________________ 140 णमोकारणिज्जुत्ती। [प्राकृत जो निच्चसिद्धजत्तो लद्धवरो जो व तुंडियाइ व्व / सो किर जत्तासिद्धोऽमिप्पाओ बुद्धिपजाओ // 50 // 936 // विउला विमला सुहुमा जस्स मई जो चउबिहाए वा / बुद्धीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो इमा सा य // 51 // 937 // उप्पत्तिओं वेणइओं कम्मियों पारिणामिओँ / बुद्धी चउव्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भए // 52 // 938 // पुव्वमदिट्ठमस्सुअमवेइअ तक्खणविसुद्धगहिअत्था / अव्वायफलजोगिणि बुद्धी उप्पत्तिआ नाम // 53 // 939 // वि०-'आगमसिद्ध' पुरुष महा अतिशयवाळा होय छे / ते असंख्य भवोनी वात कही शके छे। 10 जे पुरुष पुष्कळ पैसावाळो छे अगर पैसामां परायण रहे छे ते मम्मण श्रेष्ठीनी माफक 'अर्थसिद्ध' कहेवाय छे / (यात्रासिद्ध अने अभिप्रायसिद्ध विशे कहे छे-) 49, (935) / श०-जे सदा (जळमार्ग अथवा स्थळमार्गनी) यात्राने (शंका राख्या विना) सिद्ध करे छे अगर तुंडिक( वणिक )नी माफक जेणे वरदान प्राप्त कयुं छे ते 'यात्रासिद्ध' कहेवाय छ। अभिप्राय एटले बुद्धि / जेनी बुद्धि विस्तारवाळी (एटले एक पद जाणवा मात्रथी अनेक पदोनुं ज्ञान 15 मेळवी ले ) विमळ ( एटले संशय, विपर्यास अने अनध्यवसायथी रहित ) तेमज सूक्ष्म होय अगर (औत्पातिकी वगेरे) चार प्रकारनी बुद्धिथी जे संपन्न होय ते 'बुद्धिसिद्ध' अगर 'अभिप्रायसिद्ध' जाणवो / ते चार प्रकारनी बुद्धि आ प्रमाणे छे- / 50-51, (936-937) श०-१ औत्पातिकी, 2 वैनयिकी, 3 कर्मजा अने 4 पारिणामिकी-आ चार प्रकारनी बुद्धि कहेली छे / पांचमो प्रकार जणातो नथी / (52) 20- वि०-(१) स्वभावथी ज जेनी उत्पत्ति थती होय अने जेमां बीजां शास्त्रो तेमज कर्मना अभ्यासनी अपेक्षा नथी ते 'औत्पातिकी बुद्धि' (हाजरजवाबी) कहेवाय छ / (2) गुरुनी सेवाशुश्रूषा ए ज जेनुं मुख्य कारण छे ते 'वैनयिकी बुद्धि' कहेवाय छ / (3) आचार्य एटले शिक्षक / तेमना विना ज जे कार्य थाय ते 'कर्म' कहेवाय, अने शिक्षकपूर्वक जे कार्य थाय ते 'शिल्प' कहेवाय / अथवा कोई समये जे कार्य कराय ते 'कर्म' 25 कहेवाय अने नित्य जे कार्य करवामां आवे ते 'शिल्प' कहेवाय-आमां कर्म करवाथी उत्पन्न थती जे बुद्धि ते 'कर्मजा बुद्धि' कहेवाय छे / (4) लांबा समयना पूर्वापरना अवलोकनथी-अनुभवथी उत्पन्न थती जे बुद्धि तेने 'पारिणामिकी बुद्धि' कहे छ। 52, (938) (औत्पातिकी बुद्धिनुं लक्षण जणावे छे-) 30 श०—पूर्वे जोयेलुं न होय, सांभळेलुं न होय अने अनुभवेलुं न होय छतां ते ज क्षणे विशुद्ध अर्थने ग्रहण करनारी अने अबाधित फळना योगवाळी बुद्धिने 'औत्पातिकी बुद्धि' कहे छे। (53)