________________ नमस्कार स्वाध्याय संस्कृत अने प्राकृत साहित्यना एकनिष्ठ उपासक परम पूज्य पंन्यास श्री धुरंधरविजयजी गणिवरे 'उवहाणविहिथुत्तं', 'कुवलयमाला', 'सिरिगणिविज्जाथुत्तं' 'पण्हगब्भं पंचपरमिहिथवणं' वगेरे विषयो- सुंदर भाषांतर करी आपी तेमज बीजा अनेक विषयोनी बाबतमां मूळपाठ, अनुवाद आदि अंगे उपयोगी समज मेळववानी आवश्यकता ऊभी थई त्यारे पोताना किंमती समयनो भोग आपीने पण तेओश्रीए अमने अति महत्त्वनी सलाह-सहाय आपी छ। चातुर्मास दरम्यान संस्थाना कार्यालय पासे आवेली श्री करमचंद जैन पौषधशाळामां तेओश्रीनी स्थिरता हती अने ते कारणे अमारा संशोधनकार्यने सविशेष प्रवेग तेमज प्रोत्साहन मळ्यां छे। ज्यारे ज्यारे गूंच ऊभी थाय त्यारे प. पू. पंन्यासजी महाराज पासे तेना उकेल माटे दोडी जईए अने विना विलंबे अमारूं कार्य आगळ चाले। पुस्तक पूरु थया बाद तेओश्रीए ज ग्रंथनी शरूआतमां मूकी शकाय एवा पांच श्लोको शोधी आप्या हता। तेओश्रीए सूचवेल आ श्लोको 'मङ्गलपञ्चकम् ' ना शीर्षकथी आ निवेदननी शरूआतमां आपेल छे। ते श्लोको 'जंबुचरियं' (सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन; बम्बई 7) ना पृष्ठ 199-200 माथी लेवामां आव्या छ। आ श्लोको अर्थनी दृष्टिए जेवा उत्तम छे तेवा ज माधुर्यसभर, लालित्यपूर्ण अने गेयतायुक्त छ। आ रीते तेमना तरफथी अमने घणो लाभ मळ्यो छे। पू. पंन्यासजीनी आवी सदभावना माटे अमे तेओश्रीनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानीए छीए। आलुं पुस्तक तैयार थया पछी तेनुं समग्र रीते विहंगावलोकन करी तेने संपूर्ण शुद्ध स्वरूप आपवानुं भगीरथ कार्य हजु बाकी हतुं / आ कार्य माटे संस्कृत अने प्राकृतना गहन अभ्यासनी, व्याकरणना सचोट ज्ञाननी अने सूक्ष्म निरीक्षणशक्तिनी अनिवार्यता हती। आवो त्रिवेणीसंगम ज्यां थयो होय तेवी समर्थ व्यक्तिने शोधवानुं अने शोध्या पछी आ कार्यनी उपयोगिता दर्शावी तीव्र धगश जागृत करवान कार्य पण सरळ न हतुं; परंतु संस्थाना माननीय प्रमुख शेठश्री अमृतलालभाईना सतत प्रयासोने कारणे सुयोग्य व्यक्तिनो संयोग थतां वार न लागी। तेओश्री जाते ज सिद्धांतमहोदधि परम पूज्य आचार्य श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजसाहेब पासे गया अने 'नमस्कार स्वाध्याय 'ना शुद्धिकार्य तेमज संशोधनकार्य अर्थे एक शिष्यरत्नने आपवा खास विज्ञप्ति करी। पू. आचार्यश्रीए संस्थानी संशोधन प्रवृत्तिओनी अनुमोदना करी अने ए कार्यमा अत्यंत सहायक बनी शके ते माटे विद्वदूशिरोमणि प. पू. पं. श्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्यरत्न, संस्कृत-प्राकृतना एकनिष्ठ उपासक पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीनी भलामण करी। प. पू. आचार्यश्रीनी आज्ञाने विनम्रभावे अनुमोदता पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए अमारं कार्य सहर्ष आवकायु अने तेने जलदी पार पाडवा माटे कठिन साधना आदरी। दररोज सात-आठ कलाक सतत परिश्रम लई 'नमस्कार स्वाध्याय'र्नु अथ थी इति सुधी तीक्ष्ण बुद्धिपूर्वक अवलोकन कयु अने एकेएक पंक्ति ध्यानपूर्वक वांची जई शुद्धिपत्रक तैयार कयु। मूळपाठ उपरांत खास करीने भाषांतर अंगे तेओश्रीए महत्त्वनी शुद्धिओनो निर्देश को अने - घणा उपयोगी-फेरफारो सूचव्या। केटलांक स्तोत्रोनो अनुवाद फरी करवानी पण जरूर जणाई अने ते अनुसार 'अर्हन्नमस्कारावलिका' 'सिद्धनमस्कारावलिका', 'अरिहाणाइथुत्तं', 'नमुक्काररहस्सथवणं', 'भत्तपरिन्ना', 'संबोधप्रकरण', 'णाणसारसंदब्भो', 'चउसरणपयन्नासंदब्भो' वगेरेनो अनुवाद नवेसरथी करवानुं सूचन कर्यु। आ सूचननो अमे सादर स्वीकार को अने ते बधां स्तोत्रोना पुनः अनुवाद माटे तेमने ज नम्र विज्ञप्ति करी। अमारी विनंतीने मान आपी अति श्रम अने समयना भोगे पार पडे एवा ए कार्यने पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए अति सफळतापूर्वक पूर्ण कयु अने ए रीते आ ग्रंथ नवु स्वरूप पाग्यो। लगभग बे तृतीयांश जेटला फर्मा बदल्या छतां थोडाक फर्माओमां केटलीक अशुद्धिओ रही जती हती; तेथी तेनुं एक शुद्धिपत्रक तैयार करी ग्रंथने अंते रजू कयु छे / शुद्धिकरणना आ कार्यमा अर्थव्यय थवा उपरांत समयव्यय पण विशेष थयो अने परिणामे ग्रंथप्रकाशन घणुं लंबायु; तेम छतां ए बधाने अंते समाजने जे महामूली साहित्यमूडी प्राप्त थई छे तेनो इनकार थई शके एम नथी। पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीए करेला श्रमने लीधे समाजने एक अति शुद्ध, समृद्ध तेमज उपयोगी ग्रंथ प्राप्त थयो छे अने आवी चीवटपूर्वकनी निःस्वार्थ महेनत बदल तेओश्रीनो जेटलो उपकार मानीए एटलो ओछो छ। पू. मुनिश्री तत्त्वानंदविजयजीना निकट परिचय माटे सिद्धांतमहोदधि प. पू. आचार्य श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब, प. पू. पं. श्री भद्रं विजयजी गणिवर्य तथा प. पू. पं. श्री भानुविजयजी गणिवर्य महत्त्वना निमित्तरूप बनेल छे अने आ परमार्थ .. बदल तेओश्री प्रति अमारो नम्र पूज्यभाव व्यक्त करी हर्षोर्मि अनुभवीए छीए।