________________ 488 श्रीमद्रत्नशेखरसूरिरचित सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः। [प्राकृत ते पावभरकंते, निवडते भवमहंधकुवम्मि / नित्थारयति जीए ते आयरिए नमसामि // 1242 // . व्याख्या-पापस्य यो भरः- अतिशयस्तेन आक्रान्तान् अत एव भवः- संसार एव यो महानन्धकूपस्तस्मिन् निपततो जीवान् ये निस्तारयन्ति तानाचार्यान्नमस्यामि // 1242 // जे माय-ताय-बांधवपमुहेहिंतोऽवि इत्थ जीवाणं / साहति हिअं कजं ते आयरिए नमसामि // 1243 // व्याख्या- अत्र - अस्मिन् संसारे ये आचार्या जीवानां मातृ-तात-बान्धवप्रमुखेभ्यो - जननीजनक-आत्रादिभ्योऽपि अधिक कार्य साधयन्ति, तानाचार्यान् नमस्यामि // 1243 // जे बहुलद्धिसमिद्धा साइसया सासणं पभावंति / रायसमा निचिंता ते आयरिए नमसामि // 1244 // व्याख्या-बहुमिर्लब्धिभिः समृद्धाः-समृद्धिमन्तः, अत एव सह अतिशयैर्वर्तन्ते इति सातिशयाः सन्तो ये शासन-जिनमतं प्रभावयन्ति-दीपयन्ति, कीदृशाः- ये राजसमा - नृपतुल्याः , अत एव निर्गता चिन्ता येभ्यस्ते निश्चिन्तास्तानाचार्यान् नमस्यामि // 1244 // जे बारसंगसज्झायपारगा धारगा तयत्थाणं / 15 तदुभयवित्थाररया तेऽहं शाएमि उज्झाए // 1245 // व्याख्या-ये द्वादशाङ्गस्वाध्यायस्य पारगाः- पारगामिनः पुनः तदर्थानां- द्वादशाङ्ग्या अर्थानां धारकाः, पुनः तदुभयस्य-सूत्रार्थरूपस्य विस्तारे रता - रक्तास्तानुपाध्यायानहं ध्यायामि / / 1245 // पाहाणसमाणेऽवि हु कुणति जे सुत्तधारथा सीसे / सयलजणपूयणिजे तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1246 // 20 पापना भारथी आक्रान्त थयेला अने तेथी ज संसाररूपी ऊंडा अंधारिया कुवामां पड़ता प्राणीओनो जे उद्धार करे छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1242 // जेओ संसारना जीवोनुं माता, पिता तथा भाई वगेरेथी ये अधिक हितकार्य साधे छे ते आचार्य महाराजोने हुं नमस्कार करुं हुं // 1243 // जेओ बहु लब्धिओथी (शक्तिओथी) समृद्ध छे अने तेथी ज अतिशयोवाळा होवाथी जेओ 25 (जैन) शासनने दीपावे छे एवा राजवीओ समा निश्चित आचार्योने हुं प्रणाम करुं हुं / 1244 // उपाध्याय - जेओ सूत्ररूप द्वादशांगीना स्वाध्यायमां पारंगत थयेला छे, तेमज द्वादशांगीना अर्थना जेओ जाणकार छे, तेमज ते बन्नेनो एटले द्वादशांगीरूप सूत्र अने तेना अर्थनो विस्तार (प्रचार) करवामां जेओ तत्पर छे ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरूं छु॥ 1245 // पाहा