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________________ 429 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। उज्झियपावपसंगो धम्मम्मि कयागमो जिअकसाओ। कम्मकलंकविमुक्को खणे खणे होइ विमलप्पा // 13 // जइ तब्भवे न सिज्झइ उत्तमदेवत्तणं पि सो लहइ / / दद्ण सुकुलजम्मं जिणसासणवोहिसंजुत्तं // 14 // हिय[इच्छियाण लोए सामी सो होइ सव्वसुक्खाणं / दारिद्दवाहिजोगं सुविणे वि न पिच्छए दुक्खं // 15 // उहाइ न पडिवक्खो सत्तुब्भावडिओ कहवि होइ (कोइ)। सो तक्खणं विलिजइ सूरालोएण तुहिणु व्व // 16 // कलि-कलह-वेमणस्सं अब्भक्खाणं च सोगसंता / / न सुणेइ नेव पिच्छइ सव्वत्थ जसो लहइ कित्तिं // 17 // ए उवएसु कत्ता सिरिमहापुरिससंभवं जम्मं / तिहुअणसिसा(ला )हणिजं पाएण लहंति किं बहुणा // 18 // दव्वत्थओ अ भावत्थओ य इत्तो पवत्तए लोए / विहिणेयं भयमाणा भविआ सिझंति बुझंति // 19 // नायव्वायरियव्वे परूवियव्वे य जेसि न विसाओ / इत्थं जहोवइढे त एव आराहगा भणिया // 20 // . जेणे पाप प्रसंगनो त्याग कर्यो छे, जेणे धर्ममां ज्ञानपूर्वक प्रयत्न कर्यो छे, जेणे कषायोने जीत्या छे, जे कर्मकलंकथी विमुक्त छे अने जेनो आत्मा क्षणे क्षणे निर्मल थई रह्यो छे, एवो ते जो तद्भवमा मोक्ष न पामे तो उत्तम देवपणुं प्राप्त करे छे, ( ने पछी ) श्री जिनशासननी (मां कहेल) बोधिथी युक्त एवा ( सारा कुलमां) जन्मने पामीने लोकमां मनोवांछित सर्व सुखोनो स्वामी थाय 20 छे, दारिद्य अने व्याधिसहित एवा दुःखने ते स्वप्नमां पण जोतो नथी, शत्रुभावे रहेलो कोई पण तेनो विरोधी उत्पन्न थतो नथी, अथवा कदाच कोई (पूर्वनो) होय तो ते जेम सूर्यना तापथी हिम गळी जाय तेम (ते विरोधी ) गळी जाय छे-नाश पामे छे // 13-14-15-16 // कलि-कलह-वैमनस्य-अभ्याख्यान-शोक अने संताप तेना सांभळवामां के जोवामां आवतां नथी, ते सर्वत्र यश अने कीर्तिने मेळवे छे // 17 // वधुं शुं कहे ?- आ उपदेश प्रमाणे करनार श्रीमहापुरुष (तीर्थकर, गणधरादि )पणानुं कारण अने त्रणे भुवनमा प्रशंसनीय एवा जन्मने प्राप्त करे छे // 18 // ___आनाथी (उपदेशथी ) जगतमां द्रव्यस्तव अने भावस्तवनी प्रवृत्ति थई छे, आने विधिपूर्वक भजता भव्यो सिद्ध थाय छे, बुद्ध थाय छे // 19 // - जेओने यथोपदिष्ट (पूर्वोक्त अर्थने ) विषे जाणवामां, आचरवामां अने प्ररूपवामां विषाद-30 खेद थतो नथी तेओने ज आराधक कह्या छे // 20 // -25
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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