________________ 149 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे / पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहिऽणंताहिं // 92 // 978 // नाणम्मि दंसणम्मि अ इत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता / सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा // 93 // 979 // नवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सव्वदेवाणं / जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं // 94 // 980 // सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिंडिअं अणंतगुणं / न य पावइ मुत्तिसुहंऽणंताहि वि वग्गवग्गूहिं // 95 // 981 // (केवळज्ञान अने केवळदर्शनना समग्र विषयने बतावे छे-) श०–केवळज्ञानना उपयोगवाळा जीवो सर्व द्रव्योना गुण अने भावने जाणे छे तेमज 10 अनंत एवा केवळ दर्शने वडे चारे बाजुएथी जूए छे / (92) / वि०—ाथामां बतावेल 'सव्वभावगुणभावे' ए शब्दमा पहेलो 'भाव' शब्द पदार्थवाची छे, ज्यारे बीजो 'भाव' शब्दपर्याय वाची छे। गुणो सहवर्ती होय छे अने पर्यायो क्रमवर्ती होय छे एटलो गुण अने पर्यायमां तफावत छ / सिद्धो अनंत केवळदर्शन वडे चारे बाजूए जूए छे, केमके सिद्धो अनंत छे / अहीं पहेला ज्ञान जणाव्युं छे; कारण के, प्रथम ज्ञानोपयोग थाय छे। 15 प्र०-ज्ञानोपयोग अने दर्शनोपयोग साथे होय छे के क्रमशः ? उ०-ते क्रमशः होय छे। प्र०-क्रमशः होय छे ते केम जणाय ? उ०-ए माटे आगळनी गाथामां जणावे छेः-९२, (978) श-सिद्धो ज्ञानमां के दर्शनमा एक ज समये एकमां उपयोगवाळा होय छे / कारण के 20 षधाये केवली जीवोने एकी साथे बे उपयोग होता नथी। 93, (979) (सिद्धोना निरुपम सुख विशे जणावे छे-) श-अव्याबाधपणाने पामेला एवा सिद्धोनुं जे सुख छे ते न तो मनुष्यने छे अथवा न सर्व देवोने एवं सुख छ / (94) - वि०—मनुष्योमा चक्रवर्तीने पण एवं सुख नथी। वळी, अनुत्तर विमान पर्यंतना सर्व 25 देवोने पण एवा प्रकारनुं सुख नथी / विविध प्रकारनी पीडाओ जेमने होती नथी एवं सुख सिद्धोने होय छे / 94, (980) (प्रकारभेदथी सिद्धोनुं सुख वर्णवे छे-) . श०–समस्त देवोना समूहनुं बधा समयनुं सुख एकळं करेलुं होय अने ते अनंतगणुं थाय तोपण ते अनंत वर्गोथी वर्गित करेला एवा मुक्तिना सुखनी साथे तुलनामां आवी शकतुं नथी / (95) 30