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________________ 496 श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिविरचितस्य पाकृतद्वयाश्रयमहाकाव्यस्य सप्तमसर्गस्य संदर्भः। [प्राकृत जो अणुगच्छइ जच्छइ, छिन्दिउमच्छइ तणुं च तेसि पि / अणभिन्दिअभावाणं, अरहताणं नमो ताणं // 55 // व्याख्या-योऽनुगच्छति भक्त्या पृष्ठलमः प्रयाति / तथा यो यच्छति सादरं स्ववस्तु ददाति / यस्तु तनुं छेत्तुमास्ते / तेष्वपि 'अभिन्नभावेभ्यो निर्विशेषमनस्केभ्यस्तेभ्यो जगत्प्रसिद्धेभ्यो5 ऽहद्भयो नमः' // 55 // सविहे न जाण कुज्झइ जुज्झइ मुज्झइ भवे अगिज्झन्तो। देही बुज्झइ सिज्झइ, अरहंताणं नमो ताणं // 56 // व्याख्या- येषां सविधे समीपे भवे अगृध्यन् गाय॑मगच्छन् / संसारविरक्तो भवन्निति यावत् / देही जन्तुर्न क्रुध्यति न कोपं गच्छति / तथा न युध्यते न युद्धं करोति यतो न मुह्यति न 10 मोहमुपगच्छति / मोहमूलत्वात् क्रोधयुद्धयोः / किन्तु बुध्यते अवगततत्त्वो भवति / तथा च सति सिध्यति सिद्धो भवति / तेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 56 // रुन्धिअकरणं रुम्भिअपवणं रुज्झिअमणं अपडिएहिं / झायव्वाण मुणीहिं, अरहंताणं नमो ताणं // 57 // व्याख्या-रुद्धकरणम् / रुद्धपवनम् / रुद्धमनः कृतेन्द्रियोच्छासनिःश्वासचित्तनिरोधं यथा 15 भवति, एवमपतितैः ध्यानाद् असवलितैर्मुनिभिर्ध्यातव्येभ्यस्तेभ्यः प्रसिद्धेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 57 // सडिअरया कढिअमला, वड्अितवतेअवेढिअङ्गा य। जाणज्ज वि वरमुणिणो, अरहंताणं नमो ताणं // 58 // व्याख्या-सन्नरजसः गलितबध्यमानकर्माणः / कथितमलाः भस्मीकृतबद्धकर्माणः / यतो वृद्धं वृद्धिं गतं यत् तपस्तेजस्तेन वेष्टितं व्याप्तम् अङ्गं येषां ते तथा च वरमुनयः अद्यापि दुष्षमाकालेऽपि 20 वर्तन्ते येषामर्हताम् / यन्मतसंस्थिता इत्यर्थः / तेभ्योऽर्हद्भयो नमः // 58 // (भक्तिथी ) जे पाछळ पाछळ फरे छे, आदरपूर्वक जे दान दे छे तथा (द्वेषथी ) शरीर कापवा माटे जे तैयार थई जाय छे ते बधा प्रकारना माणसो ऊपर जेमना मनमा भेदभाव नथी ते अरिहंतोने नमस्कार थाओ / ( अर्थात् भक्त तथा द्वेषी बंने ऊपर जेमनी समानदृष्टि छे ते वीतराग अने वीतद्वेष अरिहतीने मारो नमस्कार थाओ) // 55 // 25 जेमनी पासे ( जवाथी) संसार ऊपर विरक्त थयेलो मनुष्य क्रोध करतो नथी, युद्ध करतो नथी, तेमन मोह पण पामतो नथी; परंतु तत्त्वनो जाणकार बने छे अने मोक्ष प्राप्त करे छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 56 // इंद्रियो, श्वासोच्छ्रास तथा मननो रोध करीने अस्खलितपणे ध्यान धरता मुनिवरो जेमनुं ध्यान धरे छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 57 // 30 जेमनां बंधांतां कर्मो गळी गयां छे, अने जेमणे पहेलां बांधेलां कर्मोने भस्मसात् कयां छे तथा वघेला तपना तेजथी जेमनुं अंग व्याप्त छे एवा श्रेष्ठ मुनिवरो जेमना शासनमा आजे पण विद्यमान छे ते अरिहंतोने मारो नमस्कार हो // 58 //
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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