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________________ 478 सिरिरयणसेहरसूरिविरइयसिरिसिरिवालकहातो पंचपरमिट्ठिपयाराहणविहिसंदब्भो [प्राकृत सिद्धाणवि पडिमाणं कारावणपूअणापणामहि / तग्गयमणझाणेणं सिद्धपयाराहणं कुणइ // 1171 // अव० -सिद्धानामपि याः प्रतिमाः, तासां कारापणं-निर्मापणं, पूजना - अर्चना, प्रणामः - नमस्कारस्तैस्तथा, तद्गतेन-तेषु सिद्धेषु प्राप्तेन मनसा यद् ध्यानं, तेन सिद्धपदस्याराधनां करोति // 1171 // भत्ति-बहुमाण-चंदण-वेयावच्चाइकजमुजुत्तो। सुस्वसणविहिनिउणो आयरियाराहणं कुणइ // 1172 // अव० - भक्तिः- मनसि निर्भरा प्रीतिः, बहुमानः- बाह्यप्रतिपत्तिः, वन्दन - वैयावृत्त्ये प्रसिद्धे तीर्थकरो ज्यारे समवसरणमा बिराजमान होय त्यारे योगमुद्रामा रहेला होवाथी ते समयनी मूर्तिओ योगमुद्रावाळी करावाय छे अने तीर्थंकरोतुं निर्वाणकल्याणक पर्यकासन के कायोत्सर्ग आसने ज 10 थतुं होवाथी ए समयनी मूर्तिओ पर्यकासनवाळी अथवा कायोत्सर्गासनवाळी बनाववामां आवे छे . केमके पर्यक आसन के कायोत्सर्ग आसन ए सिद्धदशानां सूचक छ। आवी प्रतिमाओ कराववाथी तथा अरिहंतनी भावपूर्वक पूजाओ करवाथी अरिहंतपदनी आराधना थाय छे / // 1170 // ते श्रीपाळ महाराजा सिद्ध भगवंतोनी प्रतिमाओ भरावीने, तेमनी पूजा करीने, तेमने प्रणाम 15 करीने तथा ते सिद्ध भगवंतोनी अंदर मनने परोववारूप ध्यान करीने सिद्धपदनी आराधना करे छे / // 1171 // विवेचन-सिद्धपदनी आराधना करवा माटे सिद्ध भगवंतोनी प्रतिमाओ, तेमनां चैत्यो अने जीर्णोद्धारो कराववा तेमज तेमनी पूजाओ भणाववी तथा सिद्धि प्राप्त थई होय तेवां स्थानोमां अगर अन्य स्थळोमां सिद्ध भगवंतने वंदन करवापूर्वक तेमनुं एकाग्रचित्तथी ध्यान करतुं जोईए / 20 सिद्ध भगवंत तो अरूपी एटले निरंजन-निराकार छे तेथी तेमनी आकृति बनाववानो कोई संभव ज नथी। छतां तीर्थंकरोना जन्म समये तेमनां जे जे लांछनो होय तेवा लांछनोवाळी मूर्ति ते अरिहंत-तीर्थकरनी मूर्ति कहेवाय छे ज्यारे लांछनो विनानी मूर्तिओ होय ते सिद्ध भगवंतनी मानवामां आवे छे। सिद्ध भगवंतनी प्रतिमाओ भराववामां तेमना आसनो विशे कोई नियम नथी तेथी ते कोई 25 पण आसनवाळी बनावी शकाय; पण तेमां वीतरागभावदर्शक आकार होवो जरूरी छ। तत्त्वतः अरिहंतोनी पोतानी आराध्यता पण तेमना निर्वाणकल्याणक एटले सिद्धदशाने उद्देशीने ज होय छे / आथी सिद्धपदनी आराधनामां सिद्ध भगवंतनुं अने अरिहंतपदनी आराधनामां सिद्धदशा प्राप्त करवा माटेर्नु एकाग्रचित्ते ध्यान करवानुं अहीं 'ध्यान' शब्दथी सूचवेलुं होय एम जणाय छे / वळी, आचार्य आदि पदोनी आराधनामां पण तेओ सिद्ध भगवंत अने अरिहंतनी 30सिद्धदशानुं एकाप्रपणे ध्यान करता होवाना कारणे आचार्य आदि पदोनी आराधना करवामां आवे छ / एवं रहस्य अहीं स्फुट थाय छे / // 1171 //
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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