________________ 226 ध्यानविचारः। [प्राकृत . शून्यं-चिन्ताया उपरमः। द्रव्यशून्यं क्षिप्तचित्तादिना द्वादशधा "खित्ते दित्तुम्मैत्ते रार्ग-सिणेहाइभर्यमहऽव्वत्तें। निहाई-पंचगेणं बारसहा दव्वसुन्नं ति // 2 // " भावतो व्यापारयोग्यस्यापि चेतसः सर्वथा व्यापारोपरमः // 3 // परमशून्यं–त्रिभुवनविषयव्यापि चेतो विधाय एकवस्तुविषयतया संकोच्य ततस्तस्मादप्यपनीयते // 4 // 3. शून्य:-जेमां चिंतननो उपरम (अभाव) होय तेने 'शून्य' कहेवामां आवे छे / तेना बे भेद छे--द्रव्यशून्य तथा भावशून्य / तेमां द्रव्यशून्यना 'क्षिप्तचित्त' वगेरे नीचे मुजब 12 भेदो छ : *(1) क्षिप्त', (2) दीप्त', (3) उन्मत्त, (4) राग, (5) स्नेह, (6) अतिभय, (7) अव्यक्त', (8) निद्रा, 10 (9) निद्रानिद्रा, (10) प्रचला, (11) प्रचलाप्रचला, (12) त्यानर्द्धि / चित्त, व्यापारने योग्य होवा छतां तेना व्यापारनो जे सर्वथा उपरम करवामां आवे ते 'भावशून्य' कहेवाय छे / 4. परमशून्य:-चित्तने प्रथम त्रण भुवन रूपी विषयमा व्यापक करीने पछी तेमांथी एक वस्तुमा संकोची लईने पछी ते एक वस्तुमांथी पण चित्तने खसेडी लेवामां आवे ते 'परमशून्य' कहेवाय छ। * क्षिप्तचित्त आदि अवस्थाओमां चित्त शून्य थई जतुं होवाने लीधे ए बार अवस्थाओने अहीं 'द्रव्यशून्य' 15 तरीके जणावेली छ। श्री ओघनियुक्तिनी (आगमोदयसमिति प्रकाशित) द्रोणाचार्यरचित टीकामां (पृ. 162 मां) क्षिप्तचित्त, दीप्तचित्त, मत्त तथा अव्यक्त मनुष्योन स्वरूप केवा प्रकार, होय छे ते जणावेलुं छे / जो के त्यां ए वात बीजा ज प्रसंगने अनुलक्षीने छे, छतां त्यां 'क्षिप्तचित्त' आदिनी करेली व्याख्या अहीं क्षिप्त आदिनो अर्थ समजवामां उपयोगी होवाथी नीचे आपी छे / 20 1. 'क्षिप्तं चित्तं यस्य द्रविणाद्यपहारे सति चित्तविभ्रमो जातः।'-धन आदि. चोराई जवाथी जेना चित्तमां विभ्रम उत्पन्न थयो होय ते 'क्षिप्तचित्त' कहेवाय छे / 2. 'दीप्तं चित्तं यस्यासकृच्छत्रुपराजयाद्युत्कर्षेण अतिविस्मयाभिभूतस्य चित्तह्रासो जातः ।'-शत्रु उपर वारंवार विजय मेळववा आदि कारणे प्राप्त थयेला उत्कर्षथी अतिविस्मय थवाने लीधे जेना चित्तनो ह्रास थयो होय ते 'दीप्तचित्त' कहेवाय छ। 3. 'मत्तः सुरया पीतया'-दारू पीवाथी जे मत्त थयो होय ते 'मत्त' कहेवाय छ। ' 4. जेनामां समजण आवी नथी तेने 'अव्यक्त' समजवो। भगवान भद्रबाहुस्वामिरचित 'बृहत्कल्पसूत्र'मां पृ. 1636 मां पण "खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ // १०॥"-आ सूत्रमा ‘क्षिप्तचित्तनो' उल्लेख छ। पृ. 1647 मां “दित्तचित्तं निग्गंथिं 'निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ॥११॥"-आ सूत्रमा 'दीप्तचित्त'नो उल्लेख छ। तथा पृ. 1653 मां 30 " उम्मायपत्तिं निग्गथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा 2 नाति(इ)कमइ // १३॥"-आ सूत्रमा 'उन्मत्त'नो उल्लेख छ। श्री संघदासगणिरचित 'बृहत्कल्पभाष्य'मां तेमज श्रीक्षेमकीर्तिसूरिरचित तेनी टीकामां राग, भय, स्नेह, आदि कारणोथी चित्त केवी रीते क्षिप्त थई जाय छे तेमज अतिलाभ थवाथी 'चित्त' केवी रीते दीप्त थई जाय छे ए विषेनुं विस्तृत वर्णन छ / तेथी क्षिप्तचित्त आदि केटलीक अवस्थाओगें स्वरूप जाणवा जुओ "बृहत् कल्पसूत्र” (श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगरथी प्रकाशित ) पृ. 1636 थी पृ. 1653 / 25