः द्रव्यार्थिकनयापेक्षया मङ्गलपर्यायपरिणतजीवस्य पर्यायार्थिकनयापेक्षया केवलज्ञानादिपर्यायाणां च मङ्गलत्वाभ्युपगमात् / 5 कस्य मङ्गलम् ? द्रव्यार्थिकनयार्पणया नित्यतामादधानस्य पर्यायार्थिकनयार्पणयोत्पादविगमात्मकस्य / देवदत्तात् कम्बलस्येव न जीवान्मङ्गलपर्यायस्य भेदः सुवर्णस्याङ्गुलीयकमित्यत्राभेदेऽपि षष्ठथुपलम्भतोऽनेकान्तात् / __ केन मङ्गलम् ? औदयिकादिभावैः / उत्पन्न करवा माटे मंगल शब्दनी निरुक्ति कहेवामां आवी छ / हवे मंगलनो अनुयोग-व्याख्या कहे छ; अर्थात् अनुयोगद्वारा मंगलनुं निरूपण करे छ / विशेषार्थ-(१) जिनेद्र कथित आगमनो पूर्वापर संदर्भ मेळवतां अनुकूळ व्याख्यान करवू तेने 'अनुयोग' कहे छ / अथवा, (2) सूत्रनो तेना वाच्यरूप विषयनी साथे संबंध जोडवो तेने 'अनुयोग' कहे छे / अथवा, (3) एक ज भगवत्प्रोक्त सूत्रना अनन्त अर्थो थाय छे, एटला माटे सूत्रनी 'अणु' संज्ञा छे, ए सूक्ष्मरूप सूत्रना अर्थरूप विस्तारनी साथेनो संबंध प्रतिपादन 15 करवो तेने 'अनुयोग' कहे छ / (1) पदार्थ शुं छे ? (2) कोनो छे ? (3) कोनी द्वारा थाय छे ? (4) क्यां आगळ थाय छे, (5) केटला समय सुधी रहे छे ? अने (6) केटला प्रकारे छे ? आ प्रकारे आ छ अनुयोगद्वारोथी संपूर्ण पदार्थनुं ज्ञान करवू जोईए। 18. आ वचनथी अनुयोगद्वारा मंगलनुं निरूपण करवामां आवे छे / 20 (पहेलो अनुयोग-) मंगल शुं छे ? जीव ज मंगल छे, परंतु जीवने मंगल कहेवाथी बधा जीवो मंगलरूप नहि थई जाय / केमके, द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए मंगल पर्यायथी परिणत जीवने अर्थात् मंगल करता जीवने, अने पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए केवळज्ञान आदि पर्यायोने मंगल मान्या छ। (बीजो अनुयोग-) 28 मंगल कोने थाय छे ? द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए नित्यताने धारण करनार अर्थात् सदाकाळ एकस्वरूप रहेनारा अने पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए उत्पाद अने व्ययस्वरूप जीवने मंगल थाय छे / अहीं जे प्रकारे ( कंबल देवदत्तनी होवा छतां) देवदत्तथी कंबलनो भेद छे, ए ज प्रकारे जीवनो मंगलरूप पर्यायथी भेद नथी / केमके, 'आ वींटी सुवर्णनी छे' अहीं अभेदमां वींटीरूप पर्याय सुवर्णथी अभिन्न होवा छताये जे प्रकारे भेदद्योतक षष्ठी विभक्ति जोवाय छे ए ज 30 प्रकारे जीवस्य मङ्गलम् अहीं पण अभेदमां षष्ठी विभक्ति समजवी जोईए। आ रीते संबंध कारकमां अनेकांत समजवो जोईए / अर्थात् क्यांय बे पदार्थोमां भेद होवा छताये संबंधनी विवक्षाथी षष्ठी कारक होय छे अने क्यांय अभेद होवा छताये षष्ठी कारकनो प्रयोग थाय छे / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / ____ क मङ्गलम् ? जीवे / कुण्डाद् बदराणामिव न जीवान्मङ्गलपर्यायस्य भेदः सारे स्तम्भ इत्यत्राभेदेऽपि सप्तम्युपलम्भतोऽनेकान्तात् / ___ कियच्चिरं मङ्गलम् ? नानाजीवापेक्षया सर्वोद्यम् / एकजीवापेक्षया अनाद्यपर्यवसितं साद्यपर्यवसितं सादिसपर्यवसितमिति त्रिविधम् / कथमनाद्यपर्यवसितता मङ्गलस्य ? द्रव्यार्थिकनयार्पणया / तथा च मिथ्यादृष्टयवस्थायामपि मङ्गलत्वं जीवस्य प्राप्नोतीति चेन्नैष दोषः इष्टत्वात् / न मिथ्याविरति-5 प्रमादानां मङ्गलत्वं तेषां जीवत्वाभावात् / जीवो हि मङ्गलम् , स च केवलज्ञानाद्यनन्तधर्मात्मकः / (बीजो अनुयोग-) क्या कारणथी मंगल उत्पन्न थाय छे ? जीवना औदयिक, औपशमिक आदि भावोथी मंगल उत्पन्न थाय छे। विशेषार्थ-जो के कर्मोना उपशम, क्षय अने क्षयोपशमथी सम्यग्दर्शन वगेरेनी उत्पत्ति थाय 10 छे, एटला माटे तेनाथी मंगलनी उत्पत्ति मानवी तो ठीक छे परंतु औदयिक भावथी मंगलनी उत्पत्ति बनी शकती नथी; एटला माटे अहीं 'औदयिक आदि भावोथी मंगल उत्पन्न थाय छे' ए कहे कयी रीते संभवित छे ? एनुं समाधान आ प्रकारे समजवु जोईए के, बधा औदायिक भावो मंगलनी उत्पत्तिमां कारण नथी, तेम छतां तीर्थंकर प्रकृतिना उदयथी उत्पन्न थनारो औदयिक भाव मंगलनुं कारण छे / एटला माटे एनी अपेक्षाए औदयिक भावने पण मंगलनी उत्पत्तिना कारणोमां 15 प्रहण करवामां आवेल छे। (चोथो अनुयोग-) - मंगल शेमा उत्पन्न थाय छे ? जीवमां मंगल उत्पन्न थाय छ। जे प्रकारे कुंडामा राखेलां बोरोनो कुंडाथी भेद छे तेम जीवथी मंगलपर्यायनो भेद समजवो न जोईए / केमके, सारे स्तम्भः अर्थात् वृक्षना लाकडामा स्तंभ छ / अहीं जे रीते अभेदमां पण सप्तमी विभक्तिनी उपलब्धि थाय 20 छे, ए ज प्रकारे जीवे मङ्गलम् एमां पण अभेदमां सप्तमी विभक्ति समजवी जोईए। आ रीते ए सिद्ध थयुं के, अधिकरण कारकना प्रयोगमां पण अनेकांत छ; अर्थात् क्यांय भेदमां अधिकरण कारक थाय छे अने क्यांय अभेदमां पण अधिकरण कारक होय छे / __ (पांचमो अनुयोग-) मंगल क्यां सुधी रहे छे ? विविध जीवोनी अपेक्षाए मंगल सर्वदा रहे छे अने एक 25 जीवनी अपेक्षाए अनादिअनंत, सादिअनंत, सादिसांत आ प्रकारे मंगलना त्रण भेदो थई जाय छ। शंका-मंगलमा एक जीवनी अपेक्षाए अनादि अनंतपणुं कयी रीते बने छे, अर्थात् एक जीवनुं अनादि कालथी अनंतकाळ सुधी मंगल थाय छे ए कयी रीते संभवित छे ? समाधान-द्रव्यार्थिक नयनी प्रधानताथी मंगलमां अनादि-अनंतपणुं बनी जाय छे। अर्थात् द्रव्यार्थिक नयनी मुख्यताथी जीव अनादिकाळथी अनंतकाळ सुधी सर्वदा एक स्वभावे 30 अवस्थित छे, अने मंगलरूप पर्याय तेनाथी सर्वथा भिन्न नथी / आथी मंगलमां पण अनादि अनंतपणुं बनी जाय छे। शंका-आ रीते तो मिथ्यादृष्टि अवस्थामां पण जीवने मंगलपणानी प्राप्ति थई जशे ? Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 [प्राकृत षट्खण्डागमस्य संदर्भः। नावृतावस्थायां मङ्गलीभूतकेवलज्ञानाद्यभावः आव्रियमाणकेवलाद्यभावे तदावरणानुपपत्तेः / जीवलक्षणयोर्ज्ञान-दर्शनयोरभावे लक्षणस्याप्यभावापत्तेश्च / न चैवं तथाऽनुपलम्भात् / न भस्मच्छन्नाग्निना व्यभिचारः ताप-प्रकाशयोस्तत्राप्युपलम्भात् / पर्यायत्वात् केवलादीनां न स्थितिरिति चेन्न, अत्रुट्यज्ज्ञानसंतानापेक्षया तत्स्थैर्यस्य विरोधाभावात् / न छद्मस्थज्ञान-दर्शनयोरल्पत्वादमङ्गलत्वमेकदेशस्य, 5 माङ्गल्याभावे तद्विश्वावयवानामप्यमङ्गलत्वप्राप्तेः / रजोजुषां ज्ञान - दर्शने न मङ्गलीभूतकेवलज्ञानदर्शनयोरवयवाविति चेन्न / ताभ्यां व्यतिरिक्तयोस्तयोरसत्त्वात् / मत्यादयोऽपि सन्तीति चेन्न, तद्वस्थानां मत्यादिव्यपदेशात् / तयोः केवलज्ञान-दर्शनाङ्कुरयोर्मङ्गलत्वे मिथ्यादृष्टिरपि मङ्गलं, तत्रापि समाधान-ए कई दोष नथी। केमके, एवो प्रसंग तो अमने इष्ट ज छे; परंतु एम मानी लेवा छतां मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद वगेरेनुं मंगलपणुं सिद्ध थई शकतुं नथी / केमके, तेमां जीवत्व 10जोवातुं नथी / मंगल तो जीव ज छे, अने ते जीव केवलज्ञान आदि अनंत धर्मात्मक छ। ____ आवृत अवस्थामा अर्थात् केवलज्ञानावरण आदि कर्मबंधननी दशामां मंगलभूत केवलज्ञान आदिनो अभाव छ; अर्थात् ए अवस्थामां ए सर्वथा जोवाता नथी / जो कोई एवो प्रश्न करे, तो आव्रियमाण अर्थात् जे कर्मो द्वारा आवृत थाय छे एवा केवलज्ञान आदिना अभावमा केवलज्ञान आदिने आवरण करनारां कर्मोनो सद्भाव सिद्ध थई शकशे नहीं। बीजं, जीवना 15 लक्षणरूप ज्ञान अने दर्शननो अभाव मानतां लक्ष्यरूप जीवना अभावनी पण आपत्ति आवी जाय छे, परंतु एम नथी / केमके, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोथी जीवनी उपलब्धि न थाय एवं जोवामां आवतुं नथी, परंतु प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोथी पण तेनी उपलब्धि थाय ज छ / अहीं भस्मथी ढंकायेला अग्निनी साथे व्यभिचार दोष पण आवतो नथी / केमके, ताप अने प्रकाशनी त्यां पण उपलब्धि थाय छ / 20 विशेषार्थ—आवृत अवस्थामां पण केवलज्ञान वगेरे जोवाय छे, ते जीवना गुणो छ / जो आ अवस्थामां तेमनो अभाव मानवामां आवे तो जीवनो पण अभाव मानवो पडशे / आ अनुमानने ध्यानमा राखीने शंकाकारनुं कहेवू छे के, आ रीते भस्मथी ढंकायेला अग्निथी व्यभिचार थशे / केमके, भस्माच्छादित अग्निमां अग्निरूप द्रव्यनो सद्भाव जोवाय छे, परंतु तेना धर्मरूप ताप अने प्रकाशनो सद्भाव जोवातो नथी। आ रीते हेतु विपक्षमां चाल्यो जाय छे, 25 आथी ते व्यभिचरित थाय छे / आ रीते शंकाकारना भस्मंथी ढंकायेला अग्निनी साथे व्यभिचारनो दोष देवो ठीक नथी / केमके, राखथी ढंकायेला अग्निमां पण तेना गुणधर्म ताप अने प्रकाशनी उपलब्धि अनुमान आदि प्रमाणोथी बराबर थाय छ। शंका-केवलज्ञान वगेरे पर्यायरूप छे, एटला माटे आवृत अवस्थामां तेनो सद्भाव बनी न शके। समाधान-ए शंका पण ठीक नथी। केमके, कदापि नहि तूटनारी ज्ञानसंताननी अपेक्षाए 30 केवळज्ञाननो सद्भाव मानी लेवामां कोई विरोध आवतो नथी। ___ छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानीओनां ज्ञान अने दर्शन अल्प होवा मात्रथी अमंगल बनी शकतां नथी / केमके, ज्ञान अने दर्शनना एक देशमा मंगलपणाना अभावनो स्वीकार करी लेतां ज्ञान अने दर्शनना संपूर्ण अवयवोने पण अमंगलरूप मानवा पडशे / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 171 तौ स्त इति चेद् भवतु तद्रूपतया मङ्गलम् , न मिथ्यात्वादीनां मङ्गलम् / तन्न मिथ्यादृष्टयः सुगतिभाजः सम्यग्दर्शनमन्तरेण तज्ज्ञानस्य सम्यक्त्वाभावतस्तदभावात् / कथं पुनस्तज्ज्ञान - दर्शनयोर्मङ्गलत्वमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टीनामवगताप्तखरूपाणां केवलज्ञान-दर्शनावयवत्वेनाध्यवसितरजोजुज्ञानदशनानामावरणविविक्तानन्तज्ञान-दर्शनशक्तिखचितात्मस्मर्तृणां वा पापक्षयकारित्वतस्तयोस्तदुपपत्तेः / नोआगमभव्यद्रव्यमङ्गलापेक्षया वा मङ्गलमनाद्यपर्यवसानमिति / रत्नत्रयमुपादायाविनष्टेनैवाप्त- 5 शंकाआवरणथी युक्त जीवोनां ज्ञान अने दर्शन मंगलभूत केवलज्ञान अने केवलदर्शनना अवयवो ज नथी थई शकता? ___समाधान–एम कहेवू ठीक नथी / केमके, केवलज्ञान अने केवलदर्शनथी भिन्न ज्ञान अने दर्शननो सद्भाव जोवातो नथी शंका-केवलज्ञान अने केवलदर्शनथी अतिरिक्त मतिज्ञान आदि ज्ञानो अने चक्षुदर्शन 10 वगेरे दर्शनो तो जोवाय छे / तेनो अभाव कयी रीते करी शकाय ? समाधान-ए ज्ञान अने दर्शन संबंधी अवस्थाओनी मतिज्ञान आदि अने चक्षुदर्शन आदि भिन्न भिन्न संज्ञाओछे; अर्थात् ज्ञानगुणनी अवस्थाविशेषतुं नाम मति आदि अने दर्शनगुणनी अवस्थाविशेषतुं नाम चक्षुदर्शन आदि छ। यथार्थमां आ बधी अवस्थाओमां रहेनारां ज्ञान अने दर्शन एक ज छ / शंका-केवलज्ञान अने केवलदर्शनना अंकुररूप छद्मस्थोना ज्ञान अने दर्शनने मंगलरूप 15 मानी लेतां मिथ्यादृष्टि जीव पण मंगल संज्ञाने प्राप्त थाय छे / केमके, मिथ्यादृष्टि जीवमां पण ते अंकुर विद्यमान छ। समाधान—जो एम होय तो, भले मिथ्यादृष्टि जीवने ज्ञान अने दर्शनरूपे मंगलपणुं प्राप्त थाय, परंतु एटला मात्रथी मिथ्यात्व, अविरति आदिने मंगलपणुं प्राप्त थई न शके, अने तेथी मिथ्यादृष्टि जीव सुगतिने प्राप्त थई शकतो नथी / केमके, सम्यग्दर्शन विना मिथ्यादृष्टिओना 20 ."झानमा समीचीनता आवी शकती नथी, अने समीचीनता विना तेने सुगति मळी शकती नथी। शंका-त्यारे मिथ्यादृष्टिओना ज्ञान अने दर्शनने मंगलपणुं केवी रीते छे ? समाधान—एवी शंका करवी न जोईए / केमके, आप्तना स्वरूपने जाणनारो, छद्मस्थोना ज्ञान अने दर्शनने केवलज्ञान अने केवलदर्शनना अवयवरूपे निश्चय करनारो अने आवरणरहित अनंतज्ञान अने अनंतदर्शनरूप शक्तिथी युक्त आत्मानुं स्मरण करनारा सम्यग्दृष्टिओना ज्ञान अने 25 दर्शनमा जे प्रकारे पापनुं क्षयकारीपणुं जोवाय छे ए प्रकारे मिथ्यादृष्टिओना ज्ञान अने दर्शनमां पण पापर्नु क्षयकारीपणुं जोवाय छे। एटला माटे मिथ्यादृष्टिओना ज्ञान अने दर्शनने पण मंगल मानवामां विरोध नथी, अथवा नोआगम भावि द्रव्य मंगलनी अपेक्षाए मंगल अनादि-अनंत छ / विशेषार्थ-जे आत्मा वर्तमानमा मंगलपर्यायथी युक्त तो नथी, परंतु भविष्यमां मंगलपर्यायथी युक्त थशे, तेनी शक्तिनी अपेक्षाथी मंगलपणुं अनादि-अनंतरूप बनी जाय छे। 30 - रत्नत्रयने धारण करीने कदापि नष्ट नहि थनारा रत्नत्रय द्वारा ज प्राप्त थयेला सिद्धना स्वरूपनी अपेक्षाए नैगमनयथी मंगल सादि-अनंत छ / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत सिद्धस्वरूपापेक्षया नैगमनयेन साद्यपर्यवसितं मङ्गलम् / सादिसपर्यवसितं सम्यग्दर्शनापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तकालमुत्कर्षेण षट्षष्टिसागराः देशोनाः। ___ कतिविधं मङ्गलम् ? मङ्गलसामान्यात् तदेकविधम् , मुख्यामुख्यभेदतो द्विविधम् , सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रभेदात् त्रिविधं मङ्गलम् , धर्मसिद्धसाध्वहंद्रेदाच्चतुर्विधम् , ज्ञान-दर्शन-त्रिगुप्ति5 भेदात् पञ्चविधम् / 'णमो जिणाणं' इत्यादिनाऽनेकविधं वा। अथवा मंगलम्हि छ अहियाराए दंडा वत्तव्वा भवंति / तं जहा, मंगलं मंगलकत्ता मंगलकरणीयं मंगलोवायो मंगलविहाणं मंगलफलमिदि / एदेसि छण्हं पि अत्यो उच्चदे / मंगलत्थो पुव्वुत्तो। मंगलकत्ता चोहसविजाह्राणपारओ आइरियो / मंगलकरणीयं भव्वजणो। मंगलोवायो तिरयणसाह___णाणि / मंगलविहाणं एयविहादि पुन्वुत्तं / मंगलफलं देहिंतो कय - अब्भुदयणिस्सेयससुहाइत्तं / 10 मंगलं सुत्तस्स आदीए मज्झे अवसाणे च वत्तव्वं / उत्तं च __ आदीवसाण-मज्झे, पण्णत्तं मंगलं जिणिंदेहिं / तो कयमंगलविणयो वि णमोसुत्तं पवक्खामि // 19 // विशेषार्थ-रत्नत्रयनी प्राप्तिथी सादिपणुं अने रत्नत्रयनी प्राप्ति पछी सिद्ध स्वरूपनी जे प्राप्ति थई छे तेनो कदी अंत आवनार नथी। आ रीते आ बंने धर्मोने ज विषय करनार (न एकं 15 गमः नैगमः) नैगमनयनी अपेक्षाए मंगल सादि-अनंत छे। . (छट्ठो अनुयोग-) ___ सम्यग्दर्शननी अपेक्षाए मंगल सादि-सांत समजवु जोईए, तेनो जघन्य काळ अंतर्मुहूर्तनो छे अने उत्कृष्ट काळ कंईक ऊणा छासठ सागरोपम प्रमाण छ / ___मंगल केटला प्रकारनां छे ? मंगलसामान्यनी अपेक्षाए मंगल एक प्रकारे छ / मुख्य अने 20 गौण भेदथी बे प्रकारे छ। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रना भेदथी त्रण प्रकारे छे / धर्म, सिद्ध, साधु अने अर्हन्तना भेदथी चार प्रकारे छे। ज्ञान, दर्शन अने त्रण गुप्तिना भेदथी पांच प्रकारे छ, अथवा 'जिनेन्द्रदेवने नमस्कार थाओं' इत्यादि रूपथी अनेक प्रकारे छ। अथवा मंगलना विषयमा छ अधिकारो द्वारा दंडकोनुं कथन कवु जोईए / ते आ प्रकारे छे:-१ मंगल, 2 मंगलकर्ता, 3 मंगलकरणीय, 4 मंगल उपाय, 5 मंगलभेद अने 6 मंगलफळ / 25 हवे आ छ अधिकारोना अर्थो कहे छ। मंगलनो अर्थ तो पहेलां कही देवामां आव्यो छे / चौद विद्यास्थानोना पारगामी आचार्य परमेष्ठी मंगलकर्ता छ। भव्यजन मंगल करवाने योग्य छ / रत्नत्रयनी साधक सामग्री मंगलनो उपाय छे। एक प्रकारनुं मंगल, बे प्रकारचें मंगल इत्यादिरूपे मंगलना भेदो पहेलां कही आव्या छीए / उपर कहेला मंगल आदिथी प्राप्त थनारा अभ्युदय अने मोक्ष सुखने आधीन मंगलनुं फळ छ / अर्थात् जेटला प्रमाणमां आ जीव मंगलनुं साधन मेळवे 30 छे, एटला ज प्रमाणमां तेनाथी जे यथायोग्य अभ्युदय अने निःश्रेयस् सुख मळे छे ते ज तेना मंगलनुं फळ छ / उक्त मंगल ग्रंथनी आदि, मध्य अने अंतमां कहेवां जोईए / कयुं पण छे जिनेन्द्रदेवे आदि, मध्य अने अंतमा मंगल करवातुं विधान कयुं छे। आथी मंगल विनयने करीने पण नमोकारसूत्रनुं वर्णन करुं छु / 19 / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 173 तिसु हाणेसु मंगलं किमढे वुच्चदे ? कयकोउयमंगलपायच्छित्ता विणयोवगया सिस्सा अझेदारो सोदारो वत्तारो आरोग्गमविग्घेण विजं विजाफलं पातु त्ति / उत्तं च आदिम्हि भद्दवयणं सिस्सा लहुपारया हवंतु त्ति / मज्झे अव्वोच्छित्ति य विजा विजाफलं चरिमे // 20 // विघ्नाः प्रणश्यन्ति भयं न जातु, न दुष्टदेवाः परिलज्जयन्ति / अर्थान्यथेष्टांश्च सदा लभन्ते, जिनोत्तमानां परिकीर्तनेन // 21 // आदौ मध्यावसाने च, मङ्गलं भाषितं बुधैः / तजिनेन्द्रगुणस्तोत्रं, तदविघ्नप्रसिद्धये // 22 // तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि / तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोकारो तं णिबद्धमंगलं / जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोकारो तमणि-10 बद्धमंगलं / इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं / यत्तो 'इमेसिं चोदसण्हं जीवसमासाणं' इदि एदस्स शंका-ग्रंथनी आदिमां, मध्यमां अने अंतमां आम त्रण स्थानोमां मंगल करवानो उपदेश शा माटे को छ ? समाधान-मंगल संबंधी आवश्यक कृतिकर्म करनारा तथा मंगल संबंधी प्रायश्चित्त करनारा अर्थात् मंगलने माटे आगळ प्रारंभ करवामां आवनार कार्यमां दुःस्वप्न वगेरेथी मनमां 15 चंचळता वगेरे न थाय एटला माटे प्रायश्चित्तस्वरूप मंगलीक दधि, अक्षत, चंदन वगेरेने सामे राखनारा अने विनयने प्राप्त एवा शिष्य, अध्येता अर्थात् भणनारो, श्रोता, अने वक्ता आरोग्य अने निर्विघ्नरूपे विद्या तथा विद्यानां फळोने प्राप्त करे, एटला माटे त्रणे स्थळे मंगल करवानो उपदेश आपेलो छ / कयुं पण छे के शिष्ये सरळतापूर्वक प्रारंभ करेला ग्रंथना अध्ययन आदि कार्यमां ते पारंगत थाय एटला 20 माटे आदिमां भद्रवचन एटले मंगलाचरण कर जोईए / प्रारंभ करेला कार्यमां विक्षेप न थाय एटला माटे मध्यमा मंगलाचरण करवू जोईए, अने विद्या तथा विद्याना फळनी प्राप्ति थाय ए माटे अंतमा मंगलाचरण करवू जोईए / 20 / जिनेन्द्रदेवना गुणोनु कीर्तन करवाथी विघ्नो नाश पामे छे, क्यारे पण भय आवतो नथी, दुष्ट देवताओ आक्रमण करी शकता नथी, अने निरंतर यथेष्ट पदार्थोनी प्राप्ति थाय छ। 21 / 25 विद्वान पुरुषोए प्रारंभ करेला कोई पण कार्यनी आदि, मध्य अने अंतमां मंगल करवानुं विधान करेलु छ / ते मंगल निर्विघ्ने कार्यसिद्धिने माटे होय छे अने ते जिनेन्द्र भगवानना गुणोनुं कीर्तन करवू ए ज (मंगल) छे / 22 / / ते मंगल बे प्रकारे छ। निबद्ध मंगल अने अनिबद्ध मंगल / जे ग्रंथनी आदिमां ग्रंथकार द्वारा इष्ट देवताने नमस्कार निबद्ध करवामां आवे छे अर्थात् श्लोक वगेरे रूपे रचाय छे तेने 'निबद्ध 30 मंगल' कहे छ; अने जे ग्रंथकार द्वारा देवताने नमस्कार करवामां आवे छे (परंतु श्लोक वगेरे द्वारा संग्रह करवामां आवतुं नथी) तेने 'अनिबद्ध मंगल' कहे छे। तेमांथी आ 'जीवस्थान' नामनो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत सुत्तस्सादीए णिबद्ध-'णमो अरिहंताणं' इच्चादिदेवदाणमोकारदसणादो। सुत्तं किं मंगलमुद अमंगलमिदि ? जदि ण मंगलं, ण तं सुत्तं पावकारणस्स सुत्तत्तविरोहादो। अह मंगलं, किं तत्थ मंगलेण एगदो चेय कन्जणिप्पत्तीदो इदि / ण ताव सुत्तं ण मंगलमिदि ? तारिसपइज्जाभावादो परिसेसादो मंगलं स / सुत्तस्सादीए मंगलं पढिजदि, ण पुव्वुत्तदोसो वि 5 दोण्हं पि पुध पुध विणासिज्जमाणपावदसणादो। पढणविग्यविदावणं मंगलं / सुत्तं पुण समयं पडि असंखेजगुणसेढीए पावं गालिय पच्छा सव्वकम्मक्खयकारणमिदि / देवतानमस्कारोऽपि चरमावस्थायां कृत्स्नकर्मक्षयकारीति द्वयोरप्येककार्यकर्तृत्वमिति चेन्न, सूत्रविषयपरिज्ञानमन्तरेण तस्य तथाविधसामर्थ्याभावात् / शुक्लध्यानान्मोक्षः, न च देवतानमस्कारः शुक्लध्यानमिति / इदाणिं देवदाणमोकारसुत्तस्सत्थो उच्चदे10 णमो अरिहंताणं' अरिहननादरिहन्ता / नरक-तिर्यक्-कुमानुष्यप्रेतावासगताशेषदुःखप्राप्तिप्रथम खंडागम निबद्ध मंगल छे। केमके, 'इमेसिं चोदसण्हं जीवसमासाणं' इत्यादि जीवस्थानना आ सूत्रनी पहेला 'णमो अरिहंताणं' इत्यादिरूपे देवतानमस्कार निबद्धरूपे जोवामां आवे छे / शंका-सूत्रग्रंथ स्वयं मंगलरूप छे अथवा अमंगलरूप ? जो सूत्र स्वयं मंगलरूप नथी तो तेने सूत्र पण कही शकातुं नथी / केमके, मंगलना अभावमा पापर्नु कारण होवाथी तेनो सूत्रपणानी साथे 15 विरोध आवी पडे छे, अने जो सूत्र स्वयं मंगलरूप छे तो पछी तेमां अलगरूपे मंगल करवानी शी जरूरत छ ? केमके, मंगलरूप एकसूत्र ग्रंथथी ज कार्यनी निष्पत्ति थई जाय छे अने जो एम कहेवामां आवे के, आ सूत्र नथी अने तेथी ए मंगल पण नथी तो एवं तो क्यांय कहेवामां आव्युं नथी के, आ सूत्र नथी। आथी आ सूत्र छे अने परिशेषन्यायथी मंगल पण छे, तो पछी आमां अलगरूपे मंगल शा माटे करवामां आव्युं ? 20 समाधान—सूत्रनी आदिमां मंगल करवामां आव्युं छे, तो पण पूर्वोक्त दोष आवतो नथी। केमके, सूत्र अने मंगल-आ बंनेथी पृथक् पृथक् रूपमां पापोनो विनाश थतो जोवामां आवे छ / निबद्ध अने अनिबद्ध मंगल पठनमा आवनारां विघ्नोने दूर करे छे अने सूत्र प्रतिसमय असंख्यात गुणित-श्रेणीरूपे पापोनो नाश करीने ए पछी संपूर्ण कर्मोना क्षयर्नु कारण बने छ। शंका-देवता नमस्कार पण अंतिम अवस्थामां संपूर्ण कर्मोनो क्षय करनारो थाय छे, 28 एटला माटे मंगल अने सूत्र ए बनेय एक कार्यने करनारां छे, तो पछी बनेनां कार्य भिन्न भिन्न केम बनाववामां आव्यां छे ? समाधान-एम नथी / केमके, सूत्रकथित विषयना परिज्ञान विना केवळ देवतानमस्कारमा कर्मक्षयर्नु सामर्थ्य नथी। मोक्षनी प्राप्ति शुक्लध्यानथी थाय छे परंतु देवतानमस्कार तो शुक्लध्यान नथी। 30 विशेषार्थ-शास्त्रज्ञान शुक्लध्यान- साक्षात् कारण छे अने देवतानमस्कार परंपरा कारण छे एटला माटे बनेनां अलग अलग कार्य बताववामां आव्यां छे / ___ हवे देवता-नमस्कार सूत्रनो अर्थ कहे छे / 'णमो अरिहंताणं' अरिहंतोने नमस्कार थाओ। अरि एटले शत्रुओना हननात् अर्थात् नाश करवाथी 'अरिहंत' एवी संज्ञा प्राप्त थाय छे / नरक, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग) नमस्कार स्वाध्याय / निमित्तत्वादरिर्मोहः / तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतत्रत्वात् / न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्तौ व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातव्यं जायेत / मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्योपलम्भान्न तेषां तत्तत्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादनसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्वसमानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययसमर्थत्वाच्च / तस्यारेहननादरिहन्ता। . रजोहननाद् वा अरिहन्ता। ज्ञानहगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरङ्गाशेषत्रिकालगोचरानन्तार्थव्यञ्जनपरिणामात्मकवस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद् रजांसि / मोहोऽपि रजः भस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जिह्मभावोपलम्भात् / किमिति त्रितयस्यैव विनाश उपदिश्यत इति चेन्न, एतद्विनाशस्य शेषकर्मविनाशाविनाभावित्वात् / तेषां हननादरिहन्ता / तिर्यंच, कुमानुष, अने प्रेत-आ पर्यायोमां निवास करवाथी थनारां समस्त दुःखोनी प्राप्तिनुं निमित्त 10 कारण होवाथी मोहने 'अरि' अर्थात् शत्रु कह्यो छे / शंका-केवळ मोहने ज अरि मानी लेतां बाकीनां कर्मोनो व्यापार निष्फळ बनी जाय छे / समाधान–एम नथी / केमके, बाकीनां समस्त कर्मो मोहने ज आधीन छ / मोह विना बधां कर्मो पोतपोतानां कार्योनी उत्पत्तिमा व्यापार करतां जोवातां नथी, जेनाथी ते पण पोतानां कार्योमां स्वतंत्र समजी शकाय / आथी साचो अरि मोह ज छे अने बाकीनां कर्मो तेने आधीन छ / 15 :शंका-मोह नष्ट थई जवा छतां केटलाये काळ सुधी बाकीनां कर्मोनी सत्ता रहे छे एटला माटे तेने-मोहने आधीन मानवु उचित नथी। समाधान—एम समजवू न जोईए / केमके, मोहरूपी शत्रु नष्ट थई जातां जन्म, मरणनी परंपरारूप संसारना उत्पादननुं सामर्थ्य बाकीनां कर्मोनुं न रहेवाथी ए कर्मोनुं सत्त्व, असत्त्व, समुं बनी जाय छे। तथा केवलज्ञान आदि संपूर्ण आत्मगुणोनो आविर्भाव रोकवामां समर्थ कारण होवाथी पण मोह ए प्रधान शत्रु छे, अने ए शत्रुनो नाश करवाथी 'अरिहंत' एवी संज्ञा प्राप्त थाय छे। ___अथवा रज अर्थात् आवरण कर्म तेनो नाश करवाथी 'अरिहंत' ए संज्ञा प्राप्त थाय छे।। ज्ञानावरण अने दर्शनावरण कर्म धूलनी जेम बाह्य अने अंतरंग त्रिकालना विषयभूत अनंत अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्याय स्वरूप वस्तुओना विषय करनारा बोध अने अनुभवना प्रतिबंधक होवाथी 25 रज कहेवाय छे, मोहने पण रज कहे छ। केमके, जे प्रकारे जे मुख भस्मथी व्याप्त होय तेमां जिह्मभाव अर्थात् कार्यनी मंदता जोवामां आवे छे। एज प्रकारे मोहथी जेनो आत्मा व्याप्त थई रह्यो छे तेनो पण जिह्मभाव जोवामां आवे छे; अर्थात् तेनी खानुभूतिमां कालुष्य, मंदता, अथवा कुटिलता जोवामां आवे छे। - शंका-अहीं केवळ त्रण ज अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण अने दर्शनावरण कर्मना विना-30 शनो ज उपदेश केम करवामां आव्यो छे ? / ___समाधान-एम समजबुं न जोईए। केमके, बाकीनां बधां कर्मोनो विनाश आ त्रण कर्मोना विनाशनो अविनाभावी छ अर्थात् आ त्रण कर्मोनो नाश थई जतां बाकीनां कर्मोनो नाश अवश्यंभावी छ / आ प्रकारे एनो नाश करवाथी अरिहंत संज्ञा प्राप्त थाय छे / 20 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 176 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत रहस्याभावाद् वा अरिहन्ता / रहस्यमन्तरायः तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता / अतिशयपूजाहत्वाद् वाऽर्हन्तः / स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामहत्वाद् योग्यत्वादहन्तः / 5 आविर्भूतानन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य-विरति-क्षायिकसम्यक्त्वदान-लाभ-भोगोपभोगाद्यनन्तगुणत्वादिहैवात्मसात्कृतसिद्धस्वरूपाः स्फटिकमणिमहीधरगर्भोद्भूतादित्यबिम्बवद् देदीप्यमानाः स्वशरीरपरिमाणा अपि ज्ञानेन व्याप्त विश्वरूपाः स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वतः प्राप्त विश्वरूपाः निर्गताशेषामयत्वतो निरामयाः विगताशेषपापाञ्जनपुञ्जत्वेन निरञ्जनाः दोषकलातीतत्वतो निष्कलाः / तेभ्योर्हढ्यो नमः, इति यावत् / णिद्दद्धमोहतरुणो वित्थिण्णाणाणसायरुत्तिण्णा / णिहयणियविग्धवम्गा बहुबाहविणिग्गया अयला // 23 // दलियमयणप्पयावा तिकालविसएहि तीहि णयणेहि / दिट्ठसयलट्ठसारा सुदद्धतिउरा मुणिव्वइणो // 24 // अथवा 'रहस्य'ना अभावथी पण अरिहंत संज्ञा प्राप्त थाय छे / रहस्य एटले अंतराय कर्म / 15 अंतरायकर्मनो नाश बाकीनां त्रण घाती कर्मोना नाशनो अविनाभावी छे, अने अंतरायकर्मनो नाश थतां अघाती कर्मो भ्रष्ट बीजनी मादक शक्तिहीन बनी जाय छे / एवा अंतराय कर्मना नाशथी अरिहंत संज्ञा प्राप्त थाय छ। _____ अथवा सातिशय पूजाने योग्य होवाथी अर्हन् संज्ञा प्राप्त थाय छे / केमके; गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल अने निर्वाण-आ पांच कल्याणकोमां देवोए करेली पूजाओ देव, असुर अने 20 मनुष्योने प्राप्त थयेली पूजाओथी अधिक अर्थात् महान छ। आथी अतिशयोने योग्य होवाथी अर्हन् संज्ञा समजवी जोईए। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, अनंत विरति, क्षायिक सम्यकत्व, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ. क्षायिक भोग. अने क्षायिक उपभोग आदि प्रगट थतां अनंत गुण खरूप होवाथी जेमणे अहीं सिद्धस्वरूप प्राप्त करी लीधुं छे, स्फटिक मणिना पर्वतनी वच्चेथी 25 नीकळता सूर्यबिंब समान जे देदीप्यमान थई रह्यां छे, पोताना शरीर प्रमाण होवा छताये जेमणे पोताना ज्ञान द्वारा संपूर्ण विश्वने व्याप्त करी लीधुं छे, पोताना (ज्ञान )मां ज संपूर्ण प्रमेय रहेवाना कारणे (प्रतिभासित होवाथी ) जे विश्वरूपताने प्राप्त करी गया छे; संपूर्ण आमय अर्थात् रोगो दूर थई जवाथी जे निरामय छे, संपूर्ण पापरूपी अंजननो समूह नष्ट थई जवाथी जे निरंजन छे, अने दोषोनी कलाओ अर्थात् संपूर्ण दोषोथी रहित होवाना कारणे जे निष्कल छे एवा ए 30 अरिहंतोने नमस्कार थाओ। - जेमणे मोहरूपी वृक्षने बाळी नाख्युं छे, जे विस्तीर्ण अज्ञानरूपी समुद्रमांथी तरी गया छे, जेमणे पोताना विनोनो समूह नाश करी नाख्यो छे, जे अनेक प्रकारनी बाधाओथी रहित छे, जे अचल छे, जेमणे कामदेवना प्रतापने दलित करी नाख्यो छे, जेमणे त्रण काळने Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / तिरयणतिसूलधारिय मोहंधासुरकबंधविंदहरा / सिद्धसयलप्परूवा अरहंता दुण्णयकयंता // 25 // 'णमो सिद्धाणं' सिद्धाः निष्ठिताः कृतकृत्याः सिद्धसाध्याः नष्टाष्टकर्माणः / सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टाष्टकर्माणः सिद्धाः नष्टघातिकर्माणोऽर्हन्त इति तयोर्भेदः / नष्टेषु घातिकर्मखाविभूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेद इति चेन्न, अघातिकर्मोदयसत्त्वोपलम्भात् / तानि शुक्ल- 5 ध्यानाग्निनाऽर्धदग्धत्वात् सन्त्यपि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिण्डनिपाताभावान्यथानुपपत्तितः आयुविषय करवारूप त्रण नेत्रोथी सकल पदार्थोनो सार जोई लीधो छे, जेमणे त्रिपुर अर्थात् मोह, राग अने द्वेषने सारी रीते भस्म करी नाख्यां छे, जे मुनिव्रत अर्थात् दिगंबर अथवा मुनिओना पति अर्थात् ईश्वर छे, जेमणे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र-आ त्रण रत्नरूपी त्रिशूलने धारण करीने मोहरूपी अंधकासुरना कबंधवृंदने हरण कर्यु छे, जेमणे संपूर्ण आत्मस्वरूपने प्राप्त करी 10 लीधुं छे, अने जेमणे दुर्नयनो अंत आण्यो छे एवा अरिहंत परमेष्ठी होय छे / 23,24,25 / विशेषार्थ-शैवमतमां महादेवने कामदेवनो नाश करनार, पोताना त्रण नेत्रोथी सकल पदार्थना सारने जाणनार, त्रिपुरनो ध्वंस करनार, मुनिव्रती एटले दिगंबर, त्रिशूलने धारण करनार अने अंधकासुरना कबंधवृंदने हरण करनार मानवामां आवे छे / महादेवनां आ विशेषणोने ध्यानमां राखीने ऊपरनी बे गाथाओनी रचना थयेली छे, जेथी ए प्रगट थाय छे के अरिहंत परमेष्ठी ज 15 साचा महादेव छ। णमो सिद्धाणं' अर्थात् सिद्धोने नमस्कार थाओ। जे निष्ठित अर्थात् पूर्णतः पोताना स्वरूपमा स्थित छे, कृतकृत्य छे, जेमणे पोतानुं साध्य सिद्ध करी लीधुं छे अने जेमनां ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो नष्ट थई चूक्यां छे तेने 'सिद्ध' कहे छे।। शंका-सिद्ध सने अरिहंतोमा शो भेद छे ? समाधान-आठ कर्मोने नष्ट करनारा सिद्ध कहेवाय छे अने चार घाती कर्मोनो नाश करनार अरिहंत कहेवाय छे / ए बेमां आ ज भेद छ / शंका–चार घाती कर्मो नष्ट थई जतां अरिहंतोना आत्माना समस्त गुणो प्रगट थई जाय छे / एटला माटे सिद्ध अने अरिहंत परमेष्ठीमां गुणकृत भेद नथी होता ? ___ समाधान-एम नथी। केमके, अरिहंतना अघाती कर्मोनो उदय अने सत्त्व बने देखाय छे। 35. आथी आ बंने परमेष्ठीओमां गुणकृत भेद पण छे / . शंका-ते अघाती कर्मो शुक्ल ध्यानरूप अग्निद्वारा अर्धदग्ध जेवां थई जवाथी उदय अने सत्त्वरूप विद्यमान रहेवा छतां पोतानुं कार्य करवामां समर्थ नथी ? समाधान-एवं पण नथी / केमके, शरीरना पतननो अभाव अन्यथा सिद्ध थतो नथी। एटला माटे अरिहंतोनुं आयुष्य वगेरे बाकीनां कर्मोनो उदय अने सत्त्वनी सिद्धि थई जाय छे / 30 अर्थात् जो आयुष्य वगेरे कर्मों पोतानां कार्यमां असमर्थ मानवामां आवे तो शरीरनुं पतन थई जq जोईएं, परंतु शरीरनु पतन तो थतुं नथी। एटला माटे आयुष्य आदि बाकीनां कर्मोनुं कार्य करवू ए सिद्ध छ। .23 20 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत प्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः / तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जाति-जरा-मरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्वात् तेषामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतभेद इति चेन्न, आयुष्य-वेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् / नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसङ्गात् / सुखमपि न गुणस्तत एव / न 5 वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् / किन्तु सलेप-निर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् / तेभ्यः सिद्धेभ्यो नम इति यावत् / / णिहयविविहट्ठकम्मा तिहुयणसिरसेहरा विहुवदुक्खा। सुहसायरमज्झगया णिरंजणा णिच अट्ठगुणा // 26 // अणवज्जा कयकज्जा सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा। वज्जसिलत्थब्भग्गय पडिमं वाभेजसंठाणा // 27 // शंकाकर्मोनुं कार्य तो चोराशी लाख योनिरूप जन्म, जरा अने मरणथी युक्त संसार छ / ते अघाती कर्मो रहेवा छतां अरिहंत परमेष्ठीमां ए जोवातां नथी, तथा अघाती कर्मो आत्माना अनुजीवी गुणोने घात करवामां असमर्थ पण छे / एटला माटे अरिहंत अने सिद्ध परमेष्ठीमां गुणकृत भेद मानवो ठीक नथी। 15 समाधान-एवं नथी / केमके, जीवना ऊर्ध्वगमन स्वभावतुं प्रतिबंधक आयुकर्मनो उदय अने सुख गुणतुं प्रतिबंधक वेदनीय कर्मनो उदय अरिहंतोमा जोवाय छे। एटला माटे अरिहंत अने सिद्धमा गुणकृत भेद मानवो ज जोईए / शंका-ऊर्ध्वगमन ए आत्मानो गुण नथी / केमके, तेने आत्मानो गुण मानी लेतां तेना अभावमां आत्मानो पण अभाव मानवो पडशे / आ कारणे सुख पण आत्मानो गुण नथी / बीजें 20 वेदनीय कर्मनो उदय केवलीमां दुःखने पण उत्पन्न करतो नथी / अन्यथा, अर्थात् वेदनीय कर्मने दुःखोत्पादक मानी लेतां केवली भगवान- केवलीपणुं ज बनी शकतुं नथी। समाधान—जो एम होय तो हो, अर्थात् अरिहंत अने सिद्धोमां गुणकृत भेद सिद्ध थतो नथी तो भले, केमके ए न्यायसंगत छ / आम छतां सलेपत्व अने निर्लेपत्वनी अपेक्षाए अने देशभेदनी अपेक्षाए ए बंने परमेष्ठीओमां भेद सिद्ध थाय छ / 28 विशेषार्थ-अरिहंत अने सिद्धोमां अनुजीवी गुणोनी अपेक्षाए तो कोई भेद नथी / आम छतां प्रतिजीवी गुणोनी अपेक्षाए मानी शकाय, परंतु प्रतिजीवी गुणो आत्माना भावस्वरूप धर्मो न होवाथी तत्कृत भेदनी कोई मुख्यता नथी / एटला माटे सलेपत्व अने निर्लेपत्वनी अपेक्षाए अथवा देशभेदनी अपेक्षाए ज आ बनेमां भेद समजवो जोईए। ऊपर जे अर्ध्वगमन अने सुख आत्माना गुणो नथी ए प्रकारे कथन करेलुं छे त्यांये आ बंने गुणोनुं तात्पर्य प्रतिजीवी गुणोथी छे / ऊर्ध्व30गमनथी अवगाहनत्व अने सुखथी अव्याबाध गुणने ग्रहण करवा जोईए / केमके, ग्रंथांतरोमां आयु अने वेदनीयना अभावथी थनारा जे गुणोने अवगाहन अने अव्याबाध कह्या छे तेने ज अहीं ऊर्ध्वगमन अने सुखना नामथी प्रतिपादन करेला छे / एवा सिद्धोने नमस्कार थाओ। जेमणे विविध भेदरूप आठ कर्मोनो नाश कर्यो छे, जे त्रण लोकना मस्तकना शेखर समान छे, दुःखोथी रहित छे, सुखरूपी सागरमां निमग्न छे, निरंजन छे, नित्य छे, आठ गुणोथी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 179 10 माणुससंठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा / सव्विदियाण विसयं जमेगदेसे विजाणंति // 28 // 'णमो आइरियाणं' पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः / आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसमय-परसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहि क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः / पवयणजलहिजलोयरण्हायामलबुद्धिसुद्धछावासो। मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वजो // 29 // देस-कुल-जाइसुद्धो, सोमंगो संगभंगउम्मुक्को / गयण व्व णिरुवलेवो, आइरियो एरिसो होई // 30 // संगह-णिग्गहकुसलो, सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती / सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आइरियो // 31 // एवंविधेभ्य आचार्येभ्यो नम इति यावत् // युक्त छे, अनवद्य अर्थात् निर्दोष छे, कृतकृत्य छे, जमणे सर्वांगे अथवा समस्त पर्यायो सहित संपूर्ण पदार्थोने जाणी लीधा छे, जे पुरुषाकार होवा छतांये गुणोथी पुरुषोनी समान नथी / केमके, पुरुष संपूर्ण इंद्रियोना विषयोने भिन्न भिन्न देशमा जाणे छे परंतु जे प्रत्येक प्रदेशमां बधा विषयोने 15 जाणे छे ते सिद्ध छ / 26,27,28 / णमो आइरियाणं' आचार्य परमेष्ठीने नमस्कार थाओ / जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप अने वीर्य आ पांच आचारोनुं स्वयं आचरण करे छे अने बीजा साधुओ पासे आचरण करावे छे तेमने 'आचार्य' कहे छे / जे चौद विद्यास्थानोमां पारंगत होय, अगियार अंगने धारण करता होय, अथवा आचारांग मात्रना धारण करनारा होय, अथवा तत्कालीन स्वसमय अने परसमयमां पारंगत 20 होय, मेरु समान निश्चल होय, पृथ्वी समान सहनशील होय, जेमणे समुद्र समान मल अर्थात दोषोने बहार फेंकी दीधा होय अने जे सात प्रकारना भयथी रहित होय तेमने 'आचार्य' कहे छ / प्रवचनरूपी समुद्रना जलनी मध्यमां स्नान करवाथी अर्थात् परमागमना परिपूर्ण अभ्यास अने अनुभवथी जेमनी बुद्धि निर्मळ थई गई छे, जे निर्दोष रीतिए छ आवश्यकोर्नु पालन करे छे, जे मेरुपर्वतनी जेम निष्कंप छे, जे शूरवीर छे, जे सिंहनी समान निर्भीक छ, जे वर्य अर्थात् 25 श्रेष्ठ छे / देश, कुळ अने जातिथी शुद्ध छे, सौम्य मूर्ति छे, अंतरंग अने बहिरंग परिग्रहथी रहित छे, आकाशनी समान निर्लेप छे एवा आचार्य परमेष्ठी होय छे / जे संघना संग्रह अर्थात् दीक्षा अने निग्रह अर्थात् शिक्षा अथवा प्रायश्चित्त देवामां कुशल छे, जे सूत्र अर्थात् परमागमना अर्थमां विशारद छे, जेनी कीर्ति बधी जगाए फलायेली छे, जे सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात निषेध अने साधन अर्थात् व्रतोनी रक्षा करनारी क्रियाओमां निरंतर उद्युक्त छे तेमने आचार्य 30 परमेष्ठी समजवा जोईए / 29, 30, 31 / . एवा आचार्योने नमस्कार थाओ। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत णमो उवज्झायाणं चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः / ___ चोदसपुव्वमहोयहिमहिगम्म सिवत्थिओ सिवत्थीणं / सीलंधराण वत्ता, होइ मुणीसो उवज्झायो॥ 32 // एतेभ्य उपाध्यायेभ्यो नम इति यावत् // 'णमो लोए सव्वसाहूणं' अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः / पञ्चमहाव्रतधरात्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधवः / सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरुवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परमपयविमग्गया साहू // 33 // 10 सकलकर्मभूमीपूत्पन्नेभ्यस्त्रिकालगोचरेभ्यः साधुभ्यो नमः // सर्वनमस्कारेष्वत्रतन सर्व-लोक' शब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचराहदादिदेवताप्रणमनार्थम् / 'णमो उवज्झायाणं' उपाध्याय परमेष्ठीने नमस्कार थाओ। चौद विद्यास्थाननुं व्याख्यान करनार 'उपाध्याय' होय छे / अथवा तत्कालीन परमागमनुं व्याख्यान करनार उपाध्याय होय छे / तेओ संग्रह, 15 अनुग्रह वगेरे गुणोने छोडीने पहेलां कहेवामां आवेला आचार्यना समस्त गुणोथी युक्त होय छे / जे साधु चौदपूर्वरूपी समुद्रमा प्रवेश करीने अर्थात् परमागमनो अभ्यास करीने मोक्षमार्गमां स्थित छे तथा मोक्षना इच्छुक शीलंधरो अर्थात् मुनिओने उपदेश दे छे ए मुनीश्वरोने उपाध्याय परमेष्ठी कहे छ / 32 / एवा उपाध्यायोने नमस्कार थाओ। 20 णमो लोए सव्वसाहूणं' लोक अर्थात् अढीद्वीप, तेमां रहेला सर्व साधुओने नमस्कार थाओ। जे अनंत ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्माना स्वरूपनी साधना करे छे तेने 'साधु' कहे छे / जे पांच महाव्रतोने धारण करे छे, त्रण गुप्तिओथी सुरक्षित छे, अढार हजार शीलना भेदोने धारण करे छे अने चोराशी लाख उत्तर गुणोनुं पालन करे छे ते साधु परमेष्ठी छे।। ___ सिंह समान पराक्रमी, हाथी समान स्वाभिमानी अथवा उन्नत, बळद समान भद्रप्रकृति, 25 मृग समान सरळ, पशु समान निरीह गोचरीवृत्ति करनारा, पवन समान निःसंग अथवा बधी जगोए रोकाया विना विचरनारा, सूर्यसमान तेजस्वी अथवा सकल तत्त्वोना प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर समान गंभीर, मंदराचल अर्थात् सुमेरु पर्वत समान परीषह अने उपसर्गो आववा छतां अकंप अने अडोल रहेनारा, चंद्रमा समान शांतिदायक, मणि समान प्रभापुंज युक्त, पृथ्वी समान बधा प्रकारनी बाधाओने सहन करनार, उरग अर्थात् सर्प समान बीजाए बनावेला अनि30 यत आश्रय-वसतिका आदिमां निवास करनार, अंबर अर्थात् आकाश समान निरालंबी अथवा निर्लेप अने सदाकाळ परमपद अर्थात् मोक्षतुं अन्वेषण करनारा साधु होय छे / 33 / एवा संपूर्ण कर्मभूमिओमां उत्पन्न थयेला त्रिकालवर्ती साधुओने नमस्कार थाओ। पांच परमेष्टीओने नमस्कार करवामां, आ नमोकारमंत्रमा जे 'सर्व' अने 'लोक' पदो छे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 181 युक्तः प्राप्तात्मस्वरूपाणामहतां सिद्धानां च नमस्कारः, नाचार्यादीनामप्राप्तात्मस्वरूपत्वतस्तेषां देवत्वाभावादिति न, देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेद भिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः, अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः / तत आचार्यादयोऽपि देवाः रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् / नाचार्यादिस्थितरत्नानां सिद्धस्थरत्नेभ्यो भेदो रत्नानामाचार्यादिस्थितानामभावापत्तेः / न कारण-कार्यत्वाद् भेदः सत्स्वेवाचार्यादिस्थरत्नावयवेष्वन्यस्य तिरोहितस्य रत्नाभोगस्य स्वावरणविगमत आविर्भावो- 5 पलम्भात् / न परोक्षापरोक्षकृतो भेदो वस्तुपरिच्छित्तिं प्रत्येकत्वात् / नैकस्य ज्ञानस्यावस्थाभेदतो ते अंतदीपक छे, आथी संपूर्ण क्षेत्रमा रहेनारा त्रिकाळवर्ती अरिहंत वगेरे देवताओने नमस्कार करवा माटे, ते प्रत्येक नमस्कारात्मक पदनी साथे जोडी देवां जोईए। ___ शंका जेमणे आत्मस्वरूपने प्राप्त करी लीधुं छे एवा अरिहंत अने सिद्ध परमेष्ठीने नमस्कार करवो योग्य छे, परंतु आचार्य आदि त्रण परमेष्ठीओए आत्मस्वरूपने प्राप्त कयु नथी, एटला 10 माटे तेमनामां देवपणुं आवी शकतुं नथी, आथी एमने नमस्कार करवो योग्य नथी। समाधानएम नथी। केमके, पोतपोताना भेदोथी अनंत भेदरूप रत्नत्रय ज देव छ। आथी रत्नत्रयथी युक्त जीव पण देव छे, अन्यथा (जो रत्नत्रयनी अपेक्षाए देवपणुं मानवामां न आवे तो) संपूर्ण जीवोने देवपणुं प्राप्त थवानी आपत्ति आवशे; एटला माटे ए सिद्ध थयुं के, आचार्य वगेरे पण रत्नत्रयना यथायोग्य धारक होवाथी देव छ। केमके, अरिहंत आदिथी आचार्य 15 आदिमां रत्नत्रयना सद्भावनी अपेक्षाए कोई अंतर नथी / अर्थात् जेम अरिहंत अने सिद्धोनां रत्नत्रय जोवाय छे एज रीते आचार्य वगेरेमां पण रत्नत्रयनो सद्भाव जोवाय छे, आथी आंशिक रत्नत्रयनी अपेक्षाए आमां पण देवपणुं सिद्धि थाय छे। ____ आचार्य आदि परमेष्ठीओमां स्थित त्रण रत्नोनो, सिद्ध परमेष्ठीमां स्थित रत्नोनी साथे भेद पण नथी / जो बनेना रत्नत्रयमां सर्वथा भेद मानी लेवामां आवे तो आचार्य आदिमां स्थित रत्नोना 20 अभावमो प्रसंग आवशे; अर्थात् ज्यारे आचार्य वगेरेनां रत्नत्रय सिद्ध परमात्माना रत्नत्रयथी भिन्न सिद्ध थशे तो आचार्य वगेरेनां रत्न ज नहीं कहेवाय / आचार्य आदि अने सिद्ध परमेष्ठीनां सम्यग्दर्शन वगेरे रत्नोमां कारण-कार्य भेदथी पण भेद मानी शकाय एम नथी। केमके, आचार्य आदिमां स्थित रत्नोना अवयवो रहेवा छतांये तिरोहित अर्थात् कर्मपटलोना कारणे पर्यायरूपे अप्रगट, बीजु-रत्नावयवोनो पोताना आवरण कर्मोनो 25 अभाव थई जवाथी अविर्भाव थतो जोवाय छे; अर्थात् एम जेम जेम कर्मपटलोनो अभाव थई जाय छे तेम तेम अप्रगट रत्नोना बाकीना अवयवो पोतानी मेळे ज प्रगट थई जाय छे, आथी तेमां कार्य-कारणपणुं पण बनी शकतुं नथी। आ प्रकारे आचार्य आदिना अने सिद्धोना रत्नोमां परोक्ष अने प्रत्यक्षजन्य भेद पण मानी शकातो नथी। केमके, वस्तुना ज्ञानसामान्यनी अपेक्षाए बने एक छे। केवल एक ज्ञानना अवस्थाभेदथी भेद मानी शकातो नथी। जो ज्ञानमां उपाधिकृत अवस्थाभेदथी 30 भेद मानवामां आवे तो निर्मळ अने मलिन दशाने प्राप्त दर्पणमां पण भेद मानवो पडशे। आ प्रकारे आचार्य वगेरेना अने सिद्धोना रत्नोमां अवयव अने अवयविजन्य भेद नथी / केमके, अवयवो अवयवीथी सर्वथा भिन्न रहेता नथी / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 षट्खण्डागमस्य संदर्भ। [प्राकृतं भेदो निर्मलानिर्मलावस्थावस्थितदर्पणस्यापि भेदापत्तेः / नावयवावयविकृतो भेदः अवयवस्यावयविनोऽव्यतिरेकात् / संपूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्तेः / न चाचार्यादिस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकर्तृणि रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भात् / तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम्।। 5 विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कारः क्रियत इति चेन्नैष दोषः, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात् / असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत् प्रसादादित्युपकारापेक्षया वाऽऽदावर्हन्नमस्कारः क्रियते / न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः शंका-संपूर्ण रत्नो अर्थात् पूर्णताने प्राप्त रत्नत्रयने ज देव मानी शकाय छे / रत्नोना एक देशने देव मानी न शकाय / 10 समाधान–एम कहेवू पण उचित नथी / रत्नोना एक देशमां देवपणानो अभाव मानी लेतां रत्नोनी समग्रतामां पण देवपणुं बनी शकतुं नथी / अर्थात् जे कार्य जेना एक देशमा जोवातुं नथी ते तेनी समप्रतामा क्याथी आवी शके ? शंका आचार्य वगेरेमां स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मोनो क्षय करवामां समर्थ थई शकतां नथी / केमके, तेमनां रत्न एकदेशीय छ / 15 समाधान-एम कहेवु ठीक नथीं। केमके, जे प्रकारे पलालराशिना दाहरूप अग्नि समूहनुं कार्य अग्निना एक कणथी पण जोई शकाय छे ए ज प्रकारे अहीं पण समजवू जोईए / एटला माटे आचार्य आदि पण देव छे, ए वात निश्चित थई जाय छे।। शंका-सर्व प्रकारना कर्मलेपथी रहित सिद्ध परमेष्ठी विद्यमान रहेता अघाती कर्मोना लेपथी युक्त अरिहंतोने आदिमां नमस्कार शा माटे करवामां आवे छे ? 20 समाधान-एमां कई दोष नथी। केमके, सौथी अधिक गुणवाळा सिद्धोमां श्रद्धानी अधिकताना कारणे अरिहंत परमेष्ठी ज छ। अर्थात् अरिहंत परमेष्ठीना निमित्तथी ज अधिक गुणवाळा सिद्धोमां सौथी वधारे श्रद्धा उत्पन्न थाय छे, अथवा जो अरिहंत परमेष्ठी न होत तो आपणने आप्त, आगम अने पदार्थ- परिज्ञान थई शकत नहीं, परंतु अरिहंत परमेष्ठीना प्रसादथी आपणने आ बोधनी प्राप्ति थई छे / एटला माटे उपकारनी अपेक्षाथी पण आदिमां अरिहंतोने 25 नमस्कार करवामां आवे छे। जो कोई कहे के, आ प्रकारे आदिमां अरिहंतोने नमस्कार करवो ए तो पक्षपात छे / त्यारे एनी सामे आचार्य उत्तर आपे छे के, एवो पक्षपात दोषनो उत्पादक नथी। परंतु शुभ पक्षमा रहेवाथी ते कल्याणर्नु ज कारण छ / तथा द्वैतने गौण करीने अद्वैतनी प्रधानताथी करायेला नमस्कारमा द्वैतमूलक पक्षपात बनीये शकतो नथी / 30 विशेषार्थ-पक्षपात तो त्यां ज संभवे छे ज्यां बे वस्तुओमांथी एकनी तरफ अधिक आकर्षण होय छे, परंतु अहीं परमेष्ठीओने नमस्कार करवामां दृष्टि प्रधानतया गुणोनी तरफ रहे छ / वस्तुभेदनी प्रधानता नथी / एटला माटे अहीं कोई प्रकारे पक्षपातनो संभव नथीं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 183 श्रेयोहेतुत्वात् / अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च / अप्राप्तश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापनार्थं वाऽर्हतामादौ नमस्कारः / उक्तं च जस्संतियं धम्मवहं णिगच्छे तस्संतियं वेणइयं पउंजे / सक्कारए तं सिरपंचएण कायेण वाया मणसा वि णिचं // 34 // मंगलस्स कारणं गयं / / आप्तनी श्रद्धाथी आप्त, आगम अने पदार्थोना विषयमा दृढ श्रद्धा उत्पन्न थाय छ / आ वात प्रसिद्ध करवाने माटे पण आदिमां अरिहंतोने नमस्कार करवामां आव्यो छे / कां पण छे के जेनी समीपे धर्मज्ञान प्राप्त करे तेनी समीपे विनययुक्त थईने प्रवृत्ति करवी जोईए / तथा तेमनो शिरपंचक अर्थात् मस्तक, बे हाथ अने बे जांघ आ पंचांगोथी तथा काय, वचन अने मनथी निरंतर सत्कार करवो जोईए। आ रीते मंगलना कारणनु वर्णन समाप्त थयुं / (पखंडागमसूत्र-परिचय) ___10 आ 'षड्खंडागम' सूत्र दिगंबर जैन संप्रदायनो बहुमान्य ग्रंथ छे। तेनां मूळ सूत्रो दिगंबराचार्य श्रीपुष्पदंत अने भूतबलि आचार्योए प्राकृतमां रच्यां छे अने तेना उपर दिगंबराचार्य श्रीवीरसेनाचार्य संस्कृतमा टीका लखी छे / आ ग्रंथ 16 भागोमां विभाजित छे अने 15 हिंदी अनुवाद साथे प्रकाशित थयो छे / (प्रकाशकः श्रीमंत शेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय, जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती ( बरार)। संपादक महाशये तेना कर्ताओ अने तेना विषयनिरूपण संबंधे विस्तृत प्रस्तावना लखी छे एटले ए संबंधे अहीं विस्तार करवो योग्य नथी / आ सूत्रमा नमस्कारमंत्रना पांच पदो उपर अने मंगल विषयक सारी माहिती आपवामां आवी छे / ए संदर्भ आपणा विषयने उपयोगी होवाथी अहीं लेवामां आव्यो छे। तेनो गुजराती 20 भाषामा अनुवाद पण साथे आप्यो छे / जलस PARSHURadi डायरेक्टर जनरल ऑफ आयोलोजी इन इंडियाना सौजन्यथी। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] अर हं त ण मो का रा व लिया। अर्हन्ननमस्कारावलिका। (श्रीअर्हतोऽष्टोत्तरशतगुणवर्णनम् / ) // 0 श्रीवीतरागः // नमो चउदसमहास(सु)मिणसंसूइय अवयारकारगाणं अरिहंताणं // 1 // नमो गब्भट्ठियतियनाणसंजुत्ताणं अरिहंताणं // 2 // नमो गब्भट्ठियचउसहिदेविंदसंथुआणं अरिहंताणं // 3 // नमो गब्भट्ठियमहाजोगब्भासीणं अरिहंताणं // 4 // नमो तेल्लोक्कदिवायरजम्मोदयसंपत्ताणं अरिहंताणं // 5 // नमो सव्वजीवसुहदायगजम्मकल्लाणगसंपत्ताणं अरिहंताणं // 6 // नमो छप्पनदिसाकुमारिकयसुइकम्माणं अरिहंताणं // 7 // नमो देविंदकरसंप(पु)डसंठिआणं अरिहंताणं // 8 // नमो मेरुमत्थयठिअसिंहासणसंनिविट्ठाणं अरिहंताणं // 9 // नमो सव्वसुरासुरकयकुस(सु)मंजलिए संपूइआणं अरिहंताणं // 10 // अनुवाद / चौद महास्वप्नोथी सूचित अवतारने प्राप्त करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 1 / गर्भमां ज त्रण ज्ञानथी युक्त एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ / 2 / गर्भमा रहेतां ज चोसठ देवेन्द्रोथी स्तुति करायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ / 3 / गर्भमां ज महायोगना अभ्यासी एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 4 / जन्मथी त्रण लोकमां सूर्य समान उदय पामनारा एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 5 / समग्र जीबोने सुखदायक एवां जन्म कल्याणकने प्राप्त करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 6 / छप्पन दिशाकुमारीओए जेमनुं शुद्धि( सूतिका )कर्म कर्यु छे एवा अरिहंत भगवंतोने 25 नमस्कार थाओ। 7 / देवेन्द्रोना हस्तसंपुटमा रहेला एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 8 / मेरुपर्वतना शिखरमा रहेला सिंहासन उपर बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 9 / समग्र देवताओ अने असुरोए करेली कुसुमांजलिथी सारी रीते पूजायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ। 10 / 20 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय / नमो अट्ठसहसचउसद्विपुण्णकलसखीरोदहिन्हविआणं अरिहंताणं // 11 // नमो वरपडहभेरिझल्लरिदेवदुंदुहिनिनायपुव्वपूईआणं अरिहंताणं // 12 // नमो मघमघंतवरगोसीसचंदणचच्चियाणं अरिहंताणं // 13 // नमो जलथलयदिव्वकुसुममहामल्लालइअकंठाणं अरिहंताणं // 14 // नमो पवरहारद्धहार-कडय-कुंडल-मुउडमंडिआणं अरिहंताणं // 15 // नमो वरवेणुवीणामुयंगतालघुघरघुमघुमिअकयनट्टविहीए संपूइआणं अरिहंताणं // 16 // नमो जयजयसद्दसमुच्चरिअसुरसमूहेण मायाभवणसमागयाणं अरिहंताणं // 17 // नमो सक्कसंठवियअंगुठामयआहारकारगाणं अरिहंताणं // 18 // नमो चम्मचक्खूणमदंसिअकयाहार-नीहाराणं अरिहंताणं // 19 // नमो सेअमलरागेवञ्जिअसुहसि(स)रीरसंपत्ताणं अरिहंताणं // 20 // 5 क्षीरोदधि एटले दूधना समुद्रमाथी भरेला एवा आठ हजार ने चोसठ कळशोथी जेनु स्नपन करवामां आव्यु हतुं एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 11 // श्रेष्ठ पटह-ढोल, भेरी-वाद्यविशेष, झालर अने देवदुंदुभिना अवाजथी पूर्वे पूजायेला एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 12 // मघमघायमान श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदनथी जेमनुं विलेपन करायुं छे एवा अरिहंत भगवंतोने 15 नमस्कार थाओ // 13 // पाणी अने पृथ्वी उपरनां दिव्य पुष्पोनी मोटी माळाओ जेमना कंठमा पहेरावेली छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 14 // श्रेष्ठ हार, अर्धहार, कडा, कुंडल अने मुकुटथी मंडित अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 15 // श्रेष्ठ वेणु-मोरली, वीणा, मृदंग, ताल अने घूघराओना घुमधुम ध्वनिथी युक्त एवी नृत्यविधिथी 20 / सारी रीते पूजायेला एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१६॥ जय जय शब्दनो उच्चार करता देवताना समूह साथे माताना भवनमां आवेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 17 // ___ अंगूठामां इंद्रे स्थापन करेल अमृतनो आहार करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 18 // चर्मचक्षुथी जोई न शकाय ए रीते आहार अने निहार करनारा अरिहंत भगवंतोने 25 नमस्कार थाओ // 19 // परसेवो, मेल अने रोगथी रहित एवा शुभ शरीरने पामेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 20 // 1 अडस'A / 2 खीरोदधिन्ह°A / 3 नीहारगाणं P / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 अर्हन्नमस्कारापलिका। [प्राकृत नमो गोक्खीरधाराधवलमंसरुहिरधारगाणं अरिहंताणं // 21 // नमो मंदारपार(रि)जायकुसुमसंजणिअसुरहिसासूसासाणं अरिहंताणं // 22 // नमो छत्त-चामर-पडाग-जूव-जवलंछिअकरचरणाणं अरिहंताणं // 23 // नमो अट्ठाहिअसहस्सेणं लक्खणगणेणं संसोहिआणं अरिहंताणं // 24 // नमो देविंदाइट्ठपंचदेवगणाहिं कयधाइकम्माणं अरिहंताणं // 25 // नमो अवरावरसुरकुमारसमं संकीलगाणं अरिहंताणं // 26 // नमो बालत्तणम्मि अबालभावाणं अरिहंताणं // 27 // नमो सव्वकलाविन्नाणसमूहपारसंपत्ताणं अरिहंताणं // 28 // नमो तेलुकच्छरिअकारगरूवजुव्वणगुणसंपत्ताणं अरिहंताणं // 29 // 10 नमो गामायारपरीसहविप्पमुक्कबालबंभयारीणं अरिहंताणं // 30 // नमो गामायारपरीसहअहिआसगविवाहकंकणमंडिआणं अरिहंताणं // 31 // गायना दूधनी धारा जेवा श्वेत मांस अने रुधिरने धारण करना। अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 21 // मंदार अने पारिजातनां पुष्पोथी उत्पन्न थती सुरभि गंध जेवा श्वास अने उच्छ्वास छे जेमना 15 एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 22 // छत्र, चामर, पताका, यूप (स्तंभविशेष) अने जवना लक्षण चिह्नोवाला हाथ अने पग छे जेमना एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 23 // एक हजार आठ लक्षणोना समूहथी सुशोभित एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 24 // इंद्रोनी आज्ञाथी पांच देवांगनाओए कयुं छे धातृपणुं–धाईनें कार्य जेमनुं एवा अरिहंत 20 भगवंतोने नमस्कार थाओ // 25 // - जुदा जुदा देवकुमारोनी साथे क्रीडा करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार- थाओ // 26 // बाळपणमां पण जेमने बाळभाव नथी एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 27 // समग्र कला, विज्ञानना समूहने पार पहोंचेला एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 28 // त्रणे लोकने आश्चर्य करावे एवा रूप अने यौवनना गुणोने प्राप्त थयेला अरिहंत भगवंतोने 25 नमस्कार थाओ // 29 // मैथुन परीषहथी सर्वथा रहित एवा बालब्रह्मचारी अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ (अथवा ग्रामाचार एटले ग्राम-पांच इंद्रियो-नी प्रवृत्तिना परीषह एटले स्वच्छंदताभरी प्रवृत्तिओथी रहित बालब्रह्मचारी एवा....) // 30 // 30 मैथुन परीषहथी बचावनारां विवाहकंकणोथी शोभता एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 31 // 1. लवखणगुणेणं P / 2 देवगणाहिं A1 3 समं कील'AI 4 "गामधम्म” शब्द आचारांग, सूयगडांग वगेरे सूत्रोमां आवे छे, तेनो अर्थ "मैथुन" थाय छ। 5 कोई स्त्री वगेरे आवीने उपसर्ग न करे ते माटे पोते विवाहित छे ए बताववा कंकणो राखेला होय छे / ते काळमां विवाहकंकणोनी प्रथा हती। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 विमाग] नमस्कार स्वाध्याय / नमो पंचविहेसु माणुसभोगेसु अमुच्छिआणं अरिहंताणं // 32 // नमो परमनीइए रजकरणेणं सवपयासुहदायगाणं अरिहंताणं // 33 // नमो विसुद्धसुहज्झवसायभावणासंपत्ताणं अरिहंताणं // 34 // नमो सयमेव परमवेरग्गसंपप्पसयंसंबुद्धाणं अरिहंताणं // 35 // नमो भत्तिभरनमिरलोगतिआमरवंदिआणं अरिहंताणं // 36 // नमो वरवरिआघोसपुव्वं संवच्छरिअदाणदायगाणं अरिहंताणं // 37 // नमो सव्वामरवईहिं कयदिक्खाभिसेआणं अरिहंताणं // 38 // नमो सिबिया-विमाणसंनिविट्ठाणं अरिहंताणं // 39 // नमो असोअ-पुन्नाग-तिलय-चंपयमंडिअर्वणसंडसंपत्ताणं अरिहंताणं // 40 // नमो वजहरसंठविअसीहासणोवरिसंठिआणं अरिहंताणं // 41 // नमो वरकडय-कुंडल-हारद्धहार-मउड-मालाविप्पमुकाणं अरिहंताणं // 42 // 10 मनुष्यना पांच प्रकारना भोगोमां मूर्छा नहि पामता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 32 // उत्कृष्ट नीतिथी राज्य करवाना कारणे सर्व प्रजाने सुख आपता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 33 // विशुद्ध अने शुभ अध्यवसायरूप (अथवा विशुद्ध अने शुभ अध्यवसायथी सहित एवी) भावनाने 15 प्राप्त करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 34 // __पोतानी मेळे ज उत्कृष्ट वैराग्यथी प्राप्त कयुं छे स्वयंसंबुद्धपणुं जेमणे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 35 // * भक्तिना भार वडे नम्र (अथवा भक्तिना संभारपूर्वक नमनशील) एवा लोकांतिक देवोथी वंदायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 36 // 20 ___ वरवरिका एटले इच्छित वस्तुनुं दान लेवा माटे कराती घोषणा, ते घोषणापूर्वक सांवत्सरिक एटले वार्षिक दान आपता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 37 // समग्र इन्द्रोए कर्यो छे दीक्षानो अभिषेक जेमने एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥३८॥ शिबिका (पालखी) स्वरुप विमानमां बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 39 // अशोक, पुन्नाग, तिलक अने चंपानां वृक्षोथी शोभित एवा वनखंड-बनप्रदेशने (दीक्षा माटे)25 संप्राप्त थयेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 40 // वज्रधर-इंद्रे स्थापन करेला सिंहासन उपर बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 41 // श्रेष्ठ एवा कटक, कुंडल, हार, अर्धहार, मुकुट अने माला (वगेरे अलंकारोने दीक्षासमये) छोडता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 42 // १°वणासंड° P / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहन्नमस्कारावलिका। [प्राकृत नमो अंजणघणसरिसाण केसाण पंचमुट्ठिए लोअकारगाणं अरिहंताणं // 43 // नमो लोगग्गमुवगयसव्वसिद्धाणं नमोकारकारगाणं अरिहंताणं // 44 // नमो सव्वसावजपावजोगपञ्चक्खाणकारगाणं अरिहंताणं // 45 // नमो नाण-दसण-चारित्तरयणमालामंडिआणं अरिहंताणं // 46 // नमो विमलविउलमइ-मणपजवनाणसमुप्पन्नाणं अरिहंताणं // 47 // नमो सम(मि)इ-गुत्तिगुणरयणअलंकिआणं अरिहंताणं // 48 // नमो दसविहसमणधम्मस्स संधारगाणं अरिहंताणं // 49 // नमो पुक्खरपत्त व्व निरुवलेवाणं अरिहंताणं // 50 // नमो जीवो व्व अप्पडिघाइविहारवरकारगाणं अरिहंताणं // 51 // 10 नमो आयासु व्व निरासयगुणसंसोहिआणं अरिहंताणं // 52 // - नमो अक्खलियपवर्णगुण ब्व अप्पडिबद्धाणं अरिहंताणं // 53 // ... नमो संगोविअंगोवंगकुम्म व गुतिदिआणं अरिहंताणं // 54 // . अति श्याम अंजन जेवा वाळोनो पांच मूठीओथी लोच करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४३॥ 15 लोकना अग्रभागमां पहोंचेला सर्व सिद्धोने नमस्कार करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४४॥ समग्र प्रकारना सावध पापयोगोनां पच्चक्खाण करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 45 // ज्ञान, दर्शन अने चारित्र स्वरूप रत्ननी मालाथी अलंकृत अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४६॥ निर्मळ विपुलमति मनःपर्यवज्ञान जेमने उत्पन्न थयुं छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४७॥ 20 (पांच) समिति अने (त्रण) गुप्ति रूप गुणरत्नथी अलंकृत अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४८॥ दश प्रकारना श्रमणधर्मने सुंदर रीते धारण करनारा अरिहंत भगवंतोमे नमस्कार थाओ॥४९॥ पुष्कर-पद्मना पत्रती माफक नहीं लेपायेला एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 50 // . जीवनी जेम अप्रतिहत (अस्खलित) श्रेष्ठ एवा विहार करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ / / 51 // 25 आकाशनी जेम निरालंबनता गुणथी शोभता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 52 // अस्खलित एवा वायुना समूहनी जेम अप्रतिबद्ध एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 53 // संगोपित छे अंग अने उपांग जेनां एवा काचबानी माफक गुप्त इन्द्रियोवाळा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 54 // 1. गणु व्व AI 2. पुक्खपत्तं व निरुवलेवे, जीवे इव अप्पडिहयगई, गगणमिव निरालंबणे, वाउब्व अपडिबद्धे, कुम्भो इव गुत्तिदिए, विहग इव विप्पमुक्के, खग्गिविसाणं व एगजाए, भारंडपक्खीव अप्पमत्ते, वसहो इव जायथामे, कुंजरो इव सोंडीरे, सीहो इव दुद्धरिसे, सागरो इव गंभीरे, चंदो इव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए, वसुंधरा इव सव्वफासविसहे सारयसलिलं व सुद्धहियए....... -श्री कल्पसूत्र, व्याख्यान 6. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / नमो विहंगमो व्य विप्पमुक्कगुणसंपत्ताणं अरिहंताणं // 55 // . नमो खग्गिसिंग व्व एगग्गभावमुवगयाणं अरिहंताणं // 56 // f नमो भारंडपक्खि व्य अप्पमत्ताणं अरिहंताणं // 57 // / नमो लक्खणगुणोवेअवरसहु व्व जाइथामाणं अरिहंताणं // 58 // नमो कुंजरो व्व सोंडीरगुणसंजुआणं अरिहंताणं // 59 // नमो पंचाणणु व्व निब्भयाणं अरिहंताणं // 6 // नमो सायरवरो व्व गंभीरियगुणमंडिआणं अरिहंताणं // 61 // नमो संपुण्णसिसि(सस)हरु व्व सोमसहावाणं अरिहंताणं // 62 // नमो गयणमंडणभाणु व्व दित्ततवतेआणं अरिहंताणं // 63 // नमो पुहवी व सव्वंसहगुणसंजुआणं अरिहंताणं // 64 // नमो सारयंबु व्य सच्छमणभावाणं अरिहंताणं // 65 // नमो गामागर-नगर-पट्टणमंडियविसयेसु विहरमाणाणं अरिहंताणं // 66 // नमो बहुपुण्योदयसंजुअभवियजणदारसंपत्ताणं अरिहंताणं // 67 // पंखीनी जेम विप्रमुक्तता (निःसंगता) गुणने पामेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 55 // खड्गी-गेंडाना शींगडानी जेम एकत्वभावने (भावनाने) पामेला (अथवा एकाकीपणे विचरता) 15 अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 56 // भारंड पंखीनी जेम अप्रमत्त एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 57 // लक्षण अने गुणोथी युक्त एवा श्रेष्ठ वृषभनी जेम (स्वीकृत महाव्रतोना भारने वहन करवामां) समर्थ एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥५८॥ हाथीनी जेम शूरतागुणथी युक्त अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 59 // 20 सिंहनी जेम निर्भय एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६०॥ महासागरनी जेम गांभीर्यगुणथी अलंकृत अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६१॥ पूर्णचंद्रनी जेम सौम्य स्वभाववाळा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 62 // आकाशना अलंकार समा सूर्यनी जेम तपना तेजथी देदीप्यमान अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६३॥ 25 पृथ्वीनी जेम बधुंये सहन करवाना गुणथी युक्त एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 64 // शरद ऋतुना पाणीनी जेम स्वच्छ (निर्मळ) मनोभाववाळा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६५॥ गामो, आकरो, नगरो अने पत्तनोथी विभूषित देशोमां विहार करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६६॥ . बहु पुण्योदयवाळा भविक मनुष्योना द्वारने प्राप्त थता (तपस्याना पारणा माटे) एवा अरिहंत 30 भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६७॥ t1 एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठ: A प्रतौ निर्गलितः / 1. जायथा: AI 2. शशधर = चंद्रमा। 3. दिप्ततपरूप तेजवाळा (दिप्ततप ए तपनो एक प्रकार छे)। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हन्नमस्कारावलिका। [प्राकृत नमो बायालीसदोसविरहियाहारगाहगाणं अरिहंताणं // 68 // नमो छट्टट्ठम-दसम-दुवालस-मासद्धमासखवणाइतवकारगाणं अरिहंताणं // 69 // नमो वीरासणगाइअणेगासणसंठिआणं अरिहंताणं // 70 // नमो बावीसपरीसहअहिआसगाणं अरिहंताणं // 71 // नमो बज्झभिंतरपरिग्गहविप्पमुक्काणं अरिहंताणं // 72 // नमो महावणम्मि पडिमापडिवन्नाणं अरिहंताणं // 73 // नमो विसुद्धसुहधम्मसुक्कझाणसंपत्ताणं अरिहंताणं // 74 // नमो खवगसेढीए संपत्ताणं अरिहंताणं // 75 // नमो मोहमहामल्लक्खयकारगाणं अरिहंताणं // 76 // नमो लोआलोअपयासगकेवलनाणसंपत्ताणं अरिहंताणं // 77 // नमो रुप्प-सुवन्न-रयणमयसालतयसंठिआणं अरिहंताणं // 78 // नमो नवसुवन्नकमलेसु पायसंठावगाणं अरिहंताणं // 79 // नमो चउमुहचउसीहासणंसठिआणं अरिहंताणं / / 80 // नमो पंचदसण्हं छत्तरयणसंसोहिआणं अरिहंताणं // 81 // बेतालीस दोषथी रहित आहारने ग्रहण करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 68 // छठ-बे उपवास, अट्ठम-त्रण उपवास, दसम चार उपवास, दुवालस-पांच उपवास, अर्ध मास-पंदर उपवास अने मासक्षपण-महिनाना उपवास वगेरे तप करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 69 // वीरासन वगेरे अनेक आसनमां स्थिर रहेता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७०॥ बावीश परीषहोने सहन करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७१॥ 20 बाह्य अने अभ्यंतर परिग्रहथी रहित एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ / / 72 // मोटा वनमा प्रतिमाओने धारण करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७३॥ विशुद्ध एवा शुभ धर्मध्यान अने शुक्लध्यानने प्राप्त करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 74 / / क्षपक श्रेणिने प्राप्त करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 75 // मोहरूपी महामल्लनो क्षय करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७६ // 25 लोक अने अलोकने प्रकाश करनारा एवा केवळज्ञानने प्राप्त करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 77 // रूपानो, सोनानो अने रत्ननो एम त्रण गढ(समवसरण)मां बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 78 // सुवर्णनां नव कमळोमां पगने स्थापन करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 79 // 30 चार' (दिशाओमां) मुखवाळां चार सिंहासन उपर बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 80 // पंदर छत्ररत्नोथी सारी रीते शोभता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 81 // 1 प्रत्येक दिशामा एक एक मुख। 2 दरेक दिशामा त्रण त्रण अने वच्चे ऊर्ध्व दिशामा त्रण। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 नमस्कार स्वाध्याय। नमो बारसगुणअसोअवरपायवपूईआणं अरिहंताणं // 82 // नमो मणि-कणगविचित्तदंडमयचारुचामरवीईआणं अरिहंताणं // 83 // नमो जाणुप्पमाणभरियपु(प्फ)पयराणं अरिहंताणं // 84 // नमो दिणयरसमतेअधम्मचक्कसंसोहिमअग्गविभागाणं अरिहंताणं // 85 // नमो निम्मलभामंडलमंडिअपिट्ठविभागाणं अरिहंताणं // 86 // नमो देवदुंदुहिनिनायसंसइयतिहुअणरायत्तणपत्ताणं अरिहंताणं // 87 // नमो सुर-नर-तिरिआणं संजणियपडिबोहवाणीगुणसंपत्ताणं अरिहंताणं // 88 // नमो भविअजणकमलपयासगाणं अरिहंताणं // 89 // नमो चउद्दसपुव्वाणं बीयभूयपयतियदाणदायगाणं अरिहंताणं // 9 // नमो चउद्दसपुव्वसुत्तकारगसीसाण गणहरपयसंठावगाणं अरिहंताणं // 91 // 10 नमो सव्वसुरासुरनमू(म)सिअचउव्विहसमणसंघसंठावगाणं अरिहंताणं // 92 // नमो सव्वपाणभूअजीअसत्तकारुण्णभावपत्ताणं अरिहंताणं // 93 // (अर्हत्ना शरीरथी) बारगणा ऊंचा एवा श्रेष्ठ अशोक वृक्ष वडे पूजा करायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 82 // मणि अने सुवर्णथी जडेला नानारंगवाळा (रंगबेरंगी) दंड (हाथा)वाळा सुंदर चामरोथी वींझाता 15 अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 83 // जेमनी आजुबाजु जानुप्रमाण पुष्पसमूह एकत्र थयो छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥८४॥ जेमनी आगळना मागमा सूर्य जेवा तेजवाळु धर्मचक्र शोभे छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 85 // . . जेमनी पाछळनो भाग निर्मळ भामंडळथी शोभित छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 86 // 20 देवदुन्दुभिंना अवाजथी जणावाता त्रिभुवनना राजपणाने प्राप्त थयेला एवा अरिहंत भगवंतोने - नमस्कार थाओ // 87 // देवो, मनुष्यो अने तिर्यंचोने प्रतिबोध करनारी एवी वाणीना गुणोने प्राप्त थयेला छे एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 88 // . भव्य जीव रूप कमलोनो विकास करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 89 // 25 चौद पूर्वोना बीजभूत त्रण पदो (उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा )नुं दान करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 90 // चौद पूर्वोनां सूत्रोने बनावनारा शिष्योने गणधरपदे स्थापन करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 91 // समस्त सुर अने असुरो वडे वंदायेला एवा चतुर्विध श्रमण वगेरे संघनी संस्थापना करनारा 30 अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥९२॥ सर्व प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो प्रत्ये कारुण्यभावने प्राप्त थयेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 93 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 [प्राकृत अर्हन्नमस्कारावलिका। नमो अमरवइ-चक्कहर-वासुदेव-बलभद्दवंदिआणं अरिहंताणं // 94 // नमो अणुत्तरविमाणवासिअमरसंदेहअवहारकारगाणं अरिहंताणं // 95 // नमो सुक्कलेसाए तेरसमगुणठाणसंठिआणं अरिहंताणं // 96 // नमो जीवाजीवाइपयत्थपयासगाणं अरिहंताणं // 97 // नमो परोवयारकरणेणं संपूरिअआउकम्माणं अरिहंताणं // 98 // नमो लोगग्गगमणजुग्गखित्तमुवगयाणं अरिहंताणं // 99 // नमो सिद्धसुहदायगंतिमतवकारगाणं अरिहंताणं // 10 // नमो चउद्दसमगुणठाणठियसेलेसीकरणमुवगयाणं अरिहंताणं // 101 // नमो सव्वसुरासुरविरइयचरमसमवसरणसंठिआणं अरिहंताणं // 102 // नमो अणाइकम्मसंजोगविप्पमुक्काणं अरिहंताणं // 103 // नमो उरालियतेअकम्मणसि(स)रीरपडिमुक्काणं अरिहंताणं॥१०४॥ नमो रागद्दोसजलभरिअसंसारसागरसमुत्तिन्नाणं अरिहंताणं // 105 // इंद्र, चक्रवर्ती, वासुदेव अने बलभद्रथी वंदायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 94 // अनुत्तर विमानवासी देवोना संदेहने दूर करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥९५॥ शुक्ल लेश्यामां तेरमा गुणस्थानके रहेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥९६॥ जीव, अजीव वगेरे पदार्थोना प्रकाशक अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥९७॥ परोपकार करवा वडे आयुष्यकर्मने पूर्ण करनारा एवा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥९८॥ लोकना अग्रभागे जवा योग्य क्षेत्रने प्राप्त करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 99 // सिद्धोनां सुखने आपनारी अंतिम तपस्याने करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 10 // चौदमा गुणस्थानके स्थिर थतां शैलेशीकरणने प्राप्त करता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 101 // समस्त सुर अने असुरोए रचेला छेल्ला समवसरणमां बेठेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१०२॥ अनादि काळना कर्मसंयोगथी सर्वथा मुक्त थयेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१०३॥ औदारिक, तेजस् अने कार्मण शरीरोथी सर्वथा मूकायेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 104 // राग अने द्वेषरूपी जळथी भरेला संसारसागरने सारी रीते तरी गयेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार 25 थाओ॥१०५॥ 20 1 सागरुति AL Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 नमस्कार स्वाध्याय। नमो सरीरतिभागूणघणविरईयजीवपएसाणं अरिहंताणं // 106 // नमो पुव्वज्झाणपओगाओसु धणविमुक्त व्व गइपरिणयाणं अरिहंताणं // 107 // (नमो पुव्वज्झाणपओगाओ उसू धणुविमुक्क व गइपरिणयाणं अरिहंताणं // ') नमो सिवमयलमरूअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं सं[प]त्ताणं अरिहंताणं // 108 // ॥इति नमस्कारावलिका समाप्ता / A प्रतिप्रान्ते-बाई सवीरांपठनार्थम् / साह राजालिखितम् // जीव प्रदेशोने शरीरना त्रीजा भागथी न्यून घनस्वरूपे करनारा अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ // 106 // पूर्वप्रयोगयी धनुष्यमांथी मूकायेल बाणनी सदृश गतिने पामेला सर्व अरिहंतोने नमस्कार 10 थाओ॥१०७॥ शिव-विघ्नोथी रहित, अचल-स्थिर, अरुज्-व्याधि अने वेदनाथी रहित, अनंत-अंत रहित, अक्षय-जेनो कदापि क्षय थतो नथी, अव्याबाध-पीडा रहित, अपुनरावृत्ति-ज्यां गया पछी पार्छ फरवार्नु होतुं नथी तेवा सिद्भिगति नामवाळा स्थानने प्राप्त थयेला अरिहंत भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१०८॥ परिचय आ 'अर्हन्नमस्कारावलिका'नी चार पत्रनी हस्तलिखित प्रति पाटणना श्रीहेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिर डा. नं. 129, प्र. नं. 3826 माथी मळी छे तेमाथी आ पाठ लेवामां आव्यो छे अने आ कृतिनी बीजी प्रति डभोई, श्रीअमरविजयजी जैन ज्ञानभंडार प्रति नं. 481/3024 उपरथी पाठांतरो नोंधवामां आव्यां छ। आना कर्ता विशे कोइ माहिती मळी शकी नथी। कोई महान पूर्वाचार्य श्री अरिहंत परमात्माना विशिष्ट प्रकारना ध्यान माटे आ ग्रंथनी रचना करी 20 होय एम लागे छ / आ रचना ज कही आपे छे के तेना रचयिता बहुश्रुत हता। आ ग्रंथमा श्री अरिहंत परमात्मानी 108 विशिष्ट अवस्थाओगें मूलआगमसदृश भाषामां सुंदर रीते आलेखन. करवामां आव्यु प्रातःकालीन ध्यान माटे आ वर्णन उपयुक्त लागे छे / 1 मूलादर्शगत पाठ अशुद्ध लागवाथी नीचे कौंसमां सुधारेल पाठ अमे दर्शाव्यो छे, आ सुधारो 'आवश्यक नियुक्ति' गा. 957 ना आधारे कर्यो छे अने तेनो अनुवाद पण ते गाथानी हारिभद्री टीकाना आधारे को छे। 25 अथवा आ रीते पण पाठ सुधारी शकायः नमो पुव्वपओगाओ बंधणविमुक्क (एरण्डफलं) व्व गइपरिणयाणं अरिहंताणं / पूर्वप्रयोगथी कोशबंधनथी विमुक्त बनेल एरण्डफलनी जेम कर्मबंधनना अभावथी ऊर्ध्वगतिने पामेला अरिहंत भगवानने नमस्कार थाओ (जुओ-योगशास्त्र प्रकाश 11 श्लो. 60) 2 पूर्वप्रयोग एटले पूर्वबद्ध कर्म छूटी गया पछी पण तेथी आवेलो वेग। जेम कुंभारे लाकडीथी फेरवेलो चाक 30 लाकडी अने हाथ उठावी लीधा पछी पण प्रथम मळेल वेगना प्रमाणमा फर्या करे छे, तेम कर्ममुक्त जीव पण पूर्वकर्मथी / आवेल वेगने लीधे पोताना स्वभाव प्रमाणे ऊर्ध्वगति करे छ / कोश (फीडवा)मां रहेलं एरंड बीजकोश तूटतां ज ऊडीने बहार नकळे छे तेम कर्मबंधन दूर थतां ज जीव ऊर्ध्वगामी बने छ / -जुओ 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय 10, सू. 6 / पं. सुखलालजीकृत विवेचन अथवा सिद्धसेनी टीका / 3 जुओ 'आवश्यकनियुक्ति' गा. 957; हारिभद्रीया टीका / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] सिद्ध ण मोक्का राव लिया सिद्धनमस्कारावलिका। (श्रीसिद्धपरमात्मनोऽष्टोत्तरशतगुणवर्णनम्।) 8000000 . नमो जिणवरिंदपयमणुहविऊण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 1 // नमो सामन्नेणं केवलित्तपय(यं) परिपालिऊण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 2 // नमो तित्थयरस्स तित्थे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 3 // नमो तित्थं विणा जाईसरणाइणा सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 4 // नमो सयंबुद्धभावेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 5 // नमो पत्तेयबुद्धभावेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 6 // नमो बुद्धबोहियभावेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 7 // नमो पुरिसलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 8 // नमो इथिलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 9 // नमो नपुंसकलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 10 // नमो मुणिवरलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 11 // 15 अनुवाद जिनेश्वरनी पदवीनो अनुभव करीने सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१॥ सामान्यकेवलीपणानी पदवीनुं परिपालन करीने सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 2 // 20 तीर्थंकरोना तीर्थमां सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 3 // तीर्थ विना ज जातिस्मरण आदि ज्ञान वडे (प्रतिबोध पामीने) सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 4 // स्वयंबुद्ध भाववडे (प्रतिबोध पामीने) सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥५॥ प्रत्येकबुद्धभावथी (प्रतिबोध पामीने) सिद्धिने वरेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६॥ बुद्धबोधितभावथी (प्रतिबोध पामीने) सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 7 // पुरुषलिंगथी सिद्धिने मेळवनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 8 // स्त्रीलिंगथी सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 9 // नपुंसकलिंगथी सिद्धिने वरेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 10 // . मुनिवरनां लिंग(वेश)थी सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 11 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / नमो अन्नतित्थियलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 12 // नमो गिहत्थलिंगेण सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 13 // नमो एगसमए एगजीवसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 14 // नमो एगसमए अणेगजीवसिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 15 // नमो संप(पु)न्नसुयनाणीसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 16 // नमो परमावि(व)हिनाणी सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 17 // नमो मणपज्जवनाणी सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 18 // नमो आयरियपयट्ठियसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 19 // नमो उवज्झायपयट्ठियसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 20 // नमो अंतगडकेवलिसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 21 // नमो पडिमापडिवन्नसाहुसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 22 // नमो जंघाचारणमुनिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 23 // नमो विजाचारणमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 24 // नमो आमोसहिलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 25 // 20 अन्यतीर्थिकनां लिंगथी सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१२॥ गृहस्थनां लिंगथी सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१३॥ एकसमये एकजीवसिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१४॥ एकसमये अनेकजीवसिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 15 // संपूर्ण श्रुतज्ञानी (श्रुतकेवली) थईने सिद्धिने पामेला एवा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१६॥ परमावधिज्ञानवाळा थईने सिद्धि पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 17 // मनःपर्यवज्ञानी थईने सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१८॥ आचार्यपदमा रहीने सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१९॥ उपाध्यायपदमा रहीने सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२०॥ अंतकृत्केवलीपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२१॥ 25 प्रतिमाने धारण करेल साधुपणे सिद्धिने वरेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 22 // जंघाचारणमुनिपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२३॥ विद्याचारणमुनिपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२४॥ आमौषधिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२५॥ 1 एकला सिद्ध थयेला। 2 अनेकनी साथे सिद्ध थयेला। 30 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत सिद्धनमस्कारावलिका। नमो खेलोसहिलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 26 // नमो जल्लोसहिलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 27 // नमो सव्वोसहिलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 28 // नमो पयाण(णु)सारीमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 29 // नमो संभिन्नसोईमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 30 // नमो कुट्टबुद्धीमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 31 // नमो बीयबुद्धिमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 32 // नमो अक्खीणमहाणसीलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 33 // नमो खीरासवलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 34 // ... 10 खेलौषधिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा एवा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 26 // ___ जल्लौषधिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनार एवा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 27 // सर्वौषधिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 28 // 15 पदानुसारीलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥२९॥ संभिन्नश्रोत्रिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 30 // कोष्टबुद्धिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार 20 थाओ // 31 // बीजबुद्धिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥३२॥ ___ अक्षीणमहानसीलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 33 // 25 क्षीरास्रवलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धि पामनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 34 // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / नमो महुआसवलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 35 // नमो आसीविसलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 36 // नमो दिट्ठीविसलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 37 // नमो आगासगामीमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 38 // नमो विउलमइलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 39 // नमो प(पु)लायलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 40 // नमो चक्कवट्टिमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 41 // नमो बलदेवमुणिवरसिद्धिमुवंगयाणं सव्वसिद्धाणं // 42 // नमो गणहरलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 43 // नमो तेअलेसालद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 44 // 10 मध्वास्रवलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 35 // आशीविषलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 36 // __दृष्टिविषलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार 15 थाओ // 37 // आकाशगामिनीलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 38 // विपुलमतिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 39 // पुलाकलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 40 // चक्रवर्तिलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 41 // बलदेवलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार 25 थाओ // 42 // गणधरलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 43 // तेजोलेश्यालब्धिसंपन्न मुनिपरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 44 // 20 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सिद्धनमस्कारावलिका। [प्राकृत नमो सीअलेसालद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 45 // नमो आहारगलद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 46 // नमो लहुसि(स)रीरकरणमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 47 // नमो तिहुयणवसिकारगमहासद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 48 // नमो तिहुयणईसरियमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 49 // नमो जल व्व प(पु)ढवीमज्झे थल व जलोवरिचंकमणमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 50 // नमो अणुव्व सुह(हु)मसि(स)रीरकरणसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाण॥५१॥ [नमो महसरीरकरणमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 52 // ] नमो इच्छाचारणमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 53 // नमो भूमित्थजोइसियफासकरणमहसिद्धिसंपन्नमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 54 // 1d शीतलेश्यालब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध . भगवंतोने नमस्कार थाओ // 45 // ___आहारकलब्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार 15 थाओ // 46 // ___ *शरीरने नानु बनाववारूप-लघिमामहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 47 // त्रण भुवनने वश करवारूप-वशीकारमहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 48 // 20 त्रण भुवनना औश्चर्यनो अनुभव करवारूप ईशित्वमहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 49 // जलनी जेम पृथ्वीमां अने पाणी पर पृथ्वीनी जेम चालवादिरूप प्राकाम्यमहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥५०॥ अणुनी जेम सूक्ष्म शरीर करवारूप अणिमामहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध 25 भगवंतोने नमस्कार थाओ // 51 // मोटुं शरीर करवारूप महिमामहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 52 // कोईपण पदार्थने इच्छा प्रमाणे वापरवारूप (यत्रकामावसायित्व) इच्छाचारणमहासिद्धिसंपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कारो थाओ // 53 // 30 जमीन उपर ऊभा रहीने ज्योतिष्क मंडल (चंद्र, सूर्य वगेरे) ने स्पर्शी शके एवी प्राप्तिमहासिद्धि संपन्न मुनिवरपणे सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 54 // * जुओ-अभिधानचिंतामणी टीका कां. 2. लो. 16 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। नमो मेरुपय[य] ट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 55 // नमो निसह-नीलपव्वयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 56 // नमो महहिमव-रुप्पिपव्वयाट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 57 // नमो हिमव-सिहरीपब्बयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 58 // [नमो] वेअपव्ययट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 59 // नमो पउमवरवेईयासंठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 60 // नमो गयदंतपव्ययट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 61 // नमो जमगपबयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवग्याणं सव्वसिद्धाणं // 62 // नमो दिग्गयपव्वयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 63 // नमो इसुआरपव्ययट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 64 // नमो वक्खारगिरीसु संठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 65 // नमो वट्टवेयपव्वयसंठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 66 // नमो रिसहकूडपव्वयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 67 // नमो अट्ठावयपव्यय[ट्ठिय] मुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 68 // नमो सम्मेयसिहरपव्वयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 69 // 15 मेरुपर्वत पर रहीने मुनिवरपणामां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 55 // निषध अने नील पर्वत पर रहीने मुनिवरपणामां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 56 // महाहिमवंत अने रूपी पर्वत पर रहीने मुनिवरपणामां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवतीने नमस्कार थाओ // 57 // 20 - हिमवंत अने शिखरी पर्वत पर रहीने मुनिवरपणामां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ / / 58 // वैताढ्यपर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥५९॥ पद्मवरवेदिकामां रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६०॥ गजदंत पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६१॥25 यमक पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६२॥ दिग्गज पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६३॥ इषुकार पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६४॥ वक्षस्कार पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६५॥ वृत्तवैताढ्य पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६६॥ 30 ऋषभकूट पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६७॥ अष्टापद पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६८॥ समेतशिखर पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥६९॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 [प्राकृत सिद्धनमस्कारावलिका नमो सेत्तुंजयपव्वयट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 70 // नमो उजिंतसेलसिहरट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 71 // नमो माणुसोत्तरपव्ययट्ठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 72 // नमो पंचसु भरहेसु संठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 73 // . नमो पंचसु एरवएसु संठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 74 // नमो पंचसु महाविदेहेसु संठियमुणिवरसिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 75 // नमो समत्थधाईसंडे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 76 // नमो समत्थपुक्खरवरदीवे सिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 77 // नमो समत्थजंबूदीवे सिद्धिमुवगयाणं सवसिद्धाणं // 78 // नमो लवणसमुद्दमझे सिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 79 // नमो कालोदसमुद्दमझे सिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 8 // नमो सीआ-सीउआनईमझे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 81 // नमो नारीकां(क)ता-हरिकंतानइ(ई)मज्झे सिद्धिमुवगयाणं सबसिद्धाणं // 82 // नमो नरकांता-हरिसलिलानईमज्झे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 83 // 15 शत्रुजय पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 7 // गिरनार पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७१॥ मानुषोत्तर पर्वत पर रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७२॥ पांच भरतक्षेत्रमा रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७३॥ पांच ऐरवत क्षेत्रमा रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवतीने नमस्कार थाओ॥७४॥ 20 पांच महाविदेह क्षेत्रमा रहीने मुनिवरपणे सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार ___थाओ॥७५॥ समस्त धातकीखंडमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 76 // समस्त पुष्करवरद्वीपमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७७॥ समस्त जंबूद्वीपमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥७८॥ 25 लवण समुद्रमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 79 // कालोदधि समुद्रमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 8 // सीता अने सीतोदा नदीओमां रहेनारा सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥८१॥ नारीकांता अने हरिकांता नदीओमां रहेनारा सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने 30 नमस्कार थाओ // 82 // ___नरकांता अने हरिसलिला नदीओना वचगाळामां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥८३॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। नमो रूप्पकूलारोहियानइ(ई)मझे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 84 // नमो सुवन्नकूलारोहियानईमझे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 85 // नमो रत्ता-रत्तवईमझे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 86 // नमो गंगा-सिंधूमझे सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 87 // नमो अईयकाले सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 88 // नमो संपइ सिद्धिमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 89 // नमो ख(खा)इय-पारिणामियभावजुअले संठिआणं (सिद्धिमुवगयाणं) सबसिद्धाणं // 9 // नमो अणंतनाणधराणं (सिद्धिमुवगयाणं) सव्वसिद्धाणं // 91 // नमो अणंतदसणधराणं (सिद्धिमुवगयाणं) सव्वसिद्धाणं // 92 // नमो अणंतपरमाणंदसुहसंपत्ताणं सव्वसिद्धाणं // 93 // नमो अणंतवीरियभावमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 94 // नमो साइअणंतठिइसंपत्ताणं सव्वसिद्धाणं // 95 // नमो पंचविहसंठाणपरिमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 96 // नमो पंचविहवन्नविसेसरहियाणं सव्वसिद्धाणं // 97 // 10 20 रुप्यकूला अने रोहिता नदीओना वचगाळामां सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार 15 थाओ // 84 // सुवर्णकूला अने रोहिता नदीओना वचगाळामां सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 85 // . . रक्ता अने रक्तावती नदीओना वचगाळामां सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 86 // गंगा अने सिंधू नदीओना वचगाळामां सिद्धिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥ 87 // भूतकाळमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 88 // वर्तमानकाळमां सिद्धिने प्राप्त करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 89 // क्षायिक अने पारिणामिक ए बे भावोमां रहेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 9 // अनंत ज्ञानने धारण करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 91 // 25 अनंत दर्शनने धारण करनारा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 92 // अनंत अने परमानंदरूप सुखने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 13 // अनंतवीर्यभावने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 94 // सादि अनंत स्थितिने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 95 // पांच प्रकारनां संस्थानथी सर्वथा मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 96 // 30 पांच प्रकारना वर्णविशेषथी रहित सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 97 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___प्राकृत 202 सिद्धनमस्कारावलिका। नमो दुविहगंधविमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 98 // नमो पंचविहरसविसेसरहिआणं सव्वसिद्धाणं // 99 // नमो अट्ठविहफासविसेसविप्पमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 10 // नमो जम्म-जरा-मरणविप्पमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 101 // नमो अविचलपयसंठिआणं सव्वसिद्धाणं // 102 // नमो अट्ठविहकम्मकलंकविप्पमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 103 // नमो सव्वसंजोग-विउ(ओ)गविप्पमुक्काणं सव्वसिद्धाणं // 104 // नमो पारगयाणं सव्वसिद्धाणं // 105 // नमो परंपरगयाणं सव्वसिद्धाणं // 106 // नमो लोगग्गमुवगयाणं सव्वसिद्धाणं // 107 // नमो अणंताणंतगुणमणिमंडिआणं सव्वसिद्धाणं // 108 // इति सिद्धनमस्कारावलिका // बे प्रकारना गंधथी विशेषे करीने मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 98 // पांच प्रकारना रसविशेषथी रहित सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 99 // आठ प्रकारना स्पर्शविशेषथी विशेषे मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 10 // जन्म, जरा अने मरणथी सर्वथा मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार याओ // 101 // अविचळ पदमा संस्थित सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 102 // आठ प्रकारना कर्मरूप कलंकथी सर्वथा मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 103 // सर्व प्रकारना संयोग अने वियोगथी सर्वथा मुकाएला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ॥१०४॥ (संसार समुद्रने ) पार पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 105 // परंपराने पामेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 106 // लोकना अग्रभागने संप्राप्त थयेला सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 107 // अनंतानंत गुण-मणिओथी विभूषित एवा सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 108 // परिचय अगाउ नं. 10 नो परिचय आपवामां आव्यो छे ते 'अर्हन्नमस्कारावलिका'नी सायोसाथ आ 'सिद्धनमस्कारावलिका 'नी चार पत्रनी प्रति हती तेमांथी ज आ पाठ लई, सेने अहीं संपादित करी अनुवाद साथे आप्यो छे। 1 गुणश्रेणीनी परंपराने। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 203 ---- - Met 4A RAY भा -- - - - - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] अरि हा णा इ थुतं [पंचपरमिट्ठिनमुक्कारथुत्तं / अरिहाण नमो पूयं अरहंताणं रहस्सरहियाणं / पयओ परमेट्ठीणं अरुहंताणं धुयरयाणं // 1 // निद्दडअट्ठकम्भिधणाण वरनाण-दंसणधराणं / मुत्ताण नमो सिद्धाणं परमपरमेट्ठिभूयाणं // 2 // आयारधराण नमो पंचविहायारसँट्ठियाणं च / नाणीणायरियाणं आयाख्वएसयाण सया // 3 // बारसविहंगपुव्वं दिताणं सुयं नमो सुयहराणं। सययमुवज्झायाणं सज्झायज्झाणजुत्ताणं // 4 // 10 अनुवाद (1) * पूजाने योग्य (-अर्ह-अरिह) होवाथी 'अरिहंत', (2) जेमनाथी कोई वस्तु गुप्त न होवाथी 'अरहंत', (अथवा रहस्य एटले अंतरायकर्म, तेनाथी रहित होवाथी अरहंत); वळी, (3) जेमणे 15 कर्मरूपी रज दूर करेली होवाथी संसारमा फरी वार उत्पन्न थवाना नथी तेथी 'अरुहंत' (प्रथम परमेष्ठीपदने पामेला) देवाधिदेव अरिहंत (अरहंत, अरुहंत) भगवंतोने प्रणिधानपूर्वक नमस्कार थाओ // 1 // (1) आठ कर्मोरूपी इंधनने (शुक्ल ध्यानथी) सर्वथा बाळी नाखनार, (2) श्रेष्ठ केवळज्ञान अने केवळदर्शनने धारण करनार (कृतकृत्य थनार), (3) मोक्षपदने पामेला (अपुनरावृत्तिथी जेओ निर्वृतिपुरीमा पहोंच्या छे–जे नित्य अने अविनाशी छे, ते), (4) परमपरमेष्ठी स्वरूप-एवा सिद्ध 20 भगवंतोने नमस्कार थाओ // 2 // (1) (गच्छना नायक तरीके), आचारने धारण करनारा (2) पंचविध आचारमा सुस्थित (आचारने स्वयं आचरनारा), (3) सदा आचारनो उपदेश करनारा—एवा (अर्थना वाचक होवाथी), (4) ज्ञानी आचार्य भगवंतोने नमस्कार थाओ // 3 // (1) (पाठांतरने आधारे)-बार प्रकारनां अपूर्व श्रुतने आपनारा (अध्ययन करावनारा) (2) 25 श्रुतधरने धारण करनारा तेमज (3) स्वाध्याय अने ध्यानथी सतत युक्त-एवा उपाध्याय भगवंतोने नमस्कार थाओ॥४॥ 1 अरिहंताणं न P1 2 अरिहं S / 3 परमिठ्ठीणं JPS | 4 अरहं° sv | 5 परमं परमिठ्ठि P, परमपरमिटि JS | 6 आयर / 7 सुद्धियाणं P / 8 विहं अपुव्वं JPS | 9 दिट्ठाण J, दित्ताण S / * अहीं (1) (2) वगेरे अंको आपेला छे ते, ते ते परमेष्ठीओना विशेषणोनी गणतरी बतावे छे। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 205 नमस्कार स्वाध्याय / सव्वेसिं साहूणं नमो तिगुत्ताण सव्वलोए वि / तंव-नियम-नाण-दसणजुत्ताणं बंभयारीणं // 5 // एसो परमेट्ठीणं पंचण्ह वि भावओ नमोकारो। सबस्स कीरमाणो पावस्स पणासणो होइ // 6 // भुवणे वि मंगलाणं, मणुयासुर-अमर-खयरमहियाणं / सव्वेसिमिमो पढमो हवइ महामंगलं पढमं // 7 // एसो परमो मंतो परमरहस्सं परंपरं तत्तं / नाणं परमं नेयं सुद्धं झाणं परं झेयं // 8 // (33) एंयस्स य मज्झत्थो, सम्मदिट्ठी विसुद्धचारित्तो / नाणी पवयणभत्तो गुरुजणसुस्सूसणापरमो // 9 // (30) जो पंच नंमोकारं परमो पुरिसो पराइ भत्तीए / परियत्तेइ पइदिणं पयओ सुद्धप्पओ अप्पा // 10 // (31) अद्वैव-य अट्ठसयं अट्ठसहस्सं च उभयकालं पि / अटेव य कोडीओ सो तइयभवे लहइ सिद्धिं // 11 // (32) 10 20 (1) त्रण गुप्तिनुं पालन करनारा, (2) तप, नियम, ज्ञान अने दर्शनथी युक्त, तेमज (3) 15 ब्रह्मचारी (निर्वाण साधक आत्महितकारी क्रिया करनारा*) एवा समग्र लोकमां रहेला सर्व साधु भगवंतोने नमस्कार थाओ॥५॥ पांचेय परमेष्ठीओने भावपूर्वक करेलो आ नमस्कार समग्र पापोनो नाश करनारो बने छे // 6 // ." आ भुवनमां पण मनुष्य, असुर, देव अने खेचरो-थी पूजित जेटला मंगलो छे ते बधामां आ नमस्कार प्रथम छे, तेथी ते प्रथम महामंगल छे // 7 // __ आ (नमस्कार) परममंत्र छे, परमरहस्य छे, परात्पर (परथी पण पर) तत्त्व छे, परमज्ञान छे, परमज्ञेय छे, शुद्ध ध्यान छे अने सर्वश्रेष्ठ ध्येय छे // 8 // . जे उत्तम पुरुष मध्यस्थ, सम्यग्दृष्टि, विशुद्ध चारित्रवान् , ज्ञानी, प्रवचनभक्त अने गुरुजननी शुश्रूषामां तत्पर होय ते पराभक्ति अने प्रणिधानपूर्वक शुद्ध पदोच्चारण सहित (शुद्ध प्रयोगात्मा) प्रतिदिन बन्ने संध्याए आ पंचनमस्कारनो आठ वार, आठसो वार, आठ हजार वार [आठ लाख वार (पाठांतर 25 मुजब)] अगर आठ करोड वार जाप करे छे ते त्रीजा भवमां सिद्धि पामे छे // 9-11 // 1 तह नि° V / 2 परमिठ्ठीणं JPS | 3 पंचण्हं वि J / 4 णमुक्कारो J, नमुक्कारो P / 5 सुयणे वि s / 6 होइ JVI 7 परंपरातत्तं S / 8 एय सया म° P, एवं सय J / 9 नमुक्कारं JSP / 10 च अट्ठलक्खाई S / . 'ब्रह्म' एटले कुशळ अनुष्ठान अथवा आत्महितकारी क्रिया समजवानी छ। जुओ 'स्थानांगसूत्र' 9 मा स्थाननी टीका। 30 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 [प्राकृतं अरिहाणाइथुत्तं / एयं कवयमभेयं खाइयमत्थं पैरा भवणरक्खा / जोई सुन्नं बिंदु नाओ तारा लँवो मत्ता // 12 // (34) सोलसपरमक्खरबीयबिंदुगब्भो जगुत्तमो जोओ / सुयबारसंगसायरमहत्थ-पुव्वत्थ-परमत्थो // 13 // (35) नासेइ चोर-सावय-विसहर-जल-जलण-बंधणसयाई / चिंतितो रक्खस-रण-रायभयाई भावेण // 14 // (36) चत्तारि मंगलं मे हुंतुऽरहंता तहेव सिद्धा य / साहू अ सव्वकालं धम्मो य तिलोयमंगल्लो // 15 // (8) आ पंचनमस्कार ए परम अभेद्य कवच छे, परम खातिका (खाई, खाडी) छे, परम अस्त्र छे; 10 परम भवनरक्षा छे, परम ज्योति छे, परम शून्य छे, परम बिन्दु छे, परम नाद छे, परम तारा छे, परम लव छे, परम मात्रा छे // 12 // * (आ नवकार) सोळ परमाक्षररूप बीजो (अ र ह त सिद्ध आ य रि य उ व ज्झा य सा है) अने सोळ परम बिंदुओ छे गर्भमां जेना एवो लोकोत्तम (मंत्राक्षरोनो) योग छे [अथवा-सोळ परमाक्षररूप बीजो अने बिन्दुओ जेनी मध्ये रहे छे—एवो जगतमां उत्तम योग छे] अने द्वादशांगरूप श्रुतसागरनो 15 महार्थ, अपूर्वार्थ अने परमार्थ छे // 13 // ___ (उपर्युक्त) भावपूर्वक स्मरण करायेलो आ मंत्र चोर, हिंसक प्राणीओ, विषधर-सर्प, जळ, अग्नि, बंधन, राक्षस, युद्ध अने राज्यना भयोने नसाडी मूके छे // 14 // ___ अरिहंतो, सिद्धो, साधुओ अने त्रणे लोकमां मंगल एवो धर्म-ए चार मने सर्वकाळ मंगल थाओ। [अथवा—आ चार मने सर्वकाळ मंगल थाओः अरिहंतो, सिद्धो, साधुओ अने त्रिलोकमंगल 20 धर्म / ] // 15 // 5 1 खाइयसत्थं J / 2 परा भुवण° PV, परा भुवणकित्ती / 3 जोइ सु° P / 4 लवो वि मत्ता PI 5 मत्तो। 6 जो उ JI 7 बंधखकयाई / 8 धम्मो जिणदेसियमुदारो S / - परमज्योति, परमार नगेरे कान्होजी रामज माटे उओ-हने पळी पायल यानविचार' (विषय नं. 1 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 नमस्कार स्वाध्याय। चत्तारि चेव ससुरासुरस्स लोगस्स उत्तमा हुंति / अरहंत-सिद्ध-साहू धम्मो जिणदेसियमुयारो // 16 // (9) चत्तारि वि अरहंते, सिद्धे साहू तहेव धम्मं च / संसारघोररक्खसभएण सरणं पवञ्जामि // 17 // (10) अह 'अरहओ भगवओ महइ महावीरवद्धमाणस्से / पणयसुरेसरसेहरवियलियकुसुमच्चियकमस्स // 18 // (11) जस्स वरधम्मचकं दिणयरबिंब व भासुरच्छायं / तेएण पज्जलंतं गच्छइ पुरओ जिणिंदस्स // 19 // (12) आयासं पायालं सयलं महिमंडलं पयासंतं / मिच्छत्तमोहतिमिरं हरेइ तिहंपि लोयाणं // 20 // (13) 5 10 अरिहंत, सिद्ध, साधु अने जिनेश्वरोए उपदेशेलो उदार धर्म-ए चार ज देवो अने असुरोथी युक्त एवा लोकमां उत्तम छे // 16 // संसाररूप भयंकर राक्षसना भयथी हुं अरिहंतो, सिद्धो, साधुओ अने (जिन-)धर्म-ए चारनुं शरण स्वीकारुं छु // 17 // [हवे चक्र-यंत्र द्वारा परमेष्टीनुं ध्यान करवानी रीत बतावे छे। आ चक्रने 'पंच-15 नमस्कारचक्र', 'वर्धमानचक्र' अथवा 'पंचपरमेष्ठीचक्र' पण कहे छे। तेमां सर्व प्रथम मंत्रने ते ते पदोनी महत्ता दर्शाववा पूर्वक जणावे छ / मूलनी गाथाओमां रेखांकित शब्दो मंत्रना छे। आनुं यंत्र केम बनावq तेनी रीत आ स्तोत्र पछी प्रगट करवामां आवेला 'वर्धमानचक्रोद्धारविधि' नं. 13 मां आपेली छे, तेनुं यंत्र-चित्र नं. 1 तरीके प्रगट कर्यु छे।] हवे सूर्यबिंबनी जेम देदीप्यमान प्रभावाळू तेजथी जाज्वल्यमान एवं धर्मवरचक्र जेमनी 20 आगळ चाले छे अने नमन करता इन्द्रोना मुकुटथी खरेलां पुष्पोथी जेमनां चरण पूजाएल छे एवा महान महावीर अरिहंत भगवंतने नमस्कार हो // 18-19 // आकाश, पाताल अने समग्र पृथ्वीमंडलने प्रकाशित करतुं ते चक्र त्रणेय लोकना मिथ्यात्व अने मोहस्वरूप अंधकारने दूर करे छे // 20 // 1 धम्मो तिलोयमंगल्लो S / 2 अरहंत-सिद्ध-साहू P, अरिहंते / ३रक्खस्स भs। 4 भगवओ नमो 25 अरहओ म°s। 5 माणसामिस्स S / 6 °सुरासुरs। 7 वच्चइड। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 [प्राकृत अरिहाणाइथुत्तं। सयलम्मि वि' जीयलोऍ चिंतियमेत्तो करेइ सत्ताणं / रैक्खं रक्खस-डाइणि-पिसाय-गह-जक्ख-भूयाणं // 21 // (14) लहइ विवाए वाए ववहारे भावओ सरंतो य। जुए रणे य रायंगणे य विजयं विसुद्धप्पा // 22 // (15) पच्चुस-पओसेसुं सययं भव्यो जणो सुहज्झाणो। एवं झाएमाणो मुक्खं पइ साहगो होइ // 23 // (16) वेयाल-रुद्द-दाणव-नरिंद-कोहंडि-रेवईणं च / सव्वेसि सत्ताणं पुरिसो अपराजिओ होई // 24 // (17) विज्जु व्व पजलंति सव्वेसु वि अक्खरेसु मत्ताओ। पंचनमुक्कारपए इंकिके उवरिमा जाव // 25 // (18) ससिधवलसलिलनिम्मल आयारंसहं च वणियं बिंदु / जोयणसयप्पमाण जालासयसहसंदिप्पत // 26 // (19) 10 ___ आ प्रकारे चिंतनमात्रथी नमस्कार राक्षस, डाकिनी, पिशाच, ग्रह, यक्ष अने भूत-प्रेतोथी बधाय जीवलोकमां प्राणीओनी रक्षा करे छे // 21 // 15 आ (मंत्र) नुं भावथी स्मरण करतो विशुद्ध आत्मा विवादमां, वादमां, व्यवहारमा, जुगारमां, रण. युद्धमां अने राजाना आंगणे (राजद्वारमा) पण विजयने प्राप्त करे छे // 22 // ___आ (नमस्कार मंत्र) नुं शुभ ध्यान करनारो भव्य मानवी सवारे अने सांजे निरंतर आवी रीते ध्यान करतां करतां मोक्ष प्रति साधक बने छे // 23 // आ पंचनमस्कार- ध्यान करनारो पुरुष वेताल, रुद्र (आ बंने रौद देवो छे), राक्षस, राजा तेमज 20 कूष्मांडी अने रेवती (आ बंने रौद्र देवीओ छे), तेमज बधा प्राणीओथी अपराजित बने छ / (अर्थात् आ बधा ते ध्यानी आत्माने कंई नुकसान करी शकता नथी।) // 24 // पंचनमस्कार पदमां सर्व अक्षरोमां (अ रि ह त सिद्ध आ य र य उ व ज्झा य साए सोळ अक्षरोमां) पण दरेक अक्षर उपर रहेली मात्राओ वीजळी जेवी जाज्वल्यमान (झळहळती) छे अने दरेक अक्षर उपर चन्द्रमा जेवू उज्ज्वळ, जळ जेवू निर्मळ हजारो आकारवाळ," वर्णयुक्त, सेंकडो योजन प्रमाण, 25 लाखो ज्वाळाओथी दीपतुं बिंदु छे // 25-26 // 1 वि जियलोए SPJ / 2 यमित्तो य पंचनवकारो।। 3 रक्खइ र / 4 एयं झा° SPJ | 5 मोक्खपयसाहणो होइ / 6 होइ SPJ 7 एक्कक्के / 8 जा उ S / 9 °सहियं वs। १०हस्सदि SPI 11 'नमस्कार लघुपंजिका' मां 'आयारसहस्सं' एवो पाठ छ / आ गाथा त्यां पण आवे छे। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / सोलससु अक्खरेसुं'इकिकं अक्खरं जगुजोयं / भवसयसहस्समहणो जम्मि ठिओ पंचनवकारो // 27 // (20) जो थुणति हु इक्कमणो भविओ भावेण पंचनवकारं / सो' गच्छइ सिवलोयं उजोयंतो दसदिसाओ // 28 // (21) तव-नियम-संजमरहो पंचनमोक्कारसारहिनिउत्तो। नाणतुरंगमजुत्तो नेइ पुरं परमनिव्वाणं // 29 // (22) सुद्धप्पा सुद्धमणा पंचसु समिईसु संजय तिगुत्ता / जे तम्मि रहे लँग्गा सिग्धं गच्छंति सिवलोयं // 30 // (23) थंभेइ जलं जलणं चिंतिय मित्तो वि पंचनवकारो। अरि-मारि-चोर-राउल-घोरुवसग्गं पणासेइ // 31 // (24) 10 अद्वैव य अट्ठसया अट्ठसहस्सं च अट्ठकोडीओ। रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा // 32 // (25) सोळ अक्षरो(अँ हँ तँ सिँ हूँ आँ यँ रि य उ + ज्झाँ यँ साँ हूँ )मांनो एकेक अक्षर जगतने प्रकाश करनारो छे अने जे ( अक्षरो)मां आ पंचनमस्कार स्थित छे ते लाखो भव (जन्म-मरण ) नो नाश करे छे // 27 // जे भविक-भव्य पुरुष एकचित्ते भावथी आ पंचनमस्कारनी स्तुति करे छे, ते दशे दिशाओने प्रकाशित करतो करतो मोक्षमा निश्चयपूर्वक जाय छे // 28 // . जेने तप, नियम अने संयमरूपी रथ छे, जेने पंचनमस्काररूपी सारथि छे अने जे ज्ञानरूपी घोडाओथी जोडायेल छे ते परमनिर्वाणपुर-मोक्षपुरीमा जाय छे // 29 // ___ शुद्ध मनवाळो, ईर्यादि पांचे समितिओथी युक्त तथा मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्तिथी 20 गुप्त ( इंद्रियोनो गोपवनार ) जे शुद्ध आत्मा विजयवंत एवा आ रथमां बेसे छे ते तरत मोक्षमां जाय छे // 30 // आ पंचनमस्कार चिंतन मात्रथी जळ अने अग्निने थंभावे छे तथा शत्रु, महामारी, चोर, तेमज राजकुळ द्वारा थता भयंकर उपद्रवोनो नाश करे छे // 31 // देवता अने असुरो आठ, आठ सो, आठ हजार के आठ करोड सिद्धो मारा शरीरनी रक्षा करो॥३२॥ 25 [विशेष-वि. सं. पं. आशाधरे रचेला "प्रतिष्ठासारोद्धार" (प्रका० जैन ग्रंथ उद्धारक कार्यालय, मुंबई, 1974 ) पृष्ठः 86 मां नीचे मुजब गाथा अने तेनी टीका आपी छे:___“ॐ अट्ठेव य अट्ठसया अट्ठसहस्सा य अट्ठकोडीओ। रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा // 7 // स्वाहा // " 1 एकेके / 2 थुणइ हु, थुणई एक / 3 सो वच(च)इ। 4 नेइ फुडं प / ५तिगुत्तो SPJ | इलागोस / 7 चिंतियमेत्तो छ / 15 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwm अरिहाणाइथुत्तं। [प्राकृत 'नमो अरिहंताणं तिलोयपुजो य संथुओ भयवं / अमर-नर-रायमहिओ अणाइनिहणो सिवं दिसउ // 33 // (26)* सव्वे पओसमच्छर आहियहियया पणासमुंवयंति / हूँगुणीकयधणुसदं सोउं पि महाधणु सहसा // 34 // (27) इय तिहुयणप्पमाणं सोलसपत्तं जलंतदित्तसरं / अट्ठार अट्ठवलयं पंचनमोक्कारचक्कमिणं // 35 // (28) -"अनेन स्वस्याङ्गप्रत्यङ्गपरामर्शः कार्यः / ततः "ॐ धनु धनु महाधनु स्वाहा” इमां धनुर्विद्यां वामकरामुलीपर्वसु विन्यस्य प्रतिमाग्रे वामपादाङ्गुष्ठेन सरेफामपुरस्सरं धनुरालिख्य वामपादेनाक्रम्य कायोत्सर्गेण स्थितः सन् “ॐ णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वासाहूणं; थंभेइ जल-जलणं चिंतियमित्तण पंचणमोकारो / अरि-मारि-चोर-राउल घोरुवसग्गं हा ही हूँ हौँ हः विणासेइ स्वाहा / / इदं सप्तवारान् हृद्युच्चार्य अष्टोत्तरशतं धनुर्विद्यामावर्तयेत् // इति सकलीकरणविधानम् // " अर्थ-आ गाथाथी पोताना अंग अने तेना अवयवोनो विचार करवो। ए पछी “ॐ धनु धनु महाधनु स्वाहा" आ प्रकारनी धनुर्विद्याने डाबा हाथनी आंगळीओना वेढाओमा स्थापन करीने प्रतिमानी आगळ डाबा पगना अंगूठा वडे हींकारपूर्वक धनुष्यनु आलेखन करीने, तेने डाबा पगथी ओळंगवू / ते पछी काउसग्गमा स्थिर बनीने “ॐ णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइ(य)रियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं थंभेइ जलजलणं चिंतियमित्तेण पंचणमोकारो / अरिमारिचोरराउलघोरुवसग्गं हाँ हाँ हूँ हौँ हः विणासेइ स्वाहा" आ मंत्रनो सात वार हृदयमा उच्चार करवो अने एकसो ने आठ वार धनुर्विद्यानो जाप करवो // आ प्रकारे सकलीकरण कराय छे // 32 // अरिहंतने ॐकारपूर्वक नमस्कार थाओ। जे भगवान त्रण लोकना पूज्य छे, सारी रीते स्तुति करायेला छे, इंद्र अने राजाओवडे पूजायेला छे अने जन्म-मरणथी रहित छे ते अमने मोक्ष आपो॥३३॥ बेवडो करायेलो 'धणु' शब्द अने 'महाधणु' शब्द अर्थात् “ॐ धणु धणु महाधणु महाधणु [खाहा]"-ए प्रकारनी विद्या सांभळनार बधा ईर्ष्यालु द्वेषथी भरेला हैयावाळा 2 शीघ्र नाश पामे छे // 34 // (पंचपरमेष्ठीचक्रनो महिमा-) सोळ पत्रवाळ, ज्वलंत अने देदीप्यमान स्वरोवाळु तथा आठ आरा अने आठ वलयोथी युक्त आ 'पंचनमस्कारचक्र' (वर्धमानचक्र अथवा पंचपरमेष्ठीचक्र) त्रिभुवनमा प्रमाणभूत छे // 35 // १नमह अ°। 2 संठिओं v / * एतद्गाथानन्तरं I आदर्शयोरियमधिकी गाथा दृश्यते-"निढवियअटकम्मो सुइभूयनिरंजणो सिवो सिद्धो / अमरनररायमहिओ अणाइनिहणो सिवं दिसउ॥ 4 मुवति / 5 दुगुणिकय / / 6 अट्ठारं अPIS प्रतौ समाप्त्यन्ते 'महानिशीथस्तोत्रं समाप्तमिति' पाठः। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिमाग] नमस्कार स्वाध्याय। सयलुञ्जोइयभुवणं विदावियसेससत्तुसंघायं / नासियमिच्छत्ततमं वियलियमोहं हततमोहं // 36 // (29) (यंत्रध्यान- फळ-) ___ आ(यंत्र )नुं ध्यान बधा भुवनोने प्रकाशित करनारूं, सर्व शत्रुओना समूहने नसाडनाएं, मिथ्यात्वरूपी अंधकारनो नाश करनालं, मोहने दूर करनारुं अने अज्ञानना समूहने हणनारुं छे॥३६॥ (प्रति-परिचय) आ स्तोत्रनो केटलेक स्थळे 'पंचपरमेद्विथुत्त' नाम उल्लेख करेलो मळे छ / श्रीहेमचंद्राचार्ये पोताना 'सिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासन' उपर रचेला स्वोपज्ञ बृहन्यास (शब्दमहार्णवन्यास )मां 'अहे' सूत्र उपर से व्याख्या करी छे तेमां आ स्तोत्रनी 13 मी गाथानुं प्रमाण आपतां आ स्तोत्रनुं 'पंचपरमेष्ठिस्तुति' एवं संस्कृतमय नाम उल्लेख्यु छे / वळी, श्रीजिनप्रभसूरिरचित 'विधि-10 मार्गप्रपा' मां आ स्तोत्र- 'परमेट्टिथवण' नाम आप्युं छे / ज्यारे केटलीक हस्तलिखित प्रतिओमां, खास करीने भत्तिभरस्तोत्र उपरनी 'नमस्कारव्याख्यानटीका'मां आ स्तोत्रनुं नाम 'महानिशीथस्तोत्र' होवानुं दर्शाव्यु छ / आ स्तोत्रना कर्ता विशे कोई माहिती मळी नथी / स्तोत्रनी रचनामां जैन परंपरानी मंत्र अने ध्यानविषयक प्राचीन ध्यानप्रणालीनी छाप अंकित थयेली जोवामां आवे छे; जेनी नं. 14 'ध्यानविचार' मां दर्शावेली परिभाषाथी पुष्टि मळे छ / आ 15 'ध्यानविचार' कृतिरत्न हस्तलिखित भंडारना अनेक ग्रंथोना पेटाळमां पडेलोअचानक हाथ आव्यो, जेना आधारे आ स्तोत्रमा निर्देश करेला ध्यानविषयक पारिभाषिक शब्दोनुं भावोद्घाटन सुकर बन्युं छे। वळी, अरिहंत भगवाननी आगळ चालता धर्मचक्रतुं यंत्रस्वरूप प्रगट करीने नमस्कारमंत्र संबंधी ध्याननो विशिष्ट प्रकार प्रदर्शित कर्यो छे / आ यंत्रनो भाव ए छे के, पोताना लक्ष्यनी सिद्धिने माटे आपणा ध्यानने अन्यत्र न जवा देतां पोतानी नैसर्गिक शक्तिओने नियमपूर्वक जागृत 30 करीने ए तरफ वाळवानो प्रयोग करवो ते छे / वस्तुतः यंत्र-ध्यान आत्मा उपर लागेला राग-द्वेषरूप मळ दूर करवामां अने आत्मस्वभावनी रमणता केळववामां उपयोगी साधन थई पडे छे / आ यंत्रनी आलेखनविधि माटे जूओ नं. 13, अने यंत्रनी आकृति माटे जूओ चित्र नं. 1 / ___ आ सिवाय मार्गमां शत्रु अथवा चोरने दूर करवा माटे धनुर्विद्यानो जे प्रयोग कराय छे तेनो उल्लेख आ स्तोत्रमा करेलो छ / 25 आ स्तोत्रमा खास करीने पांच विषयोनुं निरूपण छेः 1 नमस्कारसूत्रनुं रहस्य, 2 चार शरणोनुं रहस्य, 3 पंचनमस्कारचक्र 4 ध्याननी प्रक्रिया, अने 5 धनुर्विद्या। आ विषयो उपर विचार करवामां आव्यो त्यारे एनी गाथाओना क्रममा एकसूत्रता लागती नहोती / तेथी आ रचना संकलित करवामां आवी होय एवं अनुमान थाय छ / जो के, आ स्तोत्रनी 20-25 जेटली हस्तलिखित प्रतिओ मळी छे तेमां, तेमज पांचेक स्थळे प्रकाशित थयेल आ लोचनो पाठक्रम एक ज प्रकारनो उपलब्ध थाय छे / मात्र एक हस्तलिखित Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 अरिहाणाइथुत्तं। [प्राकृत प्रति, जेनी जैन साहित्य विकासमंडळना संग्रहमा फोटो स्टेटिक नकल लेवामां आवी छे, अने मूळ प्रति श्रीविजयमोहनसूरीश्वरजी शास्त्रसंग्रहमांथी मळी हती, तेमां आ रचनानो गाथाक्रम जूदी रीते नोधायेलो जोवामां आव्यो त्यारे विषयक्रम अने रचानानी संकलनात्मकता संबंधी अनुमानने पुष्टि मळी। 6 अहीं आ स्तोत्रनो गाथाक्रम मळी आवेली आ एक ज' प्रतिमांथी स्वीकृत कर्यो छे, बीजा प्रकारना गाथाक्रमनो ते ते मूळनी गाथाना अंक साथे निर्देश कर्यो छे / बंने क्रमनी तालिका नीचेना कोष्ठक मुजब छ स्वीकृत बीजा प्रकारनो स्वीकृत बीजा प्रकारनो स्वीकृत बीजा प्रकारनो गाथाक्रम गाथाक्रम गाथाक्रम | गाथाक्रम | गाथाक्रम | गाथाक्रम 1 थी 7 १थी 7 27 20 28 29 30 31 30 WWWWWWW 31 32 34 15 * 18 28 26 36 29 20 जे वीश-पचीस जेटली प्रतिओ जोवामां आवी तेमाथी चार प्रतिओमांथी पाठभेदो '. लेवामां आव्या छ / ते प्रतिओनो परिचय आ रीते छे : 1. फोटोस्टेटिक कॉपी नं. 3 नी प्रति 12 पत्रनी छे / तेनां पाठातरो J संज्ञाथी लेवाम आव्यां छे। 2. फोटोस्टेटिक कॉपी नं. 4 'नमस्कारव्याख्यानटीका'नी 50 पत्रनी आ प्रतिमा 46 मा पत्रमा आ स्तोत्र आपवामां आव्युं छे / तेना पाठांतरो S संज्ञाथी लीधां छे / आ प्रतिना पाठ अने गाथाक्रमने आदर्श पाठ राख्यो छ / 3. प्राचीन जैन साहित्योद्धार ग्रंथावली-जैन स्तोत्र संग्रह भा. 1 प्रकाशक : श्री साराभाई मणिलाल नवाब, अमदाबाद वि. सं. १९८९-मांथी जे पाठांतरो लीधा ते P __ संज्ञाथी सूचव्या छ। 30 4. विधिमार्गप्रपा, कर्ता : श्रीजिनप्रभसूरि, प्रका० श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन. पुस्तकोद्धार ....फंड, सुरत, वि. सं. 1997 मांथी मळेलां पाठांतरो V संज्ञाथी नोध्यां छे। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] श्रीभद्रगुप्तस्वामिप्रणीतः पश्चन मस्कारचको द्धार विधिः। [पञ्चपरमेष्ठि चक्रं, वर्धमान चक्रं वा] . [ 'अरिहाणादि' स्तोत्रगतस्य वर्धमानचक्रस्योद्धारविधिलिख्यते / ] अष्टारमष्टवलयं पञ्चनमस्कारचक्रं भवति / चक्रतुम्बे [ साधक ? ]नामगर्भ 'अहं' इत्येतदक्षरं लिखेत्। 'ॐ नमो अरहंताणं, ऊँ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं' एतत् पदचतुष्टयमराणां मध्ये लिखेत् / . 'पाशा-ऽङ्कुशा-ऽभय-चरदा' (आँ क्रीँ हाँ श्री) अनुक्ता अपि अरान्तरेषु लिख्यन्त इत्युपदेशः। ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा' इति प्रथमवैलये लिखेत् // [1] ॐ नमो चत्तारि मंगलं-अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपनत्तो धम्मो मंगलं / चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पवजामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवजामि स्वाहा / ' एतद् द्वितीयवलये लिखेत् // [2] 15 ... 'ॐ नमो भगवओ बद्धमाणसमिस्स जैस्स [वरधम्म ]चकं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं' लोयाणं भूयाणं जूए वा रणे वा रायंगणे वा वारणे बंधणे मोहणे थंभणे सव्वसत्ताण अपराजिओ भवामि स्वाहा / ' अनुवाद। पंचनमस्कारचक्र आठ आरा अने आठ वलय( वर्तुल )नुं बने छे। आ चक्रना मध्य 20 - भागमां-भां 'आई' एवा अक्षरो लखवा। ॐ नमो अरहताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं', अने 'ॐ नमो उवज्झायाणं' ए चार पदो आराओनी मध्यमां लखवां / 'पाश' (आँ ), 'अंकुश' (क्रॉ ), 'अभय' (हाँ), अने 'वरद' (श्री) जो के अहीं स्पष्टपणे कहेला नथी तो पण विदिशाओमां लखवां एवो संप्रदाय-आम्नाय छे / 25 ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा' ए प्रमाणे प्रथम वलयमां लखवू / ॐ नमो- चत्तारि मंगलं०... स्वाहा / ' आ प्रमाणे बीजा वलयमा लखवु। . : _ 'ॐ नमो भगवओ वद्धमाणसामिस्स०............स्वाहा।' आ मंत्र सर्व कर्म (षट्कर्म) ... १°श-वरदा-ऽभयदा' / 2 'विदिगरान्तरेषु / 3 ०शः कस्यापि। / 4 अस्मिन् विधौ / आदर्श सर्वत्र 'वलये, वलयं' इति पाठे 'वलके, वलकं' इति पाठो दर्शितः। 5. 'जस्स एयं चर्क' ६'चलंतं' 'पायालं सयल महिमंडलं पयासंतं लोयाणं' JVT 8 'सव्वजावसत्ताणं'। 'भव'। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 [प्राकृत पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। सर्वकर्मकरोऽयं मन्त्रः / स्तम्भन-मोहन-शान्तिक-पौष्टिक-वशीकरणादिष्वन्येष्वप्युपसर्गेष्वयमेव पठितव्यः / तृतीयवलये लिखेत् / [3] 'ॐ नमो-थंभेइ जलं जलणं चिंतियैमित्तो वि पंचनवकारो। अरि-मारि-चोर-राउल-घोरुवसग्गं पणासेइ // स्वाहा / ' स्तम्भनक्रिया योजनशतादपि / चतुर्थवलये लिखेत् // [4] 'ॐ नमो-अद्वैव य अट्ठसयं अट्ठसहस्सं च अट्ठकोडीओ। रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा // खाहा // " एषा आत्मरक्षाविद्या पञ्चमवलये लिखेत् // [5] 'ॐ नमो अरहंताणं तिलोयपुजो य संथुओ भयवं / अमर-नररायमहिओ अणाइनिहणो सिवं दिसउ // स्वाहा // एषा सिद्धविद्या षष्ठवलये लिखेत् // [6] ॐ नमो सिद्धाणंतव-नियम-संजमरहो पंचनमुक्कारसारहिनिउत्तो। नाणतुरंगमजुत्तो नेइ पुरं परमनिव्वाणं // स्वाहा // ' 15 एषा मोक्षविद्या सप्तमवलये लिखेत् // [7] 'उ धणु धणु महाधणु महाधणु खाहा / ' करनारो छ / स्थंभन, मोहन, शांतिक, पौष्टिक, वशीकरण आदिमां तेम ज बीजा एवा उपसर्गोमां आज मंत्र भणवो। ते मंत्र त्रीजा वलयमां लखवो। ॐ नमो थंभेइ०...... स्वाहा / ' आ मंत्रथी सो योजन सुधी स्तंभन क्रिया थाय छे, तेने 20 चोथा वलयमां लखवो। 'ॐ नमो अद्वेष ........ स्वाहा।' आ 'आत्मरक्षा' नामनी विद्या पांचमा पलयमां लखवी / 'ॐ नमो अरहंताणं अट्ठ......स्वाहा।' आ 'सिद्धविद्या' छट्ठा क्लयमां लखवी। नमो सिद्धाणं तव...... स्वाहा।' आ 'मोक्षविद्या' सातमा वलयमां लखवी। ॐ धणु धणु महाधणु महाधणु स्वाहा / ' आ मंत्रने मार्गमां बाण सहित धनुष आलेखीने, 25सेने डाबा पगयी ओळंगीने, डाबी तरफ जवाथी आयुध-शस्त्रनुं स्तंभन थाय छे अने चोरनो भय लागतो नथी / आ 'आयुधस्तंभनविद्या आठमा वलयमा लखवी / 1 अस्य सर्वकर्मकरमत्रस्याक्षरप्रमाणं 74 निर्दिष्टमेतावता टिप्पणगतपाठो न सम्यगाभाति / 2 "दि पुन्येषूप / / 3 'व्यमत्तो वि' / / 4 अट्ठविहकम्ममुक्को तिलोय / x'नमस्कारलघुपंजिका' [ह. लि. प्रतिनी नकल जै० सा० वि० म० ना संग्रहमा छ, ते मा मा विद्यार्नु विशेष स्पष्टीकरण नीचे मुजब मळे छे: आ विद्यानी क्रिया-कायोत्सर्गपूर्वक आ मंत्रनो 108 के 1008 वार जाप करवो, अने मार्गमां बाण सहित 'धनुष-आलेखी, डाबा पग वडे चालवानुं शरू करी मौनपणे जवं. आथी रस्तामा चोरनो भय लागतो नथी भने संग्राममा आयुध-शस्त्रने थंभावे छ / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। 215 पथि सशरं धनुरालिख्य वामपादेनाक्रम्य वामपार्थेन गम्यते, आयुधस्तम्भो भवति, चौरभयं न भवति / आयुधस्तम्भविद्याऽष्टमवलये लिखेत् // [8] अष्टानां वलयानामष्टसु दिक्षु बहिः षोडशदलं पद्मं लिखेत् / दलेषु षोडशस्वरा लिख्यन्ते'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ अं अः। एतेषामुपरि षोडशदलेषु षोडशविद्यादेवीनामानि समन्बीजानि स्थाप्यन्ते / तद् यथा - 1. ॐ याँ रोहिण्यै अँ नमः। 2. ॐ राँ प्रज्ञप्त्यै आँ नमः। 3. ॐ लाँ वज्रशृङ्खलायै ई नमः। 4. 'ॐ वाँ वज्राङ्कश्य ई नमः।' 5. ॐ शाँ अप्रतिचक्रायै नमः। 6. ॐ पाँ पुरुषदत्तायै ॐ नमः।' 7. ॐ साँ काल्यै नमः। 8. ॐ हाँ महाकाल्यै नमः। 9. ॐ बुं गौर्यै लँ नमः। 10. ॐ रु गान्धायै लँ नमः। 10 11. 'ॐ लूँ सर्वास्त्रमहाज्वालायै एँ नमः।' 12. 'ॐ मानव्यै एँ नमः। 13. ॐ यूँ वैराट्याय औं नमः। 14. ॐ धूं अच्छुप्तायै औं नमः / 15. ॐ तूं मानस्यै नमः। 16. ॐ हूँ महामानस्यै नमः।' उपरि दलमध्ये—'हूँ हाँ हूिँ ह्रीँ हुँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हाँ हाँ हूँ हूँ।' : आठ वलयोनी आठ दिशानी बहार सोळ पांखडीवालं कमल आलेखq / ए पांखडीओमां 15 सोळ स्वरो लखवा :-'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल लू ए ऐ ओ औ अं अः।* .. एना उपर सोळ पांखडीमां सोळ विद्यादेवीओनां नाम मंत्र अने बीज सहित स्थापवां / ते आ प्रमाणे : प्रथम पांखडीमां 1 ॐ याँ रोहिण्यै अँ नमः।' थी सोलमी पांखडीमा 16 ॐ नमः महामानस्यै अः नमः' सुधी मंत्रो लखवा। तेना उपर 'हूँ हाँ हिँ हाँ हुँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हैं 20 मूलप्रतौ षोडशविद्यादेवीनां मन्त्रास्त्वशुद्धरूपेण लिखिता एतत्प्रकारेणोपलभ्यन्ते'ॐ नमो रोहिणी ह्रीं फट् स्वाहा // 1 // ॐ नमो पन्नत्ती ह्रीं फट् स्वाहा // 2 // ॐ नमो वज्रशृङ्खला हैं फट् स्वाहा // 3 // ॐ नमो वज्राङ्कुशी कौँ हाँ फट् स्वाहा // 4 // ॐ नमो अप्रतिचक्रे हूँ हूँ फट् स्वाहा // 5 // ॐ नमो पुरुषदत्ते हुं हुं हूं फट् स्वाहा // 6 // ॐ नमो काली अम्म हुं फट् स्वाहा // 7 // ॐ नमो महाकाली गूं धूं फट् स्वाहा // 8 // ॐ नमो गौरी रसोयं फट् स्वाहा // 9 // ॐ नमो गान्धारी झाँ फट् खाहा // 10 // ॐ नमो सर्वास्त्रमहाज्वाले हसू फटू वाहा // 11 // ॐ नमो मानवी स्यूँ फट् स्वाहा // 12 // ॐनमो वैरोट्या चां फट् खाहा // 13 // ॐ नमो अच्छुप्ते हूं हूं फट् स्वाहा // 14 // ___ॐ नमो मानसी हूं ही फट् स्वाहा // 15 // ॐ नमो महामानसी हुल हुं फट् स्वाहा // 16 // *बीजी प्रतिमा आगळनो पाठ आ प्रमाणे मळे छे: तेनी उपर प्रथिनी वचमा पाश, अंकुश, अभय अने वरद लखाय छ। उपर त्रिशूल लखी मध्यरेखाने छोडी 'क' श्री. सुधीना अक्षरो लखवा अने मध्यरेखामां-'अरिहंत - सिद्ध-आयरिय - उवज्झाय - साहू' एम लखवु / खरोनी उपर सोळ पत्रवाळा कमळनां दरेक पत्रमा सोळ विद्यादेवीनां नामो लखवां / (ए रीते) रोहिणीथी महामानसी सुधी बी.तेमनी उपर सोळ बीजाक्षरो लखवा / चक्रलेखननी आ विधि छ / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 10 पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। [प्राकृत तदुपरि षोडशबीजाक्षराणि—'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू / ' चतुर्पु पटकोणेषु-४।८।१०।२॥' ईशाने-'3 इन्द्रभूतये स्वाहा / / श्री सोमे अवग्गु वग्गु सुमणे सोमणसे तह य महुमहुरे / किलि किलि अप्पडिचक्का हिलि हिलि देवीओ सब्बाओ॥' इति गाथा / पूर्वदिशि-'अग्निभूतये स्वाहा / / आमेये-'G वायुभूतये स्वाहा / ॐ असि आ उ सा हुलु हुलु चुलु चुलु इच्छियं कुरु कुरु स्वाहा / ' तत्रैव- 'उ व्यक्ताय स्वाहा / ' दक्षिणे—' सुधर्मस्वामिने स्वाहा / ' [नैऋत्ये-'ॐ मण्डिकाय स्वाहा / ' तत्रैव- 'ॐ मौर्यपुत्राय स्वाहा / '] पश्चिमे—'ॐ अकम्पिताय स्वाहा / ' वायव्ये—'अचलभ्रात्रे स्वाहा।' . उत्तरतः-'मेतार्याय स्वाहा।' पुनरीशाने-ॐ प्रभासाय स्वाहा / ॐ नमो सव्वसिद्धाणं पदं बहिश्चतसृषु दिक्षु, अष्टारशिरःकलशेषु ' 'जमे मोहे जमे मोहे' अक्षर 8 लेख्याः / / 15 . 'ॐ नमो अरहंताणं एहि एहि नंदे महानंदे पंथे बंधे दुपयं, पंथे बंधे चउप्पयं, घोरं आसीविसं बंधे, जाव गठिं न मुंचामि / ' पश्चिमदिशि लेख्यः / ॐ नमो सव्वसिद्धाणं उपरि त्रिरेखमायाबीजं '[हाँ ]' अंते 'क्रौं' इति / हाँ हाँ हूँ हूँ ' ए मंत्राक्षरो लखवा / तेना उपर 'अ र हं त सि द्ध आ य रि य उ व ज्झा य सा हूँ ए सोळ अक्षरो लखवा / पटना चार खूणामां अनुक्रमे 4, 8, 10, 2 एम अंको लखवा।। 20 ईशानखूणामां 'ॐ इन्द्रभूतये स्वाहा' लखवू, तेमज त्यां 'सोमे अवग्गु गाथा लखवी। पूर्वदिशामा -- ॐ अग्निभूतये स्वाहा' लखवू; अग्निखूणामां 'ॐ वायुभूतये स्वाहा' लखवू / तेमज ॐ असिआउसा हुलु हुलु.......'लखवू, त्यां ज 'ॐ व्यक्ताय स्वाहा' लखq। .. दक्षिणदिशामां ॐ सुधर्मस्वामिने स्वाहा' लखवू / नैर्ऋत्यखूणामां 'ॐ मंडिकाय स्वाहा' तथा 'ॐ मौर्यपुत्राय स्वाहा' लखवू / 28 पश्चिमदिशामां 'ॐ अकम्पिताय स्वाहा' लखवू / वायव्यखूणामां ॐ अचलभ्रात्रे स्वाहा' लखq। उत्तरदिशामां 'ॐ मेतार्याय स्वाहा' लखवू / ईशानखूणामां फरी ॐ प्रभासाय स्वाहा' लखवू / बहारनी चारे दिशामां ॐ नमो सव्वसिद्धाणं' पद लखवू अने आठ आराना मथाळे कलशमां 'जंभे मोहे जंभे मोहे' ए आठ अक्षरो लखवा / 'ॐ नमो अरहंताणं एहि एहि............. मुश्चामि' पश्चिमदिशामां लखवू / (आ भागनुं ऊपर जणावेला गणधर-पद लेखनवाळा भाग साथे अनुसंधान समजवु।) 30 ॐ नमो सव्वसिद्धाणं' पद उपर मायाबीज 'हाँ'कार थी शरू थती त्रण रेखाओ फरती दोरवी अने तेना छेडे 'क्रौं' बीज लखवू, तथा गर्भमा 'सम्यग्रज्ञानाय नमः, सम्यग्दर्शनाय नमः' अने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय / 217 तथा गर्भे–'सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः।' इत्यक्षरैर्वेष्टितमहबीजं कार्यम् // कार्यकारणे तूत्पने, मण्डलमध्यसंस्थितम् / पूजयेद् यः सदा यन्त्रं, स देवैरपि पूज्यते // इति यन्त्रम् // [पञ्च]नमस्कारचक्रे लेखनविधिः // [1] ध्यानविधिः। विजु व्व पज्जलति सव्वेसु वि अक्खरेसु मत्ताओ। पंचनमुक्कारपए इक्विकें उवरिमा जाव // 1 // [25]* ससिधवलसलिलनिम्मल आयारसहं च वणियं बिंदु / जोयणसयप्पमाणं जालासयसहसदिप्पंतं // 2 // [26] सोलससु अक्खरेसुं इक्किकं अक्खरं जगुज्जोयं / भवसयसहस्समहणो जम्मि ठिओ पंचनवकारो // 3 // [27] जो थुणति हु इक्कमणो भविओ भावेण पंचनवकारं / सो गच्छइ सिवलोयं उज्जोयंतो दसदिसाओ // 4 // [28] पंचनमोक्कारपए [सव्वे ] अक्खर(रा) सोलसा हुंति / 'अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-साहू' [एए] // 5 // इदानीं पञ्चबीजानि सकलीकरणकाले ज्ञातव्यानि-'अ सि आ उ सा।' सम्यक्चारित्राय नमः' ए अक्षरोथी वेष्टित 'अहं' बीज लखq.x कार्य-कारण उत्पन्न थतां जे मंडलना मध्यभागमा रहेल यंत्रनु पूजन करे छे ते देवो वडे पण 20 पूजाय छ / आ. प्रमाणे पंच-नमस्कार-चक्रनो लेखनविधि पूरो थयो। 1. ध्यानविधि / ध्यानविधिमां आपेली प्रथमनी चार गाथाओ मूळ 'अरिहाण' स्तोत्रनी 25, 26, 27 अने 28 मी गाथाओ छ। तेथी तेनो अनुवाद मूल स्तोत्रमांथी जोई लेबो, अहीं आप्यो नथी। पांचमी गाथानो अनुवाद नीचे प्रमाणे छे : 25 पंचनमस्कारनां पदोमां सोळ अक्षरो छे :-'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू / ' तात्पर्य के पंचपरमेष्ठीचक्रनुं आराधन करतां आ सोळ अक्षरनुं ध्यान धरवानुं छे। सकलीकरण समये आ पांच बीजो ध्यानमा लेवां :-'अ सि आ उ सा।' * कोष्ठकगताङ्काः 'अरिहाण' स्तोत्रस्य गाथाङ्का विज्ञेयाः। x बीजी प्रतिमां आगळनो पाठ आ प्रमाणे मळे छ :-मायाबीज 'ही'कार वडे वेष्टित करी, 'को' बीज वडे 30 परो करी, चारेय दिशाओमा एकार अने खूणाओमां यकार लखी, कळशना आकारवाळु वरुणमंडळ-वर्तुलाकार बनाववो, ते पछी पृथ्वीमंडल-चतुरस्त्राकार, वज्रना लांछनवाळु; कपूर, कस्तूरी, कुंकुम, गोरोचन वगेरे (8) सुगंधित द्रव्यो वडे: .. सोनानी जातिनी के दर्भनी लेखनीथी यंत्र लखवू / पहेला वागभव--'ऐ"" बीज पछी मायाबीज-'ह्री' बीज अने छेडे 'नमः' एम आखा मंत्र पटमां (सारं लागे ते रीते) लखवू / .28 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। [प्राकृत [2] आत्मरक्षा। [इदानीमात्मरक्षां वक्ष्ये / ] ॐ नमो अरहताणं हाँ हृदयं रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा / ॐ नमो सिद्धाणं ह्रीं शिरो रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा। ॐ नमो आयरियाणं हूँ शिखां रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा / ॐ नमो उवज्झायाणं ह्रौ एहि एहि भगवति वज्रकवचे वज्रिणि ! रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा / ॐ नमो लोए सव्यसाहूणं हूँ: क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनि ! दुष्टाद् रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा। [3] षट्कर्मकरणविधिः। वशीकरणम्- . ॐकारं चक्रतुम्बे स्थापयेत् / प्रणवमध्ये साध्यनाम दत्त्वाऽऽत्मनाम हकारान्तरितं स्थापयेत् / चक्रावर्तनाममुद्रां कृत्वा रक्तवर्ण[पद्म]मागत्य पादयोः पतन्तमिव ध्यात्वा, इदं मन्त्रबीजं जपेत् , त्रिसन्ध्यमष्टोत्तरशतं गन्ध-धूप-दीपादीन् दत्त्वा, 'ॐ अर्ह अमुकं देवदत्तं वशमानय वं स्वाहा // ' [इति ] वशीकरणक्रिया // 15 2. आत्मरक्षा / 'ॐ नमो अरहंताणं हाँ हृदयं रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा / ' आ पदो बोलतां हृदय पर हाथ मुकवो / 'ॐ नमो सिद्धाणं ही शिरो रक्ष हुँ फट् स्माहा / ' आ पदो बोलतां ललाटना अग्रभाग पर ___ हाथ मूकवो। 'ॐ नमो आयरियाणं हूँ शिखां रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा।' आ पदो बोलतां शिखा 20 (माथानी चोटली) पर हाथ मूकवो। ____ 'ॐ नमो उवज्झायाणं हाँ एहि एहि भगवति वज्रकवचे वज्रिणि ! रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा / ' आ पदो बोलतां शस्त्र पर हाथ फेरववो। 'ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं हूँ: क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनि ! दुष्टाद् रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा।' आ पदो बोलतां............हाथ फेरववो।। 3. षट्कर्मकरणविधि 1. वशीकरणक्रिया ॐकारने चक्रना मध्यभागमा स्थापवो, अने तेनी वचमां साध्यनुं नाम आपी पोतानुं नाम हकारनी वचमा लखवू / पछी 'चक्रावर्त' नामनी मुद्रा करी रक्तवर्णवाळं पद्म आवीने पगे पडतं होय तेम ध्यान करी गंध, धूप अने दीप वगेरेथी प्रजन करी सवारे. बपोरे अने सांजे एम त्रण 30 वखत 'ॐ अहं अमुकं * देवदत्तं वशमानय वं स्वाहा' आ मंत्रबीजनो 108 वार जाप करवो / * 'अमुक' शब्द बोलवा माटे नथी पण त्यां जे व्यक्तिने वश करवी होय के जे व्यक्तिना निमित्ते शांति आदि कर्मो करवां होय तेनुं 'अमुकं देवदत्त' ने बदले नाम सूचववा वपरायेलो छ। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। शान्तिकक्रिया.. 'अर्ह अमुकं देवदत्तं वशमानय स्वाहा।' श्वेतवर्णं पनं संपुटीकृतमिव ध्यात्वा, सुरभीमुद्रां कृत्वा, गन्धादीन् दत्त्वा, त्रिसन्ध्यं [मन्त्रं] 108 शताष्टकमावर्त्तयेत् // __[इति ] शान्तिकक्रिया॥ पौष्टिकक्रिया___ 'ॐ अर्ह अमुकं देवदत्तं सँ स्वाहा।' साध्यं रक्तवर्णं वज्रमयशरीरमिव ध्यात्वा, पद्ममुद्रां कृत्वा गन्धादि दत्त्वा, त्रिसन्ध्यं मन्त्रं शताष्टक(१०८)मावर्त्तयेत्॥ [इति ] पौष्टिकक्रिया // स्तम्भनक्रिया___ 'ॐ अर्ह अमुकं देवदत्तं लँ स्वाहा।' मयूरप्रीवावर्णं वज्रलाञ्छनं पृथिव्यामवष्टभ्यमानमिव साध्यं 10 ध्वात्वा, वज्रमुद्रां कृत्वा, गन्धादि दत्त्वा त्रिसन्ध्यं मन्त्रं शताष्टकमावर्तयेत् // - [इति] स्तम्भनक्रिया।। [पञ्चमं षष्टं च कर्म उच्चाटनं मारणं च ते निरर्थकत्वान्नात्र निर्दिष्टे।] * 2. शांतिकक्रिया [ॐकारने चक्रना मध्यभागमा स्थापवो अने तेनी वचमां साध्यनुं नाम आपी पोतानुं नाम 15 हकारनी वचमां लखवु।] 'ॐ अर्ह अमुकं देवदत्तं... .................. स्वाहा' आ मंत्र-बीज वडे श्वेत वर्णन कमळ संपुटित करेलुं होय तेम ध्यान करी, सुरभिमुद्रा करी गंध वगेरेथी पूजन कर, अने मंत्रनो त्रणे संध्याए 108 वार जाप करवो। 3. पौष्टिकक्रिया [ॐकारने चक्रना मध्यभागमा स्थापवो अने तेनी वचमां साध्यनुं नाम आपी पोतानुं नाम 20 हकारनी वचमां लखवू / ] 'ॐ अहँ अमुकं देवदत्तं सं स्वाहा' आ मंत्र-बीजवडे संध्या जेवा लाल रंगवाळो अने वज्रमय शरीरवाळो साध्य छे तेम ध्यान करी पद्ममुद्रा करी गंध वगेरेथी पूजन कर, अने मंत्रनो त्रणे संध्याए 108 वार जाप करवो। 4. स्तंभनक्रिया [ॐकारने चक्रना मध्यभागमा स्थापवो अने तेनी वचमां साध्यनुं नाम आपी पोतानुं नाम हकारनी 25 वचमां लखवु।] 'ॐ अहँ अमुकं देवदत्तं लं स्वाहा' आ मंत्र-बीज वडे मोरनी डोक जेवा वर्णवाळु वज्रना लांछनथी युक्त, अने भूमिमां स्तब्ध करतुं होय ए रीते साध्यनुं ध्यान करी, वज्रमुद्रा करी, गंध वगेरेथी * पूजा करी मंत्रनो त्रणे संध्याए 108 वार जाप करवो। (पांचमो स्तंभननो अने छट्टो मारणनो विधि निरर्थक होवाथी जणावेलो नथी।) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। [प्राकृत [4] पल्लव-काल-वर्ण-मण्डल-दिविचारः / उच्चाटे फट 1, द्वेषे हुँ 2, मारणे घे 3, वषट् वश्ये 4, शान्तिक-पौष्टिकयोः स्वाहा, स्वधा 5 // [पल्लवाः] पूर्वाह्ने वशीकरणं, मध्यरात्रे तु शान्तिकम् / पौष्टिकं पश्चिमाढे च, मध्याह्ने स्तम्भनक्रिया // उच्चाटनमपराह्ने सन्ध्यायां मारणं मतम् / ...............कर्मकालं विजानीयात् // [कर्मकालम्] ध्यायेत् सिन्दूरवर्णाभं, वश्याकर्षणकर्मणि / मारणे कृष्णवणं तु, शान्तौ पुष्टौ सितं मतम् // मयूरप्रीवासंकाशं, स्तम्भने चिन्तयेत् सदा // [वर्णम् ] वशीकरणेऽग्निमण्डलमध्यस्थम्, शान्तिक-पौष्टिकयोर्वारुणमण्डलमध्यस्थम् , स्तम्भमोहमारणमाहेन्द्र- . मण्डलमध्यस्थम् , कुर्याञ्चक्रं च साध्यं च // [इति ] मण्डलविधिः // शान्तिकं पश्चिमायां मुखं नैर्ऋत्ये च पौष्टिकम् / कुर्यादुच्चाटनं वायव्येऽन्तके मारणं तथा / वश्यं चोत्तराभिमुखे, विद्वेषेऽनि(षे ह्यन)ले तथा // पूर्वायां स्तम्भनं कुर्यादाकृष्टिं हरसंज्ञि(ज्ञ)के / / इति दिगविधिः // 10 20 4. पल्लव, काळ, वर्ण, मंडल अने दिशाओ संबंधी विचार / पल्लव-उच्चाटन-प्रयोगमा 'फट्', द्वेषप्रयोग (विद्वेषण )मां 'हुं', मारण-प्रयोगमा ‘घे', वशीकरण प्रयोगमा 'वषट्', शांति अने पुष्टिना प्रयोगमा 'स्वाहा' अने 'स्वधा', आ रीते पल्लवो जाणवा / कर्मकाळ-दिवसना प्रथम अर्धाभागमां वशीकरण, मध्यरात्रिए शांतिक, दिवसना बीजा अर्धाभागमा पौष्टिक, मध्याह्ने स्तंभन, दिवसना त्रीजा प्रहरमां उच्चाटन अने सांजे मारण-प्रयोग; आ रीते कर्मो करवानो समय जाणवो। 25 वर्ण--रंग-वशीकरण अने आकर्षणमां सिन्दूरना जेवो लाल रंग, मारणमां कालो रंग, शांति अने पुष्टिमां श्वेत रंग अने स्तंभनमां मोरनी डोक जेवो नील रंग चितववो। __ मंडल-वशीकरणमां अग्नि-मंडलनी वच्चे, शांति अने पुष्टिमां वारुण-मंडलनी वच्चे, स्तंभन, मोहन अने मारणना प्रयोगमां माहेन्द्र-मंडलनी वच्चे चक्र अने साध्य नाम राखतुं / दिशा-शांतिककर्ममा पश्चिमदिशा, पौष्टिककर्ममां नैर्ऋत्यकोण, उच्चाटनकर्ममां वायव्यकोण, 30 मारणकर्ममां दक्षिणदिशा, वशीकरणकर्ममां उत्तरदिशा, विद्वेषणकर्ममां अग्निकोण, स्तंभनकर्ममा पूर्वदिशा अने आकर्षणकर्ममां ईशानकोण जाणवो। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। [5] जापविधिः। अङ्गष्ठजापं मोक्षार्थी (थे), अभिचारे तु तर्जनी / मध्यमा धनकामा तु, शान्ति कुर्यादनामिका // आकर्षणे कनिष्टां तु, घरेदक्षसूत्रं विचक्षणः (1) / विशेषतः कुर्याच्च // [6] ध्यानविधिः। प्रथममात्मानं पर्यङ्कासनेन सहस्रदलपद्मोपरि स्थितं पञ्चेन्द्रियनिरुद्धं पञ्चमहाव्रतयुक्तं पञ्चसमितिसमितं त्रिकरण गप्तम. अष्टादशशीलाइसहस्रभाषितं ध्वात्वा. जया-विजया-अजिता-अपराजि मोहा-स्तम्भा-स्तम्भिन्यः, एताभिः देवताभिः सुवर्णमयकलशैः क्षीराब्धिजलभृतैः शिरसि सितपुण्डरीकाच्छादितैः स्नापयन्तीभिरात्मानं ध्यात्वा-'ॐ नमो अरहंताणं अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा / ' [V. के सानिर्भवामि स्वाहा।' [VI आदशेयोरेततू 10 पाठान्तरमप्युपलभ्यते-ॐ नमो विमलाय विमलचित्ताय पवां (प्वां) वां झ्वी अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा / '] इति स्नात्वा, पश्चात् सकलीकरणं क्रियते। ततश्चोत्तप्तसुवर्णवर्णं समवसरणस्थमष्टमहाप्रातिहार्यसमन्वितं चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतमहद्भट्टारकं द्वात्रिंशत्सुरेन्द्रैः पूज्यमानं श्रीवर्द्धमानस्वामिनमभिसञ्चिन्त्य गणधराह्वानं कृत्वा वर्द्धमानमन्त्रमष्टोत्तरसहस्र जपेत् / / इति श्रीवर्द्धमानचक्रोद्धारविधिः // 15 5. जापविधिः। मोक्षनी इच्छा राखनारे अंगूठाथी, अभिचारनी इच्छावाळाए तर्जनीथी, धननी कामनावाळाए मध्यमाथी, शान्तिनी इच्छावाळाए अनामिकाथी अने आकर्षणनी अभिलाषावाळाए कनिष्टा आंगळीथी माळा फेरववी। 20 दरेक कर्म करतां पहेलां (बियासण, एकासण, नीवि, आयंबिल के उपवास आदि) कोई पण विशेष तप करवू / 6. ध्यानविधि। पछी पोताने पर्यंकासनमां, हजार पांखडीवाळा कमळ उपर बेठेलो, पांच इन्द्रियोने वश करनार, पंच महाव्रतथी युक्त, पांच-समिति अने त्रण गुप्तिआनुं पालन करवामां तत्पर, अढार हजार शीलांगथी 25 विभूषित चिंतववो; जया-विजया वगेरे आठ देवीओ क्षीर समुद्रनां जलथी भरेला अने उपरना भागमां श्वेत कमलोथी आच्छादित एवा सुवर्णमय कळशो वडे पोताने अभिषेक करती होय तेम पोते ध्यान करवं / .. 'ॐ नमो अरहंताणं अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा / ' आ मंत्र वडे स्नान करी पछी सकलीकरण (एक जातनी मांत्रिक क्रिया) कराय छे। ते पछी तपावेला सोनानी जेवा वर्णवाळा, समवसरणमां स्थित, आठ महाप्रातिहार्य अने चोत्रीश अतिशयोथी युक्त तथा बत्रीश सुरेन्द्रो जेमनी पूजा करी रह्या छे, 30 एवा अर्हद् भट्टारक श्रीवर्धमानस्वामीनुं चिंतन करी, गणधर भगवंतोनुं आह्वान करी वर्धमान-मंत्रनो 1008 बार जाप करवो। इति वर्धमानचक्रोद्धारविधिः। 35 1. ( अथवा शिरसि एटले ब्रह्मरंध्रमा स्थित एवा पोताना आत्माने) 2. (बीजी प्रतिमा पाठांतरे आ मंत्र आ प्रकारे छे:-'ॐ नमो विमलाय विमलचित्ताय प्वाँ इवां इवां अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा।') Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 [प्राकृत पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। [7] मानसीपूजा 'ॐ राँ' भूमिशोधनम् / ‘याँ राँ लाँ वाँ माँ' उदकम् , अष्टोत्तरशतवारान् / 'सरसुंसः हरहुंहः' चन्दनम् / 'ॐ [] तन्दुलाः 108 / 'आँ लाँ इँ वाँ कुँ (जं ?) काँ खाँ गाँ घाँ स्वाहा' पुष्पाणि / 'चाँ छाँ जाँ झाँ' नैवेद्यम् / 'क्षिप 3 स्वाहा' धूपः। 'ॐ ह्री' दीपः। ॐ ही रक्ते रक्ते महारक्ते हसौ हकली घु शासनदेवी (वि)! . एहि एहि अवतर अवतर स्वाहा आह्वानमन्त्रः / 'ॐ श्वेते श्वेते महाश्वेते महाश्वेते जये विजये अजिते अपराजिते स्वाहा' विसर्जनमन्त्रः / जापः 10 सहस्रः, होमः 1 सहस्रः, मूलमन्त्रः ('ॐ अर्ह नमः'), जापः लक्ष 9, शुभवारे शुभहोरायां 10 शुभलग्ने शुभयोगे शुभस्थाने ध्येयं मोक्षकाङ्क्षिभिः // इति महासैद्धान्तिकभद्रगुप्तस्वामिना निजशिष्यश्रीवयरस्वामिवचनेन बृहद्वृत्तेरुद्धृता श्रीपरमपञ्चपरमेष्टिमहामन्त्र यन्त्रचक्रवृत्तिरियं समाप्ता // करवा . 7 मानसीपूजा 'ॐ राँ'-आ मंत्रथी भूमिशोधन करवू / 'याँ राँ लाँ वाँ माँ'-आ मंत्रथी 108 वार जलस्नान करावq / 'सरसुंसः हरहुँहः'-आ मंत्रथी चंदननी भावना करवी / 'ॐ झु'-आ मंत्रथी 108 वार अक्षत चढाववानी भावना करवी / 'आँ लाँ-वगेरे मंत्रथी पुष्पोनी भावना करवी / 'चाँ छाँ'-वगेरे मंत्रथी नैवेद्यनी भावना करवी। 'क्षिप ॐ स्वाहा'-आ मंत्रथी धूपनी भावना करवी। 'ॐ ह्रीं'-आ मंत्रथी दीपकनी भावना करवी। 'ॐ ह्री रक्ते.'-वगेरे मंत्रथी आह्वाननी भावना करवी। 'ॐ श्वेते श्वेते महाश्वेते.'-वगेरे मंत्रथी विसर्जननी भावना करवी। जाप 10000 दसहजार; होम 1000 एक हजार; मूळ मंत्र 30 अर्ह नमः' नो जाप 900000 नवलाख; शुभवार, शुभ होरा, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ स्थान (आदि बराबर विचारीने) मोक्षनी अभिलाषावाळाए ध्यान करवू जोईए। महासैद्धान्तिक श्रीभद्रगुप्तस्वामीए पोताना शिष्य श्रीवज्रस्वामीना कहेवाथी (पोते रचेली) बृहद्वृत्तिमांथी (साररूप) उद्धृत करेली 'पंचपरमेष्टिमहामंत्रयन्त्र-चक्रवृत्ति' समाप्त थई। 25 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ध्यान माटे बीजी विधि 'नमस्कार लघुपंजिका' मां आ प्रकारे विस्तारथीं आपेली छे :-) एकान्तमां पर्यंकासने बेसी साधक पूर्व दिशामां के उत्तर दिशामां पोतार्नु मुख राखी नासिकाना अग्रभाग उपर दृष्टि राखे। पहेला पूरक, पछी कुंभक अने छेल्ले रेचक करे। पछी मस्तकभागमां पापरजने एकत्र करी घुमाडानी शिखारूपे पापरज दूर थई रही छे एम चिंतवे। पछी पोते कर्मरूपी इंधणना ढगला 5 उपर बेठेलो होय तेम मानी, तेनी नीचे दीपनी शिखाना आकारवाळु जाज्वल्यमान 'र' (अग्निबीज) चिंतवे / पछी पोताना हृदयमां पोताने स्वदेहाकारे स्थापीने 'र'कारनी नीचे 'व'कारनुं वायुरूपे चिंतन करी, ते वायु(बीज)थी प्रेरित अग्निबीज वडे पोतानुं शरीर बळतुं होय तेम विचारी, केवळ आत्मा ज पूर्व देहाकारे बाकी रह्यो होय अने बीजुं बधुं बळीने भस्मसात् थयुं होय तेम विचारी, ते आत्मानी उपर '_' बीज आकाशमां अधोमुख थई मेघरूपे अमृतने वरसावतुं होय एम चिंतवे / पछी वर्षाजळथी थयेल सरोवरमां 10 पोताने प्लावित चिंतवे / पछी ते सरोवरमां दस पत्रवाळा, विकासने पामेला कमळनी कर्णिकामां अमृतनी वर्षाथी शुद्ध थयेल पोताना आत्माने उज्ज्वळ वर्णवाळो पर्यंकासने स्थित चिंतवे। पछी फरीथी शुद्ध थवा माटे हाथमां सोळ पांखडीवाळा कमळनुं चिंतन करी, तेना पर अक्षतोथी नंद्यावर्त्त बनावी (चिंतवी) तेना पर सर्व लक्षणथी युक्त अने आठ महाप्रातिहार्य तथा चोत्रीश अतिशयोथी युक्त एवा श्री वर्धमानस्वामीनू चिंतन करे। पछी पद्मनी केसराओमां मरुदेवी आदि चोवीश तीर्थंकरोनी माताओने स्थापन करे अने 15 पत्रोमां रोहिणी आदि सोळ विद्यादेवीओने स्थापन करे। पछी ‘अरिहंत' अंगूठाना, 'सिद्ध' तर्जनीना, 'आयरिय' मध्यमाना, 'उवज्झाय' अनामिकाना अने 'साहू' कनिष्ठिकाना पर्व उपर एम क्रमे न्यास करे। पछी अ-सि-आ-उ-सा क्रमथी अंगूठा आदि उपर स्थापी पछी अंगुष्ठादि पांच आंगळीओने अनुक्रमे ऊँ नमो अरहंताणं हाँ स्वाहा // - ऊँ नमो सिद्धाणं ही स्वाहा // नमो आयरियाणं हूँ स्वाहा // ऊँ नमो उवझायाणं है स्वाहा // ऊँ नमो लोए सव्वसाहूणं ह्रौ स्वाहा / --ए मंत्रो वडे त्रणवार अभिमंत्रित करे। पछी ते मंत्रित अंगुलिओ वडे ललाट आदि पांच प्रदेशोने जमणी बाजुथी क्रमसर ललाट, शिखा, जमणा काननुं मूळ, गळानी वच्चेनो भाग, डाबा काननुं मूळ, एम 25 अभिमंत्रित करी, फरी ते ज विद्यांगुलिकाथी--एटले आंगळीओ जे विद्याथी अभिमंत्रित करी होय ते आंगळीओथी हृदय, शिर, शिखा, कवच अने अस्त्र वगेरेने त्रण वार बन्ने हाथो वडे कवच आपवोअभिमंत्रित करवा। पोताने विद्यारूप चिंतवी साधक सघळां कर्मोने साधी शके छे; एम सवारे, बपोरे अने सांजे मंत्रक्रिया करवी जोईए। आवी साधनावाळा साधकने झेर, वज्र, झेरीलां पशु-पक्षीओ, ग्रहो अने डाकिनी वगेरे पीडा करतां नथी अने तेनी आज्ञानु उल्लंघन करतां नथी। तेनुं बधुं पाप नाश 30 पामे छे। आ रीते सकलीकरण करीने 'पंचनमस्कारचक्र' चारेय बाजुथी देदीप्यमान, अनेक कोटि सूर्योना तेजवाळु, पोताना मस्तक उपर रहेलं छे, एम चिंतवी साधक ज्यां जाय त्यां सर्व उपद्रव, सर्व Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारविधिः। [प्राकृत / उपसर्ग, वेपार, जुगार आदिमा विजयी थाय छे, एम चक्रना प्रभाव, स्मरण करतो पोताने अर्ह (अरिहंत) स्वरूप चिंतवे अने पोतानी आगळ अत्यन्त उदार, प्रकाशमान, सारी रीते देवताओथी परिवृत, करोडो सूर्योना तेजथी युक्त, मिथ्यात्वरूपी अंधकारने हठाववामां कारणभूत, कोनो नाश करवामां समर्थ एवा धर्मचक्रने विचारे। पोतानी पाछळ गणधरो, चक्रवर्तिओ, इन्द्रो, देव-देवीओ, नागदेवो आदिना समूहने 5चिंतवे / आवो साधक संग्राम, व्यवहार, मारि, चोर, राजानो उपद्रव, गज, सर्प, भूत, राक्षस, पिशाच, अग्नि अने पाणी वगेरेना उपद्रवोथी पराजित थतो नथी / वळी, सर्व जनोने प्रिय थाय छे; बधां पापोथी मुक्त थाय छे तेमज वशीकरण, आकर्षण, शांतिक, पौष्टिक वगेरे बधी क्रियाओने साधी शके छे।। आ रीते पंचनमस्कारचक्रनुं त्रणे वखत गंध, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत अने नैवेद्यथी भक्तिपूर्वक पूजन करी उपर कह्या मुजब ध्यान करे (तो) बधां पापोनो नाश थाय छे / परिचय 'अरिहाणाइथुत्तं' मा जे 'पंचनमस्कारचक्र' बताववामां आव्यु छे तेनो उद्धार आ रचनामां दर्शाव्यो छे / आ चक्रने पंचनमस्कारचक्र, पंचपरमेष्टिचक्र अगर वर्धमानचक्र एवा नामथी ओळखाववामां आव्यु छ। आ रचनानी त्रण हस्तलिखित प्रतिओ मळी छे, ते प्रतिओ ऊपरथी करावेली फोटोस्टेटिक नकलो 15 जैन साहित्य विकास मंडलना संग्रहमा विद्यमान छे, तेनां VJ Sएवी संज्ञाओथी पाठांतरो लीधां छे / S संज्ञावाली प्रतिनो पाठ मुख्य आदर्श तरीके राख्यो छे / __ आ रचना संस्कृतमां होवा छतां 'अरिहाण नमो पूयं' स्तोत्रनी साथे एनो संबंध होवाथी प्राकृतविभागमां ज तेने मूकी छे। एना कर्ता आचार्य श्रीभद्रगुप्तस्वामी होवानुं तेनी अंतिम पुष्पिकाथी जणाय छे / आ रचना अनुवाद साथे संपादित करीने अहीं मूकी छे। ते उपरथी एक चित्र तैयार कराव्युं छे, ते यंत्र20 चित्र नं. 1 मां जूओ। EPITH Aarma Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] ध्या न विचारः॥ ध्यानं', परमध्यानम् , शून्यं, परमशून्यम् , कला, परमका, ज्योतिः', परमज्योतिः, बिन्दुः, परमबिन्दुः, नादः, परमनादः, तारों, परमतारों, लयः, परमलयः, लवैः, परमलँयः, मात्रों, परममात्रौं, पदं", परमपदमें , सिद्धिः", परमसिद्धिः" इति ध्यानमार्गभेदाः॥ उक्तं च “सुन्न-कलै-जोई-बिंदू नादों तारों लओं लवों मत्ती / पर्य-सिद्धी" परमजुया झाणाई हुंति चउवीसं // 1 // " तत्र ध्यानं–चिन्ता-भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायः। द्रव्यतश्चात-रौदे; भावतस्तु आज्ञाऽपायै-विपाक-संस्थानविचयभिदं धर्मध्यानम् // 1 // परमध्यान-शुक्लस्य प्रथमो भेदः-पृथक्त्ववितर्कसविचारम् // 2 // ____10 अनुवाद 1. ध्यान, 2. परमध्यान, 3. शून्य, 4. परमशून्य, 5. कला, 6. परमकला, 7. ज्योति, 8. परमज्योति, 9. बिन्दु, 10. परमबिन्दु, 11. नाद, 12. परमनाद, 13. तारा, 14. परमतारा, 15. लय, 16. परमलय, 17. लव, 18. परमलव, 19. मात्रा, 20. परममात्रा, 21. पद, 22. परमपद, 23. सिद्धि, 24. परमसिद्धि-आ प्रमाणे ध्यानना मार्गो 24 प्रकारना छ। बीजे स्थळे पण कयुं छे के-१. ध्यान, 2. शून्य, 3. कला, 4. ज्योति, 5. बिन्दु, 6. नाद, 15 7. तारा, 8. लय, 9. लव, 10. मात्रा, 11. पद, 12. सिद्धि-आ प्रमाणे बार तथा दरेकनी साथे 'परम' शब्द लगाडवाथी ‘परमध्यान' वगेरे (बीजा) बार एम चोवीश भेदो थाय छे / ध्यान आदि भेदोनुं स्वरूप 1. ध्यान :-चिंता (चिंतन) अने भावनाथी उत्पन्न थयेलो जे स्थिर अध्यवसाय ते 'ध्यान' कहेवाय छे / तेना बे भेद छ : द्रव्य ध्यान तथा भाव ध्यान / द्रव्यथी ध्यान-आर्तध्यान अने रौद्र ध्यान / 20 अने आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय एम चार प्रकार- धर्मध्यान ए भावथी ध्यान छे। 2. परमध्यान:-शुक्लध्याननो 'पृथक्त्ववितर्कसविचार' नामनो जे प्रथम भेद ते 'परमध्यान' कहेवाय छ / .29 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ध्यानविचारः। [प्राकृत . शून्यं-चिन्ताया उपरमः। द्रव्यशून्यं क्षिप्तचित्तादिना द्वादशधा "खित्ते दित्तुम्मैत्ते रार्ग-सिणेहाइभर्यमहऽव्वत्तें। निहाई-पंचगेणं बारसहा दव्वसुन्नं ति // 2 // " भावतो व्यापारयोग्यस्यापि चेतसः सर्वथा व्यापारोपरमः // 3 // परमशून्यं–त्रिभुवनविषयव्यापि चेतो विधाय एकवस्तुविषयतया संकोच्य ततस्तस्मादप्यपनीयते // 4 // 3. शून्य:-जेमां चिंतननो उपरम (अभाव) होय तेने 'शून्य' कहेवामां आवे छे / तेना बे भेद छे--द्रव्यशून्य तथा भावशून्य / तेमां द्रव्यशून्यना 'क्षिप्तचित्त' वगेरे नीचे मुजब 12 भेदो छ : *(1) क्षिप्त', (2) दीप्त', (3) उन्मत्त, (4) राग, (5) स्नेह, (6) अतिभय, (7) अव्यक्त', (8) निद्रा, 10 (9) निद्रानिद्रा, (10) प्रचला, (11) प्रचलाप्रचला, (12) त्यानर्द्धि / चित्त, व्यापारने योग्य होवा छतां तेना व्यापारनो जे सर्वथा उपरम करवामां आवे ते 'भावशून्य' कहेवाय छे / 4. परमशून्य:-चित्तने प्रथम त्रण भुवन रूपी विषयमा व्यापक करीने पछी तेमांथी एक वस्तुमा संकोची लईने पछी ते एक वस्तुमांथी पण चित्तने खसेडी लेवामां आवे ते 'परमशून्य' कहेवाय छ। * क्षिप्तचित्त आदि अवस्थाओमां चित्त शून्य थई जतुं होवाने लीधे ए बार अवस्थाओने अहीं 'द्रव्यशून्य' 15 तरीके जणावेली छ। श्री ओघनियुक्तिनी (आगमोदयसमिति प्रकाशित) द्रोणाचार्यरचित टीकामां (पृ. 162 मां) क्षिप्तचित्त, दीप्तचित्त, मत्त तथा अव्यक्त मनुष्योन स्वरूप केवा प्रकार, होय छे ते जणावेलुं छे / जो के त्यां ए वात बीजा ज प्रसंगने अनुलक्षीने छे, छतां त्यां 'क्षिप्तचित्त' आदिनी करेली व्याख्या अहीं क्षिप्त आदिनो अर्थ समजवामां उपयोगी होवाथी नीचे आपी छे / 20 1. 'क्षिप्तं चित्तं यस्य द्रविणाद्यपहारे सति चित्तविभ्रमो जातः।'-धन आदि. चोराई जवाथी जेना चित्तमां विभ्रम उत्पन्न थयो होय ते 'क्षिप्तचित्त' कहेवाय छे / 2. 'दीप्तं चित्तं यस्यासकृच्छत्रुपराजयाद्युत्कर्षेण अतिविस्मयाभिभूतस्य चित्तह्रासो जातः ।'-शत्रु उपर वारंवार विजय मेळववा आदि कारणे प्राप्त थयेला उत्कर्षथी अतिविस्मय थवाने लीधे जेना चित्तनो ह्रास थयो होय ते 'दीप्तचित्त' कहेवाय छ। 3. 'मत्तः सुरया पीतया'-दारू पीवाथी जे मत्त थयो होय ते 'मत्त' कहेवाय छ। ' 4. जेनामां समजण आवी नथी तेने 'अव्यक्त' समजवो। भगवान भद्रबाहुस्वामिरचित 'बृहत्कल्पसूत्र'मां पृ. 1636 मां पण "खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ // १०॥"-आ सूत्रमा ‘क्षिप्तचित्तनो' उल्लेख छ। पृ. 1647 मां “दित्तचित्तं निग्गंथिं 'निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ॥११॥"-आ सूत्रमा 'दीप्तचित्त'नो उल्लेख छ। तथा पृ. 1653 मां 30 " उम्मायपत्तिं निग्गथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा 2 नाति(इ)कमइ // १३॥"-आ सूत्रमा 'उन्मत्त'नो उल्लेख छ। श्री संघदासगणिरचित 'बृहत्कल्पभाष्य'मां तेमज श्रीक्षेमकीर्तिसूरिरचित तेनी टीकामां राग, भय, स्नेह, आदि कारणोथी चित्त केवी रीते क्षिप्त थई जाय छे तेमज अतिलाभ थवाथी 'चित्त' केवी रीते दीप्त थई जाय छे ए विषेनुं विस्तृत वर्णन छ / तेथी क्षिप्तचित्त आदि केटलीक अवस्थाओगें स्वरूप जाणवा जुओ "बृहत् कल्पसूत्र” (श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगरथी प्रकाशित ) पृ. 1636 थी पृ. 1653 / 25 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 227 कला-द्रव्यतो मल्लादिभिर्नाडीचम्पनेन या चटाप्यते, भावतस्तु अत्यन्ताभ्यासतः स्वयमेव देशकाल-करणाद्यनपेक्ष्य या समारोहति, अन्येन त्ववतार्यते, यथा पुष्पभूतेराचार्यस्य पुष्प(ष्य ?)मित्रेण कलाजागरणं कृतम् // 5 // परमकला—या सुनिष्पन्नत्वादभ्यासस्य स्वयमेव जागति; यथा चतुर्दशपूर्विणां महाप्राणध्याने // 6 // ज्योतिः-चन्द्र-सूर्य-मणि-प्रदीप-विद्युदादि द्रव्यतः, भावतोऽभ्यासादनुलीनमनसो भूत-भवद्- 5 भविष्यबहिर्वस्तुसूचा विषयप्रकाशः // 7 // परमज्योतिः—येन सदाऽप्ययत्नेनापि समाहितावस्थायां पूर्वस्माच्चिरकालभावी प्रकाशो जन्यते॥८॥ बिन्दुः--द्रव्यतो जलादेः, भावतो येन परिणामविशेषेण जीवात् कर्म गलति // 9 // परमबिन्दुः—सम्यक्त्व-देशविरति-सर्वविरति - अनन्तानुबन्धिविसंयोजन- सप्तकक्षय - उपशामकावस्था-उपशान्तमोहावस्था-मोहक्षपकावस्था-क्षीणमोहावस्थाभाविगुणश्रेणयः, उपरितने तु द्वे गुणश्रेणी 10 केवलिन एव भवतः, इदं तु छद्मस्थस्यैव निरूप्यते / गुणश्रेणिर्नाम बहूपरितनकालवेद्यस्य दलिकस्याधः स्वल्पकालेनैव वेदनम् / उक्तं च "उवरिमठिईदलियं हेट्ठिमठाणम्मि कुणइ गुणसेढी // 10 // " 5. कला:-कलाना बे प्रकार छे—द्रव्यकला अने भावकला। मल्ल वगेरे लोको नाडी दबावीने (उतरी गयेल अंगने)चडावे छे ते द्रव्यकला जाणवी। परंतु अत्यंत अभ्यासने लीधे देश, काल, तथा करण आदिनी 15 अपेक्षा विना पोतानी मेळे ज चडे परंत बीजावडे उताराय ते भावथी कला जाणवी। जेमके आचार्य पष्पभतिनी कलाने (समाधिने) मुनि पुष्यमित्रे जागृत करी हती-उतारी हती। (आ कथा माटे जुओ परिशिष्ट-१) 6. परमकला:-अभ्यास सुनिष्पन्न थयो होवाथी जे (समाधि) पोतानी मेळे ज जागृत थाय (उतरी जाय)-जेम चौद पूर्वधरोने महाप्राण ध्यानमां थाय छे ते ‘परमकला' कहेवाय छ / 7. ज्योति:-ज्योति बे प्रकारे छे--द्रव्य ज्योति तथा भावज्योति। चंद्र, सूर्य, मणि, प्रदीप तथा 20 वीजळी वगेरे 'द्रव्यथी ज्योति' छे। अभ्यासथी जेनुं मन लीन थयुं छे तेवा मनुष्यने-भूतकाळ, वर्तमानकाळ तथा भविष्यकाळनी बाह्य वस्तुओने सूचवनारो जे विषयप्रकाश उत्पन्न थाय छे ते 'भावथी ज्योति' छे / 8. परमज्योति–उपर कहेल 'ज्योति' करतां चिरकाळ सुधी टकनारो प्रकाश हमेशां प्रयत्न विना समाधि अवस्थामां जे ध्यानथी उत्पन्न थाय ते ‘परमज्योति' कहेवाय छे / 9. बिन्दु :-जल वगेरेनुं बिन्दु ते 'द्रव्यथी बिन्दु' छे। अने जे परिणामविशेषथी आत्मा 25 उपरथी कर्म झरी जाय-खरी पडे तेवो परिणामविशेष (अध्यवसाय) 'भावथी बिन्दु' कहेवाय छे / 10. परमबिन्दु :-सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, अनंतानुबन्धी (क्रोध, मान, माया, लोभ)नी विसंयोजना, सप्तकनो क्षय, उपशामक अवस्था, उपशांतमोहावस्था, मोहक्षपकावस्था तथा क्षीणमोहावस्था प्राप्त थती वखते जे गुणश्रेणिओ प्राप्त थाय छे ते ‘परमबिन्दु' समजवी / त्यारपछीनी बे गुणश्रेणिओ केवळज्ञानीने ज होय छे। अने अहीं तो छद्मस्थना ध्याननु ज निरुपण चाली रयुं छे / एटले ए बे गुणश्रेणिओ 30 परमबिन्दुमां गणी नथी। कर्मना जे दलियानुं घणा लांबा समये वेदन थवानुं होय तेने नीचेनी स्थितिमां नाखी दईने अल्पसमयमां ज जे वेदन करवामां आवे तेने गुणश्रेणि कहेवामां आवे छे। कयुं छे के- "उपरनी स्थितिना कर्मदलिकने नीचेना स्थानमा नाखवामां आवे ते 'गुणश्रेणि' कहेवाय छे।" 1. एकंदरे गुणश्रेणिओ 11 छ। तेमां 9 छद्मस्थने होय छे, अने 2 केवळज्ञानीने होय छ। (जुओ कर्मप्रकृति गाथा 395-396) छद्मस्थनी जे 9 गुणश्रेणिओ छे ते अहीं 'परमबिन्दु' तरीके विवक्षित छ। 35 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ध्यानविचारः। [प्राकृत नादः-द्रव्यतो बुभुक्षातुराणामङ्गुलीस्थगितकर्णानां सुसूत्कारः; भावतः स्वशरीरोत्थ एव तूर्यनिर्घोष इव स्वयं श्रूयते // 11 // परमनादः-पृथग्वाद्यमानवादित्रशब्दा इव विभिन्ना व्यक्ताः श्रूयन्ते // 12 // तारा-द्रव्यतो विवाहादौ वधू-वरयोस्तारामेलकः; भावतः कायोत्सर्गव्यवस्थितस्य 5 निश्चला दृष्टिः // 13 // परमतारा-द्वादश्यां प्रतिमायामिवानिमेषा शुष्कपुद्गलन्यस्ता दृष्टिः / / 14 // लयः-वज्रलेपादिद्रव्येण संश्लेषो द्रव्यतः; भावतोऽहंदादिचतुःशरणरूपश्चेतसो निवेशः // 15 // 11. नाद :--भूखथी पीडाता मनुष्यो कानमां आंगळी नाखीने जे सुसकारो करे छे ते 'द्रव्यथी नाद' छे। अने पोताना शरीरमा ज उत्पन्न थयेलो जे निर्घोष (नाद) वाजिंत्रना अवाजनी जेम स्वयं 10 संभळाय छे ते 'भावथी नाद' समजवो। ..12. परमनाद :--जुदां जुदां वागतां वाजिंत्रोना शब्दोनी जेम विभिन्न अने व्यक्त शब्दो संभळाय ते 'परमनाद' कहेवाय छे। 13. तारा:-विवाह आदि प्रसंगमां वधू अने वरनुं जे परस्पर तारामैत्रक-तारामेलक (आंखनी कीकीओनुं मिलन) थाय छे ते 'द्रव्यथी तारा' छ। कायोत्सर्गमा रहेल मनुष्यनी जे निश्चल दृष्टि ते 15 'भावथी तारा' छे। 14. परमतारा:-बारमी प्रतिमानी जेम शुष्क पुद्गल उपर जे अनिमेष दृष्टि स्थापवामां आवे ते 'परमतारा' छे। 15. लयः-वज्रलेप आदि द्रव्यथी वस्तुओनो जे परस्पर गाढ संयोग ते 'द्रव्यथी लय' छे अने अरिहंत, सिद्ध, साधु तथा केवलीप्ररूपित धर्म-आ चारनुं शरण अंगीकार करवारूप जे चित्तनो 20 निवेश ते 'भावथी लय' छे / 1. विशिष्ट प्रकारना उग्र प्रतिज्ञापालनने-व्रतपालनने-'प्रतिमा' कहेवामां आवे छे। साधुओनी आवी प्रतिमाओ 12 छ। जेमके एकमासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चातुर्मासिकी, पंचमासिकी, षण्मासिकी, सप्तमासिकी, सप्तरात्रिकी, सप्तरात्रिकी, सप्तरात्रिकी, अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी। आ बधी प्रतिमाओनुं स्वरूप आवश्यक वृत्ति आदि ग्रंथोमा विस्तारथी वर्णवेलुं छे। तेमां 12 मी प्रतिमामां अट्ठम करीने गाम बहार जईने अनिमेष नयने एक दृष्टि स्थापीने काउस्सग्ग 25 ध्यानमां उभा रहेवार्नु होय छे। 2. मंदिर मकान आदि अधिक मजबूत करवाने माटे प्राचीन जमानामां भीत आदिनी उपर जे लेप करवामां आवतो हतो, ते बृहत्संहितामा वज्रलेपना नामथी नीचे प्रमाणे प्रसिद्ध छ : - आमं तिन्दुकमाम कपित्थकं पुष्पमपि च शाल्मल्याः। बीजानि शल्लकीनां धन्वनवल्को वचा चेति // 1 // . एतैः सलिलद्रोणः क्वाथयितव्योऽष्ट भागशेषश्च / अवतार्योऽस्य च कल्को द्रव्यैरेतैः समनुयोज्यः // 2 // श्रीवासक-रस-गुग्गुलु-भल्लातक-कुन्दुरूक-सजेरसैः / अतसी-बिल्वैश्च युतः कल्कोऽयं वज्रलेपाख्यः // 3 // प्रासादहऱ्यावलभी-लिङ्गप्रतिमासु कुड्यकूपेषु सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्रायुतस्थायी // 4 // अर्थः-काचा टीबरु, काचा कोठां, शिमळाना फूल, सारफळ (सालेडो, धूपेडो) ना बीज, धामण, वृक्षनी छाल अने घोडा वज-ए औषधो बराबर सरखा वजन प्रमाणे लइ, पछी तेने एक द्रोण अर्थात् 256 तल=१०२४ तोला पाणीमा नाखीने उकाळो करवो। ज्यारे पाणीनो आठमो भाग रहे त्यारे नीचे उतारी, तेमां सुरूवृक्षोनो गुंदर (बेरजो) हीराबोळ गुगळ, भीलामा, देवदारनो गुंद (कुंदरु), राळ, अळशी, अने बीलीफळ ए औषधोनु चूर्ण नाखवू जेथी वज्रलेप तैयार थाय छे। // 1-2-3 // 40 उपर कहेल वज्रलेप देवमंदिर, मकान, झरोखा, शिवलिंग, प्रतिमा (मूर्ति), भींत अने कुवा वगेरे ठेकाणे घणो गरम गरम लगावे तो ते मकान आदिनी स्थिति करोड वर्षनी थाय॥४॥ वास्तुसारे परिशिष्ट A पृ. 147 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 229 परमलयः-आत्मन्येवात्मानं लीनं पश्यतीत्येवंरूपः // 16 // लवः-द्रव्यतो दात्रादिभिः शस्यादेर्लवनम् ; भावतः कर्मणां शुभध्यानानुष्ठानैर्लवनम् // 17 // परमलवः–उपशमश्रेणि-क्षपकश्रेणी // 18 // मात्रा-द्रव्यत उपकरणादिपरिच्छेदः; भावतः समवसरणान्तर्गतं सिंहासनोपविष्टं देशनां कुर्वाणं तीर्थङ्करमिवात्मानं पश्यति // 19 // . परममात्रा-चतुर्विंशत्या वलयैः परिवेष्टितमात्मानं ध्यायति, तद् यथाशुभाक्षरवलयं-'आज्ञाविचयादिधर्मध्यानभेदाक्षर २३–'पृथक्त्ववितर्कसविचारं' इत्यक्षराः १०–एवं 33 न्यस्यन्ते यत्र // (1) अनक्षरवलयं-"ऊससियं नीससियं" इत्यादिगाथाक्षराण्यनक्षरश्रुतवाचकानि न्यस्यते यत्र // (2) परमाक्षरवलयं-ॐ अर्ह अँ रि हँ त सि ढूँ आँ रि य उ व ज्झाँ यँ साँ हूँ नमः' इति 10 ___ न्यस्यन्ते यत्र // (3) अक्षरवलयं—'अ आ' इत्यादीनि, ईषत्स्पृष्टतर य ल व'युतानि द्विपञ्चाशन्मातृकाक्षराणि 'ह'पर्यन्तानि __ न्यस्यन्ते यत्र // (4) 16. परमलय :--आत्मामां ज आत्माने लीन थयेलो जोवो ते ‘परमलय' छ / 17. लव:--दातरडा आदिथी घास आदिनुं जे काप, ते 'द्रव्यथी लव' छ। शुभध्यान अने 15 अनुष्ठानो वडे कर्मोने जे छेदवां ते 'भावथी लव' छे। 18. परमलवः--उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि 'परमलव' छ / 19. मात्राः---उपकरण आदिनो जे परिच्छेद (मर्यादा) ते 'द्रव्यथी मात्रा' छे। समवसरणनी अंदर सिंहासन उपर विराजीने देशना आपता तीर्थकर भगवाननी जेम पोताना आत्माने जोवो ते 'भावथी मात्रा' छे। 20 __ 20, परममात्रा:-चोवीश वलयोथी वीटायेल पोताना आत्मानुं जे ध्यान कर, ते 'परममात्रा' छे / ते वलयोनुं स्वरूप नीचे मुजब छे : (जुओ—यंत्र-चित्र नं. 2) (1) प्रथम 'शुभाक्षरवलय' छे जेमां धर्मध्यानना 4 भेदोना 'आ ज्ञा वि च य, अ पा य *वि च य, वि पाक वि च य, संस्था न वि च य' एम 23 अक्षरो तथा शुक्लध्यानना प्रथम भेदना 'पृथ क्व वि त के स वि चा र' एम 10 अक्षरो मळीने कुल 33 अक्षरोनो न्यास करवो। 25 (2) बीजं 'अनक्षरवलय' छे / आगम ग्रंथोमां अनक्षरश्रुतज्ञान विषे 'ऊससियं नीससियं' आदि जे गाथा मळे छे तेना अक्षरो आ वलयमां स्थापवामां आवे छे। संपूर्ण गाथा नीचे मुजब छे: * ऊससियं नीससियं निच्छद खासिअंच छीअंच। निस्सिघिअमणुसारं अणक्खरं छेलिआईअं॥ (3) त्रीजा ‘परमाक्षरवलय'मां 'ॐ अहं अॅरि हँ तँ सिँ हूँ आँ रि" य उँ वँ ज्झाँ यँ साँ 30 हूँ नमः' आ अक्षरोनो न्यास करवामां आवे छे / / (4) चोथं 'अक्षरवलय' छे। तेमां अ थी ह सुधीना 49 तेमज इषत्स्पृष्टतर 'य, ल, व'-आ त्रण अक्षरो एम कुल 52 'मातृका-अक्षरोनो न्यास करवामां आवे छे / * आगमोदयसमिति प्रकाशित नंदीसूत्र पृ. 187 / बृहत्कल्पसूत्र नियुक्तिमां पृ. 27 मां आ 76 मी गाथा छ। आवश्यक नियुक्तिमां पण आ गाथा छ। 35 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ध्यानविचारः। [प्राकृत निरक्षरवलयं-ध्यान-परमध्यानयोः शुभाक्षरवलये प्रविष्टत्वात् शेषध्यानभेदाः 22 न्यस्यन्ते यत्र // (5). सकलीकरणवलयं-पृथिव्यप्-तेजो-वाय्वाकाशमण्डलपञ्चकात्मकम् // (6) परस्परावलोकनव्यग्रवामजानुन्यस्ततीर्थंकरमात 24 वलयम् // (7) तीर्थङ्करपितृ 24 वलयम् // (8) अतीता-ऽनागत-वर्तमानभावतीर्थङ्करनामाक्षरवलयम् // (9) (5) ध्यानना 'ध्यान', 'परमध्यान' वगेरे 24 भेदो छे ते पैकीना प्रथम बे भेद-'ध्यान' अने ‘परमध्यान' प्रथम शुभाक्षरवलयमां आवी जाय छे / तेथी बाकी रहेला 22 भेदोनो पांचमा 'निरक्षर वलय'मां न्यास करवामां आवे छे / (6) छटुं 'सकलीकरणवलय' पृथ्वीमंडल, अपमंडल, तेजोमयमंडल, वायुमंडल तथा आकाश10 मंडल-आ पांच मंडल स्वरूप छ। (7) जेओ परस्पर अबलोकन करवामां व्यग्र छे तेमज जेमणे डाबा ढींचण उपर पोताना बाळकोतीर्थंकरोने बेसाडेला छे तेवी 24 तीर्थंकरोनी माताओनी सातमा वलयमा स्थापना करवामां आवे छ।' (8) आठमुं वलय 24 तीर्थंकरोना पिताओनुं छे। (9) नवमा वलयमां भूत, भविष्यं अने वर्तमानकाळनी चोवीशीओना भाव तीर्थंकरोना नामोना 15 अक्षरोनी स्थापना करवामां आवे छे। . 1. 24 तीर्थकरोनी माताओनां नामो अनुक्रमे नीचे मुजब छे: ___ (1) मरुदेवा (2) विजया (3) सेनादेवी (4) सिद्धार्था (5) मंगला (6) सुसीमा (7) पृथ्वी (8) लक्ष्मणा (9) रामा (10) नंदा (11) विष्णु (12) जया (13) श्यामा (14) सुयशा (15) सुव्रता (16) अचिरा (17) श्री (18) देवी (19) प्रभावती (20) पद्मावती (21) वप्रादेवी (22) शिवादेवी (23) वामादेवी (24) त्रिशलादेवी। 202. चोवीश तीर्थकरोना पिताओनां नामो नीचे मुजब छे: (1) नाभिराजा (2) जितशत्रु (3) जितारि (4) संवर (5) मेघ (6) धर (7) प्रतिष्ठ (8) महासेन (9) सुग्रीव (10) दृढरथ (11) विष्णुराज (12) वसुपूज्य (13) कृतवर्मा (14) सिंहसेन (15) भानु (16) विश्वसेन (17) सूर (18) सुदर्शन (19) कुंभ (20) सुमित्र (21) विजय (22) समुद्रविजय (23) अश्वसेन (24) सिद्धार्थ / 25 3. भूतकालीन चोवीश तीर्थकरोनां नामो नीचे मुजब छ : (1) केवलज्ञानी (2) निर्वाणी (3) सागर (4) महायश (5) विमल (6) सर्वानुभूति (7) श्रीधर (8) दत्त (9) दामोदर (10) सुतेज (11) स्वामी (12) मुनिसुव्रत (13) सुमति (14) शिवगति, (15) अस्ताग (16) निमीश्वर (17) अनिल (18) यशोधर (19) कृतार्थ (20) जिनेश्वर (21) शुद्धमति (22) शिवकर (23) स्यन्दन (24) संप्रति। 4. भविष्यकालना चोवीश तीर्थकरोनां नामो नीचे मजब छे:30 (1) पद्मनाभ (2) शूरदेव (3) सुपार्श्व (4) स्वयंप्रभ (5) सर्वानुभूति (6) देवश्रुत (7) उदय (8) पेढाल (9) पोट्टिल (10) शतकीर्ति (11) सुव्रत (12) अमम (13) निष्कषाय (14) निष्पुलाक (15) निर्मम (16) चित्रगुप्त (17) समाधि (18) संवर (19) यशोधर (20) विजय (21) भल्ल (22) देव (23) अनन्तवीर्य (24) भद्रकृत् / 5. वर्तमानकालना चोवीश तीर्थकरोनां नामो नीचे मुजब छे: - (1) ऋषभ (2) अजित (3) संभव (4) अभिनन्दन (5) सुमति (6) पद्मप्रभ (7) सुपार्श्व (8) चन्द्रप्रभ 35 (9) सुविधि (10) शीतल (11) श्रेयांस (12) वासुपूज्य (13) विमल (14) अनंत (15) धर्म (16) शान्ति (17) कुन्थु (18) अर (19) मल्लि (20) मुनिसुव्रत (21) नमि (22) नेमि (23) पार्श्व (24) महावीर / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय। 231 रोहिण्यादिषोडशविद्यादेवतावलयम् // (10) अष्टाविंशतिनक्षत्रनामाक्षरवलयम् // (11) अष्टाशीतिग्रहवलयम् // (12) (10) दसमुं वलय रोहिणी आदि 16 विद्यादेवीओनु छ / (11) अगियारमा वलयमा 28 नक्षत्रोना नामाक्षरोनी स्थापना करवामां आवे छे / (12) बारमा वलयमा 88 पँहोनी स्थापना करवामां आवे छे / 1. सोळ विद्यादेवीओनां नामो नीचे मुजब छे: आ ज ग्रंथमां ग्रंथकारे आगळ 16 विद्यादेवीओनां नामो जणावेलां छे ते अनुसारे अहीं विद्यादेवीओनां नामो आप्यां छे। बीजा ग्रंथोमां जो के केटलांक नामोमां फेरफार पण जोवामां आवे छे। (1) रोहिणी (2) प्रशप्ति (3) वज्रशंखला (4) वज्रांकुशी (5) अप्रतिचक्रा (6) पुरुषदत्ता (7) काली 10 (8) महाकाली (9) गौरी (10) गान्धारी (11) ज्वालामालिनी (12) मानवी (13) वैरोट्या (14) अच्छुप्ता (15) मानसी (16) महामानसी / 2. 28 नक्षत्रोनां नामो नीचे मुजब छे:... (1) अश्विनी (2) भरणी (3) कृतिका (4) रोहिणी (5) मृगशीर्ष (6) आर्द्रा (7) पुनर्वसु (8) पुष्य (9) आश्लेषा (10) मघा (11) पूर्वाफाल्गुनी (12) उत्तराफाल्गुनी (13) हस्त (14) चित्रा (15) स्वाति 15 (16) विशाखा (17) अनुराधा (18) ज्येष्ठा (19) मूळ (20) पूर्वाषाढा (21) उत्तराषाढा (22) अभिजित् (23) श्रवण (24) धनिष्ठा (25) शतभिषा (26) पूर्वाभाद्रपद (27) उत्तराभाद्रपद (28) रेवती। 3. 88 ग्रहोनां नामो नीचे मुजब छे : (1) अंगारक (2) विकालक (3) लोहित्यक (4) शनैश्चर (5) आधुनिक (6) प्राधुनिक (7) कण (8) कणक (9) कणकणक (10) कणवितानक (11) कणसंतानक (12) सोम (13) सहित (14) आश्वासेन (15) कार्योपग 20 (16) कर्बटक (17) अजकरक (18) दुंदुभक (19) शंख (20) शंखनाभ (21) शंखवर्णाभ (22) कंस (23) कंसनाभ (24) कंसवर्णाभ (25) नील (26) नीलावभास (27) रूप्पी (28) रूप्यावभास (29) भस्म (30) भस्मराशि (31) तिल (32) तिलपुष्पवर्ण (33) दक (34) दकवर्ण (35) काय (36) वन्ध्य (37) इन्द्राग्नि (38) धूमकेतु (39) हरि (40) पिंगल (41) बुध (42) शुक्र (43) बृहस्पति (44) राहु (45) अगस्ति (46) माणवक (47) कामस्पर्श (48) धुर (49) प्रमुख (50) विकट (51) विसंधिकल्प (52) प्रकल्प (53) जटाल (54) अरुण (55) 25 अमि (56) काल (57) महाकाल (58) स्वस्तिक (59) सौवस्तिक (60) वर्द्धमानक (61) प्रलम्ब (62) नित्यालोक (63) नित्योद्योत (64) स्वयंप्रभ (65) अवभास (66) श्रेयस्कर (67) क्षेमंकर (68) आभंकर (69) प्रभंकर (70) अरजा (71) विरजा (72) अशोक (73) वीतशोक (74) विवर्त्त (75) विवस्त्र (76) विशाल (77) शाल (78) सुव्रत (79) अनिवृत्ति (80) एकजटी (81) द्विजटी (82) कर (83) करिक (84) राज (85) अर्गल (86) पुष्प (87) भाव (88) केतु / 30 -सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः-पृ. 295, प्राभृत 20 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 232 ध्यानविचारः। [प्राकृत. दिक्कुमारी 56 वलयम् // (13) इन्द्र 64 वलयम् // (14) यक्षिणी 24 वलयम् // (15) यक्ष 24 वलयम् // (16) (13) तेरमा वलयमा 56 दिक्कुमारिकाओनी स्थापना करवामां आवे छे / (14) चौदमा वलयमा 64 इन्द्रोनी स्थापना करवामां आवे छे / (15) पंदरमा वलयमा 24 यक्षिणीओनी स्थापना करवामां आवे छे। (16) सोळमा वलयमा 24 यक्षोनी स्थापना करवामां आवे छे / 1. 56 दिक्कुमारीओनां नामो नीचे मुजब छे:10 (1) भोगंकरा (2) भोगवती (3) सुभोगा (4) भोगमालिनी (5) सुवत्सा (6) वत्समित्रा (7) पुष्पमाला (8) अनिन्दिता (9) मेघंकरा (10) मेघवती (11) सुमेघा (12) मेघमालिनी (13) तोयधारा (14) विचित्रा (15) वारिषेणा (16) बलाहका (17) नंदा (18) उत्तरानंदा (19) आनंदा (20) नन्दिवर्धना (21) विजया . (22) वैजयन्ती (23) जयन्ती (24) अपराजिता (25) समाहारा (26) सुप्रदत्ता (27) सुप्रबुद्धा (28) यशोधरा (29) लक्ष्मीवती (30) शेषवती (31) चित्रगुप्ता (32) वसुंधरा (33) इलादेवी (34) सुरादेवी (35) पृथिवी 15 (36) पद्मवती (37) एकनासा (38) नवमिका (39) भद्रा (40) शीता (41) अलंबुसा (42) मितकेशी (43) पुंडरीका (44) वारुणी (45) हासा (46) सर्वप्रभा (47) श्री (48) ह्री (49) चित्रा (50) चित्रकनका (51) शतेरा (52) वसुदामिनी (53) रूपा (54) रूपासिका (55) सुरूपा (56) रूपकावती। -कल्पसूत्र टीका, पञ्चमं व्याख्यानम् 2. 64 इन्द्रोनां नामो नीचे मुजब छे:20 (1) सौधर्मेन्द्र (2) ईशानेंद्र (3) सनत्कुमारेंद्र (4) माहेंद्र (5) ब्रह्मेद्र (6) लान्तकेंद्र (7) महाशुकेंद्र (8) सहस्रारेंद्र (9) प्राणतेंद्र (10) अच्युतेंद्र (11) चमरेंद्र (12) बलीन्द्र (13) धरणेंद्र (14) भूतानंदेंद्र (15) हरिकांतेंद्र (16) हरिषहेंद्र (17) वेणुदेवेन्द्र (18) वेणुदारीन्द्र (19) अग्निशिखेंद्र (20) अग्निमाणवेंद्र (21) वेलंबेंद्र (22) प्रभञ्जनेंद्र (23) घोषंद्र (24) महाघोषंद्र (25) जलकांतेंद्र (26) जलप्रभेद्र (27) पूर्णंद्र (28) अवशिष्टेंद्र (29) अमितगतीन्द्र (30) अमितवाहनेंद्र (31) किन्नरेंद्र (32) किंपुरुषंद्र. (33) सत्पुरुषंद्र (34) 25 महापुरुषंद्र (35) अतिकायेंद्र (36) महाकायेंद्र (37) गीतरतीन्द्र (38) गीतयशेंद्र (39) पूर्णभद्रेद्र (40) माणिभद्रेद्र (41) भीमेंद्र (42) महाभीमेंद्र (43) सुरूपेंद्र (44) प्रतिरूपेंद्र (45) कालेंद्र (46) महाकालेंद्र (47) संनिहितेंद्र (48) सामानेंद्र (49) धाता इंद्र (50) विधाता इंद्र (51) ऋषीन्द्र (52) ऋषिपालेंद्र (53) ईश्वरेंद्र (54) महेश्वरेंद्र (55) सुवत्स इंद्र (56) विशालेंद्र (57) हास्येंद्र (58) हास्यरतीन्द्र (59) श्वेतेंद्र (60) महाश्वेतेंद्र (61) पतंगेंद्र (62) पतंगपतीन्द्र (63) चंद्र (64) सूर्य / -त्रिषष्टिशलाका पु.च० पर्व 303. 24 यक्षिणीओनां नामो नीचे मुजब छे: (1) अप्रतिचक्रा (2) अजितबला (3) दुरितारि (4) कालिका (5) महाकाली (6) अच्युता (7) शान्ता (8) भृकुटि (9) सुतारा (10) अशोका (11) मानवी (12) चण्डा (13) विदिता (14) अंकुशा (15) कन्दर्पा (16) निर्वाणी (17) बलादेवी (18) धारिणी (19) वैरोट्या (20) नरदत्ता (21) गांधारी (22) कूष्मांडी (अंबिका) (23) पद्मावती (24) सिद्धायिका / 354. 24 यक्षोनां नामो नीचे मुजब छे: (1) गोमुख (2) महायक्ष (3) त्रिमुख (4) यक्षेश (5) तुंबरु (6) कुसुम (7) मातंग (8) विजय (9) अजित (10) ब्रह्म (11) ईश्वर (12) कुमार (13) षण्मुख (14) पाताल (15) किन्नर (16) गरुड (17) गन्धर्व (18) यक्षेन्द्र (19) कुबेर (20) वरुण (21) भृकुटि (22) गोमेध (23) पार्श्व (24) मातंग। . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 233 असंख्यातशाश्वतेतरस्थापनार्हच्चैत्यवलयम् // (17) ऋषभादिपरिवारभूतगणधरप्रभृतिसाधुसंख्यावलयम् // (18) महत्तरामुख्यसाध्वीसंख्यावलयम् // (19) श्रावकसंख्यावलयम् // (20) [श्राविकासंख्यावलयम् // (21)] भवनयोग 96 वलयम् // (22) करणयोग 96 वलयम् / / (23) करण 96 वलयम् // (24) (17) सत्तरमुं वलय असंख्यात शाश्वत अने अशाश्वत स्थापना अरिहंतोना अर्थात् जिनप्रतिमाओना चैत्योर्नु छ। 10 (18) अढारमुं वलय श्री ऋषभदेवादि तीर्थंकरोना परिवारभूत गणधर वगेरे साधुओनी संख्याछ / (जुओ परिशिष्ट नं. 2) (19) ओगणीसमुं वलय महत्तरा वगेरे साध्वीओनी संख्या- छे / (जुओ परिशिष्ट नं. 2) (20) वीसमा वलयमां श्रीवकोनी संख्या स्थापवामां आवे छे / (जुओ परिशिष्ट नं. 3) (21) एकवीसमा वलयमां श्राविकाओनी संख्या स्थापवामां आवे छे। (जुओ परिशिष्ट नं. 3) 15 (22) बावीसमा वलयमा 96 भवनयोगनी स्थापना करवामां आवे छे। (जुओ परिशिष्ट नं. 4) (23) त्रेवीसमा वलयमां 96 करणयोगनी स्थापना करवामां आवे छे। (जुओ परिशिष्ट नं. 4) (24) चोवीसमा वलयमां 96 करणनी स्थापना करवामां आवे छ। (जुओ परिशिष्ट नं. 5) 1. मूळमां आ प्रमाणे छे:-'महत्तरामुख्यमुख्यसाध्वीसंख्यावलयम्।' 2. असंख्यात शाश्वत प्रतिमाओनां चैत्योनी संख्या आ प्रमाणे छे:-स्वर्गमां (वैमानिक देवोना विमानोमां) 20 शाश्वत जिनप्रतिमाना चैत्योनी संख्या 84,97,023 छे। भुवनपतिमां शाश्वत जिनचैत्योनी संख्या 7,72,00,000 छ। तिर्यग्लोकमां शाश्वत जिन प्रतिमाओना चैत्योनी संख्या 3259 छ / व्यंतर तथा ज्योतिषी देवोना निवास अने विमानोमां शाश्वत जिन चैत्यो असंख्याता छ। अशाश्वत जिनप्रतिमाओना चैत्योनी संख्या अनियत छ। मनुष्योए भरावेली प्रतिमाओ अशाश्वती प्रतिमाओ कहेवाय छे। तेथी अशाश्वत जिन प्रतिमाओना चैत्योनी संख्या 25 अनियत छे / अशाश्वत अर्हत् प्रतिमाओनां चैत्योना प्रसिद्ध यात्राधामो पैकी केटलांक नीचे मुजब छ : श्री शत्रुजय, गिरनार, अष्टापद, सम्मेतशिखर, आबु, शंखेश्वर, केसरियाजी, तारंगा, अंतरीक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ, जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ, स्तंभन पार्श्वनाथ तीर्थ वगेरे। 3. जो के मूळ हस्तलिखित प्रतमां 'आं श्राकसंख्यावलयम्' एवो अशुद्ध पाठ छे। तो पण पूर्वापरनो संबंध जोतां अहीं श्रावक संख्यानुं अने श्राविका संख्या- वलय अभिप्रेत जणाय छे। तेथी आ पाठना आधारे 'श्रावक 30 संख्यावलयम्' तथा 'श्राविका संख्यावलयम्' एम बे वलय अहीं जणगयां छे। अहीं बे वलय लेवामां आवे तो ज वलयोनी 24 संख्या पूर्ण थई शके / आ कारणथी पण अहीं बे वलयो जणाव्यां छे। मूळ हस्तलिखित प्रतमां 'आं श्राकसंख्यावलयम्' पाठ छ / संभव छे के 'आनंदादि श्रावकसंख्यावलयम्' एवो पाठ पण अहीं होय / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ध्यानविचारः। [प्राकृत पदं-द्रव्यतो लौकिकं राजादि 5, लोकोत्तरमाचार्यादि 5, भावतः पञ्चानां परमेष्ठिपदानां ध्यानम् // 21 // परमपदं–पञ्चानां परमेष्ठिपदानामात्मनि न्यासः आत्मनस्तदध्यारोपेण परमेष्टिरूपतया चिन्तनमित्यर्थः // 22 // सिद्धिः-लौकिकाणिमादिरष्टधा, लोकोत्तरा राग-द्वेषमाध्यस्थ्यरूपपरमानन्दलक्षणा; भावतो मुक्तिपदप्राप्तजीवानां—'से न दीहे न हस्से' इत्यादि (३१)—'अहवा कम्मे णव दरिसणम्मि' इत्यादि (३१)-मीलने (62) द्वाषष्टिगुणचिन्तनम् // 23 // परमसिद्धिः--मुक्तगुणानामात्मन्यध्यारोपणम् // 24 // इति संक्षेपार्थः / / 10 * 21. पद:-द्रव्यथी 'पद' लौकिक राजा आदि पांच पदवीओ (राजा, मंत्री, कोषाध्यक्ष. सेनापति, पुरोहित) छे। लोकोत्तर पद आचार्यादि (आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गणावच्छेदक अने स्थविर) पांच पदवीओ छे। पांच परमेष्ठीपदोनुं ध्यान करवू ते भावथी 'पद' छे। . 22. परमपद :-पांच परमेष्ठीपदोनो आत्मामां न्यास अर्थात् आत्मामां तेनुं आरोपण करीने आत्माने पंचपरमेष्ठीरूपे चिंतववो ए 'परमपद' छ। 15 23. सिद्धिः-लौकिक 'सिद्धि' लघिमा, वशिता, ईशित्व, प्राकाम्य, महिमा, अणिमा, यत्र कामावसायित्व अने प्राप्ति एम आठ प्रकारनी छे। राग अने द्वेषमां माध्यस्थ्य भावरूप परमानंद ते लोकोत्तर सिद्धि छे / अने मुक्ति पामेला आत्माओना 62 गुणोनुं ध्यान ए भावथी सिद्धि छ। 24. परमसिद्धिः- सिद्धोना गुणोनो पोताना आत्मामां अध्यारोप करवो ते ‘परमसिद्धि' छ। (संक्षिप्त भावार्थ समाप्त) 20 * वीसमा परममात्रा ध्यानमा आवता चोवीस वलयोनुं निरूपण पूर्ण थई गयुं होवाथी हवे एकवीसमाथी मांडीने बाकी रहेला ध्यानोनुं स्वरूप अहींथी जणाववामां आवे छे / 1. शास्त्रोमां 'सिद्ध' भगवंतना 31 गुणो प्रसिद्ध छ। परंतु ते 31 नी गणत्री बे रीते थती होवाथी बन्ने गणत्रीना थईने अहीं 62 गुणो कह्या छे / ते नीचे मुजब छे : ___"...से न दीहे न हस्से न वढे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुकिल्ले 25 न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा..." -आचारांगसूत्र सू. 171-2 / अर्थ : सिद्धो (1) दीर्घ नथी के ह्रस्व नथी, (2) गोळ नथी, (3) त्रिकोण नथी, (4) चतुष्कोण नथी, (5) परिमंडलाकारे नथी, (6) श्याम नथी, (7) नील नथी, (8) लाल नथी, (9) पीळा नथी, (10) श्वेत नथी, (11) सुगन्धी नथी, (12) दुर्गन्धी नथी, (13) तिक्त नथी, (14) कटु नथी, (15) तुरा नथी, (16) खाटा नथी, 30 (17) मधुर नथी, (18) कठिन नथी, (19) मृदु नथी, (20) भारे नथी, (21) हलका नथी, (22) शीत नथी, (23) उष्ण नथी, (24) स्निग्ध नथी, (25) रूक्ष नथी, (26) शरीरधारी नथी, (27) जन्म लेता नथी, (28) (अमूर्त होवाने लीधे) संगवाळा नथी, (29) स्त्री नथी, (30) पुरुष नथी, (31) नपुंसक नथी। आ रीते सिद्धोना निषेधात्मक 31 गुण उपर जणाव्या। हवे बीजी रीते 31 गुण नीचे मुजब छे-- "अहवा कम्मे णव दरिसणम्मि चत्तारि आउए पंच। ' आइम अंते सेसे दोदो खीणभिलावेण इगतीसं // " व्याख्या-'अथवा' इति व्याख्यान्तरप्रदर्शनार्थः, 'कर्मणि' कर्मविषया क्षीणाभिलापेनकत्रिंशद्गुणा भवन्ति, तत्र नव दर्शनावरणीये, नवभेदा इति-क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणः 4, क्षीणनिद्रः 5, चत्वार आयुष्के-क्षीणनरकायुष्कः 4, 'पंच आइमे' त्ति आद्य ज्ञानावरणीयाख्ये कर्मणि पञ्चक्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः 5, 'अंते' त्ति अन्त्ये-अन्तराये कर्मणि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। पञ्चैव क्षीणदानान्तरायः 5, शेषकर्मणि-वेदनीय-मोहनीय-नाम-गोत्रलक्षणे द्वौ द्वौ भेदौ भवतः, क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः क्षीणाशुभनाम क्षीणशुभनाम क्षीणनीच्चैर्गोत्रः क्षीणोच्चैर्गोत्रः इति गाथार्थः / / -आवश्यकसूत्र, हारि० टीका पृ. 663. अर्थ : (मूळ तथा व्याख्या) सिद्ध भगवंतोना कर्मविषयमां ते ते कर्मो क्षीण करेला होवाथी नीचे मुजब 31 गुणो छ:- 5 क्षीणदर्शनावरणीयना 9 प्रकार : (1) क्षीणचक्षुदर्शनावरणीय, (2) क्षीणाचक्षुदर्शनावरणीय, (3) क्षीणावधिदर्शनावरणीय, (4) क्षीणकेवलदर्शनावरणीय, (5) क्षीणनिद्र, (6) क्षीणनिद्रानिद्र, (7) क्षीणप्रचल, (8) क्षीणप्रचलाप्रचल, (9) क्षीणस्त्यानर्द्धि / क्षीणायुष्कना 4 प्रकार : (1) क्षीणनरकायुष्क, (2) क्षीणतिर्यंचायुष्क, (3) क्षीणमनुष्यायुष्क, (4) क्षीणदेवतायुष्क / क्षीणज्ञानावरणना 5 प्रकार: (1) क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरण (2) क्षीणश्रुतज्ञानावरण (3) क्षीणावधिज्ञानावरण 10 (4) क्षीणमनःपर्यवज्ञानावरण (5) क्षीणकेवळज्ञानावरण / क्षीणांतरायना 5 प्रकार : (1) क्षीणदानान्तराय (2) क्षीणलाभान्तराय (3) क्षीणभोगान्तराय (4) क्षीणउपभोगान्तराय (5) क्षीणवीर्यान्तराय। क्षीणवेदनीयना बे प्रकार : (1) क्षीणसातावेदनीय (2) क्षीणासातावेदनीय / क्षीणमोहनीयना बे प्रकार : (1) क्षीणदर्शनमोहनीय (2) क्षीणचारित्रमोहनीय / क्षीणनामना बे प्रकार : (1) क्षीणाशुभनाम, (2) क्षीणशुभनाम / क्षीणगोत्रना बे प्रकार : (1) क्षीणनीचैर्गोत्र, (2) क्षीणोच्चैर्गोत्र / आ रीते सिद्धोना 31 गुणो छे। उपर्युक्त बन्ने प्रकारना गुणो मेळवता 62 गुणो थाय छ / 15 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ध्यानविचारः। [प्राकृत तत्र चिन्ताभावना-ऽनुप्रेक्षाव्यतिरिक्तं चलं चित्तम् / सा च सप्तधा प्रथमा तत्त्वचिन्ता-परमतत्त्वचिन्तारूपा। तत्राद्या जीवा-ऽजीवादीनां 9 / द्वितीया ध्यानादीनामेव 24 भेदानाम् // 1 // द्वितीया मिथ्यात्व-सास्वादन-मिश्रदृष्टिगृहस्थरूपा। अत्रैतेषां स्वरूपं विपर्यस्तादिरूपं चिन्त्यम् // 2 // तृतीया चतुर्विधानाम्-क्रिया(१८०)-अक्रिया(८४) अज्ञान(६७)-विनय (३२)-वादिनां-(३६३) पाखण्डिनां स्वरूपचिन्ता // 3 // पार्श्वस्थादिस्वयूथ्यस्वरूपचिन्ता // 4 // नारक-तिर्यड्-नरामराणामविरतसम्यग्दृष्टीनां स्वरूपचिन्ता // 5 // मनुष्याणां देशविरतसम्यग्दृष्टीनां स्वरूपचिन्ता // 6 // 10 चिन्तार्नु स्वरूप * भावना अने अनुप्रेक्षाथी भिन्न जे चलचित्त ते 'चिन्ता' कहेवाय छे / ते चिन्ता सात . प्रकारे छे : (1) तेमां प्रथम प्रकारना वळी बे पेटा प्रकारो छे : 'तत्त्वचिन्ता' अने ‘परमतत्त्वचिन्ता'। जीवाजीव आदि तत्त्वोनु चिन्तन करवू ते 'तत्त्वचिन्ता'। ध्यान आदि 24 भेदानु चिन्तन करवू ते 15 'परमतत्त्वचिन्ता। (2) मिथ्यात्व, सास्वादन, तथा मिश्रदृष्टि गुणठाणामां रहेला गृहस्थोना विपर्यस्तोदि स्वरूपy चिन्तन करवू ते चिन्तानो बीजो प्रकार छ / (3) 180 क्रियावादी, 84 अक्रियावादी, 67 अज्ञानवादी तथा 32 विनयवादी एम 363 पाखंडीओना स्वरूपy चिंतन करवू ते चिन्तानो त्रीजो प्रकार छ / 20 (4) पार्श्वस्थ आदि पोताना जूथना साधुओना स्वरूप- चिंतन करवं ते चिन्तानो चोथो प्रकार छ (5) नारकी, तिर्यंच, मनुष्य अने देवताओमां जे अविरति सम्यग्दृष्टिओ होय. तेओना स्वरूपनुं चिंतन करवू ते चिन्तानो पांचमो प्रकार छ / (6) मनुष्योमा जे देशविरत सम्यग्दृष्टिओ होय तेओना स्वरूप, चिंतन करवू ते चिन्तानो 25 छट्ठो प्रकार छ / * चोवीस प्रकारना ध्यानमार्गनुं निरूपण तो समाप्त थयुं / परंतु ते निरूपण करती वखते जे केटलीक हकीकतो कहेली तेनुं स्पष्टीकरण ग्रंथकार हवे पछी करे छे।। 1. प्रथम ध्यानना लक्षणमा 'चिन्ता अने भावनाथी उत्पन्न थयेलो जे अध्यवसाय ते ध्यान' एम जणाव्युं छे। तेमा चिन्ता एटले शुं? एन स्पष्टीकरण ग्रंथकारे अहीं कर्यु छे। 30 2. मिथ्यात्व गुणठाणामां तत्त्वनो विपर्यास होय छे / सास्वादन गुणठाणामां सम्यक्त्वनो कंईक स्वाद होय छ / मिश्रदृष्टिमां तत्त्व तथा अतत्त्व बन्ने प्रत्ये उदासीनता होय छे / आना विशेष स्वरूप माटे जुओ-कर्मग्रंथादि / 3. क्रियावादी वगेरेनुं वर्णन स्थानांगादि सूत्रोमा छ / 4. बे प्रकारना पासत्था (पार्श्वस्थ ), बे प्रकारना अवसन्ना, त्रण प्रकारना कुशीलो, बे प्रकारना संसक्तो अने अनेक प्रकारना 'यथाछंदो' छ / जुओ-श्री देवेन्द्रसूरिकृत गुरुवंदनभाष्य गाथा-'पासत्थो उस्सन्नो'॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 237 प्रमत्तादि-अयोगिपर्यन्तानां नवानां सर्वविरतानां सिद्धानां चानन्तर १५-परम्परगतमेदानां स्वरूपचिन्तनम् // 7 // भावनाध्यानमाह "आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते / योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते // (-भगवद्गीता, अ० 6, श्लो० 3) 5 आरुरुक्षोरभ्यासः ज्ञान-दर्शन-चरित्र-वैराग्यभेदाच्चतुर्धा / 10 (7) (छट्ठा) प्रमत्त गुणस्थानकथी (चौदमा) अयोगी केवली सुधीना नवगुणस्थानकोमा रहेला अविरति साधुओना तेमज 15 प्रकारना अनंतर सिद्ध' अने अनेक प्रकारना परंपर सिद्धोना स्वरूपy चिंतन करवू ते चिन्तानो सातमो प्रकार छ / ___ भावनानुं स्वरूप हवे ग्रंथकार भावनानुं स्वरूप कहे छ / योग उपर आरूढ थवानी जे मुनिनी इच्छा होय तेने 'निष्काम-कर्म' साधन छे अने ज्यारे योगारूढ थाय छे त्यारे 'शम' ए मोक्षनुं साधन छ / योग उपर आरोहण करवानी इच्छा राखनार मनुष्यना अभ्यास, ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वैराग्य भावनाना भेदथी चार प्रकारे छे : 1. 15 प्रकारना अनंतर सिद्धोना तथा अनेक प्रकारना परंपर सिद्धोना भेदोनुं स्वरूप श्री पन्नवणा सूत्रमा 15 नीचे मुजब जणावेलु छ : ... से किं तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--अणंतरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा य परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा य (सू०६) से किं तं अणंतरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? अणंतरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पण्णरसविहा पण्णत्ता, तंजहा--तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्थगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिङ्गसिद्धा पुरिसलिङ्गसिद्धा नपुंसकलिङ्गसिद्धा 20 सलिङ्गसिद्धा अन्नलिङ्गसिद्धा गिहिलिङ्गसिद्धा एगसिद्धा अणेगसिद्धा (सू० 7) से किं तं परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? 2 अणेगविहा पण्णता, तंजहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमयसिद्धा तिसमयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाव संखिजसमयसिद्धा असंखिजसमयसिद्धा अणतसमयसिद्धा, सेत्तं परम्परसिद्धासंसारसमावण्ण जीवपण्णवणा, सेत्तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ( सू० 8) भावार्थ : आत्मा जे समये मोक्षमा जाय ते समये अनन्तर सिद्ध कहेवाय छे / त्यारपछीना समयोमा ए ज 25 आत्मा परम्पर सिद्ध कहेवाय छ / मुक्तात्माओना बे भेद छ : अनन्तर सिद्धो अने परम्पर सिद्धो / अनन्तर सिद्धोना 15 भेद छ। जेमके (1) तीर्थसिद्ध, (2) अतीर्थसिद्ध, (3) तीर्थकरसिद्ध, (4) अतीर्थकरसिद्ध, (5) स्वयंबुद्धसिद्ध (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध (7) बुद्धबोधितसिद्ध, (8) स्त्रीलिंगसिद्ध, (9) पुरुषलिंगसिद्ध, (10) नपुंसकलिंगसिद्ध, (11) स्वलिंगसिद्ध, (12) अन्य- 30 लिंगसिद्ध, (13) गृहिलिंगसिद्ध, (14) एकसिद्ध, (15) अनेकसिद्ध। परम्पर सिद्धो अनेक प्रकारना छ। जेमके अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध इत्यादि यावत् संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध, अनंतसमयसिद्ध / 2. तुलना : आरुरुक्षुर्मुनिर्योग श्रयेद् बाह्यक्रियामपि। 35 योगारूढः शमादेव शुद्धयत्यन्तर्गतक्रियः॥ -ज्ञानसार-शमाष्टक लो० 3. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 238 ध्यानविचारः। [प्राकृत / तत्र ज्ञानभावना सूत्रार्थ-तदुभयभेदात् त्रिधा—'नाणे निच्चन्भासो'' इत्यादि // 1 // दर्शनभावना आज्ञारुचि(१)-तत्त्व(९)-परमतत्त्व(२४) रुचिभेदात् त्रिधा-'संकाइदोसरहिओ.'' इत्यादि // 2 // चारित्रभावना सर्वविरत-देशविरत-अविरतभेदात् त्रिधा—'णवकम्माणायणं.' इत्यादि / 5 अविरतेऽप्यनन्तानुबन्धिक्षयोपशमादिजन्य उपशमादिचारित्रांशोऽस्तीति // 3 // वैराग्यभावनाऽनादिभवभ्रमणचिन्तन-विषयवैमुख्य-शरीराशुचिताचिन्तनभेदात् त्रिधा—'सुविइयजगस्सभावो' इत्यादि // 4 // (1) ज्ञानभावना : सूत्र, अर्थ, अने उभय एम त्रण प्रकारे छ। ज्ञानभावनानुं स्वरूप 'ध्या शतक' मां नीचे प्रमाणे जणावेलुं छे : णाणे णिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च। नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईयो // 31 // अर्थ : श्रुतज्ञाननो सदा अभ्यास मनना अशुद्ध व्यापारनो निरोध करीने मनने स्थिर करे छ। अने सूत्र अने अर्थना ज्ञाननी विशुद्धि करे छे। ज्ञान वडे जीव अने अजीवमा रहेला गुणो अने पर्यायोनो . ' जेणे परमार्थ जाणेलो छे एवो पुरुष अत्यंत निश्चल बुद्धिवाळो थईने ध्यान करे छ। 15 (2) दर्शनभावना : आज्ञारुचि, नवतत्त्वनी रुचि. तथा 24 परमतत्त्वोनी रुचि (अर्थात ध्यानना 24 भेदोनी रुचि)-आ रीते त्रण प्रकारे छे / दर्शनभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छे: संकाइदोसरहिओ पसम-थेजाइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणम्मि // 32 // अर्थ : शंका आदि दोषथी रहित, तेमज प्रशम अने स्थैर्य वगेरे गुणोथी सहित एवो मनुष्य 20 दर्शनशुद्धिना लीधे ध्यान करती वखते जरा पण मोह पामतो नथी—जरा पण भ्रांतिचित्त थतो नथी / (3) चारित्रभावना : सर्वविरत, देशविरत अने अविरत एम त्रण प्रकारे छ। चारित्रभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छे : णवकम्माणायाणं पोराणविणिजरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ // 33 // 25 अर्थ : ज्ञानावरणीयादि नवा कर्मोने जीव चारित्रभावनाथी ग्रहण करतो नथी। जूना कर्मोने खपावे छे / तेमज ध्यानने पण अनायासे प्राप्त करे छ। प्रश्न : अविरतने पण चारित्रभावनामां शी रीते अहीं गणेल छे ? उत्तर : अविरतमां पण अनंतानुबंधीना क्षयोपशम वगेरेथी उत्पन्न थयेल उपशमादि रूप चारित्रनो अंश होय छे / तेथी तेनो पण अहीं चारित्रभावनामा समावेश करवामां आव्यो छे। . 30 (4) वैराग्यभावना : अनादि भवभ्रमण, चिन्तन, विषयो प्रत्ये विमुखता, तथा शरीरनी अशुचितार्नु चिन्तन ए रीते त्रण प्रकारे छे। वैराग्यभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छः सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो झाणम्मि सुनिच्चलो होइ // 34 // अर्थ : जेणे जगतनो स्वभाव सारी रीते जाणेलो छे, जे निःसंग, निर्भय तेमज आशंसाथी 35 रहित छे तेवो वैराग्यभावित मनवाळो मनुष्य ध्यानमां अत्यंत निश्चळ बने छ। 1. आगमोदयसमिति प्रकाशित ‘आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति'मां पृ. 582 थी पृ. 611 सुधीमां 'ध्यानशतक' छपायेलुं छे। श्री विनय-भक्ति-सुन्दर ग्रंथमाला (वेणप )मां 'ध्यानशतक' अलग पण छपायेलुं छे अने तेमां 'ध्यानशतक' ना कर्ता तरीके श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने जणाव्या छ / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 239 अनुप्रेक्षा ध्यानादवतीर्णस्य, सा च द्वादशधाऽनित्यादिभेदात् 'पढमं अणिच्चभावं' इत्यादि / रोहिणी' -प्रज्ञप्ति' -वज्रशृङ्खला -वज्राङ्कशी -अप्रतिचक्रा-पुरुषदत्ता -काली महाकाली -गौरी गान्धारी' -ज्वालामालिनी"-मानवी"-चैरोट्या -ऽच्छुप्ता -मानसी"-महामा सीति विद्यादेवताः // - - - 10 अनुप्रेक्षानुं स्वरूप ध्यान' दशामांथी उतर्या पछी अनुप्रेक्षा होय छे / ते अनित्यभावनादि भेदथी 12 प्रकारे छे। 5 तेनुं (बार भावनानुं) स्वरूप 'मरणसमाधिपयन्ना'मां नीचे प्रमाणे छ : पढम अणिच्चभावं असरणयं एगयञ्च अन्नत्तं / 'संसारमसुभयापिय विविहं लोगं सहावं च // 73 // कम्मस्स आसवं संवरं च निजरणमुत्तमेयगुणे। जिणसासणंमिबोहिं च दुल्लहं चिंतए मइअं // 74 // अर्थ : (1) अनित्य भावना, (2) अशरण भावना, (3) एकत्व भावना, (4) अन्यत्व भावना, (5) संसार भावना, (6) अशुचि भावना, (अशुभ भावना) (7) विविध लोक स्वभाव भावना, (8) कर्म-आश्रव भावना, (9) कर्म-संवर भावना, (10) कर्म-निर्जरा भावना, (11) उत्तम गुणोनी भावना, (12) श्री जिनशासन संबंधी बोधि (सम्यक्तव) मळवी ते दुर्लभ छे-ते भावना / ए प्रमाणे बार भावनाओ छ। 'नवतत्त्व' वगेरेमां बार भावनाओनां नाम नीचे मुजब आप्यां छे 15 (1) अनित्य भावना, (2) अशरण भावना, (3) संसार भावना, (4) एकत्व भावना, (5) अन्यत्व भावना, (6) अशुचित्व भावना, (7) आश्रव भावना, (8) संवर भावना, (9) निर्जरा भावना, (10) लोकस्वभाव भावना, (11) बोधिदुर्लभभावना, (12) धर्मना साधक (साधी आपनारा) अरिहंत वगेरे दुर्लभ छ (धर्मस्वाख्यात भावना) ए भावना। 16 विद्यादेवीओ 20 (1) रोहिणी, (2) प्रज्ञप्ति, (3) वज्रशृंखला, (4) वज्रांकुशी, (5) अप्रतिचक्रा, (6) पुरुषदत्ता, (7) काली, (8) महाकाली, (9) गौरी, (10) गांधारी, (11) ज्वालामालिनी, (12) मानवी, (13) वैरोट्या, (14) अच्छुप्ता, (15) मानसी, (16) महामानसी–ए सोळ विद्यादेवीओ छ / 1. तुलना-'झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो / होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुत्विं // 65 // 25 -ध्यानशतक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 [प्राकृत ध्यानविचारः। भवनयोगादिस्वरूपं चेदम् "जोगो' विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्टा। सत्ती सामत्थं चिय, चउगुण बारटु छन्नउई // '' जीवप्रदेशानां कर्मक्षयं प्रति व्यापारणं नियोगिनामिव जीवेन राज्ञेव योगः // 1 // जीवप्रदेशैः कर्मणः प्रेरणं ध्यानाग्नौ चेटिकयेव कचवरस्य // 2 // जीवप्रदेशेभ्यः क्षपणार्थं कर्मप्रदेशानामाकर्षणं दन्तालिकयेव कचवरस्य // 3 // जीवप्रदेशेभ्यः कर्मणामूर्ध्व नयनं नलिकयेव जलस्य // 4 // Сл भवनयोगादिनुं स्वरूप भवनयोगादिना 8 भेद नीचे मुजब छ : 10 (1) योग, (2) वीर्य, (3) स्थाम, (4) उत्साह, (5) पराक्रम, (6) चेष्टा, (7) शक्ति, (8) सामर्थ्य / ते दरेकना प्रणिधानादि चार भेदो छ / अने ते दरेकना जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण प्रकारो 'छे / एटले कुल 84443=96 मेद थाय छे। भवनयोगादिनुं स्वरूप आ प्रमाणे छ : (1) योग : राजा जेम पोताना अधिकारीओने कार्यशील बनावे तेम जीव आत्मप्रदेशोने कर्मना 15 क्षय माटे कार्यशील बनावे ते योग कहेवाय छ। (2) वीर्य : जेम दासी द्वारा कचरो बहार नखावी देवामां आवे छे तेम जीव आत्मप्रदेशो द्वारा कर्मोने ध्यानाग्निमां नाखवा माटे प्रेरणा करे ते 'वीर्य' कहेवाय छ / (3) स्थाम : जेम दंताळीथी कचराने खेंचीने लाववामां आवे छे तेम जीव आत्मप्रदेशोमांथी कर्म-प्रदेशोने खपाववा माटे खची लावे ते 'स्थाम' कहेवाय छे / / 20 (4) उत्साह : जेम नळी वडे पाणीने ऊंचु चढाववामां आवे छे तेम आत्मप्रदेशमांथी कर्मने ऊंचा लई जवा ते उत्साह कहेवाय / 2 1. मूळमां 'बारटु छन्नउई' पाठ छे / ए नीचेनी गणत्रीथी संगत थई शके एम लागे छ : जघन्यादि त्रण मेदो अने ते दरेकना प्रणिधान वगेरे चार भेदो-आ रीते 12 भेद थया। अने योग वगेरे दरेकना ते 12 भेदो होवायी 1248 96 भेदो थाय छ। 2. श्री शिवशर्माचार्य रचित 'कम्मपयडी' गाथा-३ नी श्रीमलयगिरिसूरिरचित टीकामांथी उद्धृत करेली गाथा अने श्री चन्द्रमहत्तर रचित 'पंचसंग्रह ' द्वितीय खंडना मूळनी चोथी गाथा तेना चोथा पादना फेरफार साथे आ रीते छे-- "जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा / सत्ति सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पज्जाया // 4 // योग वगेरे जे अहीं प्रकारो बताव्या छे ते 'पंचसंग्रह'कारे योगना पर्यायवाची नामो तरीके जणाव्या छ / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 241 अधोनयनं कर्मणः संस्थितकुतुपात् तैलस्येव, घण्टिकायां वाऽमृतकलायाः // 5 // खस्थानस्य कर्मणः शोषणं तप्तायसभाजनस्थजलस्येव // 6 // जीव-कर्मणोवियोगं प्रत्याभिमुख्यजननं, तिलानामिव तैलवियोजनं यथा घाणकेन निपीडनम् // 7 // साक्षाजीव-कर्मणोवियोगकरणं खल-तैलयोरिव // 8 // एतेषामष्टानामपि प्रत्येकं त्रैविध्यं योग-महायोग-परमयोगादिभेदात्-जघन्यो योगः, मध्यमो 5 महायोगः, उत्कृष्टः परमयोगः। एवं वीर्य-परमवीर्यादयोऽपि वाच्याः -एवं भेदाः 24; तेऽपि प्रत्येकं . चतुर्धा-प्रणिधान-समाधान-समाधि-काष्ठासमाधिभेदात् / तत्र प्रणिधानमशुभेभ्यो निवर्तनम् 1 / समाधानं शुभेषु प्रवर्तनम् 2 / रागद्वेषमाध्यस्थ्यालम्बनं समाधिः 3 / ध्यानेन मनस एकाग्रतयोच्छ्वासादिनिरोधः काष्ठा 4 / प्रसन्नचन्द्र-भरतेश्वरैदमदन्त-पुष्पभूतयो यथाक्रममत्र दृष्टान्ताः॥ 10 (5) पराक्रम : कुडलामांथी जेभ तेलने नीचे रेडवामां आवे अथवा अमृतकळामांथी जेम अमृत घण्टिकामां (पडजीभमां) झरे तेम (ऊंचे गयेला) कर्मोने नीचे लई जवां ते पराक्रम कहेवाय छे / (6) चेष्टा : तपेला लोखंडना भाजनमा रहेढुं जल जेम सुकाई जाय छे तेम पोताना स्थानमां रहेलां कर्मोने सूकवी नाखवां ते 'चेष्टा' कहेवाय छ / (7) शक्ति : तलमाथी तेलने छुटुं पाडवा माटे जेम तलने घाणीमां पीलवामां आवे छे तेम जीव 15 अने कोनो वियोग करवा माटे अभिमुख थq ते शक्ति कहेवाय छे। (8) सामर्थ्य : जेम खोळ अने तेल जुदां पाडवामां आवे छे तेम जीव अने कर्मोनो जे साक्षात् वियोग करवो ते 'सामर्थ्य' कहेवाय छ। आ आठे भेदोना दरेकना 'योग', 'महायोग' अने ‘परमयोग' वगेरे त्रण प्रकारो छे : जघन्य होय ते 'योग' कहेवाय छे, मध्यम होय ते 'महायोग' कहेवाय छे अने उत्कृष्ट होय ते ‘परमयोग' 20 कहेवाय छ। आ प्रमाणे वीर्य, महावीर्य, परमवीर्य वगेरे प्रकारो समजवा / आ रीते 843=24 भेदो थाय छे / ते दरेकना पण 'प्रणिधान', 'समाधान', 'समाधि' अने 'काष्ठा' एम चार प्रकारो छे।। ... 'प्रणिधान' एटले अशुभ कार्योमांथी निवृत्ति लेवी। 'समाधान' एटले शुभ कार्योमा प्रवृत्ति करवी। 'समाधि' एटले राग अने द्वेष (ना प्रसंग)मां माध्यस्थ्य भाव राखवो / 'काष्ठा' एटले ध्यान वडे मननी एकाग्रताथी उच्छ्वास आदिनो निरोध करवो। उपर वर्णवेल 'प्रणिधान' 'समाधान' 'समाधि' तथा 'काष्ठा' ना संबंधमां अनुक्रमे प्रसन्नचंद्र राजर्षि, भरत चक्रवर्ती, दमदंतमुनि तथा पुष्पभूति आचार्यनां दृष्टांतो छ। (जुओ परिशिष्ट 6) 1. परमाक्षरमात्रा ते ज अमृतकळा कहेवाय छ। अन्ये परां शिखां प्राहुरूधिो व्यापिकां किल / परमाक्षरमात्रा सा सैवामृतकलोच्यते // -उपमितिभवप्रपञ्चाकथा प्रस्ताव-८ श्लोक-७४६. 2. योगना योग, महायोग अने परमयोग। वीर्यना वीर्य, महावीर्य अने परमवीर्य / स्थामना स्थाम, महास्थाम अने परमस्थाम। -आ रीते दरेकना त्रण-त्रण भेदो समजवा / 25 30 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ध्यानविचारः। [प्राकृत एवं चतुर्विंशतिश्चतुर्गुणिता जाताः 96 // एते मरुदेव्या इव स्वभावेन जायमाना भवनयोगाः॥ एत एवोपेत्याभोगपूर्वकं क्रियमाणत्वात् करणयोगाः॥ करणानि तु 96 इत्थं ज्ञेयानि चित्तं चेयण सन्नी विनाणं धाराँ सई बुद्धी। इहाँ मई विर्यका उवओगे मणाइ छन्नउइ // मणाइ इति मनःप्रभृतीनि, मन एतेषामादौ कर्तव्यम्। तत्राद्यं मनोविषयं करणमष्टधा-उन्मनीकरणं', महोन्मनीकरणं, परमोन्मनीकरणं, सर्वोन्मनीकरणं', उन्मनीभवनं', महोन्मनीभवन, परमोन्मनीभवनं , सर्वोन्मनीभवनम् // आ प्रकारे चोवीशने चारे गुणतां 2444 =96 प्रकारो थाय छे। आ ज 96 प्रकारो मरुदेवा मातानी जेम स्वाभाविक रीते-सहज स्वभावे थाय तो ते 'भवनयोग' कहेवाय छे। अने ए ज 96 प्रकारो जाणी जोईने थाय तो ते 'करणयोग' कहेवाय छे। 96 करणोनुं स्वरूप (1) मन (2) चित्त (3) चेतना (4) संज्ञा (5) विज्ञान (6) धारणा (7) स्मृति (8) बुद्धि 15 (9) ईहा (10) मति (11) वितर्क (12) उपयोग-आ बार वस्तु संबंधी 96 करण थाय छे। 'मणाइ' एटले मन / आ बधां करणोमां मनने प्रथम गणतुं। (1) 'मन' विषयक करणना 8 प्रकारो छ। (1) उन्मनीकरण (2) महोन्मनीकरण (3) परमोन्मनीकरण (4) सर्वोन्मनीकरण (5) उन्मनीभवन (6) महोन्मनीभवन (7) परमोन्मनीभवन (8) सर्वोन्मनीभवन। 20 1. उदाहरण तरीके : 10 योग योग महायोग परमयोग प्रणिधान 25 समाधान समाधि प्रणिधान समाधान समाधि काष्ठा प्रणिधान समाधान समाधि काष्ठा काष्ठा वीर्य वीर्य महावीर्य परमवीर्य प्रणिधान प्रणिधान / समाधान समाधान . समाधि समाधि काष्ठा आ ज रीते स्थाम आदि भेदो समजवा / 84344 =96 / प्राणिधान समाधान समाधि काष्टा काष्ठा 35 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 243 मनसोऽशनं चिन्तनम् , तदभावोऽनशनम् / उत् प्राबल्येन गतमिव चिन्ताऽभावान्नष्टमिव मनो यस्यां सा उन्मना, उन्मना क्रियतेऽनेन उन्मनीकरणं मनोमृत्युरित्यर्थः, एतज्जघन्यम् / द्वितीयमेतदेव मध्यम, तृतीयमुत्कृष्टं, चतुर्थं जघन्यादिभेदत्रयसलीनतात्मक / भवनचतुष्टयमप्येवम् / नवरं उपेत्य यत् क्रियते आभोगपूर्वकं तीर्थङ्करादिवत् [तत् ] करणम् / यत् त्वनाभोगेनैव स्वयमुल्लसति मरुदेव्यादिवत् तद् भवनम् // 1 // द्वितीयं चित्तविषयं करणमष्टधा—निश्चितीकरणमित्यादि 4, निश्चित्तीभवनमित्यादि / चित्तं-त्रिकालविषयं चिन्तनम् , तदभाव उच्छ्वासाद्यभावहेतुः // 2 // तृतीयं चेतनाविषयं निश्चेतनीकरणमित्यादि 8 सर्वशरीरगतचेतनाद्यभावरूपं रागाद्यभावहेतुः // 3 // एवं निःसंशीकरणमित्यादि 8 आहारादिगृद्धयभावरूपम् / अनेन प्रमत्तादीनामाहारं गृह्णतामपि गृद्धयभावः // 4 // 5 10 चिन्तन ए मननो खोराक छ / ते चिंतननो अभाव ते मन- अनशन छ। जेमां प्रबळताथी मन चाल्युं गयुं होय अर्थात् चिंताना अभावथी जाणे मन नाश पाम्युं होय एवी अवस्थाने उन्मना अवस्था कहे छ। एवी अवस्था जे. ध्यान वडे कराय तेने 'उन्मनीकरण' कहेवाय छे। बीजा शब्दोमां कहीए तो जेना मन- मृत्यु ते जघन्य उन्मनीकरण छे। आ ज उन्मनीकरण जो मध्यमकोटिनुं होय तो बीजा प्रकारमा अने उत्कृष्ट कोटिनु होय तो त्रीजा प्रकारमा अने जघन्य आदि त्रणेना मिश्रणवाळु होय तो चोथा प्रकारमां 15 समजबुं। भवनना चार प्रकार पण ते ज रीते समजवा। . जेम तीर्थंकर भगवंतो उपयोगपूर्वक करे छे तेम उपयोगपूर्वक कराय ते 'करण' कहेवाय छे। अने मरुदेवीमातानी जेम उपयोग (प्रयत्न) कर्या विना पोतानी मेळे ज जे थाय ते ‘भवन' कहेवाय छे // 1 // (2) चित्तविषयक करणना 8 प्रकारो छ / 20. (1) निश्चित्तीकरण, (2) महानिश्चित्तीकरण, (3) परमनिश्चित्तीकरण, (4) सर्वनिश्चित्तीकरण (5) निश्चित्तीभवन (6) महानिश्चित्तीभवन (7) परमनिश्चित्तीभवन (8) सर्वनिश्चित्तीभवन / चित्त एटले त्रण काळ संबंधी चिंतन / तेना अभावथी उच्छ्वास वगेरेनो अभाव थाय छे // 2 // (3) 'चेतना'ना निश्चेतनीकरण वगेरे 8 प्रकारो छ। निश्चेतनीकरण' समग्र शरीरनी अंदर चेतनाना अभावरूप छे अने ते राग वगेरेना अभावY 25 कारण छे // 3 // (4) निःसंशीकरण वगेरे 8 प्रकारो छ। - 'निःसंज्ञीकरण' एटले आहार आदिनी लोलुपतानो अभाव / आथी प्रमत्त आदि योगीओ आहार प्रहण करे छे छतां पण तेमां तेमने लोलुपतानो अभाव होय छे // 4 // . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ध्यानविचारः। [प्राकृत निर्विज्ञानीकरणमित्यादि 8 विज्ञानाभावरूपं, यथा सुषुप्तावस्थायां न किमप्यनुभूतमपि वस्तु वेद्यते, एवमत्र जाग्रतोऽपि वस्तुविज्ञानाभावः // 5 // निर्धारणीकरणमित्यादि 8 धारणाऽविच्युतिरूपा, तदभावः // 6 // उक्तं च"चित्तं' तिकालविसयं चेयेणपञ्चक्ख सैन्नमणुसरणं / विनाणणेगमेय कालमसंखेयरं धरणा॥ [-दशवैकालिकभाष्य, गाथा-१९ पृ. 125 अ] विस्मृतीकरणमित्यादि 8 // स्मृतिर्धारणाया द्वितीयो भेदः। यतः-अविच्युति-स्मृति-वासना-मेदात् त्रिधा धारणा वर्ण्यते // 7 // निर्बुद्धीकरणमित्यादि 8 // बुद्धि: औत्पातिक्यादिश्चतुर्धाऽवायरूपा, अवायस्तु निश्चय उच्यते // 8 // निरीहीकरणमित्यादि 8 // ईहा विचारणा, किमयं स्थाणुः पुरुषो वेति // 9 // / (5) 'निर्विज्ञानीकरण' वगेरे 8 प्रकारो छ। 'निर्विज्ञानीकरण' विज्ञानना अभावरूप छ। अर्थात् जाग्रत अवस्थामां अनुभवेली कोई पण वस्तुनु निद्रावस्थामा वेदन होतुं नथी। तेम आ करण वखते जाग्रत अवस्थामां पण वस्तुना विज्ञाननो अभाव होय छे // 5 // 15 (6) 'धारणा' ना निर्धारणीकरण वगेरे 8 भेद छ। ___ 'धारणा' एटले (वस्तुना ज्ञाननी) अविच्युति। तेनो अभाव ते निर्धारणीकरण / कयुं छे के: 'चित्त' भूत, भविष्य अने वर्तमानकाळ एम त्रणे काळना अर्थाने सामान्यथी जाणे छ। 'चेतना' प्रत्यक्ष वर्तमानकालीन अर्थेने जाणे छ। 'संज्ञा' ते अनुस्मरणने कहे छे के जे पदार्थ पहेलां जोयो होय। 'विज्ञान' अनेक प्रकारचें छे। अनेक धर्मवाळा पदार्थमां ते ते विशिष्ट धर्मरूपे जे अनेक 20 प्रकारचें ज्ञान थाय ते 'विज्ञान' कहेवाय छ। 'धारणां' असंख्यात अथवा संख्यात काळ संबंधी होय छे // 6 // (7) विस्मृतीकरण वगेरे आठ प्रकारो छ। 'स्मृति' शब्दथी अहीं धारणानो बीजो भेद समजवो; कारण के धारणाना त्रण भेदो छ / अविच्युति, स्मृति अने वासना। अहीं बीजो भेद विवक्षित छे // 7 // 25 (8) निर्बुद्धीकरण वगेरे आठ प्रकारो छ / बुद्धि शब्दथी अवायस्वरूप औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मणिकी अने पारिणामिकी एम चार प्रकारनी बुद्धि लेवी। निश्चयने अवाय कहेवामां आवे छे। तेनो अभाव ते निर्बुद्धीकरण // 8 // (9) निरीहीकरण वगरे 8 प्रकारो छ। 'ईहा' एटले विचारणा, अर्थात् आ ढूंढुं छे के पुरुष छे एवी जे विचारणा जागे ते ईहा। तेनो 30 अभाव ते निरीहीकरण // 9 // 1. धारणाना त्रण भेद छे : अविच्युति, वासना अने स्मृति। तेमां अविच्युति अने स्मृति अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होय छे, ज्यारे वासना केटलाक जीवोने असंख्यात वर्षो सुधी अने केटलाकने संख्यात वर्षो सुधी होय छ / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] . नमस्कार स्वाध्याय / _ निर्मतीकरणमित्यादि 8 // मतिरवग्रहो दशधा // 10 // निर्वितर्कीकरणमित्यादि 8 // ईहोत्तरकालभावी, अवायात् पूर्व ऊहो वितर्कः / “अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतः" इत्यादि // 11 // उपयोगो वासनारूपस्तदभावो निरुपयोगीकरणम् // 12 // महा-परमादिविशेषणानि तथैव जघन्यसंयोगजभेदानि भावनीयानि / करण-भवनभेदोऽपि 5 तथैव 96 // (10) निर्मतीकरण वगेरे 8 प्रकारो छ। . 'मति' शब्दथी दश प्रकारनो अवग्रह समजवो। (पांच इंद्रिय, छटुं मन-एटलानो अर्थावग्रह, तथा मन अने चक्षु सिवायनी बाकीनी चार इंद्रियोथी थतो व्यञ्जनावग्रह-एम दश प्रकार थाय छे) // 10 // (11) निर्वितकाकरण वगेरे 8 प्रकारो छ। 10 ‘वितर्क'–जे ईहा पछी अने अवाय (अपाय) पूर्वे तर्क थाय ते वितर्क / जेम अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो, ___न चाधुना संभवतीह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं रतिप्रियतमारिनाम्ना // पत्र-७८ // -विशेषावश्यकभाष्य, श्रीकोट्याचार्य टीका --आ अरण्य छे, सूर्य अस्त पाम्यो छे, अत्यारे अहीं कोई मानव न होई शके, आ कारणोथी घणे भागे आ पदार्थ पक्षीओवाळो अने रतिना प्रियतम कामदेवना शत्रु शिव-महादेवना नामवाळो पदार्थ (स्था) होवो जोईए // 11 // (12) निरुपयोगीकरण वगेरे आठ प्रकारो छ / 20 * वासनारूप जे 'उपयोग' तेनो अभाव ते निरुपयोगीकरण // 12 // आना महा, परम आदि विशेषणोयी तेमज तेना जघन्य आदि संयोगथी थता भेदो समजी लेवा / पहेलां कह्या प्रमाणे 'उपयोग'ना 'करण' अने 'भवन' ना भेदो पण समजी लेवा / 15 1 कोई माणस जंगलमा गयो होय अने त्यां ज सांज पडी गई होय ते वखते दूरथी झाडनुं ढूढं देखातुं होय त्यारे प्रथम तो स्वाभाविक रीते एना मनमा शंका थशे। “आ हूलु हशे के पुरुष हशे?" पछी ते तर्क-वितर्क करवा लागे छ: 25 “एक तो आ जंगल छे अने वळी अत्यारे सूर्यास्त थई गयो छे। माटे आ स्थाने अने आ समये मनुष्य संभवी शके नहि। एटले आ पक्षीओवाळु वृक्षनु ठूठं होवू जोईए।" . आ ज वातने आ श्लोकमां आलंकारिक शब्दोमां रजू करी छ। संस्कृतमां ढूंठाने 'स्थाणु' कहेवामां आवे छे अने महादेवनुं बीजं नाम पण 'स्थाणु' छ। महादेवे रतिना पति कामदेवने बाळीने भस्मीभूत को होवाथी महादेव कामदेवना शत्रु छे / एटले रतिना पतिना शत्रुना समान नाम (स्थाणु) वाळा तरीके झाडना ढूंठानो अहीं उल्लेख कयों छे। 30 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 [प्राकृत ध्यानविचारः। . एवं करणानि 96 // करणैर्गुणिता ध्यान(२४)मेदाः 2304 / एते करणयोगैः षण्णवतिसंख्यैर्गुणिताः 221184 / भवनयोगैरप्येवं भेदाः, उभयं 442368 // उक्तं च"चत्तारि सयसहस्सा बायालीसं भवे सहस्साई / तिन्नि सया अडसट्रा नेया छउमत्थझाणाणं // " 'योगो विरियं० 'त्यादि यो योग उक्तस्तस्यालम्बनानि 290 / 10 आ रीते करणना 1248 =96 प्रकार छे / तेनी (करणना 96 भेदो) साथे ध्यानना 24 . भेदोने गुणतां 96424 =2304 थाय छे। तेने 96 करणयोग वडे गुणतां 221184 भेदो थाय छे। ए ज रीते 2304 ने 96 भवनयोग वडे गुणतां 221184 भेदो थाय छे / आम बन्ने मळीने 442368 प्रकारो थाय छे / का छे के-चार लाख, बेतालीस हजार, त्रणसो ने अडसठ-ए छद्मस्थना ध्यानना प्रकारो जाणवा। 15 योगनां आलंबनो ___योगो विरियं० इत्यादि गाथा द्वारा जे योग कहेवामां आव्यो तेनां आलंबनो 290 छ / तेमां मनोयोग आ प्रमाणे समजवो: जणवय सम्मय-ठवणा नामे रूवे पडुच्च सच्चे अ। ववहार-भाव-जोगे दसमे ओवम्मसच्चे अ // 273 // कोहे माणे माया लोमे पेज्जे तहेव दोसे / / हासभए अक्खाइय उवधाए निस्सिआ दसमा // 274 // . उप्पन्नविगयमीसग जीवमजीवे अ जीवअज्जीवे / तहऽणंतमीसगा खलु परित्त अद्धा अ अद्धद्धा // 275 // आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी / पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा अ // 276 // अणभिग्गहिआ भासा भासा अ अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा / संसयकरणी भासा वायड अव्वायडा चेव // 277 // -श्री दशवैकालिक नियुक्ति। पृ. 416-19. 1. आ गाथाओना अर्थ माटे जुओ परिशिष्ट नं. 7. 30 2. 275 मी गाथा सिवायनी आ बधी गाथाओ श्री पन्नवणासूत्रना 11 मा भाषापदमा 165 मा सूत्रमा पण छे। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 247 तत्र मनोयोगः, 'जणवयसम्मय'' इत्यादि भाषाः 42, 'कालतियं ' इत्यादि 16, उभयं 58 / तत आसां मनश्चिन्तनावसरे मनोयोगत्वम् 58, भाषणावसारे भाषायोगत्वम् 58 // औदारिककाययोगो द्वात्रिंशभेदो जीवभेदात् आ गाथाओ अनुसार भाषाना 42 प्रकारो छे। वळी 'कोलतियं' इत्यादि गाथानुसार 16 प्रकारो थाय छे / आ बन्ने मळीने 58 प्रकारो थाय छे / आ बधा प्रकारोनो मनथी चिंतन करती वखते 58 5 प्रकारनो मनोयोग बने छे अने बोलती वखते 58 प्रकारनो भाषायोग बने छ / औदारिक काययोग जीवोना भेदो अनुसार 32 प्रकारे छे, जेमके . 10 1. श्री बृहत् कल्पसूत्रनी श्रीमलयगिरिसूरिरचित टीकामां आ गाथा जोवामां आवे छे। त्यां तेनो नीचे प्रमाणे उल्लेख छ / तानि च षोडश वचनान्यमूनिलिंगतियं वयणतिय, कालतियं तह परुक्ख पञ्चक्खं / उवणय-ऽवणयचउकं, अज्झत्थिययं तु सोलसमं // अस्या [अक्षरगमनिका-'लिङ्गत्रयम्' इयं स्त्री, अयं पुमान् , इदं कुलम् / 'वचनत्रिकम्' एकवचन द्विवचनं बहुवचनमिति। 'कालत्रिकम्' अकरोत् करोति करिष्यति च / परोक्षवचनं यथा स इति / प्रत्यक्षवचनम् एष इति / उपनयःस्तुतिः अपनयः-निन्दा तयोश्चतुष्कमुपनया-उपनयचतुष्कम् , यथा-रूपवती स्त्रीत्युपनयवचनम्, कुरूपा स्त्रीत्यपनयवचनम्, 15 रूपवती स्त्री किन्तु दुःशीलेत्युपनया-ऽपनयवचनम् , कुरूपा स्त्री किन्तु सुशीलेत्यपनयोपनयवचनम्। तथा अन्यच्चेतसि निधाय .विप्रतारकबुद्धया अन्यद् बिभणिषुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव यद् वक्ति तत् षोडशमध्यात्मवचनम् // 164 // पीठिका पृ. 50. अर्थ :त्रण लिंग-पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग / जेमके पुमान् , स्त्री अने कुलम् / . पण वचन-एकवचन, द्विवचन, बहुवचन। जेमके पुरुषः, पुरुषौ, पुरुषाः। त्रण काळ-वर्तमानकाळ, भूतकाळ, भविष्यकाळ / जेमके करे छे, क्र्यु, करशे / 20 परोक्षवचन-जेमके 'ते'। प्रत्यक्षवचन-जेमके 'आ'। उपनयवचन (प्रशंसावचन ) जेमके 'आ स्त्री रूपवती छे'। अपनयवचन (निंदावचन) जेमके 'आ स्त्री कुरूपा छे'। उपनय-अपनयवचन जेमके ‘आ स्त्री रूपवती छे परंतु दुःशीला छे'। अपनय-उपनयवचन जेमके 'आ स्त्री कदरूपी छे परंतु सुशीला छे। अध्यात्मवचन-मनमां जुदुं धारीने बीजाने ठगवानी बुद्धिथी बीजूं कहेवानी इच्छा होय छतां सहसा जे चित्तमां धारेलं होय ए ज बोलाई जाय। आ सोळ भेदोनो उल्लेख श्री पन्नवणा सूत्रना भाषापदमां 173 मा सूत्रमा पण छ। 2. भाषा बोल्या पहेलां तेवी जातनो विचार तो आवे ज, अने पछी उच्चार कराय एटले ए ज 58 प्रकारो 30 - पहेलां विचार करे त्यारे मनोयोगना 58 प्रकारो कहेवाय छे अने बोले त्यारे 'वचनयोग' (भाषा) ना 58 प्रकारो कहेवाय छे। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ध्यानविचारः। [प्राकृत - "पुढवि-दग-अगणि-मारुय चणस्सइऽणंता पणिंदिया चउहा। वणपत्तेया विगला दुविहा सव्वे वि बत्तीसं // " तत्र पृथिव्यप्-तेजो वायनन्तकायिकाः सूक्ष्म-बादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदाच्चतुर्धा / संश्यसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्धा / प्रत्येकवनस्पति-विकलेन्द्रियाः पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदाः। वैक्रियं पञ्चविंशतिधा। सप्तानां नारकभेदानां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्दश / वायुकायिकानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च एकैकम् / देवानां चतुर्विधानां पर्याप्तापर्याप्तभेदेनाष्टौ–एवं 25 / आहारकं चैकविधमेव / एवं कायत्रयस्यापि भेदाः 58 / एतदन्तर्गतत्वात् तैजसस्यापि 58 / / एवं कार्मणस्यापि 58 / –एवमालम्बनानि 290 // अत्र मनःप्रभृतीनि योगप्रासादारोहणालम्बनानि यथा वा रङ्गदानाय वस्त्रे पाशः क्रियते। वीर्ययोगालम्बनानि-ज्ञानाचार 8, दर्शनाचार 8, चारित्राचार 8, तप आचार 12, वीर्याचार ३६–एवम् 72 / पृथ्वी, अप् , तेज, वायु, साधारण वनस्पति अने पंचेन्द्रिय ए बधा चार चार प्रकारे छ। प्रत्येक वनस्पति अने विकलेंद्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय) बब्बे प्रकारे छे। बधा मळीने 32 भेदो थाय छे / [644 = 24; (1+ 3)2= 8; 24 +8= 32 भेदो थाय छे] अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, 15 तेउकाय, वायुकाय अने अनंतकाय-ए पांचे सूक्ष्म तेमज बादर अने पर्याप्त तेमज अपर्याप्त एम चार भेदोथी वीश प्रकारे छे। पंचेंद्रियना संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त अने अपर्याप्त एम चार भेदो छ। प्रत्येक वनस्पतिकाय तेमज विकलेंद्रिय–अर्थात् बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय ते चारेना पर्याप्त अने अपर्याप्त एम बे भेदो होवाथी आठ प्रकारे छ। (20+4+8=32) वैक्रिययोग 25 प्रकारे छे / नारकी (जीवो) ना सात भेदो छे। ते दरेकना पर्याप्त अने अपर्याप्त 20 बे भेद होवाथी बधा मळीने चौद भेदो थाय छ / वायुकायनो एक भेद छ। पंचेंद्रिय तिर्यंच अने मनुष्यनो एकेक भेद छ। चार प्रकारना (भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक) देवोना दरेकना पर्याप्त अने अपर्याप्त बे भेद होवाथी एकंदरे आठ प्रकार थाय छ। एम बघा मळीने 25 प्रकारो थाय छे / (14+1+2+8=25) आहारक एक प्रकारनो छ। ए रीते त्रणे काय (औदारिक, वैक्रिय, आहारक)ना मळीने 58 25 भेदो थाय छे। तेजस्काय तेमां अंतर्गत होवाथी तेना पण भेदो छ / ए ज प्रकारे कार्मण शरीरना पण 58 भेदो छ। कुल मळीने 58+58+58+58+58=290 आलंबनो छे। जेम वस्त्रमा रंग करवा माटे प्रथम पाश आपवामां आवे छे तेम अहीं योगरूप महेल उपर चढवा माटे मन वगेरे आलंबनो छ / वीर्ययोगनां आलंबनो--ज्ञानाचार 8, दर्शनाचार 8, चारित्राचार 8, तपाचार 12, वीर्याचार 30 ३६–कुल 72 प्रकारना छ / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 249 स्थामालम्बनानि 8 "बंधणे-संकमणुव्वदृणा य अपवट्टणा उदीरणयो। उवसामणा निहत्ती निकायणां च त्ति करणाई॥" [-- कम्मपयडी, गाथा 2] उत्साहस्य ऊर्ध्वलोकवस्तुचिन्ता। पराक्रमस्य अधोलोकचिन्ता। चेष्टायाः तिर्यग्लोकचिन्तनम् / शक्तेः तत्त्व-परमतत्त्वचिन्ता / सामर्थ्यस्य सिद्धायतनसिद्धस्वरूपचिन्तालम्बनम् // इति ध्यानविचारः॥ स्थामयोगनां आठ आलंबनो नीचे मुजब छे-- (1) बंधनकरण, (2) संक्रमकरण, (3) उद्वर्तनाकरण, (4) अपवर्तनाकरण, (5) उदीरणाकरण, (6) उपशमनाकरण, (7) निधत्तिकरण अने (8) निकाचनाकरण / ऊर्ध्वलोकमांनी वस्तुओनी चिंता ते उत्साहनुं आलंबन छ / अधोलोकमांनी वस्तुओनी चिंता ते 10 पराक्रमनुं आलंबन छ / तिर्यग्लोकमांनी वस्तुओनी चिंता ते चेष्टानुं आलंबन छ / तत्त्व अने परमतत्त्वनी चिंता ते शक्तिनुं आलंबन छ / सिद्धोनुं स्थान अने सिद्धोना स्वरूपनी चिंता ते सामर्थ्यनुं आलंबन छ / परिशिष्ट 1 आचार्य पुष्पभूति अने मुनि पुष्यमित्रनी कथा . पृ. 227 मां 'भावथी कला' नी जे व्याख्या छे तेनुं अहीं आपेल कथा समर्थन करे छ। अत्यंत 15 अभ्यासना कारणे देश, काळ तेमज करणनी अपेक्षाए स्वयमेव ज चढे अने बीजा वडे उताराय ते समाधिने भावकला कहेवामां आवे छे / आचार्य पुष्पभूतिनी आवी समाधि तेमना शिष्य पुष्यमित्र मुनिए उतारी हती। तेमनी कथा 'श्री आवश्यक नियुक्ति'नी श्री हारिभद्रीया टीकामां पृ. 722 मां 'ध्यानसंवरयोग'ना प्रसंगमां छे। तेनो सार नीचे मुजब छे : ___ 'शिंबावर्धन' नामना नगरमां 'मुंडिकाम्रक' नामे राजा हतो। त्यां श्री पुष्पभूति नामना 20 आचार्य महाराज पधार्या / तेमना उपदेशादिथी उपशांत बनेलो ते राजा श्रावक थयो। ते आचार्यमहाराजना पुष्यमित्र नामना एक बहुश्रुतज्ञानी शिष्य के जे आचारमां शिथिल हता ते अन्यत्र रहेता हता। एक वखत आचार्य महाराजने 'महाप्राण' ध्यान जेई 'सूक्ष्म ध्यान' करवानो विचार थयो। आ ध्यानमां ज्यारे प्रवेश करवामां आवे त्यारे एवी रीते ‘योग निरोध' करवामां आवे छे के कांइ वेदन ज 25 थाय नहि / ते आचार्य महाराज पासे जे साधुओ रहेला ते अगीतार्थ हता। तेथी तेमणे पुष्यमित्र मुनिने बोलाव्या। ते आव्या अने आचार्य महाराजे बधी हकीकत कही / तेणे पण स्वीकार कर्यो। एटले आचार्य महाराज एक निर्व्याघात ओरडामां ध्यान करवा लग्या। त्यां पुष्यमित्र बीजा साधुओने अंदर जवा देता न होता। अने कहे के “अहीं रह्या रह्या ज वंदन करो। आचार्य महाराज व्याकुल छे अर्थात् खास काममां छे।" 32 30 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ध्यानविचारः। [प्राकृत एक दिवस ते साधुओअरसपरस विचारवा लाग्या के 'कोण जाणे शुं हशे ? आपणे तपास करीए / ' तेओमांथी एक साधु ओरडाना बारणे उभा रही अंदर जोवा लाग्या / घणीवार सुधी निरीक्षण कर्यु, परंतु आचार्य महाराज तो हालता नथी, बोलता नथी, फरकता नथी अने उच्छ्वास-निःश्वास पण लेता मूकता नथी; कारणके ते अवस्थामा श्वासोच्छवास बहु सूक्ष्म होय छ / तेमणे आ हकीकत बीजा साधुओने कही। ते गुस्से भराया अने पुष्यमित्रने कहेवा लाग्या 'हे आर्य ! आचार्यश्री काळधर्म पाम्या छे छतां तमे अमने जणावता नथी। पुष्यमित्र मुनिए जवाब आप्यो के 'आचार्य महाराज काळधर्म पाम्या नथी पण ध्यानमा छे, माटे खलेल न करो।' त्यारे बीजा साधुओ कहेवा लाग्या के 'आ वेषधारी साधु वेतालने साधवानी इच्छावाळो जणाय छे; कारणके आचार्य महाराज पूर्ण लक्षणवाळा छ। एटले एवी इच्छाथी ज ते 10 आपणने साची हकीकत जणावतो नथी। आज रात्रिए जुओ शुं परिणाम आवे छे / ' ते बधा साधु पुष्यमित्र मुनि साथे झघडो करवा लाग्या। पुष्यमित्र मुनिए तेमने वार्या, त्यारे तेओए बधा समाचार राजाने आपीने तेमने त्यां लाव्या। साधुओ राजाने कहेवा लाग्या के 'आचार्यश्री काळधर्म पाम्या छे छतां आ वेषधारी साधु तेमने बहार काढवा देतो नथी।' राजाए पण आचार्य महाराजने जोया। तेने पण खात्री थई के आचार्य 15 महाराज काळधर्म पाम्या छ। तेथी राजाने पुष्यमित्र मुनिना वचन उपर विश्वास बेठो नहीं। शिबिका तैयार कराववामां आवी। एटले पुष्यमित्र मुनिने चोक्कस लाग्युं के आचार्यश्रीनो अकाळ विनाश थशे। आचार्य महाराजे अगाउ पुष्यमित्र मुतिने कही राखेखें हतुं के मारी ध्यानस्थ अवस्थामा आगनो के बीजो कोई उपद्रव आवी पडे तो मारा अंगूठानो स्पर्श करजे। 20 पुष्यमित्र मुनिए आचार्य महाराजना अंगूठानो स्पर्श को एटलें ध्यानमांथी जागृत थयेला आचार्य महाराज कहेवा लाग्या के 'हे आर्य! मने केम खलेल करी?' ___ पुष्यमित्र मुनि बोल्या, 'जुओ, आ शिष्योए आपना माटे शुं कर्यु छ ?' पछी आचार्य महाराजे ते बधा साधुओने खूब ठपको आप्यो। आवा ध्यानमा प्रवेश करवाथी योगो संगृहीत थाय छ। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी रति आधगणधरप्रभृतिसाधुसंख्या (वलय 18) 1 ऋषभ ऋषभसेनादि 2 अजित सिंहसेनादि 3 संभव . . चारूरू आदि 4 अभिनंदन वज्रनाभादि 5 सुमति चमरगणी आदि 6 पमप्रभ सुद्योतादि 7 सुपार्श्व विदर्भादि . 8 चन्द्रप्रभ दत्तादि 9 सुविधि वराहकादि 10 शीतल नंदादि 11 श्रेयांस कौस्तुभादि 12 वासुपूज्य सुभूमादि / 13 विमल . मंदरादि 14 अनंत यश:आदि 15 धर्म अरिष्टादि 16 शांति चक्रायुधादि 17 कुन्थु शम्बादि 18 अर कुंभादि 19 मल्लि भिषजादि 20 मुनिसुव्रत मल्लि आदि 21 नमि शुंभादि 22 नेमि वरदत्तादि 23 पार्श्व आर्यदत्तादि 24 वर्द्धमान इन्द्रभूति आदि नमस्कार स्वाध्याय। 251 परिशिष्ट 2 आद्यमहत्तराप्रभृतिसाध्वीसंख्या (वलय 19) 84000 आदि 300000 100000 फाल्गुनी 330000 5 200000 श्यामा 336000 300000 अजिता 630000 320000 काश्यपी 530000 330000 420000 300000 सोमा 430000 10 250000 सुमनाः 380000 200000 वारुणी 120000* 100000 सुयशाः 100006* 84000 धारिणी 103000* 72000 धरणी 100000 15 68000 धरा 100800 66000 पमा 62000 64000 शिवा 62400 62000 61600 60000 दामिनी 60600 20 50000 रक्षिका 60000 40000 बन्धुमती 55000 30000 पुष्पवती 50000 20000 अनिला 41000 18000 यक्षदत्ता 40000 25 16000 पुष्पचूला 38000 14000 चन्दनबाला 36000 श्रुतिः * मतान्तरेण क्रमशः 3,80,000 / 3,80,000 / 1,20,000 / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 [प्राकृत ध्यानविचारः। परिशिष्ट 3 श्रावकसंख्या (वलय 20) . श्रेयांसादि x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x श्राविकासंख्या (वलय 21). सुभद्रादि 554000 545000 636000 527000 516000 505000 493000 491000 471000 458000 448000 436000 424000 414000 413000 393000 381000 372000 370000 350000 348000 महासुव्रतादि 336000 सुनन्दादि 339000 सुलसादि 318000 1 ऋषभ 5 2 अजित 3 संभव 4 अभिनंदन 5 सुमति 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्व 8 चन्द्रप्रभ 9 सुविधि 10 शीतल 11 श्रेयांस 15 12 वासुपूज्य 13 विमल 14 अनंत 15 धर्म 16 शांति 20 17 कुन्थु 18 अर 19 मल्लि 20 मुनिसुव्रत 21 नमि 25 22 नेमि 23 पार्श्व 24 वर्द्धमान x 305000 298000 293000 288000 281000 276000 257000 250000 229000 289000 279000 215000 208000 206000 204000 290000 179000 184000 183000 172000 170000 169000 164000 159000 x x x x x x x x x x x x x x x x x नन्दादि सुद्योतादि आनंदादि 4 अप्रसिद्ध Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 253 परिशिष्ट 4 96 भवनयोग तथा 96 करणयोग 22 तथा 23 मा वलयमां जे 96 भवनयोग तथा 96 करणयोगनो निर्देश करेलो छे ते नीचे मुजब छे-* (वलय 22 तथा 23) 1 प्रणिधानयोग 33 समाधिपरमस्थाम 65 समाधानमहाचेष्टा 5 2 प्रणिधानमहायोग 34 काष्ठास्थाम 66 समाधानपरमचेष्टा 3 प्रणिधानपरमयोग 35 काष्टामहास्थाम 67 समाधिचेष्टा 4 समाधानयोग 36 काष्ठापरमस्थाम 68 समाधिमहाचेष्टा 5 समाधानमहायोग 37 प्रणिधानोत्साह 69 समाधिपरमचेष्टा 6 समाधानपरमयोग 38 प्रणिधानमहोत्साह 70 काष्ठाचेष्टा 10 7 समाधियोग / 39 प्रणिधानपरमोत्साह 71 काष्ठामहाचेष्टा 8 समाधिमहायोग 40 समाधानोत्साह 72 काष्टापरमचेष्टा 9 समाधिपरमयोग 41 समाधानमहोत्साह 73 प्रणिधानशक्ति 10 काष्ठायोग 42 समाधानपरमोत्साह 74 प्रणिधानमहाशक्ति 11 काष्ठामहायोग 43 समाध्युत्साह 75 प्रणिधानपरमशक्ति 15 12 काष्ठापरमयोग 44 समाधिमहोत्साह 76 समाधानशक्ति 13 प्रणिधानवीर्य 45 समाधिपरमोत्साह 77 समाधानमहाशक्ति 14 प्रणिधानमहावीर्य 46 काष्ठोत्साह 78 समाधानपरमशक्ति 15 प्रणिधानपरमवीर्य 47 काष्ठामहोत्साह 79 समाधिशक्ति 16 समाधानवीर्य 48 काष्ठापरमोत्साह 80 समाधिमहाशक्ति 17 समाधानमहावीर्य 49 प्रणिधानपराक्रम 81 समाधिपरमशक्ति 18 समाधानपरमवीर्य 50 प्रणिधानमहापराक्रम 82 काष्ठाशक्ति 19 समाधिवीय 51 प्रणिधानपरमपराक्रम 83 काष्टामहाशक्ति 20. समाधिमहावीर्य 52 समाधानपराक्रम 84 काष्ठापरमशक्ति 21 समाधिपरमवीर्य 53 समाधानमहापराक्रम 85 प्रणिधानसामर्थ्य ___25 22 काष्ठावीर्य 54 समाधानपरमपराक्रम 86 प्रणिधानमहासामर्थ्य 23 काष्ठामहावीर्य 55 समाधिपराक्रम 87 प्रणिधानपरमसामर्थ्य 24 काष्ठापरमवीर्य 56 समाधिमहापराक्रम 88 समाधानसामर्थ्य 25 प्रणिधानस्थाम 57 समाधिपरमपराक्रम 89 समाधानमहासामर्थ्य 26 प्रणिधानमहास्थाम 58 काष्ठापराक्रम 90 समाधानपरमसामर्थ्य 30 .27 प्रणिधानपरमस्थाम 59 काष्टामहापराक्रम 91 समाधिसामर्थ्य 28 समाधानस्थाम 60 काष्ठापरमपराक्रम 92 समाधिमहासामर्थ्य 29 समाधानमहास्थाम 61 प्रणिधानचेष्टा 93 समाधिपरमसामर्थ्य 30 समाधानपरमस्थाम 62 प्रणिधानमहाचेष्टा 94 काष्ठासामर्थ्य 31 समाधिस्थाम 63 प्रणिधानपरमचेष्टा 95 काष्ठामहासामर्थ्य 35 32 समाधिमहास्थाम 64 समाधानचेष्टा 96 काष्ठापरमसामर्थ्य - आ ज रीते 'करणयोग'ना 96 भेदो समजी लेवा // * आ योगो मरुदेवा मातानी जेम सहज स्वभावे थाय तो भवनयोगमां गणाय छे / अने आ ज योगो जो उपयोगपूर्वक करवामां आवे तो करणयोगमां गणाय छ / 20 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 [प्राकृत ध्यानविचारः। परिशिष्ट 5 96 करण (वलय 24) 1 उन्मनीकरण 2 महोन्मनीकरण 5 3 परमोन्मनीकरण 4 सर्वोन्मनीकरण 5 उन्मनीभवन 6 महोन्मनीभवन 7 परमोन्मनीभवन 10 8 सर्वोन्मनीभवन 9 निश्चित्तीकरण 10 महानिश्चित्तीकरण 11 परमनिश्चित्तीकरण 12 सर्वनिश्चित्तीकरण 13 निश्चित्तीभवन 14 महानिश्चित्तीभवन 15 परमनिश्चित्तीभवन 16 सर्वनिश्चित्तीभवन 17 निश्चेतनीकरण 18 महानिश्चेतनीकरण 19 परमनिश्चेतनीकरण 20 सर्वनिश्चेतनीकरण 21 निश्चेतनीभवन 22 महानिश्चेतनीभवन 23 परमनिश्चेतनीभवन 24 सर्वनिश्चेतनीभवन 25 निःसंज्ञीकरण . 26 महानिःसंज्ञीकरण 27 परमनिःसंज्ञीकरण 28 सर्वनिःसंज्ञीकरण 15 29 निःसंज्ञीभवन 30 महानिःसंज्ञीभवन 31 परमनिःसंज्ञीभवन 32 सर्वनिःसंज्ञीभवन 33 निर्विज्ञानीकरण 34 महानिर्विज्ञानीकरण 35 परमनिर्विज्ञानीकरण 36 सर्वनिर्विज्ञानीकरण 37 निर्विज्ञानीभवन 38 महानिर्विज्ञानीभवन 39 परमनिर्विज्ञानीभवन 40 सर्वनिर्विज्ञानीभवन 41 निर्धारणीकरण 42 महानिर्धारणीकरण 43 परमनिर्धारणीकरण 44 सर्वनिर्धारणीकरण 45 निर्धारणीभवन 46 महानिर्धारणीभवन 47 परमनिर्धारणीभवन 48 सर्वनिर्धारणीभवन 49 विस्मृतीकरण 20 50 महाविस्मृतीकरण 51 परमविस्मृतीकरण 52 सर्वविस्मृतीकरण 53 विस्मृतीभवन 54 महाविस्मृतीभवन 25 55 परमविस्मृतीभवन 56 सर्वविस्मृतीभवन 57 निर्बुद्धीकरण 58 महानिर्बुद्धीकरण 59 परमनिर्बुद्धीकरण 60 सर्वनिर्बुद्धीकरण 61 निर्बुद्धीभवन 62 महानिर्बुद्धीभवन 63 परमनिर्बुद्धीभवन 64 सर्वनिर्बुद्धीभवन 65 निरीहीकरण 66 महानिरीहीकरण 67 परमनिरीहीकरण 68 सर्वनिरीहीकरण 69 निरीहीभवन 70 महानिरीहीभवन 71 परमनिरीहीभवन 72 सर्वनिरीहीभवन 73 निर्मतीकरण 74 महानिर्मतीकरण 75 परमनिर्मतीकरण 30 76 सर्वनिमतीकरण 77 निर्मतीभवन 78 महानिर्मतीभवन 79 परमनिर्मतीभवन 80 सर्वनिर्मतीभवन 81 निर्वितर्कीकरण 82 महानिर्वितर्कीकरण 83 परमनिर्वितर्कीकरण 84 सर्वनिर्वितर्कीकरण 85 निर्वितर्कीभवन 86 महानिर्वितर्कीभवन 87 परमनिर्वितर्कीभवन 88 सर्वनिर्वितर्कीभवन 89 निरुपयोगीकरण 90 महानिरुपयोगीकरण 91 परमनिरुपयोगीकरण 92 सर्वनिरुपयोगीकरण 93 निरुपयोगीभवन 94 महानिरुपयोगीभवन 95 परमनिरुपयोगीभवन 96 सर्वनिरुपयोगीभवन Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 255 परिशिष्ट 6 पृ. 241 मां भवनयोगनुं निरूपण करती वखते 'प्रणिधान', 'समाधान', 'समाधि', तथा 'काष्ठा' ना संबंधमां अनुक्रमे 'प्रसन्नचंद्र राजर्षि', 'भरतचक्रवर्ती,' 'दमदंतमुनि' तथा पुष्पभूति आचार्यनां दृष्टांतो छे एम जणाव्युं छे। ते पैकी पुष्पभूति आचार्य- दृष्टांत 1 ला परिशिष्ट मां आवी गयुं छे। बाकीनां त्रण दृष्टांतो नीचे मुजब छे: प्रसन्नचंद्र राजर्षि प्रसन्नचंद्र राजर्षिना पितानु नाम सोमचंद्र हतुं अने मातानुं नाम धारिणी हतुं। पोताना बाळकुंवरने गादी आपी तेमणे दीक्षा लीधी हती। एक वखत राजगृहीना उद्यानमां कायोत्सर्ग करता हता। ते वखते तेमणे सांभळ्यु के चंपानगरीनो दधिवाहन राजा तेनी नगरीने घेरो नाखीने पडयो छे अने पोतानो पुत्र जे हजु बाळक छे, तेने मारीने राज्य लई लेशे। आधी राज्य तथा कुमार प्रत्ये मोह उत्पन्न थतां अने तेमनी 10 रक्षानो विचार करतां करतां मानसिक युद्ध खेलतां थोडीवारमा तेमणे सातमी नर्कने योग्य कर्मो एकठां कर्यां हतां / परंतु पाछी आ मोहनी विचारश्रेणी तेमणे रोकी अने शुभ विचारश्रेणी उपर आरूढ थतां केवळज्ञान प्राप्त कयें। आ प्रमाणे प्रणिधान उपर प्रसन्नचंद्र राजर्षिनुं दृष्टांत छ / भरत चक्रवर्ती 15 भरत महाराजा ए भगवान ऋषभदेवना सौथी मोटा पुत्र अने प्रथम चक्रवर्ती हता। एक वखत आरीसाभवनमा पोताना अलंकृत शरीरने जोता हता। तेवामां एक आंगळीमांथी एक वींटी नीकळी गई। एटले ते शोभारहित लागी / आ जोईने तेमणे बीजा अलंकारो पण उतार्या / त्यां तो आलुं शरीर शोभारहित लागवा मांड्युं / आथी 'अनित्यं संसारे भवति यन्नयनगनम् / संसारमा जे वस्तुओ आंखोथी देखाय छे, ते बधी नाशवंत छे / ' एवी अनित्य भावना भाववा लाग्या अने केवळज्ञान उत्पन्न थयुं। 20 आ प्रमाणे निमित्त मळतां शुभ ध्यानमा प्रवृत्ति करी। दमदंत मुनि हस्तिशीर्ष नामना नगरमां श्री दमदंत नामना राजा राज्य करता हता। आ बाजु हस्तिनापुर * नगरमां पांच पांडवो राज्य करता हता / दमदंत राजा अने पांडवोने आपसमां वैर हतुं / एक वखत दमदंत राजा जरासंधनी पासे (सेवा करवा माटे) राजगृही नगरे गयो हतो। ते 25 तकनो लाभ लई पांडवोए दमदंत राजाना देशने लूंटयो अने बाळ्यो / काळांतरे दमदंत राजा पाछो आव्यो / तेणे पोताना देशनी खराब स्थिति जोई बदलो वाळवा हस्तिनापुरने घेरो घाल्यो। पांडवोने तेणे कहेवराव्युं के " हवे बहार नीकळो; शियाळियानी जेम शुं भराइ बेठा छो ?" पांडवो बहार नीकळ्या नहि तेथी ते पोताने देश चाल्यो गयो / .. कामभोगथी निर्वेद पामीने केटलांक वर्षो बाद तेणे दीक्षा लीधी। हवे दमदंत मुनि एकाकी 30 विहार करता हस्तिनापुर पधार्या अने नगरनी बहार प्रतिमा ध्याने रह्या / यात्राने माटे नीकळता युधिष्ठिरादि . पांडवोए ज्यारे तेमने खबर पडी के आ दमदंत मुनि छे त्यारे वंदन कर्यु / त्यारबाद दुर्योधन आव्यो अने Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत 256 ध्यानविचारः। तेणे आ दमदंत मुनि छे एम सांभळ्युं त्यारे रोषे भराईने तेमना प्रति बीजोरं फेंक्युं / स्वामीनी आ वर्तणूकनी देखादेखीथी सैनिकोए तेमना प्रति पथ्थरो फेंक्या अने क्षणवारमा तेओ तेमां दटाई गया / केटलाक समय बाद पांडवो पाछा फर्या त्यारे तेमने दुर्योधननी गेरवर्तणूक सांभळी तिरस्कार कर्यो / मुनि भगवंत उपरना पथ्थरो दूर कर्या अने तेमना शरीरने तेल चोळ्युं / तेमनी क्षमा याची। दमदंत मुनि 5 दुर्योधन द्वारा करायेला उपद्रव अने युधिष्ठिरादि द्वारा करायेली भक्ति—बन्ने तरफ समभाव धारी रह्या हता। परिशिष्ट 7 भाषाना 4 प्रकार छे : सत्य, मृषा, सत्यामृषा अने असत्यामृषा / सत्य भाषाना 10, मृषा भाषाना 10, सत्यामृषाना 10 तथा असत्यामृषाना (व्यवहारभाषाना) १२–एम कुल 42 प्रकारो श्री दशवैकालिक नियुक्ति वगेरेमां जणाव्या छे / ते संबंधी पृ. 246 मां 'जणवय' वगेरे पांच गाथाओ 10 आपेली छे / ते* अर्थ सहित नीचे मुजब छे : सत्य भाषाना 10 प्रकारो: जणवय-सम्मय-ठवणा नामे रूवे पडुच्च सच्चे अ। ववहार-भाव-जोगे दसमे ओवम्मसच्चे अ // 273 // 1. जनपदसत्य : कोंकण वगेरे देशोमां पाणीने माटे ‘पय', 'पिच्च', : उदक', 'नीरम्' 15 वगेरे जुदाजुदा शब्दो वपराय छे / आ शब्दोथी ते ते जनपदोमां-देशोमां इष्ट अर्थनी प्रतिपत्ति थती होवाथी लोकव्यवहार चाले छे। तेथी ते शब्दो 'जनपदसत्य' अर्थात् ते ते देशने आश्रयीने 'सत्य' कहेवाय छ। 2. सम्मतसत्य : कुमुद, कुवलय, उत्पल, तामरस ए बधां एकसरखी रीते कादवमां उत्पन्न थाय छे। तो पण गोवाळो सुद्धां (अर्थात् आबालगोपाल) कमलने ज पंकज कहे छे। आ रीते लोकोमां 20 'कमल' अर्थमां ज 'पंकज' शब्द सम्मत छे तेथी ते 'सम्मतसत्य' कहेवाय छ। 3. स्थापनासत्य : तेवा प्रकारनी अंकरचना तथा सिक्का वगेरे जोईने जे भाषा उच्चारवामां आवे ते 'स्थापनासत्य' छे / जेमके एकडानी आगळ बे शून्य उमेरीए तो सो अने त्रण शून्य उमेरीए तो हजार कहेवाय छे। तेमज नाणां उपर ते ते छाप प्रमाणे रुपियो, पांच रुपिया वगेरे कहेवाय छे। 4. नामसत्य : कोई मनुष्य कुल विस्तारतो न होवा छतां 'कुलवर्धन' नाभे ओळखाय, 25 धनने वधारतो न होय छतां 'धनवर्धन' कहेवाय, यक्ष न होवा छतां 'यक्ष' कहेवाय / आवा बधा अर्थरहित नामोना प्रयोगो ते 'नामसत्य' कहेवाय छे। 5. रूपसत्य : वेश प्रमाणे गुण न होवा छतां तेवा प्रकारचें रूप धारण कर ते 'रूपसत्य' छे। ते संबंधी वचन पण रूपसत्य कहेवाय छे, जेम के कोई कपटी साधुना वेशमां होय त्यारे तेने साधु कहेवामां आवे ते 'रूपसत्य' छे / 30 * आवश्यकसूत्रनी हरिभद्रसूरिरचितवृत्ति तथा पन्नवणा (प्रज्ञापना) सूत्रनी मलयगिरिसूरिरचिंत वृत्तिने आधारे अहीं अर्थ लख्यो छ। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 257 6. प्रतीत्यसत्य : बीजी वस्तुने आश्रयीने एक वस्तुमा जुदी जुदी रीते व्यवहार करवो ते 'प्रतीत्यसत्य' छे / जेम टचली (छे श्री) आंगळीनी अपेक्षाए अनामिका आंगळी मोटी गणाय छे पण मध्यमा (वचली) आंगळी करतां ते (अनामिका) नानी पण गणाय छ। एम एक ज वस्तुमां जुदी जुदी अपेक्षाए जुदो जुदो व्यवहार ते 'प्रतीत्यसत्य' छे / 7. व्यवहारसत्य : केटलाक शब्दप्रयोगो शब्दार्थनी दृष्टिए बराबर न लागे छतां अमुक 5 विवक्षाथी बोलाता होवाथी ते प्रयोगो सत्य छ। जेमके 'पर्वत बळे छे', 'घडो झरे छे,' 'कन्याने पेट नथी', 'घेटीने वाळ नथी'-आ बधा प्रयोगोमां वस्तुतः तेम होतुं नथी छतां 'पर्वत उपरनुं घास बळे छे', 'घडानुं पाणी झरे छे', 'कन्या गर्भधारणने माटे योग्य उदरवाळी नथी', 'घेटीने कापी शकाय एटला वाळ नथी' एवा आशययी लोकव्यवहारमा ते ते प्रयोगो थाय छे तेथी ते 'व्यवहारसत्य' छ। 8. भावसत्य : एक वस्तुमां अनेक भावो (वर्ण वगेरे) रहेला होय छतां तेमांना एकाद उत्कृष्ट 10 रूपे रहेला भावने प्राधान्य आपीने वचन प्रयोग करवो-जेमके बगलामां पांचे वर्ण छे छतां 'बगलो श्वेत छे' एम कहेधुं–ते 'भावसत्य' छ / 9. योगसत्य : योग अर्थात् संबंधथी कोई व्यक्ति के वस्तुने ते नामथी ओळखवी ते 'योगसत्य' छे / जेम 'छत्र' राखनारो माणस छत्र न होय त्यारे पण छत्रना संबंधथी 'छत्री' कहेवाय छे अने 'दंड' राखनारो माणस दंडना अभावमां पण दंडना संबंधथी 'दंडी' कहेवाय छे ते 'योगसत्य' छे। 15 . 10. औपम्यसत्य : जेम तळाव समुद्र जेवू न होवा छतां 'तळाव समुद्र जेवू छे' एम तळावने समुद्रनी उपमा आपवामां आवे छे ते 'औपम्यसत्य' छ / मृषाभाषा (असत्य)ना 10 प्रकारो : कोहे माणे माया लोभे पेज्जे तहेव दोसे अ। हासभए अक्खाइय उवद्याए निस्सिआ दसमा // 274 // 1. क्रोध-निसृत असत्य : क्रोधना आवेशमां जे वाणी नीकळे ते 'क्रोध-निसृत असत्य' छे। जेमके क्रोधथी धमधमेलो पिता पुत्रने कहे के 'तुं मारो पुत्र नथी' वगेरे क्रोध-निसृत असत्य छ। अथवा क्रोधना आवेशमा साचुं-खोटुं जे कंइ वोलवामां आवे ते बधुं क्रोध-निसृत असत्य छे, कारणके ते बधुं बोलती वखते क्रोधी मनुष्यनो आशय दुष्ट होय छे / 2. मान-निसृत असत्य : पोतानी महत्ता बताववा माटे जेम कोई मनुष्य अल्प धनवाळो 25 होवा छतां कहे के 'हुं महाधनवाळो छु' ते 'मान-निसृत असत्य' छे / 3. माया-निसृत असत्य : बीजाने ठगवाना आशयथी जे साचुं-खोटुं बोलाय ते बधुं ''माया-निसृत असत्य' छे। ____4. लोभ-निसृत असत्य : लोभथी जे मिथ्या बोलवामां आवे ते 'लोभ-निसृत असत्य' छे / जेम वेपारी खोटां माप होवा छतां तेने साचां कहे छे तेम / 30 5. प्रेम-निसृत असत्य : अति रागने लईने 'हुं तमारो दास छु' वगेरे जे बोलवामां आवे ते 'प्रेम-निसृत असत्य' छ। 6. द्वेष-निसृत असत्य : द्वेषथी इर्ष्यालु मनुष्यो गुणवानने पण 'आ निर्गुण छे' वगेरे कहे ते द्वेष-निसृत असत्य' छ / 20 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत 258 ध्यानविचारः। 7. हास्य-निसत असत्य : जेम मश्करा माणसो कोईनी कई चीज लईने संताडी राखे अने तेमने पूछवामां आवे तो कहे के 'ए चीज में जोई नथी' आवी भाषा 'हास्य-निसृत असत्य' कहेवाय छे / 8. भय-निसृत असत्य : चोरो वगेरेना भयथी 'मारी पासे कई नथी' वगेरे जे असत्य बोलवामां आवे ते 'भय-निसृत असत्य' छ। 9. आख्यायिका-निसृत असत्य : कथाओमां जे असंभवित वातो कहेवामां आवे ते 'आख्यायिका-निसृत असत्य' कहेवाय छे। 10. उपघात-निसृत असत्य : चोर न होय छतां 'तुं चोर छे', आq जे आळ चढाववामां आवे ते 'उपघात-निसृत असत्य' कहेवाय छे / सत्या-मृषा भाषाना 10 प्रकारो : 10 उप्पन्नविगयमीसग जीवमजीवे अ जीवअज्जीवे / तहऽणंतमीसगा खलु परित्त अद्धा अ अद्धद्धा // 275 // 1. उत्पन्न मिश्रित सत्या-मृषा : उत्पन्न जीवोने आश्रयीने जे मिश्र भाषा बोलवामां आवे ते 'उत्पन्नमिश्रित सत्या मृषा' भाषा कहेवाय छे। जेमके कोई नगरमा ओछां के वधारे बाळको जन्म्यां होय छतां आजे दस बाळको जन्म्यां छे एम जे कहेवामां आवे ते 'उत्पन्नमिश्रित सत्या-मृषा' भाषा छे; कारणके 15 तेमां थोडं साचुं छे अने थोडं खोटुं छे। तेथी ए मिश्र भाषा छ / २.विगतमिश्रित सत्या मृषा : ते ज प्रमाणे मरणने आश्रयीने जे मिश्र भाषा बोलवामां आवे ते 'विगतमिश्रित सत्या-मषा' भाषा छे। जेमके कोई नगरमां थोडा के वधारे माणसो मरी गया होय छतां आजे दस माणसो मरी गया एम कहेवाय आवे ते 'विगतमिश्रित सत्या-मृषा' भाषा छ / 3. उत्पन्न-विगतमिश्रित सत्या मृषा : ते ज प्रमाणे उत्पत्ति अने मरणने आश्रयीने जे मिश्र 20 भाषा बोलवामां आवे छे ते उत्पन्न-विमतमिश्रित सत्या-मृषा कहेवाय छे। जेम कोई नगरमा ओछा के वधारे माणसो जन्म्या होय के मरी गया होय छतां कहेवामां आवे के आजे दस बाळको जन्म्या छे अने दस वृद्धो मरी गया छे आवी भाषा 'उत्पन्न-विगतमिश्रित सत्या-मृषा' भाषा कहेवाय छे / 4. जीवमिश्रित सत्या-मृषा जेम कोई ढगलामा घणा जंतुओ जीवतां होय अने थोडां मरेलां पण होय छतां 'आ जीवता जंतुओनो ढगलो छे' एम कहेवू ते 'जीव-मिश्रित सत्या मृषा' भाषा छ / 25 5. अजीवमिश्रित सत्या-मृषा : कोई ढगलामां घणां जंतुओ मरेलां होय अने थोडां जीवतां होय छतां 'अजीवनो ढगलो छे' एम कहे ते 'अजीवमिश्रित सत्या-मृषा' भाषा छ। 6. जीवाजीवमिश्रित सत्या मृषा : उपरनी जेम जीवता अने मरेला जंतुओना ढगलामा (वस्तुतः न्यूनाधिक होवा छतां) निश्चयपूर्वक कहेवू के 'आटला मरेला छे ने आटला जीवता छे' आवी भाषा ते 'जीवाजीवमिश्रित सत्या-मृषा' छे / 30 7. अनंतमिश्रित सत्या-मृषा : 'मूळ' वगेरे अनंतकायने तेना ज प्रत्येक वनस्पति कायरूप पांदडानी साथे अगर बीजी कोई प्रत्येक वनस्पतिनी साथे जोईने 'आ बधुं अनंतकाय छे' एम कोई कहे ते 'अनंतमिश्रित सत्या मृषा' छ / 1. जेमां थोडं साचुं अने थोडं खोटुं होय तेवी मिश्र भाषाने 'सत्या-मृषा' कहेवामां आवे छे। कारणके तेमां कंईक साचं होवाथी ते 'सत्य' पण छे अने कंईक खोटुं होवाथी 'मृषा' पण छे / आ प्रमाणे सत्य तथा असत्यनुं मिश्रण 35 होवाथी ते 'सत्या-मृषा' कहेवाय छे / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 259 8. प्रत्येकमिश्रित सत्या मृषा : उपर मुजब प्रत्येक वनस्पतिना ढगलामां अनंतकाय रहेला होय छतां आ बधुं 'प्रत्येक वनस्पतिकाय छे' एम कहे, ते 'प्रत्येकमिश्रित सत्या-मृषा' छ / 9. अद्धामिश्रित सत्या-मृषा : अद्धा एटले काळ / अही प्रसंगानुसारे अद्धा शब्दथी रात्रि-दिवस लेवाना छे / जेम कोई माणस दिवस बाकी होय छतां बीजा माणसने उतावळ कराववा कहे के ‘रात्रि पडी गई' अथवा रात्रि बाकी होय छतां जगाडवा कहे के 'दिवस उगी गयो' ते 'अद्धा- 5 मिश्रित सत्या-मृषा' कहेवाय छे। 10. अद्धारामिश्रित सत्या-मृषा : दिवस के रात्रिनो एक भाग ते अद्धाद्धा। प्रथम प्रहर चालु होय छतां कोई माणस बीजा माणसने कार्यमा उतावळ करवा माटे कहे के 'मध्याह्न थई गयो' वगेरे वचनो अद्धाद्धामिश्रित सत्या मृषा भाषा छ / असत्यामृषाना 12 प्रकारो: 10 आमंतणि आणवणी जायाणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी। पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा अ // 276 // अणभिग्गहिआ भासा भासा अ अभिग्गहम्मि बोधव्वा / संसयकरणी भासा वायड अव्वायडा चेव // 277 // 1. आमंत्रणी : कोईने बोलाववा माटे जे संबोधन वचनोनो प्रयोग करवामां आवे जेमके 'हे 15 देवदत्त !' 'हे प्रभु !' वगेरे ते आमंत्रणी भाषा छ / आवां आमंत्रण वचनो प्रथम कहेली त्रण प्रकारनी * (सत्या, मृषा अने सत्या मृषा) भाषाना लक्षणोमा समावेश पामता नथी। केवळ व्यवहारना हेतु छे तेथी आवा प्रयोगो 'असत्यामृषा' कहेवाय छे / 2. आज्ञापनी : जेमके 'आम करो', 'लो', 'लई जाव', वगेरे आज्ञा वचनो। 'आज्ञापनी' भाषा छ। 20 .. 3. याचनी : जेमके 'भिक्षा आपो' वगेरे वचनो ‘याचनी' भाषा छे।। 4. पृच्छनी : जेमके कोई बावतमां अजाण्यो माणस बीजाने पूछे के 'आ शुं छे ? आम केम?' वगेरे वचनो 'पृच्छनी' भाषा छ / 5. प्रज्ञापनी : हिंसानो त्याग करवाथी प्राणीओ दीर्घायुषी तथा नीरोगी थाय छ। आवी जे उपदेशात्मक भाषा ते 'प्रज्ञापनी' भाषा छ / 25 6. प्रत्याख्यानी : कोई माणस आपणी पासे मागवा आवे त्यारे तेने कहेवू के 'मारी आपवानी इच्छा नथी' ते 'प्रत्याख्यानी' भाषा छ / ___7. इच्छानुलोमा : कोई माणस कोईने कहे के 'आपणे साधु पासे जईए' त्यारे बीजो माणस कहे के 'बहु सारी वात छे'-आवी जे अनुमोदनात्मक भाषा तेने 'इच्छानुलोमा' भाषा कहे छ। 1. उपर जणावेल त्रणे प्रकारनी भाषाना लक्षणथी रहित होवाथी जे सत्य पण नथी तेम मृषा पण नथी पण 30 केवळ व्यवहारमा ज उपयोगी छे तेवी भाषाने असत्यामृषा कहेवामां आवे छे। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ध्यानविचारः। [प्राकृत 8. अनभिगृहीता : घणां कार्यो करवानां होय त्यारे कोई माणस कोईने पूछे के 'हमणां हुं शुं करूं ?' त्यारे बीजो माणस जवाब आपे के 'तने ठीक लागे ते कर' आवी अचोकस भाषा ते अनभिगृहीता भाषा कहेवाय छे / 9. अभिगृहीता: 'हमणां आ करजे' अने 'हमणां आ न करीश' आ प्रमाणे जे चोक्कस 5 कहेवामां आवे ते अभिगृहीता भाषा छ / 10. संशयकरणी : जेना अनेक अर्थो नीकळता होवाथी बीजाने संशय उत्पन्न थाय एवी जे भाषा ते संशयकरणी भाषा कहेवाय छे / जेमके 'सैंधव लावो' एम कहेवामां आवे त्यारे बीजाने संशय उत्पन्न थाय छे के 'शुं लावq ?'-मीठं लावq, वस्त्र लावq, पुरुष लाववो, के घोडाने लाववो ? कारणके 'सैंधव' शब्दना लवण, वस्त्र, पुरुष अने घोडो एम अर्थ थाय छे / तेथी आवी. भाषा संशयकरणी 10 कहेवाय छ। 11. व्याकृता : ‘आ देवदत्तनो भाई छे' वगेरे स्पष्ट अर्थवाळी भाषा ते व्याकृता भाषा छ / 12. अव्याकृता : अत्यंत गंभीर अर्थवाळी भाषा ते अव्याकृता भाषा कहेवाय छे / तेमज अस्पष्ट अर्थवाळी नाना बाळको वगेरेनी भाषा पण अव्याकृता भाषा कहेवाय छे / आ रीते भाषाना कुल 42 प्रकारो छे। परिचय श्री नमस्कार महामंत्रनी आराधनामां 'ध्यान' एक मुख्य अंग छे / तेथी ध्यानविषयक ग्रंथोनी तपास करतां पाटणना श्री हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिरना भंडारमा डा. नं. 50, प्र. नं. 993 मां श्री 'ध्यानविचार' नामनो आ लघु ग्रंथ मळी आव्यो छे / / आ ग्रंथना आधाररूपे कोई महान् मौलिक ग्रंथ हशे एवं अनुमान थाय छे / ते शोधवा माटे 20 प्रयासो चालु छे / श्री नमस्कार महामंत्रनी आराधनामां ध्यानयोग जेवा अतीव महत्त्वना अंग उपर आवा व्यवस्थित ग्रंथथी मुमुक्षु पुरुषोने पुष्ट आलंबन थाय एवा पुण्य हेतुथी आ ग्रंथमां यथोचित शुद्धि करी विशेष व्यवस्थित रीते संपादित करी गुजराती अनुवाद साथे अहीं प्रकाशित कर्यो छे / आ कृतिना कर्ता विशे हस्तलिखित प्रतिमां कोई उल्लेख मळतो नथी। 15 PARANA KABP Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15] सिरिमाणतुंगमरिविरइयं नवकारसारथवणं॥ भत्तिभरअमरपणयं पणमियं परमिट्ठिपंचयं सिरसा / नवकारसारथवणं भणामि भव्वाण भयहरणं // 1 // 'ससि-सुविही अरिहंता सिद्धा पउमा -वासुपुञ्जजिणा / धम्मायरिया सोलस पासो मल्ली उवज्झाया // 2 // सुव्यय-नेमी साहू दुट्ठारिट्ठस्स नेमिणो धणियं / मुखं खेयरपयविं' अरिहंता दिंतु पणयाणं // 3 // अवचूरिः (छाया)-भत्तिभरामरप्रणतं प्रणम्य परमेष्टिपञ्चकं शीर्षण। नमस्कारसारस्तवनं भणामि भव्यानां भयहरणम् // 1 // चन्द्रप्रभ-सुविधी अर्हन्तौ, पद्मप्रभ-वासुपूज्यौ सिद्धौ / / षोडशान्ये धर्माचार्याः मल्लि-पाझे चोपाध्यायौ // 2 // सुव्रत-नेमी साधवः दुष्टारिष्टघाते नेमयश्चक्रधाराकल्पाः। अत्यर्थं* मोक्षे खेचरपदवीं ददतु प्रणता(तानां) जनानामहन्त इति // 3 // 15 व्याख्या-भक्तेभरो येषां ते अमरा देवास्तैः प्रणतम् , परमेष्टिपञ्चकमर्हदादिकं शिरसा मस्तकेन प्रणम्य नत्वा नमस्कारस्य सारं प्रधानं यत् स्तवनं तदहं भणामि, भव्यानामहिकादिसप्तविधभयापहरणमित्याद्यगाथार्थः // 1 // . चन्द्रप्रभ-सुविधी तीर्थङ्करौ अर्हति ध्येये ध्यातव्यौ / पद्मप्रभ-वासुपूज्यजिनौ सिद्धध्याने / ऋषभाजित-संभवाभिनन्दन-सुमति-सुपार्श्व-शीतल-श्रेयांस-विमलानन्त-धर्म-शान्ति-कुन्थु-अर-नमि-महावीर इति 20 षोडशजिना आचार्यध्याने ध्यातव्याः। श्रीमल्लि-पार्टी उपाध्यायध्याने ध्येयौ // 2 // मुनिसुव्रत-नेमी तीर्थङ्करौ साधुध्याने दुष्टारिष्टस्य छेदने, नेमयश्चक्रधारासमानाः साधवः शीघ्रमहदादिध्यानेन यत् फलं स्यात् तदाह / मोक्षं खेचरपदवीं प्रणतानां ददन्तु अर्हन्तः // 3 // __ अवचूरिका-१ परमेष्ठिपञ्चकं प्रणम्य / 2 स्तोत्रं भणामि संसारभयहरणम् / 3 चन्द्रप्रभः, सुविधिजिनः / 4 पद्मप्रभः / 5 चक्रधरः (धारा)। 6 खेचरपदविं(वीं) जनानां प्रणतानाम् / 25 . 1 सुविहीय अरि० JBI 2 J प्रतौ सर्वत्र ‘अरिहंता' स्थाने 'अरहंता' इति पाठः। 3 मल्लि S / 4 पयवीं D * 'अत्यर्थम्' इत्यस्य मूलगाथायां न कश्चित् पाठो विद्यते // Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 नवकारसारथवणं। [प्राकृत तेलुक्कवसीयरणं मोहं सिद्धा कुणंतु भुवणस्स / जल-जलणाई' सोलस पयत्थं थंभंतु आयरिया // 4 // 'इहलोइयलाभकरा 'उवझाया हुतु भयहरणा / पावुच्चाडण-ताडणनिउणों साहू सया सरह // 5 // 'महिमंडलमरहंता गयणं सिद्धा य सूरिणो जलणो / वरसंवरमुवझाया पवणो मुणिणो हरंतु दुहं // 6 // 'ससिधवलो अरहंता रत्ता सिद्धा य सरिणो कणयाँ / मरगयभी उवझाया सामाँ साहू सुहं दितु // 7 // छा०—त्रैलोक्यवशीकरणं कुर्वन्तु सिद्धाश्च मोहनं भुवनस्येति। आचार्याश्च जलादिरोग-जल-जलण(ज्वलन) -विषधर-चौर-अरि मृगेन्द्र-सर्प -भयं-सड्झामशाकणी(किनी)"-डाकिनी-राकिनी -लाकिनी” - काकिनी"- हाकिनी - षोडशपदार्थान् स्तम्भन्त्वाचार्याः // 4 // इह लोके लाभकराः भवन्तु उपाध्यायाः सर्वभयहरणाः / पापोच्चाटन-ताडनयोनिपुणाः दक्षाः साधवः सदा स्मरत // 5 // महीमण्डलमहन्तः सिद्धा गम(ग)नमिति आचार्याः ज्वलनम् / वर-संवरमुपाध्यायाः मुनयः पवनं दुःखं हरन्तु // 6 // चन्द्रोज्ज्वला अर्हन्तः सिद्धाश्च रक्ताः सूरयः कनकवत् / मरकतप्रभा उपाध्यायाः नीला इत्यर्थः साधवः श्यामाः सुखं ददतु // 7 // व्या०-त्रैलोक्यवशीकरण मोहं च सिद्धा जगतः कुर्वन्तु / आचार्याः स्तम्भन्तु, कान् ? जल20 ज्वलन-रोग-विस (ष)हर-चौरारि-मृगेन्द्र-गजेन्द्र-सर्प-भय-संग्राम-शाकिनी-डाकिनी-राकिनी-लाकिनी- काकिनीहाकिनीति षोडश पदार्थान् // 4 // ऐहिकलाभकरा उपाध्यायाः सर्वभयहरणा भवन्तु, पापोच्चाटन-मारण-ताम्ला(ताडना)दिकर्मणि कर्मठाः साधवः, स्मरत भो भव्याः ! यूयमिति संबन्धः // 5 // पृथ्वीतत्त्वेऽर्हन्तो ध्येयाः / आकाशतत्त्वे सिद्धाः। तेजस्तत्त्वे आचार्याः / प्रधाने च जलतत्त्वे 25 उपाध्यायाः / पवनतत्त्वे मुनयः ध्ये (ध्या) यमाना भवी (वि) नां दुःखं हरन्तु // 6 // अर्हन्तः चन्द्रवदुज्ज्वला ध्येयाः / सिद्धा रक्तवर्णाः / आचार्याः कनकवर्णाः उपाध्याया मरकतमणिसदृशा नीलवर्णाः / साधवः श्यामाः कृष्णवर्णाः भविकानां सुखं ददतु // 7 // अ०-१ जलणादिः= रोग-जल-जलण (ज्वलन)-विस(षोहर-चोरारि-मृगेन्द्र-सर्प-भय-संग्राम-डाकिनी-शाकिनीराकिनी-लाकिनी-काकिनी-हाकिनी / 2 पदस्था आचार्याः [इत्यर्थोऽपि घटते] / 3 इहलोके / 4 भवन्तु / 5 निपुणाः। 30६स्मरत / 7 गगनम् / 8 तोयत्वम् ।९चन्द्रवदुज्ज्वलाः।१० रक्ताः।११ कनकवत् ।१२मरकतमणिसदृक्षाः। 13 श्यामाः। __1 तिअलोअवसीकरण JB, D, N, A1 2 पयत्यं / / 3 इहलोए A1 4 JB आदर्श सर्वत्र ‘उवझाया', स्थाने 'उज्झाया', प्रतौ सर्वत्र ‘उवज्झाया' पाठः। 5 हुंति AL 6 SV आदर्शयोः नवमीगाथा षष्ठाङ्केन निरूपिता, प्रत्यन्तरे पुनः षष्ठाङ्केन दर्शिता गाथा सप्तमी, सप्तम्याः स्थाने च षष्टी गाथा विद्यते इति गाथाव्यतिक्रमः / 7 सुसूरिणो JB | 8 कणयं JA, D SI लोअवसीकरण JB, D, N, AI पाठः। 5 हुंति ALESVवद्यते इति गाथाव्यतिक्रमः Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / सीसत्था अरहंता सिद्धा वयणम्मि सरिणो कंठे। हिययम्मि उवज्झाया चरणठियां साहुणो वंदे // 8 // अरिहंता असरीरा आयरिय उवज्झाय तहा मुणिणो / पंचक्खरनिप्पन्नो उकारो पंचपरमिट्ठी // 9 // वट्टकला अरिहंता तिउणाँ सिद्धा य लोढकल सूरी। उवझाया सुद्धकलां दीहकलाँ साहुणो सुहया // 10 // [अक्खर आइ अयारं हयारमंतक्खरं च माइए / मझे वन्नसमुच्चयरयणत्तयभूसियं अरहं // ]* 'पुंसित्थि-नपुंसय-रायपुरिस-बहुसद्दवण्णणिजाणं / जिण-सिद्ध-सरि-वायग-साहूण कमे नमसामि // 11 // छाछ--शिरःस्था अर्हन्तः सिद्धा वदनस्थाः सूरयः कण्ठे / हृदये उपाध्यायाः चरणस्थिताः साधवस्तान् वन्दे // 8 // [नवमीगाथाया अवचूरिन विद्यते।। वर्तुला अर्हन्तः सिद्धास्थ्यलगा लोढकरा-लोढाकाराः(सूरयः) / बालचन्द्राकारा उपाध्यायाः, दीर्घकलाः प्रलम्बाः साधवः सुखदाः स्युरिति गम्यते // 10|| 15 पुरुष-स्त्री-नपुंसक-राजपुरुष-बहुभिः [ शब्दैः] वर्णनीयाः / जिनाः सिद्धाः सूरयः वाचकाः साधवश्च क्रमान्नमस्कुर्वे // 11 // व्या०--अर्हन्तः शीर्षस्थाः मस्तकस्थाः। वदने सिद्धाः। कण्ठस्था आचार्याः। हृदये उपाध्यायाः। 'चरणस्थाः पदस्थाः साधवो ध्येयास्तानहं भक्त्या वन्दे // 8 // [नवमीगाथायाः व्याख्या न विद्यते] अर्हन्तः वर्तुलाकाराः, त्रिकू(को)णाः सिद्धाः, सूरयो लोष्टकाकाराः, उपाध्याया द्वितीयाचन्द्रकलाकाराः, दीर्घकलाः प्रलम्बाकाराः साधवो ध्यायमानाः सुखदा भवन्तु // 10 // अर्हत्-सिद्ध-सूरि-उपाध्याय-साधूनां क्रमौ नमस्करोमि / कीदृशानाम् ? पुरुषांशक 1 - नार्यशक २-नपुंसकांशक ३-राजपुरुषांशक 4 - सर्वश्राद्धजनांशकानाम् 5 // 11 // ___ अ०-१ शिरसि स्थिताः / 2 वदने। 3 कण्ठे / 4 हृदये / 5 चरणस्थिताः। 6 वतुलाः / 7 ति(व्य)स्त्रगाः। 25 8 लोदाकाराः / 9 बालचन्द्राकाराः। 10 दीर्घकलाः प्रलम्बाः / 11 पुरुष-स्त्री। 12 राजपुरुषः / 20 ............ ___ 1 निप्फन्नो SDI 2 तउणा D / 3 लोटकल D, लोढकय A / 4 सरणं D, वंदे JB, N | 5 पुंसत्थिणपुंसयणरायपुरिसवन्नणिजाणं A, पुंसत्थिनपुसयरा पुरिसबहुवण्णवंदणिज्जाणं D, यरा पुरिसबहुसद्दवन्नणिज्जाणं N, बहुसडवंद णिज्जाणे Ja / 6 °सद्द JB, सिद्ध°N / * कोष्ठकान्तर्गता गाथा नमस्कारव्याख्यानटीकायां विशेषरूपेणैकादशाङ्केनोदृङ्किता / 'पुंसित्थि.' गाथाऽप्येकादशाङ्केन 30 पुनर्निरूपिता। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 [प्राकृत नवकारसारथवणं / पढम-दुसरारिहंतां चउस्सरा सिद्ध सूरि-उवझाया / दुग-दुगसरा 'कमेणं नंदंतु मुणीसरा दुसरा // 12 // वण्णनिवहो कगाई जेसि बीओ हकारपजंतों / नियनियसरसंजोगा सरेमि 'चूडामणि 'तेहिं // 13 // ते पुण अएकचटतपयस त्ति नववग्ग वन्न पणयाला / परमिट्टिमंडलकमा पढमंतिमतुरियतियबीआ // 14 // सैयारुण-पीय-पियंगुवन्न"-कसिणाइ विडविपत्ताई / अंबिल"-महु-तिक्ख" कसाय-"कड्य परमिट्ठिणो वंदे // 15 / / छा०-प्रथम-द्विस्वरा अर्हन्तः, चतुःस्वराः सिद्धाः, सूरयः उपाध्यायाश्च द्विस्वराः / मुनयोऽपि द्विस्वराः, एवं चैते अआ इई उऊ एऐ ओऔ अंअः // 12 // . वर्णनिवहो वर्णसमूह[:] कादिर्येषां बीजं हकारपर्यन्तः / निजनिजस्वरसंयोगात् [तेषामर्थे चूडामणिशास्त्रं ] स्मरामि // 13 // ते वर्णाश्च अ ए क च ट त प य से(शे)[ति] नववर्गः 45 अक्षराणि स्युस्ते। परमेष्ठिमण्डलाः क्रमादनुक्रमात् प्रथमोऽन्तिमः, तुर्यस्तृतीयो द्वितीयश्च // 14 // श्वेत-रक्त-पीत-प्रियङ्गवर्ण-कृष्णविटपिपत्राणि तत्प्रभाणि / आम्ल-मधुर-तिक्त-कषाय-कटुका अनुक्रमेण परमेष्टिनो वन्दे // 15 // व्या०-प्रथमद्विस्वरा 'अ आ' रूपा अर्हन्तः / ‘इ ई ए ऐ (उ ऊ)' चतुःस्वररूपाः सिद्धाः / सूरयः 'उ ऊ (ए ऐ)' रूपा, 'ओ औ' रूपा उपाध्यायाः / एवं द्विकद्विकस्वराः सिद्धादयः (आचार्यादयः), मुनीश्वरा द्विस्वरा 'अं अः' रूपा जयन्तु // 12 // 20 येषामर्हदादीनां हकारपर्यन्तः ककारादिवर्णनिवहो बीजं तत्त्वं, मिजनिजाकारादिस्वरसंयोगात् तेषां चूडामणिमहं स्मरामि // 13 // [चतुर्दशगाथायाः व्याख्यानं कृतं नास्ति टीकाकारेण] अर्हदादीनां क्रमेण वर्णध्यानम् / श्वेता अर्हन्तः, रक्ताः सिद्धाः, पीतवर्णा आचार्याः, प्रियङ्गवृक्षविशेषः, स च नीलवर्णस्तद्ध्याने उपाध्यायाश्चिन्त्या नीलत्वात् तेषाम् / विटपी वृक्षस्तस्य 25 पत्राणि कृष्णवर्णानि स्युः साधूनां कृष्णत्वात् , तद्ध्यानं अम्ल 1 - मधुर 2 - तिक्त 3 - कषाय 4 - कटु 5 - रसैः क्रमेणार्हदादीन् वन्दे // 15 // - [अत्र षोडशगाथायाः व्याख्या न वर्तते] अ०-१ अ आ इ ई उ उ [ए ऐ ओ औ अं अः / 2 वर्णसमूहः कादिर्येषां हकारपर्यन्तो निजस्वरसंयुक्तस्तेषाम् , स्मरामि। 3 श्वेत-रक्त-पीत-नील-कृष्णवृक्षपत्राणि / 15 30 1 कमेण SI 2 तिसरा N, JCI 3 °निवहे S 4 ककाइ D, ककाई s, ककाई सुसंठिओ जो JB, ककाई संठिज्जे s / 5 °पज्जते / 6 संयोगो AI 7 चूडामणी JAN 8 तेसिं S / 9 °पजस D, यश JAI 10 °वग्गा DSI 11°तुरिया D12 °वणं D / 13 °णाइविउवि D, णाई विडंग JBI 14 गुलिय° JBI 15 "तित्त°JB, D, SI 16 कडया JB, कडूअSI Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। संसि-सुक्के अरिहंते रवि-मंगल सिद्ध गुरु-बुहा सूरी। सैरह उँवझाय केऊ कमेण साहू सणी राहू // 16 // नंदा तिहि अरिहंता भद्दा सिद्धा य सूरिणो य जया / तिहि रित्ता उवझाया पुण्णा साहू सुहं दितु // 17 // संसि-मंगल अरिहंता बुहोय सिद्धा य सुरगुरू सूरी। सुक्कों उवझाय पुणों साहू मंदो सुहं भाणू // 18 // कत्तिय-चित्तों "अरिहा वइसाहो मग्गमास सिद्धा य / पोसो जिट्ठो भद्दव आसोआ सूरिणो सुहया // 19 // माहासाढुज्झाया" फग्गुणमासो य सावणो साहू / "मह मंगलमरिहंता(इ) अचिंतचिंतामणी" दिंतु // 20 // छा०-शशि-शुक्रौ अर्हन्तौ, रवि-मङ्गलौ सिद्धाः, गुरु-बुधौ सूरयः / स्मरतोपाध्यायान् केतुमिति शनि-राहु-साधवः क्रमात् / / 16 // अर्हन्तो नन्दातिथिः, सिद्धाश्च भद्रातिथिः, सूरयः आचार्या विजयातिथिः / उपाध्याया रक्तातिथिः, साधवः [पूर्णातिथिः] ददतु ते सुखम् // 17 // शशि-मङ्गलौ अर्हन्तः, सिद्धाः बुधः, सूरयः सुरगुरवः / शुक्रः उपाध्यायाः, मन्दो भानू राहुरि-(°नु-शनिश्चर इ°)ति साधवः सुखं ददतु // 18 // कार्तिक-चैत्रौ अर्हन्तः, वैशाख-मार्गशीर्षों सिद्धाश्च / पौष-ज्येष्ठ-भाद्रपदाश्विनमासाः सूरयः सुखदाः स्युरिति संबन्धः // 19 // माघाषाढी उपाध्यायाः, फाल्गुनक-श्रावणी साधवः / मह्यं मङ्गलं ददत्वहन्तोऽचिन्त्यचिन्तामणयः // 20 // व्या०-अर्हतां ध्यानं 1 / 6 / 11 नन्दातिथौ कार्यम् / सिद्धानां 2 / 7 / 12 भद्रायाम् / सूरीणां 3 / 8 / 13 जयायाम् / उपाध्यायानां 4 / 9 / 14 रिक्तायाम् / साधूनां 5 / 10 / 15 पूर्णायां तियौ ध्यानं विधेयं सुखार्थम् // 17 // सोम-मङ्गलवारयोरर्हन्तः। बुधवारे सिद्धाः। बृहस्पतिवारे सूरयः, शुक्रवारे उपाध्यायाः / आदित्य-शनिश्चरयोरियोः साधवः ध्यायमानाः सुखं ददतु // 18 // 25 अहंदादीनामानुपूर्व्या मासस्य ध्यानं क्रियते, तदाह-कार्तिकमासे चैत्रमासे च अर्हन्तः। वैशाखमासे मार्गशीर्षमासे च सिद्धाः। पोषमास-ज्येष्ठमास-भाद्र[पद]मासाश्विनमासेषु आचार्या ध्यायमानाः सुखदा भवन्ति ध्यातृणामिति // 19 // माघाषाढमासद्वये उपाध्यायाः। फाल्गुन-श्रावणमासद्वये साधवः चिन्तितार्थचिन्तामणयो मम मङ्गलं विरचयन्तु // 20 // 30 ___ अ०-१ सोम-शुक्रौ।२ बृहस्पति-बुधौ। 3 स्मरत / 4 उपाध्यायः-केतुः, शनिः, राहुः / ५सोम-मङ्गल-बुध-बृहस्पतिः। 6 कार्तिक-चैत्र(त्रौ), वैशाख-मार्गशीर्ष(!), पौष ज्येष्ठ-भाद्रपद-आश्विन(नाः), माघ-आषाढ (ढौ), फाल्गुन-श्रावण(णौ) / 15 20 ७मम। 1 सुक्का N / 2 अरहंता N AI 3 मंडल DI JA, N, A इत्याद्यादर्शेषु षोडशगाथानन्तरं 'पुव्वाणुपुत्वि' इत्यादि 25,26, 27, 28 गाथाचतुष्कं 17, 18, 19, 20 इत्यङ्कनिर्दिष्टाः। 4 तिहिनंदा D 135 5 विजया DAI 6 उज्झाया JBI 7°लमरि DSNAI 8 सुक्कोवज्झाय SDI 9 उज्झायपओ JB, 'पओs। 10 मंदा DI 11 भाj SI 12 अरहा N AI 13°दुवज्झाया D 14 मम JB, DI 15 मणिं D / 16 दिसउ N / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 नवकारसारथवणं। [प्राकृत 'पुंसयरा अरहंता धणिद्वापंचगा य सिद्धा य / / दिगुरिक्खा आयरिया नमामि सिरसा य भत्तीए // 21 // अद्दाई जे रिक्खा उवझाया तेसि दितु फलनिवहं / चित्ता साई साहू सासयसुक्खं महं दिंतु // 22 // जमु कन्ना-विस अरिहा मेसो मयरों य अंतिणो सिद्धा / पंचाणण अलि सूरी धणु-मिहुणोऽज्झावया वंदे // 23 // ककड-तुला य साहू दोदह रासी य पंचपरमिट्ठी।। भावेणं थुणमाणो पावई सुक्खं च मुक्खं च / / 24 / / पुव्वाणुपुविहिट्ठा समयाभेएण "कुरु जहाजिटुं / / उवरिमतुल्लं पुरओ "निसिज पुव्वक्कमो “सेसो // 25 // जम्मि" य निक्खित्ते खलु सो चेव हविज अंकविन्नासो / सो होइ समयभेओ वज्जेयव्वो पयत्तेणं // 26 // इच्छियपय” अंकाणं नासब्भासों य भंगपरिमाणं / अंतंकभागलद्धं "ठवियंका पुण पुणुद्धरियं // 27 // "मूलगपंतिदुर्गणं अंको जो ठविय दुन्नि जे अंका। तेसि "दुभंगे काउं निसिज्ज कम-उक्कमेणं तु // 28 // छा०-पुरुषनक्षत्राणि अर्हन्तः, धनिष्ठापञ्चकं च सिद्धाश्च / आचार्या द्विगुनक्षत्रा एतान् वन्दे शिरसा च पुनर्भक्त्या // 21 // आद्याश्च ये नक्षत्रास्ते उपाध्याया गुणनिवहं ददतु / चित्रा-स्वाती साधवः शाश्वतसुखं मह्यं ददतु // 22 // पम जम अन्ते अर्हन्तः, मेष-मकरौ च सिद्धौ। / सिंह-वृश्चिकौ सूरयः, धनुर्मीनावुपाध्यायाः // 23 // [24 गाथातः 28 गाथापर्यन्तमवचूरिन विद्यते / ] . व्या०-[इतः 21 गाथातः 35 गाथापर्यन्तं व्याख्यानं नोपलभ्यते।] 25 अ०-१ पुरुषनक्षत्राणि, धनिष्ठापञ्चकम् , दशनक्षत्राणि। 2 आर्द्रादि यानि नक्षत्राणि तेषाम् , चित्रा स्वातिसमाः। 3 कन्या-वृष(षौ), मेष-मकर(ग), सिंह-वृश्चिक(कौ), धनुर्मिथुन(नौ), कर्क-तुला(ले), पञ्चपरमेष्ठि[ नः] स्तूयमानानां मोक्षम् / 1 मूलं सग अरिहंता तहा धणिट्ठाइपंचयं सिद्धा J, Ja, S, P / धणि?गा पंचगो य सिद्धा य N; पुंसं * सग JBI 2 दियरिक्खा S| 3 गुणनि D / 4 चित्ताईसाइDI 5 यम जम अंते अ° JB, जम जम अंते अरिहा / 30 DN, पम जम अंते अरिहा A, जमु कि(क)न्ना विसरमहंता SI 6 मयरा DI 7 धणमिहुणज्झायया वंदे N, धणमिहुणुज्झायया वंदे A DI धूण य मिहुणो उज्झाया JB, SI 8 दो दो JA, दो दस JC, N, दो दुह रासीउ A, रासीओ JB1 9 भावेण थुव्वमाणा JB, भावेण षु(सु) द्धमणो सासयसुक्खं महं दिंतु N | 10 पावइ मुक्खं सुक्खं च AI 11 कुण DS | 12 नसिज्ज D निसेज S1 13 सेसे DSI 'पुव्वाणुपुवि' इत्यादिगाथाचतुष्कं 25, 26, 27, 28 षोडशगाथानन्तरं 17, 18, 19, 20 इत्याङ्कनिर्दिष्टाः। 14 जह जम्मिय पक्खित्ते JB, जेहिम्मि य नक्खत्ते JD, 35 जम्मि निक्खित्तो तह पुणरवि सो चेव अंक DS | 15 पयरगईए JC N, पयरगइए D / 16 नामभामो य अंकपरि° N, JCT 17 ठवियज्जा D, ठवियग्गा JC, N, ठवियग A, ठवियगा JBI 18 पुण धरियं DSI 29 मूलिग JC, मूलिगपंति दुए पुण अंको नो ठविय S / 20 अंको न ठविजइस्सि जे D, नो ठवियम्मि जे A I 11 दुभेगे काउं नसिज DI Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय / 267 तं नैत्थि जं न इत्थं निमित्त-गह-गाणिय-मंत-तंताई / जं पत्थियं पयच्छइ कहेइ जं पुच्छियं सयलं // 29 // तिहुयणसामिणिविज्जो महमंतो मूलमंततत्ततियं / इत्थ 'ठियं पि न नजई गुरूवएसं विणा सम्मं // 30 // 'सुमरियमित्तं पि इमं तत्तं नासेइ सयलदुरियाई / पारंपरेण नायं तं नत्थि सुहं न जं कुणइ // 31 // पंचनवकारतत्तं लेसेणं संसिरं अणुहवेणं / सिरिमाणतुंग-माहिंदमुज्जलं सिवसुहं दितु // 32 / / संभरह पढह झायह णिचं घोसेह "णवह अरिहाई / / "भद्दपयं जइ इच्छह तस्सेव य अत्तणो णाणं // 33 // न हि "उवसग्गा पीडा कूरग्गहदंसणं "भओ संका। जइ वि न हवंति एए तो वि तिसंझं भणिज्जासु // 34 // एसों परमरहस्सो परमो मंतो इमो "तिहुअणम्मि / ता किमिह बहुविहेहिं पढिएहिं, "पुत्थयसएहिं // 35 // [N प्रतौ-] इति श्रीपञ्चपरमेष्ठिस्तोत्रम् // रत्नहर्षपठनकृते लिखितम् / 15 छा०-तन्नास्ति निमित्तं ग्रहगणितं मन्त्र-तन्त्रादि। यत् प्रार्थितं तत् प्रयच्छति कथ[य]ति यत् पृष्टं सकलम् // 29 // त्रिभुवनस्वामिनीविद्या अत्र स्थिताऽपि न ज्ञायते गुरूपदेशं विना समग्रम् // 30 // स्मृतमात्रमपि नाशयति सकलदुरितानि, तन्नास्ति सुखं यन्न करोति // 31 // अनुभवेन कथितं, मोक्षसुखं दिशतु // 32 // [अत्र 33 गाथाङ्कोपर्यवचूरिर्नास्ति / ] महानुपसर्ग-पीडा-क्रूरग्रहदर्शन-भय-शङ्का // 34 // तत् किमिह विविधेन पठितपुस्तकभरेण // 35 // इति अवचूरिः समाप्ता // अ०-१ तन्नास्ति निमित्तं ग्रह-गणितं मन्त्र-तन्त्रादि यत् प्रार्थितं तत् प्रयच्छति। कथयति यत् पृष्टं सकलम् / 25 2 त्रिभुवनस्वामिनी विद्या अत्र स्थिताऽपि न ज्ञायते गुरूपदेशं विना समग्रम् / 3 स्मृतमात्रमपि नाशयति सकलदुरितानि / तन्नास्ति सुखं यन्न करोति / 4 अनुभवेन कथितम् / 5 मोक्षसौख्यं ददातु। 6 महानुपसर्गः, पीडा क्रूरग्रहदर्शनं, भयं(यः), शङ्काः / 7 तत् किमिह विविधेन ['पुत्थभारेहिं ' इति पाठे ] पठितपुस्तकभारेण // 1यं न यच्छइ D / 2 पुच्छियं JB | 3 °तंताई D, तंततियं JB, A, NI 4 ठियं न (पि) DI 5 निज्जइ JB, A1 6 समरिय N AT 7 मंतं JA, वुत्तं N 1 8 थुत्तं D AT 9 अणुभावेणं D, अणुभवेणं A, 30 10 व्हवह D, न्हवह A, नमह JA, नयह N / 11 सिद्धपयं / / 12 नायं N, नाम AI 13 महउD, नहुउ N A, ननुउ° / 14 उवसग्गो NA, उवसग्गे SDI 15 भयं DI 16 तह वि सगुज्झं s, तो विसकजं A | 17 तिभुवणम्मि JA, SI 18 गहिएहिं पुत्थभारेहिं JAI 19 पुत्थयभरेणं D / Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 नवकारसारथवर्ण। [प्राकृत पञ्च पदानायः॥ [पञ्चपरमेष्ठिसाधन-विधि-फलम्] [1] ॐ नमो अरिहंताणं श्रीचन्द्रप्रभ-सुविधिनायौ श्वेतवर्णी सितध्यानेन ब्रह्मस्थाने मस्तकस्थितौ ध्यातव्यौ / पृथ्वीमण्डलतत्त्वे वर्तुलाकारौ पुरुषांशकौ, अ-आ स्वरौ, क-च-ट-त-प-य-श इति 5 सप्तभिर्व्यञ्जनैर्ध्यातव्यौ। नन्दातिथिभिः प्रतिपत्-षष्ठयेकादशीभिस्तिथिभिः सहितौ, सोम-मङ्गलवारसंयुक्तौ, [वृष ? ]कन्या-कुम्भराशिसहितौ, कार्तिक-चैत्रमासयुक्तौ, कृत्तिका-रोहिणी-उत्तराफाल्गुनी-हस्त-धनिष्ठाशतभिषक्-पूर्वाभाद्रपदसप्तन(भिन)क्षत्रैर्ध्यातव्यौ, गौल्याम्लास्वादसहितौ / 'ॐ ह्री” (हां) अर्हते नमः' अनेन मन्त्रेण मुक्तत्वं खेचरत्वं च लभ्यते // इति प्रथमपदाम्नायः॥१॥ [2] ॐ नमो सिद्धाणं पद्मप्रभ-वासुपूज्यौ रक्तवर्णी रक्तध्यानेन पूर्वस्यां दिशि मुखस्थितौ 10 ध्यातव्यौ / आकाशमण्डलतत्त्वे त्रिकोणौ, स्रयंशको, इ-ई-ए-ऐ स्वरैः; ख-छ-ठ-थ-फ-र-ष सप्तभिर्व्यञ्जनैः सहितौ [ध्यातव्यौ], भद्रातिथि[भिः] द्वितीया-सप्तमीद्वादशी[भिः] तिथि[भिः] सहितौ बुधवारसहितौ, वैशाख-मार्गशीर्षमासयुतौ, मेष-मीन-मकरराशियुतौ, अश्विनी-भरण्युत्तराषाढो(ढा-)[श्रवणोत्तराभाद्रपद-रेवती षड्भिर्नक्षत्रैः [ध्यातव्यौ], मधुरास्वादयुतौ / 'ॐ ह्रीं सिद्धाय नमः' अनेन ध्यानेन त्रैलोक्यवशीकरणं त्रिभुवनमोहकत्वं च भवति // इति द्वितीयपदाम्नायः // 2 // 15 [3] ॐ नमो आयरियाणं ऋषभाजित-संभवाभिनन्दन-सुमति-सुपार्श्व-शीतल-श्रेयांस-विमला नन्त-धर्म-शान्ति-कुन्थ्वर-नमि-महावीराः षोडशजिनाः कनकवर्णाः पीतध्यानेन दक्षिणस्यां दिशि कण्ठस्थिताः, तेजोमण्डलतत्त्वे लोढाकाराः, नपुंसकांशकाः, उ-ऊ स्वराः, ग-ज-ड-द-व-ल-स सप्तभिर्व्यञ्जनैर्ध्यातव्याः। जयातिथि[भिः] तृतीयाष्टमी-त्रयोदशी[भिः] तिथिभिः सहिताः, पौष-ज्येष्ठ-भाद्रपदाश्विनमासयुताः, बृहस्पतिवारसहिताः, सिंह-वृश्चिकराशियुताः, मघा-पूर्वाफाल्गुन्यनुराधा-ज्येष्ठाचतुर्भिर्नक्षत्रैर्ध्यातव्याः। तिक्ता20 स्वादसहिताः / ॐ हूँ आचार्येभ्यो नमः' इति वाऽनेन ध्यानेन जल-ज्वलनादिषोडशपदार्थान् स्तनाति // इति तृतीयपदाम्नायः // 3 // [4] ॐ नमो उवज्झायाणं पार्श्वनाथ-मल्लिनाथौ मरकतवर्णी नीलध्यानेन ध्यातव्यौ / पश्चिमायां दिशि हृदयस्थितौ जलतत्त्वे, द्वितीयाचन्द्रकलाकारौ, राजपुरुषांशको, ओ औ स्वरौ, घ-श-ढ-ध-भ-व-ह सप्तभिर्व्यञ्जनैः सहितौ, रिक्तातिथि[भिः] चतुर्थी-नवमी-चतुर्दशी[भिस्तिथिभिः] युतौ, धन-मिथुनराशि-युतौ, भृगुवारसहितौ, 25 माघाषाढमाससंयुक्तौ, मूलपूर्वाषाढा-मृगशीर्षार्दा-पुनर्वसुपश्चभिर्नक्षत्रैः, कषायास्वादौ ध्यातव्यौ 'ॐ हौ उपाध्यायेभ्यो नमः' अनेन मन्त्रेण 'इहलोइयलाभकरा उवज्झाया इंतु सव्वभयहरणा' // इति चतुर्थपदाम्नायः // 4 // [5] ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं मुनिसुव्रत-नेमिनाथौ कृष्णवर्णी कृष्णध्यानेनोत्तरस्यां दिशि चरणेषु ध्यातव्यौ। वायुतत्त्वे, दीर्घकलाकारौ, बहुप्रसिद्धलोकवन्द्यमानौ, अं-अः स्वरौ, ड-अ-ण-न-म-ल-क्ष सप्तभिर्व्यञ्जनैर्ध्यातव्यौ / पूर्णातिथि[भिः] पञ्चमी-दशमी-पूर्णिमातिथिभिः, शनि-रविवाराभ्यां च सहितौ, 30 फाल्गुन-श्रावणमासयुतौ, कर्क-तुलाराशिसहितौ, पुष्या-ऽऽश्लेषा-चित्रा-स्वाति-विशाखापञ्चभिर्नक्षत्रैर्ध्यातव्यौ / कटुकास्वादौ / 'ॐ हः सर्वसाधुभ्यो नमः' अनेन ध्यानेन 'पावुच्चाडन-ताडण-मारणनिउणा साहू सया सरह // इति पञ्चमपदाम्नायः // 5 // इति पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रविधिः संपूर्णोऽस्तु / [A प्रतौ-ब()हत्खरतरगच्छे उपाध्यायश्रीशान्तिरतनगणीजी महाराजके पठनार्थ - धनसुख35 दासस्य भार्या सूरजकुवरबीबीने वहराया मी आसोज सुदी 10 सुक्र सं० 1953 का० जैपुरनगरे॥] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / पञ्चपरमेष्ठिसाधन-विधि-फलकोष्टक / पूर्व मुख वर्तुल आम्नाय - अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, 1 परमेष्ठिपञ्चके चंद्रप्रभ, सुविधि पद्मप्रभ, वासुपूज्य सुमति, सुपार्श्व, पार्श्व, मलि मुनिसुव्रत, नेमि | 5 चतुर्विंशति शीतल, श्रेयांस जिनस्वरूपम् विमल,अनंत, धर्म, शांति, कंथु, अर, नमि, वीर | 2 वर्णनिर्देश श्वेत रक्त कनक (पीत) | मरकत (नील) कृष्ण 3 दिशानिर्देश ब्रह्मस्थान दक्षिण पश्चिम उत्तर 4 अंगन्यास मस्तक कंठ हृदय चरण 5 तत्त्वनिर्देश / पृथ्वीमंडल | आकाश तत्त्व तेजोमंडल जलमंडल वायुमंडल 6 आकार, त्रिकोण लोढकला विशुद्धकलारूपे दीर्घकलारूपे साध्य-ही आठ अंशवाळो | 15 प्राकृत ह कार 7 अंशक पुरुष स्त्री नपुंसक राजपुरुष बहु शब्द-वर्णनीय सर्वश्राद्धजन अथवा बहुप्रसिद्धलोक वंद्यमान 20 8 स्वर अ आ इईएऐ ! उऊ ओ औ अं अः (हईउऊ) (ऋलल) 9 वर्ग कच ट त प य श ख छठ थ फरष गज ड द ब ल स घझदधभवह ङञण न मलक्ष 10 ग्रह चंद्र, शुक्र सूर्य, मंगल गुरु, बुध - शनि, राहु 11 तिथि . नंदा (1,6,11) भद्रा (2,7,12) जया (3,8,13) रिक्ता (4,9,14) पूर्णा (5,10,15/ 25 12 मास कार्तिक, चैत्र वैशाख, मागशर पोष, जेठ, भादरवो माघ, आषाढ फागण, श्रावण आसो 13 राशि वृष, कन्या, कुंभ मेष, मीन, मकर सिंह, वृश्चिक धन, मिथुन / कर्क, तुला |14 वार / सोम, मंगल बुध गुरु शुक्र शनि, रवि 15 नक्षत्र कृत्तिका, रोहिणी, अश्विनी, भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी मूल, पूर्वाषाढा, पुष्य, आश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, श्रवण, ज्येष्ठा, अनुराधा मृगशीर्ष, आर्द्रा, चित्रा, स्वाति, हस्त, धनिष्ठा,शत- उत्तराभाद्रपद, पुनर्वसु विशाखा - भिषक् ,पूर्वाभाद्रपद रेवती 16 रस अम्ल मधुर / तिक्त कषाय 17 मन्त्र ॐ हाँ अर्हद्भयो ॐ ह्री सिद्धेभ्यो ॐ हूँ आचार्येभ्यो अह्रौ उपाध्यायेभ्यो ॐ हः सर्वसाधुभ्यो| 35 नमः। नमः। नमः। नमः। नमः। 18 फल मुक्तत्व, खेचरत्व त्रैलोक्य-वशीकरण, स्तंभन - इहलौकिकलाभ, / (पाप) उच्चाटन, (विमोचन,शांति) त्रिभुवनमोहकत्व, जलादि - सर्वभयहरण मारणादि वशीकरण, मोहन (तुष्टि, पुष्टि) केतु Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ' नवकारसारथवणं। [प्राकृत परिचय 'नमस्कारसारस्तवन' नामक स्तोत्रनी लगभग वीशेक हस्तलिखित प्रतिओ जोवा मळी छे, तेमांथी 9 प्रतिओने सामे राखीने आ स्तोत्रनुं संपादन कयुं छे। ए प्रतिओनो परिचय आ रीते छे: 1. A संज्ञक प्रति ते जैन साहित्य विकास मंडळना संग्रहनी फोटोस्टेटिक कोपी (ते श्री मुक्तिकमल जैन मोहनज्ञानमंदिर, वडोदराना संग्रहनी प्रति) 2. S संज्ञक प्रति ते जै. सा. वि. मं. ना संग्रहनी बीजी फोटोस्टेटिक कोपी। 3. D संज्ञक प्रति ते देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, सूरतथी नं. 79 मां प्रसिद्ध थयेल _ 'भक्तामर-कल्याणमंदिर-नमिऊणस्तोत्रत्रयम्' मां प्रगट थयेलं आ स्तवन / 4. J संज्ञक प्रति ते श्रीजिनविजयमुनिजीए छपावेलां फोर्स। 5. Ja संज्ञक प्रति ते श्रीजिनविजयजीए बीजी पोथी उपरथी लीधेलां पाठांतरो।। 6. Jb संज्ञक प्रति ते श्रीजिनविजयजीए त्रीजी पोथी उपरथी लीधेलां पाठांतरो। 7. Jc संज्ञक प्रति ते श्रीजिनविजयजीए चोथी पोथी उपरथी लीधेलां पाठांतरो। 8. N संज्ञक प्रति ते श्री अगरचंदजी नाहटा, बिकानेरना संग्रहनी प्रति / 9. P संज्ञक प्रति ते श्रीवर्धमान जैन आगममंदिर, पालीताणाना संग्रहनी नं. 199 नी प्रति। आ स्तोत्र अद्यावधि उपर्युक्त नं. 3 D संज्ञाथी सूचित पुस्तकमां प्रगट थयुं छे। अत्यंत प्रसिद्ध .. एवा 'भक्तामर स्तोत्र' ना कर्ता अनेकविद्यानिपुण जे श्री मानतुंगसूरि ते ज आ स्तोत्रना कर्ता छ। आ मानतुंगसूरिनु चरित्र 'प्रभावकचरित 'मां आपेलुं छे। ___आ स्तोत्र उपर 'नमस्कारव्याख्यानटीका' नामे व्याख्या मळी आवी छे / तेनो परिचय आ पछी सळंगरूपे आपवामां आवती ए कृतिनी अंते आप्यो छे एटले ए संबंधे अहीं पुनरुक्ति करवी उचित 20 नथी; पण आ स्तोत्रनी महत्तानो ख्याल करावनार ए टीकाग्रंथ छे, छतां एनुं रहस्य समजवू मुश्केल छे, एटलं ज कहेवू पर्याप्त गणाशे / आ मूळ स्तोत्र उपर (1) नानी व्याख्या, शेठ झवेरचंद पन्नाजी, बुहारीना संग्रहमांथी मळी छे ते, (2) श्रीअगरचंदजी नाहटा, बिकानेरना संग्रहमांथी मळेली प्रतिमां अवचूरि (छाया) हती ते, अने (3) श्रीजिनविजयजी मुनिजीए छपावेल स्तोत्रमांना विशिष्ट शब्दो उपरनां टिप्पणोरूप अवचूरिका 25 हती ते; आ स्तोत्रनी साथोसाथ आपीने मात्र मूळ अहीं प्रसिद्ध करेल छे / आ स्तोत्रनो गुजराती अनुवाद तैयार करवामां आव्यो हतो, परंतु तेना अर्थघटन विशे मतभेद होवाथी तेमज अमुक श्लोकोनु यथार्थ गुजराती भाषांतर कठिन होवाथी सुज्ञ गुरुदेवोनी सूचनानुसार आखा स्तोत्रनो अनुवाद रद करेल छ / आ विषयने उपयोगी “पञ्चपदाम्नायः” तथा “पञ्चपरमेष्टिसाधन-विधि-फलकोष्टक" साथे ज पृष्ट 268 तथा 269 पर आपेल छे / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] श्रीमानतुङ्गसूरिरचित 'नवकारसारथवण'स्य नमस्कारव्याख्यानटीका // अरिहंता असरीरा आयरिय उवज्झाय तह पुणो मुणिणो / पंचक्खरनिप्पन्नो ॐकारो सया भणिओ // 9 // अ अ आ उ म् = 'ॐ' साधनायाम् / तथा वट्टकला अरहंता तिउणा सिद्धा य लोढकलसूरी / उवज्झाय विसुद्धकला दीहकला साहुणो सुहया // 10 // साधिते 'ही'कारः / तथाअक्खर आइ अयारं हयारमंतक्खरं च माईए / . 10 मज्झे चण्णसमुच्चयरयणत्तयभूसियं अरहं // 11 // 'अहं' इत्यर्थः / त्रीणि बीजानि परमेष्ठिवाचकानि / तथा- "ॐ नमो अरिहंताणं इम्यूँ नमः। ॐ नमो सिद्धाणं म्यूँ नमः। ॐ नमो मायरियाणं म्यूँ नमः / ॐ नमो उवज्झायाणं [हम्!] नमः / ॐ नमो लोए सब्बसाहूणं म्यूँ नमः।" पार्श्वनाथप्रतिमायाः पूजां कृत्वा वामबाहुमूवीकृत्याष्टोत्तरपञ्चशतानि जपेत् , बन्धमोक्षो भवति आत्मनः परस्य च / तथा पूजा-जापं कृत्वाऽग्रे सुप्यते स्वप्नान्तरं लभ्यते ग्लान-बन्धन गमनादिविषये / . . "हरिमर्कटि हरिमर्कटि मृत्युपदं परिलिखन्ति परिलिखन्ति, भूमितलं परिवाहति वरिवाहति, मन्त्रपदं परिमुञ्चति परिमुञ्चति, बन्धभयं इम्ल्यूँ भयूं म्यूँ हम्ल्यू म्यूँ अमुकस्य बन्धमोक्षं कुरु कुरु // " चित्रकूटखटिकया शुद्धभूमितले लिखित्वा पञ्चपरमेष्टिबीजैः कुर्यात् 108 बन्धमोक्षो भवति / __ "ॐ अरहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहु धम्माइयं तित्थयराणं, ॐ नमो भगवई सुयदेवयाए, ॐ नमो भगवई संतिदेवयाए, ॐ नमः सवपवयणदेवयाणं दसण्हं दिसापालाणं, ॐ ह्री अर्ह अरहंत(ताणं) नमः हृदये, ॐ नमो सिद्धाणं स्वाहा॥ एसा पढियसिद्धा विजा तह सत्तवारवत्तीया / वक्खाण-वायपमुहे कजे मंतो जयं देइ // 1 // जयकरी विद्या // “ॐ नमो अरिहंताणं हाँ नमः हृदये, ॐ नमो सिद्धाणं ह्रीँ नमः शिरसि, ॐ नमो आयरियाणं हूँ नमः शिखायां, ॐ नमो उवज्झायाणं ह्रौं नमः कवचाय, ॐ नमो लोए सब्बसाहूणं ह्रः नेत्राय वषट्, ॐ ह्री अर्ह अ सि आ उ सा नमः अस्त्राय फट् अङ्गानि // " 30 15 20 25 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 51 272 . नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत सांप्रतं अरिहंतादिचक्रविधिमाह-उत्कृष्टस्थित्या सप्ततिशतं जिनानां चक्रं यथा"तिजयपहुत्तपयासय" [ इत्यादि स्तोत्रं संपूर्णमालेखितं, तच्च प्रसिद्धत्वान्नात्रोद्धियते / ] उपर्यधः शिखाकारं, लिख्यते दिशि युग्मकम् / बीजाक्षरयुतं द्वारकोणं स्वस्तिकसंयुतम् // 2 // तन्मध्ये लिख्यते नाम, चकारेण [च] वेष्टितम् / दिशि द्वये लिखेद् 'हूँ ह्रः' विदिशि भूत-शाकिनी // 3 // ॐ हूँ' पूर्वस्यां, 'ॐ ह्रः' पश्चिमायां, 'ॐ कुरु' अपरस्यां, 'कुल्ले स्वाहा' [उत्तरस्याम् / ] 'ॐ ह्री ग्राँ' एकत्र, 'हँ फट् स्वाहा' अन्यत्र, इति मध्यन्यासः / बहिःकोणान्तरं प्रतिपत्रद्वयं लिखेत् 'खरः मयः ही हूँ फट् फट् स्वाहा'। यथाक्रमं द्वादशपत्रेषु पत्रान्ते त्रिशूलानि, ततः पर्यन्ते माया10 बीजेन त्रिगुणं वेष्टनीयम् , शाकिनीभूतन्यासः / ____ अथ खटिकया शरावे इदं यन्त्रं लिखित्वा जलमध्ये अधोमुखं निक्षितं दाघ(ह)ज्वरं नाशयति / दाघ(ह)ज्वरोपशमनानन्तरं मन्त्रेण पूजयित्वा दुग्धेन प्रक्षाल्यते, स्वस्थो भवति / इदं यन्त्रं कर्पूरेण लिखित्वा . चूल्ह्यां तापयेत्, शीतज्वरं नाशयति / xxx अथ द्वादशयन्त्रिकाः // क्लीकाररुद्धं लिख कूटपिण्डं, नामान्वितं द्वादशपत्रपद्मम्।। ब्रह्मादि-होमान्तपदे नियुक्ताः, पूर्वादिपत्रेषु जयादिदेव्यः // 4 // ज-भ-म-हपिण्डसमेताः, जम्भाधाः प्रणवपूर्व-होमान्ताः / विदिशि दलेषु नियोज्याः, स्मरबीजं शेषपत्रेषु // 5 // त्रिधा मायया वेष्टितं क्रॉनिरुद्धं, लिखेदू रोचना-कुङ्कमैजपत्रे / मधु स्थापितं रक्तसूत्रैर्वशं याति रम्भाऽपि सप्ताहमध्ये (?) // 6 // "ॐ क्षम्यूँ क्ली जये विजये अजिते अपराजिते जम्भे मोहे स्तम्भे स्तम्भिनि स्वाहा यूं।" . क्ष् म् ल् व् र यूँ मध्ये साध्यनाम क्लीकारवेष्टितम् , ततो वलकं, तदुपरि द्वादशपत्राणि पूर्वादिपत्रेषु यथाक्रमं लिखेद् , यथा 'ॐ जये स्वाहा' 1 / 'ॐ जम्यूँ जम्भे स्वाहा' 2 / 'क्ली' 3 / 'ॐ विजये स्वाहा' 4 / 'ॐ इम्ळ मोहे स्वाहा' 5 / 'क्ली' 6 / 'ॐ अजिते स्वाहा' 7 / 'ॐ म्यूँ स्तम्भे स्वाहा' 8 / 'क्ली' 9 / 'ॐ अपराजिते स्वाहा' 10 / 'ॐ हम्ळ स्तम्भिनि स्वाहा' 11 / 'क्ली' 12 / हीकारेण त्रिधा वेष्टयेत् क्रोनिरुद्धम् / / द्वादशयन्त्रिकाया आदियन्त्रं द्वादशसहस्र जपेत् , दशांशेन गुग्गुल-मधुर-रक्तकणवीरपुष्पैः दशांशेन होमं कारयेत् , ततः सिद्धिं यान्ति द्वादशयन्त्राणि, तथा सर्वाणि कार्याणि करोति यन्त्रं, कुङ्कम-गोरोचनया श्वेतपट्टे जातिलेखिन्या लिखेत् , ततः साध्यते // 25 xxx मारणप्रयोगस्यानुपयोगित्वान्नात्रोल्लिखितः / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। अनन्तरं यथोक्तानि कर्माणि क्ष-ज-भ-म-ह-सैः पिण्डैः / पाशाङ्कुश-बाणरनिकायुक्तैः प्रणवाद्यैः // 7 // ॐ क्षम्ल्यूँ जम्ल्यू भल्व्यू म्म्ल्यूँ हम्ल्व्यू स्म्ल्यूँ / ' कुमन्त्रेण न षट्कर्माण्युदयमवगम्यन्ते / तद् यथा 'आँ क्रीँ ह्रीं क्लीं ब्लू द्राँ द्रौँ संवौषट्' साध्यमन्त्रः / ' कुङ्कुम-कर्पूरादिद्रव्यैः लिखेत् , 108 / जपेत् , उन्मत्तकफलमध्ये क्षिपेत् , मध्ये यन्त्र, वश्यं करोति / ____ तथा, 'ॐ झाल्व्यू क्लीं जये विजये अजिते अपराजिते उम्ल्यू झाल्व्यू म्म्ल्व्यू हम्ल्यू जम्मे मोहे स्तम्भे स्तम्भिनि अमुकं वश्यं कुरु कुरु वषट् // " क्लॉरजिका / (1) यन्त्रं तदेव लिखितं वनिताकपाले, गोरोचनादिभिरनङ्गपदैः त्रिमूर्तिः। मध्यात् स सप्तदिवसैः खदिराग्नितप्तं, देवाङ्गनामपि समानयतीह नाकम् // 8 // 10 -हाँरञ्जिका / (2) स्थाने त्रिमूर्ति लिख विष्णुबीजं, कस्तूरिकाद्यैर्वरभूर्यपत्रे। बाहौ धृतं रूपपतङ्गवेष्टयं, सीमन्तिनीनां विदधाति मोहम् // 9 // -ईरञ्जिका / (3) विष्णोः पदे समभियोजय रोषबीजं, मानुष्यचर्मणि विषेण सलोहितेन / 15 कुम्भं प्रपूर्य खदिरज्वलनेन तप्तं, शत्रोरकालमरणं कुरुते विकल्पात् // 10 // -हरञ्जिका / (4) भूर्येऽरुणेन सविषेण मकारबीजं, हूँस्थानके मलीमससूत्रवेष्ट्यम् (?) / मृत्पुत्रिकोदरगतं निहिते स्मशाने, दुष्टस्य निग्रहमिदं विदधाति यन्त्रम् // 11 // -मरञ्जिका / (5)20 यन्नं बिभीतकफले विषलोहिताभ्यां, मस्थानकेऽग्निमरुतो प्रविलिख्य बीजम् / संवेष्टय वाजि-महिषोद्भवकेशपाशैः, प्रेतालयस्थमचिरेण करोति वैरम् // 12 // -यंरञ्जिका / (6) अनलपवनबीजे वायुबीजं सुदृष्टाञ्चितिजगरलकाकामेध्यरक्तैर्विलेख्यम् / गगनगमनपक्षेणोप्रखण्डे ध्वजानां, पवन...मरात्युच्चाटनं तद् विदध्यात् // 13 // 25 -यरञ्जिका / (7) शल्येन मानुषभुवा नृकपालयुग्मे, पूर्वोदिताक्षरपदे विलिखेद वबीजम् / क्ष्वेडारुणेन मृतकालयभस्मपूर्णः, प्रोच्चाटयेद् रिपुकुलं निहितं स्मशाने // 14 // __-हरञ्जिका / (8) प्रेताम्बरे व्योमपदे विलेख्यं, फुडक्षरं निम्बरसार्कक्षीरैः। सिद्धालये च निखनेदशशाङ्करात्रौ(?), बम्भ्रम्यते काक इवं क्षपायाम् // 15 // -फरञ्जिका / (9) कूटं फुडक्षरपदे लिख कुङ्कुमाद्यैर्भूर्ये वषट्पदयुतं मथितं त्रिलोहैः / पुंसां स्वबाहु-कटि-केश-गलैधुतानां, सौभाग्यकृद् युवति-भूपतिवश्यकारि // 16 // -क्षा-वषट्रञ्जिका / (10)35 30 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 नमस्कारव्याख्यानटीका। सस्थानके विलिखितं हरितालकाधैरैन्द्र शिलातलपदे क्षितिमण्डलस्थम् / सूत्रेण तत् परिवृतं विधृतं धरायां, कुर्यात् प्रसूतिमुखदिव्यगतेनियेधम् // 17 // ___ -लरञ्जिका / (11) लीहालधूमगरलीसुरिलूणरक्तैर्लस्थानकेऽनु विलिखेच्च ढकारबीजम् / प्रेतालयस्य वसने निहितं स्मशाने, विद्वेषितां मिथुनयोरविमध्यसंस्थम् // 18 // -ढरञ्जिका / (12) स्थाने सुलक्ष्मी निजबीजमिन्दोः, सकुमाद्यौर्लिखितं सुभूर्जे / त्रिलोहवेष्टयं विधृतं स्वबाही, करोति रक्षा ग्रह-मारि-रुग्भ्यः // 19 // ___ -श्रीरञ्जिका / (13) 10 प्रत्यनीक महादुष्टविध्वंसनाय सम्यग्दृष्टिसुखोत्पादनाय वा कर्माण्येतानि कार्याणि, बृहत्प्रयोजने समायाते सति-"इहलोइयलाभकरा उवज्झाया हुंतु सव्वभयहरणा / " इति वचनात् // "उवसग्गहरं " स्तोत्रम्[अत्र पञ्चगाथात्मकं 'उवसम्गहरं' स्तोत्रं प्रस्तावक्रमेण लिखितं नेह लिख्यते, सुप्रसिद्धत्वात् / ] अस्य यत्रं यथा--"ॐ हाँ श्रीपार्श्वनाथ-धरणेन्द्र-पमावती ही नमः॥" 15 पणमिय सिरिपासनाह धरणिदह पउमावईसहियं / मायाबीजं नमइ य अट्ठारस अक्खरं मंतं // 20 // ___ अष्टादशाक्षरमन्त्रः मध्येवलकं वृत्ताकारम्- "ॐ ह्रीँ श्री अहै 'नमिऊण पास विसहरवसह जिण फुलिंग' ही नमः।" द्वितीयवलके–'अनुवा गि 1, तक्षक कंकोद्रु 2, पन महापा 3,, शङ्खपुलिकु 4, 20जय-विजय 5, अजिताऽपराजिता 6, जम्मे थम्मे 7, नाराई वीराई // " / अष्टदलम्-"अरिहंत 1, सिद्ध 2, आचार्य 3, उपाध्याय 4, साधु 5, ज्ञानु 6, दर्शनु 7, चारित्रु 8 // " तृतीयवलकम् रोहिणी सुरहिनिसन्ना मोरनिसन्ना तह य पन्नत्ती। कमलम्मि वजसंखल वजंकुस करिवरारूढा // 21 // अप्पडिचक्का गरुडम्मि संठिया पुरुसदत्त महिसीया। कमलनिसन्ना काली वाहेइ नरं महाकाली // 22 // गोरी सीहारूढा कमलारूढा य तह य गंधारी। सम्वत्थ महाजाला विरलार माणवी कमला // 23 // वेरोट्टा य अयगरे तुरगेंदवुत्ता य माणसी हंसे। केसरि उवरि निसन्ना देउ महामाणसी सुक्खं // 24 // षोडशदलेषु [ देव्यः ] लेख्याः। मरुदेवी विजया सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य / पुहवीलक्खण रामा नंदा विण्डु जया सामा // 25 // सुजसा सुव्वय अइरा सिरिदेवी पभावई पउमा-। वई य वप्पा सिवा वम्मा तह य तिसला य (लादेवी)॥२६॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 275 चतुर्विंशतिदलेषु / हाँकारत्रिवेष्टितं चक्रं, अष्टौ दिग्नामानि, नवग्रहा आदित्यादि, वायव्ये गुरुपादुकेभ्यो नमः / वरुणे नागाः, चतुर्दिग्भागे ‘क्षि' उपरि चतुर्विंशतिजिनाः पंचजिण कणयवन्ना सत्तो हेमप्पहो य दो धवला / दो चामीयरवन्ना रत्ता छच्चेव कणयपहा // 27 // मरगयनीलो अलिसामलो य कंचणनिहो य अलिसामो। तह य तमालदलाभो सुवन्नवन्नो जिणो वीरो // 28 // इति चतुर्विंशतिजिनाश्चतुर्दिक्षु // अष्टापदप्रमाणेत्यादौ चैत्यमन्तः अत्र पूजयेत् / पूर्वादि-ऋषभादिजिना परं दक्षिणादक्षिणादि चत्तारि अट्ठ दस दो य वंदिया जिणवरा चउवीसं / परमट्ठनिट्ठियट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु // 29 // 10 तथा-"ॐ ह्रीं श्री अहे ऋषभनाथाय नमः / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहे अजितनाथाय नमः२। ॐहाँ श्रीँ अर्ह संभवनाथाय नमः 3 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अर्ह अभिनन्दननाथाय नमः 4 / ॐ हाँ श्री अर्ह सुमतिनाथाय नमः 5 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहं पद्मप्रभनाथाय नमः 6 / ॐ ह्रीँ श्री अहै सुपार्श्वनाथाय नमः 7 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहं चन्द्रप्रभनाथाय नमः 8 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहै शीतलनाथाय नमः 10 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहं श्रेयांसनाथाय नमः 11 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अर्ह वासुपूज्याय 15 नमः 12 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अँहे विमलनाथाय नमः 13 / ॐ ह्रीँ श्री अह अनन्तनाथाय नमः 14 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहं धर्मनाथाय नमः 15 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहं शान्तिनाथाय नमः 16 / ॐ हाँ श्रीँ अर्ह कुन्थुनाथाय नमः 17 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ अरनाथाय नमः१८। ॐ ह्रीँ श्रीँ अहे मल्लिनाथाय नमः 19 ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ मुनिसुव्रतस्वामिने नमः 20 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ नमिनाथाय नमः 21 / ॐ ह्रीं श्रीं अह नेमिनाथाय नमः 22 / ॐ ह्रीँ श्रीँ अह पार्श्वनाथाय नमः 23 // 20 ॐ ह्रीँ श्रीँ अर्ह वर्धमानस्वामिने नमः 24" इत्यादि यथास्थानं वन्दित्वा नमंसित्वा पूजयित्वा च षट्कर्माणि कारयेत् // " 'इहलोइयलाभकरा उवज्झाया' इत्यादिना श्रीपार्श्वनाथं धरणेन्द्र-पद्मावतीसहितं जपेत् / ॐ ह्रीं श्रींकारमहँ दलितकलिमलं दिव्यभूतिप्रणार्थ, क्ली ब्लू हसौँ मन्त्रबीजं भुवनसुखकरं शक्रराज्येन्द्रपूज्यम् / आँ की ही दिव्यरूपं नम इति सहितं वामहस्ते जपित्वा. _श्रीमन्तं पार्श्वनाथं भुजगपतिनुतं देविपद्मावतीशम् // 30 // जिनपरमेष्ठि लक्ष्मी अहँकामेश्वरं तथा ब्लुवम् / जीवाक्षर-विष्णुपदं प्रतीहारमन्त्रराजं च // 31 // ॐ ह्रीँ श्री अहै क्लीं ब्लूँ हसौँ आँ क्रौँ हाँ नमः पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावतीसहिताय 30 ॐ श्री अहे क्लीं ब्लूँ हसौं आँ क्रौँ हाँ नमः॥" संपुटमन्त्रः सर्वकर्मकरः / विषहरणे श्वेतध्यानेनानेन जलमभिमन्य पाययेत् , निर्विषीकरणम् // आजानु कनकगौरं आनाभः शङ्ख-कुन्द-हरधवलम् / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत आकण्ठतो नवदिवाकरकान्तितुल्यम् / आमूर्धतोऽञ्जननिभं गरुडस्य रूपम् // 32 // एवं जिनं ध्यात्वा-'ॐ कोपं वंझ हंसं वह नेत्रस्थावर-जङ्गमं निर्विषं करोमि ठः ठः खाहा, हाँ हाँ हूँ हाँ हः हूँ सः क्षः य र ल व सँ सँ सबलसद्दो जः जः जाहि जाहि खाहिः 5 खाहि खः खः खाफु गच्छ हरहंसो झै झै झणकारो, ॐ सँ सँ सवलयः सवलयः क्षःक्ष गच्छ गच्छ गच्छ फू फू फू हरहंसः पक्षाकं पक्षाकं पक्षाकं स्वाहा // " एतैः सिद्धोपदेशैरुञ्जनम् / 'हु क्षु स्वाहा' जलमभिमत्र्य पाय्यते / 'क्षि स्वाहा' कर्णजापः / 'क्षि स्वाहा' अनेन जलमभिमन्य दष्टस्य मुखे क्षिप्यते, ततो यदि व(ह)सति तदा स्वस्थः / ॐ वसह स्वाहा' अनेन जलमभिमत्र्य 21 वामहस्तं शिरसि दत्त्वा ततो यदि स्वयं भणति 'अहं कालः' तदा न जीवति, अन्यथा 10 भव्यः / दक्षिणकराङ्गुष्ठं अमृतधारावर्षेण 'डंकं यः चल विसु नहीं' वामपादानमुपाट्य करमेलने श्वासमोचने 'जः विसु नहीं' वामपादोपरि दक्षिणपादं दक्षिणकराङ्गुष्ठं वामचक्षुषो दक्षिणकर्ण यावत् श्वासग्रहणे आत्मनो विषमुत्तरति / दिनवारा दिने षष्ठास्तथा रात्रौ च पश्चमी / प्रहरार्धाधिपा एवं, शनौ कालोऽपरोऽगुरौ // 33 // चउ-छक्क नवदह-तेरसम्मि तह वीसमम्मि सूराओ। जइ रिक्खे होइ ससी ता रवियोग वियाणाहि // 34 // रवियोगपतितं न उत्तिष्ठति, तथा कर्णपृष्ठे जम्बुकं यस्य जीयते स कालः / रवि अमावस रोहि पहर दुइ हुइ अवरत्तउ, ससि अट्ठमि अ सलेस चयारि गणि फुडइ निरुत्तउ / मंगलु उत्तरफग्गु नवमि पहरह परि छक्कह, बुह अणुराह चउत्थि गणह अट्ठह परमत्थह // 35 // गुरु पडिव जिट्ट सोलह पहर सुक्कस्स निय मघ दो ण तसु। सनि अद्धं चउदसि मणि मुणउ वट्ठतालीस पहर विसु // 36 // . इति वार-तिथि-नक्षत्रयोगोऽवरत्तकः // सूर्ये स्याद् दक्षिणप्रेक्षी, वामप्रेक्षी निशाकरे। तृणच्छेदी कुजे हस्तौ, बुधे वर्षति दष्टकः // 37 // हृद्यस्पृग् गुरौ शुक्रे, समुदसति संततम् / शनौ हसति चिह्नानि, वारीणामवत्तरकः // 38 // दूतपरीक्षा सविसग्गं तह बीयं कंठे निसिऊण अमयसारिच्छं / धरिऊण गरुडमुद्दा उठुइ अंको त्ति नालसद्देणं // 39 // कालदष्टोऽपि सूर्यस्य, दिनेऽष्टाविंशतिर्घटी। जीवत्यतो मृतो नोचेद् , दलितं कालमर्मतः॥ 40 // दिनेऽर्कस्यापराहेऽपि, स्वास्थ्यकविंशतिर्घटी। पश्चादष्टादशघटी, मोहो भवति निश्चितम् // 41 // 25 30 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय / सोमादीनां दिनेष्वेवं, घट्यः कालापरात् ततः। कालश्च प्रथमा पश्चादपरात् तव च क्रमात् // 42 // सोमस्य दिवसे कालावधौ घट्यो जिनैः समाः। स्वास्थ्याय षोडश ततो, मोहायाष्टादश स्फुटाः॥ 43 // भौमस्य दिवसे कालो, घटिकाविंशतिर्भवेत् / घटिका द्वादश स्वास्थ्ये, षट्त्रिंशन्मोहनाडिकाः॥४४॥ बुधस्य दिवसे ज्ञेया, घट्यः कालस्य षोडश / स्वास्थ्यस्य घटिका अष्टौ, मोहे सार्द्ध दिनं ततः॥४५॥ बृहस्पतिदिने कालघटिका द्वादश स्मृताः। चतस्रो घटिकाः स्वास्थ्याद्, व्यहं मोहाय षट्घटीः // 46 // शुक्रस्य दिवसे काले, घटिका अष्ट्र निश्चिताः। घट्यष्टाविंशतिः स्वास्थ्यो मोहे दिनचतुष्टयम् // 47 / / शनैश्वरदिने कालघटिकानां चतुष्टयम् / घट्यो जिनैः समा स्वास्थ्यो मोहे षट् सार्द्धका दिनाः // 48 // कालोऽत्यर्द्ध शनैरन्त्यघटी जीवे परात्तकः / काल एव भवेन्नित्यं, सर्व प्रहरकान्तरे // 49 // नातिदेशतले स्पष्टोऽतिदग्धस्यैव वह्निना / दष्टस्य जायते स्फोटो, शेयोऽनेनापरात्तकः // 50 // अनन्तो दक्षिणाङ्गेक्षी, वासुकिर्वामवीक्षकः। तक्षकः श्रवणस्पर्शी, नासां कर्कोटकः स्पृशेत् // 51 // पद्मः कण्ठतटस्पर्शी, महापद्मः श्वसत्यलम् / शङ्खो हसति भूप्रेक्षी, पुलिको वामचेष्टितः // 52 // विषं देशे द्विपञ्चाशन्मात्रा तिष्ठेत् ततोऽलिके। नेत्रयोर्वदने नाडीष्वथ धातुषु सप्तसु // 53 // रसस्थं कुरुते कन्द्र, रक्तस्थं बाह्यतापकृत। मांसस्थं जनयेत् छईि, मेदस्थं हन्ति लोचने // 54 // अस्थिस्थं मर्मपीडां च, मजस्थं दाहमान्तरम् / शुक्रस्थमानयेन्मृत्यु, विषं धातुक्रमादहो! // 55 // निराकर्तुं विषं शक्यं, पूर्वस्थानचतुष्टये। अतः परमसाध्यं तु, रुष्टं कष्टतरं मृतिः॥५६॥ आग्नेये स्याद् विषे तापो, जडता वरुणेऽधिका / प्रलापो वायवीये तु, त्रिविधं विषलक्षणम् // 57 // निक्षिप्ते मारिचे चूर्णे, दृशोर्यदि पयः क्षरेत् / तदा जीवति दष्टः सन्नन्यथा तु न जीवति // 58 // पादाङ्गुष्ठेऽथ तत्पृष्ठे, गुल्फे जानुनि लिङ्गके। नाभौ हृदि कुचे कण्ठे, नासा-दृक्-श्रुतिषु भ्रुवोः // 59 // शङ्ख मूर्ध्नि क्रमात् तिष्ठेत् , पीयूषस्य कलाऽन्वहम् / शुक्लप्रतिपदः पूर्व, कृष्ण पक्षे विपर्ययात् // 60 // सुधाकलास्मरो जीवस्त्रयाणामेकवासिता। पुंसो दक्षिणभागे स्याद् , वामभागे तु योषितः // 61 // Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत सुधास्थानाद् विषस्थानं, सप्तमं ज्ञेयमन्तरम् / सुधाविषस्थानमर्दो, विषघ्नो विषवृद्धिकृत् // 62 // स्त्रियोऽप्यवश्यं वश्याः स्युः, सुधास्थानविमर्दनात् / स्पृष्टा विशेषाद् वश्याय, गुह्यप्राप्ता सुधाकला // 63 // सुधास्थानेषु नैव स्यात्, कालदंशोऽपि मृत्यवे / विषस्थानेषु दंशस्त्वप्रशस्तोऽथाऽऽशु मृत्यवे // 64 // सुधाकलास्थितान् प्राणान् , ध्यायन्नात्मनि चात्मना / निर्विषत्वं च यः स्तम्भ, कान्ति चाप्नोति दष्टकः // 65 // जिह्वायास्तालुनो योगादृमृतस्रवणं तु यत् / / विलिप्तस्तेन दंशः स्यानिर्विषः क्षणमात्रतः॥६६॥ // इति // ईप्सितं तनुप्रतिम, रक्तैरालेख्यवर्णकैः / पञ्चपुष्पाणि संगृह्य, बाणांस्तत्र नियोजयेत् // 67 // मदनेन हनेद् गुह्यं, हृदयं मोहनेन च / स्तम्भनेन हनेदुरू, कण्ठं पाशेन बन्धयेत् // 68 // जम्भनेन हनेदु कक्त्रं, पञ्चबाणांस्तथा न्यसेत् / ललाटं चाङ्कुशेनैव, ततः शीघ्रं भवेद् वशे // 69 // हकारो वह्निना युक्तो, द्वितीयस्वरसंयुतः। मदनो बिन्दुना सार्द्ध, तेन गुह्यं हनेत् सदा // 70 // हकारो वह्निसंयुक्तश्चतुर्थस्वरसंयुतः। मोहनो बिन्दुना चैव, हृदयं तेन पीडयेत् // 71 // हकारो वह्निना युक्तः, षष्ठमस्वरसंयुतः। स्तम्भनो बिन्दुना चैव, ऊरू हनेत् तथा पुनः // 72 // हकारो वायुसंयुक्तः, विसगैस्तु विशेषतः॥७३॥ पाशक एष विख्यातः, कण्ठं तेन प्रपीडयेत् // 74 // द्वितीयस्वरसंयुक्तो, जम्भनो वक्त्रगह्वरे। मदनो मोहनश्चैव, स्तम्भनः पाश एव च // 75 // जम्भनश्चैव पञ्चैते, कामबाणाः प्रकीर्तिताः। “ॐ नमो भगवति ! पुरप्रवेशिनी पुराधिपतये सर्व पुरं क्षोभय क्षोभय, ही क्षोभय, ॐ हाँ हाँ क्ली ब्लूं सः पञ्चबाणैः सर्वनृपादिकं अमुकं वश्यं कुरु कुरु हाँ हाँ हूँ ह्रयः याः पञ्चकाम30 बाणैः सर्व समस्तं नर-नारीजनं सर्वदाऽऽदेशकारिणो मे भवतु(न्तु ?) ह्रीं वषट् // " तथा तरुदेवालय सियवसहसिंग कुभारमहानईआण। पुसम्मि मट्टियाओ गिण्हह पयपंसुजुत्ताओ॥७६ // तत्थ बइल्लं काऊणं हिययमज्झम्मि तस्स अभिहाणं / निक्खिवह रोयणाए संलिहियं भुजपत्तम्मि // 77 // तिकंटएण नासं विंधेउं छुहह केसनत्थं च / / गाल हंति सत्तरयं जेण जणं किंकरं कुणइ // 78 // "ॐ कुलु कुलु मातङ्गदारिके स्वाहा / " कुंभारमट्टीयाए करब्बुयाए करेह दो घट्ट / तह सत्तुणो वि एवं तहेव विहिणा स जीवंति // 79 // Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय। -279 तं हत्थि पयतं विद्धं तह मयकंटएण पुणो। जीहं तस्स करिजह जेण वसे सया होइ // 80 // दाहिणहत्थे रूवं लिहह रसेणं तु देवदालीए / तस्स मज्झम्मि मंतं विलयानामं तहा लिहह // 81 // तो रूवहत्थेण पुणो दाहिणहत्थम्मि जं विलयं / सा सवइज्झत्ति विहिणा य अन्नं सयणं समुल्लवइ // 82 // "ॐ गॅसः।" कावमाच्यारसैः वर्त, सप्तधा भावयेत् तथा / कपालवसुरायोगे, घृतेन कजलं वरम् // 8 // तेन चक्षुषाऽञ्जयित्वा दर्शने वशीभवति / कपालाधोभागं कुङ्कुमेनालिप्य, तथा संयोगः पल्लवो रोधो, ग्रथनं च विभेदनम् / संपुटं षट्प्रकारं स्यात् , विज्ञेयं मन्नवेदिभिः // 83 // "हाँ देव (1), देव हौँ (2), हाँ देव ही (3), ही दे ही व ही (4), ही व ही दे ही (5), हाँ देव ही दत्त हाँ (6) // " इति षट् // 15 वश्ये विद्वेषणोच्चाटे, पूर्व-मध्याऽपरालके / सन्ध्याऽर्द्धरात्र-राज्यन्ते, मारण-शान्ति-पौष्टिकम् // 84 // वषट् वश्ये फडुच्चाटे, हुं द्वेषे पौष्टिके तथा / संघौषडाकर्षणे स्वाहा, शान्तिके घे [च] मारणे // 85 // विश्लिष्य मन्त्रबीजानि, स्वर-वर्णयुतानि च / आत्मनाम समायोज्य, चतुर्भिर्भागमाहरेत् // 86 // एकशेषे भवेत् सिद्धो, द्विशेषे साध्य उच्यते / विशेषेण सुसिद्धस्तु, अशेषे रिपुरुच्यते // 87 // सिद्धः सिद्ध्यति क्षिप्रेण, साध्यो योगव्रतादिभिः। सुसिद्धस्तत्क्षणादेव, अरिसृत्युप्रदो भवेत् // 88 // भकारैः स्तम्भितो मन्त्रः, मकारेण तु मोहितः। ककारेण तु संत्रस्तस्तेन मन्त्रो न सिद्ध्यति // 89 // शान्तिके क, विद्वेष म, उच्चाटने भव, विद्वेषे द्वयोः नाम्नोः भ,एते अक्षरा एतेषु कर्मषु न कार्याः। इति॥ नवक्खरेहि भिन्ना सिद्धा णामेण सव्वविजाणं / जा साहइ परमत्थं अण्णाणविमोहियजणस्स // 90 // जो करइ दससहस्सं जावं सिघरहि भव्वकुसुमेहिं / होमइ तह सहस्सं गुग्गुलगुलिया सुमहुरेण // 91 // तस्से य महाविजा सुमरियमित्ता य अंगफुरणेणं / साहइ कण्णे किच्चं पञ्चक्खं तं जहा होइ // 92 // अंगुट-दीव-दप्पण-खग्गे कुंते वरम्मि चित्तेसु / अववण्णिऊण साहइ सिद्धा एसा महाविजा // 93 // 20 . 36 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्रा . “ॐ नमो महाराजाधिराजवनवासपुरपरमेश्वरप्रचण्डमण्डलीकमडयविडं चऊयाण . चूडामणी कदम्बकोलादित्यकदम्बकुलादित्यश्री[अ]वतार एोहि श्रीकदम्बवइ य अवतर अवतारय मातृणां रूपं दर्शय दर्शय स्वाहा // " रक्तकणवीरपुष्पैः 508 जपेत् // "इटि मिटि पुलिन्दिनि ! सत्यं वद वद, हाँ स्वाहा / " सुगन्धपुष्पैः 508 जपेत् // "ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ कलिकुण्डदण्डस्वामिन् ! खविद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छेदय छेदय हुं फट् स्वाहा // " सुरभिपुष्पैः 508 जपेत् , पूर्वसेवा सहस्र 8, अष्टदलेषु आय 8 पूजयेत् , कुमारकुमारिकां चाप्यने प्रोच्यते // जो विजाण झाणरओ पूया य करेइ परमभत्तीए / सा अटुंगनिमित्तं साहइ किं एत्थ बहुएहिं // 94 // 10 “ला हा प लक्ष्मी स्वाहा // " पुंसित्थि-नपुंसय-रायपुरिस-बहुसद्दवन्नणिजाणं / जिण-सिद्ध-मूरि-वायग-साहूण कमे नमंसामि // 11 // - सामान्येन स्त्री-पुं-नपुंसकवेदानां सुखदायिकान् पञ्चपरमेष्ठीन् नमस्करोमि, परमत्र भणितेन मन्त्रप्रस्तावात् स्त्रीवेदो पुंसि अनुरागः, पुंवेदोऽनुरागः स्त्रीषु, नपुंसकवेदः पुंस्सु स्त्रीषु चानुरागः / स्त्रियाऽ. 15 धिष्ठितां विद्या, पुरुषेणाधिष्ठितो मन्त्रः ऊभाभ्यामधिष्ठितो नपुंसकः, अतः स्तम्भनादिकर्माणि करोति, तथा चाह इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतु त्ति तव्विसेसो य। विजा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतु त्ति // 95 // * साहीणसव्वमंतो बहुमंतो वा पहाणमंतो वा। नेओ स मंतसिद्धोखंभागरिसु व्व साइसओ // 96 // * विजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि / सिझिज महाविजा विजासिद्धऽजखउडु व्व // 97 // पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य / विजासिद्धो य कई, अद्वेव पभावगा भणिया // 98 // सम्यग्दर्शनयुक्ता भक्ता जिनेन्द्र शासने नित्यम् / . देवी सुवर्णवर्णा मद्वक्त्रकुशेशयं विशतु // 99 // * आवश्यकसूत्र-नमस्कारनियुक्तिविभागे गाथा 933, 933, 932, गाथात्रयाणां हरिभद्रीयव्याख्या-त्री विद्याऽभिहिता, पुरुषो मन्त्र इति तद्विशेषोऽयं, तत्र 'विद्ल लाम' 'विद सत्तायां वा, अस्य विद्येति भवति-यत्र मन्त्रे देवता स्त्री सा विद्या, अम्बा-कुष्माण्ड्यादि, यत्र तु देवता पुरुषाः स मन्त्रः,न्यथा विद्याराजा, हरिणगमेषिरित्यादि, विद्या ससाधना वा, साधनरहितश्च मन्त्र इति साबरादिमत्रपदिति गाथार्थः // 931 // 95 // व्याख्या-वाधीनसर्वमन्त्री बहुमत्रो वा, मन्त्रेषु सिद्धो मन्त्रसिद्धः, प्रधानमन्त्रो वेति प्रधानकमत्रो वेति ज्ञेयः, स मन्त्रसिद्धः, क इव ? स्तम्भाकर्षवत् सातिशय इति गाथाक्षरार्थः // 933 // 96 // व्याख्या-'विद्यानां सर्वासामधिपतिः-चक्रवर्ती 'विद्यासिद्धः' इति, विद्यासु सिद्धो विद्यासिद्ध इति, यस्य वैकाऽपि सिध्येत् 'महाविद्या' महापुरुषदत्तादिरूपा स विद्यासिद्धः सातिशयत्वात् , क इव ?-आर्यखपुटवदिति गाथाक्षरार्थः // 932 // 17 // 1 सम्यक्त्वसप्तति-गाथा 32, पृ. 108 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 281 "वद वद वागेश्वरि ह्रीं नमः।" जयादेवीवाचःआ समन्तात् , ईश्वरी वागेश्वरीं जपेत् 100000 / तथाऽऽद्यं वाग्भवं बीजं द्वितीयं कुसुमायुधम् / तृतीयं जीवसंशं तु सिद्धसारस्वतं परम् // 100 // त्रिकोणमध्ये प्रथितत्रीणि बीजानि, मध्ये साध्यनाम, अष्टदलेषु अकारादि द्वौ द्वौ स्वराः षोडश / यद्यपि वैयाकरणैः चतुर्दशानां स्वरत्वं प्रोक्तं, परं मन्त्रवादिनां षोडशस्वराः // वाग्बीजं स्मरवेष्टितमतो योनिः कला तद्वहि रष्ट-द्वादश-षोडश-द्विगुणितं द्वयष्टाब्जपत्रान्वितम् / तद्बीजाक्षरकादिवर्णरचितान्यग्रे दलस्यान्तरे, __ हंसं कूटयुतं भवेदवितथं यत्रं तु सारस्वतम् // 101 // स्मृत्वा बीजं सहस्रच्छदकमलमनुध्याय नाभीहृदोत्थं, वैतत्स्निग्धोवनालं हृदि विकचतां प्राप्य निर्यातमास्यात् / तन्मध्ये चोर्ध्वरूपामभयदवरदां पुस्तकाम्भोजपाणिं, वाग्देवीं तन्मुखाच्च स्वमुखमनुगतां चिन्तयेदक्षरालीम् // 102 // क्रमेणोत्क्रमेण अकारादि-हपर्यन्तानां मध्ये एकैकमन्त्राक्षरमुच्चरेत् , एवं 294 / आदौ मध्ये अन्ते च केवलानि त्रीणि मन्त्राक्षराणि वारद्वयमुच्चरेत् , एवं 300 // सारस्वतयन्त्रं च // 15 10 अथ सिद्धचक्रम् // 'ह्रीं श्रीं अर्ह अ सि आ उ सा नमः।' सिद्धचक्रस्य मूलमन्त्रः / मध्ये 'श्री अहँ ह्रींकारवेष्टितमुपरि उकारः / पार्श्वतः अ सि आ उ सा नमः। उपरि वलयं उकारपूर्वकं पञ्चपरमेष्ठिनः, ततो वलयं सम्यक्त्वपूर्वकम् , ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तपो-वीर्यपञ्चकम् / ततो वलयं, अकारादिषोडशस्वराः एते षोडशविद्यादेवताः। ततो वलयं, ततो दलानि 8, दलान्तराणि 8 / दलेषु न हाँ अह'पूर्वकमष्टौ 20 वर्गाः / दलान्तरेषु-''पूर्व 'अ सि आ उ सा नमः' सर्वेषु / ततो ह्रींकारत्रिगुणितवेष्टितम् , 'कौं' निरुद्धं, ''पूर्वकं पञ्चपरमेष्ठिपादुकाः ततो गौतमस्वामिपादुका, गणधरपादुका, लद्धि( ब्धि )संपन्नपादुका, ततो कलशः, अधो ग्रहाः 9, उपरि 9 वकाराः, अध ऊर्ध्वं प प, अष्टौ दिक्पालाः, क्षेत्राधिपो वामभागेषु, गुरुपादुकाः दक्षिणे, ततः पृथ्वीमण्डलं 'क्षि'चतुष्कं 'ल'चतुष्कं च / इति मण्डलविधिना पूर्वोक्तं जपेत् / * अथ सिद्धचक्रध्यानविधिः किञ्चित् // 'ॐ ह्रीँ अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा।' शुचीकरणं दशद्वारेण धूमाय(त् ) पाप( पं) निर्गच्छचिन्तनीयम् / प्रतिमावत् पर्यङ्कासनमुद्रा कर्तव्या / अत्र ध्याने—'ॐ भूरसि भूतधात्रि भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा / ' दक्षिणहस्तेन वामकलाचिकां धृत्वा वामहस्तस्य संहतचतुरङ्गुलेन स्पर्शः / ' विद्युत्फुलिङ्गे महाविद्ये सर्वकल्मषं दह दह स्वाहा।' ऊर्ध्व-मध्यमयोर्मिलनं प्रदेशिनीभ्यां 30 ममा(समम नामिकयोर्ग्रहणं कनिष्ठिकयोर्मिलनेऽमिमुद्रा सर्व पापं दहेत्, तत्-"ॐ अमृतोद्भवे अमृत 25 * [जूओ चित्र नं० 18] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 282 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत वर्षिणि अमृतस्रव( वे ) अमृतश्रव( सवे ) स्रावय स्रावय सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू द्राँ द्रौँ द्रावय द्रावय ह्रीँ इवाँ स्वाहा / ' गोस्तनमुद्रा, शिरसि कलशः / ___विमलाय विमलचित्ताय ज ज व व भाँ इवी इवीं वाहा।' अञ्जलिमुद्रा / मरुदेव्यादि 24 [ मातरः ] मम संनिहिता भवन्तु, आगच्छन्तु आगच्छन्तु संवौषट् / एतासां वामाके जिनः, 5 तासां वामहस्ते फलं, दक्षिणे मातृहृदि, तासामञ्जलिपुष्पाणि, उपरि फलानि, पुत्रमुखं पश्यन्त्यश्चिन्तनीयाः।* तथा रोहिण्यादि 16 मम संनिहिता भवन्तु आगच्छन्तु संवौषट् / तासामुपरि दक्षिणे चक्रम् , वामेऽकुशम् , अधस्तनयोः फलं केसो (?) / 'अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु' पञ्चपदानि अङ्गुष्ठादिषु पञ्चस्वङ्गुलीषु वार ३-एवमात्मरक्षा पूर्वोक्ता कर्तव्या / तथा मरुदेव्याद्याह्वानं पूजां च स्वकीयमन्त्रेण कर्तव्या / मध्ये पार्श्वनाथप्रतिमा, पद्मावतीमस्तके फणा 3, तासामुपरि हौँ 3, मन्त्रमणनं वार 7 // इति सिद्धचक्रध्यातव्यविधिः // श्रीसिद्धचक्रमहिमापद्धतिस्तवनम् // अन्नं च सिद्धचक्कं कहियं विजाणुवायपरमत्थं / / नाएणं जेण सहसा सिझंति महंतसिद्धीओ // 1 // [1] . अ क च ट त प य स वग्गा एयाणं होइ मंतसंभूई / माहिंद-चारुणानल मारुजुत्तेहिं वण्णेहिं // 2 // वैजट्ठारहभिन्नं चउरस्सं पुढषिबीयसंजुत्तं / कोणं निहत्ते जाणह सत्तम-तैईएण माहिंदं // 3 // चंदद्धकलसरूवं वियसियकमलेण धवलवण्णेण। सत्तम-चउत्थकोणं काउं मज्झम्मि वरुणस्स // 4 // जालासहस्सपउरं सत्थियरेहाहिं बिंदुमज्झम्मि। लिहियं तिकोण उर्दू अग्गेयं मंडलं नाम // 5 // किन्हं वट्टलरूवं सत्तम-पढमेण वंकरेहाहिं। घणबिंदुपवणजुत्तं दुलक्खं तं जिणुहि // 6 // * [जूओ चित्र नं. 3] आ स्तवनना पाठमेद लेवामां नीचेनी छ प्रतिओनो उपयोग को छ। 1. जैन साहित्य विकास मंडलनी फोटोस्टेटिक नकल, जे श्रीविजयमोहनसूरिशास्त्रसंग्रह, पालीताणानी मूल प्रति छे, तेनी संज्ञा। 2. v वडोदरा, श्रीआत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिर-प्रति नं. 1509 नी संज्ञा / 3.A डभोई, श्री अमरविजयजी जैनज्ञानभंडार-प्रति नं. 506 // 3694 नी संज्ञा। 4. N सिद्धचक्रबृहत्पूजनविधि, प्रकाशकः श्रीनेमि-अमृत-खांति-निरंजनग्रंथमाला, अमदावाद, पृ. 53, 54 मा छे, तेनी संज्ञा / तेमां आ स्तोत्रनी पंदर गाथाओ ज मात्र छे, जेनो [ ] आवा कौंसमां अंक अहीं बताव्यो छ / 5. 1 1 पू. मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज पासेनी 13 पानानी प्रतिनी संज्ञा / 6. 12 पू. मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज पासेनी 46 पानानी प्रतिनी संज्ञा // 1 एयं च N / 2 नाणेण A / 3 वायवजुत्तेहिं वत्तेहिं J VAI 4 वग्गक्खरेहि मिन्नं बीयंदचउरंसपुढविसं० JvAI 5 काणे निहित्ते J VAT 6 °तईयाण J VA 17 चंदट्ठकलसरेहिं 11, Y218 कोणे पायारम J VAI 9 ही अग्गिम JVA | 10 तिकोणे दुअंJ VAI Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। चत्तारि मंडलाई सत्तमवग्गेण हुंति जुत्ताई। पुढवी-सलिल-हुयासण-पवणं च नहगणं तत्तं // 7 // तत्ताई मंडलाइ माला विजा उ मंत-चक्काई / सिझंति हु विजाओ बहुएहिं जाव होमेहिं // 8 // जं पुण जिणिदतत्तं दुलहलाहं जयम्मि जीवस्स / पुण्णरहिओ न पावइ बहुएहिं कालक्खेवेहिं // 9 // अट्ठदलकमलमज्झे सुन्नं नामेण संजुयं देहि / उवरितलरेहरुद्धं सबिंदु-कलसंजुयं तत्थ // 10 // [2] झाएह विमलधवलं सासनिलीणं निरक्खरं जाव। तव संजमसंजुत्तं सुक्खं देहस्स कम्मस्स // 11 // [3] अक्खय॑सुक्खं लब्भइ किं बहुणा नेह अन्नसिद्धीए / इयरेण अन्नसिद्धी अइदुलहा सव्वलोयम्मि // 12 // [4] परमेट्ठिपंचनव अक्खरेहिं वेढेह सरसमाउत्तं / पुरह पुव्वाइ दले अट्ठहि वग्गेहि पत्ताई // 13 // *[5] सत्तक्खरं च मंतं परमिट्ठिपयाण होइ जं पढमं / तस्संतरेसु दिजओ उ8 कमलस्स रेहाणं // 14 // [7] वेढेह तिउणपउमं मायावीएण धवलवण्णेणं / सेयंवरभुज्जदले लिहिज सुहकरण-जोएण // 15 // [9] गोरोयण-चंदण-कुंकुमेण कैप्पूर-सुरहिदव्वेण / / लिहियं चौमीकरलेहणीए सुइभूमि-सुद्धदेसम्मि // 16 // बहुसुरहिकुसुम-अक्खय-नाणाविहधूव-बलि-निविजेहिं / पूंजहि कलसनिहित्तं विसुद्धभूमीइ पयडं वा // 17 // [10] को करह सत्तदियहा गुरुपूया एस सिद्धचक्कस्स।। गह-भूय-जक्ख-रक्खस-दुट्ठजरा जंति उवसामं // 18 // [11] 28 1 माला विहु मंत-तंत-चक्काइं U V A1 2 °हलंभं J VA | 3 °लगन्भे N / 4 देह। 5 उवरितलिरेह° N / 6रुद्धं बिंदु-कलासंजुयं तत्तं A N / 7 °लं नासालीणं Jv / सीसलीणं N / 8 जावं A1 9 °जुत्तो सु°N, जुत्तो मुक्खं J VAI 10 °यसोक्खं J V / 11 °णा इत्थ अन्नसिद्धिओ N, णा अन्नसिइत्थ सि° JvA | 12 अयरेण J111 13 °द्धी न हु दुलहा मच्चलो / 14 परमिट्ठिपंचनमणक्ख°N | 15 पंचनामक्ख° J v / 16 °माजुत्तं N / 17 पूरह पुव्वाइदले अट्ठदलेहिं च वग्गेहिं N / * N आदर्श त्रयोदशगाथानन्तरमियं गाथाऽधिकी-“पत्ताण मज्मभाए अंते चिय जहयहोणु दायव्यो / सव्वन्नुरूवतेया अणाहया सव्वदुक्खनासपरा // 6 // JVA आदर्शेषु तस्याः पाठमेद एतत्प्रकारेण लभ्यते-“कमलस्स मज्झभाए, अन्ने वि य तह य होइ दायव्वं / सव्वन्नुतेयरूवा अणाया सव्वदुक्खनासकरा। 18 पत्तंतरेसु दिजह ऊढं कमलस्स रेहाहिं NI IN आदर्श चतुर्दशगाथानन्तरं गाथेयमधिकी"तं पणवबीय अरिहं नमो जिणाणं ति एवमाईहिं / गणहरपएहिं पायाहिणेण परिवेढियं सरह // 8 // " 19 तिउणं पणवं rl, 121 20 सेयवर उज्जपत्ते rl 12 / 21 सुहदव्वजोएण। 22 गोरोयणकुंकुमेणं J AN 23 कत्थूर° 11 121 24 चामीयरलेहणीए J VAI 25 निवएहिं N निवहहिं J VAI 26 पूजह कमलनिहितं N / 27 °भूमीए भत्तीए N; भूमी य प JVI 28 जो पूयइ सत्तदिणे गुरुपूयाए स सिद्धचक्कस्स N; जो करइ सत्तवारा गु°J VAI Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत जो पुण पक्खं मासं पुजइ वासं पि परमभत्तीए / खंय-कुट्ठ-गंडमाला नासंति भयंदरा रोया // 19 // [12] अन्ने वि एवमाई असजउवसग्ग-ढुंटुरायाणं / नासंति खणेणेए तक्कर-रिउ-दुट्ठसत्ताई // 20 // आयरिसिऊण होइ वसे दुटुपुरिसरायाणो। जो रत्तकुसुमजावं दहदिवसे कुणइ भत्तीए // 21 // अग्गेयमंडलगयं जो चक्कं लिहइ वाउमज्झम्मि / तिल-तुस-राई-लवणं होमंतो तिन्निसंज्झाओ // 22 // तालय-मणसिल-गंधयगुलिया विसकणय दोन्नि रयणीओ। अंगार-वत्थ खप्पर पेयवणे लिहिय भुजपत्ते वा // 23 // वायस-गिद्ध-कवोडयपिच्छेहिं लिहइ तं चकं / उच्चाडण-विदेसण-मारण-गुरुमोह-थंभं च // 24 // माहिंदमंडलगयं लिहियं असुहेण भारमकंतं / सक्कस्स कुणइ थंभं का गणणा मणुयलोयस्स // 25 // वारुणमंडलमझे वैसियरणं होइ सुहेहि लिहिऊणं / निच्च जो आहास(राह? )ई तस्स वसे तिहुयणं सयलं // 26 // . . लिहिऊणं सेयवडे सुहेहि दव्वेहि सिद्धवरचकं / जव-होमेहिं रहिओ जो झायइ पंचवासाई // 27 // संज्झायज्झाणनिरओ अक्खंडियबंभचेरैजोएण / पैलमेक्कदिव्वखंडं कणयस्स दिणे दिणे लहइ // 28 // [13] तं पि वए कायव्वं जिणऍया दाण-भोयकजम्मि। न धरिजइ तहियहे धरिएण विनासए सिद्धी // 29 // जं जं चितइ कजं तं तं संपडइ सिद्धचक्केण / सुइधीरधम्मवंते पुरिसे नत्थित्थ संदेहो // 30 // [14] . को वन्निउं समत्थो सयलविहाणमिमस्स चक्कस्स। मुत्तूण जिणवरिंदं को जाणइ सयलसब्भावं // 31 // [15] * इति श्रीसिद्धचक्रमहिमापद्धतिस्तवनम् // 1 पक्खे मासे J VAI 2 नासंति दुट्ठरोगा तह होइ मणिच्छिया सिद्धि N / 3 रोगं vl, 121 4 दुट्ठगहरोया JVA | 5 खणेण जए J VAT 6°सप्पा वि JVVI 7 जे 1, 121 8 दससहस्सेहि कुJ VAI 9 चक्कमज्झम्मि लिहइ A, चकं लिहइ वाममज्झम्मि rl Y21 10 पेयवडे rl Y21 11 लिहह J VAI 12 °मोहयं तं च 11 12 13 °गयं अउधसुहेणं च नारमकंतं rl r214 वसियरसमुहेहि l Y21 15 निच्च हीइ सई तस्स Yl Y21 16 तस्स नमे ति°rl Y21 17 °हि वरचकं J VAI 18 जो अक्खंडं झायइ पंच य वासाई तस्स निच्च पि। पलमित्तकणयदाणं करेइ विमलेसरो देवो // 13 // N| 19 °णरहिओ rl r2 / 20 °चेरछुत्तेण .JVA | 21 पलमित्तदिव्व० Jv A1 22 पूया नाण-दाणकन्जम्मि JVAL 23 चिंतह क JV / 24 °त्य संसारे J v / 25 °णं स सिद्धचक्कस्स N; °ण इमस्स JvI * एकत्रिंशद्गाथानन्तरं lr2 प्रत्योः षदत्रिंशद्गाथात्मकं स्तवनमुट्टङ्कितम्-ताश्चेमा गाथाः "मा देह जस्स कस्स वि अभध्वजीवस्स अन्नलिंगीणं / सिद्धदुल्लहलाहं एसो मंतक्रमो मग्गो // 32 // Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 285 जो जवइ बंभदत्ता गुरुपडिमो घायणम्मि जो दोसो। परसमयलिंगकहियं होय(इ) तयं तस्स निभंतं // 33 // परमेट्ठिदेवयाइं इंदियगहतारयाई भूयगणे / सिक्खं काऊण इमस्स दिजइ विज्जा सुसम्मत्ते // 34 // धम्मजए समचित्ते सम्मत्तविभूसिए सहामत्ते / सम्वाइ गुणसमिद्धे दायध्वं सम्वसिद्धीए // 35 // गाहा पणतीसाए सिद्धिकरं सयलकजमणइहूँ / जिणसासणस्स सारं उप्पन्नं सिद्धवरचक्वं // 36 // " इति श्रीसिद्धचक्रमहिमापद्धतिस्तवनम् // श्रीमलिषेणसूरिरचित विद्यानुशासने' जैन-साहित्य-विकास-मण्डलस्थहस्तलिखितपत्रे( 152-153 ) लिखित'लघुसिद्धचक्र स्तोत्रेणास्य समता दृश्यते। अतस्तस्य समान्तरश्लोका बृहदाकाराक्षरैरुपर्युक्तस्तोत्रगाथाङ्कपूर्वका प्रदर्श्यन्ते // लघुसिद्धचक्रस्तोत्रम् // अथातः संप्रवक्ष्यामि, येभ्योऽनेकफलोद्भवः / तेषां सामान्ययन्त्राणां, यथाशास्त्रमिमं विधिम् // 1 // व्योमोर्ध्वाधो रयुक्तं शिरसि विलसितं नादविन्द्वर्धचन्द्रैः (10), स्वाहान्तोङ्कारपूर्वैर्गुरुभिरभियुतं पञ्चभिः स्व(भिस्तु)स्वरैश्च / बाह्येऽष्टस्वलपत्रे क च ट त प य शोष्मादिवर्गानजादीन् (13), स्वाहान्तानन्तराले प्रथमगुरुपदं (14) मायया त्रिःपरीतम् // 2 // मध्येऽपि कर्णिकायाः पत्रानेष्वनाहतं समाख्यातम् (15) / वर्गस्यान्तस्यान्तं नूनं स्वनोत्तमाङ्गेन // 3 // चामीकरलेखिन्या हिममलयज-रोचनादिभिर्विलिखेत् (16) / श्वेतवरभूर्जपत्रे (15) फलके वा ताम्रपत्रे वा // 4 // गन्धाक्षतप्रसूनैश्चरुकैर्दीपैश्च धूपफलनिवहैः (17) / अभ्यर्च्य जपेन्नित्यं पुष्पैरष्टोत्तरं शतम् // 5 // विनयादि-नमोऽन्तपदं भुवनाधिपमूलबीजपञ्चगुरून् / उच्चार्य ततोऽनाहतविद्यायै मूलविद्येयम् // 6 // मन्त्रोद्धारः-"ॐ ह्रीं हूँ असिआउसा अनाहतविद्यायै नमः॥" पूजयतो नित्यमिदं भक्त्या, श्रीसिद्धचक्रमुत्तमं यन्त्रम् / दुष्टग्रहशाकिन्यो यान्त्युपशान्ति क्षणात् तस्य (18) // 7 // कुष्ठगलगण्डमाला नश्यन्ति भगन्दरादयो रोगाः (19) / अन्येऽप्यरातिवर्गाः क्रूरा अपि शान्तिमुपयान्ति (20) // 8 // प्रेतवनवस्त्र-खर्परमध्यगतं तालकादिभिर्लिखितम् / स्तम्भयतीप्सितकार्य चक्रं (24) भूमण्डलान्तःस्थम् // 9 // जलमण्डलमध्यगतं यत्रं यः पूजयेत् सितैः कुसुमैः / हिमचन्दनसंलिखितं शान्ति पुष्टिं वशं करोत्येषम् // 10 // तिल-तुष-सर्षप-लवणैर्होमं कृत्वा (22) त्रिकोणकुण्डतले।' सप्तदिनानां मध्ये रामाऽऽकृष्टिं करोत्येवम् // 11 // पवनपुरस्थं यत्रं वायसपिच्छेन कनकगरलाद्यैः / भूर्जे विलिख्य निहितं भूमौ विद्वेषणोच्चाटम् (24) // 12 // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत शान्तिकर्मणि वारुणमण्डलं श्रीखण्डेनाभिलिखितं स्वाहारञ्जिका // 1 // पुष्टिकर्मणि मण्डलं वरुणमाहेन्द्रादि......स्वधारञ्जिका // 2 // वश्ये आमेयमण्डलं वषइञ्जिकां लिखेत् कुङ्कुमादिभिः // 3 // आकृष्टिकर्मणि आमेयमण्डलं अरुणद्रव्यैः संवौषट् // 4 // विद्वेषे वायव्य वारुणेन्द्रमण्डलानि श्मशानागररञ्जिका विष-लवण-लिम्बपत्रैः कपोतलेखिन्या लिखेत् श्मशानमृत्तिकायाः पुत्तलकद्वयं कृत्वा श्मशानकर्पटे लिखेत् पराङ्मुखान् स्थापयेद् महिषाश्वरुधिरेण // उच्चाटने काकलेखिन्या वायव्यमण्डलं काकामृजा निम्बपत्रेण // विषराजिका लवणधूने सओएमि (?) आनेय-माहेन्द्रमण्डले मारणे गृध्रलेखिन्या लिखेत् // अथ द्रवीकरणे गन्धयदाही सुओ पक्वं बीयं च पाडियं गन्मे / चंदणेण विलितं फुडफुडियं कंचणं होई // 5 // अस्य व्याख्या-अथ द्रव्यकरणेऽञ्जनमाह श्वेतागस्थिक्षुद्रा गुलामूलानि वेलकयुतानि / कलया घृष्टानि भवेदधो भगजातस्य चाञ्जनकम् // 6 // 15 प्रथमं काचकर्पूरेण चक्षुःशोधनम् , मधुना पाशः, ततोऽञ्जनं, उत्तरासृतानि सर्वमूलानि / सरलसकोमलवरुणकमूले मूलार्के यद् द्वये सन्ध्ये / पाठामूत्रे मथेत् त्रिसप्तकदिनैरजादुग्धैः // 7 // एक दिवा द्वयं रात्रौ, चक्षुःशोधनपूर्वकम् / कर्णान्तं तिलकं कृत्वा, पट्टकं मन्त्रसंयुतम् // 8 // 20 मूलजातितिलकम् // वणमुग कुहाडी विक्किणि चकंका तह य भूमि आवलया। . मुहि घित्तिऊण पिक्खइ सोहिय चक्खू महीदविणं // 9 // गुटिका // अथ मूलानि चर्वयित्वा तालुके धृत्वा (?) / बीजपूरकलिम्बुक्योः सेवन्त्री श्वेतगुञ्जयोः॥ 10 // आग्नेयपवनमण्डलमध्यगतं प्रार्चयन्निदं चक्रम् / आरक्तकुसुमजापैर्वशयति वनितां पुमांसं वा (21) // 13 // वर्षाणि पश्चनित्यं यो ध्यायति शुद्धचेतसा यन्त्रम् / रहितो जप-होमाद्यैर्दुर्धरतुर्यव्रतोपेतः (28) // 14 // निष्पन्नसिद्धचक्रः पलमेकं प्रत्यहं सुवर्णस्य / / लभतेऽसौ कर्तव्यः स च व्ययो दान-पूजासु // 15 // यदि दधाति लोभतोऽध दिवसे तस्मिन् व्ययं च न करोति (28-29) / सिद्धिस्तस्य विनश्यति निश्चयतो नात्र संदेहः // 16 // इति लघुसिद्धचक्रम् / 25 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। पारसपिप्पलैरण्डाऽगस्थीनां मूलिकास्तथा / वेलककाचमाल्याश्च सुरभी तुलसीकयोः। श्रीफलस्य तु मूलानि कलया घर्षयेत् सुधीः॥ 11 // कर्पूरमधुना शुद्धनयनयोरञ्जनं कुरु / तिर्यर धिष्ण्ये तु जातस्य निधिदर्शने (?) // 12 // पुष्यं शतभिषाऽऽर्दा च धनिष्ठा श्रवणोत्तरा। रोहिण्युर्ध्वमुखानि स्युर्गगनादिप्रयोजने // 13 // भरणी कृत्तिकाऽऽश्लेषा मूलं पूर्वात्रयं मघा / विशिखाऽधोमुखानि स्युः स्वातौ च निधिदर्शने // 14 // मृगशिरं रेवति चित्रा स्वाति ज्येष्ठा पुनर्वसु / अनुराधाऽश्विनी हस्तं भानि तिर्यगमखानि च // 15 // एतैर्यात्रादिकं पुराऽञ्जनं च रोचनां कपिलाया गोर्कपूरं न धुधोभवम् / बदरिनृपके नानारसं सर्वाञ्जनं कुरु // 16 // कृष्णपक्षेऽधोमुखनक्षत्रेजंबुयलोयणचुन्नं जिएहि नयणेहि पिच्छइ निसासु / भूयं भूयसमूहं देह दव्वं अभीमस्स // 17 // नृप-कनकयोर्मूलं पुष्यार्के बदरीजलम् / मधुगोरोचनायुक्तं सघनं चाञ्जनं कुरु // 18 // ताम्रपत्रे बदरीजलेन घृतं घृष्टं चक्षुःशोधने विंशतिनखमञ्जीराश्रि भाव्यम् / नेत्रकर्पटे नरपीडी भवेत् - तैलं चकार लेपाञ्जनं कुरु (1) // 19 // निस्तुषां कुलबीजानि चूर्णयित्वा प्रयत्नतः / सप्तधा तिलतैलेन मईयेदुष्णवारिणा // 20 // पतति पीडना पद्य तनूनां नयनस्थमदृश्यं कृत् (?) // अथ निधिदर्शने करलेपस्तथाऽञ्जनं सरलवरुणपूर्वदिशि / अधोगच्छन् मूलं तथा तस्य छल्ली 1 / निजच्छाया अलग्ना तथा मूलं च / तथा सिरघू अंगछल्ली 2 / पीपलछल्ली 3 / राजिका 4 / रविदिने गृहीता रविदिने अम्लेन मर्दितास्तैः कर्पूरं यावल्लेपो दत्त्वा शुचिपात्रस्य करणां मन्नं जपेत्"ॐ हाँ हाँ हूँ हः द्रव्यस्थाने गच्छ गच्छ स्वाहा / " लेवे चात्र वसे प्राप्ते सिद्धिदे पुरुषोत्तमे। नवपुष्टिं तथाऽभ्यासेनावरोगोऽनुशीलतु // 21 // चलन्ति द्रव्योपरि तिष्ठन्ति तथाञ्जनम् / लवसे तथा मध्ये मूलिके पूर्व-उत्तरे // 22 // घर्षित्वा द्वे जले सूक्ष्मे कर्पूरं शुद्धचक्षुषोः / सुपात्रपादजातस्य चाञ्जनं निधिदर्शने / सप्तसप्तानि पत्राणि पट्टकं बन्धयेत् सुधीः॥२३ / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत 'नवकारसारथवणं। श्वेतागस्थिपट्टके उपवेश्य तस्य पादुकां दण्डकं च प्रथमं ताम्बूलं चर्वाप्य श्वेतपट्टकं अधोगतं बन्धयेत् / अश्वस्थ अधोविभागपत्राणि नो वा पत्तनेत्यपत्राणि बन्धयित्वा चटति तत उद्योतपूर्वकं निधिं पश्यति / कपिलाया गोरोचना 1 / बदरिनृपहेमानाम् 2 // रसम् 2 / कर्पूरं पातालमधु सर्वाञ्जनं कुरु / पूर्वोक्तं तथैव-"ॐ हौँ स्वाहा / " औषध्युत्पाटनमन्त्रः // 5 हिलि हिलि मिलि मिलि कुलु कुलु ह्रीँ पार्श्वयक्षाय क्ष्ल्यू क्षाँ क्षीं हूं क्षौँ क्षः शिखाबन्धस्यास्त्रं रक्ष रक्ष सहाया रक्ष रक्ष स्वाहा // " शिखाबन्धः // "ॐ काली ह्रीं महाकाली किलि किलि विच्चे रक्ष रक्ष इदमञ्जनं सुपार्थो ज्ञापयति खाहा // " कज्जलाञ्जनरक्षामन्त्रः // सर्षपरक्तपुष्पैर्दिग्बन्धो दीयते क्षा क्षा VauN क्षः। तथा श्रीपार्श्वनाथमूलमन्त्रस्य जापः, भूतानि नाशयन्ति॥ . इति चूडामणिप्रस्तावेऽञ्जनं कथितम् // 10 पढम-दुसरा अरिहंता चउस्सरा सिद्ध-सरि-उवज्झाया। दुग-दुगसरा कमेणं नंदंतु मुणीसरा दुसरा // 12 // वननिवहो ककाई जेसि बीओ हकारपजंतो। नियनियसरसंजोगा सरेमि चूडामणिं तेसिं // 13 // 15 इति चूडामणितेयं ज्ञानं यथा-जीव-धातु-मूलानि // आइल्ला तिण्णि सरा सत्तम णवमो य बारसे जीवं / पंचमं छठेगारस धाउं सेसेसु तिसु मूलं // 1 // * जीवक्खरेक्कवीसा तेरह धाउक्खरा मुणेयव्वा / एयारस मूलगया पणयाला होंति सव्वे वि // 2 // * 20 य एवाधिकः स योनिः। अ आ इ ए ओ अः, क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ, य श ह - 21 जीवाक्षराः। उ ऊ अं, त थ द ध, प फ ब भ, व स - 13 धात्वक्षराः / इऐ औ, ङ अ ण न म, र ल ष- 11 मूलाक्षराः। इतस्तावन्मूलादर्शे 'द्वादशयन्त्रिका' इत्येतत्प्रकरणं लिखितमस्ति, तस्याशुद्धिबाहुल्याद् नोद्धृतमत्र // *1 व्याख्या -आद्याः खरास्त्रय 'अ आ इ'। सप्तम 'ए'कारः। नवम 'ओ'कारः / 'अ' द्वादशमः / एते षद खराः जीवस्वरा विज्ञेयाः / 'उ'कारः पञ्चमः / 'ऊंकारः षष्ठः / 'अं एकादशमः / त्रय एते धातुखराः / चतुर्थ'ई'कारः। दशम 'औ'कारः। 'ऐ कारोऽष्टमः। एते त्रयो मूलस्वराः॥११॥प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनिमित्तशास्त्रम् ,पृ०३ क च ट चउक्के जीयं, अट्ठम-पढमंतिमे यकारे य / त प [य] चउक्के धाउं, वसे य मूलं तु सेसेसु // 12 // ज० पा० * 2. व्याख्या-पूर्वनिर्दिष्टाः खराः षट् 'अ आ इ ए ओ अः, क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ, य श हाः एते जीवाक्षरा एकविंशतिः 21 / पूर्वोक्ता धातुखरास्त्रयः 'उ ऊ अंदश चान्ये 'त थ द ध प फ ब भ व सा' एते धात्वक्षरास्त्रयोदश 13 / 'ई ऐ औ, क अ ण न मा, र ल षा' एते मूलाक्षरा एकादश 11 / जीव-धातु-मूलसमेताः पञ्चचत्वारिंशदक्षराणि भवन्ति // 13 // ज०पा०पृ०३ केवलज्ञानप्रश्नचूडामणिः पृ० 24 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग नमस्कार स्वाध्याय। दो उत्तरेसु जीवं अहरे धाउं अहरुत्तरे मूलं / उत्तर अहरे धाउं एयं जोणी विणिहिट्ठा // [3] दो उत्तरेसु ठाणे अहरे पुण बाहिरं गयं वत्थं (त्थं ?) / अह उ(हरु)त्तरठाणे चलियं उत्तर अहरे परस(स्स)[हत्थे // [4] दो उत्तरेसु लाहं, मज्झिमलाभं अह उ(हरु)त्तरे पण्हे / उत्तर अहरे हाणिं अहरे सव्वं च नासेइ // [5] दो उत्तरेसु पढमं बीयं अहरे अह उ(हरु)त्तरे तइयं / उत्तर अहरे तुरियं देह(?) नपुंसे य पंचमयं // [6] पढमेण लहइ तइयं तइएण य पंचमं तओ पढमं। बीएण तुरियं भणियं ससि-रविगणणा इमा होइ // [7] विसमेसु होइ चंदो सूरो धामेइ समेसु जाणेह / एकंतरिया ठाणे पावइ नासं न संदेहो // [8] बिउणा तिउणा चउग्गुणा आलिंगिया य करे। उलद्धा चोरह नावडा अट्टहिं भाउ हरेउ (?) // [9] आलिङ्गिता द्विगुणाः, अभिधूमितास्त्रिगुणाः, दग्धाश्चतुर्गुणाः, अष्टभिर्भागो हार्यः, वर्गो लभ्यते, 15 चतुर्भिः पञ्चभिर्वा भागोऽक्षरम् / आलिङ्गिते च रन्ध्राण्यभिधूमिते मुनीन्दवः। पञ्चविंशति दग्धेषु, पश्चविंशत् तथोत्तरे // [10] अधरे सप्तमं ग्राह्य, दग्धं बद्धादरे पुनः।.. उत्तरे उत्तरं ग्राह्य, बद्धस्याप्यधरोत्तरे // [11] आलिङ्गिते क्रमेण नाम / अभिधूमिते उत्क्रमेण / दग्धे क्रमोत्क्रमेण // आलिङ्गिते द्वयक्षरं, अभिधूमिते व्यक्षरं, दग्धे चतुर्थ, पञ्चमाक्षरं वा नाम // अ२,आ४, इ 6, ई 8, उ 10, ऊ 12, ए 14, ऐ 16, ओ 18, औ 20, अं२२, 24 // क 1, ख 2, ग 3, एवं क्रमेण 33 // अवर्गे 8, कवर्गे 7, चवर्गे 6, टवर्गे 5, तवर्गे 4, पवर्गे 3, यवर्गे 2, शवर्गे 1 गुणकाराः // 25 अ इ ए ओ आलिङ्गिताः / आ ई ऐ औ अभिधूमिताः / उ ऊ अं अः दग्धाः // आलिङ्गिते एकम् , अभिधूमिते द्वयम् , दग्धे त्रयं पातनीयम् / यचिन्तितं कार्य सप्रश्नं कारापनीयम् / उत्तराधराणि पृथक् पृथक् कृत्वा तेषां सत्कगुणाकारेण गुणनीयः / उत्तरे एकं देयम् , अधरे एकं पातनीयम् / तन्मध्ये यस्यां तिथौ पृच्छति ततः आरभ्य आगन्तुकास्तिथयोऽमावास्यां यावत् प्रक्षेपणीयाः / अतीतास्तिथयः ततो मध्यादाकर्षणीयाः / ध्रुवको भवति / 30 चिन्तायां जीव-धातु-मूलम् / लुकायां तथा नष्टचिन्तायां धातु-मूल-जीवानि / पुनः स्वर्गम् 1, 'मृत्युम् 2, पातालम् 3 // मुष्टौ मूलं जीवं धातुः / एवं ध्रुवकमध्याद् भागे हृते यच्छेषं, यल्लब्धं च एतावुभावेकीकृत्य मूल-धुवगगौ मेलनीयौ / ध्रुवकरक्षार्थ द्वितीयस्थाने स्थाप्यं, लब्धं क्षिपेन्मूले यावत् सर्व समाप्यते // जीवाश्चतुर्विधाः-द्विपद १-चतुष्पद २-अपद ३-पादसंकुलाश्चेति 4 / दशभिर्भागो हायों 35 दिशा लभ्यते / यदा प्रश्ना न निर्वहन्ति तदा एक क्षेप्यं पातनीयं च, वर्गेऽक्षराणि भेदनीयानि, एष एव क्रमः / यदि नामाक्षरप्रमाणं क्रियते तदा पञ्चभिरथ चतुर्भिर्भागः, यच्छेषं ते नामाक्षराः // . 20 .. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 नमस्कारव्याख्यानटीका। अथ वयसः प्रमाणं क्रियते तदा पञ्चभिर्भागः / बालः 1, कुमारः 2, युवा 3, ल्हसितः 4, वृद्धश्चेति 5 / अजजीवित-मरणे द्वाभ्यां भागः / जीव[न]म् 1, मृत्युः 2, लाभालामे 3 / एवं जीवाः षड्भिः-देवाः 1, मनुष्याः 2, पक्षिणः 3, चतुष्पदाः 4, अपदाः 5, पादसंकुलाश्चेति 6 / मनुष्याः पञ्चविधाः-ब्राह्मण १-क्षत्रिय २-वैश्य ३-शूद्र ४-अन्त्यजाश्चेति 5 / पुनखिभिःपुं १-स्त्री २-नपुंसकाश्चेति 3 / / पक्षिणो द्विविधाः-जलचराः 1, स्थलचराश्च 2 / नारकाः-कर्मजाः 1, योनिजाश्चेति 2 / चतुष्पदाश्चतुर्भिः-खुरी 1, नखी 2, दन्ती 3, शृङ्गी 4 / खुरी द्वाभ्यां ग्रामवासिनः 1, अरण्यवासिनश्च 2 / एवं नखी दन्ती शृङ्गी / अपदा द्वाभ्यां जलचराः 1, स्थलचराश्च 2 / जलचरा डुण्डुभ १-जलूकादयः 2 / स्थलचराः सर्प-घोणसादयः / पादसंकुलास्तथा अण्डजाः 1, स्वेदजाश्च 2 / अण्डजा भ्रमर-पतङ्गादयः / स्वेदजा यूका- . मत्कुणादयः। धातुषु द्वाभ्यां धाम्याधाम्यौ / ततोऽष्टधा-सुवर्ण १-रजत २-त्रपुः ३-ताम्र ४-सीसक ५-लोह 616 कांस्य ७-रीरिकादयः 8 / तत्र घटितं अघटितं च / घटितं षड्विधम्-शिरा(र आ )-भरणं १-कर्ण २-श्रीवा ३-हस्त ४-जघनं 5 पादाभरणं 6 चेति / तत्र दक्षिण १-वाम(मौ) 2 / अधाम्यानि नवविधानि-मृत्तिका १-पाषाण २-हरिताल ३-मणसि(शि)ला 4- शर्करा ५-वेलुका 6- मरक्त( रकत )पद्मराग ७-मौक्तिक 8- प्रवालानि 9 / / मूलं चतुर्विधम् वृक्ष 1- गुल्म 2- लता 3- वल्ली 4 / तच्चतुर्विधम्- त्वक् 1- पत्र 2- पुष्प 320 फलमिति 4 // तत्र खाद्यं 1, अखाद्यं च 2 / खाद्यं षड्विधम् तिक्तं 1, कटु 2, कषायं 3, अम्लं 4, लवणं 5, मधुरं च 6 / तत्र आर्द्र 1, शुष्कं च 2 / तच्च स्वदेशजं 1, परदेशजं च / एवं नाम चिन्ता-मुष्टि-लुका जीव-धातु-मूलानि कथितानि / सूचनामात्रं सूत्रम् // सेयारुण-पीय-पियंगुवण्ण-कसिणाइ विडविपत्ताई। अंबिल-महु-तिक्ख-कडुय-कसाय परमिट्ठिणो वंदे // 14 // पञ्चपरमेष्ठिनां वर्णस्वरूपमग्रे प्रतिपादितं किमन्न(न्य)भणनेन ? परं जीव-धातु-मूलानां वर्णानि तथा पञ्चरसा मुख्यतः प्रतिपादिताः / लवणरसोऽत्र गन्तव्यः। लवणविहूणा य रसा चक्खुविहूणा य इंदियग्गामा। धम्मो य दयारहिओ सुखं संतोसरहियं नो॥ [12] इति लवणरसबाया रसा न भवन्ति / तथा चक्रभेदैः नामप्रकरणम् , यथा पढममक्खरजं बीयं बीयस्स य जा तेरसी मत्ता। तह जं चउत्थसहियं तं चिय नामक्खरं भणियं // [13] 25 30 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कारस्वाध्याय। 291 कमसो लहुगुरू जाणह अक्खर लिक्खिहि नाउ वियाणह / संकलबंधिहि नाउ ठविजइ चूडामणिसारु स णिजइ // [14] ससि तइयं गुणह भूयं भूयदुयं सुज्झि पावए चउरो। चउरो पावेइ ससी संकलबंधं वियाणाहि // (15] अग ड ठ, ध प ल ख, इ घच ड, न फ व श, उ ऋछ ढ, त व ल ख, प क ज ण, च म य स, ऊ क्ष ऋट, द म र ह। ' अधरे उत्तरवग्गो उत्तरवग्गेण संजुयं अहरं / जो जाणइ एस वग्गो सो जाणइ तिहूयणं सयलं // [16] आलिंगिए नंदिकमो अहिधूमिए ददुर त्ति नायव्यो। दद्धे जाणह तुरओ अहरे गओ उत्तरे सीहो // [17] अ क ज ट न नन्द्यावर्तम् 1, क छ ड ध म मण्डूक[प्लुतम्] 2, च ठ द भ लं अश्वमोहितम् 3, ट थ व च क्ष गजवि]ललितम् 4, त फ ल ओ सिंहावलोकितम् 5, प र स य ड तसाचक्रम् (?) 6, य ब उ प ध ञ मृगचक्रम् 7, श इ ध ऋण मिंढाचक्रम् 8 // ___ संयुक्तं 1, असंयुक्तं 2, अभिहितं 3, अनभिहितं 4, अपघातितं 5, आलिङ्गितं 6, अभिधूमितं 7, दग्धं ८-अष्टप्रकाराः // 15 - षट्प्रकाराः प्रश्नाः गृह्यन्ते--आलिङ्गिताः 1, अभिधूमिताः 2, उत्तराक्षरसंयुक्ताः 3, अधराक्षरसंयुक्तासंयुक्ता अभिहिता 5, अनभिहिताश्चेति 6 / आलिङ्गिते तृतीयवर्गम् , अभिधूमिते चतुर्थवर्गम् , दग्धे पञ्चमम् / उत्तराक्षरसंयुक्ता ये विषमवर्गास्तैर्द्वितीयाष्टमं वर्गम् / यदा बद्धाक्षर उत्तरोऽधःस्थाने दृश्यते स एव उत्तराक्षरः // अथ बद्धाक्षरोऽधराक्षरोऽधःस्थितोऽधराक्षरसंयुक्तं पञ्चमवर्गमभिहिते स्ववर्गम् / अथ मस्वरसंयुक्ता 20 सर्वेऽक्षरा अभिहिताः / अन्यस्वरा अक्षरवर्जिता अनभिहिताः / ___ आलिङ्गितेऽवर्गे तृतीयवर्ग चवर्गमिति नन्द्यावर्तक्रमेण, अभिधूमितेऽवर्गे चतुर्थवर्ग टवर्गमिति अश्वमोहितक्रमेण, दग्धेऽवर्गे पञ्चमवर्ग तवर्गमिति मण्डूकप्लुतक्रमेण, उत्तराक्षरसंयुक्तेऽवर्गे द्वितीय (?) अष्टमवर्ग शवर्गमिति गजविलुलितक्रमण, अधराक्षरसंयुक्तेऽवर्गे सप्तमवर्ग यवर्गमिति सिंहावलोकितक्रमण, अनभिहितेऽवर्गे स्ववर्गः, एवं कादिवर्गेण मिण्ढाचक्रक्रमेण / प्रश्नाङ्कमष्टादशमिश्रितं कृत्वाऽष्टभिर्भागो25 हार्यः / शेषाङ्केन वर्गो लभ्यतेऽक्षरं नन्द्यावर्तक्रमेण // __ अ क च ट त प य शाऽऽदित्यादिग्रहाः / द्वादशमात्राभिः राशयः / ककारादिषु ङञणनमवर्जितेषु अष्टाविंशतिनक्षत्राणि / अक्षरेषु उत्तराधरसंज्ञा ग्रह-राशि-नक्षत्राणाम् / तथा दो तिन्नि पंच अट्ट य पंच य अट्ठा तह य दो तिन्नि। यंत्र नं. 1 समुद्रचक्रम् / चउरिक सत्त छक्का सत्त छक्का य चउरिका // [18] एयं भायनिबद्धा करेसु पण्हक्खरेसु चउकुट्ठा। चउकुट्टेहि वि गुणिया नामं ठामं वियाणाहि // [19] | अ उ ओ आ ऊ औ इ ए अं ई ऐ अः एकक्खरसंजोए तिन्नि चउक्काइ बार अंगाई। क ड म ख ड य ग ण र घत ल जा सा तेरसमत्ता सो जाणइ सयलचिंताओ॥ [20] | वर्गानुक्रमसंख्यया ङ थ व च द श छध ष | जन स एकत्रानुकृतो राशिः, सर्वमात्रासमन्विताः। समालोक्य त्रयो भेदाः, स्वरक र्गदलादिकाः॥ झ पहब फलट बक्ष | ठभज्ञ 5 8 130 6 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत स्वरे रूपं प्रदातव्यं, हीनसूरिह लादिभिः। यंत्र नं.२ अकडमचक्रम्। . दलितं तु कारयेद् वगैः, सामान्या प्रकृतिर्भवेत्॥ अकडम | आखढय | इगणर इंघतल त्रिभिर्भागः प्रदातव्यो, यच्छेषं तच्च चिन्तितम् / [22] | 2358 | 5823 | 4176 / 7641 . शेषं पूर्ववत् // लब्ध उद्धरितं मूलाराशौ क्षिपेत् / उङथव ऊचदश | एछधष | ऐजनस 2358 5823 | 4176 / 7641 5 प्रथम-तृतीययोः शुक्लपक्षः द्वितीय-चतुर्थयोः कृष्णपक्षः / ओझपह औअफल | अंबटक्ष | अठभज्ञ श्वेतपक्षस्य- अ इ उ ए 1, क 2, च 3, ट 4, त 5, 2358 / 5823 | 4176 | 7641 प 6, य 7, श 8, ग 9, ज 10, ड 11, द 12, ब 13, ल 14, स 15 / अथ कृष्णपक्षस्यआ ई ऊ ऐ औ 1, ख 2, छ 3, ठ 4, थ 5, फ 6, र 7, प 8, घ 9, झ 10, ढ 11, ध 12, भ 13, व 14, ह 15 // 10 , उ 5, ऊ 6, ङ 7, ञ 8, ण 9, न 10, म 11, अं 12, अः 13 / .पञ्चमवर्गे उत्तराक्षरे शुक्लपक्षतिथयः, अधरेषु कृष्णपक्षतिथयः / - अ ए क फाल्गुनम् , च ट चैत्रम् , त प कार्तिकम् , य श मार्गशिरः, आ ई ख छ ठ पौषम् , थ फ र ष माघम् , इ ओ ग ज ड वैशाखम् , द व ल स ज्येष्ठम् , ऐ औ ग झ ढ आषाढम् , ध भ वह श्रावणम् , उ ऊ ङ ञ ण न मा भाद्रपदम् , अं अः नमः आश्विनम् / 15. अथ नष्टजातकप्रश्नाक्षरैः प्रश्नाः सप्तगुणीकृत्य उभयनाम-संमिश्रनाममात्रा यथा- अ 1, आ 2, इ 3, ई 4, उ 1, ऊ 2, ऋ 2, ऋ३, ल 2, लू 3, ए 2, ऐ 3, ओ 1, औ 3, “अं 2, अः 3, क 1, ख 2, ग 1, घ 2, ङ 1, च 2, छ 2, ज 2, झ, ञ 2, ट 1, ठ 1, ड 2, ढ 2, ण 2, त 1, थ 3, द 2, ध 1, न 1, प 2, फ 3, ब 1, भ 2, म 1, य 2, र 1, ल 2, व 1, श 1, ष 2, स 2, ह 2, ळ 4 // 20 इति नामाक्षराकानि / अष्टोत्तरशतभागो हार्यः, शेष[:] जातकसंवत्सरो लभ्यते / तथा प्रश्नाः द्विगुणीकृत्य चतुष्कहीनाः त्र्यक्षरसम्मिश्रा द्वादशभिर्भागः, शेषं नाममात्रसम्मिश्रं एकहीनं शेषः चैत्रादिमासः 1 / तत्र सममात्रा शुक्लपक्षः, विषममात्रा कृष्णपक्षः 2 / प्रश्नाः त्रिगुणीकृत्य षहीनाः सप्तभिर्भागः, शेषाः वाराः 3 / प्रश्नाः रुद्रगुणीकृत्य नवहीना नामसंमिश्राः त्रिंशद्भिर्भागः, शेषा तिथिः 4 / प्रश्नाः दशगुणा...ना सप्तविंशतिभिर्भागः, नक्षत्रम् / प्रश्नाः त्रिगुणाः तिथियुताः सप्तविंशतिभिर्भागः, शेषो योगः 25 6 / प्रश्नाः चतुर्गुणा दशहीना संवत्सरसंमिश्राः द्वादशभिर्भागः, शेषराशिः 7 / प्रश्नाः अष्टगुणा उभय हीना लमसंयुता नवभिर्भागः, शेषमंशकम् 8 / प्रश्नाः षोडशगुणा दशहीना अंशकमिश्रिताः द्वादशभिर्भागः, शेष लमम् 9 / प्रश्नाः पञ्चगुणाः त्रिभिहींना अंशकसंमिश्रा द्वादशभिर्भागः, शेषश्चन्द्रः 10 / प्रभाः त्रिगुणीकृत्य षट्संमिश्राः,...शेषौ रवि-बुधौ 11 / प्रश्नाः सप्तगुणाः युगयुताः द्वादशभिर्भागः शेषौ शुक्र-भौमौ 12 / पूर्ववत् प्रश्नाः रुद्रगुणाः द्वादशभिर्भागः, शेषो राशिः 13 / प्रश्नाः षोडशगुणा 30राशियुताश्चतुर्भिहींना योगसंयुता द्वादशभिर्भागः, शेषो गुरुः 14 // इति जन्मपत्रिकानयनम् // Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। तथा प्रश्ना रुद्रगुणा नामयुता च षष्टिभिर्भागः मृत्यु- यंत्र नं. 3 मातृकाचक्रम् / संवत्सरः 1 / प्रश्ना एकोनविंशतिगुणा नामयुताः संवत्सरनाम्नो 6 | 3 | 2 | 4 | 7 || 4 | 3 | 1 |10|| अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं हीना द्वादशभिर्भागः, शेषाः श्रावणादिमासाः 2 / प्रश्नाः / / क ख | ग घ ङ च छ | ज | झ ञ ट दशगुणा द्वयहीनाः त्रिशद्भिभोगः, [शेषा] पाणिमादितिथिः। ठ ड ढ ण | त | थ | द | ध | न | 4 | फ| प्रश्नाश्चतुर्गुणाः करयुताः शेषः... कालः // ब भ म य र ल | व | श | ष | स | ह 5 चउदह अट्ठा(सत्ता?)वीसा बि-बारस पनरस छ चउरोय यंत्र नं. 4 आयचक्रम् / एगारस सत्तरसं अट्ट य नवमं जयं जुज्झे // [26] |14|27| 2 |12|15/6 | 4|11|17/8/9 प्रश्ननामकं च अष्टभिर्भागो हार्यः। एवमधिकः तस्य | अ आ | इ | ई | उ | ऊ | ए | ऐ | ओ औ | अ क | ख | ग | घ | ङ | च | छ | ज | झ | अ ट जयं वदेत् / तथा ऋतु-हरनयन-कराम्बुधि-मुनि-रस-वेदाग्नि-13 | ड | ढ | ण | त | थ | द | ध | न | 4 | फ| चन्द्राहि-दुर्गाः विज्ञसाधा (?) लिखेत् // ब भ म य र ल व श ष स ह 10: .. अकारादयः सर्ववर्णाश्च यंत्र नं.५ ध्व 1 सिं३ खर 6 ग 7 वृ५ वा 8 श्वा 5 धूम 2 उत्तर 1 अधर 2 उत्तरोत्तर 3 अधराधर 4 ज han Fhy RPF Febr 8 60. BF न 10 दग्ध म 11 ओलि 5 अं 12 श 9. ष 10 अः 13 हृतातुरनानोऽरिवसुभिः संशोधितासु मात्रासु / जीवत्यधिके रोगी म्रियते हीने समे व्याधिः॥ [27] परं प्रश्नं मध्येकृत्वाऽन्वेषणीयम् // * पूर्वमुखो विशेषज्ञः, उपविष्टः शुचिस्तथा। बालो वा अथवा कन्याप्रश्नोऽपि पृच्छयते ततः॥ [28] मध्ये च स्थापयेत् कुम्भ, सहिरण्यं सवस्त्रकम् / पल्लवैः संयुतं पूज्यं, अक्षतैस्तु प्रतिष्ठितम् // [29] नह घड व इ ल मज्झे इंदाई पायडं चक्कं / यंत्र नं. 6 इंदाईचक्रम्। नटुं दावेइ धणं इय कहियं वग्गसारेण // [30] |रेचं अचंभ चं कृ चंम चं| पू। उ एते द्रव्याक्षरा ज्ञेयाः, नवभागेन लक्षयेत् / शेषनास्ति विजानीयाद, ज्ञातव्यं यत्नतोवधैः॥[३] उ | पू चं | श चं| रो | अचं पु चं| ह अचं | श्र चं | ध चं| मृ | आ | पु चं | चि भूमिस्थं चान्तरस्थं च, जलस्थं चावलम्बितम् / / स्थानस्थं पञ्चमं प्रोक्तं, द्रव्यं ज्ञेयं विशेषतः | उ चं| पू चं मू | ज्ये | अ | पि | स्वा 20 / 32 . * अत्र 'चउदह” गाथा पुनर्लिखिताऽऽदर्शे नात्रोद्भियते // Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। आलिङ्गिते भवेन्मूर्धा, पुरुषाः स्वाभिधूमिते / / उत्तरे अङ्गुलाः प्रोक्ताः, मध्यमं मध्यमाक्षरैः॥ [33] एते पञ्चपरमेष्ठिनः पूर्वानुपूर्वी-अनानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वीगुण्यमाना विधियुता ऐहिक-परत्र फलं विशेषतो ददति / तदुच्यते पुव्वाणुपुविहिट्ठा समयाभेएण कुण जहाजिडें / उवरिमतुल्लं पुरओ निसिज पुव्वक्कमो सेसो // 15 // [25] जम्मि य नक्खत्ते पुणरवि सो चेव अंकविण्णासो। सो होइ समयमेओ वजेयव्यो पयत्तेण // 16 // [26] इति पञ्चविंशत्यधिकं शतं भेदानां भवन्ति / एकैकपदे चतुर्विंशतिका स्यात् , एवं 5, सं० 10120 / लक्षजापे कृते सति, अतीतानागत-वर्तमानान् जानाति / यानि कर्माणि करोति तानि भवन्ति / साधनरहितः( तेन ? ) सामान्येन त्रिकालं चतुर्विंशतिजिनास्तु पूर्वानुपूर्वी-अनानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वी(व्या ?) . ध्यातव्याः / जपमानस्य सर्व चूडामणिना निमित्तेन वा सिद्धिर्याति / तथा ___ अनानुपूर्वीक्रमकोष्ठकम्।। 12345 13254 / 12453 13452 23451 21345 21354 / 21453 31452 31451 13245 13254 14253 14252 24351 31245 31254 41353 41252 42351 23145 23154 24153 34152 34251 32145 32154 42153 4315243251 12435 12534 | 12543 23541 21435 21534 21543 31542 -32541 14235 15234 15243 15342 25341 41235 51234 51243 51342 52341 24135 25134 25143 35142 35241 42135 / 52134 52143 53142 53241 13425 13524 / 14523 / 14532 24531 31425 31524 41523 | 41532 42531 14325 15324 15423 15432 25431 41325 51324 51423 51432 52431 34125 35124 45123 45132 4521 43125 53124 54123 54132 / 54231 23415 23514 24513 34512 34521 32415 32514 42513 43512 43521 24315 25314 25413 35412 35421 .42315 52314 52413 53412 53421 34215 35214 / 45213 45312 / 45321 43215 53214 / 54213 / 54312 54321 मणसा वा चरित्ते वा कार्य घायं च तप्परिणामो। भंगीसु अ गुणंतो वट्टइ तिविहम्मि झाणम्मि // 1 // - Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय / निमित्तमाह नंदा तिहि अरहंता भद्दा सिद्धा य सूरिणो य जया / तिहि रित्ता उवज्झाया पुण्णा साहू सुहं दितु // 7 // [17] इति तिथयः॥ ससि-मंगलमरहंता बुहो य सिद्धा य सुरगुरू सूरी। सुक्को उवज्झाय पुणो साहू मंदो सुहं भाणू // 8 // [18] _ इति ग्रहाः // कत्तिय-चित्तो अरिहा वइसाहो मग्गमास सिद्धा य / पोसो जिट्ठो भद्दव आसोओं सरिणो सुहया // 19 // माहासाढुज्झाया फग्गुणमासो य सावणो साहू / मह मंगलमरिहंता अचिंतचिंतामणी दिंतु // 20 // इति मासाः॥ जपमानस्य सर्वे शुभाः। तथा चिन्तामणिरचिन्तितपदार्थान् साधयति, अत एव निमित्तं प्रतिपादितम्॥ पुअसंगमूल अरिहंता तहा धनिट्ठाइ पंचगा सिद्धा। दिगुरिक्खा आयरिया नमामि सिरसा य भत्तीए // 21 // अदाइ जे रिक्खा उवज्झाया तेसि दितु फलनिवहं / चित्ता साई साहू सासयसुक्खं महं दितु // 22 // इति नक्षत्राणि // पञ्चपरमेष्ठिनः शाश्वतं मम सौख्यं ददतु / इहलोके यावज्जीवंताया (?) नक्षत्रैः निमित्तम् // जमु कन्ना-विस अरिहा मेसो मयरो य अंतिणो सिद्धा। पंचाणण अलि सूरी धणू य मिहुणो उवज्झाया // 23 // कक्कड-तुला य साहू दोदह रासी य पंचपरमिट्ठी। भावेणं थुणमाणो पावइ सुक्खं च मुक्खं च // 24 // इति राशिभिः परमेष्ठिनः शाश्वतं निरन्तरं दिने दिने द्वादशलमानि, यतः अन्तःसौख्यं ददति यावन्मोक्षम् // अथ निमित्तं यथा ज्ञायते, तद् ब्रूमः-निमित्तं त्रिधा–पञ्चस्वरोदयम् 1, ध्वजादिनाऽष्टाङ्गम् 2, ग्रहगणितं च 3 / पञ्चस्वरोदयं तावत् अकारादि स्वराः पञ्च, नन्दादिस्तिथयस्तथा / उदयन्ति क्रमादेवं, पक्षे पक्षे त्रिधा त्रिधा // 1 // अहोरात्रस्य मध्ये तु, रविनाडीप्रमाणतः। एकैकस्योदयं प्रोक्तं, स्वराणां पञ्चधा तथा // 2 // षडूर्वाः स्थापयेद् रेखाः, पञ्चविंशच्च कोष्ठकाः। अकारादि-हकारान्ताः, हीनाङ्गास्त्रीणि वर्जीताः // 3 // वर्षो मासस्तिथिर्वारो, नक्षत्रमक्षरस्वरः / राशिष्वेकादिकैः स्थानः, फलं पुंसां तथा दिशेत् // 4 // 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 नमस्कारव्याख्यानटीका। बालस्वरे चिरात् सिद्धिः, कुमारे सिद्धिरधिका / वृद्ध मृत्यौ न सिद्धिः स्यात्, सद्यः सिद्धिकरो युवा // 5 // - एकस्वरो भवेद् दाता, द्वितीयो मध्यमः स्मृतः। तृतीयः पोषको ज्ञेयान्मृत्युस्तुर्ये च पञ्चमे // 6 // ऋक्षं वर्णस्तिथिर्मासः ग्रह-नक्षत्र-राशयः / यो यस्य पञ्चमे स्थाने, स तस्य मृत्युदायकः // 7 // कटौ पोटे तथा स्वान्ते, कण्ठे शीर्षे यथाक्रमम् / एवं चक्रेऽथ पीडा स्यात्, पञ्चधा विधितेन च // 8 // एकैकस्य स्वरस्यैव, पञ्चधा परिलक्षणम् / मात्रा-वर्ण-ग्रहो जीवो, राशिरिति क्रमेण तु // 9 // नामादौ या कला शुद्धा, सा मात्रा स्वरसंक्षिका। वर्ण-वर्णस्वराज्ज्ञेयः, संयोगेन तु योऽधिकः // 10 // योऽधिको यस्य राशेस्तु, विज्ञेयोऽसौ ग्रहेश्वरः। कृत्वा नामप्रमाणेन, मात्रावर्णादिकं कुलम् // 11 // उदयाद् घटिकासंख्या, कृत्वा पलमयीं ततः। क्षं वह्निहते शेषः, स्वरस्तत्कालसंभवः // 12 // बाणैर्विभज्य यच्छेषं, जीवस्वरमुदाहृतम् / स्थानैरेकादि-पश्चान्तमात्मस्थानात् प्रकाशितम् // 13 // 1 2 3 4 5 / 2 3 4 51 / 3 4 5 12 / 4 5 1 2 3 / 51 2 3 4 / 20 एवं पञ्चवर्गाणि // __यथा पञ्चस्वरोदये चक्रे सर्व शुभाशुभं फलं प्रतिपादितं परमचिन्त(न्त्य)चिन्तामणीन् दिंतु (ददातु ) इति यः सर्वदा पञ्चपरमेष्ठिनो मन-वचन-काययोगेन स्मरति तस्य शुभानि अचिन्तचिन्तामणिरिव लभते / द्वादशमासेषु तथा नक्षत्रेषु सर्वेषु कमेण मोक्षपदं ददतु / तथा वारेषु लमेषु च तस्य न कदाचिदपि इह परत्र च दुःखमुत्पद्यते // तथा शरीरस्वरोदयं यथायंत्र नं०८ यंत्र नं०९ चंद्र गुरु | शनि-रवि 2 मंगल मेष | कके वृश्चिक- मिथुन | मिथुन तुला कुंभ मीन वैशाख फाल्गुन कार्तिक मार्गशीर्ष ज्येष्ठ | आषाढ श्रावणभं भाद्र अभि भ आश्विन रि 25 1 2 बुध 4 सिंह धनु वृष मकर कन्या पौष / माघ 44. | चैत्र अभि वर्धित चंद्र वर्धित पू.५ पू. फा. विशाखा उ. फा. स्याति चित्रा अनुराधा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] कथम् नमस्कार स्वाध्याय। सार्द्ध घटीद्वयं नाडीरेकैकाऽर्कोदयाद् वहेत् / अरघट्टघटिकाभ्रान्तिन्यायो नाड्यः पुनः पुनः॥१॥ शतानि तत्र जायन्ते, निश्वासोच्छ्वासयोर्नव / ख-ख-र्षट्-कु-कैरैः (21600) संख्याऽहोरात्रसकले पुनः // 2 // षट्त्रिंशद् गुरुवर्णानां, या वेला भणितैर्भवेत् / सा वेला मरुतो नाड्याः, नाड्यां संचरतो लगेत् // 3 // प्रत्येकं पञ्चतत्त्वानि, नाड्योश्च वहमानयोः / वहत्यहर्निशान्तानि, ज्ञातव्यानि यतात्मभिः // 4 // ऊर्ध्वं वह्निरधश्चापस्तिर्यक्ष्वेव प्रभञ्जनः / क्षोणी मध्यपुटे लीनो, नभः सर्वत्र संस्थितः // 5 // वायोर्वह्निर्भुवो वारे, व्योम्नस्तत्त्वं वहेत् क्रमात् / वहत्योरुभयोर्नाड्योः, ज्ञातव्योऽयं क्रमः सदा // 6 // पृथ्व्याः पलानि पञ्चाशत्, चत्वारिंशत् तथाऽम्भसः। अग्नेस्त्रिंशत् पुनर्वायोविंशतिर्नभसो दश // 7 // - तत्त्वातत्त्वे यदायाति, नाड्यो नाडिं यदा व्रजेत् / द्वौ द्वौ पलानि तदाकाशे, एवं दशपलानि हि // 8 // प्रवाहकालसंख्येयं, पृथिव्यादिक्रमेण तु / गन्धो रसश्च रूपं च, स्पर्शः शब्दः क्रमादमी // 9 // ताभ्यां भू-जलाभ्यां स्याच्चान्ते कर्मफलोन्नतिः / दीक्षास्थिरादिके कृत्ये, तेजो-वायुवरैः शुभम् // 10 // भूम्यां स्थैर्य स्वचित्तस्य, शैत्ये कामोद्भवो जले। तेजस्के कोप-संतापी, वायौ चञ्चलताऽऽत्मनः // 11 // पञ्चमे शून्यतैव स्यादथवा धर्मवासना / पीतः श्वेताऽरुणौ नील-श्यामौ भ्रविन्दुभिस्तथा // 12 // वह्निर्वहति कार्याणि, आपः स्वाश्रयते फलम् / शून्यं च वायुना विन्द्यात्, पृथिव्यां सर्वसंपदा // 13 // जीवितव्ये जये लाभे, शस्योत्पत्तौ च वर्षणे / पुत्रार्थे युद्धप्रश्ने च, गमनागमने तथा // 14 // पृथ्व्यप्तत्त्वे शुभे स्याता, वह्नि वातौ च तौ शुभौ / अर्द्धसिद्धिं स्थिरो यातु, शीघ्रमम्भसि निर्दिशेत् // 15 // मजने सुरते वादे, व्यायाम क्षुद्रकर्मणि / भोजने व्यवहारे च, नाडी स्याद दक्षिणा शुभा // 16 // विद्यारम्भे च यात्रायां, दाने शुभप्रयोजने / नगरादौ प्रवेशे च, वामा नाडी शुभावहा // 17 // समसप्तगते सूर्य, चन्द्र-जन्मक्षमागते / / सकालपौष्णे विज्ञेया, कुर्यात् तत्र विचारणा // 18 // आदौ कृत्वा दिनार्द्ध सकलदिनमथाहर्निशं तत्क्रमण, तस्मादद्वयं च त्रिदिनमथ चतुर्वासराणि क्रमेण / प्राणो नाड्या स्थितो यो वहति दिनपतेरुद्गमे सव्यहीनः, काले पौष्णे समासा भुवनरविदिशा मङ्गलं षट्चतस्रः॥ 19 // Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत SI 298 नमस्कारव्याख्यानटीका। पञ्चभ्यः पञ्चविंशदिवसगतिरुहाऽऽरोहिते पञ्चवृद्धया, तत् स्यादेकोत्तरेण त्रिगुणितदशकं ज्युत्तरं यावदेति / काले पौष्णे समास्ते त्रिनयनशशिनः षट्तियामेन्दवो ये, . ___ मासास्ते हानिशेषास्तिथि-दिशिषु गुणा द्वीन्दयो जीवितस्य // 20 // 5 दिनवर्ष 3, दिन 10, वरदिन 20, मास 6, दिन 25, मास 3, दिन 26, मास 2, दिन 27, मास 1, दिन 28, दिन 29, दिन 10, दिन 30, दिन 5, दिन 31, दिन 32, दिन 2, दिन 3, दिन 15 एवमिति // उदये चन्द्रमार्गेण, सूर्येणास्तमनं यदि / उदिते गुणसंयुक्तं, विपरीते विघ्नं भवेत् // 21 // उदयः सूर्यमार्गेण, चन्द्रेणास्तमनं यदि / उदिते गुणसंयुक्तं, विपरीते विघ्नं भवेत् // 22 // मेषे धनुषि सिंह च, तुलायां मिथुने घटे। उदयो दक्षिणे ज्ञेयः, शेषेसु च निशाकरः // 23 // प्रतिपदाद्या विजानीयाद् , योगी [सद्ग? ]तमानसः। . यद् द्योतते प्रत्यूषकाले, विपरीतं विघ्नं भवेत् // 24 // शुक्लपक्षे भवेद् वामा, कृष्णपक्षे तु दक्षिणा। त्रीणि त्रीणि दिनान्याह, उदये चन्द्र-सूर्ययोः // 25 // प्रथमे चैव उद्वेगं, द्वितीये धनहानिदम् / सृतीये गमनं कुर्यादिष्टनाशं चतुर्थके // 26 // पञ्चमे राजविष्कम्भः, षष्ठे राज्यं घिनश्यति / सप्तमे तु महाघोरमष्टमे मृत्यु निश्चितम् // 27 // उदयाद् घटिकासंख्या, लग्नं चैकत्र कारयेत् / नवभिस्तु हरेद् भाग, पञ्चकं परिवर्जयेत् // 28 // मन्त्रणे क्लेशे चौरेच, राजन्ये ऽग्नौ" तथा परे / युगाष्ट दश-मार्तण्ड-तिथिषु स्यादुपद्रवः // 29 // तथा नवभिर्भागे हृते तथा पञ्चभिर्बालादिस्वरप्रमाणेन वक्तव्यं लाभादिपच्छायाम् // करे--शर्शि-युर्ग-शिक्षि-कर-कर-शक्रादिव रुद्रपर्यन्ताः। यंत्र नं.१० यामभतिथिषु ध्रुवाङ्कास्तानामूलोद्धृताः शेषाः // 1 // हर्षति तच्छेषं वारस्तुल्यो स दिनपादिः। प्रच्छोटय खेटः सन् सौम्योऽभीष्टफलप्रदो न खलः // 2 // तस्माद् यस्मिन् कार्य, साध्यं तत्रैव गम्यते यो वा। आगच्छति देशो वा, परचक्रं प्रयत्नेन // 3 // दिग-ध्रुवसंख्ये चान्ये, दत्त्वाऽथ स्थापितान् मुनिभिर्दत्ते न(?) / शेषाः पूर्ववदुदिताऽऽकलय्य रिपु-मित्रता तत्र // 4 // पञ्चस्वरस्थापना35 आये च यदि च सौम्यः पापोऽप्यन्ते ग्रहादयस्तत्र। पृच्छायाम्। वक्तव्यं तत् कार्य सिद्धमपि विनाशमुपयाति // 5 // यद्याद्ये पापः स्यात् सौम्यः कार्यग्रहस्तदा नित्यम् / कर्ता विप्राश्लिष्टः कार्य निर्विघ्नरूपत्वम् // 6 // Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 299 द्वौ पापी विघ्नकरौ द्वौ सौम्यौ कर्तृ-कार्ययोः सफलम् / एवं दिग्द्वयभेदं विचिन्त्य स्थितपृच्छकं स्थानात् // 7 // तथावर्तमान तिथि-वार-भयोगो, वासरया घटीदलमिश्राः / ते भवन्ति तिथि-वार-भयोगाः, सत्यमुक्तममलं मतिमद्भिः // 8 // नन्दहता गता नाड्यो, विंशतिभिर्विभाजयेत। ग्रहमुक्तयुतं लब्धं, तात्कालिका ग्रहाः स्मृताः // 9 // तत्कालचेष्टा समविग्रहं च, नक्षत्र-याम-ग्रहपृच्छकांशाः। योगास्तिथीन्दुवरदां नियोज्य, सप्ताहृतं जीवमुदाहरन्ति // 10 // चिन्ताकालो लाभो रवि-भौम-गुरु-बुध-शुक्र-शनि-चन्द्रैः। ज्ञेयाश्च राष्ट्रणा सह, पूर्वादिदिशाधिपः क्रमशः // 11 // पृच्छा दिन-वार-वामसंख्या अतीतग्रहागमनम् / भूचके भूतं कथयति स्थायी यत्र निषण्णः // 1 // पृच्छति तत्र पृष्टिस्थानाद् उदयैकग्रहागमनम् / स वर्तमानो जाई (1) // 2 // सूर्यस्थानात् प्राहरिकः, सृप्या गणयेद् भविष्यं कथयति // स्थायिनि बलिने अतीतचिन्ता जाई बलिने वर्तमानचिन्ता, प्राहरिके बलिने भविष्यचिन्ता // वसु-भूत-ऋतुश्चैव, वेद-मुनि चन्द्रमाः। शिक्षि-पक्षप्रमाणेन, सूर्यादि नीरूपयेत् // 3 // रविकर-शशि-दिश-सशर-चतुर,गुरौ युगंभृगौ / मन्दे रुद्रराहोरिन्द्रिय-कुजाग्निं-ग्रहास्तथा चाङ्काः // 4 // एवं त्रिग्रहयुक्ता अङ्का, नवभिर्युता हता बाणैः।। शिखिंभागहताः शेषैः, स्याजीव-धातु-मूलानि // 5 // वर्गागमे नगैर्भागः, अक्षरैः पञ्चभिस्तथा / स्वरैर्द्वादशभिः कुर्यात्, ततो नाम प्रसिद्ध्यति // 6 // स्थायी प्रहस्य संख्यामागे नामानि सर्वतः 14 वसुभूतादिभिश्चाङ्कः, क्षेप्यं त्रिग्रहबद्धके / शून्य-वह्नि-द्वय 230 ध्रोऽत, पादच्छायां नियोजयेत् // 8 // द्वयभूभिहृतं शेषं, नष्टलग्नं च जन्मभम् / नक्षत्र-राशि-वर्षर्तु-मास-पक्षादयस्तथा // 9 // नष्टजन्मपत्रिका // उत्तराद्युदयादीनां, वायव्यां तं ततो न्यसेत् / विदिक्प्रभृतियामार्द्ध, भ्रमते ध्रुववेलया // 1 // अधमा सृष्टिपातेन, वामपातेन मध्यमा। उत्तमा याम्यपातेन, मुखे चैवोत्तमोत्तमा // 2 // शुभ्राश्चाशुभे स्थाने मन इप्सितानि कारयेत् / अशुभा शुभे स्थाने, मृत्युहानिकरास्तथा // 3 // पृष्टिपाते समे संख्येऽशुभे शुभाश्च शोभनाः। मुखे च विषमे मध्ये, शुभाः शुभं वदन्ति हि // 4 // 90 x Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 नमस्कारव्याख्यानटीका। जीवज्ञौ प्रभातसमये, मध्याह्ने कुज-भास्करौ। अपराह्ने शशि-शुक्रौ, सन्ध्यायां शनि-राहुकौ // 5 // हीनचन्द्रे रविौंमः, सौरिस्तमग्निपातकाः। बुध-जीव सिताश्चन्द्रः, संपूर्णश्च शुभग्रहाः॥६॥ गुरु-शशाङ्क-मार्तण्डः, भूमिपुत्रः परस्परम् / मित्रत्वं बुध-शुक्रस्य, कथ्यते सौरिणा सह // 7 // मन्दं भौमं बुधं जीवं, शुक्रं सोमं च भास्करम् / नैसर्गिकं बलं तेषां, क्रमे च कवयो विदुः // 8 // जीवं तु जीव-शुक्राभ्यां, मूलं चन्द्रे बुधे तथा। धातुः शनौ रवौ भौमे, लग्नकेन्द्रग्रहैर्वदेत् // 9 // भास्कराङ्गारको रक्तौ, श्वेतौ शुक्र-निशाकरौ / सोमपुत्रं गुरुं चैव, तावुभौ पीतवर्णकौ // 10 // कृष्णं शनिश्चरं राहुं, नीलं विन्द्यात् तु वर्णकैः / वर्तुलमर्द्धचन्द्रं च, त्रिकोणं धनुराकृति // 11 // पद्मामं चतुरनं तु, दीर्घ दीर्घ च निश्चितम् / . ग्रहरूपं विजानीयादादित्यादिक्रमेण तु // 12 // जलं सोमेन वक्तव्यं, बुधे विन्द्या वनस्पतीन् / हविःस्थानं तु भौमेन, शुके जीवे च कीर्तनम् // 13 // म्लेच्छभूम्यां शनौ..., रखौ जानीहि गोकुलम्। .. निवेशं च विजानीयाद्, वाहद्वारविशेषतः॥ 14 // प्राङ्मुखो रविशुक्रेण, चन्द्रे सौरे च पश्चिमम् / / दक्षिणे बुध-सोमाभ्यां, राही जीवे तथोत्तरे // 15 // सजीवं जीवशुक्रेण, निर्जीपं क्रूरभास्करैः / चन्द्रस्तु चन्द्रपुत्रस्तु, तावुभौ मिश्रभावुकौ // 16 // लाभालाभं सुखं दुःखं, जीवितं मरणं तथा। जयं पराजयं चैव, वक्तव्यं ग्रहभावतः // 17 // सूर्यच्छन्नं धनैर्वापि, दिनमानं न बुध्यते।। तदा प्रश्नाक्षरैर्लग्नं, ग्रहान् राशौ विलोकयेत् // 18 // पूर्णिमाभ्यां हि यद् ऋक्ष, तस्मात् पञ्चदशे रविः। रवेादशमे केतुः, तस्मात् सप्तदशे बुधः // 19 // बुधाद् द्वितीये शुक्र स्यात् शुक्रादष्टमके तमः। तस्मात् पृष्टे भवेद् भौमो, ग्रहाणामेवमादिशेत् // 20 // ज्ञेयो शनि-गुरौ स्पष्टौ, यथास्थानस्थितावुभौ / एवं कुण्डलिकायां तु, स्थापयित्वाऽवलोकयेत् // 21 // विलग्नराशिगो खेटः, तत्कालच्छायया हतः। सप्तहतोऽवशिष्टश्च, स्वगुणैर्गुणयेत् ततः // 22 // बाणे-प्रति-मन्वङ्क-द्विरदौनल-शूलिनः ! पुनः सप्तं हरेद् भागं, शेषं चोद्धरितं ग्रहम् // 23 // शुभमशुभं च / 35 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 301 नगैर्भागं प्रदातव्यं, कालं तत्र विनिर्दिशेत् / दिनान्यर्कारयोः पक्षा बुध-शुक्रे हिमत्रिषु // 24 // गुरौ मासाः शनौ वर्षे, ऋतवो राहुजन्मनि / पश्यति लग्नपो यत्र, तत्र सर्व निरन्तरम् // 25 // अस्तं गता ग्रहजिता रिपुकृष्णदेहाः, नीचस्थितादिरश्मयो रिपुगृहं प्रयाता / रूक्षाणवः किमपि फलन्ति लग्ने, दातं क्षमा न भवन्ति च खेचरेन्द्राः (1) // 26 // दीप्तः स्वस्थो मुदितः, शान्तः शुक्रः प्रपीडितो दिनः। विकलः खलश्च कथिता, नवप्रकारा ग्रहाः प्राज्ञैः // 27 // स्वोच्चे तु भवेद् दीप्तः स्वस्थः स्वगृहे सुहृद्गृहे मुदितः। सौम्यैदृष्टः शान्तः उदितस्त्वशक्तः किरणजाली // 28 // विकलो रविः लुप्तकरः प्रभाभिभूतः प्रपीडितोऽस्तः। स खलः खलसंयुक्तो नीचो दीनः समाख्यातः // 29 // पुरुषा रवि-गुरु-भौमा बुध-सौरी नपुंसको ज्ञेयौ / भृगु-चन्द्रमसौ ना? सहजा भावा ग्रहपतेः // 30 // भौमार्को व्योमदृष्टी च, तिर्यग दृग् भृगु-चन्द्रयोः। बुध-गुर्वोः समा दृष्टिः, शनि-राह्वोरधोमुखा // 31 // भौम-शुक्र-बुधेन्द्वर्कशुक्रारारामरार्चिताः। शनिः सौरिगुरुश्चेति, प्रदिष्टाः क्षेत्रनायकाः // 32 // मेष-घष-मिथन-कन्या-कर्क-झष-तुलेषञ्चकाः क्रमशः। रव्यादयस्तु नीचा उच्चस्थानाद्धि सप्तमगाः // 33 // भू-पञ्च-रस-समाऽष्ट-नवस्थानेषु शत्रवः। अन्येषु मित्रवः(काः) प्रोक्ता, उदासीनाश्च मित्रकाः // 34 // तत्कालपृच्छाकाले शत्रु-मित्र-उदासीनाः // तथा रूप-लक्षणवर्णानि, कलेशायुष्यं च दोषता। तापश्च वणजातीनां, तनुस्थाने निरीक्षयेत् // 1 // मणि-मौक्तिक-रत्नानि, सप्तधातूनि हेम च / ऋयाणकानि सर्वाणि, धनस्थाने निरीक्षयेत् // 2 // दासो दासी पुनभनी, भ्रातृ-भृत्यान् विवाहकान् / तथोपचयकर्माणि, तृतीये च निरीक्षयेत् // 3 // सुहृदं सुख-दुःखं च, वृद्धिं पोतं गमागमम् / मातृ-मेघ-क्रयाणानि, कुलस्य(लं) वीक्ष्यते तुर्यके // 4 // सुतं सुतां तथा गर्भ, मन्त्रसाधनमिष्टकान् / विद्यां बुद्धिं श्रोतृतां च, पञ्चमे च निरीक्षयेत् // 5 // चतुष्पदं च युद्धं च, चौरं व्याधिः रिपुभयम् / दीप्तानि सर्वकार्याणि, षष्ठे चैव निरीक्षयेत् // 6 // पति पत्नी तथा मार्ग, व्यवहार-क्रय-विक्रयम् / विविधानि च कार्याणि, सप्तमे च निरीक्षयेत् // 7 // Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 [प्राकृत नमस्कारव्याख्यानटीका। नद्युत्तारं च पन्थानं, सङ्ग्रामं शत्रुसङ्करम् / नष्टे दुर्ग ऋणं व्याधिछिद्रं छिद्रे निरीक्षयेत् // 8 // वापी-कूप-तडागानि, प्रपा मठं सुरालयम् / देवयात्रां च दीक्षां च, धर्मः धर्मिणि वीक्षयेत् // 9 // पिता मुद्रा-मनास्थानं, मार्गज्ञानं शुभाशुभम् / पुण्यस्थानं च राज्यं च, वृष्ट्यभिषेकमेषजान् // 10 // गजोष्ट्रांश्च कन्याश्च, बलीव दिवाहनान् / द्रव्यं पुष्पं तथा लाभ, लामे चैव निरीक्षयेत् // 11 // मृत्युर्मुक्ति तथा ज्ञानं, विषं संघोरकारकम् / बिलं पुनर्विषोत्पत्ति, व्ययस्थाने निरीक्षयेत् // 12 // राशि-लम इत्यादि। गता नाड्यो हता ऋक्षलब्धशेषं च षष्टिभिः / ऋक्षमंशुर्विजानीयाच्चन्द्रे सूर्ये च सर्वदा // 1 // मेषांशे अग्निसांनिध्ये, वृषे गोस्थानमाश्रितम् / मिथुने शय्यातले द्रव्यं, कर्के भाण्डगृहे पुनः // 2 // सिंहे च द्वारदेशे च, षष्ठे स्तम्भाग्नये तथा। तुले तौल्यप्रदेशे च, वृश्चिके इन्धनालये // 3 // धने देवालये द्रव्यं, मकरादौ जलाश्रये / अंशके च वदेत् तत्र, स्थानं द्रव्यस्य निश्चितम् // 4 // अश्विन्यादित्रिऋक्षेषु, आादिपञ्चके तथा / पूर्वाषाढाचतुष्के तु, तथा भद्रा च रेवती // 5 // शशिऋक्षाणि प्रोक्तानि, शेषाः सूर्ये चतुर्दश / अष्टाविंशतिखण्डेषु, कृद्वारे नागचक्रजे // 6 // स्वयं चन्द्रः स्वयं सूर्यः, स्वऋक्षेण यदा तदा / न द्रव्यं नैव शल्यं च, शून्य क्षेत्रं विनिर्दिशेत् // 7 // युग्मेन चन्द्र-सूर्यस्य, द्रव्यं शल्यं च कथ्यते / वक्तव्यं द्रव्यमानं तु, चन्द्र-सूर्यस्य योगतः॥८॥ अंशकमोहे भावाद्, भावनिमोहे लग्नतश्चिन्त्यम् / . लग्नांशभावमोहे, चन्द्राद् वा चिन्तनीयं स्यात् // 1 // जातकोतं फलं यस्माजन्तूनां जन्मकालजम् / सर्वभावाश्रयं तस्माद, वक्ष्ये भावविनिर्णयम् // 2 // ऋक्षसन्धिगताः खेटाः, राशिसन्धिगतास्तथा। एष राशेः फलं दद्युश्चक्रे च विपरीतकम् // 3 // सर्वे विकृतजं दधुः, स्वांशे यद् दृष्टकं फलम् / अतिचारे च चक्रे च, दद्यात् पूर्वफलं गुरुः // 4 // भावा नवांशकाः [ग्राह्याः?], ग्रहास्त्रिंशां श]क(काः) द्वयोः। भाव-ग्रहयोर्योगः, पाद अंशोऽत्र कला 30 भोगयति (2) // 5 // भावयोगदलं सन्धिः, तत्रस्थो निष्फलो ग्रहः। हीनसन्धेः फलं भुक्तं, भोग्यं च संधिके ग्रहे // 6 // Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। 303 ___ अंशगता द्वादशराशयो भावाः / राशिद्वयं सम्मील्य अर्कीकृते सन्धिः / सर्वग्रहाणामुत्तम-मध्यमाऽधमफलानि, यथा-आदित्यादि / उपचयतोऽपि त्रि-षडेकादशमा उपचयभुवनानि आत्माऽऽत्मीय उत्तरोत्तरवृद्ध्या फलानि / यथायुक्त्यादेशः, नृपतित्वं प्रधानत्वं, तेजोगजाश्वमण्डलं, पूर्णबलं, व्यापारं, पुरं, ग्रामं, द्रव्यं, मानं सुखानि च / मध्यमफलं तेजोभ्रंशस्तथा तापो नैश्वर्य बन्धुविग्रहम् / . अधमफलं विश्लेषो बन्धनघातो रोगं शोकं भयं मृतिं विनष्टफलम् // रविफलं राजकुलात्मद्रव्यं स्थान-मानसुखं श्रियः। उत्तमं निजगोत्रप्रधानत्वं वाणिज्यात् स्वसुखं ग्रहात् // मध्यमफलम् // मित्र-स्वजनयोर्डिंपो रमाद्रोगं धनक्षयः // अधमफलम् // क्लेशो भिक्षाटनं मोहो, धर्मभ्रंशः कुशीलता // विनष्टफलम् // चन्द्रफलम् लग्नाधिपाजगञ्चन्द्रो, निन्द्यो युद्धे शुभे मतः / बली स्वस्थानगो वाऽपि, क्षीणो दुष्टफलः शशी // दुष्टोऽपि शुभतां याति, चन्द्रः पूर्णकलावृतः॥ शुभवत्वं दण्डनाथत्वं, संग्रामाद् विजयश्रियः / पूर्णबलः // तन्त्रपलपदं राक्षस्तेजोवृद्धिश्च विग्रहात् // मध्यमबलः // . विवादं विग्रहं युद्धं, झगटकाद् महद्भयम् / निन्द्यबलः // रक्तस्रावो विघातश्च, भङ्गो मृत्युर्महाहवे / नष्टबलः // लग्नत्रि-षष्ठलाभस्थो निन्द्योऽस्य(प्य)र्द्धकुजः शुभः // कुजः // बुद्धिविज्ञानतो राज्य, सेवायास्तु सुगन्धनम् / पूर्णबलः // ___ खिलनं (लिखनं) पठनं द्रव्य, धर्म-कर्मसमुन्नतिः / मध्यमः॥ द्रव्यनाशो ऋणं लोकमध्येप्वपमानता। निन्द्यबलः // षष्ठान्त्यगतो वर्षों लग्नादन्यत्रगो गुरुः // गुरुः // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 304 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत राज्य लक्ष्मीः कलत्रं च, पुत्रो मित्रं सुभोगताम् / पूर्णबलः // दण्डीशः सर्ववाहत्वं, स्त्रीपक्षाद् धनं सुखम् / मध्यमः // ___भ्रमणं निष्फला सेवा, स्त्रीपक्षात् सुखमव्ययम् / निन्द्यः॥ पुत्रशोको गृहभ्रंशः, पतिमृत्युर्धनक्षयः / नष्टबलः // कर्माष्टान्त्यारिजो वर्यो, लग्नादन्यत्र मासितः / शुक्रः // अटव्य(वी)देशे भूपथं, मिल्ल-गोपालनाद् यताः। पूर्णबलः // गुदाकोशखरोष्ट्राणां, दुर्गसीमादिवारुणम् / मध्यमः॥ नीचसेवा गृहोद्वेगः, शत्रुचौर-धनक्षयः / निन्द्यबलः // ___ वियोगो विग्रहो व्याधिः, विकारान्मरणाद् भयम् / " नष्टबलः // ____ लग्नात् त्रिषष्ठलाभस्थो निन्द्योऽर्द्धशनिः शुभः। 20 शनिः // जन्मलमं तथा वर्ण प्रतिक्रमेण द्वादशलमानि वर्षाणि यथास्थाने भवन्ति, तथाऽधिपतिः फलम् , अथवा प्रश्नलममादौ मुधाक्रमो हि स्तोकभुक्तिप्रमाणेन अव्यत् (?) / द्वौ ग्रहौ समौ तदा बलहीनोऽपि प्रथमबलसमो यदा तदा मन्दगतिः / प्रथमं चन्द्र-ज्ञ-भार्गव-दिनेश-कुजार्यसौरिः // इति स्थानबलम् // ग्रहाः दिनाच्यां जीव-बुधौ, दक्षिण[स्यां] रवि-भोमौ, पश्चिमायां शनि-राहू, उत्तरायां 25 चन्द्र-सितौ // दिग्बलम् // चेष्टा उदितप्रचलवक्रसमागमः मेषादिराशैः( शिभिः) // बलिष्ठः / रात्रौ बलिष्ठाः चन्द्र-भौमशनयः, बुधः सर्वदा, अन्ये दिवाचेष्टाबलम् / मन्दारसौम्यवाक्पति-सितचन्द्रार्का यथोत्तरं बलिनः // नैसर्गिकबलस्थानं, दिए दिक् चेतश्चिन्तयेत् / देह-मातृ-कलत्राणां, पितुः केन्द्रचतुष्टयैः। फलं भव्यमभव्यं वा, ज्ञेयं बालस्य यत्नतः // 1 // केन्द्र-पणफरापोक्लिमाद् वयसि फलं क्रमात् / प्रथमे मध्यमे वृद्धे, चेजानीहि शुभाशुभम् // 2 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 305 नमस्कार स्वाध्याय। लग्नं चन्द्रं बुधं शुक्र, सूर्य भौमं गुरुं शनिम् / एतत्क्रमेण संवीक्ष्य, रेखा-बिन्दुगतं फलम् // 3 // चन्द्रायाष्ट-द्वि-नवेऽप्यर्कस्वादर्किभौमयोश्च शुभः। षट्-सप्तान्त्येषु सितात् षडायधी धर्मगोजीवान् // 4 // अष्टकवर्गमाह 1, 4, 7, 10, 11, 8, 2 विलग्नादित्यादादित्यः शुभः / शनि-भौमाभ्यां रविरेतैः स्थानैः। शुक्रस्थानाद् रविः 6, 7, 12 शुभः / तथा स आदित्यः जीवात् 6, 11, 5, 9 शेषष्वशुभः / ... उपचयगोऽर्क-चन्द्रादुपचयनवमान्त्यधीयुतः सौम्यात् / लग्नादुपचयबन्धुं व्यये स्थिते शोभनः सूर्यः॥ चन्द्रात् सूर्यः 3, 6, 10, 11 / बुधात् सूर्यः 3, 6, 10, 11, 9, 12, 5 / 10 लमाद् रविः 3, 6, 10, 11, 4, 12 / शेषमनिष्टम् // रवि अष्टकवर्गः // शश्युपचयेषु लग्नात् स्वाद्यमुनिः स्वात् कुजात् स नवधीस्थः। सूर्यात् स्वाष्टस्मरगः त्रिषडाय सुतेषु सूर्यसुतात् // तात्कालिकचन्द्राच्चन्द्रः 3, 6, 10, 11, 1, 7 / कुजात् 3, 6, 11, 10, 5 / सूर्यात् 3, 6, 10, 11, 8, 5 / शनिश्चरात् 3, 6, 11, 5 / 15 शाकेन्द्रनृसुतायाष्टमो गुरोर्व्ययान्मृत्युकेन्द्रेषु / नृचतुःसुतनवदशसप्तमायगश्चन्द्रमाः शुक्रात् // बुधाच्चन्द्रः 1, 4, 7, 10, 3, 5, 11, 8 / गुरोः 2, 11, 8, 4, 1, 7, 10 / शुक्रस्थानात् 3, 4, 5, 9, 10, 7, 11 // चन्द्राष्टवर्गः // भौमः स्वादायाष्टद्विकेन्द्रगख्याय षट् सुतेषु वुधात् / जीवाद् दशमायशत्रुव्ययेष्विनादुपचयसुतेषु // भौमाद् भौमः 11, 8, 2, 1, 4, 7, 10 / बुधाद् भौमः 3, 11, 6, 5 / जीवात् 10, 11, 6, 12 / रवेः 3, 6, 11, 10, 5 / उदयादुपचयतनुषु त्रिषडा ये बिन्दुतः समो दशमः / भृगुतोऽन्त्यषडाष्टायेष्वसितात् केन्द्राय नववसुषु॥ - लमात् 3, 6, 11, 10, 1 / चन्द्रात् 3, 6, 11, 10 / शुक्रात् 12, 6, 8, 11 / शनेः 1, 4, 10, 9, 8 // भौमाष्टकवर्गः // सौम्योऽनन्त्यषट्नवायात्मनेष्विनात् स्वात् त्रितनुदशयुतेषु / चन्द्राद् द्विरिपुदशायाष्टसुखगतः सादिषु विलग्नात् // ___इनाद् बुधः 12, 6, 9, 11, 5 / बुधाद् बुधः 12, 6, 9, 11, 5, 3, 1, 10 / 30 चन्द्रात् 2, 6, 10, 11, 8 / लग्नात् 2, 10, 11, 8, 4, 1 / प्रथममुखायद्विनिधनधर्मेषु सितात् त्रिधा युतेषु / आशा-स्मरेषु सौरारयोर्व्ययाऽरिवसुषु गुरोः // 20 25 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 306 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत शुक्रात् 1, 4, 11, 2, 8, 9, 2, 5 / शनेः 1, 4, 11, 2, 8, 9, 10, 7 / भौमात् 1, 4, 11, 2, 8, 9, 10, 7 / त्रिधा युतेषु आशी-स्मरयोः सह शनि-सोमाभ्याम् , गुरोः 12, 11, 6, 8 // बुधाष्टकवर्गः // ___जीवो भौमाद् द्वयाष्टकेन्द्रगोऽर्कात् सधर्मसहजेषु / स्वात् सत्रिकेषु शुक्रान्नव-दश-द्वि-धी-रिपुषु // ___भौमाद् गुरुः 2, 11, 8, 1, 4, 7, 10 / अर्कात् 2, 11, 8, 1, 4, 7, 10, 9, 3 / गुरोः 2, 11, 8, 1, 4, 7, 10, 11, 2, 5, 6 / शशिनः स्मरत्रिकोणार्थलाभस्त्रिरिपुधीध्ययेषु यमात् / नवदिसुखायधीस्वायशत्रुषु शात् सकामगो लग्नात् // 10 चन्द्रात् 7, 5, 9, 2, 11 / शनेः 3, 6, 5, 12 / बुधात् 9, 10, 4, 11, 5, 2, 1, 6 / लमात् 9, 10, 4, 11, 5, 1, 6, 7 // बृहस्पतेरष्टकवर्गः // . . शुक्रो लग्नादासुतनवाष्टलामेषु सव्ययश्चन्द्रात्। स्थात् सदिगसितात् त्रिसुखात्मजाष्टदिग्धर्मलामेषु // शुक्रो लमात् 2, 3, 4, 5, 9, 8, 11 / चन्द्रात् 1, 2, 3, 4, 5, 8, 9, 11, 12 / 15 शुक्रात् शुक्रः 1, 2, 3, 4, 5, 8, 9, 10, 11 / शनेः 3, 4, 5, 8, 10, 9, 11 / वस्वन्त्यायेष्वर्कानवदिग्लाभाष्टधीस्थितो जीवात् / शात् त्रिसुतनवायारिष्वायसुतापोक्लिमेषु कुजात् // अर्कात् 8, 12, 11 / जीवात् 9, 10, 11, 8, 5 / बुधात् 3, 5, 9, 11, 1 / कुजात् 3, 5, 6, 9, 12 // शुक्रस्याष्टकवर्गः॥ 20 स्वात् सौरिस्त्रिसुतायारिगः कुजादन्त्यकर्मसहितेषु / द्वयायाष्टकेन्द्रगोऽर्कात् शुक्रात् षष्ठान्त्यलामेषु // शनिः शनेः 3, 5, 11, 6 / कुजात् 3, 5, 11, 12, 10 / रखेः 2, 11, 8, 1, 4, 7, 10 / शुक्रात् 6, 12, 11 / विषडायगः शशाङ्कादुदयात् ससुखाधकर्मगोऽथ गुरोः / सुते षट्व्ययायगोशाद् व्ययरिपुदिगनवाष्टस्थः॥ चन्द्रात् 3, 6, 11 / लमात् 3, 6, 4, 1, 10 / गुरोः 6, 12, 5, 11 / बुधात् 12, 11, 6, 10, 9, 8 // शनेरष्टकवर्गः // स्थानेष्वेतेषु हिताः शेषेष्वहिताः भवन्ति नेष्टानाम् / अशुभ-शुभफलं ग्रहाः प्रयच्छन्ति चारगताः॥ चतू रेखे मध्यफलं हीने हीनं ततोऽधिके श्रेष्ठम् / विफलं गोचरगणितं त्वष्टकवर्गे विनिर्दिष्टम् // शर-द्विनेत्री सबाणबाहेः शराभ्र-रामाः कुकृताग्नयस्तैतः / द्वि-वेद-लोकीः शशि-राम-पापको क्रमोत्क्रमस्थाश्चपलोदयाः स्मृताः॥ 25 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 307 गूर्जरात्रायाम् यल्लग्नं शुद्धयते यस्मात् , तच्छोध्यमुदयास्तयोः / शेषं त्रिंशद् धृतं लब्धं, धनं ऋण दिने दिने // उदयास्तशुद्धिः अयनादिगता दिवसाः सार्द्धद्विगुणिता द्वयक्षरकसहिताः। द्वि-मुनीन्द्रिय-रूपयुतो षष्टिहता दिन-निशामानम् // गूर्जरात्रायां च षड्गुणं, कर्कादेकमेकनृपं धनम् / छायापादैश्च मध्याह्नः, षड्युतैर्द्विगुणैर्हतम् // 1 // कर्क मृगाद्या भागा ये भुक्ता भास्करेण त्रिगुणाः / खानिलपञ्चकैर्युताः षष्टिहते रजनीदिनमानम् // 2 // सपादलक्षे यूने द्विशतं हीनं मध्यपादैश्च षड्गुणम् / छायापादैश्च मध्याह्नः षड्युतैर्द्विगुणैर्हरेत् // 3 // नवसारिकायां कोङ्कणे वा दिनषड्गुणे भागम् / मध्याह्ने शङछायया पौषे रव्यङ्गुलं मध्यम् // 4 // ततो द्रव्यं ऋणं धनम् // अवन्तिदेशश्रुतयोजनानि, संगुण्य वाणै रसभाजितानि / षडुत्तरे द्वे तु शता नियोज्याः // अग्नि-वेदभक्ते विषुवद् व्यङ्गुलानि 1, नव 9, तिथयो 15, अष्टादश 18 विभक्ताः / पञ्चरसाः 65, वसु 8, हृता दशः 10 विहता विषुवच्छायागुणिता स्वदेशज्ञा वरदलविनड्याः // लकोदयाद् द्विनाड्येव शुभानि छिद्रनवयामाः त्रिरदाः। 20 व्यस्ताव्यस्तयुता ते कार्याश्च स्वोदयविनाड्य आवन्त्याम् // आं. 5, व्यं. 20 पत्तने / आं. 4, व्यं. 48 भृगुकच्छे / आं. 4, व्यं. 54 कावी-जम्बूसरे। त्रि-पञ्च-राम-वेदाश्च, धृतिसंख्या तथैव च।। चरखण्डानि चैतानि, क्रमेण पत्तने बुधैः॥१॥ मूले बङ्गुलविपुलः, सूच्यग्रो द्वादशाङ्गुलोच्छ्रायः / शङ्कुस्तलाग्रविद्धोऽप्रवेधलम्बादरियुद्धार्यः // 2 // स्वक्षेत्रोपगतः स्थायी, परक्षेत्रे च यायिनः। नीचस्था हायनाः प्रोक्ताः, त्रिविधा ग्रहपद्धतिः॥ 3 // तथा चतुर्विंशतयः पूर्वकेतवः उदयन्ति हि / शरद्यशुभदुर्भिक्षरोगान् द्वि-षट् निर्यगोः // 1 // चतुर्विंशतयोऽग्नौ तु, हेमन्ते चाग्निरोगदाः। नवकाशसिरे याम्यां, दुर्भिक्ष-व्याधि-मृत्युदाः // 2 // अष्टादश वसन्ते च, मध्यमफलदायकाः / ग्रीष्मे वसन्ते यो वायुः, प्रचण्डवातविग्रहाः // 3 // वर्षायां दशवारुण्यां, महावृष्टिकरास्तथा / संक्षेपेण च केतूनामेवं पश्चोत्तरं स्मृतम् // 4 // Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 . नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत प्राकृत तथा रोमकं दरं दृष्ट्वा, श्वेतपक्षं च वायसम् / .. रात्रौ चेन्द्रधनुषं [वा ? ], देशभङ्गं विनिर्दिशेत् // 5 // तथा वराह वारिनिविट्ठा पायारे संठिया अट्ट / तह मज्झेव य अट्टा पुर नाम णक्खत्तयं आइ // 1 // जइ बाहिरम्मि सूरो अह सूरसुओ बीयओ होइ / होहुंति अरिमज्झा बाहिरा णीएसु हता // 2 // कूरे मज्झि पइट्टे सणि-राहू-सूर-भूम आकंते। को तं रक्खइ नयरं तियसनाहो वि भजंतं // 3 // अश्विन्यादितृतीयं तु, वारौ शनि-गुरू तथा / जया-रिक्तातिथौ घातः, क्रियते स्वचिरे गणे // 4 // मेघस्य वृष्ट्यवृष्टिलक्षणम् मूलादिरविपक्क्या तथाऽऽ दिनवकैर्भवेत् / वर्षा च शीत-उष्णं तु परं गर्भे विपर्यये // 1 // संक्रान्तिदिनगनक्षत्रानादौ कृत्वा च चन्द्रजान् / स्वकीयचेष्टया गर्भः पाश्चात्यया वसन्तः // 2 // जलं घर्षति वाऽऽदित्यो, हिमं वर्षति चन्द्रमाः। चन्द्रादित्यौ बुधैझैयौ, शास्त्रदृष्टेन कर्मणा // 3 // 20 ये 26, जे 10, खे 2, टे 11, जे 8, गे 3, ता 16' ऽमिः / के 1, छे 7 ढे 14, दु 5, णे 15, ड 13, वामे 25, झे 9, ने 20, ले 28, ध 19, चे 6, रे 27, वा थे 17, मे 24, पे 21, वे 23, घ 4, वा 18, मा // 4 // अमि-वायव्य-वारुण-माहेन्द्रमण्डलानि, एषु भूकम्पो रजोवृष्टिः, दिग्दाहोऽकालवर्षणम् / इति चाकस्मिकं सर्वमुत्पातान् परिकीर्तयेत् // 5 // उत्पातोऽपि माहेन्द्र-चारुणे मण्डले च यः। वायव्येऽग्नौ च भङ्गः स्याद् , गर्भस्य कालचिन्तकैः // 6 // चैत्रस्यादौ दिवसदशकं कल्पयित्वा क्रमेण, __ स्वात्यन्यााप्रभृतिदशकं वृष्टिहेतोर्विलोक्यम् / यावत्संख्यं भवति नियतं दुर्दिनं वातवृष्टि स्तावत्संख्यं विबुधगणितं वार्षिकं दग्धऋक्षम् // 7 // मालमादौ मस्यान्ते, चैत्रे कृष्णे निरीक्षयेत् / आर्द्रादीनि ऋक्षाणि, विशिखान्तानि कल्पयेत् // 8 // आर्द्रादिवृष्टिदिनम् अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः। स्वचक्र परचक्रं च, सप्तैता इतयः स्मृताः // 9 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। ज्येष्ठे मूलमतिक्रम्य, पूर्वाषाढादिभिः शृणु / सप्ताविंशति ऋक्षाणि, प्रथम वर्षणं बहु // 10 // तेनाढते गाढमता दढाणो 15, द 18, ढ 14, मा 25, म 25, ते 16, ता 16, घ 4, ता 20, ढ 4, गा 3, ढे 4, त 16, क 1, का 2, र 27, का 1 द्या द्रोणप्रमाणैः कथिता नृकवीन्द्रैः // 11 // लब्धा द्रोणाश्चतुर्गुण्याः, प्रकृत्यां स्थापयेद् बुधः। पञ्चभिस्तु हरेद् भागं, तस्मिन् शाब्दा विशोपकाः॥ 12 // गर्भकाले यदा विद्युद् , दृश्यते न च घोषते / द्रोणसंख्या तदा वृष्टिमध्योभयैस्तथा पुनः // 13 // साभ्रं मार्ग हिमं पौषे, माघे इमा समारुतौ। निर्वातः फाल्गुनो ज्ञेयश्चैत्रो(त्रश्च) बहुरूपकः // 14 // सुभिक्षो दिशि दुर्भिक्षो, मध्यमः शोभनः क्रमात् / निःकषस्तथेति कः सौम्यः, आषाढपूर्णिमानिलः // 15 // तथाऽऽषाढे च रोहिण्यां, न सव्यभ्रं सुदृष्टिदम् / सुभिक्षं जलपातेन, परमीतिभयं भवेत् // 16 // पञ्चमी सह रोहिण्या, सप्तमी आर्द्रसंयुता। ............."पुष्येण नवमी समा // 17 // उल्कापातं दिशां दाहं, निर्घातं पांशुवृष्टयः / इन्द्रायुधं ग्रहयुद्धं षडेते गर्भपातकाः // 18 // अतिवातमवातं वा, वातिभं तु निरभ्रता। अत्युष्णं च निरुष्णं च, षड्विधं वृष्टिलक्षणम् // 19 // शुक्त कृष्णं दिवाराांत्र, दिशि तथा च सम्मुखम्। माघे स्वातौ चतुर्मासं, चतुर्यामैर्यथाक्रमम् // 20 // नारीणां च तथा गर्भप्रमाणं दशमासिकम् / पञ्चोनशितैर्घौस्तैर्षते नात्र संशयम् // 21 // जानीते न यदा गर्भ, दृष्ट्या चेष्टां तथा तदा। कृत्तिकादीनि धिष्ण्यानि, सप्तसप्तक्रमेण तु // 22 // अमृतजलनीरसौम्यदहनपवनचन्द्रजास्तथा नाड्यः / इन्दुबुधाः शुक्रजीवाः कुजरविमन्दाधिपाः क्रमशः // 23 // रवि गुरु-भौमाः पुरुषाश्चन्द्रभृगुबुधाः स्त्रियो ज्ञेयाः / शनि-राहुनपुंसको वर्षाकाले निरीक्षणम् // 24 // स्त्री-पुंसां संगमे वृष्टि स्त्रियौ द्वौ नरौ नहि। न नपुंसकसंयोगः कुज-गुन्दुभिर्जलम् // 25 // जिट्ठस्स किण्हपक्खे, सवण-धनिट्ठाइ दोहि नक्खत्ते / जइ होइ तासु विट्ठी, ता सुभिक्खं वियाणाहि // 26 // अह मेहच्छिन्नगयणे, ता होई य मज्झिमं कालं / जइ हुंति निम्मलदिसा, ता जाणह रवरवं कालं // 27 // Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत चित्रा-स्वाति-विशाखानां, यस्मिन् मासे न वर्षति / तं मासं निर्जला मेघाः, यदि वर्षति वर्षति // 28 // श्रावणस्य चतुझं तु, ऋक्षे उत्तरफाल्गुने / यदि वर्षत्यहोरात्रमागतं काल उत्तमः // 29 // - अथार्घकाण्डम् // विश्वसंभाव्यसत्त्वानां, मुक्तिमार्गोपदेशकम् / प्रणम्य शिरसा देवं, वक्ष्याम्य|पकाण्डकम् // 1 // सौम्यं शतभिषा चित्रा, कृत्तिका विश्वदेवता / ज्येष्ठा च धनिष्ठा तु, पञ्चत्रिंशाधिकं शतम् // 2 // अश्विनी-भरणी-स्वाति-श्रवणैनवतिस्तथा। विशाखा-रेवती-पोष्णं, पञ्चपञ्चाशदुत्तरम् // 3 // अनुराधा तथाऽऽर्द्रा च, शतं विंशोत्तरं भवेत्। पुष्य-हस्ते च नक्षत्रे, पञ्चसप्ततिरीष्यते // 4 // आश्लेषा तु शतैकनवतिः पश्चोत्तरा मता। उभयोरपि फाल्गुन्योस्तथा भाद्रपदद्वये // 5 // सप्तम्यां द्विशते स्यातां, मूले षष्टिरुदाहृता। द्विशतं पञ्चपञ्चाशदुत्तराषाढ ईष्यते // 6 // पूर्वाषाढा च विज्ञेया, पञ्चाशविंशतोत्तरा। एवं नक्षत्रसन्ध्रोङ्का, ज्ञातव्या अर्थचिन्तकैः // 7 // सिंहे कुम्मे धने खाङ्काः, कर्कटे शशिभास्करीः। . शेषा अष्टौ शरबिन्दुराशिसंख्यार्थहेतवे // 8 // पञ्चविंशच्छतं भानोः, षष्टिः कुज-बुधेन्दुभिः। जीवस्य पञ्चपञ्चाशद्, भृगोः स्यात् पञ्चसप्ततिः॥९॥ ' पञ्चषष्टिस्तथा मन्दे, नवतिः सिंहिकासुते। . एवं ध्रोऽङ्का ग्रहाणां च, विज्ञेया अर्थार्थिभिः सदा // 10 // ग्रहणदिने दिन-वाररिक्तं एकत्र निक्षिप्य राहूनवत्या मिश्रणीयम् , एवं संक्रान्त्यादिषु // उदयास्तमने वक्रे, ग्रहणे चैव समागमे / / राशिसंक्रमणे युद्धे, जातेश्च कालवर्षणे // 11 // भूमिकम्पोल्कादिग्दाहस्तथा चन्द्रार्कसंभवौ। . स्वपुरे च तथा केतोष्टेऽर्थश्च विचिन्तयेत् // 12 // तस्मिन् दिने ग्रहणं राशि रिक्तं चैकत्र कारयेत् / ग्रहणे तेन गुण्यं तु, दिनवारेण वा तथा // 13 // द्विधा कृत्वा ततो राशि, चित्राद्यर्थैश्च राश्यधः। भेजतुर्ग्रहयुतं लब्धमूर्ध्वराशिं भजेत् ततः // 14 // वक्रेऽथोपगते खेटे, लब्धं [च] त्रिगुणं भवेत् / स्वराशौ स्वक्षेत्रे यच्च, मित्रमे द्विगुणं कुरु // 15 // शत्रौ च नीचे पापाख्ये, त्याज्यमर्द्ध सदा बुधैः / समग्रहे समं कार्यमर्घकाण्डस्य कोविदैः // 16 // रवि-कुज-शनिश्चराः पापा एतैर्युतो बुधोऽपि च / शेषाः सौम्यास्तु विज्ञेया ग्रहाः दैवज्ञभाषिताः॥१७॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 311 नमस्कार स्वाध्याय। आदित्येन युतश्चार्थः, आत्मस्थाने भविष्यति / चन्द्रेण तु परस्थाने, शुक्रयुक्तः स्वके पुनः // 18 // शेषैस्तु यो युतश्चैव, म स्वकस्थानसंज्ञकः / ततोऽधश्च स्फुटो वाच्यो, यावदन्यो भवेत् तदा // 19 // 20 नताशके यत्र भवेच्छशाङ्कः, सङ्क्रान्तिरन्या त्रिमुहूर्तमध्ये / धृत्वा द्वयं तद् दिनवारगुण्यं, विशुद्धवुझ्या प्रवदन्ति तज्ज्ञाः // 1 // संयोज्य द्रव्याक्षरराशिमत्र, भागं विसंहृत्य यथोक्तराशेः। एकेन वृद्धिर्युगलेन तुल्यः, शून्येन हानिः प्रवदन्ति चार्धे // 2 // स्यादत्तमे उत्तमवद्धिहानिः, स्मान्मध्यमे मध्यमवृद्धिहानिः। स्याद्वाधमे वाऽधमहानिरेतत् , फलं च तत् विष्वपि दिष्टमत्र // 3 // सँप्तैकविंश-दर्श नवे-शर-षोडशै-युगा सुमास्तथाऽङ्काः। रव्यादीनां क्रमशस्तु, भवन्त्यत्र गुणकराः॥४॥ हस्ते चित्रा तथा स्वातौ, ज्येष्ठायां यमवारणे। चत्वारिंशन्मुहूर्ता सपञ्चयुक्ताः प्रकीर्तिताः // 5 // त्रीण्युत्तरेऽपि रोहिण्यां, विशाखायां पुनर्वसौ / पञ्चदशमुहूर्ताः स्युः, शेषैस्त्रिंशत् प्रकीर्तिताः // 6 // तेरह इक्कवीसा बारह अट्ठारसा य पन्नरसा / तेवीसइ गुणवीसा पणवीसाटारसा य तेत्तीसा // 1 // दस चउदसा य कमसो सराण संखा मुणेयव्वा / पणवीसतीसनवयं अट्ठारस एगवीस य कवग्गे // 2 // सत्तावीसा सोलस चउतीसा पनरसा य चउदसया। एसा कमेण संखा चवग्गसंखा मुणेयव्वा // 3 // अट्ठारह पणतीसा तेरह बारसा य सत्तरसा। एसा अणुकमेणं संखा टवग्गम्मि णायव्वा // 4 // सत्तावीसा तेरस पणतीसा अट्ठवीस अट्ठारा। कमसो संखा भणिया तवग्गम्मि विवुहेहिं // 5 // छब्बीस सत्तावीसा अट्ठावीसं चउदह य सत्तरस / कहिया पवग्गसंखा एसा कमसो छइल्लेहिं // 6 // सत्तावीसेगारह नवगं तीसा ययारवग्गम्मि / पणवीसा दहतीसा बारह संखा सयारम्मि // 7 // - यव 57, गोधूम 64, चिणा 65, तिउड 72, तुवरि 74, मुंग 51, धूसर 92, वाल 67, चउला 82, उडिद 80, मउठ 67, जूनला 110, सालि 77, कोद्रवा 108, कांगु 80, तिल 53, सरसव 100, तेल 70, घृत 50, खांडु 89, गुल 48, कपास 127, सण 62, धाई 66, हिंगु 63, जीरं 78, बेसण 103, राई 51, सोनउ 91, रूपउ 95, त्रांबउ 101, कथीर 282, 35 पीतल 105, लोढु 54, कांसु 88, षडु 61 // मासकयस्स अक्खर इक्के काऊण सरा य एगट्ठा। पण्हस्सा वि य एवं भायं पण्हरस य सरेण // 1 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 [प्राकृत नमस्कारव्याख्यानटीका। सम अंके होइ समं मत्ता हीणे महग्घयं सुण्णे। अक्खरहीणे उ भवे सुभिक्खं कित्तियं इत्थ // 2 // रोहिणी अद्दा हत्थो पुणव्वसु सिलेसफग्गुणी जुगलं। मूलं अणुराहा वि य अहोमुहा नव य नक्खत्ता // 3 // निहियं न जाइ नासं तह किमि नासो थिराइ कथोइ।. . होइ विसेसेण फुडं भरियं एयम्मि कुट्ठारं // 4 // तथा संक्रमणदिने चन्द्र-रविना(रा)शेः सप्तमं भवेत् / यावन्मासे फलं दधुर्यत् क्रयाणानि बोधनात् // 1 // युगं त्रय-मुनि-त्रिषु त्रिचर्मु-पडष्टपञ्चसु / त्रिषु लाभं चैत्रादिषु क्रमात् // 2 // फलानि धान्यानि च 1, स्नेहौषधधान्यानि 2, हिगुगुडसैन्धवहरीतकी-गन्ध-यव-गोधूमानि 3, कुडम-कुसुम पूग-चन्दन-कुष्टबचा-हरिद्रा-पीतद्रव्यकर्पासधान्यानि 4, मौक्तिक-सुवर्ण रजतसूत्रादितिल तैलानि 5, अश्व-खरौष्ट्र-वेसरि-गुड-यव-गोधूमधान्यानि 6, कम्बल-वेसण-रु-धान्यानि राग-कङ्गुतिल 7, 15तैल-लवण-तुवरी-वल्ल-कर्पासानि 8, सालिमुंगमकुष्टानि 9, कोद्रव-पूग-तिल-जूनला मसूरिणा 10, कर्पासस्नेह-गुड-खांड-स(शर्कराणि 11, माष-तुवरी-कुलत्थ गोधूम-राजिका बेसणाऽजमोद-सुंचलानि 12 / अमावास्याधिकं चन्द्रमर्घवृद्धिकरं भवेत् / हीने चन्द्रे समर्थ तु समे समं समादिशेत् // पञ्चताराग्रहा यत्र, वामता कुरुते शशी / गुरुः शस्यविनाशाय, चार्घहानिः शनिश्चरः // 1 // , भौमो राजा वधार्थाय, जनमारी च भार्गवे। बुधो रसविनाशाय, गर्भाश्च परपीडितः॥२॥ बृहस्पतिस्तथा शुक्रो, निहिताङ्गः शनिश्चरः।। सोमस्य कुरुते सङ्गं, विन्द्यात् तत्र महाभयम् // 3 // लेखने मन्त्रिणः पीडा, संग्रामो रश्मिमे दिने।। अपसव्ये विरोधः स्यात्, स्वेदने भिद्यते प्रजाः॥४॥ येनाभ्येषु देशेषु, यो यदा पीड्यते ग्रहः। तान् देशान् दुःस्थितान् विन्द्याद्, दुर्भिक्षेण भयेन वा // 5 // सूरः कलिङ्गमाषश्च, जवने च शशी तथा। भौमे त्ववन्त्यां बुधो जातो मगधायां गुरुः पुनः॥ 6 // सिन्धुतटे महाराष्ट्र, शुक्रः सौराष्ट्रमण्डले। शनिश्च बर्बरे राहुः, तथा केतुः पुलिन्दके // 7 // ये जल्पन्ति नरा नित्यं, ग्रहचारेण सुस्फुटम् / तेषां तद्वचनं कीर्तिर्न जायते महीतले // 8 // गुरु-शुक्र-बुधा भव्याश्चन्द्रराशिग्रहेण तु / तथैकत्र दुन्दुभिस्तत्र मण्डले देशे // 9 // शुक्रारगुरुमन्दास्तु, सर्वधान्यप्रपीडजाः। अनावृष्टिभयं तत्र, चातुर्वर्णः क्षयः समाः॥१०॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। फलवह्नौ स्यादष्टभिर्मासैाभ्यां वायव्यके पुनः / मासेन वारुणे सप्तरात्रान् माहेन्द्रके पुनः॥११॥ मन्दा मन्दाकिनी ध्वाक्षी, घोरा तथा महोदरी / राक्षसी मिश्रिका चैव, संक्रान्तिः सप्तधा स्मृता // 12 // गुरु-बुध-रवि-कुज-शशि-शनि-शुक्रेषु राशयः शस्ताः / वर्णाः क्रमेण सोडिक-तस्करा कारु चतुष्पदकाः // 13 // ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः, शूद्राः पिशाच नर्तकाः। गोनाथाश्वधियामादौ, पीड्यन्ते क्रमशो जनाः // 14 // सपादद्वयनक्षत्रान् , सार्द्धवर्षेण भुञ्जति / यहक्षं च परे राहुर्द्विजिह्वा सा प्रकीर्तिता // 1 // पूर्व पञ्चदर्श ज्ञेयं, मध्ये ज्ञेयं त्रयोदश / एवं भ्रमति खेचरे, ऋक्षचारैश्च संस्थिताः॥२॥ प्रयोदशानि ऋक्षाणि, तस्योदरं तु जायते / एकैकं गुद-जिह्वायां, सप्ताभिमुखसंस्थितः // 3 // षभिः पुच्छं विजानीयाद्, राहुचक्रं समालिखेत् / यद् यस्य लभते देहे, ग्रहाः सर्वत्र दापयेत् // 4 // जिला-गुह्ये स्थितो भानुर्भगस्थाने तु चन्द्रमाः। विग्रहं तु भवेद् घोरं, न तु युद्धं भविष्यति // 5 // अथवा जायते युद्धं, भग्नामं तु महाहवम् / / उभौ सैन्यौ तु राजानौ, द्वावप्येतौ विनश्यतः // 6 // सुखस्थाने यदा चन्द्रो, भङ्गस्थाने दिवाकरः। यात्राया न निवर्तन्ते, आहवे मरणं भवेत् // 7 // उदरे सूर्य-सोमो तु, सन्धिर्भवति विग्रहे। जिह्वागुह्ये द्वये दृष्टे, विग्रहं रौरवं भवेत् // 8 // दुर्भिक्षं व्याधिपीडा च, यायिनो जायते तथा। . उदरे तु यदा सूर्यो, मुखे चरति चन्द्रमाः // 9 // आगन्तुके जयो नास्ति, यदि चन्द्रे समो भवेत् / सूर्यः स्याद् गुद-जिह्वायां, भङ्गे शशाङ्कसंस्थितः // 10 // ऊभौ सैन्यक्षयं तत्र, किश्चिदागन्तुके जयः। उदरे चन्द्रमा सूर्यो, मुखे आगन्तुके जयः॥ 11 // चन्द्रः स्याद् गुद-जिह्वायां, मुखे रविः समं युद्धम् / जयः स्थानस्थिते किश्चिद्, वाच्यं जय-पराजये // 12 // पुच्छे चन्द्रो रविः पोटे, आगन्तुके जयो भवेत् / उदरेऽर्कः शशी जिह्वा, गुदे मृत्युश्च यायिनः // 13 // पोटे चन्द्र-रवी स्यातां, सन्धिस्तत्र भवेत् तथा। . मुखे द्वौ च क्षयं तत्र, सङ्ग्रामेण महीभृताम् // 14 // पुच्छस्थिते तथा द्वौ तु, धन-राष्ट्रक्षयो भवेत् / द्वितये गुद-जिह्वायां, तदा भङ्गं समादिशेत् // 15 // जिला-गुदे यदा चन्द्रः, पुच्छे मुखे च भास्करः / स्थायिनः स्थाच्छुभं तत्र, भङ्गो भवति यायिनः॥१६॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रारूत नमस्कारव्याख्यानटीका। मुखेऽर्क उदरे चन्द्रः, परसैन्यं निपातयेत्। दक्षिणेन रविं कृत्वा, चैवं सम्मुखे जयः (1) // 17 // पृष्टघातश्च वामे वोदरेऽर्के तत्र संस्थिते / परन्तु गुद-जिह्वायां, दक्षिणे पृष्ठतो न हि // 18 // मुखं पुच्छं गते चन्द्रे, पृष्ठे दक्षिणतो जयः। सम्मुखेच भवेद भङ्गः, एवं ज्ञेयः जयाजये॥१९॥ पुच्छस्थाने यदादित्यश्चन्द्रस्तत्र समागतः। तत्र यात्रा न कर्तव्या, यदीच्छेदात्मजीवितम् // 20 // ग्रहयुग्मं यदा काले, सप्तऋक्षे तु संस्थितम् / स्थायिनो यायिनश्चैतत्, सैन्यक्षयमुभयस्य तु // 21 // उदये चन्द्रमा भव्यो, रविस्तत्र न शोभनः / युद्धसमागमे यात्रा, न कर्तव्या बुधैः सदा // 22 // मुखपृच्छादिऋक्षस्तु, यावञ्चरति चन्द्रमाः। तत्र यात्रा न कर्तव्या, युद्धे चैव तु युद्ध्यते // 23 // राहुदेहासना यान्ति, चन्द्रदक्षिणतो ग्रहाः।। न हि उत्तरशेषाश्च, मध्ये तु मुख-पुञ्जयोः // 24 // यावदुत्तरचारस्थान् , ग्रहान् चरति चन्द्रमाः। शुभकर्ता च सर्वत्र, जयवामाङ्गसंश्रितः // 25 // सप्तशलाकाचक्रम्ऊर्ध्वरेखा तथा सप्त तिर्यग् रेखाः पुनर्भवेत् / हकारं वायुकोणे तु, दकारमग्निसंज्ञके // 26 // अकारादिस्वराः सर्वे, हीनाङ्गास्त्रीणि वर्जिताः। कृत्तिकादीनि धिष्ण्यानि, नन्दादितिथिसप्तकम् // 27 // राहूदयं यथास्थाने, सम्मुखो हारिदायकः। एकरेखा भवेच्छत्रुर्यस्योदयो जयी स च // 28 // . दीर्घस्वराः सिते पक्षे, म्रियन्ते नात्र संशयः। हस्वस्य मरणं कृष्णे, सन्धिः स्यादेकसंस्थितः॥२९॥ ___ इति राहुः // + . इन्द्रवायु-यमे रुद्रे, वारणेऽग्नीन्दुराक्षसे / प्राच्यन्तकजले सौम्ये, चैत्रमासाद्ययं क्रमः॥१॥ दिनोऽर्द्ध यामयामाई, तदाई द्वे दयादहो। एवं मुक्तिप्रमाणेनापृष्ठिदक्षिणतो जयी // 2 // रुद्रः पूर्वस्यामुत्तरस्यां, वाऽग्नेये नैर्ऋते तथा। दक्षिणस्यां च वायव्ये, पश्चिमेशानयोस्ततः // 3 // चतुर्घटीकयोगिन्या, वामे पृष्ठौ जयत्यहो। अरिलक्ष्मी समादाय, स नृपः सुखमेधते // 4 // घुजाहणी सितपक्षे, गैच्छढि सितेतरे (?) / व्यअनैस्तिथयो ज्ञेयाः, स्वरैश्च प्रहरा दिशि // 5 // इति भद्रा // ... Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 15 नमस्कार स्वाध्याय। चक्रे द्वादशपत्राख्ये, मेषाद्याः वाममार्गणः। यवस्था तत्रतः सर्वे, भुक्तिः सार्द्धघटीद्वयम् // 6 // महामारी च विज्ञेया, अबलानां बलोत्कटा। समरे जयदा प्रोक्ता, पृष्ठिः दक्षिणसंस्थिता // 7 // पूर्वतो वामगामासाश्चैत्राद्या दिशि तुर्यगे। प्रहाराः सव्यमार्गेण, मासस्थानादि गण्यते // 8 // चातुरङ्गे यदा कोटे, जयदा पृष्ठिदक्षिणे / चलचतुरशीतीनां, क्षयदा क्षेत्रपालजा // 9 // त्रिशूलं त्रिशूलं च(चैव), त्रिशूलं कोणतुर्यगम् / त्रिकं च द्वादशानाह, रविचक्र समालिखेत् // 10 // आदौ तु रविं संस्थाप्य, ज्ञेयं जन्मभजं शशी। नवत्रिकं मृत्युदं तुर्य, क्लेशदं द्वादशं शुभम् // 11 // ग्लानदिनं प्रथममवलोक्य जल्पनीयं रविचक्रम् , तथा त्रिशूलेन भवेन्मृत्युः, द्वादशभिर्जयं तथा। शायन्ते सप्तभिर्भङ्गं, रविचक्रे न सोत्तमे // 12 // रविचक्रं समाप्तम् // सियबीयाससिरिक्खा, ति-छ-ति-छगम्मि जस्स रिक्खम्मि / धणहाणि-बुद्धिट्टाणाचुइला नखयभयपसाया // 13 // अश्विन्यादितृतीयं तु वारे शनौ गुरावपि / जयारिक्तातिथौ घाताः, क्रियते स्थविरे गणे // 1 // घाते नरचक्रम् शिरोमुखं न वामं च, हस्त-पादं च हृद्गलम् / दक्षिणं हस्तपादं च, लिखेत्तरं यथाक्रमम् // 14 // त्रिण्येकं च युग्मेषु द्वयं युग-युगानि च। शिरसि योऽर्द्धऋक्ष स्याद, ग्रहाः क्रूरा यथास्थिताः // 15 // रवेः पञ्चदशे चारिघातं भवतु निश्चितम् / भौमे रक्तं शनौ मृत्युरर्थहानिश्च राहवे // 16 // भुक्तैरंशेरधो याति, भुक्तिस्तिर्यविस्तरम् (?) / आदित्ये शुष्यते घातं, चन्द्रं च यत्र तत्र (2) // 17 // घातचक्र कोटचक्रम् धनिष्ठा भरणी पुष्यं, मघाऽऽश्लेषाचित्राफाल्गुनी। . रोहिणी पुनर्वसूत्तराषाढामध्ये ज्येष्ठा च रेवती // 18 // पूर्वाषाढा च भद्रा चोत्तरा मूलमृगास्तथा। उत्तराफाल्गुनीहस्तमा गर्भ नियोजयेत् // 20 // करावाहो शुभा गर्भ आगतैर्न च भिद्यते। मिर्मिश्रं भवेत् कार्यमधिके जयमादिशेत् // 21 // Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। रैर्निरीक्षितः शूद्रो, द्वारस्थो यदि जायते / खण्डिस्तत्र भवेत् तस्य, गृह्यते कोटमद्भुतम् // 22 // अष्टकविचक्रम् त्रिकोपं नवशृङ्ग च, दण्डरेखाविभेदतः। कृत्तिकादीनि धिष्ण्यानि, ग्रहास्तत्र प्रदापयेत् // 23 // चन्द्र-रव्येकरेखायां, युद्धं-तदिने भवेत् (?) / मन्देन च तथा ज्ञेयं, रौद्रं च कुजराहुणा // 24 // नामतारं यदा विद्धं, पापग्रहैश्च चन्द्रजम् / तन्नाना चन्द्रऋक्षेच, विद्धे मारणमाहवे // 25 // विवाहे चैत्र वैधव्यं, प्रवासिभिः फलं वदेत् / विद्यारम्भे च मूर्खत्वं, कृषिर्वा निष्फला भवेत् // 26 // वर्जयेत् सर्वकार्येषु, यदीच्छेद् वृद्धिरुत्तमा / कविचक्रं मया ख्यातं, चक्राणामुत्तमं सदा // 27 // शनिपुरुषः यस्मिन् ऋक्षे शनिस्तद् वास्ये वर्य दक्षिणे करे। त्रीणि त्रीणि च पादौ तु, वामहस्ते चतुर्थकम् // 28 // हृदये पञ्चऋक्षाणि त्रीणि शीर्षे द्विलोचने / गुह्ये च द्वितयं दत्त्वा, निरीक्षेत शुभाशुभम् // 29 // मुखे वामकरे पीडा, देशत्याग-पादयोः (1) / गुह्ये मृत्युभवेत् प्राप्तिः, फलस्य मस्तके हृदि // 30 // , नयनयोश्च सौभाग्य, लाभः प्रदक्षिणे करे। प्रयोजने समुत्पन्ने, शनिचके निरीक्ष्यते // 31 // दृष्टं श्लिष्टं ग्रहैर्दुष्टैः, सौम्यैरप्रेक्षितं यदि / सजस्यापि तथा मृत्युः, का कथा रोगिणः पुनः॥ 32 // . त्रैलोक्यदीपकं चक्रम् सर्वतोभद्रचक्रम् अथातः संप्रवक्ष्यामि, चक्रं त्रैलोक्यदीपकम् / विख्यातं सर्वतोभद्रं, सद्यः प्रत्ययकारकम् // 1 // ऊर्ध्वगा दश विन्यस्य, तिर्यरेखास्तथा दश / एकाशीतिपदं चक्र, जायते नात्र संशयः॥२॥ अकारादीन् स्वरान् कोष्ठेष्वीशानादिदिशि क्रमात् / सृष्टिमार्गेण दातव्या, षोडशैवं चतुर्भमम् // 3 // कृत्तिकादीनि धिष्ण्यानि, पूर्वाशादि लिखेत् ततः। सप्तसप्तक्रमेणैवमष्टाविंशतिसंख्यया // 4 // अवकहडादिप्राच्यामटपरतावर्णपञ्चकं याम्याम् / नयभजखान वारुण्यां, गसदचलांश्चोत्तरे दद्यात् // 5 // राशयो द्वादशैवं तु, मेषाद्याः सृष्टिमार्गगाः। अयस्त्रयो वृषाद्याश्च, पूर्वादिक्रमतो बुधैः // 6 // 25 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमान] नमस्कार स्वाध्याय। शेषेषु कोष्ठकेष्वेव, नन्दादितिथिपञ्चकम् / वाराणां सप्तकं लेख्यं, यथोक्तं सुरमार्गगम् // 7 // शन्यर्कराहुमाहेया, एते पापाः प्रकीर्तिताः। सौम्याः शक्रेन्दजीवज्ञाः, ज्ञातव्याः स्वरवेदिभिः॥८॥ यस्मिन् ऋक्षे स्थितः खेटस्तथा वेधः स्वयं भवेत् / ग्रहदृष्टिप्रमाणेन, वामदक्षिणसम्मुखम् // 9 // वक्रगे दक्षिणे दृष्टिमिदृष्टिश्च शीघ्रगे। मध्यगामी तथा मध्ये, भौमाद्याः पञ्चकस्य वा // 10 // चक्रगामी सदा राहुः, शीघ्रगौ चन्द्र-भास्करौ। क्रूरा वका महाङ्कराः, सौम्या वक्रा न शोभनाः // 11 // घङछा रौद्गे वेधे, खणठा हस्तगे ग्रहे। धभढाः पूर्वाषाढायां, शषधा भद्र उत्तरे // 12 // कोणस्थ-ऋक्षयोर्मध्ये, चान्तदिपादगे ग्रहे / अश्वरादिचतुष्कस्य, पूर्णवेधः प्रजायते // 13 // एकादिकूरवेधेन, फलं पुंसां प्रजायते / उद्वेगो हानि-रोगश्च, मृत्युस्तस्य क्रमेण तु // 14 // भ्रमो ऋक्षेऽक्षरे हानिः, स्वरे व्याधिर्भयं तिथौ / राशिवेधे महाविघ्नं, पञ्चविद्धो न जीवति // 15 // एकवेधे भयं युद्ध, युग्मं वेधेऽस्त्रकक्षतः।। त्रिवेधेन भवेद् भङ्गो, मरणं स्याच्चतुर्ग्रहैः // 16 // यथा दुष्टफलाः क्रूरास्तथा सौम्याः शुभङ्कराः। क्रूरयुक्ताश्च वक्राश्च, सौम्याः क्रूरफलप्रदाः // 17 // अर्कवेधे महांस्तापः, द्रव्यहानिश्च भूसुते / रोगपीडाकरः सौरी, राजविघ्नप्रजा(दा?)यकः // 18 // चन्द्रे मिश्रफलं पुंसां, रतिलाभश्च भार्गवे / बुधवेधे भवेत् प्रक्षा, जीवः सर्वफलप्रदः // 19 // तिथिं राशिं च नक्षत्रं, विद्धं क्रूरग्रहेण यत् / सर्वेषु शुभकार्येषु, वर्जयेत् तत् प्रयत्नतः // 20 // न नन्दति विवाहे च, यात्राया न निवर्त्तते / न रागात् प्रमुच्यते रोगी, वेधे वेलाकृतोद्यमः // 21 // रोगकाले यदा वेधः, क्रूरे खेचरसंभवः। वक्रगत्या भवेन्मृत्युः, शीघ्रजो घोररुद्भवः // 22 // वेधस्थाने रणे भङ्गो, दुर्गखण्डःप्रजायते / काव्ये प्रवेशनं तत्र, योद्धृघातस्तथा पुनः // 23 // स्वक्षेत्रस्थे बलं पूर्ण, पादोनं मित्रमे ग्रहे। अर्द्ध समग्रहे ज्ञेयं, पादं शत्रुगृहस्थिताः // 24 // इदं च क्रूर-सौम्यानां, बलं स्थानवशात् समम् / एतदेव बलं वेधे, सौम्यं क्रूरं विपर्यये // 25 // स्थानवेध्यसमायोगे, यत्संख्यं जायते बलम् / तत्संख्यं वेध्यवस्तूनां, बलं ज्ञेयं विचक्षणैः // 26 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 [प्राकृत नमस्कारव्याख्यानटीका। ग्रहः सौम्यस्तथा कूरो, वक्रमार्गेऽथ नीचगः / स्थानकं वेध्यमित्येवं, बलं ज्ञात्वा फलं वदेत् // 27 // वक्रग्रहे फलं द्विगुणं, त्रिगुणं स्वोच्चसंस्थिते / स्वभावगं फलं शीघ्र, नीचस्थोफलो ग्रहः // 28 // यत्र पूर्वदिगाशायां, ऋक्षराश्यादिगो रविः / सादिग्रस्तमिता ज्ञेयाः, शेषास्तिस्रो दिवागताः // 29 // ईशानस्थाः स्वराः प्राच्यां, ज्ञेया आग्नेयगाः स्वराः। यमे नैर्ऋत्यस्थास्तु, वारुण्यां सौम्यगास्तथा // 30 // नक्षत्रस्थे रुजो वणे, हानिः शोकः स्वरेऽस्तगे। राशौ विघ्नं तथा भीतिः, पञ्चास्ते मरणं ध्रुवम् // 31 // नक्षत्रेऽप्युदिते पुष्टिवर्णलाभः स्वरे सुखम् / राशौ जयस्तिथौ तेजः, पदादिपञ्चकोदये // 32 // शुभग्रहैस्तिथिर्विद्धेऽर्थलाभं समादिशेत्। राशिवेधे सुखं चैव, नाम्ना तु निर्भयं भवेत् // 33 // स्वरवेधे तथाऽऽरोग्य, पञ्चवेधेऽर्थलाभदः / ग्रहाणां चैव सौम्यानां, सौम्यैर्दष्टे सुखावहा // 34 // पश्चापि तिथिसंयुक्ता, राशिधिष्ण्याक्षरस्वराः। अस्तं गताश्च ते सर्वे, यत्र भानुस्त्रिमासकाः // 35 // यात्रा युद्धं-विवाहं च, द्वारं प्रासादहर्ययोः। न कर्तव्यं शुभं किञ्चित् , तदाशाभिमुखैनरैः // 36 // तदाशायां स्थितं यस्य, नाम्नः प्रथमाक्षरः। . तत्काले सर्वकार्येषु, ज्ञेयो दैवहतो नरः // 37 // कवौ कोटे तथा द्वन्द्वे, चातुरङ्गे महाहवे / वर्जयेत् सर्वभावांश्च, यदीच्छेद् विजयं रणे // 38 // प्रश्नकाले यदा विद्धं, लग्नं क्रूरैश्च खेचरैः। शेशुभं शोभनं सौम्यैर्मित्रैः मिश्रफलं भवेत् // 39 // ग्रहनिर्वेधलग्नेन, फलं लग्नस्वभावतः। शातव्यं देशकेन्द्रेण, यदुक्तं च चरादिकम् // 40 // ऋरोभयग्रहैर्विद्धं, यस्य नाम्नः स्वराक्षरम् / तिथिं राशिं च नक्षत्रं, तस्य मृत्युर्न संशयः // 41 // तौल्यं भाण्डं रसो धान्यं, गजाश्वादिचतुष्पदम् / सर्व महर्घ्यं तावद् , यावत् क्रूरैश्च वेधितम् (?) // 42 // ऋरवेधसमायोगे, यस्योपग्रहसंभवः। तस्य मृत्युनं संदेहो, रागाद् वाऽऽचरणेऽथवा // 43 // सूर्यादिपञ्चकं कक्ष, विज्ञेयं विद्युतो मुखम् / शूलं तथाऽष्टमं प्रोक्तं, सांनिपातं चतुर्दश // 44 // केतुरष्टादशे प्रोक्त उल्का स्यादेकविंशतौ / द्वयं विशतिमेकं यस्त्रिविंशे वज्रमुच्यते // 45 // Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाग] नमस्कार स्वाध्याय। 1b निर्घातस्तु चतुर्विशे उक्ता अष्टावुपग्रहाः। स्वस्थाना विघ्नदा चैव, सर्वकार्येषु सर्वदा // 46 // जन्मभं कर्म चाधीनं, विनाशं सानुदायकम् / सांघातिकं तथा जात्यमभिषेकदेशजैनवम् (1) // 47 // जन्मभं जन्मनक्षत्रं, दशमं कर्मसंभवम् / एकोनविंशमाधानं, त्रयोविशं विनाशकम् // 48 // अष्टादशं च नक्षत्र, सानुदायकमेव च / सांघातिकं च विज्ञेयं, ऋशं षोडशसंख्यया // 49 // पञ्चविंशत्तमं जातं, षडुविंशतमभेषकम् / सप्तविंशतिदेशं तु, नवधिष्ण्यानि भूपतेः // 50 // जन्मकक्षे भवेन्मृत्युः, कर्मणि क्लेशमेव च। आधाने तु प्रवासश्च, विनाशे बन्धुविग्रहः // 51 // सानुदाये त्वरिष्टं च, हानिः संघातके तथा।। जातिभे कुलनाशं हि, बन्धनं चाभिषेकके // 52 // देशऋक्षे देशभङ्ग, रैरेवं शुभैशुभम् / मिर्मिश्रफलं चैव, समायोगे उपग्रहे // 53 // मानसं पञ्चविंशं तु, शोकदारादिनाशनम् / भृत्य-चतुष्पदानां च, क्रूरैरेवं शुभै भम् // 54 // स्वक्षेत्रोपगतः स्थायी, परक्षेत्रे च यायिनः। नीचस्था हायनाः प्रोक्ताः, त्रिविधा ग्रहपद्धतिः // 55 // उदित नामवर्गे तु, स्यात् तु मित्रमरिक्षयम् / असमर्थस्य संसिद्धिः, लाभमात्यन्तिकं भवेत् // 56 // दीपो यथा ग्रहस्यान्तः, उदद्योतयति सन्नभः। तथैव सर्वतोभद्रं, सत्यं सत्यं न संशयः // 57 // रामे ऋतौ तथाऽऽये तु, कर्मणि च शुभा मताः। भौमार्क-शनयो मध्या, नव-पञ्चम-सप्तसु॥१॥ जन्मनि सप्तमे षष्ठे, दशमैकादशे त्रिके। वर्द्धमानतनुश्चन्द्रो, धन-धी धर्मगः शुभः // 2 // जन्मात् पञ्चममुद्वेगस्तृतीयो द्वादशोऽर्थहः। षष्ठान्नवमसंस्थश्च, मृत्युर्भवति सत्वरम् // 1 // भद्रात् तथाऽष्टमो बाध्यः, दशमात् तुर्यगोऽर्थहः / सप्तमात् तु द्वितीयस्थे तेजोहानिर्भवेन्नृणाम् // 2 // द्वितीयात् सप्तमस्तुर्याद् , दशमो यदि चन्द्रमाः। वसोरेकादशश्चैव, नवकात् षस्थितस्तथा // 3 // द्वादशाच्च तृतीयस्था, पञ्चमाजन्मगो यदि / ग्रहाच्चन्द्रो भवेदेवं, तदारोग्यफलप्रदः॥४॥ भान्यश्विन्यादिपञ्चचराणि त्रीणि क्षिप्राणि मृदूनि पञ्च च / त्रीणि ध्रुवकानि पञ्च चोग्राण्येवं तुर्याणि दारुणानीह // 5 // .. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 118 10472 नमस्कारव्याख्यानटीका। यंत्र नं०११ द्विको साधारणौ ज्ञेयो, गन्तव्यं क्षिप्रकैश्चरैः। स्थिरैः पुनः प्रवेष्टव्यं, योद्धव्यमुपदारुणैः // 6 // साधारणाग्रतीक्ष्णे, स्वातौ न लभ्यते विमुक्तम् / स्वं दत्तं प्रयुक्तमथवा, निःक्षिप्तं सर्वथाप्त्यन्तौ // 7 // अनलभयं भौमे, न तु रक्तग्रावो दिवाकरे प्रोक्तः। घातभ्रमोऽश्रुपातो, निर्दिष्टः सूर्यपुत्रेण // 8 // शक्रेण मनस्तापः, प्रमदाकलहोऽपमानता चापि। जीवेन बन्धुवधो, विपत्तिपत्तिः सदाकालम् // 9 // चन्द्रमसा वेधे ननु, प्रत्युत्सवदानमानसंपत्तिः। रिपुणा कलहो घोरो, निर्दिष्टश्चन्द्रपुत्रेण // 10 // सामान्यकार्येषु वेधः, तथा रविवेधे च वैधव्यं, कुजवेधे कुलक्षयम् / बुधवेधे भवेद् वन्ध्या, प्रव्रज्या गुरुवेधतः // 11 // अपुत्रा शुक्रवेधेन, सौरे दासी सदुःखिता। राहुवेधे भवेद् वेश्या, केतौ स्वच्छन्दचारिणी // 12 // त्रिदशैकादशस्थाने, भास्करो वाञ्छितार्थदः। विद्धो नव-चतुः-पञ्च-द्वादशाभिग्रहैननु // 13 // दशैकादश-षट्-सप्तच्याद्यगः शोभन: शशी / अविद्धश्चतुरष्टान्त्यद्वितीय-नव-पञ्चमैः // 14 // षष्ठकादशमौ शस्तौ, तृतीयौ भौम-भानुजौ / चेन्न विद्धो ग्रहैः पञ्च, नव-द्वादशसंस्थितैः॥१५॥ एकादशाष्टम[संस्थो, द्वि-चतुः-षष्ठमो बुधः। विद्धो न द्वादशायेषु, नवमैस्तु ग्रहैः शुभैः // 16 // शुभो द्वि-नव-षष्ठैकादश-पञ्चस्थितो गुरुः / द्वादश-यष्ट-द्वितीयैस्तु, चतुर्थैर्न हतो यदि // 17 // नवमैकादशदिव्यब्धिसंस्थितो भार्गवः शुभः। न विद्धोऽष्टद्वितीयैस्तु, पञ्चभिादशभिस्तथा // 18 // पञ्चायैकादशान्त्यैश्च, सप्तमेन हतो यदि। मन्दार्कयोर्बुधेन्द्रश्च, न वेधः स्यात् परस्परम् // 19 // वामवेधविधानेन, ग्रहा अशोभना अपि / शुभं यच्छन्ति चेदन्ये, शुभाः स्थानेषु संस्थिताः // 20 // मासं शुक्र चुधादित्याः, सपादे द्वे दिने शशी। भौमस्त्रिपक्षकं जीवोऽब्दं स्यात् पञ्चायनः शनिः // 21 // यद्यपि स्याद् बली चन्द्रः, ताराः कृष्णेऽप्युपद्रवम् / करोत्येवं तृतीया च, पञ्चमी सप्तमी सदा // 22 // जन्म संपद् विपत् क्षेमा पापाः सौम्या भयानकाः / मित्रातिमित्रा जन्मक्ष-तारा त्रिवर्तिना नव // 23 // शुक्लपक्षे बली चन्द्रः, कृष्णे तारा बलीयसी। द्वि-पश्चनवमाः श्रेष्ठाः, शुक्ले च शशिवत् शुभाः // 24 // Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 321 चन्द्रं च पुष्पसंकाशं, लग्नं फलसमं विदुः। पुष्ये नष्टे फलं नास्ति, तस्माच्चन्द्रबलं बलम् // 25 // कुज-शुक्र-ज्ञेन्द्धर्क-ज्ञ-शुक्र-जीव सौरि-शनि-गुरवः / मेषा नवांशकामज-मकर तुला-कुलीराद्याः (?) // 26 // स्वगृहाद् द्वादशभागा द्रेष्कोणाः प्रथम-पञ्च-नवकानाम् / होरा विषमेऽन्दोः समराशौ चन्द्रतीक्ष्णांशोः // 27 // कुजयमजीवशसिताः शरेन्द्रियवसुमुनीन्द्रियेशानाम् / विषमेषु समेषूत्क्रमेण त्रिंशांशकाः कल्प्याः // 28 // समराशिफूत्क्रमेण त्रिंशांशाः षड्वर्गशुद्धिः। पुष्णन्ति शुभा भावाः, मूर्त्या विघ्नन्ति संस्थिताः // पापाः सौम्याः षष्ठेऽरिष्टाः सर्वे नेष्टाः व्ययाष्टमगाः // 29 // लग्ने स्थितो दिनकरः कुरुतेऽङ्गपीडां, - पृथ्वीसुतो वितनुते रुधिरप्रकोपम् / छायासुतः प्रकुरुते बहुदुःखभाजं, जीवेन्दुभार्गवबुधाः सुखकान्तिदाः स्युः // 1 // दुःखावहा धनविनाशकराः प्रदिष्टाः, - चित्तस्थिता रविशनिश्वरभूमिपुत्राः / चन्द्रो बुधः सुरगुरुर्भृगुनन्दनश्च, / ___नानाविधं धनचयं वितनुते धनस्थः // 2 // भानुः करोति निरुजं रजनीकरोति, कीर्त्याऽऽश्रयं क्षितिसुतः प्रचुरप्रभावम् / 20 सिद्धिं बुधः सुधिषणः सुविनीतवेषः, स्त्रीणां प्रियं गुरुकवीन् रविजस्तृतीयः // 3 // आदित्य-भौम-शनयः सुखवर्जिताङ्गं, कुर्वन्ति जन्मनि नरं सुचिरं चतुर्थाः / सोमो बुधः सुरगुरु गुदेहजातः, सौख्यं धियं नृपरति यशसः प्रवृद्धिम् // 4 // भौमो रविः प्रचुरकोपगतं बुधोऽपि, निःसंततं शनिधरातनुजौ कुपुत्रम् / सौरीन्दुभार्गवगुरुः सुतधामसंस्थः, कुर्वन्ति पुत्रनिवहं सुखिनः सुरूपम् // 5 // 25 मार्तण्डभूमितनुजौ हतशुभ्रपक्षं, पॉर्नरं रिपुगृहे नृपपूजनीयम् / काव्येन्दुजो मतिविहीनमनल्परोगं, जीवः करोति निधनं विकलं शशाङ्कः // 6 // तिग्मांशु-भौम-रविजाः किल सप्तसंस्थाः, जायां कुकर्मनिरतां तनुसंततिं च / जीवेन्दु-शुक्र-विवुधा बहुपुत्रयुक्तं, धर्मान्वितं जनमनोहररूपशीलम् // 7 // सर्वे ग्रहा दिनकरप्रमुखा नितान्तं, मृत्युस्थिता विदधाति किल(?)दुःखवृद्धिम् / 30 शस्त्राभिघातपरपीडितगात्रयष्टिं बुद्ध्या विहीनमतिरोगगणैरुपेतम् // 8 // धर्मस्थिता रवि-शनिश्चरभूमिपुत्राः, कुर्वन्ति धर्मनिधनं जनयन्त्यपुण्यम् / चन्द्रो वुधो भृगुसुतश्च सुरेन्द्रमन्त्री, धर्मप्रधानधिषणं कुरुते मनुष्यम् // 9 // आदित्य-भौम-शनयः किल कर्मसंस्थाः, कुर्युर्नर बहुकुकर्मकरं दरिद्रम् / चन्द्रः सुकीर्तिमुशनाः बहुवित्तयुक्तं, रूपान्वितं बुध गुरुः शुभकर्मभाजाम् // 10 // 35 लाभान्वितो दिनपतिर्नुपलाभरूपं, तारापतिर्बहुधनं क्षतिजः शतारिः। सौम्यो विवेकवसतिं सुभगं च जीवः, शुक्रः करोति सुधनं रविजःसुकान्तिम् // 11 // सूर्यः करोति पुरुषं व्ययगो विशीलः, काणं शशी क्षितिसुतो बहुपापभाजम् / चन्द्रात्मजो गतधनं धिषणः कृशाङ्गं, शुक्रो बहुव्ययकरं रविजश्च तीव्रम् // 12 // 41 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323 नमस्कारज्याख्यानटीका। [प्राकृत तं नत्थि जं न इत्थं निमित्त-गह-गणिय-मंत-तंताई। जं पत्थियं पयच्छइ कहेइ जं पुच्छियं सयलं // 25 // व्याख्या-तन्नास्ति यदिह स्तवने न भणितम् / किं तत् ? निमित्तं, ग्रहगणितं, तन्त्र-मन्त्रादिकम् / औषधप्रभावो यथा-औषधादिभिः भयनिवारणं, यथा तरुच्छायायां वल्मीके, देवगृहे श्मशानके। रथ्यायां भुवने कूपे, औषध्यः कार्यकक्षमाः॥१॥ शरीरे धारयेद् यस्तु, विष्णुकान्तां महौषधिम् / मार्गचौरभयं नृणां, स्वप्नेऽपि न जायते // 2 // भृङ्गराजोद्भवं मूलं, पुष्यऋक्षे समुद्धृतम् / वाकुमूले कृतं चैवं, चौरभयनिवारणम् // 3 // हलिनीशिखा कटिस्था स्थगयति कुपितोद्धतं महाव्याघ्रम् / सिंह-सिंही श्वेता स्तम्भयति तथेश्वरी सर्पम् // 4 // शितशिरपुडा जटिका शुभभग्रहीता शिखाग्रविनिविष्टा / सर्पभयं विनिवारयति संशुद्धा साधुभिक्षुरिव // 5 // पुष्येणोत्पाटितं मूलं, चक्राझ्याः समुद्भवम् (?) / हस्ते बद्धं च तं दृष्ट्वा, दूरं गच्छन्ति पन्नगाः // 6 // खजूरीमुखमध्यस्था, कटिबद्धा च केतकी। भुजमध्यस्थितस्तालः, सर्वायुधनिवारकः // 7 // कन्थार्युत्तरमूलं व्यपगतहुङ्कारमौनमाचरतः। वक्त्रगतं शस्त्रभयं योगिन इव न च भवति सिद्धस्य // 8 शाल्मली सहदेवी च, श्वेतगिरिणदीसमी / रासिमीमूलमेतासां, लेपो घातनिवारकः // 9 // नातिगिरि-णदीपुष्पा, बाधो शङ्खभृता तथा / एतासां गुटिका देहे, पश्यतां याति नाशने // 10 // रुद्रजटा तथा मोहा, पुष्ये शिरसि संस्थिता / मोहनं कुरुते नृणां, स्त्रीणां कार्य च सिद्ध्यति // 11 // श्वेते पुनर्नवा मूलं, पीतं तन्दुलकेन हि / / न क्रमते च षण्मासं, सर्प-वृश्चिकयोर्विषम् // 12 // पुष्यार्के गृहीतं तथा नृपसहशिखजारी हस्तगोऽश्रुकन्या, ___जटनररविभीता मोहपानाजवज्रा। कुरु चतुर! चतुष्कं देहजैः पञ्चयुक्तं, वरयुवतिनराणां स्नेहकारि प्रयुक्तम् // 1 // 30 . 163 षोडश-वहन्यनङ्गा नाः। वसु-देशेषु चत्वारों, ग्रह-ष-विचन्द्रमाः // 2 // तिथयोऽङ्के नृपायेषु, पञ्चधा लेपनं स्मृतम् / चतुर्विंशद्भिरडैस्तु, पुण्यार्के सर्वफलप्रदाः // 3 // Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 323 मुनयो दक्षिणे पार्श्वे, ग्रहाश्चैवोत्तरे स्मृताः। भुवनान्यह्रियुग्मे च, भद्राद्या मूर्ध्नि संस्थिताः // 4 // मध्ये रवि-शशी शेयौ, सर्वकार्येषु योजयेत। नृपसहशिखाजारीलेपो मूर्ध्नि प्रियङ्करः // 5 // जारीकृष्णाञ्जलीगोरम्भाश्रुभिर्दक्षिणे तथा / अश्रुकन्या जटाविष्णुलेपने पादयोर्जयः // 6 // नरश्वेतार्कभीतार्के नृपतिभिर्वामलेपनात् / मोहपानाजवज्राभिर्मध्यलेपः श्रियङ्करः // 7 // एवं पञ्चाङ्गलिप्तेन, त्रिदशैरपि पूज्यते / नृपसहशिखाजारी, धूपितात्मा वशीकरः // 8 // कृष्णमोहागडूची हस्तानामुद्वर्त्तनं वशी। रविवज्राजगोरम्भा नागश्च सर्वकामदः॥९॥ नरजंटकुमार्यश्रुस्नानं सर्वप्रियङ्करम। नृपलजालुका मोहा, तिलकं मोहनं तथा // 10 // अजागोऽश्रुकुमारीभिः, लिङ्गलेपः सुखङ्करः / नृपलज्जाकरा जारी, चूर्ण वह्वेश्च रक्षणम् // 11 // भीताश्वेतार्कगोरम्भा, हस्ते चूर्णेन लेपनम् / देहस्य जलमध्यस्थः, स्वेच्छया तिष्ठति ध्रुवम् // 12 // नरश्वेतार्कगोरम्भा, रुदन्ती गुटिकामुखे / ....... // 13 // नृपसहजटाविष्णुलिङ्गलेपाद् भवेत् सुखम् / कन्याजटा करा भीता हस्तलेपा इमे जये // 14 // शिखाभूचम्पकार्कसहा गुटिका मुखे तथा / कृत्वा रात्रौ भवेन्नूनं निर्भयः सर्वजन्तुषु // 15 // करासहा जटागोभिर्योनिर्लेपात् सुतो भवेत् / लज्जारविशिखाकन्या, चूर्ण दत्तं च वश्यदम् // 16 // शिखागडूच्यजाकन्या, चूर्ण शत्रुदले क्षिपेत् / भङ्गो भवति तत्सैन्ये, एतद्योगप्रभावतः // 17 // विष्णुनृपगडूची मेषा, गुटिकायां मुखे शुभाम् / तुलादिव्येन चारूढो, ध्रुवं शुद्ध्यति दोषवान् // 18 // नृपतिनरभीतार्कलिङ्गलेपो हि द्राचको भवेत् / जटावज्रा सहा मोहा करलेपाच्च शीतलम् // 19 // फालं शिखा पानासहा मोहाचूर्ण वाणे(?) स्वके गुणे / निक्षिप्तं च परे सैन्ये स्तम्भो भवति निश्चितम् // 20 // पानाजाहस्तगोपादलेपाञ्च स्थलवजले। लजामोहार्कवज्राङ्गलेपाद् युद्धे जयो भवेत् // 21 // जटाशिखार्कहस्ता स्पर्शादाचरणकं वशम् / नृपवज्राजजारीभिः स्तम्भनं वर्षवारणम् // 22 // वज्रामोहाभुजारीणां चूर्ण भक्षापयेत् सुधीः। महावश्यं करोत्येवं दत्तं त्रैलोक्यमोहनम् // 23 // Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत त्रैलोक्यं तूत्तम-मध्यमाधमस्य दत्तम् , तथा 'मंत-तंताई' इति संयोगेन करलेपानि कथितानि / तथा कर्म(म्म)सहायो होउ पूयणमंतेहिं मंतिउ काउं। बीयाइं चाविजंसु उयरे तह सिक्खवाला वा // 1 // 6 "ॐ नमः पूतनायै अवटे बन्ध बन्ध मण्डलं बन्धामि / श्रीपूतनाया वचनेन बन्धामि सिद्धसि( हि ?)माचल स्वाहा ॥"-सिद्धविद्या // किन्हमि इयाय दाउं सिहिसिरिपयरेसु सिपाहबीयाउ / ताणं सुकुसुमियाणं गिन्हह तह वक्कलं निउणं // 2 // काउं सुसण्णरजं गंठीउ तिन्नि जस्स गीवाए। बझंति सोयमोरो पब्भारकलाविओ होइ // 3 // सवणेहि सुणेइ अच्छीहि पिच्छए विंदए य अप्पाणं / मुक्केण पुणो सहस त्ति जाण पुरिसुत्तणमुवेइ // 4 // किन्ह वि दंभ सीसम्मि वग्धवायस्स अहिस्स तह मासा। . . या विजह किन्हचाउद्दसीह दाऊण कन्हमिया // 5 // परिणयफलेहि ताणं वयणे निहिएहिं लोयमज्झम्मि। होहविराला नाया उद्धरिए तह पुणो पुरिसा // 6 // ससिण कविलस्स वयणे सिणबीयं ठाविऊण तस्स पुणो। परिणयफलस्स तह छक्कलेहि काऊण गंठि नियं // 7 // गीयाए कसिणचाउद्दसीहि वत्सइ नरस्स तं जस्स। सो होइ सारमेओ निभंतं कुडिललाङ्कलो // 8 // मीणस्स मुहे निउणं फलेहिं फलं ठाविऊण भूयदिणे। अत्थो अणेण सिंचह अणुदियहं तं पि बुद्धतं // 9 // कुसुमाइ तस्स चित्तूण वहिऊणं च मीणतिल्लेणं / आलेवह नियसोत्ते कयनियमो वासिओ होउं // 10 // सरियाए सायरगामिणीए रयणायरस्स जं रयणं / ' तं सव्वं गिन्हह थल ठियव्वं पउराओ विजलाओ॥ 11 // अन्नंतीए रसेण मीणवसाए य नाहिलेवेणं / . उवरि पिएइ पिच्चं फलेहि कडिसंठिएहिं च // 12 // अह उण तीयफलेहिं रयणीए पिओ वणम्मि वुच्छेहिं / भावियपडपाउरणो जं पिच्छइ तं वसे कुणइ // 13 // तीए य जडातीए पन्नं जाईरसेण वदे॒ह / के नत्थि नासभरणा तक्खणदट्ठोवि जीवेइ // 14 // दाउं उंबरमूलं मट्टिया सुयण नउलसीसम्मि / वाविय पवड्डिजायं अयसीणं पत्तगुलिएहिं // 15 // तीए फलाई रुहिरेण भूयदिणे रंजिऊण पक्खिवसु / एकेक तह चउद्दसीसु विदिसासु अहिकडिणत्थं पि // 16 // ते फणिणो अंजणरयणमोसहं गिन्हिऊण वयणेणं / अणंति ताण दिजह भोयणं छीरनुघसम्मं // 17 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 325 सुरस्स समूहसत्थाहयस्स पुरिसस्स सिक्खवालंपि। वाविजह किन्हचाउद्दसीए तस्सोवरि जवाए य // 18 // परिणयफलाई सयसत्ततंतुणा गंथिऊण जो सीसे। बंधइ कयबलिपूओ अहिस्सो सो जणो होइ // 19 // कोलस्स सिरे निप्पन्न.......................। असिएहिं होइ वराहो तावय जिनं ते पुणो पुरिसो॥२०॥ सत्थाहनरतियस्स क कवालिलहाण कुसुमगलियाए / लोहतवेणं वेढिय वयणे रुवं चत्तारिसयं // 21 // रूपपरावर्त्तनम् // संचलिकाङ्गारमादाय, खरसूत्रेण भावयेत् / यस्मिन् वह्नौ क्षिपेत् तत्र, वह्निस्तम्भं करोति हि // 1 // रयणिजुतयं मंजिट्टा घर धूमंतं दुलियसलिलेण / दहिघयसहियं पि चढं कुण लेवं सयलगरलहरं // 2 // सेयपुणन्नवमूलं पूसे गहिऊण तंदुलजलेण / कुण तह सव्व विछिय छम्मासा नेह पवहति // 3 // तस्मिन्नहनि संजातं गोवत्सस्य पुरीषकम् / प्रथमं तगरोपेतं पुटिका सर्वविषापहा // 4 // गहिऊण महूयसारं नर-खर-वेसाणमुत्तपरिज वियं / दिनं नासे पाणे समत्थगहदप्पविसहरणं // 5 // आरिटुइंगुदिबीयं तियडुयचुन्नेन वट्टियं साई / पूसेडी चेव दाली तुंबयरसेण भाविया वडिया // 6 // नीसंदेहगहाणं रक्खस्स संनिवायसप्पाणं / घोणसइगुवीसाणं योगमणी सव्वदुट्ठाणं // 7 // एकू टंकण खारडउ मधपीपलिहि समाणु / मुणि वरसउं महटिहिं खंडइ भुवं हिमाणु // 8 // सोस( शोष )तृष्णायां गुटिका मुखे रिच्छदंष्ट्राहसं हस्ते बद्धा सर्पमुखस्तम्भः। कीरतरुमूलघडिया डक्का सिहिनलयवाइया नूणं / दोसुह चम्मयमढिया नयाण य चालणं कुणइ // 9 // __ब्रह्मा दण्डी ईश्वरीमूलं 1, कन्दो वा 2, रुद्रजटा 3, इन्द्रवारुणी 4, चक्रका 5, विष्णुक्रान्ता 30 6, बोडथेरी 7, वराहकर्णी 8; आभिः सुग्रीवमण्डलं लिखेदेककोणेषु / ड र ल क स ह मध्ये सुग्रीवमूर्ति कारयेत् / कोणान्ते-'ह्रीँ झीँ क्षीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा।' पञ्चशब्दे तथा त्राम्बके वा तेन शब्देन शाकिन्याऽऽकर्षणं मोचाप्यन्ते // कासमर्दो निजां छायां, पयसि पश्यति यः स्फुटम् / तन्मूलं लागलीश्वेतगिरिकर्णकयोश्च मूलकम् // 6 // पाषाणमर्दितैरेभिर्लिख्यते दीपवर्तिकाम् / कजलेनाञ्जयेन्नेत्रे कुमार्या दोषवीक्षणे // . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत क्षीरे कान्दकातली / अर्कतूलदमरके पूर्यगलकबन्धनात् शाकिन्यादिदोषनाशनम् / तथा सिणबीजानि उत्काल्य यस्य यस्या वा नाम गृहीत्वा यदि सुरम्मा जायते कार्मणं कृतं केनचिद् ज्ञायते तथा तज्जलेनाङ्गप्रक्षालनाद् भव्यः / मूलं यूथ्यथ जात्याश्चैकान्तरज्वरनाशने / करस्थं तु तृतीयस्य शङ्खपुष्पीभवं ता (तथा ?) // 1 // पुष्या: रविदिनेऽथ पूर्वाशायां शस( सस्य )ग्रहणे उत्पादि(टि )तानि मूलानि कर्मसमर्था भवन्ति / मन्त्रः वज्रहस्तो महाकायः, वज्रहस्तो महाबलः। हतोऽस्ति भूमिदण्डेन, भूम्यां गच्छ महाकरः // 10 "ॐ भस्मकरी भसकरीं ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लू सः।" काकिन्या मूललेपैश्च, पानेन श्वानजं विषम् / कटुका कुष्ठमञ्जिष्ठा, वचासैन्धवपिप्पली // शुण्ठीदर्शीद्वयानां तु, पिण्डकां सर्पसाटने // प्रथमं घृतेन नाभ्यङ्गः // 15 शुद्धरस ग. 1, गन्धक ग. 2, धान्याभ्रक ग. 1, चित्रकचूर्ण-गदीयाणकद्वयरसेन दिन 1 मर्दयेत् / तथा लिम्बुकरसेन तथा लघुरिंगणीफलरसेन त्रिकटुकसूक्ष्मचूर्णस्य गलितजलेन एभिर्दिनैकैकं मर्दयेत् / ततो पीता श्वेता वा कपर्दिकामध्ये चूर्ण क्षेपणीयम् , गाढं निभृत्य धान्याप्रकं अर्कक्षीरेण मर्दयित्वा उत्परे देयम् , साकम्भरीयलूण ग. 1, सैन्धव वा. 4, नवसार वा. 4, साजी वा. 2, साजी एवं ग. 3, सरावेऽध उर्ध्व कपर्दिकायां दत्त्वा लिम्बूकबीजपूरकस्य वा रसं देयम् , तापे वा धारणीयम् , 20 दिन 2 निरन्तरं श्वेदनीयम् / ततो द्वितीयं सरावं दत्त्वा पुटितगर्तायां आजानुप्रमाणायां कारसिमध्ये पुटेत् दिन 3 पक्कचूर्णं भवति // मरीच ग. 1, पिंपली ग. 3, चित्रकरसेन मर्दयित्वा पूर्वोषधमध्ये क्षिपेत् / अस्य वा 1 वेला द्वित्रयेण घटिकैकायां दहेत् / क्षुधा भवति, तृतीयदिने पुनर्दहेत् / सर्वरोगेषु मधुराहारो देयः / दिन 8 मैथुनं वर्जनीयम् / कामं चलं स्थलं उद्यमं च जायते / तैलं वृन्ताकादि वर्जनीयम् / पादाभ्यङ्गोऽपि न कार्यः॥ 25 तथा शुद्धरस ग. 5, धान्याभ्रक ग. 5, काञ्जिकेन राजसमीपत्राणि कुट्टयित्वा रसं ग्राह्यम्, विश्राम्य आच्छि उत्तार्य तेन दिनैकं मर्दनीयौ, तथा सूरणजलकन्दरसेण मर्दयेत् दिन 1, सियूमूलजलं तथा रसेन दिन 1, रिंगणी 2, तथा मूलजलरसेन दिन 1, पाटनीपानजलेन तथा शुद्धरसेन दि. 1, चित्रमूलरसेन शुद्धरसे दिन 1, वत्सनाग ग. 5, जलेन कुट्टयित्वा शुद्धरसेन दि. 5, तथा त्रिकटुकशुद्ध रसेन दि. 3 / गोमूत्रदाथरायोगेन शुद्धगन्धक ग. 5, सर्व धत्तूरकरसेन अब्लजम्बीररसेन वा पुनः 2, 30 सरावमध्ये लोहभाण्डे वा तापे धारयेत् , परं हीरा वा. 5 / भस्ममध्ये कृत्वा दिन 7, ततः कपर्दिकायां क्षेपयित्वा पूर्ववद् मुखेऽप्रकं, ततो लिम्बुकरसमध्ये तापे धारयेत् दिन 7, ततः कायाः आवष्य कल्मषं Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 327 यत्नेनोत्तारणीयम् , यत् समसरावसंपुटं हण्डिकायां वेलुकां पूर्य निरन्ध्य मन्दमग्निं प्रज्वालयेत् / प्रहर 8 भस्म भवति, मरीच, तवक्षीर ग. 5, एकत्र वाल 1, द्वि-त्रिवेलायां ददेत् / घटिकैकया विश्रामे पूर्वायां च नवनीतेन देयम् / वर्ष 21 यावत् चटति दिन 27 मैथुनं वर्जनीयम् / तापं च ऊर्ध्वं प्रबले सति न वर्जनीयः / लोकेश्वरपोटलिकाभिधाना तथा तैलं वृन्ताकं च देयं उत्तरति // तथा वज्रमारणम् माक्षीकधौतसत्त्वानि पचेजम्बीरलुम्बुकैः। रक्तैस्तैः वज्रकं सप्तशतिः स्यादञ्जनं परम् // 1 // यन्त्र नं० 12 नृप 16 भुंगराज सह 3 / शिखा 13 | जारिपुत्र सहदेवी / मयूरशिखा जा सार उन्मत्तक 6 घना 12 / जली पंच हस्त 7 कृता लजालुका | मोहतीवर | इंद्रवारुणी भावे 4 पत्रिका पाषाण रोचनागो नागा रेभा दंडी| गडूचीव श्वेतार्क ते 14 / विष्णुकांता / वजा 15 इन्दुजा 1 मेष ब्रह्मारक / श्रु 11 नर 5 नेलु | तुष्ट शृंगी / च कावा जरारु 10 कन्या 8 द्राजटा / कुमारी - | अ रुदंती वज्रा भूनागविष्टालिप्तमुखायां कृता स्थिरा। तदुपरि धूतं नागं पक्षैकं मृदवस्तथा // 2 // : बहवो भवन्त्येकत्र ढङ्कनेन तालकलिप्तवज्राश्च, स्नुहीमध्ये पुटान्मृता / गुडमध्ये पुटेदेवं, मारणं रेखपूरकम् // 3 // . वज्रकन्दे पुटेत् सप्तवटवटं पिप्पलैः (लैश्च ?) / * त्रीणि च वारुणीमेष्योः क्षारबीडे धमेन्मृतः॥४॥ शुद्धरस ग. 5, प्रथमं शुल्वपत्राणि तापे अपक्कदुग्धमध्येऽर्द्धार्द्धन धारयेत् 21 आकर्ण्य गन्धक 20 भा. 1, सैंधव भा. 2, लिम्बुकरसेन प्रलेप्य पुटं देयम् / अस्य भस्म ग. 5, अम्लेन रसं मर्दयेत् , यावन्नष्टं पिष्टं भवति / क्षार 5, लवण 5, गलत्या जलं तेन शुद्धरसेन मर्य दिन 3 सूर्यतापे मर्दनं लोहपात्रे लोहमर्दकेन अपामार्ग-कोहलीपत्र-काष्ठानि दि. 3 धत्तूरक अर्कस्नुही कुरु लासरिका कुमारी पिंपलीत्वचा करीरत्वचा इङ्गोरीत्वचा एवं काष्ठानि दहेत् / गोमूत्रेण उल्हापेत / ततो जलेनोत्काल्य ततः स्वच्छजलेन मर्दयेत् दिन 7 सूर्यतापे / चित्रकमूलत्वचा जलेन शुद्धे दिन 7 तथा पूर्ववत् / 25 त्रिकटुकजलेन दि. 7 सूर्यतापे / ततः सरावसंपुटे हण्डिकायन्त्रे लवणपूर्णायां निरुन्ध्य चूल्हाधो धारयेत् दिन 21 निष्पन्नरसः / वडवानल: वालुवेला द्वि-त्रयेण देयः / द्विदिनं टालयित्वा पुनर्पुनर्देयम् / तत्रं दुग्धं अम्लं मधुरं च वर्जनीयम् , जलोदराणि नाशयति / दिन 21 दान्तिस्तथा मिश्रितं कृत्वाऽन्येषूदरे केवलंगुल्मादि तथाऽऽमवातक्षयरोग-पाण्डुरोगाणां शर्करया सह उत्परे दुग्धवाटउं 1 पिबेत् सन्निपातस्य मरिचेन सह // 30 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत रस ग. 1, गन्धक ग. 2 खल्वे मर्च काजलीकृत्वा त्रिफला ग. 3, त्रिकटुक ग. 3, वज ग. 1, चित्रक ग. 1, विडंग ग. 1, मुस्ता ग. 1, पुनर्नवा ग. 1, भांगि 15, गुल ग. 30, वत्सनाग ग. 1, आधिकेसररसनामचनकप्रमाणगुटिकां सर्वव्याधिषु दीयते / एतैरौषधैः प्रमाण हिङ्गुल 1 अर्कपत्ररसेन गुटिका गुडडालितचनकप्रमाणगुटिका चोलकुमारनामा सर्वव्याधिसर्वप्रसूतानां दीयते / 5 एतैरौषधैः प्रमाणं हिङ्गु टालयित्वा वज्रक्षीरेण गुटिकां जोवारिकणप्रमाणां सर्वप्रसूतानां पालवणं चोखा तन्दूलोदकं द्रेचः ( देयम् ) वज्रभेदरसः // रस ग. 1, नाग ग. 2, तैलं सारयित्वा मरीच ग. 1, वत्सनाग ग. 1, खल्वे मर्दयित्वा चूर्ण कृत्वा मेघनादः / शुल्व ग. 8 दिन 1 आंबिलीपत्ररस आरनाल शोधनीय रस वा. 8 आंबिलीपतु आरनाल दिन 2 उत्काल्य हाण्डीमध्ये गन्धक 8 अध ऊर्ध्व सरावं निरुन्धयित्वा पुटेत् / गजपुटं 10 अभ्रक ग. 8 नीलीरसेन मद्य तथा निर्गुण्डीरसेन च / अथ त्रिफलागोमूत्रेण च एवं पुट 4 अमृतं ग. 1, रस ग. 3, गन्धक ग. 5 काजलीं कृत्वा एकीकृत्य मर्दनीयः पञ्चामृतरसः॥ .. ___ रस ग. 1, अमृत वाल 1, गन्धक ग. 4 घृतकदलीपत्रउत्परे पत्रं लघुपटं पापडीयारसः, ताप्यं च अतिसारे देयम् // रस ग. 1, अमृत वा. 1, गन्धक वा. 2, काजलीं कृत्वा कुम्पकमध्ये निर्गुण्डीरसेन प्रहर 24 15 निरन्ध्य वालुकायन्त्रे प्रहर 3 भस्मार्करसः॥ अथ रस ग. 1 शुद्धगन्धक ग. 2, नागवेलिपत्ररसेन वार 7, तथा कुमारीरसेन वार 7, मेघनाद 7, पुनर्नवा 7, निर्गुण्डी 7, गोमूत्र 7, तथा बहुफली ग. 1, पिप्पलीमूल ग. 1, लिंबरस ग. 1, नाइ ग. 1 सर्व एकीकृत्य मर्दनीय भस्मसूतकम् // क्षुधाकरः / हरीयालपल 6, मेघनादरसः भावना 108 / ततः कण्टासेलक 1, अधोपुष्पी 2, 20 शङ्खपुष्पी 3, अपामार्ग 4, पुनर्नवा 5, भृङ्गराज 6, हरिद्रा 7, चित्रक 8, लिम्ब 9, धतूरा 10, श्वेतवटुक ११-एकादश औषधानां प्रत्येकं भावना 7, गन्धक प. 2, रस 2, जम्बीररसेन मर्दनीयः / पूर्वऔषधानां मध्ये तथा सैन्धवचाप्त 1 आरनालेन छण्टनीयः / तैलबिन्दु १-एवं एकीकृत्य भाध वच्छनाग भा. 1 एकत्र मर्दनीयम् वृद्धभस्मसूतकः॥ सर्वकुष्ठक्षुधाश्लेष्मणा देयम् / दक्खू नमोदारसिंहकम्पेलकखदिरकाथचतुर्णा प्रलेपेन भिल्लातक25 पालवणम् / भिल्लातक 600 तिलमाणं 1, बावची ना. 1 गुल म० // गन्धकपल ४–एवं भागत्रयं कारयेत् / भागद्वयेन गुटिका 90 बन्धनीया / तृतीया पिण्डिकाश्च तिलतैल सो. 1, अभ्यङ्गदिन 45 मध्यमकुष्ठसैन्धवं गलितमण्डलिकबाधिर्य नाशयति // तन्दुलैकद्विदद्रुघ्नयोः क्षिप्रचटिका कृता / पक्का च बीजतोयेन सटिके नाशिकादिके // 30 दिनङ्गदेया / भोजने ओदनं माघुना चक्रमर्दकचूर्ण सामदाक्या सप्त भावितं बधिरमण्डले देयम् , गद्याणैकं दिनं प्रति // 1 // Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 329 त्रिफला संचरीचूर्ण सम्लांशे गन्धकं कृतम् / कृष्णमण्डलके देयं विनाशाय पुनः पुनः // 3 // अतोऽष्टादशप्रसूतहरणं पित्तप्रसूतलक्षणम् प्रथमं अजीर्ण रसं शरीरे तेजस्तापं करोति / चटकाश्च रक्तमण्डलानि भवन्ति / हस्तपादललाटे दाचं स्यात् / केतकीसुमानि गौरमृत्तिकया लेपयेत् / खदिराङ्गारैस्तापयेत् , रात्रौ वारे धृत्वा प्रभाते उदूखले खण्डयेत् / रसं ग्राह्यं तद् रसं उत्काल्य तृतीयांशं ग्राह्यम् / एतस्य पली 2 शर्करा वा. 4 उपजीवयेत् दिन 3 / ततो रामपुरीपथ्या चूर्णक 1, पानीयक 1 उत्काल्य तृतीयांशं क्वाथं पिबेत् / दिन 3, पश्चात् बदरीअंतरत्वचा चूर्ण क. 1, जल क. 1 तृतीयांशं पिबेत् / ततः खदिरत्वक्चूर्णकं 1, उदक क. 1 तृतीयांशं पिबेत् दि. 3 एवं शोधनम् // 5 दिन 3 तापे दाघं शोषं च चटका उपशमन्ति // पश्चात् औषधं खदिर अंतरत्वक् भा. 1, पलाशत्वक् भा. 2, बीयावृक्षत्वक् वा. 2 एकत्र चूर्ण कृत्वा 10 उत्कालयेत् / पानीयघट 16. षष्ठमांशं गृहीत्वा क्वार्थ, ततः पाडयावृक्षचूर्ण भा. 1, जीर्णपिचुमन्दत्वक् भा. 2, व्याधिघातकवृक्षत्वक् चूर्ण भा. १-एवं भा. 3, त्रिफला भा. 4, उभयं भा. 3, उभयं भा. 7 एकत्र क्वाथेन गुटिका आंबलकप्रमाणा दिन प्रति बाह्ये तदुद्वर्त्तनम् / जातीफल भा. 1, टांकण भा. 4, हरिद्रा भा. 16, उपोट भा. 16, हीमज हरीतकी भा. 256, प्रपुन्नाट भा. 1024, सूक्ष्मचूर्ण जवकं जिनोद्वर्तनम् / पित्तप्रसूतउपशमनप्रयोगः // 15 श्रीराजवातप्रसूतचिकित्सा यथा प्रचलक्षुधा स्त्रीसेवाहेव्यासप्रबला शरीरे प्रस्वेदा गौरवर्णमण्डलानि बधिराणि भवन्ति / तापोऽधिको भवति तस्यौषधम् / शुद्धो सोमराजीचूर्ण भा. 1, प्रपुन्नाट चूर्ण भा. 1, कृष्णतिल्ल भा. 1, पाडलवृक्षत्वक् भा. 1, पिचुमन्दत्वक् भा. 1, त्रिफला भा. ३–एवं भा. 9 चूर्णं कृत्वा बिडालपदमात्रं प्रात अपराह्ने वेलाद्वयं देयात् / वार 7 उद्वर्त्तनं यथापूर्व कथितं वातप्रसूतं प्रणश्यति // 20 अतः श्लेष्मप्रसूतचिकित्सा आदौ देहे कण्डुमनन्तरं विचर्चिकासदृशं सदृशानि खसराणि भवन्ति पुतिर्निर्गच्छति / कण्डुका भवति, श्यामा भवति, क्षुधा प्रबला चित्तभ्रमः, तस्यौषधम्-सहचर भा. 1, गुलीजीभ भा. 1, उपलोट भा. 1, त्रिफला भा. 3, आंबिली रोमी वृक्षत्वक् भा. 1 त्रिकटुक 3, मिंढी आवलि भा. 1, व्याधिघातकवृक्षत्वक् भा. 1, चित्रक भा. 1, वज भा. 1, विडंग भा. १-एवं औषध 16 एकत्र 25 मधुघृतेन गुटिकां बदिरप्रमाणां, वेलाद्वयेन गुटिका 2 देया, बाह्ये उद्वर्त्तनम् अश्वत्थवृक्षत्वक्चूर्ण गोमूत्रेण उद्वर्त्तनमेवं दिन प्रति श्लेष्मकुष्ठनाशने प्रयोगः / / उदरकुष्ठचिकित्सा यथा उदम्बरउदराणि भवन्ति / शरीरे तापं करोति, प्रस्वेदो भवति, घर्घरशब्दं करोति, अतिक्षुधां गलति हस्त-पादादिकं, श्यामा करोति, अत औषधपूर्व पित्तक्रिया कार्या, उद्वर्त्तनं श्रीराजपूर्वोक्तं तैलं 30 कथ्यते, सर्षपतैल क. 4, पक्कइन्द्रवारुणीफलानि लक्षचूर्णतैलेन पचेत्, तेन गात्रमभ्यङ्गयेत् / बाह्ये 42 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत उद्वर्तनं उदम्बरनाशः / विचर्चिकाकुष्ठक्रिया / पाद ऊर्श्वे दातुं प्रमाणमात्रे भवति, जोवारिकणसदृशा स्फोटकाचे निर्गच्छति, तत्र स्थाने तेजः करोति / महाकण्डु भवति, औषधं त्रिफलाचूर्ण भा. 3, पिचुमन्दचूर्ण भा. 3, विडङ्ग भा. 1, चित्रक भा. 1, वज भा. १-चूर्ण कृत्वा भक्षयेत् / बाह्ये तैलं नालिकेर कोपरा भा. 1, सिंचलि भा. 1, दांति भा. 1, सोमराजी बीज भा. 1, चणा भा. 1, 5 उन्मत्तक बीज भा. 1, तुम्बिनीबीज भा. 1, सिणबीज भा. १-एते (तानि) अष्टौषधानि सर्षपरि तैलेनाभोग्य पातालयन्त्रे तैलं अन्धपात्रे / औषधानि अतिविष भा. 1, सूंचल भा. १-एवं भागं सूक्ष्मचूर्ण कृत्वा अधःपात्रे क्षेपयेत् / तैलं पात्यते, अनेनाभ्यङ्गयेत् / विचर्चिकानाशः॥ अतश्चतुर्विधदद्रुः कथ्यते रसदद्रुः, चर्मदद्रुः, गजदद्रुः, कर्कुटदद्रुः तृणपत्ररस भा. 1, बलपत्ररस भा. 1, वमनीपत्ररस 10 भा. 1, सामुद्रक भा. 1, रक्तगुञ्जाचूर्ण भा. १-एकत्र कृत्वा ताम्रपात्रे कलिकेन सह सूर्यतापे धारयेत् यावन्नीलवर्ण भवति, दिन 3 पश्चाद् ददु छाणकेन घर्षयित्वा लेपयेत् / पश्चात् श्रीरागउद्वर्तनं कार्यम् , चतुर्विधदटुं नाशयति // महाक्षारं कथ्यते ____ अर्कपत्रस्तप 1, सामुद्रिक 1, कनकफलपाली 2, थोहरकाष्ठ हाथ 2, भिल्लातकः 50, सोमराजीफल पाली २-गोमूत्रेण सर्वाणि औषधानि मर्दयेत् / पश्चाद् दृढकुम्भनिरुन्धनं कृत्वा सूर्यतापे 15 शोषयित्वा पुटेत् / पुनः पुनः उपरि भस्म शुभ्रम् / अत औषधानि भा. 3, त्रिकटुक भा. 3, वज भा. 3, विडङ्ग भा. 3, चित्रक भा. 1, पुनर्नवा भा. 1, कुष्ठ भा. 1, जीराद्वय भा. 2, अजमोद भा. 1, ल्हसण भा. 1, हिङ्गु भा. 1, सिन्धव-सौवर्चल भा. १-एतेषां सूक्ष्मं चूर्ण कृत्वा पूर्वक्षारसमं मेलयित्वा सर्वोदरव्याधिषु देयम् , पित्ते न हि / प्रमेहे मूशलीचूर्ण, गडूची-सत्त्वसंयुतम् / दुग्धाज्यमधुनो देयं, प्रमेहं नाशयेद् ध्रुवम् // शुद्धसोम भा. 1, आंबला भा. 1, लिम्ब अन्तरत्वक् भा. १-त्रयाणां भूकी नवतर झिणि हिणी पित्तविषये // रस ग. 1, वच्छनाग वा. 2, गन्धक ग. 2, एकत्र मर्दयेत् कज्जलिका स्यात् / ततः खल्वे भल्लातकफलेन प्रहर 1 मर्दयेत् / चित्रकरसेन घटिका 4 मर्दनं कृत्वा काचकुम्भके प्रक्षिप्य कपडां माटी 25 दत्त्वा वालुकायन्त्रेऽधोमुखकुम्भकं कृत्वा दीपशिखावह्नौ प्रहर 3 पाकः कार्यः / निष्पन्नरसो भवति / सोमराजीफलानि गोमूत्रमध्ये धारयेत् / प्रहर 8 तुसान्युत्तार्य स्तुक्षाघं धारयेत् , ततो गोमूत्रं उत्कालयेत् , घृतसदृशस्तम्भितेन सिद्धरस भा. 1, साधितसोम भा. 3, स्तम्भितमूत्रेण गुटिका 21 तथा दुग्ध सेर 1 मध्ये सोमा बिडालपदमात्रं, तस्याः पत्राणां चूर्ण तन्मात्रं प्रक्षिप्य आध्रकणं देयम् / दधि भवति, मन्थयेत् , छासि रोगिणो देया, घृतं च / तेन घृतेन गुटिका 21 आदौ समुहूर्ते गोमूत्रगुटिका 30 आमलकप्रमाणा दिन प्रति देया / चतुर्थे दिने श्वेतस्थाने स्फोटका जायन्ते / प्रथमसप्तके गोमूत्रगुटिका / द्वितीयसप्तके मधुगुटिका / तृतीयसप्तके घृतगुटिका / सप्तकैकोर्ध्व शुद्धसोमा, तथा छायायां शुष्क प्रमाणां 20 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / शुद्धगोमूत्रेण गुटिका, वास्ते लेपः / तिलका भवन्ति / तृतीये वर्णे पतति / एवं दिन 21 तथा पुनः पुनः दिन 6 पश्चात् वा स्यात् / षष्टितन्दुलोदकं भोजने / दुग्धं घृतं छासिं च शुद्धा / आंबला भा. 1, बहेडा भा. 2, हरीतकी भा. 3, विडंग भा. 4, चित्रक भा. 5, भिल्लातक भा. 6, सोमराजी भा. 7, लोहचूर्ण भा. 8, भृङ्गराज भा. 9 काढुंबरी भा. 10, चूर्ण ग. 3, तन्मध्ये रस ग. 1, गन्धक ग. 2, मूर्छार्थ पूर्वोषधं ग. 3, मध्ये कृत्वा अम्लतक्रेण पिबेत् / मुखे गुलभेला 2, गल्वामध्ये धारयेत् / बाह्ये / कटुतैलेनाभ्यङ्गयेत् / तापे धार्यते, सप्तकैकेन जायन्ते / सोमराजी गोमूत्र दिन 3, ततः प्रक्षाल्य चूर्ण, ततो मूलक्वाथभावना 1, खदिरभावना 1, कालूंबरीकाथभावना 1, भृङ्गराज भा. 1, अस्य भा. 1, त्रिफला मारितभावारितरलोह भा. 1, उभयं ग. 3, स्फोटकान्तरं अम्लं तकं पिबेत् / अम्लं क्षाराम्लं वर्जयेत् / ___तथा स्फोटकार्थे द्वितीयो योगो यथा—चित्रक भा. 4, विडंग भा. 4, तालग भा. 4, कृतनालक भा. 4, गुल भा. 4, भल्लातक भा. 14, रस भा. 6, गन्धक भा. ८-एतच्चूर्णं ग. 3 माता 10 तक्रेण पिबेत् / दिन 7 वाले कटुतिलेनाल्प( भ्यङ्गम् ) / शेषं पूर्ववत् // तथा तृतीयो योगः-गन्धक ग. 1, चित्रकसद्यचूर्णत्वचा ग. 1, शुद्धसोमा ग. १-त्रयाणां चूर्ण घोलेन सह क. 1 पिबेत् / बाह्ये प्रलेपो यथा-पूर्वत्रयाणां चूर्ण दुग्धमध्ये कृत्वा आधुकणं देयं दधि भवति, तस्य घृतं तेन प्रलेपः / सप्तैकेन श्वेतचित्रस्थाने स्फोटकाः जायन्ते / ततो गोमूत्रेण शुद्धा सोमा गुटिका ताम्रभाजने स्नेहेन सह नीलवर्णेन घृष्ट्वा, ततो बाह्ये प्रलेपो देयः / तावद् यावद् वर्णे पतति / स्तोकचित्रे 15 बाह्योत्पाटनविधिः-नालिकेर कोपरा भा. 1, सीसव त्वचा भा. 1, भल्लातक भा. 1, दन्तीत्वचा भा. २एकत्र कृत्वा सर्षपतिलेनाभ्यङ्ग्य पातालयने तैलम्, श्वेतपांपनि छाणखण्डेनोत्पाट्य तैलेनाभ्यङ्गयेत् प्राचयति। ततस्तिलतैलेन यावत् शेजति, अनया रीत्या तृतीयवेलायां श्वेतषांपण नाशयति तथा उत्पाटं ज्वालामुख्या। ____ अथ सद्यःत्रिकालेन तथा तेजत्तयरी-सज्जिकाहरितालकृष्णधत्तूरकक्षारु झिझिरटक्षारु श्वेत ऊष भा. ६-सर्वेषां आरासणानूना / खण्डिका भा. 6, उभयं भा. 12 सूक्ष्मं कृत्वा कसीसपानीयेन 20 वर्तयित्वा श्वेतव्रणं छाणखण्डेन घर्षयित्वा लेपो देयः, उत्पतन्ति / ततः कुङ्कुमं प्रधानं लिम्बुकरसेन आमाम्लेन च प्रलेपो देयः, यावद् वहति / तथा गन्धा रोहउदो हलिदाई हरियाल तह मणसिलाइसहिओ तिलतिले पाइमीसियउ नवपत्रि रविचिन रणि तत्तउ दिन 7 दह्र विगिं चीपां च खसुज्झित्त न गणेइ सर्ति हिलेविहिलेवियउ कोढु विपल यह नेइ // ___ मध्ये त्रिफला भा. 9, लोहपत्री भा. 1, खदिरक्वाथ भावना 7, गोमूत्रकाथ भावना 7, भृङ्गराज 25 भावना 7, रस भा. 1, गन्धक भा. 1, कज्जलिकामध्ये कृत्वा दिनं प्रति वाल 12, कुयति गन्धक ग. 1, शुद्धसोमा ग. 1, कृष्णोदम्बरिका ग. १-त्रयाणां चूर्णं दुग्ध भ. 1 मध्ये कृत्वा आध्रयेत् दधि भवति / घोलं कृत्वा पिबेत् , विस्फोटकाः जायन्ते / श्वेतचित्रकटुतैलेनाभ्यङ्ग्य तापे सणकं सवाते निवाते यथा स्थातव्यम् / तृतीये सप्तके मध्यत्रयाणां चूर्ण जलेन पातव्यम् / षटि चोखा खांडु दुग्ध घृतभोजी / तथा मग कृष्णचोखा क्षिप्रचटिका घृतं भोजने बाह्ये श्रुथा बावची कृष्णोदम्बरिकयोर्लेपः वर्णे पतति। तथा, रोष्कवण-30 सटकाहनालिके मध्ये भृङ्गराजरसु इन्द्रवारुणीपत्ररस जासूणपुष्परस-एतैर्भरणीयम् / मृत्तिकया निरुन्ध्य भूमिमध्ये कृत्वा मृत्तिकया पूर्वमुत्पाट्य पुटं देयं स्तोकस्तोकेन तेन मध्ये भागेन प्रलेपनं वर्णे पतति // Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत नमस्कारव्याख्यानटीका। हेम ग. 1, तार ग. 3, रस 16, पीठी शुद्ध शुल्व ग. 12 पत्राणि लेप्यं पुटेत् तुलनु पुटम् // अथ पञ्चामृतरसः कृतलोहस्य भागाष्टौ, गन्धकामृतपूषणम् / अमृताभ्रस्य वाष्टौ, चूर्णमेकत्र कारयेत् // 1 // .................. काचकुम्पे दिनद्वयम् // 2 // पचितं वालुकायन्त्रे, वह्निचूर्ण रसायनम् / गुञ्जामात्रं ततो वृद्ध्या, देयं कृशेत्कये शुभम् // 3 // गौडे कसी च वालाके लताकसीचकाजुषः / सौराष्ट्रायां अगिनु, अर्बुदविषये कौङ्कणे अलिन्तु (?) // 4 // राजचम्पं तथा चाम्लपत्राणि सदृशानि च / तेषां रसेन संभाव्य, लोहचारितरं भवेत् // 5 // षष्टितन्दुलसंमिश्रं, मीमाख्यो(ख्य)रसमारितम् / लोहपत्रैस्तथा हंसगन्धकैर्मुनिसंयुतः॥६॥ स्त्रीपुष्पैः सप्तवारांश्च, सरपुङ्खारसैः पुनः। सजलनालिकेरे सूक्ष्मं दिनान्येकविंशतिः // 7 // आमलकरसं मध्ये, तापेऽवधारयेत् ततः। गलायतुं कवालयेत् , मधुना वालतुर्यकाम् // 8 // विविधं गगमृमभक्षं, कीटं च काचपत्रं करोति / विकृति कीटं तु ग्लानुदं तथा काचम् (?) // 9 // कृष्णा_ हूतहारसेन सप्तभावितम् / सटङ्कणं धमेत् खोटं काटं वर्गधकेन तु // 10 // पुनर्धर्मे भवेद् भस्म, मृतं च रसायनम् / कृष्णाभ्रताम्हि भस्मं च, गन्धकरसकजली // 11 // शुल्वचूर्णे समं सर्वे, मर्दितं त्रिफलाजलैः। वालुकायत्रके पक्वं, यामाष्टौ सर्वरोगहम् // 12 // पञ्चामृतं रसं देयं, शुद्धं चटितमातृकम् / रसस्य त्रिगुणं गन्धकजली भावयेत् ततः॥ 13 // मीणारञ्जमहूसारकम्बीरछुण्ढिबीजकैः / . पानाकाय फलव्योषदेवफलैस्तु सप्तधा // 14 // सैकोत्तरे पलाकत्रिभागमेकत्र कारयेत् / भैरवः सन्निपातेषु, रसः कपालवातजैः // 15 // दोषस्य निग्रहे नाशो राताष (?) देयो ज्ञात्वाऽनुमानतः / / काचतुरनन्तरं वा. 4, ततो जलं करणीयम् , पथ्ये साकर करंबउ देयः // इति रसायनं समाप्तम् // तिहुयणसामिणिविजा महमंतो मूलमंत-तत्ततियं / इत्थ ठियं पि न नजइ गुरूवएसं विणा सम्मं // 26 // [30] . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 333 यथा देववन्दनायां पर्यन्ते अष्टा(ष्टमा )धिकारे गाथायुगलेन जिनं वीरमेकगाथया, तथा द्वितीयगाथया श्रीवर्धमानं भावजिनं, यतोऽस्य शासनं वर्तते, अन्तो वन्दितम् / तथाऽस्मिन् स्तवनेऽपि त्रिभुवनस्वामिनः श्रीवर्द्धमानस्य विद्या / तथा महामन्त्रोऽपि श्रीवीरस्वामिनः तथा मूलमन्त्रोऽपि च / तथा चाह श्रीवर्द्धमानस्य धर्मचक्रम् / सर्वेषां तीर्थकराणां धर्मचक्रं भवति यावदन्तं तीर्थ वर्तते तावत् कालः तस्य धर्मचक्रम् / सांप्रतं श्रीवर्धमानतीर्थं च वर्तते ततो धर्मचक्र, श्रीवर्धमानस्वामिनी विद्या, समूलमन्त्रं च / / तथा चाह-महानिशीथस्तवने कथितं यथा ____ "अरिहाण नमो पूयं०" [इत्यादि षट्त्रिंशद्गाथात्मकं स्तोत्रमेतत्संग्रहेऽन्यत्रोपन्यस्तत्वान्नात्र लिख्यते। पश्चात् पञ्चपरमेष्ठिचक्रापरनामचक्रोद्धारविधिः, ध्यानविधिः, आत्मरक्षाविधिः, षट्कर्मविधिरित्यादिविषया आलेखितास्तेऽपि अस्मिन् संग्रहे सत्त्वान्नात्र पुनरुल्लिख्यन्ते // ] संतिनाह सासणसुय-खित्तदेवया समस्तदेवा वच्चाण-"ॐ नमो अरहओ भगवओ सिज्झउ 10 मे भगवई जयवीरे सेणवीरे बद्धमाणवीरे जये विजये जयंते अपराजिए स्वाहा // " जिणमुद्द 1 कलस 2 परमिट्टी 3 अंग 4 मंजलि 5 तहासणा 6 चक्का 7 / सुरही ८ही ९पवयया 10 गुरु वा 11 सोहव 11 तहंजली 12 चेव // तओ गुरुभिः सिजं अणुजा अणुजाणइ वद्धमाणविजं से। देइ पयट्ठा य मंते अणुजाणइ पच्चारण अट्ठारणाइ विहि त्ति // ___“ॐ नमो भगवओ महईमहावीरवद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे महई महाविजा वीरे जयंते अपराजिए ॐ ह्रीँ स्वाहा ॥"-एष वर्धमानमन्त्रः // - "ॐ क्ष्णं (क्षं)"-अधिवासनायन्त्रः / / तथा-"ॐ हाँ हूँ नमः वीराय स्वाहा"-प्रतिष्ठामन्त्रः // एतेऽनुजाप्यन्ते उपाध्यायस्य दाहिणकन्ने पत्ताए लमवेलाए इमं विजं वार 3 कहेइ // 20 . . "ॐ नमो अरहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ नमो ओहिजिणाणं, ॐ नमो परमोहिजिणाणं, ॐ नमो सव्योहिजिणाणं, ॐ नमो अणंतोहिजिणाणं, ॐ नमो भगवओ अरहओ महावीरस्स सिज्झउ मे भगवई महई महाविजा वीरे महावीरे सेणवीरे जये विजये जयंते अपराजिए अणिहए ॐ हाँ स्वाहा // " 25 उवयारो वा चउत्थेणं साहिज्जइ / "ॐ नमो खीरासवलद्धीणं, ॐ नमो महुआसवलद्धीणं, ॐ नमो संभिन्नसोयाणं, ॐ नमो पयाणुसारीणं, ॐ नमो कुट्ठगबुद्धीणं, जमियं विजं पउंजामि सा मे विजा प्रसिज्झउ // " ___“ॐ अवतर सोमे सोमे कुरु कुरु, ॐ वग्गु निवग्गु सुमणे सोमणसे महु महुरे ॐ फट् स्वाहा ॥"-अधिवासनामन्त्रः / 30 तथा सुश्रावकस्य त्रिभुवनस्वामिनीविद्या, महामन्त्रः, मूलमन्त्रः, इति तत्त्वत्रिकम् / तथा देव-गुरुधर्मविषये देवता महावीरः / मणि-कनक-रत्नप्राकारत्रयमध्यस्थं अशोकवृक्षतले रत्नमयसिंहासने चतुर्विधं Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृतं छत्रत्रयविभूषितं पूर्वाभिमुखं देवं ध्यात्वा, ततः आग्नेयादि श्रीगौतमस्वामिप्रभृतिद्वादशपरिच्छदयुतं देवं 1, गुरुगौतमादिगणधारावानं कृत्वा 2, धर्मचक्रममे 3, स्थितं ध्यायेत् / इति आचार्योपाध्यायैर्ध्यातव्यम् / " अरिहाण नमो पूयं०" इत्यादिकथितमन्यैः साधुभिर्न ध्यातव्यम् , दुर्गन्धमलिनगात्रत्वात् , आशातनाभयाच / तथा मन्त्रः चतुःसप्तति अक्षरप्रमाणं, यथा5 “ॐ नमो भगवओ वद्धमाणसामिस्स जस्सेयं चकं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जुए वा रण्णे वा रायंगणे वा वाहणे बंधणे मोहणे थंभणे ॐ सव्वसत्ताणं अपराजिओ भवामि स्वाहा // " अथ महावीरस्तवनम् // सुरविहियसमोसरणं महिमंडलमंडनं महावीरं / संभरह भरहखित्तम्मि संपयं पयडतित्थयरं // 1 // आसाढसियछट्ठीए पाणयपुष्फोत्तराउ अवयरियं / कुंडग्गामे सिद्धत्थपणइणीतिसलाओ उयरम्मि // 2 // चित्तसियतेरसीए सुरगिरिसिंहासणम्मि इंदेहिं / ण्हवियं कुंकुमचंदणसव्वोसहिसुरहिदब्वेहिं॥३॥ कंचणवन्नं वरसीहलंछणं सुसत्तहत्थउच्चत्तं / मग्गसिरकसिणदसमीइ वरिसदाणेण निक्खत्तं // 4 // माहवसियदसमीए केवललच्छीए गाढमुवगूढं / कत्तिय अमावसाए सिद्धिम पावाइ छटेणं // 5 // मणि-कणय-रयणनिम्मियपायारभितरे असोयतले। चउदेहं छत्ततयं कयरेहं चलियचमरोहं // 6 // अग्गेयाइ विदिसाए ठियसिरिगोयमाइपरिसाए / बारसयं सहिलासं सुयधम्मं रम्मओसरणं // 7 // उदयंतकोडिदिणयर जलंतगुरु धम्मचक्ककिरणेहिं / आयासं पायालं उज्जोयंतं महियलं च // 8 // 'पणव-नमो भगवओं' पभिई चउसहियसयरवन्नेहि। . साहंतेहिं सिरिवद्धमाणसामिस्स सहिरेहिं // 9 // रण-रायंगण-जुए-जंभण-थंभण-मोहणकरेहिं / अपराजिओ भवामि सन्वेसिं जीवसत्ताणं // 10 // बंभेण सालयावाईयासुभूसयण एगभत्तेणं / मुणिपडिमापरिमाणं कुसुमसहस्सेहि अञ्चेयं // 11 // निजियचिंतामणि-कामधेणु-कप्पहुमं इमं चरियं / सुमिणोवएस सोहग्गमाइमग्गहपवग्गंपि // 12 // इय वीरजिणं सहस्सजक्खमायंग-सिद्धदेवी य / सुमणोवएस सो बझं अज्झप्पं झायह तिसंज्झं // 13 // इति महावीरस्तवनं समाप्तम् // यदा यदा शुभध्यानादिकं प्रारभ्यते तदा तदाऽष्टाहिकापूर्वकम् , यतः–पञ्चदशकर्मभूमिपूत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरष्टाहिकापूर्वकाणि सर्वाणि कर्माणि क्रियन्ते, संवत्सर-चातुर्मासेषु अष्टाहिकाऽतः शाश्वती // इति द्रव्यनमस्कारप्रभावः कथितः / / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 335 ___10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / तथा भावनमस्कारमाह-'तत्ततियं'-तत्त्वत्रिकं देव-गुरु-धर्मविषयं, तथा चाह भावनमुक्कारविवजिएहि जीवहिं अकयकरणाई / गहियाणि य मुक्काणि य अणंतलो दवलिंगाई // [-श्रीजिनचन्द्रसूरिकृत-पंचनमुक्कारफलथुत्त' गाथा 67 ] भावनमस्कारं सम्यक्त्वं तच्च जीवाइनवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं / भावेण सद्दहंतो अयाणमाणे वि सम्मत्तं // त्रैलोक्यद्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्या, पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत-समिति गति ज्ञान चारित्रभेदाः। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितं प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥ व्याख्या-त्रैलोक्यमिति-अतीत-वर्तमान-भविष्यभेदेन त्रिधा कालः, परमवसर्पिणीभेदेन द्विधा कालः, विंशतिकोटिकोटीनां सागराणां समाप्यते षडराः, अवसर्पिण्यां विपरीतास्त एव, तत् उत्सर्पिण्यां तथा कालो द्वादशभिररैः पुनः। वर्तमानं भविष्यं चातीतं चक्र प्रवर्तते // अत्राप्यनन्तरमुक्तमस्ति तथा तत्त्वत्रिकं बीजं 'अहं' इति, तथा दधति-वसतिमध्ये वर्णा अकार-हकारयो रिति युगमथ शब्दब्रह्मपदं मुनयो जगुः / यदमृतकलां बिभ्रन्निन्दुज्वलां रविभार्चिषां, ध्वनयति परब्रह्मध्यानं तदस्तु पदं मुदे // अकारोऽयं साक्षादमृतमयमूर्तिः सुखयति, .. स्फुरद्रेफो रत्नत्रयमधिकृतं संकलयति / समोहं हङ्कारो दुरितनिवहं हन्ति सहसा, स्मरेदेवं जीवाक्षरमिति विभिन्नाक्षरपदम् // "ॐ हाँ श्रीँ अ है अ सि आ उ सा नमः।" सिद्धचक्रस्य मूलमत्रोऽयम् / तथाऽनेन मूलमन्त्रं महामन्त्रं तत्त्वत्रिकं प्रतिपादितं, परं यन्त्रमध्येहमध्ये साध्यनाम, ततो वलकानि-प्रथमवलके मूलमन्त्रः, द्वितीयवलके पञ्चपरमेष्ठिनः, तृतीयवलके ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपो-वीर्याः, चतुर्थवलके षोडशस्वराः, ततोऽष्टदलानि, तेष्वष्टौ वर्गाः, ततो ह्रीँकारेण त्रिवेष्टितं क्रौंनिरुद्धं, ततोऽप्मण्डलं कलशाकारं कलशस्य मुखे वकाराः 9, अधो नवग्रहाः स्थाप्याः। ततः पृथिवीमण्डलं दिक्षु किं चत्वारि, कोणेषु ल 4, अग्रे दक्षिणभागे क्षेत्राधिपतिः, वामभागे गुरुपादुकाः // 30 इति मण्डलविधिः // जाप-ध्यानयोः फलं पूर्वोक्तमत्र स्थितमपि गुरूपदेशं विना न ज्ञायते // सुमरियमित्तं पि इमं तत्तं नासेइ सयलदुरियाई / / पारंपरेण नायं तं नत्थि सुहं न जं कुणइ // 27 // [31] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्राकृत व्याख्या-स्मरणमात्रमिदं तत्त्वं नाशयति सकलदुरितानि परं तत्त्वं पारम्पर्येण गुरुपरम्परया तथा प्रथमानुयोग-गणितानुयोग-द्रव्यानुयोग-चरणकरणानुयोगेभ्यस्तथा लौकिकशास्त्रसारमध्याच्च ज्ञानं, तन्नास्ति सुखं यदन्त इह मर्त्यलोकेऽपि न कुरुते, तत्त्वे प्रयुक्ते सति लब्धय उत्पद्यन्ते / तथा आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लमोसहि चेव। संभिन्नसोय उजुमइ सम्वोसहि चेव बोधव्वो // 1 // चारण-आसीविसा केवली य मणनाणिणो य पुव्वधरा।। अरिहंत चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा य // 2 // खीर-मह सप्पिरासव-कुट्रबुद्धी पयाणुसारी य / तह बीयबुद्धिन्तेयस-आहारग-सीयलेसा य // 3 // वेउब्वियलद्धी अक्खीणमहाणसी पुलाका य / परिणामतवसेणं एमाइ हवंति भणिय लद्धीओ // 4 // भवसिद्धि य पुरिसाणं एयाओ हवंति भणिय लद्धीओ। भवसिद्धि य महिलाणं जित्तिय जायंति तं वुच्छं // 5 // अरिहंत 1 चक्कि 2 केसव 3 बल 4 संभिन्ने य 5 चारण 6 पुव्वा 7 / गणहर 8 पुलाग 9 आहारगं 10 च नहु भविम(य)महिलाणं // 6 // अभवियपुरिसाणं पुण दल पुग्विल्लाउ केवलित्तं च / उज्जुमई विउलमई तेरस एयाउ न हु हुंति // 7 // असति-जिय महिलाणं पुण एयाओ हुंति भूयलद्धिंसु / महुखीरासवलद्धिओ नेया सेसाओ अविरुद्धा // 8 // 20 एतासां लब्धीनां सुखं करोतीत्यर्थः / पंचनवकारतत्तं लेसेणं संसिअं अणुहवेणं। सिरिमाणतुंग-माहिंदमुजलं सिवसुहं दितु // 28 // व्याख्या–पञ्चनमस्कारतत्त्वं श्रीमानतुङ्गसूरिभिस्तथा सुश्रावकमहेन्द्रसहितैः ब्राह्मणपाटके अनुभवः कृतः, ततः प्रकाशितम् , ततो यतीनां सावद्यानुभवं कर्तुं न युज्यते, ततः श्रावकयतीनां संयोगेनानुभव 25 उत्पद्यते, यत उक्तम् - शानं क्रियादिविरहितं शिवदं न दृष्ट, नापि क्रियां श्रुतमृते शिवशर्महेतुः। एतद् विचिन्त्य सुधिया द्वितीयेऽपि यत्नः, कार्यः प्रमादमदिरापरिवर्जितेन // 30 तथा संयोगेन पारत्रिकफलं स्यात् , ततस्तं गीतार्थसखाऽयं, दर्शितं मोक्षार्थे श्रीमानतुझं उच्चैःस्थं लोकाग्रस्थितं महेन्द्रं महाप्रधानं शिवसौख्यं दिशेत् // संभरह पढह झायह णिचं घोसेह णमह अरिहाइ / सग्गपयं जइ इच्छह तस्सेव य अत्तणो णाणं // 29 // . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 337 व्याख्या यदि यूयं स्वर्गपदं स्वर्गापवर्गमात्मनो ज्ञानं च इच्छत, तदा एतत् स्तवनं संभरत, पठत, ध्यात, नित्यं घोषयत अरहा( अर्हदा )दीन् पञ्चपरमेष्ठीन् नमत / कोऽर्थः ? एतस्मिन् स्तवने ध्याते सति आत्मनो ज्ञानमुत्पद्यते, भणितं च मोहत्यागे यदात्मानं, यस्यात्मनि वेत्ति यत्। तदात्मानमात्मना शानं, तच्च स्यात् शुद्धदर्शनम् // आत्मविज्ञानिनां दुःखं, तिर्यग-नारकसंभवम् / जन्तूनां हीयते शीघ्रं, शुद्धदर्शनलाभतः॥ . * ननु उवसग्गो पीडा कूरग्गहदसणं भयासंका। जइ वि न हु हुंति एए तह वि सगुल्झं भणिज्जासु // 30 // व्याख्या-ननु इति वितर्के / तिर्यग्-मनुष्य-देवकृत उपसर्गः, तथा व्याधि-दारिद्य-मानसीकृता 10 पीडा च, क्रूराहदर्शनं, भया अनेकविधास्तेषां आ ईषत् स्तोका, यद्यपि एते न भवन्ति, ततोऽपि सगुह्यं श्वेतध्यानं कर्तव्यमिति, एतावता आर्त-रौद्रनिषेधः // एसो परमो मंतो परमरहस्सो इमं तिहुयणम्मि / ता किमिह बहुविहेहिं पढिएहिं पुत्थयभरेहिं // 31 // व्याख्या-एषः परममन्त्रः, परमं गुह्यं त्रिभुवने निश्चयेन, किं बहुविधैर्नानाशास्त्रैः पुस्तकभारैः / 15 उक्तं च मुत्तूण बारसंग त एव समरणं कीरए जम्हा / अरिहंतनमोकारो तम्हा सो बारसंग त्ति // इति स्तवनं सारसमूहमेकत्रिंशद्भिर्गाथाभिः समुद्धृतं श्रीमानतुङ्गसूरिभिः प्रवचनरहस्यं संक्षेपात् // तथा एतासां व्याख्यानं, तथा टीका कृतेति // समाप्तेयं नमस्कारव्याख्यानटीका // परिचय 'नमस्कारव्याख्यानटीका' नामे रचायेला ग्रंथनी ह० लि. प्रति श्रीमुक्तिकमल जैन ज्ञानमंदिर, वडोदराथी अमने मुनिराज श्रीयशोविजयजी महाराज मारफत प्राप्त थई हती / आ टीका श्रीमानतुंगसूरिए रचेला 'नवकारसारथवण'मां प्रसिद्ध थयेल स्तोत्रने अनुलक्षीने रचवामां आवी छे एवं 25 जाणवामां आव्युं त्यारे हर्ष थयो / प्रथम क्षणे लाग्युं के श्रीमानतुंगसूरिए पोताना स्तोत्रमा जे अनेक विषयोनो संग्रह करीने 29 मी गाथामां जे प्रतिज्ञा करी छे तेनुं रहस्य आ टीकाग्रंथथी स्पष्ट थई जशे पण ए टीकाना अंतरंगमां ऊतरवानो अमे जेम जेम प्रयास करवा लाग्या तेम तेम ते टीका अत्यंत गूढ लागवा मांडी। अनेक विषयोना संग्रहथी भरेली आ टीका स्वयं विशिष्ट ग्रंथ जेवी जणाई। आ टीकाग्रंथनी प्रति 50 पानानी छे ने ग्रंथ बे विभागमां वहेंचायेलो छ / प्रथम विभागमां 30 'नवकारसारथवण' स्तोत्र मूलरूपे आपेलं छे / तेना पछी आ स्तोत्रने लगतो 'साधनविधिफल' नामे आम्नाय छे, जे 'पंचपदाम्नाय' शीर्षकथी प्रगट कयों छे अने तेना उपरथी एक कोष्टक पण तैयार 20 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत 338 नमस्कारव्याख्यानटीका करीने आप्यु छे / आ सिवाय श्रीजिनप्रभसरि वगेरे आचार्योए रचेला स्तोत्रो, तिजयपहुत्त स्तोत्र अने तत्संबंधी मंत्रो, ज्वालामालिनी मंत्र वगेरे छे / वळी, नमस्कारने लगता केटलाक मंत्रो पण आ विभागमां संग्रहायेला छे, जे अन्यत्र प्रगट करेल छ / बीजा विभागमा 'नवकारसारथवण' नी जूदा क्रमे गाथाओ आपीने ते ते गाथाओनो शब्दार्थ 5न आपतां तेना आम्नायोनो संग्रह आप्यो छे, जे जूदा जूदा विषयो उपर प्रकाश पाडे छ / ए विषयोमां खास करीने विविध चक्रो, यंत्रिकाओ, चूडामणिशास्त्र, आयशास्त्र, पंचस्वरोदय, शरीर-स्वरोदय, नाडीशास्त्र, ज्योतिष, अर्धकांड, वैद्यकशास्त्र, जैनतत्त्वज्ञान, मंत्रो वगेरे अनेक विषयोनो संग्रह को छ / - आ विषयो ऊपर प्रकाश पाडवाने अमे केटलाक विद्वानोनो संपर्क साध्यो परंतु ए प्रयास संपूर्ण 10 सफळ थयो नहि / अमे स्वयं आ ग्रंथने ऊकेलवा-रहस्य पामवा प्रयत्न कर्यो पण स्तोत्रकारे जे रहस्य गूंथी दीधुं छे ते स्पष्ट थई शक्यु नहीं; आथी ए ग्रंथ जे स्वरूपे अमने मळ्यो छे ते स्वरूपे मूलरूपे प्रगट करवानो छेवटे निर्णय लीधो। आ टीकाग्रंथमा घणी अशुद्धिओ हती / बीजी एक प्रति मळी आवेली खरी, पण तेमांये तेवी ज अशुद्धिओ जोवामां आवी / आथी भाषानी दृष्टिए सुधारीने ए ग्रंथ जेवो ने तेवो अमे 15 अहीं प्रगट करीए छीए / संभव छे के एमां अनेक अशुद्धिओ रही जवा पामी होय / ___ आ टीकाग्रंथमा आवता 'सिद्धचक्रस्तोत्र' नी स्वतंत्र छ-एक प्रतिओ अमने मळी आवी ते उपरथी पाठभेदो लईने ए स्तोत्रने अमे अहीं प्रगट कर्यु छे / वळी, श्रीमल्लिषेणसूरिरचित 'विद्यानुशासन'मां जे 'सिद्धचक्रस्तोत्र' संस्कृतमा आपेलुं छे तेनी आ स्तोत्र साथे तुलना करतां तेनो आधार आ प्राकृत स्तोत्र होय एम लागे छे, तेथी ए स्तोत्र पण अमे टिप्पणीमां आपी दीधुं छे अने मूल स्तोत्रनो शब्द के 20 भाव लईने 'विद्यानुशासन'गत सिद्धचक्रस्तोत्रनी रचनामां जे साम्य लाग्यं तेने अमे मोटा टाईपो अने प्राकृत गाथाओना अंकनो निर्देश करवापूर्वक प्रगट कर्यु छ / आ टीकाग्रंथना कर्ता विशे माहिती मळी नथी। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17] कुवलयमालासंदब्भो अरहा जाणइ सव्वं अरहा सव्वं पि पासइ समक्खं / अरहा भासइ सञ्चं अरहा बंधू तिहुयणस्स / / [217-33 ]' अरहा भासइ धम्म अरहा धम्मस्स जाणए मेयं / अरहा जियाण सरणं अरहा बंधं पि मोएइ // [ 218-1] अरहा तिलोय-पुज्जो अरहा तित्थंकरो सुधम्मस्स / अरहा सयं पबुद्धो अरिहा पुरिसोत्तमो लोए // [ 218-2 ] अरहा लोग पदीवो अरहा चक्खू जयस(स्स) सव्वस्स / - अरहा तिण्णो लोए अरहा मोक्खं परूवेइ // [218-3 ] [एवं च वचंतेसु दियहेसु महारह-साधू वि णाऊण थोव-सेसं आउयं दिण्ण-गुरुयणालोयणो पडिकंत-सव्व-पावट्ठाणो संलेहणा-संलिहियंगो सव्वहा कय-सव्व-कायव्वो उवविट्ठो संथारए / तत्थ य णमोकार-परमो अच्छिउं पयत्तो / अवि य / ] एस करेमि पणामं अरहताणं विसुद्ध-कम्माणं / / सव्वातिसय-समग्गा अरहंता मंगलं मज्झ // [277-101 उसभाईए सव्वे चउवीसं जिणवरे णमंसामि / होहिंति जे वि संपइ ताणं पिकओ णमोकारो // [ 277-11 ] अनुवाद श्री अरिहंत भगवंत-अरिहंत बधुं जाणे छे, अरिहंत बधुं ज प्रत्यक्ष जुए छे, अरिहंत सत्य / भाषे छे अने अरिहंत त्रण भुवनना बंधु छे / [217-33 ] - अरिहंत धर्म कहे छे, अरिहंत धर्मना भेदने जाणे छे, अरिहंत जीवोने शरणरूप छे अने अरिहंत बंधनने छोडावे (मूकावे ) छे // [218-1] ... अरिहंत प्रण लोकने पूज्य छे, अरिहंत शुद्ध धर्मना तीर्थने करनारा छे, अरिहंत स्वयं संबुद्ध छे अने अरिहंत लोकमां पुरुषोत्तम छे / [218-2] ____ अरिहंत लोकप्रदीप छे, अरिहंत सर्व जगतना चक्षु छ, अरिहंत लोकमां तरेला छे अने अरिहंत 25 मोक्षने प्ररूपे छे॥[२१८-3] [ए प्रमाणे दिवसो जतां महारथ साधुए पण आयुष्य थोडं बाकी रह्यं छे एम जाणीने, गुरुमहाराज पासे आलोचना करी के, सर्व पापस्थानक, प्रतिक्रमण कयुं अने संलेखनाथी शरीरने संलेखित कयुं / एवी रीते समाप्त कर्यां छे सर्व कर्तव्यो जेणे एवा ते संथारामां बेठा / त्यां तेओ नमस्कारमा परायण थवा माटे उद्युक्त बन्या / (अने तेओ नीचे मुजब स्तवन करवा लाग्या:-)] 30 ... आ हुं विशुद्ध कर्म( प्रवृत्ति, अनुष्ठान )वाळा श्रीअरिहंत भगवंतोने प्रणाम करूं छं / सर्व अतिशयोथी परिपूर्ण श्रीअरिहंत देवो मने मंगळरूप हो / [277-10] - श्रीऋषभदेव वगेरे सर्वे चोवीशे जिनेश्वरोने हुं नमस्कार करूं छु / जेओ संप्रतिकाळमां वर्ते छे तेओने पण नमस्कार करुं छं। [277-11] 1 कौंसमां देवनागरी लिपिमा लखेल अंक मूळ ग्रंथर्नु पृष्ठ सूचवे छे अने रोमनलिपिमा लखेल अंक तेनी पंक्ति सूचवे छे / दा. त. पृष्ठ 217, पं. 33. 20 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 कुवलयमालासंदभो। [प्राकृत ओसप्पिणि तह अवसप्पिणीसु सब्बासु जे समुप्पण्णा / तीताणागय-भूया सव्वे वंदामि अरहते // [ 277-12 ] भरहे अवर-विदेहे पुन्व-विदेहे य तह य एरवए / पणमामि पुक्खरद्धे धायइ-संडे य अरहते // [ 277-13] अच्छंति जे वि अन्ज वि गर-तिरिए देव-णरय-जोणीसु / एगाणेय-भवेसु य भविए वंदामि तित्थयरे // [ 277-14 ] तित्थयर-णाम-गोत्तं वेएंते बद्धमाण-बद्धे य / बंधिंसु जे वि जीवा अजं चिय ते वि वंदामि // [ 277-15 ] विहरंति जे मुणिंदा छउमत्था अहव जे गिहत्था वा / उप्पण्ण-णाण-रयणा सव्वे तिविहेण वंदामि // [ 277--16 ] जे संपइ परिसस्था अहवा जे समवसरण-मज्झत्था / देवच्छंद-गया वा जे वा विहरंति धरणियले // [277-17 ] साहेति जे वि धम्मं जे व ण साहेति छिष्ण-मय-मोहा / वंदामि ते वि सव्वे तित्ययरे मोक्ख-मम्गस्स // [ 277- 18] . तित्थयरीओ तित्यंकरे य सामे य कसिण-गोरे य / मुत्ताहल-पउमामे सव्वे तिविहेण वंदामि // [277-19] भूतकाळमां सर्व उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओमां उत्पन्न थयेला अथवा भविष्यमां थनारा सर्व अरिहंतोने हुं वंदन करुं छु // [277-12] भरतक्षेत्रमा, पश्चिमविदेहमां, पूर्वविदेहमा; वळी ऐरवतक्षेत्रमा, पुष्कराधमां अने धातकी20 खंडमां रहेला तीर्थकरोने हुं वंदन करुं हुं // [277-13 ] जे वर्तमानकाळे मनुष्य, तिर्यंच, देव अने नारकयोनिमा रह्या छे अने एक के अनेक भवोमा तीर्थकर थवाना छे तेमने हुं वंदन करूं छु / [277-14] ___ जेओ तीर्थकरनामगोत्रने वेदे छे, बांधे छे, बांध्यु छे के बांधशे ते सर्व जीवोने पण हुं बाजे ज वंदन करूं छु॥ [277-15] 25 जे भावि तीर्थकरो अत्यारे छमस्थ मुनिपणे के गृहस्थपणे विचरे छे अथवा जेमने ज्ञानरत्न उत्पन्न थयुं छे ते सर्वेने हुँ त्रिविधे वंदन करुं छ / [277-16 ] जेओ अत्यारे पर्षदामां छे अथवा समवसरणना मध्यभागमा छे अथवा देवछंदामा रया छे अथवा पृथ्वीतल पर विचरे छे; जेओए मद अने मोहने छेद्या छे एवा जेओ धर्मनो उपदेश आपे छे अथवा नथी आपता ते सर्वे मोक्षमार्गना तीर्थकरोने हुं वंदन करूं छु / [277-17-18] 30 श्यामवर्णना, कृष्णवर्णना, गौरवर्णना, मुक्ताफल जेवा उजवल वर्णना, पद्म जेवा वर्णना सर्व तीर्थकरीओ अने तीर्थंकरोने हुं त्रिविधे वंदन करुं छु / [277-19 ] 1. श्याम काळो, कृष्ण-नील, गौर=सुवर्णवर्ण, मुक्ताफलसदृश श्वेत, पद्म जेबो रक्त. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 18 नमस्कार स्वाध्याय / उज्झिय-रज्जे अहवा कुमारए दार-संगह-सणाहे / सावच्चे णिरवच्चे सव्वे तिविहेण वंदामि // [277-20] भव्वाण भव-समुद्दे णिबुड्डमाणाण तरण-कजम्मि। तित्थं जेहिँ कयमिणं तित्थयराणं णमो ताणं // [277-21 ] तित्थयराण पणामो जीवं तारेइ दुक्ख-जलहीओ। तम्हा पणमह सव्वायरेण ते चेय तित्थयरे // [277-22] लोय-गुरुणं ताणं तित्थयराणं च सव्व दरिसीणं / सव्वण्णूणं एयं णमो णमो सव्व भावेणं // [277-23 ] अरहंत-णमोकारो जइ कीरइ भावओ इह जणेणं / ता होइ सिद्धि-मग्गो भवे भवे बोहि-लाभाए // [277-24] अरहंत-णमोकारो तम्हा चिंतेमि सव्व-भावेण / दुक्ख-सहस्स-विमोक्खं अह मोक्खं जेण पावेमि // [277-25] जय सुरासुर-किंणर-मुणिवर-गंधव्व-णमिय-चलण-जुया / जय सयल-विमल-केवल-जिण-संघ णमोत्थु णं तुज्झ // [95-18 ] जइ देवो णेरइओ मणुओ वा कह वि होज तिरिओ हैं। सयल-जय-सोक्ख-मूलं सम्मत्तं मज्झ देजासु // [95-19 ] जेओए राज्यनो त्याग कयों छे अथवा जेओ कुमारावस्थामा छ अथवा जेओ बीसंग्रहथी युक्त छे अथवा जेओ संतानसहित छे अथवा जेओ संतानरहित छे ते सर्व तीर्थंकरोने हुं वंदन करुं हुं / [277-20] भवसमुद्रमां बूडता भव्य आत्माओने तरवा माटे जेओए आ तीर्थ स्थापन कयुं (प्रवर्ताव्युं) 20 ते तीर्थंकरोने हुं नमस्कार करुं कुं॥ [277-21] - तीर्थकरोने करेलो प्रणाम जीवने दुःखसमुद्रथी तारे छे; माटे तीर्थंकरोने सर्व-आदरपूर्वक प्रणाम करो // [277-22] ___लोक-गुरु एवा ते सर्वदर्शी अने सर्वज्ञ तीर्थंकरोने सर्वभावथी हुं वारंवार नमस्कार करुं छु / [277-23] ____ अहीं जीव वडे जो श्री अरिहंत प्रभुने भावपूर्वक नमस्कार कराय तो तेमांथी मोक्षमार्गनी प्राप्ति थाय छे अने ते भवोभवमां बोधिलाभ माटे थाय छे / [277-24 ] ___ तेथी सर्वभावपूर्वक अरिहंतना नमस्कारने हुं चितवु छु, के जेथी जेमां हजारो (सर्व) दुःखोथी सर्वथा मुक्ति छे एवा मोक्षने हुं पामुं॥ [277-25 ] देवो, दानवो, किन्नरो, मुनिवरो अने गंधर्वोथी नमन करायेला चरण-युगलवाळा (हे 30 अरिहंत ! ) आप जयवंता व” / हे संपूर्ण निर्मळ केवलज्ञानवाळा जिनसमूह ! तुं जय पाम! तने मारो नमस्कार हो // [ 95-18 ] - (हे देव! ) हुं देव, नारक, मनुष्य के तिर्यंच गमे ते थाउं ( तो पण ) जगतना सर्व सुखोनुं मूळ एवं सम्यक्त्व मने आपजो // [ 95-19 ] 25 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत अविरहिय-णाण-दसण-चारित्त-पयत्त-सिद्धि-वर-मग्गो। सासय-सिव-सुह-मलो जिण-मग्गो पायडो जयइ // [95-24] संसार-गहिर-सायर-दुत्तारुत्तार-तरण-कजेणं / तित्थ-करणेक्क-सीला सव्वे वि जयंति तित्थयरा // [95-25] जह आउराण वेजो दुक्ख-विमोक्खं करेइ किरियाए / तह जाण जियाय(ण) जिणो दुक्खं अवणेइ किरियाए // [179-19 ] जह चोराइ-भयाणं रक्खइ राया इमं जणं भीयं / तह जिणराया रक्खइ सव्व-जणं कम्म-चोराण // [179-20] जह रुंभइ वच्चंतो जणओ अयडेसु तरलयं बालं। जिण-जणओ वि तह चिय भव्वं रुंभे अकजेसु // [179-21 ] जह बंधुयणो पुरिसं रक्खइ सत्तूहि परिहविजंतं / तह रक्खइ भगवं पि हु कम्म-महासत्तु-सेण्णस्स // [179-22 ] जह जणणी किर बालं थणयच्छीरेण णेइ परियढेि / तह भगवं वयण-रसायणेण सव्वं पि पोसेइ // [179-28 ] बालस्स जहा धाई णिउणं अंजेइ अच्छिवत्ताई / इय णाण-सलागाए भगवं भव्वाण अंजेइ // [179-24] जेमा ज्ञान, दर्शन अने चारित्रमा सतत पुरुषार्थ ए श्रेष्ठ सिद्धि( मोक्ष )मार्ग छे, अने जे शाश्वत कल्याण अने सुखनुं मूळ छे एवो आ जिनमार्ग साक्षात् जयवंतो छ // [ 95-24 ] गंभीर अने मुश्केलीथी तरी शकाय एवा संसारसागरनो पार पामवा माटे तरवाना प्रयोजनथी 20 तीर्थ करवाना अद्वितीय स्वभाववाळा सर्व तीर्थंकरो जयवंता वर्ते छे // [ 95-25] जेवी रीते वैद्य रोगीओने (चिकित्सादि) क्रिया वडे करीने दुःखथी छोडावे छे तेवी रीते श्रीजिनेश्वर भगवंत जीवोना दुःखने धर्मक्रिया वडे दूर करे छे, एम तमे समजो // [179-19 ] जेवी रीते भयभीत प्रजाने राजा चोरादिना भयथी रक्षे छे तेवी रीते श्रीजिनेश्वर भगवंतरूपी राजा सर्व जननुं कर्मचोरोथी रक्षण करे छे / [179-20] 25 जे प्रमाणे अंधारा कूवामां पडता चपळ बाळकने पिता रोकी राखे छे, ते प्रमाणे श्रीजिनेश्वर परमात्मारूपी पिता अकार्यमां पडता भव्य आत्माने रोकी राखे छे / [179-21] जे प्रमाणे शत्रुथी पराभव पामता पुरुष- बंधुजन रक्षण करे छे ते प्रमाणे कर्मरूपी महाशत्रुनी सेनाथी पराभव पामता जीवनुं श्रीजिनेश्वर भगवंत पण निश्चित रक्षण करे छे / [ 179-22 ] - to जे प्रमाणे माता बाळकने धावणथी पुष्ट करे छे ते प्रमाणे श्री जिनेश्वर भगवंत पण वचनरसायण वडे सर्वनुं पोषण करे छे // [ 179-23 ] . जे प्रमाणे धावमाता बाळकनी आंखनी पापणोने सारी रीते आंजे छे ते प्रमाणे श्री तीर्थकर भगवंत पण भव्योना आंतरचक्षुने ज्ञान शलाकाथी ( सळीथी ) आंजे छे // [ 179-24] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 10 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। मण्णसु पियं व भायं व मायरं सामियं गुरुयणं वा / णिय-जीवियं व मण्णह अहवा जीवाओ अहिययरं / / [179-26 ] हिययस्स मज्झ दइओ जारिसओ जिणवरो तिहुवणम्मि / को अण्णो तारिसओ हूँ णायं जिणवरो चेय // [179-27] 'जय सव्व-जीव-बंधव संसार-जलोह-जाण-सारिच्छ / जय जम्म-जरा-वजिय मरण-विमुक्का जयाहि तुमं // [ 242-24] जय पुरिस-सीह जय जय तेलोककल्ल-पत्थिय-पयाव / जय मोह-महामूरण रण-णिजिय-कम्म-सत्तु-सय // [242-25] जय सिद्धिपुरी-गामिय-जय-जिय-सत्थाह (सत्थार ) जयहि सव्वण्णू / जय सव्वदंसि जिणवर सरणं मह होसु सव्वत्थ / [242-26 ] जय सव्वण्णु महायस जय णाण-दिवायरेक जय-णाह / जय मोक्ख-मग्ग- णायग जय भव-तीरेक बोहित्थ // [ 243-23 ] जय संसार-महोदहि-दुक्ख-सयावत्त-भंगुर-तरंगेहिं / मोक्ख-सुह-तीर-गामिय णमोत्थु णिजामय-सरिच्छ // [91-4] जय सुरासुर-किंणर-णर-णारी-संघ-संथुया भगवं / जय पढम-धम्म-देसि(स)य सिय-झाणुप्पण्ण-णाणवरा // [ 116-14] ते श्रीजिनेश्वर भगवंतने तमे पिता, माता, भाई, स्वामी, गुरुजन के पोतानुं जीवन मानो अथवा पोताना जीवथी पण अधिक मानो // [179-26 ] मारा हृदयने वल्लभ जेवा श्रीजिनेश्वर भगवंत छे तेवं त्रणे लोकमां बीजु कोण छे ? . हा ! खरेखर में जाण्युं के तेवा केवळ श्रीजिनेश्वर भगवंत ज छे / [179-27 ] 20 . सर्व जीवना बंधु, संसारसमुद्रमां नौका समान एवा आप जयवंता व” / जन्म-जराथी रहित अने मरणथी विमुक्त एवा आप जयवंता वर्तो // [242-24] पुरुषसिंह, त्रण लोकमां प्रसरेला अद्वितीय प्रतापने धरनार, मोहनो अत्यंत नाश करनार अने रणमां सेंकडो कर्मशत्रुओने जीतनार आप जयवंता वर्तो // [242-25] सिद्धिपुरीमा जनारा जगतना जीवोना सार्थवाह जय पामो / हे सर्वज्ञ ! विजय पामो, हे 25 सर्वदर्शी ! जयवंता रहो / हे श्रीजिनेश्वर! मने सर्वत्र शरणरूप हो / [242-26 ] सर्वज्ञ, महायश जय पामो। हे अद्वितीय ज्ञानदिवाकर, जगतना नाथ विजय पामो / मोक्षमार्गना नायक अने भवतीरने प्राप्त कराववा निरुपम वहाणरूप आप जयवंता वर्तो // [243-23] संसारसमुद्रना दुःखरूप सेंकडो आवर्तोना चंचळ तरंगोमांथी मोक्षरूप सुखमय कांठे : जनारा अने पहोंचाडनारा आप जयवंता वर्तो / तेथी निर्यामक समान (हे भगवंत!) आप 30 जयवंता वर्तो // [91-4] सुर, असुर, किन्नर, नर अने नारीना समुदाय वडे स्तुति कराएला हे भगवन् ! आप * जयवंता वर्तो। धर्मना आद्य उपदेशक आप जय पामो / शुक्लध्यानथी केवळज्ञान प्राप्त करनारा (हे भगवन् ! ) आप जयवंता वर्तो // [116-14] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत जय पढम-पुरिस पुरिसिंद-विंद-णागिंद-वंदियच्चलणा / जय मंदरगिरि-गरुयायर-गुरुन्तव-चरण-दिण्ण-विण्णाणा // [116-15 ] णाह तुम चिय सरणं तं णाहो बंधवो वि तं चेव / दंसण-णाण-समग्गो सिव-मग्गो देसिओ जेण // [116-16 ] जे पिययम-गुरु-विरह-जलण-पञ्जलिय-ताव-तवियंगा / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-2] जे दूसह-गुरु-दारिद्द विदुया दलिय-सेस-धण-विहवा / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-3] दोगच्च-पंक-संका-कलंक-मल-कलुस-दूमियप्पाणं / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-4] सव्व-जण-णिदियाणं बंधु-जणोहसण-दुक्ख-तवियाणं / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-5 ] जे जम्म-जरा-मरणोह-दुक्ख सय-भीसणे जए जीवा / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-6] जे डहणंकण-ताडण-वाहण-गुरु-दुक्ख-सायरोगाढा / कत्तो ताणं ताणं मोत्तुं आणं जिणिंदाणं // [64-7 ] प्रथम पुरुष, चक्रवर्तिओना समूह तेमज नागेन्द्र वडे चरणमा नमस्कार कराएला (हे भगवन् ) आप जयवंता वर्तो / मेरुपर्वत करतां पण ( अधिक ) गुरुतावाव्य अने महा तप, चरण अने विज्ञानने आपनारा ( हे भगवन् ! ) आप जयवंता वर्तो // [116-15 ] 20 हे नाथ! तमे ज शरण छो, तमे ज नाथ छो अने बांधव पण तमे ज छो; के जेमणे दर्शन अने ज्ञानथी पूर्ण एवो मोक्षमार्ग उपदेश्यो छे // [ 116-16 ] जेमनां अंगो प्रियतमना मोटा विरहरूपी अग्निना प्रज्वलित तापथी तप्त छे तेमने श्रीजिनेश्वरनी आज्ञा (आगळ ) छोडीने बीजे क्याथी शरण होई शके ? [64-2] ___ जेओ दुःसह महादारिद्र्यथी दुःखी छे, सर्व धनवैभव जेमनो नाश पाम्यो छे एवा आत्माओ 25 माटे श्रीजिनेश्वरनी आज्ञा सिवाय अन्यत्र क्याथी रक्षण होय ? [64-3] _ 'दौर्गत्यरूप कादव, शंकारूप कलंक अने 'कर्ममलथी उत्पन्न थयेल कालुष्यथी दुःखित थयेल जीवोने श्रीजिनवचन सिवाय रक्षण क्यांथी होय ? [64-4] - सर्व लोकथी निंदाता, सगासंबंधीओना उपहासनी पीडाथी उत्तप्त जीवोने श्रीजिनवाणी सिवाय रक्षण क्याथी होय ? [64-5] 30 जे जीवो जन्म, जरा अने मृत्युना समूहरूप सेंकडो दुःखथी भयंकर एवा संसारमा रह्या छे तेमने श्रीजिनवचन सिवाय रक्षण क्याथी होय ? [64-6] जे दहन ( बाळबुं), अंकन (चिह्नो करवां), ताडन (भार), वाहन (वहन करावयु)-ए मोटा दुःखना समुद्रमां डूब्या छे तेओने श्रीजिनाज्ञा सिवाय बीजे क्याथी रक्षण होय ? [64-7] - 1 दौर्गत्य दुर्दशा अथवा दरिद्रता. 2 शंका-सम्यक्त्व प्रथम दूषण. 3 कर्ममल मोहनीय कर्म. . 4 कालुष्य= चित्तनी मलिनता. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 345 संसारम्मि असारे दुह-सय-संबाह-बाहिया जे य / मोत्तुं ताणं ताणं कत्तो वयणं जिणिंदाणं // [64-8 ] तओ एवं सब-जय-जीव-संघायस्स सव्व-दुक्ख-दुक्खियस्स तेलोक्केकल्ल-पायवाणं पिव जिणाणं आणं पमोतूण ण अण्णं सरणं तेलोक्के वि अस्थि त्ति / ___जर-मरण-रोग-रय-मल-किलेस-बहुलम्मि णवर संसारे / ___णत्थि सरणं जयम्मि वि एकं मोत्तूण जिणवयणं // [144-25] ...... 'इमम्मि णरयामर-तिरिय-मणुय-भव-भीम-पायालकलसे महाकोव-धगधगेंतकराल-जालाउल-वाडवाणले जर-मरण-रोग-संताव करि-मयर-जलयर-वियरमाण-दुरुत्तारे बहुविह-कम्म-परिणाम-खार-णीसार-णीर-पडहत्थे हत्थ-परियत्तमाण-संपत्ति-विवत्ति-मच्छ-पुच्छच्छडाभि-जमाण-तुंग-कुल-तरंग-भंगिल्ले राय-रोस-वेला-जल-पसरमाण-पवाहुम्मूलिजंत-वेला-10 वण-पुण्ण-पायवें संसार-सायरम्मि सिद्ध-पुरि-पावयं जाणवत्तं पिव भगवंताणं वयणं पावियं' ति / [145-26 to 30] जय दुञ्जय-मोह-महा-गइंद-णिदारणम्मि पंचमुहा / जय विसम-कम्म-काणण-दहणेक-पयाव-जलण-समा // [268-13] जय कोवाणल-पसमिय-विवेय-जल-जलहरिंद-सारिच्छा। 15 जय माणुद्धर-पव्यय-मुसुमूरण-पच्चला कुलिसा // [268-14] अने असार संसारमा जेओ सेंकडो दुःखोनी पीडाथी पीडाएला छे तेओने श्रीजिनवचन विना बीजे क्याथी रक्षण होय ? [64-8] माटे आ प्रमाणे सर्व दुःखोथी दुःखित एवा समस्त जगतना जीवसमूहने माटे त्रणे लोकमां अद्वितीय वृक्ष (आश्रयस्थान ) समान श्रीजिनेश्वर देवोनी आज्ञाने छोडीने अन्य कांई 20 पण शरण त्रणे लोकमां नथी / ज्यारे संसार जरा, मरण, रोग, रज, मळ अने क्लेशथी भरपूर छे त्यारे खरेखर जगतमां एक श्रीजिनवचनने छोडीने अन्य कोई शरण नथी // [ 144-25] - आ नारक, देव, मानव अने तिर्यंचभवरूप भयंकर पाताळकळशवाळा, महाक्रोधरूप धगधगता अने भयंकर ज्वाळाथी आकुल वडवानलवाळा, जरा मरण, रोग अने संतापरूप, जळहस्ति, 25 मगर, जलचरोना फरवाने कारणे मुश्केलीथी जेनो पार पमाय एवा अनेक प्रकारना कर्मपरिणामरूप खारथी निःसार जळना पटहस्तवाला ( ? विस्तारवाळा ), आवतीजती संपत्ति अने विपत्तिरूप मत्स्योना पुच्छनी छटाथी भेदातां मोटां कुलतरंगो (मोजां )ना भंगवाळा अने राग-द्वेषरूप भरती-जळना प्रसरता प्रवाहथी उखेडी नखाता काठाना बननां पुण्यरूप वृक्षो जेमा छे एवा संसारसागरमा मुक्तिनगरीने प्राप्त करावनार वहाण जेवू भगवंतनुं वचन प्राप्त कयुं / [ 145-26to30 ] 30 दुर्जय मोहरूपी महा गजेन्द्रनुं विदारण करवामां सिंह समान, विषम कर्मवनने बाळी नाखवामां अजोड प्रचंड तापवाळा अग्नि समान आप जयवंता वर्तो // [ 268-131 क्रोधरूपी अग्निने शांत करवामां विवेकजळथी भरेला श्रेष्ठ ( पुष्करावर्त ) मेघसमान, मानरूपी उंचा पर्वतना चूरेचूरा करवामां समर्थ वज्रसमान आप जयवंता वर्तो // [268-14] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 [प्राकृत कुवलयमालासंदब्भो। जय माया-रुसिय-महाभुयंगि तं णाग-मणि-सारिच्छा / जय लोह-महारक्खस-णिण्णासण-सिद्ध-मंत-समा // [268-15 ]. जय अरई-रइ-णासण ज(भ)य-णिजिय हास-वजिय जयाहि / / जयहि जुगुच्छा-मुक्का असोय जय जयसु तं देव // [268-16 ] जयहि ण-पुरिस ण-महिला णोभय जय वेय-वजिय जयाहि / सम्मत्त-मिच्छ-रहिया पंच-विहण्णाण-भय-मुक्का // [268-17 ] अजेव अहं जाओ अज य पेच्छामि अज णिसुणेमि / मगहा-रजम्मि ठिओ दटुं तुह वीर मुहयंदं // [268-18] तं णाहो तं सरणं तं माया बंधवो तुमं ताओ। सासय-सुहस्स मुणिवर जेण तए देसिओ मग्गो // [268-19 ] ___मायारूप रोषित महानागणनी प्रत्ये नागमणितुल्य, लोभरूप महाराक्षसनो सर्वथा नाश करवामां सिद्धमंत्र समान आप जयवंता वर्तो // [268-15] अरति अने रतिनो नाश करनारा, भयथी न जीतायेला ( भयरहित, जितभय ); हास्यथी रहित, जुगुप्साथी मुक्त अने शोकथी रहित हे देव ! आप जयवंता वर्तो // [268-16 ] 15 पुरुषवेदथी रहित, स्त्रीवेदथी रहित, नपुंसकवेदी रहित, ( अर्थात् ) वेदथी सर्वथा रहित आप जयवंता वर्तो। (क्षायोपशमिक के उपशम ) सम्यक्त्व अने मिथ्यात्वथी रहित पांच प्रकारना अज्ञान ( ? ज्ञानावरण ) अने भयथी मुक्त एवा आप जयवंता वर्तो // [268-17 ] __ हे वीर ! मगध राज्यमा रहेलो हुं आपना मुखचंद्रने जोईने आजे ज जन्म पाम्यो (आज पूर्वे गर्भावासमा हतो ) ! आजे ज हुं जोतो थयो (पूर्वे हुं आंधळो हतो) अने आजे 20 ज हुं सांभळतो थयो (पूर्वे हुं बहेरो हतो) // [ 268-18 ] तमे ज नाथ छो, तमे ज शरण छो, तमे ज माता छो, तमे ज बंधव छो, तमे ज पिता छो; कारणके हे मुनिवर ! तमे ज शाश्वत सुखनो मार्ग बताव्यो / (हे मुनिवर ! जे आप वडे शाश्वत सुखनो मार्ग बतावायो ते आप ज मारा नाथ छो, आप ज शरण छो, आप ज माता छो, आप ज बंधु छो अने आप ज पिता छो.)॥ [268-19 ] SOMETIKORE Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 347 सिद्धाण णमोकारो करेमु भावेण कम्म-सुद्धाण / भव-सय सहस्स-बद्धं धंत कम्मिंधणं जेहिं // [277-26 ] सिझंति जे वि संपइ सिद्धा सिझिंसु कम्म-खइयाए / ताणं सव्वाण णमो तिविहेणं करण-जोएण // [277-27 ] जे केइ तित्थ-सिद्धा अतित्थ-सिद्धा व एक-सिद्धा वा / अहवा अणेग-सिद्धा ते सव्वे भावओ वंदे॥[२७७-28 ] जे वि सलिंगे सिद्धा गिहि-लिंगे कह वि जे कुलिंगे वा। तित्थयर-सिद्ध-सिद्धा सामण्णा जे वि ते वंदे // [277-29 ] इत्थी-लिंगे सिद्धा पुरिसेण णपुंसएण जे सिद्धा / पञ्चेय-बुद्ध-सिद्धा बुद्ध-सयंबुद्ध-सिद्धा य // [277-30] जे. वि णिसण्णा सिंद्धा अहव णिवण्णा ठिया व उस्सग्गे / उत्ताणय-पासेल्ला सव्वे वंदामि तिविहेण // [277-31] णिसि-दियस-पदोसे वा सिद्धा मज्झण्ह-गोस-काले वा / कालविवक्खा सिद्धा सव्वे वंदमि भावेण // [277-32] जोव्वण-सिद्धा बाला थेरा तह मज्झिमा य जे सिद्धा। . दीवण्ण-दीव-सिद्धा सव्वे तिविहेण वंदामि // [ 278-1 ] : श्री सिद्ध भगवंत लाखो भवोमां बांधेलं कर्मरूपी इंधण जेओए धम्युं छे, ते कर्ममळथी रहित थयेला सिद्धोने अमे भावथी नमस्कार करीए छीए // [277-26 ] . जेओ कर्मक्षयथी वर्तमानकाळमां सिद्ध थाय छे, भूतकाळमां सिद्ध थया छे अने भविष्यमां 20 सिद्ध थशे ते सर्वने त्रणे प्रकारना करणयोगथी (मन, वचन अने कायाथी ) हुं नमस्कार करूं छं॥ [277-27 ] .. जे कोई तीर्थसिद्ध थया, अतीर्थसिद्ध थया, एकसिद्ध थया अथवा अनेकसिद्ध थया ते सर्वने हुं भावपूर्वक वंदन करुं छं॥ [277-28] जे कोई स्वलिंगे सिद्ध थया, गृहस्थलिंगे सिद्ध थया; वळी जेओ कोई रीते अन्यलिंगे सिद्ध 25 थया, जेओ तीर्थंकरसिद्ध थया अने जे कोई सामान्य केवलिपणे सिद्ध थया तेओने हुं वंदन करूं छु // [277-29] जेओ स्त्रीलिंगे सिद्ध थया, पुरुषलिंगे सिद्ध थया, नपुंसकलिंगे सिद्ध थया, प्रत्येकबुद्ध सिद्ध थया, बुद्धबोधित सिद्ध थया अथवा स्वयंबुद्ध सिद्ध थया; वळी जेओ बेठेला सिद्ध थया, विशिष्ट प्रकारना काउस्सग्गमां ऊभा सिद्ध थया, चत्ता, सूतेला अथवा पडखे सूतेला सिद्ध थया ते सर्वेने 30 हुं त्रिविधे वंदन करुं छु // [277-30-31] रात्रिना समये, दिवसना समये, संध्या समये, मध्याह्न समये अथवा प्रातःकाळ समये जेओ सिद्ध थया अथवा काळनी अपेक्षा वगर जेओ सिद्ध थया ते सर्वेने हुं भावपूर्वक वंदु छ // [277-32] जेओ यौवनमां सिद्ध थया, बाळपणे सिद्ध थया, स्थविर ( वृद्ध )पणे सिद्ध थया, मध्यमवये सिद्ध थया, जेओ द्वीप के समुद्रमा सिद्ध थया ते सर्वेने हुँ त्रिविधे वंदन करूं छु. // [278-1 ] 35 १णिवण्ण = कायोत्सगेनो एक प्रकार, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 10 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत दिव्वावहार-सिद्धा समुद्द-सिद्धा गिरीसु जे सिद्धा / जे केइ भाव-सिद्धा सव्वे तिविहेण वंदामि // [278-2] जे जत्थ केइ सिद्धा काले खेत्ते य दव्व-भावे वा। ते सव्वे वंदे हे सिद्ध तिविहेण करणेण // [ 278-8 ] सिद्धाण णमोकारो जइ लब्भइ आगए मरण-काले / ता होइ सुगइ-मग्गो अण्णो सिद्धिं पि पावेइ // [ 278-4 ] सिद्धाण णमोकारो जइ कीरइ भावओ असंगेहिं / रुंभइ कुगई-मग्गं सग्गं सिद्धिं च पावेइ // [278-5 ] सिद्धाण णमोक्कारं तम्हा सव्वायरेण काहामि / छेत्तूण मोह-जालं सिद्धि-पुरिं जेण पावेमि // [278-6] पजलिय झाण-हुयवह-कम्भिधण-दाह-वियलिय-भवोहा / अपुणागम-ठाण-गया सिद्धा वि जयंति भगवंता [95-26 ] देवता वडे अपहरण कराईने जेओ सिद्ध थया, जेओ समुद्रमा सिद्ध थया, जेओ पर्वतो उपर सिद्ध थया अने जे कोई भावसिद्धो थया ते सर्वेने हुं त्रिविध करणे वंदन करूं छु. // 15 [ 278-2] जेओ ज्यां कोईपण काळे क्षेत्रे द्रव्ये के भावे सिद्ध थया ते सर्व सिद्धोने हुं त्रिकरण वडे वंदन करूं छु.॥ [278-3] ___ मरणकाळ प्राप्त थये छते जो सिद्धोनो नमस्कार प्राप्त थाय तो य सद्गतिनो नवो मार्ग प्राप्त थाय के मोक्ष पण प्राप्त थाय. // [278-4] 20 जो असंगभावे सिद्धोने भावथी नमस्कार कराय तो कुगतिनो मार्ग रुंधाई जाय अने स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त थाय. // [278-5] माटे सर्वादरपूर्वक हुँ सिद्धोने नमस्कार करूं छु; ( करीश ) जेथी मोहजाळने छेदीने हुँ मुक्तिपुरीने पामुं. // [ 278-6] जेओए प्रज्वलित ध्यान-हुताशन वडे कर्मरूप इंधणने बाळी नाखवाथी भवोना समूहनो 25 नाश कर्यो छे, ज्यांथी फरी आववानुं नथी एवा स्थानने जेओ पाम्या छे ते सिद्ध भगवंतो पण जयवंता वर्ते छे. // [ 95-26 ] E Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 349 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / पणमामि गणहराणं जिण-चयणं जेहिँ सुत्त-बंधेणं / बंधेऊण तह कयं पत्तं अम्हारिसा जाव // [278-7] चोद्दस-पुवीण णमो आयरियाणं तहूण-पुवीण / वायग-वसहाण णमो णमो य एगारसंगीण // [ 278-8 ] आयार-धराण णमो धरिजइ जेहिँ पवयणं सयलं / णाण-धराणं ताणं आयरियाणं पणिवयामि // [278-9] णाणायार-धराणं दंसण-चरणे विसुद्ध-भावाणं / तव-विरिय-धराण णमो आयरियाणं सुधीराणं // [278-10 ] जिण-चयणं दिप्पंतं दीवंति पुणो पुणो ससत्तीए / पवयण-पभासयाणं आयरियाणं पणिवयामि // [ 278-11] 10 गूढं पवयण-सारं अंगोवंगे समुद्द-सरिसम्मि।। अम्हारिसेहिँ कत्तो तं गजइ थोय-बुद्धीहि // [278-12] तं पुण आयरिएहिं पारंपरएण दीवियं एत्थ / जइ होति ण आयरिया को तं जाणेज सारमिणं // [278-18 ] सूयण-मेत्तं सुत्तं सइजइ केवलं तहिं अत्थो। जं पुण से वक्खाणं तं आयरिया पयासेंति // [278-14 ] श्री आचार्य भगवंत जेओए जिनेश्वर भगवानना वचनने सूत्रबंधनथी बांधीने एवं कर्यु के जे अमारा जेवा जीवो सुधी पहोंच्यु ते गणधरोने (आचार्योने ) हुं नमस्कार करुं छु. // [278-7] चौदपूर्वी तथा न्यूनपूर्वी आचार्योने नमस्कार करूं छु / वाचकवृषभ आचार्योने नमस्कार 20 करं छं / अगियार अंगना धारक आचार्योने नमस्कार करुं छु.॥ [278-8] आचारना धारक आचार्योने नमस्कार करूं छु / जेओ वडे सकल प्रवचन धारण कराय छे ते ज्ञानना धारक आचार्योने हुं नमन करुं . // [278-9] ज्ञानाचारने धारण करता, दर्शन अने चारित्रमा विशुद्ध भाववाळा, तप अने वीर्यने धारण करनारा तथा सारी रीते धीर एवा आचार्योने नमस्कार करुं . // [278-10] 25 देदीप्यमान जिनवचनने पोतानी शक्तिथी जेओ वारंवार प्रकाशित करे छे ते प्रवचनने दीपावनारा आचार्योने हुं नमन करूं छु. // [278-11] समुद्र समान अंग अने उपांगमा सिद्धांतना गूढ सारने अमारा जेवा अल्पबुद्धिवाळा क्याथी जाणी शके ? ( अर्थात्-प्रवचननो सार समुद्र समान अंग अने उपांगमां गूढ रहेलो छे; तेने अमारा जेवा अल्पबद्धिवाळा क्याथी जाणी शके ? ) तेने आचार्योए परंपराए अहीं सुधी ( अमारा 30 सुधी) प्रकाशित कर्यो छे / जो आचार्यों न होत तो आ सारने कोण जाणत ? // [278-12-18] सूचनमात्र करवाथी सूत्र कहेवाय छे; तेमां केवळ अर्थ- सूचन होय छे; पण ते विवरण जे छे ते तो आचार्यो प्रकाशित करे छे. // [278-14] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 कुवलयमालासंदभो। [प्राकृत बुद्धी-सिणेह-जुत्ता आगम-जलणेण सुट्ट दिप्पंता / कह पेच्छउ एस जणो सूरि-पईवा जहिं णत्थि // [278-15] चारित्त-सील-किरणो अण्णाण-तमोह-णासणो विमलो। चंद-समो आयरिओ भविए कुमुए व्व बोहेइ // [278-16] दंसण-विमल-पयावो दस-दिस पसरंत-णाण-किरणिल्लो / जत्थ ण रवि व्व सूरी मिच्छत्त-तमंधओ देसो // [278-17] उजोयओ व्व सूरो फलओ कप्पडुमो व्व आयरिओ। चिंतामणि व्व सुहओ जंगम-तिथं च पणओ हं // [ 278-18 ] जे जत्थ केइ खेत्ते काले भावे व सव्वहा अस्थि / तीताणागय भूया ते आयरिऐ पणिवयामि // [278-19 ] आयरिय-णमोकारो जइ लब्भइ मरण-काल वेलाए / भावेण कीरमाणो सो होहिइ बोहि-लाभाए // [278-20] . . आयरिय णमोकारो जह कीरइ तिविह-जोग-जुत्तेहिं / ता जम्म-जरा-मरणे छिंदइ बहुए ण संदेहो // [278-21] आयरिय-णमोकारो कीरंतो सल्लगत्तणं होइ / होइ णरामर-सुहओ अक्खय-फल-दाण-दुल्ललिओ // [278-22 ] ज्यां बुद्धिरूपी स्नेह( तेल )थी युक्त अने आगमरूपी अग्निथी ( ज्योतिथी ) सारी रीते दीपता आचार्यरूपी दीवा नथी त्यां आ लोक (जगतजनो) केवी रीते देखी शके ? // [278-15] चारित्र अने शीलरूपी किरणवाळो, अज्ञान-अंधकारना समूहने नाश करनारो, निर्मळ 20आचार्यरूपी चंद्र कुमुदनी जेम भव्योने विकसित करे छे (बोध पमाडे छे.)॥ [278-16] ज्यां दर्शनरूपी निर्मळ प्रतापवाळो अने दशे दिशामां प्रसरता ज्ञानरूपी किरणवाळो सूर्य समान आचार्य नथी ते देश मिथ्यात्वरूपी अंधकारथी सभर ( आंधळो) छे. // [278-17] आचार्य सूर्य समान उद्योतक ( उद्योत करनार ), कल्पद्रुमनी जेम ( वांछित ) फळ देनार छे, चिंतामणिनी जेम सुख देनार छे, ते जंगमतीर्थस्वरूप आचार्यने हुं नमस्कार करूं 25 छं.॥ [278-18] जे कोई (आचार्यो ) जे क्षेत्रमा, जे काळमां अने जे भावमां सर्व प्रकारे रहेला होय ते अतीत अनागत अने वर्तमान आचार्योने हुं नमस्कार करुं छं. // [278-19] जो मरणकाळ समये आचार्यने नमस्कार प्राप्त थाय तो भावपूर्वक करातो ते बोधि (सम्यक्त्व )ना लाभने माटे थाय छे. // [278-20] 30 त्रिविध योगयुक्त थईने जो आचार्यने नमस्कार करवामां आवे तो घणां जन्म, जरा, मरणने छेदे छे; एमां संदेह नथी. // [278-21] __ आचार्यने करातो नमस्कार शल्यने कापनार थाय छे, मनुष्य अने देवना सुखने आपनार थाय छे अने अक्षय फळ दानमां दुर्ललित (आग्रही') थाय छे.'॥ [278-22] 1 जो के मूलमा उपमालंकार छे, छतां अनुवादमां सरलतानी खातर रूपकालंकारनो प्रयोग करवामां आव्यो छे. 2 अवश्यमेव आपनार. 3 अथवा अक्षयफळने आपवामा निपुण होय छे, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / तम्हा करेमि सव्वायरेण सूरीण हो(हु) णमोकारं / कम्म-कलंक-विमुक्को अइरा मोक्खं पि पावेस्सं // [278-28 ] णाणा-लद्धि-समिद्धे सुय-णाण-महोयहिस्स पारगए / आसण्ण-भव्व-सत्ते सव्वे गणहारिणो वंदे // [95-27] णाण-तव-विरिय-दंसण-चारित्तायार-पंच-वावारे / पजलियागम-दीवे आयरिए चेव पणमामि // [95-28 ] xxx उवझायाणं च णमो संगोवंग सुयं धरेताणं / सिस्स-गण-हियट्ठाए झरमाणाणं तयं चेय // [278-24] सुत्तस्स होइ अत्थो सुत्तं पाढेंति ते उवज्झाया। 10 अज्झावयाण तम्हा पणमह परमेण भावेण // [ 278-25 ] सज्झाय-सलिल-णिवहं झरंति जे गिरियड व्व तद्दियहं / अज्झावयाण ताणं भत्तीऍ अहं पणिवयामि // [278-26 ] जे कम्म-खयट्ठाए सुत्तं पाति सुद्ध-लेसिल्ला / ण गणेति णियय-दुक्खं पणओ अज्झावए ते हं // [278-27] 15 माटे सर्व आदरपूर्वक हुं आचार्यने नमस्कार करुं छु, (के जेथी ) अल्प समयमां कर्मकलंकथी विमुक्त थईने हुं मोक्षने पण पामुं. // [278-23 ] जुदा जुदा प्रकारनी लब्धिओथी समृद्ध, श्रुतज्ञानरूप सागरना पारने पामेला, निकटमां मुक्तिगामी एवा सर्व गणधरोने हुं वंदु छु. // [95-27 ] . अने ज्ञानाचार, तपाचार, वीर्याचार, दर्शनाचार अने चारित्राचाररूप पंचविध आचारना 20 व्यापारवाळा अने जेमनो आगमदीप प्रज्वलित छे एवा आचार्योने हुं प्रणाम करूं छु. [ 95-28 ] x x श्री उपाध्याय भगवंत_ अंग, उपांग सहित सूत्रने धारण करता अने शिष्यसमुदायना हितने माटे तेनुं स्मरण (पठन-पाठन ) करता श्री उपाध्याय भगवंतोने हुं नमस्कार करुं छु.॥ [278-24] 25 . सूत्रने अर्थ होय छे / ते उपाध्यायो सूत्रने भणावे छे / तेथी अध्यापन करावनारा उपाध्यायोने परमभावपूर्वक नमस्कार करो. // [ 278-25] ___स्वाध्यायरूपी जळममूहने गिरितटनी जेम जेओ प्रतिदिन झरावे छे (अर्थात् जेम पहाडमाथी सतत झरण वह्या करे छे तेम जेमनामांथी सतत स्वाध्यायझरण वह्या करे छे), ते अध्यापन करावनारा उपाध्यायोने हुं भक्तिपूर्वक नमन करुं छं. // [278-26 ] 30 ...शुद्धलेश्यावाळा जेओ कर्मक्षयने माटे सूत्रने भणावे छे, अने (भणाववामां) पोताना कष्ट (श्रमने ) गणकारता नथी, ते उपाध्यायने हुं नमन करुं छं. // [278-27 ] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत अज्झावयाण तेसि भई जे णाण-दसण-समिद्धा / बहु-भविय-बोह-जणयं झरंति सुत्तं सया-कालं // [ 278-28 ] अज्झावयस्स पणमह जस्स पसाएण सव्व-सुत्ताणि / णजंति पढिजंति य पढमं चिय सव्व-साधूहि // [ 278-29] उवझाय-णमोकारो कीरंतो मरण-देस-कालम्मि / कुगइं रुंभइ सहसा सोग्गइ-मग्गम्मि उवणेइ // [278-30] उवझाय-णमोकारो कीरंतो कुणइ बोहि-लाभं तु / तम्हा पणमह सव्वायरेण अज्झावयं मुणिणो // [278-31] उवझाय-णमोकारो सुहाण सव्वाण होइ तं मूलं / दुक्खखयं च काउं जीयं ठावेइ मोक्खम्मि // [ 278-32 ] सुय-सुत्त-गुणण-धारण-अज्झयणज्झायणेक्क-तल्लिच्छे / उवयार-करण-सीले वंदामि अहं उवज्झाए // [95-29 ] ज्ञान अने दर्शननी समृद्धिवाळा जेओ घणा भव्य आत्माओना बोधने उत्पन्न करनार सूत्रने सदाकाळ स्मरे छे (अध्ययन-अध्यापन करावे छे) ते उपाध्यायोनुं कल्याण हो. // [278-28 ] 15 जेमना प्रसादथी सर्व साधुओ सर्व सूत्रोने प्रथम जाणे छे अने भणे छे ते उपाध्यायने नमस्कार करो. // [278-29 ] ____ मरण समये उपाध्यायोने करातो नमस्कार कुगतिने एकदम रोके छे अने सद्गतिना मार्गमा लई जाय छे. // [278-30] उपाध्यायोने करातो नमस्कार बोधिलाभने ( सम्यक्त्वनी प्राप्तिने ) करे छे; माटे मुनिओने 20 भणावनार उपाध्यायोने तमे सर्व आदरपूर्वक नमन करो. // [ 278-31] उपाध्यायने नमस्कार सर्व सुखनुं मूळ छे, अने ते दुःखनो नाश. करीने जीवने मोक्षमा स्थापन करे छे. // [278-32] श्रुतज्ञानने गुणवू, धारण करवू, भणवू, भणावq-एमां ज तल्लीन, उपकार करवाना शीलवाळा उपाध्यायोने हुं बंदुं छु. (अथवा श्रुतज्ञानने गुणवानी, धारण करवानी, भणवानी अने 25 भणाववानी ज मात्र लेश्यावाळा अने उपकार करवामां परायण एवा उपाध्यायोने हुं वंदन करुं छु.)॥ [95-29 ] NCHEMEDIETIENENETICAENIOEMETE HEMSTEMSMENTURISMRIENOMINECURIOR ANAON O SILTO LETICIENCICHENDEN MEIEJSCHEUERERENESTE BIN Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 353 साहूण णमोकारं करेमि तिविहेण करण-जोएण / जेण भव-लक्ख-बद्धं खणेण पावं विणासेमि // [279-1] पणमह ति-गुत्ति-गुत्ते विलुत्त-मिच्छत्त-पत्त-सम्मत्ते। कम्म-करवत्त-पत्ते उत्तम-सत्ते पणिवयामि // [279-2] पंचसु समिईसु जए ति सल्ल-पडिपेल्लणम्मि गुरु-मल्ले / चउ-विकहा- पम्मुक्के मय-मोह-विवजए धीरे // [279-3] पणमामि सुद्ध-लेसे कसाय-परिवजिए जियाण हिए / छजीव-काय-रक्षण-परे य पा(परंपरं पत्ते // [279-4 ] चउ-सण्णा-विप्पजढे दढव्वए वय-गुणेहिँ संजुत्ते / * उत्तम-सत्ते पणओ अपमत्ते सव्व-कालं पि // [279-5] परिसह-बल-पडिमल्ले उयसग्ग-सहे पहम्मि मोक्खस्स / विकहा-पमाय-रहिए सहिए वंदामि समणे हं॥ [279-6] समणे सुयगे सुमणे समणे य पाव-पंकस्सऽसेवए / सवए सुहए समए य सच्चए साहु अह वंदे // [279-7] श्री साधु भगवंत त्रिविध करणयोग वडे साधुओने हुं नमस्कार करुं छु; जेथी लाखो भवोमां बांधेलु पाप क्षणमात्रमा नाश करूं // [279-1] मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्वने पामेला अने त्रण गुप्तिथी गुप्त (एवा मुनिओने) नमस्कार करो, कर्म( रूप काष्ठ )ने कापवा माटे करवत(रूप संयम )ने पामेला मुनिओने हुं प्रणाम करं र्छ / [279-2] 20 - पांच समितिमां यतनावाळा, त्रण शल्यने पीलवामां महामल्ल समान, चार प्रकारनी विकथाथी सर्वथा मुक्त (रहित ), मद अने मोहथी रहित, धीर, शुद्धलेश्यावाळा, कषायथी वर्जित, जीवोने हितकर, छ जीवनिकायनी रक्षामां तत्पर अने परम पारने पामेला (अथवा परंपरागुणश्रेणीने पामेला मुनिओने ) हुं वंदन करुं छं // [279-3-4] चार संज्ञाथी दूर रहेला, दृढव्रतवाळा, व्रतना गुणोथी युक्त अने उत्तमसत्त्ववाळा एवा 25 अप्रमत्त (मुनिओने ) हुं सदाकाळ प्रणाम करुं छु / [279-5] मोक्षमार्गमा परीषहरूप सैन्यना प्रतिमल्ल, उपसर्गने सहन करनारा, विकथा अने प्रमादथी रहित अने हितयुक्त एवा श्रमणोने हुं वंदुं छं // [279-6] . वळी तपस्वी, भुतने अनुसरनारा, प्रशस्त मनवाळा, क्षमाश्रमण, पापपंकने नहीं सेवनारा, महाव्रतवाळा, सुख आपनारा (सुभग), शमवाळा अने सत्यने अनुसरनारा एवा साधु भगवंतोने 30 हुं वंदन करुं छु // [279-7] (?) 1 श्रीमहारथ मुनिनी कुवलयमालाग्रंथमा आवती अंतिम आराधनामाथी आ गाथाओ लीधेली छे. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 कुवलयमालासंदभो। [प्राकृत साहूण णमोकारो जइ लब्भइ मरण-देस-कालम्मि। चिंतामणि पि लद्धं किं मग्गसि काय-मणियाइं // [279-8] साहूण णमोकारो कीरंतो अवहरेज जं पावं / पावाण कत्थ हियए णिवसइ एसो अउण्णाण // [ 279-9] साहूण णमोकारो कीरंतो भाव-मेत्त-संसुद्धो। सयल-सुहाणं मूलं मोक्खस्स य कारणं होइ // [ 279-10] तम्हा करेमि सव्वायरेण साहूण तं णमोकारं। तरिऊण भव-समुदं मोक्खय-दीवं च पावेमि // [ 279-11] धम्म-महोवहि-सरिसे कम्म-महासेल-कढिण-कुलिसत्थे / खंति-गुण-सार-गरुए उवसग्ग-सहे तरु समाणे // [34-9] पंच-महन्वय-फल-भार-रेहिरे गुत्ति-कुसुम-चेंचइए। सीलंग-पत्त-कलिए कप्पतरू-रयण-सारिच्छे // [34-10] जीवाजीव-विहाणं कजाकज-फल-विरयणा-सारं / साधूण समायारं आयारं के वि झायति // [34-11] 15 जो (तने ) मरण वखते साधुओने नमस्कार (करवानु) प्राप्त थाय ( साधुवंदन मळे ) तो तो खरेखर चिंतामणि पण मळी गयु ! तो पछी काचमणिओने (तुं ) शुं शोघे छ ? // [ 279-8] ____ जे कारणे साधुने करायेलो नमस्कार पापने हरे छे (माटे) पुण्य वगरना पापीओना हृदयमां आ (साधुनमस्कार) क्याथी वसे ? [ 279-9] साधुओने भावमात्रथी करातो विशुद्ध नमस्कार सकल सुखनु मूळ अने मोक्षनुं कारण 20 छे // [279-10] माटे सर्व आदरपूर्वक ते (भाव) नमस्कारने हुं करुं छु, (जेथी) भवसमुद्रने तरीने मोक्षरूप द्वीपने प्राप्त करुं ! // [27-911] धर्मना महासमुद्र समान, कर्मरूपी महापर्वतने (भेदवा) माटे कठिन वज्रस्वरूप, क्षमागुणना सार वडे गौरववंत, उपसर्गाने सहन करवामां वृक्ष समान, तथा पांचमहाव्रतरूपी फलना 25 भार ( समूह )थी शोभता, गुप्तिरूप पुष्पोथी सुंदर अने ( अढार हजार ) शीलांगरूप पत्रोथी युक्त एवा श्रेष्ठ कल्पवृक्ष समान केटलाएक साधु भगवंतोजीव-अजीव- जेमां विधान छे एवा, कार्यअकार्यना फळनी विशिष्ट रचनाना सारवाळा अने साधुओनी समाचारीने कहेता ( एवा) श्री आचारांग सूत्रनुं ध्यान धरे छे (स्वाध्याय करे छे)॥ [34-9-10-11] me_101 1. 'कुवलयमालामा' पुरंदरदत्त नामनो राजा धर्मनंदन नामना आचार्यना दर्शनार्थे एक उद्यानमा जाय छे. त्या ते आचार्यना साधुओने तेणे जोया. त्यारर्नु आ वर्णन छे. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। स-समय-पर-समयाणं सूइजइ जेण समय-सब्भावं / सूतयडं सूयगडं अण्णे रिसिणो अणुगुणेति // [34-12] अण्णेत्थ सुट्टिया संजमम्मि णिसुणेति के वि ठाणंगं / अण्णे पढंति धण्णा समवायं सव्व-विजाणं // [34-13] संसार-भाव-मुणिणो मुणिणो अण्णे वियाह-पण्णत्ती / अमय-रस-मीसियं पिव वयणे चिय णवर धारेति // [34-14] णाया-धम्म-कहाओ कहेंति अण्णे उवासग-दसाओ। अंतगड-दसा अवरे अणुत्तर-दसा अणुगुणेति // [34-15] जाणय-पुच्छं पुच्छइ गणहारी साहए तिलोय-गुरू / फुड पण्हा-वागरणं पढंति पण्हाइ-वागरणं // [34-16] वित्थरिय-सयल-तिहुयण-पसत्थ-सत्थत्थ-अत्थ-सत्थाह(र)। समय-सय-दिहिवायं के वि कयत्था अहिजंति // [34-17] जीवाणं पण्णवणं पण्णवणं पण्णवेंति पण्णवया / सूरिय-पण्णत्ति चिय गुणेति तह चंद-पण्णत्ति // [34-18 ] जेनाथी खसमय (स्वदर्शन ) अने परसमय (परदर्शन )ना सिद्धांतोना रहस्यने सूचवायुं छे 15 एवा श्रीसूत्रकृतांग सूत्रनुं अन्य मुनिवरो अनुगुणन करे छे // [ 34-12] संयममा सुस्थित एवा बीजा केटलाक (धन्य) मुनिओ (ठाणांग) स्थानांग सूत्रने सांभळे छे, बीजा केटलाक धन्य मुनिओ सर्व विद्याओना समवायरूप श्रीसमवायांग सूत्रने भणे छे।[३४-13] संसारभावने जाणनारा अन्य मुनिवरो जाणे अमृतरसथी मिश्रित होय तेम (विवाहपण्णत्ति) व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्रने मुखमां (कण्ठमां) धारण करे छे (स्वाध्याय करे छे)॥ [34-14] 20 ___केटलाक ज्ञाताधर्मकथा अंगनी कथाओ कहे छे, अन्य मुनिवरो उपासकदशांगनुं अनुगुणन करे छे, बीजा अंतगडदशांगनुं अनुगुणन करे छे अने केटलाक अनुत्तरोपपातिकदशांगर्नु अनुगुणन करे छे // [34-15] ___ जाणकार सुज्ञ एवा श्रीगणधर भगवंते प्रश्नो पूछ्या अने त्रिलोकगुरु श्रीतीर्थकर परमात्माए उत्तरो आप्या, ते प्रश्नोत्तरस्वरूप प्रश्नव्याकरणसूत्रने केटलाक मुनिवरो भणे छे // [ 34-16] 25 केटलाक विद्वान मुनिवरो त्रणे भुवनना सकल प्रशस्त शास्त्रार्थोरूप अर्थने (मालने संग्रहनार) माटे सार्थवाहरूप अने सेंकडो सिद्धांतोथी युक्त एवा 'दृष्टिवाद'ने भणे छे // [34-17 ] जीवोनुं जेमा प्ररूपण छे एवा प्रज्ञापना सूत्रने प्रज्ञापक मुनिवरो प्ररूपे छ। केटलाक सूर्यप्रज्ञप्तिने अने ( केटलाक) चन्द्रप्रज्ञप्तिने गुणे छे / [34-18 ] Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 कुवलयमालासंदब्भो। ___ [प्राकृत अण्णाइ य गणहर-भासियाइँ सामण्ण-केवलि-कयाई / पत्तेय-सयंबुद्धहिँ विरइयाइँ गुणेति महरिसिणो // [34-19] कत्थइ पंचावयवं दसह चिय साहणं परूवेति / पच्चक्खणुमाण-पमाण-चउक्कयं च अण्णे वियारेति // [34-20] भव-जलहि-जाणवत्तं पेम्म-महाराय-णियल-णिद्दलणं / कम्मट्ठ-गंठि-चजं अण्णे धम्म परिकहेंति // [34-21] मोहंधयार-रविणो पर-चाय(इ)-कुरंग-दरिय-केसरिणो / णय-सय-खर-णहरिल्ले अण्णे अह वाइणो तत्थं // [34-22] लोयालोग-पयासं दूरंतर-सह-वत्थु-पजोयं / केवलि-सुत्त-णिबद्धं णिमित्तमण्णे वियारंति // [34-28] ... णाणा-जीउप्पत्ती-सुवण्ण-मणि-रयण-धाउ-संजोयं / जाणंति जणिय-जोणी ( 1 ) जोणीणं पाहुडं अण्णे // [34-24] अहि-सय-पंजरा इव तव-सोसिय-चम्म-मत्त पडिबद्धा / आबद्ध-किडिगिडि-खा पेच्छइ य तवस्सिणो अण्णे // [34-25] 15 वळी, केटलाक महर्षिओ गणधरभाषित, सामान्यकेवलीकृत, प्रत्येकबुद्धरचित स्वयंसंबुद्धरचित सूत्रोने गुणे छे॥ [ 34-19] कोइ स्थळे पश्चावयव साधनने अने कोइ स्थळे दश प्रकारना साधनने ( तर्कने ) ( केटलाक मुनिओ) प्ररूपे छे, प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमुख चार प्रमाणने केटलाक मुनिवरो विचारे छे / [34-20] भवसमुद्र तरवाने नौका समान, रागरूप महाराजाना बन्धनने तोडनार अने कर्मग्रंथिने 20भेदवा माटे वा समान एवा धर्मने अन्य मुनिवरो कहे छे-उपदेशे छे // [ 34-21 ] त्यां मोहांधकारने दूर करवामां सूर्य समान अने परवादीरूप मृगलांओनुं विदारण करनार सेंकडो नयरूपी तीक्ष्ण नखवाळा केसरी सिंह समान केटलाक वादीओ छ / [34-22 ] केवलिप्रज्ञप्त सूत्रोमां कहेल, लोकालोकने प्रकाश करनार, दूर अने अन्तरित एवी सूक्ष्म वस्तुओने पण प्रकाशित करनार निमित्तशास्त्रने ( केटलाक ) मुनिओ विचारे छे / / [34-23 ] 25 विविध जीवोनी उत्पत्तिनुं स्वरूप; सुवर्ण, मणि, रत्न अने धातुना संयोगनुं स्वरूप अने जन्मनी योनिओनुं स्वरूप जेमां छे एवा योनिप्राभृत आगमने केटलाक मुनिओ जाणे छे॥ [34-24] तषवडे शोषाई गयेल मांसना कारणे केवळ चामडुं ज जेमना देहपर रयुं छे एवा, कड कड एवो अवाज जेमना हाडकांओमाथी थया करे छे एवा केटलाक तपस्वी मुनिवरोने जाणे सेंकडो हाडकांना पिंजर न होय एवा ते जुए छे // [ 34-25 ] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / ललिय-वयणत्थ-सारं सव्वालंकार-णिवडिय-सोहं / अमय-प्पवाह-महुरं अण्णे कव्वं विइंतंति // [34-26 ] बहु-तंत-मंत-विजा-वियाणया सिद्ध-जोय-जोइसिया। अच्छंति अणुगुणेता अवरे सिद्धंत-साराई // [34-27 ] मण-वयण-काय-गुत्ता णिरुद्ध-णीसास-णिचलच्छीया / जिण-वयणं झायंता अण्णे पडिमा-गया मुणिणो // [34-28 ] अवि य कहिंचि पडिमा-गया, कहिंचि णियम-ट्ठिया, कहिंचि वीरासण-ट्टिया, कहिंचि उक्कुडयासण-ट्ठिया, कहिंचि गोदोहसंठिया, कहिंचि पउमासण-हिय त्ति / अवि य // इय पेच्छइ सो राया सज्झाय-रए तवस्सिणो धीरे। णित्थिण्ण-भव-समुद्दे रुदेण जिणिंद-पोएणं // [34-31] केइ पढंति सउण्णा अवरे पाटेंति धम्म-सत्थाई / अवरे गुणेति अवरे पुच्छंति य संसए केइ // [87-20] वक्खाणंति कयत्था अवरे वि सुरेंति के वि गीयत्था। अंबरे रएंति कव्वं अवरे झाणम्मि वटुंति // [87-21 ] सुंदर वचनो अने अर्थोना सारवाळा, सर्व अलंकारोथी जेनी शोभा थयेली छे एवा अने 15 अमृतना प्रवाह सम मधुर एवा काव्यने केटलाक मुनिओ गूंथे छे / [34-26 ] केटलाक अनेक मंत्रो, तंत्रो अने विद्याओना जाणकार, केटलाक योगमां निष्णात, केटलाक ज्योतिषमां सिद्ध अने सिद्धांतना सारने अनुगुणता मुनिओ त्यां विद्यमान छ / [34-27 ] मन, वचन अने कायानी गुप्तिथी गुप्त, श्वासने रोकीने अने स्थिर दृष्टिवाळा थईने (कुंभक प्राणायाम सहित नासाग्रदृष्टिवडे ) जिनवचननुं ध्यान करता केटलाक प्रतिमाधारी मुनिओ त्यां 20 छे // [ 34-28 ] वळी, क्यांक प्रतिमागत, तो क्यांक नियममा रहेला, तो कोई स्थळे वीरासने रहेला, तो कोई स्थळे उत्कुटुकासने रहेला, वळी कोई स्थाने गोदोहनिकासने रहेला अने कोई स्थाने पद्मासने रहेला मुनिवरो (त्यां ) छे / / आवी रीते ते राजाए स्वाध्यायमा मग्न, तपस्वी, धीर अने श्री जिनेश्वर भगवाननी (संयमरूप) 25 विशाळ नौका वडे भवसमुद्रना ( पारने ) किनाराने पामेला एवा साधु भगवंतो जोया // [34-31] केटलाक मुनिवरो शकुनशास्त्र भणे छे, बीजा धर्मशास्त्रोने भणावे छे, बीजा वळी धर्मशास्त्रोनो स्वाध्याय करे छे अने अन्य केटलाक संशयने पूछे छे // [ 87-20] बीजा केटलाक कृतार्थ ( विद्वान ) मुनिओ व्याख्यान करे छे, केटलाक गीतार्थो पण सांभळे छे, बीजा काव्यने रचे छे अने अन्य केटलाक ध्यानमा रहे छे // [87-21] 30 1 वळी बीजा एक प्रसंगे राजाए धर्मनंदन नामना आचार्यना मुनिओ जोया; त्यारनुं आ वर्णन छे. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत सुस्मसंति य गुरुणो वेयावच्चं करेंति अण्णे वि / अण्णे सामायारिं सिक्खंति य सुत्थिया बहुसो // [87-22] दंसण-रयणं-अण्णे पालेंति य के वि कह वि चारित्तं / जिणवर-गणहर-रइयं अण्णे णाणं पसंसंति // [87-23 ] अवि य // सुत्तत्थ-संसयाइ य अवरे पुच्छंति के वि तत्थेव / सद्दत्योभयजुत्ते करेंति अब्भासं वायम्मि // [87-24] धम्माधम्म-पयत्थे के वि णिस्वेति हेउ-वादेहि। जीवाण बंध-मोक्खपयं च भाति अण्णे वि // [87-25]. तेलोक-वंदणिज्जे-सुक्कझाणम्मि के वि वटुंति / अण्णे दोग्गइ-णासं धम्मज्झाणं समल्लीणा // [87-26 ] मय-माण-कोह-लोहे अवरे णिदंति दिट्ठ-माहप्पा / दुह-सय-पउरावत्तं अवरे णिदंति भव-जलहिं // [87-27 ] इय देस-भत्त-महिला-राय-कहाणत्थं वजिउं दूरं। सज्झाय-झाण-णिरए अह पेच्छइ साहुणो राया // [87-28] 15 अन्य केटलाक गुरुमहाराजनी शुश्रूषा करे छे, केटलाक वेयावच्च करे छे, अन्य सुस्थित मुनिओ वारंवार समाचारीने (आचारने ) शीखे छे // [ 87-22 ] ___ अन्य मुनिओ दर्शनरत्नने साचवे छे, तो केटलाक कोईपण भोगे चारित्रने आराधे छे, वळी बीजा मुनिवरो श्री जिनवरोए (सूत्रथी कहेल) अने गणधरोए (अर्थथी ) रचेल ज्ञानने प्रशंसे छे / [87-23 ] वळी20 केटलाक त्यां सूत्रार्थना संशयने पूछे छे अने केटलाक सूत्र, अर्थ अने तदुभयथी युक्त एवा वादमां अभ्यास करे छे // [ 87-24] केटलाक हेतुवादवडे धर्माधर्म पदार्थोने प्ररूपे छे, अन्य वळी जीवोना बंध अने मोक्षपदने विचारे छे / [87-25] | त्रण लोकने वन्दनीय एवा शुक्लध्यानमा केटलाक स्थिर थया छे, तो केटलाक दुर्गतिना 25 विनाशक धर्मध्यानमां सारी रीते लीन थया छे // [87-26 ] मद, मान, क्रोध, लोभना माहात्म्य-प्रभाव-विपाकने जाणता केटलाक क्रोधादिने निंदे छे, तो केटलाक सेंकडो दुःखोना घणा आवर्तोथी भरेला भवसमुद्रने निंदे छे / [87.27 ] ए प्रमाणे देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा अने राजकथाना अनर्थोने दूरथी तजीने स्वाध्याय अने ध्यानमा रक्त एवा साधुओने राजा जुए छे // [87-28 ] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 'ज कणयं कणयं चिय ण होइ कालेण तं पुणो लोहं / इय णाण-विसुद्ध-मणा जे साहू ते पुणो साहू // [90-32 ] पंच-महव्वय-जुत्ते ति-गुत्ति-गुत्ते विलुत्त-मिच्छते / वंदामि अप्पमत्ते ते साहू संजमं पत्ते // [95-30] चारित्त-णाण-दंसण-तव-विणय-महाबलेण जिणिऊण / गहियं जेहिं सिव-पुरं णमो णमो ताण साधूणं // [215-9] केइया खणं विबुद्धो विरत्त-समयम्मि काय-मण-गुत्तो / चरण-करणाणुयोगं धम्मज्झयणे अणुगुणेस्सं // [213-14] कइया उवसंत-मणो कम्म-महासेल-कढिण-कुलिसत्थं / वजं पिव अणवजं काहं गोसे पडिक्कमणं // [213-15] कइया कय-कायव्वो सुमणो सुत्तत्थ-पोरिसिं काउं / वेरग्ग-मग्ग-लग्गो धम्मज्झाणम्मि वट्टिस्सं // [213-16 ] कइया णु असंभंतो छट्ठट्ठम-तव-विसेस-सूसंतो। जुय-मेत्त-णिमिय-दिट्ठी गोयर-चरियं पवजिस्सं // [213-17 ] जे सोनुं ते खरेखर सोनुं ज छे, काळ जतां पण ते कदीए लोढुं थतुं नथी; ए प्रमाणे जे 15 साधु ज्ञानथी विशुद्ध मनवाळा छे ते साधुओ ज खरा साधु छे / / [90-32 ] . पंचमहाव्रतथी युक्त, त्रण गुप्तिथी गुप्त, मिथ्यात्वथी विमुक्त अने संयमने प्राप्त थयेला एवा ते अप्रमत्त मुनिवरोने हुं वंदु छु // [95-30] __ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने विनयरूप महासैन्यवडे जेओए ( मोह पर ) विजय मेळवीने शिवपुर ( मोक्षनगर ) प्राप्त कर्यु छे ते साधुओने हुं वारंवार नमस्कार करुं छु / [215-9] 20 - क्यारे पाछली रातना समये क्षणवार जागृत थईने अने काय तथा मननी गुप्तिवाळो बनीने चरणकरणानुयोगने अने धर्मना अध्ययनोने हुं अनुगुणीश ? / / [213-14 ] __ क्यारे उपशान्त मनवाळो थईने कर्मरूपी महाशैलने तोडी नाखवा माटे कठिन वज्र समान अने वज्ज छतां अणवजै (अर्थात्-क्षपकश्रेणी आदि निश्चयनी अपेक्षाए) वर्ण्य होवा छतां (व्यवहारमा आदरणीय होवाथी ) अनवद्य-पवित्र एबुं प्रतिक्रमण हुं प्रभातकाळमां करीश ? [ 213-15 ] 25 क्यारे कृतकृत्य, पवित्र मनवाळो अने वैराग्यमार्गमां तत्पर एवो हुँ सूत्र अने अर्थ पौरुषी करीने धर्मध्यानमा रहीश ? // [ 213-16 ] ___क्यारे असंभ्रान्त, छठ्ठ अठ्ठम आदि तप वडे कृश थयेलो अने धोंसरी प्रमाण दृष्टिवाळो एवो हुँ गौचरी चर्या माटे जईश ? [213-17 ] 1 'कुवलयमाला'मा आवता आ परचुरण श्लोको छे. 2 कोई एक रात्रिना चरम प्रहरमा जागेल कुवलयचंद्र राजा (कथानायिका कुवलयमालानो पति ) आ रीते भावना भावे छे. आ भावना साधुपदने उचित होवाथी अहीं लीधी छे. 3 अहीं 'वज'नो शाब्दिक श्लेष छे. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 कुवलयमालासंदभो। [प्राकृत * कइया वि हसिजंतो णिदिजंतो य मूढ-बालेहिं / सम-मित्त-सत्तु-चित्तो भमेज भिक्खं विसोहेंतो॥ [213-18 ] कइया खण-वीसंतो धम्मज्झयणे समुडिओ गुणिउं / रागद्दोस-विमुक्को मुंजे सुत्तोवएसेण // [213-19] कइया कय-सुत्तत्थो संसारेगत्त-भावणं काउं / सुण्णहर-भसाणेसुं धम्मज्झाणम्मि ठाइस्सं // [213-20] कइया णु कमेण पुणो फासु-पएसम्मि कंदरे गिरिणो / आराहिय-चउ-खंधो देहच्चायं करीहामि // [213-21] एय सत्त-सार-रहिओ चिंतेइ चिय मणोरहे णवरं / एस जिओ मह पावो पावारंभेसु उञ्जमइ // [213-22] धण्णा हु बाल-मुणिणो बालत्तणयम्मि गहिय-सामण्णा / 'अणरसिय-णिव्विसेसा जेहिं ण दिट्ठो पिय-विओओ // [213-23 ] धण्णा हु बाल-मुणिणो अकय-विवाहा अणाय-मयण-रसा / अहिट्ठ-दइय-सोक्खा पव्वजं जे समल्लीणा // [213-24] 15 क्यारे मूढ अने बाल (अज्ञ ) लोकोथी हसातो के निंदातो छतां पण शत्रु अने मित्रमा समान चित्तवाळो थईने भिक्षानी विशुद्धि माटे हुं भ्रमण करीश ? // [213-18 ] - क्यारे क्षण विश्राम लईने धर्मना अध्ययनोने गुणवामां समुत्थित (तत्पर थयेलो) एवो हुं सूत्रमा बतावेल विधि प्रमाणे रागद्वेषरहितपणे भोजन करीश ? // [ 213-19 ] क्यारे सूत्रार्थमां निपुण बनेलो एवो हुं संसारभावना, एकत्वभावमा वगेरे भावनाओ भावीने 20 भावित थईने शून्य घरो के श्मशानोने विषे धर्मध्यानमा स्थिर रहीश ? // [ 213-20] वळी क्यारे पर्वतनी गुफामां पासुक-शुद्ध (निर्जीव ) प्रदेशमां चतुस्कंधनी (?) आराधना (करीने ) पूर्वक देहनो त्याग हुं करीश ? // [ 213-21] सत्त्व अने बळथी विकल बनेलो ( वयोवृद्ध एवो) आ मारो पापी जीव आवी रीते केवल शुभ मनोरथो ज चिंतवे छे पण उद्यम तो पापारंभोमां ज करे छे॥ [213-22] 25 बाल्यवयमां जेमणे साधुपणुं ग्रहण कर्यु छे (अणरसिय-णिव्विसेसा ?)... अने जेओए प्रियवियोगने जोयो ज नथी एवा बालमुनिओने धन्य छे [213-23 ] जेओए विवाह को नथी, कामरसने जाण्यो नथी, स्त्रीसुखने देख्यु नथी अने संयमम सारी रीते लीन छे ते बालमुनिओने धन्य छे / / [213-24] 1 पाठांतर-अणरिसिय. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360 (1) धण्णा हु बाल-मुणिणो अणणिय-पेम्मा अणाय-विसय सुहा। . अवहत्थिय-जिय-लोया पयजं जे समल्लीणा // [ 213-52 ] धण्णा हु बाल-मुणिणो उजुय-सीला अणाय-घर-सोक्खा / विणयम्मि वडमाणा जिण-वयणं जे समल्लीणा // [213-26 ] धण्णा हु बाल-मुणिणो कुटुंब-भारेण जे य णोत्थइया / जिण-सासणम्मि लग्गा दुक्ख-सयावत्त-संसारे // [213-27 ] धण्णा हु बाल-मुणिणो जाणं अंगम्मि णिव्वुडो कामो। ण वि णाओ पेम्म-रसो सज्झाए वावड-मणेहिं // [213-28 ] धण्णा हु बाल-मुणिणो जाय चिय जे जिणे समल्लीणा / ण-य( या )णंति कुमइ-मग्गे पडिकूले मोक्ख-मग्गस्स // [213-29] 10 इय ते मुणिणो धण्णा पावारंमेसु जेण वटुंति / सूडेंति कम्म-गहणं तव-कड्डिय-तिक्ख-करवाला // [213-30 ] प्रेमने गण्या वगर, विषयसुखने जाण्या वगर, जीवलोक ( संसार ) नो त्याग करीने जेओ प्रव्रज्यामां सारी रीते लीन थया छे ते बालमुनिओने धन्य छ / [213-25 ] - जेओ सरल (शील ) वर्तनवाळा छे, घरवासना सुखथी जेओ अज्ञात छे, विनयमां जेओ15 प्रवर्तमान छे अने जेओ श्री जिनेश्वर भगवानना वचनमां सारी रीते लीन छे एवा बालमुनिओने धन्य छे // [213-26 ] सेंकडो दुःखना आवळ्थी भरेला संसारमा (पण) जेओ कुटुंबना भारथी आच्छादित नथी थया, दबाया नथी अने श्री जिनेश्वर भगवानना शासनमां प्रीतिवाळा थया छे एवा बालमुनिओने धन्य छे // [213-27] खाध्यायमां मन लागी गयेल होवाथी जेमना शरीरथी काम निवृत्त थयो छे (जेमना शरीरमां काम प्रवेशी शक्यो ज नथी ) अने ( तेथी) जेओए प्रेम( काम )नो रस जाण्यो ज नथी एवा बालमुनिओने धन्य छे // [213-28 ] जेओ जन्मतां ज ( दीक्षा लेतां ज) श्रीजिनेश्वर भगवान( ना शासन )मां सारी रीते लीन थया छे अने जेओ मोक्षमार्गने प्रतिकूल कुमतिमार्गने जाणता (ज) नथी ते बालमुनिओने 25 धन्य छे. [213-29] . ए प्रमाणे ते मुनिओने धन्य छे के जेओ पापारंभमां वर्तता नथी अने तप रूपी तीक्ष्ण तरवार खेंचीने ( काढीने ) कर्मरूपी वनने सूडी नाखे छे [213-30] 20 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 (2) कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत अम्हे उण णीसत्ता सत्ता विसएसु जोव्वणुम्मत्ता / परिवियलिय-सत्तीया तव-भारं कह वहीहामो // [213-31] पेम्म-मउम्मत्त-मणा पणट्ठ-लजा जुवाण-कालम्मि / संपइ वियलिय-सारा जिण-वयणं कह करीहामो // [213-32] सारीर-चलुम्मत्ता तइया अप्फोडणेक-दुल्ललिया / ण तवे लग्गा एहि तव-भारं कह वहीहामो // [213-33 ] अगणिय-कजाकजा रागद्दोसेहिँ मोहिया तइया / जिणवयमम्मि ण लग्गा एण्हि पुण किं करीहामो // [214-1] जइया धिईए वलिया कलिया सत्तीए दप्पिया हियए / तइया तवे ण लग्गा भण एहि किं करीहामो // [214-2] जइया णिहर-देहा सत्ता तव-संजमम्मि उजमिउं / ण य तइया उञ्जमियं एहि पुण किं करीहामो // [214-3] जइया मेहा-जुत्ता सत्ता सयलं पि आगमं गहिउं / ण य तइया पव्वइया एहि जड्डा य वड्डा य // [214-4 ] 15 अमे तो निःसत्त्व, विषयमां आसक्त, यौवनथी उन्मत्त, शक्ति वगरना, तपना भारने केम वहन करी शकीशु ? [213-31] यौवनकाळमां अमे प्रेम अने मदथी उन्मत्त मनवाळा अने लज्जा वगरना हता। हवे (अत्यारे ) अमारं सत्त्व चाल्युं गयुं छे तो जिनवचनने कई रीते अनुसरीशुं ? [213-32] त्यारे ( यौवनवयमां) शरीरना बळथी उन्मत्त थयेला अने मारपीट-भांगफोडमा ज मजा 20 माननारा अमे तपमां जोडाया नहीं तो हवे (ए) तपना भारने केम वहीशुं ? [213-38 ] कार्याकार्यनो विचार कर्या वगर रागद्वेषथी मोहित थयेला ते समये जिनवचनमां लीन न थया, तो पछी अत्यारे शुं करीशुं ? [214-1] ज्यारे धैर्यथी बळिया हता, शक्तिथी संपन्न हता अने हृदयथी दर्पवाळा हता ते समये ( पण ) तपमा लगनी न लागी, तो कहो अत्यारे शुं करीशुं ? [214-2] 25 जे वखते काया सशक्त (सहनशील) हती अने तप-संयममां उद्यम करवा अमे शक्तिमान हता ते वखते उद्यम न कर्यो तो अत्यारे शुं करीशुं ? [ 214-3] ___ज्यारे अमे बुद्धियुक्त हता अने सकल आगमने ग्रहण करवाने माटे समर्थ हता ते वखते पण प्रव्रज्या ग्रहण न करी ! हवे तो अमे (बुद्धिथी ) जड अने वृद्ध थया छीए, हवे शुं करीशुं ? [214-4] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360(3) इय वियलिय-णव-जोव्वण-सत्तिल्ला संजमम्मि असमत्था / पच्छायाव-परद्धा पुरिसा झिजति चिंतेंता // [214-5] जइ तइया विरमंतो सम्मत्त-महादुमस्स पारोहे / अज-दियहम्मि होतो सत्थे परमत्थ-भंगिल्लो // [214-6 ] जइ तइया विरमंतो सुय-णाण-महोयहिस्स तीरम्मि / उच्चेंतो अज-दिणं भव्वाइँ ? य सेस-रयणाई // [214-7] जइ तइया विरमंतो आरूढो जिण-चरित्त-पोयम्मि। . संसार-महाजलहिं हेलाए चेय तीरंतो // [214-8 ] जइ तइया विरमंतो तव-भंडायार-पूरियप्पाणो। अज्ज-दिणं राया हं मुणीण होतो ण संदेहो // [ 214-9] 10 जइ तइया विरमंतो वय-रयण गुणेहिँ वड्डिय-पयावो / रयणाहिवो त्ति पुजो होतो सव्वाण वि मुणीणं // [214-10] जइ तइया विरमंतो रज-महा-पाव-संचय-विहीणो। झत्ति खवेतो पावं तव-संजमिओ अणंतं पि॥ [214-11] आ रीते नवयौवन अने शक्तिथी रहित थयेला, संयममां असमर्थ, (केवल ) पश्चात्तापने 15 पराधीन आत्माओ चिंता करता ( विचारमा ने विचारमा) क्षीण थाय छे // [214-5] ज्यारे सम्यक्त्व महावृक्षनो अंकुरो ऊग्यो हतो त्यारे जो (अविरतिथी) अटक्यो होत (अने सर्वविरति लीधी होत ) तो आजे ( आज सुधी) शास्त्रना परमार्थना भेदोनो जाणकार होत // [214-6] __' ज्यारे श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्रने कांठे हतो त्यारे जो ( अविरतिथी ) अटक्यो होत 20 (अने सर्वविरति लीधी होत ) तो आजे ( आज सुधी) श्रेष्ठ एवां बीजां रत्नोने एकठां करतो होत // [214-7] जो त्यारे (अविरतिथी ) अटक्यो होत अने श्रीजिनेश्वर भगवानना चारित्ररूपी वहाणमां आरूढ थयो होत तो संसाररूपी महासमुद्रने सहेलाईथी तरी गयो होत // [214-8] ____जो ते समये ( अविरतिथी) अटक्यो होत अने तप (आदि गुणो)ना खजानाथी 25 आत्माने भरपूर बनाव्यो होत तो आजे (आज सुधी) हुं मुनिओनो राजा होत, एमां संदेह नथी / [214-9] ____ जो ते समये ( अविरतिथी) अटक्यो होत तो हुं सुंदर व्रत अने गुणोथी वधेला प्रतापवाळो होत अने रत्नाधिक (रत्नाधिप ) तरीके सर्व मुनिओने पूज्य होत // [214-10] जो ते वखते राज्यना महा पापना संचयथी रहित बनी (अविरतिथी) विरम्यो होत (सर्वविरति 30 लीधी होत ) तो तप अने संयमवाळा में अनंता पापने शीघ्र खपाव्यां होत // [214-11] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 360 (4) कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत जइ तइया विरमंतो तव-संजम-णाण-सोसियावरणो / णाणाण के पि णाणं पावेतो अइसयं एहि // [ 214-12 ] इय जे बालत्तणए मूढा ण करेंति कह वि सामण्णं / सोयंति ते अणुदिणं जराएँ गहियाहमा पुरिसा // [214-13] ता जइ कहं पि पावइ अहं पुण्णेण को वि आयरियो। ता पव्वयामि तुरियं अलं म्ह रजेण पावणं // [214-14 ] xxx एए जयम्मि सारा पुरिसा पंचेव ताण जोकारो। एयाण उवरि अण्णो को वा अरिहो पणामस्स / [279-12 ] सेयाण परं सेयं मंगल्लाणं च परम-मंगल्लं / पुण्णाण परं पुण्णं फलं फलाणं च जाणेजा // [ 279-18 ] एयं होइ पवित्तं वरयरयं सासयं तहा परमं / सारं जीयं पारं पुव्वाणं चोदसण्हं पि // [279-14] एवं आराहेउं किं वा अण्णेहिँ एत्थ कजेहिं / पंच-णमोकार-मणो अवस्स देवत्तणं लहइ // [ 279-15] 15 जो ते समये ( अविरतिथी ) अटक्यो होत तथा तप, संयम अने ज्ञान वडे कर्मनां आवरणो दूर कणं होत तो अत्यारे सर्वज्ञानोमां अतिशायि-चढियाता एवा कोईक ( अपूर्व ) ज्ञानने (केवलज्ञानने) पाम्यो होत // [214-12] ___ आ प्रमाणे बाल्यावस्थामां मूढ एवा जेओ कोईपण रीते श्रामण्य ( संयम ) ने करता (स्वीकारता) नथी ते अधम पुरुषो वृद्धावस्थाथी पकडाय ( जकडाय) छे अने प्रतिदिन 20 शोक करे छे / [214-13] माटे जो कोईपण रीते अमारां पुण्यथी कोई पण आचार्य भगवंत अहीं पधारे तो हुं शीघ्र प्रव्रज्या ग्रहण करूं; आ पापमय राज्यथी मारे सयुं // [ 214-14] जगतमां आ पांच ज पुरुषो साररूप ( उत्तम ) छे; (माटे) तेओने नमस्कार करूं छं। (लोकमां) प्रणामने योग्य एमनाथी चढियातो बीजो कोण छे ? // [279-12] 25 श्रेयोमा परमश्रेय, मंगलोमां परम मंगल, पुण्योमा परम पुण्य अने फळोमां (पण ) परम फळ आ (नमस्कार ज) छे एम जाणो / [279-13] आ पंचनमस्कार पवित्र छे, श्रेष्ठतर छे, शाश्वत छे, परम छे, वळी चौदे पूर्वोनो सार, आत्मा (स्वरूप-प्राण-रहस्य ) अने पार छ / [279-14] आनी ज आराधना करवामां तत्पर बनो, अन्य कार्यों करवाथी शं? पञ्चनमस्कारमा 30 मनवाळो आत्मा अवश्य देवपणाने प्राप्त करे छे / [279-15 ] Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 360(5) चारित्तं पि ण वट्टइ णाणं णो जस्स परिणयं किंचि / पंच-णमोकार फलं अवस्स देवत्तणं तस्स // [279-16 ] एयं दुह-सय-जलयर-तरंग-रंगंत-भासुरावत्ते / संसार-समुद्दम्मि कयाइ रयणं व णो पत्तं // [ 279-17 ] एयं अन्भुरुहुल्लं एयं अप्पत्त-पत्तयं मज्झ / एयं परम-भयहरं चोजं को(डु)टं परं सारं // [ 279-18 ] विज्झइ राहा वि फुडं उम्मूलिजइ गिरी वि मूलाओ। गम्मइ गयणयलेणं दुलहो एसो णमोकारो // [279-19 ] जलणो व्व होज सीओ पडिवह-हुत्तं वहेज सुर-सरिया / ण य णाम ण देज इमो मोक्ख-फलं जिण-णमोकारो // [279-20] 10 Yणं अलद्धउव्वो संसार-महोयहिं भमंतेहिं / जिण-साहु णमोकारो तेणज वि जम्म-मरणाई // [279-21] जइ पुण पुव्वं लद्धो ता कीस ण होइ मज्झ कम्म-खओ। दावाणलम्मि जलिए तण-रासी केचिरं ठाउ // [279-22] जेने अल्प पण चारित्र नथी अने अल्प पण ज्ञान परिणम्युं नथी तेने पण पश्चनमस्कारना 15 फळरूपे देवपणुं अवश्य मळे छे // [279-16] . सेंकडो दुःखरूपी जलचरथी उत्पन्न थयेला तरंगोना उछाळाथी देदीप्यमान आवर्तोवाळा संसाररूपी समुद्रमा ( नमस्काररूपी ) रत्न कदापि (पूर्वे अनादिकाळमां) प्राप्त थयुं नथी, ( अर्थात् . . जेम समुद्रमा रत्ननी प्राप्ति दुर्लभ छे तेम संसारमा नमस्कारनी प्राप्ति दुर्लभ छे)॥ [279-17 ] आ (अब्भुरुहुल्लं ? ) छे अने मने आ अप्राप्तनी प्राप्ति छ। आ परम भयहर छे, आ परम 20 अद्भुत छे, आ परम आश्चर्य छ, आ परम भंडार छे अने आ परम सार छ [ 279-18] स्पष्ट रीते राधावेध (पण ) करी शकाय छे, मूळमाथी पर्वतने (पण) उखेडी शकाय छे अने आकाशमार्गे पण जई शकाय छे; पण आ नमस्कार प्राप्त करवो दुर्लभ छ [ 279-19 ] कदाच अग्नि शीतळ थाय अने गंगानदी उलटा प्रवाहे वहे; पण आ श्रीजिननमस्कार मोक्षफळने न आपे एम न ज बने // [279-20] खरेखर (आ) संसाररूपी समुद्रमा भमता जीवोवडे श्रीजिनसाधुनमस्कार पूर्वे (कदी पण) प्राप्त करायो नथी तेथी ज हजु सुधी पण जन्ममरण (चालु) छे / [279-21 ] . जो पूर्वे आ (नमस्कार ) प्राप्त थयो होत तो मारा कर्मनो क्षय केम न थात ? दावानळ सळग्ये छते त्यां घासनो ढगलो केटलो वखत रही शके ? // [279-22] 25 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 360 (6) कुवलयमालासंदभो। [प्राकृत अहवा भावेण विणा दव्वेणं पाविओ मए आसि / जाव ण गहिओ चिंतामणि त्ति ता किं फलं देइ // [ 279-23 ] ता संपइ पत्तो मे आराहेव्यउ मए पयत्तेणं / जइ जम्मण-मरणाणं दुक्खाणं अंतमिच्छामि // [279-24] 5 अथवा में ते नमस्कार भाव वगर द्रव्यथी (ज) प्राप्त कर्यो हशे; ज्यां सुधी ( आ नवकाररूप चिंतामणिने) 'आ चिन्तामणि छे,' एम समजीने ग्रहण न कर्यो होय त्यांसुधी ते शुं फळ आपे ? [279-23 ] तेथी, जो हुं जन्ममरणना दुःखोनो अंत इच्छतो होउं तो प्राप्त थयेल आ नमस्कार मारे प्रयत्नपूर्वक आराधवो जोईए // [279-24] परिचय ___ 'कुवलयमाला' ए प्राकृत चंपू काव्य छ / तेना रचयिता प्रकांड विद्वान 'दाक्षिण्य' चिह्नांकित आचार्य श्री उद्योतनसूरिजी छे। तेओए आ ग्रंथ वि. सं. 835 नी चैत्र कृष्ण चतुर्दशीए समाप्त को हतो / तेमने ही अने श्री देवीओ प्रसन्न हती। ग्रंथकारे ग्रंथना प्रारंभमां आचार्यशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजने भावपूर्वक अभिवादन कर्यु छ। 15 आ ग्रंथ 'सिंघी जैन ग्रंथमाला' तरफथी ताजेतरमा ज प्रकाशित थयो छ। आ कथानुं संक्षिप्त ( चार हजार श्लोक प्रमाण ) गद्यपद्यमय संस्कृत रूपान्तर श्री रत्नप्रभसूरिए कयुं छे। प्राकृत कथानुं प्रमाण तेर हजार श्लोक जेटलुं छे / ग्रंथनी रचनाशैली, यथास्थाने समुचित वाक्योनो विन्यास, प्रचुररसव्यक्ति, अनेक अलंकारो, प्रासंगिक कथाओ द्वारा सुंदर उपदेश अने 20 तत्त्वज्ञान- दान, प्रसन्न पद्यो वगेरे बधुं ज चमत्कारी छे / ग्रंथ श्रवणप्रिय अने हृदयहारी छ / प्राकृतभाषाना अभ्यासीओ माटे आ ग्रंथ अवलोकनीय छ। कथानो मुख्य उद्देश संसारनी विषमताने बताववानो छे / चरमभवपूर्वना पांचमा भवमां वर्तता रुद्रसोम, शांतिभट्ट, गंगादित्य, धनदेव अने व्याघ्रदत्त ए पांच प्रधान पात्रोथी आ कथा शरु थाय छे। तेओमांथी एकेक क्रमशः क्रोध, मान, माया, लोभ अने मोहथी प्रसित छे। सांसारिक 25 यातनाओने अनुभवता तेओ अंते संयम ग्रहण करे छ। पछीना देव वगेरेना भवोमां तेओ बधा साथे ज जाय छे अने परस्पर मळीने अन्योन्यने धर्म पमाडवाना प्रयत्नो करे छे। अंते चरमभवमा श्रमण भगवान श्री वर्धमानस्वामीना समयमा संयम लई सुंदर आराधना करी मोक्षे जाय छे / तेमांनो एक कुवलचंद्र राजकुमार छ / कुवलयमाला तेनी मुख्य राणी छे। ए बेनी कथाथी ग्रंथनो घणो भाग विभूषित छ। 30 प्रस्तुत ग्रंथमाथी पांच परमेष्ठिओना भाववाही काव्यने लईने अमे सानुवाद अहीं प्रगट करीए छीए। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17 अ] परमेष्ट्यादिपदगर्भितमन्त्रादयः॥ [आम्नायसहिताः] [1] आत्मरक्षाः परमेष्ठिनमस्कारं सारं नवपदात्मकम् / आत्मरक्षाकरवज्रपञ्जराभं स्मराम्यहम् // 1 // ॐ नमो अरिहंताणं, शिरस्कं 'शिरसि स्थितम् / ॐ नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् // 1 // ॐ नमो आयरियाणं, अङ्गरक्षातिशायिनी / ॐ नमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोईढम् // 2 // * ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोः शुभे / एसो पंच नमुक्कारो, शिलावज्रमेयी तले // 3 // सव्वपावप्पणासणो, वप्रो वज्रात्मना बहिः। मंगलाणं च सव्वेसि, बँदिराङ्गारखातिका // 4 // स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं होई मंगलं / वप्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरंक्षणे // 5 // महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी। परमेष्ठिपंदोद्भूता कथिता पूर्वसूरिभिः // 6 // 3 [2] इन्द्रकवच: "ॐ नमो अरिहंताणं हाँ हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा / ॐ नमो सिद्धाणं ह्रीँ शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा। ॐ नमो आयरियाणं हूँ शिखां रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा / ॐ नमो उवज्झायाणं ह्रौं "एहि एहि भगवति! वज्रकवचवज्रिणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा। ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं ह्रः क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते (स्त ) शूलिनि दुष्टाद् रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा। 25 - एसो पंच नमुक्कारो वज्रशिलाप्राकारः, सव्वपावप्पणासणो अम्ममयी परिखा, मंगलाणं च सव्वेसिं महावज्राग्निप्राकारः, पढमं हवइ मंगलं उपरि वज्रशिला // " इन्द्रकवचमिदं आत्मरक्षायै उपाध्यायादिभिः स्मरणीयम् // [3] वशीकरणमन्त्रः "ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं, ॐ ह्रीं नमो आयरियाणं, ॐ ह्रीं नमो 30 उवज्झायाणं, ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहूणं अमुकं वशीकुरु वशीकुरु स्वाहा // " ___वार 21 भणित्वा वस्त्रे ग्रन्थिीयते वशीभवति / 1 शिरः संस्थितम् / / 2 / प्रतौ 'सव्व' शब्दो नास्ति / 3 °पटाम्बरम् RI - 4 नमोकारो / / ५°मही तले JV, मयि तले / / 6 वज्रमयो बहिः / 7 खादिरा R / 8 हवइ / / 9 रक्षणम् / 10. प्रभावर / / 11 °नाशनी Jए। 12 °ष्ठिमङ्गलमयी क° JL / 13 v प्रतावयमधिको पाठः- यश्चैवं कुरुते रक्षां परमेष्ठिपदैः सह / तस्य न स्याद् भयो व्याधिराधिश्चापि कदाचन // इति परमेष्ठिस्तुतिः // 14 अरहंताणं R 15 हिँ , ह्र / 16 ह्रीं / 17 °नमोकारो R / 18 प्रतौ टिप्पण्याम्-अद्भिः पूर्णा। 19 वस्त्रेण ग्र° R | Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 (8) परमेष्ठयादिपदगर्मितमन्त्रादयः॥ [प्राकृत [4] भयनिवारणमत्रः "ॐ नमो अरहंताण, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ अहँ पार्श्वअर्हते ह्रीं नमः / ॐ ह्रीं क्लीं भगवती शत्रुभयविनाशिनी मम राजभयं दण्डभयं मन्त्रिमयं सर्वदुष्टव्यन्तरभयं उपशामय उपशामय हर हर ह्रीं स्वाहा // " सर्ववारमेकचेतसा मर्यते / [5] सर्वकर्मकरमत्रः "ॐ नमो अरहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवझायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ नमो नाणाय(णस्स), ॐ नमो दसणाय(णस्स), ॐ नमो चरित्ताय(त्तस्स), ॐ त्रैलोक्यवशङ्करी ह्रीं स्वाहा // " 10 . सर्वकर्मकरमन्त्रः, कालापानीयेन छण्टनं पानं च, लावण्य-चक्षुः-शिरोऽर्द्धशिरोऽादिषु कार्येषु। [6] ज्वरनिवारणमत्र:" ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाह्नणं // " इत्यादि प्रतिलोमतः पञ्चपदैः ॐ ह्रीं पूर्वैः [ "ॐ ह्रीं णं हू सा व्व स ए लो मोन ह्रीं ॐ / "] 15 पँट्यादौ ग्रन्थि दत्वा 108 परिजन्य आच्छाद्यते ज्वर उत्तरति, यावजपनं तावद् धूप उद्ग्राह्यः, परं नूतनेन कार्यः। [7] महापनिवारणमत्र: "ॐ हाँ नमो अरहंताणं, ॐ ह्रीँ नमो [ सव्व ] सिद्धाणं, ॐ ह्रीँ नमो आयरियाणं, ॐहाँ नमो उवज्झायाणं, ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहणं॥" 20 एषा पञ्चचत्वारिंशदक्षरा विद्या यथा स्वयमपि न श्रूयते तथा स्मर्तव्या / दुष्टचौरादिसङ्कटे महापत्स्थाने च शान्त्यै, जलवृष्टये चोपांशु गुण्यते / [8] विद्यासिद्धिमत्रः "ॐ ह्रीं श्रीं अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहु-सव्वधम्मतित्थयराणं ॐ नमो भगवईए सुयदेवयाए संतिदेवयाणं सव्वपवयणदेवयाणं दसण्हं दिसापालाणं पंचण्हं लोगपालाणं 25 ॐ ह्रीं श्रीं सर्वजनमोहनं कुरु कुरु, सर्वजनवशं कुरु कुरु, विजासिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा // " नवकोष्ठकः नवपुष्पाण्यनुक्रमेण निक्षिप्यन्ते, दशममूर्ध्वमुखाङ्गुल्या गगने सिद्ध / आयरिय | उवज्झाय | तथा क्षेप्यं यथैककोष्ठे पतति, अनेन क्रमेण दशाष्टोत्तरशतानि 2 / 3 4 जातिपुष्पैः सिद्धिः। | दसदिस- | अरिहंत | सव्वसाहू| [9] बन्दिमोचनमत्र:पालाण 91 / 5 30 सव्वपवयण- शांतिदेवता श्रुतदेवता] "णं हू सा व्व स ए लो मोन, णं या ज्झा व उ मोन, णं या | देवता 8 7 / 6 रि य आ मो न, णं द्धा सि मो न, णं ता हं रि अमो न // " इति विपर्ययगुणनाद् बन्दिमोक्षः / कार्यव्यतिरेकेण न गु(ग)णनीयम् / स्वस्थश्चेदेवं गु(ग)णयति तदौ प्रत्युत(तो) बन्दिमापद्यते / १°भयं पंचउलभयं दुस्संथियभयं उप° RLY | २कदैतत् स्म / 3 अरिहं / 4 कलपा / 5 पायनं VRI 6 °शिर आया। 7J प्रतौ 'ॐ' नास्ति / 8 पटीं ग्रन्थि / 9R प्रतौ टिप्पणं'ताव ऊतारवानी मंत्र' इति / 10 महास्थाने JV | 11 तदा च्युत ब° RI [8 -सिद्ध-आयरिय-उपवायाणं दसण्हं दिसापाकुरु कुरु स्वाहा / / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360 (9) चतुर्थ्यां चतुर्दश्यां वा शनौ यच्छीर्षे धूलीचिडंटी भृत्वा क्षिप्यते पञ्चपरमेष्ठिभणनपूर्वकं वार 3 'फूंक' दीयते स वशीभवति / / ____परमेष्ठिगु(ग)णनपूर्व सम्मुखे, ततो दक्षिणे, ततो वामे 'फूंक' दीयते, ततो वातप्रहता इव घनघटाः सर्वे शत्रवो राजकुले विनश्यन्ति / [10] सर्वकर्मकरमत्रः___"ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ हाँ हाँ हूँ ह्रीं ह्रः स्वाहा // " सर्वकर्मकरः, कलोदकादिषु योज्यः / [11] कर्मक्षयङ्करमत्रः__ आद्यं पदं ब्रह्मरन्ध्र, द्वितीय भाले, दक्षिणश्रवणे तृतीयं, तुर्यमवटी, पञ्चमं वामकर्णे, 10 चूलापदानि दक्षिणशङ्खादिविदिक्षु, इति पद्मावर्त्तजापः, कर्मक्षयातिरेकाय मनःस्थैर्य हेतुत्वात् / [12] ग्रामप्रवेशमत्रः “ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो भगवईए चंदाइमहाविजाए भत्तट्ठाए गरे गरे हुलु हुलु चुलु चुलु मयूरवाहिनीए स्वाहा // " एयाए विजाए ग्रामप्रवेशे सत्तवारजैवियाए अन्नपाणलाभो हवई, परं पढमं चउत्थेण पास-15 नाहजम्मदिणे सयवारं जवेयव्वा, तओ पउंजियव्वा, परं पच्छावि दसमीए दसमीए जहासत्ति तवो कायव्यो। [13] महासकलीकरणः 'पढम हवइ मंगलं' वज्रमयीं शिलां मस्तकोपरि, 'नमो अरिहंताणं' अङ्गुष्ठयोः, 'नमो सिद्धाणं' तर्जन्योः, 'नमो आयरियाणं' मध्यमयोः, 'नमो उवज्झायाणं' अनामिकयोः, 'नमो लोए सव्व-20 साहूणं' कनिष्ठिकयोः, 'एसो पंचनमुक्कारों' वज्रमयः प्राकारः, 'सव्वपावप्पणासणो' जलभृतां तेकाम्, 'मंगलाणं च सवेसिं' खेदिराङ्गारपूर्णा खातिकामात्मनश्चिन्तयेत् / महासकलीकरणम्। [14] महारक्षा: 'ॐ नमो अरिहंताणं उम्ल्यू हृदयं रक्ष रक्ष हाँ स्वाहा' [ हृदये], 'ॐ नमो सिद्धाणं म्ल्यू 'शिरो रक्ष रक्ष हैं (हाँ) स्वाहा' [शिरसि], 'ॐ नमो आयरियाणं म्म्ल्ब्यूँ शिखां रक्ष रक्ष हैं 25 (हूँ) स्वाहा' [शिखायाम् ] 'ॐ नमो उवज्झायाणं ह्रम्ल्यूँ वज्राणां वज्रकवचं रक्ष रक्ष हैं (ह्रौं) स्वाहा [कवचम् ], 'ॐ नमो लोए सव्वसाह्नणं म्ल्यूँ सर्वदुष्टान् निवारय निवारय हः स्वाहा ॥”–महारक्षा। [15] सर्वकामदमत्र: "ॐ हाँ हाँ हँ ह्रः असि आ उ सा।" प्रत्यन्तरे-"अ सि आ उ सा नमः स्वाहा // " 30 इति [पाठः] दृश्यते। [16] सर्वकामदमत्रः "ॐ ह्रीं श्रीं अहँ अ सि आ उ सा नमः // " द्वावपि मन्त्री सर्वकामदौ / अत्रापि प्रथममन्त्रेण शाकिनीनिग्रहः / 1 एष मन्त्रःJ प्रतौ नास्ति। 2 JRV प्रतिषु टिप्पण्याम्-'गामप्रवेश मंत्र छे' इति। 3 जपियाए RI 4 भवई। 5 खादिरा R / 6 'अहँ इति पाठः R प्रतावेवोपलभ्यते / 45 (ब) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 (10) परमेष्ठयादिपदगर्भितमन्त्रादयः॥ [प्राकृत [17] बन्दिविमोचनमत्र: "ॐ नमो अरिहंताणं उम्ल्यूँ नमः, ॐ नमो सव्वसिद्धाणं भल्ब्यूँ नमः, ॐ नमो आयरियाणं म्लव्यूँ नमः, ॐ नमो उवज्झायाणं हम्ल्यूँ नमः, ॐ नमो लोऐ सव्वसाहूणं भव्यूँ नमः॥” इत्यपि, प्रत्यन्तरे-'अमुकस्य मम वा बन्दिमोक्षं कुरु कुरु स्वाहा / ' 5 पार्श्वनाथप्रतिमाऽग्रे जातीपुष्पैः 500 ऊर्ध्वस्थितो जपेत / पट्टके मन्त्रं लिखित्वा तद्परि पुष्पमोक्षणं, यदिवा कस्तूरी मिश्रमण्या श्रीपर्णीपट्टेऽमुं मन्त्रं विलिख्य, ततो जातीपुष्प 508 ऊर्ध्वस्थैर्मन्नं भाणं भाणं पट्टको मुञ्चीत, श्रीपार्श्वनाथप्रतिमाया महाभोगपूर्व दिन 3 प्रत्यहं 508 पुष्पजॉपः एवं बन्दिमोक्ष आदेशश्च / [18] महारक्षामत्रः10 "ॐ नमो अरहंताणं उम्ल्यूँ नमः, ॐ नमो सव्वसिद्धाणं भव्यूँ नमः, ॐ नमो आयरियाणं म्म्ल्यूँ नमः, ॐ नमो उवझायाणं हम्ब्यूँ नमः, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं म्ल्यूँ सर्वदुष्टान् निवारय निवारय स्वाहा // " इति महारक्षार्थम् / [19] बन्दिविमोचनमत्रः "अमुकस्य ग्रहमोक्षं कुरु कुरु स्वाहा क्ष्ल्यू नमः॥" 15 ठवणी ऊपरि स्थालं मुक्त्वा श्रीपार्श्वनाथप्रतिमायां कर्पूरश्रीखण्डादिचर्चितायां जातीपुष्पैः शतपत्रपुष्पैर्वा 508 जापो भोगादिपूर्व वन्दिमोक्षो भवति, नात्र संशयः / शुचिर्भूत्वा दिन 3 कुर्यात् / प्रतिदिनं पञ्चशतानि प्रत्यग्रजातीपुष्पैरेकाग्रमना जपेत्, ततः सिद्ध्यति / एषामेव पञ्चानां पदानामोंपूर्वाणां नमोऽन्तानां स्वाभिमुखफणिमुंद्रया भूजमू/कृत्याष्टोत्तरशतजापात् सूरत्राणवन्दितोऽपि मोक्षः, सुप्ते जने जापः॥ 20 'वट्टकला अरिहंता' इत्यादिन्यायादर्हदस(श)रीरा(र्या)चार्योपाध्यायमुनिसन्धिवशाद् वा पञ्चपरमेष्ठिमयमोङ्कारं ध्यायेद्, दिक्-काल-मुद्राऽऽसनविभागो मन्त्राधिराजवत् / वर्णविभागस्त्वेवम् 'पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये, क्षोभणे विद्रुमप्रभम् / अभिचारेऽञ्जनाकारं, विद्वेषे धूमधूमलम् // सारस्वते विशे शान्ती, कर्मघाते शशिप्रभम् / लाभार्थ हरितं भाले, विधिवत् प्रणवं स्मरेत् // [20] सर्पभयनिवारणमत्रः "ॐ गुरु(रवे )नमः, परमगुरु(रवे) नमः, ॐ नमो सिद्धाणं, पवेलं पवेलं जावजीवं अहिणा न डसियं (डसिजइ)॥" 30 दीपोत्सवे चतुर्दश्यां 1008 जापेन साधनं, वर्षे यावत् सर्पभयं (यो) न भवति, शुभाशुभं कथयति, साधयता पादप्रोञ्छने उपवेष्टव्यम् / [21] षोडशाक्षरी विद्या "अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-साहू // " षोडशाक्षर्याऽस्याः विद्यायाः 200 जापे चतुर्थफलम् / 1J प्रतौ 'सव्व' पदं नास्ति / 2 'लोए साहणं' R, तस्याः टिप्पण्यां 'सव्वसाहूणं' इत्यपि पाठान्तरमिति लिखितम् / 3 JLV प्रतिषु 'वा' पदं नास्ति / 4 जातिपुष्पैः / / 5 श्रीपर्णप° J6 जतिपुष्प R7 जापः आदेशश्च JL / 8 'निवारय' इति एकवारं J7 प्रत्योः। 9 जातिपुष्पैः JLY | 10 °मुद्रायां भु / 11 कर्मश्वेते। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360 (11) [22] कल्याणकरमत्रः नाभिपने 'अ', मस्तकाम्भोजे 'सि', मुंखाम्भोजे 'आ', हेत्पने 'उ', कण्ठपद्मे 'सा'-सर्वकल्याणकारी जापः। [23] रक्षामन्त्र: “ॐ नमो अरहंताणं' नाभौ, 'ॐ नमो सिद्धाणं' हृदये, 'ॐ नमो आयरियाणं' कण्ठे, 5 'ॐ नमो उवज्झायाणं' मुखे, 'ॐ नमो सव्वसाहूणं' मस्तके, 'सर्वाङ्गेषु मां अझं (अस्मान् ) वा रक्ष रक्ष हिलि हिलि मातङ्गिनी (नि!) स्वाहा ॥"-मन्त्रः। [24] दुष्टनिवारणमत्र: "ॐ ही असि आ उ सा सर्वदुष्टान् स्तम्भय स्तम्भय, मोहय मोहय, जम्भय जम्भय, अन्धय अन्धय, बधिरय बधिरय, मूकवत् कारय कारय कुरु कुरु ही दुष्टान् ठः ठः ठः।" 10 मुष्टिं बध्वा दुष्टविषये स्मरणम् / [25] रक्षामत्र: "ॐ ही नमो अरहताणं पादौ रक्ष रक्ष, ॐ हाँ नमो सिद्धाणं कटीं रक्ष रक्ष, ॐ हौँ नमो आयरियाणं नाभिं रक्ष रक्ष, ॐ हीं नमो उवज्झायाणं हृदयं रक्ष रक्ष, ॐ हौँ नमो लोए कण्ठं रक्ष रक्ष, ॐ ही नमो सव्वसाहूणं ब्रह्माण्डं रक्ष रक्ष, ॐ हाँ एसो पंचनमुक्कारो शिखां रक्ष रक्ष 15 ॐ ही सव्वपावप्पणासणो आसनं रक्ष रक्ष, ॐ ही मंगलाणं च ससेसिं पढम होइ मंगलं आत्मचक्षुः परचक्षुः रक्ष रक्ष // " मन्त्र इति / / [26] विद्वेषमत्र: "ॐ ह्रीँ श्रीँ अ सि आ उ सा अनाहतविद्ये ह्रीँ हूँ देवदत्तयोविश्लेषं कुरु कुरु स्वाहा // " - एष मन्त्रः सप्ताहं जप्यते 108, ततः श्मशानाङ्गारखरलिण्डरस-धत्तूररसैः काकपिच्छ- 20 लेखिन्या भूर्जे लिखित्वा मार्गे निक्षिप्यते, परस्पर विरोधो भवति। [27] तस्करभयनिवारणमत्र: "ॐ नमो अरहताणं आभिणि मोहिणि मोहय मोहय स्वाहा।" ... मार्गे गच्छद्भिरियं विद्या स्मर्तव्या, तस्करदर्शनमपि न भवति // एतद्यन्त्रमध्ये आत्मानं दीप्रतेजसं ध्यायेत्, ततः पूर्वाशाभिमुखः पूर्व पूर्वदलादारभ्याष्टाक्षरं 25 मन्त्र जपेत्, 1100 जपेत् / तत आग्नेयदलादारभ्यामुमेव मन्त्र जपेत्, 1100, एवमन्यदलेष्वपि यावदीशानदलं, एवमष्टरात्रं जापे कृते दुष्टव्यन्तरादिसर्वप्रत्यूहशान्तिः / सर्वकष्टनिवारणयन्त्रमिदं सम्यग्दृष्टिभिः कार्य, न त्वन्यैः। [28] जलस्तम्भनमत्रः “ॐ नमो अरहताणं, ॐ नमो सिद्धाणं ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, 30 ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, हुलु हुलु कुलु कुलु चुलु चुलु मूलु मूलु स्वाहा // " अस्य जापात् मत्स्य-तिड्डादिजीवहत्यारक्षा / अत्र मन्त्रे सप्रणवा पञ्चपदी, ततो विद्या-एवं वर्णाः 58 / अस्मिन् स्मर्यमाणे हन्ता जन्तून हन्तुं न शक्नोति। ॐ नमो सिद्धाणं वाउयंसि अञ्चगालं सक्को त्ति।" 1 मुखाब्जे / / 2 दृपद्मे / 3 स्मारणा / 4 'ह्रीं नमो एसो' / / 5 रक्षमन्त्र इति Jए / tt एतच्चिदान्तर्गतः पाठः R प्रतावेवोपलभ्यते। ६'ॐ' इत्यत आरभ्य 'सको त्ति' पर्यन्तपाठः मन्त्ररूपः JV प्रतयोरेवोल्लिखितः। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 (12) परमेष्ट्यादिपदगर्मितमन्त्रादयः॥ [प्राकृत . तत् किमपि स्यात् , एतेन जीवो जीवधातात् छूटति बन्दिमोक्षश्च / तत्पार्थाजपने स्वयं श्रीपर्णीपट्टस्थादिलिखितं पञ्चनमस्कारवलकचक्रमर्पयेद्, एवं जालस्तम्भः॥ [29] सर्वभयप्रणाशनमत्रः "ॐ थंमेइ जलं" इत्यादि "घोरुवसग्गं मम अमुकस्य (स्स) वा पणासओ स्वाहा // " 5 इयं गाथा चन्दनादिद्रव्यैः पटे लिखित्वा नवकारभणनपूर्वकं वार 108 स्मर्तव्या, पूज्या च सुगन्धिपुष्पैरक्षतैर्वा, रक्षा वा कार्या, सर्वभयप्रणाशः। [30] बप्पभट्टिसारस्वतमन्त्रः “ॐ हाँ असि आ उ सा नमः, अहँ वाचिनि सत्यवादिनि वाग्वादिनि वद वद, मम वक्र व्यक्तवाचया (वाचा ) हाँ सत्यं ब्रूहि ब्रूहि सत्यं वद वद, अस्खलितप्रचारं सदेवमनुजासुरसदसि 10 अहँ असि आ उ सा नमः स्वाहा // " लक्षजापेन सिद्धिः बप्पह(भ)ट्टि सारस्वतम् / [31] विद्यासिद्धिमत्रः"ॐ नमो हिरीए बंभीए भगवईए सिज्झउ मे भगवई महाविजा, ॐ बंभी महाबंभी स्वाहा॥” . लक्षं पूर्वसेवायां जपः, तत्र त्रिसन्ध्यं सदा जपः॥ [32] पञ्चतत्त्वरक्षामन्त्रः___ "क्षिप ॐ स्वाहा // " इति पञ्चतत्त्वरक्षापूर्व कार्यः, प्राङ्मुखं च ध्यानम्, एष विधिः सर्वसारस्वतोपयोगी ज्ञेयः॥ [33] त्रिभुवनस्वामिनी विद्या "ॐ अर्हते उत्पत उत्पत स्वाहा // " त्रिभुवनस्वामिनीविद्या / एवं हृत्पुण्डरीके 108 नमस्कारं जपन् चतुर्थफलमासादयति // 20 [34] दुष्टक्षयविक्रयलाभमत्रः "नटमयटाणे पणटकम्मटनटसंसारे। परमिटिनिट्ठियढे अट्ठगुणाधीसरं वंदे // " श्मशानाङ्गारेण कृष्णपुष्पाणि कृत्वा राजिकालवणधूंसकनिम्बपत्रकटुतैलगुग्गुलेन सह होमयेत्, प्रतिदिनं शत 300 होमः कार्यः, पादोनप्रहारोऽर्द्धमारम्भणीयो दिनः 7 दुष्टक्षयो भवति / 25 वार 21 ऋयाणकमवादि वाऽभिमन्त्रयेद् विक्रयो भवति, ग्राहकस्तत्रैवोपढौकते // [35] श्रुतदेवीमत्रः "पूर्व पञ्चपरमेष्ठिपदानि-"ॐ नमो भगवईए सुयदेवयाए सव्वसुयमायाए बारसंगपवयणजणणीए सरस्सईए सच्चवाइणि सुवण्णवण्णैः ॐ अवतर अवतर देवि ! मम सरीरं पविस, पुच्छंतस्स मुहं पविस सव्वजणमयहरीए अरिहंतसिरीए सिद्धसिरीए आयरियसिरी 30 उवज्झायसिरी सव्वसाहुसिरी दंसणसिरी नाणसिरी चरित्तसिरी स्वाहा // " [36] चिन्तामणिमत्रः "ॐ अ सि आ उ सा चुलु चुलु हुलु हुलु कुलु कुलु मूलु मूलु इच्छियं मे कुरु कुरु स्वाहा // " चिन्तामणिमन्त्रः 12000 जापः॥ 1 जापने R / 26 प्रतौ टिप्पण्याम्-बुद्धि वधारणमन्त्र छे श्रीश्रुतदेवतानो छ। गाथा आ रीते छ: “ॐ थंमेइ जलं जलणं चिंतियमित्तो वि पंचनवकारो। अरि-मारि-चोर-राउलघोरुवसग्गं पणासेइ // स्वाहा // " Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360 (13) [37] त्रिभुवनखामिनी महाविद्या "ॐ हाँ श्रीँ अहँ क्ली असिआउसा चुलु चुलु कुलु कुलु हुलु हुलु मूलु मूलु इच्छियं मे कुरु कुरु स्वाहा // " त्रिभुवनस्वामिनी महाविद्या // [38] प्रसादनमत्र: ____ "पंचहिं परमिट्टिहिं खीलियओ डीलियओ रहि // " वार 21 जप्यन्ते, दर्शनादेव रुष्टः प्रसीदति, विरूपं न चटति, स्तभ्यते सः॥ [39] पञ्चाङ्गुलीसकलीकरणः नमस्कारपञ्चपदैः पञ्चाङ्गुलीन्यस्तैः सकलीकरणं क्रियते-"ॐ नमो अरहंताणं हाँ स्वाहा" अङ्गुष्ठे / “ॐ नमो सिद्धाणं हाँ स्वाहा” तर्जन्याम् / “ॐ नमो आयरियाणं हूँ स्वाहा” मध्यमायाम्। "ॐ नमो उवज्झायाणं हैं। स्वाहा” अनामिकायाम् / “ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं द्वः स्वाहा' 10 कनिष्ठिकायाम् // 15 वेलायमङ्गुलीषु जप्यते / एतत् कृत्वा सिद्धचक्रं ध्यायेत् , गोरोचना-चन्दनादिना स्थाले यन्त्रं लिखेत् / पुष्पैः 21 जापः, एकासनं, ब्रह्मचर्य, सुप्यते, ततः स्वार्थ( सर्वार्थ सिद्धिः॥ -एवं वारत्रयमङ्गुलीषु विन्यस्य एवमेव च मस्तकस्योपरि पूर्व-दक्षिणापरोत्तरभागेषु विन्यस्य च जपः कार्यः / सर्वमन्त्रसाधारणो विधिरयम् // [40] लाभकरमत्रः"ॐ क्षा हाँ नमो अरिहंताणं, ॐ क्षाँ हाँ नमो सव्वसिद्धाणं, ॐ शुं हूँ नमो आयरियाणं, ॐ सौं हैंनमो उवज्झायाणं, ॐ H हः नमो लोए सव्वसाहूणं इति मन्त्राक्षरगर्भपञ्चपरमेष्ठिन् ! आपदं हन हन, संपदं उपनय उपनय, शत्रूणां स्तम्भं कुरु कुरु स्वाहा // " सङ्कटादिषु लाभाथै चेमं 108 स्मरेत् // 20 [41] समीहितपूरणमत्रः "ॐ हाँ अरिहंताणं सिद्धाणं सूरीणं उवज्झायाणं साहूणं मम ऋद्धिं वृद्धिं समीहितं कुरु 'कुंरु स्वाहा // " शुचिना प्रातः सायं वार 32 स्मृतिः // [42] सरखतीसाधनमत्र:"ऐं क्ली हौं बालात्रिपुरायै नमः॥" नित्यजापः // 25 [R आदर्श हांशीयास्थः-] मन्त्रः बप्पभट्ट(ट्टि)सूरिसारस्वतः 3 लक्षजापः महाव्रतधारिणा भाव्यं, तत्सदृशो भवति / 'कलमरालविहङ्गमवाहना” इति स्तोत्रकर्ता / [43] सिद्धविद्या "ॐ नमो अरिहंताणं तिलोयपूइयाणं सत्तभयवजियाणं अमरनररायमहियाणं अणाइनिहणो सिवं दिसउ स्वाहा // " एषा सिद्धविद्या // 30 [44] दुष्टादिनिवारणमत्रः “ॐ ह्रीँ नमो अरिहंताणं" 5 पदकम् / दुष्टो न प्रभवति, अवरिसणादिषूत्पन्नेषु तदा सहनं 1 जप्यते, अगुरुश्चोद्गाहनीयः॥ [45] लाभमत्रः"ॐ हाँ नमो अरिहंताणं अरे अरिणि [अरिणि] मोहिणि [ मोहिणि ] मोहय मोहय स्वाहा // " 35 लाभमन्त्रः, 108 वारजापः॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360(14) परमेष्ठयादिपदगर्भितमन्त्रादयः॥ [प्राकृत [46] वशीकरणमत्रः ॐ हाँ अरिहंताणं अरे अरिणि अरिणि मोहिणि मोहिणि सर्वं मम वशीकुरु वशीकुरु स्वाहा // " 108 जापः। [47] मोहनमत्रः"ॐ नमो अरिहंताणं अरे अरिणि मोहिणि अमुकं मोहय मोहय स्वाहा // " . खाटकया श्रीखण्डेन वा इदं यन्त्रं लिखित्वाऽमुना मन्त्रेण श्वेतपुष्पैः श्वेताक्षतर्जपेत. यमाश्रित्य जापः क्रियते स वश्यो भवति // [48] लाभकरमत्र: ___ "ॐ नमो अरिहंताणं अहो ! अहं स्वाहा // " 10 अनेन वार 108 स्मृतेन कायोत्सर्गस्थस्य स्वस्य बाह्वोरुभवनम् // [49] घण्टाकर्णमत्रः "ॐघण्टाकर्णो महावीरः सर्वव्याधिविनाशनः / विस्फोटकभये प्राप्ते रक्ष रक्ष महाबल!॥" भूर्जे कुकुम-गोरोचनया जातिलेखिन्या कूपस्य नद्या वा तटे उपविश्य लिखेत् / ततोऽनेन 15 द्वितीयमन्त्रेण [50 ] स्फोटकविरूपतानिवारणमंत्र: "ॐ नमो अरिहंताणं हाँ स्वाहा, ॐ नमो सिद्धाणं हाँ स्वाहा, ॐ नमो आयरियाणं हूँ स्वाहा, ॐ नमो उवज्झायाणं ह्रीं स्वाहा, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं हः स्वाहा॥" सुगन्धिपुष्पैः 108 जापं दत्त्वा कषायवस्त्रेण रक्षां वेष्टयित्वा स्फोटकसंजातपात्रस्य गले 20 बाह्वोर्विबद्ध्यते, स्फोटकाः विरूपा न भवन्ति, विरूपा अपि भव्याः भवन्ति / , [51 ] विघ्नक्षयङ्करमहामत्रः “ॐ हाँ नमो अरिहंताणं 5 // " [52] विघ्नक्षयङ्करमहामत्रः___ “ॐ हाँ हाँ हूँ हाँ हः नमो अरिहंताणं-एवं 5 // " द्वावपि महामन्त्री विघ्नक्षयाय सिद्धौ॥ [53] सर्वार्थसिद्धिकरी विद्या "ॐ हाँ ही हूँ हाँ हः अ सि आ उ सा स्वाहा // सर्वार्थसिद्धिः॥ [54] शुचिविद्या "ॐ नमो अरिहंताणं // " 30 [55] सर्वरक्षामन्त्रः "ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सम्वसि, पढमं हवइ मंगलं ॐ ही हूँ फट् // " सर्वरक्षामन्त्रमिदम् / १आ मंत्रना विधिपूर्वक जपथी स्फोटक ( फोडां) मटी जाय छ। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 360 (15) [56] चौरभयनिवारणमत्रः "ॐनमो अरिहंताणं धणु धणु महाधणु स्वाहा // " एनं मन्त्रं स्वललाटेध्यायेत् , चौरस्तम्भो भवति / तथैनं खटिकया लिखित्वा वामहस्तेन (?) भक्त्वा मुष्टिर्बध्यते। वामहस्ते धनुरस्तीति ध्येये चौरा मन्त्रिणं न पश्यन्ति, स चौरान पश्यति // [57] स्वमविद्या "ॐ ही अहँ नमः इवी हाँ स्वाहा // " चन्दनेन हस्तौ लिप्त्वाऽयं मन्त्रो जप्तः 108 रात्रौ शयितस्य स्वप्ने शुभाशुभं कथयति / [58] चतुर्थफलमंत्र: "ॐ अहँ असि आ उ सा नमो अरिहंताणं नमः॥" एवं हृत्पुण्डरीके जपेत् 108 चतुर्थफलमासादयति / [59] स्वमविद्या "ॐ गुरुभ्यो नमः, ॐ परमगुरुभ्यो नमः॥" इति मन्त्रादौ पठित्वा सर्वमन्त्रेण तैलं 108 परिजप्य मुखाभ्यङ्गे सुप्तस्य स्वप्नो भवति, तपोविशेषश्च कार्यः / तैलशालिगन्धमूलं घृष्ट्वा तैलमध्ये क्षिप्त्वा तेन मुखाभ्यङ्गे परस्यापि स्वप्नः // [60] प्रत्यारोपणमत्रः . 15 "ॐ ही अहँ निर्वृताय नमः॥” प्रत्यञ्चारोपणमन्त्रः॥ - [61 ] लक्ष्मीप्राप्तिमत्रः .."ॐ हाँ हैं अहँ नमो अरिहंताणं ही नमः॥" त्रिसन्ध्यमष्टोत्तरशतं श्वेतपुष्पैरेकान्तस्थाने जापेन क्रियमाणेन सर्वसंपत्करी लक्ष्मीर्भवति / [62] सर्वाभ्युदयमत्र:___ॐ हाँ श्री ई एँ अहँ अहँ क्ली ब्लू ब्लूं नमः // " सर्वाभ्युदयहेतुः परमेष्ठिमयोऽयम् // [63] शत्रुनिवारणमत्र: "ॐ हाँ श्रीँ अमुकं दुष्टं साधय साधय असिआउसा नमः॥" वार 108 जापे शत्रुरुपशाम्यति / [64 ] सर्वरोगहरमत्र:"ॐ नमो आमोसहिपत्ताणं, ॐ नमो खेलोसहिपत्ताणं ॐ नमो जल्लोसहिपत्ताणं स्वाहा // " कला(ल)पानीयं सर्वरोगहरणम् // [65] व्रणस्वास्थ्यमन्त्रः "जिणाणं जावयाणं न य पूई न सोणियं एएण सच्चवारण वणं मा पच्चओ मा दुःखओ मा 30 फुट्टओ स्वाहा, ॐ ठः स्वाहा // "" रक्षामभिमन्त्र्य नवव्रणे पुनः लगाड्यते खड्गादिधातेषु घृतं रक्षां वाऽभिमन्य दीयते पीडाऽपि न भवति, द्रुतं व्रणं सजं भवति // [66] विषहरमत्रः "ॐ हाँ पञ्चपरमेष्ठिने नमः॥" 20 25 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 (16) परमेष्ठयादिपदगर्भितमन्त्रादयः॥ [प्राकृत . अयं मन्त्रो धवलध्यानपूर्व दष्टवणे वार 21 विधिना जप्ते विषमपहरति श्रीपार्श्वनाथस्मरणापूर्वम् // [67] रोगनिवारणमत्र: "ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, 5 ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ नमो आमोसहिपत्ताणं, ॐ नमो खेलोसहिपत्ताणं, ॐ नमो विप्पोसहिपत्ताणं, ॐ नमो सम्वोसहिपत्ताणं एएसिं नमोकारं किच्चा जमियं विजं पउंजामि सा मे विजा पसिज्झउ स्वाहा // " रोगविमुक्तये वासाद्यभिमन्त्रणम् // [R आदर्श हांशिया-टिप्पण्यां लिखितमिदम्"नमोऽस्तु गुरुचन्द्राय यत्करस्पृष्टमूर्धनि / आविर्भवति भव्येऽस्मिन्नपि वाक्यसुधार[स]म् // "] निस्सेससाइणी-गहविणासणी जिणवरेहिं णिहिट्ठा / णवयारपंचसहियाण ओलीविजा पउंजेह // [68] ओलीविद्या15 "ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमों आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, ॐ हाँ नकुलीनाम् // " [69] स्वमविद्या "ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभाय, लब्धानन्तचतुष्टयाय, हाँ श्रीँ क्लीँ हसौं असि आ उ सा नमः॥" रात्रित्रयजापादादेशः॥ 20 [70 ] विसूचिकास्तम्भनमत्रः "ॐ नमो भगवते नमो अरिहंताणं, नमो जिणाणं, हाँ हाँ हूँ हाँ इः अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय ॐ हाँ ही हैं अ सि आ उ सा झीँ झीँ स्वाहा // " जापः वार 108 कृत्वा जलं पाययेत् विसूचिकास्तम्भनम् // [71] ज्वरस्तम्भनमन्त्रः25 "ॐ नमो भगवते नमो अरिहंताणं, नमो ओहिजिणाणं हाँ हाँ है ही इः अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय हाँ असि आ उ सा झौं झौं स्वाहा // " वार 108 ज्वरस्तम्भनं करोति // [72 ] गगनगमनमन्त्रः 'ॐ आदि हाँ हीनः' 'पञ्चबीजैः' ततः 'सर्वसिद्ध्यै नमः॥' पुष्पलक्ष 1 जापः वृक्षे सिक्ककं कृत्वा 108 तणी बद्धं, तत्रारूढो अग्निकुण्डे होमयेत्, एकधा . 30 तेन पादास्रोट्यन्ते खे गमनम् / ॐ हाँ हाँ हूँ हाँ इः असि आ उ सा सर्वसिद्ध्यै नमः" [73 ] महामत्रःइच्छामि० / इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! महामन्त्रतणी स्मरणा करिसिउं"नमो अरिहं०--हवइ मंगलं / ॐ क्षाँ रौँ नमो अरिहंताणं, ॐ श्री राँ रौं नमो सिद्धाणं ॐ झाँ रौं रौं नमो आयरियाणं, ॐक्षी रौं रौं नमो उवज्झायाणं, ॐक्षी रीरीं नमो लोए सव्यसाहूणं।" एवं 9 / ___ "ॐ नमो भगवते श्रीपुण्डरीकप्रथमगणधर-प्रथमसिद्धसंसिद्धसुहारिसहो / असुहो संसिद्धि (1) स्वाहा / " पासक्ष्य नमः" Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 361 "ॐ नमो श्रीगौतमस्वामिने सर्वलब्धिसंपन्नाय सर्वार्थसिद्धिं मम कुरु कुरु स्वाहा 3 / " "ॐ नमो वर्द्धमानाय उग्गए उग्गजसए जये विजये अपराजिए अपराजिओ भवामि स्वाहा 3 / " "ॐ नमो गौतमस्वामिने सर्वलन्धिसंपन्नाय सव्वट्ठसिद्धिं मम कुरु कुरु स्वाहा / " "ॐ श्री रौं रक्ष हरि रक्ष इलियं गिलियं हसौं हस्कलौं हसौँ हस 3 / / "ॐपक्षि स्वाहा।। "ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं / पद 5 / अशुचिः शुचिः भवामि स्वाहा / “ॐ नमो अरिहंताणं रौं रि(ह)दयं हरि हरि सरो हुं फट स्वाहा / नमो सिद्धाणं रौं रि (ह)दयं हरि हरि सरो हुं फट् स्वाहा / नमो आयरियाणं रौं रि(ह)दयं सिखाणं हरि हरि सरो हुं फट स्वाहा / नमो उवज्झायाणं री रि(ह)दयं हरि हरि सरो हुं फट् स्वाहा / नमो लोए सव्वसाहूणं क्षिप्रं सिद्धदुष्टं हटते वज्रते सूल आत्मरक्ष सर्वरक्ष हुं फट् स्वाहा // " मूलमन्त्रः। 10 "ॐक्षी Rs नमो अरिहंताणं / पद 5 / "ॐक्षः रः एसो पंचनमुक्कारो-मंगलं / इति महामन्त्रः "रक्ष रक्ष आपदं हन हन, संमदं उपनय उपनय, शत्रूणां स्तम्भनं कुरु कुरु स्वाहा // " [74 ] शुचिविद्या“ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, 15 ॐ नमो सव्वसाहूणं, ॐ नमो आगासगामिणीणं ॐ हः क्षः नमः // " शुचिविद्या // [75] आत्मरक्षामन्त्र:-"क्षि पॐ स्वा हा, हा स्वा ॐ पक्षि // " आत्मरक्षा // [76 ] सकलीकरणमन्त्रः"ॐ कुरु कुल्ले स्वा हा, हा स्वाल्ले कु रु कु ॐ // " सकलीकरणमन्त्रः / [77] दिग्बन्धनमत्र:"अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ॐ चण्ड हुं फट् स्वाहा // " दिग्बन्धः॥ [78 ] आत्मरक्षामन्त्रः-पञ्चपरमेष्ठिमुद्रां कृत्वा "ॐ अटेवय अट्ठसयं अटुसहस्सं च अट्टकोडीओ। रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा // स्वाहा // "ॐथंमेह जलं जलणं चिंतियमित्तो वि पंचनवकारी। अरि-मारि-चोर-राउलघोरुवसग्गं पणासेउ // स्वाहा // "ॐ पन्नत्तीगंधारी-महाकाली-अप्पडिहय-रोहिणिया। वजंकुसि-वजसिंखला देवी माणसि-महमाणसिया // विजादेवीओ // अंबादेवी सिद्धाइयाओ सव्वसम्मद्दिट्ठिसमाहि [या]।.. वेयावच्च-संतिकरा देवा देवीओ मम रक्खंतु // स्वाहा // " आत्मरक्षामन्त्रः। एतदनन्तरं शङ्खमुद्रया नमस्कारत्रयभणनपूर्वकं बृहद्वर्धमानविद्या स्मर्यते। ततस्तर्जनीमुद्रया लघुवर्धमानविद्या चिन्त्यते // [79 ] अग्युत्तारणमत्रः"ॐ जूं ज्यूँ यूँ फट् स्वाहा, ॐ क्षॉ क्षीं क्षौं क्षः // " अग्युत्तारणमन्त्रः॥ [80] प्रत्यङ्गिराविद्या-"ॐ ही प्रत्यङ्गिरे मम स्वं स्वस्ति शान्ति कुरु कुरु स्वाहा॥" 35 [81 ] परविद्याच्छेदिनी प्रत्यङ्गिरामहाविद्या....."ॐ ही प्रत्यङ्गिरे महाविद्ये केनचित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तस्य हि तत्पा गच्छतु, ॐ ही प्रत्यङ्गिरे महाविद्ये स्वाहा // " परविद्याच्छेदिनी ......... .....[अ] "ॐ क्षेत्रपालाय स्वाहा, ॐ ब्रह्मकौशिकेय रक्ष रक्ष स्वाहा // ........ . . एतदनन्तर नमस्कारत्रयभणनपूर्वकं तर्जनीमुद्रया लघुवर्धमानविद्या चिन्त्यते / ततः पार्श्व- 40 नाथमुद्रयाँ पूर्वोक्त प्रत्यङ्गिरा विद्याद्वयं, तदनु 3. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 परमेष्ट्यादिपदगर्भितमन्त्रादयः। [प्राकृते [ब]"ॐ हाँ श्रीँ कलिकुण्डदण्डस्वामिन् !आगच्छ आगच्छ परविद्याच्छेदं कुरु कुरु स्वाहा॥" ततोऽञ्जलिमुद्रया[क] "ॐ हाँ हाँ हूँ हाँ हूँः असि आ उ सा स्वाहा // " [R आदर्श एतदनन्तरमधिकोऽयं पाठः। [3] "ॐ अहँ नमः / नमोऽस्तु गरुडचन्द्राय ॐ हाँ सर्वार्थसाधिकायै नमः // " ततो घरघट्टमुद्रया[इ ] "ॐ अट्टी अट्टी सव्वहं पिसुणहं दलणघरट्टी रण राउलि संगामि जो सुमरइ अट्टी सीह-सप्प-चोर-पिसुणभय बंधी अंधावट्टी // " ततः सौभाग्यमुद्रया सुरभिमुद्रया च मौल(लौ )मन्त्रध्यानम् / ततो ध्यानप्रान्ते10 [फ] "ॐ नमो अरिहंताणं हृदयं रक्ष रक्ष स्वाहा / ॐनमो सव्वसिद्धाणं ललाटं रक्ष रक्ष स्वाहा / ॐ नमो आयरियाणं कवचं रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐनमो उवज्झायाणं शिखां रक्ष रक्ष स्वाहा / ॐ नमो लोए सव्वसाहणं अस्त्रं रक्ष रक्ष स्वाहा / इति त्रिसन्ध्यं नित्यकृत्यम् // 15 [ग]"ॐ नमो भगवति कामेश्वरि ! अन्नपूर्ण भवतु स्वाहा // " - उपयोगकायोत्सर्गे नमस्कारचिन्तनान्तरं वार 3 स्मर्यते // [ह] "ॐक्षी क्षी क्षी क्षःक्षःक्षः यः यः यः ला ला ला हुं फट् स्वाहा // " वासाक्षताद्यभिमन्त्रणम् // ॐनमः नवकारसत्कयन्त्र महामहिमावंत छ / चौदे पूर्वनो सारोद्धार सर्वकार्यने विषे साक्षात् प्रत्यक्षकल्पद्रुम-चिन्तामणिरत्न सरीखो ए मन्त्र-यन्त्र छ / परिचय 'भत्तिभर०' स्तोत्र उपर मळी आवेली 'नमस्कारव्याख्यानटीका'ना पूर्वभागमा 'पश्चपरमेष्ठितत्त्वसार' नामे उल्लेखायेल संग्रहात्मक कृतिमां परमेष्ठिपदोने लगता सो जेटला मंत्रो उपलब्ध थया तेमांथी केटलाक तेना आम्नाय साथे अहीं आपवामां आव्या छे / केटलाक तज्ज्ञ 25 पुरुषोनी सूचनाना कारणे अहीं अनुवाद आप्यो नथी। केटलाक मंत्रो 'नवकारकल्प' मां आपेला मंत्रो साथे सरखामणी धरावे छे, ज्यारे 'नवकारकल्प मां नमस्कार साथे संबंध नहीं धरावता केटलाये मंत्रो जोवामां आवे छे / आथी अहीं 'नवकारकल्प ना मंत्री नहीं आपतां 'नमस्कारव्याख्यानटीका' मां निर्दिष्ट मंत्रो ज आप्या छ / आ.मंत्रो IRL.V नामनी जुदी जुदी प्रविओ, जेनी फोटोस्टेदिक. कोपी जैन साहित्य 30 विकास मंडळना संग्रहमा छे, तेमाथी पाठांतरो आपवामां आव्या. छे / मंत्रोना शीर्षको अंमे आप्या छ / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18] सिरिजिणचंदररिविरइयं पंच न मुकार फल थुतं वंदित्तु वद्धमाणं जिणेसरं नियगुरुं च देवं च / 'पंचनमुकारफलं जहासुयं लेसओ भणिमो // 1 // भो भद्द ! भूरिभवभाविभीमभावारिवारविजईणं / अरहंताणं तह कम्ममलविसुद्धाण सिद्धाणं // 2 // आयारपालयाणं आयरियाणमह सुत्तदाईणं / उज्झायाणं सिवसाहगाण तह सह सवसाहूणं // 3 // निचं भव उज्जुत्तो समाहियप्पा पहीणकुवियप्पो / सिद्धिसुहसाहणम्मी नूण नमुक्कारकरणम्मि // 4 // 'जेणेस नमुक्कारो सरणं संसारसमरपडियाणं / कारणमसंखदुक्खक्खयस्स हेऊ सिपहस्स // 5 // कल्लाणकप्पतरुणो अवंझवीयं पयंडमायंडो। भवहिमगिरिसिहराणं पक्खिपहू पावभुयगाणं // 6 // आमूलुक्खणणम्मी वराहदाढा दरिदकंदस्स / रोहणधरणी पढमुब्भवंतसम्मत्तरयणस्स // 7 // अनुवाद श्रीवर्धमान जिनेश्वरने अने पोताना गुरु श्रीजिनेश्वरसूरिने तेमज देवने नमस्कार करीने पंचनमस्कारनुं फळ जेम सूत्रमा कयुं छे, तेम संक्षेपथी हुँ कहुं हुं // 1 // हे भद्र ! अनेक भवोमा थनारा अत्यंत भयंकर एवा भावशउना समुदाय उपर विजय 20 मेळवनार अरिहंतोने, कर्ममलथी अत्यंत शुद्ध थयेला सिद्ध भगवंतोने, आचारने पाळनारा आचार्य भगवंतोने, सूत्र आपनारा उपाध्याय भगवंतोने तथा शिवसुखना साधक सर्व-साधु भगवंतोने, सिद्धिसुखना साधनभूत एवा नमस्कारने करवामां समाहित अंतःकरणवाळो बनीने तथा कुविकल्पोनो. त्याग करीने निश्चयथी उद्यमशील था / 2 थी 4 // . कारण के, आ नमस्कार संसाररूपी समरांगणमां पडेला आत्माओने असंख्य दुःखोन-25 क्षय, कारण छे तथा शिव-पंथनो परमहेतु छे // 5 // वळी, ते कल्याण कल्पतरुनु अवंध्य-कदी निष्फळ न जाय एवं बीज छे, संसाररूपी हिम गिरिना शिखरोने ओगाळवा माटे प्रचंड सूर्य तुल्य छ / पापरूपी सर्पोने दूर करवा माटे गरुड 15 11°सुहं ले J / 2 चारिवि J / 3 अह। 4 जेणेव न°JI Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 पंचनमुक्कारफलथुत्तं / [प्राकृत कुसुमुग्गमो य सुग्गइआउयबंध(मस्स निविग्धं / उवलंभचिंधममलं विसुद्धसद्धम्मसिद्धीए // 8 // अन्नं च एयस्स जहाविहिविहियसव्वाराहणापयारस्स / कामियफलसंपायणपहाणमंतस्से च पभावा // 9 // सत्तू वि होइ मित्तो तालउडविसं पि जायए अमयं / भीमाडवी य वियरइ चित्तरयं वासभवणं व // 10 // चोरा वि रक्खगत्तं उविंति साणुग्गहा हवंति गहा / अवसउणा वि हु सुहसउणसाहणिजं जणंति फलं // 11 // . . जणणीओ इव न कुणंति डाइणीओ वि थेवमवि पीडं / पहवंति नै रुद्दा मंत-तंत-जंतप्पयारा वि // 12 // . पंकयपुंजु व्व सिही 'सीहो गोमाउय व्य वणहत्थी / मिगसावु व्व विहावइ पंचनमुक्कारसामत्था // 13 // . एत्तो च्चिय सुमरिजइ निसियणउट्ठाणखलणपडणेसु / सुरखेयरपभिईहिं एसो परमाएँ भत्तीए // 14 // पक्षी छे, दरिद्रताना कंदने मूळथी उखेडी नाखवा माटे वराह-सूकरनी दाढा छे, प्रथम उत्पन्न थता सम्यक्त्वरत्नने माटे रोहणाचलनी धरणी छे, सुगतिना आयुष्य-बंधरूपी वृक्षनो ए पुष्पोद्गम छे अने विशुद्ध एवा सद्धर्मनी सिद्धिने ओळखवानुं निर्मळ चिह्न छे // 6 थी८॥ वळी, शास्त्रोक्त विधि मुजब आचराया छे आराधनाना सर्व प्रकारो जेना एवा अने कामित 20 फलोतुं संपादन करवामां प्रधान मंत्रभूत एवा आ मंत्रना प्रभावथी शत्रु पण मित्र बनी जाय छे, तालपुट विष पण अमृत बनी जाय छे अने भयंकर जंगल मनने आनंद आपनार वासभवन जेवू बनी जाय छे / / 9-10 // ___ चोरो पण रक्षकपणाने पामे छे, ग्रहो अनुग्रह-कृपा करवावाळा थाय छे अने अपशकुन पण शुभ शकुनथी मेळववा योग्य ( सारां) फळो आपनारा बनी जाय छे // 11 // / 25. माताओनी माफक डाकिणीओ पण थोडी पण पीडाने करती नथी, तेमज भयंकर एवा मंत्र, संत्र अने यंत्रना प्रकारो पण काई करी शकता नथी // 12 // ... पंच-नमस्कारना सामर्थ्यथी अग्नि कमळना पुंज जेवो, सिंह शियाळ जेवो अने वनहस्ती मृगना बच्चा जेवो बनी जाय छे // 13 // ए कारणे सुर, खेचर वगेरे बेसतां, ऊठतां, स्खलना पामतां के पडतां परमभक्तिपूर्वक आ 30 नमस्कारनुं स्मरण कराय छे // 14 // 1 पभावो / 2 तालबुड / 3 'रई वाsJI 4 निरुद्धा। 5 सिंहो / 6 इत्तुच्चिय / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 16. नमस्कार स्वाध्याय / किञ्च धन्नाण मनोभवणे सद्धाबहुमाणवट्टिनेहिल्लो। मिच्छत्ततिमिरहरणो वियरइ नवकारवरदीवो // 15 // जाण मणवणनिगुंजे रमइ नमुक्कारकेसरिकिसोरो। ताणं अणिद्वदोघंथट्टघडणं न नियडेइ // 16 // ता निबिडनिगडघडणा गुत्ती ता वजपंजरनिरोहो। .. नो जावज वि जविओ पंचनमुक्कारवरमंतो // 17 // दप्पिट्ठदुनिगुरसुरुद्वदिट्ठी वि ताव होइ परो। नवकारमंतचितणऍव्वं न पलोइओ जाव // 18 // * मरणरणंगणगणसंगमे गमे गामनगरमाईणं / एयं सुमरंताणं ताणं सम्माणणं च भवे // 19 // . .. तहा जलमाणमणिप्पहफुल्लफारफणिवइफणागणाहितो। पसरंतकिरणभरभग्गभीमतिमिरम्मि पायाले // 20 // चिंताणंतरघडमाणमाणसाणंदिइंदियत्था जं। .. विलसंति दाणवा किर तं खु नमुक्कारफुरियलवो // 21 // ... वळी, मिथ्यात्वरूपी अंधकारने हरनारो एवो आ नमस्काररूपी श्रेष्ठ दीपक, जेमां श्रद्धारूप दिवेट अने बहुमानरूपी तेल छे ते, धन्य पुरुषोना मनरूपी भवनमां शोभे छे // 15 // .. जेमना मनरूपी वन-निकुंजमां नमस्काररूपी केसरी किशोर-सिंहनुं बचुं रमे छे, तेमने अनिष्ट रूप हाथीओनां टोळांनो संयोग थतो नथी // 16 // निबिड-मजबूत बेडीओनी घटना छे जेमां तेQ केदखानुं तथा वनपंजरनो निरोध त्यो सुधी. ज पीडा करे छे के, ज्यां सुधी पंच-नमस्काररूपी श्रेष्ठ मंत्र जपवामां आव्यो नथी // 17 // बीजानी दर्पिष्ठ-अभिमानी, दुष्ट, निष्ठुर अने अत्यंत रुष्ट एवी दृष्टि पण त्या सुधी ज होय छे के, ज्यां सुधी ते नमस्कार-मंत्रना चिंतनपूर्वक जोवायो नथी // 18 // ___ मरण, रणांगण अने मल्लोना समागम वखते के ग्राम-नगर आदिना गमन वखते, नमस्कार 25 - मंत्र- स्मरण करनाराओने रक्षण अर्थात् शरणनी अने सम्माननी प्राप्ति थाय छे // 19 // __ तथा जाज्वल्यमान मणिनी प्रभा वडे प्रफुल्ल एवी विशाल सर्पनी फणाना समूहथी प्रसार. पामतां किरणोना भारथी नाश पाम्यो छे भयंकर अंधकार ज्यांनो, एवा पाताललोकमां चिंतवतांनी साथे ज प्राप्त थाय छे चित्ताहादक इन्द्रियना विषयो जेमने एवा दानवोनो जे विलास ते तो नवकारना विलसितनो एक लेश मात्र छे // 20-21 // - - 30 . 1 ताण / 2 घट्टघदृषडणा / 3 परा J / 4 पुट्वि / / 5 °इआ जाव ... . . 20 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचनमुक्कारफलथुत्तं। [प्राकृत जंपि य विसिहपयवी विजाविनाणविणयनयनिउणं / अखलियपसरं' पसरंतकंतजसभरियभुवणयलं // 22 // अचंतणुरत्तकलत्तपुत्तपामुक्खसयलसुहिसयणं। . आणापडिच्छणुच्छाहिदच्छगिहिकम्मकारिजणं // 23 // अच्छिन्नलच्छिविच्छड्डसामिभोइत्तवियरणपहाणं / रायामच्चाइविसिट्ठलोयपयईबहुमयं च // 24 // जहचिंतियफलसंपत्तिसुंदरं दिनदुक्कहचमकं / पाविजइ मणुयत्तं तं च नमुक्कारफललेसो // 25 // जै चिय सव्वंगपहाणलडहचउसहिसहसविलयाणं / बचीससहस्समहप्पभावभासंतसामंतं // 26 // पवरपुरसरिसछन्नवइगामकोडीकडप्पदुप्पसरं / सुरनयरसरिसपुरवरविसत्तरीसहससंखालं // 27 // बहुसंखखेडकब्बडमडंबदोणमुहपमुहबहुवसिमं / दीसंतकंतसुंदरसंदणसंदोहदिन्नदिहिं // 28 // परचक्कचप्पणाणप्पदप्पपाइक्कचक्कसकिन्न / पगलंतगंडमंडलपयंडदोघट्टथट्टिल्लं // 29 // वळी, विशिष्ट पदवी, विद्या, विज्ञान, विनय अने न्यायथी निपुण, स्खलना वगर विस्तारवाळु, प्रसार पामता मनोहर यशथी भराई गयुं छे भुवनतल जेमां, अत्यन्त अनुरक्त एवा कलत्र अने पुत्र आदि सकल सुखी स्वजनवाळु, आज्ञानी राह जोतां उत्साही अने चतुर गृह-कर्म करनार 20 परिजनवाळ, अविच्छिन्न लक्ष्मीना विस्तारयुक्त एवं स्वामीपणुं, भोगीपणुं अने दानीपणुं; तेना वडे राजा, मंत्री आदि विशिष्ट लोक अने प्रजाजन वडे बहुमान करायेलं, यथाचिंतित फलप्राप्ति वडे सुंदर अने विरोधी लोकोना चित्तने पण चमत्कार पमाडे एवं मनुष्यपणुं जे प्राप्त थाय छे, ते पण नमस्कारना फलनो एक लेश छ / 22 थी 25 // वळी, सर्व अंगोए प्रधान शोभायुक्त चोसठ हजार अंतःपुरवाळु, बत्रीस हजार मोटा प्रभाव25 शाली सामंत राजाओना आधिपत्यवाळु, मोटा नगर सरखा छन्नु क्रोड गामना विस्तारवाळु, देवनगर समान बहोत्तेर हजार श्रेष्ठ नगरोवाळु, बहु-संख्यक खेड, कब्बड, मडंब, द्रोणमुख वगेरे घणी वस्तीओवाळु, देदीप्यमान, मनोहर अने सुंदर एवा रथोना समुदायथी युक्त राजमार्गोवाळु; दुश्मनना समुदायने चगदी नाखवाने समर्थ एवा पायदळनी सेनाना समुदायवाळु, अत्यन्त मदझरतां छे गंडस्थल जेना एवा प्रचंड हाथीओबाळु, मन अने पवनथी पण चंचल तथा कठोर खुरीओ30 वडे खोदी नाख्युं छे पृथ्वीतल जेमणे एवा तरल तुरंगो-घोडाओनी माळावाळु, सोळ हजारनी 1 °पइई J12 °र कंत पसरतज°51 3 °ई पयई वJ14 जंपिय / 5 °णप्पसत्तिपाइJ16 °घट्टपहिलं / Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 365 मणपवणचंचलखेरखुरुक्खयक्खोणितरलतुरगालं। सोलससहस्सपरिसंखजक्खरक्खापरिक्खित्तं // 30 // नवनिहिचउदसरयणप्पभावपाउन्भवंतसयलत्थं / छक्खंडभरहखित्ताहिवत्तणं लब्भए भुवणे // 31 // तं पि हु किर सद्धासलिलसेयपरिवड्डियस्स तस्सेव / पंचनमुक्कारतरुस्स को वि फलविलसियविसेसो // 32 // जंपि य सियदेवंसुयसंवुयसुरसयणसुंदरुच्छंगे। सिप्पिपुडंते मुत्ताहलं व उववञ्जई तत्तो // 33 // आजम्मं रम्मतणू आजम्ममुदग्गजोव्वणावत्थो। आजम्मं रोगजरारयसेयविवन्जियसरीरो // 34 // आजम्मं न्हारुवसट्ठिमंसरुहिराइतणुमलविमुक्को। आजम्मं अमिलायंतमल्लवरदेवदूसधरो // 35 // उत्तत्तजच्चकंचणतरुणदिवायरसमप्पहसरीरो / पंचप्पहरयणाहरणकिरणकव्वुरियदिसिचक्को // 36 // अक्खंडगंडमंडललुलंतकुंडलप्पहापहासिल्लो / रमणीयरमणअमरणरमणीगणमणहरो किं च // 37 // गहचक्कमिकहेलं पाडेउं भूयलं भमाडेउं / सयलकुलाचलचकं चूरेउं तह य लीलाए // 38 // संख्यावाळा यक्षोना समुदायथी सुरक्षित, नवनिधि अने चौद रत्नोना प्रभावथी प्रादुर्भाव पामता सकल अर्थोवाळु अने भुवनोमा छ खंड भरतक्षेत्रनुं अधिपतिपणुं जे प्राप्त थाय छे, ते खरेखर, श्रद्धा 20 सलिलना सिंचनथी परिवर्धित एवा पंच-नमस्काररूपी वृक्षना कोई एक फळना विलासनो ज विशेष छे // 26 थी 32 // .. वळी, छीपोलीना पडनी मध्यमा रहेल मुक्ताफळनी जेम श्वेत अने दिव्य वस्त्रथी ढंकायेली देवशय्यामां सुंदर अंग सहित जे उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्न थया बाद आजन्म सौभाग्य अने युवावस्था युक्त, आजन्म रम्य शरीर, आजन्म रोग, जरा, रज अने स्वेद रहित शरीरयुक्त, 25 आजन्म स्नायु-नस, वसा-चरबी, मांस अने रुधिर वगेरे शरीरना मलथी विमुक्त तथा आजन्म म्लान न थाय एवी पुष्पमाला अने श्रेष्ठ देवदूष्यने धारण करनार तथा खूब तपावेला उत्तम जातिवाळा कांचन अने तरुण सूर्य समान छे शरीरनी शोभा जेनी, पांच प्रकारना रत्नमय आभरणोना किरणोथी काबरचीतरुं छे दिक्चक्र जेने, लटकता कुंडलोनी प्रभाथी प्रकाशमान छे. अखंडित गंड-मंडल जेने, रमणीय रमणशील देवरमणीओना समुदायना मनने हरण करणार, 30 1°खरखरु। 2 °सुंदरच्छंगो। 3 पुडतो मु। 4°म्मसुह। 5 °सरिच्छहJI Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत पंचनमुक्कारफलथुत्तं। माणसपमुहमहासरसरियादहसायराण सलिलाई। पलयपवणो ब्व समकालमेव सत्तो वि सोसेउं // 39 // तिलुक्कपूरणत्थं झत्ति विउब्बियमहल्लबहुरूवो / परमाणुमित्तरूवो वि तह य होउँ लहु समत्थो // 40 // तंह ऍक्ककरंगुलिपंचगस्स पत्तेयमग्गभागेसु / मेरुपणगाउँ ऍक्के कमिककालं धरणसत्तो // 41 // किं बहुणा संतं पि हु असंतयं तह असंतमवि संतं / वत्थू ऍक्कखण चिय दरिसेउमलंकरेउँ वा // 42 // नमिरसुरविर्सरसिरमणिमऊहरिंछोलिविच्छुरियपाओ / भूभंगाइट्टपहिसंभमुट्टितपरिवारो // 43 // चिंताणंतर सहस त्ति संघडताणुकूलविसयगणो / अणवरयरइरसाविलविलासकरणिक्कदुल्ललिओ // 44 // निम्मलओहिन्नाणानिमेसदिट्ठीई दिट्ठदट्ठव्वो। समकालोदयसमुतिसयलसुहकम्मपयई य // 45 // रिद्धिप्पबंधबंधुरविमाणमालाहिवत्तणं सुइरं / पालइ अखलियपसरं सुरलोए किर सुरिंदो वि // 46 // . एकहेला वड़े ग्रहचक्रने पाडवा अने भूतलने भमाडवामां समर्थ, लीलापूर्वक सकल कुलाचलना समुदायने चूरवा अने मानस-प्रमुख महासरोवर, सरिता, द्रह अने सागरोना पाणीने प्रलयकालना पवननी जेम एकीसाथे शोषवामां पण समर्थ, मोटा अने घणा एवा वैक्रियरूपो वडे एकीसाथे त्रण 20 लोकने पूरवामां, तथा परमाणु मात्र स्वरूप करवामां पण जे समर्थ, एक हाथनी पांच आंगळीओ ऊपर प्रत्येकना अग्र भागमा एकीसाथे पांचेय मेरुने धारण करवामां समर्थ-वधारे शुं कहेवू? एक क्षणमां सत् वस्तुने असत् अने असत् वस्तुने सत् देखाडवाने अने करवाने निश्चयथी समर्थ तथा नमता एवा देवसमूहना मस्तक ऊपर रहेल मणिना किरणनी श्रेणि वडे व्याप्त छे चरणो जेना, / भ्रूभंग वडे आदेश करायेलो अने हर्षित थयेलो ससंभ्रमपणे उभो थतो छे परिवार जेनो, चिंत25 वतांनी साथे तरत ज संघटित थतो छे अनुकूळ विषयोनो समुदाय जेने, रतिना रस वडे भरपूर विलास करवामां निरंतर अनुरक्त, निर्मल अवधिज्ञान अने अनिमेष दृष्टि वडे जोया छे जोवायोग्य पदार्थो जेणे, समकाळे उदय पामेली छे सघळी शुभकर्मनी प्रकृतिओ जेने तथा ऋद्धिना प्रबंधथी मनोहर एवा विमानोना समुदायोर्नु प्राप्त थयुं छे अधिपतिपणुं जेने, अस्खलित प्रसरवाळो 1 °पवणु व्व / 2 तह इक्व / 3 °उ इके / 4 वत्थू इक s / 5 उंच J1 6 विसुरसिरिम° 'टीए / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 369 नमस्कार स्वाध्याय / तं पि असेसं जाणसु सम्मं सन्भावगम्भविहियस्स / पंचनमुक्काराराहणस्स लीलाइ य लवु त्ति // 47 // उड्डाहोतिरियतिलोगरंगमज्झम्मि अइसयविसेसो। . देव्वं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च चुञ्जकरो // 48 // दीसइ सुणिजए वा जो को विहु कह वि कस्स विजियेस्स / सव्वो वि सो नमुक्कारसरणमाहप्पनिष्फनो // 49 // जलदुग्गे थलदुग्गे पव्वयदुग्गे मसाणदुग्गे वा। अन्नत्थ वि दुग्गपए ताणं सरणं नमुक्कारो // 50 // वसियरणुच्चाडणथोभणेसु परखोभथंभणाईसु / एसो चिय पञ्चल्लउ तहा पउत्तो नमुकारो // 51 // मंतंतरपारद्धाइं जाई कजाई ताई विसमाई / ताणं चिय नियसुमरणपुव्वारद्धाण सिद्धिकरो // 52 // ता सयलाओ सिद्धीओं मंगलाइं च अहिलसंतेणं / सव्वत्थ सया सम्मं चिंतेयव्वो नमुक्कारो // 53 // सुरेन्द्र पण लांबा काळ सुधी जे देवलोकनुं पालन करे छे, ते सघळु सदभावपूर्ण पंच-नमस्कारनी 15 थयेली आराधनानी लीलानो ज एक लव-अंश छे, एम जाणो. // 33 थी 47 // ____ ऊर्ध्व, अधो अने तिर्छा स्वरूप त्रण लोकरूपी रंगमंडपमां द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावने आश्रयीने जे कोईने, जे काई, जे कोई विजयी जीवनो आश्चर्यजनक अतिशयविशेष देखाय छे * 'अथवा संभळाय छे, ते सर्व पण नमस्कारना स्मरणनो ज एक महिमा जाणवो // 48-49 // - जळदुर्गमां, स्थळदुर्गमां, पर्वतदुर्गमां, स्मशानदुर्गमां, अथवा अन्यत्र पण दुर्ग एटले कष्ट-20 पदमा एक नवकार ज त्राण अने शरण छे // 50 // वशीकरण, उच्चाटन, थोभण, क्षोभ अने स्तंभन आदि कार्योमा विधिपूर्वक सदा प्रयुक्त थयेलो नमस्कार ज समर्थ छ / 51 // अन्य मंत्रोथी प्रारंभेलां जे कार्यों मुश्केल बन्यां होय ते सर्व पण नमस्कारना स्मरणपूर्वक प्रारंभेलां होय तो शीघ्र सिद्ध थाय छे // 52 // ते कारण माटे सकल सिद्धिओ अने मंगलोने इच्छता आत्माए सर्वत्र सदा सम्यक् प्रकारे नवकारने चिंतववो जोईए // 53 // 25 1 दव्वं खितं / / 2 वि जणस्स 3 °सु सुइखोभ SJI 6 सिद्धिउ / | 4 एसु च्चिय पच्चलओs | 5 °ई सव्वाई Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 [प्राकृत पंचनमुक्कारफलथुत्तं। जागरणसुयणछीयणचिट्ठणचंकमणखलणपडणेसु / ' एस किर परममंतो अणुसरियव्वो पयत्तेणं // 54 // जेणेस नमुक्कारो दत्तो पुनाणुबंधिपुग्नेणं / नारयतिरियगइओ तस्सावस्सं निरुद्धाओ // 55 // न स पुणरुत्तं पावइ कयाइ किर अयसनीयगोत्ताई। जम्मंतरे वि दुलहो तस्स न एसो नमुक्कारो // 56 // जो पुण सम्मं गुणिउं नरो नमुक्कारलक्खमक्खंडं / पूएइ जिणं संघं बंधइ तित्थयरनाम सो॥५७॥ हुंति नमुक्कारपभावओ य जम्मंतरे वि किर तस्स / जाईकुलरूवारुग्गसंपयाओ पहाणाओ॥ 58 // ताव न जायइ चित्तेण चिंतियं पत्थियं च वायाए / कारण य पारद्धं जाव न सरिओ नमुक्कारो // 59 // अन्नं च इमाउ चिय न होइ मणुओ कयाइ संसारे / दासो पेसो दुभगो नीओ विगलिंदिओ चेव // 6 // 10 15. जागतां, सूता, छींकतां, बेसतां, चालतां, स्खलना पामतां के नीचे पडतां आ परममंत्रने ज आदरपूर्वक निश्चये अनुसरवो जोईए-वारंवार स्मरण करवो जोईए // 54 // . ... पुण्यानुबंधी पुण्यवाळा जे आत्माए आ नवकारने प्राप्त कर्यो छे, तेनी नरक अने तिर्यंच गतिओ अवश्य रोकाई गई छे // 55 // ___वळी, कडुं छे के, आ नमस्कार जेणे क्यांईथी पण निश्चये प्राप्त कर्यो. छे तेने वारंवार अप20 यश अने नीच गोत्र आदिनी प्राप्ति थती नथी तथा जन्मांतरमां पण तेने फरीवार आ नमस्कारनी प्राप्ति दुर्लभ थती नथी // 56 // वळी, जे मनुष्य एक लाख नमस्कारने अखंडपणे गणे तथा श्रीजिनेश्वरदेव अने संघनी पूजा करे, ते तीर्थंकर-नामकर्म बांधे छे // 57 // नमस्कारना प्रभावथी जन्मांतरमां पण प्रधान जाति, कुल, रूप, आरोग्य अने संपदाओ 25 निश्चयथीं प्राप्त थाय छे // 58 // चित्तथी चिंतवेलं, वचनथी प्रार्थेलं अने कायाथी प्रारंभेलं कार्य त्यां सुधी ज थतुं नथी के ज्यां सुधी आ नमस्कार स्मरवामां आव्यो नथी // 59 // वळी, आ नमस्कारथी मनुष्य संसारमा कदी पण दास, प्रेष्य, दुर्भग, नीच के विकलेन्द्रियअपूर्ण इन्द्रियवाळो थतो नथी / / 60 // 1 इमाओ चिय। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 प्र विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। इहपरलोयसुहयरो इहपरलोयदुहदलणपञ्चलओ। एस परमिडिविभवो भत्तिपउत्तो नमुक्कारो // 61 // किं वनिएण बहुणा तं नत्थि जयम्मि जं किर न सको। काउं एस जियाणं भत्तिपउत्तो नमुक्कारो // 62 // जइ ताव परमदुलहं संपाडइ परमपयसुहं पि इमो। ता तदणुसंगसज्झे तदन्नसुक्खम्मि का गणणा ? // 63 // पत्ता पाविस्संती पार्वति य परमपयपुरं जे ते / पंचनमुक्कारमहारहस्स सामत्थजोगेणं // 64 // सुचिरं पि तवो तवियं चिन्नं चरणं सुयं च बहुपढियं / जइ ता न नमुक्कारे रई तओ तं गयं विहलं // 65 // चउरंगाए सेणाऍ नायगो दीवगो जहा होइ / तह भावनमुक्कारो देसणतवनाणचरणाणं // 66 // भावनमुक्कारविवजियाई जीवेण अकयकजाई / / गहियाणि य मुक्काणि य अणंतसो दवलिंगाई // 67 // तम्हा नाऊणेवं जत्तेण तुमं पि भावणासारं / आराहणाकयमणो मणम्मि सुंदर! तयं धरसु // 68 // परमेष्ठीना वैभववाळो भक्तिप्रयुक्त आ नमस्कार आ लोक अने परलोकमां सुखने करनारो छे तथा आ लोक अने परलोकनां दुःखने दळवामां समर्थ छे // 61 // वळी, वधारे वर्णन करवाथी शुं ? आ जगतमां तेवू काई ज नथी के जे खरेखर भक्तिपूर्वकप्रयुक्त आ नमस्कार वडे जीवोने प्राप्त न थाय // 62 // - परम दुर्लभ एवा परम-पदनां सुखोने पण जो आ पमाडे, तो तेना अनुषंगथी अन्य साध्य सुखोनी तो गणना ज शी ? // 63 // परमपदपुर-मोक्षने जेओ पाम्या छ, पामशे अने पामे छे, ते सर्वे पंच-नमस्काररूपी महारथना सामर्थ्य-योगे ज छे // 64 // ___लांबा काळ सुधी तपने तप्यो, चारित्रने पाळ्युं, अने घणां शास्त्रोने भण्यो पण जो नमस्कारमां 25 प्रेम न लाग्यो तो ते सघळु निष्फळ गयुं (जाणवू)॥ 65 // चतुरंगी सेनामां जेम सेनानी दीपक समान छे, तेम दर्शन-ज्ञान-चारित्र अने तपनी आराधनामां भाव-नमस्कार दीपक समान छे // 66 // ___भाव-नमस्कार रहित जीवे अनंतीवार न कराय एवां कार्योने अने द्रव्यलिंगने निष्फळपणे प्रहण कर्या तेमज मूक्यां, एम समजीने हे सुंदर ! तुं आराधनामा एक मनवाळो बनी भावपूर्वक 30 ते (भावनमस्कार )ने मनमा धारण कर // 67-68 // 20 1 °विसओ। 2 गमझे। 3 deg2 वि तवो S; deg2 च तवो। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 पंचनमुक्कारफलथुत्तं। [प्राकृत हहो देवाणुपिया ! पुणरुत्तं पत्थिओ सि इत्थ तुमं / संसारजलहिसेउं सिढिलिजसु मा नमुक्कारं // 69 // जं एस नमुकारो जम्मजरामरणदारुणसरूवे / संसारारनम्मी न मंदपुग्नाण संपडइ // 70 // विज्झइ राहा वि फुडं उम्मृलिजइ गिरी वि मूलाओ। गम्मइ गयणयलेणं दुलहो य इमो नमुक्कारो // 71 // सव्वत्थऽनत्थ वि धीधणेण सरणं ति एस सरियन्वो / सविसेसं पुण इत्थं समहिगयाराहणाकाले // 72 // आराहणापडागागहणे हत्थो इमो नमुक्कारो। सग्गापवर्गमग्गो दुग्गइदारग्गला गरुई // 73 // पढियव्वो गुणियव्वो मुणियव्बो समणुपेहियव्वो य / एसऽनया वि निच्चं किमंग! पुण मरणकालम्मि? // 74 // गेहे जहा पलित्ते सेसं मुत्तूण लेइ तस्सामी।। एग पि महारयणं आवइनित्थारणसमत्थं // 75 // 18 हे देवानुप्रिय ! फरीफरीने तने प्रार्थना करीए छीए के, संसार-सागरमां सेतु समान नमस्कार प्रत्ये तुं शिथिल (आदरवाळो) बनीश नहीं // 69 // कारण के, जन्म-जरा-मरणथी वधारे भयंकर स्वरूपवाळा आ संसार-अरण्यमां मंद पुण्यवाळा जीवोने आ नमस्कार प्राप्त थतो नथी // 70 // राधा-पुतलीने स्पष्टपणे वींधी शकाय, पवर्तने पण मूळथी उखेडी शकाय तथा आकाशनी 20 सपाटी पर फरी शकाय पण एक नमस्कारने पामवो ए ज दुर्लभ (कार्य) छे // 71 // सर्वत्र कोई पण काळे अने स्थळे बुद्धिमान पुरुषे 'आ ज एक शरण छ' एम मानीने नमस्कारतुं स्मरण कर जोईए, अने आराधना काळे-मरण समये तो तेनुं विशेषपणे स्मरण कर जोईए // 72 // आ नमस्कार ए आराधनारूपी पताकाने ग्रहण करवा माटे हाथ छे, स्वर्ग अने अपवर्गने माटे 25 मार्ग छे, तथा दुर्गतिओना द्वारोने रोकवा माटे मोटी अर्गला छे // 73 // बीजा समये पण आ नमस्कार नित्य भणवालायक, गणवालायक, सांभळवालायक अने सारी रीते अनुप्रेक्षा-चिंतवन करवालायक छे, तो पछी मरणकाळ माटे तो पूछवू ज शुं ? // 74 // घर सळगे त्यारे घरनो स्वामी जेम शेष वस्तुने छोडीने आपत्ति निवारण करवा माटे समर्थ एवा एक ज महारत्नने ग्रहण करे छे // 75 // 1°गसग्गोग Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 373 नमस्कार स्वाध्याय। आउरभए भडो वा अमोहमिकं पि लेइ जैइ सत्थं / आबद्धमिउडिभडसंकडे रणे कजकरणखमं // 76 // एवं न आउरत्ते सक्का बारसविहं सुयक्खधं / सव्वं पि विचिंतेउं सम्मं तग्गयमणो वि तओ // 77 // मोत्तुं पि बारसंग स एव मरणम्मि कीरए सम्म / पंचनमुक्कारो खलु जम्हा सो बारसंगत्थो // 78 // सव्वं पि बारसंगं परिणामविसुद्धिहेउँमित्तागं / तकारणभावाओ कह न तदत्यो नमुक्कारो // 79 // तग्गयचित्तो तम्हा समणुसरिजा विसुद्धसुहलेसो / तं चेव नमुक्कारं कयत्थयं मन्नमाणो उ // 8 // को नाम किर सकनो कनामयसच्छहं नमुक्कारं / नो आयरिज मरणे रणे व्व सुहडो जयपडागं // 81 // - इक्को वि नमुक्कारो परमिट्ठीणं पगिट्ठभावाओ। सयलं किलेसजालं जलं व पवणो पंणोल्लेइ // 82 // तथा बांधी छे भृकुटी जेमणे एवा सुभटोथी व्याप्त रणसंकट' वखते मरणना भयथी सुभट 15 जेम कार्य करवाने समर्थ एक ज अमोघ-शास्त्रने धारण करे छे; ते रीते अंतकाळे अगर पीडा समये तद्गत मनवाळा पण सकल द्वादशांग श्रुतस्कंधने सविस्तर चिंतववा माटे समर्थ थता नथी, तेथी मरण समये द्वादशांगने छोडी सम्यक् प्रकारे आ परमेष्ठी-नमस्कार्नु ज तेओ स्मरण करे छे, . . कारण के ते नमस्कार द्वादशांगीनो ज अर्थ छे // 76 थी 78 // - सघळुये द्वादशांगनुं परिणाम विशुद्धिना हेतुमात्र छ / नमस्कार पण ते ज कारण स्वरूप 20 होवाथी द्वादशांगना अर्थरूप केम न गणाय ? // 79 // - ते माटे तद्गतचित्त अने विशुद्ध शुभ लेश्यायुक्त बनीने आत्माने कृतार्थ मानता ते नमस्कारखं ज सम्यगीतिए वारंवार स्मरण करवू जोईए // 80 // मरण वखते रणमां जयपताका ग्रहण करनार सुभटनी जेम गमे ते सकर्ण-सावधान पुरुष कर्णने अमृतना छंटकाव तुल्य नमस्कारनो आदर न करे ? // 81 // प्रकृष्ट भावथी परमेष्ठीओने करेलो एक पण नमस्कार, पवन जेम जळने शोषवी नाखे छे तेम सकल क्लेश-जाळने छेदी नाखे छे / / 82 // 25 __1 भएण सुहडो 6 पल्लेइ / / 2 जह सत्थं / 3 मुत्तुं पिs | 4 °हेउमेत्तागं / 5 °लेसा / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत . पंचनमुक्कारफलथुत्तं। संविग्गेणं मणसा अखलियफुडमणहरेण य सरेण / पउमासणिओ करवद्धजोगमुद्दो य कारणं // 83 // सम्मं संपुग्नं चिय समुच्चरिजा सयं नमुक्कार। उस्सग्गेणेस विही अह बलगलणा तहा न पहू // 84 // तन्नामाणुग 'अ सि आ उ सत्ति पंचक्खरे तहवि सम्म / निहुयं पि परावत्तिज कह वि अह तत्थ वि असत्तो // 85 // ता झाएजा 'ॐ इति संगहिया जं इमेण अरहंता / असरीरा आयरिया उवझाया मुणिवरा सव्वे // 86 // एयनामाइनिपैनवनसंधिप्पओगओ जम्हा / सव्वन्नुपहे एसो 'ॐकारो किर विणिहिट्ठो // 87 // एयज्झाणा परमिद्विणो फुडं झाइया भवे पंच / अहवा जो एवं पि हु झाएउं होज असमत्थो // 88 // सो पासट्ठियकल्लाणमित्तवग्गेण पंचनवकारं / निसुणिज पढिजंतं हिययम्मि इमं च भावेजा // 89 // एसो स सारगंठी एस स को वि हु दुलंभलंभु त्ति / एसो स इट्ठसंगो एयं तं परमतत्तं ति // 9 // * अंत समये संवेगशील मन वडे, अस्खलित, स्पष्ट अने मधुर स्वर वडे तथा करबद्ध योगमुद्राथी युक्त, शरीरने पद्मासनमा राखीने सम्यक् प्रकारे संपूर्ण नमस्कारनुं स्वयं उच्चारण करवु ए उत्सर्ग विधि छ; अथवा बळ घटवाथी जो तेम करवा समर्थ न होय, तो परमेष्ठीओना नामने 20 अनुसरनारा 'अ-सि-आ-उ-सा' एवा पांच अक्षरोने सम्यक् प्रकारे मौनपणे परावर्त्तन-जाप करे, जो कोई कारणे तेम करवा पण अशक्त होय तो 'ॐ' एवा एक अक्षरखें ध्यान करे, कारण के-ए अक्षरो वडे अरिहंत, अशरीरी, आचार्य, उपाध्याय, अने सर्व मुनिवरो संगृहीत थयेला छ। ए पांचेय नामोनी आदिमां रहेला अक्षरोनी संधिना प्रयोगोथी निश्चये आ ॐकार बनेलो छे, एम सर्वज्ञ परमात्माओए आदेश कर्यो छे। एनुं ध्यान करवाथी निश्चयपूर्वक पांचेय परमेष्ठीओनुं स्पष्टपणे ध्यान 25 कयु छ अथवा जे ए( एक अक्षर )नुं ध्यान करवाने पण समर्थ नथी ते पासे रहेला कल्याण मित्रोना समुदाय पासेथी पंचनमस्कारने सांभळे अने सांभळती वखते हैयामां आ प्रमाणे भावना करे // 83 थी 89 // आ नमस्कार ए सारनी गांसडी छे, आ नमस्कार ए मने इष्टनो समागम छे अने आ नमस्कार ए एक परमतत्त्व छे // 90 // / 4 1साइजा। 2 उज्झाया JI 3 °निसन्न होइ। 7 भाविज्जा / 8 °गो इयं / एहि एसो। 5 परमेट्रिणो S1-6 शाएउ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग 375 नमस्कार स्वाध्याय / अहह तडत्यो जाओ नूणं भवजलहिणो अहं अज।। अन्नह कहिं अहं कह व एस एवं समो जोगो // 91 // धन्नो हं जेण मए अणोरपारम्मि भवसमुद्दम्मि / पंचन्ह नमुक्कारो अचिंतचिंतामणी पत्तो // 92 // किं नाम अज अमयत्तणेण सव्वंगियं परिणओ हैं। किं वा सयलसुहमओ कओ अकंडेणं केणावि // 93 // इय परमसमरसापत्तिपुव्वमायनिओ नमुक्कारो। निहणइ किलिट्टकम्मं विसं व सियधारणाजोगो // 94 // जेणेस नमुक्कारो सरिओ भावेण अंतकालम्मि / तेणाहूयं सुक्खं दुक्खस्स जलंजली दिन्नो // 95 // एसो जणओ जणणी य एस एसो अकारणो बंधू / एसो मित्तं एसो परमुवयारी नमुक्कारो॥९६॥ .. सेयाण परं सेयं मंगल्लाणं च परममंगलं / पुनाण परमपुन्नं फलं फलाणं नमुक्कारो // 97 // अहो हो ! आजे हुं भवसमुद्रना तटने पाम्यो छु; अन्यथा क्या हुं ? क्यां आ ? अने क्यां 15 * मारो तेनी साथेनो सरखो योग होय // 91 // / हुं धन्य छु के, जेणे अनादि-अनंत भवसमुद्रमा अचिंत्य चिंतामणि एवा पांच-परमेष्ठीनो नमस्कार प्राप्त कर्यो छे // 92 // . शुं हुं आजे सर्व अंगोमां अमृतपणुं पाम्यो छु ? अथवा अकाळे ज शुं कोईए मने सकल सुखमय कर्यो छे ? // 93 // 20 ए रीते परम शमरसापत्तिपूर्वक आचरेलो नमस्कार, शीत धारण( शीतोपचार )नो प्रयोग जेम विषने हणे तेम क्लिष्ट–कर्मोने हणी नाखे छे // 94 // ____ अंतकाळे जेणे आ नमस्कारवें भावपूर्वक स्मरण कयुं छे, तेणे सुखने आमंत्रण आप्यु छे अने दुःखने तिलांजलि दीधी छे // 95 // आ नमस्कार ए पिता छे, ए ज माता छे, ए ज अकारण बंधु छे, ए ज मित्र के अने 25 एज परम उपकारी छे // 96 // कल्याणमां परम कल्याण, मांगलिकोमा परम मांगलिक, पुण्योमा परमपुण्य अने फळोमां परमरम्य फळ पण आ नमस्कार ज छे // 97 // 1 समाओगो2 °डे वि के 3 °णं परमरम्मं / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 376 पंचनमुक्कारफलथुत्तं / / तह एस नमुक्कारो इहलोगगिहाउ जीवपहियाणं / परलोयपहपयट्टाण परमपत्थयणसारिच्छो // 98 // जह जह तस्स वणरसो परिणमइ मणम्मि तह तह कमेण / खयमेइ कम्मगंठी नीरनिहित्तामकुंभु व्व // 99 // तव नियमसंजमरहो पंचनमुक्कारसारहिपउत्तो / नाणतुरंगमजुत्तो नेइ नरं निव्वुईनयरं // 10 // जलणो वि होज सीओ पडिपहहुत्तं वहिज सुरसरिया / न य नाम निजइ इमो परमपयपुरं नमुक्कारो // 101 // आराहणापुरस्सरमणन्नहियओ विसुद्धसुहलेसो / संसारुच्छेयकर ता मा सिढिलसु नमुक्कारं // 102 // एसो हि नमुक्कारो कीरइ नियमेण मरणकालम्मि / जं जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेयणसमत्थो // 103 // अक्खेवेणं कम्मक्खओ तह य मंगलागमो नियमा। तत्काल चिय सम्मं पंचनमुक्कारकरणफलं // 104 // तथा आ लोकरूपी घरथी नीकळीने परलोकना मार्गे प्रवर्तेला जीवरूपी पथिकोने आ नमस्कार परम पथ्यदन-भाता तुल्य छे // 98 // जेम जेम तेना वर्णोनो रस मनमां परिणाम पामे छे, तेम तेम क्रमे करीने पाणीमा स्थापन करेला काचा कुंभनी माफक जीवनी कर्मग्रंथी क्षयने पामे छे // 99 // पंच-नमस्काररूपी सारथि जेमां हांकनार छे, अने ज्ञानरूपी घोडा जेमा जोडायेला छे, एवो 20 तप, नियम अने संयमरूपी रथ मनुष्यने निर्वृति नगरीए लई जाय छे // 100 // अग्नि कदाच शीतल थई जाय अने सुर-सरिता-गंगा कदाच सांकडा मार्गवाळी थई वहेवा मांडे परंतु आ नमस्कार परमपदपुर-मोक्षे न लई जाय, ए बने नहीं // 101 // अनन्य हृदय अने विशुद्ध लेश्या वडे आराधन करायेलो आ नमस्कार संसारनो उच्छेद करनारो छे, ए कारणे तेमां शिथिल न थाओ-तेना ऊपरनो आदर मंद न करो // 102 // म मरणकाले विधिपूर्वक [ स्मरण ] करातो आ नमस्कार संसारनो उच्छेद करवाने समर्थ छे, एम खरेखर, श्रीजिनेश्वरोए जोयेलुं छे // 103 // ___पंच-नमस्कारने [स्मरण ] करवानुं तात्कालिक फळ अक्षेपे एटले शीघ्रताथी कर्मनो क्षय करे छे अने निश्चितपणे मंगळ करे छे / / 104 // 15 | 2 संसारच्छेय° / 3 °समठ्ठो / 4 °ओं य तह मं°s। 5 तकालिं 1°तं च होज चिय , तकालि चिय। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। कालंतरभावि फलं तहविहमिहभवियममभवियं च / इहभवियमत्थकामा उभयभयसुहावहा सम्मं // 105 // इहभवसुहावहा तत्थ ताव अकिलेसभवणओ ताण / . आरुग्गपुव्वगं तह निविग्धं ताण माणणओ // 106 // परभवसुहावहा पुण सुत्तविहीए सुठाणविणिओगा। पंचनमुक्कारफलं अंह भन्नइ अन्नभवियं पि॥१०७॥ जइ वि न तजम्मे चिय सिद्धिगमो कह वि जायइ तहावि / पत्तनमुक्कारा इकसि पि किं किर न विराहिता // 108 // उत्तमदेवेसु तहा कुलेसु विउलेसु अतुलसुहकलिया। हिंडित्ता पजते सिझंति व चेव विहुयरया // 109 // इह पुण परमत्थेणं नाणावरणाइयाण कम्माणं / पइखणमणंतपुग्गलविगमम्मी जायमाणम्मी // 11 // पाउणइ नमुक्कारस्स पढमवन्नं नवकारमह सेसे / वन्ने पत्तेयं चिय तहष्णंतविसुद्धिसब्भावे // 111 // एवं इक्केकं पिहु अक्खरमचंतकम्मखयलब्भ। जस्स स कहं न वंछियफलदाई होइ नवकारो // 112 // ते(नमस्कार )नु काळांतर भावि फळ बे प्रकारतुं छे-१. आ भव-संबंधी अने 2. अन्य भवसंबंधी। आ भव-संबंधी फळ बने भवमां सम्यक् सुखने आपनारा अर्थ-कामनी प्राप्तिरूप छ। तेमां अर्थ-काम आ भवमां सुखने आपनारा एटले-अक्लेश के अल्प-क्लेशथी मळनारा, रोग रहित अने विनरहितपणे उपभोगमा आवनारा (थाय छे) तथा परभवमां सुखने आपनारा छे एटले 20 सूत्रोक्त विधि मुजब सुंदर स्थानमा सत्क्षेत्रोमा विनियोग करवाथी थाय छे। हवे अन्य भवसंबंधी पंच-नमस्कारनुं फळ ए छे के-नमस्कारने पामेला अने तेनी जरा पण विराधना नहि करनारा आत्माओ जो कोई कारणसर ते ज भवने विषे सिद्धगतिने न पामे, तो उत्तम देवपणे उत्पन्न थाय छे अने त्यांथी विपुल कुलोमां अतुल सुखथी युक्त एवं मनुष्यपणुं मेळवे छे // 105 थी 109 // ज्ञानावरणीय आदि कर्मोनां अनंत पुद्गलो प्रतिक्षण दूर थवाने कारणे परमार्थथी नमस्कारना 25 प्रथम अक्षर 'न'कारनो लाभ थाय छे। शेष प्रत्येक अक्षरोनो लाभ पण क्रमे करीने अनंतगुणनी विशुद्धि थवाथी थाय छे // 110 थी 111 // ए रीते जेनो एकेक पण अक्षर अत्यंत कर्मक्षय थवाथी मळे छे, ते नमस्कार कोने वांछित फळदायी न थाय ? // 112 // 15 / 5 तजन्म। ___1 भवसु / 2 परमं सु.। 3 °ओगो। 4 अह मन्न / 7 इक पि किर तमविराहिंता / 8 किर तमविराहिंता / 6 जायए तह वि Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 [प्राकृत पंचनमुक्कारफलथुत्तं। एवं च उभयलोगे वि सुक्खमूलं इमं मुणेऊण / आराहणामिलासी भद्द ! तुम सइ सरिज जओ // 113 // . पंचन्ह नमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाय // 114 // पंचन्ह नमुक्कारो धन्नाण भवक्खयं करिताणं / हिंययम्मि अणुमुयंतो विसुत्तियावारओ होइ // 115 // पंचन्ह नमुक्कारो एवं खलु वनिओ महत्थु त्ति / जो मरणम्मि उवगए अभिक्खणं कीरए बहुसो // 116 // सत्त पण सत्त य नवक्खर-पमाण-पयड-पंचपयं / तित्तीसक्खरचूलं सुमरह नवकारवरमंतं // 117 // इय संविग्गसिरोमणिजिणेसरायरियपायपंकयब्भसलो / भणइ जिणचंदररी दूरीकयकलिमलं नमुक्कारफलं // 118 // ___ इति पञ्चनमस्कारफलस्तोत्रम् / wwwwww ए प्रमाणे बने लोकमां आ (नमस्कार) सुखनुं मूळ छे, एम जाणीने, आराधनानी 15 अभिलाषावाळा हे भद्र ! तुं एनुं सदा स्मरण कर; कारण के पंचपरमेष्ठीने करेलो नमस्कार जीवने हजारो भवोथी मुकावे छे, तथा भावपूर्वक स्मरण कराय तो ते बोधिलाभ माटे थाय छे // 113 थी 114 // ___ पांच परमेष्ठीओने करेलो नमस्कार धन्य पुरुषोने भवनो क्षय करावे छे अने हृदयथी सेने नहि छोडनारने ते विस्रोतसिका एटले उन्मार्गे जता चित्तने वारनारो बने छे // 115 // 20 ए रीते पंच नमस्कार महान् अर्थवाळो छ एम शास्त्रोमां वर्णन करेलुं छे, अने ए कारणे मरण अवसर आवे त्यारे तेनुं निरंतर अने वारंवार स्मरण कराय छे // 116 // ते सात, पांच, सात, सात, अने नव अक्षर प्रमाण छे, अने प्रगट पांच पदोवाळा अने तेत्रीस अक्षर प्रमाण श्रेष्ठ चूलिकावाळा उत्तम श्रीनमस्कार-मंत्रनुं तमे निरंतर स्मरण (ध्यान) करो // 117 // 25 ए रीते संविग्नशिरोमणि श्रीजिनेश्वरसूरिना चरण-कमलने विषे भ्रमर समान श्रीजिनचंद्रसरि, पापमळने दूर करीने नवकारतुं फळ कहे छे // 118 // 1 पंचपइ न / 2 हिययं अ°s J / 3 अक्खरतित्तीसवरचूलं 8 JI Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय। 379 विभाग] (स्तोत्र-परिचय) ___आ स्तोत्रनी मूळ नकल जैन साहित्यविकास मंडळना संग्रहमा हती, ते परथी अहीं संपादित करी अनुवाद साथे आपवामां आवेल छे। S संज्ञाथी जै. सा. वि. मं. नी नकल जे मूळ आदर्श तरीके राखवामां आवी छ। J संज्ञाथी श्री जिनविजयजी मुनिए छपावेलां फोर्मो ऊपरथी पाठांतरो लीधां छे। / आ स्तोत्रनां 'नमुक्कारफलपगरणं' अने 'वुड्डनमुक्कारफलथुत्तं' एवां नामो पण मळे छ। केटलाक आचार्योए आ स्तोत्रनी गाथाओने पोतानी कृतिमां प्रमाण तरीके नोंधी छे ज्यारे केटलाक संग्रहात्मक ग्रंथोमां आ स्तोत्रनी गाथाओनो संग्रह करेलो जोवामां आवे छे। ___ आ स्त्रोत्रना कर्ता श्रीजिनचंद्रसूरि, जेओ श्रीजिनेश्वरसूरिना शिष्य हता एम आ स्तोत्रनी छेल्ली 118 मी गाथामां नोंधवामां आव्युं छे। .. 10 तेओ श्रीअभयदेवसूरिना वृद्ध सतीर्थ्य हता। श्रीअभयदेवसूरिनी विनतिथी 'संवेगरंगशाला' (आराधना ) नामक ग्रंथ प्राकृतमां रच्यो छे; तेनुं संशोधन श्रीप्रसन्नचंद्रसूरि, श्रीगुणचंद्र अने श्रीजिनवल्लभगणिए कयुं हतुं ए ज जिनचंद्रसूरिए आ स्तोत्रनी रचना करेली छे / आ स्तोत्रमा नमस्कारनुं फळ विशद अने सचोट रीते दर्शाववामां आव्यु छ। . AAPAN TRAIATTARAIPHATA NEWATYAIRLOTTERNA Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [19] पंच नमुक्कार फलं। घणघाइकम्ममुक्का अरहंता तह य सव्वसिद्धा य / आयरियउवज्झाया पवरा तह सव्वसाहू य // 1 // एयाण नमुकारो पंचन्ह वि पवरलक्खणधराणं / भवियाण होइ सरणं संसारे संसरंताणं // 2 // उड्डमहे तिरियम्मि जिणनवकारो पहाणओ नवरं / नर-सुर-सिवसुक्खाणं [सु]कारणं इत्थ भवणम्मि // 3 // तेण इमो निचं चिय पढिर्ज सुत्तुहिएहिं अणवरयं / / होइ चिय दुहदलणो सुहर्जणओ भवियलोयस्स // 4 // जाएं वि जो पढिजइ जेण य जायस्स होई बहुरिद्धी / अवसाणे वि पढिाइ जेण मओ सुग्गई जाइ // 5 // आवइहिं पि पढिाइ जेणं य लंघेइ आवइसयाई / / रिद्धीहि पि" पढिाइ जेण य सा जाइ वित्थारं // 6 // 10 अनुवाद। घनघाती कर्मोथी रहित अरिहंतो, सर्वसिद्धो, प्रवर एवा आचार्यो, उपाध्यायो तेमज सर्वसाधुओ-ए रीते श्रेष्ठ लक्षणने धारण करनारा ए पांचेय परमेष्ठीओने करेलो नमस्कार संसारमा भटकता भव्य-प्राणिओने शरणरूप छे // 1-2 // ऊर्ध्वलोक, अधोलोक अने तिर्यग्लोकमां श्रीजिन( कथित ) नवकार प्रधान छे तथा 20 मनुष्यनां सुखो, देवनां सुखो अने मोक्षनां सुखोनू परम कारण छे // 3 // ते कारणे सूतां अने ऊठतां निरंतर नवकार( मंत्र ) ने गणवो जोइए। ते निश्चयपूर्वक भव्य-लोकोनां दुःखोने हणनारो अने सुखोने उत्पन्न करनारो छे // 4 // ___जन्मसमये जो ते भणवामां आवे तो जन्म लेनारने बहु संपत्ति आपनारो थाय छे अने मृत्यु समये जो भणवामां आवे तो मृत्यु पछी सुगतिने आपनारो थाय छे // 5 // 25 आपत्तिना समये पण जो तेने भणवामां आवे तो सेंकडो आपत्तिओथी पार पमाय छे अने संपत्तिना समये भणवामां आवे तो ते संपत्तिओ विस्तार पामे छे // 6 // 1°घायकममुका / 2 °रिया उ° N / 3 °महो 8; °मह A1 4 °यलोए जि A1 5 °णवो न°। 6 णं एत्य A17 भुव 81 8 °ढियइ A.; जए 19°जणणो भ. | 10 °एहिं जो / 11 जेणेव / / 12 इ फलरिद्धि A / 13 मुओ। 14 सोगई। 15 जेणेव N | 16 सो प°। 17 जेणेसा / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। + य बीहंति संराणं विजाहरदेव-नरवरिंदाणं / जाण इमो नवकारो साँस व्व पइडिओ कंठे // 7 // जह अहिणा दट्ठाणं गारुडमंतो विसं पणासेइ / तह नवकारो मंतो पावविसं नासइ असेसं // 8 // किं एस महारयणं किंवा चिंतामणि व्व नवकारो। किं कप्पहुमसरिसो नहु नहु ताणं पि अहिययरो॥९॥ चिंतामणिरयणाई कप्पतरू ईक्कजम्मसुहहेऊ / नवकारो पुण पवरो सग्गपवग्गाण दायारो // 10 // जं किंचि परमतत्तं परमप्पयकारणं च जं किंपि / तत्थ इमो नवकारो झाइजइ परमजोगीहि // 11 // जो गुणइ लक्खमेगं पूएइ विहीइ जिणनमुकारं / तित्थयरनामगुत्तं सो बंधइ नत्थि संदेहो // 12 // *जो पुण लक्खमणूणं परिअड्डेऊण पूअए संघ / सो तइयभवे सिज्झइ अहवा सत्तहमे जम्मे // 13 // - आ नवकारने श्वासनी माफक जे कंठने विषे धारण करे छे, ते देवताओथी बीता नथी 15 अने विद्याधर के चक्रवर्तीओथी पण भय पामता नथी // 7 // - जेम गारुडमंत्र सर्पथी करडायेलाना विषनो नाश करे छे, तेम नवकार मंत्र समप्र पापरूपी विषनो नाश करे छे // 8 // शुं आ नवकार महारत्न छे ? अथवा चितामणिरत्न के कल्पवृक्ष समान छे ? नहि, नहि ए तो तेनाथी पण वधारे श्रेष्ठ छे; कारण के चिंतामणिरत्न वगेरे अने कल्पतरु तो एक जन्ममां 20 सुखनां कारण छे, ज्यारे श्रेष्ठ एवो नवकार तो स्वर्ग अने मोक्षने आपनारो छे // 9-10 // जे काई परमतत्त्व छे अने जे कोई परम पदनुं कारण छे, तेमां पण ते नवकारतुं परम योगीओ चितवन करे छे (मतलब के बधामा सारभूत नवकार ज छे / ) // 11 // जे एक लाख नवकारने गणे छे अने विधिपूर्वक श्रीजिनेश्वरदेवने पूजे छे, ते श्रीतीर्थकर नाम-गोत्रने बांधे छे, एमां संदेह नथी // 12 // वळी, जे निश्चयपूर्वक लाख नवकार गणीने संघनी पूजा करे छे ते त्रीजे भवे अथवा सातमा के आठमा जन्ममां सिद्ध थाय छे // 13 // 25 1नव सिरि हंति SJ3 नव सिरि हवंति A1 2 ताणं | 3 °र नेयन / 4 नव व | 5 जेण / .6 सासु व्व ; निच्चं चिअ 7 एगज AJI 8 किंचि / 9 तत्थ वि सो; तत्थ विजिणन 10 कारो। * नास्तीयं गाथा आदर्श विना कस्याचितू प्रतौ। * A आदर्श 22 अकाङ्कितायाः गाथाया अकः 18 // Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 [प्राकृत पंचनमुक्कारफलं। सढिसयं विजयाणं पवराणं जत्थ सासओ कालो / तत्थ वि जिणनवकारो इय एस पढिजए निचं // 14 // एरावएसु पंचसु पंचसु भरहेसु सु चिय पढंति / जिणनवकारो पंवरो सासयसिवसुक्खदायारो // 15 // जेण मरतेण इमो नवकारो पाविओ कयत्येण / सो देवलोऍ गंतुं परमपयं तं पि पावेइ // 16 // एसो अणाइकालो अणाइजीवो अणाइजिणधम्मो / तइया वि ते पढंता एयं चिय जिणनमुक्कारं / / 17 // जे केई गया मुक्खं गच्छंति य के वि कम्ममलमुक्का / ते सव्वेवि य जाणसु जिणनवकारप्पभावेणं // 18 // नहु किंचि तस्स पहवइ डाइणि-वेयाल-रक्ख-मारिभयं / नवकारपभावेणं नासंति य सयलदुरियाई // 19 // पांच महाविदेह क्षेत्रना उत्तम 160 विजयो छे के जेमां शाश्वत ( एकसरखो सुखनो) समय छे, तेमा पण आ प्रसिद्ध श्रीजिन-नवकार निरन्तर भणाय छे // 14 // 15 पांच भरत अने पांच ऐरवत क्षेत्रमा पण शाश्वत सुखने आपनारो आ ज नवकारमंत्र गणाय छे / / 15 // ___ मरती वखते जे कृतार्थ पुरुषे आ नवकार-मंत्रने प्राप्त कर्यो छे, ते देवलोकमां जाय छे अने परम-पदने पण पामे छे // 16 // ___ आ काळ अनादि छे, आ जीव अनादि छे अने आ जिन-धर्म पण अनादि छे, त्यारथी 20 लईने (अनादि काळथी) आ जिन-नवकार ते भव्य-जीवो वडे भणाय छे / (अर्थात् आ नमस्कार शाश्वत छ।)॥ 17 // __ जे कोई मोक्षमां गया छे, अने जे कोई कर्म-मलथी रहित बनीने मोक्षमां जाय छे, ते सर्वे श्रीजिन-नवकारना प्रभावथी गया छे, एम निश्चयपूर्वक समजो // 18 // नवकारना प्रभावथी डाकिनी, वेताल, ग्रह अने मरकी वगेरेनो भय काई करी शकतो नथी, 25 तथा बधां पापो नाश पामे छे // 19 // 1 एसो व पढिजए पढम A; एसो पढिज्जए नवरं / / 2 एरावएहिं पंचहि, पंचहिं भरएहिं सुs: एरवएहिं पंचहिं, पंचहिं सु / 3 मंतो / 4 ते य इमो N / 5 सो गंतुं दिवलोयं A / 6°लोइ गंतुं। 7 एसु चिय / 8 क्वारो 1 / 9 के वि गया N A | 10 केइ A| 11 ते सव्वे च्चिय ; तेसु च्चिय / 12 जाणह A1-13 वेणं 8 / 14 न हु तस्स किंचि प; न य किं A / 15 °रिक्ख / 16 व्व A / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / वाहि-जल-जलण-तकर-हरि-करि-संगाम-विसहरभयाई / नासंति तक्खणेणं जिणनवकारप्पभावेणं // 20 // इय एसो नवकारो भणिओ सुर-सिद्ध-खयरपमुहेहिं / जो पढइ भत्तिजुत्तो सो पावइ परमनिव्वाणं // 21 // अडवि-गिरिरनमज्झे भयं पणासेई सुमरिओ संतो। रक्खइ भवियसयाई माया जह पुत्तभंडाइं // 22 // * थंभेइ जलं जलणं चिंतियमिचो वि पंचनवकारो। अरि-मारि-चोर राउल-घोरुवसगं पणासेइ // 23 // *हिअयगुहाए नवकारकेसरी जाण संठिओ निच्च / / कम्मट्ठगंठिदोघट्टथट्टयं ताण परिणटुं // 24 // *धन्नाण मनोभवणे सद्धाबहुमाणनेहबुड्डिल्लो। मिच्छत्ततिमिरहरणो वट्टइ नवकारवरदीवो // 25 // *नवकाराओ अन्नो सारो मंतो न अस्थि तीलोए / .. तम्हा अणुदिणं चिय झायव्वो परमभत्तीए // 26 // श्री जिन-नवकारना प्रभावथी व्याधि, पाणी, अमि, चोर, सिंह, हाथी, संग्राम अने सर्प 15 आदिना भयो तत्काळ नाश पामे छे / / 20 // - देवताओ, सिद्धो अने विद्याधरोए आ नवकारने गण्यो छे / जे कोई भक्तिपूर्वक आने भणे छे, ते परम-निर्वाण (मोक्ष) ने पामे छे // 21 // जंगल, पर्वत के अरण्यनी मध्यमां स्मरण करायेलो आ नवकार भयनो नाश करे छे अने * 'माता जेम पुत्र-दौहित्रोनुं रक्षण करे छे तेम आ सेंकडो भव्योनुं रक्षण करे छे // 22 // 20 ____ आ पंच नमस्कार चिंतववा मात्रथी पण पाणी अने अग्मिने थंभावी दे छे तथा शत्रु, मरकी, चोर अने राजाओना घोर उपसर्गोनो अत्यन्त नाश करे छे // 23 // जेओना हृदयरूपी गुफामां नमस्काररूपी केसरी सिंह सदा रहेलो छे, तेओनां आठ कर्मनी गांठरूप हाथीओनो समूह समस्त प्रकारे नाश पामेलो छे // 24 // वळी, मिथ्यात्वरूपी अंधकारने हरनारो एवो आ नमस्काररूपी श्रेष्ठ दीपक, जेमां श्रद्धारूप 25 दिवेट अने बहुमानरूपी तेल छे, ते धन्य पुरुषोना मनरूपी भवनमां शोभे छे // 25 // त्रणे जगतमां आ नवकारथी बीजो साररूप मंत्र नथी, तेथी अत्यंत भक्तिपूर्वक निरंतर तेनुं ध्यान करवू जोईए // 26 // . 1°इ सासयं ठाणं / 2 एषा 21 अङ्कस्था गाथा A प्रतौ 27 / 3°इ चिंतिओ मंतो। 4 मंतो। 5 एषा 23 अङ्काङ्किता गाथा A प्रतौ 21 / * एतच्चिह्नाङ्किहितं गाथाचतुष्कं आदर्श नास्ति। 6 टकम्मदों A1 728 गाथा A प्रतौ 22 अङ्काङ्किता। . ... Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचनमुकारफलं। [प्राकृत *तवसंजमनाणरहो पंचणमुक्कारसारहिनिउत्तो। नाणतुरंगमजुत्तो नेइ फुडं परमनिव्वाणं // 27 // जिणसासणस्स सारो चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो संसारो तस्स किं कुणइ // 28 // *नवकारइकअक्खर पावं फेडेइ सत्तअयराणं / पन्नासं च पएणं पंचसयाई समग्गेणं // 29 // *इह लोगम्मि तिदंडी सादिव्वं माउलिंगवणमेव / परलोइ चंडपिंगल इंडिअजक्खो अ दिढ़ता // 30 // *अटेव य अट्ठसया अट्ठसहस्सं च अट्ठकोडीओ। जो गुणइ भत्तिजुत्तो सो पावइ सासयं ठाणं // 31 // एष पश्चनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः / मङ्गलानां च सर्वेषां मुख्यं भवति मङ्गलम् // 32 // // इति पञ्चनमस्कारफलं समाप्तम् // पंच-नमस्काररूपी सारथिथी नियुक्त अने ज्ञानरूपी घोडाथी जोडायेलो एवो तप, संयम 16 अने दानरूपी रथ प्रगटपणे परम निर्वाण (मोक्ष)ने विषे लई जाय छे // 27 // जे श्रीजिनशासननो सार छे, चौद पूर्वनो सम्यग् उद्धार छे, ते नवकार-मंत्र जेना मनने विषे स्थिर छे, तेने संसार शुं करे ? अर्थात् कांई पण करवा समर्थ नथी // 28 // .. ___आ नवकारनो एक अक्षर सात सागरनु पाप नाश करे छे, तो पचास पदोथी समप्रपणे पांचसो पापो दूर थाय // 29 // 20 आ लोकमां त्रिदंडी अने देवताना प्रभावथी मातुलिंग-बीजोरानुं वन थयुं तेम परलोकमां चंडपिंगल अने हुंडिक यक्षनां दृष्टांतो छ // 30 // जे कोई भक्तिपूर्वक आठ, आठसो, आठ हजार के आठ कोडनो जप करे छे ते शाश्वत स्थानने पामे छे // 31 // आ पंच नमस्कार बधां पापोनो नाश करनारो छे अने बधां मंगलोमा मुख्य मंगल छे // 32 / / 1तवेत्यादिगाथा A आदर्श न विद्यते। 2 जिणेत्यादिगाथायाः A प्रतावः 23 / प्रतौ 28 तः 32 गाथानां स्थाने इमाः गाथा विद्यन्ते जिणसासणस्स सारो जीवदयानिग्गहो कसायाणं। साहम्भिवच्छलया तह भत्ती जिणवरिंदाणं // 24 // चउदसपुव्वधरा वि हु सुयकेवलिणो वि मुणियसव्वत्था। ते वि हु सव्वं मोतुं पज्जंते लिंति नवकारं // 25 // पंचनमुक्कारसमा अंते वच्चंति जस्स दसपाणं / सो जइ न जाइ सुकखं अणस्स वैमाणिओ होइ // 26 // * एतचिह्नाङ्कितं गाथात्रिक IS N A प्रतिषु नोपलभ्यते। SN आदर्शयोरस्य स्तोत्रस्य गाथाङ्क 25 प्रतौ, 27 / प्रतौ, 32J प्रतौ, 28 गाथाः विद्यन्ते // Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। परिचय आ स्तोत्रनुं संपादन जे पांच प्रतिओ ऊपरथी करवामां आव्युं छे ते आ रीते छेV संज्ञावाळी प्रति श्री जिनविजयजी मुनिए छपावेलां फॉर्स ऊपरथी आ स्तोत्रनो पाठनिर्णय को छे। A संज्ञावाळी प्रति जैनानंद पुस्तकालय, सूरत-नं. 585 ऊपरथी पाठांतरो लीधां छे। / N संज्ञाथी श्रीअगरचंदजी नाहटा-बिकानेरना संग्रहनी प्रति-नं. 9243 ऊपरथी पाठांतरो लेवामां आव्यां छे। . J संज्ञाथी श्री जिनविजयजी मुनिए लीघेलां पाठांतरोने अहीं नोंधवामां आव्यां छ / S संज्ञावाळी प्रतिनी जैन साहित्य विकास मंडळना संग्रहमां नकल करेली हती तेना ऊपरथी पाठांतरो नोंध्यां छे। ___10 आ स्तोत्रना कर्ता विशे कोई प्रतिमां कशो उल्लेख मळतो नथी / संभवतः आ कृति संग्रहात्मक लागे छे / केटलीक गाथाओ 'पंचनमुकारफलथुत्त' नी तो केटलीक गाथाओ बीजी कृतिओमांथी संग्रहित करेली छे। आ स्तोत्रनुं बीजुं नाम 'लहुनमुक्कारफलथुत्त' मळे छे अने एक प्रतिमां आनो 'नमस्कारकुलक'थी उल्लेख करेलो जोवामां आव्यो छे / T Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] सिरिजिणदत्तमुरिविरइयं नमुका र रहस्सथ वणं // ॐ नमो अरहंताणं भगवंताणं तिलोगनाहाणं / / जिणचंदाणं तिहुअणगुरूण तिजइक्कसाराणं // 1 // तेलुक्कमंगलाणं तेलुक्कुत्तममुणीसराणं च / तिहुअणच्चिअमहाणं चरित्तसुअधम्मपभवाणं // 2 // ॐ सिरि-हिरि-धिइ-कित्तिओ बुद्धी लच्छीओ सिद्धि-रिद्धीओ। सव्वदेवयाओ जिणपवयण-विजमाईणं // 3 // भवणवई-वणयराणं जोइसियाणं विमाणवासीणं / देवा देवीओ वा सक्काइया सुरिंदा य // 4 // तस्सामाणिय-दिसि लोगदेवा य तायतीसा य / परिसोववन्नगा तह सव्वे वि सुरा सुरीओ अ॥५॥ गह-रिक्ख-तारगाणं देवा देवीओ तिरियलोगम्मि / 15 . झंभग - मुक्खिय- (सुखित्त )-गिह-देस-दव्वसमयाण भावाणं // 6 // रक्खंतु मे सरीरं सव्वभया असेस-देवाणं / / भूय-पिसायाईणं, खुद्दाणं तिरिय-मणुयाणं // 7 // __अनुवाद त्रणे जगतना नाथ, जिनचंद्र, त्रिभुवनगुरु, त्रणे जगतमां अनन्य सारभूत, त्रणे लोकमां 20 मंगलस्वरूप, त्रणे लोकमां उत्तम मुनीश्वर, त्रिभुवनपूजित होवाने कारणे श्रेष्ठ (त्रणे भुवन वडे सत्कारित अने पूजित), चरित्र अने श्रुतधर्मना उद्भवस्थानरूप एवा श्रीअरिहंत भगवंतोने हुँ ॐ कारपूर्वक नमस्कार करूं छु // 1-2 // ॐ श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, सिद्धि अने ऋद्धि देवीओ; जिन प्रवचन अने विद्या वगेरेनी सर्व देवताओ (प्रवचनदेवीओ, विद्यादेवीओ वगेरे सर्व देव ओ); भवनपति, 25 व्यंतर, ज्योतिष्क अने विमानवासीना सर्व देवो तेमज देवीओ तथा शकेन्द्र वगेरे देवेन्द्रो; इन्द्रना सामानिक देवो, दिक्पाल देवो, लोकपाल देवो, त्रायस्त्रिंश देवो तथा पर्षदामां रहेला सर्व देवो अने देवीओ; ति लोकमां रहेला ग्रह-नक्षत्र-ताराओना देवो अने देवीओ; जंभक देवताओ; सुंदर क्षेत्र, घर, देश, द्रव्य, काल अने भावना देवो अने देवीओ-ए सर्वे मारा शरीरनुं सकल (दुष्ट) देवोना, भूत-पिशाच वगेरेना, क्षुद्र तिर्यंचो अने मनुष्योना सर्व भयोथी (तेओए करेला 30 उपद्रवोना कारणे उत्पन्न थता सर्व भयोथी) रक्षण करो // 3-7 // 1 कोई मुनिमा पवित्र भाव उत्पन्न थयो होय तो देवताओ तेनी रक्षा करे छ / Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / आहीणं वाहीणं रोगायंकाण णहभावाणं (1) / चक्खुसमुणंतह (?) साइणि-जोइणिकयाण महा // स्वाहा // 8 // ॐ आपखं ( आएज ) सोहग्गं सुजयं विझ(ण )यं च सुजससामित्तं / सुमइत्त-सुसीलत्तं सुसंजमत्तं सुसंमत्तं // 9 // सनाणं सुचरितं कुणंतु तह परममंगलत्तं च / ईसरियत्तसुद(ह)त्तं पणयाणं भव्वसत्ताणं // 10 // अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झायाणं च सव्वसाहू य ( सव्वसाहूणं)। केवलिपन्नत्ताणं सुअधम्मंच (म्माणं) चरित्तधम्माणं (सुअधम्मचरित्तधम्माणं)॥११॥ एएसिं पभावेण सिझंतु समीहियाणि सव्वाणि / अम्हाण सुगुरुजिणदत्तसुद्धधम्मनिरयाणं // 12 // .. 10 ____ तथा राक्षससमूहो, शाकिनी, जोगणी वगेरेयी कराता आधि, व्याधि, रोग, आतंक अने नष्टभावोथी (?) मारा शरीरनुं रक्षण करो // 8 // ॐ सर्व देवो अने देवीओ ! प्रणत एवा भव्य प्राणीओने आयुष्य, सौभाग्य, सुजय, विजय, सुयश, स्वामित्व, सुमति, सुशील, सुसंयम, सुसम्यक्त्व, सत्ज्ञान अने सुचरित्र आपो; तथा (तेमर्नु) परम मंगल, ऐश्वर्य अने सुख करो॥९-१०॥ श्री अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने सर्व साधुओ, केवलिप्रज्ञप्त श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म-ए सर्वना प्रभावथी परम गुरु श्रीजिनेश्वर भगवंते आपेल (उपदेशेल) शुद्ध धर्ममां तत्पर एवा अमारा सर्व समीहित (वांछित ) सिद्ध थाओ // 11-12 // (छेल्ली गाथामां कर्ताए 'जिणदत्त' एवं निजनाम श्लेषथी योज्युं छे / ) परिचय आ स्तवन 'शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी हस्तक जैन श्वेतांबर भंडार-लीबडीनी प्रति नं. 3324 ( डा.नं 118 ) नी एक पानानी प्रति ऊपरथी संपादित करीने आपवामां आव्यु छ। आ स्तोत्रना कर्ता प्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीजिनदत्तसूरि छे / तेओ प्रतिभाशाली तत्त्वज्ञ अने मांत्रिक हता। तेमनो जन्म सं. 1132 मां धोळकामां थयो हतो। तेमना पितानुं नाम मंत्री वाछिग अने मातानुं नाम बाहडदेवी हतुं / सं. 1141 मां तेमणे दीक्षा लई सोमचंद्र मुनि नाम धारण कयुं / 25 ___ अभ्यासकाठमां तेमनी बुद्धिनी तीव्रता भणावनारने मुग्ध करी दे एवी हती / एक वखत तेमने भणावणार पंडिते 'नवकार' नी व्युत्पत्ति करतां कह्यु के–'न विद्यते वकारो यत्र स नवकारः।' त्यारे आ बुद्धिशाळी सोमचंद्र मुनिए ए व्युत्पत्तिने खोटी ठरावतां जवाब आप्यो के'नवकरणं नवकारः। भणावनार पंडित आ जवाबथी चकित थई गया। ____ आचार्य थया पछी तेओ जिनदत्तसूरि नामथी प्रसिद्धि पाम्या / तेमणे चैत्यवासीओ सामे 30 प्रबळ हाथे काम लीधुं हतुं अने सिद्धांतचर्चामा प्रभावशाली शब्दोथी सिद्धांतस्वातंत्र्य प्रगट कर्यु हतुं। तेमनी विद्वत्ताथी अजमेरनो राजा अर्णोराज आकर्षायो हतो। 20 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 नमुक्काररहस्सथवणं / [प्राकृत तेमनी मांत्रिक शक्ति माटे तेमना चरित्रमा अनेक प्रसंगो नोंधायेला छे / अहीं एकाद. प्रसंगनो उल्लेख करीशुं / श्रीजिनदत्तसूरि ज्यारे रुद्रपल्ली तरफ विहार करी रह्या हता त्यारे मार्गे आवता एक गाममा आव्या / एक श्रावक, जेने कोई व्यंतर पीडा करतो हतो, ते तेमनी पासे आव्यो अने तेनो / उपाय पूछयो / सूरिजीए उपयोग दईने जोयुं तो ते व्यंतर मंत्र-तंत्रथी पण असाध्य हतो, त्यारे सूरिजीए ते श्रावकने 'गणधरसप्ततिका' रचीने टिप्पणमां लखी आप्यु के, 'तुं आना उपर दृष्टि स्थिर करजे' श्रावके ज्यारे ए रीते कयुं त्यारे ते व्यंतर खूब पीडा पामतो एना खाटला पासे आव्यो तो खरो पण शरीरमा प्रवेश करी शक्यो नहीं / बीजा दिवसे ते श्रावकना घरना बारणा सुधी आव्यो अने त्रीजे दिवसे ते आवी ज न शक्यो / आ रीते सूरिजीए ए श्रावकनी व्यंतरपीडा 10 दूर करी हती। सूरिजीए अनेक ग्रंथोनी रचना करी छे; तेमां तेमनी मौलिक प्रतिभानां दर्शन थाय छे / . ए सूरिजीए 'मंत्र'विदर्भित आ स्तवन रच्यु छ / आ स्तोत्र प्रभावक मनाय छ / Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [21] - सिरिजयचंदररिविरइयं पण्हगम्भं पंचपरमिट्टिथवणं // रेहाहिं को ततिहिं ? को विणयरसजुओ ? सम्मओ बेइ ? चक्क कि रूवं ? मंतबीअं किमिह सिवकए ? निक्खि( कि )वो को ? सुहं किं / / पूअत्थं वा पयं किं ? भणह पडकए केरिसं किं निमित्तं? किं सिद्धंतस्स आई 1 सयलसुहकरं किं पयं ? झायए तं // 1 // [स्रग्धरावृत्तम्] णमो अरिहंताणं / ' [शङ्खलाजातिस्बिर्गतश्च] वृत्तिः-रेखाभिः तिसृभिः णं इति प्राकृति]त्वाद् लोपः / नमतीति नमो 'अचू' इत्यनेनाच् , विनीतो नमो नन्ता भवति / सम्मदो हर्षो ब्रूते, तस्य संबोधनं हे मोद ! / अरा अस्य सन्तीत्यरि 10 चक्रम् / मन्त्रबीजं 'अहं' अकारं विनाऽपि 'है' इत्यपि भवति / निष्कृतो(पो) हन्ता / सुखं त्राणं / पूजार्थं नमः पदम् / पटस्य कारणमहं योग्यं वदन्ति / अ(आ)गमस्य आदिः 'णमो अरिहंताणं' इति // 1 // अनुवाद (1) अ [ 'शृंखलाजाति' नामक चित्रबंध [ जूओ चित्र नं० 5] वडे प्रकट थता ‘णमो 15 अरिहंताणं' पद संबंधी प्रश्नोत्तरो।] रीति-१ (1) प्रश्न-त्रण रेखाओथी बनेलो अक्षर कयो ? उत्तर-ण / (2) प्रश्न-विनयना रसथी भरेलो शब्द कयो ? उत्तर णमो-(नमः)-नमस्कार / (3) प्रश्न-संमद-हर्षना पर्याय शब्दनुं आमंत्रण शुं ? उत्तर-मोअ! -( मोद! )-आनंद / 20 (4) प्रश्न-चक्रवाचक शब्दनो पर्याय शब्द कयो ? . . उत्तर-अरि-(अरिन् ) –अर एटले आरा जेमां होय ते / (5) प्रश्न-कल्याण माटे उपयोगी मंत्रबीज को ? उत्तर-रिहं -(है) -है। (6) प्रश्न-कृपा वगरनो माणस शुं कहेवाय ? उत्तर-हंता-( हन्ता)-मारनार, हिंसक। (7) प्रश्न-सुख शुं छे ? उत्तर-ताणं-(त्राणं)-रक्षण। 25 आ [ 'त्रिर्गत' वडे 'णमो अरिहंताणं' पद प्रकट थाय छे, ते संबंधी प्रश्नोत्तरो] (1) प्रश्न-पूजाने माटे कयो शब्द वपराय छे ? उत्तर-णमो-(नमः)-नमस्कार। (2) प्रश्न-मंत्रपटना निर्माणमां कारणभूत कोण मनाय छे ? उत्तर-अहे-'अरिहंताणं' ए पद / रीति-३ . (1) प्रश्न-आगमोनुं आदि पद कयुं ? उत्तर-णमो अरिहंताणं। .30 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 पण्हगब्भं पंचपरमिट्टिथवणं / [प्राकृत किं रूवं अड्डविंदं हवइ ? दुहयरी का ? हरो आह सत्ता सेवित्ता के च सिद्धा ? किमु भणिय जिणो संपवजेइ दिक्खं ? / अत्थीणं बेइ खुद्दो किमु ? भणइ ससी केरिसं कामिचित्तं ? अंतद्धाणं अणंतं किमिह ? विजयए मंगलं किं च बीअं ? // 2 // 5 णमो सिद्धाणं / ' [पञ्चकृत्वो गतिः। वृत्तिः-आद्य( ब्य) वृन्दं न मुष्णातीत्येवं शीलं नमोषिद्धाणं च तृप्तं भवति / दुःखकरी न मा अलक्ष्मीः, नसमासार्थो न शब्दोऽस्ति, तेन समासः / उः शिवस्तस्य संबोधनं हे ओ! प्राक् सन्धौ नमो इति / सिद्धानामाज्ञां पालयित्वा सिद्धा भवन्ति / 'नमो सिद्धाणं' इति भणित्वा जिनो दीक्षां प्रतिपद्यते / क्षुद्रः कृपणः न इति भणति / माश्चन्द्रः प्राकृते संबोधने मो इति / सह इना कामेन रीति-४ (1) प्रश्न- सकल (जीवनिकायोने ) सुख अपानार पद कयुं ? उत्तर- णमो अरिहंताणं' तेनुं ध्यान धराय छे।x (2) [ 'पंचकृत्वो गति' नामक चित्रजाति वडे ‘णमो सिद्धाणं' पद प्रकट थाय छे ते संबंधी प्रश्नोत्तरो] (1) प्रश्न-आढयवृंद-धनिकोनो समूह केवो होय छे ? उत्तर-ण मोसि-(न मोषिन् ) -कदी पण चोरी न करनारो। (2) प्रश्न-वळी केवो होय छे ? उत्तर-धाणं-(धानं )-तृप्त परिपूर्ण मनवाळो / * रीति-२ (1) प्रश्न-दुःख करनारी शी वस्तु गणाय छे ? उत्तर-ण मा-(न मा)-अलक्ष्मी-दारिद्र्य / (2) प्रश्न-शिवनो पर्यायवाचक अक्षर जे 'उ' तेनुं संबोधनमां शुं रूप थाय ? उत्तर-ओ ! ( अहीं 'ण मा' अने 'ओ' नी संधि करवाथी णमो' पद थाय छे, __ अथवा 'णमा' अने शिवनो पर्यायवाची जे 'उ' तेनी संधि करवाथी पण 'णमो' पद थाय छे / ) xआ श्लोकमा ण-णमो-मोअ-अरि-रिहं-हंता-ताणं-आ शब्दो प्रश्नोना उत्तरवडे प्राप्त थाय छे अने तेमां क्रमशः पहेला-पहेला अक्षरोने शृंखला-सांकळनी आकृतिमा लखवाथी णमो अरिहंताणं पद प्रकट थाय छे, तेथी तेने शंखलाजाति नामक बंध मानवामां आवे छे तथा ते ज णमो अरिहंताणं पद बीजी, त्रीजी अने चोथी रीतिए पण प्रश्नोना उत्तरोथी प्रकट थाय छ / एटले ते त्रिर्गत-त्रण प्रकारोथी गत-प्राप्त मनाय छे / तेनी चित्र-जातिमां गणना थाय छे। जूओ चित्र नं. 5 / ___ * अहीं चित्रकाव्यने लीधे द्धाणंने बदले धाणंनो प्रयोग छे, अथवा इद्धाणं-(इद्धाशं)-ओजस्वी आज्ञा करनारा, एम समजवू / Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] : नमस्कार स्वाध्याय / पावाणं के ? जिणाणं किमु करिअ सुही के मुणी ? माण-मोहा किं रूवा गाइ-गंता ? विउलधणभरो वड्डए केरिसाणं / विजाविनाणभागी हवइ सुनिउणो केरिसो ? केसि किंवा थंभेई नीरमाई ? पयमणहमहं झायए तं मणेणं // 3 // णमो आयरियाणं / ' [चतुःकृत्वो गतिः। ] 5 वर्तते यत् तत् सत् क्लीबत्वाद् ह्रस्वः / अन्तद्धाणमिति पदमन्तं विना द्धाणमिति द्धा / द्वितीयं मङ्गलम् 'न(ण)मो सिद्धाणं' इति विजयते // 2 // वृत्तिः–पावाः पापाः पापवन्तस्तेषां नमोदा अहर्षा भवन्तीति योगः / जिनानामाज्ञामाचर्य (3) प्रश्न-प्राणीओ कोने सेवीने सिद्ध थया ? / * उत्तर-सिद्धाणं (सिद्धाज्ञां)-सिद्धोनी आज्ञाने / रीति-३ / (1) प्रश्न-जिनो दीक्षा ग्रहण करती वखते शुं कहे छे ? उत्तर-णमो सिद्धाणं / ___10 रीति-४ (1) प्रभ-याचकने जोईने क्षुद्र माणस शुं कहे छे ? उत्तर-ण-(न)-नथी। (2) प्रश्न-प्राकृतमां चंद्रना पर्यायवाचक मास् शब्दनुं संबोधनमा रूप थाय ? 15 उत्तर-मो!-(म: ! )-हे चंद्र ! .. . (3) प्रश्न-कामी पुरुषनुं चित्त केवु होय छे ? उत्तर-सि-(सि-कामयुक्त ) कामदेवनो पर्यायवाची अक्षर जे 'इ' ते जेने सह . स-साथे रहेलो छे, तेवु / ... (4) प्रश्न-अंतद्धाणं' आ पदने अणंत एटले 'अंत' पद रहित राखीए तो शुं थाय ? 20 उत्तर-'द्धाणं'-ए पद। रीति-५ (1) प्रश्न-मंगलोमां बीजं मंगल कयुं ? ____उत्तर-'णमो सिद्धाणं' ए पद / ते विजयने पामे छे / , ['चतुःकृत्वो गति' नामक चित्र-जाति संबंधी प्रश्नोत्तरो।] रीति-१ (1) प्रश्न-पापी पुरुषो केवा होय छे ? उत्तर-ण मोआ-(न मोदाः) हर्ष वगरना। (2) प्रश्न-जिनोनी आज्ञाने शुं करवाथी सुखी थवाय छे ? .. उत्तर-आयरिय-(आचर्य)-पालन करीने / * आ श्लोकमां ‘णमो सिद्धाणं' पद विविध प्रश्नोना उत्तरमा पांच रीते प्रकट थाय छे, तेथी तेने ‘पंचकृत्वो गति' पांच प्रकारे प्रकटेलु मनाय छ। ...... . 30 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्हगम्भं पंचपरमिट्टिथवणं / [प्राकृत किं वकालंकिइस्मि ? किमु विहुरवयं ? के करित्ताण विनू ? आयाणं किं अउव्वं विवरिअमिह को किं व पाठेइ पुल्वि / को भावं बेइ ? को वा हणइ ? अहभरा केरिसाणं जणाणं ? झाइजंतं परं किं हणइ दुहभरं ? नीलवणं तिसंझं // 4 // 5 णमो उवज्झायाणं / ' [गतागतं द्विर्गतश्च / ] पालयित्वा मुनिः सुखी भवति / समानदीर्घत्वेऽकारस्य पुनर्ग्रहणम् / मान-मोहाववाद्यनन्तौ आद्यन्ताक्षरवर्जितौ / किंरूपा णमो इति विपुलधनभरो वर्धते / आयऋतानां लाभप्राप्तानां 'रिंपिग् गतौ' इति धातौ आयरित्तानां वा स एवार्थः / विद्यादिभागी भवति नमो नन्ता आचार्याणामिति / स्तन्नाति नीराधुपसर्गान् 'जल-जलणाई सोलसपयत्थं आयरिया' इति वचनात् // 3 // 10 वृत्तिः किं व णं इति वाक्यालङ्कतौ / विधुरजनस्य भयभीतजनस्य वच ओ इति / (3) प्रश्न-मुनि शानुं पालन करे छे ? उत्तर-'आणं-(आज्ञा)-आज्ञानुं, जिनेश्वरोनी आज्ञानु / रीति-२ (1) प्रश्न-'माण-मोह' आ बन्ने शब्दोमां पहलानो पहेलो अक्षर 'मा' अने बीजानो अक्षर 'ह' मा बन्ने छोडी दईए तो शुं रूप थाय ? उत्तर णमो'-ए पद। (2) प्रश्न-विपुल धननो समूह केवाओनो वधे छ ? उत्तर-आयरियाणं-(आयऋतानां-आयरितानां)--आय एटले लाभ, अने ऋत रित-प्राप्त, लाभ पामेलाओनो। (1) प्रश्न-कुशल माणस कोना प्रत्ये केवो थईने विद्या अने विज्ञाननो भागी थाय छे ? उत्तर-णमो आयरियाणं-(नमः x आचार्याणाम् ) आचार्यों प्रत्ये नम्रतावाळो / रीति-४ (1) प्रश्न-कोना स्मरणथी जल-ज्वलनादि नष्ट थाय छे ? उत्तर- णमो आयरियाणं पदना। [ते माटे कयुं छे के–'जल-जलणाइ-सोलस पयत्थं थंभंतु आयरिआ' वाणी, आग वगेरे सोळ पदार्थोर्नु आचार्य भगवंतो स्तंभन करो।]. * ते पवित्र पदनुं हुं ध्यान धरूं छु / 30 ['गतागत' अने 'द्विर्गत' नामक चित्रकाव्य वडे 'णमो उवज्झायाणं' पद प्रकट थाय छे ते संबंधी प्रश्नोत्तरो।] 4 नमतीति नमः-नन्ता-नम्रतावाळो / * आ श्लोकमांथी चार रीते ‘णमो आयरियाणं' पद प्रश्नोना उत्तर वडे प्रकट थाय छे / तेथी तेने - 'चतुःकृत्वो गति' कयुं छे. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] ममस्कार स्वाध्याय / उपाध्यायाज्ञां कृत्वा विज्ञो भवति / आयाणं अपूर्वम्, न विद्यते पूर्वः प्रथमो वर्णो यत्र तदपूर्व यणा (याण)मिति, विपरीतं च तत् ‘णं या' इति भवति / अज्झावओ अध्यापकः, ओमिति पूर्वमादौ छात्रान् पाठयति / अभाववाची न इति मोचनं मोको भावाकोंर्घजिति घञ् , न मोको मुक्तिरित्यर्थः / वज्झायाणं हत्यानां हत्याकारिणां जनानां पापसमूहान् 'मरगयमा उवज्झायाणं' इति पदम् // 4 // रीति-१ (गत) (1) प्रश्न-कयो वर्ण वाक्यालंकार मनाय छे ? उत्तर-'ण'-ए वर्ण। (2) प्रश्न-विधुर एटले भयभीत माणसनो (आकस्मिक ) उच्चार शो ? उत्तर-ओ!। (3) प्रश्न-माणस शुं करवाथी विज्ञ बने छ ? ... उत्तर-'उवज्झायाणं'-( उपाध्यायाज्ञां)-उपाध्याय भगवंतोनी आज्ञानुं पालन करवाथी। रीति-२-(आगत-विपरीत आवg) (1) प्रश्न-पूर्वाक्षरथी रहित 'आयाणं' एटले 'याणं' ने उलटुं करीए तो शुं रूप थाय ? ... उत्तर-णंया'–एवं थाय / (2) प्रश्न-कोण भणावे छे ? उत्तर-अज्ज्ञावउ-(अध्यापकः)-अध्यापक-उपाध्याय / (3) प्रश्न-( अध्यापक) सर्व प्रथम शुं भणावे छे ? उत्तर-7-(ओम् )-ए मंत्र। 15 (4) प्रश्न-अभाव माटे शुं (कयो अक्षर) बोलाय छे ? उत्तर-ण-(न) नकार / [तात्पर्य के 'णं याज्झावउ ओम्ण' आ पदोने ऊलटी रीते बोलावाथी णमो उवज्झायाणं' पद प्रकटे छ।] रीति-३-(द्विर्गत-(अ)) . (1) प्रश्न-हत्या कोण करे छे ? उत्तर–णमोउ-(नमोकः ) *-जेनी मुक्ति नथी ते। 20 (2) प्रश्न-केघा माणसोना पापना समुदायो वधे छे ? उत्तर-वज्झायाणं ( हत्याकानाम् ) + वध करनाराओना / रीति-४ (आ) (1) प्रश्न-कया नीलवर्ण पदनुं त्रणे संध्याओमां ध्यान करवाथी दुःखनो समूह नाश पामे छे ? उत्तर-'णमो उवज्झायाणं' ए पदनुं ध्यान करवाथी / ['मरगयमा उवज्झाया'-नीलवर्णवाला उपाध्यायो, आ वचनथी / ] + * मोचनं मोकः / न मोको मुक्तिर्यस्य स न मोकः-जेनी मुक्ति नथी ते। विज्झा-(स्त्री०) हत्या-वध, घात. (पाइयसद्दमहण्णवो)। + आ श्लोकमां णमो उवज्झायाणं' पदनी 'गत' अने 'आगत' एम बे प्रकारे प्राप्ति थाय छे, तेथी तेने 'गतागत' कयुं छे अने त्रीजी तेमज चोथी रीतिना प्रश्नोत्तरो वडे पण आ ज पद थाय छे ते माटे ते 'द्विर्गत' कहेवाय छ। 25 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 पण्हगभं पंचपरमिट्टिथवणं। [प्राकृत किं सुक्खं ? किं गुणड्ड? किमिह रसयरं ? किं हणतीह वाहा ? धन्नं किं चिंति लोआ ? किमवि पभणए वंजणं ? सीअलं किं / निंदत्थं बेइ जीवं कमह जणगणो कं व देसं ? जिणिंदा / भासते किं पयं ? जं अणवरयमहो झाणजुग्गं मुणीणं // 5 // . . 5 णमो लोए सव्वसाहूणं / ' [अष्टदलकमलम् / ] ___ वृत्तिः किं सुअं न ऋणम् / ऋकारस्याकारे तल्लोपे च सति न ऋणमिति ऋणाभावे सौख्यम् / मुनीनां भावो मौनम् / मुनित्वं श्रामण्यगुणाढ्यं मौनं सर्वार्थसाधनम्' इति वचनात् , मौनिं वच]ना भावो वा लोणं लवणरसः / [ह]रिणं नन्ति व्याधाः / स ए...त्य विशेष......वणं जलं काननं वा सो ण श्वा [ज]ननिन्दार्थ जनो ब्रूते एष श्वेति / कं वा देशं देशविशेषं जनगणो ब्रूते 10 हूणमिति / जिनेन्द्राः कं पदमुपदिशन्ति यदनवरतं निरन्तरं ध्यानयोग्यं मुनीनां 'न(ण)मो लोए सव्वसाहूर्ण' इति // 5 // [विविध प्रश्नोना उत्तर वडे प्रकट थता पदोना आद्य वर्णोथी 'णमो लोए सव्वसाहूणे' पद प्रकटे छे, ते आ रीते-] (1) प्रश्न-सुख शुं छे ? उत्तर-णणं-x (न ऋणं-नर्ण)-करज न होय ते / (2) प्रश्न-गुणथी विशिष्ट शुं छे ? उत्तर-मोणं-(मौनं )-मुनिपणुं मौन-(वचनगुप्ति)। (3) प्रश्न-उत्तम रसवालं शुं छे ? उत्तर-लोणं-(लवणं)-मीठं / (4) प्रश्न–शिकारीओ कोने हणे छे ? उत्तर-एणं-मृगने / (5) प्रश्न-लोको धान्यने शुं कहे छे ? उत्तर-सणं-(शणं )-शण नामनुं धान्य / (6) प्रश्न-व्यंजनने माटे कयो शब्द वपराय छे ? अथवा शीतल शुं छे ? उत्तर-वणंx-( वण्णं)-(वर्णः) व्यंजन अथवा वणं-(वन )-जल के जंगल / (7) प्रश्न-निंदा माटे कया जीवने सरखावे छे ? उत्तर-साणं-(श्वानं )-कूतराने / (8) प्रश्न-जनसमूह कया देश (देशविशेष )ने कहे छे-निंदे छे।। उत्तर-हूणं-(हूणम् )-हूणने / (हूण ए देशविशेषतुं नाम छे)। (9) प्रश्न-मुनिओने सतत ध्यान करवा योग्य कया पदने जिनेश्वरो उपदेशे छे ? उत्तर-णमो लोए सव्वसाहूणं-'ए पदने / 20 xण+अणं-ऋणं / प्राकृत संधिना नियम प्रमाणे अहीं एक 'अ'नो लोप थवाथी ‘णणं' थाय छे / 4 वण आ पदमा एक ज व छे त्यां चित्रकाव्यने लीधे सव्व मा रहेला बे व मांथी एकने छोडी दीधो छे. * श्लोकमा णणं, मोणं, लोणं, एणं, सणं, वणं, साणं, हूणं, आ पदोना पहेला अक्षरोथी पद णमो लोए सव्वसाहूर्ण पद प्रकट थाय छ / Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 395 विभाग नमस्कार स्वाध्याय। एवं जे परमिहिपंचगपयप्पण्हेसु ताई जणा जाणित्ता पइवासरं निअमणे धारंति झायंति अ। तेसिं दुहृतमहकम्मविगमा तेलुक्ककप्पहुमो एसो सो परमिटिमंतपवरो दिजा सुहं सासयं // 6 // [शार्दूलविक्रीडितम् / ] वृत्तिः –एवं जे० सुगम, नवरं परमेष्ठिं () परमेष्ठिपश्चकपदप्रश्नेषु तानि परमेष्ठिपदानि पञ्च / ज्ञावा निजमनसि धारयन्ति च ध्यायन्ति च, तेषामेव श्रीपञ्चपरमेष्ठिमन्त्रः त्रैकोक्यकल्पद्रुमः शाश्वतं सुखं करोत्विति // 6 // इति प्रश्नगर्भ पञ्चपरमेष्ठिस्तवनं भट्टारकप्रभुश्रीजयचन्द्रसूरिविरचितमिति // श्रीः // 20 आ रीते पंच परमेष्ठी मंत्रनां पांच पदोना प्रश्नोमां गूंथायेलां पांचे पदोने जे लोको जाणीने 10 हमेशां पोताना मनमां धारण करे छे अने तेमनुं ध्यान धरे छे तेमनां घणां दुष्ट आठे कर्मो दूर थाय छे / ते आ त्रण लोकमां कल्पवृक्षरूप श्रेष्ठ परमेष्ठी मंत्र शाश्वत सुखने आपो // 6 // [पांच नंबरना श्लोकमां विविध प्रश्नोना उत्तर-पदो वडे जे 'अष्टदलकमलबंध' प्रकट थाय छ [ते माटे जूओ चित्र नं० 6 नी आकृति ] (स्तोत्र-परिचय) . 15 आ स्तोत्रनी एक मात्र प्रति भांडारकर ओरियन्टल रीसर्च ईन्स्टीटयूट-पूनाना संग्रहसेक्शन नं. 13 मांथी एक पानानी प्रति मळी आवी ते ऊपरथी अहीं संपादित करवामां आव्युं छे। खोपज्ञ टीकावाळा आ स्तोत्रनी रचना श्रीजयचंद्रसूरिए करी छे; जे टीकानी अंते आपेली . पुष्पिका उपरथी जणाय छ। - आ श्रीजयचंद्रसूरि श्रीसोमसुंदरसूरिना शिष्य हता। तेओ सं. 1496 मा विद्यमान हता। तेमना हाथे प्रतिष्ठित मूर्तिओ उपरना लेखो सं. 1506 सुधीना मळ्या छ। पोतानी प्रकांड विद्वत्ताथी तेमने 'कृष्णसरस्वती' अगर 'कृष्णवाग्देवता' नुं बिरुद मळ्युं हतुं / तेमणे पोताना शिष्योने काव्यप्रकाश, सन्मतितर्क जेवा दुरूह ग्रंथो भणाव्या हता। तेमना उपदेशथी श्रीमाली पर्वत नामना श्रेष्ठीए एक लाख (श्लोक) प्रमाण ग्रंथो लखाव्या हता। ____ श्रीजयचंदसूरिए रचेला ग्रंथो पैकी (1) प्रत्याख्यानस्थानविवरण, (2) सम्यक्त्वकौमुदी अने (3) प्रतिक्रमणविधि-जाणवामां आव्या छ। - आ छ श्लोकात्मक काव्य उपरथीये तेमनी विद्वत्तानो परिचय मळे छे / तेमणे छ श्लोकमां पंचपरमेष्ठीना प्रश्नोने शृंखलाजातिस्त्रिर्गतः, पंचकृत्वो गतिः, चतुकृत्वो गतिः, गतागतद्विर्गतः, अष्टदलकमल वगेरे चित्रात्मक काव्यथी आ स्तोत्रने गूंध्यु छ / साहित्यना प्रकारमा भात पाडे एवी 30 आ स्तोत्रनी रचना छ / .... आ स्तोत्रने अनुवाद साथे अहीं आपवामां आव्युं छे / तेनां बे चित्रो नं. 5-6 मां आपेला छ। 25 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [22] चउविहज्झाणथुत्तं / [ चतुर्विधध्यानस्तोत्रम् / ] पिण्डत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववजियसरूवं / तत्तं परमिहिमयं गुरुवइष्टुं थुणिस्सामि // 1 // नमः सिद्धंतसमिद्धो चउदलियाहारचकि(क)मज्झठिओ। पणवो परमिट्ठिमओ पणतत्तजुओ सुहं देउ // 2 // चक्के साहिहाणे छक्कोणे मज्झठिओ पयाहिणओ / सत्तसरमहमंतो झाइझंतो दुहं हरउ // 3 // मणिपूरचकि अडदलि मज्झदिसासु च पंचपरमिट्ठी। विदिसासु नाण-दंसण-चारित्त-तवाइं झाएमि // 4 // सोलससरसोलसए महविजा विजदेविकलियदले। चक्के अणाहयक्खे गोयमसामि नमसामि // 5 // अनुवाद / 15 ध्यानतुं स्वरूप चार प्रकारनुं छे-(१) पिंडस्थ, (2) पदस्थ, (3) रूपस्थ अने (4) रूपातीत-ते प्रकारे परमेष्ठीमय वर्णो (अक्षरो) वडे केवी रीते ध्यान थाय ते गुरुए जे प्रमाणे उपदेश्युं छे ते प्रमाणे स्तवीश // 1 // मूलाधारचक्रनां चार पत्रो छे, ते 'नमः सिद्धम्' ना चार अक्षरोथी समृद्ध छे अने कर्णिकामां प्रणव ( ॐकार ) जे पंचपरमेष्ठीना पांच वर्ण (प्रथमाक्षर )थी निष्पन्न छे-तेनुं ध्यान सुख 20 आपनारं थाय छे (जूओ चित्र नं. 7) // 2 // स्वाधिष्ठानचक्र छ खूणानी आकृतिवाळु छ / ते आकृतिनी मध्यथी लईने प्रदक्षिणामां (फरतां क्रमशः) “णमो अरिहंताणं" ए सप्ताक्षरी महामंत्र छे ते प्रकारे ध्यान धरवामां आवे तो ते दुःखने हरनारुं नीवडे छे (जूओ चित्र नं० 8) // 3 // मणिपूरचक्र आठ पत्रवाळु छे / तेनी मध्यमां "श्रीअर्हद्भ्यो नमः" तथा दिशाओमां 25 "श्रीसिद्धेभ्यो नमः” "श्रीसूरिभ्यो (श्रीआचार्येभ्यो) नमः" "श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः" "श्रीसर्वसाधुभ्यो नमः"-ए पंच परमेष्ठी; तेमज विदिशाओमां "श्रीदर्शनाय नमः" "श्रीज्ञानाय नमः" "श्रीचारित्राय नमः" "श्रीतपसे नमः" ए प्रकारे छे तेम हुं ध्यान करुं छं (जूओ चित्र नं० 9) // 4 // अनाहतचक्र सोळ पत्रवाळु छे। तेमां षोडशाक्षरी "अरिहंत - सिद्ध- आयरिय- उवज्झायसाहू" महाविद्या छे, तेमज सोळ स्वरोथी सूचित ( सोळ ) विद्यादेवीओथी युक्त एवां सोळ 30 पत्रो छे, तेनी कर्णिकामा "श्रीगौतमस्वामिने नमः" छे, ते प्रकारने हुं नमस्कार करूं छु (जूओ चित्र नं० 10) // 5 // Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। चउवीसदेव-जिणजणणि-जक्ख-जक्खिणिपवित्तपत्तम्मि। . मुद्धे विसुद्धचक्के झाएमि सयावि जिणसत्तिं // 6 // .. बत्तीसदले ल[ ल ]णाचक्के बत्तीससुरवइसमिद्धा / ह-रहियवंजणसिद्धा सरस्सई मह सुहं देउ // 7 // ह--क्षजुआ पणव-नमंतकलिआ य तिदलचक्कम्मि / आणक्खे एगक्खर महविजा सयलसिद्धिकरी // 8 // अ सि आ उ सा नमंता सोमकलारूवसोमचक्कम्मि / सोमसियवन्नझाणेण झाइआ हुंति सिवहेऊ // 9 // चक्कम्मि बंभबिंदु त्ति नामए बंभनाडिसहभृए / झाणापुरियपणवो भवियाणं कुणउ कल्लाणं // 10 // सिरिहंसनादचक्के हंसं विसुद्धफलिहसंकासं। जो पिक्खइ गलिअमणो तस्स वसे सयलसिद्धिओ // 11 // विशद्धचक्र जे कंठमा छे अने जेनां चोवीश पत्रो छे तेमां चोवीश देव ( तीर्थकरो ), तथा जिनेश्वरोनी चोवीश माताओ, तेमना चोवीश यक्षो अने चोवीश यक्षणीओ तथा कर्णिकामां जिनशक्ति एटले "अहै नमः" छे तेम हुं सदा ध्यान करूं छु ( जूओ चित्र नं० 11) // 6 // 13 .. ललनाचक्र जेनां बत्रीश पत्रो छे, ते बत्रीश इंद्रोथी समृद्ध अने 'ह' रहित एटले 'क' थी 'स' पर्यंत (32) तेमज ते मंत्रथी ( “सरस्वत्यै नमः" थी) सिद्ध थती सरस्वती देवी मने सुख आपो (जूओ चित्र नं० 12) // 7 // आज्ञाचक्रने त्रण पत्रो छे, तेमां 'ह' '' 'क्ष' थी युक्त अने 'ॐ नमः' थी आकलित (ह्रींकाररूपी) एकाक्षरी महाविद्या समग्र सिद्धिने आपनारी छे (जूओ चित्र नं० 13 ) // 8 // 20 सोमचक्र, जे सोमकळा (अर्धचन्द्रनी आकृति) स्वरूप छे, तेमां "अ सि आ उ सा नमः' मंत्रनुं चंद्र जेवा श्वेतवर्णरूपे ध्यान करतां ते शिवना ( एटले मोक्षना) कारणरूप बने छ (जूओ चित्र नं० 14 ) // 9 // ब्रह्मबिंदुचक्र, जे ब्रह्मनाडी (सुषुम्णा नाडी) साथे संयुक्त छे–तेनुं प्रणवथी आपूरित ध्यान भव्य पुरुषोनुं कल्याण करे छे (जूओ चित्र नं० 15) // 10 // श्रीहंसनादचक्रमां हंस (जीव) ने अत्यंत शुद्ध स्फटिक ( मणि ) जेवो,* जे गलित मनवाळो * सरखावो श्रीहेमचन्द्रसूरिरचित 'योगशास्त्र' "अर्हन्तं मूर्धनि ध्यायेत् शुद्धस्फटिकनिर्मलम् // सद्ध्यानावेशतः सोऽहं सोऽहमित्यालपन्मुहुः। निःशङ्कमेकतां विद्यादात्मनः परमात्मनः // " (प्र० 8, श्लो० 14, 15) शुद्ध स्फटिकनी माफक निर्मल एवा परमेष्ठी अरिहंतने मस्तक विशे चिंतववा, पछी ध्यानना आवेशमां 'सोऽहम् सोऽहम्' एम वारंवार बोलता बोलतां परमात्मा साथे पोताना आत्मानी एकता निःशंक चिंतववी। 25 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 चउन्विहज्हाणथुत्तं। [प्राकृत चउव्विहझाणगयं परमिहिमयपहाणतरतत्तं / झायइ अणवरयं सो पावइ परमाणंदं // 12 // इति चतुर्विधध्यानस्तोत्रम् // क्षीणवृत्तिवाळो योगी पुरुष ध्यान करे छे तेवा (योगीने) समप्र सिद्धिओ वशीभूत थाय छे 5 (जूओ चित्र नं० 16) // 11 // ध्यानना चार प्रकार (पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत ) प्रमाणे सालंबन (एटले वर्णात्मक) अने निरालंबन (वधारे सूक्ष्म थतुं आलंबन विनानुं) ध्यान (ध्याता अने ध्यान ए बनेनो अभाव थतां ध्येय साथे ज एकरूप बनी जाय एवं) जे अविरतपणे करे छे ते परम आनंदने प्राप्त करे छे // 12 // .. (स्तोत्र-परिचय) बार गाथातुं आ स्तोत्र स्व० श्रीमोहनलाल भगवानदास झवेरीना संग्रहमांथी, तेमनां विधवा सुधाबहेने आपेलं; जेमां आ स्तोत्र संबंधी चक्रोनी रेखाओ पण दोरेली हती। ए स्तोत्रने अनुवाद साथे संपादन करी ते रेखाचक्रोने चित्रनी रीते व्यवस्थित करी दश चक्रो आपवामां आव्यां छे / कुंडलिनीना विषयमां जैनाचार्योए जे थोडं घणुं खेडाण कयुं छे तेमां आ स्तोत्र भात पाडे 15 एवं छे / जैनेतर साहित्यमां कुंडलिनीना उत्थान माटे षट्चक्रभेद बहु जाणीती परंपरा छे पण आ स्तोत्रमा दश चक्रोनी जैन दृष्टिए माहिती आपी छे / आ माटे जैन साहित्यमा विशिष्ट माहिती होवी जोईए परंतु ते हजी प्राप्त थई नथी / प्राकृतभाषामां रचायेला आ स्तोत्रना कर्ता कोण हशे ते पण जाणी शकायुं नथी। 10 वळी सरखावो 'पातञ्जलयोगदर्शन' "क्षीणवृत्तेरमिजातस्येव मणेर्गृहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदअनतासमापत्तिः // (1.41.) जेम शुद्ध थयेलो स्फटिक मणि ते ते उपाधिना सान्निध्यथी ते ते उपाधिना रूपने पामे छे तेम ध्येयातिरिक्त सकल वृत्ति जेनी निरुद्ध थई गई छे एवं शुद्ध चित्त...सकल आलंबन विशे पूर्ण एकाग्र थवाथी, ते ते आलंबनना प्रकारने पामवारूप तदजनता पामे छे॥ * सरखावो हे. च. 'योगशास्त्र "एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेन्निरालम्बम् / समरसभावं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् // (प्र० 11, श्लो० 5) -आ प्रमाणे मनने उच्चता प्राप्त करवाना क्रमे अभ्यासनी प्रबलताथी निरालंबन ध्यान करे तेथी समरसभाव- परमात्मानी साथे अने अभिन्नपणे लय पामवा रूपने पामी ते पछी परमानंदपणुं अनुभवे // Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [23] सिरिजिणकित्तिसरिरइयं सोववण्णवक्खासमेयं पंच पर मिटि न मुकार महथुत्तं / // ॐ // श्रीजिनाय नमः // जिनं विश्वत्रयीवन्द्यमभिवन्द्य विधीयते।। परमेष्ठिस्तवव्याख्या गणितप्रक्रियान्विता // 1 // तत्रादावभिधेयगर्भा समुचितेष्टदेवतानमस्काररूपमङ्गलप्रतिपादिकां गाथामाह परमिद्विनमुक्कारं थुणामि भत्तीइ तनवपयाणं / पत्थार भंगसंखा नटुंदिट्ठाइकहणेण // 1 // व्याख्या–परमेष्ठिनोहदादयस्तेषां नमस्कारः श्रुतस्कन्धरूपो नवपदाष्टसंपदाऽष्टषठ्यक्षरमयो महामन्त्रविशेषस्तं भक्त्या स्तवीमि / तस्य नमस्कारस्य नवसंख्यानां पदानां प्रस्तारो भैङ्गसंख्यानष्टर्मुद्दिष्टमादिशब्दादनुपूर्व्यादिगुणनमहिमा च एतेषां कथनेन // 1 // शब्दार्थ-हुं परमेष्ठी-नमस्कारने तेना नवपदोना प्रस्तार, भंगसंख्या, नष्ट, उद्दिष्ट वगेरे 15 कहेवा वड़े भक्तिपूर्वक स्तवं छु। - विवेचन-द्वादशांगीना सारस्वरूप पंचनमस्कार के परमेष्ठि-नमस्कारनी स्तवना जैन महर्षिओए अनेक प्रकारे करेली छे / कोईए तेना तत्त्वने आगमस्वरूपनी दृष्टिए प्रकाश्युं छे, कोईए तेने निमित्त, ग्रह, गणित, मंत्र अने तंत्रनी दृष्टिए निहाळी विविध प्रकारे प्रकाश्युं छे, ज्यारे श्रीजिनकीर्तिसूरि महाराजे नमस्कारने गणितनी दृष्टिए निहाळी तेना गूढ रहस्यने प्रकाश्युं छे / 20 स्तोत्रनी आ प्रथम गाथामां विषयतुं निरूपण करतां तेओ जणावे छे के, आ स्तोत्रमा हुँ नवपदोनो प्रस्तार, तेनी भंगसंख्या, नष्ट, उद्दिष्ट अने आदिपदथी आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी अने पश्चानुपूर्वी केवी रीते थाय ते दर्शावीश / अहीं ए स्पष्ट करवु जरूरी छे के, उपर्युक्त विषयनिर्देश प्रमाणे प्रथम विवेचन नवपदोना प्रस्तारनुं क जोईए पण ते विषय घणो लंबाणवाळो होई स्तोत्रकर्ताए तेनुं विवेचन बाकी राख्यु 25 छे अने त्यार पछीना विषयोने क्रमशः समजाव्या छे // 1 // Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 [प्राकृत पंचपरमिट्ठिनमुक्कारमहथुतं। तत्रादौ प्रथमोपन्यस्तमपि बहुवक्तव्यप्रस्तारमुलङ्घय स्वल्पवक्तव्ये भङ्गपरीमाणे करणमाह एगाईण पयाणं गणअंताणं परोप्परं गुणणे / अणुपुव्विपमुहाणं भंगाणं हुंति संखा उ // 2 // एता एव भङ्गसंख्या गाथाभिराह एगस्स एगभंगो दोण्हं दो चेव तिण्ह छन्भंगा। चउवीसं च चउण्हं विसुत्तरसयं च पंचण्हं // 3 // व्याख्या-इह गणः स्वाभिमतः पदसमुदायः / तत एकादीनां पदानां द्विक-त्रिक-चतुष्क-पञ्चकादिगणपर्यन्तानां स्थापितानां परस्परं गुणने ताडने आनुपूर्व्यादिभङ्गानां संख्याः स्युः / तथाहि एकादीनि पदानि नवपर्यन्तानि क्रमेण स्थाप्यन्ते 1 2 3 4 5 6 7 8 9 / अत्र मिथो गुणनं यथा-अत्रा10 द्यस्य एककरूपस्य पदस्य द्वितीयाभावेन मिथो गुणनाभावादेक एव भङ्गः 1 / तथा एकक-द्विकयोर्गुणने जातौ द्वौ, द्विकगणनस्य भङ्गसंख्या 2 / द्वौ त्रिभिर्गुणिती जाताः षडेषा त्रिकगणस्य भङ्गसंख्या 3 / ततः षट् चतुर्भिर्गुणिता जाताश्चतुर्विंशतिरेषा चतुष्कगणस्य भङ्गसंख्यौ 4 / ततश्चतुर्विंशतिः पञ्चभिगुणिता जातं विंशत्युत्तरं शतम् / एषा पञ्चकगणस्य भङ्गसंख्या 5 / विंशत्युत्तरं शतं निर्गुणितं जातानि सप्तशतानि विंशत्युत्तराणि, एषा षट्कगणस्य भङ्गसंख्या 6 / इयं च सप्तभिर्गुणिता जाता पञ्च 15 सहस्राश्चत्वारिंशदधिका एतावती सप्तकगणस्य भङ्गसंख्या 7 / इयं अष्टभिर्गुणिता जाताऽष्टकंगणस्य भङ्गसंख्याश्चत्वरिंशत्सहस्राणि त्रिशतानि विंशत्युत्तरीणि 8 / एते भङ्गा नवभिर्गुणिता जातास्तिस्रो लक्षाः द्वौषष्टिः सहस्राः, अंशीत्युत्तराण्यष्टौ शतानि चैषा नमस्कारनवपदानामानुपूर्व्यनानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वीभङ्गानां संख्याः 9 // 2 // श०–एक वगेरे पदोनी परस्पर गणना अंत सुधी गुणवाथी आनुपूर्वी वगेरे भंगोनी 20 संख्या थाय छे. // 2 // वि०-जेटला पदोना भंग काढवा होय तेटला पदोना समुदायने अहीं गण समजवो / दाखला तरीके-पांच पदोना भंग काढवा होय तो 1, 2, 3, 4 अने 5 नी संख्याने गण समजवो, अने नवपदोना भंग काढवा होय तो 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 अने 9 संख्याने गण समजवो / तात्पर्य के पहेलेथी छेल्ले सुधीना अंकोनुं गुणन करवाथी भंगनी संख्या प्राप्त थाय छे / 25 स्तोत्रकार त्रीजी, चोथी अने पांचमी गाथामां ए रीते प्राप्त थयेली भंगनी संख्या दर्शावे छे // 2 // श-एक गणनी भंगसंख्या एक छे, बेनी भंगसंख्या बे छ, त्रणनी भंगसंख्या छ छे, चारनी भंगसंख्या चोवीश छे अने पांचनी भंगसंख्या एकसो वीस छ / छनी भंगसंख्या सातसो 1 परप्परं गुणणो / 2 संखाओ। 3 राह-३॥४॥५॥ 4 दुण्हं / 5 °स्परगणनेनाऽऽहत आ / 6 आनुपूर्व्यादीनां भ° / 7 °थोगणनं / 8 यथा-एकस्य प / / 9 एक-द्वि / 10 °संख्या 6 / / 11 °संख्या 24 / / 12 °संख्या 120 / / 13 षड्गुणितं A / 14 °संख्या 720 / / 15 °संख्या 5040 / / 16 'त्रास्त्रीणि शतानि / 17 °राणि 40320 / / 18 द्विषष्टिस। 19 अशीत्यधिकान्यष्टौ / 20 संख्या 362880 / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 10 सत्त य सयाणि वीसा छण्हं पणसहस चत्तसत्तण्डं / चालीससहस तिसया विसुतरा हुंति अट्ठण्हं // 4 // लैक्खतिगं बासट्ठीसहस्स अट्ठ य सयाणि तह असिई / नवकारनवपयाणं भंगयेसंखा मुणेयव्वा // 5 // व्याख्या-गाथात्रयं स्पष्टम् // 3,4,5 // एषां भङ्गानां नामान्याह तत्थ पढमाऽणुव्वी चरमा पच्छाणुपुविआ नेया / सेसा उ मज्झिमाओ अणाणुंपुव्वीओं सव्वाओ // 6 // व्याख्या स्पष्टा / अत्र पञ्चपदीमाश्रित्य विंशत्युत्तरशतभङ्गकयन्त्रकं लिख्यते // 6 // स्थापना यथा आनुपूर्वीक्रमकोष्ठकम् / 12345 12453 / 12452 / 23451 / 21345 21354 21453 31452 32451 13245 13254 14253 14252 24351 31245 31254 41253 41352 42351 23145 23154 '24153 34152 34251 32145 32154 42153 42152 43251 12435 12534 - 12543 / 13542 / 23541 21435 21534 21543 31543 32541 14235 15234 15243 15342 25341 41235 51234 51243 51342 52341 24135 25134 25143 35142 35241 42135 52134 / 52134 54142 53241 13425 13524 | 14523 / 14532 14532 / 24531 31425 31524 41523 41532 42531 14325 15324 / 15423 15432 25431 41325 51324 51423 51432 52431 34125 35124 45123 45133 45231 43125 53124 54123 54132 / 54231 23415 / 23514 24513 | 34512 / 34521 32415 32514 42513 43512 43521 24315 25314 25413 35412 35421 42315 52314 52413 53412 53421 34215 35214 45213 45312 45321 43215 / 53214 / 54213 / 54312 | 54321 वीस छे, सातनी भंगसंख्या पांच हजार चालीस छे, आठनी संख्या चालीस हजार त्रणसो वीस छे अने नवकारनां नवपदोनी भंगसंख्या त्रण लाख बासठ हजार आठ सो ऐंसी छे / / 3-5 // 1 सत्तन्हें A1 2 अट्ठन्हें / 3 लक्खुति A / 4 °संख्या उमु००। 5°मा उKAL 6°णुपूज्वी सAN 7 सव्वा उ AT 8 ते यथा A / Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 [प्राकृत पंचपरमिट्टिनमुक्कारमहथुत्तं / अथ प्रस्तारमाह अणुपुब्विभंगहिट्ठा जिहँ ठविअग्गओ उवरि सरिसं / पुचि जिट्ठाइकमा सेसे मुत्तुं समयमेयं // 7 // - व्याख्या-आनुपूर्वीभङ्गस्य पूर्वन्यस्तस्योपलक्षणत्वादनानुपूर्वीभङ्गस्यापि पूर्वन्यस्तस्याधस्ताद् 5 द्वितीयपसावित्यर्थः / ज्येष्ठं सर्वप्रथमं अङ्कम् , स्थापय इति क्रिया सर्वत्र योज्या। तथाऽप्रतः, उपरीतिउपरितनपतिसदृशमङ्कराशिमिति गम्यम् ; स्थापय / तथा पूर्वमिति यत्र ज्येष्ठः स्थापितस्ततः पूर्वभागे वि०-आ संख्या केवी रीते प्राप्त थाय छे ते समजी लईए / नव सुधीनी संख्याना भंग काढवा होय तो प्रथम 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, ९-ए रीते अंक लखवा। तेना गणो नीचे प्रमाणे बनशेगण संख्या गुणनसंख्या 10 एक 1 1= द्विक 12 142= त्रिक 123 14243= चतुष्क 1 2 3 4 1424344 %3 पंचक 1 2 3 4 5. 142434445= 120 15 षट्क 1 2 3 4 5 6 14243444546= 720 सप्तक 1 2 3 4 5 6 7 1424344454647% 5040 अष्टक 1 2 3 4 5 6 7 8 142434445464748= 40320 नवक 1 2 3 4 5 6 7 8 9 14243444546474849% 362880 तेनुं गुणन करतां ऊपर प्रमाणे फळ आवशे; ते दरेक गणनी भंगसंख्या ऊपर आपेली गुणन20 संख्या मुजब जाणवी // 3-5 // श०-आ भंगो पैकी प्रथम भंगसंख्याने 'आनुपूर्वी' छेल्ली भंगसंख्याने 'पश्चानुपूर्वी अने बाकीनी वचली भंगसंख्याओने 'अनानुपूर्वी' जाणवी // 6 // वि०-अहीं गणितनी जे परिभाषा समजावी छे ते नीचेनां दृष्टांतथी बराबर समजाशे। पंचक गणनो प्रस्तार करीए तो 120 भंग नीचे मुजब उपर्युक्त कोष्ठक छे (कोष्ठक मूलमा आप्यु 25 छे ते प्रमाणे अहीं समजी लेईं।)॥ 6 // उपर्युक्त कोष्टकमी प्रथम संख्या 12345 छे तेने 'आनुपूर्वी' कहेवामां आवे छे। छेली संख्या 54321 छे तेने 'पश्चानुपूर्वी' कहेवामां आवे छे अने 21345 थी 45321 सुधीनी वचली 118 संख्याओने 'अनानुपूर्वी' कहेवामां आवे छे। आ संख्याओ केवी रीते बनाववी तेनी प्रक्रिया हवे पछीनी गाथाओमा दर्शावी छ / . श०-आनुपूर्वी भांगानी नीचे आगली पंक्तिमा ज्येष्ठ अंकनी स्थापना करो। आगळ 30 उपर समान अंकनी स्थापना करो अने समयभेद (जेनी व्याख्या आगळ आवशे तेने) छोडीने बाकीना अंकोने क्रमथी पहेला मूको (एटले अनानुपूर्वीनी संख्या तैयार थशे) // 7 // 1 पूर्व न्य। 2 पूर्व न्य° 1 3deg; प्रथमं / Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 403 पश्चाद्भाग इत्यर्थः / ज्येष्ठानुज्येष्ठादिक्रमात् / शेषान् स्थापय अकानिति गम्यम् / वक्ष्यमाणगाथारीत्या सदृशाङ्कस्थापना / समयभेदस्तं मुक्त्वा टालयित्वेत्यर्थः। तत्र पञ्चपदीमाश्रित्योदाहरणं, यथा-१,२,३,४,५। एषा आनुपूर्वी / अत्र एककस्य सर्वज्येष्ठत्वेन तस्यापरज्येष्ठाभावान्न किञ्चित् तदधः स्थाप्यते / ततो द्विकस्यैकको ज्येष्ठः स्यादतः स तदधः स्थाप्यते / अग्रत उपरीति-उपरितनपतिसदृशोऽकराशि 1,2,3,4,5 रूपः स्थाप्यते / शेषोऽत्र द्विकस्ततः स पूर्व स्थाप्यः / जाता "द्वितीया पतिः 2, 1,3,4,5 / अथ / तृतीयपसावाद्यस्य द्विकस्यैकको ज्येष्ठोऽस्ति, परं तस्मिन् स्थाप्यमानेऽप्रत उपरितनाङ्क 1,2,3,4,5 रूपस्थापने सदृशाङ्कस्थापनारूपः समयभेदः स्यात् / ततो द्विको विमुच्यते / एककस्य ज्येष्ठाभावात् तत्त्यागः / तत एककं द्विकं च मुक्त्वा त्रिकस्य ज्येष्ठो द्विकोऽस्ति स तदधः स्थाप्यते / अग्रत उपरिसदृशौ 4,5 रूपावतौ स्थाप्यौ, पूर्व च शेषावेककत्रिकी ज्येष्ठादिक्रमात् स्थाप्यौ / जाता तृतीया पतिः 1,3, 2,4,5 / अथ चतुर्थपतौ एककस्य ज्येष्ठाभावात् तं मुक्त्वा त्रिकस्याधो ज्येष्ठः स्थाप्यते, परं तथा समयभेदः 10 स्यात् ; ततो द्विकं त्यक्त्वा सर्वज्येष्ठ एककः स्थाप्यः। अग्रत उपरितनसदृश 2,3,5 रूपा अङ्काः स्थाप्याः, शेषश्चात्र त्रिकः स पूर्व स्थाप्यः / जाता चतुर्थी पतिः 3,1,2,4,5 / एवमनया प्रक्रियया तावज्ज्ञेयं यावच्चरमपतौ पञ्चक-चतुष्क-त्रिक-द्विकैकाः 5,4,3,2,1 // 7 // अथ प्रस्तारे करणान्तरं विवक्षुः प्रस्तावनागाथामाह एगाईण पयाणं उड्डअहोआययासु पंतीसु।। पत्थारकरणमवरं भणामि परिवअंकेहि // 8 // व्याख्या-इहैकादीनां पदानामूर्ध्वाध आयताः पतयः प्रस्तीर्यन्ते / ततस्तासु पक्षुि प्रस्तारस्य करणमपरं भणामि परिवर्ताकैः / इह यस्यां यस्यां पड्तौ यावद्भिर्यावद्भिवीरैरेकैकं पदं परावर्त्यते तस्यां तस्यां पसौ तदक्कसंख्यायाः परिवर्त इति संज्ञा // 8 // . 16 वि०–श्रीमानतुंगसूरिविरचित 'नवकारसारथवणं' (पंचपरमेष्ठिनमस्कारस्तव) नी20 23 थी 26 मी गाथाना विवेचनमां आ वस्तु विस्तारथी समजावेली छे, तेथी अहीं तेनुं पुनः विवेचन करता नथी // 7 // श०–एक, बे, त्रण वगेरे पदोनी उपर अने नीचे लांबी पंक्तिओमां परिवर्ताकद्वारा हुं प्रस्तारनी बीजी विधिने कहुं हुं // 8 // वि०-भंगसंख्यानो प्रस्तार बीजी रीते पण थाय छे, ते आ प्रमाणे-१, 2, 3 वगेरे 25 अंकोनी उपर अने नीचे लांबी पंक्तिओ खेंचवी अने तेनी नीचे परिवर्ताक मूकवा आ परिवर्ताक केवी रीते मूकवा ते नवमी गाथामां दर्शावे छे // 8 // / 5 द्विकं च द्विकोऽस्ति AJI 1 एककस 2 °सदृशांक | 3 द्वितीयपतिः / 4 को मु 6 °वेकत्रिको A| 7 यस्यां पढौ / 8 यावदभिर्वाररें / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 पंचपरमिट्टिनमुक्कारमहथुत्तं। [प्राकृत तत्र पूर्वपरिवर्ताङ्कनयने करणमाह___ अंतकेण विभत्तं गणगणियं लेटु अंकसेसेहिं / भइअव्वो परिवंट्टो नेया नवमाइपंतीसु // 9 // व्याख्या-गणस्य गच्छस्य प्रस्तावादत्र नवकरूपस्य गणितं विकल्पभङ्गसंख्या 362880 5 रूपं तदन्त्याङ्केनात्र नवकरूपेण भक्त लब्धाङ्कः 40320 ततो नवमपकावयं परिवर्तो ज्ञेयः / कोऽर्थः ? अस्यां पडावेतावद् एतावतो वारान् नवमाष्टम-सप्तमादीनि पदान्यऽधोऽधो न्यस्यानि, तथा लब्धोऽङ्कः 40320 रूपः, शेषैरष्टभिर्भज्यते / लब्धं 50 / 40 / अयमष्टमपसौ परिवर्तः / अस्य च शेषैः / सप्तभिर्भागे लब्धं 720 / सप्तमपटावयं परिवर्तः / अस्य च प्राग्वत् शेषैः षभिः भागे लब्धं 120, षष्ठपतौ परिवर्तोऽयम् / तस्य च पञ्चभिर्भागे लब्धं 24 / पञ्चमपतौ परिवर्तः / अस्य चतुर्भिर्भागे 10 लब्धं 6 / चतुर्थपको परिवर्तः / अस्य तु त्रिभिर्भागे लब्धं 2 / तृतीयपतौ परिवर्तः / अस्य द्वाभ्यां भागलब्धः 1 / द्वितीयपतौ परिवर्तः / तस्याप्येकेन भागे लब्ध एकः प्रथमपतौ परिवर्तः // 9 // अथ एतानेव परिवर्तान् प्रकारान्तरेणानयति पुव्वगणभंगसंखा अहवा उत्तरगणम्मि परिवट्टो / नियनियसंखा नियनियगणअंतकेण भत्ता वा // 10 // 15 व्याख्या-अथवाशब्दः प्रकारान्तरे। पूर्वगणस्य या भङ्गसंख्या एकस्य एकभंग इत्यादिका सैवोत्तरगणे, परिवर्तस्तु तुल्य इत्यर्थः। तथाहि-एककरूपस्य पूर्वगणस्य या भङ्गसंख्या एकरूपा सैवोत्तर श०-गणना गणितने छेल्ला अंके भागवाथी जे संख्या भागमां आवे तेने बाकीना अंकोनो क्रमशः भाग देवो जोईए / आ रीते जे भाग आवे तेने नवम आदि पंक्तिओना परिवर्ताक जाणवा // 9 // 20 वि०-नवक (नव अंकना गण )नी भंगसंख्या 362880 छे, ते पहेलां कहेवाई गयुं छे / आ भंगसंख्यानो प्रस्तार करीए तो तेमां छेल्लो अंक 9 आवे छे / तेनाथी भंगसंख्यानो एटले 362880 ने भागीए तो भागमा 40320 आवे / आ तेना परिवर्ताक जाणवा। तात्पर्य के, नवकना प्रस्तारमा नवनो आंक छेल्ला कोठामा 40320 वार आवे / आ ज रीते अष्टकना परिवर्ताक काढवा होय तो 40320 ने 8 थी भागवा जोईए। तेम करता 5040 नी संख्या आवे छे ते तेनो 25 परिवर्ताक छे। आरीते क्रमशः भाग दईए तो दरेक गणमा परिवर्तकनी संख्या नीचे मुजब थाय॥९॥ | 1 | 1 | 2 | 5 | 24 | 120 720 5040/40320 श०-अथवा पूर्वगणनी जे भंगसंख्या छे, ते उत्तरगणमा परिवर्त तरीके जाणवी / अथवा पोतपोतानी भंगसंख्यामां गणना छेल्ला अंकनो भाग देवाथी परिवर्त संख्या प्राप्त थाय छे॥१०॥ 1 लद्ध अंकसमेहि A1 2 अंकुसेए / 3 अव्वा प० / / 4 °वट्टा ने° v / 5 °३न न°A 16 लब्धः 40 AI 7 °वत एता। 8 न्यासमीयति, ततो स°। 9 °एगस्स एगभंगो / 10 नेव्यद्यतयं प°४ पंचकनी भंगसंख्यानो प्रस्तार करतां छेल्लो अंक 5 आवे छे, तेम नवकनी भंगसंख्यानो प्रस्तार करतां छेलो अंक 9 आवे छ। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 405 गणे द्विकरूपे परिवर्तः / तथा द्विकगणस्य भङ्गसंख्या द्वयरूपा उत्तरगणे त्रिकरूपे परिवर्तोऽपि द्वयरूपः / तथा त्रिकंगणे भङ्गाः षट्, ततश्चतुर्थगणे परिवर्तोऽपि षट्करूपेण / तथा चतुर्थगणे भङ्गाः 24 / पञ्चमगणे परिवर्तोऽपि 24 / एवमग्रतोऽपि ज्ञेयम् // __अथोत्तरार्द्धन परिवर्तानयने तृतीयप्रकारमाह-नियनिय' इति / अथवा निजनिजगणस्य भङ्गसंख्या निजनिजेन गणस्यान्त्याङ्केन भक्ता परिवर्तः स्यात् / तथाहि-एककगणस्य संख्या एकरूपा सान्त्याङ्केनात्रैक- / रूपेण भक्ता लब्ध एकः; अयमाद्यपत्रौ परिवर्तः / तथा द्विकगणे भङ्गसंख्या द्वयरूपा सा द्विकगणस्यान्त्याङ्केन द्विकरूपेण भक्ता, लब्ध एकः, ततोऽत्र परिवर्ताङ्क एक एव / तथा त्रिकगणे भङ्गसंख्या षट्स्वरूपा सा त्रिकगणस्थान्त्येनाङ्केन त्रिकरूपेण भक्ता लब्धौ द्वौ त्रिकगणे परिवर्तः / तथा चतुष्कगणे संख्या 24 रूपौ तस्यान्त्याङ्कन चतुष्करूपेण भक्ता लब्धाः षट् / अत्रायं परिवर्तः एवमग्रतो ज्ञेयम् // 10 // अथैतानेव परिवर्तान्" आनुपूर्व्याऽनानुपूर्व्या गाथाबन्धेनाह इंग-इर्ग-दु-र्छ-चठेवीसं विसुत्तरसँयं च सत्तसयवीसा / पणसहसा चालीसा चत्तसहस्सा तिसयवीसो // 11 // व्याख्या-स्पष्टा / इयं परिवर्तस्थापना // 11 // वि० अथवा शब्दथी अहीं परिवर्तांक काढवानी बीजी बे रीतो सूचवी छे, ते आ प्रमाणे (1) पूर्वगणनी जे भंगसंख्या होय तेने उत्तरगणनी परिवर्तसंख्या जाणवी / पांचमी गाथाना विवेचनमा गणनी भंगसंख्या नीचे प्रमाणे जणावेली छेगण भंगसंख्या गण भंगसंख्या षट्क सप्तक 5040 त्रिक अष्टक . 40320 चतुष्क 24 नवक 362880 पंचक 120 अहीं एक ए पूर्वगण छे ने द्विक ए उत्तरगण छे तो द्विकनी परिवर्त संख्या 1 जाणवी / द्विक ए पूर्वगण छे अने त्रिक ए उत्तरगण छे तो त्रिकनी परिवर्त संख्या 2 जाणवी / त्रिक ए पूर्वगण 25 छे ने चतुष्क ए उत्तरगण छे तो चतुष्कनी परिवर्त संख्या 6 जाणवी / आ प्रमाणे अष्टक ए पूर्वगण छे अने नवक ए उत्तरगण छे तो नवकनी परिवर्त संख्या 40320 जाणवी। (2) पोतपोतानी भंगसंख्यामां गणना छेल्ला अंकनो भाग देवाथी परिवर्त संख्या प्राप्त थाय छे। गण अने भंगसंख्या उपर जणावेली छे, तेने आ नियम लागु करतां नीचे प्रमाणे परिवाकनी संख्या प्राप्त थाय छे: .30 . 1°रूपपरि / 2 °गणभङ्गाः। 3'ततः' नास्ति ।आदर्शे। 4 रूपः।। 5 चतुष्कगणे। - 6 गणस्याङ्केन A17 °त्रैकरू° A 1 8 एक आद्य 19 °न भक्ता / 10 °स्यान्त्यङ्केन A| 11 °रूपा सान्त्या AI 12 °त्तान् पूर्वानुपूर्व्या A / 15 एक द्विक 20 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 पंचपरमिट्टिनमुक्कारमहथुत्तं। [प्राकृत अथ परिवतैः प्रस्तुतां प्रस्तारयुक्तिं गाथाद्वयेनाह परिवर्ल्डकपमाणा अहो अहो अंतिमाइपंतीसु / अंतिमपभिईअंका ठविज वजिय समयमेयं // 12 // जा सयलभंगसंखा नवरं पंतिसु दोसु पढमासु / कम्म अकम्मओं दुन्ह वि सेसे अंके ठविजासु // 13 // व्याख्या—स्वस्वपरिवर्ताङ्कप्रमाणास्तत्संख्यातुल्यवारान् पश्चानुपा अन्त्यादिषु पतिष्वन्त्यप्रभृतीनकानधोऽधः स्थापयेत् / समयभेदं वर्जयित्वा सकलभङ्गसंख्यापूतिं यावत् / नवरं प्रथमपतिद्वये प्रथमद्वितीयपक्लयोरित्यर्थः। शेषमकद्वये क्रमोत्क्रमाभ्यां स्थाप्यम् / पञ्चपदान्याश्रित्य भावना यथा-अत्रान्त्या पतिः पञ्चमी, तस्यां च चतुर्विंशतिरूपः परिवर्ताङ्कस्ततश्चतुर्विंशतिवारानन्त्योऽङ्कः पञ्चकरूपः स्थाप्यः। 10 ततश्चतुष्क-त्रिक-द्विकैककाक्रमेण चतुर्विशति-चतुर्विंशतिवारानधोऽधः स्थाप्याः / यावज्जाता सकलभङ्गसंख्या विंशत्युत्तरशतरूपा संपूर्णा / ततश्चतुर्थपतौ षट्करूपपरिवर्ताङ्कः / समयभेदकारिणमन्त्यमपि पञ्चकं मुक्त्वा / चतुष्क-त्रिक-द्विकैककाः षट्षड्वारान् स्थाप्याः / ततः षड्वारान् पञ्चकः स्थाप्यः / ततः समयभेदकरं चतुष्कं गण भंगसंख्या गणनो छेल्लो अंक परिवर्ताक एक 1 + द्विक 2 त्रिक = 2 चतुष्क पंचक 120 5 = 24 . षट्रक 720 / 120 सप्तक 5040 : 720 40320 / 5040 नवक 362880 - 40320 अगियारमी गाथामां आ परिवर्ताकनी संख्या स्पष्टपणे जणावेली छे // 10 // श-एक, एक, बे, छ, चोवीस, एकसो वीस, सातसो वीस, पांच हजार चालीस, 25 तथा चालीस हजार त्रणसो वीस (ए अनुक्रमे गणनी परिवर्तसंख्या छ।) बारमी अने तेरमी गाथामां भंगसंख्यानो प्रस्तार करवानी विधि दर्शावी छे // 11 // श-पोतपोताना परिवर्ताक प्रमाणे अर्थात् जेटली तेमनी संख्या छे, तेटलीवार पश्चानुपूर्वी वडे प्रथमपंक्तिमा छेल्लेथी लईने अंकोने नीचे नीचे मूकवा, परंतु तेमां समयभेदने छोडी देवो। (अर्थात् एक सरखा बे अंको पासे पासे न मूकवा।)॥ 12 // + - - m 2 - w g अष्टक 1 °पूर्वीत्यादिषु / / 2 नास्ति 'चतुर्विशति' पदं A प्रतौ। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 407 नमस्कार स्वाध्याय / [ इयं परिवर्तस्थापना ] | 1 | 1 | 2 | 6 24 | 120 / 720 5040 40320 मुक्त्वा पञ्चक-त्रिक-द्विकैकाः षट्पटसंख्यान् वारान् स्थाप्याः। ततः समयभेदकरं त्रिकं मुक्त्वा पञ्चक-चतुष्कद्विकैकाः षट्पट्संख्या स्थाप्याः / ततः समयभेदकरं द्विकं मुक्त्वा पञ्चक-चतुष्क-त्रिकैककाः षट्पसंख्याः / स्थाप्याः / ततः समय-भेदकरमेककं त्यक्त्वा पञ्चक-चतुष्क-त्रिक-द्विकाः तावतस्तावतो वारान् स्थाप्याः। जाता चतुर्थी पतिः संपूर्णा / अथ तृतीयपङ्कौ द्विकरूपपरिवर्ताकः ततः पञ्चकं चतुष्कं च समयभेदकर मुक्त्वा त्रिक-द्विकैकका द्विर्द्विः स्थाप्याः। ततः पञ्चकं त्रिकं च मुक्त्वा चतुष्क-द्विकैकका द्विर्द्विः स्थाप्याः / ततश्चतुष्क-त्रिकैककास्ततश्चतुष्क-त्रिक-द्विकास्ततः पञ्चक-द्विक-द्विकाः, एवमन्त्यादयोऽङ्काः समयभेदकरानकान् मुक्त्वा द्विर्द्विः 10 स्थाप्याः। तावद् यावत् संपूर्णा तृतीया पतिः स्यात् / आदिपतिद्वये च शेषावतौ पूर्वभङ्गे क्रमात् द्वितीयभङ्गे तूत्क्रात् स्थाप्यौ / यावद् द्वे अपि पती संपूर्ण स्याताम् // 13 // समयमेदस्वरूपमाह जम्मि य निक्खित्ते खलु सो चेव हविज अंकविनासो। सो होइ समयभेओ वजेयव्वो पयत्तेण // 14 // व्याख्या-स्पष्टा // 14 // 15 श-उपरना अंकोने त्यां सुधी मूकवा के ज्यां सुधी बधा भंगोनी संख्या पूरी थई जाय / अहीं विशेषता एटली समजवी के प्रथम बे पंक्तिओमां बाकीना बे अंकोने क्रम अने उत्क्रमथी मूकवा // 13 // वि०–अहीं भंगनो प्रस्तार करवानी जे विधि दर्शावी छे ते बराबर समजी लईए। दाखला तरीके पांच पदना भंगनो प्रस्तार करवो छे तो पंचकनी परिवतांक संख्या लेवी। 20 ऊपर जणाव्या मुजब पंचकनी परिवर्ताक संख्या 24 छे, तो पश्चानुपूर्वी क्रमथी एटले 5, 4, 3, 2, अने 1 ना अंकोने छेल्ला अंक तरीके चोवीस चोवीस वार लखवा ते आ प्रमाणे जूओ पृ० 408 परनां कोष्ठको। श-जे अंकने मूकवाथी ते ज अंक-रचना एटले बने सरखा अंको पासे पासे आवी जाय तेने समयभेद समजबो. ते अहीं प्रयत्न-पूर्वक छोडी देवो. // 14 // 25 1 'पञ्चक' पदं निर्गलितं A प्रतौ। 2 'संख्या' इति पदं A प्रतौ भ्रष्टम् / 3 °चतुष्कास्तावत् त्रिकद्विकास्तावतो / 4 'समयभेदकर पदं न विद्यते A प्रतौ। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 [प्राकृत हवे४ नो परिवर्ताक छ छे तेथी बीजा अंकनी स्थापना पश्चानपूर्वी क्रमथी 6 वार करवी। ते नीचे प्रमाणेः ' पंचपरमिट्ठिनमुक्कारमहथुत्तं। اف 1 .. / -- ال / जन्न्न्न्न् / / اسد الله لا اله ال / / / ل / / ليه اس / 9.95.0044444 ल ल ल ल ल ल लललललललललल लल जन्न्न ام اس / 00000 WWWWWWookGGCCCC 5555555553333333331 / --- 1555555""."ommmmmmmm GP -&&&&COMMMMMMMMM ललल / اس ام اس / न् / اس - / - / ام اس - س / ام - س / اس - / س اس س / - س / ام اس - / سه اس - | / / / / اس اس / / / ال / 352/-- / / اس / ف / / / ق / / / / / / لسی / / / / / / |- - - 13|- - - 12 त्यार पछी फल्गुनो परिवर्ताक बेहे, तेथी त्रीजा अंकनी | बाकीना बे अंकोने क्रम अने उत्क्रमथी स्थापवा। एम करतां स्थापना पश्चानुपूर्वी क्रमथी वे वार करवी। ते आ प्रमाणेः| पांच पदना भंगनो पूर्ण प्रस्तार थाय छे, ते आ प्रमाणे: 1-345/--354-- 453-452--451| 112345/12354/12453/13452/23451| 2--345/--354-- 453/-.452/-.451|| 2/21345/21354/21453/3145232451 3/-- 245 -- 254-- 52--351|| | 3/132451325414253/14352/24351 245 -- 254 351|| 431245/3125441253/41352/42351 145 -- 154/--1 52--251|| 5/23 145/23 154/24 153/34 152/34 251 145-- 154- - 153 6.32 145/32 1344215343 152/43 251 435 -- 534-- 543|-- 542/--541 12435/1253412543/13542/23541 435/- - 534--54 542 --541 [821435/2153421543/31542/325416 235/-- 234.-243/--342-- | 9/14 235/15234/152431534225341| 235 --234--243- -342/--341 1041235/5123451243/5134252341 135 -- 134- - 143|-- 142/--241 1124 135/2513425143/35142/35241 12/42 135/5213452 143/53 142/53.241 523/--532/--531 13/13425/13524/14523/14532/24 531 3/--532-531 |31425/3152441523/41532/42531 23/- - 432-431 15/1432515324/15423/15432/25431 325 -- 324 3/--432/--431 4132551324/5142351432/52 431 |-- 124 3/--132/--231 34 125/35124|4512345132/45231 125 -- 124 --132 |43 125/53 124/54 123/54 132/54 231 1-- 415-- 514--513 --512/--521 19/23415/2351424513 34512/34521 20-- 415 -- 514- -513 - - 512 -521 32415/3251442513/4351243521) -42121|| 24315/253125413/3541235421 22-- 315/--314-- 413 -42122| |4231552314/52 413/53 412/53 421 |23|-- 215/-- 214|--213|--312/--3213/34215/352144521345312/45321| 24|--215/-. 214--213/-.312--321443215/53214/54213/5431254321 * अहीं बीजा अंकमांनी स्थापना करतां समयभेद थाय छे,माटे 3 नी स्थापना करी छे, ए रीते सर्वत्र समजी लेवु / / / 3.--142 ه / / م / که / / / / -231 / 20 / س - --4121 / / |- - 412 / / Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] अथ नष्टानयने करणमाह नहूँको भाइजइ परिवहिं इहन्तिमाईहिं / लद्धा अंताइगया तयग्गिमं जाण नटुं तु // 15 // इगसेसे सेसंका ठाविज कमेण सुन्नसेसम्मि / लद्धं कुरु इगहीणं उक्कमओ ठवसु सेसंके // 16 // व्याख्या-नष्टाङ्को नष्टरूपस्य संख्याङ्कः सोऽन्त्यादिभिः परिवर्ताकैर्भज्यते यल्लभ्यते तदङ्कसंख्या अन्त्यादयो अङ्का गता ज्ञेयाः। कोऽर्थः नष्टरूपतः ? पूर्व तावत् संख्या अन्त्यादयस्तस्याः पतौ परिवर्ताकसंख्यावारान् स्थित्वा तत उत्थिता इत्यर्थः / ततस्तेभ्यः पश्चानुपूर्व्या यदप्रेतनमकरूपं तन्नष्टं ज्ञेयम् / कोऽर्थस्तन्नष्टकथने ? तत्र तत्र पड्तौ लेख्यमित्यर्थः / एवं क्रियमाणे यद्येकः शेषः स्यात् तदा शेषरूपाणि लिखितरूपादवशिष्टानि क्रमेण स्थाप्यानि, प्रथमादिपतिष क्रमेण लेख्यानीत्यर्थः / तथा यदि शून्यं शेषं 10 स्यात् तदा लब्धाङ्क एकेन हीनः कार्यः / तत एकहीनलब्धाङ्कसंख्या अन्त्यादयोऽङ्कास्तस्यां पड्तौ गता ज्ञेयाः। पूर्वस्थापिताः संप्रत्युत्थिता इत्यर्थः। तेभ्यः पश्चानुपूयोऽग्रेतनं नष्टं रूपं ज्ञेयम् / इति प्राग्वल्लिखितनष्टरूपेभ्यः शेषा अङ्काः प्रथमादिपतिषूक्रमेण लेख्याः / अत्र पञ्चपदीमाश्रित्योदाहरणं यथा-त्रिंशत्तमं रूपं नष्टं तत् कीदृशमिति केनापि पृष्टम् / ततोऽत्र त्रिंशदन्त्यपरिवर्तेन चतुर्विंशतिरूपेण भज्यते / लब्ध एकः, शेषाः षट् / ततो पञ्चमपतौ पञ्चकरूपं गतम् / 15 कोऽर्थः ? चतुर्विंशतिवारान् स्थित्वा संप्रति पतित उत्थितमित्यर्थः / तस्माच्च पश्चानुपूर्व्याऽग्रेतनं चतुष्करूपं नष्टं ज्ञेयम् / संप्रति वर्तत इत्यर्थः / अतश्चतुष्को नष्टस्थाने पञ्चमपतौ स्थाप्यः / तथा शेषस्य षट्कस्य चतुर्थपतिसत्केन षट्करूपपरिवर्तेन भागे लब्ध एकः, शेषस्थाने शून्यम् / ततो लब्धमेकहीनं क्रियते / . जातं लब्धस्थानेषु शून्यं ततश्चतुर्थपत्रावद्याप्येकमपि रूपं गतं नास्ति / ततोऽन्त्यमेव पदं पञ्चकरूपं नष्टं ज्ञेयम् / शेषा अङ्का एक-द्विक-त्रिका उत्क्रमेण स्थाप्याः / यथा-३,२,१,५,४ / इदं त्रिशत्तमं रूपं ज्ञेयम् / 20 वि०-पंदरमी अने सोलमी गाथामां नष्टांक काढवानी विधि दर्शावी छ / नष्टांक एटले नहि कहेवायेला अंको तेने शोधी काढवानी रीति ते नष्टांकनी विधि // 14 // श०-नष्टांक अर्थात् नष्टरूपनो जे संख्यांक छे, तेमां अंत्यादि (अंत्यथी शरू करेला) परिवर्तीकोनो भाग देवामां आवे छे, तेथी जे भागफळ आवे छे, तेनी अंकसंख्या प्रमाणे अंत्यादि अंकोने गत (गयेला ) अने तेनी आगळना अंकने नष्ट जाणवो // 15 // श-एक शेष रहेतां बाकीना अंकोने (प्रथम वगेरे पंक्तिओमां) क्रमथी मूकवा अने शून्य शेष रहे तो ते भागफलमांथी अंक घटाडी नाखवो, अने बाकीना अंकोने क्रमभेदथी मूकवा // 16 // 25 1 नष्टस्य रू. J / 2 तस्यां प° A / 3 पतिषु / तथा / Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमिडिनमुकारमहथुत्त। प्राकृत अथ द्वितीयमुदाहरणं यथा-चतुर्विंशतितमं रूपं नष्टं तत् कीदृशमिति पृष्टे चतुर्विशतेरन्त्यपरिवर्तेन 24 रूपेण भागे लद्ध एकः, शेषं शून्यम् / ततः पूर्वोक्तयुक्त्या शून्यशेषत्वाल्लब्धमेकहीनं क्रियते / जातं लब्धस्थानेऽपि शून्यम् / ततः पञ्चमपतावद्याप्येकमपि रूपं गतं नास्ति / ततोऽन्त्य एव पञ्चकरूपोऽङ्कः स्थाप्यः / शेषा अङ्का एक-द्विक-त्रिक-चतुष्का उत्क्रमात् स्थाप्याः। यथा-४,३,२,१,५ / इदं 6 चतुर्विंशतितमं रूपम् / तृतीयमुदाहरणं यथा-सप्तनवतितमं रूपं नष्टं, ततः सप्तनवतेरन्त्यपरिवर्तन 24 रूपेण भागे लब्धाश्चत्वारः, शेष एकः / अतः पञ्चमपटावन्त्यादयश्चत्वारोऽङ्का गता ज्ञेयास्तेभ्योऽप्रेतन एकको नष्टस्थाने लेख्यः, एकशेषत्वाच्छेषा अङ्काः क्रमाल्लेख्याः, यथा-२,३,४,५,१ / इदं सप्तनवतितमं रूपम् / ___अथ चतुर्थमुदाहरणं यथा-पञ्चाशत्तमं रूपं नष्टम् / ततः पञ्चाशतोऽन्त्यपरिवर्तेन 24 रूपेण 10 भागे लब्धौ द्वौ / ततोऽन्त्यपतावन्त्यादारभ्य द्वावको गतौ / तदप्रेतनस्त्रिको नष्टस्थाने लेख्यः / तथा / शेषस्य द्विकस्य चतुर्थपतिपरिवर्तेन षट्करूपेण भागे किमपि न लभ्यते / ततोऽत्र चतुर्थपतौ एकमपि. रूपं गतं नास्ति / अतोऽन्त्यपञ्चक एव नष्टस्थाने लेख्यः / ततस्तृतीयपतौ शेषस्य द्विकस्य परिवर्तन द्वयरूपेण भागे लब्ध एकः, शेषं शून्यम् / ततो लब्धमेकहीनं क्रियते / जातं लब्धस्थानेऽपि शून्यम् , अतस्तृतीयपंड्तौ वेकमपि रूपं गतं नास्ति / ततः पञ्चकस्य चतुर्थपतौ स्थापितत्वेन पुनः स्थापने समय15 भेदः स्यादिति तं मुक्त्वाऽन्त्योऽङ्कश्चतुष्क एव स्थाप्यः / शेषौ ३३रूपावुत्क्रमेण स्थाप्यौ / यथा-२,१, 4,5,3 / इदं पञ्चाशत्तमं रूपम् / वि०-नष्टांक काढवानी रीति थोडा उदाहरणोथी वधारे स्पष्ट समजाशे। दाखला तरीके-पंचपदना प्रस्तारखें त्रीशमुं रूप शोधी काढq होय तो अंय परिवर्तक एटले चोवीशथी तेने भाग देवो जोईए, ते आ प्रमाणे :-30:24=1, शेष 6 / / 20 अहीं भागफळ 1 आव्युं एटले छेल्लो अंक गयेलो छ, तात्पर्य के 6 नो अंक गयो छे अने 4 नो अंक नष्ट छे; एटले त्रीशमी संख्यानो छेल्लो अंक 4 छे / अहीं 6 शेष रह्या छे, अने आगळनो परिवर्ताक 6 छे, तेथी 6 थी भागवा जोईए :-6+6=1 / तेम करतां शेष शून्य आवे छे एटले भागफळमाथी 1 घटाडवो जोईए :-1-10 / आ रीते भागफळमां पण शून्य आवे छे, एटले अहीं एके अंक गत नथी, एटले अंत्य अंक 25 5 मूकवो जोईए / आ प्रमाणे छेल्ला बे अंको 5 अने 4 प्राप्त थया / हवे शेषमां पण शून्य रहे छे, तेथी आगळना अंको उत्क्रमथी मूकवा जोईए / ते आ प्रमाणे :-321 / एम करतां त्रीशमी संख्यामां नीचेना अंको प्राप्त थाय छे:-३ 2 1 54 / (2) हवे पंचपदना प्रस्तारनुं चोवीशमुं रूप शोधी काढq होय तो अंत्य परिवर्ताक एटले चोवीशथी तेने भाग देवो जोईए, ते आ प्रमाणे :-24:24=1 / तेम करतां शेष शून्य रहे छे, एटले भागफळमाथी 1 घटाडवो जोईए :-1-10 / 1 'अपि नास्ति / प्रतौ। 2 शेषाङ्काः। 3 पतावपि / . Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 411 पञ्चममुदाहरणं यथा-पञ्चषष्टितमं रूपं नष्टम् / ततः पञ्चषष्टेरन्त्यपरिवर्तन भागे लब्धौ द्वौ / ततः पञ्चक-चतुष्करूपौ। अत्र द्वौ अङ्कौ गतौ / ताभ्यामवेतनस्त्रिको नष्टस्थाने लेख्यः / शेषाणां सप्तदशानां चतुर्थपतिपरिवर्तेन भागे लब्धौ द्वौ / पञ्चक-चतुष्करूपौ द्वौ अङ्कौ गतौ / तदनेतनस्त्रिकश्चेत स्थाप्यते तदा समयभेदः स्यादिति तं मुक्त्वा द्विकः स्थाप्यः / शेषाणां पञ्चानां तृतीयपतिपरिवर्तन भागे लब्धौ द्वौ, शेष एकः / अत्रापि पञ्चक-चतुष्को द्वौवकौ गतौ तदनेतनयोस्त्रिक-द्विकयोः स्थापने समयभेद / इति तौ त्यक्त्वा एककः स्थाप्यः / एकशेषत्वाच्छेषौ द्वावको क्रमेण स्थाप्यौ / यथा 4,5,1,2,3 / इदं पञ्चषष्टितम रूपम् / तथा षष्ठमुदाहरणम्-सप्तमं रूपं नष्टम् / तत्र सप्तानामन्त्यपरावर्तेन चतुर्विंशत्या भागो नाऽऽप्यते / ततोऽत्रैकमपि रूपं गतं नास्तीति पञ्चक एव स्थाप्यः / अथ सप्तानां चतुर्थपङ्क्तिपरिवर्तेन षट्करूपेण भागे लब्ध एकः, शेषश्चैकः / तत एकोऽन्त्योऽङ्कोऽत्र गतः 'नछुट्टिविहाणे' इत्यादि-वक्ष्यमाण[१७]गाथया 10 वर्जितत्वात् / पञ्चमपतिस्थितः पञ्चको गतमध्ये न गण्यते / ततोऽन्त्योऽङ्कोऽत्र चतुष्करूप एव गतः / तदनेतनस्त्रिकश्च नष्टस्थाने लेख्यः। एकशेषत्वाच्छेषा अङ्काः क्रमेण लेख्याः / यथा-१,२,३,४,५ / .. अथ सप्तममुदाहरणं या-एकचत्वारिंशत्तमं रूपं नष्टम् / एकचत्वारिंशतोऽन्त्यपरिवर्तन भागे लब्ध एकः / ततः एकोऽन्त्योऽङ्कः पञ्चको गतः तदनेतनचतुष्को नष्टस्थाने लेख्यः / ततश्चतुर्थपङ्क्तिपरिवर्तेन 6 रूपेण शेषसप्तदशानां भागे लब्धौ द्वौ / 'नट्ठद्दिट्ट” इत्यादिगाथया वर्जितत्वाच्चतुष्कं टालयित्वा शेषावन्त्या-15 आ रीते भागफळमां पण शून्य आवे छे, एटले अहीं एके अंक गत नथी, तेथी अंत्य अंक 5 नष्ट छ, अर्थात् चोवीशमी संख्यानो छेल्लो अंक 6 छे / हवे शेषमां पण शून्य रहे छे, तेथी आगळना अंको उत्क्रमथी मकवा जोईए. ते आ प्रमाणे :-4 3 2 1 / एम करतां चोवीसमी संख्याना नीचेना अंको प्राप्त थाय छे :-4 3 2 1 5 / ... (3) हवे पांच पदना प्रस्तारनुं सत्ताणुमुं रूप शोधी काढq होय तो अंत्य परिवर्ताक एटले 20 चोवीशथी तेने भाग देवो जोईए, ते आ प्रमाणे :-9724-4, शेष 1 / अहीं भागफळ 4 आव्युं छे, एटले छेल्ला चार अंको गयेला छे, तात्पर्य के 5-4-32 ना अंको गया छे, अने 1 नो अंक नष्ट छे, एटले सत्ताणुमी संख्यानो छेल्लो अंक 1 छ / हवे शेषमां एक छे, तेथी आगळना अंको क्रमथी मूकवा जोईए, ते आ प्रमाणे :-2 3 4 5 / ___एम करतां सत्ताणुमी संख्यामां नीचेना अंको प्राप्त थाय छे :-2 3 4 5 1 / 25 (4) हवे पांच पदना प्रस्तारनुं पचासमुं रूप शोधी काढq होय तो अंत्य परिवर्ताक एटले चोवीसथी तेने भाग देवो जोईए, ते आ प्रमाणे :-505242, 2 शेष / अहीं भागफळ बे आव्युं छे, एटले छेल्ले बे अंको गयेला छे, तात्पर्य के 5 अने 4 अंको गया छे अने 3 नो अंक नष्ट छे, एटले पचासमी संख्यानो छेल्लो अंक 3 छे। अहीं 2 शेष रह्या छे अने आगळनो परिवर्तक 6 छे, तेथी 2 ने 6 थी भाग देवो जोईए :-2260, शेष 2 / 30 __1 'अत्र' नास्ति A प्रतौ। एतचिह्नान्तर्गतः पाठः 3 प्रतौ न विद्यते। 2 द्वौ गतौ / 3 तत्रैक / 4 एकोऽन्यः प। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमिहिनमुक्रमहथुत्वं / द्वारस्य द्वाक्कौ पञ्च-त्रिकरूपौ मतौ। ततस्तदनेतनो द्विकश्चतुर्थपको लेख्यः। तथा शेषाणां पञ्चानां तृतीयपतिपरिवर्तन 2 रूपेण भागे लब्धौ द्वौ / अत्रापि 'नट्ठद्दिट्ट” इत्यादिगाथारीत्या टालितत्वेन चतुष्कं त्यक्त्वा शेषौ द्वावको पञ्चक-त्रिकौ गतौ। तदप्रेत द्विको नष्टस्थाने लिख्यते / परमेवं समयभेदः स्यादिति तं मुक्त्वा तृतीयपतौ तदप्रेतन एकको लिख्यते / एकशेषत्वाच्छेषावको त्रिक-पञ्चकौ क्रमेण 5 लेख्यौ / यथा-३,५,१,२,४ / इदं एकचत्वारिंशत्तमं रूपम् / एवं सर्वोदाहरणेषु ज्ञेयम् // 15-16 // परंतु बेमां 6 नो भाग लागी शकतो नथी एटले. अहीं एकेय अंक गत नथी, एटले अन्य अंक 5 मूकवो जोईए। आ प्रमाणे छेल्ला बे अंको 5 अने 3 प्राप्त थया / हवे शेष रहेला 2 मां आगळनो परिवर्तक 2 छे, तेथी 2 ने 2 थी भाग देवो जोईए :-2+2=1 / तेम करतां शेष शून्य आवे छे एटले भागफळमांथी 1 घटाडवो जोईए:-१-१-० / 10 आ रीते भागफळमां पण शून्य आव छे, एटले अहीं एके अंक गत नथी, एटले अंत्य अंक 5 मूकवो जोईए-५ 5 3 / आम पांचने मूकतां पांच-पांच सरखा अंको पासे आवे छे एटले ते समयभेद थयो माटे ते पांचने छोडी देवो जोईए। आ प्रमाणे छेल्ला त्रण अंको 45 3 प्राप्त थया। हवे शेषमां पण शून्य रहे छे, तेथी आगळना अंको उत्क्रमथी मूकवा जोईए :-2 1 / 15 एम करतां पचासमी संख्यामां नीचेना अंको प्राप्त थाय छे :-2 1 4 5 3 / (5) हवे पंचपदना प्रस्तारनुं पांसठ{ रूप शोधी काढq होय तो अंत्य परिवर्ताक एटले चोवीसथी तेने भाग देवो जोईए, ते आ प्रमाणे :-6524-2, शेष 17 / - अहीं भागफळ बे आव्युं छे एटले छेल्ला बे अंको गयेला छे, तात्पर्य के 5 अने 4 अंको गया छे अने 3 नो अंक नष्ट छे, एटले पांसठमी संख्यानो छेल्लो अंक 3 छ / अहीं 17 शेष रह्या 20छे अने आगळनो परिवर्तक 6 छे तेथी 17 ने 6 थी भाग देवो जोईए :-17:6-2, शेष 5 / ___ अहीं पण भागफळ वे आव्युं छे, एटले छेल्ला वे अंको गयेला छे, तात्पर्य के 5 अने 4 अंको गया छे-अने 3 नो अंक नष्ट छे, परंतु छेल्ला अंक 3 ने पहेलां फरीवार 3 मूकतां समयभेद थाय छे, तेथी ते 3 छोडीने तेनी आगळना अंक 2 ने मूकवो जोईए। ए प्रमाणे छेल्ला बे अंको 3 अने 2 प्राप्त थया / अहीं 5 शेष रह्या छे, एटले आगळनो परिवतांक 2 छे, तेथी 5 25 ने 2 थी भाग देवो जोइए :-5:22, शेष 1 / अहीं पण भागफळ बे आव्युं छे, एटले छेल्ला बे अंको गयेला छे, तात्पर्य के 5 अने 4 अंको गयेला छे / हवे एनी आगळना 3 मूकवा जतां 3 3 2 एवो समयभेद थाय छे अने तेनी आमळना 2 ने मूकवा जतां पण 2 3 2 एवो समयभेद थाय छे तेथी ते बंने अंकोने छोडीने 1 अंक मूकवो जोईए / ए प्रमाणे छेल्ला त्रण अंको 1 3 2 प्राप्त थया। हवे शेषमा एक बाकी छे, 1 °श्चतुष्कप / 2 'पञ्चकत्रिकौं' इति पदं / प्रतौ नास्ति / 3 °तनो द्विको / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्करस्वाध्याय।। 3 विभाग] अथोद्दिष्टानयने करणमाह अंताईगयअंका नियनियपरिवट्टताडिया सव्वे / उद्दिट्ठभंगसंखा इगेण सहिया मुणेयव्वा // 17 // व्याख्या—यावन्तोऽङ्काः सर्वपतिष्यन्त्यादयो गताः स्युः / कोऽर्थः ? स्वस्वपरिवर्ताङ्कसंख्यावारान् वर्तित्वोत्थिताः स्युः / तेऽङ्काः स्वस्वपरिवर्ताकैस्ताडिता गुणिताः। पश्चादेकयुतोद्दिष्टभङ्गसंख्या : स्यात् / उदाहरणं यथा-२,३,४,५,१ / इदं कतिथमिति केनापि पृष्टं-अत्रान्त्यपतौ दृष्ट एककोऽन्त्योऽन्त्यादयः पश्चानुपूर्व्या पञ्चक-चतुष्क-त्रिक-द्विकरूपाश्चत्वारो अङ्का गताः / ततश्चत्वारः पञ्चमपतिपरिवर्तेन 24 रूपेण गुणिता जाताः षण्णवतिः / तथा चतुर्थपतौ दृष्टः / पञ्चकोऽतोऽत्र गताङ्काभावः / तृतीयपक्सौ दृष्टश्चतुष्कोऽत्र पञ्चको गतः स्यात् , परं 'नट्ठद्दिट्ट'इत्यादिगाथया वर्जितत्वाद् गतमध्ये न गण्यते, तेनात्रापि गताङ्काभावः / एवं द्वितीयपतौ पञ्चक-चतुष्कौ प्रथमपतौ च पञ्चक-चतुष्क-त्रिका गताः स्युः / 10 परं वर्जितत्वेन गताकेषु न गण्यन्तेऽतस्तत्रापि गताङ्काभावः / ततः षण्णवतिरेकयुता जाता सप्तनवतिः / तत इदं सप्तनवतितमं रूपम् / तथा–३,२,१,५,४ / इदं कतिथमिति पृष्टे-अत्रान्त्यपतौ दृष्टश्चतुष्कः / ततः एको पञ्चकरूपोऽङ्को गतः / तत एकश्चतुर्विशत्या परिवर्तेन गुण्यते जाताः 24 / चतुर्थपतौ पञ्चकस्य दृष्टत्वाद् गतोऽङ्कः कोऽपि नास्ति / तृतीयपतौ दृष्ट एककः 'नदिह' इत्यादिनीऽपादितत्वात् पञ्चक-चतुष्को गताङ्क-15 मध्ये न गण्यते / ततस्त्रिक-द्विकरूपौ द्वावेव गतौ / द्वौ च स्वपरिवर्तन द्विकरूपेण गुणिती जातौ चत्वारः / तेथी आगळना अंको क्रमथी मूकवा जोईए-४ 5 / एम करतां पांसठमी संख्यामां नीचेना अंको प्राप्त थाय छे 4 5 1 3 2 / .. नष्टांकनी विधि दर्शाव्या पछी स्तोत्रकारे सत्तरमी गाथामां उद्दिष्टांक (अमुक अंक रचना भंग प्रस्तारना केटलामा रूपे छे ते )नी विधि दर्शावी छे // 16 // 20 . श० अंतिमथी मांडीने गयेला बधा अंकोनो ज्यारे पोतपोताना परिवर्ताकोथी गुणाकार करवामां आवे अने तेमां एक जोडी देवामां आवे, त्यारे उद्दिष्ट भंगनी संख्या प्राप्त थाय छे // 17 // वि०-कोईए एम पूछय के-२ 3 4 5 1 केटलामो भंग छे ? तात्पर्य के, तेनो उद्दिष्टांक शुं? तो उपर जणावेली रीति प्रमाणे तेने शोधी शकाशे / ___ 2 3 4 5 1 नी संख्यामां छेल्लो अंक 1 छे, एटले 5, 4, 3 अने 2 ए चार अंको 25 पोतानुं स्थान छोडी गया छे, तेथी गतांक संख्या 4 छे; तेने पांचमी पंक्तिना परिवर्ताक 24 थी गुणतां 96 आव्या, अर्थात् 96 रूपो नीकली गयां छे अने तेनी पछीनुं आ रूप छे / हवे चोथा स्थानमा 5 छे, एटले तेमां एक पण गतांक नथी / त्रीजा स्थानमा 4 रहेलो छे; अहीं 5 गलंक 1 °वतैस्ता / / 2 दिनोपादि / 3 ते च ख / - Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 पंचपरमिट्ठिनमुक्कारमहथुत्त। [प्राकृत पूर्वचतुर्विशतिमध्ये क्षिप्ता जाताः 28 / द्वितीयपतौ दृष्टो द्विकोऽत्रापि पञ्चक-चतुष्कयोः प्राग्वद् वर्जितकादेक एव त्रिकरूपोऽङ्को गतः / स स्वपरिवर्तेनैकरूपेण गुणितो जात एक एव / पूर्वाष्टाविंशतिमध्ये क्षिप्तो जातकोनत्रिंशत् / प्रथमपतौ तु प्राग्वत् पञ्चक-चतुष्कयोर्वर्जितत्वेन गतोऽङ्कः कोऽपि नास्ति / एकोनत्रिंशदेकेन युता जाता त्रिंशत् / तत इदं त्रिंशत्तमं रूपम् / 5 तथा 2,3,4,1,5 / अयं कतिथो भङ्ग इति केनापि पृष्टम्-अत्रान्त्यपतौ पञ्चकस्य दृष्टत्वान्न कोऽपि गतोऽङ्कः / चतुर्थपतौ प्राक्तनरीत्या पञ्चकस्य वर्जित्वाच्चतुष्क-त्रिक-द्विकरूपास्त्रयोऽङ्का गताः / ततस्त्रयः स्वपरिवर्तन 6 रूपेण गुणिता जाता 18 / तृतीयपतौ पञ्चकस्य वर्जितत्वाद् गतोऽको नास्ति / एवं द्वितीय-प्रथमपतयोरपि / ततोऽष्टादशैकेन युता 19 / अयमेकोनविंशो भङ्गः / तथा-२,१,४,५,३ / अयं कतिथ इति पृष्टे-अत्रान्त्यपतौ त्रिकस्य दृष्टत्वात् पञ्चक-चतुष्करूपौ 10द्वावको गतौ / ततो द्वौ स्वपरिवर्तन 24 रूपेण गुणिती जाताः 48 / चतुर्थपतौ पञ्चकस्य दृष्टत्वेन गतोऽको नास्ति / तृतीयपकावपि पञ्चकस्य प्रोक्तरीत्या वर्जितत्वान्न कोऽपि गतोऽङ्कः / द्वितीयपतौ पञ्चक-चतुष्क-त्रिकाणामपोदितत्वाद् द्विकरूप एक एव गतोऽङ्कः / स एकेन गुणितो जात एक एव / 48 मध्ये क्षिप्तो जाता एकोनपञ्चाशदेकयुताः जाताः पञ्चाशत् / अयं पञ्चाशत्तमो भङ्ग इति वाच्यम् / एवं सर्वत्र ज्ञेयम् // 17 // 16 होई शके परंतु 'नहुदिढ' शब्दथी शरू थती अढारमी गाथामा पूर्वस्थापित अंकोने (पश्चानुपूर्वीथी गणतां) वर्जवानुं कर्तुं छे, तेथी 5 नी गणना गतांकमां करवानी नथी। हवे बीजा स्थानमां 5 अने 4 तथा पहेला स्थानमा 5, 4 अने 3 गतांक होई शके, परंतु ऊपर जणाव्यो ते अढारमी गाथावाळो नियम अहीं पण लागु पडे छे, तेथी एक पण गतांक गणवानो नथी / आ रीते प्राप्त थयेली 96 नी संख्यामां 1 जोडवाथी 97 नी संख्या आवे छे, ते अहीं उद्दिष्टांक छ। . 20 एक बीजा उदाहरणथी आ वस्तु वधारे स्पष्ट करीए : 15243 आ केटलामो भंग छे ? एम पूछवामां आवे तो अहीं पांचमा स्थानमा त्रण छे, तेथी 5 अने 4 आ बे अंको गया छे माटे पांचना परिवर्तक 24 नो 2 थी गुणाकार करवो जोईए; तेम करतां 2442=48 आव्या। ___ हवे चोथा स्थानमा 4 छे, तेथी अहीं 5 नो एक अंक गयो तेथी चारना परिवर्ताक ६.नो 25 1 थी गुणाकार करवो जोईए 6416 / हवे 48 मां 6 ऊमेर्या तो 48 + 6 = 54 थया। हवे त्रीजा स्थानमा 2 छे / अहीं 3-4-5 आ त्रण अंको जवा जोईए, परंतु 4 अने 3 आ अंको पूर्वस्थापित होवाथी गतांकोनी गणनामां आवता नथी, तेथी 5 नो एक ज अंक गत समजवानो छे / त्रीजा स्थाननो परिवर्तक 2 छे, तेथी 2 नो 1 नी साथे गुणाकार करतां-२४२=२ आव्या / 1 प्राक्तनरीत्या / 2 °मुपादि। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग) नमस्कार स्वाध्याय। गतागुणनेऽपवादमाह नद्रुट्टिविहाणे जे अंका अंतिमाइपंतीसु / . पुल्वि ठविआ नहि ते गयंकगणणे गणिजंति // 18 // व्याख्या-नष्टोद्दिष्टविधौ येऽङ्काः पाश्र्वनुपूर्व्याऽन्त्यादिषु पङ्क्तिषु पूर्व स्थापिताः भवन्ति ते गताङ्कसंख्यायां क्रियमाणायां न गण्यन्ते / अन्त्यादारभ्याङ्कक्रमादायाता अपि टाल्यन्ते, ते ह्यन्त्यादिषु 5 पतिषु स्थितत्वेनापरेपतिष्वद्यापि नाधिकृताः, अतस्तान् टालयित्वा गताङ्कानां संख्या कार्येत्यर्थ भावना नष्टोद्दिष्टोदाहरणेषु कृता // 18 // अथ कोष्ठकप्रकारेण नष्टोद्दिष्टे आनिनीषुः पूर्व कोष्ठकस्थापनामाह पढमाए इगकोट्ठो उड्डअहोआययासु पंतीसु / एगेगवड्डमाणा कोट्ठा सेसासु सव्वासु // 19 // व्याख्या-इहो ऽध आयताः कोष्ठकपतयो रेखाभिः क्रियन्ते, तत्र प्रथमपसावेक एव कोष्ठकः, शेषपतिषु पूर्वपतित उत्तरोत्तरपशिष्वधस्तात् संख्ययैककवर्द्धमानाः कोष्ठकाः कार्याः // 19 // अथ कोष्ठकेष्वङ्कस्थापनामाह इगु आइमपंतीए सुन्ना अन्नासु आइकोडेसु / परिवट्टा बीएसुं दुगाइगुणिआ य सेसेसु // 20 // व्याख्या-आदिमपतौ प्रथमकोष्ठके. एक एव स्थाप्यः / अन्यासु द्वितीयादिपङ्क्तिवाद्यकोष्ठकाष्टकेषु शून्यान्येव स्थाप्यानि द्वितीयेषु कोष्ठकेषु परिवर्ताङ्काः स्थाप्याः। तथा द्वितीय कोष्ठकेषु त 54 मां बे ऊमेरतां 54 + 2 = 56 थया / हवे बीजा स्थानमा 5 छे, तेथी अहीं कोई गतांक नथी। प्रथम स्थानमा एक छे, तेथी अहीं 5, 4, 3, 2, गतांक होई शके, परंतु ते. पूर्वस्थापित होवाथी अहीं तेनी गणना करवानी नथी। तात्पर्य के कुलसंख्या 56 आवी तेमां एक 20 उमेरतां 57 थया, तेथी आ रूप 57 मुं छे // 17 // श०-नष्ट अने उद्दिष्टांक शोधवाना प्रसंगे अंतिम आदि स्थानमा जे अंकोनी पूर्वस्थापना करी छे तेने गतांको गणवामां आवता नथी // 18 // वि०-सरल छ / नष्ट अने उद्दिष्टनुं स्वरूप कोठाथी पण आवे छे / तेनो विधि ओगणीसमी गाथामां जणावेलो छे // 18 // श०-ऊपर अने नीचे लांबी लीटीओ खेंचवाथी पहेली पंक्तिमा एक कोठो थाय छे अने बाकीनी सर्व पंक्तिओमां अनुक्रमे एक एक वधारे थाय छे // 19 // वि०-ऊभी अने आडी लीटीओ दोरवाथी कोठा बने छ / तेमां पहेली पंक्तिमा एक 5 25 1 पिडिष्वद्यापि / 2 कोष्टकारेण A1 3 इहोोऽध AI 4 पूर्वपूर्व उत्त० A | 5 °कोष्टकेषु A / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमिमिकामा एव द्विगुणाः, चतुर्थेषु त एव त्रिगुणाः, पञ्चमेषु चतुर्गुणाः, षष्ठेषु पञ्चगुणाः, सप्तमेषु षद्गुणाः, अष्टमेषु सप्तगुणाः, नवमे कोष्ठकेष्वष्टगुणाः // 20 // . कोष्ठकपतिस्थापनायन्त्रकम् / 1/2/6 24/120 720 | 5040/40320 |4|1248 240/1440/10080 80640 18/123602160/15120/120960 |96/480 2880 20160/161280 600360025200/201600 432030240 241990 |35280/282240 |322560 कोठो थाय, बीजी पंक्तिमां बे कोठा थाय, त्रीजामां त्रण थाय, एवी रीते नवमी पंक्तिमा नव कोठा वाय, ते आँ प्रमाणे : 15 प्रथमपंक्ति बीजी पंक्ति त्रीजी पंक्ति चोथी पंक्ति पांचमी पंक्ति छट्ठी पंक्ति सातमी पंक्ति आठमी पंक्ति नवमी पंक्ति पहेलो कोठो बीजो कोठो। / / / / / / त्रीजो कोठो / / / / / चोथो कोठो पांचमो कोठो| | | | | छट्ठो कोठो। / / / सातमो कोठो | आठमो कोठो / नवमो कोठो| | आ कोठाओमां अंकनी स्थापना शी रीते करवी ते एवे पछीनी गाथाओमां जणाव्युं छे // 19 // श-प्रथम पंक्तिना प्रथम कोठामा एकनी स्थापना करवी अने शेष पंक्तिओना प्रथम कोठामा शून्यनी स्थापना करवी / बीजा कोठाओमा परिवर्ताकोनी तथा शेष कोठाओमां बे आदियों गुणित अंकनी स्थापना करवी // 20 // वि०-प्रथम पंक्तिमा एक ज कोठो छे, तेमा एकनी स्थापना करवी अने बीजी 95 पंक्तिओना प्रथम कोठाओमा शून्यनी स्थापना करवी, ते आ रीते / प्रथम पंकि बीजी पंक्ति त्रीजी पंक्ति चोथी पंक्ति पांचमी पंक्ति छट्टी पंक्ति सातमी पंक्ति आठमी पंक्ति नवमी पंक्ति प्रथम कोठो | 1 | 0 0 0 0 0 0 0 | Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नष्टोद्दिष्टविधौ कोष्ठेष्वङ्कगुणनरीतिमाह पुवट्ठिअंके मुत्तुं गणियव्वा अंतिमाइपंतिसु / कोहाओं उवरिमाओं आयं काऊण लहु अंकं // 21 // अहवा जिहँ अंकं आयं काऊण मुत्तु ठविअंके / पंतीसु अंतिमाइसु हिडिमकोट्ठाउ गणिअव्वं // 22 // व्याख्या-यथा प्राङ्नष्टोद्दिष्टविधौ पश्चानुपूर्व्याऽन्त्यादिपतिषु येऽङ्काः पूर्वस्थिताः स्युस्ते गताङ्केषु न गण्यन्ते स्म / तथाऽत्रापि तान् मुक्त्वा लघु लघुमङ्कमादिं कृत्वोपरितनकोष्ठकाद् गणनीयम् / पश्चानुपूर्व्या नवाष्ट-सप्त-षट्-पञ्च-चतुरादिभिरकैः कोष्ठका अङ्कनीया इत्यर्थः / अथवा ज्येष्ठं ज्येष्ठमङ्कमादि कृत्वाऽधस्तनकोष्ठकाद् गणनीयम् , पूर्वानुपूर्व्या एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चादिभिरकैः कोष्ठका अङ्कनीया इत्यर्थः / नष्टाद्यानयनेऽयमर्थः स्पष्टो भावी // 21-22 // बीजा कोठामा परिवर्ताकोनी स्थापना करवी ते आ प्रमाणे : __. बीजो कोठो | 1 | 2 | 6 |24|120/420/5040/40320 त्रीजा कोठामा परिवर्ताक करतां बमणी रकम स्थापवी, ते आ प्रमाणे : त्रीजो कोठो | 4 |12| 48 240 14401008080640 चोथा कोठामा परिवर्ताक करतां त्रण गुणी, पांचमा कोठामा परिवर्ताक करतां चार गुणी, छठ्ठा कोठामा परिवर्ताक करतां पांच गुणी, सातमा कोठामा परिवर्ताक करतां छ गुणी, आठमा कोठामा परिवर्ताक करतां सात गुणी अने नवमा कोठामा परिवर्ताक करतां आठ-गुणी राखवी 20 ते आ प्रमाणे :- // 20 // चोथो कोठो |18|72/360/2160 15120 120960 पांचमो कोठो |96/4802880/20260 161280 छट्ठो कोठो 600360025200201600 सातमो कोठो |432030240241920 आठमो कोठो |39280282240 नवमो कोठो 322560 श-पूर्व रहेला अंकोने छोडीने तथा लघु अंकोथी लईने उपरना कोठाथी अंतिम आदि पंक्तिओमां गणना करवी जोईए // 21 // वि०-हवे नष्ट अने उद्दिष्टनी रचनाना कोठाओमा अंकने गणवानी रीत बतावे छे- 30 जेम पहेलां नष्ट अने उद्दिष्टनी रचनामां पश्चानुपूर्वीथी अंतिम आदि पंक्तिओमां जे अंक पहेला रहेला हता, ते गतांकोमा गणवामां नहोता आव्या, तेम अहीं पण पहेला रहेला अंकोने . 1 मुत्तुं। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत पंचपरमिटिनमुक्कारमहथुत्तं। अथ नष्टानयनमाह पइपंति एगकोट्ठय-अंकगहणेण जेहिं जेहिं सिआ। मूलइगंकजुएहिं नर्सेको तेसु खिव अक्खे // 23 // अक्खट्ठाणसमाई पंतीसु अ तासु नट्ठरूवाई / नेयाई सुन्नकोट्टयसंखासरिसाई सेसासु // 24 // व्याख्या-इह प्रतिपति एकैक एव कोष्ठकाङ्को ग्राह्यः / ततो यैर्यैः कोष्ठकाकैः परिवर्तसत्कैर्मूलपङ्तिसत्कैकयुतैनष्टाको नष्टभङ्गसंख्या स्यात् / तेषु तेषु कोष्ठकेष्वभिज्ञानार्थ हे शिप्य! त्वं अक्षान क्षिप-स्थापय // अथ द्वितीयगाथार्थः कथ्यते छोडीने लघु-अंकोने आदिमां करीने उपरना कोठाथी गणतरी करवी जोईए / मतलब के, पश्चानुपूर्वीथी 10 नव, आठ, सात, छ, पांच, चार वगेरे अंकोथी कोठाओने भरवा जोइए // 21 // श-अथवा ज्येष्ठ अंकथी लईने अने मूकेला अंकोने छोडीने नीचेना कोठाथी अंतिमथी लईने पंक्तिओमां गणना करवी जोइए // 22 // वि०-मोटा मोटा अंकोथी लईने नीचेना कोठाथी गणतरी करवी जोईए, मतलब के, पूर्वानुपूर्वीथी एक, बे, त्रण, चार, अने पांच वगेरे अंकोथी कोठाओने भरवा जोईए, नष्ट वगैरे 18 लावती वखते आ विषय स्पष्ट थई जशे // 22 // श०–प्रत्येक पंक्तिमां एक कोठाना अंकने ग्रहण करीने तेमां एक ऊमेरवाथी जे जे कोठाओना अंको तथा मूल पंक्तिना अंकोथी नष्टांक थई जाय ते कोठाओमां अक्षोने--कल्पितने मूको // 23 // नष्ट लाववानी विधि10 वि०-आ विधिमां प्रत्येक पंक्तिमा कोठाना एक एक अंकने ज लेवो जोईए, तेथी कोठाना परिवर्तकमां रहेला जे जे अंकोनी साथे मूल पंक्तिना एकने जोडी देवाथी नष्टांक अर्थात नष्ट भांगानी संख्या थई जाय, ते ते कोठाओमां चिह्न माटे अक्षोने मूकवा जोईए // 23 // श०–ते पंक्तिओमां अक्षस्थाननी समान नष्टरूप जाणवू जोईए, तथा बाकीनी पंक्तिओमां शून्य कोठानी संख्या प्रमाणे नष्टरूप जाणवू जोईए // 24 // 25 वि०-अक्षोथी युक्त जे कोठाओ छे, ते कोठाओनी संख्या प्रमाणे, एटले के, अक्षोथी युक्त कोठाओनी पहेली, बीजी, त्रीजी, चोथी अने पांचमी इत्यादि जे संख्याओ छे ते ज संख्या ते पंक्तिओमां नष्ट रूपोनी पण जाणवी / सारांश के, जे अक्षोथी युक्त कोठो छे ते ज नष्टरूप छे शेष पंक्तिओमां अर्थात् अक्षोथी रहित पंक्तिओमां शून्य कोठानी संख्यानी माफक नष्ट रूपोने लखवा जोईए। 1 कोष्ठाः / 2 को / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 419 अक्षस्थानान्यक्षाक्रान्ताः कोष्ठकास्तैः समानि संख्यया तुल्यानि / कोऽर्थः ? अक्षाक्रान्तकोष्ठकानां प्रथमो 'द्वितीयस्तृतीयश्चतुर्थः पञ्चम ‘इत्यादिरूपा या संख्या तासु पतिषु नष्टरूपाणामपि सैव संख्या ज्ञेया / यावतिथोऽक्षाक्रान्तः कोष्ठकस्तावतिथं नष्टरूपमित्यर्थः / शेषास्वक्षानाक्रान्तपतिषु शून्यकोष्ठकसंख्यातुल्यानि नष्टरूपाणि लेख्यानि / उदाहरणं यथा-त्रिंशत्तमो भङ्गो नष्टः / स कीदृशः? इति केनापि पृष्टम् / ततः पञ्चपदकोष्ठकयन्त्रके पञ्चमपङ्क्तिस्थः 24, तृतीयपतिस्थः 4, द्वितीयपतिस्थः 1, अलैर्जाता / 29 / मूलपतिस्थः 1 युतत्वे जाताः 30 सा नष्टस्य भङ्गस्य संख्या / ततोऽभिज्ञानार्थमेतेषु कोष्ठकेष्वक्षाः क्षिप्ताः / ततः पञ्चमपतौ सर्वलघु पञ्चकमादिं कृत्वा स्थितः पञ्चक एव च पश्चानुपूर्व्या पञ्चम-चतुर्थ इत्यादिगुणनेऽक्षाक्रान्तकोष्ठके स्थितश्चतुष्कः / ततः पञ्चमपतौ नष्टस्थाने चतुष्को लेख्यः / चतुर्थीपतिरक्षैर्नाऽऽक्रान्ताऽतः सर्वलघु पञ्चकमादिं कृत्वा गणने शून्यकोष्ठके स्थितः पञ्चक एव चतुर्थपतौ नष्टस्थाने लेख्यः / तथा तृतीयपतौ पञ्चक-चतुष्कौ लघू अपि पूर्व स्थापितत्वेन मुक्त्वा शेषं त्रिकमेव लघुमादि 10 कृत्वा गणनेऽक्षाक्रान्तकोष्ठके स्थित एककोऽतः स एव तृतीयपतौ नष्टस्थाने स्थाप्यः / तथा द्वितीयपतौ प्राग्वत् पञ्चक-चतुष्को पूर्व स्थितौ विमुच्य तल्लघु त्रिकमादिं कृत्वा गणनेऽक्षाक्रान्तस्थाने स्थितो द्विकः स एव तत्र नष्टो लेख्यः / एवमाद्यपत्रावपि त्रिकं लघुमादिं कृत्वा गुणनेऽक्षाक्रान्ते 'कोष्ठके स्थितस्त्रिकः दाखला तरीके-त्रीसमो भांगो नष्ट छे ते कयो छे ? पांच पदना कोठाना यंत्रमा पंचमी पंक्तिमा 24 छे, त्रीजी पंक्तिमां चार छे, बीजी पंक्तिमां 15 एक छे / आ बधाने जोडवाथी ओगणत्रीस थया। तथा मूल पंक्तिना एकने जोडवाथी दस थया, अर्थात् आ नष्ट भांगानी संख्या आवी, तेथी ओळखवा माटे आ कोठाओमां अक्षोने नाखो / पछी पांचमी पंक्तिमां सर्व लघु पांचथी लईने पश्चानुपूर्वी वडे पांचमो, चोथो वगेरे गणतां अक्षथी युक्त कोठामा चार रहेला छे तेथी पांचमी पंक्तिमां नष्ट स्थानमा चारने मूकवो जोईए। चोथी पंक्ति अक्षोथी युक्त नथी तेथी सर्व लघु पांचथी लईने गणतरी करतां शून्य कोठामा रहेला पांचने ज 20 चोथी पंक्तिमां नष्ट स्थानमा लखवो जोईए / तथा त्रीजी पंक्तिमां पांच अने चार जो के लघु छे तो पण पूर्वमा रहेला होवाथी तेमने छोडीने शेष त्रण लघुने आदि करीने गणतरी करवाथी अक्षथी युक्त कोठामा एक रहेलो तेथी तेने ज त्रीजी पंक्तिमां नष्ट समजवो जोईए। तथा बीजी पक्तिमा पहेलांनी माफक पहेला रहेला पांच अने चारने छोडीने लघु त्रणने आदिमां करीने गणतरी करवाथी अक्षथी युक्त स्थानमां बे रहेला छे, तेथी बीजी पंक्तिमां बेने ज नष्ट स्थानमां लखवो25 जोईए। एवी ज रीते प्रथम पंक्तिमां पण लघुत्रिकने आदिमां करीने गणतरी करतां अक्षथी युक्त स्थानमां त्रण रहेला छे, तेथी प्रथम पंक्तिमां त्रणने ज नष्ट स्थानमा समजवो जोईए। आवी रीते 3, 2, 1, 5, ४-आ त्रीसमो भांगो थयो / आवी ज रीते ज्येष्ठ ज्येष्ठ अंकने आदिमां करीने नीचेना कोठाओथी गणतरी करवाथी एवू ज नष्टनुं स्वरूप चाली जाय छे। जेम जूओ - 1 द्वितीयश्चतुर्थः / / 2 रूपायाः सं० AI 3'30' इति संख्याङ्क: A प्राप्तौ नास्ति। 4 कृत्वा पश्चा 5°च्य लघु। 6 गणने / 7 'कोष्ठके' पदं नास्ति / प्रती। . Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 पंचपरमिट्टिनमुक्कारमहथुत्तं / से एवाद्यपतौ नष्टो ज्ञेयः-इति जातस्त्रिंशत्तमो भङ्गः 3, 2, 1, 4, 5 / एवं ज्येष्ठं ज्येष्ठमङ्कमादि कृत्वाऽधस्तनकोष्ठकाद गणनेऽपीदृशमेवेदं नष्टरूपमायाति / यथान्त्यपतौ सर्वज्येष्ठमेककमादौ कृत्वाऽधस्तनकोष्ठकाद् गणनेऽक्षाक्रान्तस्थानेस्थितश्चतुष्कः, ततः स एव नष्टो लेख्यः / चतुर्थपतौ पूर्व पञ्चमपङ्क्तिस्थापितं चतुष्कं टालयित्वाऽधस्तनकोष्ठकात् सर्वज्येष्ठमेककमादिं कृत्वा गणनेऽक्षाक्रान्तत्वाभावाच्छून्यकोष्ठके 5 स्थितः पञ्चक एव नष्टस्थाने लेख्यः / तृतीयपतौ तथैव गणने अक्षाक्रान्तस्थाने स्थित एककोऽतः स एव तत्र नष्टो लेख्यः / द्वितीयपतौ प्राग्वज्येष्ठमप्येककं पूर्वस्थापितत्वात् टालयित्वा शेषं ज्येष्ठं द्विकमादि कृत्वा गणने अक्षाक्रान्तस्थाने स्थितो द्विकः स एव तत्र नष्टो लेख्यः / आद्यपतौ सर्वज्येष्ठावेकक-द्विको पूर्वस्थापितत्वेन त्यक्त्वा ज्येष्ठत्रिकमादौ दत्त्वा गणनेऽझाक्रान्तस्थाने स्थितस्त्रिकस्ततः स एव नष्टो लेख्यः / 3, 2, 1, 5, 4 / ईदृशं त्रिशत्तमं रूपं ज्ञेयम् / अनया रीत्या सर्वनष्टरूपाणि ज्ञेयानि // 23-24 // 10 अथोद्दिष्टके करणमाह उद्दिट्ठभंगअंकप्पमाणकोटेसु संति जे अंका। उद्दिट्ठभंगसंखा मिलिएहिं तेहिँ कायव्वा // 25 // व्याख्या-उद्दिष्टो यो भङ्गस्तस्य ये अङ्काः नमस्कारपदाभिज्ञानरूपा एक-द्वि-त्रि-चतुरादिकास्तत्प्रमाणास्तत्संख्यास्तावतिथा इत्यर्थः / ये कोष्ठास्तेषु ये अङ्काः परिवर्ताङ्काः सन्ति तैः सैवरेकत्रमीलितै15 अन्त्य पंक्तिमा सर्वज्येष्ठ एकने आदिमां करीने नीचेना कोठाथी गणतरी करतां अक्षथी युक्त स्थानमां चार स्थित छे, तेथी अक्षाकान्त स्थानमां चारने ज नष्ट स्थानमां मूकवो जोईए। चोथी पंक्तिमा पहेलां पांचमी पंक्तिमा मूकेला चारने छोडीने नीचेना कोठाथी सर्व ज्येष्ठ एकने आदिमा करीने गणतरी करवाथी अक्षथी युक्त न होवाथी शून्य कोठामा रहेला पांचने ज नष्ट स्थानमां लखवो जोईए। त्रीजी पंक्तिमां ते ज प्रमाणे गणतरी करवाथी अक्षथी युक्त स्थानमा एक रहेलो छे तेथी तेने 20 (1) ज नष्ट स्थानमां लखवो जोइए। बीजी पंक्तिमा पहेलांनी माफक पहेला मूकेला होवाने लीधे ज्येष्ठ पण एकने छोडीने शेष ज्येष्ठ बेने आदिमां करीने गणतां अक्षथी युक्त स्थानमां बे रहेला छे तेथी तेने (2 ) ज अक्षथी युक्त स्थानमां लखवो जोइए, प्रथम पंक्तिमा पहेला मूकेला होवाथी सर्व ज्येष्ठ एक अने बेने छोडीने ज्येष्ठ त्रिकथी लइने गणतरी करतां अक्षथी युक्त स्थानमा त्रण छे तेथी तेने अहीं प्रथम पंक्तिमां लखवो जोईए जेथी ३२१५४-आबुं त्रीसमुं रूप थयुं // 24 // 25 श०-उद्दिष्ट भांगाना अंको प्रमाणेना कोठाओमां जे आंकडाओ रहेला छे, ते बधाने मेळवीने उद्दिष्टभांगानी संख्या बनाववी जोइए // 25 // वि०-हवे उद्दिष्टनी विधि काठाओनी रीते बतावे छे: उद्दिष्ट ( बतावेलो) जे भांगो छे, तेना जे नमस्कारपद चिह्नरूप एक, बे, त्रण, चार वगेरे 30अंको छे, तेटला जे काठोओ छे, तेमां जे परिवर्ताक छे, ते बधाओनो सरवाळो करवाथी उद्दिष्टभंगनी संख्या जणाई आवे छे। 1 'स' पदं नास्ति / प्रतौ। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 421 रुद्दिष्टभङ्गस्य संख्या स्यात् / उदाहरणं यथा-३, 2, 4, 1, 5 / अयं कतिथो भङ्ग इति पृष्टं केनचित् / अत्र पञ्चमपतौ दृष्टः पञ्चकः सर्वलघु पञ्चकमादौ दत्त्वोपरितनकोष्ठकाद् गणने शून्ये कोष्ठे स्थितः पश्चकस्ततोऽत्र न किञ्चिल्लभ्यते / चतुर्थपतौ दृष्ट एककः पूर्वपञ्चमपतौ स्थितत्वेन पञ्चकं लघु क्रमोपगतमपि त्यक्त्वा चतुष्कं लघुमादौ दत्त्वा गणने एकाकाक्रान्तकोष्ठकसत्का लब्धाः 18, तृतीयपतौ दृष्टश्चतुष्कः प्राग्वत् पञ्चमपतौ स्थितत्वेन पञ्चकं त्यक्त्वा लघु क्रमागतमपि चतुष्काक्रान्तकोष्ठकसत्कलब्धं शून्यं, 5 द्वितीयपतौ दृष्टो द्विकः, ततः प्रोक्तरीत्या पञ्चक-चतुष्को लघू अपि त्यक्त्वा लघु त्रिकमादौ दत्त्वा गणने द्विकाक्रान्तकोष्ठे लब्ध एककः / आद्यपतौ दृष्टस्त्रिकस्ततः प्राग्वत् पञ्चक-चतुष्कौ मुक्त्वा त्रिकमादौ दत्त्वा गणने त्रिकाक्रान्तकोष्ठे लब्ध एककः / सर्वलब्धाङ्कमीलने जाता 20, ततोऽयं विंशतितमो भङ्गः / ज्येष्ठं ज्येष्ठमङ्कमादौ कृत्वाऽधस्तनकोष्ठकाद् गणनेऽपीयमेव संख्या / यथा-पञ्चमपतौ दृष्टः पञ्चकस्ततः सर्वज्येष्ठमेककमादौ दत्त्वाऽधस्तनकोष्ठकाद् गणने पञ्चकाक्रान्तकोष्ठे लब्धं शून्यम् 0 / 10 चतुर्थपतौ दृष्ट एककः, तं ज्येष्ठत्वादादौ दत्त्वाऽधस्तनकोष्ठकाद् गणने लब्धा एककाक्रान्तकोष्ठेऽष्टादश / तृतीयपतौ दृष्टश्चष्तुकः सर्वज्येष्ठमप्येककं पूर्वस्थितत्वेन मुक्वा ज्येष्ठं द्विकमादौ दत्त्वाधस्तनकोष्ठकाद दाखला तरीके-३२४१५ आ कयो भंग छे ? एम पूछतां उत्तरमा अहीं पांचमी पंक्तिमां पांच देखाय छे, तेथी सर्व लघु पांचने आदिमां करीने उपरना कोठाथी गणवाथी शून्य कोठामां पांच रहेला छे, माटे अहीं लब्धांक कोई नथी। चोथी पंक्तिमां एक छे, पहेलां पांचमी पंक्तिमां 15 मूकेलो होवाने कारणे क्रमागत पण लघु पंचकने छोडीने लघु चारने आदिमां करीने गणतरी करबाथी एकथी युक्त कोठामा अढार लब्धांक आव्या / त्रीजी पंक्तिमां चार छे, अहीं पण पहेलांनी माफक पांचने छोडी ते लघु चारने आदिमां करीने गणतरी करवाथी चारथी युक्त कोठामा रहेलो शून्य लब्धांक आव्यो। वीजी पंक्तिमां बे छे तेथी प्रथम करेली विधि प्रमाणे लघु एवा पांच अने धारने छोडीने लघु त्रणने आदिमां करीने गणतरी करतां बेथी युक्त कोठामा लब्धांक एक आव्यो / 20 प्रथम पंक्तिमा त्रण देखाय छे, तेथी पूर्वानुसार पांच अने चारने छोडीने लघु त्रिकने आदिमा करीने गणतरी करतां त्रणथी युक्त कोठामा लब्धांक एक आव्यो / बधा लब्धांकोने मेळववाथी वीस थया, तेथी आ वीसमो भांगो छ। ज्येष्ठ ज्येष्ठ अंकने आदिमां करीने नीचेना कोठाथी गणतां पण आ ज संख्या आवे छे, जेम के पांचमी पंक्तिमां पांच छे, तेथी सर्व ज्येष्ठ एकने आदिमां करीने नीचेना कोठाथी गणतरी 25 करतां पांचथी युक्त कोठामां शून्य लब्धांक आव्यो / चोथी पंक्तिमा एक देखाय छे, ज्येष्ठ होवाने लीधे तेने आदिमां करीने नीचेना कोष्ठकथी गणतरी करतां एकथी युक्त कोठामा अढार लब्धांक थया / त्रीजी पंक्तिमा चार देखाय छे, तेथी पूर्व स्थित होवाने लीधे सर्व ज्येष्ठ पण एकने छोडीने ज्येष्ठ द्विकने आदिमां करीने नीचेना कोठाथी गणतरी करतां चारथी युक्त कोठामा शून्य लब्धांक 1 क्रमागत° / 2 प्राग्वत् पञ्चकं त्यक्त्वा / / 3 'त्यक्त्वा' इति पाठः / प्रतौ नास्ति / मिलने / . 4 'ज्येष्ठं पदं नास्ति A प्रतौ 5 कृत्वा J प्रतौ। 6 'अपि' पदं नास्ति J प्रतौ।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 पंचपरमिट्ठिनमुक्कारमहथुत्तं / [प्राकृत गणने चतुष्काक्रान्तकोष्ठे लब्धं शून्यम् / द्वितीयपतौ दृष्टो द्विकोऽत्रापि प्रोक्तरीत्या ज्येष्ठमेककं मुक्त्वा द्विकं ज्येष्ठमादौ दत्त्वा गणने त्रिकाक्रान्ते कोष्ठे लब्ध एककः / आद्यपतौ ज्येष्ठावेक-द्विको मुक्त्वा त्रिकं ज्येष्ठमादौ दत्त्वा गणने त्रिकाक्रान्तकोष्ठे लब्ध एकः / सर्वलब्धाङ्कमीलने जाता विंशतिः / द्वितीयमुदाहरणं यथा-५, 4, 3, 2, 1 / अयं कतिथ इति पृष्टे अन्त्यपतौ दृष्ट एकः सर्वलघु 5 पञ्चकमादौ दत्त्वोपरितनकोष्ठकाद् गणने एकाक्रान्तकोष्ठे लब्धाः षण्णवतिः / चतुर्थपतौ दृष्टो द्विकः प्राग्वद् गणने द्विकाक्रान्तकोष्ठे लब्धाऽष्टादश / तृतीयपतौ दृष्टस्त्रिकः प्राग्वद् गणने त्रिकाक्रान्तकोष्ठे लब्धाश्चत्वारः। द्वितीयपतौ दृष्टश्चतुष्कः प्राग्वद् गणने चतुष्काक्रान्तस्थाने लब्ध एकः / आद्यपतौ दृष्टः पञ्चकः प्राग्वद् गणने पञ्चकाक्रान्तकोष्ठे लब्ध एकः / सर्वलब्धमीलने जातं विंशत्युत्तरं शतम् / ततो विंशत्युत्तरशतसंख्योऽयं भङ्ग इति वाच्यम् / 10 एवं ज्येष्ठमङ्कमादौ दत्त्वाऽधस्तनकोष्ठेभ्यो गणनेऽपीयमेव संख्या, यथा-अन्त्यपतौ दृष्ट एककः सर्वज्येष्ठं तमादौ दत्त्वा गणने एककाक्रान्तकोष्ठे लब्धाः षण्णवतिः 96 / चतुर्थपड्तौ पूर्व स्थितत्वेन ज्येष्ठमेवमेककं मुक्त्वा द्विकं ज्येष्ठमादौ दत्त्वा प्राग्वद् गणने द्विकाक्रान्तकोष्ठे लब्धाः 18, एवं तृतीयपतौ थयो। बीजी पंक्तिमा बे छे, अहीं पण प्रथम कहेली रीति प्रमाणे ज्येष्ठ एकने छोडीने द्विक ज्येष्ठने आदिमां करीने गणतरी करवाथी द्विकथी युक्त कोठामा एक लब्धांक आव्यो / प्रथम पंक्तिमा ज्येष्ठ 15 एक अने बेने छोडीने त्रण ज्येष्ठने आदिमां करीने गणतरी करतां त्रणथी युक्त कोठामा एक लब्धांक आव्यो / आ बधा लब्धांकोने मेळववाथी वीस थया / आ रीते पण आ वीसमो भांगो थयो। बीजुं उदाहरण-५४३२१ आ कयो भांगो छ ? अंतिम पंक्तिमा एक छे, तेथी सर्व लघु पांचने आदिमां करीने उपरना कोठाथी गणतां एकथी युक्त कोठामा छन्नु लब्धांक आव्या। चोथी पंक्तिमां बे देखाय छे, पूर्वानुसार गणतरी करवाथी 20 बेथी युक्त कोठामा 18 लब्धांक आव्या / त्रीजी पंक्तिमां त्रण देखाय छे, * पूर्वानुसार गणतरी करवाथी त्रणथी युक्त कोठामा एक लब्धांक आव्यो। बधा लब्धांकोने मेळववाथी एकसो वीस थया, तेथी आ एकसो वीसमो भांगो छ। तेवी ज रीते ज्येष्ठ अंकने शरूआतमां करीने नीचेना कोठाओथी गणतरी करतां आ ज संख्या थाय छ। 25 जेम छेल्ली पंक्तिमां एक देखाय छे, तेथी सर्व ज्येष्ठ ते एकने आदिमां करीने गणतरी करवाथी एकथी युक्त कोठामा 96 लब्धांक आव्या। चोथी पंक्तिमा पूर्व रहेल होवाने कारणे ज्येष्ठ एकने छोडीने वे ज्येष्ठने आदिमां करीने पूर्वानुसार गणतरी करतां बेथी युक्त कोठामा अढार लब्धांक आव्या। आवी ज रीते त्रीजी पंक्तिमा पूर्वस्थित एक अने बेने छोडीने त्रणने आदिमां करीने गणतरी करतां त्रणथी युक्त स्थानमां चार लब्धांक आव्या / बीजी पंक्तिमा पूर्वस्थित होवाने लीघे ज्येष्ठ 1 °क्रान्तकोछ / 2 एकः / Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 423 पूर्वस्थितावेक-द्विको मुक्त्वा त्रिकमादौ दत्त्वा गणने तदाक्रान्तकोष्ठके लब्धाः 4, द्वितीयपकावेकक-द्विकत्रिकान् ज्येष्ठानपि पूर्व स्थितत्वेन मुक्त्वा शेषं ज्येष्ठं चतुष्कमादौ दत्त्वा गणने लब्ध एकः, एवमाद्यपतौ पञ्चकाक्रान्तस्थाने लब्ध एकः सर्वमीलने जातं 120 / ___ अथ तृतीयमुदाहरणं यथा-१, 2, 3, 4, ५-अयं कतिथ इति पृष्टे सर्वलघु पञ्चकमादौ दत्त्वोपरितनकोष्ठकाद् गणने पञ्चकाक्रान्तस्थाने लब्धं शून्यम्०, एवं चतुर्थपतौ पञ्चकं पूर्वस्थितं मुक्त्वा / चतुष्कमादौ दत्त्वा गणने चतुष्काक्रान्तस्थाने लब्धं शून्यम् / तृतीयायां प्रोक्तरीत्या त्रिकमादौ दत्त्वा गणने लब्धं शून्यम् / एवं द्वितीयायामपि / आद्यपत्रौ शेषमेकमादौ दत्त्वा गणने एकाक्रान्तकोष्ठे लब्ध एकः, ततः प्रथमोऽयं भङ्गः / एवमधस्तनकोष्ठकाद् गणने यथा-ज्येष्ठमेकमादौ दत्त्वाऽधस्तनकोष्ठाद गणनेऽन्त्यपतौ पञ्चकाक्रान्तकोष्ठे चतुर्थपतौ चतुष्काक्रान्तकोष्ठे तृतीयपतौ त्रिकाक्रान्तकोष्ठे द्वितीयपतौ लब्धानि शून्यानि, आद्यपतौ लब्ध एककः, ततः प्रथमोऽयं भङ्गः / एवं सर्वत्र ज्ञेयम् // 25 // 10 आनुपूर्वीप्रभृतिभङ्गगुणने माहात्म्यमाह इअ अणुपुश्विप्पमुहे भंगे सम्मं वियाणिउं जो उ / भावेण गुणइ निचं सो सिद्धिसुहाई पावेइ // 26 // एवा एक, बे अने त्रणने छोडीने शेष ज्येष्ठ चारने आदिमां करीने गणतरी करतां एक लब्धांक आव्यो। तेवी ज रीते प्रथम पंक्तिमां पांचथी युक्त स्थानमा एक लब्धांक आव्यो। बधाने मेळववाथी 15 120 थया। हवे त्रीजुं उदाहरण आपे छे–१२३४५–आ कयो भांगो छ ? सर्व लघु पांचने आदिमां करीने उपरना कोठाथी गणतरी करतां पांचथी युक्त स्थानमा शून्य लब्धांक आव्यो / एवी ज रीते चोथी पंक्तिमा पूर्वस्थित पांचने छोडीने चारने आदिमां करीने गणतरी करतां चारथी युक्त स्थानमां शून्य लब्धांक आव्यो। त्रीजी पंक्तिमा प्रथम कहेली रीत प्रमाणे त्रणने आदिमां करीने गणतरी करतां शून्य लब्धांक आव्यो / तेवी ज रीते बीजी पंक्तिमां 20 पण प्रथम पंक्तिमा शेष एकने आदिमां करीने गणतरी करतां एकथी युक्त कोठामा एक लब्धांक आव्यो, तेथी आ प्रथम भांगो छ। तेवी ज रीते नीचेना कोठाथी गणतरी करतां पण आ ज संख्या थाय छे, जेम ज्येष्ठ एकने आदिमां करीने नीचेना कोठाथी गणतरी करवाथी छेल्ली पंक्तिमां पांचथी युक्त कोठामां, चोथी पंक्तिमां चारथी युक्त कोठामां, त्रीजी पंक्तिमा त्रणथी युक्त कोठामां तथा बीजी पंक्तिमां बेथी युक्त 25 कोठामा शून्य लब्धांक आव्यो / प्रथम पंक्तिमा एक लब्धांक आव्यों, तेथी आ प्रथम भंग छे॥२५॥ श-आवी ज रीते आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी अने पश्चानुपूर्वीना भांगाओने सारी रीते जाणीने जे आने भावपूर्वक प्रतिदिन गणे छे ते मोक्षनां सुखोने प्राप्त करे छे // 26 // ___1 °मादिं कृत्वो।। 2 भागणनमाह / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमिडिनमुकारमहधुतं / जं छम्मासियवरिसियतवेण तिव्वेण झिज्झए पावं / नमुकारअणणुपूवीगुणणेण तयं खणद्धेण // 27 // जो गुणइ अणणुपूवीभंगे सयलेवि सावहाणमणो। दढरोसवेरिएहिं बद्धो वि स मुच्चए सिग्धं // 28 // एएहिं अभिमंतियवासेणं सिरसि खित्तमित्तेणं / / साइणि-भूअप्पमुहा नासंति खणेण सव्वगहा // 29 // अन्ने वि य उवसग्गा रायाइभयाइँ दुट्ठरोया य / नवपयअणाणुपुवीगुणणेणं जंति उवसामं // 30 // तवगच्छमंडणाणं सीसो सिरिसोमसुंदरगुरूणं / परमपयसंपयत्थी जंपइ नवपयथयं एयं // 31 // पंचनमुक्कारथयं एयं सेयंकरं तिसंझमवि / जो झाएइ लहइ सो जिणकित्तियमहिमसिद्धिसुहं // 32 // व्याख्या-एताः सप्तापि स्पष्टार्थाः // एष श्रीपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमहामन्त्रः सकलसमीहितार्थप्रापणकल्पद्रुमाभ्यधिकमहिमा शान्तिक15 पौष्टिकाद्यष्टकर्मकृद् ऐहिक-पारलौकिकसकलसमीहितार्थसिद्धये यथाश्रीगुर्वाम्नायं ध्यातव्यः // 26-32 // श्रीमत्तपागणनभस्तरणेविनेयः, श्रीसोमसुन्दरगुरोर्जिनकीर्तिसूरिः / स्वोपज्ञपञ्चपरमेष्ठिमहास्तवस्य, वृत्तिं व्यधाजलँधि-नन्द-मनुप्रमाब्दे (1494) // 1 // इति श्रीजिनकीर्तिसूरिविरचिता नमस्कारस्तववृत्तिः / श-जे पाप छ महिनाना के वर्षभरना उम्र तपथी नाश पामे छे, ते पाप नमस्कार20 मंत्रधी अनानुपूर्वीने गणवाथी अडधी क्षणमां विलीन थाय छे // 27 // . श-जे मनुष्य एकाग्रचित्ते अनानुपूर्वीना बधाय भांगाओने गणे छे, ते अतिरोपे भरायेला दुश्मनोथी बंधायेलो होवा छतां पण शीघ्र ज मुक्तदशाने पामे छे // 28 // श०-आनाथी अभिमंत्रित वासक्षेप मस्तक ऊपर नाखवा मात्रथी शाकिनी-भूत वगेरे तथा बधा ग्रहो क्षणभरमां नष्ट थई जाय छे // 29 // 25 श०-नवपदोनी अनानुपूर्वीने गणवाथी बीजा पण उपद्रवो, राज वगेरेना भय तथा दुष्ट रोगो शान्त थई जाय छे / / 30 // ____तपगच्छना आभूषण समान श्रीसोमसुंदर गुरुना शिष्य अभिलाषी, परम-पद (मोक्ष )रूप सम्पत्तिना आ नव-पद-स्तोत्र (पंच-परमेष्ठि-नमस्कार-स्तोत्र )ने कहे छे // 31 // सुखकर एवा पंचनमस्कार-स्तोत्रनुं जे त्रणे काळे ध्यान करे छे ते, जेनी महिमा स्वयं 30 जिनेश्वरोए वर्णवी छे एवा मोक्ष-सुखने पामे छ। (आ श्लोकमां "जिनकीर्ति") ए प्रमाणे कर्ताए पोतानुं नाम पण सूचित कयु छे // 32 // Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 425 परिचय आ स्तोत्रनी अनेक प्रतिओ हस्तलिखित जैन ज्ञानभंडारोमाथी मळी आवे छे / जैनानन्द पुस्तकालय-सूरत, डेला जैन उपाश्रय ज्ञानभंडार-अमदावाद, वर्धमान जैन आगममंदिर-पालीताणा, शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी हस्तक-शेठ अंबालाल चूनीलाल ज्ञानभंडार-पालीताणा, श्री. विजयमोहनसूरीश्वरजी जैन ज्ञानभंडार-पालीताणा, भांडारकर रीसर्च इन्स्टीटयूट-पूना, पूज्य / आगमप्रभाकर मुनिराज श्री. पुण्यविजयजी महाराजश्रीनो संग्रह तेमज श्री. जिनविजयजी मुनिनो संग्रह वगेरे भंडारोमांथी एक करतां वधु प्रतिओ, जेनी संख्या 24-25 जेटली थाय छे, ते प्राप्त करी हती। अहीं तेमांनी चार प्रतिओने सामे राखीने मूळपाठ तेमज पाठांतरो लेवामां आव्यां छे। J संज्ञावाळी प्रति ते श्री. जिनविजयजी मुनिए संपादित करी छपावेल स्तोत्रनां फॉर्स। संज्ञाथी श्री. जिनविजयजी मुनिए जेनी उपरथी पाठांतरो लीधां ते प्रति / / A संज्ञाथी जैनानन्द पुस्तकालय-सूरतना ज्ञानभंडारनी नं. 2407 नी 2 पत्रोनी प्रति, जेनी फोटोस्टेटिक कॉपी जैन साहित्य विकास मंडळना संग्रहमा छे, ते प्रतिने आदर्श तरीके लेवामां आवी छ। P संज्ञाथी जैनानंद पुस्तकालय-सूरतनी नं. 2394 नी प्रतिमांथी पाठांतरो लेवामां आव्यां छे। 15 आ स्तोत्र टीका अने हिंदी अनुवाद साथे 'मंत्रराजगुणमहोदधि' नामे ले. पं. श्री. जयदयाळ शर्मा, बिकानेरथी प्रसिद्ध थयुं छे / आ स्तोत्रनी स्वोपज्ञव्याख्या साथे रचना करनार श्री. जिनकीर्तिसूरि छे / तेमणे मूळ स्तोत्रनी 31 मी गाथामां पोताना गुरु श्री. सोमसुंदरसूरिनो उल्लेख कर्यो छे अने टीकामां आ स्तोत्रनी रचनानो संवत् 1494 नोंध्यो छे। - गुरु श्री. सोमसुंदरसूरिए तेमने देवकुलपाटमां आचार्यपदवी आपी हती। ए पदवीनो महोत्सव देवकुलपाटकना लाखा राजा. (वि. सं. 1439-1475) ना मान्य श्रेष्ठी वीशलना पुत्र चंपक श्रेष्ठीए को हतो। श्री. जिनकीर्तिसूरिए गिरनार उपर बेदरनगरना पातशाहना मान्य श्रेष्ठी पूर्णचंद्र कोठारीए बंधावेला जिनमंदिरनी प्रतिष्ठा करी हती / श्री. जिनकीर्तिसूरिए रचेला ग्रंथोमां नीचे मुजबना ग्रंथो उपलब्ध थाय छे:-(१) नमस्कार-25 स्तव-स्वोपज्ञ व्याख्यासहित, (2) उत्तमकुमारचरित, (3) श्रीपालगोपालकथा, (4) चंपकवेष्ठिकथा, (5) पंचजिनस्तवन, (6) धन्यकुमारचरित-दानकल्पद्रुम, सं. 1498, (7) श्राद्धगुणसंग्रह / आ स्तोत्र गणित विषयतुं होवाथी गाथाओना शब्दार्थ आपवा मात्रथी वाचकोने समजवामां मुश्केली पडे एम हतुं तेथी तेनुं सविस्तर विवेचन अहीं आपवामां आव्युं छे / __ 'नमस्कारव्याख्यानटीका'मां जणाव्युं छे के, पंच परमेष्ठीना जाप पूर्वानुपूर्वी, अनानुपूर्वी 30 अने पश्चानुपूर्वीपूर्वक गणवाथी चूडामणिशास्त्र अथवा निमित्तथी सिद्धि प्राप्त थाय छे / आ दृष्टिए आ स्तोत्रनुं महत्त्व विशेष प्रकारे छ / 20 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 10 [24] परमेट्रिथ यं। ओमिति नमो भगवओ अरिहंत-सिद्धायरिय-उवज्झाय / रसवसाहुमुणि-संघ-धम्मतित्थप्पवयणस्स // 1 // सप्पणव-नमो तह भगवईइ सुयदेवयाइ सुहयाए / सिक्संतिदेवयाणं सिवपवयणदेवयाणं च // 2 // इंदागणि-जम-नेरइय-वरुण-चाउ-कुबेर-ईसाणं / बंभो नागु त्ति दसहमवि य सुदिसाण पालाणं // 3 // सोम-यम-वरुण-वेसमण-वासवाणं तहेव पंचण्हं / तह लोगपालयाणं सूराइगहाण य नवण्हं // 4 // साहतस्स समक्खं मज्झमिषं चेव धम्मणुट्ठाणं / सिद्धिमकिग्धं गच्छउ जिमाइनवकारओ धणियं // 5 // अनुवाद ॐ पूज्य अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व उत्तम साधुओ, मुनिओ, संघ, धर्म, 15 तीर्थ अने प्रवचनने नमस्कार थाओ // 1 // वळी, सुखने आपनारी भगवती श्रुतदेवताने, शिव अने शांति आपनार (शांति ) देवताओने, तेमज शिव (मंगल) प्रवचन (अधिष्ठायक ) देवताओने प्रणव-ॐ पूर्वक नमस्कार थाओ // 2 // वळी, पोतानी दिशानुं पालन करनारा इंद्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्म अने नाग-ए दशे दिक्पालोने ॐ पूर्वक नमस्कार थाओ // 3 // 20. वळी, सोम, यम, वरुण, वैश्रवण ( कुबेर ) अने वासव-ए पांचने, लोकपाल देवोने तथा सूर्य आदि नवग्रहो ( सूर्य, चंद्र, मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु अने केतु ) ने पण ॐपूर्वक नमस्कार थाओ॥ 4 // जिन आदि ( ने करेला ) नमस्कारना प्रभावथी, उपर्युक्त बधानी समक्ष थतुं आ मारु धर्मानुष्ठान निर्विघ्नपणे अत्यंत ( उत्कृष्ट ) सिद्धिने पामो // 5 // परिचय आ 'परमेष्ठिस्तव' 'प्रतिष्ठाविधि' माथी मळ्| छ / प्रतिष्ठाविधि, दीक्षाविधि वगेरे धर्मानुष्ठानो करतां विघ्नोना निवारण अर्थ आ स्तोत्रनो पाठ करवामां आवे छे। आ स्तोत्रमा मंत्र-विद्या गूयेली छे / आ स्तोत्र पछी आपवामां आवेला 'गणिविजा' स्तोत्रनी शरुआतमां जे 'गनिविद्या' आपेली छे ते आ स्तोत्रनो विद्योद्धार छे। एटले ए विद्यानो 30 अहीं अलग पाठ आप्यो नथी। __. आ स्तोत्रनो साधनविधि अने महिमा 'गणिविद्या' स्तोत्रथी समजी लेवो / स्तोत्रना कर्ता विशे कई निर्देश मळ्यो नथी। 25 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [25] सिरिगणिविज्जा थुत्तं // श्रीगुरुभ्यो नमः // अथ गणिविजा-“ॐ नमो भयवओ अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवझाय-सव्वसाहु-धम्म तित्थपवयणस्स, ॐ नमो भगवईए सुयदेवयाए संतिदेवयाए सव्वपवयण-5 देवयाणं दसण्हं दिसापालाणं पंचहं लोगपालाणं च' (? : ठः) स्वाहा।" एयाए विजाए हिअयनिहित्ताए धम्मकजाई।। जो आरंमेइ पुरिसो स एव पयमुत्तमं लहई // 1 // जेसिमिमो उवएसो गुरूहि संकेइओ हि उवएसा / ते पुजा भुवणस्स वि भवंति अइरेण कालेण // 2 // एयम्मि सिद्धभुवणत्थपरममंगल्लपवरकल्लाणे।। पंचपरमेट्ठिकित्तणमंतक्खरवीअगन्मम्मि // 3 // अरिहंतपवयणाधारसव्वजगजीवहिअकरुवएसे / कहियव्वे सोयव्वे धनाण मई परिप्फुरई // 4 // इह-परलोगस्स कए सविसेसत्थं गुरुवएसेण / / जो नाम जवइ पुरिसो सो लहई सव्वकजाई // 5 // अनुवाद गणिविद्या-“ॐ नमो भयवयो अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहु-धम्मति त्थपवयणस्स, ॐ नमो भगवईए सुयदेवयाए संतिदेवयाए सव्वपवयणदेवयाणं __दसण्हं दिसापालाणं पंचण्डं लोगपालाणं चे (? ठः ठः) स्वाहा // " 20 -- आ ( गणि) विद्याने हृदयमा स्थापन करवापूर्वक जे पुरुष धर्मकार्योनो आरंभ करे छे, ते खरेखर उत्तमपदने प्राप्त करे छे // 1 // __श्री जिनवचनमाथी गुरुए जेओने आ (विद्यानो ) उपदेश आप्यो छे तेओ थोडा ज समयमां जगतने पूज्य थाय छे // 2 // सिद्ध छे भुवनना अर्थो जेमा, परम मंगल अने परम कल्याणरूप, पंचपरमेष्ठिकीर्तन, मत्रा- 25 क्षरो अने मत्रबीजथी गर्भित (एवी आ विद्याने बतावनार) श्रीअरिहंत परमात्माना शासनना आधारभूत अने जगतना सर्व जीवोने हितकर एवा आ उपदेशने विषे कहेवामां तेमज सांभळामां धन्य आत्माओनी मति स्फुरायमान थाय छे। (कथन अने श्रवण धन्य आत्माओने ज प्राप्त थाय छे।)॥३-४॥ गुरुना उपदेशथी आ लोक अने परलोकने माटे जे कोइ पुरुष आ विद्याने विशेष अर्थ 30 सहित (अर्थज्ञानपूर्वक) जपे छे ते सर्व कार्योने प्राप्त करे छे-सिद्ध करे छे // 5 // 1 हीं णमो 2 लोगपालाणं ॐ ह्रीं अरिहंत देवं नमः-आ 1 अने 2 पाठांतर महाप्राभाविक नवस्मरण पृ. 74 मां आपेल छे. 3 कित्तणं-अहीं 'देवनागसुवण्ण.' इत्यादिनी जेम अनुसार लाक्षणिक छे. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 [प्राकृत सिरिगणिविजाथुत्तं। एयं तं किं पि परं गूढत्थं परमकारणं जेण / सिझंति सयलहियइच्छियाई विनायमित्तेण // 6 // एयस्स कए लोओ गंधसहस्साणुवालणे मूढो / अणुदियह पराय(इ)जइ उवएसब्भासपरिहीणो // 7 // सो उवएसब्भासो अणाइसिद्धो जिणिंदसमयम्मि / फुरइ सुसाहु-सावयजणस्स नन्नस्स भुवणित्थ // 8 // जह केवलिपन्नत्तं परलोगहियं तहा कयत्थेण / तं नजइ उवएसो तत्थ य कीरिजइब्भासो // 9 // धम्मदिसादेसविऊ पंचपरमिट्ठिसंथवाहिगमो। तिहुयणपुनपसत्थो समत्थ(त्तसुत्तत्थपरमत्थो // 10 // अरिहंताण य वयणे ठियकप्पमणुत्तरे महाभागे। सुस( ससु )रासुरजगमहिए ठाऊण दढं पयत्तेणं // 11 // जो अब्भसिजंतं पुण तग्गयमणसो जहुत्तविहिणा उ / छम्मासम्भंतरओ सो पावइ विउलरिद्धीओ // 12 // 15 आ ते कांइ पण परम गूढार्थ छे अथवा परम कारण छे, के जेने जाणवामात्रथी सकल . मनोवांछितोनी सिद्धि थाय छे // 6 // आ (मनोवांछित )ने पामवा माटे मूढ लोको हजारो औषधिओर्नु अनुपालन (संमिश्रणादि रासायणिक प्रक्रियाओ) करे छे (बीजो अर्थ:-हजारो ग्रंथोनुं परिशीलन करे छे); छतां उपदेश अने अभ्यासथी रहित एवा ते प्रतिदिवस पराजित थाय छे-खेद पामे छे / / 7 // 20 ते उपदेश अने अभ्यास श्रीजिनशासनमां अनादि-सिद्ध छे, सुविहित साधुओ अने श्रावकजनोने ते स्फुरे छे, आ जगतमा अन्य कोईने ते स्फुरायमान थतो नथी // 8 // परलोकने विषे हितकर एवा केवलिप्रज्ञप्त तत्त्वने जेवी रीते कृतार्थ आत्मा जाणे छे, तेवी रीते कृतार्थ आत्मा वडे ज आ उपदेश जाणी शकाय छे अने तेमां अभ्यास (प्रयत्न ) करी शकाय छे // 9 // 25 धर्म, दिशा अने देशनो जाणकार, पांच परमेष्ठिना संस्तवना बोधवाळो, त्रण भुवनमा पुण्य वड़े प्रशस्त अने समस्त सूत्रार्थना परमार्थने पामेलो एवो जे महाभाग्यशाली पुरुष, सुर तथा असुरो सहित एवा जगत वडे पूजित अने अनुत्तर एवा श्रीअरिहंत परमात्माना वचनमा रहेला कल्प (आम्नाय )मा प्रयत्न वडे पोताना आत्माने दृढपणे स्थापीने यथोक्त विधि वडे तद्गत मनवाळो (थईने ) अभ्यास करे ते छ मासनी अंदर विपुल ऋद्धिओने पामे छे // 10-11-12 // Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 429 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। उज्झियपावपसंगो धम्मम्मि कयागमो जिअकसाओ। कम्मकलंकविमुक्को खणे खणे होइ विमलप्पा // 13 // जइ तब्भवे न सिज्झइ उत्तमदेवत्तणं पि सो लहइ / / दद्ण सुकुलजम्मं जिणसासणवोहिसंजुत्तं // 14 // हिय[इच्छियाण लोए सामी सो होइ सव्वसुक्खाणं / दारिद्दवाहिजोगं सुविणे वि न पिच्छए दुक्खं // 15 // उहाइ न पडिवक्खो सत्तुब्भावडिओ कहवि होइ (कोइ)। सो तक्खणं विलिजइ सूरालोएण तुहिणु व्व // 16 // कलि-कलह-वेमणस्सं अब्भक्खाणं च सोगसंता / / न सुणेइ नेव पिच्छइ सव्वत्थ जसो लहइ कित्तिं // 17 // ए उवएसु कत्ता सिरिमहापुरिससंभवं जम्मं / तिहुअणसिसा(ला )हणिजं पाएण लहंति किं बहुणा // 18 // दव्वत्थओ अ भावत्थओ य इत्तो पवत्तए लोए / विहिणेयं भयमाणा भविआ सिझंति बुझंति // 19 // नायव्वायरियव्वे परूवियव्वे य जेसि न विसाओ / इत्थं जहोवइढे त एव आराहगा भणिया // 20 // . जेणे पाप प्रसंगनो त्याग कर्यो छे, जेणे धर्ममां ज्ञानपूर्वक प्रयत्न कर्यो छे, जेणे कषायोने जीत्या छे, जे कर्मकलंकथी विमुक्त छे अने जेनो आत्मा क्षणे क्षणे निर्मल थई रह्यो छे, एवो ते जो तद्भवमा मोक्ष न पामे तो उत्तम देवपणुं प्राप्त करे छे, ( ने पछी ) श्री जिनशासननी (मां कहेल) बोधिथी युक्त एवा ( सारा कुलमां) जन्मने पामीने लोकमां मनोवांछित सर्व सुखोनो स्वामी थाय 20 छे, दारिद्य अने व्याधिसहित एवा दुःखने ते स्वप्नमां पण जोतो नथी, शत्रुभावे रहेलो कोई पण तेनो विरोधी उत्पन्न थतो नथी, अथवा कदाच कोई (पूर्वनो) होय तो ते जेम सूर्यना तापथी हिम गळी जाय तेम (ते विरोधी ) गळी जाय छे-नाश पामे छे // 13-14-15-16 // कलि-कलह-वैमनस्य-अभ्याख्यान-शोक अने संताप तेना सांभळवामां के जोवामां आवतां नथी, ते सर्वत्र यश अने कीर्तिने मेळवे छे // 17 // वधुं शुं कहे ?- आ उपदेश प्रमाणे करनार श्रीमहापुरुष (तीर्थकर, गणधरादि )पणानुं कारण अने त्रणे भुवनमा प्रशंसनीय एवा जन्मने प्राप्त करे छे // 18 // ___आनाथी (उपदेशथी ) जगतमां द्रव्यस्तव अने भावस्तवनी प्रवृत्ति थई छे, आने विधिपूर्वक भजता भव्यो सिद्ध थाय छे, बुद्ध थाय छे // 19 // - जेओने यथोपदिष्ट (पूर्वोक्त अर्थने ) विषे जाणवामां, आचरवामां अने प्ररूपवामां विषाद-30 खेद थतो नथी तेओने ज आराधक कह्या छे // 20 // -25 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 सिरिगणिविजाथुत्तं / [प्राकृत नाऊण आयरिजइ आयरमाणो य जं परूवेइ / तं होइ जणादेयं तम्हा तियगस्स वि कमेण // 21 // सिक्खा जहोवइट्ठा पंडियपुरिसेण होइ घेतव्वा / सारसमुच्चयठिइ कप्पवरियचिंताहिगमणेण // 22 // तं मूलुत्तरगुणचरणकरणसम(म्म)त्तनाणसुद्धीए / पवरतरसुक्खपुरं दुल्लहलंभं भवारने // 23 // एसो हु धम्मतित्थो सासयसुक्खाभिलासजीवाणं / उप्पन्नकेवलेहिं उवइट्ठो जिणवरिंदेहि // 24 // एवं (न) भइऊण नरा अणाइकालप्पवाहरूवेणं / / बहवे सिद्धा बुद्धा मुत्ता पत्ता परं ठाणं // 25 // सयलसमीहियकरणीकचित्तचिंतामणिं नमसेह / / पंचपरमिडिरूवं कम्मक्खयकारणं इण्हि / / 26 // काऊण नमोकारं भूअ-भविस्साण वट्टमाणाणं / भरहेरवय-विदेहे सासयलोए ठिअजिणाणं // 27 // "ऊँ नमोत्यु भयवओ जइ-गिहधम्मस्स चउविगप्पस्स / सम्मदंसणमूलस्स धम्मतित्थस्स य तहेव // 28 // तेथी जाणीने आचराय अने आचरण करतो जे प्ररूपे ते लोकोने आदेय थाय छे; ते त्रिकना (ज्ञान-आचार-प्ररूपणाना) क्रमे ज लोकने माटे आदेय थाय छे // 21 // पंडित पुरुषे सारसमुच्चय अने स्थिति कल्प विषे(?) चिंतनपूर्वकना बोध वडे यथोपदिष्ट 20 शिक्षा ग्रहण करवी जोईए / / 22 // मूलोत्तर गुणरूप चरण, करण, सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) अने ज्ञाननी शुद्धिथी सहित एवी उपर्युक्त शिक्षा भवारण्यमां दुष्प्राप्य छे अने श्रेष्ठ प्रकारना सुखोनुं नगर (स्थान) छे // 23 // जेमने केवलज्ञान उत्पन्न थयु छे एवा जिनेंद्रोए शाश्वत सुखना अभिलाषी आत्माओने माटे आ धर्मतीर्थ ( उपदेश) कयुं छे // 24 // 25 आ धर्मतीर्थने सेवीने घणा मनुष्यो अनादिकालथी प्रवाहरूपे सिद्ध थया, बुद्ध थया, मुक्त थया अने परमस्थानने पाम्या // 25 // . (हवे ) सकल समीहितने पूर्ण करवामां अद्वितीय विलक्षण चिंतामणिरूप अने कर्मक्षयना कारणभूत एवा पंचपरमेष्ठिस्वरूपने तमे नमन करो॥ 26 / / (ते आ रीते-) 30 भूत-भविष्य अने वर्तमान कालना, भरत-ऐरवत अने विदेह क्षेत्रना तेमज *शाश्वत लोकमां रहेला जिनोने नमस्कार करीने (नीचे मुजब मन्त्रोच्चारण करवू) // 27 // “ॐ नमोत्थु भयवओ जइ-गिहधम्मस्स चउविगप्पस्स / सम्मदसणमूलस्स धम्मतित्थस्स य तहेव // 28 // * देवलोकादिमा रहेली शाश्वत जिनप्रतिमाओने नमस्कार करीने Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / "ॐ नमोत्थु भयवओ सव्वस्स वि पवयणस्स जणस्स य / सुयसंतीदेवयाए पवयणदेवाण सव्वेसि // 29 // "ॐ नमोत्थु भयवओ इंदाइदिसाहिवजुहुत्तनामाण / धणयाइवासवंताण लोगपालाण पंचण्डं // 30 // "ॐ नमोत्थु भयवओ महइमाहवीरवद्धमाणसामिस्स / भवजलहितारणसहं तित्थमिणं देसियं जेण // 31 // " केसरसंचय चउ-अट्ठपत्त-सोलसदलं तिपागारं / गणिविजापढमपयं तत्थ समोसरणविनासो // 32 // जो आराहिउमिच्छे देवं धम्मं च तत्तचिंताए / तस्सेसो उवएसो सम्मत्तणुजाइणे सिट्ठो // 33 // कयकिच्चो वि नमसइ तित्थयरो केवले समुप्पण्णे / जेणे(स)य मओ इत्तो परमं सरणं जए नत्थि // 34 // “ॐ नमोत्थु भयवओ सव्वस्स वि पवयणस्स जणस्स य / सुयसंतीदेवयाए पवयणदेवाण सव्वेसिं // 29 // “ॐ नमोत्थु भयवओ इंदाइदिसाहिवजुहुत्तनामाण / धणयाइवासवंताण लोगपालाण पंचण्हं // 30 // “ॐ नमोत्थु भयवओ महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स / ___ भवजलहितारणसहं तित्थमिणं देसियं जेण // 31 // ". . [ऊपरनी मत्राक्षर गर्भित गाथाओमा चार प्रकारनो धर्म, धर्मतीर्थ, प्रवचन, श्रुतदेवता, शांतिदेवता, प्रवचनदेवता, इन्द्रादि दिक्पालो, लोकपालो अने आ धर्मतीर्थना उपदेशक श्रीवर्धमान-20 खामीने नमस्कार छ।] ___ वच्चे केसराना समूह युक्त (कर्णिका सहित ) पछी अनुक्रमे चार-आठ अने सोळ पत्र युक्त, त्रण प्राकारवालू कमल चिंतववू, तेमां (वच्चे ) गणिविद्याना प्रथमपद अने समवसरणनी स्थापना करवी // 32 // जे सम्यक्त्वनो अनुयायी (सम्यक्त्वी) तत्त्वचिंतापूर्वक देव अने धर्मनुं आराधन 25 करवा इच्छे छे, तेना माटे आ उपदेश कह्यो छे // 33 // कृतकृत्य एवा श्रीतीर्थंकर भगवंत केवलज्ञान उत्पन्न थया पछी पण जे कारणथी (आ धर्म) तीर्थने नमस्कार करे छे (ते कारणथी) आ तीर्थ मान्य छे, (पूज्य छे); एनाथी उत्तम बीजें शरण जगतमां नथी // 34 // Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . 432 सिरिगणिविजाथुत्तं / [प्राकृत विहिधारणा-समाही-मंडल-मुद्दासणं च एयस्स। . जो नाहि तस्स जए म ठाइ संवट्टमहो तस्स // 35 // असई-कुसील-निह्नव-गब्भपरिस्सावि-गुरुवहणहत्थे / परदारियपाउत्ते सिजासंथारसंघट्टे // 36 // एएसिं पंचमहापावकम्मकारीण संगम दरं / वजित्तु झायमंतं सव्वभयपणासणं कुणइ // 37 // पज्झरइ चंदकंती अमयं कलसो सु(मु)हेण पल्ह(स)त्यो / झचऊवसन्हाओ (?) तेणाहं जाव पिच्छामि // 38 // खीरसमुद्दे धवलं जोयणपरिमंडलं महापउमं / / आरूढो तत्थाहं गुरुवएसप्पभावेणं // 39 // अद्वमहारिद्धीओ हिरि-सिरि-लच्छि-कंति-बुद्धीओ। जय-विजया य जयंती विअरइ अपराजिया वि तहिं // 40 // झाएमि महाइसयं सव्वभयपणासणं महामंतं / / पसमाहाण सु(मु)हो पउमासण-जोगमुद्दाए // 41 // "ॐ नमोत्थु भयवओ सप्परिवाराण भुवणनाहाण। जेसिं संथवणेणं धम्मज्झाणं थिरं होइ // 42 // " जे आ (विद्या )नां विधि, धारणा, समाधि, मण्डल, मुद्रा अने आसनने जाणे छे तेना मुखने बंद करनार (तेने वादादिमा पराजित करनार) आ जगतमां कोई रहेतो नथी (2) // 35 // ___ अनेकवार कुशीलसेवी, निह्नव, गर्भपात करनार, स्वहस्ते गुरुजननो वध करनार अने 20 परदाराए वापरेल शय्या संथारादिनो संघट्ट करनार (परदारासेवी ? )- // 36 // _ आ पांच महापापकर्म करनाराओना समागमने दूरथी वर्जीने ध्यान कराती आ विद्या सर्व भयनो नाश करे छे // 37 // ___ आ ध्यानना प्रभावथी हुं जेमांथी चंद्र जेवी कान्तिवालु अमृत झरी रडुं छे, एवा प्रशस्त कळशने जोउं छु (?) // 38 // 25 पछी, क्षीरसमुद्रमा एक योजनना घेरावावाळु एक श्वेत महापद्म हुं जोउं छं अने तेनी उपर श्रीसद्गुरुना उपदेशना प्रभावथी हुँ आरूढ थयो कुं ( एम चिंत, छं) // 39 // त्यां ही श्री, लक्ष्मी, कांति, बुद्धि, जया, विजया, जयंती अने अपराजिता देवीओ (मने) अष्ट महाऋद्धिओने आपे छे (ए प्रमाणे जोउं छु.)॥४०॥ - त्यां प्रशमना आधान (प्राप्ति )ना सुखवाळो हुं महा अतिशयवाळा अने सर्व भयोनो नाश 30 करनारा महामंत्रनुं पद्मासन अने योगमुद्राए ध्यान करुं छु / / 41 // (ते मन्त्राक्षरो नीचे मुजब छे:-) / "ॐ नमोत्थु भयवओ सप्परिवाराण भुवणनाहाण / जेसिं संथवणेणं धम्मज्झाणं थिरं होइ // 42 // " [अहीं परिवार सहित भुवनना नाथो (?) ने नमस्कार छे, जेओना स्तवनथी. धर्मध्यान 35 स्थिर थाय छे] Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 433 धम्मज्झाणम्मि निरंतरेगचित्तप्पवत्तजोगाण / भवियाण सया देहे देवा संनिज्झयं दिति // 43 // पुत्थयकमलविहत्था सुयदेवी अक्खसुत्तवरहारा। कणयकमंडलुकुसुमं संतिकरी देवया भणइ // 44 // विस-सत्थ-चोर-राउल-गह-भूयभयं च तुज्झ देहम्मि / जम्मसए वि न होही एसा रक्खा कयम्हेहिं // 45 // असमाहाणं देहे जायइ थेवं पि जेण केणावि / / तं न कयाई होही मंतधरो एस अन्नो त्ति // 46 // पाएहिं रक्खपालो कणकमयंको हुआसणो जाणू / उर-नाहि-हिअयपही दो पाया (हत्या) पासमुहसीसं // 47 // धणपालो जयपालो अच्छुत्ता भयवई य वइरुवा / देवा हरिणि (ण) गमेसी वजधरो रक्खए सययं // 48 // ॐ आँ द्राँ णा औं ॐ ह्रीँ श्री क्षिप 3 स्वाहा / ' मतमवागरणपयं विजाणं एत्तकोडीणं॥४९॥ एएहिं अक्खरेहि अब्भुएहिं मंत-विजाणं / जं जं धरइ तं तं [चित्ते ? ] साहइ धुवं पुरिसो // 50 // धर्मध्यानमां निरंतर एकचित्ते जेमना योगो प्रवृत्त थया छे, ते भव्यात्माओना शरीरमां सदाकाळ देवो सांनिध्य करे छे // 43 // जेना हाथमा पुस्तक अने कमळ छे, जे अक्षसूत्र (माळा) अने श्रेष्ठ हारने धारण करे छे ते श्रुतदेवी अने जे कनकनुं कमण्डलु अने पुष्प धारण करे छे ते शान्ति(करी) देवता कहे छे:-॥४४॥20 ___'अमे तारा शरीरमां आ रक्षा करी छे तेथी सेंकडो जन्ममां पण तारा शरीरमां विष, शस्त्र, चोर. राजा. ग्रह अने भतनो भय नहीं थाय // 15 // . जो कोई पण विरोधी साधकना देहमां अल्प पण असमाधि (पीडा) उत्पन्न करवाना प्रयत्न करें तो पण साधकने असमाधि थाय नहीं; कारणके आ मंत्रधर साधक कोई विलक्षण (श्रेष्ठ ) छे (?) // 46 // 25 पगोनी कनकमृगना चिह्नवाळो रक्षापाळ, जानुओनी अग्निदेवता अने छाती नाभि, हृदय, बे हाथ, बे पडखा, मुख अने मस्तकनी अनुक्रमे धनपाल (कुबेर ), जयपाल ( ?), अच्छुप्ता, भगवती वैरोट्या, हरिणगमेषी अने इंद्र सतत रक्षा करे छे // 47-48 // ॐ आँ द्राँ हाँ आँ ॐ ह्रीं श्रीं क्षिप उ स्वाहा'-आने ( आ मंत्रने) करोडो विद्याओनुं अव्याकरण (जेनी व्याख्या न थई शके एq') पद मानेलं छे ( अर्थात् आमां करोडो विद्याओ 30 रहेली छे) // 49 // (?) मंत्रविद्याओना आ अद्भुत अक्षरोथी पुरुष चित्तमा जे जे ( इच्छा ) धारण करे छे ते ते सर्व निश्चये सिद्ध करे छे // 50 // 1 आ देवताओनो ते ते स्थानोमा न्यास करवानो होय एम लागे छे. प्रस्तुतमा न्यासना स्थानोनी ने देवताओनी संख्यानो मेळ मळतो नथी. 'कणकमयको' नो अन्वय अने 'पही' नो अर्थ बेसतो नथी. 2 जेनुं महत्त्व शब्दो न वर्णवी शके एवं. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सिरिगणिविजाथुत्तं / [प्राकृत एसा विजा कजप्पसाहणकरी तह वसीकरणं / थंभण-मोहण-जोहण-उच्चाडण-मारणाईअं॥५१॥ पढमपए ठकारं मंडलबंधम्मि सोलसपयाई / इक्किक्कपरममंतो गुरूवएसेण जो सरइ // 52 // इंद-महिंद समेण वि जोइजइ तस्स न य मुहं कुवियं / किं पुण माणुसमित्तो जो तक्खणि किंकरो होइ // 53 // वज्झिज खुद्दसिद्धी परलोगविरोहिणीओ पावाओ। संतिय-पुट्ठियकजं मुत्तूण न किंचि कायव्वं // 54 // सयलमणोरहसिद्धीपुन्नसमागमफलं च नियमेण / जो जाणइ उवएसं नमंति देवा वि तं पुरिसं // 55 // - [इति ] गणिविज्जाए द्वितीयं (प्रथमं ) पदम् // आ विद्या कार्य- प्रसाधन करनारी छे, वळी वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, योधन, उच्चाटन अने मारण आदि पण करे छे / 51 // प्रथमपद बच्चेनी कर्णिकामा 'ठ' कार अने मण्डलबन्धमां आ विद्याना सोळ पदो चिंतववा, ते एक एक पद परम मंत्र छ / गुरुना उपदेशथी जे आवी रीते स्मरे छे ते इन्द्र अने महेन्द्र जेवाओने पण पोताना कार्यमा जोडी शके छे, ते वखते इन्द्रादिनुं मुख कदीपण कुपित थतुं नथी, (अर्थात् तेओने क्रोध न आवे परंतु हर्षपूर्वक तेओ कार्य करे) तो पछी मनुष्यमात्रनुं तो शुं कहेवू ? ए तो तत्क्षण तेनो किंकर बनी जाय छे / / 52-53 // ___ परलोकनी विरोधी अने पापरूप एवी क्षुद्र सिद्धिओनो त्याग करवो जोईए / शांतिक अने 20 पौष्टिक कर्म सिवाय बीजं कर्म आ विद्याथी करवू न जोईए // 54 // . सकल मनोरथोनी सिद्धि अने पुण्यनो समागम ए जेनुं निश्चित फळ छे एवा आ उपदेशने जे जाणे छे ते पुरुषने देवो पण नमे छे // 55 // परिचय राधनपुरना श्रीलावण्यविजय जैन ज्ञानभंडारमाथी आ स्तोत्रनी बे हस्तलिखित प्रतिओ25 डा. नं. 27, प्रति नं. 1257 अने प्रति नं. 1258 मळी हती। एक प्रति बीजी प्रतिना उतारारूप होवाथी तेमां कोई पाठभेद मळ्यो नथी / नमस्कारमंत्रनुं ध्यान करवा पहेलां शुं करवानी जरूरत छे ए विशे आ स्तोत्र सारो ख्याल आपे छ / आमां नमस्कारमंत्र अंगे 'उपदेश' अने 'अभ्यास' माटे खास भारपूर्वक कहेवामां आव्यु छे अने तेनों महिमा पण बताववामां आव्यो छे; पछी 'गणिविद्या' नु वर्णन अने महिमा बतान्यो छे / 30 खलं जोतां प्रत्येक विद्या अने मंत्र नमस्कारपूर्वक गणवामां आवे तो फळे छे, तेम आ 'गणिविद्या' पण छे अने तेम करवाथी फळदायक बने छे। आ स्तोत्रना कर्ता विशे माहिती मळती नथी। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [26] 15 पंच-महा-परमि टि-संथ यं // तियसिंद-नरिंदनमंसियाण निद्दड्डधाय (इ) कम्माण / निजियरिउनिवहाणं नमो नमो जिणवरिंदाणं // 1 // तिहुयणसिहरम्मि पय (इ) ट्ठियाण निद्ववियमलकलंकाणं / सासयसुहनिलयाणं नमो नमो सव्वसिद्धाणं // 2 // पंचविहायारसमुद्दपारपत्ताण गुणमयंकाणं / आयरियाणं च तहा नमो नमो नाणसूरीणं // 3 // सयलसुओयहिपारंगयाण उवएसदाणदक्खाणं / निच्चमुवज्झायाणं नमो नमो खवियमोहाणं // 4 // अइदुद्धराई पंच वि धारंति महव्वयाई जे मुणिणो / तियलोयबंधवाणं नमो नमो सव्व-साहूणं // 5 // इय 'पंचमहापरमिद्वि-संथयं' जे कुणंति भावेण / पावंति ते अपावा, अजियसुहं निव्वुइं अइरा // 6 // . अनुवाद देवेन्द्रो अने नरेन्द्रोथी नमस्कार करायेला, घातिकर्मोने भस्म करनारा अने वैरी-समूहने जितनारा श्रीजिनेश्वरोने नमस्कार हो, नमस्कार हो // 1 // त्रण लोकना अप्रभाग उपर रहेला, कर्ममलरूप कलंकना अंतने पामेला, शाश्वत सुखोना . . स्थानरूप सर्व सिद्धोने नमस्कार हो, नमस्कार हो // 2 // पांच प्रकारना आचाररूपी समुद्रना पारने पामेला, गुणचंद्ररूप-(चंद्र समान उज्ज्वल 20 गुणवाळा ), तथा ज्ञानरूप सूर्यथी शोभता एवा आचार्योने नमस्कार हो, नमस्कार हो // 3 // समप्र श्रुतज्ञानरूपी समुद्रना पारने पामेला, उपदेश देवामां चतुर अने मोह-अज्ञाननो नाश करनारा एवा उपाध्यायोने नित्य नमस्कार हो, नमस्कार हो // 4 // ___ अति दुर्धर एवा पांचे महाव्रतोने जे मुनिओ धारण करे छे, तथा त्रण लोकना बंधु एवा , सर्व साधुओने नमस्कार हो, नमस्कार हो // 5 // 25 ___आपंच-महापरमेष्टि-संस्तव' ने भावपूर्वक जे भणे छे, ते पापथी रहित बनीने अजेय सुखवाळा मोक्षने जलदी पामे छे // 6 // परिचय आ स्तोत्र प्राचीन हस्तलिखित पत्र उपरथी मळी आव्युं छे। एना कर्ता विशे जाणवामां __ आव्युं नथी। 30 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [27] 10 गया। पंचपरमि द्वि-जयमाला // मणुयणाइंदसुरधरियछत्तत्तया, पंच-कल्लाण-सुक्खावली पत्तया / दंसणं णाण-ज्झाणं अणंतं बलं, ते 'जिणा' दितु अम्हं वरं मंगलं // 1 // जेहिं झाणग्गिबाणेहिं अइथड्डयं, जम्म-जर-मरण-णयरत्तयं दड्डयं / जेहिं पत्तं सिवं सासयं ठाणयं, ते महाँ दिंतु 'सिद्धा' वरं गाणयं // 2 // पंचहाचार-पंचग्गिसंसाहया, बारसंगाइसुयजलहिं अवगाहयो / मोक्खलच्छी महंती महं ते सया, 'सूरिणो' दितु मोक्खंगयासंगयां // 3 // घोरसंसारभीमाडवीकाणणे, तिक्खवियरालणहपावपंचाणणे / णट्ठमग्गाण जीवाण पहदेसया, वंदिमो ते "उवज्झाय' अम्हे सया // 4 // उग्गतवयरणकरणेहिं छीणंगया, धम्मवरझाणसुक्क झाणं गया। णिब्भरं तवसिरीए समालिंगया, 'साहवा (साहू) ते महा मोक्खपहमग्गया // 5 // अनुवाद जेमना उपर मनुष्यो, नागेन्द्रो अने देवताओ वडे त्रण छत्रो धारण करायां छे; जेओ गर्भ, 15 जन्म, व्रत, केवलज्ञान अने मोक्ष ए पांच कल्याणको वडे जगतने सुखश्रेणी आपे छे; तथा जेओ अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तध्यान अने अनन्तबलने प्राप्त थयेला छे ते जिनेन्द्रो 'अरिहंत भगवंतो' अमने परम मंगल आपो // 1 // जेओए पोताना ध्यानरूपी अग्निबाणोथी अत्यंत गर्वित ( दुर्जेय ) एवां जन्म, जरा तथा मरणरूपी त्रणे नगरो बाळी नाल्यां छे तथा जेओए शाश्वत मोक्षस्थानने प्राप्त कयुं छे ते उत्तम 20 'सिद्ध भगवंतो' अमने केवळज्ञान आपो // 2 // दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, वीर्याचार अने चारित्राचार-आ पांच प्रकारना आचाररूपी पंचाग्नि तपनी साधना करनारा, द्वादशांगादि श्रुतसागरमां अवगाहन करनारा अने मोक्षनी अंगता (कारणता-साधनता) ने पामेला एवा 'आचार्य भगवंतो' अमने सदा मोक्षरूपी महालक्ष्मी आपो // 3 // 25 तीक्ष्ण अने विकराळ नखवाळो पापरूपी सिंह जेमा छे एवा घोर संसाररूपी भयानक वनमा (मिथ्यात्व वडे ) सुमार्गने भूली आमतेम भटकता जीवोने ( मोक्षमार्गरूप कल्याणकारी ) सुमार्ग बतावनारा 'उपाध्याय भगवंतो' ने अमे सदा वंदीए छीए // 4 // जेमनुं शरीर घोर तपश्चर्या वडे क्षीण थयुं छे, जेओ श्रेष्ठ एवा धर्मध्यानमां तथा शुक्लध्यानमां लीन छे, तथा तपरूपी लक्ष्मीए जेमनुं गाढ आलिंगन कयु छे ते 'साधु भगवंतो' अमने 30 मोक्षमार्गमा प्रवृत्त करो // 5 // 1 उत्तमाः। 2 अवगाहकाः। 3 मोक्षाजतासंगताः। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 437 नमस्कार स्वाध्याय / एएण थोत्तेण जो पंचगुरू वंदए, गुरुयसंसारघणवेल्लि सो छिदए / लहइ सो सिद्धसुक्खाइवरमाणणं, कुणइ कम्मिधणपुंजपजालणं // 6 // अरिहा सिद्धाइरिया उवझाया साहू पंचपरमेट्ठी। * एयाण णमुक्कारो, भवे भवे मम सुहं दितु // 7 // . आ स्तोत्रवडे जे पंच-परमेष्ठिओने वंदन करे छे ते विस्तृत संसारनी गहन वेलडीने कापे / छे, तथा सिद्धसुखादि उत्तम सन्मानने पामे छे अने कर्मरूपी इंधनना समूहने बाळी नाखे छे // 6 // अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने साधुओ ए पांच परमेष्ठी ( उत्कृष्ट पदमां स्थित ) छ / आ (पांच परमेष्ठीओने ) करेलो नमस्कार मने भवोभवमां कल्याण आपो // 7 // परिचय आ स्तोत्र ‘पूजनरत्नाकर' प्रकाशक:-जैन सिद्धांत ग्रंथमाला, देहली, (पुष्प 3) ना 10 पृष्ठ 78 उपरथी लेवामां आव्युं छे / तेमां पंच परमेष्ठीना गुणो बताववामां आव्या छ / आ स्तोत्रना कर्ता विशे जाणवा मळ्युं नथी, पण कोई दिगंबर जैनाचार्यनी रचना जणाय छ / . Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28] नवकारलहुकुलकं // ' अणेगजम्मंतरसंचिआणं, दुहाण सारीरय-माणसाणं / कत्तो हि भव्वाण हविज नासो, न जाव पत्तो नवकारमंतो // 1 // मंताण मंतो परमो इमुत्ति, धेयाण धेयं परमं इमुत्ति / तत्ताण तत्वं परमं पवित्तं, संसारसत्ताण दुहाहयाणं // 2 // नामाइ मंगलाणं पढमं चिय मंगलं नमुक्कारो। अवणेइ वाहि-तकर-जलणाइ भयाई सव्वाइं // 3 // हरइ दुहं कुणइ सुहं जणइ जसं सोसए भवसमुदं / इहलोअ-पारलोइअसुहाण मूलं नमुक्कारो // 4 // अटेव य अट्ठसया, अट्ठसहस्सं च अट्ट कोडीओ। जो गुणइ भत्तिजुत्तो, सो तईयभवे लहइ मुक्खं // 5 // भो अण्णसमए सयणे विघोहणपवेसणे अ भयवसणे / पंचनमुक्कारो खलु समरिजइ सव्वकजेसु // 6 // नवकारइक्कअक्खर पावं फेडेइ सत्तअयराणं / पण्णासं च पएणं, सागरपणसय समग्गेण // 7 // . .. अनुवाद भव्य मनुष्योए ज्यां सुधी नवकारमंत्रने प्राप्त कर्यो नथी त्यां सुधी अनेक जन्मोमा एकठां करेलां तेमनां शारीरिक अने मानसिक दुःखोनो नाश शी रीते थाय ? // 1 // 20 दुःखोथी आघात पामेला संसारी मनुष्योने माटे आ (नवकार मंत्र ) मंत्रोमां परममंत्र छे, ध्यान करवा योग्यमां आ परमध्येय छे अने तत्त्वोमां परमपवित्र तत्त्व छे // 2 // नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव मंगलोमां आ नमस्कार प्रथम मंगल छे; केमके ते रोग, चोर अने अग्नि वगेरे बधा भयोने दूर करे छे // 3 // ते मंत्र दुःख हरे छे, सुख आपे छे, यश उत्पन्न करे छे, संसाररूप समुद्रने शोषी ले छे / 25 एटले आलोक अने परलोकनां सर्व सुखोनुं मूळ आ नवकारमंत्र छ / // 4 // जे भक्तिवाळो मानवी आठ, आठसो, आठ हजार, अगर आठ करोडवार आ मत्रनो जाप करे छे ते त्रीजे भवे सिद्धि प्राप्त करे छे // 5 // ___जमतां, सूतां, ऊठतां, (नगर वगेरेमा ) प्रवेश करतां, भय आवी पडतां के दुःखमां यावत् बधां कार्योमां आ पंच नमस्कारनुं खरेखर स्मरण करवू जोईए // 6 // 30 नमस्कारनो एक अक्षर सात सागरोपमर्नु पाप नाश करे छे, एक पद वडे पचास सागरोपम अने समग्र नवकार बड़े पांचसो सागरोपमनुं पाप नाश थाय छे // 7 // Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / नवकाराओ अन्नो सारो मंतो न अस्थि तिअलोए / तम्हा य अणुदिणं चिय झायव्वो परमभत्तीए // 8 // नवकारसमो मंतो सितुंजयसमो गिरी। वीतरागसमो देवो न भूतो न भविस्सई // 9 // इति नवकारलघुकुलकम् // निहणइ सव्वभयाइं अहं सव्वं हणइ समइ विग्याई / समरिजंतो हिअए नवकारो नत्थि संदेहो // 1 // त्रण लोकमां नवकारथी सारभूत ( प्रधान ) अन्य कोई मंत्र नथी, तेथी प्रतिदिन परमभक्तिथी तेनुं ध्यान करवु जोईए // 8 // (आ जगतमां) नवकार जेवो मंत्र, शत्रुजय जेवो गिरि अने वीतराग जेवा देव बीजा कोई 10 थया नथी अने थशे पण नहीं // 9 // अंतमां हृदयमां भावपूर्वक स्मरण करातो नवकार सर्व भयोनो नाश करे छे, सर्व पापोनो नाश . करे छे अने सर्व विघ्नोने शमावे छे; एमां लेश पण संदेह नथी // 1 // परिचय आ ‘नमस्कार लघुकुलक' नी एक पानानी हस्तलिखित प्रति श्रीमुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोईना हस्तलिखित ज्ञानभंडारमाथी मळी हती। आ कुलकनी गाथाओ एककर्तृक लागती नथी / संभवतः आ गाथाओनो संग्रह छ / .. वळी आ प्रतिनी साथे 'घणघाइ०' पदथी शरू थ] 28 गाथा- जे स्तोत्र अगाऊ आप्यु छे ते पण हतुं, तेमां ए स्तोत्रनुं ' श्रीनवकार बृहत् कुलक' एबुं नाम आप्युं छे / 15 20 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [29] भत्तपरिन्नासंदभो॥ . (1) आराहणापुरस्सरमणबहियओ विसुद्धलेसाओ। संसारक्खयकरणं तं मा मुंची नमुक्कारं // 76 // 351 // अरिहंतनमुक्कारो इक्कोवि हविज जो मरणकाले / / सो जिणवरेहि दिहो संसारुच्छेअणसमत्थो // 77 // 352 // . मिठो किलिट्टकम्मो नमो जिणाणंतिसुकयपणिहाणो / कमलदलक्खो जक्खो जाओ चोरुत्ति सलिहओ // 78 // 353 // भावनमुक्कारविवजिआई जीवेण अकयकरणाई। गहियाणि अ मुक्काणि अ अणंतसो दवलिंगाई // 79 // 354 // आराहणापडागागहणे हत्थो भवे नमोकारो। तह सुगइमग्गगमणे रहुन्न जीवस्स अप्पडिहो // 80 // 355 // अवाणीऽवि अ गोवो आराहित्ता मओ नमुक्कारं / चंपाए सिहिसुओ सुदंसणो विस्सुओ जाओ // 81 // 356 // अनुवाद तेथी विशुद्ध लेश्यापूर्वक आराधनामां पुरस्सर ( अप्रेसर, प्रगतिशील ) बनीने अने अनन्य हृदयवाळो थईने तुं संसारक्षयने करनार नमस्कारने मूकीश नहीं // 76 // मरणकाळे जो अरिहंतने एक पण नमस्कार थाय तो ते संसारनो नाश करवाने समर्थ छे 20 एम जिनेश्वरोए कहेलुं छे // 77 // ____कठोर कर्म करनारो 'चोर' छे तेथी शूलीथी हणाएलो, 'नमो जिणाणं' ए पदनुं मरण समये सारी रीते ध्यान करतो महावत 'कमलदल' नामे यक्ष थयो // 78 // ___ भाव नमस्कार वगरना पोताना कर्तव्यनी सिद्धि वगरना ( निष्फळ ) द्रव्यलिंगो जीवे अनंतवार ग्रहण कर्या अने मूक्या // 79 // 25 जीवने आराधना-पताका ग्रहण करवामां नमस्कार हाथ समान छे अने सुगतिरूप मार्गे जवामां अस्खलित रथ समान छे // 80 // अज्ञानी एवो गोवाळीओ पण नमस्कारनी आराधना करीने मरण पाम्यो; तेथी चंपानगरमां सुदर्शन नामे प्रसिद्ध श्रेष्ठीपुत्र थयो // 81 // Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 - 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / (2) एअस्स पभावेणं पालिजंतस्स सइ पयत्तेणं / जम्मंतरेऽवि जीवा पावंति न दुक्खदोगचं // 166 // 441 // चिंतामणी अउव्वो एअमपुव्वो अ कप्परुक्खुत्ति / एवं परमो मंतो एअं परमामयसरिच्छं // 167 // 442 // अह मणमंदिरसुंदरफुरंतजिणगुणनिरंजणुजोओ। पंचनमुक्कारसमे पाणे पणओ विसजेइ // 168 // 443 // परिणामविसुद्धीए सोहम्मे सुरवरो महिड्डीओ। आराहिऊण जायइ भत्तपरिनं जहन्नं सो // 169 // 444 // उक्कोसेण गिहत्थो अञ्चुअकप्पंमि जायए अमरो / निव्वाणसुहं पावइ साहू सव्वट्ठसिद्धिं वा // 170 // 445 // अनुवाद हमेशां आदरपूर्वक साधना कराता एवा आ नमस्कारमंत्रना प्रभावथी, जीवो अन्य जन्मोमां पण दुःख अने दुर्भाग्यने पामता नथी // 441 // - आ (मंत्र ) अपूर्व चिंतामणि छे, अपूर्व कल्पवृक्ष छे, परम मंत्र छे अने परम अमृत 15 समान छे // 442 // __ श्रीजिनेश्वर भगवंतना गुणोनो निर्मळ उद्योत जेना मनोमंदिरमा स्फुरायमान छे, एवो ते धैर्यवान पुरुष पंचनमस्कारनी साथे प्राणो छोडे छे // 443 // - 'जो ते गृहस्थ होय अने परिणामनी विशुद्धिपूर्वक भक्तपरिज्ञानी आराधना करे, तो ते जघन्यथी सौधर्म (प्रथम ) देवलोकमां महर्द्धिक श्रेष्ठ देव थाय छे अने उत्कृष्टथी अच्युत कल्पमां 20 (12 मा देवलोकमां) देव थाय छे / जो ते साधु होय तो जघन्यथी सौधर्म देवलोक अने उत्कृष्टथी निर्वाणसुख अथवा सर्वार्थसिद्ध विमान पामे छे // 444-445 // परिचय जीवने अनादिकाळथी आहार साथे गाढ संबंध छ। एक गतिमाथी बीजी गतिमां वक्रगतिए जाय त्यारे जीव एक-बे के त्रण समय आहार वगर रहे छे; पण ए कांई महत्त्वनुं नथी / आहार 25 एटले संसार एम कहेवू होय तो कही शकाय / संसारथी छूटq होय तो आहारथी छूटवु अनिवार्य छ / ए केवी रीते छूटाय तेनो सुंदर विधि 'भक्तपरिज्ञा'मां समजाव्यो छे। आ पयन्नाना कर्ता परमात्मा श्री महावीरस्वामीना शिष्य श्री वीरभद्रमुनि छ। प्रस्तुतमां नमस्कार संबंधी संदर्भ तारवी प्रकट करेल छ / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [30] पंचसुत्तसंदब्भो॥ जावजीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तरपुण्णसंभारा खीणरागदोसमोहा अचिंतचिंतामणी भवजलहिपोया एगंतसरणा अरिहंता सरणं // / तहा पहीणजरामरणा अवेअकम्मकलंका पणट्ठवाबाहा केवलनाणदसणा सिद्धिपुरनिवासी निरुपमसुखसंगया सव्वहा कयकिच्चा सिद्धा सरणं // तहा पसंतगंभीरासया सावजजोगविरया पंचविहायारजाणगा परोवयारनिरया पउमाइनिदसणा झाणज्झयणसंगया विसुल्झमाणभावा साहू सरणं // [-पंचसुत्त'-पावपडिग्घायगुणवीजाहाणसुत्त (1)-] अनुवाद ऐश्वर्यादि ऋद्धिवाळा (भगवंत), त्रणे लोकना ( योग-क्षेम करनारा.) समर्थ नाथ (रक्षक ), अनुत्तर (उंचामां उंचा तीर्थंकरनामकर्म वगेरे) पुण्यना निधान, राग-द्वेष-मोह जेओना निर्मूल क्षय थया छे तेवा, अचिंत्य सुखने विना मागे आपनारा माटे चिंतामणिथी पण अधिक, संसार-समुद्रने तरवा नौका समान अने एकांते शरण करवा योग्य, एवा अरिहंतोनुं मारे 15 जीवं (मुक्त न थाउं ) त्यांसुधी शरण थाओ! अरिहंतो मने शरण आपो! तथा, जेओनां जरा मरण सर्वथा क्षीण थयां छे, कर्मरूपी कलंक जेओने वेदवानां नथी, सर्व प्रकारनी व्याबाधाओ (पीडाओ-दुःखो) जेमनी नाश पामी छे, संपूर्ण ज्ञान अने दर्शन जेओने प्रगट थयां छे, जेओ सिद्धिपुर नामना नगरमां (मोक्षमां) रहेला छे, जगतना कोई सुखनी उपमा जेमां न घटे तेवा अनुपम सुखने जेओ पामेला (भोगवी रह्या ) छे अने जेओ सर्वथा 20 कृतकृत्य छे (जेओने हवे कई कर्तव्य शेष रह्यं नथी), ते सिद्धोनुं मारे (जावज्जीव) शरण थाओ। तथा, प्रशांत अने गंभीर आशय (हृदय ) वाळा, सर्व सावद्य (पाप) व्यापारथी निवृत्त थयेला, पंचविध आचारने (ज्ञानाचारादिने ) यथार्थ जाणनारा, परोपकार करवामां रक्त, पद्म (कमळ ) वगैरेनी उपमावाळा, शुभध्यान अने शास्त्राध्ययनमा सतत उद्यमवाळा अने जेओना भावो उत्तरोत्तर विशुद्ध थया करे छे, तेवा साधुओनुं मारे (जावजीव ) शरण थाओ ! परिचय ____ आ सूत्र घणुं ज प्राचीन छ / एना कर्ता कोई समर्थ पूर्वधर महर्षि होवा जोईए / आमां पांच सूत्रो आपीने साधुओने अत्यंत उपयोगी हकीकतोनुं वर्णन कयु छ / तेमांथी आ संदर्भ, जे नमस्कार विषयने उपयोगी जणायो ते तारवीने अर्थ साथे अहीं प्रगट कर्यो छे। / 25. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] -नमस्कार स्वाध्याय / 443 [31] अंगविजापइण्णय-संदब्भो णमो अरहंताणं, णमो सव्वसिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, णमो महापुरिसस्स महतिमहावीरस्स सव्वण्णू सव्वदरिसिस्स। _इमा भूमीकम्मस्स विजा-"इंदिआली इंदिआलि माहिंदे मारुदि स्वाहा, णमो महा- 5 पुरिसदिण्णाए भगवईए अंगविजाए सहस्सवागरणाए खीरिणिविरणउदुंबरिणिए सह सर्वज्ञाय खाहा, सर्वज्ञाधिगमाय स्वाहा, सर्वकामाय स्वाहा, सर्वकर्मसिद्ध्यै स्वाहा / " क्षीरवृक्षच्छायायां अष्टमभक्तिकेन गुणयितव्या, क्षीरेण च पारयितव्यम् , सिद्धिरस्तु / भूमिकर्मविद्याया उपचार:-चतुर्थभक्तिकेन कृष्णचतुर्दश्यां ग्रहीतव्या, षष्ठेन साधयितव्या अहतवत्थेण कुससत्थरे // 1 // .. . 10 "णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं,णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, णमो आमोसहिपत्ताणं, णमो विष्पोसहिपत्ताणं, णमो सव्वोसहिपत्ताणं, णमो संभिन्नसोयाणं, णमो खीरस्सवाणं, णमो मधुस्सवाणं, णमो कुट्ठबुद्धीणं, णमो पदबुद्धीणं, णमो अक्खीण महाणसाणं, णमो रिद्धिपत्ताणं, णमो चउदसपुवीणं, णमो भगवईए महापुरिसदिनाए अंगविजाए सिद्धे सिद्धाणुमए सिद्धासेविए सिद्धचारणाणुचिन्ने अमियबले महासारे 15 महाबले अंगदुवारधरे स्वाहा / " छटुग्गहणी, छट्ठसाधणी, जापो अट्ठसयं, सिद्धा भवइ // 2 // अनुवाद णमो अर० थी सव्वदरिसिस्स' सुधीनो एक मंत्र छ / ते पछी 'इंदिआली' थी 'स्वाहा' सुधी भूमिकर्मनी विद्या छे, तेनी विधि आ प्रकारे छे क्षीरवृक्षनी ( उंबराना झाडनी, वडना झाडनी, पींपळना झाडनी के रायणना झाडनी) 20 छायामां बेसीने अट्ठमनुं तप करीने आ विद्यानो जाप करवो / तपना अंते खीरथी पारणुं क / आथी भूमिकर्मविद्या सिद्ध थाय छे / भूमिकर्मविद्यानो उपचार-ग्रहणविधि एवो छ के -एक उपवास करीने काळी चौदशना दिवसे आ विद्याने ग्रहण करवी अने छठ-बे उपवास-करीने तेनी साधना करवी / साधनाकाळमां वस्त्रो अखंड (सीव्या विनानां, दग्धादि दोष रहित) वापरवां, तथा शय्या माटे घासना संथारानो 25 उपयोग करवो। __णमो अर० थी स्वाहा' सुधीनी विद्या छे। छठ एटले बे उपवास करीने आ विद्या प्रहण करवी अने छठ-बे उपवास करीने तेनी साधना करवी अने एकसो ने आठवार तेनो जाप करतां आ विद्या सधाय छ। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगविजापइण्णय-संदब्भो। [प्राकृत णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो महापुरिसदिण्णाय अंगविजाए, णमोकारयित्ता इमं मंगलं पउंजइस्सामि, सा मे विजा सव्वत्थ पसिज्झउ, अत्थस्स य धम्मस्स य कामस्स य इसिसस्स आदिच्च-चंद-णक्खत्त-गहगण तारागणाण जोगो जोगाणं णमम्मि य जं सचं तं सच्चं इथं ममं इध पडिरुवे दिस्सउ, पुढवि उदधि-सलिल-अग्मि-मारूएसु य 5 सव्वभूएसु देवेसु जं सच्चं तं सच्च ईध मज्झ पडिरुवे दिस्सउ / " [-अंगविजा- 'तत्थ पढमं गजबंधेणं संगहणीपडलं, पृष्ठ 8] णमो अरहंताणं........दिस्सउ / ', ए मंत्र छ / - परिचय प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस तरफथी ताजेतरमा एटले वि. सं. 2014 मां मुनिराज 10 श्रीपुण्यविजयजी महाराजे संपादित करेल 'अंगविजापइण्णय' नामे फलादेशनो महाकाय ग्रंथ प्रगट. थयो। तेमां अनेक विषयो परत्वे फलादेश सूचव्या छे / ए जोतां भारतीय वाङ्मयमा आवो ग्रंथ हजी सुधी मळी आव्यो नथी। आ ग्रंथना कर्ताए पोतानुं नाम क्यांय पण प्रगट कयु नथी एटले तेनो समय पण चोकस थई शक्यो नथी। भूमिकालेखक डॉ. मोतीचंदे ए ग्रंथनी रचना कुषाणकाळमां थयानुं अनुमान कयुं छे। 15 आ ग्रंथमांथी नमस्कारविषयक त्रणेक मंत्रोनो अहीं संग्रह कर्यो छे / . RAVAVAVAMARDS - - QQoooo Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 445 [32] श्रीमदहरिभद्रसूरिरचित-संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः॥ सूरिखरूपम् देस-कुल-जाई रूवी, संघयणी धिइजुओ अणासंसी / अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवको // 94 // जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्थो देस-कालभावन्नू / आसण्णलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासण्णू // 95 // पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तत्थ तदुभयविहिन्नू। आहरणहेउउवणयणयणिउणो गाहणाकुसलो // 96 // ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो / गुणसयकलिओ एसो, पवयणउवएसओ सुगुरू // 97 // अट्ठविहा गणिसंपय आयाराई-चउबिहिक्किक्का / चउहा विणयपवित्ती, छत्तीसगुणा इमे गुरुणो // 98 // आचार्य- स्वरूप अनुवाद आर्य देश, उत्तम कुळ अने उत्तम जातिमां जन्म पामेला; सौन्दर्यवान् ; दृढसंघयणवाळा; 15 धृतिमान् (धैर्यवंत); निःस्पृही; हित-मित बोलनारा (विकथा न करनारा); मायारहित; स्थिरपरिपाटीवाळा (परिचित ग्रंथोने सूत्र, अर्थ अने तदुभयथी अस्खलित रीते सदा धारण करानरा ); आदेय वाक्यवाळा ( जेमनुं वचन सौने मान्य होय एवा ); जितपर्षद् (पर्षदा जीतनार अर्थात् राज्यसभादिमां पण क्षोभ न पामनारा); जितनिद्र (निद्राने जीतनार अर्थात् अप्रमत्त); मध्यस्थ (शिष्यादिने विष समान भाववाळा ); देश, काळ अने भावने जाणनारा; अत्यंत प्रतिभाशाळी 20 (शीघ्रप्राप्त बुद्धिवाळा अर्थात् परवादीना गमे ते प्रश्ननो उत्तर शीघ्रतः आपवामां समर्थ); भिन्न भिन्न देशोनी भाषाओने जाणनारा; पांच प्रकारना आचारथी युक्त; सूत्र, अर्थ अने तदुभयने जाणनारा ( उत्सर्ग अने अपवादने निपुण रीते कहेनारा); दृष्टांतो, हेतुओ, उपनयो, नयो वगैरेनी निरूपणामां निपुण; ग्राहणामां ( अर्थात् शिष्योने सूत्रादि ग्रहण कराववामां ) कुशळ; स्व-सिद्धांत अने पर-सिद्धांतमा निष्णात; गंभीर (खेदने सहन करनारा); दीप्तिमान् (बीजाओथी अपराजित-25 अधृष्य ); शिव (मोक्षना हेतु होवाथी अथवा तेओ जे प्रदेशमा रहे ते प्रदेशमा मारि वगेरे रोगो शांत थई जता होवाथी मंगळभूत ); सौम्य ( सर्व लोकोना नयन अने मनने प्रिय) अने विनयादि सेंकडो गुणोथी युक्त एवा आचार्य भगवान जिवनचनना उपदेशक होय छे / ( तात्पर्य के उपर्युक्त गुणोथी युक्त एवा आचार्य ज उपदेशने माटे योग्य होय छे / ) // 94-97 // आठ प्रकारनी गणिसंपदा छे। ते दरेकना आचारादि चार चार प्रकार छे। विनयप्रवृत्ति 30 चार प्रकारे छे। आ आचार्यना 36 गुणो छ। ( 32 प्रकारनी गणिसंपदा + 4 प्रकारनी प्रवृत्ति = 36 गुण* ) // 98 // * 1 आचार 2 श्रुत 3 शरीर 4 वचन 5 वाचना 6 मति 7 प्रयोगमति अने 8 संग्रहपरिज्ञा–एम आठ प्रकारनी गणिसंपदा छे. आ आठ गणिसंपदाओना आचार आदि 32 मेदो छे. विशेष जाणवा माटे जुओ:श्रीजिनभद्र क्षमाश्रमणगणिविरचित 'जितकल्पसूत्र'नु खोपज्ञभाष्य, गाथा 160 थी 206. विनय प्रतिपत्ति 4 प्रकारे छे:-१ आचारविनय 2 श्रुतविनय 3 विक्षेपणविनय अने 4 दोषनिर्घातविनय. विशेष माटे जुओ:-'जितकल्पसूत्र, खोपज्ञभाष्य', गाथा 213 थी 240. ऊपरना 36 स्थानोनुं वर्णन जितकल्पभाष्यमां सुंदर रीते आपवामां आव्युं छे.।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत 10 446 संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः सूररहत्खरूपत्वम् सो भावसूरि तित्थयरतुल्लो जो जिणमयं पयासेइ / जिणमयमइक्कमंतो, सो काउरिसो न सप्पुरिसो // 147 // हिंडइ नो भिक्खाए, तित्थयरो तित्थभावसंपत्तो। तहिं जाइ न भिक्खट्ठा, पूरी वत्थासणाईणं // 148 // जं समए जावइयं पवयणसारं लहेइ तं सव्वं / अरिहमिव तहावाई सुद्धं निस्संसओ सव्वं // 149 // जह अरिहा ओसरणे, परिसाइमज्झडिओ पढमजामे / वक्खाणइ सो अण्णं, पूरी वि तहा न अन्नत्थ // 150 // जह तित्थगरस्साणा, अलंघणिजा तहा य सूरीणं / न य मंडलिए भुंजइ, तित्थयरो तहा य आयरिओ॥ 151 // सव्वेसि पूयणिजो, तित्थयरो जहा तहा य आयरिओ। परिसहवग्गे अभीओ, जिणु व्व सूरी वि धम्मकए // 152 // . आचार्य, अरिहंतस्वरूप15 जे श्री जिनेश्वर प्रभुना धर्मने प्रकाशित करे छे ते भावआचार्यने श्री तीर्थकर तुल्य कह्या छे; परंतु जे श्री जिनमतनुं उल्लंघन करे छे ते कापुरुष ( कायर पुरुष-पामर) छे, सत्पुरुष नथी / 147 // तीर्थभावने प्राप्त थयेल एवा श्री तीर्थंकर भगवंत भिक्षार्थे जता नथी तेम आचार्य पण वा, अशन आदिनी भिक्षा माटे जता नथी // 148 // 20 सिद्धान्तने विशे जेटलो ( अथवा जे काळे जेटलो सिद्धान्तनो) सार वर्ते छे तेटलो सर्व सार प्राप्त करी श्री अरिहंत भगवंतनी जेम आचार्य सर्वशुद्ध सिद्धांतना रहस्यने निःसंशयपणे यथार्थ रीते समजावे छे // 149 // समवसरणमा पर्षदाओनी मध्यमां रहेला श्रीअरिहंत भगवंत जेम प्रथम प्रहरमा व्याख्यान आपे छे तेम आचार्य (गणधर ) पण तेवी ज रीते त्यां श्रीअरिहंतनी देशना पछी व्याख्यान 25 आपे छे, पण बीजे स्थाने नहि // 150 // जेम तीर्थकरनी आज्ञा अलंघनीय छे तेम आचार्यनी आज्ञा पण अलंघनीय छ। जेम श्री तीर्थकर भगवंत मांडलीमां भोजन करता नथी तेम आचार्य भगवंत पण मांडलीमां भोजन करता नथी // 151 // जेम श्रीतीर्थकर भगवंत सर्वने पूज्य छे तेम आचार्य भगवंत पण सर्वने पूज्य छ / 30 तेमज परीषहना समूहमां धर्म माटे जेम श्रीतीर्थंकर भगवंत निर्भय छे तेम आचार्य भगवंत पण निर्भय छे // 152 // Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447 X विभाग] - नमस्कार स्वाध्याय। चिंतइ न लोगकजं, विकत्थणं कुणइ नेव संलावं / इक्को चिट्टई धम्मज्झाणे निस्संगयारत्तो // 153 // एवं तित्थयरसमं, नवहा सूरीण भासियं समए / तस्साणाए वट्टणमुन्भावणमित्थ धम्मस्स // 154 // x x सव्वोवि अरिहदेवो, सगुरु गुरू भणइ नाममित्तेण / तेसिं सुद्धसरूवं, पुण्णविहुणा न पावंति // 158 // उपाध्यायखरूपम् सम्मत्तनाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू / आयरियठाणजुग्गो, सुतं वाए उवझाओ // 186 // थिरसंघयणी जाइविसिडकुलवं जिइंदिओ भद्दो। नो हीणअंगुवंगो, नीरोगी वायणादक्खो // 187 // गुरुदत्तपरममंतो, दिक्खोवट्ठावणापइट्ठासु / दक्खो लक्खगुणेहि, संजुओ वायगो भणिओ // 188 // थिरकरणा पुण थेरो, पवित्तिवावारिएसु कजेसु / जो जत्थ सीयइ जई, संतबलो तं थिरं कुणइ // 189 // (श्री तीर्थंकर भगवंतनी जेम ) आचार्य भगवंत पण लोकनुं कार्य चिंतवता नथी ( अर्थात् जनसमुदायनी .सामान्य प्रवृत्तिओमां निरर्थक रस लेता नथी ) तेमज विकथा के संलाप ( निरर्थक वार्तालाप ) करता नथी। निःसंगपणामां तत्पर एवा आचार्य तो धर्मध्यानमां एकाकीपणे लीन रहे छे // 153 // ___ए प्रमाणे सिद्धांतमा आचार्यना नव कल्प तीर्थंकर तुल्य कह्या छे; एवा आचार्यनी आज्ञामां वर्तवं ते अहीं धर्मनी प्रभावना ( उन्नति ) छे // 154 // बधा ज लोको 'अरिहंत ते देव,' 'सुगुरु ते गुरु' (अथवा जैनमतवर्ती बधा संप्रदायना लोको अरिहंतने देव अने पोताना गुरुने सुगुरु)–एम नाममात्रथी कहे छे, पण पुण्यविहीन एवा ए जनो तेमनुं शुद्ध स्वरूप जाणी शकता नथी // 158 // उपाध्यायतुं स्वरूप सम्यक्त्व, ज्ञान अने चारित्रथी युक्त; सूत्र अर्थ अने ते उभयनी विधिने जाणनार, तेमज आचार्यपदने योग्य एवा उपाध्याय सूत्र भणे छे अने भणावे छे // 186 // स्थिर( दृढ ) संघयणवाळा; उत्तम जाति तेमज उत्तम कुम्वाळा; जितेन्द्रिय; भद्र; अंगोपांगनी विकलताथी रहित; नीरोगी; वाचना आपवामां कुशळ; गुरूए आपेल परममंत्रने धारण करनारा; 30 दीक्षा, वडीदीक्षा (उपस्थापना) अने प्रतिष्ठानां कार्योमां निपुण अने लाखो गुणोथी युक्त उपाध्याय कह्या छे // 187-188 // जो कोई साधु प्रवर्तके नियोजेला कार्योमां बलवान होवा छतां सीदाय ( अर्थात् दुर्बल 'मनवाळो बने ) तो तेने ( उपाध्याय ) स्थिर करे छे। (आ रीते साधुने पोतानां कार्योमा) स्थिर करता होवाथी ( उपाध्याय ) 'स्थविर' कहेवाय छे // 189 / / 20 25 .35 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः। [प्राकृत सम्मत्त-नाण-चरणाइसु वत्थाईसु तह विहारेसु / सव्वेसु सहायत्तं, किच्चा संजमथिरो कुणइ // 190 // तव संजमजोगेसु, जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ / असुहं च निवत्तेइ, गणतत्तिल्लो पवित्तीओ // 191 // संघस्सावि पवत्तइ, आयरियाईहि गँजिओ संतो / वच्छल्लपभावणाइसु, महत्तकारी पवित्तीओ // 192 // सुपुण्णजोगवाही, कालग्गहणपभिइअणुट्ठाणो। उज्जमइ उजमावइ, जहजुग्गं सो गणी गच्छे // 193 // इत्यादि / मुनिखरूपम् गीयत्था संविग्गा, निस्सल्ला चत्तगारवासंगा। जिणमयउज्जोयकरा सम्मत्तपभावगा मुणिणो // 227 // उस्सग्गमग्गनिरया वीयपयनिसेविणो वि कारणओ।। तो पुण मूलगुणम्मि, उत्तरगुणेसु वि सइ कइया // 228 // पवज संपत्तं सुपरिक्खिऊण कुलवंता / 15 गिहिवासे वि असंगा, ते साहु चरित्तभद्दकरा / / 229 // इत्यादि // [3, अधिकारः] सम्यक्त्व, ज्ञान अने चारित्रमा तेमज वस्त्रादि विषयोमां के विहारमां-ए सर्वमां सहाय आपीने संयममां स्थिर करे ते ('स्थविर' कहेवाय छे) // 190 // . तप, संयम अने योगमा जे साधु जेने योग्य होय ( एटले जेवा तप वगेरेने योग्य होय ) ते 20 साधुने तेमा प्रवर्तावे अने अशुभ कार्यथी निवारे ते 'प्रवर्तक' गणनी चिंतावाळो (गच्छनो हितचिंतक) कह्यो छे // 191 // ___ आचार्ये वात्सल्य प्रभावना वगेरे कार्योमा प्रवर्तकने नियुक्त कर्ये छते, संघने पण तेवा कार्योमा प्रवर्तावे, ते महत्त्वनां कार्यो करनार 'प्रवर्तक' कहेवाय छे // 192 // __संपूर्ण योगोने वहन करेला होय तथा कालग्रहण वगेरे ( योगना ) अनुष्ठानवाळा होय अने 25 पोते गच्छमां यथायोग्य योगमां उद्यम करे अने बीजाओने करावे ते 'गणी' कहेवाय छे / / 193 // मुनिस्वरूप मुनि महात्माओ गीतार्थ, संविग्न, शल्यविनाना, चार प्रकारना गारवथी रहित, श्रीजिनमतनो उद्योत करनारा अने सम्यक्त्वना प्रभावक होय छे / / 227 / / (वळी मुनिओ) उत्सर्गमार्गमां निरत होय छे, परंतु कारणवशात् बीजा पदने (एटले 30 अपवादने) सेवनारा होय तेमां पण मूलगुणने विषे अने उत्तरगुणने विषे पण कदाचित् एकाद वार ज (अपवादने सेवे छे) // 228 // जेओ कुळवान छे, जेओ गृहवासमां पण असंग ( अनासक्त) हता अने जेओए प्राप्त थयेल प्रव्रज्यानी सारी रीते परीक्षा करीने (प्रव्रज्या माटे पोतानी शक्ति आदिनो विचार करीने ) तेने ग्रहण करी छे, ते साधु महात्माओ चारित्रने सुंदर रीते पाळनारा बने छ / (अथवा बीजो अर्थ:35 आचार्यादिए सारी रीते परीक्षा कर्या पछी जेओ दीक्षाने पाम्या छे एवा....) // 229 // .. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। परिचय ___ आ प्रकरणना कर्ता याकिनीमहत्तरासूनु आचार्यशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरि महाराज छ। तेमना नामयी कोण अपरिचित होय ? जैन साहित्यमां तेमनुं स्थान घणुं ज ऊंचुं छे। _ वि. सं. नी छठी शताब्दीमां (मतांतरे आठमी शताब्दीमा) तेओ विद्यमान हता एम इतिहासज्ञ पुरुषो कहे छे। तेमनो जन्म मेवाडना चित्तोडनगरनां एक राजपुरोहितने त्यां थयो हतो अने तेओ बाल्य-5 काळमां ज न्याय, व्याकरण वगेरे अनेक विषयोना पारंगत बन्या हता। तेमणे दीक्षा केवी रीते लीधी वगैरे तेमना चरित्रथी जाणी लेवू। दीक्षा पछी तेमणे जैन दर्शननो सर्वांगीण सुंदर रीते अभ्यास कर्यो अने तेओ तेमां निष्णात बन्या। तेओश्रीनी जैन दर्शन प्रत्येनी श्रद्धा अने बहुमान केवा उच्च प्रकारना हता, ते तेमना ग्रंथो ज कही आपे छे। विधि प्रत्ये पण तेमनो आदरभाव उच्च कोटिनो हतो। तेओनी कृतिओने जोईने केवळ जैन विद्वानो ज मुग्ध बने छे एवं नथी, जैनेनर 10 विद्वानो पण ते कृतिओनी मुक्तकंठे प्रशंसा करे छे / तेओए आगमो उपर अनेक टीकाओ रची छे अने दर्शन, योग, वगेरे विषयोमां पण अनेक स्वतंत्र ग्रंथोनू सर्जन कर्यु छ। जैन समाज उपर तेमना एटला बधा उपकार छे के जेनुं वर्णन ज न करी शकाय। ' संबोधप्रकरण 'मां देवतत्त्व, गुरुतत्त्व (सुगुरु अने कुगुरुनु स्वरूप), सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, संज्ञा, लेश्या, ध्यान, आलोचना वगेरेनुं सुंदर वर्णन छ। ए ग्रंथमांथी आचार्य, उपाध्याय अने मुनि संबंधी 15 उपयोगी संदर्भ तारवीने अनुवाद साथे अहीं प्रगट करीए छीए। OAD KARO S HTAKA 118ROMA ADDA HEALMA ccocon Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [33] प्रवचनसारोद्धार-तट्टीका-संदर्भः॥ मूलकर्ता-श्रीनेमिचन्द्रसूरिः - टीकाकर्ता-श्रीसिद्धसेनसूरिः // पंचपरमेट्ठिमंते पए पए सत्त संपया कमसो / पजंतसत्त[दह]क्खरपरिमाणा अट्ठमी भणिया // 79 // टीका-तत्र 'पंचपरमेष्ठी त्यादि, पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रे पदे पदे-विवक्षिताभिधेययुक्ते 'नमो अरहंताणं' इत्यादिके, न पुनः सुप्तिड्युक्ते, सप्त संपदः क्रमशो विज्ञेयाः, अष्टमी पुनः पर्यन्ते सप्तदशाक्षरप्रमाणा 'मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवह मंगलं' इति स्वरूपा भणिता गणधरादिभिः, अन्ये तु पर्यन्तवर्तिनीस्तिस्रः सम्पद एवं मन्यन्ते, यथा--'एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो' इति 10 षोडशाक्षरप्रमाणा षष्ठी सम्पत् , 'मंगलाणं च सवर्सि' इत्यष्टाक्षरघटिता सप्तमी संपत्, “पढमं हवइ . मंगलं' इति नवाक्षरनिष्पन्ना अष्टमी सम्पत् , यदुक्तम् अंतिमचूलाइतियं सोलसअट्ठनवक्खरजुयं चेव / जो पढइ भत्तिजुत्तो सो पावइ सासयं ठाणं / / इति, एवमैर्यापथिक्यादिष्वपि सम्पद्विषये यथायथं मतान्तराणि मतिमद्भिर्मन्तव्यानीति / 15 अत्र च यद्यपि 'हवइ-होइ' इत्यनयोरर्थं प्रति न कश्चिद् विशेषः। 'होइ मंगलं' इति च पाठे श्लोको नाधिकाक्षरो भवति तथापि 'हवइ' इत्येव पठितव्यम् , यतो नमस्कारवलयकादिग्रन्थेषु अनुवाद पंचपरमेष्ठीमंत्रमा पदे पदे एकेक संपदा कहेली छे / एम सात संपदा अने छेल्ली आठमी संपदा सत्तर अक्षर संख्यानी जणावेली छे / / 79 // 20 टीका-परमेष्ठीमंत्रमा जणावेलां पदो 'नमो अरिहंताणं' वगेरेमां सात संपदाओ क्रमशः बतावेली छे / आठमी संपदा 'मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ. मंगलं'–ए सत्तर अक्षरोनी छे, एम गणधर भगवंतादिए कहेलुं छे / बीजा केटलाक छेवटनी त्रण संपदाओ माने छ / जेम के. 1. एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो–ए सोळ अक्षर प्रमाणनी छठी संपदा छे। 25 2. मंगलाणं च सव्वेसिं-ए आठ अक्षर प्रमाणनी सातमी संपदा छे। 3. पढमं हवइ मंगलं-ए नव अक्षरोथी उत्पन्न थयेली आठमी संपदा छे। कह्यु छ के छेल्ली त्रण चूलिकामां अनुक्रमे सोळ, आठ अने नव अक्षरोवाळी संपदाओ छ। भक्तिमान् जे जीव तेने भणे के ते शाश्वत एवा स्थानने-मोक्षने पामे के। आ प्रकारे ईर्यापथिकी वगेरेमां पण संपदा विशे बुद्धिमानोए मतांतरो जाणी लेवां / 30 अहीं जो के 'हवइ' अने 'होइ' ए बेमां अर्थनी दृष्टिए कोईपण भेद नथी। वळी, 'होइ मंगलं' ए प्रमाणे पाठमां श्लोक अधिक अक्षरवाळो थतो नथी, (श्लोकना चरणना आठ अक्षरो बराबर जळवाई रहे छे। 'पढमं हवइ मंगलं'-ए पाठमां जेम नव अक्षर थाय छे तेम।) छतां 'हवइ' ए पाठ ज भणवो जोइए; केमके 'नमस्कारवलयक' वगेरे ग्रंथोमां कयुं छे के Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। सर्वमन्त्ररत्नानामुत्पत्त्याकरस्य प्रथमस्य कल्पितपदार्थकरणैककल्पद्रुमस्य विषविषधरशाकिनीडाकिनीयाकिन्यादिनिग्रहनिरवग्रहस्वभावस्य सकलजगद्वशीकरणाकृष्टयाद्यव्यभिचारिप्रौढप्रभावस्य चतुर्दशपूर्वाणां सारभूतस्य पञ्चपरमेष्टिनमस्कारस्य व्याख्यायां प्रस्तुतायां तथाविधप्रयोजनोद्देशेन यन्त्रपद्मादिविरचनायां प्रकृतायां यदा द्वात्रिंशद्दलं पद्ममालिख्यते प्रतिदलं च श्लोकसम्बन्ध्येकैकमक्षरं निवेश्यते तदा नाभौ त्रयस्त्रिंशत्तममक्षरमवश्यं निवेश्यं अन्यथा नाभिभागः शून्य एव स्यात् , मात्रयापि च हीने यन्त्रपद्मादौ / निवेश्यमाने महामन्त्रे तत्साध्यविशिष्टाभीष्टपरिपूर्णफलानवाप्तेरिति 'हवइ 'इत्ययमेव पाठो युक्तः। तथा चैतत्-संवादिपूर्वाचार्यकृतप्रकरणवचनम् __ अट्ठसट्ठि अक्खरपरिमाणु, जिणसासणि नवकार पहाणू / अंतिमचूला तिन्नि पसिद्धा, सोलस-अट्ठ-नवक्खररिद्धा / इत्यादि, ततो नात्राभिमाननर्त्तनं केनापि कृतमिति विमर्शनीयं निमत्सरैरिति / तथा प्रथमं पदेषु 10 ज्ञातेषु यस्यां संपदि यावन्ति पदानि भवन्ति तस्यां तावन्ति सुखेनैव ज्ञायन्त इति // __(पृ० 15-16) सर्व मंत्ररत्नोनी उत्पत्तिनी खाणस्वरूप; श्रेष्ठ; इच्छित पदार्थोने सिद्ध करवामां अद्वितीय कल्पद्रुम समान; विष, विषधर-सर्प, शाकिनी, डाकिनी, याकिनी आदिनो निग्रह करवामां स्वतंत्र स्वभाववाळा; समग्र जगतनुं वशीकरण, आकर्षण वगेरे करवामां अव्यभिचारी प्रौढ प्रभाववाळा; चौदपूर्वोना सारभूत—एवा 15 पंचपरमेष्टीनमस्कारनी प्रस्तुत व्याख्यामां एवा प्रकारनो ('हवइ' पाठ भणवानो) उद्देश छे / कारणके यंत्रनां पद्मो वगेरेनी रचना समये बत्रीश दलनु पद्म बनाववामां आवे छे तेमां प्रत्येक दल-पत्रमा श्लोक संबंधी एकेक अक्षर मूकवामां आवे छे त्यारे नाभिमां-बच्चे तेत्रीशमो अक्षर अवश्य मूकवो जोइए, जो एम करवामां न आवे तो वचलो भाग खाली रहे / यंत्रपद्मादिमां महामंत्रनी एक पण मात्रा ओछी मूकवामां आवे तो तेना साध्यरूप विशिष्ट जे संकल्प तेना पूरेपूरा फळनी प्राप्ति थाय नहीं। आथी 'हवइ' ए 20 ..प्रकारनो ज पाठ उचित छे। वळी, पूर्वाचार्ये रचेला प्रकरणमां आ संबंधमां जणाव्यु छ के-- अंडसठ अक्षरोनुं जेनुं परिमाण छे एवो नवकार जिनशासनमा प्रधान मुख्य छ। छेल्ली त्रण चूलिकाओ प्रसिद्ध छे जे अनुक्रमे सोळ, आठ अने नव अक्षरोथी समृद्ध छ। आ प्रकारे कहेलं छे। आथी आ वचन कोइए गर्वथी नाची ऊठतां कहेलु नथी एम मत्सरअभिमान रहित एवा विद्वानोए विचार जोइए। वळी, प्रथम पदो जाणतां, जे संपदामा जेटलां पदो थाय 25 छे ते संपदामां तेटलां पदो सुखपूर्वक जाणी शकाय छे / परिचय श्रीनेमिचंद्रसूरिए 'प्रवचनसारोद्धार' नामे प्रकरणग्रंथ बारमी शताब्दीमां रच्यो छे, जेमां प्रकरण साहित्यना विशिष्ट पदार्थोनो संग्रह को छे। तेना उपर चौदमा शतकमां थयेला श्रीसिद्धसेनसूरिए मोटी टीका रची छे। 30 ए ग्रंथमाथी नमस्कार संबंधी संदर्भ टीका सहित तारवीने अनुवाद साथे अहीं प्रगट कर्यो छे।। आ संदर्भमां नमस्कारनी संपदाओ अने 'होइ' 'हवइ' पाठनी मीमांसा करी निर्णय आप्यो छे __ अने तेत्रीस अक्षरनी चूलिकाना ध्याननी सुंदर प्रक्रिया बतावी छ / आ नेमिचंद्रसरिए बीजा अनेक ग्रंथोनी रचना करी छ। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... [34] सिरिसिडरिसिरइय 'चंदकेवलिचरिय' संदभो // ससिधवला अरिहंता, सिद्धा वरपम्मरागसंकासा / कणगाभा आयरिआ, उवज्झाया पुण पियंगुनिहा // 45 // अंजणमणिप्पहा तह, लोए सव्वे वि साहुणो विविहा / इय परमेट्ठिपयाई, पंच वि झाइजइ विहिणा // 46 // एयाण नमुक्कारो, पंचण्डं होइ मंगलं पढमं / उडमहोतिरियम्मि वि, एसु चिय सासओ मंतो // 47 // एरवएहिं पंचहि, पंचहि भरहेहिं संपढिाई अ।। अईयअणागयकाले, एसो चिय जिणनमुक्कारो // 48 // सट्ठिसयं विजयाणं, पवराणं जत्थणाइजिणधम्मो / सासयकालो वट्टइ, तत्थ विमो (विसो) चेव नवकारो // 49 // ' जम्मि वासरे पढिजइ, जेणिह जीयस्स होइ फलरिद्धी। अवसाणे वि पढिजइ, जेण मओ सग्गई जाइ // 50 // अनुवाद (श्रीचंद्रकुमारे मुनि पासेथी सम्यक्त्व स्वीकार्यु ते वखते मुनिए नवकार विषे जणाव्यु के हे राजन् !-) 20 अरिहंतो चंद्रमा जेवा श्वेतवर्णवाळा छे, सिद्धो श्रेष्ठ पद्मराग जेवा रक्तवर्णवाळा छे, आचार्यो सुवर्ण जेवा (पीळा) वर्णवाळा छे। वळी, उपाध्यायो प्रियंगु जेवा (नील) वर्णवाळा छे अने सर्व विविध साधुओ पण अंजनमणि जेवा श्याम वर्णवाळा छे। आ पांचेय परमेष्ठिपदोनुं विधिपूर्वक ध्यान करवू जोईए // 45-46 // . ए पंच-परमेटीने करेलो नमस्कार प्रथम मंगल छे अने ऊर्ध्वलोक, अधोलोक तथा तिर्यग्लोकमा 25 पण आ ज शाश्वत मंत्र छे // 47 // पांच भरत अने पांच ऐरावतमां भूत अने भविष्यकाळमां पण आ जिन-नमस्कारनुं ज सम्यक् पठन कराय छे // 48 // प्रवर एवा एकसो ने साठ विजयो के ज्यां जिन धर्म अनादि काळथी शाश्वतरूपे प्रवर्ते छे, त्यां पण आ ज नमस्कार छे // 19 // 30. जन्मदिवसे आ नमस्कार-मंत्र भणाय तो जीवने (आ जन्ममां) समृद्धि प्राप्त थाय छे अने मरण समये भणाय तो मृत जीव सद्गतिमां जाय छे // 50 // 1 सरखावो-'पंचनमुक्कार फल' गाथाः 14. 2 सरखावो–'पंचनमुक्कार फल' गाथाः 5,6. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। आवईहि पि पढिजइ, जेण य लंघेइ आवइसयाई / रिद्धीई पि पढिजइ, जेण य सा होइ वित्थिण्णा // 51 // ' जह अहिणा दट्ठाणं, गारुडमंतो विसं पणासेइ / तह नवकारो मंतो, पावविसं नासइ असेसं // 52 // कि एस कामकुंभो, किंवा चिंतामणीहुय नवकारो। किं कप्पतरू एसो, न हु न हु ताणंपि अहिययरो // 53 // कामघडो देवमणी, सुररुक्खो एगजम्मसुहहेऊ।। नवकारो पुण पवरो, सग्गपवग्गाण दायारो // 54 // " सत्तरि कोडाकोडीसायरमाणे इमम्मि मोहणीये / कोडाकोडी सेसे, नवकारो * मुहजिओ होइ // 55 // जं किंपि परमतत्तं, परमप्पयकारणं च जं किंचि / तत्थ इमो नवकारो, झाइजइ परमजोगीहिं // 56 // पंवन-हरिया-रिहा (ॐ ह्री अर्ह) इइ, मंतहबीयाणि सप्पहावाणि / सव्वेसि तेसिं मूलं, इक्को नवकारवरमंतो // 57 // 10 आपत्तिओमां पण भणाय तो सेंकडो आपत्तिओथी पार ऊतारे छ। संपत्तिमां भणाय तो 15 संपत्तिओनो विस्तार थाय छे / / 51 // जेम सर्पवडे करडायेलाना विषनो गारुडमंत्र नाश करे छे तेम नवकार-मंत्र समग्र पापरूपी विषनो नाश करे छे // 52 // __ शु आ (नमस्कार) कामकुंभ छे ? अथवा चिंतामणि छे ? अथवा तो आ कल्पतरु छे? नहि, नहि, तेनाथी पण अधिक फळ आपनारो छे // 53 // 20 केमके कामघट, चिंतामणि के कल्पवृक्ष तो एक जन्म माटे ज सुखना कारणभूत छे, पण अत्युत्तम नमस्कार तो स्वर्ग अने मोक्षने आपनारो छे / / 54 // ___ सित्तेर कोडाकोडी सागरोपम मोहनीयकर्ममांथी एक कोडाकोडी सागरोपम कर्म बाकी रहे त्यारे जीव आ नमस्कारने उन्मुख बने छे (नवकारने पामे छे) // 55 // ___ जे कंइपण परमतत्त्व छे, जे कंइ पण परमपदनुं कारण छे, ते सर्वनी आदिमां आ नमस्कार-25 उत्कृष्ट योगीओ वडे ध्यान कराय छे // 56 // प्रवण ॐ, ह्रीकार ही तथा अर्हद्बीज अहँ वगेरे जे प्रभावशाळी बीजमंत्रो छे ते सर्वेनु मूळ एक श्रेष्ठ नवकार-मंत्र छे // 57 // 1 सरखावो–'पंचनमुक्कार फल' गाथाः 5,6. 2 सरखावो-'पंचनमुक्कार फल' गाथाः 8. 3 सरखावो-'पंच. नमुक्कार फल' गाथाः 9. 4 सरखावो-'पंचनमुक्कार फल' गाथाः 10. * 'नवकार म्मुहजि(जी)ओ होई' प्रत्यन्तरे / 30 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 सिरिसिरिसिरइय 'चंदकेवलिचरिय' संदभो। [प्राकृत जो गुणइ तत्थ लक्खं, पूएइ विहीइ जिणनमुक्कारं / तित्थयर-नामगुत्तं, सो बंधइ नत्थि संदेहो // 58 // ' अद्वेवय अट्ठसया, अट्ठसहस्सं च अट्ठकोडीओ। जो गुणइ भत्तिजुत्तो, सो तइयभवे लहइ सिद्धिं // 59 // करआवत्तिहिं जो, पंचमंगलं साहुपडिम (12) संखाए / नववारा आवत्तइ, छलंति तं नो पिसायाई // 60 // न य तस्स किंचि पहवइ, डाइणि-वेयाल-रक्ख-मारिभयं / नवकारपहावेण य, नासंति असेसदुरियाई // 61 // थंभेइ जलं जलणं, चिंतियमित्तो वि पंचनमुकारो। 10 अरि-मारि-चोर-राउल-घोरुवसग्गं पणासेइ // 62 // अडवि-गिरि-जलहिमज्झे, भयं पणासेइ चिंतिओ एसो। रक्खइ भवियसयाई, माया जह पुत्त भंडाई (डिंभाइं)॥ 63 // आहि-जर-वाहि-तक्कर-हरि-करि-संगाम-विसहरभयाई / नासंति तक्खणेणं, जिणनवकारप्पहावेणं / / 64 // 15 हियय गुहाए नवकारकेसरी जाण संठिओ निचं / कम्मट्ठगंठि दोघट्टघट्टयं ताण परिणटुं // 65 // तेमां जे (भविक) आ जिन-नमस्कार-मंत्रनों तीर्थमां लाख वार जाप करे .छे अने विधिसर पूजन करे छे, ते तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्मने बांधे छे तेमां संदेह नथी॥ 58 // आठ, आठसो, आठ हजार के आठ करोडवार जे भक्तिपूर्वक (नमस्कार-मंत्र) गणे छे, ते त्रीजा 20 भवमां सिद्धिने प्राप्त करे छे // 59 // करावर्त (शंखावर्तादि) वडे बार संख्याथी नव वार जे पंच-मंगल-नमस्कारनो जाप करे छे, तेने पिशाच वगेरे बाधा पहोंचाडता नथी॥६०॥ अने डाकिनी, वेताल, राक्षस के मरकी वगेरेना भयो तेने कंइ पण करी शकता नथी, तथा आ नमस्कार-मंत्रना प्रभावथी सघळां पापो (अशुभ कर्मो) नाश पामे छे // 61 // आ पंच-नमस्कार चिंतनमात्रथी ज जल अने अग्निने थंभावे छे, तथा शत्रु, महामारी, चोर अने राजकुलवडे थता घोर उपद्रवनो नाश करे छे // 62 // जंगलमां, पर्वत उपर के समुद्रनी मध्यमां आवेला भयनो आ नमस्कार स्मरणमात्रथी नाश करे छे अने जेम माता पोतानां नानां बाळकोनुं रक्षण करे छे, तेम नवकार सेंकडो भविकोनुं रक्षण करे छे // 63 // 30 आ जिन-नमस्कारना प्रभावथी आधि-मानसिक चिंता, ज्वर, अन्य व्याधि, चोर, सिंह, हाथी संग्राम, सर्प आदिना भयो तत्काल नाश पामे छे // 64 // . जेमनी हृदयरूपी गुफामां नमस्काररूपी केसरी सिंह निरंतर वसे छे, तेमना आठ कर्मनी ग्रंथिओरूप हाथीओनो समूह नासी जाय छे // 65 // 1 सरखावो-पंचनमुक्कार फल' गाथाः 12. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 455 नवकारइक्कअक्खर, पावं फेडेइ सत्तअयराणं / पन्नासं च पएणं, पणसय सागर समग्गेणं // 66 // जे के वि गया मुक्खं, गच्छंति य केइ कम्ममलमुक्का / ते सव्वे वि य जाणसु, जिणनवकारप्पहावेणं // 67 // जिणसासणस्स सारो, चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो / जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणइ ? // 68 // परमेटिनमुक्कारो, पणतीसक्खरजुओ सया पवरो / एसो य महामंतो, तुट्ठो चिंतियफलं देई // 69 // [श्रीचन्द्रकेवलिचरित्रे द्वितीयोऽधिकारः, पृष्ठ 24 ] - [प्रकाशक: जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर वि. सं. 1993] (2) तथापि प्राणनाथ ! प्राक्, श्रुतं श्रीगुरुवक्त्रतः / नवकारमहामन्त्रमाहात्म्यमवधार्यताम् / / 47 // शीर्षे कुर्याः शिरस्कं च, मुखे मुखपटं तथा / काये च कवचं वज्रमायुधं हस्तयोदृढम् / / 48 // 10 नमस्कारनो एक अक्षर सात सागरोपमनां पापने दूर करे छे, एक पदथी पचास सागरोपमनुं पाप अने समग्र (संपूर्ण) नवकारवडे पांचसो सागरोपमनुं पाप दूर थाय छे // 66 // . (आज सुधी) जे कोई मोक्षमां गया छे, अने आजे पण कर्ममलथी रहित थईने जे कोई मोक्षमां जाय छे, (तथा भविष्यमां जे कोई पण मोक्षमा जशे,) ते सर्वे आ जिन-नमस्कारना प्रभावथी ज, एम जाणवू // 67 // 20 जिन-शासननो सार अने चौद पूर्वनो समुद्धार एवो नमस्कार जेना मनमां रमे छे, तेने संसार शुं करी शके ? // 68 // पांत्रीश अक्षरोथी युक्त आ पंच-परमेष्ठी नमस्कार सदा उत्कृष्ट महामंत्र छे अने (आराधना वडे) तुष्ट थयेलो आ नमस्कार इच्छित फळने आपे छे // 69 // 25 ....तथापि हे प्राणनाथ ! पूर्वे श्रीगुरु महाराजना मुखथी सांभळेल नमस्कार-महामंत्रना महिमा तमे अवधारण करो। (47) . ('नमो अरिहंताणं' ए पदथी) मस्तक उपर शिरस्त्राण एटले लोढानो टोप छे, (' नमो सिद्धाणं' ए पदथी) मुख पर मुखपट एटले बुकानी छे, ('नमो ‘आयरियाणं' ए पदथी) शरीर पर कवच एटले बख्तर पहेरेलुं छे, ('नमो उवज्झायाणं' ए पदथी) बंने हाथोमां वज्र जेवू मजबूत 30 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 [प्राकृत सिरिसिड्ढरिसिरहय 'चंदकेवलिचरिय' संदब्भो। पादयोः पादरक्षां चामीभिः पञ्चपदैः क्रमात् / आत्मरक्षा विधातव्या, चतुथूलापदैस्तथा // 49 // शिला वज्रमयी भूमी, वो वज्रमयो बहिः।। खातिकाङ्गारसंपूर्णा, वप्रोवं वज्रमण्डपः // 50 // कर्तव्या बाह्यरक्षेयं, दिन प्रति निरन्तरम् / सङ्गामे सङ्कटे मार्गे, रक्षां कुर्या विशेषतः // 51 // एतन्मन्त्राधिराजस्य, प्रभावाद् यान्ति दूरतः। चौरारि-व्याल-चेतालादिभयान्यखिलान्यपि // 52 // नित्यमस्माच जायन्ते, संपदो हि पदे पदे। तदेतद्ध्यानतो भद्रं, वर्ततां तव वर्मनि // 53 // [श्रीसिद्धर्षिरचित-श्रीचन्द्रकेवलिचरितस्य द्वितीयाधिकारे संदर्भः / ] [प्रकाशक : जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि. सं. 1993] 10 हथियार छे अने ('नमो लोए सव्वसाहूणं' ए पदथी) पगमां रक्षा माटेनी मोजडीओ छे; एम धारीने क्रमशः आ पांचे पदोथी आत्मरक्षा करवी। अने ए ज प्रकारे चार चूलिकापदोथी-एटले ('एसो 15 पंचनमुक्कारो' ए पदथी) भूमितल उपर वज्रमयी शिला छे, ('सव्वपावप्पणासणो' ए पदथी) बहार वज्रमय किल्लो छे, ('मंगलाणं च सव्वेसिं' ए पदथी) अंगाराथी भरेली खाई छे अने ('पढमं हवइ मंगलं' ए पदथी) किल्ला उपर ऊंचो वज्रनो मंडप छे एम धारीने प्रतिदिन निरंतर आ प्रकारे 'बाह्यरक्षा' करवी। अने युद्धमां, संकट वखते, मार्गमा विशेष करीने रक्षा करवी। (48 थी 51) * आ मन्त्राधिराजना प्रभावथी चोर, शत्रु, सर्प, वेताल वगेरेयी थता सर्व भयो दूरथी ज चाल्या 20 जाय छे। (52) आ मंत्रथी हमेशां पगले पगले संपत्तिओ प्राप्त थाय छे; तेथी नमस्कारना आवा प्रकारना ध्यानथी प्रयाणमार्गमां तमारु कल्याण थाओ। (53) परिचय 'उपमितिभवप्रपंचाकथा' नामना विशाळकाय कथाग्रंथनी रचना करनार अने एवा बीजा 25 अनेक ग्रंथोना कर्ता तरीके प्रसिद्धि पामेला श्रीसिद्धर्षिगणिए 'चंद्रकेवलिचरित' नामे ग्रंथनी रचना वि. सं. 974 मां करी छे। तेमांथी नमस्कारविषयक बे संदर्भो, जेमा प्रथम संदर्भ प्राकृतमां अने बीजो संदर्भ संस्कृतमा छे, ते तारवीने अहीं अनुवाद साथे प्रगट कर्या छ / आ ए ज सिद्धर्षिगणि छे के जेओ बौद्धो पासे तेमना सिद्धांतो भणवा गयेला त्यारे श्री हरिभद्रसूरिए रचेली 'ललितविस्तरावृत्ति'थी प्रतिबोध पामीने बौद्ध बनतां बची गयेला। श्रीहरिभद्रसूरिए 30 करेला आ उपकारनो तेमणे पोताना ग्रंथमां तेमने 'धर्मबोधकर' कही मानभेर उल्लेख कर्यो छ। * सरखावो-संस्कृत विभागमा 'आत्मरक्षानमस्कारस्तोत्र'। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [35] सिरिदेवभद्दसूरिरइय'कहारयणकोस'संदब्भो॥ कयसम्मत्तथिरत्तो, जइ वि नरो तह वि वंछियं वत्थु / पंचनमोकारे चिय, भत्तिपरो पावए परमं // 1 // अरहंता सिद्धा सूरिणो य उवज्झाय-साहुणो चेव / परमिट्ठिणो हु एते, एयन्नमणं नमोकारो // 2 // एत्तो चिय एयाणं, कीरंतो सायरं नमोकारो। एसो समग्गकल्लाणकारणं, जायइ जियाण // 3 // एक्ककमक्खरं पि हु, पंचनमोक्कारसंतियं जीवो। . बहु-बहुतर-बहुतम-पावखयवसा लहइ भावेण // 4 // सूरो इव तिमिरभरं, पहणइ चिंतामणि व्य दोगच्चं / चिंतियमित्तो य इमो, भयवग्गं नासइ समग्गं // 5 // अनुवाद 15 सम्यक्त्वमां स्थिर वृत्तिवाळो पुरुष पण 'पंच-नमस्कार' प्रत्ये भक्तिवाळो होय, तो ज परमवांछित पामे छे // 1 // अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने साधुओ ए पांच ज परमेष्ठीओ छ। एमने नमन करवू ते नमस्कार छे // 2 // ए पांच परमेष्ठीओ होवाना कारणे ज एमने आदर-विनय सहित करवामां आवतो ए नमस्कार 20 जीवोना समग्र कल्याणना कारणभूत बने छे // 3 // , आ पंचनमस्कारना एक एक अक्षरने पण जीव भाववडे त्यारे ज पामे छे के ज्यारे बहुबहुतर-बहुतम पापक्षय थई गयो होय // 4 // जेम सूर्य अंधकारना समूहनो नाश करे छे, चिंतामणि-रत्न दारिद्यने दूर करे छे तेम चिंतववा मात्रथी ज आ नमस्कार सर्व भयोना समूहने समग्रपणे नाश करे छे // 5 // 25 58 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 सिरिदेवभहसूरिरइय'कहारयणकोस'संदब्भो। [प्राकृत तहा हि नाभिद्दवइ दवो तं, दूमइ न मयाहिवो सुकुद्धो वि। सप्पो वि नाभिसप्पइ, न वि चंपइ मत्तपीलू वि // 6 // सत्तू वि तं न बाहइ, न विराहइ भूय-साइणिगणो वि / चोरेइ तकरो न वि, न कमइ तं वारिपूरो वि // 7 // अहवा किमित्तिएणं ? इहपरलोए स वंछियं लहइ / जस्स मणे नवकारो, 'सिरिदेवो' एत्थुदाहरणं // 8 // [कहारयणकोसो-सामन्नगुणाहिगारो, पृष्ठ-५५] ता तझुग्गयमुवलब्भ, साहुणा चंदणं व मलयाओ। नंदणवणाउ कप्पडुमं, व जलहीउ अमयं व // 131 // पारगयपणीयाओ, पावयणाओ पहाणओ परमो / 'पंचपरमेट्ठिमंतो', उवइट्ठो इट्टसिद्धिकरो // 132 // . जेमके (जे पुरुष आदरपूर्वक अने विनय-सहित पंच-परमेष्ठीओने नमस्कार करे छे तेने) दावानल स्पर्शी शकतो नथी, क्रोधे भरायेलो सिंह पण तेने ईजा करी शकतो नथी, सर्प पण तेनी पासे आवी शकतो नथी, मदोन्मत्त हाथी पण तेने हानि करी शकतो नथी, शत्रु पण तेने पीडा करी शकतो नथी, भूत अने शाकिनीओनो समुदाय पण तेने डरावी शकतो नथी, चोर तेने लूंटी शकतो नथी अने पाणीन पूर पण तेने ओळंगी शक्तुं नथी // 6-7 // 20 अथवा आटलाथी ज शुं ? जेना मनमां नमस्कार छे, ते आ लोक अने परलोकमां पोतानु वांछित पामे छे / श्रीदेव राजा अहीं दृष्टांत छे // 8 // * (2) त्यार पछी ए मुनिराजे ते(राजा)नी योग्यता जाणीने मलयपर्वत उपरथी चंदन, नंदनवनमाथी कल्पवृक्ष अने समुद्रमांथी अमृतनी जेम श्रीतीर्थंकर भगवंते प्ररूपेला उत्तम प्रवचनमाथी इष्टसिद्धि करनार 25 परम पंचपरमेष्टिनमस्कार-मंत्रने उपदेश्यो // 131-132 // ** दृष्टांत माटे जुओ-'कथारनकोष', कथानक 10 मुं. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 459 सम्मत्तनिचलत्तं परमं नरनाह ! नवरि कायव्यं / उच्छुलय व न किरिया, एयविउत्ता फलं देइ // 133 // अन्नं च 'पंच-मंगल-सुयखंधो' एस गिजए समए / पढमुच्चारो सत्थाण, दिव्यमंताण पणवो व्व // 134 // एसो य उद्दिसिज्जइ जिणभवणे नंदिवियरणापुव्वं / तो कीरंतुववासा पढमं चिय पंच एगसरा // 135 // तो अट्ठ अंबिलाई दिजइ नवकारवायणा तत्तो / तिहिं उववासेहिं ततोऽणुनवणा कीरइ इमस्स // 136 // इह साहुपए नव अक्खराइं पंचेव हुंति सिद्धपए / अरिहंताइपएमुं, पत्तेयं सत्त सेसेसुं // 137 // अरिहंताई पंच वि, पयाई बीयाई परममंताणं / एयाणुवरिं चूला, 'एसो पंच'ति एमाई // 138 // तेत्तीसक्खरमाणा, इमा य तेत्तीसपयडणपहाणा (?) / एवं [ एस] समप्पइ, फुडमक्खरअट्ठसठ्ठीए // 139 // 10 हे राजन् ! तो पण सम्यक्त्वमा निश्चलपणुं उत्तम रीते धारण कर, जोईए। शुद्ध समकित 15 विनानी क्रिया शेरडीनी लतानी माफक फळ आपती नथी // 133 // . वळी, दिव्य मंत्रोमां प्रणवनी जेम जिनमत शास्त्रोना प्रथम उच्चार तरीके 'पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध' ग्रहण कराय छे // 134 // - श्रीजिनमंदिरमां नंदिनी रचना करीने, पंचपरमेष्ठी नमस्कारनी उद्देशविधि करी शकाय छ / ते माटे वाचना लेनारे प्रथम एकीसाथे पांच उपवास करवाना होय छे / त्यार पछी आठ आयंबिल 20 करवानां होय छे / आटलं तप कर्या पछी नवकारनी वाचना आपी शकाय छे। ते पछी त्रण उपवासे नवकारनी अनुज्ञा कराय छे // 135-136 // आ मंत्रमा साधुपदमां नव अक्षरो छे अने सिद्धपदमां पांच ज अक्षरो छे। बाकीनां 'अरिहंत' वगेरे पदोमां सात सात अक्षरो छे। जे कोई उत्तम मंत्रो छे ते बधाना बीजरूप आ 'अरिहंत' वगेरे पांचे पदो छ / ते पांच पदो उपर 'एसो पंचनमुक्कारो' वगेरे चूलिका 25 छे // 137-138 // - अने आ चूलिका तेत्रीश अक्षर प्रमाण छे / ए प्रमाणे (उपरनां पांचे पदोना पांत्रीश अक्षरो साथे) आ पंचपरमेष्ठी नमस्कार-मंत्र अडसठ अक्षरो वडे विधिपूर्वक संपूर्ण अपाय छे // 139 // Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 [प्राकृत सिरिदेवभद्दसूरिरइय 'कहारयणकोस'संदब्भो एवं पढिओ एसो, विहीए लक्खेण सेय-सुरहीणं / कुसुमाणं पुण जविओ, भव्वेण तदेगचित्तेणं // 14 // वियरइ भुवणभरहियं, तित्थंकर-चकि-गणहरपयं पि / जह तह सुलभाणं, पुण का वत्ता सेसवत्थूण 1 // 141 // अंतोऽरिहंतविन्नास दाहिणावत्त-सिद्धमाईणं / ज्झाणं व एत्थ किचं, निचं परमेट्ठिमुद्दाए // 142 // करआवत्ते जो पंचमंगलं साहुपडिमसंखाए / नव वारा आवत्तइ, छलंति नो तं पिसायाई // 143 // एयप्पभावमहवा, सव्वं सव्वन्नुणो चिय मुणंति / तल्लेसुद्देसं पुण, पत्थिव! तुह किं पि उवइ8 // 144 // (कहारयणकोसो-सामन्नगुणाहिगारो-कथानक 10 मुं. पृ. 62 (3) अह केवलिणा सिट्ठो, सिरिदेवनराहिवस्स माहिंदै / सुरसिरिलाभो सुजवियपंच-नमोक्कारमाहप्पा // 231 // तत्तो सुकुलुप्पत्ती, कड्वयभवभमणओ य सिवलाभो / इय 'पंचनमोकारो,' सारो नीसेसधम्मस्स // 232 // 15 आ प्रमाणे आ नमस्कार-मंत्रने विधिपूर्वक भणीने जे भव्यात्मा लाख श्वेत अने सुगंधी पुष्पो चढाववापूर्वक एकाग्र-चित्तथी जपे छे तेने ते नमस्कार-मंत्र त्रण भुवनमां गौरवशाली एवा तीर्थंकरपद, गणधरपद के चक्रवर्तिपदने पण आपे छे। तो पछी जे अल्प प्रयत्ने सुलभ एवी बीजी वस्तुओनी 20 शी कथा ? // 140-141 // ___ वच्चे अरिहंत-पदने स्थापq अने दक्षिणावर्तना क्रमथी सिद्ध वगेरेना पदोने गोठववां। आ रीते परमेष्ठी मुद्रा करीने ए नवकार-मंत्र- नित्य ध्यान करवू जोईए // 142 // वळी, जे मनुष्य अंगुलिओना आवर्तवडे बार बार नवकार नव वखत गणे छे तेने पिशाच वगेरे छळी शकता नथी // 143 // . 28 . आ नमस्कार-मंत्रना पूरेपूरा प्रभावने तो सर्वज्ञ भगवान ज जाणे छे / हे राजन् ! में तो तने तेनो कांईक लेशमात्र प्रभाव ज कही बताव्यो छे // 144 // (3) ते पछी केवलीए कह्यु के–सारी रीते जपेला पंच-नमस्कार-मंत्रना माहात्म्यथी श्रीदेव राजाने माहेन्द्र नामना स्वर्गमां देवताई ऋद्धिनी प्राप्ति थई छे // 231 // 30 त्यांथी च्यव्या पछी ते कोई सारा कुळमां जन्म लेशे अने पछी केटलाक (थोडाक.) भवोमां फरीने तेने निर्वाणनो लाभ थशे, ए प्रमाणे पंच नमस्कार-मंत्र समग्र धर्मनो सार छे // 232 // Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 461 अकिञ्च एकैकोऽप्यभिवाञ्छितानि वितरेद् ध्यातोढुंदादिसुदा, सज्ज्येष्ठाः परमेष्ठिनः किमु परं पश्चापि चानुस्मृताः 1 तत् कः स्वस्य रिपुः 1 स्वरिच्छति न कः 1 काङ्केत्त मोक्षं न कः ? __ योऽस्मिन् श्रीपरमेष्ठिपञ्चकनमस्कारे न बद्धादरः // 1 // किं दानैः 1 किमु भूरिशास्त्रपठनैः ? किं देवपादार्चनैः ? किं ध्यानैस्तपसा च किं 1 किमथवा कूटैविवेकैरपि ? चेत संसारसरित्पतौ तरिसमा नैवास्ति कल्याणभू भक्तिः श्रीपरमेष्ठिपञ्चकनमस्कारे नृणां निश्चला // 2 // वह्नयुद्दीप्तगृहादनमणिवजन्येष्वमोघास्त्रवत्, - सिन्धौ मजदनल्पनौफलकवत् पातेऽथवाऽऽलम्बनम् / . गृह्णन् पश्चनमस्कृति सकलमप्यन्यद् विहायादराद्, जीवो जीवितविप्लवेऽपि न भवत्येवापदामास्पदम् // 3 // स्थिति-गति-सुख-दुःख-स्वम-निद्रान्त-हाड___टवी(वि)-निशि-दिनपातोत्पातवेलासु येषाम् / व्रजति न परमेष्ठिश्रेष्ठमन्त्रो मनस्तस्त इह भवसमुद्राद् द्राग् बहिष्टाद् भवन्ति // 4 // (कहारयणकोसो-कथानक 10 मुं. पृ. 66 आ) श्री अरिहंतादि एक-एकनुं पण प्रसन्नतासहित ध्यान करवामां आवे तो ते अभिवांछितोने आपे छे, तो पछी अनुक्रमे वारंवार स्मरण करायेला सत्पुरुषोमां ज्येष्ठ एवा पांचेय परमेष्ठिओ शुं न आपे? 20 . . तेथी, पोतानो शत्रु कोण छे ? स्वर्गने कोण इच्छतो नथी ? मोक्षनी आकांक्षा विनानो कोण छे ? / (उत्तर-) जे आ पंचपरमेष्टिनमस्कारमा आदवाळो नथी ते // 1 // संसार-समुद्रमां नौका समान अने सर्व कल्याणोनी जन्मभूमि एवा श्रीपंचपरमेष्ठी नमस्कारने विषे भक्ति नथी तो दान देवाथी शुं ? घणां शास्त्रो भणवाथी शुं ? देवोनी अर्चनाथी शुं ? ध्यान धरवाथी शुं ? तप तपवाथी शुं ? अने कृत्रिम विवेक करवाथी पण शुं? // 2 // 25 आगथी सळगता घरमांथी जेम कोई महामूलां रत्नोने ज साथे राखे, लडाईमां अमोघ अस्त्रने ज साथे राखे, दरियामां बूडतो माणस जेम होडीना मोटा पाटियानो ज आश्रय ले, पडतो माणस आलंबनने ज पकडी ले तेम जीवनसंग्राममां जीव बीजुं बधुं छोडीने एक मात्र पंचनमस्कार मंत्रनो ज आदरपूर्वक आश्रय ले तो ते कदी पण आपत्तिओनुं भाजन बनतो नथी // 3 // . बेसतां, चालतां, सुखमां, दुःखमां, स्वप्नमां (ऊंघतां), जागतां, घरमां, जंगलमां, रात्रे, दिवसे, 30 पतन वखते के उत्थान वखते (अर्थात् गमे ते प्रसंगे) जेमना मनमांथी (पंच) परमेष्ठी-महामंत्र दूर नथी थतो तेओ संसार-समुद्रमांथी शीघ्र बहार थाय छे / (अर्थात् निर्वाण मेळवे छे / ) // 4 // (कथारत्रकोष-'श्रीदेवनृप' कथानकः 10 मुं. पृ. 66 आ) * आ श्लोको संस्कृत विभागमा लई शकाय तेम छे, पण संदर्भनी एकविषयता जाळववा माटे अहीं लीधा छ / Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 सिरिदेवभहसूरिश्य कहारयणकोस'संदभो। [प्राकृत सेट्ठिसुएण भणियं—पल्लिनाह ! अलमलं पसंभमेण, न बज्झोवगरणमवेक्खइ एस दोसु त्ति। पारद्धो पंचनमोक्कारं जविउं। कहं चिय? निप्पंदतारलोयणनासग्गोलग्गथिमियपम्हउडं / उदरविचरंतनिब्भरकुम्भयपवमाणवावारं // 1 // नियनियविसयञ्चासंगविरयसमरसियइंदियग्गामं / पंचपरमेट्ठिसुमरणसमकालुच्छलियगुरुनायं // 2 // एकेकऽक्खरससहरझरंतपीऊसपवहपभारं / निव्वविउमुट्ठियं पिव तिहुयणदुहनिवहहव्यवहं // 3 // पसरंतररलक्खाइरेगपप्फुरियफारपहचकं / दूरोसारियजणपचणीयभूयाइदुट्ठगणं // 4 // इय जाव जवइ जोगि व्व निच्चलो निब्भओ निरासंको / पंचपरमेट्ठिमंतं स महप्पाऽणप्पमाहप्पं // 5 // ताव अयंडविहंडियभंडऽप्फुडणरवसमइरेगं / रसियं काउं भूओ दूरीहुओ सुयाहिंतो // 6 // (- 'कहारयणकोसो' सामन्नगुणाहिगारो कथानक 17 मुं पृ. 130 अ) 15 . 20 शेठनो छोकरो बोल्यो : हे पल्लीनाथ ! गभराओ नहीं, वळगाडनो दोष काढवा माटे कोई बहारनी सामग्रीनी जरूर नथी। एम कही शेठनो छोकरो नवकारमंत्रनो जाप करवा लाग्यो / ते केवी रीते? ते जप वखते तेनी आंखोनी कीकीओ निश्चल हती अने आंखोनी पांपणो नासिकाना अग्रभाग तरफ ढळेली हती। उदरमा संचरता पवनना व्यापारनो तेणे केवळ-कुंभकवडे निरोध को हतो। तेनो इंद्रियसमूह पोतपोताना विषयोमांनी अत्यासक्तिथी विराम पामीने शांत बन्यो हतो। पांच परमेष्ठिओनुं स्मरण करतांनी साथे ज गंभीर महानाद उत्पन्न थयो। नमस्कारमंत्रनो एकेक अक्षर चंद्रमा जेवो होईने तेमांथी अमृतनो विशाळ प्रवाह वही रह्यो हतो। ए प्रवाह जाणे त्रणे लोकना दुःखसमूहरूप दावानळने बूझववा 25 माटे उत्थित थयो न होय! लाखो सूर्योनी प्रभा करतां पण अधिक देदीप्यमान प्रभानो पुंज (चक्र) जेमांथी फेलाई रह्यो छे अने जेना वडे लोकना प्रत्यनीक एवा भूतादिदुष्टोना समूह दूर कराया छे, एवा महान प्रभावशाळी पंचपरमेष्ठीमंत्रने योगीनी जेम निश्चळ, निर्भय अने निःशंक बनेलो ते जपे छे के तरत ज अकस्मात् विनाश (प्रलय) कालीन ब्रह्मांडना ध्वनिथी पण अधिक ध्वनिवाळी चीस पाडतो ते भूत. श्रेष्ठीपुत्रथी दूर भागी गयो। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 463 परिचय श्री सुमतिवाचकना शिष्य गुणचंद्र आचार्यपदवी प्राप्त कर्या पछी देवभद्रसूरि नामथी ख्याति पाम्या / तेमणे प्राकृतमां 'कथारनकोश' वि. सं. 1158 मां, प्राकृतमां 'पार्श्वनाथ चरित' वि. सं. 1168 तेमज संस्कृतमा 'प्रमाणप्रकाश' वगेरे ग्रंथोनी रचना करी तत्कालीन विद्वानोमां प्रतिष्ठा मेळवी हती। श्रीधर्मकीर्तिए 'संघाचारविधि 'मां तेमना पाठसंदर्भने सुधारीने नोंध्यो छे अने श्रीजिनप्रभसूरि 5 जेवा विद्वाने 'विधिप्रपा' मां तेमनो संदर्भ उतारीने पोतानी कृतिओने प्रामाणिक बनावी छ / खरतरगच्छपट्टावलीना उल्लेख प्रमाणे तेमणे वि० सं० 1167 मां श्रीजिनवल्लभगणिने अने वि० सं० 1169 मां वाचनाचार्य श्रीजयदेवसूरिना शिष्य जिनदत्तने आचार्यपदारूढ कर्या हता। ए देवभद्रसूरीए रचेला 'कहारयणकोसो'मांथी नमस्कार संबंधी चार संदर्भो तारवीने तेना अनुवाद साथे अहीं प्रगट कर्या छ / 10 आ संदर्भमां (पृष्ठ 462 उपर) नमस्कारना ध्यान- जे वर्णन छे ते अत्यंत सुंदर छ / Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [36] सिरिपउमसीहमुणिविरइय ‘णाणसार संदभो॥ झाएह तिप्पयारं अरुहं कम्भिधणाण णिद्दहणं / पिंडत्थं च पयत्थं स्वत्थं गुरुपसाएण // 18 // 1 // णियणाहिकमलमज्झे परिट्ठियं विप्फुरंतरवितेयं / झाएह अरुहरूवं झाणं तं मुणह पिंडत्थं // 19 // 2 // झायह णियसिरमझे भालयले हिययकंठदेसम्मि / जिणरूवं रवितेयं पिंडत्थं मुणह झाणमिणं // 20 // 3 // अट्ठमवग्गचउत्थं सत्तमवग्गस्स वीयवण्णेण / अकंतमुवरि सुण्णसुसंयुयं मुणह तं तच्चं // 21 // 4 // एयं च पंच सत्त य पणतीसा जहकमेण सियवण्णा / झायह पयत्थझाणं उवइटुं जोयजुत्तेहिं // 22 // 5 // अनुवाद श्रीसद्गुरुनी कृपाथी कर्मरूपी इन्धनने बाळी नाखवा माटे दावानळ समान, पिंडस्थ, पदस्थ 15अने रूपस्थ एम त्रण प्रकारे श्रीअरिहंत परमात्मानुं ध्यान करो // 18 // (1) पोताना नाभिकमल (मणिपूरचक्र) नी मध्यमां स्थापन करेला अने सूर्यसमान स्फुरायमान तेजवाळा श्री अरिहंत भगवंतना खरूपर्नु ध्यान करो / एवा ध्यानने तमे पिंडस्थध्यान जाणो // 19 // (2) वळी शिरे (सहस्रारमां), भालतले (आज्ञाचक्रमां), हृदय (अनाहतचक्र)मां तेम ज कंठदेश (विशुद्धचक्र) मां सूर्यसमान तेजवाळा श्रीअरिहंत भगवंतना खरूपनुं ध्यान करो। एवा ध्यानने तमे 20 पिंडस्थध्यान जाणो // 20 // (3) सातमा वर्गना बीजा वर्ण 'र' थी (उपर नीचे) आक्रान्त अने शून्य एटले बिन्दुथी युक्त एवो आठमा वर्गनो चोथो वर्ण जे 'ह' (अर्थात् 'ई') ते तत्त्व छे // 21 // (4) योगी पुरुषोए कहेलु क्रमशः पांच (नमो सिद्धाणं), सात (नमो अरिहंताणं) अने पांत्रीश (नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं,) श्वेत रंगवाळा 25 वर्णोनुं पदस्थ ध्यान करो // 22 // (5) Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / मुणिसंखा पंचगुणा ख(प)णवाई तह य पवण-गयणंता। एदे य धवलवण्णा कायव्वा झाणमग्गेण // 23 // 6 // णिसिऊण पंचवण्णा पंचसु कमलेसु पंचठाणेसु / झाएह जहकमेणं पयत्थझाणं इमं भणियं // 24 // 7 // सत्तक्खरं च मंतं सत्तसु ठाणेसु णिससु सियवण्णं / सिद्धसरूपं च सिरे एयं च पयत्थझाणु त्ति // 25 // 8 // अट्ठदलकमलमज्झे अरुहं वेढेह परमवीयेहिं / पत्तेसु तह य वण्णा दलंतरे सत्तवण्णा य // 26 // 9 // गणहरवलयेण पुणो मायावीएण धरयलकंतं / जं जं इच्छह कम्मं सिज्झइ तं तं खणखूण // 27 // 10 // . 10 घणघाइकम्ममहणो अइसयवरपाडिहेरसंयुत्तो। झाएह धवलवण्णो अरहंतो समवसरणत्थो // 28 // 11 // 745 = 35 वर्णोनी आदिमां प्रणव एटले 'ॐ' कारने मूकवो अने पवन एटले 'स्वा' .. अने गगन एटले 'हा' ने अंते मूकवा (अर्थात-ॐ नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा)। ए बधा वर्णोने ध्यानमां मम 15 रहेला साधके धवल वर्णना चिन्तववा // 23 // (6) __पांच स्थानमां (नाभि, मस्तक, वदन, कंठ अने हृदयमा) रहेल पांच कमलमां अनुक्रमे पांच वर्णो (असि-आ-उ-सा अथवा नमो सिद्धाणं)ने स्थापीने ध्यान करो। एवा ध्यानने पदस्थध्यान कहेल छ॥२४॥(७) __श्वेतवर्णवाळा सात अक्षरना मंत्रने सात स्थानो (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा अने सहस्रार चक्रो )मां स्थापन करो अने सिद्धना स्वरूपने शिर एटले ब्रह्मरंध्रमां 20 स्थापन करो। आने पदस्थध्यान कहेल छे // 25 // (8) ____ आठ पत्रवाळा कमळनी मध्य ( कर्णिका )मां परम बीजो (ॐ ह्रीं अहँ )थी अरिहंतने वेष्टित करो तेमज ए कमळना पत्रोमा क्रमशः आठ वर्णो (वर्गना प्रथमाक्षर-अ-क-च-ट-त-प-य-श) भने बे दलोनी संधिमां 'नमो 'अरिहंताणं' ए सात वर्णो स्थापित करवा / पछी ते कमळने गणधरवलय (श्रीसिद्धचक्र बृहद् यंत्रमां बतावेल 48 लब्धिपदो)थी वेष्टित करवू / आ रीते बनेला 25 समग्र यंत्रने (उपर) मायाबीज (8) (अने नीचे थी साडात्रण आंटा) वडे वेधित करवो। आवा प्रकारतुं ध्यान करनार जे जे इच्छे, ते ते क्षणार्द्धमां सिद्ध थाय छे // 26-27 // (9-10) घनघाति कर्मोना नाशक, श्रेष्ठ प्रातिहार्यादि अतिशयोथी युक्त, समवसरणमां विराजमान अने श्वेतवर्णवाळा एवा श्रीअरिहंत परमात्मानुं ध्यान करो // 28 // (11) परिचय-दिगंबराचार्य श्री पद्मसिंहमुनिए 'ज्ञानसार' नामर्नु प्रकरण 63 गाथात्मक प्राकृतमां 30 रच्यु छ / तेमांथी नमस्कार संबंधी संदर्भ लईने अहीं अनुवाद साथे प्रकट कर्यु छ / ___आ प्रकरण श्रीमाणिक्यचंद्र जैन दिगंबर ग्रंथमाला पुस्तक 13 मा प्रकट थयु छ / ए प्रकरणने अंते कर्ताए तेनो रचनासमय नीचेनी गाथामां नोंध्यो छ सिरिविक्रमस्स काले दशसयछासी जुयम्मि वहमाणे / सावण सियणवमीए अंबयणयरम्म कयमेयम् / -वि. सं. 1086 ना श्रावण सुदि 9 ना दिवसे अंषयनगरमां आ रच्यु। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 37] सिरिरयणसेहरसूरिविरइय- 'सिरिसिरिवालकहा'तो ____ सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदब्भो श्रीक्षमाकल्याणगणिकृतव्याख्यासमेतः॥ अरिहं सिद्धायरिया उवज्झाया साहूणो य सम्मत्तं / नाणं चरणं च तवे इअ पयनवगं परमतत्तं // 191 // 1 // व्याख्या-नवपदनामान्याह-अर्हन्तः 1, सिद्धाः 2, आचार्याः 3, उपाध्यायाः 4, साधवः 5, च-पुनः सम्यक्त्वं 6, ज्ञानं 7, चरणं-चरित्रं 8, च-पुनः तपः 9; इत्येतत् पदानां नवकं परमतत्त्वं वर्तते // 191 // (1) एएहिं नवपएहिं रहिअं अन्नं न अत्थि परमत्थं / एएसु चिय जिणसासणस्स सव्वस्स अवयारो // 192 // 2 // व्याख्या-एतैः नवभिः पदै रहितो-वर्जितोऽन्यः परमार्थस्तात्त्विकोऽर्थो नास्ति, एतेष्वेवनवपदेषु सर्वस्य जिनशासनस्य-जिनमतस्य अवतारः-अवतरणमस्ति // 192 // (2) जे किर सिद्धा सिझंति जे अ जे आवि सिज्झइस्संति / - ते सव्वे वि हु नवपयझाणेणं चेव निभंतं // 193 // 3 // 15 व्याख्या-किलेति-निश्चितं ये जीवा अतीते काले सिद्धाः मुक्तिं गताः, ये च वर्तमानकाले : सिद्धयन्ति, ये चापि अनागते काले सेत्स्यन्ति-सिद्धिं यास्यन्ति, हुः पादपूरणे ते च सर्वेऽपि निर्धान्तं निस्सन्देहं नवपदध्यानेनैव, न तु तव्यतिरेकेणेत्यर्थः // 193 // (3) * एएसिं च पयाणं परमेगयरं च परमभत्तीए / ...., आराहिऊण णेगे संपत्ता तिजयसामित्तं // 194 // 4 // व्याख्या-च-पुनः एतेषां पदानां मध्याद् एकतरं अन्यतममेकं पदं परमभक्त्या अराध्य संसेव्य अनेके जीवाः त्रिजगत्स्वामित्वं सम्प्राप्ताः सकलकर्मक्षयेण त्रिभुवनस्वामिनो जाता इत्यर्थः // 194 // (4) अनुवाद अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यक्त्व ( दर्शन ), ज्ञान, चारित्र अने 25 तप ए नवपदो परमतत्त्व एटले ध्येयरूप छे // 191 // (1) आ नवपदोथी रहित एवं अन्य ते परमार्थ नथी / ( तात्पर्य के जे आ नवपदोथी सहित होय ते ज परमार्थ छे ) / ए (नवपदो)मां ज समग्र जिनमतनुं अवतरण छे // 192 // (2) खरेखर, जेओ सिद्ध थया छे, जेओं सिद्ध थाय छे अने जेओ सिद्ध थशे-ते बधाये निश्चयपूर्वक आ नवपदना ध्यान वडे ज (सिद्ध थया छे, थाय छे अने थशे) एमां संदेह नथी॥१९३॥ (3) 30 आ नवपदोमांथी एकाद पदनीये परमभक्तिथी आराधना करतां (कर्मक्षय थवाथी) अनेक मनुष्योए त्रणे जगतनुं स्वामीपणुं प्राप्त करेलुं छे / / 194 // (4) 30 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / . .. 467 एएहिं नवपएहिं सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमेयं / / तस्सुद्धारो एसो पुव्वायरिएहिं निद्दिवो // 195 // 5 // व्याख्या-एतैर्नवभिः पदैः सिद्धं-निष्पन्नं यदेतत् श्रीसिद्धचक्रं, तस्य-सिद्धचक्रस्य एष उद्धारः पूर्वोचार्यै निर्दिष्ट:-कथितः // 195 // (5) गयणमकलिआयं(वं )तं उड्डाहसरं सनाय-बिंदु-कलं / सपणवबीआणाहयमंतसरं सरह पीढम्मि // 196 // 6 // . व्याख्या-अथ ग्रन्थकार एकादशगाथाभिः सिद्धचक्रोद्धारविधिमाह- गयणे' त्यादि, अत्र गगनादिसंज्ञा मन्त्रशास्त्रेभ्यो ज्ञेया, तत्र गगनशब्देन 'ह' इत्यक्षरमुच्यते, 'पीढम्मि' त्ति मूलपीठे-यन्त्रस्य सर्वमध्ये 'ह' इत्यक्षरं यूयं स्मरत, इह च स्मरणमेवाधिकृतम् / स्मरणस्याशक्यत्वे पदस्थध्यानसाधनार्थ मनोज्ञद्रव्यैर्वहिकापट्टादौ लिखनमपि पूर्वाचार्यैरानातम् / एवमग्रेऽप्यूह्येत / तत्रादौ 'ह' काराक्षरं लेखनीय-10 मिति प्रकृतम् , तत्कीदृशम् ? इत्याह-अस्य अकाराक्षरस्य कलिका व्याकरणसंज्ञामयी वक्रा 'ड' इत्यक्षररूपा, तयाऽवन्तं-सहितं, आदौ कलिकया युक्तं ततोऽह' इति स्यात् / पुनः तद्गगनबीजं कीदृशम् ?'उडाहसरं' ऊधिः सह रेण-रकारेण वर्तत इति सरं हकारस्योलमधश्च रकारो दीयते, ततोऽह' इति जातम् / पुनः कीदृशं तत् ? 'सनादबिन्दुकलं' नादोऽर्द्धचन्द्राकारोऽक्षरस्योपरि अनुनासिकः बिन्दुकला च पूर्णोऽनुस्वारः ततो नादश्च बिन्दुकला च ताभ्यां सहितं ततो 'ऽहँ' इति जातं, पुनः कीदृशम् ? 15 'सपणवबीयाणाहयं' प्रणव 'ॐ'कारः, बीजं ह्रीं'कारः, अनाहतं च कुण्डलाकारं, ततश्च द्वन्द्वस्तैः सहितम् / ... आ नवपदोथी सिद्ध एवं जे आ श्रीसिद्धचक्र छे, तेनो पूर्वना आचार्योए कहेल आ (वक्ष्यमाण) उद्धार छे' // 195 // (5) [अहीं अनुवादमा व्याख्याना विवेचननो पण समावेश कयों छे] मूळपीठ एटले यंत्रना मध्यभागमा गगन एटले 'ह', (ते 'ह' कारनी आगळ) 'अ' कलिका 20 एटले अकार अवग्रह 'ड' रूपे तथा ते 'ह'कारना ऊपर अने नीचे 'र' कार एटले 'ऽह' पद थाय / ते ('ह'कार)नी ऊपर नाद ( अर्धचन्द्राकार अनुनासिक रूपे) अने बिन्दुकला (पूर्ण अनुस्वार रूपे) स्थापन करवी / तेथी 'ऽहूँ' बन्यु / (जूओ यंत्र-चित्र नं० 17) तेने प्रणव एटले 'ॐ'कार, बीज. एटले ह्रीं'कार अने अनाहत एटले बे कुंडल 'O' थी वेष्टित करवों / 1 अहीं बतावेल यंत्रनो आम्नाय, जो के स्मरणमां लाववानो अधिकार छे परंतु एवं स्मरण अशक्य होय तो पदस्थ ध्याननी साधना माटे वस्त्रपट ऊपर सारां शुद्ध द्रव्योथी आलेखन करवानुं पूर्वाचार्योए जणाव्युं छे। 2 अहीं टीकाकारे-'अकाराक्षरस्य कलिका व्याकरणसंज्ञामयी वका '5' इत्यक्षररूपा' अर्थात् अकार अक्षरनी . कलिका एटले व्याकरणनी संज्ञावाळी वक्र '' आकृति, जेने अवग्रह कहेवामां आवे छे-एवं निरूपण कयु छे / ज्यारे श्रीसिंहतिलकसरि ते अवग्रहरूप वक्राकृति अकार खयं भुजगाकृति एटले सर्पाकृति कुंडलिनी रूपे छे (केटलाक यंत्रोमां वक्राकृति ''नो व्याकरणना नियमो मुजब लोप करी नाखवामां आवे छे) ते दर्शावे छे "अकारो भुजगाकृत्या कुण्डली विश्व (रश्च ?) जन्मभूः। तत्परो हः शिवः स्वात्मा राजते अहमित्यतः॥ प्रायो यन्त्रे परैः हूं स्यात् कुण्डलीजन्मभूज्झितः। अहमित्यादिगणानादूर्ध्व रत्नत्रयाश्रयः॥" 3 'सिरिसिरिवाल कहा' नी टीकामां कडं छे के 'नादश्च बिन्दुकला च ताभ्यां सहितम्' एथी श्री टीकाकार भगवान 'बिन्दुकला ने एक ज वस्तु माने छे. बीजुं नादनी व्याख्या करता तेओ कहे छे के 'नादोऽर्द्धचन्द्राकारोऽक्षरस्योपरि अनुनासिकः' अर्थात् अक्षर उपर अर्धचंद्राकारे (-) मूकातो जे अनुनासिक ते नाद छ। बिंदुकलाने तेओ पूर्ण अनुखार (.) कहेछ (बिन्दुकला च पूर्णोऽनुस्खारः)। आ बधुं कथन कोइ मत-विशेषने आश्रयीने होय एम लागे छ / Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 सिरिरयणसेहरसूरिविश्य-'सिरिसिरिवालकहा तो सिद्धचक्कयतोद्धारविहिसंदभो। [प्राकृत अत्राम्नायः-s' इति बीजं 'ॐकारोदरे न्यसेत् , एतच्च बीजद्वयं 'हाँ'कारोदरे न्यसेत् ततश्च 'ही' कारस्येकारस्वरात् रेखां पश्चाद् वालयित्वा द्विःकुण्डलाकारेणाऽनाहतेन तद्वीजत्रयमपि वेष्टयेत्, पुनः कीदृशम् ?-'अन्त्यस्वरं'-अन्त्ये स्वराः-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः-एते षोडश यस्य तत् , पूर्वोक्तस्य सर्वतः स्वरान् न्यसेदित्यर्थः, इत्येतावत् कर्णिकायां 5 ध्येयम् // 196 // (6) झायह अडदलवलये सपणव-मायाइए सुवाईते / सिद्धाइए दिसासुं विदिसासु दसणाईए // 197 // 7 // व्याख्या-अथ पीठं लिखित्वा तत्पार्थे वृत्तमण्डलं लिखेत् , तदुपरि अष्टदलकमलाकारं वलयं लिखेत् , तत्राष्टदलवलये चतुर्पु दिक्पत्रेषु प्रणव-मायादिकान् स्वाहान्तान् सिद्धादिकान् चतुर्थीबहुवच10 नान्तान् ध्यायत, प्रणव-ॐकारो, माया-'हाँ'कारस्तौ आदी येषां ते तान् , तथा 'स्वाहा' अन्ते येषां ते तान् / लिखनविधिः यथा-ॐ हाँ सिद्धेभ्यः स्वाहा' पूर्वस्यां 1, ॐ ही आचार्येभ्यः खाहा' दक्षिणस्यां 2, ॐ ही उपाध्यायेभ्यः स्वाहा' पश्चिमायां 3, ॐ ही सर्वसाधुभ्यः स्वाहा' उत्तरदिग्दले 4, ____ अहीं आनाय आ प्रमाणे छे-'ऽह' ए बीजने 'अ'कारना उदरमा मूकवो अने ते बने ('ई' अने ॐकार ) ने 'हाँ'कारना उदरमा आलेखवा / पछी 'हाँ'कारना 'ई'कार खरनी रेखाने 16 पाछळ वाळीने बे आवर्तथी-कुंडलाकारे (अनाहतरूपे) ते त्रणे बीजनुं वेष्टन करी लेवु / अनाहत पछी सोळ स्वरो ( अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः) वर्तुळाकारे स्थापन करवा-आ रीते यंत्रनी कर्णिकानुं ध्यान (आलेखन ) करवु // 196 // (6) , .. ___ आ रीते पीठ आलेखीने तेने फरतुं गोळाकार वलय करवू / ते वलयने फरती कमळनी आठ पांखडीओ दोरवी / ते आठ पांखडीओ पैकी चार दिशाओ तरफनी चार पांखडीओमां प्रणव एटले 209 कार अने माया एटले 'हाँ'कार तेमज अंते 'स्वाहा' पूर्वक 'सिद्ध' आदि पदोनुं चतुर्थी बहु वचन पूर्वक ध्यान (माटे आलेखन ) करवू अने (ते प्रमाणे ) दर्शन आदि पदोनुं विदिशानी पांखडीओमां ध्यान ( माटे आलेखन ) करवू / ते आ प्रमाणे: केटलाक मंत्रशास्रोमा नाद, बिंदु अने कला एत्रण भिन्न पदार्थों मानवामां आव्या छे. त्या नाद (A), बिंदु(१) भने कला (1) ने आ रीते-(A) आलेखवामां आव्या छे। आवी जातना आलेखनवाळा यंत्रो पण मळे छ। ____ आ विषयमा आचार्य भगवंत श्री सिंहतिलकसूरि 'मंत्रराजरहस्य' मां कहे छे केरपरं हं त्रिकोणरूढं ईस्वरखण्डेन्दुबिन्दुनादाब्यम्। आज्ञाचक्रे पश्यति वह्निपुरेशाक्षिपरसंक्षे॥ ते ( साधक ) वह्निपुर अने ईशाक्षि एवी अन्य संज्ञाओ छे जेने एवा आज्ञाचक्रमा (आ चक्र भ्रूमध्यमा आवेलु छे) छे पर जेने एवा 'ह'ने ('ह'ने) त्रिकोणथी रूढ (जेना ऊर्ध्वभागमा त्रिकोण छे एवो) तथा ई खर, चंद्रकला, बिन्दु अने नादथी संपन्न जुए छे. अहीं 'ही' नुं ध्यान छे. 4 श्रीसिंहतिलकसूरि अनाहत विशे जणावतां कहे छे के:नादो भृङ्गध्वनिरिव शखिन्युत्थस्त्वनाहतो नादः॥ . .. -मत्रराजरहस्य, प्रथम प्रस्थान, श्लो०८. ह. लि.॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] 469 नमस्कार स्वाध्याय। तथैव विदिक्षु दर्शनादीनि चत्वारि पदानि ध्यायत / तत्तल्लिखनविधिस्त्वयं-ॐ ह्रीं दर्शनाय स्वाहा' आमेयकोणे 1, ॐ ही ज्ञानाय खाहा' नैर्ऋत्यां 2, ॐ हीं चारित्राय स्वाहा' वायव्ये 3, 'ॐ ही तपसे स्वाहा' ईशानकोणे 4, अनेन क्रमेण लिखेत् / एवं अष्टदलं प्रथमवलयम् // 197 // (7) बीयवलयम्मि अडदिसि दलेसु साणाहए सरह वग्गे।। अंतरदलेसु अट्ठसु झायह परमिट्ठिपढमपए // 198 // 8 // व्याख्या-प्रथमवलयबाह्यतो मण्डलाकारं षोडशदलं न्यसेत् / तत्र द्वितीयवलये अष्टसु एकान्तरितदिग्दलेषु सानाहतान्-अनाहतबीजसहितान् अष्टौ वर्गान् 'अ, क, च, ट, त, प, य, श'रूपान् क्रमेण लिखित्वा यूयं स्मरत, तत्र प्रथमवर्गे षोडश वर्णाः कवर्गादिषु पञ्चसु प्रत्येकं पञ्च पञ्च वर्णा अन्तिमवर्गद्वये प्रत्येकं चत्वारो वर्णाः, ततोऽष्टसु वर्गाणामन्तरदलेषु परमेष्ठिपदानि- 'ॐ नमो अरिहंताणं' इत्येवंरूपाणि ध्यायत, अष्टस्वपि अन्तरदलेषु 'ॐ नमो अरिहंताणं' इत्येवं लिखेदित्यर्थः। एवं 10 द्वितीयवलयम् // 198 // (8) 1. 'ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा' - आ प्रमाणे पूर्व दिशामां लखतुं / 2. 'ॐ ह्रीं आचार्येभ्यः स्वाहा' - आ प्रमाणे दक्षिण दिशामां लखवू / 3. 'ॐ ह्रीं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा' - आ प्रमाणे पश्चिमदिशामां लखवु / 4. 'ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्यः स्वाहा' * आ प्रमाणे उत्तरदिशामां लखवू / 5. 'ॐ ह्रीं दर्शनाय स्वाहा' आ प्रमाणे अग्निकोणमां लखवु / 6. 'ॐ ह्रीं शानाय स्वाहा' - आ.प्रमाणे नैर्ऋत्यकोणमां लखवं। 7. 'ॐ ह्रीं चारित्राय स्वाहा' - आ प्रमाणे वायव्यकोणमां लखवू / 8. 'ॐ ह्रीं तपसे स्वाहा' - आ प्रमाणे ईशानकोणमां लखवु / आ प्रमाणे आठ पांखडीवाळु वलय आलेखq // 197 // (7) [ प्रथम वलय ] 20 पहेला वलयनी बहार सोळ पांखडीवाळु मंडलाकारे फरतुं बीजुं वलय आलेखq / ते सोळ पांखडीओ पैकीनी एकांतरित आठ दिशाओ तरफनी आठ पांखडीओमां अनाहत (द्विकुंडलाकार) बीज साथे अनुक्रमे आठ वर्गो-अ क च ट त प य श-लखीने तेनुं ध्यान करवू / प्रथम वर्गमां सोळ वर्णो (अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः-स्वरो), कवर्ग आदि पांचमां पांच पांच वर्णो ( कवर्ग-क ख ग घ ङ चवर्ग-च छ ज झ ञ टवर्ग-ट ठ ड ढ ण; 25 तवर्ग-त थ द ध न; पवर्ग-प फ ब भ म-व्यंजनो) अने छेल्ला यवर्ग ( य र ल व ) तेमज शवर्ग ( श ष स ह )-बेमां चार चार वर्णो लखवा / ते आठे वर्गोना अंतरनी-बब्बे वञ्चेनी आठे पांखडीओमां 'ॐ नमो अरिहंताणं' पद लखतुं // 198 // (8) [ बीजुं वलय ] / , केटलाक प्रसिद्ध थयेला पटोमा 'ॐ ह्रीं श्री सिद्धेभ्यः स्वाहा' आलेखेखें जोवामां आवे छे; परंतु अहीं मूळ के व्याख्यामां 'श्री' पाठनो निर्देश करेलो नथी। वळी दर्शन आदि पदोमां उपर्युक्त व्याख्यामां दर्शावेल पाठथी भिन्न 'ॐ नमो दसणस्स, ॐ नमो नाणस्स, ॐ नमो चरित्तस्स, ॐ नमो तवस्स', एवो पाठ पण आपेलो जोवामां आवे छे / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 सिरिरयणसेहरसूरिविरइय-'सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदब्भो। [प्राकृत तइअवलए वि अडदिसि दिप्पंत अणाहएहि अंतरिए। पायाहिणेण तिहि पंतिआहिँ झाएह लद्धिपए // 199 // 9 // व्याख्या-तृतीयवलयेऽपि अष्टसु दिक्षु अष्टावनाहतान् लिखेत् , ततो द्वयोर्द्वयोरन्तराले द्वे द्वे लब्धिपदे, एवमष्टस्वप्यन्तरेषु षोडश लब्धिपदानि प्रथमपतौ, एवं षोडशैव द्वितीयपतौ, एवमेव तृतीय5 पतौ / इत्थं दीप्यमानैरष्टमिरनाहतैरन्तरितानि-व्यवहितानि प्रादक्षिण्येन तिसृभिः पङ्क्तिभिः-श्रेणिभिरष्टचत्वारिंशल्लब्धिपदानि यूयं ध्यायत // 199 // (9) ते पणव-बीअ-अरिहं नमो जिणाणं ति एवमाईआ / ___ अडयालीसं णेआ सम्मं सुगुरुवएसेणं // 200 // 10 // व्याख्या-ते इति प्राकृतत्वान्नपुंसकस्य पुंस्त्वं, तानि लब्धिपदानि प्रणवः-ॐ कारो, बीजं10 हीङ्कारोऽहमिति सिद्धिबीजम् / एतत्पूर्वकं नमो जिणाणमिति पदं 'ॐ ह्रीँ अर्ह नमो जिणाणं' इत्येवमादीनि अष्टचत्वारिंशत्सङ्ख्यानि सम्यक् सुगुरोरुपदेशेन ज्ञेयानि / एतेषां नामानि माहात्म्यानि च लब्धिकल्पादवसेयानि, इह त्वाराधनविधिं विना पुस्तकलिखने दोष इति न लिखितानि // 200 // (10) त्रीजा वलयमा आठे दिशाओमां आठ अनाहत द्विकुंडलाकार '' बीज आलेखवा / ते बे अनाहतोनी अंतराले- पडखे (त्रण पंक्तिओ एटले वलयोमां) बे बे लब्धिपदो लखवां, ए प्रकारे 15 आठे अंतरालमां सोळ लब्धिपदो प्रथम पंक्तिमां, बीजां सोळ लब्धिपदो बीजी पंक्तिमा अने त्रीजां सोळ लब्धिपदो त्रीजी पंक्तिमां लखवां-आ प्रकारे देदीप्यमान एटले तेजस्वी आठ 'अनाहतोनी अंतराले प्रदक्षिणारूपे त्रण पंक्तिमां अडतालीस लब्धिपदोनुं ध्यान (माटे आलेखन करवू ) // 199 // (9) ते लब्धिपदो प्रणव एटले 'ॐ'कार, बीज एटले 'हाँ' कार अने 'अहं'ए सिद्धिबीज पूर्वक 20 'नमो जिणाणं' इत्यादि (ॐ ह्रीँ अहे नमो जिणाणं ए रीते) अडतालीस लब्धिपदो गुरुना उपदेशथी सारी रीते जाणी लेवा / आ लब्धिपदोनुं माहात्म्य 'लब्धिकल्प' थी जाणी लेवू / अहीं आराधनाविधि सिवाय एम ने एम लब्धिपदो बताववामां-पुस्तकमां लखवामां दोष छे तेथी लख्यां नथी / // 200 // (10) 1 अनाहत ॐपूर्वक हाँपूर्वकना पण मळे छ। 21. ॐ ह्रीँ अहँ णमो जिणाणं। 2. ॐ ह्रीँ अहँ णमो ओहिजिणाणं / 3. ॐ ह्रीँ अहँ णमो परमोहिजिणाणं / 4. ॐ ह्रीँ अहँ णमो सव्वोहिजिणाणं / 5. ॐ ह्रीँ अहँ णमो अणंतोहिजिणाणं / 6. ॐ ह्रीँ अहँ णमो कुट्टबुद्धीणं। 7. ॐ ह्रीं अहँ णमो बीयबुद्धीणं / 8. ॐ ह्रीँ अहँ णमो पयाणुसारीणं / ॐ ह्रीँ अहँ णमो आसीविसाणं / 10. ॐ ह्रीँ अहँ णमो दिट्टिविसाणं / हाँ अहँ णमो संभिन्नसोयाणं। 12. ॐ ह्रीँ अहँ णमो सयंसंबुद्धाणं। . हाँ अहँ णमो पत्तेयबुद्धाणं / / 14. ॐ ह्रीँ अहँ णमो बोहिबुद्धाणं / ॐ ह्रीँ अहँ णमो उजुमईणं / 16. ॐ ह्रीँ अहँ णमो विउलमईण। (आ सोळ लब्धिपदो पहेली पंक्तिमा मूकवां) Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। .. तं तिगुणेणं मायावीएणं सुद्धसेयवण्णेणं / परिवेढिऊण परिहीइ तस्स गुरुपायए नमह // 201 // 11 // व्याख्या-तत्पीठादि लब्धिपदान्तं त्रिगुणेन शुद्धश्वेतवर्णेन मायाबीजेन-हीङ्कारेण परिवेष्टय परितः समन्ताद्वेष्टयित्वा तस्य परिधौ गुरुपादुकाः-गुरुपादन्यासान् यूयं नमत / अत्रायं भावः: सर्वयन्त्रस्योर्ध्व 'हाँ' कारं विलिख्य तस्य ईकारात् सर्वयन्त्रपरिक्षेपरूपां रेखां त्रिलियित्वा चतुर्थरेखार्द्धप्रान्ते 5 '' इत्यक्षरं लिखेत् / तस्य च परिधौ अष्टौ गुरुपादुकाः, पादुकाशब्दो यद्यपि नामकोशे उपानद्वाचक उक्तः, तथापि रूढ्या पादन्यासार्थोऽपि बोध्यः, बहुस्थानेषु तथा दर्शनात् // 201 // (11) तेने ( उपर्युक्त अर्थात् मूलपीठथी लब्धिपदो सुधीना त्रण वलयोना आलेखनने ) त्रिगुण अने शुद्ध श्वेत वर्णवाळा मायाबीज एटले ह्रींकार वडे चारे तरफथी वींटी लेवू / ते पछी तेनी परिधिमा गुरुपादुकाओं एटले गुरुना चरणकमलनो न्यास ( वलयाकारे ) करवो। 10 ____ अर्थात् समग्र यंत्रनी उपरना मथाळेथी ह्रौंकार आलेखीने तेना ईकारथी शरू करेली रेखाने मूळपीठ वगेरे वलयोनी आसपास कुंडलाकारे त्रण आंटा दईने वाळवी अने चोथो आंटो अब्धो दईने छेडे 'क्रौं'कार ( अंकुशबीज ) ने आलेखq / // 201 // (11) 17. ॐ हाँ अहूँ णमो दसपुवीणं। 18. ॐ ह्रीं अहूँ णमो चउहसपुव्वीणं / 19. ॐ ह्रीं अझै णमो अटुंगनिमित्तकुसलाणं / 20. ॐ ह्रीं अहँ णमो विउव्वणइडिपत्ताण 21. ॐ ह्रीं अहँ णमो विजाहराणं / 22. ॐ ह्रीं अहँ णमो चारणलद्धीणं / 23. ॐ ह्रीं अहँ णमो पण्हसमणाणं। 24. ॐ ह्रीं अहँ णमो आगासगामीणं / 25. ॐ ह्रीं अहूँ णमो खीरासवीणं / 26. ॐ ह्रीं अहँ णमो सप्पियासवीणं / 27. ॐ ह्रीं अहँ णमो महुआसवीणं। 28. ॐ ह्रीं अहँ णमो अमियासवीणं / 29. ॐ ह्रीं अहूँ णमो सिद्धायणाणं। 30. ॐ ह्रीं अहँ णमो भगओ महइ महावीरवद्धमाणबुद्धरिसीणं / 31. ॐ हीं अहूं णमो उग्गतवाणं। 32. ॐ ह्रीं अहँ णमो अक्खीणमहाणसियाणं / (आ सोळ लब्धिपदो बीजी पंक्तिमां मूकवां।).. ॐ ह्रीँ अहँ णमो वढमाणाणं / 34. ॐ ह्रीँ अहँ णमो दित्ततवाणं / 35. ॐ हाँ अहँ णमो तत्ततवाणं। 36. ॐ ह्रीँ अहँ णमो महातवाणं / 37. ॐ ह्रीं अहँ णमो घोरतवाणं / 38. ॐ हाँ अहँ णमो घोरगुणाणं / ह्रौँ अहँ णमो घोरपरकमाण। 40. ॐ ह्रीँ अहँ णमो घोरगुणबंभयारीणं / 41. ॐ ह्रीँ अहँ णमो आमोसहिपत्ताणं। 42. ॐ ह्रीँ अहँ णमो खेलोसहिपत्ताणं। 43. ॐ ह्रीँ अहँ णमो जल्लोसहिपत्ताणं / 44. ॐ ह्रीँ अहँ णमो विप्पोसहिपत्ताणं। 45. ॐ ह्रीँ अहँ णमो सवोसहिपत्ताणं। 46. ॐ ह्रीँ अहँ णमो मणबलीणं / 47. ॐ ह्रीं अहँ णमो वयणबलीणं। 48. ॐ ह्रीँ अहँ णमो कायबलीणं / . (आ सोळ लब्धिपदो त्रीजी पंक्तिमा मूकवां / ) . ('लब्धिकल्प'मां आ पाठक्रममां थोडो फेरफार के.जओ 'सरिमन्त्रकल्पसंदोह' प्र.६४.मलभाग) १जो के पादुकानो अर्थ पगनी चाखडी अथवा जोडा थाय छे; पण अहीं पादुका एटले चरण-पगला समजवो, केमके परंपराथी एवो अर्थ घणे स्थळे लेवामां आव्यो छे। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 सिरिरयणसेहरसूरिविरहय-'सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदम्भो। [प्राकृत अरिहं-सिद्ध-गणीणं-गुरु-परमादिट्ठणंतसुगुरूणं / . दुरणंताण गुरूण य सपणव-बीयाओ ताओ य // 202 // 12 // व्याख्या-अथाष्टगुरुपादुका एवाह-अर्हतां पादुकाः 1, सिद्धानां पादुकाः 2, गणीनांआचार्याणां 3, गुरूणां-पाठकानां 4, परमगुरूणां 5, अदृष्टगुरूणां 6, अनन्तगुरूणां 7, दुरणंता5णंति-अनन्तानन्तगुरूणां च 8, इत्येवमष्टानामपि ताः पादुकाः सप्रणवबीजाः-प्रणवबीजाभ्यां सहिताः ॐ हौंयुता इत्यर्थः, ॐ ह्रीँ अर्हत्पादुकाभ्यो नमः' इत्थं सर्वा अपि लिखेत् // 202 // (12) रेहाद्गकयकलसागारामिअमंडलं व तं सरह / चउदिसि विदिसि कमेणं जयाइ-जंभाइकयसेवं // 203 // 13 // व्याख्या-रेखाद्विकेन यत्रोर्श्वभागाद् वामदक्षिणनिर्गताऽन्योऽन्यग्रथितप्रान्तरेखाद्विकेन कृतं 10 यत् कलशाकारं अमृतमण्डल तद्वत् तत् स्मरत-कलशाकारं लिखेदित्यर्थः / किंविशिष्टं तत् ? चतुर्दिक्षु विदिक्षु च क्रमेण जयादिकाभिः चतसृभिः जया 1, विजया 2, जयन्ती 3, अपराजिताभिः 4; तथा जम्भादिभिर्जम्मा 1, स्तम्भा 2, मोहा 3, बन्धाभिः 4; कृता सेवा यस्य तत् / तत्र जयादिकाश्चतस्रः क्रमेण पूर्वादिदिक्षु जम्भादिका आग्नेय्यादिषु विदिक्षु लिखेत् // 203 // (13) (हवे ए आठ गुरुपादुकाओ जणावे छे-) 1 अरिहंतोनी पादुकाओ, 2 सिद्धोनी पादुकाओ, 15 3 गणी एटले आचार्योनी-गणधरोनी पादुकाओ, 4 गुरु एटले पाठक-उपाध्यायोनी पादुकाओ, 5 परम गुरुओनी पादुकाओ, 6 अदृष्ट गुरुओनी पादुकाओ, 7 अनंत गुरुओनी पादुकाओ अने 8 दुरन्तानन्त एटले अनंतानन्त गुरुओनी पादुकाओने प्रणव एटले ॐकार अने बीज ह्रींकार पूर्वक लखवी। (ते आ प्रकारे 1. ॐ ह्रीँ अर्हत्पादुकाभ्यो नमः। 2. ॐ ह्री सिद्धपादुकाभ्यो नमः / 20 3. ॐ ह्रीँ गणधरपादुकाभ्यो नमः। 4. ॐ ह्रीँ गुरुपादुकाभ्यो नमः। 5. ॐ ह्रीँ परमगुरुपादुकाभ्यो नमः। 6. ॐ ह्रीँ अदृष्टगुरुपादुकाभ्यो नमः / 7. ॐ ह्रीं अनन्तगुरुपादुकाभ्यो नमः। 8. ॐ ह्रीं अनन्तानन्तगुरु पादुकाभ्यो नमः) // 202 // यंत्रना ऊपरना भागथी डाबी तरफथी अने जमणी तरफथी एम बे रेखाओ नीकळे छ / छल्ले 25 बने रेखाओना छेडे मळी जतां जे आकृति थाय ते कलशाकार 'अमृतमंडळ' छे एवं ध्यान करवू / .. ते यंत्रनी चार दिशाओ अने विदिशाओमा क्रमशः जया अने जंभा वगैरे यंत्रनी सेवा करे छे ते रीते ( वलयाकारे.) आलेखन करो। ( ते आ प्रकारेदिशाओमां विदिशाओमा 1. ॐ ह्रीँ जयायै नमः। 2. ॐ ह्रीं जम्भायै नमः। 3. ॐ ह्रीँ विजयायै नमः। 4. ॐ ह्रीं स्तम्भायै नमः। .. 5. ॐ ह्रीं जयन्त्यै नमः। 6. ॐ ह्रीँ मोहायै नमः। 7. ॐ हाँ अपराजितायै नमः। 8. ॐ ह्रीं बन्धायै नमः ) // 203 // 30 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 473 सिरिविमलसामिपमुहाहिट्ठायग-सयलदेव-देवीणं / सुहगुरुमुहाओं जणिअ ताण पयाणं कुणह झाणं // 204 // 14 // व्याख्या-श्रीविमलस्वामीति नाम्ना सौधर्मदेवलोकवासी श्रीसिद्धचक्रस्याधिष्ठायकः तत्प्रमुखा येऽधिष्ठायका सकलाः- समस्ता देवा देव्यश्चक्रेश्वर्याद्याः तासां ध्यानं सुगुरुमुखात् ज्ञात्वा 'ताण' त्ति तत्सम्बन्धिनां ‘पयाणं' ति मन्त्रपदानां ध्यानं यूयं कुरुत, एतेषां नामानि कलशाकारस्योपरि सर्वतो लिखेत् / 'ॐ ह्रीँ विमलस्वामिने नमः' इत्यादि लिखेदित्यर्थः // 204 // (14) .. तं विजादेवि-सासणसुर-सासणदेविसेविअदुपासं। मूलगह कंठणिहिं चउपडिहारं च चउवीरं // 205 // 15 // दिसिवाल-खित्तवालेहिं सेविसं धरणिमंडलपइहें। पूयंताण नराणं नूणं पूरेइ मणइ8 // 206 // 16 // 10 व्याख्या-अथ तमित्यादि गाथायुग्मस्य व्याख्या, तत् सिद्धचक्रं कर्तृ पूजयतां नराणां नूनंनिश्चितं मन इष्टं - मनसोऽभीष्टं पूरयति, इति द्वितीयगाथान्त्यपादद्वयेन सम्बन्धः, किंविशिष्टं तत् ? - विद्यादेव्यो-रोहिण्याद्याः षोडश, शासनसुरा गोमुखयक्षादयश्चतुर्विंशतिः, शासनदेव्यश्चक्रेश्वर्याद्याः चतुर्विंशतिरेव, ततो, विद्यादेवीभिः शासनसुरैः शासनदेवीभिश्च सेवितौ द्वौ पाचौं वामदक्षिणौ यस्य तत् / पुनः कीदृशम् ? - 'मूलगहं' ति मूले - कलशस्य मूले ग्रहाः- सूर्यादयो यस्य तत् , तथा कण्ठे-15 गलस्थाने निधयो नवसङ्ख्याका नैसर्पकाद्या आगमप्रसिद्धा यस्य तत् , तद् यथा - .. " नैसर्पः 1, पाण्डुकश्चाथ 2, पिङ्गलः 3, सर्व्वरलकः 4 / महापद्मः 5, काल 6, - महाकालौ 7, माणव 8 - शङ्खको 9 // 1 // " विमलखामी वगेरे ( सौधर्मदेवलोकवासी सिद्धचक्र यंत्रना) अधिष्ठायक देवो अने देवीओ ( चक्रेश्वरी वगेरे )ना ध्यान (माटेर्नु आलेखन) गुरुमुखथी सांभळीने करवू अने ते संबंधी 20 मंत्रपदोनुं ध्यान (आलेखन ) करवू / (ते आ प्रकारे 1. ॐ ह्रीँ विमलवाहनाय नमः।- 2. ॐ ह्रीँ चक्रेश्वर्यै नमः / 3. ॐ ह्रीँ अप्रसिद्धाधिष्ठायकाय नमः। 4. ॐ ह्रीँ गणिपिटकयक्षराजाय नमः। 5. ॐ ह्रीँ धरणेन्द्राय नमः। 6. ॐ ह्रीँ कपर्दियक्षाय नमः। 7. ॐ ह्रीँ शारदायै नमः। 8. ॐ ह्रीँ शान्तिदेवतायै नमः। - 25 9. ॐ ह्रीं अप्रतिचक्रायै नमः। 10. ॐ ह्रीँ ज्वालामालिन्यै नमः। 11. ॐ ह्रीँ त्रिभुवनस्वामिन्यै नमः। 12. ॐ ह्रीँ देवतायै नमः। 13. ॐ हाँ वैरोट्यायै नमः। 14. ॐ ह्रीँ पद्मावत्यै नमः। 15. ॐ ह्रीँ कुरुकुल्लायै नमः। 16. ॐ ह्रीँ अंबिकायै नमः। 17. ॐ ह्रीँ कुबेरदेवतायै नमः। 18. ॐ ह्रीँ कुलदेवतायै नमः // 204 // (14) 30 ते सिद्धचक्र पूजन करनारा मनुष्योनां मनोवांछितो पूरा करे छे, ते विद्यादेवीओ (रोहिणी वगैरे सोळ वलयाकारे) अने शासनदेवो ( गोमुख वगेरे चोवीश यक्षो) तेमज शासनदेवीओ वडे सेवायेलुं छे। (चक्रेश्वरी वगेरे चोवीश यक्षिणीओ एकज वलयमा बे पडखे ) लखवी / Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 सिरिरयणसेहरसूरिविरइय-सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदब्भो। [प्राकृत तथा - चत्वारः प्रतीहारा-द्वारपालाः कुमुदाञ्जन-वामन-पुष्पदंताख्या यस्य तत्तथा, चत्वारो वीरा मणिभद्र-पूर्णभद्र -कपिल-पिङ्गलाख्या यस्य तत् , तत्र विद्यादेव्यः षोडशापि -- ॐ हाँ रोहिण्यै नमः' इत्यादि यन्त्रपरितो लिखेत् , तथा शासनसुरान् चक्रस्य दक्षिणदिशि लिखेत् , शासनदेवीः अथ वामदिशि लिखेल , तथा -- कलशाकारचक्रस्य मूले पतबहाऽधः ॐ आदित्याय नमः' इत्यादीनि नवग्रहाणां 5 नामानि लिखेत् , कण्ठे च वामदक्षिणतो नवापि कलशान् तदुपरि ॐ नैसर्पकाय नम इत्यादि लिखेत् , तथा चतसृषु दिक्षु क्रमेण कुमुदा 1 -5 अन 2 वामन 3 पुष्पदन्तान् 4 लिखेत् , तथा मणिभद्रादींश्चतुरो वीरानपि / एवं दिक्षु लिखेत् , 'दिसिवाल 'त्ति दिक्पालैर्दशभिरिन्द्रामि-यम-नैर्ऋत-वरुणवायु-कुबेरे-शान-ब्रह्म-नागनामभिः क्षेत्रपालेन च प्रसिद्धेन सेवितं पुनर्धरणीमण्डलप्रतिष्ठं -पृथ्वीपीठे स्थितमित्यर्थः / तत्र दशसु दिक्पालेषु अष्टौ दिक्पालान् पूर्वादिक्रमेण लिखेत् 'ॐ इन्द्राय नमः' 10 इत्यादि, ऊर्ध्व तु 'ॐ ब्रह्मणे नमः' अधः / ॐ नागाय नमः' निजदक्षिणनागकोणे -- ॐ क्षेत्रपालाय (ते आ प्रकारे- सोळ विद्यादेवीओ१. ॐ ह्रौँ रोहिण्यै नमः। 2. ॐ ह्रीँ प्रात्यै नमः। 3. ॐ ह्रीं वज्रशृङ्खलायै नमः। 4. ॐ ह्रीँ वज्राङ्कुश्यै नमः। ५.ॐहीं अप्रतिचक्रायै (चक्रेश्वर्यै नमः। 6. ॐ ह्रीँ पुरुषदत्तायै नमः। 15 .7. ॐ ह्रीँ काल्यै नमः। 8. ॐ ह्रौँ महाकाल्यै नमः। 9. ॐ ह्रीँ गौर्यै नमः। 10. ॐ ह्रीँ गान्धायै नमः। 11. ॐ ह्रीं सर्वास्त्रायै नमः। 12. ॐ ह्रौँ महाज्वालायै नमः। 13. ॐ ह्रीँ मानव्यै नमः। 14. ॐ ह्रौँ वैरोट्यायै नमः। 15. ॐ ह्रीँ मानस्यै नमः। 16. ॐ ह्रौँ महामानस्यै नमः। 20 चोवीश शासनदेवो 1. ॐ गोमुखाय नमः। 2. ॐ महायक्षाय नमः। 3. ॐ त्रिमुखाय नमः। 4. ॐ यक्षनायकाय नमः। 5. ॐ तुम्बरवे नमः। 6. ॐ कुसुमाय नमः। 7. ॐ मातङ्गाय नमः। 8. ॐ विजयाय नमः। 9. ॐ अजिताय नमः। 10. ॐब्रह्माय नमः। 11. ॐ यक्षराजाय नमः। 12. ॐसुरकुमाराय नमः। 25 13. ॐ षण्मुखाय नमः। 14. ॐ पातालाय नमः। 15. ॐ किन्नराय नमः। 16. ॐगरुडाय नमः। 17. ॐ गन्धर्वाय नमः। 18. ॐ यक्षराजाय नमः। 19. ॐ कुबेराय नमः। 20. ॐ वरुणाय नमः। 21. ॐ भृकुटये नमः। 1 22. ॐ गोमेधाय नमः। 23. ॐ पार्थाय नमः। 24. ॐ ब्रह्मशान्तये नमः। चोवीश शासनदेवीओ30 1. ॐ चक्रेश्वर्यै नमः। 2. ॐ अजितबलायै नमः। 3. ॐ दुरितार्यै नमः / 4. ॐ काल्यै नमः। . 5. ॐ महाकाल्यै नमः। 6. ॐ श्यामायै नमः। 7. ॐ शान्तायै नमः। 8. ॐ भृकुट्यै नमः। 9. ॐ सुतारकायै नमः। 10. ॐ अशोकायै नमः। 11. ॐ मानव्यै नमः। 12. ॐ चण्डायै नमः / 13. ॐ विदितायै नमः। 14, ॐ अङ्कुशायै नमः। 15. ॐ कन्दर्पायै नमः। 35 16. ॐ निर्वाण्यै नमः। 17. ॐ बलायै नमः। 18. ॐ धारण्यै नमः। 19. ॐ धरणप्रियायै नमः / 20. ॐ नरदत्तायै नमः। 21. ॐ गान्धायै नमः / . 22. ॐ अम्बिकायै नमः। 23. ॐ पद्मावत्यै नमः। 24. ॐ सिद्धायिकायै नमः।) Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। नमः' इति लिखेत् / अस्य लिखने सम्यग्विधिश्वास्याम्नायविन्मुखाद् यथा लिखितचक्राद् वाऽवसेयः // // 205 // 206 // (15-16) एयं च सिद्धचकं कहि विजाणुवायपरमत्थं / नाएण जेण सहसा सिझंति महंतसिद्धिओ // 207 // 17 // व्याख्या-एतच्च सिद्धचक्र विद्यानुवादो-दशमं पूर्व तस्य परमार्थरूपं- रहस्यभूतमित्यर्थः, b येन ज्ञातेन सहसा - सद्यो महत्यः सिद्धयो- अणिमाद्याः सिद्धयन्ति // 207 // (17) वळी कलशना मूलमां (नीचे )नव ग्रहोनां नाम आलेखवां, ते आ प्रमाणे१. ॐ सूर्याय नमः। 2. ॐ सोमाय नमः। 3. ॐ भौमाय नमः / 4. ॐ बुधाय नमः। . 5. ॐ बृहस्पतये नमः / 6. ॐ शुक्राय नमः / ... 7. ॐ शनैश्चराय नमः / 8. ॐ राहवे नमः। 9. ॐ केतवे नमः। 10 वळी कंठमां-गळे नव निधिओनां नाम आलेखवां, ते आ प्रमाणे१. ॐ नैसर्पिकाय नमः। 2. ॐ पाण्डुकाय नमः। 3. ॐ पिङ्गलाय नमः। 4. ॐ सर्वरत्नाय नमः / 5. ॐ महापद्माय नमः / 6. ॐ कालाय नमः / 7. ॐ महाकालाय नमः / 8. ॐ माणवकाय नमः। 9. ॐ शङ्खाय नमः / वळी, चार प्रतीहारोनां नाम ( चार दिशाओमां) लखवां, ते आ प्रमाणे . 15 1. ॐ कुमुदाय नमः ( पूर्वमां), 2. ॐ अञ्जनाय नमः ( दक्षिणमां), 3. ॐ वामनाय नमः (पश्चिममां), अने 4. ॐ पुष्पदंताय नमः ( उत्तरमां)। वळी, चार वीरोनां नाम (चार दिशाओमां, ऊपरनी माफक लखवां, ते आ प्रमाणे 1. ॐ माणिभद्राय नमः ( पूर्वमा), 2. ॐ पूर्णभद्राय नमः (दक्षिणमां).. .. 3. ॐ कपिलाय नमः (पश्चिममा ) अने 4. ॐ पिङ्गलाय नमः ( उत्तरमां)। 20 वळी, दश दिक्पालनां नाम (ते ते दिशाओमां) लखवां, ते आ प्रमाणे 1. ॐ इन्द्राय नमः (पूर्वमां), 2. ॐ अग्नये नमः (अग्निमां), 3. ॐ यमाय नमः (दक्षिणमां), 4 ॐ नैर्ऋताय नमः (नैर्ऋत्यमां), 5. ॐ वरुणाय नमः (पश्चिममां), 6. ॐ वायवे नमः (वायुमां), 7. ॐ कुबेराय नमः ( उत्तरमां), 8. ॐ ईशानाय नमः (ईशानमां)। 9. (सौथी ऊपर पूर्वदिशामां), ॐ ब्रह्मणे नमः / 10 (सौथी नीचे 25 पश्चिमदिशामां) ॐ नागाय नमः / अने क्षेत्रपाल देवनुं वायुखूणामां आलेखन करतुं ।-आ बधा ( देवता )ओथी सेवायला (यंत्रने 'ल' अने 'क्षि' अक्षर युक्त) धरणीमंडल (चोरस ) मां प्रतिष्ठित (स्थापन) करवू।आ प्रकारनुं यंत्र पूजा करनारा मनुष्योनां मनोवांछितो पूरे छे // 205 // 206 / / 15-16 // . आ सिद्धचक्र 'विद्यानुवाद' नामना (दशमा पूर्वना) रहस्यरूप छे, जेने जाण्युं होय तो 30 महान् ( अणिमा आदि) सिद्धिओ जलदीथी सिद्ध थाय छे // 207 // (17) . ... Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 सिरिरयणसेहरसूरिविरइय सिरिसिरिवालकहा'तो सिद्धचक्कयंतोद्धारविहिसंदब्भो। [प्राकृत एयं च विमलधवलं जो झायइ सुकमाणजोएण / तव-संजमेण जुत्तो सो पावइ निजरं विउलं // 208 // 18 // व्याख्या-एतच्च विमलं -निर्मलं अत एव धवलं उज्वलं श्रीसिद्धचक्रं यः पुमान् शुक्लध्यानयोगेन उज्ज्वलध्यानव्यापारेण ध्यायति स विपुलां –विस्तीर्णा निर्जरां प्रामोति बहुकर्मक्षयं करोतीत्यर्थः, 5 कीदृशः सः? -तपःसंयमाभ्यां युक्तः // 208 // (18) अक्षयसुक्खो मुक्खो जस्स पसाएण लब्भए तस्स / झाणेणं अन्नाओ सिद्धीओ इंति किं चुजं // 209 // 19 // व्याख्या-अक्षयं सुखं यस्मिन् स ईदृशो मोक्षो यस्य श्रीसिद्धचक्रस्य प्रसादेन प्राणिभिर्लभ्यते तस्य ध्यानेन अन्याः सिद्धयो भवन्ति, तत्र किञ्चोघं- किमाश्चर्यमित्यर्थः // 209 // (19) एयं च परमतत्तं परमरहस्सं च परममंतं च / परमत्थं परमपयं पनत्तं परमपुरिसेहिं / 210 // 20 // व्याख्या-एतच्च परमतत्त्वं- उत्कृष्टं तत्त्वम् , च-पुनः परमं रहस्यं–गोप्यं, च-पुनः परमो __ मन्त्रः, पुनः परमार्थः, पुनः परमपदं परमपुरुषैर्भगवद्भिः प्रज्ञप्तं - प्ररूपितम् // 210 // (20) ___ तत्तो तिजयपसिद्धं अट्ठमहासिद्धिदायर्ग सुद्धं / 15 सिरिसिद्धचकमेअं आराहह परमभत्तीए // 211 // 21 // व्याख्या-ततस्तस्मात् कारणात् भो भो भव्याः! त्रिजगति-लोकत्रये प्रसिद्धम् , अणिमाद्यष्टमहासिद्धिदायकं शुद्धं-निर्मलम् एतत् श्रीसिद्धचक्रं परमभक्त्या यूयं आराधयत सेवध्वम् // 211 // (21) , निर्मल होवाना कारणे ज उज्ज्वल एवा आ सिद्धचक्रनुं जे पुरुष शुक्लध्यानना योगथी ध्यान धरे छे ते तप अने संयमथी भारे निर्जरा एटले अनेक कर्मोनो क्षय करे छे / 208 // (18) 20 जेमां अक्षय सुख रहेलुं छे एवो मोक्ष, जे (सिद्धचक्र )ना प्रसादथी (प्राणीओने )मळे छे तेना ध्यानथी बीजी (लौकिक ) सिद्धिओ पण प्राप्त थाय एमां तो नवाई ज शी? // 209 // (19) आ (सिद्धचक्र ) परमतत्त्व (ध्येय ) छे, परमरहस्यरूप एटले गोपनीय छे (गमे तेवा मानवीने देवा योग्य नथी), आ परममंत्र छे, परम अर्थवाळु छ, परम पदोवाळु छ, तेनुं उत्कृष्ट एवा आप्त पुरुषोए निरूपण कयुं छे // 210 // (20) B आ कारणथी जगतमा प्रसिद्ध, अने अणिमा वगेरे आठ सिद्धिओने आपनार, निर्मळ एवा आ सिद्धचक्रनी तमे आराधना करो // 211 // (21) - सिरिसिरिवालकहा संदर्भपरिचय - बृहद्गच्छीय श्रीहेमतिलकसूरिना शिष्य श्रीरत्नशेखरसूरिए वि. सं. 1428 मां प्राकृतमा 'सिरिसिरिवालकहा' नामे ग्रंथ रच्यो छे / तेना उपर खरतरगच्छीय श्रीक्षमाकल्याणगणिए व्याख्या पण रची छे। 30. आ ग्रंथमां कथानी साथोसाथ सिद्धचक्रयंत्रालेखनविधि, पंचपरमेष्ठी आराधन, स्तुत्यास्मक नवपदनां नवक-ते पैकी परमेष्ठीनवक वगेरे नमस्कारविषयक उपयोगी संदर्भो टीका साथे तारवीने अनुवाद सहित अहीं प्रगट कर्या छ। .. सिद्धचक्रयंत्र' जे श्रीयशोविजयजी महाराजे अमने प्रसिद्धि अर्थे आप्युं छे ते पण अहीं प्रगट करीए छीए। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [38] सिरिरयणसेहरसूरिविरइयसिरिसिरिवालकहातो पंचपरमिट्ठिपयाराहणविहिसंदब्भो // तं सोऊणं अइगरूअभत्तिसत्तीहिं संजुओ राया। अरिहंताइपयाणं करेइ आराहणा एवं // 1169 // अव० -तद्राज्ञीवचनं श्रुत्वाऽतिगुरुकेऽतिमहत्यौ ये भक्तिशक्ती, ताभ्यां संयुतः - सहितो राजा एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण, अहंदादिपदानां आराधनां करोति // 1169 // नवचेईहरपडिमा जिन्नुद्धाराइविहिविहाणेणं / नाणाविहपूआहिं अरिहंताराहणं कुणइ // 1170 // अव० -तथाहि - नव चैत्यगृहाणि-नव संख्यानि जिनगृहाणि, नव प्रतिमाः, नव जीर्णोद्धारा 10 इत्यादिना विधिना विधानं–निर्मापणं तेन, तथा नानाविधाः- अनेकप्रकारा याः पूजास्ताभिरर्हतःअर्हत्पदस्याराधनां करोति // 1170 // ('सिरिसिरिवालकहा'मां नवपदोनी आराधनाना प्रसंगे श्रीपाल महाराजा विधिपूर्वक तपस्या करे छे त्यारे राणी मयणासुंदरीए श्रीपाल महाराजाने जणाव्यु के, 'तमने मोटी राजलक्ष्मी मळी छे यारे तमे शक्ति अने भक्ति अनुसार नवपदोनी पूजा-आराधना करी तमारा मनोरथोने पूरा करो।') 15 आ प्रकारे ते राणीनुं वचन सांभळीने अतिभक्ति अने महाशक्तिवाळा (श्रीपाल) महाराजा अरिहंत वगेरे पदोनी आराधना आ प्रकारे करे छे—॥ 1169 // ___अरिहंत भगवंतनां नव चैत्यो, नव प्रतिमाओ, नव जीर्णोद्धारो वगेरे विधिपूर्वक करावीने तथा विविध प्रकारनी पूजाओ वडे ते अरिहंतपदनी आराधना करे छे / // 1170 // विवेचन अरिहंतपदनी आराधना करवा माटे अरिहंत भगवंतनां नव संख्या प्रमाण चैत्यो, 20 नव प्रतिमाओ, नव जीर्णोद्धारो करवा जोइए; तथा महोत्सवपूर्वक स्नात्रपूजा, पंचप्रकारी, अष्टप्रकारी, सत्तर प्रकारी, एकवीश प्रकारी, एकसो आठ प्रकारी अने सर्वतोभद्रा नामनी पूजाओ करवी-भणाववी जरुरी छ। __ अरिहंत भगवंतोए सिद्धदशानी प्राप्तिनो मार्ग बताव्यो छे माटे ज तेमनो बोध करावनार अरिहंतपदनी आराधना करवानुं विधान करवामां आवेलुं छे। ... . अरिहंतपदनी आराधना माटे अरिहंत आदि भगवंतोनी आराधना माटे मूर्तिओनुं अवलंबन जरूरी छे; केमके एवी मूर्तिओ आत्मदशाना आदर्शरूपे मानवामां आवेली छे; तेनाथी आत्मामां परमात्मभावनो ख्याल आवे छे / एवा परम आत्माओनी मूर्तिओ भराववी होय त्यारे खास करीने तीर्थंकर अवस्थामां तेओ सिंहासनमा बिराजमान होय तेवी कराववामां आवे छ / . 25 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 सिरिरयणसेहरसूरिविरइयसिरिसिरिवालकहातो पंचपरमिट्ठिपयाराहणविहिसंदब्भो [प्राकृत सिद्धाणवि पडिमाणं कारावणपूअणापणामहि / तग्गयमणझाणेणं सिद्धपयाराहणं कुणइ // 1171 // अव० -सिद्धानामपि याः प्रतिमाः, तासां कारापणं-निर्मापणं, पूजना - अर्चना, प्रणामः - नमस्कारस्तैस्तथा, तद्गतेन-तेषु सिद्धेषु प्राप्तेन मनसा यद् ध्यानं, तेन सिद्धपदस्याराधनां करोति // 1171 // भत्ति-बहुमाण-चंदण-वेयावच्चाइकजमुजुत्तो। सुस्वसणविहिनिउणो आयरियाराहणं कुणइ // 1172 // अव० - भक्तिः- मनसि निर्भरा प्रीतिः, बहुमानः- बाह्यप्रतिपत्तिः, वन्दन - वैयावृत्त्ये प्रसिद्धे तीर्थकरो ज्यारे समवसरणमा बिराजमान होय त्यारे योगमुद्रामा रहेला होवाथी ते समयनी मूर्तिओ योगमुद्रावाळी करावाय छे अने तीर्थंकरोतुं निर्वाणकल्याणक पर्यकासन के कायोत्सर्ग आसने ज 10 थतुं होवाथी ए समयनी मूर्तिओ पर्यकासनवाळी अथवा कायोत्सर्गासनवाळी बनाववामां आवे छे . केमके पर्यक आसन के कायोत्सर्ग आसन ए सिद्धदशानां सूचक छ। आवी प्रतिमाओ कराववाथी तथा अरिहंतनी भावपूर्वक पूजाओ करवाथी अरिहंतपदनी आराधना थाय छे / // 1170 // ते श्रीपाळ महाराजा सिद्ध भगवंतोनी प्रतिमाओ भरावीने, तेमनी पूजा करीने, तेमने प्रणाम 15 करीने तथा ते सिद्ध भगवंतोनी अंदर मनने परोववारूप ध्यान करीने सिद्धपदनी आराधना करे छे / // 1171 // विवेचन-सिद्धपदनी आराधना करवा माटे सिद्ध भगवंतोनी प्रतिमाओ, तेमनां चैत्यो अने जीर्णोद्धारो कराववा तेमज तेमनी पूजाओ भणाववी तथा सिद्धि प्राप्त थई होय तेवां स्थानोमां अगर अन्य स्थळोमां सिद्ध भगवंतने वंदन करवापूर्वक तेमनुं एकाग्रचित्तथी ध्यान करतुं जोईए / 20 सिद्ध भगवंत तो अरूपी एटले निरंजन-निराकार छे तेथी तेमनी आकृति बनाववानो कोई संभव ज नथी। छतां तीर्थंकरोना जन्म समये तेमनां जे जे लांछनो होय तेवा लांछनोवाळी मूर्ति ते अरिहंत-तीर्थकरनी मूर्ति कहेवाय छे ज्यारे लांछनो विनानी मूर्तिओ होय ते सिद्ध भगवंतनी मानवामां आवे छे। सिद्ध भगवंतनी प्रतिमाओ भराववामां तेमना आसनो विशे कोई नियम नथी तेथी ते कोई 25 पण आसनवाळी बनावी शकाय; पण तेमां वीतरागभावदर्शक आकार होवो जरूरी छ। तत्त्वतः अरिहंतोनी पोतानी आराध्यता पण तेमना निर्वाणकल्याणक एटले सिद्धदशाने उद्देशीने ज होय छे / आथी सिद्धपदनी आराधनामां सिद्ध भगवंतनुं अने अरिहंतपदनी आराधनामां सिद्धदशा प्राप्त करवा माटेर्नु एकाग्रचित्ते ध्यान करवानुं अहीं 'ध्यान' शब्दथी सूचवेलुं होय एम जणाय छे / वळी, आचार्य आदि पदोनी आराधनामां पण तेओ सिद्ध भगवंत अने अरिहंतनी 30सिद्धदशानुं एकाप्रपणे ध्यान करता होवाना कारणे आचार्य आदि पदोनी आराधना करवामां आवे छ / एवं रहस्य अहीं स्फुट थाय छे / // 1171 // Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 479 इत्यादिकार्येषु युक्तः - उद्यतः, तथा शुश्रूषणस्य - सेवनस्य यो विधिस्तत्र निपुणः- दक्षः, एवम्भूतः सन् आचार्यपदाराधनां करोति // 1172 // ठाणासणवसणाई पढंत-पाढंतयाण पूरंतो / दुविहभत्तिं कुणंतो उवज्झायाराहणं कुणइ // 1173 // ____ अव० - पठतां पाठयतां च साध्वादीनां स्थानाशन-वसनादि-निवासस्थान-भोजन-वस्त्रादि-5 पूरयन् द्रव्य-भावभेदतो द्विविधां भक्तिं कुर्वन् उपाध्यायपदाराधनां करोति // 1173 // भक्ति, बहुमान, वंदन, वैयावृत्त्य वगेरे कार्योमा प्रयत्नशील अने शुश्रूषा करवामां कुशळ एवा (श्रीपाल ) महाराजा आचार्यपदनी आराधना करे छे / // 1172 // विवेचन-आचार्यपदनी आराधना करवा माटे भक्ति एटले मानसिक प्रीति; भक्तिथी उत्पन्न थतुं बहुमान एटले बाह्य प्रतिपत्ति; वंदन एटले नामस्मरण, स्तुति, नमन आदि तथा मन, वचन, 10 कायानी शुभ प्रवृत्ति; वैयावृत्त्य एटले व्यापृतभाव अर्थात् धर्मसाधन निमित्त अन्न वगेरेनुं विधिपूर्वक संपादन एटले मेळवी आप, अने शुश्रूषा एटले आरोग्य माटेनी परिचर्या एटले मावजतआ बधुं करवामां कुशळता दाखवी उद्यमशील बनवू जोइए / जिनेश्वर भगवंतना निर्वाण पछी आचार्य भगवंत शासनना सर्वाधिकारी मनाय छे / तेथी जेम जिनेश्वर भगवंतो शासन प्रवर्ताववाना कारणे उपकारी होवाथी आराध्य छे अने सिद्ध भगवंतो 15 निरंजन निराकार, ज्योतिस्वरूप होवाथी आत्माना साध्य बिंदुरूपे होवाथी आराध्य छे, तेम आचार्य भगवंतो शासनना अने मोक्षना मुख्य अंगरूप होवाथी तेमनी गणतरी परमेष्ठीमां ज करेली छे तेथी तेओ पण आराधवायोग्य छ / ___ आचार्यपदनी आराधना अरिहंत अने सिद्ध भगवंत करतां जुदी रीते बतावी छ। ते आराधनामां भक्ति अने बहुमानपूर्वक पचीश आवश्यकवाडं अने बत्रीश दोषरहित वंदन करवानुं 20 विधान छ / ___वळी, आचार्यपदनी आराधना करतां आचार्य भगवंतनी प्रतिमा के पूजा- अवलंबन लेवानुं जणावेलुं नथी, केमके शासन आचार्य भगवंतनी विहरमान दशा विनानुं होतुं नथी / तेथी साक्षात् आचार्य भगवंतनी एटले भाव आचार्यनी भक्ति, बहुमान, वंदन वगेरे द्वारा आराधना करवी जोईए; अने एम करतां 'एगम्मि पूइयम्मि सव्वे ते पूइया होई' एक भावाचार्यनी पूजा 25 द्वारा सारा जगतना भावाचार्योर्नु पूजन थयेलुं गणाय छे; कारणके भावनिक्षेपानी अराधनाथी बधाये निक्षेपार्नु आराधन थयानुं मानी लेवामां आव्युं छे / // 1172 // ते महाराजा आगमोने भणनारा तेमज भणावनारा साधु-साध्वीओने माटे निवासस्थान एटले उपाश्रयो, आहार अने वस्रोनी जरूरियातने पूरी पाडीने द्रव्य तेमज भाव एम वे प्रकारे भक्ति करीने उपाध्यायपदनी आराधना करे छे / / / 1173 // 30 . विवेचन-उपाध्यायपदनी आराधना माटे भणनारा साधुओ अने भणावनारा उपाध्यायो माटे निराकुल स्थानमा उपाश्रयो बनाववा अने तेमने भोजन, वस्त्र, पुस्तक वगेरेनी सामग्री आपवारूप द्रव्य अने भावपूर्वकनी भक्ति करवी जोईए / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 सिरिरयणसेहरसूरिविरइयसिरिसिरिवालकहातो पंचपरमिट्ठिपयाराहणविहिसंदभो। [प्राकृत . अभिगमण-वंदण-नमंसणेहिं असणाइ-वसहिदाणेहिं / वेयावच्चाइहि अ साहुपयाराहणं कुणइ // 1174 // अव० - अभिगमणं-सम्मुखगमनं, वन्दनं-स्तुतिः, नमस्यनं-नमस्कारकरणं, तैस्तथा; अशनादीनां वसतेश्च दानैश्च पुनर्वैयावृत्त्यादिभिः साधुपदाराधनां करोति // 1174 // 5- आगमोना नियुक्ति वगेरेना अर्थोनुं अध्यापनकार्य तो आचार्य भगवंतो ज करे छे त्यारे समग्र आगमोनां मूळ सूत्रोनुं अध्यापनकार्य उपाध्याय भगवंतोना शिरे होय छे। वळी, गच्छना साधुओनुं पालन-पोषण करवानी मुख्य फरज पण उपाध्याय भगवंतो ज बनावे छ / वाचना पृच्छना, परावर्तना अनुप्रेक्षा अने धर्मकथारूप स्वाध्याय करनारा साधुओने उपाध्याय भगवंतो भणावे त्यारे अध्ययन अने अध्यापन माटे निराकुल वातावरण अने भोजन, 10 वस्त्र, पुस्तक वगेरेनी योग्य सामग्री भावपूर्वक पूरी पाडवाथी तेमज भणनारा साधुओए उपाध्याय भगवंत प्रत्ये भक्ति बताववाथी उपाध्यायपदनी आराधना करी शकाय छ। ' आचार्यपदनी पेठे उपाध्यायपदनी आराधना पण साक्षात् उपाध्यायनी आराधनाथी थाय छे माटे तेमनी मूर्ति वगेरेथी करवानुं जणाववामां आव्युं नथी / // 1173 // . ते महाराजा अभिगमन, वंदन अने नमस्कार करवावडे भोजन वगेरे तथा निवासस्थान 15 देवावडे अने वेयावञ्च आदि करवा वडे साधुपदनी आराधना करे छे / // 1174 // विवेचन-साधुपदनी आराधना करवा माटे अभिगमन एटले साधु भगवंतने वंदन करवा माटे सामे जवं, तथा गाममां प्रवेश करता होय त्यारे तेमनुं भावपूर्वक सामैयुं करवू, वंदन एटले अभिवादन अर्थात् मन, वचन अने कायानी प्रशस्त प्रवृत्ति करवी; नमस्यन एटले नमन के पूजन वगैरे करवू, तेमज ते साधु भगवंतोने अशन आदि एटले अशन (भोजन), पान, खादिम, स्वादिम, 20 वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, संथारियां, दंडक वगेरे संयमसाधनानां उपकरणो देवां, तेमज तेमने ऊतरवा माटे वसति एटले उपाश्रयनां स्थानो आपवां अने वेयावञ्च एटले धर्मसाधन निमित्ते अन्न वगेरे विधिपूर्वक मेळवी आपवां जोईए। - आचार्य अने उपाध्यायपदवी प्राप्त करनारा महापुरुषो. पहेलेथी ज साधुपणामां होय छे एटले आचार्य, उपाध्याय वगेरे पदवीओ प्राप्त करवाथी तेमनामां साधुपणानी न्यूनता आवती नथी, 25 बल्के ते विशेषपणे विकास पामे छे / तेथी ज आवश्यकनियुक्ति (गाथा 1018) मा पूर्वपक्षकारे सिद्ध भगवंत अने साधु भगवंतमां पंचपरमेष्ठीना नमस्कारनो एक दृष्टिए समावेश कर्यो छे / वळी, 'पंचसूत्र', 'चउसरणपयन्ना' अने प्रतिक्रमणसूत्र वगेरेमां आचार्य अने उपाध्याय भगवंतने मंगळ, लोकोत्तम अने शरण्य तरीके जुदा न गणावतां साधुपदमां तेमनो समावेश कर्यो छे। साधुपदनी आराधना माटे पदस्थ एवा आचार्य अने उपाध्याय भगवंतोनी जेम मूलोत्तर 30 गुणना धारक गीतार्थ अने गीतार्थनी निश्रावाळा साधुओनी सामे जइने वंदन वगेरे करवान विधान आ गाथामां करेलुं छे। वळी, श्रमण महात्माओना नामस्मरण एटले जाप करतां ये तेमने वंदन, नमस्कार करवानुं फळ विशेष छे एम जणाववामां आव्युं छे / // 1174 // Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार खाध्याय। 481 संदर्भ-परिचय पंचपरमेष्ठीनां पदोनी आराधना केवी रीते कराय ए संबंधे केटलाय समयथी अमारी शोध चालु हती। यद्यपि श्रीरत्नशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा' माथी 'सिद्धचक्रयंत्रालेखनविधि' अने 'पंचपरमेष्ठिनवक'नो संदर्भ तारवीने अनुवाद विवेचन साथे प्रस्तुत ग्रंथ माटे संग्रह करी लीधो छतां तेमा ज पंचपरमेष्ठीनां पदोनी आराधनाविधि हशे एवो ख्याल आव्यो न होतो / ज्यारे 'सिद्ध-5 चक्र'नी फाईलो उपर अचानक दृष्टि पडी त्यारे नवपदोनी संक्षिप्त छतां विशिष्ट आराधनाविधि ('सिद्धचक्र' वर्षः 3, अंकः 13, 14, 15.) वांचवामां आवी / तेमांथी 'सिरिसिरिवालकहा'ने सामे राखीने 'पंचपरमेष्ठिपदाराधनविधि'नो छ गाथात्मक संदर्भ अवचूरि साथे तारवीने तेनो अनुवाद लख्यो; परंतु गाथाओनो केवळ शब्दार्थ आराधकोनी जिज्ञासा माटे पूरतो न जणातां तेना उपर यथाशक्ति विवेचन आपवानो प्रयास कर्यो छ। 10 last 7R नवस र य र वीCIA सगण व ईमा me प्रणिधर . - गुणे हिं पा व इन तं Gir .. . . '--: Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [39] श्रीमदवशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गत- पञ्चपरमेटिनः पञ्चनवकात्मकः संदर्भः च // .. सतिभवेहिं मापहि जेहिं विहियारिहाइठाणेहिं / अजिजह जिणगुत्तं, ते अरिहंते पणिवयामि // 1218 // व्याख्या-शेषः- अवशिष्टानयो भवा येषां ते पुनर्विहितानि - कृतानि सेवितानीति यावत् ईदादिखानानि-विंशतिस्थानकानि यैस्खे तथा तैः, एवं भूतैर्यैर्जिनगोत्रं-जिननामकर्म अय॑ते.... उपार्जीते तान् अर्हतोऽहं प्रणिपतामि नमस्कुर्वे // 1218 // ... .... . . जे एगभवंतरिया रायकुले उत्तमे अवयरंति / महसुमिणसूइअगुणा ते अरिहंते पणिवयामि // 1219 // व्याख्या-ये एकभवान्तरिता उत्तमे राजकुले अवतरन्ति, कीदृशा ये ? महास्वमैश्चतुर्दशभिः सूचिता ज्ञापिता गुणा येषां ते तथा, तानर्हतः प्रणिपतामि-प्रणमामि // 1219 // जेसि जम्मम्मि महिसं दिसाकुमारीओं सुरवरिंदा य / .. कुम्बंति पहिष्मणा ते अरिहंते पणिवयामि // 1220 // . 15 व्याख्या-येषां जन्मनि महिमा महिमानं वा दिकुमार्यः षट्पञ्चाशत् , सुरवरेन्द्राश्च चतुष्षष्टिः प्रहृष्टं प्रकर्षेण हर्षित मनो येषां ते प्रहृष्टमनसः सन्तः कुर्वन्ति, तानर्हतः प्रणिपतामीति पूर्ववत् // 1220 // आजम्मं पि हु जेसि देहे चत्तारि अइसया हुँति / . लोगच्छेत्यभूया ते अरिहंते पणिवयामि // 1221 // . 10 20 अरिहंत ज्यारे त्रण भव बाकी रहे सारे मनुष्यभवमा अरिहंत वगेरे (वीश) स्थानकनुं आराधन करीने जेमणे तीर्थकर नामकर्म उपायुं छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करूं छु // 1218 // छेला भवमा ( माताने आवेलां ) चौद महास्वप्नो वडे सूचित गुणवाळा जेओ उत्तम राजकुळमां अवतरे छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करुं हुं // 1219 // 25 जेओना जन्मसमये अत्यंत हर्षित मनवाळां छप्पन दिक्कुमारीओ अने चोसठ इंद्रो आवीने जन्म-उत्सव करे छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करुं हुं // 1220 // Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 483 विभाग] ... नमस्कार स्वाध्याय / व्याख्या-हु इति निश्चितं, येषां देहे-शरीरे आजम्मापि जन्मत आरभ्यापि लोके आश्चर्यभूताश्चत्वारोऽतिशया भवन्ति, 'तेषां च देहोऽद्भुतरूपगन्धः' इत्यादयस्तानहतः प्रणिपतामि // 1221 / / जे तिहुनाणसमम्पा खीणं नाऊम भोगफलकम्म। . पविजेति चरितं ते अरिहंते पणिवयामि // 1222 // व्याख्या-ये त्रिभिमा॑नः- मतिश्रुतावधिभिः समग्राः - सम्पूर्णाः सन्तो भोगः फलं यस्य / तद्भोगफलं कर्म क्षीणं ज्ञात्वा चारित्रं प्रतिपद्यन्ते- अङ्गीकुर्वन्ति तानहतः प्रणिपतामि // 1222 // उवउत्ता अपमत्ता सिअझाणा खवगसेणि हयमोहा / पावंति केवलं जे ते अरिहंते पणिवयामि // 1223 // व्याख्या-ये उपयुक्ता - उपयोगयुताः पुनरप्रमत्ताः- प्रमादरहिताः पुनः सितं-शुलं ध्यानं येषां ते सितध्यानाः अत एव क्षपकश्रेण्या हतो मोहो यैस्ते तथा, ईदृशाः सन्तः केवलज्ञानं प्रामुवन्ति, 10 तानर्हतः प्रणिफ्तामि // 1223 // कम्मक्खइया तह सुरकया य जेसिं च अइसया हुंति। ..... एगारसगुणवीसं ते अरिहंते पणिक्यामि // 1224 // .. - व्याख्या-च-पुनः, येषां कर्मक्षयजा:-कर्मक्षयोत्पन्ना एकादश अतिशया भवन्ति, तथा सुरैः-देवैः कृताश्च एकोनविंशतिरतिशया भवन्ति, तानर्हतः प्रणिपतामि // 1224 // ... 15 जे अट्ठपाडिहारेहिं सोहिआ सेविया सुरिंदेहिं / / विहरंति सया कालं ते अरिहंते पणिवयामि // 1225 // व्याख्या-ये 'अष्टप्रातिहार्यैः' अशोकवृक्षादिभिः शोभिताः, पुनः सुरेन्द्रैः सेविताः सदाकालं विचरन्ति, तानर्हतः प्रणिपतामि // 1225 // . जन्मथी मांडीने जेमना देहमां जगतमां आश्चर्यभूत एवा चार अतिशयों* होय छे ते 20 अरिहतोने हुं प्रणमुं छु // 1221 // त्रण ज्ञानथी परिपूर्ण एवा जे भगवंतो भोगावळीकर्मने क्षीण थयेलं जाणीने चारित्ररूप निवृत्तिमार्गने आदरे छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करूं छु // 1222 // चारित्रधर्ममां सदा उपयोगी, अप्रमत्त, शुक्लध्यानवाळा तथा क्षपकणि उपर आरूढ थई मोहने हणी जे केवळज्ञानने प्राप्त करे छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करूं छु // 1223 // 25 ___ कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयेला अगियार अतिशयो तथा देवोए करेला ओगणीस अतिशयो जेमने होय छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करुं हुं // 1224 // . आठ प्रातिहार्यो वडे शोभता तथा सुरनायको वडे सेवाता एवा जे सदाकाळ विचरे छे ते अरिहंतोने.हं नमस्कार करुं छं॥ 1225 // * चार अतिशयोः१. चर्मचक्षुथी जोई न शकाय ए रीते अरिहंत भगवंतो आहार अने निहार करे छ। 2. तेओनुं शरीर परसेवो, मेल, रोगथी रहित अने सुंदर होय छ / 3. तेओ गायना दूधनी धारा जेवा श्वेत मांस अने रुधिरने धारण करे छ / - 4. तेओना श्वास भने उस्कास मंदार अने पारिजातनां पुष्पोथी उत्पन्न यती सुरमि जेवा होय छ। ....... / मास अन रुधिरने धारण करे Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४श्रीमद्रनशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहान्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः। [प्राकृत पणतीसगुणगिराए जे अविवोहं कुणंति भव्वाणं / / .... महिपीढे विहरंता ते अरिहंते पणिवयामि // 1226 // व्याख्या-पञ्चत्रिंशद्गुणाः यस्यां सा पञ्चत्रिंशद्गुणा या गीः-वाणी तया, ये च भव्यानां विबोधंविशिष्टज्ञानं कुर्वन्ति, कीदृशाः सन्तः ? महीपीठे-पृथ्वीपीठे विचरन्तस्तानर्हतः प्रणिपतामि // 1226 // अरहता वा सामनकेवला अकयकय समुग्धाया / सेलेसीकरणेणं होऊणमयोगिकवलिणो // 1227 // व्याख्या- अर्हन्तः तीर्थक्करा वा-अथवा सामान्यकेवलिनः, अकृतः कृतो वा समुद्घातःकेवलिसमुद्घातो यैस्ते तथा एवम्भूता ये योगीन्द्राः शैलेशीकरणेन -आत्मप्रदेशस्थिरीकरणरूपेण अयोगिकेवलिनो भूत्वा // 1227 // जे दुचरिमम्मि समए दुसयरिपयडीओं तेरस अ चरमे. खविऊण सिवं पत्ता ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1228 // व्याख्या-द्विचरमे-आयुःक्षयसमयात् प्राक्तने समये द्वासप्तति 72 प्रकृती माद्यघातिकोंतर-प्रकृतीः क्षपयित्वा चः– पुनश्चरमे समये त्रयोदशप्रकृतीः क्षपयित्वा शिवं-मोक्षं प्राप्ताः, ते सिद्धा मे - मह्यं मुक्तिं ददतु // 1228 // . चरमंगतिभागोणावगाहणाजे अ एगसमयम्मि। संपत्ता लोगग्गं ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1229 // व्याख्या-चरमा - अन्तिमा, अङ्गस्य - शरीरस्य त्रिभागेन ऊनावगाहना-देहमानं येषां ते तथा, ये च ईदृशाः सन्तः एकस्मिन् समये लोकाग्रं सम्प्राप्तास्ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1229 // पुव्वपओग असंमा बंधणछेया सहावतो वादि / जेसि उड्डा हु गई ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं // 1230 // व्याख्या- पूर्वप्रयोगतो धनुर्मुक्तबाणवत् , तथाऽसङ्गात् - निःसङ्गतया कर्ममलापगमेन अलाबु पृथ्वीपीठ उपर विचरता जेओ पांत्रीश गुणोथी युक्त एवी वाणी वडे भव्यजनोने प्रतिबोध करे छे ते अरिहंतोने हुं प्रमाण करुं हुं // 1226 // सिद्ध25 केवळी समुद्धात करीने अथवा कर्या सिवाय अरिहंतो के सामान्य केवळीओ शैलेशीकरण वडे अयोगी केवळी थई आयुष्यना छेल्ला बे समयमांना पहेले समये बोत्तर प्रकृतिओने खपावी अने छल्ले समये तेर प्रकृतिओने खपावी जेओ मोक्षमा गया छे ते सिद्ध भगवानो मने मोक्ष आपो॥ 1227-28 // चरम शरीरना वीजा भागे न्यून अवगाहनावाळा जेओ एक ज समयमा लोकना अप्रभागे 30 जई पहोंचे छे ते सिद्ध भगवंतो मने मोक्ष आपो // 1229 // धनुष्यमाथी छूटेला बाणनी पेठे पूर्वप्रयोगथी, तुंबडानी पेठे असंगपणाथी, एरंडाना फळनी Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 485 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। द्रव्यवत् , तथा बन्धनच्छेदात् - कर्मबन्धनच्छेदनेन एरण्डफलवत् , तथा खभावतो वापि धूमवत् , येषां ऊर्ध्वा गतिः प्रवर्तते ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1230 // ईसीपन्भाराए उवरिं खलु जोयणम्मि लोगंते / जेसि ठिई पसिद्धा ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1231 // व्याख्या-ईषत्प्राग्भारायाः- सिद्धिशिलाया उपरि खलु निश्चयेन एकस्मिन् योजने लोकान्तो- 5 ऽस्ति, तत्र येषां स्थितिः- अवस्थानं प्रसिद्धमस्ति ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1231 // जे अ अणंता अपुणब्भवा य असरीरया अणाबाहा / . दसणनाणुवउत्ता ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1232 // ... . व्याख्या-च-पुनः येऽनन्ताः, पुनरपुनर्भवाः न विद्यते पुनर्भवो येषां ते तथा, पुनरशरीरका-न विद्यते शरीरं येषां ते, तथा पुनरनावाधा न विद्यते आबाधा - पीडा येषां ते तथा, पुनदर्शनं 10 च ज्ञानं च दर्शनज्ञाने तयोरुपयुक्ता दर्शन-ज्ञानोपयुक्ताः, येषां प्रथमसमये ज्ञानोपयोगो द्वितीयसमये दर्शनोपयोगोऽस्ति, ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1232 // जेष्णंतगुणा विगुणा इगतीसगुणा अ अहव अद्वगुणा / सिद्धाणंतचउका ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1233 // व्याख्या-ये सिद्धा अनन्तगुणा - अनन्ता ज्ञानादयो येषु ते तथा, पुनर्विगुणा-विगता 15 वर्णादयो गुणा येभ्यस्ते तथा, च पुनरेकत्रिंशत् - संस्थान-वर्णादिप्रतिषेधरूपा एव गुणा येषु ते तथा, अथवाऽष्टगुणा- अष्टकर्मक्षयसमुद्भवा अष्टौ गुणा येषु ते तथा, पुनः सिद्धं-निष्पन्नम् , अनन्तचतुष्कंप्रागुक्तलक्षणं येषां ते तथा, ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1233 // जह नगरगुणे मिच्छो जाणंतोऽवि हु कहेउमसमत्थो / .. तह जेसिँ गुणे नाणी, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1234 // 20 पेठे बंधन-छेदयी अने धूमाडानी पेठे ऊर्ध्वगमन स्वभावथी जेमनी ऊर्ध्वगति थाय छे ते सिद्ध भगवानो मने शिवसुख आपो // 1230 // सिद्धशिलानी उपर एक योजन गया बाद लोकनो अंतभाग आवेलो छ / त्यां जेमनी स्थिति प्रसिद्ध छे अर्थात् त्यां जेओ सदाकाळ रहे छे ते सिद्ध भगवंत मने शिवसुख आपो॥ 1231 // जेओ अनंत छे, जे फरी जन्म लेता नथी, जेओ शरीरथी रहित छे, जेमने ( शरीर न 25 होवाथी) कोई प्रकारनी पीडा के उपद्रव नथी तथा ज्ञान अने दर्शनना उपयोगथी जेओ युक्त छे एवा ते सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो॥ 1232 // जेओ (ज्ञानादि) अनंतगुणवाळा छे, तेमज (रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि) गुणोथी रहित होवाथी जेओ निर्गुण पण छे, तथा जेओ एकत्रीश अथवा आठ गुणोवाळा छे अने जेओ अनंतचतुष्कथी युक्त छे ते सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो // 1233 // 30 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 46 श्रीमद्रनशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः।[प्राकृत व्याख्या-यथा-म्लेच्छो नगरगुणान् -प्रासादनिवासमधुररसभोजनादीन् जाननपि अन्येषां म्लेच्छानां पुरस्तात् कथयितुम् असमर्थः-समर्थो न भवति, तथा - तेन प्रकारेण येषां सिद्धानां गुणान् जानन्नपि ज्ञानी कथयितुं न समर्थो भवति, ते सिद्धा मे सिदि ददतु // 1234 / / जे अ अणतमणुत्तरमणोवमै सासयं सयाणंदं। . 5 सिदिमुहं संपत्ता ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1235 // व्याख्या-ये च सिद्धिसुख-मुक्तिसुखं सम्प्राप्तास्ते सिद्धा मे - मह्यं सिद्धि ददतु, कीदृशं सिद्धिसुखं ? - 'अनन्तं' न विद्यते अन्तो-नाशो यस्य तत्ता, पुनः 'अनुत्तरं न विद्यते उत्तरम् - उत्कृष्टं यस्मात् तत् तथा, पुनः अनुपमं न विद्यते उपमा यस्य तत् तथा, पुनः 'सदानन्दं सदा-सर्वस्मिन् काले आनन्दो यत्र तत् तथा // 1235 // जे पंचविहायारं आयरमाणा सया पयासंति / लोयाणणुग्गहत्थं ते आयरिए नमसामि // 1236 // व्याख्या-ये ज्ञानादिपञ्चविधाचारम्, आचरन्तो लोकानामनुग्रहार्थ सदा प्रकाशयन्ति - प्रकटीकुर्वन्ति तान् आचार्यान् अहं नमस्यामि - नमस्करोमि // 1236. // देसकुलजाइरूवाइएहिं बहुगुणगणेहिँ संजुचा / जे हुँति जुगे पवरा ते आयरिए नमसामि // 1237 // व्याख्या-ये देशकुलजातिरूपादिकैर्बहुभिर्गुणानां गणैः- समूहैः संयुक्ताः-सहिताः सन्तः युगे प्रवराः- मुख्या भवन्ति, तानाचार्यान् अहं नमस्यामि // 1237 // जेम भील नगरना गुणोने जाणतो होवा छतां पण कही शकतो नथी तेम जेमना गुणोने जाणता होवा छतां पण ज्ञानीपुरुषो कही शकता नथी ते सिद्ध भगवंतो मने शिवसुख आपो॥१२३४॥ 20 जे सुखनो अंत-नाश नथी, जेनाथी उत्कृष्ट बीजुं सुख नयी; जे सुखनी उपमा पापी शकाय .. एवी नथी, जेमां सदाकाळ आनंद छे (अर्थात् संसारनां समग्र सुखनो अनंत वर्ग करीने सिद्धना एक प्रदेशना सुखनी साथे तेनी तुलना करवामां आवे तो पण तेनी बराबरी न करी शके) एवा सिद्धिसुखने पामेला सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो // 1235 // 15 . आचार्य 25. पंचविध आचारने (बानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार ) सदा आचरता एवा जेओ भव्य जनोना अनुग्रहने माटे तेनो उपदेश आपे छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1236 // . देश, कुळ, जाति अने रूपादिक बहुगुणोना समुदायथी जेओ संयुक्त छे अने जेओ पोताना युगमा श्रेष्ठ गणाय छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1237 // Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। जे निश्चमप्पमत्ता विगहविरचा कसायपरिचचा। धम्मोवएससचा ते आयरिए नमसामि // 1238 // ... व्याख्या-ये नित्यम् अप्रमत्ताः-प्रमादरहिताः, पुनः विकथा - राजकथादिकास्ताभ्यो विरक्ताः, पुनः परित्यकाः कषायाः-क्रोधादयो यैस्ते तथा, पुनर्धर्मोपदेशे सक्ताः-लमाः यद्धा शताःसमस्तानाचार्यान् नमस्यामि // 1238 // जे सारणवारणचोयणाहिँ पडिचोयणाहिँ निचंपि / सारंति नियं गच्छं ते आयरिए नमसामि // 1239 // व्याख्या-ये आचार्याः स्मारणा-वारणा-चोदनादिभिः पुनः प्रतिचोदनादिभिनित्यमपि निजं गच्छं सारयन्ति, तत्र विस्मृतस्य स्मारणं स्मारणा अशुद्धं पठतो वारणं वारणा, अध्ययनाद्यर्थ प्रेरणं चोदना, कठोरवचनैः प्रेरणं प्रतिचोदना, इत्थं मारणादिभिर्ये स्वगच्छस्य रक्षणं कुर्वन्ति तानाचार्यान् 10 नमस्यामि // 1239 // जे मुणियसुत्तसारा, परोवयारिकतप्परा दिति / तत्तोवएसदाणं ते आयरिए नमंसामि // 1240 // व्याख्या- मुणितो- ज्ञातः सूत्राणां सारो यैस्ते तथा, अत एव परोपकारे एवैकस्मिन् तत्पराः सन्तो ये तत्त्वोपदेशदानं ददति, तानाचार्यान् नमस्यामि // 1240 // अत्थमिए जिमसूरे केवलिचंदेवि जे पईवु व्व। -: पयर्डति इह पयत्थे ते आयरिए नमसामि // 1241 // व्याख्या-जिनः- अर्हन्नेव सूरः- सूर्यस्तस्मिन् 'अस्तमिते' अस्तं गते सति पुनः केवलीसामान्यकेवली स एव चन्द्रस्तस्मिन्नपि अस्तमिते सति प्रदीप इव ये इह - लोके पदार्थान् प्रकटयन्तिप्रकटीकुर्वन्ति, तानाचार्यान् नमस्यामि // 1241 // ... जेओ हमेशां (पोताना कर्तव्यमां) प्रमादरहित होय छे, विकथाओयी पर्जित रहे छे, कषायोथी दूर रहे छे अने धर्मनो उपदेश आपवामां तत्पर रहे छे ते आचार्य महाराजाने हुं नमस्कार करुं छु॥ 1238 // जे सारणा, (आचारनी वारंवार याद आपे छे ) वारणा, (आचार भूलता होय तो रोके छे), चोयणा ( आचार माटे प्रेरणा करीने तेमा जोडे छे ) अने पडिचोयणा वडे निरंतर खगच्छनी 25 संभाळ राखे के ते आचार्य महाराजने हुं वंदुं हुं // 1239 // . जेमणे सूत्रोनो सार-रहस्य-जाणी लीधो छे अने तेथी जेओ एक मात्र परोपकारमा ज तत्पर रहीने तत्त्वोना उपदेशनु दान आपे छे ते आचार्य महाराजोने नमस्कार करुं छु // 1240 // . जिनेश्वररूपी सूर्यनो अने सामान्य केवळीरूप चंद्रनो अस्त थया पछी आ मनुष्यक्षेत्रमा दीपकनी पेठे जेओ तत्त्वनो प्रकाश करे छे ते आचार्य भगवंतोने हुं नमस्कार करूं छु // 124.1 / / 30 20 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 श्रीमद्रत्नशेखरसूरिरचित सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः। [प्राकृत ते पावभरकंते, निवडते भवमहंधकुवम्मि / नित्थारयति जीए ते आयरिए नमसामि // 1242 // . व्याख्या-पापस्य यो भरः- अतिशयस्तेन आक्रान्तान् अत एव भवः- संसार एव यो महानन्धकूपस्तस्मिन् निपततो जीवान् ये निस्तारयन्ति तानाचार्यान्नमस्यामि // 1242 // जे माय-ताय-बांधवपमुहेहिंतोऽवि इत्थ जीवाणं / साहति हिअं कजं ते आयरिए नमसामि // 1243 // व्याख्या- अत्र - अस्मिन् संसारे ये आचार्या जीवानां मातृ-तात-बान्धवप्रमुखेभ्यो - जननीजनक-आत्रादिभ्योऽपि अधिक कार्य साधयन्ति, तानाचार्यान् नमस्यामि // 1243 // जे बहुलद्धिसमिद्धा साइसया सासणं पभावंति / रायसमा निचिंता ते आयरिए नमसामि // 1244 // व्याख्या-बहुमिर्लब्धिभिः समृद्धाः-समृद्धिमन्तः, अत एव सह अतिशयैर्वर्तन्ते इति सातिशयाः सन्तो ये शासन-जिनमतं प्रभावयन्ति-दीपयन्ति, कीदृशाः- ये राजसमा - नृपतुल्याः , अत एव निर्गता चिन्ता येभ्यस्ते निश्चिन्तास्तानाचार्यान् नमस्यामि // 1244 // जे बारसंगसज्झायपारगा धारगा तयत्थाणं / 15 तदुभयवित्थाररया तेऽहं शाएमि उज्झाए // 1245 // व्याख्या-ये द्वादशाङ्गस्वाध्यायस्य पारगाः- पारगामिनः पुनः तदर्थानां- द्वादशाङ्ग्या अर्थानां धारकाः, पुनः तदुभयस्य-सूत्रार्थरूपस्य विस्तारे रता - रक्तास्तानुपाध्यायानहं ध्यायामि / / 1245 // पाहाणसमाणेऽवि हु कुणति जे सुत्तधारथा सीसे / सयलजणपूयणिजे तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1246 // 20 पापना भारथी आक्रान्त थयेला अने तेथी ज संसाररूपी ऊंडा अंधारिया कुवामां पड़ता प्राणीओनो जे उद्धार करे छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1242 // जेओ संसारना जीवोनुं माता, पिता तथा भाई वगेरेथी ये अधिक हितकार्य साधे छे ते आचार्य महाराजोने हुं नमस्कार करुं हुं // 1243 // जेओ बहु लब्धिओथी (शक्तिओथी) समृद्ध छे अने तेथी ज अतिशयोवाळा होवाथी जेओ 25 (जैन) शासनने दीपावे छे एवा राजवीओ समा निश्चित आचार्योने हुं प्रणाम करुं हुं / 1244 // उपाध्याय - जेओ सूत्ररूप द्वादशांगीना स्वाध्यायमां पारंगत थयेला छे, तेमज द्वादशांगीना अर्थना जेओ जाणकार छे, तेमज ते बन्नेनो एटले द्वादशांगीरूप सूत्र अने तेना अर्थनो विस्तार (प्रचार) करवामां जेओ तत्पर छे ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरूं छु॥ 1245 // पाहा Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 489 व्याख्या-ये गुरवो हु - इति निश्चितं पाषाणसमानान् - प्रस्तरतुल्यानपि शिष्यान् सूत्रधारया-सूत्ररूपतीक्ष्ण शस्त्रधारया सकलजनानां - सर्वलोकानां पूजनीयान् कुर्वन्ति, तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि // 1246 // मोहाहिदट्ठनहप्पनाणजीवाण चेयणं दिति / जे केऽवि नरिंदा इव तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1247 // व्याख्या-मोह एव अहिः- सर्पस्तेन दष्टाः, अत एव नष्टमात्मज्ञानं येषां ते नष्टात्मज्ञानाः, एवम्भूता ये जीवास्तेभ्यो ये केऽपि गुरवः चेतनां - चैतन्यं ददति, के इव ? - नरेन्द्रा इव-विषवैद्या इव, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1247 // अन्नाणवाहिविहुराण पाणिणं सुअरसायणं सारं / जे दिति महाविजा तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1248 // व्याख्या-अंज्ञानमेव व्याधिः- रोगस्तेन विधुराः पीडितास्तेभ्यः प्राणिभ्यः सारं-प्रधानं श्रुतमेव रसायनं- महारोगनाशकौषधं ये महावैद्या इव गुरवो ददति तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1248 // गुणवणभंजणमणगयदमणं कुससरिसनाणदाणं जे। दिति सया भवियाणं तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1249 // व्याख्या-गुणा एव वनानि तानि भञ्जन्तीति गुणवनभञ्जना ये मदा- जातिमदादयोऽष्टौ 15 ते एव गजा - हस्तिनस्तेषां दमने - वशीकरणे अङ्कुशसदृशं यद् ज्ञानं तस्य दानं ये गुरखो भव्येभ्यः सदा ददति तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि // 1249 // दिणमास जीवियंताई सेसदाणाइ मुणिउं जे नाणं / मुत्तितं दिति सया तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1250 // व्याख्या-शेषदानानि दिनमासजीवितान्तानि 'मुणित्वा' ज्ञात्वा ये गुरवः सदा मुक्त्यन्तं 20 ज्ञानं ददति, तान् उपाध्यायानहं ध्यायामि, दिनं च मासश्च जीवितं च -दिनमासजीवितानि तेषु जेओ पाषाण जेवा (जडबुद्धि) शिष्योने पण सूत्रनी तीक्ष्ण धारा वडे समग्र मनुष्योना पूजनीय बनावे छे ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरूं छं॥ 1246 // मोहरूपी सर्प डसवाथी जेमना ज्ञान-प्राण नष्ट थई गया छे एवा जीवोने विषवैद्यनी जेम जेओ नवं चैतन्य आपे छे ते उपाध्यायजी महाराजनुं हुं ध्यान धरूं छु // 1247 // 25 ____अज्ञानरूप व्याधिथी पीडित थयेला प्राणीओने महावैद्यनी पेठे जेओ श्रुतज्ञानरूपी श्रेष्ठ रसायण आपे छे ते उपाध्याय भगवंतोतुं हुं ध्यान धरं छं // 1248 // __ भव्य जीवोना गुणरूप वननो नाश करनारा मदरूपी (जाति वगेरे आठ प्रकारना ) हाथीओनुं दमन करवामां अंकुश समान एवं जे ज्ञान तेनुं सदाकाळ दान आपनार उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरुं // 1249 // (ज्ञानदान सिवायनां) बीजां दानो दिवसो सुधी, महिनाओ सुधी के जीवनपर्यंतनां होय छे 30 62 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९०श्रीमद्रत्नशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः। [प्राकृत अन्तो येषां तानि शेषदानानि सन्ति इति ज्ञात्वा मुक्तौ अन्तो यस्य तत् मुक्त्यन्तं ज्ञानं-श्रुतज्ञानदानं ये ददति तानहं ध्यायामीति भावः // 1250 // . ____अन्नाणंधे लोयाण, लोयणे जे पसत्थसत्थमुहा / उग्घाडयंति सम्म, तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1251 // 5 व्याख्या-ये गुरवोऽज्ञानेन अन्धानि, लोकानां लोचनानि-नेत्राणि प्रशस्तशास्त्रमुखात् लोचनपक्षे प्रशस्तशस्नमुखात् सम्यक् उद्घाटयन्ति, तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि // 1251 // बावन्नवण्णचंदणरसेण जे लोयपावतावाई। उवसामयंति सहसा तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1252 // व्याख्या-द्वापञ्चाशद्वर्णा एव चन्दनरसः तेन ये गुरवः सहसा- अकस्मात् लोकानां 10 पापतापान् उपशामयन्ति, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1252 // जे रायकुमरतुल्ला गणतत्तिपरा अ सूरिपयजुग्गा। वायति सीसवग्गं तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1253 // व्याख्या-ये राजकुमारतुल्याः, च-पुनः गणतृप्तिपरागणसमाधानकरणतत्पराः तथा सूरिपदस्यआचार्यपदस्य योग्याः शिष्यवर्ग वाचयन्ति शिष्यवर्गाय वाचनां ददति, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1253 // 15 जे सण-नाण-चरित्तरूवरयणत्तएण इक्केण / साहंति मुक्खमग्गं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1254 // व्याख्या-ये दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपरत्नत्रयेण मोक्षमार्ग साधयन्ति, कीदृशेन दर्शन-ज्ञानचारित्रत्रयेण ? - 'एकेन' एकीभावं गतेन सम्मिलितेनेत्यर्थः, त्रयाणामेकत्वं विना मोक्षमार्गों न सिद्धयतीति भावः, तान् सर्वान् साधून अहं वन्दे // 1254 // 20 एम जाणीने मोक्षमा जाय त्यांसुधी चाले एबुं ज्ञानदान जे सदाकाळ आपे छे ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरं छु // 1250 // ____ अज्ञानथी अंध बनेला जीवोनां नेत्रोने जेओ सारां शास्त्रो द्वारा (चिकित्सापूर्वक) सारी रीते उघाडे छे (शास्त्ररूपी शस्त्रो वडे तेमनां नेत्रपडलोने छेदीने प्रकाश आपे छे) ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरं छु // 1251 // 25 बावन अक्षररूप (चौद स्वर, तेत्रीश व्यंजन, ल, क्ष, ज्ञ-ए त्रण बहुमान्य वर्णो, अनुस्वार अने विसर्ग) चंदनना रसवडे लोकोना पापरूप तापने एकदम शमावी दे छे ते उपाध्याय भगवंतोतुं हुं ध्यान धरूं छं॥ 1252 // युवराज समान ( एटले भविष्यमा आचार्यरूप राजपदवी प्राप्त करवाना छे), गच्छर्नु समाधान करवामां तत्पर अने आचार्यपदने लायक एवा जेओ शिष्यवर्गने वाचना आपे छे ते 30 उपाध्याय भगवंतोतुं हुं ध्यान धरूं छु // 1253 // साधु दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप अनुपम रत्नत्रयी वडे जेओ मोक्षमार्गने साधे छे ते बधा साधुमहाराजोने हुं वंदन करुं छं / / 1254 // Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय।। गयदुविहदुटुझाणा जे झाइअधम्म सुक्झाणा य / सिक्खंति दुविहसिक्खं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1255 // व्याख्या-गते द्विविधे-द्विप्रकारे दुष्टध्याने - आर्त-रौद्राख्ये येभ्यस्ते गतद्विविधदुष्टध्यानाः, च - पुनः ध्याते धर्म-शुक्ल ध्याने यैस्ते तथाभूताः सन्तो ये द्विविधशिक्षा - ग्रहणा-सेवनारूपां शिक्षन्ते, तान् सर्वान् साधून् वन्दे // 1255 // गुत्तित्तएण गुत्ता तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का / जे पालयंति तिपइं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1256 // व्याख्या-गुप्तित्रयेण-मनोवाक्कायगुप्तिलक्षणेन गुप्ताः-गुप्तिमन्तः पुनस्त्रिभिः शल्यैःमायाशल्यादिभिः रहिता - वर्जितास्तथा त्रिभिर्गारवैः- ऋद्धिगारवादिभिर्विमुक्ताः सन्तो ये त्रिपदींज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपां पालयन्ति, तान् सर्वान् साधूनहं वन्दे // 1256 // चउविहविगहविरत्ता जे चउविहचउकसायपरिचत्ता / चउहा दिसंति धम्मं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1257 // व्याख्या- चतुर्विधाभ्यः - चतुष्प्रकाराभ्यः विकथाभ्यो - राजकथादिभ्यो विरक्ताः, पुनः चतुर्विधा - अनन्तानुबन्ध्यादिभेदाच्चतुष्प्रकारा ये चत्वारः कषायाः- क्रोधादयस्ते परित्यक्ता यैस्ते तथा, ईदृशाः सन्तो ये दानादिभेदाच्चतुर्की- चतुर्भिः प्रकारैर्धम दिशन्ति -प्ररूपयन्ति, तान् सर्वान् साधूनहं 15 वन्दे // 1257 // उझिअपंचपमाया निजिअपंचिंदिया य पालेंति / पंचेव [य] समिईओ ते सव्वे साहुणो वंदे // 1258 // व्याख्या- उज्झिताः - त्यक्ताः पञ्च प्रमादा- मद्यादयो यैस्ते तथा, च पुनः निर्जितानि पञ्चेन्द्रियाणि यैस्ते निर्जितपञ्चेन्द्रियाः सन्तः पञ्चैव समितीःपालयन्ति तान् सर्वान् साधून वन्दे,च पादपूरणे॥१२५८॥ 20 जेमने बे प्रकारनां ( आर्त्त अने रौद्र) दुष्ट ध्यानो नष्ट थयां छे अने जेओ धर्मध्यान तेमज शुक्लध्याननुं ध्यान धरे छे तेमज बे प्रकारनी शिक्षा एटले *ग्रहणशिक्षा तथा आसेवना शिक्षाओने जेओ शीखे छे ते सर्व साधुओने हुं वंदन करूं छु // 1255 // - जेओ त्रण (मन, वचन अने कायानी) गुप्तिओथी रक्षायेल छे, त्रण ( माया, निदान अने मिथ्यात्व ) शल्योथी रहित छ, त्रण (ऋद्धि, रस अने शाता) गारवोथी मुक्त छे अने जेओ त्रिपदी 25 (एटले ज्ञान, दर्शन अने चारित्र)नुं पालन करे छे ते बधा साधु महाराजोने हुं वंदन करुं छं।।१२५६॥ __ जेओ चार प्रकारनी विकथाथी (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा अने राजकथा) विरक्त छे, चार प्रकारना कषायना (क्रोध, मान, माया अने लोभ ) त्यागी छे, अने चार प्रकारनो उपदेश (दान, शीयळ, तप अने भावना) करे छे ते बधा साधु महाराजोने हुं वंदन करूं छं // 1257 // ___ पांच प्रमादना (मद्य, विषय, कषाय, निद्रा अने विकथा) परिहारी, अने पांच इंद्रियो 30 (स्पर्शन, रसन, घ्राण, नयन अने श्रवण) ना विजेता एवा जेओ पांच समितिओनुं (ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंडमत्तनिक्षेपनासमिति अने परिष्ठापनिकासमिति ) पालन करे छे ते बधा साधु महाजोने हुं वंदन करुं हुं / 1258 // *ग्रहणशिक्षा एटले शास्त्रोनुं ज्ञान मेळवQ अने आसेवनाशिक्षा एटले पालन करतुं / Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२श्रीमद्रनशेखरसूरिरचित सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः।[प्राकृत छजीवकायरक्खणनिउणा हासाइछक्कमुक्का जे / धारंति अ वयछकं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1259 // व्याख्या-षड् जीवकायानां पृथिव्यादीनां रक्षणे निपुणाः- दक्षाः, च-पुनः हास्यादिषट्काद् मुक्ताः-रहिताः सन्तो ये व्रतषट्कं -प्राणातिपातविरमणादिरात्रिभोजनपर्यन्तं धारयन्ति, तानित्यादि 5 प्राग्वत् // 1259 // जे जियसत्तभया गयअट्ठमया नवावि बंभगुत्तीओ। पालंति अप्पमत्ता ते सव्वे साहुणो वंदे // 1260 // व्याख्या-जितानि इहलोकभयादीनि सप्तभयानि यैस्ते तथा, गता अष्टौ मदाः जातिमदादयो येभ्यस्ते गताष्टमदाः, पुनः अप्रमत्ताः-प्रमादरहिताः सन्तो ये नवापि ब्रह्मगुप्तीः पालयन्ति, तान् सर्वान् 10 साधून् वन्दे // 1260 // दसविहधम्म तह बारसेव पडिमाओं जे अ कुव्वंति / बारसविहं तवोवि अ ते सव्वे साहुणो वंदे // 1261 // व्याख्या-च-पुनः ये दशविधं-दशप्रकारं धर्म - क्षान्त्यादिकं तथा द्वादशैव प्रतिमाःसाधुसम्बन्धिनीः कुर्वन्ति-धारयन्ति, च-पुनः द्वादशविधं तपोऽपि अनशनादिकं कुर्वन्ति, तान् सर्वान् 15 साधूनहं वन्दे // 1261 // जे सतरसंजमंगा, उव्बूढाट्ठारसहससीलंगा। विहरंति कम्मभूमिसु ते सव्वे साहुणो वंदे / / 1262 // व्याख्या-सप्तदशभेदः - संयमः अङ्गे- शरीरे येषां ते तथा, पुनरुद्वयूढानि-उत्कर्षेण धृतानि अष्टादशसहस्रशीलाङ्गानि यैस्ते तथा, एवम्भूताः सन्तो ये कर्मभूमिषु पञ्चदशसु विहरन्ति - विचरन्ति, 20 तान् साधून् अहं वन्दे // 1262 // जेओ छ प्रकारना जीवनिकायो (पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति अने त्रस ) नुं रक्षण करवामां कुशळ छे, हास्यादिक षटूथी ( हास्य, रति, अरति, शोक, भय अने जुगुप्सा) जेओ मुक्त छे अने जेओ छ व्रतोने (प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण अने रात्रिभोजनविरमण ) प्राणनी पेठे धारण करे छे ते सर्व साधुजनोने 25 हुं वंदन करुं छु // 1259 // जेमणे इहलोकभय वगेरे सात भयोने जीती लीधा छे, जेमनामांथी आठ प्रकारना (जाति वगेरे ) मदो चाल्या गया छे अने जेओ नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्तिओनुं प्रमाद विना पालन करे छे ते बधा साधु महाराजोने हुं वंदन करूं छु // 1260 // ___ जेओ दश प्रकारनो यतिधर्म, बार प्रकारनी साधु संबंधी प्रतिमाओ अने बार प्रकारनां 30 तपनुं आराधन करे छे ते सर्व साधु महाराजोने हुं वंदन करूं // 1261 // सत्तर प्रकारना संयमने पाळता अने अढार हजार शीलांगने धारण करता जेओ कर्मभूमिमां विचरे छे ते सर्व साधु महाराजोने हुं वंदन करूं छु // 1262 // Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [40] उपदेशमाला संदब्भो (गाहा) उकोसो सज्झाओ, चउदस-पुव्वीण बारसंगाई / तत्तो परिहाणीए, जाव तयथ्थो नमोकारो // 1 // जलणाइ-भए सेसं, मोत्तुं इक्कपि जह महारयणं / घिप्पइ संगामे वा, अमोह-सत्थं जह तहेह // 2 // मोत्तुंपि बारसंगं, स एव मरणंमि कीरए जम्हा / अरहंत नमोकारो, तम्हा सो बारसंगत्यो // 3 // सव्वंपि बारसंगं, परिणाम-विशुद्धि-हेउ-मित्तागं / तक्कारण-मित्ताओ, किह न तयथ्यो नमोकारो // 4 // न हु तंमि देसकाले सको बारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेडे, धंतपि समत्थ-चित्तेणं // 5 // __15 चौद पूर्वधरोने उत्कृष्ट स्वाध्याय बार अंगोनो होय छे। त्यारपछी अनुक्रमे घटतां घटतां छेवटे द्वादशांगीनो सार जे नमस्कार महामंत्र तेनो स्वाध्याय होय छे // 1 // . (कारणके ) अग्नि आदिनो भय आवी पडे त्यारे बीजी तमाम वस्तुओने पडती मूकीने जेम . एक महारत्नने ग्रहण करवामां आवे छे तथा जेम संग्रामनी अंदर बीजां शस्त्रोने छोडी दइने एक जे अमोघ शस्त्र होय ते ग्रहण करवामां आवे छे तेम अहीं पण मरण उपस्थित थाय त्यारे (ए अवस्थामां द्वादशांगीतुं स्मरण अशक्य होवाने लीधे) द्वादशांगीने छोडीने नमस्कारमंत्रनुं ज स्मरण करवामां आवे छे। तेथी अरिहंत (आदि पंचपरमेष्ठीओ )ने करेलो नमस्कार ए द्वादशांगीनो सार छे // 2-3 // 20 कारणके आखी ये द्वादशांगी परिणामनी विशुद्धिने माटे ज छे अने नवकार पण परिणामनी विशुद्धिनुं कारणमात्र छ / एटले नमस्कारमंत्रने द्वादशांगीनो सार केम न कही शकाय ? ( अर्थात् द्वादशांगीतुं जे कार्य परिणामविशुद्धि ते नमस्कारमंत्रथी पण थतुं होवाने लीधे नमस्कारमंत्र ए द्वादशांगीनो सार छे एम अवश्य कही शकाय) // 4 // कारणके मरण आदि आवी पडे त्यारे अत्यंत समर्थ चित्तवाळा (चौद पूर्वधरो) पण ते 25 देश-काळमां (ते अवस्थामां) समग्र द्वादशांगीतुं अनुचिंतन करी शकता नथी / (परममंगलभूत पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्रनुं ज मात्र ते अवस्थामां स्मरण करी शकाय छे / माटे नमस्कारमंत्र ए द्वादशांगीनो सार छे) // 5 // Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 उपदेशमाला संदभो [प्राकृत नामाइ-मंगलाणं, पढमं चिय मंगलं नमोक्कारो। अवणेइ वाहि-तकर-जलणाइ-भयाई सव्वाइं // 6 // हरइ दुहं कुणइ सुहं, जणइ जसं सोसए भव-समुदं / इहलोय-पारलोइय-सुहाण मूलं नमोकारो // 7 // 5 नाम आदि मंगळोमा (नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भावमंगळमां) नमस्कार ए प्रथम (अर्थात् ऊत्कृष्ट ) मंगळ छे / अने ते व्याधिभय, चोरभय, अग्निभय आदि सर्व भयोने दूर करे छे // 6 // नमस्कार मंत्र दुःखने हरे छे, सुखने करे छे, यशने फेलावे छे, तथा संसारसमुद्रने सुकवी नाखे छे / नमस्कार महामंत्र आ लोक अने परलोकनां तमाम प्रकारनां सुखोनुं मूळ छे // 7 // उपदेशमाला (पुष्पमाला) संदर्भ परिचय 10 प्रद्युम्न नामे सचिवे पोतानो बधो वैभव तजी दई मलधारी श्री अभयदेवसूरि पासे दीक्षा लीधी अने जैनं शास्त्रोनो अभ्यास करीने मलधारी हेमचंद्रसूरि नामथी प्रसिद्धि मेळवी / तेओ सं. 1164 मां विद्यमान हता। सिद्धराज जयसिंह तेमनो भक्त हतो। अने तेमना उपदेशथी राजाए जैन शासननी प्रभावनानां कार्यो कयाँ हतां / पाटणथी शत्रुजय अने गिरनार तीर्थ माटे नीकळेला संघमां आ हेमचंद्रसूरि साथे 15हता। वणथलीमा राखेंगारे पैसा पडाववाना इरादे संघने रोक्यो हतो त्यारे राजा आ आचार्यनी वाणीथी प्रतिबोध पाम्यो हतो अने संघने जवाने माटे अनुज्ञा आपी हती। , ___आ मलधारी हेमचंद्रसूरिए अनेक मोटा ग्रंथोनी रचना करी छे / ते पैकी उपदेशमाला, जेनुं बीजुं नाम 'पुष्पमाला' छे तेमाथी नवकार संबंधी संदर्भ लईने अनुवाद साथे अहीं प्रकट कर्यो छे। AKD Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [41] श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिविरचितस्य प्राकृतघ्याश्रयमहाका व्यस्य श्रीपूर्णकलशगणिरचितटीकोपेतस्य ___सप्तमसर्गस्य संदर्भः। सोअवसा रोतूण वि रोत्तुमणा विम्हरन्ति रोत्तव्वं / . दगुण जाण मुत्ति, अरहंताणं नमो ताणं // 52 // व्याख्या-शोकवशात् स्वबन्धुवियोगसमुद्भवदुःखपरतन्त्रत्वाद् रुदित्वापि रोदनं कृत्वापि रोदितुमनसः रोदनपरायणचेतसः प्राणिनः येषां मूर्ति वपुर्दृष्ट्वा रोदितव्यं विपन्नस्वबान्धवादिकं विस्मरन्ति न स्मृतिपथमानयन्ति तेभ्योऽहद्भयो नमः नमस्कारोऽस्तु // 52 // जे दट्टव्वे दटुं, इन्दो काहीअ लोअणसहस्सं / दंसणतत्तिं काउं, अरिहंताणं नमो ताणं // 53 // व्याख्या-यान् द्रष्टव्यान् लोकातीतसौभाग्यादियुक्तत्वाद् वीक्षणीयान् द्रष्टुं दर्शनाय लोचनसहस्रमिन्द्रः अकरोत् अकार्षीत् चकार वा / दर्शनमपि किमर्थमित्याह / दर्शनेन निर्निमेषवीक्षणेन तृप्ति आत्मनः संतोषं कर्तुम् / तेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 53 // काऊणं कायव्वं, कम्मं काहिन्ति जे ण पुणरुत्तं / जगबोहमिच्छिराणं, अरहंताणं नमो ताणं // 54 // व्याख्या-कर्तव्यं सकलकर्मक्षयं कृत्वा ये 'पुणरुत्तम्' इति भूयोऽपि न कर्म करिष्यन्ति कर्तारो वा / वीतरागत्वाद् न मुक्तिमपहाय बुद्धवत् खदर्शनतिरस्कारनिवारणाय इह जन्म आसाद्य पुनरपि कर्म भन्स्यन्तीत्यर्थः / तेभ्यो जगद्बोधमेषितृभ्यः अभिलाषुकेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 54 // अनुवाद (अरिहंत भगवंत-) (पोताना बांधवोना वियोगथी थयेला ) शोकने लीधे रडीने पण रडवानी इच्छावाळा अर्थात् सतत रुदन कर्या करता माणसो जेमनी मूर्तिनां दर्शन करीने रोदितव्य एटले मरेला बांधव आदिने मूली जाय छे ते अरिहंत भगवंतोने मारो नमस्कार हो // 52 // (अलौकिक सौभाग्य आदि गुणोने लीधे खास ) दर्शनीय जे भगवाननां दर्शन करवा 25 माटे तथा दर्शन करीने आत्मतृप्ति करवा माटे इंद्रे हजार आंखो बनावी ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 53 // (सकलकर्मक्षयरूप ) कर्तव्य करीने जे फरीथी कर्म करता (अर्थात् बांधता ) नथी अने जे जगतने प्रतिबोध करवानी अभिलाषावाळा छे ते अरिहंतोने नमस्कार थाओ / / 54 / / 1 इंद्रने संस्कृत भाषामां सहस्राक्ष (हजार आंखवाळो) कहेवामां आवे छे ए दृष्टिए अहीं ग्रंथकारे घटना करी छ / 15 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिविरचितस्य पाकृतद्वयाश्रयमहाकाव्यस्य सप्तमसर्गस्य संदर्भः। [प्राकृत जो अणुगच्छइ जच्छइ, छिन्दिउमच्छइ तणुं च तेसि पि / अणभिन्दिअभावाणं, अरहताणं नमो ताणं // 55 // व्याख्या-योऽनुगच्छति भक्त्या पृष्ठलमः प्रयाति / तथा यो यच्छति सादरं स्ववस्तु ददाति / यस्तु तनुं छेत्तुमास्ते / तेष्वपि 'अभिन्नभावेभ्यो निर्विशेषमनस्केभ्यस्तेभ्यो जगत्प्रसिद्धेभ्यो5 ऽहद्भयो नमः' // 55 // सविहे न जाण कुज्झइ जुज्झइ मुज्झइ भवे अगिज्झन्तो। देही बुज्झइ सिज्झइ, अरहंताणं नमो ताणं // 56 // व्याख्या- येषां सविधे समीपे भवे अगृध्यन् गाय॑मगच्छन् / संसारविरक्तो भवन्निति यावत् / देही जन्तुर्न क्रुध्यति न कोपं गच्छति / तथा न युध्यते न युद्धं करोति यतो न मुह्यति न 10 मोहमुपगच्छति / मोहमूलत्वात् क्रोधयुद्धयोः / किन्तु बुध्यते अवगततत्त्वो भवति / तथा च सति सिध्यति सिद्धो भवति / तेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 56 // रुन्धिअकरणं रुम्भिअपवणं रुज्झिअमणं अपडिएहिं / झायव्वाण मुणीहिं, अरहंताणं नमो ताणं // 57 // व्याख्या-रुद्धकरणम् / रुद्धपवनम् / रुद्धमनः कृतेन्द्रियोच्छासनिःश्वासचित्तनिरोधं यथा 15 भवति, एवमपतितैः ध्यानाद् असवलितैर्मुनिभिर्ध्यातव्येभ्यस्तेभ्यः प्रसिद्धेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 57 // सडिअरया कढिअमला, वड्अितवतेअवेढिअङ्गा य। जाणज्ज वि वरमुणिणो, अरहंताणं नमो ताणं // 58 // व्याख्या-सन्नरजसः गलितबध्यमानकर्माणः / कथितमलाः भस्मीकृतबद्धकर्माणः / यतो वृद्धं वृद्धिं गतं यत् तपस्तेजस्तेन वेष्टितं व्याप्तम् अङ्गं येषां ते तथा च वरमुनयः अद्यापि दुष्षमाकालेऽपि 20 वर्तन्ते येषामर्हताम् / यन्मतसंस्थिता इत्यर्थः / तेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 58 // (भक्तिथी ) जे पाछळ पाछळ फरे छे, आदरपूर्वक जे दान दे छे तथा (द्वेषथी ) शरीर कापवा माटे जे तैयार थई जाय छे ते बधा प्रकारना माणसो ऊपर जेमना मनमा भेदभाव नथी ते अरिहंतोने नमस्कार थाओ / ( अर्थात् भक्त तथा द्वेषी बंने ऊपर जेमनी समानदृष्टि छे ते वीतराग अने वीतद्वेष अरिहतीने मारो नमस्कार थाओ) // 55 // 25 जेमनी पासे ( जवाथी) संसार ऊपर विरक्त थयेलो मनुष्य क्रोध करतो नथी, युद्ध करतो नथी, तेमन मोह पण पामतो नथी; परंतु तत्त्वनो जाणकार बने छे अने मोक्ष प्राप्त करे छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 56 // इंद्रियो, श्वासोच्छ्रास तथा मननो रोध करीने अस्खलितपणे ध्यान धरता मुनिवरो जेमनुं ध्यान धरे छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 57 // 30 जेमनां बंधांतां कर्मो गळी गयां छे, अने जेमणे पहेलां बांधेलां कर्मोने भस्मसात् कयां छे तथा वघेला तपना तेजथी जेमनुं अंग व्याप्त छे एवा श्रेष्ठ मुनिवरो जेमना शासनमा आजे पण विद्यमान छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 58 // Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 495 विभाग] -ममस्कारस्वाध्याय। दुक्कडसंवेल्लिअओ, भवमासोओढणोजमोलोओ। उज्वेल्लिजइ मेहि, अरहंसाणं नमो ताणं // 19 // व्याख्या-दुष्कृतेन अशुभकर्मणा संवेष्टितो व्याप्तः / सरं भवपाशोद्वेष्टने संसारबन्धनमोक्षणे उद्यतः कृतमयको लोको यैस्वेष्ट्यते बन्धनमुक्तः क्रियते तेभ्योऽर्हट्यो नमः / चुकड' इस्पत्र भार्मसात् तस्य डः // 19 // जे झाउं संमआइ, अपाखिजिरसिसिराण सा सिद्धी। ते वच्चामो सरणं, नचिरमचिश्मणा सिद्धे // 6 // व्याख्या-यान् ध्यात्वा स्मृत्ला अखेत्तृस्वेतृणाम् अखेदनखेदनशीत्मनां खेद-स्वेदरहितानाम् इति यावत् / / अस्माकं सा सिद्धिः तत् सिद्धवं संपद्यते / तान् सिद्धान् नर्तित नर्तनशीलम् / भक्तिवशाद् उत्कलिकाकलितम् इत्यर्थः / तथा मदितृ तोपणशीलं मनो येषां ते तथाभूता वयं शरणं नामः / 'झाउं' 10 इत्यत्र सेधनक्रियापेक्षया प्राक्काल्यम् न संपद्यते इत्यपेक्षया / तच्च भावितमेवेति // 60 // आणंदरोकिराम जेसु नवन्ताण होइन्तोब्वेको / धाइ समुहं च मुत्ती तापा-ममो सनसिद्धाणं // 61 // व्याख्या-यान आनन्दरोदितृणां हर्षाचविमोचनशीलानां सतां नमतां नमस्कुर्वतां न उद्वेगो मवति / किन्तु यात नमतां मुक्तिः संमुखम् अभिमुखं च धावति सत्वरम् आयाति / तेभ्यः सर्वसिद्धेभ्यो 15 नमः / 'जेसु' इति द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी' [3. 135.] इति सप्तमी.॥ 61 // कुपहे धावन्ति अखादिमं न खादन्ति तेहि वि समं जो। धावइ खाइ अतं:पि हबोहन्ते झामि आगरिए॥ 62 // व्याख्या-ये कुपथे अमार्गे / अनीताविति यावत् / धावन्ति / तथा ये खाद्यते यत् तत् खादं तस्य भावः खादत्वं, न विद्यते खादत्वं यस्य तत् तथा अखाद्य वस्तु खादन्ति / तैरपि समं यो 20 * 'धावंति कुपथे गच्छति, खादति अभक्षणीयं भक्षयति च / हु इति निश्चितम् / तमपि ताशमपि प्राणिनं स्वयं अधर्म अधर्मविप्रलब्धं च / अस्मादृशम् इत्यर्थः / बोधयतो धर्मदेशनया सन्मार्गे प्रवर्तयत, माचार्यान् घ्यायामि संस्मरामि // 12 // अशुभ कर्मोथी वीटायेला होवा छतां जे लोको संसारना बंधनमाथी मुक्त थवानो प्रयत्न करी रह्या छे तेमने संसारना बंधनमांथी मुक्त करनार अरिहंतभगवंतोने ममस्कार थामो // 59 // 25 (सिद्ध भगवंत-) जेमनुं ध्यान धरवाथी खेद अने स्वेद ( परसेवो) बिनाना अमने ते सिद्धपनी प्राप्ति थाय के ते सिद्ध भगवानने अमे नाचता हृदये तथा संतुष्टहृदये शरणे जईए छीए:।। 60 // जेमने आनंदना अश्रुपातपूर्वक नमस्कार करतां उद्धेग नथी श्रतो पण उलटी मुक्ति सामी दोडी आवे छे ते सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार थाओ // 61 // (आचार्य भगवंत-) उन्मार्ग दोडनारा माणसोनी साये जे दोडे छे तथा अभक्ष्य खानार माणसनी साथे जे अभक्ष्य खाय छे तेषा-माणसने पण जे प्रतिबोध पमाडे छे ते आचार्य भगवंतोनुं हुं ध्यान धरूं छु। 62 // 30 63 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिविरचितस्य प्राकृतद्वयाश्रयमहाकाव्यस्य सप्तमसर्गस्य संदर्भः। [प्राकृत कम्माई वोसिरन्ता, अतुट्टिरेणं तवेण सकन्ता / अफुडिअ अचलिअमहिमा आयरिआ दितु ते बोहिं // 63 // व्याख्या-कर्माणि व्युत्सृजन्तः आत्मनो दूरीकुर्वन्तः / ननु अनादिकालालीनकर्मणां कथं व्युत्सर्ग इत्याह / अत्रोटिना अच्छिदुरेण / संपूर्णेनेति यावत् / तपसा शक्नुवन्तः सामर्थ्य बिभ्रतः / 5 अस्फुटितः अन्यौजसा अखण्डितः अत एव अचलितः अकम्पितः / स्थिर इत्यर्थः / महिमा माहात्म्यं येषां ते तथा / ते सर्वप्रसिद्धा आचार्या बोधिं जिनधर्मावाप्तिं ददतु प्रयच्छन्तु // 63 // फुट्टिअमोहो लोओ चल्लइ अपमिल्लिअबओ मोक्खे / जेहिं अपमीलिअच्छं पेच्छामो ते उवज्झाए // 64 // व्याख्या-यैः कृत्वा स्फुटितः विदारितो मोहो येन स तथा / अपमीलितव्रतः उबुद्धचारित्रः 10 लोको मोक्षे चलति गच्छति / तान् उपाध्यायान् अपमीलिताक्षं निर्निमेषनयनं यथा भवति एवं पश्यामः / उपाध्यायदर्शने वयं सतृष्णा इत्यर्थः // 64 // ___ अणउम्मिल्लिअ नाणोम्मीलणआ हरिसपसविरा लोए / . सुअ जलमोज्झाया पवरिसन्तु वित्थरिअगुणभरिआ // 65 // - व्याख्या- अनुन्मीलितम् अनुभूतं यज्झानं तस्य उन्मीलना व्यञ्जकाः / हर्ष प्राणिप्रमोद 15 प्रसवितारः जननशीलाः। विस्मृताः सर्वत्र प्रसृता ये गुणास्तैर्मृताः निचिता उपाध्याया लोके जनमध्ये श्रुतमेव निर्मलपावित्र्यहेतुत्वाद् जलं प्रवर्षन्तु / निर्वृतिफलोत्पत्तये अस्मभ्यं प्रयच्छन्त्वित्यर्थः // 65 // नो रूसइ नो तूसइ जेऊण मणं लयम्मि जो नेन्तो। मोत्तुं भवं विणीअं तं साहुजणं नमसामि // 66 // व्याख्या-यो भवं मोक्तुं त्यक्तुं मनो जित्वा वशीकृत्य लये साम्यावस्थायां नयन् सन् नो 20 रुष्यति अमित्रे रोपं न करोति / नो तुष्यति, मित्रे तोषं न करोति / तं विनीतं जितेन्द्रियं साधुजनं नमस्यामि // 66 // ____ अखंड तपथी कर्मोने दूर करता, सामर्थ्यने धारण करता, तथा अखंड अने अचल छे महिमा जेमनो एवा आचार्यो बोधि-सम्यक्त्व आपो // 63 // ( उपाध्याय भगवंत-) .. 25 जेमना लीधे मोह दूर थवाथी अने चारित्र प्रगट थवाथी लोको मोक्ष तरफ प्रयाण करे छे ते उपाध्याय भगवंतोतुं अमे अनिमेष नयने दर्शन करीए छीए // 64 // अप्रगट ज्ञानने व्यक्त करनारा, हर्षने फेलावनारा तथा विस्तृत गुणोथी परिपूर्ण एवा उपाध्याय भगवतो लोकोमां श्रुतज्ञानरूपी जलनी वृष्टि करो // 65 // . .. ( साधु भगवंत-) 30 ..... संसारनो त्याग करवा माटे मननो जय करीने मनने लय पमाडता जेओ शत्रु उपर रोष करता नथी तेमज जेओ मित्र उपर राग धरता नथी ते साधु जनोने हुं नमस्कार करूं छु / 66 / / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 499 उप्पाइअसदहणो असदहाणे वि देइ जो बोहिं / संसारनासिरो हं तं साई चिय विहेमि गुरुं // 67 // व्याख्या-अश्रद्दधाने जिनप्रणीतजीवादिपदार्थ तथेति प्रत्ययरहितेऽपि उत्पादितश्रद्दधानः जनितास्तिक्यबुद्धियों बोधिं ददाति / संसाराद् नाशिता नशनशीलोऽहं तमेव साधुं गुरुं विदधामि // 67 // पञ्च वि अरहन्ताई परमेट्ठी झाह झाअह किमन्नं / होऊण निश्विकप्पा पसमरया होअऊण तहा // 68 // व्याख्या-भो भव्याः निर्विकल्पाः एते ध्येया न वेति संशयरहिता भूत्वा तथा प्रशमरता उपशमपरा भूत्वा पञ्चापि . अर्हदादीन् ध्यायत / किमन्यं हरिहरादिकं ध्यायत / हरि-हरादिध्यानम् अपहाय अर्हध्यानपरा भवतेति भावः // 68 // (जिनेश्वरोए प्ररूपेला पदार्थो उपर ) श्रद्धा विनाना मनुष्यने पण श्रद्धालु बनावता जेओ 10 बोधि-सम्यक्त्व आपे छे ते साधु भगवंतने संसारथी मुक्त थवा माटे प्रयत्न करतो हुँ गुरु तरीके स्वीकारूं छु // 67 // (हे भव्यजीवो ! मनमां ) कोइ पण जातनो विकल्प कर्या सिवाय अर्थात् निःशंक थईने तेमज प्रशमपरायण थइने अर्थात् प्रशमरसमां निमम बनीने अरिहंत आदि पांचे परमेष्टि भगवंतोनुं ध्यान धरो। बीजानुं शा माटे ध्यान धरो छो? अर्थात् बीजानुं ध्यान त्यजीने अरिहंतादि पांच 15 परमेष्ठिओनुं ध्यान करवामां परायण थाओ // 68 // प्राकृतव्याश्रय संदर्भ परिचय साहित्यना विद्वानने आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिनो परिचय आपवो ए तो सूर्यनी सामे आरसी धरवा जेवी वात गणाय; छतां प्रसंगवश तेमना समय विषे ख्याल आपवो जरूरी छ। तेओ सं. 1145 मां जन्म्या हता अने मात्र छ-सात वर्षनी उंमरे तेमणे श्रीदेवचंद्रसूरि पासे 20 दीक्षा लीधी। जैनतत्त्वज्ञान तेमज अनेक शास्रोनो अभ्यास करी हेमचंद्रसूरि नामे प्रसिद्धि मेळवी / तेमणे वाङ्मयना लगभग बधा विषयो उपर काबू मेळव्यो हतो। आ महान अभ्यासीए व्याकरण, . छंद, साहित्य, कोश, न्याय योग वगेरे विषयना ग्रंथोनी रचना करी छे, महाकाव्यो पण रच्यां छे। व्याकरणविषयक 'व्याश्रय'काव्यनी संस्कृत अने प्राकृत भाषामां रचना करी छ / तेमांथी प्राकृत व्याश्रयमां नमस्कारविषयक केटलीक सुंदर गाथाओ जोवामां आवी ते अमे अहीं संग्रही 25 तेना अनुवाद साथे प्रगट करी छ / __ आ सिवाय तेमना बीजा केटलाय ग्रंथोना संदर्भो अमे लीधा छे; जे संस्कृत विभागमा छ। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4 ] सिरिजिणदत्तसूरिनिरइयस्स. सिरिसमयसुंदरगणिकय वारखोपेयास्स 'लं जयउ' वायरस संदब्मो अथ प्रथमपरमेष्ठिनं वर्णयन्नाह नासियसयलकिलेसा, निहयकुलेसा पसत्थमुहलेसा / सिरिवद्धमाणतित्थस्स,, मंगलं दितु ते अरिहा // 2 // व्याख्या-ते अर्हन्तः प्रथमपरमेष्ठिनः श्रीवर्धमानतीर्थस्य-श्रीमहावीरसंघस्य मजलं. कल्याणं ददतु / किंविशिष्टा अर्हन्तः ? 'नासियसयलकिलेसा' नाशिताः सकलाः क्लेशा यैस्ते नाशितसकलक्लेशाः। पुनः किविशिष्टा अर्हन्तः ? 'निहतकुलेसा' निहताः कुलेश्या अप्रशस्तकृष्णादिलेश्याः; पुनः किंविशिष्टा . . 10 अर्हन्तः?' 'पसत्थसुहलेसा" प्रशस्ताः शुभाः शुक्ला लेश्या येषां ते प्रशस्तशुभलेश्याः। अथवा प्रशस्ताः सुखाः सुखकारिण्यो लेश्या येषां ते प्रशस्तसुखलेश्याः // 2 // अथ द्वितीयास्मेष्ठिनः सिद्मनस्तुवन्नाह नियममीया,, वीजा परमिट्टिणोः गुणमिद्या / सिद्धा तिजयपसिद्धा, हणंतु दुत्थाणि तित्वस्सः // 3 // 15 व्याख्या-द्वितीयाः परमेष्ठिनः सिद्धा:-तीर्थस्य चतुर्विधसंघस्य दौस्थ्यानि भन्तु नाशयन्तु। किविशिष्टा सिंचाई 'निड्डकामवीआ" निर्दीधानि निलितामिा भस्मसात्कृतानि कर्मण्येला बीजानि यैस्ते निर्दग्धकर्मवीजाः / पुनः किंविशिष्टाः सिद्धाः 'गुणसमिद्धा' गुणैरेकशिद्भिःसमृनः गुणसमृद्धाः। एकत्रिंशत्रुणानां गायो झमें 'पडिसेहेण सठाणे, वण्णे गंधरस-फास-ए / पण-पण दु-पणट्ठ-तिहा, इगतीस अकायसंगरुहा'॥१॥" 20 . अनुवाद ((अरिहंत भगवंता-) समस्त क्लेशोने दूर करनारा, कुलेश्या-कृष्ण, कापोत आदि नाशकस्मास, प्रशस्त मालेगाशुल्ल लेश्यापाठा एवा(प्रथम परमेष्ठी) अरिहंत भगवंतो श्रीवर्धमानस्वामींना संघर्नु कल्याण कसे // 2 // 25. (सिद्ध भगवंत-) ___जैन शासनना बीजा परमेष्ठी, जेमणे कर्मबीजोने वाळी नाल्यां छे, गुणोथी समृद्ध छे अनें त्रण जगतमा प्रसिद्ध छे एषा सिद्ध भगवतो. श्रीमानस्वामीमा संघनां पापोनें हणी नाखोः // 3 // Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमम] नमस्कार स्वाध्यायः। आघा०-'कम्मे नकः दरिसमिः चत्तारि आउए पंच आइमे अंसे / / सेसे दो दो भेया खीणामिलावेण इगतीसं // 2 // [ *आवश्यकसंग्रहणि] अन्योर्गाययोः व्याख्यानं यथा-व्यसा 1 - चतुरस्र २-वर्तुल 3- मण्डला 4- यतानां 5 पञ्चानां संस्थानानां प्रतिषेधः / एवं पञ्चानां वर्णानां कृष्णादीनां प्रतिषेधः 10 / तथा गन्धस्य सुस्भ्यादिभेदद्वयस्य प्रतिषेधः 12 / तथा रसादीनां कटुकादीनां पञ्चानां प्रतिषेधः 17 // तथा स्पर्शानां शीतादीनांक अष्टानां प्रतिषेधः 25 / तथा वेदानां त्रिविधानां पुरुषादिनेदानां प्रतिषेधः 28 / अकायो देहाभावः 29 / असंगमः संगरहितः 30 / अरुहश्च जन्म-मरणाभावः 31 // इति प्रथमगाथाव्याख्यानम् // 1 // द्वितीयगाथाव्याख्यानं यथा - नव भेदा. दर्शनावरणीयस्य 9. / चत्वारो भेदा आयुषः 13 / पञ्च भेदा. ज्ञानावरणीयस्य 18 / पुनः. पञ्च भेदा अन्तरायस्य / शेषे अनुक्ते वेदनीयस्य भेदद्वयं सातासातरूपम, मोहनीयस्यापि भेदद्वयं चारित्रमोहनीयं १-दर्शनमोहनीयं 2 / चेति 27 / नामकर्मणोऽपि 10 मेदद्वयं शुभनामकर्म १-अशुभनामकर्मेति 2. / 29 / तथा. गोत्रस्याप्तिः भेद्रद्वयं उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं चेति 2 / 31 // अत्र गाथायां 'खीणाभिलावण' इति पाठात् क्षीणाभिलापेन 31 भेदा वाच्याः / कोऽर्थः ? ज्ञानावरणं कर्म यस्य क्षीणं 1, दर्शनावरणं कर्म यस्य क्षीणं 2, इत्येवं पदद्वयं सर्वत्र वाच्यम् / पुमः किंविशिष्टाः सिद्धार 'तिजयपसिद्धा' त्रिजगप्रसिद्धाः // 3 // अथ तृतीयपरमेष्ठिन आचार्यान् स्तुवन्नाह - .. 15 आयारमायरंता, पंचपयारं साया पयासंता / आपस्थिा तह तित्थं, निहयकुतित्थं पयासंतुः // 4 // व्याख्या-आचार्या आचारे साधवः आचार्याः तृतीयपरमेष्ठिनः 'तीर्थ चतुर्विघसंघरूपं प्रकाशयन्तु स्फुरस्प्रभावनाप्रभाभिः उद्योतयन्तु। किं कुर्वम्त आचार्याः ? पञ्चप्रकार आचारं स्वयं आचरन्तः परेंभ्यश्च सदा-निरन्तरं प्रकाशयन्तः / पञ्चाचाराः प्रस्तूयन्ते-ज्ञानाचारः 1, दर्शनाचारः 2, चारित्राचारः 3, 20 तप आचार. 4, वीर्याचारश्चेति 5 / ' किंविशिष्टं तीर्थः ? 'निहतकुतीर्थ' निहतं कुतीर्थ येन तत् // 4 // अथ चतुर्थपरमेष्ठिनः श्रीउपाध्यायानाह सम्मसुअवायगा वायगा य सिअवायवायगा वाए / पवयणपडिणीअकएऽवर्णतु सव्वस्स संघस्स // 5 // व्याख्या --वाचक्नः श्रीउपाध्यायाः चतुर्थपरमेष्ठिनः सर्वस्य संघस्य प्रवचनप्रत्यनीकान् - जिन-25 (आचार्य भगवंत-) पांच प्रकारना आचारोनुं पालन करनारा अने तेनो सदा प्रकाश-उपदेश आपनारा एवा आचार्य भगवंतो कुतीर्थी-मिथ्यावादनो नाश करनार एवा जैनशासनने प्रकाशित करो // 4 // ( उपाध्याय भगवंत-) सम्यक् श्रुतना वाचक अने स्याद्वादना प्ररूपक एवा उपाध्याय भगवंतो सकल संघना जिन 30 प्रवचनना शत्रुओनो वादमा पराभव करो // 5 // 1 "अहवा कंमे णव दरिसणमि चत्तारि आउए पंच / आइम अंते सेसे दो दो खीणाभिलावेण इगतीसं // " इति हरिभद्रसूरिरचितायामावश्यकवृत्तौ पाठः / सप्तस्मरणस्तवटीकायां तु "अथवा - नव दरिसणम्मि चत्तारि आउए पंच अमे अंते / सेसे दो मेया खीणाभिलावेण गुणतीसं // " इति पाठ उद्धृत इति ध्येयम् // * इदं गाथाद्वयं हरिभद्रसूरिरचितायामावश्यकसूत्रवृत्तौ 'तानेवोपदशर्यन्नाह संग्रहणिकारः' इत्युल्लिख्योद्धृतं श्रीमद्भिर्हरिभद्रसूरिभिः / [पृ० 663] Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 सिरिजिणदत्तसूरिविरइयस्स सिरिसमयसुंदरगणिकयवक्खोपेयस्सतं जय'संदब्भो। [प्राकृत शासनप्रद्वेषिणः अपनयन्तु-निर्बाटयन्तु / क ? वादे परदर्शनिभिः समं वादे प्रारब्धे सतीति शेषः। . किंविशिष्टा वाचकाः ? 'सियवायवायगा' स्याद्वादं वदन्तीत्येवंशीलाः स्याद्वादवादकाः। पुनः किंविशिष्टा वाचकाः? सम्यक् श्रुतवाचकाः सम्यक्प्रकारेण यथा तीर्थङ्करगणधरैरर्थ -सूत्राभ्यामुपदिष्टं तथैव वाचका उपदेशदातारः॥ 5 // 6 अथ पञ्चमपरमेष्ठिनः साधून स्तुवन्नाह निव्वाणसाहणुज्जयसाहूणं जणिअसव्वसाहजा / तित्थपभावगा ते, हवंतु परमिट्टिणो जइणो // 6 // व्याख्या-ते यतिनः पञ्चमाः परमेष्ठिनः तीर्थप्रभावकाः भवन्तु / तीर्थस्य चतुर्विधसंघस्य प्रभावकाः उद्योतकारकाः / किंविशिष्टा यतिनः ? 'निव्वाणसाहणुज्जयसाहूणं जणियसव्वसाहज्जा' निर्वाणं 10 मोक्षस्तस्य साधनं ज्ञान- दर्शन - चारित्ररूपं, तत्र उद्यता उद्यमकर्तारो ये साधवः ते निर्वाणसाधनोद्यतसाधवः, तेषां जनितं - उत्पादितं सर्वसाहाय्यं - तपस्यादि कुर्वतां सांनिध्यं यैस्ते // 6 // (साधु भगवंत-) निर्वाण-मोक्षनी साधनामां उद्यमशील साधुओने सर्व प्रकारनी सहाय आपनारा एवा ते (पांचमा ) परमेष्ठी साधुओ तीर्थना प्रभावक बनो // 6 // ___'तं जयउ' स्तोत्र संदर्भ परिचय खरतरगच्छमां श्रीजिनदत्तसूरि नामे एक प्रसिद्ध विद्वान आचार्य थया जेमणे जैन शासनना उत्थानमा महत्त्वनो फाळो आप्यो छे / तेमणे केटलाक ग्रंथो रच्या छे तेमज केटलांक मंत्रमय स्तोत्रोनी पण रचना करी छे / तं जयउ स्तोत्र एमनी ज रचना छे; अने खरतरगच्छीओने मान्य एवां सात स्मरणो तेमणे रच्यां छे तेमां आ स्तोत्रनी गणना छे। 20 आ स्तोत्रमा पंचपरमेष्ठीओनी माहिती आपेली छे, जे नमस्कार विषयने उपयोगी होवाथी तेनी टीका अने अनुवाद साथे ए स्तोत्र प्रगट कर्यु छ / 15 VAALAA44 HEROEM SS AR AN HEA - ra TALURS GALLER S AUM TH HTMMITIVE MEIN CONTRIKA Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [43] सिरिदेविंदसूरिविणिम्मिय-सुदंसणाचरिय' संदब्भो। [अरिहंताइवण्णनं] रागद्दोसकसाए, दुजयपंचिंदियाणि करणतियं / जेहि इमे अरी हणिया, अरिहंता मज्झ ते सरणं // 1 // णागिंदसुरिंदचंदखयरिंदविहियपूयं जे। अरहंति तह सिवगई, अरहंता मज्झ ते सरणं // 2 // ‘खविऊण पुण्णपावं, सयलमणिचं मुणेवि णाणेणं / जे पत्ता परमपयं, ते सिद्धा मे सया सरणं // 3 // चरणकरणप्पहाणा, समिईगुत्तीसु निच्चमुजुत्ता।.. समसत्तुमित्तचित्ता, ते मज्झ सया मुणी सरणं // 4 // पंचासव-पंचिंदियनिग्गहणो चउक्कसायविजयपरो। जो केवलिपण्णत्तो, धम्मो सो होउ मह सरणं // 5 // अनुवाद रागद्वेषरूप कषायो, जीती न शकाय एवा पंचेद्रियना विषयो अने मन, वचन तेमज कायारूप त्रणं करणो—आ शत्रुओने जेमणे हण्या छे ते अरिहंत भगवान मारुं शरण छे // 1 // - नागेंद्रो, सुरेंद्रो, चंद्र अने विद्याधरोए करेली पूजाने जेओ योग्य छे तथा जे मोक्षगतिनी योग्यतावाळा छे; ते अरिहंतो मारुं शरण छे // 2 // ___ पुण्य अने पापने खपावी, बधुंये अनिय छे एम ज्ञानथी जाणीने, उत्कृष्ट स्थानने जे प्राप्त 20 थया छे ते सिद्ध भगवानो सदा मारुं शरण छे // 3 // जे चरण अने करणमा श्रेष्ठ छे, समिति अने गुप्तिमा जे हमेशां उद्यमशील छे अने शत्रु .. तेमज मित्रमा समान चित्तवाळा छे ते मुनिओ सदा मारुं शरण छ / // 4 // पांच आश्रव अने पांच इंद्रियोनुं दमन करावनार, चार कषायने जीताववामां तत्पर अने केवलीओए जे उपदेशेलो छे ते धर्म मारुं शरण हजो // 5 // 25 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [re] चाहादिमाललान्तर्गतो नमस्लानियमान संदर्भः। निसा-विराममि विषुखएणं, मुसानां सुमा-सायरेणं / देवाहिदेवाण जिणुत्तमाणं, किच्चो पणामो विहिणायरेणं // 8 // सिज्जाद्वाणं पमुतूणं, चिहिजा धरणीयले / भावबंधु जगन्नाह, नमुकार समो पढे // 9 // मंताण मंतो परमो इमुत्ति, 'याण श्रेयं परमं मुति। तत्ताण तत्तं परम पवित्तं, संसार-सत्ताण दुहाहयाणं // 10 // ताणं अन्नं तुन्मो अल्यि, जीवाणंभासागरे। बुडंताणं इमं मुत्तुं, नमुकार सुमोययं // 11 // अणेग-मंतर-संसियाणं, बाण सारीरिय-मामास / कत्तो अ भव्वाण भमिका नासो, न जाव पत्तो मकास्मात्तो // 12 // जलणाइ-भए सव्वं, (सेस) मृत्तुं समाप्ति बहामाहास्यामां / अहवारिभए शिण्टइ, अमोहसलं नह तहेह // 13 // अनुवाद रात्रिने अंते चार घडी जेटली रात्रि बाकी रहे त्यारे जागृत थईने गुणना समुद्र एवा सुश्रावके देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंतोने विधि तथा बहुमानपूर्वक नमस्कार करवो जोइए // 8 // सुवामुं स्थान जेम्पलंग तथा पथारी बगेरे तेनो त्याग करीने जमीन पर केसीमे बवा उभा रहीने भावबंधु (सर्वदा सहायकारी होवाथी परमार्यथी बंधु) मने सगतमा माय एवा नमस्कार20 मंत्र स्मरण करे // 9 // (कारणके ) दुःखथी पीडाता सांसारिक जीवोने माटे आ नमस्कारमंत्र मधा ज मंत्रोमां परममंत्र छे, बधाज ध्येयोमा परमध्येय (= ध्यान करवा लायक) छे अने बधा तत्त्वोमां परम पवित्र तत्त्व छ // 10 // भवसागरमां डूबता जीवोने आ नमस्कारमंत्ररूपी वहाण सिवाय बीजु केइ ज रक्षण 25कारनार नयी // 11 // अनेक जन्मोमां बांधेला, त्था शारीरिक अमे मानसिक दुःखोमां कारणभूत एवों कर्मोनी मन्यजीवोने ज्यां सुधी नमस्कारमंत्रती प्राप्ति न थाय-त्यां :सुधी नाश मयांयी थाय ? // 12 // अग्नि आदिनो भय आवी पडे यारे बधी (श्रान्य आदि) अस्तुओनो त्याग करीने सामाग महारत्नने जेम लई लेवामां आवे छे, तथा शत्रुनो भय उपस्थित थाय त्यारे अमोघशस्त्रने जेम 1 श्राद्धदिनकृत्यनी अवचूरिने अनुसरीने आ भाषार्थ आपवामां आव्यो छे। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 505 मुत्तुंपि बारसंग, स एव मरणंमि कीरए जम्हा / अरिहंत-नमुक्कारो तम्हा सो बारसंगत्थो // 14 // तप्पणईणं तम्हा, अणुसरियव्यो सुहेण चित्तेण / एसो व नमुक्कारो, कयन्नुयं मन्नमाणेणं // 15 // नवकारओ अन्नो, सारो मंतो न अत्थि तियलोए / तम्हा हु अणुदिणं चिय, पढियव्वो परम-भत्तीए // 16 // उरगाईण वि मंत्ता, अविहीए उ अहिजिया / विसंजओ न नासंति, तम्हा उ विहिणा पढे // 17 // इह लोगंमि तिदंडी, सादिव्वं माउलिंग-वणमेव / परलोए चंडपिंगल-हुडियजक्खो य दिटुंता // 18 // (श्राद्धदिनकृत्य पृ. 10) प्रहण करवामां आवे छे तेम मृत्यु उपस्थित थाय त्यारे द्वादशांगीतुं स्मरण न करतां अरिहंत आदि पंचपरमेष्ठीना नमस्कार ज स्मरण करवामां आवे छे तेथी नमस्कारमंत्र ए द्वादशांगीतुं रहस्य छे // 13-14 // ____ माटे तेना प्रकाशक अरिहंत आदिना नमस्कारमंत्रनुं पोताने कृतज्ञ माननार श्रावके शुभ-15 चित्तथी स्मरण-ध्यान करवू जोईए // 15 // त्रण जगतमां नवकारथी सारो बीजो कोई मंत्र नथी, माटे प्रतिदिवस परमभक्तिथी नमस्कारमंत्रनुं पठन कर जोईए // 16 // सर्प आदिना पण मंत्रो अविधिपूर्वक जपवामां आवे तो विषनो नाश करी शकता नथी, माटे नमस्कारमंत्रनुं विधिपूर्वक स्मरण कर जोईए // 17 // 20 नमस्कारमंत्रना स्मरणथी आ लोकमां प्राप्त थता फळ विषे 'त्रिदंडी, सादिव्य तथा मातुलिंगवननां दृष्टांत छे, अने परलोकमां प्राप्त थता फळ विषे चंडपिंगल तथा इंडिक यक्षनां दृष्टांतो छ // 18 // - -- 1 आ दृष्टांतोनुं वर्णन पृ. 160 थी 163 मां आवी गयु छे तेथी त्या जोई लेवु। ...... Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [45) चउसरणपयन्नासंदब्भो अमरिंदनरिंदमुणिंदवंदिरं वंदिउं महावीर कुसलाणुबंधि बंधुरमज्झयणं कित्तइस्सामि // 9 // 1 // चउसरणगमण दुक्कडगरिहा सुकडाणुमोअणा येव / एस गणो अणवरयं कायव्वो कुसलहेउत्ति // 10 // 2 // अरिहंत सिद्ध साहू केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो। एए चउरो चउगइहरणा सरणं लहइ धनो // 11 // 3 // अह सो जिणभत्तिभरुत्थरंतरोमंचकंचुअकरालो। पहरिसपणउम्मीसं सीसंमि कयंजली भणइ // 12 // 4 // मंगलस्मरण अने उपोद्घात सुर अने असुरना इन्द्रो, मानवोना इन्द्र-चक्रवताओ, तेमज साधुजनोमां सर्वश्रेष्ठ श्रुतकेवलीओ वगेरे सघळाए जे परमात्माना चरणकमळमां भक्तिपूर्वक सदा नमन करे छे ते देवाधि देव श्री महावीर परमात्माने नमस्कार करीने कुशलना कारणभूत अने ए ज कारणे सुंदर एवा आ 15 अध्ययनने हुं कहीश // 9 // 1 // आ अध्ययनमा त्रण वस्तुओ कहेवानी छे / ते आ प्रमाणे छे: विधिपूर्वक श्री अरिहंत परमात्मा आदि चार शरणांनो स्वीकार, पूर्वकृत दुष्कर्मनी शल्यरहितपणे निन्दा, अने स्व तेमज परना सुकृतनी शुभभावनापूर्वक अनुमोदना; आ त्रणेय अधिकारो कुशलना कारणरूप छे / माटे ज ते सदाकाल करवा योग्य छ / धर्मनो प्रारंभ आ त्रण मौलिक 20गुणोथी थाय छे // 10 // 2 // श्री अरिहंत भगवंतो, श्री सिद्धभगवंतो, श्री निर्ग्रन्थ साधुपुरुषो अने सुखने आफ्नार श्री जिनकथित धर्म आ चारेय शरणस्थानो-शरणांओ; देव, नरक, तिर्यंच अने मनुष्यगतिनां दुःखोने दूर करनार छ / धन्यवान पुरुष ज आ शरणांओने पामी शके छे // 11 // 3 // .... श्री अरिहंत भगवंतोनुं शरण28 श्री जिनेश्वरभगवंतोनी भक्तिना समूहथी उल्लासना योगे विकखर बनेली रोमराजीथी उन्नत शोभतो ते भाग्यवान आत्मा अतिहर्षपूर्वक मस्तक पर अंजलि करीने श्री अरिहंत भगवंतोना शरणना स्वीकार माटे आ मुजब कहे छे // 12 // 4 // Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग). नमस्कार स्वाध्याय / 507 रागहोसारीणं हंता कम्मढगाइअरिहंता / विसयकसायारीणं अरिहंता हुतुं मे सरणं // 13 // / रायसिरिमवकसित्ता तवचरणं दुचरं अणुचरित्ता / केवलसिरिमरिहंता अरहंता इंतु मे सरणं // 14 // 6 // थुइवंदणमरिहंता अमरिंदनरिंदपूअमरहता।" सासयसुहमरहंता अरहंता हुंतु मे सरणं // 15 // 7 // परमणगयं मुणंता जोइंदमहिंदझाणमरिहंता / धम्मकहं अरहंता अरहंता हुंतु मे सरणं // 16 // 8 // सव्वजिआणमहिंसं अरहंता सच्चवयणमरहंता / बंभव्वयमरहंता अरहंता हुतु मे सरणं // 17 // 9 // ओसरणमवसरित्ता चउतीसं अइसए निसेवित्ता। धम्मकहं च कहता अरहंता हुंतु मे सरणं // 18 // 10 // एगाइ गिराऽणेगे संदेहे देहिणं समं छित्ता / तिहुयणमणुसासंता अरिहंता इंतु मे सरणं // 19 // 11 // सर्व दुःखोना मूल कारण राग अने द्वेषरूप शत्रुओनो नाश करनारा, आठ कर्मो वगैरेनो 15 नाश करनारा, अने विषयकषायोने हणनारा-जीती लेनारा श्री अरिहंत भगवंतो मने शरण हो // 13 // 5 // ..सर्व प्रकारनी राज्यलक्ष्मीनो त्याग करीने अने सामान्य साधुओथी दुश्चर एवा तपने तपीने जेओ केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीने योग्य बन्या, ते श्री अरिहंत देवो मने शरण हो // 14 // 6 // त्रणे जगतना लोकोनी स्तुति तेमज वंदनाने योग्य; वळी इन्द्रो, चक्रवर्तीओ, वगेरेनी पूजाने योग्य, अने शाश्वतसुख-मोक्ष सुखने योग्य एवा श्री अरिहंतदेवोनुं मने सर्वदा शरण हो // 15 // 7 // 20 * केवळज्ञानना योगे अन्य सर्वजीवोना मनमा रहेला सर्व भावोने जाणनारा, तेमज योगी ओना इन्द्रो (श्री गणधरदेवादि ) अने देवेन्द्रो वगेरेना परम ध्येय अने परम कल्याणने करनारी धर्मकथाना उपदेश माटे परम योग्य ऎवा श्री अरिहंत देवो मने शरण हो // 16 // 8 // सर्वजीवोनी पारमार्थिक दया-अहिंसाना पालन माटे परम योग्य, सत्यवचन माटे परम योग्य, तेमज ब्रह्मव्रतना पालन वगेरे माटे सर्वथा योग्य छे एवा त्रिलोकनाथ श्री अरिहंतदेवो मने 25 शरण हो // 17 // 9 // - देवोना समुदाये भक्तिथी रचेला समवसरणमां विराजमान थईने अने चोत्रीश अतिशयोने वीतरागभावे सेवीने पांत्रीश गुणयुक्त मनोहर वाणीथी धर्मकथाने कहेनारा श्री अरिहंत देवो मने शरण हो // 18 // 10 // एक ज वचनथी, एकज काळे, देवो, मनुष्यो अने तिर्यंचोना अनेक प्रकारना संशयोने छेदीने 30 त्रणेय लोकपर अनुशासन करता श्री अरिहंत देवोनुं मने निरंतर शरण हो // 19 // 11 // 1. राग त्रण प्रकारनो छेः कामराग, स्नेहराग अने दृष्टिराग / अथवा, आसक्ति ते राग छ / परद्रोहनो अध्यवसाय ते द्वेष छे / अथवा, अप्रीति ते द्वेष छ। 2. 'वगेरे' पदथी परीषह, वेदना, उपसर्ग वगेरे लेवान छ। 3 वाणी पांत्रीश गुणोथी युक्त होवाना कारणे। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 चउसरणपयन्नासंदभो। वयणामएण भुवणं निव्वावंता गुणेसु ठावंता। जिअलोअमुद्धरंता अरिहंता हुंतु मे सरणं // 20 // 12 // अच्चभुयगुणवंते निअजसससहरपसिअअदिअंते / निअयमणाइअणंते पडिवन्नो सरणमरिहंते // 21 // 13 // उज्झिअजरमरणाणं समत्तदुक्खत्तसत्तसरणाणं / तिहुअणजणसुहयाणं अरिहंताणं नमो ताणं // 22 // 14 // अरिहंतसरणमलसुद्धिलद्धसुविसुद्ध सिद्धबहुमाणो / पणयसिररइयकरकमलसेहरो सहरिसं भणइ // 23 // 15 // कम्मढक्खयसिद्धा साहाविअनाणदंसणसमिद्धा / सव्वट्ठलद्धिसिद्धा ते सिद्धा इंतु मे सरणं // 24 // 16 // . तिअलोअमत्थयत्था परमपयत्था अचिंतसामत्था / मंगलसिद्धपयत्था सिद्धा सरणं सुहपसत्था // 25 // 17 // वचनरूप अमृतथी त्रणेय जगतना जीवोनी वेदनाने शमावता तेमज तेमने गुणना मार्गे स्थापता अने ए रीते जीवलोकने संसाररूप भयंकर कुवामाथी उद्धरता श्री अरिहंतदेवो मने 15 शरण हो // 20 // 12 // .... अति आश्चर्यकारी गुणोथी शोभता अने पोताना यशरूप चन्द्रथी सर्व दिशाओना अन्तभाग सुधी प्रकाशने विस्तारता तेमज शाश्वत, अनादि, अनन्त एवा श्री अरिहंतदेकोना शरणने हुँ स्वीकारुं छु // 21 // 13 // - - जरा-वृद्धावस्था अने मरणथी सर्वथा रहित, अनेक प्रकारनां दुःखोथी पीडाता आत्माओनां 20 साचा शरण-आश्यरूप अने त्रणेय लोकना जीवोने सुख आपनारा एवा श्री अरिहंतदेवोने हुं नमुं छु // 22 // 14 // श्री सिद्ध भगवंतोतुं शरण आ मुजब श्री अरिहंत देवना शरणथी कर्ममलनी शुद्धि थवाना योगे, जेने श्री शुद्धस्वरूपमय सिद्ध भगवंतो प्रत्ये पूर्ण बहुमान प्रगट थयुं छे ते पुण्यवान आत्मा भक्तिथी नमेला पोताना 25 मस्तकने विषे करकमलोवडे अंजलि करीने हर्षसहित आ रीतिए कहे छे // 23 // 15 // . आठेय प्रकारना कर्मना क्षयवडे सिद्ध थयेला, स्वाभाविक निरावरण एवा ज्ञान अने दर्शनवडे समृद्ध अने सर्व अभिलषित अर्थो अने लब्धिओनी प्राप्तिथी सिद्ध-कृतकृत्य एवा . श्री सिद्धभगवंतोनुं मने शरण हो // 24 // 16 // 30 त्रण लोकना मस्तकपर-सिद्धशिलानी उपर रहेला, परमपदे( मोक्षमां) रहेला, अचिन्त्य सामर्थ्यवाग, परममंगलभूत सिद्धिपदे रहेला अने परम-अनंत-अव्याबाध सुखना कारणे प्रशस्त एवा श्री सिद्धभगवंतो मने शरण हो // 25 // 17 // Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 509 विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय / मूलुक्खयपडिवक्खा अमूढलक्खा सजोगिपञ्चक्खा / साहाविअत्तसुक्खा सिद्धा सरणं परममुक्खा // 26 // 18 // पडिपिल्लिअपडिणीया समग्गझाणग्गिदड्ड भवबीआ। जोईसरसरणीया सिद्धा सरणं सु(स )मरणीया // 27 // 19 // पावियपरमाणंदा गुणनीसंदा विदिन्नभवकंदा। लहुईकयरविचंदा सिद्धा सरणं खविअदंदा // 28 // 20 // . उवलद्धपरमबंभा दुल्लहलंभा विमुक्कसंरंभा / भुवणघरधरणखंभा सिद्धा सरणं निरारंभा // 29 // 21 // सिद्धसरणेण नयबंभहेऊसाहुगुणजणिअअणुराओ / मेइणिमिलंतसुपसत्थमत्थओ तत्थिमं भणइ // 30 // 22 // जिअलोअबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा / नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं // 31 // 23 // __जेमणे कर्मरूप भावशत्रुओनुं मूळथी उन्मूलन कयुं छे, जेओ अमूढलक्ष्य-सदा उपयोगशील के. वळी जेओना स्वरूपनो प्रत्यक्ष अनभव सयोगी केवलजानीओ ज फक्त करी शके छे अने जेमणे स्वाभाविक सुख प्राप्त कयुं छे ते परममुक्त एवा श्रीसिद्धभगवंतो मने शरण हो // 26 // 18 // 15 जेमणे रागद्वेष रुप अंतरंग शत्रुओने जीत्या छे, जेमणे शुक्लध्यान रूप अग्निथी भवबीज (ज्ञानावरणीयादि कर्म) ने बाळी नाख्युं छे, जेओ योगीश्वरो( गणधरादि )ना पण शरणीय छे अने जेओ मुमुक्षुओना ध्येय छे, एवा श्री सिद्धभगवंतो मने शरण हो // 27 // 19 // परम आनंदने प्राप्त थयेला, सकलगुणोना निःस्यन्द-साररूप, विदारित कर्यो छे संसारनो (मोहनीय कर्मरूप ) कंद जेमणे एवा अने लोकालोकप्रकाशक श्री केवलज्ञान रूप प्रकाशना कारणे 20 सूर्यचंद्रने पण अल्पप्रभाववाळा करनारा तथा क्षपित कर्यां छे राग-द्वेष वगेरे द्वंद्वो एवा श्री सिद्धभगवंतो मने शरण हो // 28 // 20 // __ परमब्रह्मरूप केवलज्ञानने पामेला, वळी जगतमा सौथी दुर्लभ गणाता मुक्तिपदरूप लाभने प्राप्त थयेला. सर्व प्रयोजनो निष्पन्न थवाना कारणे समारंभथी रहित. पोताने शरणे आवेला दर्गतिमां पडता जीवो माटे स्थिर आधार रूप होवाथी जीवलोकरूप घरना आधारभूत स्तंभसमा-तथा 25 कृतकृत्य होवाथी कोईपण प्रकारना आरंभथी रहित एवा श्री सिद्ध भगवंतो मने शरण हो // 29 // 21 // . श्री साधु भगवंतोनुं शरण. आ मुजब भक्तिपूर्वकना श्रीसिद्धभगवंतोना शरणना योगे नैगमादि नयोथी उपलक्षित जे ब्रह्म-श्रुतज्ञान तेना कारण जे विनयादि साधु गुणो, तेमना प्रत्ये उत्पन्न कर्यो छे अनुराग जेणे एवो ते भक्तिथी नमवाना कारणे प्रशस्त बनेला पोताना मस्तकने धरणीपर मूकीने आ रीतिए 30 कहे छे // 30 // 22 // ... षड्जीवनिकायरूप जीवलोकना साचा बंधु, कुगतिरूप महासमुद्रना तीरे रहेला, अनेक लब्धिओथी संपन्न होवाना कारणे महाभाग, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयीनी आराधनाना योगे मोक्षना सुखने साधनारा, श्री साधु भगवंतो मने शरण हो // 31 // 23 // . . Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. चउसरणपयनासंदभो। केवलिणो परमोही विउलमई सुअहरा जिणमयंमि / आयरिअ उवज्ज्ञाया ते सव्वे साहुणो सरणं // 32 // 24 // चउदसदसनवपुवी दुवालसिकारसंगिणो जे अ। जिणकप्पअहालंदिअ परिहारविसुद्धिसाहू अ // 33 // 25 // खीरासवमहुआसवसंमिन्नस्सोअकुट्टबुद्धी / चारणवेउविपयाणुसारिणो साहुणो सरणं // 34 // 26 // उज्झियवइरविरोहा निच्चमदोहा पसंतमुहसोहा / अभिमयगुणसंदोहा हयमोहा साहुणो सरणं // 35 // 27 // खंडिअसिणेहदामा अकामधामा निकामसुहकामा / सुपुरिसमणाभिरामा आयारामा मुणी सरणं // 36 // 28 // मिल्हिअविसयकसाया उज्झियघरघरणिसंगसुहसाया / अकलिअहरिसविसाया साहू सरणं गयपमाया // 37 // 29 // हिंसाइदोससुन्ना कयकारूण्णा सयंभुरुप्पण्णा। अजरामरपहखुण्णा साहू सरणं सुकयपुण्णा // 38 // 30 // 15 केवलज्ञानसंपन्न, परमावधिज्ञानसंपन्न, विपुलमति मनःपर्यवज्ञानना धारक, तेमज जिनमार्गमां रहेला आचार्यो, उपाध्यायो वगेरे अत्यंत प्रसिद्ध एवा सर्व साधु भगवंतो मने शरण हो॥३२॥२४॥ वळी चौदपूर्वधरो, दशपूर्वधरो, नवपूर्वधरो, बार अंगना धारक, अगियार अंगना धारक, जिनकल्पिको तथा यथालन्दिक अने परिहारविशुद्धि संयमवाळा सर्व निर्ग्रन्थ साधुभगवंतो मने शरण हो // 33 // 25 // 20 तथा क्षीराश्रवलब्धिसंपन्न, मध्वाश्रवलब्धिसंपन्न, संभिन्नश्रोतोलब्धिसंपन्न, कोष्टबुद्धिसंपन्न, चारणलब्धिसंपन्न, वैक्रियलब्धिसंपन्न अने पदानुसारी लब्धिवाळा सर्व साधु भगवंतो मने शरण हो // 34 // 26 // ___ वैर विरोधथी रहित, सदा द्रोहविनाना सर्वदा प्रसन्नतापूर्ण मुखथी शोभता, ज्ञानादि प्रशस्त ___ गुणोना समूहने धारण करनारा अने मोहने हणनारा श्री साधु भगवंतोतुं शरण हो // 35 // 27 / / 25 जेमणे स्नेहनां बंधन छेदी नांख्यां छे, जेओ विषयासक्ति अने घरवासथी रहित छे (अथवा जेओ कामना हेतु एवा रम्य मंदिरोथी रहित छे अथवा जेओ कामना धाम-स्थान नथी अथवा जेओ अकाम-विकार राहित्यना धाम छे ), मोक्षसंबंधी सुखनी अभिलाषा राखनारा, सत्पुरुषोना मनने आनन्द आपनारा अने आत्मामा रमण करनारा श्रीसाधु भगवंतो मने शरण हो // 36 // 28 // ___पांचेय इन्द्रियोना विषयोने तेमज चार प्रकारना कषायोने दूर करनारा, घर तथा स्त्रीना 50 संगथी थता सुखास्वादने तजनारा, हर्ष के शोक आदिथी रहित अने अप्रमत्त एवा श्री साधु भगवतो मने शरण हो // 37 // 29 // __हिंसादि दोषोथी रहित जीवलोक प्रत्ये करुणाई चित्तवाळा स्वयंभूरमण समुद्र जेवी विशाळ रुचि (सम्यग्दर्शन ) अने प्रज्ञावाळा, अजरामर पथ मोक्षने बतावनारा, शास्त्रोमां निपुण अने-सुंदर रीते कयुं छे पुण्य जेमणे एवा श्री साधु भगवंतो मने शरण हो // 38 // 30 // Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। कामविडंबणचुका कलिमलमुक्का विमुक्कचोरिका / पावरयसुरयरिका साहू गुणरयणचच्चिक्का // 39 // 31 // साहुत्तसुट्ठिया जं आयरिआई तओ य ते साहू / साहुभणिएण गहिया तम्हा ते साहुणो सरणं // 40 // 32 // अरिहत्तं अरिहंतेसु जं च सिद्धत्तणं च सिद्धेसु / आयारं आयरिए उज्झायत्तं उवज्झाए // 56 // 33 // साहूण साहुचरिअं देसविरइं च सावयजणाणं / अणुमन्ने सव्वेसिं सम्मत्तं सम्मदिट्ठीणं // 57 // 34 // सुहपरिणामो निचं चउसरणगमाइ आयरं जीवो / कुसलपयडीउ बंधइ बद्धाउ सुहाणुबंधाओ // 59 // 35 // मन्दानुभावा बद्धा तिव्वणुभावाउ कुणइ ता चेव / असुहाउ निरणुबंधाउ कुणइ तिव्वाउ मन्दाओ // 60 // 36 // ता एवं कायव्यं बुहेहि निचपि संकिलेसम्मि / होइ तिकालं सम्मं असंकिलेसंमि सुकयफलं // 61 // 37 // विषयविकारनी विटंबणाओथी रहित, पापमलथी रहित, चोरी अदत्तादान वगेरेथी रहित 15 वळी पापरूप रजना कारणभूत मैथुन-विषयक्रीडाथी रहित तथा गुणस्वरूप रत्नोनी कान्तिथी शोभता श्री साधुभगवंतो मने शरण हो // 39 // 31 // . साधुपणामां सुस्थित होवाथी आचार्यादि पण साधु गणाय छे, तेथी ' साधु' कहेवाथी तेमनो पण समावेश थई जाय छे / ए सर्व साधु भगवंतो मने शरण हो // 40 // 32 // श्री अरिहंतना धर्मतीर्थना प्रवर्तनादि अरिहंतपणानी श्रीसिद्धोना स्वरूप रमणतारूप सिद्ध-20 पणानी, श्री आचार्योना पंचाचारपालनादि आचार्य पणानी, श्री उपाध्यायोना सिद्धान्ताध्यापनादि आध्यायपणानी, श्रीसाधुओने साधुक्रियादि साधुपणानी, श्रावकजनोना देशविरति आदि श्रावकपणानी अने श्री सम्यग्दृष्टि आत्माओना सम्यग्दर्शनगुणनी हुं अनुमोदना करुं छ॥५६-५७॥३३-३४॥ फळनो सामान्य निर्देश सर्व काल शुभ परिणामवाळो महानुभाव आत्मा चार शरणांओनो स्वीकार, दुष्कृतनी 25 गही अने सुकृतनी अनुमोदना-आ त्रणेय प्रकारनी वस्तुना सेवनथी पुण्य प्रकृतिओने बांधे छ / तथा ते बांधेल प्रकृतिओने शुभ अनुबंधवाळी करे छे // 59 // 35 // तथा पूर्वे बांधेली मन्द अनुभाववाळी पुण्य प्रकृतिओने तीव्र अनुभाववाळी करे छे, पूर्वे बांधेल अशुभ प्रकृतिओने निरणुबंध ( उत्तर काळमां विपाक वखते दुःख न आपी शके तेवी) करे छे, तथा पूर्वे बांधेल तीव्र रसवाळी ते प्रकृतिओने मंदरसवाळी करे छे // 60 // 36 // 30 - आ कारणे पंडित पुरुषोए संक्लेश-रोगादिना समये आ त्रणेय वस्तुओ® आराधन निरंतर कर जोइए / असंक्लेश अवस्थामां पण आत्मजागृतिने माटे त्रणेय संध्याए आ वस्तुओर्नु सेवन कर जोइए; कारण के आ वस्तुओनुं सेवन सुकृतना उपार्जनरूप फलनुं निमित्त छ / 61 // 37 // Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपयन्नासंदभो। प्राकृत -- परिचय प्रकीर्णक ग्रंथोमा 'चउसरणपयन्ना' ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध छ / तेना रचयिता चरमतीर्थपति श्रमणभगवान श्री महावीर प्रभुना पवित्र हस्ते दीक्षाने प्राप्त थयेला श्रीवीरभद्र मुनि छ / ग्रंथनी भाषा सुंदर छे / अनुप्रासादि अलंकारो पण तेमां छे / गाथाओनो भाव पण बहु गंभीर छ / तेमाथी 5 प्रस्तुत ग्रंथने उपयोगी एवी गाथाओ अनुवाद साथे अहीं रजू करी छ / प्रकीर्ण नासेइ चोर-सावय-विसहर-जल-जलण-बंधण भयाइं / चिंतिजंतो रक्खस-रण-राय-भयाई भावेण // 1 // -(श्रीमहानिशीथ) जामिणि-पच्छिम-जामे, सव्वे जग्गन्ति बाल-बुड्ढाइ / परमिटि-परम-मंतं, भणंति सत्तढुवाराओ // 2 // .. -(यतिदिनचर्या) .. थुइ-बंदणमरहंता, अमरिंद-नरिंद-पूयमरहंता। , सासयसुहमरहंता, अरहंता हुतु मे सरणं // 3 // __ -(श्रीचतुःशरण) पंच-नमुकार-समं अंते वचंति जस्स दण पाणा / सो जइ न जाइ मुक्खं, अवस्स वेमाणिओं होइ // 4 // -(प्रकीर्ण) 20 भावथी चिंतन करातो आ नमस्कार चोर, श्वापद, विषधर, जल, अग्नि, बंधन, राक्षस, रण-संग्राम अने राजा तरफथी थता भयोनो नाश करे छे // 1 // रात्रिना पाछला प्रहरे बाल, वृद्ध आदि सघळा (मुनिओ) जाग्रत थइ जाय छे अने परमेष्ठि-परममंत्रने सात-आठवार भणे छे // 2 // जेओ स्तुति अने वंदनने योग्य छे, अमरेन्द्रो अने नरेन्द्रोनी पूजाने योग्य छे तथा शाश्वत 25 सुखने योग्य छे, ते श्रीअरिहंतभगवंतो मने शरण आपनारा थओ // 3 // . अंत समये जेना दस प्राणो पंच-नमस्कारनी साथे जाय छे, ते जो मोक्षने न पामे तो अवश्य वैमानिक देव थाय छे // 4 // Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय। परस्परावलोकनव्यग्रवाम- -जानुन्यस्ततीर्य फरमातरम्। ASE सा HI PSISROSESER NEDNA यंत्र-चित्र नं. 4] [पृष्ठ : 230 पं. 3 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 यंत्र-चित्रो [प्राकृत शृंखलाजाति चित्रबंध ---ण मो भरि है नाणं) यंत्र-चित्र नं. 5] [पृष्ठ : 389, पं. 15 अष्टदलकमलबंध hico KO यंत्र-चित्र नं.६7 [पृथ: 395, पं. 14 गुदलिङ्गामध्ये आधारचक्रं प्रथमम् / (18 यंत्र-चित्र नं.७] [पृष्ठ : 396, पं. 20 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। लिङ्गमूले स्वाधिष्ठानचक्रं द्वितीयम् / यंत्र-चित्र नं. 8] [पृष्ठ : 396, पं. 23 नाभौ मणिपूरचक्रं तृतीयम् / श्रीतपसे सिद्धेभ्यो श्रीदर्शनाय नमः नमः / नमः श्रीसर्वसाधुभ्यो श्रीमहइयो श्रीसूरिभ्यो नमः | नमः . नमः श्रीचारित्राय श्री श्रीज्ञानाय नमः उपाध्यायेभ्यो नमः नमः यंत्र-चित्र नं. 9] [पृष्ठ : 396, पं. 27 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत यंत्र-चित्रो हृदये अनाहतचक्रं चतुर्थम्। हामानती| रोहिणी रोहिणीपज्ञप्ती मानसी महामा अः | अ * अरि आ क्या अच्छुप्ता/मा हात्ती वजशृंखला Tii यसा 15/16 1314/ ओ नवी | वैरोट्या जे | श्रीगौतमस्वामिने नमः त | सि बजांकुशी चक्रेश्वरी व 9.10/ शय द्ध महाज्वालामाल 16/20 ॐ आ यरि की नरदत्ता को औरी गांधारी पाली महाकाली यंत्र-चित्र नं. 10] [पृष्ठ : 396, पं. 31 कण्ठे विशुद्धिचक्रं पञ्चमम् / सी अजितबला दुरिताशि की सिद्धायिका चक्रेश्वरी मातंग गोमुख िित्रशला मरुदेवी विन हायक्ष त्रिमुख यक्षनाया जया सेना सिद्धाक्षी Aअंबिका पद्मावती भृकुटि गोमेधा (क्रषभ अर्जित संभव नयनरदत्ता गांधारी। उतारिरीकालिका महाका शिवा वामा लिनेमि पाव/ 24|1/2 23/4 122/12/ देवी प्रभावती पमा अभाव अभिनंदन मुमति मिलि मुनिमुक्त नामि श्री मंगला सुसीमा धारिणी धरणप्रिया सायक्षेद | कुबेर कथुअर मल्लिन को महाकाला श्यामा। बुर कुसुम मातंग 8126 अहँ नमः ति पद्मप्रभासुपाश्चात अविरा श्री देवी 95 16/17/ 8/s/s12 गरुड गन्धर्व र गामा शांता भक Leelab त धर्म शांति वाणी बलाधर JHALAYATRIDDENTRE शुयशा सुव्रता अति FVERATION विजय अजित (भृकुटि सुतारका अशी कंदपो निर्वाणी पाताल किन्नर गरु यसवामुल्यावमल जया श्यामा/सी गमा नंदा विष्ण विदिता अंकुशा कंद दि कुमार षणमुस्व। त ब्रह्मा यक्षेट अशोका मानवी वी चण्डा | विदिता) यंत्र-चित्र नं. 11] [पृष्ठ : 397, पं. 15 . Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। घण्टिकायां ललनाचक्रं षष्ठम् // वातकुमारेंद्र द्वीपकुमारेंद्र - अग्निकुमारेंद्र बाईशानेंद्र सनत्कुमारेंद्र Surshala 4 माहेंद्र 5 aurugs2 | surfarges Kaब्रह्मद्र लांतकेंद्र | शुक्रंद्र Argani सहस्त्रारेंद्र सरस्वत्यै नमः S आनतेंद्र | प्राणतेंद्र మ EM आरणेंद्र F pireyal a अच्युतेंद्र 80 राक्षसेंद्र 20| योद्र - RAगंधर्वेद्र FA किंपुरुचेंद्र गरुडेंद्र 5) किन्नरेंद्र | आदित्येंद्र बचंदेंद्र यंत्र-चित्र नं. 12] . [पृष्ठ : 397, पं. 18 भ्रमध्ये आज्ञाचक्रं सप्तमम् / मः यंत्र-चित्र नं.१३] [पृष्ठ : 397, पं. 20 मस्तके सोमकलाचक्रं अष्टमम् / सि आसाम यंत्र-चित्र नं. 14 ] [ पृष्ठ : 397, पं. 23 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्रो [प्राकृत ब्रह्मद्वारे ब्रह्मबिन्दुचक्रं नवमम् / . , . ब्रह्मद्वारोपरि हसनादचक्रं दशमम् / / हंसः यंत्र-चित्र नं. 16] [पृष्ठ : 398, पं. 5 यंत्र-चित्र नं. 15] [पृष्ठ : 397, पं. 25 Kinaski यंत्र-चित्र नं. 17] [पृष्ठ : 467, पं. 21 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 519 जैकारः। ॐकारयन्त्रम / उनमःसिद्ध लवशषसहा TA 43K ॐ वनपफबभमय ललएऐ B2hP102522 Sahir HEREE VE SEPARSERVE Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 यंत्र-चित्रो [प्राकृत हीकार। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाम]. 521 नमस्कार स्वाध्याय। નમસ્કાર-યંત્ર નિમો વેલણ કિસો પંચ-નમુક્કારો) (પઢમં હવઈ મંગલ OLLAनमोमायरियाए SATHORE लिया TA नमोसोमेससा (Dhillalcr રિહંતાણંદ સજી-પીવીપણામાં नमालवायाएy गीर्वाणयंत्रम् / सणो। /णा य आय सव्य /रि बप्प मापन / मो/ ए/सो/lu अरिहं लो / / f मी कारी.स/व्य। वे सिं प/0M डा पणन NEलाणाच/स पंचन/मु/ 3वज्झा / वा णं नमो Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्रो [प्राकृत 522 1. पणिवयामि (कायिक नमस्कार) 2. थोसामि (वाचिक नमस्कार) 3. नमो (मानसिक नमस्कार) 4. कित्तणं (स्मरण नमस्कार) SANSAR ETCHINE CON S Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 523 5. नमसणयं (द्रव्यसमर्पण नमस्कार) 6. सरणं (आत्मसमर्पण नमस्कार) 7. उवणभे (विनय नमस्कार) 8. पणमामि (आध्यात्मिक नमस्कार) SNI Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र-चित्रो [प्राकृत नन्द्यावर्त 0 नवपदावर्त उकारावर्त CEN "क (Nam Pos - - - - -- चा शङ्ख-नन्दि-नवपद-ॐकाररूपावर्तचतुष्कम् Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय। 525 टीकारावर्त श्री कारावर्त प - सिधावर्त - ही-श्री-सिद्धात्मकावर्तत्रिकम् Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 यंत्र-चित्रो : [प्राकृत LCUARY आवाहनी मुद्रा सनिरोधनी मुद्रा KUMAN स्थापनी मुद्रा अवगुण्ठनी मुद्रा oad संनिधापनी मुद्रा सौभाग्य मुद्रा मुद्राषट्कम् Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] ) W WEJDE Paani animate LAMAYA EARoseleying TheEARN Many vil blizdtetett RAPALI Mus Topert RAN demona नमस्कार स्वाध्याय। | मेवातापानाचा वादपदिन - MARALपारामता M.मानाम्हरपारी मता | रमेष्ठिपञ्चप नमस्कारग्रथितरम्यसूत्रपटी (शेठ कान्तिलाल ईश्वरलालना सौजन्यथी) है Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 यंत्र-चित्रो [प्राकृत वापीयन्त्रम् / न | मो अर | मो| सि द्धा णं न | मो रिया| णं | नमो न | मो | लो | एस ETEP FB | . व a2014 |4|भ Khort व्य पा च | प्य णा स णो में गला ढ | मं है | व इमं गलं Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्रक पृष्ठ पंक्ति शुद्ध 12 भुजाओ उपर 15 पछी-अंगूठामां 16 तर्जनीमां 17. मध्यमामां 18 अनामिकामां 19 कनिष्ठामा 22 पछी- डाबा पडखार्मा 24 जमणा पडखामां 25 जमणा पडखामां 27 डाबा पगमां 27 'कु' नो न्यास करवो। 28 "कुरुकुल्ले स्वाहा" 3 एढेहि 30 उपाडीने 107 1 संनिधिन्यास 5 गृह ग्रह 6 सजीवितापादनं 8 सुरभि-कुताञ्जली . 23 परमेष्ठीमुद्रा 24 अंजलीमुद्रा. ,, - 26 (एटले मेरुपूर्वक जाप करवो,) , 26 नहीं, दांत 108 2 पसिज्झउ 17 वाचनाचार्य 18 वर्धमानविद्याना 109 1 महइ महावद्धमाणसामिस्स 3 [जप्त्वा ] 6 वार जाप्त्वा , . . 7 जाती-फल 9 महइ महावद्धमाणसामिस्स 11 उत्तरफाल्गुन्यामुपवासो 15 महइ महावद्धमाणसामिस्स 22 जाईन फूल 25 महइ महावद्धमाणसामिस्स भुजाओना मध्यभागमां पछी-बन्ने अंगूठामां (बे अंगूठा जोडीने) बन्ने तर्जनीमां बन्ने मध्यमामां बन्ने अनामिकामां बन्ने कनिष्ठामां पछी-ॐ उच्चारणपूर्वक डाबा हाथ वडे डाबे खमे जमणे खमे जमणे खमे डाबे खभे 'कु' नो न्यास करवो। अंते 'ॐ' कहेर्नु / “ॐ कुरुकुले स्वाहा” एहि एहि भावपूर्वक अवतारीने (उतारीने) संनिधिन्यासः गृहाण गृहाण सजीवतापादनं सुरभि -अञ्जलि परमेष्ठिमुद्रा अंजलिमुद्रा नहीं अने दांत पसिज्ज वाचनाचार्ये वर्धमानविद्यानो महइमहावीरवमद्धाणसामिस्स [जपित्वा] वारं जपित्वा जातीफल महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स उत्तराफाल्गुन्यामुपवासो महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स x आ शब्दो रद समजवा. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक [प्राकृत छ पंक्ति अशुद्ध 1 त्रट्यति 1 स्वपिति 2 द्युते च देवा 7 नसीबना कारणे 19 (9-859) 27 करेंली 1 उप्पन्नाणुप्पन्नो 1 नयाऽऽइ निगमस्सऽणुप्पन्नो 12 कारणो छे, अने बीजा शुद्ध त्रुट्यति स्वपीति यते सदैवा सदैव (9-895) करेली उप्पन्नाऽणुप्पन्नो नयाऽऽइनिगमस्सऽणुप्पन्नो कारणो छे, ऋजुसूत्रनये पहेलं कारण (समुत्थान) छोडीने शेष बे (वाचना अने लब्धि) कारणो छे, अने शेष कई 18 कयी 26 श्रुतावरणनां कर्मोनो क्षय श्रुतावरणीय क्षयोपशम. (नमस्कारश्रुतावरणीय) कोनो / / x तेनुं श्रवण कवं, 8 अध्ययन ग्रहण करवू, 8 तेनुं श्रवण कर अथवा 28 सत् मात्रग्राही आदि नैगम नयनी . 1 भावोव उत्त 2 द्रव्यने माटे 10 रंगायेल 10 भावथी 13 भावपूर्वक 2 के अंतमा 17 आ रीते.........मळ्युं नहीं' / सत्मात्रग्राही आदि नैगमनयनी भावोवउत्तु द्रव्यने माटे (धनादि अर्थे) उपहत उपयोगसहित उपयोगपूर्वक ,, 18-20 पण बहारथी......पामे छ / ,, . 24-25 भावसंकोच एकांत...कारण छ / 117 2 कियच्चिर 3 अ जीवाणं 7-8 कर्मथी बंधायेला......करे छ। पालके' आवो नमस्कार को हतो, तेनाथी ते इष्ट फळ पाम्यो नहीं। पण परिस्थितिविशेषना कारणे द्रव्यसंकोच करी शके नहीं; आवी रीते नमस्कार करनार अनुत्तर विमानवासी देवोनी पेठे फळ पामे छे।। भावसंकोच प्रधान छे अने द्रव्यसंकोच पण तेनी (भावनी) शुद्धि माटे ज छ / किच्चिरं उ जीवाणं विशुद्ध आत्माओने द्रव्य अने भावनी शुद्धि द्वारा करातो नमस्कार तेमना जेवा बनवाना आदर्शने सफळ करे छे। तेथी नमस्कारना ज्ञाननी लब्धिथी युक्त अथवा ते लब्धि माटे योग्य एवो जे जीव ते नमस्कार छ / द्रव्यास्तिक 24 तेथी जीव नमस्कार छ / 26 द्रव्यास्तिकाय 26 गुणाश्रित Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवनो + विभाग] नमस्कार स्वाध्याय - पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 117 26 पर्यायास्तिकाय पर्यायास्तिक , 28 1. द्रव्यनय......अभिप्राय छ। 1. द्रव्यनय प्रधानपणे द्रव्यने ज ग्रहण करे छे, ज्यारे गुणोने ते उपचारथी माने छ / 118 1-3 (जीवस्वरूप......।) संग्रहनयना मते जीवस्वरूप... / 18 सत्य प्रधान 21 2. सर्व...... छे। 2. स्कंध पंचास्तिकायात्मक होय छे / 8 घडाना हेतु घटनिमित्तक 17 करवा करवो 20 करवा. करवो 22 अजीवोनो 23 अजीवोनो अजीवनो 26-27 तेनो स्वामीमात्र वस्तुनो... ...एटले ए...पण .27 शुद्धतर अशुद्धतर (अहीं हारिभद्रीय आवश्यकमां 'शुद्धतर' एवो पाठ छे, पण ते अशुद्ध छे. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 2880 मां 'अशुद्धतर' एवो पाठ छे : आ पाठ बरोबर छे.) / 29 मते ते नमस्कार मते नमस्कार 1 खओवसमो खओवसमे 4 पण शब्द...नथी। 7 कारण 11 कर्मोने कर्मोनो 14 सर्वघाती स्पर्धको सर्व सर्व सर्वघाती स्पर्धको 15 देशघाती स्पर्धकोना अनंतमा विशुद्धिनी अपेक्षाए देशघाती स्पर्धकोना क्षय पामता अनंतमा 21 ज्ञानावरण...कर्मोमांथी X 24 आवश्यक छ। आवश्यक छ, 24 मिथ्यात्वकर्मना मिथ्यात्वमोहनीयकर्मना - 25 आत्मस्वरूप श्री नमस्कार महामंत्र . 26 मिथ्यात्वनो......अथवा सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्व मोहनीयकर्मनो (अर्थात् दर्शनसप्तकनो) 129 12 सिद्धिलशिामां सिद्धशिलामा , - 16 एवा स्थानने प्राप्त थया 130 11 नमीने नमेलो हुँ 27 प्रकाणे प्रकारे 1-2 रागद्दोसकसाए...वुच्चंति // रागद्दोसकसाए, इंदिआणि य पंचवि / परीसहे उवस्सग्गे, नामयंता नमोऽरिहा / / , 12 मुश्केलाओने मुश्केलीओने 133 8 उवग्गे उवसग्गे Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 शुद्धिपत्रक [प्राकृत पृष्ठ सज्झ 135 136 139 तापसनी अ लेहे' धणुत्तिभागो अ कोसछब्भाओ जह 146 तम्मि 147 V 149 . . 150 151 पंक्ति अशुद्ध 4 सिज्झ 8 ने 18 तपासनी 9 अलेहे' 1 धणु त्ति भागो अ कोस छन्भाओ 4 जइ 6 तम्मी 12 त्रणसो ने तेत्रीश धनुष्यनो 1 धणु त्ति भागो 5 साहीआ 29 श्रुतमां 17 तेवा 1 जाणंती 10 द्रव्योना 11 दर्शने वडे चारे बाजुएथी 15 बधाये समयने एकत्रित करवामां 4 अणुहुंती 15 आचरणा करे 23 एकभाविक 25 भावाचार्य 25 ते लौकिक 4 पुमो 25 'उप' 2 उवझाया 8 कीरमणो 15 ते सूत्ररूप द्वादशांग 8 हुंती 13 करेलो 2 सदायकिच्चुज्जयाण 25 करेलो 9 संसारवर्ती आचार्य, 19 बनो 2 सकुल ... 8 ए शुभ 10 तेनी 10 सिद्ध 22 'तालप्रलंब 23 तालवृक्षने......पण 24 (तोड्या विना अथवा कापेलां) / 25 'तालप्रलंब' त्रणसो ने तेत्रीश धनुष्य अने एक धनुष्यनो धणुत्तिभागो साहिआ सामान्य श्रुतमां तेना जाणंति पदार्थोना दर्शन वडे सर्वत्र संपूर्णपणे सर्वकालना समयथी गुणवामां अणुहुंति आचरणा करे अने करावे एकभविक द्रव्याचार्य भावाचार्यना लौकिक . पुणो 'उप + अधि' उवज्झाया कीरमाणो ते द्वादशांगने सूत्ररूपे हुंति उपाध्यायने करेलो सदा य किच्चुज्जयाण साधुओने करेलो संसारवर्ती अरिहंत, आचार्य अने बने सुकुल ए नमस्कार करनार जीवो शुभ तेनी अभिरतिनी सिद्धि 'तालपलंब' तालवृक्षादि (तोड्या विनानां अथवा न कापेलां) 'तालपलंब' Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग नमस्कार स्वाध्याय 533 पृष्ठ 166 , पंक्ति 1 अणियोग 15-16 तेमा 'भू'... कहे छ। शुद्ध अणुयोग तेमां धातु 'भू सत्तायां' वगेरे छे। ते (धातु) सकल अर्थवाचक शब्दोनुं मूल कारण छ। शब्दोथी अज्ञानादर्शनादि उक्तमर्थमलम् द्रव्य करे, दहन करे, घात करे, घन अने कठिन रूपे अने करावे जेथी जेमां अणुयोग 8 जिनेंद्र होय त्यारे मिथ्यात्वाविरतिथतो घटी घटी लक्ष्यस्या . 28 शब्दनो 167 2 अज्ञानदर्शनादि , 3. उक्तमर्थलम् , 4 द्रव 13 करे, घात करे, 15-16 सांद्र अने कठण स्वरूपे 22 अथवा 26 करे 32 जेनी द्वारा , 32 जे करतां 2 अणिओग ..11 जिनेद्र 31 होवा छतांये 169 5. मिथ्याविरति 14 थनारो , 29 बनी 32 बनी 2 लक्षणस्या - 25 शंकाकारना 27 बराबर 31 छध्नस्थ अर्थात् अल्पज्ञानीओनां 4 दशना 21 समीचीनता आवी शकती नथी, अने समीचीनता 28 मावि 2 14 नथी .' 22 'जिनेन्द्रदेवने नमस्कार थाओ' , 26 परमेष्ठी , 32-33 मंगल विनयने करीने पण 173 3 लहुपारया 7 मध्यावसाने 18 आ सूत्र नथी। आथी 26 बनाववामां 28 परंतु 3 सत्त्योपलम्भान्न 4-5 केवलज्ञानाद्यशेषशेषात्म 23 आवरण कर्म सिद्ध छमस्थनां दर्शना सम्यक्त्व आवी शकतुं नथी अने सम्यक्त्व भव्य नथी, तेथी मंगलनुं अनंतपणुं छे / ‘णमो जिणाणं' x मंगल अने विनयने करीने लहु पारया मध्येऽवसाने आ षट्खण्डागम सूत्र नथी। ते बताववामां अने सत्तोपलम्भान्न केवलज्ञानाद्यशेषात्म आवारक कर्म, Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 शुद्धिपत्रक [प्राकृत पंक्ति अशुद्ध 5 सम्यक्त्वदान१० णिद्दद्ध 10 वित्थिण्णाणाणसा 12 तीहि 16 मादक 18 पूजाने योग्य 18 अहंन् 18-21 केमके;......सममवी जोईए। , शुद्ध °सम्यक्त्व-दानणिद्ध वित्थिण्णाण्णाणसा तिहि माफक पूजाने (अथवा अतिशय अने पूजाने) योग्य 'अर्हन्' देव, असुर अने मनुष्योने प्राप्त थयेली पूजाओथी च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल अने निर्वाण ए पांच कल्याणकोमां देवोए करेली पूजाओने अथवा अतिशयोने योग्य होवाथी 'अर्हन्' कहेवाय छे / (अथवा-देव, असुर अने मनुष्योने प्राप्त थयेल पूजाओथी च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल अने निर्वाण ए पांच कल्याणकोमां देवो वडे करायेल अधिक अतिशयवाळी पूजाओने योग्य होवाथी 'अर्हन्' कहेवाय छे / ) प्रगट थयेल अनंतज्ञान, x अहीं ज रह्या रह्या दोषरूप समुद्रने 22 अनंतज्ञान, 23 प्रगट थतां 24 अहीं 25 रह्यां 27 गया 29 दोषोनी 31 समुद्रमांथी 24 होता? 25 सत्त्व 28 सत्त्वरूप सत्त्वनी स्वभावर्नु गुण५ बहि 13 जमणे 14 लीधा छे, जे होतो? सत्ता सत्तारूपे सत्तानी स्वभावनो गुणनो बहिः जेमणे लीधा छे, जेओ वज्रशिलाथी निर्मित अभाग्न प्रतिमानी जेम अभेद्य संस्थान (आकृति) वाळा छे, सर्व अवयवो वडे जेओ सर्व तेओ (सिद्धो) 15 संपूर्ण 15 जे 16 ते सिद्ध छे 21 समुद्र समान 29 फलायेली 29 आचरण समुद्रनी जेम फेलायेली (दोषोनु) स्मारण Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय 535 पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 2 संग्रहानुग्रहा 8 मिय-पसु 8 सूरुवहि 15 अनुग्रह 24 पराक्रमी 24 स्वाभिमानी अथवा उन्नत 24 भद्रप्रकृति शुद्ध संग्रहनिग्रहा मियपसु सूरुयहि निग्रह दुर्धर्ष कर्मशत्रु प्रत्ये शूर महाव्रतोना भारने वहन करवामां समर्थ मृग पशु समान सर्वत्र अप्रतिबद्ध विहारवाळा 25 मृग समान सरळ, पशु समान ,, 25-26 बधी... विचरनारा 30. वसतिका 32 संपूर्ण वसति सिद्ध x अप्रगट अने आवरण जवाथी रत्नावयवोनो आविर्भाव रत्नोना बाकीना अप्रगट 18 सिद्धि 21 ज्यारे 24 स्थित 25 अप्रगट, बीजु... आवरण 26 जवाथी आविर्भाव 26 एम 27 अप्रगट रत्नोना बाकीना 30 केवल .7 संजातश्चैतत् प्रसादा 18 रहेतां . . . 20 सिद्धोमां 21 अधिकताना कारणे 183 . 3 धम्मवह 8 धर्मज्ञान 9 जांघ 3 अर्हन्ननमस्कारावलिका 6 संसूइय अवयार 18 . ज 19 रहेतां ज 20 ज 21 जन्मथी त्रण......एवा संजातश्चैतत्प्रसादा होवा छतां सिद्धो विषे (जीवोमां) अधिकताने उत्पन्न करनारा धम्मपहं धर्ममार्ग ढींचण अर्हन्नमस्कारावलिका संसूइयअवयार' 184 पण पण 24 शुद्धि (सूतिका) कर्म 27 शिखरमां 27 सिंहासन उपर त्रणे लोकमां उद्योत करनार (महान सूर्यना) जन्म रूप उदयने प्राप्त थयेला सूतिकर्म शिखर पर सिंहासनमां Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 शुद्धिपत्रक __ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 209 13-15 सोळ अक्षरो......करे छे / / 27 // , 18-19 जेने तप,.........जाय छे // 29 // , 20-22 शुद्ध मनवाळो......जाय छे / / 30 // [प्राकृत शुद्ध आ सोळ अक्षरोमांनो प्रत्येक अक्षर जगतमां उद्योत करनार छे, कारणके ते अक्षरोमां लाखो भवोने नाश करनारो पंचनमस्कार रहेलो छे // 27 // पंचनमस्काररूपी सारथिथी नियुक्त अने ज्ञानरूपी घोडाओथी जोडायेल तप, नियम अने संयमरूपी रथ परमनिर्वाणपुर-मोक्षपुरीमा लई जाय छे // 29 // शुद्ध आत्मावाळा, शुद्ध मनवाळा, पांचे समितिओथी युक्त तथा त्रण गुप्तिथी गुप्त एवा जेओ ते रथमां बेसे छे तेओ तरत मोक्षमां जाय छे // 30 // देवो अने असुरोथी प्रणाम करायेला एवा सिद्धो / आठ, आठसो, आठ हजार के आठ करोडवार स्मरण करायेला नवकारमंत्रना प्रभावथी. मारा शरीरनुं रक्षण करो // 32 // पओसमच्छरआहियहियया प्रत्यंगोनी रक्षा करवी सांभळतां ज बधा प्रद्वेष अने मत्सरथीं त्रिभुवन प्रमाण सोळ पत्रवाळु, दीप्त , 25 देवता अमे.........करो // 32 // 3 पओसमच्छर आहियहियया 13 तेना अवयवोनो विचार करवो 24 सांभळनार......द्वेषथी 27 सोळ पत्रवाळु, 27 देदीप्यमान 28 त्रिभुवनमा प्रमाणभूत छे 3 (यंत्रध्यान- फळ-) 4. आ (यंत्र) नुं ध्यान od 22 लेवाम 16 वद्धमाणसमिस्स 25 पण विदिशाओमा 19 सुधी......थाय छे, 25 ओळंगीने, 25 तरफ 26 लागतो 12 वैराट्यायै 19.20 'ॐ नमः......मानस्यै 5 किलि किलि 5 हिलि हिलि ,, 19 अक्षरो 2747 सकुङ्कु 23 तृतीयवलकम् 2753 सत्तो 276 28 वारीणामवत्तरक: 2772 तव // 35-36 // लेवामां वद्धमाणसामिस्स पण आराओनां आंतराओमा विदिशाओमां दूरथी पण स्तंभन क्रिया थई शके छे,. ओळंगीने (डाबा पगवडे चालवानुं शरु करीने), तरफथी रहेतो वैरोट्यायै 'ॐ हूँ महामानस्यै किली किली हिली हिली बीजाक्षरो सत्कुङ्कु तृतीयवलयम् तत्तो वारीणामवरत्तकः नव Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय पृष्ठ पंक्ति भशुद्ध शुद्ध पञ्च पुष्पाणि वक्त्रं कुंभार पुंसम्मि 12 पञ्चपुष्पाणि 15 कक्त्रं 31 कुमार 32 पुसम्मि 7 “ॐ जूंसः" 31 सिघरहि .33 तस्से य 36 अवयण्णिऊण 2 एह्येहि सियवरेहि (सियसुरहि) तस्सेया अवयरिऊण एहि एहि पूर्व सुखदायकान् अधिष्ठिता वागीश्वरि ईश्वरी (द्वौ द्वौ) नाभि 8 पूया 13 सुखदायिकान् 15 धिष्ठितां 1 वागेश्वरि 1 ईश्वरी " 4 द्वौ दौ 9 - हंसं " . 10 नाभी , - 11 वैतत् 11 हृदि विकचतां 23 वकाराः . 27 दशद्वारेण , 28 भूरसि 29 वामकलाचिकां 31 मुद्रा 1 (स्रवे) स्रावय श्वेत हृदि च विकचतां घटाः (निधयः) दशमद्वारेण भूरिसि वामकलांचिकां °मुद्रया (स्रवे) अमृतं स्रावय 7 फलं केसो (1) 8 पूजां 15 मारुजुत्तेहिं 12 अइदुलहा " 16 दिज्जओ " 21. निविज्जेहिं 284 3 असज्ज , 8 तिन्निसंज्झाओ 2851 गुरुपडिमो . 2865 श्मशानाङ्गर 287 7 रोहिण्युर्ध्वमुखानि * 290 11 सर्प-घोणसादयः फलाङ्कशे पूजा मारुयजुत्तेहिं अइदुल्लहा दिज्जउ णेवेज्जेहिं . असज्झ तिण्णि संझाओ गुरुपडिमा श्मशानाङ्गार रोहिण्यूवमुखानि सर्प-घोनसादयः Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 शुद्धिपत्रक [प्राकृत पृष्ठ पंक्ति - अशुद्ध मूलराशौ प्रश्ननामाङ्क षडूद्धवाः निरूपयेत् 295 m घनै शुक्रः गुरू 3 ro 309 322 2924 मूलाराशौ 293 8 प्रश्ननामकं 32 षडूः 20 नीरूपयेत् 27 धनै 31 शुक्र 32 पृष्टे 33 गुरौ 27 कलेशा 303 20 तन्त्रपलपदं 2 सप्ताविंशति 37 मेहच्छिन्नगयणे 1 वाममार्गणः 317 30 रागात् 27 श्वेते 27 पुनर्नवा मूलं 27 तन्दूल° 324 . 10 सोयमोरो 16 होहविराला 18 छक्कलेहिं 22 बुद्धतं 26 विज्जलाओ 36 अहिकड़ि 38 अणंति 1 सुरस्स 10 खरसूत्रेण 15 सव्व विछिय 16 संजातं 30 चक्रका 10 भस्मकरी भस्मकरी 19 सरावेऽध श्वेदनीयम् 20 सरावं 327 20 र्द्धन 328 1 खल्वे 329 22 पुति 333 13 सोहव 15 पयहा 18 अधिवासनायन्त्रः क्लेशा तन्त्रपालपदं सप्तविंशति मेहच्छण्णयणे वाममार्गणाः रोगात् श्वेतं पुनर्नवामूलं तन्दुल सो य मोरो होइ विराला वकलेहिं बुडूतं वि जलाओ अहिक आणति खरमूत्रेण सप्प विच्छिय संजात चक्राङ्का भस्मकरी भस्मकरी शरावेऽध स्वेदनीयम् शरावं 20 खरले सोहगा पइट्टा अधिवासनामन्त्रः : : Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार स्वाध्याय विभाग]. पंक्ति अशुद्ध 28 प्रसिज्झउ 29 “ॐ अवतर सोमे 29 ॐ वग्गु निवग्गु 334 2 गणधारा 4 अक्षरप्रमाणं 16. निक्खत्तं 335 . 5 भावनमस्कारं 8 त्रैलोक्यद्रव्य 12 भविष्यभेदेन " 29 कौंनिरुद्धं " 29 वकाराः 336 .12 भवसिद्धि य पुरिसाणं 13 भवसिद्धि य महिलाणं पसिज्झउ "ॐ अवतर, अवतर सोमे ॐ वग्गु वग्गु निवग्गु गणधरा अक्षरप्रमाणः णिक्खंतं भावनमस्कारः त्रैलोक्यं द्रव्य भविष्यत्भेदेन कौनिरुद्धं निधयः भवसिद्धियपुरिसाणं भवसिद्धियमहिलाणं दस द्वितयेऽपि वि जियस्से पण विषम कार्यों पण बेसतां, ऊठतां, ऊभा रहेतां, (प्रमादवाळो) : : 28. द्वितीयेऽपि 3695 विजियस्स - 18 विजयी 24 जे कार्यो......पण 370 15 बेसतां, 372 16 (आदरवाळो) , 20. (कार्य) 373 24 मरण वखते 24 गमे ते सकर्ण-सावधान पुरुप 374 . . 2 करवद्ध 376 28 मंगळ करे छे 377 12 विगमम्मी जायमाणम्मी , 21 करवाथी , 24 मेळवे छे कोण एवो सकर्ण (सावधान पुरुष), मरण पखते 378 . 6 अणुमुयंतो सत्त पण सत्त य 19 विस्रोतसिका 19 उन्मार्गे जता चित्तने 26 पापमळने......कहे छे करबद्ध मंगळy आगमन करे छे / विगमम्मि जायमाणम्मि पामनार मेळवे छे अने पर्यते कर्मरहित थईने सिद्धिगतिने पामे छे अणुम्मुयतो सत्त पण सत्त सत्त य विश्रोतसिका चित्तना उन्मार्ग गमनने दूर करायो छे पापमल जेनाथी एवा नवकारना फळने कहे छे समस्त भुवनमां मनुष्यनां भरहेसु एसु राक्षस अने मारि वहि 380 382 , 383 20 मनुष्यनां / 3 भरहेसु सु 24 ग्रह अने मरकी 11 वुट्टि Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3 6 सुअं 540 शुद्धिपत्रक [प्राकृत - पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध 383 17 देवताओ,......गण्यो छे। आ नवकार सुर, सिद्ध, खेचर वगेरे वडे भणायो छ / 384 18-19 सागरनु.........थाय // 29 // सागरोपम प्रमाण पाप नाश करे छे, एक पद वडे पचास सागरोपम अने समग्र नवकार वडे पांचसो सागरोपम प्रमाण पाप नाश थाय छे // 29 // ,, 20 आ लोकमां......परलोकमां नवकारना इहलौकिक फल विशे त्रिदंडी तथा श्रीमती नामनी श्रावकपुत्रीने देवता- सान्निध्य, मातुलिंग -बीजोरानुं वन अने पारलौकिक फल विशे 29 दसपाणं दसपाणा 29 सुकखं अणस्स मुक्रवं अवस्स 3 भावाकों भावकों 4 हत्यानां हत्याकानां 4 पापसमूहान पापसमूहान् / 4 'मरगयभा 'मरगयामा .4 उवज्झायाणं उवज्झाया पदम् वचनात् 14 अज्ज्ञावउ अज्झावउ 27 मरगयभा मरगयामा सुक्खं 8 वच]ना भावो वा वचनाभावो वा। 9 सो ण साण 395 11 तेमनां , 11-12 कर्मों दूर...छे। कर्मोना विगमथी 396 6 नमः सिद्धत° नमःसिद्धंत° , 12 महविज्जा विज्जदे महविज्जाविज्जदे , 15-17 ध्यान-......स्तवीश // 1 // श्रीसद्गुरुए कहेला पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत एवा परमेष्ठिमय तत्त्वने हुं स्तवीश (कहीश)॥१॥ 20 आपनारुं थाय छे आपो . 23-24 ते प्रकारे...नीवडे छे तेनुं ध्यान दुःखनु हरण करो "श्रीगौतमस्वामीनी आकृति". 30 "श्रीगौतमस्वामिने नमः" " 20 भागातमत्वामिगनमा , 30 प्रकारने श्री गौतमस्वामीने 397 24-25 तेनुं प्रणवथी...करे छे तेमां ध्यान वडे आपूरित (स्थिर करायेल) प्रणव भन्योनु कल्याण करो 398 6-9 ध्यानना......करे छे // 12 // जे आ चतुर्विध ध्यानमा रहेल परमेष्ठिमय सर्वश्रेष्ठ तत्त्वनुं निरंतर ध्यान करे छे ते परमानंदने पामे छे // 12 // 399 21 विषयतुं निरूपण मंगल अने विषयनिरूपण , 23 केवी......दर्शावीश। वडे श्रुतस्कंधरूप, नवपद-आठ संपदा-अडसठ अक्षरमय अने विशिष्ट महामन्त्ररूप जे अरिहंतादि परमेष्ठिंओने नमस्कार तेनी हुं भक्तिपूर्वक स्तुति करुं छु। " तेमने Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 नमस्कार स्वाध्याय विभाग ] . . पृष्ट पंक्ति अशुद्ध 11 द्विकगणनस्य 13 31452 14 14252 19 31543 23 52134 23 54142 28 45133 . सर्वप्रथम 7 50/40 / 12 ततः...... स्थायः। द्विकास्ततः 10 द्विकाः, अन्त्यादयस्तस्याः 20 विशत्तम द्विकगणस्य 21452 14352 31542 52143 53142 45132 (सर्व) प्रथम 5040 / 402 404 द्विकास्ततः त्रिक-द्विक-एकाः ततः एकाः, अन्त्यादयस्तस्यां त्रिंशत्तम लब्ध पङ्क्तावेकमपि [18] / 14 पङ्क्तौ वेकमपि / 10 [17] 411 45123 // वर्जितत्वा 241 =2 पश्चानु तृतीयकोष्ठकेषु आई आई " 720 413 18 45132 / 4146 वर्जित्वा . 29 242= 2 415 4 पाश्चनु 17. द्वितीय कोष्ठकेषु 417. 3 आयं 4 आयं 13.420 . 419 7 स्थितः पञ्चक एव च 420 1 4,5 / , - काठाओनी 424 24 ग्रहो 27 अभिलाषी, 28 सम्पत्तिना , 29 सुखकर 473 2 जणि ,,' 20-21 (चक्रेश्वरी वगेरे)...प्रकारे कोठाओनी ग्रहो (नी खराब असरो) x सम्पत्तिना अभिलाषी श्रेयस्कर जाणि (चक्रेश्वरी वगेरे)ना वाचक पदोनुं ध्यान श्री सद्गुरुना मुखेथी जाणीने करवू / मंत्रोपदोनुं ध्याम (आलेखन) आ प्रकारे छेविमलस्वामिने श्रीदेवतायै 22 विमलवाहनाय 27 देवतायै Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 12 X : शुद्धिपत्रक [प्राकृत पृष्ठ पंक्ति . अशुद्ध शुद्ध 474 17 11. ॐ ह्री सर्वास्त्रायै नमः 11. ॐ ह्री सर्वास्त्रामहाज्वालायै नमः। , 17 12. ॐ ह्री महाज्वालायै नमः। 18 13 18 14 18 (उमेरो करो-) 14 ॐ ही अच्छुप्तायै नमः। 24 ब्रह्माय ब्रह्मणे 8 भौमाय भोमाय , 27-28 सेवायला......कवू। सेवायेलं ('ल' अने 'क्षि' अक्षरयुक्त) अने भूमितल उपर प्रतिष्ठित , 29 प्रकार, 30 जाण्यु होय तो जाणवामात्रथी 476 18-19 निर्मल होवाना......क्षय करे छे // 208 // तप अने संयमथी युक्त एवो जे निर्मल अने.. उज्ज्वल एवा आ सिद्धचक्रनुं शुक्लध्यानना योगथी ध्यान धरे छे ते विपुल निर्जराने पामे छे // 208 // , 22-24 आ (सिद्धचक्र)......कर्यु छे // 210 // आ (सिद्धचक्र) परमतत्त्व छ, परमरहस्य छे, परमतंत्र छे, परमअर्थ छे, परमपद छे-एम परमपुरुषोए कह्यं छे // 210 // 25 जगतमा त्रणे जगतमा 25 अने x . 25 आपनार, आपनार अने 26 तमे तमे परमभक्तिथी 478 15 भगवंतोनी अंदर भगवंतोने विषे 479 28-29 ते महाराजा......बे प्रकारे ते (श्रीपाळ) महाराजा आगमोने भणनारा तेमज साधु-साध्वीओने भणावनारा उपाध्याय भगवंतो माटे निवासस्थान एटले उपाश्रयो, आहार, वस्त्रो आदि पूरा पाडीने द्रव्यथी तेमज भावथी एम बे प्रकारे 480 14 नमस्कार करवावडे नमन वडे , 14-15 निवासस्थान देवावडे वसतिना दान वडे 15 करवा 482 3 च x महिम , 22 जेमणे जेमना वडे 22 उपायु उपार्जाय , 23-24 छेल्ला भवमां...प्रणाम करूं छु // 1219 // तदनन्तर एक भव पछी ज (वच्चे एक देवतादिनो भव करीने) चरम भवमां जेओ उत्तम राजकुलमां अवतरे छे अने जेमना गुणो चौद महास्वप्नोथी. सूचवाय छे ते अरिहंतोने हुं प्रणाम करूंछु 1219 // 483 22 त्रण ज्ञानथी मत्यादि त्रण ज्ञानथी " 13 महिसं Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 483 22 भोगावळीकर्मने भोगकर्मने , 22-23 चरित्ररूप... छे चारित्रनो अंगीकार करे छे . " 24 उपयोगी उपयोगवाळा , 28 सुरनायको सुरेंद्रो 31 1. चर्मचक्षुथी...... करे छ। 1. श्री अरिहंत भगवंतोनो आहार अने निहार चर्मचक्षुवाळा जोई शकता नथी। 33 3. तेओ...धारण करे छ। 3. तेओनुं मांस अने रुधिर गायना दूधनी धारा जेवू श्वेत होय छे। 26 प्रकृतिओने कर्मप्रकृतिओने , 29 शरीरना शरीरनी अवगाहना (देहमान)थी " 29 अवगाहनावाळा अवगाहनावाळा थईने , 29-30 अग्रभागे...छे अग्रभागने पाम्या छे 486 19 पण ज्ञानीपुरुषो केवली भगवंतो पण 487 24-25 जे सारणा,......पडिचोयणा वडे जेओ स्मारणा (कोईने विस्मृति थतां तेने स्मृति कराववी), वारणा (अशुद्ध भणताने वा), चोदना (अध्ययनादि माटे प्रेरणा करवी) अने प्रतिचोदना (प्रसंगवशात् कठोर वचनादि वडे पण प्रेरणा करवी) वडे 488 18 सुत्तधारया सुत्तधाराए 22 जेओ संसारना जेओ आ संसारमा 28 जाणकार धारक 13 मणग °मयग 25 अक्षररूप वर्णरूप .28 प्राप्त करवाना छे माटे योग्य , 32 दर्शन, एकीभावने प्राप्त (संमिलित) दर्शन, 4911 झाइअधम्म सुक्कझाणा झाइअधम्मसुक्कझाणा 492 31-32 सत्तर प्रकारना...... सत्तर प्रकारना संयमरूप देहवाळा अने अढार वंदन करुं छु / / 1262 // हजार शीलांगोने सुंदर रीते वहन करता एवा जे साधु भगवंतो पंदर कर्मभूमिओमां विचरे छे ते सर्वने हुं वंदन करूं छु // 1262 / 495 25-26 (अलौकिक...मारो (अलौकिक सौभाग्य आदि गुणोने लीधे पुनः पुनः) दर्शनीय जेमनां दर्शन करवा माटे तथा निर्निभेष दृष्टिए दर्शन करीने आत्मतृप्ति मेळववा माटे इंद्रे हजार आंखो करी ते अरिहंत भगवंतोने मारो , 29 अभिलाषावाळा स्वाभाविक अभिलाषावाळा 496 - 15 असवलि अस्खलि° " 25 संसार जीव संसार , 25 थयेलो मनुष्य थाय छे अने तेथी 28-29 मुनिवरो...धरे छ मुनिवरोना पण जेओ ध्येय छे Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक [प्राकृत अच्छिदुरेण तपसा। अणउम्मिल्लिअनाणो सुअजल लय (समत्व) ते विनीत साधु पंक्ति अशुद्ध 4 अच्छिदुरेण। 4 तपसा 12 अणउम्मिलिअ नाणो 13 सुअ जल 30 लय 31 ते साधु 26 जैन शासनना 27 पापोने हणी नाखो 7 असंगमः 9 अन्तरायस्य / 28 कुतीर्थी 32 कंमे . 34 हरिभद्रसूरिरचिताया१६ जीती न शकाय 16 एवा पंचेद्रियना विषयो 18 विद्याधरोए 22 जे चरण...श्रेष्ठ छे, .. 24-25 पांच आश्रव...हजो // 5 // 3 दौस्थ्य (विषम स्थिति) नो नाश करो असंग अन्तरायस्य 23 / कुतीर्थ कम्मे स्वरचितायादुःखे करी जीती शकाय एवी पांच इंद्रियो विद्याधरेन्द्रोए जेमने चरण अने करण प्रधान छे, पांच आस्रव अने पांच इंद्रियोनो निग्रह करनार अने चार कषायने जीतवामां तत्पर एवो केवलीओए उपदेशेलो जे धर्म ते मने सदा शरण हो // 5 // आपनार ज्यांसुधी नमस्कारमंत्रनी प्राप्ति न थाय त्यांसुधी अनेक जन्मोमां संचित करेलां भव्यजीवोनां शारीरिक अने मानसिक दुःखोनो नाश क्याथी थाय? // 12 // (पृष्ठ) 527 . पञ्चपरमेशि , 504 , 25 करनार 26-27 अनेक जन्मोमां...क्यांथी थाय? // 12 // (पृष्ठ)२५७ रमेष्ठिपञ्चप नोंध : पृष्ठ 362 उपर जे यन्त्र आप्यु छ तेमां 8 मी ऊभी पंक्तिमा 9, 9, 1, 5 ने बदले अनुक्रमे 9, 6, 2, 7 वांचवा अने 9 मी ऊभी पंक्तिमा 6, 7, 2 ने स्थाने अनुक्रमे 5, 9, 1 वांचवा। . Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11.