________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 445 [32] श्रीमदहरिभद्रसूरिरचित-संबोधप्रकरणग्रन्थादाचार्यादि-स्वरूपसंदर्भः॥ सूरिखरूपम् देस-कुल-जाई रूवी, संघयणी धिइजुओ अणासंसी / अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवको // 94 // जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्थो देस-कालभावन्नू / आसण्णलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासण्णू // 95 // पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तत्थ तदुभयविहिन्नू। आहरणहेउउवणयणयणिउणो गाहणाकुसलो // 96 // ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो / गुणसयकलिओ एसो, पवयणउवएसओ सुगुरू // 97 // अट्ठविहा गणिसंपय आयाराई-चउबिहिक्किक्का / चउहा विणयपवित्ती, छत्तीसगुणा इमे गुरुणो // 98 // आचार्य- स्वरूप अनुवाद आर्य देश, उत्तम कुळ अने उत्तम जातिमां जन्म पामेला; सौन्दर्यवान् ; दृढसंघयणवाळा; 15 धृतिमान् (धैर्यवंत); निःस्पृही; हित-मित बोलनारा (विकथा न करनारा); मायारहित; स्थिरपरिपाटीवाळा (परिचित ग्रंथोने सूत्र, अर्थ अने तदुभयथी अस्खलित रीते सदा धारण करानरा ); आदेय वाक्यवाळा ( जेमनुं वचन सौने मान्य होय एवा ); जितपर्षद् (पर्षदा जीतनार अर्थात् राज्यसभादिमां पण क्षोभ न पामनारा); जितनिद्र (निद्राने जीतनार अर्थात् अप्रमत्त); मध्यस्थ (शिष्यादिने विष समान भाववाळा ); देश, काळ अने भावने जाणनारा; अत्यंत प्रतिभाशाळी 20 (शीघ्रप्राप्त बुद्धिवाळा अर्थात् परवादीना गमे ते प्रश्ननो उत्तर शीघ्रतः आपवामां समर्थ); भिन्न भिन्न देशोनी भाषाओने जाणनारा; पांच प्रकारना आचारथी युक्त; सूत्र, अर्थ अने तदुभयने जाणनारा ( उत्सर्ग अने अपवादने निपुण रीते कहेनारा); दृष्टांतो, हेतुओ, उपनयो, नयो वगैरेनी निरूपणामां निपुण; ग्राहणामां ( अर्थात् शिष्योने सूत्रादि ग्रहण कराववामां ) कुशळ; स्व-सिद्धांत अने पर-सिद्धांतमा निष्णात; गंभीर (खेदने सहन करनारा); दीप्तिमान् (बीजाओथी अपराजित-25 अधृष्य ); शिव (मोक्षना हेतु होवाथी अथवा तेओ जे प्रदेशमा रहे ते प्रदेशमा मारि वगेरे रोगो शांत थई जता होवाथी मंगळभूत ); सौम्य ( सर्व लोकोना नयन अने मनने प्रिय) अने विनयादि सेंकडो गुणोथी युक्त एवा आचार्य भगवान जिवनचनना उपदेशक होय छे / ( तात्पर्य के उपर्युक्त गुणोथी युक्त एवा आचार्य ज उपदेशने माटे योग्य होय छे / ) // 94-97 // आठ प्रकारनी गणिसंपदा छे। ते दरेकना आचारादि चार चार प्रकार छे। विनयप्रवृत्ति 30 चार प्रकारे छे। आ आचार्यना 36 गुणो छ। ( 32 प्रकारनी गणिसंपदा + 4 प्रकारनी प्रवृत्ति = 36 गुण* ) // 98 // * 1 आचार 2 श्रुत 3 शरीर 4 वचन 5 वाचना 6 मति 7 प्रयोगमति अने 8 संग्रहपरिज्ञा–एम आठ प्रकारनी गणिसंपदा छे. आ आठ गणिसंपदाओना आचार आदि 32 मेदो छे. विशेष जाणवा माटे जुओ:श्रीजिनभद्र क्षमाश्रमणगणिविरचित 'जितकल्पसूत्र'नु खोपज्ञभाष्य, गाथा 160 थी 206. विनय प्रतिपत्ति 4 प्रकारे छे:-१ आचारविनय 2 श्रुतविनय 3 विक्षेपणविनय अने 4 दोषनिर्घातविनय. विशेष माटे जुओ:-'जितकल्पसूत्र, खोपज्ञभाष्य', गाथा 213 थी 240. ऊपरना 36 स्थानोनुं वर्णन जितकल्पभाष्यमां सुंदर रीते आपवामां आव्युं छे.।।