________________ नमस्कारव्याख्यानटीका। [प्रा . “ॐ नमो महाराजाधिराजवनवासपुरपरमेश्वरप्रचण्डमण्डलीकमडयविडं चऊयाण . चूडामणी कदम्बकोलादित्यकदम्बकुलादित्यश्री[अ]वतार एोहि श्रीकदम्बवइ य अवतर अवतारय मातृणां रूपं दर्शय दर्शय स्वाहा // " रक्तकणवीरपुष्पैः 508 जपेत् // "इटि मिटि पुलिन्दिनि ! सत्यं वद वद, हाँ स्वाहा / " सुगन्धपुष्पैः 508 जपेत् // "ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ कलिकुण्डदण्डस्वामिन् ! खविद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छेदय छेदय हुं फट् स्वाहा // " सुरभिपुष्पैः 508 जपेत् , पूर्वसेवा सहस्र 8, अष्टदलेषु आय 8 पूजयेत् , कुमारकुमारिकां चाप्यने प्रोच्यते // जो विजाण झाणरओ पूया य करेइ परमभत्तीए / सा अटुंगनिमित्तं साहइ किं एत्थ बहुएहिं // 94 // 10 “ला हा प लक्ष्मी स्वाहा // " पुंसित्थि-नपुंसय-रायपुरिस-बहुसद्दवन्नणिजाणं / जिण-सिद्ध-मूरि-वायग-साहूण कमे नमंसामि // 11 // - सामान्येन स्त्री-पुं-नपुंसकवेदानां सुखदायिकान् पञ्चपरमेष्ठीन् नमस्करोमि, परमत्र भणितेन मन्त्रप्रस्तावात् स्त्रीवेदो पुंसि अनुरागः, पुंवेदोऽनुरागः स्त्रीषु, नपुंसकवेदः पुंस्सु स्त्रीषु चानुरागः / स्त्रियाऽ. 15 धिष्ठितां विद्या, पुरुषेणाधिष्ठितो मन्त्रः ऊभाभ्यामधिष्ठितो नपुंसकः, अतः स्तम्भनादिकर्माणि करोति, तथा चाह इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतु त्ति तव्विसेसो य। विजा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतु त्ति // 95 // * साहीणसव्वमंतो बहुमंतो वा पहाणमंतो वा। नेओ स मंतसिद्धोखंभागरिसु व्व साइसओ // 96 // * विजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि / सिझिज महाविजा विजासिद्धऽजखउडु व्व // 97 // पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य / विजासिद्धो य कई, अद्वेव पभावगा भणिया // 98 // सम्यग्दर्शनयुक्ता भक्ता जिनेन्द्र शासने नित्यम् / . देवी सुवर्णवर्णा मद्वक्त्रकुशेशयं विशतु // 99 // * आवश्यकसूत्र-नमस्कारनियुक्तिविभागे गाथा 933, 933, 932, गाथात्रयाणां हरिभद्रीयव्याख्या-त्री विद्याऽभिहिता, पुरुषो मन्त्र इति तद्विशेषोऽयं, तत्र 'विद्ल लाम' 'विद सत्तायां वा, अस्य विद्येति भवति-यत्र मन्त्रे देवता स्त्री सा विद्या, अम्बा-कुष्माण्ड्यादि, यत्र तु देवता पुरुषाः स मन्त्रः,न्यथा विद्याराजा, हरिणगमेषिरित्यादि, विद्या ससाधना वा, साधनरहितश्च मन्त्र इति साबरादिमत्रपदिति गाथार्थः // 931 // 95 // व्याख्या-वाधीनसर्वमन्त्री बहुमत्रो वा, मन्त्रेषु सिद्धो मन्त्रसिद्धः, प्रधानमन्त्रो वेति प्रधानकमत्रो वेति ज्ञेयः, स मन्त्रसिद्धः, क इव ? स्तम्भाकर्षवत् सातिशय इति गाथाक्षरार्थः // 933 // 96 // व्याख्या-'विद्यानां सर्वासामधिपतिः-चक्रवर्ती 'विद्यासिद्धः' इति, विद्यासु सिद्धो विद्यासिद्ध इति, यस्य वैकाऽपि सिध्येत् 'महाविद्या' महापुरुषदत्तादिरूपा स विद्यासिद्धः सातिशयत्वात् , क इव ?-आर्यखपुटवदिति गाथाक्षरार्थः // 932 // 17 // 1 सम्यक्त्वसप्तति-गाथा 32, पृ. 108