________________ नमस्कार स्वाध्याय / 267 तं नैत्थि जं न इत्थं निमित्त-गह-गाणिय-मंत-तंताई / जं पत्थियं पयच्छइ कहेइ जं पुच्छियं सयलं // 29 // तिहुयणसामिणिविज्जो महमंतो मूलमंततत्ततियं / इत्थ 'ठियं पि न नजई गुरूवएसं विणा सम्मं // 30 // 'सुमरियमित्तं पि इमं तत्तं नासेइ सयलदुरियाई / पारंपरेण नायं तं नत्थि सुहं न जं कुणइ // 31 // पंचनवकारतत्तं लेसेणं संसिरं अणुहवेणं / सिरिमाणतुंग-माहिंदमुज्जलं सिवसुहं दितु // 32 / / संभरह पढह झायह णिचं घोसेह "णवह अरिहाई / / "भद्दपयं जइ इच्छह तस्सेव य अत्तणो णाणं // 33 // न हि "उवसग्गा पीडा कूरग्गहदंसणं "भओ संका। जइ वि न हवंति एए तो वि तिसंझं भणिज्जासु // 34 // एसों परमरहस्सो परमो मंतो इमो "तिहुअणम्मि / ता किमिह बहुविहेहिं पढिएहिं, "पुत्थयसएहिं // 35 // [N प्रतौ-] इति श्रीपञ्चपरमेष्ठिस्तोत्रम् // रत्नहर्षपठनकृते लिखितम् / 15 छा०-तन्नास्ति निमित्तं ग्रहगणितं मन्त्र-तन्त्रादि। यत् प्रार्थितं तत् प्रयच्छति कथ[य]ति यत् पृष्टं सकलम् // 29 // त्रिभुवनस्वामिनीविद्या अत्र स्थिताऽपि न ज्ञायते गुरूपदेशं विना समग्रम् // 30 // स्मृतमात्रमपि नाशयति सकलदुरितानि, तन्नास्ति सुखं यन्न करोति // 31 // अनुभवेन कथितं, मोक्षसुखं दिशतु // 32 // [अत्र 33 गाथाङ्कोपर्यवचूरिर्नास्ति / ] महानुपसर्ग-पीडा-क्रूरग्रहदर्शन-भय-शङ्का // 34 // तत् किमिह विविधेन पठितपुस्तकभरेण // 35 // इति अवचूरिः समाप्ता // अ०-१ तन्नास्ति निमित्तं ग्रह-गणितं मन्त्र-तन्त्रादि यत् प्रार्थितं तत् प्रयच्छति। कथयति यत् पृष्टं सकलम् / 25 2 त्रिभुवनस्वामिनी विद्या अत्र स्थिताऽपि न ज्ञायते गुरूपदेशं विना समग्रम् / 3 स्मृतमात्रमपि नाशयति सकलदुरितानि / तन्नास्ति सुखं यन्न करोति / 4 अनुभवेन कथितम् / 5 मोक्षसौख्यं ददातु। 6 महानुपसर्गः, पीडा क्रूरग्रहदर्शनं, भयं(यः), शङ्काः / 7 तत् किमिह विविधेन ['पुत्थभारेहिं ' इति पाठे ] पठितपुस्तकभारेण // 1यं न यच्छइ D / 2 पुच्छियं JB | 3 °तंताई D, तंततियं JB, A, NI 4 ठियं न (पि) DI 5 निज्जइ JB, A1 6 समरिय N AT 7 मंतं JA, वुत्तं N 1 8 थुत्तं D AT 9 अणुभावेणं D, अणुभवेणं A, 30 10 व्हवह D, न्हवह A, नमह JA, नयह N / 11 सिद्धपयं / / 12 नायं N, नाम AI 13 महउD, नहुउ N A, ननुउ° / 14 उवसग्गो NA, उवसग्गे SDI 15 भयं DI 16 तह वि सगुज्झं s, तो विसकजं A | 17 तिभुवणम्मि JA, SI 18 गहिएहिं पुत्थभारेहिं JAI 19 पुत्थयभरेणं D /