________________ 10 उवहाणविहिथुत्तं। [प्राकृत एवं कयउवहाणो भवंतरे सुलभबोहिओ होजा / एयज्झवसाणो वि हु गोयम ! आराहगो भणिओ // 15 // जो उ अकाऊणमिमं गोयम ! गिहिज भत्तिमंतो वि / सो मणुओ दट्टव्वो अगिण्हमाणेण सारिच्छो // 16 // आसायइ तित्थयरं तव्वयणं संघ-गुरुजणं चेव / आसायणबहुलो सो गोयम! संसारमणुगामी // 17 // पढमं चिय कन्नाहेडएण जं पंचमंगलमहीयं / तस्स वि उवहाणपरस्स सुलहिया बोही निहिट्ठा // 18 // इय उवहाणपहाणं निउणं सव्वं पि वंदणविहाणं / जिणपूयापुव्वं चिय पढिज सुयभणियनीईए // 19 // तं सर-वंजण-मत्ता-बिंदु-परिच्छेयठाणपरिसुद्धं / पढिऊणं चियवंदणसुत्तं अत्थं वियाणिज्जा // 20 // तत्थ वि य जत्थे (जत्थ) य सिया संदेहो सुत्त-अत्थविसयम्मि / तं बहुसो वीमंसिय सयलं निस्संकियं कुणसु // 21 // 15 आ प्रकारे जेणे उपधान काँ छे ते जीव भवांतरमा सुलभबोधि थाय छे / हे गौतम! आ ( उपधान )ना अध्यवसायवाळो जीव आराधक कहेवाय छे // 15 // हे गौतम ! आ उपधान कर्या विना जे भक्तिवाळो मनुष्य आ नवकारने ग्रहण करे ते नवकारने नहि ग्रहण करवावाळा मनुष्यना जेवो छ एम जाणवू / ( अर्थात् नमस्कारनी वाचना माटे उपधानतप आवश्यक अंग तरीके कहेलुं छे / ) // 16 // 20 ए रीते (उपधान कर्या विना ज नवकार ग्रहण ) करनार मानवी श्रीतीर्थंकरदेवनी, तेमना वचननी, संघ अने गुरुनी अशातना करे छे / हे गौतम! अनेक आशात्तनावाळो ते संसारमा परिभ्रमण करे छे // 17 // _पहेली ज वार जेणे पंचमंगल कर्ण द्वारा सांभळ्युं छे ते पण जो उपधान करे तो तेने बोधिबीज-सम्यक्त्व सुलभ थाय छे एम का छे // 18 // 25 आ प्रकारे जिनपूजापूर्वक ज श्रुतमां बतावेली विधिथी उपधानप्रधान समग्र वंदनविधान निपुणताथी भणदुं जोईए // 19 // ते चैत्यवंदनसूत्रने स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पदच्छेद अने विश्रामस्थान वडे परिशुद्ध भणीने तेनो अर्थ जाणवो जोईए (अथवा-स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पदच्छेद अने विश्रामस्थान वडे परिशुद्ध एवा ते चैत्यवंदनसूत्रने भणीने तेनो अर्थ जाणवो जोईए / ) // 20 // 30 ते सूत्र अने अर्थना विषयमा ज्यां क्यांय संदेह थाय ते स्थळे खूब विचार करीने बधुं शंकारहित करे // 21 //