________________ 160 णमोकारणिज्जुत्ती। . [प्राकृत इहलोइ अत्थकामा 'आरुग्गं अभिरई 'अ निष्फत्ती / सिद्धी असग्ग सकुलप्पच्चयाई अ परलोए // 137 // 1023 // इहलोगम्मि तिदंडी' सादिव्वं ' माउलिंगवणमेव / परलोइ चंडपिंगल" हुंडिअजक्खो' अ दिटुंता // 138 // 1024 // 6 (फळ विशे जणावे छे-) श-आ लोकमां अर्थ, काम, आरोग्य अने अभिरतिनी प्राप्ति थाय छे। अने परलोकमां सिद्धि, स्वर्ग अने उत्तम कुळनी प्राप्ति छे / (137) वि०-अर्थ अने कामनी प्राप्ति थाय छे एटले ए शुभ विपाकवाळा बने छे अने आ लोकमां अर्थ वगेरेथी अनुकूळ आनंद मळे छे तेने 'अभिरति' कहे छे / शुभ पुण्यनुं कारण होवाथी परलोकमां 10पण तेनी प्राप्ति थाय छे / वळी सिद्ध, स्वर्ग अने उच्चकुळपणुं ए परलोक संबंधी फळो मळे छ / ___ अहीं सिद्धि प्रथम दर्शावी छे, केमके मुख्य फळने उद्देशीने उपाय कहेवामां आव्यों छे। वळी, विरल मनुष्यो ज एक भवमां सिद्धिने प्राप्त करे छे / जे एक भवमां सिद्धि मेळवी शकता नथी एवा अविराधकोने स्वर्ग अने सुकुळनी प्राप्ति थाय छे / : 37, (1023) (अंते उदाहरणो बतावे छे.-) 18 श०—आ लोकमां त्रिदंडी, दिव्य अने मातुलिंग (बीजोरां) वननां दृष्टांतो छ अने परलोकनां दृष्टांतो चंडपिंगल अने हुंडिक यक्षना छ / (138) (1) त्रिदंडी। नमस्कार मंत्र धन पण आपे छे तो ते कयी रीते ए विशे त्रिदंडीनुं उदाहरण कहे छे "एक श्रावकनो पुत्र हतो / ते कोई प्रकारनो धर्म करतो नहीं / तेनो बाप मरी गयो अने 20 ते व्यवहारमा पाछो पडवाथी आमतेम भम्या करतो हतो। कोई वेळा तेना घरनी पासे एक संन्यासी आव्यो / तेनी साथे तेने ( श्रावकपुत्रने ) मैत्री बंधाई / एक दिवसे संन्यासीए तेने कह्यु: 'जो तुं अखंडित अने मालिक विना- कोई मूडहूँ लई आवे तो तने धनवान बनावी दऊं / ' शोध करतां श्रावकपुत्र मूडहुँ लई आव्यो अने संन्यासीने वात करी / ते स्मशानमा लई 25 गयो / कारण के, तेनी विधि त्यां ज थई शके / ते श्रावकपुत्रने तेना पिताए नमस्कारमंत्र शीखवाड्यो हतो, अने तेनुं फळ जणावता कह्यु हतुं के, ज्यारे तने कोईनी बीक लागे त्यारे आ मंत्र गणजे, कारण के, आ विद्या छ / संन्यासीए ते श्रावणपुत्रने मूडदा पासे बेसाड्यो अने ते मूडदाना हाथमा तरवार आपी / पछी संन्यासी विद्यानो जाप करवा लाग्यो / वेतालथी अधिष्ठित ते मूडढुं ऊभुं थवा लाग्युं / 30 आथी ते श्रावकपुत्र भय पाम्यो अने हृदयमां नमस्कारमंत्रनो जाप करवा लाग्यों / नमस्कारना