________________ [प्राकृत भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं // अरहंति वंदणनमंसणाणि अरहंति पूयसकार। सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुच्चंति // " अतस्तेभ्यः। इह च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् / अविद्यमानं वा रहः- एकान्तरूपो देशः अन्तश्च-मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरः, 5 अतस्तेभ्योऽरहोऽन्तीः / अथवा अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च विनाशो ज़राद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ताः, अतस्तेभ्यः / अथवा 'अरहंताणं' ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात् , अथवा अरहयद्भयः-प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं खं स्वभावमत्यजन्य इत्यर्थः। "वंदन अने नमस्कारने योग्य छे, पूजा अने सत्कारने योग्य छ, तथा सिद्धिगमनने योग्य 10छे तेथी (जिनेश्वर भगवंतो) अरहंत कहेवाय छे / " आवा अरहंत भगवतोने नमस्कार हो। .. - 'अरहंताणं' मा प्राकृतभाषानी शैलीना नियम मुजब षष्ठी विभक्तिनो प्रयोग करेलो छे, पण तेनो अर्थ चतुर्थी विभक्तिनो लेवानो छे (कारणके नमः शब्दना योगमां चतुर्थी विभक्ति आवे छे / ) * अथवा अहीं 'अरहताणं' नो 'अरहोन्तभ्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ / 'रहः' एटले एकान्तरूप गुप्त प्रदेश अने 'अंतर' एटले पर्वतनी गुफा वगेरेनो मध्यभाग / भगवान सर्वज्ञ होवाने 15 लीधे जगतनी सर्व वस्तुओ पैकी कोईपण वस्तु एमनाथी गुप्त होती नथी; तेथी भगवानने 'रहः' तथा 'अंतर्' न होवाथी भगवान 'अरहोन्तर' कहेवाय छे / आवा 'अरहोन्तर' (अरहंत ) भगवानने 'नमस्कार हो। अथवा अहीं 'अरहंताणं' नो 'अरथान्तेभ्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ। 'रथ' शब्दनो उपलक्षणथी 'सर्व प्रकारनो परिग्रह' एवो अर्थ समजवो। 'अंत' एटले विनाश तथा उपलक्षणथी 20 (जन्म) जरा वगेरे समजवां / अर्थात् 'रथ' एटले सर्व प्रकारनो परिग्रह अने 'अंत' एटले जन्म-जरा-मृत्यु जेमने नथी एवा अरथान्त अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो। अथवा 'अरहंताणं' एटले रागनो क्षय थयो होवाथी कोई पण पदार्थ ऊपर आसक्तिने नहीं धरावता एवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा 'अरहंताणं' एटले 'अरहयङ्ग्यः' ('रह्' धातुनो 'त्यजी देवु एवो अर्थ थाय छ।) 25 अर्थात् प्रकृष्ट राग तथा द्वेषना कारणभूत अनुक्रमे मनोहर तथा अमनोहर विषयोनो संपर्क थवा छतां पण वीतरागत्व वगेरे जे पोतानो स्वभाव तेनो त्याग नहीं करनारा एवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो। 1 आव मि० गा० 921 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ० 132. 2 "रहि गतौ" पाणिनीयधातुपाठः३७४.. 3 “रह त्यागे" - पाणिनीयधातुपाठः 2001 /