________________ 447 X विभाग] - नमस्कार स्वाध्याय। चिंतइ न लोगकजं, विकत्थणं कुणइ नेव संलावं / इक्को चिट्टई धम्मज्झाणे निस्संगयारत्तो // 153 // एवं तित्थयरसमं, नवहा सूरीण भासियं समए / तस्साणाए वट्टणमुन्भावणमित्थ धम्मस्स // 154 // x x सव्वोवि अरिहदेवो, सगुरु गुरू भणइ नाममित्तेण / तेसिं सुद्धसरूवं, पुण्णविहुणा न पावंति // 158 // उपाध्यायखरूपम् सम्मत्तनाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू / आयरियठाणजुग्गो, सुतं वाए उवझाओ // 186 // थिरसंघयणी जाइविसिडकुलवं जिइंदिओ भद्दो। नो हीणअंगुवंगो, नीरोगी वायणादक्खो // 187 // गुरुदत्तपरममंतो, दिक्खोवट्ठावणापइट्ठासु / दक्खो लक्खगुणेहि, संजुओ वायगो भणिओ // 188 // थिरकरणा पुण थेरो, पवित्तिवावारिएसु कजेसु / जो जत्थ सीयइ जई, संतबलो तं थिरं कुणइ // 189 // (श्री तीर्थंकर भगवंतनी जेम ) आचार्य भगवंत पण लोकनुं कार्य चिंतवता नथी ( अर्थात् जनसमुदायनी .सामान्य प्रवृत्तिओमां निरर्थक रस लेता नथी ) तेमज विकथा के संलाप ( निरर्थक वार्तालाप ) करता नथी। निःसंगपणामां तत्पर एवा आचार्य तो धर्मध्यानमां एकाकीपणे लीन रहे छे // 153 // ___ए प्रमाणे सिद्धांतमा आचार्यना नव कल्प तीर्थंकर तुल्य कह्या छे; एवा आचार्यनी आज्ञामां वर्तवं ते अहीं धर्मनी प्रभावना ( उन्नति ) छे // 154 // बधा ज लोको 'अरिहंत ते देव,' 'सुगुरु ते गुरु' (अथवा जैनमतवर्ती बधा संप्रदायना लोको अरिहंतने देव अने पोताना गुरुने सुगुरु)–एम नाममात्रथी कहे छे, पण पुण्यविहीन एवा ए जनो तेमनुं शुद्ध स्वरूप जाणी शकता नथी // 158 // उपाध्यायतुं स्वरूप सम्यक्त्व, ज्ञान अने चारित्रथी युक्त; सूत्र अर्थ अने ते उभयनी विधिने जाणनार, तेमज आचार्यपदने योग्य एवा उपाध्याय सूत्र भणे छे अने भणावे छे // 186 // स्थिर( दृढ ) संघयणवाळा; उत्तम जाति तेमज उत्तम कुम्वाळा; जितेन्द्रिय; भद्र; अंगोपांगनी विकलताथी रहित; नीरोगी; वाचना आपवामां कुशळ; गुरूए आपेल परममंत्रने धारण करनारा; 30 दीक्षा, वडीदीक्षा (उपस्थापना) अने प्रतिष्ठानां कार्योमां निपुण अने लाखो गुणोथी युक्त उपाध्याय कह्या छे // 187-188 // जो कोई साधु प्रवर्तके नियोजेला कार्योमां बलवान होवा छतां सीदाय ( अर्थात् दुर्बल 'मनवाळो बने ) तो तेने ( उपाध्याय ) स्थिर करे छे। (आ रीते साधुने पोतानां कार्योमा) स्थिर करता होवाथी ( उपाध्याय ) 'स्थविर' कहेवाय छे // 189 / / 20 25 .35