________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः। [प्राकृत प्राग्वद् विशेषाद् व्याख्या इमा / यथा- 'षिधू गत्याम् ' षेधन्ति स्म-अपुनरावृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन् , अथवा 'षियूं च संराद्धौ' सिद्धयन्ति स्म-निष्ठितार्था भवन्ति स्म, यदिवा 'पिधू शास्त्रमाङ्गल्ययोः' सेधन्ति स्म-शासितारोऽ भूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धा-नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् 5 प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , उक्तं च-- - "ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसौधमूर्ध्नि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे // " तेभ्यो नमः इत्यादि प्राग्वत् / नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञान-सुख-वीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषय प्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति / 10 तथा 'नमो आयरियाणं' अट्ठारससीलंगसहस्साहिट्ठियतणू छत्तीसइविहमायारं जहट्ठियमगिलाए अहन्निसाणुसमयं आयरंति पवत्तयंति आयरिया 1, ___ 'अरिहंत' पदमां जेम अनेक प्रकारे व्याख्या करी हती तेम 'सिद्ध' पदनी व्याख्या पण नीचे मुजब अनेक प्रकारे थाय छे; जेमके: ___षिध्' धातुनो अर्थ 'गति' थाय छे / एटले जेओ फरीथी पाछा फरवू न पडे ए रीते 15 मोक्षनगरीमां गया छे ते 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा 'षिध्' नो 'संराद्धि' अर्थ थाय छे एटले जेओ निष्ठितार्थ ( कृतार्थ ) थयेला छे तेओ 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा 'षिध्' धातुनो अर्थ 'शास्त्र' अने 'मांगल्य' थाय छे एटले जेओ शासक थया अने जेओ मांगल्यरूपताने पाम्या ते 'सिद्ध' कहेवाय छे / अथवा सिद्ध एटले 'नित्य'; कारणके तेमनी स्थिति अनंत होय छे। अथवा सिद्ध एटले प्रख्यात; कारणके भव्य जीवो एमना गुणसमूहने सारी रीते जाणता होय छे / कयुं छे के20 "बांधेलुं प्राचीन कर्म जेमणे बाळी नाख्युं छे, जेओ मोक्षरूपी महेलनी टोच उपर जईने बेठेला छे, जेओ प्रसिद्ध छे, जे अनुशासन करनार छे अने जेओ कृतार्थ छे ते सिद्ध भगवान मने मंगल करनारा थाओ।" आवा सिद्ध भगवंतोने मारो नमस्कार हो / सिद्ध भगवंतो अविनाशी ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य वगेरे गुणोथी युक्त होवाने लीधे तेमना प्रति उत्कृष्ट आनंद उत्पन्न थाय छे / आ रीते तेओ आनंदने उत्पन्न करनारा होवाथी भव्य जीवोने अत्यंत उपकार 25 करनारा छे / तेथी सिद्ध भगवंतो नमस्करणीय छ / नमो आयरियाणं "अढार हजार शीलांगने धारण करनारा छत्रीश प्रकारना आचारने यथास्थित रीते ग्लानि विना रात अने दिवस प्रतिसमय जेओ आचरे छे अने प्रवर्तावे छे ते 'आचार्य' कहेवाय छे" (महानिशीथसूत्र) 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ. 43, पं. 11-12 /