________________ 10 46 श्रीमद्रनशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः।[प्राकृत व्याख्या-यथा-म्लेच्छो नगरगुणान् -प्रासादनिवासमधुररसभोजनादीन् जाननपि अन्येषां म्लेच्छानां पुरस्तात् कथयितुम् असमर्थः-समर्थो न भवति, तथा - तेन प्रकारेण येषां सिद्धानां गुणान् जानन्नपि ज्ञानी कथयितुं न समर्थो भवति, ते सिद्धा मे सिदि ददतु // 1234 / / जे अ अणतमणुत्तरमणोवमै सासयं सयाणंदं। . 5 सिदिमुहं संपत्ता ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1235 // व्याख्या-ये च सिद्धिसुख-मुक्तिसुखं सम्प्राप्तास्ते सिद्धा मे - मह्यं सिद्धि ददतु, कीदृशं सिद्धिसुखं ? - 'अनन्तं' न विद्यते अन्तो-नाशो यस्य तत्ता, पुनः 'अनुत्तरं न विद्यते उत्तरम् - उत्कृष्टं यस्मात् तत् तथा, पुनः अनुपमं न विद्यते उपमा यस्य तत् तथा, पुनः 'सदानन्दं सदा-सर्वस्मिन् काले आनन्दो यत्र तत् तथा // 1235 // जे पंचविहायारं आयरमाणा सया पयासंति / लोयाणणुग्गहत्थं ते आयरिए नमसामि // 1236 // व्याख्या-ये ज्ञानादिपञ्चविधाचारम्, आचरन्तो लोकानामनुग्रहार्थ सदा प्रकाशयन्ति - प्रकटीकुर्वन्ति तान् आचार्यान् अहं नमस्यामि - नमस्करोमि // 1236. // देसकुलजाइरूवाइएहिं बहुगुणगणेहिँ संजुचा / जे हुँति जुगे पवरा ते आयरिए नमसामि // 1237 // व्याख्या-ये देशकुलजातिरूपादिकैर्बहुभिर्गुणानां गणैः- समूहैः संयुक्ताः-सहिताः सन्तः युगे प्रवराः- मुख्या भवन्ति, तानाचार्यान् अहं नमस्यामि // 1237 // जेम भील नगरना गुणोने जाणतो होवा छतां पण कही शकतो नथी तेम जेमना गुणोने जाणता होवा छतां पण ज्ञानीपुरुषो कही शकता नथी ते सिद्ध भगवंतो मने शिवसुख आपो॥१२३४॥ 20 जे सुखनो अंत-नाश नथी, जेनाथी उत्कृष्ट बीजुं सुख नयी; जे सुखनी उपमा पापी शकाय .. एवी नथी, जेमां सदाकाळ आनंद छे (अर्थात् संसारनां समग्र सुखनो अनंत वर्ग करीने सिद्धना एक प्रदेशना सुखनी साथे तेनी तुलना करवामां आवे तो पण तेनी बराबरी न करी शके) एवा सिद्धिसुखने पामेला सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो // 1235 // 15 . आचार्य 25. पंचविध आचारने (बानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार ) सदा आचरता एवा जेओ भव्य जनोना अनुग्रहने माटे तेनो उपदेश आपे छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1236 // . देश, कुळ, जाति अने रूपादिक बहुगुणोना समुदायथी जेओ संयुक्त छे अने जेओ पोताना युगमा श्रेष्ठ गणाय छे ते आचार्य महाराजने हुं नमस्कार करुं छु // 1237 //