SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 479 इत्यादिकार्येषु युक्तः - उद्यतः, तथा शुश्रूषणस्य - सेवनस्य यो विधिस्तत्र निपुणः- दक्षः, एवम्भूतः सन् आचार्यपदाराधनां करोति // 1172 // ठाणासणवसणाई पढंत-पाढंतयाण पूरंतो / दुविहभत्तिं कुणंतो उवज्झायाराहणं कुणइ // 1173 // ____ अव० - पठतां पाठयतां च साध्वादीनां स्थानाशन-वसनादि-निवासस्थान-भोजन-वस्त्रादि-5 पूरयन् द्रव्य-भावभेदतो द्विविधां भक्तिं कुर्वन् उपाध्यायपदाराधनां करोति // 1173 // भक्ति, बहुमान, वंदन, वैयावृत्त्य वगेरे कार्योमा प्रयत्नशील अने शुश्रूषा करवामां कुशळ एवा (श्रीपाल ) महाराजा आचार्यपदनी आराधना करे छे / // 1172 // विवेचन-आचार्यपदनी आराधना करवा माटे भक्ति एटले मानसिक प्रीति; भक्तिथी उत्पन्न थतुं बहुमान एटले बाह्य प्रतिपत्ति; वंदन एटले नामस्मरण, स्तुति, नमन आदि तथा मन, वचन, 10 कायानी शुभ प्रवृत्ति; वैयावृत्त्य एटले व्यापृतभाव अर्थात् धर्मसाधन निमित्त अन्न वगेरेनुं विधिपूर्वक संपादन एटले मेळवी आप, अने शुश्रूषा एटले आरोग्य माटेनी परिचर्या एटले मावजतआ बधुं करवामां कुशळता दाखवी उद्यमशील बनवू जोइए / जिनेश्वर भगवंतना निर्वाण पछी आचार्य भगवंत शासनना सर्वाधिकारी मनाय छे / तेथी जेम जिनेश्वर भगवंतो शासन प्रवर्ताववाना कारणे उपकारी होवाथी आराध्य छे अने सिद्ध भगवंतो 15 निरंजन निराकार, ज्योतिस्वरूप होवाथी आत्माना साध्य बिंदुरूपे होवाथी आराध्य छे, तेम आचार्य भगवंतो शासनना अने मोक्षना मुख्य अंगरूप होवाथी तेमनी गणतरी परमेष्ठीमां ज करेली छे तेथी तेओ पण आराधवायोग्य छ / ___ आचार्यपदनी आराधना अरिहंत अने सिद्ध भगवंत करतां जुदी रीते बतावी छ। ते आराधनामां भक्ति अने बहुमानपूर्वक पचीश आवश्यकवाडं अने बत्रीश दोषरहित वंदन करवानुं 20 विधान छ / ___वळी, आचार्यपदनी आराधना करतां आचार्य भगवंतनी प्रतिमा के पूजा- अवलंबन लेवानुं जणावेलुं नथी, केमके शासन आचार्य भगवंतनी विहरमान दशा विनानुं होतुं नथी / तेथी साक्षात् आचार्य भगवंतनी एटले भाव आचार्यनी भक्ति, बहुमान, वंदन वगेरे द्वारा आराधना करवी जोईए; अने एम करतां 'एगम्मि पूइयम्मि सव्वे ते पूइया होई' एक भावाचार्यनी पूजा 25 द्वारा सारा जगतना भावाचार्योर्नु पूजन थयेलुं गणाय छे; कारणके भावनिक्षेपानी अराधनाथी बधाये निक्षेपार्नु आराधन थयानुं मानी लेवामां आव्युं छे / // 1172 // ते महाराजा आगमोने भणनारा तेमज भणावनारा साधु-साध्वीओने माटे निवासस्थान एटले उपाश्रयो, आहार अने वस्रोनी जरूरियातने पूरी पाडीने द्रव्य तेमज भाव एम वे प्रकारे भक्ति करीने उपाध्यायपदनी आराधना करे छे / / / 1173 // 30 . विवेचन-उपाध्यायपदनी आराधना माटे भणनारा साधुओ अने भणावनारा उपाध्यायो माटे निराकुल स्थानमा उपाश्रयो बनाववा अने तेमने भोजन, वस्त्र, पुस्तक वगेरेनी सामग्री आपवारूप द्रव्य अने भावपूर्वकनी भक्ति करवी जोईए /
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy