________________ 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। कामविडंबणचुका कलिमलमुक्का विमुक्कचोरिका / पावरयसुरयरिका साहू गुणरयणचच्चिक्का // 39 // 31 // साहुत्तसुट्ठिया जं आयरिआई तओ य ते साहू / साहुभणिएण गहिया तम्हा ते साहुणो सरणं // 40 // 32 // अरिहत्तं अरिहंतेसु जं च सिद्धत्तणं च सिद्धेसु / आयारं आयरिए उज्झायत्तं उवज्झाए // 56 // 33 // साहूण साहुचरिअं देसविरइं च सावयजणाणं / अणुमन्ने सव्वेसिं सम्मत्तं सम्मदिट्ठीणं // 57 // 34 // सुहपरिणामो निचं चउसरणगमाइ आयरं जीवो / कुसलपयडीउ बंधइ बद्धाउ सुहाणुबंधाओ // 59 // 35 // मन्दानुभावा बद्धा तिव्वणुभावाउ कुणइ ता चेव / असुहाउ निरणुबंधाउ कुणइ तिव्वाउ मन्दाओ // 60 // 36 // ता एवं कायव्यं बुहेहि निचपि संकिलेसम्मि / होइ तिकालं सम्मं असंकिलेसंमि सुकयफलं // 61 // 37 // विषयविकारनी विटंबणाओथी रहित, पापमलथी रहित, चोरी अदत्तादान वगेरेथी रहित 15 वळी पापरूप रजना कारणभूत मैथुन-विषयक्रीडाथी रहित तथा गुणस्वरूप रत्नोनी कान्तिथी शोभता श्री साधुभगवंतो मने शरण हो // 39 // 31 // . साधुपणामां सुस्थित होवाथी आचार्यादि पण साधु गणाय छे, तेथी ' साधु' कहेवाथी तेमनो पण समावेश थई जाय छे / ए सर्व साधु भगवंतो मने शरण हो // 40 // 32 // श्री अरिहंतना धर्मतीर्थना प्रवर्तनादि अरिहंतपणानी श्रीसिद्धोना स्वरूप रमणतारूप सिद्ध-20 पणानी, श्री आचार्योना पंचाचारपालनादि आचार्य पणानी, श्री उपाध्यायोना सिद्धान्ताध्यापनादि आध्यायपणानी, श्रीसाधुओने साधुक्रियादि साधुपणानी, श्रावकजनोना देशविरति आदि श्रावकपणानी अने श्री सम्यग्दृष्टि आत्माओना सम्यग्दर्शनगुणनी हुं अनुमोदना करुं छ॥५६-५७॥३३-३४॥ फळनो सामान्य निर्देश सर्व काल शुभ परिणामवाळो महानुभाव आत्मा चार शरणांओनो स्वीकार, दुष्कृतनी 25 गही अने सुकृतनी अनुमोदना-आ त्रणेय प्रकारनी वस्तुना सेवनथी पुण्य प्रकृतिओने बांधे छ / तथा ते बांधेल प्रकृतिओने शुभ अनुबंधवाळी करे छे // 59 // 35 // तथा पूर्वे बांधेली मन्द अनुभाववाळी पुण्य प्रकृतिओने तीव्र अनुभाववाळी करे छे, पूर्वे बांधेल अशुभ प्रकृतिओने निरणुबंध ( उत्तर काळमां विपाक वखते दुःख न आपी शके तेवी) करे छे, तथा पूर्वे बांधेल तीव्र रसवाळी ते प्रकृतिओने मंदरसवाळी करे छे // 60 // 36 // 30 - आ कारणे पंडित पुरुषोए संक्लेश-रोगादिना समये आ त्रणेय वस्तुओ® आराधन निरंतर कर जोइए / असंक्लेश अवस्थामां पण आत्मजागृतिने माटे त्रणेय संध्याए आ वस्तुओर्नु सेवन कर जोइए; कारण के आ वस्तुओनुं सेवन सुकृतना उपार्जनरूप फलनुं निमित्त छ / 61 // 37 //