________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 179 10 माणुससंठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा / सव्विदियाण विसयं जमेगदेसे विजाणंति // 28 // 'णमो आइरियाणं' पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः / आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसमय-परसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहि क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः / पवयणजलहिजलोयरण्हायामलबुद्धिसुद्धछावासो। मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वजो // 29 // देस-कुल-जाइसुद्धो, सोमंगो संगभंगउम्मुक्को / गयण व्व णिरुवलेवो, आइरियो एरिसो होई // 30 // संगह-णिग्गहकुसलो, सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती / सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आइरियो // 31 // एवंविधेभ्य आचार्येभ्यो नम इति यावत् // युक्त छे, अनवद्य अर्थात् निर्दोष छे, कृतकृत्य छे, जमणे सर्वांगे अथवा समस्त पर्यायो सहित संपूर्ण पदार्थोने जाणी लीधा छे, जे पुरुषाकार होवा छतांये गुणोथी पुरुषोनी समान नथी / केमके, पुरुष संपूर्ण इंद्रियोना विषयोने भिन्न भिन्न देशमा जाणे छे परंतु जे प्रत्येक प्रदेशमां बधा विषयोने 15 जाणे छे ते सिद्ध छ / 26,27,28 / णमो आइरियाणं' आचार्य परमेष्ठीने नमस्कार थाओ / जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप अने वीर्य आ पांच आचारोनुं स्वयं आचरण करे छे अने बीजा साधुओ पासे आचरण करावे छे तेमने 'आचार्य' कहे छे / जे चौद विद्यास्थानोमां पारंगत होय, अगियार अंगने धारण करता होय, अथवा आचारांग मात्रना धारण करनारा होय, अथवा तत्कालीन स्वसमय अने परसमयमां पारंगत 20 होय, मेरु समान निश्चल होय, पृथ्वी समान सहनशील होय, जेमणे समुद्र समान मल अर्थात दोषोने बहार फेंकी दीधा होय अने जे सात प्रकारना भयथी रहित होय तेमने 'आचार्य' कहे छ / प्रवचनरूपी समुद्रना जलनी मध्यमां स्नान करवाथी अर्थात् परमागमना परिपूर्ण अभ्यास अने अनुभवथी जेमनी बुद्धि निर्मळ थई गई छे, जे निर्दोष रीतिए छ आवश्यकोर्नु पालन करे छे, जे मेरुपर्वतनी जेम निष्कंप छे, जे शूरवीर छे, जे सिंहनी समान निर्भीक छ, जे वर्य अर्थात् 25 श्रेष्ठ छे / देश, कुळ अने जातिथी शुद्ध छे, सौम्य मूर्ति छे, अंतरंग अने बहिरंग परिग्रहथी रहित छे, आकाशनी समान निर्लेप छे एवा आचार्य परमेष्ठी होय छे / जे संघना संग्रह अर्थात् दीक्षा अने निग्रह अर्थात् शिक्षा अथवा प्रायश्चित्त देवामां कुशल छे, जे सूत्र अर्थात् परमागमना अर्थमां विशारद छे, जेनी कीर्ति बधी जगाए फलायेली छे, जे सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात निषेध अने साधन अर्थात् व्रतोनी रक्षा करनारी क्रियाओमां निरंतर उद्युक्त छे तेमने आचार्य 30 परमेष्ठी समजवा जोईए / 29, 30, 31 / . एवा आचार्योने नमस्कार थाओ।