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________________ 180 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत णमो उवज्झायाणं चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः / ___ चोदसपुव्वमहोयहिमहिगम्म सिवत्थिओ सिवत्थीणं / सीलंधराण वत्ता, होइ मुणीसो उवज्झायो॥ 32 // एतेभ्य उपाध्यायेभ्यो नम इति यावत् // 'णमो लोए सव्वसाहूणं' अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः / पञ्चमहाव्रतधरात्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधवः / सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरुवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परमपयविमग्गया साहू // 33 // 10 सकलकर्मभूमीपूत्पन्नेभ्यस्त्रिकालगोचरेभ्यः साधुभ्यो नमः // सर्वनमस्कारेष्वत्रतन सर्व-लोक' शब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचराहदादिदेवताप्रणमनार्थम् / 'णमो उवज्झायाणं' उपाध्याय परमेष्ठीने नमस्कार थाओ। चौद विद्यास्थाननुं व्याख्यान करनार 'उपाध्याय' होय छे / अथवा तत्कालीन परमागमनुं व्याख्यान करनार उपाध्याय होय छे / तेओ संग्रह, 15 अनुग्रह वगेरे गुणोने छोडीने पहेलां कहेवामां आवेला आचार्यना समस्त गुणोथी युक्त होय छे / जे साधु चौदपूर्वरूपी समुद्रमा प्रवेश करीने अर्थात् परमागमनो अभ्यास करीने मोक्षमार्गमां स्थित छे तथा मोक्षना इच्छुक शीलंधरो अर्थात् मुनिओने उपदेश दे छे ए मुनीश्वरोने उपाध्याय परमेष्ठी कहे छ / 32 / एवा उपाध्यायोने नमस्कार थाओ। 20 णमो लोए सव्वसाहूणं' लोक अर्थात् अढीद्वीप, तेमां रहेला सर्व साधुओने नमस्कार थाओ। जे अनंत ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्माना स्वरूपनी साधना करे छे तेने 'साधु' कहे छे / जे पांच महाव्रतोने धारण करे छे, त्रण गुप्तिओथी सुरक्षित छे, अढार हजार शीलना भेदोने धारण करे छे अने चोराशी लाख उत्तर गुणोनुं पालन करे छे ते साधु परमेष्ठी छे।। ___ सिंह समान पराक्रमी, हाथी समान स्वाभिमानी अथवा उन्नत, बळद समान भद्रप्रकृति, 25 मृग समान सरळ, पशु समान निरीह गोचरीवृत्ति करनारा, पवन समान निःसंग अथवा बधी जगोए रोकाया विना विचरनारा, सूर्यसमान तेजस्वी अथवा सकल तत्त्वोना प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर समान गंभीर, मंदराचल अर्थात् सुमेरु पर्वत समान परीषह अने उपसर्गो आववा छतां अकंप अने अडोल रहेनारा, चंद्रमा समान शांतिदायक, मणि समान प्रभापुंज युक्त, पृथ्वी समान बधा प्रकारनी बाधाओने सहन करनार, उरग अर्थात् सर्प समान बीजाए बनावेला अनि30 यत आश्रय-वसतिका आदिमां निवास करनार, अंबर अर्थात् आकाश समान निरालंबी अथवा निर्लेप अने सदाकाळ परमपद अर्थात् मोक्षतुं अन्वेषण करनारा साधु होय छे / 33 / एवा संपूर्ण कर्मभूमिओमां उत्पन्न थयेला त्रिकालवर्ती साधुओने नमस्कार थाओ। पांच परमेष्टीओने नमस्कार करवामां, आ नमोकारमंत्रमा जे 'सर्व' अने 'लोक' पदो छे
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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