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________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। सर्वमन्त्ररत्नानामुत्पत्त्याकरस्य प्रथमस्य कल्पितपदार्थकरणैककल्पद्रुमस्य विषविषधरशाकिनीडाकिनीयाकिन्यादिनिग्रहनिरवग्रहस्वभावस्य सकलजगद्वशीकरणाकृष्टयाद्यव्यभिचारिप्रौढप्रभावस्य चतुर्दशपूर्वाणां सारभूतस्य पञ्चपरमेष्टिनमस्कारस्य व्याख्यायां प्रस्तुतायां तथाविधप्रयोजनोद्देशेन यन्त्रपद्मादिविरचनायां प्रकृतायां यदा द्वात्रिंशद्दलं पद्ममालिख्यते प्रतिदलं च श्लोकसम्बन्ध्येकैकमक्षरं निवेश्यते तदा नाभौ त्रयस्त्रिंशत्तममक्षरमवश्यं निवेश्यं अन्यथा नाभिभागः शून्य एव स्यात् , मात्रयापि च हीने यन्त्रपद्मादौ / निवेश्यमाने महामन्त्रे तत्साध्यविशिष्टाभीष्टपरिपूर्णफलानवाप्तेरिति 'हवइ 'इत्ययमेव पाठो युक्तः। तथा चैतत्-संवादिपूर्वाचार्यकृतप्रकरणवचनम् __ अट्ठसट्ठि अक्खरपरिमाणु, जिणसासणि नवकार पहाणू / अंतिमचूला तिन्नि पसिद्धा, सोलस-अट्ठ-नवक्खररिद्धा / इत्यादि, ततो नात्राभिमाननर्त्तनं केनापि कृतमिति विमर्शनीयं निमत्सरैरिति / तथा प्रथमं पदेषु 10 ज्ञातेषु यस्यां संपदि यावन्ति पदानि भवन्ति तस्यां तावन्ति सुखेनैव ज्ञायन्त इति // __(पृ० 15-16) सर्व मंत्ररत्नोनी उत्पत्तिनी खाणस्वरूप; श्रेष्ठ; इच्छित पदार्थोने सिद्ध करवामां अद्वितीय कल्पद्रुम समान; विष, विषधर-सर्प, शाकिनी, डाकिनी, याकिनी आदिनो निग्रह करवामां स्वतंत्र स्वभाववाळा; समग्र जगतनुं वशीकरण, आकर्षण वगेरे करवामां अव्यभिचारी प्रौढ प्रभाववाळा; चौदपूर्वोना सारभूत—एवा 15 पंचपरमेष्टीनमस्कारनी प्रस्तुत व्याख्यामां एवा प्रकारनो ('हवइ' पाठ भणवानो) उद्देश छे / कारणके यंत्रनां पद्मो वगेरेनी रचना समये बत्रीश दलनु पद्म बनाववामां आवे छे तेमां प्रत्येक दल-पत्रमा श्लोक संबंधी एकेक अक्षर मूकवामां आवे छे त्यारे नाभिमां-बच्चे तेत्रीशमो अक्षर अवश्य मूकवो जोइए, जो एम करवामां न आवे तो वचलो भाग खाली रहे / यंत्रपद्मादिमां महामंत्रनी एक पण मात्रा ओछी मूकवामां आवे तो तेना साध्यरूप विशिष्ट जे संकल्प तेना पूरेपूरा फळनी प्राप्ति थाय नहीं। आथी 'हवइ' ए 20 ..प्रकारनो ज पाठ उचित छे। वळी, पूर्वाचार्ये रचेला प्रकरणमां आ संबंधमां जणाव्यु छ के-- अंडसठ अक्षरोनुं जेनुं परिमाण छे एवो नवकार जिनशासनमा प्रधान मुख्य छ। छेल्ली त्रण चूलिकाओ प्रसिद्ध छे जे अनुक्रमे सोळ, आठ अने नव अक्षरोथी समृद्ध छ। आ प्रकारे कहेलं छे। आथी आ वचन कोइए गर्वथी नाची ऊठतां कहेलु नथी एम मत्सरअभिमान रहित एवा विद्वानोए विचार जोइए। वळी, प्रथम पदो जाणतां, जे संपदामा जेटलां पदो थाय 25 छे ते संपदामां तेटलां पदो सुखपूर्वक जाणी शकाय छे / परिचय श्रीनेमिचंद्रसूरिए 'प्रवचनसारोद्धार' नामे प्रकरणग्रंथ बारमी शताब्दीमां रच्यो छे, जेमां प्रकरण साहित्यना विशिष्ट पदार्थोनो संग्रह को छे। तेना उपर चौदमा शतकमां थयेला श्रीसिद्धसेनसूरिए मोटी टीका रची छे। 30 ए ग्रंथमाथी नमस्कार संबंधी संदर्भ टीका सहित तारवीने अनुवाद साथे अहीं प्रगट कर्यो छे।। आ संदर्भमां नमस्कारनी संपदाओ अने 'होइ' 'हवइ' पाठनी मीमांसा करी निर्णय आप्यो छे __ अने तेत्रीस अक्षरनी चूलिकाना ध्याननी सुंदर प्रक्रिया बतावी छ / आ नेमिचंद्रसरिए बीजा अनेक ग्रंथोनी रचना करी छ।
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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