________________ [प्राकृत 10 446 संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः सूररहत्खरूपत्वम् सो भावसूरि तित्थयरतुल्लो जो जिणमयं पयासेइ / जिणमयमइक्कमंतो, सो काउरिसो न सप्पुरिसो // 147 // हिंडइ नो भिक्खाए, तित्थयरो तित्थभावसंपत्तो। तहिं जाइ न भिक्खट्ठा, पूरी वत्थासणाईणं // 148 // जं समए जावइयं पवयणसारं लहेइ तं सव्वं / अरिहमिव तहावाई सुद्धं निस्संसओ सव्वं // 149 // जह अरिहा ओसरणे, परिसाइमज्झडिओ पढमजामे / वक्खाणइ सो अण्णं, पूरी वि तहा न अन्नत्थ // 150 // जह तित्थगरस्साणा, अलंघणिजा तहा य सूरीणं / न य मंडलिए भुंजइ, तित्थयरो तहा य आयरिओ॥ 151 // सव्वेसि पूयणिजो, तित्थयरो जहा तहा य आयरिओ। परिसहवग्गे अभीओ, जिणु व्व सूरी वि धम्मकए // 152 // . आचार्य, अरिहंतस्वरूप15 जे श्री जिनेश्वर प्रभुना धर्मने प्रकाशित करे छे ते भावआचार्यने श्री तीर्थकर तुल्य कह्या छे; परंतु जे श्री जिनमतनुं उल्लंघन करे छे ते कापुरुष ( कायर पुरुष-पामर) छे, सत्पुरुष नथी / 147 // तीर्थभावने प्राप्त थयेल एवा श्री तीर्थंकर भगवंत भिक्षार्थे जता नथी तेम आचार्य पण वा, अशन आदिनी भिक्षा माटे जता नथी // 148 // 20 सिद्धान्तने विशे जेटलो ( अथवा जे काळे जेटलो सिद्धान्तनो) सार वर्ते छे तेटलो सर्व सार प्राप्त करी श्री अरिहंत भगवंतनी जेम आचार्य सर्वशुद्ध सिद्धांतना रहस्यने निःसंशयपणे यथार्थ रीते समजावे छे // 149 // समवसरणमा पर्षदाओनी मध्यमां रहेला श्रीअरिहंत भगवंत जेम प्रथम प्रहरमा व्याख्यान आपे छे तेम आचार्य (गणधर ) पण तेवी ज रीते त्यां श्रीअरिहंतनी देशना पछी व्याख्यान 25 आपे छे, पण बीजे स्थाने नहि // 150 // जेम तीर्थकरनी आज्ञा अलंघनीय छे तेम आचार्यनी आज्ञा पण अलंघनीय छ। जेम श्री तीर्थकर भगवंत मांडलीमां भोजन करता नथी तेम आचार्य भगवंत पण मांडलीमां भोजन करता नथी // 151 // जेम श्रीतीर्थकर भगवंत सर्वने पूज्य छे तेम आचार्य भगवंत पण सर्वने पूज्य छ / 30 तेमज परीषहना समूहमां धर्म माटे जेम श्रीतीर्थंकर भगवंत निर्भय छे तेम आचार्य भगवंत पण निर्भय छे // 152 //