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________________ 178 षट्खण्डागमस्य संदर्भः। [प्राकृत प्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः / तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जाति-जरा-मरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्वात् तेषामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतभेद इति चेन्न, आयुष्य-वेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् / नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसङ्गात् / सुखमपि न गुणस्तत एव / न 5 वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् / किन्तु सलेप-निर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् / तेभ्यः सिद्धेभ्यो नम इति यावत् / / णिहयविविहट्ठकम्मा तिहुयणसिरसेहरा विहुवदुक्खा। सुहसायरमज्झगया णिरंजणा णिच अट्ठगुणा // 26 // अणवज्जा कयकज्जा सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा। वज्जसिलत्थब्भग्गय पडिमं वाभेजसंठाणा // 27 // शंकाकर्मोनुं कार्य तो चोराशी लाख योनिरूप जन्म, जरा अने मरणथी युक्त संसार छ / ते अघाती कर्मो रहेवा छतां अरिहंत परमेष्ठीमां ए जोवातां नथी, तथा अघाती कर्मो आत्माना अनुजीवी गुणोने घात करवामां असमर्थ पण छे / एटला माटे अरिहंत अने सिद्ध परमेष्ठीमां गुणकृत भेद मानवो ठीक नथी। 15 समाधान-एवं नथी / केमके, जीवना ऊर्ध्वगमन स्वभावतुं प्रतिबंधक आयुकर्मनो उदय अने सुख गुणतुं प्रतिबंधक वेदनीय कर्मनो उदय अरिहंतोमा जोवाय छे। एटला माटे अरिहंत अने सिद्धमा गुणकृत भेद मानवो ज जोईए / शंका-ऊर्ध्वगमन ए आत्मानो गुण नथी / केमके, तेने आत्मानो गुण मानी लेतां तेना अभावमां आत्मानो पण अभाव मानवो पडशे / आ कारणे सुख पण आत्मानो गुण नथी / बीजें 20 वेदनीय कर्मनो उदय केवलीमां दुःखने पण उत्पन्न करतो नथी / अन्यथा, अर्थात् वेदनीय कर्मने दुःखोत्पादक मानी लेतां केवली भगवान- केवलीपणुं ज बनी शकतुं नथी। समाधान—जो एम होय तो हो, अर्थात् अरिहंत अने सिद्धोमां गुणकृत भेद सिद्ध थतो नथी तो भले, केमके ए न्यायसंगत छ / आम छतां सलेपत्व अने निर्लेपत्वनी अपेक्षाए अने देशभेदनी अपेक्षाए ए बंने परमेष्ठीओमां भेद सिद्ध थाय छ / 28 विशेषार्थ-अरिहंत अने सिद्धोमां अनुजीवी गुणोनी अपेक्षाए तो कोई भेद नथी / आम छतां प्रतिजीवी गुणोनी अपेक्षाए मानी शकाय, परंतु प्रतिजीवी गुणो आत्माना भावस्वरूप धर्मो न होवाथी तत्कृत भेदनी कोई मुख्यता नथी / एटला माटे सलेपत्व अने निर्लेपत्वनी अपेक्षाए अथवा देशभेदनी अपेक्षाए ज आ बनेमां भेद समजवो जोईए। ऊपर जे अर्ध्वगमन अने सुख आत्माना गुणो नथी ए प्रकारे कथन करेलुं छे त्यांये आ बंने गुणोनुं तात्पर्य प्रतिजीवी गुणोथी छे / ऊर्ध्व30गमनथी अवगाहनत्व अने सुखथी अव्याबाध गुणने ग्रहण करवा जोईए / केमके, ग्रंथांतरोमां आयु अने वेदनीयना अभावथी थनारा जे गुणोने अवगाहन अने अव्याबाध कह्या छे तेने ज अहीं ऊर्ध्वगमन अने सुखना नामथी प्रतिपादन करेला छे / एवा सिद्धोने नमस्कार थाओ। जेमणे विविध भेदरूप आठ कर्मोनो नाश कर्यो छे, जे त्रण लोकना मस्तकना शेखर समान छे, दुःखोथी रहित छे, सुखरूपी सागरमां निमग्न छे, निरंजन छे, नित्य छे, आठ गुणोथी
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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