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________________ 485 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। द्रव्यवत् , तथा बन्धनच्छेदात् - कर्मबन्धनच्छेदनेन एरण्डफलवत् , तथा खभावतो वापि धूमवत् , येषां ऊर्ध्वा गतिः प्रवर्तते ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1230 // ईसीपन्भाराए उवरिं खलु जोयणम्मि लोगंते / जेसि ठिई पसिद्धा ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1231 // व्याख्या-ईषत्प्राग्भारायाः- सिद्धिशिलाया उपरि खलु निश्चयेन एकस्मिन् योजने लोकान्तो- 5 ऽस्ति, तत्र येषां स्थितिः- अवस्थानं प्रसिद्धमस्ति ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1231 // जे अ अणंता अपुणब्भवा य असरीरया अणाबाहा / . दसणनाणुवउत्ता ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1232 // ... . व्याख्या-च-पुनः येऽनन्ताः, पुनरपुनर्भवाः न विद्यते पुनर्भवो येषां ते तथा, पुनरशरीरका-न विद्यते शरीरं येषां ते, तथा पुनरनावाधा न विद्यते आबाधा - पीडा येषां ते तथा, पुनदर्शनं 10 च ज्ञानं च दर्शनज्ञाने तयोरुपयुक्ता दर्शन-ज्ञानोपयुक्ताः, येषां प्रथमसमये ज्ञानोपयोगो द्वितीयसमये दर्शनोपयोगोऽस्ति, ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1232 // जेष्णंतगुणा विगुणा इगतीसगुणा अ अहव अद्वगुणा / सिद्धाणंतचउका ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1233 // व्याख्या-ये सिद्धा अनन्तगुणा - अनन्ता ज्ञानादयो येषु ते तथा, पुनर्विगुणा-विगता 15 वर्णादयो गुणा येभ्यस्ते तथा, च पुनरेकत्रिंशत् - संस्थान-वर्णादिप्रतिषेधरूपा एव गुणा येषु ते तथा, अथवाऽष्टगुणा- अष्टकर्मक्षयसमुद्भवा अष्टौ गुणा येषु ते तथा, पुनः सिद्धं-निष्पन्नम् , अनन्तचतुष्कंप्रागुक्तलक्षणं येषां ते तथा, ते सिद्धा मे सिद्धिं ददतु // 1233 // जह नगरगुणे मिच्छो जाणंतोऽवि हु कहेउमसमत्थो / .. तह जेसिँ गुणे नाणी, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं // 1234 // 20 पेठे बंधन-छेदयी अने धूमाडानी पेठे ऊर्ध्वगमन स्वभावथी जेमनी ऊर्ध्वगति थाय छे ते सिद्ध भगवानो मने शिवसुख आपो // 1230 // सिद्धशिलानी उपर एक योजन गया बाद लोकनो अंतभाग आवेलो छ / त्यां जेमनी स्थिति प्रसिद्ध छे अर्थात् त्यां जेओ सदाकाळ रहे छे ते सिद्ध भगवंत मने शिवसुख आपो॥ 1231 // जेओ अनंत छे, जे फरी जन्म लेता नथी, जेओ शरीरथी रहित छे, जेमने ( शरीर न 25 होवाथी) कोई प्रकारनी पीडा के उपद्रव नथी तथा ज्ञान अने दर्शनना उपयोगथी जेओ युक्त छे एवा ते सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो॥ 1232 // जेओ (ज्ञानादि) अनंतगुणवाळा छे, तेमज (रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि) गुणोथी रहित होवाथी जेओ निर्गुण पण छे, तथा जेओ एकत्रीश अथवा आठ गुणोवाळा छे अने जेओ अनंतचतुष्कथी युक्त छे ते सिद्ध भगवंतो मने मुक्ति आपो // 1233 // 30
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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