________________ [35] सिरिदेवभद्दसूरिरइय'कहारयणकोस'संदब्भो॥ कयसम्मत्तथिरत्तो, जइ वि नरो तह वि वंछियं वत्थु / पंचनमोकारे चिय, भत्तिपरो पावए परमं // 1 // अरहंता सिद्धा सूरिणो य उवज्झाय-साहुणो चेव / परमिट्ठिणो हु एते, एयन्नमणं नमोकारो // 2 // एत्तो चिय एयाणं, कीरंतो सायरं नमोकारो। एसो समग्गकल्लाणकारणं, जायइ जियाण // 3 // एक्ककमक्खरं पि हु, पंचनमोक्कारसंतियं जीवो। . बहु-बहुतर-बहुतम-पावखयवसा लहइ भावेण // 4 // सूरो इव तिमिरभरं, पहणइ चिंतामणि व्य दोगच्चं / चिंतियमित्तो य इमो, भयवग्गं नासइ समग्गं // 5 // अनुवाद 15 सम्यक्त्वमां स्थिर वृत्तिवाळो पुरुष पण 'पंच-नमस्कार' प्रत्ये भक्तिवाळो होय, तो ज परमवांछित पामे छे // 1 // अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने साधुओ ए पांच ज परमेष्ठीओ छ। एमने नमन करवू ते नमस्कार छे // 2 // ए पांच परमेष्ठीओ होवाना कारणे ज एमने आदर-विनय सहित करवामां आवतो ए नमस्कार 20 जीवोना समग्र कल्याणना कारणभूत बने छे // 3 // , आ पंचनमस्कारना एक एक अक्षरने पण जीव भाववडे त्यारे ज पामे छे के ज्यारे बहुबहुतर-बहुतम पापक्षय थई गयो होय // 4 // जेम सूर्य अंधकारना समूहनो नाश करे छे, चिंतामणि-रत्न दारिद्यने दूर करे छे तेम चिंतववा मात्रथी ज आ नमस्कार सर्व भयोना समूहने समग्रपणे नाश करे छे // 5 // 25 58