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________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 181 युक्तः प्राप्तात्मस्वरूपाणामहतां सिद्धानां च नमस्कारः, नाचार्यादीनामप्राप्तात्मस्वरूपत्वतस्तेषां देवत्वाभावादिति न, देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेद भिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः, अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः / तत आचार्यादयोऽपि देवाः रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् / नाचार्यादिस्थितरत्नानां सिद्धस्थरत्नेभ्यो भेदो रत्नानामाचार्यादिस्थितानामभावापत्तेः / न कारण-कार्यत्वाद् भेदः सत्स्वेवाचार्यादिस्थरत्नावयवेष्वन्यस्य तिरोहितस्य रत्नाभोगस्य स्वावरणविगमत आविर्भावो- 5 पलम्भात् / न परोक्षापरोक्षकृतो भेदो वस्तुपरिच्छित्तिं प्रत्येकत्वात् / नैकस्य ज्ञानस्यावस्थाभेदतो ते अंतदीपक छे, आथी संपूर्ण क्षेत्रमा रहेनारा त्रिकाळवर्ती अरिहंत वगेरे देवताओने नमस्कार करवा माटे, ते प्रत्येक नमस्कारात्मक पदनी साथे जोडी देवां जोईए। ___ शंका जेमणे आत्मस्वरूपने प्राप्त करी लीधुं छे एवा अरिहंत अने सिद्ध परमेष्ठीने नमस्कार करवो योग्य छे, परंतु आचार्य आदि त्रण परमेष्ठीओए आत्मस्वरूपने प्राप्त कयु नथी, एटला 10 माटे तेमनामां देवपणुं आवी शकतुं नथी, आथी एमने नमस्कार करवो योग्य नथी। समाधानएम नथी। केमके, पोतपोताना भेदोथी अनंत भेदरूप रत्नत्रय ज देव छ। आथी रत्नत्रयथी युक्त जीव पण देव छे, अन्यथा (जो रत्नत्रयनी अपेक्षाए देवपणुं मानवामां न आवे तो) संपूर्ण जीवोने देवपणुं प्राप्त थवानी आपत्ति आवशे; एटला माटे ए सिद्ध थयुं के, आचार्य वगेरे पण रत्नत्रयना यथायोग्य धारक होवाथी देव छ। केमके, अरिहंत आदिथी आचार्य 15 आदिमां रत्नत्रयना सद्भावनी अपेक्षाए कोई अंतर नथी / अर्थात् जेम अरिहंत अने सिद्धोनां रत्नत्रय जोवाय छे एज रीते आचार्य वगेरेमां पण रत्नत्रयनो सद्भाव जोवाय छे, आथी आंशिक रत्नत्रयनी अपेक्षाए आमां पण देवपणुं सिद्धि थाय छे। ____ आचार्य आदि परमेष्ठीओमां स्थित त्रण रत्नोनो, सिद्ध परमेष्ठीमां स्थित रत्नोनी साथे भेद पण नथी / जो बनेना रत्नत्रयमां सर्वथा भेद मानी लेवामां आवे तो आचार्य आदिमां स्थित रत्नोना 20 अभावमो प्रसंग आवशे; अर्थात् ज्यारे आचार्य वगेरेनां रत्नत्रय सिद्ध परमात्माना रत्नत्रयथी भिन्न सिद्ध थशे तो आचार्य वगेरेनां रत्न ज नहीं कहेवाय / आचार्य आदि अने सिद्ध परमेष्ठीनां सम्यग्दर्शन वगेरे रत्नोमां कारण-कार्य भेदथी पण भेद मानी शकाय एम नथी। केमके, आचार्य आदिमां स्थित रत्नोना अवयवो रहेवा छतांये तिरोहित अर्थात् कर्मपटलोना कारणे पर्यायरूपे अप्रगट, बीजु-रत्नावयवोनो पोताना आवरण कर्मोनो 25 अभाव थई जवाथी अविर्भाव थतो जोवाय छे; अर्थात् एम जेम जेम कर्मपटलोनो अभाव थई जाय छे तेम तेम अप्रगट रत्नोना बाकीना अवयवो पोतानी मेळे ज प्रगट थई जाय छे, आथी तेमां कार्य-कारणपणुं पण बनी शकतुं नथी। आ प्रकारे आचार्य आदिना अने सिद्धोना रत्नोमां परोक्ष अने प्रत्यक्षजन्य भेद पण मानी शकातो नथी। केमके, वस्तुना ज्ञानसामान्यनी अपेक्षाए बने एक छे। केवल एक ज्ञानना अवस्थाभेदथी भेद मानी शकातो नथी। जो ज्ञानमां उपाधिकृत अवस्थाभेदथी 30 भेद मानवामां आवे तो निर्मळ अने मलिन दशाने प्राप्त दर्पणमां पण भेद मानवो पडशे। आ प्रकारे आचार्य वगेरेना अने सिद्धोना रत्नोमां अवयव अने अवयविजन्य भेद नथी / केमके, अवयवो अवयवीथी सर्वथा भिन्न रहेता नथी /
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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