________________ 428 [प्राकृत सिरिगणिविजाथुत्तं। एयं तं किं पि परं गूढत्थं परमकारणं जेण / सिझंति सयलहियइच्छियाई विनायमित्तेण // 6 // एयस्स कए लोओ गंधसहस्साणुवालणे मूढो / अणुदियह पराय(इ)जइ उवएसब्भासपरिहीणो // 7 // सो उवएसब्भासो अणाइसिद्धो जिणिंदसमयम्मि / फुरइ सुसाहु-सावयजणस्स नन्नस्स भुवणित्थ // 8 // जह केवलिपन्नत्तं परलोगहियं तहा कयत्थेण / तं नजइ उवएसो तत्थ य कीरिजइब्भासो // 9 // धम्मदिसादेसविऊ पंचपरमिट्ठिसंथवाहिगमो। तिहुयणपुनपसत्थो समत्थ(त्तसुत्तत्थपरमत्थो // 10 // अरिहंताण य वयणे ठियकप्पमणुत्तरे महाभागे। सुस( ससु )रासुरजगमहिए ठाऊण दढं पयत्तेणं // 11 // जो अब्भसिजंतं पुण तग्गयमणसो जहुत्तविहिणा उ / छम्मासम्भंतरओ सो पावइ विउलरिद्धीओ // 12 // 15 आ ते कांइ पण परम गूढार्थ छे अथवा परम कारण छे, के जेने जाणवामात्रथी सकल . मनोवांछितोनी सिद्धि थाय छे // 6 // आ (मनोवांछित )ने पामवा माटे मूढ लोको हजारो औषधिओर्नु अनुपालन (संमिश्रणादि रासायणिक प्रक्रियाओ) करे छे (बीजो अर्थ:-हजारो ग्रंथोनुं परिशीलन करे छे); छतां उपदेश अने अभ्यासथी रहित एवा ते प्रतिदिवस पराजित थाय छे-खेद पामे छे / / 7 // 20 ते उपदेश अने अभ्यास श्रीजिनशासनमां अनादि-सिद्ध छे, सुविहित साधुओ अने श्रावकजनोने ते स्फुरे छे, आ जगतमा अन्य कोईने ते स्फुरायमान थतो नथी // 8 // परलोकने विषे हितकर एवा केवलिप्रज्ञप्त तत्त्वने जेवी रीते कृतार्थ आत्मा जाणे छे, तेवी रीते कृतार्थ आत्मा वडे ज आ उपदेश जाणी शकाय छे अने तेमां अभ्यास (प्रयत्न ) करी शकाय छे // 9 // 25 धर्म, दिशा अने देशनो जाणकार, पांच परमेष्ठिना संस्तवना बोधवाळो, त्रण भुवनमा पुण्य वड़े प्रशस्त अने समस्त सूत्रार्थना परमार्थने पामेलो एवो जे महाभाग्यशाली पुरुष, सुर तथा असुरो सहित एवा जगत वडे पूजित अने अनुत्तर एवा श्रीअरिहंत परमात्माना वचनमा रहेला कल्प (आम्नाय )मा प्रयत्न वडे पोताना आत्माने दृढपणे स्थापीने यथोक्त विधि वडे तद्गत मनवाळो (थईने ) अभ्यास करे ते छ मासनी अंदर विपुल ऋद्धिओने पामे छे // 10-11-12 //